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________________ THE MAHABHARATA TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION VOLUME 1 ADI-, SABHA-, ARANYAKA-, AND VIRATA-PARVANS जखि नान THE BHANDARKAR ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE POONA 1971
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________________ All rights reserved Printed by R. N. Dandekar at the Bhandarkar Institute Press, Poona 4 and Published by R. N. Dandekar, Hon. Secretary, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona 4 (INDIA)
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________________ चिकित्सितपाठात्मिका महा भारत-संहिता आदि-सभा-आरण्यक-विराट - पर्वाणि नावधी जस्विनी तमस्तु भाण्डारकरप्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरेण प्रकाशिता पुण्यपत्तनम् शकान्दाः 1893
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________________ FOREWORD Even while the Critical Edition of the Mahabharu was being published, it was being repeatedly urged upon the Bhandarkar Oriental Research Institute that it should make available to the general public only the text of the Great Epic as constituted in its the Critical Edition. It was argued, and perhaps rightly-that, while the prolegomena, introductions, critical apparatus, text-critical notes, etc., which were included in the Critical Edition, were primarily intended for the few specialist-students of the Mahabharatu, the critically edited text would have a far wider appeal. The authorities of the Institute, too, had tentatively planned to bring out such volumes of only the constituted text of the Epic, but, naturally enough, they could not afford their attention being diverted from the main task of the Critical Edition itself. After the Critical Edition of the Mahabharata had been completed in September 1966, the Mahabharata Department of the Institute fully engaged itself in several ancillary works connected with the Critical Edition. Among these were (1) a critical edition of the Harivansa which is traditionally regarded as a Khila-p/40?of the Mahabharata, (2) a comprehensive index of the verse-quarters occurring in the Critical Edition, (3) publication of only the critically constituted text of the Great Epic, and (4) an Epilogue of the Critical Edition. I am glad to report that, since September 1966, substantial progress has been made in respect of all these works. One out of the proposed two volumes of the Critical Edition of the Harivariga and four out of the proposed six volumes of the traiika-Index have been published so far. And it gives me great pleasure to be able to release today, on the fifty-fourth anniversary of the foundation of the Institute, the first volume of the critically constituted text of the Mahabharata. It is proposed to publish the entire constituted text of the Epic in four volumes of about 1000 pages each. It is hardly necessary to say here anything about the methodology of the Mahabharata textual criticism. It has been set forth in great detail in the Prolegomena of the Adiparvan and the introductions to the other Parvans in the Critical Edition. It may, however, be emphasized that the constituted text as presented here by no means claims to be the text of Un-Mahabharata, that ideal but impossible desideratum. But, at the same time, it does claim, with due modesty, to represent the most ancient text of the Mahabharatta that can be reconstructed on the basis of all available manuscript and allied evidence. In & sense, it is the ancestor of all extant manuscripts of the Epic. It is a text, which, on the one hand, is cleansed of all later accretions and errors of copy
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________________ (6) ing, and, on the other, rescues from undeserved oblivion many an authentic archaism which had been gradually ousted in the course of its transmission. The Institute feels justifiably gratified that, through the publication of these volumes of the critically edited text of the Mahabharata, it will be possible for it, at long last, to meet the persistent demand of the public. आचख्युः कवयः केचित्संप्रत्याचक्षते परे / आख्यास्यन्ति तथैवान्ये इतिहासमिमं भुवि // Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona-4 6th July, 1971 R. N. DANDEKAR
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________________ अनुक्रमणिका pp. 1-290 मादिपर्व अध्यायाः 1-225 1 अनुक्रमणीपर्व 1 2 पर्वसंग्रहपर्व 2 3. पौष्यपर्व 3 4 पौलोमपर्व 4-12 5 भास्तीकपर्व 13-53 6 भादिवंशावतरणपर्व 54-61 . * संभवपर्व 62-123 शकुन्तलोपाख्यानम् 62-69 ययात्युपाख्यानम् 70-80 उत्तरयायातम् 81-88 संभवपर्व 89-123 8 जतुगृहदाहपर्व 124-138 ' 9 हिडिम्बवधपूर्व 139-142 10 बकवधपर्व 143-152 11 चैत्ररथपर्व 153-173 तापत्योपाख्यानम् 160-163 वासिष्ठोपाख्यानम् 164-168 और्वोपाख्यानम् 169-173 12 द्रौपदीस्वयंवरपर्व 174-189 पञ्चेन्द्रोपाख्यानम् 189 13 वैवाहिकपर्व 190-191 14 विदुरागमनपर्व 192-198 15 राज्यलम्भपर्व 199 16 भर्जुनवनवासपर्व 200-210 / सुन्दोपसुन्दोपाख्यानम् 201-204 17 सुभद्राहरणपर्व 211-212 18 हरणहारिकपर्व 213 19 खाण्डवदाहपर्व 214-225 शाङ्गकोपाख्यानम् 220-225 1-10 10-19 19-27 27-33 33-75 75-93 93-181 93-104 104-120 120-130 130-181 181-195 195-199 199-209 209-230 217-220 220-226 226-230 231-250 250-252 252-259 259-261 261-272 262-266 272-274 274-277 277-290 284-290 291-385 1 सभापर्व अध्यायाः 1-72 . 20 सभापर्व 1-11 21 मन्त्रपर्व 12-17 . 22 जरासंधवधपर्व 18-22 23 दिग्विजयपर्व 23-29 291-306 306-314 314-321 321-328
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________________ (8) 24 राजसूयपर्व 30-32 25 अर्धामिहरणपर्व 33-36 26 शिशुपालवधपर्व 37-42 27 द्यूतपर्व 43-65 28 अनुद्यूतपर्व 66-72 pp. 328-332 332-335 335-342 342-376 376-385 386-800 3 आरण्यकपर्व अध्यायाः 1-299 29 आरण्यकपर्व 1-11 30 किौरवधपर्व 12 31 कैरातपर्व 13-42 सौभवधोपाख्यानम् 15-23 32 इन्द्रलोकाभिगमनपर्व 43-79 नलोपाख्यानम् 50-78 33 तीर्थयात्रापर्व 80-153 अगस्त्योपाख्यानम् 93-109 ऋश्यशृङ्गोपाख्यानम् 110-113 / कार्तवीर्योपाख्यानम् 115-117 सुकन्योपाख्यानम् 122-125 मान्धात्रुपाख्यानम् 126-127 जन्तूपाख्यानम् 128 श्येनकपोतीयम् 129-131 अष्टावक्रीयम् 132-134 यवक्रीतोपाख्यानम् 135-140 सौगन्धिकाहरणम् 146-153 34 जटासुरवधपर्व 154 35 यक्षयुद्धपर्व 155-172 36 आजगरपर्व 173-178 37 मार्कण्डेयसमास्यापर्व 179-221 मत्स्योपाख्यानम् 185 मण्डूकोपाख्यानम् 190 इन्द्रद्युम्नोपाख्यानम् 191 धुन्धुमारोपाख्यानम् 192-195 पतिव्रतोपाख्यानम् 196-197 ब्राह्मणव्याधसंवादः 198-206 आङ्गिरसम् 207-221 38 द्रौपदीसत्यभामासंवादपर्व 222-224 39 घोषयात्रापर्व 225-243 40 मृगस्वप्नभयपर्व 244 41 व्रीहिद्रौणिकपर्व 245-247 386-400 400-402 402-447 407-417 417-491 __456-490 491-591 519-536 536-542 543-546 552-555 555-558 558-559 559-562 562-568 568-574 579-591 591-593 594-621 621-630 630-699 640-641 653-656 656-658 *658-663 663-665 665-680 680-599 699-703 703-724 724 724-729
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________________ (9) . 42 द्रौपदीहरणपर्व 248-283 रामोपाख्यानम् 258-283 सावित्र्युपाख्यानम् 277-283 43 कुण्डलाहरणपर्व 284-294 44 मारणेयपर्व 295-299 यक्षप्रश्नाः 297-298 pp. 729-780 741-780 767-780 780-792 792-800 794-799 801-875 4 विराटपर्व अध्यायाः 1-67 45 वैराटपर्व 1-12 46 कीचकवधपर्व 13-23 47 गोग्रहणपर्व 24-62 48 वैवाहिकपर्व 63-67 801-814 814-827 828-868 868-875
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________________ // महाभारतम्॥ आदिपर्व नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् / देवी सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत् // बहूनि संपरिक्रम्य तीर्थान्यायतनानि च // 10 लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सूतः पौराणिको नैमिषा- समन्तपञ्चकं नाम पुण्यं द्विजनिषेवितम् / रण्ये शौनकस्य कुलपतेर्दादशवार्षिके सत्रे // 1 गतवानस्मि तं देशं युद्धं यत्राभवत्पुरा। समासीनानभ्यगच्छद्ब्रह्मर्षीन्संशितव्रतान्। पाण्डवानां कुरूणां च सर्वेषां च महीक्षिताम् // 11 विनयावनतो भूत्वा कदाचित्सूतनन्दनः // 2 दिदृक्षुरागतस्तस्मात्समीपं भवतामिह / तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनः / आयुष्मन्तः सर्व एव ब्रह्मभूता हि मे मताः // 12 चित्राः श्रोतुं कथास्तत्र परिवत्रुस्तपस्विनः // 3 अस्मिन्यज्ञे महाभागाः सूर्यपावकवर्चसः / अभिवाद्य मुनींस्तांस्तु सर्वानेव कृताञ्जलिः / कृताभिषेकाः शुचयः कृतजप्या हुताग्नयः / अपृच्छत्स तपोवृद्धिं सद्भिश्चैवाभिनन्दितः // 4 भवन्त आसते स्वस्था ब्रवीमि किमहं द्विजाः॥ 13 अथ तेषूपविष्टेषु सर्वेष्वेव तपस्विषु / पुराणसंश्रिताः पुण्याः कथा वा धर्मसंश्रिताः / निर्दिष्टमासनं भेजे विनयाल्लोमहर्षणिः / / 5 इतिवृत्तं नरेन्द्राणामृषीणां च महात्मनाम् // 14 सुखासीनं ततस्तं तु विश्रान्तमुपलक्ष्य च / ऋषय ऊचुः। अथापृच्छदृषिस्तत्र कश्चित्प्रस्तावयन्कथाः // 6 द्वैपायनेन यत्प्रोक्तं पुराणं परमर्षिणा / कुत आगम्यते सौते क चायं विहृतस्त्वया / सुरैर्ब्रह्मर्षिभिश्चैव श्रुत्वा यदभिपूजितम् // 15 कालः कमलपत्राक्ष शंसैतत्पृच्छतो मम // 7 तस्याख्यानवरिष्ठस्य विचित्रपदपर्वणः / सूत उवाच / सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च // 16 जनमेजयस्य राजर्षेः सर्पसत्रे महात्मनः / भारतस्येतिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम् / समीपे पार्थिवेन्द्रस्य सम्यक्पारिक्षितस्य च // 8 संस्कारोपगतां ब्राह्मीं नानाशास्त्रोपबृंहिताम् // 17 कृष्णद्वैपायनप्रोक्ताः सुपुण्या विविधाः कथाः / जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशंपायन उक्तवान् / कथिताश्चापि विधिवद्या वैशंपायनेन वै // 9 यथावत्स ऋषिस्तुष्टया सत्रे द्वैपायनाज्ञया // 18 श्रुत्वाहं ता विचित्रार्था महाभारतसंश्रिताः / वेदेश्चतुर्भिः समितां व्यासस्याद्भुतकर्मणः / - 1
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________________ 1. 1. 19 ] महाभारते [1. 1. 48 संहितां श्रोतुमिच्छामो धर्त्यां पापभयापहाम् // 19 राजर्षयश्च बहवः सर्वैः समुदिता गुणः / सूत उवाच / आपो द्यौः पृथिवी वायुरन्तरिक्षं दिशस्तथा // 34 आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् / संवत्सरर्तवो मासाः पक्षाहोरात्रयः क्रमात् / ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं सनातनम् // 20 यच्चान्यदपि तत्सर्वं संभूतं लोकसाक्षिकम् // 35 असच्च सञ्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम् / यदिदं दृश्यते किंचिद्भूतं स्थावरजङ्गमम् / . परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम् // 21 पुनः संक्षिप्यते सर्वं जगत्प्राप्ते युगक्षये // 36 मङ्गल्यं मङ्गलं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम् / यथावृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये / नमस्कृत्य हृषीकेशं चराचरगुरुं हरिम् // 22 दृश्यन्ते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु // 35 महर्षेः पूजितस्येह सर्वलोके महात्मनः / एवमेतदनाद्यन्तं भूतसंहारकारकम् / प्रवक्ष्यामि मतं कृत्स्नं व्यासस्यामिततेजसः / / 23 अनादिनिधनं लोके चक्रं संपरिवर्तते // 38 आचख्युः कवयः केचित्संप्रत्याचक्षते परे / त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि च / आख्यास्यन्ति तथैवान्ये इतिहासमिमं भुवि // 24 त्रयस्त्रिंशच्च देवानां सृष्टिः संक्षेपलक्षणा / / 39 इदं तु त्रिषु लोकेषु महज्ज्ञानं प्रतिष्ठितम् / / दिवस्पत्रो बृहद्भानुश्चक्षरात्मा विभावसः / विस्तरैश्च समासैश्च धार्यते यहिजातिभिः // 25 सविता च ऋचीकोऽर्को भानुराशावहो रविः // 40 अलंकृतं शुभैः शब्दैः समयैर्दिव्यमानुषैः / पुत्रा विवस्वतः सर्वे मह्यस्तेषां तथावरः / छन्दोवृत्तैश्च विविधैरन्वितं विदुषां प्रियम् / / 26 देवभ्राट् तनयस्तस्य तस्मात्सुभ्राडिति स्मृतः // 41 निष्प्रभेऽस्मिन्निरालोके सर्वतस्तमसावृते। सुभ्राजस्तु त्रयः पुत्राः प्रजावन्तो बहुश्रुताः। बृहदण्डमभूदेकं प्रजानां बीजमक्षयम् // 27 दशज्योतिः शतज्योतिः सहस्रज्योतिरात्मवान् // 4H युगस्यादौ निमित्तं तन्महदिव्यं प्रचक्षते / दश पुत्रसहस्राणि दशज्योतेर्महात्मनः / यस्मिंस्तच्छ्रयते सत्यं ज्योतिर्ब्रह्म सनातनम् / / 28 ततो दशगुणाश्चान्ये शतज्योतेरिहात्मजाः // 43 अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतां गतम् / भूयस्ततो दशगुणाः सहस्रज्योतिषः सुताः / अव्यक्तं कारणं सूक्ष्नं यत्तत्सदसदात्मकम् // 29 तेभ्योऽयं कुरुवंशश्च यदूनां भरतस्य च // 44 यस्मात्पितामहो जज्ञे प्रभुरेकः प्रजापतिः / ययातीक्ष्वाकुवंशश्च राजर्षीणां च सर्वशः / ब्रह्मा सुरगुरुः स्थाणुर्मनुः कः परमेष्ट्यथ / / 30 / संभूता बहवो बंशा भूतसर्गाः सविस्तराः // 45 प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च सप्त ये।। भूतस्थानानि सर्वाणि रहस्यं विविधं च यत् / ततः प्रजानां पतयः प्राभवन्नेकविंशतिः॥ 31 वेदयोगं सविज्ञानं धर्मोऽर्थः काम एव च // 46 पुरुषश्चाप्रमेयात्मा यं सर्वमृषयो विदुः।। धर्मकामार्थशास्त्राणि शास्त्राणि विविधानि च / विश्वेदेवास्तथादित्या वसोऽथाश्विनावपि // 32 लोकयात्राविधानं च संभूतं दृष्टवानृषिः // 47 यक्षाः साध्याः पिशाचाश्च गुह्यकाः पितरस्तथा / / इतिहासाः सर्वथाख्या विविधाः श्रुतयोऽपि च / ततः प्रसूता विद्वांसः शिष्टा ब्रह्मर्षयोऽमलाः // 33 / इह सर्वमनुक्रान्तमुक्तं ग्रन्थस्य लक्षणम् // 48
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________________ 1. 1. 49] आदिपर्व [1. 1. 76 विस्तीर्यैतन्महज्ज्ञानमृषिः संक्षेपमब्रवीत् / नारदोऽश्रावयदेवानसितो देवलः पितॄन् / इष्टं हि विदुषां लोके समासव्यासधारणम् / / 49 गन्धर्वयक्षरक्षांसि श्रावयामास वै शुकः // 64 मन्वादि भारतं केचिदास्तीकादि तथापरे / दुर्योधनो मन्युमयो महाद्रुमः तथोपरिचराद्यन्ये विप्राः सम्यगधीयते // 50 स्कन्धः कर्णः शकुनिस्तस्य शाखाः / विविधं संहिताज्ञानं दीपयन्ति मनीषिणः / दुःशासनः पुष्पफले समृद्ध व्याख्यातुं कुशलाः केचिद्वन्थं धारयितुं परे / / 51 मूलं राजा धृतराष्ट्रोऽमनीषी // 65 तपसा ब्रह्मचर्येण व्यस्य वेदं सनातनम् / युधिष्ठिरो धर्ममयो महाद्रुमः इतिहासमिमं चक्रे पुण्यं सत्यवतीसुतः / / 52 / / ___ स्कन्धोऽर्जुनो भीमसेनोऽस्य शाखाः। पराशरात्मजो विद्वान्ब्रह्मर्षिः संशितव्रतः / माद्रीसुतो पुष्पफले समृद्धे मातुर्नियोगाद्धर्मात्मा गाङ्गेयस्य च धीमतः // 53 मूलं कृष्णो ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च / / 66 क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य कृष्णद्वैपायनः पुरा / पाण्डुर्जित्वा बहून्देशान्युधा विक्रमणेन च / त्रीनग्नीनिव कौरव्याञ्जनयामास वीर्यवान् // 54 अरण्ये मृगयाशीलो न्यवसत्सजनस्तदा // 67 उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डं विदुरमेव च / मृगव्यवायनिधने कृच्छ्रां प्राप स आपदम् / जगाम तपसे धीमान्पुनरेवाश्रमं प्रति // 55 जन्मप्रभृति पार्थानां तत्राचारविधिक्रमः // 68 तेषु जातेषु वृद्धेषु गतेषु परमां गतिम् / मात्रोरभ्युपपत्तिश्च धर्मोपनिषदं प्रति / अब्रवीद्भारतं लोके मानुषेऽस्मिन्महानृषिः / / 56 धर्मस्य वायोः शक्रस्य देवयोश्च तथाश्विनोः / / 69 जनमेजयेन पृष्टः सन्ब्राह्मणैश्च सहस्रशः / तापसैः सह संवृद्धा मातृभ्यां परिरक्षिताः / शशास शिष्यमासीनं वैशंपायनमन्तिके / / 57 मेध्यारण्येषु पुण्येषु महतामाश्रमेषु च // 70 स सदस्यैः सहासीनः श्रावयामास भारतम् / ऋषिभिश्च तदानीता धार्तराष्ट्रान्प्रति स्वयम् / कर्मान्तरेषु यज्ञस्य चोद्यमानः पुनः पुनः / / 58 शिशवश्चाभिरूपाश्च जटिला ब्रह्मचारिणः // 71 विस्तरं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम् / पुत्राश्च भ्रातरश्चेमे शिष्याश्च सुहृदश्च वः / क्षत्तुः प्रज्ञां धृति कुन्त्याः सम्यग्द्वैपायनोऽब्रवीत् 59 पाण्डवा एत इत्युक्त्वा मुनयोऽन्तर्हितास्ततः॥ 72 बासुदेवस्य माहात्म्यं पाण्डवानां च सत्यताम् / तांस्तेर्निवेदितान्दृष्ट्वा पाण्डवान्कौरवास्तदा। दुर्वृत्तं धार्तराष्ट्राणामुक्तवान्भगवानृषिः // 60 शिष्टाश्च वर्णाः पोरा ये ते हर्षाच्चक्रशुभृशम् / / 73 चतुर्विंशतिसाहस्री चक्रे भारतसंहिताम् / आहुः केचिन्न तस्येते तस्येत इति चापरे / उपाख्यानैर्विना तावद्भारतं प्रोच्यते बुधैः / / 61 यदा चिरमृतः पाण्डुः कथं तस्येति चापरे / 74 ततोऽध्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः / / स्वागतं सर्वथा दिष्ट्या पाण्डोः पश्याम संततिम् / अनुक्रमणिमध्यायं वृत्तान्तानां सपर्वणाम् / / 62 उच्यतां स्वागतमिति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः / / 75 इदं द्वैपायनः पूर्वं पुत्रमध्यापयच्छुकम् / तस्मिन्नुपरते शब्दे दिशः सर्वा विनादयन् / ततोऽन्येभ्योऽनुरूपेभ्यः शिष्येभ्यः प्रददौ प्रभुः॥ / अन्तर्हितानां भूतानां निस्वनस्तुमुलोऽभवत् // 76 - 3 -
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________________ 1. 1. 77] महाभारते . [1. 1. 103 पुष्पवृष्टिः शुभा गन्धाः शङ्खदुन्दुभिनिस्वनाः। . अन्वजानात्ततो द्यूतं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः / आसन्प्रवेशे पार्थानां तदद्भुतमिवाभवत् // 77 तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य कोपः समभवन्महान् // 92 तत्प्रीत्या चैव सर्वेषां पौराणां हर्षसंभवः / नातिप्रीतमनाश्चासीद्विवादांश्चान्वमोदत / शब्द आसीन्महांस्तत्र दिवस्पृक्कीर्तिवर्धनः / / 78 द्यूतादीननयान्घोरान्प्रवृद्धांश्चाप्युफैक्षत // 93 तेऽप्यधीत्याखिलान्वेदाशास्त्राणि विविधानि च / निरस्य विदुरं द्रोणं भीष्मं शारद्वतं कृपम्। . न्यवसन्पाण्डवास्तत्र पूजिता अकुतोभयाः // 79 विग्रहे तुमुले तस्मिन्नहन्क्षत्रं परस्परम् / / 94 . युधिष्ठिरस्य शोचेन प्रीताः प्रकृतयोऽभवन् / जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम् / धृत्या च भीमसेनस्य विक्रमेणार्जुनस्य च // 80 दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा / गुरुशुश्रूषा कुन्त्या यमयोविनयेन च / धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत् / / 95 तुतोष लोकः सकलस्तेषां शौर्यगुणेन च // 81 / शृणु संजय मे सर्वं न मेऽसूयितुमर्हसि / समवाये ततो राज्ञां कन्यां भर्तृस्वयंवराम / / श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसंमतः // 96 प्राप्तवानर्जुनः कृष्णां कृत्वा कर्म सुदुष्करम् // 82 / न विग्रहे मम मतिर्न च प्रीये कुरुक्षये / ततःप्रभृति लोकेऽस्मिन्पूज्यः सर्वधनुष्मताम् / न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु च // 97 आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यः समरेष्वपि चाभवत् // 83 / वृद्धं मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः / / स सर्वान्पार्थिवाञ्जित्वा सर्वांश्च महतो गणान् / अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात्पुत्रप्रीत्या सहामि तत् / आजहारार्जुनो राज्ञे राजसूयं महाक्रतुम् // 84 मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम् // 98 अन्नवान्दक्षिणावांश्च सर्वैः समुदितो गुणैः / राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः / युधिष्ठिरेण संप्राप्तो राजसूयो महाक्रतुः // 85, तच्चावहसनं प्राप्य समारोहणदर्शने // .99 सुनयाद्वासुदेवस्य भीमार्जुनबलेन च / अमर्षितः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान्रणे। घातयित्वा जरासंधं चैद्यं च बलगर्वितम् / / 86 निरुत्साहश्च संप्राप्तुं श्रियमक्षत्रियो यथा। दुर्योधनमुपागच्छन्नहणानि ततस्ततः / गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत् // 100 मणिकाञ्चनरत्नानि गोहस्त्यश्वधनानि च / / 87 तत्र यद्यद्यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु। समृद्धां तां तथा दृष्ट्वा पाण्डवानां तदा श्रियम् / श्रुत्वा हि मम वाक्यानि बुद्धथा युक्तानि तत्त्वतः। ईर्ष्यासमुत्थः सुमहांस्तस्य मन्युरजायत / / 88 ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत // 101 विमानप्रतिमां चापि मयेन सुकृतां सभाम् / यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं . पाण्डवानामुपहृतां स दृष्ट्वा पर्यतप्यत / / 89 विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम् / / यत्रावहसितश्चासीत्प्रस्कन्दन्निव संभ्रमात्।। कृष्णां हृतां पश्यतां सर्वराज्ञां प्रत्यक्षं वासुदेवस्य भीमेनानभिजातवत् // 90 तदा नाशंसे विजयाय संजय // 102 स भोगान्विविधान्भुञ्जन्रत्नानि विविधानि च / यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां कथितो धृतराष्ट्रस्य विवर्णो हरिणः कृशः // 91 / प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन /
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________________ 1. 1. 103 ] आदिपर्व [1. 1. 118 इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौ तदा नाशंसे विजयाय संजय // 103 यदाऔषं देवराज प्रवृष्टं शरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन / अनिं तथा तर्पितं खाण्डवे च तदा नाशंसे विजयाय संजय // 104 यदाीषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम् / अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयै स्तदा नाशंसे विजयाय संजय // 105 यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठी . सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम् / रजस्वलां नाथवतीमनाथव त्तदा नाशंसे विजयाय संजय / / 106 यदाश्रौषं विविधास्तात चेष्टा धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय / ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां . तदा नाशंसे विजयाय संजय // 107 यदाश्रीषं स्नातकानां सहस्रै रन्वागतं धर्मराजं वनस्थम् / मिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय // 108 यदाश्रौषमर्जुनो देवदेवं किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे / अवाप तत्पाशुपतं महास्त्रं तदा नाशंसे विजयाय संजय / / 109 यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनंजयं शक्रात्साक्षादिव्यमस्त्रं यथावत् / अधीयानं शंसितं सत्यसंधं / तदा नाशंसे विजयाय संजय // 110 यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं समागतं भीममन्यांश्च पार्थान् / तस्मिन्देशे मानुषाणामगम्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय // 111 यदाश्रीषं घोषयात्रागतानां बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन / स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां तदा नाशंसे विजयाय संजय / / 112 यदाश्रौषं यक्षरूपेण धर्म समागतं धर्मराजेन सूत / प्रश्नानुक्तान्विब्रुवन्तं च सम्यक् तदा नाशंसे विजयाय संजय / / 113 यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठा न्धनंजयेनैकरथेन भग्नान् / विराटराष्ट्रे वसता महात्मना तदा नाशंसे विजयाय संजय / / 114 यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय / तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात्सुतार्थे तदा नाशंसे विजयाय संजय // 115 यदाश्रीषं निर्जितस्याधनस्य प्रव्राजितस्य स्वजनात्प्रच्युतस्य / अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्य तदा नाशंसे विजयाय संजय // 116 यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य / अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके सदेति ___ तदा नाशंसे विजयाय संजय // 117 यदाश्रौषं माधवं वासुदेवं सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम् /
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________________ 1. 1. 118 ] महाभारते [1. 1. 133 यस्येमां गां विक्रममेकमाहु स्तदा नाशंसे विजयाय संजय // 118 यदाश्रीषं कर्णदुर्योधनाभ्यां बुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य / तं चात्मानं बहुधा दर्शयानं ___ तदा नाशंसे विजयाय संजय // 119 यदाश्रोषं वासुदेवे प्रयाते रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम् / आतां पृथा सान्त्वितां केशवेन तदा नाशंसे विजयाय संजय // 120 यदाश्रौषं मन्त्रिगं वासुदेवं तथा भीष्मं शांतनवं च तेषाम् / . भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणं तदा नाशंसे विजयाय संजय // 121 यदाश्रीषं कर्ण उवाच भीष्म नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति / हित्वा सेनामपचक्राम चैव तदा नाशंसे बिजयाय संजय // 122 यदाश्रीषं वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डिवमप्रमेयम् / त्रीण्युप्रवीर्याणि समागतानि तदा नाशंसे विजयाय संजय // 123 यदाश्रीषं कश्मलेनाभिपन्ने रथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै / कृष्णं लोकान्दर्शयानं शरीरे तदा नाशंसे विजयाय संजय // 124 यदाश्रीषं भीष्मममित्रकर्शनं . निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम् / नैषां कश्चिद्वध्यते दृश्यरूप स्तदा नाशंसे विजयाय संजय / / 125 / यदाश्रीषं भीष्ममत्यन्तशूरं __ हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् / शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय // 126 यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं वृद्धं वीरं सादितं चित्रपुकैः। . भीष्मं कृत्वा सोमकानल्पशेषां स्तदा नाशंसे विजयाय संजय // 127 यदाश्रौषं शांतनवे शयाने पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन। .. भूमि भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्म तदा नाशंसे विजयाय संजय // 128 यदाश्रौषं शुक्रसूर्यों च युक्तो कौन्तेयानामनुलोमौ जयाय / नित्यं चास्माञ्श्वापदा व्याभषन्त स्तदा नाशंसे विजयाय संजय // 129 यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गा विदर्शयन्समरे चित्रयोधी। न पाण्डवाश्रेष्ठतमान्निहन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय // 130 यदाश्रीषं चास्मदीयान्महारथा___ व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय / संशप्तकान्निहतानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय / / 131 यदाश्रीषं व्यूहमभेद्यमन्यै- . र्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम् / भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं तदा नाशंसे विजयाय संजय // 132 यदाभिमन्यु परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः /
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________________ 1. 1. 133] आदिपर्व [1. 1. 148 महारथाः पार्थमशक्नुवन्त स्तदा नाशंसे विजयाय संजय // 133 यदाश्रौषमभिमन्यु निहत्य हर्षान्मूढान्क्रोशतो धार्तराष्ट्रान् / क्रोधं मुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय // 134 यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञा प्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन / सत्यां निस्तीर्णा शत्रुमध्ये च तेन तदा नाशंसे विजयाय संजय // 135 यदाश्रीषं श्रान्तहये धनंजये - मुक्त्वा हयान्पाययित्वोपवृत्तान् / . पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं __ तदा नाशंसे विजयाय संजय // 136 यदाश्रौषं वाहनेष्वाश्वसत्सु रथोपस्थे तिष्ठता गाण्डिवेन / सर्वान्योधान्वारितानर्जुनेन . तदा नाशंसे विजयाय संजय / / यदाश्रीषं नागबलैर्दुरुत्सहं . द्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य / यातं वार्ष्णेयं यत्र तो कृष्णपार्थों तदा नाशंसे विजयाय संजय // 138 यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं वधाद्भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः / धनुष्कोट्या तुद्य कर्णेन वीरं . तदा नाशंसे विजयाय संजय // 139 यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः / अमर्षयन्सैन्धवं वध्यमानं .. तदा नाशंसे विजयाय संजय // 140 यदाश्रौषं देवराजेन दत्तां दिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन / घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे तदा नाशंसे विजयाय संजय // 141 यदाश्रीषं कर्णघटोत्कचाभ्यां युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम् / यया वध्यः समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय // 142 यदाश्रोषं द्रोणमाचार्यमेकं धृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम् / रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय // 143 यदाश्रौषं द्रौणिना द्वेरथस्थं ___माद्रीपुत्रं नकुलं लोकमध्ये / समं युद्धे पाण्डवं युध्यमानं तदा नाशंसे विजयाय संजय // 144 यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो ___ नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन् / नैषामन्तं गतवान्पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय // 145 यदाश्रीषं कर्णमत्यन्तशूरं ___ हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम् / तस्मिन्भ्रातॄणां विग्रहे देवगुह्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय / / 146 यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं कृतं च दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम् / युधिष्ठिरं शून्यमधर्षयन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय // 147 यदाश्रौषं निहतं मद्रराज रणे शूरं धर्मराजेन सूत / . /
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________________ 1. 1. 148 ] महाभारते [1. 1. 167 सदा संग्रामे स्पर्धते यः स कृष्णं यदाश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्ने तदा नाशंसे विजयाय संजय // 148 वैराट्या वै पात्यमाने महास्ने / यदाश्रीषं कलहद्यूतमूलं . द्वैपायनः केशवो द्रोणपुत्रं मायाबलं सौबलं पाण्डवेन / ___ परस्परेणाभिशापैः शशाप // 156 हतं संग्रामे सहदेवेन पापं शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैविहीना तदा नाशंसे विजयाय संजय // 149 ___ तथा वध्वः पितृभिर्धातृभिश्च / . यदाश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं कृतं कार्य दुष्करं पाण्डवेयैः ह्रदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः / प्राप्तं राज्यमसपत्नं पुनस्तैः // 157 दुर्योधनं विरथं भग्नदर्प कष्टं युद्धे दश शेषाः श्रुता मे तदा नाशंसे विजयाय संजय // 150 त्रयोऽस्माकं पाण्डवानां च सप्त / यदाश्रौषं पाण्डवांस्तिष्ठमाना द्वथूना विंशतिराहताक्षौहिणीनां नगङ्गाहदे वासुदेवेन सार्धम् / ___तस्मिन्संग्रामे विग्रहे क्षत्रियाणाम् // 158 अमर्षणं धर्षयतः सुतं मे तमसा त्वभ्यवस्तीर्णो मोह आविशतीव माम् / तदा नाशंसे विजयाय संजय // 151 संज्ञां नोपलभे सूत मनो विह्वलतीव मे // 159 यदाश्रौषं विविधांस्तात मार्गा इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहु दुःखितः / न्गदायुद्धे मण्डलं संचरन्तम् / मूर्छितः पुनराश्वस्तः संजयं वाक्यमब्रवीत् // 160 मिथ्या हतं वासुदेवस्य बुद्धथा संजयैवंगते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि माचिरम् / तदा नाशंसे विजयाय संजय // 152 स्तोकं ह्यपि न पश्यामि फलं जीवितधारणे॥१६१ यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तै तं तथावादिनं दीनं विलपन्तं महीपतिम् / हतान्पाञ्चालान्द्रौपदेयांश्च सुप्तान् / गावल्गणिरिदं धीमान्महार्थं वाक्यमब्रवीत् / / 162 कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म श्रुतवानसि वै राज्ञो महोत्साहान्महाबलान् / तदा नाशंसे विजयाय संजय // 153 द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमतः // 163 यदाश्रौषं भीमसेनानुयाते महत्सु राजवंशेषु गुणैः समुदितेषु च / नाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम् / जातान्दिव्यास्त्रविदुषः शक्रप्रतिमतेजसः // 164 क्रुद्धेनैषीकमवधीयेन गर्भ धर्मेण पृथिवीं जित्वा यज्ञैरिष्ट्वाप्तदक्षिणैः / तदा नाशंसे विजयाय संजय // 154 . अस्मिल्लोके यशः प्राप्य ततः कालवशं गताः॥१६५ यदाश्रौषं ब्रह्मशिरोऽर्जुनेन वैन्यं महारथं वीरं सृञ्जयं जयतां वरम् / मुक्तं स्वस्तीत्यस्त्रमस्त्रेण शान्तम् / सुहोत्रं रन्तिदेवं च कक्षीवन्तं तथौशिजम् // 166 अश्वत्थाम्ना मणिरत्नं च दत्तं बाहीकं दमनं शैब्यं शर्यातिमजितं जितम् / / तदा नाशंसे विजयाय संजय // 155 / विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम् // 167
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________________ 1. 1. 168 ] आदिपर्व [1. 1. 196 मरुत्तं मनुमिक्ष्वाकुं गयं भरतमेव च / रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दु भगीरथम् // 168 ययातिं शुभकर्माणं देवैयों याजितः स्वयम् / चैत्ययूपाङ्किता भूमिर्यस्येयं सवनाकरा // 169 इति राज्ञां चतुर्विंशन्नारदेन सुरर्षिणा / पुत्रशोकाभितप्ताय पुरा शैव्याय कीर्तिताः // 170 तेभ्यश्चान्ये गताः पूर्व राजानो बलवत्तराः / / महारथा महात्मानः सर्वैः समुदिता गुणैः / / 171 पूरुः कुरुर्यदुः शूरो विष्वगश्वो महाधृतिः / अनेना युवनाश्वश्च ककुत्स्थो विक्रमी रघुः // 172 विजिती वीतिहोत्रश्च भवः श्वेतो बृहद्गुरुः / उशीनरः शतरथः कङ्को दुलिदुहो द्रुमः // 173 दम्भोद्भवः परो वेनः सगरः संकृतिर्निमिः / अजेयः परशुः पुण्डः शम्भुर्देवावृधोऽनघः // 174 देवाह्वयः सुप्रतिमः सुप्रतीको बृहद्रथः / महोत्साहो विनीतात्मा सुक्रतुनैषधो नलः / / 175 सत्यवतः शान्तभयः सुमित्रः सुबलः प्रभुः / जानुजङ्खोऽनरण्योऽर्कः प्रियभृत्यः शुभव्रतः।। 176 बलबन्धुनिरामर्दः केतुशृङ्गो बृहद्बलः / धृष्टकेतुर्वृहत्केतुर्दीप्तकेतुर्निरामयः॥ 177 अविक्षिप्रबलो धूर्तः कृतबन्धुईढेषुधिः / महापुराणः संभाव्यः प्रत्यङ्गः परहा श्रुतिः / / 178 एते चान्ये च बहवः शतशोऽथ सहस्रशः / भयन्तेऽयुतशश्चान्ये संख्याताश्चापि पद्मशः॥ 179 हित्वा सुविपुलान्भोगान्बुद्धिमन्तो महाबलाः / राजानो निधनं प्राप्तास्तव पुत्रैमहत्तमाः // 180 येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च।। माहात्म्यमपि चास्तिक्यं सत्यता शौचमार्जवम् 181 विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणैः कविसत्तमैः। सर्वर्द्धिगुणसंपन्नास्ते चापि निधनं गताः // 182 म. भा. 2 तव पुत्रा दुरात्मानः प्रतप्ताश्चैव मन्युना / | लुब्धा दुर्वृत्तभूयिष्ठा न ताशोचितुमर्हसि // 183 श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसंमतः / येषां शास्त्रानुगा बुद्धिर्न ते मुह्यन्ति भारत / / 184 निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप / नात्यन्तमेवानुवृत्तिः श्रूयते पुत्ररक्षणे // 185 भवितव्यं तथा तच्च नातः शोचितुमर्हसि। दैवं प्रज्ञाविशेषेण को निवर्तितुमर्हति // 186 विधातृविहितं मागं न कश्चिदतिवर्तते / कालमूलमिदं सर्वं भावाभावौ सुखासुखे // 187 कालः पचति भूतानि कालः संहरति प्रजाः / निर्दहन्तं प्रजाः कालं कालः शमयते पुनः // 188 कालो विकुरुते भावान्सर्वाल्लोके शुभाशुभान् / कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः / कालः सर्वेषु भूतेषु चरत्यविधृतः समः // 189 अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति सांप्रतम् / तान्कालनिर्मितान्बुद्धा न संज्ञा हातुमर्हसि // 190 सूत उवाच / अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् / भारताध्ययनात्पुण्यादपि पादमधीयतः / श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः // 191 देवर्षयो यत्र पुण्या ब्रह्मराजर्षयस्तथा / कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षमहोरगाः // 192 भगवान्वासुदेवश्च कीर्यतेऽत्र सनातनः / स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च // 193 शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम् / यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः॥१९४ असत्सत्सदसञ्चैव यस्माद्देवात्प्रवर्तते / संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्म मृत्युः पुनर्भवः // 195 अध्यात्मं श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम् / - 9 -
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________________ 1. 1. 196] महाभारते [1. 2. 12 अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते // 196 प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्कयत्तद्यतिवरा युक्ता ध्यानयोगबलान्विताः / स्तान्येव भावोपहतानि कल्कः // 210 प्रतिबिम्बमिवादर्श पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् // 197 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि प्रयमोऽध्यायः // 1 // श्रद्दधानः सदोद्युक्तः सत्यधर्मपरायणः / समाप्तमनुक्रमणीपर्व // आसेवन्निममध्यायं नरः पापात्प्रमुच्यते // 198 अनुक्रमणिमध्यायं भारतस्येममादितः। ऋषय ऊचुः। आस्तिकः सततं शृण्वन्न कृच्छ्रेष्ववसीदति॥ 199 / समन्तपञ्चकमिति यदुक्तं सूतनन्दन / उभे संध्ये जपन्किंचित्सद्यो मुच्येत किल्बिषात् / एतत्सर्वं यथान्यायं श्रोतुमिच्छामहे वयम् / / 1 अनुक्रमण्या यावत्स्यादहा रात्र्या च संचितम्॥२०० सूत उवाच / भारतस्य वपुर्खेतत्सत्यं चामृतमेव च। शुश्रूषा यदि वो विप्रा ब्रुवतश्च कथाः शुभाः / नवनीतं यथा दध्नो द्विपदा ब्राह्मणो यथा // 201 समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः॥२ हदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम् / त्रेताद्वापरयोः संधौ रामः शस्त्रभृतां वरः / यथैतानि वरिष्ठानि तथा भारतमुच्यते // 202 असकृत्पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः // 3 यश्चैनं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः। स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः / अक्षय्यमन्नपानं तत्पिति॒स्तस्योपतिष्ठति // 203 समन्तपञ्चके पञ्च चकार रुधिरहदान् // 4 इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपद्व्हयेत् / स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूर्छितः।। बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रतरिष्यति // 204 पितृन्सतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम् // 5 काणं वेदमिमं विद्वाञ्श्रावयित्वार्थमश्नुते। अथ कादयोऽभ्येत्य पितरो ब्राह्मणर्षभम् / भ्रूणहत्याकृतं चापि पापं जह्यान्न संशयः / / 205 तं क्षमस्वेति सिषिधुस्ततः स विरराम ह // 6 य इमं शुचिरध्यायं पठेत्पर्वणि पर्वणि / तेषां समीपे यो देशो ह्रदानां रुधिराम्भसाम् / अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः॥२०६ समन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत्परिकीर्तितम् // 7 यश्चेमं शृणुयान्नित्यमाएं श्रद्धासमन्वितः। येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते। स दीर्घमायुः कीर्ति च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः // 207 तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहर्मनीषिणः // 8 चत्वार एकतो वेदा भारतं चैकमेकतः / अन्तरे चैव संप्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत् / समागतैः सुरर्षिभिस्तुलामारोपितं पुरा / समन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः // 9 महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं ततोऽधिकम् / / 208 तस्मिन्परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते। महत्त्वाद्भारवत्त्वाच महाभारतमुच्यते।। अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया // 10 निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते // 209 / एवं नामाभिनिवृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः / तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः // 11 स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः / तदेतत्कथितं सर्वं मया वो मुनिसत्तमाः / - 10 -
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________________ 1. 2. 12] आदिपर्व [1. 2. 41 यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः // 12 अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम् / / 26 ऋषय ऊचुः। अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परबलार्दनः / अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन / शल्योऽर्धदिवसं त्वासीद्गदायुद्धमतः परम् / / 27 एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम् // 13 तस्यैव तु दिनस्यान्ते हार्दिक्यद्रौणिगौतमाः। अक्षौहिण्याः परीमाणं रथाश्वनरदन्तिनाम् / प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जन्नुयौधिष्ठिरं बलम् / / 28 यथावञ्चैव नो ब्रूहि सर्वं हि विदितं तव / / 14 यत्तु शौनकसत्रे ते भारताख्यानविस्तरम् / सूत उवाच / आख्यास्ये तत्र पौलोममाख्यानं चादितः परम् // 29 एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः / विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम् / त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते // 15 अभिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मोक्षिभिः // 30 पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः / / आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव च जीवितम् / श्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते // 16 इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम् // 31 त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः / इतिहासोत्तमे ह्यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा / स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः // 17 स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक् // 32 चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रश्चम्वस्त्वनीकिनी। अस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः / अनीकिनी दशगुणां प्राहुरक्षौहिणी बुधाः // 18 भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः // 33 अक्षौहिण्याः प्रसंख्यानं रथानां द्विजसत्तमाः। पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयं पर्वसंग्रहः / संख्यागणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः / / 19 पौष्यं पौलोममास्तीकमादिवंशावतारणम् / / 34 शतान्युपरि चैवाष्टी तथा भूयश्च सप्ततिः / / ततः संभवपर्योक्तमद्भुतं देवनिर्मितम् / गजानां तु परीमाणमेतदेवात्र निर्दिशेत् / / 20 दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते / / 35 शेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि तथा नव / ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः / नराणामपि पश्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः॥ 21 ततः स्वयंवरं देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते॥३६ पञ्चषष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च। क्षत्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम् / पशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया // 22 विदुरागमनं पर्व राज्यलम्भस्तथैव च // 37 तामक्षौहिणीं प्राहुः संख्यातत्त्वविदो जनाः / अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः / यो वः कथितवानस्मि विस्तरेण द्विजोत्तमाः // 23 सुभद्राहरणादूचं ज्ञेयं हरणहारिकम् // 38 एतया संख्यया ह्यासन्कुरुपाण्डवसेनयोः / ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम् / अलौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डेनाष्टादशैव ताः / / 24 सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम् // 39 समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधनं गताः / जरासंधवधः पर्व पर्व दिग्विजयस्तथा / नरवान्कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा / / 25 पर्व दिग्विजयादूज़ राजसूयिकमुच्यते // 40 मिहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित् / ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः / - 11 -
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________________ 1. 2. 41] महाभारते [1. 2. 71 द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमतः परम् // 41 द्रोणाभिषेकः पर्वोक्तं संशप्तकवधस्ततः // 56 तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एव च / अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञापर्व चोच्यते / ईश्वरार्जुनयोयुद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम् // 42 जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः // 57 इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम् / ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं लोमहर्षणम् / तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः // 43 मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते / / 58 .. जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम् / कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम्। . तथैवाजगरं पर्व विज्ञेयं तदनन्तरम् // 44 हृदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम् / / 59 मार्कण्डेयसमस्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम।। सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशगुणान्वितम् / संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः॥ 45 अत ऊर्ध्वं तु बीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते // 60 घोषयात्रा ततः पर्व मृगस्वप्नभयं ततः। ऐषीकं पर्व निर्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम् / .. व्रीहिद्रौणिकमाख्यानं ततोऽनन्तरमुच्यते // 46 जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीपर्व च. ततः परम् // 61 द्रौपदीहरणं पर्व सैन्धवेन वनात्ततः। . श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदेहिकम् / कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते // 47 आभिषेचनिक पर्व धर्मराजस्य धीमतः // 62 आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम् / चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः / कीचकानां वधः पर्व पर्व गोग्रहणं ततः॥ 48 प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम् / / 63 . अभिमन्युना च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम् / शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुकीर्तनम् / उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम् // 49 आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम् // 64 / ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम् / ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम् / प्रजागरं ततः पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया // 50 स्वर्गारोहणिकं पर्व ततो भीष्मस्य धीमतः / / 65 पर्व सानत्सुजातं च गुह्यमध्यात्मदर्शनम् / ततोऽश्वमेधिक पर्व सर्वपापप्रणाशनम् / यानसंधिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च // 51 अनुगीता ततः पर्व ज्ञेयमध्यात्मवाचकम् // 66 ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः / पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च / निर्याणं पर्व च ततः कुरुपाण्डवसेनयोः // 52 नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते // 67 रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम् / मौसलं पर्व च ततो घोरं समनुवर्ण्यते / उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम् // 53 महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः / / 68 अम्बोपाख्यानमपि च पर्व ज्ञेयमतः परम् / हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम् / भीष्माभिषेचनं पर्व ज्ञेयमद्भुतकारणम् // 54 भविष्यत्पर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत् // 69 जम्बूखण्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम् / एतत्पर्वशतं पूर्ण व्यासेनोक्तं महात्मना / भूमिपर्व ततो ज्ञेयं द्वीपविस्तरकीर्तनम् // 55 यथावत्सूतपुत्रेण लोमहर्षणिना पुनः // 70 पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः / कथितं नैमिषारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु / - 12 -
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________________ 1. 2. 71] आदिपर्व [1. 2. 100 समासो भारतस्यायं तत्रोक्तः पर्वसंग्रहः / / 71 भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पाञ्चालानभितो ययौ / / 86 पौष्ये पर्वणि माहात्म्यमुत्तकस्योपवर्णितम् / तापत्यमथ वासिष्ठमोर्वं चाख्यानमुत्तमम् / पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः / / 72 पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते // 87 आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च संभवः / पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च / क्षीरोदमथनं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा / / 73 द्रौपद्या देवविहितो विवाहश्चाप्यमानुषः / / 88 यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारिक्षितस्य च / विदुरस्य च संप्राप्तिदर्शनं केशवस्य च / कथेयमभिनिवृत्ता भारतानां महात्मनाम् / / 74 खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्थशासनम् // 89 विविधाः संभवा राज्ञामुक्ताः संभवपर्वणि / नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया। अन्येषां चैव विप्राणामृषेद्वैपायनस्य च // 75 सुन्दोपसुन्दयोस्तत्र उपाख्यानं प्रकीर्तितम् / / 90 अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम् / पार्थस्य वनवासश्च उलूप्या पथि संगमः। दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम् / / 76 पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च // 91 नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्रिणाम् / / द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी / अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः / / 77 वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना // 92 वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम् / हरणं गृह्य संप्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने / शंतनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि / / 78 संप्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम् / / 93 तेजोशानां च संघाताद्भीष्मस्याप्यत्र संभवः / अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः।। राज्यान्निवर्तनं चैव ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः / / 79 मयस्य मोक्षो ज्वलनाद्भुजंगस्य च मोक्षणम् / प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च / महर्षेर्मन्दपालस्य शाङ्गयां तनयसंभवः / / 94 हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः // 80 इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहुविस्तरम् / विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये संप्रतिपादनम् / अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा / धर्मस्य नृषु संभूतिरणीमाण्डव्यशापजा / / 81 अष्टादशैव चाध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा / 95 कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिवरदानजा। सप्त श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च / धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च संभवः / / 82 श्लोकाश्च चतुराशीतिदृष्टो ग्रन्थो महात्मना // 96 धारणावतयात्रा च मन्त्रो दुर्योधनस्य च। द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते / विदुरस्य च वाक्येन सुरुङ्गोपक्रमक्रिया // 83 सभाक्रिया पाण्डवानां किंकराणां च दर्शनम् // 97 पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम् / लोकपालसभाख्यानं नारदादेवदर्शनात् / घटोत्कचस्य चोत्पत्तिरत्रैव परिकीर्तिता / / 84 राजसूयस्य चारम्भो जरासंधवधस्तथा // 98 भबातचर्या पाण्डूनां वासो ब्राह्मणवेश्मनि / / गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम् / कस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः // 85 राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा // 99 बारपणं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा / यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्यान्वितस्य च / - 13 -
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________________ 1. 2. 100] महाभारते [1. 2. 128. दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले // 100 लोपामुद्राभिगमनमपत्यार्थमृषेरपि // 114 यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत् / ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनन्तरम् / यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत् // 101 - इन्द्रोऽग्निर्यत्र धर्मश्च अजिज्ञासशिबिं नृपम्। 115 यत्र द्यूतार्णवे मग्नान्द्रौपदी नौरिवार्णवात् / ऋश्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः / / तारयामास तांस्तीर्णाज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः। जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः / / 116 पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान् // 102. कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते / एतत्सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना / सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः // 117 अध्यायाः सप्ततिज्ञेयास्तथा द्वौ चात्र संख्यया। 103 शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्सोमपीथिनौ / श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च।। ताभ्यां च यत्र स मुनिरौवनं प्रतिपादितः // 118 श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः 104 जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः / .. अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत् / पुत्रार्थमयजद्राजा लेभे पुत्रशतं च सः // 119 पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः // 105 अष्टावक्रीयमत्रैव विवादे यत्र बन्दिनम् / वृष्णीनामागमो यत्र पाञ्चालानां च सर्वशः / विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानषिः // 120 यत्र सौभवधाख्यानं किर्मीरवध एव च / अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थे सव्यसाचिना / अस्सहेतोर्विवासश्च पार्थस्यामिततेजसः // 106 निवातकवचैयुद्धं हिरण्यपुरवासिभिः // 121 महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह / समागमश्च पार्थस्य भ्रातृभिर्गन्धमादने / / दर्शनं लोकपालानां स्वर्गारोहणमेव च // 107 घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र-युद्धं किरीटिनः // 122 दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षे वितात्मनः / पुनरागमनं चैव तेषां द्वैतवनं सरः। युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसने परिदेवनम् / / 108 जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात् // 123 नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम् / यत्रैनमन्वयादीमो वायुवेगसमो जवे / दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य व्यसनागमे // 109 मार्कण्डेयसमस्यायामुपाख्यानानि भागशः // 124 वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम् / संदर्शनं च कृष्णस्य संवादश्चैव सत्यया / स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता लोमशेनार्जुनस्य वै // 110 व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च // 125 तीर्थयात्रा तथैवात्र पाण्डवानां महात्मनाम् / सावित्र्योद्दालकीयं च वैन्योपाख्यानमेव च / जटासुरस्य तत्रैव वधः समुपवर्ण्यते // 111 रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम् // 126 नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने / कर्णस्य परिमोषोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरंदरात् / यत्र मन्दारपुष्पार्थ नलिनी तामधर्षयत् // 112 आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात्सुतम् / यत्रास्य सुमहद्युद्धमभवत्सह राक्षसैः। / जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम् / / 127 यज्ञैश्चापि महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा // 113 एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम् / आगस्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम् / अत्राध्यायशते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा / - 14 -
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________________ 1. 2 128] आदिपर्व [1. 2. 156 एकोनसप्ततिश्चैव तथाध्यायाः प्रकीर्तिताः // 128 / विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च / एकादश सहस्राणि श्लोकानां पटतानि च / श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्र मनीषिणम् // 142 चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वैतत्परिकीर्तितम् // 129 तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम् / अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्वविस्तरम् / मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः।। 143 विराटनगरं गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम् / प्रभाते राजसमिती संजयो यत्र चाभिभोः / दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा आयुधान्युत // 130 ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च // 144 यत्र प्रविश्य नगरं छद्मभिर्यवसन्त ते। यत्र कृष्णो दयापन्नः संधिमिच्छन्महायशाः / दुरात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात् / / 131 स्वयमागाच्छमं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम् / / 145 गोग्रहे यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि / प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै / गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः / / 132 शमार्थ याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम् / / 146 विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः / कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मत्रितम् / अभिमन्युं समुद्दिश्य सौभद्रमरिघातिनम् / / 133 योगेश्वरत्वं कृष्णेन यत्र राजसु दर्शितम् / / 147 चतुर्थमेतद्विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम् / रथमारोप्य- कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमत्रितः / अत्रापि परिसंख्यातमध्यायानां महात्मना // 134 उपायपूर्वं शौण्डीर्यात्प्रत्याख्यातश्च तेन सः / / 148 सप्तषष्टिरथो पूर्णा श्लोकाग्रमपि मे शृणु। ततश्चाप्यभिनिर्यात्रा रथाश्वनरदन्तिनाम् / श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु।। नगराद्धास्तिनपुरावलसंख्यानमेव च // 149 पर्वण्यस्मिन्समाख्याताः संख्यया परमर्षिणा / / 135 यत्र राज्ञा उल्लूकस्य प्रेषणं पाण्डवान्प्रति / उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम् / श्वोभाविनि महायुद्धे दूत्येन क्रूरवादिना / उपप्लव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया / रथातिरथसंख्यानमम्बोपाख्यानमेव च // 150 दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ // 136 एतत्सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते। साहाय्यमस्मिन्समरे भवान्नी कर्तुमर्हति / उद्योगपर्व निर्दिष्टं संधिविग्रहसंश्रितम् // 151 इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः // 137 अध्यायाः संख्यया त्वत्र षडशीतिशतं स्मृतम् / अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ / श्लोकानां षट् सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च। 152 अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य वा किं ददाम्यहम् 138 श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना / क्ने दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः। व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः // 153 अयुध्यमानं सचिवं वत्रे कृष्णं धनंजयः // 139 अत ऊर्ध्वं विचित्रार्थ भीष्मपर्व प्रचक्षते / संजयं प्रेषयामास शमार्थं पाण्डवान्प्रति / जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह / / 154 यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान् // 140 यत्र युद्धमभूद्वोरं दशाहान्यतिदारुणम् / भुत्वा च पाण्डवान्यत्र वासुदेवपुरोगमान् / यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्परम् / / 155 प्रजागरः संप्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया // 141 कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः / - 15 -
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________________ 1. 2. 156] महाभारते [1. 2. 181 मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः // 156 सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः। शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः / आख्यातं यत्र पौराणं त्रिपुरस्य निपातनम् // 169 विनिम्नन्निशितैर्बाणै रथाद्भीष्ममपातयत् // 157 प्रयाणे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः / षष्ठमेतन्महापर्व भारते परिकीर्तितम् / हंसकाकीयमाख्यानमत्रैवाक्षेपसंहितम् // 170 अध्यायानां शतं प्रोक्तं सप्तदश तथापरे // 158 अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः / पञ्च श्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च / द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः॥ 171 श्लोकाश्च चतुराशीतिः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः / अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्भारतचिन्तकैः / व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि // 159 एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि / द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते / चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च // 172 यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात् // 160 अतः परं विचित्रार्थ शल्यपर्व प्रकीर्तितम् / भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि / हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत् // 173 सुप्रतीकेन नागेन सह शस्तः किरीटिना // 161 वृत्तानि रथयुद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः / यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुर्लोकमहारथाः / विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते // 174 जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम् / / 162 शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महारथात् / हतेऽभिमन्यौ क्रुद्वेन यत्र पार्थेन संयुगे। गदायुद्धं तु तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम / अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः / सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता / / 175 संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे // 163 नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत् / अलम्बुसः श्रुतायुश्च जलसंधश्च वीर्यवान् / एकोनषष्टिरध्यायास्तत्र संख्याविशारदैः॥ 176 सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः / संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकाग्रं चात्र शस्यते / घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि // 164 त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा / अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते / मुनिना संप्रणीतानि कौरवाणां यशोभृताम् // 177 असं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः // 165 अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम् / सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम् / भग्नोरं यत्र राजानं दुर्योधनममर्पणम् // 178 अत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः / व्यपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः / द्रोणपर्वणि ये शूरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः // 166 कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षिताः // 179 अध्यायानां शतं प्रोक्तमध्यायाः सप्ततिस्तथा / प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणियंत्र महारथः / अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च / / 167 अहत्वा सर्वपाञ्चालान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान / श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना / पाण्डवांश्च सहामात्यान्न विमोक्ष्यामि दंशनम् 180 पाराशर्येण मुनिना संचिन्त्य द्रोणपर्वणि / / 168 / प्रसुप्तान्निशि विश्वस्तान्यत्र ते पुरुषर्षभाः / कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम् / पाञ्चालान्सपरीवाराञ्जन्नुद्रौणिपुरोगमाः // 181 - 16 -
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________________ 1. 2. 182] आदिपर्व [1. 2. 208 यत्रामुच्यन्त पार्थास्ते पञ्च कृष्णबलाश्रयात् / अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम् / सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः॥१८२ यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः / द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता / घातयित्वा पितॄन्भ्रातृन्पुत्रान्संबन्धिबान्धवान् 196 कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तृनुपाविशत् // 183 / शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताः शरतल्पिकाः। द्रौपदीवचनाद्यत्र भीमो भीमपराक्रमः / राजभिर्वेदितव्या ये सम्यङ् नयबुभुत्सुभिः॥ 197 अन्वधावत संक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम् / / 184 आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शकाः। भीमसेनभयाद्यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः / यान्बुवा पुरुषः सम्यक्सर्वज्ञत्वमवाप्नुयात् / अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासृजत् // 185 मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः॥ 198 मैवमित्यब्रवीत्कृष्णः शमयंस्तस्य तद्वचः। द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्प्राज्ञजनप्रियम् / यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः॥ 186 / पर्वण्यत्र परिज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम् / द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः / त्रिंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधनाः // 199. तोयकर्मणि सर्वेषां राज्ञामुदकदानिके // 187 श्लोकानां तु सहस्राणि कीर्तितानि चतुर्दश / गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयात्मनः / पञ्च चैव शतान्याहुः पञ्चविंशतिसंख्यया / / 200 सुतस्यैतदिह प्रोक्तं दशमं पर्व सौप्तिकम् // 188 अत ऊर्ध्वं तु विज्ञेयमानुशासनमुत्तमम् / अष्टादशास्मिन्नध्यायाः पर्वण्युक्ता महात्मना / यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम् / लोकाप्रमत्र कथितं शतान्यष्टौ तथैव च // 189 भीष्माद्भागीरथीपुत्रात्कुरुराजो युधिष्ठिरः // 201 श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता यथावदभिसंख्यया / व्यवहारोऽत्र कास्न्यून धर्मार्थीयो निदर्शितः / सौप्तिकैषीकसंबन्धे पर्वण्यमितबुद्धिना / / 190 विविधानां च दानानां फलयोगाः पृथग्विधाः 202 अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम् / / तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः। विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः / आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः॥२०३ क्रोधावेशः प्रसादश्चं गान्धारीधृतराष्ट्रयोः // 191 एतत्सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम् / यत्र तान्क्षत्रियाशूरान्दिष्टान्ताननिवर्तिनः / भीष्मस्यात्रैव संप्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता / 204 पुत्रान्भ्रातृन्पितॄश्चैव ददृशुनिहतारणे // 192 एतत्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम् / यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः।। अध्यायानां शतं चात्र षट्चत्वारिंशदेव च। राज्ञां तानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः।। 193 श्लोकानां तु सहस्राणि षट् सप्पैव शतानि च // 205 एतदेकादशं प्रोक्तं पर्वातिकरुणं महत् / ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम् / सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन्नुदाहृताः॥ 194 तत्संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम् // 206 झोकाः सप्तशतं चात्र पञ्चसप्ततिरुच्यते। सुवर्णकोशसंप्राप्तिर्जन्म चोक्तं परिक्षितः / संख्यया भारताख्यानं कर्ता ह्यत्र महात्मना / दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात्संजीवनं पुनः // 207 प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम् / / 195 / चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः। म.भा.३ -17 -
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________________ 1. 2. 208] महाभारते [1. 2. 235 तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः // 208 यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ / चित्राङ्गदायाः पुत्रेण पुत्रिकाया धनंजयः। नातिचक्रमतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं समम् // 222 संग्रामे बभ्रुवाहेन संशयं चात्र दर्शितः / यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम् / अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च // 209 दृष्ट्वा विषादमगमत्परां चार्तिं नरर्षभः // 223 इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम् / स सत्कृत्य यदुश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः / अत्राध्यायशतं त्रिंशत्रयोऽध्यायाश्च शब्दिताः 210 ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत् // 224 त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च / शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः / विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना 211 संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः॥ 225 तत आश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्।। स वृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम् / यत्र राज्यं परित्यज्य गान्धारीसहितो नृपः / ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम // 226 धृतराष्ट्राश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह // 212 सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम् / यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा / नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रभावानामनित्यताम् // 227 पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता // 213 दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः / यत्र राजा हतान्पुत्रान्पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान् / धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत् / / 228 लोकान्तरगतान्वीरानपश्यत्पुनरागतान् // 214 इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम् / ऋषेः प्रसादात्कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम् / अध्यायाष्टौ समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम्२२९ त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः॥२१५ महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम् / यत्र धर्म समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः / यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः। संजयश्च महामात्रो विद्वान्गावल्गणिर्वशी // 216 द्रौपद्या सहिता देव्या सिद्धिं परमिकां गताः॥२३० ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः / अत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शतं तथा। नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत् // 217 / / विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना 231 एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं सुमहाद्भुतम् / स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत्तदमानुषम् / द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसंख्यया // 218 अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वैतदभिसंख्यया / सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्च श्लोकशतानि च। श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधनाः / / 232 षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना // 219 अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्यशेषतः / अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम् / खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यच्च प्रकीर्तितम् // 233 यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शसहा युधि / एतदखिलमाख्यातं भारतं पर्वसंग्रहात् / ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः॥२२० / अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया / आपाने पानगलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः।। तन्महदारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत् // 234 एरकारूपिभिर्वत्रैर्निजन्नुरितरेतरम् // 221 / यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदान्द्विजः / - 18 -
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________________ 1. 2. 235] आदिपर्व [1. 3. 15 न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः // 235 गच्छत् // 2 // तं माता रोरूयमाणमुवाच। किं श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते / रोदिषि / केनास्यभिहत इति // 3 // स एवमुक्तो पुंस्कोकिलरुतं श्रुत्वा रूक्षा ध्वावस्य वागिव / / 236 मातरं प्रत्युवाच / जनमेजयस्य भ्रातृभिरभिहतोइतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः / ऽस्मीति // 4 // तं माता प्रत्युवाच / व्यक्तं त्वया पञ्चभ्य इव भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः // 237 तत्रापराद्धं येनास्यभिहत इति // 5 // स तां पुनरुअस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः / / वाच / नापराध्यामि किंचित् / नावेक्षे हवींषि अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः // 238 नावलिह इति // 6 // तच्छ्रत्वा तस्य माता सरमा क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः / पुत्रशोकार्ता तत्सत्रमुपागच्छद्यत्र स जनमेजयः सह इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनःक्रियाः।।२३.९ भ्रातृभिर्दीर्घसत्रमुपास्ते // 7 // स तया क्रुद्धया अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते / तत्रोक्तः / अयं मे पुत्रो न किंचिदपराध्यति / आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम् // 240 किमर्थमभिहत इति / यस्माच्चायमभिहतोऽनपकारी इदं सर्वैः कविवरैराख्यानमुपजीव्यते / तस्माददृष्टं त्वां भयमागमिष्यतीति / / 8 / / स जनउदयप्रेप्सुभिर्भूत्यैरभिजात इवेश्वरः // 241 मेजय एवमुक्तो देवशुन्या सरमया दृढं संभ्रान्तो द्वैपायनोष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं विषण्णश्वासीत् // 9 // : पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च / स तस्मिन्सत्रे समाप्ते हास्तिनपुरं प्रत्येत्य पुरोयो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं हितमनुरूपमन्विच्छमानः परं यत्नमकरोद्यो मे पाप... किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन / 242 कृत्यां शमयेदिति // 10 // स कदाचिन्मृगयां आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं यातः पारिक्षितो जनमेजयः कस्मिंश्चित्स्वविषयोद्देशे विन्यसं महदिह पर्वसंग्रहेण / आश्रममपश्यत् // 11 // तत्र कश्चिदृषिरासांचके .. श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं श्रुतश्रवा नाम / तस्याभिमतः पुत्र आस्ते सोमश्रवा विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन // 243 नाम / / 12 // तस्य तं पुत्रमभिगम्य जनमेजयः " इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः // 2 // पारिक्षितः पौरोहित्याय वने // 13 // स नमसमाप्त पर्वसंग्रहपर्व॥ स्कृत्य तमृषिमुवाच / भगवन्नयं तव पुत्रो मम पुरोहितोऽस्त्विति // 14 // स एवमुक्तः प्रत्युवाच। सूत उवाच / भोजनमेजय पुत्रोऽयं मम सर्यों जातः। महातपस्वी . जनमेजयः पारिक्षितः सह भ्रातृभिः कुरुक्षेत्रे स्वाध्यायसंपन्नो मत्तपोवीर्यसंभृतो मच्छुकं पीतदीर्घसत्रमुपास्ते। तस्य भ्रातरस्त्रयः श्रुतसेन उग्रसेनो वत्यास्तस्याः कुक्षौ संवृद्धः / समर्थोऽयं भवतः मीमसेन इति // 1 // तेषु तत्सत्रमुपासीनेषु तत्र सर्वाः पापकृत्याः शमयितुमन्तरेण महादेवकृत्याम् / श्वाभ्यागच्छत्सारमेयः / स जनमेजयस्य भ्रा- अस्य त्वेकमुपांशुव्रतम् / यदेनं कश्चिद्राह्मणः खमिरमिहतो रोरूयमाणो मातुः समीपमुपा- | कंचिदर्थमभियाचेत्तं तस्मै दद्यादयम् / यद्येत -19 -
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________________ 1. 3. 15 ] महाभारते [1. 3. 43 दुत्सहसे ततो नयस्वैनमिति // 15 // तेनैवमुक्तो | पाध्यायोऽब्रवीत् / यस्माद्भवान्केदारखण्डमवदार्योजनमेजयस्तं प्रत्युवाच / भगवंस्तथा भविष्य- त्थितस्तस्माद्भवानुद्दालक एव नाम्ना भविष्यतीति तीति // 16 // // 29 // स उपाध्यायेनानुगृहीतः / यस्मात्त्वया ____ स तं पुरोहितमुपादायोपावृत्तो भ्रातृनुवाच / मद्वचोऽनुष्ठितं तस्माच्छ्रेयोऽवाप्स्यसीति / सर्वे च ते मयायं वृत उपाध्यायः / यदयं ब्रूयात्तत्कार्यमविचा- वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति रयद्भिरिति // 17 // तेनैवमुक्ता भ्रातरस्तस्य तथा // 30 // स एवमुक्त उपाध्यायेनेष्टं देशं जगाम चक्रुः / स तथा भ्रातृन्संदिश्य तक्षशिलां प्रत्यभिप्र- // 31 // तस्थे। तं च देशं वशे स्थापयामास / / 18 // ___ अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्योपमन्यु___एतस्मिन्नन्तरे कश्चिदृषिधौम्यो नामायोदः / तस्य नाम // 32 // तमुपाध्यायः प्रेषयामास / वत्सोपशिष्यास्त्रयो बभूवुरुपमन्युरारुणिर्वेदश्चेति // 19 // मन्यो गा रक्षस्वेति // 33 // स उपाध्यायवचनास एकं शिष्यमारुणिं पाञ्चाल्यं प्रेषयामास / गच्छ दरक्षद्गाः / स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षयेऽभ्याकेदारखण्डं बधानेति // 20 // स उपाध्यायेन गम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे // 34 // तसंदिष्ट आरुणिः पाञ्चाल्यस्तत्र गत्वा तत्केदारखण्ड मुपाध्यायः पीवानमपश्यत् / उवाच चैनम् / वत्सोपबर्बु नाशक्नोत् // 21 // स क्लिश्यमानोऽपश्य- मन्यो केन वृत्तिं कल्पयसि। पीवानसि दृढमिति दुपायम् / भवत्वेवं करिष्यामीति // 22 // स तत्र // 35 // स उपाध्यायं प्रत्युवाच / भैक्षेण वृत्ति संविवेश केदारखण्डे / शयाने तस्मिंस्तदुदकं कल्पयामीति // 36 // तमुपाध्यायः प्रत्युवाच / तस्थौ // 23 // . ममानिवेद्य भैक्षं नोपयोक्तव्यमिति // 37 // ___ ततः कदाचिदुपाध्याय आयोदो धौम्यः शिष्या- ___स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद्गाः। रक्षित्वा चागम्य नपृच्छत् / क आरुणिः पाञ्चाल्यो गत इति // 24 // तथैवोपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे // 38 // ते प्रत्यूचुः / भगवतैव प्रेषितो गच्छ केदारखण्डं तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वोवाच / वत्सोपबधानेति // 25 // स एवमुक्तस्ताशिष्यान्प्रत्यु- मन्यो सर्वमशेषतस्ते भैक्षं गृह्णामि / केनेदानी वृत्ति वाच / तस्मात्सर्वे तत्र गच्छामो यत्र स इति // 26 कल्पयसीति // 39 // स एवमुक्त उपाध्यायेन स तत्र गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार। भो आरुणे प्रत्युवाच / भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि / पाश्चाल्य कासि / वत्सैहीति // 27 // स तच्छ्रुत्वा तेन वृत्तिं कल्पयामीति // 40 // तमुपाध्यायः आरुणिरुपाध्यायवाक्यं तस्मात्केदारखण्डात्सहसो- प्रत्युवाच / नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिः / अन्येषात्थाय तमुपाध्यायमुपतस्थे / प्रोवाच चैनम् / अयम- मपि वृत्त्युपरोधं करोष्येवं वर्तमानः / लुब्धोस्म्यत्र केदारखण्डे निःसरमाणमुदकमवारणीयं संरोद्धं ऽसीति // 41 // संविष्टो भगवच्छब्दं श्रुत्वैव सहसा विदार्य केदार- स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत् / रक्षित्वा च पुनखण्डं भवन्तमुपस्थितः। तदभिवादये भगवन्तम्।। रुपाध्यायगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमआज्ञापयतु भवान् / किं करवाणीति // 28 // तमु- / श्चक्रे // 42 // तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वा -20 -
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________________ 1. 3. 43] आदिपर्व [1. 3. 65 पुनरुवाच। अहं ते सर्वं भैक्षं गृह्णामि न चान्यच्चरसि। उपाध्याय कूपे पतित इति // 55 // तमुपाध्यायः पीवानसि / केन वृत्तिं कल्पयसीति // 43 // स प्रत्युवाच। कथमसि कूपे पतित इति // 56 // स तं उपाध्यायं प्रत्युवाच / भो एतासां गवां पयसा वृत्ति प्रत्युवाच / अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतोऽस्मि / कल्पयामीति // 44 // तमुपाध्यायः प्रत्युवाच / अतः कूपे पतित इति // 57 // तमुपाध्यायः प्रत्युनैतन्याय्यं पय उपयोक्तुं भवतो मयाननुज्ञात- वाच / अश्विनौ स्तुहि / तौ त्वां चक्षुष्मन्तं मिति // 45 // करिष्यतो देवभिषजाविति / / 58 // स एवमुक्त .. स तथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनरुपाध्याय- उपाध्यायेन स्तोतुं प्रचक्रमे देवावश्विनौ वाग्भिगृहानेत्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे // 46 / / तमु- ऋग्भिः // 59 // पाध्यायः पीवानमेवापश्यत् / उवाच चैनम् / भैक्षं प्र पूर्वगौ पूर्वजो चित्रभानू नाभासि न चान्यच्चरसि / पयो न पिबसि / पीवा गिरा वा शंसामि तपनावनन्तो / नसि / केन वृत्तिं कल्पयसीति // 47 // स एवमुक्त दिव्यौ सुपर्णी विरजौ विमानाउपाध्यायं प्रत्युवाच / भोः फेनं पिबामि यमिमे ___वधिक्षियन्तौ भुवनानि विश्वा / / 60 क्सा मातृणां स्तनं पिबन्त उद्गिरन्तीति // 48 / / हिरण्मयौ शकुनी सांपरायौ वमुपाध्यायः प्रत्युवाच / एते त्वदनुकम्पया गुण नासत्यदस्रौ सुनसौ वैजयन्ती / पन्तो वत्साः प्रभूततरं फेनमुद्गिरन्ति / तदेवमपि शुक्रं वयन्तौ तरसा सुवेमावत्सानां वृत्त्युपरोध करोष्येवं वर्तमानः / फेनमपि वभि व्ययन्तावसितं विवस्वत् // 61 भवान्न पातुमर्हतीति // 49 // ग्रस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिका..स तथेति प्रतिज्ञाय निराहारस्ता गा अरक्षत् / ___ ममुञ्चतामश्विनौ सौभगाय / तथा प्रतिषिद्धो भैक्षं नानाति न चान्यच्चरति / तावत्सुवृत्तावनमन्त मायया पयो न पिबति / फेनं नोपयुते // 50 // स कदा सत्तमा गा अरुणा उदावहन् // 62 चिदरण्ये क्षुधार्तोऽर्कपत्राण्यभक्षयत // 51 // स षष्टिश्च गावस्त्रिशताश्च धेनव तैरपत्रैक्षितैः क्षारकटूष्णविपाकिभिश्चक्षुष्युपहतो एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति / न्धोऽभवत् / सोऽन्धोऽपि चकम्यमाणः कूपे- नानागोष्ठा विहिता एकदोहनाऽपतत् // 52 // __स्तावश्विनौ दुहतो घर्ममुक्थ्य म् / / 63 . i. अथ तस्मिन्ननागच्छत्युपाध्यायः शिष्यानयो- एकां नाभिं सप्तशता अराः श्रिताः पात् / मयोपमन्युः सर्वतः प्रतिषिद्धः / स नियतं प्रधिष्वन्या विंशतिरर्पिता अराः / अपितः / ततो नागच्छति चिरगतश्चेति // 53 // अनेमि चक्रं परिवर्ततेऽजरं सा एवमुक्त्वा गत्वारण्यमुपमन्योराह्वानं चक्रे / भो मायाश्विनी समनक्ति चर्षणी // 64 अपमन्यो क्कासि / वत्सैहीति // 54 // स तदाह्वान- एकं चक्रं वर्तते द्वादशारं प्रधिसध्यायाच्छ्रुत्वा प्रत्युवाचोच्चैः / अयमस्मि भो षण्णाभिमेकाक्षममृतस्य धारणम् / -21
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________________ 1. 3. 65 ] महाभारते [1. 3. 86 यस्मिन्देवा अधि विश्वे विषक्ता एवमुक्तः पुनरेव प्रत्युवाचैतौ। प्रत्यनुनये भवन्तास्तावश्विनौ मुञ्चतो मा विषीदतम्॥६५ वश्विनौ / नोत्सहेऽहमनिवेद्योपाध्यायायोपयोक्तुमिति अश्विनाविन्द्रममृतं वृत्तभूया // 74 // तमश्विनावाहतुः / प्रीतौ स्वस्तवानया तिरोधत्तामश्विनौ दासपत्नी। गुरुवृत्त्या / उपाध्यायस्य ते कार्णायसा दन्ताः। भित्त्वा गिरिमश्विनौ गामुदाचरन्ती भवतो हिरण्मया भविष्यन्ति / चक्षुष्मांश्च भविष्य तद्वृष्टमह्ना प्रथिता वलस्य // 66 सि। श्रेयश्चावाप्स्यसीति // 75 // स एवमुक्तोयुवां दिशो जनयथो दशाग्रे ऽश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्योपाध्यासमानं मूर्ध्नि रथया वियन्ति / यमभिवाद्याचचक्षे / स चास्य प्रीतिमानभूत् // 76 // तासां यातमृषयोऽनुप्रयान्ति आह चैनम् / यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोऽवादेवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति // 67 प्स्यसीति / सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्तीति युवां वर्णान्विकुरुथो विश्वरूपां // 77 / / एषा तस्यापि परीक्षोपमन्योः // 78 / / ___स्तेऽधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा / ___ अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो ते भानयोऽप्यनुसृताश्चरन्ति नाम // 79 // तमुपाध्यायः संदिदेश / वत्स वेद देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति / / 68 इहास्यताम् / भवता मद्गृहे कंचित्कालं शुश्रूषमाणेन तौ नासत्यावश्विनावामहे वां भवितव्यम् / श्रेयस्ते भविष्यतीति // 80 // स तथे___ स्रजं च यां बिभृथः पुष्करस्य / त्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरोऽवसत् / तौ नासत्यावमृतावृतावृधा गौरिव नित्यं गुरुषु धूर्षु नियुज्यमानः शीतोष्णक्षुत्तृवृते देवास्तत्प्रपदेन सूते // 69 ष्णादुःखसहः सर्वत्राप्रतिकूलः // 81 // तस्य महता मुखेन गर्भ लभतां युवानी कालेन गुरुः परितोषं जगाम / तत्परितोषाच्च श्रेयः गतासुरेतत्प्रपदेन सूते। सर्वज्ञतां चावाप / एषा तस्यापि परीक्षा वेदसद्यो जातो मातरमत्ति गर्भ-. स्य // 82 // स्तावश्विनौ मुञ्चथो जीवसे गाः॥७० स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृत्तस्तस्माद्गुरुकुलएवं तेनाभिष्टुतावश्विनावाजग्मतुः। आहतुश्चैनम्। वासाद्गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत। तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रयः प्रीतौ स्वः / एष तेऽपूपः / अशानैनमिति // 71 // शिष्या बभूवुः // 83 // स शिष्यान्न किंचिदुवाच। स एवमुक्तः प्रत्युवाच / नानृतमूचतुर्भवन्तौ / न कर्म वा क्रियतां गुरुशुश्रूषा वेति / दुःखाभिज्ञो त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहे अनिवेद्य गुरव इति / हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान्परिक्लेशेन योजयितुं // 72 // ततस्तमश्विनावूचतुः। आवाभ्यां पुरस्ता- नेयेष // 84 // द्भवत उपाध्यायेनैवमेवाभिष्टुताभ्यामपूपः प्रीताभ्यां ___ अथ कस्यचित्कालस्य वेदं ब्राह्मणं जनमेजयः दत्तः / उपयुक्तश्च स तेनानिवेद्य गुरवे / त्वमपि / पौष्यश्च क्षत्रियावुपेत्योपाध्यायं वरयांचऋतुः // 85 // तथैव कुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति // 73 // स / स कदाचिद्याज्यकार्येणाभिप्रस्थित उत्तकं नाम शिष्यं -22 -
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________________ 1. 3. 86] आदिपर्व [1. 3. 111 नियोजयामास / भो उत्तङ्क यत्किंचिदस्मद्गृहे परि- एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायिनीमपृच्छत्। भवत्युपाहीयते तदिच्छाम्यहमपरिहीणं भवता क्रियमाण- ध्यायेनास्म्यनुज्ञातो गृहं गन्तुम् / तदिच्छामीष्टं ते मिति / / 86 // स एवं प्रतिसमादिश्योत्तकं वेदः गुर्वर्थमुपहृत्यानृणो गन्तुम् / तदाज्ञापयतु भवती / प्रवास जगाम // 87 // किमुपहरामि गुर्वर्थमिति // 99 / / सैवमुक्तोपाध्यायिअथोत्तङ्को गुरुशुश्रूषुर्गुरुनियोगमनुतिष्ठमानस्तत्र न्युत्तकं प्रत्युवाच / गच्छ पौष्यं राजानम् / भिक्षस्व गुरुकुले वसति स्म।।८८॥स वसंस्तत्रोपाध्यायस्त्रीभिः तस्य क्षत्रियया पिनद्धे कुण्डले / ते आनयस्व / सहिताभिराहूयोक्तः / उपाध्यायिनी ते ऋतुमती / इतश्चतुर्थेऽहनि पुण्यकं भविता / ताभ्यामाबद्धाभ्यां उपाध्यायश्च प्रोषितः / अस्या यथायमृतुर्वन्ध्यो न ब्राह्मणान्परिवेष्टुमिच्छामि / शोभमाना यथा ताभ्यां भवति तथा क्रियताम् / एतद्विषीदतीति // 89 / / स कुण्डलाभ्यां तस्मिन्नहनि संपादयस्व / श्रेयो हि एवमुक्तस्ताः स्त्रियः प्रत्युवाच / न मया स्त्रीणां वच- ते स्यात्क्षणं कुर्वत इति // 10 // नादिदमकार्य कार्यम् / न ह्यहमुपाध्यायेन संदिष्टः / स एवमुक्त उपाध्यायिन्या प्रातिष्ठतोत्तङ्कः / स अकार्यमपि त्वया कार्यमिति // 90 // तस्य पुनरुपा- पथि गच्छन्नपश्यदृषभमतिप्रमाणं तमधिरूढं च पुरुघ्यायः कालान्तरेण गृहानुपजगाम तस्मात्प्रवासात् / षमतिप्रमाणमेव // 101 // स पुरुष उत्तमभ्यस तद्वृत्तं तस्याशेषमुपलभ्य प्रीतिमानभूत् // 91 // भाषत / उत्तङ्केतत्पुरीषमस्य ऋषभस्य भक्षयस्वेति उवाच चैनम् / वत्सोत्तङ्क किं ते प्रियं करवाणीति / // 102 // स एवमुक्तो नैच्छत् // 103 // तमाह धर्मतो हि शुश्रूषितोऽस्मि भवता / तेन प्रीतिः पर- पुरुषो भूयः / भक्षयस्वोत्तङ्क। मा विचारय / उपासरेण नौ संवृद्धा / तदनुजाने भवन्तम् / सर्वामेव ध्यायेनापि ते भक्षितं पूर्वमिति // 104 // स एवसिद्धि प्राप्स्यसि। गम्यतामिति // 92 // स एवमुक्तः मुक्तो बाढमित्युक्त्वा तदा तदृषभस्य पुरीषं मूत्रं च प्रत्युवाच / किं ते प्रियं करवाणीति / एवं भक्षयित्वोत्तङ्कः प्रतस्थे यत्र स क्षत्रियः पौष्यः माहुः // 93 // // 105 // 'यश्चाधर्मेण विब्रूयाद्यश्चाधर्मेण पृच्छति / / तमुपेत्यापश्यदुत्तङ्क आसीनम् / स तमुपेत्याशी.: तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति // 94 भिरभिनन्द्योवाच / अर्थी भवन्तमुपगतोऽस्मीति सोऽहमनुज्ञातो भवता इच्छामीष्टं ते गुर्वर्थमुपहर्तु- // 106 // स एनमभिवाद्योवाच / भगवन्पौष्यः मिति॥९५॥ तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच / वत्सो- खल्वहम् / किं करवाणीति // 107 // तमुवाचोचक्क उष्यतां तावदिति॥९६।। स कदाचित्तमुपाध्या- तङ्कः / गुर्वर्थे कुण्डलाभ्यामागतोऽस्मीति ये ते माहोत्तङ्कः / आज्ञापयतु भवान् / किं ते प्रियमुप- क्षत्रियया पिनद्धे कुण्डले ते भवान्दातुमर्हतीति इरामि गुर्वर्थमिति // 97 // तमुपाध्यायः प्रत्युवाच / // 108 // तं पौष्यः प्रत्युवाच। प्रविश्यान्तःपुरं बसोत्तङ्क बहुशो मां चोदयसि गुर्वर्थमुपहरेथमिति। क्षत्रिया याच्यतामिति // 109 // स तेनैवमुक्तः उद्गच्छ। एनां प्रविश्योपाध्यायिनी पृच्छ किमुप- प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रियां नापश्यत् // 110 // स इरामीति / एषा यद्वीति तदुपहरस्वेति // 98 // स / पौष्यं पुनरुवाच / न युक्तं भवता वयमनृतेनोपच -23
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________________ 1. 3. 111] महाभारते [1. 3. 136 रितुम् / न हि ते क्षत्रियान्तःपुरे संनिहिता। नैनां तेति // 124 // स तथेत्युक्त्वा यथोपपन्नेनान्नेपश्यामीति // 111 // स एवमुक्तः पौष्यस्तं प्रत्यु- नैनं भोजयामास / / 125 // वाच / संप्रति भवानुच्छिष्टः / स्मर तावत् / न हि ____ अथोत्तङ्कः शीतमन्नं सकेशं दृष्ट्वा अशुच्येतदिति सा क्षत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना वा शक्या द्रष्टुम् / मत्वा पौष्यमुवाच / यस्मान्मे अशुच्यन्नं ददासि पतिव्रतात्वादेषा नाशुचेर्दर्शनमुपैतीति // 112 // तस्मादन्धो भविष्यसीति // 126 // तं पौष्यः अथैवमुक्त उत्तङ्कः स्मृत्वोवाच / अस्ति खलु मयो- प्रत्युवाच / यस्मात्त्वमप्यदुष्टमन्नं दूषयसि तस्मादनच्छिष्टेनोपस्पृष्टं शीघ्रं गच्छता चेति // 113 // तं पत्यो भविष्यसीति // 127 // सोऽथ पौष्यस्तस्यापौष्यः प्रत्युवाच / एतत्तदेवं हि / न गच्छतोपस्पृष्टं शुचिभावमन्नस्यागमयामास / / 128 // अथ तदन्नं भवति न स्थितेनेति // 114 // अथोत्तङ्कस्तथे- मुक्तकेश्या स्त्रियोपहृतं सकेशमशुचि मत्वोत्तत त्युक्त्वा प्राङ्मुख उपविश्य सुप्रक्षालितपाणिपादवद- प्रसादयामास / भगवन्नज्ञानादेतदन्नं सकेशमुपहृतं नोऽशब्दाभिर्हृदयंगमाभिरद्भिरुपस्पृश्य त्रिः पीत्वा शीतं च / तत्क्षामये भवन्तम् / न भवेयमन्ध इति द्विः परिमृज्य खान्यद्भिरुपस्पृश्यान्तःपुरं प्रविश्य // 129 // तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच / न मृषा ब्रवीमि / तां क्षत्रियामपश्यत् // 115 // भूत्वा त्वमन्धो नचिरादनन्धो भविष्यसीति / ममापि . सा च दृष्ट्वैवोत्तमभ्युत्थायाभिवाद्योवाच / / शापो न भवेद्भवता दत्त इति // 130 // तं पौष्यः स्वागतं ते भगवन् / आज्ञापय किं करवाणीति प्रत्युवाच / नाहं शक्तः शापं प्रत्यादातुम् / न हि // 116 // स तामुवाच / एते कुण्डले गुर्व) मे मे मन्युरद्याप्युपशमं गच्छति / किं चैतद्भवता न भिक्षिते दातुमर्हसीति // 117 // सा प्रीता तेन ज्ञायते यथा // 131 // तस्य सद्भावेन पात्रमयमनतिक्रमणीयश्चेति मत्वा ते नावनीतं हृदयं ब्राह्मणस्य कुण्डले अवमुच्यास्मै प्रायच्छत् / / 118 // आह __वाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः / चैनम् / एते कुण्डले तक्षको नागराजः प्रार्थयति / विपरीतमेतदुभयं क्षत्रियस्य अप्रमत्तो नेतुमर्हसीति // 119 // स एवमुक्तस्तां . वाङ् नावनीती हृदयं तीक्ष्णधारम् // 132 // क्षत्रियां प्रत्युवाच / भवति सुनिवृता भव / न मां इति / तदेवं गते न शक्तोऽहं तीक्ष्णहृदयत्वात्तं शक्तस्तक्षको नागराजो धर्षयितुमिति // 120 // शापमन्यथा कर्तुम् / गम्यतामिति / / 133 // तमु स एवमुक्त्वा तां क्षत्रियामामन्त्र्य पौष्यसकाश- त्तङ्कः प्रत्युवाच / भवताहमन्नस्याशुचिभावमागमय्य मागच्छत् // 121 // स तं दृष्ट्वोवाच / भोः प्रत्यनुनीतः। प्राक्च तेऽभिहितम् / यस्माददुष्टमन्नं पौष्य प्रीतोऽस्मीति // 122 // तं पौष्यः प्रत्यु- दूषयसि तस्मादनपत्यो भविष्यसीति / दुष्टे चान्ने वाच / भगवंश्चिरस्य पात्रमासाद्यते / भवांश्च गुण- नैष मम शापो भविष्यतीति // 134 // साधयामवानतिथिः / तत्करिष्ये श्राद्धम् / क्षणः क्रियता- स्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्व मिति // 123 // तमुत्तङ्कः प्रत्युवाच / कृतक्षण // 135 // एवास्मि / शीघ्रमिच्छामि यथोपपन्नमन्नमुपहृतं भव- / सोऽपश्यत्पथि नग्नं श्रमणमागच्छन्तं मुहुर्मुहु -24--
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________________ 1. 3 136] आदिपर्व [1. 3. 160 दृश्यमानमदृश्यमानं च। अथोत्तङ्कस्ते कुण्डले भूमौ / चापश्यद्दर्शनीयम् // 148 // स तान्सर्वांस्तुष्टाव निक्षिप्योदकार्थं प्रचक्रमे // 136 // एतस्मिन्नन्तरे एभिर्मत्रवादश्लोकैः // 149 // स श्रमणस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा त्रीण्यर्पितान्यत्र शतानि मध्ये प्राद्रवत् / तमुत्तकोऽभिसृत्य जग्राह / स तद्रूपं / षष्टिश्च नित्यं चरति ध्रुवेऽस्मिन् / विहाय तक्षकरूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं चक्रे चतुर्विंशतिपर्वयोगे महाबिलं विवेश // 137 // प्रविश्य च नागलोकं ___ षड्यत्कुमाराः परिवर्तयन्ति // 150 स्वभवनमगच्छत् / तमुत्तकोऽन्वाविवेश तेनैव तत्रं चेदं विश्वरूपं युवत्यौ बिलेन / प्रविश्य च नागानस्तुवदेभिः श्लोकैः वयतस्तन्तून्सततं वर्तयन्त्यौ। // 138 // कृष्णान्सितांश्चैव विवर्तयन्त्यौ य ऐरावतराजानः सर्पाः समितिशोभनाः / भूतान्यजस्रं भुवनानि चैव // 151 वर्षन्त इव जीमूताः सविद्युत्पवनेरिताः // 139 वज्रस्य भर्ता भुवनस्य गोप्ता सुरूपाश्च विरूपाश्च तथा कल्माषकुण्डलाः / वृत्रस्य हन्ता नमुचेनिहन्ता। आदित्यवन्नाकपृष्ठे रेजुरैरावतोद्भवाः // 140 कृष्णे वसानो वसने महात्मा बहूनि नागवानि गङ्गायास्तीर उत्तरे / ___ सत्यानृते यो विविनक्ति लोके // 152 इच्छेत्कोऽकांशुसेनायां चर्तुमैरावतं विना // 141 यो वाजिनं गर्भमपां पुराणं तान्यशीतिरष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः / वैश्वानरं वाहनमभ्युपेतः। सर्पाणां प्रग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रो यदेजति // 142 नमः सदास्मै जगदीश्वराय ये चैनमुपसर्पन्ति ये च दूरं परं गताः / लोकत्रयेशाय पुरंदराय // 153 अहमैरावतज्येष्ठभ्रातृभ्योऽकरवं नमः // 143 ततः स एनं पुरुषः प्राह। प्रीतोऽस्मि तेऽहमयस्य वासः कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत्सदा / नेन स्तोत्रेण / किं ते प्रियं करवाणीति // 154 // संकाद्रवेयमस्तौषं कुण्डलार्थाय तक्षकम् // 144 स तमुवाच / नागा मे वशमीयुरिति // 155 // तक्षकश्चाश्वसेनश्च नित्यं सहचरावुभौ / स एनं पुरुषः पुनरुवाच / एतमश्वमपाने धमस्वेति कुरुक्षेत्रे निवसतां नदीमिक्षुमतीमनु // 145 // 156 // स तमश्वमपानेऽधमत् / अथाश्वाद्धम्यबधन्यजस्तक्षकस्य श्रुतसेनेति यः श्रुतः / मानात्सर्वस्रोतोभ्यः सधूमा अर्चिषोऽनेर्निष्पेतुः बक्सद्यो महद्दयुग्नि प्रार्थयन्नागमुख्यताम् / // 157 // ताभिर्नागलोको धूपितः // 158 // भरवाणि सदा चाहं नमस्तस्मै महात्मने // 146 अथ ससंभ्रमस्तक्षकोऽग्नितेजोभयविषण्णस्ते कुण्डले / एवं स्तुवन्नपि नागान्यदा ते कुण्डले नालभ- गृहीत्वा सहसा स्वभवनानिष्क्रम्योत्तङ्कमुवाच / एते पश्यस्त्रियौ तत्रे अधिरोप्य पटं वयन्त्यौ कुण्डले प्रतिगृह्णातु भवानिति // 159 // स ते // 147 // तस्मिंश्च तत्रे कृष्णाः सिताश्च तन्तवः।। प्रतिजग्राहोत्तङ्कः / कुण्डले प्रतिगृह्याचिन्तयत् / चापश्यत्वभिः कुमारैः परिवर्त्यमानम् / पुरुषं अद्य तत्पुण्यकमुपाध्यायिन्याः। दूरं चाहमभ्याम. भा. 4 - 25 -
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________________ 1. 3. 160 ] महाभारते [1. 3. 184 गतः / कथं न खलु संभावयेयमिति // 160 // वस्ते रात्र्यहनी // 172 // यदपि तच्चक्रं द्वादशारं तत एनं चिन्तयानमेव स पुरुष उवाच / उत्तङ्क षट् कुमाराः परिवर्तयन्ति ते ऋतवः षट् संवत्सरएनमश्वमधिरोह / एष त्वां क्षणादेवोपाध्यायकुलं श्चक्रम् / यः पुरुषः स पर्जन्यः / योऽश्वः सोऽग्निः प्रापयिष्यतीति / / 161 // // 173 // य ऋषभस्त्वया पथि गच्छता दृष्टः स स तथेत्युक्त्वा तमश्वमधिरुह्य प्रत्याजगामोपा- ऐरावतो नागराजः। यश्चैनमधिरूढः स इन्द्रः। ध्यायकुलम् / उपाध्यायिनी च स्नाता केशानावप- यदपि ते पुरीषं भक्षितं तस्य ऋषभस्य तदमृतम् यन्त्युपविष्टोत्तङ्को नागच्छतीति शापायास्य मनो // 174 // तेन खल्वसि न व्यापन्नस्तस्मिन्नागभवने। दधे // 162 // अथोत्तङ्कः प्रविश्य उपाध्यायिनी- स चापि मम सखा इन्द्रः // 175 // तदनुमभ्यवादयत् / ते चास्यै कुण्डले प्रायच्छत् // 163 // ग्रहात्कुण्डले गृहीत्वा पुनरभ्यागतोऽसि / तत्सौम्य सा चैनं प्रत्युवाच / उत्तङ्क देशे कालेऽभ्यागतः / गम्यताम् / अनुजाने भवन्तम् / श्रेयोऽवाप्स्यसीति स्वागतं ते वत्स / मनागसि मया न शप्तः / श्रेय- // 176 // स उपाध्यायेनानुज्ञात उत्तङ्कः क्रुद्धस्तस्तवोपस्थितम् / सिद्धिमाप्नुहीति // 164 // क्षकस्य प्रतिचिकीर्षमाणो हास्तिनपुरं प्रतस्थे॥१७७ अथोत्तङ्क उपाध्यायमभ्यवादयत् / तमुपाध्यायः स हास्तिनपुरं प्राप्य नचिराविजसत्तमः। प्रत्युवाच / वत्सोत्तङ्क स्वागतं ते। किं चिरं कृत- समागच्छत राजानमुत्तको जनमेजयम् // 178 मिति // 165 // तमुत्तङ्क उपाध्यायं प्रत्युवाच। पुरा तक्षशिलातस्तं निवृत्तमपराजितम् / भोस्तक्षकेण नागराजेन विघ्नः कृतोऽस्मिन्कर्मणि / सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मत्रिभिवृतम् // 179 तेनास्मि नागलोकं नीतः / / 166 // तत्र च मया तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः। दृष्टे स्त्रियौ तत्रेऽधिरोप्य पटं वयन्त्यौ। तस्मिंश्च उवाचैनं वचः काले शब्दसंपन्नया गिरा।। 180 तत्रे कृष्णाः सिताश्च तन्तवः / किं तत् // 167 // अन्यस्मिन्करणीये त्वं कार्ये पार्थिवसत्तम। तत्र च मया चक्रं दृष्टं द्वादशारम् / षट् चैनं कुमाराः बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम // 181 परिवर्तयन्ति / तदपि किम् // 168 // पुरुषश्चापि एवमुक्तस्तु विप्रेण से राजा प्रत्युवाच ह / मया दृष्टः / स पुनः कः // 169 // अश्वश्वाति- जनमेजयः प्रसन्नात्मा सम्यक्संपूज्य तं मुनिम् 182 प्रमाणयुक्तः / स चापि कः // 170 // पथि - आसां प्रजानां परिपालनेन गच्छता मया ऋषभो दृष्टः / तं च पुरुषोऽधिरूढः। स्वं क्षत्रधर्म परिपालयामि / तेनास्मि सोपचारमुक्तः / उत्तङ्कास्य ऋषभस्य पुरीषं प्रब्रूहि वा किं क्रियतां द्विजेन्द्र भक्षय / उपाध्यायेनापि ते भक्षितमिति / ततस्तद्व- शुश्रूषुरस्म्यद्य वचस्त्वदीयम् // 183 चनान्मया तदृषभस्य पुरीषमुपयुक्तम् / तदिच्छामि स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन भवतोपदिष्टं किं तदिति // 171 // द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः / तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच। ये ते स्त्रियौ उवाच राजानमदीनसत्त्वं धाता विधाता च / ये च ते कृष्णाः सिताश्च तन्त- __स्वमेव कार्य नृपतेश्च यत्तत् // 184 -26
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________________ 1. 3. 185 ] आदिपर्व [ 1.5.3 तक्षकेण नरेन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता। तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने // 185 कार्यकालं च मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः / तद्गच्छापचितिं राजन्पितुस्तस्य महात्मनः // 186 तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना। पञ्चत्वमगमद्राजा वज्राहत इव द्रुमः // 187 बलदर्पसमुत्सितस्तक्षकः पन्नगाधमः / अकार्यं कृतवान्पापो योऽदशत्पितरं तव // 188 राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम् / जघान काश्यपं चैव न्यवर्तयत पापकृत् // 189 दग्धुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने / सर्पसत्रे महाराज त्वयि तद्धि विधीयते // 190 एवं पितुश्चापचितिं गतवांस्त्वं भविष्यसि / मम प्रियं च सुमहत्कृतं राजन्भविष्यति // 191 कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना / विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थं चरतोऽनघ / / 192 एतच्छ्रुत्वा तु नृपतिस्तक्षकस्य चुकोप ह। उत्तवाक्यहविषा दीप्तोऽग्निहविषा यथा // 193 / अपृच्छच्च तदा राजा मत्रिणः स्वान्सुदुःखितः / उत्तङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगतिं प्रति // 194 तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत्। यदैव पितरं वृत्तमुत्तकादशृणोत्तदा // 195 - इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तृतीयोऽध्यायः // 3 // ॥समाप्तं पौष्यपर्व॥ ऊचुः / परमं लोमहर्षणे प्रक्ष्यामस्त्वां वक्ष्यसि च नः शुश्रूषतां कथायोगम् / तद्भगवांस्तु तावच्छौनकोऽग्निशरणमध्यास्ते // 3 // योऽसौ दिव्याः कथा वेद देवतासुरसंकथाः / मनुष्योरगगन्धर्वकथा वेद च सर्वशः // 4 स चाप्यस्मिन्मखे सौते विद्वान्कुलपतिर्द्विजः / दक्षो धृतव्रतो धीमाञ्शास्त्रे चारण्यके गुरुः // 5 सत्यवादी शमपरस्तपस्वी नियतव्रतः / सर्वेषामेव नो मान्यः स तावत्प्रतिपाल्यताम् // 6 तस्मिन्नध्यासति गुरावासनं परमार्चितम् / ततो वक्ष्यसि यत्त्वां स प्रक्ष्यति द्विजसत्तमः // 7 सूत उवाच / एवमस्तु गुरौ तस्मिन्नुपविष्टे महात्मनि / तेन पृष्टः कथाः पुण्या वक्ष्यामि विविधाश्रयाः // 8 सोऽथ विप्रर्षभः कार्यं कृत्वा सर्वं यथाक्रमम् / देवान्वाग्भिः पितृनद्भिस्तर्पयित्वाजगाम ह // 9 यत्र ब्रह्मर्षयः सिद्धास्त आसीना यतव्रताः / यज्ञायतनमाश्रित्य सूतपुत्रपुरःसराः // 10 ऋत्विक्ष्वथ सदस्येषु स वै गृहपतिस्ततः / उपविष्टेषूपविष्टः शौनकोऽथाब्रवीदिदम् // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः // 4 // लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सूतः पौराणिको नैमिपारण्ये शौनकस्य कुलपतेर्द्वादशवार्षिके सत्रे ऋषीनभ्यागतानुपतस्थे // 1 // पौराणिकः पुराणे कृतश्रमः स तान्कृताञ्जलिरुवाच / किं भवन्तः श्रोतु- मिच्छन्ति / किमहं ब्रुवाणीति // 2 // तमृषय - शौनक उवाच। पुराणमखिलं तात पिता तेऽधीतवान्पुरा / कञ्चित्त्वमपि तत्सर्वमधीषे लोमहर्षणे // 1 पुराणे हि कथा दिव्या आदिवंशाश्च धीमताम् / कथ्यन्ते ताः पुरास्माभिः श्रुताः पूर्वं पितुस्तव // 2 तत्र वंशमहं पूर्वं श्रोतुमिच्छामि भार्गवम् / कथयस्व कथामेतां कल्याः स्म श्रवणे तव // 3 - 27
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________________ 1. 5. 4] महाभारते [1: 6. 3 सूत उवाच। दृष्ट्वा हृष्टमभूत्तत्र जिहीर्षुस्तामनिन्दिताम् // 16 यद्धीतं पुरा सम्यग्द्विजश्रेष्ठ महात्मभिः / अथाग्निशरणेऽपश्यज्जवलितं जातवेदसम् / वैशंपायनविप्राद्यैस्तैश्चापि कथितं पुरा // 4 तमपृच्छत्ततो रक्षः पावकं ज्वलितं तदा // 17 यदधीतं च पित्रा मे सम्यक्चैव ततो मया। शंस मे कस्य भार्येयमग्ने पृष्ट ऋतेन वै / तत्तावच्छृणु यो देवैः सेन्द्रैः साग्निमरुद्गणैः / सत्यस्त्वमसि सत्यं मे वद पावक पृच्छते // 18 पूजितः प्रवरो वंशो भृगूणां भृगुनन्दन // 5 मया हीयं पूर्ववृता भार्यार्थे वरवर्णिनी। इमं वंशमहं ब्रह्मन्भार्गवं ते महामुने / पश्चात्त्विमां पिता प्रादाद्भगवेऽनृतकारिणे // 19 निगदामि कथायुक्तं पुराणाश्रयसंयुतम् // 6 सेयं यदि वरारोहा भृगोर्भार्या रहोगता। भृगोः सुदयितः पुत्रश्यवनो नाम भार्गवः / तथा सत्यं समाख्याहि जिहीर्षाम्याश्रमादिमाम् 20 च्यवनस्यापि दायादः प्रमतिर्नाम धार्मिकः / . मन्युर्हि हृदयं मेऽद्य प्रदहन्निव तिष्ठति / प्रमतेरप्यभूत्पुत्रो घृताच्यां रुरुरित्युत // 7 मत्पूर्वभार्यां यदिमां भृगुः प्राप सुमध्यमाम् // 21 रुरोरपि सुतो जज्ञे शुनको वेदपारगः। तद्रक्ष एवमामन्त्रय ज्वलितं जातवेदसम् / प्रमद्वरायां धर्मात्मा तव पूर्वपितामहात् // 8 शङ्कमानो भृगोर्भार्यां पुनः पुनरपृच्छत // 22 तपस्वी च यशस्वी च श्रुतवान्ब्रह्मवित्तमः / त्वमग्ने सर्वभूतानामन्तश्चरसि नित्यदा। धर्मिष्ठः सत्यवादी च नियतो नियतेन्द्रियः // 9 साक्षिवत्पुण्यपापेषु सत्यं ब्रूहि कवे वचः / / 23 / शौनक उवाच। मत्पूर्वभार्यापहृता भृगुणानृतकारिणा। . सूतपुत्र यथा तस्य भार्गवस्य महात्मनः / सेयं यदि तथा मे त्वं सत्यमाख्यातुमर्हसि // 24 च्यवनत्वं परिख्यातं तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः // 10 श्रुत्वा त्वत्तो भृगोर्भार्यां हरिष्याम्यहमाश्रमात् / सूत उवाच / जातवेदः पश्यतस्ते वद सत्यां गिरं मम // 25 भृगोः सुदयिता भार्या पुलोमेत्यभिविश्रुता / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सप्ताचिर्दुःखितो भृशम् / तस्यां गर्भः समभवद्भगोर्वीर्यसमुद्भवः // 11 भीतोऽनृताच्च शापाच्च भृगोरित्यब्रवीच्छनैः // 26 तस्मिन्गर्भे संभृतेऽथ पुलोमायां भृगूद्वह / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः // 5 // समये समशीलिन्यां धर्मपत्न्यां यशस्विनः // 12 अभिषेकाय निष्क्रान्ते भृगौ धर्मभृतां वरे / ... सूत उवाच। आश्रमं तस्य रक्षोऽथ पुलोमाभ्याजगाम ह // 13 अग्नरथ वचः श्रुत्वा तद्रक्षः प्रजहार ताम् / तं प्रविश्याश्रमं दृष्ट्वा भृगोर्भार्यामनिन्दिताम्। ब्रह्मन्वराहरूपेण मनोमारुतरंहसा // 1 हृच्छयेन समाविष्टो विचेताः समपद्यत / / 14 / ततः स गर्भो निवसन्कुक्षौ भृगुकुलोद्वह। अभ्यागतं तु तद्रक्षः पुलोमा चारुदर्शना। रोषान्मातुभ्युतः कुक्षेच्यवनस्तेन सोऽभवत् // 2 न्यमयत वन्येन फलमूलादिना तदा // 15 तं दृष्ट्वा मातुरुदराच्युतमादित्यवर्चसम् / तां तु रक्षस्ततो ब्रह्मन्हृच्छयेनाभिपीडितम् / / तद्रक्षो भस्मसाद्भूतं पपात परिमुच्य ताम् // 3 -28 - 6
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________________ 1. 6. 4] आदिपर्व [1. 7. 15 सा तमादाय सुश्रोणी ससार भृगुनन्दनम् / धर्मे प्रयतमानस्य सत्यं च वदतः समम् / च्यवनं भार्गवं ब्रह्मन्पुलोमा दुःखमूर्छिता // 4 पृष्टो यदब्रुवं सत्यं व्यभिचारोऽत्र को मम // 2 तां ददर्श स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः / पृष्टो हि साक्षी यः साक्ष्यं जानमानोऽन्यथा वदेत् / रुदतीं बाष्पपूर्णाक्षी भृगोर्भार्यामनिन्दिताम् / स पूर्वानात्मनः सप्त कुले हन्यात्तथा परान् // 3 सान्त्वयामास भगवान्वयूं ब्रह्मा पितामहः / / 5 यश्च कार्यार्थतत्त्वज्ञो जानमानो न भाषते / अश्रुबिन्दुद्भवा तस्याः प्रावर्तत महानदी। सोऽपि तेनैव पापेन लिप्यते नात्र संशयः॥४ अनुवर्तती सृतिं तस्या भृगोः पन्या यशस्विनः / 6 शक्तोऽहमपि शप्तुं त्वां मान्यास्तु ब्राह्मणा मम / तस्या मार्ग सृतवतीं दृष्ट्वा तु सरितं तदा। . जानतोऽपि च ते व्यक्तं कथयिष्ये निबोध तत्॥ 5 वाम तस्यास्तदा नद्याश्चक्रे लोकपितामहः / योगेन बहुधात्मानं कृत्वा तिष्ठामि मूर्तिषु / वधूसरेति भगवांच्यवनस्याश्रमं प्रति / / 7 अग्निहोत्रेषु सत्रेषु क्रियास्वथ मखेषु च / / 6 स एवं च्यवनो जज्ञे भृगोः पुत्रः प्रतापवान् / वेदोक्तेन विधानेन मयि यद्भूयते हविः / तं ददर्श पिता तत्र च्यवनं तां च भामिनीम् // 8 देवताः पितरश्चैव तेन तृप्ता भवन्ति वै / / 7 स पुलोमां ततो भार्यां पप्रच्छ कुपितो भृगुः। / आपो देवगणाः सर्वे आपः पितृगणास्तथा / केनासि रक्षसे तस्मै कथितेह जिहीर्षवे / दर्शश्च पौर्णमासश्च देवानां पितृभिः सह // 8 न हि त्वां वेद तद्रक्षो मद्भार्यां चारुहासिनीम् // 9 / देवताः पितरस्तस्मात्पितरश्चापि देवताः। तत्त्वमाख्याहि तं ह्यद्य शप्तुमिच्छाम्यहं रुषा / एकीभूताश्च पूज्यन्ते पृथक्त्वेन च पर्वसु // 9 . बिभेति को न शापान्मे कस्य चायं व्यतिक्रमः 10 देवताः पितरश्चैव जुह्वते मयि यत्सदा।। पुलोमोवाच / त्रिदशानां पितृणां च मुखमेवमहं स्मृतः // 10 अमिना भगवंस्तस्मै रक्षसेऽहं निवेदिता / अमावास्यां च पितरः पौर्णमास्यां च देवताः / ततो मामनयद्रक्षः क्रोशन्ती कुररीमिव / / 11 मन्मुखेनैव हूयन्ते भुञ्जते च हुतं हविः / साहं तव सुतस्यास्य तेजसा परिमोक्षिता / सर्वभक्षः कथं तेषां भविष्यामि मुखं त्वहम् // 11 भस्मीभूतं च तद्रक्षो मामुत्सृज्य पपात वै॥ 12 चिन्तयित्वा ततो वह्निश्चक्रे संहारमात्मनः / सूत उवाच। द्विजानामग्निहोत्रेषु यज्ञसत्रक्रियासु च // 12 इति श्रुत्वा पुलोमाया भृगुः परममन्युमान् / निरोंकारवषट्काराः स्वधास्वाहाविवर्जिताः / शशापाग्निमभिक्रुद्धः सर्वभक्षो भविष्यसि // 13 विनाग्निना प्रजाः सर्वास्तत आसन्सुदुःखिताः॥१३ * इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि षष्ठोऽध्यायः॥ 6 // अथर्षयः समुद्विग्ना देवान्गत्वाब्रुवन्वचः / अग्निनाशाक्रिया_शाद्धान्ता लोकास्त्रयोऽनघाः। विधध्वमत्र यत्कार्यं न स्यात्कालात्ययो यथा / / 14 समस्तु भृगुणा वह्निः क्रुद्धो वाक्यमथाब्रवीत् / अथर्षयश्च देवाश्च ब्रह्माणमुपगम्य तु / किमिदं साहसं ब्रह्मन्कृतवानसि सांप्रतम् // 1 | अग्नरावेदयशापं क्रियासंहारमेव च // 15 - 29 - सूत उवाच /
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________________ 1. 7. 16] महाभारते [1. 8. 16 भृगुणा वै महाभाग शप्तोऽग्निः कारणान्तरे। प्रमतिस्तु रुरुं नाम घृताच्यां समजीजनत् / कथं देवमुखो भूत्वा यज्ञभागाप्रभुक्तथा। रुरुः प्रमद्वरायां तु शुनकं समजीजनत् // 2 हुतभुक्सर्वलोकेषु सर्वभक्षत्वमेष्यति // 16 तस्य ब्रह्मन्रोः सर्वं चरितं भूरितेजसः। . श्रुत्वा तु तद्वचस्तेषामग्निमाहूय लोककृत् / / विस्तरेण प्रवक्ष्यामि तच्छृणु त्वमशेषतः // 3 उवाच वचनं लक्षणं भूतभावनमव्ययम् / / 17 ऋषिरासीन्महान्पूर्वं तपोविद्यासमन्वितः। लोकानामिह सर्वेषां त्वं कर्ता चान्त एव च / स्थूलकेश इति ख्यातः सर्वभूतहिते रतः // 4 स्वं धारयसि लोकांस्त्रीन्क्रियाणां च प्रवर्तकः / एतस्मिन्नेव काले तु मेनकायां प्रजज्ञिवान् / स तथा कुरु लोकेश नोच्छिद्यरन्क्रिया यथा // 18 गन्धर्वराजो विप्रर्षे विश्वावसुरिति श्रुतः // 5 कस्मादेवं विमूढस्त्वमीश्वरः सन्हुताशनः / अथाप्सरा मेनका सा तं गर्भ भृगुनन्दन / स्वं पवित्रं यदा लोके सर्वभूतगतश्च ह // 19 उत्ससर्ज यथाकालं स्थूलकेशाश्रमं प्रति // 6 न त्वं सर्वशरीरेण सर्वभक्षत्वमेष्यसि / उत्सृज्य चैव तं गर्भ नद्यास्तीरे जगाम ह / उपादानेऽर्चिषो यास्ते सर्वं धक्ष्यन्ति ताः शिखिन् / कन्याममरगर्भाभा ज्वलन्तीमिव च श्रिया // 7. यथा सूर्यांशुभिः स्पृष्टं सर्वं शुचि विभाव्यते। तां ददर्श समुत्सृष्टां नदीतीरे महानृषिः / तथा त्वदर्चिनिर्दग्धं सर्वं शुचि भविष्यति // 21 स्थूलकेशः स तेजस्वी विजने बन्धुवर्जिताम् // 8 तदग्ने त्वं महत्तेजः स्वप्रभावाद्विनिर्गतम् / स तां दृष्ट्वा तदा कन्यां स्थूलकेशो द्विजोत्तमः / स्वतेजसैव तं शापं कुरु सत्यमृषेविभो। जग्राहाथ मुनिश्रेष्ठः कृपाविष्टः पुपोष च / देवानां चात्मनो भागं गृहाण त्वं मुखे हुतम् / / 22 ववृधे सा वरारोहा तस्याश्रमपदे शुभा // 9 एवमस्त्विति तं वह्निः प्रत्युवाच पितामहम् / प्रमदाभ्यो वरा सा तु सर्वरूपगुणान्विता। जगाम शासनं कर्तुं देवस्य परमेष्ठिनः // 23 ततः प्रमद्वरेत्यस्या नाम चक्रे महानृषिः // 10 देवर्षयश्च मुदितास्ततो जग्मुर्यथागतम् / तामाश्रमपदे तस्य रुरुर्दृष्ट्वा प्रमद्वराम् / ऋषयश्च यथापूर्वं क्रियाः सर्वाः प्रचक्रिरे // 24 बभूव किल धर्मात्मा मदनानुगतात्मवान् // 11 दिवि देवा मुमुदिरे भूतसंघाश्च लौकिकाः / पितरं सखिभिः सोऽथ वाचयामास भार्गवः / अग्निश्च परमां प्रीतिमवाप हतकल्मषः // 25 प्रमतिश्चाभ्ययाच्छत्वा स्थूलकेशं यशस्विनम् // 12 एवमेष पुरावृत्त इतिहासोऽग्निशापजः / ततः प्रादात्पिता कन्यां रुरवे तां प्रमद्वराम् / पुलोमस्य विनाशश्च च्यवनस्य च संभवः // 26 विवाहं स्थापयित्वाग्रे नक्षत्रे भगदैवते // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सप्तमोऽध्यायः // 7 // ततः कतिपयाहस्य विवाहे समुपस्थिते / सखीभिः क्रीडती साधं सा कन्या वरवर्णिनी // 14 सूत उवाच / नापश्यत प्रसुप्तं वै भुजगं तिर्यगायतम् / स चापि च्यवनो ब्रह्मन्भार्गवोऽजनयत्सुतम् / पदा चैनं समानामन्मुमूर्षुः कालचोदिता // 15 सुकन्यायां महात्मानं प्रमतिं दीप्ततेजसम् // 1 / स तस्याः संप्रमत्तायाश्चोदितः कालधर्मणा / -30 -
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________________ 1. 8. 16] आदिपर्व [1.9. 19 विषोपलिप्तान्दशनान्भृशमङ्गे न्यपातयत् // 16 तस्माच्छोके मनस्तात मा कृथास्त्वं कथंचन // 7 सा दष्टा सहसा भूमौ पतिता गतचेतना। उपायश्चात्र विहितः पूर्वं देवैर्महात्मभिः / व्यसुरप्रेक्षणीयापि प्रेक्षणीयतमाकृतिः॥ 17 तं यदीच्छसि कर्तुं त्वं प्राप्स्यसीमां प्रमद्वराम् // 8 प्रसुप्तैवाभवच्चापि भुवि सर्पविषार्दिता। रुरुरुवाच / भूयो मनोहरतरा बभूव तनुमध्यमा // 18 क उपायः कृतो देवैर्वृहि तत्त्वेन खेचर। ददर्श तां पिता चैव ते चैवान्ये तपस्विनः / करिष्ये तं तथा श्रुत्वा त्रातुमर्हति मां भवान् // 9 विचेष्टमानां पतितां भूतले पद्मवर्चसम् // 19 देवदूत उवाच। ततः सर्वे द्विजवराः समाजग्मुः कृपान्विताः / / आयुषोऽधं प्रयच्छस्व कन्यायै भृगुनन्दन / स्वस्त्यात्रेयो महाजानुः कुशिकः शङ्खमेखलः // 20 एवमुत्थास्यति रुरो तव भार्या प्रमद्वरा // 10 भारद्वाजः कौणकुत्स आर्टिषेणोऽथ गौतमः / रुरुरुवाच / प्रमतिः सह पुत्रेण तथान्ये वनवासिनः // 21 आयुषोऽधं प्रयच्छामि कन्यायै खेचरोत्तम / तां ते कन्यां व्यसुं दृष्ट्वा भुजगस्य विषार्दिताम् / शृङ्गाररूपाभरणा उत्तिष्टतु मम प्रिया // 11 रुरुदुः कृपयाविष्टा रुरुस्त्वार्तो बहिर्ययौ // 22 सूत उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अष्टमोऽध्यायः॥८॥ ततो गन्धर्वराजश्च देवदूतश्च सत्तमौ / धर्मराजमुपेत्येदं वचनं प्रत्यभाषताम् // 12 सूत उवाच / धर्मराजायुषोऽर्धन रुरोर्भार्या प्रमद्वरा / तेषु तत्रोपविष्टेषु ब्राह्मणेषु समन्ततः / समुत्तिष्ठतु कल्याणी मृतैव यदि मन्यसे // 13 रुरुश्चक्रोश गहनं वनं गत्वा सुदुःखितः // 1 धर्मराज उवाच / शोकेनाभिहतः सोऽथ विलपन्करुणं बहु / प्रमद्वरा रुरोर्भार्या देवदूत यदीच्छसि / अब्रवीद्वचनं शोचन्प्रियां चिन्त्य प्रमद्वराम् // 2 उत्तिष्ठत्वायुषोऽर्धन रुरोरेव समन्विता // 14 शेते सा भुवि तन्वङ्गी मम शोकविवर्धिनी। सूत उवाच / बान्धवानां च सर्वेषां किं नु दुःखमतः परम् // 3 एवमुक्त ततः कन्या सोदतिष्ठत्प्रमद्वरा / यदि दत्तं तपस्तप्तं गुरवो वा मया यदि / रुरोस्तस्यायुषोऽर्धेन सुप्तेव वरवर्णिनी // 15 सम्यगाराधितास्तेन संजीवतु मम प्रिया // 4 एतदृष्टं भविष्ये हि रुरोरुत्तमतेजसः / यथा जन्मप्रभृति वै यतात्माहं धृतव्रतः।। आयुषोऽतिप्रवृद्धस्य भार्यार्थेऽध हसत्विति // 16 प्रमद्वरा तथाद्यैव समुत्तिष्ठतु भामिनी // 5 तत इष्टेऽहनि तयोः पितरौ चक्रतुर्मुदा / देवदूत उवाच / विवाहं तौ च रेमाते परस्परहितैषिणौ // 17 अभिधत्से ह यद्वाचा सो दुःखेन तन्मृषा / स लब्ध्वा दुर्लभां भार्यां पद्मकिअल्कसप्रभाम् / न तु मर्त्यस्य धर्मात्मन्नायुरस्ति गतायुषः // 6 व्रतं चक्रे विनाशाय जिह्मगानां धृतव्रतः // 18 गतायुरेषा कृपणा गन्धर्वाप्सरसोः सुता। . | स दृष्ट्वा जिह्मगान्सर्वांस्तीव्रकोपसमन्वितः / - 31 -
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________________ 1. 9. 19] महाभारते [1. 11. 13 अभिहन्ति यथासन्नं गृह्य प्रहरणं सदा // 19 कियन्तं चैव कालं ते वपुरेतद्भविष्यति // 8 स कदाचिद्वनं विप्रो रुरुरभ्यागमन्महत्। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि दशमोऽध्यायः // 10 // शयानं तत्र चापश्यड्डण्डुभं वयसान्वितम् // 20 तत उद्यम्य दण्डं स कालदण्डोपमं तदा। डुण्डुभ उवाच / अभ्यन्नद्रुषितो विप्रस्तमुवाचाथ डुण्डुभः // 21 सखा बभूव मे पूर्वं खगमो नाम वै द्विजः। नापराध्यामि ते किंचिदहमद्य तपोधन / भृशं संशितवाक्तात तपोबलसमन्वितः॥१ संरम्भात्तत्किमर्थं मामभिहंसि रुषान्वितः // 22 स मया क्रीडता बाल्ये कृत्वा तार्णमथोरगम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि नवमोऽध्यायः // 9 // अग्निहोत्रे प्रसक्तः सन्भीषितः प्रमुमोह वै // 2 लब्ध्वा च स पुनः संज्ञां मामुवाच तपोधनः / रुरुरुवाच। निर्दहन्निव कोपेन सत्यवाक्संशितव्रतः॥३ मम प्राणसमा भार्या दृष्टासीद्भुजगेन ह। यथावीर्यस्त्वया सर्पः कृतोऽयं मद्विभीषया। तत्र मे समयो घोर आत्मनोरग बै कृतः॥ 1 तथावीयों भुजंगस्त्वं मम कोपाद्भविष्यसि // 4 हन्यां सदैव भुजगं यं यं पश्येयमित्युत। तस्याहं तपसो वीर्यं जानमानस्तपोधन। ततोऽहं त्वां जिघांसामि जीवितेन विमोक्ष्यसे॥२ भृशमुद्विग्नहृदयस्तमवोचं वनौकसम् // 5 . डुण्डुभ उवाच। प्रयतः संभ्रमाच्चैव प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः। अन्ये ते भुजगा विप्र ये दशन्तीह मानवान् / सखेति हसतेदं ते नर्मार्थं वै कृतं मया // 6 डुण्डुभानहिगन्धेन न त्वं हिंसितुमर्हसि // 3 क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मशापोऽयं विनिवर्त्यताम् / एकानान्पृथगर्थानेकदुःखान्पृथक्सुखान् / सोऽथ मामब्रवीदृष्ट्वा भृशमुद्विग्नचेतसम् // 7 डुण्डुभान्धर्मविद्भूत्वा न त्वं हिंसितुमर्हसि // 4 मुहुरुष्णं विनिःश्वस्य सुसंभ्रान्तस्तपोधनः। नानृतं वै मया प्रोक्तं भवितेदं कथंचन // 8 सूत उवाच। यत्तु वक्ष्यामि ते वाक्यं शृणु तन्मे धृतव्रत / इति श्रुत्वा वचस्तस्य भुजगस्य रुरुस्तदा / श्रुत्वा च हृदि ते वाक्यमिदमस्तु तपोधन // 9 नावधीद्भयसंविग्न ऋषि मत्वाथ डुण्डुभम् // 5 उत्पत्स्यति रुरुर्नाम प्रमतेरात्मजः शुचिः / उवाच चैनं भगवान्रुरुः संशमयन्निव / तं दृष्ट्वा शापमोक्षस्ते भविता नचिरादिव // 10 कामया भुजग ब्रूहि कोऽसीमां विक्रियां गतः॥६ स त्वं रुरुरिति ख्यातः प्रमतेरात्मजः शुचिः / डुण्डुभ उवाच / स्वरूपं प्रतिलभ्याहमद्य वक्ष्यामि ते हितम् // 11 अहं पुरा रुरो नाम्ना ऋषिरासं सहस्रपात् / अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां स्मृतः / सोऽहं शापेन विप्रस्य भुजगत्वमुपागतः // 7 तस्मात्प्राणभृतः सर्वान्न हिंस्याब्राह्मणः क्वचित् // 12 ___ रुरुरुवाच। ब्राह्मणः सौम्य एवेह जायतेति परा श्रुतिः / किमर्थं शप्तवान्क्रुद्धो द्विजस्त्वां भुजगोत्तम। वेदवेदाङ्गवित्तात सर्वभूताभयप्रदः // 13 . . -32 -
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________________ 1. 11. 14 ] आदिपर्व [1. 13. 14 अहिंसा सत्यवचनं क्षमा चेति विनिश्चितम् / आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः / ब्राह्मणस्य परो धर्मो वेदानां धारणादपि // 14 मोक्षयामास भुजगान्दीप्तात्तस्माद्भुताशनात् // 2 क्षत्रियस्य तु यो धर्मः स नेहेष्यति वै तव / कस्य पुत्रः स राजासीत्सर्पसत्रं य आहरत् / दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम् // 15 स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रो वदस्व मे // 3 तदिदं क्षत्रियस्यासीत्कर्म वै शृणु मे सरो। सूत उवाच। जनमेजयस्य धर्मात्मन्सर्पाणां हिंसनं पुरा // 16 महदाख्यानमास्तीकं यत्रतत्प्रोच्यते द्विज / परित्राणं च भीतानां सर्पाणां ब्राह्मणादपि / सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर // 4 तपोवीर्यबलोपेताद्वेदवेदाङ्गपारगात् / शौनक उवाच / आस्तीकाहिजमुख्याद्वै सर्पसत्रे द्विजोत्तम // 17 / श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि एकादशोऽध्यायः // 11 // आस्तीकस्य पुराणस्य ब्राह्मणस्य यशस्विनः // 5 सूत उवाच। रुरुरुवाच। इतिहासमिमं वृद्धाः पुराणं परिचक्षते / कथं हिंसितवान्सन्क्षित्रियो जनमेजयः / कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिनः // 6 सर्पा वा हिंसितास्तात किमर्थं द्विजसत्तम // 1 पूर्व प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः / किमर्थं मोक्षिताश्चैव पन्नगास्तेन शंस मे। शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणैरिदमुक्तवान् // 7 आस्तीकेन तदाचक्ष्व श्रोतुमिच्छाम्यशेषतः // 2 तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम्। . ऋषिरुवाच। इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते // 8 श्रोष्यसि त्वं रुरो सर्वमास्तीकचरितं महत् / आस्तीकस्य पिता ह्यासीत्प्रजापतिसमः प्रभुः / ब्राह्मणानां कथयतामित्युक्त्वान्तरधीयत // 3 ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा॥९ .. . सूत उवाच। जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरेता महानृषिः / रुरुश्चापि वनं सर्वं पर्यधावत्समन्ततः / यायावराणां धर्मज्ञः प्रवरः संशितव्रतः॥ 10 तमृषिं द्रष्टुमन्विच्छन्संश्रान्तो न्यपतद्भुवि / / 4 अटमानः कदाचित्स स्वान्ददर्श पितामहान् / लब्धसज्ञो रुरुश्चायात्तच्चाचख्यौ पितुस्तदा / लम्बमानान्महागर्ते पादैरू.रधोमुखान् // 11 पिता चास्य तदाख्यानं पृष्टः सर्वं न्यवेदयत् / / 5 तानब्रवीत्स दृष्ट्वैव जरत्कारुः पितामहान् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि द्वादशोऽध्यायः // 12 // के भवन्तोऽवलम्बन्ते गर्तेऽस्मिन्वा अधोमुखाः॥१२ समाप्त पौलोमपर्व // वीरणस्तम्बके लग्नाः सर्वतः परिभक्षिते / मूषकेन निगूढेन गर्तेऽस्मिन्नित्यवासिना // 13 . शौनक उवाच। पितर ऊचुः। किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः / / यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः। सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद्वदस्व मे // 1 संतानप्रक्षयाब्रह्मन्नधो गच्छाम मेदिनीम् // 14 म. भा.५ -33 -
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________________ 1. 13. 15] महाभारते [1. 13. 41 अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति श्रुतः। शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम // 28 मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एव समास्थितः // 15 सूत उवाच / न स पुत्राञ्जनयितुं दारान्मूढश्चिकीर्षति / ततो निवेशाय तदा स विप्रः संशितव्रतः।। तेन लम्बामहे गर्ने संतानप्रक्षयादिह // 16 महीं चचार दारार्थी न च दारानविन्दत // 29 अनाथास्तेन नाथेन यथा दुष्कृतिनस्तथा / स कदाचिद्वनं गत्वा विप्रः पितृवचः स्मरन् / कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम // 17 चुक्रोश कन्याभिक्षार्थी तिस्रो वाचः शनैरिव // 30 ज्ञातुमिच्छामहे ब्रह्मन्को भवानिह धिष्ठितः / तं वासुकिः प्रत्यगृह्णादुद्यम्य भगिनीं तदा / किमर्थं चैव नः शोच्याननुकम्पितुमर्हसि // 18 न स तां प्रतिजग्राह न सनाम्नीति चिन्तयन् // 31 जरत्कारुरुवाच। सनाम्नीमुद्यतां भायां गृह्णीयामिति तस्य हि / मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः / मनो निविष्टमभवजरत्कारोर्महात्मनः // 32 ब्रूत किं करवाण्यद्य जरत्कारुरहं स्वयम् // 19 तमुवाच महाप्राज्ञो जरत्कारुर्महातपाः / पितर ऊचुः। किंनाम्नी भगिनीयं ते ब्रूहि सत्यं भुजंगम // 33 यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः / वासुकिरुवाच।। आत्मनोऽर्थेऽस्मदर्थे च धर्म इत्येव चाभिभो // 20 जरत्कारो जरत्कारुः स्वसेयमनुजा मम / न हि धर्मफलैस्तात न तपोभिः सुसंचितैः। त्वदर्थं रक्षिता पूर्व प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम // 34 तां गतिं प्राप्नुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति ह॥२१ सूत उवाच / तद्दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मनः कुरु / मात्रा हि भुजगाः शप्ताः पूर्वं ब्रह्मविदां वर / पुत्रकास्मन्नियोगात्त्वमेतन्नः परमं हितम् // 22 जनमेजयस्य वो यज्ञे धक्ष्यत्यनिलसारथिः॥ 35 जरत्कारुरुवाच / तस्य शापस्य शान्त्यर्थं प्रददौ पन्नगोत्तमः / न दारान्वै करिष्यामि सदा मे भावितं मनः। स्वसारमृषये तस्मै सुव्रताय तपस्विने // 36 भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम् // 23 स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा / समयेन च कर्ताहमनेन विधिपूर्वकम् / आस्तीको नाम पुत्रश्च तस्यां जज्ञे महात्मनः // 37 तथा यापलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा त्वहम् // 24 तपस्वी च महात्मा च वेदवेदाङ्गपारगः / सनाम्नी या भवित्री मे दित्सिता चैव बन्धुभिः / समः सर्वस्य लोकस्य पितृमातृभयापहः // 38 भैक्षवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः // 25 अथ कालस्य महतः पाण्डवेयो नराधिपः।। दरिद्राय हि मे भार्यां को दास्यति विशेषतः। आजहार महायज्ञं सर्पसत्रमिति श्रुतिः // 39 'प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित्प्रदास्यति // 26 तस्मिन्प्रवृत्ते सत्रे तु सर्पाणामन्तकाय वै / एवं दारक्रियाहेतोः प्रयतिष्ये पितामहाः। मोचयामास तं शापमास्तीकः सुमहायशाः // 40 अनेन विधिना शश्वन्न करिष्येऽहमन्यथा // 27 नागांश्च मातुलांश्चैव तथा चान्यान्स बान्धवान् / तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै / पितॄश्च तारयामास संतत्या तपसा तथा / -34 -
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________________ 1. 13. 41] आदिपर्व [1. 14. 22 व्रतैश्च विविधैर्ब्रह्मन्स्वाध्यायैश्वानृणोऽभवत् // 41 द्वौ पुत्री विनता वत्रे कद्रूपुत्राधिकौ बले। देवांश्च तर्पयामास यज्ञैर्विविधदक्षिणैः / ओजसा तेजसा चैव विक्रमेणाधिकौ सुतौ // 8 ऋषींश्च ब्रह्मचर्येण संतत्या च पितामहान् // 42 तस्यै भर्ता वरं प्रादादध्यर्धं पुत्रमीप्सितम् / अपहृत्य गुरुं भारं पितृणां संशितव्रतः / एवमस्त्विति तं चाह कश्यपं विनता तदा // 9 जरत्कासर्गतः स्वर्ग सहितः स्पैः पितामहैः // 43 कृतकृत्या तु विनता लब्ध्वा वीर्याधिको सुतौ / आस्तीकं च सुतं प्राप्य धर्मं चानुत्तमं मुनिः / कद्रूश्च लब्ध्वा पुत्राणां सहस्रं तुल्यतेजसाम् // 10 जरत्कारुः सुमहता कालेन स्वर्गमीयिवान् // 44 धार्थी प्रयत्नतो गर्भावित्युक्त्वा स महातपाः। एतदाख्यानमास्तीकं यथावत्कीर्तितं मया / / ते भार्ये वरसंहृष्टे कश्यपो वनमाविशत् // 11 प्रब्रूहि भृगुशार्दूल किं भूयः कथ्यतामिति // 45 कालेन महता कद्रूरण्डानां दशतीर्दश / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः // 13 // जनयामास विप्रेन्द्र द्वे अण्डे विनता तदा // 12 तयोरण्डानि निदधुः प्रहृष्टाः परिचारिकाः / सोपस्वेदेषु भाण्डेषु पञ्च वर्षशतानि च // 13 शौनक उवाच। ततः पञ्चशते काले कद्रूपुत्रा विनिःसृताः। सौते कथय तामेतां विस्तरेण कथां पुनः / अण्डाभ्यां विनतायास्तु मिथुनं न व्यदृश्यत // 14 आस्तीकस्य कवेः साधोः शुश्रूषा परमा हि नः // 1 ततः पुत्रार्थिनी देवी ब्रीडिता सा तपस्विनी / मधुरं कथ्यते सौम्य श्लक्ष्णाक्षरपदं त्वया। अण्डं बिभेद विनता तत्र पुत्रमदृक्षत // 15 प्रीयामहे भृशं तात पितेवेदं प्रभाषसे // 2 पूर्वार्धकायसंपन्नमितरेणाप्रकाशता / अस्मच्छुश्रूषणे नित्यं पिता हि निरतस्तव / स पुत्रो रोपसंपन्नः शशापैनामिति श्रुतिः // 16 आचष्टेतद्यथाख्यानं पिता ते त्वं तथा वद // 3 योऽहमेवं कृतो मातस्त्वया लोभपरीतया / / सूत उवाच / शरीरेणासमग्रोऽद्य तस्माद्दासी भविष्यसि / / 17 आयुष्यमिदमाख्यानमास्तीकं कथयामि ते। पञ्च वर्षशतान्यस्या यया विस्पर्धसे सह। यथा श्रुतं कथयतः सकाशाद्वै पितुर्मया // 4 एष च त्वां सुतो मातर्दास्यत्वान्मोक्षयिष्यति // 18 पुरा देवयुगे ब्रह्मन्प्रजापतिसुते शुभे / यद्येनमपि मातस्त्वं मामिवाण्डविभेदनात् / आस्तां भगिन्यौ रूपेण समुपेतेऽद्भुतेऽनघे // 5 न करिष्यस्यदेहं वा व्यङ्गं वापि तपस्विनम् // 19 से भार्ये कश्यपस्यास्तां कद्रूश्च विनता च ह / प्रतिपालयितव्यस्ते जन्मकालोऽस्य धीरया / प्रादात्ताभ्यां वरं प्रीतः प्रजापतिसमः पतिः / विशिष्टबलमीप्सन्त्या पञ्चवर्षशतात्परः // 20 कश्यपो धर्मपत्नीभ्यां मुदा परमया युतः / / 6 एवं शप्त्वा ततः पुत्रो विनतामन्तरिक्षगः / रातिसगं श्रुत्वैव कश्यपादुत्तमं च ते। अरुणो दृश्यते ब्रह्मन्प्रभातसमये सदा // 21 विर्वादप्रतिमां प्रीति प्रापतुः स्म वरस्त्रियौ / 7 गरुडोऽपि यथाकालं जज्ञे पन्नगसूदनः / बेकद्रः सुतान्नागान्सहस्रं तुल्यतेजसः। स जातमात्रो विनतां परित्यज्य खमाविशत् // 22 - 35 -
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________________ 1. 14. 23 ] महाभारते [1. 16. 11 आदास्यन्नात्मनो भोज्यमन्नं विहितमस्य यत् / / देवैरसुरसंघेश्च मध्यतां कलशोदधिः। / विधात्रा भृगुशार्दूल क्षुधितस्य बुभुक्षतः // 23 भविष्यत्यमृतं तत्र मथ्यमाने महोदधौ // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // सर्वोषधीः समावाप्य सर्वरत्नानि चैव हि / मन्थध्वमुदधिं देवा वेत्स्यध्वममृतं ततः / / 13 सूत उवाच। इति श्रीमहाभारते भादिपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः॥१५॥ एतस्मिन्नेव काले तु भगिन्यौ ते तपोधन / अपश्यतां समायान्तमुच्चैःश्रवसमन्तिकात् // 1 सूत उवाच। - यं तं देवगणाः सर्वे हृष्टरूपा अपूजयन् / ततोऽभ्रशिखराकारैर्गिरिशृङ्गैरलंकृतम् / मध्यमानेऽमृते जातमश्वरत्नमनुत्तमम् // 2 मन्दरं पर्वतवरं लताजालसमावृतम् // 1 . महौघबलमश्वानामुत्तमं जवतां वरम् / नानाविहगसंघुष्टं नानादंष्ट्रिसमाकुलम् / श्रीमन्तमजरं दिव्यं सर्वलक्षणलक्षितम् // 3 किंनरैरप्सरोभिश्च देवैरपि च सेवितम् // 2 __ शौनक उवाच। एकादश सहस्राणि योजनानां समुच्छ्रितम् / कथं तदमृतं देवैर्मथितं क्व च शंस मे। अधो भूमेः सहस्रेषु तावत्स्वेव प्रतिष्ठितम् // 3 यत्र जज्ञे महावीर्यः सोऽश्वराजो महाद्युतिः // 4 तमुद्धर्तुं न शक्ता वै सर्वे देवगणास्तदा / सूत उवाच। विष्णुमासीनमभ्येत्य ब्रह्माणं चेदमब्रुवन् // 4. ज्वलन्तमचलं मेरं तेजोराशिमनुत्तमम् / भवन्तावत्र कुरुतां बुद्धिं नैःश्रेयसी पराम् / आक्षिपन्तं प्रभा भानोः स्वशृङ्गैः काञ्चनोज्वलैः / / 5 मन्दरोद्धरणे यत्नः क्रियतां च हिताय नः // 5 काञ्चनाभरणं चित्रं देवगन्धर्वसेवितम् / तथेति चाब्रवीद्विष्णुब्रह्मणा सह भार्गव / अप्रमेयमनाधृष्यमधर्मबहुलैर्जनैः॥ 6 ततोऽनन्तः समुत्थाय ब्रह्मणा परिचोदितः / व्यालैराचरितं घोर्दिव्यौषधिविदीपितम्। नारायणेन चाप्युक्तस्तस्मिन्कर्मणि वीर्यवान् // 6 नाकमावृत्य तिष्ठन्तमुच्छ्रयेण महागिरिम् / / 7 अथ पर्वतराजानं तमनन्तो महाबलः / अगम्यं मनसाप्यन्यैर्नदीवृक्षसमन्वितम् / उज्जहार बलाद्ब्रह्मन्सवनं सवनौकसम् / / 7 नानापतगसंधैश्च नादितं सुमनोहरैः // 8 ततस्तेन सुराः सार्धं समुद्रमुपतस्थिरे। तस्य पृष्ठमुपारुह्य बहुरत्नाचितं शुभम् / तमूचुरमृतार्थाय निर्मथिष्यामहे जलम् / / 8 अनन्तकल्पमुद्विद्धं सुराः सर्वे महौजसः // 9 / अपांपतिरथोवाच ममाप्यंशो भवेत्ततः / ते मत्रयितुमारब्धास्तत्रासीना दिवौकसः / सोढास्मि विपुलं मर्द मन्दरभ्रमणादिति // 9 अमृतार्थे समागम्य तपोनियमसंस्थिताः // 10 ऊचुश्च कूर्मराजानमकूपारं सुरासुराः / तत्र नारायणो देवो ब्रह्माणमिदमब्रवीत् / / गिरेरधिष्ठानमस्य भवान्भवितुमर्हति // 10 चिन्तयत्सु सुरेष्वेवं मत्रयत्सु च सर्वशः // 11 कूर्मेण तु तथेत्युक्त्वा पृष्ठमस्य समर्पितम् / -36 -
