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दसवां पर्व
१०० अथानन्तर माहेिष्मती नगरीका राजा सहस्ररश्मि पृथ्वीविपै महाबलवान मानों सहस्सरश्मि कहिए सूर्य ही है उसके हजारों स्त्री सो नर्मदाविषै रावणके कटकके ऊपर सहस्ररश्मिने जल यंत्रकर नदीका जल थांभा अर नदीके पुलनविष नाना प्रकारकी क्रीड़ा करी । कोई स्त्री मानकर रही थी उसको बहुत शुश्रूषाकर प्रसन्न करा, दर्शन स्पर्शन मान फिर मानमोचन प्रणाम परस्पर जल केलि हास्य नाना प्रकार पुष्पोंके भूपर्णो के शृङ्गार इत्यादि ठानेक स्वरूप क्रीड़ा करी । मनोहर है रूप जाका जैसे देवियोंसहित इन्द्र क्रीड़ा करे तैसे राजा सहस्ररश्मिने क्रीड़ा की। जे पुलिनके बालू रेतविष रत्नके मोतियोंके आभूषण टूटकर पड़े सो न उठाए जैसे मुरझाई पुष्पोंकी मालाको कोई म उठावै, कैयक राणी चन्दनके लेपकर संयुक्त जलविले केलि करती भई सो जल घपल हों गया, कैयक केशरके कीचकर जलको गाले हुए सुवर्णके समान पीत करती भई, कई एक तांबूल के रंगकर लाल जे अधर तिनके प्रतालनकर नीरको अरुण करती भई, कैक आंखों के अंजन धोबनेकर श्याम करती भई सो क्रीड़ा करती जे स्त्री उनके आभूषणोंके सुन्दर शब्द अर तीरविष जे पक्षी उनके सुन्दर शब्द राजाके मनको मोहित करते भए अर नदीके निकासकी भोर रावणका कटक था सो रावण स्नामकर पवित्र वस्त्र पहिर नाना प्रकारके आभूषणोंसे युक्त नदीके रमणीक पुलिनमें बालू का चौतरा बंधाय उसके ऊपर चैड्री मणियोंके हैं दंड जिसके जैसा मोतियोंकी झारी संयुक्त चन्दोवा ताण श्रीभगवान अरहन्त देकी नाना प्रकार पूजा करै था, बहुत भक्तिा पवित्र तात्रों कर स्तुति करैशा सो उपरासका जल का प्रवाह आया सो पूजामें विघ्न भया, नाना प्रकारकी लुषता सहित प्रवाह वेग दे आया तव रावण प्रतिमाजीको लेय खड़े भए पर कोष र महते भए-जो यह क्या है ? सो सेवकने खबर दीनी कि हे नाथ ! यह कोई महाक्रांडावंत पुरुष सुन्दर स्त्रिोंके बीच परम उदय को धरै नाना प्रकार की लीला करै है अर सामन्त ले क शस्त्रोंको धरें दूर २ खड़े हैं, नाना प्रकार जलके यन्त्र बांधे उनसे यह पेश भई है, पर राजाओंके रोनः चाहिए तातें उसके सेना तो शोन मात्र है अर उसके पुरुषार्थ ऐसा है जो और टोर दुलंभ है बड़े २ सामंतोंस उसका तेज न महा जाय अर स्वर्गविष इन्द्र है परन्तु यह तो प्रत्यक्ष ही इन्द्र दखा । यह वार्ना सुनकर रावण क्रावको प्राप्त भए, भोंह बड़ गई, आंख लाल हो गई, ढोल बजान लगे, वीररसका राग होने लगा, नाना प्रकारके शब्द होय हैं, वोड़े हीसे हैं, गज गाजै हैं रावणने अनेक राजावों को आज्ञा करी कि यह सहस्सररिस दुष्टात्मा है इसे पकड़ लावो । ऐसी आज्ञाकर आप नदीके तत्पर पूजा करने लगे। रत्न सुवर्णक जे पुष्प उनको आदि देय अनेक सुन्दर जे द्रब्य उनसे पूजा बरी अर अनेक विद्याधरोंके राजा राघणकी आज्ञा आशिपाकी नाई माथे चढ़ाय युद्धको चले, राजा सहस्ररश्मिने परदलको आवता देख स्त्रियोंको कहा कि तुम डरो मत, धीर्य बंधाय आप जलसे निकस, कलकलाहट शब्द सुन पराल आया जान माहिष्मती नगरीके योधा सजकर हाथी घोड़े रथोंपर चढे, नाना प्रकारके मायुध धरे स्वामी धमके अत्यंत अनुरागसे राजाकेटिंग आये, जैसे सम्मेदशिखर पर्वतका एक ही काल छहों ऋतु आश्रय करे तैसे समस्त योधा तत्काल राजापै पाए, विद्याथरोंकी फौज
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