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तिहारमा पर्ण
४२६ भए । जे नाना प्रकारके शकुन शस्त्र में प्रवीण पुरुष हुत वे अत्यन्त श्राकुल भए अर मंदोदरी शुक सारण इत्यादि बडे २ मंत्रियोंसे कहती भई-तुम स्वामीको कल्याणकी बात क्यों न कहो हो ? अब तक अपनी पर उनकी चेष्टा न देखी । कुम्भकर्ण इंद्रजीत मेघनादसे बंधन में आए, वे लोकपाल समान महा तेजके थारक अद्भुत कार्यके करणहारे । तब नमस्कारकर मत्री मंदोदरीसे कहते भए-हे म्वामिनी ! रावण महामानी यमराजमा क्रूर आप ही आप प्रथान है ऐसे या लोकमें कोई नाहीं जाके वचन रावण मानै जो कुछ होनहार है ता प्रमाण बुद्धि उपजै है बुद्धि कर्मानुसारणी है सो इंद्रादिककर तथा देवोंके समूह कर और झांति न होय ? संपूर्ण न्यायशास्त्र अर धर्मशास्त्र तिहारा पति सब जाने है परन्तु मोह कर उन्मत्त भया है । हम बहुत प्रकार कहा सो काहू प्रकार मान नाही, जो हठ पकडा है सो छांडे नाही, जैसे वर्षाकालके समागममें महा प्रवाहकर संयुक जो नदी ताका विरना कठिन है तैर कर्मनिका प्रेरा जो जीव ताका संबोधना कठिन है यद्यपि स्वामीका स्वभाव दुनिवार है तथापि तिहारा का करे तो करै तातें तुम हितकी बात कहो यामें दोष नाहीं । यह मंत्रिनिने कही तब पटराणी साक्षात् लक्ष्मी समान निर्मल है चित्त आका सो कम्पायमान पतिके समीप जायवेको उद्यमी भई । महा निर्मल जल समान वस्त्र पहिरे जैसे रति कामके समाप जाय तैसे चनी शिरपर छत्र फिरै हैं अनेक सहेली चमर ढारे हैं जैसे अनेक देवनिकर युक्त इन्द्राणी इन्द्रपै जाय तैसे यह सुन्दरबदनकी धारणहारी पतिपै गई निश्वास नाखती पाय डिगने शिथिल होय गई है कटि मेखल जाकी, भरतारके कार्यमें सावधान अनुरागकी भरी, ताहि स्नेहकी दृष्टिकर रावण देखता भया, श्रापका चित्त शस्त्रनिमें अर वक्तरमें तिनको आदरसे स्पर्श है सो मंदोदरीसे कहता भया-हे मनोहरे हंगनी समान चालकी चलनहारी हे देवी, ऐसा कहा प्रयोजन है जो तुम शीघ्रतासे आवोहो । हे प्रिये, मेरा मन काहेको हरो हो, जैसे स्वप्नमें निधान । तब वह पतिव्रता पूर्ण चन्द्रमासमान है वदन जाका फूले कमलसे नेत्र स्वतः उत्तम चेष्टाकी धारणहारी मनोहर जे कटाक्ष वेई भए बाण सो पतिकी
ओर चलाबनहारी महा विचक्षण मदनका निवास है अंग जाका महामधुर शब्दकी वोलनहारी स्वर्णके कुम्मसमान हैं स्तन जाके तिनके भारकर नयगा है उदर जाका द डिमके बीज समान दांत मुंगाममान लाल अधर अत्यन्त सुकुमार अति सुन्दरी भरतारकी कृपाभूमि सो नाथको प्रणामकर कहती भई-हे देव, मोहि भर्तारकी भीख देवो, आप महादयावन्त धर्मात्माओंसे अधिक स्नेहवन्त मैं तिहारे वियोगरूप नदीमें डबूहूं सो महाराज मोहि निकासो कैसी है नदी? दुःखरूप जलकी भरी संकल्प विकल्परूप लहरकर पूर्ण है, हे महाब ! कु.म्बरूप आकाशमें सूर्यसमान प्रकाशके कर्ता एक मेरी विनती सुनो-तिहारा कुलरूप कमलोंका वन महाविस्तीर्ण प्रलय हुआ जाय है सो क्यों न राखो। हे प्रभो ! तुम मोहि पटराणीका पद दिया हुता सो मेरे कठोर बचनोंकी क्षमा करो, जे अपने हितू हैं तिनका वचन औषध समान ग्राह्य है परिणाम सुखदाई विरोधरहित स्वभावरूप आनन्द कारी है मैं यह कहु हूं तुम काहेको संदेहकी तुला चढो हो । यह तुला चढिवेकी नाही, काहेको आप संताप करो हो अर हम सवनिको
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