________________
छब्बीसवां पर्व
२३१ हैं पर जब तिसाए होय हैं तब जलकी प्रार्थना करै हैं तब उन्हें तांबा गलाकर प्यावे हैं तातें देह महा दग्धमान होय हैं ताकर महादुखी होय हैं अर कहै हैं कि हमें तृष्णा नाहीं तो पुनि बलात्कार इनको पृथ्वी पर पछाड़ कर ऊपर पण देय संडासियोंसे मुख फाड़ ताता तांबा प्यावै हैं तात कंठ भी दग्य होय है अर हृदय भी दम्ब होय है, नारकियों को नारकियोंका अनेक प्रकार का परस्पर दुख तथा भवनवासी देव जे असुरकुमार तिनकार करवाया दुख सो कोन वर्णन कर सके । नरकमें मद्य मांसके भदणसे उपजा जो दुख ताहि जान कर मद्य मांसका भक्षण सर्वथा तजना । ऐसे शुनिके वचन सुन, नरकके दुखसे डरा है मन जाका ऐसा जो कुंडलमण्डित सो बोला।
हे नाथ ! पापी जीव तो नरक हीके पात्र हैं अर जे विवेकी सम्यक दृष्टि श्रावकके व्रत पाले हैं तिनकी कहा गति है ? तर मुनि कहते भये-जे दृढ व्रत सम्यग्दृष्टि श्रावकके व्रत पाटे हैं ते स्वर्ग मोबके पात्र हैं और ह जे जीव मद्य मांस शहतका त्याग कर हैं ते भी कुगतिसे बचे हैं जे अभक्ष्यका त्याग करै हैं सो शुभ गति पावै हैं जो उपवासादिक रहित हैं पर दानादिक भी नहीं बने हैं परन्तु मय मांसके त्यागी हैं तो भले हैं पर जो कोई शीलवत मंडित है अर जिन शासनका सेवक है अर श्रावकके व्रत पाले है ताका कहा पूछना ? सो तो सौधर्मादि स्वर्गमें उपजै ही है। अहिंसाव्रत धर्मका मूल कहा है अहिंसा । सो मांसादिकके त्यागीके अत्यन्त निर्मल होय है । जे म्लेच्छ अर चाण्डाल हैं अर दयावान होते हैं वह मधु मांसादिका त्याग कर हैं सो भी पापसे छूट हैं पापनिकरि छूटा हुआ पुण्यको ग्रहै है अर पुष्पके बंधनसे देव अथवा मनुष्य होय है अर जो सम्पदृष्टि जीव हैं सो अणुव्रतको धारणकर देवोंका इन्द्र होय परम भोगोंको भोगे हैं बहुरि मनुष्य होय मुमिव्रत धर मोक्ष पद पावै हैं । ऐसे आचार्य के वचन सुनकर यद्यपि कुंडलमंडित अणुव्रतके पालने में शक्तिरहित है तो भी सीस नवाय गुरुवोंको सविनय नमस्कार कर मद्यमांसका त्याग करता भया, अर समीचीन जो सम्यग्दर्शन ताका शरण ग्रहा, भगवानकी प्रतिमाको नमस्कार अर गुरुवोंको नमस्कार कर देशांतरको गया । मनमें ऐसी चिंता भई कि मेरा मामा महापराक्रमी है सो निश्चम सेती मुझे खेदखिन्न जान मेरी सहायता करेगा। मैं बहुरि राजा होय शत्रु बोंको जीतूंगा ऐसी भाशा थर दक्षिण दिशा जायवेको उद्यमी भया सो प्रति खेदखिन दुखसे भरा धीरे २ जाता हुता सो मार्गमें अत्यन्त व्याधि वेदना कर सम्यक्त्व रहित होय मिथ्यात्व गुण ठाने मरणको प्राप्त भया। कैसा है मरण ? नाही है जगतमें उपाय जाका सो जिस समय कुंडलमण्डितके प्राण छूटे सो राजा जनककी स्त्री विदेहाके गर्भ में पाया ताही समय वेदवतीका जीव जो चित्तोत्सवा भई हुती सो भी तपके प्रभावकरि सीता भई सोहू विदेहाके गर्भ में आई, ये दोनों एक गर्भ में आए अर वह पिंगल ब्राह्मण जो मुनिव्रत धर भवनवासी देव भया हुता सो अवधिकर अपने तपका फल जान बहुरि विचारता भया कि वह चित्तोत्सवा कहां पर वह पापी कुडलमण्डित कहां ? जाकरि मैं पूर्व भवमें दुख अवस्थाको प्राप्त भया अब वे दोनों राजा जनककी स्त्रीके गर्भ में पाये हैं सो वह तो स्त्रीकी जाति पराधीन हुती । उस पापी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org