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________________ पा-पुराण पर अपने बाण से शर मण्डप कर डारा । बहुरि वैश्रवणने अर्धचंद्र बाणोंसे रावसाका धनुष छेदा अर रथसे रहित किया तब रावणने मेघनादनामा रथपर चढकर वैश्रवणसे युद्ध किया उल्कापात समान बज्र दंडोंसे वैश्रवणाका बखतर चूर डारा। पर वैश्रवणके सुकोमल हृदयमें भिण्डीपाल मारी, वह मूळ को प्राप्त भया । तब ताकी सेना विष अत्यन्त शोक भया। वैश्रवणाके लोक वैश्रवणको उठाकर यक्षर ले गये पर रावण। शत्र ओंको जीतकर रणसे निवृत्त । सुभटका शत्रु के जीतनेहीका प्रयोजन है, धनोदिकका प्रयोजन नहीं।। अथानन्तर वैश्रवणका वैद्याने यतन किया सो अच्छा हवा तब अपने चिच में विचारे है बैसे पुष्परहित वृक्ष, सींग दृटा बैल, कमल बिना सरोवर न लौई तैसे मैं शूरगौरता विना न सोहं । जो सामन्त हैं अर क्षत्री वृचीका विरद धारै हैं जिनका जीतव्य सुभटत्वहीसे शोमे है अर तिनको संसारमें पराक्रम ही से सुख है सो मेरे अब नहीं रहा ताते अब संसारका त्याग कर मुक्तिका यत्न करू। यह संसार असार है, क्षणभंगुर है, इस हीसे सत्पुरुष विषय मुखको नहीं चाहे हैं यह अंतराय सहित है अर अल्म हैं दुख ही हैं। ये प्राणी पूर्व भवमें जो अपराध करे हैं उसका फल इस भवमें पराभव होय है सुख दुःखका मूल कारण कर्म हो हैं अर प्रासी निमितमात्र है तात ज्ञानी तिनसे कोप न करें। कैसा है ज्ञानी ? संसारके स्वरूपको भली भांति जाने है। यह केकसीका पुत्र रावण मेरे कल्याणका निमित्त हुवा है जिसने मुझे गृहवास रूप महा फांसीसे छुड़ाया अर कुम्भकरण मेरा परम मित्र है जिसने यह संग्रामका कारण मेरे ज्ञानका निमित्त बनाया ऐसा विचार कर वैश्रवणने दिगम्बरी दीक्षा आदरी । पाम तपको आराधन कर परम धाम पधारे, संसार भ्रमणसे रहित भए। अथानन्तर रावण अपने कुल का अपमानरूप मैल धोकर सुख अवस्थाको प्राप्त भया, समस्त भाइयोंने उसको राक्षसोंका शिखर जाना। वैश्रवणकी असवारीका पुष्पक नामा विमान महा मनोग्य है, रत्नोंकी ज्योतिके अंकुरे छुट रहे हैं झरोखे ही है नत्र जिसके, निर्मल कांतिके थारणहारे, महा मुक्ताफलकी झालरोंसे मानों अपने स्वामीके वियोगसे अश्रुपात ही डारे है अर पंधरागमखियोंकी प्रभासे आरक्तताको थारे है मानो यह वैश्रवणका हृदय ही रावसके किये पाव से लाल हो रहा है अर इन्द्र नील मणियोंकी प्रभा कैसे अतिश्याम सुन्दरताको धरै है मानो स्वामीके शोकसे सांउला होय रहा है, चैत्यालय वन वापी सरोवर अनेक मन्दिरोंस मसिडत मानो नगरका आकार ही है। रावणके हाथके नाना प्रकारके पावसे मानो घायल हो रहा है, रावण मन्दिर समाम ऊंचा जो वह विमान उसको रावणके सेवक रावणके समीप बाए। वह विमान आकाशका मण्डन है । इस विमानको बैरीके भंगका चिन्द जान रावखने भादरा भर किसीका कुछ भी न लिया। रावणके किसी वस्तुकी कमी नहीं। विद्यामई अनेक विमान है तथापि पुष्पक विमानमें विशेष अनुरागर चढे । रत्नश्रवा तथा केकसी माता भर समस्त प्रधान सेनापति तथा भाई बेटों सहित आप पुष्पक विमानमें बारूद भया अर पुरजन नाना प्रकारके बाइनोंपर आरूढ भए पुष्पकके मध्य महा कमलवन है तहां आप मन्दोदरी आदि समस्त राज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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