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यमपुराण भी दोष है तोहू ज्ञानी न कहें अर कोई कहता होय उसे मने करें सर्व प्रकार पर.या दोष ढाकें जे कोई पर निंदा करें हैं सो अनन्त काल संसार वनमें दुख भोगवे हैं सम्यकदर्शनरूप जो रत्न उसका बडा गुणयही है जो पराया अवगुण सर्वथा ढांके जो सांचा दोष पराया कहे सो अपराधी है पर जो अज्ञानसे मत्सर भावसे पराया झूठा दोष प्रकाशे उस समान और पापी नहीं अपने दोष गुरुके निकट प्रकाशने अर पराए दोष सर्वथा ढाकने जो पराई निंदा करे सो जिन मार्गसे पराङ मुख है।
यह केवलीके परम अद्भुत वचन सुनकर सुर असुर नर सब ही आनन्दको प्राप्त भए वैर भावके दोष सुन सब सभाके लोग महा दखके भय कर कम्पायमान भए मुनि तो सर्व जीवनिसे निर्वैर हैं अधिक शुद्ध भाव थारते भए अर चतुनिकायके सब ही देव क्षमाको प्राप्त होय वैर भाव तजते भए अर अनेक राजा प्रतिबुद्धि होय शांति भाव थार गर्वका भार तज मुनि अर श्रावक भए अर जे मिथ्यावादी थे वह ह सम्यक्त्वक प्राप्त भए सब ही कर्मनिकी विचित्रता जान निश्वास नाशते भए । धिक्कार या जगत्की मायाको या भांति सब ही कहते भए अर हाथ जोड शीश नवाय केवलीको प्रणाम कर सुर असुर मनुष्य विभीषणकी प्रशंसा करते भये जो तिहारे प्राश्रयसे हमने केवलीके मुख उत्तम पुरुषनिके चरित्र सुने तुम धन्य हो बहुरि देवेन्द्रनरेन्द्र नागेन्द्र सब ही आनन्द के भरे अपने परिवार वर्ग सहित सर्वज्ञ देवकी स्तुति करते भये हे भगवान पुरुषोत्तम, यह त्रैलोक्य सकल तुम कर शोभे है तातै तिहारा सकल भूषण नाम सत्यार्थ है तिहारी केवल दर्शन केवल ज्ञानमई निजविभूति सर्व जगत्की विभूति को जीतकर शोभे हैं यह अनन्त चतुष्ट य लक्ष्मी सर्व लोकका तिलक है, यह जगत्के जीव अनादि कालके कर्म वश होय रहे हैं महा दुखके सागरमें पडे हैं तुम दीननिके नाथ दीनबन्धु करुणानिधान जीवनिको जिनराज पद देहु । हे केवलिन्, हम भव वनके मृग जन्म जरा मरण रोग शोक वियोग व्याधि अनेक प्रकारके दुख भोक्ता अशुभ कर्म रूप जाल में पडे हैं तातें छूटना कठिन है सो तुम ही छुडायो समर्थ हो हमको निज बोध देवो जाकर कर्मका क्षय होय । हे नाथ, यह विषय वासना रूप गहन वन तामें हम निजपुरीका मार्ग भूल रहे हैं सो तुम जगतके दीपक हमको शिवपुरीका पंथ दरसावी अर जे श्रात्मबोधरूप शांत रसके तिसाये तिनको तुम तृषाके हरणहारे महासरोवर हो अर कर्म भर्मरूप वन के भस्म करिवेको साक्षात्दावानलरूप हो पर जे विकल्प जाल नाना प्रकारके तेई भये वरफ ताकर कंपायमान जगत्के जीव तिनकी शीत व्यथा हरिवेको तुम साक्षात् सूर्य हो । हे सर्वेश्वर, सर्व भते श्वर जिनेश्वर तिहारी स्तुति करिवेको चारज्ञानके धारक गणधरदेवहूं समर्थ नाहीं तो अर कौन ? हे प्रभो, तुमको हम बारम्बार नमस्कार करे हैं ।
इतिश्रीरविषणाचार्यविरचित महा पद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषावचनिकाविर्षे राम लक्ष्मण विभीषण सुग्रीव सीता भामण्डलक पूर्णभववर्णन करनेवाला एकसौ छयां पर्व पूर्ण भया ॥ १०६ ।।
' अथानन्तर केवलीके वचन सुन संसार भ्रमणका जो महादुख ताकर खेदखिन्न होय जिन दीक्षा की है अभिलाषा जाके ऐसा रामका सेनापति कृतांतवक्र रामसू कहता भया-हे देव ! मैं या संसार असारविष अनादि कालका मिथ्या मार्गकर भ्रमता हुवा दुखित भया अब मेरे मुनिबत
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