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छत्तीसरा पर्व जिनके पावनेका बहन यत्न करिये तो भी न मिले वे सहज ही आए हैं, प्रभो, तेरे नगर में महानिधि आई, विना बादल आकाशते वृष्टि भई, क्षेत्रवि बिना बाहें धान ऊगा। तिहास जमाई लक्ष्मण नगरके निकट तिष्ठ है जाने बनमाला प्राण त्याग करती बचाई अर राम तिहारे परमहितु सीतासहित विराजे हैं जैसे शचीसहित इंद्र विराजे । ये बचन राजा सेवकनिके सुनकर महा हर्षित होय पण एक मूर्छित होय गया। बहुरि परम आनन्दको प्राप्त होय सेवकनिको बहुन थन दिया अर मनविणे विचारता भया मेरी पुत्री का मनोरथ सिद्ध भया। जीवनिके धनकी प्राप्ति पर इष्टका समागम और हू मुखके कारण पुण्यके योगकरि होय हैं। जो वस्तु सैकडों योजन दर पर श्रवणमें न आवे सो हू पुण्याथिकारीके क्षणमात्रविष प्राप्त होय है और जे प्राणी दुःखके भोक्ता पुण्यहीन हैं तिनके हाथसे इष्टवस्तु विलाय जाय है। पर्वतके मस्तक पर तथा वनविष सागरविष पंथविर्षे पुण्याधिकारिनके इष्टवस्तु का समागम होय है । ऐसा मनविष चितवनकर स्त्रीते समस्त वृत्तांत कहा, स्त्री बारम्बार पूछे है यह जाने मानों स्वप्न ही है, बहुरि रामके अधर समान आरक्त सूर्यका उदय भया । तर राजा प्रेमका भरा सर्व परिवारसहित हाथीपर चढकर परम कांतियुक्त रामसं मिलने चला अर वनमालाकी माता प्राप पुत्रिनिसहित पालकीपर चढकर चली सो राजा दूर हीते श्रीरामा स्थानक देखकर बज गए हैं नेत्र कमल जाके, हाथीते उतर समीप पाया। श्रीराम और लक्ष्मण मिला और बाकी रानी सीता के पायन लागी अर कुशल पूछती भई, बीणा बांगुरी मृदंगादिक के शब्द होते भए, बंदीजन विरद बखानते भए, बडा उत्सव भया, राजाने लोकनिको बहुत दान दिया। नृत्य होता भया, दशों दिशा नादकर शब्दायमान होती भई, श्रीराम लक्ष्मणको स्नान भोजन कराया। बहुरि घोड़े हाथी रथ तिनपर चढे अनेक सामन्त भर हिरण समान कूदते प्यादे तिन सहित राम लक्ष्मणने हाथीपर चढ़े संते पुरविष प्रवेश किया, राजाने नगर उछाला महाचतुर मागध विरद बखाने हैं, मंगल शब्द करै हैं, राम लक्ष्मणने अमोलिक वस्त्र पहरे हारकर विराजे है वक्षस्थल जिनका, मलियागिरिक चंदनते लिप्त है अङ्ग जिनका, नानाप्रकारके रत्ननिकी किरणनिकरि इन्द्रधनुष होय रहा है । दोऊ भाई चांद सूर्य सारिखे नाहीं वरणे जावें हैं गुण जिनके, सौधर्म ईशान सारिखे जान सहित लोकनिको आश्चर्य उपजावते राजमंदिर पधारे, श्रेष्ठमाला धरे सुगंधकर गुंजार करै हैं भ्रमर जापर, महाविनयवान चंद्रवदन इनको देख लोक मोहित भए। कुवेरकासा किया जो वह सुन्दर नगर वहाँ अपनी इच्छाकरि परम भोग भोगत भए । या मांति सुकृतमें है चित्त जिनका, महागहन वनविणे प्राप्त भए हू परम विलास को अनुभवे हैं । सूर्य समान है कांति जिनकी, वे पापरूप तिमिरको हरै ई निज पदार्थक लामते मानन्दरूप हैं । इति श्रीरविषेमाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा बचनिकाविप बनमाला का
लाभ वर्णन करनेबाला बचीसवां पर्व पूर्ण भयो ।॥ २६ ॥
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