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________________ सातवा पर्व ऐसा दिन का होय जो तू अपने कुलकी भूमिको प्राप्त होय अर तेरी लक्ष्मी हम देखें, तेरी विभूति देखकर तेरे पिताका अर मेंरा मन प्रसन्दको प्राप्त होप ऐसा दिन का होयगा जब तेरे यह दोनों भाइयों को विभूति सहा तेरी लार इस पृथीपर प्रतापयुक्त हम देखेंगे। तुम्हारे कंटक न रहेगें।" यह माताके दीन वचन जुन अर अश्रुपात डारती देखकर विभीषण वोले, कैसे हैं विभीषण ? प्रगट भया है क्रोधरूप विपका अंकूर जिनके, हे माता ! कहां यह रंक वैश्रवण विद्याधर जो देव होय तो भी हमारी दृष्टि में न आये। तुमने इसका इतना प्रभाव वर्णन किया । सो कहा? तू वीरप्रसवनी अर्थात् योद्धावोंकी माता है, महा धीर है, अर जिनमार्गमें प्रवीण है यह संसार की क्षणभंगुर माया तेरेसे छानी नहीं, काहे को ऐसे दीन वचन कायर स्त्रियों के समाम तू कहे है ? क्या मुझे इस रावणकी खबर नहीं है यह श्रीवत्सलक्षणकरमण्डित अद्भुत पराक्रमका धरणहारा महाबली, अपार हैं चेष्टा जिसकी, भस्मसे जैसे अग्नि दवी रहे तैस मौन गह रहा है। यह समस्त शत्रुवर्गनिके भस्म करणेको समर्थ है, तेरे मनविष अबतक नहीं आया है, यह रावण अपनी चालसे चित्तको भी जीते है पर हाथकी चपेटसे पर्वतोंको चूर डारे है। इसकी दोनों भुजा त्रिभुवनरूप मन्दिरके स्तंभ हैं अर प्रतापको राजमार्ग हैं। तत्रवतीरूप वृक्षके अंकुर हैं सो तैने क्या नहीं जाने ? इस भांति विभीषणने रावणके गुण वर्णन करे । तब रावण मावासे कहता भया "हे माता ! गर्व के वचन कहने योग्य नहीं परन्तु तेरे सन्देहके निवारने अर्थ में सत्य वचन कहूहूं सो सुन । जो यह सकल विद्याधर अनेक प्रकार विद्याले गर्वित दोनों श्रेणियोंके एकत्र होयकर मेरेसे युद्ध करें तो भी मैं सर्वको एक भुजासे जीतूं। तथापि हमारे विद्याधरोंके कुलमें विद्याका साधन उचित है सो करते लाज नहीं जैसे मुनिराज तपका आराधन करें तैसे विद्याधर विद्याका आराधन कर सो हमको करणा योग्य है। ऐसा कहकर दोनों भाइयोंके सहित माता पिताको नमस्कारकर नरकार मन्त्र का उच्चारणकर रावण विद्या साधनेको चले। माता पिताने मस्तक चूमा अर असीस दीनी, पाया है मंगल संस्कार जिन्होंने, स्थिरभूत है चित्त जिनका, घरसे निकसकर हर्षस्वरूप होय भीम नामा महावनमें प्रवेश किया । कैसा है वन ? जहां सिंहादि क्रूर जीव नाद कर रहे हैं, विकराल हैं दाढ अर बदन जिनके अर सूते जे अजगर तिनके निश्वाससे कंपायमान हैं बड़े बड़े वृक्ष जहां अर नाचे हैं पन्तरोंके समूह जहां, जिनके पायनसे कंपायमान है पृथ्वीतल जहां, अर महा गम्भीर गुफाओंमें अन्धकारका समूह फैल रहा है, मनुष्योंकी तो कहा बात ? जहां देव भी गमन न कर सकै हैं जिसकी भयंकरता पृथ्वी में प्रसिद्ध है जहां पर्वत दुर्गम महा अन्धकारको धरे गुफा अर कंटकरूप वृक्ष हैं भनुष्योंका संचार नहीं । वहां ये तीनों भाई उज्ज्वल धोती दुपट्टा धारे शांति भावको ग्रहणकर सर्व आशा निवृत्तकर विद्याके अर्थ तप करवेको उद्यत भए । कैसे हैं वे भाई ? निशंक है चित्त जिनका, पूर्ण चंद्रमा समान है बदन जिनका, विद्याथरोंके शिरोमणि, जुदे जुदे बनमें विराजे । डेढ दिनमें अष्टाक्षर मंत्रके लक्ष जाप किये सो सर्वकामप्रदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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