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________________ पद्मपुरण काल दुखमादुखमा प्रवृते है फिर पांचवां दुखमा फिर चौथा दुखमासुखमा फिर तीसरा मुखमा दुखमा फिर दूसरा सुखमा फिर पहला सुखमा सुखमा । इसी प्रकार अरहटकी घडी समान अवसर्पणी के पीछे उत्सर्पिणी पर उत्पर्पणीके पीछे अवसर्पणी है, सदा यह काल चक इसी प्रकार फिरता रहता है परन्तु इस कालका पलटना केवल भरत अर अरावत क्षेत्र में ही है, तातें इनमें ही आयु कायादिककी हानि वृद्धि होय है, अर महा विदेह क्षेत्रादिमें तथा स्वर्ग पातालमें अर भोगभूमि आदिकमें तथा सर्व द्वीप समुद्रादिकों कालचक्र नाही फिरता इसलिये उनमें रीति पलट नाही, एक ही रीति रहे है । देवलोकविपै तो सुखमासुखमा जो पहला काल है सदा उसकी ही रीति रहे है । अर उत्कृष्ट भोगभूमिमैं भी सुखमासुखमा कालकी रीति रहे है अर मध्य भोगभूमिमें सुखमा अर्थात् दुजे काल की रीति रहे अर जघन्य भोगभूमिमें सुखमा दुखमा जो तीसरा काल है उसकी रीति रहे है, अर महा विदेह क्षेत्रोंमें दुखमामुखमा जो चौथा काल है उसकी रीति रहे है, अर अढाई द्वीपके परे अन्तके आधे स्वयम्भू रमण द्वीप पर्यन्त बीचके असंख्यात द्वीप समुद्रमें तथा चारों कोण में दुखमा अर्थात् पंचम कालकी रीति सदा रहे है अर नरक में दुखमादुखमा जो छठा काल उसकी रीति रहे है अर भरत रावत क्षेत्रोंमें छहों काल प्रवृत्त हैं। जब पहला सुखासुखमा काल प्रवृत्त है तब यहां देवकुरु उत्तरकुरु भोगभूमि की रचना होय है कल्पवृक्षोंसे मंडित भूमि सुखमयी शोभे है अर मनुष्यनि के शरीर तीन कोस ऊंचे अर तीनपल्य का आयु सब ही मनुष्य तथा पंचेन्द्रिय तियंचनिका होय है अर उगते सूर्य समान मनुष्यकी कांति होय है, गर्व लक्षणपूर्ण लोक शोभे है, स्त्री पुरुष युगल ही उपजे हैं अर साथ ही मरे हैं, स्त्री पुरुषोंमें अत्यन्त प्रीति होय है, मरकर देव यति पावे हैं, भूमि कालके प्रभावंसे रत्न सुवर्णमयी है अर कल्पवृज दश जातिके सर्व ही मनवांछित पूर्ण करे हैं जहां चार चार अंगुल के महा सुगन्ध महामिष्ट अत्यन्त कोमल तृणों से भूमि आच्छादित है सर्व ऋतुके फल फूलोंसे वृक्ष शोभे हैं अर जहाँ हाथी घोड़े गाय भैस आदि अनेक जातिके पशु सुखसे रहे हैं, अर कल्प वृत्तकरि उत्पन्न महामनोहर आहार मनुष्य करे हैं, जहां सिंहादिक भी हिंसक नहीं, मांसका आहार नहीं, योग्य आहार करे हैं, अर जहां वांगी सुवर्ण अर रत्नकी पैडियों संयुक्त कमलोंसे शीमित दुग्ध दही घी मिष्टान्नकी भरी अत्न शोभाको धरे हैं, अर पहाड अत्यन्त ऊचे नाना प्रकार रत्नकी किरणोंसे मनोज्ञ सर्व प्राणिगोंको सुख के देनेवाले पांव प्रकारके वर्ण को धरे हैं, अर जहां नदी जलचरादि जन्तुरहित महारभणीक दुग्ध (दूध ) घी मिष्टान जलकी भरी अत्यन्त स्वादसंयुक्त प्रवाहरूप रहे हैं, जिनके तट रत्ननिकी ज्योतिसे शोभायमान हैं। जहां वेइंद्री तेइंद्री चौइंद्री असैनी पंचेंद्री तथा जलचरादि जीव नहीं हैं, जहां थलवर, नभचर गर्भज तियंच हैं, वहां तिरंच भी युगल ही उपजे हैं, वहां शीत उष्ण वर्षा नाही, तीव्र पवन नाहीं, शीतल मंद सुगन्ध पवन चले हैं और किसी भी प्रकारका भय नहीं, सदा अद्भुत उत्साह ही प्रवर्ते है अर ज्योतिरांग जातिके कल्पवृक्षोंकी ज्योतिसे चांद सूर्य नजर नहीं आते हैं, दश ही जातिके कल्पवृक्ष सर्व ही इन्द्रियों के सुख स्वादके देनेवाले शोभे हैं, जहां खाना, पीना, सोना, बैठना, वस्त्र आभूषण, सुगंधा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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