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starai पर्व
तिनके ध्वजावर देदीप्यमान रत्नमई बानरोंके चिह्न मानों आकाशके ग्रमवेको प्रवरते हैं और विराधितकी ध्वजापर नाहरका चिह्न नीझरने समान देदीप्यमान अर जांबुडी ध्वजापर वृक्ष और सिंहranी ध्वजा मेंव्याघ्र और मेवकांतकी अजामें हाथीका चिह्न इत्यादि राजावोंकी ध्वजामें नाना प्रकार के चिह्न । इनमें भूतनाद महा तेजस्वी लोकपाल समान सो फौजका अग्रसर भया अर लोकपाल समान हनुमान भूतनादके पीछे सामन्तोंके चक्र सहित परम तेजको धरे लंका पर चढ़े सो अति हर्षके भरे शोभते भए जैसे पूर्व रावण के बडे सुकेशीके पुत्र माली लंकापर चढ़े हुते भर अमल किया हुता तैसे श्रीरामके सन्मुख विरायित बैठा और पीछे जामवंत बैठा वाई भुजा सुषेण बैठा दाहिनी भुजा सुग्रीव बैठा सो एक निमिषमें बेलंधरपुर पहुंचे । तहाँका समुद्र नामा राजा सो उसके अर नलके परम युद्ध भया सो समुद्र के बहुत लोक मारे गये पर नलने समुद्र को बांधा बहुरि श्रीगमसे मिलाया थर तहां ही डेरा भए । श्रीरामने समुद्र पर कृपा करी - ताका राज्य वाको दिया सो राजाने अति हर्षित होय अपनी कन्या सत्यश्री कमला गुणमाला रत्नचूडा स्त्रियोंके गुणकर मण्डित दे रंगना समान सो लक्ष्मणसे परणःई तहां एक रात्री रहे बहुरि यहां प्रयास कर सुवेल पर्वत पर सुवेल नगर गये वहां राजा सुबेल नाम विद्याथर ताको संग्राममें जीत रामके अनुचर विद्याधर क्रीडा करते भए जैसे नन्दनवनमें देव क्रीडा करें तहां अक्षय नाम वनमें आनन्द से रात्रि पूरा करो बहुरि प्रयाण कर लंका जायवे को उद्य ॥ भये । कैसी है लंका १ ऊंचे कोटसे युक्त सुवर्णके मंदिरोकर पूर्ण कैलाशके शिखर समान हैं आकार जिनके अर नाना प्रकार के रत्नोंके उद्योत कर प्रकाश रूप अर कमलोंके जे वन तिनसे युक्त वापी कूप सरोवरादिक कर शोभित नाना प्रकार रत्नोके ऊंचे जे चैत्यालय तिनकर मण्डित हा पवित्र इन्द्रकी नगरी समान । ऐसी लंकाको दूरसे देखकर समस्त विद्यावर रमके अनुचर आश्चर्य को प्राप्त भए अर हंसद्वीपमें डेरे किये तहां हंसपुर नगरका राजा इंनरथ ताहि युद्ध में जीत हंसपुरमें क्रीडा करते भए । तहाँ मानण्डल पर बहुरि दूत भेजा और मामण्डल के आववेकी बांछा कर तहां निवास किया जा जा देशमें पुण्याधिकारो गमन बरें तहां तहां शत्रुनिको जीत महा भोग उपभोगके भजैं । इन पुण्याधिकारी उद्यमन्तोंसे कोई परे नाहीं है, सब आज्ञाकारी हैं जो जो उनके मनमें अभिलाषा होय सो इनकी मूठी में है तातें सर्व उपाय कर लो - क्यमें सार ऐसा जो जिनराजका धर्म सो प्रशंसा योग्य है। जो कोई जगजीत भया चाहे वह जिनधर्म को आराधहु ये भोग क्षण भंगुर हैं इनकी कहा बात ? यह वीतरागका धर्म निर्वाण देने हारा हूँ और कोई जन्म लेय तो इंद्र चक्रवर्त्यादिक पदका देनहारा है ता धर्मके प्रभावतैं ये भव्य जीव सूर्यसे अधिक प्रकाशको धरे हैं ॥
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इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषा वचनिकावि राम लक्ष्मणका लंका गमन करनेवाला चौवनशां पर्व पूर्ण भया ॥ ५४ ॥
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