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________________ सैंतीसा पर्व नामादत हमारे राजा अतिवं यने भरतपर भेजा सो जायकर कहता भया. इंद्र तुल्य राजा अतिवीय का मैं दूत हूं प्रणाम करे हैं समस्त नरेंद्र जाको न्यायके थाने वो महा बुद्धिवान सो पुरुष निवि सिंह समान जाके भयते अरि रूप मृग निद्रा नाहीं करे हैं। ताके यह पृथिवी बनिता समान है, पृथिवी चार तरफके समुद्र मोई है कटिमेखला जाके जैसे परणी स्त्री अाज्ञाविणे होय तैसे समस्त पृथीवी आज्ञाके वश है सो पृथिवीपति महा प्रबल मेर मुख होय तुमको आज्ञा करे है कि हे भरत, शीघ्र आयकर मेरी सेवा करो, अथवा अयोध्या तज, समुद्रके पार जावी । ये वचन सुन शत्रुघ्न महा क्रोघरूप दावानल समान प्रज्वलित होय कहता भया-अरे दूत ! तोहि ऐसे वचन कहने उचित नाहीं। वह भरतकी सेवा करे अक भरत ताकी सेवा करे अर भरत अयोध्याका भार मंत्रीनिको सौंप पृथिवीके वश करनेके निमित्त स्मुद्रके पार आय अक और भांति जाय अर तेरा स्वामी ऐसे गर्वके वचन कहे है सो गर्दभ, माते हाथीकी न्याई गाजे है अथवा ताकी मृत्यु निकट है तातें ऐसे वचन कहे है अथवा वायुके वश है । राजा दशरथको वैराग्यके योगते तपोवनको गए जान वह दुष्ट ऐसी बात कहे है । सो यद्यपि तातकी क्रोधरूप अग्नि मुक्तिकी अभिलाषाकर शांत भई, तथापि पिताकी अग्निसे हम स्फुलिंग समान निकसे हैं सो अतिवीर्यरूप काष्ठको भस्म करने समर्थ हैं। हाथीनिके रुधिररूप कीच कर लाल भए हैं केश जाके ऐसा जो सिंह सो शांत भया, तो ताका बालक हाथिनिके निपात करने समर्थ है। ये वचन कह शत्रघ्न बलता जो वासोंका वन ता समान तडाडाल कर महाक्रोधायमान भया । अर सेवकोंको आज्ञा करी जो या दूतको अपमान कर काढ देवो, तब आज्ञा प्रमाण सेवकोंने अपराधीको स्वानकी न्याई तिरस्कारकर काढ़ दिया, सो पुकारता नगरीके बाहिर गया। धूलिकरि धूपरा है अंग जाका दुरवचनकरि दग्ध अपने थनी पैजाय पुकारा, अर राजा भरत समुद्र समान गम्भीर परमार्थका जाननहारा अपूर्व दुर्वचन मुन कछू एक कोषको प्राप्त भयो । भरत शत्रुघ्न दोऊ भाई नगरते सेनासहित शत्रुपर निकसे अर मिथला नगरीका धनी राजा जनक अपने भाई कनक सहित बड़ी सेनासू आय भेला भया अर सिंहोदरको आदि दे अनेक राजा भरतसे आय मिले, भरत बडी सेना सहित नन्द्यावर्त पुरके धनी अतिवीर्यपर चढा, पिता समान प्रजाकी रक्षा करता संता, कैसा है भरत न्यायविष प्रवीण है अर राजा अतिवीर्य भी इतके पचन सुन परम क्रोधको प्राप्त भया, क्षोभको प्राप्त भया जो समुद्र ता समान भयानक सर्व सामंतनिकरि मंडित भरतके ऊार जागवे को उद्यमी भया है । यह समाचार सुन श्रीरामचन्द्र अपना ललाट दूजके चन्द्रमा समान वक्रकर पृथिवीयर कहते भए । जो अतिवीर्यको भरतते ऐसा करना उचित ही है क्योंकि जाने पिता समान बडे भाईका अनादर किया तब पृथिवीधरने रामसे कही-वह दुष्ट है हम प्रबल जान सेवा करे हैं । तब मंत्रकर अतिवीयको जुबाब लिखा, कि मैं कागदके पीछे ही आऊ हूं अर दूतको विदा किया। बहुरि श्रीराम कहता भया अतिवीर्य महाप्रचंड है नाते मैं जाऊहूँ। तब श्रीरामने कही तुम तो यहां ही रहो अर मैं तिहारे पुत्रको भर तिहारे जवाई लक्ष्मणको ले अतिवीर्यके समीप जावगा। ऐसा कहकर रथपर चढ बढी सेना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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