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________________ 1. 16. 11] आदिपर्व [1. 16. 39 तस्य शैलस्य चाग्रे वै यन्त्रेणेन्द्रोऽभ्यपीडयत् // 11 / तेषाममृतवीर्याणां रसानां पयसैव च / मन्थानं मन्दरं कृत्वा तथा नेत्रं च वासुकिम् / अमरत्वं सुरा जग्मुः काञ्चनस्य च निःस्रवात् / / 26 देवा मथितुमारब्धाः समुद्र निधिमम्भसाम् / . अथ तस्य समुद्रस्य तज्जातमुदकं पयः / अमृतार्थिनस्ततो ब्रह्मन्सहिता दैत्यदानवाः // 12 रसोत्तमैर्विमिश्रं च ततः क्षीरादभूद्भुतम् // 27 एकमन्तमुपाश्लिष्टा नागराज्ञो महासुराः / ततो ब्रह्माणमासीनं देवा वरदमब्रुवन् / विबुधाः सहिताः सर्वे यतः पुच्छं ततः स्थिताः / / 13 श्रान्ताः स्म सुभृशं ब्रह्मन्नोद्भवत्यमृतं च तत् // 28 अनन्तो भगवान्देवो यतो नारायणस्ततः / ऋते नारायणं देवं दैत्या नागोत्तमास्तथा / शिर उद्यम्य नागस्य पुनः पुनरवाक्षिपत् // 14 चिरारब्धमिदं चापि सागरस्यापि मन्थनम् / / 29 बासुकेरथ नागस्य सहसाक्षिप्यतः सुरैः / ततो नारायणं देवं ब्रह्मा वचनमब्रवीत् / सधूमाः सार्चिषो वाता निष्पेतुरसकृन्मुखात् // 15 विधत्स्वैषां बलं विष्णो भवानत्र परायणम् // 30 वे धूमसंघाः संभूता मेघसंघाः सविद्युतः / विष्णुरुवाच / अभ्यवर्षन्सुरगणाञ्श्रमसंतापकर्शितान् // 16 बलं ददामि सर्वेषां कमैतधे समास्थिताः। तस्माच्च गिरिकूटाग्रात्प्रच्युताः पुष्पवृष्टयः / क्षोभ्यतां कलशः सर्वैर्मन्दरः परिवर्त्यताम् / / 31 सुरासुरगणान्माल्यैः सर्वतः समवाकिरन् / / 17 सूत उवाच / बभूवात्र महाघोषो महामेघरवोपमः / नारायणवचः श्रुत्वा बलिनस्ते महोदधेः / उदधेर्मध्यमानस्य मन्दरेण सुरासुरैः॥ 18 तत्पयः सहिता भूयश्चक्रिरे भृशमाकुलम् // 32 तत्र नानाजलचरा विनिष्पिष्टा महाद्रिणा / ततः शतसहस्रांशुः समान इव सागरात् / विलयं समुपाजग्मुः शतशो लवणाम्भसि / / 19 प्रसन्नभाः समुत्पन्नः सोमः शीतांशुरुज्वलः // 33 बारुणानि च भूतानि विविधानि महीधरः / श्रीरनन्तरमुत्पन्ना घृतात्पाण्डुरवासिनी / पातालतलवासीनि विलयं समुपानयत् / / 20 सुरा देवी समुत्पन्ना तुरगः पाण्डुरस्तथा / / 34 तस्मिंश्च भ्राम्यमाणेऽद्री संघृष्यन्तः परस्परम / कौस्तुभश्च मणिर्दिव्य उत्पन्नोऽमृतसंभवः / व्यपतन्पतगोपेताः पर्वताग्रान्महाद्रुमाः / / 21 मरीचिविकचः श्रीमान्नारायणउरोगतः / / 35 तेषां संघर्षजश्चाग्निरर्चिभिः प्रज्वलन्मुहुः / श्रीः सुरा चैव सोमश्च तुरगश्च मनोजवः / विद्युद्भिरिव नीलाभ्रमावृणोन्मन्दरं गिरिम् / / 22 यतो देवास्ततो जग्मुरादित्यपथमाश्रिताः / / 36 वाह कुञ्जरांश्चैव सिंहांश्चैव विनिःस्मृतान् / धन्वन्तरिस्ततो देवो वपुष्मानुदतिष्ठत / 'विगतासूनि सर्वाणि सत्त्वानि विविधानि च // 23 श्वेतं कमण्डलुं बिभ्रदमृतं यत्र तिष्ठति // 37 मनिममरश्रेष्ठः प्रदहन्तं ततस्ततः / एतदत्यद्भुतं दृष्ट्वा दानवानां समुत्थितः / सारिणा मेघजेनेन्द्रः शमयामास सर्वतः / / 24 अमृतार्थे महानादो ममेदमिति जल्पताम् / / 38 तो नानाविधास्तत्र सुस्रुवुः सागराम्भसि / ततो नारायणो मायामा स्थितो मोहिनी प्रभुः / महामाणां निर्यासा बहवश्चौपधीरसाः // 25 स्त्रीरूपमद्भुतं कृत्वा दानवानभिसंश्रितः // 39 - 37 -
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________________ 1. 16. 40] महाभारते [1. 17. 24 ततस्तदमृतं तस्यै ददुस्ते मूढचेतसः। तप्तकाञ्चनजालानि निपेतुरनिशं तदा // 13 स्त्रिये दानवदैतेयाः सर्वे तद्गतमानसाः // 40 रुधिरेणावलिप्ताङ्गा निहताश्च महासुराः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि षोडशोऽध्यायः // 16 // / अद्रीणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते // 14 हाहाकारः समभवत्तत्र तत्र सहस्रशः / सूत उवाच / अन्योन्यं छिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति // 15 अथावरणमुख्यानि नानाप्रहरणानि च / परिघैश्चायसैः पीतैः संनिकर्षे च मुष्टिभिः / प्रगृह्याभ्यद्रवन्देवान्सहिता दैत्यदानवाः / / 1 निघ्नतां समरेऽन्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत् // 16 ततस्तदमृतं देवो विष्णुरादाय वीर्यवान् / छिन्धि भिन्धि प्रधावध्वं पातयाभिसरेति च / जहार दानवेन्द्रेभ्यो नरेण सहितः प्रभुः / / 2. / व्यश्रयन्त महाघोराः शब्दास्तत्र समन्ततः // 17 ततो देवगणाः सर्वे पपुस्तदमृतं तदा। एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने भयावहे। विष्णोः सकाशात्संप्राप्य संभ्रमे तुमुले सति // 3 नरनारायणौ देवौ समाजग्मतुराहवम् / / 18 / / ततः पिबत्सु तत्कालं देवेष्वमृतमीप्सितम् / तत्र दिव्यं धनुर्दृष्ट्वा नरस्य भगवानपि / राहुर्विबुधरूपेण दानवः प्रापिबत्तदा // 4 चिन्तयामास वै चक्रं विष्णुर्दानवसूदनम् // 19 तस्य कण्ठमनुप्राप्ते दानवस्यामृते तदा / ततोऽम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं. आख्यातं चन्द्रसूर्याभ्यां सुराणां हितकाम्यया // 5 ____ महाप्रभं चक्रममित्रतापनम् / ततो भगवता तस्य शिरश्छिन्नमलंकृतम् / विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलं चक्रायुधेन चक्रेण पिबतोऽमृतमोजसा // 6 सुदर्शनं भीममज़य्यमुत्तमम् // 20 तच्छैलशृङ्गप्रतिमं दानवस्य शिरो महत्। तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभं चक्रेगोत्कृत्तमपतच्चालयद्वसुधातलम् // 7 भयंकरं करिकरबाहुरच्युतः / ततो वैरविनिर्बन्धः कृतो राहुमुखेन वै। मुमोच वै चपलमुदप्रवेगवशाश्वतश्चन्द्रसूर्याभ्यां ग्रसत्यद्यापि चैव तौ // 8 न्महाप्रभं परमगरावदारणम् // 21 विहाय भगवांश्चापि स्त्रीरूपमतुलं हरिः / तदन्तकज्वलनसमानवर्चसं नानाप्रहरण(मैर्दानवान्समकम्पयत् // 9 . पुनः पुनर्यपतत वेगवत्तदा / ततः प्रवृत्तः संग्रामः समीपे लवणाम्भसः / विदारयदितिदनुजान्सहस्रशः सुराणामसुराणां च सर्वघोरतरो महान् // 10 करेरितं पुरुषवरेण संयुगे // 22 प्रासाः सुविपुलास्तीक्ष्णा न्यपतन्त सहस्रशः / दहत्कचिज्जवलन इवावलेलिहतोमराश्च सुतीक्ष्णाग्राः शस्त्राणि विविधानि च // 11 त्प्रसह्य तानसुरगणान्न्यकृन्तत / ततोऽसुराश्चक्रभिन्ना वमन्तो रुधिरं बहु / प्रवेरितं वियति मुहुः क्षितौ तदा असिशक्तिगदारुग्णा निपेतुर्धरणीतले // 12 ___पपौ रणे रुधिरमथो पिशाचवत् // 23 छिन्नानि पट्टिशैश्वापि शिरांसि युधि दारुणे। अथासुरा गिरिभिरदीनचेतसो -38 -
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________________ 1. 17. 24 ] आदिपर्व [1. 18. 11 मुहुर्मुहुः सुरगणमर्दयंस्तदा। महाबला विगलितमेघवर्चसः सहस्रशो गगनमभिप्रपद्य ह // 24 अथाम्बराद्भयजननाः प्रपेदिरे सपादपा बहुविधमेघरूपिणः / महाद्रयः प्रविगलिताग्रसानवः परस्परं द्रुतमभिहत्य सस्वनाः॥ 25 ततो मही प्रविचलिता सकानना ___महाद्रिपाताभिहता समन्ततः / परस्परं भृशमभिगर्जता मुहू __ रणाजिरे भृशमभिसंप्रवर्तिते // 26 नरस्ततो वरकनकाग्रभूषणै· महेषुभिर्गगनपथं समावृणोत् / विदारयनिगरिशिखराणि पत्रिभि'महाभयेऽसुरगणविग्रहे तदा // 27 ततो महीं लवणजलं च सागरं महासुराः प्रविविशुरर्दिताः सुरैः / वियद्गतं ज्वलितहुताशनप्रभं सुदर्शनं परिकुपितं निशाम्य च // 28 ततः सुरैर्विजयमवाप्य मन्दरः स्वमेव देशं गमितः सुपूजितः / विनाद्य खं दिवमपि चैव सर्वश स्ततो गताः सलिलधरा यथागतम् // 29 ततोऽमृतं सुनिहितमेव चक्रिरे सुराः परां मुदमभिगम्य पुष्कलाम् / * ददौ च तं निधिममृतस्य रक्षितुं किरीटिने बलभिदथामरैः सह // 30 व श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः // 17 // सूत उवाच। एतत्ते सर्वमाख्यातममृतं मथितं यथा / यत्र सोऽश्वः समुत्पन्नः श्रीमानतुलविक्रमः // 1 यं निशाम्य तदा कर्विनतामिदमब्रवीत् / उच्चैःश्रवा नु किंवर्णो भद्रे जानीहि माचिरम् // 2 विनतोवाच / श्वेत एवाश्वराजोऽयं किं वा त्वं मन्यसे शुभे / हि वर्णं त्वमप्यस्य ततोऽत्र विपणावहे // 3 कद्रुवाच / कृष्णवालमहं मन्ये हयमेनं शुचिस्मिते / एहि सार्धं मया दीव्य दासीभावाय भामिनि // 4 सूत उवाच। एवं ते समयं कृत्वा दासीभावाय वै मिथः / जग्मतुः स्वगृहानेव श्वो द्रक्ष्याव इति स्म ह / / 5 ततः पुत्रसहस्रं तु कद्रूर्जिलं चिकीर्षती / आज्ञापयामास तदा वाला भूत्वाञ्जनप्रभाः // 6 आविशध्वं हयं क्षिप्रं दासी न स्यामहं यथा / तद्वाक्यं नान्वपद्यन्त ताशशाप भजंगमान् // 7 सर्पसत्रे वर्तमाने पावको वः प्रधक्ष्यति / जनमेजयस्य राजर्षेः पाण्डवेयस्य धीमतः // 8 शापमेनं तु शुश्राव स्वयमेव पितामहः / अतिक्रूरं समुद्दिष्टं कट्ठा दैवादतीव हि // 9 साधं देवगणैः सर्वैर्वाचं तामन्यमोदत / बहुत्वं प्रेक्ष्य सर्पाणां प्रजानां हितकाम्यया // 10 तिग्मवीर्यविषा ह्येते दन्दशूका महाबलाः / तेषां तीक्ष्णविषत्वाद्धि प्रजानां च हिताय वै / प्रादाद्विषहणीं विद्यां काश्यपाय महात्मने // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः // 18 //
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________________ 1. 19. 1] महाभारते [1. 20.8 सूत उवाच / ततो रजन्यां व्युष्टायां प्रमात उदिते रवौ / कद्रूश्च विनता चैव भगिन्यो ते तपोधन // 1 अमर्षिते सुसंरब्धे दास्ये कृतपणे तदा। जग्मतुस्तुरगं द्रष्टुमुच्चैःश्रवसमन्तिकात् // 2 ददृशाते तदा तत्र समुद्र निधिमम्भसाम् / तिमिंगिलझषाकीणं मकरैरावृतं तथा // 3 सत्त्वैश्च बहुसाहस्रैर्नानारूपैः समावृतम् / उप्रैर्नित्यमनाधृष्यं कूर्मग्राहसमाकुलम् // 4 आकरं सर्वरत्नानामालयं वरुणस्य च / नागानामालयं रम्यमुत्तमं सरितां पतिम् // 5 पातालज्वलनावासमसुराणां च बन्धनम् / भयंकरं च सत्त्वानां पयसां निधिमर्णवम् // 6 शुभं दिव्यममानाममृतस्याकरं परम् / अप्रमेयमचिन्त्यं च सुपुण्यजलमद्भुतम् // 7 घोरं जलचरारावरौद्रं भैरवनिस्वनम् / गम्भीरावर्तकलिलं सर्वभूतभयंकरम् // 8 वेलादोलानिलचलं क्षोभोद्वेगसमुत्थितम् / वीचीहस्तैः प्रचलितैर्नृत्यन्तमिव सर्वशः // 9 चन्द्रवृद्धिक्षयवशादुद्वृत्तोर्मिदुरासदम्। पाश्चजन्यस्य जननं रत्नाकरमनुत्तमम् // 10 गां विन्दता भगवता गोविन्देनामितौजसा / वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम् // 11 . ब्रह्मर्षिणा च तपता वर्षाणां शतमत्रिणा। * अनासादितगाधं च पातालतलमव्ययम् // 12 अध्यात्मयोगनिद्रां च पद्मनाभस्य सेवतः / युगादिकालशयनं विष्णोरमिततेजसः // 13 वडवामुखदीप्ताग्नेस्तोयहव्यप्रदं शुभम् / अगाधपारं विस्तीर्णमप्रमेयं सरित्पतिम् // 14 महानदीभिर्बह्वीभिः स्पर्धयेव सहस्रशः / अभिसार्यमाणमनिशं ददृशाते महार्णवम् // 15 गम्भीरं तिमिमकरोग्रसंकुलं तं गर्जन्तं जलचररावरौद्रनादैः। विस्तीर्णं ददृशतुरम्बरप्रकाशं . तेऽगाधं निधिमुरुमम्भसामनन्तम् // 16 इत्येवं झषमकरोर्मिसंकुलं तं गम्भीरं विकसितमम्बरप्रकाशम् / पातालज्वलनशिखाविदीपितं तं पश्यन्त्यौ द्रुतमभिपेततुस्तदानीम् // 17 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ . 20 सूत उवाच / तं समुद्रमतिक्रम्य कदूर्विनतया सह / न्यपतत्तुरगाभ्याशे नचिरादिव शीघ्रगा // 1 निशाम्य च बहून्वालान्कृष्णान्पुच्छं समाश्रितान् / विनतां विषण्णवदनां कद्रूर्दास्ये न्ययोजयत् // 2 ततः सा विनता तस्मिन्पणितेन पराजिता / अभवदुःखसंतप्ता दासीभावं समास्थिता // 3 एतस्मिन्नन्तरें चैव गरुडः काल आगते / विना मात्रा महातेजा विदार्याण्डमजायत // 4 अग्निराशिरिवोद्भासन्समिद्धोऽतिभयंकरः / प्रवृद्धः सहसा पक्षी महाकायो नभोगतः // 5 तं दृष्ट्वा शरणं जग्मुः प्रजाः सर्वा विभावसुम् / प्रणिपत्याब्रुवंश्चैनमासीनं विश्वरूपिणम् // 6 अग्ने मा त्वं प्रवर्धिष्ठाः कच्चिन्नो न दिधक्षसि / असौ हि राशिः सुमहान्समिद्धस्तव सर्पति // 7 अग्निरुवाच / नैतदेवं यथा यूयं मन्यध्वमसुरादनाः / / गरुडो बलवानेष मम तुल्यः स्वतेजसा // 8
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________________ 1. 20. 9] आदिपर्व [1. 21. 16 सूत उवाच / ततः कदाचिद्विनतां प्रवणां पुत्रसंनिधौ / एवमुक्तास्ततो गत्वा गरुडं वाग्भिरस्तुवन् / काल आहूय वचनं करिदमभाषत // 3 अदूरादभ्युपेत्यैनं देवाः सर्षिगणास्तदा // 9 नागानामालयं भद्रे सुरम्यं रमणीयकम् / त्वमृषिस्त्वं महाभागस्त्वं देवः पतगेश्वरः। समुद्रकुक्षावेकान्ते तत्र मां विनते वह // 4 त्वं प्रभुस्तपनप्रख्यस्त्वं नस्त्राणमनुत्तमम // 10 ततः सुपर्णमाता तामवहत्सर्पमातरम् / बलोमिमान्साधुरदीनसत्त्वः / पन्नगान्गरुडश्चापि मातुर्वचनचोदितः // 5 ___समृद्धिमान्दुष्प्रसहस्त्वमेव / स सूर्यस्याभितो याति वैनतेयो विहंगमः / तपः श्रुतं सर्वमहीनकीर्ते सूर्यरश्मिपरीताश्च मूर्छिताः पन्नगाभवन् / अनागतं चोपगतं च सर्वम् // 11 . तदवस्थान्सुतान्दृष्ट्वा कद्रूः शक्रमथास्तुवत् // 6 त्वमुत्तमः सर्वमिदं चराचरं नमस्ते देवदेवेश नमस्ते बलसूदन / गभस्तिभिर्भानुरिवावभाससे। नमुचिन्न नमस्तेऽस्तु सहस्राक्ष शचीपते / / 7 .. समाक्षिपन्भानुमतः प्रभां मुहु सर्पाणां सूर्यतप्तानां वारिणा त्वं प्लवो भव / स्त्वमन्तकः सर्वमिदं ध्रुवाध्रुवम् // 12 त्वमेव परमं त्राणमस्माकममरोत्तम // 8 दिवाकरः परिकुपितो यथा दहे ईशो ह्यसि पयः स्रष्टुं त्वमनल्यं पुरंदर / : प्रजास्तथा दहसि हुताशनप्रभ / त्वमेव मेघस्त्वं वायुस्त्वमग्निर्वैद्युतोऽम्बरे // 9 भयंकरः प्रलय इवाग्निरुत्थितो त्वमभ्रघनविक्षेप्ता त्वामेवाहुः पुनर्घनम् / विनाशयन्युगपरिवर्तनान्तकृत् // 13 त्वं वज्रमतुलं घोरं घोषवांस्त्वं बलाहकः // 10 खगेश्वरं शरणमुपस्थिता वयं . स्रष्टा त्वमेव लोकानां संहर्ता चापराजितः / महौजसं वितिमिरमभ्रगोचरम्। त्वं ज्योतिः सर्वभूतानां त्वमादित्यो विभावसुः // 11 ...महाबलं गरुडमुपेत्य खेचरं त्वं महद्भूतमाश्चर्यं त्वं राजा त्वं सुरोत्तमः / . परावरं वरदमजय्यविक्रमम् // 14 त्वं विष्णुस्त्वं सहस्राक्षस्त्वं देवस्त्वं परायणम् // 12 एवं स्तुतः सुपर्णस्तु देवैः सर्षिगणैस्तदा। त्वं सर्वममृतं देव त्वं सोमः परमार्चितः / जसः प्रतिसंहारमात्मनः स चकार ह // 15 त्वं मुहूर्तस्तिथिश्च त्वं लवस्त्वं वै पुनः क्षणः // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विंशोऽध्यायः // 20 // शुक्लस्त्वं बहुलश्चैव कला काष्ठा त्रुटिस्तथा / संवत्सरर्तवो मासा रजन्यश्च दिनानि च // 14 सूत उवाच। त्वमुत्तमा सगिरिवना वसुंधरा स. कामगमः पक्षी महावीर्यो महाबलः / ___ सभास्करं वितिमिरमम्बरं तथा / गालुरन्तिकमागच्छत्परं तीरं महोदधेः // 1 महोदधिः सतिमितिभिंगिलस्तथा न सा विनता तस्मिन्पणितेन पराजिता। महोर्मिमान्बहुमकरो झषालयः // 15 जातीव दुःखसंतप्ता दासीभावमुपागता // 2 महद्यशस्त्वमिति सदाभिपूज्यसे -41 - म.भा.६
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________________ 1. 21. 16 ] महाभारते [1. 24. 3 शोभितं पुष्पवर्षाणि मुञ्चद्भिर्मारुतोद्भुतैः // 4 किरद्भिरिव तत्रस्थान्नागान्पुष्पाम्बुवृष्टिभिः / मनःसंहर्षणं पुण्यं गन्धर्वाप्सरसां प्रियम् / नानापक्षिरुतं रम्यं कद्रू पुत्रप्रहर्षणम् / / 5 तत्ते वनं समासाद्य विजयुः पन्नगा मुदा। अब्रुवंश्च महावीर्यं सुपर्णं पतगोत्तमम् // 6 वहास्मानपरं द्वीपं सुरम्यं विपुलोदकम् / त्वं हि देशान्बहूरम्यान्पतन्पश्यसि खेचर // 7 स विचिन्त्याब्रवीत्पक्षी मातरं विनतां तदा / किं कारणं मया मातः कर्तव्यं सर्पभाषितम् / / 8 मनीषिभिर्मुदितमना महर्षिभिः / अभिष्टुतः पिबसि च सोममध्वरे ___ वषट्कृतान्यपि च हवींषि भूतये / / 16 त्वं विप्रैः सततमिहेज्यसे फलार्थं वेदाङ्गेष्वतुलबलौघ गीयसे च / त्ववेतोर्यजनपरायणा द्विजेन्द्रा वेदाङ्गान्यभिगमयन्ति सर्ववेदैः // 17 / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि एकविंशोऽध्यायः // 21 // 22 सूत उवाच / एवं स्तुतस्तदा कदा भगवान्हरिवाहनः / नीलजीमूतसंघातैव्योम सर्व समावृणोत् // 1 ते मेघा मुमुचुस्तोयं प्रभूतं विद्युदुज्वलाः / परस्परमिवात्यर्थं गर्जन्तः सततं दिवि // 2 संघातितमिवाकाशं जलदैः सुमहाद्भुतैः / सृजद्भिरतुलं तोयमजस्रं सुमहारवैः // 3 संप्रनृत्तमिवाकाशं धारोमिभिरनेकशः / मेघस्तनितनिर्घोषमम्बरं समपद्यत // 4 नागानामुत्तमो हर्षस्तदा वर्षति वासवे / आपूर्यत मही चापि सलिलेन समन्ततः // 5 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः // 22 // विनतोवाच / दासीभूतास्म्यनार्याया भगिन्याः पतगोत्तम। पणं वितथमास्थाय स:रुपधिना कृतम् // 9 सूत उवाच। तस्मिंस्तु कथिते मात्रा कारणे गगनेचरः। उवाच वचनं सांस्तेन दुःखेन दुःखितः / / 10 किमाहृत्य विदित्वा वा किं वा कृत्वेह पौरुषम् / दास्याद्वो विप्रमुच्येयं सत्यं शंसत लेलिहाः॥ 11 श्रुत्वा तमब्रुवन्सर्पा आहरामृतमोजसा / ततो दास्याद्विप्रमोक्षो भविता तव खेचर // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः // 23 // . 24 - सूत उवाच / इत्युक्तो गरुडः सस्ततो मातरमब्रवीत् / गच्छाम्यमृतमाहर्तुं भक्ष्यमिच्छामि वेदितुम् / / 1 विनतोवाच। समुद्रकुक्षावेकान्ते निषादालयमुत्तमम् / सहस्राणामनेकानां तान्भुक्त्वामृतमानय // 2 न तु ते ब्राह्मणं हन्तुं कार्या बुद्धिः कथंचन / अवध्यः सर्वभूतानां ब्राह्मणो ह्यनलोपमः // 3 सूत उवाच / सुपर्णेनोह्यमानास्ते जग्मुस्तं देशमाशु वै। सागराम्बुपरिक्षिप्तं पक्षिसंघनिनादितम् // 1 विचित्रफलपुष्पाभिर्वनराजिभिरावृतम् / भवनैरावृतं रम्यैस्तथा पद्माकरैरपि // 2 प्रसन्नसलिलैश्चापि ह्रदैश्चित्रैर्विभूषितम् / दिव्यगन्धवहैः पुण्यैर्मारुतैरुपवीजितम् // 3 उपजिघ्रद्भिराकाशं वृक्षैर्मलयजैरपि / -42
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________________ 1. 24. 4] आदिपर्व [1. 25.9 अमिरर्को विषं शस्त्रं विप्रो भवति कोपितः / / महानिलप्रचलितपादपे वने // 13 भूतानामप्रभुग्विप्रो वर्णश्रेष्ठः पिता गुरुः // 4 ततः खगो वदनममित्रतापनः गरुड उवाच। समाहरत्परिचपलो महाबलः। पथाहमभिजानीयां ब्राह्मणं लक्षणैः शुभैः / निषूदयन्बहुविधमत्स्यभक्षिणो बन्मे कारणतो मातः पृच्छतो वक्तुमर्हसि // 5 बुभुक्षितो गगनचरेश्वरस्तदा // 14 . विनतोवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः॥२४॥ वस्ते कण्ठमनुप्राप्तो निगीर्णं बडिशं यथा / 25 दहेदङ्गारवत्पुत्र तं विद्याद्राह्मणर्षभम् // 6 . सूत उवाच / सूत उवाच / तस्य कण्ठमनुप्राप्तो ब्राह्मणः सह भार्यया / प्रोवाच चैनं विनता पुत्रहार्दादिदं वचः।। दहन्दीप्त इवाङ्गारस्तमुवाचान्तरिक्षगः // 1 जामन्त्यप्यतुलं वीर्यमाशीर्वादसमन्वितम् / / 7 द्विजोत्तम विनिर्गच्छ तूर्णमास्यादपावृतात् / पसौ ते मारुतः पातु चन्द्रः पृष्ठं तु पुत्रक / न हि मे ब्राह्मणो वध्यः पापेष्वपि रतः सदा // 2 शिरस्तु पातु ते वह्निर्भास्करः सर्वमेव तु // 8 ब्रुवाणमेवं गरुडं ब्राह्मणः समभाषत। अहं च ते सदा पुत्र शान्तिस्वस्तिपरायणा / निषादी मम भार्येयं निर्गच्छतु मया सह // 3 अरिष्टं व्रज पन्थानं वत्स कार्यार्थसिद्धये // 9 ततः स मातुर्वचनं निशम्य गरुड उवाच। वितत्य पक्षौ नभ उत्पपात / एतामपि निषादी त्वं परिगृह्याशु निष्पत / ततो निषादान्बलवानुपागम तूर्णं संभावयात्मानमजीर्णं मम तेजसा // 4 दुभुक्षितः काल इवान्तको महान् // 10 सूत उवाच। स तान्निषादानुपसंहरंस्तदा ततः स विप्रो निष्क्रान्तो निषादीसहितस्तदा / रजः समुद्भूय नभःस्पृशं महत् / वर्धयित्वा च गरुडमिष्टं देशं जगाम ह // 5 समुद्रकुक्षौ च विशोषयन्पयः सहभार्ये विनिष्क्रान्ते तस्मिन्विप्रे स पक्षिराट् / समीपगान्भूमिधरान्विचालयन् // 11 वितत्य पक्षावाकाशमुत्पपात मनोजवः // 6 ततः स चक्रे महदाननं तदा ततोऽपश्यत्स पितरं पृष्टश्चाख्यातवान्पितुः / - निषादमार्ग प्रतिरुध्य पक्षिराट् / अहं हि सः प्रहितः सोममाहर्तुमुद्यतः। ततो निषादास्त्वरिताः प्रवव्रजु मातुर्दास्यविमोक्षार्थमाहरिष्ये तमद्य वै // 7 - यतो मुखं तस्य भुजंगभोजिनः // 12 मात्रा चास्मि समादिष्टो निषादान्भक्षयेति वै / तदाननं विवृतमतिप्रमाणव न च मे तृप्तिरभवद्भक्षयित्वा सहस्रशः // 8 / त्समभ्ययुगगनमिवादिताः खगाः / तस्माद्भोक्तव्यमपरं भगवन्प्रदिशस्व मे / सहस्रशः पवनरजोभ्रमोहिता यद्भुक्त्वामृतमाहर्तुं समर्थः स्यामहं प्रभो // 9 - 43 -
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________________ 1. 25. 10] महाभारते [1. 26.2 कश्यप उवाच। आसीद्विभावसुर्नाम महर्षिः कोपनो भृशम् / / भ्राता तस्यानुजश्चासीत्सुप्रतीको महातपाः // 10 / स नेच्छति धनं भ्रात्रा सहैकस्थं महामुनिः / विभाग कीर्तयत्येव सुप्रतीकोऽथ नित्यशः // 11 अथाब्रवीच्च तं भ्राता सुप्रतीकं विभावसुः / विभागं बहवो मोहात्कर्तुमिच्छन्ति नित्यदा। ततो विभक्ता अन्योन्यं नाद्रियन्तेऽर्थमोहिताः॥१२ ततः स्वार्थपरान्मूढान्पृथग्भूतान्स्वकैर्धनैः / विदित्वा भेदयन्त्येतानमित्रा मित्ररूपिणः // 13 / विदित्वा चापरे भिन्नानन्तरेषु पतन्त्यथ / भिन्नानामतुलो नाशः क्षिप्रमेव प्रवर्तते // 14 तस्माच्चैव विभागार्थं न प्रशंसन्ति पण्डिताः / गुरुशास्त्रे निबद्धानामन्योन्यमभिशकिनाम् // 15 नियन्तुं न हि शक्यस्त्वं भेदतो धनमिच्छसि / यस्मात्तस्मात्सुप्रतीक हस्तित्वं समवाप्स्यसि // 16 शप्तस्त्वेवं सुप्रतीको विभावसुमथाब्रवीत् / त्वमप्यन्तर्जलचरः कच्छपः संभविष्यसि // 17 / एवमन्योन्यशापात्ती सुप्रतीकविभावसू / गजकच्छपतां प्राप्तावार्थं मूढचेतसौ // 18 रोषदोषानुषङ्गेण तिर्यग्योनिगतावपि / परस्परद्वेषरतौ प्रमाणबलदर्पितौ // 19 सरस्यस्मिन्महाकायौ पूर्ववैरानुसारिणौ / तयोरेकतरः श्रीमान्समुपैति महागजः // 20 तस्य बृंहितशब्देन कूर्मोऽप्यन्तर्जलेशयः / उत्थितोऽसौ महाकायः कृत्स्नं संक्षोभयन्सरः // 21 तं दृष्ट्वावेष्टितकरः पतत्येष गजो जलम् / दन्तहस्ताग्रलालपादवेगेन वीर्यवान् // 22 तं विक्षोभयमाणं तु सरो बहुझषाकुलम् / कूर्मोऽप्यभ्युद्यतशिरा युद्धायाभ्येति वीर्यवान् / / 23 / षडुच्छ्रितो योजनानि गजस्तहिगुणायतः। कूर्मस्त्रियोजनोत्सेधो दशयोजनमण्डलः // 24 तावेतौ युद्धसंमत्तौ परस्परजयैषिणौ / उपयुज्याशु कर्मेदं साधयेप्सितमात्मनः // 25 ___ सूत उवाच / स तच्छ्रुत्वा पितुर्वाक्यं भीमवेगोऽन्तरिक्षगः / नखेन गजमेकेन कूर्ममेकेन चाक्षिपत् // 26 समुत्पपात चाकाशं तत उच्चैर्विहंगमः / सोऽलम्बतीर्थमासाद्य देववृक्षानुपागमत् // 27 . ते भीताः समकम्पन्त तस्य पक्षानिलाहताः। न नो भङ्यादिति तदा दिव्याः कनकशाखिनः // 28 प्रचलाङ्गान्स तान्दृष्ट्वा मनोरथफलाङ्करान् / अन्यानतुलरूपाङ्गानुपचक्राम खेचरः॥ 29 काश्चनै राजतैश्चैव फलैर्वैडूर्यशाखिनः / सागराम्बुपरिक्षिप्तान्भ्राजमानान्महाद्रुमान् // 30 . तमुवाच खगश्रेष्ठं तत्र रोहिणपादपः। अतिप्रवृद्धः सुमहानापतन्तं मनोजवम् // 31 यैषा मम महाशाखा शतयोजनमायता। एतामास्थाय शाखां त्वं खादेमौ गजकच्छपौ // 32 ततो द्रुमं पतगसहस्रसेवितं ___महीधरप्रतिमवपुः प्रकम्पयन् / खगोत्तमो द्रुतमभिपत्य वेगवा. न्बभञ्ज तामविरलपत्रसंवृताम् // 33 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // सूत उवाच / स्पृष्टमात्रा तु पद्भ्यां सा गरुडेन बलीयसा / अभज्यत तरोः शाखा भग्नां चैनामधारयत् / / 1 तां भग्नां स महाशाखां स्मयन्समवलोकयन् / अथात्र लम्बतोऽपश्यद्वालखिल्यानधोमुखान् // 2
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________________ 1. 26. 3] आदिपर्व [1. 26. 31 स तद्विनाशसंत्रासादनुपत्य खगाधिपः / शाखामास्येन जग्राह तेषामेवान्ववेक्षया / शनैः पर्यपतत्पक्षी पर्वतान्प्रविशातयन् // 3 एवं सोऽभ्यपतद्देशान्बहून्सगजकच्छपः / दयार्थ वालखिल्यानां न च स्थानमविन्दत // 4 स गत्वा पर्वतश्रेष्ठं गन्धमादनमव्ययम् / ददर्श कश्यपं तत्र पितरं तपसि स्थितम् / / 5 ददर्श तं पिता चापि दिव्यरूपं विहंगमम् / तेजोवीर्यबलोपेतं मनोमारुतरंहसम् // 6 शैलशृङ्गप्रतीकाशं ब्रह्मदण्डमिवोद्यतम् / अचिन्त्यमनभिज्ञेयं सर्वभूतभयंकरम् // 7 मायावीर्यधरं साक्षादग्निमिद्धमियोद्यतम् / अप्रधृष्यमजेयं च देवदानवराक्षसैः // 8 भेत्तारं गिरिशृङ्गाणां नंदीजलविशोषणम् / लोकसंलोडनं घोरं कृतान्तसमदर्शनम् / / 9 समागतमभिप्रेक्ष्य भगवान्कश्यपस्तदा / विदित्वा चास्य संकल्पमिदं वचनमब्रवीत् // 10 पुत्र मा साहसं कार्षीर्मा सद्यो लप्स्यसे व्यथाम् / मात्वा दहेयुः संक्रुद्धा वालखिल्या मरीचिपाः॥११ प्रसादयामास स तान्कश्यपः पुत्रकारणात् / बालखिल्यांस्तपःसिद्धानिदमुद्दिश्य कारणम् / / 12 प्रजाहितार्थमारम्भो गरुडस्य तपोधनाः / चिकीर्षति महत्कर्म तदनुज्ञातुमर्हथ / / 13 एवमुक्ता भगवता मुनयस्ते समभ्ययुः / मुक्त्वा शाखां गिरिं पुण्यं हिमवन्तं तपोर्थिनः // 14 उतस्तेष्वपयातेषु पितरं विनतात्मजः। साखाव्याक्षिप्तवदनः पयपृच्छत कश्यपम् / / 15 भगवन्क विमुश्चामि तरुशाखामिमामहम् / वर्जितं ब्राह्मणैर्देशमाख्यातु भगवान्मम // 16 खतो निष्पुरुषं शैलं हिमसंरुद्धकन्दरम् / अगम्यं मनसाप्यन्यैस्तस्याचख्यौ स कश्यपः॥ 17 तं पर्वतमहाकुक्षिमाविश्य मनसा खगः / जवेनाभ्यपतत्तायः सशाखागजकच्छपः // 18 न तां वध्रः परिणहेच्छतचर्मा महानणुः / शाखिनो महतीं शाखां यां प्रगृह्य ययौ खगः // 19 ततः स शतसाहस्रं योजनान्तरमागतः। कालेन नातिमहता गरुडः पततां वरः / / 20 स तं गत्वा क्षणेनैव पर्वतं वचनापितुः / अमुञ्चन्महतीं शाखां सस्वनां तत्र खेचरः / / 21 पक्षानिलहतश्चास्य प्राकम्पत स शैलराट् / मुमोच पुष्पवर्षं च समागलितपादपः / / 22 शृङ्गाणि च व्यशीर्यन्त गिरेस्तस्य समन्ततः / मणिकाञ्चनचित्राणि शोभयन्ति महागिरिम् / / 23 शाखिनो बहवश्चापि शाखयाभिहतास्तया। काञ्चनैः कुसुमै न्ति विद्युत्यन्त इवाम्बुदाः // 24 ते हेमविकचा भूयो युक्ताः पर्वतधातुभिः / व्यराजशाखिनस्तत्र सूर्यांशुप्रतिरञ्जिताः // 25 ततस्तस्य गिरेः शृङ्गमास्थाय स खगोत्तमः / भक्षयामास गरुडस्तावुभौ गजकच्छपौ // 26 ततः पर्वतकूटाग्रादुत्पपात मनोजवः / प्रावर्तन्ताथ देवानामुत्पाता भयवेदिनः // 27 इन्द्रस्य वज्रं दयितं प्रजज्वाल व्यथान्वितम् / सधूमा चापतत्साचिर्दिवोल्का नभसभ्युता // 28 तथा वसूनां रुद्राणामादित्यानां च सर्वशः / साध्यानां मरुतां चैव ये चान्ये देवतागणाः / खं स्वं प्रहरणं तेषां परस्परमुपाद्रवत् // 29 अभूतपूर्व संग्रामे तदा देवासुरेऽपि च / ववुर्वाताः सनिर्घाताः पेतुरुल्काः समन्ततः // 30 निरभ्रमपि चाकाशं प्रजगर्ज महास्वनम् / देवानामपि यो देवः सोऽप्यवर्षदसृक्तदा // 31 -45
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________________ 1. 26. 32] महाभारते [1. 27.9 सूत उवाच। मम्लुर्माल्यानि देवानां शेमुस्तेजांसि चैव हि। भानुमन्तः सुरगणास्तस्थुर्विगतकल्मषाः // 45 उत्पातमेघा रौद्राश्च ववर्षः शोणितं बहु / अनुपमबलवीर्यतेजसो रजांसि मुकुटान्येषामुत्थितानि व्यधर्षयन् // 32 धृतमनसः परिरक्षणेऽमृतस्य / ततस्त्राससमुद्विग्नः सह देवैः शतक्रतुः / असुरपुरविदारणाः सुरा उत्पातान्दारुणान्पश्यन्नित्युवाच बृहस्पतिम् // 33 ज्वलनसमिद्धवपुःप्रकाशिनः // 46 . किमर्थं भगवन्धोरा महोत्पाताः समुत्थिताः / इति समरवरं सुरास्थितं न च शत्रु प्रपश्यामि युधि यो नः प्रधर्षयेत्॥३४ ___ परिघसहस्रशतैः समाकुलम् / बृहस्पतिरुवाच। विगलितमिव चाम्बरान्तरे तवापराधादेवेन्द्र प्रमादाच्च शतक्रतो / तपनमरीचिविभासितं बभौ // 47 . तपसा वालखिल्यानां भूतमुत्पन्नमद्भुतम् // 35 इति श्रीमहाभारते भादिपर्वणि षड्विंशोऽध्यायः॥२६॥ कश्यपस्य मुनेः पुत्रो विनतायाश्च खेचरः / हर्तुं सोममनुप्राप्तो बलवान्कामरूपवान् // 36 शौनक उवाच। समर्थो बलिनां श्रेष्ठो हर्तुं सोमं विहंगमः। कोऽपराधो महेन्द्रस्य कः प्रमादश्च सूतज / सर्व संभावयाम्यस्मिन्नसाध्यमपि साधयेत् // 37 तपसा वालखिल्यानां संभूतो गरुडः कथम् // 1 कश्यपस्य द्विजातेश्च कथं वै पक्षिराट् सुतः। श्रुवैतद्वचनं शक्रः प्रोवाचामृतरक्षिणः / अधृष्यः सर्वभूतानामवध्यश्चाभवत्कथम् // 2 महावीर्यबल: पक्षी हर्तुं सोममिहोद्यतः // 38 कथं च कामचारी स कामवीर्यश्च खेचरः / युष्मान्संबोधयाम्येष यथा स न हरेद्रलात / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पुराणे यदि पठ्यते // 3 अतुलं हि बलं तस्य बृहस्पतिरुवाच मे // 39 सूत उवाच / तच्छ्रुत्वा विबुधा वाक्यं विस्मिता यत्नमास्थिताः / विषयोऽयं पुराणस्य यन्मां त्वं परिपृच्छसि / परिवार्यामृतं तस्थुर्वञी चेन्द्रः शतक्रतुः / / 40 शृणु मे वदतः सर्वमेतत्संक्षेपतो द्विज // 4 धारयन्तो महार्हाणि कवचानि मनस्विनः / / यजतः पुत्रकामस्य कश्यपस्य प्रजापतेः / काश्चनानि विचित्राणि वैडूर्यविकृतानि च // 41 साहाय्यमृषयो देवा गन्धर्वाश्च ददुः किल // 5 विविधानि च शस्त्राणि घोररूपाण्यनेकशः।। तत्रेध्मानयने शको नियुक्तः कश्यपेन ह। शिततीक्ष्णाग्रधाराणि समुद्यम्य सहस्रशः // 42 मुनयो वालखिल्याश्च ये चान्ये देवतागंणाः // 6 सविस्फुलिङ्गज्वालानि सधूमानि च सर्वशः / शक्रस्तु वीर्यसदृशमिध्मभारं गिरिप्रभम् / चक्राणि परिघांश्चैव त्रिशूलानि परश्वधान् // 43 समुद्यम्यानयामास नातिकृच्छ्रादिव प्रभुः / / 7 शक्तीश्च विविधास्तीक्ष्णाः करवालांश्च निर्मलान् / अथापश्यदृषीन्ह्रस्वानङ्गुष्ठोदरपर्वणः / स्वदेहरूपाण्यादाय गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः // 44 पलाशवृन्तिकामेकां सहितान्वहतः पथि // 8 तैः शस्त्रैर्भानुमद्भिस्ते दिव्याभरणभूषिताः। प्रलीनान्स्वेष्विवाङ्गेषु निराहारांस्तपोधनान् / -46 -
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________________ 1. 27. 9] आदिपर्व [1. 28. 2 क्लिश्यमानान्मन्दबलान्गोष्पदे संप्लुतोदके // 9 | विनता नाम कल्याणी पुत्रकामा यशस्विनी / / 24 तांश्च सर्वान्स्मयाविष्टो वीर्योन्मत्तः पुरंदरः / तपस्तप्त्वा व्रतपरा नाता पुंसवने शुचिः। अवहस्यात्यगाच्छीघ्रं लवयित्वावमन्य च / 10 उपचक्राम भर्तारं तामुवाचाथ कश्यपः // 25 तेऽथ रोषसमाविष्टाः सुभृशं जातमन्यवः / आरम्भः सफलो देधि भवितायं तवेप्सितः। आरेभिरे महत्कर्म तदा शक्रभयंकरम् / / 11 जनयिष्यसि पुत्रौ द्वौ वीरौ त्रिभुवनेश्वरौ // 26 जुहुवुस्ते सुतपतो विधिवज्जातवेदसम् / तपसा वालखिल्यानां मम संकल्पजी तथा। मौरुच्चावचैर्विप्रा येन कामेन तच्छृणु // 12 भविष्यतो महाभागौ पुत्रौ ते लोकपूजितौ / / 27 कामवीर्यः कामगमो देवराजभयप्रदः।। उवाच चैनां भगवान्मारीचः पुनरेव ह। इन्द्रोऽन्यः सर्वदेवानां भवेदिति यतव्रताः // 13 धार्यतामप्रमादेन गर्भोऽयं सुमहोदयः // 28 इन्द्राच्छतगुणः शौर्ये वीर्ये चैव मनोजवः / एकः सर्वपतत्रीणामिन्द्रत्वं कारयिष्यति / तपसो नः फलेनाद्य दारुणः संभवत्विति / / 14 लोकसंभावितो वीरः कामवीर्यो विहंगमः // 29 तदुद्धा भृशसंतप्तो देवराजः शतक्रतुः / शतक्रतुमथोवाच श्रीयमाणः प्रजापतिः / जगाम शरणं तत्र कश्यपं संशितव्रतम् / / 15 त्वत्सहायौ खगावेतो भ्रातरौ ते भविष्यतः // 30 तच्छ्रुत्वा देवराजस्य कश्ययोऽथ प्रजापतिः / नेताभ्यां भविता दोषः सकाशात्ते' पुरंदर / वालखिल्यानुपागम्य कर्मसिद्धिमपृच्छत / / 16 व्येतु ते शक्र संतापस्त्वमेवेन्द्रो भविष्यसि // 31 एवमस्त्विति तं चापि प्रत्यूचुः सत्यवादिनः / न चाप्येवं त्वया भूयः क्षेप्तव्या ब्रह्मवादिनः / तान्कश्यप उवाचेदं सान्त्वपूर्ण प्रजापतिः / / 17 न चावमान्या दर्पात्ते' वाग्विषा भृशकोपनाः // 32 अयमिन्द्रस्त्रिभुवने नियोगाद्ब्रह्मणः कृतः। एवमुक्तो जगामेन्द्रो निर्विशङ्कस्त्रिविष्टपम् / इन्द्रार्थं च भवन्तोऽपि यत्नवन्तस्तपोधनाः / / 18 विनता चापि सिद्धार्था बभूव मुदिता तदा // 33 न मिथ्या ब्रह्मणो वाक्यं कर्तुमर्हथ सत्तमाः। जनयामास पुत्री द्वावरुणं गरुडं तथा। भवतां च न मिथ्यायं संकल्पो मे चिकीर्षितः॥१९ अरुणस्तयोस्तु विकल आदित्यस्य पुरःसरः // 34 भवत्वेष पतत्रीणामिन्द्रोऽतिबलसत्त्ववान् / पतत्रीणां तु गरुड इन्द्रत्वेनाभ्यपिच्यत / प्रसादः क्रियतां चैव देवराजस्य याचतः // 20 तस्यैतत्कर्म सुमहच्छ्रयतां भृगुनन्दन // 35 एवमुक्ताः कश्यपेन वालखिल्यास्तपोधनाः। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः // 27 // प्रत्यूचुरभिसंपूज्य मुनिश्रेष्ठं प्रजापतिम् // 21 28 इन्द्रार्थोऽयं समारम्भः सर्वेषां नः प्रजापते / सूत उवाच / अपत्यार्थं समारम्भो भवतश्चायमीप्सितः // 22 ततस्तस्मिन्द्विजश्रेष्ठ समुदीर्णे तथाविधे / तदिदं सफलं कर्म त्वया वै प्रतिगृह्यताम् / गरुत्मान्पक्षिराट् तूर्णं संप्राप्तो विबुधान्प्रति // 1 तथा चैव विधत्स्वात्र यथा श्रेयोऽनुपश्यसि // 23 तं दृष्ट्वातिबलं चैव प्राकम्पन्त समन्ततः / एतस्मिन्नेव काले तु देवी दाक्षायणी शुभा। परस्परं च प्रत्यनन्सर्वप्रहरणान्यपि // 2 -47 -
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________________ 1. 28. 3] महाभारते [1. 29. 3 तत्र चासीदमेयात्मा विद्युदग्निसमप्रभः / मुहुर्मुहुः प्रेक्षमाणा युध्यमाना महौजसम् // 17 भौवनः सुमहावीर्यः सोमस्य परिरक्षिता॥ 3 अश्वक्रन्देन वीरेण रेणुकेन च पक्षिणा / स तेन पतगेन्द्रेण पक्षतुण्डनखैः क्षतः। क्रथनेन च शूरेण तपनेन च खेचरः // 18 मुहूर्तमतुलं युद्धं कृत्वा विनिहतो युधि // 4 उलूकश्वसनाभ्यां च निमेषेण च पक्षिणा / रजश्वोद्धय सुमहत्पक्षवातेन खेचरः। प्ररुजेन च संयुद्धं चकार प्रलिहेन च // 19 कृत्वा लोकान्निरालोकांस्तेन देवानवाकिरत् // 5 तान्पक्षनखतुण्डात्रैरभिनद्विनेतासुतः। . तेनावकीर्णा रजसा देवा मोहमुपागमन् / युगान्तकाले संक्रुद्धः पिनाकीव महाबलः / / 20 न चैनं ददृशुश्छन्ना रजसामृतरक्षिणः // 6 . महावीर्या महोत्साहास्तेन ते बहुधा क्षताः / एवं संलोडयामास गरुडत्रिदिवालयम् / रेजुरभ्रघनप्रख्या रुधिरौघप्रवर्षिणः // 21 पक्षतुण्डप्रहारैश्च देवान्स विददार ह // 7 तान्कृत्वा पतगश्रेष्ठः सर्वानुत्क्रान्तजीवितान् / ततो देवः सहस्राक्षस्तूर्णं वायुमचोदयत् / अतिक्रान्तोऽमृतस्यार्थे सर्वतोऽग्निमपश्यत / / 22 विक्षिपेमां रजोवृष्टिं तवैतत्कर्म मारुत // 8 आवृण्वानं महाज्वालमर्चिभिः सर्वतोऽम्बरम् / अथ वायुरपोवाह तद्रजस्तरसा बली। दहन्तमिव तीक्ष्णांशु घोरं वायुसमीरितम् // 23 ततो वितिमिरे जाते देवाः शकुनिमार्दयन् // 9 ततो नवत्या नवतीर्मुखानां ननाद चोच्चैबलवान्महामेघरवः खगः / ___ कृत्वा तरस्वी गरुडो महात्मा / वध्यमानः सुरगणैः सर्वभूतानि भीषयन् / नदीः समापीय मुखैस्ततस्तैः उत्पपात महावीर्यः पक्षिराट् परवीरहा // 10 सुशीघ्रमागम्य पुनर्जवेन // 24 तमुत्पत्यान्तरिक्षस्थं देवानामुपरि स्थितम् / ज्वलन्तमग्निं तममित्रतापनः वर्मिणो विबुधाः सर्वे नानाशस्त्रैरवाकिरन् // 11 समास्तरत्पत्ररथो नदीभिः / पट्टिशैः परिधैः शूलैर्गदाभिश्च सवासवाः / ततः प्रचक्रे वपुरन्यदल्पं क्षुरान्तैवलितैश्चापि चक्ररादित्यरूपिभिः // 12 प्रवेष्टुकामोऽग्निमभिप्रशाम्य // 25 नानाशस्त्रविसर्गश्च वध्यमानः समन्ततः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः // 28 // कुर्वन्तुमुलं युद्धं पक्षिरान व्यकम्पत // 13 29 . विनर्दन्निव चाकाशे वैनतेयः प्रतापवान् / सूत उवाच / पक्षाभ्यामुरसा चैव समन्ताद्व्याक्षिपत्सुरान् // 14 जाम्बूनदमयो भूत्वा मरीचिविकचोज्ज्वलः / ते विक्षिप्तास्ततो देवाः प्रजग्मुर्गरुडार्दिताः / प्रविवेश बलात्पक्षी वारिवेग इवार्णवम् // 1 नखतुण्डक्षताश्चैव सुस्रुवुः शोणितं बहु // 15 स चक्रं क्षुरपर्यन्तमपश्यदमृतान्तिके। साध्याः प्राची सगन्धर्वा वसवो दक्षिणां दिशम। परिभ्रमन्तमनिशं तीक्ष्णधारमयस्मयम् // 2 प्रजग्मुः सहिता रुद्रैः पतगेन्द्रप्रधर्षिताः // 16 ज्वलनार्कप्रभं घोरं छेदनं सोमहारिणाम् / दिशं प्रतीचीमादित्या नासत्या उत्तरां दिशम् / घोररूपं तदत्यर्थं यत्रं देवैः सुनिर्मितम् // 3 . -48 -
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________________ __ 1. 29. 4] आदिपर्व [1. 30.7 तस्यान्तरं स दृष्ट्वैव पर्यवर्तत खेचरः / ऋषेर्मानं करिष्यामि वज्रं यस्यास्थिसंभवम् / अरान्तरेणाभ्यपतत्संक्षिप्यानं क्षणेन ह // 4 वज्रस्य च करिष्यामि तव चैव शतक्रतो // 19 अधश्चक्रस्य चैवात्र दीप्तानलसमद्युती / एष पत्रं त्यजाम्येकं यस्यान्तं नोपलप्स्यसे। विद्युजिह्वौ महाघोरौ दीप्तास्यौ दीप्तलोचनौ // 5 / न हि वनिपातेन रुजा मेऽस्ति कदाचन // 20 चक्षुर्विषौ महावीर्यो नित्यक्रुद्धौ तरस्विनौ / तत्र तं सर्वभूतानि विस्मितान्यब्रुवंस्तदा / रक्षार्थमेवामृतस्य ददर्श भुजगोत्तमौ // 6 सुरूपं पत्रमालक्ष्य सुपर्णोऽयं भवत्विति // 21 सदा संरब्धनयनौ सदा चानिमिषेक्षणौ / दृष्ट्वा तदद्भुतं चापि सहस्राक्षः पुरंदरः / तयोरेकोऽपि यं पश्येत्स तूर्णं भस्मसाद्भवेत् // 7 खगो महदिदं भूतमिति मत्वाभ्यभाषत // 22 तयोश्चक्षुषि रजसा सुपर्णस्तूर्णमावृणोत् / बलं विज्ञातुमिच्छामि यत्ते परमनुत्तमम् / अदृष्टरूपस्तौ चापि सर्वतः पर्यकालयत् // 8 सख्यं चानन्तमिच्छामि त्वया सह खगोत्तम // 23 तयोरङ्गे समाक्रम्य वैनतेयोऽन्तरिक्षगः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ऊनत्रिंशोऽध्यायः // 29 // आच्छिनत्तरसा मध्ये सोममभ्यद्रवत्ततः // 9 30 समुत्पाट्यामृतं तत्तु वैनतेयस्ततो बली। उत्पपात जवेनैव यत्रमुन्मथ्य वीर्यवान् // 10 गरुड उवाच / अपीत्वैवामृतं पक्षी परिगृह्याशु वीर्यवान् / सख्यं मेऽस्तु त्वया देव यथेच्छसि पुरंदर / अगच्छदपरिश्रान्त आवार्किप्रभा खगः // 11 बलं तु मम जानीहि महच्चासह्यमेव च // 1 विष्णुना तु तदाकाशे वैनतेयः समेयिवान् / कामं नैतत्प्रशंसन्ति सन्तः स्वबलसंस्तवम् / तस्य नारायणस्तुष्टस्तेनालौल्येन कर्मणा // 12 गुणसंकीर्तनं चापि स्वयमेव शतक्रतो // 2 तमुवाचाव्ययो देवो वरदोऽस्मीति खेचरम् / सखेति कृत्वा तु सखे पृष्टो वक्ष्याम्यहं त्वया / स. वक्रे तव तिष्ठेयमुपरीत्यन्तरिक्षगः // 13 न ह्यात्मस्तवसंयुक्तं वक्तव्यमनिमित्ततः // 3 उवाच चैनं भूयोऽपि नारायणमिदं वचः / सपर्वतवनामुवी ससागरवनामिमाम् / अजरश्वामरश्च स्याममृतेन विनाप्यहम् // 14 पक्षनाड्यैकया शक त्वां चैवात्रावलम्बिनम् // 4 प्रतिगृह्य वरौ तौ च गरुडो विष्णुमब्रवीत् / सर्वान्सपिण्डितान्वापि लोकान्सस्थाणुजङ्गमान् / भवतेऽपि वरं दद्मि वृणीतां भगवानपि // 15 वहेयमपरिश्रान्तो विद्धीदं मे महद्बलम् // 5 तं वज्र वाहनं कृष्णो गरुत्मन्तं महाबलम् / सूत उवाच / ध्वजं च चक्रे भगवानुपरि स्थास्यसीति तम् / / 16 इत्युक्तवचनं वीरं किरीटी श्रीमतां वरः। अनुपत्य खगं त्विन्द्रो बनेणाङ्गेऽभ्यताडयत् / आह शौनक देवेन्द्रः सर्वभूतहितः प्रभुः // 6 विहंगमं सुरामित्रं हरन्तममृतं बलात् // 17 प्रतिगृह्यतामिदानी मे सख्यमानन्त्यमुत्तमम् / तमुवाचेन्द्रमाक्रन्दे गरुडः पततां वरः / न कार्य तव सोमेन मम सोमः प्रदीयताम् / प्रहसश्लक्ष्णया वाचा तथा वनसमाहतः // 18 / अस्मांस्ते हि प्रबाधेयुर्येभ्यो दद्याद्भवानिमम् // 7 ___ - 49 - म.भा.७
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________________ 1. 30. 8] महाभारते [1. 31. 10 गरुड उवाच / विहृत्य मात्रा सह तत्र कानने / किंचित्कारणमुद्दिश्य सोमोऽयं नीयते मया। भुजंगभक्षः परमार्चितः खगैन दास्यामि समादातुं सोमं कस्मैचिदप्यहम् // 8 रहीनकीर्तिर्विनतामनन्दयत् / / 21 यत्रेमं तु सहस्राक्ष निक्षिपेयमहं स्वयम् / इमां कथां यः शृणुयान्नरः सदा त्वमादाय ततस्तूर्णं हरेथास्त्रिदशेश्वर // 9 पठेत वा द्विजजनमुख्यसंसदि / शक्र उवाच। असंशयं त्रिदिवमियात्स पुण्यभावाक्येनानेन तुष्टोऽहं यत्त्वयोक्तमिहाण्डज / ङमहात्मनः पतगपतेः प्रकीर्तनात् // 22 यदिच्छसि वरं मत्तस्तद्गृहाण खगोत्तम // 10 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥ सूत उवाच / इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं कद्रूपुत्राननुस्मरन् / शौनक उवाच। .. स्मृत्वा चैवोपधिकृतं मातुर्दास्यनिमित्ततः / / 11 भुजंगमानां शापस्य मात्रा चैव सुतेन च / ईशोऽहमपि सर्वस्य करिष्यामि तु तेऽर्थिताम्। विनतायास्त्वया प्रोक्तं कारणं सूतनन्दन // 1 भवेयुर्भुजगाः शक्र मम भक्ष्या महाबलाः // 12 वरप्रदानं भर्चा च कद्रूविनतयोस्तथा। तथेत्युक्त्वान्वगच्छत्तं ततो दानवसूदनः। नामनी चैव ते प्रोक्ते पक्षिणोवैनतेययोः // 2 हरिष्यामि विनिक्षिप्तं सोममित्यनुभाष्य तम् // 13 पन्नगानां तु नामानि न कीर्तयसि सूतज। आजगाम ततस्तूर्णं सुपर्णो मातुरन्तिकम् / प्राधान्येनापि नामानि श्रोतुमिच्छामहे वयम् // 3 अथ सर्पानुवाचेदं सर्वान्परमहृष्टवत् // 14 सूत उवाच / इदमानीतममृतं निक्षेप्स्यामि कुशेषु वः / बहुत्वान्नामधेयानि भुजगानां तपोधन / स्नाता मङ्गलसंयुक्तास्ततः प्राश्नीत पन्नगाः // 15 न कीर्तयिष्ये सर्वेषां प्राधान्येन तु मे शृणु // 4 अदासी चैव मातेयमद्यप्रभृति चास्तु मे। शेषः प्रथमतो जातो वासुकिस्तदनन्तरम् / यथोक्तं भवतामेतद्वचो मे प्रतिपादितम् // 16 ऐरावतस्तक्षकश्च कर्कोटकधनंजयौ // 5 ततः स्नातुं गताः सर्पाः प्रत्युक्त्वा तं तथेत्युत / कालियो मणिनागश्च नागश्वापूरणस्तथा / शक्रोऽप्यमृतमाक्षिप्य जगाम त्रिदिवं पुनः // 17 नागस्तथा पिञ्जरक एलापत्रोऽथ वामनः // 6 अथागतास्तमुद्देशं सर्पाः सोमार्थिनस्तदा। नीलानीलौ तथा नागौ कल्माषशबलौ तथा। नाताश्च कृतजप्याश्च प्रहृष्टाः कृतमङ्गलाः // 18 आर्यकश्चादिकश्चैव नागश्च शलपोतकः // 7 तद्विज्ञाय हृतं सर्पाः प्रतिमायाकृतं च तत् / सुमनोमुखो दधिमुखस्तथा विमलपिण्डकः / सोमस्थानमिदं चेति दर्भास्ते लिलिहुस्तदा // 19 आप्तः कोटनकश्चैव शङ्खो वालशिखस्तथा // 8 ततो द्वैधीकृता जिह्वा सर्पाणां तेन कर्मणा। निष्टयनको हेमगहो नहषः पिङ्गलस्तथा / अभवंश्चामृतस्पर्शादर्भास्तेऽथ पवित्रिणः॥२० बाह्यकर्णो हस्तिपदस्तथा मुद्गरपिण्डकः // 9 ततः सुपर्णः परमप्रहृष्टवा कम्बलाश्वतरौ चापि नागः कालीयकस्तथा। -50 -
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________________ 1. 31. 10] आदिपर्व [1. 32. 17 वृत्तसंवर्तकौ नागौ द्वौ च पद्माविति श्रुतौ // 10 / तप्यमानं तपो घोरं तं ददर्श पितामहः / नागः शङ्खनकश्चैव तथा च स्फण्डकोऽपरः।। परिशुष्कमांसत्वक्स्नायुं जटाचीरधरं प्रभुम् // 5 क्षेमकश्च महानागो नागः पिण्डारकस्तथा // 11 तमब्रवीत्सत्यधृतिं तप्यमानं पितामहः / करवीरः पुष्पदंष्ट्र एळको विल्वपाण्डुकः। किमिदं कुरुषे शेष प्रजानां स्वस्ति वै कुरु // 6 मूषकादः शङ्खशिराः पूर्णदंष्ट्रो हरिद्रकः // 12 त्वं हि तीव्रण तपसा प्रजास्तापयसेऽनघ / अपराजितो ज्योतिकश्च पन्नगः श्रीवहस्तथा। ब्रूहि कामं च मे शेष यत्ते हृदि चिरं स्थितम् // 7 कौरव्यो धृतराष्ट्रश्च पुष्करः शल्यकस्तथा // 13 शेष उवाच / विरजाश्च सुबाहुश्च शालिपिण्डश्च वीर्यवान् / सोदर्या मम सर्वे हि भ्रातरो मन्दचेतसः / हस्तिभद्रः पिठरको मुखरः कोणवासनः // 14 सह तै!त्सहे वस्तुं तद्भवाननुमन्यताम् / / 8 कुञ्जरः कुररश्चैव तथा नागः प्रभाकरः / अभ्यसूयन्ति सततं परस्परममित्रवत् / कुमुदः कुमुदाक्षश्च तित्तिरिर्हलिकस्तथा। ततोऽहं तप आतिष्ठे नैतान्पश्येयमित्युत // 9 कर्कराकर्करौ चोभी कुण्डोदरमहोदरौ // 15 न मर्षयन्ति सततं विनतां ससुतां च ते / एते प्राधान्यतो नागाः कीर्तिता द्विजसत्तम / अस्माकं चापरो भ्राता वैनतेयः पितामह // 10 बहुत्वान्नामधेयानामितरे न प्रकीर्तिताः // 16 तं च द्विषन्ति तेऽत्यर्थं स चापि सुमहाबलः / एतेषां प्रसवो यश्च प्रसवस्य च संततिः / वरप्रदानात्स पितुः कश्यपस्य महात्मनः // 11 असंख्येयेति मत्वा तान्न ब्रवीमि द्विजोत्तम / / 17 सोऽहं तपः समास्थाय मोक्ष्यामीदं कलेवरम् / बहूनीह सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च / कथं मे प्रेत्यभावेऽपि न तैः स्यात्सह संगमः॥१२ अशक्यान्येव संख्यातुं भुजगानां तपोधन // 18 ब्रह्मोवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः // 31 // जानामि शेष सर्वेषां भ्रातृणां ते विचेष्टितम् / - शौनक उवाच / मातुश्चाप्यपराधाद्वै भ्रातृणां ते महद्भयम् // 13 जाता वै भुजगास्तात वीर्यवन्तो दुरासदाः / कृतोऽत्र परिहारश्च पूर्वमेव भुजंगम। भ्रातृणां तव सर्वेषां न शोकं कर्तुमर्हसि // 14 शापं तं त्वथ विज्ञाय कृतवन्तो नु किं परम् // 1 वृणीष्व च वरं मत्तः शेष यत्तेऽभिकाशितम् / सूत उवाच / दित्सामि हि वरं तेऽद्य प्रीतिर्मे परमा त्वयि // 15 तेषां तु भगवाशेषस्त्यक्त्वा कद्रू महायशाः / दिष्टया च बुद्धिर्धर्मे ते निविष्ठा पन्नगोत्तम / / तपो विपुलमातस्थे वायुभक्षो यतव्रतः / / 2 गन्धमादनमासाद्य बदर्यां च तपोरतः। अतो भूयश्च ते बुद्धिधर्मे भवतु सुस्थिरा / / 16 गोकर्णे पुष्करारण्ये तथा हिमवतस्तटे // 3 शेष उवाच। तेषु तेषु च पुण्येषु तीर्थेष्वायतनेषु च / / एष एव वरो मेऽद्य काशितः प्रपितामह / एकान्तशीली नियतः सततं विजितेन्द्रियः // 4 धर्मे मे रमतां बुद्धिः शमे तपसि चेश्वर // 17 -51 -
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________________ 1. 32. 18] महाभारते [1..33. 12 ब्रह्मोवाच / सुपर्ण च सखायं वै भगवानमरोत्तमः। प्रीतोऽस्म्यनेन ते शेष दमेन प्रशमेन च। प्रादादनन्ताय तदा वैनतेयं पितामहः // 25 त्वया विदं वचः कार्य मन्नियोगात्प्रजाहितम्॥ 18 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः॥३२॥ इमां महीं शैलवनोपपन्नां 33 ससागरां साकरपत्तनां च / सूत उवाच / त्वं शेष सम्यक्चलितां यथाव मातुः सकाशात्तं शापं श्रुत्वा पन्नगसत्तमः / त्संगृह्य तिष्ठस्व यथाचला स्यात् // 19 वासुकिश्चिन्तयामास शापोऽयं न भवेत्कथम् // 1 शेष उवाच / ततः स मत्रयामास भ्रातृभिः सह सर्वशः / यथाह देवो वरदः प्रजापति- . ऐरावतप्रभृतिभिर्ये स्म धर्मपरायणाः // 2 महीपतिर्भूतपतिर्जगत्पतिः। वासुकिरुवाच। तथा महीं धारयितास्मि निश्चलां अयं शापो यथोद्दिष्टो विदितं वस्तथानघाः। प्रयच्छ तां मे शिरसि प्रजापते // 20 तस्य शापस्य मोक्षार्थं मत्रयित्वा यतामहे // 3 ब्रह्मोवाच। सर्वेषामेव शापानां प्रतिघातो हि विद्यते / अधो महीं गच्छ भुजंगमोत्तम / न तु मात्राभिशप्तानां मोक्षो विद्येत पन्नगाः॥४ स्वयं तवैषा विवरं प्रदास्यति। अव्ययस्याप्रमेयस्य सत्यस्य च तथाग्रतः। इमां धरां धारयता त्वया हि मे। शप्ता इत्येव मे श्रुत्वा जायते हृदि वेपथुः / / 5 महत्प्रियं शेष कृतं भविष्यति // 21 नूनं सर्वविनाशोऽयमस्माकं समुदाहृतः / सूत उवाच / न ह्येनां सोऽव्ययो देवः शपन्तीं प्रत्यषेधयत् // 6 तथेति कृत्वा विवरं प्रविश्य स तस्मात्संमन्त्रयामोऽत्र भुजगानामनामयम् / प्रभु वो भुजगवराग्रजः स्थितः / यथा भवेत सर्वेषां मा नः कालोऽत्यगादयम् / / 7 बिभर्ति देवीं शिरसा महीमिमां अपि मन्त्रयमाणा हि हैतुं पश्याम मोक्षणे। समुद्रनेमिं परिगृह्य सर्वतः / / 22 यथा नष्टं पुरा देवा गूढमग्निं गुहागतम् / / 8 ब्रह्मोवाच / यथा स यज्ञो न भवेद्यथा वापि पराभवेत् / शेषोऽसि नागोत्तम धर्मदेवो जनमेजयस्य सर्पाणां विनाशकरणाय हि // 9 महीमिमां धारयसे यदेकः। सूत उवाच।। अनन्तभोगः परिगृह्य सर्वां तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे काद्रवेयाः समागताः / यथाहमेवं बलभिद्यथा वा / / 23 समयं चक्रिरे तत्र मन्त्रबुद्धिविशारदाः // 10 सूत उवाच / एके तत्राब्रुवन्नागा वयं भूत्वा द्विजर्षभाः / अधो भूमेर्वसत्येवं नागोऽनन्तः प्रतापवान् / जनमेजयं तं भिक्षामो यज्ञस्ते न भवेदिति // 11 धारयन्वसुधामेकः शासनाद्ब्रह्मणो विभुः / / 24 / अपरे त्वब्रुवन्नागास्तत्र पण्डितमानिनः / - 52 -
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________________ 1. 33. 12] आदिपर्व [1. 34.8 मश्रिणोऽस्य वयं सर्वे भविष्यामः सुसंमताः॥ 12 अपरे त्वब्रुवंस्तत्र नागाः सुकृतकारिणः / स नः प्रक्ष्यति सर्वेषु कार्येष्वर्थविनिश्चयम् / दशामैनं प्रगृह्याशु कृतमेवं भविष्यति / तत्र बुद्धिं प्रवक्ष्यामो यथा यज्ञो निवर्तते // 13 / छिन्नं मूलमनर्थानां मृते तस्मिन्भविष्यति // 27 स नो बहुमतान्राजा बुवा बुद्धिमतां वरः। एषा वै नैष्ठिकी बुद्धिः सर्वेषामेव संमता। यज्ञार्थं प्रक्ष्यति व्यक्त नेति वक्ष्यामहे वयम् // 14 / यथा वा मन्यसे राजस्तत्क्षिप्रं संविधीयताम्॥२८ दर्शयन्तो बहून्दोषान्प्रेत्य चेह च दारुणान् / इत्युक्त्वा समुदैक्षन्त वासुकिं पन्नगेश्वरम् / / हेतुभिः कारणैश्चैव यथा यज्ञो भवेन्न सः // 15 वासुकिश्चापि संचिन्त्य तानुवाच भुजंगमान् // 29 अथ वा य उपाध्यायः क्रतौ तस्मिन्भविष्यति / / नैषा वो नैष्ठिकी बुद्धिमता कर्तुं भुजंगमाः / सर्पसत्रविधानज्ञो राजकार्यहिते रतः // 16 . सर्वेषामेव मे बुद्धिः पन्नगानां न रोचते // 30 तं गत्वा दशतां कश्चिद्भुजगः स मरिष्यति / किं त्वत्र संविधातव्यं भवतां यद्भवेद्धितम् / तस्मिन्हते यज्ञकरे क्रतुः स न भविष्यति // 17 / अनेनाहं भृशं तप्ये गुणदोषौ मदाश्रयौ // 31 ये चान्ये सर्पसत्रज्ञा भविष्यन्त्यस्य ऋत्विजः।। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः // 33 // तांश्च सर्वान्दशिष्यामः कृतमेवं भविष्यति // 18 34 तत्रापरेऽमन्त्रयन्त धर्मात्मानो भुजंगमाः। सूत उवाच / अबुद्धिरेषा युष्माकं ब्रह्महत्या न शोभना / / 19 / / श्रुत्वा तु वचनं तेषां सर्वेषामिति चेति च / सम्यक्सद्धर्ममूला हि व्यसने शान्तिरुत्तमा / वासुकेश्च वचः श्रुत्वा एलापत्रोऽब्रवीदिदम् // 1 अधर्मोत्तरता नाम कृत्स्नं व्यापादयेज्जगत् / / 20 न स यज्ञो न भविता न स राजा तथाविधः / अपरे त्वब्रवन्नागाः समिद्धं जातवेदसम। जनमेजयः पाण्डवेयो यतोऽस्माकं महाभयम् // 2 वनिर्वापयिष्यामो मेघा भूत्वा सविद्युतः // 21 दैवेनोपहतो राजन्यो भवेदिह पूरुषः / मुग्माण्डं निशि गत्वा वा अपरे भुजगोत्तमाः / स दैवमेवाश्रयते नान्यत्तत्र परायणम् // 3 प्रमत्तानां हरन्त्वाशु विघ्न एवं भविष्यति // 22 तदिदं दैवमस्माकं भयं पन्नगसत्तमाः / यज्ञे वा भुजगास्तस्मिशतशोऽथ सहस्रशः। दैवमेवाश्रयामोऽत्र शृणुध्वं च वचो मम // 4 जनं दशन्तु वै सर्वमेवं त्रासो भविष्यति // 23 अहं शापे समुत्सृष्टे समश्रौषं वचस्तदा / अथ वा संस्कृतं भोज्यं दूषयन्तु भुजंगमाः / मातुरुत्सङ्गमारूढो भयात्पन्नगसत्तमाः // 5 स्वेन मूत्रपुरीषेण सर्वभोज्यविनाशिना // 24 देवानां पन्नगश्रेष्ठास्तीक्ष्णास्तीक्ष्णा इति प्रभो। अपरे त्वब्रुवंस्तत्र ऋत्विजोऽस्य भवामहे / पितामहमुपागम्य दुःखार्तानां महाद्युते // 6 यज्ञविघ्नं करिष्यामो दीयतां दक्षिणा इति / देवा ऊचुः। वश्यतां च गतोऽसौ नः करिष्यति यथेप्सितम् // 25 का हि लब्ध्वा प्रियान्पुत्राशपेदेवं पितामह / अपरे त्वब्रुवंस्तत्र जले प्रक्रीडितं नृपम् / ऋते कदूं तीक्ष्णरूपां देवदेव तवाग्रतः // 7 गृहमानीय बनीमः क्रतुरेवं भवेन्न सः // 26 / तथेति च वचस्तस्यास्त्वयाप्युक्तं पितामह / -53 -
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________________ 1. 34.8] महाभारते [1. 35. 13 एतदिच्छाम विज्ञातुं कारणं यन्न वारिता / / 8 सर्वे प्रहृष्टमनसः साधु साध्वित्यपूजयन् // 1 ब्रह्मोवाच / ततःप्रभृति तां कन्यां वासुकिः पर्यरक्षत। बहवः पन्नगास्तीक्ष्णा भीमवीर्या विषोल्बणाः / जरत्कारुं स्वसारं वै परं हर्षमवाप च // 2 प्रजानां हितकामोऽहं न निवारितवांस्तदा // 9 ततो नातिमहान्कालः समतीत इवाभवत् / ये दन्दशूकाः क्षुद्राश्च पापाचारा विषोल्बणाः / अथ देवासुराः सर्वे ममन्थुवरुणालयम् / / 3. तेषां विनाशो भविता न तु ये धर्मचारिणः // 10 तत्र नेत्रमभून्नागो वासुकिर्बलिनां वरः। . यन्निमित्तं च भविता मोक्षस्तेषां महाभयात् / समाप्यैव च तत्कर्म पितामहमुपागमन् // 4 पन्नगानां निबोधध्वं तस्मिन्काले तथागते // 11 देवा वासुकिना सार्धं पितामहमथाब्रुवन् / यायावरकुले धीमान्भविष्यति महानृषिः / भगवशापभीतोऽयं वासुकिस्तप्यते भृशम् / / 5 जरत्कारुरिति ख्यातस्तेजस्वी नियतेन्द्रियः // 12 तस्येदं मानसं शल्यं समुद्धर्तुं त्वमर्हसि / तस्य पुत्रो जरत्कारोरुत्पत्स्यति महातपाः / जनन्याः शापजं देव ज्ञातीनां हितकाङ्क्षिणः // 6 आस्तीको नाम यज्ञं स प्रतिषेत्स्यति तं तदा / हितो ह्ययं सदास्माकं प्रिंयकारी च नागराट् / तत्र मोक्ष्यन्ति भुजगा ये भविष्यन्ति धार्मिकाः।।१३ / कुरु प्रसादं देवेश शमयास्य मनोज्वरम् // 7 देवा ऊचुः / / ब्रह्मोवाच / स मुनिप्रवरो देव जरत्कारुर्महातपाः। मयैवैतद्वितीर्णं वै वचनं मनसामराः / . कस्यां पुत्रं महात्मानं जनयिष्यति वीर्यवान् // 14 एलापत्रेण नागेन यदस्याभिहितं पुरा॥ 8 ब्रह्मोवाच। तत्करोत्वेष नागेन्द्रः प्राप्तकालं वचस्तथा / सनामायां सनामा स कन्यायां द्विजसत्तमः / विनशिष्यन्ति ये पापा न तु ये धर्मचारिणः // 9 अपत्यं वीर्यवान्देवा वीर्यवज्जनयिष्यति // 15 उत्पन्नः स जरत्कारुस्तपस्युग्रे रतो द्विजः। एलापत्र उवाच / तस्यैष भगिनीं काले जरत्कारुं प्रयच्छतु // 10 एवमस्त्विति तं देवाः पितामहमथाब्रुवन् / यदेलापत्रेण वचस्तदोक्तं भुजगेन ह / उक्त्वा चैवं गता देवाः स च देवः पितामहः // 16 पन्नगानां हितं देवास्तत्तथा न तदन्यथा // 11 सोऽहमेवं प्रपश्यामि वासुके भगिनीं तव / जरत्कारुरिति ख्यातां तां तस्मै प्रतिपादय // 17 सूत उवाच / भैक्षवद्भिक्षमाणाय नागानां भयशान्तये / एतच्छ्रुत्वा स नागेन्द्रः पितामहवचस्तदा / ऋषये सुव्रताय त्वमेष मोक्षः श्रुतो मया // 18 सर्पान्बहूञ्जरत्कारौ नित्ययुक्तान्समादधत् // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः // 34 // जरत्कारुर्यदा भार्यामिच्छेद्वरयितुं प्रभुः / शीघ्रमेत्य ममाख्येयं तन्नः श्रेयो भविष्यति / / 1 सूत उवाच / इति श्रीमहाभारते भादिपर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः // 35 एलापत्रस्य तु वचः श्रुत्वा नागा द्विजोत्तम / - 54 -
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________________ 1. 36. 1] आदिपर्व [1. 36. 26 न हि तेन मृगो विद्धो जीवन्गच्छति वै वनम् / शौनक उवाच। पूर्वरूपं तु तन्ननमासीत्स्वर्गगतिं प्रति / जरत्कारुरिति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन / परिक्षितस्तस्य राज्ञो विद्धो यन्नष्टवान्मृगः // 13 इच्छाम्येतदहं तस्य ऋषेः श्रोतुं महात्मनः // 1 दूरं चापहृतस्तेन मृगेण स महीपतिः। किं कारणं जरत्कारो मैतत्प्रथितं भुवि / परिश्रान्तः पिपासात आससाद मुनिं वने // 14 जरत्कारुनिरुक्तं त्वं यथावद्वक्तुमर्हसि // 2 गवां प्रचारेष्वासीनं वत्सानां मुखनिःसृतम् / सूत उवाच। भूयिष्ठमुपयुञ्जानं फेनमापिबतां पयः // 15 जरेति क्षयमाहुर्वै दारुणं कारुसंज्ञितम् / तमभिद्रुत्य वेगेन स राजा संशितव्रतम् / शरीरं कारु तस्यासीत्तत्स धीमाञ्शनैः शनैः // 3 अपृच्छद्धनुरुद्यम्य तं मुनिं क्षुच्छ्रमान्वितः // 16 क्षपयामास तीव्रण तपसेत्यत उच्यते। भो भो ब्रह्मन्नहं राजा परिक्षिदभिमन्युजः / जरत्कारुरिति ब्रह्मन्वासुकेर्भगिनी तथा॥ 4 मया विद्धो मृगो नष्टः कञ्चित्त्वं दृष्टवानसि // 17 एवमुक्तस्तु धर्मात्मा शौनकः प्राहसत्तदा / स मुनिस्तस्य नोवाच किंचिन्मौनव्रते स्थितः / उग्रश्रवसमामय उपपन्नमिति ब्रुवन् // 5 तस्य स्कन्धे मृतं सर्प क्रुद्धो राजा समासजत् // 18 सूत उवाच। धनुष्कोट्या समुत्क्षिप्य स चैनं समुदैक्षत / अथ कालस्य महतः स मुनिः संशितव्रतः। न च किंचिदुवाचैनं शुभं वा यदि वाशुभम् // 19 तपस्यभिरतो धीमान्न दारानभ्यकावत // 6 स राजा क्रोधमुत्सृज्य व्यथितस्तं तथागतम् / . स ऊर्ध्वरेतास्तपसि प्रसक्तः दृष्ट्वा जगाम नगरमृषिस्त्वास्ते तथैव सः // 20 ' स्वाध्यायवान्वीतभयक्लमः सन्। . तरुणस्तस्य पुत्रोऽभूत्तिग्मतेजा महातपाः / चचार सर्वां पृथिवीं महात्मा शृङ्गी नाम महाक्रोधो दुष्प्रसादो महाव्रतः // 21 . . न चापि दारान्मनसाप्यकाङ्क्षत् // 7 स देवं परमीशानं सर्वभूतहिते रतम् / ततोऽपरस्मिन्संप्राप्ते काले कस्मिंश्चिदेव तु। ब्रह्माणमुपतस्थे वै काले काले सुसंयतः। परिक्षिदिति विख्यातो राजा कौरववंशभृत् // 8 स तेन समनुज्ञातो ब्रह्मणा गृहमीयिवान् // 22 यथा पाण्डुर्महाबाहुर्धनुर्धरवरो भुवि।। सख्योक्तः क्रीडमानेन स तत्र हसता किल / बभूव मृगयाशीलः पुरास्य प्रपितामहः॥ 9 संरम्भी कोपनोऽतीव विषकल्प ऋषेः सुतः / मृगान्विध्यन्वराहांश्च तरक्षन्महिषांस्तथा। ऋषिपुत्रेण नर्मार्थ कृशेन द्विजसत्तम / / 23 अन्यांश्च विविधान्वन्यांश्चचार पृथिवीपतिः॥ 10 तेजस्विनस्तव पिता तथैव च तपस्विनः। . स कदाचिन्मृगं विद्धा बाणेन नतपर्वणा। शवं स्कन्धेन वहति मा शृङ्गिन्गर्वितो भव // 24 पृष्ठतो धनुरादाय ससार गहने वने // 11 * व्याहरत्स्वृषिपुत्रेषु मा स्म किंचिद्वचो वदीः / यथा हि भगवान्रुद्रो विद्धा यज्ञमृगं दिवि। अस्मद्विधेषु सिद्धेषु ब्रह्मवित्सु तपस्विषु // 25 अन्वगच्छद्धनुष्पाणिः पर्यन्वेषस्ततस्ततः / / 12 / क ते पुरुषमानित्वं क ते वाचस्तथाविधाः। ... -55 -
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________________ 1. 36. 26 ] . महाभारते [ 1.37. 25 दर्पजाः पितरं यस्त्वं द्रष्टा शवधरं तथा // 26 शृङ्गयुवाच। इति श्रीमहाभारते भादिपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः॥ 36 // योऽसौ वृद्धस्य तातस्य तथा कृच्छ्रगतस्य च। 37 स्कन्धे मृतमवानाक्षीत्पन्नगं राजकिल्बिषी // 12 सूत उवाच / तं पापमतिसंक्रुद्धस्तक्षकः पन्नगोत्तमः / एवमुक्तः स तेजस्वी शृङ्गी कोपसमन्वितः / आशीविषस्तिग्मतेजा मद्वाक्यबलचोदितः // 13 मृतधारं गुरुं श्रुत्वा पर्यतप्यत मन्युना // 1 सप्तरात्रादितो नेता यमस्य सदनं प्रति। . स तं कृशमभिप्रेक्ष्य सूनृतां वाचमुत्सृजन् / द्विजानामवमन्तारं कुरूणामयशस्करम् // 14 अपृच्छत कथं तातः स मेऽद्य मृतधारकः / / 2 सूत उवाच। कृश उवाच। इति शप्त्वा नृपं क्रुद्धः शृङ्गी पितरमभ्ययात् / राज्ञा परिक्षिता तात मृगयां परिधावता। आसीनं गोचरे तस्मिन्वहन्तं शवपन्नगम् // 15 अवसक्तः पितुस्तेऽद्य मृतः स्कन्धे भृजंगमः॥३ स तमालक्ष्य पितरं शृङ्गी स्कन्धगतेन वै। शृङ्गयुवाच। शवेन भुजगेनासीद्भूयः क्रोधसमन्वितः // 16 किं मे पित्रा कृतं तस्य राज्ञोऽनिष्टं दुरात्मनः / दुःखाच्चाणि मुमुचे पितरं चेदमब्रवीत् / ब्रूहि त्वं कृश तत्त्वेन पश्य मे तपसो बलम् // 4 श्रुत्वेमां धर्षणां तात तव तेन दुरात्मना // 17 कृश उवाच / राज्ञा परिक्षिता कोपादशपं तमहं नृपम् / स राजा मृगयां यातः परिक्षिदभिमन्युजः। यथार्हति स एवोगं शापं कुरुकुलाधमः // 18 ससार मृगमेकाकी विद्या बाणेन पत्रिणा // 5 सप्तमेऽहनि तं पापं तक्षकः पन्नगोत्तमः। न चापश्यन्मृगं राजा चरंस्तस्मिन्महावने / वैवस्वतस्य भवनं नेता परमदारुणम् / / 19 पितरं ते स दृष्ट्वैव पप्रच्छानभिभाषिणम् / / 6 तमब्रवीत्पिता ब्रह्मस्तथा कोपसमन्वितम् / तं स्थाणुभूतं तिष्ठन्तं क्षुत्पिपासाश्रमातुरः / न मे प्रियं कृतं तात नैष धर्मस्तपस्विनाम् / / 20 पुनः पुनर्पगं नष्टं पप्रच्छ पितरं तव / / 7 वयं तस्य नरेन्द्रस्य विषये निवसामहे / स च मौनव्रतोपेतो नैव तं प्रत्यभाषत / न्यायतो रक्षितास्तेन तस्य पापं न रोचये // 21 तस्य राजा धनुष्कोट्या सर्प स्कन्धे समासृजत् / / 8 सर्वथा वर्तमानस्य राज्ञो ह्यस्मद्विधैः सदा। गृङ्गिस्तव पिताद्यासौ तथैवास्ते यतव्रतः / क्षन्तव्यं पुत्र धर्मो हि हतो हन्ति न संशयः // 22 सोऽपि राजा स्वनगरं प्रतियातो गजाह्वयम् // 9 यदि राजा न रक्षेत पीडा वै नः परा भवेत् / सूत उवाच / न शक्नुयाम चरितुं धर्म पुत्र यथासुखम् // 23 श्रुत्वैवमृषिपुत्रस्तु दिवं स्तब्ध्वेव विष्ठितः / रक्ष्यमाणा वयं तात राजभिः शास्त्रदृष्टिभिः / कोपसंरक्तनयनः प्रज्वलन्निव मन्युना / / 10 चरामो विपुलं धर्म तेषां चांशोऽस्ति धर्मतः // 24 आविष्टः स तु कोपेन शशाप नृपतिं तदा। परिक्षित्तु विशेषेण यथास्य प्रपितामहः / वायुपस्पृश्य तेजस्वी क्रोधवेगबलात्कृतः॥ 11 / रक्षत्यस्मान्यथा राज्ञा रक्षितव्याः प्रजास्तथा // 25 - 56 -
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________________ 1. 37. 26 ] आदिपर्व [1. 38. 25 38 तेनेह क्षुधितेनाद्य श्रान्तेन च तपस्विना। मम पुत्रेण शप्तोऽसि बालेनाकृतबुद्धिना / अजानता व्रतमिदं कृतमेतदसंशयम् / / 26 ममेमां धर्षणां त्वत्तः प्रेक्ष्य राजन्नमर्षिणा // 12 तस्मादिदं त्वया बाल्यात्सहसा दुष्कृतं कृतम्। सूत उवाच। न ह्यर्हति नृपः शापमस्मत्तः पुत्र सर्वथा // 27 / एवमादिश्य शिष्यं स प्रेषयामास सुव्रतः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः // 37 // परिक्षिते नृपतये दयापन्नो महातपाः // 13 संदिश्य कुशलप्रश्नं कार्यवृत्तान्तमेव च / शृङ्गयुवाच / शिष्यं गौरमुखं नाम शीलवन्तं समाहितम् // 14 यद्यतत्साहसं तात यदि वा दुष्कृतं कृतम् / सोऽभिगम्य ततः शीघ्रं नरेन्द्र कुरुवर्धनम् / प्रियं वाप्यप्रियं वा ते वागुक्ता न मृषा मया // 1 विवेश भवनं राज्ञः पूर्वं द्वाःस्थैर्निवेदितः // 15 नैवान्यथेदं भविता पितरेष ब्रवीमि ते / पूजितश्च नरेन्द्रेण द्विजो गौरमुखस्ततः / नाहं मृषा प्रब्रवीमि स्वैरेष्वपि कुतः शपन् // 2 आचख्यौ परिविश्रान्तो राज्ञे सर्वमशेषतः / शमीक उवाच / शमीकवचनं घोरं यथोक्तं मत्रिसंनिधौ // 16 जानाम्युग्रप्रभावं त्वां पुत्र सत्यगिरं तथा।। शमीको नाम राजेन्द्र विषये वर्तते तव / नानृतं युक्तपूर्वं ते नैतन्मिथ्या भविष्यति // 3 ऋषिः परमधर्मात्मा दान्तः शान्तो महातपाः॥१७ पित्रा पुत्रो वयःस्थोऽपि सततं वाच्य एव तु / तस्य त्वया नरव्याघ्र सर्पः प्राणैर्वियोजितः / यथा स्याद्गुणसंयुक्तः प्राप्नुयाच्च महद्यशः // 4 . अवसक्तो धनुष्कोट्या स्कन्धे भरतसत्तम / किं पुनर्बाल एव त्वं तपसा भावितः प्रभो / क्षान्तवास्तव तत्कर्म पुत्रस्तस्य न चक्षमे // 18 वर्धते च प्रभवतां कोपोऽतीव महात्मनाम् // 5 तेन शप्तोऽसि राजेन्द्र पितुरज्ञातमद्य वै / सोऽहं पश्यामि वक्तव्यं त्वयि धर्मभृतां वर / तक्षकः सप्तरात्रेण मृत्युस्ते वै भविष्यति // 19 पुत्रत्वं बालतां चैव तवावेक्ष्य च साहसम् // 6 तत्र रक्षां कुरुष्वेति पुनः पुनरथाब्रवीत् / स त्वं शमयुतो भूत्वा वन्यमाहारमाहरन् / तदन्यथा न शक्यं च कर्तुं केनचिदप्युत // 20 चर क्रोधमिमं त्यक्त्वा नैवं धर्म प्रहास्यसि // 7 न हि शक्नोति संयन्तुं पुत्रं कोपसमन्वितम् / क्रोधो हि धर्म हरति यतीनां दुःखसंचितम् / ततोऽहं प्रेषितस्तेन तव राजन्हितार्थिना // 21 ततो धर्मविहीनानां गतिरिष्टा न विद्यते // 8 इति श्रुत्वा वचो घोरं स राजा कुरुनन्दनः / शम एव यतीनां हि क्षमिणां सिद्धिकारकः / / पर्यतप्यत तत्पापं कृत्वा राजा महातपाः // 22 क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम् // 9 तं च मौनव्रतधरं श्रुत्वा मुनिवरं तदा / तस्माञ्चरेथाः सततं क्षमाशीलो जितेन्द्रियः / भूय एवाभवद्राजा शोकसंतप्तमानसः // 23 क्षमया प्राप्स्यसे लोकान्ब्रह्मणः समनन्तरान्॥ 10 अनुक्रोशात्मतां तस्य शमीकस्यावधार्य तु / मया तु शममास्थाय यच्छक्यं कर्तुमद्य वै / / पर्यतप्यत भूयोऽपि कृत्वा तत्किल्बिषं मुनेः॥२४ तत्करिष्येऽद्य ताताहं प्रेषयिष्ये नृपाय वै // 11 / न हि मृत्युं तथा राजा श्रुत्वा वै सोऽन्वतप्यत / म.भा.८ - 57 -
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________________ 1. 38. 25 ] महाभारते [1. 39. 11 अशोचदमरप्रख्यो यथा कृत्वेह कर्म तत् / / 25 काश्यप उवाच। ततस्तं प्रेषयामास राजा गौरमुखं तदा। अहं तं नृपतिं नाग त्वया दष्टमपज्वरम् / भयः प्रसादं भगवान्करोत्विति ममेति वै // 26 करिष्य इति मे बुद्धिर्विद्याबलमुपाश्रितः // 39 तस्मिंश्च गतमात्रे वै राजा गौरमुखे तदा।। इति श्रीमहाभारते भादिपर्वणि अष्टत्रिंशोऽध्यायः // 38 // मश्रिभिर्मत्रयामास सह संविनमानसः / / 27 39 निश्चित्य मत्रिभिश्चैव सहितो मत्रतत्त्ववित् / तक्षक उवाच / प्रासादं कारयामास एकस्तम्भं सुरक्षितम् // 28 दष्टं यदि मयेह त्वं शक्तः किंचिञ्चिकित्सितुम् / रक्षां च विदधे तत्र भिषजश्चौषधानि च। . ततो वृक्षं मया दष्टमिमं जीवय काश्यप / / 1 / ब्राह्मणान्सिद्धमत्रांश्च सर्वतो वै न्यवेशयत् // 29 परं मत्रबलं यत्ते तदर्शय यतस्व च / / राजकार्याणि तत्रस्थः सर्वाण्येवाकरोच्च सः। न्यग्रोधमेनं धक्ष्यामि पश्यतस्ते द्विजोत्तम // 2 मश्रिभिः सह धर्मज्ञः समन्तात्परिरक्षितः॥ 30 काश्यप उवाच / ' प्राप्ते तु दिवसे तस्मिन्सप्तमे द्विजसत्तम / दश नागेन्द्र वृक्षं त्वं यमेनमभिमन्यसे / काश्यपोऽभ्यागमद्विद्वांस्तं राजानं चिकित्सितुम् 31 अहमेनं त्वया दष्टं जीवयिष्ये भुजंगम // 3 श्रुतं हि तेन तदभूदद्य तं राजसत्तमम् / सूत उवाच। तक्षकः पन्नगश्रेष्ठो नेष्यते यमसादनम् // 32 एवमुक्तः स नागेन्द्रः काश्यपेन महात्मना / तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण करिष्येऽहमपज्वरम् / अदशवृक्षमभ्येत्य न्यग्रोधं पन्नगोत्तमः // 4 / तत्र मेऽर्थश्च धर्मश्च भवितेति विचिन्तयन् // 33 स वृक्षस्तेन दष्टः सन्सद्य एव महाद्युते / तं ददर्श स नागेन्द्रस्तक्षकः काश्यपं पथि। आशीविषविषोपेतः प्रजज्वाल समन्ततः // 5 गच्छन्तमेकमनसं द्विजो भूत्वा वयोतिगः // 34 तं दग्ध्वा स नगं नागः काश्यपं पुनरब्रवीत / तमब्रवीत्पन्नगेन्द्रः काश्यपं मुनिपुंगवम् / कुरु यत्नं द्विजश्रेष्ठ जीवयैनं वनस्पतिम् // 6 क भवांस्त्वरितो याति किं च कार्य चिकीर्षति // 35 भस्मीभूतं ततो वृक्षं पन्नगेन्द्रस्य तेजसा / काश्यप उवाच। भस्म सर्व समाहृत्य काश्यपो वाक्यमब्रवीत् // 7 नृपं कुरुकुलोत्पन्नं परिक्षितमरिंदमम्। विद्याबलं पन्नगेन्द्र पश्य मेऽस्मिन्वनस्पतौ। तक्षकः पन्नगश्रेष्ठस्तेजसाद्य प्रधक्ष्यति // 36 अहं संजीवयाम्येनं पश्यतस्ते भुजंगम // 8 तं दष्टं पन्नगेन्द्रेण तेनाग्निसमतेजसा / ततः स भगवान्विद्वान्काश्यपो द्विजसत्तमः / पाण्डवानां कुलकरं राजानममितौजसम् / भस्मराशीकृतं वृक्षं विद्यया समजीवयत् // 9 गच्छामि सौम्य त्वरितं सद्यः कर्तुमपज्वरम् // 37 अङ्करं तं स कृतवांस्ततः पर्णद्वयान्वितम्। तक्षक उवाच / पलाशिनं शाखिनं च तथा विटपिनं पुनः // 10 अहं स तक्षको ब्रह्मस्तं धक्ष्यामि महीपतिम् / तं दृष्ट्वा जीवितं वृक्षं काश्यपेन महात्मना / निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम् // 38 / उवाच तक्षको ब्रह्मन्नेतदत्यद्भुतं त्वयि // 11 -58 -
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________________ 1. 39. 12] आदिपर्व [1. 40. 2 विप्रेन्द्र यद्विषं हन्या मम वा मद्विधस्य वा। फलपत्रोदकं नाम प्रतिग्राहयितुं नृपम् // 24 // कं त्वमर्थमभिप्रेप्सुर्यासि तत्र तपोधन // 12 सूत उवाच / यत्तेऽभिलषितं प्राप्तुं फलं तस्मान्नृपोत्तमात् / ते तक्षकसमादिष्टास्तथा चक्रुर्भुजंगमाः। अहमेव प्रदास्यामि तत्ते यद्यपि दुर्लभम् // 13. उपनिन्युस्तथा राज्ञे दर्भानापः फलानि च // 25 विप्रशापाभिभूते च क्षीणायुषि नराधिपे। तच्च सर्वं स राजेन्द्रः प्रतिजग्राह वीर्यवान् / घटमानस्य ते विप्र सिद्धिः संशयिता भवेत् / / 14 | कृत्वा च तेषां कार्याणि गम्यतामित्युवाच तान्॥२६ ततो यशः प्रदीप्तं ते त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् / गतेषु तेषु नागेषु तापसच्छद्मरूपिषु। विरश्मिरिव धर्मांशुरन्तर्धानमितो व्रजेत् // 15 अमात्यान्सुहृदश्चैव प्रोवाच स नराधिपः // 27 काश्यप उवाच / / भक्षयन्तु भवन्तो वै स्वादूनीमानि सर्वशः। धनार्थी याम्यहं तत्र तन्मे दित्स भुजंगम / तापसैरुपनीतानि फलानि सहिता मया // 28 ततोऽहं विनिवर्तिष्ये गृहायोरगसत्तम // 16 ततो राजा ससचिवः फलान्यादातुमैच्छत। तक्षक उवाच।। यद्गृहीतं फलं राज्ञा तत्र कृमिरभूदणुः / यावद्धनं प्रार्थयसे तस्माद्राज्ञस्ततोऽधिकम् / ह्रस्वकः कृष्णनयनस्ताम्रो वर्णेन शौनक // 29 अहं तेऽद्य प्रदास्यामि निवर्तस्व द्विजोत्तम // 17 स तं गृह्य नृपश्रेष्ठः सचिवानिदमब्रवीत् / . सूत उवाच। अस्तमभ्येति सविता विषादद्य न मे भयम् // 30 तक्षकस्य वचः श्रुत्वा काश्यपो द्विजसत्तमः / सत्यवागस्तु स मुनिः कृमिको मां दशत्वयम् / प्रदध्यौ सुमहातेजा राजानं प्रति बुद्धिमान् // 18 तक्षको नाम भूत्वा वै तथा परिहृतं भवेत् // 31 दिव्यज्ञानः स तेजस्वी ज्ञात्वा तं नृपतिं तदा। ते चैनमन्ववर्तन्त मत्रिणः कालचोदिताः / क्षीणायुषं पाण्डवेयमपावर्तत काश्यपः / एवमुक्त्वा स राजेन्द्रो ग्रीवायां संनिवेश्य ह। लब्ध्वा वित्तं मुनिवरस्तक्षकाद्यावदीप्सितम् // 19 कृमिकं प्राहसत्तूर्णं मुमूर्षनष्टचेतनः // 32 निवृत्ते काश्यपे तस्मिन्समयेन महात्मनि। हसन्नेव च भोगेन तक्षकेणाभिवेष्टितः / जगाम तक्षकस्तूर्णं नगरं नागसाह्वयम् / / 20 तस्मात्फलाद्विनिष्क्रम्य यत्तद्राज्ञे निवेदितम् // 33 अथ शुश्राव गच्छन्स तक्षको जगतीपतिम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि मत्रागदैर्विषहरै रक्ष्यमाणं प्रयत्नतः // 21 एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥ 39 // स चिन्तयामास तदा मायायोगेन पार्थिवः / मया वश्चयितव्योऽसौ क उपायो भवेदिति // 22 सूत उवाच। ततस्तापसरूपेण प्राहिणोत्स भुजंगमान् / तं तथा मत्रिणो दृष्ट्वा भोगेन परिवेष्टितम् / फलपत्रोदकं गृह्य राज्ञे नागोऽथ तक्षकः / / 23 विवर्णवदनाः सर्वे रुरुदुर्भृशदुःखिताः॥ 1 __ तक्षक उवाच / तं तु नादं ततः श्रुत्वा मत्रिणस्ते प्रदुद्रुवुः / गच्छंचं यूयमव्यग्रा राजानं कार्यवत्तया। अपश्यंश्चैव ते यान्तमाकाशे नागमद्भुतम् / / 2 -59
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________________ 1. 40. 3] महाभारते [1. 41. 11 सीमन्तमिव कुर्वाणं नभसः पद्मवर्चसम् / वपुष्टमा चापि वरं पति तदा तक्षकं पन्नगश्रेष्ठं भृशं शोकपरायणाः // 3 प्रतीतरूपं समवाप्य भूमिपम् / ततस्तु ते तद्गृहमग्निना वृतं भावेन रामा रमयांबभूव वै प्रदीप्यमानं विषजेन भोगिनः। विहारकालेष्ववरोधसुन्दरी // 11 भयात्परित्यज्य दिशः प्रपेदिरे इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पपात तच्चाशनिताडितं यथा // 4 चत्वारिंशोऽध्यायः॥४०॥ ततो नृपे तक्षकतेजसा हते __ प्रयुज्य सर्वाः परलोकसत्क्रियाः। सूत उवाच / शुचिर्द्विजो राजपुरोहितस्तदा एतस्मिन्नेव काले तु जरत्कारुर्महातपाः। तथैव ते तस्य नृपस्य मत्रिणः॥ 5 चचार पृथिवीं कृत्स्नां यत्रसायंगृहो मुनिः॥ 1 नृपं शिशुं तस्य सुतं प्रचक्रिरे चरन्दीक्षां महातेजा दुश्वरामकृतात्मभिः / समेत्य सर्वे पुरवासिनो जनाः / तीर्थेष्वाप्लवनं कुर्वन्पुण्येषु विचचार ह // 2 नृपं यमाहुस्तममित्रघातिनं वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्नहरहर्मुनिः। __ कुरुप्रवीरं जनमेजयं जनाः॥६ स ददर्श पितृन्गर्ते लम्बमानानधोमुखान् // 3 स बाल एवार्यमतिर्नृपोत्तमः एकतन्त्ववशिष्टं वै वीरणस्तम्बमाश्रितान् / सहैव तैर्मत्रिपुरोहितैस्तदा। तं च तन्तुं शनैराखुमाददानं बिलाश्रयम् // 4 शशास राज्यं कुरुपुंगवाग्रजो निराहारान्कृशान्दीनान्गर्तेऽस्त्रिाणमिच्छतः / यथास्य वीरः प्रपितामहस्तथा // 7 उपसृत्य स तान्दीनान्दीनरूपोऽभ्यभाषत // 5 ततस्तु राजानममित्रतापनं के भवन्तोऽवलम्बन्ते वीरणस्तम्बमाश्रिताः / समीक्ष्य ते तस्य नृपस्य मत्रिणः / दुर्बलं खादितैर्मूलैराखुना बिलवासिना // 6 सुवर्णवर्माणमुपेत्य काशिपं वीरणस्तम्बके मूलं यदप्येकमिह स्थितम् / ___ वपुष्टमार्थं वरयांप्रचक्रमुः॥ 8 तदप्ययं शनैराखुरादत्ते दशनैः शितैः // 7 ततः स राजा प्रददौ वपुष्टमां छेत्स्यतेऽल्पावशिष्टत्वादेतदप्यचिरादिव / कुरुप्रवीराय परीक्ष्य धर्मतः। ततः स्थ पतितारोऽत्र गर्ने अस्मिन्नधोमुखाः॥ 8 स चापि तां प्राप्य मुदा युतोऽभव ततो मे दुःखमुत्पन्नं दृष्ट्वा युष्मानधोमुखान् / न चान्यनारीषु मनो दधे कचित // 9 कृच्छ्रामापदमापन्नान्प्रियं किं करवाणि वः॥९ सरःसु फुल्लेषु वनेषु चैव ह तपसोऽस्य चतुर्थेन तृतीयेनापि वा पुनः / प्रसन्नचेता विजहार वीर्यवान् / अर्धेन वापि निस्तर्तुमापदं ब्रूत माचिरम् // 10 तथा स राजन्यवरो विजहिवा अथ वापि समग्रेण तरन्तु तपसा मम / ... न्यथोर्वर्शी प्राप्य पुरा पुरूरवाः / / 10 / भवन्तः सर्व एवास्मात्काममेवं विधीयताम्॥ 11 -60 -
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________________ 1. 41. 12] आदिपर्व [1. 42. 5 पितर ऊचुः। स तं तपोरतं मन्दं शनैः क्षपयते तुदन् / ऋद्धो भवान्ब्रह्मचारी यो नत्रातुमिहेच्छति / जरत्कारुं तपोलुब्धं मन्दात्मानमचेतसम् / / 25 न तु विप्राय्य तपसा शक्यमेतद्व्यपोहितुम् // 12 न हि नस्तत्तपस्तस्य तारयिष्यति सत्तम / अस्ति नस्तात तपसः फलं प्रवदतां वर / छिन्नमूलान्परिभ्रष्टान्कालोपहतचेतसः। संतानप्रक्षयाद्ब्रह्मन्पतामो निरयेऽशुचौ // 13 नरकप्रतिष्ठान्पश्यास्मान्यथा दुष्कृतिनस्तथा // 26 लम्बतामिह नस्तात न ज्ञानं प्रतिभाति वै। अस्मासु पतितेष्वत्र सह पूर्वैः पितामहैः / येन त्वां नाभिजानीमो लोके विख्यातपौरुषम् // 14 छिन्नः कालेन सोऽप्यत्र गन्ता वै नरकं ततः॥२७ ऋद्धो भवान्महाभागो यो नः शोच्यान्सुदुःखितान् / तपो वाप्यथ वा यज्ञो यच्चान्यत्पावनं महत् / शोचस्युपेत्य कारुण्याच्छृणु ये वै वयं द्विज // 15 तत्सर्वं न समं तात संतत्येति सतां मतम् // 28 यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः / स तात दृष्ट्वा ब्रूयास्त्वं जरत्कारुं तपस्विनम् / लोकात्पुण्यादिह भ्रष्टाः संतानप्रक्षयाद्विभो // 16 यथादृष्टमिदं चास्मै त्वयाख्येयमशेषतः / / 29 प्रनष्टं नस्तपःपुण्यं न हि नस्तन्तुरस्ति वै / यथा दारान्प्रकुर्यात्स पुत्रांश्चोत्पादयेद्यथा / अस्ति त्वेकोऽद्य नस्तन्तुः सोऽपि नास्ति यथा तथा / तथा ब्रह्मंस्त्वया वाच्यः सोऽस्माकं नाथवत्तया॥३० मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां बन्धुः स किल नः कुले। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जरत्कारुरिति ख्यातो वेदवेदाङ्गपारगः / एकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥ नियतात्मा महात्मा च सुव्रतः सुमहातपाः // 18 तेन स्म तपसो लोभात्कृच्छ्रमापादिता वयम् / सूत उवाच / न तस्य भार्या पुत्रो वा बान्धवो वास्ति कश्चन॥१९ एतच्छ्रुत्वा जरत्कारुर्दुःखशोकपरायणः / तस्माल्लम्बामहे गर्ने नष्टसंज्ञा ह्यनाथवत् / उवाच स्वान्पितॄन्दुःखाद्वाष्पसंदिग्धया गिरा // 1 स वक्तव्यस्त्वया दृष्ट्वा अस्माकं नाथवत्तया // 20 अहमेव जरत्कारुः किल्बिषी भवतां सुतः। पितरस्तेऽवलम्बन्ते गर्ने दीना अधोमुखाः / तद्दण्डं धारयत मे दुष्कृतेरकृतात्मनः / / 2 साधु दारान्कुरुष्वेति प्रजायस्वेति चाभिभो। फुलतन्तुर्हि नः शिष्टस्त्वमेवैकस्तपोधन // 21 पितर ऊचुः। यत्तु पश्यसि नो ब्रह्मन्वीरणस्तम्बमाश्रितान् / पुत्र दिष्ट्यासि संप्राप्त इमं देशं यदृच्छया / एषोऽस्माकं कुलस्तम्ब आसीत्स्वकुलवर्धनः / / 22 किमर्थं च त्वया ब्रह्मन्न कृतो दारसंग्रहः // 3 चानि पश्यसि वै ब्रह्मन्मूलानीहास्य वीरुधः / जरत्कारुरुवाच / एते नस्तन्तवस्तात कालेन परिभक्षिताः // 23 ममायं पितरो नित्यं हृद्यर्थः परिवर्तते। यत्त्वेतत्पश्यसि ब्रह्मन्मूलमस्याभिक्षितम् / ऊर्ध्वरेताः शरीरं वै प्रापयेयममुत्र वै // 4 सत्र लम्बामहे सर्वे सोऽप्येकस्तप आस्थितः // 24 / एवं दृष्ट्वा तु भवतः शकुन्तानिव लम्बतः / वसाऱ्या पश्यसि ब्रह्मन्काल एष महाबलः / / मया निवर्तिता बुद्धिर्ब्रह्मचर्यात्पितामहाः॥५ - 61 - 42
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________________ 1. 42. 6] महाभारते [1. 48. 12 करिष्ये वः प्रियं कामं निवेक्ष्ये नात्र संशयः। वासुके भरणं चास्या न कुर्यामित्युवाच ह // 20 सनाम्नी यद्यहं कन्यामुपलप्स्ये कदाचन // 6 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि भविष्यति च या काचिद्भक्षवत्स्वयमुद्यता। द्विचत्वारिंशोऽध्यायः // 42 // प्रतिग्रहीता तामस्मि न.भरेयं च यामहम् // 7 एवंविधमहं कुर्यां निवेशं प्राप्नुयां यदि। सूत उवाच / अन्यथा न करिष्ये तु सत्यमेतत्पितामहाः // 8 वासुकिस्त्वब्रवीद्वाक्यं जरत्कारुमृषि तदा / सूत उवाच / सनामा तव कन्येयं स्वसा मे तपसान्विता // 1 एवमुक्त्वा तु स पितॄश्चचार पृथिवीं मुनिः / भरिष्यामि च ते भाया प्रतीच्छेमां द्विजोत्तम / न च स्म लभते भार्यां वृद्धोऽयमिति शौनक // 9 रक्षणं च करिष्येऽस्याः सर्वशक्त्या तपोधन // 2 यदा निर्वेदमापन्नः पितृभिश्चोदितस्तथा। प्रतिश्रुते तु नागेन भरिष्ये भगिनीमिति / तदारण्यं स गत्वोच्चैश्चक्रोश भृशदुःखितः / / 10 / जरत्कारुस्तदा वेश्म भुजगस्य जगाम ह // 3. यानि भूतानि सन्तीह स्थावराणि चराणि च / / तत्र मत्रविदां श्रेष्ठस्तपोवृद्धो महाव्रतः। अन्तर्हितानि वा यानि तानि शृण्वन्तु मे वचः॥ 11 जग्राह पाणिं धर्मात्मा विधिमत्रपुरस्कृतम् // 4 उग्र तपसि वर्तन्तं पितरश्चोदयन्ति माम्। ततो वासगृहं शुभ्रं पन्नगेन्द्रस्य संमतम् / . निविशस्वेति दुःखार्तास्तेषां प्रियचिकीर्षया // 12 जगाम भार्यामादाय स्तूयमानो महर्षिभिः / / 5 निवेशार्थ्यखिलां भूमि कन्याभैक्षं चरामि भोः। शयनं तत्र वै क्लृप्तं स्पास्तरणसंवृतम् / दरिद्रो दुःखशीलश्च पितृभिः संनियोजितः॥ 13 तत्र भार्यासहायः स जरत्कारुरुवास ह // 6 यस्य कन्यास्ति भूतस्य ये मयेह प्रकीर्तिताः / स तत्र समयं चक्रे भार्यया सह सत्तमः। . ते मे कन्यां प्रयच्छन्तु चरतः सर्वतोदिशम् / / 14 विप्रियं मे न कर्तव्यं न च वाच्यं कदाचन // 7 मम कन्या सनाम्नी या भैक्षवच्चोद्यता भवेत् / त्यजेयमप्रिये हि त्वां कृते वासं च ते गृहे / भरेयं चैव यां नाहं तां मे कन्यां प्रयच्छत // 15 एतद्गृहाण वचनं मया यत्समुदीरितम् // 8 ततस्ते पन्नगा ये वै जरत्कारौ समाहिताः / ततः परमसंविग्ना स्वसा नागपतेस्तु सा। तामादाय प्रवृत्तिं ते वासुकेः प्रत्यवेदयन् // 16 अतिदुःखान्विता वाचं तमुवाचैवमस्त्विति // 9 तेषां श्रुत्वा स नागेन्द्रः कन्यां तां समलंकृताम् / तथैव सा च भर्तारं दुःखशीलमुपाचरत् / प्रगृह्यारण्यमगमत्समीपं तस्य पन्नगः॥ 17 उपायैः श्वेतकाकीयैः प्रियकामा यशस्विनी // 10 तत्र तां भैक्षवत्कन्यां प्रादात्तस्मै महात्मने / ऋतुकाले ततः स्माता कदाचिद्वासुकेः स्वसा। नागेन्द्रो वासुकिर्ब्रह्मन्न स तां प्रत्यगृहृत / / 18 भर्तारं तं यथान्यायमुपतस्थे महामुनिम् // 11 . असनामेति वै मत्वा भरणे चाविचारिते। तत्र तस्याः समभवद्गर्भो ज्वलनसंनिभः / मोक्षभावे स्थितश्चापि द्वन्द्वीभूतः परिग्रहे / / 19 / अतीव तपसा युक्तो वैश्वानरसमद्युतिः / ततो नाम स कन्यायाः पप्रच्छ भृगुनन्दन। / शुक्लपक्षे यथा सोमो व्यवर्धत तथैव सः // 12 -62
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________________ 1. 43. 13] आदिपर्व [1. 43.39 ततः कतिपयाहस्य जरत्कारुर्महातपाः। उवाच भार्यामित्युक्तो जरत्कारुर्महातपाः / उत्सङ्गेऽस्याः शिरः कृत्वा सुष्वाप परिखिन्नवत्॥१३ ऋषिः कोपसमाविष्टस्यक्तुकामो भुजंगमाम् // 27 तस्मिंश्च सुप्ते विप्रेन्द्रे सवितास्तमियागिरिम् / न मे वागनृतं प्राह गमिष्येऽहं भुजंगमे। अह्नः परिक्षये ब्रह्मस्ततः साचिन्तयत्तदा। समयो ह्येष मे पूर्वं त्वया सह मिथः कृतः // 28 वासुकेर्भगिनी भीता धर्मलोपान्मनस्विनी // 14 सुखमस्म्युषितो भद्रे ब्रूयास्त्वं भ्रातरं शुभे। . किं नु में सुकृतं भूयाद्भर्तुरुत्थापनं न वा। इतो मयि गते भीरु गतः स भगवानिति। .. दुःखशीलो हि धर्मात्मा कथं नास्यापराभुयाम्॥१५ त्वं चापि मयि निष्क्रान्ते न शोकं कर्तुमर्हसि // 29 कोपो वा धर्मशीलस्य धर्मलोपोऽथ वा पुनः / इत्युक्ता सानवद्याङ्गी प्रत्युवाच पतिं तदा। धर्मलोपो गरीयान्वै स्यादत्रेत्यकरोन्मनः // 16 जरत्कारुं जरत्कारुश्चिन्ताशोकपरायणा // 30 / उत्थापयिष्ये यद्येनं ध्रुवं कोपं करिष्यति / बाष्पगद्गदया वाचा मुखेन परिशुष्यता। . धर्मलोपो भवेदस्य संध्यातिक्रमणे ध्रुवम् // 17 कृताञ्जलिर्वरारोहा पर्यश्रुनयना ततः। / इति निश्चित्य मनसा जरत्कारुर्भुजंगमा / धैर्यमालम्ब्य वामोरूहृदयेन प्रवेपता // 31 / तमृर्षि दीप्ततपसं शयानमनलोपमम् / न मामर्हसि धर्मज्ञ परित्यक्तुमनागसम् / उवाचेदं वचः श्लक्ष्णं ततो मधुरभाषिणी // 18 धर्मे स्थितां स्थितो धर्मे सदा प्रियहिते रताम् // 32 उत्तिष्ठ त्वं महाभाग सूर्योऽस्तमुपगच्छति / प्रदाने कारणं यच्च मम तुभ्यं द्विजोत्तम / संध्यामुपास्स्व भगवन्नपः स्पृष्ट्वा यतव्रतः // 19 तदलब्धवतीं मन्दां किं मां वक्ष्यति वासुकिः // 33 प्रादुष्कृताग्निहोत्रोऽयं मुहूर्तो रम्यदारुणः / मातृशापाभिभूतानां ज्ञातीनां मम सत्तम / संध्या प्रवर्तते चेयं पश्चिमायां दिशि प्रभो // 20 अपत्यमीप्सितं त्वत्तस्तच्च तावन्न दृश्यते // 34 . एवमुक्तः स भगवाञ्जरत्कारुर्महातपाः। त्वत्तो ह्यपत्यलाभेन ज्ञातीनां मे शिवं भवेत्। .. भायाँ प्रस्फुरमाणोष्ठ इदं वचनमब्रवीत् // 21 संप्रयोगो भवेन्नायं मम मोघस्त्वया द्विज / / 35 अवमानः प्रयुक्तोऽयं त्वया मम भुजंगमे। ज्ञातीनां हितमिच्छन्ती भगवंस्त्वां प्रसादये / समीपे ते न वत्स्यामि गमिष्यामि यथागतम् // 22 इममव्यक्तरूपं मे गर्भमाधाय सत्तम। न हि तेजोऽस्ति वामोरु मयि सुप्ते विभावसोः। कथं त्यक्त्वा महात्मा सन्गन्तुमिच्छस्यनागसम्॥३६ अस्तं गन्तुं यथाकालमिति मे हृदि वर्तते // 23 एवमुक्तस्तु स मुनिर्भार्यां वचनमब्रवीत् / न चाप्यवमतस्येह वस्तुं रोचेत कस्यचित् / ययुक्तमनुरूपं च जरत्कारुस्तपोधनः // 37 किं पुनर्धर्मशीलस्य मम वा मद्विधस्य वा // 24 अस्त्येष गर्भः सुभगे तव वैश्वानरोपमः। एवमुक्ता जरत्कारुर्भ; हृदयकम्पनम् / ऋषिः परमधर्मात्मा वेदवेदाङ्गपारगः // 38 अब्रवीद्भगिनी तत्र वासुकेः संनिवेशने // 25 एवमुक्त्वा स धर्मात्मा जरत्कारुर्महानृषिः / नावमानात्कृतवती तवाहं प्रतिबोधनम् / उपाय तपसे भूयो जगाम कृतनिश्चयः // 39 धर्मलोपो न ते विप्र स्यादित्येतत्कृतं मया // 26 / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः॥४३॥ -63 -
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________________ 1. 44. 1] महाभारते [1. 45. 4 सान्त्वमानार्थदानैश्च पूजया चानुरूपया / सूत उवाच / सोदयां पूजयामास स्वसारं पन्नगोत्तमः // 15 गतमात्रं तु भर्तारं जरत्कारुरवेदयत् / ततः स ववृधे गर्भो महातेजा रविप्रभः / भ्रातुस्त्वरितमागम्य यथातथ्यं तपोधन // 1 यथा सोमो द्विजश्रेष्ठ शुक्लपक्षोदितो दिवि // 16 ततः स भुजगश्रेष्ठः श्रुत्वा सुमहदप्रियम् / यथाकालं तु सा ब्रह्मन्प्रजज्ञे भुजगस्वसा। . उवाच भगिनीं दीनां तदा दीनतरः स्वयम् // 2 कुमारं देवगर्भाभं पितृमातृभयापहम् // 17 जानासि भद्रे यत्कार्य प्रदाने कारणं च यत् / ववृधे स च तत्रैव नागराजनिवेशने। . पन्नगानां हितार्थाय पुत्रस्ते स्यात्ततो यदि // 3 वेदांश्चाधिजगे साङ्गान्भार्गवाच्च्यवनात्मजात् // 18 स सर्पसत्रात्किल नो मोक्षयिष्यति वीर्यवान् / चरितव्रतो बाल एव बुद्धिसत्त्वगुणान्वितः / एवं पितामहः पूर्वमुक्तवान्मां सुरैः सह // 4 नाम चास्याभवत्ख्यातं लोकेष्वास्तीक इत्युत // 19 अप्यस्ति गर्भः सुभगे तस्मात्ते मुनिसत्तमात्। अस्तीत्युक्त्वा गतो यस्मात्पिता गर्भस्थमेव तम्। . न चेच्छाम्यफलं तस्य दारकर्म मनीषिणः॥ 5 वनं तस्मादिदं तस्य नामास्तीकेति विश्रुतम् // 20 कामं च मम न न्याय्यं प्रष्टुं त्वां कार्यमीदृशम् / स बाल एव तत्रस्थश्वरन्नमितबुद्धिमान् / किं तु कार्यगरीयस्त्वात्ततस्त्वाहमचुचुदम् // 6 गृहे पन्नगराजस्य प्रयत्नात्पर्यरक्ष्यत // 21 दुर्वासतां विदित्वा च भर्तुस्तेऽतितपस्विनः / भगवानिव देवेशः शूलपाणिर्हिरण्यदः / नैनमन्वागमिष्यामि कदाचिद्धि शपेत्स माम् // 7 विवर्धमानः सर्वांस्तान्पन्नगानभ्यहर्षयत् // 22 आचक्ष्व भद्रे भर्तुस्त्वं सर्वमेव विचेष्टितम्। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि शल्यमुद्धर मे घोरं भद्रे हृदि चिरस्थितम् // 8 चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४४॥ जरत्कारुस्ततो वाक्यमित्युक्ता प्रत्यभाषत / आश्वासयन्ती संतप्तं वासुकिं पन्नगेश्वरम् // 9 शौनक उवाच। पृष्टो मयापत्यहेतोः स महात्मा महातपाः / यदपृच्छत्तदा राजा मंत्रिणो जनमेजयः / अस्तीत्युदरमुद्दिश्य ममेदं गतवांश्च सः॥१० पितुः स्वर्गगतिं तन्मे विस्तरेण पुनर्वद / / 1 खैरेष्वपि न तेनाहं स्मरामि वितथं क्वचित् / सूत उवाच / उक्तपूर्वं कुतो राजन्सांपराये स वक्ष्यति // 11 शृणु ब्रह्मन्यथा पृष्टा मत्रिणो नृपतेस्तदा / न संतापस्त्वया कार्यः कार्य प्रति भुजंगमे। आख्यातवन्तस्ते सर्वे निधनं तत्परिक्षितः // 2 उत्पत्स्यति हि ते पुत्रो ज्वलनार्कसमद्युतिः // 12 जनमेजय उवाच / इत्युक्त्वा हि स मां भ्रातर्गतो भर्ता तपोवनम् / जानन्ति तु भवन्तस्तद्यथावृत्तः पिता मम / तस्माद्येतु परं दुःखं तवेदं मनसि स्थितम् // 13 आसीद्यथा च निधनं गतः काले महायशाः // 3 एतच्छ्रुत्वा स नागेन्द्रो वासुकिः परया मुदा। श्रुत्वा भवत्सकाशाद्धि पितुर्वृत्तमशेषतः / एवमस्त्विति तद्वाक्यं भगिन्याः प्रत्यगृह्णत // 14 / कल्याणं प्रतिपत्स्यामि विपरीतं न जातुचित् // 4 -64 -
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________________ 1. 45. 5] आदिपर्व [1. 45. 28 सूत उवाच / यो न प्रजानां हितकृत्प्रियश्च / मन्त्रिणोऽथा वन्वाक्यं पृष्टास्तेन महात्मना। विशेषतः प्रेक्ष्य पितामहानां सर्वधर्मविदः प्राज्ञा राजानं जनमेजयम् // 5 / __वृत्तं महद्वृत्तपरायणानाम् // 17 धर्मात्मा च महात्मा च प्रजापालः पिता तव। कथं निधनमापन्नः पिता मम तथाविधः / आसीदिह यथावृत्तः स महात्मा शृणुष्व तत्॥ 6 / आचक्षध्वं यथावन्मे श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥१८ चातुर्वर्ण्य स्वधर्मस्थं स कृत्वा पर्यरक्षत। सूत उवाच। धर्मतो धर्मविद्राजा धर्मो विग्रहवानिव / / 7 एवं संचोदिता राज्ञा मत्रिणस्ते नराधिपम् / ररक्ष पृथिवीं देवीं श्रीमानतुलविक्रमः / द्वेष्टारस्तस्य नैवासन्स च न द्वेष्टि कंचन। . ऊचुः सर्वे यथावृत्तं राज्ञः प्रियहिते रताः // 19 समः सर्वेषु भूतेषु प्रजापतिरिवाभवत् // 8 बभूव मृगयाशीलस्तव राजन्पिता सदा / यथा पाण्डुर्महाभागो धनुर्धरवरो युधि / ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव स्वकर्मसु / अस्मास्वासज्य सर्वाणि राजकार्याण्यशेषतः // 20 स्थिताः सुमनसो राजंस्तेन राज्ञा स्वनुष्ठिताः // 9 स कदाचिद्वनचरो मृगं विव्याध पत्रिणा / विधवानाथकृपणान्विकलांश्च बभार सः। सुदर्शः सर्वभूतानामासीत्सोम इवापरः॥ 10. विद्या चान्वसरत्तूर्णं तं मृगं गहने वने // 21 तुष्टपुष्टजनः श्रीमान्सत्यवाग्दृढविक्रमः। पदातिर्बद्धनिस्त्रिंशस्ततायुधकलापवान् / धनुर्वेदे च शिष्योऽभून्नपः शारद्वतस्य सः॥११ न चाससाद गहने मृगं नष्टं पिता तव // 22 गोविन्दस्य प्रियश्चासीत्पिता ते जनमेजय। परिश्रान्तो वयःस्थश्च षष्टिवर्षो जरान्वितः / लोकस्य चैव सर्वस्य प्रिय आसीन्महायशाः // 12 क्षुधितः स महारण्ये ददर्श मुनिमन्तिके // 23 परिष्क्षीणेषु कुरुषु उत्तरायामजायत / स तं पप्रच्छ राजेन्द्रो मुनि मौनव्रतान्वितम्। न च किंचिदुवाचैनं स मुनिः पृच्छतोऽपि सन्॥२४ परिक्षिदभवत्तेन सौभद्रस्यात्मजो बली // 13 ततो राजा क्षुच्छ्रमार्तस्तं मुनि स्थाणुवत्स्थितम् / राजधर्मार्थकुशलो युक्तः सर्वगुणैर्नृपः / मौनव्रतधरं शान्तं सद्यो मन्युवशं ययौ // 25 जितेन्द्रियश्चात्मवांश्च मेधावी वृद्धसेवितः // 14 पडर्गविन्महाबुद्धिर्नीतिधर्मविदुत्तमः।। न बुबोध हि तं राजा मौनव्रतधरं मुनिम् / स तं मन्युसमाविष्टो धर्षयामास ते पिता // 26 प्रजा इमास्तव पिता षष्टिं वर्षाण्यपालयत् / खतो दिष्टान्तमापन्नः सर्पणानतिवर्तितम् // 15 मृतं सर्प धनुष्कोट्या समुक्षिप्य धरातलात् / तस्य शुद्धात्मनः प्रादात्स्कन्धे भरतसत्तम / / 27 ततस्त्वं पुरुषश्रेष्ठ धर्मेण प्रतिपेदिवान् / न चोवाच स मेधावी तमथो साध्वसाधु वा / इदं वर्षसहस्राय राज्यं कुरुकुलागतम् / / पाल एवाभिजातोऽसि सर्वभूतानुपालकः // 16 तस्थौ तथैव चाक्रुध्यन्सर्प स्कन्धेन धारयन् // 28 जनमेजय उवाच। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि नास्मिन्कुले जातु बभूव राजा पञ्चचत्वारिंशोध्यायः // 45 // - 65 - म.भा.९
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________________ 1. 46. 1] महाभारते [1. 46. 25 यत्तोऽभवत्परित्रस्तस्तक्षकात्पन्नगोत्तमात् // 13 मत्रिण ऊचुः। ततस्तस्मिंस्तु दिवसे सप्तमे समुपस्थिते। ततः स राजा राजेन्द्र स्कन्धे तस्य भुजंगमम् / राज्ञः समीपं ब्रह्मर्षिः काश्यपो गन्तुमैच्छत // 14 मुनेः क्षुरक्षाम आसज्य स्वपुरं पुनराययौ // 1 / तं ददर्शाथ नागेन्द्रः काश्यपं तक्षकस्तदा / ऋषेस्तस्य तु पुत्रोऽभूद्गवि जातो महायशाः / तमब्रवीत्पन्नगेन्द्रः काश्यपं त्वरितं व्रजन। शृङ्गी नाम महातेजास्तिग्मवीर्योऽतिकोपनः // 2 क भवांस्त्वरितो याति किं च कार्यं चिकीर्षति // 15 ब्रह्माणं सोऽभ्युपागम्य मुनिः पूजां चकार ह / काश्यप उवाच। अनुज्ञातो गतस्तत्र शृङ्गी शुश्राव तं तदा / यत्र राजा कुरुश्रेष्ठः परिक्षिन्नाम वै द्विज / सख्युः सकाशापितरं पित्रा ते धर्षितं तथा // 3 तक्षकेण भुजंगेन धक्ष्यते किल तत्र वै॥ 16 मृतं सर्प समासक्तं पित्रा ते जनमेजय / गच्छाम्यहं तं त्वरितः सद्यः कर्तुमपज्वरम् / वहन्तं कुरुशार्दूल स्कन्धेनानपकारिणम् // 4 मयाभिपन्नं तं चापि न सो धर्षयिष्यति // 17. तपस्विनमतीवाथ तं मुनिप्रवरं नृप। जितेन्द्रियं विशुद्धं च स्थितं कर्मण्यथाद्भुते // 5 ___ तक्षक उवाच / तपसा द्योतितात्मानं स्वेष्वङ्गेषु यतं तथा / किमर्थं तं मया दष्टं संजीवयितुमिच्छसि। शुभाचारं शुभकथं सुस्थिरं तमलोलुपम् // 6 ब्रूहि काममहं तेऽद्य दद्मि स्वं वेश्म गम्यताम् // 18 अक्षुद्रमनसूयं च वृद्धं मौनव्रते स्थितम् / मत्रिण ऊचुः। शरण्यं सर्वभूतानां पित्रा विप्रकृतं तव // 7 धनलिप्सुरहं तत्र यामीत्युक्तश्च तेन सः। शशापाथ स तच्छ्रुत्वा पितरं ते रुषान्वितः / तमुवाच महात्मानं मानयलक्ष्णया गिरा // 19 ऋषेः पुत्रो महातेजा बालोऽपि स्थविरैर्वरः // 8 यावद्धनं प्रार्थयसे तस्माद्राज्ञस्ततोऽधिकम् / स क्षिप्रमुदकं स्पृष्ट्वा रोषादिदमुवाच ह। गृहाण मत्त एव त्वं संनिवर्तस्व चानघ / 20 पितरं तेऽभिसंधाय तेजसा प्रज्वलन्निव // 9 स एवमुक्तो नागेन काश्यपो द्विपदां वरः। अनागसि गुरौ यो मे मृतं सर्पमवासृजत् / लब्ध्वा वित्तं निववृते तक्षकाद्यावदीप्सितम् // 21 तं नागस्तक्षकः क्रुद्धस्तेजसा सादयिष्यति / तस्मिन्प्रतिगते विप्रे छद्मनोपेत्य तक्षकः। सप्तरात्रादितः पापं पश्य मे तपसो बलम् // 10 तं नृपं नृपतिश्रेष्ठ पितरं धार्मिकं तव // 22 इत्युक्त्वा प्रययौ तत्र पिता यत्रास्य सोऽभवत् / प्रासादस्थं यत्तमपि दग्धवान्विषवह्निना / दृष्ट्वा च पितरं तस्मै शापं तं प्रत्यवेदयत् // 11 ततस्त्वं पुरुषव्याघ्र विजयायाभिषेचितः // 23 स चापि मुनिशार्दूलः प्रेषयामास ते पितुः। एतदृष्टं श्रुतं चापि यथावन्नृपसत्तम / शप्तोऽसि मम पुत्रेण यत्तो भव महीपते / अस्माभिर्निखिलं सर्वं कथितं ते सुदारुणम् // 24 तक्षकस्त्वां महाराज तेजसा सादयिष्यति // 12 / श्रुत्वा चैतं नृपश्रेष्ठ पार्थिवस्य पराभवम् / श्रुत्वा तु तद्वचो घोरं पिता ते जनमेजय / अस्य चर्षेरुत्तङ्कस्य विधत्स्व यदनन्तरम् // 25 -66 -
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________________ 1. 46. 26 ] आदिपर्व [ 1.47.8 जनमेजय उवाच / काश्यपस्य प्रसादेन मत्रिणां सुनयेन च // 38 एतत्तु श्रोतुमिच्छामि अटव्यां निर्जने वने। स तु वारितवान्मोहात्काश्यपं द्विजसत्तमम् / संवादं पन्नगेन्द्रस्य काश्यपस्य च यत्तदा / / 26 संजिजीवयिधू प्राप्तं राजानमपराजितम् // 39 / केन दृष्टं श्रुतं चापि भवतां श्रोत्रमागतम् / महानतिक्रमो ह्येष तक्षकस्य दुरात्मनः / श्रुत्वा चाथ विधास्यामि पन्नगान्तकरी मतिम् // 27 द्विजस्य योऽददगव्यं मा नृपं जीवयेदिति // 40 मत्रिण ऊचुः। उत्तङ्कस्य प्रियं कुर्वन्नात्मनश्च महत्प्रियम् / शृणु राजन्यथास्माकं येनैतत्कथितं पुरा। भवतां चैव सर्वेषां यास्याम्यपचितिं पितुः // 41 समागमं द्विजेन्द्रस्य पन्नगेन्द्रस्य चाध्वनि / / 28. इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तस्मिन्वृक्षे नरः कश्चिदिन्धनार्थाय पार्थिव / षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४६॥ विचिन्वन्पूर्वमारूढः शुष्कशाखं वनस्पतिम् / अबुध्यमानौ तं तत्र वृक्षस्थं पन्नगद्विजौ // 29 सूत उवाच / स तु तेनैव वृक्षेण भस्मीभूतोऽभवत्तदा। एवमुक्त्वा ततः श्रीमान्मत्रिभिश्चानुमोदितः / द्विजप्रभावाद्राजेन्द्र जीवितः सवनस्पतिः // 30 आरुरोह प्रतिज्ञा स सर्पसत्राय पार्थिवः / तेन गत्वा नृपश्रेष्ठ नगरेऽस्मिन्निवेदितम् / ब्रह्मन्भरतशार्दूलो राजा पारिक्षितस्तदा // 1 यथावृत्तं तु तत्सर्वं तक्षकस्य द्विजस्य च // 31 पुरोहितमथाहूय ऋत्विजं वसुधाधिपः / एतत्ते कथितं राजन्यथावृत्तं यथाश्रुतम् / अब्रवीद्वाक्यसंपन्नः संपदर्थकरं वचः॥ 2 श्रुत्वा तु नृपशार्दूल प्रकुरुष्व यथेप्सितम् // 32 यो मे हिंसितवांस्तातं तक्षकः स दुरात्मवान् / सूत उवाच / प्रतिकुर्यां यथा तस्य तद्भवन्तो ब्रुवन्तु मे // 3 मश्रिणां तु वचः श्रुत्वा स राजा जनमेजयः। अपि तत्कर्म विदितं भवतां येन पन्नगम् / पर्यतप्यत दुःखार्तः प्रत्यपिंषत्करे करम् // 33 तक्षकं संप्रदीप्तेऽग्ना प्राप्स्येऽहं सहबान्धवम् // 4 निःश्वासमुष्णमसकृद्दीर्घ राजीवलोचनः / यथा तेन पिता मह्यं पूर्वं दग्धो विषाग्निना / मुमोचाश्रूणि च तदा नेत्राभ्यां प्रततं नृपः / तथाहमपि तं पापं दग्धुमिच्छामि पन्नगम् / / 5 उवाच च महीपालो दुःखशोकसमन्वितः // 34 ऋत्विज ऊचुः / श्रुत्वैतद्भवतां वाक्यं पितु, स्वर्गतिं प्रति / अस्ति राजन्महत्सत्रं त्वदर्थं देवनिर्मितम् / निश्चितेयं मम मतिर्या वै तां मे निबोधत / / 35 सर्पसत्रमिति ख्यातं पुराणे कथ्यते नृप // 6 अनन्तरमहं मन्ये तक्षकाय दुरात्मने / आहर्ता तस्य सत्रस्य त्वन्नान्योऽस्ति नराधिप / प्रतिकर्तव्यमित्येव येन मे हिंसितः पिता // 36 इति पौराणिकाः प्राहुरस्माकं चास्ति स ऋतुः // 7 ऋषेर्हि शृङ्गेर्वचनं कृत्वा दग्ध्वा च पार्थिवम् / सूत उवाच। यदि गच्छेदसौ पापो ननु जीवेत्पिता मम / / 37 एवमुक्तः स राजर्षिर्मेने सर्प हि तक्षकम् / परिहीयेत किं तस्य यदि जीवेत्स पार्थिवः / हुताशनमुखं दीप्तं प्रविष्टमिति सत्तम // 8 -67 -
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________________ 1. 47.9] महाभारते [1. 48.9 ततोऽब्रवीन्मत्रविदस्तान्राजा ब्राह्मणांस्तदा / एवं शतसहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च / आहरिष्यामि तत्सत्रं संभाराः संभ्रियन्तु मे // 9 अवशानि विनष्टानि पन्नगानां द्विजोत्तम // 23 ततस्ते ऋत्विजस्तस्य शास्त्रतो द्विजसत्तम / इन्दुरा इव तत्रान्ये हस्तिहस्ता इवापरे / देशं तं मापयामासुर्यज्ञायतनकारणात् / मत्ता इव च मातङ्गा महाकाया महाबलाः // 24 यथावज्ज्ञानविदुषः सर्वे बुद्ध्या परं गताः॥ 10 उच्चावचाश्च बहवो नानावर्णा विषोल्बणाः। ऋद्ध्या परमया युक्तमिष्टं द्विजगणायुतम् / घोराश्च परिघप्रख्या दन्दशूका महाबलाः।. प्रभूतधनधान्याढ्यमृत्विग्भिः सुनिवेशितम् // 11 प्रपेतुरमावुरगा मातृवाग्दण्डपीडिताः॥ 25 निर्माय चापि विधिवद्यज्ञायतनमीप्सितम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि राजानं दीक्षयामासुः सर्पसत्राप्तये तदा // 12 सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥४७॥ इदं चासीत्तत्र पूर्व सर्पसत्रे भविष्यति / 48 . . निमित्तं महदुत्पन्नं यज्ञविघ्नकरं तदा॥१३ शौनक उवाच / यज्ञस्यायतने तस्मिन्क्रियमाणे वचोऽब्रवीत् / सर्पसत्रे तदा राज्ञः पाण्डवेयस्य धीमतः / स्थपतिर्बुद्धिसंपन्नो वास्तुविद्याविशारदः // 14 जनमेजयस्य के त्वासन्नृत्विजः परमर्षयः // 1 इत्यब्रवीत्सूत्रधारः सूतः पौराणिकस्तदा। के सदस्या बभूवुश्च सर्पसत्रे सुदारुणे। यस्मिन्देशे च काले च मापनेयं प्रवर्तिता। विषादजननेऽत्यर्थं पन्नगानां महाभये // 2 ब्राह्मणं कारणं कृत्वा नायं संस्थास्यते क्रतुः॥ 15 सर्वं विस्तरतस्तात भवाशंसितुमर्हति / / एतच्छ्रुत्वा तु राजा स प्राग्दीक्षाकालमब्रवीत् / सर्पसत्रविधानज्ञा विज्ञेयास्ते हि सूतज // 3 क्षत्तारं नेह मे कश्चिदज्ञातः प्रविशेदिति / / 16 / सूत उवाच / ततः कर्म प्रववृते सर्पसत्रे विधानतः / हन्त ते कथयिष्यामि नामानीह मनीषिणाम् / पर्यक्रामंश्च विधिवत्स्वे स्वे कर्मणि याजकाः // 17 / ये ऋत्विजः सदस्याश्च तस्यासन्नृपतेस्तदा / / 4 परिधाय कृष्णवासांसि धूमसंरक्तलोचनाः / तत्र होता बभूवाथ ब्राह्मणश्चण्डभार्गवः / / जुहुवुर्मत्रवच्चैव समिद्धं जातवेदसम् // 18 च्यवनस्यान्वये जातः ख्यातो वेदविदां वरः॥५ कम्पयन्तश्च सर्वेषामुरगाणां मनांसि ते। उद्गाता ब्राह्मणो वृद्धो विद्वान्कौत्सार्यजैमिनिः / सर्पानाजुहुवुस्तत्र सर्वानग्निमुखे तदा // 19 ब्रह्माभवच्छाङ्गरवो अध्वर्युर्बोधपिङ्गलः // 6 ततः सर्पाः समापेतुः प्रदीप्ते हव्यवाहने। सदस्यश्चाभवद्यासः पुत्रशिष्यसहायवान् / विवेष्टमानाः कृपणा आह्वयन्तः परस्परम् // 20 . उद्दालकः शमठकः श्वेतकेतुश्च पञ्चमः / / 7 विस्फुरन्तः श्वसन्तश्च वेष्टयन्तस्तथा परे। असितो देवलश्चैव नारदः पर्वतस्तथा / पुच्छैः शिरोभिश्च भृशं चित्रभानु प्रपेदिरे // 21 / आत्रेयः कुण्डजठरो द्विजः कुटिघटस्तथा // 8 श्वेताः कृष्णाश्च नीलाश्च स्थविराः शिशवस्तथा। / वात्स्यः श्रुतश्रवा वृद्धस्तपःस्वाध्यायशीलवान् / रुवन्तो भैरवान्नादान्पेतुर्दीप्ते विभावसौ // 22 कहोडो देवशर्मा च मौद्गल्यः शमसौभरः॥९ - 68 -
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________________ 1. 48. 10] आदिपर्व [1. 49. 10 एते चान्ये च बहवो ब्राह्मणाः संशितव्रताः / आस्तीकः किल यज्ञं तं वर्तन्तं भुजगोत्तमे। सदस्या अभवंस्तत्र सत्रे पारिक्षितस्य ह // 10 प्रतिषेत्स्यति मां पूर्व स्वयमाह पितामहः // 25 जुह्वत्स्वृत्विक्ष्वथ तदा सर्पसत्रे महाक्रतौ / तद्वत्से ब्रूहि वत्सं स्वं कुमारं वृद्धसंमतम् / अहयः प्रापतस्तत्र घोराः प्राणिभयावहाः // 11 ममाद्य त्वं सभृत्यस्य मोक्षार्थं वेदवित्तमम् // 26 वसामेदोवहाः कुल्या नागानां संप्रवर्तिताः। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ववौ गन्धश्च तमलो दह्यतामनिशं तदा // 12 अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः॥ 48 // पततां चैव नागानां धिष्ठितानां तथाम्बरे। अश्रूयतानिशं शब्दः पच्यतां चामिना भृशम् // 13 सूत उवाच। तक्षकस्तु स नागेन्द्रः पुरंदरनिवेशनम् / . तत आहूय पुत्रं स्वं जरत्कारुर्भुजंगमा / गतः श्रुत्वैव राजानं दीक्षितं जनमेजयम् // 14 वासुकेर्नागराजस्य वचनादिदमब्रवीत् // 1 ततः सर्वं यथावृत्तमाख्याय भुजगोत्तमः / अहं तव पितुः पुत्र भ्रात्रा दत्ता निमित्ततः / अगच्छच्छरणं भीत आगस्कृत्वा पुरंदरम् / / 15 / कालः स चायं संप्राप्तस्तत्कुरुष्व यथातथम॥२ तमिन्द्रः प्राह सुप्रीतो न तवास्तीह तक्षक / आस्तीक उवाच / भयं नागेन्द्र तस्माद्वै सर्पसत्रात्कथंचन // 16 किं निमित्तं मम पितुर्दत्ता त्वं मातुलेन मे। प्रसादितो मया पूर्वं तवार्थाय पितामहः / तन्ममाचक्ष्व तत्त्वेन श्रुत्वा कर्तास्मि तत्तथा // 3 तस्मात्तव भयं नास्ति व्येतु ते मानसो ज्वरः॥१७ सूत उवाच। एवमाश्वासितस्तेन ततः स भुजगोत्तमः / तत आचष्ट सा तस्मै बान्धवानां हितैषिणी / उवास भवने तत्र शक्रस्य मुदितः सुखी // 18 भगिनी नागराजस्य जरत्कारुरविक्लवा // 4 अजस्रं निपतत्स्वग्नौ नागेषु भृशदुःखितः / भुजगानामशेषाणां माता कदूरिति श्रुतिः / अल्पशेषपरीवारो वासुकिः पर्यतप्यत // 19 तया शप्ता रुषितया सुता यस्मान्निबोध तत् // 5 कश्मलं चाविशदोरं वासुकिं पन्नगेश्वरम् / उच्चैःश्रवाः सोऽश्वराजो यन्मिथ्या न कृतो मम / स घूर्णमानहृदयो भगिनीमिदमब्रवीत् // 20 विनतानिमित्तं पणिते दासभावाय पुत्रकाः // 6 दह्यन्तेऽङ्गानि मे भद्रे दिशो न प्रतिभान्ति च / जनमेजयस्य वो यज्ञे धक्ष्यत्यनिलसारथिः / सीदामीव च संमोहाद्वर्णतीव च मे मनः // 21 तत्र पञ्चत्वमापन्नाः प्रेतलोकं गमिष्यथ // 7 दृष्टिभ्रमति मेऽतीव हृदयं दीर्यतीव च। तां च शप्तवतीमेवं साक्षाल्लोकपितामहः। पतिष्याम्यवशोऽद्याहं तस्मिन्दीप्ते विभावसौ // 22 एवमस्त्विति तद्वाक्यं प्रोवाचानुमुमोद च // 8 पारिक्षितस्य यज्ञोऽसौ वर्ततेऽस्मज्जिघांसया।। वासुकिश्चापि तच्छ्रुत्वा पितामहवचस्तदा। व्यक्तं मयापि गन्तव्यं पितृराजनिवेशनम् / / 23 अमृते मथिते तात देवाशरणमीयिवान् // 9 अयं स कालः संप्राप्तो यदर्थमसि मे स्वसः / सिद्धार्थाश्च सुराः सर्वे प्राप्यामृतमनुत्तमम् / जरत्कारोः पुरा दत्ता सा बाह्यस्मान्सबान्धवान्॥२४ / भ्रातरं मे पुरस्कृत्य प्रजापतिमुपागमन् // 10 - 69 -
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________________ 1. 49. 11] महाभारते [1.50. 3 ते तं प्रसादयामासुर्देवाः सर्वे पितामहम् / दिशश्च न प्रजानामि ब्रह्मदण्डनिपीडितः // 22 राज्ञा वासुकिना सार्धं स शापो न भवेदिति // 11 आस्तीक उवाच / वासुकिर्नागराजोऽयं दुःखितो ज्ञातिकारणात् / न संतापस्त्वया कार्यः कथंचित्पन्नगोत्तम / अभिशापः स मात्रास्य भगवन्न भवेदिति // 12 दीप्तादग्नेः समुत्पन्नं नाशयिष्यामि तै भयम् // 23 ब्रह्मोवाच / ब्रह्मदण्डं महाघोरं कालाग्निसमतेजसम् / जरत्कारुर्जरत्कारुं यां भार्यां समवाप्स्यति / नाशयिष्यामि मात्र त्वं भयं कार्षीः कथंचन॥२४ तत्र जातो द्विजः शापाद्भुजगान्मोक्षयिष्यति // 13 सूत उवाच। जरत्कारुरुवाच। ततः स वासुके_रमपनीय मनोज्वरम् / एतच्छ्रुत्वा तु वचनं वासुकिः पन्नगेश्वरः / आधाय चात्मनोऽङ्गेषु जगाम त्वरितो भृशम् / / 25 प्रादान्माममरप्रख्य तव पित्रे महात्मने / जनमेजयस्य तं यज्ञं सर्वैः समुदितं गुणैः / प्रागेवानागते काले तत्र त्वं मय्यजायथाः // 14 मोक्षाय भुजगेन्द्राणामास्तीको द्विजसत्तमः // 26 अयं स कालः संप्राप्तो भयान्नस्त्रातुमर्हसि / स गत्वापश्यदास्तीको यज्ञायतनमुत्तमम / भ्रातरं चैव मे तस्मात्रातुमर्हसि पावकात् // 15 वृतं सदस्यैबहुभिः सूर्यवह्निसमप्रभैः // 27 अमोघं नः कृतं तत्स्याद्यदहं तव धीमते / स तत्र वारितो द्वाःस्थैः प्रविशन्द्विजसत्तमः / पित्रे दत्ता विमोक्षार्थं कथं वा पुत्र मन्यसे // 16 / अभितुष्टाव तं यज्ञं प्रवेशार्थी द्विजोत्तमः // 28 . सूत उवाच। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि . एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा सोऽस्तीको मातरं तदा / एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 49 // अब्रवीदुःखसंतप्तं वासुकिं जीवयन्निव // 17 अहं त्वा मोक्षयिष्यामि वासुके पन्नगोत्तम / आस्तीक उवाच। तस्माच्छापान्महासत्त्व सत्यमेतद्ब्रवीमि ते // 18 सोमस्य यज्ञो वरुणस्य यज्ञः भव स्वस्थमना नाग न हि ते विद्यते भयम् / . प्रजापतेर्यज्ञ आसीत्प्रयागे / प्रयतिष्ये तथा सौम्य यथा श्रेयो भविष्यति / तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य न मे वागनृतं प्राह स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा // 19 / / ___ पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः // 1 तं वै नृपवरं गत्वा दीक्षितं जनमेजयम् / शक्रस्य यज्ञः शतसंख्य उक्तवाग्भिर्मङ्गलयुक्ताभिस्तोषयिष्येऽद्य मातुल। स्तथापरस्तुल्यसंख्यः शतं वै / यथा स यज्ञो नृपतेर्निर्वतिष्यति सत्तम / 20 तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य स संभावय नागेन्द्र मयि सर्व महामते। पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः // 2 न ते मयि मनो जातु मिथ्या भवितुमर्हति // 21 .. यमस्य यज्ञो हरिमेधसश्च वासुकिरुवाच। यथा यज्ञो रन्तिदेवस्य राज्ञः। आस्तीक परिघूर्णामि हृदयं मे विदीर्यते / तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य -70
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________________ 1. 50. 3] आदिपर्व [1. 50. 17 पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः // 3 समो नृपः पालयिता प्रजानाम् / गयस्य यज्ञः शशबिन्दोश्च राज्ञो धृत्या च ते प्रीतमनाः सदाहं यज्ञस्तथा वैश्रवणस्य राज्ञः। त्वं वा राजा धर्मराजो यमो वा // 11 तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य शक्रः साक्षाद्वज्रपाणियथेह पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः // 4 त्राता लोकेऽस्मिंस्त्वं तथेह प्रजानाम् / नृगस्य यज्ञस्त्वजमीढस्य चासी मतस्त्वं नः पुरुषेन्द्रह लोके द्यथा यज्ञो दाशरथेश्च राज्ञः। न च त्वदन्यो गृहपतिरस्ति यज्ञे // 12 तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य खटाङ्गनाभागदिलीपकल्पो पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः // 5 ययातिमान्धातृसमप्रभावः / यज्ञः श्रुतो नो दिवि देवसूनो-- आदित्यतेजःप्रतिमानतेजा - युधिष्ठिरस्याजमीढस्य राज्ञः। भीष्मो यथा भ्राजसि सुव्रतस्त्वम् // 13 तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य वाल्मीकिवत्ते निभृतं सुधैर्य पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः॥ 6 वसिष्ठयत्ते नियतश्च कोपः। कृष्णस्य यज्ञः सत्यवत्याः सुतस्य प्रभुत्वमिन्द्रेण समं मतं मे : स्वयं च कर्म प्रचकार यत्र / द्युतिश्च नारायणवद्विभाति // 14 तथा यज्ञोऽयं तव भारताग्र्य यमो यथा धर्मविनिश्चयज्ञः पारिक्षित स्वस्ति नोऽस्तु प्रियेभ्यः // 7 कृष्णो यथा सर्वगणोपपन्नः / इमे हि ते सूर्यहुताशवर्चसः श्रियां निवासोऽसि यथा वसूनां समासते वृत्रहणः क्रतुं यथा / निधानभूतोऽसि तथा ऋतूनाम् // 15 नैषां ज्ञानं विद्यते ज्ञातुमद्य दम्भोद्भवेनासि समो बलेन दत्तं येभ्यो न प्रणश्येत्कथंचित् // 8 रामो यथा शस्त्रविदत्रविच्च / ऋत्विक्समो नास्ति लोकेषु चैव और्वत्रिताभ्यामसि तुल्यतेजा द्वैपायनेनेति विनिश्चितं मे / दुष्प्रेक्षणीयोऽसि भगीरथो वा // 16 एतस्य शिष्या हि क्षितिं चरन्ति सूत उवाच / - सर्वविजः कर्मसु स्वेषु दक्षाः // 9 एवं स्तुताः सर्व एव प्रसन्ना विभावसुश्चित्रभानुर्महात्मा राजा सदस्या ऋत्विजो हव्यवाहः / हिरण्यरेता विश्वभुकृष्णवा। तेषां दृष्ट्वा भावितानीङ्गितानि प्रदक्षिणावर्तशिखः प्रदीप्तो प्रोवाच राजा जनमेजयोऽथ // 17 ___ हव्यं तवेदं हुतभुग्वष्टि देवः // 10 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि नेह त्वदन्यो विद्यते जीवलोके पञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 50 // -71 -
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________________ 1. 51. 1] महाभारते [1.51. 15 दत्तं तस्मै वरमिन्द्रेण राजन् / जनमेजय उवाच / वसेह त्वं मत्सकाशे सुगुप्तो बालो वाक्यं स्थविर इव प्रभाषते ___न पावकस्त्वां प्रदहिष्यतीति // 7 नायं बालः स्थविरोऽयं मतो मे। एतच्छ्रुत्वा दीक्षितस्तप्यमान इच्छाम्यहं वरमस्मै प्रदातुं __ आस्ते होतारं चोदयन्कर्मकाले। तन्मे विप्रा वितरध्वं समेताः॥१ होता च यत्तः स जुहाव मत्रैसदस्या ऊचुः। रथो इन्द्रः स्वयमेवाजगाम // 8 बालोऽपि विप्रो मान्य एवेह राज्ञां विमानमारुह्य महानुभावः यश्चाविद्वान्यश्च विद्वान्यथावत् / __ सर्वैर्देवैः परिसंस्तूयमानः / सर्वान्कामांस्त्वत्त एषोऽर्हतेऽद्य बलाहकैश्चाप्यनुगम्यमानो यथा च नस्तक्षक एति शीघ्रम् // 2 विद्याधरैरप्सरसां गणैश्च // 9 सूत उवाच। तस्योत्तरीये निहितः स नागो व्याहतुकामे वरदे नृपे द्विजं ___ भयोद्विग्नः शर्म नैवाभ्यगच्छत् / वरं वृणीष्वेति ततोऽभ्युवाच / ततो राजा मत्रविदोऽब्रवीत्पुनः होता वाक्यं नातिहृष्टान्तरात्मा क्रुद्धो वाक्यं तक्षकस्यान्तमिच्छन् // 10 कर्मण्यस्मिंस्तक्षको नैति तावत् // 3 इन्द्रस्य भवने विप्रा यदि नागः स तक्षकः / जनमेजय उवाच / तमिन्द्रेणैव सहितं पातयध्वं विभावसौ // 11 यथा चेदं कर्म समाप्यते मे ऋत्विज ऊचुः। यथा च नस्तक्षक एति शीघ्रम् / अयमायाति वै तूर्णं तक्षकस्ते वशं नृप / तथा भवन्तः प्रयतन्तु सर्वे श्रूयतेऽस्य महानादो रुवतो भैरवं भयात् // 12 परं शक्त्या स हि मे विद्विषाणः // 4 नूनं मुक्तो वज्रभृता स नागो __ ऋत्विज ऊचुः / भ्रष्टश्चाङ्कान्मन्त्रविसस्तकायः / यथा शास्त्राणि नः प्राहुर्यथा शंसति पावकः / . घूर्णन्नाकाशे नष्टसंज्ञोऽभ्युपैति इन्द्रस्य भवने राजस्तक्षको भयपीडितः // 5 'तीव्रान्निःश्वासान्निःश्वसन्पन्नगेन्द्रः // 13 सूत उवाच / वर्तते तव राजेन्द्र कमैतद्विधिवत्प्रभो / यथा सूतो लोहिताक्षो महात्मा अस्मै तु द्विजमुख्याय वरं त्वं दातुमर्हसि // 14 ___ पौराणिको वेदितवान्पुरस्तात् / जनमेजय उवाच / स राजानं प्राह पृष्टस्तदानीं बालाभिरूपस्य तवाप्रमेय यथाहुर्विप्रास्तद्वदेतन्नृदेव // 6 वरं प्रयच्छामि यथानुरूपम् / पुराणमागम्य ततो ब्रवीम्यहं वृणीष्व यत्तेऽभिमतं हृदि स्थितं -72 -
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________________ 1. 51. 15 ] आदिपर्व [1. 52. 18 तत्ते प्रदास्याम्यपि चेददेयम् // 15 / उच्यमानानि मुख्यानां हुतानां जातवेदसि // 3 सूत उवाच। वासुकेः कुलजांस्तावत्प्राधान्येन निबोध मे / पतिष्यमाणे नागेन्द्रे तक्षके जातवेदसि / नीलरक्तान्सितान्घोरान्महाकायान्विषोल्बणान् // 4 इदमन्तरमित्येवं तदास्तीकोऽभ्यचोदयत् // 16 कोटिको मानसः पूर्णः सहः पैलो हलीसकः / वरं ददासि चेन्मह्यं वृणोमि जनमेजय / पिच्छिलः कोणपश्चक्रः कोणवेगः प्रकालनः // 5 सत्रं ते विरमत्वेतन्न पतेयुरिहोरगाः // 17 / हिरण्यवाहः शरणः कक्षकः कालदन्तकः / एवमुक्तस्ततो राजा ब्रह्मन्पारिक्षितस्तदा। एते वासुकिजा नागाः प्रविष्टा हव्यवाहनम् // 6 नातिहृष्टमना वाक्यमास्तीकमिदमब्रवीत् // 18 तक्षकस्य कुले जातान्प्रवक्ष्यामि निबोध तान् / सुवर्ण रजतं गाश्च यच्चान्यन्मन्यसे विभो। पुच्छण्डको मण्डलकः पिण्डभेत्ता रभेणकः // 7. तत्ते दद्यां वरं विप्र न निवर्तेत्क्रतुर्मम / / 19 उच्छिखः सुरसो द्रङ्गो बलहेडो विरोहणः / आस्तीक उवाच / शिलीशलकरो मकः सकुमारः प्रवेपनः // 8 सुवर्ण रजतं गाश्च न त्वां राजन्वृणोम्यहम्। मदरः शशरोमा च सुमना वेगवाहनः। सत्रं ते विरमत्वेतत्स्वस्ति मातृकुलस्य नः / / 20 एते तक्षकजा नागाः प्रविष्टा हव्यवाहनम् / 9 सूत उवाच / पारावतः पारियात्रः पाण्डरो हरिणः कृशः। आस्तीकेनैवमुक्तस्तु राजा पारिक्षितस्तदा। विहंगः शरभो मोदः प्रमोदः संहताङ्गदः // 10 पुनः पुनरुवाचेदमास्तीकं वदतां वरम् // 21 ऐरावतकुलादेते प्रविष्टा हव्यवाहनम् / अन्यं वरय भद्रं ते वरं द्विजवरोत्तम / कौरव्यकुलजान्नागाशृणु मे द्विजसत्तम // 11 अयाचत न चाप्यन्यं वरं स भृगुनन्दन / / 22 ऐण्डिलः कुण्डलो मुण्डो वेणिस्कन्धः कुमारकः / ततो वेदविदस्तत्र सदस्याः सर्व एव तम। बाहुकः शृङ्गवेगश्च धूर्तकः पातपातरौ // 12 राजाममूचुः सहिता लभतां ब्राह्मणो वरम् // 23 धृतराष्ट्रकुले जाताशृणु नागान्यथातथम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि कीर्त्यमानान्मया ब्रह्मन्वातवेगान्विषोल्बणान् // 13 एकपजाशत्तमोऽध्यायः॥५१॥ शङ्कुकर्णः पिङ्गलकः कुठारमुखमेचकौ। 52 पूर्णाङ्गदः पूर्णमुखः प्रहसः शकुनिहरिः // 14 शौनक उवाच / आमाहठः कोमठकः श्वसनो मानवो वटः। ये सर्पाः सर्पसत्रेऽस्मिन्पतिता हव्यवाहने। भैरवो मुण्डवेदाङ्गः पिशङ्गश्चोद्रपारगः // 15 तेषां नामानि सर्वेषां श्रोतुमिच्छामि सूतज // 1 ऋषभो वेगवान्नाम पिण्डारकमहाहनू / . सूत उवाच / रक्ताङ्गः सर्वसारङ्गः समृद्धः पाटराक्षसौ // 16 सहस्राणि बहून्यस्मिन्प्रयुतान्यर्बुदानि च। वराहको वारणकः सुमित्रश्चित्रवेदिकः / न शक्यं परिसंख्यातुं बहुत्वाद्वेदवित्तम // 2 पराशरस्तरुणको मणिस्कन्धस्तथारुणिः // 17 यथास्मृति तु नामानि पन्नगानां निबोध मे। इति नागा मया ब्रह्मन्कीर्तिताः कीर्तिवर्धनाः। . म.भा. 10 . -73 -
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________________ 1. 52. 18] महाभारते [1. 53. 20 प्राधान्येन बहुत्वात्तु न सर्वे परिकीर्तिताः // 18 / प्रीयतामयमारतीकः सत्यं सूतवचोऽस्तु तत् // 8 एतेषां पुत्रपौत्रास्तु प्रसवस्य च संततिः / ततो हलहलाशब्दः प्रीतिजः समवर्तत / न शक्याः परिसंख्यातुं ये दीप्तं पावकं गताः // 19 आस्तीकस्य वरे दत्ते तथैवोपरराम च // 9 सप्तशीर्षा द्विशीर्षाश्च पञ्चशीर्षास्तथापरे / स यज्ञः पाण्डवेयस्य राज्ञः पारिक्षितस्य ह / कालानलविषा घोरा हुताः शतसहस्रशः // 20 प्रीतिमांश्चाभवद्राजा भारतो जनमेजयः॥ 10 महाकाया महावीर्याः शैलशृङ्गसमुच्छ्रयाः। ऋत्विग्भ्यः ससदस्येभ्यो ये तत्रासन्समागताः / योजनायामविस्तारा द्वियोजनसमायताः // 21 तेभ्यश्च प्रददौ वित्तं शतशोऽथ सहस्रशः॥ 11 कामरूपाः कामगमा दीप्तानलविषोल्बणाः / लोहिताक्षाय सूताय तथा स्थपतये विभुः / दग्धास्तत्र महासत्रे ब्रह्मदण्डनिपीडिताः // 22 येनोक्तं तत्र सत्राने यज्ञस्य विनिवर्तनम् // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि निमित्तं ब्राह्मण इति तस्मै वित्तं ददौ बहु / द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 52 // ततश्चकारावभृथं विधिदृष्टेन कर्मणा // 13 . आस्तीकं प्रेषयामास गृहानेव सुसत्कृतम् / सूत उवाच / राजा प्रीतमनाः प्रीतं कृतकृत्यं मनीषिणम् // 14 इदमत्यद्भुतं चान्यदास्तीकस्यानुशुश्रुमः / पुनरागमनं कार्यमिति चैनं वचोऽब्रवीत् / तथा वरैश्छन्द्यमाने राज्ञा पारिक्षितेन ह // 1 भविष्यसि सदस्यो मे वाजिमेधे महाक्रतौ // 15 इन्द्रहस्ताच्युतो नागः ख एव यदतिष्ठत / तथेत्युक्त्वा प्रदुद्राव स चास्तीको मुदा युतः। ततश्चिन्तापरो राजा बभूव जनमेजयः / / 2 कृत्वा स्वकार्यमतुलं तोषयित्वा च पार्थिवम् // 16 हूयमाने भृशं दीप्ते विधिवत्पावके तदा / स गत्वा परमप्रीतो मातरं मातुलं च तम् / न स्म स प्रापतद्वह्नौ तक्षको भयपीडितः॥ 3 अभिगम्योपसंगृह्य यथावृत्तं न्यवेदयत् / / 17 शौनक उवाच / एतच्छ्रुत्वां प्रीयमाणाः समेता .. किं सूत तेषां विप्राणां मत्रग्रामो मनीषिणाम् / ये तत्रासन्पन्नगा वीतमोहाः। / न प्रत्यभात्तदानौ यन्न पपात स तक्षकः // 4 तेऽस्तीके वै प्रीतिमन्तो बभूवुसूत उवाच / __ रूचुश्चैनं वरमिष्टं वृणीष्व // 18 तमिन्द्रहस्ताद्विस्रस्तं विसंज्ञं पन्नगोत्तमम् / भूयो भूयः सर्वशस्तेऽब्रुवंस्तं आस्तीकस्तिष्ठ तिष्ठति वाचस्तिस्रोऽभ्युदैरयत् // 5 ___ किं ते प्रियं करवामोऽद्य विद्वन् / वितस्थे सोऽन्तरिक्षेऽथ हृदयेन विदूयता। प्रीता वयं मोक्षिताश्चैव सर्वे यथा तिष्ठेत वै कश्चिद्गोचक्रस्यान्तरा नरः // 6 कामं किं ते करवामोऽद्य वत्स // 19 ततो राजाब्रवीद्वाक्यं सदस्यैश्चोदितो भृशम् / / आस्तीक उवाच। / काममेतद्भवत्वेवं यथास्तीकस्य भाषितम् / / 7 / / सायं प्रातः सुप्रसन्नात्मरूपा समाप्यतामिदं कर्म पन्नगाः सन्त्वनामयाः / लोके विप्रा मानवाश्चेतरेऽपि / -74 -
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________________ 1. 53. 20] आदिपर्व [1. 54.5 धर्माख्यानं ये वदेयुर्ममेदं सूत उवाच / तेषां युष्मद्भ्यो नैव किंचिद्भयं स्यात् / / 20 कर्मान्तरेष्वकथयन्द्विजा वेदाश्रयाः कथाः। सूत उवाच / व्यासस्त्वकथयन्नित्यमाख्यानं भारतं महत् // 31 तैश्चाप्युक्तो भागिनेयः प्रसन्नै शौनक उवाच / रेतत्सत्यं काममेवं चरन्तः / महाभारतमाख्यानं पाण्डवानां यशस्करम् / प्रीत्या युक्ता ईप्सितं सर्वशस्ते जनमेजयेन यत्पृष्टः कृष्णद्वैपायनस्तदा // 32 __ कर्तारः स्म प्रवणा भागिनेय / / 21 श्रावयामास विधिवत्तदा कर्मान्तरेषु सः / तामहं विधिवत्पुण्यां श्रोतुमिच्छामि वै कथाम्॥३३ जरत्कारोर्जरत्कारों समुत्पन्नो महायशाः। मनःसागरसंभूतां महर्षेः पुण्यकर्मणः / आस्तीकः सत्यसंधो मां पन्नगेभ्योऽभिरक्षतु // 22 कथयस्व सतां श्रेष्ठ न हि तृप्यामि सूतज // 34 असितं चार्तिमन्तं च सुनीथं चापि यः स्मरेत् / सूत उवाच / दिवा वा यदि वा रात्री नास्य सर्पभयं भवेत् / / 23 हन्त ते कथयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम् / कृष्णद्वैपायनमतं महाभारतमादितः // 35 तजुषस्वोत्तममते कथ्यमानं मया द्विज / सूत उवाच। शंसितुं तन्मनोहर्षो ममापीह प्रवर्तते // 36 मोक्षयित्वा स भुजगान्सर्पसत्राहिजोत्तमः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ' जगाम काले धर्मात्मा दिष्टान्तं पुत्रपौत्रवान् // 24 त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 53 // इत्याख्यानं मयास्तीकं यथावत्कीर्तितं तव / // समाप्तमास्तीकपर्व // यत्कीर्तयित्वा सर्पेभ्यो न भयं विद्यते क्वचित् / / 25 श्रुत्वा धर्मिष्ठमाख्यानमास्तीकं पुण्यवर्धनम् / सूत उवाच / आस्तीकस्य कवेर्विप्र श्रीमचरितमादितः / / 26 श्रुत्वा तु सर्पसत्राय दीक्षितं जनमेजयम् / शौनक उवाच। अभ्यागच्छदृषिविद्वान्कृष्णद्वैपायनस्तदा // 1 भृगुवंशात्प्रभृत्येव त्वया मे कथितं महत् / जनयामास यं काली शक्तेः पुत्रात्पराशरात् / आख्यानमखिलं तात सौते प्रीतोऽस्मि तेन ते॥२७ कन्यैव यमुनाद्वीपे पाण्डवानां पितामहम् // 2 प्रक्ष्यामि चैव भूयस्त्वां यथावत्सूतनन्दन / जातमात्रश्च यः सद्य इष्ट्या देहमवीवृधत् / यां कथा व्याससंपन्नां तां च भूयः प्रचक्ष्व मे / / 28 वेदांश्चाधिजगे साङ्गान्सेतिहासान्महायशाः // 3 तस्मिन्परमदुष्पापे सर्पसत्रे महात्मनाम् / यं नाति तपसा कश्चिन्न वेदाध्ययनेन च / बान्तरेषु विधिवत्सदस्यानां महाकवे // 29 न व्रतैर्नोपवासैश्च न प्रसूत्या न मन्युना // 4 या बभूवुः कथाश्चित्रा येष्वर्थषु यथातथम् / विव्यासैकं चतुर्धा यो वेदं वेदविदां वरः / बत्त इच्छामहे श्रोतुं सौते त्वं वै विचक्षणः // 30 / परावरज्ञो ब्रह्मर्षिः कविः सत्यव्रतः शुचिः // 5 -75 -
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________________ 1. 54. 6] महाभारते [1. '55.9 यः पाण्डुं धृतराष्ट्रं च विदुरं चाप्यजीजनत् / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कृष्णद्वैपायनस्तदा / शंतनोः संततिं तन्वन्पुण्यकीर्तिर्महायशाः // 6 शशास शिष्यमासीनं वैशंपायनमन्तिके // 21 जनमेजयस्य राजर्षेः स तद्यज्ञसदस्तदा / कुरूणां पाण्डवानां च यथा भेदोऽभवत्पुरा / विवेश शिष्यैः सहितो वेदवेदाङ्गपारगैः / / 7 तदस्मै सर्वमाचक्ष्व यन्मत्तः श्रुतवानसि // 22 तत्र राजानमासीनं ददर्श जनमेजयम् / गुरोर्वचनमाज्ञाय स तु विप्रर्षभस्तदा। . वृतं सदस्यैर्बहुभिर्देवैरिव पुरंदरम् // 8 आचचक्षे ततः सर्वमितिहासं पुरातनम् // 23 तथा मूर्धावसिक्तैश्च नानाजनपदेश्वरैः / तस्मै राज्ञे सदस्येभ्यः क्षत्रियेभ्यश्च सर्वशः / ऋत्विग्भिर्देवकल्पैश्च कुशलैर्यज्ञसंस्तरे // 9 भेदं राज्यविनाशं च कुरुपाण्डवयोस्तदा // 24 जनमेजयस्तु राजर्षिदृष्ट्वा तमृषिमागतम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सगणोऽभ्युद्ययौ तूर्णं प्रीत्या भरतसत्तमः // 10 चतुःपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 54 // काञ्चनं विष्टरं तस्मै सदस्यानुमते प्रभुः / आसनं कल्पयामास यथा शक्रो बृहस्पतेः // 11 वैशंपायन उवाच / तत्रोपविष्टं वरदं देवर्षिगणपूजितम् / गुरवे प्राङ् नमस्कृत्य मनोबुद्धिसमाधिभिः। पूजयामास राजेन्द्रः शास्त्रदृष्टेन कर्मणा / / 12 संपूज्य च द्विजान्सर्वांस्तथान्यान्विदुषो जनान् // 1 पाद्यमाचमनीयं च अर्घ्यं गां च विधानतः / महर्षेः सर्वलोकेषु विश्रुतस्यास्य धीमतः। पितामहाय कृष्णाय तदर्हाय न्यवेदयत् // 13 प्रवक्ष्यामि मतं कृत्स्नं व्यासस्यामिततेजसः // 2 प्रतिगृह्य च तां पूजां पाण्डवाजनमेजयात् / श्रोतुं पात्रं च राजंस्त्वं प्राप्येमा भारती कथाम् / गां चैव समनुज्ञाय व्यासः प्रीतोऽभवत्तदा // 14 गुरोर्वक्तुं परिस्पन्दो मुदा प्रोत्साहतीव माम् // 3 तथा संपूजयित्वा तं यत्नेन प्रपितामहम् / शृणु राजन्यथा भेदः कुरुपाण्डवयोरभूत् / उपोपविश्य प्रीतात्मा पर्यपृच्छदनामयम् // 15 राज्यार्थे द्यूतसंभूतो वनवासस्तथैव च // 4 भगवानपि तं दृष्ट्वा कुशलं प्रतिवेद्य च / यथा च युद्धमभवत्पृथिवीक्षयकारकम् / सदस्यैः पूजितः सर्वैः सदस्यानभ्यपूजयत् // 16 तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि पृच्छते भरतर्षभ // 5 ततस्तं सत्कृतं सर्वैः सदस्यैर्जनमेजयः / मृते पितरि ते वीरा वनादेत्य स्वमन्दिरम् / इदं पश्चाहिजश्रेष्ठं पर्यपृच्छत्कृताञ्जलिः // 17 नचिरादिव विद्वांसो वेदे धनुषि चाभवन् // 6 कुरूणां पाण्डवानां च भवान्प्रत्यक्षदर्शिवान् / तांस्तथा रूपवीयौजःसंपन्नान्पौरसंमतान् / तेषां चरितमिच्छामि कथ्यमानं त्वया द्विज // 18 नामृष्यन्कुरवो दृष्ट्वा पाण्डवाश्रीयशोभृतः // 7 कथं समभवद्भेदस्तेषामक्लिष्टकर्मणाम् / ततो दुर्योधनः क्रूरः कर्णश्च सहसौबलः / तच्च युद्धं कथं वृत्तं भूतान्तकरणं महत् // 19 तेषां निग्रहनिर्वासान्विविधांस्ते समाचरन् // 8 पितामहानां सर्वेषां देवेनाविष्टचेतसाम् / ददावथ विषं पापो भीमाय धृतराष्ट्रजः / कार्येनैतत्समाचक्ष्व भगवन्कुशलो ह्यसि // 20 / जरयामास तद्वीरः सहान्नेन वृकोदरः॥ 9 -76
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________________ 1. 55. 10] आदिपर्व [1. 55. 39 प्रमाणकोट्यां संसुप्तं पुनर्बवा वृकोदरम्। वासाय खाण्डवप्रस्थं व्रजध्वं गतमन्यवः॥ 24 वोयेषु भीमं गङ्गायाः प्रक्षिप्य पुरमाव्रजत् // 10 तयोस्ते वचनाजग्मुः सह सर्वैः सुहृजनैः / बदा प्रबुद्धः कौन्तेयस्तदा संछिद्य बन्धनम् / नगरं खाण्डवप्रस्थं रत्नान्यादाय सर्वशः // 25 उदतिष्ठन्महाराज भीमसेनो गतव्यथः // 11 तत्र ते न्यवस-राजन्संवत्सरगणान्बहून्। भाशीविषैः कृष्णसपैः सुप्तं चैनमदंशयत् / वशे शस्त्रप्रतापेन कुर्वन्तोऽन्यान्महीक्षितः // 26 सर्वेष्वेवाङ्गदेशेषु न ममार च शत्रुहा / / 12 एवं धर्मप्रधानास्ते सत्यव्रतपरायणाः / तेषां तु विप्रकारेषु तेषु तेषु महामतिः / अप्रमत्तोत्थिताः क्षान्ताः प्रतपन्तोऽहितांस्तदा / / 27 मोक्षणे प्रतिघाते च विदुरोऽवहितोऽभवत् / / 13 अजयद्भीमसेनस्तु दिशं प्राची महाबलः / वर्गस्थो जीवलोकस्य यथा शक्रः सुखावहः। उदीचीमर्जुनो वीरः प्रतीची नकुलस्तथा // 28 पाण्डवानां तथा नित्यं विदुरोऽपि सुखावहः / / 14 दक्षिणां सहदेवस्तु विजिग्ये परवीरहा। यदा तु विविधोपायैः संवृतैर्विवृतैरपि / एवं चक्रुरिमां सर्वे वशे कृत्स्नां वसुंधराम् // 29 नाशक्नोद्विनिहन्तुं तान्दैवभाव्यर्थरक्षितान् // 15 पञ्चभिः सूर्यसंकाशः सूर्येण च विराजता। ततः संमत्र्य सचिवैर्वृषदुःशासनादिभिः / षट्सूर्येवाबभौ पृथ्वी पाण्डवैः सत्यविक्रमैः॥ 30 धृतराष्ट्रमनुज्ञाप्य जातुषं गृहमादिशत् / / 16 ततो निमित्ते कस्मिंश्चिद्धर्मराजो युधिष्ठिरः / वत्र तान्वासयामास पाण्डवानमितौजसः / वनं प्रस्थापयामास भ्रातरं वै धनंजयम् / / 31 अदाहयच्च विस्रब्धान्पावकेन पुनस्तदा // 17 स वै संवत्सरं पूर्ण मासं चेकं वनेऽवसत् / विदुरस्यैव वचनात्खनित्री विहिता ततः। ततोऽगच्छद्धृषीकेशं द्वारवत्यां कदाचन / / 32 मोक्षयामास योगेन ते मुक्ताः प्राद्रवन्भयात् / / 18 लब्धवांस्तत्र बीभत्सुर्भायर्यां राजीवलोचनाम् / खतो महावने घोरे हिडिम्बं नाम राक्षसम् / अनुजां वासुदेवस्य सुभद्रां भद्रभाषिणीम् // 33 भीमसेनोऽवधीत्क्रुद्धो भुवि भीमपराक्रमः / / 19 सा शचीव महेन्द्रेण श्रीः कृष्णेनेव संगता। अथ संधाय ते वीरा एकचक्रां व्रजस्तदा / सुभद्रा युयुजे प्रीता पाण्डवेनार्जुनेन ह // 34 अमरूपधरा भूत्वा मात्रा सह परंतपाः // 20 अतर्पयच्च कौन्तेयः खाण्डवे हव्यवाहनम् / पत्र ते ब्राह्मणार्थाय बकं हत्वा महाबलम् / बीभत्सुर्वासुदेवेन सहितो नृपसत्तम / / 35 प्रामणैः सहिता जग्मुः पाञ्चालानां पुरं ततः // 21 नातिभारो हि पार्थस्य केशवेनाभवत्सह / से तत्र द्रौपदी लब्ध्वा परिसंवत्सरोपिताः / व्यवसायसहायस्य विष्णोः शत्रुवधेष्विव // 36 विदिता हास्तिनपुरं प्रत्याजग्मुररिंदमाः // 22 पार्थायाग्निर्ददी चापि गाण्डीवं धनुरुत्तमम् / ह उक्ता धृतराष्ट्रण राज्ञा शांतनवेन च / इषुधी चाक्षयैर्बाणै रथं च कपिलक्षणम् // 37 आमिर्विग्रहस्तात कथं वो न भवेदिति / मोक्षयामास बीभत्सुर्मयं तत्र महासुरम् / अस्माभिः खाण्डवप्रस्थे युष्मद्वालोऽनुचिन्तितः।।२३ स चकार सभां दिव्यां सर्वरत्नसमाचिताम् // 38 अल्माजनपदोपेतं सुविभक्तमहापथम्। तस्यां दुर्योधनो मन्दो लोभं चक्रे सुदुर्मतिः / -77 -
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________________ 1. 55. 39] महाभारते [1.56. 23 ततोऽक्षैर्वश्चयित्वा च सौबलेन युधिष्ठिरम् // 39 अनर्हः परमं क्लेशं सोढवान्स युधिष्ठिरः // 9 वनं प्रस्थापयामास सप्त वर्षाणि पञ्च च। कथं च बहुलाः सेनाः पाण्डवः कृष्णसारथिः / अज्ञातमेकं राष्ट्र च तथा वर्ष त्रयोदशम् // 40 अस्यन्नकोऽनयत्सर्वाः पितृलोकं धनंजयः // 10 ततश्चतुर्दशे वर्षे याचमानाः स्वकं वसु / एतदाचक्ष्व मे सर्वं यथावृत्तं तपोधन / नालभन्त महाराज ततो युद्धमवर्तत / / 41 यद्यच्च कृतवन्तस्ते तत्र तत्र महारथाः // 11 ततस्ते सर्वमुत्साद्य हत्वा दुर्योधनं नृपम् / वैशंपायन उवाच / राज्यं विद्रुतभूयिष्ठं प्रत्यपद्यन्त पाण्डवाः // 42 महर्षेः सर्वलोकेषु पूजितस्य महात्मनः / एवमेतत्पुरावृत्तं तेषामक्लिष्टकर्मणाम् / प्रवक्ष्यामि मतं कृत्स्नं व्यासस्यामिततेजसः / / 12 भेदो राज्यविनाशश्च जयश्च जयतां वर // 43 इदं शतसहस्रं हि श्लोकानां पुण्यकर्मणाम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सत्यवत्यात्मजेनेह व्याख्यातममितौजसा // 13 पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 55 // य इदं श्रावयेद्विद्वान्यश्चेदं शृणुयान्नरः / / ते ब्रह्मणः स्थानमेत्य प्राप्नुयुर्देवतुल्यताम् // 14 जनमेजय उवाच / इदं हि वेदैः समितं पवित्रमपि चोत्तमम् / कथितं वै समासेन त्वया सर्वं द्विजोत्तम / श्राव्याणामुत्तमं चेदं पुराणमृषिसंस्तुतम् // 15 महाभारतमाख्यानं कुरूणां चरितं महत् // 1 अस्मिन्नर्थश्च धर्मश्च निखिलेनोपदिश्यते। कथां त्वनघ चित्रार्थामिमां कथयति त्वयि / इतिहासे महापुण्ये बुद्धिश्च परिनैष्ठिकी / / 16 विस्तरश्रवणे जातं कौतूहलमतीव मे / / 2 अक्षुद्रान्दानशीलांश्च सत्यशीलाननास्तिकान्। स भवान्विस्तरेणेमां पुनराख्यातुमर्हति। काणं वेदमिमं विद्वान् श्रावयित्वार्थमश्नुते // 17 न हि तृप्यामि पूर्वेषां शृण्वानश्चरितं महत् / / 3 भ्रूणहत्याकृतं चापि पापं जह्यादसंशयम्। न तत्कारणमल्पं हि धर्मज्ञा यत्र पाण्डवाः / इतिहासमिमं श्रुत्वा पुरुषोऽपि सुदारुणः // 18 अवध्यान्सर्वशो जन्नुः प्रशस्यन्ते च मानवैः // 4 जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा / किमर्थं ते नरव्याघ्राः शक्ताः सन्तो ह्यनागसः। महीं विजयते सर्वां शत्रूश्चापि पराजयेत् // 19 प्रयुज्यमानान्संक्लेशान्क्षान्तवन्तो दुरात्मनाम् // 5 - इदं पुंसवनं श्रेष्ठमिदं स्वस्त्ययनं महत् / कथं नागायुतप्राणो बाहुशाली वृकोदरः / महिषीयुवराजाभ्यां श्रोतव्यं बहुशस्तथा / / 20 परिक्लिश्यन्नपि क्रोधं धृतवान्वै द्विजोत्तम / / 6 अर्थशास्त्रमिदं पुण्यं धर्मशास्त्रमिदं परम् / कथं सा द्रौपदी कृष्णा क्लिश्यमाना दुरात्मभिः / मोक्षशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना // 21 शक्ता सती धार्तराष्ट्रान्नादहरोरचक्षुषा / / 7 संप्रत्याचक्षते चैव आख्यास्यन्ति तथापरे। कथं व्यतिक्रमन्द्यूते पार्थो माद्रीसुतौ तथा / पुत्राः शुश्रूषवः सन्ति प्रेष्याश्च प्रियकारिणः // 2 // अनुवजन्नरव्याघ्र वश्यमानं दुरात्मभिः / / 8 शरीरेण कृतं पापं वाचा च मनसैव च। कथं धर्मभृतां श्रेष्ठः सुतो धर्मस्य धर्मवित् / सर्वं तत्त्यजति क्षिप्रमिदं शृण्वन्नरः सदा // 23 -78
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________________ 1. 56. 24] आदिपर्व [1. 57. 17 भारतानां महजन्म शृण्वतामनसूयताम् / इन्द्रत्वम? राजायं तपसेत्यनुचिन्त्य वै / नास्ति व्याधिभयं तेषां परलोकभयं कुतः / / 24 तं सान्त्वेन नृपं साक्षात्तपसः संन्यवर्तयत् / / 4 धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वयं पुण्यं तथैव च / इन्द्र उवाच। कृष्णद्वैपायनेनेदं कृतं पुण्यचिकीर्षुणा // 25 न संकीर्येत धर्मोऽयं पृथिव्यां पृथिवीपते / कीर्तिं प्रथयता लोके पाण्डवानां महात्मनाम् / तं पाहि धर्मो हि धृतः कृत्स्नं धारयते जगत् / / 5 अन्येषां क्षत्रियाणां च भूरिद्रविणतेजसाम् / / 26 लोक्यं धर्म पालय त्वं नित्ययुक्तः समाहितः। यथा समुद्रो भगवान्यथा च हिमवान्गिरिः। धर्मयुक्तस्ततो लोकान्पुण्यानाप्स्यसि शाश्वतान् // 6 ख्यातावुभौ रत्ननिधी तथा भारतमुच्यते / / 27 दिविष्ठस्य भुविष्ठस्त्वं सखा भूत्वा मम प्रियः / य इदं श्रावयेद्विद्वान्ब्राह्मणानिह पर्वसु / ऊधः पृथिव्या यो देशस्तमावस नराधिप // 7 धूतपाप्मा जितस्वर्गो ब्रह्मभूयं स गच्छति // 28 पशव्यश्चैव पुण्यश्च सुस्थिरो धनधान्यवान् / यश्चेदं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः / स्वारक्ष्यश्चैव सौम्यश्च भोग्यभूमिगुणैर्वृतः // 8 अक्षय्यं तस्य तच्छ्राद्धमुपतिष्ठेत्पितॄनपि // 29 अत्यन्यानेष देशो हि धनरत्नादिभियुतः / अह्ना यदेनश्चाज्ञानात्प्रकरोति नरश्चरन् / वसुपूर्णा च वसुधा वस चेदिषु चेदिप // 9 तन्महाभारताख्यानं श्रुत्वैव प्रविलीयते // 30 धर्मशीला जनपदाः सुसंतोषाश्च साधवः। भारतानां महज्जन्म महाभारतमुच्यते। न च मिथ्याप्रलापोऽत्र स्वरेष्वपि कुतोऽन्यथा 10 निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते // 31 न च पित्रा विभज्यन्ते नरा गुरुहिते रताः / त्रिभिर्वर्षेः सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनो मुनिः। युञ्जते धुरि नो गाश्च कृशाः संधुक्षयन्ति च // 11 महाभारतमाख्यानं कृतवानिदमुत्तमम् / / 32 सर्वे वर्णाः स्वधर्मस्थाः सदा चेदिषु मानद / धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ / न तेऽस्त्यविदितं किंचित्रिषु लोकेषु यद्भवेत् // 12 यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नहास्ति न तत्कचित् / / 33 देवोपभोग्यं दिव्यं च आकाशे स्फाटिकं महत् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आकाशगं त्वां मद्दत्तं विमानमुपपत्स्यते // 13 षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५६॥ त्वमेकः सर्वमर्येषु विमानवरमास्थितः / चरिष्यस्युपरिस्थो वै देवो विग्रहवानिव // 14 वैशंपायन उवाच / ददामि ते वैजयन्ती मालामम्लानपङ्कजाम् / राजोपरिचरो नाम धर्मनित्यो महीपतिः / धारयिष्यति संग्रामे या त्वां शस्त्रैरविक्षतम् // 15 पभूव मृगयां गन्तुं स कदाचिद्धृतव्रतः // 1 लक्षणं चैतदेवेह भविता ते नराधिप। स चेदिविषयं रम्यं वसुः पौरवनन्दनः / इन्द्रमालेति विख्यातं धन्यमप्रतिमं महत् // 16 इन्द्रोपदेशाज्जग्राह ग्रहणीयं महीपतिः // 2 वैशंपायन उवाच / उमाश्रमे न्यस्तशस्त्रं निवसन्तं तपोरतिम् / यष्टिं च वैणवीं तस्मै ददौ वृत्रनिषूदनः / देवः साक्षात्स्वयं वज्री समुपायान्महीपतिम् // 3 / इष्टप्रदानमुद्दिश्य शिष्टानां परिपालिनीम् // 17 - 79 -
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________________ 1. 57. 18] महाभारते [1. 57. 43 तस्याः शक्रस्य पूजार्थं भूमौ भूमिपतिस्तदा / वासवाः पञ्च राजानः पृथग्वंशाश्च शाश्वताः॥३० प्रवेशं कारयामास गते संवत्सरे तदा // 18 वसन्तमिन्द्रप्रासादे आकाशे स्फाटिके च तम् / ततःप्रभृति चाद्यापि यष्ट्याः क्षितिपसत्तमैः। उपतस्थुमहात्मानं गन्धर्वाप्सरसो नृपम् / प्रवेशः क्रियते राजन्यथा तेन प्रवर्तितः // 19 राजोपरिचरेत्येवं नाम तस्याथ विश्रुतम् // 31 अपरेास्तथा चास्याः क्रियते उच्छ्रयो नृपैः। पुरोपवाहिनीं तस्य नदीं शुक्तिमती गिरिः / अलंकृतायाः पिटकैर्गन्धैर्माल्यैश्च भूषणैः / अरौत्सीच्चेतनायुक्तः कामात्कोलाहलः किल / / 32 माल्यदामपरिक्षिप्ता विधिवक्रियतेऽपि च // 20 गिरि कोलाहलं तं तु पदा वसुरताडयत् / भगवान्पूज्यते चात्र हास्यरूपेण शंकरः॥ निश्चक्राम नदी तेन प्रहारविवरेण सा // 33 स्वयमेव गृहीतेन वसोः प्रीत्या महात्मनः / / 21 तस्यां नद्यामजनयन्मिथुनं पर्वतः स्वयम् / एतां पूजां महेन्द्रस्तु दृष्ट्वा देव कृतां शुभाम् / तस्माद्विमोक्षणात्प्रीता नदी राज्ञे न्यवेदयत् // 34 वसुना राजमुख्येन प्रीतिमानब्रवीद्विभुः // 22 यः पुमानभवत्तत्र तं स राजर्षिसत्तमः / ये पूजयिष्यन्ति नरा राजानश्च महं मम / वसुर्वसुप्रदश्चक्रे सेनापतिमरिंदमम् / कारयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नृपः // 23 चकार पत्नी कन्यां तु दयितां गिरिकां नृपः // 35 तेषां श्रीविजयश्चैव सराष्ट्राणां भविष्यति / वसोः पत्नी तु गिरिका कामात्काले न्यवेदयत् / तथा स्फीतो जनपदो मुदितश्च भविष्यति // 24 ऋतुकालमनुप्राप्तं स्नाता पुंसवने शुचिः // 36 एवं महात्मना तेन महेन्द्रेण नराधिप / तदहः पितरश्चैनमूचुर्जहि मृगानिति / वसुः प्रीत्या मघवता महाराजोऽभिसत्कृतः // 25 तं राजसत्तमं प्रीतास्तदा मतिमतां वरम् // 37 उत्सवं कारयिष्यन्ति सदा शक्रस्य ये नराः। स पितणां नियोगं तमव्यतिक्रम्य पार्थिवः / . भूमिदानादिभिर्दानैर्यथा पूता भवन्ति वै। चचार मृगयां कामी गिरिकामेव संस्मरन् / वरदानमहायज्ञैस्तथा शक्रोत्सवेन ते // 26 अतीव रूपसंपन्नां साक्षाच्छ्रियमिवापराम् // 38 संपूजितो मघवता वसुश्चेदिपतिस्तदा / तस्य रेतः प्रचस्कन्द चरतो रुचिरे वने / पालयामास धर्मेण चेदिस्थः पृथिवीमिमाम् / स्कन्नमात्रं च तद्रेतो वृक्षपत्रेण भूमिपः // 39 इन्द्रप्रीत्या भूमिपतिश्चकारेन्द्रमहं वसुः // 27 'प्रतिजग्राह मिथ्या मे न स्कन्देद्रेत इत्युत / पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौजसः। ऋतुश्च तस्याः पल्या मे न मोघः स्यादिति प्रभुः 40 नानाराज्येषु च सुतान्स सम्राडभ्यषेचयत् / / 28 संचिन्त्यैवं तदा राजा विचार्य च पुनः पुनः। महारथो मगधराश्रुितो यो बृहद्रथः / अमोघत्वं च विज्ञाय रेतसो राजसत्तमः / / 41 प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम् / शुक्रप्रस्थापने कालं महिष्याः प्रसमीक्ष्य सः / मच्छिल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः // 29 अभिमत्रयाथ तच्छुक्रमारात्तिष्ठन्तमाशुगम् / एते तस्य सुता राजनराजर्षे रितेजसः / सूक्ष्मधर्मार्थतत्त्वज्ञो ज्ञात्वा श्येनं ततोऽब्रवीत् // 42 न्यवेशयन्नामभिः स्वैस्ते देशांश्च पुराणि च / मत्प्रियार्थमिदं सौम्य शुक्रं मम गृहं नय। . -80 -
