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________________ दूसरा पर्व किया है लौकांतिक देवोंने स्तवन जिनका मुनिव्रतको धारणकर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका अाराधनकर घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञानको प्राप्त भये । वह केवलज्ञान समस्त लोकालोकका प्रकाशक है, ऐसे केवलज्ञानके धारक भगवानने जगतके भव्य जीवोंके उपकारके निमित्त धर्म तीर्थ प्रगट किया, वह श्रीभगवान मलरहित पसेवसे रहित हैं जिनका रुधिर क्षीर (दूध) समान है और सुगन्धित शरीर शुभ लक्षण अतुलबल भिष्ट वचन महा सुन्दर स्वरूप समचतुर संस्थान वजवृषभनाराच संहननके धारक हैं जिनके बिहार में चारों ही दिशा नोंमें दुर्भिक्ष नहीं रहता, सकल ईति भीतिका अभाव रहै है, और सर्व विद्याके परमेश्वर जिनका शरीर निर्मल स्फटिक समान है और आंखोंकी पलक नहीं लगती है और नख केश नहीं बढ़ते हैं, समस्त जीवोंमें मैत्री भाव रहता है और शीतल मंद सुगन्ध पवन पीछे लगी आवे है, छह ऋतुके फल फूल फले हैं और धरती दर्पण समान निर्मल हो जाती है और पवनकुमार देव एक योजन पर्यंत भूमि तृण पाषाण कण्टकादि रहित करे हैं और मेघकुमार देव गंधोदककी सुवृष्टि महा उत्साहसे करे हैं, और प्रभुके विहारमें देव चरणकमलके तले स्वर्णमयी कमल रचे हे चाणोंको भूमिका स्पर्श नहीं होता है, अाकाशमें ही गमन करे हैं, धरतीपर छह ऋतुके सर्व धान्य फले है, शरद के सरोवरके समान आकाश निर्मल होय है और दश दिशा धूम्रादिरहित निर्मल होंय है, सूर्य की कांतिको हरणेवाला सहस्र थारोंसे युक्त धर्मचक्र भगवानके आगे आगे चले है, इस भांति आर्यखण्ड में विहार कर श्रीमहावीर स्वामी विपुलाचल पर्वत उपर आय विराजे हैं, उस पर्वतपर नाना प्रकारके जलके निरझरने झरे हैं उनका शब्द मनका हरणहारा है, जहां बोले और वृक्ष शोभायमान हैं। और जहां जातिविरोधी जीवोंने भो बेर छोड़ दिया है, पक्षी बोल रहे हैं उनके शब्दोंसे मानो पहाड़ गुजार ही करे है, और भ्रमरोंके नादसे मानो पहाड़ गान ही कर रहा है, सघन वृक्षोंके तले हाथियों के समूह बैठे हैं, गुमानोंके मध्य सिंह तिष्ठे हैं, जैसे कैलाश पर्वतपर भगवान ऋषभ देव विराजे थे तो विशुल बल पर श्रीवर्द्धमान स्वामी विराजे हैं। जब श्रीभगवान समोसरणमें केवल ज्ञान संयुक्त विराजमान भये तब इन्द्रका आसन कम्पायमान भया, इन्द्रने जाना कि भगवान केवलज्ञानसंयुक्त विराजे हैं, मैं जाकर बन्दना करू, इंद्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर आए । वह हाथी शरदके बादल समान उज्ज्वल है मानो कलास पर्वत ही है सुवर्णकी सांकलनसे संयुक्त है, जिगका कुम्भस्थल भ्रमरोंकी पंक्तिसे मण्डित है, जिसने दशों दिशा सुगन्धसे व्याप्त करी हैं महा मदीनत्त है, जिसके नख सचिक्कण हैं जिसके रोम कठोर हैं जिनका मस्तक भले शिष्यके समान बहुत विनयवान और कोमल है, जिसका अंग दृढ है और दीर्घ काय है, जिसका स्कन्ध छोटा है मद झरे है और नारद समान कलहप्रिय है, जैसे गरुड नागको जीते तैसे यह नाग अर्थात् हाथिोंको जीते हैं जैसे रात्रि नक्षत्रों की माला कहिये पंकति ताकरि शोभे है तैसे यह नक्षत्रमाला जो प्राभरण उससे शोभे है । मिंदर कर अरुण (लाल) ऊंचा जो कुम्भस्थल उससे देव मनुष्योंके मनको हरे है, ऐसे ऐरावत गजपर चढ़ कर सुरपति आए और भी देव अपने अपने वाहनोंपर चढकर इंद्रके संग आए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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