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पंच-पुराण
नामा अटवीविष पहुंचे । कैसी है अटवी नाहर अर हाथिनिके ममूहनिकर भरी, महा भयानक वृत्तनिकर रात्रिसमान अंधकारकी भरी, जाके मध्य नदी है ताके तट पाए जहां भीलनिका निवास है, नानाप्रकारके मिष्ट फल हैं। श्राप तहां तिष्ठकर कैएक राजनिको विदा किया था कैएक पोछे न फिरे रामने बहुत कहा तो भी संग ही चाले सो सकल नदीको महा भयानक देखते भए । कैसी है नदी पर्वतनिमों निकसती महानील है जल जाका प्रचंड है लहर जामें महाशब्द"यमान अनेक जे ग्रह मगर तिनकर भरी दोऊ दाहाँ विदारती कन्लोलनिके भयकर उडे हैं तीरके पक्षी जहां ऐसी नदीको देख कर सकल सामंत त्रासकर कंपायमान होय राम लक्षमणको कहते भए-हे नाथ ! कृपाकर हमें भी पार उतारहु, हम सेवक भक्तिवंत हमसे प्रसन्न होवो, हे माता जानकी ! लक्षमणसे कहो जो हमको पार उतारे, या भांति आंसू डारते अनेक नरपति नाना चेटाके करणहारे नदीविष पड़ने लगे, तब राम बोले अहो अब तुम पाके फिरो यह वन महा भयानक है। हमारा तुम्हारा यहांलग ही संग हुता पिताने भरतको सबका स्वामी किया है सो तुम भक्तिकर तिनकू सेवो । तब वे कहते भए--हे नाथ ! हमारे स्वामी तुमही हो, महादयावान हो, हमपर प्रसन्न हो, हमको मत छोडहु तुम विना यह प्रजा निराश्रय भई
आकुलतारूप कहो कोनकी शरण जाय, तुम समान और कौन है ! व्याघ्र सिंह पर गजेन्द्र सादिकका भरा भयानक जो यह बन तामें तुम्हारे संग रहेंगे । तुमबिना हमें स्वर्गहु सुखकारी नाही । तुम कहो पीछे जावो सो चित्त फिरे नाहीं कैसे जाहिं ? यह चिच सब इंद्रियनिका अधिपति याहीते कहिए है जो अद्भुत वस्तुमें अनुराग करे । हमारे भोगनिकर घरकर तथा स्त्री कुटुम्बादिकर कहा ? तुम न रत्न हो, तुमको छांड कहां जाहिं ? हे प्रभो! तुमने बालक्रीडाविर्ष भी हमसे घृणान करी अब अत्यन्त निठुरताको धारो हो । हमारा अपराध कहा ? तिहारे चरण रजकर परमवृद्धिको प्राप्त भए, तुम तो भृत्यवत्सल हो । अहो माता जानकी! अहो लक्षमण धीर ! हम सीस निवाय हाथ जोड वीनती करे हैं, नाथको हमपर प्रसन्न करहु । के वचन सवन कहे तब सीता अर लक्षमण रामके चरणनिकी ओर निरख रहे । राम वोले-अब तुम पाछे जाहु । यही उत्तर है । सुखों रहियो ऐसा कहकर दोनों धीर नदीके विषे प्रवेश करते भए । श्रीराम सीताका कर गह सुखसे नदीमें लेगए जैसे कमलनीको दिग्गज ले जाय । वा असराल नदी राम लक्षमणके प्रभावकर नाभि प्रमाण बहने लगी। दोऊ भाई जल विहारविरे प्रवीण क्रीडा करते चले गए । सीता रामके हाथ गहे ऐसी शोमै मानों साक्षात् लक्ष्मी ही कमलमें तिष्ठ है । राम लक्षमण क्षणमात्रविषे नदीपार भए वृचनिके आश्रय आय भए । तप लोकनिकी दृष्टिते अगोचर भए, तब कई एक तो विलाप करते आंसू डारते घरनिको गए अर कई एक राम लक्षमणकी ओर धरी है दृष्टि जिनने सो काष्ठकेसे होय रहे पर कईएक मूर्छा खाय घरदीपर पडे अर कईएक ज्ञानको प्राप्त होय जिन दीक्षाको उद्यमी भए परस्पर कहते भए जो धिकार है असार संसारको अर धिकार है इन क्षणभंगुर भोगनिको ये काले नागके फण समान भयानक है। ऐसे शूरवीरनिकी यह अवस्था तो हमारी कहा बात या शरीरको विकार, को
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