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पद्म-पुराण संतापरूप करो हो, अब हू कहा गया ? तिहारा सब राज तुम सकल पृथिवीके स्वामी अर तिहारे भाई पुत्रनिको बुलाय लेहु तुम अपना चित्त कुमार्ग निवारो अपना मन वश करो तिहारा मनोरथ अत्यन्त अकार्यमें प्रवरता है सो इंद्रियरूप तरल तुरंगोंको विवेकरूप दृढ लगा. म कर वश करो इंद्रियनिके अर्थ कुमार्गमें मनको कौन प्राप्त करे, तुम अपवादका देनहारा जो उद्यम ता विषै कहा प्रय” हो ? जैसे अष्टापद अपनी छाया कूपमें देख क्रोधकर कूपमें पडे तैसे तुम आप ही क्लश उपजाय मापदामें पडो हो, यह क्लेशका कारण जो अपयशरूप वृद्ध ताहि तज कर सुखसे तिष्ठो, केलेके थंभ समान असार यह विषय ताहि कहा चाहो हो, यह तिहा. रा कुल समुद्रसमान गंभीर प्रशंसा योग्य ताहि शोभित करो यह भूमि गोचरोंकी स्त्री बड़े कुलवन्तनिको अग्निकी शिखा समान है ताहि तनो । हे स्वामी ! जे सामंतसामंतसों युद्ध करे हैं वे मनविष यह निश्चय करे हैं हम मरेंगे । हे नाथ ! तुम कौन अर्थ मरो हो पराई नारी ताके अर्थ मरणा ? या मरियेमें यश नाही पर उनको मारो तिहारी जीत होय तोहू यश नाहीं खत्री मरे हैं यशके अर्थ तातें सीता सम्बन्धी इठको छांडो अर जे बडे २ व्रत हैं तिनकी महिमा ती कहा कहैं, एक यह परदासपरित्याग ही पुरुषके होय तो दोऊ जन्म सुधरे, शीलवन्त पुरुष भवसागर तिरें जो सर्वथा स्त्रीका त्याग करे सो तो अतिश्रेष्ठ ही है काजल समान कालिमाकी उपजावनहारी यह परनारी तिनमें जे लोलुपी तिनमें मेरुसमान गुण होय तोह तण समान लघु टोय जांय । जो चक्रवर्तीका पुत्र होय अर देव जाका पक्ष होय भर परस्त्री के संगरूप कांच में डूबे तो महा अपयशको प्राप्त होय जो मूढमति परस्त्रीसे रति करे है सो पापी आशीविष भुजंगनीसे रमै है, तिहारा कल अत्यन्त निर्मज्ञ सो अपयशकर मलिन मत करी, दुर्बुद्धि तजो, जे महाबलवान हुते और दूसरोंको निर्बल जानते अर्क कीर्ति अशनपोषादिक अनेक नाशको प्राप्त हुए । सो हे सुमुख ! तुम कहा न सुने।
. ये वचन मंदोदरीके सुन रावण कमलनयन कारी घटा समान है वर्ण जाका मलयागिर चन्दन कर लिप्त मंदोदरीसे कहता भया-हे कांत, तू काहेको कायर भई मैं अर्ककीर्ति नाहीं जो जयकुमारसे हारा भर मैं अशनधोष नाहीं जो अमिततेजसे हारा अर और हू नाही मैं दशमुख हूँ तू काहेको कायरताकी बात कहे है मैं शत्रुरूपवृक्षनिके समूहको दावानलरूप हूं। सीता कदाचित् न दं, हे मंदमानसे ! तू भय मत करे या कथा कर तोहि कहा ? तोकों सीताकी रक्षा सौंपी है सो रक्षा भली भांति कर अर जो रक्षा करिवेको समर्थ नाहीं तो शीघ्र मोहि सौंप देवो। तब मंदोदरी कहती भई--तुम उससे रतिसुख बांछो हो तातें यह कहो हो, मोहि सोंप देवो सो यह निर्लज्जताकी बात कुलवन्तों को उचित नाही, बहुरि कहती भई-तुमने सीताका कहा माहात्म्य देखा जो ताहि बारम्बर बांछों हो वह ऐसी गुणान्ती नाही ज्ञाता नाही, रूपवंतियोंका तिलक नाहीं, कलामें प्रवीण नाही, मनमोहनी नाहीं पतिके छांदे चलनेवारी नाही ता सहित रतिमें बुद्धि करा हो, सो हे कंत, यह कहा वार्ता, अपनी लघुता होय है सो तुम नाहीं जाना हो, मैं अपन मुख अपनी प्रशंसा कहा करूं अपने मुख अपने गुण कहे गुणोंकी
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