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एकसौतईसर्वि विषयकी वांछाकर अकल्याणको प्राप्त होय है । विषयाभिलाष कदाचित् शांतिके अर्थ नहीं, देखो विद्याधरनिका अधिपति रावण परस्त्रीकी अभिलाषा कर कष्टको प्राप्त भया कामके राग कर हता गया ऐसे पुरुषोंकी यह दशा है तो और प्राणी विषय वासना कर कैसे सुख पावें, रावण हजारां खियों कर मण्डित निरंतर सुख सेवे था इप्त न भया परदाराकी कामना कर विमाशको प्राप्त भया इन व्यसनोंकर जीव कैसे सुखी होय जो पापी परदाराका सेवन करे सो कष्टके सागरमें पडे अर श्रीरामचन्द्र महा शीलवान परदारा पराङ मुख जिनशासनके भक्त थर्मानुरागी बहुत काल राज्य भोग संसारको असार जान वीतरागके मार्गमें प्रवर्ते परम पदको प्राप्त भये और भी जे वीतरागके मार्गमें प्रक्लेंगे वे शिवपुर पहुंचेंगे इसलिये जे भव्य जीव हैं वे जिनमार्गकी दृढ प्रतीतिकर अपनी शक्ति प्रमाण व्रतका आचरण करो जो पूर्ण शक्ति होय तो मुनि होलो पर न्यून शक्ति होय तो अणुव्रतके थारक श्रावक होवो । यह प्राणी धर्मके फलकर स्वर्ग मोक्षके सुख पावे हैं अर पापके फलसे नरक निगोदके फल दुख पावे हैं यह निसंदेह जानो अनादि कालकी: यही रीति है धर्म सुखदाई अधमें दुखदाई पाप किसे कहिए पर पुण्य किसे कहिए, सो उरमें धारो, जेते धर्मके भेद है निन में सम्यक व मुख्य है, अर जितने पाप के भेद हैं, तिनमें मिथ्यात्व मुख्य है मिथ्यात्व कहा १ अतत्त्वकी श्रद्धा अर कुगुरु कुदेव कुधर्मका पाराथन परजीवको पीडा उपजावना अर क्रोथ मान माया लोभ की तीव्रता अर पांच इंद्रियोंके विषय सप्त व्यसनका सेवन अर मित्रद्रोह कृतघ्न विश्वासघात अभक्ष्यका भक्षण अगम्यमें गमन मर्मका छेदक वचन दुर्जनता इत्यादि पापके भेद हैं ये सब तजने अर दया पालनी सत्य बोलना चोरी न करनी शील पालना तृष्णा तजनी काम लोभ तजने शास्त्र पढना काहूको कुवचन न कहना गर न करना प्रपंच न करना अदेखसका न होना शान्त भावधरना परउपकार करना परदारा परधन परद्रोह तजना परपीडाका वचन न कहना बहु प्रारंभ बहु परिग्रह स्याग करना दान देना तप करना पर दुखहरण इत्यादि जो अनेक भेद पुण्यके हैं वे अंगीकार करने अहो प्राणी हो सुखदाता शुभ है अर दुःखदाता अशुभ है, दारिद्र दुःख रोग पीडा अपमान दुर्गति यह सब अशुभके उदयसे होय हैं अर सुख संपत्ति सुगति यह सब शुभके उदयसे होय हैं। शुम अशुभ ही सुख दुःखके कारण हैं अर कोई देव दानव मानव सुख दुःखका दाता नहीं अपने २ उपार्ने कर्मका फल सब भोगवे हैं सब जीवोंसे मित्रता करना किसीसे वैर न करना किसीको दुःख न देना सब ही सुखी हों यह भावना मनमें धारनी, प्रथम अशुभको तज शुभमें भावना बहुरि शुभाशुभसे रहित होय शुद्ध पदको प्राप्त होना, बहुत कहिवे कर क्या ? इस पुराणके श्रवण कर एक शुद्ध सिद्धपदमें आरूढ होना अनेक भेद कर्मोका विलय कर आनन्द रूप रहना । हो पंडित हो! परम पदके उपाय निश्चय थकी जिनशासन में कहे हैं वे अपनी शक्ति प्रमाण धारण करो जिस कर भवसागरसे पार होवो यह शास्त्र अतिमनोहर जीवोंको शुद्धताका देनहारा रवि समान संकल वस्तुका प्रकाशक है सो सुनकर परमानन्दस्वरूप में मग्न होवो, संसार असार है जिनधर्म सार है जाकर सिद्धपदको पाइये है सिद्धपदसमान और पदार्थ नाहीं जब श्रीभगवान त्रैलोक्यके सूर्य यर्द्धमान देवाथिदेव सिद्धलोकको सिधारे तब चतुर्थकाल के तीनवर्ष साढे आठ महीना शेष थे सो भगवानको
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