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पग-पुराण गुणकर हीन जो इन कन्यानिने हमको न वरे अर सीताके पुत्र वरे ऐसा विचार कर कोपित भए तब बडे भाई पाठने इनको शांत चित्त किये जैसे मंत्र कर सर्पको वश करिये तिनके समझावत सबही भाई लवण अंकुशसे शांतचित्त भये पर मन में विचारते भये जो इन कन्यानिने हमारे बाबाके बेटे बडे भाई बरे तब ये हमारे भावज सो माता समान है अर स्त्री पर्याय महा निंद्य है स्त्रीनिकी प्रमिलाषा अविवेकी करें, स्त्रिये स्वभावही ते कुटिल है इनके अर्थ विवेकी विकारको न भजें, जिनको प्रात्म कल्याण करना होय सो स्त्रिनितें अपना मन फेरें, या भांति विचार सब ही भाई शांतचित्त भए, पहिले सब ही युद्धके उद्यमी भए हुते रणके वादित्रनिका कोलाहल शंख झझा भेरी झझार इत्यादि अनेक जातिके वादित्र बाजने लगे अर जैसे इन्द्रकी विभूति देख छोटे देव अभिलाषी होंय तैसे ये सब स्वयम्बरमें कन्यानिके अभिलाषी भए हुते सो बड़े भाईनिके उपदेशत विवेकी भए, अर उन आठो बडे भाईनिको वैराग्य उपजा सो विचारे हैं यह स्थावर जंगम रूप जगतके जीव कर्मनिकी विचित्रताके योगकर नाना रूप हैं विनश्वर हैं जैसाजीवनिके होनहार है तैसा ही होय है जाके जो प्राप्ति होनी है सो अवश्य होय है, ओर भांति नाहीं अर लक्ष्मण की रूपवती राणीका पुत्र हंसकर कहता भया-भो भ्रातः हो ! स्त्री कहा पदार्थ है ? स्त्रीनित प्रेम करना महा मूढता है विवेकीनिको हांसी आवै है जो यह कामी कहा जान अनुराग करे हैं ? इन दोऊ भाईनिने ये दोनों राणी पाई तो कहा बडी वस्तु पाई, जे जिनेश्वरी दीक्षा धरें वे धन्य है केलाके स्तंभ समान असार काम भोग आत्माका शत्रु तिनके वश होय रति अरति मानना महा मूढता है विवेकीनिको शोक ह न करना अर हास्य ह न करना । ये सबही संसारीजीव कर्मके वश भ्रमजालमें पडे हैं ऐसा नाही करे हैं जाकर कर्मोका नाश होय कोई विवेकी करे सोई सिद्धपदको प्राप्त होय या गहन संसार बनमे ये प्राणी निजपुरका मार्ग भूल रहे हैं ऐसा करहु जाकर भब दुःख निवृत होय । हे भाई हो, यह कर्मभूमि आर्यक्षेत्र मनुष्य देह उत्तम कुल हमने पाया सो ऐते दिन योही खोये अब पीतरागका धर्म आराध मनुष्य देह सफल करो एक दिन मैं बालक अवस्थामें पिताकी गोदमें बैठा हुता सो वे पुरुषोचम समस्त राजानिको उपदेश देते थे वे वस्तुका स्वरूप सुन्दर स्वर कहते भए सो मैं रुचिसों सुन्या। चारों गतिमें मनुष्यगति दुर्लभ है। जो मनुष्य भव पाय आरमदित न करे हैं सो ठगाए गए जान । दान कर मिथ्यादृष्टि भोगभूमि जावें अर सम्यग्दृष्टि दानकर तपकर स्वर्ग जांय परम्पराय मोक्ष जावै अर शुद्धोपयोगरूप आत्मज्ञानकर यह जीव याही भव मोक्षपाबे अर हिंसादिक पापनिकर दुर्गति लहे जो तप न करे सो भव वनमें भटकै बारम्बार दुर्गतिके दुख संकट पावै, या मांति विचार वे अष्टकुमार शूरवीर प्रतिबोधको प्राप्त भए संसार सागरके दुखरूप भवनि से डरे, शीघ्र ही पितापै गए, प्रणाम कर विनयसे खडे रहे अर महा मधुर वचन हाथ जोड कहते भए-हे तात ! हमारी विनती सुनो, हम जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार किया चाहे हैं, तुम आज्ञा देवो। यह संसार बिजुरीके चमत्कार समान अस्थिर है, केलाके स्तंभ समान असार है हमको अविनासी पुरके पंथ चलते विघ्न न करो तुम दयालु हो कोई महा भाग्यके उदयतें हमको जिनमार्गका ज्ञान भया, अब ऐसा करे जाकर भव सागरकेपार पहुंचे ये काम भोग आशीविष
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