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________________ बीसेवा प ३०१ में सुमेरु र सर्वग्रहोंचिषै सूर्य, विषे इतु, बेलों विषै नागरवेल, वृक्षोंविषै हरिचन्दन प्रशंसा योग्य हैं तैसे कुलोंमें श्रावकका कुल सर्वोत्कृष्ट आचारकर पूजनीक है सुगतिका कारण है सो जिनदत्त नामी श्रावक गुण रूप आभूषणोंकर मंडित श्रावकके व्रत पाल उत्तम गतिको गया अर arat स्त्री विनयवती महापतिव्रता श्रावकके व्रत पालनहरी सो अपने घरकी जगहमें भगवानका चैत्यालय बनाया सकल द्रव्य तहाँ लगाय आर्या होय महातपकर स्वर्ग में प्राप्त भई अर ताही ग्राम में एक और हेमबाहु नामा गृहस्थ आस्तिक दुराचार से रहित सो विनयवतीका कराया जो जिनमन्दिर ताकी भक्तिकरि यवदेव भया सो चतुविधि संत्रकी सेवा में सावधान सम्यकदृष्टि जिनबन्दना में तःपर, सो चयकर मनुष्य भया बहुरि देव बहुरि मनुष्य । या भांति भत्र घर महापुरी नगरी में सुप्रभ नामा राजा ताके तिलकमुन्दरी रानी गुणरूप आभूषण की मंजूषा ताके धर्मरुचि नामा पुत्र भया, सो राज्य तज सुप्रभ नामा पिता जो मुनि ताका शिष्य होय मुनिव्रत अंगीकार करता भया । पंच महाव्रत पंच समिति तीन गुप्तिका प्रतिपालक आत्मध्यानी गुरुसेवामें अत्यंत तत्पर, अपनी देहविषै अत्यन्त निस्पृह, जीव दयाका धारक, मन इन्द्रियोंका जीवनहारा, शीलका सुमेरु, शंका आदि जे दोष तिनसे अति दूर, साधुत्रों का वैवाव्रत करनहारा, सो समाधिमरणकर चौथे देवलोकविषै गया तहां सुख भोगता भया तहांसे चयकर नागपुर में राजा विजय राणी सहदेव । तिनके सनत्कुमार नामा पुत्र चौथा चक्रवर्ती भागा। छह खण्ड पृथ्वीमें जाकी आज्ञा प्रवरती सो मह रूपवान, एक दिवस सौधर्म इन्द्रने इनके रूपकी अति प्रशंसा करी सो रूप देखने को देव आये सो प्रछन्न आयकर चक्रवत्तका रूप देखा ता समय चक्रवर्तीने कुस्तीका अभ्यास किया था सो शरीर रजकर धूसरा होय रहा था श्रर सुगन्ध उबटना लगा था र स्नानकी एक धोती ही पहने नाना प्रकारके जे सुगन्ध जल तिनसे पूर्ण नानाप्रकार रत्नोंके कलश तिनके मध्य स्नानके आसनपर विराजे हुते सो देव रूपको देख श्राश्चर्यको प्राप्त भए परस्पर कहते भए जैसा इन्द्रने वर्णन किया तैसा ही है । यह मनुष्यका रूप देवोंके चित्तको मोहित करणहारा है । बहुरि चक्रवर्ती स्नानकर वस्त्राभरण पहर सिंहासन पर बाय विराजे रत्नाचलके शिखर समान है ज्योति जाकी अर वह देव प्रकट होकर द्वारे आय ठाढ़े रहे अर द्वारपाल से हाथ जोड़ चक्रवर्ती को कहलाया जो स्वर्ग लोकके देव तिहारा रूप देखने आए हैं तब चक्रवर्ती अद्भुत शृङ्गार किये विराजे हुते ही तब देवोंके आनेकर विशेष शोभा करी तिनको बुलाया ते आय चक्रवर्तीका रूप देख माथा धुनते भये र कहते भए - एक क्षण पहिले हमने स्नान के समय जैसा देखा था तैसा अब नहीं, मनुष्योंके शरीरकी शोभा क्षणभंगुर है, धिकार है इस असार जगतकी माया को । प्रथम दर्शनमें जो रूप यौवन की अद्भुतता थी सो क्षणमात्रमें ऐसे विलाय गई जैसे विजुली चमत्कार कर क्षणमात्र में विलाय जाय है । ये देवोंके वचन सनत्कुमार सुन रूप र लक्ष्मीको क्षणभंगुर जान वीतराग भावधर महामुनि होय महातप करते भए, महाऋद्धि उपजी पुनि कर्मनिर्जरा निमित्त महारोगकी परीपह सहते भये महा ध्यानारूढ होय २६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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