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________________ 1. 57. 43] आदिपर्व [1. 57. 69 गिरिकायाः प्रयच्छाशु तस्या ह्यार्तवमद्य वै // 43 तीर्थयात्रां परिक्रामन्नपश्यद्वै पराशरः // 56 गृहीत्वा तत्तदा श्येनस्तूर्णमुत्पत्य वेगवान् / अतीव रूपसंपन्नां सिद्धानापि काङ्किताम् / जवं परममास्थाय प्रदुद्राव विहंगमः।। 44 दृष्ट्वैव च स तां धीमांश्चकमे चारुदर्शनाम् / तमपश्यदथायान्तं श्येनं श्येनस्तथापरः / / विद्वांस्तां वासवीं कन्यां कार्यवान्मुनिपुंगवः // 57 अभ्यद्रवच्च तं सद्यो दृष्ट्वैवामिषशङ्कया // 45 साब्रवीत्पश्य भगवन्पारावारे ऋषीस्थितान् / तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ संप्रचक्रतुः / आवयोदृश्यतोरेभिः कथं नु स्यात्समागमः // 58 युध्यतोरपतद्रेतस्तच्चापि यमुनाम्भसि // 46 एवं तयोक्तो भगवान्नीहारमसृजत्प्रभुः / तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सराः / येन देशः स सर्वस्तु तमोभूत इवाभवत् // 59 मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी // 47 दृष्ट्वा सृष्टं तु नीहारं ततस्तं परमर्षिणा। श्येनपादपरिभ्रष्टं तद्वीर्यमथ वासवम् / विस्मिता चाब्रवीत्कन्या व्रीडिता च मनस्विनी // 60 जग्राह तरसोपेत्य साद्रिका मत्स्यरूपिणी // 48 विद्धि मां भगवन्कन्यां सदा पितृवशानुगाम् / कदाचिदथ मसीं तां बबन्धुमत्स्यजीविनः / / त्वत्संयोगाच्च दुष्येत कन्याभावो ममानघ / / 61 मासे च दशमे प्राप्ते तदा भरतसत्तम / कन्यात्वे दूषिते चापि कथं शक्ष्ये द्विजोत्तम / उज्जहरुदरात्तस्याः स्त्रीपुमांसं च मानुषम् // 49 गन्तुं गृहं गृहे चाहं धीमन्न स्थातुमुत्सहे। आश्चर्यभूतं मत्वा तद्राज्ञस्ते प्रत्यवेदयन् / एतत्संचिन्त्य भगवन्विधत्स्व यदनन्तरम् // 62 काये मत्स्या इमौ राजन्संभूती मानुषाविति // 50 एवमुक्तवतीं तां तु प्रीतिमानृषिसत्तमः / तयोः पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा / उवाच मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यसि // 63 स मत्स्यो नाम राजासीद्धार्मिकः सत्यसंगरः // 51 वृणीष्व च वरं भीरु यं त्वमिच्छसि भामिनि / साप्सरा मुक्तशापा च क्षणेन समपद्यत / वृथा हि न प्रसादो मे भूतपूर्वः शुचिस्मिते // 64 पुरोक्ता या भगवता तिर्यग्योनिगता शुभे / एवमुक्ता वरं वव्रे गात्रसौगन्ध्यमुत्तमम् / मानुषौ जनयित्वा त्वं शापमोक्षमवाप्स्यसि // 52 / स चास्यै भगवान्प्रादान्मनसः काङ्कितं प्रभुः // 65 ततः सा जनयित्वा तौ विशस्ता मत्स्यघातिना। ततो लब्धवरा प्रीता स्त्रीभावगुणभूषिता। संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च / जगाम सह संसर्गमृषिणाद्भुतकर्मणा // 66 सिद्धर्षिचारणपथं जगामाथ वराप्सराः // 53 तेन गन्धवतीत्येव नामास्याः प्रथितं भुवि / या कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यसगन्धिनी / तस्यास्तु योजनाद्गन्धमाजिघ्रन्ति नरा भुवि // 67 राज्ञा दत्ताथ दाशाय इयं तव भवत्विति / ततो योजनगन्धेति तस्या नाम परिश्रुतम् / रूपसत्त्वसमायुक्ता सर्वैः समुदिता गुणैः // 54 पराशरोऽपि भगवाञ्जगाम स्वं निवेशनम् // 68 सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात् / / इति सत्यवती हृष्टा लब्ध्वा वरमनुत्तमम् / आसीन्मत्स्यसगन्धैव कंचित्कालं शुचिस्मिता // 55 / पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भ सुषाव सा। शुश्रूषार्थं पितुर्नावं तां तु वाहयती जले। जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्यः स वीर्यवान् // 69 म. भा. 11 -81 -
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________________ 1. 57. 70] महाभारते [1. 57. 97 स मातरमुपस्थाय तपस्येव मनो दधे। अव्यक्तमक्षरं ब्रह्म प्रधानं निर्गुणात्मकम् // 84 स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत्॥ आत्मानमव्ययं चैव प्रकृति प्रभवं परम् / एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात् / पुरुषं विश्वकर्माणं सत्त्वयोगं ध्रुवाक्षरम् // 85 द्वीपे न्यस्तः स यद्बालस्तस्माद्वैपायनोऽभवत् / / 71 अनन्तमचलं देवं हंसं नारायणं प्रभुम् / पादापसारिणं धर्म विद्वान्स तु युगे युगे। धातारमजरं नित्यं तमाहुः परमव्ययम् / / 86 आयुः शक्तिं च मानां युगानुगमवेक्ष्य च // 72 पुरुषः स विभुः कर्ता सर्वभूतपितामहः / ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुग्रहकाम्यया। धर्मसंवर्धनार्थाय प्रजज्ञेऽन्धकवृष्णिषु // 87 विव्यास वेदान्यस्माच्च तस्माद्व्यास इति स्मृतः // 73 अस्त्रज्ञौ तु महावीर्यौ सर्वशस्त्रविशारदौ / वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान् / सात्यकिः कृतवर्मा च नारायणमनुव्रतौ / सुमन्तुं जैमिनि पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम् / / 74 सत्यकाद्धृदिकाच्चैव जज्ञातेऽस्रविशारदौ // 88 प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशंपायनमेव च / भरद्वाजस्य च स्कन्नं द्रोण्यां शुक्रमवर्धत / संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिताः // 75 महर्षेरुयतपसस्तस्माद्रोणो व्यजायत // 89 तथा भीष्मः शांतनवो गङ्गायाममितद्युतिः / गौतमान्मिथुनं जज्ञे शरस्तम्बाच्छरद्वतः / वसुवीर्यात्समभवन्महावीर्यो महायशाः॥ 76 अश्वत्थाम्नश्च जननी कृपश्चैव महाबलः / शूले प्रोतः पुराणर्षिरचोरश्वोरशङ्कया। अश्वत्थामा ततो जज्ञे द्रोणादत्रभृतां वरः // 90 अणीमाण्डव्य इति वै विख्यातः सुमहायशाः // 77 तथैव धृष्टद्युम्नोऽपि साक्षादमिसमद्युतिः / स धर्ममाहूय पुरा महर्षिरिदमुक्तवान् / वैताने कर्मणि तते .पावकात्समजायत / इषीकया मया बाल्यादेका विद्धा शकुन्तिका // 78 वीरो द्रोणविनाशाय धनुषा सह वीर्यवान् // 91 तत्किल्बिषं स्मरे धर्म नान्यत्पापमहं स्मरे / तथैव वेद्यां कृष्णापि जज्ञे तेजस्विनी शुभा। तन्मे सहस्रसमितं कस्मान्नेहाजयत्तपः // 79 विभ्राजमाना वपुषा बिभ्रती रूपमुत्तमम् // 92 गरीयान्ब्राह्मणवधः सर्वभूतवधाद्यतः / प्रहादशिष्यो नग्नजित्सुबलश्चाभवत्ततः / तस्मात्त्वं किल्बिषादस्माच्छूद्रयोनौ जनिष्यसि / / 80 तस्य प्रजा धर्महत्री जज्ञे देवप्रकोपनात् // 93 तेन शापेन धर्मोऽपि शूद्रयोनावजायत / गान्धारराजपुत्रोऽभूच्छकुनिः सौबलस्तथा। विद्वान्विदुररूपेण धार्मी तनुरकिल्बिषी // 81 दुर्योधनस्य माता च जज्ञातेऽर्थविदावुभौ // 94 संजयो मुनिकल्पस्तु जज्ञे सूतो गवल्गणात् / कृष्णद्वैपायनाजज्ञे धृतराष्ट्रो जनेश्वरः / सूर्याच्च कुन्तिकन्यायां जज्ञे कर्णो महारथः। क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य पाण्डुश्चैव महाबलः // 95 सहजं कवचं बिभ्रत्कुण्डलोक्ष्योतिताननः // 82 पाण्डोस्तु जज्ञिरे पश्च पुत्रा देवसमाः पृथक् / अनुग्रहार्थं लोकानां विष्णुर्लोकनमस्कृतः / / द्वयोः स्त्रियोर्गुणज्येष्ठस्तेषामासीद्युधिष्ठिरः // 96 वसुदेवात्तु देवक्यां प्रादुर्भूतो महायशाः॥ 83 धर्माद्युधिष्ठिरो जज्ञे मास्तात्तु वृकोदरः। अनादिनिधनो देवः स कर्ता जगतः प्रभुः। | इन्द्राद्धनंजयः श्रीमान्सर्वशस्त्रभृतां वरः // 97 -82
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________________ 1. 57. 98] आदिपर्व [1. 58. 16 जज्ञाते रूपसंपन्नावश्विभ्यां तु यमावुभौ / त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां पुरा / नकुलः सहदेवश्च गुरुशुश्रूषणे रतौ // 98 जामदग्न्यस्तपस्तपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे // 4 तथा पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमतः / तदा निःक्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति / दुर्योधनप्रभृतयो युयुत्सुः करणस्तथा // 99 ब्राह्मणान्क्षत्रिया राजन्गर्भार्थिन्योऽभिचक्रमुः // 5 अभिमन्युः सुभद्रायामर्जुनादभ्यजायत / ताभिः सह समापेतुर्बाह्मणाः संशितव्रताः / स्वस्रीयो वासुदेवस्य पौत्रः पाण्डोर्महात्मनः / / 100 / ऋतावृतौ नरव्याघ्न न कामानानृतौ तथा / / 6 पाण्डवेभ्योऽपि पञ्चभ्यः कृष्णायां पञ्च जज्ञिरे। | तेभ्यस्तु लेभिरे गर्भान्क्षत्रियास्ताः सहस्रशः / कुमारा रूपसंपन्नाः सर्वशस्त्रविशारदाः // 101 ततः सुषुविरे राजन्क्षत्रियान्वीर्यसंमतान्। प्रतिविन्ध्यो युधिष्ठिरात्सुतसोमो वृकोदरात् / कुमारांश्च कुमारीश्च पुनः क्षत्राभिवृद्धये // 7 अर्जुनाच्छ्रुतकीर्तिस्तु.शतानीकस्तु नाकुलिः // 102 एवं तद्ब्राह्मणैः क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभिः / तथैव सहदेवाच्च श्रुतसेनः प्रतापवान्। जातमृध्यत धर्मेण सुदीपेणायुषान्वितम् / हिडिम्बायां च भीमेन वने जज्ञे घटोत्कचः॥१०३ / चत्वारोऽपि तदा वर्णा बभूवुर्ब्राह्मणोत्तराः // 8 शिखण्डी द्रुपदाजज्ञे कन्या पुत्रत्वमागता। अभ्यगच्छन्नृतौ नारी न कामान्नानृतौ तथा / यां यक्षः पुरुषं चक्रे स्थूणः प्रियचिकीर्षया // 104 तथैवान्यानि भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि / कुरूणां विग्रहे तस्मिन्समागच्छन्बहून्यथ / ऋतौ दारांश्च गच्छन्ति तदा स्म भरतर्षभ // 9 राज्ञां शतसहस्राणि योत्स्यमानानि संयुगे / / 105 ततोऽवर्धन्त धर्मेण सहस्रशतजीविनः / तेषामपरिमेयानि नामधेयानि सर्वशः / ताः प्रजाः पृथिवीपाल धर्मव्रतपरायणाः। न शक्यं परिसंख्यातुं वर्षाणामयुतैरपि / आधिभिर्व्याधिभिश्चैव विमुक्ताः सर्वशो नराः / / 10 एते तु कीर्तिता मुख्या यैराख्यानमिदं ततम्॥१०६. अथेमां सागरापाङ्गां गां गजेन्द्रगताखिलाम् / ... इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अध्यतिष्ठत्पुनः क्षत्रं सशैलवनकाननाम् // 11 .. सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ 57 // प्रशासति पुनः क्षत्रे धर्मेणेमां वसुंधराम् / ब्राह्मणाद्यास्तदा वर्णा लेभिरे मुदमुत्तमाम् // 12 जनमेजय उवाच / कामक्रोधोद्भवान्दोषान्निरस्य च नराधिपाः / य एते कीर्तिता ब्रह्मन्ये चान्ये नानुकीर्तिताः / दण्डं दण्डयेषु धर्मेण प्रणयन्तोऽन्वपालयन् // 13 सम्यक्ताश्रोतुमिच्छामि राज्ञश्चान्यान्सुवर्चसः॥१ तथा धर्मपरे क्षत्रे सहस्राक्षः शतक्रतुः / यदर्थमिह संभूता देवकल्पा महारथाः / स्वादु देशे च काले च ववर्षाप्याययन्प्रजाः // 14 भुवि तन्मे महाभाग सम्यगाख्यातुमर्हसि // 2 न बाल एव म्रियते तदा कश्चिन्नराधिप। वैशंपायन उवाच / न च स्त्रियं प्रजानाति कश्चिदप्राप्तयौवनः // 15 रहस्यं खल्विदं राजन्देवानामिति नः श्रुतम् / एवमायुष्मतीभिस्तु प्रजाभिर्भरतर्षभ। तत्तु ते कथयिष्यामि नमस्कृत्वा स्वयंभुवे // 3 / इयं सागरपर्यन्ता समापूर्यत मेदिनी // 16 -83 -
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________________ 1. 58. 17 ] महाभारते [1. 58. 46 ईजिरे च महायज्ञैः क्षत्रिया बहुदक्षिणैः / ब्राह्मणान्क्षत्रियान्वैश्याशूद्रांश्चैवाप्यपीडयन् / साङ्गोपनिषदान्वेदान्विप्राश्चाधीयते तदा // 17 अन्यानि चैव भूतानि पीडयामासुरोजसा // 32 न च विक्रीणते ब्रह्म ब्राह्मणाः स्म तदा नृप / त्रासयन्तो विनिघ्नन्तस्तांस्तान्भूतगणांश्च ते। न च शूद्रसमाभ्याशे वेदानुच्चारयन्त्युत // 18 विचेरुः सर्वतो राजन्महीं शतसहस्रशः // 33 कारयन्तः कृषि गोभिस्तथा वैश्याः क्षिताविह / आश्रमस्थान्महर्षीश्च धर्षयन्तस्ततस्ततः। न गामयुञ्जन्त धुरि कृशाङ्गाश्चाप्यजीवयन् // 19 अब्रह्मण्या वीर्यमदा मत्ता मदबलेन च // 34 फेनपांश्च तथा वत्सान्न दुहन्ति स्म मानवाः / एवं वीर्यबलोसिक्तैर्भूरियं तैर्महासुरैः। न कूटमानैर्वणिजः पण्यं विक्रीणते तदा / / 20 पीड्यमाना महीपाल ब्रह्माणमुपचक्रमे // 35 कर्माणि च नरव्याघ्र धर्मोपेतानि मानवाः / न हीमा पवनो राजन्न नागा न नगा महीम् / धर्ममेवानुपश्यन्तश्चक्रुर्धर्मपरायणाः / / 21 तदा धारयितुं शेकुराक्रान्तां दानवैबलात् // 36 स्वकर्मनिरताश्चासन्सर्वे वर्णा नराधिप / ततो मही महीपाल भारार्ता भयपीडिता। एवं तदा नरव्याघ्र धर्मो न हसते कचित् // 22 जगाम शरणं देवं सर्वभूतपितामहम् // 37 काले गावः प्रसूयन्ते नार्यश्च भरतर्षभ / सा संवृतं महाभागैर्देवद्विजमहर्षिभिः / फलन्त्य॒तुषु वृक्षाश्च पुष्पाणि च फलानि च // 23 ददर्श देवं ब्रह्माणं लोककर्तारमव्ययम् // 38 एवं कृतयुगे सम्यग्वर्तमाने तदा नृप। गन्धर्वैरप्सरोभिश्च बन्दिकर्मसु निष्ठितैः। आपूर्यत मही कृत्स्ना प्राणिभिर्बहुभिर्भृशम् / / 24 वन्द्यमानं मुदोपेतैर्ववन्दे चैनमेत्य सा // 39 ततः समुदिते लोके मानुषे भरतर्षभ / अथ विज्ञापयामास, भूमिस्तं शरणार्थिनी / असुरा जज्ञिरे क्षेत्रे राज्ञां मनुजपुंगव // 25 . संनिधौ लोकपालानां सर्वेषामेव भारत // 40 आदित्यैर्हि तदा दैत्या बहुशो निर्जिता युधि। . तत्प्रधानात्मनस्तस्य भूमेः कृत्यं स्वयंभुवः / ऐश्वर्यादशिताश्चापि संबभूवुः क्षिताविह // 26 पूर्वमेवाभवद्रांजन्विदितं परमेष्ठिनः / / 41 इह देवत्वमिच्छन्तो मानुषेषु मनस्विनः / स्रष्टा हि जगतः कस्मान्न संबुध्येत भारत / जज्ञिरे भुवि भूतेषु तेषु तेष्वसुरा विभो // 27 सुरासुराणां लोकानामशेषेण मनोगतम् // 42 गोष्वश्वेषु च राजेन्द्र खरोष्ट्रमहिषेषु च / ‘तमुवाच महाराज भूमिं भूमिपतिर्विभुः / क्रव्यादेषु च भूतेषु गजेषु च मृगेषु च // 28 प्रभवः सर्वभूतानामीशः शंभुः प्रजापतिः // 43 जातैरिह महीपाल जायमानैश्च तैर्मही / यदर्थमसि संप्राप्ता मत्सकाशं वसुंधरे / न शशाकात्मनात्मानमियं धारयितुं धरा // 29 तदर्थं संनियोक्ष्यामि सर्वानेव दिवौकसः // 44 अथ जाता महीपालाः केचिद्वलसमन्विताः / इत्युक्त्वा स महीं देवो ब्रह्मा राजन्विसृज्य च / दितेः पुत्रा दनोश्चैव तस्माल्लोकादिह च्युताः // 30 आदिदेश तदा सर्वान्विबुधान्भूतकृत्स्वयम् // 4 // वीर्यवन्तोऽवलिप्तास्ते नानारूपधरा महीम् / अस्या भूमेनिरसितुं भारं भागैः पृथक्पृथक् / इमां सागरपर्यन्तां परीयुररिमर्दनाः // 31 अस्यामेव प्रसूयध्वं विरोधायेति चाब्रवीत् // 46 -84 -
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________________ 1. 58. 47] आदिपर्व [1. 59. 22 तथैव च समानीय गन्धर्वाप्सरसां गणान् / श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन संभवं कृत्स्नमादितः / उवाच भगवान्सर्वानिदं वचनमुत्तमम् / प्राणिनां चैव सर्वेषां सर्वशः सर्वविद्ध्यसि // 8 स्वैरंशैः संप्रसूयध्वं यथेष्टं मानुषेष्विति // 47 वैशंपायन उवाच / अथ शक्रादयः सर्वे श्रुत्वा सुरगुरोर्वचः। हन्त ते कथयिष्यामि नमस्कृत्वा स्वयंभुवे / तथ्यमयं च पथ्यं च तस्य ते जगृहुस्तदा // 48 सुरादीनामहं सम्यग्लोकानां प्रभवाप्ययम् // 9 अथ ते सर्वशोंऽशैः स्वैर्गन्तुं भूमिं कृतक्षणाः / ब्रह्मणो मानसाः पुत्रा विदिताः षण्महर्षयः / नारायणममित्रघ्नं वैकुण्ठमुपचक्रमुः॥ 49 मरीचिरत्र्यङ्गिरसौ पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः // 10 यः स चक्रगदापाणिः पीतवासासितप्रभः / मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपात्तु इमाः प्रजाः / पद्मनाभः सुरारिनः पृथुचार्वश्चितेक्षणः // 50 प्रजज्ञिरे महाभागा दक्षकन्यास्त्रयोदश // 11 तं भुवः शोधनायेन्द्र उवाच पुरुषोत्तमम् / अदितिर्दितिर्दनुः काला अनायुः सिंहिका मुनिः / अंशेनावतरस्वेति तथेत्याह च तं हरिः॥ 51 क्रोधा प्रावा अरिष्टा च विनता कपिला तथा॥१२ इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि कद्रूश्च मनुजव्याघ्र दक्षकन्यैव भारत / अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 58 // एतासां वीर्यसंपन्नं पुत्रपौत्रमनन्तकम् // 13 अदित्यां द्वादशादित्याः संभूता भुवनेश्वराः / वैशंपायन उवाच। ये राजन्नामतस्तांस्ते कीर्तयिष्यामि भारत // 14 अथ नारायणेनेन्द्रश्चकार सह संविदम् / . धाता मित्रोऽर्यमा शक्रो वरुणश्चांश एव च / अवतर्तुं महीं स्वर्गादंशतः सहितः सुरैः // 1 भगो विवस्वान्पूषा च सविता दशमस्तथा // 15 आदिश्य च स्वयं शक्रः सर्वानेव दिवौकसः / एकादशस्तथा त्वष्टा विष्णुादश उच्यते / निर्जगाम पुनस्तस्मात्क्षयान्नारायणस्य ह // 2 जघन्यजः स सर्वेषामादित्यानां गुणाधिकः // 16 तेऽमरारिविनाशाय सर्वलोकहिताय च। एक एव दितेः पुत्रो हिरण्यकशिपुः स्मृतः / अवतेरुः क्रमेणेमां महीं स्वर्गादिवौकसः / / 3 नाम्ना ख्यातास्तु तस्येमे पुत्राः पञ्च महात्मनः॥१७ ततो ब्रह्मर्षिवंशेषु पार्थिवर्षिकुलेषु च / प्रह्लादः पूर्वजस्तेषां. संहादस्तदनन्तरम् / जज्ञिरे राजशार्दूल यथाकामं दिवौकसः // 4 अनुहादस्तृतीयोऽभूत्तस्माच्च शिबिबाष्कलौ // 18 दानवान्राक्षसांश्चैव गन्धर्वान्पन्नगांस्तथा / प्रहादस्य त्रयः पुत्राः ख्याताः सर्वत्र भारत / पुरुषादानि चान्यानि जन्नुः सत्त्वान्यनेकशः // 5 विरोचनश्च कुम्भश्च निकुम्भश्चेति विश्रुताः॥ 19 दानवा राक्षसाश्चैव गन्धर्वाः पन्नगास्तथा / विरोचनस्य पुत्रोऽभूद्वलिरेकः प्रतापवान् / न तान्बलस्थान्बाल्येऽपि जघ्नुर्भरतसत्तम // 6 बलेश्च प्रथितः पुत्रो बाणो नाम महासुरः / / 20 __ जनमेजय उवाच / चत्वारिंशद्दनोः पुत्राः ख्याताः सर्वत्र भारत / देवदानवसंघानां गन्धर्वाप्सरसां तथा / तेषां प्रथमजो राजा विप्रचित्तिर्महायशाः // 21 मानवानां च सर्वेषां तथा वै यक्षरक्षसाम् // 7 शम्बरो नमुचिश्चैव पुलोमा चेति विश्रुतः। -85 -
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________________ 1. 59. 22] महाभारते [1.59. 50 असिलोमा च केशी च दुर्जयश्चैव दानवः // 22 इत्येष वंशप्रभवः कथितस्ते तरविनाम् / अयःशिरा अश्वशिरा अयःशङ्कुश्च वीर्यवान् / असुराणां सुराणां च पुराणे संश्रुतो मया // 37 तथा गगनमूर्धा च वेगवान्केतुमांश्च यः // 23 एतेषां यदपत्यं तु न शक्यं तदशेषतः / स्वर्भानुरश्वोऽश्वपतिवृषपर्वाजकस्तथा / प्रसंख्यातुं महीपाल गुणभूतमनन्तकम् // 38 / अश्वग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महासुरः // 24 ताय॑श्चारिष्टनेमिश्च तथैव गरुडारुणौ। इसृपा एकचक्रश्च विरूपाक्षो हराहरौ / आरुणिर्वारुणिश्चैव वैनतेया इति स्मृताः / / 39 निचन्द्रश्च निकुम्भश्च कुपथः कापथस्तथा / / 25 शेषोऽनन्तो वासुकिश्च तक्षकश्च भुजंगमः / शरभः शलभश्चैव सूर्याचन्द्रमसौ तथा / कूर्मश्च कुलिकश्चैव काद्रवेया महाबलाः // 40 इति ख्याता दनोवंशे दानवाः परिकीर्तिताः। भीमसेनोग्रसेनी च सुपर्णो वरुणस्तथा। अन्यौ तु खलु देवानां सूर्याचन्द्रमसौ स्मृतौ॥२६ गोपतिधृतराष्ट्रश्च सूर्यवर्चाश्च सप्तमः // 41 इमे च वंशे प्रथिताः सत्त्ववन्तो महाबलाः / पत्रवानर्कपर्णश्च प्रयुतश्चैव विश्रुतः / ' दनुपुत्रा महाराज दश दानवपुंगवाः / / 27 भीमश्चित्ररथश्चैव विख्यातः सर्वविद्वशी // 42 एकाक्षो मृतपा वीरः प्रलम्बनरकावपि / तथा शालिशिरा राजन्प्रद्युम्नश्च चतुर्दशः / वातापिः शत्रुतपनः शठश्चैव महासुरः // 28 कलिः पञ्चदशश्चैव नारदश्चैव षोडशः / गविष्ठश्च दनायुश्च दीर्घजिह्वश्च दानवः / इत्येते देवगन्धर्वा मौनेयाः परिकीर्तिताः // 43 असंख्येयाः स्मृतास्तेषां पुत्राः पौत्राश्च भारत // 29 अतस्तु भूतान्यन्यानि कीर्तयिष्यामि भारत / सिंहिका सुषुवे पुत्रं राहुं चन्द्रार्कमर्दनम् / अनवद्यामनुवशामनूनामरुणां प्रियाम् / ' सुचन्द्रं चन्द्रहन्तारं तथा चन्द्रविमर्दनम् // 30 अनूपां सुभगां भासीमिति प्रावा व्यजायत / / 44 ऋरस्वभावं क्रूरायाः पुत्रपौत्रमनन्तकम् / सिद्धः पूर्णश्च बहीं च पूर्णाशश्च महायशाः / गणः क्रोधवशो नाम क्रूरकर्मा रिमर्दनः / / 31 ब्रह्मचारी रतिगुणः सुपर्णश्चैव सप्तमः // 45 अनायुषः पुनः पुत्राश्चत्वारोऽसुरपुंगवाः / / विश्वावसुश्च भानुश्च सुचन्द्रो दशमस्तथा / विक्षरो बलवीरौ च वृत्रश्चैव महासुरः / / 32 इत्येते देवगन्धर्वाः प्रावेयाः परिकीर्तिताः // 46 कालायाः प्रथिताः पुत्राः कालकल्पाः प्रहारिणः / इमं त्वप्सरसां वंशं विदितं पुण्यलक्षणम् / भुवि ख्याता महावीर्या दानवेषु परंतपाः // 33 प्रावासूत महाभागा देवी देवर्षितः पुरा // 47 विनाशनश्च क्रोधश्च हन्ता क्रोधस्य चापरः / अलम्बुसा मिश्रकेशी विद्युत्पर्णा तुलानघा। क्रोधशत्रुस्तथैवान्यः कालेया इति विश्रुताः // 34 अरुणा रक्षिता चैव रम्भा तद्वन्मनोरमा // 48 असुराणामुपाध्यायः शुक्रस्त्वृषिसुतोऽभवत् / असिता च सुबाहुश्च सुव्रता सुभुजा तथा। ख्याताश्चोशनसः पुत्राश्चत्वारोऽसरयाजकाः // 35 सुप्रिया चातिबाहुश्च विख्यातौ च हहाहुहू / त्वष्टावरस्तथात्रिश्च द्वावन्यौ मत्रकर्मिणौ / तुम्बुरुश्चेति चत्वारः स्मृता गन्धर्वसत्तमाः // 49 तेजसा सूर्यसंकाशा ब्रह्मलोकप्रभावनाः // 36 अमृतं ब्राह्मणा गावो गन्धर्वाप्सरसस्तथा / -86 -
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________________ 1. 59. 50] आदिपर्व [1. 60. 22 अपत्यं कपिलायास्तु पुराणे परिकीर्तितम् // 50 . विश्रुतास्त्रिषु लोकेषु सत्यव्रतपरायणाः // 8 इति ते सर्वभूतानां संभवः कथितो मया / दक्षस्त्वजायताङ्गुष्ठाद्दक्षिणाद्भगवानृषिः / यथावत्परिसंख्यातो गन्धर्वाप्सरसां तथा // 51 ब्रह्मणः पृथिवीपाल पुत्रः पुत्रवतां वरः॥ 9 भुजगानां सुपर्णानां रुद्राणां मस्तां तथा / वामादजायताङ्गुष्ठाद्भार्या तस्य महात्मनः / गवां च ब्राह्मणानां च श्रीमतां पुण्यकर्मणाम् // 52 तस्यां पञ्चाशतं कन्याः स एवाजनयन्मुनिः॥ 10 आयुष्यश्चैव पुण्यश्च धन्यः श्रुतिसुखावहः।। ताः सर्वास्त्वनवद्याङ्गथः कन्याः कमललोचनाः / श्रोतव्यश्चैव सततं श्राव्यश्चैवानसूयता // 53 पुत्रिकाः स्थापयामास नष्टपुत्रः प्रजापतिः // 11 इमं तु वंशं नियमेन यः पठे ददौ स दश धर्माय सप्तविंशतिमिन्दवे। न्महात्मनां ब्राह्मणदेवसंनिधौ / दिव्येन विधिना राजन्कश्यपाय त्रयोदश // 12 अपत्यलाभं लभते स पुष्कलं नामतो धर्मपत्न्यस्ताः कीर्त्यमाना निबोध मे / श्रियं यशः प्रेत्य च शोभनां गतिम् // 54 कीर्तिर्लक्ष्मीधृतिर्मेधा पुष्टिः श्रद्धा क्रिया तथा // 13 / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि . बुद्धिर्लज्जा मतिश्चैव पत्न्यो धर्मस्य ता दश / ___ एकोनषष्टितमोऽध्यायः // 59 // द्वाराण्येतानि धर्मस्य विहितानि स्वयंभुवा // 14 सप्तविंशति सोमस्य पत्न्यो लोके परिश्रुताः। : वैशंपायन उवाच / कालस्य नयने युक्ताः सोमपन्यः शुभवताः / ब्रह्मणो मानसाः पुत्रा विदिताः षण्महर्षयः। सर्वा नक्षत्रयोगिन्यो लोकयात्राविधौ स्थिताः // 15 एकादश सुताः स्थाणोः ख्याताः परममानसाः॥१ पितामहो मुनिर्देवस्तस्य पुत्रः प्रजापतिः / मृगव्याधश्च शर्वश्च निर्ऋतिश्च महायशाः। तस्याष्टौ वसवः पुत्रास्तेषां वक्ष्यामि विस्तरम् // 16 अजैकपादहिर्बुध्न्यः पिनाकी च परंतपः / / 2 धरो ध्रुवश्च सोमश्च अहश्चैवानिलोऽनलः / दहनोऽथेश्वरश्चैव कपाली च महाद्युतिः। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च वसवोऽष्टाविति स्मृताः // 17 स्थाणुर्भवश्च भगवान्रुद्रा एकादश स्मृताः॥ 3 धूम्रायाश्च धरः पुत्रो ब्रह्मविद्यो ध्रुवस्तथा। मरीचिरङ्गिरा अत्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः / चन्द्रमास्तु मनस्विन्याः श्वसायाः श्वसनस्तथा॥१८ षडेते ब्रह्मणः पुत्रा वीर्यवन्तो महर्षयः // 4 रतायाश्चाप्यहः पुत्रः शाण्डिल्याश्च हुताशनः / त्रयस्त्वङ्गिरसः पुत्रा लोके सर्वत्र विश्रुताः। प्रत्यूषश्च प्रभासश्च प्रभातायाः सुतौ स्मृतौ // 19 बृहस्पतिस्तथ्यश्च संवर्तश्च धृतव्रताः // 5 धरस्य पुत्रो द्रविणो हुतहव्यवहस्तथा। अत्रेस्तु बहवः पुत्राः श्रूयन्ते मनुजाधिप / ध्रुवस्य पुत्रो भगवान्कालो लोकप्रकालनः // 20 सर्वे वेदविदः सिद्धाः शान्तात्मानो महर्षयः // 6 सोमस्य तु सुतो वर्चा वर्चस्वी येन जायते / राक्षसास्तु पुलस्त्यस्य वानराः किंनरास्तथा / मनोहरायाः शिशिरः प्राणोऽथ रमणस्तथा // 21 पुलहस्य मृगाः सिंहा व्याघ्राः किंपुरुषास्तथा // 7 / अह्नः सुतः स्मृतो ज्योतिः श्रमः शान्तस्तथा मुनिः। तोः क्रतुसमाः पुत्राः पतंगसहचारिणः / | अग्नेः पुत्रः कुमारस्तु श्रीमाञ्झरवणालयः // 22 -87 -
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________________ 1. 60. 23 ] महाभारते [1. 60. 51 तस्य शाखो विशाखश्च नैगमेशश्च पृष्ठजः / वसूनां भार्गवं विद्याद्विश्वेदेवांस्तथैव च // 37 कृत्तिकाभ्युपपत्तेश्च कार्तिकेय इति स्मृतः // 23 वैनतेयस्तु गरुडो बलवानरुणस्तथा / अनिलस्य शिवा भार्या तस्याः पुत्रः पुरोजवः / बृहस्पतिश्च भगवानादित्येष्वेव गण्यते // 38 अविज्ञातगतिश्चैव द्वौ पुत्रावनिलस्य तु // 24 अश्विभ्यां गुह्यकान्विद्धि सर्वोषध्यस्तथा पशून् / प्रत्यूषस्य विदुः पुत्रमृर्षि नाम्नाथ देवलम् / एष देवगणो राजन्कीर्तितस्तेऽनुपूर्वशः / द्वौ पुत्रौ देवलस्यापि क्षमावन्तौ मनीषिणौ // 25 यं कीर्तयित्वा मनुजः सर्वपापैः प्रमुच्यते // 39 बृहस्पतेस्तु भगिनी वरस्त्री ब्रह्मचारिणी। ब्रह्मणो हृदयं भित्त्वा निःसृतो भगवान्भृगुः / योगसिद्धा जगत्सर्वमसक्तं विचरत्युत / भृगोः पुत्रः कविर्विद्वान्शुक्रः कविसुतो ग्रहः // 40 प्रभासस्य तु भार्या सा वसूनामष्टमस्य ह / / 26 / त्रैलोक्यप्राणयात्रार्थे वर्षावर्षे भयाभये / विश्वकर्मा महाभागो जज्ञे शिल्पप्रजापतिः। स्वयंभुवा नियुक्तः सन्भुवनं परिधावति // 41 कर्ता शिल्पसहस्राणां त्रिदशानां च वर्धकिः // 27 योगाचार्यों महाबुद्धिर्दैत्यानामभवद्गुरुः / भूषणानां च सर्वेषां कर्ता शिल्पवतां वरः। सुराणां चापि मेधावी ब्रह्मचारी यतव्रतः // 42 यो दिव्यानि विमानानि देवतानां चकार ह // 28 तस्मिन्नियुक्ते विभुना योगक्षेमाय भार्गवे / मनुष्याश्चोपजीवन्ति यस्य शिल्पं महात्मनः। अन्यमुत्पादयामास पुत्रं भृगुरनिन्दितम् // 43 पूजयन्ति च यं नित्यं विश्वकर्माणमव्ययम् // 29 च्यवनं दीप्ततपसं धर्मात्मानं मनीषिणम् / स्तनं तु दक्षिणं भित्त्वा ब्रह्मणो नरविग्रहः।। यः स रोषाच्च्युतो गर्भान्मातुर्मोक्षाय भारत // 44 निःसृतो भगवान्धर्मः सर्वलोकसुखावहः // 30 आरुषी तु मनोः कन्या तस्य पत्नी मनीषिणः / त्रयस्तस्य वराः पुत्राः सर्वभूतमनोहराः। और्वस्तस्यां समभवदूरं भित्त्वा महायशाः / शमः कामश्च हर्षश्च तेजसा लोकधारिणः // 31 महातपा महातेजा बाल एव गुणैर्युतः // 45 कामस्य तु रतिर्भार्या शमस्य प्राप्तिरङ्गना। ऋचीकस्तस्य पुत्रस्तु जमदग्निस्ततोऽभवत् / नन्दी तु भार्या हर्षस्य यत्र लोकाः प्रतिष्ठिताः // 32 जमदग्नेस्तु चत्वार आसन्पुत्रा महात्मनः // 46 मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपस्य सुरासुराः / रामस्तेषां जघन्योऽभूदजघन्यैर्गुणैर्युतः / जज्ञिरे नृपशार्दूल लोकानां प्रभवस्तु सः / / 33 सर्वशस्त्रास्त्रकुशलः क्षत्रियान्तकरो वशी // 47 त्वाष्ट्री तु सवितुर्भार्या वडवारूपधारिणी / और्वस्यासीत्पुत्रशतं जमदग्निपुरोगमम् / असूयत महाभागा सान्तरिक्षेऽश्विनावुभौ // 34 तेषां पुत्रसहस्राणि बभूवुभृगुविस्तरः // 48 द्वादशैवादितेः पुत्राः शक्रमुख्या नराधिप / द्वौ पुत्री ब्रह्मणस्त्वन्यौ ययोस्तिष्ठति लक्षणम् / तेषामवरजो विष्णुयत्र लोकाः प्रतिष्ठिताः // 35 लोके धाता विधाता च यौ स्थितौ मनुना सह॥४॥ त्रयस्त्रिंशत इत्येते देवास्तेपामहं तव। तयोरेव स्वसा देवी लक्ष्मीः पद्मगृहा शुभा। अन्वयं संप्रवक्ष्यामि पक्षैश्च कुलतो गणान् / / 36 तस्यास्तु मानसाः पुत्रास्तुरगा व्योमचारिणः // 5 // रुद्राणामपरः पक्षः साध्यानां मरुतां तथा। / वरुणस्य भार्या ज्येष्ठा तु शुक्रादेवी व्यजायत / . -88 -
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________________ 1. 60. 51] आदिपर्व [1. 61.8 - 61 तस्याः पुत्रं बलं विद्धि सुरां च सुरनन्दिनीम् // 51 . रोहिण्यां जज्ञिरे गावो गन्धा वाजिनः सुताः॥६५ प्रजानामन्नकामानामन्योन्यपरिभक्षणात्। सुरसाजनयन्नागान्राजन्कद्रूश्च पन्नगान् / अधर्मस्तत्र संजातः सर्वभूतविनाशनः // 52 सप्त पिण्डफलान्वृक्षाननलापि व्यजायत। तस्यापि निश्रुतिर्भार्या नैर्ऋता येन राक्षसाः। अनलायाः शुकी पुत्री कद्रास्तु सुरसा सुता // 66 घोरास्तस्यारत्रयः पुत्राः पापकर्मरताः सदा। अरुणस्य भार्या श्येनी तु वीर्यवन्तौ महाबलौ / भयो महाभयश्चैव मृत्युभूतान्तकस्तथा / / 53 संपातिं जनयामास तथैव च जटायुषम् / काकी श्येनी च भासी च धृतराष्ट्रीं तथा शुकीम् / / द्वौ पुत्री विनतायास्तु विख्याती गरुडारुणौ // 67 ताम्रा तु सुषुवे देवी पश्चैता लोकविश्रुताः // 54 / इत्येष सर्वभूतानां महतां मनुजाधिप / उलूकान्सुषुवे काकी श्येनी श्येनान्व्यजायत / प्रभवः कीर्तितः सम्यङ्मया मतिमतां वर // 68 भासी भासानजनयद्गृध्रांश्चैव जनाधिप / / 55 यं श्रुत्वा पुरुषः सम्यक्पूतो भवति पाप्मनः / धृतराष्ट्री तु हंसांश्च कलहंसांश्च सर्वशः। .सर्वज्ञतां च लभते गतिमग्र्यां च विन्दति / / 69 चक्रवाकांश्च भद्रं ते प्रजज्ञे सा तु भामिनी / / 56 / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि षष्टितमोऽध्यायः // 60 // शुकी विजज्ञे धर्मज्ञ शुकानेव मनस्विनी / कल्याणगुणसंपन्ना सर्वलक्षणपूजिता / / 57 जनमेजय उवाच। नव क्रोधवशा नारीः प्रजनेऽप्यात्मसंभवाः। देवानां दानवानां च यक्षाणामथ रक्षसाम् / मृगीं च मृगमन्दां च हरि भद्रमनामपि // 58 अन्येषां चैव भूतानां सर्वेषां भगवन्नहम् // 1 मातङ्गीमथ शार्दूली श्वेतां सुरभिमेव च। श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन मानुषेषु महात्मनाम् / सर्वलक्षणसंपन्नां सुरसां च यशस्विनीम् // 59 जन्म कर्म च भूतानामेतेषामनुपूर्वशः // 2 अपत्यं तु मृगाः सर्वे मृग्या नरवरात्मज / वैशंपायन उवाच। ऋक्षाश्च मृगमन्दायाः सृमराश्चमरा अपि // 60 मानुषेषु मनुष्येन्द्र संभूता ये दिवौकसः। ततस्त्वैरावतं नागं जज्ञे भद्रमना सुतम् / प्रथमं दानवांश्चैव तांस्ते वक्ष्यामि सर्वशः॥ 3 ऐरावतः सुतस्तस्या देवनागो महागजः / / 61 विप्रचित्तिरिति ख्यातो य आसीद्वानवर्षभः / हर्याश्च हरयोऽपत्यं वानराश्च तरस्विनः / जरासंध इति ख्यातः स आसीन्मनुजर्षभः॥ 4 गोलाङ्गलांश्च भद्रं ते हर्याः पुत्रान्प्रचक्षते // 62 दितेः पुत्रस्तु यो राजन्हिरण्यकशिपुः स्मृतः / प्रजज्ञे त्वथ शार्दूली सिंहाव्याघ्रांश्च भारत / स जज्ञे मानुषे लोके शिशुपालो नरर्षभः // 5 द्वीपिनश्च महाभाग सर्वानेव न संशयः॥ 63 संहाद इति विख्यातः प्रहादस्यानुजस्तु यः / मातङ्गयास्त्वथ मातङ्गा अपत्यानि नराधिप। स शल्य इति विख्यातो जज्ञे बाह्रीकपुंगवः // 6 दिशागजं तु श्वेताख्यं श्वेताजनयदाशुगम् / / 64 अनुहादस्तु तेजस्वी योऽभूत्ख्यातो जघन्यजः / तथा दुहितरौ राजन्सुरभिर्वै व्यजायत / धृष्टकेतुरिति ख्यातः स आसीन्मनुजेश्वरः॥ 7 रोहिणीं चैव भद्रं ते गन्धर्वी च यशस्विनीम्। / यस्तु राजशिबिर्नाम दैतेयः परिकीर्तितः / म.भा. 12 -89 -
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________________ 1. 61. 8] महाभारते [1. 61. 38 द्रुम इत्यभिविख्यातः स आसीद्भुवि पार्थिवः // 8 चित्रवर्मेति विख्यातः क्षितावासीत्स पार्थिवः // 23 बाष्कलो नाम यस्तेषामासीदसुरसत्तमः / / हरस्त्वरिहरो वीर आसीद्यो दानवोत्तमः / भगदत्त इति ख्यातः स आसीन्मनुजेश्वरः / / 9 सुवास्तुरिति विख्यातः स जज्ञे मनुजर्षभः // 24 अयःशिरा अश्वशिरा अयःशङ्कुश्च वीर्यवान् / अहरस्तु महातेजाः शत्रुपक्षक्षयंकरः / तथा गगनमूर्धा च वेगवांश्चात्र पञ्चमः // 10 बाह्रीको नाम राजा स बभूव प्रथितः क्षिती॥२५ पश्चैते जज्ञिरे राजवीर्यवन्तो महासुराः / निचन्द्रश्चन्द्रवक्त्रश्च य आसीदसुरोत्तमः। . केकयेषु महात्मानः पार्थिवर्षभसत्तमाः // 11 1 मुञ्जकेश इति ख्यातः श्रीमानासीत्स पार्थिवः / / 26 केतुमानिति विख्यातो यस्ततोऽन्यः प्रतापवान्। निकुम्भस्त्वजितः संख्ये महामतिरजायत / अमितौजा इति ख्यातः पृथिव्यां सोऽभवन्नृपः॥१२ भूमौ भूमिपतिः श्रेष्ठो देवाधिप इति स्मृतः // 27 स्वर्भानुरिति विख्यातः श्रीमान्यस्तु महासुरः। शरभो नाम यस्तेषां दैतेयानां महासुरः / . उग्रसेन इति ख्यात उग्रकर्मा नराधिपः // 13 . पौरवो नाम राजर्षिः स बभूव नरेष्विह / / 28 यस्त्वश्व इति विख्यातः श्रीमानासीन्महासुरः।। द्वितीयः शलभस्तेषामसुराणां बभूव यः / अशोको नाम राजासीन्महावीर्यपराक्रमः / / 14 / प्रह्लादो नाम बाह्रीकः स बभूव नराधिपः // 29 तस्मादवरजो यस्तु राजन्नश्वपतिः स्मृतः / चन्द्रस्तु दितिजश्रेष्ठो लोके ताराधिपोपमः। दैतेयः सोऽभवदाजा हार्दिक्यो मनुजर्षभः // 15 / ऋषिको नाम राजर्षिर्बभूव नृपसत्तमः // 30 वृषपर्वेति विख्यातः श्रीमान्यस्तु महासुरः / मृतपा इति विख्यातो य आसीदसुरोत्तमः / दीर्घप्रज्ञ इति ख्यातः पृथिव्यां सोऽभवन्नृपः / / 16 / पश्चिमानूपकं विद्धि तं नृपं नृपसत्तम // 31 अजकस्त्वनुजो राजन्य आसीद्वृषपर्वणः। गविष्ठस्तु महातेजा यः प्रख्यातो महासुरः / स मल्ल इति विख्यातः पृथिव्यामभवन्नृपः // 17 / द्रुमसेन इति ख्यातः पृथिव्यां सोऽभवन्नृपः // 32 अश्वग्रीव इति ख्यातः सत्त्ववान्यो महासुरः।। मयूर इति विख्यातः श्रीमान्यस्तु महासुरः / रोचमान इति ख्यातः पृथिव्यां सोऽभवन्नृपः॥ 18 स विश्व इति विख्यातो बभूव पृथिवीपतिः // 33 सूक्ष्मस्तु मतिमानराजन्कीर्तिमान्यः प्रकीर्तितः / / सुपर्ण इति विख्यातस्तस्मादवरजस्तु यः / बृहन्त इति विख्यातः क्षितावासीत्स पार्थिवः॥१९ कालकीर्तिरिति ख्यातः पृथिव्यां सोऽभवन्नृपः॥३४ तुहुण्ड इति विख्यातो य आसीदसुरोत्तमः। चन्द्रहन्तेति यस्तेषां कीर्तितः प्रवरोऽसुरः। सेनाबिन्दुरिति ख्यातः स बभूव नराधिपः / / 20 शुनको नाम राजर्षिः स बभूव नराधिपः / / 35 इसपा नाम यस्तेषामसुराणां बलाधिकः / विनाशनस्तु चन्द्रस्य य आख्यातो महासुरः / पापजिन्नाम राजासीद्भुवि विख्यातविक्रमः // 21 जानकिर्नाम राजर्षिः स बभूव नराधिपः // 36 एकचक्र इति ख्यात आसीद्यस्तु महासुरः। दीर्घजिह्वस्तु कौरव्य य उक्तो दानवर्षभः / प्रतिविन्ध्य इति ख्यातो बभूव प्रथितः क्षितौ // 22 / काशिराज इति ख्यातः पृथिव्यां पृथिवीपतिः // 37 विरूपाक्षस्तु दैतेयश्चित्रयोधी महासुरः / ग्रहं तु सुषुवे यं तं सिंही चन्द्रार्कमर्दनम् / -90 -
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________________ 1. 61. 38 ] आदिपर्व - [1. 61. 68 फ्राथ इत्यभिविख्यातः सोऽभवन्मनुजाधिपः // 38 बभूव राजन्धर्मात्मा सर्वभूतहिते रतः॥ 53 अनायुषस्तु पुत्राणां चतुर्णा प्रवरोऽसुरः।। गणः क्रोधवशो नाम यस्ते राजन्प्रकीर्तितः / विक्षरो नाम तेजस्वी वसुमित्रोऽभवन्नृपः // 39 ततः संजज्ञिरे वीराः क्षिताविह नराधिपाः॥५४ द्वितीयो विक्षराद्यस्तु नराधिप महासुरः / नन्दिकः कर्णवेष्टश्च सिद्धार्थः कीटकस्तथा / पांसुराष्ट्राधिप इति विश्रुतः सोऽभवन्नृपः // 40 सुवीरश्च सुबाहुश्च महावीरोऽथ बाह्निकः // 55 बलवीर इति ख्यातो यस्त्वासीदसुरोत्तमः / / क्रोधो विचित्यः सुरसः श्रीमान्नीलश्च भूमिपः / पौण्ड्मत्स्यक इत्येव स बभूव नराधिपः // 41 वीरधामा च कौरव्य भूमिपालश्च नामतः // 56 वृत्र इत्यभिविख्यातो यस्तु राजन्महासुरः। / दन्तवक्त्रश्च नामासीदुर्जयश्चैव नामतः / मणिमान्नाम राजर्षिः स बभूव नराधिपः // 42 रुक्मी च नृपशार्दूलो राजा च जनमेजयः // 57 क्रोधहन्तेति यस्तस्य बभूवावरजोऽसुरः / / आषाढो वायुवेगश्च भूरितेजास्तथैव च / दण्ड इत्यभिविख्यातः स आसीन्नृपतिः क्षिता॥४३ एकलव्यः सुमित्रश्च वाटधानोऽथ गोमुखः // 58 क्रोधवर्धन इत्येव यस्त्वन्यः परिकीर्तितः / कारूषकाश्च राजानः क्षेमधूर्तिस्तथैव च / दण्डधार इति ख्यातः सोऽभवन्मनुजेश्वरः // 44 श्रुतायुरुद्धवश्चैव बृहत्सेनस्तथैव च // 59 कालकायास्तु ये पुत्रास्तेषामष्टौ नराधिपाः। क्षेमोग्रतीर्थः कुहरः कलिङ्गेषु नराधिपः / जज्ञिरे राजशार्दूल शार्दूलसमविक्रमाः // 45 मतिमांश्च मनुष्येन्द्र ईश्वरश्चेति विश्रुतः / / 60 मगधेषु जयत्सेनः श्रीमानासीत्स पार्थिवः / गणात्क्रोधवशादेवं राजपूगोऽभवक्षितौ / अष्टानां प्रवरस्तेषां कालेयानां महासुरः॥ 46 जातः पुरा महाराज महाकीर्तिर्महाबलः / / 61 द्वितीयस्तु ततस्तेषां श्रीमान्हरिहयोपमः। यस्त्वासीद्देवको नाम देवराजसमद्युतिः / अपराजित इत्येव स बभूव नराधिपः // 47 स गन्धर्वपतिर्मुख्यः क्षितौ जज्ञे नराधिपः // 62 तृतीयस्तु महाराज महाबाहुर्महासुरः / बृहस्पतेबृहत्कीर्तेर्देवर्षेर्विद्धि भारत / निषादाधिपतिर्जज्ञे भुवि भीमपराक्रमः // 48 अंशाद्रोणं समुत्पन्नं भारद्वाजमयोनिजम् // 63 तेषामन्यतमो यस्तु चतुर्थः परिकीर्तितः / धन्विनां नृपशार्दूल यः स सर्वास्त्रवित्तमः / श्रेणिमानिति विख्यातः क्षितौ राजर्षिसत्तमः॥४९ बृहत्कीर्तिर्महातेजाः संजज्ञे मनुजेष्विह // 64 पश्चमस्तु बभूवैषां प्रवरो यो महासुरः / धनुर्वेदे च वेदे च यं तं वेदविदो विदुः / महौजा इति विख्यातो बभूवेह परंतपः // 50 वरिष्ठमिन्द्रकर्माणं द्रोणं स्वकुलवर्धनम् / / 65 षष्ठस्तु मतिमान्यो वै तेषामासीन्महासुरः। महादेवान्तकाभ्यां च कामात्क्रोधाच्च भारत / अभीरुरिति विख्यातः क्षितौ राजर्षिसत्तमः // 51 एकत्वमुपपन्नानां जज्ञे शूरः परंतपः // 66 समुद्रसेनश्च नृपस्तेषामेवाभवद्गणात् / अश्वत्थामा महावीर्यः शत्रुपक्षक्षयंकरः / विश्रुतः सागरान्तायां क्षिती धर्मार्थतत्त्ववित् // 52 वीरः कमलपत्राक्षः क्षितावासीन्नराधिप // 67 बृहन्नामाष्टमस्तेषां कालेयानां परंतपः / जज्ञिरे वसवस्त्वष्टौ गङ्गायां शंतनोः सुताः / -91 -
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________________ 1. 61. 68] महाभारते [1. 61. 97 वसिष्ठस्य च शापेन नियोगाद्वासवस्य च // 68 शतं दुःशासनादीनां सर्वेषां क्रूरकर्मणाम् // 82 तेषामवरजो भीष्मः कुरूणामभयंकरः / दुर्मुखो दुःसहश्चैव ये चान्ये नानुशब्दिताः / मतिमान्वेदविद्वाग्मी शत्रुपक्षक्षयंकरः // 69 दुर्योधनसहायास्ते पौलस्त्या भरतर्षभ / / 83 जामदग्न्येन रामेण यः स सर्वविदां वरः। धर्मस्यांशं तु राजानं विद्धि राजन्युधिष्ठिरम् / अयुध्यत महातेजा भार्गवेण महात्मना // 70 भीमसेनं तु वातस्य देवराजस्य चार्जुनम् // 84 यस्तु राजन्कृपो नाम ब्रह्मर्षिरभवक्षितौ / अश्विनोस्तु तथैवांशौ रूपेणाप्रतिमा भुवि / रुद्राणां तं गणाद्विद्धि संभूतमतिपौरुषम् // 71 नकुलः सहदेवश्च सर्वलोकमनोहरौ // 85 शकुनि म यस्त्वासीद्राजा लोके महारथः / यः सुवर्चा इति ख्यातः सोमपुत्रः प्रतापवान् / द्वापरं विद्धि तं राजन्संभूतमरिमर्दनम् // 72 अभिमन्युर्वृहत्कीर्तिरर्जुनस्य सुतोऽभवत् // 86 सात्यकिः सत्यसंधस्तु योऽसौ वृष्णिकुलोद्वहः / अग्नेरंशं तु विद्धि त्वं धृष्टद्युम्नं महारथम् / पक्षात्स जज्ञे मरुतां देवानामरिमर्दनः / / 73 शिखण्डिनमथो राजन्स्त्रीपुंसं विद्धि राक्षसम् / / 87 द्रुपदश्चापि राजर्षिस्तत एवाभवद्गणात् / / द्रौपदेयाश्च ये पञ्च बभूवुर्भरतर्षभ / मानुषे नृप लोकेऽस्मिन्सर्वशस्त्रभृतां वरः॥ 74 विश्वेदेवगणाराजस्तान्विद्धि भरतर्षभ // 88 ततश्च कृतवर्माणं विद्धि राजञ्जनाधिपम् / आमुक्तकवचः कर्णो यस्तु जज्ञे महारथः / जातमप्रतिकर्माणं क्षत्रियर्षभसत्तमम् / / 75 दिवाकरस्य तं विद्धि देवस्यांशमनुत्तमम् / / 89 ' मरुतां तु गणाद्विद्धि संजातमरिमर्दनम् / यस्तु नारायणो नाम देवदेवः सनातनः / विराटं नाम राजर्षि परराष्ट्रप्रतापनम् // 76 तस्यांशो मानुषेष्वासीद्वासुदेवः प्रतापवान् // 90 अरिष्टायास्तु यः पुत्रो हंस इत्यभिविश्रुतः / शेषस्यांशस्तु नागस्य बलदेवो महाबलः / स गन्धर्वपतिर्जज्ञे कुरुवंशविवर्धनः / / 77 सनत्कुमारं प्रद्युम्नं विद्धि राजन्महौजसम् / / 91 धृतराष्ट्र इति ख्यातः कृष्णद्वैपायनादपि / एवमन्ये मनुष्येन्द्र बहवोऽशा दिवौकसाम् / दीर्घबाहुमहातेजाः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः / जज्ञिरे वसुदेवस्य कुले कुलविवर्धनाः / / 92 मातुर्दोषादृषेः कोपादन्ध एव व्यजायत / / 78 गणस्त्वप्सरसां यो वै मया राजन्प्रकीर्तितः। अत्रेस्तु सुमहाभागं पुत्रं पुत्रवतां वरम् / तस्य भागः क्षितौ जज्ञे नियोगाद्वासवस्य च // 9: विदुरं विद्धि लोकेऽस्मिञ्जातं बुद्धिमतां वरम् / / 79 तानि षोडश देवीनां सहस्राणि नराधिप / कलेरंशात्तु संजज्ञे भुवि दुर्योधनो नृपः / बभूवुर्मानुषे लोके नारायणपरिग्रहः // 94 दुर्बुद्धिर्दुर्मतिश्चैव कुरूणामयशस्करः // 80 श्रियस्तु भागः संजज्ञे रत्यर्थं पृथिवीतले / जगतो यः स सर्वस्य विद्विष्टः कलिपूरुषः / द्रुपदस्य कुले कन्या वेदिमध्यादनिन्दिता // 95 यः सर्वां घातयामास पृथिवीं पुरुषाधमः / नातिह्रस्वा न महती नीलोत्पलसुगन्धिनी / येन वैरं समुद्दीप्तं भूतान्तकरणं महत् // 81 पद्मायताक्षी सुश्रोणी असितायतमूर्धजा // 96 पौलस्त्या भ्रातरः सर्वे जज्ञिरे मनुजेष्विह / सर्वलक्षणसंपन्ना वैडूर्यमणिसंनिभा / -92 -
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________________ 1. 61. 97 ] आदिपर्व [1. 63. 6 62 पञ्चानां पुरुषेन्द्राणां चित्तप्रमथिनी रहः // 97 तदा नरा नरव्याघ्र तस्मिञ्जनपदेश्वरे // 7 सिद्धिर्धतिश्च ये देव्या पश्चानां मातरौ तु ते / / नासीच्चोरभयं तात न क्षुधाभयमण्वपि / कुन्ती माद्री च जज्ञाते मतिस्तु सुबलात्मजा।। 98 नासीद्व्याधिभयं चापि तस्मिञ्जनपदेश्वरे // 8 इति देवासुराणां ते गन्धर्वाप्सरसां तथा। स्वैर्धमै रेमिरे वर्णा देवे कर्मणि निःस्पृहाः / अंशावतरणं राजनराक्षसानां च कीर्तितम् / / 99 तमाश्रित्य महीपालमासंश्चैवाकुतोभयाः // 9 ये पृथिव्यां समुद्भूता राजानो युद्धदुर्मदाः / कालवर्षी च पर्जन्यः सस्यानि फलवन्ति च / महात्मानो यदूनां च ये जाता विपुले कुले॥१०० सर्वरत्नसमृद्धा च मही वसुमती तदा // 10 धन्यं यशस्यं पुत्रीयमायुष्यं विजयावहम्। / स चाद्भुतमहावीर्यो वज्रसंहननो युवा / इदमंशावतरणं श्रोतव्यमनसूयता / / 101 उद्यम्य मन्दरं दोभ्यां हरेत्सवनकाननम् // 11 अंशावतरणं श्रुत्वा देवगन्धर्वरक्षसाम् / धनुष्यथ गदायुद्धे त्सरुप्रहरणेषु च / प्रभवाप्ययवित्प्राज्ञो न कृच्छ्रेष्ववसीदति // 102 नागपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च बभूव परिनिष्ठितः / / 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बले विष्णुसमश्चासीत्तेजसा भास्करोपमः / एकषष्टितमोऽध्यायः // 61 // अक्षुब्धत्वेऽर्णवसमः सहिष्णुत्वे धरासमः // 13 // समाप्तमादिवंशावतरणपर्व // संमतः स महीपालः प्रसन्नपुरराष्ट्रवान् / भूयो धर्मपरैर्भावैर्विदितं जनमावसत् / / 14 जनमेजय उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि त्वत्तः श्रुतमिदं ब्रह्मन्देवदानवरक्षसाम् / द्विषष्टितमोऽध्यायः // 62 // अंशावतरणं सम्यग्गन्धर्वाप्सरसां तथा // 1 इमं तु भ्य इच्छामि कुरूणां वंशमादितः / वैशंपायन उवाच / कध्यमानं त्वया विप्र विप्रर्षिगणसंनिधौ // 2 स कदाचिन्महाबाहुः प्रभूतबलवाहनः / वैशंपायन उवाच / वनं जगाम गहनं हयनागशतैर्वृतः / / 1 पौरवाणां वंशकरो दुःपन्तो नाम वीर्यवान् / खड्गशक्तिधीरैर्गदामुसलपाणिभिः / पृथिव्याश्चतुरन्ताया गोप्ता भरतसत्तम // 3 प्रासतोमरहस्तैश्च ययौ योधशतैर्वृतः // 2 तुर्भागं भुवः कृत्स्नं स भुङ्क्ते मनुजेश्वरः / सिंहनादैश्च योधानां शङ्खदुन्दुभिनिस्वनैः। मुद्रावरणांश्चापि देशान्स समितिंजयः // 4 रथनेमिस्वनैश्चापि सनागवरबृंहितेः // 3 मालेच्छाटविकान्सर्वान्स भुङ्क्ते रिपुमर्दनः / हेषितस्वनमित्रैश्च क्ष्वेडितास्फोटितस्वनैः / जाकरसमुद्रान्तांश्चातुर्वर्यजनावृतान् // 5 आसीत्किलकिलाशब्दस्तस्मिन्गच्छति पार्थिवे // 4 वर्णसंकरकरो नाकृष्यकर जनः / प्रासादवरशृङ्गस्थाः परया नृपशोभया / / पापकृत्कश्चिदासीत्तस्मिन्राजनि शासति / / 6 ददृशुस्तं स्त्रियस्तत्र शूरमात्मयशस्करम् / / 5 गया रति सेवमाना धर्मार्थावभिपेदिरे। शक्रोपमममित्रघ्नं परवारणवारणम् / - 93 -
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________________ 1. 63.6] महाभारते [1: 64.7 64 पश्यन्तः स्त्रीगणास्तत्र शस्त्रपाणिं स्म मेनिरे // 6 / शुष्कां चापि नदीं गत्वा जलनैराश्यकर्शिताः / अयं स पुरुषव्याघ्रो रणेऽद्भुतपराक्रमः / व्यायामक्लान्तहृदयाः पतन्ति स्म विचेतसः॥ 21 यस्य बाहुबलं प्राप्य न भवन्त्यसुहृद्गणाः // 7 क्षुत्पिपासापरीताश्च श्रान्ताश्च पतिता भुवि / इति वाचो ब्रुवन्त्यस्ताः स्त्रियः प्रेम्णा नराधिपम् / केचित्तत्र नरव्याघेरभक्ष्यन्त बुभुक्षितैः॥ 22. तुष्टुवुः पुष्पवृष्टीश्च ससृजुस्तस्य मूर्धनि // 8 केचिदग्निमथोत्पाद्य समिध्य च वनेचराः। . तत्र तत्र च विप्रेन्द्रः स्तूयमानः समन्ततः। भक्षयन्ति स्म मांसानि प्रकुट्य विधिवत्तदा // 23 निर्ययौ परया प्रीत्या वनं मृगजिघांसया // 9 तत्र केचिद्गजा मत्ता बलिनः शस्त्रविक्षताः / सुदूरमनुजग्मुस्तं पौरजानपदास्तदा / संकोच्याप्रकरान्भीताः प्रद्रवन्ति स्म वेगिताः॥२४ न्यवर्तन्त ततः पश्चादनुज्ञाता नृपेण ह॥ 10 शकृन्मूत्रं सृजन्तश्च क्षरन्तः शोणितं बहु / सुपर्णप्रतिमेनाथ रथेन वसुधाधिपः / वन्या गजवरास्तत्र ममृदुर्मनुजान्बहून् // 25 महीमापूरयामास घोषेण त्रिदिवं तथा / / 11 तद्वनं बलमेघेन शरधारेण संवृतम् / स गच्छन्ददृशे धीमान्नन्दनप्रतिमं वनम् / व्यरोचन्महिषाकीर्णं राज्ञा हतमहामृगम् / / 26 बिल्वाकखदिराकीर्ण कपित्थधवसंकुलम् // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विषमं पर्वतप्रस्थैरश्मभिश्च समावृतम् / त्रिषष्टितमोऽध्यायः // 63 // निर्जलं निर्मनुष्यं च बहुयोजनमायतम् / मृगसंधैर्वृतं घोरैरन्यैश्चापि वनेचरैः // 13 वैशंपायन उवाच / तद्वनं मनुजव्याघ्रः सभृत्यबलवाहनः / ततो मृगसहस्राणि हत्वा विपुलवाहनः / लोडयामास दुःषन्तः सूदयन्विविधान्मृगान् // 14 राजा मृगप्रसङ्गेन वनमन्यद्विवेश ह // 1 बाणगोचरसंप्राप्तांस्तत्र व्याघगणान्बहून् / एक एवोत्तमबलः क्षुत्पिपासासमन्वितः / पातयामास दुःषन्तो निर्बिभेद च सायकैः // 15 स वनस्यान्तमासाद्य महदीरिणमासदत् // 2 दूरस्थान्सायकैः कांश्चिदभिनत्स नरर्षभः / तच्चाप्यतीत्य नृपतिरुत्तमाश्रमसंयुतम् / अभ्याशमागतांश्चान्यान्खड्नेन निरकृन्तत // 16 मनःप्रह्लादजननं दृष्टिकान्तमतीव च / कांश्चिदेणान्स निर्जन्ने शक्त्या शक्तिमतां वरः / शीतमारुतसंयुक्तं जगामान्यन्महद्वनम् // 3 गदामण्डलतत्त्वज्ञश्चचारामितविक्रमः // 17 पुष्पितैः पादपैः कीर्णमतीव सुखशाद्वलम् / तोमरैरसिभिश्चापि गदामुसलकर्षणैः / विपुलं मधुरारावैर्नादितं विहगैस्तथा // 4 चचार स विनिघ्नन्वै वन्यास्तत्र मृगद्विजान / / 18 प्रवृद्धविटपैवृक्षैः सुखच्छायैः समावृतम् / राज्ञा चाद्भुतवीर्येण योधैश्च समरप्रियैः / षट्पदाघूर्णितलतं लक्ष्म्या परमया युतम् // 5 लोड्यमानं महारण्यं तत्यजुश्च महामृगाः // 19 नापुष्पः पादपः कश्चिन्नाफलो नापि कण्टकी / तत्र विद्रुतसंघानि हतयूथपतीनि च। षट्पदैर्वाप्यनाकीर्णस्तस्मिन्वै काननेऽभवत् // 6 मृगयूथान्यथौत्सुक्याच्छब्दं चक्रुस्ततस्ततः // 20 / विहगैर्नादितं पुष्पैरलंकृतमतीव च / -94 -
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________________ 1. 64. 7] आदिपर्व [1. 64. 34 सर्वर्तुकुसुमेवृक्षैरतीव सुखशावलम् / सचक्रवाकपुलिनां पुष्पफेनप्रवाहिनीम् / मनोरमं महेष्वासो विवेश वनमुत्तमम् / / 7 सकिंनरगणावासां वानरक्षनिषेविताम् / / 21 मास्तागलितास्तत्र द्रुमाः कुसुमशालिनः / पुण्यस्वाध्यायसंघुष्टां पुलिनरुपशोभिताम् / पुष्पवृष्टिं विचित्रां स्म व्यसृजंस्ते पुनः पुनः॥ 8 मत्तवारणशार्दूलभुजगेन्द्रनिषेविताम् // 22 दिवस्पृशोऽथ संघुष्टाः पक्षिभिर्मधुरस्वरः / नदीमाश्रमसंबद्धां दृष्ट्वाश्रमपदं तथा / विरेजुः पादपास्तत्र विचित्रकुसुमाम्बराः // 9 चकाराभिप्रवेशाय मतिं स नृपतिस्तदा / / 23 तेषां तत्र प्रवालेषु पुष्यभारावनामिषु / अलंकृतं द्वीपवत्या मालिन्या रम्यतीरया। स्वन्ति रावं विहगाः षट्पदैः सहिता मृदु // 10 नरनारायणस्थानं गङ्गयेवोपशोभितम् / तत्र प्रदेशांश्च बहून्कुसुमोत्करमण्डितान् / मत्तबर्हिणसंघुष्टं प्रविवेश महद्वनम् / / 24 लतागृहपरिक्षिप्तान्मनसः प्रीतिवर्धनान् / तत्स चैत्ररथप्रख्यं समुपेत्य नरेश्वरः / संपश्यन्स महातेजा बभूव मुदितस्तदा // 11 अतीव गुणसंपन्नमनिर्देश्यं च वर्चसा / परस्पराश्लिष्टशाखैः पादपेः कुसुमाचितैः। महर्षि काश्यपं द्रष्टुमथ कण्वं तपोधनम् / / 25 अशोभत वनं तत्तैर्महेन्द्रध्वजसंनिभैः // 12 रथिनीमश्वसंबाधां पदातिगणसंकुलाम् / सुखशीतः सुगन्धी च पुष्परेणुवहोऽनिलः / अवस्थाप्य वनद्वारि सेनामिदमुवाच सः // 26 परिक्रामन्वने वृक्षानुपैतीव रिरंसया // 13 मुनि विरजसं द्रष्टुं गमिष्यामि तपोधनम् / एवंगुणसमायुक्तं ददर्श स वनं नृपः / काश्यपं स्थीयतामत्र यावदागमनं मम // 27 नदीकच्छोद्भवं कान्तमुच्छ्रितध्वजसंनिभम् / / 14 तद्वनं नन्दनप्रख्यमासाद्य मनुजेश्वरः / प्रेक्षमाणो वनं तत्तु सुप्रहृष्टविहंगमम् / क्षुत्पिपासे जही राजा हर्षं चावाप पुष्कलम् // 28 आश्रमप्रवरं रम्यं ददर्श च मनोरमम् // 15 सामात्यो राजलिङ्गानि सोऽपनीय नराधिपः / नानावृक्षसमाकीर्णं संप्रज्वलितपावकम् / पुरोहितसहायश्च जगामाश्रममुत्तमम् / यतिभिर्वालखिल्यैश्च वृतं मुनिगणान्वितम् // 16 दिदृक्षुस्तत्र तमृपिं तपोराशिमथाव्ययम् / / 29 अन्यागारैश्च बहुभिः पुष्पसंस्तरसंस्तृतम् / ब्रह्मलोकप्रतीकाशमाश्रमं सोऽभिवीक्ष्य च / महाकच्छेबृहद्भिश्च विभ्राजितमतीव च // 17 पट्पदोद्गीतसंघुष्टं नानाद्विजगणायुतम् // 30 मालिनीमभितो राजन्नदी पुण्यां सुखोदकाम् / ऋचो बढचमुख्यैश्च प्रेयमाणाः पदक्रमैः। नैकपक्षिगणाकी) तपोवनमनोरमाम् / शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु // 31 सत्र व्यालमृगान्सौम्यान्पश्यन्त्रीतिमवाप सः॥ 18 यज्ञविद्याङ्गविद्भिश्च क्रमद्भिश्च क्रमानपि / सं चाप्यतिरथः श्रीमानाश्रमं प्रत्यपद्यत / अमितात्मभिः सुनियतैः शुशुभे स तदाश्रमः / / 32 देवलोकप्रतीकाशं सर्वतः सुमनोहरम् / / 19 अथर्ववेदप्रवराः पूगयाज्ञिकसंमताः / नदीमाश्रमसंश्लिष्टां पुण्य गोयां ददर्श सः। संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते // 33 सर्वप्राणभृतां तत्र जननीगिव विष्ठितान् / / 20 शब्दसंस्कारसंयुक्तं ब्रुवद्भिश्चापरैर्द्विजैः / -95 -
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________________ 1. 64. 34 ] महाभारते [1. 65. 17 नादितः स बभौ श्रीमान्ब्रह्मलोक इवाश्रमः // 34 स्वागतं त इति क्षिप्रमुवाच प्रतिपूज्य च // 4 यज्ञसंस्कारविद्भिश्च क्रमशिक्षाविशारदैः / आसनेनार्चयित्वा च पायेनार्येण चैव हि / न्यायतत्त्वार्थविज्ञानसंपन्नैर्वेदपारगैः / / 35 पप्रच्छानामयं राजन्कुशलं च नराधिपम् // 5 नानावाक्यसमाहारसमवायविशारदैः / यथावदर्चयित्वा सा पृष्ट्वा चानामयं तदा। विशेषकार्यविद्भिश्च मोक्षधर्मपरायणैः / / 36 उवाच स्मयमानेव किं कार्य क्रियतामिति // 6 स्थापनाक्षेपसिद्धान्तपरमार्थज्ञतां गतैः / तामब्रवीत्ततो राजा कन्यां मधुरभाषिणीम् / लोकायतिकमुख्यैश्च समन्तादनुनादितम् // 37 दृष्ट्वा सर्वानवद्याङ्गी यथावत्प्रतिपूजितः // 7 तत्र तत्र च विप्रेन्द्रान्नियतान्संशितव्रतान्। . आगतोऽहं महाभागमृषि कण्वमुपासितुम् / / जपहोमपरान्सिद्धान्ददर्श परवीरहा // 38 क गतो भगवान्भद्रे तन्ममाचक्ष्व शोभने // 8 आसनानि विचित्राणि पुष्पवन्ति महीपतिः / शकुन्तलोवाच। . प्रयत्नोपहितानि स्म दृष्ट्वा विस्मयमागमत् // 39 गतः पिता मे भगवान्फलान्याहर्तुमाश्रमात् / / देवतायतनानां च पूजां प्रेक्ष्य कृतां द्विजैः / मुहूर्त संप्रतीक्षस्व द्रक्ष्यस्येनमिहागतम् // 9 ब्रह्मलोकस्थमात्मानं मेने स नृपसत्तमः // 40 वैशंपायन उवाच / स काश्यपतपोगुप्तमाश्रमप्रवरं शुभम् / अपश्यमानस्तमृषि तया चोक्तस्तथा नृपः / नातृप्यत्प्रेक्षमाणो वै तपोधनगणेयुतम् // 41 तां च दृष्ट्वा वरारोहां श्रीमती चारुहासिनीम् / / 10 स काश्यपस्यायतनं महाव्रतै विभ्राजमानां वपुषा तपसा च दमेन च / वृतं समन्तादृषिभिस्तपोधनैः / रूपयौवनसंपन्नामित्युवाच महीपतिः / / 11 विवेश सामात्यपुरोहितोऽरिहा कासि कस्यासि सुश्रोणि किमर्थं चागता वनम् / विविक्तमत्यर्थमनोहरं शिवम् // 42 एवंरूपगुणोपेता कुतस्त्वमसि शोभने / 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि दर्शनादेव हि शुभे त्वया मेऽपहृतं मनः / चतुःषष्टितमोऽध्यायः // 64 // इच्छामि त्वामहं ज्ञातुं तन्ममाचक्ष्व शोभने // 13 एवमुक्ता तदा कन्या तेन राज्ञा तदाश्रमे / वैशंपायन उवाच / उवाच हसती वाक्यमिदं सुमधुराक्षरम् // 14 ततो गच्छन्महाबाहुरेकोऽमात्यान्विसृज्य तान् / कण्वस्याहं भगवतो दुःषन्त दुहिता मता। नापश्यदाश्रमे तस्मिंस्तमृषि संशितव्रतम् // 1 तपस्विनो धृतिमतो धर्मज्ञस्य यशस्विनः // 15 सोऽपश्यमानस्तमृषि शून्यं दृष्ट्वा तमाश्रमम् / दुःपन्त उवाच। उवाच क इहेत्युच्चैर्वनं संनादयन्निव // 2 ऊर्ध्वरेता महाभागो भगवालँलोकपूजितः / श्रुत्वाथ तस्य तं शब्दं कन्या श्रीरिव रूपिणी / चलेद्धि वृत्ताद्धर्मोऽपि न चलेत्संशितव्रतः // 16 निश्चक्रामाश्रमात्तस्मात्तापसीवेषधारिणी // 3 कथं त्वं तस्य दुहिता संभूता वरवर्णिनी। सा तं दृष्ट्वैव राजानं दुःषन्तमसितेक्षणा। | संशयो मे महानत्र तं मे छेत्तुमिहार्हसि // 17 -96 -
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________________ 1. 65. 18] आदिपर्व [1. 65. 42 शकुन्तलोवाच / दारान्मतङ्गो धर्मात्मा राजर्षिाधतां गतः॥ 31 यथायमागमो मह्यं यथा चेदमभूत्पुरा / अतीतकाले दुर्भिक्षे यत्रैत्य पुनराश्रमम् / शृणु राजन्यथातत्त्वं यथास्मि दुहिता मुनेः // 18 मुनिः पारेति नद्या वै नाम चक्रे तदा प्रभुः // 32 ऋषिः कश्चिदिहागम्य मम जन्माभ्यचोदयत् / मतङ्गं याजयांचक्रे यत्र प्रीतमनाः स्वयम् / तस्मै प्रोवाच भगवान्यथा तच्छृणु पार्थिव / / 19 त्वं च सोमं भयाद्यस्य गतः पातुं सुरेश्वर // 33 तप्यमानः किल पुरा विश्वामित्रो महत्तपः / अति नक्षत्रवंशांश्च क्रुद्धो नक्षत्रसंपदा / सुभृशं तापयामास शक्रं सुरगणेश्वरम् // 20 प्रति श्रवणपूर्वाणि नक्षत्राणि ससर्ज यः // 34 तपसा दीप्तवीर्योऽयं स्थानान्मां च्यावयेदिति / / एतानि यस्य कर्माणि तस्याहं भृशमुद्विजे / भीतः पुरंदरस्तस्मान्मेनकामिदमब्रवीत् // 21 यथा मां न दहेक्रुद्धस्तथाज्ञापय मां विभो॥ 35 गुणैर्दिव्यैरप्सरसां मेनके त्वं विशिष्यसे / तेजसा निर्दहेल्लोकान्कम्पयेद्धरणी पदा। श्रेयो मे कुरु कल्याणि यत्त्वां वक्ष्यामि तच्छृणु॥ 22 संक्षिपेच्च महामेरुं तूर्णमावर्तयेत्तथा // 36 असावादित्यसंकाशो विश्वामित्रो महातपाः। तादृशं तपसा युक्तं प्रदीप्तमिव पावकम् / तप्यमानस्तपो घोरं मम कम्पयते मनः // 23 कथमस्मद्विधा बाला जितेन्द्रयमभिस्पृशेत् // 37 मेनके तव भारोऽयं विश्वामित्रः सुमध्यमे / हुताशनमुखं दीप्तं सूर्यचन्द्राक्षितारकम् / संशितात्मा स दुर्धर्ष उग्र तपसि वर्तते // 24 कालजिह्व सुरश्रेष्ठ कथमस्मद्विधा स्पृशेत् // 38 स मां न च्यावयेत्स्थानात्तं वै गत्वा प्रलोभय / यमश्च सोमश्च महर्षयश्च चर तस्य तपोविघ्नं कुरु मे प्रियमुत्तमम् // 25 - साध्या विश्वे वालखिल्याश्च सर्वे / रूपयौवनमाधुर्यचेष्टितस्मितभाषितैः / एतेऽपि यस्योद्विजन्ते प्रभावालोभयित्वा वरारोहे तपसः संनिवर्तय // 26 कस्मात्तस्मान्मादृशी नोद्विजेत / / 39 त्वयैवमुक्ता च कथं समीपमेनकोवाच / मृषेर्न गच्छेयमहं सुरेन्द्र। महातेजाः स भगवान्सदैव च महातपाः / रक्षां तु मे चिन्तय देवराज कोपनश्च तथा ह्येनं जानाति भगवानपि // 27 ___यथा त्वदर्थं रक्षिताहं चरेयम् // 40 तेजसस्तपसश्चैव कोपस्य च महात्मनः / कामं तु मे मारुतस्तत्र वासः त्वमप्युद्विजसे यस्य नोद्विजेयमहं कथम् // 28 __प्रक्रीडिताया विवृणोतु देव / महाभागं वसिष्ठं यः पुत्रैरिष्टैर्व्ययोजयत् / भवेच्च मे मन्मथस्तत्र कार्ये क्षत्रे जातश्च यः पूर्वमभवद्ब्राह्मणो बलात् // 29 ___ सहायभूतस्तव देव प्रसादात् // 41 शौचाथ यो नदीं चक्रे दुर्गमां बहुभिर्जलैः / वनाच्च वायुः सुरभिः प्रवायेयां तां पुण्यतमां लोके कौशिकीति विदुर्जनाः॥३० / ___ त्तस्मिन्काले तमृषि लोभयन्त्याः। बभार यत्रास्य पुरा काले दुर्गे महात्मनः। तथेत्युक्त्वा विहिते चैव तस्मिम.भा. 13 -97 -
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________________ 1. 65. 42] महाभारते [1. 67.7 स्ततो ययौ साश्रमं कौशिकस्य / / 42 आनयित्वा ततश्चैनां दुहितृत्वे न्ययोजयम् // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि शरीरकृत्प्राणदाता यस्य चान्नानि भुञ्जते / पञ्चषष्टितमोऽध्यायः॥६५॥ क्रमेण ते त्रयोऽप्युक्ताः पितरो धर्मनिश्चये // 13 निर्जने च वने यस्माच्छकुन्तैः परिरक्षिता। शकुन्तलोवाच शकुन्तलेति नामास्याः कृतं चापि ततो मया // 14 एवमुक्तस्तया शक्रः संदिदेश सदागतिम् / एवं दुहितरं विद्धि मम सौम्य शकुन्तलाम् / प्रातिष्ठत तदा काले मेनका वायुना सह // 1 शकुन्तला च पितरं मन्यते मामनिन्दिता // 15 अथापश्यद्वरारोहा तपसा दग्धकिल्बिषम् / एतदाचष्ट पृष्टः सन्मम जन्म महर्षये। विश्वामित्रं तपस्यन्तं मेनका भीरुराश्रमे // 2 सुतां कण्वस्य मामेवं विद्धि त्वं मनुजाधिप // 16 अभिवाद्य ततः सा तं प्राक्रीडदृषिसंनिधौ। कण्वं हि पितरं मन्ये पितरं स्वमजानती। अपोवाह च वासोऽस्या मारुतः शशिसंनिभम् // 3 इति ते कथितं राजन्यथावृत्तं श्रुतं मया // 17 . सागच्छत्त्वरिता भूमिं वासस्तदभिलिङ्गती। इति श्रीमहाभारते भादिपर्वणि उत्स्मयन्तीव सव्रीडं मारुतं वरवर्णिनी॥४ षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६॥ गृद्धां वाससि संभ्रान्तां मेनकां मुनिसत्तमः। अनिर्देश्यवयोरूपामपश्यद्विवृतां तदा // 5 . दुःषन्त उवाच। तस्या रूपगुणं दृष्ट्वा स तु विप्रर्षभस्तदा / सुव्यक्तं राजपुत्री त्वं यथा कल्याणि भाषसे। चकार भावं संसर्गे तया कामवशं गतः॥ 6 भार्या मे भव सुश्रोणि ब्रूहि किं करवाणि ते॥१ न्यमयत चाप्येनां सा चाप्यैच्छदनिन्दिता। सुवर्णमाला वासांसि कुण्डले परिहाटके। तौ तत्र सुचिरं कालं वने व्यहरतामुभौ / नानापत्तनजे शुभ्रे मणिरत्ने च शोभने // 2 रममाणौ यथाकामं यथैकदिवसं तथा // 7 आहरामि तवाद्याहं निष्कादीन्यजिनानि च। जनयामास स मुनिर्मेनकायां शकुन्तलाम् / सर्व राज्यं तवाद्यास्तु भार्या मे भव शोभने // 3 प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनीमभितो नदीम् // 8 गान्धर्वेण च मां भीरु विवाहेनैहि सुन्दरि / जातमुत्सृज्य तं गर्भ मेनका मालिनीमनु / विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्वः श्रेष्ठ उच्यते॥४ कृतकार्या ततस्तूर्णमगच्छच्छक्रसंसदम् // 9 शकुन्तलोवाच / तं वने विजने गर्भ सिंहव्याघ्रसमाकुले / फलाहारो गतो राजन्पिता मे इत आश्रमात् / दृष्ट्वा शयानं शकुनाः समन्तात्पर्यवारयन् // 10 तं मुहूर्तं प्रतीक्षस्व स मां तुभ्यं प्रदास्यति // 5 नेमां हिंस्युर्वने बालां क्रव्यादा मांसगृद्धिनः। दुःषन्त उवाच। पर्यरक्षन्त तां तत्र शकुन्ता मेनकात्मजाम् // 11 इच्छामि त्वां वरारोहे भजमानामनिन्दिते / उपरप्रष्टुं गतश्चाहमपश्यं शयितामिमाम् / त्वदर्थं मां स्थितं विद्धि त्वद्गतं हि मनो मम // 6 निर्जने विपिनेऽरण्ये शकुन्तैः परिवारिताम् / आत्मनो बन्धुरात्मैव गतिरात्मैव चात्मनः / -98
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________________ 1. 67.7] आदिपर्व [1. 67. 33 आत्मनैवात्मनो दानं कर्तुमर्हसि धर्मतः / / 7 प्रेषयिष्ये तवार्थाय वाहिनी चतुरङ्गिणीम् / अष्टावेव समासेन विवाहा धर्मतः स्मृताः / तया त्वामानयिष्यामि निवासं स्वं शुचिस्मिते॥२० ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथासुरः / / 8 इति तस्याः प्रतिश्रुत्य स नृपो जनमेजय / गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमः स्मृतः / मनसा चिन्तयन्प्रायात्काश्यपं प्रति पार्थिवः॥ 21 तेषां धर्मान्यथापूर्वं मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् // 9 भगवांस्तपसा युक्तः श्रुत्वा किं नु करिष्यति / प्रशस्तांश्चतुरः पूर्वान्ब्राह्मणस्योपधारय / एवं संचिन्तयन्नेव प्रविवेश स्वकं पुरम् / / 22 षडानुपूर्व्या क्षत्रस्य विद्धि धाननिन्दिते // 10 मुहूर्तयाते तस्मिंस्तु कण्वोऽप्याश्रममागमत् / राज्ञां तु राक्षसोऽप्युक्तो विशूद्रेष्वासुरः स्मृतः / शकुन्तला च पितरं ह्रिया नोपजगाम तम् / / 23 पञ्चानां तु त्रयो धा द्वावधौ स्मृताविह / / 11 विज्ञायाथ च तां कण्वो दिव्यज्ञानो महातपाः / पैशाचश्चासुरश्चैव न कर्तव्यौ कथंचन / उवाच भगवान्प्रीतः पश्यन्दिव्येन चक्षुषा / / 24 अनेन विधिना कार्यो धर्मस्यैषा गतिः स्मृता // 12 त्वयाद्य राजान्वयया मामनादृत्य यत्कृतः / गान्धर्वराक्षसौ क्षत्रे धौ तौ मा विशङ्किथाः। पुंसा सह समायोगो न स धर्मोपघातकः / / 25 पृथग्वा यदि वा मिश्री कर्तव्यौ नात्र संशयः // 13 क्षत्रियस्य हि गान्धर्वो विवाहः श्रेष्ठ उच्यते / सा त्वं मम सकामस्य सकामा वरवर्णिनि / सकामायाः सकामेन निर्मत्रो रहसि स्मृतः / / 26 गान्धर्वेण विवाहेन भार्या भवितुमर्हसि / / 14 धर्मात्मा च महात्मा च दुःषन्तः पुरुषोत्तमः / शकुन्तलोवाच / अभ्यगच्छः पतिं यं त्वं भजमानं शकुन्तले / / 27 महात्मा जनिता लोके पुत्रस्तव महाबलः / यदि धर्मपथस्त्वेष यदि चात्मा प्रभुर्मम / य इमां सागरापाङ्गां कृत्स्ना भोक्ष्यति मेदिनीम्॥२८ प्रदाने पौरवश्रेष्ठ शृणु मे समयं प्रभो // 15 परं चाभिप्रयातस्य चक्रं तस्य महात्मनः / सत्यं मे प्रतिजानीहि यत्त्वां वक्ष्याम्यहं रहः / भविष्यत्यप्रतिहतं सततं चक्रवर्तिनः // 29 मम जायेत यः पुत्रः स भवेत्त्वदनन्तरम् / / 16 ततः प्रक्षाल्य पादौ सा विश्रान्तं मुनिमब्रवीत् / युवराजो महाराज सत्यमेतद्ब्रवीहि मे। विनिधाय ततो भारं संनिधाय फलानि च // 30 बद्येतदेवं दुःषन्त अस्तु मे संगमस्त्वया // 17 मया पतिवृतो योऽसौ दुःषन्तः पुरुषोत्तमः / वैशंपायन उवाच / तस्मै ससचिवाय त्वं प्रसादं कर्तुमर्हसि / / 31 एवमस्त्विति तां राजा प्रत्युवाचाविचारयन् / कण्व उवाच / अपि च त्वां नयिष्यामि नगरं स्वं शुचिस्मिते / प्रसन्न एव तस्याहं त्वत्कृते वरवर्णिनि / क्या त्वमर्हा सुश्रोणि सत्यमेतद्ब्रवीमि ते // 18 गृहाण च वरं मत्तस्तत्कृते यदभीप्सितम् / / 32 एवमुक्त्वा स राजर्पिस्तामनिन्दितगामिनीम् / बाह विधिवत्पाणावुवास च तया सह / / 19 वैशंपायन उवाच। विश्वास्य चैनां स प्रायादब्रवीच्च पुनः पुनः। / ततो धर्मिष्ठतां वने राज्याच्चास्खलनं तथा / - 99 -
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________________ 1. 67. 33] महाभारते [1. 68. 27 शकुन्तला पौरवाणां दुःषन्तहितकाम्यया // 33 शकुन्तलां पुरस्कृत्य सपुत्रां गजसाह्वयम् // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि गृहीत्वामरगर्भाभं पुत्रं कमललोचनम् / सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥६७ // आजगाम ततः शुभ्रा दुःषन्तविदिताद्वनात् // 13 68 अभिसृत्य च राजानं विदिता सा प्रवेशिता / वैशंपायन उवाच / सह तेनैव पुत्रेण तरुणादित्यवर्चसा / / 14 प्रतिज्ञाय तु दुःषन्ते प्रतियाते शकुन्तला / पूजयित्वा यथान्यायमब्रवीत्तं शकुन्तला / गर्भ सुषाव वामोरूः कुमारममितौजसम् // 1 अयं पुत्रस्त्वया राजन्यौवराज्येऽभिषिच्यताम् // 15 त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु दीप्तानलसमद्युतिम् / त्वया ह्ययं सुतो राजन्मय्युत्पन्नः सुरोपमः / रूपौदार्यगुणोपेतं दौःषन्ति जनमेजय / / 2 . यथासमयमेतस्मिन्वर्तस्व पुरुषोत्तम / / 16 जातकर्मादिसंस्कारं कण्वः पुण्यकृतां वरः / यथा समागमे पूर्वं कृतः स समयस्त्वया / तस्याथ कारयामास वर्धमानस्य धीमतः॥३ तं स्मरस्व महाभाग कण्वाश्नमपदं प्रति / / 17 दन्तैः शुक्लैः शिखरिभिः सिंहसंहननो युवा / सोऽथ श्रुत्वैव तद्वाक्यं तस्या राजा स्मरन्नपि / चक्राङ्कितकरः श्रीमान्महामूर्धा महाबलः / अब्रवीन्न स्मरामीति कस्य त्वं दुष्टतापसि // 18 कुमारो देवगर्भाभः स तत्राशु व्यवर्धत // 4 / धर्मकामार्थसंबन्धं न स्मरामि त्वया सह / षडर्ष एव बालः स कण्वाश्रमपदं प्रति / गच्छ वा तिष्ठ वा कामं यद्वापीच्छसि तत्कुरु॥१९ व्याघ्रान्सिंहान्वराहांश्च गजांश्च महिषांस्तथा // 5 सैवमुक्ता वरारोहा ब्रीडितेव मनस्विनी / बद्धा वृक्षेषु बलवानाश्रमस्य समन्ततः / विसंज्ञेव च दुःखेन, तस्थौ स्थाणुरिवाचला // 20 आरोहन्दमयंश्चैव क्रीडंश्च परिधावति // 6 संरम्भामर्षताम्राक्षी स्फुरमाणोष्ठसंपुटा / ततोऽस्य नाम चक्रुस्ते कण्वाश्रमनिवासिनः / कटाक्षैर्निर्दहन्तीव तिर्यग्राजानमैक्षत // 21 अस्त्वयं सर्वदमनः सर्वं हि दमयत्ययम् / / 7 आकारं गूहमाना च मन्युनाभिसमीरिता / स सर्वदमनो नाम कुमारः समपद्यत / तपसा संभृतं तेजो धारयामास वै तदा // 22 विक्रमेणौजसा चैव बलेन च समन्वितः॥ 8 सा मुहूर्तमिव ध्यात्वा दुःखामर्षसमन्विता / तं कुमारमृषिदृष्ट्वा कर्म चास्यातिमानुषम् / भर्तारमभिसंप्रेक्ष्य क्रुद्धा वचनमब्रवीत् // 23 समयो यौवराज्यायेत्यब्रवीच्च शकुन्तलाम् / / 9 जानन्नपि महाराज कस्मादेवं प्रभाषसे / तस्य तद्बलमाज्ञाय कण्वः शिष्यानुवाच ह / न जानामीति निःसङ्गं यथान्यः प्राकृतस्तथा॥२४ शकुन्तलामिमां शीघ्रं सहपुत्रामितोऽऽश्रमात् / अत्र ते हृदयं वेद सत्यस्यैवानृतस्य च। भर्ने प्रापयताद्यैव सर्वलक्षणपूजिताम् // 10 कल्याण बत साक्षी वं मात्मानमवमन्यथाः॥२५ नारीणां चिरवासो हि बान्धवेषु न रोचते / / योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते / कीर्तिचारित्रधर्मनस्तस्मान्नयत माचिरम् // 11 किं तेन न कृतं पापं चोरेणात्मापहारिणा // 26 तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे प्रातिष्ठन्तामितौजसः। / एकोऽहमस्मीति च मन्यसे त्वं - 100 -
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________________ 1. 68. 27 ] आदिपर्व [1. 68. 55 न हृच्छयं वेत्सि मुनि पुराणम् / भार्या मूलं त्रिवर्गस्य भार्या मित्रं मरिष्यतः॥ 40 यो वेदिता कर्मणः पापकस्य भार्यावन्तः क्रियावन्तः सभार्या गृहमेधिनः / यस्यान्तिके त्वं वृजिनं करोषि / / 27 भार्यावन्तः प्रमोदन्ते भार्यावन्तः श्रियान्विताः // 41 मन्यते पापकं कृत्वा न कश्चिद्वेत्ति मामिति / सखायः प्रविविक्तेषु भवन्त्येताः प्रियंवदाः / विदन्ति चैनं देवाश्च स्वश्चैवान्तरपूरुषः // 28 पितरो धर्मकार्येषु भवन्त्यार्तस्य मातरः // 42 आदित्यचन्द्रावनिलानलौ च कान्तारेष्वपि विश्रामो नरस्याध्वनिकस्य वै / धौभूमिरापो हृदयं यमश्च / यः सदारः स विश्वास्यस्तस्माद्दाराः परा गतिः॥ 43 अहश्च रात्रिश्च उभे च संध्ये संसरन्तमपि प्रेतं विषमेष्वेकपातिनम् / धर्मश्च जानाति नरस्य वृत्तम् // 29 भायैवान्वेति भर्तारं सततं ना पतिव्रता // 44 यमो वैवस्वतस्तस्य निर्यातयति दुष्कृतम् / प्रथमं संस्थिता भार्या पतिं प्रेत्य प्रतीक्षते / हृदि स्थितः कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञो यस्य तुष्यति // 30 पूर्वं मृतं च भर्तारं पश्चात्साध्व्यनुगच्छति // 45 न तु तुष्यति यस्यैष पुरुषस्य दुरात्मनः / एतस्मात्कारणाद्राजन्पाणिग्रहणमिष्यते / तं यमः पापकर्माणं निर्यातयति दुष्कृतम् / / 31 यदाप्नोति पतिर्भार्यामिह लोके परत्र च / / 46 अवमन्यात्मनात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते / आत्मात्मनैव जनितः पुत्र इत्युच्यते बुधैः / देवा न तस्य श्रेयांसो यस्यात्मापि न कारणम् // 32 तस्माद्भार्या नरः पश्येन्मातृवत्पुत्रमातरम् // 47 स्वयं प्राप्तेति मामेवं मावमंस्थाः पतिव्रताम् / भार्यायां जनितं पुत्रमादर्श स्वमिवाननम् / अाहाँ नार्चयसि मां स्वयं भार्यामुपस्थिताम् // 33 ह्लादते जनिता प्रेक्ष्य स्वर्गं प्राप्येव पुण्यकृत् // 48 किमर्थं मां प्राकृतवदुपप्रेक्षसि संसदि / दह्यमाना मनोदुःखैर्व्याधिभिश्चातुरा नराः। न खल्वहमिदं शून्ये रौमि किं न शृणोषि मे॥३४ ह्रादन्ते स्वेषु दारेषु घर्माताः सलिलेष्विव // 49 यदि मे याचमानाया वचनं न करिष्यसि / / सुसंरब्धोऽपि रामाणां न ब्रूयादप्रियं बुधः / दुःषन्त शतधा भूर्धा ततस्तेऽद्य फलिष्यति // 35 रतिं प्रीतिं च धर्मं च तास्वायत्तमवेक्ष्य च // 50 भार्या पतिः संप्रविश्य स यस्माज्जायते पुनः। आत्मनो जन्मनः क्षेत्रं पुण्यं रामाः सनातनम् / जायाया इति जायात्वं पुराणाः कवयो विदुः।। 36 ऋषीणामपि का शक्तिः स्रष्टुं रामामृते प्रजाः॥५१ यदागमवतः पुंसस्तदपत्यं प्रजायते / परिपत्य यदा सूनुर्धरणीरेणुगुण्ठितः / तत्तारयति संतत्या पूर्वप्रेतान्पितामहान् / / 37 पितुराश्लिष्यतेऽङ्गानि किमिवास्त्यधिकं ततः॥ 52 पुन्नाम्नो नरकाद्यस्मात्पितरं त्रायते सुतः / स त्वं स्वयमनुप्राप्तं सामिलापमिमं सुतम् / तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवा / / 38 प्रेक्षमाणं च काक्षेण किमर्थमवमन्यसे / / 53 सा भार्या या गहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती। अण्डानि बिभ्रति स्वानि न भिन्दन्ति पिपीलिकाः / सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता // 39 न भरेथाः कथं नु त्वं धर्मज्ञः सन्स्वमात्मजम्॥५४ अधं भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतमः सखा। न वाससां न रामाणां नापां स्पर्शस्तथा सुखः / - 101 -
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________________ 1. 68. 55] महाभारते [1. 69.2 शिशोरालिङ्गथमानस्य स्पर्शः सूनोर्यथा सुखः॥ 55 यदहं बान्धवैत्यक्ता बाल्ये संप्रति च त्वया // 70 ब्राह्मणो द्विपदां श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम् / कामं त्वया परित्यक्ता गमिष्याम्यहमाश्रमम् / गुरीयसां श्रेष्ठः पुत्रः स्पर्शवतां वरः // 56 इमं तु बालं संत्यक्तुं नार्हस्यात्मजमात्मना // 71 स्पृशतु त्वां समाश्लिष्य पुत्रोऽयं प्रियदर्शनः / दुःषन्त उवाच। पुत्रस्पर्शात्सुखतरः स्पर्शो लोके न विद्यते // 57 न पुत्रमभिजानामि त्वयि जातं शकुन्तले / त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु प्रजाताहमरिंदम। असत्यवचना नार्यः कस्ते श्रद्धास्यते वचः॥ 72 इमं कुमारं राजेन्द्र तव शोकप्रणाशनम् // 58 मेनका निरनुक्रोशा बन्धकी जननी तव / आहर्ता वाजिमेधस्य शतसंख्यस्य पौरव / यया हिमवतः पृष्ठे निर्माल्येव प्रवेरिता // 73 इति वागन्तरिक्षे मां सूतकेऽभ्यवदत्पुरा // 59 स चापि निरनुक्रोशः क्षत्रयोनिः पिता तव / ननु नामाङ्कमारोप्य स्नेहानामान्तरं गताः। विश्वामित्रो ब्राह्मणत्वे लब्धः कामपरायणः // 74 मूर्ध्नि पुत्रानुपाघ्राय प्रतिनन्दन्ति मानवाः // 60 मेनकाप्सरसां श्रेष्ठा महर्षीणां च ते पिता। वेदेष्वपि वदन्तीमं मत्रवादं द्विजातयः / तयोरपत्यं कस्मात्त्वं पुंश्चलीवाभिधास्यति // 75 जातकर्मणि पुत्राणां तवापि विदितं तथा // 61 अश्रद्धेयमिदं वाक्यं कथयन्ती न लजसे / अङ्गादङ्गात्संभवसि हृदयादभिजायसे / विशेषतो मत्सकाशे दुष्टतापसि गम्यताम् / / 76 आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम् // 62 क महर्षिः सदैवोग्रः साप्सरा क च मेनका। पोषो हि त्वदधीनो मे संतानमपि चाक्षयम् / क च त्वमेवं कृपणा तापसीवेषधारिणी // 77 तस्मात्त्वं जीव मे वत्स सुसुखी शरदां शतम् // 63 अतिकायश्च पुत्रस्ते बालोऽपि बलवानयम् / त्वदङ्गेभ्यः प्रसूतोऽयं पुरुषात्पुरुषोऽपरः / कथमल्पेन कालेन शालस्कन्ध इवोद्गतः // 78 सरसीवामलेऽऽत्मानं द्वितीयं पश्य मे सुतम् // 64 सुनिकृष्टा च योनिस्ते पुंश्चली प्रतिभासि मे / यथा ह्याहवनीयोऽग्निर्गार्हपत्यात्प्रणीयते / यदृच्छया कामरागाजाता मेनकया ह्यसि // 79 तथा त्वत्तः प्रसूतोऽयं त्वमेकः सन्द्विधा कृतः॥६५ सर्वमेतत्परोक्षं मे यत्त्वं वदसि तापसि / मृगापकृष्टेन हि ते मृगयां परिधावता / नाहं त्वामभिजानामि यथेष्टं गम्यतां त्वया // 80 अहमासादिता राजन्कुमारी पितुराश्रमे // 66 / / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि उर्वशी पूर्वचित्तिश्च सहजन्या च मेनका। ___ अष्टषष्टितमोऽध्यायः // 68 // विश्वाची च घृताची च षडेवाप्सरसां वराः॥ 67 तासां मां मेनका नाम ब्रह्मयोनिर्वराप्सराः / शकुन्तलोवाच दिवः संप्राप्य जगतीं विश्वामित्रादजीजनत् // 68 / राजन्सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यसि / सा मां हिमवतः पृष्ठे सुषुवे मेनकाप्सराः / आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसि // 1 अवकीर्य च मां याता परात्मजमिवासती // 69 मेनका त्रिदशेष्वेव त्रिदशाश्चानु मेनकाम् / किं नु कर्माशुभं पूर्वं कृतवत्यस्मि जन्मनि / / ममैवोद्रिच्यते जन्म दुःषन्त तव जन्मतः // 2 - 102 -
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________________ 1. 69. 3] आदिपर्व [1. 69. 31 क्षितावटसि राजंस्त्वमन्तरिक्षे चराम्यहम् / स्वपत्नीप्रभवान्पश्च लब्धान्क्रीतान्विवर्धितान् / आवयोरन्तरं पश्य मेरुसर्षपयोरिव // 3 कृतानन्यासु चोत्पन्नान्पुत्रान्वै मनुरब्रवीत् / / 18 महेन्द्रस्य कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च / धर्मकीर्त्यावहा नृणां मनसः प्रीतिवर्धनाः / भवनान्यनुसंयामि प्रभावं पश्य मे नृप // 4 त्रायन्ते नरकाजाताः पुत्रा धर्मप्लवाः पितॄन् / 19 सत्यश्चापि प्रवादोऽयं यं प्रवक्ष्यामि तेऽनघ / स त्वं नृपतिशार्दूल न पुत्रं त्यक्तुमर्हसि / निदर्शनार्थं न द्वेषात्तच्छ्रुत्वा क्षन्तुमर्हसि // 5 आत्मानं सत्यधर्मौ च पालयानो महीपते / विरूपो यावदादर्श नात्मनः पश्यते मुखम् / नरेन्द्रसिंह कपटं न वोढुं त्वमिहार्हसि // 20 मन्यते तावदात्मानमन्येभ्यो रूपवत्तरम् // 6 वरं कूपशताद्वापी वरं वापीशतात्क्रतुः / यदा तु मुखमादर्श विकृतं सोऽभिवीक्षते। . वरं ऋतुशतात्पुत्रः सत्यं पुत्रशताद्वरम् // 21 तदेतरं विजानाति आत्मानं नेतरं जनम् / / 7 अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् / अतीव रूपसंपन्नो न किंचिदवमन्यते / अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते // 22 अतीव जल्पन्दुर्वाचो भवतीह विहेठकः // 8 सर्ववेदाधिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम् / मूर्यो हि जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः / सत्यं च वदतो राजन्समं वा स्यान्न वा समम् / / 23 अशुभं वाक्यमादत्ते पुरीषमिव सूकरः // 9 नास्ति सत्यात्परो धर्मो न सत्याद्विद्यते परम् / प्राज्ञस्तु जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः / न हि तीव्रतरं किंचिदनृतादिह विद्यते // 24 गुणवद्वाक्यमादत्ते हंसः क्षीरमिवाम्भसः / / 10 राजन्सत्यं परं ब्रह्म सत्यं च समयः परः / अन्यान्परिवदन्साधुर्यथा हि परितप्यते / मा त्याक्षीः समयं राजन्सत्यं संगतमस्तु ते॥२५ तथा परिवदन्नन्यांस्तुष्टो भवति दुर्जनः // 11 अनृते चेत्प्रसङ्गस्ते श्रद्दधासि न चेत्स्वयम् / अभिवाद्य यथा वृद्धान्सन्तो गच्छन्ति निर्वृतिम् / आत्मनो हन्त गच्छामि त्वादृशे नास्ति संगतम् // 26 एवं सज्जनमाक्रुश्य मूर्यो भवति निर्वृतः // 12 ऋतेऽपि त्वयि दुःषन्त शैलराजावतंसकाम् / सुखं जीवन्त्यदोषज्ञा मूर्खा दोषानुदर्शिनः / चतुरन्तामिमामुर्वी पुत्रो मे पालयिष्यति // 27 यत्र वाच्याः परैः सन्तः परानाहुस्तथाविधान॥१३ वैशंपायन उवाच। अतो हास्यतरं लोके किंचिदन्यन्न विद्यते / एतावदुक्त्वा वचनं प्रातिष्ठत शकुन्तला / यत्र दुर्जन इत्याह दुर्जनः सजनं स्वयम् // 14 अथान्तरिक्षे दुःषन्तं वागुवाचाशरीरिणी / सत्यधर्मच्युतात्पुंसः क्रुद्वादाशीविषादिव / ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मत्रिभिश्चावृतं तदा // 28 अनास्तिकोऽप्युद्विजते जनः किं पुनरास्तिकः।। 15 भस्त्रा माता पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः / खयमुत्पाथ वै पुत्रं सदृशं योऽवमन्यते / भरस्व पुत्रं दुःषन्त मावमस्थाः शकुन्तलाम् // 29 तस्य देवाः श्रियं नन्ति न च लोकानुपाश्नुते॥१६ रेतोधाः पुत्र उन्नयति नरदेव यमक्षयात् / कुलवंशप्रतिष्ठां हि पितरः पुत्रमब्रुवन् / त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला // 30 उत्तमं सर्वधर्माणां तस्मात्पुत्रं न संत्यजेत् / / 17 / जाया जनयते पुत्रमात्मनोऽङ्गं द्विधा कृतम् / - 103 -
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________________ 1. 69. 31] महाभारते [1. 70.5 तस्माद्भरस्व दुःषन्त पुत्रं शाकुन्तलं नृप // 31 - स विजित्य महीपालांश्चकार वशवर्तिनः / अभूतिरेषा कस्त्यज्याज्जीवञ्जीवन्तमात्मजम् / चचार च सतां धर्मं प्राप चानुत्तमं यशः // 46 शाकुन्तलं महात्मानं दोःषन्ति भर पौरव // 32 स राजा चक्रवर्त्यासीत्सार्वभौमः प्रतापवान् / भर्तव्योऽयं त्वया यस्मादस्माकं वचनादपि / ईजे च बहुभिर्यज्ञैर्यथा शक्रो मरुत्पतिः // 47 तस्माद्भवत्वयं नाम्ना भरतो नाम ते सुतः // 33 याजयामास तं कण्वो दक्षवद्भरिदक्षिणम् / तच्छ्रुत्वा पौरवो राजा व्याहृतं वै दिवौकसाम् / श्रीमान्गोविततं नाम वाजिमेधमवाप सः। पुरोहितममात्यांश्च संप्रहृष्टोऽब्रवीदिदम् // 34 यस्मिन्सहस्रं पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ // 48 शृण्वन्त्वेतद्भवन्तोऽस्य देवदूतस्य भाषितम् / भरताद्भारती कीर्तिर्येनेदं भारतं कुलम् / अहमप्येवमेवैनं जानामि स्वयमात्मजम् // 35 अपरे ये च पूर्वे च भारता इति विश्रुताः॥ 49 यद्यहं वचनादेव गृह्णीयामिममात्मजम् / भरतस्यान्ववाये हि देवकल्पा महौजसः / भवेद्धि शङ्का लोकस्य नैवं शुद्धो भवेदयम् // 36 बभूवुर्ब्रह्मकल्पाश्च बहवो राजसत्तमाः॥ 50 तं विशोध्य तदा राजा देवदूतेन भारत / येषामपरिमेयानि नामधेयानि सर्वशः। हृष्टः प्रमुदितश्चापि प्रतिजग्राह तं सुतम् // 37 तेषां तु ते यथामुख्यं कीर्तयिष्यामि भारत / मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय सस्नेहं परिषस्वजे। महाभागान्देवकल्पान्सत्यार्जवपरायणान् // 51 सभाज्यमानो विप्रैश्च स्तूयमानश्च बन्दिभिः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि स मुदं परमां लेभे पुत्रसंस्पर्शजां नृपः // 38 एकोनसप्ततितमोऽध्यायः // 69 // तां चैव भार्यां धर्मज्ञः पूजयामास धर्मतः / , . 70 अब्रवीच्चैव तां राजा सान्त्वपूर्वमिदं वचः // 39 वैशंपायन उवाच। कृतो लोकपरोक्षोऽयं संबन्धो वै त्वया सह / / प्रजापतेस्तु दक्षस्य मनोवैवस्वतस्य च। तस्मादेतन्मया देवि त्वच्छुद्ध्यर्थं विचारितम् // 40 भरतस्य करोः परोरजमीढस्य चान्वये // 1 मन्यते चैव लोकस्ते स्त्रीभावान्मयि संगतम् / यादवानामिमं वंशं पौरवाणां च सर्वशः। पुत्रश्चायं वृतो राज्ये मया तस्माद्विचारितम् / / 41 तथैव भारतानां च पुण्यं स्वस्त्ययनं महत् / यच्च कोपितयात्यर्थं त्वयोक्तोऽस्म्यप्रियं प्रिये / धन्यं यशस्यमायुष्यं कीर्तयिष्यामि तेऽनघ / 2 प्रणयिन्या विशालाक्षि तत्क्षान्तं ते मया शुभे // 42 तेजोभिरुदिताः सर्वे महर्षिसमतेजसः / तामेवमुक्त्वा राजर्षिर्दुःषन्तो महिषीं प्रियाम् / दश प्रचेतसः पुत्राः सन्तः पूर्वजनाः स्मृताः / वासोभिरन्नपान्नैश्च पूजयामास भारत // 43 मेघजेनाग्निना ये ते पूर्वं दग्धा महौजसः॥ 3 दुःषन्तश्च ततो राजा पुत्रं शाकुन्तलं तदा / तेभ्यः प्राचेतसो जज्ञे दक्षो दक्षादिमाः प्रजाः / भरतं नामतः कृत्वा यौवराज्येऽभ्यषेचयत् // 44 संभूताः पुरुषव्याघ्र स हि लोकपितामहः / / 4 तस्य तत्प्रथितं चक्रं प्रावर्तत महात्मनः / वीरिण्या सह संगम्य दक्षः प्राचेतसो मुनिः। भास्वरं दिव्यमजितं लोकसंनादनं महत् // 45 / आत्मतुल्यानजनयत्सहस्रं संशितव्रतान् // 5 . - 104 -
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________________ 1. 70. 6] आदिपर्व [1. 70. 34 सहस्रसंख्यान्समितान्सुतान्दक्षस्य नारदः / ततो महर्षिभिः क्रुद्धैः शप्तः सद्यो व्यनश्यत / मोक्षमध्यापयामास सांख्यज्ञानमनुत्तमम् // 6 लोभान्वितो मदबलान्नष्टसंज्ञो नराधिपः // 20 ततः पश्चाशतं कन्याः पुत्रिका अभिसंदधे / स हि गन्धर्वलोकस्थ उर्वश्या सहितो विराट् / प्रजापतिः प्रजा दक्षः सिसक्षुर्जनमेजय // 7 आनिनाय क्रियार्थेऽमीन्यथावद्विहितांत्रिधा / / 21 ददौ स दश धर्माय कश्यपाय त्रयोदश / षट् पुत्रा जज्ञिरेऽथैलादायु/मानमावसुः / कालस्य नयने युक्ताः सप्तविंशतिमिन्दवे // 8 दृढायुश्च वनायुश्च श्रुतायुश्चोर्वशीसुताः // 22 त्रयोदशानां पत्नीनां या तु दाक्षायणी वरा। नहुषं वृद्धशर्माणं रजिं रम्भमनेनसम् / मारीचः कश्यपस्तस्यामादित्यान्समजीजनत् / स्वर्भानवीसुतानेतानायोः पुत्रान्प्रचक्षते // 23 इन्द्रादीन्वीर्यसंपन्नान्विवस्वन्तमथापि च // 9 आयुषो नहुषः पुत्रो धीमान्सत्यपराक्रमः / विवस्वतः सुतो जज्ञे यमो वैवस्वतः प्रभुः / राज्यं शशास सुमहद्धर्मेण पृथिवीपतिः // 24 मार्तण्डश्च यमस्यापि पुत्रो राजन्नजायत // 10 पितृन्देवानृषीन्विप्रान्गन्धर्वोरगराक्षसान् / मार्तण्डस्य मनु/मानजायत सुतः प्रभुः। नहुषः पालयामास ब्रह्मक्षत्रमथो विशः // 25 मनोवंशो मानवानां ततोऽयं प्रथितोऽभवत् / स हत्वा दस्युसंघातानृषीन्करमदापयत्। ब्रह्मक्षत्रादयस्तस्मान्मनोर्जातास्तु मानवाः // 11 पशुवञ्चैव तान्पृष्ठे वाहयामास वीर्यवान् // 26 तत्राभवत्तदा राजन्ब्रह्म क्षत्रेण संगतम् / कारयामास चेन्द्रत्वमभिभूय दिवौकसः / ब्राह्मणा मानवास्तेषां साङ्गं वेदमदीधरन // 12 तेजसा तपसा चैव विक्रमेणौजसा तथा // 27 वेनं धृष्णुं नरिष्यन्तं नाभागेक्ष्वाकुमेव च / यतिं ययातिं संयातिमायातिं पाश्चमुद्धवम् / करूपमथ शर्याति तथैवात्राष्टमीमिलाम् // 13 नहुषो जनयामास षट् पुत्रान्प्रियवाससि // 28 पृषध्रनवमानाहुः क्षत्रधर्मपरायणान् / ययाति हुषः सम्राडासीत्सत्यपराक्रमः / नाभागारिष्टदशमान्मनोः पुत्रान्महाबलान् // 14 स पालयामास महीमीजे च विविधैः सवैः॥२९ पञ्चाशतं मनोः पुत्रास्तथैवान्येऽभवन्क्षितौ / अतिशक्त्या पितृनर्चन्देवांश्च प्रयतः सदा / अन्योन्यभेदात्ते सर्वे विनेशुरिति नः श्रुतम् // 15 अन्वगृह्णात्प्रजाः सर्वा ययातिरपराजितः // 30 पुरूरवास्ततो विद्वानिलायां समपद्यत / तस्य पुत्रा महेष्वासाः सर्वैः समुदिता गुणैः / सावै तस्याभवन्माता पिता चेति हि नः श्रुतम्।।१६ देवयान्यां महाराज शर्मिष्ठायां च जज्ञिरे // 31 प्रयोदश समुद्रस्य द्वीपानश्नन्पुरूरवाः / देवयान्यामजायेतां यदुस्तुर्वसुरेव च। अमानुषैर्वृतः सत्त्वैर्मानुषः सन्महायशाः // 17 द्रुाश्चानुश्च पूरुश्च शर्मिष्ठायां प्रजज्ञिरे // 32 विप्रैः स विग्रहं चक्रे वीर्योन्मत्तः पुरूरवाः / स शाश्वतीः समा राजन्प्रजा धर्मेण पालयन् / जहार च स विप्राणां रत्नान्युत्क्रोशतामपि / / 18 / जरामार्छन्महाघोरां नाहुषो रूपनाशिनीम् / / 33 सनत्कुमारस्तं राजन्ब्रह्मलोकादुपेत्य ह। जराभिभूतः पुत्रान्स राजा वचनमब्रवीत् / अनुदर्शयां ततश्चक्रे प्रत्यगृहान्न चाप्यसौ // 19 यदुं पूरुं तुर्वसुं च द्रुह्यु चानुं च भारत // 34 म.भा. 14 - 105 -
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________________ 1. 70. 35 ] . महाभारते [1.71. 14 यौवनेन चरन्कामान्युवा युवतिभिः सह / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण द्विजोत्तम / विहर्तुमहमिच्छामि साह्यं कुरुत पुत्रकाः // 35 आनुपूर्व्या च मे शंस पूरोवंशकरान्पृथक् // 2 तं पुत्रो देवयानेयः पूर्वजो यदुरब्रवीत् / वैशंपायन उवाच / किं कार्यं भवतः कार्यमस्माभिर्यौवनेन च // 36 ययातिरासीद्राजर्षिर्देवराजसमद्युतिः। ययातिरब्रवीत्तं वै जरा मे प्रतिगृह्यताम् / तं शुक्रवृषपर्वाणी वव्राते वै यथा पुरा // 3. यौवनेन त्वदीयेन चरेयं विषयानहम् // 37 तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि पृच्छतो जनमेजय / यजतो दीर्घसत्रैर्मे शापाच्चोशनसो मुनेः। देवयान्याश्च संयोगं ययाते हुषस्य च // 4 कामार्थः परिहीणो मे तप्येऽहं तेन पुत्रकाः॥३८ सुराणामसुराणां च समजायत वै मिथः / मामकेन शरीरेण राज्यमेकः प्रशास्तुं वः / ऐश्वर्य प्रति संघर्षस्त्रैलोक्ये सचराचरे // 5 अहं तन्वाभिनवया युवा कामानवाप्नुयाम् // 39 जिगीषया ततो देवा वव्रिरेऽऽङ्गिरसं मुनिम् / न ते तस्य प्रत्यगृह्णन्यदुप्रभृतयो जराम् / पौरोहित्येन याज्यार्थे काव्यं तूशनसं परे / तमब्रवीत्ततः परः कनीयान्सत्यविक्रमः॥ 40 ब्राह्मणौ तावुभौ नित्यमन्योन्यस्पर्धिनी भृशम् // 6 राजंश्चराभिनवया तन्वा यौवनगोचरः / तत्र देवा निजघ्नुर्यान्दानवान्युधि संगतान् / अहं जरां समास्थाय राज्ये स्थास्यामि तेऽऽज्ञया // 41 तान्पुनर्जीवयामास काव्यो विद्याबलाश्रयात् / / एवमुक्तः स राजर्षिस्तपोवीर्यसमाश्रयात् / ततस्ते पुनरुत्थाय योधयांचक्रिरे सुरान् // 7 संचारयामास जरां तदा पुत्रे महात्मनि // 42 असुरास्तु निजघ्नुर्यान्सुरान्समरमूर्धनि / पौरवेणाथ वयसा राजा यौवनमास्थितः / / न तान्संजीवयामास. बृहस्पतिरुदारधीः / / 8 यायातेनापि वयसा राज्यं पूरुरकारयत् // 43 न हि वेद स तां विद्यां यां काव्यो वेद वीर्यवान् / ततो वर्षसहस्रान्ते ययातिरपराजितः / संजीवनी ततो देवा विषादमगमन्परम् // 9 अतृप्त एव कामानां पूरं पुत्रमुवाच ह // 44 ते तु देवा भयोद्विग्नाः काव्यादुशनसस्तदा / त्वया दायादवानस्मि त्वं मे वंशकरः सुतः / ऊचुः कचमुपागम्य ज्येष्ठं पुत्रं बृहस्पतेः॥ 10 पौरवो वंश इति ते ख्याति लोके गमिष्यति // 45 भजमानान्भजस्वास्मान्कुरु नः साह्यमुत्तमम् / ततः स नृपशार्दूलः पूरुं राज्येऽभिषिच्य च। यासौ विद्या निवसति ब्राह्मणेऽमिततेजसि / कालेन महता पश्चात्कालधर्ममुपेयिवान् // 46 शुक्रे तामाहर क्षिप्रं भागभाङ् नो भविष्यसि॥११ इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि वृषपर्वसमीपे स शक्यो द्रष्टुं त्वया द्विजः / सप्ततितमोऽध्यायः // 7 // रक्षते दानवांस्तत्र न स रक्षत्यदानवान् // 12 71 तमाराधयितुं शक्तो भवान्पूर्ववयाः कविम् / - जनमेजय उवाच / देवयानी च दयितां सुतां तस्य महात्मनः // 13 ययातिः पूर्वकोऽस्माकं दशमो यः प्रजापतेः।। त्वमाराधयितुं शक्तो नान्यः कश्चन विद्यते / कथं स शुक्रतनयां लेभे परमदुर्लभाम् // 1 शीलदाक्षिण्यमाधुर्यैराचारेण दमेन च / - 106 -
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________________ 1. 71. 14 ] आदिपर्व [1. 71. 38 देवयान्यां हि तुष्टायां विद्यां तां प्राप्स्यसि ध्रुवम् // 14 उवाच वचनं काले देवयान्यथ भारत // 27 तथेत्युक्त्वा ततः प्रायाद्ब्रहस्पतिसुतः कचः / अहुतं चाग्निहोत्रं ते सूर्यश्चास्तं गतः प्रभो। तदाभिपूजितो देवैः समीपं वृषपर्वणः // 15 अगोपाश्चागता गावः कचस्तात न दृश्यते // 28 स गत्वा त्वरितो राजन्देवैः संप्रेषितः कचः। व्यक्तं हतो मृतो वापि कचस्तात भविष्यति / असुरेन्द्रपुरे शुक्रं दृष्ट्वा वाक्यमुवाच ह // 16 तं विना न च जीवेयं कचं सत्यं ब्रवीमि ते // 29 ऋषेरङ्गिरसः पौत्रं पुत्रं साक्षागृहस्पतेः।। शुक्र उवाच / नाम्ना कच इति ख्यातं शिष्यं गृह्णातु मां भवान् / / 17 अयमेहीति शब्देन मृतं संजीवयाम्यहम् // 30 ब्रह्मचर्य चरिष्यामि त्वय्यहं परमं गुरौ। . वैशंपायन उवाच / अनुमन्यस्व मां ब्रह्मन्सहस्रं परिवत्सरान् / / 18 ततः संजीवनी विद्यां प्रयुज्य कचमाह्वयत् / शुक्र उवाच / आहूतः प्रादुरभवत्कचोऽरिष्टोऽथ विद्यया। कच सुस्वागतं तेऽस्तु प्रतिगृह्णामि ते वचः।। हतोऽहमिति चाचख्यौ पृष्टो ब्राह्मणकन्यया // 31 अर्चयिष्येऽहमच्य॑ त्वामर्चितोऽस्तु बृहस्पतिः // 19 स पुनर्देवयान्योक्तः पुष्पाहारो यदृच्छया। वैशंपायन उवाच / वनं ययौ ततो विप्रो ददृशुर्दानवाश्च तम् / / 32 कचस्तु तं तथेत्युक्त्वा प्रतिजग्राह तद्रूतम् / ततो द्वितीयं हत्वा तं दग्ध्वा कृत्वा च चूर्णशः / आदिष्टं कविपुत्रेण शुक्रेणोशनसा स्वयम् / / 20 प्रायच्छन्ब्राह्मणायैव सुरायामसुरास्तदा // 33 व्रतस्य व्रतकालं स यथोक्तं प्रत्यगृह्णत / देवयान्यथ भूयोऽपि वाक्यं पितरमब्रवीत् / आराधयन्नुपाध्यायं देवयानी च भारत / / 21 पुष्पाहारः प्रेषणकृत्कचस्तात न दृश्यते // 34 नित्यमाराधयिष्यंस्तां युवा यौवनगोऽऽमुखे / शुक्र उवाच। गायन्नत्यन्वादयंश्च देवयानीमतोषयत् / / 22 बृहस्पतेः सुतः पुत्रि कचः प्रेतगतिं गतः / संशीलयन्देवयानी कन्यां संप्राप्तयौवनाम् / विद्यया जीवितोऽप्येवं हन्यते करवाणि किम् // 35 पुष्पैः फलैः प्रेषणेश्च तोषयामास भारत // 23 मैवं शुचो मा रुद देवयानि देवयान्यपि तं विप्रं नियमव्रतचारिणम् / न त्वादृशी मर्त्यमनुप्रशोचेत् / अनुगायमाना ललना रहः पर्यचरत्तदा // 24 सुराश्च विश्वे च जगच्च सर्वपश्च वर्षशतान्येवं कचस्य चरतो व्रतम् / मुपस्थितां वैकृतिमानमन्ति // 36 तत्रातीयुरथो बुवा दानवास्तं ततः कचम् / / 25 गा रक्षन्तं वने दृष्ट्वा रहस्येकममर्षिताः। यस्याङ्गिरा वृद्धतमः पितामहो जनव॒हस्पतेढेषाद्विद्यारक्षार्थमेव च / बृहस्पतिश्चापि पिता तपोधनः / हत्वा शालावृकेभ्यश्च प्रायच्छंस्तिलशः कृतम्। 26 ऋषेः पुत्रं तमथो वापि पौत्रं ततो गावो निवृत्तास्ता अगोपाः स्वं निवेशनम् / कथं न शोचेयमहं न रुद्याम् / / 37 ता दृष्ट्वा रहिता गास्तु कचेनाभ्यागता वनात् / / स ब्रह्मचारी च तपोधनश्च - 107 - देवयान्युवाच /
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________________ 1. 71. 38] महाभारते [1. 71. 51 सदोत्थितः कर्मसु चैव दक्षः। दृश्येत्कचो मद्गतो देवयानि // 44 कचस्य मार्ग प्रतिपत्स्ये न भोक्ष्ये देवयान्युवाच। प्रियो हि मे तात कचोऽभिरूपः // 38 द्वौ मां शोकावग्निकल्पौ दहेतां शुक्र उवाच / कचस्य नाशस्तव चैवोपघातः। असंशयं मामसुरा द्विषन्ति कचस्य नाशे मम नास्ति शर्म | ये मे शिष्यं नागसं सूदयन्ति / तवोपघाते जीवितुं नास्मि शक्ता // 45 अब्राह्मणं कर्तुमिच्छन्ति रौद्रा . शुक्र उवाच / स्ते मां यथा प्रस्तुतं दानवैर्हि / संसिद्धरूपोऽसि बृहस्पतेः सुत अप्यस्य पापस्य भवेदिहान्तः ___ यत्त्वां भक्तं भजते देवयानी / कं ब्रह्महत्या न दुहेदपीन्द्रम् // 39 विद्यामिमां प्राप्नुहि जीवनी त्वं वैशंपायन उवाच / __न चेदिन्द्रः कचरूपी त्वमद्य।। 46 संचोदितो देवयान्या महर्षिः पुनराह्वयत् / / न निवर्तेत्पुनर्जीवन्कश्चिदन्यो ममोदरात् / / संरम्भेणैव काव्यो हि बृहस्पतिसुतं कचम् // 40 ब्राह्मणं वर्जयित्वैकं तस्माद्विद्यामवाप्नुहि // 47 गुरोर्भीतो विद्यया चोपहूतः पुत्रो भूत्वा भावय भावितो माशनैर्वाचं जठरे व्याजहार। मस्माइहादुपनिष्क्रम्य तात। तमब्रवीत्केन पथोपनीतो समीक्षेथा धर्मवतीमवेक्षां / ममोदरे तिष्ठसि ब्रूहि विप्र // 41 . गुरोः सकाशात्प्राप्य विद्यां सविद्यः॥४८ कच उवाच / वैशंपायन उवाच / भवत्प्रसादान्न जहाति मां स्मृतिः गुरोः सकाशात्समवाप्य विद्यां __ स्मरे च सर्वं यच्च यथा च वृत्तम् / मित्त्वा कुक्षिं निर्विचक्राम विप्रः / न त्वेवं स्यात्तपसो व्ययो मे कचोऽभिरूपो दक्षिणं ब्राह्मणस्य ___ ततः क्लेशं घोरमिमं सहामि // 42 ___ शुक्लात्यये पौर्णमास्यामिवेन्दुः // 49 असुरैः सुरायां भवतोऽस्मि दत्तो दृष्ट्वा च तं पतितं ब्रह्मराशि। हत्वा दग्ध्वा चूर्णयित्वा च काव्य / . मुत्थापयामास मृतं कचोऽपि / ब्राझी मायामासुरी चैव माया विद्यां सिद्धां तामवाप्याभिवाद्य त्वयि स्थिते कथमेवातिवर्तेत् // 43 __ ततः कचस्तं गुरुमित्युवाच // 50 शुक्र उवाच / ऋतस्य दातारमनुत्तमस्य किं ते प्रियं करवाण्यद्य वत्से निधिं निधीनां चतुरन्वयानाम् / वधेन मे जीवितं स्यात्कचस्य / ये नाद्रियन्ते गुरुमर्चनीयं नान्यत्र कुक्षेर्मम भेदनेन पापाल्लोकांस्ते व्रजन्त्यप्रतिष्ठान् // 51 - 108 -
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________________ 1. 71. 52] आदिपर्व [1. 72. 13 वैशंपायन उवाच। ___72 सुरापानाद्वश्चनां प्रापयित्वा वैशंपायन उवाच / ___ संज्ञानाशं चैव तथातिघोरम् / समावृत्तव्रतं तं तु विमुष्टं गुरुणा तदा / दृष्ट्वा कचं चापि तथाभिरूपं प्रस्थितं त्रिदशावासं देवयान्यब्रवीदिदम् // 1 पीतं तदा सुरया मोहितेन // 52 ऋषेरङ्गिरसः पौत्र वृत्तेनाभिजनेन च / समन्युरुत्थाय महानुभाव भ्राजसे विद्यया चैव तपसा च दमेन च // 2 स्तदोशना विप्रहितं चिकीर्षुः / ऋषिर्यथाङ्गिरा मान्यः पितुर्मम महायशाः / काव्यः स्वयं वाक्यमिदं जगाद तथा मान्यश्च पूज्यश्च भूयो मम बृहस्पतिः / / 3 सुरापानं प्रति वै जातशङ्कः // 53 एवं ज्ञात्वा विजानीहि यद्भवीमि तपोधन / यो ब्राह्मणोऽद्यप्रभृतीह कश्चि व्रतस्थे नियमोपेते यथा वर्ताम्यहं त्वयि // 4 * मोहात्सुरां पास्यति मन्दबुद्धिः / स समावृत्तविद्यो मां भक्तां भजितुमर्हसि / अपेतधर्मो ब्रह्महा चैव स स्या गृहाण पाणिं विधिवन्मम मत्रपुरस्कृतम् // 5 दस्मिल्लोके गर्हितः स्यात्परे च / / 54 कच उवाच / मया चेमां विप्रधर्मोक्तिसीमां पूज्यो मान्यश्च भगवान्यथा तव पिता मम / मर्यादां वै स्थापितां सर्वलोके। तथा त्वमनवद्याङ्गि पूजनीयतरा मम // 6 सन्तो विप्राः शुश्रुवांसो गुरूणां आत्मप्राणैः प्रियतमा भार्गवस्य महात्मनः / देवा लोकाश्चोपशृण्वन्तु सर्वे // 55 त्वं भद्रे धर्मतः पूज्या गुरुपुत्री सदा मम // 7 इतीदमुक्त्वा स महानुभाव यथा मम गुरुर्नित्यं मान्यः शुक्रः पिता तव / स्तपोनिधीनां निधिरप्रमेयः / देवयानि तथैव त्वं नैवं मां वक्तुमर्हसि // 8 तान्दानवान्दैवविमूढबुद्धी देवयान्युवाच / / निदं समाहूय वचोऽभ्युवाच // 56 गुरुपुत्रस्य पुत्रो वै न तु त्वमसि मे पितुः / आचक्षे वो दानवा बालिशाः स्थ तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च ममापि त्वं द्विजोत्तम // 9 सिद्धः कचो वत्स्यति मत्सकाशे। असुरैर्हन्यमाने च कच त्वयि पुनः पुनः / संजीवनीं प्राप्य विद्यां महार्थी तदाप्रभृति या प्रीतिस्तां त्वमेव स्मरस्व मे // 10 तुल्यप्रभावो ब्रह्मणा ब्रह्मभूतः // 57 सौहार्दे चानुरागे च वेत्थ मे भक्तिमुत्तमाम् / पुरोरुष्य सकाशे तु दश वर्षशतानि सः।। न मामर्हसि धर्मज्ञ त्यक्तुं भक्तामनागसम् // 11 बनुलातः कचो गन्तुमियेष त्रिदशालयम् / / 58 कच उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अनियोज्ये नियोगे मां नियुनक्षि शुभवते / एकसप्ततितमोऽध्यायः // 71 // प्रसीद सुभ्रु त्वं मह्यं गुरोर्गुरुतरी शुभे // 12 यत्रोषितं विशालाक्षि त्वया चन्द्रनिभानने / -.109 --
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________________ 1. 72. 13 ] महाभारते [1.73. 14 तत्राहमुषितो भद्रे कुक्षौ काव्यस्य भामिनि॥ 13 कचादधीत्य तां विद्यां कृतार्था भरतर्षभ // 1 भगिनी धर्मतो मे त्वं मैवं वोचः शुभानने / सर्व एव समागम्य शतक्रतुमथाब्रुवन् / सुखमस्म्युषितो भद्रे न मन्युर्विद्यते मम // 14 कालस्ते विक्रमस्याद्य जहि शत्रून्पुरंदर // 2 आपृच्छे त्वां गमिष्यामि शिवमाशंस मे पथि / एवमुक्तस्तु सहितैत्रिदशैर्मघवांस्तदा / अविरोधेन धर्मस्य स्मर्तव्योऽस्मि कथान्तरे / तथेत्युक्त्वोपचक्राम सोऽपश्यत वने स्त्रियः // 3 अप्रमत्तोत्थिता नित्यमाराधय गुरुं मम // 15 / क्रीडन्तीनां तु कन्यानां वने चैत्ररथोपमे / देवयान्युवाच / वायुभूतः स वस्त्राणि सर्वाण्येव व्यमिश्रयत् // 4 यदि मां धर्मकामार्थे प्रत्याख्यास्यसि चोदितः / ततो जलात्समुत्तीय कन्यास्ताः सहितास्तदा / ततः कच न ते विद्या सिद्धिमेषा गमिष्यति // 16 वस्त्राणि जगृहुस्तानि यथासन्नान्यनेकशः // 5 कच उवाच / तत्र वासो देवयान्याः शर्मिष्ठा जगृहे तदा / गुरुपुत्रीति कृत्वाहं प्रत्याचक्षे न दोषतः / व्यतिमिश्रमजानन्ती दुहिता वृषपर्वणः // 6 गुरुणा चाभ्यनुज्ञातः काममेवं शपस्व माम् // 17 ततस्तयोमिथस्तत्र विरोधः समजायत / आर्ष धर्म ब्रुवाणोऽहं देवयानि यथा त्वया। देवयान्याश्च राजेन्द्र शर्मिष्ठायाश्च तत्कृते // 7 शप्तो नार्होऽस्मि शापस्य कामतोऽद्य न धर्मतः॥ 18 देवयान्युवाच / तस्माद्भवत्या यः कामो न तथा स भविष्यति / कस्माद्गृह्णासि मे वस्त्रं शिष्या भूत्वा ममासुरि / ' ऋषिपुत्रो न ते कश्चिज्जातु पाणिं ग्रहीष्यति // 19 समुदाचारहीनाया न ते श्रेयो भविष्यति // 8 फलिष्यति न ते विद्या यत्त्वं मामात्थ तत्तथा / शर्मिष्ठोवाच / अध्यापयिष्यामि तु यं तस्य विद्या फलिष्यति // 20 आसीनं च शयानं च पिता ते पितरं मम / / वैशंपायन उवाच / स्तौति वन्दति चाभीक्ष्णं नीचैः स्थित्वा विनीतवत्॥९ एवमुक्त्वा द्विजश्रेष्ठो देवयानी कचस्तदा / याचतस्त्वं हि दुहिता स्तुवतः प्रतिगृह्णतः। त्रिदशेशालयं शीघ्रं जगाम द्विजसत्तमः // 21 सुताहं स्तूयमानस्य ददतोऽप्रतिगृह्णतः // 10 तमागतमभिप्रेक्ष्य देवा इन्द्रपुरोगमाः। .. अनायुधा सायुधाया रिक्ता क्षुभ्यसि भिक्षुकि / बृहस्पतिं सभाज्येदं कचमाहुर्मुदान्विताः॥ 22 * लप्स्यसे प्रतियोद्धारं न हि त्वां गणयाम्यहम् // 11 यत्त्वमस्मद्धितं कर्म चकर्थ परमाद्भुतम् / वैशंपायन उवाच / न ते यशः प्रणशिता भागभाङ् नो भविष्यति॥२३ समुच्छ्रयं देवयानीं गतां सक्तां च वाससि।। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि शर्मिष्ठा प्राक्षिपत्कूपे ततः स्वपुरमाव्रजत् / / 12 द्विसप्ततितमोऽध्यायः॥७२॥ हतेयमिति विज्ञाय शर्मिष्ठा पापनिश्चया। 73 अनवेक्ष्य ययौ वेश्म क्रोधवेगपरायणा // 13 वैशंपायन उवाच। अथ तं देशमभ्यागाद्ययातिर्नहुषात्मजः। कृतविद्ये कचे प्राप्त हृष्टरूपा दिवौकसः / श्रान्तयुग्यः श्रान्तहयो मृगलिप्सुः पिपासितः // 1 -110 -
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________________ 1. 73. 15] आदिपर्व [1. 74. 3 स नाहुषः प्रेक्षमाण उदपानं गतोदकम् / दृष्ट्वा दुहितरं काव्यो देवयानी ततो बने / ददर्श कन्यां तां तत्र दीप्तामग्निशिखामिव // 15 बाहुभ्यां संपरिष्वज्य दुःखितो वाक्यमब्रवीत् // 28 तामपृच्छत्स दृष्ट्वैव कन्याममरवर्णिनीम्। आत्मदोषैर्नियच्छन्ति सर्वे दुःखसुखे जनाः / सान्त्वयित्वा नृपश्रेष्ठः साम्ना परमवल्गुना // 16 मन्ये दुश्चरितं तेऽस्ति यस्येयं निष्कृतिः कृता // 29 का त्वं ताम्रनखी श्यामा सुमृष्टमणिकुण्डला। देवयान्युवाच। दीर्घ ध्यायसि चात्यर्थं कस्माच्छसिषि चातुरा।।१७ | निष्कृतिर्मेऽस्तु वा मास्तु शृणुष्वावहितो मम / कथं च पतितास्यस्मिन्कूपे वीरुत्तृणावृते / शर्मिष्ठया यदुक्तास्मि दुहित्रा वृषपर्वणः / दुहिता चैव कस्य त्वं वद सर्वं सुमध्यमे // 18 सत्यं किलैतत्सा प्राह दैत्यानामसि गायनः // 30 देवयान्युवाच। एवं हि मे कथयति शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी / योऽसौ देवैर्हतान्दैत्यानुत्थापयति विद्यया। वचनं तीक्ष्णपरुषं क्रोधरक्तेक्षणा भृशम् // 31 तस्य शुक्रस्य कन्याहं स मां नूनं न बुध्यते // 19 / स्तुवतो दुहिता हि त्वं याचतः प्रतिगृह्णतः / एष मे दक्षिणो राजन्पाणिस्ताम्रनखाङ्गुलिः। सुताहं स्तूयमानस्य ददतोऽप्रतिगृह्णतः / / 32 समुद्धर गृहीत्वा मां कुलीनस्त्वं हि मे मतः // 20 इति मामाह शर्मिष्ठा दुहिता वृषपर्वणः / जानामि हि त्वां संशान्तं वीर्यवन्तं यशस्विनम् / क्रोधसंरक्तनयना दर्पपूर्णा पुनः पुनः // 33 तस्मान्मां पतितामस्मात्कूपादुद्धर्तुमर्हसि // 21 यद्यहं स्तुवतस्तात दुहिता प्रतिगृह्णतः / वैशंपायन उवाच / प्रसादयिष्ये शर्मिष्ठामित्युक्ता हि सखी मया // 34 तामथ ब्राह्मणी स्त्री च विज्ञाय नहुषात्मजः / __ शुक्र उवाच / गृहीत्वा दक्षिणे पाणावुज्जहार ततोऽवटोत् / / 22 स्तवतो दहिता न त्वं भदे न प्रतिगहतः / उद्धृत्य चैनां तरसा तस्मात्कूपान्नराधिपः / अस्तोतुः स्तूयमानस्य दुहिता देवयान्यसि // 35 . आमत्रयित्वा सुश्रोणीं ययातिः स्वपुरं ययौ // 23 / वृषपर्वैव तद्वेद शक्रो राजा च नाहुषः / देवयान्युवाच / अचिन्त्यं ब्रह्म निर्द्वन्द्वमैश्वरं हि बलं मम // 36 त्वरितं घूर्णिके गच्छ सर्वमाचक्ष्व मे पितुः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि नेदानी हि प्रवेक्ष्यामि नगरं वृषपर्वणः // 24 त्रिसप्ततितमोऽध्यायः // 73 // वैशंपायन उवाच / 74 सा तु वै त्वरितं गत्वा घूर्णिकासुरमन्दिरम् / शुक्र उवाच। दृष्ट्वा काव्यमुवाचेदं संभ्रमाविष्टचेतना // 25 यः परेषां नरो नित्यमतिवादांस्तितिक्षति / आचक्षे ते महाप्राज्ञ देवयानी वने हता। देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम् // 1 शर्मिष्ठया महाभाग दुहित्रा वृषपर्वणः // 26 यः समुत्पतितं क्रोधं निगृह्णाति हयं यथा / श्रुत्वा दुहितरं काव्यस्तत्र शर्मिष्ठया हताम् / स यन्तेत्युच्यते सद्भिर्न यो रश्मिषु लम्बते // 2 त्वरया निर्ययौ दुःखान्मार्गमाणः सुतां वने // 27 / यः समुत्पतितं क्रोधमक्रोधेन निरस्यति / - 111 -
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________________ 1. 74. 3] महाभारते [1.75. 13 देवयानि विजानीहि तेन सर्वमिदं जितम् // 3 यदघातयथा विप्रं कचमाङ्गिरसं तदा / यः समुत्पतितं क्रोधं क्षमयेह निरस्यति / अपापशीलं धर्मज्ञं शुश्रूषू मद्गृहे रतम् // 3 यथोरगस्त्वचं जीर्णां स वै पुरुष उच्यते // 4 वधादनहतस्तस्य वधाच्च दुहितुर्मम / यः संधारयते मन्यु योऽतिवादांस्तितिक्षति / वृषपर्वग्निबोधेदं त्यक्ष्यामि त्वां सबान्धवम् / यश्च तप्तो न तपति दृढं सोऽर्थस्य भाजनम् // 5 स्थातुं त्वद्विषये राजन्न शक्ष्यामि त्वया सह // 4 यो यजेदपरिश्रान्तो मासि मासि शतं समाः / अहो मामभिजानासि दैत्य मिथ्याप्रलापिनम् / न क्रुध्येयश्च सर्वस्य तयोरक्रोधनोऽधिकः // 6 यथेममात्मनो दोषं न नियच्छस्युपेक्षसे / 5 यत्कुमाराः कुमार्यश्च वैरं कुर्युरचेतसः / . वृषपर्वोवाच / न तत्प्राज्ञोऽनुकीत विदुस्ते न बलाबलम् // 7 नाधर्म न मृषावादं त्वयि जानामि भार्गव / देवयान्युवाच। त्वयि धर्मश्च सत्यं च तत्प्रसीदतु नो भवान् // 6 वेदाहं तात बालापि धर्माणां यदिहान्तरम् / यद्यस्मानपहाय त्वमितो गच्छसि भार्गव / अक्रोधे चातिवादे च वेद चापि बलाबलम् // 8 समुद्रं संप्रवेक्ष्यामो नान्यदस्ति परायणम् // 7 शिष्यस्याशिष्यवृत्तेहि न क्षन्तव्यं बुभूषता। शुक्र उवाच / तस्मात्संकीर्णवृत्तेषु वासो मम न रोचते // 9 समुद्रं प्रविशध्वं वा दिशो वा द्रवतासुराः / पुमांसो ये हि निन्दन्ति वृत्तेनाभिजनेन च / दुहितु प्रियं सोढुं शक्तोऽहं दयिता हि मे // 8 न तेषु निवसेत्प्राज्ञः श्रेयोर्थी पापबुद्धिषु // 10 प्रसाद्यतां देवयानी जीवितं ह्यत्र मे स्थितम् / ये त्वेनमभिजानन्ति वृत्तेनाभिजनेन च / योगक्षेमकरस्तेऽहमिन्द्रस्येव बृहस्पतिः // 9 तेषु साधुषु वस्तव्यं स वासः श्रेष्ठ उच्यते // 11 . वृषपर्वोवाच। वाग्दुरुक्तं महाघोरं दुहितुर्वृषपर्वणः / यत्किंचिदसुरेन्द्राणां विद्यते वसु भार्गव / न ह्यतो दुष्करतरं मन्ये लोकेष्वपि त्रिषु / भुवि हस्तिगवाश्वं वा तस्य त्वं मम चेश्वरः // 10 यः सपत्नश्रियं दीप्तां हीनश्रीः पर्युपासते // 12 - शुक्र उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि यत्किंचिदस्ति द्रविणं दैत्येन्द्राणां महासुर / . चतुःसप्ततितमोऽध्यायः // 74 // तस्येश्वरोऽस्मि यदि ते देवयानी प्रसाद्यताम् // 11 वैशंपायन उवाच / देवयान्युवाच। ततः काव्यो भृगुश्रेष्ठः समन्युरुपगम्य ह / यदि त्वमीश्वरस्तात राज्ञो वित्तस्य भार्गव / वृषपर्वाणमासीनमित्युवाचाविचारयन् // 1 नाभिजानामि तत्तेऽहं राजा तु वदतु स्वयम् // 12 नाधर्मश्चरितो राजन्सद्यः फलति गौरिव / वृषपर्वोवाच / पुत्रेषु वा नतृषु वा न चेदात्मनि पश्यति / यं काममभिकामासि देवयानि शुचिस्मिते / फलत्येव ध्रुवं पापं गुरुभुक्तमिवोदरे // 2 तत्तेऽहं संप्रदास्यामि यदि चेदपि दुर्लभम् // 13 - 112 - 75
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________________ 1. 75. 14 ] आदिपर्व [1. 76.9 76 देवयान्युवाच / अमोघं तव विज्ञानमस्ति विद्याबलं च ते // 24 दासी कन्यासहस्रेण शर्मिष्ठामभिकामये। एवमुक्तो दुहित्रा स द्विजश्रेष्ठो महायशाः / अनु मां तत्र गच्छेत्सा यत्र दास्यति मे पिता // 14 | प्रविवेश पुरं हृष्टः पूजितः सर्वदानवैः // 25 - वृषपर्वोवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि उत्तिष्ठ हे संग्रहीत्रि शर्मिष्ठां शीघ्रमानय / पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः // 75 // यं च कामयते कामं देवयानी करोतु तम् // 15 वैशंपायन उवाच / वैशंपायन उवाच। ततो धात्री तत्र गत्वा शर्मिष्ठां वाक्यमब्रवीत् / अथ दीर्घस्य कालस्य देवयानी नृपोत्तम / उत्तिष्ठ भद्रे शर्मिष्ठे ज्ञातीनां सुखमावह // 16 त्यजति ब्राह्मणः शिष्यान्देवयान्या प्रचोदितः / वनं तदेव निर्याता क्रीडाथ वरवर्णिनी // 1 सा यं कामयते कामं स कार्योऽद्य त्वयानघे // 17 तेन दासीसहस्रेण सार्धं शर्मिष्ठया तदा। तमेव देशं संप्राप्ता यथाकामं चचार सा। ___ शर्मिष्ठावाच / सा यं कामयते कामं करवाण्यहमद्य तम्। ताभिः सखीभिः सहिता सर्वाभिमुदिता भृशम् // 2 मा त्वेवापगमच्छुको देवयानी च मत्कृते // 18 क्रीडन्त्योऽभिरताः सर्वाः पिबन्त्यो मधुमाधवीम् / खादन्त्यो विविधान्भक्ष्यान्विदशन्त्यः फलानि च // 3 : वैशंपायन उवाच। पुनश्च नाहुषो राजा मृगलिप्सुर्यदृच्छया / ततः कन्यासहस्रेण वृता शिबिकया तदा / पितुर्नियोगात्त्वरिता निश्चक्राम पुरोत्तमात् // 19 तमेव देशं संप्राप्तो जलार्थी श्रमकर्शितः // 4 ददृशे देवयानी च शर्मिष्ठां ताश्च योषितः / शर्मिष्ठोवाच / पिबन्तीललमानाश्च दिव्याभरणभूषिताः // 5 अहं कन्यासहस्रेण दासी ते परिचारिका / उपविष्टां च ददृशे देवयानी शुचिस्मिताम् / अनु.त्वां तत्र यास्यामि यत्र दास्यति ते पिता॥२० रूपेणाप्रतिमा तासां स्त्रीणां मध्ये वराङ्गनाम् / देवयान्युवाच / स्तुवतो दुहिता तेऽहं बन्दिनः प्रतिगृह्णतः / शर्मिष्ठया सेव्यमानां पादसंवाहनादिभिः॥ 6 तूयमानस्य दुहिता कथं दासी भविष्यसि // 21 ययातिरुवाच। शर्मिष्ठोवाच / द्वाभ्यां कन्यासहस्राभ्यां द्वे कन्ये परिवारिते। पेन केनचिदार्तानां ज्ञातीनां सुखमावहेत्। गोत्रे च नामनी चैव द्वयोः पृच्छामि वामहम्॥७ अतस्त्वामनुयास्यामि यत्र दास्यति ते पिता / / 22 देवयान्युवाच / वैशंपायन उवाच / आख्यास्याम्यहमादत्स्व वचनं मे नराधिप / प्रतिश्रुते दासभावे दुहित्रा वृषपर्वणः / शुक्रो नामासुरगुरुः सुतां जानीहि तस्य माम् // 8 देवयानी नृपश्रेष्ठ पितरं वाक्यमब्रवीत् // 23 इयं च मे सखी दासी यत्राहं तत्र गामिनी / रविशामि पुरं तात तुष्टास्मि द्विजसत्तम / | दुहिता दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा वृषपर्वणः // 9 म.भा. 15 - 113 -
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________________ 1. 76. 10] महाभारते [1. 76. 30 ययातिरुवाच। देवयान्युवाच / कथं नु ते सखी दासी कन्येयं वरवर्णिनी। पाणिधर्मो नाहुषायं न पुम्भिः सेवितः पुरा / असुरेन्द्रसुता सुभ्र परं कौतूहलं हि मे // 10 तं मे त्वमग्रहीर वृणोमि त्वामहं ततः // 20 देवयान्युवाच / कथं नु मे मनस्विन्याः पाणिमन्यः पुमान्स्पृशेत् / सर्व एव नरव्याघ्र विधानमनुवर्तते। गृहीतमृषिपुत्रेण स्वयं वाप्य॒षिणा त्वया // 21 विधानविहितं मत्वा मा विचित्राः कथाः कृथाः॥११ __ययातिरुवाच। . राजवद्रूपवेषौ ते ब्राह्मीं वाचं बिभर्षि च। क्रुद्धादाशीविषात्सर्पाज्वलनात्सर्वतोमुखात् / किंनामा त्वं कुतश्चासि कस्य पुत्रश्च शंस मे // 12 दुराधर्षतरो विप्रः पुरुषेण विजानता // 22 ययातिरुवाच। देवयान्युवाच / ब्रह्मचर्येण कृत्स्नो मे वेदः श्रुतिपथं गतः। कथमाशीविषात्सर्पाज्ज्वलनात्सर्वतोमुखात् / राजाहं राजपुत्रश्च ययातिरिति विश्रुतः॥ 13 / दुराधर्षतरो विप्र इत्यात्थ पुरुषर्षभ // 23 ययातिरुवाच / देवयान्युवाच। एकमाशीविषो हन्ति शस्त्रेणैकश्च वध्यते / केनास्यर्थेन नृपते इमं देशमुपागतः / जिघृक्षुरिजं किंचिदथ वा मृगलिप्सया // 14 हन्ति विप्रः सराष्ट्राणि पुराण्यपि हि कोपितः॥ 24 दुराधर्षतरो विप्नस्तस्माद्भीरु मतो मम / ययातिरुवाच। अतोऽदत्तां च पित्रा त्वां भद्रे न विवहाम्यहम् // 25 मृगलिप्सुरहं भद्रे पानीयार्थमुपागतः / देक्यान्युवाच / बहु चाप्यनुयुक्तोऽस्मि तन्मानुज्ञातुमर्हसि // 15 दत्तां वहस्व पित्रा मां त्वं हि राजन्वृतो मया / देवयान्युवाच / अयाचतो भयं नास्ति दत्तां च प्रतिगृह्णतः // 26 द्वाभ्यां कन्यासहस्राभ्यां दास्या शर्मिष्ठया सह / वैशंपायन उवाच / त्वधीनास्मि भद्रं ते सखा भर्ता च मे भव // 16 त्वरितं देवयान्याथ प्रेषितं पितुरात्मनः / ___ ययातिरुवाच। श्रुत्वैव च स राजानं दर्शयामास भार्गवः // 27 विद्ध्यौशनसि भद्रं ते न त्वामहॊऽस्मि भामिनि / दृष्ट्वैव चागतं शुक्रं ययातिः पृथिवीपतिः / अविवाह्या हि राजानो देवयानि पितुस्तव // 17 ववन्दे ब्राह्मणं काव्यं प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः॥२८ देवयान्युवाच। देवयान्युवाच। संसृष्टं ब्रह्मणा क्षत्रं क्षत्रं च ब्रह्मसंहितम् / राजायं नाहुषस्तात दुर्गे मे पाणिमग्रहीत् / ऋषिश्च ऋषिपुत्रश्च नाहुषाङ्ग वहस्व माम् // 18 नमस्ते देहि मामस्मै नान्यं लोके पतिं वृणे // 2 ययातिरुवाच। शुक्र उवाच / एकदेहोद्भवा वर्णाश्चत्वारोऽपि वराङ्गने / वृतोऽनया पतिर्वीर सुतया त्वं ममेष्टया / पृथग्धर्माः पृथक्शौचास्तेषां तु ब्राह्मणो वरः // 19 / गृहाणेमां मया दत्तां महिषीं नहुषात्मज // 30 -114 -
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________________ 1. 76. 31] आदिपर्व [1. 77. 18 ययातिरुवाच। किं प्राप्तं किं नु कर्तव्यं किं वा कृत्वा कृतं भवेत् // 7 अधर्मो न स्पृशेदेवं महान्मामिह भार्गव / देवयानी प्रजातासौ वृथाहं प्राप्तयौवना। वर्णसंकरजो ब्रह्मन्निति त्वां प्रवृणोम्यहम् // 31 यथा तया वृतो भर्ता तथैवाहं वृणोमि तम् // 8 शुक्र उवाच / राज्ञा पुत्रफलं देयमिति मे निश्चिता मतिः / अधर्मात्त्वां विमुञ्चामि वरयस्व यथेप्सितम् / अपीदानी स धर्मात्मा इयान्मे दर्शनं रहः // 9 अस्मिन्विवाहे मा ग्लासीरहं पापं नुदामि ते // 32 अथ निष्क्रम्य राजासौ तस्मिन्काले यदृच्छया / वहस्व भार्यां धर्मेण देवयानी सुमध्यमाम् / / अशोकवनिकाभ्याशे शर्मिष्ठां प्राप्य विष्ठितः॥१० अनया सह संप्रीतिमतुलां समवाप्स्यसि // 33 तमेकं रहिते दृष्ट्वा शर्मिष्ठा चारुहासिनी / इयं चापि कुमारी ते शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी / प्रत्युद्गम्याञ्जलिं कृत्वा राजानं वाक्यमब्रवीत्॥ 11 संपूज्या सततं राजन्मा चैनां शयने ह्वयेः // 34 सोमस्येन्द्रस्य विष्णोर्वा यमस्य वरुणस्य वा। वैशंपायन उवाच। तव वा नाहुष कुले कः स्त्रियं स्पष्टुमर्हति // 12 एवमुक्तो ययातिस्तु शुक्रं कृत्वा प्रदक्षिणम् / रूपाभिजनशीलैहि त्वं राजन्वेत्थ मां सदा / जगाम स्वपुरं हृष्टो अनुज्ञातो महात्मना // 35 सा त्वां याचे प्रसाद्याहमृतुं देहि नराधिप // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ययातिरुवाच / षट्सप्ततितमोऽध्यायः // 76 // वेद्मि त्वां शीलसंपन्नां दैत्यकन्यामनिन्दिताम् / 77 रूपे च ते न पश्यामि सूच्यग्रमपि निन्दितम्॥१४ वैशंपायन उवाच / अब्रवीदुशना काव्यो देवयानीं यदावहम् / ययातिः स्वपुरं प्राप्य महेन्द्रपुरसंनिभम् / नेयमाह्वयितव्या ते शयने वार्षपर्वणी // 15 प्रविश्यान्तःपुरं तत्र देवयानी न्यवेशयत् // 1 शर्मिष्ठोवाच / देवयान्याश्चानुमते तां सुतां वृषपर्वणः / न नर्मयुक्तं वचनं हिनस्ति अशोकवनिकाभ्याशे गृहं कृत्वा न्यवेशयत् // 2 न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले / वृतां दासीसहस्रेण शर्मिष्ठामासुरायणीम् / प्राणात्यये सर्वधनापहारे पासोमिरन्नपानैश्च संविभज्य सुसत्कृताम् // 3 पञ्चानृतान्याहुरपातकानि // 16 देवयान्या तु सहितः स नृपो नहुषात्मजः / पृष्टं तु साक्ष्ये प्रवदन्तमन्यथा जहार बहूनब्दान्देववन्मुदितो भृशम् // 4 वदन्ति मिथ्योपहितं नरेन्द्र / तुकाले तु संप्राप्ते देवयानी वराङ्गना / एकार्थतायां तु समाहितायां मे गर्भ प्रथमतः कुमारं च व्यजायत // 5 मिथ्या वदन्तमनृतं हिनस्ति / / 17 मते वर्षसहस्रे तु शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी / ___ययातिरुवाच / ददर्श यौवनं प्राप्ता ऋतुं सा चान्वचिन्तयत् // 6 / राजा प्रमाणं भूतानां स नश्येत मृषा वदन / लुकालश्च संप्राप्तो न च मेऽस्ति पतिवृतः। अर्थकृच्छ्रमपि प्राप्य न मिथ्या कर्तुमुत्सहे // 18 - 115 -
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________________ 1. 77. 19 ] महाभारते [1.78. 14 शर्मिष्ठोवाच / शर्मिष्ठोवाच। समावेतौ मतौ राजन्पतिः सख्याश्च यः पतिः / ऋषिरभ्यागतः कश्चिद्धर्मात्मा वेदपारगः / समं विवाहमित्याहुः सख्या मेऽसि पतिवृतः॥१९ स मया वरदः कामं याचितो धर्मसंहितम् // 3 ययातिरुवाच। नाहमन्यायतः काममाचरामि शुचिस्मिते / दातव्यं याचमानेभ्य इति मे व्रतमाहितम् / तस्मादृषेर्ममापत्यमिति सत्यं ब्रवीमि ते // 4 त्वं च याचसि मां कामं ब्रूहि किं करवाणि ते॥२० देवयान्युवाच / शर्मिष्ठोवाच / शोभनं भीरु सत्यं चेदथ स ज्ञायते द्विजः / अधर्मात्त्राहि मां राजन्धर्मं च प्रतिपादय / / गोत्रनामाभिजनतो वेत्तुमिच्छामि तं द्विजम् // 5 त्वत्तोऽपत्यवती लोके चरेयं धर्ममुत्तमम् // 21 शर्मिष्ठोवाच / त्रय एवाधना राजन्भार्या दासस्तथा सुतः। ओजसा तेजसा चैव दीप्यमानं रविं यथा / यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम् // 22 / तं दृष्ट्वा मम संप्रष्टुं शक्ति सीच्छुचिस्मिते // 6 देवयान्या भुजिष्यास्मि वश्या च तव भार्गवी। देवयान्युवाच / सा चाहं च त्वया राजन्भरणीये भजस्व माम्॥२३ यद्येतदेवं शर्मिष्ठे न मन्युर्विद्यते मम / वैशंपायन उवाच / अपत्यं यदि ते लब्धं ज्येष्ठाच्छ्रेष्ठाच्च वै द्विजात् // 7 एवमुक्तस्तु राजा स तथ्यमित्येव जज्ञिवान् / वैशंपायन उवाच। पूजयामास शर्मिष्ठां धर्मं च प्रत्यपादयत् // 24 अन्योन्यमेवमुक्त्वा च संप्रहस्य च ते मिथः / समागम्य च शर्मिष्ठां यथाकाममवाप्य च / जगाम भार्गवी वेश्म तथ्यमित्येव जञ्जुषी // 8 अन्योन्यमभिसंपूज्य जग्मतुस्तौ यथागतम् // 25 ययातिदेवयान्यां तु पुत्रावजनयन्नृपः / तस्मिन्समागमे सुभ्रूः शर्मिष्ठा चारुहासिनी / यदुं च तुर्वसु चैव शक्रविष्णू इवापरौ // 9 लेभे गर्भ प्रथमतस्तस्मान्नृपतिसत्तमात् // 26 तस्मादेव तु राजर्षेः शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी / प्रजज्ञे च ततः काले राजनराजीवलोचना / द्रुह्यं चानुं च पूरुं च त्रीन्कुमारानजीजनत् // 10 कुमारं देवगर्भाभं राजीवनिभलोचनम् // 27 ततः काले तु कस्मिंश्चिद्देवयानी शुचिस्मिता / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ययातिसहिता राजन्निर्जगाम महावनम् // 11 ददर्श च तदा तत्र कुमारान्देवरूपिणः / 78 क्रीडमानान्सुविश्रब्धान्विस्मिता चेदमब्रवीत् // 12 वैशंपायन उवाच / कस्यैते दारका राजन्देवपुत्रोपमाः शुभाः। श्रुत्वा कुमारं जातं तु देवयानी शुचिस्मिता / वर्चसा रूपतश्चैव सदृशा मे मतास्तव // 13 चिन्तयामास दुःखार्ता शर्मिष्ठां प्रति भारत // 1 एवं पृष्ट्वा तु राजानं कुमारान्पर्यपृच्छत / अभिगम्य च शर्मिष्ठां देवयान्यब्रवीदिदम् / किंनामधेयगोत्रो वः पुत्रका ब्राह्मणः पिता / किमिदं वृजिनं सुभ्र कृतं ते कामलुब्धया // 2 / विब्रूत मे यथातथ्यं श्रोतुमिच्छामि तं ह्यहम् // 14 - 116 - सप्तसप्ततितमोऽध्यायः // 77 //
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________________ 1. 78. 15 ] आदिपर्व [1.78. 39 तेऽदर्शयन्प्रदेशिन्या तमेव नृपसत्तमम् / त्रयोऽस्यां जनिताः पुत्रा राज्ञानेन ययातिना / शर्मिष्ठां मातरं चैव तस्याचख्युश्च दारकाः // 15 / दुर्भगाया मम द्वौ तु पुत्रौ तात ब्रवीमि ते // 28 इत्युक्त्वा सहितास्ते तु राजानमुपचक्रमुः। धर्मज्ञ इति विख्यात एष राजा भृगूद्वह। नाभ्यनन्दत तान्राजा देवयान्यास्तदान्तिके / अतिक्रान्तश्च मर्यादा काव्यैतत्कथयामि ते // 29 रुदन्तस्तेऽथ शर्मिष्ठामभ्ययुर्बालकास्ततः // 16 / / शुक्र उवाच। दृष्ट्वा तु तेषां बालानां प्रणयं पार्थिवं प्रति। . धर्मज्ञः सन्महाराज योऽधर्ममकृथाः प्रियम् / बुवा च तत्त्वतो देवी शर्मिष्ठामिदमब्रवीत् // 17 तस्माज्जरा त्वामचिराद्धर्षयिष्यति दुर्जया // 30 मदधीना सती कस्मादकार्षीर्विप्रियं मम / ययातिरुवाच। तमेवासुरधर्म त्वमास्थिता न बिभेषि किम् // 18 ऋतुं वै याचमानाया भगवन्नान्यचेतसा। शर्मिष्ठोवाच / दुहितुर्दानवेन्द्रस्य धर्म्यमेतत्कृतं मया // 31 यदुक्तमृषिरित्येव तत्सत्यं चारुहासिनि / ऋतुं वै याचमानाया न ददाति पुमान्वृतः / न्यायतो धर्मतश्चैव चरन्ती न बिभेमि ते // 19 / भूणहेत्युच्यते ब्रह्मन्स इह ब्रह्मवादिभिः / / 32 यदा त्वया वृत्तो राजा वृत एव तदा मया। अभिकामां स्त्रियं यस्तु गम्यां रहसि याचितः / सखीभर्ता हि धर्मेण भर्ता भवति शोभने // 20 नोपैति स च धर्मेषु भूणहेत्युच्यते बुधैः // 33 पूज्यासि मम मान्या च ज्येष्ठा श्रेष्ठा च ब्राह्मणी / इत्येतानि समीक्ष्याहं कारणानि भृगूहह / त्वत्तोऽपि मे पूज्यतमो राजर्षिः किं न वेत्थ तत्॥२१ अधर्मभयसंविग्नः शर्मिष्ठामुपजग्मिवान् // 34 . वैशंपायन उवाच / शुक्र उवाच। श्रुत्वा तस्यास्ततो वाक्यं देवयान्यब्रवीदिदम्।। नन्वहं प्रत्यवेक्ष्यस्ते मदधीनोऽसि पार्थिव / राजन्नायेह वत्स्यामि विप्रियं मे कृतं त्वया // 22 मिथ्याचारस्य धर्मेषु चौर्यं भवति नाहुष // 35 सहसोत्पतितां श्यामां दृष्ट्वा तां साश्रुलोचनाम् / वैशंपायन उवाच / त्वरितं सकाशं काव्यस्य प्रस्थितां व्यथितस्तदा।।२३ क्रुद्धेनोशनसा शप्तो ययाति हुषस्तदा / अनुवव्राज संभ्रान्तः पृष्ठतः सान्त्वयन्नृपः। पूर्वं वयः परित्यज्य जरां सद्योऽन्वपद्यत // 36 न्यवर्तत न चैव स्म क्रोधसंरक्तलोचना // 24 ययातिरुवाच। अविब्रुवन्ती किंचित्तु राजानं चारुलोचना / अतृप्तो यौवनस्याहं देवयान्यां भृगूढह / अचिरादिव संप्राप्ता काव्यस्योशनसोऽन्तिकम् // 25 प्रसादं कुरु मे ब्रह्मञ्जरेयं मा विशेत माम् // 37 सा तु दृष्ट्वैव पितरमभिवाद्याग्रतः स्थिता। शुक्र उवाच। अनन्तरं ययातिस्तु पूजयामास भार्गवम् // 26 नाहं मृषा ब्रवीम्येतजरां प्राप्तोऽसि भूमिप / देवयान्युवाच। जरां त्वेतां त्वमन्यस्मै संक्रामय यदीच्छसि // 38 अधर्मेण जितो धर्मः प्रवृत्तमधरोत्तरम् / ___ ययातिरुवाच / शर्मिष्ठयातिवृत्तास्मि दुहित्रा वृषपर्वणः // 27 / राज्यभाक्स भवेद्ब्रह्मन्पुण्यभाकीर्तिभाक्तथा / - 117 -
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________________ 1. 78. 39 ] महाभारते [1.79.21 यो मे दद्याद्वयः पुत्रस्तद्भवाननुमन्यताम् // 39 तुर्वसुरुवाच / शुक्र उवाच। न कामये जरां तात कामभोगप्रणाशिनीम् / संक्रामयिष्यसि जरां यथेष्टं नहुषात्मज / बलरूपान्तकरणी बुद्धिप्राणविनाशिनीम् // 10 मामनुध्याय भावेन न च पापमवाप्स्यसि // 40 ___ ययातिरुवाच / वयो दास्यति ते पुत्रो यः स राजा भविष्यति। यत्त्वं मे हृदयाजातो वयः स्वं न प्रयच्छसि। आयुष्मान्कीर्तिमांश्चैव बह्वपत्यस्तथैव च // 41 तस्मात्प्रजा समुच्छेदं तुर्वसो तव यास्यति // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि संकीर्णाचारधर्मेषु प्रतिलोमचरेषु च / अष्टसप्ततितमोऽध्यायः // 78 // पिशिताशिषु चान्त्येषु मूढ राजा भविष्यसि // 12 79 गुरुदारप्रसक्तेषु तिर्यग्योनिगतेषु च / वैशंपायन उवाच। पशुधर्मिषु पापेषु म्लेच्छेषु प्रभविष्यसि // 13 जरां प्राप्य ययातिस्तु स्वपुरं प्राप्य चैव ह / वैशंपायन उवाच। पुत्रं ज्येष्ठं वरिष्ठं च यदुमित्यब्रवीद्वचः॥१ एवं स तुर्वसुं शप्त्वा ययातिः सुतमात्मनः / जरा वली च मां तात पलितानि च पर्यगुः।। शर्मिष्ठायाः सुतं द्रुह्युमिदं वचनमब्रवीत् // 14 काव्यस्योशनसः शापान्न च तृप्तोऽस्मि यौवने॥ 2 द्रुह्यो त्वं प्रतिपद्यस्व वर्णरूपविनाशिनीम् / त्वं यदो प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह / जरां वर्षसहस्रं मे यौवनं स्खं ददस्व च // 15 यौवनेन त्वदीयेन चरेयं विषयानहम् // 3 पूर्णे वर्षसहस्रे तु प्रतिदास्यामि यौवनम् / पूर्णे वर्षसहस्रे तु पुनस्ते यौवनं त्वहम् / खं चादास्यामि भूयोऽहं पाप्मानं जरया सह // 16 दत्त्वा स्वं प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह // 4 द्रुखुरुवाच / यदुरुवाच / न गजं न रथं नाश्वं जीर्णो भुङ्क्ते न च स्त्रियम् / सितश्मश्रुशिरा दीनो जरया शिथिलीकृतः / वाग्भङ्गश्चास्य भवति तज्जरां नाभिकामये // 17 वलीसंततगात्रश्च दुर्दर्शो दुर्बलः कृशः // 5 ययातिरुवाच। अशक्तः कार्यकरणे परिभूतः स यौवनैः / यत्त्वं मे हृदयाज्जातो वयः स्वं न प्रयच्छसि। सहोपजीविभिश्चैव तां जरां नाभिकामये // 6 तस्माद्रुह्यो प्रियः कामो न ते संपत्स्यते क्वचित्॥१८ ययातिरुवाच / उडुपप्लवसंतारो यत्र नित्यं भविष्यति / यत्त्वं मे हृदयाजातो वयः स्वं न प्रयच्छसि / अराजा भोजशब्दं त्वं तत्रावाप्स्यसि सान्वयः // 19 तस्मादराज्यभाक्तात प्रजा ते वै भविष्यति // 7 अनो त्वं प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह / तुर्वसो प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह / एक वर्षसहस्रं तु चरेयं यौवनेन ते // 20 यौवनेन चरेयं वै विषयांस्तव पुत्रक // 8 अनुरुवाच / पूर्णे वर्षसहस्रे तु पुनर्दास्यामि यौवनम् / जीर्णः शिशुवदादत्तेऽकालेऽन्नमशुचिर्यथा / खं चैव प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह // 9 न जुहोति च कालेऽग्निं तां जरां नाभिकामये // 21 - 118 -
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________________ 1. 79. 22] आदिपर्व [1. 80. 17 ययातिरुवाच। देवानतर्पयद्यज्ञैः श्राद्वैस्तद्वत्पितॄनपि / यत्त्वं मे हृदयाज्जातो वयः स्वं न प्रयच्छसि / दीनाननुग्रहैरिष्टैः कामैश्च द्विजसत्तमान् // 3 जरादोषस्त्वयोक्तोऽयं तस्मात्त्वं प्रतिपत्स्यसे // 22 अतिथीनन्नपानैश्च विशश्च परिपालनेः / प्रजाश्च यौवनप्राप्ता विनशिष्यन्त्यनो तव। आनृशंस्येन शूद्रांश्च दस्यून्संनिग्रहेण च // 4 अग्निप्रस्कन्दनपरस्त्वं चाप्येवं भविष्यसि // 23 धर्मेण च प्रजाः सर्वा यथावदनुरञ्जयन् / पूरो त्वं मे प्रियः पुत्रस्त्वं वरीयान्भविष्यसि। ययातिः पालयामास साक्षादिन्द्र इवापरः // 5 जरा वली च मे तात पलितानि च पर्यगुः / स राजा सिंहविक्रान्तो युवा विषयगोचरः। काव्यस्योशनसः शापान च तृप्तोऽस्मि यौवने // 24 अविरोधेन धर्मस्य चचार सुखमुत्तमम् // 6 पूरो त्वं प्रतिपद्यस्व पाप्मानं जरया सह / स संप्राप्य शुभान्कामांस्तृप्तः खिन्नश्च पार्थिवः / कंचित्कालं चरेयं वै विषयान्वयसा तव // 25 कालं वर्षसहस्रान्तं सस्मार मनुजाधिपः // 7 पूर्णे वर्षसहस्रे तु प्रतिदास्यामि यौवनम् / परिसंख्याय कालज्ञः कलाः काष्ठाश्च वीर्यवान् / स्वं चैव प्रतिपत्स्यामि पाप्मानं जरया सह // 26 पूर्ण मत्वा ततः कालं परं पुत्रमुवाच ह // 8 वैशंपायन उवाच। यथाकामं यथोत्साहं यथाकालमरिंदम / एवमुक्तः प्रत्युवाच पूरुः पितरमञ्जसा / सेविता विषयाः पुत्र यौवनेन मया तव // 9 यथात्थ मां महाराज तत्करिष्यामि ते वचः॥ 27 / पूरो प्रीतोऽस्मि भद्रं ते गृहाणेदं स्वयौवनम् / प्रतिपत्स्यामि ते राजन्पाप्मानं जरया सह / राज्यं चैव गृहाणेदं त्वं हि मे प्रियकृत्सुतः / / 10 गृहाण यौवनं मत्तश्चर कामान्यथेप्सितान् // 28 प्रतिपेदे जरां राजा ययाति हुषस्तदा / जरयाहं प्रतिच्छन्नो वयोरूपधरस्तव / यौवनं प्रतिपेदे च पूरुः स्वं पुनरात्मनः // 11 यौवनं भवते दत्त्वा चरिष्यामि यथात्थ माम् // 29 अभिषेक्तुकामं नृपतिं पूरुं पुत्रं कनीयसम् / .. ययातिरुवाच / ब्राह्मणप्रमुखा वर्णा इदं वचनमब्रुवन् // 12 पूरो प्रीतोऽस्मि ते वत्स प्रीतश्चेदं ददामि ते / कथं शुक्रस्य नप्तारं देवयान्याः सुतं प्रभो। सर्वकामसमृद्धा ते प्रजा राज्ये भविष्यति / / 30 ज्येष्ठं यदुमतिक्रम्य राज्यं पूरोः प्रदास्यसि // 13 / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि यदुज्येष्ठस्तव सुतो जातस्तमनु तुर्वसुः / एकोनाशीतितमोऽध्यायः॥ 79 // शर्मिष्ठायाः सुतो द्रुह्युस्ततोऽनुः पूरुरेव च / / 14 कथं ज्येष्ठानतिक्रम्य कनीयानराज्यमर्हति / वैशंपायन उवाच / एतत्संबोधयामस्त्वां धर्मं त्वमनुपालय // 15 रवेणाथ वयसा ययातिनहुषात्मजः / ययातिरुवाच। तियुक्तो नृपश्रेष्ठश्चचार विषयान्प्रियान् // 1 / ब्राह्मणप्रमुखा वर्णाः सर्वे शृण्वन्तु मे वचः / स्याकामं यथोत्साहं यथाकालं यथासुखम् / ज्येष्ठं प्रति यथा राज्यं न देयं मे कथंचन // 16 गर्माविरुद्धानराजेन्द्रो यथार्हति स एव हि // 2 मम ज्येष्ठेन यदुना नियोगो नानुपालितः। . - 119 -
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________________ 1. 80. 17 ] महाभारते [1. 81. 14 प्रतिकूलः पितुर्यश्च न स पुत्रः सतां मतः // 17 राज्येऽभिषिच्य मुदितो वानप्रस्थोऽभवन्मुनिः॥ 1 मातापित्रोर्वचनकृद्धितः पथ्यश्च यः सुतः / उषित्वा च वने वासं ब्राह्मणैः सह संश्रितः / स पुत्रः पुत्रवद्यश्च वर्तते पितृमातृषु // 18 फलमूलाशनो दान्तो यथा स्वर्गमितो गतः // 2 यदुनाहमवज्ञातस्तथा तुर्वसुनापि च / स गतः सुरवासं तं निवसन्मुदितः सुखम् / द्रुघुना चानुना चैव मय्यवज्ञा कृता भृशम् // 19 कालस्य नातिमहतः पुनः शक्रेण पातितः // 3 पूरुणा मे कृतं वाक्यं मानितश्च विशेषतः / निपतन्प्रच्युतः स्वर्गादप्राप्तो मेदिनीतलम् / कनीयान्मम दायादो जरा येन धृता मम / स्थित आसीदन्तरिक्षे स तदेति श्रुतं मया // 4 मम कामः स च कृतः पूरुणा पुत्ररूपिणा // 20 तत एव पुनश्चापि गतः स्वर्गमिति श्रुतिः / शुक्रेण च वरो दत्तः काव्येनोशनसा स्वयम् / राज्ञा वसुमता सार्धमष्टकेन च वीर्यवान् / पुत्रो यस्त्वानुवर्तेत स राजा पृथिवीपतिः / प्रतर्दनेन शिबिना समेत्य किल संसदि // 5 भवतोऽनुनयाम्येवं पूरू राज्येऽभिषिच्यताम् / / 21 जनमेजय उवाच / प्रकृतय ऊचुः। कर्मणा केन स दिवं पुनः प्राप्तो महीपतिः / यः पुत्रो गुणसंपन्नो मातापित्रोर्हितः सदा / सर्वमेतदशेषेण श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः / सर्वमर्हति कल्याणं कनीयानपि स प्रभो // 22 कथ्यमानं त्वया विप्र विप्रर्षिगणसंनिधौ // 6 अर्हः पूरुरिदं राज्यं यः सुतः प्रियकृत्तव / देवराजसमो ह्यासीद्ययातिः पृथिवीपतिः / वरदानेन शुक्रस्य न शक्यं वक्तुमुत्तरम् // 23 वर्धनः कुरुवंशस्य विभावसुसमद्युतिः // 7 वैशंपायन उवाच / तस्य विस्तीर्णयशसः, सत्यकीर्तेर्महात्मनः / पौरजानपदैस्तुष्टैरित्युक्तो नाहुषस्तदा / चरितं श्रोतुमिच्छामि दिवि चेह च सर्वशः // 8 अभ्यषिञ्चत्ततः परं राज्ये स्वे सतमात्मजम || 24 वैशंपायन उवाच / दत्त्वा च पूरवे राज्यं वनवासाय दीक्षितः / हन्त ते कथयिष्यामि ययातेरुत्तरां कथाम् / पुरात्स निर्ययौ राजा ब्राह्मणैस्तापसैः सह // 25 / दिवि चेह च पुण्यार्थां सर्वपापप्रणाशिनीम् // 9 यदोस्तु यादवा जातास्तुर्वसोर्यवनाः सुताः / ययाति हुषो राजा पूरुं पुत्रं कनीयसम् / द्रुह्योरपि सुता भोजा अनोस्तु म्लेच्छजातयः // 26 राज्येऽभिषिच्य मुदितः प्रवव्राज वनं तदा // 1. परोस्तु पौरवो वंशो यत्र जातोऽसि पार्थिव / अन्तेषु स विनिक्षिप्य पुत्रान्यदुपुरोगमान् / इदं वर्षसहस्राय राज्यं कारयितुं वशी // 27 फलमूलाशनो राजा वने संन्यवसच्चिरम् // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि संशितात्मा जितक्रोधस्तर्पयन्पितृदेवताः / __ अशीतितमोऽध्यायः॥८॥ अग्नीश्च विधिवजुह्वन्वानप्रस्थविधानतः // 12 81 अतिथीन्पूजयामास वन्येन हविषा विभुः / वैशंपायन उवाच। शिलोछवृत्तिमास्थाय शेषान्नकृतभोजनः // 13 एवं स नाहुषो राजा ययातिः पुत्रमीप्सितम्। / पूर्ण वर्षसहस्रं स एवंवृत्तिरभून्नृपः / -120 -
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________________ 1. 81. 14] आदिपर्व [1. 83.2 अब्भक्षः शरदस्त्रिंशदासीनियतवाङ्मनाः // 14 न हीनतः परमभ्याददीत / ततश्च वायुभक्षोऽभूत्संवत्सरमतन्द्रितः / ययास्य वाचा पर उद्विजेत पञ्चाग्निमध्ये च तपस्तेपे संवत्सरं नृपः // 15 न तां वदेद्रुशती पापलोक्याम् // 8 एकपादस्थितश्चासीत्षण्मासाननिलाशनः / अरुंतुदं पुरुषं रूक्षवाचं पुण्यकीर्तिस्ततः स्वर्ग जगामावृत्य रोदसी // 16 वाकण्टकैर्वितुदन्तं मनुष्यान् / * इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विद्यादलक्ष्मीकतमं जनानां एकाशीतितमोऽध्यायः // 81 // मुखे निबद्धां निर्ऋतिं वहन्तम् // 9 सद्भिः पुरस्तादभिपूजितः स्यावैशंपायन उवाच। त्सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात् / खर्गतः स तु राजेन्द्रो निवसन्देवसद्मनि / सदासतामतिवादांस्तितिक्षेपूजितस्त्रिदशैः साध्यैर्मरुद्भिर्वसुभिस्तथा // 1 त्सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः // 10 देवलोकाद्ब्रह्मलोकं संचरन्पुण्यकृद्वशी। वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति अवसत्पृथिवीपालो दीर्घकालमिति श्रुतिः // 2 यैराहतः शोचति रात्र्यहानि / कदाचिन्नृपश्रेष्ठो ययातिः शक्रमागमत् / परस्य वा मर्मसु ये पतन्ति म्यान्ते तत्र शक्रेण पृष्टः स पृथिवीपतिः // 3 तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु // 11 " शक उवाच / न हीदृशं संवननं त्रिषु लोकेषु विद्यते। यदा स पूरुस्तव रूपेण राज यथा मैत्री च भूतेषु दानं च मधुरा च वाक्॥१२ अरां गृहीत्वा प्रचचार भूमौ / तस्मात्सान्त्वं सदा वाच्यं न वाच्यं परुषं क्वचित् / सदा राज्यं संप्रदायैव तस्मै पूज्यान्संपूजयेद्दद्यान्न च याचेत्कदाचन // 13 त्वया किमुक्तः कथयेह सत्यम् // 4 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ययातिरुवाच। व्यशीतितमोऽध्यायः॥८२॥ कायमुनयोर्मध्ये कृत्स्नोऽयं विषयस्तव / व्ये पृथिव्यास्त्वं राजा भ्रातरोऽन्त्याधिपास्तव // 5 इन्द्र उवाच / अक्रोधनः क्रोधनेभ्यो विशिष्ट सर्वाणि कर्माणि समाप्य राजस्तथा तितिक्षुरतितिक्षोर्विशिष्टः / न्गृहान्परित्यज्य वनं गतोऽसि / अमानुषेभ्यो मानुषाश्च प्रधाना तत्त्वां पृच्छामि नहुषस्य पुत्र विद्वांस्तथैवाविदुषः प्रधानः // 6 केनासि तुल्यस्तपसा ययाते // 1 श्यमानो नाक्रोशेन्मन्युरेव तितिक्षतः / ययातिरुवाच / कोष्टारं निर्दहति सुकृतं चास्य विन्दति // 7 - नाहं देवमनुष्येषु न गन्धर्वमहर्षिषु / नारंतुदः स्यान्न नृशंसवादी | आत्मनस्तपसा तुल्यं कंचित्पश्यामि वासव / / 2 म, भा. 16 - 121 -
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________________ 1. 83. 3] महाभारते [1. 84.8 - इन्द्र उवाच / अभ्युद्गतास्त्वां वयमद्य सर्वे यदावमंस्थाः सदृशः श्रेयसश्च तत्त्वं पाते तव जिज्ञासमानाः // 9 पापीयसञ्चाविदितप्रभावः। न चापि त्वां धृष्णुमः प्रष्टुमग्रे तस्माल्लोका अन्तवन्तस्तवेमे न च त्वमस्मान्पृच्छसि ये वयं स्मः / क्षीणे पुण्ये पतितास्यद्य राजन् // 3 तत्त्वां पृच्छामः स्पृहणीयरूपं ___ ययातिरुवाच। ___ कस्य त्वं वा किं निमित्तं त्वमागाः॥१० सुरर्षिगन्धर्वनरावमाना भयं तु ते व्येतु विषादमोही क्षयं गता मे यदि शक्र लोकाः / __ त्यजाशु देवेन्द्रसमानरूप / इच्छेयं वै सुरलोकाद्विहीनः त्वां वर्तमानं हि सतां सकाशे सतां मध्ये पतितुं देवराज // 4 नालं प्रसोढुं बलहापि शक्रः // 11 इन्द्र उवाच / सन्तः प्रतिष्ठा हि सुखच्युतानां सतां सकाशे पतितासि राज ___ सतां सदैवामरराजकल्प। ___ युतः प्रतिष्ठां यत्र लब्धासि भूयः / ते संगताः स्थावरजङ्गमेशाः एवं विदित्वा तु पुनर्ययाते __ प्रतिष्ठितस्त्वं सदृशेषु सत्सु // 12 न तेऽवमान्याः सदृशः श्रेयसश्च // 5 प्रभुरमिः प्रतपने भूमिरावपने प्रभुः / वैशंपायन उवाच। प्रभुः सूर्यः प्रकाशित्वे सतां चाभ्यागतः प्रभुः॥ 13 ततः प्रहायामरराजजुष्टा इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि न्पुण्याल्लोकान्पतमानं ययातिम्। ज्यशीतितमोऽध्यायः // 83 // संप्रेक्ष्य राजर्षिवरोऽष्टकस्तमुवाच सद्धर्मविधानगोप्ता // 6 - ययातिरुवाच / कस्त्वं युवा वासवतुल्यरूपः अहं ययातिनहुषस्य पुत्रः स्वतेजसा दीप्यमानो यथाग्निः / ___ पूरोः पिता सर्वभूतावमानात् / पतस्युदीर्णाम्बुधरान्धकारा प्रभ्रंशितः सुरसिद्धर्षिलोकाखाखेचराणां प्रवरो यथार्कः॥ 7 परिच्युतः प्रपताम्यल्पपुण्यः // 1 दृष्ट्वा च त्वां सूर्यपथात्पतन्तं अहं हि पूर्वो वयसा भवद्भयवैश्वानराधुतिमप्रमेयम् / _____ स्तेनाभिवादं भवतां न प्रयुञ्जे / किं नु स्विदेतत्पततीति सर्वे यो विद्यया तपसा जन्मना वा वितर्कयन्तः परिमोहिताः स्मः // 8 ___ वृद्धः स पूज्यो भवति द्विजानाम् // 2 दृष्ट्वा च त्वां विष्ठितं देवमार्गे अष्टक उवाच / शक्रार्कविष्णुप्रतिमप्रभावम् / अवादीश्चेद्वयसा यः स वृद्ध - 122 -
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________________ 1. 84. 3] आदिपर्व [1. 84. 17 इति राजन्नाभ्यवदः कथंचित् / तथाश्मानस्तृणकाष्ठं च सर्व यो वै विद्वान्वयसा सन्स्म वृद्धः दिष्टक्षये स्वां प्रकृतिं भजन्ते // 10 स एव पूज्यो भवति द्विजानाम् // 3 अनित्यतां सुखदुःखस्य बुद्ध्वा ययातिरुवाच / कस्मात्संतापमष्टकाहं भजेयम् / प्रतिकूलं कर्मणां पापमाहु किं कुर्यां वै किं च कृत्वा न तप्ये स्तद्वर्ततेऽप्रवणे पापलोक्यम् / तस्मात्संतापं वर्जयाम्यप्रमत्तः // 11 सन्तोऽसतां नानुवर्तन्ति चैत अष्टक उवाच / ___ द्यथा आत्मैषामनुकूलवादी // 4 ये ये लोकाः पार्थिवेन्द्र प्रधानाअभूद्धनं मे विपुलं महद्वै स्त्वया भुक्ता यं च कालं यथा च / विचेष्टमानो नाधिग़न्ता तदस्मि / तन्मे राजन्वहि सर्वं यथावएवं प्रधार्यात्महिते निविष्टो . रक्षेत्रज्ञवद्भाषसे त्वं हि धर्मान् // 12 यो वर्तते स विजानाति जीवन् // 5 ययातिरुवाच / नानाभावा बहवो जीवलोके राजाहमासमिह सार्वभौमदैवाधीना नष्टचेष्टाधिकाराः / स्ततो लोकान्महतो अजयं वै / तत्तत्प्राप्य न विहन्येत धीरो तत्रावसं वर्षसहस्रमानं दिष्टं बलीय इति मत्वात्मबुद्ध्या // 6 ततो लोकं परमस्म्यभ्युपेतः // 13 सुखं हि जन्तुर्यदि वापि दुःखं ततः पुरीं पुरुहूतस्य रम्यां दैवाधीनं विन्दति नात्मशक्त्या / सहस्रद्वारां शतयोजनायताम् / तस्माद्दिष्टं बलवन्मन्यमानो अध्यावसं वर्षसहस्रमानं न संज्वरेनापि हृष्येत्कदाचित् // 7 ततो लोकं परमस्म्यभ्युपेतः॥ 14 दुःखे न तप्येन्न सुखेन हृष्ये ततो दिव्यमजरं प्राप्य लोकं त्समेन वर्तेत सदैव धीरः। प्रजापतेर्लोकपतेर्दुरापम् / विष्टं बलीय इति मन्यमानो तत्रावसं वर्षसहस्रमानं न संज्वरेन्नापि हृष्येत्कदाचित् // 8 ततो लोकं परमस्म्यभ्युपेतः॥ 15 भये न मुह्याम्यष्टकाहं कदाचि देवस्य देवस्य निवेशने च संतापो मे मानसो नास्ति कश्चित् / विजित्य लोकानवसं यथेष्टम् / धाता यथा मां विदधाति लोके संपूज्यमानस्त्रिदशैः समस्तैध्रुवं तथाहं भवितेति मत्वा / / 9 स्तुल्यप्रभावद्युतिरीश्वराणाम् // 16 संखेदजा अण्डजा उद्भिदाश्च तथावसं नन्दने कामरूपी . सरीसृपाः कृमयोऽथाप्सु मत्स्याः / संवत्सराणामयुतं शतानाम् / - 123 -
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________________ 1. 84.17] महाभारते [1. 85.8 . सहाप्सरोभिर्विहरन्पुण्यगन्धा त्यजन्ति सद्यः सेश्वरा देवसंघाः // 2 पश्यन्नगान्पुष्पितांश्चारुरूपान् // 17 अष्टक उवाच / तत्रस्थं मां देवसुखेषु सक्तं कथं तस्मिन्क्षीणपुण्या भवन्ति कालेऽतीते महति ततोऽतिमात्रम् / संमुह्यते मेऽत्र मनोऽतिमात्रम् / . दूतो देवानामब्रवीदुग्ररूपो किंविशिष्टाः कस्य धामोपयान्ति ध्वंसेत्युच्चैस्त्रिः प्लुतेन स्वरेण // 18 तद्वै अहि क्षेत्रवित्त्वं मतो मे // 3 एतावन्मे विदितं राजसिंह ययातिरुवाच। ततो भ्रष्टोऽहं नन्दनाक्षीणपुण्यः / वाचोऽश्रौषं चान्तरिक्षे सुराणा इमं भौमं नरकं ते पतन्ति लालप्यमाना नरदेव सर्वे / __ मनुक्रोशाच्छोचतां मानवेन्द्र / / 19 ते कङ्कगोमायुबलाशनार्थं अहो कष्टं क्षीणपुण्यो ययातिः ___ पतत्यसौ पुण्यकृत्पुण्यकीर्तिः। क्षीणा विवृद्धिं बहुधा व्रजन्ति // 4 तानब्रुवं पतमानस्ततोऽहं तस्मादेतद्वर्जनीयं नरेण सतां मध्ये निपतेयं कथं नु॥ 20 __दुष्टं लोके गर्हणीयं च कर्म / आख्यातं ते पार्थिव सर्वमेततैराख्याता भवतां यज्ञभूमिः समीक्ष्य चैनां त्वरितमुपागतोऽस्मि / द्भूयश्चेदानीं वद किं ते वदामि // 5 हविर्गन्धं देशिकं यज्ञभूमे अष्टक उवाच। धूमापाङ्गं प्रतिगृह्य प्रतीतः // 21 यदा तु तान्वितुंदन्ते वयांसि इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ___तथा गृध्राः शितिकण्ठाः पतंगाः / चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८४॥ कथं भवन्ति कथमाभवन्ति न भौममन्यं नरकं शृणोमि / / 6 अष्टक उवाच। ययातिरुवाच। यदावसो नन्दने कामरूपी . ऊर्ध्वं देहात्कर्मणो जम्भमाणासंवत्सराणामयुतं शतानाम् / ___ व्यक्तं पृथिव्यामनुसंचरन्ति / किं कारणं कार्तयुगप्रधान इमं भौमं नरकं ते पतन्ति . हित्वा तत्त्वं वसुधामन्वपद्यः // 1 नावेक्षन्ते वर्षपूगाननेकान् / / 7 ययातिरुवाच / षष्टिं सहस्राणि पतन्ति व्योग्नि ज्ञातिः सुहृत्स्वजनो यो यथेह ___ तथा अशीतिं परिवत्सराणि / क्षीणे वित्ते त्यज्यते मानवैर्हि / तान्वै तुदन्ति प्रपततः प्रपातं तथा तत्र क्षीणपुण्यं मनुष्यं भीमा भौमा राक्षसास्तीक्ष्णदंष्ट्राः // 8 - 124 जसि .
