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________________ पद्म-पुराण VAAVAVAAVAAAAAAAA है। अर यह विषय अनंतभव प्राण हरॆ हैं । यह विचार राजाने किया। उस समय श्रुतसागर मुनि वनमें आये वह मुनि अपने रूपसे चन्द्रमाकी कांति को जीते हैं और दोप्तिसे सूर्यको जीते हैं। स्थिरतामें सुमेरुसे अधिक हैं जिनका मन ए धर्म ध्यान में ही आसक्त है अर जीते हैं राग द्वेष दोय जिन्होंने और तजे हैं मन वचन कायके अपराध जिन्होंने, चार कषायोंके जीतनेहारे पांच इन्द्रियोंके वशी करणहारे के कारक जीवोंके दयालु अर सप्त भयवर्जित आठ मदरहित नव नयके बेत्ता शीलकी नववाडिके धारक दशलक्षण धर्मके स्वरूप परम तपके घरणहारे साधुनोंके समूह सहित स्वामी पधारे तो जीव जंतु रहित पवित्र स्थान देख वन में तिष्ठे जिनकै शरीरकी ज्योतिका दशों दिशामें उद्योत हो गया। अथानन्तर बनपालके सुखसे स्वामीको आया सुन राजा महारिक्ष विद्याधर वनमें आये कैसे हैं राजा ? भक्ति भावसे विनयरूप है मन जिनका, राजा आकर मुनिके पांव पड़े। मुनिका मुख अति प्रसन्न है अर कल्याणके देनहारे हैं चरण कमल जिनके । राजा समस्त संघको नमस्कार कर समाधान (कुशल) पूछ क्षण एक वैठ भक्तिभावसे धर्मका स्वरूप पूछते भये। मुनिके हृदयमें शांति भावरूपी चन्द्रमा प्रकाश कर रहा था सो वचनरूपी किरणसे उद्यात करते संते व्याख्य न करते भये कि-हे राजा! थर्मका लक्षण जीप दया भगवानने कहा है अर सत्य वचनादि सर्व धर्महीका परिवार है यह जीव कर्मके प्रभावसे जिस गति में जाय है उसी शरीरमें मोहित होय है इसलिये तीनलोककी सम्पदा जो कोई किसीको देय तो भी प्राणको न तजे सब ही जीवनेको इच्छे हैं मरनेको कोई भी न इच्छे । बहुत कहनेवर क्या ? जैसे आपको अपने प्राण प्यारे हैं तेसे ही सबको प्यारे हैं इसलिये जो मूरख परजीवोंके प्राण हरें हैं ते दुष्टकर्मी नरकमें पड़े हैं उन समान कोऊ पापी नाहीं । यह जीव जीवोंके प्राण हर अनेक जन्म कुगतिमें दुःख पावे है जैसे लोहका पिण्ड पानी में डूब जाय है तेस हिंसक जीवनका मन भवसागरमें डूबे है । ये वचनकर मीठे बोल बोले हैं अर हृदय में विपके भरे हैं इन्द्रियोंके वश होकर मल न हैं भले आच रसे रहित स्वेच्छाचारो कामके सेवनहारे हैं ते नरक तिथंच ग में भ्रमण करे हैं। प्रथम तौ इस संसर में जीवोंको मनुष्य देह दुर्लभ है । फिर उत्तम कुल आर्यक्षेत्र सुन्दरता धनकर पूर्णता विद्याका आगमन तत्त्वका जानना धर्मका आचरण यह अति दुर्लभ है । धर्मके प्रसादतें के एक तो सिद्ध पद पाते हैं। कै एक स्वर्ग लोकमें सुख पाकर परम्पराय मोक्षको जाय हैं अर कई एक मिथ्यादृष्टि अज्ञान तप कर देव होय स्थावर योनिमें आय पड़े हैं । कई एक पशु होय हैं कई एक मनुष्य जन्ममें आवे हैं । माताका गर्भ मल मूत्रकर भरा है। कृमियोंके समूहकर पूर्ण है। महा दुर्गन्य अत्यन्त दुस्सह उसमें पित्त श्लमके मध्य चर्मके जाल में ढके यह प्राणो जननीके आहारका जो रस ताहि चाटें हैं। जिनके सर्व अंग सकुच रहे हैं । दुःखके भार कर पीड़े नव महीना उदरमें बसकर योनिके द्वार से निकसे हैं । मनुष्य देह पाय पापी धर्मको भूल है । मनुष्य देह सर्व योनि योंमें उत्तम है। मिथ्यादृष्टि नेम धर्म प्राचारवर्जित पापी विषयों को सेवे हैं । जे ज्ञानरहित कामके नश पड़े स्त्रीके वशी होय हैं ते महा दुःख भोगते हूए संसार समुद्रमें डूबे हैं इसलिये विषय कषाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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