SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठवां पर्व बालादिक दीन जनको पीड़ा देनेको समर्थ हैं जैसे बैल सींगोंसे बंमईको खोदे परंतु पर्वत के खोदनेको समर्थ नहीं, अर कोई बाणसे केलेके वृक्षको छेदे परंतु शिलाको न छेद सके तैसे ही यह हाथी योधाओंको उड़ यवे समर्थ नहीं, तब आप महावत को कठोर वचनसे कही कि हस्ती को यहां से दूर कर, तब महावत ने कही-तू भी बड़ा ढीठ है हाथीको मनुष्य जान है, हाथी आप ही मस्त होय रहा है तेरी मोत आई हे अथवा दुष्ट ग्रह लगा है। तू यहांसे बेग माग, तब आप हंस अर स्त्रियोंको तो पाछे कर दिया अर आप ऊपरको उठल हाथीके दांतों पर पग देय कुम्भस्थलपर चढ़े अर हाथीसे बहुत क्रीड़ा करी । कैसे हैं हररोण ? कमल सारिखे हैं नेत्र जिनके अर उदार है वक्षस्थल जिनका अर दिग्गजोंके कुम्भस्थल समान हैं कांधे जिनके अर स्तम्भ समान हैं जांघ जिनकी । तब यह वृत्तांत सुन सब नगरके लोग देखनेको आए । राजा महल ऊपर चढ़ा देख रहा था सो आश्चर्यको प्राप्त भया। अपने परिवारक लोग भेज इनको बुलाया। यह हाथीपर चढ़े नगरमें पाए । नगरके नर नारी इसको देख २ मोहित होय रहे, क्षणमात्रमें हार्थीको मर्दन किया। यह अपने रूपसे समरतका मन हरते नगरमें आए । राजाकी सौ कन्या परणी, सर्व लोकमें हरिषेणकी कथा भई राजा से अधिकार सम्मान पाय सर्व बातोंसे सुखी हैं तो भी तपासयोंके बनम जो स्त्री देखी थी उस बिना एक रात्रि वर्ष समान बीते । मनमें चितवते भये जो मुझ बिना वह मृगनकी उन विपन वन मृगी समान परम अाकुलताको प्राप्त होयगी तातें मैं उसके निकट शीघ्र ही जाउं यह विचारते रात्रीविष निद्रा न आती, जो कदाचित् अन्य निद्रा आई तो भी स्वप्नमें उसहीको देखा। कैसी है वह, कमल सारिखे हैं नेत्र जिसके मानों इसके मनहीमें बस रही है। अथानन्तर विद्याधर राजा शक्रवनु उसकी पुत्री जयचन्द्रा उसकी सखी वेगवती वह हरिषेणको रात्रिविष उठायकर आकाशमें ले चली । निंद्राके क्षय होनपर आपको आकाशमें जाता देख कोपकर उससे कहते भये-'हे पापिनो ! हमको कहां ले जाय है । विद्यावलकर पूर्ण है तो भी इनको क्रोधरूपी मुष्टि वांधे होठ डसते देखकर डरकर इनसे कहती भई । हे प्रभु जैसे कोई मनुष्य जिस वृक्षकी शाखापर ५ठा हाय उसहीको काटे तो क्या यह सय.नाना ह ? तैसे मैं तुम्हारी हितकारिणी अर तुम तुझे हतो यह उचित नहीं, मैं तुमका उसक पास ले जाऊ हूँ जो तुम्हारे मिलापकी अभिलाषना है । तब यह मन में विचारत भये कि यह मिथुभाषिणी परपीडाकारिणी नहीं है इसकी आकृति मनोहर दीखे है अर आज मेरी दाहिनी आंख भी फडके है इसलिये यह हमारी प्रियाकी संगमकारिणी है फिर इसको पूछा--'हे भद्रे ! तू अपने प्रावनेका कारण कह ।' तब वह कहै है-'सूर्योदय नगरमें राजा शक्रधनु राणी धी अर पुत्री जयचन्द्रा वह गुण रूपके मदसे महा उन्मत्त है कोई पुरुष उसकी दृष्टि में न आवे । पिता जहां परणाया चाहे तो यह माने नहीं । मैंने जिस जिस राजपुत्रोंके रूप चित्रपटपर लिखे दिखाये उनमें कोई भी उसके चित्तमें न रुचे तब मैंने तुम्हारे रूपका चित्राम दिखापा तब वह मोहित भई अर मुझको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy