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पंच-पुराण
उद्यमी भए । तब हनुमान को गज्याभिषेक देने लगे । वादित्रादिकके समूह वाजने लगे पर कलश हैं जिनके हाथमें ऐसे मनुष्य आगे आय ठाडे भए सब इनूमानने प्रतिसूर्य अर पवनंजय पूछा यह कहा है ? तब उन्होंने कही-हे वत्स! तू हनुरूहद्वीपका प्रतिपालन कर, हम दोनों को रावण बलावै है मो जांय हैं, रावण की मदद के अर्थ गवस वरुप पर जाय है वरुपने सहुरि माया उठाया है महामामंत है ताके बडी सेना है पुत्र बलवान् हैं । पर गढ़का बस है तब हनुमान विनयकर कहते भए कि मेरे होते तुम जाना उचित नहीं, तुम मेरे गुरुजन हो तब उन्होंने कही हे वत्स ! तू वालक है अबतक रण देख। नाहीं तब हनुमान बोले अनादि काल जीव चतुर्गतिवि भ्रमण करै है पंचमगति जो मुक्ति मो जब तक अज्ञानका उदय है, तब तक जीवने पाई नाही परंतु भव्य जीव पावे ही हैं तैसे हमने अब तक युद्ध किया नाही परंतु भव युद्धकर वल्पको जीतेहींगे अर विजय कर तिहारे पास आवें सो जब पिता भादि कम्बके जन उनने राखनेका घना ही यत्न किया परंतु ये न रहते जाने तब उनको मात्रा दई। यह स्नान भोजन कर पहिले पहिल मंगलीक द्रव्यों कर भगवान्की पूजाकर अरिहंत सिद्धको नमस्कारकर माता पिता भर मामाकी अाज्ञा लेय बडोंका विनयकर यथायोग्य संभाषण कर सूर्य तुम्य उपोतरूप जो विमान तामें चढकर शस्त्रके समूह कर संयुक्त जे सामंत उन सहित दशों दिशामें व्याप्त रहा है यश जाकर लंकाकी ओर चला पो त्रिकूराचल के सन्मुख विमानमें बैठा जाता ऐसा शोमता जैसा मंदराचलके सन्मुख जाता, ईशान इंद्र शोभ है तब बी चनामा पर्वत पर सूर्य अस्त भया । कैसा है पर्वत ? समुद्र की लहरोंके समूहकर शीतल हैं नट जाके, तहां रात्री सुखसे पूर्ण करी अर करी है महा योधावोंमे वीररसकी कथा जाने महा उत्साहकर नाना प्रकारके देश द्वीप पर्वतोंको उलंघता समुद्रके तरंगोंसे शीतल जे स्थानक तिनको अवलोकन करता समुद्रविष बडे २ जलचर जीवनिको देखता रावणके कटकमें पोंहचा हनूमानकी सेना देखकर बडे २ राचस विद्याधर विस्मयको प्राप्त भए, परस्पर बार्ता करै हैं यह बली श्रीशैल हनूमान भव्य जीवोंविष उत्सम जाने पाल अवस्थामें गिरिको चूर्ण किया । ऐसे अपने यश को श्रवण करता हनूमान् रावणके निकट गया, रावस हनूमानको देखक सिंहासनमे उठे अर विन किया । कैसा है सिंहासन ? पारिजातादिक कल्प वचोंके फूलों से पूरित है, जाकी सुगंधकरि भ्रमर गुंजार करै हैं जाके रत्तोंकी ज्योतिकर भाकाशविष उद्योत होय रहा है जाके चारों ही तरफ बड़े सामन्त हैं ऐसे सिंहासनतें उठकर रावसने हनूमानको उरसे लगाया! कैसा है हनूमान ? रावण के विनय । नम्रीभूत होगया है शरीर जाका, गवस हनूमान को निकट ले वैठा, प्रीति कर प्रसन्न है मुख जाका, परस्पर कुशल पूछी कार पर पर स्प सम्पदा देख हर्षित भए, दोनों महाभाग्य ऐस मिले मानों दोय इन्द्र मिले, रावण अति स्नहकारे पूर्ण है मन जाका सो कहता भया-पवनकुमारने हमसे बहुत स्नेह बढाया जो ऐसे गुणोंके सागर पुत्रको हमपर पठाया ऐसे महाबलीको पायकर मेरे सर्व मनोरथ सिद्ध होवेंगे असा रूपवान असा तेजस्वी और नहीं जैसा यह योधा सुना तैसा ही है यामें गन्देह नाही यह भनेक शुभ लक्षणों का मरा है याके शरीरका आकार ही गुणोंको प्रगट करें है।
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