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________________ ४५ पञ्च-पुरान श्रीकण्ठने अपनी बहिन न परणाई, ताकरि वह क्रोधरूप था ही । अब अपनी पुत्रीकेहरणेसे अत्यन्त कोपित होकर सर्व सेना लेय श्रीकण्ठके मारणको पीछे लगा । दांतोंसे होंठोंको पीसता क्रोधसे जिसके नत्र लाल होरहे हैं ऐसे महावलीको आवते देख श्रीयाण्ड डरा अर भाजकर अपने बहनेऊ लंकाक धनी के शिधवलकी शरण याया सो समय पाय बड़ोंके शरण जाया जाय ही हैं । राजा कीर्तिमवल श्री.को देख आना साला जान बहुत तोहसे मिला छातीसों लगाया, बहुत सन्मान किया इनमें आपस में कुशल वार्ता हो रही थी कि पुष्पोत्तर सेना सहित आकाशमें आए । कीरिधवलने उनको दूरसे देखा-राजा पुष्पोत्तर संग अनेक विद्याधरोंके समूह महा तेजवान हैं खड्ग सेल धनुष बाण इत्यादि शस्त्रों के समूहस प्राकाशमें तेज होय रहा है ऐसे माया मई तुरंग जिनका ब'यु समान वेश है पर कालो घटा समान मायामई गज चलायमान है घण्टा अर सूड जिनकी, मायामई सिंह अर बड़े बड़े विमान उनकर मंडित आकाश देखा। उत्तर दिशाकी ओर सेनाके समूह देख राजा कीविरलने क्रोध सहित हराकर मंत्रियों को युद्ध करने की आज्ञा दीनी तब श्रीकण्ठ लज्जास नीचे हो गरे अर श्रःण्ठो कार्तिवलस कहा-जो मेरी स्त्र अर मेरे कुटुम्बकी तो रक्षा आप करो अर मैं आपके प्रतापसे युद्ध में शत्रुओंको जीत अाऊंगा । तब कीर्तिधवल करते भए कि यह बात तुमको कहनः अयुक्त है । तुम सुखसे तिष्ठो युद्ध करनेको हम बहुत हैं जो यह दुर्जन नरमीसे शान्त होय तो भला ही है, नहीं तो इनको मृत्युके मुख देखोगे ऐसा कह अपने स्त्र के भाईको सुखसे अपने महलमें राख पुष्पोत्तरके निकट बड़ी बुद्धि अर बड़ी वय (उमर) के धारक दूत भेजे । ते दूत जाय पुष्पोत्तरसों कहते भए जो हमारे मुखसे तुमको रामा कीर्तिधवल बहुत आदरसे कह है कि तुन बड़े कुलों उपजे हो, तुम्हारी चेष्टा निर्मल है, तुम सर्व शास्त्रके वेत्ता हो, जगन्में प्रसिद्ध हो अर सबमें वय कर बड़े हो। तुमने जो मर्यादाकी रीति देखी है सो किसीने कानों से सुनी नहीं यह श्रीकण्ड चन्द्रमाकी किरण समान निर्मल कुलमें उपजा है, अर धनवान है, विनयवान है, सुन्दर है, सर्व कलामें लिपुण है, यह कन्या ऐसे ही बरको देने योग्य है, कन्याके अर इसके रूप अर कुल समान हैं इसलिये तुम्हारी सेनाका क्षय कौन अर्थ करावना, यह तो कन्याओंका स्वभाव ही है कि जो पराये गृहका सेवन करें। दूत जब तक यह बात कह ही रहे थे कि पद्माभाकी भेजी सखी पुष्योत्तरके निकट प्राई उ.र कहती भई कि तुम्हारी पुत्रीने तुम्हारे चरणारविन्द को नमस्कार कर निती करी है जो मैं तो लनासे तुम्हारे समीप कहनेको नहीं आई तातें सखीको पठाई है 'हे पिता! इस श्रीकण्ठका अल्प भी अपराध नहीं, मैं कर्मानुभव कर इसके संग आई हूं । जो बड़े कलमें उपजी स्त्र हैं, तिनके एक ही वर होय है तात या टालि (इसके सिवाय) मेरे अन्य पुरुषका त्याग है। इसप्रकार सख ने विनती करी तब राजा सचिंत होय रहे, मनमें विचारी कि मैं सर्व बातोंमें समर्थ हूं, युद्धमे लंका धनीको जीत श्रीकण्ठको बांधकर लेजाऊ परन्तु मेरी कन्या हीने इसको वरा तो मैं इसमें क्या करू ? ऐसा जान युद्ध न किया अर जो कीर्तिधवलके दूत आये हुते तिनको सन्मान कर विदा किया, अर जो पुत्रीकी सखो आई थी उसको भी सन्मानकर विदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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