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पा-पुराण कहियो जो तुम्हारे विरह करि महा दुःखित बनमाला तुमविष चित्त लगाय वट के च विगै वस्त्रकी फांसी लगाय मरण को प्राप्त भई हमने देखी अर तुमको यह सन्देशा कहा है जो या भवविणै तो तुम्हारा संयोग मोहि न मिला अब पर भव विणे तुमही पति हजियो यह वचन कह वृक्ष की शाखासों फांसी लगाय आप फांसी लेने लगी, ताही समय लक्ष्मण कहता भयाहे मुग्धे ! मेरी भुजाकर आलिंगन योग्य तेरा कंठ फांसी काहेको डारे है ? हे सुन्दरबदनी, परमसुन्दरी ! मैं लक्ष्मण हूं जैसा तेरे श्रवणविणे आया है तैसा देख अर प्रतीति न आवै तो निश्चय कर लेहु । ऐसा कह ताके कर से फांसी हर लीनी जैसे कमलथकी झागोंके समूहको दूर करे, तब वह लज्जाकरयुक्त प्रेमकी दृष्टिकर लक्ष्मण को देख मोहित भई । कैसा है लक्ष्मण ! जगतके नेत्रनिका हरणहारा है रूप जाको, परम श्रोश्चर्यको प्राप्त भई । चित्तविणे चिंत है यह कोई मोपर देवनि उपकार किया, मेरी अवस्था देख दयाको प्राप्त भए जैसा मैं सुना हुता तैसा दैवयोगते यह नाथ पाया। जाने मेरे प्राण बचाए ऐमा चितवन करती वनमाला लक्ष्मणके मिलापते अत्यन्त अनुरागको प्राप्त भई ॥
अथानन्तर महासुगन्ध कोमल सांथरेपर श्रीरामचन्द्र पौड़े हुते सो जागकर लपण को न देख जानकीको पूछते भए-हे देवी! यहां लक्ष्मण नाहीं दीखे है, रात्रिके समय मेरे सोवनेको पुष्प पल्लवनि का कोमल सांथरा विछाय आप यहां ही तिष्ठता हुता सो अब नाहीं दीखे है। तब जानकीने कही-हे नाथ ! ऊचा स्वरकर बुलाय लेवो, सब आप शब्द किया । हे भाई! हे लक्ष्मण, हे बालक, कहां गया ? शीघ्र आवहु । तब भाई बोला-हे देव, आया, बनमाला सहित बड़े भाईके निकट आया। आधी रात्रि का समय चंद्रमाका उदय भया, कुमुद फूले. शीतल मंद सुगंध पचन बाजने लगी । ता समय बनमाला कोपल समान कोमल कर जोड वख कर बेढा है सर्व अंग जाने, लज्जाकर नम्रीभूत है मुख जाका, जाना है समस्त कर्तव्य जाने, महाविनयको थरती श्रीराम अर सीताके चरणारविदको बन्दती भई । सीता लक्ष्मण को कहती भई-हे कुमार, तैंने चंद्रमाकी तुल्यता करी । तब लक्षण लज्जाकर नीचा होय गया, श्रीराम जानकीते कहते भए-तुम कैसे जानी ? तब कही हे देव, जो समय चन्द्रका उद्योत भया ताही समय कन्यासहित लक्ष्मण आया तब श्रीराम सीताके वचन सुन प्रसन भए ।
अथानन्तर वनमाला महाशुभ शील इनको देख आश्चर्य की भरी प्रसन्न है मुख चन्द्रमा जाका, फल रहे हैं नेत्रकमल जाके, सीताके समीप बैठी अर दोऊ भाई देवनि समान महासुन्दर निदारहित सुखते कथा वार्ता करते तिष्ठे हैं अर बनमालाकी सखी जागकर देखे तो सेज सूनी, कन्या नाहीं। तब भयकर खेदित भई अर महाव्याकुल होय रुदन करती भई ताके शब्दकर योधा जागे, आयुध लगाय तुरंग चढ दशों दिशाको दौड़े अर पयादे दौड़े। बरछी भर धनुष हैं हाथमें जिनके, दशों दिशा दढी । राजाका भय अर प्रीतिकर संयुक्त है मन जाका, ऐसे दौड़े मानों पवनके बालक हैं तब कैयक या तरफ दौड़े आए बनमालाको वनयिष राम लक्ष्मणके समीप बैठी देख बहुत हर्षित होय जायकर राजा पृथ्वीधरको बधाई दई भर कहते भए-हे देव,
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