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तिहत्तरवां पर्ण क्रीडा करता भये । घर घरमें भोग भूमिकीसी रचना होती भई, महा सुन्दर गीत अर वीण बांसुरियों का शब्द तिनकर लंका हर्षित भई मानों वचनालाप ही करै है अर ताम्बूल सुगन्ध माल्या. दिक भोग अर स्त्री आदि उपभोग सो भोगोपभोगनिकर लोग देवनकी न्याई रमते भए अर कैएक उन्मत्त भई स्त्रियों को नाना प्रकार रमावते भए अर कैयक नारी अपने बदनकी प्रतिबिम्ब रत्ननिकी भीतिमें देखकर जानती भई कि कोई दूजी स्त्री मन्दिरमें आई है सो ईर्षाकर नील कमलसे पतिको ताडना करती भई । स्त्रीनिके मुखझी सुगन्धता कर सुगन्ध होय गया अर वर्फके योगकर नारिनके नेत्र लाल होय गए । कोई एक नायिका नवोढा हुनी अर प्रीतमने अमल खवाय उन्मत्त करी सो मन्मथ कर्मकर प्रौढाके भावको प्राप्त भई, लज्जारूप सखीको दा कर उन्मत्ततारूप मुखीने क्रांडामें अत्यंत तत्पर करी पर धमें हैं नेत्र जाके अर स्खलित वचन हैं जाके । स्त्री पुरुषनिकी चेष्टा उन्मत्तता कर विकट रूप होती भई । नरनारिनिके अधर मुंगा समान शोभायमान दीखते भए, नर नारी मदोन्मत्त सो न कहने की बात कहते भए अर न करनेकी बात करते भये, लज्जाही छुट गई, चन्द्रमाके उदयकर मदनकी वृद्धि भई ऐसा ही तो इनका यौवन ऐसे ही सुन्दर मंदिर अर ऐसा ही अमलका जोर सो सब ही उन्मत्त चेष्टाका कारण आय प्राप्त भया ऐसी निशामें प्रभातविणे होनहार युद्ध जिनके सो संभोगका योग उत्सय रूप होता भया अर राक्षसनिका इंद्र सुन्दर है चेष्टा जाकी सो समस्त की राजलोकको रमावता भया । बारम्बार मन्दोदरीसे स्नेह जनावता भया । याका वदनरूप चन्द्र निरखते रावणके नेत्र तृप्त न भये, मन्दोदरी रावणसे कहती भई-मैं एक क्षण मात्र हू तुमको न तजूंगी। हे मनोहर ! सदा तिहारे संग ही रहूंगी जैसे बेल बाहुवलिके व अंगसे लगी तैसे रहूंगी, आप युद्ध में विजय कर वेग ही आवो, मैं रत्न. निको चूर्ण कर चौक पूरूगी अर तिहारे अर्धपाद्य करूंगी प्रभु की महामख पूजा कराऊंगी प्रेमकर कायर है चित्त जाका, अत्यंत प्रेमके वचन कहते निशा व्यतीत भई अर कूकडा बोले नक्षत्रनिकी ज्योति मिटी संध्या लाल भई अर भगवानके चैत्यालयनिमें महा मनोहर गीत ध्वनि होती भई पर सूर्य लोकका लोचन उदयसन्मुख भया, अपनी किरणनिकर सर्व दिशामें उद्योत करता संता प्रलय कालके अग्निमण्डल समान है आकार जाका प्रभात समय भया तव सब राणी पतिको छोडती उदास भई, तब रावण सबको दिलासा करी, गम्भीर बादित्र बाजे, शंखोंके शब्द भए रावणकी आज्ञा कर जे युद्ध में विचक्षण हैं महा भट महाअहंकारको धरते परम उद्धत अति हर्षके भरे नगरसे निकसे, तुरंग हाथी रथों पर चढ़े खड्ग धनुष गदा बरछी इत्यादि अनेक आयुधनिको धरे, जिनपर चमर दुरते छत्र फिरते महा शोभायमान देवनि जैसे स्वरूपवान् महा प्रतापी विद्याधरनिके अधिपति योथा शीघ्र कार्यके करणहारे श्रेष्ठ ऋद्धिके धारक यद्धको उद्यमी भए । ता दिन नगरकी स्त्री कमलनयनी करुणा भावकर दुखरूप होती भई सो तिनको निरखे दुर्जनका चित दयाल होय, कोई एक सुभट घरसे युद्धको निकसा अर स्त्री लार लगी आवै है ताहि कहता भया-हे मुग्धे ! घर जावो हम सुखसे जाय हैं अर कैयक
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