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पध-पुराण व्रत धरो अथवा श्रावकके व्रत धर दुखों का नाश करो अणुव्रत रूप खड्ग कर दीप्त है अंग जाका नियम रूप छत्रकर शोभित सम्यक् दर्शन रूप वक्त र पहिरे, शीलरूप मजा कर शोभित, अनित्यादि वारह भावना तेई चन्दन तिनकर चर्चिा है अंग जाका अर ज्ञान रूप धनुषको धरे, वश किया है इन्द्रियनिका क्ल जाने, शुभध्यान अर प्रताप कर युक्त, मर्यादा रूप अंकुश कर संयुक्त, निश्चलरूप हाथीपर चढा जिन भक्ति की है महाभक्ति जाके ऐसे तुम दुर्गतिरूप कुनदी सो महा कुटिल पापरूप है वेग जाका अतिदुःसह सो पंडितनिकर तिरिये है, ताहि तिरकर सखी होवो अर हिमवान सुमेरु पर्वतविणै जिनालयको पूजते संते मेरे सहित ढाई द्वीपमें बिहार कर अष्टादश सहस्र स्त्रीनिके हस्त कमल पल्लव तिनकर लडाया संता सुमेरु पर्वतके वनमें क्रीडा कर, अर गंगाके तक पर क्रीडा कर अर और भी मनवांछित प्रदेशनिविष रमणीक क्षेत्रनिविष हे नरेंद्र ! सुखसे बिहार कर । या युद्ध कर छू प्रयोजन नाही, प्रसन्न होवो, मेरा ववन सर्वथा सुखका कारण है यह लोकापवाद मत करावी । अपयशरूप समुद्रमें काहे डूबो हो,यह अपवाद विष तुल्य महानिन्छ परम अनर्थका कारण भला नाी, दुजन लोक सहज ही परनिन्दा करें सो ऐसी बात सुन कर तो करे ही करें, या भांति शुभ वचन कह यह महासती हाथ जोड पतिका परम हित वांछती पतिके पायन पडी।
तब रावण मन्दोदरीको उठायकर कहता भया-तू निःकारण क्यों भयको प्राप्त भई । हे सुन्दरवदनी ! मोसे अधिक या संगारमें कोई नाहीं तू स्त्री पर्यायके स्वभाव कर वृथा काहे को भय करे है । तैने कही जो यह बलदेव नारायण हैं सो नाम नारायन अर नाम बलदेव भया तो कहा ? नाम भए कार्य की सिद्धि नाही, नाम नाहर भया तो कहा ? नाहरके पराक्रम भए नाहर होय, कोई मनुष्य मिद्ध नाम कहाया तो कहा सिद्ध भया ? हे कान्ते ! तू कहा कायरताकी वार्ता करै, रथ पुरका राजा इन्द्र कहावता सो कहा इ.द्र भया ? तैसे यह भी नारायण नाहीं । या भांति गवण प्रतिनारायण ऐसे प्रवल वचन स्त्रीको कह महाप्रतापी क्रीडाभवनमें मन्दोदरी सहित गया जैसे इन्द्र इन्द्राणी सहित क्र डागृहमें जाय । सांझ समय सांझ फूली सूर्य अस्त समय किरण संकोचने लगा जैसे संयमी कायोंको संकोचे, सूर्य आरक्त होय अस्त को प्राप्त भया, कमल मुद्रित भए, चावा चकवी वियोगके भयकर दीन वचन रटते भए, मानों सूर्यको बुलाये हैं अर सूर्यके अस्त हो रवे कर ग्रह नक्षत्रकी सेना आकाशमैं विस्तरी मानों चन्द्रमा ने पठाई । रात्रिके समय रत्नदीका उद्यात मा, दीपांकी प्रभाकर लंका नगरी ऐसी शोभती भई मानों समेरुकी शिखा ही है काऊ बन्लमा बल्लभसे मिलकर ऐसे कहती भई-एक रात्रितो तुम सहित व्यतीत करेंगे बहुरे देखिए कहा होय ? अर कोई एक प्रिया नाना प्रकारके पुष्पनिकी सगन्धताके मकरंदकर उन्मत्त भई स्वाभीके अंगमें लगी भानों महाकोमल पुष्पनिकी वृष्टिही पडी। कोई नारी कमल तुल्य हैं चरण जाके अर कठिन हैं कुच आके महासुंदर शरीरकी थरणहारी संदर पतिके समीप गई पर कोई सुन्दरी आभूषणको पहरती ऐमी शोभती मई मानों स्वर्ण रन्नोंको कृतार्थ कर है भावार्थ-सा समान ज्योति रत्न स्वर्णमें नाहीं रात्रि समय विद्याथर मायाचित
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