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________________ ५७२. एक ग्यारवा पर्व रूप भ्रमर आसक्त होता भया चित्तमें यह चितवें जो में जिनेन्द्री दीक्षा धरूंगा तो मेरी स्त्रयों का सौभाग्यरूप कमलनिका वन सूक जायगा ये मेरे से आपक्त चित्त हैं अर इनके विरह कर मेरे प्राणनिका वियोग होयगा मैं यह प्राण सुखमूं पाले हैं इसलिये कैयक दिन राज्य के सुख भोग कल्याणका कारण जो तप सो करूंगा यह काम भोग दुर्निवार हैं पर इनकर पाप उपजेगा सो ध्यानरूप अग्निकर क्षण मात्र महम करूंगा कैक दिन राज्य करू बडी सेना राख जे मेरे शत्रु हैं तिनको राज्य रहित करूंगा वे खड्ग के धारीं बड़े सामंत मुझ से पराङमुख ते भये खड्गी कहिए मैडा तिनके मानरूप खड़ा भंग करूगा र दक्षिण श्रेणी उत्तर श्रेणी में अपनी आज्ञा मनाऊ अर सुमेरु पर्वत आदि पर्वतों में मरकन मणि आदि नाना जानि के रत्ननिकी निर्मल शिला विनमें स्त्रियों सहित क्रीडा करूंगा इत्यादि मनके मनोरथ करता हुवा भामण्डल सैकडों वर्ष एक मुहूर्तकी न्याई व्यतीत करता भया यह किया यह करू यह करू ऐसा चितवन करना आयुका अंत न जानता भया एक दिन सतख महल के ऊपर मुन्दर सेजपर पौठा था मो विजुरी पडी घर तत्काल काल को प्राप्त भया । • दीघसूत्री मनुष्य अनेक विकल्प करें परन्तु आत्माके उद्धारका उपाय न करें तृष्णाकर हता क्षणमात्रमें साता न पावै मृत्यु सिरपर फिरे ताकी सुत्र नाहीं, क्षणभंगुर सुखके निमित्त दुबुद्धि आत्महित न करे विषयवासना कर लुब्ध भया अनेक भांति विकल्प करता रहै सो विकल्प कर्म बंधके कारण हैं धन यौवन जीतव्य सब अस्थिर हैं जो इनको अस्थिर जान सर्व परिग्रहका त्याग कर आत्म कल्याण करें सो भवसागर न डूब अर विषयाभिलापी जीव भव भवमें कष्ट सहें हजारों शास्त्र पढ़े अर शांतता न उपजी तो क्या घर एक ही पदकर शांतदशा होय तो प्रशंसा योग्य हैं धर्म करिवेकी इच्छा तो सदा करवो करे अर करे नहीं सो कल्याणको न प्राप्त होय जैसे कटी पक्षका काग उडकर आकाशमं पहुंचा चाहै पर जाय न सके जो निर्वाण के उद्यमकर रहित है सो निर्वाण न पात्रे जो निरुद्यमी सिद्धपद पावै तो कोन काहेको सुनिव्रत आदरें जो गुरुके उत्तम वचन उरमें धार धर्मको उद्यमी होय सो कभी खेदखिन्न न होय जो गृहस्थ द्वारे या साधु उसकी भक्ति न करें महारादिक न दे सो अविवेकी है अर गुरुके वचन सुन धर्मको न आदरे सो भव भ्रमरसे न छूटे जो घने प्रमादी हैं पर नानाप्रकारके अशुभ उद्यमकर व्याकुल हैं उनकी आयु वृथा जाय हैं जैसे हथेलीनें आया रत्न जात्रा रहे ऐसा जान समस्त लौकिक कार्यको निरर्थक मान दुखरूप इन्द्रियोंके सुख तिनको तजकर परलोक सुधारिवेके अर्थ जिनशासन में श्रद्धा करो, भामण्डल मरकर पात्रदान के प्रभाव से उत्तम भोगभूमि गया । इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत मंथ ताकी भाषावचनिकाबिषै भामंडलकर मरण वर्णन करनेवाला एकली ग्यारवां पर्व पर्ण भय। ॥ १११ ॥ अथानन्तर राम लक्ष्मण परस्पर महास्नेह के भरे प्रजाके पिता समान परम हितकारी तिनका राज्यमें सुख से समय व्यतीत होता भया परम ईश्वरतारूप अति सुन्दर राज्य सोई भया कमलोंका वन उसमें क्रीडा करते वे पुरुषोत्तम पृथ्वीको प्रमोद उपनावते भए इनके सुख का वर्णन कहां तक करें ऋतुराज कहिए वसंतऋतु उसमें सुगंध वायु वहै कोयल बोले भ्रमर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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