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________________ ६०४ पद्म-पुराण पम वस्तु है अर स्वरूप जो आत्मरूप उसमें आरूढ हैं, श्रेष्ठ हैं चरित्र जिनके, श्रीराम यतीश्वरों ईश्वर देवोंके अधिपति प्रतीन्द्र की मायासे मोहित न भए जीवोंके हितू परम ऋद्धिकर युक्त अष्टम बलदेव पवित्र शरीर शोभायमान अनन्त वीर्यके थारी अतुल महिमा कर मंडित निर्विकार अठारह दोष कर रहित अष्टादशसहस्र शीलके भेद तिनकर पूर्ण श्रति उदार अति गंभीर ज्ञानके दीपक तीन लोक में प्रकट हैं प्रकाश जिनका अष्टकर्मके दग्ध करणहारे गुणोंके सागर क्षोभरहित सुमेरुसे अचल धर्मके मूल, कषायरूप रिपुके नाशक समस्त विकल्प रहित महा निद्वंद्व जिनेन्द्रके शासनका रहस्य पाय अंतरात्मा से परमात्मा भए उनने त्रैलोक्य पूज्य परमेश्वर पद पाया तिनको तुम पूजो, धोय डारे हैं कर्म रूप मल जिनने केवलज्ञान केवल दर्शनमई योगीश्वरों के नाथ सर्व दुखके दूर करणहारे मन्नार्थके मथन हारे तिनको प्रणाम करो, यह श्रीबलदेवका चरित्र महा मनोज्ञ जो भावधर निरन्तर बांचे-सुने पढे पढावे शंकारहित होय महाहर्षका भरा रामकी कथा का अभ्यास करे तिसके पुण्यकी वृद्धि होय र वैरी खड्ग हाथमें लिए मारिनेको आया होय सो 'शान्त होय जाय, या ग्रन्थके श्रवणसे धर्मके अर्थी इष्ट धर्मको लहैं यश का अर्थी यशको पावै राज्य भ्रष्ट हुआ पर राज्य कामना होय तो राज्य पावै यामें संदेह नाही, इष्ट संयोगका अर्थी इष्टसंयोग लह्रै धनका अर्थी धन पावै, जीतका अर्थी जीत पावै स्त्रीका अर्थी सुन्दर स्त्री पवै लाभका लोभी लाभ शवै, सुखका अर्थी सुख पावै अर काहूका कोई वल्लभ विदेश गया होय और उसके आवे की आकुलता होय सो वह सुखसे घर श्रावै जो मन में अभिलाषा होय सोई सिद्ध होय सर्व व्याधि शांत होय ग्रामके नगरके वनके देव जलके देव प्रसन्न होंय पर नवग्रहों की बाधा न होय, क्रूर ग्रह सौम्य होय जांय अर जे पाप चितवनमें न आवैं वे विलाय जांय पर सकल अकल्याणक राम कथा कर क्षय होय जांय, अर जितने मनोरथ हैं वे सब राम कथा के प्रसादते पावें घर वीतराग भाव दृढ होय उसकर हजारां भवके उपाजे पापको प्राणी दूर करे कष्टरूप समुद्रको तिर सिद्धपद शीघ्र पावै । यह ग्रन्थ महा पवित्र हैं, जीवको समाधि उपजावनका कारण है नाना जन्ममें जीवने पाप उपाजें महा क्लेशके कारण तिनका नाशक है अर नानाप्रकारके व्याख्यान तिनकर संयुक्त है जिसमें बडे बडे पुरुषों की कथा, भव्य जीवन रूप कमलोंको प्रफुल्लित करणहारा हैं । सकल लोक कर नमFare करिये योग्य श्रीवर्धमान भगवान उनने गौतमसे कहा अर गौतमने श्रेणिकसे कहा । याही भांति केवल श्रुतवली कहते भए । रामचन्द्रका चरित्र साधुओं की समाधिकी वृद्धिका कारण सर्वोत्तम महा मंगलरूप सो मुनिनिकी परिपाटी कर प्रकट होता भया । सुन्दर हैं वचन जिसमें समीचीन अर्थको थरे यति अद्भुत इंद्रगुरु नामा मुनि तिनके शिष्य दिवाकरसेन तिनके शिष्य लक्ष्मणसेननके शिष्य रविषेण तिन जिनश्राज्ञा अनुसार कहा । यह राम का पुराण सम्यक दर्शनकी सिद्धिका कारण महा कल्याणका कर्ता निर्मल ज्ञानका दायक विचक्षण जीवों को निरंतर सुनित्रे योग्य हैं अतुल पराक्रमी अद्भुत आचरणके धारक महासुकृती जे दशरथके नन्दन तिनकी महिमा कहां लग कहूं इस ग्रन्थ में बलभद्र नारायण प्रतिनारायण तिनका विस्तार रूप चरित्र है । जो यामें बुद्धि लगावे तो अकल्याणरूप पापोंको तजकर शिव कहिए मुक्ति उसे अपनी करे। जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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