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तेईसवां पर्व
२२१ आपदांकासविष जे रीति बताई हैं ता भांति करें जैस वर्षाकालमें चांद सूर्य मेषके जोरसे छिपे रहैं बैंस जनक और दशरथ दोनों छिप रहे ॥
" यह कथा गौतम स्वामी राजा श्रेणि कसे कहे हैं.-हे मगवदेशके अधिपति ! वे दोनों बडे राजा महा मंदर हैं राजमंदिर जिनके, महामनोहर देवांगना सारिखी स्त्री जिनके, महामनोहर भोगोंके मोक्ता, सोपायन पियादे दलिद्री लोकनकी नाई कोई नहीं संग जिनके अकेले भ्रमते भए, धिक्कार है संसार के स्वरूपको ऐसा निश्चयकर जो प्राणी स्थावर जंगम सर्व जीवोंको अभयदान दें सो आप भी भयसे कंपायमान न हों, इम अभयदान समान कोई दान नहीं जिसने अभयदान दिया ताने सब ही दिया। अभयदानका दाता सत्पुरुषों में मुख्य है ।।
- अथानन्तर विभीषणने दशरथ अर जनक मारनेको सुभट विदा किए पर हलकारे जिनके संग में ते सुभट, शस्त्र हैं हाथों में जिनके महाकर छि छिरे रात दिन नगरीमें फिरें. राजाके महल अति ऊंचे सो प्रवेश न कर सकें इनको दिन बहुत लो तब विभीषणने स्वयमेव आय महिलमें गीत नाद सुन महल में प्रवेश किया। राजा दशरथ अन्तः पुरके मध्य शयन करता देखा। विभीषण तो दूर ठाढे रहे अर एके विद्युद्विलसित नामा विद्याधर, ताको पठाया कि याका मस्तक ले आओ सो अाय मस्तक काट विभीषण को दिया सो राजलोक रोय उठे विभीषणं इनका और जनकका सिर समुद्रविणे डार आप रावणके निकट गया। रावणको हर्षित किया । इन दोनों राजनकी राणी विलाप करें फिर यह जानकर कि कृत्रिम पूतला था तब यह संतोषकर बैठ रहीं पर विभीषण लंका जाय अशुभकर्मके शांतिके निमित्त दान पूजादि शुभ क्रिया करता भया अर विभीषण के चित्तमें ऐसा पश्चात्ताप उपजा जो देखो मेरे कौन कर्म उदय आया जो भाईके मोहसे वृथा भय मान वापुरे रंक भूमिगोचरी मृत्युको प्राप्त किए जो कदाचित् आशीविष (आशिविष सर्प कहिए जिसे देख विष चढे) जातिका सर्प होय तो भी क्या गरुडको प्रहार कर सके ? कहां वह अल्प ऐश्वर्यके स्वामी भूमिगोचरी अर कहां इंद्र समान शूर वीरताका धरणहारा रावण अर कहां मूसा कहां केसरी सिंह, जाके अवलोकतें माते गजराजोंका मद उतर जाय । कैसा है केसरी सिंह १ पवन समान है वेग जाका, अथवा जा प्राणीको जा स्थानकमें जाकारणकरि जेता दुःख र सुख होना है सो ताको ताकर ता-स्थानकवि कर्मनिके वशकरि अवश्य होय है पर यह निमित्वज्ञानी जो कोई यथार्थ जानै तो अपना कल्याण ही क्यों न करे जिससे मोक्षके अविनाशी सुख पाइए, निमित्तानी पराई मृत्युको निश्चय जाने तो अपनी मन्युके निश्चयसे मृत्युके पहिले.आत्मकल्याण क्यों न करे ? निमित्तज्ञानीके कहनेसे मैं मूर्ख भया, खोटे मनुष्योंकी शिक्षासे जे मन्दबुद्धि है ते अकायविष प्रवरते हैं । यह लंकापुरी पाताल है जल जिसका ऐसा जो समुद्र ताके मध्य विछ, जो देवनहूंको अगम्य तह विचारे भूमिगोचरियोंकी कहांसे गम्य होय ? मैं यह अत्यन्त अयोग्य किया बहुरि ऐसा काम कबहूं न करू ऐसी थारणाधार उत्तम दीप्तिसे युक्त जैसे सूर्य प्रकाशरूप विचर तेस मनुष्यलोकमें रमते भए । इति भीरविषेणाचार्यविरचितमहापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै राजा दशरथ अर जनकको
विभीषणकृत मरण भय वर्णन करनेवाला तेईसवां पवं पूर्ण भया ।। २३॥
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