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________________ ४५० पद्मपुराण मित्र मुनि भये, सम्यकदृष्टि परम संयमको आराध समाधिमरणकर स्वर्ग में उत्कृष्ट देव भये तहां से चयकर अचलकुमारका जीव राजा दशरथके यह शत्रुघ्न पुत्र भया अनेक भके संबंधसे याकी मथुरासे अधिक प्रीति भई । गौतमस्वामी कहे हैं - हे श्रेणिक ! वृक्षकी छाया जो प्राणी बैठा होय तो ता वृक्षसे प्रीति होय है जहां अनेक भव धरै तहांकी कहा बात ? संसारी जीवनिकी ऐसी अवस्था है पर वह अपका जीव स्वर्गत चयकर कृतांतवक्र सेनापति भया । या भांति धर्म के प्रसादतैं ये दोनों मित्र संपदाको प्राप्त भये अर जे धर्मसे रहित हैं तिनके कबहूं सुख नाहीं । अनेक भवके उपार्जे दुखरूप मल तिनके धोयवेकू धर्मका सेवनही योग्य है अर जलके तीर्थनि में मनका मल नाहीं धुवै है, धर्मके प्रसादतें शत्रुघ्नका जीव सुखी भया ऐसा जान कर विवेकी जीव धर्म में उद्यमी होवो धर्मको सुनकर जिनकी आत्मकल्याण में प्रीति नाहीं होय है तिनका श्रवण वृथा है जैसे जो नेत्रवाद सूर्यके उदय में कूप में पडै तो ताके नेत्र वृथा हैं 1 इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाबि शत्रुभवका वर्णन करनेवाला इक्यानवेत्रां पर्व पर्ण भय । ॥ ६१ ॥ 1 अथानन्तर आकाशमें गमन करणारे सप्तचारण ऋषि सप्त सूर्य समान है कांति जिनकी सो विहार करते निग्रंथ मुनींद्र मथुरापुरी आये तिनके नाम सुरमन्यु श्रीमन्यु श्रीनिचय सर्वसुन्दर जयवान विनयलालस जयमित्र ये सबही महाचारित्र के पात्र अति सुन्दर राजा श्रीनन्दन राखी धरणी सुन्दरीके पुत्र पृथिवी में प्रसिद्ध पिता सहित प्रीतिंकर स्वामीका केवलज्ञान देख प्रतिबोधको प्राप्त भये थे पिता पर ये सातो पुत्र प्रीतिकर केवली के निकट मुनि भये अर एक महीने का बालक डमर नामा पुत्र ताको राज्य दिया पिता श्री नन्दन तो केवली भया पर ये सातों महामुनि चारण ऋद्धि आदि अनेक ऋद्धि के धारक श्रुतकेवली भये सो चातुर्मासिक में मथुरा के वनमें वटके वृक्ष तले आय विराजे । तिनके तपके प्रभावकर चमरेंद्रकी प्रेरी मरी दूर भई जैसे श्वसुरको देखकर व्यभिचारिणी नारी दूर भागे मधुराका समस्त मंडल सुखरूप भया, विना वाहे धान्य सहजही उगे, समस्त रोगनिसे रहित मथुरापुरी ऐसी शोभती भई जैसे नई बधूपतिको देखकर प्रसन्न होय, वह महामुनि रसपरत्यागादि तप अर बेला तेल पक्षोपवासादि अनेक रूपके धारक जिनको चार महीना चौमासे रहना तो मथुराके वन में अर चारणऋद्धिके प्रभावतें चाहे जहां आहार कर आयें सो एक निमिष मात्र में आकाशके मार्ग होय पोदनापुर पारणाकर यावें बहुरि विजयपुर कर आयें उत्तम श्रावक के घर पात्र भोजनकर संधननिमित्त शरीरको राखें, कर्म के खिपायवे को उद्यमी । एक दिन वे धीर वीर महाशांतभावके धारक जूडा प्रमाण धरती देख विहारकर ईर्ष्या समिति के पालनहारे आहार के समय अयोध्या आये, शुद्ध भिक्षाके लेनहारे प्रलंबित हैं महा भुजा जिनकी, र्हदत्त सेठ के घर आय प्राप्त भए तब अर्हदत्तने विचारी वर्षां कालमें मुनिका बिहार नाहीं ये चौमासा पहिले तो यहां आये नाहीं अर मैं यहां जे जे साधु विराजे हैं गुरु में नदी के तीर वृक्ष तल शून्य स्थानक में बनके चैत्यालय निमें जहां जहां चौमासा साधु तिष्ठे हैं वे मैं सर्व बंदे यह तो अबतक देखे नाहीं पे आचारांग सूत्रकी आज्ञा से पराङमुख इच्छाविहारी हैं वर्षाकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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