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________________ पभ-पुराण ३८२ है एक निमिष मात्र भी लक्ष्मणको न देखे तो रामका मन विकल होय जाग मो लक्ष्मणको तज कर कैसे वैराग्यको प्राप्त होय कर्मों की ऐसी ही चेष्टा है जो बुद्धिमान भी मूर्ख होय जाय हैं, देखो सुनों है अपने सर्व भव जिसने ऐसा विवेकी राम भी आत्म हित न करे। अहो देव हो ! जीवोंके म्नेहका बडा बंधन है या समान और नाहीं तातें सुबुद्धियों को स्नेह तज संसार सागर तिरिवेको यत्न करना चाहिए. या भांति इंद्रके मुखका उपदेश तयज्ञानरूप अर जिनवरके गुणोंके अनुराग से अत्यंत पवित्र उसे सुन कर देव चित्तकी विशुद्धताको पाय जन्म जरा मरणके भयसे कंपायमान भये मनुष्य होय मुक्ति पायवेकी अभिलाषा करते भये ॥ इतिश्रीरविजेणाचार्यविरचित महापद्मपराण संस्कृत प्रथ.ताकी भाषा व नकागिरी इंद्रका देवनिक उपदेश वर्णन करनेवाला एकप्तौं चौदहयां पर्व पूर्ण भया ।। ५१४ ।। अथानन्तर इन्द्र सभासे उठे तब सुर कहिए कल्पवासी देव पर असुर कहिए भवनवासी वितर ज्योतिषी देव इन्द्र को नमस्कारकर उत्तम भावथर अपने२ स्थानक गए, पहले दूजे स्वर्ग लग भवनवासी वितर ज्योतिषीदेव कल्पवासी देवोंकर ले गए जाय हैं सो सभामेंके दो स्वर्गवासी देव रत्नचूल अर मृगचूल बलभद्रनारायणके स्नेह परखिवेको उद्यमी भए, मनमें यह धारणा करी ते दोनों भाई परस्पर प्रेमके भरे कहिए है । देखें उन दोनों की प्रीति । रामके लदमणसे एता स्नेह हैं जाके देखे विना न रहै सो रामका मरण सुने लक्ष्मणकी क्या चेष्टा होय ? लक्ष्मण शोककर विह्वल भया क्या चेष्टा करै सो क्षणएक देखकर आवेगे शोककर लक्ष्मणका कैसा मुख हो जाय कौनसे कोप करे क्या कह ऐसी धारणाकर दोनों दुरावारी देव अयोध्या पाए सो रामके महलमें विक्रियाकर समस्त अन्तःपुरकी स्त्रिनिका रुदन शब्द कराया अर ऐसी विक्रिया करी द्वारपाल उमराव मन्त्री पुरोहित आदि नीचा मुखकर लक्ष्मणपै आए अर रामका मरण कहते भए, कि हे नाथ ! राम परलोक सिधारे ऐसे वचन सुनकर लक्ष्मणने मन्दपवनकर चपल जो नील कमल ता समान सुम्दर हैं नेत्र जाके सो हाय यह शब्द हू आधासा का तत्काल ही प्राय। तजे, सिंहासन फार बैठा हुना सो वचनला वजूपातका मारा जीव रहित होय गया आंख की पलक ज्यों थी त्यों ही रह गई जोव जाता रहा शरीर अचेतन रह गया लक्ष्मणको भ्राता की मिथ्या मृत्युके वचनरूप अग्निकर जरा देख दोनों देव व्याकुल भए लक्ष्मणके जिलायवेको असमर्थ तब विचारी याकी मृत्यु इस ही विध कही हुनी मनमें अति पछताए विषाद अर आश्चर्यके भरे अपने स्थानक गए शोकरूप अग्निकर तप्तायमान है चित्त जिनका लक्ष्मणकी वह मनोहर मूर्ति मृतक भई देव देख न सके तहां खडे न रहे निन्द्य है उद्यम जिनका । गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं-हे राजन! विना विचारे जे पापी कार्य करें तिनको पश्चातार ही होय । देवता गए पर लक्ष्मणकी स्त्री पतिको अचेतनरूप देख प्रसन्न करनेको उद्यमी भई कहे हैं-हे नाथ ! किसी अविवेकिनी सौभाग्य के गर्वकर गर्वितने आपका मान न किया सो उचित न करी हे देव ! आप प्रसन्न होवो तिहारी अप्रसन्नता हमको दुखका कारण है ऐसा कहकर वे परम प्रेमकी भरी लक्ष्मणके अंगसे आलिंगनकर पायन पडी वे राणी चतुराईके वचन कहिवेमें तत्पर कोई यक तो वीण लेय बजावती भई कोई मृदंग बजावती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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