________________
छत्तीसगा परी
२७ तुम सारिखे पुरुषनिकी सेवा करनेको कौन समर्थ है तब राम कहते भए--हे यक्षाधिपते, तुम सब बातोंके योग्य हो अर तुम पराधीन होय हमारी सेवा करी सो क्षमा करीयो । तब इनके उत्तम भाव विलोकि अति हर्षित भया नमस्कारकर स्वयंप्रभ नामा हार श्रीरामकी भेट किया । महा अद्भुत अर लक्ष्मणको मणिकुण्डल चांद सूर्य सारिखे भेट किये । अर सीताको कुशला नामा चूडामणि महा देदीप्यमान दिया पर महामनोहर मनयांछित नाद की करनहारी दैवोपुनीत वीणा दई ते अपनी इच्छाते चाले। तब यक्षराजने पुरी संकोच लई अर इनके जायबे का बहुत शोच किया अर रामचन्द्र यक्षकी सेवा करि अति प्रसन्न होय आगे चले, देवों की न्याई रमते नाना प्रकार की कथाविगै आसक्त, नानाप्रकार के फलन के रसके भोक्ता पृथिवी पर अपनी इच्छा सूमते, मृगराज तथा गजराजनि करि भरा जो महा भयानक वन ताहि उलंघ विजयपुर नामा नगर भाए, ता समय सूर्य अस्त भया । अन्धकार फेला आकाश विष नक्षत्रनिके समूह प्रकट भए, नगरते उत्तर दिशा की तरफ न अति निकट न अति दूर कायर लोगनि को भयानक जो उद्यान यहां विराजे॥
अथानन्तर नगर का राजा पृथिवीधर जाके इन्द्राणी नामा राणी स्त्रीके गुणनि करि मंडित वाके वनमाला नामा पुत्री महा सुन्दर सो बाल अवस्था ही ते लरमण के गुख सुन अति आसक्त भई। बहुरि सुनी दशरथ ने दीचा धरी अर केकईके वचनते भरत को राज्य दिया, राम लक्ष्मण परदेश निकसे है ऐसा विचार याके पिताने कन्याको इन्द्रनगरका राजा ताका पुत्र जो बालमित्र महा सुन्दर ताहि देनी विचारी सो यह वृत्तांत वनमाला सुना, हृदय विगै बिराजे हैं लक्ष्मण जाके, तब मन विष विचारी-कंठफांसी लेय मरणा भला परन्तु अन्य पुरुषका सम्बन्ध शुभ नाहीं, यह विचार सूर्यम् संभाषण करती भई-हे भानो! अब तुम अस्व होय जावो शीघ ही रात्रिको पठावहु अब दिनका एक क्षण मोहि वर्ष समान बीते है सो मानों याके चितवन कर सूर्य अस्त भया, कन्या का उपवास है, मन्ध्या समय माता पिता की आज्ञा लेय श्रेष्ठरय विष चढ़ बन यात्रा का बहाना कर रात्रि विष तहां आई जहां राम लक्ष्मण तिष्ठे हुने सो याने आन कर ताही वन विष जागरण किया। जब सकल लोक सो गए तब यह मन्द मन्द पैर थरती बनकी मृगी समान डेराते निकस वन विष चली सो यह महासती पधिनी ताके शरीरकी सुगन्ध ता कर वन सुगन्धित होय गया तब लक्ष्मण विचारता भया यह कोई राजकुमारी महा श्रेष्ठ मानों ज्योतिकी मूर्ति ही है सो महाशोकके भार कर पीडित है मन जाका यह अपघात कर मरण वांछ है सो मैं याकी चेष्टा छिपकर देखू ऐसा विचारकर किसकर बट के वृक्ष तले बेठा मानों कौतुक युक्त देव कल्पवृक्षके नीचे बैठे। ताही बट के तले हंसनी की सी चाल जाकी पर चन्द्रमा समान है बदन जाका, कोमल है अङ्ग जाका ऐसी वनमाला आई जल माला वस्त्रकर फांसी बनाई अर मनोहर बाणीकर कहती भई-हो या वृक्षके निवासी देवता कुपाकर मेरी बात सुनहु । कदाचित बनविष विचरता लक्ष्मण आवे तो तम ताहिये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org