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________________ 1. 85.9] आदिपर्व [1. 85.21 अष्टक उवाच / स श्रोत्राभ्यां वेदयतीह शब्दं यदेनसस्ते पततस्तुदन्ति ___ सर्व रूपं पश्यति चक्षुषा च // 15 भीमा भौमा राक्षसास्तीक्ष्णदंष्ट्राः / घ्राणेन गन्धं जिह्वयाथो रसं च कथं भवन्ति कथमाभवन्ति त्वचा स्पर्श मनसा वेद भावम् / कथंभूता गर्भभूता भवन्ति // 9 इत्यष्टकेहोपचितिं च विद्धि ययातिरुवाच / महात्मनः प्राणभृतः शरीरे // 16 अस्रं रेतः पुष्पफलानुपृक्त अष्टक उवाच / मन्वेति तद्वै पुरुषेण सृष्टम् / यः संस्थितः पुरुषो दह्यते वा स वै तस्या रज आपद्यते वै निखन्यते वापि निघृष्यते वा। स गर्भभूतः समुपैति तत्र // 10 अभावभूतः स विनाशमेत्य वनस्पतींश्चौषधीश्चाविशन्ति . केनात्मानं चेतयते पुरस्तात् // 17 अपो वायुं पृथिवीं चान्तरिक्षम् / ययातिरुवाच। चतुष्पदं द्विपदं चापि सर्वमेवंभूता गर्भभूता भवन्ति // 11 हित्वा सोऽसून्सुप्तवन्निष्टनित्वा ____पुरोधाय सुकृतं दुष्कृतं च / अष्टक उवाच / अन्यद्वपुर्विदधातीहं गर्भ अन्यां योनि पवनाग्रानुसारी उताहो स्वित्स्वेन कामेन याति। हित्वा देहं भजते राजसिंह // 18 आपद्यमानो नरयोनिमेता पुण्यां योनिं पुण्यकृतो व्रजन्ति माचक्ष्व मे संशयात्प्रब्रवीमि // 12 ... पापां योनिं पापकृतो व्रजन्ति शरीरदेहादिसमुच्छ्रयं च कीटाः पतंगाश्च भवन्ति पापा चक्षुःश्रोत्रे लभते केन संज्ञाम् / न मे विवक्षास्ति महानुभाव / / 19 एतत्तत्त्वं सर्वमाचक्ष्व पृष्टः चतुष्पदा द्विपदाः षट्पदाश्च क्षेत्रज्ञं त्वां तात मन्याम सर्वे // 13 तथाभूता गर्भभूता भवन्ति / ययातिरुवाच / आख्यातमेतन्निखिलेन सर्व वायुः समुत्कर्षति गर्भयोनि भूयस्तु किं पृच्छसि राजसिंह // 20 . मृतौ रेतः पुष्परसानुपृक्तम् / ___ अष्टक उवाच। स तत्र तन्मात्रकृताधिकारः किं स्वित्कृत्वा लभते तात लोकाक्रमेण संवर्धयतीह गर्भम् // 14 ___ मर्त्यः श्रेष्ठांस्तपसा विद्यया वा। स जायमानो विगृहीतगात्रः तन्मे पृष्टः शंस सर्वं यथावषड्ज्ञाननिष्ठायतनो मनुष्यः / च्छुभालँलोकान्येन गच्छेत्क्रमेण // 21 - 125 -
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________________ 1. 85. 22] महाभारते [1: 86.8 ययातिरुवाच / बहून्यस्मिन्संप्रति वेदयन्ति // 1 तपश्च दानं च शमो दमश्च ____ययातिरुवाच / हीरार्जवं सर्वभूतानुकम्पा / आहूताध्यायी गुरुकर्मस्वचोद्यः नश्यन्ति मानेन तमोऽभिभूताः पूर्वोत्थायी चरमं चोपशायी / पुंसः सदैवेति वदन्ति सन्तः // 22 मृदुर्दान्तो धृतिमानप्रमत्तः / अधीयानः पण्डितं मन्यमानो स्वाध्यायशीलः सिध्यति ब्रह्मचारी // 2 यो विद्यया हन्ति यशः परेषाम् / धर्मागतं प्राप्य धनं यजेत तस्यान्तवन्तश्च भवन्ति लोका दद्यात्सदैवातिथीन्भोजयेच्च / न चास्य तद्ब्रह्म फलं ददाति // 23 अनाददानश्च परैरदत्तं चत्वारि कर्माण्यभयंकराणि सैषा गृहस्थोपनिषत्पुराणी // 3.. __ भयं प्रयच्छन्त्ययथाकृतानि / स्ववीर्यजीवी वृजिनान्निवृत्तो मानाग्निहोत्रमुत मानमौनं दाता परेभ्यो न परोपतापी। मानेनाधीतमुत मानयज्ञः // 24 तादृड्युनिः सिद्धिमुपैति मुख्या. न मान्यमानो मुदमाददीत .. ___ वसन्नरण्ये नियताहारचेष्टः // 4 न संतापं प्राप्नुयाच्चावमानात् / सन्तः सतः पूजयन्तीह लोके अशिल्पजीवी नगृहश्च नित्यं जितेन्द्रियः सर्वतो विप्रमुक्तः / नासाधवः साधुबुद्धिं लभन्ते // 25 अनोकसारी लघुरल्पचारइति दद्यादिति यजेदित्यधीयीत मे व्रतम् / 'श्वरन्देशानेकचरः स भिक्षुः॥५ इत्यस्मिन्नभयान्याहुस्तानि वानि नित्यशः॥ 26 येनाश्रयं वेदयन्ते पुराणं राच्या यया चाभिजिताश्च लोका - मनीषिणो मानसमानभक्तम् / __ भवन्ति कामा विजिताः सुखाश्च / तन्निःश्रेयस्तैजसं रूपमेत्य * तामेव रात्रिं प्रयतेत विद्वापरां शान्ति प्राप्नुयुः प्रेत्य चेह // 27 नरण्यसंस्थो भवितुं यतात्मा // 6 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि दशैव पूर्वान्दश चापरांस्तु पञ्चाशीतितमोऽध्यायः॥ 5 // __ज्ञातीन्सहात्मानमथैकविंशम् / अरण्यवासी सुकृते दधाति अष्टक उवाच। विमुच्यारण्ये स्वशरीरधातून // 7 चरन्गृहस्थः कथमेति देवा अष्टक उवाच / __ कथं भिक्षुः कथमाचार्यकर्मा / कति स्विदेव मुनयो मौनानि कति चाप्युत / वानप्रस्थः सत्पथे संनिविष्टो भवन्तीति तदाचक्ष्व श्रोतुमिच्छामहे वयम् // 8 - 126 -
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________________ 1. 86. 9] आदिपर्व [1. 87.9 ययातिरुवाच / ग्राम एव वसन्भिक्षुस्तयोः पूर्वतरं गतः // 2 अरण्ये वसतो यस्य ग्रामो भवति पृष्ठतः। अप्राप्य दीर्घमायुस्तु यः प्राप्तो विकृतिं चरेत् / प्रामे वा वसतोऽरण्यं स मुनिः स्याज्जनाधिप // 9 | तप्येत यदि तत्कृत्वा चरेत्सोऽन्यत्ततस्तपः॥ 3 अष्टक उवाच / यद्वै नृशंसं तदपथ्यमाहुकथं विद्वसतोऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः / यः सेवते धर्ममनर्थबुद्धिः / प्रामे वा वसतोऽरण्यं कथं भवति पृष्ठतः // 10 अस्वोऽप्यनीशश्च तथैव राजययातिरुवाच / स्तदार्जवं स समाधिस्तदार्यम् // 4 न प्राम्यमुपयुञ्जीत य आरण्यो मुनिर्भवेत् / __ अष्टक उवाच / तथास्य वसतोऽरण्ये ग्रामो भवति पृष्ठतः / / 11 केनासि दूतः प्रहितोऽद्य राजअननिरनिकेतश्च अगोत्रचरणो मुनिः / ___ न्युवा स्रग्वी दर्शनीयः सुवर्चाः। कौपीनाच्छादनं यावत्तावदिच्छेच्च चीवरम् // 12 कुत आगतः कतरस्यां दिशि त्वयावत्प्राणाभिसंधानं तावदिच्छेच्च भोजनम् / मुताहो स्वित्पार्थिवं स्थानमस्ति / 5 तथास्य वसतो ग्रामेऽरण्यं भवति पृष्ठतः // 13 ययातिरुवाच। यस्तु कामान्परित्यज्य त्यक्तकर्मा जितेन्द्रियः / इमं भौमं नरकं क्षीणपुण्यः आतिष्ठेत मुनिमौनं स लोके सिद्धिमाप्नुयात् / / 14 प्रवेष्टुमुर्वी गगनाद्विप्रकीर्णः। धौतदन्तं कृत्तनखं सदा स्नातमलंकृतम् / उक्त्वाहं वः प्रपतिष्याम्यनन्तरं असितं सितकर्मस्थं कस्तं नार्चितुमर्हति )) 15 त्वरन्ति मां ब्राह्मणा लोकपालाः // 6 तपसा कर्शितः क्षामः क्षीणमांसास्थिशोणितः / सतां सकाशे तु वृतः प्रपातयदा भवति निर्द्वन्द्वो मुनिर्मोनं समास्थितः। स्ते संगता गुणवन्तश्च सर्वे / अथ लोकमिमं जित्वा लोकं विजयते परम्॥ 16 शक्राच्च लब्धो हि वरो मयैष आत्येन तु यदाहारं गोवन्मृगयते मुनिः / पतिष्यता भूमितले नरेन्द्र / / 7 अथास्य लोकः पूर्वो यः सोऽमृतत्वाय कल्पते॥१७ अष्टक उवाच। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पृच्छामि त्वां मा प्रपत प्रपातं षडशीतितमोऽध्यायः॥८६॥ ___ यदि लोकाः पार्थिव सन्ति मेऽत्र / यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः अष्टक उवाच / क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये // 8 तरस्त्वेतयोः पूर्वं देवानामेति सात्म्यताम् / ययातिरुवाच / उभयोर्धावतो राजन्सूर्याचन्द्रमसोरिव // 1 यावत्पृथिव्यां विहितं गवावं ययातिरुवाच / सहारण्यैः पशुभिः पर्वतैश्च / अनिकेतो गृहस्थेषु कामवृत्तेषु संयतः / तावल्लोका दिवि ते संस्थिता वै - 127 -
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________________ 1. 87.9] महाभारते [1. 88.3 ., तथा विजानीहि नरेन्द्रसिंह // 9 ययातिरुवाच / ___ अष्टक उवाच। न तुल्यतेजाः सुकृतं कामयेत तांस्ते ददामि मा प्रपत प्रपातं ___ योगक्षेमं पार्थिव पार्थिवः सन् / ये मे लोका दिवि राजेन्द्र सन्ति / दैवादेशादापदं प्राप्य विद्वांयद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता श्वरेनृशंसं न हि जातु राजा // 16 स्तानाक्रम क्षिप्रममित्रसाह // 10 धर्म्य मार्ग चेतयानो यशस्यं ययातिरुवाच / कुर्यान्नपो धर्ममवेक्षमाणः। नास्मद्विधोऽब्राह्मणो ब्रह्मविच न मद्विधो धर्मबुद्धिः प्रजानप्रतिग्रहे वर्तते राजमुख्य / ___न्कुर्यादेवं कृपणं मां यथात्थ / यथा प्रदेयं सततं द्विजेभ्य कुर्यामपूर्वं न कृतं यदन्यैस्तथाददं पूर्वमहं नरेन्द्र // 11 विवित्समानः किमु तत्र साधु // 17 नाब्राह्मणः कृपणो जातु जीवे ब्रुवाणमेवं नृपतिं ययातिं ___ द्या चापि स्याब्राह्मणी वीरपत्नी। नृपोत्तमो वसुमनाब्रवीत्तम् // 18 सोऽहं यदैवाकृतपूर्व चरेयं इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विवित्समानः किमु तत्र साधु // 12 . सप्ताशीतितमोऽध्यायः॥८७॥ प्रतर्दन उवाच। पृच्छामि त्वां स्पृहणीयरूप वसुमना उवाच / प्रतर्दनोऽहं यदि मे सन्ति लोकाः। पृच्छामि त्वां वसुमना रौशदश्वियद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः यद्यस्ति लोको दिवि मह्यं नरेन्द्र / क्षेत्रनं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये // 13 यद्यन्तरिक्षे प्रथितो महात्म___ ययातिरुवाच। ___ क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये // 1 सन्ति लोका बहवस्ते नरेन्द्र ___ ययातिरुवाच / __ अप्येकैकः सप्त सप्ताप्यहानि / यदन्तरिक्षं पृथिवी दिशश्च मधुच्युतो घृतपृक्ता विशोका ___ यत्तेजसा तपते भानुमांश्च / स्ते नान्तवन्तः प्रतिपालयन्ति // 14 लोकास्तावन्तो दिवि संस्थिता वै प्रतर्दन उवाच / ते नान्तवन्तः प्रतिपालयन्ति / / 2 तांस्ते ददामि मा प्रपत प्रपातं वसुमना उवाच / __ ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु / तांस्ते ददामि पत मा प्रपातं यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु / स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोहः // 15 क्रीणीष्वनांस्तृणकेनापि राज-.128 -
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________________ 1. 88. 3] आदिपर्व [1. 88. 18 न्प्रतिग्रहस्ते यदि सम्यक्प्रदुष्टः // 3 तस्माच्छिबे नाभिनन्दामि दायम् // 9 ___ ययातिरुवाच / * अष्टक उवाच / न मिथ्याहं विक्रयं वै स्मरामि न चेदेकैकशो राजल्लोकान्नः प्रतिनन्दसि / ___ वृथा गृहीतं शिशुकाच्छङ्कमानः / सर्वे प्रदाय भवते गन्तारो नरकं वयम् // 10 कुर्यां न चैवाकृतपूर्वमन्यै ____ ययातिरुवाच / विवित्समानः किमु तत्र साधु // 4 यदर्हाय ददध्वं तत्सन्तः सत्यानृशंस्यतः / वसुमना उवाच / अहं तु नाभिधृष्णोमि यत्कृतं न मया पुरा // 11 तांस्त्वं लोकान्प्रतिपद्यस्व राज अष्टक उवाच / न्मया दत्तान्यदि नेष्टः क्रयस्ते / कस्यैते प्रतिदृश्यन्ते रथाः पञ्च हिरण्मयाः / अहं न तान्दै प्रतिगन्ता नरेन्द्र उच्चैः सन्तः प्रकाशन्ते ज्वलन्तोऽग्निशिखा इव // 12 सर्वे लोकास्तव ते वै भवन्तु / / 5 ययातिरुवाच / शिबिरुवाच / युष्मानेते हि वक्ष्यन्ति रथाः पञ्च हिरण्मयाः / पृच्छामि त्वां शिबिरौशीनरोऽहं उच्चैः सन्तः प्रकाशन्ते ज्वलन्तोऽग्निशिखा इव // 13 __ ममापि लोका यदि सन्तीह तात / ___ अष्टक उवाच / यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः आतिष्ठस्व रथं राजन्विक्रमस्व विहायसा। : क्षेत्रमं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये // 6 वयमप्यनुयास्यामो यदा कालो भविष्यति // 14 ययातिरुवाच / ययातिरुवाच। न त्वं वाचा हृदयेनापि विद्व सर्वैरिदानी गन्तव्यं सहस्वर्गजितो वयम् / न्परीप्समानान्नावमंस्था नरेन्द्र / एष नो विरजाः पन्था दृश्यते देवसद्मनः // 15 तेनानन्ता दिवि लोकाः श्रितास्ते वैशंपायन उवाच। विद्युद्रूपाः स्वनवन्तो महान्तः // 7 तेऽधिरुह्य रथान्सर्वे प्रयाता नृपसत्तमाः। - शिबिरुवाच / आक्रमन्तो दिवं भाभिधर्मेणाकृत्य रोदसी // 16 तांस्त्वं लोकान्प्रतिपद्यस्व राज अष्टक उवाच / . मया दत्तान्यदि नेष्टः क्रयस्ते / अहं मन्ये पूर्वमेकोऽस्मि गन्ता न चाहं तान्प्रतिपत्स्ये ह दत्त्वा ___सखा चेन्द्रः सर्वथा मे महात्मा / .. यत्र गत्वा त्वमुपास्से ह लोकान् // 8 कस्मादेवं शिबिरौशीनरोऽय- ययातिरुवाच / मेकोऽत्यगात्सर्ववेगेन वाहान् // 17 यथा त्वमिन्द्रप्रतिमप्रभाव ययातिरुवाच / रस्ते चाप्यनन्ता नरदेव लोकाः / अददाद्देवयानाय यावद्वित्तमविन्दत / तथाद्य लोके न रमेऽन्यदत्ते | उशीनरस्य पुत्रोऽयं तस्माच्छ्रेष्ठो हि नः शिबिः॥१८ म.भा. 17 -.129 -
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________________ 1. 88. 19 ] महाभारते [1. 89.8 दानं तपः सत्यमथापि धर्मो सर्वे च देवा मुनयश्च लोकाः ह्रीः श्रीः क्षमा सौम्य तथा तितिक्षा / ___ सत्येन पूज्या इति मे मनोगतम् / / 24 राजनेतान्यप्रतिमस्य राज्ञः यो नः स्वर्गजितः सर्वान्यथावृत्तं निवेदयेत् / शिबेः स्थितान्यनृशंसस्य बुद्धथा / अनसूयुर्द्विजाग्रेभ्यः स लभेन्नः सलोकताम् // 25 एवंवृत्तो ह्रीनिषेधश्च यस्मा वैशंपायन उवाच / त्तस्माच्छिबिरत्यगाद्वै रथेन // 19 एवं राजा स महात्मा ह्यतीव . वैशंपायन उवाच। स्वैौहित्रैस्तारितोऽमित्रसाहः। अथाष्टकः पुनरेवान्वपृच्छ त्यक्त्वा महीं परमोदारकर्मा न्मातामहं कौतुकादिन्द्रकल्पम् / स्वर्गं गतः कर्मभिर्व्याप्य पृथ्वीम् // 26 पृच्छामि त्वां नृपते ब्रूहि सत्यं इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि कुतश्च कस्यासि सुतश्च कस्य / अष्टाशीतितमोऽध्यायः॥८॥ कृतं त्वया यद्धि न तस्य कर्ता लोके त्वदन्यः क्षत्रियो ब्राह्मणो वा॥२० जनमेजय उवाच / ययातिरुवाच। भगवश्रोतुमिच्छामि पूरोवंशकरान्नुपान् / ययातिरस्मि नहुषस्य पुत्रः यद्वीर्या यादृशाश्चैव यावन्तो यत्पराक्रमाः॥१. पूरोः पिता सार्वभौमस्त्विहासम् / न ह्यस्मिशीलहीनो वा निर्वीर्यो वा नराधिपः / गुह्यमर्थं मामकेभ्यो ब्रवीमि प्रजाविरहितो वापि,भूतपूर्वः कदाचन / / 2 मातामहोऽहं भवतां प्रकाशः॥२१ तेषां प्रथितवृत्तानां राज्ञां विज्ञानशालिनाम् / सर्वामिमां पृथिवीं निर्जिगाय चरितं श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण तपोधन // 3 प्रस्थे बद्धा ह्यददं ब्राह्मणेभ्यः / वैशंपायन उवाच। मेध्यानश्वानेकशफान्सुरूपां हन्त ते कथयिष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि / स्तदा देवाः पुण्यभाजो भवन्ति // 22 पूरोवंशधरान्वीराशक्रप्रतिमतेजसः // 4 अदामहं पृथिवीं ब्राह्मणेभ्यः प्रवीरेश्वररौद्राश्वास्त्रयः पुत्रा महारथाः। __ पूर्णामिमामखिलां वाहनस्य / पूरोः पौष्ट्यामजायन्त प्रवीरस्तत्र वंशकृत् // 5 गोभिः सुवर्णेन धनैश्च मुख्यै मनस्युरभवत्तस्माच्छूरः श्येनीसुतः प्रभुः। स्तत्रासन्गाः शतमबुदानि // 23 पृथिव्याश्चतुरन्ताया गोप्ता राजीवलोचनः // 6 सत्येन मे द्यौश्च वसुंधरा च सुभ्रूः संहननो वाग्मी सौवीरीतनयास्त्रयः / तथैवाग्निचलते मानुषेषु। मनस्यारभवन्पुत्राः शूराः सर्वे महारथाः॥७ न मे वृथा व्याहृतमेव वाक्यं रौद्राश्वस्य महेष्वासा दशाप्सरसि सूनवः / सत्यं हि सन्तः प्रतिपूजयन्ति / यज्वानो जज्ञिरे शूराः प्रजावन्तो बहुश्रुताः / -130 -
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________________ 1. 89.8] आदिपर्व [1. 89. 35 सर्वे सर्वास्त्रविद्वांसः सर्वे धर्मपरायणाः // 8 राजसूयाश्वमेधाद्यैः सोऽयजबहुभिः सवैः // 22 ऋचेपुरथ कक्षेपुः कृकणेपुश्च वीर्यवान् / सुहोत्रः पृथिवीं सर्वां बुभुजे सागराम्बराम् / स्थण्डिलेपुर्वनेपुश्च स्थलेपुश्च महारथः // 9 पूर्णां हस्तिगवाश्वस्थ बहुरत्नसमाकुलाम् // 23 तेजेपुर्बलवान्धीमान्सत्येपुश्चेन्द्रविक्रमः / ममजेव मही तस्य भूरिभारावपीडिता / धर्मेपुः संनतेपुश्च दशमो देवविक्रमः / हस्त्यश्वरथसंपूर्णा मनुष्यकलिला भृशम् // 24 अनाधृष्टिसुतास्तात राजसूयाश्वमेधिनः // 10 सुहोत्रे राजनि तदा धर्मतः शासति प्रजाः / मतिनारस्ततो राजा विद्वांश्चर्चेपुतोऽभवत् / चैत्ययूपाङ्किता चासीद्भूमिः शतसहस्रशः / मतिनारसुता राजंश्चत्वारोऽमितविक्रमाः / / प्रवृद्धजनसस्या च सहदेवा व्यरोचत / / 25 तंसुर्महानतिरथो द्रुह्यश्चाप्रतिमद्युतिः // 11 ऐक्ष्वाकी जनयामास सुहोत्रात्पृथिवीपतेः / तेषां तंसुर्महावीर्यः पौरवं वंशमुट्ठहन् / अजमीढं सुमीढं च पुरुमीढं च भारत // 26 आजहार यशो दीप्तं जिगाय च वसुंधराम् / / 12 अजमीढो वरस्तेषां तस्मिन्वंशः प्रतिष्ठितः / इलिनं तु सुतं तंसुर्जनयामास वीर्यवान् / षट् पुत्रान्सोऽप्यजनयत्तिसृषु स्त्रीषु भारत // 27 सोऽपि कृत्स्नामिमां भूमिं विजिग्ये जयतां वरः।।१३ ऋक्षं धूमिन्यथो नीली दुःषन्तपरमेष्ठिनौ / रथंतयां सुतान्पञ्च पञ्चभूतोपमांस्ततः / केशिन्यजनयजयुमुभौ च जनरूपिणौ // 28 इलिनो जनयामास दुःपन्तप्रभृतीन्नृप // 14 तथेमे सर्वपाश्चाला दुःषन्तपरमेष्ठिनोः / दुःषन्तं शूरभीमौ च अपूर्व वसुमेव च। अन्वयाः कुशिका राजञ्जह्नोरमिततेजसः // 29 तेषां ज्येष्ठोऽभवद्राजा दुःपन्तो जनमेजय // 15 जनरूपिणयोर्येष्ठमृक्षमाहुर्जनाधिपम् / दुःषन्ताद्भरतो जज्ञे विद्वाञ्शाकुन्तलो नृपः / ऋक्षात्संवरणो जज्ञे राजन्वंशकरस्तव / / 30 तस्माद्भरतवंशस्य विप्रतस्थे महबशः // 16 आः संवरणे राजन्प्रशासति वसुंधराम् / भरतस्तिसृषु स्त्रीषु नव पुत्रानजीजनत् / संक्षयः सुमहानासीत्प्रजानामिति शुश्रुमः // 31 नाभ्यनन्दत तानराजा नानुरूपा ममेत्युत // 17 व्यशीर्यत ततो राष्ट्रं क्षयैर्नानाविधैस्तथा / ततो महद्भिः क्रतुभिरीजानो भरतस्तदा / क्षुन्मृत्युभ्यामनावृष्ट्या व्याधिभिश्च समाहतम् / लेभे पुत्रं भरद्वाजामन्यु नाम भारत // 18 अभ्यन्नन्भारतांश्चैव सपत्नानां बलानि च // 32 ततः पुत्रिणमात्मानं ज्ञात्वा पौरवनन्दनः / चालयन्वसुधां चेव बलेन चतुरङ्गिणा / मुमन्युं भरतश्रेष्ठ यौवराज्येऽभ्यपेचयत् / / 19 अभ्ययात्तं च पाञ्चाल्यो विजित्य तरसा महीम् / ततस्तस्य महीन्द्रस्य वितथः पुत्रकोऽभवत् / अक्षौहिणीभिर्दशभिः स एनं समरेऽजयत् // 33 ततः स वितथो नाम भुमन्योरभवत्सुतः // 20 ततः सदारः सामात्यः सपुत्रः ससुहृज्जनः / सुहोत्रश्च सुहोता च सुहविः सुयजुस्तथा / राजा संवरणस्तस्मात्पलायत महाभयात् // 34 पुष्करिण्यामृचीकस्य भुमन्योरभवन्सुताः // 21 सिन्धोनदस्य महतो निकुञ्ज न्यवसत्तदा / तेषां ज्येष्ठः सुहोवस्तु राज्यमाप महीक्षिताम् / नदीविषयपर्यन्ते पर्वतस्य समीपतः / - 131 -
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________________ 1. 89.35] महाभारते [1. 90.5 तत्रावसन्बहून्कालान्भारता दुर्गमाश्रिताः॥ 35 जनमेजयस्य तनया भुवि ख्याता महाबलाः / तेषां निवसतां तत्र सहस्रं परिवत्सरान् / धृतराष्ट्रः प्रथमजः पाण्डुर्बाहीक एव च // 49 अथाभ्यगच्छद्भरतान्वसिष्ठो भगवानृषिः // 36 . निषधश्च महातेजास्तथा जाम्बूनदो बली। तमागतं प्रयत्नेन प्रत्युद्गम्याभिवाद्य च। कुण्डोदरः पदातिश्च वसातिश्चाष्टमः स्मृतः। अर्घ्यमभ्याहरंस्तस्मै ते सर्वे भारतास्तदा / सर्वे धर्मार्थकुशलाः सर्वे भूतहिते रताः // 50 निवेद्य सर्वमृषये सत्कारेण सुवर्चसे // 37 धृतराष्ट्रोऽथ राजासीत्तस्य पुत्रोऽथ कुण्डिकः / तं समामष्टमीमुष्टं राजा वने स्वयं तदा / हस्ती वितर्कः क्राथश्च कुण्डलश्चापि पञ्चमः / पुरोहितो भवान्नोऽस्तु राज्याय प्रयतामहे / हविःश्रवास्तथेन्द्राभः सुमन्युश्चापराजितः // 51 ओमित्येवं वसिष्ठोऽपि भारतान्प्रत्यपद्यत // 38 अथाभ्यषिश्चत्साम्राज्ये सर्वक्षत्रस्य पौरवम् / प्रतीपस्य त्रयः पुत्रा जज्ञिरे भरतर्षभ / विषाणभूतं सर्वस्यां पृथिव्यामिति नः श्रुतम् // 39 देवापिः शंतनुश्चैव बाह्रीकश्च महारथः // 52 .. भरताध्युषितं पूर्व सोऽध्यतिष्ठ-पुरोत्तमम् / देवापिस्तु प्रवव्राज तेषां धर्मपरीप्सया। पुनर्बलिभृतश्चैव चक्रे सर्वमहीक्षितः // 40 शंतनुश्च महीं लेभे बाह्रीकश्च महारथः // 53 ततः स पृथिवीं प्राप्य पुनरीजे महाबलः / भरतस्यान्वये जाताः सत्त्ववन्तो महारथाः। आजमीढो महायज्ञैर्बहुभिर्भूरिदक्षिणैः // 41 देवर्षिकल्पा नृपते बहवो राजसत्तमाः // 54 ततः संवरणात्सौरी सुषुवे तपती कुरुम् / एवंविधाश्चाप्यपरे देवकल्पा महारथाः / राजत्वे तं प्रजाः सर्वा धर्मज्ञ इति वव्रिरे / 42 जाता मनोरन्ववाये ऐलवंशविवर्धनाः // 55 तस्य नाम्नाभिविख्यातं पृथिव्यां कुरुजाङ्गलम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि कुरुक्षेत्रं स तपसा पुण्यं चक्रे महातपाः // 43 एकोननवतितमोऽध्यायः // 89 // अश्ववन्तमभिष्वन्तं तथा चित्ररथं मुनिम् / जनमेजयं च विख्यातं पुत्रांश्चास्यानुशुश्रुमः / जनमेजय उवाच। पञ्चैतान्वाहिनी पुत्रान्व्यजायत मनस्विनी // 44 श्रुतस्त्वत्तो मया विप्र पूर्वेषां संभवो महान् / अभिष्वतः परिक्षित्तु शबलाश्वश्च वीर्यवान् / उदाराश्चापि वंशेऽस्मिन्राजानो मे परिश्रुताः // 1 अभिराजो विराजश्च शल्मलश्च महाबलः // 45 किं तु लघ्वर्थसंयुक्तं प्रियाख्यानं न मामति / उच्चैःश्रवा भद्रकारो जितारिश्चाष्टमः स्मृतः / प्रीणात्यतो भवान्भूयो विस्तरेण ब्रवीतु मे // 2 एतेषामन्ववाये तु ख्यातास्ते कर्मजैर्गुणैः // 46 एतामेव कथां दिव्यामा प्रजापतितो मनोः / जनमेजयादयः सप्त तथैवान्ये महाबलाः / तेषामाजननं पुण्यं कस्य न प्रीतिमावहेत् // 3 परिक्षितोऽभवन्पुत्राः सर्वे धर्मार्थकोविदाः॥४७ सद्धर्मगुणमाहात्म्यैरभिवर्धितमुत्तमम् / कक्षसेनोग्रसेनौ च चित्रसेनश्च वीर्यवान् / | विष्टभ्य लोकांस्त्रीनेषां यशः स्फीतमवस्थितम् // 4 इन्द्रसेनः सुषेणश्च भीमसेनश्च नामतः॥४८ गुणप्रभाववीयौजःसत्त्वोत्साहवतामहम् / - 132 -
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________________ 1. 90. 5] आदिपर्व [1. 90. 33 न तृप्यामि कथां शृण्वन्नमृतास्वादसंमिताम् // 5 नाम / तस्यामस्य जज्ञे महाभौमः // 18 // वैशंपायन उवाच। महाभौमः खलु प्रासेनजितिमुपयेमे सुयज्ञां नाम। शृणु राजन्पुरा सम्यङ् मया द्वैपायनाच्छ्रुतम् / तस्यामस्य जज्ञे अयुतनायी। यः पुरुषमेधानामयुतप्रोच्यमानमिदं कृत्स्नं स्ववंशजननं शुभम् / / 6 मानयत् / तदस्यायुतनायित्वम् // 19 // दक्षस्यादितिः / अदितेर्विवस्वान् / विवस्वतो अयुतनायी खलु पृथुश्रवसो दुहितरमुपयेमे मनुः / मनोरिला / इलायाः पुरुरवाः / पुरूरवस भासां नाम / तस्यामस्य जज्ञे अक्रोधनः // 20 // आयुः / आयुषो नहुषः / नहुषस्य ययातिः // 7 // ___ अक्रोधनः खलु कालिङ्गी करण्डं नामोपयेमे। ययातेर्ते भार्ये बभूवतुः / उशनसो दुहिता देवयानी तस्यामस्य जज्ञे देवातिथिः॥२१॥ वृषपर्वणश्च दुहिता शर्मिष्ठा नाम / अत्रानुवंशो देवातिथिः खलु वैदेहीमुपयेमे मर्यादा नाम / भवति // 8 // तस्यामस्य जज्ञे ऋचः // 22 // यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत / / ऋचः खल्वाङ्गेयीमुपयेमे सुदेवां नाम / तस्यां द्रुह्यं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी // 9 पुत्रमजनयहक्षम् // 23 // तत्र यदोर्यादवाः / पूरोः पौरवाः // 10 // ऋक्षः खलु तक्षकदुहितरमुपयेमे ज्वालां नाम। पूरो र्या कौसल्या नाम / तस्यामस्य जज्ञे जन- तस्यां पुत्रं मतिनारं नामोत्पादयामास // 24 // मेजयो नाम / यस्त्रीनश्वमेधानाजहार। विश्वजिता ___ मतिनारः खलु सरस्वत्यां द्वादशवार्षिकं सत्रमाचेष्ट्वा वनं प्रविवेश // 11 // जहार // 25 // निवृत्ते च सत्रे सरस्वत्यभिगम्य तं जनमेजयः खल्वनन्तां नामोपयेमे माधवीम् / भर्तारं वरयामास / तस्यां पुत्रमजनयत्तंसुं नाम तस्यामस्य जज्ञे प्राचिन्वान् / यः प्राची दिशं जिगाय // 26 // अत्रानुवंशो भवति // 27 // यावत्सूर्योदयात् / ततस्तस्य प्राचिन्वत्वम् / / 12 // तंसुं सरस्वती पुत्रं मतिनारादजीजनत् / प्राचिन्वान्खल्वश्मकीमुपयेमे / तस्यामस्य जज्ञे इलिनं जनयामास कालिन्द्यां तंसुरात्मजम्॥२८ संयातिः / / 13 // इलिनस्तु रथताँ दुःषन्ताद्यान्पश्च पुत्रानजनसंयातिः खलु दृपद्वतो दुहितरं वराङ्गी नामो- यत् // 29 // पयेमे। तस्यामस्य जज्ञे अहंपातिः // 14 // ___ दुःषन्तः खलु विश्वामित्रदुहितरं शकुन्तला अहंपातिस्तु खलु कृतवीर्यदुहितरमुपयेमे भानु- नामोपयेमे / तस्यामस्य जज्ञे भरतः / तत्र श्लोको मती नाम / तस्यामस्य जज्ञे सार्वभौमः // 15 // भवतः // 30 // * सार्वभौमः खलु जित्वा जहार कैकेयीं सुनन्दा माता भस्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः। नाम / तस्यामस्य जज्ञे जयत्सेनः // 16 // भरस्व पुत्रं दुःषन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् // 31 - जयत्सेनः खलु वैदर्भीमुपयेमे सुषुवां नाम / रेतोधाः पुत्र उन्नयति नरदेव यमक्षयात् / सस्यामस्य जज्ञे अराचीनः // 17 // त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला।।३२ : अराचीनोऽपि वैदर्भीमेवापरामुपयेमे मर्यादां ततोऽस्य भरतत्वम् // 33 // - 133 -
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________________ 1. 90. 34] महाभारते [1. 90. 65 भरतः खलु काशेयीमुपयेमे सार्वसेनी सुनन्दा यं यं कराभ्यां स्पृशति जीर्णं स सुखमनुते / नाम / तस्यामस्य जज्ञे भुमन्युः // 34 // पुनयुवा च भवति तस्मात्तं शंतनुं विदुः // 48 भुमन्युः खलु दाशार्हामुपयेमे जयां नाम। / तदस्य शंतनुत्वम् // 49 // तस्यामस्य जज्ञे सुहोत्रः॥ 35 // शंतनुः खलु गङ्गां भागीरथीमुपयेमे। तस्यामस्य सुहोत्रः खल्विक्ष्वाकुकन्यामुपयेमे सुवर्णां नाम। | जज्ञे देवव्रतः। यमाहुर्भीष्म इति / / 50 // तस्यामस्य जज्ञे हस्ती / य इदं हास्तिनपुरं मापया- भीष्मः खलु पितुः प्रियचिकीर्षया सत्यवतीमुमास / एतदस्य हास्तिनपुरत्वम् / / 36 // दवहन्मातरम् / यामाहुर्गन्धकालीति // 51 // हस्ती खलु त्रैगर्तीमुपयेमे यशोधरां नाम / तस्यां कानीनो गर्भः पराशराद्वैपायनः / तस्यामेव तस्यामस्य जज्ञे विकुण्ठनः // 37 // शंतनोझै पुत्रौ बभूवतुः / चित्राङ्गदो विचित्रवीविकुण्ठनः खलु दाशार्हामुपयेमे सुदेवां नाम / र्यश्च / / 52 // तयोरप्राप्तयौवन एव चित्राङ्गदो तस्यामस्य जज्ञे अजमीढः // 38 // गन्धर्वेण हतः। विचित्रवीर्यस्तु राजा समभवत् / / 53 अजमीढस्य चतुर्विंशं पुत्रशतं बभूव कैकेय्यां विचित्रवीर्यः खलु कौसल्यात्मजे अम्बिकाम्बानागाया गान्धार विमलायामृक्षायां चेति / पृथ- लिके काशिराजदुहितरावुपयेमे / / 54 // विचित्रपृथग्वंशकरा नृपतयः। तत्र वंशकरः संवरणः // 39 / वीर्यस्त्वनपत्य एव विदेहत्वं प्राप्तः / / 55 // ततः संवरणः खलु वैवस्वतीं तपती नामोपयेमे / सत्यवती चिन्तयामास / दौःषन्तो वंश उच्छितस्यामस्य जज्ञे कुरुः // 40 // द्यते इति // 56 // सा द्वैपायनमृर्षि चिन्तयामास कुरुः खलु दाशार्हामुपयेमे शुभाङ्गी नाम / // 57 // स तस्याः पुरतः स्थितः किं करवाणीति तस्यामस्य जज्ञे विडूरथः // 41 // // 58 // सा तमुवाच / भ्राता तवानपत्य एव विडूरथस्तु मागधीमुपयेमे संप्रियां नाम / तस्या- स्वर्यातो विचित्रवीयः। साध्वपत्यं तस्योत्पादयेति मस्य जज्ञे अरुग्वान्नाम // 42 // // 59 // स परमित्युक्त्वा त्रीन्पुत्रानुत्पादयामास अरुग्वान्खलु मागधीमुपयेमे अमृतां नाम / धृतराष्ट्रं पाण्डुं विदुरं चेति // 60 // तस्यामस्य जज्ञे परिक्षित् // 43 // तत्र धृतराष्ट्रस्य राज्ञः पुत्रशतं बभूव गान्धार्या परिक्षित्खलु बाहुदामुपयेमे सुयशां नाम / वरदानाहैपायनस्य // 61 // तेषां धृतराष्ट्रस्य पुत्राणां तस्यामस्य जज्ञे भीमसेनः / / 44 // चत्वारः प्रधाना बभूवुर्दुर्योधनो दुःशासनो विकभीमसेनः खलु कैकेयीमुपयेमे सुकुमारी नाम / कश्चित्रसेन इति / / 62 // . तस्यामस्य जज्ञे पर्यश्रवाः। यमाहुः प्रतीपं नाम // 45 पाण्डोस्तु द्वे भार्ये बभूवतुः कुन्ती माद्री चेत्युभे प्रतीपः खलु शैब्यामुपयेमे सुनन्दा नाम / तस्यां स्त्रीरत्ने / 63 // पुत्रानुत्पादयामास देवापिं शंतनुं बाह्रीकं चेति // 46 ___ अथ पाण्डुZगयां चरन्मैथुनगतमृषिमपश्य देवापिः खलु बाल एवारण्यं प्रविवेश। शंत- न्मृग्यां वर्तमानम् / तथैवाप्लुतमनासादितकामरसमनुस्तु महीपालोऽभवत् / अत्रानुवशो भवति // 47 // / तृप्तं बाणेनाभिजधान // 64 // स बाणविद्ध उवाच - 134 -
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________________ 1. 90. 65] आदिपर्व [1.90.96 पाण्डुम् / चरता धर्ममिमं येन त्वयाभिज्ञेन काम युधिष्ठिरस्तु गोवासनस्य शैब्यस्य देविकां नाम रसस्याहमनवाप्तकामरसोऽभिहतस्तस्मात्त्वमप्येताम कन्यां स्वयंवरे लेभे / तस्यां पुत्रं जनयामास यौवस्थामासाद्यानवाप्तकामरसः पञ्चत्वमाप्स्यसि क्षिप्र धेयं नाम // 83 // भीमसेनोऽपि काश्यां बलधरां मेवेति // 65 // स विवर्णरूपः पाण्डुः शापं परि नामोपयेमे वीर्यशुल्काम् / तस्यां पुत्रं सर्वगं नामोहरमाणो नोपासर्पत भार्ये // 66 // वाक्यं चो त्पादयामास // 84 // अर्जुनः खलु द्वारवतीं गत्वा वाच / स्वचापल्यादिदं प्राप्तवानहम् / शृणोमि च भगिनीं वासुदेवस्य सुभद्रां नाम भार्यामुदवहत् / नानपत्यस्य लोकाः सन्तीति // 67 // सा त्वं तस्यां पुत्रमभिमन्यु नाम जनयामास // 85 // मदर्थे पुत्रानुत्पादयेति कुन्तीमुवाच // 68 // सां नकुलस्तु चैद्यां करेणुवतीं नाम भार्यामुदवहत् / तत्र पुत्रानुत्पादयामास धर्माद्युधिष्ठिरं मारुताद्भीम तस्यां पुत्रं निरमित्रं नामाजनयत् // 86 // सहदेसेनं शक्रादर्जुनमिति // 69 // स तां हृष्टरूपः वोऽपि माद्रीमेव स्वयंवरे विजयां नामोपयेमे / पाण्डुरुवाच / इयं ते सपत्न्यनपत्या / साध्व तस्यां पुत्रमजनयत्सुहोत्रं नाम // 87 // भीमसेस्यामपत्यमुत्पाद्यतामिति // 70 // स एवम नस्तु पूर्वमेव हिडिम्बायां राक्षस्यां घटोत्कचं नाम स्त्वित्युक्तः कुन्त्या // 71 // ततो मायामश्विभ्यां पुत्रं जनयायास // 88 // इत्येते एकादश पाण्डनकुलसहदेवावुत्पादितौ // 72 // माद्री खल्वलं वानां पुत्राः // 89 // कृतां दृष्ट्वा पाण्डुर्भावं चक्रे / / 73 // स तां स्पृष्ट्वैव ___विराटस्य दुहितरमुत्तरां नामाभिमन्युरुपयेमे / विदेहत्वं प्राप्तः // 74 // तत्रैनं चितास्थं माद्री तस्यामस्य परासुर्गर्मोऽजायत / 90 // तमुत्सङ्गेन समन्वारुरोह // 75 // उवाच कुन्तीम् / यमयो प्रतिजग्राह पृथा नियोगात्पुरुषोत्तमस्य वासुदेवस्य / पर्ययाप्रमत्तया भवितव्यमिति // 76 // षाण्मासिकं गर्भमहमेनं जीवयिष्यामीति // 91 // ततस्ते पञ्च पाण्डवाः कुन्त्या सहिता हास्तिन संजीवयित्वा चैनमुवाच / परिक्षीणे कुले जातो पुरमानीय तापसैर्भीष्मस्य विदुरस्य च निवेदिताः भवत्वयं परिक्षिन्नामेति // 92 // / 77 // तत्रापि जतुगृहे दग्धं समारब्धा न शकि ____ परिक्षित्तु खलु माद्रवती नामोपयेमे / तस्यामस्य | विदुरमत्रितेन // 78 // ततश्च हिडिम्बमन्तरा जनमेजयः // 93 // . हत्वा एकचक्रां गताः // 79 // तस्यामप्येकच ___ जनमेजयात्तु वपुष्टमायां द्वौ पुत्रौ शतानीकः जयां बकं नाम राक्षसं हत्वा पाश्चालनगरमभि शङ्कश्च // 94 // ताः॥८ // शतानीकस्तु खलु वैदेहीमुपयेमे / तस्यामस्य तस्माद्रौपदी भार्यामविन्दन्स्वविषयं चाजग्मुः जज्ञे पुत्रोऽश्वमेधदत्तः // 95 // शलिनः // 81 // पुत्रांश्चोत्पादयामासुः / प्रति इत्येष पूरोवंशस्तु पाण्डवानां च कीर्तितः / न्ध्यं युधिष्ठिरः / सुतसोमं वृकोदरः / श्रुतकीर्ति पूरोवंशमिमं श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते // 96 // र्जुनः / शतानीकं नकुलः / श्रुतकर्माणं सहदेव इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ति॥ 82 // नवतितमोऽध्यायः॥ 9 // . - 135 -
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________________ 1. 91. 1] महाभारते [1. 92.2 इत्युक्ता तान्वसूनगङ्गा तथेत्युक्त्वाब्रवीदिदम् / / वैशंपायन उवाच / मर्येषु पुरुषश्रेष्ठः को वः कर्ता भविष्यति // 15 इक्ष्वाकुवंशप्रभवो राजासीत्पृथिवीपतिः। . वसव ऊचुः / महाभिष इति ख्यातः सत्यवाक्सत्यविक्रमः // 1 प्रतीपस्य सुतो राजा शंतनुर्नाम धार्मिकः / सोऽश्वमेधसहस्रेण वाजपेयशतेन च / भविता मानुषे लोके स नः कर्ता भविष्यति॥१६ तोषयामास देवेन्द्रं स्वर्ग लेभे ततः प्रभुः // 2 गङ्गोवाच / ततः कदाचिद्ब्रह्माणमुपासांचक्रिरे सुराः / ममाप्येवं मतं देवा यथा वदत मानघाः / तत्र राजर्षयो आसन्स च राजा महाभिषः॥३ प्रियं तस्य करिष्यामि युष्माकं चैतदीप्सितम्॥१७ अथ गङ्गा सरिच्छ्रेष्ठा समुपायात्पितामहम् / ___ वसव ऊचुः। तस्या वासः समुद्भूतं मारुतेन शशिप्रभम् // 4 जातान्कुमारान्स्वानप्सु प्रक्षेप्तुं वै त्वमर्हसि / ततोऽभवन्सुरगणाः सहसावाङ्मुखास्तदा / यथा नचिरकालं नो निष्कृतिः स्यात्रिलोकंगे // 18 महाभिषस्तु राजर्षिरशङ्को दृष्टवान्नदीम् // 5 गङ्गोवाच / अपध्यातो भगवता ब्रह्मणा स महाभिषः / एवमेतत्करिष्यामि पुत्रस्तस्य विधीयताम् / उक्तश्च जातो मर्येषु पुनर्लोकानवाप्स्यसि // 6 नास्य मोघः संगमः स्यात्पुत्रहेतोर्मया सह // 19 स चिन्तयित्वा नृपतिनपान्सर्वांस्तपोधनान् / वसव ऊचुः। प्रतीपं रोचयामास पितरं भूरिवर्चसम् // 7 तुरीयाधं प्रदास्यामो वीर्यस्यैकैकशो वयम् / महाभिषं तु तं दृष्ट्वा नदी धैर्याच्च्युतं नृपम् / तेन वीर्येण पुत्रस्ते भविता तस्य चेप्सितः // 20 तमेव मनसाध्यायमुपावर्तत्सरिद्वरा // 8 न संपत्स्यति मर्येषु पुनस्तस्य तु संततिः / सा तु विध्वस्तवपुषः कश्मलाभिहतौजसः / तस्मादपुत्रः पुत्रस्ते भविष्यति स वीर्यवान् // 21 ददर्श पथि गच्छन्ती वसून्देवान्दिवौकसः॥९ वैशंपायन उवाच / तथारूपांश्च तान्दृष्ट्वा पप्रच्छ सरितां वरा। एवं ते समयं कृत्वा गङ्गया वसवः सह / किमिदं नष्टरूपाः स्थ कच्चित्क्षेमं दिवौकसाम् // 10 जग्मुः प्रहृष्टमनसो यथासंकल्पमञ्जसा // 22 तामूचुर्वसवो देवाः शप्ताः स्मो वै महानदि / * इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अल्पेऽपराधे संरम्भाद्वसिष्ठेन महात्मना // 11 एकनवतितमोऽध्यायः // 11 // विमूढा हि वयं सर्वे प्रच्छन्नमृषिसत्तमम् / . 92 संध्यां वसिष्ठमासीनं तमत्यभिसृताः पुरा // 12 वैशंपायन उवाच / तेन कोपाद्वयं शप्ता योनौ संभवतेति ह। ततः प्रतीपो राजा स सर्वभूतहिते रतः / न शक्यमन्यथा कर्तुं यदुक्तं ब्रह्मवादिना // 13 निषसाद समा बहीर्गङ्गातीरगतो जपन् // 1 त्वं तस्मान्मानुषी भूत्वा सूष्व पुत्रान्वसून्भुवि / तस्य रूपगुणोपेता गङ्गा श्रीरिव रूपिणी / न मानुषीणां जठरं प्रविशेमाशुभं वयम् // 14 / उत्तीर्य सलिलात्तस्माल्लोभनीयतमाकृतिः // 2 -136 -
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________________ 1. 92.3] आदिपर्व [1. 92. 28 अधीयानस्य राजर्षेर्दिव्यरूपा मनस्विनी / एवं वसन्ती पुढे ते वर्धयिष्याम्यहं प्रियम् / दक्षिणं शालसंकाशमूरुं भेजे शुभानना // 3 पुत्रैः पुण्यैः प्रियैश्चापि स्वर्ग प्राप्स्यति ते सुतः॥१५ प्रतीपस्तु महीपालस्तामुवाच मनस्विनीम् / वैशंपायन उवाच / करवाणि किं ते कल्याणि प्रियं यत्तेऽभिकाङ्कितम् // 4 तथेत्युक्त्वा तु सा राजंस्तत्रैवान्तरधीयत / स्युवाच / पुत्रजन्म प्रतीक्षंस्तु स राजा तदधारयत् // 16 त्वामहं कामये राजन्कुरुश्रेष्ठ भजस्व माम् / एतस्मिन्नेव काले तु प्रतीपः क्षत्रियर्षभः / त्यागः कामवतीनां हि स्त्रीणां सद्भिर्विगर्हितः / / 5 / तपस्तेपे सुतस्यार्थे सभायः कुरुनन्दन // 17 प्रतीप उवाच / तयोः समभवत्पुत्रो वृद्धयोः स महाभिषः / नाहं परस्त्रियं कामाद्गच्छेयं वरवर्णिनि / . शान्तस्य जज्ञे संतानस्तस्मादासीत्स शंतनुः // 18 न चासवर्णां कल्याणि धर्म्य तद्विद्धि मे व्रतम् // 6 संस्मरंश्चाक्षयाल्लोकान्विजितान्स्वेन कर्मणा / स्युवाच। पुण्यकर्मकृदेवासीच्छंतनुः कुरुसत्तम // 19 नाश्रेयस्यस्मि नागम्या न वक्तव्या च कर्हि चित् / प्रतीपः शंतनुं पुत्रं यौवनस्थं ततोऽन्वशात् / भज मां भजमानां त्वं राजन्कन्यां वरस्त्रियम् // 7 पुरा मां स्त्री समभ्यागाच्छंतनो भूतये तव // 20 प्रतीप उवाच। त्वामाव्रजेद्यदि रहः सा पुत्र वरवर्णिनी / मयातिवृत्तमेतत्ते यन्मां चोदयसि प्रियम् / कामयानाभिरूपाढ्या दिव्या स्त्री पुत्रकाम्यया / अन्यथा प्रतिपन्नं मां नाशयेद्धर्मविप्लवः / / 8 सा त्वया नानुयोक्तव्या कासि कस्यासि वाङ्गने॥२१ प्राप्य दक्षिणमूरूं मे त्वमाश्लिष्टा वराङ्गने। यच्च कुर्यान्न तत्कार्य प्रष्टव्या सा त्वयानघ / अपत्यानां स्नुषाणां च भीरु विद्ध्येतदासनम् // 9 मन्नियोगाद्भजन्तीं तां भजेथा इत्युवाच तम् / / 22 सव्यतः कामिनीभागस्त्वया स च विवर्जितः। एवं संदिश्य तनयं प्रतीपः शंतनुं तदा / तस्मादहं नाचरिष्ये त्वयि कामं वराङ्गने / / 10 स्खे च राज्येऽभिषिच्यैनं वनं राजा विवेश ह // 23 स्नुषा मे भव कल्याणि पुत्रार्थे त्वां वृणोम्यहम् / स राजा शंतनुर्धीमान्ख्यातः पृथव्यां धनुर्धरः / स्नुषापदं हि वामोरु त्वमागम्य समाश्रिता // 11 बभूव मृगयाशीलः सततं वनगोचरः // 24 स्त्युवाच / स मृगान्महिषांश्चैव विनिघ्नराजसत्तमः / एवमप्यस्तु धर्मज्ञ संयुज्येयं सुतेन ते / गङ्गामनुचचारैकः सिद्धचारणसेविताम् // 25 त्वद्भक्त्यैव भजिष्यामि प्रख्यातं भारतं कुलम्॥१२ स कदाचिन्महाराज ददर्श परमस्त्रियम् / पृथिव्यां पार्थिवा ये च तेषां यूयं परायणम् / जाज्वल्यमानां वपुषा साक्षात्पद्मामिव श्रियम् // 26 गुणा न हि मया शक्या वक्तुं वर्षशतैरपि / / सर्वानवद्यां सुदतीं दिव्याभरणभूषिताम् / कुलस्य ये वः प्रथितास्तत्साधुत्वमनुत्तमम् // 13 सूक्ष्माम्बरधरामेकां पद्मोदरसमप्रभाम् // 27 स मे नाभिजनज्ञः स्यादाचरेयं च यद्विभो। तां दृष्ट्वा हृष्टरोमाभूद्विस्मितो रूपसंपदा / तत्सर्वमेव पुत्रस्ते न मीमांसेत कर्हिचित् / / 14 / पिबन्निव च नेत्राभ्यां नातृप्यत नराधिपः // 28 म.भा. 18 - 137 -
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________________ 1. 92. 29 ] महाभारते [1. 93.1 स्युवाच / सा च दृष्ट्वैव राजानं विचरन्तं महाद्युतिम् / जातं जातं च सा पुत्रं क्षिपत्यम्भसि भारत / स्नेहादागतसौहार्दा नातृप्यत विलासिनी / / 29 प्रीणामि त्वाहमित्युक्त्वा गङ्गास्रोतस्यमजयत् // 44 तामुवाच ततो राजा सान्त्वयलक्ष्णया गिरा। तस्य तन्न प्रियं राज्ञः शंतनोरभवत्तदा / देवी वा दानवी वा त्वं गन्धर्वी यदि वाप्सराः॥३० न च तां किंचनोवाच त्यागाद्भीतो महीपतिः॥ 45 यक्षी वा पन्नगी वापि मानुषी वा सुमध्यमे / अथ तामष्टमे पुढे जाते प्रहसितामिव / या वा त्वं सुरगर्भामे भार्या मे भव शोभने // 31 उवाच राजा दुःखार्तः परीप्सन्पुत्रमात्मनः // 46 एतच्छ्रुत्वा वचो राज्ञः सस्मितं मृदु वल्गु च। मा वधीः कासि कस्यासि किं हिंससि सुतानिति / वसूनां समयं स्मृत्वा अभ्यगच्छदनिन्दिता // 32 / पुत्रन्नि सुमहत्पापं मा प्रापस्तिष्ठ गर्हिते // 47 उवाच चैव राज्ञः सा हादयन्ती मनो गिरा। भविष्यामि महीपाल महिषी ते वशानुगा॥ 33 पुत्रकाम न ते हन्मि पुत्रं पुत्रवतां वर / यत्तु कुर्यामहं राजशुभं वा यदि वाशुभम् / जीर्णस्तु मम वासोऽयं यथा स समयः कृतः॥४८ न तद्वारयितव्यास्मि न वक्तव्या तथाप्रियम् // 34 अहं गङ्गा जह्वसुता महर्षिगणसेविता। एवं हि वर्तमानेऽहं त्वयि वत्स्यामि पार्थिव / देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थमुषिताहं त्वया सह // 49 वारिता विप्रियं चोक्ता त्यजेयं त्वामसंशयम् // 35 अष्टमे वसवो देवा महाभागा महौजसः / तथेति राज्ञा सा तूक्ता तदा भरतसत्तम / वसिष्ठशापदोषेण मानुषत्वमुपागताः // 50 प्रहर्षमतुलं लेभे प्राप्य तं पार्थिवोत्तमम् // 36 तेषां जनयिता नान्यस्त्वदृते भुवि विद्यते / आसाद्य शंतनुस्तां च बुभुजे कामतो वशी। मद्विधा मानुषी धात्री न चैवास्तीह काचन // 51 न प्रष्टव्येति मन्वानो न स तां किंचिदूचिवान् // 37 तस्मात्तजननीहेतोर्मानुषत्वमुपागता / स तस्याः शीलवृत्तेन रूपौदार्यगुणेन च। जनयित्वा वसूनष्टौ जिता लोकास्त्वयाक्षयाः॥५२ उपचारेण च रहस्तुतोष जगतीपतिः // 38 देवानां समयस्त्वेष वसूनां संश्रुतो मया / दिव्यरूपा हि सा देवी गङ्गा त्रिपथगा नदी / जातं जातं मोक्षयिष्ये जन्मतो मानुषादिति // 53 मानुषं विग्रहं श्रीमत्कृत्वा सा वरवर्णिनी // 39 तत्ते शापाद्विनिर्मुक्ता आपवस्य महात्मनः। . भाग्योपनतकामस्य भार्येवोपस्थिताभवत् / स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि पुत्रं पाहि महाव्रतम् // 54 शंतनो राजसिंहस्य देवराजसमातेः॥४० एष पर्यायवासो मे वसूनां संनिधौ कृतः / संभोगस्नेहचातुर्यविलास्यैर्मनोहरैः / मत्प्रसूतं विजानीहि गङ्गादत्तमिमं सुतम् // 55 राजानं रमयामास यथा रेमे तथैव सः॥ 41 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि स राजा रतिसक्तत्वादुत्तमस्त्रीगुणैर्हतः / द्विनवतितमोऽध्यायः // 92 // संवत्सरानृतून्मासान्न बुबोध बहूगतान् // 42 93 रममाणस्तया सार्धं यथाकामं जनेश्वरः। शंतनुरुवाच / अष्ट्रावजनयत्पुत्रांस्तस्याममरवर्णिनः // 43 आपवो नाम को न्वेष वसूनां किं च दुष्कृतम् / -138 -
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________________ 1. 93. 1] आदिपर्व [1. 93. 29 यस्याभिशापात्ते सर्वे मानुषीं तनुमागताः // 1 उपपन्नां गुणैः सर्वैः शीलेनानुत्तमेन च // 15 अनेन च कुमारेण गङ्गादत्तेन किं कृतम् / एवंगुणसमायुक्तां वसवे वसुनन्दिनी / यस्य चैव कृतेनायं मानुषेषु निवत्स्यति // 2 दर्शयामास राजेन्द्र पुरा पौरवनन्दन // 16 ईशानाः सर्वलोकस्य वसवस्ते च वै कथम् / द्यौस्तदा तां तु दृष्ट्वैव गां गजेन्द्रेन्द्रविक्रम / मानुषेषूदपद्यन्त तन्ममाचक्ष्व जाह्नवि // 3 उवाच राजस्तां देवीं तस्यां रूपगुणान्वदन् // 17 वैशंपायन उवाच।। एषा गौरुत्तमा देवि वारुणेरसितेक्षणे / सैवमुक्ता ततो गङ्गा राजानमिदमब्रवीत् / ऋषेस्तस्य वरारोहे यस्येदं वनमुत्तमम् / / 18 भर्तारं जाह्नवी देवी शंतनुं पुरुषर्षभम् // 4 अस्याः क्षीरं पिबेन्मर्त्यः स्वादु यो वै सुमध्यमे / यं लेभे वरुणः पुत्रं पुरा भरतसत्तम / दश वर्षसहस्राणि स जीवेस्थिरयोवनः // 19 वसिष्ठो नाम स मुनिः ख्यात आपव इत्युत // 5 एतच्छ्रुत्वा तु सा देवी नृपोत्तम सुमध्यमा / तस्याश्रमपदं पुण्यं मृगपक्षिगणान्वितम् / तमुवाचानवद्याङ्गी भर्तारं दीप्ततेजसम् / / 20 मेरोः पार्श्वे नगेन्द्रस्य सर्वर्तुकुसुमावृतम् // 6 अस्ति मे मानुषे लोके नरदेवात्मजा सखी / स वारुणिस्तपस्तपे तस्मिन्भरतसत्तम / नाम्ना जिनवती नाम रूपयौवनशालिनी // 21 वने पुण्यकृतां श्रेष्ठः स्वादुमूलफलोदके // 7 उशीनरस्य राजर्षेः सत्यसंधस्य धीमतः।। दक्षस्य दुहिता या तु सुरभीत्यतिगर्विता। . दुहिता प्रथिता लोके मानुषे रूपसंपदा // 22 गां प्रजाता तु सा देवी कश्यपाद्भरतर्षभ / / 8 तस्या हेतोर्महाभाग सवत्सां गां ममेप्सिताम् / अनुग्रहार्थं जगतः सर्वकामदुघां वराम् / आनयस्वामरश्रेष्ठ त्वरितं पुण्यवर्धन // 23 तां लेभे गां तु धर्मात्मा होमधेनुं स वारुणिः॥९ यावदस्याः पयः पीत्वा सा सखी मम मानद / सा तस्मिंस्तापसारण्ये वसन्ती मुनिसेविते / मानुषेषु भवत्वेका जरारोगविवर्जिता // 24 चचार रम्ये धर्ये च गौरपेतभया तदा // 10 एतन्मम महाभाग कर्तुमर्हस्यनिन्दित / अथ तद्वनमाजग्मुः कदाचिद्भरतर्षभ / प्रियं प्रियतरं ह्यस्मान्नास्ति मेऽन्यत्कथंचन // 25 पृथ्वाद्या वसवः सर्वे देवदेवर्षिसेवितम् // 11 एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्या देव्याः प्रियचिकीर्षया / ते सदारा वनं तच्च व्यचरन्त समन्ततः / पृथ्वाद्यैर्धातृभिः सार्धं द्यौस्तदा तां जहार गाम्॥२६ रेमिरे रमणीयेषु पर्वतेषु वनेषु च // 12 तया कमलपत्राक्ष्या नियुक्तो द्योस्तदा नृप / तत्रैकस्य तु भार्या वै वसोर्वासवविक्रम / ऋषेस्तस्य तपस्तीवं न शशाक निरीक्षितुम् / 'सा चरन्ती वने तस्मिन्गां ददर्श सुमध्यमा। हृता गौः सा तदा तेन प्रपातस्तु न तर्कितः // 27 या सा वसिष्ठस्य मुनेः सर्वकामधुगुत्तमा // 13 अथाश्रमपदं प्राप्तः फलान्यादाय वारुणिः / सा विस्मयसमाविष्टा शीलद्रविणसंपदा। न चापश्यत गां तत्र सवत्सां काननोत्तमे / / 28 दिवे वै दर्शयामास तां गां गोवृषभेक्षण // 14 ततः स मृगयामास वने तस्मिंस्तपोधनः / वापीनां च सुदोग्ध्रीं च सुवालधिमुखां शुभाम् / / नाध्यगच्छच्च मृगयंस्तां गां मुनिरुदारधीः // 29 - -139 -
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________________ 1: 93. 30] महाभारते [1. 94.9 ज्ञात्वा तथापनीतां तां वसुभिर्दिव्यदर्शनः / एतदाख्याय सा देवी तत्रैवान्तरधीयत / ययौ क्रोधवशं सद्यः शशाप च व स्तदा // 30 आदाय च कुमारं तं जगामाथ यथेप्सितम् // 43 यस्मान्मे वसवो जह्वाँ वै दोग्ध्रीं सुवालधिम् / स तु देवव्रतो नाम गाङ्गेय इति चाभवत् / तस्मात्सर्वे जनिष्यन्ति मानुषेषु न संशयः // 31 द्विनामा शंतनोः पुत्रः शंतनोरधिको गुणैः // 44 एवं शशाप भगवान्वसंस्तान्मुनिसत्तमः / / शंतनुश्चापि शोकार्तो जगाम स्वपुरं ततः। वशं कोपस्य संप्राप्त आपवो भरतर्षभ // 32 तस्याहं कीर्तयिष्यामि शंतनोरमितान्गुणान् // 45 शप्त्वा च तान्महाभागस्तपस्येव मनो दधे / महाभाग्यं च नृपतेर्भारतस्य यशस्विनः / एवं स शप्तवान्राजन्वसूनष्टी तपोधनः / यस्येतिहासो द्युतिमान्महाभारतमुच्यते // 46 महाप्रभावो ब्रह्मर्षिर्देवान्रोषसमन्वितः // 33 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अथाश्रमपदं प्राप्य तं स्म भूयो महात्मनः / त्रिनवतितमोऽध्यायः // 93 // शप्ताः स्म इति जानन्त ऋषि तमुपचक्रमुः॥ 34 प्रसादयन्तस्तमृषि वसवः पार्थिवर्षभ / वैशंपायन उवाच / न लेभिरे च तस्मात्ते प्रसादमृषिसत्तमात् / स एवं शंतनुर्धीमान्देवराजर्षिसत्कृतः / आपवात्पुरुषव्याघ्र सर्वधर्मविशारदात् / / 35 धर्मात्मा सर्वलोकेषु सत्यवागिति विश्रुतः॥१ उवाच च स धर्मात्मा सप्त यूयं धरादयः / दमो दानं क्षमा बुद्धिी तिस्तेज उत्तमम् / अनु संवत्सराच्छापमोक्षं वै समवाप्स्यथ // 36 नित्यान्यासन्महासत्त्वे शंतना पुरुषर्षभे // 2 अयं तु यत्कृते यूयं मया शप्ताः स वत्स्यति। एवं स गुणसंपन्नो धर्मार्थकुशलो नृपः / द्यौस्तदा मानुषे लोके दीर्घकालं स्वकर्मणा // 37 आसीद्भरतवंशस्य गोप्ता साधुजनस्य च // 3 . नानृतं तच्चिकीर्षामि युष्मान्क्रुद्धो यब्रुवम् / कम्बुग्रीवः पृथुव्यंसो मत्तवारणविक्रमः / न प्रजास्यति चाप्येष मानुषेषु महामनाः // 38 धर्म एव परः कामादर्थाच्चेति व्यवस्थितः॥४ भविष्यति च धर्मात्मा सर्वशास्त्रविशारदः / एतान्यासन्महासत्त्वे शंतनौ भरतर्षभ / पितुः प्रियहिते युक्तः स्त्रीभोगान्वर्जयिष्यति / न चास्य सदृशः कश्चित्क्षत्रियो धर्मतोऽभवत्॥५ एवमुक्त्वा वसून्सर्वाञ्जगाम भगवानृषिः / / 39 चर्तमानं हि धर्मे स्वे सर्वधर्मविदां वरम् / ततो मामुपजग्मुस्ते समस्ता वसवस्तदा। / तं महीपा महीपालं राजराज्येऽभ्यषेचयन् // 6 अयाचन्त च मां राजन्वरं स च मया कृतः। वीतशोकभयाबाधाः सुखस्वप्नविबोधनाः / जाताञ्जातान्प्रक्षिपास्मान्स्वयं गङ्गे त्वमम्भसि // 40 प्रति भारतगोप्तारं समपद्यन्त भूमिपाः // 7 एवं तेषामहं सम्यक् शप्तानां राजसत्तम / शंतनुप्रमुखैर्गुप्ते लोके नृपतिभिस्तदा। मोक्षार्थं मानुषाल्लोकाद्यथावत्कृतवत्यहम् // 41 नियमात्सर्ववर्णानां ब्रह्मोत्तरमवर्तत // 8 अयं शापादृषेस्तस्य एक एव नृपोत्तम। . ब्रह्म पर्यचरत्क्षत्रं विशः क्षत्रमनुव्रताः / द्यौ राजन्मानुषे लोके चिरं वत्स्यति भारत // 42 / ब्रह्मक्षत्रानुरक्ताश्च शूद्राः पर्यचरन्विशः // 9 - 140 - .
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________________ 1. 94. 10] आदिपर्व [1. 94. 37 स हास्तिनपुरे रम्ये कुरूणां पुटभेदने / कृत्स्ना गङ्गां समावृत्य शरैस्तीक्ष्णैरवस्थितम् // 24 वसन्सागरपर्यन्तामन्वशाद्वै वसुंधराम् / / 10 तां शरैरावृतां दृष्ट्वा नदीं गङ्गां तदन्तिके। स देवराजसदृशो धर्मज्ञः सत्यवागृजुः / अभवद्विस्मितो राजा कर्म दृष्ट्वातिमानुषम् // 25 दानधर्मतपोयोगाच्छ्रिया परमया युतः॥ 11 जातमात्रं पुरा दृष्टं तं पुत्रं शंतनुस्तदा / अरागद्वेषसंयुक्तः सोमवत्प्रियदर्शनः / नोपेलेभे स्मृतिं धीमानभिज्ञातुं तमात्मजम् // 26 तेजसा सूर्यसंकाशो वायुवेगसमो जवे। स तु तं पितरं दृष्ट्वा मोहयामास मायया / अन्तकप्रतिमः कोपे क्षमया पृथिवीसमः // 12 संमोह्य तु ततः क्षिप्रं तत्रैवान्तरधीयत / / 27 वधः पशुवराहाणां तथैव मृगपक्षिणाम् / तदद्भुतं तदा दृष्ट्वा तत्र राजा स शंतनुः / शंतनौ पृथिवीपाले नावर्तत वृथा नृप // 13 शङ्कमानः सुतं गङ्गामब्रवीदर्शयेति ह // 28 धर्मब्रह्मोत्तरे राज्ये शंतनुर्विनयात्मवान् / दर्शयामास तं गङ्गा बिभ्रती रूपमुत्तमम् / समं शशास भूतानि कामरागविवर्जितः।।१४ गृहीत्वा दक्षिणे पाणौ तं कुमारमलंकृतम् / / 29 देवर्षिपितृयज्ञार्थमारभ्यन्त तदा क्रियाः। अलंकृतामाभरणैररजोम्बरधारिणीम् / न चाधर्मेण केषांचित्प्राणिनामभवद्वधः // 15 दृष्टपूर्वामपि सती नाभ्यजानात्स शंतनुः // 30 असुखानामनाथानां तिर्यग्योनिषु वर्तताम् / गङ्गोवाच / स एव राजा भूतानां सर्वेषामभवत्पिता // 16 यं पुत्रमष्टमं राजंस्त्वं पुरा मय्यजायिथाः। तस्मिन्कुरुपतिश्रेष्ठे राजराजेश्वरे सति / स तेऽयं पुरुषव्याघ्र नयस्वैनं गृहान्तिकम् // 31 श्रिता वागभवत्सत्यं दानधर्माश्रितं मनः॥ 17 वेदानधिजगे साङ्गान्वसिष्ठादेव वीर्यवान् / स समाः षोडशाप्टौ च चतस्रोऽष्टी तथापराः / कृतास्त्रः परमेष्वासो देवराजसमो युधि // 32 रतिमप्राप्नुवन्स्त्रीषु बभूव वनगोचरः // 18 सुराणां संमतो नित्यमसुराणां च भारत / तथारूपस्तथाचारस्तथावृत्तस्तथाश्रुतः / उशना वेद यच्छास्त्रमयं तद्वेद सर्वशः // 33 गाङ्गेयस्तस्य पुत्रोऽभून्नाम्ना देवव्रतो वसुः // 19 तथैवाङ्गिरसः पुत्रः सुरासुरनमस्कृतः / सर्वास्त्रेषु स निष्णातः पार्थिवेष्वितरेषु च। यद्वेद शास्त्रं तच्चापि कृत्स्नमस्मिन्प्रतिष्टितम् / महाबलो महासत्त्वो महावीर्यो महारथः // 20 तव पुत्रे महाबाहौ साङ्गोपाङ्गं महात्मनि // 34 स कदाचिन्मृगं विद्धा गङ्गामनुसरन्नदीम् / ऋषिः परैरनाधृष्यो जामदग्न्यः प्रतापवान् / भागीरथीमल्पजलां शंतनुर्दृष्टवान्नृपः // 21 यदत्रं वेद रामश्च तदप्यस्मिन्प्रतिष्ठितम् // 35 तां दृष्ट्वा चिन्तयामास शंतनुः पुरुषर्षभः / महेष्वासमिमं राजनराजधर्मार्थकोविदम् / स्यन्दते किं न्वियं नाद्य सरिच्छ्रेष्ठा यथा पुरा / / 22 मया दत्तं निजं पुत्रं वीरं वीर गृहान्नय // 36 ततो निमित्तमन्विच्छन्ददर्श स महामनाः। वैशंपायन उवाच / कुमारं रूपसंपन्नं बृहन्तं चारुदर्शनम् // 23 तयैवं समनुज्ञातः पुत्रमादाय शंतनुः / दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणं यथा देवं पुरंदरम् / भ्राजमानं यथादित्यमाययौ स्वपुरं प्रति // 37 -141 -
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________________ 1. 94. 38 ] महाभारते [1. 94. 63 पौरवः स्वपुरं गत्वा पुरंदरपुरोपमम् / दाश उवाच / / सर्वकामसमृद्धार्थ मेने आत्मानमात्मना / अस्यां जायेत यः पुत्रः स राजा पृथिवीपतिः / पौरवेषु ततः पुत्रं यौवराज्येऽभ्यषेचयत् // 38 त्वदूर्ध्वमभिषेक्तव्यो नान्यः कश्चन पार्थिव // 51 पौरवाशंतनोः पुत्रः पितरं च महायशाः / वैशंपायन उवाच / राष्ट्रं च रञ्जयामास वृत्तेन भरतर्षभ // 39 नाकामयत तं दातुं वरं दाशाय शंतनुः। स तथा सह पुत्रेण रममाणो महीपतिः / शरीरजेन तीव्रण दह्यमानोऽपि भारत / / 52 वर्तयामास वर्षाणि चत्वार्यमितविक्रमः // 40 स चिन्तयन्नेव तदा दाशकन्यां महीपतिः / स कदाचिद्वनं यातो यमुनामभितो नदीम् / प्रत्ययाद्धास्तिनपुरं शोकोपहतचेतनः / / 53 महीपतिरनिर्देश्यमाजिघ्रद्गन्धमुत्तमम् // 41 ततः कदाचिच्छोचन्तं शंतनुं ध्यानमास्थितम् / तस्य प्रभवमन्विच्छन्विचचार समन्ततः / पुत्रो देवव्रतोऽभ्येत्य पितरं वाक्यमब्रवीत् // 54 स ददर्श तदा कन्यां दाशानां देवरूपिणीम् // 42 सर्वतो भवतः क्षेमं विधेयाः सर्वपार्थिवाः / तामपृच्छत्स दृष्ट्वैव कन्यामसितलोचनाम् / तत्किमर्थमिहाभीक्ष्णं परिशोचसि दुःखितः। कस्य त्वमसि का चासि किं च भीरु चिकीर्षसि // 43 ध्यायन्निव च किं राजन्नाभिभाषसि किंचन // 55 साब्रवीद्दाशकन्यास्मि धर्मार्थं वाहये तरीम् / एवमुक्तः स पुत्रेण शंतनुः प्रत्यभाषत / पितुर्नियोगाद्भद्रं ते दाशराज्ञो महात्मनः // 44 असंशयं ध्यानपरं यथा मात्थ तथास्म्युत // 56 रूपमाधुर्यगन्धैस्तां संयुक्तां देवरूपिणीम् / अपत्यं नस्त्वमेवेकः कुले महति भारत / समीक्ष्य राजा दाशेयीं कामयामास शंतनुः // 45 अनित्यता च मानामतः शोचामि पुत्रक // 57 स गत्वा पितरं तस्या वरयामास तां तदा / कथंचित्तव गाङ्गेय विपत्तो नास्ति नः कुलम् / असंशयं त्वमेवैकः शतादपि वरः सुतः // 58 पर्यपृच्छत्ततस्तस्याः पितरं चात्मकारणात् // 46 न चाप्यहं वृथा भूयो दारान्कर्तुमिहोत्सहे / स च तं प्रत्युवाचेदं दाशराजो महीपतिम् / संतानस्याविनाशाय कामये भद्रमस्तु ते / जातमात्रैव मे देया वराय वरवर्णिनी / अनपत्यतैकपुत्रत्वमित्याहुर्धर्मवादिनः॥ 59 हृदि कामस्तु मे कश्चित्तं निबोध जनेश्वर // 47 अग्निहोत्रं त्रयो वेदा यज्ञाश्च सहदक्षिणाः / यदीमा धर्मपत्नी त्वं मत्तः प्रार्थयसेऽनघ / सर्वाण्येतान्यपत्यस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् // 60 सत्यवागसि सत्येन समयं कुरु मे ततः // 48 एवमेव मनुष्येषु स्याच्च सर्वप्रजास्वपि / समयेन प्रदद्यां ते कन्यामहमिमां नृप / यदपत्यं महाप्राज्ञ तत्र मे नास्ति संशयः / न हि मे त्वत्समः कश्चिद्वरो जातु भविष्यति॥४९ एषा त्रयी पुराणानामुत्तमानां च शाश्वती // 61 शंतनुरुवाच / त्वं च शूरः सदामर्षी शस्त्रनित्यश्च भारत / श्रुत्वा तव वरं दाश व्यवस्येयमहं न वा / नान्यत्र शस्त्रात्तस्मात्ते निधनं विद्यतेऽनघ / 62 दातव्यं चेत्प्रदास्यामि न त्वदेयं कथंचन // 50 सोऽस्मि संशयमापन्नस्त्वयि शान्ते कथं भवेत् / -142 -
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________________ 1. 94. 63 ] आदिपर्व [1. 94. 92 इति ते कारणं तात दुःखस्योक्तमशेषतः // 63 / / नैव जातो न वाजात ईदृशं वक्तुमुत्सहेत् // 78 ततस्तत्कारणं ज्ञात्वा कृत्स्नं चैवमशेषतः। एवमेतत्करिष्यामि यथा त्वमनुभाषसे / देवव्रतो महाबुद्धिः प्रययावनुचिन्तयन् // 64 योऽस्यां जनिष्यते पुत्रः स नोराजा भविष्यति // 79 अभ्यगच्छत्तदैवाशु वृद्धामात्यं पितुर्हितम् / इत्युक्तः पुनरेवाथ तं दाशः प्रत्यभाषत / तमपृच्छत्तदाभ्येत्य पितुस्तच्छोककारणम् // 65 चिकीर्षुर्दुष्करं कर्म राज्यार्थे भरतर्षभ // 80 तस्मै स कुरुमुख्याय यथावत्परिपृच्छते। त्वमेव नाथः पर्याप्तः शंतनोरमितातेः / वरं शशंस कन्यां तामुद्दिश्य भरतर्षभ / / 66 / कन्यायाश्चैव धर्मात्मन्प्रभुर्दानाय चेश्वरः // 81 ततो देवव्रतो वृद्धैः क्षत्रियैः सहितस्तदा / इदं तु वचनं सौम्य कार्यं चैव निबोध मे। अभिगम्य दाशराजानं कन्यां वत्रे पितुः स्वयम्॥६७ कौमारिकाणां शीलेन वक्ष्याम्यहमरिंदम // 82 तं दाशः प्रतिजग्राह विधिवत्प्रतिपूज्य च / यत्त्वया सत्यवत्यर्थे सत्यधर्मपरायण। अब्रवीच्चैनमासीनं राजसंसदि भारत // 68 राजमध्ये प्रतिज्ञातमनुरूपं तवैव तत् // 83 त्वमेव नाथः पर्याप्तः शंतनोः पुरुषर्षभ / नान्यथा तन्महाबाहो संशयोऽत्र न कश्चन / पुत्रः पुत्रवतां श्रेष्ठः किं नु वक्ष्यामि ते वचः॥६९ तवापत्यं भवेद्यत्तु तत्र नः संशयो महान् // 84 को हि संबन्धकं श्लाघ्यमीप्सितं यौनमीदृशम् / तस्य तन्मतमाज्ञाय सत्यधर्मपरायणः / अतिक्रामन्न तप्येत साक्षादपि शतक्रतुः / / 70 प्रत्यजानात्तदा राजन्पितुः प्रियचिकीर्षया // 85 अपत्यं चैतदार्यस्य यो युष्माकं समो गुणैः / देवव्रत उवाच / यस्य शुक्रात्सत्यवती प्रादुर्भूता यशस्विनी / / 71 दाशराज निबोधेदं वचनं मे नृपोत्तम / तेन मे बहुशस्तात पिता ते परिकीर्तितः। शृण्वतां भूमिपालानां यद्ब्रवीमि पितुः कृते // 86 अर्हः सत्यवतीं वोढुं सर्वराजसु भारत / / 72 राज्यं तावत्पूर्वमेव मया त्यक्तं नराधिप / असितो ह्यपि देवर्षिः प्रत्याख्यातः पुरा मया। अपत्यहेतोरपि च करोम्येष विनिश्वयम् // 87 सत्यवत्या भृशं ह्यर्थी स आसीदृषिसत्तमः // 73 अद्यप्रभृति मे दाश ब्रह्मचर्यं भविष्यति / कन्यापितृत्वात्किंचित्तु वक्ष्यामि भरतर्षभ / अपुत्रस्यापि मे लोका भविष्यन्त्यक्षया दिवि / / 88 बलवत्सपत्नतामत्र दोषं पश्यामि केवलम् // 74 वैशंपायन उवाच / यस्य हि त्वं सपत्नः स्या गन्धर्वस्यासुरस्य वा। तस्य तद्वचनं श्रुत्वा संप्रहृष्टतनूरुहः / न स जातु सुखं जीवेत्त्वयि क्रुद्ध परंतप / / 75 ददानीत्येव तं दाशो धर्मात्मा प्रत्यभाषत // 89 एतावानत्र दोषो हि नान्यः कश्चन पार्थिव / ततोऽन्तरिक्षेऽप्सरसो देवाः सर्षिगणास्तथा। एतज्जानीहि भद्रं ते दानादाने परंतप / / 76 अभ्यवर्षन्त कुसुमैर्भीष्मोऽयमिति चाब्रुवन् // 90 एवमुक्तस्तु गाङ्गेयस्तयुक्तं प्रत्यभाषत / ततः स पितुराय तामुवाच यशस्विनीम् / शृण्वतां भूमिपालानां पितुराय भारत / / 77 अधिरोह रथं मातर्गच्छावः स्वगृहानीति // 91 इदं मे मतमादत्स्व सत्यं सत्यवतां वर। एवमुक्त्वा तु भीष्मस्तां रथमारोप्य भामिनीम् / -143 -
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________________ 1. 94. 92] महाभारते [1. 96.9 आगम्य हास्तिनपुरं शंतनोः संन्यवेदयत् // 92 तस्मिन्नृपतिशार्दूले निहते भूरिवर्चसि / तस्य तदुष्करं कर्म प्रशशंसुर्नराधिपाः / भीष्मः शांतनवो राजन्प्रेतकार्याण्यकारयत् // 11 समेताश्च पृथक्चैव भीष्मोऽयमिति चाब्रुवन // 93 विचित्रवीर्यं च तदा बालमप्राप्तयौवनम् / तदृष्ट्वा दुष्करं कर्म कृतं भीष्मेण शंतनुः / कुरुराज्ये महाबाहुरभ्यषिञ्चदनन्तरम् // 12 स्वच्छन्दमरणं तस्मै ददौ तुष्टः पिता स्वयम् // 94 विचित्रवीर्यस्तु तदा भीष्मस्य वचने स्थितः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अन्वशासन्महाराज पितृपैतामहं पदम् // 13 चतुर्नवतितमोऽध्यायः // 94 // स धर्मशास्त्रकुशलो भीष्मं शांतनवं नृपः / पूजयामास धर्मेण स चैनं प्रत्यपालयत् // 14 वैशंपायन उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ततो विवाहे निर्वृत्ते स राजा शंतनुर्नृपः / पञ्चनवतितमोऽध्यायः॥ 95 // तां कन्यां रूपसंपन्नां स्वगृहे संन्यवेशयत् // 1 ततः शांतनवो धीमान्सत्यवत्यामजायत / वैशंपायन उवाच / वीरश्चित्राङ्गदो नाम वीर्येण मनुजानति // 2 / हते चित्राङ्गदे भीष्मो बाले भ्रातरि चानघ / अथापरं महेष्वासं सत्यवत्यां पुनः प्रभुः / पालयामास तद्राज्यं सत्यवत्या मते स्थितः // 1 विचित्रवीर्य राजानं जनयामास वीर्यवान् // 3 संप्राप्तयौवनं पश्यन्भ्रातरं धीमतां वरम् / अप्राप्तवति तस्मिंश्च यौवनं भरतर्षभ / / भीष्मो विचित्रवीर्यस्य विवाहायाकरोन्मतिम् // 2 स राजा शंतनुर्धीमान्कालधर्ममुपेयिवान् / / 4 / / अथ काशिपतेर्भीष्मः कन्यास्तिस्रोऽप्सरःसमाः / खर्गते शंतनी भीष्मश्चित्राङ्गदमरिंदमम् / शुश्राव सहिता राजन्वृण्वतीर्वै स्वयं वरम् // 3 . स्थापयामास वै राज्ये सत्यवत्या मते स्थितः // 5 ततः स रथिनां श्रेष्ठो रथेनैकेन वर्मभृत् / स तु चित्राङ्गदः शौर्यात्सर्वांश्चिक्षेप पार्थिवान् / जगामानुमते मातुः पुरीं वाराणसी प्रति // 4 मनुष्यं न हि मेने स कंचित्सदृशमात्मनः // 6 तत्र राज्ञः समुदितान्सर्वतः समुपागतान् / तं क्षिपन्तं सुरांश्चैव मनुष्यानसुरांस्तथा। ददर्श कन्यास्ताश्चैव भीष्मः शंतनुनन्दनः / / 5 गन्धर्वराजो बलवांस्तुल्यनामाभ्ययात्तदा / कीर्त्यमानेषु राज्ञां तु नामस्वथ सहस्रशः / तेनास्य सुमहाद्धं कुरुक्षेत्रे बभूव ह // 7 भीष्मः स्वयं तदा राजन्वरयामास ताः प्रभुः // 6 तयोर्बलवतोस्तत्र गन्धर्वकुरुमुख्ययोः। उवाच च महीपालाराजञ्जलदनिःस्वनः / नद्यास्तीरे हिरण्वत्याः समास्तिस्रोऽभवद्रणः // 8 रथमारोप्य ताः कन्या भीष्मः प्रहरतां वरः // 7 तस्मिन्विमर्दे तुमुले शस्त्रवृष्टिसमाकुले / आहूय दानं कन्यानां गुणवद्भ्यः स्मृतं बुधैः / मायाधिकोऽवधीद्वीरं गन्धर्वः कुरुसत्तमम् // 9 अलंकृत्य यथाशक्ति प्रदाय च धनान्यपि // 8 चित्राङ्गदं कुरुश्रेष्ठं विचित्रशरकार्मुकम् / प्रयच्छन्त्यपरे कन्यां मिथुनेन गवामपि / अन्ताय कृत्वा गन्धर्वो दिवमाचक्रमे ततः // 10 / वित्तेन कथितेनान्ये बलेनान्येऽनुमान्य च // 9 -144 -
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________________ 1. 96. 10] आदिपर्व [1.96.38 प्रमत्तामुपयान्त्यन्ये स्वयमन्ये च विन्दते। रक्षणं चात्मनः संख्ये शत्रवोऽप्यभ्यपूजयन् / / 23 अष्टमं तमथो वित्त विवाहं कविभिः स्मृतम् / / 10 / तान्विनिर्जित्य तु रणे सर्वशस्त्रविशारदः / खयंवरं तु राजन्याः प्रशंसन्त्युपयान्ति च / कन्याभिः सहितः प्रायाद्धारतो भारतान्प्रति // 24 प्रमध्य तु हृतामाहुायसी धर्मवादिनः / / 11 ततस्तं पृष्ठतो राजशाल्वराजो महारथः / ता इमाः पृथिवीपाला जिहीर्षामि बलादितः / अभ्याहनदमेयात्मा भीष्मं शांतनवं रणे // 25 ते यतध्वं परं शक्त्या विजयायेतराय वा। वारणं जघने निघ्नन्दन्ताभ्यामपरो यथा / स्थितोऽहं पृथिवीपाला युद्धाय कृतनिश्चयः // 12 वाशितामनुसंप्राप्तो यूथपो बलिनां वरः / / 26 एवमुक्त्वा महीपालान्काशिराजं च वीर्यवान् / स्त्रीकाम तिष्ठ तिष्ठेति भीष्ममाह स पार्थिवः / सर्वाः कन्याः स कौरव्यो रथमारोपयत्स्वकम् / / शाल्वराजो महाबाहुरमर्षेणाभिचोदितः // 27 आमन्त्र्य च स तान्प्रायाच्छीघ्रं कन्याः प्रगृह्य ताः। ततः स पुरुषव्याघ्रो भीष्मः परवलार्दनः / ततस्ते पार्थिवाः सर्वे समुत्पेतुरमर्षिताः / तद्वाक्याकुलितः क्रोधाद्विधूमोऽग्निरिव ज्वलन् // 28 संस्पृशन्तः स्वकान्याहून्दशन्तो दशनच्छदान् // 14 क्षत्रधर्म समास्थाय व्यपेतभयसंभ्रमः / तेषामाभरणान्याशु त्वरितानां विमुञ्चताम् / निवर्तयामास रथं शाल्वं प्रति महारथः // 29 आमुञ्चतां च वर्माणि संभ्रमः सुमहानभूत् // 15 निवर्तमानं तं दृष्ट्वा राजानः सर्व एव ते / ताराणामिव संपातो बभूव जनमेजय / / प्रेक्षकाः समपद्यन्त भीष्मशाल्वसमागमे // 30 भूषणानां च शुभ्राणां कवचानां च सर्वशः / / 16 तौ वृषाविव नर्दन्ती बलिनौ वाशितान्तरे / सधर्मभिर्भूषणैस्ते द्राग्भ्राजद्भिरितस्ततः / अन्योन्यमभिवर्तेता बलविक्रमशालिनी // 31 सक्रोधामर्षजिह्मभ्रूसकपायदृशस्तथा॥१७ ततो भीष्मं शांतनवं शरेः शतसहस्रशः / सूतोपक्लूप्तान्रुचिरान्सदश्वोद्यतधूर्गतान् / शाल्वराजो नरश्रेष्ठः समवाकिरदाशुगैः // 32 रयानास्थाय. ते वीराः सर्वप्रहरणान्विताः / पूर्वमभ्यर्दितं दृष्ट्वा भीष्मं शाल्वेन ते नृपाः / प्रयान्तमेकं कौरव्यमनुसस्रुरुदायुधाः / / 18 विस्मिताः समपद्यन्त साधु साध्विति चाब्रुवन् / / 33 ततः समभवद्युद्धं तेषां तस्य च भारत / लाघवं तस्य ते दृष्ट्वा संयुगे सर्वपार्थिवाः। एकस्य च बहूनां च तुमुलं लोमहर्षणम् / / 19 अपूजयन्त संहृष्टा वाग्भिः शाल्वं नराधिपाः / / 34 ते त्विषून्दशसाहस्रांस्तस्मै युगपदाक्षिपन् / क्षत्रियाणां तदा वाचः श्रुत्वा परपुरंजयः। अप्राप्तांश्चैव तानाशु भीष्मः सर्वांस्तदाच्छिनत्।।२० क्रुद्धः शांतनवो भीष्मस्तिष्ठ तिष्ठत्यभाषत / / 35 सस्ते पार्थिवाः सर्वे सर्वतः परिवारयन् / सारथिं चाब्रवीत्क्रुद्धो याहि यत्रैष पार्थिवः / पर्युः शरवर्षेण वर्षेणेवाद्रिमम्बुदाः / / 21 यावदेनं निहन्म्यद्य भुजंगमिव पक्षिराट् // 36 सतबाणमयं वर्ष शरैरावार्य सर्वतः / / ततोऽस्त्रं वारुणं सम्यग्योजयामास कौरवः / तसः सर्वान्महीपालान्प्रत्यविध्यत्रिभित्रिभिः / / 22 / तेनाश्वांश्चतुरोऽमृद्गाच्छाल्वराज्ञो नराधिप // 37 इस्लाति पुरुषानन्यालाघवं रथचारिणः / अढरस्त्राणि संवार्य शाल्वराज्ञः स कौरवः / म. भा. 19 - 145 -
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________________ 1. 96. 38] महाभारते [1. 97.5 भीष्मो नृपतिशार्दूल न्यवधीत्तस्य सारथिम् / / अम्बिकाम्बालिके भार्ये प्रादाद्धात्रे यवीयसे / अस्त्रेण चाप्यथैकेन न्यवधीत्तुरगोत्तमान् // 38 भीष्मो विचित्रवीर्याय विधिदृष्टेन कर्मणा // 52 कन्याहेतोर्नरश्रेष्ठ भीष्मः शांतनवस्तदा। तयोः पाणिं गृहीत्वा स रूपयौवनदर्पितः। जित्वा विसर्जयामास जीवन्तं नृपसत्तमम् / विचित्रवीर्यो धर्मात्मा कामात्मा समपद्यत // 53 ततः शाल्वः स्वनगरं प्रययौ भरतर्षभ // 39 ते चापि बृहती श्याम नीलकुञ्चितमूर्धजे / राजानो ये च तत्रासन्स्वयंवरदिदृक्षवः। रक्ततुङ्गनखोपेते पीनश्रोणिपयोधरे // 54 स्वान्येव तेऽपि राष्ट्राणि जग्मुः परपुरंजय // 40 आत्मनः प्रतिरूपोऽसौ लब्धः पतिरिति स्थिते / एवं विजित्य ताः कन्या भीष्मः प्रहरतां वरः / विचित्रवीर्यं कल्याणं पूजयामासतुस्तु ते // 55 प्रययौ हास्तिनपुरं यत्र राजा स कौरवः // 41 स चाश्विरूपसदृशो देवसत्त्वपराक्रमः। सोऽचिरेणैव कालेन अत्यनामन्नराधिप / सर्वासामेव नारीणां चित्तप्रमथनोऽभवत् / / 56 वनानि सरितश्चैव शैलांश्च विविधद्रुमान् // 42 ताभ्यां सह समाः सप्त विहरन्पृथिवीपतिः / अक्षतः क्षपयित्वारीन्संख्येऽसंख्येयविक्रमः / विचित्रवीर्यस्तरुणो यक्ष्माणं समपद्यत // 57 आनयामास काश्यस्य सुताः सागरगासुतः / / 43 सुहृदां यतमानानामाप्तैः सह चिकित्सकैः / स्नुषा इव स धर्मात्मा भगिन्य इव चानुजाः / जगामास्तमिवादित्यः कौरव्यो यमसादनम् // 58 यथा दुहितरश्चैव प्रतिगृह्य ययौ कुरून् // 44 प्रेतकार्याणि सर्वाणि तस्य सम्यगकारयत् / / ताः सर्वा गुणसंपन्ना भ्राता भ्रात्रे यवीयसे। राज्ञो विचित्रवीर्यस्य सत्यवत्या मते स्थितः / भीष्मो विचित्रवीर्याय प्रददौ विक्रमाहृताः॥ 45 ऋत्विग्भिः सहितो भीष्मः सर्वैश्च कुरुपुंगवैः // 59 सतां धर्मेण धर्मज्ञः कृत्वा कर्मातिमानुषम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि भ्रातुर्विचित्रवीर्यस्य विवाहायोपचक्रमे / षण्णवतितमोऽध्यायः // 96 // सत्यवत्या सह मिथः कृत्वा निश्चयमात्मवान् // 46 विवाहं कारयिष्यन्तं भीष्मं काशिपतेः सुता। . वैशंपायन उवाच / ज्येष्ठा तासामिदं वाक्यमब्रवीद्ध सती तदा // 47 ततः सत्यवती दीना कृपणा पुत्रगृद्धिनी। मया सौभपतिः पूर्वं मनसाभिवृतः पतिः / पुत्रस्य कृत्वा कार्याणि स्नुषाभ्यां सह भारत // 1 तेन चास्मि वृता पूर्वमेष कामश्च मे पितुः // 48 धर्मं च पितृवंशं च मातृवंशं च मानिनी / मया वरयितव्योऽभूच्छाल्वस्तस्मिन्स्वयंवरे / प्रसमीक्ष्य महाभागा गाङ्गेयं वाक्यमब्रवीत् // 2 एतद्विज्ञाय धर्मज्ञ ततस्त्वं धर्ममाचर // 49 शंतनोधर्मनित्यस्य कौरव्यस्य यशस्विनः / एवमुक्तस्तया भीष्मः कन्यया विप्रसंसदि / त्वयि पिण्डश्व कीर्तिश्च संतानं च प्रतिष्ठितम् // 3 चिन्तामभ्यगमद्वीरो युक्तां तस्यैव कर्मणः // 50 यथा कर्म शुभं कृत्वा स्वर्गोपगमनं ध्रुवम् / .. स विनिश्चित्य धर्मज्ञो ब्राह्मणैर्वेदपारगैः / / यथा चायुध्रुवं सत्ये त्वयि धर्मस्तथा ध्रुवः // 4 / अनुजज्ञे तदा ज्येष्ठमम्बां काशिपतेः सुताम् // 51 वेत्थ धर्मांश्च धर्मज्ञ समासेनेतरेण च / - 146 -
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________________ 1. 97.5] आदिपर्व [1. 98.6 विविधास्त्वं श्रुतीवेत्थ वेत्थ वेदांश्च सर्वशः॥ 5 / इच्छन्सृजेथास्त्रील्लोकानन्यांस्त्वं स्वेन तेजसा // 20 व्यवस्थानं च ते धर्मे कुलाचारं च लक्षये / जानामि चैव सत्यं तन्मदर्थं यदभाषथाः / प्रतिपत्तिं च कृच्छ्रेषु शुक्राङ्गिरसयोरिव // 6 आपद्धर्ममवेक्षस्व वह पैतामही धुरम् // 21 तस्मात्सुभृशमाश्वस्य त्वयि धर्मभृतां वर / यथा ते कुलतन्तुश्च धर्मश्च न पराभवेत् / कार्ये त्वां विनियोक्ष्यामि तच्छ्रुत्वा कर्तुमर्हसि // 7 सुहृदश्च प्रहृष्येरंस्तथा कुरु परंतप // 22 मम पुत्रस्तव भ्राता वीर्यवान्सुप्रियश्च ते / लालप्यमानां तामेवं कृपणां पुत्रगृद्धिनीम् / बाल एव गतः स्वर्गमपुत्रः पुरुषर्षभ // 8 धर्मादपेतं ब्रुवतीं भीष्मो भूयोऽब्रवीदिदम् // 23 इमे महिष्यौ भ्रातुस्ते काशिराजसुते शुभे। राज्ञि धर्मानवेक्षस्व मा नः सर्वान्व्यनीनशः / रूपयौवनसंपन्ने पुत्रकामे च भारत // 9 सत्याच्युतिः क्षत्रियस्य न धर्मेषु प्रशस्यते // 24 तयोरुत्पादयापत्यं संतानाय कुलस्य नः / शंतनोरपि संतानं यथा स्यादक्षयं भुवि / मन्नियोगान्महाभाग धर्म कर्तुमिहार्हसि // 10 तत्ते धर्म प्रवक्ष्यामि क्षात्रं राज्ञि सनातनम् // 25 राज्ये चैवाभिषिच्यस्व भारताननुशाधि च / श्रुत्वा तं प्रतिपद्येथाः प्राज्ञैः सह पुरोहितैः / दारांश्च कुरु धर्मेण मा निमज्जीः पितामहान् // 11 आपद्धर्मार्थकुशलैर्लोकतन्त्रमवेक्ष्य च // 26 तथोच्यमानो मात्रा च सुहृद्भिश्च परंतपः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि प्रत्युवाच स धर्मात्मा धर्म्यमेवोत्तरं वचः // 12 सप्तनवतितमोऽध्यायः॥ 97 // असंशयं परो धर्मस्त्वया मातरुदाहृतः। त्वमपत्यं प्रति च मे प्रतिज्ञां वेत्थ वै पराम् / / 13 भीष्म उवाच / जानासि च यथावृत्तं शुल्कहेतोस्त्वदन्तरे / जामदग्न्येन रामेण पितुर्वधममृष्यता / स सत्यवति सत्यं ते प्रतिजानाम्यहं पुनः // 14 क्रुद्धेन च महाभागे हैहयाधिपतिर्हतः / परित्यजेयं त्रैलोक्यं राज्यं देवेषु वा पुनः।। शतानि दश बाहूनां निकृत्तान्यर्जुनस्य वै // 1 यद्वाप्यधिकमेताभ्यां न तु सत्यं कथंचन // 15 पुनश्च धनुरादाय महास्त्राणि प्रमुञ्चता / त्यजेच्च पृथिवी गन्धमापश्च रसमात्मनः। निर्दग्धं क्षत्रमसकृद्रथेन जयता महीम् // 2 ज्योतिस्तथा त्यजेद्रूपं वायुः स्पर्शगुणं त्यजेत् // 16 एवमुच्चावचैरर्भार्गवेण महात्मना / 'प्रभां समुत्सृजेदों धूमकेतुस्तथोष्णताम् / त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी कृता निःक्षत्रिया पुरा // 3 त्यजेच्छब्दं तथाकाशः सोमः शीतांशुतां त्यजेत् // ततः संभूय सर्वाभिः क्षत्रियाभिः समन्ततः / विक्रमं वृत्रहा जह्याद्धर्मं जह्याच्च धर्मराट् / उत्पादितान्यपत्यानि ब्राह्मणैर्नियतात्मभिः॥ 4 न त्वहं सत्यमुत्स्रष्टुं व्यवसेयं कथंचन // 18 पाणिग्राहस्य तनय इति वेदेषु निश्चितम् / एवमुक्ता तु पुत्रेण भूरिद्रविणतेजसा / धर्म मनसि संस्थाप्य ब्राह्मणांस्ताः समभ्ययुः। माता सत्यवती भीष्ममुवाच तदनन्तरम् // 19 लोकेऽप्याचरितो दृष्टः क्षत्रियाणां पुनर्भवः // 5 जानामि ते स्थितिं सत्ये परां सत्यपराक्रम। अथोतथ्य इति ख्यात आसीद्धीमानृषिः पुरा / - 147 -
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________________ 1. 98. 6] महाभारते [1. 99.1 ममता नाम तस्यासीद्भार्या परमसंमता // 6 अपश्यन्मजनगतः स्रोतसाभ्याशमागतम् // 21 उतथ्यस्य यवीयांस्तु पुरोधास्त्रिदिवौकसाम् / जग्राह चैनं धर्मात्मा बलिः सत्यपराक्रमः / बृहस्पतिवृहत्तेजा ममतां सोऽन्वपद्यत // 7 ज्ञात्वा चैनं स वक्रेऽथ पुत्रार्थं मनुजर्षभ / / 22 उवाच ममता तं तु देवरं वदतां वरम् / / संतानार्थं महाभाग भार्यासु मम मानद। अन्तर्वत्नी अहं भ्रात्रा ज्येष्ठेनारम्यतामिति // 8 पुत्रान्धर्मार्थकुशलानुत्पादयितुमर्हसि // 23 अयं च में महाभाग कुक्षावेव बृहस्पते / एवमुक्तः स तेजस्वी तं तथेत्युक्तवानृषिः / औतथ्यो वेदमत्रैव षडङ्ग प्रत्यधीयत // 9 तस्मै स राजा स्वां भार्यां सुदेष्णां प्राहिणोत्तदा // 24 अमोघरेतास्त्वं चापि नूनं भवितुमर्हसि / अन्धं वृद्धं च तं मत्वा न सा देवी जगाम ह। तस्मादेवंगतेऽद्य त्वमुपारमितुमर्हसि / / 10 स्वां तु धात्रेयिकां तस्मै वृद्धाय प्राहिणोत्तदा / / 25 एवमुक्तस्तया सम्यग्बृहत्तेजा बृहस्पतिः / तस्यां काक्षीवदादीन्स शूद्रयोनावृषिर्वशी / कामात्मानं तदात्मानं न शशाक नियच्छितुम् / / 11 जनयामास धर्मात्मा पुत्रानेकादशैव तु // 26 संबभूव ततः कामी तया सार्धमकामया। काक्षीवदादीन्पुत्रांस्तान्दृष्ट्वा सर्वानधीयतः। उत्सृजन्तं तु तं रेतः स गर्भस्थोऽभ्यभाषत // 12 उवाच तमृषि राजा ममैत इति वीर्यवान् // 27 भोस्तात कन्यस वदे द्वयोर्नास्त्यत्र संभवः / नेत्युवाच महर्षितं ममैवैत इति ब्रुवन् / अमोघशुक्रश्च भवान्पूर्वं चाहमिहागतः // 13 / शूद्रयोनौ मया हीमे जाताः काक्षीवदादयः // 28 शशाप तं ततः क्रुद्ध एवमुक्तो बृहस्पतिः / अन्धं वृद्धं च मां मत्वा सुदेष्णा महिषी तव / उतथ्यपुत्रं गर्भस्थं निर्भर्त्य भगवानृषिः / / 14 अवमन्य ददौ मूढा शूद्रां धात्रेयिकां हि मे // 29 यस्मात्त्वमीदृशे काले सर्वभूतेप्सिते सति / ततः प्रसादयामास पुनस्तमृषिसत्तमम् / / एवमात्थ वचस्तस्मात्तमो दीर्घ प्रवेक्ष्यसि // 15 बलिः सुदेष्णा भार्यां च तस्मै तां प्राहिणोत्पुनः॥३० स वै दीर्घतमा नाम शापादृषिरजायत / तां स दीर्घतमाङ्गेषु स्पृष्ट्वा देवीमथाब्रवीत् / बृहस्पतेबृहत्कीर्तेबृहस्पतिरिवौजसा / / 16 भविष्यति कुमारस्ते तेजस्वी सत्यवागिति // 31 स पुत्राञ्जनयामास गौतमादीन्महायशाः / तत्राङ्गो नाम राजर्षिः सुदेष्णायामजायत / ऋषेरुतथ्यस्य तदा संतानकुलवृद्धये // 17 एवमन्ये महेष्वासा ब्राह्मणैः क्षत्रिया भुवि // 32 लोभमोहाभिभूतास्ते पुत्रास्तं गौतमादयः / / जाताः परमधर्मज्ञा वीर्यवन्तो महाबलाः। काष्ठे समुद्ने प्रक्षिप्य गङ्गायां समवासृजन // 18 एतच्छ्रुत्वा त्वमप्यत्र मातः कुरु यथेप्सितम् // 33 न स्यादन्धश्च वृद्धश्च भर्तव्योऽयमिति स्म ते / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चिन्तयित्वा ततः क्रूराः प्रतिजग्मुरथो गृहान् // 19 अष्टनवतितमोऽध्यायः // 98 // सोऽनुस्रोतस्तदा राजन्प्लवमान ऋषिस्ततः / जगाम सुबहून्देशानन्धस्तेनोडुपेन ह // 20 भीष्म उवाच / तं तु राजा बलि म सर्वधर्मविशारदः / | पुनर्भरतवंशस्य हेतुं संतानवृद्धये / - 148 -
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________________ 1. 99. 1] आदिपर्व [1. 99. 28 वक्ष्यामि नियतं मातस्तन्मे निगदतः शृणु // 1 | स नियुक्तो मया व्यक्तं त्वया च अमितद्युते / ब्राह्मणो गुणवान्कश्चिद्धनेनोपनिमन्त्रयताम् / भ्रातुः क्षेत्रेषु कल्याणमपत्यं जनयिष्यति / / 15 ' विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु यः समुत्पादयेत्प्रजाः / / 2 स हि मामुक्तवांस्तत्र स्मरेः कृत्येषु मामिति / वैशंपायन उवाच। तं स्मरिष्ये महाबाहो यदि भीष्म त्वमिच्छसि // 16 ततः सत्यवती भीष्मं वाचा संसज्जमानया / तव ह्यनुमते भीष्म नियतं स महातपाः। विहसन्तीव सब्रीडमिदं वचनमब्रवीत् // 3 विचित्रवीर्यक्षेत्रेषु पुत्रानुत्पादयिष्यति / / 17 सत्यमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत। महर्षेः कीर्तने तस्य भीष्मः प्राञ्जलिरब्रवीत् / / विश्वासात्ते प्रवक्ष्यामि संतानाय कुलस्य च / धर्ममर्थं च कामं च त्रीनेतान्योऽनुपश्यति // 18 न ते शक्यमनाख्यातुमापद्धीयं तथाविधा // 4 अर्थमर्थानुबन्धं च धर्मं धर्मानुबन्धनम् / त्वमेव नः कुले धर्मस्त्वं सत्यं त्वं परा गतिः / कामं कामानुबन्धं च विपरीतान्पृथक्पृथक् / तस्मान्निशम्य वाक्यं मे कुरुष्व यदनन्तरम् / / 5 यो विचिन्त्य धिया सम्यग्व्यवस्यति स बुद्धिमान् // धर्मयुक्तस्य धर्मात्मन्पितुरासीत्तरी मम। तदिदं धर्मयुक्तं च हितं चैव कुलस्य नः / सा कदाचिदहं तत्र गता प्रथमयौवने / / 6 उक्तं भवत्या यच्छ्रेयः परमं रोचते मम // 20 अथ धर्मभृतां श्रेष्ठः परमर्षिः पराशरः / ततस्तस्मिन्प्रतिज्ञाते भीष्मेण कुरुनन्दन / आजगाम तरी धीमांस्तरिष्यन्यमुना नदीम् // 7 कृष्णद्वैपायनं काली चिन्तयामास वै मुनिम् // 21 स तार्यमाणो यमुनां मामुपेत्याब्रवीत्तदा / स वेदान्विब्रुवन्धीमान्मातुर्विज्ञाय चिन्तितम् / सान्त्वपूर्वं मुनिश्रेष्ठः कामार्तो मधुरं बहु / / 8 प्रादुर्बभूवाविदितः क्षणेन कुरुनन्दन // 22 तमहं शापभीता च पितुर्भीता च भारत / तस्मै पूजां तदा दत्त्वा सुताय विधिपूर्वकम् / . वरैरसुलभैरुक्ता न प्रत्याख्यातुमुत्सहे // 9 परिष्वज्य च बाहुभ्यां प्रस्नवैरभिषिच्य च। अभिभूय स मां बालां तेजसा वशमानयत् / मुमोच बाष्पं दाशेयी पुत्रं दृष्ट्वा चिरस्य तम् // 23 तमसा लोकमावृत्य नौगतामेव भारत // 10 तामद्भिः परिषिच्या महर्षिरभिवाद्य च / मत्स्यगन्धो महानासीत्पुरा मम जुगुप्सितः। मातरं पूर्वजः पुत्रो व्यासो वचनमब्रवीत् / / 24 तमपास्य शुभं गन्धमिमं प्रादात्स मे मुनिः / / 11 भवत्या यदभिप्रेतं तदहं कर्तुमागतः / ततो मामाह स मुनिर्गर्भमुत्सृज्य मामकम् / शाधि मां धर्मतत्त्वज्ञे करवाणि प्रियं तव // 25 द्वीपेऽस्या एव सरितः कन्यैव त्वं भविष्यसि॥१२ तस्मै पूजां ततोऽकार्षीत्पुरोधाः परमर्षये। पाराशर्यो महायोगी स बभूव महानृषिः / स च तां प्रतिजग्राह विधिवन्मत्रपूर्वकम् // 26 कन्यापुत्रो मम पुरा द्वैपायन इति स्मृतः // 13 तमासनगतं माता पृष्ट्वा कुशलमव्ययम् / यो व्यस्य वेदांश्चतुरस्तपसा भगवानृषिः / सत्यवत्यभिवीक्ष्यैनमुवाचेदमनन्तरम् / / 27 . लोके व्यासत्वमापेदे कार्पोत्कृष्णत्वमेव च // 14 / मातापित्रोः प्रजायन्ते पुत्राः साधारणाः कवे / सत्यवादी शमपरस्तपस्वी दग्धकिल्बिषः / तेषां पिता यथा स्वामी तथा माता न संशयः॥२८ - 149 -
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________________ 1. 99. 29 ] महाभारते [1. 100.5 विधातृविहितः स त्वं यथा मे प्रथमः सुतः। विरूपतां मे सहतामेतदस्याः परं व्रतम् // 42 विचित्रवीर्यो ब्रह्मर्षे तथा मेऽवरजः सुतः // 29 यदि मे सहते गन्धं रूपं वेषं तथा वपुः / तथैव पितृतो भीष्मस्तथा त्वमपि मातृतः / अद्यैव गर्भ कौसल्या विशिष्टं प्रतिपद्यताम् / / 43 भ्राता विचित्रवीर्यस्य यथा वा पुत्र मन्यसे // 30 वैशंपायन उवाच। अयं शांतनवः सत्यं पालयन्सत्यविक्रमः / समागमनमाकाङ्कन्निति सोऽन्तर्हितो मुनिः / बुद्धिं न कुरुतेऽपत्ये तथा राज्यानुशासने // 31 ततोऽभिगम्य सा देवी स्नुषां रहसि संगताम् / स त्वं व्यपेक्षया भ्रातुः संतानाय कुलस्य च / धर्म्यमर्थसमायुक्तमुवाच वचनं हितम् // 44 भीष्मस्य चास्य वचनान्नियोगाच्च ममानघ // 32 कौसल्ये धर्मतत्रं यद्ब्रवीमि त्वां निबोध मे। अनुक्रोशाद्य भूतानां सर्वेषां रक्षणाय च। भरतानां समुच्छेदो व्यक्तं मद्भाग्यसंक्षयात् // 45 आनृशंस्येन यद्भूयां तच्छ्रुत्वा कर्तुमर्हसि // 33 व्यथितां मां च संप्रेक्ष्य पितृवंशं च पीडितम् / यवीयसस्तव भ्रातुर्भार्ये सुरसुतोपमे / भीष्मो बुद्धिमदान्मेऽत्र धर्मस्य च विवृद्धये // 46 रूपयौवनसंपन्ने पुत्रकामे च धर्मतः // 34 सा च बुद्धिस्तवाधीना पुत्रि ज्ञातं मयेति ह / तयोरुत्पादयापत्यं समर्थो ह्यसि पुत्रक / नष्टं च भारतं वंशं पुनरेव समुद्धर // 47 अनुरूपं कुलस्यास्य संतत्याः प्रसवस्य च // 35 पुत्रं जनय सुश्रोणि देवराजसमप्रभम् / ___ व्यास उवाच / स हि राज्यधुरं गुर्वी मुद्वक्ष्यति कुलस्य नः / / 48 वेत्थ धर्मं सत्यवति परं चापरमेव च / सा धर्मतोऽनुनीयैनां कथंचिद्धर्मचारिणीम् / यथा च तव धर्मज्ञे धर्मे प्रणिहिता मतिः॥३६ भोजयामास विप्रांश्च देवर्षीनतिथींस्तथा // 49 तस्मादहं त्वन्नियोगाद्धर्ममुद्दिश्य कारणम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ईप्सितं ते करिष्यामि दृष्टं ह्येतत्पुरातनम् // 37 एकोनशततमोऽध्यायः // 99 // भ्रातुः पुत्रान्प्रदास्यामि मित्रावरुणयोः समान् / 100 व्रतं चरेतां ते देव्यौ निर्दिष्टमिह यन्मया // 38 वैशंपायन उवाच। संवत्सरं यथान्यायं ततः शुद्धे भविष्यतः / ततः सत्यवती काले वधूं नातामृतौ तदा / न हि मामव्रतोपेता उपेयात्काचिदङ्गना // 39 'संवेशयन्ती शयने शनकैर्वाक्यमब्रवीत् // 1 सत्यवत्युवाच। कौसल्ये देवरस्तेऽस्ति सोऽद्य त्वानुप्रवेक्ष्यति / यथा सद्यः प्रपद्येत देवी गर्ने तथा कुरु / अप्रमत्ता प्रतीक्षैनं निशीथे आगमिष्यति // 2 अराजकेषु राष्ट्रेषु नास्ति वृष्टिर्न देवताः // 40 श्वश्र्वास्तद्वचनं श्रुत्वा शयाना शयने शुभे। कथमराजकं राष्ट्रं शक्यं धारयितुं प्रभो। साचिन्तयत्तदा भीष्ममन्यांश्च कुरुपुंगवान् // 3 तस्माद्गर्भ समाधत्स्व भीष्मस्तं वर्धयिष्यति // 41 ततोऽम्बिकायां प्रथमं नियुक्तः सत्यवागृषिः। ___ व्यास उवाच / दीप्यमानेषु दीपेषु शयनं प्रविवेश ह // 4 यदि पुत्रः प्रदातव्यो मया क्षिप्रमकालिकम् / तस्य कृष्णस्य कपिला जटा दीप्ते च लोचने / - 150 -
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________________ 1. 100. 5] आदिपर्व [1. 101.1 बभूणि चैव श्मश्रूणि दृष्ट्वा देवी न्यमीलयत् // 5 तं माता पुनरेवान्यमेकं पुत्रमयाचत / संबभूव तया रात्रौ मातुः प्रियचिकीर्षया / तथेति च महर्षिस्तां मातरं प्रत्यभाषत // 20 भयात्काशिसुता तं तु नाशक्नोदभिवीक्षितुम् // 6 ततः कुमारं सा देवी प्राप्तकालमजीजनत् / ततो निष्क्रान्तमासाद्य माता पुत्रमथाब्रवीत् / पाण्डं लक्षणसंपन्नं दीप्यमानमिव श्रिया। अप्यस्यां गुणवान्पुत्र राजपुत्रो भविष्यति // 7 तस्य पुत्रा महेष्वासा जज्ञिरे पञ्च पाण्डवाः // 21 निशम्य तद्वचो मातुर्व्यासः परमबुद्धिमान् / ऋतुकाले ततो ज्येष्ठां वधूं तस्मै न्ययोजयत् / प्रोवाचातीन्द्रियज्ञानो विधिना संप्रचोदितः / / 8 सा तु रूपं च गन्धं च महर्षेः प्रविचिन्त्य तम् / नागायुतसमप्राणो विद्वानराजर्षिसत्तमः / / नाकरोद्वचनं देव्या भयात्सुरसुतोपमा // 22 महाभागो महावीर्यो महाबुद्धिर्भविष्यति // 9 ततः स्वैर्भूषणैर्दासी भूषयित्वाप्सरोपमाम् / तस्य चापि शतं पुत्रा भविष्यन्ति महाबलाः / प्रेषयामास कृष्णाय ततः काशिपतेः सुता // 23 किं तु मातुः स वैगुण्यादन्ध एव भविष्यति // 10 दासी ऋषिमनुप्राप्तं प्रत्युद्गम्याभिवाद्य च / / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा माता पुत्रमथाब्रवीत् / संविवेशाभ्यनुज्ञाता सत्कृत्योपचचार ह // 24 नान्धः कुरूणां नृपतिरनुरूपस्तपोधन // 11 कामोपभोगेन तु स तस्यां तुष्टिमगादृषिः / शातिवंशस्य गोप्तारं पितृणां वंशवर्धनम् / तया सहोषितो रात्रिं महर्षिः प्रीयमाणया // 25 द्वितीयं कुरुवंशस्य राजानं दातुमर्हसि // 12 उत्तिष्ठन्नब्रवीदेनामभुजिष्या भविष्यसि / स तथेति प्रतिज्ञाय निश्चक्राम महातपाः / अयं च ते शुभे गर्भः श्रीमानुदरमागतः / सापि कालेन कौसल्या सुषुवेऽन्धं तमात्मजम् / / 13 धर्मात्मा भविता लोके सर्वबुद्धिमतां वरः / / 26 पुनरेव तु सा देवी परिभाष्य स्नुषां ततः / स जज्ञे विदुरो नाम कृष्णद्वैपायनात्मजः / ऋषिमावाहयत्सत्या यथापूर्वमनिन्दिता // 14 धृतराष्ट्रस्य च भ्राता पाण्डोश्वामितबुद्धिमान् // 27 ततस्तेनैव विधिना महर्षितामपद्यत / धर्मो विदुररूपेण शापात्तस्य महात्मनः / अम्बालिकामथाभ्यागाषिं दृष्ट्वा च सापि तम् / माण्डव्यस्यार्थतत्त्वज्ञः कामक्रोधविवर्जितः // 28 विषण्णा पाण्डुसंकाशा समपद्यत भारत // 15 स धर्मस्यानृणो भूत्वा पुनर्मात्रा समेत्य च / तो भीतां पाण्डुसंकाशां विषण्णां प्रेक्ष्य पार्थिव / तस्यै गर्ने समावेद्य तत्रैवान्तरधीयत // 29 व्यासः सत्यवतीपुत्र इदं वचनमब्रवीत् // 16 एवं विचित्रवीर्यस्य क्षेत्रे द्वैपायनादपि / बस्मात्पाण्डुत्वमापन्ना विरूपं प्रेक्ष्य मामपि / जज्ञिरे देवगर्भाभाः कुरुवंशविवर्धनाः // 30 तस्मादेष सुतस्तुभ्यं पाण्डुरेव भविष्यति // 17 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि नाम चास्य तदेवेह भविष्यति शुभानने। शततमोऽध्यायः // 10 // इत्युक्त्वा स निराक्रामद्भगवानृषिसत्तमः // 18 101 स्तो निष्क्रान्तमालोक्य सत्या पुत्रमभाषत / जनमेजय उवाच। शशंस स पुनर्मात्रे तस्य बालस्य पाण्डुताम् // 19 किं कृतं कर्म धर्मेण येन शापमुपेयिवान् / - 151 -
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________________ 1. 101. 1] महाभारते [1. 101. 26 कस्य शापाच्च ब्रह्मर्षे शूद्रयोनावजायत // 1 संतापं परमं जग्मुर्मुनयोऽथ परंतप // 14 वैशंपायन उवाच / ते रात्रौ शकुना भूत्वा संन्यवर्तन्त सर्वतः / बभूव ब्राह्मणः कश्चिन्माण्डव्य इति विश्रुतः / दर्शयन्तो यथाशक्ति तमपृच्छन्द्विजोत्तमम् / धृतिमान्सर्वधर्मज्ञः सत्ये तपसि च स्थितः // 2 श्रोतुमिच्छामहे ब्रह्मन्किं पापं कृतवानसि // 15 स आश्रमपदद्वारि वृक्षमूले महातपाः / ततः स मुनिशार्दूलस्तानुवाच तपोधनान् / ऊर्ध्वबाहुमहायोगी तस्थौ मौनव्रतान्वितः / / 3 दोषतः कं गमिष्यामि न हि मेऽन्योऽपराध्यति // 16 तस्य कालेन महता तस्मिंस्तपसि तिष्ठतः / राजा च तमृषिं श्रुत्वा निष्क्रम्य सह मत्रिभिः / तमाश्रमपदं प्राप्ता दस्यवो लोप्त्रहारिणः / प्रसादयामास तदा शूलस्थमृषिसत्तमम् // 17 अनुसार्यमाणा बहुभी रक्षिभिर्भरतर्षभ // 4 यन्मयापकृतं मोहादज्ञानादृषिसत्तम / ते तस्यावसथे लोप्नं निदधुः कुरुसत्तम। प्रसादये त्वां तत्राहं न मे त्वं क्रोढुमर्हसि // 18 निधाय च भयाल्लीनास्तत्रैवान्वागते बले // 5 एवमुक्तस्ततो राज्ञा प्रसादमकरोन्मुनिः / तेषु लीनेष्वथो शीघ्रं ततस्तद्रक्षिणां बलम् / कृतप्रसादो राजा तं ततः समवतारयत् / / 19 / आजगाम ततोऽपश्यंस्तमृषि तस्करानुगाः // 6 अवतार्य च शूलाग्रात्तच्छूलं निश्चकर्ष ह / तमपृच्छंस्ततो राजंस्तथावृत्तं तपोधनम् / अशक्नुवंश्च निष्क्रष्टुं शूलं मूले स चिच्छिदे // 20 कतरेण पथा याता दस्यवो द्विजसत्तम / स तथान्तर्गतेनैव शूलेन व्यचरन्मुनिः / तेन गच्छामहे ब्रह्मन्पथा शीघ्रतरं वयम् // 7 स तेन तपसा लोकान्विजिग्ये दुर्लभान्परैः। तथा तु रक्षिणां तेषां ब्रुवतां स तपोधनः / अणीमाण्डव्य इति च ततो लोकेषु कथ्यते // 21 न किंचिद्वचनं राजन्नवदत्साध्वसाधु वा // 8 स गत्वा सदनं विप्रो धर्मस्य परमार्थवित् / ततस्ते राजपुरुषा विचिन्वानास्तदाश्रमम् / आसनस्थं ततो धर्मं दृष्ट्वोपालभत प्रभुः // 22 ददृशुस्तत्र संलीनांस्तांश्चोरान्द्रव्यमेव च // 9 किं नु तदुष्कृतं कर्म मया कृतमजानता / ततः शङ्का समभवदक्षिणां तं मुनिं प्रति / यस्ययं फलनिवृत्तिरीदृश्यासादिता मया / संयम्यैनं ततो राज्ञे दस्यूंश्चैव न्यवेदयन् / / 10 शीघ्रमाचक्ष्व मे तत्त्वं पश्य मे तपसो बलम् // 23 तं राजा सह तेश्चोरैरैन्वशाद्वध्यतामिति / धर्म उवाच / स वध्यघातैरज्ञातः शूले प्रोतो महातपाः // 11 पतंगकानां पुच्छेषु त्वयेषीका प्रवेशिता। ततस्ते शूलमारोप्य तं मुनि रक्षिणस्तदा। कर्मणस्तस्य ते प्राप्तं फलमेतत्तपोधन / / 24 प्रतिजग्मुर्महीपालं धनान्यादाय तान्यथ // 12 अणीमाण्डव्य उवाच / शूलस्थः स तु धर्मात्मा कालेन महता ततः / अल्पेऽपराधे विपुलो मम दण्डस्त्वया कृतः / निराहारोऽपि विप्रर्षिर्मरणं नाभ्युपागमत् / शद्रयोनावतो धर्म मानुषः संभविष्यसि // 25 धारयामास च प्राणानृषीश्च समुपानयत् // 13 / मर्यादा स्थापयाम्यद्य लोके धर्मफलोदयाम् / शूलाग्रे तप्यमानेन तपस्तेन महात्मना / आ चतुदशमावर्षान्न भविष्यति पातकम् / - 152 -
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________________ 1. 101. 26 ] आदिपर्व [1. 102. 23 परेण कुर्वतामेवं दोष एव भविष्यति // 26 उत्तरैः कुरुभिः सार्धं दक्षिणाः कुरवस्तदा / वैशंपायन उवाच / विस्पर्धमाना व्यचरंस्तथा सिद्धर्षिचारणैः / एतेन त्वपराधेन शापात्तस्य महात्मनः / नाभवत्कृपणः कश्चिन्नाभवन्विधवाः स्त्रियः // 10 धर्मो विदुररूपेण शूद्रयोनावजायत // 27 तस्मिञ्जनपदे रम्ये बहवः कुरुभिः कृताः / धर्मे चार्थे च कुशलो लोभक्रोधविवर्जितः / कूपारामसभावाप्यो ब्राह्मणावसथास्तथा / दीर्घदर्शी शमपरः कुरूणां च हिते रतः / / 28 भीष्मेण शास्त्रतो राजन्सर्वतः परिरक्षिते // 11 बभूव रमणीयश्च चैत्ययूपशताङ्कितः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि स देशः परराष्ट्राणि प्रतिगृह्याभिवर्धितः / एकाधिकशततमोऽध्यायः // 101 // भीष्मेण विहितं राष्ट्र धर्मचक्रमवर्तत // 12 102 . क्रियमाणेषु कृत्येषु कुमाराणां महात्मनाम् / वैशंपायन उवाच। पौरजानपदाः सर्वे बभूवुः सततोत्सवाः // 13 तेषु त्रिषु कुमारेषु जातेषु कुरुजाङ्गलम् / गृहेषु कुरुमुख्यानां पौराणां च नराधिप / कुरवोऽथ कुरुक्षेत्रं त्रयमेतदवर्धत // 1 दीयतां भुज्यतां चेति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः // 14 ऊर्ध्वसस्याभवद्भूमिः सस्यानि फलवन्ति च / धृतराष्ट्रश्च पाण्डुश्च विदुरश्च महामतिः / यथर्तुवर्षी पर्जन्यो बहुपुष्पफला द्रुमाः // 2 जन्मप्रभृति भीष्मेण पुत्रवत्परिपालिताः॥ 15 वाहनानि प्रहृष्टानि मुदिता मृगपक्षिणः / संस्कारैः संस्कृतास्ते तु व्रताध्ययनसंयुताः। गन्धवन्ति च माल्यानि रसवन्ति फलानि च // 3 श्रमव्यायामकुशलाः समपद्यन्त यौवनम् // 16 वणिग्भिश्चावकीर्यन्त नगराण्यथ शिल्पिभिः / धनुर्वेदेऽश्वपृष्ठे च गदायुद्धेऽसिचर्मणि / शूराश्च कृतविद्याश्च सन्तश्च सुखिनोऽभवन् / 4 तथैव गजशिक्षायां नीतिशास्त्रे च पारगाः // 17 नामवन्दस्यवः केचिन्नाधर्मरुचयो जनाः / इतिहासपुराणेषु नानाशिक्षासु चाभिभो / प्रदेशेष्वपि राष्ट्राणां कृतं युगमवर्तत // 5 वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञाः सर्वत्र कृतनिश्रमाः॥ 18 पानक्रियाधर्मशीला यज्ञव्रतपरायणाः / पाण्डुर्धनुषि विक्रान्तो नरेभ्योऽभ्यधिकोऽभवत् / भन्योन्यप्रीतिसंयुक्ता व्यवर्धन्त प्रजास्तदा // 6 अत्यन्यान्बलवानासीद्धृतराष्ट्रो महीपतिः॥ 19 मानक्रोधविहीनाश्च जना लोभविवर्जिताः / त्रिषु लोकेषु न त्वासीत्कश्चिद्विदुरसंमितः / अन्योन्यमभ्यवर्धन्त धर्मोत्तरमवर्तत // 7 धर्मनित्यस्ततो राजन्धर्मे च परमं गतः // 20 जन्महोदधिवत्पूर्ण नगरं वै व्यरोचत / प्रनष्टं शंतनोवंशं समीक्ष्य पुनरुद्धृतम् / परतोरणनियुहैर्युक्तमभ्रचयोपमैः / ततो निर्वचनं लोके सर्वराष्ट्रष्ववर्तत // 21 मासादशतसंबाधं महेन्द्रपुरसंनिभम् // 8 वीरसूनां काशिसुते देशानां कुरुजाङ्गलम् / मदीषु वनखण्डेषु वापीपल्वलसानुषु। सर्वधर्मविदां भीष्मः पुराणां गजसाह्वयम् // 22 जाननेषु च रम्येषु विजहुर्मुदिता जनाः / / 9 / धृतराष्ट्रस्त्वचक्षुष्वाद्राज्यं न प्रत्यपद्यत / म. भा, 20 - 153 -
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________________ 1. 102. 23 ] महाभारते [1. 104.6 करणत्वाच्च विदुरः पाण्डुरासीन्महीपतिः // 23 / ददो तां धृतराष्ट्राय गान्धारी धर्मचारिणीम् // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि गान्धारी त्वपि शुश्राव धृतराष्ट्रमचक्षुषम् / व्यधिकशततमोऽध्यायः // 102 // आत्मानं दित्सितं चास्मै पित्रा मात्रा च भारत॥१२ / 103 ततः सा पट्टमादाय कृत्वा बहुगुणं शुभा। भीष्म उवाच / बबन्ध नेत्रे वे राजन्पतिव्रतपरायणा। ' गुणैः समुदितं सम्यगिदं नः प्रथितं कुलम्। नात्यश्नीयां पतिमहमित्येवं कृतनिश्चया // 13 अत्यन्यान्पृथिवीपालान्पृथिव्यामधिराज्यभाक् // 1 ततो गान्धारराजस्य पुत्रः शकुनिरभ्ययात् / रक्षितं राजभिः पूर्वैर्धर्मविद्भिर्महात्मभिः / स्वसारं परया लक्ष्म्या युक्तामादाय कौरवान् // 14 नोत्सादमगमञ्चेदं कदाचिदिह नः कुलम् // 2 दत्त्वा स भगिनीं वीरो यथार्ह च परिच्छदम् / मया च सत्यवत्या च कृष्णेन च महात्मना। पुनरायात्स्वनगरं भीष्मेण प्रतिपूजितः // 15 समवस्थापितं भूयो युष्मासु कुलतन्तुषु // 3 गान्धार्यपि वरारोहा शीलाचारविचेष्टितैः / वर्धते तदिदं पुत्र कुलं सागरवद्यथा / तुष्टिं कुरूणां सर्वेषां जनयामास भारत // 16 . तथा मया विधातव्यं त्वया चैव विशेषतः // 4 वृत्तेनाराध्य तान्सर्वान्पतिव्रतपरायणा / श्रूयते यादवी कन्या अनुरूपा कुलस्य नः। वाचापि पुरुषानन्यान्सुव्रता नान्वकीर्तयत् // 17 सुबलस्यात्मजा चैव तथा मद्रेश्वरस्य च // 5 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि कुलीना रूपवत्यश्च नाथवत्यश्च सर्वशः / त्र्यधिकशततमोऽध्यायः // 103 // उचिताश्चैव संबन्धे तेऽस्माकं क्षत्रियर्षभाः // 6 मन्ये वरयितव्यास्ता इत्यहं धीमतां वर / वैशंपायन उवाच। संतानार्थं कुलस्यास्य यद्वा विदुर मन्यसे // 7 शूरो नाम यदुश्रेष्ठो वसुदेवपिताभवत् / विदुर उवाच। तस्य कन्या पृथा नाम रूपेणासदृशी भुवि // 1 भवान्पिता भवान्माता भवान्नः परमो गुरुः। पैतृष्वसेयाय स तामनपत्याय वीर्यवान् / तस्मात्स्वयं कुलस्यास्य विचार्य कुरु यद्धितम् // 8 अग्र्यमग्रे प्रतिज्ञाय स्वस्यापत्यस्य वीर्यवान् // 2 वैशंपायन उवाच। अग्रजातेति तां कन्यामग्र्यानुग्रहकाङ्क्षिणे। अथ शुश्राव विप्रेभ्यो गान्धारी सुबलात्मजाम् / प्रददौ कुन्तिभोजाय सखा सख्ये महात्मने // 3 आराध्य वरदं देवं भगनेत्रहरं हरम् / सा नियुक्ता पितुर्गेहे देवतातिथिपूजने / गान्धारी किल पुत्राणां शतं लेभे वरं शुभा // 9 उग्रं पर्यचरद्धोरं ब्राह्मणं संशितव्रतम् // 4 इति श्रुत्वा च तत्त्वेन भीष्मः कुरुपितामहः। निगूढनिश्चयं धर्मे यं तं दुर्वाससं विदुः / ततो गान्धारराजस्य प्रेषयामास भारत // 10 नमुग्रं संशितात्मानं सर्वयत्नैरतोषयत् / / 5 अचक्षुरिति तत्रासीत्सुबलस्य विचारणा / तस्यै स प्रददौ मत्रमापद्धन्विवेक्षया। कुलं ख्यातिं च वृत्तं च बुद्ध्या तु प्रसमीक्ष्य सः।। अभिचाराभिसंयुक्तमब्रवीचैव तां मुनिः // 6 -154 - , 104
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________________ 1. 104.7] आदिपर्व [1. 105. 12 यं यं देवं त्वमेतेन मत्रेणावाहयिष्यसि / / पुरा नाम तु तस्यासीद्वसुषेण इति श्रुतम् / तस्य तस्य प्रसादेन पुत्रस्तव भविष्यति // 7 ततो वैकर्तनः कर्णः कर्मणा तेन सोऽभवत् // 21 तथोक्ता सा तु विप्रेण तेन कौतूहलात्तदा / ___ इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि कन्या सती देवमर्कमाजुहाव यशस्विनी // 8 चतुरधिकशततमोऽध्यायः॥ 104 // सा ददर्श तमायान्तं भास्करं लोकभावनम् / विस्मिता चानवद्याङ्गी दृष्ट्वा तन्महदद्भुतम् / / 9 वैशंपायन उवाच / प्रकाशकर्मा तपनस्तस्यां गर्भ दधौ ततः / रूपसत्त्वगुणोपेता धर्मारामा महाव्रता / अजीजनत्ततो वीरं सर्वशस्त्रभृतां वरम् / दुहिता कुन्तिभोजस्य कृते पित्रा स्वयंवरे // 1 आमुक्तकवचः श्रीमान्देवगर्भः श्रियावृतः॥ 10 .. सिंहदंष्ट्रं गजस्कन्धमृषभाक्षं महाबलम् / सहजं कवचं बिभ्रत्कुण्डलोझ्योतिताननः। भूमिपालसहस्राणां मध्ये पाण्डुमविन्दत / / 2 अजायत सुतः कर्णः सर्वलोकेषु विश्रुतः॥ 11 स तया कुन्तिभोजस्य दुहिता कुरुनन्दनः / प्रादाच्च तस्याः कन्यात्वं पुनः स परमद्युतिः / युयुजेऽमितसौभाग्यः पौलोम्या मघवानिव // 3 दत्त्वा च ददतां श्रेष्ठो दिवमाचक्रमे ततः / / 12 यात्वा देवव्रतेनापि मद्राणां पुटभेदनम् / गृहमानापचारं तं बन्धुपक्षभयात्तदा। विश्रुता त्रिषु लोकेषु माद्री मद्रपतेः सुता // 4 उत्ससर्ज जले कुन्ती तं कुमारं सलक्षणम् // 13 सर्वराजसु विख्याता रूपेणासदृशी भुवि / तमुत्सृष्टं तदा गर्भ राधाभर्ता महायशाः / पाण्डोरर्थे परिक्रीता धनेन महता तदा / पुत्रत्वे कल्पयामास सभार्यः सूतनन्दनः // 14 विवाहं कारयामास भीष्मः पाण्डोर्महात्मनः // 5 नामधेयं च चक्राते तस्य बालस्य तावुभौ / सिंहोरस्कं गजस्कन्धमृषभाक्षं मनस्विनम् / बसुना सह जातोऽयं वसुषेणो भवत्विति // 15 पाण्डं दृष्ट्वा नरव्याघ्र व्यस्मयन्त नरा भुवि // 6 स वर्धमानो बलवान्सर्वास्त्रेषूद्यतोऽभवत् / कृतोद्वाहस्ततः पाण्डुर्बलोत्साहसमन्वितः / आ पृष्ठतापादादित्यमुपतस्थं स वीर्यवान् // 16 जिगीषमाणो वसुधां ययौ शत्रूननेकशः // 7 यस्मिन्काले जपन्नास्ते स वीरः सत्यसंगरः।। पूर्वमागस्कृतो गत्वा दशार्णाः समरे जिताः / नादेयं ब्राह्मणेष्वासीत्तस्मिन्काले महात्मनः // 17 पाण्डुना नरसिंहेन कौरवाणां यशोभृता // 8 तमिन्द्रो ब्राह्मणो भूत्वा भिक्षार्थं भूतभावनः / / ततः सेनामुपादाय पाण्डुर्नानाविधध्वजाम् / कुण्डले प्रार्थयामास कवचं च महाद्युतिः // 18 प्रभूतहस्त्यश्वरथां पदातिगणसंकुलाम् // 9 उत्कृत्य विमनाः स्वाङ्गात्कवचं रुधिरस्रवम् / आगस्कृत्सर्ववीराणां वैरी सर्वमहीभृताम् / कर्णस्तु कुण्डले छित्त्वा प्रायच्छत्स कृताञ्जलिः // 19 गोप्ता मगधराष्ट्रस्य दाणे राजगृहे हतः // 10 शक्तिं तस्मै ददौ शक्रः विस्मितो वाक्यमब्रवीत् / ततः कोशं समादाय वाहनानि बलानि च। देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।। पाण्डुना मिथिलां गत्वा विदेहाः समरे जिताः॥११ यस्मै क्षेप्स्यसि रुष्टः सन्सोऽनया न भविष्यति॥२० / तथा काशिषु सुह्येषु पुण्डेषु भरतर्षभ / - 155 -
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________________ 1. 105. 12] महाभारते [1. 106. 11 स्वबाहुबलवीर्येण कुरूणामकरोद्यशः // 12 पुत्रमासाद्य भीष्मस्तु हर्षादश्रूण्यवर्तयत् // 26 तं शरौघमहाज्वालमत्रार्चिषमरिंदमम् / स तूर्यशतसंघानां भेरीणां च महास्वनैः / पाण्डुपावकमासाद्य व्यदह्यन्त नराधिपाः / / 13 हर्षयन्सर्वशः पौरान्विवेश गजसाह्वयम् / / 27 ते ससेनाः ससेनेन विध्वंसितबला नृपाः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पाण्डुना वशगाः कृत्वा करकर्मसु योजिताः॥ 14 पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः // 105 // तेन ते निर्जिताः सर्वे पृथिव्यां सर्वपार्थिवाः। 106 तमेकं मेनिरे शूरं देवेष्विव पुरंदरम् // 15 वैशंपायन उवाच। तं कृताञ्जलयः सर्वे प्रणता वसुधाधिपाः / धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातः स्वबाहुविजितं धनम् / उपाजग्मुर्धनं गृह्य रत्नानि विविधानि च // 16 . भीष्माय सत्यवत्यै च मात्रे चोपजहार सः // 1 मणिमुक्ताप्रवालं च सुवर्ण रजतं तथा। विदुराय च वै पाण्डुः प्रेषयामास तद्धनम् / / गोरत्नान्यश्वरत्नानि रथरत्नानि कुञ्जरान् // 17 सुहृदश्चापि धर्मात्मा धनेन समतर्पयत् // 2 खरोष्ट्रमहिषांश्चैव यच्च किंचिदजाविकम् / ततः सत्यवतीं भीष्मः कौसल्यां च यशस्विनीम् / तत्सर्वं प्रतिजग्राह राजा नागपुराधिपः // 18 . शुभैः पाण्डुजितै रत्नस्तोषयामास भारत // 3 तदादाय ययौ पाण्डुः पुनर्मुदितवाहनः। ननन्द माता कौसल्या तमप्रतिमतेजसम् / हर्षयिष्यन्स्वराष्ट्राणि पुरं च गजसाह्वयम् // 19 जयन्तमिव पौलोमी परिष्वज्य नरर्षभम् // 4 . शंतनो राजसिंहस्य भरतस्य च धीमतः। तस्य वीरस्य विक्रान्तैः सहस्रशतदक्षिणैः / प्रनष्टः कीर्तिजः शब्दः पाण्डुना पुनरुद्धृतः॥२० अश्वमेधशतैरीजे धृतराष्ट्रो महामखैः // 5 ये पुरा कुरुराष्ट्राणि जगुः कुरुधनानि च। संप्रयुक्तश्च कुन्त्या च माझ्या च भरतर्षभ / ते नागपुरसिंहेन पाण्डुना करदाः कृताः // 21 जिततन्द्रीस्तदा पाण्डुबभूव वनगोचरः // 6 इत्यभाषन्त राजानो राजामात्याश्च संगताः / हित्वा प्रासादनिलयं शुभानि शयनानि च / प्रतीतमनसो हृष्टाः पौरजानपदैः सह // 22 अरण्यनित्यः सततं बभूव मृगयापरः // 7 प्रत्युद्ययुस्तं संप्राप्तं सर्वे भीष्मपुरोगमाः / स चरन्दक्षिणं पार्वं रम्यं हिमवतो गिरेः / ते नदूरमिवाध्वानं गत्वा नागपुरालयाः। उवास गिरिपृष्ठेषु महाशालवनेषु च // 8 आवृतं ददृशुर्लोकं हृष्टा बहुविधैर्जनैः // 23 रराज कुन्त्या माद्या च पाण्डुः सह वने वसन् / नानायानसमानीतै रत्नैरुच्चावचैस्तथा। करेण्वोरिव मध्यस्थः श्रीमान्पौरंदरो गजः // 9 हस्त्यश्वरथरत्नैश्च गोभिरुष्ट्ररथाविकैः / भारतं सह भार्याभ्यां बाणखङ्गधनुर्धरम् / नान्तं ददृशुरासाद्य भीष्मेण सह कौरवाः // 24 / विचित्रकवचं वीरं परमास्त्रविदं नृपम् / सोऽभिवाद्य पितुः पादौ कौसल्यानन्दवर्धनः।। देवोऽयमित्यमन्यन्त चरन्तं वनवासिनः // 10 यथार्ह मानयामास पौरजानपदानपि // 25 तस्य कामांश्च भोगांश्च नरा नित्यमतन्द्रिताः / प्रमृद्य परराष्ट्राणि कृतार्थं पुनरागतम् / उपजहुर्वनान्तेषु धृतराष्ट्रेण चोदिताः // 11 - 156 -
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________________ 1. 106. 12] आदिपर्व [1. 107. 22 अथ पारशवीं कन्यां देवकस्य महीपतेः / संवत्सरद्वयं तं तु गान्धारी गर्भमाहितम् / रुपयौवनसंपन्नां स शुश्रावापगासुतः // 12 अप्रजा धारयामास ततस्तां दुःखमाविशत् // 9 ततस्तु वरयित्वा तामानाय्य पुरुषर्षभः / / श्रुत्वा कुन्तीसुतं जातं बालार्कसमतेजसम् / विवाहं कारयामास विदुरस्य महामतेः // 13 उदरस्यात्मनः स्थैर्यमुपलभ्यान्वचिन्तयत् // 10 तस्यां चोत्पादयामास विदुरः कुरुनन्दनः / अज्ञातं धृतराष्ट्रस्य यत्नेन महता ततः / पुत्रान्विनयसंपन्नानात्मनः सदृशान्गुणैः / / 14 सोदरं पातयामास गान्धारी दुःखमूर्छिता // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ततो जज्ञे मांसपेशी लोहाष्टीलेव संहता। षडधिकशततमोऽध्यायः // 106 // द्विवर्षसंभृतां कुक्षौ तामुत्स्रष्टुं प्रचक्रमे // 12 107 अथ द्वैपायनो ज्ञात्वा त्वरितः समुपागमत् / वैशंपायन उवाच। तां स मांसमयीं पेशीं ददर्श जपतां वरः // 13 ततोऽब्रवीत्सौबलेयी किमिदं ते चिकीर्षितम् / उतः पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्यां जनमेजय।। सा चात्मनो मतं सत्यं शशंस परमर्षये // 14 धृतराष्ट्रस्य वैश्यायामेकश्चापि शतात्परः / / 1 ज्येष्ठं कुन्तीसुतं जातं श्रुत्वा रविसमप्रभम् / पाण्डोः कुन्त्यां च मायां च पञ्च पुत्रा महारथाः / दुःखेन परमेणेदमुदरं पातितं मया // 15 देवेभ्यः समपद्यन्त संतानाय कुलस्य वै // 2 शतं च किल पुत्राणां वितीर्णं मे त्वया पुरा। जनमेजय उवाच / इयं च मे मांसपेशी जाता पुत्रशताय वै // 16 कथं पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्यां द्विजसत्तम / कियता चैव कालेन तेषामायुश्च किं परम् // 3 व्यास उवाच / कथं चैकः स वैश्यायां धृतराष्ट्रसुतोऽभवत् / एवमेतत्सौबलेयि नैतज्जात्वन्यथा भवेत् / कथं च सदृशीं भायाँ गान्धारी धर्मचारिणीम् / वितथं नोक्तपूर्वं मे स्वरेष्वपि कुतोऽन्यथा // 17 मानुकूल्ये वर्तमानां धृतराष्ट्रोऽत्यवर्तत / / 4 घृतपूर्णं कुण्डशतं क्षिप्रमेव विधीयताम् / ज्यं च शप्तस्य सतः पाण्डोस्तेन महात्मना / शीताभिरद्भिरष्ठीलामिमां च परिपिञ्चत // 18 मुत्पन्ना दैवतेभ्यः पञ्च पुत्रा महारथाः / / 5 वैशंपायन उवाच। खद्विद्वन्यथावृत्तं विस्तरेण तपोधन / सा सिच्यमाना अष्ठीला अभवच्छतधा तदा। व्ययस्ख न मे तृप्तिः कथ्यमानेषु बन्धुषु // 6 अङ्गुष्ठपर्वमात्राणां गर्भाणां पृथगेव तु / / 19 वैशंपायन उवाच। एकाधिकशतं पूर्णं यथायोगं विशां पते / उमाभिपरिग्लानं द्वैपायनमुपस्थितम् / मांसपेश्यास्तदा राजन्क्रमशः कालपर्ययात् // 20 . पियामास गान्धारी व्यासस्तस्यै वरं ददौ॥७ ततस्तांस्तेषु कुण्डेषु गर्भानवदधे तदा / का बने सदृशं भर्तुः पुत्राणां शतमात्मनः / स्वनुगुणेषु देशेषु रक्षां च व्यदधात्ततः // 21 त: कालेन सा गर्भ धृतराष्ट्रादथाग्रहीत् // 8 शशास चैव भगवान्कालेनैतावता पुनः / - 157 -
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________________ 1. 107. 22 ] महाभारते [1. 108. 12 विघट्टनीयान्येतानि कुण्डानीति स्म सौबलीम् // 22 महारथानां वीराणां कन्या चैकाथ दुःशला // 37 इत्युक्त्वा भगवान्व्यासस्तथा प्रतिविधाय च। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जगाम तपसे धीमान्हिमवन्तं शिलोच्चयम् // 23 सप्ताधिकशततमोऽध्यायः॥१०७॥ जज्ञे क्रमेण चैतेन तेषां दुर्योधनो नृपः / 108 जन्मतस्तु प्रमाणेन ज्येष्ठो राजा युधिष्ठिरः / / 24 जनमेजय उवाच / जातमात्रे सुते तस्मिन्धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् / ज्येष्ठानुज्येष्ठतां तेषां नामधेयानि चाभिभो / समानीय बहून्विप्रान्भीष्मं विदुरमेव च / / 25 धृतराष्ट्रस्य पुत्राणामानुपूर्येण कीर्तय // 1 युधिष्ठिरो राजपुत्रो ज्येष्ठो नः कुलवर्धनः / वैशंपायन उवाच / प्राप्तः स्वगुणतो राज्यं न तस्मिन्वाच्यमस्ति नः॥२६ दुर्योधनो युयुत्सुश्च राजन्दुःशासनस्तथा। अयं त्वनन्तरस्तस्मादपि राजा भविष्यति / दुसहो दुःशलश्चैव जलसंधः समः सहः // 2 एतद्धि ब्रूत मे सत्यं यदत्र भविता ध्रुवम् // 27 / विन्दानुविन्दा दुर्धर्षः सुबाहुर्दुष्प्रधर्षणः / वाक्यस्यैतस्य निधने दिक्षु सर्वासु भारत। दुर्मर्षणो दुर्मुखश्च दुष्कर्णः कर्ण एव च // 3 . क्रव्यादाः प्राणदघोराः शिवाश्चाशिवशंसिनः॥२८ विविंशतिर्विकर्णश्च जलसंधः सुलोचनः / लक्षयित्वा निमित्तानि तानि घोराणि सर्वशः / चित्रोपचित्रौ चित्राक्षश्चारुचित्रः शरासनः // 4 तेऽब्रुवन्ब्राह्मणा राजन्विदुरश्च महामतिः // 29 दुर्मदो दुष्प्रगाहश्च विवित्सुर्विकटः समः / व्यक्तं कुलान्तकरणो भवितैष सुतस्तव / ऊर्णनाभः सुनाभश्च तथा नन्दोपनन्दको / / 5 तस्य शान्तिः परित्यागे पुष्ट्या त्वपनयो महान् // 30 सेनापतिः सुषेणश्च कुण्डोदरमहोदरौ / शतमेकोनमप्यस्तु पुत्राणां ते महीपते / चित्रबाणश्चित्रवर्मा सुवर्मा दुर्विमोचनः // 6 एकेन कुरु वै क्षेमं लोकस्य च कुलस्य च // 31 अयोबाहुमहाबाहुश्चित्राङ्गश्चित्रकुण्डलः / त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् / भीमवेगो भीमबलो बलाकी बलवर्धनः // 7 प्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् / / 32 उग्रायुधो भीमकर्मा कनकायुदृढायुधः / स तथा विदुरेणोक्तस्तैश्च सर्वैर्द्विजोत्तमैः / दृढवर्मा दृढक्षत्रः सोमकीर्तिरनूदरः // 8 न चकार तथा राजा पुत्रस्नेहसमन्वितः // 33 दृढसंधो जरासंधः सत्यसंधः सदःसुवाक् / ततः पुत्रशतं सर्वं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव / उग्रश्रवा अश्वसेनः सेनानी?ष्पराजयः // 9 मासमात्रेण संजज्ञे कन्या चैका शताधिका // 34 अपराजितः पण्डितको विशालाक्षो दुरावरः / गान्धार्यां क्लिश्यमानायामुदरेण विवर्धता। दृढहस्तः सुहस्तश्च वातवेगसुवर्चसौ // 10 धृतराष्ट्र महाबाहुं वैश्या पर्यचरत्किल // 35 आदित्यकेतुर्बह्वाशी नागदन्तोग्रयायिनौ / तस्मिन्संवत्सरे राजन्धृतराष्ट्रान्महायशाः / कवची निषङ्गी पाशी च दण्डधारो धनुर्ग्रहः / / 11 जज्ञे धीमांस्ततस्तस्यां युयुत्सुः करणो नृप // 36 / उग्रो भीमरथो वीरो वीरबाहुरलोलुपः / एवं पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमतः / अभयो रौद्रकर्मा च तथा दृढरथस्त्रयः // 12 - 158 -
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________________ 1. 108. 13] आदिपर्व .. [1. 109. 19 अनाधृष्यः कुण्डभेदी विरावी दीर्घलोचनः। भार्यया सह तेजस्वी मृगरूपेण संगतः॥ 7 दीर्घबाहुर्महाबाहुव्यूढोरुः कनकध्वजः // 13 संसक्तस्तु तया मृग्या मानुषीमीरयन्गिरम् / कुण्डाशी विरजाश्चैव दुःशला च शताधिका। क्षणेन पतितो भूमौ विललापाकुलेन्द्रियः // 8 एतदेकशतं राजन्कन्या चैका प्रकीर्तिता // 14 मृग उवाच / नामधेयानुपूर्येण विद्धि जन्मक्रमं नृप / काममन्युपरीतापि बुद्ध्यङ्गरहितापि च / सर्वे त्वतिरथाः शूराः सर्वे युद्धविशारदाः // 15 वर्जयन्ति नृशंसानि पापेष्वभिरता नराः॥९ सर्वे वेदविदश्चैव राजशास्त्रेषु कोविदाः / न विधिं ग्रसते प्रज्ञा प्रज्ञां तु असते विधिः / सर्वे संसर्गविद्यासु विद्याभिजनशोभिनः // 16 विधिपर्यागतानर्थान्प्रज्ञा न प्रतिपद्यते // 10 सर्वेषामनुरूपाश्च कृता दारा महीपते / शश्वद्धर्मात्मनां मुख्ये कुले जातस्य भारत / धृतराष्ट्रण समये समीक्ष्य विधिवत्तदा // 17 कामलोभाभिभूतस्य कथं ते चलिता मतिः // 11 दुःशलां समये राजा सिन्धुराजाय भारत / पाण्डुरुवाच / जयद्रथाय प्रददौ सौबलानुमते तदा // 18 शत्रूणां या वधे वृत्तिः सा मृगाणां वधे स्मृता। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि , राज्ञां मृग न मां मोहात्त्वं गर्ह यितुमर्हसि // 12 अष्टाधिकशततमोऽध्यायः॥ 108 // अच्छद्मनामायया च मृगाणां वध इष्यते / स एव धर्मो राज्ञां तु तद्विद्वान्किं नु गर्हसे // 13 जनमेजय उवाच / अगस्त्यः सत्रमासीनश्चचार मृगयामृषिः / कथितो धार्तराष्ट्राणामार्षः संभव उत्तमः। आरण्यान्सर्वदैवत्यान्मृगान्प्रोक्ष्य महावने // 14 अमानुषो मानुषाणां भवता ब्रह्मवित्तम // 1 प्रमाणदृष्टधर्मेण कथमस्मान्विगर्हसे। नामधेयानि चाप्येषां कथ्यमानानि भागशः / अगस्त्यस्याभिचारेण युष्माकं वै वपा हुता // 15 त्वत्तः श्रुतानि. मे ब्रह्मन्पाण्डवानां तु कीर्तय // 2 मृग उवाच। ते हि सर्वे महात्मानो देवराजपराक्रमाः। न रिपून्वै समुद्दिश्य विमुञ्चन्ति पुरा शरान् / त्वयैवांशावतरणे देवभागाः प्रकीर्तिताः // 3 रन्ध्र एषां विशेषेण वधकालः प्रशस्यते // 16 तस्मादिच्छाम्यहं श्रोतुमतिमानुषकर्मणाम् / पाण्डुरुवाच / तेषामाजननं सर्वं वैशंपायन कीर्तय // 4 प्रमत्तमप्रमत्तं वा विवृतं नन्ति चौजसा। वैशंपायन उवाच / उपायैरिषुभिस्तीक्ष्णैः कस्मान्मृग विगर्हसे // 17 राजा पाण्डुर्महारण्ये मृगव्यालनिषेविते / __ मृग उवाच। बने मैथुनकालस्थं ददर्श मृगयूथपम् // 5 नाहं नन्तं मृगाराजन्विगर्हे आत्मकारणात् / सतस्तां च मृगीं तं च रुक्मपुङ्खैः सुपत्रिभिः। मैथुनं तु प्रतीक्ष्यं मे स्यात्त्वयेहानृशंसतः // 18 निर्बिभेद शरैस्तीक्ष्णैः पाण्डुः पञ्चभिराशुगैः // 6- सर्वभूतहिते काले सर्वभूतेप्सिते तथा / स च राजन्महातेजा ऋषिपुत्रस्तपोधनः / को हि विद्वान्मृगं हन्याच्चरन्तं मैथुनं वने। -159 -
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________________ 1. 109. 19 ] महाभारते [1. 110. 12 110 पुरुषार्थफलं कान्तं यत्त्वया वितथं कृतम् // 19 | मृगः पाण्डुश्च शोकार्तः क्षणेन समपद्यत / / 31 पौरवाणामृषीणां च तेषामक्लिष्टकर्मणाम् / इति श्रीमहाभारते भादिपर्वणि वंशे जातस्य कौरव्य नानुरूपमिदं तव // 20 नवाधिकशततमोऽध्यायः // 109 // नशंसं कर्म सुमहत्सर्वलोकविगर्हितम् / अस्वय॑मयशस्यं च अधर्मिष्ठं च भारत // 21 वैशंपायन उवाच। स्त्रीभोगानां विशेषज्ञः शास्त्रधर्मार्थतत्त्ववित्। तं व्यतीतमतिक्रम्य राजा स्वमिव बान्धवम् / नार्हस्त्वं सुरसंकाश कर्तुमस्वय॑मीदृशम् // 22 सभार्यः शोकदुःखार्तः पर्यदेवयदातुरः // 1 त्वया नृशंसकर्तारः पापाचाराश्च मानवाः / पाण्डुरुवाच / निग्राह्याः पार्थिवश्रेष्ठ त्रिवर्गपरिवर्जिताः // 23 सतामपि कुले जाताः कर्मणा बत दुर्गतिम् / किं कृतं ते नरश्रेष्ठ निघ्नतो मामनागसम्। प्राप्नुवन्त्यकृतात्मानः कामजालविमोहिताः // 2 मुनिं मूलफलाहारं मृगवेषधरं नृप / शश्वद्धर्मात्मना जातो बाल एव पिता मम / वसमानमरण्येषु नित्यं शमपरायणम् // 24 जीवितान्तमनुप्राप्तः कामात्मैवेति नः श्रुतम् // 3 त्वयाहं हिंसितो यस्मात्तस्मात्त्वामप्यसंशयम् / तस्य कामात्मनः क्षेत्रे राज्ञः संयतवागृषिः / द्वयोर्नशंसकर्तारमवशं काममोहितम्। कृष्णद्वैपायनः साक्षाद्भगवान्मामजीजनत् // 4 जीवितान्तकरो भाव एवमेवागमिष्यति // 25 तस्याद्य व्यसने बुद्धिः संजातेयं ममाधमा / अहं हि किंदमो नाम तपसाप्रतिमो मुनिः / त्यक्तस्य देवैरनयान्मृगयायां दुरात्मनः // 5 व्यपत्रपन्मनुष्याणां मृग्यां मैथुनमाचरम् // 26 मोक्षमेव व्यवस्यामि बन्धो हि व्यसनं महत् / मृगो भूत्वा मृगैः सार्धं चरामि गहने वने / सुवृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम् / न तु ते ब्रह्महत्येयं भविष्यत्यविजानतः।। अतीव तपसात्मानं योजयिष्याम्यसंशयम् // 6 मृगरूपधरं हत्वा मामेवं काममोहितम् // 27 तस्मादेकोऽहंमेकाहमेकैकस्मिन्वनस्पतौ / अस्य तु त्वं फलं मूढ प्राप्स्यसीदृशमेव हि / चरन्भैक्षं मुनिर्मुण्डश्चरिष्यामि महीमिमाम् // 7 प्रियया सह संवासं प्राप्य कामविमोहितः / पांसुना समवच्छन्नः शून्यागारप्रतिश्रयः / त्वमप्यस्यामवस्थायां प्रेतलोकं गमिष्यसि / / 28 वृक्षमूलनिकेतो वा त्यक्तसर्वप्रियाप्रियः // 8 अन्तकाले च संवासं यया गन्तासि कान्तया। न शोचन्न प्रहृष्यंश्च तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः / प्रेतराजवशं प्राप्तं सर्वभूतदुरत्ययम् / निराशीर्निर्नमस्कारो निर्द्वन्द्वो निष्परिग्रहः // 9 भक्त्या मतिमतां श्रेष्ठ सैव त्वामनुयास्यति // 29 न चाप्यवहसन्कंचिन्न कुर्वन्भृकुटी क्वचित् / वर्तमानः सुखे दुःखं यथाहं प्रापितस्त्वया / प्रसन्नवदनो नित्यं सर्वभूतहिते रतः // 10 तथा सुखं त्वां संप्राप्तं दुःखमभ्यागमिष्यति / / 30 जङ्गमाजङ्गमं सर्वमविहिंसंश्चतुर्विधम् / वैशंपायन उवाच। स्वासु प्रजास्विर सदा समः प्राणभृतां प्रति // 1: एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो जीवितास व्ययुज्यत। / एककालं चरन्भैक्षं कुलानि द्वे च पश्च च / / - 160 -
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________________ 1. 110. 12] आदिपर्व [1. 110. 39 असंभवे वा भैक्षस्य चरन्ननशनान्यपि // 12 / आवाभ्यां धर्मपत्नीभ्यां सह तप्त्वा तपो महत् / अल्पमल्पं यथाभोज्यं पूर्वलाभेन जातुचित् / त्वमेव भविता सार्थः स्वर्गस्यापि न संशयः // 26 नित्यं नातिचरल्लाभे अलाभे सप्त पूरयन् // 13 प्रणिधायेन्द्रियग्रामं भर्तृलोकपरायणे। वास्यैकं तक्षतो बाहुं चन्दनेनैकमुक्षतः / त्यक्तकामसुखे ह्यावां तप्स्यावो विपुलं तपः // 27 नाकल्याणं न कल्याणं प्रध्यायन्नुभयोस्तयोः // 14 / यदि आवां महाप्राज्ञ त्यक्ष्यसि त्वं विशां पते / न जिजीविषुवत्किंचिन्न मुमूर्षवदाचरन् / अद्यैवावां प्रहास्यावो जीवितं नात्र संशयः // 28 मरणं जीवितं चैव नाभिनन्दन्न च द्विषन् // 15 पाण्डुरुवाच / याः काश्चिज्जीवता शक्याः कर्तुमभ्युदयक्रियाः। यदि व्यवसितं ह्येतद्युवयोधर्मसंहितम् / ताः सर्वाः समतिक्रम्य निमेषादिष्ववस्थितः // 16 स्ववृत्तिमनुवर्तिष्ये तामहं पितुरव्ययाम् // 29 तासु सर्वास्ववस्थासु त्यक्तसर्वेन्द्रियक्रियः। त्यक्तनाम्यसुखाचारस्तप्यमानो महत्तपः / संपरित्यक्तधर्मात्मा सुनिर्णिक्तात्मकल्मषः // 17 वल्कली फलमूलाशी चरिष्यामि महावने // 30 निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यो व्यतीतः सर्ववागुराः / अग्निं जुह्वन्नुभौ कालावुभौ कालावुपस्पृशन् / न वशे कस्यचित्तिष्ठन्सधर्मा मातरिश्वनः / / 18 कृशः परिमिताहारश्वीरचर्मजटाधरः // 31 एतया सततं वृत्त्या चरन्नेवंप्रकारया। शीतवातातपसहः क्षुत्पिपासाश्रमान्वितः / देहं संधारयिष्यामि निर्भयं मार्गमास्थितः // 19 तपसा दुश्चरेणेदं शरीरमुपशोषयन् // 32 नाहं श्वाचरिते मार्गे अवीर्यकृपणोचिते / एकान्तशीली विमृशन्पक्कापक्केन वर्तयन् / स्वधर्मात्सततापेते रमेयं वीर्यवर्जितः // 20 पितृन्देवांश्च वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन् // 33 सत्कृतोऽसत्कृतो वापि योऽन्यां कृपणचक्षुषा। वानप्रस्थजनस्यापि दर्शनं कुलवासिनाम् / उपैति वृत्तिं कामात्मा स शुनां वर्तते पथि / / 21 नाप्रियाण्याचरज्जातु किं पुनर्ग्रामवासिनाम् // 34 .. वैशंपायन उवाच / एवमारण्यशास्त्राणामुग्रमुग्रतरं विधिम् / एवमुक्त्वा सुदुःखार्तो निःश्वासपरमो नृपः। काङ्कमाणोऽहमासिष्ये देहस्यास्य समापनात् // 35 अवेक्षमाणः कुन्तीं च माद्रीं च समभाषत / / 22 वैशंपायन उवाच / कौसल्या विदरः क्षत्ता राजा च सह बन्धभिः। इत्येवमुक्त्वा भार्ये ते राजा कौरववंशजः / आर्या सत्यवती भीष्मस्ते च राजपुरोहिताः / / 23 ततश्चूडामणिं निष्कमङ्गदे कुण्डलानि च / ब्राह्मणाश्च महात्मानः सोमपाः संशितव्रताः। वासांसि च महार्हाणि स्त्रीणामाभरणानि च // 36 पौरवृद्धाश्च ये तत्र निवसन्त्यस्मदाश्रयाः / प्रदाय सर्वं विप्रेभ्यः पाण्डुः पुनरभाषत / प्रसाद्य सर्वे वक्तव्याः पाण्डुः प्रव्रजितो वनम् // 24 / गत्वा नागपुरं वाच्यं पाण्डुः प्रव्रजितो वनम्॥३७ निशम्य वचनं भर्तुर्वनवासे धृतात्मनः / अर्थ कामं सुखं चैव रतिं च परमात्मिकाम् / तत्समं वचनं कुन्ती माद्री च समभाषताम् / / 25 - प्रतस्थे सर्वमुत्सृज्य सभार्यः कुरुपुंगवः // 38 अन्येऽपि ह्याश्रमाः सन्ति ये शक्या भरतर्षभ। ततस्तस्यानुयात्राणि ते चैव परिचारकाः / म.भा. 21 - 161 -
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________________ 1. 110. 39 ] महाभारते [1. 111. 20 श्रुत्वा भरतसिंहस्य विविधाः करुणा गिरः / आक्रीडभूतान्देवानां गन्धर्वाप्सरसां तथा // 6 भीममार्तस्वरं कृत्वा हाहेति परिचुक्रुशुः // 39 उद्यानानि कुबेरस्य समानि विषमाणि च / उष्णमश्रु विमुञ्चन्तस्तं विहाय महीपतिम् / महानदीनितम्बांश्च दुर्गाश्च गिरिगह्वरान् // 7 ययुर्नागपुरं तूर्णं सर्वमादाय तद्वचः // 40 सन्ति नित्यहिमा देशा निर्वृक्षमृगपक्षिणः। श्रुत्वा च तेभ्यस्तत्सर्वं यथावृत्तं महावने। सन्ति केचिन्महावर्षा दुर्गाः केचिदुरासदाः॥ 8 धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठः पाण्डुमेवान्वशोचत // 41 अतिक्रामेन्न पक्षी यान्कुत एवेतरे मृगाः / राजपुत्रस्तु कौरव्यः पाण्डुर्मूलफलाशनः / वायुरेकोऽतिगाद्यत्र सिद्धाश्च परमर्षयः // 9 जगाम सह भार्याभ्यां ततो नागसभं गिरिम्॥४२ गच्छन्त्या शैलराजेऽस्मिन्राजपुत्र्यौ कथं त्विमे / स चैत्ररथमासाद्य वारिषेणमतीत्य च। न सीदेतामदुःखार्हे मा गमो भरतर्षभ / / 10 हिमवन्तमतिक्रम्य प्रययौ गन्धमादनम् // 43 पाण्डुरुवाच / रक्ष्यमाणो महाभूतैः सिद्धैश्च परमर्षिभिः / अप्रजस्य महाभागा न द्वारं परिचक्षते / उवास स तदा राजा समेषु विषमेषु च // 44 स्वर्गे तेनाभितप्तोऽहमप्रजस्तद्रवीमि वः // 11 इन्द्रद्युम्नसरः प्राप्य हंसकूटमतीत्य च। ऋणैश्चतुर्भिः संयुक्ता जायन्ते मनुजा भुवि। शतशृङ्गे महाराज तापसः समपद्यत // 45 पितृदेवर्षिमनुजदेयैः शतसहस्रशः / / 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि एतानि तु यथाकालं यो न बुध्यति मानवः। . दशाधिकशततमोऽध्यायः // 110 // न तस्य लोकाः सन्तीति धर्मविद्भिः प्रतिष्ठितम् // 13 यज्ञैश्च देवान्प्रीणाति स्वाध्यायतपसा मुनीन् / वैशंपायन उवाच। पुत्रैः श्राद्धैः पितॄश्चापि आनृशंस्येन मानवान् // 11 तत्रापि तपसि श्रेष्ठे वर्तमानः स वीर्यवान् / ऋषिदेवमनुष्याणां परिमुक्तोऽस्मि धर्मतः। सिद्धचारणसंघानां बभूव प्रियदर्शनः // 1 पित्र्याणादनिर्मुक्तस्तेन तप्ये तपोधनाः // 15 . शुश्रूषुरनहंवादी संयतात्मा जितेन्द्रियः / देहनाशे ध्रुवो नाशः पितृणामेष निश्चयः / स्वर्ग गन्तुं पराक्रान्तः स्वेन वीर्येण भारत // 2 इह तस्मात्प्रजाहेतोः प्रजायन्ते नरोत्तमाः // 16 केषांचिदभवद्धाता केषांचिदभवत्सखा / यथैवाहं पितुः क्षेत्रे सृष्टस्तेन महात्मना / ऋषयस्त्वपरे चैनं पुत्रवत्पर्यपालयन् // 3 तथैवास्मिन्मम क्षेत्रे कथं वै संभवेत्प्रजा // 17 स तु कालेन महता प्राप्य निष्कल्मषं तपः / तापसा ऊचुः / ब्रह्मर्षिसदृशः पाण्डुर्बभूव भरतर्षभ // 4 अस्ति वै तव धर्मात्मन्विद्म देवोपमं शुभम् / स्वर्गपारं तितीर्षन्स शतशृङ्गादुदङ्मुखः। अपत्यमनघं राजन्वयं दिव्येन चक्षुषा // 18 प्रतस्थे सह पत्नीभ्यामब्रुवंस्तत्र तापसाः। दैवदिष्टं नरव्याघ्र कर्मणेहोपपादय / उपर्युपरि गच्छन्तः शैलराजमुदङ्मुखाः // 5 अक्लिष्टं फलमव्यग्रो विन्दते बुद्धिमान्नरः // 19 दृष्टवन्तो गिरेरस्य दुर्गान्देशान्बहून्वयम् / तस्मिन्दृष्टे फले तात प्रयत्नं कर्तुमर्हसि / - 162 -
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________________ 1. 111. 20] आदिपर्व [1. 112. 11 अपत्यं गुणसंपन्नं लब्ध्वा प्रीतिमवाप्स्यसि / / 20 / कर्मण्यवसिते तस्मिन्सा तेनैव सहाक्सत् / वैशंपायन उवाच। तत्र त्रीञ्जनयामास दुर्जयादीन्महारथान् // 35 तच्छ्रुत्वा तापसवचः पाण्डुश्चिन्तापरोऽभवत् / तथा त्वमपि कल्याणि ब्राह्मणात्तपसाधिकात् / आत्मनो मृगशापेन जानन्नुपहतां क्रियाम् // 21 मन्नियोगाद्यत क्षिप्रमपत्योत्पादनं प्रति / / 36 सोऽब्रवीद्विजने कुन्ती धर्मपत्नी यशस्विनीम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अपत्योत्पादने योगमापदि प्रसमर्थयन् // 22 एकादशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 111 // अपत्यं नाम लोकेषु प्रतिष्ठा धर्मसंहिता। 112 इति कुन्ति विदुर्धीराः शाश्वतं धर्ममादितः // 23 वैशंपायन उवाच / इष्टं दत्तं तपस्तप्तं नियमश्च स्वनुष्ठितः / . एवमुक्ता महाराज कुन्ती पाण्डुमभाषत / सर्वमेवानपत्यस्य न पाचनमिहोच्यते // 24 कुरूणामृषभं वीरं तदा भूमिपतिं पतिम् // 1 सोऽहमेवं विदित्वैतत्प्रपश्यामि शुचिस्मिते।। न मामर्हसि धर्मज्ञ वक्तुमेवं कथंचन / अनपत्यः शुभाल्लोकान्नावाप्स्यामीति चिन्तयन्।।२५ धर्मपत्नीमभिरतां त्वयि राजीवलोचन // 2 मृगाभिशापान्नष्टं मे प्रजनं ह्यकृतात्मनः / त्वमेव तु महाबाहो मय्यपत्यानि भारत / नृशंसकारिणो भीरु यथैवोपहतं तथा // 26 वीर वीर्योपपन्नानि धर्मतो जनयिष्यसि // 3 इमे वै बन्धुदायादाः षट् पुत्रा धर्मदर्शने / स्वर्ग मनुजशार्दूल गच्छेयं सहिता त्वया / षडेवाबन्धुदायादाः पुत्रास्ताञ्शृणु मे पृथे // 27 अपत्याय च मां गच्छ त्वमेव कुरुनन्दन // 4 स्वयंजातः प्रणीतश्च परिक्रीतश्च यः सुतः / न ह्यहं मनसाप्यन्यं गच्छेयं त्वदृते नरम् / पौनर्भवश्च कानीनः स्वैरिण्यां यश्च जायते // 28 त्वत्तः प्रतिविशिष्टश्च कोऽन्योऽस्ति भुवि मानवः / / दत्तः क्रीतः कृत्रिमश्च उपगच्छेत्स्वयं च यः। इमां च तावद्धयां त्वं पौराणीं शृणु मे कथाम् / सहोदो जातरेताश्च हीनयोनिधृतश्च यः // 29 परिश्रुतां विशालाक्ष कीर्तयिष्यामि यामहम् / / 6 पूर्वपूर्वतमाभावे मंत्वा लिप्सेत वै सुतम्। व्युषिताश्व इति ख्यातो बभूव किल पार्थिवः / उत्तमादवराः पुंसः काङ्क्षन्ते पुत्रमापदि // 30 पुरा परमधर्मिष्ठः पूरोवंशविवर्धनः // 7 अपत्यं धर्मफलदं श्रेष्ठं विन्दन्ति साधवः / तस्मिंश्च यजमाने वै धर्मात्मनि महात्मनि / आत्मशुक्रादपि पृथे मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् // 31 उपागमस्ततो देवाः सेन्द्राः सह महर्षिभिः // 8 . तस्मात्प्रहेष्याम्यद्य त्वां हीनः प्रजननात्स्वयम् / अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः / सदृशाच्छ्रेयसो वा त्वं विद्ध्यपत्यं यशस्विनि / / 32 व्युषिताश्वस्य राजर्षेस्ततो यज्ञे महात्मनः // 9 शृणु कुन्ति कथां चेमां शारदण्डायनीं प्रति / व्युषिताश्वस्ततो राजन्नति मान्व्यरोचत / या वीरपत्नी गुरुभिर्नियुक्तापत्यजन्मनि // 33 सर्वभूतान्यति यथा तपनः शिशिरात्यये // 10 पुष्पेण प्रयता स्नाता निशि कुन्ति चतुष्पथे। / स विजित्य गृहीत्वा च नृपतीराजसत्तमः / वरयित्वा द्विजं सिद्धं हुत्वा पुंसवनेऽनलम् / / 34 / प्राच्यानुदीच्यान्मध्यांश्च दक्षिणात्यानकालयत्॥११ - 163 -
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________________ 1. 111. 12 ] महाभारते [1.113.4 अश्वमेधे महायज्ञे व्युषिताश्वः प्रतापवान् / तदिदं कर्मभिः पापैः पूर्वदेहेषु संचितम् / बभूव स हि राजेन्द्रो दशनागबलान्वितः // 12 दुःखं मामनुसंप्राप्तं राजंस्त्वद्विप्रयोगजम् // 26 आयत्र गाथां गायन्ति ये पुराणविदो जनाः / अद्यप्रभृत्यहं राजन्कुशप्रस्तरशायिनी / व्युषिताश्वः समुद्रान्तां विजित्येमां वसुंधराम् / भविष्याम्यसुखाविष्टा त्वदर्शनपरायणा // 27 अपालयत्सर्ववर्णान्पिता पुत्रानिवौरसान् // 13 दर्शयस्व नरव्याघ्र साधु मामसुखान्विताम् / यजमानो महायज्ञैर्ब्राह्मणेभ्यो ददौ धनम् / दीनामनाथां कृपणां विलपन्तीं नरेश्वर // 28 अनन्तरत्नान्यादाय आजहार महाक्रतून / एवं बहुविधं तस्यां विलपन्त्यां पुनः पुनः / सुषाव च बहून्सोमान्सोमसंस्थास्ततान च // 14 तं शवं संपरिष्वज्य वाकिलान्तर्हिताब्रवीत् // 29 आसीत्काक्षीवती चास्य भार्या परमसंमता। . उत्तिष्ठ भद्रे गच्छ त्वं ददानीह वरं तव / भद्रा नाम मनुष्येन्द्र रूपेणासदृशी भुवि // 15 जनयिष्याम्यपत्यानि त्वय्यहं चारुहासिनि // 30 कामयामासतुस्तौ तु परस्परमिति श्रुतिः / आत्मीये च वरारोहे शयनीये चतुर्दशीम् / स तस्यां कामसंमत्तो यक्ष्माणं समपद्यत // 16 अष्टमी वा ऋतुस्नाता संविशेथा मया सह // 31 तेनाचिरेण कालेन जगामास्तमिवांशुमान् / एवमुक्ता तु सा देवी तथा चक्रे पतिव्रता / तस्मिन्प्रेते मनुष्येन्द्रे भार्यास्य भृशदुःखिता // 17 यथोक्तमेव तद्वाक्यं भद्रा पुत्रार्थिनी तदा // 32 अपुत्रा पुरुषव्याघ्र विललापेति नः श्रुतम् / सा तेन सुषुवे देवी शवेन मनुजाधिप / भद्रा परमदुःखार्ता तन्निबोध नराधिप // 18 त्रीशाल्वांश्चतुरो मद्रान्सुतान्भरतसत्तम // 33 नारी परमधर्मज्ञ सर्वा पुत्रविनाकृता। तथा त्वमपि मय्येन मनसा भरतर्षभ / पतिं विना जीवति या न सा जीवति दुःखिता॥१९ शक्तो जनयितुं पुत्रांस्तपोयोगबलान्वयात् // 34 पतिं विना मृतं श्रेयो नार्याः क्षत्रियपुंगव / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि त्वद्गतिं गन्तुमिच्छामि प्रसीदस्व नयस्व माम् // 20 द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः // 112 // त्वया हीना क्षणमपि नाहं जीवितुमुत्सहे / . 113 प्रसादं कुरु मे राजन्नितस्तूर्णं नयस्व माम् // 21 वैशंपायन उवाच। पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि समेषु विषमेषु च / एवमुक्तस्तया राजा तां देवीं पुनरब्रवीत् / त्वामहं नरशार्दूल गच्छन्तमनिवर्तिनम् / / 22 / धर्मविद्धर्मसंयुक्तमिदं वचनमुत्तमम् // 1 छायेवानपगा राजन्सततं वशवर्तिनी। एवमेतत्पुरा कुन्ति व्युषिताश्वश्चकार ह। भविष्यामि नरव्याघ्र नित्यं प्रियहिते रता // 23 यथा त्वयोक्तं कल्याणि स ह्यासीदमरोपमः // 2 अद्यप्रभृति मां राजन्कष्टा हृदयशोषणाः / अथ त्विमं प्रवक्ष्यामि धर्मं त्वेतं निबोध मे। आधयोऽभिभविष्यन्ति त्वदृते पुष्करेक्षण // 24 पुराणमृषिभिर्दृष्टं धर्मविद्भिर्महात्मभिः // 3 अभाग्यया मया नूनं वियुक्ताः सहचारिणः / अनावृताः किल पुरा स्त्रिय आसन्वरानने / संयोगा विप्रयुक्ता वा पूर्वदेहेषु पार्थिव // 25 / कामचारविहारिण्यः स्वतत्राश्चारुलोचने // 4 - 164
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________________ 1. 113. 5] आदिपर्व [1. 113. 33 तासां व्युच्चरमाणानां कौमारात्सुभगे पतीन् / | न करिष्यति तस्याश्च भविष्यत्येतदेव हि // 19 नाधर्मोऽभूद्वरारोहे स हि धर्मः पुराभवत् // 5 इति तेन पुरा भीरु मर्यादा स्थापिता बलात् / तं चैव धर्म पौराणं तिर्यग्योनिगताः प्रजाः / उद्दालकस्य पुत्रेण धा वै श्वेतकेतुना / / 20 अद्याप्यनुविधीयन्ते कामद्वेषविवर्जिताः / सौदासेन च रम्भोरु नियुक्तापत्यजन्मनि / पुराणदृष्टो धर्मोऽयं पूज्यते च महर्षिभिः॥ 6 मदयन्ती जगामर्षि वसिष्ठमिति नः श्रुतम् // 21 उत्तरेषु च रम्भोरु कुरुष्वद्यापि वर्तते / तस्माल्लभे च सा पुत्रमश्मकं नाम भामिनी / स्त्रीणामनुग्रहकरः स हि धर्मः सनातनः // 7 भार्या कल्माषपादस्य भर्तुः प्रियचिकीर्षया / / 22 अस्मिंस्तु लोके नचिरान्मर्यादेयं शुचिस्मिते। अस्माकमपि ते जन्म विदितं कमलेक्षणे / स्थापिता येन यस्माच्च तन्मे विस्तरतः शृणु // 8 कृष्णद्वैपायनाद्भीरु कुरूणां वंशवृद्धये // 23 बभूवोद्दालको नाम महर्षिरिति नः श्रुतम् / अत एतानि सर्वाणि कारणानि समीक्ष्य वै / श्वेतकेतुरिति ख्यातः पुत्रस्तस्याभवन्मुनिः // 9 ममैतद्वचनं धयं कर्तुमर्हस्यनिन्दिते // 24 मर्यादेयं कृता तेन मानुषेष्विति नः श्रुतम् / ऋतावृतो राजपुत्रि स्त्रिया भर्ता यतव्रते। कोपात्कमलपत्राक्षि यदर्थं तन्निबोध मे / / 10 नातिवर्तव्य इत्येवं धर्मं धर्मविदो विदुः // 25 श्वेतकेतोः किल पुरा समक्षं मातरं पितुः / शेषेष्यन्येषु कालेषु स्वातत्रयं स्त्री किलार्हति / जग्राह ब्राह्मणः पाणौ गच्छाव इति चाब्रवीत्।।११ धर्ममेतं जनाः सन्तः पुराणं परिचक्षते 26 ऋषिपुत्रस्ततः कोपं चकारामर्षितस्तदा / भर्ता भार्यां राजपुत्रि धर्म्य वाधर्म्यमेव वा / मातरं तां तथा दृष्ट्वा नीयमानां बलादिव // 12 यद्यात्तत्तथा कार्यमिति धर्मविदो विदुः // 27 क्रुद्धं तं तु पिता दृष्ट्वा श्वेतकेतुमुवाच ह। विशेषतः पुत्रगृद्धी हीनः प्रजननात्स्वयम् / मा तात कोपं कास्त्विमेष धर्मः सनातनः // 13 यथाहमनवद्याङ्गि पुत्रदर्शनलालसः // 28 अनावृता हि सर्वेषां वर्णानामङ्गना भुवि / तथा रक्ताङ्गुलितलः पद्मपत्रनिभः शुभे। यथा गावः स्थितास्तात स्वे स्वे वर्णे तथा प्रजाः।।१४ प्रसादार्थं मया तेऽयं शिरस्यभ्युद्यतोऽञ्जलिः // 29 ऋषिपुत्रोऽथ तं धर्मं श्वेतकेतुर्न चक्षमे / मन्नियोगात्सुकेशान्ते द्विजातेस्तपसाधिकात् / चकार चैव मर्यादामिमां स्त्रीपुंसयोर्भुवि // 15 पुत्रान्गुणसमायुक्तानुत्पादयितुमर्हसि / मानुषेषु महाभागे न त्वेवान्येषु जन्तुषु। त्वत्कृतेऽहं पृथुश्रोणि गच्छेयं पुत्रिणां गतिम् // 30 तदाप्रभृति मर्यादा स्थितेयमिति नः श्रुतम् // 16 एवमुक्ता ततः कुन्ती पाण्डं परपुरंजयम् / ब्युश्चरन्त्याः पतिं नार्या अद्यप्रभृति पातकम् / प्रत्युवाच वरारोहा भर्तुः प्रियहिते रता // 31 भ्रूणहत्याकृतं पापं भविष्यत्यसुखावहम् / / 17 पितृवेश्मन्यहं बाला नियुक्तातिथिपूजने / भार्या तथा व्युञ्चरतः कौमारी ब्रह्मचारिणीम्। उग्रं पर्यचरं तत्र ब्राह्मणं संशितव्रतम् // 32 पतिव्रतामेतदेव भविता पातकं भुवि // 18 निगूढनिश्चयं धर्मे यं तं दुर्वाससं विदुः / या नियुक्ता या चैव पत्न्यपत्यार्थमेव च। तमहं संशितात्मानं सर्वयत्नैरतोषयम् // 33 - 165 -
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________________ 1. 113. 34 ] महाभारते [1. 114. 17 स मेऽभिचारसंयुक्तमाचष्ट भगवान्वरम् / संगम्य सा तु धर्मेण योगमूर्तिधरेण वै।' मत्रग्रामं च मे प्रादादब्रवीच्चैव मामिदम् // 34 लेभे पुत्रं वरारोहा सर्वप्राणभृतां वरम् // 3 . यं यं देवं त्वमेतेन मत्रेणावाहयिष्यसि / ऐन्द्रे चन्द्रसमायुक्ते मुहूर्तेऽभिजितेऽष्टमे / अकामो वा सकामो वा स ते वशमुपैष्यति // 35 / दिवा मध्यगते सूर्ये तिथौ पुण्येऽभिपूजिते // 4 इत्युक्ताहं तदा तेन पितृवेश्मनि भारत / समृद्धयशसं कुन्ती सुषाव समये सुतम् / / ब्राह्मणेन वचस्तथ्यं तस्य कालोऽयमागतः // 36 जातमात्रे सुते तस्मिन्वागुवाचाशरीरिणी // 5 अनुज्ञाता त्वया देवमाह्वयेयमहं नृप। एष धर्मभृतां श्रेष्ठो भविष्यति न संशयः / तेन मत्रेण राजर्षे यथा स्यान्नौ प्रजा विभो // 37 युधिष्ठिर इति ख्यातः पाण्डोः प्रथमजः सुतः // 6 आवाहयामि कं देवं ब्रूहि तत्त्वविदां वर / भविता प्रथितो राजा त्रिषु लोकेषु विश्रुतः / त्वत्तोऽनुज्ञाप्रतीक्षां मां विद्धयस्मिन्कर्मणि स्थिताम् // यशसा तेजसा चैव वृत्तेन च समन्वितः // 7 पाण्डुरुवाच। धार्मिकं तं सुतं लब्ध्वा पाण्डुस्तां पुनरब्रवीत् / अद्यैव त्वं वरारोहे प्रयतस्व यथाविधि / प्राहुः क्षत्रं बलज्येष्ठं बलज्येष्ठं सुतं वृणु // 8 धर्ममावाहय शुभे स हि देवेषु पुण्यभाक् / / 39 ततस्तथोक्ता पत्या तु वायुमेवाजुहाव सा। अधर्मेण न नो धर्मः संयुज्येत कथंचन / तस्माज्जज्ञे महाबाहुर्रमो भीमपराक्रमः // 9 लोकश्चायं वरारोहे धर्मोऽयमिति मंस्यते // 40 तमप्यतिबलं जातं वागभ्यवददच्युतम् / धार्मिकश्च कुरूणां स भविष्यति न संशयः / सर्वेषां बलिनां श्रेष्ठो जातोऽयमिति भारत // 10 दत्तस्यापि च धर्मेण नाधर्मे रंस्यते मनः // 41 इदमत्यद्भुतं चासीजातमात्रे वृकोदरे / तस्माद्धर्मं पुरस्कृत्य नियता त्वं शुचिस्मिते / यदकात्पतितो मातुः शिलां गात्रैरचूर्णयत् // 11 उपचाराभिचाराभ्यां धर्ममाराधयस्व वै॥ 42 कुन्ती व्याघ्रभयोद्विग्ना सहसोत्पतिता किल / वैशंपायन उवाच / नान्वबुध्यत संसुप्तमुत्सङ्गे स्वे वृकोदरम् // 12 सा तथोक्ता तथेत्युक्त्वा तेन भ; वराङ्गना / ततः स वज्रसंघातः कुमारोऽभ्यपतद्गिरौ / अभिवाद्याभ्यनुज्ञाता प्रदक्षिणमवर्तत // 43 पतता तेन शतधा शिला गात्रैर्विचूर्णिता। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तां शिलां चूर्णितां दृष्ट्वा पाण्डुर्विस्मयमागमत् // 13 त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 1.13 // यस्मिन्नहनि भीमस्तु जज्ञे भरतसत्तम / दुर्योधनोऽपि तत्रैव प्रजज्ञे वसुधाधिप // 14 वैशंपायन उवाच / जाते वृकोदरे पाण्डुरिदं भूयोऽन्वचिन्तयत् / संवत्सराहिते गर्भे गान्धार्या जनमेजय / कथं नु मे वरः पुत्रो लोकश्रेष्ठो भवेदिति // 15 आह्वयामास वै कुन्ती गर्भार्थं धर्ममच्युतम् // 1 / दैवे पुरुषकारे च लोकोऽयं हि प्रतिष्ठितः / सा बलिं त्वरिता देवी धर्मायोपजहार ह। तत्र दैवं तु विधिना कालयुक्तेन लभ्यते // 16 जजाप जप्यं विधिवद्दत्तं दुर्वाससा पुरा // 2 इन्द्रो हि राजा देवानां प्रधान इति नः श्रुतम् / -166
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________________ 1. 114. 17] आदिपर्व [1. 114. 45 अप्रमेयबलोत्साहो वीर्यवानमितद्युतिः // 17 एतस्य भुजवीर्येण खाण्डवे हव्यवाहनः / तं तोषयित्वा तपसा पुत्रं लप्स्ये महाबलम् / मेदसा सर्वभूतानां तृप्तिं यास्यति वै पराम् // 32 यं दास्यति स मे पुत्रं स वरीयान्भविष्यति / ग्रामणीश्च महीपालानेष जित्वा महाबलः / कर्मणा मनसा वाचा तस्मात्तप्स्ये महत्तपः // 18 भ्रातृभिः सहितो वीरस्त्रीन्मेधानाहरिष्यति // 33 ततः पाण्डुमहातेजा मन्त्रयित्वा महर्षिभिः / जामदग्न्यसमः कुन्ति विष्णुतुल्यपराक्रमः / दिदेश कुन्त्याः कौरव्यो व्रतं सांवत्सरं शुभम् / / 19 एष वीर्यवतां श्रेष्ठो भविष्यत्यपराजितः // 34 आत्मना च महाबाहुरेकपादस्थितोऽभवत् / तथा दिव्यानि चास्त्राणि निखिलान्याहरिष्यति / उग्रं स तप आतस्थे परमेण समाधिना // 20 विप्रनष्टां श्रियं चायमाहर्ता पुरुषर्षभः // 35 आरिराधयिषर्देवं त्रिदशानां तमीश्वरम् / एतामत्यद्भुतां वाचं कुन्तीपुत्रस्य सूतके / सूर्येण सह धर्मात्मा पर्यवर्तत भारत // 21 / उक्तवान्वायुराकाशे कुन्ती शुश्राव चास्य ताम् // 36 तं तु कालेन महता वासवः प्रत्यभाषत / वाचमुच्चारितामुच्चैस्तां निशम्य तपस्विनाम् / पुत्रं तव प्रदास्यामि त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् // 22 बभूव परमो हर्षः शतशृङ्गनिवासिनाम् // 37 देवानां ब्राह्मणानां च सुहृदां चार्थसाधकम् / तथा देवऋषीणां च सेन्द्राणां च दिवौकसाम् / सुतं तेऽग्यं प्रदास्यामि सर्वामित्रविनाशनम् // 23 आकाशे दुन्दुभीनां च बभूव तुमुलः स्वनः // 38 इत्युक्तः कौरवो राजा वासवेन महात्मना / उदतिष्ठन्महाघोषः पुष्पवृष्टिभिरावृतः / उवाच कुन्ती धर्मात्मा देवराजवचः स्मरन् / / 24 समवेत्य च देवानां गणाः पार्थमपूजयन् // 39 नीतिमन्तं महात्मानमादित्यसमतेजसम् / काद्रवेया वैनतेया गन्धर्वाप्सरसस्तथा। दुराधर्ष क्रियावन्तमतीवाद्भुतदर्शनम् / / 25 प्रजानां पतयः सर्वे सप्त चैव महर्षयः // 40 पुत्रं जनय सुश्रोणि धाम क्षत्रियतेजसाम् / भरद्वाजः कश्यपो गौतमश्च लब्धः प्रसादो देवेन्द्रात्तमाह्वय शुचिस्मिते / / 26 विश्वामित्रो जमदग्निर्वसिष्ठः / एवमुक्ता ततः शक्रमाजुहाव यशस्विनी / - यश्चोदितो भास्करेऽभूत्प्रनष्टे अथाजगाम देवेन्द्रो जनयामास चार्जुनम् // 27 सोऽप्यत्रात्रिभंगवानाजगाम // 41 जातमात्रे कुमारे तु वागुवाचाशरीरिणी / मरीचिरङ्गिराश्चैव पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः / महागम्भीरनिर्घोषा नभो नादयती तदा // 28 दक्षः प्रजापतिश्चैव गन्धर्वाप्सरसस्तथा // 42 कार्तवीर्यसमः कुन्ति शिवितुल्यपराक्रमः / दिव्यमाल्याम्बरधराः सर्वालंकारभूषिताः / एष शक्र इवाजेयो यशस्ते प्रथयिष्यति // 29 उपगायन्ति बीभत्सुमुपनृत्यन्ति चाप्सराः / बदित्या विष्णुना प्रीतियथाभूदभिवर्धिता / गन्धर्वैः सहितः श्रीमान्प्रागायत च तुम्बुरुः // 43 तथा विष्णुसमः प्रीतिं वर्धयिष्यति तेऽर्जुनः // 30 भीमसेनोग्रसेनौ च ऊर्णायुरनघस्तथा। एष मद्रान्वशे कृत्वा कुरूंश्च सह केकयैः।। गोपतिधृतराष्ट्रश्च सूर्यवर्चाश्च सप्तमः // 44 वेदिकाशिकरूषांश्च कुरुलक्ष्म सुधास्यति // 31 / युगपस्तृणपः काणिर्नन्दिश्चित्ररथस्तथा। -167 यारो Saine
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________________ 1. 114. 45 ] महाभारते [1. 115.6 त्रयोदशः शालिशिराः पर्जन्यश्च चतुर्दशः // 45 कर्कोटकोऽथ शेषश्च वासुकिश्च भुजंगमः / कलिः पञ्चदशश्चात्र नारदश्चैव षोडशः / कच्छपश्चापकुण्डश्च तक्षकश्च महोरगः // 60 सद्वा बृहद्वा बृहकः करालश्च महायशाः / / 46 आययुस्तेजसा युक्ता महाक्रोधा महाबलाः / ब्रह्मचारी बहुगुणः सुपर्णश्चेति विश्रुतः / एते चान्ये च बहवस्तत्र नागा व्यवस्थिताः // 61 विश्वावसु मन्युश्च सुचन्द्रो दशमस्तथा // 47 ताय॑श्चारिष्टनेमिश्च गरुडश्चासितध्वजः। गीतमाधुर्यसंपन्नौ विख्यातौ च हहाहुहू। अरुणश्चारुणिश्चैव वैनतेया व्यवस्थिताः // 62 इत्येते देवगन्धर्वा जगुस्तत्र नरर्षभम् // 48 तदृष्ट्वा महदाश्चर्यं विस्मिता मुनिसत्तमाः। तथैवाप्सरसो हृष्टाः सर्वालंकारभूषिताः। अधिकां स्म ततो वृत्तिमवर्तन्पाण्डवान्प्रति // 63 नन्तर्वै महाभागा जगुश्चायतलोचनाः॥ 49 पाण्डुस्तु पुनरेवैनां पुत्रलोभान्महायशाः / अनूना चानवद्या च प्रियमुख्या गुणावरा / प्राहिणोद्दर्शनीयाङ्गी कुन्ती त्वेनमथाब्रवीत् // 64 अद्रिका च तथा साची मिश्रकेशी अलंबुसा // 50 नातश्चतुर्थं प्रसवमापत्स्वपि वदन्त्युत / मरीचिः शुचिका चैव विद्युत्पर्णा तिलोत्तमा। अतः परं चारिणी स्यात्पञ्चमे बन्धकी भवेत्॥६५ अग्निका लक्षणा क्षेमा देवी रम्भा मनोरमा // 51 स त्वं विद्वन्धर्ममिमं बुद्धिगम्यं कथं नु माम् / असिता च सुबाहुश्च सुप्रिया सुवपुस्तथा / अपत्यार्थं समुत्क्रम्य प्रमादादिव भाषसे // 66 पुण्डरीका सुगन्धा च सुरथा च प्रमाथिनी / / 52 / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि काम्या शारद्वती चैव ननृतस्तत्र संघशः / चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः // 114 // मेनका सहजन्या च पर्णिका पुञ्जिकस्थला // 53 , 115 क्रतुस्थला घृताची च विश्वाची पूर्वचित्त्यपि / वैशंपायन उवाच / उम्लोचेत्यभिविख्याता प्रम्लोचेति च ता दश / कुन्तीपुत्रेषु जातेषु धृतराष्ट्रात्मजेषु च / उर्वश्येकादशीत्येता जगुरायतलोचनाः // 54 मद्रराजसुता पाण्डे रहो वचनमब्रवीत् // 1 // धातार्यमा च मित्रश्च वरुणोंऽशो भगस्तथा। न मेऽस्ति त्वयि संतापो विगुणेऽपि परंतप / इन्द्रो विवस्वान्पूषा च त्वष्टा च सविता तथा॥ 55 नावरत्वे वराहा॑याः स्थित्वा चानघ नित्यदा // 2 पर्जन्यश्चैव विष्णुश्च आदित्याः पावकार्चिषः / गान्धार्याश्चैव नृपते जातं पुत्रशतं तथा। महिमानं पाण्डवस्य वर्धयन्तोऽम्बरे स्थिताः // 56 श्रुत्वा न मे तथा दुःखमभवत्कुरुनन्दन // 3 मृगव्याधश्च शर्वश्च निऋतिश्च महायशाः / इदं तु मे महहुःखं तुल्यतायामपुत्रता / अजैकपादहिर्बुध्न्यः पिनाकी च परंतपः // 57 दिष्ट्या त्विदानी भतुर्मे कुन्त्यामप्यस्ति संततिः।। 4 दहनोऽथेश्वरश्चैव कपाली च विशां पते। यदि त्वपत्यसंतानं कुन्तिराजसुता मयि / स्थाणुर्भवश्व भगवान्रुद्रास्तत्रावत स्थिरे / / 58 कुर्यादनुग्रहो मे स्यात्तव चापि हितं भवेत् // 5 अश्विनी वसवश्वाष्टौ मस्तश्च महाबलाः। स्तम्भो हि मे सपत्नीत्वाद्वक्तुं कुन्तिसुतां प्रति / विश्वेदेवास्तथा साध्यास्तत्रासन्परिसंस्थिताः // 59 यदि तु त्वं प्रसन्नो मे स्वयमेनां प्रचोदय // 6 - 168 -
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________________ 1. 115.7] आदिपर्व [1. 116.4 पाण्डुरुवाच। पूर्वजं नकुलेत्येवं सहदेवेति चापरम् / ममाप्येष सदा माद्रि हृद्यर्थः परिवर्तते। माद्रीपुत्रावकथयंस्ते विप्राः प्रीतमानसाः / न तु त्वां प्रसहे वक्तुमिष्टानिष्टविवक्षया / / 7 अनुसंवत्सरं जाता अपि ते कुरुसत्तमाः // 21 तव त्विदं मतं ज्ञात्वा प्रयतिष्याम्यतः परम् / कुन्तीमथ पुनः पाण्डुर्माद्यर्थे समचोदयत् / मन्ये ध्रुवं मयोक्ता सा वचो मे प्रतिपत्स्यते // 8 तमुवाच पृथा राजरहस्युक्ता सती सदा // 22 वैशंपायन उवाच / उक्ता सकृद्वन्द्वमेषा लेभे तेनास्मि वञ्चिता। ततः कुन्तीं पुनः पाण्डुर्विविक्त इदमब्रवीत्। बिभेम्यस्याः परिभवान्नारीणां गतिरीदृशी // 23 कुलस्य मम संतानं लोकस्य च कुरु प्रियम् // 9 नाज्ञासिषमहं मूढा द्वन्द्वाह्वाने फलद्वयम् / मम चापिण्डनाशाय पूर्वेषामपि चात्मनः / तस्मान्नाहं नियोक्तव्या त्वयैषोऽस्तु वरो मम // 24 मत्प्रियार्थं च कल्याणि कुंरु कल्याणमुत्तमम् // 10 एवं पाण्डोः सुताः पश्च देवदत्ता महाबलाः / यशसोऽर्थाय चैव त्वं कुरु कर्म सुदुष्करम् / संभूताः कीर्तिमन्तस्ते कुरुवंशविवर्धनाः // 25 प्राप्याधिपत्यमिन्द्रेण यज्ञैरिष्टं यशोर्थिना // 11 शुभलक्षणसंपन्नाः सोमवत्प्रियदर्शनाः / तथा मन्त्रविदो विप्रास्तपस्तप्त्वा सुदुष्करम् / सिंहदर्पा महेष्वासाः सिंहविक्रान्तगामिनः / गुरूनभ्युपगच्छन्ति यशसोऽर्थाय भामिनि // 12 सिंहग्रीवा मनुष्येन्द्रा ववृधुर्देवविक्रमाः / / 26 तथा राजर्षयः सर्वे ब्राह्मणाश्च तपोधनाः। विवर्धमानास्ते तत्र पुण्ये हैमवते गिरौ। चक्रुरुच्चावचं कर्म यशसोऽर्थाय दुष्करम् // 13 विस्मयं जनयामासुमहर्षीणां समेयुषाम् // 27 सा त्वं माद्री प्लवेनेव तारयेमामनिन्दिते / ते च पञ्च शतं चैव कुरुवंशविवर्धनाः / अपत्यसंविभागेन परां कीर्तिमवाप्नुहि // 14 सर्वे ववृधुरल्पेन कालेनाप्स्विव नीरजाः // 28 एवमुक्ताब्रवीन्माद्रीं सकृञ्चिन्तय दैवतम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तस्मात्ते भवितापत्यमनुरूपमसंशयम् // 15 पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 115 // वतो माद्री विचार्यैव जगाम मनसाश्विनौ / तावागम्य सुतौ तस्यां जनयामासतुर्यमौ / / 16 वैशंपायन उवाच / नकुलं सहदेवं च रूपेणाप्रतिमा भुवि। दर्शनीयांस्ततः पुत्रान्पाण्डुः पञ्च महावने / तथैव तावपि यमौ वागुवाचाशरीरिणी / / 17 तान्पश्यन्पर्वते रेमे स्वबाहुबलपालितान् // 1 रूपसत्त्वगुणोपेतावेतावन्याञ्जनानति / सुपुष्पितवने काले कदाचिन्मधुमाधवे / भासतस्तेजसात्यर्थं रूपद्रविणसंपदा // 18 भूतसंमोहने राजा सभार्यो व्यचरद्वनम् / / 2 नामानि चक्रिरे तेषां शतशृङ्गनिवासिनः / पलाशैस्तिलकैचूतैश्चम्पकैः पारिभद्रकैः / . भक्त्या च कर्मणा चैव तथाशीभिर्विशां पते // 19 / अन्यैश्च बहुभिवृक्षैः फलपुष्पसमृद्धिभिः // 3 ज्येष्ठं युधिष्ठिरेत्याहुीमसेनेति मध्यमम् / जलस्थानैश्च विविधैः पद्मिनीभिश्च शोभितम् / अर्जुनेति तृतीयं च कुन्तीपुत्रानकल्पयन् / / 20 / पाण्डोर्वनं तु संप्रेक्ष्य प्रजज्ञे हृदि मन्मथः // 4 म. भा. 22 - 169 -
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________________ 1. 116. 5] महाभारते . [1. 116. 31 प्रहृष्टमनसं तत्र विहरन्तं यथामरम् / कथं दीनस्य सततं त्वामासाद्य रहोगताम् / तं मायनुजगामैका वसनं बिभ्रती शुभम् // 5 तं विचिन्तयतः शापं प्रहर्षः समजायत // 20 समीक्षमाणः स तु तां वयःस्थां तनुवाससम् / धन्या त्वमसि बाह्रीकि मत्तो भाग्यतरा तथा। तस्य कामः प्रववृधे गहनेऽग्निरिवोत्थितः // 6 दृष्टवत्यसि यद्वक्त्रं प्रहृष्टस्य महीपतेः // 21 . रहस्यात्मसमां दृष्ट्वा राजा राजीवलोचनाम् / माधुवाच / न शशाक नियन्तुं तं कामं कामबलात्कृतः॥ 7 विलोभ्यमानेन मया वार्यमाणेन चासकृत् / तत एनां बलाद्राज्ञा निजग्राह रहोगताम् / आत्मा न वारितोऽनेन सत्यं दिष्ट चिकीर्षुणा॥२२ वार्यमाणस्तया देव्या विस्फुरन्त्या यथाबलम् // 8 कुन्त्युवाच / स तु कामपरीतात्मा तं शापं नान्वबुध्यत / अहं ज्येष्ठा धर्मपत्नी ज्येष्ठं धर्मफलं मम / माद्री मैथुनधर्मेण गच्छमानो बलादिव / / 9 अवश्यं भाविनो भावान्मा मां माद्रि निवर्तय // 23 जीवितान्ताय कौरव्यो मन्मथस्य वशं गतः। अन्वेष्यामीह भर्तारमहं प्रेतवशं गतम् / शापजं भयमुत्सृज्य जगामैव बलात्प्रियाम् // 10 उत्तिष्ठ त्वं विसृज्यैनमिमान्रक्षस्व दारकान् // 24 तस्य कामात्मनो बुद्धिः साक्षात्कालेन मोहिता। माधुवाच / संप्रमथ्येन्द्रियग्रामं प्रनष्टा सह चेतसा // 11 अहमेवानुयास्यामि भर्तारमपलायिनम् / स तया सह संगम्य भार्यया कुरुनन्दन / न हि तृप्तास्मि कामानां तज्येष्ठा अनुमन्यताम्॥२५ पाण्डुः परमधर्मात्मा युयुजे कालधर्मणा // 12 मां चाभिगम्य क्षीणोऽयं कामाद्भरतसत्तमः / ततो माद्री समालिङ्गय राजानं गतचेतसम्।। तमुच्छिन्द्यामस्य कामं कथं नु यमसादने // 26 मुमोच दुःखजं शब्दं पुनः पुनरतीव ह // 13 न चाप्यहं वर्तयन्ती निर्विशेषं सुतेषु ते। सह पुत्रैस्ततः कुन्ती माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ। वृत्तिमार्ये चरिष्यामि स्पृशेदेनस्तथा हि माम् // 27 आजग्मुः सहितास्तत्र यत्र राजा तथागतः // 14 तस्मान्मे सुतयोः कुन्ति वर्तितव्यं स्वपुत्रवत् / ततो भायब्रवीद्राजन्नार्जा कुन्तीमिदं वचः। मां हि कामयमानोऽयं राजा प्रेतवशं गतः // 28 एकैव त्वमिहागच्छ तिष्ठन्त्वत्रैव दारकाः // 15 राज्ञः शरीरेण सह ममापीदं कलेवरम् / तच्छ्रुत्वा वचनं तस्यास्तत्रैवावार्य दारकान् / दग्धव्यं सुप्रतिच्छन्नमेतदायें प्रियं कुरु // 29 हताहमिति विक्रुश्य सहसोपजगाम ह // 16 दारकेष्वप्रमत्ता च भवेथाश्च हिता मम / दृष्ट्वा पाण्डं च माद्रीं च शयानौ धरणीतले / अतोऽन्यन्न प्रपश्यामि संदेष्टव्यं हि किंचन // 30 कुन्ती शोकपरीताङ्गी विललाप सुदुःखिता // 17 वैशंपायन उवाच। रक्ष्यमाणो मया नित्यं वीरः सततमात्मवान् / इत्युक्त्वा तं चिताग्निस्थं धर्मपत्नी नरर्षभम् / कथं त्वमभ्यतिक्रान्तः शापं जानन्वनौकसः // 18 / मद्रराजात्मजा तूर्णमन्वारोहद्यशस्विनी // 31 ननु नाम त्वया माद्रि रक्षितव्यो जनाधिपः। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सा कथं लोभितवती विजने त्वं नराधिपम् // 19 / षोडशाधिकशततमोऽध्यायः // 116 // - 170 -
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________________ 1. 117. 1] आदिपर्व [1. 117. 29 वैशंपायन उवाच / पाण्डोरवभृथं कृत्वा देवकल्पा महर्षयः। ततो मत्रमकुर्वन्त ते समेत्य तपस्विनः // 1 हित्वा राज्यं च राष्ट्रं च स महात्मा महातपाः / अस्मिन्स्थाने तपस्ततुं तापसाशरणं गतः / / 2 स जातमात्रान्पुत्रांश्च दारांश्च भवतामिह / प्रदायोपनिधिं राजा पाण्डुः स्वर्गमितो गतः / / 3. ते परस्परमामय सर्वभूतहिते रताः। पाण्डोः पुत्रान्पुरस्कृत्य नगरं नागसाह्वयम् // 4 उदारमनसः सिद्धा गमने चक्रिरे मनः / भीष्माय पाण्डवान्दातुं धृतराष्ट्राय चैव हि // 5 तस्मिन्नेव क्षणे सर्वे तानादाय प्रतस्थिरे / पाण्डोरांश्च पुत्रांश्च शरीरं चैव तापसाः // 6 सुखिनी सा पुरा भूत्वा सततं पुत्रवत्सला / प्रपन्ना दीर्घमध्वानं संक्षितं तदमन्यत // 7 सा नदीपेण कालेन संप्राप्ता कुरुजाङ्गलम् / वर्धमानपुरद्वारमाससाद यशस्विनी / / 8 सं चारणसहस्राणां मुनीनामागमं तदा / श्रुत्वा नागपुरे नृणां विस्मयः समजायत // 9 मुहूर्तोदित आदित्ये सर्प धर्मपुरस्कृताः। सदारास्तापसान्द्रष्टं निययुः पुरवासिनः // 10 श्रीसंघाः क्षत्रसंघाश्च यानसंघान्समास्थिताः / ब्राह्मणैः सह निर्जग्मुर्ब्राह्मणानां च योपितः // 11 स्था विट्शूद्रसंघानां महान्व्यतिकरोऽभवत् / म कश्चिदकरोदामभवन्धर्मबुद्धयः // 12 ख्या भीष्मः शांतनवः सोमदत्तोऽथ बाह्निकः / मनाचक्षुश्च राजर्षिः क्षत्ता च विदुरः स्वयम् // 13 सा च सत्यवती देवी कौसल्या च यशस्विनी। जदारैः परिवृता गान्धारी च विनिर्ययौ // 14 धृतराष्ट्रस्य दायादा दुर्योधनपुरोगमाः / भूषिता भूषणैश्चित्रैः शतसंख्या विनिर्ययुः // 15 तान्महर्षिगणान्सर्वाशिरोभिरभिवाद्य च / उपोपविविशुः सर्वे कौरव्याः सपुरोहिताः // 16 तथैव शिरसा भूमावभिवाद्य प्रणम्य च। उपोपविविशुः सर्वे पौरजानपदा अपि // 17 तमकूजमिवाज्ञाय जनौघं सर्वशस्तदा / भीष्मो राज्यं च राष्ट्रं च मर्षिभ्यो न्यवेदयत् // 18 तेषामथो वृद्धतमः प्रत्युत्थाय जटाजिनी / महर्षिमतमाज्ञाय महर्षिरिदमब्रवीत् / / 19 यः स कौरव्यदायादः पाण्डुर्नाम नराधिपः / कामभोगान्परित्यज्य शतशृङ्गमितो गतः // 20 ब्रह्मचर्यव्रतस्थस्य तस्य दिव्येन हेतुना। साक्षाद्धर्मादयं पुत्रस्तस्य जातो युधिष्ठिरः // 21 तथेमं बलिनां श्रेष्ठं तस्य राज्ञो महात्मनः / मातरिश्वा ददौ पुत्रं भीमं नाम महाबलम् // 22 पुरुहूतादयं जज्ञे कुन्त्यां सत्यपराक्रमः / यस्य कीर्तिर्महेष्वासान्सर्वानभिभविष्यति // 23 यौ तु माद्री महेष्वासावसूत कुरुसत्तमौ / अश्विभ्यां मनुजव्याघ्राविमौ तावपि तिष्ठतः // 24 चरता धर्मनित्येन वनवासं यशस्विना / एष पैतामहो वंशः पाण्डुना पुनरुद्धृतः / / 25 पुत्राणां जन्म वृद्धिं च वैदिकाध्ययनानि च / पश्यतः सततं पाण्डोः शश्वत्प्रीतिरवर्धत / / 26 . वर्तमानः सतां वृत्ते पुत्रलाभमवाप्य च। पितृलोकं गतः पाण्डुरितः सप्तदशेऽहनि / / 27 तं चितागतमाज्ञाय वैश्वानरमुखे हुतम् / प्रविष्टा पावकं माद्री हित्वा जीवितमात्मनः // 28 सा गता सह तेनैव पतिलोकमनुव्रता / तस्यास्तस्य च यत्कार्य क्रियतां तदनन्तरम् // 29 - 171 -
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________________ 1. 117. 30] महाभारते [1. 118. 22 इमे तयोः शरीरे द्वे सुताश्चेमे तयोर्वराः / अवहन्यानमुख्येन सह माया सुसंवृतम् // 9 क्रियाभिरनुगृह्यन्तां सह मात्रा परंतपाः // 30 पाण्डुरेणातपत्रेण चामरव्यजनेन च / प्रेतकार्ये च निवृत्ते पितृमेधं महायशाः / सर्ववादित्रनादैश्च समलंचक्रिरे ततः // 10 लभतां सर्वधर्मज्ञः पाण्डुः कुरुकुलोद्वहः / / 31 रत्नानि चाप्युपादाय बहूनि शतशो नराः। एवमुक्त्वा कुरून्सर्वान्कुरूणामेव पश्यताम् / / प्रददुः काडमाणेभ्यः पाण्डोस्तत्रौर्ध्वदेहिकम् // 11 क्षणेनान्तर्हिताः सर्वे चारणा गुह्यकैः सह / / 32 अथ छत्राणि शुभ्राणि पाण्डुराणि बृहन्ति च / गन्धर्वनगराकारं तत्रैवान्तर्हितं पुनः / आजद्दुः कौरवस्यार्थे वासांसि रुचिराणि च // 12 ऋषिसिद्धगणं दृष्ट्वा विस्मयं ते परं ययुः // 33 याजकैः शुक्लवासोभिहूयमाना हुताशनाः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अगच्छन्नग्रतस्तस्य दीप्यमानाः स्वलंकृताः / / 13 सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 117 // ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव सहस्रशः / रुदन्तः शोकसंतप्ता अनुजग्मुर्नराधिपम् // 14 धृतराष्ट्र उवाच। अयमस्मानपाहाय दुःखे चाधाय शाश्वते / पाण्डोर्विदुर सर्वाणि प्रेतकार्याणि कारय / कृत्वानाथान्परो नाथः क यास्यति नराधिपः॥१५ राजवद्राजसिंहस्य मायाश्चैव विशेषतः // 1 क्रोशन्तः पाण्डवाः सर्वे भीष्मो विदुर एव च। पशून्वासांसि रत्नानि धनानि विविधानि च / रमणीये वनोद्देशे गङ्गातीरे समे शुभे // 16 पाण्डोः प्रयच्छ माद्याश्च येभ्यो यावच्च वाञ्छितम 2 न्यासयामासुरथ तां शिबिकां सत्यवादिनः।। यथा च कुन्ती सत्कारं कुर्यान्मायास्तथा कुरु / सभार्यस्य नृसिंहस्य पाण्डोरक्लिष्टकर्मणः // 17 यथा न वायूर्नादित्यः पश्येतां तां सुसंवृताम // 3 ततस्तस्य शरीरं तत्सर्वगन्धनिषेवितम् / न शोच्यः पाण्डुरनघः प्रशस्यः स नराधिपः / शुचिकालीयकादिग्धं मुख्यस्नानाधिवासितम् / यस्य पश्च सुता वीरा जाताः सुरसुतोपमाः॥ 4 पर्यषिश्चञ्जलेनाशु शातकुम्भमयैर्घटैः // 18 वैशंपायन उवाच / चन्दनेन च मुख्येन शुक्लेन समलेपयन् / विदुरस्तं तथेत्युक्त्वा भीष्मेण सह भारत / कालागुरुविमिश्रेण तथा तुङ्गरसेन च // 19 पाण्डु संस्कारयामास देशे परमसंवृते / / 5 अथैनं देशजैः शुक्लैर्वासोभिः समयोजयन् / ततस्तु नगरात्तूर्णमाज्यहोमपुरस्कृताः / आच्छन्नः स तु वासोभिर्जीवन्निव नरर्षभः / निर्हताः पावका दीप्ताः पाण्डो राजपुरोहितैः // 6 शुशुभे पुरुषव्याघ्रो महार्ह शयनोचितः // 20 अथैनमार्तवैर्गन्धैर्माल्यैश्च विविधैर्वरैः। याजकैरभ्यनुज्ञातं प्रेतकर्मणि निष्ठितैः / शिबिकां समलंचक्रुर्वाससाच्छाद्य सर्वशः // 7 घृतावसिक्तं राजानं सह माद्या स्वलंकृतम् / / 21 तां तथा शोभितां माल्यैर्वासोभिश्च महाधनैः। तुङ्गपद्मकमिश्रेण चन्दनेन सुगन्धिना / अमात्या ज्ञातयश्चैव सुहृदयश्चोपतस्थिरे // 8 अन्यैश्च विविधैर्गन्धैरनल्पैः समदाहयन् // 22 नृसिंहं नरयुक्तेन परमालंकृतेन तम् / / | ततस्तयोः शरीरे ते दृष्ट्वा मोहवशं गता / - 172 -
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________________ 1. 118. 23 ] आदिपर्व [1. 119. 20 हा हा पुत्रेति कौसल्या पपात सहसा भुवि // 23 / श्वः श्वः पापीयदिवसाः पृथिवी गतयौवना // 6 तां प्रेक्ष्य पतितामाता पौरजानपदो जनः / बहुमायासमाकीर्णो नानादोषसमाकुलः / सरोद सस्वन सर्वां राजभक्त्या कृपान्वितः // 24 लुप्तधर्मक्रियाचारो घोरः कालो भविष्यति // 7 क्लान्तानीवार्तनादेन सर्वाणि च विचुक्रुशुः / गच्छ त्वं त्यागमास्थाय युक्ता वस तपोवने / मानुषैः सह भूतानि तिर्यग्योनिगतान्यपि // 25 मा द्रक्ष्यसि कुलस्यास्य घोरं संक्षयमात्मनः // 8 तथा भीष्मः शांतनवो विदुरश्च महामतिः।। तथेति समनुज्ञाय सा प्रविश्याब्रवीत्स्नुषाम् / सर्वशः कौरवाश्चैव प्राणदन्भृशदुःखिताः॥२६ अम्बिके तव पुत्रस्य दुर्नयात्किल भारताः / ततो भीष्मोऽथ विदुरो राजा च सह बन्धुभिः / सानुबन्धा विनयन्ति पौत्राश्चैवेति नः श्रुतम् // 9 उदकं चक्रिरे तस्य सर्वाश्च कुरुयोषितः // 27 तत्कौसल्यामिमामाता पुत्रशोकाभिपीडिताम् / कृतोदकांस्तानादाय पाण्डवाञ्शोककर्शितान्। वनमादाय भद्रं ते गच्छावो यदि मन्यसे // 10 सर्वाः प्रकृतयो राजशोचन्यः पर्यवारयन् // 28 तथेत्युक्ते अम्बिकया भीष्ममामत्रय सुव्रता / यथैव पाण्डवा भूमौ सुषुपुः सह बान्धवैः / वनं ययौ सत्यवती स्नुषाभ्यां सह भारत // 11 तथैव नागरा राजशिश्यिरे ब्राह्मणादयः // 29 ताः सुघोरं तपः कृत्वा देव्यो भरतसत्तम / तदनानन्दमस्वस्थमाकुमारमहृष्टवत् / देहं त्यक्त्वा महाराज गतिमिष्टां ययुस्तदा // 12 बभूव पाण्डवैः सार्धं नगरं द्वादश क्षपाः // 30 अवाप्नुवन्त वेदोक्तान्संस्कारान्पाण्डवास्तदा / * इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अवर्धन्त च भोगांस्ते भुञ्जानाः पितृवेश्मनि // 13 ____ अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः // 118 // धार्तराष्ट्रैश्च सहिताः क्रीडन्तः पितृवेश्मनि / बालक्रीडासु सर्वासु विशिष्टाः पाण्डवाभवन् // 14 वैशंपायन उवाच / जवे लक्ष्याभिहरणे भोज्ये पांसुविकर्षणे। ततः क्षत्ता च राजा च भीष्मश्च सह बन्धुभिः / | धार्तराष्ट्रान्भीमसेनः सर्वान्स परिमर्दति // 15 ददुः श्राद्धं तदा पाण्डोः स्वधामृतमयं तदा // 1 हर्षादेतान्क्रीडमानान्गृह्य काकनिलीयने / कुरूंश्च विप्रमुख्यांश्च भोजयित्वा सहस्रशः। शिरःसु च निगृह्मैनान्योधयामास पाण्डवाः // 16 रत्नौघान्द्विजमुख्येभ्यो दत्त्वा ग्रामवरानपि // 2 शतमेकोत्तरं तेषां कुमाराणां महौजसाम् / कृतशौचांस्ततस्तांस्तु पाण्डवान्भरतर्षभान् / एक एव विमृद्गाति नातिकृच्छ्राद्वृकोदरः // 17 आदाय विविशुः पौराः पुरं वारणसाह्वयम् // 3 पादेषु च निगृह्येनान्विनिहत्य बलाबली / सततं स्मान्वतप्यन्त तमेव भरतर्षभम् / चकर्ष क्रोशतो भूमौ घृष्टजानुशिरोक्षिकान् // 18 पौरजानपदाः सर्वे मृतं स्वमिव बान्धवम् / / 4 / दश बालाञ्जले क्रीडन्भुजाभ्यां परिगृह्य सः / श्राद्धावसाने तु तदा दृष्ट्वा तं दुःखितं जनम् / आस्ते स्म सलिले मग्नः प्रमृतांश्च विमुञ्चति // 19 संमूढां दुःखशोकार्ता व्यासो मातरमब्रवीत् // 5 फलानि वृक्षमारुह्य प्रचिन्वन्ति च ते यदा। अतिक्रान्तसुखाः कालाः प्रत्युपस्थितदारुणाः। तदा पादप्रहारेण भीमः कम्पयते द्रुमम् // 20 - 173 -
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________________ 1. 119. 21] महाभारते [1. 120. 4 प्रहारवेगाभिहताद्रुमाद्व्याघूर्णितास्ततः / ततः प्रबुद्धः कौन्तेयः सर्वं संछिद्य बन्धनम् / सफलाः प्रपतन्ति स्म द्रुतं स्रस्ताः कुमारकाः // 21 उदतिष्ठजलाद्भूयो भीमः प्रहरतां वरः // 35 न ते नियुद्धे न जवे न योग्यासु कदाचन। सुप्तं चापि पुनः सप॑स्तीक्ष्णदंष्ट्रैर्महाविषैः। कुमारा उत्तरं चक्रुः स्पर्धमाना वृकोदरम् // 22 कुपितैर्दशयामास सर्वेष्वेवाङ्गमर्मसु // 36 एवं स धार्तराष्ट्राणां स्पर्धमानो वृकोदरः / दंष्ट्राश्च दंष्ट्रिणां तेषां मर्मस्वपि निपातिताः / अप्रियेऽतिष्ठदत्यन्तं बाल्यान्न द्रोहचेतसा // 23 त्वचं नैवास्य विभिदुः सारत्वात्पृथुवक्षसः / / 37 ततो बलमतिख्यातं धार्तराष्ट्रः प्रतापवान् / प्रतिबुद्धस्तु भीमस्तान्सर्वान्सर्पानपोथयत्। . भीमसेनस्य तज्ज्ञात्वा दृष्टभावमदशयत् / / 24 सारथिं चास्य दयितमपहस्तेन जनिवान् / / 38 तस्य धर्मादपेतस्य पापानि परिपश्यतः / भोजने भीमसेनस्य पुनः प्राक्षेपयद्विषम् / / मोहादैश्वर्यलोभाच्च पापा मतिरजायत / / 25 कालकूटं नवं तीक्ष्णं संभृतं लोमहर्षणम् // 39 अयं बलवतां श्रेष्ठः कुन्तीपुत्रो वृकोदरः / वैश्यापुत्रस्तदाचष्ट पार्थानां हितकाम्यया / मध्यमः पाण्डुपुत्राणां निकृत्या संनिहन्यताम् / / 26 तच्चापि भुक्त्वाजरयदविकारो वृकोदरः // 40 . अथ तस्मादवरजं ज्येष्ठं चैव युधिष्ठिरम् / विकारं न ह्यजनयत्सुतीक्ष्णमपि तद्विषम् / प्रसह्य बन्धने बवा प्रशासिष्ये वसुंधराम् / / 27 भीमसंहननो भीमस्तदप्यजरयत्ततः // 41 एवं स निश्चयं पापः कृत्वा दुर्योधनस्तदा / एवं दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः / नित्यमेवान्तरप्रेक्षी भीमस्यासीन्महात्मनः / / 28 अनेकैरभ्युपायेस्ताञ्जिघांसन्ति स्म पाण्डवान् // 42 ततो जलविहारार्थं कारयामास भारत / पाण्डवाश्चापि तत्सर्वं प्रत्यजानन्नरिंदमाः / चेलकम्बलवेश्मानि विचित्राणि महान्ति च // 29 उद्भावनमकुर्वन्तो विदुरस्य मते स्थिताः // 43 प्रमाणकोट्यामुद्देर्श स्थलं किंचिदुपेत्य च / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि क्रीडावसाने सर्वे ते शुचिवस्त्राः स्वलंकृताः / एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 119 // सर्वकामसमृद्धं तदन्नं बुभुजिरे शनैः // 30 . 120 दिवसान्ते परिश्रान्ता विहृत्य च कुरूद्धहाः / जनमेजय उवाच। विहारावसथेष्वेव वीरा वासमरोचयन् // 31 कृपस्यापि महाब्रह्मन्संभवं वक्तुमर्हसि / खिन्नस्तु बलवान्भीमो व्यायामाभ्यधिकस्तदा / शरस्तम्बात्कथं जज्ञे कथं चास्त्राण्यवाप्तवान् // 1 वाहयित्वा कुमारांस्ताञ्जलक्रीडागतान्विभुः / न उवाच / प्रमाणकोट्यां वासार्थी सुष्वापारुह्य तत्स्थलम् / / 32 महर्षीतमस्यासीच्छरद्वान्नाम नामतः / शीतं वासं समासाद्य श्रान्तो मदविमोहितः। पुत्रः किल महाराज जातः सह शरैविभो // 2 निश्चेष्टः पाण्डवो राजन्सुष्वाप मृतकल्पवत् / / 33 न तस्य वेदाध्ययने तथा बुद्धिरजायत / ततो बद्ध्वा लतापाशैर्भामं दुर्योधनः शनैः / यथास्य बुद्धिरभवद्धनुर्वेदे परंतप // 3 गम्भीरं भीमवेगं च स्थलाजलमपातयत् // 34 अधिजग्मुर्यथा बेदास्तपसा ब्रह्मवादिनः / - 174 -
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________________ 1. 120. 4] आदिपर्व [1. 121.9 - तथा स तपसोपेतः सर्वाण्यस्त्राण्यवाप ह॥ 4 निहिती गौतमस्तत्र तपसा तावविन्दत / धनुर्वेदपरत्वाच्च तपसा विपुलेन च / आगम्य चास्मै गोत्रादि सर्वमाख्यातवांस्तदा // 19 भृशं संतापयामास देवराजं स गौतमः / / 5 चतुर्विधं धनुर्वेदमस्त्राणि विविधानि च / ततो जालपदी नाम देवकन्यां सुरेश्वरः / निखिलेनास्य तत्सर्वं गुह्यमाख्यातवांस्तदा / प्राहिणोत्तपसो विघ्नं कुरु तस्येति कौरव // 6 सोऽचिरेणैव कालेन परमाचार्यतां गतः // 20 साभिगम्याश्रमपदं रमणीयं शरद्वतः। ततोऽधिजग्मुः सर्वे ते धनुर्वेदं महारथाः। धनुर्बाणधरं बाला लोभयामास गौतमम् // 7 धृतराष्ट्रात्मजाश्चैव पाण्डवाश्च महाबलाः / तामेकवसनां दृष्ट्वा गौतमोऽप्सरसं बने / वृष्णयश्च नृपाश्चान्ये नानादेशसमागताः // 21 लोकेऽप्रतिमसंस्थानामुत्फुल्लनयनोऽभवत् // 8 . इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि धनुश्च हि शराश्चास्य कराभ्यां प्रापतन्भुवि / विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 120 // वेपथुश्चास्य तां दृष्ट्वा शरीरे समजायत // 9 121 स तु ज्ञानगरीयस्त्वात्तपसश्च समन्वयात् / वैशंपायन उवाच। अवतस्थे महाप्राज्ञो धैर्येण परमेण ह // 10 विशेषार्थी ततो भीष्मः पौत्राणां विनयेप्सया / यस्त्वस्य सहसा राजन्विकारः समपद्यत / इष्वस्त्रज्ञान्पर्यपृच्छदाचार्यान्वीर्यसंमतान् // 1 तेन सुस्राव रेतोऽस्य स च तन्नावबुध्यत // 11 नाल्पधी महाभागस्तथानानास्त्रकोविदः / स विहायाश्रमं तं च तां चैवाप्सरसं मुनिः। नादेवसत्त्वो विनयेत्कुरूनस्त्रे महाबलान् // 2 जगाम रेतस्तत्तस्य शरस्तम्बे पपात ह // 12 महर्षिस्तु भरद्वाजो हविर्धाने चरन्पुरा / शरस्तम्बे च पतितं द्विधा तदभवन्नृप। ददर्शाप्सरसं साक्षाद्धृताचीमाप्लुतामृषिः // 3 तस्याथ मिथुनं जज्ञे गौतमस्य शरद्वतः // 13 तस्या वायुः समुद्धृतो वसनं व्यपकर्षत / मृगयां चरतो राज्ञः शंतनोस्तु यदृच्छया / ततोऽस्य रेतश्चस्कन्द तदृषिोण आदधे // 4 कश्चित्सेनाचरोऽरण्ये मिथुनं तदपश्यत // 14 तस्मिन्समभवद्रोणः कलशे तस्य धीमतः। धनुश्च सशरं दृष्ट्वा तथा कृष्णाजिनानि च / अध्यगीष्ट स वेदांश्च वेदाङ्गानि च सर्वशः / / 5 व्यवस्य ब्राह्मणापत्यं धनुर्वेदान्तगस्य तत् / अग्निवेश्यं महाभागं भरद्वाजः प्रतापवान / स राज्ञे दर्शयामास मिथुनं सशरं तदा // 15 प्रत्यपादयदाग्नेयमस्त्रं धर्मभृतां वरः // 6 स तदादाय मिथुनं राजाथ कृपयान्वितः। अग्निष्टुजातः स मुनिस्ततो भरतसत्तम / आजगाम गृहानेव मम पुत्राविति ब्रुवन् / / 16 भारद्वाजं तदाग्नेयं महास्त्रं प्रत्यपादयत् // 7 ततः संवर्धयामास संस्कारैश्चाप्ययोजयत् / भरद्वाजसखा चासीत्पृषतो नाम पार्थिवः / गौतमोऽपि तदापेत्य धनुर्वेदपरोऽभवत् // 17 तस्यापि द्रुपदो नाम तदा समभवत्सुतः / / 8 कृपया यन्मया बालाविमौ संवर्धिताविति / स नित्यमाश्रमं गत्वा द्रोणेन सह पार्षतः / तस्मात्तयो म चक्रे तदेव स महीपतिः / / 18 चिक्रीडाध्ययनं चैव चकार क्षत्रियर्षभः॥ 9 - 175 -
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________________ 1. 121. 10] महाभारते [1. 122. 11 ततो व्यतीते पृषते स राजा द्रुपदोऽभवत् / सरहस्यव्रतं चैव धनुर्वेदमशेषतः // 22 पाञ्चालेषु महाबाहुरुत्तरेषु नरेश्वरः // 10 प्रतिगृह्य तु तत्सर्वं कृतास्त्रो द्विजसत्तमः। भरद्वाजोऽपि भगवानारुरोह दिवं तदा। प्रियं सखायं सुप्रीतो जगाम द्रुपदं प्रति / / 23 ततः पितृनियुक्तात्मा पुत्रलोभान्महायशाः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि शारद्वतीं ततो द्रोणः कृपी भार्यामविन्दत // 11 एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 121 // अग्निहोत्रे च धर्मे च दमे च सततं रता। अलभद्गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमेव च // 12 वैशंपायन उवाच / स जातमात्रो व्यनदद्यथैवोच्चैःश्रवा हयः / / ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान् / तच्छ्रुत्वान्तर्हितं भूतमन्तरिक्षस्थमब्रवीत् // 13 अब्रवीत्पार्षतं राजन्सखायं विद्धि मामिति // 1 , अश्वस्येवास्य यत्स्थाम नदतः प्रदिशो गतम / द्रुपद उवाच / अश्वत्थामैव बालोऽयं तस्मान्नाम्ना भविष्यति // 14 अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसी / सुतेन तेन सुप्रीतो भारद्वाजस्ततोऽभवत् / यन्मां ब्रवीषि प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज / / 2 तत्रैव च वसन्धीमान्धनुर्वेदपरोऽभवत् // 15 न हि राज्ञामुदीर्णानामेवंभूतैर्नरैः क्वचित् / स शुश्राव महात्मानं जामदग्न्यं परंतपम् / / सख्यं भवति मन्दात्मश्रिया हीनैर्धनच्युतैः॥३ ब्राह्मणेभ्यस्तदा राजन्दित्सन्तं वसु सर्वशः // 16 सौहृदान्यपि जीयन्ते कालेन परिजीर्यताम् / / वनं तु प्रस्थितं रामं भारद्वाजस्तदाब्रवीत् / सौहृदं मे त्वया ह्यासीत्पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम् // 4 आगतं वित्तकामं मा विद्धि द्रोणं द्विजर्षभम् / / 17 न सख्यमजरं लोके जातु दृश्येत कर्हिचित् / राम उवाच / कामो वैनं विहरति क्रोधश्चैनं प्रवृश्चति / / 5 हिरण्यं मम यच्चान्यद्वसु किंचन विद्यते / मैवं जीर्णमुपासिष्ठाः सख्यं नवमुपाकुरु / ब्राह्मणेभ्यो मया दत्तं सर्वमेव तपोधन // 18 आसीत्सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम् // 6 तथैवेयं धरा देवी सागरान्ता सपत्तना। न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान्विदुषः सखा / कश्यपाय मया दत्ता कृत्स्ना नगरमालिनी // 19 शूरस्य न सखा क्लीबः सखिपूर्व किमिष्यते // 7 शरीरमात्रमेवाद्य मयेदमवशेषितम् / ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् / अस्त्राणि च महार्हाणि शस्त्राणि विविधानि च / तयोः सख्यं विवाहश्च न तु पुष्टविपुष्टयोः // 8 वृणीष्व किं प्रयच्छामि तुभ्यं द्रोण वदाशु तत् // 20 नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा / द्रोण उवाच। नाराज्ञा संगतं राज्ञः सखिपूर्व किमिष्यते // 9 अस्त्राणि मे समग्राणि ससंहाराणि भार्गव / वैशंपायन उवाच / सप्रयोगरहस्यानि दातुमर्हस्यशेषतः // 21 द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाजः प्रतापवान् / वैशंपायन उवाच। मुहूर्त चिन्तयालास मन्युनाभिपरिप्लुतः / / 10 तथेत्युक्त्वा ततस्तस्मै प्रादादत्राणि भार्गवः। स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चालं प्रति बुद्धिमान् / -176
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________________ 1. 122. 11] आदिपर्व [1. 122. 39 जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम् // 11 ब्रह्मचारी विनीतात्मा जटिलो बहुलाः समाः / कुमारास्त्वथ निष्क्रम्य समेता गजसाह्वयात् / अवसं तत्र सुचिरं धनुर्वेदचिकीर्षया // 25 क्रीडन्तो वीटया तत्र वीराः पर्यचरन्मुदा // 12 पाश्चालराजपुत्रस्तु यज्ञसेनो महाबलः / पपात कूपे सा वीटा तेषां वै क्रीडतां तदा।। मया सहाकरोद्विद्यां गुरोः श्राम्यन्समाहितः॥२६ न च ते प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये // 13 स मे तत्र सखा चासीदुपकारी प्रियश्च मे। अथ द्रोणः कुमारांस्तान्दृष्ट्वा कृत्यवतस्तदा।। तेनाहं सह संगम्य रतवान्सुचिरं बत / प्रहस्य मन्दं पैशल्यादभ्यभाषत वीर्यवान् / / 14 बाल्यात्प्रभृति कौरव्य सहाध्ययनमेव च // 27 अहो नु धिग्बलं क्षात्रं धिगेतां वः कृतास्त्रताम् / स समासाद्य मां तत्र प्रियकारी प्रियंवदः। भरतस्यान्वये जाता ये वीटां नाधिगच्छत // 15 अब्रवीदिति मां भीष्म वचनं प्रीतिवर्धनम् // 28 एष मुष्टिरिषीकाणां मयास्त्रेणाभिमत्रितः / अहं प्रियतमः पुत्रः पितुर्दोण महात्मनः / अस्य वीर्यं निरीक्षध्वं यदन्यस्य न विद्यते // 16 अभिषेक्ष्यति मां राज्ये स पाञ्चाल्यो यदा तदा॥२९ वेत्स्यामीषीकया वीटां तामिषीकामथान्यया। त्वद्भोज्यं भविता राज्यं सखे सत्येन ते शपे / तामन्यया समायोगो वीटाया ग्रहणे मम / / 17 मम भोगाश्च वित्तं च त्वधीनं सुखानि च // 30 तदपश्यन्कुमारास्ते विस्मयोत्फुल्ललोचनाः / एवमुक्तः प्रवव्राज कृतास्त्रोऽहं धनेप्सया। अवेक्ष्य चोद्धृतां वीटां वीटावेद्धारमब्रुवन् // 18 अभिषिक्तं च श्रुत्वैनं कृतार्थोऽस्मीति चिन्तयन् // 31 अभिवादयामहे ब्रह्मन्नैतदन्येषु विद्यते / प्रियं सखायं सुप्रीतो राज्यस्थं पुनराव्रजम् / कोऽसि कं त्वाभिजानीमो वयं किं करवामहे // 19 संस्मरन्संगमं चैव वचनं चैव तस्य तत् // 32 द्रोण उवाच। ततो द्रुपदमागम्य सखिपूर्वमहं प्रभो। आचक्षध्वं च भीष्माय रूपेण च गुणैश्च माम् / अब्रुवं पुरुषव्याघ्र सखायं विद्धि मामिति // 33 स एव सुमहाबुद्धिः सांप्रतं प्रतिपत्स्यते // 20 उपस्थितं तु द्रुपदः सखिवच्चाभिसंगतम् / वैशंपायन उवाच। स मां निराकारमिव प्रहसन्निदमब्रवीत् / / 34 तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे भीष्ममूचुः पितामहम् / अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन्नातिसमञ्जसी / ब्राह्मणस्य वचस्तथ्यं तच्च कर्म विशेषवत् // 21 यदात्थ मां त्वं प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज॥३५ भीष्मः श्रुत्वा कुमाराणां द्रोणं तं प्रत्यजानत / न हि राज्ञामुदीर्णानामेवंभूतैनरैः क्वचित् / युक्तरूपः स हि गुरुरित्येवमनुचिन्त्य च // 22 सख्यं भवति मन्दात्मश्रिया हीनैर्धनच्युतैः // 36 अथैनमानीय तदा स्वयमेव सुसत्कृतम् / नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा। परिपप्रच्छ निपुणं भीष्मः शस्त्रभृतां वरः / नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्व किमिष्यते // 37 हेतुमागमने तस्य द्रोणः सर्वं न्यवेदयत् // 23 द्रुपदेनैवमुक्तोऽहं मन्युनाभिपरिप्लुतः / महर्षेरग्निवेश्यस्य सकाशमहमच्युत / अभ्यागच्छं कुरून्भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वितैः॥३८ अस्त्रार्थमगमं पूर्वं धनुर्वेदजिघृक्षया // 24 प्रतिजग्राह तं भीष्मो गुरुं पाण्डुसुतैः सह / म. भा. 23 -177 -
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________________ 1. 122. 39] महाभारते [1. 123. 38 पौत्रानादाय तान्सर्वान्वसूनि विविधानि च // 39 हस्तस्तेजस्विनो नित्यमन्नग्रहणकारणात् / शिष्या इति ददौ राजन्द्रोणाय विधिपूर्वकम् / तदभ्यासकृतं मत्वा रात्रावभ्यस्त पाण्डवः // 4 स च शिष्यान्महेष्वासः प्रतिजग्राह कौरवान् // 40 तस्य ज्यातलनिर्घोषं द्रोणः शुश्राव भारत / प्रतिगृह्य च तान्सर्वान्द्रोणो वचनमब्रवीत् / उपेत्य चैनमुत्थाय परिष्वज्येदमब्रवीत् // 5 रहस्येकः प्रतीतात्मा कृतोपसदनांस्तदा // 41 प्रयतिष्ये तथा कर्तुं यथा नान्यो धनुर्धरः / कार्य मे काङ्कितं किंचिद्धृदि संपरिवर्तते। त्वत्समो भविता लोके सत्यमेतद्ब्रवीमि ते // 6 कृतास्पैस्तत्प्रदेयं मे तदृतं वदतानघाः / / 42 ततो द्रोणोऽर्जुनं भूयो रथेषु च गजेषु च / तच्छ्रुत्वा कौरवेयास्ते तूष्णीमासन्विशां पते / अश्वेषु भूमावपि च रणशिक्षामशिक्षयत् // 7 अर्जुनस्तु ततः सर्वं प्रतिजज्ञे परंतपः // 43 गदायुद्धेऽसिचर्यायां तोमरप्रासशक्तिषु / ततोऽर्जुनं मूर्ध्नि तदा समाघ्राय पुनः पुनः / द्रोणः संकीर्णयुद्धेषु शिक्षयामास पाण्डवम् / / 8 प्रीतिपूर्वं परिष्वज्य प्ररुरोद मुदा तदा / / 44 तस्य तत्कौशलं दृष्ट्वा धनुर्वेद जिघृक्षवः / ततो द्रोणः पाण्डुपुत्रानस्त्राणि विविधानि च। राजानो राजपुत्राश्च समाजग्मुः सहस्रशः // 9 प्राहयामास दिव्यानि मानुषाणि च वीर्यवान्॥४५ ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः। राजपुत्रास्तथैवान्ये समेत्य भरतर्षभ / एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह // 10 अभिजग्मुस्ततो द्रोणमस्त्रार्थे द्विजसत्तमम् / न स तं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन् / वृष्णयश्चान्धकाश्चैव नानादेश्याश्च पार्थिवाः // 46 / शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्ववेक्षया // 11 सूतपुत्रश्च राधेयो गुरुं द्रोणमियात्तदा / स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ गृह्य परंतपः / स्पर्धमानस्तु पार्थेन सूतपुत्रोऽत्यमर्षणः / अरण्यमनुसंप्राप्तः कृत्वा द्रोणं महीमयम् // 12 दुर्योधनमुपाश्रित्य पाण्डवानत्यमन्यत // 47 तस्मिन्नाचार्यवृत्तिं च परमामास्थितस्तदा / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि इष्वस्त्रे योगमातस्थे परं नियममास्थितः // 13 द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 122 // परया श्रद्धया युक्तो योगेन परमेण च / 123 विमोक्षादानसंधाने लघुत्वं परमाप सः // 14. वैशंपायन उवाच / अथ द्रोणाभ्यनुज्ञाताः कदाचित्कुरुपाण्डवाः / अर्जुनस्तु परं यत्नमातस्थे गुरुपूजने / स्थैर्विनिर्ययुः सर्वे मृगयामरिमर्दनाः // 15 अस्त्रे च परमं योगं प्रियो द्रोणस्य चाभवत् // 1 तत्रोपकरणं गृह्य नरः कश्चिद्यदृच्छया। द्रोणेन तु तदाहूय रहस्युक्तोऽन्नसाधकः / राजन्ननुजगामैकः श्वानमादाय पाण्डवान् // 16 अन्धकारेऽर्जुनायान्नं न देयं ते कथंचन // 2 तेषां विचरतां तत्र तत्तत्कर्म चिकीर्षताम् / ततः कदाचिद्भुञ्जाने प्रववौ वायुरर्जुने / श्वा चरन्स वने मूढो नैषादिं प्रति जग्मिवान् // 17 तेन तत्र प्रदीपः स दीप्यमानो निवापितः / / 3 स कृष्णं मलदिग्धाङ्गं कृष्णाजिनधरं वने / भुत एवार्जुनो भक्तं न चास्यास्याद्यमुह्यत / | नैषादिं श्वा समालक्ष्य भषंस्तस्थौ तदन्तिके // 18 - 178 -
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________________ 1. 123. 19] आदिपर्व [1. 123. 46 तदा तस्याथ भषतः शुनः सप्त शरान्मुखे / ततो द्रोणोऽब्रवीद्राजन्नेकलव्यमिदं वचः / लाघवं दर्शयन्नने मुमोच युगपद्यथा // 19 यदि शिष्योऽसि मे तूर्णं वेतनं संप्रदीयताम् // 33 स तु श्वा शरपूर्णास्यः पाण्डवानाजगाम ह। एकलव्यस्तु तच्छ्रुत्वा प्रीयमाणोऽब्रवीदिदम् / तं दृष्ट्वा पाण्डवा वीरा विस्मयं परमं ययुः // 20 किं प्रयच्छामि भगवन्नाज्ञापयतु मां गुरुः // 34 लाघवं शब्दवेधित्वं दृष्ट्वा तत्परमं तदा / न हि किंचिददेयं मे गुरवे ब्रह्मवित्तम / प्रेक्ष्य तं व्रीडिताश्चासन्प्रशशंसुश्च सर्वशः / / 21 तमब्रवीत्त्वयाङ्गुष्ठो दक्षिणो दीयतां मम // 35 तं ततोऽन्वेषमाणास्ते वने वननिवासिनम् / एकलव्यस्तु तच्छ्रुत्वा वचो द्रोणस्य दारुणम् / ददृशुः पाण्डवा राजन्नस्यन्तमनिशं शरान् / / 22 प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन्सत्ये च निरतः सदा / / 36 न चैनमभ्यजानंस्ते तदा विकृतदर्शनम् / तथैव हृष्टवदनस्तथैवादीनमानसः / अथैनं परिपप्रच्छुः को भवान्कस्य वेत्युत // 23 छित्त्वाविचार्य तं प्रायाद्रोणायाङ्गुष्ठमात्मनः // 37 ___ एकलव्य उवाच / ततः परं तु नैषादिरङ्गुलीभिर्व्यकर्षत / निषादाधिपतेर्वीरा हिरण्यधनुषः सुतम् / न तथा स तु शीघ्रोऽभूद्यथा पूर्वं नराधिप / / 38 दोणशिष्यं च मां वित्त धनुर्वेदकृतश्रमम् // 24 ततोऽर्जुनः प्रीतमना बभूव विगतज्वरः / वैशंपायन उवाच / द्रोणश्च सत्यवागासीन्नान्योऽभ्यभवदर्जुनम् // 39 / तमाज्ञाय तत्त्वेन पुनरागम्य पाण्डवाः / द्रोणस्य तु तदा शिष्यौ गदायोग्यां विशेषतः / स्थावृत्तं च ते सर्वं द्रोणायाचख्युरद्भुतम् // 25 दुर्योधनश्च भीमश्च कुरूणामभ्यगच्छताम् // 40 कौन्तेयस्त्वर्जुनो राजन्नकलव्यमनुस्मरन् / अश्वत्थामा रहस्येषु सर्वेष्वभ्यधिकोऽभवत् / हो द्रोणं समागम्य प्रणयादिदमब्रवीत् // 26 / तथाति पुरुषानन्यान्त्सारको यमजावुभौ / नन्वहं परिरभ्यैकः प्रीतिपूर्वमिदं वचः / युधिष्ठिरो रथश्रेष्ठः सर्वत्र तु धनंजयः / / 41 भवतोक्तो न मे शिष्यस्त्वद्विशिष्टो भविष्यति // 27 प्रथितः सागरान्तायां रथयूथपयूथपः / अथ कस्मान्मद्विशिष्टो लोकादपि च वीर्यवान् / बुद्धियोगबलोत्साहैः सर्वास्त्रेषु च पाण्डवः / / 42 बत्यन्यो भवतः शिष्यो निषादाधिपतेः सुतः // 28 अस्त्रे गुर्वनुरागे च विशिष्टोऽभवदर्जुनः / मुहूर्तमिव तं द्रोणश्चिन्तयित्या विनिश्चयम् / तुल्वेष्वस्त्रोपदेशेषु सौष्ठवेन च वीर्यवान् / सव्यसाचिनमादाय नेपादि प्रति जग्मिवान् / / 29 एकः सर्वकुमाराणां बभूवातिरथोऽर्जुनः // 43 वर्श मलदिग्धाङ्गं जटिलं चीरवाससम् / प्राणाधिकं भीमसेनं कृतविद्यं धनंजयम् / एकलव्यं धनुष्पाणिमस्यन्तमनिशं शरान् // 30 धार्तराष्ट्रा दुरात्मानो नामृष्यन्त नराधिप // 44 एकलव्यस्तु तं दृष्ट्वा द्रोणमायान्तमन्तिकात् / तांस्तु सर्वान्समानीय सर्वविद्यासु निष्ठितान् / अभिगम्योपसंगृह्य जगाम शिरसा महीम् / / 31 द्रोणः प्रहरणज्ञाने जिज्ञासुः पुरुषर्षभः // 45 जियित्वा ततो द्रोणं विधिवत्स निषादजः।। कृत्रिमं भासमारोप्य वृक्षाग्रे शिल्पिभिः कृतम् / वेध शिष्यमात्मानं तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः / / 32 / अविज्ञातं कुमाराणां लक्ष्यभूतमुपादिशत् / / 46 - 179 -
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________________ 1. 123. 47] महाभारते [1. 123. 74 द्रोण उवाच / मुहूर्तादिव तं द्रोणस्तथैव समभाषत / शीघ्रं भवन्तः सर्वे वै धनूंष्यादाय सत्वराः / पश्यस्येनं स्थितं भासं द्रुमं मामपि वेत्युत // 61 भासमेतं समुद्दिश्य तिष्ठन्तां संहितेषवः // 47 पश्याम्येनं भासमिति द्रोणं पार्थोऽभ्यभाषत / मद्वाक्यसमकालं च शिरोऽस्य विनिपात्यताम् / न तु वृक्षं भवन्तं वा पश्यामीति च भारत // 62 एकैकशो नियोक्ष्यामि तथा कुरुत पुत्रकाः॥४८ ततः प्रीतमना द्रोणो मुहूर्तादिव तं पुनः / वैशंपायन उवाच / प्रत्यभाषत दुर्धर्षः पाण्डवानां रथर्षभम् // 63 ततो युधिष्ठिरं पूर्वमुवाचाङ्गिरसां वरः / भासं पश्यसि यद्येनं तथा ब्रूहि पुनर्वचः / संधत्स्व बाणं दुर्धर्ष मद्वाक्यान्ते विमुश्च च // 49 शिरः पश्यामि भासस्य न गात्रमिति सोऽब्रवीत् 64 ततो युधिष्ठिरः पूर्वं धनुर्गृह्य महावरम् / अर्जुनेनैवमुक्तस्तु द्रोणो हृष्टतनूरुहः / तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदितः // 50 मुश्चस्वेत्यब्रवीत्पार्थं स मुमोचाविचारयन् / / 65 ततो विततधन्वानं द्रोणस्तं कुरुनन्दनम् / ततस्तस्य नगस्थस्य क्षुरेण निशितेन ह / स मुहूर्तादुवाचेदं वचनं भरतर्षभ // 51 शिर उत्कृत्य तरसा पातयामास पाण्डवः // 66 पश्यस्येनं द्रुमाग्रस्थं भासं नरवरात्मज / तस्मिन्कर्मणि संसिद्धे पर्यष्वजत फल्गुनम् / पश्यामीत्येवमाचार्य प्रत्युवाच युधिष्ठिरः / / 52 मेने च द्रुपदं संख्ये सानुबन्धं पराजितम् // 67 स मुहूर्तादिव पुनāणस्तं प्रत्यभाषत / कस्यचित्त्वथ कालस्य सशिष्योऽङ्गिरसां वरः। अथ वृक्षमिमं मां वा भ्रातृन्वापि प्रपश्यसि // 53 जगाम गङ्गामभितो मजितुं भरतर्षभ / / 68 तमुवाच स कौन्तेयः पश्याम्येनं वनस्पतिम् / अवगाढमथो द्रोणं. सलिले सलिलेचरः / भवन्तं च तथा भ्रातृन्भासं चेति पुनः पुनः // 54 पाहो जग्राह बलवाञ्जङ्घान्ते कालचोदितः // 79 तमुवाचापसर्पति द्रोणोऽप्रीतमना इव / स समर्थोऽपि मोक्षाय शिष्यान्सर्वानचोदयत् / नैतच्छक्यं त्वया वेढे लक्ष्यमित्येव कुत्सयन् // 55 ग्राहं हत्वा मोक्षयध्वं मामिति त्वरयन्निव // 70 ततो दुर्योधनादीस्तान्धार्तराष्ट्रान्महायशाः / तद्वाक्यसमकालं तु बीभत्सुनिशितैः शरैः। तेनैव क्रमयोगेन जिज्ञासुः पर्यपृच्छत // 56 आवापैः पञ्चभिहिं मग्नमम्भस्यताडयत् / अन्यांश्च शिष्यान्भीमादीन्राज्ञश्चैवान्यदेशजान् / इतरे तु विसंमूढास्तत्र तत्र प्रपेदिरे / / 71 तथा च सर्वे सर्वं तत्पश्याम इति कुत्सिताः॥५७ तं च दृष्ट्वा क्रियोपेतं द्रोणोऽमन्यत पाण्डवम् / ततो धनंजयं द्रोणः स्मयमानोऽभ्यभाषत / विशिष्टं सर्वशिष्येभ्यः प्रीतिमांश्चाभवत्तदा // 72 त्वयेदानी प्रहर्तव्यमेतल्लक्ष्यं निशम्यताम् // 58 स पार्थबाणैर्बहुधा खण्डशः परिकल्पितः। मद्वाक्यसमकालं ते मोक्तव्योऽत्र भवेच्छरः / ग्राहः पञ्चत्वमापेदे जवां त्यक्त्वा महात्मनः // 73 वितत्य कार्मुकं पुत्र तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम् // 59 / अथाब्रवीन्महात्मानं भारद्वाजो महारथम / एवमुक्तः सव्यसाची मण्डलीकृतकार्मुकः।। गृहाणेदं महाबाहो विशिष्टमतिदुर्धरम् / तस्थौ लक्ष्यं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदितः // 60 / अखं ब्रह्मशिरो नाम सप्रयोगनिवर्तनम् // 74 - 180 -
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________________ 1. 123.75] आदिपर्व [1. 124. 22 न च ते मानुषेष्वेतत्प्रयोक्तव्यं कथंचन। समामवृक्षां निर्गुल्मामुदक्प्रवणसंस्थिताम् // 8 जगद्विनिर्दहेदेतदल्पतेजसि पातितम् // 75 तस्यां भूमौ बलिं चक्रे तिथौ नक्षत्रपूजिते / असामान्यमिदं तात लोकेष्वस्त्रं निगद्यते / अवघुष्टं पुरे चापि तदर्थं वदतां वर // 9 तद्धारयेथाः प्रयतः शृणु चेदं वचो मम // 76 रङ्गभूमौ सुविपुलं शास्त्रदृष्टं यथाविधि। बाघेतामानुषः शत्रुर्यदा त्वां वीर कश्चन / प्रेक्षागारं सुविहितं चक्रुस्तत्र च शिल्पिनः / तद्वधाय प्रयुञ्जीथास्तदास्त्रमिदमाहवे // 77 राज्ञः सर्वायुधोपेतं स्त्रीणां चैव नरर्षभ / 10 तथेति तत्प्रतिश्रुत्य बीभत्सुः स कृताञ्जलिः। मञ्चांश्च कारयामासुस्तत्र जानपदा जनाः। जग्राह परमास्त्रं तदाह चैनं पुनर्गुरुः। विपुलानुच्छ्रयोपेताशिबिकाश्च महाधनाः // 11 भविता त्वत्समो नान्यः पुमाललोके धनुर्धरः // 78 . तस्मिंस्ततोऽहनि प्राप्ते राजा ससचिवस्तदा। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि / भीष्मं प्रमुखतः कृत्वा कृपं चाचार्यसत्तमम् // 12 त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 123 // मुक्ताजालपरिक्षिप्तं वैडूर्यमणिभूषितम् / / ॥समाप्तं संभवपर्व // शातकुम्भमयं दिव्यं प्रेक्षागारमुपागमत् // 13 124 गान्धारी च महाभागा कुन्ती च जयतां वर। वैशंपायन उवाच / स्त्रियश्च सर्वा या राज्ञः सप्रेष्याः सपरिच्छदाः / कृतास्त्रान्धार्तराष्ट्रांश्च पाण्डुपुत्रांश्च भारत / हर्षादारुरुहुर्मश्चान्मेरं देवत्रियो यथा // 14 दृष्ट्वा द्रोणोऽब्रवीद्राजन्धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् // 1 ब्राह्मणक्षत्रियाद्यं च चातुर्वर्ण्य पुराद्रुतम् / कृपस्य सोमदत्तस्य बाह्रीकस्य च धीमतः / दर्शनेप्सु समभ्यागात्कुमाराणां कृतास्त्रताम् // 15 गाङ्गेयस्य च सांनिध्ये व्यासस्य बिदुरस्य च // 2 प्रवादितैश्च वादित्रैर्जनकौतूहलेन च / राजन्संप्राप्तविद्यास्ते कुमाराः कुरुसत्तम / महार्णव इव क्षुब्धः समाजः सोऽभवत्तदा // 16 ते दर्शयेयुः स्त्रां शिक्षा राजन्ननुमते तव // 3 ततः शुक्लाम्बरधरः शुक्लयज्ञोपवीतवान् / ततोऽब्रवीन्महाराजः प्रहृष्टेनान्तरात्मना। शुक्लकेशः सितश्मश्रुः शुक्लमाल्यानुलेपनः // 17 भारद्वाज महत्कर्म कृतं ते द्विजसत्तम // 4 रङ्गमध्यं तदाचार्यः सपुत्रः प्रविवेश ह। यदा तु मन्यसे कालं यस्मिन्देशे यथा यथा / नभो जलधरीनं साङ्गारक इवांशुमान् // 18 तथा तथा विधानाय स्वयमाज्ञापयस्व माम् // 5 स यथासमयं चक्रे बलिं बलवतां वरः। स्पृहयाम्यद्य निर्वेदात्पुरुषाणां सचक्षुषाम् / ब्राह्मणांश्चात्र मत्रज्ञान्वाचयामास मङ्गलम् / / 19 अनहेतोः पराक्रान्तान्ये मे द्रक्ष्यन्ति पुत्रकान् // 6 अथ पुण्याहघोषस्य पुण्यस्य तदनन्तरम् / क्षयद्गुरुराचार्यो ब्रवीति कुरु. तत्तथा। विविशुर्विविधं गृह्य शस्त्रोपकरणं नराः // 20 न हीदृशं प्रियं मन्ये भविता धर्मवत्सल // 7 ततो बद्धतनुत्राणा बद्धकक्ष्या महाबलाः। ततो राजानमामय विदुरानुगतो बहिः। बद्धतूणाः सधनुषो विविशुभरतर्षभाः॥२१ भारद्वाजो महाप्राज्ञो मापयामास मेदिनीम् / | अनुज्येष्ठं च ते तत्र युधिष्ठिरपुरोगमाः। - 181 -
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________________ 1. 124. 22 ] महाभारते [1. 125. 16 चक्रुरस्त्रं महावीर्याः कुमाराः परमाद्भुतम् // 22 पुरुषाणां सुविपुलाः प्रणादाः सहसोत्थिताः // 2 : केचिच्छराक्षेपभयाच्छिरांस्यवननामिरे / ततः क्षुब्धार्णवनिभं रङ्गमालोक्य बुद्धिमान् / . मनुजा धृष्टमपरे वीक्षांचक्रुः सविस्मयाः // 23 भारद्वाजः प्रियं पुत्रमश्वत्थामानमब्रवीत् // 3. ते स्म लक्ष्याणि विविधुर्बाणैर्नामाङ्कशोभितैः / वारयैतौ महावीरों कृतयोग्यावुभावपि। विविधैर्लाघवोत्सृष्टैरुह्यन्तो वाजिभिद्रुतम् // 24 मा भूद्रङ्गप्रकोपोऽयं भीमदुर्योधनोद्भवः // 4 . तत्कुमारबलं तत्र गृहीतशरकार्मुकम् / ततस्तावुद्यतगदी गुरुपुत्रेण वारितौ। . . गन्धर्वनगराकारं प्रेक्ष्य ते विस्मिताभवन् // 25 युगान्तानिलसंक्षुब्धौ महावेगाविवार्णवौ // 5 सहसा चुक्रुशुस्तत्र नराः शतसहस्रशः / ततो रङ्गाङ्गणगतो द्रोणो वचनमब्रवीत् / विस्मयोत्फुल्लनयनाः साधु साध्विति भारत // 26 निवार्य वादित्रगणं महामेघसमस्वनम् // 6 . कृत्वा धनुषि ते मार्गारथचर्यासु चासकृत् / यो मे पुत्रात्प्रियतरः सर्वास्त्रविदुषां वरः। गजपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च नियुद्धे च महाबलाः // 27 ऐन्द्रिरिन्द्रानुजसमः स पार्थो दृश्यतामिति // 7 गृहीतखड्गचर्माणस्ततो भूयः प्रहारिणः / आचार्यवचनेनाथ कृतस्वस्त्ययनो युवा। त्सरुमार्गान्यथोद्दिष्टांश्चेरुः सर्वासु भूमिषु // 28 बद्धगोधामुलित्राणः पूर्णतूणः सकार्मुकः // 8 लाघवं सौष्ठवं शोभा स्थिरत्वं दृढमुष्टिताम् / काञ्चनं कवचं बिभ्रत्प्रत्यदृश्यत फल्गुनः। ददृशुस्तत्र सर्वेषां प्रयोगे खगचर्मणाम् // 29 सार्कः सेन्द्रायुधतडित्ससंध्य इव तोयदः // 9 . अथ तौ नित्यसंहृष्टी सुयोधनवृकोदरौ / ततः सर्वस्य रङ्गस्य समुत्पिञ्जोऽभवन्महान् / अवतीर्णौ गदाहस्तावेकशृङ्गाविवाचलौ // 30 प्रावाद्यन्त च वाद्यानि सशङ्खानि समन्ततः / / 10 बद्धकक्ष्यौ महाबाहू पौरुषे पर्यवस्थितौ / एष कुन्तीसुतः श्रीमानेष पाण्डवमध्यमः / बृहन्तौ वाशिताहेतोः समदाविव कुञ्जरौ / / 31 एष पुत्रो महेन्द्रस्य कुरूणामेष रक्षिता // 11 तौ प्रदक्षिणसव्यानि मण्डलानि महाबलौ / एषोऽस्त्रविदुषां श्रेष्ठ एष धर्मभृतां वरः / चेरतुर्निर्मलगदौ समदाविव गोवृषौ // 32 एष शीलवतां चापि शीलज्ञाननिधिः परः // 12 विदुरो धृतराष्ट्राय गान्धायै पाण्डवारणिः / इत्येवमतुला वाचः शृण्वन्त्याः प्रेक्षकेरिताः / न्यवेदयेतां तत्सर्वं कुमाराणां विचेष्टितम् // 33 कुन्त्याः प्रस्नवसंमिश्रेरौः क्लिन्नमुरोऽभवत् // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तेन शब्देन महता पूर्णश्रुतिरथाब्रवीत् / चतुर्विशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 124 // धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठो विदुरं हृष्टमानसः // 14 125 क्षत्तः क्षुब्धार्णवनिभः किमेष सुमहास्वनः / वैशंपायन उवाच / सहसैवोत्थितो रङ्गे भिन्दन्निव नभस्तलम् // 15 कुरुराजे च रङ्गस्थे भीमे च बलिनां वरे / विदुर उवाच। पक्षपातकृतस्नेहः स द्विधेवाभवजनः॥ 1 एष पार्थो महाराज फल्गुनः पाण्डुनन्दनः / हा वीर कुरुराजेति हा भीमेति च नर्दताम् / अवतीर्णः सकवचस्तत्रैष सुमहास्वनः // 16 - 182 -
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________________ 1. 125. 17] . आदिपर्व [1. 126. 10 धृतराष्ट्र उवाच / अश्वत्थाम्ना च सहितं भ्रातृणां शतमूर्जितम् / धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि रक्षितोऽस्मि महामते / दुर्योधनममित्रघ्नमुत्थितं पर्यवारयत् // 31 पृथारणिसमुद्भूतैत्रिभिः पाण्डववह्निभिः॥ 17 . स तैस्तदा भ्रातृभिरुद्यतायुधैवैशंपायन उवाच / - वृतो गदापाणिरवस्थितैः स्थितः / तस्मिन्समुदिते रङ्गे कथंचित्पर्यवस्थिते / बभौ यथा दानवसंक्षये पुरा दर्शयामास बीभत्सुराचार्यादत्रलाघवम् // 18 पुरंदरो देवगणैः समावृतः // 32 आग्नेयेनासृजद्वह्नि वारुणेनासृजत्पयः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि वायव्येनासृजद्वायुं पार्जन्येनासृजद्धनान् // 19 पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 125 // भौमेन प्राविशद्भूमिं पार्वतेनासृजद्गिरीन् / 126 अन्तर्धानेन चास्त्रेण पुनरन्तर्हितोऽभवत् // 20 वैशंपायन उवाच / क्षणात्प्रांशुः क्षणाद्धस्वः क्षणाच्च रथधूर्गतः / / दत्तेऽवकाशे पुरुषैर्विस्मयोत्फुल्ललोचनैः / क्षणेन रथमध्यस्थः क्षणेनावापतन्महीम् / / 21. विवेश रङ्गं विस्तीर्णं कर्णः परपुरंजयः / / 1 / / सुकुमारं च सूक्ष्मं च गुरुं चापि, गुरुप्रियः / सहजं कवचं बिभ्रत्कुण्डलोद्दयोतिताननः। सौष्ठवेनाभिसंयुक्तः सोऽविध्यद्विविधैः शरैः॥ 22 सधनुर्बद्धनिस्त्रिंशः पादचारीव पर्वतः / / 2 . भ्रमतश्च वराहस्य लोहस्य प्रमुखे समम् / कन्यागर्भः पृथुयशाः पृथायाः पृथुलोचनः / पञ्च बाणानसंसक्तान्स मुमोचैकबाणवत् // 23 तीक्ष्णांशोर्भास्करस्यांशः कर्णोऽरिगणसूदनः // 3. गव्ये विषाणकोशे च चले रज्ववलम्बिते / सिंहर्षभगजेन्द्राणां तुल्यवीर्यपराक्रमः / निचखान महावीर्यः सायकानेकविंशतिम् / / 24 दीप्तिकान्तिद्युतिगुणैः सूर्येन्दुज्वलनोपमः // 4 . इत्येवमादि सुमहत्खङ्गे धनुषि चाभवत् / / प्रांशुः कनकतालाभः सिंहसंहननो युवा / गदायां शस्त्रकुशलो दर्शनानि व्यदर्शयत् // 25 असंख्येयगुणः श्रीमान्भास्करस्यात्मसंभवः // 5 ततः समाप्तभूयिष्ठे तस्मिन्कर्मणि भारत / स निरीक्ष्य महाबाहुः सर्वतो रङ्गमण्डलम् / . मन्दीभूते समाजे च वादित्रस्य च निस्वने // 26 / प्रणामं द्रोणकृपयो त्यादृतमिपाकरोत् // 6 द्वारदेशात्समुद्भूतो माहात्म्यबलसूचकः / स समाजजनः सर्वो निश्चलः स्थिरलोचनः / / वननिष्पेषसदृशः शुश्रुवे भुजनिस्वनः / / 27 कोऽयमित्यागतक्षोभः कौतूहलपरोऽभवत् / / 7 दीर्यन्ते किं नु गिरयः किं स्विद्भुमिर्विदीर्यते / सोऽब्रवीन्मेघधीरेण स्वरेण वदतां वरः / कि स्विदापूर्यते व्योम जलभारघनैर्घनैः // 28 भ्राता भ्रातरमज्ञातं सावित्रः पाकशासनिम् // 8: कस्यैवं मतिरभूत्क्षणेन वसुधाधिप / पार्थ यत्ते कृतं कर्म विशेषवदहं ततः। द्वारं चाभिमुखाः सर्वे बभूवुः प्रेक्षकास्तदा / / 29 / करिष्ये पश्यतां नृणां मात्मना विस्मयं गमः // 9 पञ्चभिर्धातृभिः पार्थेनॊणः परिवृतो बभौ / / असमाप्ते ततस्तस्य वचने वदतां वर / पञ्चतारेण संयुक्तः सावित्रेणेव चन्द्रमाः / / 30. यत्रोत्क्षिप्त इव क्षिप्रमुत्तस्थौ सर्वतो जनः // 10 -183
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________________ 1. 126. 11] महाभारते [1. 126. 36 प्रीतिश्च पुरुषव्याघ्र दुर्योधनमथास्पृशत् / आवृतं गगनं मेधैर्बलाकापतिहासिभिः / / 23 ह्रीश्च क्रोधश्च बीभत्सुं क्षणेनान्वविशञ्च ह // 11 ततः स्नेहाद्धरिहयं दृष्ट्वा रङ्गावलोकिनम् / ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः कर्णः प्रियरणः सदा / भास्करोऽप्यनयन्नाशं समीपोपगतान्धनान् // 24 यत्कृतं तत्र पार्थेन तञ्चकार महाबलः // 12 मेघच्छायोपगूढस्तु ततोऽदृश्यत पाण्डवः / अथ दुर्योधनस्तत्र भ्रातृभिः सह भारत / सूर्यातपपरिक्षिप्तः कर्णोऽपि समदृश्यत // 25 कर्ण परिष्वज्य मुदा ततो वचनमब्रवीत् // 13 धार्तराष्ट्रा यतः कर्णस्तस्मिन्देशे व्यवस्थिताः / स्वागतं ते महाबाहो दिष्ट्या प्राप्तोऽसि मानद / भारद्वाजः कृपो भीष्मो यतः पार्थस्ततोऽभवन् // 26 अहं च कुरुराज्यं च यथेष्टमुपभुज्यताम् // 14 द्विधा रङ्गः समभवत्स्त्रीणां द्वैधमजायत / कणे उवाच / कुन्तिभोजसुता मोहं विज्ञातार्था जगाम ह॥२७ कृतं सर्वेण मेऽन्येन सखित्वं च त्वया वृणे। तां तथा मोहसंपन्नां विदुरः सर्वधर्मवित् / द्वन्द्वयुद्धं च पार्थेन कर्तुमिच्छामि भारत // 15 कुन्तीमाश्वासयामास प्रोक्ष्याद्भिश्चन्दनोक्षितैः॥२८ दुर्योधन उवाच / ततः प्रत्यागतप्राणा तावुभावपि दंशितौ / भुङ्क्ष भोगांन्मया साधू बन्धूनां प्रियकृद्भव / पुत्रौ दृष्ट्वा सुसंतप्ता नान्वपद्यत किंचन // 29 दुहृदां कुरु सर्वेषां मूर्ध्नि पादमरिंदम // 16 तावुद्यतमहाचापौ कृपः शारद्वतोऽब्रवीत् / वैशंपायन उवाच। द्वन्द्वयुद्धसमाचारो कुशलः सर्वधर्मवित् // 30 ततः क्षिप्तमिवात्मानं मत्वा पार्थोऽभ्यभाषत / अयं पृथायास्तनयः कनीयान्पाण्डुनन्दनः / कर्णं भ्रातृसमूहस्य मध्येऽचलमिव स्थितम् // 17 कौरवो भवता साधं द्वन्द्वयुद्धं करिष्यति // 31 अनाहूतोपसृप्तानामनाहूतोपजल्पिनाम् / त्वमप्येवं महाबाहो मातरं पितरं कुलम् / ये लोकास्तान्हतः कर्ण मया त्वं प्रतिपत्स्यसे // 18 कथयस्व नरेन्द्राणां येषां त्वं कुलवर्धनः / कर्ण उवाच / ततो विदित्वा पार्थस्त्वां प्रतियोत्स्यति वा न वा // 32 रङ्गोऽयं सर्वसामान्यः किमत्र तव फल्गुन / एवमुक्तस्य कर्णस्य ब्रीडावनतमाननम् / वीर्यश्रेष्ठाश्च राजन्या बलं धर्मोऽनुवर्तते // 19 बभौ वर्षाम्बुभिः क्लिन्नं पद्ममागलितं यथा // 33 कि क्षेपैर्दुर्बलाश्वासैः शरैः कथय भारत। दुर्योधन उवाच / गुरोः समक्षं यावत्ते हराम्यद्य शिरः शरैः / / 20 आचार्य त्रिविधा योनी राज्ञां शास्त्रविनिश्चये / वैशंपायन उवाच / तत्कुलीनश्च शूरश्च सेनां यश्च प्रकर्षति // 34 ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः पार्थः परपुरंजयः / यद्ययं फल्गुनो युद्धे नाराज्ञा योद्धुमिच्छति / भ्रातृभिस्त्वरयाश्लिष्टो रणायोपजगाम तम् // 21 तस्मादेषोऽङ्गविषये मया राज्येऽभिषिच्यते // 35 ततो दुर्योधनेनापि सभ्रात्रा समरोद्यतः / वैशंपायन उवाच / परिष्वक्तः स्थितः कर्णः प्रगृह्य सशरं धनुः // 22 ततस्तस्मिन्क्षणे कर्णः सलाजकुसुमैर्घटैः / ततः सविद्युत्स्तनितैः सेन्द्रायुधपुरोजवैः / काञ्चनैः काञ्चने पीठे मन्त्रविद्भिर्महारथः / -184 -
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________________ 1. 126. 36] आदिपर्व [1. 127. 24 अभिषिक्तोऽङ्गराज्ये स श्रिया युक्तो महाबलः // 36 सोऽब्रवीद्भीमकर्माणं भीमसेनमवस्थितम् / सच्छत्रवालव्यजनो जयशब्दान्तरेण च / वृकोदर न युक्तं ते वचनं वक्तुमीदृशम् / / 10 उवाच कौरवं राजा राजानं तं वृषस्तदा // 37 क्षत्रियाणां बलं ज्येष्ठं योद्धव्यं क्षत्रबन्धुना / अस्य राज्यप्रदानस्य सदृशं किं ददानि ते / शूराणां च नदीनां च प्रभवा दुर्विदाः किल // 11 प्रबृहि राजशार्दूल कर्ता ह्यस्मि तथा नृप। सलिलादुत्थितो वह्निर्येन व्याप्तं चराचरम् / अत्यन्तं संख्यमिच्छामीत्याह तं स सुयोधनः // 38 दधीचस्यास्थितो वज्रं कृतं दानवसूदनम् // 12 एवमुक्तस्ततः कर्णस्तथेति प्रत्यभाषत / आग्नेयः कृत्तिकापुत्रो रौद्रो गाङ्गेय इत्यपि / हर्षाच्चोभौ समाश्लिष्य परां मुदमवापतुः / / 39 श्रूयते भगवान्देवः सर्वगुह्यमयो गुहः // 13 . इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि क्षत्रियाभ्यश्च ये जाता ब्राह्मणास्ते च विश्रुताः / षड्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 126 // आचार्यः कलशाजातः शरस्तम्बाद्गरुः कृपः / 127 भवतां च यथा जन्म तदप्यागमितं नृपैः // 14 वैशंपायन उवाच। सकुण्डलं सकवचं दिव्यलक्षणलक्षितम् / ततः स्रस्तोत्तरपटः सप्रस्वेदः सवेपथुः / कथमादित्यसंकाशं मृगी व्याघ्र जनिष्यति // 15 विवेशाधिरथो रङ्गं यष्टिप्राणो ह्वयन्निव / / 1 पृथिवीराज्यमोऽयं नाङ्गराज्यं नरेश्वरः / तमालोक्य धनुस्त्यक्त्वा पितृगौरवयत्रितः / अनेन बाहुवीर्येण मया चाज्ञानुवर्तिना // 16 कर्णोऽभिषेकाशिराः शिरसा समवन्दत // 2 यस्य वा मनुजस्येदं न क्षान्तं मद्विचेष्टितम् / ततः पादाववच्छाद्य पटान्तेन ससंभ्रमः। रथमारुह्य पद्भ्यां वा विनामयतु कार्मुकम् // 17 पुत्रेति परिपूर्णार्थमब्रवीद्रथसारथिः / / 3 ततः सर्वस्य रङ्गस्य हाहाकारो महानभूत् / परिष्वज्य च तस्याथ मूर्धानं स्नेहविक्लवः / साधुवादानुसंबद्धः सूर्यश्चास्तमुपागमत् // 18 अङ्गराज्याभिषेकामश्रुभिः सिषिचे पुनः // 4 ततो दुर्योधनः कर्णमालम्ब्याथ करे नृप / तं दृष्ट्वा सूतपुत्रोऽयमिति निश्चित्य पाण्डवः / दीपिकाग्निकृतालोकस्तस्माद्रङ्गाद्विनिर्ययौ // 19 भीमसेनस्तदा वाक्यमब्रवीत्प्रहसन्निव // 5 पाण्डवाश्च सहद्रोणाः सकृपाश्च विशां पते / न त्वमर्हसि पार्थेन सूतपुत्र रणे वधम् / भीष्मेण सहिताः सर्वे ययुः स्खं खं निवेशनम् / / कुलस्य सदृशस्तूर्णं प्रतोदो गृह्यतां त्वया // 6 अर्जुनेति जनः कश्चित्कश्चित्कर्णेति भारत / अङ्गराज्यं च नार्हस्त्वमुपभोक्तुं नराधम / कश्चिदुर्योधनेत्येवं ब्रुवन्तः प्रस्थितास्तदा // 21 श्वा हुताशसमीपस्थं पुरोडाशमिवाध्वरे // 7 कुन्त्याश्च प्रत्यभिज्ञाय दिव्यलक्षणसूचितम् / एवमुक्तस्ततः कर्णः किंचित्प्रस्फुरिताधरः / पुत्रमङ्गेश्वरं स्नेहाच्छन्ना प्रीतिरवर्धत // 22 गगनस्थं विनिःश्वस्य दिवाकरमुदैक्षत // 8 दुर्योधनस्यापि तदा कर्णमासाद्य पार्थिव / ततो दुर्योधनः कोपादुत्पपात महाबलः / भयमर्जुनसंजातं क्षिप्रमन्तरधीयत // 23 भ्रातृपद्मवनात्तस्मान्मदोत्कट इव द्विपः / / 9 स चापि वीरः कृतशस्त्रनिश्रमः म.भा. 24 - 185 -
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________________ 1. 127. 24 ] महाभारते [1. 129.5 परेण साम्नाभ्यवदत्सुयोधनम् / सखायं मां विजानीहि पाञ्चाल यदि मन्यसे // 12 युधिष्ठिरस्याप्यभवत्तदा मति द्रुपद उवाच। ने कर्णतुल्योऽस्ति धनुर्धरः क्षितौ / / 24 अनाश्चर्यमिदं ब्रह्मन्विक्रान्तेषु महात्मसु / / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि प्रीये त्वयाहं त्वत्तश्च प्रीतिमिच्छामि शाश्वतीम् // 13 सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 127 // वैशंपायन उवाच / 128 एवमुक्तस्तु तं द्रोणो मोक्षयामास भारत / वैशंपायन उवाच। सत्कृत्य चैनं प्रीतात्मा राज्या प्रत्यपादयत् // 14 ततः शिष्यान्समानीय आचार्यार्थमचोदयत् / माकन्दीमथ गङ्गायास्तीरे जनपदायुताम् / द्रोणः सर्वानशेषेण दक्षिणार्थं महीपते // 1 सोऽध्यावसहीनमनाः काम्पिल्यं च पुरोत्तमम् / पाश्चालराज द्रुपदं गृहीत्वा रणमूर्धनि / दक्षिणांश्चैव पाञ्चालान्यावच्चर्मण्वती नदी / / 15 पर्यानयत भद्रं वः सा स्यात्परमदक्षिणा // 2 द्रोणेन वैरं द्रुपदः संस्मरन्न शशाम है / तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे रथैस्तूर्णं प्रहारिणः / क्षात्रेण च बलेनास्य नापश्यत्स पराजयम् // 16 आचार्यधनदानार्थं द्रोणेन सहिता ययुः // 3 हीनं विदित्वा चात्मानं ब्राह्मणेन बलेन च। ततोऽभिजग्मुः पाञ्चालान्निघ्नन्तस्ते नरर्षभाः / पुत्रजन्म परीप्सन्वै स राजा तदधारयत् / ममृदुस्तस्य नगरं द्रुपदस्य महौजसः // 4 / अहिच्छत्रं च विषयं द्रोणः समभिपद्यत // 17 ते यज्ञसेनं द्रुपदं गृहीत्वा रणमूर्धनि / एवं राजन्नहिच्छत्रा पुरी जनपदायुता। उपाजगुः सहामात्यं द्रोणाय भरतर्षभाः / / 5 युधि निर्जिस्य पार्थेन द्रोणाय प्रतिपादिता // 18 भमदर्प हृतधनं तथा च वशमागतम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि स वैरं मनसा ध्यात्वा द्रोणो द्रुपदमब्रवीत् // 6 अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 128 // प्रमृद्य तरसा राष्ट्र पुरं ते मृदितं मया / 129 प्राप्य जीवरिपुवशं सखिपूर्व किमिष्यते // 7 वैशंपायन उवाच / एवमुक्त्वा प्रहस्यैनं निश्चित्य पुनरब्रवीत् / प्राणाधिकं भीमसेनं कृतविद्यं धनंजयम् / मा भैः प्राणभयाद्राजन्क्षमिणो ब्राह्मणा वयम् / / 8 / दुर्योधनो लक्षयित्वा पर्यतप्यत दुर्मतिः // 1 आश्रमे क्रीडितं यत्तु त्वया बाल्ये मया सह / ततो वैकर्तनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः / तेन संवर्धितः स्नेहस्त्वया मे क्षत्रियर्षभ / / 9 अनेकैरभ्युपायैस्तांञ्जिघांसन्ति स्म पाण्डवान् // प्रार्थयेयं त्वया सख्यं पुनरेव नरर्षभ / पाण्डवाश्चापि तत्सर्वं प्रत्यजानन्नरिंदमाः / वरं ददामि ते राजनराज्यस्यार्धमवाप्नुहि // 10 उद्भावनमकुर्वन्तो विदुरस्य मते स्थिताः // 3 अराजा किल नो राज्ञां सखा भवितुमर्हति / / गुणैः समुदितान्दृष्ट्वा पौराः पाण्डुसुतांस्तदा। अतः प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन मया तव / / 11 / कथयन्ति स्म संभूय चत्वरेषु सभासु च // 4 राजासि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तरे। प्रज्ञाचक्षुरचक्षुष्वाद्धृतराष्ट्रो जनेश्वरः / - 186 -
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________________ 1. 129. 5] आदिपर्व [1. 130. 13 राज्यमप्राप्तवान्पूर्वं स कथं नृपतिर्भवेत् // 5 130 तथा भीष्मः शांतनवः सत्यसंधो महाव्रतः / वैशंपायन उवाच। प्रत्याख्याय पुरा राज्यं नाद्य जातु ग्रहीष्यति // 6 / धृतराष्ट्रस्तु पुत्रस्य श्रुत्वा वचनमीदृशम् / ते वयं पाण्डवं ज्येष्ठं तरुणं वृद्धशीलिनम् / मुहूर्तमिव संचिन्त्य दुर्योधनमथाब्रवीत् // 1 : अभिषिञ्चाम साध्वद्य सत्यं करुणवेदिनम् // 7 धर्मनित्यः सदा पाण्डुर्ममासीत्प्रियकृद्धितः।। स हि भीष्मं शांतनवं धृतराष्ट्रं च धर्मवित् / सर्वेषु ज्ञातिषु तथा मयि त्वासीद्विशेषतः // 2 सपुत्रं विविधैर्भोगैर्योजयिष्यति पूजयन् // 8 नास्य किंचिन्न जानामि भोजनादि चिकीर्षितम् / तेषां दुर्योधनः श्रुत्वा तानि वाक्यानि भाषताम् / निवेदयति नित्यं हि मम राज्यं धृतव्रतः / / 3 / / युधिष्ठिरानुरक्तानां पर्यतप्यत दुर्मतिः // 9 तस्य पुत्रो यथा पाण्डुस्तथा धर्मपरायणः / स तप्यमानो दुष्टात्मा तेषां वाचो न चक्षमे / गुणवाल्लोकविख्यातः पौराणां च सुसंमतः // 4 . ईयया चाभिसंतप्तो धृतराष्ट्रमुपागमत् // 10 स कथं शक्यमस्माभिरपक्रष्टुं बलादितः। पितृपैतामहाद्राज्यात्ससहायो विशेषतः // 5 / ततो विरहितं दृष्ट्वा पितरं प्रतिपूज्य सः / भृता हि पाण्डुनामात्या बलं च सततं भृतम् / पौरानुरागसंतप्तः पश्चादिदमभाषत // 11 भृताः पुत्राश्च पौत्राश्च तेषामपि विशेषतः // 6 श्रुता मे जल्पतां तात पौराणामशिवा गिरः / ते पुरा सत्कृतास्तात पाण्डुना पौरवा जनाः / / त्वामनादृत्य भीष्मं च पतिमिच्छन्ति पाण्डवम्॥१२ कथं युधिष्ठिरस्यार्थे न नो हन्युः सबान्धवान् // 7 मतमेतच्च भीष्मस्य न स राज्यं बुभूषति / दुर्योधन उवाच / अस्माकं तु परां पीडां चिकीर्षन्ति पुरे जनाः / / 13 एवमेतन्मया तात भावितं दोषमात्मनि / पितृतः प्राप्तवान्राज्यं पाण्डुरात्मगुणैः पुरा / दृष्ट्वा प्रकृतयः सर्वा अर्थमानेन योजिताः / / 8 त्वमप्यगुणसंयोगात्प्राप्तं राज्यं न लब्धवान् // 14 ध्रुवमस्मत्सहायास्ते भविष्यन्ति प्रधानतः। स एष पाण्डोयाद्यं यदि प्राप्नोति पाण्डवः / अर्थवर्गः सहामात्यो मत्संस्थोऽद्य महीपते // 9 तस्य पुत्रो ध्रुवं प्राप्तस्तस्य तस्येति चापरः // 15 | स भवान्पाण्डवानाशु विवासयितुमर्हति / ते वयं राजवंशेन हीनाः सह सुतैरपि। मृदुनैवाभ्युपायेन नगरं वारणावतम् // 10 अवज्ञाता भविष्यामो लोकस्य जगतीपते // 16 | यदा प्रतिष्ठितं राज्यं मयि राजन्भविष्यति / सततं निरयं प्राप्ताः परपिण्डोपजीविनः / तदा कुन्ती सहापत्या पुनरेष्यति भारत // 11 न भवेम यथा राजंस्तथा शीघ्रं विधीयताम् // 17 धृतराष्ट्र उवाच / अभविष्यः स्थिरो राज्ये यदि हि त्वं पुरा नृप / दुर्योधन ममाप्येतद्धदि संपरिवर्तते / . ध्रुवं प्राप्स्याम च वयं राज्यमप्यवशे जने // 18 अभिप्रायस्य पापत्वान्नैतत्तु विवृणोम्यहम् / / 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि न च भीष्मो न च द्रोणो न क्षत्ता न च गौतमः / एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 129 // / विवास्यमानान्कौन्तेयाननुमंस्यन्ति कर्हि चित् // 13 - 187 -
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________________ 1. 130. 14 ] महाभारते [1. 132.1. समा हि कौरवेयाणां वयमेते च पुत्रक / उवाचनानथ तदा पाण्डवानम्बिकासुतः // 6 नैते विषममिच्छेयुर्धर्मयुक्ता मनस्विनः // 14 ममेमे पुरुषा नित्यं कथयन्ति पुनः पुनः / ते वयं कौरवेयाणामेतेषां च महात्मनाम् / रमणीयतरं लोके नगरं वारणावतम् / / 7 कथं न वध्यतां तात गच्छेम जगतस्तथा // 15 ते तात यदि मन्यध्वमुत्सवं वारणावते। दुर्योधन उवाच / सगणाः सानुयात्राश्च विहरध्वं यथामराः / / 8 मध्यस्थः सततं भीष्मो द्रोणपुत्रो मयि स्थितः / ब्राह्मणेभ्यश्च रत्नानि गायनेभ्यश्च सर्वशः / यतः पुत्रस्ततो द्रोणो भविता नात्र संशयः // 16 प्रयच्छध्वं यथाकामं देवा इव सुवर्चसः // 9 कृपः शारद्वतश्चैव यत एते त्रयस्ततः / कंचित्कालं विहृत्यैवमनुभूय परां मुदम् / द्रोणं च भागिनेयं च न स त्यक्ष्यति कर्हिचित्॥१७ इदं वै हास्तिनपुरं सुखिनः पुनरेष्यथ // 10 क्षत्तार्थबद्धस्त्वस्माकं प्रच्छन्नं तु यतः परे / धृतराष्ट्रस्य तं काममनुबुवा युधिष्ठिरः / न चैकः स समर्थोऽस्मान्पाण्डवार्थे प्रबाधितुम्॥१८ आत्मनश्वासहायत्वं तथेति प्रत्युवाच तम् / / 11 . स विश्रब्धः पाण्डुपुत्रान्सह मात्रा विवासय / ततो भीष्मं महाप्राज्ञं विदुरं च महामतिम् / वारणावतमद्यैव नात्र दोषो भविष्यति // 19 द्रोणं च बाहिकं चैव सोमदत्तं च कौरवम् / / 12 विनिद्रकरणं घोरं हृदि शल्यमिवार्पितम् / कृपमाचार्यपुत्रं च गान्धारी च यशस्विनीम् / शोकपावकमुद्भुतं कर्मणैतेन नाशय / / 20 युधिष्ठिरः शनैर्दीनमुवाचेदं वचस्तदा // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि रमणीये जनाकीर्णे नगरे वारणावते / त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 130 // सगणास्तात वत्स्यामो धृतराष्ट्रस्य शासनात् // 14 . 131 प्रसन्नमनसः सर्वे पुण्या वाचो विमुञ्चत / वैशंपायन उवाच। आशीर्भिर्वर्धितानस्मान्न पापं प्रसहिष्यति // 15 ततो दुर्योधनो राजा सर्वास्ताः प्रकृतीः शनैः / एवमुक्तास्तु ते सर्वे पाण्डुपुत्रेण कौरवाः / अर्थमानप्रदानाभ्यां संजहार सहानुजः // 1 प्रसन्नवदना भूत्वा तेऽभ्यवर्तन्त पाण्डवान् // 16 धृतराष्ट्रप्रयुक्तास्तु केचित्कुशलमत्रिणः / स्वस्त्यस्तु वः पथि सदा भूतेभ्यश्चैव सर्वशः / कथयांचक्रिरे रम्यं नगरं वारणावतम् // 2 . मा च वोऽस्त्वशुभं किंचित्सर्वतः पाण्डुनन्दनाः॥१७ अयं समाजः सुमहान्रमणीयतमो भुवि / ततः कृतस्वस्त्ययना राज्यलाभाय पाण्डवाः। उपस्थितः पशुपतेर्नगरे वारणावते // 3 कृत्वा सर्वाणि कार्याणि प्रययुर्वारणावतम् // 18 सर्वरत्नसमाकीर्णे पुंसां देशे मनोरमे / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि इत्येवं धृतराष्ट्रस्य वचनाच्चक्रिरे कथाः // 4 एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 131 // कथ्यमाने तथा रम्ये नगरे वारणावते / . गमने पाण्डुपुत्राणां जज्ञे तत्र मतिर्नृप // 5 वैशंपायन उवाच / यदा त्वमन्यत नृपो जातकौतूहला इति / एवमुक्तेषु राज्ञा तु पाण्डवेषु महात्मसु / - 188 -
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________________ 1. 132. 1] आदिपर्व [1. 133.9 दुर्योधनः परं हर्षमाजगाम दुरात्मवान् // 1 अग्निस्ततस्त्वया देयो द्वारतस्तस्य वेश्मनः // 16 स पुरोचनमेकान्तमानीय भरतर्षभ / दग्धानेवं स्वके गेहे दग्धा इति ततो जनाः / गृहीत्वा दक्षिणे पाणौ सचिवं वाक्यमब्रवीत् // 2 ज्ञातयो वा वदिष्यन्ति पाण्डवार्थाय कहिचित्॥१७ ममेयं वसुसंपूर्णा पुरोचन वसुंधरा / तत्तथेति प्रतिज्ञाय कौरवाय पुरोचनः / यथेयं मम तद्वत्ते स तां रक्षितुमर्हसि // 3 प्रायाद्रासभयुक्तेन नगरं वारणावतम् // 18 न हि मे कश्चिदन्योऽस्ति वैश्वासिकतरस्त्वया। स गत्वा त्वरितो राजन्दुर्योधनमते स्थितः। सहायो येन संधाय मत्रयेयं यथा त्वया // 4 यथोक्तं राजपुत्रेण सर्वं चक्रे पुरोचनः // 19 संरक्ष तात मत्रं च सपत्नांश्च ममोद्धर। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि निपुणेनाभ्युपायेन यद्वीमि तथा कुरु // 5 . द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 132 // पाण्डवा धृतराष्ट्रण प्रेषिता वारणावतम् / 133 उत्सवे विहरिष्यन्ति धृतराष्ट्रस्य शासमात् // 6 . वैशंपायन उवाच / स त्वं रासभयुक्तेन स्यन्दनेनाशुगामिना / पाण्डवास्तु रथान्युक्त्वा सदश्वरनिलोपमैः। वारणावतमद्यैव यथा यासि तथा कुरु // 7 आरोहमाणा भीष्मस्य पादौ जगृहुरार्तवत् // 1. तत्र गत्वा चतुःशालं गृहं परमसंवृतम्। राज्ञश्च धृतराष्ट्रस्य द्रोणस्य च महात्मनः / आयुधागारमाश्रित्य कारयेथा महाधनम् // 8. अन्येषां चैव वृद्धानां विदुरस्य कृपस्य च // 2 . .' शणसर्जरसादीनि यानि द्रव्याणि कानिचित् / एवं सर्वान्कुरून्वृद्धानभिवाद्य यतव्रताः / आग्नेयान्युत सन्तीह तानि सर्वाणि दापय // 9 समालिङ्गय समानांश्च बालैश्चाप्यभिवादिताः॥३ सर्पिषा च सतैलेन लाक्षया चाप्यनल्पया। सर्वा मातस्तथापृष्ट्वा कृत्वा चैव प्रदक्षिणम् / मृत्तिकां मिश्रयित्वा त्वं लेपं कुड्येषु दापयेः // 10 सर्वाः प्रकृतयश्चैव प्रययुर्वारणावतम् // 4 शणान्वंशं घृतं दारु यत्राणि विविधानि च। विदुरश्च महाप्राज्ञस्तथान्ये कुरुपुंगवाः / तस्मिन्वेश्मनि सर्वाणि निक्षिपेथाः समन्ततः॥११ पौराश्च पुरुषव्याघ्रानन्वयुः शोककर्शिताः॥५ यथा च त्वां न शङ्करन्परीक्षन्तोऽपि पाण्डवाः। तत्र केचिद्भुवन्ति स्म ब्राह्मणा निर्भयास्तदा / आमेयमिति तत्कार्यमिति चान्ये च मानवाः // 12 शोचमानाः पाण्डुपुत्रानतीव भरतर्षभ // 6 वेश्मन्येवं कृते तत्र कृत्वा तान्परमार्चितान् / विषमं पश्यते राजा सर्वथा तमसावृतः। वासयेः पाण्डवेयांश्च कुन्तीं च ससुहृजनाम् // 13 धृतराष्ट्रः सुदुर्बुद्धिर्न च धर्मं प्रपश्यति // 7 : तत्रासनानि मुख्यानि यानानि शयनानि च / न हि पापमपापात्मा रोचयिष्यति पाण्डवः / / विधातव्यानि पाण्डूनां यथा तुष्येत मे पिता // 14 भीमो वा बलिनां श्रेष्ठः कौन्तेयो वा धनंजयः / यथा रमेरन्विश्रब्धा नगरे वारणावते। कुत एव महाप्राज्ञौ माद्रीपुत्रौ करिष्यतः॥ 8 तथा सर्व विधातव्यं यावत्कालस्य पर्ययः // 15 / तद्राज्यं पितृतः प्राप्तं धृतराष्ट्रो न मृष्यते। ज्ञात्वा तु तान्सुविश्वस्ताशयानानकुतोभयान्। / अधर्ममखिलं किं नु भीष्मोऽयमनुमन्यते। -189 -
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________________ 1. 133.9] महाभारते [1. 134.5 विवास्यमानानस्थाने कौन्तेयान्भरतर्षभान् // 9 आत्मना चात्मनः पञ्च पीडयन्नानुपीड्यते // 23 पितेव हि नृपोऽस्माकमभूच्छांतनवः पुरा / अनुशिष्ट्वानुगत्वा च कृत्वा चैनान्प्रदक्षिणम् / विचित्रवीर्यो राजर्षिः पाण्डुश्च कुरुनन्दनः // 10 पाण्डवानभ्यनुज्ञाय विदुरः प्रययौ गृहान् // 24 : स तस्मिन्पुरुषव्याने दिष्टभावं गते सति / निवृत्ते विदुरे चैव भीष्मे पौरजने तथा। / राजपुत्रानिमान्बालान्धृतराष्ट्रो न मृष्यते॥११ अजातशत्रुमामन्त्र्य कुन्ती वचनब्रवीत् // 25 : वयमेतदमृष्यन्तः सर्व एव पुरोत्तमात् / क्षत्ता यदब्रवीद्वाक्यं जनमध्येऽब्रुवन्निव / गृहान्विहाय गच्छामो यत्र याति युधिष्ठिरः // 12 त्वया च तत्तथेत्युक्तो जानीमो न च तद्वयम् // 26 तांस्तथावादिनः पौरान्दुःखितान्दुःखकर्शितः / यदि तच्छक्यमस्माभिः श्रोतुं न च सदोषवत् / उवाच परमप्रीतो धर्मराजो युधिष्ठिरः // 13 श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं संवादं तव तस्य च // 27 पिता मान्यो गुरुः श्रेष्ठो यदाह पृथिवीपतिः। * युधिष्ठिर उवाच / अशङ्कमानस्तत्कार्यमस्माभिरिति नो व्रतम् / / 14 विषादग्नेश्च बोद्धव्यमिति मां विदुरोऽब्रवीत् / . भवन्तः सुहृदोऽस्माकमस्मान्कृत्वा प्रदक्षिणम् / पन्थाश्च वो नाविदितः कश्चित्स्यादिति चाब्रवीत्॥ आशीर्भिरभिनन्द्यास्मान्निवर्तध्वं यथागृहम् // 15 जितेन्द्रियश्च वसुधां प्राप्स्यसीति च माब्रवीत् / यदा तु कार्यमस्माकं भवद्भिरुपपत्स्यते। विज्ञातमिति तत्सर्वमित्युक्तो विदुरो मया // 29 तदा करिष्यथ मम प्रियाणि च हितानि च // 16 वैशंपायन उवाच। ते तथेति प्रतिज्ञाय कृत्वा चैतान्प्रदक्षिणम् / अष्टमेऽहनि रोहिण्यां प्रयाताः फल्गुनस्य ते / आशीर्भिरभिनन्द्यैनाञ्जग्मुर्नगरमेव हि // 17 वारणावतमासाद्य ददृशुर्नागरं जनम् / / 30 पौरेषु तु निवृत्तेषु विदुरः सर्वधर्मवित् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बोधयन्पाण्डवश्रेष्ठमिदं वचनमब्रवीत् / त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 133 // प्राज्ञः प्राज्ञं प्रलापज्ञः सम्यग्धर्मार्थदर्शिवान् // 18 - 134 विज्ञायेदं तथा कुर्यादापदं निस्तरेद्यथा / ___ वैशंपायन उवाच / अलोहं निशितं शस्त्रं शरीरपरिकर्तनम् / ततः सर्वाः प्रकृतयो नगराद्वारणावतात् / यो वेत्ति न तमानन्ति प्रतिघातविदं द्विषः / / 19 सर्वमङ्गलसंयुक्ता यथाशास्त्रमतन्द्रिताः // 1 कक्षनः शिशिरनश्च महाकक्षे बिलौकसः / श्रुत्वागतान्पाण्डुपुत्रान्नानायानैः सहस्रशः / न दहेदिति चात्मानं यो रक्षति स जीवति // 20 अभिजग्मुर्वरश्रेष्ठाश्रुत्वैव परया मुदा // 2 नाचक्षुर्वेत्ति पन्थानं नाचक्षुर्विन्दते दिशः / ते समासाद्य कौन्तेयान्वारणावतका जनाः / नाधृतिर्भूतिमाप्नोति बुध्यस्वैवं प्रबोधितः // 21 कृत्वा जयाशिषः सर्वे परिवार्योपतस्थिरे // 3 अनाप्तैर्दत्तमादत्ते नरः शस्त्रमलोहजम् / तैर्वृतः पुरुषव्याघ्रो धर्मराजो युधिष्ठिरः। श्वाविच्छरणमासाद्य प्रमुच्येत हुताशनात् // 22 विबभौ देवसंकाशो वज्रपाणिरिवामरैः // 4 चरन्मार्गान्विजानाति नक्षत्रैर्विन्दते दिशः / सत्कृतास्ते तु पौरैश्च पौरान्सत्कृत्य चानघाः / - 190 -
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________________ 1. 134. 5] आदिपर्व [1. 135.2 अलंकृतं जनाकीर्णं विविशुरिणावतम् // 5 युधिष्ठिर उवाच। ते प्रविश्य पुरं वीरास्तूर्णं जग्मुरथो गृहान् / इह यत्तैर्निराकारैर्वस्तव्यमिति रोचये / ब्राह्मणानां महीपाल रतानां स्वेषु कर्मसु // 6 | नष्टैरिव विचिन्वद्भिर्गतिमिष्टां ध्रुवामितः // 19 नगराधिकृतानां च गृहाणि रथिनां तथा। यदि विन्देत चाकारमस्माकं हि पुरोचनः। उपतस्थुर्नरश्रेष्ठा वैश्यशूद्रगृहानपि // 7 / शीघ्नकारी ततो भूत्वा प्रसह्यापि दहेत नः 20 / अर्चिताश्च नरः पौरैः पाण्डवा भरतर्षभाः। नायं बिभेत्युपक्रोशादधर्माद्वा पुरोचनः / जग्मुरावसथं पश्चात्पुरोचनपुरस्कृताः॥८ तथा हि वर्तते मन्दः सुयोधनमते स्थितः // 21 तेभ्यो भक्ष्यान्नपानानि शयनानि शुभानि च। . अपि चेह प्रदग्धेषु भीष्मोऽस्मासु पितामहः / आसनानि च मुख्यानि प्रददौ स पुरोचनः // 9 कोपं कुर्यात्किमर्थं वा कौरवान्कोपयेत सः। तत्र ते सत्कृतास्तेन सुमहार्हपरिच्छदाः। धर्म इत्येव कुप्येत तथान्ये कुरुपुंगवाः // 22 : उपास्यमानाः पुरुषैरूषुः पुरनिवासिभिः // 10 वयं तु यदि दाहस्य बिभ्यतः प्रद्रवेम हि / दशरात्रोषितानां तु तत्र तेषां पुरोचनः / स्पशै! घातयेत्सर्वान्राज्यलुब्धः सुयोधनः // 23 निवेदयामास गृहं शिवाख्यमशिवं तदा // 11 अपदस्थान्पदे तिष्ठनपक्षान्पक्षसंस्थितः। तत्र ते पुरुषाव्याघ्रा विविशुः संपरिच्छदाः / हीनकोशान्महाकोशः प्रयोगैर्घातयेद्धवम् // 24 / पुरोचनस्य वचनात्कैलासमिव गुह्यकाः // 12 तदस्माभिरिमं पापं तं च पापं सुयोधनम् / तत्त्वगारमभिप्रेक्ष्य सर्वधर्मविशारदः / वञ्चयद्भिर्निवस्तव्यं छन्नवासं क्वचित्क्वचित् // 25 उवाचाग्नेयमित्येवं भीमसेनं युधिष्ठिरः / ते वयं मृगयाशीलाश्चराम वसुधामिमाम् / जिघ्रन्सोम्य वसागन्धं सर्पिर्जतुविमिश्रितम् // 13 तथा नो विदिता मार्गा भविष्यन्ति पलायताम् // कृतं हि व्यक्तमाग्नेयमिदं वेश्म परंतप / भौमं च बिलमद्यैव करवाम सुसंवृतम् / शाणसर्जरसं व्यक्तमानीतं गृहकर्मणि / गूढोच्छासान्न नस्तत्र हुताशः संप्रधक्ष्यति // 27 मुञ्जबल्वजवंशादि द्रव्यं सर्वं घृतोक्षितम् // 14 वसतोऽत्र यथा चास्मान्न बुध्येत पुरोचनः / शिल्पिभिः सुकृतं ह्याप्तैर्विनीतैर्वेश्मकर्मणि / .. पौरो वापि जनः कश्चित्तथा कार्यमतन्द्रितैः // 28 विश्वस्तं मामयं पापो दग्धुकामः पुरोचनः // 15 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि इमां तु तां महाबुद्धिर्विदुरो दृष्टवांस्तदा / चतुस्विंशदधिकशततमोऽध्यायः // 134 // आपदं तेन मां पार्थ स संबोधितवान्पुरा // 16 135 ते वयं बोधितास्तेन बुद्धवन्तोऽशिवं गृहम् / वैशंपायन उवाच। आचार्यैः सुकृतं गूढैर्दुर्योधनवशानुगैः // 17 विदुरस्य सुहृत्कश्चित्खनकः कुशलः क्वचित् / ___ भीम उवाच। विविक्ते पाण्डवान्राजन्निदं वचनमब्रवीत // 1 यदिदं गृहमाग्नेयं विहितं मन्यते भवान् / प्रहितो विदुरेणास्मि खनकः कुशलो भृशम् / खत्रैव साधु गच्छामो यत्र पूर्वोषिता वयम् // 18 / पाण्डवानां प्रियं कार्यमिति किं करवाणि वः // 2 - 191 -
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________________ 1. 135. 3] महाभारते [1. 136.9 प्रच्छन्नं विदुरेणोक्तः श्रेयस्त्वमिह पाण्डवान् / पुरोचनभयाच्चैव व्यदधात्संवृतं मुखम् / प्रतिपादय विश्वासादिति किं करवाणि वः 3 स तत्र च गृहद्वारि वसत्यशुभधीः सदा // 18 कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रात्रावस्य पुरोचनः / तत्र ते सायुधाः सर्वे वसन्ति स्म क्षपां नृप / भवनस्य तव द्वारि प्रदास्यति हुताशनम् // 4 दिवा चरन्ति मृगयां पाण्डवेया वनाद्वनम् // 19 मात्रा सह प्रदग्धव्याः पाण्डवाः पुरुषर्षभाः / विश्वस्तवदविश्वस्ता वञ्चयन्तः पुरोचनम् / ' इति व्यवसितं पार्थ धार्तराष्ट्रस्य मे श्रुतम् // 5 अतुष्टास्तुष्टवद्राजन्नूषुः परमदुःखिताः // 20 किंचिच्च विदुरेणोक्तो म्लेच्छवाचासि पाण्डव / न चैनानन्वबुध्यन्त नरा नगरवासिनः / त्वया च तत्तथेत्युक्तमेतद्विश्वासकारणम् // 6 अन्यत्र विदुरामात्यात्तस्मात्खनकसत्तमात् // 21 उवाच तं सत्यधृतिः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अभिजानामि सौम्य त्वां सुहृदं विदुरस्य वै॥७। पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 135 // शुचिमाप्तं प्रियं चैव सदा च दृढभक्तिकम् / न विद्यते कवेः किंचिदभिज्ञानप्रयोजनम् // 8 वैशंपायन उवाच। यथा नः स तथा नस्त्वं निर्विशेषा वयं त्वयि / / तांस्तु दृष्ट्वा सुमनसः परिसंवत्सरोषितान् / भवतः स्म यथा तस्य पालयास्मान्यथा कविः / / 9 / विश्वस्तानिव संलक्ष्य हर्षं चक्रे पुरोचनः // 1 इदं शरणमाग्नेयं मदर्थमिति मे मतिः / पुरोचने तथा हृष्टे कौन्तेयोऽथ युधिष्ठिरः। . पुरोचनेन विहितं धार्तराष्ट्रस्य शासनात् // 10 भीमसेनार्जुनौ चैव यमौ चोवाच धर्मवित् // 2 स पापः कोशवांश्चैव ससहायश्च दुर्मतिः / अस्मानयं सुविश्वस्तान्वेत्ति पापः पुरोचनः / अस्मानपि च दुष्टात्मा नित्यकालं प्रबाधते // 11 वश्चितोऽयं नशंसात्मा कालं मन्ये पलायने // 3 स भवान्मोक्षयत्वस्मान्यत्नेनास्माद्भुताशनात् / आयुधागारमादीप्य दग्ध्वा चैव पुरोचनम् / अस्मास्विह हि दग्धेषु सकामः स्यात्सुयोधनः // 12 षट् प्राणिनो निधायेह द्रवामोऽनभिलक्षिताः // 4 समृद्धमायुधागारमिदं तस्य दुरात्मनः / अथ दानापदेशेम कुन्ती ब्राह्मणभोजनम् / वप्रान्ते निष्प्रतीकारमाश्लिष्येदं कृतं महत् / / 13 चक्रे निशि महद्राजन्नाजग्मुस्तत्र योषितः॥ 5 इदं तदशुभं नूनं तस्य कर्म चिकीर्षितम् / ता विहृत्य यथाकामं भुक्त्वा पीत्वा च भारत / प्रागेव विदुरो वेद तेनास्मानन्वबोधयत् / / 14 / जग्मुर्निशि गृहानेव समनुज्ञाप्य माधवीम् // 6 सेयमापदनुप्राप्ता क्षत्ता यां दृष्टवान्पुरा। निषादी पञ्चपुत्रा तु तस्मिभोज्ये यदृच्छया / पुरोचनस्याविदितानस्मांस्त्वं विप्रमोचय / / 15 / अन्नार्थिनी समभ्यागात्सपुत्रा कालचोदिता // 7 स तथेति प्रतिश्रुत्य खनको यत्नमास्थितः। सा पीत्वा मदिरां मत्ता सपुत्रा मदविह्वला / परिखामुत्किरन्नाम चकार सुमहद्विलम् / / 16 सह सर्वैः सुतै राजस्तस्मिन्नेव निवेशने / चक्रे च वेश्मनस्तस्य मध्ये नातिमहन्मुखम् / सुष्वाप विगतज्ञाना मृतकल्पा नराधिप // 8 कपाटयुक्तमज्ञातं समं भूम्या च भारत / / 17 अथ प्रवाते तुमुले निशि सुप्ते जने विभो / -192 -
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________________ 1. 136.9] आदिपर्व [1. 137. 17 तदुपादीपयद्भीमः शेते यत्र पुरोचनः // 9 जातुषं तद्गृहं दग्धममात्यं च पुरोचनम् // 2 ततः प्रतापः सुमहाशब्दश्चैव विभावसोः / नूनं दुर्योधनेनेदं विहितं पापकर्मणा। प्रादुरासीत्तदा तेन बुबुधे स जनवजः // 10 पाण्डवानां विनाशाय इत्येवं चुक्रुशुर्जनाः // 3 पौरा ऊचुः। विदिते धृतराष्ट्रस्य धार्तराष्ट्रो न संशयः / दुर्योधनप्रयुक्तेन पापेनाकृतबुद्धिना। दग्धवान्पाण्डुदायादान्न ह्येदं प्रतिषिद्धवान् // 4 गृहमात्मविनाशाय कारितं दाहितं च यत् // 11 नूनं शांतनवो भीष्मो न धर्ममनुवर्तते। अहो धिग्धृतराष्ट्रस्य बुद्धिर्नातिसमञ्जसी। द्रोणश्च विदुरश्चैव कृपश्चान्ये च कौरवाः // 5 यः शुचीन्पाण्डवान्बालान्दाहयामास मत्रिणा // 12 ते वयं धृतराष्ट्रस्य प्रेषयामो दुरात्मनः / दिष्ट्या त्विदानी पापात्मा दग्धोऽयमतिदुर्मतिः। संवृत्तस्ते परः कामः पाण्डवान्दग्धवानसि // 6 अनागसः सुविश्वस्तान्यो ददाह नरोत्तमान // 13 ततो व्यपोहमानास्ते पाण्डवार्थे हुताशनम् / वैशंपायन उवाचं। निषादी ददृशुर्दग्धां पञ्चपुत्रामनागसम् // 7 एवं ते विलपन्ति स्म वारणावतका जनाः / खनकेन तु तेनैव वेश्म शोधयता बिलम् / परिवार्य गृहं तञ्च तस्थू रात्रौ समन्ततः // 14 पांसुभिः प्रत्यपिहितं पुरुषैस्तैरलक्षितम् // 8 पाण्डवाश्चापि ते राजन्मात्रा सह सुदुःखिताः / ततस्ते प्रेषयामासुधृतराष्ट्रस्य नागराः। बिलेन तेन निर्गत्य जग्मुगूढमलक्षिताः // 15 पाण्डवानमिना दग्धानमात्यं च पुरोचनम् // 9 तेन निद्रोपरोधेन साध्वसेन च पाण्डवाः। श्रुत्वा तु धृतराष्ट्रस्तद्राजा सुमहदप्रियम् / न शेकुः सहसा गन्तुं सह मात्रा परंतपाः 16 विनाशं पाण्डुपुत्राणां विललाप सुदुःखितः // 10 भीमसेनस्तु राजेन्द्र भीमवेगपराक्रमः / अद्य पाण्डुम॒तो राजा भ्राता मम सुदुर्लभः / जगाम भ्रातृनादाय सर्वान्मातरमेव च // 17 तेषु वीरेषु दग्धेषु मात्रा सह विशेषतः // 11 स्कन्धमारोप्य जननी यमावङ्केन वीर्यवान् / गच्छन्तु पुरुषाः शीघ्रं नगरं वारणावतम्। पार्थों गृहीत्वा पाणिभ्यां भ्रातरौ सुमहाबलौ // 18 / सत्कारयन्तु तान्वीरान्कुन्तिराजसुतां च ताम् // 12 तरसा पादपान्भञ्जन्महीं पद्भ्यां विदारयन् / कारयन्तु च कुल्यानि शुभ्राणि च महान्ति च। स जगामाशु तेजस्वी वातरंहा वृकोदरः॥ 19 ये च तत्र मृतास्तेषां सुहृदोऽर्चन्तु तानपि // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि एवंगते मया शक्यं यद्यत्कारयितुं हितम् / षटत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 136 // पाण्डवानां च कुन्त्याश्च तत्सर्वं क्रियतां धनैः // 14 137 एवमुक्त्वा ततश्चक्रे ज्ञातिभिः परिवारितः / वैशंपायन उवाच / उदकं पाण्डुपुत्राणां धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः॥ 15 अथ रात्र्यां व्यतीतायामशेषो नागरो जनः / चुक्रुशुः कौरवाः सर्वे भृशं शोकपरायणाः / तत्राजगाम त्वरितो दिदृक्षुः पाण्डुनन्दनान् // 1 विदुरस्त्वल्पशश्चक्रे शोकं वेद परं हि सः॥ 16 निर्वापयन्तो ज्वलनं ते जना ददृशुस्ततः / पाण्डवाश्चापि निर्गत्य नगराद्वारणावतात् / म. भा, 25 - 193 -
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________________ 1. 137. 17 ] महाभारते [1. 138. 21 जवेन प्रययू राजन्दक्षिणां दिशमाश्रिताः // 17 अप्रकाशा दिशः सर्वा वातैरासन्ननार्तवैः // 7 विज्ञाय निशि पन्थानं नक्षत्रैर्दक्षिणामुखाः / ते श्रमेण च कौरव्यास्तृष्णया च प्रपीडिताः। यतमाना वनं राजन्गहनं प्रतिपेदिरे // 18 नाशक्नुवंस्तदा गन्तुं निद्रया च प्रवृद्धया // 8 ततः श्रान्ताः पिपासार्ता निद्रान्धाः पाण्डुनन्दनाः। ततो भीमो वनं घोरं प्रविश्य विजनं महत् / पुनरूचुर्महावीर्यं भीमसेनमिदं वचः॥ 19 / न्यग्रोधं विपुलच्छायं रमणीयमुपाद्रवत् // 9 इतः कष्टतरं किं नु यद्वयं गहने वने। तत्र निक्षिप्य तान्सर्वानुवाच भरतर्षभः / दिशश्च न प्रजानीमो गन्तुं चैव न शक्नुमः // 20 पानीयं मृगयामीह विश्रमध्वमिति प्रभो॥ 10 तं च पापं न जानीमो यदि दग्धः पुरोचनः / एते रुवन्ति मधुरं सारसा जलचारिणः / कथं तु विप्रमुच्येम भयादस्मादलक्षिताः // 21 ध्रुवमत्र जलस्थायो महानिति मतिर्मम // 11 पुनरस्मानुपादाय तथैव व्रज भारत / अनुज्ञातः स गच्छेति भ्रात्रा ज्येष्ठेन भारत / त्वं हि नो बलवानेको यथा सततगस्तथा // 22 जगाम तत्र यत्र स्म रुवन्ति जलचारिणः // 12 इत्युक्तो धर्मराजेन भीमसेनो महाबलः / स तत्र पीत्वा पानीयं स्नात्वा च भरतर्षभ / आदाय कुन्तीं भ्रातूंश्च जगामाशु महाबलः // 23 उत्तरीयेण पानीयमाजहार तदा नृप // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि गव्यूतिमात्रादागत्य त्वरितो मातरं प्रति / सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 137 // स सुप्तां मातरं दृष्ट्वा भ्रातृ॑श्च वसुधातले।। 138 भृशं दुःखपरीतात्मा विललाप वृकोदरः // 14 वैशंपायन उवाच / शयनेषु परार्येषु ये पुरा वारणावते / तेन विक्रमता तूर्णमूरुवेगसमीरितम् / नाधिजग्मुस्तदा निद्रां तेऽद्य सुप्ता महीतले // 15 प्रववावनिलो राजन्शुचिशुक्रागमे यथा // 1 स्वसारं वसुदेवस्य शत्रुसंघावमर्दिनः। स मृद्गन्पुष्पितांश्चैव फलितांश्च वनस्पतीन् / कुन्तिभोजसुतां कुन्तीं सर्वलक्षणपूजिताम् // 16 . आरुजन्दारुगुल्मांश्च पथस्तस्य समीपजान् // 2 स्नुषां विचित्रवीर्यस्य भार्यां पाण्डोर्महात्मनः / तथा वृक्षान्भञ्जमानो जगामामितविक्रमः / प्रासादशयनां नित्यं पुण्डरीकान्तरप्रभाम् // 17 तस्य वेगेन पाण्डूनां मूर्छव समजायत // 3 सुकुमारतरां स्त्रीणां महार्हशयनोचिताम् / असकृच्चापि संतीर्य दूरपारं भुजप्लवैः / शयानां पश्यतायेह पृथिव्यामतथोचिताम् // 18 पथि प्रच्छन्नमासेदुर्धार्तराष्ट्रभयात्तदा // 4 धर्मादिन्द्राच्च वायोश्च सुषुवे या सुतानिमान् / कृच्छ्रेण मातरं त्वेका सुकुमारी यशस्विनीम् / सेयं भूमौ परिश्रान्ता शेते ह्यद्यातथोचिता // 19 अवहत्तत्र पृष्ठेन रोधःसु विषमेषु च // 5 किं नु दुःखतरं शक्यं मया द्रष्टुमतः परम् / आगमस्ते वनोद्देशमल्पमूलफलोदकम् / / योऽहमद्य नरव्याघ्रान्सुप्तान्पश्यामि भूतले // 20 क्रूरपक्षिमृगं घोरं सायाह्ने भरतर्षभाः // 6 त्रिषु लोकेषु यद्राज्यं धर्मविद्योऽर्हते नृपः / घोरा समभवत्संध्या दारुणा मृगपक्षिणः / सोऽयं भूमौ परिश्रान्तः शेते प्राकृतवत्कथम् // 21 - 194 -
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________________ 1. 138. 22] आदिपर्व [1. 139. 17 अयं नीलाम्बुदश्यामो नरेष्वप्रतिमो भुवि / ऊर्ध्वाङ्गुलिः स कण्डूयन्धुन्वन्रूक्षाशिरोरुहान् / शेते प्राकृतवद्भूमावतो दुःखतरं नु किम् // 22 जृम्भमाणो महावक्त्रः पुनः पुनरवेक्ष्य च // 3 अश्विनाविव देवानां याविमौ रूपसंपदा / दुष्टो मानुषमांसादो महाकायो महाबलः / तौ प्राकृतवदद्यमौ प्रसुप्तौ धरणीतले / / 23 आघाय मानुषं गन्धं भगिनीमिदमब्रवीत् // 4 ज्ञातयो यस्य नैव स्युर्विषमाः कुलपांसनाः / उपपन्नश्चिरस्याद्य भक्षो मम मनःप्रियः / स जीवेत्सुसुखं लोके ग्रामे द्रुम इवैकजः॥२४ स्नेहस्रवान्प्रस्रवति जिह्वा पर्येति मे मुखम् // 5 एको वृक्षो हि यो ग्रामे भवेत्पर्णफलान्वितः / अष्टौ दंष्ट्राः सुतीक्ष्णाग्राश्चिरस्यापातदुःसहाः / चैत्यो भवति नि तिरर्चनीयः सुपूजितः // 25 देहेषु मज्जयिष्यामि स्निग्धेषु पिशितेषु च // 6 येषां च बहवः शूरा ज्ञातयो धर्मसंश्रिताः। आक्रम्य मानुषं कण्ठमाच्छिद्य धमनीमपि / ते जीवन्ति सुखं लोके भवन्ति च निरामयाः।।२६ उष्णं नवं प्रपास्यामि फेनिलं रुधिरं बहु // 7 बलवन्तः समृद्धार्था मित्रबान्धवनन्दनाः / गच्छ जानीहि के त्वेते शेरते वनमाश्रिताः / जीवन्त्यन्योन्यमाश्रित्य द्रमाः काननजा इव // 27 मानुषो बलवान्गन्धो घ्राणं तर्पयतीव मे // 8 वयं तु धृतराष्ट्रेण सपुत्रेण दुरात्मना / हत्वैतान्मानुषान्सर्वानानयस्व ममान्तिकम् / विवासिता न दग्धाश्च कथंचित्तस्य शासनात् // 28 अस्मद्विषयसुप्तेभ्यो नैतेभ्यो भयमस्ति ते // 9 तस्मान्मुक्ता वयं दाहादिमं वृक्षमुपाश्रिताः / एषां मांसानि संस्कृत्य मानुषाणां यथेष्टतः / कां दिशं प्रतिपत्स्यामः प्राप्ताः केशमनुत्तमम् // 29 भक्षयिष्याव सहितौ कुरु तूर्णं वचो मम // 10 नातिदूरे च नगरं वनादस्माद्धि लक्षये। . भ्रातुर्वचनमाज्ञाय त्वरमाणेव राक्षसी / जागर्तव्ये स्वपन्तीमे हन्त जागर्म्यहं स्वयम् // 30 जगाम तत्र यत्र स्म पाण्डवा भरतर्षभ // 11 पास्यन्तीमे जलं पश्चात्प्रतिबुद्धा जितक्लमाः / ददर्श तत्र गत्वा सा पाण्डवान्पृथया सह / इति.भीमो व्यवस्यैव जजागार स्वयं तदा // 31 शयानान्भीमसेनं च जाग्रतं त्वपराजितम् // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि दृष्ट्वैव भीमसेनं सा शालस्कन्धमिवोद्गतम्। अष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 138 // राक्षसी कामयामास रूपेणाप्रतिमं भुवि // 13 ॥समाप्तं जतुगृहदाहपर्व // अयं श्यामो महाबाहुः सिंहस्कन्धो महाद्युतिः / 139 कम्बुग्रीवः पुष्कराक्षो भर्ता युक्तो भवेन्मम / / 14 वैशंपायन उवाच / नाहं भ्रातृवचो जातु कुर्यां क्रूरोपसंहितम् / तत्र तेषु शयानेषु हिडिम्बो नाम राक्षसः / पतिस्नेहोऽतिबलवान्न तथा भ्रातृसौहृदम् // 15 अविदूरे वनात्तस्माच्छालवृक्षमुपाश्रितः // 1 मुहूर्तमिव तृप्तिश्च भवेद्धातुर्ममैव च / क्रूरो मानुषमांसादो महावीर्यो महाबलः / हतैरेतैरहत्वा तु मोदिष्ये शाश्वतीः समाः॥ 16 विरूपरूपः पिङ्गाक्षः करालो घोरदर्शनः / सा कामरूपिणी रूपं कृत्वा मानुषमुत्तमम् / पिशितेप्सुः क्षुधार्तस्तानपश्यत यदृच्छया // 2 उपतस्थे महाबाहुं भीमसेनं शनैः शनैः / / 17 - 195 -
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________________ 1. 139. 18 ] महाभारते [1. 140. 11 विलज्जमानेव लता दिव्याभरणभूषिता / न मनुष्या न गन्धर्वा न यक्षाश्चारुलोचने // 31 स्मितपूर्वमिदं वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत् // 18 गच्छ वा तिष्ठ वा भद्रे यद्वापीच्छसि तत्कुरु / कुतस्त्वमसि संप्राप्तः कश्चासि पुरुषर्षभ / तं वा प्रेषय तन्वङ्गि भ्रातरं पुरुषादकम् // 32 क इमे शेरते चेह पुरुषा देवरूपिणः // 19 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि केयं च बृहती श्यामा सुकुमारी तवानघ / एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 139 // शेते वनमिदं प्राप्य विश्वस्ता स्वगृहे यथा // 20 140 नेदं जानाति गहनं वनं राक्षससेवितम् / वैशंपायन उवाच / वसति ह्यत्र पापात्मा हिडिम्बो नाम राक्षसः // 21 तां विदित्वा चिरगतां हिडिम्बो राक्षसेश्वरः / तेनाहं प्रेषिता भ्रात्रा दुष्टभावेन रक्षसा / अवतीर्य द्रुमात्तस्मादाजगामाथ पाण्डवान् // 1 बिभक्षयिषता मांसं युष्प्राकममरोपम // 22 लोहिताक्षो महाबाहुरूर्वकेशो महाबलः / साहं त्वामभिसंप्रेक्ष्य देवगर्भसमप्रभम् / मेघसंघातवा च तीक्ष्णदंष्ट्रोज्वलाननः // 2 नान्यं भर्तारमिच्छामि सत्यमेतद्ब्रवीमि ते // 23 तमापतन्तं दृष्ट्वैव तथा विकृतदर्शनम्। एतद्विज्ञाय धर्मज्ञ युक्तं मयि समाचर / हिडिम्बोवाच वित्रस्ता भीमसेनमिदं वचः // 3 कामोपहतचित्ताङ्गी भजमानां भजस्व माम् // 24 आपतत्येष दुष्टात्मा संक्रुद्धः पुरुषादकः / त्रास्येऽहं त्वां महाबाहो राक्षसात्पुरुषादकात् / त्वामहं भ्रातृभिः सार्धं यद्भवीमि तथा कुरु // 4 वत्स्यावो गिरिदुर्गेषु भर्ता भव ममानघ // 25 अहं कामगमा वीर रक्षोबलसमन्विता / अन्तरिक्षचरा ह्यस्मि कामतो विचरामि च / आरुहेमां मम श्रोणी नेष्यामि त्वां विहायसा // 5 अतुलामाप्नुहि प्रीतिं तत्र तत्र मया सह // 26 प्रबोधयनान्संसुप्तान्मातरं च परंतप / भीम उवाच / सर्वानेव गमिष्यामि गृहीत्वा वो विहायसा // 6 मातरं भ्रातरं ज्येष्ठं कनिष्ठानपरानिमान् / भीम उवाच / परित्यजेत को न्वद्य प्रभवन्निव राक्षसि // 27 मा भैस्त्वं विपुलश्रोणि नैष कश्चिन्मयि स्थिते / को हि सुप्तानिमान्भ्रातृन्दत्त्वा राक्षसभोजनम् / अहमेनं हनिष्यामि प्रेक्षन्त्यास्ते सुमध्यमे // 7 मातरं च नरो गच्छेत्कामार्त इव मद्विधः // 28 नायं प्रतिबलो भीरु राक्षसापसदो मम / राक्षस्युवाच। सोढुं युधि परिस्पन्दमथ वा सर्वराक्षसाः // 8 यत्ते प्रियं तत्करिष्ये सर्वानेतान्प्रबोधय / पश्य बाहू सुवृत्तौ मे हस्तिहस्तनिभाविमौ / मोक्षयिष्यामि वः कामं राक्षसात्पुरुषादकात् // 29 ऊरू परिघसंकाशौ संहतं चाप्युरो मम // 9 भीम उवाच / विक्रमं मे यथेन्द्रस्य साद्य द्रक्ष्यसि शोभने / सुखसुप्तावने भ्रातृन्मातरं चैव राक्षसि / मावमस्थाः पृथुश्रोणि मत्वा मामिह मानुषम् // 10 न भयाद्बोधयिष्यामि भ्रातुस्तव दुरात्मनः // 30 हिडिम्बोवाच / न हि मे राक्षसा भीरु सोढुं शक्ताः पराक्रमम् / नावमन्ये नरव्याघ्र त्वामहं देवरूपिणम् / - 196 -
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________________ 1. 140. 11] आदिपर्व [1. 141. 16 दृष्टापदानस्तु मया मानुषेष्वेव राक्षसः // 11 मय्येव प्रहरैहि त्वं न स्त्रियं हन्तुमर्हसि / वैशंपायन उवाच / विशेषतोऽनपकृते परेणापकृते सति // 3 तथा संजल्पतस्तस्य भीमसेनस्य भारत / न हीयं स्ववशा बाला कामयत्यद्य मामिह / वाचः शुश्राव ताः क्रुद्धो राक्षसः पुरुषादकः // 12 चोदितैषा ह्यनङ्गेन शरीरान्तरचारिणा। अवेक्षमाणस्तस्याश्च हिडिम्बो मानुषं वपुः / भगिनी तव दुर्बुद्धे राक्षसानां यशोहर // 4 स्रग्दामपूरितशिखं समग्रेन्दुनिभाननम् // 13 त्वन्नियोगेन चैवेयं रूपं मम समीक्ष्य च / सुभ्रूनासाक्षिकेशान्तं सुकुमारनखत्वचम् / कामयत्यद्य मां भीरु३षा दूषयते कुलम् // 5 . सर्वाभरणसंयुक्तं सुसूक्ष्माम्बरवाससम् // 14 . अनङ्गेन कृते दोषे नेमां त्वमिह राक्षस / / तां तथा मानुषं रूपं बिभ्रतीं सुमनोहरम् / मयि तिष्ठति दुष्टात्मन्न स्त्रियं हन्तुमर्हसि // 6 . पुंस्कामां शङ्कमानश्च चुक्रोध पुरुषादकः // 15 समागच्छ मया सार्धमेकेनैको नराशन / संक्रुद्धो राक्षसस्तस्या भगिन्याः कुरुसत्तम / अहमेव नयिष्यामि त्वामद्य यमसादनम् / / 7 उत्फाल्य विपुले नेत्रे ततस्तामिदमब्रवीत् // 16 अद्य ते तलनिष्पिष्टं शिरो राक्षस दीर्यताम् / को हि मे भोक्तुकामस्य विघ्नं चरति दुर्मतिः। कुञ्जरस्येव पादेन विनिष्पिष्टं बलीयसः // 8 न बिभेषि हिडिम्बे किं मत्कोपाद्विप्रमोहिता // 17 अद्य गात्राणि क्रव्यादाः श्येना गोमायवश्च ते। धिक्त्वामसति पुंस्कामे मम विप्रियकारिणि / कर्षन्तु भुवि संहृष्टा निहतस्य मया मृधे // 9. . पूर्वेषां राक्षसेन्द्राणां सर्वेषामयशस्करि / / 18 क्षणेनाद्य करिष्येऽहमिदं वनमकण्टकम् / यानिमानाश्रिताकार्षीरप्रियं सुमहन्मम / पुरस्ताइषितं नित्यं त्वया भक्षयता नरान् // 10 एष तानद्य वै सर्वान्हनिष्यामि त्वया सह // 19 अद्य त्वां भगिनी पाप कृष्यमाणं मया भुवि / एवमुक्त्वा हिडिम्बां स हिडिम्बो लोहितेक्षणः / द्रक्षत्यद्रिप्रतीकाशं सिंहेनेव महाद्विपम् // 11 वधायाभिपपातैनां दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन् // 20 निराबाधास्त्वयि हते मया राक्षसपांसन / तमापतन्तं संप्रेक्ष्य भीमः प्रहरतां वरः। . वनमेतच्चरिष्यन्ति पुरुषा वनचारिणः // 12 भर्सयामास तेजस्वी तिष्ठ तिष्ठेति चाब्रवीत् // 21 हिडिम्ब उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि गर्जितेन वृथा किं ते कत्थितेन च मानुष / चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 140 // कृत्वैतत्कर्मणा सर्व कत्थेथा मा चिरं कृथाः // 13 141 बलिनं मन्यसे यच्च आत्मानमपराक्रमम् / - वैशंपायन उवाच। ज्ञास्यस्यद्य समागम्य मयात्मानं बलाधिकम् / / 14 भीमसेनस्तु तं दृष्ट्वा राक्षसं प्रहसन्निव। न तावदेतान्हिसिष्ये स्वपन्त्वेते यथासुखम् / भगिनी प्रति संक्रुद्धमिदं वचनमब्रवीत् // 1 एष त्वामेव दुर्बुद्धे निहन्म्यद्याप्रियंवदम् // 15 किं ते हिडिम्ब एतैर्वा सुखसुप्तैः प्रबोधितैः / पीत्वा तवासृग्गात्रेभ्यस्ततः पश्चादिमानपि / मामासादय दुर्बुद्धे तरसा त्वं नराशन // 2 हनिष्यामि ततः पश्चादिमां विप्रियकारिणीम् // 16 - 197 -
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________________ 1. 141. 17 ] महाभारते [1. 142. 18 वैशंपायन उवाच। हिडिम्बोवाच। एवमुक्त्वा ततो बाहुं प्रगृह्य पुरुषादकः / यदेतत्पश्यसि वनं नीलमेघनिभं महत् / अभ्यधावत संक्रुद्धो भीमसेनमरिंदमम् // 17 निवासो राक्षसस्यैतद्धिडिम्बस्य ममैव च // 5 तस्याभिपततस्तूर्णं भीमो भीमपराक्रमः। तस्य मां राक्षसेन्द्रस्य भगिनीं विद्धि भामिनि / वेगेन प्रहृतं बाहुं निजग्राह हसन्निव // 18 भ्रात्रा संप्रेषितामार्ये त्वां सपुत्रां जिघांसता॥६ निगृह्य तं बलाद्भीमो विस्फुरन्तं चकर्ष ह। क्रूरबुद्धेरहं तस्य वचनादागता इह / तस्माद्देशाद्धनूंष्यष्टौ सिंहः क्षुद्रमृगं यथा // 19 अद्राक्षं हेमवर्णाभं तव पुत्रं महौजसम् // 7 ततः स राक्षसः क्रुद्धः पाण्डवेन बलाद्धृतः / ततोऽहं सर्वभूतानां भावे विचरता शुभे। भीमसेनं समालिङ्गय व्यनदरैरवं रवम् // 20 चोदिता तव पुत्रस्य मन्मथेन वशानुगा / / 8 पुनर्भीमो बलादेनं विचकर्ष महाबलः / ततो वृतो मया भर्ता तव पत्रो महाबलः / मा शब्दः सुखसुप्तानां भ्रातृणां मे भवेदिति // 21 अपनेतुं च यतितो न चैव शकितो मया // 9 . अन्योन्यं तौ समासाद्य विचकर्षतुरोजसा। चिरायमाणां मां ज्ञात्वा ततः स पुरुषादकः / राक्षसो भीमसेनश्च विक्रमं चक्रतुः परम् // 22 स्वयमेवागतो हन्तुमिमान्सर्वांस्तवात्मजान् // 10 बभञ्जतुर्महावृक्षालँलताश्चाकर्षतुस्ततः / . स तेन मम कान्तेन तव पुत्रेण धीमता। मत्ताविव सुसंरब्धौ वारणौ षष्टिहायनौ // 23 बलादितो विनिष्पिष्य व्यपकृष्टो महात्मना // 11 तयोः शब्देन महता विबुद्धास्ते नरर्षभाः / विकर्षन्तौ महावेगौ गर्जमानो परस्परम् / . पश्यध्वं युधि विक्रान्तावेतौ तौ नरराक्षसौ // 12 सह मात्रा तु ददृशुर्हिडिम्बामग्रतः स्थिताम् / / 24 वैशंपायन उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 141 // तस्याः श्रुत्वैव वचनमुत्पपात युधिष्ठिरः। अर्जुनो नकुलश्चैव सहदेवश्च वीर्यवान् // 13 तो ते ददृशुरासक्तौ विकर्षन्तौ परस्परम् / वैशंपायन उवाच / कामाणौ जयं चैव सिंहाविव रणोत्कटौ // 14 प्रबुद्धास्ते हिडिम्बाया रूपं दृष्ट्वातिमानुषम् / तावन्योन्यं समाश्लिष्य विकर्षन्ती परस्परम् / विस्मिताः पुरुषव्याघ्रा बभूवुः पृथया सह // 1 दावाग्निधूमसदृशं चक्रतुः पार्थिवं रजः / / 15 ततः कुन्ती समीक्ष्यैनां विस्मिता रूपसंपदा / वसुधारेणुसंवीतौ वसुधाधरसंनिभौ / उवाच मधुरं वाक्यं सान्त्वपूर्वमिदं शनैः // 2 विभ्राजेतां यथा शैलौ नीहारेणाभिसंवृतौ // 16 कस्य त्वं सुरगर्भाभे का चासि वरवर्णिनि / राक्षसेन तथा भीमं क्लिश्यमानं निरीक्ष्य तु। केन कार्येण सुश्रोणि कुतश्चागमनं तव // 3 उवाचेदं वचः पार्थः प्रहसझनकैरिव // 17 यदि वास्य वनस्यासि देवता यदि वाप्सराः / भीम मा भैर्महाबाहो न त्वां बुध्यामहे वयम् / आचक्ष्व मम तत्सर्वं किमर्थं चेह तिष्ठसि // 4 / समेतं भीमरूपेण प्रसुप्ताः श्रमकर्शिताः // 18 - 198 -
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________________ 1. 142. 19 ] आदिपर्व [1. 143. 8 साहाय्येऽस्मि स्थितः पार्थ योधयिष्यामि राक्षसम्।। हिडिम्ब निहतं दृष्ट्वा संहृष्टास्ते तरस्विनः। नकुलः सहदेवश्च मातरं गोपयिष्यतः // 19 अपूजयन्नरव्याघ्र भीमसेनमरिंदमम् // 31 भीम उवाच / / अभिपूज्य महात्मानं भीमं भीमपराक्रमम् / उदासीनो निरीक्षस्व न कार्यः संभ्रमस्त्वया। पुनरेवार्जुनो वाक्यमुवाचेदं वृकोदरम् // 32 न जात्वयं पुनर्जीवेन्मद्वाह्वन्तरमागतः // 20 नदुरे नगरं मन्ये वनादस्मादहं प्रभो / अर्जुन उवाच / शीघ्रं गच्छाम भद्रं ते न नो विद्यात्सुयोधनः॥३३ किमनेन चिरं भीम जीवता पापरक्षसा / ततः सर्वे तथेत्युक्त्वा सह मात्रा परंतपाः / गन्तव्यं न चिरं स्थातुमिह शक्यमरिंदम // 21 प्रययुः पुरुषव्याघ्रा हिडिम्बा चैव राक्षसी // 34 पुरा संरज्यते प्राची पुरा संध्या प्रवर्तते / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि रौद्रे मुहूर्ते रक्षांसि प्रबलानि भवन्ति च // 22 द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 142 // त्वरस्व भीम मा क्रीड जहि रक्षो 'विभीषणम् / // समाप्त हिडिम्बवधपर्व / पुरा विकुरुते मायां भुजयोः सारमर्पय // 23 143 वैशंपायन उवाच / ____ भीम उवाच। अर्जुनेनैवमुक्तस्तु भीमो भीमस्य रक्षसः। स्मरन्ति वैरं रक्षांसि मायामाश्रित्य मोहिनीम् / उत्क्षिप्याभ्रामयदेहं तूर्णं गुणशताधिकम् // 24 हिडिम्बे व्रज पन्थानं त्वं वै भ्रातृनिषेवितम् // 1 भीम उवाच / युधिष्ठिर उवाच / वृथामांसैर्वृथा पुष्टो वृथा वृद्धो वृथामतिः / क्रुद्धोऽपि पुरुषव्याघ्र भीम मा स्म स्त्रियं वधीः / वृथामरणमर्हस्त्वं वृथाद्य न भविष्यसि // 25 शरीरगुप्त्याभ्यधिकं धर्मं गोपय पाण्डव // 2 अर्जुन उवाच / वधाभिप्रायमायान्तमवधीस्त्वं महाबलम् / अथ वा मन्यसे भारं त्वमिमं राक्षसं युधि / रक्षसस्तस्य भगिनी किं नः क्रुद्धा करिष्यति // 3 करोमि तव साहाय्यं शीघ्रमेव निहन्यताम् / / 26 वैशंपायन उवाच। अथ वाप्यहमेवैनं हनिष्यामि वृकोदर / हिडिम्बा तु ततः कुन्तीमभिवाद्य कृताञ्जलिः / कृतकर्मा परिश्रान्तः साधु तावदुपारम // 27 युधिष्ठिरं च कौन्तेयमिदं वचनब्रवीत् // 4 वैशंपायन उवाच / आर्ये जानासि यहुःखमिह स्त्रीणामनङ्गजम् / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षणः / तदिदं मामनुप्राप्तं भीमसेनकृतं शुभे // 5 निष्पिष्यैनं बलाद्भूमौ पशुमारममारयत् // 28 सोढं तत्परमं दुःखं मया कालप्रतीक्षया / स मार्यमाणो भीमेन ननाद विपुलं स्वनम् / सोऽयमभ्यागतः कालो भविता मे सुखाय वै॥६ पूरयंस्तद्वनं सर्वं जलाई इव दुन्दुभिः // 29 मया ह्युत्सृज्य सुहृदः स्वधर्म स्वजनं तथा / भुजाभ्यां योक्त्रयित्वा तं बलवान्पाण्डुनन्दनः। वृतोऽयं पुरुषव्याघ्रस्तव पुत्रः पतिः शुभे // 7 मध्ये भक्त्वा स बलवान्हर्षयामास पाण्डवान्॥ | वरेणापि तथानेन त्वया चापि यशस्विनि / -199
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________________ 1. 143. 8] महाभारते [1. 143. 37 तथा ब्रुवन्ती हि तदा प्रत्याख्याता क्रियां प्रति // 8 सरःसु रमणीयेषु पद्मोत्पलयुतेषु च // 22 त्वं मां मूढेति वा मत्वा भक्ता वानुगतेति वा। / नदीद्वीपप्रदेशेषु वैडूर्यसिकतासु च / भानेन महाभागे संयोजय सुतेन ते // 9 सुतीर्थवनतोयासु तथा गिरिनदीषु च // 23 तमुपादाय गच्छेयं यथेष्टं देवरूपिणम् / सागरस्य प्रदेशेषु मणिहेमचितेषु च / पुनश्चैवागमिष्यामि विश्रम्भं कुरु मे शुभे // 10 पत्तनेषु च रम्येषु महाशालवनेषु च // 24 अहं हि मनसा ध्याता सर्वान्नेष्यामि वः सदा / देवारण्येषु पुण्येषु तथा पर्वतसानुषु / . वृजिने तारयिष्यामि दुर्गेषु च नरर्षभान् // 11 गुह्यकानां निवासेषु तापसायतनेषु च // 25 पृष्ठेन वो वहिष्याभि शीघ्रां गतिमभीप्सतः।। सर्वर्तुफलपुष्पेषु मानसेषु सरःसु च / यूयं प्रसादं कुरुत भीमसेनो भजेत माम् // 12 बिभ्रती परमं रूपं रमयामास पाण्डवम् // 26 आपदस्तरणे प्राणान्धारयेयेन येन हि / रमयन्ती तथा भीमं तत्र तत्र मनोजवा। सर्वमादृत्य कर्तव्यं तद्धर्ममनुवर्तता // 13 प्रजज्ञे राक्षसी पुत्रं भीमसेनान्महाबलम् / / 27 आपत्सु यो धारयति धर्म धर्मविदुत्तमः / विरूपाक्षं महावक्त्रं शङ्ककर्णं विभीषणम् / व्यसनं ह्येव धर्मस्य धर्मिणामापदुच्यते // 14. भीमरूपं सुताम्रोष्ठं तीक्ष्णदंष्ट्रं महाबलम् // 28 पुण्यं प्राणान्धारयति पुण्यं प्राणदमुच्यते।। महेष्वासं महावीर्य महासत्त्वं महाभुजम् / येन येनाचरेद्धम तस्मिन्गर्हा न विद्यते // 15 महाजवं महाकायं महामायमरिंदमम् / / 29 युधिष्ठिर उवाच / अमानुषं मानुषजं भीमवेगं महाबलम् / एवमेतद्यथात्थ त्वं हिडिम्बे नात्र संशयः / यः पिशाचानतीवान्यान्बभूवाति स मानुषान् // 30 स्थातव्यं तु त्वया धर्मे यथा यां सुमध्यमे // 16 बालोऽपि यौवनं प्राप्तो मानुषेषु विशां पते। . सातं कृताहिकं भद्रे कृतकौतुकमङ्गलम् / सर्वास्त्रेषु परं वीरः प्रकर्षमगमद्बली / / 31 भीमसेनं भजेथास्त्वं प्रागस्तगमनाद्रवेः / / 17 सद्यो हि गर्भ राक्षस्यो लभन्ते प्रसवन्ति च / अहःसु विहरानेन यथाकामं मनोजवा / कामरूपधराश्चैव भवन्ति बहुरूपिणः // 32 अयं त्वानयितव्यस्ते भीमसेनः सदा निशि // 18 प्रणम्य विकचः पादावगृह्णात्स पितुस्तदा / वैशंपायन उवाच / / मातुश्च परमेष्वासस्तौ च नामास्य चक्रतुः // 33 तथेति तत्प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा / घटभासोत्कच इति मातरं सोऽभ्यभाषत / भीमसेनमुपादाय ऊर्ध्वमाचक्रमे ततः // 19 अभवत्तेन नामास्य घटोत्कच इति स्म ह // 34 शैलशृङ्गेषु रम्येषु देवतायतनेषु च / अनुरक्तश्च तानासीत्पाण्डवान्स घटोत्कचः / मृगपक्षिविघुष्टेषु रमणीयेषु सर्वदा // 20 तेषां च दयितो नित्यमात्मभूतो बभूव सः // 35 कृत्वा च परमं रूपं सर्वाभरणभूषिता / संवाससमयो जीर्ण इत्यभाषत तं ततः / संजल्पन्ती सुमधुरं रमयामास पाण्डवम् // 21 हिडिम्बा समयं कृत्वा स्वां गतिं प्रत्यपद्यत // 36 तथैव वनदुर्गेषु पुष्पितद्रुमसानुषु / | कृत्यकाल उपस्थास्ये पितृनिति घटोत्कचः / -200 -
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________________ I. 143. 37] आदिपर्व [1. 145.3 आमध्य राक्षसश्रेष्ठः प्रतस्थे चोत्तरां दिशम् // 37 वैशंपायन उवाच। स हि सृष्टो मघवता शक्तिहेतोर्महात्मना / एवं स तान्समाश्वास्य व्यासः पार्थानरिंदमान् / कर्णस्याप्रतिवीर्यस्य विनाशाय महात्मनः // 38 एकचक्रामभिगतः कुन्तीमाश्वासयत्प्रभुः // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जीवपुत्रि सुतस्तेऽयं धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 143 // पृथिव्यां पार्थिवान्सर्वान्प्रशासिष्यति धर्मराट् // 13 144 धर्मेण जित्वा पृथिवीमखिलां धर्मविद्वशी / वैशंपायन उवाच। भीमसेनार्जुनबलाद्भोक्ष्यत्ययमसंशयः // 14 ते वनेन वनं वीरा नन्तो मृगगणान्बहून् / पुत्रास्तव च मायाश्च सर्व एव महारथाः / अपक्रम्य ययू राजंस्त्वरमाणा महारथाः // 1 . स्वराष्ट्र विहरिष्यन्ति सुखं सुमनसस्तदा // 15 मत्स्यांत्रिगर्तान्पाञ्चालान्कीचकानन्तरेण च / यक्ष्यन्ति च नरव्याघ्रा विजित्य पृथिवीमिमाम् / रमणीयान्वनोदेशान्प्रेक्षमाणाः सरांसि च // 2 राजसूयाश्वमेधाद्यैः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः // 16 जटाः कृत्वात्मनः सर्वे वल्कलाजिनवाससः / अनुगृह्य सुहृद्वर्ग धनेन च सुखेन च / सह कुन्या महात्मानो विभ्रतस्तापसं वपुः // 3 पितृपैतामहं राज्यमिह भोक्ष्यन्ति ते सुताः // 17 कचिद्वहन्तो जननीं त्वरमाणा महारथाः / एवमुक्त्वा निवेश्यैनान्ब्राह्मणस्य निवेशने / कचिच्छन्देन गच्छन्तस्ते जग्मुः प्रसभं पुनः // 4 अब्रवीत्पार्थिवश्रेष्ठमृषिद्वैपायनस्तदा // 18 ग्रामं वेदमधीयाना वेदाङ्गानि च सर्वशः / इह मां संप्रतीक्षध्वमागमिष्याम्यहं पुनः / नीतिशास्त्रं च धर्मज्ञा ददृशुस्ते पितामहम् / / 5 देशकालौ विदित्वैव वेत्स्यध्वं परमां मुदम् // 19 तेऽभिवाद्य महात्मानं कृष्णद्वैपायनं तदा / स तैः प्राञ्जलिभिः सर्वैस्तथेत्युक्तो नराधिप / तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे सह मात्रा परंतपाः // 6 जगाम भगवान्व्यासो यथाकाममृषिः प्रभुः // 20 .. व्यास उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि मयेदं मनसा पूर्व विदितं भरतर्षभाः / चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 144 // यथा स्थितैरधर्मेण धार्तराष्ट्रर्विवासिताः / / 7 तद्विदित्वास्मि संप्राप्तश्चिकीर्षुः परमं हितम् / जनमेजय उवाच / न विषादोऽत्र कर्तव्यः सर्वमेतत्सुखाय वः // 8 | एकचक्रां गतास्ते तु कुन्तीपुत्रा महारथाः। समास्ते चैव मे सर्वे यूयं चैव न संशयः / / अतः परं द्विजश्रेष्ठ किमकुर्वत पाण्डवाः // 1 दीनतो बालतश्चैव स्नेहं कुर्वन्ति बान्धवाः // 9 वैशंपायन उवाच / तस्मादभ्यधिकः नहीं युष्मासु मम सांप्रतम् / एकचक्रां गतास्ते तु कुन्तीपुत्रा महारथाः / बेहपूर्व चिकीर्षामि हितं वस्तन्निबोधत // 10 / ऊषु तिचिरं कालं ब्राह्मणस्य निवेशने // 2 एवं नगरमभ्याशे रमणीयं निरामयम् / रमणीयानि पश्यन्तो वनानि विविधानि च / वसतेह प्रतिच्छन्ना ममागमनकारिणः // 11 / पार्थिवानपि चोद्देशान्सरितश्च सरांसि च // 3 म. भा. 26 - 201 -
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________________ 1. 145. 4] महाभारते [1. 145. 32 चेरुभैक्षं तदा ते तु सर्व एव विशां पते / अन्तःपुरं ततस्तस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः / बभूवुर्नागराणां च स्वैर्गुणैः प्रियदर्शनाः // 4 विवेश कुन्ती त्वरिता बद्धवत्सेव सौरभी // 18 निवेदयन्ति स्म च ते भैक्षं कुन्त्याः सदा निशि / ततस्तं ब्राह्मणं तत्र भार्यया च सुतेन च / तया विभक्तान्भागांस्ते भुञ्जते स्म पृथक्पृथक् // 5 दुहित्रा चैव सहितं ददर्श विकृताननम् // 19 अर्धं ते भुञ्जते वीराः सह मात्रा परंतपाः / ब्राह्मण उवाच। अर्धं भैक्षस्य सर्वस्य भीमो भुङ्क्ते महाबलः // 6 धिगिदं जीवितं लोकेऽनलसारमनर्थकम् / तथा तु तेषां वसतां तत्र राजन्महात्मनाम् / दुःखमूलं पराधीनं भृशमप्रियभागि च // 20 अतिचक्राम सुमहान्कालोऽथ भरतर्षभ / / 7 जीविते परमं दुःखं जीविते परमो ज्वरः / ततः कदाचिनैक्षाय गतास्ते भरतर्षभाः / जीविते वर्तमानस्य द्वन्द्वानामागमो ध्रुवः // 21 संगत्या भीमसेनस्तु तत्रास्ते पृथया सह // 8 एकात्मापि हि धर्मार्थो कामं च न निषेवते / अथार्तिजं महाशब्दं ब्राह्मणस्य निवेशने / एतैश्च विप्रयोगोऽपि दुःखं परमकं मतम् // 22 भृशमुत्पतितं घोरं कुन्ती शुश्राव भारत // 9 आहुः केचित्परं मोक्षं स च नास्ति कथंचन / रोरूयमाणांस्तान्सर्वान्परिदेवयतश्च सा / अर्थप्राप्तौ च नरकः कृत्स्न एवोपपद्यते // 23 कारुण्यात्साधुभावाच्च देवी राजन्न चक्षमे // 10 अर्थेप्सुता परं दुःखमर्थप्राप्तौ ततोऽधिकम् / / मध्यमानेव दुःखेन हृदयेन पृथा ततः / जातस्नेहस्य चार्थेषु विप्रयोगे महत्तरम् // 24 उवाच भीमं कल्याणी कृपान्वितमिदं वचः॥ 11 न हि योगं प्रपश्यामि येन मुच्येयमापदः / वसामः सुसुखं पुत्र ब्राह्मणस्य निवेशने / पुत्रदारेण वा साधु ,प्राद्रवेयमनामयम् // 25 // अज्ञाता धार्तराष्ट्राणां सत्कृता वीतमन्यवः // 12 यतितं वै मया पूर्वं यथा त्वं वेत्थ ब्राह्मणि / . सा चिन्तये सदा पुत्र ब्राह्मणस्यास्य किं न्वहम् / यतः क्षेमं ततो गन्तुं त्वया तु मम न श्रुतम् // 26 प्रियं कुर्यामिति गृहे यत्कुटुंरुषिताः सुखम् / / 13 इह जाता विवृद्धास्मि पिता चेह ममेति च / एतावान्पुरुषस्तात कृतं यस्मिन्न नश्यति / उक्तवत्यसि दुर्मेधे याच्यमाना मयासकृत् // 27 यावच्च कुर्यादन्योऽस्य कुर्यादभ्यधिकं ततः॥ 14 स्वर्गतो हि पिता वृद्धस्तथा माता चिरं तव / / तदिदं ब्राह्मणस्यास्य दुःखमापतितं ध्रुवम् / बान्धवा भूतपूर्वाश्च तत्र वासे तु का रतिः // 28 तत्रास्य यदि साहाय्यं कुर्याम सुकृतं भवेत् // 15 सोऽयं ते बन्धुकामाया अशृण्वन्त्या वचो मम / / __ भीम उवाच। बन्धुप्रणाशः संप्राप्तो भृशं दुःखकरो मम // 29 ज्ञायतामस्य यदुःखं यतश्चैव समुत्थितम् / अथ वा मद्विनाशोऽयं न हि शक्ष्यामि कंचन / विदिते व्यवसिष्यामि यद्यपि स्यात्सुदुष्करम् // 16 परित्यक्तुमहं बन्धुं स्वयं जीवन्नृशंसवत् // 30 वैशंपायन उवाच। सहधर्मचरी दान्तां नित्यं मातृसमां मम / तथा हि कथयन्तौ तौ भूयः शुश्रुवतुः स्वनम् / सखायं विहितां देवैर्नित्यं परमिकां गतिम् // 31 आर्तिजं तस्य विप्रस्य सभार्यस्य विशां पते // 17 मात्रा पित्रा च विहितां सदा गार्हस्थ्यभागिनीम् / -202 -
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________________ 1. 145. 32] आदिपर्व [1. 146. 18 वरयित्वा यथान्यायं मत्रवत्परिणीय च // 32 एतद्धि परमं नार्याः कार्यं लोके सनातनम् / कुलीनां शीलसंपन्नामपत्यजननीं मम / प्राणानपि परित्यज्य यद्भर्तृहितमाचरेत् // 4 त्वामहं जीवितस्यार्थे साध्वीमनपकारिणीम् / तच्च तत्र कृतं कर्म तवापीह सुखावहम् / परित्यक्तुं न शक्ष्यामि भायां नित्यमनुव्रताम् // 33 भवत्यमुत्र चाक्षय्यं लोकेऽस्मिंश्च यशस्करम् // 5 कुत एव परित्यक्तुं सुतां शक्ष्याम्यहं स्वयम् / एष चैव गुरुर्धर्मो यं प्रवक्ष्याम्यहं तव / बालामप्राप्तवयसमजातव्यञ्जनाकृतिम् // 34 अर्थश्च तव धर्मश्च भूयानत्र प्रदृश्यते // 6 भर्तुराय निक्षिप्तां न्यासं धात्रा महात्मना / यदर्थमिष्यते भार्या प्राप्तः सोऽर्थस्त्वया मयि / यस्यां दौहित्रजाल्लोकानाशंसे पितृभिः सह। ' कन्या चैव कुमारश्च कृताहमनृणा त्वया // 7 स्वयमुत्पाद्य तां बालां कथमुत्स्रष्टुमुत्सहे // 35 समर्थः पोषणे चासि सुतयो रक्षणे तथा / मन्यन्ते केचिदधिकं स्नेहं पुत्रे पितुर्नराः / न त्वहं सुतयोः शक्ता तथा रक्षणपोषणे // 8 कन्यायां नैव तु पुनर्मम तुल्यावुभौ मता // 36 मम हि त्वद्विहीनायाः सर्वकामा न आपदः / यस्मिल्लोकाः प्रसूतिश्च स्थिता नित्यमथो सुखम् / कथं स्यातां सुतौ बालौ भवेयं च कथं त्वहम् // 9 अपापां तामहं बालां कथमुत्स्रष्टुमुत्सहे // 37 कथं हि विधवानाथा बालपुत्रा विना त्वया / आत्मानमपि चोत्सृज्य तस्ये प्रेतवशं गतः / मिथुनं जीवयिष्यामि स्थिता साधुगते पथि // 10 यक्ता ह्येते मया व्यक्तं नेह शक्ष्यन्ति जीवितुम्॥३८ अहंकृतावलिप्तैश्च प्रार्थ्यमानामिमां सुताम् / एषां चान्यतमत्यागो नृशंसो गर्हितो बुधैः / अयुक्तैस्तव संबन्धे कथं शक्ष्यामि रक्षितुम् // 11 आत्मत्यागे कृते चेमे मरिष्यन्ति मया विना // 39 उत्सृष्टमामिषं भूमौ प्रार्थयन्ति यथा खगाः। . स कृच्छ्रामहमापन्नो न शक्तस्तर्तुमापदम् / प्रार्थयन्ति जनाः सर्वे वीरहीनां तथा स्त्रियम् // 12 अहो धिक्कां गतिं त्वद्य गमिष्यामि सबान्धवः। साहं विचाल्यमाना वै प्रार्थ्यमाना दुरात्मभिः / सर्वैः सह .मृतं श्रेयो न तु मे जीवितं क्षमम् // 40 स्थातुं पथि न शक्ष्यामि सज्जनेष्टे द्विजोत्तम // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि कथं तव कुलस्यैकामिमां बालामसंस्कृताम् / . पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 145 // पितृपैतामहे मार्गे नियोक्तुमहमुत्सहे // 14 कथं शक्ष्यामि बालेऽस्मिन्गुणानाधातुमीप्सितान् / ब्राह्मण्युवाच / अनाथे सर्वतो लुप्ते यथा त्वं धर्मदर्शिवान् / / 15 न संतापस्त्वया कार्यः प्राकृतेनेव कर्हि चित् / इमामपि च ते बालामनाथां परिभूय माम् / न हि संतापकालोऽयं वैद्यस्य तव विद्यते // 1 अनर्हाः प्रार्थयिष्यन्ति शूद्रा वेदश्रुतिं यथा // 16 अवश्यं निधनं सर्वैर्गन्तव्यमिह मानवैः / तां चेदहं न दित्सेयं त्वद्गुणैरुपबृंहिताम् / अवश्यभाविन्यर्थे वै संतापो नेह विद्यते // 2 प्रमध्यैनां हरेयुस्ते हविर्ध्वाना इवाध्वरात् // 17 मार्या पुत्रोऽथ दुहिता सर्वमात्मार्थमिष्यते / / संप्रेक्षमाणा पुत्रं ते नानुरूपमिवात्मनः / व्यथां जहि सुबुद्ध्या त्वं स्वयं यास्यामि तत्र वै // 3 / अनर्ह वशमापन्नामिमां चापि सुतां तव // 18 -203 -
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________________ 1. 146. 19] महाभारते [1. 147.9 अवज्ञाता च लोकस्य तथात्मानमजानती। न चाप्यधर्मः कल्याण बहुपत्नीकता नृणाम् / अवलिप्तैर्नरैर्ब्रह्मन्मरिष्यामि न संशयः // 19 स्त्रीणामधर्मः सुमहान्भर्तुः पूर्वस्य लङ्घने // 34 तौ विहीनौ मया बालौ त्वया चैव ममात्मजौ / एतत्सर्वं समीक्ष्य त्वमात्मत्यागं च गर्हितम् / विनश्येतां न संदेहो मत्स्याविव जलक्षये // 20 आत्मानं तारय मया कुलं चेमौ च दारकौ // 35 त्रितयं सर्वथाप्येवं विनशिष्यत्यसंशयम् / वैशंपायन उवाच / त्वया विहीनं तस्मात्त्वं मां परित्यक्तुमर्हसि // 21 एवमुक्तस्तया भर्ता तां समालिङ्गय भारत / व्युष्टिरेषा परा स्त्रीणां पूर्वं भर्तुः परा गतिः / मुमोच बाष्पं शनकैः सभार्यो भृशदुःखितः // 36 न तु ब्राह्मण पुत्राणां विषये परिवर्तितुम् // 22 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि परित्यक्तः सुतश्चायं दुहितेयं तथा मया / षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥१४६॥ बान्धवाश्च परित्यक्तास्त्वदर्थं जीवितं च मे // 23 यज्ञैस्तपोभिर्नियमैर्दानैश्च विविधैस्तथा। विशिष्यते स्त्रिया भर्तुर्नित्यं प्रियहिते स्थितिः॥२४ वैशंपायन उवाच / तदिदं यच्चिकीर्षामि धर्म्य परमसंमतम् / तयोर्दुःखितयोर्वाक्यमतिमात्रं निशम्य तत् / इष्टं चैव हितं चैव तव चैव कुलस्य च // 25 भृशं दुःखपरीताङ्गी कन्या तावभ्यभाषत // 1 इष्टानि चाप्यपत्यानि द्रव्याणि सुहृदः प्रियाः। किमिदं भृशदुःखार्ती रोरवीथो अनाथवत् / आपद्धर्मविमोक्षाय भार्या चापि सतां मतम् // 26 ममापि श्रूयतां किंचिच्छ्रुत्वा च क्रियतां क्षमम् // 2 एकतो वा कुलं कृत्स्नमात्मा वा कुलवर्धन / धर्मतोऽहं परित्याज्या युवयोर्नात्र संशयः / न समं सर्वमेवेति बुधानामेष निश्चयः / / 27 त्यक्तव्यां मां परित्यज्य त्रातं सर्वं मयैकया // 3 स कुरुष्व मया कार्यं तारयात्मानमात्मना / इत्यर्थमिष्यतेऽपत्यं तारयिष्यति मामिति / अनुजानीहि मामार्य सुतौ मे परिरक्ष च // 28 तस्मिन्नुपस्थिते काले तरतं प्लववन्मया // 4 अवध्याः स्त्रिय इत्याहुर्धर्मज्ञा धर्मनिश्चये। इह वा तारयेदुर्गादुत वा प्रेत्य तारयेत् / धर्मज्ञानराक्षसानाहुन हन्यात्स च मामपि // 29 सर्वथा तारयेत्पुत्रः पुत्र इत्युच्यते बुधैः / / 5 निःसंशयो वधः पुंसां स्त्रीणां संशयितो वधः / आकाङ्क्षन्ते च दौहित्रानपि नित्यं पितामहाः / अतो मामेव धर्मज्ञ प्रस्थापयितुमर्हसि // 30 तान्स्वयं वै परित्रास्ये रक्षन्ती जीवितं पितुः // 6 भुक्तं प्रियाण्यवाप्तानि धर्मश्च चरितो मया / भ्राता च मम बालोऽयं गते लोकममुं त्वयि / त्वत्प्रसूतिः प्रिया प्राप्ता न मां तप्स्यत्यजीवितम् // 31 अचिरेणैव कालेन विनश्येत न संशयः / / 7 जातपुत्रा च वृद्धा च प्रियकामा च ते सदा। / तातेऽपि हि गते स्वर्ग विनष्टे च ममानुजे / समीक्ष्यैतदहं सर्वं व्यवसायं करोम्यतः // 32 / पिण्डः पितृणां व्युच्छिद्येत्तत्तेषामप्रियं भवेत् // 8 उत्सृज्यापि च मामार्य वेत्स्यस्यन्यामपि स्त्रियम्। | पित्रा त्यक्ता तथा मात्रा भ्रात्रा चाहमसंशयम् / ततः प्रतिष्ठितो धर्मो भविष्यति पुनस्तव // 33 - दुःखाहुःखतरं प्राप्य म्रियेयमतथोचिता // 9 - 204 -
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________________ 1. 147. 10] आदिपर्व [1. 148. 12 त्वयि त्वरोगे निर्मुक्ते माता भ्राता च मे शिशुः। गतासूनमृतेनेव जीवयन्तीदमब्रवीत् // 24 संतानश्चैव पिण्डश्च प्रतिष्ठास्यत्यसंशयम् // 10 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि मात्मा पुत्रः सखा भार्या कृच्छं तु दुहिता किल। सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 147 // स कृच्छ्रान्मोचयात्मानं मां च धर्मेण योजय॥११ 148 अनाथा कृपणा बाला यत्रकचनगामिनी / कुन्त्युवाच / भविष्यामि त्वया तात विहीना कृपणा बत // 12 कुतोमूलमिदं दुःखं ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः / अथ वाहं करिष्यामि कुलस्यास्य विमोक्षणम् / विदित्वा अपकर्षेयं शक्यं चेदपकर्षितुम् // 1 फलसंस्था भविष्यामि कृत्वा कर्म सुदुष्करम् // 13 ब्राह्मण उवाच / उपपन्नं सतामेतद्यद्भवीषि तपोधने / अथ वा यास्यसे तत्र त्यक्त्वा मां द्विजसत्तम / . न तु दुःखमिदं शक्यं मानुषेण व्यपोहितुम् // 2 पीडिताहं भविष्यामि तदवेक्षस्व मामपि // 14 समीपे नगरस्यास्य बको वसति राक्षसः / तदस्मदर्थं धर्मार्थं प्रसवार्थं च सत्तम / ईशो जनपदस्यास्य पुरस्य च महाबलः // 3 आत्मानं परिरक्षस्व त्यक्तव्यां मां च संत्यज // 15 पुष्टो मानुषमांसेन दुर्बुद्धिः पुरुषादकः / अवश्यकरणीयेऽर्थे मा त्वां कालोऽत्यगादयम् / रक्षत्यसुरराण्नित्यमिमं जनपदं बली // 4 त्वया दत्तेन तोयेन भविष्यति हितं च मे // 16 नगरं चैव देशं च रक्षोबलसमन्वितः / किं न्वतः परम दुःखं यद्वयं स्वर्गते त्वयि / तत्कृते परचक्राच्च भूतेभ्यश्च न नो भयम् // 5 याचमानाः परादन्नं परिधावेमहि श्ववत् // 17 / वेतनं तस्य विहितं शालिवाहस्य भोजनम् / त्वयि त्वरोगे निर्मुक्ते क्लेशादस्मात्सबान्धवे / महिषौ पुरुषश्चैको यस्तदादाय गच्छति // 6 अमृते वसती लोके भविष्यामि सुखान्विता // 18 एकैकश्चैव पुरुषस्तत्प्रयच्छति भोजनम् / एवं बहुविधं तस्या निशम्य परिदेवितम् / स वारो बहुभिर्वषैर्भवत्यसुतरो नरैः // 7 पिता माता च सा चैव कन्या प्ररुरुदुस्त्रयः॥ 19 तद्विमोक्षाय ये चापि यतन्ते पुरुषाः क्वचित् / ततः प्ररुदितान्सर्वान्निशम्याथ सुतस्तयोः / सपुत्रदारांस्तान्हत्वा तद्रक्षो भक्षयत्युत / / 8 उत्फुल्लनयनो बालः कलमव्यक्तमब्रवीत् // 20 वेत्रकीयगृहे राजा नायं नयमिहास्थितः / मा रोदीस्तात मा मातर्मा स्वसस्त्वमिति ब्रुवन् / अनामयं जनस्यास्य येन स्यादद्य शाश्वतम् // 9 . प्रहसन्निव सर्वांस्तानेकैकं सोपसर्पति // 21 / एतदर्हा वयं नूनं वसामो दुर्बलस्य ये। ततः स तृणमादाय प्रहृष्टः पुनरब्रवीत् / विषये नित्यमुद्विग्नाः कुराजानमुपाश्रिताः // 10 अनेन तं हनिष्यामि राक्षसं पुरुषादकम् // 22 ब्राह्मणाः कस्य वक्तव्याः कस्य वा छन्दचारिणः / तथापि तेषां दुःखेन परीतानां निशम्य तत् / / गुणैरेते हि वास्यन्ते कामगाः पक्षिणो यथा // 11 बालस्य वाक्यमव्यक्तं हर्षः समभवन्महान् // 23 राजानं प्रथमं विन्देत्ततो भार्यां ततो धनम् / अयं काल इति ज्ञात्वा कुन्ती समुपसृत्य तान् / / त्रयस्य संचये चास्य ज्ञातीन्पुत्रांश्च धारयेत् // 12 - 205 -
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________________ 1. 148. 13 ]. महाभारते [1. 149. 20 विपरीतं मया चेदं त्रयं सर्वमुपार्जितम् / परैः कृते वधे पापं न किंचिन्मयि विद्यते // 8 त इमामापदं प्राप्य भृशं तप्स्यामहे वयम् // 13 अभिसंधिकृते तस्मिन्ब्राह्मणस्य वधे मया। सोऽयमस्माननुप्राप्तो वारः कुलविनाशनः / निष्कृतिं न प्रपश्यामि नृशंसं क्षुद्रमेव च // 9 भोजनं पुरुषश्चैकः प्रदेयं वेतनं मया // 14 आगतस्य गृहे त्यागस्तथैव शरणार्थिनः। न च मे विद्यते वित्तं संक्रेतुं पुरुषं क्वचित् / याचमानस्य च वधो नृशंसं परमं मतम् // 10 . सुहृज्जनं प्रदातुं च न शक्ष्यामि कथंचन / कुर्यान्न निन्दितं कर्म न नृशंसं कदाचन। गतिं चापि न पश्यामि तस्मान्मोक्षाय रक्षसः॥१५ इति पूर्वे महात्मान आपद्धर्मविदो विदुः 11 सोऽहं दुःखार्णवे मनो महत्यसुतरे भृशम् / श्रेयांस्तु सहदारस्य विनाशोऽद्य मम स्वयम् / सहैवैतैर्गमिष्यामि बान्धवैरद्य राक्षसम् / ब्राह्मणस्य वधं नाहमनुमस्ये कथंचन / / 12 ततो नः सहितान्क्षुद्रः सर्वानेवोपभोक्ष्यति // 16 __ कुन्त्युवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ममाप्येषा मतिब्रह्मन्विप्रा रक्ष्या इति स्थिरा। अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 148 // न चाप्यनिष्टः पुत्रो मे यदि पुत्रशतं भवेत् // 13 न चासौ राक्षसः शक्तो मम पुत्रविनाशने। कुन्त्युवाच / वीर्यवान्मत्रसिद्धश्च तेजस्वी च सुतो मम / / 14 न विषादस्त्वया कार्यो भयादस्मात्कथंचन / राक्षसाय च तत्सर्वं प्रापयिष्यति भोजनम् / उपायः परिदृष्टोऽत्र तस्मान्मोक्षाय रक्षसः॥ 1 मोक्षयिष्यति चात्मानमिति मे निश्चिता मतिः॥१५ एकस्तव सुतो बालः कन्या चैका तपस्विनी। समागताश्च वीरेण दृष्टपूर्वाश्च राक्षसाः। न ते तयोस्तथा पल्या गमनं तत्र रोचये // 2 बलवन्तो महाकाया निहताश्चाप्यनेकशः // 16 मम पञ्च सुता ब्रह्मस्तेषामेको गमिष्यति / न त्विदं केषुचिद्ब्रह्मन्व्याहर्तव्यं कथंचन / त्वदर्थं बलिमादाय तस्य पापस्य रक्षसः // 3 विद्यार्थिनो हि मे पुत्रान्विप्रकुर्युः कुतूहलात् / / 17 ब्राह्मण उवाच / नाहमेतत्करिष्यामि जीवितार्थी कथंचन / गुरुणा चाननुज्ञातो ग्राहयेद्यं सुतो मम / ब्राह्मणस्यातिथेश्चैव स्वार्थे प्रागैर्वियोजनम् // 4 न स कुर्यात्तया कार्य विद्ययेति सतां मतम् // 18 न त्वेतदकुलीनासु नाधर्मिष्ठासु विद्यते / वैशंपायन उवाच। यद्ब्राह्मणार्थे विसृजेदात्मानमपि चात्मजम् / / 5 एवमुक्तस्तु पृथया स विप्रो भार्यया सह। आत्मनस्तु मया श्रेयो बोद्धव्यमिति रोचये / हृष्टः संपूजयामास तद्वाक्यममृतोपमम् / / 19 ब्रह्मवध्यात्मवध्या वा श्रेय आत्मवधो मम / / 6 ततः कुन्ती च विप्रश्च सहितावनिलात्मजम् / ब्रह्मवध्या परं पापं निष्कृति त्र विद्यते / तमब्रूतां कुरुष्वेति स तथेत्यब्रवीच तौ // 20 - अबुद्धिपूर्वं कृत्वापि श्रेय आत्मवधो मम // 7 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि न त्वहं वधमाकाङ्के स्वयमेवात्मनः शुभे। एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 149 // - 206 -
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________________ 1. 150. 1] आदिपर्व [1. 150. 26 150 तस्य प्रतिक्रिया तात मयेयं प्रसमीक्षिता। वैशंपायन उवाच। एतावानेव पुरुषः कृतं यस्मिन्न नश्यति // 13 करिष्य इति भीमेन प्रतिज्ञाते तु भारत / दृष्ट्वा भीमस्य विक्रान्तं तदा जतुगृहे महत् / आजग्मुस्ते ततः सर्वे भैक्षमादाय पाण्डवाः // 1 हिडिम्बस्य वधाच्चैव विश्वासो मे वृकोदरे // 14 आकारेणैव तं ज्ञात्वा पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः / बाह्वोर्बलं हि भीमस्य नागायुतसमं महत्।। रहः समुपविश्यैकस्ततः पप्रच्छ मातरम् // 2 येन यूयं गजप्रख्या नियूंढा वारणावतात् // 15 किं चिकीर्षत्ययं कर्म भीमो भीमपराक्रमः। वृकोदरबलो नान्यो न भूतो न भविष्यति / भवत्यनुमते कच्चिदयं कर्तुमिहेच्छति / / 3 योऽभ्युदीयाधुधि श्रेष्ठमपि वज्रधरं स्वयम् // 16 कुन्त्युवाच / जातमात्रः पुरा चैष ममाङ्कात्पतितो गिरौ। ममैव वचनादेष करिष्यति परंतपः / शरीरगौरवात्तस्य शिला गात्रैर्विचूर्णिता // 17. ब्राह्मणार्थे महत्कृत्यं मोक्षाय नगरस्य च // 4 तदहं प्रज्ञया स्मृत्वा बलं भीमस्य पाण्डव / युधिष्ठिर उवाच / प्रतिकारं च विप्रस्य ततः कृतवती मतिम् / / 18 किमिदं साहसं तीक्ष्णं भवत्या दुष्कृतं कृतम् / नेदं लोभान्न चाज्ञानान्न च मोहाद्विनिश्चितम् / परित्यागं हि पुत्रस्य न प्रशंसन्ति साधवः // 5 बुद्धिपूर्वं तु धर्मस्य व्यवसायः कृतो मया // 19 कथं परसुतस्यार्थे स्वसुतं त्यक्तुमिच्छसि / अर्थों द्वावपि निष्पन्नौ युधिष्ठिर भविष्यतः। लोकवृत्तिविरुद्धं वै पुत्रत्यागात्कृतं त्वया // 6 प्रतीकारश्च वासस्य धर्मश्च चरितो महान् // 20 यस्य बाहू समाश्रित्य सुखं सर्वे स्वपामहे / यो ब्राह्मणस्य साहाय्यं कुर्यादर्थेषु कर्हिचित् / राज्यं चापहृतं क्षुद्रराजिहीर्षामहे पुनः // 7 क्षत्रियः स शुभाल्लोकान्प्राप्नुयादिति मे श्रुतम्॥२१ यस्य दुर्योधनो वीर्यं चिन्तयन्नमितौजसः। क्षत्रियः क्षत्रियस्यैव कुर्वाणो वधमोक्षणम् / न शेते वसतीः सर्वा दुःखाच्छकुनिना सह // 8 विपुलां कीर्तिमाप्नोति लोकेऽस्मिंश्च परत्र च // 22 यस्य वीरस्य वीर्येण मुक्ता जतुगृहाद्वयम् / वैश्यस्यैव तु साहाय्यं कुर्वाणः क्षत्रियो युधि। अन्येभ्यश्चैव पापेभ्यो निहतश्च पुरोचनः // 9 स सर्वेष्वपि लोकेषु प्रजा रञ्जयते ध्रुवम् / / 23 / यस्य वीर्यं समाश्रित्य वसुपूर्णां वसुंधराम् / शूद्रं तु मोक्षयराजा शरणार्थिनमागतम्। इमां मन्यामहे प्राप्तां निहत्य धृतराष्ट्रजान् // 10 प्राप्नोतीह कुले जन्म सद्रव्ये राजसत्कृते / / 24 . तस्य व्यवसितस्त्यागो बुद्धिमास्थाय का त्वया। एवं स भगवान्व्यासः पुरा कौरवनन्दन। कञ्चिन्न दुःखैर्बुद्धिस्ते विप्लुता गतचेतसः // 11 प्रोवाच सुतरां प्राज्ञस्तस्मादेतच्चिकीर्षितम् // 25 कुन्त्युवाच / युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर न संतापः कार्यः प्रति वृकोदरम्। उपपन्नमिदं मातस्त्वया यद्बुद्धिपूर्वकम् / न चायं बुद्धिदौर्बल्याव्यवसायः कृतो मया // 12 आर्तस्य ब्राह्मणस्यैवमनुक्रोशादिदं कृतम् / इह विप्रस्य भवने वयं पुत्र सुखोषिताः।... ध्रुवमेष्यति भीमोऽयं निहत्य पुरुषादकम् / / 26.. - 207 -
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________________ 1. 150. 27 ] महाभारते [1. 152.1 यथा त्विदं न विन्देयुनरा नगरवासिनः। ततो भीमः शनैर्भुक्त्वा तदन्नं पुरुषर्षभः / तथायं ब्राह्मणो वाच्यः परिग्राह्यश्च यत्नतः / / 27 वायुपस्पृश्य संहृष्टस्तस्थौ युधि महाबलः // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि क्षिप्तं क्रुद्धेन तं वृक्षं प्रतिजग्राह वीर्यवान् / पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 150 // सव्येन पाणिना भीमः प्रहसन्निव भारत // 14 ततः स पुनरुद्यम्य वृक्षान्बहुविधान्बली / वैशंपायन उवाच / प्राहिणोद्भीमसेनाय तस्मै भीमश्च पाण्डवः // 15 ततो रात्र्यां व्यतीतायामन्नमादाय पाण्डवः / तद्वृक्षयुद्धमभवन्महीरहविनाशनम् / भीमसेनो ययौ तत्र यत्रासौ पुरुषादकः // 1 घोररूपं महाराज बकपाण्डवयोर्महत् // 16 आसाद्य तु वनं तस्य रक्षसः पाण्डवो बली। नाम विश्राव्य तु बकः समभिद्रुत्य पाण्डवम् / आजुहाव ततो नाम्ना तदन्नंमुपयोजयन् // 2 भुजाभ्यां परिजग्राह भीमसेनं महाबलम् // 17 ततः स राक्षसः श्रुत्वा भीमसेनस्य तद्वचः / भीमसेनोऽपि तद्रक्षः परिरभ्य महाभुजः। आजगाम सुसंक्रुद्वो यत्र भीमो व्यवस्थितः / / 3 विस्फुरन्तं महावेगं विचकर्ष बलादली॥ 18 महाकायो महावेगो दारयन्निव मेदिनीम् / स कृष्यमाणो भीमेन कर्षमाणश्च पाण्डवम् / त्रिशिखां भृकुटि कृत्वा संदश्य दशनच्छदम् // 4 समयुज्यत तीव्रण श्रमेण पुरुषादकः // 19 भुञ्जानमन्नं तं दृष्ट्वा भीमसेनं स राक्षसः / तयोर्वेगेन महता पृथिवी समकम्पत। विवृत्य नयने क्रुद्ध इदं वचनमब्रवीत् / / 5 पादपांश्च महाकायांचूर्णयामासतुस्तदा / / 20 / कोऽयमन्नमिदं भुङ्के मदर्थमुपकल्पितम् / हीयमानं तु तद्रक्ष; समीक्ष्य भरतर्षभ / पश्यतो मम दुर्बुद्धिर्यियासुर्यमसादनम् // 6 निष्पिष्य भूमौ पाणिभ्यां समाजघ्ने वृकोदरः॥२१ भीमसेनस्तु तच्छ्रुत्वा प्रहसन्निव भारत। ततोऽस्य जानुना पृष्ठमवपीड्य बलादिव। राक्षसं तमनादृत्य भुत एव पराङ्मुखः॥७ बाहुना परिजग्राह दक्षिणेन शिरोधराम् / / 22 / ततः स भैरवं कृत्वा समुद्यम्य करावुभौ / सव्येन च कटीदेशे गृह्य वाससि पाण्डवः।। अभ्यद्रवद्भीमसेनं जिघांसुः पुरुषादकः // 8 तद्रक्षो द्विगुणं चक्रे नदन्तं भैरवारवान् // 23 तथापि परिभूयैनं नेक्षमाणो वृकोदरः / ततोऽस्य रुधिरं वक्त्रात्प्रादरासीद्विशां पते) राक्षसे भुत एवान्ने पाण्डवः परवीरहा // 9 भज्यमानस्य भीमेन तस्य घोरस्य रक्षसः // 24 अमर्षेण तु संपूर्णः कुन्तीपुत्रस्य राक्षसः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जघान पृष्ठं पाणिभ्यामुभाभ्यां पृष्ठतः स्थितः // 10 एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 151 // तथा बलवता भीमः पाणिभ्यां भृशमाहतः / नैवावलोकयामास राक्षसं भुत एव सः॥ 11 / वैशंपायन उवाच। ततः स भूयः संक्रुद्धो वृक्षमादाय राक्षसः / | तेन शब्देन वित्रस्तो जनस्तस्याथ रक्षसः / ताडयिष्यंस्तदा भीमं पुनरभ्यद्रवद्बली // 12 / निष्पपात गृहाद्राजन्सहैव परिचारिभिः // 1 . -208 -
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________________ 1. 152. 2] आदिपर्व . [1. 153.9 तान्भीतान्विगतज्ञानान्भीमः प्रहरतां वरः / स तदन्नमुपादाय गतो बकवनं प्रति / सान्त्वयामास बलवान्समये च न्यवेशयत् // 2 तेन नूनं भवेदेतत्कर्म लोकहितं कृतम् // 17 न हिंस्या मानुषा भूयो युष्माभिरिह कर्हिचित् / ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे क्षत्रियाश्च सुविस्मिताः / हिंसतां हि वधः शीघ्रमेवमेव भवेदिति // 3 वैश्याः शूद्राश्च मुदिताश्चक्रुर्ब्रह्ममहं तदा // 18 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा तानि रक्षांसि भारत / ततो जानपदाः सर्वे आजग्मुर्नगरं प्रति / एवमस्त्विति तं प्राहुर्जगृहुः समयं च तम् // 4 तदद्भुततमं द्रष्टुं पार्थास्तत्रैव चावसन् // 19 ततःप्रभृति रक्षांसि तत्र सौम्यानि भारत / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि नगरे प्रत्यदृश्यन्त नरैनगरवासिभिः॥ 5 द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 152 // ततो भीमस्तमादाय गतासुं पुरुषादकम् / // समाप्तं बकवधपर्व // द्वारदेशे विनिक्षिप्य जगामानुपलक्षितः // 6 153 ततः स भीमस्तं हत्वा गत्वा ब्राह्मणवेश्म तत्। जनमेजय उवाच / आचचक्षे यथावृत्तं राज्ञः सर्वमशेषतः॥ 7 ते तथा पुरुषव्याघ्रा निहत्य बकराक्षसम् / ततो नरा विनिष्क्रान्ता नगरात्काल्यमेव तु / अत ऊर्ध्वं ततो ब्रह्मन्किमकुर्वत पाण्डवाः // 1 ददृशुर्निहतं भूमौ राक्षसं रुधिरोक्षितम् / / 8 वैशंपायन उवाच / तमद्रिकूटसदृशं विनिकीर्णं भयावहम् / तत्रैव न्यवसन्राजन्निहत्य बकराक्षसम् / एकचक्रां ततो गत्वा प्रवृत्तिं प्रददुः पुरे // 9 अधीयानाः परं ब्रह्म ब्राह्मणस्य निवेशने // 2 ततः सहस्रशो राजन्नरा नगरवासिनः / ततः कतिपयाहस्य ब्राह्मणः संशितव्रतः। तत्राजग्मुर्बकं द्रष्टुं सस्त्रीवृद्धकुमारकाः॥ 10 प्रतिश्रयार्थं तद्वेश्म ब्राह्मणस्याजगाम ह // 3 ततस्ते विस्मिताः सर्वे कर्म दृष्ट्वातिमानुषम् / स सम्यक्पूजयित्वा तं विद्वान्विप्रर्षभस्तदा / दैवतान्यर्चयांचक्रः सर्व एव विशां पते // 11 ददौ प्रतिश्रयं तस्मै सदा सर्वातिथिव्रती // 4 ततः प्रगणयामासुः कस्य वारोऽद्य भोजने / ततस्ते पाण्डवाः सर्वे सह कुन्त्या नरर्षभाः / ज्ञात्वा चागम्य तं विप्रं पप्रच्छुः सर्व एव तत्॥१२ उपासांचक्रिरे विप्रं कथयानं कथास्तदा // 5 एवं पृष्टस्तु बहुशो रक्षमाणश्च पाण्डवान् / कथयामास देशान्स तीर्थानि विविधानि च / उवाच नागरान्सर्वानिदं विप्रर्षभस्तदा // 13 / राज्ञां च विविधाश्चर्याः पुराणि विविधानि च॥६ आज्ञापितं मामशने रुदन्तं सह बन्धुभिः / स तत्राकथयद्विप्रः कथान्ते जनमेजय / ददर्श ब्राह्मणः कश्चिन्मत्रसिद्धो महाबलः // 14 पाश्चालेष्वद्भुताकारं याज्ञसेन्याः स्वयंवरम् // 7 परिपृच्छय स मां पूर्व परिक्लेशं पुरस्य च। धृष्टद्युम्नस्य चोत्पत्तिमुत्पत्तिं च शिखण्डिनः / अब्रवीद्ब्राह्मणश्रेष्ठ आश्वास्य प्रहसन्निव // 15 अयोनिजत्वं कृष्णाया द्रुपदस्य महामखे॥ 8 प्रापयिष्याम्यहं तस्मै इदमन्नं दुरात्मने / तदद्भुततमं श्रुत्वा लोके तस्य महात्मनः।। मन्निमित्तं भयं चापि न कार्यमिति वीर्यवान्॥१६ विस्तरेणैव पप्रच्छुः कथां तां पुरुषर्षभाः॥ 9 .. म.भा. 27 -209 --
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________________ 1. 153. 10] महाभारते [1. 154. 22 कथं द्रुपदपुत्रस्य धृष्टद्युम्नस्य पावकात् / अस्त्राणि वा शरीरं वा ब्रह्मन्नन्यतरं वृणु // 10 वेदिमध्याच्च कृष्णायाः संभवः कथमद्भुतः॥ 10 द्रोण उवाच / कथं द्रोणान्महेष्वासात्सर्वाण्यस्त्राण्यशिक्षत। अत्राणि चैव सर्वाणि तेषां संहारमेव च / कथं प्रियसखायौ तौ भिन्नौ कस्य कृतेन च // 11 प्रयोगं चैव सर्वेषां दातुमर्हति मे भवान् // 11 एवं तैश्चोदितो राजन्स विप्रः पुरुषर्षभैः / ब्राह्मण उवाच / कथयामास तत्सर्वं द्रौपदीसंभवं तदा // 12 तथेत्युक्त्वा ततस्तस्मै प्रददौ भृगुनन्दनः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि प्रतिगृह्य ततो द्रोणः कृतकृत्योऽभवत्तदा // 12 त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 153 // संप्रहृष्टमनाश्चापि रामात्परमसंमतम् / ब्रह्मास्त्रं समनुप्राप्य नरेष्वभ्यधिकोऽभवत् // 13 ब्राह्मण उवाच / ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान् / गङ्गाद्वारं प्रति महान्बभूवर्षिर्महातपाः / अब्रवीत्पुरुषव्याघ्रः सखायं विद्धि मामिति॥ 14. भरद्वाजो महाप्राज्ञः सततं संशितव्रतः // 1 सोऽभिषेक्तुं गतो गङ्गां पूर्वमेवागतां सतीम् / द्रुपद उवाच / ददर्शाप्सरसं तत्र घृताचीमाप्लुतामृषिः // 2 नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा / तस्या वायुर्नदीतीरे वसनं व्यहरत्तदा / नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्व किमिष्यते // 15 अपकृष्टाम्बरां दृष्ट्वा तामृषिश्वकमे ततः // 3 ब्राह्मण उवाच। तस्यां संसक्तमनसः कौमारब्रह्मचारिणः / स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चाल्यं प्रति बुद्धिमान् / हृष्टस्य रेतश्वस्कन्द तदृषिद्रोण आदधे // 4 जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम् // 16 . ततः समभवद्रोणः कुमारस्तस्य धीमतः। तस्मै पौत्रान्समादाय वसूनि विविधानि च / अध्यगीष्ट स वेदांश्च वेदाङ्गानि च सर्वशः // 5 प्राप्ताय प्रददौ भीष्मः शिष्यान्द्रोणाय धीमते // 15 भरद्वाजस्य तु सखा पृषतो नाम पार्थिवः / द्रोणः शिष्यांस्ततः सर्वानिदं वचनमब्रवीत् / तस्यापि द्रुपदो नाम तदा समभवत्सुतः॥६ समानीय तदा विद्वान्द्रुपदस्यासुखाय वै // 18 स नित्यमाश्रमं गत्वा द्रोणेन सह पार्षतः / आचार्यवेतनं किंचिद्धृदि संपरिवर्तते / चिक्रीडाध्ययनं चैव चकार क्षत्रियर्षभः॥७ कृतास्त्रैस्तत्प्रदेयं स्यात्तदृतं वदतानघाः // 19 ततस्तु पृषतेऽतीते स राजा द्रुपदोऽभवत् / यदा च पाण्डवाः सर्वे कृतास्त्राः कृतनिश्रमाः / द्रोणोऽपि रामं शुश्राव दित्सन्तं वसु सर्वशः // 8 ततो द्रोणोऽब्रवीद्भूयो वेतनार्थमिदं वचः॥२० वनं तु प्रस्थितं रामं भरद्वाजसुतोऽब्रवीत् / पार्षतो द्रुपदो नाम छत्रवत्यां नरेश्वरः / आगतं वित्तकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजर्षभ // 9 तस्यापकृष्य तद्राज्यं मम शीघ्रं प्रदीयताम् // 21 राम उवाच / ततः पाण्डुसुताः पञ्च निर्जित्य द्रुपदं युधि / शरीरमात्रमेवाद्य मयेदमवशेषितम् / द्रोणाय दर्शयामासुर्बद्ध्वा ससचिवं तदा // 22 -210 -
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________________ 1. 154. 23 ] आदिपर्व [1. 155. 23 द्रोण उवाच / प्रपेदे छन्दयन्कामैरुपयाजं धृतव्रतम् // 9 प्रार्थयामि त्वया सख्यं पुनरेव नराधिप / पादशुश्रूषणे युक्तः प्रियवाक्सर्वकामदः / अराजा किल नो राज्ञः सखा भवितुमर्हति / / 23 अर्हयित्वा यथान्यायमुपयाजमुवाच सः॥ 10 . अतः प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन मया तव / येन मे कर्मणा ब्रह्मन्पुत्रः स्याद्रोणमृत्यवे / राजासि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तरे // 24 उपयाज कृते तस्मिन्गवां दातास्मि तेऽर्बुदम् // 11 ब्राह्मण उवाच / यद्वा तेऽन्यहिजश्रेष्ठ मनसः सुप्रियं भवेत् / असत्कारः स सुमहान्मुहूर्तमपि तस्य तु / सर्वं तत्ते प्रदाताहं न हि मेऽस्त्यत्र संशयः // 12 न व्येति हृदयाद्राज्ञो दुर्मनाः स कृशोऽभवत्॥२५ / इत्युक्तो नाहमित्येवं तमृषिः प्रत्युवाच ह / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आराधयिष्यन्द्रुपदः स तं पर्यचरत्पुनः // 13 चतुःपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 154 // ततः संवत्सरस्यान्ते द्रुपदं स द्विजोत्तमः / 155 उपयाजोऽब्रवीद्राजन्काले मधुरया गिरा // 14 ब्राह्मण उवाच / ज्येष्ठो भ्राता ममागृह्णाद्विचरन्वननिर्झरे। अमर्षी द्रुपदो राजा कर्मसिद्धान्द्विजर्षभान् / अपरिज्ञातशौचायां भूमौ निपतितं फलम् // 15 अन्विच्छन्परिचक्राम ब्राह्मणावसथान्बहून् // 1 तदपश्यमहं भ्रातुरसांप्रतमनुव्रजन् / पुत्रजन्म परीप्सन्वै शोकोपहतचेतनः / विमर्श संकरादाने नायं कुर्यात्कथंचन // 16 नास्ति श्रेष्ठं ममापत्यमिति नित्यमचिन्तयत् / / 2 दृष्ट्वा फलस्य नापश्यद्दोषा येऽस्यानुबन्धिकाः / जातान्पुत्रान्स निर्वेदाद्धिग्बन्धूनिति चाब्रवीत् / विविनक्ति न शौचं यः सोऽन्यत्रापि कथं भवेत्॥ निःश्वासपरमश्चासीद्रोणं प्रतिचिकीर्षया॥३ संहिताध्ययनं कुर्वन्वसन्गुरुकुले च यः / प्रभाव विनयं शिक्षा द्रोणस्य चरितानि च / भैक्षमुच्छिष्टमन्येषां भुते चापि सदा सदा / मात्रेण च बलेनास्य चिन्तयन्नान्वपद्यत / कीर्तयन्गुणमन्नानामघृणी च पुनः पुनः // 18 प्रतिकर्तुं नृपश्रेष्ठो यतमानोऽपि भारत // 4 तमहं फलार्थिनं मन्ये भ्रातरं तर्कचक्षुषा / अभितः सोऽथ कल्माषी गङ्गाकूले परिभ्रमन् / तं वै गच्छस्व नृपते स त्वां संयाजयिष्यति // 19 ब्राह्मणावसथं पुण्यमाससाद महीपतिः / / 5 जुगुप्समानो नृपतिर्मनसेदं विचिन्तयन् / चित्र नास्नातकः कश्चिन्न चासीदव्रती द्विजः / उपयाजवचः श्रुत्वा नृपतिः सर्वधर्मवित् / तथैव नामहाभागः सोऽपश्यत्संशितव्रतौ // 6 अभिसंपूज्य पूजाईमृषि याजमुवाच ह / 20 बाजोपयाजी ब्रह्मर्षी शाम्यन्तौ पृषतात्मजः। अयुतानि ददान्यष्टौ गवां याजय मां विभो। संहिताध्ययने युक्तौ गोत्रतश्चापि काश्यपौ॥ 7 द्रोणवैराभिसंतप्तं त्वं ह्रादयितुमर्हसि // 21 / कारणे युक्तरूपौ तौ ब्राह्मणावृषिसत्तमौ / स हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठो ब्रह्मास्त्रे चाप्यनुत्तमः / स तावामत्रयामास सर्वकामैरतन्द्रितः // 8 तस्माद्रोणः पराजैषीन्मां वै स सखिविग्रहे // 22 बुद्धा तयोर्बलं बुद्धिं कनीयांसमुपह्वरे / क्षत्रियो नास्ति तुल्योऽस्य पृथिव्यां कश्चिदग्रणीः / - 211 -
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________________ 1. 155. 23 ] महाभारते [1. 155. 50 कौरवाचार्यमुख्यस्य भारद्वाजस्य धीमतः // 23 / कथं कामं न संदध्यात्सा त्वं विप्रैहि तिष्ठ वा॥३६ द्रोणस्य शरजालानि प्राणिदेहहराणि च / ब्राह्मण उवाच / षडरत्नि धनुश्चास्य दृश्यतेऽप्रतिमं महत् / / 24 एवमुक्ते तु याजेन हुते हविषि संस्कृते / स हि ब्राह्मणवेगेन क्षात्रं वेगमसंशयम् / उत्तस्थौ पावकात्तस्मात्कुमारो देवसंनिभः // 37 प्रतिहन्ति महेष्वासो भारद्वाजो महामनाः // 25 ज्वालावर्णो घोररूपः किरीटी वर्म चोत्तमम् / क्षत्रोच्छेदाय विहितो जामदग्न्य इवास्थितः / बिभ्रत्सखड्गः सशरो धनुष्मान्विनदन्मुहुः // 38 / तस्य ह्यस्त्रबलं घोरमप्रसह्यं नरैर्भुवि // 26 सोऽध्यारोहद्रथवरं तेन च प्रययौ तदा। ब्राह्ममुच्चारयंस्तेजो हुताहुतिरिवानलः / / ततः प्रणेदुः पाञ्चालाः प्रहृष्टाः साधु साध्विति // 39 समेत्य स दहत्याजौ क्षत्रं ब्रह्मपुरःसरः / भयापहो राजपुत्रः पाञ्चालानां यशस्करः / ब्रह्मक्षत्रे च विहिते ब्रह्मतेजो विशिष्यते // 27 राज्ञः शोकापहो जात एष द्रोणवधाय वै / सोऽहं क्षत्रबलाद्धीनो ब्रह्मतेजः प्रपेदिवान् / इत्युवाच महद्भूतमदृश्यं खेचरं तदा / / 40 द्रोणाद्विशिष्टमासाद्य भवन्तं ब्रह्मवित्तमम् // 28 कुमारी चापि पाञ्चाली वेदिमध्यात्समुत्थिता / द्रोणान्तकमहं पुत्रं लभेयं युधि दुर्जयम् / सुभगा दर्शनीयाङ्गी वेदिमध्या मनोरमा // 41 . तत्कर्म कुरु मे याज निर्वपाम्यर्बुदं गवाम् // 29 श्यामा पद्मपलाशाक्षी नीलकुश्चितमूर्धजा। तथेत्युक्त्वा तु तं याजो याज्यार्थमुपकल्पयत् / मानुषं विग्रहं कृत्वा साक्षादमरवर्णिनी / / 42 / गुर्वर्थ इति चाकाममुपयाजमचोदयत् / नीलोत्पलसमो गन्धो यस्याः क्रोशात्प्रवायति / याजो द्रोणविनाशाय प्रतिजज्ञे तथा च सः॥ 30 या बिभर्ति परं रूपं यस्या नास्त्युपमा भुवि // 43 ततस्तस्य नरेन्द्रस्य उपयाजो महातपाः। तां चापि जातां सुश्रोणी वागुवाचाशरीरिणी। आचख्यौ कर्म वैतानं तदा पुत्रफलाय वै // 31 सर्वयोषिद्वरा कृष्णा क्षयं क्षत्रं निनीषति // 44 स च पुत्रो महावीर्यो महातेजा महाबलः। सुरकार्यमियं काले करिष्यति सुमध्यमा / इष्यते यद्विधो राजन्भविता ते तथाविधः // 32 अस्या हेतोः क्षत्रियाणां महदुत्पत्स्यते भयम्॥४५ भारद्वाजस्य हन्तारं सोऽभिसंधाय भूमिपः।। तच्छ्रुत्वा सर्वपाञ्चालाः प्रणेदुः सिंहसंघवत्।। आजह्वे तत्तथा सर्वं द्रुपदः कर्मसिद्धये // 33 न चैतान्हर्षसंपूर्णानियं सेहे वसुंधरा // 46 याजस्तु हवनस्यान्ते देवीमाह्वापयत्तदा। तौ दृष्ट्वा पृषती याजं प्रपेदे वै सुतार्थिनी। प्रैहि मां राज्ञि पृषति मिथुनं त्वामुपस्थितम् // 34 न वै मदन्यां जननी जानीयातामिमाविति // 47 देव्युवाच। तथेत्युवाच तां याजो राज्ञः प्रियचिकीर्षया। अवलिप्तं मे मुखं ब्रह्मन्पुण्यान्गन्धान्बिभर्मि च / तयोश्च नामनी चक्रुर्द्विजाः संपूर्णमानसाः // 48 सुतार्थेनोपरुद्धास्मि तिष्ठ याज मम प्रिये // 35 धृष्टत्वादतिधृष्णुत्वाद्धर्माद्दथुत्संभवादपि / याज उवाच। धृष्टद्युम्नः कुमारोऽयं द्रुपदस्य भवत्विति // 49 याजेन श्रपितं हव्यमुपयाजेन मत्रितम् / कृष्णेत्येवाब्रुवन्कृष्णां कृष्णाभूत्सा हि वर्णतः। - 212 -
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________________ 1. 155. 50] आदिपर्व [1. 157. 12 तथा तन्मिथुनं जज्ञे द्रुपदस्य महामखे // 50 उवाच गमनं ते च तथेत्येवाब्रुवंस्तदा // 10 धृष्टद्युम्नं तु पाञ्चाल्यमानीय स्वं विवेशनम् / तत आमय तं विषं कुन्ती राजन्सुतैः सह / उपाकरोदरहेतोर्भारद्वाजः प्रतापवान् / / 51 प्रतस्थे नगरी रम्यां द्रुपदस्य महात्मनः / / 11 अमोक्षणीयं दैवं हि भावि मत्वा महामतिः। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तथा तत्कृतवान्द्रोण आत्मकीर्त्यनुरक्षणात्।। 52 / षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 156 // इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि 157 पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 155 // वैशंपायन उवाच / वसत्सु तेषु प्रच्छन्नं पाण्डवेषु महात्मसु / वैशंपायन उवाच / आजगामाथ तान्द्रष्टुं व्यासः सत्यवतीसुतः॥ 1 एतच्छ्रुत्वा तु कौन्तेयाः शल्यविद्धा इवाभवन् / तमागतमभिप्रेक्ष्य प्रत्युद्गम्य परंतपाः / सर्वे चास्वस्थमनसो बभूवुस्ते महारथाः // 1 प्रणिपत्याभिवाद्यैनं तस्थुः प्राञ्जलयस्तदा // 2 ततः कुन्ती सुतान्दृष्ट्वा विभ्रान्तान्गतचेतसः। समनुज्ञाप्य तान्सर्वानासीनान्मुनिरब्रवीत् / युधिष्ठिरमुवाचेदं वचनं सत्यवादिनी // 2 . प्रसन्नः पूजितः पार्थैः प्रीतिपूर्वमिदं वचः / / 3 चिररात्रोषिताः स्मेह ब्राह्मणस्य निवेशने। अपि धर्मेण वर्तध्वं शास्त्रेण च परंतपाः। रममाणाः पुरे रम्ये लब्धभैक्षा युधिष्ठिर // 3 अपि विप्रेषु वः पूजा पूजाहेषु न हीयते // 4 यानीह रमणीयानि वनान्युपवनानि च / अथ धर्मार्थवद्वाक्यमुक्त्वा स भगवानृषिः / सर्वाणि तानि दृष्टानि पुनः पुनररिंदम // 4 विचित्राश्च कथास्तास्ताः पुनरेवेदमब्रवीत् // 5 // पुनदृष्टानि तान्येव प्रीणयन्ति न नस्तथा।। आसीत्तपोवने काचिदृषेः कन्या महात्मनः।। भैक्षं च न तथा वीर लभ्यते कुरुनन्दन // 5 विलग्नमध्या सुश्रोणी सुभ्रूः सर्वगुणान्विता // 6 . ते वयं साधु पाञ्चालान्गच्छाम यदि मन्यसे। . कर्मभिः स्वकृतैः सा तु दुर्भगा समपद्यत / अपूर्वदर्शनं तात रमणीयं भविष्यति // 6 नाध्यगच्छत्पतिं सा तु कन्या रूपवती सती / / 7.' सुभिक्षाश्चैव पाञ्चालाः श्रूयन्ते शत्रुकर्शन / तपस्तप्तुमथारेभे पत्यर्थमसुखा ततः / यज्ञसेनश्च राजासौ ब्रह्मण्य इति शुश्रुमः // 7 तोषयामास तपसा सा किलोग्रेण शंकरम् // 8 .. एकत्र चिरवासो हि क्षमो न च मतो मम / तस्याः स भगवांस्तुष्टस्तामुवाच तपस्विनीम् / ते तत्र साधु गच्छामो यदि त्वं पुत्र मन्यसे / / 8 वरं वरय भद्रं ते वरदोऽस्मीति भामिनि // 9 युधिष्ठिर उवाच / अथेश्वरमुवाचेदमात्मनः सा वचो हितम् / / भवत्या यन्मतं कार्यं तदस्माकं परं हितम् / पतिं सर्वगुणोपेतमिच्छामीति पुनः पुनः // 10. अनुजांस्तु न जानामि गच्छेयुर्नेति वा पुनः॥ 9 तामथ प्रत्युवाचेदमीशानो वदतां वरः / / वैशंपायन उवाच / पञ्च ते पतयो भद्रे भविष्यन्तीति शंकरः॥ 11 // ततः कुन्ती भीमसेनमर्जुनं यमजी तथा। प्रतिब्रुवन्तीमेकं मे पतिं देहीति शंकरम् / -213 -.
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________________ 1. 157. 12] महाभारते [1. 158. 23 पुनरेवाब्रवीदेव इदं वचनमुत्तमम् // 12 उपक्रान्ता निगृह्णीमो राक्षसैः सह बालिशान् // 9 पश्चकृत्वस्त्वया उक्तः पतिं देहीत्यहं पुनः। ततो रात्रौ प्राप्नुवतो जलं ब्रह्मविदो जनाः। देहमन्यं गतायास्ते यथोक्तं तद्भविष्यति // 13 गर्हयन्ति नरान्सर्वान्बलस्थान्नृपतीनपि // 10 द्रुपदस्य कुले जाता कन्या सा देवरूपिणी / आरात्तिष्ठत मा मह्यं समीपमुपसर्पत / निर्दिष्टा भवतां पत्नी कृष्णा पार्षत्यनिन्दिता // 14 कस्मान्मां नाभिजानीत प्राप्तं भागीरथीजलम् // 11 पाश्चालनगरं तस्मात्प्रविशध्वं महाबलाः / अङ्गारपर्ण गन्धर्वं वित्त मां स्वबलाश्रयम् / सुखिनस्तामनुप्राप्य भविष्यथ न संशयः // 15 अहं हि मानी चेयुश्च कुबेरस्य प्रियः सखा॥ 12 एवमुक्त्वा महाभागः पाण्डवानां पितामहः / अङ्गारपर्णमिति च ख्यातं वनमिदं मम / पार्थानामय कुन्तीं च प्रातिष्ठत महातपाः॥१६ अनु गङ्गां च वाकां च चित्रं यत्र वसाम्यहम्॥१३ इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि न कुणपाः शृङ्गिणो वा न देवा न च मानुषाः / सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 157 // इदं समुपसर्पन्ति तत्किं समुपसर्पथ // 14 158 अर्जुन उवाच / वैशंपायन उवाच / समुद्रे हिमवत्पार्श्वे नद्यामस्यां च दुर्मते / ते प्रतस्थुः पुरस्कृत्य मातरं पुरुषर्षभाः / रात्रावहनि संधौ च कस्य कृप्तः परिग्रहः // 15 समैरुदङ्मुखैर्मागैर्यथोद्दिष्टं परंतपाः / / 1 वयं च शक्तिसंपन्ना अकाले त्वामधृष्णुमः / ते गच्छन्तस्त्वहोरात्रं तीर्थं सोमश्रवायणम् / अशक्ता हि क्षणे क्रूरे युष्मानर्चन्ति मानवाः // 16 आसेदुः पुरुषव्याघ्रा गङ्गायां पाण्डुनन्दनाः // 2 पुरा हिमवतश्चैषा हेमशृङ्गाद्विनिःसृता / उल्मुकं तु समुद्यम्य तेषामग्रे धनंजयः / गङ्गा गत्वा समुद्राम्भः सप्तधा प्रतिपद्यते // 17 प्रकाशार्थं ययौ तत्र रक्षार्थं च महायशाः // 3 / इयं भूत्वा चैकवप्रा शुचिराकाशगा पुनः / तत्र गङ्गाजले रम्ये विविक्ते क्रीडयन्त्रियः / देवेषु गङ्गा गन्धर्व प्राप्नोत्यलकनन्दताम् // 18 ईयुर्गन्धर्वराजः स्म जलक्रीडामुपागतः // 4 तथा पितृन्वैतरणी दुस्तरा पापकर्मभिः / शब्दं तेषां स शुश्राव नदी समुपसर्पताम् / गङ्गा भवति गन्धर्व यथा द्वैपायनोऽब्रवीत् // 19 तेन शब्देन चाविष्टश्चक्रोध बलवद्बली // 5 असंबाधा देवनदी स्वर्गसंपादनी शुभा। स दृष्ट्वा पाण्डवांस्तत्र सह मात्रा परंतपान् / कथमिच्छसि तां रोर्बु नैष धर्मः सनातनः // 20 विस्फारयन्धनुरमिदं वचनमब्रवीत् // 6 अनिवार्यमसंबाधं तव वाचा कथं वयम् / संध्या संरज्यते घोरा पूर्वरात्रागमेषु या। न स्पृशेम यथाकामं पुण्यं भागीरथीजलम् // 21 अशीतिभित्रुटैहीनं तं मुहूर्तं प्रचक्षते // 7 ___ वैशंपायन उवाच। विहितं कामचाराणां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् / अङ्गारपर्णस्तच्छ्रुत्वा क्रुद्ध आनम्य कार्मुकम् / शेषमन्यन्मनुष्याणां कामचारमिह स्मृतम् / / 8 मुमोच सायकान्दीप्तानहीनाशीविषानिव // 22 लोभात्प्रचारं चरतस्तासु वेलासु वै नरान् / / उल्मुकं भ्रामयंस्तूर्णं पाण्डवश्चर्म चोत्तमम् / -214 -
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________________ 1. 158. 23 ] आदिपर्व [1. 158. 50 व्यपोवाह शरांस्तस्य सर्वानेव धनंजयः // 23 / न च श्लाघे बलेनाद्य न नाम्ना जनसंसदि // 35 अर्जुन उवाच / साध्विमं लब्धवाल्लाभं योऽहं दिव्यास्त्रधारिणम् / बिभीषिकैषा गन्धर्व नास्त्रज्ञेषु प्रयुज्यते / गान्धा मायया योद्धमिच्छामि वयसा वरम् // अस्त्रज्ञेषु प्रयुक्तैषा फेनवत्प्रविलीयते // 24 अस्त्राग्निना विचित्रोऽयं दग्धो मे रथ उत्तमः / मानुषानति गन्धर्वान्सर्वान्गन्धर्व लक्षये। सोऽहं चित्ररथो भूत्वा नाम्ना दग्धरथोऽभवम् / / 37 तस्मादत्रेण दिव्येनं योत्स्येऽहं न तु मायया // 25 | संभृता चैव विद्येयं तपसेह पुरा मया। पुरास्त्रमिदमाग्नेयं प्रादात्किल बृहस्पतिः / निवेदयिष्ये तामद्य प्राणदाय महात्मने // 38 भरद्वाजस्य गन्धर्व गुरुपुत्रः शतक्रतोः // 26 संस्तम्भितं हि तरसा जितं शरणमागतम् / भरद्वाजादग्निवेश्यो अग्निवेश्याद्गुरुर्मम। योऽरिं संयोजयेत्प्राणैः कल्याणं किं न सोऽर्हति // 39 स विदं मह्यमददाह्रोणो ब्राह्मणसत्तमः // 27 चाक्षुषी नाम विद्येयं यां सोमाय ददौ मनुः / वैशंपायन उवाच / / ददौ स विश्वावसवे मह्यं विश्वावसुर्ददौ // 40 इत्युक्त्वा पाण्डवः क्रुद्धो गन्धर्वाय मुमोच ह / सेयं कापुरुषं प्राप्ता गुरुदत्ता प्रणश्यति / प्रदीप्तमस्त्रमाग्नेयं ददाहास्य रथं तु तत् // 28 आगमोऽस्या मया प्रोक्तो वीर्यं प्रतिनिबोध मे॥४१ विरथं विप्लुतं तं तु स गन्धर्व महाबलम् / यच्चक्षुषा द्रष्टुमिच्छेत्रिषु लोकेषु किंचन / अस्रतेजःप्रमूढं च प्रपतन्तमवाड्मुखम् // 29 तत्पश्येद्यादृशं चेच्छेत्तादृशं द्रष्टुमर्हति // 42 शिरोरुहेषु जग्राह माल्यवत्सु धनंजयः। समानपद्ये षण्मासान्स्थितो विद्यां लभेदिमाम् / भ्रातृन्प्रति चकर्षाथ सोऽस्त्रपातादचेतसम् / / 30 अनुनेष्याम्यहं विद्यां स्वयं तुभ्यं व्रते कृते // 43 युधिष्ठिरं तस्य भार्या प्रपेदे शरणार्थिनी।। विद्यया ह्यनया राजन्वयं नृभ्यो विशेषिताः। नाम्ना कुम्भीनसी नाम पतित्राणमभीप्सती // 31 अविशिष्टाश्च देवानामनुभावप्रवर्तिताः // 44 .. गन्धयुवाच / गन्धर्वजानामश्वानामहं पुरुषसत्तम / त्राहि त्वं मां महाराज पति चेमं विमुश्च मे। भ्रातृभ्यस्तव पञ्चभ्यः पृथग्दाता शतं शतम्।। 45 गन्धर्वी शरणं प्राप्तां नाम्ना कुम्भीनसी प्रभो // 32 देवगन्धर्ववाहास्ते दिव्यगन्धा मनोगमाः / . युधिष्ठिर उवाच। क्षीणाः क्षीणा भवन्त्येते न हीयन्ते च रंहसः॥४६ युद्धे जितं यशोहीनं स्त्रीनाथमपराक्रमम् / पुरा कृतं महेन्द्रस्य वज्रं वृत्रनिबर्हणे / को नु हन्याद्रिपुं त्वादृअञ्चमं रिपुसूदन // 33 दशधा शतधा चैव तच्छीणं वृत्रमूर्धनि // 47 - अर्जुन उवाच / ततो भागीकृतो देवैर्वज्रभाग उपास्यते / अङ्गेमं प्रतिपद्यस्व गच्छ गन्धर्व मा शुचः / लोके यत्साधनं किंचित्सा वै वज्रतनुः स्मृता॥४८ प्रदिशत्यभयं तेऽद्य कुरुराजो युधिष्ठिरः / / 34 वज्रपाणिर्ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रं वज्ररथं स्मृतम् / गन्धर्व उवाच / वैश्या वै दानवज्राश्च कर्मवज्रा यवीयसः॥ 49 जितोऽहं पूर्वकं नाम मुश्वाम्यङ्गारपर्णताम् / वनं क्षत्रस्य वाजिनो अवध्या वाजिनः स्मृताः / -215
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________________ 1. 158. 50] महाभारते [1. 159. 20 रथाङ्गं वडवा सूते सूताश्चाश्वेषु ये मताः // 50 विश्रुतं त्रिषु लोकेषु भारद्वाजं यशस्विनम् // 6 कामवर्णाः कामजवाः कामतः समुपस्थिताः। धर्म वायुं च शक्रं च विजानाम्यश्विनौ तथा / इमे गन्धर्वजाः कामं पूरयिष्यन्ति ते हयाः॥५१ पाण्डं च कुरुशार्दूल षडेतान्कुलवर्धनान् / अर्जुन उवाच / पितृनेतानहं पार्थ देवमानुषसत्तमान् // 7 यदि प्रीतेन वा दत्तं संशये जीवितस्य वा।। दिव्यात्मानो महात्मानः सर्वशस्त्रभृतां वराः / विद्या वित्तं श्रुतं वापि न तद्गन्धर्व कामये // 52 भवन्तो भ्रातरः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः // 8 गन्धर्व उवाच। उत्तमां तु मनोबुद्धिं भवतां भावितात्मनाम् / संयोगो वै प्रीतिकरः संसत्सु प्रतिदृश्यते। जानन्नपि च वः पार्थ कृतवानिह धर्षणाम् // 9 जीवितस्य प्रदानेन प्रीतो विद्यां ददामि ते // 53 स्त्रीसकाशे च कौरव्य न पुमान्क्षन्तुमर्हति / त्वत्तो ह्यहं ग्रहीष्यामि अस्त्रमाग्नेयमुत्तमम् / धर्षणामात्मनः पश्यन्बाहुद्रविणमाश्रितः // 10 तथैव सख्यं बीभत्सो चिराय भरतर्षभ // 54 नक्तं च बलमस्माकं भूय एवाभिवर्धते / अर्जुन उवाच / यतस्ततो मां कौन्तेय सदारं मन्युराविशत् / / 11 त्वत्तोऽस्त्रेण वृणोम्यश्वान्संयोगः शाश्वतोऽस्तु नौ / सोऽहं त्वयेह विजितः संख्ये तापत्यवर्धन / सखे तब्रूहि गन्धर्व युष्मभ्यो यद्भयं त्यजेत् / / 55 येन तेनेह विधिना कीर्त्यमानं निबोध मे // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ब्रह्मचर्य परो धर्मः स चापि नियतस्त्वयि। ___अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 158 // यस्मात्तस्मादहं पार्थ रणेऽस्मिन्विजितस्त्वया // 13 159 यस्तु स्यात्क्षत्रियः कश्चित्कामवृत्तः परंतप / अर्जुन उवाच। नक्तं च युधि युध्येत न स जीवेत्कथंचन // 14 कारणं ब्रूहि गन्धर्व किं तद्येन स्म धर्षिताः / यस्तु स्यात्कामवृत्तोऽपि राजा तापत्य संगरे / यान्तो ब्रह्मविदः सन्तः सर्वे रात्रावरिंदम // 1 जयेन्नक्तंचरान्सर्वान्स पुरोहितधूर्गतः / / 15 गन्धर्व उवाच। तस्मात्तापत्य यत्किंचिन्नृणां श्रेय इहेप्सितम् / अनग्नयोऽनाहुतयो न च विप्रपुरस्कृताः। . तस्मिन्कर्मणि योक्तव्या दान्तात्मानः पुरोहिताः॥१६ यूयं ततो धर्षिताः स्थ मया पाण्डवनन्दन / / 2 वेदे षडङ्गे निरताः शुचयः सत्यवादिनः। यक्षराक्षसगन्धर्वाः पिशाचोरगमानवाः / धर्मात्मानः कृतात्मानः स्युर्नृपाणां पुरोहिताः // 17 विस्तरं कुरुवंशस्य श्रीमतः कथयन्ति ते // 3 जयश्च नियतो राज्ञः स्वर्गश्च स्यादनन्तरम् / नारदप्रभृतीनां च देवर्षीणां मया श्रुतम् / यस्य स्याद्धर्मविद्वाग्मी पुरोधाः शीलवान्शुचिः॥१८ गुणान्कथयतां वीर पूर्वेषां तव धीमताम् // 4 लाभं लब्धुमलब्धं हि. लब्धं च परिरक्षितुम् / स्वयं चापि मया दृष्टश्चरता सागराम्बराम् / पुरोहितं प्रकुर्वीत राजा गुणसमन्वितम् // 19 इमां वसुमती कृत्स्ना प्रभावः स्वकुलस्य ते // 5 / पुरोहितमते तिष्ठेद्य इच्छेत्पृथिवीं नृपः / वेदे धनुषि चाचार्यमभिजानामि तेऽर्जुन। | प्राप्तुं मेरुवरोत्तंसां सर्वशः सागराम्बराम् / / 20 . -216 -
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________________ 1. 159. 21] आदिपर्व [1. 160. 25 न हि केवलशौर्येण तापत्याभिजनेन च / संप्राप्तयौवनां पश्यन्देयां दुहितरं तु ताम् / जयेदब्राह्मणः कश्चिद्भूमिं भूमिपतिः क्वचित् / / 21 नोपलेभे ततः शान्ति संप्रदानं विचिन्तयन् // 11 तस्मादेवं विजानीहि कुरूणां वंशवर्धन / अथर्मपुत्रः कौन्तेय कुरूणामृषभो बली। ब्राह्मणप्रमुखं राज्यं शक्यं पालयितुं चिरम् // 22 सूर्यमाराधयामास नृपः संवरणः सदा // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अर्घ्यमाल्योपहारैश्च शश्वञ्च नृपतिर्यतः / एकोनषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 159 // | नियमैरुपवासैश्च तपोभिर्विविधैरपि / / 13 160 शुश्रूषुरनहंवादी शुचिः पौरवनन्दनः। ___अर्जुन उवाच। अंशुमन्तं समुद्यन्तं पूजयामास भक्तिमान् // 14 तापत्य इति यद्वाक्यमुक्तवानसि मामिह / ततः कृतज्ञं धर्मज्ञं रूपेणासदृशं भुवि / तदहं ज्ञातुमिच्छामि तापत्यार्थविनिश्चयम् // 1 तपत्याः सदृशं मेने सूर्यः संवरणं पतिम् // 15 तपती नाम का चैषा तापत्या यत्कृते वयम् / दातुमैच्छत्ततः कन्यां तस्मै संवरणाय ताम् / कौन्तेया हि वयं साधो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्॥२ नृपोत्तमाय कौरव्य विश्रुताभिजनाय वै // 16 वैशंपायन उवाच। यथा हि दिवि दीप्तांशुः प्रभासयति तेजसा / एवमुक्तः स गन्धर्वः कुन्तीपुत्रं धनंजयम् / तथा भुवि महीपालो दीप्त्या संवरणोऽभवत् // 17 विश्रुतां त्रिषु लोकेषु श्रावयामास वै कथाम् // 3 यथार्चयन्ति चादित्यमुद्यन्तं ब्रह्मवादिनः / गन्धर्व उवाच। तथा संवरणं पार्थ ब्राह्मणावरजाः प्रजाः // 18 हन्त ते कथयिष्यामि कथामेतां मनोरमाम् / स सोममति कान्तत्वादादित्यमति तेजसा / यथावदखिलां पार्थ धा धर्मभृतां वर // 4 बभूव नृपतिः श्रीमान्सुहृदां दुहृदामपि // 19 उक्तवानस्मि येन त्वां तापत्य इति यद्वचः। . एवंगुणस्य नृपतेस्तथावृत्तस्य कौरव। तत्तेऽहं कथयिष्यामि शृणुष्वैकमना मम / / 5 तस्मै दातुं मनश्चक्रे तपती तपनः स्वयम् // 20 य एष दिवि धिष्ण्येन नाकं व्याप्नोति तेजसा / स कदाचिदथो राजा श्रीमानुरुयशा भुवि / एतस्य तपती नाम बभूवासदृशी सुता॥६ चचार मृगयां पार्थ पर्वतोपवने किल // 21 विवस्वतो वै कौन्तेय सावित्र्यवरजा विभो। चरतो मृगयां तस्य क्षुत्पिपासाश्रमान्वितः / विश्रुता त्रिषु लोकेषु तपती तपसा युता // 7 ममार राज्ञः कौन्तेय गिरावप्रतिमो हयः // 22 न देवी नासुरी चैव न यक्षी न च राक्षसी / स मृताश्वश्वरन्पार्थ पद्भयामेव गिरौ नृपः / नाप्सरा न च गन्धर्वी तथा रूपेण काचन // 8 ददर्शासदृशीं लोके कन्यामायतलोचनाम् // 23 सुविभक्तानवद्याङ्गी स्वसितायतलोचना / स एक एकामासाद्य कन्यां तामरिमर्दनः / स्वाचारा चैव साध्वी च सुवेषा चैव भामिनी // 9 / तस्थौ नृपतिशार्दूल: पश्यन्नविचलेक्षणः // 24 न तस्याः सदृशं कंचित्रिषु लोकेषु भारत। स हि तां तर्कयामास रूपतो नृपतिः श्रियम् / भर्तारं सविता मेने रूपशीलकुलश्रुतैः / / 10 / | पुनः संतर्कयामास रवर्धष्टामिव प्रभाम् // 25 म. भा. 28 -217 -
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________________ 1. 160. 26 ] महाभारते [1. 161. 12 गिरिप्रस्थे तु सा यस्मिन्स्थिता स्वसितलोचना। अपश्यमानः स तु तां बहु तत्र विलप्य च। स सवृक्षक्षुपलतो हिरण्मय इवाभवत् // 26 निश्चेष्टः कौरवश्रेष्ठो मुहूर्तं स व्यतिष्ठत // 41 अवमेने च तां दृष्ट्वा सर्वप्राणभृतां वपुः। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अवाप्तं चात्मनो मेने स राजा चक्षुषः फलम् // 27 षष्ठ्यधिकशततमोऽध्यायः // 160 // जन्मप्रभृति यत्किंचिदृष्टवान्स महीपतिः / रूपं न सदृशं तस्यास्तर्कयामास किंचन // 28 गन्धर्व उवाच। . तया बद्धमनश्चक्षुः पाशैर्गुणमयैस्तदा / अथ तस्यामदृश्यायां नृपतिः काममोहितः / न चचाल ततो देशाद्भुबुधे न च किंचन // 29 पातनः शत्रुसंघानां पपात धरणीतले // 1 अस्या नूनं विशालाक्ष्याः सदेवासुरमानुषम् / तस्मिन्निपतिते भूमावथ सा चारुहासिनी / लोकं निर्मथ्य धात्रेदं रूपमाविष्कृतं कृतम् // 30 पुनः पीनायतश्रोणी दर्शयामास तं नृपम् // 2 एवं स तर्कयामास रूपद्रविणसंपदा। अथाबभाषे कल्याणी वाचा मधुरया नृपम् / कन्यामसदृशीं लोके नृपः संवरणस्तदा // 31 तं कुरूणां कुलकरं कामाभिहतचेतसम् // 3 तां च दृष्ट्वैव कल्याणी कल्याणाभिजनो नृपः / / उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते न त्वमर्हस्यरिंदम / जगाम मनसा चिन्तां काममार्गणपीडितः / / 32 मोहं नृपतिशार्दूल गन्तुमाविष्कृतः क्षितौ // 4 . दह्यमानः स तीव्रण नृपतिर्मन्मथाग्निना। एवमुक्तोऽथ नृपतिर्वाचा मधुरया तदा। अप्रगल्भां प्रगल्भः स तामुवाच यशस्विनीम् // 33 ददर्श विपुलश्रोणी तामेवाभिमुखे स्थिताम् // 5 कासि कस्यासि रम्भोरु किमर्थं चेह तिष्ठसि। अथ तामसितापाङ्गीमाबभाषे नराधिपः / कथं च निर्जनेऽरण्ये चरस्येका शुचिस्मिते // 34 मन्मथाग्निपरीतात्मा संदिग्धाक्षरया गिरा // 6 त्वं हि सर्वानवद्याङ्गी सर्वाभरणभूषिता। साधु मामसितापाङ्गे कामात मत्तकाशिनि / विभूषणमिवैतेषां भूषणानामभीप्सितम् // 35 भजस्व भजमानं मां प्राणा हि प्रजहन्ति माम् // 7 न देवी नासुरीं चैव न यक्षी न च राक्षसीम् / त्वदथं हि विशालाक्षि मामयं निशितैः शरैः। न च भोगवतीं मन्ये न गन्धर्वी न मानुषीम् // 36 कामः कमलगर्भाभे प्रतिविध्यन्न शाम्यति // 8 या हि दृष्टा मया काश्चिच्छ्रुता वापि वराङ्गनाः / प्रस्तमेवमनाक्रन्दे भद्रे काममहाहिना / न तासां सदृशीं मन्ये त्वामहं मत्तकाशिनि // 37 सा त्वं पीनायतश्रोणि पर्याप्नुहि शुभानने // 9 एवं तां स महीपालो बभाषे न तु सा तदा।। त्वय्यधीना हि मे प्राणा किंनरोद्गीतभाषिणि / कामात निर्जनेऽरण्ये प्रत्यभाषत किंचन // 38 | चारुसर्वानवद्याङ्गि पद्मेन्दुसदृशानने // 10 ततो लालप्यमानस्य पार्थिवस्यायतेक्षणा / न ह्यहं त्वदृते भीरु शक्ष्ये जीवितुमात्मना / सौदामिनीव साभ्रेषु तत्रैवान्तरधीयत // 39 तस्मात्कुरु विशालाक्षि मय्यनुक्रोशमङ्गने // 11 तामन्विच्छन्स नृपतिः परिचक्राम तत्तदा / भक्तं मामसितापाङ्गे न परित्यक्तुमर्हसि / वनं वनजपत्राक्षी भ्रमन्नुन्मत्तवत्तदा // 40 त्वं हि मां प्रीतियोगेन त्रातुमर्हसि भामिनि // 12 -218 -
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________________ 1. 161. 13] आदिपर्व [1. 162. 18 गान्धर्वेण च मां भीरु विवाहेनैहि सुन्दरि / प्रज्ञया वयसा चैव वृद्धः कीर्त्या दमेन च // 5 विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्वः श्रेष्ठ उच्यते // 13 अमात्यस्तं समुत्थाप्य बभूव विगतज्वरः / तपत्युवाच / उवाच चैनं कल्याण्या वाचा मधुरयोत्थितम् / नाहमीशात्मनो राजन्कन्या पितृमती ह्यहम् / मा भैर्मनुजशार्दूल भद्रं चास्तु तवानघ // 6 मयि चेदस्ति ते प्रीतिर्याचस्व पितरं मम // 14 / / क्षुत्पिपासापरिश्रान्तं तर्कयामास तं नृपम् / यथा हि ते मया प्राणाः संगृहीता नरेश्वर / पतितं पातनं संख्ये शात्रवाणां महीतले // 7 दर्शनादेव भूयस्त्वं तथा प्राणान्ममाहरः // 15 वारिणाथ सुशीतेन शिरस्तस्याभ्यषेचयत् / न चाहमीशा देहस्य तस्मान्नृपतिसत्तम / अस्पृशन्मुकुटं राज्ञः पुण्डरीकसुगन्धिना // 8 समीपं नोपगच्छामि न स्वतत्रा हि योषितः॥१६ ततः प्रत्यागतप्राणस्तद्बलं बलवान्नपः / का हि सर्वेषु लोकेषु विश्रुताभिजनं नृपम् / सर्व विसर्जयामास तमेकं सचिवं विना // 9 कन्या नाभिलषेन्नाथं भर्तारं भक्तवत्सलम् // 17 ततस्तस्याज्ञया राज्ञो विप्रतस्थे महवलम् / तस्मादेवंगते काले याचस्व पितरं मम / स तु राजा गिरिप्रस्थे तस्मिन्पुनरुपाविशत् // 10 आदित्यं प्रणिपातेन तपसा नियमेन च // 18 ततस्तस्मिन्गिरिवरे शुचिर्भूत्वा कृताञ्जलिः / स चेत्कामयते दातुं तव मामरिमर्दन। आरिराधयिषुः सूर्यं तस्थावूलभुजः क्षितौ // 11 भविष्याम्यथ ते राजन्सततं वशवर्तिनी // 19 / जगाम मनसा चैव वसिष्ठमृषिसत्तमम् / अहं हि तपती नाम सावित्र्यवरजा सुता। पुरोहितममित्रघ्नस्तदा संवरणो नृपः // 12 अस्य लोकप्रदीपस्य सवितुः क्षत्रियर्षभ // 20 नक्तंदिनमथैकस्थे स्थिते तस्मिञ्जनाधिपे / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अथाजगाम विप्रर्षिस्तदा द्वादशमेऽहनि / / 13 एकषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 161 // स विदित्वैव नृपतिं तपत्या हृतमानसम् / दिव्येन विधिना ज्ञात्वा भावितात्मा महानृषिः॥१४ गन्धर्व उवाच। तथा तु नियतमानं स तं नृपतिसत्तमम् / एवमुक्त्वा ततस्तूर्णं जगामोर्ध्वमनिन्दिता। आबभाषे स धर्मात्मा तस्यैवार्थचिकीर्षया // 15 स तु राजा पुनर्भूमौ तत्रैव निपपात ह // 1 स तस्य मनुजेन्द्रस्य पश्यतो भगवानृषिः। अमात्यः सानुयात्रस्तु तं ददर्श महावने / ऊर्ध्वमाचक्रमे द्रष्टुं भास्करं भास्करद्युतिः // 16 क्षितौ निपतितं काले शक्रध्वजमिवोच्छ्रितम् // 2 सहस्रांशुं ततो विप्रः कृताञ्जलिरुपस्थितः / तं हि दृष्ट्वा महेष्वासं निरश्वं पतितं क्षितौ / वसिष्ठोऽहमिति प्रीत्या स चात्मानं न्यवेदयत्॥१७ बभूव सोऽस्य सचिवः संप्रदीप्त इवाग्निना // 3 तमुवाच महातेजा विवस्वान्मुनिसत्तमम् / त्वरया चोपसंगम्य स्नेहादागतसंभ्रमः / महर्षे स्वागतं तेऽस्तु कथयस्व यथेच्छसि // 18 तं समुत्थापयामास नृपतिं काममोहितम् // 4 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि भूतलाद्भमिपालेशं पितेव पतितं सुतम् / द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः // 162 // - 219 -
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________________ 1. 163.1] महाभारते [1. 164.3 163 सोऽपि राजा गिरौ तस्मिन्विजहारामरोपमः // 13 वसिष्ठ उवाच। ततो द्वादश वर्षाणि काननेषु जलेषु च। यैषा ते तपती नाम सावित्र्यवरजा सुता / रेमे तस्मिन्गिरौ राजा तयैव सह भार्यया // 14 तां त्वां संवरणस्यार्थे वरयामि विभावसो॥ 1 तस्य राज्ञः पुरे तस्मिन्समा द्वादश सर्वशः / / स हि राजा बृहत्कीर्तिर्धर्मार्थविदुदारधीः। न ववर्ष सहस्राक्षो राष्ट्र चैवास्य सर्वशः // 15 युक्तः संवरणो भर्ता दुहितुस्ते विहंगम // 2 तत्क्षुधा निरानन्दैः शवभूतैस्तदा नरैः / गन्धर्व उवाच / अभवत्प्रेतराजस्य पुरं प्रेतैरिवावृतम् // 16 इत्युक्तः सविता तेन ददानीत्येव निश्चितः / ततस्तत्तादृशं दृष्ट्वा स एव भगवानृषिः / प्रत्यभाषत तं विप्रं प्रतिनन्द्य दिवाकरः // 3 अभ्यपद्यत धर्मात्मा वसिष्ठो राजसत्तमम् // 17 वरः संवरणो राज्ञां त्वमृषीणां वरो मुने / तं च पार्थिवशार्दूलमानयामास तत्पुरम् / तपती योषितां श्रेष्ठा किमन्यत्रापवर्जनात् // 4 तपत्या सहितं राजन्नुषितं द्वादशीः समाः॥ 18 ततः सर्वानवद्याङ्गी तपती तपनः स्वयम् / ततः प्रवृष्टस्तत्रासीद्यथापूर्वं सुरारिहा / ददौ संवरणस्यार्थे वसिष्ठाय महात्मने। तस्मिन्नृपतिशार्दूले प्रविष्ट नगरं पुनः // 19 . प्रतिजग्राह तां कन्यां महर्षिस्तपतीं तदा।। 5 ततः सराष्ट्रं मुमुदे तत्पुरं परया मुदा / वसिष्ठोऽथ विसृष्टश्च पुनरेवाजगाम ह / तेन पार्थिवमुख्येन भावितं भावितात्मना / 20 यत्र विख्यातकीर्तिः स कुरूणामृषभोऽभवत् // 6 ततो द्वादश वर्षाणि पुनरीजे नराधिपः / स राजा मन्मथाविष्टस्तद्गतेनान्तरात्मना / पत्न्या तपत्या सहितो. यथा शक्रो मरुत्पतिः // 21 दृष्ट्वा च देवकन्यां तां तपती चारुहासिनीम् / एवमासीन्महाभागा तपती नाम पौर्विकी / वसिष्ठेन सहायान्तीं संहृष्टोऽभ्यधिकं बभौ // 7 तव वैवस्वती पार्थ तापत्यस्त्वं यया मतः // 22 कृच्छ्रे द्वादशरात्रे तु तस्य राज्ञः समापिते / तस्यां संजनयामास कुएं संवरणो नृपः / आजगाम विशुद्धात्मा वसिष्ठो भगवानृषिः॥८ तपत्यां तपतां श्रेष्ठ तापत्यस्त्वं ततोऽर्जुन // 23 तपसाराध्य वरदं देवं गोपतिमीश्वरम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि लेभे संवरणो भार्यां वसिष्ठस्यैव तेजसा // 9 त्रिषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 163 // ततस्तस्मिन्गिरिश्रेष्ठे देवगन्धर्वसेविते / जग्राह विधिवत्पाणिं तपत्याः स नरर्षभः // 10 वैशंपायन उवाच। वसिष्ठेनाभ्यनुज्ञातस्तस्मिन्नेव धराधरे / स गन्धर्ववचः श्रुत्वा तत्तदा भरतर्षभ / सोऽकामयत राजर्षिविहर्तुं सह भार्यया // 11 अर्जुनः परया प्रीत्या पूर्णचन्द्र इवाबभौ // 1 ... ततः पुरे च राष्ट्रे च वाहनेषु बलेषु च / उवाच च महेष्वासो गन्धर्वं कुरुसत्तमः / / आदिदेश महीपालस्तमेव सचिवं तदा // 12 जातकौतूहलोऽतीव वसिष्ठस्य तपोबलात् // 2 . नृपतिं त्वभ्यनुज्ञाय वसिष्ठोऽथापचक्रमे / वसिष्ठ इति यस्यैतदृषे म त्वयेरितम्। / -220 चारचक्रम।
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________________ 1. 164. 3] आदिपर्व [1. 165. 16 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं यथावत्तद्वदस्व मे // 3 ___ गन्धर्व उवाच। य एष गन्धर्वपते पूर्वेषां नः पुरोहितः। / इदं वासिष्ठमाख्यानं पुराणं परिचक्षते / आसीदेतन्ममाचक्ष्व क एष भगवानृषिः // 4 पार्थ सर्वेषु लोकेषु यथावत्तन्निबोध मे // 2 गन्धर्व उवाच / कन्यकुब्जे महानासीत्पार्थिवो भरतर्षभ / तपसा निर्जितौ शश्वदजेयावमरैरपि / गाधीति विश्रुतो लोके सत्यधर्मपरायणः // 3 कामक्रोधावुभौ यस्य चरणौ संववाहतुः // 5 तस्य धर्मात्मनः पुत्रः समृद्धबलवाहनः / / यस्तु नोच्छेदनं चक्रे कुशिकानामुदारधीः / विश्वामित्र इति ख्यातो बभूव रिपुमर्दनः // 4 . विश्वामित्रापराधेन धारयन्मन्युमुत्तमम् // 6 स चचार सहामात्यो मृगयां गहने वने।... पुत्रव्यसनसंतप्तः शक्तिमानपि यः प्रभुः / मृगान्विध्यन्वराहांश्च रम्येषु मरुधन्वसु // 5 विश्वामित्रविनाशाय न मेने कर्म दारुणम् // 7 व्यायामकर्शितः सोऽथ मृगलिप्सुः पिपासितः / मृतांश्च पुनराहतु यः स पुत्रान्यमक्षयात् / आजगाम नरश्रेष्ठ वसिष्ठस्याश्रमं प्रति // 6 कृतान्तं नातिचक्राम वेलामिव महोदधिः / / 8 तमागतमभिप्रेक्ष्य वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः / यं प्राप्य विजितात्मानं महात्मानं नराधिपाः / विश्वामित्रं नरश्रेष्ठं प्रतिजग्राह पूजया // 7 इक्ष्वाकवो महीपाला लेभिरे पृथिवीमिमाम् // 9 पाद्यार्थ्याचमनीयेन स्वागतेन च भारत / पुरोहितवरं प्राप्य वसिष्ठमृषिसत्तमम् / तथैव प्रतिजग्राह वन्येन हविषा तथा // 8 ईजिरे ऋतुभिश्चापि नृपास्ते कुरुनन्दन // 10 तस्याथ कामधुग्धेनुर्वसिष्ठस्य महात्मनः / स हि तान्याजयामास सर्वान्नपतिसत्तमान् / उक्ता कामान्प्रयच्छेति सा कामान्दुदुहे ततः॥९ ब्रह्मर्षिः पाण्डवश्रेष्ठ बृहस्पतिरिवामरान् // 11 ग्राम्यारण्या ओषधीश्च दुदुहे पय एव च / तस्माद्धर्मप्रधानात्मा वेदधर्मविदीप्सितः / षडसं चामृतरसं रसायनमनुत्तमम् // 10 प्राह्मणो गुणवान्कश्चित्पुरोधाः प्रविमृश्यताम् // 12 भोजनीयानि पेयानि भक्ष्याणि विविधानि च / क्षत्रियेण हि जातेन पृथिवीं जेतुमिच्छता / लेह्यान्यमृतकल्पानि चोष्याणि च तथार्जुन // 11 पूर्व पुरोहितः कार्यः पार्थ राज्याभिवृद्धये // 13 तैः कामैः सर्वसंपूर्णैः पूजितः स महीपतिः / महीं जिगीषता राज्ञा ब्रह्म कार्यं पुरःसरम् / सामात्यः सबलश्चैव तुतोष स भृशं नृपः // 12 तस्मात्पुरोहितः कश्चिद्गुणवानस्तु वो द्विजः // 14 षडायतां सुपार्थोरं त्रिपृथु पञ्चसंवृताम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि मण्डूकनेत्रां स्वाकारां पीनोधसमनिन्दिताम् // 13 ..... चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः // 164 // सुवालधिं शङ्ककर्णां चारुशृङ्गां मनोरमाम् / 165 पुष्टायतशिरोग्रीवां विस्मितः सोऽभिवीक्ष्य ताम।।१४ अर्जुन उवाच / अभिनन्दति तां नन्दी वसिष्ठस्य पयस्विनीम् / लिमित्तमभूद्वैरं विश्वामित्रवसिष्ठयोः / अब्रवीच्च भृशं तुष्टो विश्वामित्रो मुनि तदा // 15 तोराश्रमे पुण्ये शंस नः सर्वमेव तत् // 1 | अर्बुदेन गवां ब्रह्मन्मम राज्येन वा पुनः। - 221 -
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________________ 1. 165. 16 ] महाभारते [1. 165. 39 नन्दिनी संप्रयच्छस्व भुङ्ख राज्यं महामुने // 16 / न चुक्षुभे न धैर्याच्च विचचाल धृतव्रतः // 27 वसिष्ठ उवाच / वसिष्ठ उवाच। देवतातिथिपित्रर्थमाज्यार्थं च पयस्विनी / क्षत्रियाणां बलं तेजो ब्राह्मणानां क्षमा बलम् / ' अदेया नन्दिनीयं मे राज्येनापि तवानघ // 17 क्षमा मां भजते तस्माद्गम्यतां यदि रोचते // 28 विश्वामित्र उवाच / गौरुवाच / क्षत्रियोऽहं भवान्विप्रस्तपःस्वाध्यायसाधनः / किं नु त्यक्तास्मि भगवन्यदेवं मां प्रभाषसे / ब्राह्मणेषु कुतो वीर्यं प्रशान्तेषु धृतात्मसु // 18 अत्यक्ताहं त्वया ब्रह्मन्न शक्या नयितुं बलात् // 29 अर्बुदेन गवां यस्त्वं न ददासि ममेप्सिताम् / / वसिष्ठ उवाच / स्वधर्म न प्रहास्यामि नयिष्ये ते बलेन गाम् // 19 न त्वां त्यजामि कल्याणि स्थीयतां यदि शक्यते / वसिष्ठ उवाच / दृढेन दाम्ना बङ्घष वत्सस्ते ह्रियते बलात् // 30 बलस्थश्चासि राजा च बाहुवीर्यश्च क्षत्रियः। गन्धर्व उवाच / यथेच्छसि तथा क्षिप्रं कुरु त्वं मा विचारय // 20 स्थीयतामिति तच्छ्रुत्वा वसिष्ठस्य पयस्विनी। गन्धर्व उवाच / ऊर्ध्वाश्चितशिरोग्रीवा प्रबभौ घोरदर्शना // 31 एवमुक्तस्तदा पार्थ विश्वामित्रो बलादिव / क्रोधरक्तेक्षणा सा गौहम्भारवघनस्वना / हंसचन्द्रप्रतीकाशां नन्दिनी तां जहार गाम् / / 21 विश्वामित्रस्य तत्सैन्यं व्यद्रावयत सर्वशः / / 32 कशादण्डप्रतिहता काल्यमाना ततस्ततः। कशापदण्डाभिहता काल्यमाना ततस्ततः / हम्भायमाना कल्याणी वसिष्ठस्याथ नन्दिनी // 22 क्रोधदीप्तेक्षणा क्रोधं भूय एव समादधे // 33 आगम्याभिमुखी पार्थ तस्थौ भगवदुन्मुखी / / आदित्य इव मध्याह्ने क्रोधदीप्तवपुर्बभौ / भृशं च ताड्यमानापि न जगामाश्रमात्ततः // 23 अङ्गारवर्षं मुञ्चन्ती मुहुर्वालधितो महत् // 34 वसिष्ठ उवाच / असृजत्पवान्पुच्छाच्छकृतः शबराञ्शकान् / शृणोमि ते रवं भद्रे विनदन्त्याः पुनः पुनः / मूत्रतश्चासृजच्चापि यवनान्क्रोधमूर्छिता / / 35 बलाद्भियसि मे नन्दि क्षमावान्ब्राह्मणो ह्यहम्॥२४ पुण्डान्किरातान्द्रमिडान्सिहलान्बर्बरांस्तथा। गन्धर्व उवाच / तथैव दरदान्म्लेच्छान्फेनतः सा ससर्ज ह // 36 सा तु तेषां बलानन्दी बलानां भरतर्षभ / तैर्विसृष्टैर्महत्सैन्यं नानाम्लेच्छगणैस्तदा / विश्वामित्रभयोद्विग्ना वसिष्ठं समुपागमत् // 25 नानावरणसंछन्नै नायुधधरैस्तथा। गौरुवाच / अवाकीर्यत संरब्धैर्विश्वामित्रस्य पश्यतः // 37 पाषाणदण्डाभिहतां क्रन्दन्ती मामनाथवत् / एकैकश्च तदा योधः पञ्चभिः सप्तभिर्वृतः / विश्वामित्रबलैोरैर्भगवन्किमुपेक्षसे // 26 अस्त्रवर्षेण महता काल्यमानं बलं ततः / गन्धर्व उवाच / प्रभग्नं सर्वतस्त्रस्तं विश्वामित्रस्य पश्यतः॥ 38 एवं तस्यां तदा पार्थ धर्षितायां महामुनिः / | न च प्राणैर्वियुज्यन्त केचित्ते सैनिकास्तदा। - 222 -
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________________ I. 165. 39 ] आदिपर्व [1. 166. 22 विश्वामित्रस्य संक्रुद्धैर्वासिष्टभरतर्षभ // 39 जघान कशया मोहात्तदा राक्षसवन्मुनिम् // 7 .... विश्वामित्रस्य सैन्यं तु काल्यमानं त्रियोजनम्। .. कशाप्रहाराभिहतस्ततः स मुनिसत्तमः / क्रोशमानं भयोद्विग्नं त्रातारं नाध्यगच्छत // 40 तं शशाप नृपश्रेष्ठं वासिष्ठः क्रोधमूर्च्छितः॥ 8 दृष्ट्वा तन्महदाश्चर्यं ब्रह्मतेजोभवं तदा / हंसि राक्षसवद्यस्माद्राजापसद तापसम् / विश्वामित्रः क्षत्रभावान्निर्विण्णो वाक्यमब्रवीत् // 41 तस्मात्त्वमद्यप्रभृति पुरुषादो भविष्यसि // 9 धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम् / मनुष्यपिशिते सक्तश्चरिष्यसि महीमिमाम् / बलाबलं विनिश्चित्य तप एव परं बलम् // 42 गच्छ राजाधमेत्युक्तः शक्तिना वीर्यशक्तिना // 10 स राज्यं स्फीतमुत्सृज्य तां च दीप्तां नृपश्रियम् / ततो याज्यनिमित्तं तु विश्वामित्रवसिष्ठयोः / भोगांश्च पृष्ठतः कृत्वा तपस्येव मनो दधे // 43 वैरमासीत्तदा तं तु विश्वामित्रोऽन्वपद्यत // 11 स गत्वा तपसा सिद्धिं लोकान्विष्टभ्य तेजसा। तयोर्विवदतोरेवं समीपमुपचक्रमे / तताप सर्वान्दीप्तौजा ब्राह्मणत्वमवाप च / ऋषिरुप्रतपाः पार्थ विश्वामित्रः प्रतापवान् // 12 अपिबच्च सुतं सोममिन्द्रेण सह कौशिकः // 44 ततः स बुबुधे पश्चात्तमृषि नृपसत्तमः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ऋषेः पुत्रं वसिष्ठस्य वसिष्ठमिव तेजसा // 13 पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः // 165 // अन्तर्धाय तदात्मानं विश्वामित्रोऽपि भारत / तावुभावुपचक्राम चिकीर्षन्नात्मनः प्रियम् // 14 गन्धर्व उवाच / स तु शप्तस्तदा तेन शक्तिना वै नृपोत्तमः / कल्माषपाद इत्यस्मिल्लोके राजा बभूव ह / जगाम शरणं शक्तिं प्रसादयितुमर्हयन् // 15 इक्ष्वाकुवंशजः पार्थ तेजसासदृशो भुवि // 1 तस्य भावं विदित्वा स नृपतेः कुरुनन्दन / स कदाचिद्वनं राजा मृगयां निर्ययौ पुरात् / विश्वामित्रस्ततो रक्ष आदिदेश नृपं प्रति // 16 मृगान्विध्यन्वराहांश्च चचार रिपुमर्दनः // 2 स शापात्तस्य विप्रर्षेर्विश्वामित्रस्य चाज्ञया / स तु राजा महात्मानं वासिष्ठमृषिसत्तमम् / राक्षसः किंकरो नाम विवेश नृपतिं तदा // 17 तृषार्तश्च क्षुधार्तश्च एकायनगतः पथि // 3 . रक्षसा तु गृहीतं तं विदित्वा स मुनिस्तदा / अपश्यदजितः संख्ये मुनि प्रतिमुखागतम् / विश्वामित्रोऽप्यपक्रामत्तस्माद्देशादरिंदम // 18 शक्तिं नाम महाभागं वसिष्ठकुलनन्दनम्। ततः स नृपतिर्विद्वारक्षन्नात्मानमात्मना / ज्येष्ठं पुत्रशतात्पुत्रं वसिष्ठस्य महात्मनः // 4 बलवत्पीड्यमानोऽपि रक्षसान्तर्गतेन ह // 19 . अपगच्छ पथोऽस्माकमित्येवं पार्थिवोऽब्रवीत् / ददर्श तं द्विजः कश्चिद्राजानं प्रस्थितं पुनः / तथा ऋषिरुवाचैनं सान्त्वयश्लक्ष्णया गिरा // 5- ययाचे क्षुधितश्चैनं समांसं भोजनं तदा // 20 ऋषिस्तु नापचक्राम तस्मिन्धर्मपथे स्थितः / तमुवाचाथ राजर्षिर्द्विज मित्रसहस्तदा / नापि राजा मुनेर्मानात्क्रोधाच्चापि जगाम ह // 6 | आस्व ब्रह्मंस्त्वमत्रैव मुहूर्तमिति सान्त्वयन् // 21 अमुश्चन्तं तु पन्थानं तमृर्षि नृपसत्तमः। | निवृत्तः प्रतिदास्यामि भोजनं ते यथेप्सितम् / -223 -
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________________ 1. 166. 22] महाभारते [1. 167.5 इत्युक्त्वा प्रययौ राजा तस्थौ च द्विजसत्तमः // 22 वसिष्ठस्यैव पुत्रेषु तद्रक्षः संदिदेश ह // 37 अन्तर्गतं तु तद्राज्ञस्तदा ब्राह्मणभाषितम् / स ताशतावरान्पुत्रान्वसिष्ठस्य महात्मनः / सोऽन्तःपुरं प्रविश्याथ संविवेश नराधिपः // 23 भक्षयामास संक्रुद्धः सिंहः क्षुद्रमृगानिव // 38 ततोऽर्धरात्र उत्थाय सूदमानाय्य सत्वरम् / वसिष्ठो घातिता श्रुत्वा विश्वामित्रेण तान्सुतान् / उवाच राजा संस्मृत्य ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुतम् // 24 धारयामास तं शोकं महाद्रिरिव मेदिनीम् / / 39 गच्छामुष्मिन्नसा देशे ब्राह्मणो मां प्रतीक्षते / चक्रे चात्मविनाशाय बुद्धिं स मुनिसत्तमः।। अन्नार्थी त्वं तमन्नेन समांसेनोपपादय // 25 न त्वेव कुशिकोच्छेदं मेने मतिमतां वरः॥४० एवमुक्तस्तदा सूदः सोऽनासाद्यामिषं क्वचित् / / स मेरुकूटादात्मानं मुमोच भगवानषिः / निवेदयामास तदा तस्मै राज्ञे व्यथान्वितः॥ 26 शिरस्तस्य शिलायां च तूलराशाविवापतत् // 41 राजा तु रक्षसाविष्टः सूदमाह गतव्यथः। न ममार च पातेन स यदा तेन पाण्डव / अप्येनं नरमांसेन भोजयेति पुनः पुनः // 27 तदाग्निमिवा भगवान्संविवेश महावने // 42 . तथेत्युक्त्वा ततः सूदः संस्थानं वध्यघातिनाम् / तं तदा सुसमिद्धोऽपि न ददाह हुताशनः / गत्वा जहार त्वरितो नरमांसमपेतभीः // 28 / दीप्यमानोऽप्यमित्रघ्न शीतोऽग्निरभवत्ततः // 43 स तत्संस्कृत्य विधिवदन्नोपहितमाशु वै। स समुद्रमभिप्रेत्य शोकाविष्टो महामुनिः / तस्मै प्रादाब्राह्मणाय क्षुधिताय तपस्विने // 29 बद्धा कण्ठे शिलां गुर्वी निपपात तदम्भसि॥४४ . स सिद्धचक्षुषा दृष्ट्वा तदन्नं द्विजसत्तमः। स समुद्रोर्मिवेगेन स्थले न्यस्तो महामुनिः / अभोज्यमिदमित्याह क्रोधपर्याकुलेक्षणः // 30 जगाम स ततः खिन्नः पुनरेवाश्रमं प्रति // 45 यस्मादभोज्यमन्नं मे ददाति स नराधिपः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तस्मात्तस्यैव मूढस्य भविष्यत्यत्र लोलुपा॥ 31 षषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 166 // सक्तो मानुषमांसेषु यथोक्तः शक्तिना पुरा। 167 उद्वेजनीयो भूतानां चरिष्यति महीमिमाम् // 32 गन्धर्व उवाच / द्विरनुव्याहृते राज्ञः स शापो बलवानभूत् / ततो दृष्ट्वाश्रमपदं रहितं तैः सुतैर्मुनिः / रक्षोबलसमाविष्टो विसंज्ञश्चाभवत्तदा // 33 निर्जगाम सुदुःखार्तः पुनरेवाश्रमात्ततः॥ 1 ततः स नृपतिश्रेष्ठो राक्षसोपहतेन्द्रियः / सोऽपश्यत्सरितं पूर्णां प्रावृट्काले नवाम्भसा / उवाच शक्तिं तं दृष्ट्वा नचिरादिव भारत // 34 / / वृक्षान्बहुविधान्पार्थ वहन्ती तीरजान्बहून् // 2 यस्मादसदृशः शापः प्रयुक्तोऽयं त्वया मयि / अथ चिन्तां समापेदे पुनः पौरवनन्दन / तस्मात्त्वत्तः प्रवर्तिष्ये खादितुं मानुषानहम् / / 35 अम्भस्यस्या निमज्जेयमिति दुःखसमन्वितः॥३ एवमुक्त्वा ततः सद्यस्तं प्राणैर्विप्रयुज्य सः। ततः पाशैस्तदात्मानं गाढं बवा महामुनिः / शक्तिनं भक्षयामास व्याघ्रः पशुमिवेप्सितम् // 36 तस्या जले महानद्या निममज्ज सुदुःखितः // 4 शक्तिनं तु हतं दृष्ट्वा विश्वामित्रस्ततः पुनः। अथ छित्त्वा नदी पाशांस्तस्यारिबलमर्दन / -224 -
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________________ 1. 167. 5] आदिपर्व [1. 168.8 समस्थं तमृषि कृत्वा विपाशं समवासृजत् // 5 अदृश्यन्ती तु तं दृष्ट्वा क्रूरकर्माणमग्रतः / उत्ततार ततः पाशैविमुक्तः स महानृषिः / भयसंविग्नया वाचा वसिष्ठमिदमब्रवीत् // 18 विपाशेति च नामास्या नद्याश्चके महानृषिः // 6 असौ मृत्युरिवोग्रेण दण्डेन भगवन्नितः / शोके बुद्धिं ततश्चक्रे न चैकत्र व्यतिष्ठत / / प्रगृहीतेन काष्ठेन राक्षसोऽभ्येति भीषणः // 19 सोऽगच्छत्पर्वतांश्चैव सरितश्च सरांसि च // 7 तं निवारयितुं शक्तो नान्योऽस्ति भुवि कश्चन / ततः स पुनरेवर्षिनदी हैमवतीं तदा / त्वदृतेऽद्य महाभाग सर्ववेदविदां वर // 20 चण्डग्राहवतीं दृष्ट्वा तस्याः स्रोतस्यवापतत् / / 8 त्राहि मां भगवन्पापादस्माद्दारुणदर्शनात् / सा तमग्निसमं विप्रमनुचिन्त्य सरिद्वरा। रक्षो अत्तुमिह ह्यावां नूनमेतच्चिकीर्षति / / 21 शतधा विद्रुता यस्माच्छतद्रुरिति विश्रुता // 9. इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ततः स्थलगतं दृष्ट्वा तत्राप्यात्मानमात्मना / सप्तषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 167 // मर्तुं न शक्यमित्युक्त्वा पुनरेवाश्रमं ययौ // 10 168 वध्वादृश्यन्त्यानुगत आश्रमाभिमुखो व्रजन / वसिष्ठ उवाच / अथ शुश्राव संगत्या वेदाध्ययननिःस्वनम् / पृष्ठतः परिपूर्णाथैः षड्भिरङ्गैरलंकृतम् // 11 मा भैः पुत्रि न भेतव्यं रक्षसस्ते कथंचन / अनुव्रजति को न्वेष मामित्येव च सोऽब्रवीत् / नैतद्रक्षो भयं यस्मात्पश्यसि त्वमुपस्थितम् // 1 प्रहं त्वदृश्यती नाम्ना तं स्नुषा प्रत्यभाषत / राजा कल्माषपादोऽयं वीर्यवान्प्रथितो भुवि / शक्तेर्भार्या महाभाग तपोयुक्ता तपस्विनी // 12 स एषोऽस्मिन्बनोद्देशे निवसत्यतिभीषणः // 2 वसिष्ठ उवाच। गन्धर्व उवाच। पुत्रि कस्यैष साङ्गस्य वेदस्याध्ययनस्वनः / तमापतन्तं संप्रेक्ष्य वसिष्ठो भगवानृषिः / पुरा साङ्गस्य वेदस्य शक्तेरिव मया श्रुतः॥ 13 वारयामास तेजस्वी हुंकारेणैव भारत // 3 अदृश्यन्त्युवाच / मन्त्रपूतेन च पुनः स तमभ्युक्ष्य वारिणा / अयं कुक्षौ समुत्पन्नः शक्तेर्गर्भः सुतस्य ते / मोक्षयामास वै घोराद्राक्षसाद्राजसत्तमम् // 4 समा द्वादश तस्येह वेदानभ्यसतो मुने // 14 स हि द्वादश वर्षाणि वसिष्ठस्यैव तेजसा / गन्धर्व उवाच। ग्रस्त आसीद्ब्रहेणेव पर्वकाले दिवाकरः // 5 एवमुक्तस्ततो हृष्टो वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः / रक्षसा विप्रमुक्तोऽथ स नृपस्तद्वनं महत् / अस्ति संतानमित्युक्त्वा मृत्योः पार्थ न्यवर्तत॥१५ / तेजसा रञ्जयामास संध्याभ्रमिव भास्करः // 6 ततः प्रतिनिवृत्तः स तया वध्वा सहानघ / प्रतिलभ्य ततः संज्ञामभिवाद्य कृताञ्जलिः / कल्माषपादमासीनं ददर्श विजने वने // 16 उवाच नृपतिः काले वसिष्ठमृषिसत्तमम् // 7 स तु दृष्ट्वैव तं राजा क्रुद्ध उत्थाय भारत / सौदासोऽहं महाभाग याज्यस्ते द्विजसत्तम / आविष्टो रक्षसोग्रेण इयेषात्तुं ततः स्म तम् // 17 / अस्मिन्काले यदिष्टं ते ब्रूहि किं करवाणि ते॥८ म, भा. 29 - 225 -
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________________ 1. 168. 9] महाभारते [1. 169. 10 वसिष्ठ उवाच। देव्या दिव्येन विधिना वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः॥२२ वृत्तमेतद्यथाकालं गच्छ राज्यं प्रशाधि तत् / अथ तस्यां समुत्पन्ने गर्भ स मुनिसत्तमः / ब्राह्मणांश्च मनुष्येन्द्र मावमंस्थाः कदाचन // 9 राज्ञाभिवादितस्तेन जगाम पुनराश्रमम् // 23 राजोवाच। दीर्घकालधृतं गर्भं सुषाव न तु तं यदा। नावमस्याम्यहं ब्रह्मन्कदाचिद्ब्राह्मणर्षभान् / साथ देव्यश्मना कुक्षिं निर्बिभेद तदा स्वकम्॥२४ त्वन्निदेशे स्थितः शश्वत्पूजयिष्याम्यहं द्विजान्॥१० द्वादशेऽथ ततो वर्षे स जज्ञे मनुजर्षभ / इक्ष्वाकूणां तु येनाहमनृणः स्यां द्विजोत्तम / अश्मको नाम राजर्षिः पोतनं यो न्यवेशयत्॥२५ तत्त्वत्तः प्राप्तुमिच्छामि वरं वेदविदां वर // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अपत्यायेप्सितां मह्यं महिषीं गन्तुमर्हसि / भष्टषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 168 // शीलरूपगुणोपेतामिक्ष्वाकुकुलवृद्धये // 12 गन्धर्व उवाच / गन्धर्व उवाच / ददानीत्येव तं तत्र राजानं प्रत्युवाच ह / आश्रमस्था ततः पुत्रमदृश्यन्ती व्यजायत / वसिष्ठः परमेष्वासं सत्यसंधो द्विजोत्तमः // 13 शक्तेः कुलकरं राजन्द्वितीयमिव शक्तिनम् // 1 ततः प्रतिययौ काले वसिष्ठसहितोऽनघ / जातकर्मादिकास्तस्य क्रियाः स मुनिपुंगवः / ख्यातं पुरवरं लोकेष्वयोध्यां मनुजेश्वरः // 14 पौत्रस्य भरतश्रेष्ठ चकार भगवान्स्वयम् // 2 तं प्रजाः प्रतिमोदन्त्यः सर्वाः प्रत्युद्ययुस्तदा। परासुश्च यतस्तेन वसिष्ठः स्थापितस्तदा। विपाप्मानं महात्मानं दिवौकस इवेश्वरम् / / 15 गर्भस्थेन ततो लोके पराशर इति स्मृतः // 3 अचिरात्स मनुष्येन्द्रो नगरी पुण्यकर्मणाम् / अमन्यत स धर्मात्मा वसिष्ठं पितरं तदा / विवेश सहितस्तेन वसिष्ठेन महात्मना // 16 जन्मप्रभृति तस्मिंश्च पितरीव व्यवर्तत // 4 ददृशुस्तं ततो राजन्नयोध्यावासिनो जनाः / स तात इति विप्रर्षि वसिष्ठं प्रत्यभाषत / पुष्येण सहितं काले दिवाकरमिवोदितम् // 17 मातुः समक्षं कौन्तेय अदृश्यन्त्याः परंतप // 5 स हि तां पूरयामास लक्ष्म्या लक्ष्मीवतां वरः / तातेति परिपूर्णार्थं तस्य तन्मधुरं वचः / अयोध्यां व्योम शीतांशुः शरत्काल इवोदितः॥१८ अदृश्यन्त्यश्रुपूर्णाक्षी शृण्वन्ती तमुवाच ह // 6 संसिक्तमृष्टपन्थानं पताकोच्छ्रयभूषितम् / मा तात तात तातेति न ते तातो महामुनिः / मनः प्रह्लादयामास तस्य तत्पुरमुत्तमम् // 19 रक्षसा भक्षितस्तात तव तातो वनान्तरे / 7 तुष्टपुष्टजनाकीर्णा सा पुरी कुरुनन्दन / मन्यसे यं तु तातेति नैष तातस्तवानघ / अशोभत तदा तेन शक्रेणेवामरावती // 20 आर्यस्त्वेष पिता तस्य पितुस्तव महात्मनः // 8 ततः प्रविष्टे राजेन्द्र तस्मिन्राजनि तां पुरीम् / स एवमुक्तो दुःखार्तः सत्यवागृषिसत्तमः। तस्य राज्ञोऽऽज्ञया देवी वसिष्टमुपचक्रमे // 21 / सर्वलोकविनाशाय मतिं चक्रे महामनाः // 9 ऋतावथ महर्षिः स संबभूव तया सह। तं तथा निश्चितात्मानं महात्मानं महातपाः / -226 -
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________________ 1. 169. 10] आदिपर्व [1. 170. 10 वसिष्ठो वारयामास हेतुना येन तच्छृणु // 10 / ऊचुश्चैनां महाभागां क्षत्रियास्ते विचेतसः / वसिष्ठ उवाच। ज्योतिःप्रहीणा दुःखार्ताः शान्तार्चिष इवाग्नयः॥२३ कृतवीर्य इति ख्यातो बभूव नृपतिः क्षितौ / भगवत्याः प्रसादेन गच्छेत्क्षत्रं सचक्षुषम् / याज्यो वेदविदां लोके भृगूणां पार्थिवर्षभः // 11 उपारम्य च गच्छेम सहिताः पापकर्मणः // 24 स तानप्रभुजस्तात धान्येन च धनेन च / सपुत्रा त्वं प्रसादं नः सर्वेषां कर्तुमर्हसि / सोमान्ते तर्पयामास विपुलेन विशां पतिः // 12 पुनदृष्टिप्रदानेन राज्ञः संत्रातुमर्हसि // 25 तस्मिन्नपतिशार्दूले स्वर्यातेऽथ कदाचन। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बभूव तत्कुलेयानां द्रव्यकार्यमुपस्थितम् // 13 . एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 169 // ते भृगूणां धनं ज्ञात्वा राजानः सर्व एव ह / 170 याचिष्णवोऽभिजग्मुस्तांस्तात भार्गवसत्तमान् // 14 ब्राह्मण्युवाच। भूमौ तु निदधुः केचिद्भगवो धनमक्षयम् / नाहं गृह्णामि वस्तात दृष्टी स्मि रुषान्विता। ददुः केचिहिजातिभ्यो ज्ञात्वा क्षत्रियतो भयम्॥१५ अयं तु भार्गवो नूनमूरुजः कुपितोऽद्य वः // 1. भृगवस्तु ददुः केचित्तेषां वित्तं यथेप्सितम् / तेन चढूंषि वस्तात नूनं कोपान्महात्मना / क्षत्रियाणां तदा तात कारणान्तरदर्शनात् // 16 / स्मरता निहतान्बन्धूनादत्तानि न संशयः // 2 ततो महीतलं तात क्षत्रियेण यदृच्छया। गर्भानपि यदा यूयं भृगूणां प्रत पुत्रकाः / खनताधिगतं वित्तं केनचिद्भगवेश्मनि / तदायमूरुणा गर्भो मया वर्षशतं धृतः // 3 तद्वित्तं ददृशुः सर्वे समेताः क्षत्रियर्षभाः / 17 / षडङ्गश्वाखिलो वेद इमं गर्भस्थमेव हि। अवमन्य ततः कोपाद्भगूंस्ताशरणागतान् / विवेश भृगुवंशस्य भूयः प्रियचिकीर्षया // 4 निजघ्नुस्ते महेष्वासाः सर्वांस्तान्निशितैः शरैः / सोऽयं पितृवधानूनं क्रोधाद्वो हन्तुमिच्छति / आ गर्भादनुकृन्तन्तश्चेरुश्चैव वसुंधराम् // 18 तेजसा यस्य दिव्येन चढूंषि मुषितानि वः // 5 तत उच्छिद्यमानेषु भृगुष्वेवं भयात्तदा / तमिमं तात याचध्वमौवं मम सुतोत्तमम् / भृगुपत्न्यो गिरि तात हिमवन्तं प्रपेदिरे // 19 / अयं वः प्रणिपातेन तुष्टो दृष्टीविमोक्ष्यति // 6 तासामन्यतमा गर्भ भयादाधार तैजसम् / / गन्धर्व उवाच / उरुणैकेन वामोरूर्भर्तुः कुलविवृद्धये / एवमुक्तास्ततः सर्वे राजानस्ते तमूरुजम् / ददृशुर्ब्राह्मणी तां ते दीप्यमानां स्वतेजसा // 20 ऊचुः प्रसीदेति तदा प्रसादं च चकार सः // 7 अथ गर्भः स भित्त्वोरुं ब्राह्मण्या निर्जगाम ह / अनेनैव च विख्यातो नाम्ना लोकेषु सत्तमः। . मुष्णन्दृष्टीः क्षत्रियाणां मध्याह्न इव भास्करः। स और्व इति विप्रर्षिरूकै भित्त्वा व्यजायत / / 8 ततश्चक्षुर्वियुक्तास्ते गिरिदुर्गेषु बभ्रमुः // 21 चढूंषि प्रतिलभ्याथ प्रतिजग्मुस्ततो नृपाः / ततस्ते मोघसंकल्पा भयार्ताः क्षत्रियर्षभाः। भार्गवस्तु मुनिर्मेने सर्वलोकपराभवम् / / 9 प्राह्मणी शरणं जग्मुर्दृष्ट्यर्थं तामनिन्दिताम् // 22 स चक्रे तात लोकानां विनाशाय महामनाः / -227 -
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________________ 1. 170. 10] महाभारते [1. 171. 16 सर्वेषामेव कात्स्न्येन मनः प्रवणमात्मनः॥ 10 वृथारोषप्रतिज्ञो हि नाहं जीवितुमुत्सहे। इच्छन्नपचितिं कर्त भृगणां भृगसत्तमः। अनिस्तीर्णो हि मां रोषो दहेदग्निरिवारणिम् // 2 सर्वलोकविनाशाय तपसा महतैधितः // 11 यो हि कारणतः क्रोधं संजातं क्षन्तुमर्हति / तापयामास लोकान्स सदेवासुरमानुषान् / नालं स मनुजः सम्यक्त्रिवर्ग परिरक्षितुम् / / 3 तपसोग्रेण महता नन्दयिष्यन्पितामहान् // 12 अशिष्टानां नियन्ता हि शिष्टानां परिरक्षिता / ततस्तं पितरस्तात विज्ञाय भृगुसत्तमम् / स्थाने रोषः प्रयुक्तः स्यान्नृपैः स्वर्गजिगीषुभिः / / 4 पितृलोकादुपागम्य सर्व ऊचुरिदं वचः // 13 अश्रौषमहमूरस्थो गर्भशय्यागतस्तदा / और्व दृष्टः प्रभावस्ते तपसोग्रस्य पुत्रक / आरावं मातृवर्गस्य भृगूणां क्षत्रियैर्वधे // 5 प्रसादं कुरु लोकानां नियच्छ क्रोधमात्मनः // 14 सामरैर्हि यदा लोकै गूणां क्षत्रियाधमैः / नानीशैर्हि तदा तात भृगुभिर्भावितात्मभिः / आगर्भोत्सादनं क्षान्तं तदा मां मन्युराविशत् // 6 वधोऽभ्युपेक्षितः सर्वैः क्षत्रियाणां विहिंसताम्॥१५ आपूर्णकोशाः किल मे मातरः पितरस्तथा। आयुषा हि प्रकृष्टेन यदा नः खेद आविशत् / भयात्सर्वेषु लोकेषु नाधिजग्मुः परायणम् // 7 तदास्माभिर्वधस्तात क्षत्रियैरीप्सितः स्वयम् // 16 तान्भृगूणां तदा दारान्कश्चिन्नाभ्यवपद्यत / निखातं तद्धि वै वित्तं केनचिद्भगुवेश्मनि। यदा तदा दधारेयमूरुणैकेन मां शुभा // 8 वैरायैव तदा न्यस्तं क्षत्रियान्कोपयिष्णुभिः। प्रतिषेद्धा हि पापस्य यदा लोकेषु विद्यते / किं हि वित्तेन नः कार्यं स्वर्गप्सूनां द्विजर्षभ // 17 तदा सर्वेषु लोकेषु पापकृन्नोपपद्यते // 9 यदा तु मृत्युरादातुं न नः शक्नोति सर्वशः / यदा तु प्रतिषेद्धारं पापो न लभते क्वचित् / तदास्माभिरयं दृष्ट उपायस्तात संमतः // 18 तिष्ठन्ति बहवो लोके तदा पापेषु कर्मसु // 10 आत्महा च पुमांस्तात न लोकालभते शुभान् / जानन्नपि च यः पापं शक्तिमान्न नियच्छति / ततोऽस्माभिः समीक्ष्यैवं नात्मनात्मा विनाशितः // ईशः सन्सोऽपि तेनैव कर्मणा संप्रयुज्यते // 11 न चैतन्नः प्रियं तात यदिदं कर्तुमिच्छसि। राजभिश्चेश्वरैश्चैव यदि वै पितरो मम / नियच्छेदं मनः पापात्सर्वलोकपराभवात् // 20 शक्तैर्न शकिता त्रातुमिष्टं मत्वेह जीवितम् // 12 न हि नः क्षत्रियाः केचिन्न लोकाः सप्त पुत्रक / अत एषामहं क्रुद्धो लोकानामीश्वरोऽद्य सन् / दूषयन्ति तपस्तेजः क्रोधमुत्पतितं जहि // 21 भवतां तु वचो नाहमलं समतिवर्तितुम् // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि मम चापि भवेदेतदीश्वरस्य सतो महत् / सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 170 // उपेक्षमाणस्य पुनर्लोकानां किल्बिषाद्भयम् // 14 171 यश्चायं मन्युजो मेऽग्निर्लोकानादातुमिच्छति / और्व उवाच। दहेदेष च मामेव निगृहीतः स्वतेजसा // 15 उक्तवानस्मि यां क्रोधात्प्रतिज्ञां पितरस्तदा / भवतां च विजानामि सर्वलोकहितेप्सुताम् / सर्वलोकविनाशाय न सा मे वितथा भवेत् // 1 तस्माद्विदध्वं यच्छ्रेयो लोकानां मम चेश्वराः // 16 -228 -
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________________ 1. 171. 17] आदिपर्व [1. 172. 17 पितर ऊचुः / तेन यज्ञेन शुभ्रेण हूयमानेन युक्तितः / य एष मन्युजस्तेऽग्निर्लोकानादातुमिच्छति / तद्विदीपितमाकाशं सूर्येणेव घनात्यये // 6 अप्सु तं मुश्च भद्रं ते लोका ह्यप्सु प्रतिष्ठिताः॥१७ तं वसिष्ठादयः सर्वे मुनयस्तत्र मेनिरे। आपोमयाः सर्वरसाः सर्वमापोमयं जगत् / / तेजसा दिवि दीप्यन्तं द्वितीयमिव भास्करम् // 7 तस्मादप्सु विमुञ्चमं क्रोधाग्निं द्विजसत्तम / / 18 ततः परमदुष्प्रापमन्यैर्ऋषिरुदारधीः / अयं तिष्ठतु ते विप्र यदीच्छसि महोदधौ / समापिपयिषुः सत्रं तमत्रिः समुपागमत् / / 8 मन्युजोऽग्निर्दहन्नापो लोका ह्यापोमयाः स्मृताः॥१९ तथा पुलस्त्यः पुलहः क्रतुश्चैव महाक्रतुम् / एवं प्रतिज्ञा सत्येयं तवानघ भविष्यति। . उपाजग्मुरमित्रघ्न रक्षसां जीवितेप्सया // 9 न चैव सामरा लोका गमिष्यन्ति पराभवम् // 20 पुलस्त्यस्तु वधात्तेषां रक्षसां भरतर्षभ / वसिष्ठ उवाच। उवाचेदं वचः पार्थ पराशरमरिंदमम् // 10 ततस्तं क्रोधजं तात और्वोऽग्निं वरुणालये / कञ्चित्तातापविघ्नं ते कच्चिन्नन्दसि पुत्रक / उत्ससर्ज स चैवाप उपयुङ्क्ते महोदधौ // 21 अजानतामदोषाणां सर्वेषां रक्षसां वधात् // 11 महद्धयशिरो भूत्वा यत्तद्वेदविदो विदुः / प्रजोच्छेदमिमं मह्यं सर्वं सोमपसत्तम / तमग्निमुद्रिन्वक्त्रात्पिबत्यापो महोदधौ // 22 अधर्मिष्ठं वरिष्ठः सन्कुरुषे त्वं पराशर / तस्मात्त्वमपि भद्रं ते न लोकान्हन्तुमर्हसि / राजा कल्माषपादश्च दिवमारोदुमिच्छति // 12 पराशर परान्धर्माञानज्ञानवतां वर / / 23 ये च शक्त्यवराः पुत्रा वसिष्ठस्य महामुनेः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ते च सर्वे मुदा युक्ता मोदन्ते सहिताः सुरैः / - एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 171 // 172 सर्वमेतद्वसिष्ठस्य विदितं वै महामुने // 13 गन्धर्व उवाच / रक्षसां च समुच्छेद एष तात तपस्विनाम् / एवमुक्तः स विप्रर्षिर्वसिष्ठेन महात्मना / निमित्तभूतस्त्वं चात्र क्रतौ वासिष्ठनन्दन। न्ययच्छदात्मनः कोपं सर्वलोकपराभवात् // 1 स सत्रं मुञ्च भद्रं ते समाप्तमिदमस्तु ते // 14 ईजे च स महातेजाः सर्ववेदविदां वरः / एवमुक्तः पुलस्त्येन वसिष्ठेन च धीमता। ऋषी राक्षससत्रेण शाक्तयोऽथ पराशरः // 2 तदा समापयामास सत्रं शाक्तिः पराशरः // 15 ततो वृद्धांश्च बालांश्च राक्षसान्स महामुनिः / सर्वराक्षससत्राय संभृतं पावकं मुनिः / उदाह वितते यज्ञे शक्तेर्वधमनुस्मरन् // 3 उत्तरे हिमवत्पार्श्वे उत्ससर्ज महावने // 16 न हि तं वारयामास वसिष्ठो रक्षसां वधात् / स तत्राद्यापि रक्षांसि वृक्षानश्मान एव च। द्वितीयामस्य मा भाकं प्रतिज्ञामिति निश्चयात् / / 4 / भक्षयन्दृश्यते वह्निः सदा पर्वणि पर्वणि // 17 त्रयाणां पावकानां स सत्रे तस्मिन्महामुनिः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आसीत्पुरस्ताद्दीप्तानां चतुर्थ इव पावकः / / 5 द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 172 // - 229 -
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________________ 1. 173. 1] সহসাব [1. 173. 24 173 अकृतार्था ह्यहं भर्चा प्रसवार्थश्च मे महान् / अर्जुन उवाच / प्रसीद नृपतिश्रेष्ठ भर्ता मेऽयं विसृज्यताम् // 13 राज्ञा कल्माषपादेन गुरौ ब्रह्मविदां वरे। एवं विक्रोशमानायास्तस्याः स सुनृशंसकृत् / कारणं किं पुरस्कृत्य भार्या वै संनियोजिता // 1 भर्तारं भक्षयामास व्याघ्रो मृगमिवेप्सितम् // 14 जानता च परं धर्म लोक्यं तेन महात्मना। तस्याः क्रोधाभिभूताया यदश्रु न्यपतद्भुवि / अगम्यागमनं कस्माद्वसिष्ठेन महात्मना। सोऽमिः समभवदीप्तस्तं च देशं व्यदीपयत् // 15 कृतं तेन पुरा सर्वं वक्तुमर्हसि पृच्छतः // 2 ततः सा शोकसंतप्ता भर्तृव्यसनदुःखिता। ___ गन्धर्व उवाच। कल्माषपादं राजर्षिमशपद्ब्राह्मणी रुषा // 16 धनंजय निबोधेदं यन्मां त्वं परिपृच्छसि / यस्मान्ममाकृतार्थायास्त्वया क्षुद्र नृशंसवत् / वसिष्ठं प्रति दुर्धर्षं तथामित्रसहं नृपम् // 3 प्रेक्षन्त्या भक्षितो मेऽद्य प्रभुर्भा महायशाः // 17 कथितं ते मया पूर्वं यथा शप्तः स पार्थिवः / तस्मात्त्वमपि दुर्बुद्धे मच्छापपरिविक्षतः / शक्तिना भरतश्रेष्ठ वासिष्ठेन महात्मना // 4 पत्नीमृतावनुप्राप्य सद्यस्त्यक्ष्यसि जीवितम् / / 18 स तु शापवशं प्राप्तः क्रोधपर्याकुलेक्षणः / यस्य चर्षेर्वसिष्ठस्य त्वया पुत्रा विनाशिताः। निर्जगाम पुराद्राजा सहदारः परंतपः // 5 तेन संगम्य ते भार्या तनयं जनयिष्यति / अरण्यं निर्जनं गत्वा सदारः परिचक्रमे / स ते वंशकरः पुत्रो भविष्यति नृपाधम / / 19 नानामृगगणाकीर्णं नानासत्त्वसमाकुलम् // 6 , एवं शप्त्वा तु राजानं सा तमाङ्गिरसी शुभा। नानागुल्मलताच्छन्नं नानाद्रुमसमावृतम् / तस्यैव संनिधौ दीप्तं प्रविवेश हुताशनम् // 20 अरण्यं घोरसंनादं शापग्रस्तः परिभ्रमन् // 7 .. वसिष्ठश्च महाभागः सर्वमेतदपश्यत। स कदाचिक्षुधाविष्टो मृगयन्भक्षमात्मनः / ज्ञानयोगेन महता तपसा च परंतप // 21 ददर्श सुपरिक्लिष्टः कस्मिंश्चिद्वननिर्झरे। मुक्तशापश्च राजर्षिः कालेन महता ततः / ब्राह्मणी ब्राह्मणं चैव मैथुनायोपसंगतौ // 8 ऋतुकालेऽभिपतितो मदयन्त्या निवारितः // 22 तौ समीक्ष्य तु वित्रस्तावकृतार्थौ प्रधावितौ / न हि सस्मार नृपतिस्तं शापं शापमोहितः / तयोश्च द्रवतोर्विपं जगृहे नृपतिर्बलात् // 9 देव्याः सोऽथ वचः श्रुत्वा स तस्या नृपसत्तमः / दृष्ट्वा गृहीतं भर्तारमथ ब्राह्मण्यभाषत / तं च शापमनुस्मृत्य पर्यतप्यभृशं तदा // 23 शृणु राजन्वचो मह्यं यत्त्वां वक्ष्यामि सुव्रत // 10 एतस्मात्कारणाद्राजा वसिष्ठं संन्ययोजयत् / आदित्यवंशप्रभवस्त्वं हि लोकपरिश्रुतः / स्वदारे भरतश्रेष्ठ शापदोषसमन्वितः // 24 अप्रमत्तः स्थितो धर्मे गुरुशुश्रूषणे रतः // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि शापं प्राप्तोऽसि दुर्धर्ष न पापं कर्तुमर्हसि / त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 173 // ऋतुकाले तु संप्राप्ते भास्म्यद्य समागता // 12 // समाप्तं चैत्ररथपर्व // - 230 -
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________________ 1. 174.1] आदिपर्व [1. 175. 13 175 174 अर्जुन उवाच / वैशंपायन उवाच। अस्माकमनुरूपो वै यः स्याद्गन्धर्व वेदवित् / ततस्ते नरशार्दूला भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः / पुरोहितस्तमाचक्ष्व सर्वं हि विदितं तव // 1 प्रययुद्रौपदी द्रष्टुं तं च देवमहोत्सवम् // 1 गन्धर्व उवाच / ते प्रयाता नरव्याघ्रा मात्रा सह परंतपाः / यवीयान्देवलस्यैष वने भ्राता तपस्यति / ब्राह्मणान्ददृशुर्मार्गे गच्छतः सगणान्बहून् // 2 धौम्य उत्कोचके तीर्थे तं वृणुध्वं यदीच्छथ // 2 तानचुाह्मणा राजन्पाण्डवान्ब्रह्मचारिणः / वैशंपायन उवाच / क भवन्तो गमिष्यन्ति कुतो वागच्छतेति ह // 3 ततोऽर्जुनोऽस्त्रमाग्नेयं प्रददौ तद्यथाविधि / युधिष्ठिर उवाच / गन्धर्वाय तदा प्रीतो वचनं चेदमब्रवीत् // 3 आगतानेकचक्रायाः सोदर्यान्देवदर्शिनः / त्वय्येव तावत्तिष्ठन्तु या गन्धर्वसत्तम / भवन्तो हि विजानन्तु सहितान्मातृचारिणः // 4 कर्मकाले ग्रहीष्यामि स्वस्ति तेऽस्त्विति चाब्रवीत्॥४ ब्राह्मणा ऊचुः / तेऽन्योन्यमभिसंपूज्य गन्धर्वः पाण्डवाश्च ह। गच्छताद्यैव पाञ्चालान्द्रुपदस्य निवेशनम् / रम्याद्भागीरथीकच्छाद्यथाकामं प्रतस्थिरे // 5 स्वयंवरो महांस्तत्र भविता सुमहाधनः // 5 तव उत्कोचकं तीर्थं गत्वा धौम्याश्रमं तु ते / एकसार्थं प्रयाताः स्मो वयमप्यत्र गामिनः / तं वत्रुः पाण्डवा धौम्यं पौरोहित्याय भारत // 6 तत्र ह्यद्भुतसंकाशो भविता सुमहोत्सवः // 6 तान्धौम्यः प्रतिजग्राह सर्ववेदविदां वरः / यज्ञसेनस्य दुहिता द्रुपदस्य महात्मनः / पायेन फलमूलेन पौरोहित्येन चैव ह // 7 वेदीमध्यात्समुत्पन्ना पद्मपत्रनिभेक्षणा // 7 ते तदाशंसिरे लब्धां श्रियं राज्यं च पाण्डवाः। दर्शनीयानवद्याङ्गी सुकुमारी मनस्विनी / तं ब्राह्मणं पुरस्कृत्य पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरम् // 8 धृष्टद्युम्नस्य भगिनी द्रोणशत्रोः प्रतापिनः // 8 मातृषष्ठास्तु ते तेन गुरुणा संगतास्तदा / यो जातः कवची खगी सशरः सशरासनः / नाथवन्तमिवात्मानं मेनिरे भरतर्षभाः // 9 सुसमिद्धे महाबाहुः पावके पावकप्रभः // 9 स हि वेदार्थतत्त्वज्ञस्तेषां गुरुरुदारधीः / स्वसा तस्यानवद्याङ्गी द्रौपदी तनुमध्यमा। तेन धर्मविदा पार्था याज्याः सर्वविदा कृताः // 10 नीलोत्पलसमो गन्धो यस्याः क्रोशात्प्रवायति // 10 वीरांस्तु स हि तान्मेने प्राप्तराज्यान्स्वधर्मतः / तां यज्ञसेनस्य सुतां स्वयंवरकृतक्षणाम् / बुद्धिवीर्यबलोत्साहैर्युक्तान्देवानिवापरान् // 11 गच्छामहे वयं द्रष्टुं तं च देवमहोत्सवम् // 11 कृतस्वस्त्ययनास्तेन ततस्ते मनुजाधिपाः / राजानो राजपुत्राश्च यज्वानो भूरिदक्षिणाः / मेनिरे सहिता गन्तुं पाञ्चाल्यास्तं स्वयंवरम् // 12 स्वाध्यायवन्तः शुचयो महात्मानो यतत्रताः // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तरुणा दर्शनीयाश्च नानादेशसमागताः। . चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 174 // | महारथाः कृतास्त्राश्च समुपैष्यन्ति भूमिपाः // 13 -231 -
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________________ 1. 175. 14 ] महाभारते [1. 176. 20 ते तत्र विविधान्दायान्विजयार्थं नरेश्वराः / कुम्भकारस्य शालायां निवेशं चक्रिरे तदा॥६ प्रदास्यन्ति धनं गाश्च भक्ष्यं भोज्यं च सर्वशः / / 14 | तत्र भैक्षं समाजहुर्ब्राह्मीं वृत्तिं समाश्रिताः / प्रतिगृह्य च तत्सर्वं दृष्ट्वा चैव स्वयंवरम् / तांश्च प्राप्तांस्तदा वीराञ्जज्ञिरे न नराः कचित् // 7 अनुभूयोत्सवं चैव गमिष्यामो यथेप्सितम् // 15 यज्ञसेनस्य कामस्तु पाण्डवाय किरीटिने / नटा वैतालिकाश्चैव नर्तकाः सूतमागधाः / कृष्णां दद्यामिति सदा न चैतद्विवृणोति सः॥ 8 नियोधकाश्च देशेभ्यः समेष्यन्ति महाबलाः॥१६ सोऽन्वेषमाणः कौन्तेयान्पाञ्चाल्यो जनमेजय / एवं कौतूहलं कृत्वा दृष्ट्वा च प्रतिगृह्य च / दृढं धनुरनायम्यं कारयामास भारत // 9 सहास्माभिर्महात्मानः पुनः प्रतिनिवर्त्यथ // 17 यत्रं वैहायसं चापि कारयामास कृत्रिमम् / दर्शनीयांश्च वः सर्वान्देवरूपानवस्थितान् / तेन यत्रेण सहितं राजा लक्ष्यं च काश्चनम् // 10 समीक्ष्य कृष्णा वरयेत्संगत्यान्यतमं वरम् / / 18 द्रुपद उवाच / अयं भ्राता तव श्रीमान्दर्शनीयो महाभुजः / इदं सज्यं धनुः कृत्वा सज्येनानेन सायकैः / नियुध्यमानो विजयेत्संगत्या द्रविणं बहु // 19 / अतीत्य लक्ष्यं यो वेद्धा स लब्धा मत्सुतामिति // 11 युधिष्ठिर उवाच / वैशंपायन उवाच / परमं भो गमिष्यामो द्रष्टुं देवमहोत्सवम् / इति स द्रुपदो राजा सर्वतः समघोषयत् / भवद्भिः सहिताः सर्वे कन्यायास्तं स्वयंवरम् / / 20 / तच्छ्रुत्वा पार्थिवाः सर्वे समीयुस्तत्र भारत // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ऋषयश्च महात्मानः स्वयंवरदिदृक्षया / पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 175 // दुर्योधनपुरोगाश्च सकर्णाः कुरवो नृप // 13 176 ब्राह्मणाश्च महाभागा देशेभ्यः समुपागमन। . वैशंपायन उवाच। तेऽभ्यर्चिता राजगणा द्रुपदेन महात्मना // 14 एवमुक्ताः प्रयातास्ते पाण्डवा जनमेजय / ततः पौरजनाः सर्वे सागरोद्धतनि:स्वनाः / राज्ञा दक्षिणपाञ्चालान्द्रुपदेनाभिरक्षितान् // 1 शिशुमारपुरं प्राप्य न्यविशंस्ते च पार्थिवाः // 15 ततस्ते तं महात्मानं शुद्धात्मानमकल्मषम् / प्रागुत्तरेण नगराद्भूमिभागे समे शुभे / ददृशुः पाण्डवा राजन्पथि द्वैपायनं तदा // 2 समाजवाटः शुशुभे भवनैः सर्वतो वृतः // 16 तस्मै यथावत्सत्कारं कृत्वा तेन च सान्त्विताः। प्राकारपरिखोपेतो द्वारतोरणमण्डितः। कथान्ते चाभ्यनुज्ञाताः प्रययु पदक्षयम् // 3 वितानेन विचित्रेण सर्वतः समवस्तृतः // 17 पश्यन्तो रमणीयानि वनानि च सरांसि च। तूर्योघशतसंकीर्णः परार्ध्यागुरुधूपितः / तत्र तत्र वसन्तश्च शनैर्जग्मुर्महारथाः // 4 चन्दनोदकसिक्तश्च माल्यदामैश्च शोभितः॥ 18 स्वाध्यायवन्तः शुचयो मधुराः प्रियवादिनः। कैलासशिखरप्रख्यैर्नभस्तलविलेखिभिः। आनुपूर्येण संप्राप्ताः पाञ्चालान्कुरुनन्दनाः / / 5 / सर्वतः संवृतैनद्धः प्रासादैः सुकृतोच्छ्रितैः // 19 ते तु दृष्ट्वा पुरं तच्च स्कन्धावारं च पाण्डवाः। सुवर्णजालसंवीतैर्मणिकुट्टिमभूषितैः / - 232 -
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________________ 1. 176. 20] आदिपर्व [1. 177.8 177 सुखारोहणसोपानैर्महासनपरिच्छदैः // 20 यत्रच्छिद्रेणाभ्यतिक्रम्य लक्ष्य अप्राम्यसमवच्छन्नरगुरूत्तमवासितैः। समर्पयध्वं खगभैर्दशाधैः // 34 इंसाच्छवर्णैबहुभिरायोजनसुगन्धिभिः॥२१ एतत्कर्ता कर्म सुदुष्करं यः असंबाधशतद्वौरः शयनासनशोभितैः / / कुलेन रूपेण बलेन युक्तः / बहुधातुपिनद्धाङ्गैर्हिमवच्छिखरैरिव // 22 तस्याद्य भार्या भगिनी ममेयं तत्र नानाप्रकारेषु विमानेषु स्वलंकृताः। कृष्णा भवित्री न मृषा ब्रवीमि // 35 स्पर्धमानास्तदान्योन्यं निषेदुः सर्वपार्थिवाः // 23 तानेवमुक्त्वा द्रुपदस्य पुत्रः तत्रोपविष्टान्ददृशुर्महासत्त्वपराक्रमान् / पश्चादिदं द्रौपदीमभ्युवाच। प्रजसिंहान्महाभागान्कृष्णागुरुविभूषितान् // 24 नाम्ना च गोत्रेण च कर्मणा च / महाप्रसादान्ब्रह्मण्यान्स्वराष्ट्रपरिरक्षिणः / ___ संकीर्तयंस्तान्नृपतीन्समेतान् // 36 प्रेयान्सर्वस्य लोकस्य सुकृतैः कर्मभिः शुभैः / / 25 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पञ्चेषु च परार्येषु पौरजानपदा जनाः / षट् सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 176 // कृष्णादर्शनतुष्ट्यर्थं सर्वतः समुपाविशन् // 26 गाह्मणैस्ते च सहिताः पाण्डवाः समुपाविशन् / धृष्टद्युम्न उवाच। सद्धिं पाञ्चालराजस्य पश्यन्तस्तामनुत्तमाम् // 27 दुर्योधनो दुर्विषहो दुमुखो दुष्प्रधर्षणः / तः समाजो ववृधे स राजन्दिवसान्बहून् / विविंशतिर्विकर्णश्च सहो दुःशासनः समः // 1 मप्रदानबहुलः शोभितो नटनर्तकैः // 28 युयुत्सुर्वातवेगश्च भीमवेगधरस्तथा / वर्तमाने समाजे तु रमणीयेऽह्नि षोडशे। उग्रायुधो बलाकी च कनकायुर्विरोचनः // 2 प्राप्लुताङ्गी सुवसना सर्वाभरणभूषिता / / 29 सुकुण्डलश्चित्रसेनः सुवर्चाः कनकध्वजः। परिकांस्यमुपादाय काञ्चनं समलंकृतम् / नन्दको बाहुशाली च कुण्डजो विकटस्तथा // 3 प्रवतीर्णा ततो रङ्गं द्रौपदी भरतर्षभ // 30 एते चान्ये च बहवो धार्तराष्ट्रा महाबलाः / रोहितः सोमकानां मत्रविद्ब्राह्मणः शुचिः / कर्णेन सहिता वीरास्त्वदर्थं समुपागताः / रिस्तीर्य जुहावाग्निमाज्येन विधिना तदा // 31 शतसंख्या महात्मानः प्रथिताः क्षत्रियर्षभाः॥४ ततर्पयित्वा ज्वलनं ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च / शकुनिश्च बलश्चैव वृषकोऽथ बृहद्बलः / पारयामास सर्वाणि वादित्राणि समन्ततः // 32 एते गान्धारराजस्य सुताः सर्वे समागताः // 5 निशब्दे तु कृते तस्मिन्धृष्टद्युम्नो विशां पते / अश्वत्थामा च भोजश्च सर्वशस्त्रभृतां वरौ / मध्यगतस्तत्र मेघगम्भीरया गिरा। समवेतो महात्मानौ त्वदर्थे समलंकृतौ // 6 पाक्यमुच्चैर्जगादेदं श्लक्ष्णमर्थवदुत्तमम् // 33 बृहन्तो मणिमांश्चैव दण्डधारश्च वीर्यवान् / इदं धनुर्लक्ष्यमिमे च बाणाः सहदेवो जयत्सेनो मेघसंधिश्च मागधः // 7 - शृण्वन्तु मे पार्थिवाः सर्व एव / विराटः सह पुत्राभ्यां शङ्खनैवोत्तरेण च / म. मा. 30 -233 -
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________________ 1. 177.8 ] महाभारत [1. 178.7 वार्धक्षेमिः सुवर्चाश्च सेनाबिन्दुश्च पार्थिवः // 8 / विध्येत य इमं लक्ष्यं वरयेथाः शुभेऽद्य तम्॥२२ अभिभूः सह पुत्रेण सुदाम्ना च सुवर्चसा। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सुमित्रः सुकुमारश्च वृकः सत्यधृतिस्तथा // 9 सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 177 // सूर्यध्वजो रोचमानो नीलश्चित्रायुधस्तथा / 178 अंशुमांश्चेकितानश्च श्रेणिमांश्च महाबलः // 10 वैशंपायन उवाच / समुद्रसेनपुत्रश्च चन्द्रसेनः प्रतापवान् / तेऽलंकृताः कुण्डलिनो युवानः / जलसंधः पितापुत्रौ सुदण्डो दण्ड एव च // 11 परस्परं स्पर्धमानाः समेताः / पौण्डूको वासुदेवश्च भगदत्तश्च वीर्यवान् / अखं बलं चात्मनि मन्यमानाः कलिङ्गस्ताम्रलिप्तश्च पत्तनाधिपतिस्तथा // 12 __ सर्वे समुत्पेतुरहंकृतेन // 1 मद्रराजस्तथा शल्यः सहपुत्रौ महारथः। रूपेण वीर्येण कुलेन चैव रुक्माङ्गदेन वीरेण तथा रुक्मरथेन च // 13 ____धर्मेण चैवापि च यौवनेन / कौरव्यः सोमदत्तश्च पुत्राश्चास्य महारथाः। समृद्धदर्पा मदवेगभिन्ना समवेतास्त्रयः शूरा भूरिभूरिश्रवाः शलः // 14 मत्ता यथा हैमवता गजेन्द्राः॥२ सुदक्षिणश्च काम्बोजो दृढधन्वा च कौरवः / परस्परं स्पर्धया प्रेक्षमाणाः बृहद्बलः सुषेणश्च शिबिरौशीनरस्तथा // 15 संकल्पजेनापि परिप्लुताङ्गाः। . संकर्षणो वासुदेवो रौक्मिणेयश्च वीर्यवान् / कृष्णा ममैषेत्यभिभाषमाणा साम्बश्च चारुदेष्णश्च सारणोऽथ गदस्तथा // 16 नृपासनेभ्यः सहसोपतस्थुः॥३ अक्रूरः सात्यकिश्चैव उद्धवश्च महाबलः / ते क्षत्रिया रङ्गगताः समेता कृतवर्मा च हार्दिक्यः पृथुर्विपृथुरेव च // 17 जिगीषमाणा द्रुपदात्मजां ताम् / चकाशिरे पर्वतराजकन्याविडूरथश्च कङ्कश्च समीकः सारमेजयः। . मुमां यथा देवगणाः समेताः॥४ वीरो वातपतिश्चैव झिल्ली पिण्डारकस्तथा / कन्दर्पबाणाभिनिपीडिताङ्गाः उशीनरश्च विक्रान्तो वृष्णयस्ते प्रकीर्तिताः॥ 18 __ कृष्णागतैस्ते हृदयैर्नरेन्द्राः। भगीरथो बृहत्क्षत्रः सैन्धवश्व जयद्रथः / रङ्गावतीर्णा द्रुपदात्मजार्थं बृहद्रथो बाह्निकश्च श्रुतायुश्च महारथः / / 19 द्वेष्यान्हि चक्रुः सुहृदोऽपि तत्र // 5 उलूकः कैतवो राजा चित्राङ्गदशुभाङ्गदौ / अथाययुर्देवगणा विमानै वत्सराजश्च धृतिमान्कोसलाधिपतिस्तथा // 20 रुद्रादित्या वसवोऽथाश्विनौ च / एते चान्ये च बहवो नानाजनपदेश्वराः / साध्याश्च सर्वे मरुतस्तथैव त्वदर्थमागता भद्रे क्षत्रियाः प्रथिता भुवि // 21 यमं पुरस्कृत्य धनेश्वरं च // 6 एते वेत्स्यन्ति विक्रान्तास्त्वदर्थं लक्ष्यमुत्तमम्। / दैत्याः सुपर्णाश्च महोरगाश्च -234 -.
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________________ 1. 178.7] आदिपर्व [1. 179. 5 देवर्षयो गुह्यकाश्चारणाश्च / विश्वावसुर्नारदपर्वतौ च गन्धर्वमुख्याश्च सहाप्सरोभिः॥७ हलायुधस्तत्र च केशवश्च ___ वृष्ण्यन्धकाश्चैव यथा प्रधानाः। प्रेक्षां स्म चक्रुर्यदुपुंगवास्ते स्थिताश्च कृष्णस्य मते बभूवुः॥ 8 दृष्ट्वा हि तान्मत्तगजेन्द्ररूपा न्पश्चाभिपद्मानिव वारणेन्द्रान् / भस्मावृताङ्गानिव हव्यवाहा पार्थान्प्रदध्यौ स यदुप्रवीरः // 9 शशंस रामाय युधिष्ठिरं च भीमं च जिष्णुं च यमौ च वीरौ / शनैः शनैस्तांश्च निरीक्ष्य रामो ___ जनार्दनं प्रीतमना ददर्श / / 10 अन्ये तु नानानृपपुत्रपौत्राः - कृष्णागतैर्नेत्रमनःस्वभावैः। व्यायच्छमाना ददृशुर्धमन्ती संदष्टदन्तच्छदताम्रवक्त्राः // 11 तथैव पार्थाः पृथुबाहवस्ते - वीरौ यमौ चैव महानुभावौ / तां द्रौपदी प्रेक्ष्य तदा स्म सर्वे - कन्दर्पबाणाभिहता बभूवुः // 12 देवर्षिगन्धर्वसमाकुलं त- सुपर्णनागासुरसिद्धजुष्टम् / दिव्येन गन्धेन समाकुलं च दिव्यैश्च माल्यैरवकीर्यमाणम् // 13 महावनैर्दुन्दुभिनादितैश्च बभूव तत्संकुलमन्तरिक्षम् / विमानसंबाधमभूत्समन्ता त्सवेणुवीणापणवानुनादम् // 14: ततस्तु ते राजगणाः क्रमेण कृष्णानिमित्तं नृप विक्रमन्तः। तत्कार्मुकं संहननोपपन्नं ___सज्यं न शेकुस्तरसापि कर्तुम् // 15 ते विक्रमन्तः स्फुरता दृढेन निष्कृष्यमाणा धनुषा नरेन्द्राः / विचेष्टमाना धरणीतलस्था दीना अदृश्यन्त विभग्नचित्ताः // 16 हाहाकृतं तद्धनुषा दृढेन निष्पिष्टभग्नाङ्गदकुण्डलं च / कृष्णानिमित्तं विनिवृत्तभावं ___ राज्ञां तदा मण्डलमार्तमासीत् // 17 तस्मिंस्तु संभ्रान्तजने समाजे निक्षिप्तवादेषु नराधिपेषु / कुन्तीसुतो जिष्णुरियेष कर्तुं ___ सज्यं धनुस्तत्सशरं स वीरः॥ 18 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 178 // वैशंपायन उवाच। यदा निवृत्ता राजानो धनुषः सज्यकर्मणि / अथोदतिष्ठद्विप्राणां मध्याजिष्णुरुदारधीः // 1 उदक्रोशन्विप्रमुख्या विधुन्वन्तोऽजिनानि च / दृष्ट्वा संप्रस्थितं पार्थमिन्द्रकेतुसमप्रभम् // 2 केचिदासन्विमनसः केचिदासन्मुदा युताः / / आहुः परस्परं केचिन्निपुणा बुद्धिजीविनः // 3 यत्कर्णशल्यप्रमुखैः पार्थिवैर्लोकविश्रुतैः। नानतं बलवद्भिर्हि धनुर्वेदपरायणैः // 4 तत्कथं त्वकृतास्त्रेण प्राणतो दुर्बलीयसा / - 235 -
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________________ 1. 179.5] महाभारते [1. 180.4 बटुमात्रेण शक्यं हि सज्यं कर्तुं धनुर्द्विजाः // 5 न्यपतंश्चात्र नभसः समन्तात्पुष्पवृष्टयः // 18 अवहास्या भविष्यन्ति ब्राह्मणाः सर्वराजसु। शताङ्गानि च तूर्याणि वादकाश्चाप्यवादयन् / कर्मण्यस्मिन्नसंसिद्धे चापलादपरीक्षिते // 6 सूतमागधसंघाश्च अस्तुवंस्तत्र सुस्वनाः // 19 यद्येष दर्पाद्धर्षाद्वा यदि वा ब्रह्मचापलात् / तं दृष्ट्वा द्रुपदः प्रीतो बभूवारिनिषूदनः / प्रस्थितो धनुरायन्तुं वार्यतां साधु मा गमत् // 7 // सहसैन्यश्च पार्थस्य साहाय्यार्थमियेष सः / / 20 नावहास्या भविष्यामो न च लाघवमास्थिताः।। तस्मिंस्तु शब्दे महति प्रवृत्ते / न च विद्विष्टतां लोके गमिष्यामो महीक्षिताम् // 8 युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः / केजिदाहुर्युवा श्रीमान्नागराजकरोपमः / आवासमेवोपजगाम शीघ्रं पीनस्कन्धोरुबाहुश्च धैर्येण हिमवानिव // 9 साधं यमाभ्यां पुरुषोत्तमाभ्याम् // 21 संभाव्यमस्मिन्कर्मेदमुत्साहाच्चानुमीयते / विद्धं तु लक्ष्यं प्रसमीक्ष्य कृष्णा शक्तिरस्य महोत्साहा न ह्यशक्तः स्वयं व्रजेत् // 10 ___ पार्थं च शक्रप्रतिमं निरीक्ष्य / न च तद्विद्यते किंचित्कर्म लोकेषु यद्भवेत् / आदाय शुक्लं वरमाल्यदाम ब्राह्मणानामसाध्यं च त्रिषु संस्थानचारिषु // 11 __ जगाम कुन्तीसुतमुत्स्मयन्ती // 22 अब्भक्षा वायुभक्षाश्च फलाहारा दृढव्रताः / स तामुपादाय विजित्य रङ्गे दुर्बला हि बलीयांसो विप्रा हि ब्रह्मतेजसा // 12 द्विजातिभिस्तैरभिपूज्यमानः / / ब्राह्मणो नावमन्तव्यः सद्वासद्वा समाचरन् / रङ्गान्निरक्रामदचिन्त्यकर्मा सुखं दुःखं महद्भवं कर्म यत्समुपागतम् // 13 पल्या तया चाप्यनुगम्यमानः / / 23 एवं तेषां विलपतां विप्राणां विविधा गिरः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अर्जुनो धनुषोऽभ्याशे तस्था गिरिरिवाचलः // 14 एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 179 // स तद्धनुः परिक्रम्य प्रदक्षिणमथाकरोत् / प्रणम्य शिरसा हृष्टो जगृहे च परंतपः // 15 वैशंपायन उवाच / सज्यं च चक्रे निमिषान्तरेण तस्मै दित्सति कन्यां तु ब्राह्मणाय महात्मने / शरांश्च जग्राह दशार्धसंख्यान् / कोप आसीन्महीपानामालोक्यान्योन्यमन्तिकात्॥१ विव्याध लक्ष्यं निपपात तच्च अस्मानयमतिक्रम्य तृणीकृत्य च संगतान् / . ___ छिद्रेण भूमौ सहसातिविद्धम् // 16 दातुमिच्छति विप्राय द्रौपदी योषितां वराम् // 2 ततोऽन्तरिक्षे च बभूव नादः निहन्मैनं दुरात्मानं योऽयमस्मान्न मन्यते। . __ समाजमध्ये च महान्निनादः। .. न हत्येष सत्कारं नापि वृद्धक्रमं गुणैः // 3 पुष्पाणि दिव्यानि ववर्ष देवः हन्मैनं सह पुत्रेण दुराचारं नृपद्विषम् / पार्थस्य मूर्ध्नि द्विषतां निहन्तुः // 17 अयं हि सर्वानाहूय सत्कृत्य च नराधिपान् / चेलावेधांस्ततश्चक्रुर्हाहाकारांश्च सर्वशः। गुणवद्भोजयित्वा च ततः पश्चाद्विनिन्दति // 4 -236 -
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________________ 1. 180.5] आदिपर्व [1. 181.1 अस्मिन्राजसमावाये देवानामिव संनये / तत्प्रेक्ष्य कर्मातिमनुष्यबुद्धेकिमयं सदृशं कंचिन्नपतिं नैव दृष्टवान् // 5 ___र्जिष्णोः सहभ्रातुरचिन्त्यकर्मा। न च विप्रेष्वधीकारो विद्यते वरणं प्रति / दामोदरो भ्रातरमुग्रवीर्य स्वयंवरः क्षत्रियाणामितीयं प्रथिता श्रुतिः॥६ हलायुधं वाक्यमिदं बभाषे // 17 अथ वा यदि कन्येयं नेह कंचिद्भुभूषति / य एष मत्तर्षभतुल्यगामी अग्नावेनां परिक्षिप्य याम राष्ट्राणि पार्थिवाः // 7 __महद्धनुः कर्षति तालमात्रम् / ब्राह्मणो यदि वा बाल्याल्लोभावा कृतवानिदम् / एषोऽर्जुनो नात्र विचार्यमस्ति विप्रियं पार्थिवेन्द्राणां नैष वध्यः कथंचन // 8 ___ यद्यस्मि संकर्षण वासुदेवः // 18 ब्राह्मणार्थं हि नो राज्यं जीवितं च वसूनि च / य एष वृक्षं तरसावरुज्य पुत्रपौत्रं च यच्चान्यदस्माकं विद्यते धनम् // 9 __राज्ञां विकारे सहसा निवृत्तः। अवमानभयादेतत्स्वधर्मस्य च रक्षणात् / वृकोदरो नान्य इहैतदद्य स्वयंवराणां चान्येषां मा भूदेवंविधा गतिः // 10 ___ कर्तुं समर्थो भुवि मर्त्यधर्मा // 19 इत्युक्त्वा राजशार्दूला हृष्टाः परिघबाहवः / योऽसौ पुरस्तात्कमलायताक्षद्रुपदं संजिघृक्षन्तः सायुधाः समुपाद्रवन् / / 11 __ स्तनुर्महासिंहगतिविनीतः। तान्गृहीतशरावापान्क्रुद्धानापततो नृपान् / गौरः प्रलम्बोज्ज्वलचारुघोणो द्रुपदो वीक्ष्य संत्रासाब्राह्मणाशरणं गतः // 12 _ विनिःसृतः सोऽच्युत धर्मराजः // 20 . वेगेनापततस्तांस्तु प्रभिन्नानिव वारणान्। ... यौ तौ कुमाराविव कार्तिकेयौ पाण्डुपुत्रौ महावीयौँ प्रतीयतुररिंदमौ // 13 द्वावश्विनेयाविति मे प्रतर्कः। ततः समुत्पेतुरुदायुधास्ते मुक्ता हि तस्माज्जतुवेश्मदाहा____ महीक्षितो बद्धतलाङ्गुलित्राः। न्मया श्रुताः पाण्डुसुताः पृथा च // 21 जिघांसमानाः कुरुराजपुत्रा तमब्रवीन्निर्मलतोयदाभो ___वमर्षयन्तोऽर्जुनभीमसेना // 14 ___ हलायुधोऽनन्तरजं प्रतीतः। ततस्तु भीमोऽद्भुतवीर्यकर्मा प्रीतोऽस्मि दिष्टया हि पितृष्वसा नः महाबलो वज्रसमानवीर्यः / पृथा विमुक्ता सह कौरवात्र्यैः // 22 उत्पाट्य दोभ्यां द्रुममेकवीरो इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि निष्पत्रयामास यथा गजेन्द्रः / / 15 / अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 180 // तं वृक्षमादाय रिपुप्रमाथी . दण्डीव दण्डं पितृराज उग्रम् / वैशंपायन उवाच / तस्थौ समीपे पुरुषर्षभस्य अजिनानि विधुन्वन्तः करकांश्च द्विजर्षभाः। पार्थस्य पार्थः पृथुदीर्घबाहुः // 16 / ऊचुस्तं भी कर्तव्या वयं योत्स्यामहे परान् // 1 -237 -
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________________ 1. 181. 2] महाभारते [1. 181. 29 तानेवं वदतो विप्रानर्जुनः प्रहसन्निव / किं त्वं साक्षाद्धनुर्वेदो रामो वा विप्रसत्तम / उवाच प्रेक्षका भूत्वा यूयं तिष्ठत पार्श्वतः / / 2 अथ साक्षाद्धरिहयः साक्षाद्वा विष्णुरच्युतः॥ 16 अहमेनानजिह्मात्रैः शतशो विकिरशरैः / आत्मप्रच्छादनार्थं वै बाहुवीर्यमुपाश्रितः / वारयिष्यामि संक्रुद्धान्मन्त्रैराशीविषानिव // 3 विप्ररूपं विधायेदं ततो मां प्रतियुध्यसे // 17 इति तद्धनुरादाय शुल्कावाप्तं महारथः / न हि मामाहवे क्रुद्धमन्यः साक्षाच्छचीपतेः। भ्रात्रा भीमेन सहितस्तस्थौ गिरिरिवाचलः // 4 पुमान्योधयितुं शक्तः पाण्डवाद्वा किरीटिनः॥१८ ततः कर्णमुखान्क्रुद्वान्क्षत्रियांस्तान्रुषोत्थितान् / वैशंपायन उवाच / संपेततुरभीतौ तौ गजौ प्रतिगजानिव // 5 तमेवंवादिनं तत्र फल्गुनः प्रत्यभाषत / ऊचुश्च वाचः परुषास्ते राजानो जिघांसवः / नास्मि कर्ण धनुर्वेदो नास्मि रामः प्रतापवान् / आहवे हि द्विजस्यापि वधो दृष्टो युयुत्सतः // 6. ब्राह्मणोऽस्मि युधां श्रेष्ठः सर्वशस्त्रभृतां वरः॥ 19 ततो वैकर्तनः कर्णो जगामार्जुनमोजसा / ब्राह्मे पौरंदरे चास्त्रे निष्ठितो गुरुशासनात् / युद्धार्थी वाशिताहेतोर्गजः प्रतिगजं यथा / / 7 स्थितोऽस्म्यद्य रणे जेतुं त्वां वीराविचलो भव // 20 भीमसेनं ययौ शल्यो मद्राणामीश्वरो बली / एवमुक्तस्तु राधेयो युद्धात्कर्णो न्यवर्तत। दुर्योधनादयस्त्वन्ये ब्राह्मणैः सह संगताः। ब्राझं तेजस्तदाजय्यं मन्यमानो महारथः // 21 मृदुपूर्वमयत्नेन प्रत्ययुध्यंस्तदाहवे // 8 युद्धं तूपेयतुस्तत्र राजशल्यवृकोदरो। ततोऽर्जुनः प्रत्यविध्यदापतन्तं त्रिभिः शरैः / बलिनी युगपन्मत्ती स्पर्धया च बलेन च // 22 कर्ण वैकर्तनं धीमान्विकृष्य बलवद्धनुः // 9 अन्योन्यमाह्वयन्ती ती मत्ताविव महागजी / तेषां शराणां वेगेन शितानां तिग्मतेजसाम् / मुष्टिभिर्जानुभिश्चैव निघ्नन्तावितरेतरम् / विमह्यमानो राधेयो यत्नात्तमनुधावति // 10 मुहूर्तं तौ तथान्योन्यं समरे पर्यकर्षताम् // 23 तावुभावप्यनिर्देश्यौ लाघवाजयतां वरौ / ततो भीमः समुक्षिप्य बाहुभ्यां शल्यमाहवे / अयुध्येतां सुसंरब्धावन्योन्यविजयैषिणौ // 11 न्यवधीद्वलिनां श्रेष्ठो जहंसुर्ब्राह्मणास्ततः // 24 कृते प्रतिकृतं पश्य पश्य बाहुबलं च मे / तत्राश्चर्य भीमसेनश्चकार पुरुषर्षभः / इति शूरार्थवचनैराभाषेतां परस्परम् // 12 यच्छल्यं पतितं भूमौ नाहनदलिनं बली // 25 ततोऽर्जुनस्य भुजयोर्वीर्यमप्रतिमं भुवि / पातिते भीमसेनेन शल्ये कर्णे च शङ्किते। ज्ञात्वा वैकर्तनः कर्णः संरब्धः समयोधयत् / / 13 शङ्किताः सर्वराजानः परिववृकोदरम् // 26 अर्जुनेन प्रयुक्तांस्तान्बाणान्वेगवतस्तदा / ऊचुश्च सहितास्तत्र साध्विमे ब्राह्मणर्षभाः। प्रतिहत्य ननादोच्चैः सैन्यास्तमभिपूजयन् // 14 विज्ञायन्तां क्वजन्मानः कनिवासास्तथैव च // 27 कर्ण उवाच / को हि राधासुतं कर्णं शक्तो योधयितुं रणे। तुष्यामि ते विप्रमुख्य भुजवीर्यस्य संयुगे। अन्यत्र रामाद्रोणाद्वा कृपाद्वापि शरद्वतः // 28 अविषादस्य चैवास्य शस्त्रास्त्रविनयस्य च // 15 / कृष्णाद्वा देवकीपुत्रात्फल्गुनाद्वा परंतपात् / -238
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________________ 1. 181. 29 ] आदिपर्व [1. 182.8 को वा दुर्योधनं शक्तः प्रतियोधयितुं रणे // 29 / तथैव मद्रराजानं शल्यं बलवतां वरम् / बलदेवाहते वीरात्पाण्डवाद्वा वृकोदरात् // 30 क्रियतामवहारोऽस्मायुद्धाद्ब्राह्मणसंयुतात् / अथैनानुपलभ्येह पुनर्योत्स्यामहे वयम् // 31 तत्कर्म भीमस्य समीक्ष्य कृष्णः ___ कुन्तीसुतौ तौ परिशङ्कमानः / निवारयामास महीपतींस्ता धर्मेण लब्धेत्यनुनीय सर्वान् // 32 त एवं संनिवृत्तास्तु युद्धायुद्धविशारदाः / यथावासं ययुः सर्वे विस्मिता राजसत्तमाः॥ 33 वृत्तो ब्रह्मोत्तरो रङ्गः पाञ्चाली ब्राह्मणैर्वृता।। इति ब्रुवन्तः प्रययुर्ये तत्रासन्समागताः // 34 ब्राह्मणैस्तु प्रतिच्छन्नौ रौरवाजिनवासिभिः / / कृच्छ्रेण जग्मतुस्तत्र भीमसेनधनंजयौ // 35 'विमुक्तौ जनसंबाधाच्छत्रुभिः परिविक्षतौ / कृष्णयानुगतौ तत्र नृवीरौ तौ विरेजतुः // 36 तेषां माता बहुविधं विनाशं पर्यचिन्तयत् / अनागच्छत्सु पुत्रेषु भैक्षकालेऽतिगच्छति // 37 धार्तराष्ट्रईता न स्युर्विज्ञाय कुरुपुंगवाः / मायान्वितैर्वा रक्षोभिः सुघोरैदृढवैरिभिः // 38 विपरीतं मतं जातं व्यासस्यापि महात्मनः / इत्येवं चिन्तयामास सुतस्नेहान्विता पृथा // 39 महत्यथापराह्ने तु घनैः सूर्य इवावृतः / ब्राह्मणैः प्राविशत्तत्र जिष्णुब्रह्मपुरस्कृतः / / 40 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 181 // 182 वैशंपायन उवाच / गत्वा तु तां भार्गवकर्मशाला -239 पार्थौ पृथां प्राप्य महानुभावौ। तां याज्ञसेनी परमप्रतीतौ भिक्षेत्यथावेदयतां नराग्र्यौ // 1 कुटीगता सा त्वनवेक्ष्य पुत्रा नुवाच भुङ्क्तेति समेत्य सर्वे / पश्चात्तु कुन्ती प्रसमीक्ष्य कन्यां' कष्टं मया भाषितमित्युवाच // 2 साधर्मभीता हि विलजमाना तां याज्ञसेनी परमप्रतीताम् / पाणौ गृहीत्वोपजगाम कुन्ती __ युधिष्ठिरं वाक्यमुवाच चेदम् // 3 इयं हि कन्या द्रुपदस्य राज्ञ स्तवानुजाभ्यां मयि संनिसृष्टा / यथोचितं पुत्र मयापि चोक्तं समेत्य भुङ्क्तेति नृप प्रमादात् // 4 कथं मया नानृतमुक्तमद्य भवेत्कुरूणामृषभ ब्रवीहि / पाश्चालराजस्य सुतामधर्मो न चोपवर्तेत नभूतपूर्वः॥ 5 मुहूर्तमात्रं त्वनुचिन्त्य राजा ___ युधिष्ठिरो मातरमुत्तमौजाः। कुन्ती समाश्वास्य कुरुप्रवीरो - धनंजयं वाक्यमिदं बभाषे॥६ त्वया जिता पाण्डव याज्ञसेनी त्वया च तोषिष्यति राजपुत्री / प्रज्वाल्यतां हूयतां चापि वह्निगुहाण पाणिं विधिवत्त्वमस्याः // 7 अर्जुन उवाच / मा मां नरेन्द्र त्वमधर्मभाज ___ कृथा न धर्मो ह्ययमीप्सितोऽन्यः / -
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________________ 1. 182. 8] महाभारते [1. 183.9 भवान्निवेश्यः प्रथमं ततोऽयं नाशङ्कमानः सहरौहिणेयः / भीमो महाबाहुरचिन्त्यकर्मा // 8 जगाम तां भार्गवकर्मशालां अहं ततो नकुलोऽनन्तरं मे यत्रासते ते पुरुषप्रवीराः // 2 ___ माद्रीसुतः सहदेवो जघन्यः। तत्रोपविष्टं पृथुदीर्घबाहुं वृकोदरोऽहं च यमौ च राज __ ददर्श कृष्णः सहरौहिणेयः / नियं च कन्या भवतः स्म सर्वे // 9 अजातशत्रु परिवार्य तांश्च एवंगते यत्करणीयमत्र उपोपविष्टाञ्जवलनप्रकाशान् // 3 ___धर्म्य यशस्यं कुरु तत्प्रचिन्त्य / ततोऽब्रवीद्वासुदेवोऽभिगम्य पाश्चालराजस्य च यत्प्रियं स्या कुन्तीसुतं धर्मभृतां वरिष्ठम् / त्तद्रूहि सर्वे स्म वशे स्थितास्ते॥१० कृष्णोऽहमस्मीति निपीड्य पादौ .. वैशंपायन उवाच। युधिष्ठिरस्याजमीढस्य राज्ञः // 4 ते दृष्ट्वा तत्र तिष्ठन्ती सर्वे कृष्णां यशस्विनीम् / तथैव तस्याप्यनु रौहिणेयसंप्रेक्ष्यान्योन्यमासीना हृदयैस्तामधारयन् // 11 स्तौ चापि हृष्टाः कुरवोऽभ्यनन्दन् / तेषां हि द्रौपदी दृष्ट्वा सर्वेषाममितौजसाम् / पितृष्वसुश्चापि यदुप्रवीरा- . संप्रमथ्येन्द्रियग्रामं प्रादुरासीन्मनोभवः // 12 वगृहृतां भारतमुख्य पादौ // 5 . काम्यं रूपं हि पाश्चाल्या विधात्रा विहितं स्वयम् / अजातशत्रुश्च कुरुप्रवीरः बभूवाधिकमन्याभ्यः सर्वभूतमनोहरम् // 13 पप्रच्छ कृष्णं कुशलं निवेद्य / तेषामाकारभावज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / कथं वयं वासुदेव त्वयेह द्वैपायनवचः कृत्स्नं संस्मरन्वै नरर्षभ // 14 ___ गूढा वसन्तो विदिताः स्म सर्वे / / 6 अब्रवीत्स हि तान्भ्रातृन्मिथोभेदभयान्नपः। तमब्रवीद्वासुदेवः प्रहस्य सर्वेषां द्रौपदी भार्या भविष्यति हि नः शुभा॥१५ .. गूढोऽप्यग्नियित एव राजन् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तं विक्रम पाण्डवेयानतीत्य यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 182 // . कोऽन्यः कर्ता विद्यते मानुषेषु // 7 दिष्ट्या तस्मात्पावकात्संप्रमुक्ता वैशंपायन उवाच। यूयं सर्वे पाण्डवाः शत्रुसाहाः / भ्रातुर्वचस्तत्प्रसमीक्ष्य सर्वे दिष्ट्या पापो धृतराष्ट्रस्य पुत्रः ___ ज्येष्ठस्य पाण्डोस्तनयास्तदानीम् / ___ सहामात्यो न सकामोऽभविष्यत् // 8 तमेवार्थं ध्यायमाना मनोभि भद्रं वोऽस्तु निहितं यद्गुहायां रासांचक्रुरथ तत्रामितौजाः // 1 ___विवर्धध्वं ज्वलन इवेध्यमानः / वृष्णिप्रवीरस्तु कुरुप्रवीरा मा वो विद्युः पार्थिवाः केचनेह -240 -
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________________ 1. 183. 9] आदिपर्व [1. 184. 15 यास्यावहे शिबिरायैव तावत् / ते चापि सर्वेऽभ्यवजहुरन्नम् // 7 सोऽनुज्ञातः पाण्डवेनाव्ययश्रीः कुशैस्तु भूमौ शयनं चकार / प्रायाच्छीघ्रं बलदेवेन सार्धम् // 9 माद्रीसुतः सहदेवस्तरस्वी / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि यथात्मीयान्यजिनानि सर्वे ज्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 183 // संस्तीर्य वीराः सुषुपुर्धरण्याम् // 8 अगस्त्यशास्तामभितो दिशं तु वैशंपायन उवाच / शिरांसि तेषां कुरुसत्तमानाम् / धृष्टद्युम्नस्तु पाञ्चाल्यः पृष्ठतः कुरुनन्दनौ / कुन्ती पुरस्तात्तु बभूव तेषां अन्धगच्छत्तदा यान्तौ भार्गवस्य निवेशनम् // 1. ___ कृष्णा तिरश्चैव बभूव पत्तः // 9 सोऽशायमानः पुरुषानवधाय समन्ततः / अशेत भूमौ सह पाण्डुपुत्रैः स्वयमारान्निविष्टोऽभूद्भार्गवस्य निवेशने // 2 ___पादोपधानेव कृता कुशेषु / सायेऽथ भीमस्तु रिपुप्रमाथी न तत्र दुःखं च बभूव तस्या जिष्णुर्यमौ चापि महानुभावौ / न चावमेने कुरुपुंगवांस्तान् // 10 मैक्षं चरित्वा तु युधिष्ठिराय ते तत्र शूराः कथयांबभूवुः निवेदयांचक्रुरदीनसत्त्वाः // 3 कथा विचित्राः पृतनाधिकाराः / ततस्तु कुन्ती द्रुपदात्मजां ता अस्त्राणि दिव्यानि रथांश्च नागामुवाच काले वचनं वदान्या / न्खगान्गदाश्चापि परश्वधांश्च // 11 अतोऽप्रमादाय कुरुष्व भद्रे तेषां कथास्ताः परिकीर्त्यमानाः बलिं च विप्राय च देहि भिक्षाम् // 4 पाञ्चालराजस्य सुतस्तदानीम् / ये चान्नमिच्छन्ति ददस्व तेभ्यः शुश्राव कृष्णां च तथा निषण्णां परिश्रिता ये परितो मनुष्याः / ते चापि सर्वे ददृशुर्मनुष्याः // 12 ततश्च शेषं प्रविभज्य शीघ्र धृष्टद्युम्नो राजपुत्रस्तु सर्वं मधं चतुर्णां मम चात्मनश्च // 5 वृत्तं तेषां कथितं चैव रात्री। अर्ध च भीमाय ददाहि भद्रे सर्वं राज्ञे द्रुपदायाखिलेन - य एष मत्तर्षभतुल्यरूपः / निवेदयिष्यंस्त्वरितो जगाम // 13 श्यामो युवा संहननोपपन्न पाञ्चालराजस्तु विषण्णरूपएषो हि वीरो बहुभुक्सदैव // 6 स्तान्पाण्डवानप्रतिविन्दमानः। मा हृष्टरूपैव तु राजपुत्री धृष्टद्युम्नं पर्यपृच्छन्महात्मा तस्या वचः साध्वविशङ्कमाना। क्क सा गता केन नीता च कृष्णा // 14 पथावदुक्तं प्रचकार साध्वी ___ कच्चिन्न शूद्रेण न हीनजेन -241 -
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________________ 1. 184. 15 ] महाभारते [1. 185. 11 वैश्येन वा करदेनोपपन्ना। सर्वैश्च देवैर्ऋषिभिश्च जुष्टः // 3 कञ्चित्पदं मूर्ध्नि न मे निदिग्धं कृष्णा च गृह्याजिनमन्वयात्तं ___ कच्चिन्माला पतिता न श्मशाने // 15 नागं यथा नागवधूः प्रहृष्टा। कञ्चित्सवर्णप्रवरो मनुष्य अमृष्यमाणेषु नराधिपेषु उद्रिक्तवर्णोऽप्युत वेह कञ्चित् / __क्रुद्धेषु तं तत्र समापतत्सु // 4 . कच्चिन्न वामो मम मूर्ध्नि पादः ततोऽपरः पार्थिवराजमध्ये ___ कृष्णाभिमर्शेन कृतोऽद्य पुत्र // 16 ___ प्रवृद्धमारुज्य महीप्ररोहम्। कच्चिच्च यक्ष्ये परमप्रतीतः प्रकालयन्नेव स पार्थिवौघासंयुज्य पार्थेन नरर्षभेण / न्क्रुद्धोऽन्तकः प्राणभृतो यथैव // 5 ब्रवीहि तत्त्वेन महानुभावः तौ पार्थिवानां मिषता नरेन्द्र .. कोऽसौ विजेता दुहितुर्ममाद्य // 17 ___ कृष्णामुपादाय गतौ नराग्र्यौ। विचित्रवीर्यस्य तु कच्चिदद्य विभ्राजमानाविव चन्द्रसूर्यो कुरुप्रवीरस्य धरन्ति पुत्राः। ___ बाह्यां पुराद्भार्गवकर्मशालाम् // 6 कञ्चित्तु पार्थेन यवीयसाद्य तत्रोपविष्टार्जिरिवानलस्य धनुर्गृहीतं निहतं च लक्ष्यम् // 18 तेषां जनित्रीति मम प्रतर्कः। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तथाविधैरेव नरप्रवीरैचतुरशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१८४ // रुपोपविष्टैस्त्रिभिरग्निकल्पैः॥७ तस्यास्ततस्तावभिवाद्य पादावैशंपायन उवाच। 'वुक्त्वा च कृष्णामभिवादयेति / ततस्तथोक्तः परिहृष्टरूपः स्थितौ च तत्रैव निवेद्य कृष्णां पित्रे शशंसाथ स राजपुत्रः / __ भैक्षप्रचाराय गता नराग्र्याः // 8 धृष्टद्युम्नः सोमकानां प्रबों तेषां तु भैक्षं प्रतिगृह्य कृष्णा वृत्तं यथा येन हृता च कृष्णा // 1 ___ कृत्वा बलिं ब्राह्मणसाच्च कृत्वा / योऽसौ युवा स्वायतलोहिताक्षः तां चैव वृद्धां परिविष्य तांश्च कृष्णाजिनी देवसमानरूपः। ___ नरप्रवीरान्स्वयमप्यभुत / / 9 यः कार्मुकाग्र्यं कृतवानधिज्यं सुप्तास्तु ते पार्थिव सर्व एव लक्ष्यं च तत्पातितवान्पृथिव्याम् // 2 ___ कृष्णा तु तेपां चरणोपधानम् / असज्जमानश्च गतस्तरस्वी आसीत्पृथिव्यां शयनं च तेषां वृतो द्विजाग्र्यैरभिपूज्यमानः / दर्भाजिनाग्र्यास्तरणोपपन्नम् // 10 चक्राम वज्रीव दितेः सुतेषु ते नर्दमाना इव कालमेघाः -242 -
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________________ 1. 185. 11] आदिपर्व [1. 185. 26 कथा विचित्राः कथयांबभूवुः / न वैश्यशद्रौपयिकीः कथास्ता __ न च द्विजातेः कथयन्ति वीराः॥११ निःसंशयं क्षत्रियपुंगवास्ते यथा हि युद्धं कथयन्ति राजन् / आशा हि नो व्यक्तमियं समृद्धा मुक्तान्हि पार्थाशृणुमोऽग्निदाहात् // 12 यथा हि लक्ष्यं निहतं धनुश्च सज्यं कृतं तेन तथा प्रसह्य / यथा च भाषन्ति परस्परं ते छन्ना ध्रुवं ते प्रचरन्ति पार्थाः // 13 / ततः स राजा द्रुपदः प्रहृष्टः __पुरोहितं प्रेषयां तत्र चक्रे / विद्याम युष्मानिति भाषमाणो महात्मनः पाण्डुसुताः स्थ कच्चित् // 14 गृहीतवाक्यो नृपतेः पुरोधा गत्वा प्रशंसामभिधाय तेषाम् / वाक्यं यथावन्नृपतेः समग्र मुवाच तान्स क्रमविक्रमेण // 15 विज्ञातुमिच्छत्यवनीश्वरों वः पाञ्चालराजो द्रुपदो वरार्हाः। लक्ष्यस्य वेद्धारमिमं हि दृष्ट्वा हर्षस्य नान्तं परिपश्यते सः // 16 तदाचड्ढे ज्ञातिकुलानुपूर्वी ___पदं शिरःसु द्विषतां कुरुध्वम् / प्रहादयध्वं हृदयं ममेदं पाश्चालराजस्य सहानुगस्य // 17 पाण्डुर्हि राजा द्रुपदस्य राज्ञः प्रियः सखा चात्मसमो बभूव / तस्यैष कामो दुहिता ममेयं -243 स्नुषा यदि स्यादिति कौरवस्य // 18 अयं च कामो द्रुपदस्य राज्ञो हृदि स्थितो नित्यमनिन्दिताङ्गाः। यदर्जुनो वै पृथुदीर्घबाहु धर्मेण विन्देत सुतां ममेति // 19 तथोक्तवाक्यं तु पुरोहितं तं स्थितं विनीतं समुदीक्ष्य राजा / समीपस्थं भीममिदं शशास - प्रदीयतां पाद्यमयं तथास्मै // 20 मान्यः पुरोधा द्रुपदस्य राज्ञ स्तस्मै प्रयोज्याभ्यधिकैव पूजा / भीमस्तथा तत्कृतवान्नरेन्द्र तां चैव पूजां प्रतिसंगृहीत्वा / / 21 सुखोपविष्टं तु पुरोहितं तं युधिष्ठिरो ब्राह्मणमित्युवाच / पाश्चालराजेन सुता निसृष्टा स्वधर्मदृष्टेन यथानुकामम् / / 22 प्रदिष्टशुल्का द्रुपदेन राजा सानेन वीरेण तथानुवृत्ता / न तत्र वर्णेषु कृता विवक्षा ___ न जीवशिल्पे न कुले न गोत्रे // 23 कृतेन सज्येन हि कार्मुकेण विद्धन लक्ष्येण च संनिसृष्टा / सेयं तथानेन महात्मनेह कृष्णा जिता पार्थिवसंघमध्ये // 24 नैवंगते सौमकिरद्य राजा संतापमहत्यसुखाय कर्तुम् / कामश्च योऽसौ द्रुपदस्य राज्ञः ___ स चापि संपत्स्यति पार्थिवस्य // 25 अप्राप्यरूपां हि नरेन्द्रकन्या-
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________________ 1. 185. 26 ] महाभारते [1. 186. 11 मिमामहं ब्राह्मण साधु मन्ये। न तद्धनुर्मन्दबलेन शक्यं __ मौा समायोजयितुं तथा हि / न चाकृतास्त्रेण न हीनजेन लक्ष्यं तथा पातयितुं हि शक्यम् // 26 तस्मान्न तापं दुहितुर्निमित्तं ___ पाश्चालराजोऽर्हति कर्तुमद्य / न चापि तत्पातनमन्यथेह ___ कर्तुं विषह्यं भुविं मानवेन // 27 एवं ब्रुवत्येव युधिष्ठिरे तु पाञ्चालराजस्य समीपतोऽन्यः / तत्राजगामाशु नरो द्वितीयो निवेदयिष्यन्निह सिद्धमन्नम् // 28 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 185 // 186 दूत उवाच / जन्यार्थमन्नं द्रुपदेन राज्ञा विवाहहेतोरुपसंस्कृतं च। तदाप्नुवध्वं कृतसर्वकार्याः __ कृष्णा च तत्रैव चिरं न कार्यम् // 1 इमे रथाः काञ्चनपद्मचित्राः सदश्वयुक्ता वसुधाधिपार्हाः। एतान्समारुह्य परैत सर्वे पाञ्चालराजस्य निवेशनं तत् // 2 वैशंपायन उवाच / ततः प्रयाताः कुरुपुंगवास्ते पुरोहितं तं प्रथमं प्रयाप्य / आस्थाय यानानि महान्ति तानि कुन्ती च कृष्णा च सहैव याते // 3 -244 श्रुत्वा तु वाक्यानि पुरोहितस्य यान्युक्तवान्भारत धर्मराजः। जिज्ञासयैवाथ कुरूत्तमानां द्रव्याण्यनेकान्युपसंजहार // 4 फलानि माल्यानि सुसंस्कृतानि / ___ चर्माणि वर्माणि तथासनानि / . गाश्चैव राजन्नथ चैव रज व्याणि चान्यानि कृषीनिमित्तम् / / 5 अन्येषु शिल्पेषु च यान्यपि स्युः __ सर्वाणि क्लुप्तान्यखिलेन तत्र। . क्रीडानिमित्तानि च यानि तानि सर्वाणि तत्रोपजहार राजा // 6 रथाश्ववर्माणि च भानुमन्ति __खड्गा महान्तोऽश्वरथाश्च चित्राः / धनूंषि चाग्र्याणि शराश्च मुख्याः शक्त्यष्टयः काञ्चनभूषिताश्च // 7 प्रासा भुशुण्ड्यश्च परश्वधाश्च सांग्रामिकं चैव तथैव सर्वम् / शय्यासनान्युत्तमसंस्कृतानि तथैव चासन्विविधानि तत्र // 8 कुन्ती तु कृष्णां परिगृह्य साध्वी मन्तःपुरं द्रुपदस्याविवेश / स्त्रियश्च तां कौरवराजपत्नी प्रत्यर्चयांचक्रुरदीनसत्त्वाः // 9 तान्सिंहविक्रान्तगतीनवेक्ष्य . महर्षभाक्षानजिनोत्तरीयान् / गूढोत्तरांसान्भुजगेन्द्रभोग प्रलम्बबाहून्पुरुषप्रवीरान् // 10 राजा च राज्ञः सचिवाश्च सर्वे पुत्राश्च राज्ञः सुहृदस्तथैव / -
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________________ 1. 186. 11] आदिपर्व [1. 187. 17 प्रेष्याश्च सर्वे निखिलेन राज अपि नः संशयस्यान्ते मनस्तुष्टिरिहाविशेत् / ___ हर्ष समापेतुरतीव तत्र // 11 अपि नो भागधेयानि शुभानि स्युः परंतप // 5 ते तत्र वीराः परमासनेषु कामया ब्रूहि सत्यं त्वं सत्यं राजसु शोभते / सपादपीठेष्वविशङ्कमानाः। इष्टापूर्तेन च तथा वक्तव्यमनृतं न तु // 6 यथानुपूर्व्या विविशुनराग्र्या श्रुत्वा ह्यमरसंकाश तव वाक्यमरिंदम / स्तदा महार्हेषु न विस्मयन्तः // 12 ध्रुवं विवाहकरणमास्थास्यामि विधानतः // 7 उच्चावचं पार्थिवभोजनीयं युधिष्ठिर उवाच / पात्रीषु जाम्बूनदराजतीषु। मा राजन्विमना भूस्त्वं पाञ्चाल्य प्रीतिरस्तु ते / दासाश्च दास्यश्च सुमृष्टवेषाः ईप्सितस्ते ध्रुवः कामः संवृत्तोऽयमसंशयम् // 8 भोजापकाश्चाप्युपजह्वरन्नम् // 13 वयं हि क्षत्रिया राजन्पाण्डोः पुत्रा महात्मनः / ते तत्र भुक्त्वा पुरुषप्रवीरा . ज्येष्ठं मां विद्धि कौन्तेयं भीमसेनार्जुनाविमौ / यथानुकामं सुभृशं प्रतीताः। याभ्यां तव सुता राजनिर्जिता राजसंसदि // 9 उत्क्रम्य सर्वाणि वसूनि तत्र यमौ तु तत्र राजेन्द्र यत्र कृष्णा प्रतिष्ठिता। सांग्रामिकान्याविविशुनूवीराः // 14 व्येतु ते मानसं दुःखं क्षत्रियाः स्मो नरर्षभ / तल्लक्षयित्वा द्रुपदस्य पुत्रो पद्मिनीव सुतेयं ते ह्रदादन्यं हृदं गता / / 10 राजा च सर्वैः सह मत्रिमुख्यैः / इति तथ्यं महाराज सर्वमेतद्भवीमि ते। समर्चयामासुरुपेत्य हृष्टाः भवान्हि गुरुरस्माकं परमं च परायणम् // 11 कुन्तीसुतान्पार्थिवपुत्रपौत्रान् // 15 वैशंपायन उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ततः स द्रुपदो राजा हर्षव्याकुललोचनः / ____षडशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 156 // प्रतिवक्तुं तदा युक्तं नाशकत्तं युधिष्ठिरम् // 12 187 यत्नेन तु स तं हर्षं संनिगृह्य परंतपः / वैशंपायन उवाच / अनुरूपं ततो राजा प्रत्युवाच युधिष्ठिरम् / / 13 तत आहूय पाञ्चाल्यो राजपुत्रं युधिष्ठिरम् / पप्रच्छ चैनं धर्मात्मा यथा ते प्रद्रुताः पुरा। परिग्रहेण ब्राह्मण परिगृह्य महाद्युतिः // 1 स तस्मै सर्वमाचख्यावानुपूर्येण पाण्डवः // 14 पर्यपृच्छददीनात्मा कुन्तीपुत्रं सुवर्चसम् / तच्छ्रुत्वा द्रुपदो राजा कुन्तीपुत्रस्य भाषितम् / कथं जानीम भवतः क्षत्रियान्ब्राह्मणानुत / / 2 विगर्हयामास तदा धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् // 15 वैश्यान्वा गुणसंपन्नानुत वा शूद्रयोनिजान् / आश्वासयामास च तं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् / मायामास्थाय वा सिद्धांश्चरतः सर्वतोदिशम् / / 3 / प्रतिजज्ञे च राज्याय द्रुपदो वदतां वरः // 16 कृष्णाहेतोरनुप्राप्तान्दिवः संदर्शनार्थिनः / ततः कुन्ती च कृष्णा च भीमसेनार्जुनावपि / प्रवीतु नो भवान्सत्यं संदेहो ह्यत्र नो महान् // 4 यमौ च राज्ञा संदिष्टौ विविशुर्भवनं महत् // 17 -245 -
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________________ 1. 187. 18] महाभारते [1. 188.9 तत्र ते न्यवसन्राजन्यज्ञसेनेन पूजिताः। द्रुपद उवाच। प्रत्याश्वस्तांस्ततो राजा सह पुत्रैरुवाच तान् / / 18 त्वं च कुन्ती च कौन्तेय धृष्टद्युम्नश्च मे सुतः / गृह्णातु विधिवत्पाणिमद्यैव कुरुनन्दनः / कथयन्त्वितिकर्तव्यं श्वः काले करवामहे // 31 पुण्येऽहनि महाबाहुरर्जुनः कुरुतां क्षणम् // 19 वैशंपायन उवाच / ततस्तमब्रवीद्राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / ते समेत्य ततः सर्वे कथयन्ति स्म भारत / . ममापि दारसंबन्धः कार्यस्तावद्विशां पते // 20 अथ द्वैपायनो राजन्नभ्यागच्छद्यदृच्छया // 32 द्रुपद उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि भवान्वा विधिवत्पाणिं गृह्णातु दुहितुर्मम / सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 187 // यस्य वा मन्यसे वीर तस्य कृष्णामुपादिश // 21 188 युधिष्ठिर उवाच। वैशंपायन उवाच / सर्वेषां द्रौपदी राजन्महिषी नो भविष्यति / ततस्ते पाण्डवाः सर्वे पाश्चाल्यश्च महायशाः / एवं हि व्याहृतं पूर्वं मम मात्रा विशां पते // 22 प्रत्युत्थाय महात्मानं कृष्णं दृष्ट्वाभ्यपूजयन् // 1 अहं चाप्यनिविष्टो वै भीमसेनश्च पाण्डवः।। प्रतिनन्द्य स तान्सर्वान्पृष्ट्वा कुशलमन्ततः। पार्थेन विजिता चैषा रत्नभूता च ते सुता / / 23 आसने काश्चने शुभ्रे निषसाद महामनाः // 2 एष नः समयो राजनरत्नस्य सहभोजनम् / अनुज्ञातास्तु ते सर्वे कृष्णेनामिततेजसा / न च तं हातुमिच्छामः समयं राजसत्तम / / 24 आसनेषु महार्हेषु निषेदुर्द्विपदां वराः // 3 . सर्वेषां धर्मतः कृष्णा महिषी नो भविष्यति / ततो मुहूर्तान्मधुरां वाणीमुच्चार्य पार्षतः / आनुपूर्येण सर्वेषां गृह्णातु ज्वलने करम् / / 25 पप्रच्छ तं महात्मानं द्रौपद्यर्थे विशां पतिः // 4 दुपद उवाच। कथमेका बहूनां स्यान्न च स्याद्धर्मसंकरः / एकस्य बह्वयो विहिता महिष्यः कुरुनन्दन / एतन्नो भगवान्सर्वं प्रब्रवीतु यथातथम् / / 5 नैकस्या बहवः पुंसो विधीयन्ते कदाचन / / 26 व्यास उवाच। लोकवेदविरुद्धं त्वं नाधर्मं धार्मिकः शुचिः। अस्मिन्धर्मे विप्रलब्धे लोकवेदविरोधके / कर्तुमर्हसि कौन्तेय कस्मात्ते बुद्धिरीदृशी / / 27 यस्य यस्य मतं यद्यच्छ्रोतुमिच्छामि तस्य तत् // 6 युधिष्ठिर उवाच / दुपद उवाच / सूक्ष्मो धर्मो महाराज नास्य विद्मो वयं गतिम् / अधर्मोऽयं मम मतो विरुद्धो लोकवेदयोः / पूर्वेषामानुपूर्येण यातं वानुयामहे // 28 न ह्येका विद्यते पत्नी बहूनां द्विजसत्तम / / 7 न मे वागनृतं प्राह नाधर्मे धीयते मतिः / न चाप्याचरितः पूर्वैरयं धर्मो महात्मभिः / एवं चैव वदत्यम्बा मम चैव मनोगतम् // 29 न च धर्मोऽप्यनेकस्थश्चरितव्यः सनातनः // 8 एष धर्मो ध्रुवो राजंश्चरैनमविचारयन् / अतो नाहं करोम्येवं व्यवसायं क्रियां प्रति / मा च तेऽत्र विशङ्का भूत्कथंचिदपि पार्थिव // 30 / धर्मसंदेहसंदिग्धं प्रतिभाति हि मामिदम् / / 9 -246 -
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________________ I. 188. 10] आदिपर्व [1. 189.7 धृष्टद्युम्न उवाच / आचख्यौ तद्यथा धर्मो बहूनामेकपत्निता // 22 यवीयसः कथं भार्या ज्येष्ठो भ्राता द्विजर्षभ / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ब्रह्मन्समभिवर्तेत सद्वृत्तः संस्तपोधन // 10 अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१८॥ न तु धर्मस्य सूक्ष्मत्वाद्गतिं विद्मः कथंचन / अधर्मो धर्म इति वा व्यवसायो न शक्यते // 11 व्यास उवाच। कर्तुमस्मद्विधैर्ब्रह्मस्ततो न व्यवसाम्यहम् / पुरा वै नैमिषारण्ये देवाः सत्रमुपासते / पश्चानां महिषी कृष्णा भवत्विति कथंचन // 12 तत्र वैवस्वतो राजशामित्रमकरोत्तदा // 1 युधिष्ठिर उवाच / ततो यमो दीक्षितस्तत्र राजन मे वागनृतं प्राह नाधर्मे धीयते मतिः / नामारयत्किंचिदपि प्रजाभ्यः / वर्तते हि मनो मेऽत्र नैषोऽधर्मः कथंचन // 13 ततः प्रजास्ता बहुला बभूवुः श्रूयते हि पुराणेऽपि जटिला नाम गौतमी / ___ कालातिपातान्मरणात्प्रहीणाः // 2 ऋषीनध्यासितवती सप्त धर्मभृतां वर // 14 ततस्तु शक्रो वरुणः कुबेरः गुरोश्च वचनं प्राहुर्धर्म धर्मज्ञसत्तम / साध्या रुद्रा वसवश्वाश्विनौ च / गुरूणां चैव सर्वेषां जनित्री परमो गुरुः // 15 प्रणेतारं भुवनस्य प्रजापति सा चाप्युक्तवती वाचं भैक्षवद्भुज्यतामिति / समाजग्मुस्तत्र देवास्तथान्ये // 3 तस्मादेतदहं मन्ये धर्मं द्विजवरोत्तम // 16 ततोऽब्रुवल्लोकगुरुं समेता - कुन्त्युवाच / भयं नस्तीनं मानुषाणां विवृद्ध्या / एवमेतद्यथाहायं धर्मचारी युधिष्ठिरः / तस्माद्भयादुद्विजन्तः सुखेप्सवः अनृतान्मे भयं तीव्र मुच्येयमनृतात्कथम् // 17 __ प्रयाम सर्वे शरणं भवन्तम् // 4 . व्यास उवाच / . ब्रह्मोवाच / अनृतान्मोक्ष्यसे भद्रे धर्मश्चैष सनातनः / किं वो भयं मानुषेभ्यो यूयं सर्वे यदामराः / न तु वक्ष्यामि सर्वेषां पाञ्चाल शृणु मे स्वयम् // 18 / मा वो मर्त्यसकाशाद्वै भयं भवतु कर्हिचित् // 5 यथायं विहितो धर्मो यतश्चायं सनातनः / देवा ऊचुः / यथा च प्राह कौन्तेयस्तथा धर्मो न संशयः // 19 मा ह्यमाः संवृत्ता न विशेषोऽस्ति कश्चन / . वैशंपायन उवाच / अविशेषादुद्विजन्तो विशेषार्थमिहागताः // 6 तत उत्थाय भगवान्व्यासो द्वैपायनः प्रभुः / ब्रह्मोवाच / करे गृहीत्वा राजानं राजवेश्म समाविशत् // 20 वैवस्वतो व्यापृतः सत्रहेतोपाण्डवाश्चापि कुन्ती च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः / ___ स्तेन विमे न म्रियन्ते मनुष्याः / विचेतसस्ते तत्रैव प्रतीक्षन्ते स्म तावुभौ // 21 / तस्मिन्नेकाग्रे कृतसर्वकार्ये ततो द्वैपायनस्तस्मै नरेन्द्राय महात्मने / तत एषां भवितैवान्तकालः // 7 -247
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________________ '1. 189. 8] महाभारते [1. 189. 22 वैवस्वतस्यापि तनुर्विभूता क्रीडन्तम:गिरिराजमूर्ध्नि // 14 वीर्येण युष्माकमुत प्रयुक्ता। तमब्रवीदेवराजो ममेदं सैषामन्तो भविता ह्यन्तकाले ___ त्वं विद्धि विश्वं भुवनं वशे स्थितम् / तनुर्हि वीर्यं भविता नरेषु // 8 ईशोऽहमस्मीति समन्युरब्रवीव्यास उवाच / दृष्ट्वा तमक्षैः सुभृशं प्रमत्तम् // 15 ततस्तु ते पूर्वजदेववाक्यं क्रुद्धं तु शक्रं प्रसमीक्ष्य देवो श्रुत्वा देवा यत्र देवा यजन्ते / जहास शक्रं च शनैरुदैक्षत। समासीनास्ते समेता महाबला संस्तम्भितोऽभूदथ देवराजभागीरथ्यां ददृशुः पुण्डरीकम् // 9 ___ स्तेनेक्षितः स्थाणुरिवावतस्थे // 16 दृष्ट्वा च तद्विस्मितास्ते बभूवु यदा तु पर्याप्तमिहास्य क्रीडया स्तेषामिन्द्रस्तत्र शूरो जगाम / तदा देवीं रुदतीं तामुवाच / सोऽपश्यद्योषामथ पावकप्रभा आनीयतामेष यतोऽहमारा___ यत्र गङ्गा सततं संप्रसूता // 10 न्मैनं दर्पः पुनरप्याविशेत // 17 सा तत्र योषा रुदती जलार्थिनी ततः शक्रः स्पृष्टमात्रस्तया तु गङ्गां देवीं व्यवगाह्यावतिष्ठत् / स्रस्तैरङ्गैः पतितोऽभूद्धरण्याम् / तस्याश्रुबिन्दुः पतितो जले वै तमब्रवीद्भगवानुग्रतेजा तत्पद्ममासीदथ तत्र काञ्चनम् // 11 मैवं पुनः शक्र कृथाः कथंचित् // 18 तदद्भुतं प्रेक्ष्य वज्री तदानी विवर्तयैनं च महाद्रिराज मपृच्छत्तां योषितमन्तिकाद्वै। बलं च वीर्यं च तवाप्रमेयम् / का त्वं कथं रोदिषि कस्य हेतो विवृत्य चैवाविश मध्यमस्य क्यं तथ्यं कामयेह ब्रवीहि // 12 . यत्रासते त्वद्विधाः सूर्यभासः॥ 19 स्युवाच / स तद्विवृत्य शिखरं महागिरेत्वं वेत्स्यसे मामिह यास्मि शक स्तुल्यद्युतींश्चतुरोऽन्यान्ददर्श / __ यदर्थं चाहं रोदिमि मन्दभाग्या / स तानभिप्रेक्ष्य बभूव दुःखितः आगच्छ राजन्पुरतोऽहं गमिष्ये कच्चिन्नाहं भविता वै यथेमे // 20 द्रष्टासि तद्रोदिमि यत्कृतेऽहम् // 13 ततो देवो गिरिशो वज्रपाणिं व्यास उवाच / विवृत्य नेत्रे कुपितोऽभ्युवाच। तां गच्छन्तीमन्वगच्छत्तदानीं दरीमेतां प्रविश त्वं शतक्रतो ___सोऽपश्यदारात्तरुणं दर्शनीयम् / यन्मां बाल्यादवमंस्थाः पुरस्तात् // 21 सिंहासनस्थं युवतीसहायं उक्तस्त्वेवं विभुना देवराजः -248 -
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________________ 1. 189. 22] आदिपर्व [1. 189. 35 प्रवेपमानो भृशमेवाभिषङ्गात् / प्रादादिष्टं सन्निसर्गाद्यथोक्तम् / सस्तैरङ्गैरनिलेनेव नुन्न तां चाप्येषां योषितं लोककान्तां मश्वत्थपत्रं गिरिराजमूर्ध्नि // 22 श्रियं भार्यां व्यदधान्मानुषेषु // 29 स प्राञ्जलिविनतेनाननेन तैरेव सार्धं तु ततः स देवो प्रवेपमानः सहसैवमुक्तः / जगाम नारायणमप्रमेयम् / उवाच चेदं बहुरूपमुग्रं स चापि तद्व्यदधात्सर्वमेव __द्रष्टा शेषस्य भगवंस्त्वं भवाद्य // 23 ततः सर्वे संबभूवुर्धरण्याम् // 30 तमब्रवीदुग्रधन्वा प्रहस्य स चापि केशौ हरिरुद्धबह नैवंशीलाः शेषमिहाप्नुवन्ति / शुक्लमेकमपरं चापि कृष्णम् / एतेऽप्येवं भवितारः पुरस्ता तौ चापि केशौ विशतां यदूनां त्तस्मादेतां दरिमाविश्य शेध्वम् / / 24 ___ कुले स्त्रियौ रोहिणी देवकी च / शेषोऽप्येवं भविता वो न संशयो तयोरेको बलदेवो बभूव योनि सर्वे मानुषीमाविशध्वम् / कृष्णो द्वितीयः केशवः संबभूव // 31 तत्र यूयं कर्म कृत्वाविषy ये ते पूर्वं शक्ररूपा निरुद्धाबहूनन्यान्निधनं प्रापयित्वा // 25 स्तस्यां दर्यां पर्वतस्योत्तरस्य / आगन्तारः पुनरेवेन्द्रलोकं इहैव ते पाण्डवा वीर्यवन्तः स्वकर्मणा पूर्वजितं महार्हम् / ___ शक्रस्यांशः पाण्डवः सव्यसाची // 32 सर्व मया भाषितमेतदेवं. एवमेते पाण्डवाः संबभूवुकर्तव्यमन्यद्विविधार्थवच्च // 26 ये ते राजन्पूर्वमिन्द्रा बभूवुः। .. पूर्वेन्द्रा ऊचुः। लक्ष्मीश्चैषां पूर्वमेवोपदिष्टा गमिष्यामो मानुषं देवलोका___ हुराधरो विहितो यत्र मोक्षः / भार्या यैषा द्रौपदी दिव्यरूपा // 33 कथं हि स्त्री कर्मणोऽन्ते महीतलादेवास्त्वस्मानादधीरञ्जनन्यां धर्मो वायुर्मघवानश्विनौ च // 27 . समुत्तिष्ठेदन्यतो दैवयोगात् / व्यास उवाच / यस्या रूपं सोमसूर्यप्रकाशं एतच्छ्रुत्वा वज्रपाणिर्वचस्तु गन्धश्चाग्र्यः क्रोशमात्रात्प्रवाति // 34 देवश्रेष्ठं पुनरेवेदमाह / इदं चान्यत्प्रीतिपूर्वं नरेन्द्र वीर्येणाहं पुरुषं कार्यहेतो __ ददामि ते वरमत्यद्भुतं च। र्दद्यामेषां पञ्चमं मत्प्रसूतम् // 28 दिव्यं चक्षुः पश्य कुन्तीसुतांस्त्वं तेषां कामं भगवानुग्रधन्वा पुण्यैर्दिव्यैः पूर्वदेहैरुपेतान् // 35 म.भा. 32 - 249 -
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________________ 1. 189. 36] महाभारते [1. 190.3 वैशंपायन उवाच। ददौ तस्यै स देवेशस्तं वरं प्रीतिमांस्तदा। ततो व्यासः परमोदारकर्मा पञ्च ते पतयः श्रेष्ठा भविष्यन्तीति शंकरः // 44 शुचिर्विप्रस्तपसा तस्य राज्ञः / सा प्रसादयती देवमिदं भूयोऽभ्यभाषत / चक्षुर्दिव्यं प्रददौ तान्स सर्वा एकं पतिं गुणोपेतं त्वत्तोऽर्हामीति वै तदा / राजापश्यत्पूर्वदेहैर्यथावत् // 36 तां देवदेवः प्रीतात्मा पुनः प्राह शुभं वचः॥ 45 ततो दिव्यान्हेमकिरीटमालिनः पञ्चकृत्वस्त्वया उक्तः पतिं देहीत्यहं पुनः / शक्रप्रख्यान्पावकादित्यवर्णान् / तत्तथा भविता भद्रे तव तद्भद्रमस्तु ते। बद्धापीडांश्चारुरूपांश्च यूनो देहमन्यं गतायास्ते यथोक्तं तद्भविष्यति // 46 व्यूढोरस्कांस्तालमात्रान्ददर्श // 37 द्रुपदैषा हि सा जज्ञे सुता ते देवरूपिणी / दिव्यैर्वस्त्रैररजोभिः सुवर्ग पश्चानां विहिता पत्नी कृष्णा पार्षत्यनिन्दिता॥४७ आल्यैश्चाग्र्यैः शोभमानानतीव / स्वर्गश्रीः पाण्डवार्थाय समुत्पन्ना महामखे / साक्षात्रयक्षान्वसवो वाथ दिव्या सेह तप्त्वा तपो घोरं दुहितृत्वं तवागता // 48 नादित्यान्वा सर्वगुणोपपन्नान् / सैषा देवी रुचिरा देवजुष्टा तान्पूर्वेन्द्रानेवमीक्ष्याभिरूपा पश्चानामेका स्वकृतेन कर्मणा / न्प्रीतो राजा द्रुपदो विस्मितश्च // 38 सृष्टा स्वयं देवपत्नी स्वयंभुवा दिव्यां मायां तामवाप्याप्रमेयां श्रुत्वा राजन्द्रुपदेष्टं कुरुष्व // 49 तां चैवाग्र्यां श्रियमिव रूपिणीं च / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि योग्यां तेषां रूपतेजोयशोभिः एकोननवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 189 // पत्नीमृद्धां दृष्टवान्पार्थिवेन्द्रः // 39 // समाप्तं द्रौपदीस्वयंवरपर्व // स तदृष्ट्वा महदाश्चर्यरूपं __ जग्राह पादौ सत्यवत्याः सुतस्य / द्रुपद उवाच। नैतच्चित्रं परमर्षे त्वयीति अश्रुत्वैवं वचनं ते महर्षे प्रसन्नचेताः स उवाच चैनम् // 40 मया पूर्व यतितं कार्यमेतत् / व्यास उवाच। न वै शक्यं विहितस्यापयातुं आसीत्तपोवने काचिदृषेः कन्या महात्मनः / ___ तदेवेदमुपपन्नं विधानम् // 1 नाध्यगच्छत्पतिं सा तु कन्या रूपवती सती // 41 दिष्टस्य ग्रन्थिरनिवर्तनीयः तोषयामास तपसा सा किलोग्रेण शंकरम् / स्वकर्मणा विहितं नेह किंचित् / तामुवाचेश्वरः प्रीतो वृणु काममिति स्वयम् // 42 कृतं निमित्तं हि वरैकहेतोसैवमुक्ताब्रवीत्कन्या देवं वरदमीश्वरम् / स्तदेवेदमुपपन्नं बहूनाम् / / 2 पतिं सर्वगुणोपेतमिच्छामीति पुनः पुनः // 43 यथैव कृष्णोक्तवती पुरस्ता -250 -
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________________ 1. 190. 3] आदिपर्व [1. 190. 17 कान्पतीन्मे भगवान्ददातु / स चाप्येवं वरमित्यब्रवीत्तां देवो हि वेद परमं यदत्र // 3 यदि वायं विहितः शंकरेण धर्मोऽधर्मो वा नात्र ममापराधः। गृहन्त्विमे विधिवत्पाणिमस्या यथोपजोषं विहितैषां हि कृष्णा // 4 . वैशंपायन उवाच। ततोऽब्रवीद्भगवान्धर्मराज मद्य पुण्याहमुत पाण्डवेय। अद्य पौष्यं योगमुपैति चन्द्रमाः - पाणिं कृष्णायास्त्वं गृहाणाद्य पूर्वम् // 5 ततो राजा यज्ञसेनः सपुत्रो __जन्यार्थयुक्तं बहु तत्तदग्र्यम् / समानयामास सुतां च कृष्णा माप्लाव्य रत्नैर्बहुभिर्विभूष्य // 6 ततः सर्वे सुहृदस्तत्र तस्य समाजग्मुः सचिवा मत्रिणश्च / द्रष्टुं विवाहं परमप्रतीता द्विजाश्च पौराश्च यथाप्रधानाः॥ 7 तत्तस्य वेश्मार्थिजनोपशोभितं विकीर्णपद्मोत्पलभूषिताजिरम् / / महार्हरनौघविचित्रमाबभौ दिवं यथा निर्मलतारकाचितम् // 8 ततस्तु ते कौरवराजपुत्रा विभूषिताः कुण्डलिनो युवानः / महार्हवस्त्रा वरचन्दनोक्षिताः ... कृताभिषेकाः कृतमङ्गलक्रियाः॥९ पुरोहितेनाग्निसमानवर्चसा सहैव धौम्येन यथाविधि प्रभो। - 251 क्रमेण सर्वे विविशुश्च तत्सदो ___महर्षभा गोष्ठमिवाभिनन्दिनः // 10 ततः समाधाय स वेदपारगो जुहाव मत्रैर्ध्वलितं हुताशनम् / युधिष्ठिरं चाप्युपनीय मत्रवि नियोजयामास सहैव कृष्णया // 11 प्रदक्षिणं तौ प्रगृहीतपाणी समानयामास स वेदपारगः। ततोऽभ्यनुज्ञाय तमाजिशोभिनं पुरोहितो राजगृहाद्विनिर्ययौ // 12 क्रमेण चानेन नराधिपात्मजा वरस्त्रियास्ते जगृहुस्तदा करम् / अहन्यहन्युत्तमरूपधारिणो महारथाः कौरववंशवर्धनाः // 13 इदं च तत्राद्भुतरूपमुत्तमं जगाद विप्रर्षिरतीतमानुषम् / महानुभावा किल सा सुमध्यमा बभूव कन्यैव गते गतेऽहनि // 14 कृते विवाहे द्रुपदो धनं ददौ महारथेभ्यो बहुरूपमुत्तमम्। शतं रथानां वरहेमभूषिणां __ चतुर्युजां हेमखलीनमालिनाम् // 15 शतं गजानामभिपद्मिनां तथा * शतं गिरीणामिव हेमशृङ्गिणाम् / तथैव दासीशतमग्र्ययौवनं महाहवेषाभरणाम्बरस्रजम् // 16 पृथक्पृथक्चैव दशायुतान्वितं धनं ददो सोमकिरग्निसाक्षिकम् / तथैव वस्त्राणि च भूषणानि प्रभावयुक्तानि महाधनानि // 17 -
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________________ 1. 190. 18] महाभारते [1. 192.5 कृते विवाहे च ततः स्म पाण्डवाः यथा च त्वाभिनन्दामि वध्वद्य क्षौमसंवृताम् / प्रभूतरत्नामुपलभ्य तां श्रियम् / तथा भूयोऽभिनन्दिष्ये सूतपुत्रां गुणान्विताम्॥१२ विजयुरिन्द्रप्रतिमा महाबलाः ततस्तु कृतदारेभ्यः पाण्डुभ्यः प्राहिणोद्धरिः। पुरे तु पाञ्चालनृपस्य तस्य ह // 18 मुक्तावैडूर्यचित्राणि हैमान्याभरणानि च // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि वासांसि च महार्हाणि नानादेश्यानि माधवः / नवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 19 // कम्बलाजिनरत्नानि स्पर्शवन्ति शुभानि च // 14 शयनासनयानानि विविधानि महान्ति च / वैशंपायन उवाच / वैडूर्यवज्रचित्राणि शतशो भाजनानि च // 15 पाण्डवैः सह संयोगं गतस्य द्रुपदस्य तु। रूपयौवनदाक्षिण्यैरुपेताश्च स्वलंकृताः / न बभूव भयं किंचिद्देवेभ्योऽपि कथंचन // 1 प्रेष्याः संप्रददौ कृष्णो नानादेश्याः सहस्रशः॥१६ कुन्तीमासाद्य ता नार्यो द्रुपदस्य महात्मनः / गजान्विनीतान्भद्रांश्च सदश्वांश्च स्वलंकृतान् / / नाम संकीर्तयन्त्यस्ताः पादौ जग्मुः स्वमूर्धभिः // 2 रथांश्च दान्तान्सौवर्णैः शुभैः पट्टैरलंकृतान् / / 17 कृष्णा च क्षौमसंवीता कृतकौतुकमङ्गला / कोटिशश्च सुवर्णं स तेषामकृतकं तथा / कृताभिवादना श्वश्र्वास्तस्थौ प्रह्वा कृताञ्जलिः // 3 वीतीकृतममेयात्मा प्राहिणोन्मधुसूदनः // 18 रूपलक्षणसंपन्नां शीलाचारसमन्विताम् / तत्सर्वं प्रतिजग्राह धर्मराजो युधिष्ठिरः। : द्रौपदीमवदत्प्रेम्णा पृथाशीर्वचनं स्नुषाम् // 4 मुदा परमया युक्तो गोविन्दप्रियकाम्यया // 19 यथेन्द्राणी हरिहये स्वाहा चैव विभावसौ। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि रोहिणी च यथा सोमे दमयन्ती यथा नले // 5 - एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 191 // ' यथा वैश्रवणे भद्रा वसिष्ठे चाप्यरुन्धती। // समाप्त वैवाहिकपर्व // यथा नारायणे लक्ष्मीस्तथा त्वं भव भर्तृषु // 6 . 192 जीवसूर्वीरभद्रे बहुसौख्यसमन्विता। वैशंपायन उवाच / सुभगा भोगसंपन्ना यज्ञपत्नी स्वनुव्रता // 7 ततो राज्ञां चरैराप्तैश्चारः समुपनीयत / अतिथीनागतान्साधून्बालान्वृद्धान्गुरूंस्तथा। पाण्डवैरुपसंपन्ना द्रौपदी पतिभिः शुभा // 1 पूजयन्त्या यथान्यायं शश्वद्गच्छन्तु ते समाः // 8 येन तद्धनुरायम्य लक्ष्यं विद्धं महात्मना / कुरुजाङ्गलमुख्येषु राष्ट्रेषु नगरेषु च / सोऽर्जुनो जयतां श्रेष्ठो महाबाणधनुर्धरः // 2 अनु त्वमभिषिच्यस्व नृपतिं धर्मवत्सलम् // 9 यः शल्यं मद्रराजानमुत्क्षिप्याभ्रामयदली। पतिभिर्निर्जितामुवी विक्रमेण महाबलैः। त्रासयंश्चापि संक्रुद्वो वृक्षेण पुरुषारणे // 3 कुरु ब्राह्मणसात्सर्वामश्वमेधे महाक्रतौ // 10 न चापि संभ्रमः कश्चिदासीत्तत्र महात्मनः / पृथिव्यां यानि रत्नानि गुणवन्ति गुणान्विते। स भीमो भीमसंस्पर्शः शत्रुसेनाङ्गपातनः // 4 तान्याप्नुहि त्वं कल्याणि सुखिनी शरदां शतम् // 11 / ब्रह्मरूपधराञ्श्रुत्वा पाण्डुराजसुतांस्तदा / - 252 -
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________________ 1. 192.5] आदिपर्व [1. 193.2 कौन्तेयान्मनुजेन्द्राणां विस्मयः समजायत / / 5 / आनीयतां वै कृष्णेति पुत्रं दुर्योधनं तदा // 20 सपुत्रा हि पुरा कुन्ती दग्धा जतुगृहे श्रुता / अथास्य पश्चाद्विदुर आचख्यौ पाण्डवान्वृतान् / पुनर्जातानिति स्मैतान्मन्यन्ते सर्वपार्थिवाः // 6 सर्वान्कुशलिनो वीरान्पूजितान्द्रुपदेन च / धिक्कुर्वन्तस्तदा भीष्मं धृतराष्ट्रं च कौरवम् / तेषां संबन्धिनश्चान्यान्बहून्बलसमन्वितान् // 21 कर्मणा सुनृशंसेन पुरोचनकृतेन वै / / 7 धृतराष्ट्र उवाच / वृत्ते स्वयंवरे चैव राजानः सर्व एव ते / यथैव पाण्डोः पुत्रास्ते तथैवाभ्यधिका मम / यथागतं विप्रजग्मुर्विदित्वा पाण्डवान्वृतान् // 8 . सेयमभ्यधिका प्रीतिवृद्धिर्विदुर मे मता। अथ दुर्योधनो राजा विमना भ्रातृभिः सह / यत्ते कुशलिनो वीरा मित्रवन्तश्च पाण्डवाः // 22 अश्वत्थाम्ना मातुलेन कर्णेन च कृपेण च // 9 . को हि द्रुपदमासाद्य मित्रं क्षत्तः सबान्धवम् / विनिवृत्तो वृतं दृष्ट्वा द्रौपद्या श्वेतवाहनम् / न बुभूषेद्भवेनार्थी गतश्रीरपि पार्थिवः // 23 तं तु दुःशासनो ब्रीडन्मन्दं मन्दमिवाब्रवीत् // 10 / . वैशंपायन उवाच / यद्यसौ ब्राह्मणो न स्याद्विन्देत द्रौपदी न सः / / तं तथा भाषमाणं तु विदुरः प्रत्यभाषत / न हि तं तत्त्वतो राजन्वेद कश्चिद्धनंजयम् // 11 / नित्यं भवतु ते बुद्धिरेषा राजशतं समाः // 24 दैवं तु परमं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् / ततो दुर्योधनश्चैव राधेयश्च विशां पते / धिगस्मत्पौरुषं तात यद्धरन्तीह पाण्डवाः // 12 धृतराष्ट्रमुपागम्य वचोऽब्रूतामिदं तदा // 25 एवं संभाषमाणास्ते निन्दन्तश्च पुरोचनम् / संनिधौ विदुरस्य त्वां वक्तुं नृप न शक्नुवः / विविशुस्तिनपुरं दीना विगतचेतसः // 13 विविक्तमिति वक्ष्यावः किं तवेदं चिकीर्षितम्॥२६ जस्ता विगतसंकल्पा दृष्ट्वा पार्थान्महौजसः / सपत्नवृद्धिं यत्तात मन्यसे वृद्धिमात्मनः / मुक्तान्हव्यवहाच्चैनान्संयुक्तान्द्रुपदेन च // 14 अभिष्टौषि च यत्क्षत्तुः समीपे द्विपदां वर // 27 धृष्टद्युम्नं च संचिन्त्य तथैव च शिखण्डिनम् / अन्यस्मिन्नृप कर्तव्ये त्वमन्यत्कुरुषेऽनघ / द्रुपदस्यात्मजांश्चान्यान्सर्वयुद्धविशारदान् // 15 तेषां बलविघातो हि कर्तव्यस्तात नित्यशः / / 28 विदुरस्त्वथ ताश्रुत्वा द्रौपद्या पाण्डवान्वृतान् / ते वयं प्राप्तकालस्य चिकीर्षा मन्त्रयामहे / वीडितान्धार्तराष्ट्रांश्च भग्नदर्पानुपागतान् // 16 यथा नो न ग्रसेयुस्ते सपुत्रबलबान्धवान् // 29 ततः प्रीतमनाः क्षत्ता धृतराष्ट्रं विशां पते / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि उवाच दिष्ट्या कुरवो वर्धन्त इति विस्मितः / / 17 द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 192 // वैचित्रवीर्यस्तु नृपो निशम्य विदुरस्य तत् / अब्रवीत्परमप्रीतो दिष्टया दिष्टयेति भारत // 18 धृतराष्ट्र उवाच / मन्यते हि वृतं पुत्रं ज्येष्ठं द्रुपदकन्यया / अहमप्येवमेवैतच्चिन्तयामि यथा युवाम् / दुर्योधनमविज्ञानात्प्रज्ञाचक्षुर्नरेश्वरः / / 19 | विवेक्तुं नाहमिच्छामि त्वाकारं विदुरं प्रति // 1 अथ त्याज्ञापयामास द्रौपद्या भूषणं बहु / अतस्तेषां गुणानेव कीर्तयामि विशेषतः / -253
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________________ 1. 193. 2] महाभारते [1. 194. 10 नावबुध्येत विदुरो ममाभिप्रायमिङ्गितैः // 2 एतेषामभ्युपायानां यस्ते निर्दोषवान्मतः / यच्च त्वं मन्यसे प्राप्तं तद्रूहि त्वं सुयोधन / तस्य प्रयोगमातिष्ठ पुरा कालोऽतिवर्तते // 17 . . राधेय मन्यसे त्वं च यत्प्राप्तं तद्भवीहि मे // 3 यावच्चाकृतविश्वासा द्रुपदे पार्थिवर्षभे / दुर्योधन उवाच। तावदेवाद्य ते शक्या न शक्यास्तु ततः परम् // 18 अद्य तान्कुशलैर्विप्रैः सुकृतैराप्तकारिभिः / एषा मम मतिस्तात निग्रहाय प्रवर्तते / कुन्तीपुत्रान्भेदयामो माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ // 4 साधु वा यदि वासाधु किं वा राधेय मन्यसे // 19 अथ वा द्रुपदो राजा महद्भिर्वित्तसंचयैः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पुत्राश्चास्य प्रलोभ्यन्ताममात्याश्चैव सर्वशः // 5 त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 193 // परित्यजध्वं राजानं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् / अथ तत्रैव वा तेषां निवासं रोचयन्तु ते // 6 कर्ण उवाच। .. इहैषां दोषवद्वासं वर्णयन्तु पृथक्पृथक् / दुर्योधन तव प्रज्ञा न सम्यगिति मे मतिः / ते भिद्यमानास्तत्रैव मनः कुर्वन्तु पाण्डवाः // 7 न ह्युपायेन ते शक्याः पाण्डवाः कुरुनन्दन // 1 अथ वा कुशलाः केचिदुपायनिपुणा नराः। पूर्वमेव हि ते सूक्ष्मैरुपायैर्यतितास्त्वया / इतरेतरतः पार्थान्भेदयन्त्वनुरागतः // 8 निग्रहीतुं यदा वीर शकिता न तदा त्वया // 2 व्युत्थापयन्तु वा कृष्णां बहुत्वात्सुकरं हि तत् / / इहैव वर्तमानास्ते समीपे तव पार्थिव। . अथ वा पाण्डवांस्तस्यां भेदयन्तु ततश्च ताम् // 9 अजातपक्षाः शिशवः शकिता नैव बाधितुम् // 3 भीमसेनस्य वा राजन्नुपायकुशलेनरैः / जातपक्षा विदेशस्था विवृद्धाः सर्वशोऽद्य ते / मृत्युर्विधीयतां छन्नैः स हि तेषां बलाधिकः // 10 नोपायसाध्याः कौन्तेया ममैषा मतिरच्युत // 4 तस्मिंस्तु निहते राजन्हतोत्साहा हतौजसः / न च ते व्यसनयोक्तुं शक्या दिष्टकृता हि ते। यतिष्यन्ते न राज्याय स हि तेषां व्यपाश्रयः // 11 शङ्किताश्चेप्सवश्चैव पितृपैतामहं पदम // 5 अजेयो ह्यर्जुनः संख्ये पृष्ठगोपे वृकोदरे। परस्परेण भेदश्च नाधातुं तेषु शक्यते / तमृते फल्गुनो युद्धे राधेयस्य न पादभाक् // 12 एकस्यां ये रताः पल्यां न भिद्यन्ते परस्परम् // 6 ते जानमाना दैर्बिल्यं भीमसेनमृते महत् / न चापि कृष्णा शक्येत तेभ्यो भेदयितुं परैः / अस्मान्बलवतो ज्ञात्वा नशिष्यन्त्यबलीयसः // 13 परियूनान्वृतवती किमुताद्य मृजावतः // 7 इहागतेषु पार्थेषु निदेशवशवर्तिषु। ईप्सितश्च गुणः स्त्रीणामेकस्या बहुभर्तृता / प्रवर्तिष्यामहे राजन्यथाश्रद्धं निबर्हणे // 14 तं च प्राप्तवती कृष्णा न सा भेदयितुं सुखम्॥८ अथ वा दर्शनीयाभिः प्रमदाभिर्विलोभ्यताम् / / आर्यवृत्तश्च पाश्चाल्यो न स राजा धनप्रियः / एकैकस्तत्र कौन्तेयस्ततः कृष्णा विरज्यताम् // 15 न संत्यक्ष्यति कौन्तेयानराज्यदानैरपि ध्रुवम् // 9 प्रेष्यतां वापि राधेयस्तेषामागमनाय वै / तथास्य पुत्रो गुणवाननुरक्तश्च पाण्डवान् / ते लोप्नहारेः संधाय वध्यन्तामाप्तकारिभिः // 16 / तस्मान्नोपायसाध्यास्तानहं मन्ये कथंचन // 10 -254
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________________ 1. 194. 11] आदिपर्व [1. 195. 11 195 इदं त्वद्य क्षमं कर्तुमस्माकं पुरुषर्षभ / तत आनाय्य तान्सर्वान्मत्रिणः सुमहायशाः / यावन्न कृतमूलास्ते पाण्डवेया विशां पते / धृतराष्ट्रो महाराज मन्त्रयामास वै तदा // 25 तावत्प्रहरणीयास्ते रोचतां तव विक्रमः // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अस्मत्पक्षो महान्यावद्यावत्पाश्चालको लघुः / चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 194 // तावत्प्रहरणं तेषां क्रियतां मा विचारय // 12 वाहनानि प्रभूतानि मित्राणि बहुलानि च। भीष्म उवाच / यावन्न तेषां गान्धारे तावदेवाशु विक्रम // 13 न रोचते विग्रहो मे पाण्डुपुत्रैः कथंचन / यावच्च राजा पाञ्चाल्यो नोद्यमे कुरुते मनः / यथैव धृतराष्ट्रो मे तथा पाण्डुरसंशयम् // 1 सह पुत्रैर्महावीर्यस्तावदेवाशु विक्रम // 14 गान्धार्याश्च यथा पुत्रास्तथा कुन्तीसुता मताः / यावन्नायाति वार्ष्णेयः कर्षन्यादववाहिनीम् / यथा च मम ते रक्ष्या धृतराष्ट्र तथा तव // 2 राज्यार्थे पाण्डवेयानां तावदेवाशु विक्रम // 15 यथा च मम राज्ञश्च तथा दुर्योधनस्य ते / वसनि विविधान्भोगानराज्यमेव च केवलम् / तथा कुरूणां सर्वेषामन्येषामपि भारत // 3 नात्याज्यमस्ति कृष्णस्य पाण्डवार्थे महीपते / / 16 / एवं गते विग्रहं तैर्न रोचये विक्रमेण मही प्राप्ता भरतेन महात्मना। ___ संधाय वीरैर्दीयतामद्य भूमिः / विक्रमेण च लोकांस्त्रीञ्जितवान्पाकशासनः // 17 तेषामपीदं प्रपितामहानां विक्रमं च प्रशंसन्ति क्षत्रियस्य विशां पते / ___ राज्यं पितुश्चैव कुरूत्तमानाम् // 4 खको हि धर्मः शूराणां विक्रमः पार्थिवर्षभ // 18 दुर्योधन यथा राज्यं त्वमिदं तात पश्यसि / ते बलेन वयं राजन्महता चतुरङ्गिणा। मम पैतृकमित्येवं तेऽपि पश्यन्ति पाण्डवाः // 5 प्रमध्य द्रुपदं शीघ्रमानयामेह पाण्डवान् // 19 यदि राज्यं न ते प्राप्ताः पाण्डवेयास्तपस्विनः / न हि साम्ना न दानेन न भेदेन च पाण्डवाः। कुत एव तवापीदं भारतस्य च कस्यचित् // 6 शक्याः साधयितुं तस्माद्विक्रमेणैव ताञ्जहि // 20 अथ धर्मेण राज्यं त्वं प्राप्तवान्भरतर्षभ / तान्विक्रमेण जित्वेमामखिलां भुञ्ज मेदिनीम् / तेऽपि राज्यमनुप्राप्ताः पूर्वमेवेति मे मतिः // 7 नान्यमत्र प्रपश्यामि कार्योपायं जनाधिप // 21 मधुरेणैव राज्यस्य तेषामधू प्रदीयताम् / वैशंपायन उवाच / एतद्धि पुरुषव्याघ्र हितं सर्वजनस्य च // 8 श्रुत्वा तु राधेयवचो धृतराष्ट्रः प्रतापवान् / अतोऽन्यथा चेक्रियते न हितं नो भविष्यति / अभिपूज्य ततः पश्चादिदं वचनमब्रवीत् / / 22 तवाप्यकीर्तिः सकला भविष्यति न संशयः // 9 उपपन्नं महाप्राज्ञे कृतास्त्रे सूतनन्दने / कीर्तिरक्षणमातिष्ठ कीर्तिर्हि परमं बलम् / त्वयि विक्रमसंपन्नमिदं वचनमीदृशम् // 23 नष्टकीर्तेर्मनुष्यस्य जीवितं ह्यफलं स्मृतम् // 10 भूय एव तु भीष्मश्च द्रोणो विदुर एव च / यावत्कीर्तिमनुष्यस्य न प्रणश्यति कौरव / युवां च कुस्तां बुद्धिं भवेद्या नः सुखोदशा // 24 / तावज्जीवति गान्धारे नष्टकीर्तिस्तु नश्यति // 11 -255 -
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________________ 1. 195. 12] महाभारते [1. 196. 20 तमिमं समुपातिष्ठ धर्मं कुरुकुलोचितम् / उचितत्वं प्रियत्वं च योगस्यापि च वर्णयेत् / अनुरूपं महाबाहो पूर्वेषामात्मनः कुरु // 12 . पुनः पुनश्च कौन्तेयान्माद्रीपुत्रौ च सान्त्वयन् // 6 दिष्ट्या धरन्ति ते वीरा दिष्ट्या जीवति सा पृथा।। हिरण्मयानि शुभ्राणि बहून्याभरणानि च / दिष्ट्या पुरोचनः पापो नसकामोऽत्ययं गतः // 13 वचनात्तव राजेन्द्र द्रौपद्याः संप्रयच्छतु // 7 तदाप्रभृति गान्धारे न शक्नोम्यभिवीक्षितुम् / / तथा द्रुपदपुत्राणां सर्वेषां भरतर्षभ / लोके प्राणभृतां कंचिच्छ्रुत्वा कुन्ती तथागताम् // 14 पाण्डवानां च सर्वेषां कुन्त्या युक्तानि यानि च॥ 8 न चापि दोषेण तथा लोको वैति पुरोचनम् / / एवं सान्त्वसमायुक्तं द्रुपदं पाण्डवैः सह / यथा त्वां पुरुषव्याघ्र लोको दोषेण गच्छति // 15 उक्त्वाथानन्तरं ब्रूयात्तेषामागमनं प्रति // 9 तदिदं जीवितं तेषां तव कल्मषनाशनम् / .. अनुज्ञातेषु वीरेषु बलं गच्छतु शोभनम् / संमन्तव्यं महाराज पाण्डवानां च दर्शनम् // 16 दुःशासनो विकर्णश्च पाण्डवानानयन्त्विह // 10 न चापि तेषां वीराणां जीवतां कुरुनन्दन / ततस्ते पार्थिवश्रेष्ठ पूज्यमानाः सदा त्वया / पित्र्योंऽशः शक्य आदातुमपि वज्रभृता स्वयम् // 17 प्रकृतीनामनुमते पदे स्थास्यन्ति पैतृके // 11 ते हि सर्वे स्थिता धर्मे सर्वे चैवैकचेतसः / एवं तव महाराज तेषु पुत्रेषु चैव ह। अधर्मेण निरस्ताश्च तुल्ये राज्ये विशेषतः / / 18 वृत्तमौपयिकं मन्ये भीष्मेण सह भारत / / 12 यदि धर्मस्त्वया कार्यो यदि कार्य प्रियं च मे / . कर्ण उवाच। क्षेमं च यदि कर्तव्यं तेषामधं प्रदीयताम् // 19 योजितावर्थमानाभ्यां सर्वकार्येष्वनन्तरौ। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि न मन्त्रयेतां त्वच्छ्रेयः किमद्भुततरं ततः // 13 पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 195 // दुष्टेन मनसा यो वै प्रच्छन्नेनान्तरात्मना / 196 ब्रूयान्निःश्रेयसं नाम कथं कुर्यात्सतां मतम् // 14 द्रोण उवाच। न मित्राण्यर्थकृच्छ्रेषु श्रेयसे वेतराय वा। मत्राय समुपानीतैधृतराष्ट्रहितैर्नृप / विधिपूर्वं हि सर्वस्य दुःखं वा यदि वा सुखम् // 15 धर्म्य पथ्यं यशस्यं च वाच्यमित्यनुशुश्रुमः // 1 कृतप्रज्ञोऽकृतप्रज्ञो बालो वृद्धश्च मानवः / ममाप्येषा मतिस्तात या भीष्मस्य महात्मनः / ससहायोऽसहायश्च सर्वं सर्वत्र विन्दति // 16 संविभज्यास्तु कौन्तेया धर्म एष सनातनः // 2 श्रूयते हि पुरा कश्चिदम्बुवीच इति श्रुतः / प्रेष्यतां द्रुपदायाशु नरः कश्चित्प्रियंवदः / आसीद्राजगृहे राजा मागधानां महीक्षिताम् // 17 बहुलं रत्नमादाय तेषामर्थाय भारत // 3 स हीनः करणैः सर्वैरुच्छासपरमो नृपः / मिथःकृत्यं च तस्मै स आदाय बहु गच्छतु / अमात्यसंस्थः कार्येषु सर्वेष्वेवाभवत्तदा / / 18 वृद्धिं च परमां ब्रूयात्तत्संयोगोद्भवां तथा // 4 तस्यामात्यो महाकर्णिर्बभूवैकेश्वरः पुरा / संप्रीयमाणं त्वां ब्रूयाद्राजन्दुर्योधनं तथा। स लब्धबलमात्मानं मन्यमानोऽवमन्यते // 19 असकृद्रुपदे चैव धृष्टद्युम्ने च भारत / / 5 स राज्ञ उपभोग्यानि स्त्रियो रत्नधनानि च / -256 -
