SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ पद्म-पुराण 1 को घेर रहे थे सो सकल पशु तत्काल छुड़ाये । यज्ञके ग्रुप कहिये स्तंभ तोड़ डारे र यज्ञके करावनहारे विप्र बहुत कुठे, यज्ञशाला बखेर डारी, राजा को भी पकड़ लिया, रावणने द्विजोंसे बहुत कौप किया जो मेरे राजने जीवघात कर यह क्या बात ? सो अँसे कूटे जो अचेत होय धरती पर गिर पड़े तब सुभटलोक इनको कहते भये अहो जैसा दुख तुमको बुरा लगे है अर सुख मला लगे है तैसा पशुवोंको भी जानों अर जैसा जीतव्य तुमको बल्लभ है तैसा सकल जीवोंको जानौ, तुमको कूटने कष्ट होय हैं तो पशुवों को विनाशनेस क्यों न होय ? तुम पापका फल सहोगे नरकमें दुख भोगोगे सो घोड़ों आदिकं सवार तथा खेचर भूचर सब ही पुरुष हिंसकों कों मारने लगे । तब वे विलाप करने लगे, हमको छोड़ो फिर सा काम न करेंगे ऐसे दीन वचन कह बिलाप करते भये र रावणका तिनपर अत्यन्त कोष सो छोड़े नह। तब नारद महा दयावान रावणसे कहने लगे हे राजन् ! तेरा कल्याण होवे, तेन इन दुष्टोंसे मुझे हड़ाया अब उनकी भी दयाकर, जिन शासन में काहूको पीड़ा देनी लिखी नहीं । सर्व जीवोंको जीतव्य प्रिय है । तैंने सिद्धांतमें क्या यह बात न सुनी है कि जो हुंडावसर्पगी कालविषै पाखण्डियोंकी प्रवृत्ति होय है जबकि चौथेकाल के श्रादिमें भगवान् ऋषभ प्रगटे तीन जगत् में उच्च जिनको जन्मते ही देव सुमेरु पर्वत पर ले गये, चीर सागर के जल से स्नान कराया, वे महाकांतिके धारी ऋषभ जिनका दिव्य चरित्र पापों का नाश करनेहारा तीन लोक में प्रसिद्ध हैं सो तैंने क्या न सुना, वे भगवान जीवो के दयालु जिनके गुण इंद्र भी कहने का समय नहीं, ते र्व तर निर्वाण के अधिकारी इस पृथ्वीरूप स्त्रीको तजकर जगत् के कल्याण निमित्त मुनिपदकी आदर भये । कैस हैं प्रभु ? निर्मल है आत्मा जिनका, कैसी है रूप रत्री १ जो विन्ध्याचल पर्वत पर हिमाचल पर्वत तेई हैं उतंग कुच जिसके और ग्रार्यक्षेत्र है मुख जिसका, सुन्दर नगर बेई चूड़े तिनकर युक्त है अर समुद्र हैं कटि मेखला जिसकी अर जे नीलवन तेई हैं सिरके केश जिसके नानाप्रकारके जे रत्न तेई आभूषण हैं । ऋषभदेव मुनि होकर हजारवर्ष तक महातप किया, अचल है योग जिनका लंचायमान हैं वाहु जिनकी, स्वामीसे अनुरागकर कच्छादि चार हजार राजादन मुलक धर्म जाने बिना दीक्षा धरी । सो परीषद सह न सके तत्र फलादिकका भय बक्कलादिकका धारणकर तापसी भए, आप देवने हजार वर्ष तक तपकर बटवृक्षकं तले केवलज्ञान उपजाया तब इ द्रादिक देवोंने केवलज्ञान कल्याण किया सोशरणकी रचना भई भगवान् की दि निकर अनेक जीव कृतार्थ भए ! जे कच्यादिक राजा चारित्र भ्रष्ट हुए थे ते श्रममं ढ़ हो गए, मारीचके दीर्घ संसारके योगसे मिया भाव न छूटा अर जिस स्थान पर भगवान को केवल ज्ञान उपजा ता स्थानक में देवों कर चैत्यालयों की स्थापना भई । ऋषभदेव की प्रतिमा पथराई र भरत चक्रवर्तीने विप्रवर्ण थापा सो वह जलविषे तेलकी बून्दवत् विस्तारकों प्राप्त भया । उन्होंने यह जगत मिथ्याचारकर मोहित किया, लोक अति कुकर्मविषे प्रवर्ते, सुकृतका प्रकाश नष्ट हो गया । जीव साधुओं अनादर में तत्पर भए । आगे सुभूम चक्रवर्ती नाशको प्राप्त किये थे तौ भी इनका अभाव न हुआ । हे दशानन ! तो तुझकर कैसे अभावको प्राप्त होवेंगे तातें तू 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy