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पत्र-पुराण नगरमें ए राजा सुग्रीव और राणी सुारा पुत्रों के वियोगते कैएक दिन शोकसहित रहे अर हनुमान महालक्ष्मीवान् समस्त पृथ्वी पर प्रसिद्ध है कीर्ति जाकी सों ऐसे पुत्रको देख परनंजय पर अंजना महासखरूप समुद्र में मग्न भए । रावण तीन खण्डका नाथ अर सुग्रीव जैसे पराक्रमी हनुमान सारिखे माभट विद्याधरों के अधिपति तिनका नायक लंका नगरीमें मुखसे रमै समस्त लोकको सुखदाई जैस स्वर्गलोकविष इन्द्र रमै विस्तीर्ण है कांति जाकी, महासुन्दर अठारह ह गर राणी तिनके मुखकमल तिनका भ्रमर भया, आयु व्यतीत होती न जानी, जाके एक स्त्री कुरूप और आज्ञा रहित होय सो पुरुष उन्मत्त होय रहे है जाके अष्टादश महस्र पमिनी पतिव्रता आज्ञाकारिणी लक्ष्मी समान होय ताके प्रभावका कहा कहना, तीन खण्ड का अधिपति अनुपम है कांति जाकी समस्त विद्याधर अर भूमिगोचरी सिर पर धारे है अाज्ञा जकी सो सर्व राजावाने अधचक्री पदका अभिषेक कराया और अपना स्वामी जाना, विद्याधरोंके अधिपति तिन करि पूजनीक हैं चरण कमल नाके, लदी कीनि कांति परिवार जा समान औरके नाही, मनोझ है देह जाका, वह दशमुख राजा चन्द्रमा समान बड़े २ पुरुषरूप जे ग्रह तिनसे मण्डिन माल्हादका उपजावनहारा कौनक चितको न हरै ? जाके सुदर्शन चक्र सर्व कार्यकी सिद्धि करणहारा देवाधिष्ठित मध्यान्हके सूर्यको किरणोंके समान है किरणोंका समह जा विषे, जब जे उद्धत प्रचंड नृविग प्राज्ञा न माने तिनका विध्वन्सक अति देदीप्यमान नानाप्रकारचे रत्नोंकर मण्डिन शोभना भया और दण्डरत्न दुष्ट जीवोंको काल समान भयंकर देतीप्य. मान है उग्र तेज जाश मानों उन्कापातका समू: ही है सो प्रचंड जागी आयुध शालाविये प्रकाश करना भया सो रावण आठमा प्रतिवासुदेव सुन्दर है कीतिजाकी, पूर्वोपार्जित कर्मके षशत कुलकी परिपाटी कर चली आई जो लंकापुरी वा विर्ष संसारके अद्भन सुख भोगता मया। कैसा है रावण ? राक्षस कहावें ऐये जे विद्याधर तिनके कुलका तिलक है पर कैपी है लंका किसी प्रकारका प्रजाको नहीं है दुख जहाँ. मुनिसुव्रतनाथके मुक्ति गए पीछे और नमिनाथक उपजनेसे पहिले रावण भया मो बहुत पुरुष जे परमार्थराहेत मूढ लोक तिन्होंने उनका कथन
औरसे और किया मांसभक्षी ठहराया सो वे मांसाहारी नहीं थे, अमके आहारी थे, एक सीताके हरणका अपराधी बना उसकर मारे गए और परलोकविर्ष कष्ट पाया। कैसा है श्रीमुनिसुव्रतनाथका समय ? सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी उत्पत्तिका कारण हैं सो यह समय वीते बहुत वर्ष भए तातें तत्वज्ञानरहित विषगी जबोंने बड़े पुरुषोंका वर्णन औरसे और किया। पापाचारी शीलव्रत रहित जे मनुष्य नो तिनकी कल्पना जालसा फांसीकर अविवेकी मन्दभाग्य जे मनुष्य तेई भए मृग सो बांधे । गौतमस्वामी कहै हैं ऐण जान कर हे श्रेणिक ! इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवादि कर बंदनीक जो जिन राज्यका शास्त्र भोई रत्न भया ताहि अंगीकार कर । कैसा है जिनराजका शास्त्र ? मुरासे प्राधिक है तेज जाका और कैरगा है त ? जिन शास्त्रके श्रवण कर जाना है वस्तुका स्वरूप जाने और धोग है मिथ्यात्वरूप कर्दमका कलंक जाने।
इति श्रीरगिरोणावागिराचेत महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा गचनिकालिनौं
राणका चकराज्याभिषेक गर्णन करनेवाला उन्नीसगां पर्व पूर्ण भया ॥ १६॥
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