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________________ पद्म-पुराण उद्यानमें गए । माता पितादिक सर्व कुटुम्बसे क्षमा भाव कराकर अर सिद्धोंको नमस्कार कर मुनिपद अंगीकार किया, समस्त वस्त्र आभूषण तजे अर केशोंका लौंच किया। वह केश इंद्रने रत्नोंके पिटारेमें रखकर क्षीरसागर में डारे । भगवान जब मुनिराज भए, तब चार हजार राजा मुनिपदको न जानते हुवे केवल स्वामी की भक्तिके कारण नग्नरूप भए । भगवानने छः महीने पर्यत निश्चल कायोत्सर्ग धरा अर्थात् सुमेरु पवत समान निश्चल होय तिष्ठे अर मन पर इंद्रियोंका निरोध किया। __ अथानन्तर कच्छ महाकच्छादिक राजा जो नग्न रूप धार दीक्षित भए हुते वह सर्व हो चा था तृषादि परीपहनिकरि चलायमान भए, कई एक तो परीषहरूप पवनके मारे भूमि पर गिर पड़े, कई एक जो महा बलवान हुते वे भूमि पर न पड़े परन्तु बैठ गये, कई एक कायोत्सर्गको तज क्ष धा तपासे पीड़ित फलादिके आहारको गये, अर कई एक गरमीसे तपतायमान हो शीतल जलमें प्रवेश करते भए, उनकी यह चेटा देखकर आकाश में देववाणी भई कि-मुनिरूप धारकर तुम ऐसा काम मत करो, यह रूप धार तुमको ऐसा कार्य करना नरकादिक दुखनिका कारण है । तब वे नग्न मुद्रा तजकर बकल धारते भए, कई एक चरमादि धारते (पहनते) भये, के एक दर्भ ( कुशादिक ) धारते भए अर फलादिसे क्षधाको, शीतल जलसे तृपाको निवारते भये, इस प्रकार यह लोग चारित्र भ्रष्ट होकर अर स्नेच्छाचारी बनकर भगवानके मतसे पराङमुख होय शरीरका पोषण करते भए। किसीने पूछा कि तुम यह कार्य भगवानकी आज्ञासे करो हो वा मन ही से करो हो, तव तिन्होंने कहा कि भगवान तो मौन रूप हैं, कुछ कहते नाही, हम क्षधा तृषा शीत उष्ण से पीड़ित होकर यह कार्य करे हैं, बहुरि कई एक परस्पर ( आपसमें) कहते भए कि आओ गृहमें जायकर पुत्र दारादिकका अवलोकन करें तब उनमेंसे किसीने कहा जो हम घरमें जावेंगे तो भरत घर में से निकासि देइर्गे अर तीव्र दण्ड देंगे इसलिये घर नहीं जायें, तब वन ही में रहे, इन सबमें महामानी मारीच भरतका पुत्र भगवानका पोता भगवे वस्त्र पहन कर परिवाजिक [सन्यासी] मार्ग प्रगट करता भया। अथानन्तर कच्छ महाकच्छके पुत्र नमि विनमि आयकर भगवानके चरणोंमें पड़े अर कहने लगे कि हे प्रभु! तुमने सबको राज दिया हमको भी दीजे इस भांति याचना करते भए। तब धरणीन्द्रका आसन कंपायमान भया । धरणीन्द्रने आयकर इनको विजयाधका राज दिया। कैसा है वह विजया पर्वत भोगभूमिके समान है, पृथिवी तलसे पञ्चीस योजन ऊंचा है अर सवा छै योजनका कंद है अर भूमिपर पचास चोजन चौड़ा है अर भूमितें दश योजन ऊ'चे उठिये तहां दोय श्रेणी हैं एक दक्षिण श्रेणी एक उत्तर श्रेणी । इन दोनों श्रेणियोंमें विद्याधर बसे हैं दक्षिण श्रेणीकी नगरी पचास पर उत्तर श्रेणीकी साठ । एक एक नगरीको कोटि कोटि ग्राम लगे हैं अर दश योजनसे बहुरि ऊपर दश योजन जाइये तहां गन्धर्व किन्नर देवोंके निवास हैं अर पांच योजन ऊपर जाइए तहां नव शिखर हैं उनमें प्रथम सिद्धकूट उसमें भगवानके अकृत्रिम पैत्यालय हैं अर देवोंके स्थान है, सिद्धकूट पर चारण मुनि आयकर ध्यान धरै हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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