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बत्तीसवां पर्व
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पानीके बुदबुदा समान निस्सार जरा मरण इष्टवियोग अनिष्टसंयोग इत्यादि कष्टका भाजन है, धन्य है वे महापुरुष भाग्यवंत उत्तम चेष्टाके थारक जे मरकट (वर) की भौंह समान लरमीको चंचल जान तजिकर दीधा थारते भये या भांति अनेक राजा विरक्त दीक्षाको सन्मुख भए, तिनने एक पहाडकी तलहटीमें सुन्दर वन देखा अनेक वृक्षनिकरमंडित महासघन नानाप्रकारके पुष्पनिकर शोभित जहां सुगंधके लोलुपी भ्रमर गुजार करे हैं तहां महापवित्र स्थानको तिष्ठने ध्यानाध्ययनविषे लीन महातपके थारक साधु देखे, तिनको नमस्कारकर वे राजा जिनमाथका जो चैत्यालय तहां गए । ता समय पहाडनिकी तलहटी तथा पहाडनिके शिखरविर्षे अथवा रमणीक वननिविष नदीनिके तटविष नगर प्रामादिकविर्ष जिनमंदिर हुते तहां नमस्कारकरि एक समुद्र समान गम्भीर मुनिनिके गुरु सत्यकेतु प्राचार्य तिनके निकट गये, नमस्कार कर महाशांतरसके भरे आचार्य से वीनती करते भये--हे नाथ ! हमको संसार समुद्रते पार उतारहु तब मुनि कही तुमको भव पार उतारनहारी भगवती दीक्षा है सो अंगीकार करहु । यह मुनिकी आज्ञा पाय ये परम हर्षको प्राप्त भये । राजा दिग्धविजय मेरुर संग्रामलोलुप श्रीनगदमन धीर शत्रुदमन घर विनोदकंटक सत्यकठोर प्रियवर्धन इत्यादि निग्रंथ होते भये तिनका गज तुरंग स्थादि सकल साज सेवक लोकनिने जायकरि उनके पुत्रादिको सौंपा तब वे बहुत चिंतावान भए। बहुरि समझकर नानाप्रकारके नियम धारते भए । कैयक सम्यकदर्शनको अंगीकारकर संतोषको प्राप्त भए, कैयक निर्मल जिनेश्व-देवका धर्म श्रवण कर पापते पगंगमुख भए। बहुत सामंत राम लक्षमणकी वार्ता सुन साधु भए, कैयक श्रावकके अणुव्रत धारते भए । बहुत राणी मार्षिका भई बहुत श्राविका भई कैयक सुभट रामका सर्व वृत्तांत भरत दशरथ पर नाकर कहते भए सो तुनकर दशरथ पर भरत कछुयक खेदको प्राप्त भए ।
भधानंतर राजा दशरथ भरतको राज्याभिषेक कर कछुयक जो रामके वियोग कर व्याकुल भया हुता हृदय सो समतामें लाय विलाप करता जो अंतःपुर ताहि प्रतियोधि नगरते वनको गए। सर्वभूतहित स्वामी को प्रणामकर बहुत नृपनिसहित जिनदीक्षा आदरी। एकाकी बिहारी जिनकल्पी भए । परम शुकध्यानकी है अभिलाषा जिनके तथापि पुत्रके शोककर कवहुक कछुक कलुषता उपज श्रावे सो एक दिन ये विचक्षण विचारते भए कि
संसारके दुखका मूल यह जगतका स्नेह है इसे धिक्कार हो या करि कर्म बंधे हैं । मैं अनंत जन्म थरे तिनविनै गर्भ जन्म बहुत धर सो मेरे गर्भ जन्मके अनेक माता पिता भाई पुत्र कहां गए। अनेक बार मैं देव लोकके भोग भोगे अर अनेक बार नरकके दुख भोगे, तियंचगविविौ मेरा शरीर अनेक बार इन जीवनिने भखा, नानारूप जे योनिये तिनविणै मैं बहुत दुख भोगे भर रूदनके शब्द सुने पर बहुतबार वीणवांसुरी आदि वादित्रोंके नाद सुने, गीत सुने, नृत्य देखे देवलोकविणे मनोहर अप्पारानिके भोग भोगे, अनेक बार मेरा शरीर.नरकविणे कुम्हाडिन कर काटा गया, पर अनेकवार मनुष्पगतिविगै महा सुगंध महावीर्यका करणहारा पटास संयुक्त अमाहार किया पर भनेक बार नर कविणै गला सीसा भर तांबा नारकीयोंने
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