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चौरासीवां पर्ण
४७१ स्नेहमें तत्पर महा शंकामान भई अर राम लक्ष्मण गाबंधनमें प्रवीण गजके पडनेको उद्यमी भये । गजराज महा प्रवल सामान्य जनोंसे देखा न जाय महाभयंकर शब्द करता अतितेजवान नाग फांसि कर भी न रोका जाय अर महा शोभायमान कमल नयन भरत निर्भय स्त्रियोंके आगे तिनके बचायबेको खडे मो हाथी भरतको देखकर पूर्व भव चितार शांतचित्त भया अपनी मूण्ड शिथिल कर महा विनयवान भया भरतके आगे ऊभा भरत याको मधुर वाणी कर कहते भए अहो गज, तू कौन कारण कर क्रोधको प्राप्त भया ऐसे भरतके वचन सुः अत्यंत शांतचित्त निश्चल भया सौम्य है मुख जाका ऊभा भरतकी ओर देखे है भरत महा शबीर शरणागत प्रतिपालक ऐसे सो हैं जैसे स्वर्ग में देव सोहैं हाथीको जन्मान्तर का ज्ञान भगा सो समस्त विकारसे रहित होय गया दीर्घ निश्वास डारे हाथी मनमें विचार है यह भरत मेरः परममित्र है छठे स्वर्गमें हम दोनों एकत्र थे यह तो पुण्पके प्रभाव कर वहांसे चयकर उत्तः पुरुष भया भर मैंने कर्मके योगस तिपंचकी योग पाई कार्य अकायकं विवेकसे रहित महानिंद्य पशुका जन्म है मैं कौन योगसे हाथी भया धिक्कार इस जन्मको अब वृथा क्या शोच ऐसा उपाय करू जिससे आत्मकल्याण होय अर वहुरि संसार भ्रमण न कर। शोच किये कहा ? अव सर्व प्रकार उद्यमी होय भव दुखसे छूटिवेका उपाय करू चितारे हैं पूर्व भर जाने गजेंद्र अत्यत विरक्त पाप चष्टासे पराङ मुख होय पुण्यके उपार्जनमें एकाग्रचित्त भया । यह कथा गोतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे है-हे राजन्, पूर्वे जीवने अशुभ कर्म किये वे संतापको उपजावें तात हे प्राणी हो अशा कर्मको तज दुर्गतिके गमनसे छूटा जैसे सूर्य होते नेत्रवान मार्गमें न अटके तैसे जिनधर्मके होते विवेकी कुमार्गमें न पडे प्रश्रम अधर्म को तज धर्मको आदरें बहुरि शुभ अशुभसे निवृत होय आत्मधर्मसे निर्वाण को प्राप्त होवें॥
इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै त्रैलोक्यमंडन हाथाको जांतिस्मरण उपशांत हानेका वर्णन करनेवता तिराप्तीवां पर्ण पण भया ॥३॥
अथानन्तर वह गजराज महा विनयवान धर्मध्यानका चितवन करता राम लक्ष्मण ने देखा और धीरे २ इसके समीप आए कारी घटा समान है आकार जाका सो मिष्ट वचन बोल पकडा अर निकटवती लोकोंको आज्ञा कर गज को सवे आभूषण पहिराये। हाथी शान्तचित्त भया तब नगरके लोकोंकी आकुलता मिटी हार्थी ऐसा प्रबल जाको प्रचण्ड गति विद्याधरों के अधिपति सेन रुके. समस्त नगरमें लोक हाथीकी वातों करें -यह त्रैलोक्यमंडन रावरमका पाट हस्ती है याके बल समान और नाहीं । राम लक्ष्मणने पकडा विकार चेष्टाको प्राप्त भया था अब शांतचित्त भया सो लोकोंके महा पुण्यका उदय है अर घने जीशंकी दीघ आयु । भरत अर सीता विशल्या हाथी पर चढे बडी विभूतिसे नगर में आये अर अद्भुत वस्त्राभरणसे शोभित समस्त राणी नाना प्रकारके बाहनों पर चढी भरतको ले नगर में आई, और शत्रुध्न भाई अशा पर आरूढ महा विभूति सहित महा तेजस्वी, भरतके हाथी आगे नानाप्रकारके वा दत्रांके शब्द हाते नंदन वन समान मनसे नगरमें आए, जैसे देव सुरपुरमें आवें, भरत हाथीसे उतर भोजनशालामें गए, साधवोंको
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