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मतानववा पर्व तिनकी निन्दा करी, अथवा पूजा दानमें विध्न किया, अर परोपकार में अन्तराय कीऐ, हिंसादिक पाय किए, ग्रामदाह, वनदाह स्त्री बालक पशुहत्यादि पाप कीए तिनके यह फल हैं अनछाना पानी पिया, रात्रिको भोजन किया, बीथा अन्न भपा, अभक्ष्य वस्तुका भक्षण किया, न करिव योग्य काम किए, तिनका यह फल है, मैं बलभद्रकी पटराणी स्वर्ग समान महलकी निवासिनी हजार सहेली मेशी सेवाकी करनहारी सो अव पापके उदयकर निर्जन वनमें दुख के सागरमें डूबी कैसे लिष्ट्र १ रलनिके मंदिर में महा राणीक महल विष रहणहारी मैं अब कैसी अकेली बनका निवास करूगी ? महा मनोहर बीण बांसुरी मृदंगादिक के मधुर स्वर सिनकर मुख निद्राकी लेनहारी में कैसे भयंकर शब्द कर भयानक वनमें अकेली तिष्ठमी, रामदेवकी पटशाणी अपयशरूपी दावानल कर जरी महा दुःखिनी एकाकिनी पापिनी कष्टका कारण जो यह बन जहां अनेक जातिके कीट अर करकस डाभकी अली अर कांकरनि से भरी पृथिवी यामें फैले शयन करूंगी ऐसी अवस्था भी पायकर मेरे प्रारण न जाय तो ये प्राण ही वन के हैं । अहो ऐसी अवस्था पायकर मेरे हृदयके सो टूक न होय हैं सो यह यज्रका हृदय है कहा करू कहां जाऊ कोनसे कहा कहूं कौनके आश्रय तिष्ठं ? हाय गुण समुद्र राम ! मोहि क्यों तजी, हे महाभक्त लदन, मेरी क्यों न सहाय करी । होय पिला जनक हाय माता विदंही यह कहा भया अहो विद्याधरनिके स्वामी भामण्डल ! मैं दुखके भवरमें पडी कैसे तिष्ठ? मैं ऐसी पापिनी जो मोसहित पतिने परम संपदाकर जिनेन्द्रका दर्शन अर्चन चिंतया था सो मोहि इस वनीमें डारी।
हे श्रेणिक ! या भांति सीता सती रिलाप करे है अर राजा वज्रजंघ पुण्डरीकपुरका स्वामी हाथी पकडिवे निमित्त वनमें आया था सो हाथी पकड बडी बिभूति से पीछे जाय था सो ताकी सेनाकं प्यादे शूर वीर कटारी आदि नानाप्रकारके शस्त्र धरे कमर बांधे पाय निकसे गो याके रुदन के मनोहर शब्द सुनकर संशयको अर भय को प्राप्त भये एक फंड भी न जाय सके, अर तुरंगनिके सवार हू ताका रुदन सुन खडे होय रहे उनको यह आशंका उपजी जो या वनमें अनेक दुष्ट जीव तहां यह सुन्दर स्त्रीके रुदनका नाद कहां होय है ? मृग मुना रीझ सांप रीछ ल्याली बवेरा ारण भैसे चीता गैंडा शाल अष्ठापद बना कर गज तिनकर विकराल यह वन तामें यह चन्द्राला समान महामनोग्य कोन गनै है ? यह कोई देवांगना सौधर्म स्वगसे पृथिवीमें
आई है । यह विचार सेनाके लोक आश्चर्यको प्राप्त होय खडे रहे अर वह सेना समुद्र समान जिसमें तुरंग ही मगर अर प्यादे मीन आ हाथी ग्राह हैं, समुद भी गाजे अर सेना भी गाजे हे अर समुद्र में लहर उठे हैं सेनामें सूर्यको किरणकर शस्त्रोंकी जोति उठे है समुद्र भी भयंकर है सेना भी भयंकर है सो सकल सेना निश्चल होय रही।
इति श्रीविषेणावार्यविरचित महापद्मपुगण संस्कृत ग्रंथ ताकी भाषावचनिकाविणे सीताका वनमे विलाप हार वनजंघका अगमन वर्णन करनेवाला सत्तानवेबां पर्व पर्ण भय। ।। ६७ ।।
___ अथानन्तर जैसी महाविद्याकी थांभी गंगा थंभी रहे तैसे सेनाको थंभी देख राजा बज्रजंघ निकटवर्ती पुरुषोंको पूछता भया कि सेनाके थंभनेका कारण क्या है ? तब वह निश्चयकर राज
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