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पद्म-पुराण
अपने स्वजनोंके पूर्व भव सुना चाहूं हूं- - तब मुनि कहते भए - एक शोभपुरनामा नगर वहां मुद्राचार्य दिगंबर ने चौम से में निवास किया सो अमलनामा नगरका राजा निरंतर आचार्यके दर्शनको श्रावै सो एक दिवस एक कोढिनी स्त्री नाकी दुर्गंध आई सो राजा पांवपयादाही भाग अपने घर गया ताकी दुर्गंध सह न सका और वह कोदनीने चैत्यालय दर्शनकर भद्राचार्य के समीप श्रविका व्रत धारे, समाधिमरण कर देवलोक गई वहांते चयकर तेरी स्त्री शीला भई श्रर राजा अमल अपने पुत्र को राज्य भार सोंप आप श्रावकके व्रत धारे, आठ ग्राम पुत्र पै ले संतोष धरा । शरीर तज देवलोक गया वहां चयकर तू श्रीवति भया ।
अघ तेरी माताके भव सुन - एक विदेशी सुखाकर पीडित ग्राममें श्राय भोजन मांगता भया सो जब भोजन न मिला तब महा कोपकर कहता भया कि मैं तिहारा ग्राम बालूंगा जैसे कडक शब्द कह निकसा । दैवयोग से ग्राम में आग लगी सो ग्रामके लोगनिने जानी ताने लगाई
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कोधायमान होय दौडे अर ताहि न्याय अग्नि में जराया सो महा दुःखकर राजाकी रसोवि ई । मरकर नरक में घोरवेदना पाई। तहांसे निकस तेरी माता मित्रयशा भई अर पोदनापुर में एक गोवणिज गृहस्थ मर कर तेरी स्त्रीका भाई सिंहचन्द भया अर वह भुजपत्रा ताकी स्त्री रतिवर्धना भई । पूर्वभव में पशुमोंपै बोझ लदे थे सो या भवमें भार वहै । ये सर्वके पूर्व जन्म कहकर मय महा मुनि आकाश मार्ग विहार कर गए अर पोदनापुरका राजा श्रीति सिंह चन्द्रसहित नगर में गया । गौतम स्वामी कहे हैं - हे श्रेणिक ! यह संसारकी विचित्र गति हैं, कोईयक तो निर्धन से राजा हो जाय अर काईयक राजासे निर्धन होजाय है । श्रीवर्धित ब्राह्मणका पुत्र सो राजभ्रष्ट होय राजा होय गया अर सिंहचन्द राजाका पुत्र सो राज्यभ्रष्ट होय श्रीधितके समीप आया । एकगुरुके निकट प्राणी धर्मका श्रवण करै तिनमें कोई समाधि मरणकर सुगति पावै कोई कुमरणकर दुर्गति पावै । कोई रत्ननिके भरे जहाज सहित समुद्र उलंघ सुखसे स्थानक पहुंचे, कोऊ समुद्र में डूबे, कोई को चोर लूट लेय जावै, ऐसा जगत्का स्वरूप विचित्रगति जान जे विवेकीं हैं ते 'दया दान विनय वैराग्य जप तप इन्द्रियोंका निरोध शांतता आत्मध्यान तथा शास्त्राध्ययनकर श्रात्मकल्याण करें। ऐसे मय मुनिके वचन सुन राजा श्रीवर्धित अर पोदनापुर के बहुतलोक शांतचित्त होय जिनधर्मका आराधन करते भए । महामुनि मय अवधिज्ञानी महागुणवान शांतचित्त समाधिमरणकर ईशान स्वर्ग उत्कृष्ट देव भए । यह मय मुनिका माहात्म्य जे चित लगाय पढे सुनें तिनको वैरियोंकी पीडा न होय, सिंहव्याघ्रादि न इतें सर्वादि न डसें ॥
हाति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषात्रचनिका विर्षे मयमुनिका माहात्म्य वर्णन करनेवाला अस्सीवां पर्व पूर्ण भया ॥ ८० ॥
अथानन्तर लक्ष्मणके वडे भाई श्रीरामचन्द्र स्वर्गलोक समान लक्ष्मीको मध्यलोक विष योग भए चन्द्र सूर्य समान है कांनि जिनकी पर इनकी माता कौशन्या भर्तार र पुत्रके वियोगरूप अग्निकी ज्वालाकर शोकको प्राप्त भया हैं शरीर जाका महिलके सातवें खप बैठी सथियोंकर मंडित प्रतिउदास सुनिकर पूर्ण है नेत्र जाके, जैसे गायको बच्चेका वियोग दोप
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