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अस्सीगां पण ब्रामणकी माननी नाम माताके उदर में उपजी, सो अति अभिमान की धरणहारी सो नोदन नामा ब्राह्मण क्षुधाकर पीडित होय अभिमानाको तज दई सो गजबनमें कारुह नाम राजाको प्रात भई, वह राजा पुष्प प्रकाण नगरका स्वामी लंपट सो ब्राह्मणीको रूपवन्ती जान लेगया, स्नेह कर घरमें राखी। एक समय रातिमें ताने राजाके मस्तकमें चरणकी लात दई । प्रातः समय सभामें गजाने पंडितनिसे पूछी-ज ने मेरा सिर पांच कर हता होय ताका कहा करना.? तब मूर्ख पंडित कहते भए-हे देव ! ताका पांव छेदना अथवा प्राण हरणा ता समय एक हेमांक नामा ब्राह्मण राजाके अभिप्रायका बेत्ता कहता भया--ताके पांवकी श्राभूषणादि कर पूजा करना, तब राजाने हेमांकको पूछी-हे पंडित ! तुमने रहस्य कैसे जाना तर ताने कही-स्त्रीके दंतनिके तिहारे अधरों में चिह्न दीखे तातें यह जानी स्त्रीके पांवकी लागी । तब राजाने हेमांकको अभिप्रायका वेत्ता जान अपना निकट कृपापात्र किया बडी ऋद्धि दई सो हेमांकके घरके पास एक मित्रयशा नामा विथवा ब्राह्मणी महादुःखी अमोघसर नाम ब्राह्मणकी स्त्री है सो अपने पुत्रको शिक्षा देती हुनी, भरतारके गुण चितार चितार कहती- भई हे पुत्र ! बाल अवस्थामें जो विधाका अभ्यास करै सो हेमांक की न्याई महा बिभूतिको प्राप्त होय, या हेमांकने बाल अवस्था में विद्याका अभ्यास किया सो अब याकी कीर्ति देख अर तेरा वाप थनुषवाण विद्यामें अति प्रवीण हुना ताके तुम मूर्खपत्र भये, आंसू डार माताने यह वचन कहे ताके वचन सुन माताको धीर्य बंधाया महा अभिमानका धारक यह श्रीवर्धित नामा पुत्र विद्या सीखनेके अर्थ ब्याघ्रपुर नगर गया सो गुरुके निकट शस्त्र शास्त्र सर्व विद्या सीखी अर या नगरके राजा सुकांतकी शीला नामा पुत्री वाहि ले निकसा । तब कन्याका भाई सिंह चन्द्र या ऊपर चढा सो अकेलेने शस्त्रविद्याके प्रभावकर सिंहचंद्रको जीता अर स्त्रीसहित माताके निकट आया। माताको हर्ष उपज या । शस्त्र कला कर याकी पृथिवीमें प्रसिद्ध कीर्ति भई सो शस्त्रके बल कर पोदनापुरके राजा करूरुहको जीत्या भर व्याघ्रपुरका राजा शीलाका पिता मरणको प्राप्त भया ताका पुत्र हिचंद्र शत्रुलिने दवाया सो सुरंगके मार्ग होय अपनी रानी को ले निकसा राज्यभ्रष्ट भया पोदनापुर में अपनी बहिनका निवास जान तंबोलीके लार पाननिकी झोली सिर पर धर स्त्रीसहित पोदनापुरके समीप पाया। रात्रिको पोदनापुरके वनमें रहा, ताकी स्त्री सर्प ने डपी तब यह ताहि कांधे पर जहां मय महा मुनि विराजे हुते, वे वज्रके थंभ समान महानिश्चल कायोत्सर्ग धरे अनेक ऋद्धिके थारक तिनको सर्व औषधि ऋद्धि उपजी हुती सो तिनके चरणारविंदके समीप सिंहचंद्रने अपनी राणी डारी सो तिनके ऋद्धिके प्रभाव कर राणी निर्विष भई। स्त्रीसहित मुनिके समीप तिष्ठे था। ता मुनिके दर्शनकू विनयदत्त नामा श्रावक आया ताहि सिंहचन्द्र मिला और अपना सब वृत्तांत कहा तब ताने जाय कर पोदनापुरके राजा श्रीवर्धितको कहा जो तिहारा स्त्रीका भाई सिंहचन्द्र आया है तब वह शत्रु जान युद्ध को उद्यमी भया तब विनयदत्तने यथावत् वृत्तांत कहा जो विहारे शरण आया है, तब ताहि बहुत प्रीति उपजी अर महाविभूतिसे सिंहचन्द्रके सन्मुख आया. दोनों मिले, प्रति हर्ष उपजा । बहुरि श्रीवर्धित मय मुनिको पूछता भया- हे भगवान ! मैं मेरे पर
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