SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६७ atest पर्व बसें ॥ २० ॥ मिथलापुरी नगरी विजय पिता वत्रा माता अश्विनी नक्षत्र मौलश्री वृच सम्मेदशिखर मिनाथ तु धर्मका समागम करें ||२१|| सौरीपुर नगर समुद्रविजय पिता शिवादेवी माखा चित्रा नक्षत्र मेषशृङ्ग बृत गिरनार पर्वत नेमिनाथ तुझे शिवमुखदाता होवें ॥ २२ ॥ काशीपुरी नगरी अश्वसेन पिता वामा माता विशाखा नक्षत्र धव वृच सम्मेद शिखर पार्श्वनाथ तेरे मनको धैर्य देवे ||२३|| कुण्डपुरनगर सिद्वार्थ पिता त्रियहारिणी माता उत्तरा फाल्गुनी नचत्र शालवृक पावापुर महावीर तुझे परम मंगल करें आप समान करें ||२४|| आगै चौवीस तीर्थंकरनिके निर्वाण क्षेत्र कहिए है-देवका निर्वाण कल्याण कैलारा १ वासुपूज्यका चम्पापुर २ नेमिनाथकन गिरिनार ३ महावीरका पावापुर ४ औरोंका सम्मेदशिखर है । शान्ति कुंथु पर ये तीन तीर्थंकर 'चक्रवर्ती भो भए अर कामदेव भी भए राज्य छोड वैराग्य लिया अर वासुपूज्य मल्लिनाथ नेमिनाथ पार्श्वनाथ पर महावीर ये पांच तीर्थंकर कुमार अवस्थामें वैरागी भए, राज भी न किया अर विवाह भी न किया । अन्य तीर्थकर महामंडलीक राजा भए राज्य छोड वैराग्य लिया घर चन्द्रप्रभं पुष्पदन्त ये दोय श्वेतवर्ण भए अर श्रीसुपार्श्वनाथ प्रियंगु मंजरीके रङ्ग समान हरिब वर्ण भए पर पार्श्वनाथका वर्ण कच्ची शालि समान हरित भया, पद्मप्रभका वर्ण कमल समान आरक्त भर वासुपूज्यका वर्ण टेसू के फूल समान भारत पर मुनिसुव्रतनाथका व अंजनगिरि समान श्याम पर नेमिनाथका वर्ण मोरके कंठ समान श्याम अर सोलह तीर्थंकर माया सोनेके समान वर्णक धारक भए । ये सर्व ही तीर्थकर इन्द्र धरणेंद्र चक्रवर्त्यादिकों से पूजने योग्य र स्तुति करने योग्य भए हैं अर सब होका सुमेरुके शिखर गंडुक शिला पर जन्माभिषेक भया सवहीक पंचकन्यापक प्रकट भए सम्पूर्ण कल्याणकी प्राप्तिका कारण है सेवा जिनकी, ते जिनेन्द्र तेरी अद्या हरें । या भांति गणधर देवने वर्णन किया । तब राजा श्रेणिक नमस्कारकर विनती करते भए कि हे प्रभू ! छहों कालविषै आयुका प्रमाण कहां अर पापकी निवृत्तिका कारण परम वस्त्र जो आत्मस्वरूप ताका वर्णन बारम्बार करो अर जिस जिनेन्द्र के अन्तराल में श्रीरामचन्द्र प्रकट भए सो आपके प्रसादसे मैं सर्व वर्गान सुना चाहूं हूँ ऐसा जब श्रेणिकन प्रश्न किया तब गणवरदेव कृपाकरि कहते भए । कैसे हैं गणथरदेव ? वीरसागर के जल समान निर्मल है चित्त जिनका, हे श्रोणक, काल नामा द्रव्य है खो अनन्त समय है ताकी आदि अन्न नाहीं ताकी संख्या कल्पनारूप दृष्टांत से पल्य सागरादि रूप महामुनि कई हैं। एक याजन प्रमाण लम्बा चौडा ऊदा गोल गर्त (गढ़ा ) उत्कृष्ट भोगभूमिका तत्कालका जन्मा हुआ भेडका बच्चा ताके रोमके अग्रभाग से भरिए सो गर्त घना गाढ़ा भरिए पर सौ वर्ष गये एक रोम का बाके वीते जो काल लागै ताके समस्तकी संख्याका प्रमाण होइ सी व्योहार पल्य कहिये । सो यह कल्पना दृष्टांतमात्र है किसीने ऐसा किया नाही । यासे असंख्यातगुणा उद्धार पन्य है या असंख्यातगुणा श्रद्धापन्य है ऐसी दश कोटाकोटी पल्य जाय तब एक सागर कहिये पर दश कोटाकोटी सागर जांय तब एक अवसर्पिणी कहिए । अर दस कोटाकोटी सागरको एक उत्सर्पिणी पर बीस कोटाकोटी सागरका कम्पकाल कहिये जैसे { Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002737
Book TitlePadma Puranabhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal
PublisherShantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy