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उनतीस पव 'मार्ग में आय इकट्ठे भये तिनकरि मार्ग अति संकीर्ण भया । नगर के दरवाजेसों ले राज महिल परियन्त मनुष्यों का पार नाहीं, किया है समस्त जनोंने आदर जिनका ऐसे दशरथके पुत्र, इनके श्रेष्ठ गुणनिकी ज्यों ज्यों लोक स्तुति करें त्यों त्यों ये नीचे नीचे हो रहें । महासुखके भोगनहारे ये चारों ही भाई सुबुद्धि अपने अपने महिलमें आनन्दसों विराजे । यह सब शुभ कर्मका फल विवेकी जन जानकर ऐसे सुकत करो जिनसे सूर्य से अधिक प्रभाव होय । जेते शोभायमान उत्कृष्ट फल हैं ते सर्व धर्मके प्रभावते हैं अर जे महानिंद्य कडक फल हैं वे सब पाप कर्मके उदयते हैं तात सुखके अर्थ पाप क्रियाको तजो अर शुभक्रिया करो |
इति श्रीरविषेणाचार्य विरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिकाविषै राम लक्ष्मण का धनुष चढावने आदि प्रताप वन अर रामका सीतासो तथा भरतका लोकसुन्दरीसौं बिवाह वर्णन करनेवाला अठाईसनां पर्व पूर्ण भया ॥ २८ ॥
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अथानन्तर आषाढ शुक्ल अष्टमी अष्टाह्निकाका महा उत्सव भया । राजा दशरथ जिनेंद्र की महा उत्कृष्ट पूजा करनेको उद्यमी भया, राजा धर्मविषै अति सावधान है । राजाकी सर्व राणी पुत्र वांधव तथा सकल कुटुम्ब जिनराजके प्रतिबिम्बोंकी महा पूजा करनेको उद्यमी भए । कई बहुत आदरसे पंच वर्णके जे रत्न तिनके चूर्णका माडला मांडे हैं । अर कई नानाप्रकार के रत्ननिकी माला बनावे हैं। भक्तिविषै पाया है अधिकार जिनने पर कई एला (इलायची) कपूरादि सुगन्ध द्र निकरि जलको सुगन्धित करें हैं अर कोऊ सुगन्ध जलसे पृथ्वीको छांटे हैं भर कोऊ नानाप्रकारके परम सुगंध पीसे हैं और कई जिनमन्दिरोंके द्वारोंकी शोभा अति देदीप्यमान वस्त्रोंसे कर वे हैं पर कई नानाप्रकारकी धातुओंके रंगोंकर चैत्यालयोंकी भीतियों को मंडलायें हैं या भांति अयोध्यापुरी के सब ही लोक वीतराग देवकी परम भक्ति को धरते संते अत्यन्त हर्षकार पूर्ण, जिन पूजाके उत्साहसे उत्तम पुण्यको उपार्जते भए । राजा दशरथ भगवानका ति विभूतिकरि अभिषेक करावता भया । नानाप्रकारके वादित्र बाजते भए । तब राजा अष्ट दिनोंके उपवास किए और जिनेन्द्रकी अष्ट प्रकारके द्रव्यनिते महा पूजा करी भर नानाप्रकार के सहज पुष्प र कृत्रिम कहिए स्वर्ण रत्नादिके रचे पुष्प तिनकरि अर्चा करी जैसे नन्दीश्वर द्वीपविषै देवनिकरि संयुक्त इंद्र जिनेंद्र की पूजा करे तैस राजा दशरथने अयोध्यामें करी भर राजा चारों ही पटरानियों को गन्धोदक पठाया सो तीनके निकट तो तरुण स्त्री ले गई । सो शीघ्र ही पहुंचा। वे उठकर समस्त पापोंका दूर करनहारा जो गन्धोदक उसे मस्तक श्रर नेत्रनित लगावती मई अर राणी सुप्रभाके निकट वृद्ध खोजा ले गया हुता सो शीघ्र नहीं पहुंचा तात राणी सुप्रभा परम कोप श्रर शोकको प्राप्त भई मनमें चितवती भई जो राजा उन तीन राणिनि को गन्धोदक भेजा और मोहि न भेजा सो राजाका कहा दोष है मैं पूर्व जन्ममें पुण्य न उपजाया वे पुण्यवती महासौभाग्यवंती प्रशंसा योग्य हैं जिनको भगवानका गन्धोदक.
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