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नवासीवां प
सूर्य समान दुम्ह है अर देवनिसे दुर्निवार है ताकी चिंता हमारे भी निरंतर रहे | वह राजा मधु हरिवंशियोंके कुलरूप आकाश में सूर्य समान प्रतापी है जाने वंशमें उद्योत किया है अर जाका लवणार्णव नामा पुत्र विद्याधरनि हूं कर श्रमाध्य है पिता पुत्र दोऊ महशूरवीर हैं तातें मथुरा टार और राज्य चाहो सोही लेवो तब शत्रुघ्न कहता भया - बहुत कहिवेकर कहा ? मोहि मथुरा ही देवो जो मैं मधु के छाते की न्याई मधुको रण संग्रामनें न तोड लू तो दशन्का पुत्रशत्रुघ्न नाहीं जैसे सिंहनिके समूहको अष्टापद तोड डारे तैसे ताके कटकसहित तीन चूर डारू, तो मैं तिहारा भाई नाहीं, जो मधुको मृत्यु प्राप्त न करू तो मैं सुप्रभाकी कुक्षिमें उपजा ही नहीं या भांति प्रचण्ड तेजका धारणहारा शत्रुघ्न कहता मया तव समस्त विद्यावरनिके अधिपति ग्राश्चर्यको प्राप्त भये अर शत्रुघ्न की बहुत प्रशंसा करते भए । शत्रुघ्न मथुरा जायवेको उद्यमी भयात श्रीराम कहते भए - हे भाई ! मैं एक याचना करू सो मोहि दक्षिणा देहु तब शत्रुघ्न कहता भया सबके दाता आप हो सब आपके याचक हैं आप याचो सो वस्तु वहा ? मेरे प्राणही के नाथ आप हो तो अर वस्तुकी कहा बात ? एक मधुसे युद्ध तो मैं न राजू धर कहो सोही करू तब श्रीरामने कही - हे बस्स ! तू मधुसे युद्ध करें तो जासमय वाके हाथ त्रिशूलरत्न न होय तासमय करियो तब शत्रुघ्न ने कही जो श्राज्ञा करोगे सोही होयगा ऐसा कह भगवानकी पूजाकर नमोकार मन्त्र जप सिद्धनिको नमस्कारकर भोजनशला में जय भोजनगर माताके निकट आय आज्ञा मांगी तब वे माता प्रतिस्नेहतें याके मस्तकपर हाथथर कहती भई - हे वत्स ! तू तीक्ष्ण बाणनिकर शत्रुनिके समूहको जीत । वह योधाकी माता अपने य धात्र से कहती भई - हे पुत्र बतक संग्राम में शत्रुनिने तेरी पीठ नाही देखी है अर चहृन देखेंगे तू रण जीत वेगा । तब मैं स्वर्ण कमलनिकर श्रीजिनेन्द्रको पूजा कराउौंगी वे भगवान त्रैलोक्य मंगलके कर्ता आप महामंगलरूप सुर असुरनिकर नमस्कार करवे योग्य रागादिकके जीतनहारे तोहि मंगल करें | वे परमेश्वर पुरुषोत्तम अरहंत भगवन्त जिनने अत्यंत दुर्जय मोहरि जीता वे तोहि कल्याणके दायक होहु | सर्वज्ञ त्रिकालदशीं स्वयंयुद्ध तिनके प्रसाद तेरी विजय होहु । जे केवलज्ञानकर लोकालोकको हथैली में आंवलाकी न्याई देखे हैं ते तोहि मंगल रूप होहु । हे वत्स ! वे सिद्धपरमेष्ठी ष्टकर्मकर रहित अष्टगुण आदि अनन्त गुणनिकर विराजमान लॉक के शिखर तिष्ठे ते सिद्ध तोहि सिद्धिके कर्ता होवें अर आचार्य मध्यजीवनिके परम आधार तेरे विघ्न हरें जे कमल समान अलिप्त सूर्यमान तिमिरहर्ता श्रर चन्द्रमा समान आल्हादकर्ता भूमिसमान क्षमावान् सुमेरु समान अचल समुद्र समान गम्भीर श्राकाश समान अखंड इत्यादि कनेक गुणनिकर मण्डित हैं र उपाध्याय जिनशासनके पारगामी तोहि कल्याण के कर्ता होहु र कर्म शत्रुनिके जीतको महा शूरवीर बारह प्रकार तपकर जे निर्वाणको साथै हैं ते साधु तोहि महावीर्य के दाता होवें या भांति विघ्नकी हरणहारी मंगलकी करणहारी माता ने काशीस दई सो शत्रुघ्न माथे चढाय माताको प्रणामकर वाहिर निकसा । स्वर्णकी सांवलनिकर मण्डित जो गज तापर चढा ऐसा सोहता भया जैसे मेघमाला ऊपर चन्द्रमा सोहै थर नाना प्रकारके बाहननि
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