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________________ 1. 196. 20] आदिपर्व [1. 197. 19 आददे सर्वशो मूढ ऐश्वर्यं च स्वयं तदा // 20 इमौ हि वृद्धौ वयसा प्रज्ञया च श्रुतेन च। तदादाय च लुब्धस्य लाभाल्लोभो व्यवर्धत। समौ च त्वयि राजेन्द्र तेषु पाण्डुसुतेषु च // 5 तथा हि सर्वमादाय राज्यमस्य जिहीर्षति // 21 धर्मे चानवमौ राजन्सत्यतायां च भारत / हीनस्य करणैः सर्वैरुच्छ्रासपरमस्य च / रामाद्दाशरथेश्चैव गयाञ्चैव न संशयः // 6 यतमानोऽपि तद्राज्यं न शशाकेति नः श्रुतम् // 22 न चोक्तवन्तावश्रेयः पुरस्तादपि किंचन / किमन्यद्विहितान्ननं तस्य सा पुरुषेन्द्रता। न चाप्यपकृतं किंचिदनयोर्लक्ष्यते त्वयि // 7 यदि ते विहितं राज्यं भविष्यति विशां पते // 23 ताविमौ पुरुषव्याघ्रावनागसि नृप त्वयि / मिषतः सर्वलोकस्य स्थास्यते त्वयि तद्भवम्।। न मत्रयेतां त्वच्छ्रेयः कथं सत्यपराक्रमौ // 8 अतोऽन्यथा चेद्विहितं यतमानो न लप्स्यसे // 24 प्रज्ञावन्तौ नरश्रेष्ठावस्मिल्लोके नराधिप / एवं विद्वन्नुपादत्स्व मत्रिणां साध्वसाधुताम् / त्वन्निमित्तमतो नेमौ किंचिज्जिद्मं वदिष्यतः / दुष्टानां चैव बोद्धव्यमदुष्टानां च भाषितम् / / 25 इति मे नैष्ठिकी बुद्धिवर्तते कुरुनन्दन // 9 द्रोण उवाच। न चार्थहेतोधर्मज्ञौ वक्ष्यतः पक्षसंश्रितम् / विद्म ते भावदोषेण यदर्थमिदमुच्यते। एतद्धि परमं श्रेयो मेनाते तव भारत // 10 दुष्टः पाण्डवहेतोस्त्वं दोषं ख्यापयसे हि नः // 26 / दुर्योधनप्रभृतयः पुत्रा राजन्यथा तव / हितं तु परमं कर्ण ब्रवीमि कुरुवर्धनम् / तथैव पाण्डवेयास्ते पुत्रा राजन्न संशयः // 11 अथ त्वं मन्यसे दुष्टं ब्रूहि यत्परमं हितम् // 27 तेषु चेदहितं किंचिन्मत्रयेयुरबुद्धितः / अतोऽन्यथा चेस्क्रियते यद्भवीमि परं हितम्। मत्रिणस्ते न ते श्रेयः प्रपश्यन्ति विशेषतः // 12 कुरवो विनशिष्यन्ति नचिरेणेति मे मतिः // 28 अथ ते हृदये राजन्विशेषस्तेषु वर्तते / . इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अन्तरस्थं विवृण्वानाः श्रेयः कुर्युन ते ध्रुवम् // 13 पण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 196 // एतदर्थमिमौ राजन्महात्मानौ महाद्युती। 197 नोचतुर्विवृतं किंचिन्न ह्येष तव निश्चयः // 14 विदुर उवाच / यच्चाप्यशक्यतां तेषामाहतुः पुरुषर्षभौ। राजनिःसंशयं श्रेयो वाच्यस्त्वमसि बान्धवैः। तत्तथा पुरुषव्याघ्र तव तद्भद्रमस्तु ते // 15 न त्वशुश्रूषमाणेषु वाक्यं संप्रतितिष्ठति // 1 कथं हि पाण्डवः श्रीमान्सव्यसाची परंतपः / हितं हि तव तद्वाक्यमुक्तवान्कुरुसत्तमः। शक्यो विजेतुं संग्रामे राजन्मघवता अपि // 16 भीष्मः शांतनवो राजन्प्रतिगृह्णासि तन्न च // 2 भीमसेनो महाबाहुर्नागायुतबलो महान् / तथा द्रोणेन बहुधा भाषितं. हितमुत्तमम् / कथं हि युधि शक्येत विजेतुममरैरपि // 17 तञ्च राधासुतः कर्णो मन्यते न हितं तव // 3 तथैव कृतिनी युद्धे यमौ यमसुताविव / चिन्तयंश्च न पश्यामि राजंस्तव सुहृत्तमम् / कथं विषहितुं शक्यौ रणे जीवितुमिच्छता // 18 आभ्यां पुरुषसिंहाभ्यां यो वा स्यात्प्रज्ञयाधिकः॥ / यस्मिन्धृतिरनुक्रोशः क्षमा सत्यं पराक्रमः / म. भा. 33 - 257 -
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________________ 1. 197. 19 ] महाभारत [1. 198. 17 नित्यानि पाण्डवश्रेष्ठे स जीयेत कथं रणे // 19 तथैव पाण्डुपुत्राणामिदं राज्यं न संशयः // 3 येषां पक्षधरो रामो येषां मन्त्री जनार्दनः / क्षत्तरानय गच्छैतान्सह मात्रा सुसत्कृतान् / किं नु तैरजितं संख्ये येषां पक्षे च सात्यकिः // 20 तया च देवरूपिण्या कृष्णया सह भारत // 4 द्रुपदः श्वशुरो येषां येषां श्यालाश्च पार्षताः / दिष्ट्या जीवन्ति ते पार्था दिष्ट्या जीवति सा पृथा। धृष्टद्युम्नमुखा वीरा भ्रातरो द्रुपदात्मजाः // 21 दिष्ट्या द्रुपदकन्यां च लब्धवन्तो महारथाः / / 5 सोऽशक्यतां च विज्ञाय तेषामग्रेण भारत / दिष्ट्या वर्धामहे सर्वे दिष्टया शान्तः पुरोचनः / दायाद्यतां च धर्मेण सम्यक्तेषु समाचर // 22 दिष्टया मम परं दुःखमपनीतं महाद्युते // 6 इदं निर्दिग्धमयशः पुरोचनकृतं महत् / वैशंपायन उवाच / तेषामनुग्रहेणाद्य राजन्प्रक्षालयात्मनः // 23 ततो जगाम विदुरो धृतराष्ट्रस्य शासनात् / द्रुपदोऽपि महाराजा कृतधैरश्च नः पुरा / सकाशं यज्ञसेनस्य पाण्डवानां च भारत / / 7 तस्य संग्रहणं राजन्स्वपक्षस्य विवर्धनम् // 24 तत्र गत्वा स धर्मज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः / बलवन्तश्च दाशार्हा बहवश्च विशां पते। द्रुपदं न्यायतो राजन्संयुक्तमुपतस्थिवान् / / 8 यतः कृष्णस्ततस्ते स्युर्यतः कृष्णस्ततो जयः // 25 स चापि प्रतिजग्राह धर्मेण विदुरं ततः। यच्च साम्नैव शक्येत कार्य साधयितुं नृप / चक्रतुश्च यथान्यायं कुशलप्रश्नसंविदम् // 9 को दैवशप्तस्तत्कर्तुं विग्रहेण समाचरेत् // 26 ददर्श पाण्डवांस्तत्र वासुदेवं च भारत / श्रुत्वा च जीवतः पार्थान्पौरजानपदो जनः / स्नेहात्परिष्वज्य स तान्पप्रच्छानामयं ततः // 10 बलवद्दर्शने गृनुस्तेषां राजन्कुरु प्रियम् // 27 तैश्चाप्यमितबुद्धिः स पूजितोऽथ यथाक्रमम् / . दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिश्चापि सौबलः / वचनाद्धृतराष्ट्रस्य स्नेहयुक्तं पुनः पुनः // 11 अधर्मयुक्ता दुष्प्रज्ञा बाला मैषां वचः कृथाः॥२८ पप्रच्छानामयं राजंस्ततस्तान्पाण्डुनन्दनान् / उक्तमेतन्मया राजन्पुरा गुणवतस्तव / प्रददौ चापि रत्नानि विविधानि वसूनि च // 12 दुर्योधनापराधेन प्रजेयं विनशिष्यति // 29 पाण्डवानां च कुन्त्याश्च द्रौपद्याश्च विशां पते / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि द्रुपदस्य च पुत्राणां यथा दत्तानि कौरवैः / / 13 सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 197 // प्रोवाच चामितमतिः प्रश्रितं विनयान्वितः / द्रुपदं पाण्डुपुत्राणां संनिधौ केशवस्य च // 14 धृतराष्ट्र उवाच / राजशृणु सहामात्यः सपुत्रश्च वचो मम / भीष्मः शांतनवो विद्वान्द्रोणश्च भगवानृषिः / धृतराष्ट्रः सपुत्रस्त्वां सहामात्यः सबान्धवः // 15 हितं परमकं वाक्यं त्वं च सत्यं ब्रवीषि माम् // 1 अब्रवीत्कुशलं राजन्प्रीयमाणः पुनः पुनः / यथैव पाण्डोस्ते वीराः कुन्तीपुत्रा महारथाः / प्रीतिमांस्ते दृढं चापि संबन्धेन नराधिप / / 16 तथैव धर्मतः सर्वे मम पुत्रा न संशयः // 2 तथा भीष्मः शांतनवः कौरवैः सह सर्वशः / यथैव मम पुत्राणामिदं राज्यं विधीयते / कुशलं त्वां महाप्राज्ञः सर्वतः परिपृच्छति // 17 - 258 -
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________________ 1. 198. 18] आदिपर्व [1. 199. 17 भारद्वाजो महेष्वासो द्रोणः प्रियसखस्तव / युधिष्ठिर उवाच। समाश्लेषमुपेत्य त्वां कुशलं परिपृच्छति // 18 परवन्तो वयं राजंस्त्वयि सर्वे सहानुगाः। धृतराष्ट्रश्च पाञ्चाल्य त्वया संबन्धमीयिवान् / यथा वक्ष्यसि नः प्रीत्या करिष्यामस्तथा वयम्॥५ कृतार्थं मन्यतेऽऽत्मानं तथा सर्वेऽपि कौरवाः // 19 वैशंपायन उवाच / न तथा राज्यसंप्राप्तिस्तेषां प्रीतिकरी मता। ततोऽब्रवीद्वासुदेवो गमनं मम रोचते / यथा संबन्धकं प्राप्य यज्ञसेन त्वया सह // 20 यथा वा मन्यते राजा द्रुपदः सर्वधर्मवित् // 6 एतद्विदित्वा तु भवान्प्रस्थापयतु पाण्डवान् / द्रुपद उवाच। द्रष्टुं हि पाण्डुदायादांस्त्वरन्ते कुरवो भृशम् // 21 यथैव मन्यते वीरो दाशार्हः पुरुषोत्तमः / विप्रोषिता दीर्घकालमिमे चापि नरर्षभाः। प्राप्तकालं महाबाहुः सा बुद्धिनिश्चिता मम // 7 उत्सुका नगरं द्रष्टुं भविष्यन्ति पृथा तथा // 22 यथैव हि महाभागाः कौन्तेया मम सांप्रतम् / / कृष्णामपि च पाञ्चाली सर्वाः कुरुबरस्त्रियः / तथैव वासुदेवस्य पाण्डुपुत्रा न संशयः // 8 द्रष्टुकामाः प्रतीक्षन्ते पुरं च विषयं च नः // 23 न तद्धथायति कौन्तेयो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / स भवान्पाण्डुपुत्राणामाज्ञापयतु माचिरम् / यदेषां पुरुषव्याघ्रः श्रेयो ध्यायति केशवः // 9 गमनं सहदाराणामेतदागमन मम / / 24 वैशंपायन उवाच / विसृष्टेषु त्वया राजन्पाण्डवेषु महात्मसु / ततस्ते समनुज्ञाता द्रुपदेन महात्मना / ततोऽहं प्रेषयिष्यामि धृतराष्ट्रस्य शीघ्रगान् / पाण्डवाश्चैव कृष्णश्च विदुरश्च महामतिः // 10 आगमिष्यन्ति कौन्तेयाः कुन्ती च सह कृष्णया।।२५ आदाय द्रौपदी कृष्णां कुन्तीं चैव यशस्विनीम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सविहारं सुखं जग्मुनगरं नागसाह्वयम् // 11 अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 198 // श्रुत्वा चोपस्थितान्वीरान्धृतराष्ट्रोऽपि कौरवः / / प्रतिग्रहाय पाण्डूनां प्रेषयामास कौरवान् // 12 . . 199 विकर्णं च महेष्वासं चित्रसेनं च भारत / द्रुपद उवाच। द्रोणं च परमेष्वासं गौतमं कृपमेव च // 13 एवमेतन्महाप्राज्ञ यथात्थ विदुराद्य माम् / तैस्ते परिवृता वीराः शोभमाना महारथाः / ममापि परमो हर्षः संबन्धेऽस्मिन्कृते विभो // 1 नगरं हास्तिनपुरं शनैः प्रविविशुस्तदा / / 14 गमनं चापि युक्तं स्याद्गृहमेषां महात्मनाम् / कौतूहलेन नगरं दीर्यमाणमिवाभवत् / न तु तावन्मया युक्तमेतद्वक्तुं स्वयं गिरा // 2 यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शोकदुःखविनाशनाः / / 15 बदा तु मन्यते वीरः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / तत उच्चावचा वाचः प्रियाः प्रियचिकीर्षभिः। भीमसेनार्जुनौ चैव यमौ च पुरुषर्षभो // 3 उदीरिता अशृण्वंस्ते पाण्डवा हृदयंगमाः // 16 रामकृष्णौ च धर्मज्ञौ तदा गच्छन्तु पाण्डवाः।। अयं स पुरुषव्याघ्रः पुनरायाति धर्मवित् / अनी हि पुरुषव्याघ्रावेषां प्रियहिते रतौ // 4 यो नः स्वानिव दायादान्धर्मेण परिरक्षति // 17 - __ --- 259 .... .. ॥समाप्तं विदुरागमनपर्व //
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________________ 1. 199. 18] महाभारते [1. 199. 44 अद्य पाण्डुर्महाराजो वनादिव वनप्रियः। द्विपक्षगरुडप्रख्यैारै|रप्रदर्शनैः। आगतः प्रियमस्माकं चिकीर्षुर्नात्र संशयः // 18 गुप्तमभ्रचयप्रख्यैर्गोपुरैर्मन्दरोपमैः // 31 किं नु नाद्य कृतं तावत्सर्वेषां नः परं प्रियम् / विविधैरतिनिर्विद्वैः शस्त्रोपेतैः सुसंवृतैः / यन्नः कुन्तीसुता वीरा भर्तारः पुनरागताः // 19 शक्तिभिश्चावृतं तद्धि द्विजिलैरिव पन्नगैः / यदि दत्तं यदि हुतं विद्यते यदि नस्तपः / तल्पैश्चाभ्यासिकैर्युक्तं शुशुभे योधरक्षितम् // 32 तेन तिष्ठन्तु नगरे पाण्डवाः शरदां शतम् // 20 तीक्ष्णाङ्कुशशतघ्नीभिर्यत्रजालैश्च शोभितम् / / ततस्ते धृतराष्ट्रस्य भीष्मस्य च महात्मनः / आयसैश्च महाचक्रः शुशुभे तत्पुरोत्तमम् // 33 अन्येषां च तदर्हाणां चक्रुः पादाभिवन्दनम् // 21 सुविभक्तमहारथ्यं देवताबाधवर्जितम् / कृत्वा तु कुशलप्रश्नं सर्वेण नगरेण ते / विरोचमानं विविधैः पाण्डुरैर्भवनोत्तमैः // 34 समाविशन्त वेश्मानि धृतराष्ट्रस्य शासनात् // 22 तत्रिविष्टपसंकाशमिन्द्रप्रस्थं व्यरोचत। विश्रान्तास्ते महात्मानः कंचित्कालं महाबलाः / मेघवृन्दमिवाकाशे वृद्धं विद्युत्समावृतम् // 35 आहूता धृतराष्ट्रण राज्ञा शांतनवेन च // 23 तत्र रम्ये शुभे देशे कौरव्यस्य निवेशनम् / धृतराष्ट्र उवाच / शुशुभे धनसंपूर्ण धनाध्यक्षक्षयोपमम् // 36 भ्रातृभिः सह कौन्तेय निबोधेदं वचो मम / तत्रागच्छन्द्विजा राजन्सर्ववेदविदां वराः / पुनर्वो विग्रहो मा भूत्खाण्डवप्रस्थमाविश // 24 निवासं रोचयन्ति स्म सर्वभाषाविदस्तथा // 37 न च वो वसतस्तत्र कश्चिच्छक्तः प्रबाधितुम् / वणिजश्चाभ्ययुस्तत्र देशे दिग्भ्यो धनार्थिनः / संरक्ष्यमाणान्पार्थेन त्रिदशानिव वनिणा / सर्वशिल्पविदश्चैव वासायाभ्यागमंस्तदा // 38 अर्धं राज्यस्य संप्राप्य खाण्डवप्रस्थमाविश / / 25 उद्यानानि च रम्याणि नगरस्य समन्ततः। वैशंपायन उवाच / आनराम्रातकैनीपैरशोकैश्चम्पकैस्तथा // 39 प्रतिगृह्य तु तद्वाक्यं नृपं सर्वे प्रणम्य च। पुंनागैर्नागपुष्पैश्च लकुचैः पनसैस्तथा। प्रतस्थिरे ततो घोरं वनं तन्मनुजर्षभाः। शालतालकदम्बैश्च बकुलैश्च सकेतकैः / / 40 अर्धं राज्यस्य संप्राप्य खाण्डवप्रस्थमाविशन् // 26 मनोहरैः पुष्पितेश्च फलभारावनामितैः / ततस्ते पाण्डवास्तत्र गत्वा कृष्णपुरोगमाः। प्राचीनामलकै.धैरङ्कोलैश्च सुपुष्पितैः॥ 41 मण्डयांचक्रिरे तद्वै पुरं स्वर्गवदच्युताः // 27 जम्बूभिः पाटलाभिश्च कुब्जकैरतिमुक्तकैः / ततः पुण्ये शिवे देशे शान्तिं कृत्वा महारथाः। करवीरैः पारिजातेरन्यैश्च विविधैर्दुमैः // 42 नगरं मापयामासुद्वैपायनपुरोगमाः // 28 नित्यपुष्पफलोपेतैर्नानाद्विजगणायुतम्। सागरप्रतिरूपाभिः परिखाभिरलंकृतम् / मत्तबहिणसंघुष्टं कोकिलेश्च सदामदैः // 43 प्राकारेण च संपन्नं दिवमावृत्य तिष्ठता / / 29 / गृहैरादर्शविमलैर्विविधैश्च लतागृहेः। पाण्डुराभ्रप्रकाशेन हिमराशिनिभेन च।। मनोहरेश्चित्रगृहैस्तथा जगतिपर्वतैः / शुशुभे तत्पुरश्रेष्ठं नागैर्भोगवती यथा // 30 वापीभिर्विविधाभिश्च पूर्णाभिः परमाम्भसा // 44 -260
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________________ 1. 199. 45 ] आदिपर्व [1. 200. 20 सरोभिरतिरम्यैश्च पद्मोत्पलसुगन्धिभिः / जितारयो महाप्राज्ञाः सत्यधर्मपरायणाः / इसकारण्डवयुतश्चक्रवाकोपशोभितः / / 45 मुदं परमिका प्राप्तास्तत्राषुः पाण्डुनन्दनाः / / 7 रम्याश्च विविधास्तत्र पुष्करिण्यो वनावृताः / कर्वाणाः पौरकार्याणि सर्वाणि पुरुषर्षभाः / तडागानि च रम्याणि बृहन्ति च महान्ति च // 46 आसांचक्रुर्महार्हेषु पार्थिवेष्वासनेषु च // 8 तेषां पुण्यजनोपेतं राष्ट्रमावसतां महत् / अथ तेषूपविष्टेषु सर्वेष्वेव महात्मसु। . पाण्डवानां महाराज शश्वत्प्रीतिरवर्धत // 47 नारदस्त्वथ देवर्षिराजगाम यदृच्छया / तत्र भीष्मेण राज्ञा च धर्मप्रणयने कृते / आसनं रुचिरं तस्मै प्रददौ स्वं युधिष्ठिरः // 9 पाण्डवाः समपद्यन्त खाण्डवप्रस्थवासिनः // 48 देवर्षेरुपविष्टस्य स्वयमयं यथाविधि / पञ्चभिस्तैर्महेष्वासैरिन्द्रकल्पैः समन्वितम् / प्रादायुधिष्ठिरो धीमानराज्यं चास्मै न्यवेदयत् // 10 शुशुभे तत्पुरश्रेष्ठं नागैर्भोगवती यथा // 49 प्रतिगृह्य तु तां पूजामृषिः प्रीतमनाभवत् / ताग्निवेश्य ततो वीरो रामेण सह केशवः / आशीर्भिर्वर्धयित्वा तु तमुवाचास्यतामिति // 11 ययौ द्वारवतीं राजन्पाडवानुमते तदा / / 50 निषसादाभ्यनुज्ञातस्ततो राजा युधिष्ठिरः / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि प्रेषयामास कृष्णायै भगवन्तमुपस्थितम् // 12 ____ एकोनद्विशततमोऽध्यायः // 199 // श्रुत्वैव द्रौपदी चापि शुचिर्भूत्वा समाहिता / : // समाप्तं राज्यलम्भपर्व // जगाम तत्र यत्रास्ते नारदः पाण्डवैः सह // 13 200 तस्याभिवाद्य चरणो देवर्षेर्धर्मचारिणी / ... जनमेजय उवाच / कृताञ्जलिः सुसंवीता स्थिताथ द्रुपदात्मजा // 14 एवं संप्राप्य राज्यं तदिन्द्रप्रस्थे तपोधन / तस्याश्चापि स धर्मात्मा सत्यवागृषिसत्तमः / अत ऊर्ध्वं महात्मानः किमकुर्वन्त पाण्डवाः // 1 आशिषो विविधाः प्रोच्य राजपुत्र्यास्तु नारदः / सर्व एव महात्मानः पूर्वं मम पितामहाः / गम्यतामिति होवाच भगवांस्तामनिन्दिताम् / / 15 द्रौपदी धर्मपत्नी च कथं तानन्ववर्तत // 2 गतायामथ कृष्णायां युधिष्ठिरपुरोगमान् / कथं वा पञ्च कृष्णायामेकस्यां ते नराधिपाः / विविक्ते पाण्डवान्सर्वानुवाच भगवानृषिः॥ 16 वर्तमाना महाभागा नाभिद्यन्त परस्परम् // 3 पाञ्चाली भवतामेका धर्मपत्नी यशस्विनी / मोतुमिच्छाम्यहं सर्वं विस्तरेण तपोधन। यथा वो नात्र भेदः स्यात्तथा नीतिर्विधीयताम्॥१७ तेषां चेष्टितमन्योन्यं युक्तानां कृष्णया तया // 4 सुन्दोपसुन्दावसुरौ भ्रातरौ सहितावुभौ। .. वैशंपायन उवाच। आस्तामवध्यावन्येषां त्रिषु लोकेषु विश्रुतौ // 18 धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञाताः कृष्णया सह पाण्डवाः / / एकराज्यावेकगृहावेकशय्यासनाशनौ / रेमिरे पुरुषव्याघ्राः प्राप्तराज्याः परंतपाः // 5 तिलोत्तमायास्ती हेतोरन्योन्यमभिजन्नतुः // 19 आप्य राज्यं महातेजाः सत्यसंधो युधिष्ठिरः। रक्ष्यतां सौहृदं तस्मादन्योन्यप्रतिभाविकम् / पालयामास धर्मेण पृथिवीं भ्रातृभिः सह / / 6 / यथा वो नात्र भेदः स्यात्तत्कुरुष्व युधिष्ठिर // 20 - 261 -
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________________ 1. 200. 21] महाभारते [1. 201. 23 युधिष्ठिर उवाच। तपोविघातार्थमथो देवा विघ्नानि चक्रिरे // 10. सुन्दोपसुन्दावसुरौ कस्य पुत्रौ महामुने / रत्नैः प्रलोभयामासुः स्त्रीभिश्चोभी पुनः पुनः। उत्पन्नश्च कथं भेदः कथं चान्योन्यमघ्नताम् // 21 न च तौ चक्रतुर्भङ्गं व्रतस्य सुमहाव्रतौ // 11 : अप्सरा देवकन्या वा कस्य चैषा तिलोत्तमा। अथ मायां पुनर्देवास्तयोश्चक्रुर्महात्मनोः। यस्याः कामेन संमत्ती जन्नतुस्तौ परस्परम् // 22 भगिन्यो मातरो भार्यास्तयोः परिजनस्तथा // 12 एतत्सर्वं यथावृत्तं विस्तरेण तपोधन / परिपात्यमाना वित्रस्ताः शूलहस्तेन रक्षसा / श्रोतुमिच्छामहे विप्र परं कौतूहलं हि नः // 23 स्रस्ताभरणकेशान्ता एकान्तभ्रष्टवाससः // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अभिधाव्य ततः सर्वास्तो त्राहीति विचुक्रुशुः / द्विशततमोऽध्यायः // 20 // न च तौ चक्रतुर्भङ्गं व्रतस्य सुमहाव्रतौ // 14 201 यदा क्षोभं नोपयाति नार्तिमन्यतरस्तयोः / नारद उवाच। ततः स्त्रियस्ता भूतं च सर्वमन्तरधीयंत / / 15 शृणु मे विस्तरेणेममितिहासं पुरातनम् / ततः पितामहः साक्षादभिगम्य महासुरौ / भ्रातृभिः सहितः पार्थ यथावृत्तं युधिष्ठिर // 1 वरेण छन्दयामास सर्वलोकपितामहः // 16 महासुरस्यान्ववाये हिरण्यकशिपोः पुरा / ततः सुन्दोपसुन्दा तो भ्रातरौ दृढविक्रमौ / निकुम्भो नाम दैत्येन्द्रस्तेजस्वी बलवानभूत् // 2 दृष्ट्वा पितामहं देवं तस्थतुः प्राञ्जली तदा // 17 तस्य पुत्रौ महावीर्यों जाती भीमपराक्रमौ। ऊचतुश्च प्रभुं देवं ततस्तौ सहितौ तदा। सहान्योन्येन भुञ्जाते विनान्योन्यं न गच्छतः // 3 आवयोस्तपसानेन यदि प्रीतः पितामहः // 18 अन्योन्यस्य प्रियकरावन्योन्यस्य प्रियंवदा। मायाविदावस्त्रविदो बलिनी कामरूपिणी / एकशीलसमाचारौ द्विधैवैकं यथा कृता॥४ उभावप्यमरौ स्यावः प्रसन्नो यदि नौ प्रभुः // 19 तो विवृद्धी महावीर्यो कार्येष्वप्येकनिश्चयौ / पितामह उवाच। त्रैलोक्यविजयार्थाय समास्थायैकनिश्चयम् / / 5 ऋतेऽमरत्वमन्यद्वां सर्वमुक्तं भविष्यति / कृत्वा दीक्षां गती विन्ध्यं तत्रोग्रं तेपतुस्तपः / अन्यदृणीतां मृत्योश्च विधानममरैः समम् // 20 तौ तु दीर्पण कालेन तपोयुक्तौ बभूवतुः // 6 क्षुत्पिपासापरिश्रान्ती जटावल्कलधारिणौ / करिष्यावेदमिति यन्महदभ्युत्थितं तपः / मलोपचितसर्वाङ्गी वायुभक्षा बभूवतुः // 7 युवयोर्हेतुनानेन नामरत्वं विधीयते // 21 आत्ममांसानि जुह्वन्तौ पादाङ्गुष्ठाप्रधिष्ठितौ / त्रैलोक्यविजयार्थाय भवद्भ्यामास्थितं तपः। ऊर्ध्वबाहू चानिमिषा दीर्घकालं धृतव्रतौ // 8 हेतुनानेन दैत्येन्द्रौ न वां कामं करोम्यहम् / / 22 तयोस्तपःप्रभावेण दीर्घकालं प्रतापितः / सुन्दोपसुन्दावूचतुः। धूमं प्रमुमुचे विन्ध्यस्तदद्भुतमिवाभवत् / / 9 त्रिषु लोकेषु यद्भूतं किंचित्स्थावरजङ्गमम् / ततो देवाभवन्भीता उग्रं दृष्ट्वा तयोस्तपः / | सर्वस्मान्नौ भयं न स्याहतेऽन्योन्यं पितामह / / 23 -262 -
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________________ 1. 201. 24 ] आदिपर्व [1. 202. 18 पितामह उवाच। मङ्गलः स्तुतिभिश्चापि विजयप्रतिसंहितेः। यत्प्रार्थितं यथोक्तं च काममेतद्ददानि वाम् / चारणैः स्तूयमानौ तु जग्मतुः परया मुदा // 4 मृत्योर्विधानमेतच्च यथावद्वां भविष्यति // 24 तावन्तरिक्षमुत्पत्य दैत्यौ कामगमावुभौ / नारद उवाच / देवानामेव भवनं जग्मतुयुद्धदुर्मदौ // 5 ततः पितामहो दत्त्वा वरमेतत्तदा तयोः / तयोरागमनं ज्ञात्वा वरदानं च तत्प्रभोः / निवर्त्य तपसस्तौ च ब्रह्मलोकं जगाम ह // 25 हित्वा त्रिविष्टपं जग्मुर्ब्रह्मलोकं ततः सुराः // 6 लब्ध्वा वराणि सर्वाणि दैत्येन्द्रावपि तावुभौ / ताविन्द्रलोकं निर्जित्य यक्षरक्षोगणांस्तथा / अवध्या सर्वलोकस्य स्वमेव भवनं गतः / / 26 खेचराण्यपि भूतानि जिग्यतुस्तीव्रविक्रमौ / / 7 तौ तु लब्धवरौ दृष्ट्वा कृतकामी महासुरौ / अन्तर्भूमिगतान्नागाञ्जित्वा तौ च महासुरौ / सर्वः सुहृजनस्ताभ्यां प्रमोदमुपजग्मिवान् / / 27 समुद्रवासिनः सर्वान्म्लेच्छजातीन्विजिग्यतुः // 8 ततस्तौ तु जटा हित्वा मौलिनी संबभूवतुः / ततः सर्वां महीं जेतुमारब्धावुग्रशासनौ / महाभिरणोपेतो विरजोम्बरधारिणी / / 28 सैनिकांश्च समाहूय सुतीक्ष्णां वाचमूचतुः // 9 अकालकौमुदीं चैव चक्रतुः सार्वकामिकीम् / राजर्षयो महायज्ञैर्हव्यकव्यैर्द्विजातयः / दैत्येन्द्रौ परमप्रीती तयोश्चैव सुहृजनः // 29 / तेजो बलं च देवानां वर्धयन्ति श्रियं तथा // 10 भक्ष्यतां भुज्यतां नित्यं रम्यतां गीयतामिति / / तेषामेवं प्रवृद्धानां सर्वेषामसुरद्विषाम् / पीयतां दीयतां चेति वाच आसन्गृहे गृहे // 30 संभूय सर्वैरस्माभिः कार्यः सर्वात्मना वधः // 11 तत्र तत्र महापानैस्त्कृष्टतलनादितैः / एवं सर्वान्समादिश्य पूर्वतीरे महोदधेः / हृष्टं प्रमुदितं सर्वं दैत्यानामभवत्पुरम् / / 31 क्रूरां मतिं समास्थाय जग्मतुः सर्वतोमुखम् // 12 तैस्तैर्विहारैर्बहुभिर्दैत्यानां कामरूपिणाम् / यज्ञैर्यजन्ते ये केचिद्याजयन्ति च ये द्विजाः / समाः संक्रीडतां तेषामहरेकमिवाभवत् // 32 तान्सर्वान्प्रसभं दृष्ट्वा बलिनी जनतुस्तदा / / 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आश्रमेष्वग्निहोत्राणि ऋषीणां भावितात्मनाम् / एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 201 // गृहीत्वा प्रक्षिपन्यप्सु विश्रब्धाः सैनिकास्तयोः॥१४ 202 तपोधनैश्च ये शापाः क्रुद्धैरुक्ता महात्मभिः / नारद उवाच / नाक्रामन्ति तयोस्तेऽपि वरदानेन जृम्भतोः // 15 उत्सवे वृत्तमात्रे तु त्रैलोक्याकाक्षिणावुभो। नाकामन्ति यदा शापा बाणा मुक्ताः शिलास्विव / 'मश्रयित्वा ततः सेनां तावाज्ञापयतां तदा // 1 नियमांस्तदा परित्यज्य व्यद्रवन्त द्विजातयः // 16 सुहृद्भिरभ्यनुज्ञातो दैत्यवृद्धैश्च मत्रिभिः / पृथिव्यां ये तपःसिद्धा दान्ताः शमपरायणाः / कृत्वा प्रास्थानिकं रात्रौ मघासु ययतुस्तदा / / 2 तयोर्भयादुद्रुवुस्ते वैनतेयादिवोरगाः / / 17 गदापट्टिशधारिण्या शूलमुद्गरहस्तया। मथितैराश्रमग्नैर्विकीर्णकलशसुवैः / / प्रस्थिती सहधर्मिण्या महत्या दैत्यसेनया // 3 | शून्यमासीजगत्सर्वं कालेनेव हतं यथा // 18 -263 -
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________________ 1. 202. 19 ] महाभारते [1. 203. 18 राजर्षिभिरदृश्यद्भिर्ऋषिभिश्च महासुरौ / वैखानसा वालखिल्या वानप्रस्था मरीचिपाः / उभौ विनिश्चयं कृत्वा विकुर्वाते वधैषिणौ // 19 अजाश्चैवाविमूढाश्च तेजोगर्भास्तपस्विनः / प्रभिन्नकरटौ मत्तौ भूत्वा कुञ्जररूपिणौ / ऋषयः सर्व एवैते पितामहमुपासतै // 5 संलीनानपि दुर्गेषु निन्यतुर्यमसादनम् / / 20 ततोऽभिगम्य सहिताः सर्व एव महर्षयः / सिंहौ भूत्वा पुनर्व्याघ्रौ पुनश्चान्तर्हितावुभौ / सुन्दोपसुन्दयोः कर्म सर्वमेव शशंसिरे॥६ तैस्तैरुपायैस्तो क्रूरावृषीन्दृष्ट्वा निजघ्नतुः // 21 यथाकृतं यथा चैव कृतं येन क्रमेण च / निवृत्तयज्ञस्वाध्याया प्रनष्टनृपतिद्विजा / न्यवेदयंस्ततः सर्वमखिलेन पितामहे // 7 उत्सन्नोत्सवयज्ञा च बभूव वसुधा तदा // 22 ततो देवगणाः सर्वे ते चैव परमर्षयः / हाहाभूता भयार्ता च निवृत्तविपणापणा / तमेवार्थं पुरस्कृत्य पितामहमचोदयन् // 8 निवृत्तदेवकार्या च पुण्योद्वाहविवर्जिता // 23 ततः पितामहः श्रुत्वा सर्वेषां तद्वचस्तदा। निवृत्तकृषिगोरक्षा विध्वस्तनगराश्रमा / मुहूर्तमिव संचिन्त्य कर्तव्यस्य विनिश्चयम् // 9 अस्थिकङ्कालसंकीर्णा भूर्बभूवोग्रदर्शना // 24 तयोर्वधं समुद्दिश्य विश्वकर्माणमाह्वयत् / निवृत्तपितृकार्यं च निर्वषट्कारमङ्गलम् / दृष्ट्वा च विश्वकर्माणं व्यादिदेश पितामहः / जगत्प्रतिभयाकारं दुष्प्रेक्ष्यमभवत्तदा // 25 सृज्यतां प्रार्थनीयेह प्रमदेति महातपाः // 10 चन्द्रादित्यौ ग्रहास्तारा नक्षत्राणि दिवौकसः / पितामहं नमस्कृत्य तद्वाक्यमभिनन्द्य च / जग्मुर्विषादं तत्कर्म दृष्ट्वा सुन्दोपसुन्दयोः // 26 निर्ममे योषितं दिव्यां चिन्तयित्वा प्रयत्नतः // 11 एवं सर्वा दिशो दैत्यौ जित्वा क्रूरेण कर्मणा / त्रिषु लोकेषु यत्किंचिद्भूतं स्थावरजङ्गमम् / निःसपत्नौ कुरुक्षेत्रे निवेशमभिचक्रतुः // 27 समानयद्दर्शनीयं तत्तद्यत्नात्ततस्ततः / / 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि कोटिशश्चापि रत्नानि तस्या गात्रे न्यवेशयत् / व्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 202 // तां रत्नसंघातमयीमसृजद्देवरूपिणीम् // 13 203 सा प्रयत्नेन महता निर्मिता विश्वकर्मणा / नारद उवाच। त्रिषु लोकेषु नारीणां रूपेणाप्रतिमाभवत् // 14 ततो देवर्षयः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः। न तस्याः सूक्ष्ममप्यस्ति यद्गात्रे रूपसंपदा / जग्मुस्तदा परामार्तिं दृष्ट्वा तत्कदनं महत् // 1 न युक्तं यत्र वा दृष्टिन सज्जति निरीक्षताम् // 19 तेऽभिजग्मुर्जितक्रोधा जितात्मानो जितेन्द्रियाः। सा विग्रहवतीव श्रीः कान्तरूपा वपुष्मती। पितामहस्य भवनं जगतः कृपया तदा // 2 जहार सर्वभूतानां चढूंषि च मनांसि च // 16 ततो ददृशुरासीनं सह देवैः पितामहम् / तिलं तिलं समानीय रत्नानां यद्विनिर्मिता / सिद्धैर्ब्रह्मर्षिभिश्चैव समन्तात्परिवारितम् // 3 तिलोत्तमेत्यतस्तस्या नाम चक्रे पितामहः / / 17 तत्र देवो महादेवस्तत्राग्निर्वायुना सह / पितामह उवाच। चन्द्रादित्यौ च धर्मश्च परमेष्ठी तथा बुधः॥४ गच्छ सुन्दोपसुन्दाभ्यामसुराभ्यां तिलोत्तमे / - 264 -
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________________ 1. 203. 18] आदिपर्व [1. 204. 14 प्रार्थनीयेन रूपेण कुरु भद्रे प्रलोभनम् // 18 204 त्वत्कृते दर्शनादेव रूपसंपत्कृतेन वै / नारद उवाच / विरोधः स्याद्यथा ताभ्यामन्योन्येन तथा कुरु / / 19 जित्वा तु पृथिवीं दैत्यौ निःसपत्नौ गतव्यथौ / नारद उवाच। कृत्वा त्रैलोक्यमव्यग्रं कृतकृत्यौ बभूवतुः // 1 देवगन्धर्वयक्षाणां नागपार्थिवरक्षसाम् / सा तथेति प्रतिज्ञाय नमस्कृत्य पितामहम् / आदाय सर्वरत्नानि परां तुष्टिमुपागतौ // 2 चकार मण्डलं तत्र विबुधानां प्रदक्षिणम् / / 20 यदा न प्रतिषेद्धारस्तयोः सन्तीह केचन / प्राङ्मुखो भगवानास्ते दक्षिणेन महेश्वरः / निरुद्योगौ तदा भूत्वा विजह्वातेऽमराविव // 3 देवाश्चैवोत्तरेणासन्सर्वतस्त्वृषयोऽभवन् / / 21 स्त्रीभिर्माल्यैश्च गन्धैश्च भक्षैर्भोज्यैश्च पुष्कलैः / कुर्वन्त्या तु तया तत्र मण्डलं तत्प्रदक्षिणम् / पानश्च विविधैहृद्यैः परां प्रीतिमवापतुः // 4 इन्द्रः स्थाणुश्च भगवान्धैर्येण प्रत्यवस्थितौ // 22 अन्तःपुरे वनोद्याने पर्वतोपवनेषु च / द्रष्टुकामस्य चात्यर्थं गतायाः पार्श्वतस्तदा / यथेप्सितेषु देशेषु विजह्रातेऽमराविव // 5 अन्यदश्चितपक्ष्मान्तं दक्षिणं निःसृतं मुखम् // 23 ततः कदाचिद्विन्ध्यस्य पृष्ठे समशिलातले / पृष्ठतः परिवर्तन्त्याः पश्चिमं निःसृतं मुखम् / पुष्पिताग्रेषु शालेषु विहारमभिजग्मतुः // 6 गतायाश्चोत्तरं पार्श्वमुत्तरं निःसृतं मुखम् // 24 दिव्येषु सर्वकामेषु समानीतेषु तत्र तौ। महेन्द्रस्यापि नेत्राणां पार्श्वतः पृष्ठतोऽग्रतः / वरासनेष संहृष्टौ सह स्त्रीभिर्निषेदतुः // 7 रक्तान्तानां विशालानां सहस्रं सर्वतोऽभवत् // 25 ततो वादित्रनृत्ताभ्यामुपातिष्ठन्त तौ स्त्रियः / एवं चतुर्मुखः स्थाणुर्महादेवोऽभवत्पुरा / गीतैश्च स्तुतिसंयुक्तैः प्रीत्यर्थमुपजग्मिरे // 8 तथा सहस्रनेत्रश्च बभूव बलसूदनः // 26 ततस्तिलोत्तमा तत्र वने पुष्पाणि चिन्वती / तथा देवनिकायानामृषीणां चैव सर्वशः / वेषमाक्षिप्तमाधाय रक्तेनैकेन वाससा // 9 मुखान्यभिप्रवर्तन्ते येन याति तिलोत्तमा // 27 नदीतीरेषु जातान्सा कर्णिकारान्विचिन्वती / तस्या गात्रे निपतिता तेषां दृष्टिर्महात्मनाम् / शनैर्जगाम तं देशं यत्रास्तां तौ महासुरौ // 10 सर्वेषामेव भूयिष्ठमृते देवं पितामहम् // 28 तौ तु पीत्वा वरं पानं मदरक्तान्तलोचनौ / दृष्ट्वैव तां वरारोहां व्यथिती संबभूवतुः // 11 गच्छन्त्यास्तु तदा देवाः सर्वे च परमर्षयः / तावुत्पत्यासनं हित्वा जग्मतुर्यत्र सा स्थिता / तमित्येव तत्कार्यं मेनिरे रूपसंपदा // 29 उभौ च कामसंमत्तावुभौ प्रार्थयतश्च ताम् // 12 तिलोत्तमायां तु तदा गतायां लोकभावनः / दक्षिणे तां करे सुभ्रं सुन्दो जग्राह पाणिना / अर्वान्विसर्जयामास देवानृषिगणांश्च तान् // 30 उपसुन्दोऽपि जग्राह वामे पाणौ तिलोत्तमाम् // 13 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि वरप्रदानमत्तौ तावौरसेन बलेन च / व्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 23 // धनरत्नमदाभ्यां च सुरापानमदेन च // 14 - 265 -
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________________ 1. 204. 15 ] महाभारते [1. 205. 11 सर्वैरेतैर्मदैमत्तावन्योन्यं भ्रुकुटीकृतौ / स नो द्वादश वर्षाणि ब्रह्मचारी वने वसेत् // 28 मदकामसमाविष्टौ परस्परमथोचतुः // 15 कृते तु समये तस्मिन्पाण्डवैर्धर्मचारिभिः / मम भार्या तव गुरुरिति सुन्दोऽभ्यभाषत। नारदोऽप्यगमत्प्रीत इष्टं देशं महामुनिः // 29 मम भार्या तव वधूरुपसुन्दोऽभ्यभाषत // 16 एवं तैः समयः पूर्वं कृतो नारदचोदितैः / नैषा तव ममैषेति तत्र तौ मन्युराविशत् / / न चाभिद्यन्त ते सर्वे तदान्योन्येन भारत // 30 तस्या हेतोर्गदे भीमे तावुभावप्यगृह्णताम् // 17 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तौ प्रगृह्य गदे भीमे तस्याः कामेन मोहितौ। चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः // 204 // अहं पूर्वमहं पूर्वमित्यन्योन्यं निजघ्नतुः // 18 205 तौ गदाभिहतौ भीमौ पेततुर्धरणीतले / वैशंपायन उवाच। रुधिरेणावलिप्ताङ्गो द्वाविवाौं नभच्युतौ // 19 एवं ते समयं कृत्वा न्यवसंस्तत्र पाण्डवाः। ततस्ता विद्रुता नार्यः स च दैत्यगणस्तदा / वशे शस्त्रप्रतापेन कुर्वन्तोऽन्यान्महीक्षितः॥१ पातालमगमत्सर्वो विषादभयकम्पितः // 20 तेषां मनुजसिंहानां पञ्चानाममितौजसाम्। ततः पितामहस्तत्र सह देवैर्महर्षिभिः / बभूव कृष्णा सर्वेषां पार्थानां वशवर्तिनी // 2 आजगाम विशुद्धात्मा पूजयिष्यस्तिलोत्तमाम् // 21 ते तया तैश्च सा वीरैः पतिभिः सह पश्चभिः / वरेण छन्दिता सा तु ब्रह्मणा प्रीतिमेव ह। बभूव परमप्रीता नागैरिव सरस्वती // 3 वरयामास तत्रैनां प्रीतः प्राह पितामहः / / 22 वर्तमानेषु धर्मेण पाण्डवेषु महात्मसु / आदित्यचरिताल्लोकान्विचरिष्यसि भामिनि / व्यवर्धन्कुरवः सर्वे हीनदोषाः सुखान्विताः॥ 4 तेजसा च सुदृष्टां त्वां न करिष्यति कश्चन // 23 अथ दीर्पण कालेन ब्राह्मणस्य विशां पते। . एवं तस्यै वरं दत्त्वा सर्वलोकपितामहः / कस्यचित्तस्कराः केचिजहर्गा नृपसत्तम // 5 इन्द्रे त्रैलोक्यमाधाय ब्रह्मलोकं गतः प्रभुः // 24 ह्रियमाणे धने तस्मिन्ब्राह्मणः क्रोधमूर्छितः / एवं तौ सहितौ भूत्वा सर्वार्थेष्वेकनिश्चयौ। आगम्य खाण्डवप्रस्थमुदक्रोशत पाण्डवान् // 6 तिलोत्तमार्थे संक्रुद्धावन्योन्यमभिजन्नतुः // 25 ह्रियते गोधनं क्षुदैनृशंसैरकृतात्मभिः / तस्माद्भवीमि वः स्नेहात्सर्वान्भरतसत्तमान / ‘प्रसह्य वोऽस्माद्विषयादभिधावत पाण्डवाः // 7 यथा वो नात्र भेदः स्यात्सर्वेषां द्रौपदीकृते। ब्राह्मणस्य प्रमत्तस्य हविर्वार्केविलुप्यते। तथा कुरुत भद्रं वो मम चेत्प्रियमिच्छथ // 26 शार्दूलस्य गुहां शून्यां नीचः क्रोष्टाभिमर्शति // 8 वैशंपायन उवाच / ब्राह्मणस्वे हृते चौरैर्धर्मार्थे च विलोपिते / एवमुक्ता महात्मानो नारदेन महर्षिणा / रोरूयमाणे च मयि क्रियतामस्त्रधारणम् // 9 समयं चक्रिरे राजस्तेऽन्योन्येन समागताः / रोख्यमाणस्याभ्याशे तस्य विप्रस्य पाण्डवः / समक्षं तस्य देवर्षे रदस्यामितौजसः // 27 तानि वाक्यानि शुश्राव कुन्तीपुत्रो धनंजयः // 10 द्रौपद्या नः सहासीनमन्योऽन्यं योऽभिदर्शयेत् / / श्रुत्वा चैव महाबाहुर्मा भैरित्याह तं द्विजम् / - 266 -
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________________ 1. 205. 11] आदिपर्व [1. 206.5 आयुधानि च यत्रासन्पाण्डवानां महात्मनाम् / इत्युक्तो धर्मराजस्तु सहसा वाक्यमप्रियम् / कृष्णया सह तत्रासीद्धर्मराजो युधिष्ठिरः // 11 कथमित्यब्रवीद्वाचा शोकार्तः सज्जमानया। स प्रवेशाय चाशक्तो गमनाय च पाण्डवः / युधिष्ठिरो गुडाकेशं भ्राता भ्रातरमच्युतम् // 25 तस्य चार्तस्य तैर्वाक्यैश्चोद्यमानः पुनः पुनः। प्रमाणमस्मि यदि ते मत्तः शृणु वचोऽनघ / आक्रन्दे तत्र कौन्तेयश्चिन्तयामास दुःखितः // 12 अनुप्रवेशे यद्वीर कृतवांस्त्वं ममाप्रियम् / द्वियमाणे धने तस्मिन्ब्राह्मणस्य तपस्विनः / / सर्वं तदनुजानामि व्यलीकं न च मे हृदि // 26 अश्रुप्रमार्जनं तस्य कर्तव्यमिति निश्चितः // 13 गुरोरनुप्रवेशो हि नोपघातो यवीयसः / उपप्रेक्षणजोऽधर्मः सुमहान्स्यान्महीपतेः। . यवीयसोऽनुप्रवेशो ज्येष्ठस्य विधिलोपकः // 27 यद्यस्य रुदतो द्वारि न करोम्यद्य रक्षणम् // 14 निवर्तस्व महाबाहो कुरुष्व वचनं मम / अनास्तिक्यं च सर्वेषामस्माकमपि रक्षणे / न हि ते धर्मलोपोऽस्ति न च मे धर्षणा कृता।।२८ प्रतितिष्ठेत लोकेऽस्मिन्नधर्मश्चैव नो भवेत् // 15 __ अर्जुन उवाच / अनापृच्छय च राजानं गते मयि न संशयः / न व्याजेन चरेद्धर्ममिति मे भवतः श्रुतम् / अजातशत्रोर्नृपतेर्मम चैवाप्रियं भवेत् // 16 न सत्याद्विचलिष्यामि सत्येनायुधमालभे // 29 अनुप्रवेशे राज्ञस्तु वनवासो भवेन्मम / वैशंपायन उवाच। अधर्मो वा महानस्तु वने वा मरणं मम / सोऽभ्यनुज्ञाप्य राजानं ब्रह्मचर्याय दीक्षितः / शरीरस्यापि नाशेन धर्म एव विशिष्यते॥१७ वने द्वादश वर्षाणि वासायोपजगाम ह // 30 एवं विनिश्चित्य ततः कुन्तीपुत्रो धनंजयः।। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अनुप्रविश्य राजनमापृच्छय च विशां पते // 18 पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः / 205 // धनुरादाय संहृष्टो ब्राह्मणं प्रत्यभाषत / 206 ब्राह्मणागम्यतां शीघ्रं यावत्परधनैषिणः // 19 वैशंपायन उवाच / न दूरे ते गताः क्षुद्रास्तावद्गच्छामहे सह / तं प्रयान्तं महाबाहुं कौरवाणां यशस्करम् / यावदावर्तयाम्यद्य चोरहस्ताद्धनं तव / 20 अनुजग्मुर्महात्मानो ब्राह्मणा वेदपारगाः / / 1 सोऽनुसृत्य महाबाहुर्धन्वी वर्मी रथी ध्वजी। वेदवेदाङ्गविद्वांसस्तथैवाध्यात्मचिन्तकाः। शरैर्विध्वंसितांश्चोरानवजित्य च तद्धनम् / / 21 चौक्षाश्च भगवद्भक्ताः सूताः पौराणिकाश्च ये // 2 ब्राह्मणस्य उपाहृत्य यशः पीत्वा च पाण्डवः / कथकाश्चापरे राजश्रमणाश्च वनौकसः / आजगाम पुरं वीरः सव्यसाची परंतपः // 22 दिव्याख्यानानि ये चापि पठन्ति मधुरं द्विजाः॥३ सोऽभिवाद्य गुरून्सर्वांस्तैश्चापि प्रतिनन्दितः / एतैश्वान्यैश्च बहुभिः सहायैः पाण्डुनन्दनः / धर्मराजमुवाचेदं व्रतमादिश्यतां मम / / 23 वृतः श्लक्ष्णकथैः प्रायान्मरुद्भिरिव वासवः // 4 समयः समतिक्रान्तो भवत्संदर्शनान्मया / - रमणीयानि चित्राणि वनानि च सरांसि च / वनवासं गमिष्यामि समयो ह्येष नः कृतः // 24 / सरितः सागरांश्चैव देशानपि च भारत // 5 - 267 -
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________________ 1. 206. 6] महाभारते [1. 206. 33 पुण्यानि चैव तीर्थानि ददर्श भरतर्षभः। अनन्यां नन्दयस्वाद्य प्रदानेनात्मनो रहः / 20 स गङ्गाद्वारमासाद्य निवेशमकरोत्प्रभुः॥ 6 __ अर्जुन उवाच / तत्र तस्याद्भुतं कर्म शृणु मे जनमेजय / ब्रह्मचर्यमिदं भद्रे मम द्वादशवार्षिकम् / कृतवान्यद्विशुद्धात्मा पाण्डूनां प्रवरो रथी // 7 धर्मराजेन चादिष्टं नाहमस्मि स्वयंवशः // 21 निविष्टे तत्र कौन्तेये ब्राह्मणेषु च भारत। तव चापि प्रियं कर्तुमिच्छामि जलचारिणि। अग्निहोत्राणि विप्रास्ते प्रादुश्चक्रुरनेकशः // 8 अनृतं नोक्तपूर्वं च मया किंचन कर्हिचित् // 22 तेषु प्रबोध्यमानेषु ज्वलितेषु हुतेषु च / कथं च नानृतं तत्स्यात्तव चापि प्रियं भवेत् / कृतपुष्पोपहारेषु तीरान्तरगतेषु च // 9 न च पीड्येत मे धर्मस्तथा कुर्यां भुजंगमे // 23 कृताभिषेकैर्विद्वद्भिर्नियतैः सत्पथि स्थितैः / उलूप्युवाच। शुशुभेऽतीव तद्राजन्गङ्गाद्वारं महात्मभिः // 10 जानाम्यहं पाण्डवेय यथा चरसि मेदिनीम् / तथा पर्याकुले तस्मिन्निवेशे पाण्डुनन्दनः / यथा च ते ब्रह्मचर्यमिदमादिष्टवान्गुरुः // 24 अभिषेकाय कौन्तेयो गङ्गामवततार ह // 11 परस्परं वर्तमानान्द्रुपदस्यात्मजां प्रति / तत्राभिषेकं कृत्वा स तर्पयित्वा पितामहान् / यो नोऽनुप्रविशेन्मोहात्स नो द्वादशवार्षिकम् / उत्तितीर्घजलाद्राजन्नग्निकार्यचिकीर्षया // 12 वने चरेद्ब्रह्मचर्यमिति वः समयः कृतः // 25 अपकृष्टो महाबाहुर्नागराजस्य कन्यया / तदिदं द्रौपदीहेतोरन्योन्यस्य प्रवासनम् / अन्तर्जले महाराज उलूप्या कामयानया // 13 कृतं वस्तत्र धर्मार्थमत्र धर्मो न दुष्यति // 26 ददर्श पाण्डवस्तत्र पावकं सुसमाहितम् / परित्राणं च कर्तव्यमार्तानां पृथुलोचन। कौरव्यस्याथ नागस्य भवने परमार्चिते // 14 कृत्वा मम परित्राणं तव धर्मो न लुप्यते // 27 तत्राग्निकार्यं कृतवान्कुन्तीपुत्रो धनंजयः। यदि वाप्यस्य धर्मस्य सूक्ष्मोऽपि स्याद्व्यतिक्रमः / अशङ्कमानेन हुतस्तेनातुष्यद्भुताशनः / / 15 स च ते धर्म एव स्याहत्त्वा प्राणान्ममार्जुन // 28 अग्निकार्य स कृत्वा तु नागराजसुतां तदा / भक्तां भजस्व मां पार्थ सतामेतन्मतं प्रभो / प्रहसन्निव कौन्तेय इदं वचनमब्रवीत् // 16 न करिष्यसि चेदेवं मृतां मामुपधारय // 29 किमिदं साहसं भीरु कृतवत्यसि भामिनि / प्राणदानान्महाबाहो चर धर्ममनुत्तमम् / कश्चायं सुभगो देशः का च त्वं कस्य चात्मजा॥१७ शरणं च प्रपन्नास्मि त्वामद्य पुरुषोत्तम // 30 उलूप्युवाच / दीनाननाथान्कौन्तेय परिरक्षसि नित्यशः / ऐरावतकुले जातः कौरव्यो नाम पन्नगः / साहं शरणमभ्येमि रोरवीमि च दुःखिता // 31 तस्यास्मि दुहिता पार्थ उलूपी नाम पन्नगी // 18 याचे त्वामभिकामाहं तस्मात्कुरु मम प्रियम् / साहं त्वामभिषेकार्थमवतीर्णं समुद्रगाम् / स त्वमात्मप्रदानेन सकामां कर्तुमर्हसि // 32 दृष्टवत्येव कौन्तेय कन्दर्पणास्मि मूछिता // 19 वैशंपायन उवाच। तां मामनङ्गमथितां त्वत्कृते कुरुनन्दन / एवमुक्तस्तु कौन्तेयः पन्नगेश्वरकन्यया / - 268 -
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________________ 1. 206. 38 ] आदिपर्व [1. 207. 23 कृतवांस्तत्तथा सर्व धर्ममुद्दिश्य कारणम् // 33 सहायैरल्पकैः शूरः प्रययौ येन सागरम् // 11 स नागभवने रात्रिं तामुषित्वा प्रतापवान् / स कलिङ्गानतिक्रम्य देशानायतनानि च / उदितेऽभ्युत्थितः सूर्ये कौरव्यस्य निवेशनात् // 34 धाणि रमणीयानि प्रेक्षमाणो ययौ प्रभुः // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि महेन्द्रपर्वतं दृष्ट्वा तापसैरुपशोभितम् / षडधिकद्विशततमोऽध्यायः // 206 // समुद्रतीरेण शनैर्मणलूरं जगाम ह // 13 207 तत्र सर्वाणि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च / वैशंपायन उवाच / अभिगम्य महाबाहुरभ्यगच्छन्महीपतिम् / कथयित्वा तु तत्सर्वं ब्राह्मणेभ्यः स भारत / / मणलूरेश्वरं राजन्धर्मज्ञं चित्रवाहनम् // 14 प्रययौ हिमवत्पार्श्व ततो वज्रधरात्मजः // 1 तस्य चित्राङ्गदा नाम दुहिता चारुदर्शना / अगस्त्यवटमासाद्य वसिष्ठस्य च पर्वतम् / तां ददर्श पुरे तस्मिन्विचरन्तीं यदृच्छया // 15 भूगुतुङ्गे च कौन्तेयः कृतवाशौचमात्मनः / / 2 दृष्ट्वा च तां वरारोहां चकमे चैत्रवाहिनीम् / प्रददौ गोसहस्राणि तीर्थेष्वायतनेषु च / अभिगम्य च राजानं ज्ञापयत्स्वं प्रयोजनम् / निवेशांश्च द्विजातिभ्यः सोऽदंदत्कुरुसत्तमः // 3 तमुवाचाथ राजा स सान्त्वपूर्वमिदं वचः 16 हिरण्यबिन्दोस्तीर्थे च स्नात्वा पुरुषसत्तमः / राजा प्रभंकरो नाम कुले अस्मिन्बभूव ह / दृष्टवान्पर्वतश्रेष्ठं पुण्यान्यायतनानि च // 4 अपुत्रः प्रसवेनार्थी तपस्तेपे स उत्तमम् // 17 अवतीर्य नरश्रेष्ठो ब्राह्मणैः सह भारत / उग्रेण तपसा तेन प्रणिपातेन शंकरः। प्राची दिशमभिप्रेप्सुर्जगाम भरतर्षभः // 5 ईश्वरस्तोषितस्तेन महादेव उमापतिः // 18 आनुपूर्येण तीर्थानि दृष्टवान्कुरुसत्तमः / स तस्मै भगवान्प्रादादेकैकं प्रसवं कुले। नदी चोत्पलिनी रम्यामरण्यं नैमिषं प्रति // 6 एकैकः प्रसवस्तस्माद्भवत्यस्मिन्कुले सदा // 19 नन्दामपरनन्दां च कौशिकी च यशस्विनीम् / तेषां कुमाराः सर्वेषां पूर्वेषां मम जज्ञिरे / महानदीं गयां चैव गङ्गामपि च भारत // 7 कन्या तु मम जातेयं कुलस्योत्पादनी ध्रुवम् // 20 एवं सर्वाणि तीर्थानि पश्यमानस्तथाश्रमान् / पुत्रो ममेयमिति मे भावना पुरुषोत्तम / आत्मनः पावनं कुर्वन्ब्राह्मणेभ्यो ददौ वसु // 8 // पुत्रिका हेतुविधिना संज्ञिता भरतर्षभ // 21 अङ्गवङ्गकलिङ्गेषु यानि पुण्यानि कानिचित् / एतच्छुल्कं भवत्वस्याः कुलकृजायतामिह / जगाम तानि सर्वाणि तीर्थान्यायतनानि च / एतेन समयेनेमा प्रतिगृह्णीष्व पाण्डव // 22 दृष्ट्वा च विधिवत्तानि धनं चापि ददौ ततः // 9 / स तथेति प्रतिज्ञाय कन्यां तां प्रतिगृह्य च / कलिङ्गराष्ट्रद्वारेषु ब्राह्मणाः पाण्डवानुगाः / उवास नगरे तस्मिन्कौन्तेयस्त्रिहिमाः समाः // 23 अभ्यनुज्ञाय कौन्तेयमुपावर्तन्त भारत // 10 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि स तु तैरभ्यनुज्ञातः कुन्तीपुत्रो धनंजयः / सप्ताधिकद्विशततमोऽध्यायः // 207 // -269 -
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________________ 1. 208. 1] महाभारते [1. 209. 208 का वै त्वमसि कल्याणि कुतो वासि जलेचरी। वैशंपायन उवाच / किमर्थं च महत्पापमिदं कृतवती पुरा // 13 ततः समुद्रे तीर्थानि दक्षिणे भरतर्षभः / नायुवाच। अभ्यगच्छत्सुपुण्यानि शोभितानि तपस्विभिः॥ 1 / अप्सरास्मि महाबाहो देवारण्यविचारिणी / वर्जयन्ति स्म तीर्थानि पञ्च तत्र तु तापसाः / / इष्टा धनपतेर्नित्यं वर्गा नाम महाबल // 14 आचीर्णानि तु यान्यासन्पुरस्तात्तु तपस्विभिः // 2- मम सख्यश्चतस्रोऽन्याः सर्वाः कामगमाः शुभाः। अगस्त्यतीर्थं सौभद्रं पौलोमं च सुपावनम् / ताभिः सार्धं प्रयातास्मि लोकपालनिवेशनम् // 15 कारंधमं प्रसन्नं च हयमेधफलं च यत् / ततः पश्यामहे सर्वा ब्राह्मणं संशितव्रतम् / भारद्वाजस्य तीर्थं च पापप्रशमनं महत् // 3 रूपवन्तमधीयानमेकमेकान्तचारिणम् / / 16 विविक्तान्युपलक्ष्याथ तानि तीर्थानि पाण्डवः / तस्य वै तपसा राजस्तद्वनं तेजसावृतम् / दृष्ट्वा च वय॑मानानि मुनिभिर्धर्मबुद्धिभिः // 4 आदित्य इव तं देशं कृत्स्नं स व्यवभासयत् // 17 तपस्विनस्ततोऽपृच्छत्पाञ्जलिः कुरुनन्दनः / तस्य दृष्ट्वा तपस्तादृग्रूपं चाद्भुतदर्शनम् / तीर्थानीमानि वय॑न्ते किमर्थं ब्रह्मवादिभिः // 5 अवतीर्णाः स्म तं देशं तपोविघ्नचिकीर्षया // 18 तापसा ऊचुः। अहं च सौरभेयी च समीची बुद्बुदा लता। ग्राहाः पञ्च वसन्त्येषु हरन्ति च तपोधनान् / योगपद्येन तं विप्रमभ्यगच्छाम भारत / / 19 अत एतानि वय॑न्ते तीर्थानि कुरुनन्दन // 6 गायन्त्यो वै हसन्त्यश्च लोभयन्त्यश्च तं द्विजम। वैशंपायन उवाच। स च नास्मासु कृतवान्मनो वीर कथंचन / तेषां श्रुत्वा महाबाहुर्वार्थमाणस्तपोधनैः / नाकम्पत महातेजाः स्थितस्तपसि निर्मले // 20 जगाम तानि तीर्थानि द्रष्टुं पुरुषसत्तमः // 7 सोऽशपत्कुपितोऽस्मांस्तु ब्राह्मणः क्षत्रियर्षभ / ततः सौभद्रमासाद्य महर्षेस्तीर्थमुत्तमम् / ग्राहभूता जले यूयं चरिष्यध्वं शतं समाः // 21 विगाह्य तरसा शूरः स्नानं चक्रे परंतपः // 8 ___ इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अथ तं पुरुषव्याघ्रमन्तर्जलचरो महान् / अष्टाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 208 // निजग्राह जले ग्राहः कुन्तीपुत्रं धनंजयम् // 9 209 स तमादाय कौन्तेयो विस्फुरन्तं जलेचरम् / वर्गोवाच। उदतिष्ठन्महाबाहुर्बलेन बलिनां वरः // 10 ततो वयं प्रत्यथिताः सर्वा भरतसत्तम / उत्कृष्ट एव तु ग्राहः सोऽर्जुनेन यशस्विना / आयाम शरणं विप्रं तं तपोधनमच्युतम् // 1 बभूव नारी कल्याणी सर्वाभरणभूषिता। रूपेण वयसा चैव कन्दर्पण च दर्पिताः / दीप्यमाना श्रिया राजन्दिव्यरूपा मनोरमा // 11 अयुक्तं कृतवत्यः स्म क्षन्तुमर्हसि नो द्विज // 2 तदद्भुतं महदृष्ट्वा कुन्तीपुत्रो धनंजयः / एष एव वधोऽस्माकं सुपर्याप्तस्तपोधन / तां स्त्रियं परमप्रीत इदं वचनमब्रवीत् // 12 / यद्वयं संशितात्मानं प्रलोब्धुं त्वामिहागताः // 3 -270 -
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________________ 1. 209. 4] आदिपर्व [1. 210. 5 अवध्यास्तु स्त्रियः सृष्टा मन्यन्ते धर्मचिन्तकाः। दक्षिणे सागरानूपे पञ्च तीर्थानि सन्ति वै / तस्माद्धर्मेण धर्मज्ञ नास्मान्हिसितुमर्हसि // 4 पुण्यानि रमणीयानि तानि गच्छत माचिरम् / / 17 सर्वभूतेषु धर्मज्ञ मैत्रो ब्राह्मण उच्यते / तत्राशु पुरुषव्याघ्रः पाण्डवो वो धनंजयः। सत्यो भवतु कल्याण एष वादो मनीषिणाम् // 5 मोक्षयिष्यति शुद्धात्मा दुःखादस्मान्न संशयः // 18 शरणं च प्रपन्नानां शिष्टाः कुर्वन्ति पालनम् / तस्य सर्वा वयं वीर श्रुत्वा वाक्यमिहागताः। शरणं त्वां प्रपन्नाः स्म तस्मात्त्वं क्षन्तुमर्हसि // 6 तदिदं सत्यमेवाद्य मोक्षिताहं त्वयानघ // 19 वैशंपायन उवाच। एतास्तु मम वै सख्यश्चतस्रोऽन्या जले स्थिताः / एवमुक्तस्तु धर्मात्मा ब्राह्मणः शुभकर्मकृत् / . कुरु कर्म शुभं वीर एताः सर्वा विमोक्षय // 20 प्रसादं कृतवान्वीर रविसोमसमप्रभः।। 7 वैशंपायन उवाच / ब्राह्मण उवाच। ततस्ताः पाण्डवश्रेष्ठः सर्वा एव विशां पते / शतं सहस्रं विश्वं च सर्वमक्षयवाचकम् / तस्माच्छापाददीनात्मा मोक्षयामास वीर्यवान् // 21 परिमाणं शतं त्वेतन्नैतदक्षयवाचकम् // 8 उत्थाय च जलात्तस्मात्प्रतिलभ्य वपुः स्वकम् / यदा च वो ग्राहभूता गृह्णन्तीः पुरुषाञ्जले / तास्तदाप्सरसो राजन्नदृश्यन्त यथा पुरा // 22 उत्कर्षति जलात्कश्चित्स्थलं पुरुषसत्तमः / / 9 तीर्थानि शोधयित्वा तु तथानुज्ञाय ताः प्रभुः / तदा यूयं पुनः सर्वाः स्वरूपं प्रतिपत्स्यथ / चित्राङ्गदां पुनद्रष्टुं मणलूरपुरं ययौ // 23 . अनृतं नोक्तपूर्वं मे हसतापि कदाचन // 10 तस्यामजनयत्पुत्रं राजानं बभ्रुवाहनम् / तानि सर्वाणि तीर्थानि इतःप्रभृति चैव ह। तं दृष्ट्वा पाण्डवो राजन्गोकर्णमभितोऽगमत् // 24 नारीतीर्थानि नाम्नेह ख्याति यास्यन्ति सर्वशः। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पुण्यानि च भविष्यन्ति पावनानि मनीषिणाम्॥११ नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 209 // .. . वर्गोवाच / 210 ततोऽभिवाद्य तं विप्रं कृत्वा चैव प्रदक्षिणम्। वैशंपायन उवाच / अचिन्तयामोपसृत्य तस्माद्देशात्सुदुःखिताः // 12 सोऽपरान्तेषु तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च / क नु नाम वयं सर्वाः कालेनाल्पेन तं नरम। सर्वाण्येवानुपूर्येण जगामामितविक्रमः॥ 1 समागच्छेम यो नस्तद्रूपमापादयेत्पुनः // 13 समुद्रे पश्चिमे यानि तीर्थान्यायतनानि च। ता वयं चिन्तयित्वैवं मुहूर्तादिव भारत / तानि सर्वाणि गत्वा स प्रभासमुपजग्मिवान् // 2 दृष्टवत्यो महाभागं देवर्षिमुत नारदम् // 14 प्रभासदेश संप्राप्तं बीभत्सुमपराजितम् / सर्वा हृष्टाः स्म तं दृष्ट्वा देवर्षिममितद्युतिम् / तीर्थान्यनुचरन्तं च शुश्राव मधुसूदनः / / 3 अभिवाद्य च तं पार्थ स्थिताः स्म व्यथिताननाः॥ ततोऽभ्यगच्छत्कौन्तेयमज्ञातो नाम माधवः / स नोऽपृच्छदुःखमूलमुक्तवत्यो वयं च तत्। ददृशाते तदान्योन्यं प्रभासे कृष्णपाण्डवौ // 4 श्रुत्वा तच्च यथावृत्तमिदं वचनमब्रवीत् / / 16 तावन्योन्यं समाश्लिष्य पृष्ट्वा च कुशलं वने / -274 -
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________________ 1. 210.5] महाभारते [1. 211. II 211 आस्तां प्रियसखायौ तौ नरनारायणावृषी // 5 समानवयसः सर्वानाश्लिष्य स पुनः पुनः // 20 ततोऽर्जुनं वासुदेवस्तां चर्यां पर्यपृच्छत। कृष्णस्य भवने रम्ये रत्नभोज्यसमावृते / किमर्थं पाण्डवेमानि तीर्थान्यनुचरस्युत // 6 उवास सह कृष्णेन बहुलास्तत्र शर्वरीः // 21 ततोऽर्जुनो यथावृत्तं सर्वमाख्यातवांस्तदा। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि श्रुत्वोवाच च वार्ष्णेय एवमेतदिति प्रभुः // 7 दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 210 // तौ विहृत्य यथाकामं प्रभासे कृष्णपाण्डवौ। / // समाप्तमर्जुनवनवासपर्व // . महीधरं रैवतकं वासायैवाभिजग्मतुः // 8 पूर्वमेव तु कृष्णस्य वचनात्तं महीधरम् / वैशंपायन उवाच। पुरुषाः समलंचक्रुरुपजह्वश्च भोजनम् // 9 ततः कतिपयाहस्य तस्मिन्रैवतके गिरौ। प्रतिगृह्यार्जुनः सर्वमुपभुज्य च पाण्डवः / वृष्ण्यन्धकानामभवत्सुमहानुत्सवो नृप / / 1 सहैव वासुदेवेन दृष्टवान्नटनर्तकान् / / 10 तत्र दानं ददुर्वीरा ब्राह्मणानां सहस्रशः / अभ्यनुज्ञाप्य तान्सर्वानर्चयित्वा च पाण्डवः / भोजवृष्ण्यन्धकाश्चैव महे तस्य गिरेस्तदा / / 2 सत्कृतं शयनं दिव्यमभ्यगच्छन्महाद्युतिः // 11 प्रासादै रत्नचित्रैश्च गिरेस्तस्य समन्ततः / तीर्थानां दर्शनं चैव पर्वतानां च भारत। स देशः शोभितो राजन्दीपवृक्षैश्च सर्वशः // 3 आपगानां वनानां च कथयामास सात्वते // 12 वादित्राणि च तत्र स्म वादकाः समवादयन् / स कथाः कथयन्नेव निद्रया जनमेजय / ननृतुनर्तकाश्चैव जगुर्गानानि गायनाः // 4 कौन्तेयोऽपहृतस्तस्मिञ्शयने स्वर्गसंमिते // 13 अलंकृताः कुमाराश्च वृष्णीनां सुमहौजसः / मधुरेण स गीतेन वीणाशब्देन चानघ / यानैर्हाटकचित्राङ्गैश्चर्यन्ते स्म सर्वशः // 5 प्रबोध्यमानो बुबुधे स्तुतिभिर्मङ्गलैस्तथा // 14 पौराश्च पादचारेण यानैरुच्चावचैस्तथा। स कृत्वावश्यकार्याणि वार्ष्णेयेनाभिनन्दितः / सदाराः सानुयात्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः // 6 रथेन काश्चनाङ्गेन द्वारकामभिजग्मिवान् // 15 ततो हलधरः क्षीबो रेवतीसहितः प्रभुः / अलंकृता द्वारका तु बभूव जनमेजय / अनुगम्यमानो गन्धर्वैरचरत्तत्र भारत // 7 कुन्तीसुतस्य पूजार्थमपि निष्कुटकेष्वपि // 16 तथैव राजा वृष्णीनामुग्रसेनः प्रतापवान् / दिदृक्षवश्व कौन्तेयं द्वारकावासिनो जनाः / उपगीयमानो गन्धर्वैः स्त्रीसहस्रसहायवान् // 8 नरेन्द्रमार्गमाजग्मुस्तूर्णं शतसहस्रशः // 17 रौक्मिणेयश्च साम्बश्च क्षीबी समरदुर्मदौ / अवलोकेषु नारीणां सहस्राणि शतानि च / दिव्यमाल्याम्बरधरौ विजह्वातेऽमराविव // 9 भोजवृष्ण्यन्धकानां च समवायो महानभूत् // 18 अक्रूरः सारणश्चैव गदो भानुर्विडूरथः। स तथा सत्कृतः सर्वैर्भोजवृष्ण्यन्धकात्मजैः।। निशठश्चारुदेष्णश्च पृथुर्विपृथुरेव च // 10 अभिवाद्याभिवाद्यांश्च सर्वैश्च प्रतिनन्दितः // 19 / सत्यकः सात्यकिश्चैव भङ्गकारसहाचरौ / कुमारैः सर्वशो वीरः सत्कारेणाभिवादितः। हार्दिक्यः कृतवर्मा च ये चान्ये नानुकीर्तिताः॥ -272 -
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________________ 1. 211. 12] आदिपर्व [1. 212. 13 एते परिवृताः स्त्रीभिर्गन्धर्वैश्च पृथक्पृथक् / श्रुत्वैव च महाबाहुरनुजज्ञे स पाण्डवः // 25 तमुत्सवं रैवतके शोभयांचक्रिरे तदा // 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि तदा कोलाहले तस्मिन्वर्तमाने महाशुभे। एकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२११॥ वासुदेवश्च पार्थश्च सहितौ परिजग्मतुः // 13 212 तत्र चङ्गम्यमाणौ तौ वसुदेवसुतां शुभाम् / वैशंपायन उवाच / अलंकृतां सखीमध्ये भद्रां ददृशतुस्तदा // 14 ततः संवादिते तस्मिन्ननुज्ञातो धनंजयः / दृष्ट्वैव तामर्जुनस्य कन्दर्पः समजायत / गतां रैवतके कन्यां विदित्वा जनमेजय // 1 तं तथैकाग्रमनसं कृष्णः पार्थमलक्षयत् // 15 / वासुदेवाभ्यनुज्ञातः कथयित्वेतिकृत्यताम् / अथाब्रवीत्पुष्कराक्षः प्रहसन्निव भारत / कृष्णस्य मतमाज्ञाय प्रययौ भरतर्षभः // 2 वनेचरस्य किमिदं कामेनालोड्यते मनः // 16 / रथेन काश्चनाङ्गेन कल्पितेन यथाविधि / ममैषा भगिनी पार्थ सारणस्य सहोदरा / सैन्यसुग्रीवयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना // 3 यदि ते वर्तते बुद्धिर्वक्ष्यामि पितरं स्वयम् // 17 सर्वशस्त्रोपपन्नेन जीमूतरवनादिना / अर्जुन उवाच / ज्वलिताग्निप्रकाशेन द्विषतां हर्षघातिना // 4 दुहिता वसुदेवस्य वासुदेवस्य च स्वसा। / संनद्धः कवची खड्गी बद्धगोधाङ्गुलित्रवान् / रूपेण चैव संपन्ना कमिवैषा न मोहयेत् // 18 मृगयाव्यपदेशेन यौगपद्येन भारत // 5 कृतमेव तु कल्याणं सर्वं मम भवेद्धवम् / सुभद्रा त्वथ शैलेन्द्रमभ्यर्च्य सह रैवतम् / यदि स्यान्मम वार्ष्णेयी महिषीयं स्वसा तव // 19 दैवतानि च सर्वाणि ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च // 6 प्राप्तौ तु क उपायः स्यात्तद्भवीहि जनार्दन / प्रदक्षिणं गिरिं कृत्वा प्रययौ द्वारकां प्रति / आस्थास्यामि तथा सर्वं यदि शक्यं नरेण तत्॥२० तामभिद्रुत्य कौन्तेयः प्रसह्यारोपयद्रथम् // 7 . . वासुदेव उवाच। ततः स पुरुषव्याघ्रस्तामादाय शुचिस्मिताम् / खयंवरः क्षत्रियाणां विवाहः पुरुषर्षभ / रथेनाकाशगेनैव प्रययौ स्वपुरं प्रति // 8 स च संशयितः पार्थ स्वभावस्यानिमित्ततः // 21 ह्रियमाणां तु तां दृष्ट्वा सुभद्रां सैनिको जनः / प्रसह्य हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते। विक्रोशन्प्राद्रवत्सर्वो द्वारकामभितः पुरीम् // 9 विवाहहेतोः शूराणामिति धर्मविदो विदुः // 22 ते समासाद्य सहिताः सुधर्मामभितः सभाम् / स त्वमर्जुन कल्याणी प्रसह्य भगिनी मम / सभापालस्य तत्सर्वमाचख्युः पार्थविक्रमम् // 10 हर स्वयंवरे ह्यस्याः को वै वेद चिकीर्षितम् // 23 तेषां श्रुत्वा सभापालो भेरी सांनाहिकी ततः / वैशंपायन उवाच / समाजन्ने महाघोषां जाम्बूनदपरिष्कृताम् // 11 सतोऽर्जुनश्च कृष्णश्च विनिश्चित्येतिकृत्यताम् / क्षुब्धास्तेनाथ शब्देन भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा / शीघ्रगान्पुरुषान्राजन्प्रेषयामासतुस्तदा // 24 अन्नपानमपास्याथ समापेतुः सभां ततः // 12 धर्मराजाय तत्सर्वमिन्द्रप्रस्थगताय वै। ततो जाम्बूनदाङ्गानि स्पास्तरणवन्ति च / म.भा. 35 -273 -
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________________ 1. 212. 13] महाभारते [1. 213. 8 मणिविद्रुमचित्राणि ज्वलिताग्निप्रभाणि च // 13 को हि नाम भवेनार्थी साहसेन समाचरेत् // 28 भेजिरे पुरुषव्याघ्रा वृष्ण्यन्धकमहारथाः / सोऽवमन्य च नामास्माननादृत्य च केशवम् / सिंहासनानि शतशो धिष्ण्यानीव हुताशनाः / / 14 / प्रसह्य हृतवानद्य सुभद्रां मृत्युमात्मनः // 29 तेषां समुपविष्टानां देवानामिव संनये / कथं हि शिरसो मध्ये पदं तेन कृतं मम / आचख्यौ चेष्टितं जिष्णोः सभापालः सहानुगः॥१५ मर्षयिष्यामि गोविन्द पादस्पर्शमिवोरगः // 30 तच्छ्रुत्वा वृष्णिवीरास्ते मदरक्तान्तलोचनाः / अद्य निष्कौरवामेकः करिष्यामि वसुंधराम् / अमृष्यमाणाः पार्थस्य समुत्पेतुरहंकृताः // 16 न हि मे मर्षणीयोऽयमर्जुनस्य व्यतिक्रमः // 31 योजयध्वं रथानाशु प्रासानाहरतेति च / तं तथा गर्जमानं तु मेघदुन्दुभिनिःस्वनम् / धनूंषि च महार्हाणि कवंचानि बृहन्ति च // 17 अन्वपद्यन्त ते सर्वे भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा // 32 सूतानुचुक्रुशुः केचिद्रथान्योजयतेति च। इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि स्वयं च तुरगान्केचिन्निन्युहेमविभूषितान् // 18 द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 212 // रथेष्वानीयमानेषु कवचेषु ध्वजेषु च / // समाप्तं सुभद्राहरणपर्व // अभिक्रन्दे नृवीराणां तदासीत्संकुलं महत् // 19 - 213 वनमाली ततः क्षीबः कैलासशिखरोपमः। वैशंपायन उवाच। नीलवासा मदोसिक्त इदं वचनमब्रवीत् // 20 उक्तवन्तो यदा वाक्यमसकृत्सर्ववृष्णयः। किमिदं कुरुथाप्रज्ञास्तूष्णीं भूते जनार्दने / ततोऽब्रवीद्वासुदेवो वाक्यं धर्मार्थसंहितम् // 1 अस्य भावमविज्ञाय संक्रुद्धा मोघगर्जिताः // 21 / नावमानं कुलस्यास्य गुडाकेशः प्रयुक्तवान् / एष तावदभिप्रायमाख्यातु स्वं महामतिः / / संमानोऽभ्यधिकस्तेन प्रयुक्तोऽयमसंशयम् // 2 यदस्य रुचितं कर्तुं तत्कुरुध्वमतन्द्रिताः // 22 अर्थलुब्धान्न वः पार्थो मन्यते सात्वतान्सदा / ततस्ते तद्वचः श्रुत्वा ग्राह्यरूपं हलायुधात् / स्वयंवरमनाधृष्यं मन्यते चापि पाण्डवः // 3 तूष्णीं भूतास्ततः सर्वे साधु साध्विति चाब्रुवन्॥२३ प्रदानमपि कन्यायाः पशुवत्कोऽनुमंस्यते / समं वचो निशम्येति बलदेवस्य धीमतः / विक्रयं चाप्यपत्यस्य कः कुर्यात्पुरुषो भुवि // 4 पुनरेव सभामध्ये सर्वे ते समुपाविशन् // 24 एतान्दोषांश्च कौन्तेयो दृष्टवानिति मे मतिः / ततोऽब्रवीत्कामपालो वासुदेवं परंतपम् / अतः प्रसह्य हृतवान्कन्यां धर्मेण पाण्डवः॥ 5 किमवागुपविष्टोऽसि प्रेक्षमाणो जनार्दन // 25 उचितश्चैव संबन्धः सुभंद्रा च यशस्विनी / सत्कृतस्त्वत्कृते पार्थः सर्वैरस्माभिरच्युत / एष चापीदृशः पार्थः प्रसह्य हृतवानिति // 6 न च सोऽर्हति तां पूजां दुर्बुद्धिः कुलपांसनः // 26 भरतस्यान्वये जातं शंतनोश्च महात्मनः / को हि तत्रैव भुक्त्वान्नं भाजनं भेत्तुमर्हति। कुन्तिभोजात्मजापुत्रं को बुभूषेत नार्जुनम् // 7 मन्यमानः कुले जातमात्मानं पुरुषः कचित् // 27 / न च पश्यामि यः पार्थं विक्रमेण पराजयेत् / ईप्समानश्च संबन्धं कृतपूर्वं च मानयन् / / अपि सर्वेषु लोकेषु सेन्द्ररुद्रेषु मारिष // 8 -274 -
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________________ 1. 213. 9] आदिपर्व [1. 213. 36 स च नाम रथस्ताङ्मदीयास्ते च वाजिनः / श्रुत्वा तु पुण्डरीकाक्षः संप्राप्तं स्वपुरोत्तमम् / योद्धा पार्थश्च शीघ्रास्त्रः को नु तेन समो भवेत् // 9 अर्जुनं पाण्डवश्रेष्ठमिन्द्रप्रस्थगतं तदा // 22 तमनुद्रुत्य सान्त्वेन परमेण धनंजयम् / आजगाम विशुद्धात्मा सह रामेण केशवः / निवर्तयध्वं संहृष्टा ममैषा परमा मतिः // 10 वृष्ण्यन्धकमहामात्रैः सह वीरैर्महारथैः // 23 . यदि निर्जित्य वः पार्थो बलाद्गच्छेत्स्वकं पुरम् / भ्रातृभिश्च कुमारैश्च योधैश्च शतशो वृतः। प्रणश्येद्वो यशः सद्यो न तु सान्त्वे पराजयः // 11 / सैन्येन महता शौरिरभिगुप्तः परंतपः // 24 तच्छ्रुत्वा वासुदेवस्य तथा चक्रुर्जनाधिप / तत्र दानपति(मानाजगाम महायशाः / निवृत्तश्चार्जुनस्तत्र विवाहं कृतवांस्ततः // 12 अकरो वृष्णिवीराणां सेनापतिररिंदमः // 25 उषित्वा तत्र कौन्तेयः संवत्सरपराः क्षपाः। . अनाधृष्टिर्महातेजा उद्धवश्च महायशाः / पुष्करेषु ततः शिष्टं कालं वर्तितवान्प्रभुः / साक्षाद्वहस्पतेः शिष्यो महाबुद्धिर्महायशाः // 26 पूर्णे तु द्वादशे वर्षे खाण्डवप्रस्थमाविशत् // 13 सत्यकः सात्यकिश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः / अभिगम्य स राजानं विनयेन समाहितः / प्रद्युम्नश्चैव साम्बश्च निशठः शङ्कुरेव च // 27 अभ्यर्च्य ब्राह्मणान्पार्थो द्रौपदीसभिजग्मिवान् // 14 चारुदेष्णश्च विक्रान्तो झिल्ली विपृथुरेव च। तं द्रौपदी प्रत्युवाच प्रणयात्कुरुनन्दनम् / सारणश्च महाबाहुर्गदश्च विदुषां वरः // 28 तत्रैव गच्छ कौन्तेय यत्र सा सात्वतात्मजा। एते चान्ये च बहवो वृष्णिभोजान्धकास्तथा। सुबद्धस्यापि भारस्य पूर्वबन्धः श्लथायते // 15 आजग्मुः खाण्डवप्रस्थमादाय हरणं बहु // 29 तथा बहुविधं कृष्णां विलपन्तीं धनंजयः / ततो युधिष्ठिरो राजा श्रुत्वा माधवमागतम् / साल्दयामास भूयश्च क्षमयामास सकृत् / / 16 प्रतिग्रहार्थं कृष्णस्य यमौ प्रास्थाययत्तदा / / 30 सुभद्रां त्वरमाणश्च रक्तकौशेयवाससम् / ताभ्यां प्रतिगृहीतं तद्वृष्णिचक्रं समृद्धिमत् / पार्थः प्रस्थापयामास कृत्वा गोपालिकावपुः // 17 विवेश खाण्डवप्रस्थं पताकाध्वजशोभितम् // 31 साधिकं तेन रूपेण शोभमाना यशस्विनी / सिक्तसंमृष्टपन्थानं पुष्पप्रकरशोभितम् / / भवनं श्रेष्ठमासाद्य वीरपत्नी वराङ्गना / चन्दनस्य रसैः शीतैः पुण्यगन्धैर्निषेवितम् // 32 ववन्दे पृथुताम्राक्षी पृथां भद्रा यशस्विनी // 18 दह्यतागुरुणा चैव देशे देशे सुगन्धिना / ततोऽभिगम्य त्वरिता पूर्णेन्दुसदृशानना / सुसंमृष्टजनाकीर्णं वणिम्भिरुपशोभितम् // 33 क्वन्दे द्रौपदी भद्रा प्रेष्याहमिति चाब्रवीत् // 19 प्रतिपेदे महाबाहुः सह रामेण केशवः / प्रत्युत्थाय च तां कृष्णा स्वसारं माधवस्य ताम् / वृष्ण्यन्धकमहाभोजैः संवृतः पुरुषोत्तमः / / 34 सस्वजे चावदत्प्रीता निःसपत्नोऽस्तु ते पतिः / संपूज्यमानः पौरैश्च ब्राह्मणैश्च सहस्रशः / तथैव मुदिता भद्रा तामुवाचैवमस्त्विति // 20 विवेश भवनं राज्ञः पुरंदरगृहोपमम् // 35 ततस्ते हृष्टमनसः पाण्डवेया महारथाः। युधिष्ठिरस्तु रामेण समागच्छद्यथाविधि / इन्ती च परमप्रीता बभूव जनमेजय // 21 / मूर्ध्नि केशवमाघ्राय पर्यध्वजत बाहुना // 36 - 275 -
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________________ 1. 213. 37] महाभारते [1. 213. 65 तं प्रीयमाणं कृष्णस्तु विनयेनाभ्यपूजयत् / पाण्डुसागरमाविद्धः प्रविवेश महानदः / भीमं च पुरुषव्याघ्रं विधिवत्प्रत्यपूजयत् // 37 पूर्णमापूरयंस्तेषां द्विपच्छोकावहोऽभवत् // 51 तांश्च वृष्ण्यन्धकश्रेष्ठान्धर्मराजो युधिष्ठिरः / प्रतिजग्राह तत्सर्वं धर्मराजो युधिष्ठिरः / प्रतिजग्राह सत्कारैर्यथाविधि यथोपगम् // 38 पूजयामास तांश्चैव वृष्ण्यन्धकमहारथान् / / 52 गुरुवत्पूजयामास कांश्चित्कांश्चिद्वयस्यवत् / / ते समेता महात्मानः कुरुवृष्ण्यन्धकोत्तमाः / कांश्चिदभ्यवदत्प्रेम्णा कैश्चिदप्यभिवादितः // 39 विजहुरमरावासे नराः सुकृतिनो यथा // 53 ततो ददौ वासुदेवो जन्यार्थे धनमुत्तमम् / तत्र तत्र महापानरुत्कृष्टतलनादितैः / हरणं वै सुभद्राया ज्ञातिदेयं महायशाः॥ 40 यथायोगं यथाप्रीति विजह्वः कुरुवृष्णयः // 54 रथानां काञ्चनाङ्गानां किङ्किणीजालमालिनाम् / एवमुत्तमवीर्यास्ते विहृत्य दिवसान्बहून् / चतुर्युजामुपेतानां सूतैः कुशलसंमतैः / पूजिताः कुरुभिर्जग्मुः पुनरिवतीं पुरीम् // 55 सहस्रं प्रददौ कृष्णो गवामयुतमेव च // 41 रामं पुरस्कृत्य ययुर्वृष्ण्यन्धकमहारथाः / श्रीमान्माथुरदेश्यानां दोग्ध्रीणां पुण्यवर्चसाम् / रत्नान्यादाय शुभ्राणि दत्तानि कुरुसत्तमैः // 56 वडवानां च शुभ्राणां चन्द्रांशुसमवर्चसाम् / वासुदेवस्तु पार्थेन तत्रैव सह भारत / ददी जनार्दनः प्रीत्या सहस्रं हेमभूषणम् // 42 उवास नगरे रम्ये शक्रप्रस्थे महामनाः / तथैवाश्वतरीणां च दान्तानां वातरंहसाम् / व्यचरद्यमुनाकूले पार्थेन सह भारत // 57 शतान्यञ्जनकेशीनां श्वेतानां पञ्च पञ्च च // 43 ततः सुभद्रा सौभद्रं केशवस्य प्रिया स्वसा। स्नापनोत्सादने चैव सुयुक्तं वयसान्वितम् / जयन्तमिव पौलोमी युतिमन्तमजीजनत् / / 58 स्त्रीणां सहस्रं गौरीणां सुवेषाणां सुवर्चसाम् // 44 दीर्घबाहुं महासत्त्वमृषभाक्षमरिंदमम् / सुवर्णशतकण्ठीनामरोगाणां सुवाससाम् / सुभद्रा सुषुवे वीरमभिमन्युं नरर्षभम् / / 59 परिचर्यासु दक्षाणां प्रददौ पुष्करेक्षणः // 45 अभीश्च मन्युमांश्चैव ततस्तमरिमर्दनम् / कृताकृतस्य मुख्यस्य कनकस्याग्निवर्चसः / अभिमन्युमिति प्राहुरार्जुनि पुरुषर्षभम् // 60 मनुष्यभारान्दाशाहों ददौ दश जनार्दनः // 46 स सात्वत्यामतिरथः संबभूव धनंजयात् / गजानां त प्रभिन्नानां त्रिधा प्रस्रवतां मदम / मखे निर्मथ्यमानाद्वा शमीगर्भाडुताशनः / / 61 गिरिकूटनिकाशानां समरेष्वनिवर्तिनाम् / / 47 यस्मिञ्जाते महाबाहुः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / क्लृप्तानां पटुघण्टानां वराणां हेममालिनाम् / अयुतं गा द्विजातिभ्यः प्रादान्निष्कांश्च तावतः॥६२ हस्त्यारोहैरुपेतानां सहस्रं साहसप्रियः // 48 दयितो वासुदेवस्य बाल्यात्प्रभृति चाभवत् / रामः पादग्राहणिकं ददौ पार्थाय लागली / पितॄणां चैव सर्वेषां प्रजानामिव चन्द्रमाः // 63 प्रीयमाणो हलधरः संबन्धप्रीतिमावहन् // 49 जन्मप्रभृति कृष्णश्च चक्रे तस्य क्रियाः शुभाः। स महाधनरत्नौघो वस्त्रकम्बलफेनवान् / / स चापि ववृधे बालः शुक्लपक्षे यथा शशी // 64 महागजमहाग्राहः पताकाशैवलाकुलः // 50 चतुष्पादं दशविधं धनुर्वेदमरिंदमः / -276
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________________ 1. 213. 65 ] आदिपर्व [1. 214. 10 अर्जुनाद्वेद वेदज्ञात्सकलं दिव्यमानुषम् // 65 चकार विधिवद्धौम्यस्तेषां भरतसत्तम / 80 विज्ञानेष्वपि चास्त्राणां सौष्ठवे च महाबलः / कृत्वा च वेदाध्ययनं ततः सुचरितव्रताः / क्रियास्वपि च सर्वासु विशेषानभ्यशिक्षयत् // 66 जगृहुः सर्वमिष्वस्त्रमर्जुनादिव्यमानुषम् // 81 : आगमे च प्रयोगे च चके तुल्यमिवात्मनः / देवगर्भोपमैः पुत्रैयूंढोरस्कैर्महाबलैः / तुतोष पुत्रं सौभद्रं प्रेक्षमाणो धनंजयः // 67 अन्विता राजशार्दूल पाण्डवा मुदमाप्नुवन् // 82 . सर्वसंहननोपेतं सर्वलक्षणलक्षितम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि दुर्धर्षमृषभस्कन्धं व्यात्ताननमिवोरगम् // 68 त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 213 // सिंहदर्प महेष्वासं मत्तमातङ्गविक्रमम् / // समाप्त हरणहारिकपर्व // मेघदुन्दुभिनिर्घोषं पूर्णचन्द्रनिभाननम् // 69 214 कृष्णस्य सदृशं शौर्ये वीर्ये रूपे तथाकृतौ / वैशंपायन उवाच / ददर्श पुत्रं बीभत्सुर्मघवानिव तं यथा // 70 इन्द्रप्रस्थे वसन्तस्ते जघ्नुरन्यान्नराधिपान्। पाश्वाल्यपि च पञ्चभ्यः पतिभ्यः शुभलक्षणा / शासनाद्धृतराष्ट्रस्य राज्ञः शांतनवस्य च // 1 . लेभे पञ्च सुतान्वीराशुभान्पञ्चाचलानिव // 71 / / आश्रित्य धर्मराजानं सर्वलोकोऽवसत्सुखम् / . युधिष्ठिरात्प्रतिविन्ध्यं सुतसोमं वृकोदरात् / पुण्यलक्षणकर्माणं स्वदेहमिव देहिनः / / 2 अर्जुनाच्छ्रुतकर्माणं शतानीकं च नाकुलिम् // 72 स समं धर्मकामार्थान्सिषेवे भरतर्षभः। सहदेवाच्छ्रुतसेनमेतान्पञ्च महारथान् / त्रीनिवात्मसमान्बन्धून्बन्धुमानिव मानयन् // 3 . पाञ्चाली सुषुवे वीरानादित्यानदितिर्यथा / / 73 तेषां समविभक्तानां क्षितौ देहवतामिव / शास्त्रतः प्रतिविन्ध्यं तमूचुर्विप्रा युधिष्ठिरम् / बभौ धर्मार्थकामानां चतुर्थ इव पार्थिवः // 4 / परप्रहरणज्ञाने प्रतिविन्ध्यो भवत्वयम् / / 74 अध्येतारं परं वेदाः प्रयोक्तारं महाध्वराः / सुते सोमसहस्रे तु सोमार्कसमतेजसम् / रक्षितारं शुभं वर्णा लेभिरे तं जनाधिपम् // 5 : सुतसोमं महेष्वासं सुषुवे भीमसेनतः // 75 अधिष्ठानवती लक्ष्मीः परायणवती मतिः। श्रुतं कर्म महत्कृत्वा निवृत्तेन किरीटिना / बन्धुमानखिलो धर्मस्तेनासीत्पृथिवीक्षिता // 6 जातः पुत्रस्तवेत्येवं श्रुतकर्मा ततोऽभवत् / / 76 भ्रातृभिः सहितो राजा चतभिरधिकं बभौ। शतानीकस्य राजर्षेः कौरव्यः कुरुनन्दनः / प्रयुज्यमानैर्विततो वेदैरिव महाध्वरः // 7 : चक्रे पुत्रं सनामानं नकुलः कीर्तिवर्धनम् / / 77 तं तु धौम्यादयो विप्राः परिवार्योपतस्थिरे। ततस्त्वजीजनत्कृष्णा नक्षत्रे वह्निदैवते / बृहस्पतिसमा मुख्याः प्रजापतिमिवामराः // 8 सहदेवात्सुतं तस्माच्छ्रुतसेनेति तं विदुः // 78 धर्मराजे अतिप्रीत्या पूर्णचन्द्र इवामले / एकवर्षान्तरास्त्वेव द्रौपदेया यशस्विनः / प्रजानां रेमिरे तुल्यं नेत्राणि हृदयानि च // 9 : अन्वजायन्त राजेन्द्र परस्परहिते रताः // 79 न तु केवलदेवेन प्रजा भावेन रेमिरे। जातकर्माण्यानुपूर्व्याचूडोपनयनानि च / / यद्बभूव मनःकान्तं कर्मणा स चकार तत् // 10. : -27 -
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________________ 1. 214. 11] महाभारते [1. 215.5 न ह्ययुक्तं न चासत्यं नानृतं न च विप्रियम् / / वेणुवीणामृदङ्गानां मनोज्ञानां च सर्वशः / भाषितं चारुभाषस्य जज्ञे पार्थस्य धीमतः // 11 शब्देनापूर्यते ह स्म तद्वनं सुसमृद्धिमत् // 25 स हि सर्वस्य लोकस्य हितमात्मन एव च। तस्मिंस्तथा वर्तमाने कुरुदाशार्हनन्दनौ / चिकीर्षः सुमहातेजा रेमे भरतसत्तमः / / 12 समीपे जग्मतुः कंचिदुद्देशं सुमनोहरम् // 26 तथा तु मुदिताः सर्वे पाण्डवा विगतज्वराः / तत्र गत्वा महात्मानौ कृष्णौ परपुरंजयौ। अवसन्पृथिवीपालांस्वासयन्तः स्वतेजसा // 13 महार्हासनयो राजस्ततस्तौ संनिषीदतुः // 27 ततः कतिपयाहस्य बीभत्सुः कृष्णमब्रवीत् / तत्र पूर्वव्यतीतानि विक्रान्तानि रतानि च / उष्णानि कृष्ण वर्तन्ते गच्छामो यमुना प्रति // 14 बहूनि कथयित्वा तौ रेमाते पार्थमाधवौ // 28 सुहृज्जनवृतास्तत्र विहृत्य मधुसूदन / तत्रोपविष्टौ मुदितौ नाकपृष्ठेऽश्विनाविव / सायाह्ने पुनरेष्यामो रोचतां ते जनार्दन // 15 अभ्यगच्छत्तदा विप्रो वासुदेवधनंजयौ // 29 वासुदेव उवाच / बृहच्छालप्रतीकाशः प्रतप्तकनकप्रभः / कुन्तीमातर्ममाप्येतद्रोचते यद्वयं जले / हरिपिङ्गो हरिश्मश्रुः प्रमाणायामतः समः // 30 सुहृज्जनवृताः पार्थ विहरेम यथासुखम् // 16 तरुणादित्यसंकाशः कृष्णवासा जटाधरः / वैशंपायन उवाच / पद्मपत्राननः पिङ्गस्तेजसा प्रज्वलन्निव // 31 आमत्र्य धर्मराजानमनुज्ञाप्य च भारत / उपसृष्टं तु तं कृष्णौ भ्राजमानं द्विजोत्तमम् / जग्मतुः पार्थगोविन्दौ सुहृज्जनवृतौ ततः // 17 / अर्जुनो वासुदेवश्च तूर्णमुत्पत्य तस्थतुः / / 32 विहारदेशं संप्राप्य नानाद्रुमवदुत्तमम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि गृहैरुच्चावचैयुक्तं पुरंदरगृहोपमम् // 18 चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 214 // भक्ष्यैर्भोज्यैश्च पेयैश्च रसवद्भिर्महाधनैः / 215 माल्यैश्च विविधैर्युक्तं युक्तं वार्ष्णेयपार्थयोः // 19 वैशंपायन उवाच / आविवेशतुरापूर्ण रत्नरुच्चावचैः शुभैः। सोऽब्रवीदर्जुनं चैव वासुदेवं च सात्वतम् / यथोपजोषं सर्वश्व जनश्चिक्रीड भारत // 20 लोकप्रवीरौ तिष्ठन्तौ खाण्डवस्य समीपतः // 1 वने काश्चिजले काश्चित्काश्चिद्वेश्मसु चाङ्गनाः। ब्राह्मणो बहुभोक्तास्मि भुञ्जऽपरिमितं सदा / यथादेशं यथाप्रीति चिक्रीडुः कृष्णपार्थयोः // 21 भिक्षे वार्ष्णेयपार्थों वामेकां तृप्तिं प्रयच्छताम् // 2 द्रौपदी च सुभद्रा च वासांस्याभरणानि च। एवमुक्ती तमब्रूतां ततस्तौ कृष्णपाण्डवौ / प्रयच्छेतां महार्हाणि स्त्रीणां ते स्म मदोत्कटे // 22 / केनान्नेन भवांस्तृप्येत्तस्यान्नस्य यतावहे // 3 काश्चित्प्रहृष्टा ननृतुश्चक्रुशुश्च तथापराः / एवमुक्तः स भगवानब्रवीत्तावुभौ ततः / जहसुश्वापरा नार्यः पपुश्चान्या वरासवम् // 23 / भाषमाणौ तदा वीरौ किमन्नं क्रियतामिति // 4 रुरुदुश्वापरास्तत्र प्रजन्नुश्च परस्परम् / नाहमन्नं बुभुक्षे वै पावकं मां निबोधतम् / मत्रयामासुरन्याश्च रहस्यानि परस्परम् // 24 यदन्नमनुरूपं मे तावां संप्रयच्छतम् // 5 -278 -
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________________ 1. 215. 6] आदिपर्व [1. 216. 12 इदमिन्द्रः सदा दावं खाण्डवं परिरक्षति / तं न शक्नोम्यहं दग्धं रक्ष्यमाणं महात्मना // 6 वसत्यत्र सखा तस्य तक्षकः पन्नगः सदा / सगणस्तत्कृते दावं परिरक्षति वज्रभृत् / / 7 तत्र भूतान्यनेकानि रक्ष्यन्ते स्म प्रसङ्गतः / तं दिधक्षुर्न शक्नोमि दग्धुं शक्रस्य तेजसा // 8 स मां प्रज्वलितं दृष्ट्वा मेघाम्भोभिः प्रवर्षति / ततो दग्धुं न शक्नोमि दिधक्षुर्दावमीप्सितम् // 9 स युवाभ्यां सहायाभ्यामस्त्रविद्भ्यां समागतः / दहेयं खाण्डवं दावमेतदन्नं वृतं मया // 10 युवा हुंदकधारास्ता भूतानि च समन्ततः / उत्तमास्त्रविदो सम्यक्सर्वतो वारयिष्यथः // 11 एवमुक्ते प्रत्युवाच बीभत्सुर्जातवेदसम् / दिधलु खाण्डवं दावमकामस्य शतक्रतोः // 12 उत्तमास्त्राणि मे सन्ति दिव्यानि च बहूनि च / यैरहं शक्नुयां योद्धमपि वज्रधरान्बहून् // 13 धनुर्मे नास्ति भगवन्बाहुवीर्येण संमितम् / कुर्वतः समरे यत्नं वेगं यद्विषहेत मे / / 14 शरैश्च मेऽर्थो बहुभिरक्षयैः क्षिप्रमस्यतः / न हि वोढुं रथः शक्तः शरान्मम यथेप्सितान् // 15 अश्वांश्च दिव्यानिच्छेयं पाण्डुरान्वातरंहसः। रथं च मेघनिर्घोषं सूर्यप्रतिमतेजसम् // 16 तथा कृष्णस्य वीर्येण नायुधं विद्यते समम् / येन नागान्पिशाचांश्च निहन्यान्माधवो रणे // 17 उपायं कर्मणः सिद्धौ भगवन्वक्तुमर्हसि / निवारयेयं येनेन्द्रं वर्षमाणं महावने // 18 पौरुषेण तु यत्कार्यं तत्कर्तारौ स्व पावक / करणानि समर्थानि भगवन्दातुमर्हसि // 19 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 215 // 216 वैशंपायन उवाच / एवमुक्तस्तु भगवान्धूमकेतुर्हताशनः / चिन्तयामास वरुणं लोकपालं दिदृक्षया। . आदित्यमुदके देवं निवसन्तं जलेश्वरम् // 1 स च तच्चिन्तितं ज्ञात्वा दर्शयामास पावकम् / तमब्रवीद्धूमकेतुः प्रतिपूज्य जलेश्वरम् / चतुर्थं लोकपालानां रक्षितारं महेश्वरम् // 2 सोमेन राज्ञा यद्दत्तं धनुश्चैवेषुधी च ते / तत्प्रयच्छोभयं शीघ्रं रथं च कपिलक्षणम् // 3 कार्यं हि सुमहत्पार्थो गाण्डीवेन करिष्यति / चक्रेण वासुदेवश्च तन्मदर्थे प्रदीयताम् / ददानीत्येव वरुणः पावकं प्रत्यभाषत // 4 ततोऽद्भुतं महावीर्यं यशःकीर्तिविवर्धनम् / सर्वशस्त्रैरनाधृष्यं सर्वशस्त्रप्रमाथि च / सर्वायुधमहामात्रं परसेनाप्रधर्षणम् // 5 एकं शतसहस्रेण संमितं राष्ट्रवर्धनम् / चित्रमुच्चावचैर्वणः शोभितं श्लक्ष्णमव्रणम् // 6 देवदानवगन्धर्वैः पूजितं शाश्वतीः समाः / प्रादाद्वै धनुरत्नं तदक्षय्यौ च महेषुधी // 7 रथं च दिव्याश्वयुजं कपिप्रवरकेतनम् / उपेतं राजतैरश्वैर्गान्धहेममालिभिः / पाण्डुराभ्रप्रतीकाशैर्मनोवायुसमैर्जवे // 8 सर्वोपकरणैर्युक्तमजय्यं देवदानवैः / भानुमन्तं महाघोषं सर्वभूतमनोहरम् // 9 ससर्ज यत्स्वतपसा भौवनो भुवनप्रभुः / प्रजापतिरनिर्देश्यं यस्य रूपं रवेरिव // 10 यं स्म सोमः समारुह्य दानवानजयत्प्रभुः / नगमेघप्रतीकाशं ज्वलन्तमिव च श्रिया // 11 आश्रिता तं रथश्रेष्ठं शक्रायुधसमा शुभा / -279
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________________ 1. 216. 12 ] महाभारते [1. 217.4 तापनीया सुरुचिरा ध्वजयष्टिरनुत्तमा // 12 कल्यौ स्वो भगवन्योद्धुमपि सर्वैः सुरासुरैः / तस्यां तु वानरो दिव्यः सिंहशार्दूललक्षणः / किं पुनर्वज्रिणैकेन पन्नगार्थे युयुत्सुना // 27 विनर्दन्निव तत्रस्थः संस्थितो मूयंशोभत // 13 अर्जुन उवाच। ध्वजे भूतानि तत्रासन्विविधानि महान्ति च। चक्रमस्त्रं च वार्ष्णेयो विसृजन्युधि वीर्यवान् / नादेन रिपुसैन्यानां येषां संज्ञा प्रणश्यति // 14 / त्रिषु लोकेषु तन्नास्ति यन्न जीयाजनार्दनः // 28 स तं नानापताकाभिः शोभितं रथमुत्तमम् / गाण्डीवं धनुरादाय तथाक्षय्यौ महेषुधी। प्रदक्षिणमुपावृत्य दैवतेभ्यः प्रणम्य च // 15 अहमप्युत्सहे लोकान्विजेतुं युधि पावक / / 29 संनद्धः कवची खड्गी बद्धगोधाङ्गुलित्रवान् / सर्वतः परिवार्यैनं दावेन महता प्रभो। आरुरोह रथं पार्थो विमानं सुकृती यथा // 16 कामं संप्रज्वलाद्यैव कल्यौ स्वः साह्यकर्मणि // 30 तच्च दिव्यं धनुःश्रेष्ठं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा / वैशंपायन उवाच।.. गाण्डीवमुपसंगृह्य बभूव मुदितोऽर्जुनः // 17 एवमुक्तः स भगवान्दाशाहेणार्जुनेन च / हुताशनं नमस्कृत्य ततस्तदपि वीर्यवान् / तैजसं रूपमास्थाय दावं दग्धं प्रचक्रमे // 31 जग्राह बलमास्थाय ज्यया च युयुजे धनुः // 18 सर्वतः परिवार्याथ सप्ताचिर्बलनस्तदा / मौव्यां तु युज्यमानायां बलिना पाण्डवेन ह / ददाह खाण्डवं क्रुद्धो युगान्तमिव दर्शयन् // 32 येऽशृण्वन्कूजितं तत्र तेषां वै व्यथितं मनः // 19 परिगृह्य समाविष्टस्तद्वनं भरतर्षभ / लब्ध्वा रथं धनुश्चैव तथाक्षय्यौ महेषुधी। मेघस्तनितनि!षं सर्वभूतानि निर्दहन् // 33 बभूव कल्यः कौन्तेयः प्रहृष्टः साह्यकर्मणि // 20 दह्यतस्तस्य विवभौ रूपं दावस्य भारत / वज्रनाभं ततश्चक्रं ददौ कृष्णाय पावकः / मेरोरिव नगेन्द्रस्य काञ्चनस्य महाद्युतेः // 34 आग्नेयमत्रं दयितं स च कल्योऽभवत्तदा // 21 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अब्रवीत्पावकश्चैनमेतेन मधुसूदन / षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 216 // अमानुषानपि रणे विजेष्यसि न संशयः॥ 22 . 217 अनेन त्वं मनुष्याणां देवानामपि चाहवे। वैशंपायन उवाच। रक्षःपिशाचदैत्यानां नागानां चाधिकः सदा। तौ रथाभ्यां नरव्याघ्रौ दावस्योभयतः स्थितौ / भविष्यसि न संदेहः प्रवरारिनिबर्हणे / / 23 / दिक्षु सर्वासु भूतानां चक्राते कदनं महत् / / 1 क्षिप्तं क्षिप्तं रणे चैतत्त्वया माधव शत्रुषु / यत्र यत्र हि दृश्यन्ते प्राणिनः खाण्डवालयाः। हत्वाप्रतिहतं संख्ये पाणिमेष्यति ते पुनः // 24 पलायन्तस्तत्र तत्र तौ वीरौ पर्यधावताम् // 2 वरुणश्च ददौ तस्मै गदामशनिनिःस्वनाम् / छिद्रं हि न प्रपश्यन्ति रथयोराशुविक्रमात् / दैत्यान्तकरणी घोरां नाम्ना कौमोदकी हरेः // 25 आविद्धाविव दृश्येते रथिनौ तौ रथोत्तमौ // 3 ततः पावकमवतां प्रहृष्टौ कृष्णपाण्डवौ।। खाण्डवे दह्यमाने तु भूतान्यथ सहस्रशः / कृतास्त्रौ शस्त्रसंपन्नौ रथिनौ ध्वजिनावपि // 26 उत्पेतुभैरवान्नादान्विनदन्तो दिशो दश // 4 -280
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________________ 1. 217. 5] आदिपर्व [1. 218.9 दग्धैकदेशा बहवो निष्टप्ताश्च तथापरे। ततोऽक्षमात्रा विसृजन्धाराः शतसहस्रशः / स्फुटिताक्षा विशीर्णाश्च विप्लुताश्च विचेतसः॥५ अभ्यवर्षत्सहस्राक्षः पावकं खाण्डवं प्रति // 19 समालिङ्गय सुतानन्ये पितॄन्मातृस्तथापरे / असंप्राप्तास्तु ता धारास्तेजसा जातवेदसः / त्यक्तुं न शेकुः स्नेहेन तथैव निधनं गताः // 6 ख एव समशुष्यन्त न काश्चित्पावकं गताः / 20 विकृतैर्दर्शनैरन्ये समुत्पेतुः सहस्रशः / ततो नमुचिहा क्रुद्धो भृशमर्चिष्मतस्तदा। तत्र तत्र विघूर्णन्तः पुनरग्नौ प्रपेदिरे // 7 पुनरेवाभ्यवर्षत्तमम्भः प्रविसृजन्बहु // 21 दग्धपक्षाक्षिचरणा विचेष्टन्तो महीतले / अर्चिर्धाराभिसंबद्धं धूमविद्युत्समाकुलम् / तत्र तत्र स्म दृश्यन्ते विनश्यन्तः शरीरिणः // 8 बभूव तद्वनं घोरं स्तनयित्नुसघोषवत् // 22 जलस्थानेषु सर्वेषु काथ्यमानेषु भारत / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि गतसत्त्वाः स्म दृश्यन्ते कूर्ममत्स्याः सहस्रशः // 9 सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२१७ // शरीरैः संप्रदीप्तैश्च देहवन्त इवाग्नयः / 218 अदृश्यन्त वने तस्मिन्प्राणिनः प्राणसंक्षये // 10 वैशंपायन उवाच / तांस्तथोत्पततः पार्थः शरैः संछिद्य खण्डशः / तस्याभिवर्षतो वारि पाण्डवः प्रत्यवारयत् / दीप्यमाने ततः प्रास्यत्प्रहसन्कृष्णवर्त्मनि // 11 शरवर्षेण बीभत्सुरुत्तमास्त्राणि दर्शयन् // 1 ते शराचितसर्वाङ्गा विनदन्तो महारवान् / शरैः समन्ततः .सर्वं खाण्डवं चापि पाण्डवः / ऊर्ध्वमुत्पत्य वेगेन निपेतुः पावके पुनः // 12 छादयामास तद्वर्षमपकृष्य ततो वनात् // 2 शरैरभ्याहतानां च दह्यतां च वनौकसाम् / न च स्म किंचिच्छक्नोति भूतं निश्चरितुं ततः। विरावः श्रूयते ह स्म समुद्रस्येव मथ्यतः // 13 संछाद्यमाने खगमैरस्यता सव्यसाचिना // 3 वह्नश्चापि प्रहृष्टस्य खमुत्पेतुर्महार्चिषः / तक्षकस्तु न तत्रासीत्सर्पराजो महाबलः / जनयामासुरुद्वेगं सुमहान्तं दिवौकसाम् / / 14 दह्यमाने वने तस्मिन्कुरुक्षेत्रेऽभवत्तदा // 4 ततो जग्मुर्महात्मानः सर्व एव दिवौकसः। अश्वसेनस्तु तत्रासीत्तक्षकस्य सुतो बली। शरणं देवराजानं सहस्राक्षं पुरंदरम् / / 15 स यत्नमकरोत्तीव्र मोक्षार्थ हव्यवाहनात् // 5 देवा ऊचुः। न शशाक विनिर्गन्तुं कौन्तेयशरपीडितः / किं न्विमे मानवाः सर्वे दह्यन्ते कृष्णवर्त्मना। मोक्षयामास तं माता निगीर्य भुजगात्मजा // 6 कश्चिन्न संक्षयः प्राप्तो लोकानाममरेश्वर / / 16 तस्य पूर्व शिरो प्रस्तं पुच्छमस्य निगीर्यते / -- वैशंपायन उवाच। ऊर्ध्वमाचक्रमे सा तु पन्नगी पुत्रगृद्धिनी // 7 तच्छ्रुत्वा वृत्रहा तेभ्यः स्वयमेवान्ववेक्ष्य च। तस्यास्तीक्ष्णेन भल्लेन पृथुधारेण पाण्डवः / खाण्डवस्य विमोक्षार्थं प्रययौ हरिवाहनः // 17 शिरश्चिच्छेद गच्छन्त्यास्तामपश्यत्सुरेश्वरः // 8 महता मेघजालेन नानारूपेण वज्रभृत् / तं मुमोचयिषुर्वज्री वातवर्षेण पाण्डवम् / आकाशं समवस्तीर्य प्रववर्ष सुरेश्वरः // 18 मोहयामास तत्कालमश्वसेनस्त्वमुच्यत // 9 म.भा. 36 -281 -
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________________ 1. 218. 10] महाभारते [1. 218. 39 तां च मायां तदा दृष्ट्वा घोरां नागेन वश्चितः। / तेषामभिव्याहरतां शस्त्रवर्ष च मुञ्चताम् / द्विधा त्रिधा च चिच्छेद खगतानेव भारत // 10 प्रममाथोत्तमाङ्गानि बीभत्सुनिशितैः शरैः // 25 शशाप तं च संक्रुद्धो बीभत्सुर्जिह्मगामिनम्। कृष्णश्च सुमहातेजाश्चक्रेणारिनिहा तदा। पावको वासुदेवश्च अप्रतिष्ठो भवेदिति // 11 दैत्यदानवसंघानां चकार कदनं महत् // 26 ततो जिष्णुः सहस्राक्षं खं वितत्येषुभिः शितैः / अथापरे शरैर्विद्धाश्चक्रवेगेरितास्तदा। योधयामास संक्रुद्धो वञ्चनां तामनुस्मरन् // 12 वेलामिव समासाद्य व्यातिष्ठन्त महौजसः // 27 देवराडपि तं दृष्ट्वा संरब्धमिव फल्गुनम्। ततः शक्रोऽभिसंक्रुद्धस्त्रिदशानां महेश्वरः। स्वमस्त्रमसृजद्दीप्तं यत्ततानाखिलं नभः // 13 पाण्डुरं गजमास्थाय तावुभौ समभिद्रवत् // 28 ततो वायुर्महाघोषः क्षोभयन्सर्वसागरान् / अशनिं गृह्य तरसा वज्रमस्त्रमवासृजत् / वियत्स्थोऽजनयन्मेघाञ्जलधारामुचोऽऽकुलान् // 14 हतावेताविति प्राह सुरानसुरसूदनः।। 29 . तद्विघातार्थमसृजदर्जुनोऽप्यस्त्रमुत्तमम् / ततः समुद्यतां दृष्ट्वा देवेन्द्रेण महाशनिम् / वायव्यमेवाभिमत्र्य प्रतिपत्तिविशारदः // 15 जगृहुः सर्वशस्त्राणि स्वानि स्वानि सुरास्तदा // 30 तेनेन्द्राशनिमेघानां वीर्योजस्तद्विनाशितम् / कालदण्डं यमो राजा शिविकां च धनेश्वरः / जलधाराश्च ताः शोषं जग्मुर्नेशुश्च विद्युतः // 16 पाशं च वरुणस्तत्र विचक्रं च तथा शिवः // 31 क्षणेन चाभवव्योम संप्रशान्तरजस्तमः / ओषधीर्दीप्यमानाश्च जगृहातेऽश्विनावपि / सुखशीतानिलगुणं प्रकृतिस्थार्कमण्डलम् // 17 जगृहे च धनुर्धाता मुसलं च जयस्तथा // 32 निष्प्रतीकारहृष्टश्च हुतभुग्विविधाकृतिः / पर्वतं चापि जग्राह क्रुद्धस्त्वष्टा महाबलः / प्रजज्वालातुलार्चिष्मान्स्वनादैः पूरयञ्जगत् // 18 अंशस्तु शक्तिं जग्राह मृत्युदेवः परश्वधम् // 33 कृष्णाभ्यां रक्षितं दृष्ट्वा तं च दावमहंकृताः / प्रगृह्य परिघं घोरं विचचारार्यमा अपि। समुत्पेतुरथाकाशं सुपर्णाद्याः पतत्रिणः // 19 मित्रश्च क्षुरपर्यन्तं चक्रं गृह्य व्यतिष्ठत // 34 गरुडा वज्रसदृशैः पक्षतुण्डनखैस्तथा / पूषा भगश्च संक्रुद्धः सविता च विशां पते। प्रहर्तुकामाः संपेतुराकाशात्कृष्णपाण्डवौ // 20 आत्तकार्मुकनिस्त्रिंशाः कृष्णपार्थावभिद्रुताः // 35 तथैवोरगसंघाताः पाण्डवस्य समीपतः / रुद्राश्च वसवश्चैव मरुतश्च महाबलाः / उत्सृजन्तो विषं घोरं निश्चेरुर्खलिताननाः // 21 विश्वेदेवास्तथा साध्या दीप्यमानाः स्वतेजसा॥३६ तांश्चकर्त शरैः पार्थः सरोषान्दृश्य खेचरान् / एते चान्ये च बहवो देवास्तौ पुरुषोत्तमौ / विवशाश्चापतन्दीप्तं देहाभावाय पावकम् // 22 कृष्णपार्थो जिघांसन्तः प्रतीयुर्विविधायुधाः // 37 ततः सुराः सगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः। तत्राद्भुतान्यदृश्यन्त निमित्तानि महाहवे। उत्पेतुर्नादमतुलमुत्सृजन्तो रणार्थिनः / / 23 युगान्तसमरूपाणि भूतोत्सादाय भारत // 38 अयःकणपचक्राश्मभुशुण्ड्युद्यतबाहवः / तथा तु दृष्ट्वा संरब्धं शक्रं देवैः सहाच्युतौ / कृष्णपार्थो जिघांसन्तः क्रोधसंमूछितौजसः॥२४ अभीतौ युधि दुर्धर्षों तस्थतुः स॒ज्यकार्मुकौ // 39 -282
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________________ L. 218. 40] आदिपर्व [1. 219. 16 आगतांश्चैव तान्दृष्ट्वा देवानेकैकशस्ततः / मृगाश्च महिषाश्चैव शतशः पक्षिणस्तथा। न्यवारयेतां संक्रद्धौ बाणैर्वञोपमैस्तदा // 40 समुद्विग्ना विससृपुस्तथान्या भूतजातयः // 2 असकृद्भग्नसंकल्पाः सुराश्च बहुशः कृताः / तं दावं समुदीक्षन्तः कृष्णौ चाभ्युद्यतायुधौ। भयाद्रणं परित्यज्य शक्रमेवाभिशिश्रियुः // 41 उत्पातनादशब्देन संत्रासित इवाभवन् // 3 दृष्ट्वा निवारितान्देवान्माधवेनार्जुनेन च / स्वतेजोभास्वरं चक्रमुत्ससर्ज जनार्दनः। आश्चर्यमगमंस्तत्र मुनयो दिवि विष्ठिताः // 42 तेन ता जातयः क्षुद्राः सदानवनिशाचराः। .. शक्रश्चापि तयोर्वीर्यमुपलभ्यासकृद्रणे / निकृत्ताः शतशः सर्वा निपेतुरनलं क्षणात् // 4 बभूव परमप्रीतो भूयश्चैतावयोधयत् // 43 अदृश्यन्राक्षसास्तत्र कृष्णचक्रविदारिताः। ततोऽश्मवर्षं सुमहद्व्यसृजत्पाकशासनः / वसारुधिरसंपृक्ताः संध्यायामिव तोयदाः॥५भूय एव तदा वीर्यं जिज्ञासुः सव्यसाचिनः / पिशाचान्पक्षिणो नागान्पशूश्चापि सहस्रशः। तच्छरैरर्जुनो वर्ष प्रतिजन्नेऽत्यमर्षणः // 44 निघ्नंश्चरति वार्ष्णेयः कालवत्तत्र भारत / / 6 विफलं क्रियमाणं तत्संप्रेक्ष्य च शतक्रतुः / क्षिप्तं क्षिप्तं हि तच्चक्रं कृष्णस्यामित्रघातिनः। . भूयः संवर्धयामास तद्वर्ष देवराडथ // 45 हत्वानेकानि सत्त्वानि पाणिमेति पुनः पुनः // 7 सोऽश्मवर्षं महावेगैरिषुभिः पाकशासनिः / तथा तु निघ्नतस्तस्य सर्वसत्त्वानि भारत / विलयं गमयामास हर्षयन्पितरं तदा // 46 बभूव रूपमत्युग्रं सर्वभूतात्मनस्तदा // 8 समुत्पाट्य तु पाणिभ्यां मन्दराच्छिखरं महत् / समेतानां च देवानां दानवानां च सर्वशः / सद्रुमं व्यसृजच्छको जिघांसुः पाण्डुनन्दनम् // 47 विजेता नाभवत्कश्चित्कृष्णपाण्डवयोमधे // 9 ततोऽर्जुनो वेगवद्भिर्खलितात्रैरजिह्मगैः / तयोर्बलात्परित्रातुं तं दावं तु यदा सुराः / / बाणैर्विध्वंसयामास गिरेः शृङ्गं सहस्रधा / / 48 नाशक्नुवशमयितुं तदाभूवन्पराङ्मुखाः॥ 10 गिरेविशीयमाणस्य तस्य रूपं तदा बभौ / शतक्रतुश्च संप्रेक्ष्य विमुखान्देवतागणान् / सार्कचन्द्रग्रहस्येव नभसंः प्रविशीर्यतः // 49 बभूवावस्थितः प्रीतः प्रशंसन्कृष्णपाण्डवौ // 11 // तेनावाक्पतता दावे शैलेन महता भृशम् / निवृत्तेषु तु देवेषु वागुवाचाशरीरिणी। भूय एव हतास्तत्र प्राणिनः खाण्डवालयाः॥ 50 शतक्रतुमभिप्रेक्ष्य महागम्भीरनिस्वना / / 12 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि न ते सखा संनिहितस्तक्षकः पन्नगोत्तमः / अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 218 // दाहकाले खाण्डवस्य कुरुक्षेत्रं गतो ह्यसौ // 13 : न च शक्यौ त्वया जेतुं युद्धेऽस्मिन्समवस्थितौ / वैशंपायन उवाच / वासुदेवार्जुनौ शक्र निबोधेदं वचो मम // 14 तथा शैलनिपातेन भीषिताः खाण्डवालयाः। नरनारायणौ देवौ तावेतौ विश्रुतौ दिवि / दानवा राक्षसा नागास्तरवृक्षवनौकसः। भवानप्यभिजानाति यद्वीयौ यत्पराक्रमौ / / 15 द्विपाः प्रभिन्नाः शार्दूलाः सिंहाः केसरिणस्तथा // / नैतौ शक्यौ दुराधर्षों विजेतुमजितौ युधि। . - 283 --- 219
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________________ 1. 219. 16] महाभारत [1. 220. 3 अपि सर्वेषु लोकेषु पुराणावृषिसत्तमौ // 16 . ते विभिन्नशिरोदेहाश्चक्रवेगाद्गतासवः / पूजनीयतमावेतावपि सर्वैः सुरासुरैः / पेतुरास्ये महाकाया दीप्तस्य वसुरेतसः / / 31 सयक्षरक्षोगन्धर्वनरकिंनरपन्नगैः // 17 स मांसरुधिरौद्यैश्च मेदौघैश्च समीरितः / तस्मादितः सुरैः सार्धं गन्तुमर्हसि वासव। उपर्याकाशगो वह्निर्विधूमः समदृश्यत / / 32 दिष्टं चाप्यनुपश्यैतत्खाण्डवस्य विनाशनम् // 18 दीप्ताक्षो दीप्तजिह्वश्च दीप्तव्यात्तमहाननः / इति वाचमभिश्रुत्य तथ्यमित्यमरेश्वरः / दीप्तोर्ध्वकेशः पिङ्गाक्षः पिबन्प्राणभृतां वसाम्॥३३ कोपामर्षों समुत्सृज्य संप्रतस्थे दिवं तदा // 19 तां स कृष्णार्जुनकृतां सुधां प्राप्य हुताशनः / तं प्रस्थितं महात्मानं समवेक्ष्य दिवौकसः / बभूव मुदितस्तृप्तः परां निवृतिमागतः // 34 त्वरिताः सहिता राजन्ननुजग्मुः शतक्रतुम् // 20 अथासुरं मयं नाम तक्षकस्य निवेशनात्। देवराजं तदा यान्तं सह देवैरुदीक्ष्य तु / विप्रद्रवन्तं सहसा ददर्श मधुसूदनः // 35 वासुदेवार्जुनौ वीरौ सिंहनादं विनेदतुः / / 21 तमग्निः प्रार्थयामास दिधक्षुर्वातसारथिः / देवराजे गते राजन्प्रहृष्टौ कृष्णपाण्डवौ। देहवान्वै जटी भूत्वा नदंश्च जलदो यथा। निर्विशकं पुनवं दाहयामासतुस्तदा / / 22 / जिघांसुर्वासुदेवश्व चक्रमुद्यम्य विष्ठितः / / 36 / स मारुत इवाभ्राणि नाशयित्वार्जुनः सुरान् / स चक्रमुद्यतं दृष्ट्वा दिधलुं च हुताशनम् / व्यधमच्छरसंपातैः प्राणिनः खाण्डवालयान् / / 23 अभिधावार्जुनेत्येवं मयश्चक्रोश भारत // 37 . न च स्म किंचिच्छन्नोति भूतं निश्चरितुं ततः / तस्य भीतस्वनं श्रुत्वा मा भैरिति धनंजयः / संछिद्यमानमिषुभिरस्यता सव्यसाचिना॥२४ प्रत्युवाच मयं पार्थो जीवयन्निव भारत // 38 नाशकंस्तत्र भूतानि महान्त्यपि रणेऽर्जुनम् / तं पार्थेनाभये दत्ते नमुचेतिरं मयम् / निरीक्षितुममोघेषु करिष्यन्ति कुतो रणम् // 25 न हन्तुमैच्छद्दाशार्हः पावको न ददाह च // 39 शतेनैकं च विव्याध शतं चैकेन पत्रिणा। तस्मिन्वने दह्यमाने षडग्निर्न ददाह च। व्यसवस्तेऽपतन्नग्नौ साक्षात्कालहता इव // 26 अश्वसेनं मयं चापि चतुरः शार्ङ्गकानिति // 40 न चालभन्त ते शर्म रोधःसु विषमेषु च / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पितृदेवनिवासेषु संतापश्चाप्यजायत // 27 . एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२१९॥ भूतसंघसहस्राश्च दीनाश्चक्रुर्महास्वनम् / रुरुवुर्वारणाश्चैव तथैव मृगपक्षिणः / जनमेजय उवाच। तेन शब्देन वित्रेसुर्गङ्गोदधिचरा झषाः // 28 किमर्थं शाङ्गकानग्निर्न ददाह तथागते / न ह्यर्जुनं महाबाहुं नापि कृष्णं महाबलम् / तस्मिन्वने दह्यमाने ब्रह्मन्नेतद्वदाशु मे // 1 निरीक्षितुं वै शक्नोति कश्चिद्योद्धं कुतः पुनः॥२९ अदाहे ह्यश्वसेनस्य दानवस्य मयस्य च / एकायनगता येऽपि निष्पतन्त्यत्र केचन / कारणं कीर्तितं ब्रह्मशाङ्गकानां न कीर्तितम् / / 2 राक्षसान्दानवान्नागाञ्जने चक्रेण तान्हरिः // 30 / तदेतदद्भुतं ब्रह्मशामनामविनाशनम् / -284 - 220
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________________ 1.220.31 आदिपर्व [1. 220. 29 कीर्तयस्वाग्निसंमर्दे कथं ते न विनाशिताः // 3 / तस्यां पुत्रानजनयच्चतुरो ब्रह्मवादिनः / वैशंपायन उवाच। तानपास्य स तत्रैव जगाम लपितां प्रति / यदर्थं शाङ्गकानग्निर्न ददाह तथागते / बालान्सुतानण्डगतान्मात्रा सह मुनिर्वने // 17 तत्ते सर्वं यथावृत्तं कथयिष्यामि भारत // 4 तस्मिन्गते महाभागे लपितां प्रति भारत / धर्मज्ञानां मुख्यतमस्तपस्वी संशितव्रतः / अपत्यस्नेहसंविग्ना जरिता बह्वचिन्तयत् // 18 आसीन्महर्षिः श्रुतवान्मन्दपाल इति श्रुतः / / 5 तेन त्यक्तानसंत्याज्यानृषीनण्डगतान्वने / स मार्गमास्थितो राजन्नषीणामूर्ध्वरेतसाम् / / नाजहत्पुत्रकामार्ता जरिता खाण्डवे नृप। स्वाध्यायवान्धर्मरतस्तपस्वी विजितेन्द्रियः / / 6 बभार चैतान्संजातान्स्ववृत्त्या स्नेहविक्लवा // 19 स गत्वा तपसः पारं देहमुत्सृज्य भारत। ततोऽग्निं खाण्डवं दग्धुमायान्तं दृष्टवानृषिः / जगाम पितृलोकाय न लेभे तत्र तत्फलम् // 7 मन्दपालश्चरंस्तस्मिन्वने लपितया सह // 20 स लोकानफलान्दृष्ट्वा तपसा निर्जितानपि / तं संकल्पं विदित्वास्य ज्ञात्वा पुत्रांश्च बालकान् / पप्रच्छ धर्मराजस्य समीपस्थान्दिवौकसः // 8 सोऽभितुष्टाव विप्रर्षिाह्मणो जातवेदसम् / किमर्थमावृता लोका ममैते तपसार्जिताः / पुत्रान्परिददद्भीतो लोकपालं महौजसम् // 21 किं मया न कृतं तत्र यस्येदं कर्मणः फलम् // 9 मन्दपाल उवाच / तत्राहं तत्करिष्यामि यदर्थमिदमावृतम् / त्वमग्ने सर्वदेवानां मुखं त्वमसि हव्यवाट् / * फलमेतस्य तपसः कथयध्वं दिवौकसः॥ 10 त्वमन्तः सर्वभूतानां गूढश्चरसि पावक / / 22 देवा ऊचुः / त्वामेकमाहुः कवयस्त्वामाहुत्रिविधं पुनः / ऋणिनो मानवा ब्रह्मञ्जायन्ते येन तच्छृणु। त्वामष्टधा कल्पयित्वा यज्ञवाहमकल्पयन् // 23 क्रियाभिब्रह्मचर्येण प्रजया च न संशयः / / 11 त्वया सृष्टमिदं विश्वं वदन्ति परमर्षयः / तदपाक्रियते सर्वं यज्ञेन तपसा सुतैः / त्वदृते हि जगत्कृत्स्नं सद्यो न स्याद्भुताशन // 24 तपस्वी यज्ञकृञ्चासि न तु ते विद्यते प्रजा // 12 तुभ्यं कृत्वा नमो विप्राः स्वकर्मविजितां गतिम् / त इमे प्रसवस्यार्थे तव लोकाः समावृताः / गच्छन्ति सह पत्नीभिः सुतैरपि च शाश्वतीम् // 25 प्रजायस्व ततो लोकानुपभोक्तासि शाश्वतान् // 13 त्वामने जलदानाहुः खे विषक्तान्सविद्युतः / पुन्नाम्नो नरकात्पुत्रस्त्रातीति पितरं मुने / दहन्ति सर्वभूतानि त्वत्तो निष्क्रम्य हायनाः // 26 तस्मादपत्यसंताने यतख द्विजसत्तम // 14 जातवेदस्तवैवेयं विश्वसृष्टिर्महाद्युते। - वैशंपायन उवाच / तवैव कर्म विहितं भूतं सर्वं चराचरम् // 27 तच्छ्रुत्वा मन्दपालस्तु तेषां वाक्यं दिवौकसाम् / त्वयापो विहिताः पूर्वं त्वयि सर्वमिदं जगत् / क नु शीघ्रमपत्यं स्याबहुलं चेत्यचिन्तयत् // 15 त्वयि हव्यं च कव्यं च यथावत्संप्रतिष्ठितम् // 28 स चिन्तयन्नभ्यगच्छद्वहुलप्रसवान्खगान्। अग्ने त्वमेव ज्वलनस्त्वं धाता त्वं बृहस्पतिः। शाह्निका शार्ङ्गको भूत्वा जरितां समुपेयिवान् // 16 / त्वमश्विनौ यमौ मित्रः सोमस्त्वमसि चानिलः // 29 - 285 -
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________________ 1. 220. 30] महाभारते [1. 221. 21 वैशंपायन उवाच / सारिसृक्कः प्रजायेत पितॄणां कुलवर्धनः // 8 एवं स्तुतस्ततस्तेन मन्दपालेन पावकः / स्तम्बमित्रस्तपः कुर्याद्रोणो ब्रह्मविदुत्तमः / तुतोष तस्य नृपते मुनेरमिततेजसः / इत्येवमुक्त्वा प्रययौ पिता वो निघृणः पुरा // 9 उवाच चैनं प्रीतात्मा किमिष्टं करवाणि ते // 30 कमुपादाय शक्येत गन्तुं कस्यापदुत्तमा। तमब्रवीन्मन्दपालः प्राञ्जलिहव्यवाहनम् / किं नु कृत्वा कृतं कार्यं भवेदिति च विह्वला // 10 प्रदहन्खाण्डवं दावं मम पुत्रान्विसर्जय // 31 नापश्यत्स्वधिया मोक्षं स्वसुतानां तदानलात् / तथेति तत्प्रतिश्रुत्य भगवान्हव्यवाहनः / एवं ब्रुवन्ती शास्तेि प्रत्यूचुरथ मातरम् // 11 खाण्डवे तेन कालेन प्रजज्वाल दिधक्षया // 32 स्नेहमुत्सृज्य मातस्त्वं पत यत्र न हव्यवाट् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अस्मासु हि विनष्टेषु भवितारः सुतास्तव / / विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 220 // त्वयि मातर्विनष्टायां न नः स्यात्कुलसंततिः॥ 12 221 अन्ववेक्ष्यतदुभयं क्षमं स्याद्यत्कुलस्य नः। वैशंपायन उवाच। तद्वै कर्तुं परः कालो मातरेष भवेत्तव / / 13 ततः प्रज्वलिते शुक्रे शार्ङ्गकास्ते सुदुःखिताः। मा वै कुलविनाशाय स्नेहं कार्षीः सुतेषु नः / व्यथिताः परमोद्विग्ना नाधिजग्मुः परायणम् // 1 न हीदं कर्म मोघं स्याल्लोककामस्य नः पितुः॥१४ निशाम्य पुत्रकान्बालान्माता तेषां तपस्विनी। जरितोवाच / जरिता दुःखसंतप्ता विललाप नरेश्वर / / 2 इदमाखोर्बिलं भूमौ वृक्षस्यास्य समीपतः / अयमग्निर्दहन्कक्षमित आयाति भीषणः / तदाविशध्वं त्वरिता क्रुरत्र न वो भयम् // 15 जगत्संदीपयन्भीमो मम दुःखविवर्धनः॥ 3 ततोऽहं पांसुना छिद्रमपिधास्यामि पुत्रकाः / इमे च मां कर्षयन्ति शिशवो मन्दचेतसः / एवं प्रतिकृतं मन्ये ज्वलतः कृष्णवर्त्मनः // 16 अबर्दाश्चरणींनाः पूर्वेषां नः परायणम् / तत एष्याम्यतीतेऽग्नौ विहर्तुं पांसुसंचयम् / त्रासयंश्चायमायाति लेलिहानो महीरुहान् // 4 रोचतामेष वोपायो विमोक्षाय हुताशनात् // 17 अशक्तिमत्त्वाच्च सुता न शक्ताः सरणे मम / . शाङ्गका ऊचुः। आदाय च न शक्तास्मि पुत्रान्सरितुमन्यतः॥५. अबन्मिांसभूतान्नः क्रव्यादाखुर्विनाशयेत् / न च त्यक्तुमहं शक्ता हृदयं दूयतीव मे / पश्यमाना भयमिदं न शक्ष्यामो निषेवितुम् // 18 कं नु जह्यामहं पुत्रं कमादाय व्रजाम्यहम् // 6 / कथमग्निर्न नो दह्यात्कथमाखुन भक्षयेत् / किं नु मे स्यात्कृतं कृत्वा मन्यध्वं पुत्रकाः कथम् / कथं न स्यात्पिता मोघः कथं माता ध्रियेत नः॥१९ चिन्तयाना विमोक्षं वो नाधिगच्छामि किंचन। बिल आखोर्विनाशः स्यादग्नेराकाशचारिणाम् / छादयित्वा च वो गात्रैः करिष्ये मरणं सह // 7 | अन्ववेक्ष्यैतदुभयं श्रेयान्दाहो न भक्षणम् // 20 ज़रितारौ कुलं हीदं ज्येष्ठत्वेन प्रतिष्ठितम् / / -286 - गतिं मरणं नः स्यादाखना खादता बिले / /
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________________ 1. 221. 21] आदिपर्व [1. 223. 4 शिष्टादिष्टः परित्यागः शरीरस्य हुताशनात् // 21 अत एव भयं नास्ति क्रियतां वचनं मम // 11 इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि शाङ्गका ऊचुः / एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 221 // न त्वं मिथ्योपचारेण मोक्षयेथा भयं महत् / . 222 समाकुलेषु ज्ञानेषु न बुद्धिकृतमेव तत् / / 12 / जरितोवाच / न चोपकृतमस्माभिर्न चास्मान्वेत्थ ये वयम् / अस्माद्विलान्निष्पतितं श्येन आलुं जहार तम् / पीड्यमाना भरस्यस्मान्का सती के वयं तव // 13 क्षुद्रं गृहीत्वा पादाभ्यां भयं न भविता ततः // 1 तरुणी दर्शनीयासि समर्था भर्तुरेषणे / शाङ्गका ऊचुः / अनुगच्छ स्वभर्तारं पुत्रानाप्स्यसि शोभनान् // 14 न हृतं तं वयं विद्मः श्येनेनाखं कथंचन / . वयमप्यग्निमाविश्य लोकान्प्राप्स्यामहे शुभान् / अन्येऽपि भवितारोऽत्र तेभ्योऽपि भयमेव नः॥२ अथास्मान्न दहेदग्निरायास्त्वं पुनरेव नः // 15 संशयो ह्यग्निरागच्छेदृष्टं वायोर्निवर्तनम् / वैशंपायन उवाच / मृत्युनों बिलवासिभ्यो भवेन्मातरसंशयम् / / 3 एवमुक्ता ततः शाङ्गी पुत्रानुत्सृज्य खाण्डवे / निःसंशयात्संशयितो मृत्युर्मातर्विशिष्यते / जगाम त्वरिता देशं क्षेममग्नेरनाश्रयम् // 16 पर खे त्वं यथान्यायं पुत्रान्वेत्स्यसि शोभनान्॥४ ततस्तीक्ष्णार्चिरभ्यागाज्वलितो हव्यवाहनः / जरितोवाच / . यत्र शाम बभूवुस्ते मन्दपालस्य पुत्रकाः // 17 / अहं वै श्येनमायान्तमद्राक्षं बिलमन्तिकात् / ते शाम ज्वलनं दृष्ट्वा ज्वलितं स्वेन तेजसा। संचरन्तं समादाय जहाराखु बिलाबली // 5 जरितारिस्ततो वाचं श्रावयामास पावकम् / / 18 तं पतन्तमहं श्येनं त्वरिता पृष्ठतोऽन्वगाम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आशिषोऽस्य प्रयुञ्जाना हरतो मूषकं बिलात् // 6 द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 222 // यो नो द्वेष्टारमादाय श्येनराज प्रधावसि / 223 भव त्वं दिवमास्थाय निरमित्रो हिरण्मयः // 7 जरितारिरुवाच / यदा स भक्षितस्तेन लुधितेन पतत्रिणा / पुरतः कृच्छ्रकालस्य धीमाञ्जागर्ति पूरुषः / तदाहं तमनुज्ञाप्य प्रत्युपायां गृहान्प्रति // 8 स कृच्छ्रकालं संप्राप्य व्यथां नैवैति कर्हिचित् // 1 प्रविशध्वं बिलं पुत्रा विश्रब्धा नास्ति वो भयम् / येस्तु कृच्छ्रमसंप्राप्तं विचेता नावबुध्यते / वेनेन मम पश्यन्त्या हृत आखुर्न संशयः // 9 स कृच्छ्रकाले व्यथितो न प्रजानाति किंचन // 2 - शाङ्गका ऊचुः / सारिसृक्क उवाच / न विद्म वै वयं मातहृतमाखुमितः पुरा / धीरस्त्वमसि मेधावी प्राणकृच्छ्रमिदं च नः। अविज्ञाय न शक्ष्यामो बिलमाविशतुं वयम् // 10 शूरः प्राज्ञो बहूनां हि भवत्येको न संशयः // 3 म जरितोवाच / / स्तम्बमित्र उवाच / अहं हि तं प्रजानामि हृतं श्येनेन मूषकम् / / ज्येष्ठनाता भवति वै ज्येष्ठो मुञ्चति कृच्छ्रतः। / -287 -
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________________ 1. 223. 4] महाभारते [1. 223. 25 ज्येष्ठश्चेन्न प्रजानाति कनीयान्कि करिष्यति // 4 सर्वस्यास्य भुवनस्य प्रसूतिद्रोण उवाच / स्त्वमेवाग्ने भवसि पुनः प्रतिष्ठा / / 14 हिरण्यरेतास्त्वरितो ज्वलन्नायाति नः क्षयम् / त्वमन्नं प्राणिनां भुक्तमन्तभूतो जगत्पते / सप्तजिह्वोऽनलः क्षामो लेलिहानोपसर्पति // 5 नित्यं प्रवृद्धः पचसि त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् // 15 वैशंपायन उवाच / द्रोण उवाच। एवमुक्तो भ्रातृभिस्तु जरितारिर्विभावसुम् / सूर्यो भूत्वा रश्मिभिर्जातवेदो तुष्टाव प्राञ्जलिर्भूत्वा यथा तच्छृणु पार्थिव // 6 भूमेरम्भो भूमिजातान्नसांश्च / जरितारिरुवाच / विश्वानादाय पुनरुत्सर्गकाले आत्मासि वायोः पवनः शरीरमुत वीरुधाम् / सृष्ट्वा वृष्ट्या भावयसीह शुक्र // 16 * योनिरापश्च ते शुक्र योनिस्त्वमसि चाम्भसः // 7 त्वत्त एताः पुनः शुक्र वीरुधो हरितच्छदाः / ऊर्ध्वं चाधश्च गच्छन्ति विसर्पन्ति च पार्श्वतः। जायन्ते पुष्करिण्यश्च समुद्रश्च महोदधिः // 17 अर्चिषस्ते महावीर्य रश्मयः सवितुर्यथा // 8 इदं वै सद्म तिग्मांशो वरुणस्य परायणम् / सारिसक्व उवाच / शिवस्त्राता भवास्माकं मास्मानद्य विनाशय // 18 माता प्रपन्ना पितरं न विद्मः / पिङ्गाक्ष लोहितग्रीव कृष्णवर्त्मन्हुताशन / पक्षाश्च नो न प्रजाताब्जकेतो। परेण प्रैहि मुश्चास्मान्सागरस्य गृहानिव // 19 न नस्त्राता विद्यतेऽग्ने त्वदन्य वैशंपायन उवाच / स्तस्माद्धि नः परिरक्षकवीर // 9 एवमुक्तो जातवेदा द्रोणेनाक्लिष्टकर्मणा / यदग्ने ते शिवं रूपं ये च ते सप्त हेतयः / द्रोणमाह प्रतीतात्मा मन्दपालप्रतिज्ञया // 20 . तेन नः परिरक्षाद्य ईडितः शरणैषिणः // 10 ऋषिोणस्त्वमसि वै ब्रह्मैतद्व्याहृतं त्वया / त्वमेवैकस्तपसे जातवेदो ईप्सितं ते करिष्यामि न च ते विद्यते भयम् // 21 नान्यस्तप्ता विद्यते गोषु देव / मन्दपालेन यूयं हि मम पूर्वं निवेदिताः / ऋषीनस्मान्बालकान्पालयस्व वर्जयेः पुत्रकान्मह्यं दहन्दावमिति स्म ह // 22 परेणास्मान्प्रैहि वै हव्यवाह // 11 यच्च तद्वचनं तस्य त्वया यच्चेह भाषितम् / स्तम्बमित्र उवाच। उभयं मे गरीयस्तद्वहि किं करवाणि ते / सर्वमग्ने त्वमेवैकस्त्वयि सर्वमिदं जगत् / भृशं प्रीतोऽस्मि भद्रं ते ब्रह्मन्स्तोत्रेण ते विभो॥२३ त्वं धारयसि भूतानि भुवनं त्वं बिभर्षि च // 12 द्रोण उवाच / त्वमग्निर्हव्यवाहस्त्वं त्वमेव परमं हविः / इमे मार्जारकाः शुक्र नित्यमुद्वेजयन्ति नः / मनीषिणस्त्वां यजन्ते बहुधा चैकधैव च // 13 एतान्कुरुष्व दंष्ट्रासु हव्यवाह सबान्धवान् // 24 सृष्ट्वा लोकांस्त्रीनिमान्हव्यवाह वैशंपायन उवाच। प्राप्ते काले पचसि पुनः समिद्धः। / तथा तत्कृतवान्वह्निरभ्यनुज्ञाय शार्ङ्गकान् / -288 -
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________________ * 1. 223. 25 ] आदिपर्व [1. 224. 26 ददाह खाण्डवं चैव समिद्धो जनमेजय // 25 मन्दपाल उवाच / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि नाहमेवं चरे लोके यथा त्वमभिमन्यसे। योविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 223 // अपत्यहेतोर्विचरे तच्च कृच्छ्रगतं मम // 14 224 भूतं हित्वा भविष्येऽर्थे योऽवलम्बेत मन्दधीः / वैशंपायन उवाच / मन्दपालोऽपि कौरव्य चिन्तयानः सुतांस्तदा / अवमन्येत तं लोको यथेच्छसि तथा कुरु // 15 उक्तवानप्यशीतांशु नैव स स्म न तप्यते / / 1 एष हि ज्वलमानोऽग्निर्लेलिहानो महीरुहान् / स तप्यमानः पुत्रार्थे लपितामिदमब्रवीत् / . द्वेष्यं हि हृदि संतापं जनयत्यशिवं मम // 16 कथं न्वशक्ताः प्लवने लपिते मम पुत्रकाः // 2 वैशंपायन उवाच / वर्धमाने हुतवहे वाते शीघ्रं प्रवायति / तस्माद्देशादतिक्रान्ते ज्वलने जरिता ततः। असमर्था विमोक्षाय भविष्यन्ति ममात्मजाः // 3 जगाम पुत्रकानेव त्वरिता पुत्रगृद्धिनी // 17 कथं न्वशक्ता त्राणाय माता तेषां तपस्विनी / सा तान्कुशलिनः सर्वान्निर्मुक्ताञ्जातवेदसः / भविष्यत्यसुखाविष्टा पुत्रत्राणमपश्यती // 4 रोरूयमाणा कृपणा सुतान्दृष्टवती वने // 18 कथं नु सरणेऽशक्तान्पतने च ममात्मजान् / अश्रद्धेयतमं तेषां दर्शनं सा पुनः पुनः। संतप्यमाना अभितो वाशमानाभिधावती // 5 एकैकशश्च तान्पुत्रान्क्रोशमानान्वपद्यत // 19 ततोऽभ्यगच्छत्सहसा मन्दपालोऽपि भारत / जरितारिः कथं पुत्रः सारिसृक्कः कथं च मे / स्तम्बमित्रः कथं द्रोणः कथं सा च तपस्विनी // 6 अथ ते सर्व एवैनं नाभ्यनन्दन्त वै सुताः // 20 लालप्यमानं तमृषि मन्दपालं तथा बने / लालप्यमानमेकैकं जरितां च पुनः पुनः / लपिता प्रत्युवाचेदं सासूयमिव भारत // 7 नोचुस्ते वचनं किंचित्तमृषि साध्वसाधु वा // 21 न ते सुतेष्ववेक्षास्ति तानृषीनुक्तवानसि / मन्दपाल उवाच। तेजस्विनों वीर्यवन्तो न तेषां ज्वलनाद्भयम् // 8 ज्येष्ठः सुतस्ते कतमः कतमस्तदनन्तरः / तथामौ ते परीत्ताश्च त्वया हि मम संनिधौ / मध्यमः कतमः पुत्रः कनिष्ठः कतमश्च ते // 22 प्रतिश्रुतं तथा चेति ज्वलनेन महात्मना / 9 एवं ब्रुवन्तं दुःखार्तं किं मां न प्रतिभाषसे / लोकपालोऽनृतां वाचं न तु वक्ता कथंचन / कृतवानस्मि हव्याशे नैव शान्तिमितो लभे // 23 समर्थास्ते च वक्तारो न ते तेष्वस्ति मानसम् // 10 जरितोवाच / तामेव तु ममामित्री चिन्तयन्परितप्यसे / किं ते ज्येष्ठे सुते कार्य किमनन्तरजेन वा / ध्रुवं मयि न ते स्नेहो यथा तस्यां पुराभवत् // 11 किं च ते मध्यमे कार्य किं कनिष्ठे तपस्विनि॥२४ न हि पक्षवता न्याय्यं निःस्नेहेन सुहजने / यस्त्वं मां सर्वशो हीनामुत्सृज्यासि गतः पुरा / पीड्यमान उपद्रष्टुं शक्तेनात्मा कथंचन // 12 तामेव लपित्तं गच्छ तरुणी चारुहासिनीम् / / 25 गच्छ त्वं जरितामेव यदर्थं परितप्यसे / मन्दपाल उवाच / चरिष्याम्यहमप्येका यथा कापुरुषे तथा // 13 / न स्त्रीणां विद्यते किंचिदन्यत्र पुरुषान्तरात् / . म. भा. 37 - 289 -
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________________ 1. 224. 26 ] महाभारते [1. 225. 19 सापत्नकमृते लोके भवितव्यं हि तत्तथा // 26 अगच्छत्परमां तृप्तिं दर्शयामास चार्जुनम् // 6 सुव्रतापि हि कल्याणी सर्वलोकपरिश्रुता। ततोऽन्तरिक्षाद्भगवानवतीर्य सुरेश्वरः / अरुन्धती पर्यशङ्कद्वसिष्ठमृषिसत्तमम् // 27 मरुद्गणवृतः पार्थं माधवं चाब्रवीदिदम् // 7 विशुद्धभावमत्यन्तं सदा प्रियहिते रतम् / कृतं युवाभ्यां कर्मेदममरैरपि दुष्करम् / सप्तर्षिमध्यगं वीरमवमेने च तं मुनिम् // 28 वरान्वृणीतं तुष्टोऽस्मि दुर्लभानप्यमानुषान् // 8 अपध्यानेन सा तेन धूमारुणसमप्रभा / पार्थस्तु वरयामास शक्रादत्राणि सर्वशः / लक्ष्यालक्ष्या नाभिरूपा निमित्तमिव लक्ष्यते // 29 ग्रहीतुं तच्च शक्रोऽस्य तदा कालं चकार ह // 9 अपत्यहेतोः संप्राप्तं तथा त्वमपि मामिह / यदा प्रसन्नो भगवान्महादेवो भविष्यति / इष्टमेवंगते हित्वा सा तथैव च वर्तसे // 30 तुभ्यं तदा प्रदास्यामि पाण्डवास्त्राणि सर्वशः // 10 नैव भार्येति विश्वासः कार्यः पुंसा कथंचन / अहमेव च तं कालं वेत्स्यामि कुरुनन्दन / न हि कार्यमनुध्याति भार्या पुत्रवती सती // 31 तपसा महता चापि दास्यामि तव तान्यहम् // 11 वैशंपायन उवाच / आग्नेयानि च सर्वाणि वायव्यानि तथैव च / ततस्ते सर्व एवैनं पुत्राः सम्यगुपासिरे / मदीयानि च सर्वाणि ग्रहीष्यसि धनंजय // 12 स च तानात्मजान्राजन्नाश्वासयितुमारभत् // 32 वासुदेवोऽपि जग्राह प्रीतिं पार्थेन शाश्वतीम् / इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि ददौ च तस्मै देवेन्द्रस्तं वरं प्रीतिमांस्तदा // 13 चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 224 // दत्त्वा ताभ्यां वरं प्रीतः सह देवैर्मरुत्पतिः / 225 हुताशनमनुज्ञाप्य जयाम त्रिदिवं पुनः // 14 मन्दपाल उवाच। पावकश्चापि तं दावं दग्ध्वा समृगपक्षिणम् / . युष्माकं परिरक्षार्थं विज्ञप्तो ज्वलनो मया / अहानि पञ्च चैकं च विरराम सुतर्पितः // 15 अग्निना च तथेत्येवं पूर्वमेव प्रतिश्रुतम् // 1 जग्ध्वा मांसानि पीत्वा च मेदांसि रुधिराणि च / अग्नेर्वचनमाज्ञाय मातुर्धर्मज्ञतां च वः / युक्तः परमया प्रीत्या तावुवाच विशां पते // 16 युष्माकं च परं वीर्यं नाहं पूर्वमिहागतः // 2 युवाभ्यां पुरुषाय्याभ्यां तर्पितोऽस्मि यथासुखम् / न संतापो हि वः कार्यः पुत्रका मरणं प्रति / अनुजानामि वां वीरौ चरतं यत्र वाञ्छितम् // 17 ऋषीन्वेद हुताशोऽपि ब्रह्म तद्विदितं च वः // 3 एवं तौ समनुज्ञातौ पावकेन महात्मना / वैशंपायन उवाच / अर्जुनो वासुदेवश्च दानवश्च मयस्तथा // 18 एवमाश्वास्य पुत्रान्स भार्यां चादाय भारत / परिक्रम्य ततः सर्वे त्रयोऽपि भरतर्षभ / मन्दपालस्ततो देशादन्यं देशं जगाम ह // 4 रमणीये नदीकूले सहिताः समुपाविशन् // 19 भगवानपि तिग्मांशुः समिद्धं खाण्डवं वनम् / ___ इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः / / 225 // ददाह सह कृष्णाभ्यां जनयञ्जगतोऽभयम् / / 5 / समाप्तं खाण्डवदाहपर्व // वसामेदोवहाः कुल्यास्तत्र पीत्वा च पावकः / // समाप्तमादिपर्व // -290 -
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________________ सभापर्व यां कृतां नानुकुर्युस्ते मानवाः प्रेक्ष्य विस्मिताः / वैशंपायन उवाच / मनुष्यलोके कृत्स्नेऽस्मिंस्तादृशीं कुरु वै सभाम् // 10 ततोऽब्रवीन्मयः पार्थं वासुदेवस्य संनिधौ / यत्र दिव्यानभिप्रायान्पश्येम विहितांस्त्वया। प्राञ्जलिः श्लक्ष्णया वाचा पूजयित्वा पुनः पुनः / / 1 आसुरान्मानुषांश्चैव तां सभां कुरु वै मय // 11 अस्माच्च कृष्णात्संक्रुद्धात्पावकाच्च दिधक्षतः / प्रतिगृह्य तु तद्वाक्यं संप्रहृष्टो मयस्तदा / त्वया त्रातोऽस्मि कौन्तेय ब्रूहि किं करवाणि ते॥२ विमानप्रतिमां चक्रे पाण्डवस्य सभां मुदा // 12 . अर्जुन उवाच / ततः कृष्णश्च पार्थश्च धर्मराजे युधिष्ठिरे / कृतमेव त्वया सर्वं स्वस्ति गच्छ महासुर / सर्वमेतद्यथावेद्य दर्शयामासतुर्मयम् // 13 प्रीतिमान्भव मे नित्यं प्रीतिमन्तो वयं च ते // 3 | तस्मै युधिष्ठिरः पूजां यथार्हमकरोत्तदा / मय उवाच। स तु तां प्रतिजग्राह मयः सत्कृत्य सत्कृतः // 14 युक्तमेतत्त्वयि विभो यथात्थ पुरुषर्षभ / स पूर्वदेवचरितं तत्र तत्र विशां पते / प्रीतिपूर्वमहं किंचित्कर्तुमिच्छामि भारत // 4 कथयामास दैतेयः पाण्डुपुत्रेषु भारत // 15 अहं हि विश्वकर्मा वै दानवानां महाकविः / स कालं कंचिदाश्वस्य विश्वकर्मा प्रचिन्त्य च / सोऽहं वै त्वत्कृते किंचित्कर्तुमिच्छामि पाण्डव // 5 सभा प्रचक्रमे कर्तुं पाण्डवानां महात्मनाम् / / 16 . अर्जुन उवाच / अभिप्रायेण पार्थानां कृष्णस्य च महात्मनः / प्राणकृच्छ्राद्विमुक्तं त्वमात्मानं मन्यसे मया / पुण्येऽहनि महातेजाः कृतकौतुकमङ्गलः // 17 एवं गते न शक्ष्यामि किंचित्कारयितुं त्वया / / 6 तर्पयित्वा द्विजश्रेष्ठान्पायसेन सहस्रशः / न चापि तव संकल् मोघमिच्छामि दानव / धनं बहुविधं दत्त्वा तेभ्य एव च वीर्यवान् // 18 कृष्णस्य क्रियतां किंचित्तथा प्रतिकृतं मयि // 7 सर्वर्तुगुणसंपन्नां दिव्यरूपां मनोरमाम् / वैशंपायन उवाच / दशकिष्कुसहस्रां तां मापयामास सर्वतः // 19 चोदितो वासुदेवस्तु मयेन भरतर्षभ / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि प्रथमोऽध्यायः // 1 // मुहूर्तमिव संदध्यौ किमयं चोद्यतामिति // 8 चोदयामास तं कृष्णः सभा वै क्रियतामिति / वैशंपायन उवाच। धर्मराजस्य दैतेय यादृशीमिह मन्यसे // 9 उषित्वा खाण्डवप्रस्थे सुखवासं जनार्दनः। -291 -
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________________ 2. 2. 1] महाभारते [2. 3. 4 पार्थैः प्रीतिसमायुक्तैः पूजनार्दोऽभिपूजितः // 1 रुक्मदण्डं बृहन्मूनि दुधावाभिप्रदक्षिणम् // 15 गमनाय मतिं चक्रे पितुर्दर्शनलालसः / तथैव भीमसेनोऽपि यमाभ्यां सहितो वशी। धर्मराजमथामत्रय पृथां च पृथुलोचनः // 2 पृष्ठतोऽनुययौ कृष्णमृत्विक्पौरजनैर्वृतः // 16 ववन्दे चरणौ मूर्धा जगद्वन्धः पितृष्वसुः / स तथा भ्रातृभिः सार्धं केशवः परवीरहा / स तया मूर्युपाघ्रातः परिष्वक्तश्च केशवः // 3 अनुगम्यमानः शुशुभे शिष्यैरिव गुरुः प्रियैः॥१७ ददर्शानन्तरं कृष्णो भगिनीं स्वां महायशाः / पार्थमामय गोविन्दः परिष्वज्य च पीडितम् / तामुपेत्य हृषीकेशः प्रीत्या बाष्पसमन्वितः // 4 युधिष्ठिरं पूजयित्वा भीमसेनं यमौ तथा // 18 अर्थ्य तथ्यं हितं वाक्यं लघु युक्तमनुत्तमम् / परिष्वक्तो भृशं ताभ्यां यमाभ्यामभिवादितः / उवाच भगवान्भद्रां सुभद्रां भद्रभाषिणीम् // 5 ततस्तैः संविदं कृत्वा यथावन्मधुसूदनः // 19 तया स्वजनगामीनि श्रावितो वचनानि सः। निवर्तयित्वा च तदा पाण्डवान्सपदानुगान् / संपूजितश्चाप्यसकृच्छिरसा चाभिवादितः // 6 स्वां पुरी प्रययौ कृष्णः पुरंदर इवापरः / / 20 तामनुज्ञाप्य वार्ष्णेयः प्रतिनन्द्य च भामिनीम् / लोचनैरनुजग्मुस्ते तमा दृष्टिपथात्तदा / ददर्शानन्तरं कृष्णां धौम्यं चापि जनार्दनः / / 7 मनोभिरनुजग्मुस्ते कृष्णं प्रीतिसमन्वयात् // 21 ववन्दे च यथान्यायं धौम्यं पुरुषसत्तमः / अतृप्तमनसामेव तेषां केशवदर्शने / द्रौपदी सान्त्वयित्वा च आमव्य च जनार्दनः // 8 क्षिप्रमन्तर्दधे शौरिश्चक्षुषां प्रियदर्शनः // 22 भ्रातॄनभ्यगमद्धीमान्पार्थेन सहितो बली / अकामा इव पार्थास्ते गोविन्दगतमानसाः / भ्रातृभिः पञ्चभिः कृष्णो वृतः शक्र इवामरैः // 9 निवृत्योपययुः सर्वे स्वपुरं पुरुषर्षभाः। अर्चयामास देवांश्च द्विजांश्च यदुपुंगवः / स्यन्दनेनाथ कृष्णोऽपि समये द्वारकामगात् // 23 माल्यजप्यनमस्कारैर्गन्धैरुच्चावचैरपि / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्वितीयोऽध्यायः // 2 // स कृत्वा सर्वकार्याणि प्रतस्थे तस्थुषां वरः // 10 स्वस्ति वाच्याहतो विप्रान्दधिपात्रफलाक्षतैः / . वैशंपायन उवाच / वसु प्रदाय च ततः प्रदक्षिणमवर्तत // 11 अथाब्रवीन्मयः पार्थमर्जुनं जयतां वरम् / काञ्चनं रथमास्थाय तार्क्ष्यकेतनमाशुगम् / आपृच्छे त्वां गमिष्यामि क्षिप्रमेष्यामि चाप्यहम् // गदाचक्रासिशायैिरायुधेश्च समन्वितम् / / 12 उत्तरेण तु कैलासं मैनाकं पर्वतं प्रति / तिथावथ च नक्षत्रे मुहूर्ते च गुणान्विते / यक्ष्यमाणेषु सर्वेषु दानवेषु तदा मया / प्रययौ पुण्डरीकाक्षः सैन्यसुग्रीववाहनः // 13 कृतं मणिमयं भाण्डं रम्यं विन्दुसरः प्रति // 2 अन्वारुरोह चाप्येनं प्रेम्णा राजा युधिष्ठिरः। सभायां सत्यसंधस्य यदासीद्वृषपर्वणः / अपास्य चास्य यन्तारं दारुकं यन्तृसत्तमम् / आगमिष्यामि तद्गृह्य यदि तिष्ठति भारत // 3 अभीषून्संप्रजग्राह स्वयं कुरुपतिस्तदा // 14 ततः सभां करिष्यामि पाण्डवाय यशस्विने / उपारुह्यार्जुनश्चापि चामरव्यजनं सितम् / मनःप्रह्लादिनी चित्रां सर्वरत्नविभूषिताम् // 4 -292 -
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________________ 2. 3. 5] सभापर्व [2. 3. 32 अस्ति बिन्दुसरस्येव गदा श्रेष्ठा कुरूद्वह / गदां च भीमसेनाय प्रवरां प्रददौ तदा / निहिता यौवनाश्वेन राज्ञा हत्वा रणे रिपून् / देवदत्तं च पार्थाय ददौ शङ्खमनुत्तमम् / / 18 सुवर्णबिन्दुभिश्चित्रा गुर्वी भारसहा दृढा // 5 सभा तु सा महाराज शातकुम्भमयद्रुमा / सा वै शतसहस्रस्य संमिता सर्वघातिनी। दश किष्कुसहस्राणि समन्तादायताभवत् / / 19 अनुरूपा च भीमस्य गाण्डीवं भवतो यथा // 6 यथा वह्नयथार्कस्य सोमस्य च यथैव सा / वारुणश्च महाशङ्खो देवदत्तः सुघोषवान् / भ्राजमाना तथा दिव्या बभार परमं वपुः // 20 सर्वमेतत्त्रदास्यामि भवते नात्र संशयः / प्रतिघ्नतीव प्रभया प्रभामर्कस्य भास्वराम् / इत्युक्त्वा सोऽसुरः पार्थं प्रागुदीचीमगादिशम् / / 7 प्रबभौ ज्वलमानेव दिव्या दिव्येन वर्चसा // 21 उत्तरेण तु कैलासं मैनाकं पर्वतं प्रति / नगमेघप्रतीकाशा दिवमावृत्य विष्ठिता / हिरण्यशृङ्गो भगवान्महामणिमयो गिरिः / / 8 आयता विपुला श्लक्ष्णा विपाप्मा विगतल्लमा // 22 रम्य बिन्दुसरो नाम यत्र राजा भगीरथः / उत्तमद्रव्यसंपन्ना मणिप्राकारमालिनी / दृष्ट्वा भागीरथीं गङ्गामुवास बहुलाः समाः // 9 बहुरत्ना बहुधना सुकृता विश्वकर्मणा // 23 यत्रेष्ट्वा सर्वभूतानामीश्वरेण महात्मना / न दाशाही सुधर्मा वा ब्रह्मणो वापि तादृशी। आहृताः क्रतवो मुख्याः शतं भरतसत्तम / 10 आसीद्रूपेण संपन्ना यां चक्रेऽप्रतिमां मयः // 24 यत्र यूपा मणिमयाश्चित्याश्चापि हिरण्मयाः / तां स्म तत्र मयेनोक्ता रक्षन्ति च वहन्ति च / शोभार्थं विहितास्तत्र न तु दृष्टान्ततः कृताः // 11 सभामष्टी सहस्राणि किंकरा नाम राक्षसाः // 25 यत्रेष्ट्वा स गतः सिद्धिं सहस्राक्षः शचीपतिः / अन्तरिक्षचरा घोरा महाकाया महाबलाः / यत्र भूतपतिः सृष्ट्वा सर्वलोकान्सनातनः। रक्ताक्षाः पिङ्गलाक्षाश्च शुक्तिकर्णाः प्रहारिणः // 26 उपास्यते तिग्मतेजा वृतो भूतैः सहस्रशः // 12 तस्यां सभायां नलिनी चकाराप्रतिमा मयः / नरनारायणौ ब्रह्मा यमः स्थाणुश्च पञ्चमः / वैर्यपत्रविततां मणिनालमयाम्बुजाम् / / 27 उपासते यत्र सत्रं सहस्रयुगपर्यये // 13 पद्मसौगन्धिकवतीं नानाद्विजगणायुताम् / यत्रेष्टं वासुदेवेन सत्रैर्वर्षसहस्रकैः / पुष्पितेः पङ्कजैश्चित्रां कूर्ममत्स्येश्च शोभिताम् // 28 श्रद्दधानेन सततं शिष्टसंप्रतिपत्तये // 14 सूपतीर्थामकलुषां सर्वर्तुसलिलां शुभाम् / सुवर्णमालिनो यूपाश्चित्याश्चाप्यतिभास्वराः / मारुतेनैव चोद्भूतैर्मुक्ताविन्दुभिराचिताम् / / 29 ददौ यत्र सहस्राणि प्रयुतानि च केशवः // 15 मणिरत्नचितां तां तु केचिदभ्येत्य पार्थिवाः / / तंत्र गत्वा स जग्राह गदां शङ्ख च भारत / दृष्ट्वापि नाभ्यजानन्त तेऽज्ञानात्प्रपतन्त्युत // 30 स्फाटिकं च सभाद्रव्यं यदासीद्वृषपर्वणः / तां सभामभितो नित्यं पुष्पवन्तो महाद्रुमाः / / किंकरैः सह रक्षोभिरगृह्णात्सर्वमेव तत् // 16 आसन्नानाविधा नीलाः शीतच्छाया मनोरमाः॥३१ तदाहृत्य तु तां चक्रे सोऽसुरोऽप्रतिमां सभाम् / काननानि सुगन्धीनि पुष्करिण्यश्च सर्वशः / विश्रुतां त्रिषु लोकेषु दिव्यां मणिमयीं शुभाम् // 17 / हंसकारण्डवयुताश्चक्रवाकोपशोभिताः // 32 - 293 -
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________________ 2. 3. 33] महाभारते [2. 4. 25 जलजानां च माल्यानां स्थलजानां च सर्वशः। जातूकर्णः शिखावांश्च सुबलः पारिजातकः // 12 मारुतो गन्धमादाय पाण्डवान्स्म निषेवते // 33 पर्वतश्च महाभागो मार्कण्डेयस्तथा मुनिः। ईदृशीं तां सभां कृत्वा मासैः परिचतुर्दशैः। पवित्रपाणिः सावर्णि लुकिर्गालवस्तथा // 13 निष्ठितां धर्मराजाय मयो राज्ञे न्यवेदयत् // 34 जङ्घाबन्धुश्च रैभ्यश्च कोपवेगश्रवा भृगुः / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि तृतीयोऽध्यायः // 3 // हरिबभ्रुश्च कौण्डिन्यो बभ्रुमाली सनातनः // 14 कक्षीवानौशिजश्चैव नाचिकेतोऽथ गौतमः / वैशंपायन उवाच। पैङ्गो वराहः शुनकः शाण्डिल्यश्च महातपाः / ततः प्रवेशनं चक्रे तस्यां राजा युधिष्ठिरः / कर्करो वेणुजङ्घश्च कलापः कठ एव च // 15 अयुतं भोजयामास ब्राह्मणानां नराधिपः // 1 मुनयो धर्मसहिता धृतात्मानो जितेन्द्रियाः / घृतपायसेन मधुना भक्ष्यमूलफलैस्तथा / एते चान्ये च बहवो वेदवेदाङ्गपारगाः // 16 अहतैश्चैव वासोभिर्माल्यैरुच्चावचैरपि // 2 उपासते महात्मानं सभायामृषिसत्तमाः। ददौ तेभ्यः सहस्राणि गवां प्रत्येकशः प्रभुः / कथयन्तः कथाः पुण्या धर्मज्ञाः शुचयोऽमलाः॥१७ पुण्याहघोषस्तत्रासीद्दिवस्पृगिव भारत // 3 तथैव क्षत्रियश्रेष्ठा धर्मराजमुपासते / वादित्रैर्विविधैर्गीतैर्गन्धैरुच्चावचैरपि / ' श्रीमान्महात्मा धर्मात्मा मुञ्जकेतुर्विवर्धनः // 18 पूजयित्वा कुरुश्रेष्ठो देवतानि निवेश्य च // 4 संग्रामजिहर्मुखश्च उग्रसेनश्च वीर्यवान् / तत्र मल्ला नटा झल्लाः सूता वैतालिकास्तथा।। कक्षसेनः क्षितिपतिः श्लेमकश्चापराजितः। उपतस्थुमहात्मानं सप्तरात्रं युधिष्ठिरम् / / 5 काम्बोजराजः कमलः कम्पनश्च महाबलः // 19 तथा स कृत्वा पूजां तां भ्रातृभिः सह पाण्डवः। सततं कम्पयामास यवनानेक एव यः / तस्यां सभायां रम्यायां रेमे शक्रो यथा दिवि // 6 यथासुरान्कालकेयान्देवो वज्रधरस्तथा // 20 सभायामृषयस्तस्यां पाण्डवैः सह आसते। जटासुरो मद्रकान्तश्च राजा आसांचकर्नरेन्द्राश्च नानादेशसमागताः // 7 . कुन्तिः कुणिन्दश्च किरातराजः / असितो देवलः सत्यः सर्पमाली महाशिराः / तथाङ्गवङ्गी सह पुण्डकेण अर्वावसुः सुमित्रश्च मैत्रेयः शुनको बलिः // 8 . . पाण्ड्योडराजी सह चान्ध्रकेण / / 21 बको दाल्भ्यः स्थूलशिराः कृष्णद्वैपायनः शुकः / किरातराजः सुमना यवनाधिपतिस्तथा / सुमन्तु मिनिः पैलो व्यासशिष्यास्तथा वयम् // 9 चाणूरो देवरातश्च भोजो भीमरथश्च यः // 22 तित्तिरिर्याज्ञवल्क्यश्च ससुतो लोमहर्षणः / श्रुतायुधश्च कालिङ्गो जयत्सेनश्च मागधः / अप्सुहोम्यश्च धौम्यश्च आणीमाण्डव्यकौशिकौ / / सुशर्मा चेकितानश्च सुरथोऽमित्रकर्षणः // 23 दामोष्णीषस्वणिश्च पर्णादो घटजानुकः / केतुमान्वसुदानश्च वैदेहोऽथ कृतक्षणः / मौञ्जायनो वायुभक्षः पाराशर्यश्च सारिकौ // 11 सुधर्मा चानिरुद्धश्च श्रुतायुश्च महाबलः // 24 बलवाकः शिनीवाकः सत्यपालः कृतश्रमः / अनूपराजो दुर्धर्षः क्षेमजिच्च सुदक्षिणः / -294
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________________ 2. 4. 25] सभापर्व [2. 5. 17 शेशुपालः सहसुतः करूषाधिपतिस्तथा // 25 तमागतमृषि दृष्ट्वा नारदं सर्वधर्मवित् / वृष्णीनां चैव दुर्धर्षाः कुमारा देवरूपिणः / सहसा पाण्डवश्रेष्ठः प्रत्युत्थायानुजैः सह / आहुको विपृथुश्चैव गदः सारण एव च // 26 अभ्यवादयत प्रीत्या विनयावनतस्तदा // 4 अकरः कृतवर्मा च सात्यकिश्च शिनेः सुतः। तदर्हमासनं तस्मे संप्रदाय यथाविधि / भीष्मकोऽथाहृतिश्चैव दीमत्सेनश्च वीर्यवान् / अर्चयामास रत्नैश्च सर्वकामैश्च धर्मवित् / / 5 केकयाश्च महेष्वासा यज्ञसेनश्च सौमकिः // 27 सोऽर्चितः पाण्डवैः सर्वैर्महर्षिवेदपारगः / अर्जुनं चापि संश्रित्य राजपुत्रा महाबलाः / धर्मकामार्थसंयुक्तं पप्रच्छेदं युधिष्ठिरम् // 6 अशिक्षन्त धनुर्वेदं रौरवाजिनवाससः / / 28 . नारद उवाच / तत्रैव शिक्षिता राजन्कुमारा वृष्णिनन्दनाः। . कच्चिदर्थाश्च कल्पन्ते धर्मे च रमते मनः / रौक्मिणेयश्च साम्बश्च युयुधानश्च सात्यकिः // 29 सुखानि चानुभूयन्ते मनश्च न विहन्यते // 7 एते चान्ये च बहवो राजानः पृथिवीपते / कच्चिदाचरितां पूर्वैनरदेव पितामहैः / धनंजयसखा चात्र नित्यमास्ते स्म तुम्बुरुः // 30 वर्तसे वृत्तिमक्षीणां धर्मार्थसहितां नृषु / / 8 चित्रसेनः सहामात्यो गन्धर्वाप्सरसस्तथा / कच्चिदर्थेन वा धर्मं धर्मेणार्थमथापि वा / गीतवादित्रकुशलाः शम्यातालविशारदाः // 31 उभौ वा प्रीतिसारेण न कामेन प्रबाधसे // 9 प्रमाणेऽथ लयस्थाने किंनराः कृतनिश्रमाः / कञ्चिदर्थं च धर्मं च कामं च जयतां वर / संचोदितास्तुम्बुरुणा गन्धर्वाः सहिता जगुः // 32 विभज्य काले कालज्ञ सदा वरद सेवसे // 10 गायन्ति दिव्यतानैस्ते यथान्यायं मनस्विनः / कच्चिद्राजगुणैः षभिः सप्तोपायांस्तथानघ / पाण्डुपुत्रानृषींश्चैव रमयन्त उपासते // 33 बलाबलं तथा सम्यक्चतुर्दश परीक्षसे / / 11 , तस्यां सभायामासीनाः सुव्रताः सत्यसंगराः / कञ्चिदात्मानमन्वीक्ष्य परांश्च जयतां वर / दिवीव. देवा ब्रह्माणं युधिष्ठिरमुपासते // 34 तथा संधाय कर्माणि अष्टौ भारत सेवसे॥ 12 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि चतुर्थोऽध्यायः // 4 // कच्चित्प्रकृतयः षट् ते न लुप्ता भरतर्षभ / आढ्यास्तथाव्यसनिनः स्वनुरक्ताश्च सर्वशः॥ 13 वैशंपायन उवाच। कञ्चिन्न तदूतैर्वा ये चाप्यपरिशङ्किताः। तथा तत्रोपविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु / त्वत्तो वा तव वामात्यैर्भिद्यते जातु मत्रितम् // 14 महत्सु चोपविष्टेषु गन्धर्वेषु च भारत // 1 कञ्चित्संधिं यथाकालं विग्रहं चोपसेवसे / लोकाननुचरन्सर्वानागमत्तां सभामृषिः / कञ्चिद्वृत्तिमुदासीने मध्यमे चानुवर्तसे // 15 नारदः सुमहातेजा ऋषिभिः सहितस्तदा // 2 कच्चिदात्मसमा बुद्ध्या शुचयो जीवितक्षमाः / पारिजातेन राजेन्द्र रैवतेन च धीमता / कुलीनाश्चानुरक्ताश्च कृतास्ते वीर मत्रिणः // 16 सुमुखेन च सौम्येन देवर्षिरमितद्युतिः / विजयो मन्त्रमूलो हि राज्ञां भवति भारत / सभास्थान्पाण्डवान्द्रष्टुं प्रीयमाणो मनोजवः // 3 / सुसंवृतो मत्रधनैरमात्यैः शास्त्रकोविदैः // 17 -295
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________________ 2. 5. 18] महाभारते [2. 5.47 कञ्चिन्निद्रावशं नैषि कच्चित्काले विबुध्यसे / . अमात्यानुपधातीतान्पितृपैतामहाञ्शुचीन् / कच्चिच्चापररात्रेषु चिन्तयस्यर्थमर्थवित् / / 18 श्रेष्ठा श्रेष्ठेषु कञ्चित्त्वं नियोजयसि कर्मसु // 33 कञ्चिन्मन्त्रयसे नैकः कच्चिन्न बहुभिः सह। कञ्चिन्नोग्रेण दण्डेन भृशमुद्वेजितप्रजाः / कञ्चित्ते मत्रितो मत्रो न राष्ट्रमनुधावति // 19 राष्ट्रं तवानुशासन्ति मन्त्रिणो भरतर्षभ / / 34 कच्चिदर्थान्धिनिश्चित्य लघुमूलान्महोदयान् / / कञ्चित्त्वां नावजानन्ति याजकाः पतितं यथा / क्षिप्रमारभसे कर्तुं न विघ्नयसि तादृशान् // 20 उग्रप्रतिग्रहीतारं कामयानमिव स्त्रियः // 35 कञ्चिन्न सर्वे कर्मान्ताः परोक्षास्ते विशङ्किताः / कञ्चिद्धृष्टश्च शूरश्च मतिमा धृतिमाञ्शुचिः / सर्वे वा पुनरुत्सृष्टाः संसृष्टं ह्यत्र कारणम् // 21 कुलीनश्चानुरक्तश्च दक्षः सेनापतिस्तव // 36 कञ्चिद्राजन्कृतान्येव कृतप्रायाणि वा पुनः। कच्चिद्वलस्य ते मुख्याः सर्वे युद्धविशारदाः। विदुस्ते वीर कर्माणि नानवाप्तानि कानिचित् // 22 दृष्टापदाना विक्रान्तास्त्वया सत्कृत्य मानिताः // 37 कच्चित्कारणिकाः सर्वे सर्वशास्त्रेषु कोविदाः / कच्चिद्वलस्य भक्तं च वेतनं च यथोचितम् / कारयन्ति कुमारांश्च योधमुख्यांश्च सर्वशः // 23 संप्राप्तकालं दातव्यं ददासि न विकर्षसि // 38 कञ्चित्सहस्रैर्मूर्खाणामेकं क्रीणासि पण्डितम् / कालातिक्रमणाद्ध्येते भक्तवेतनयोभृताः / पण्डितो ह्यर्थकृच्छ्रेषु कुर्यान्निःश्रेयसं परम् // 24 भर्तुः कुप्यन्ति दौर्गत्यात्सोऽनर्थः सुमहान्स्मृतः // 39 कञ्चिदुर्गाणि सर्वाणि धनधान्यायुधोदकैः / कञ्चित्सर्वेऽनुरक्तास्त्वां कुलपुत्राः प्रधानतः / यत्रैश्च परिपूर्णानि तथा शिल्पिधनुधरैः / / 25 कच्चित्प्राणांस्तवार्थेषु संत्यजन्ति सदा युधि // 40 एकोऽप्यमात्यो मेधावी शूरो दान्तो विचक्षणः / कञ्चिन्नको बहूनान्सर्वशः सांपरायिकान् / / राजानं राजपुत्रं वा प्रापयेन्महतीं श्रियम् / / 26 अनुशास्सि यथाकामं कामात्मा शासनातिगः॥४१ कच्चिदष्टादशान्येषु स्वपक्षे दश पञ्च च / कच्चित्पुरुषकारेण पुरुषः कर्म शोभयन् / त्रिभिस्त्रिभिरविज्ञातैत्सि तीर्थानि चारकैः // 27 लभते मानमधिकं भूयो वा भक्तवेतनम् // 42 कच्चिहिषामविदितः प्रतियत्तश्च सर्वदा / कञ्चिविद्याविनीतांश्च नराज्ञानविशारदान / नित्ययुक्तो रिपून्सर्वान्वीक्षसे रिपुसूदन / / 28 यथाहँ गुणतश्चैव दानेनाभ्यवपद्यसे // 43 कच्चिद्विनयसंपन्नः कुलपुत्रो बहुश्रुतः। कच्चिदारान्मनुष्याणां तवार्थे मृत्युमेयुषाम् / अनसूयुरनुप्रष्टा सत्कृतस्ते पुरोहितः॥२९ व्यसनं चाभ्युपेतानां बिभर्षि भरतर्षभ // 44 कच्चिदग्निषु ते युक्तो विधिज्ञो मतिमानृजुः / कञ्चिद्भयादुपनतं क्लीबं वा रिपुमागतम् / हुतं च होष्यमाणं च काले वेदयते सदा // 30 युद्धे वा विजितं पार्थ पुत्रवत्परिरक्षसि // 45 कञ्चिदङ्गेषु निष्णातो ज्योतिषां प्रतिपादकः / कञ्चित्त्वमेव सर्वस्याः पृथिव्याः पृथिवीपते / उत्पातेषु च सर्वेषु दैवज्ञः कुशलस्तव // 31 समश्च नाभिशङ्कयश्च यथा माता यथा पिता // 46 कञ्चिन्मुख्या महत्त्वेव मध्यमेषु च मध्यमाः। कञ्चिद्व्यसनिनं शत्रु निशम्य भरतर्षभ / जघन्याश्च जघन्येषु भृत्याः कर्मसु योजिताः॥३२ / अभियासि जयेनेव समीक्ष्य त्रिविधं बलम् // 47 -296 -
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________________ 2. 5. 48] सभापर्व [2. 5. 77 पाणिमूलं च विज्ञाय व्यवसायं पराजयम् / कञ्चिदर्थेषु संप्रौढान्हितकामाननुप्रियान् / बलस्य च महाराज दत्त्वा वेतनमग्रतः // 48 नापकर्षसि कर्मभ्यः पूर्वमप्राप्य किल्बिषम् / / 63 कञ्चिच्च बलमुख्येभ्यः परराष्ट्रे परंतप / कञ्चिद्विदित्वा पुरुषानुत्तमाधममध्यमान् / उपच्छन्नानि रत्नानि प्रयच्छसि यथार्हतः / / 49 त्वं कर्मस्वनुरूपेषु नियोजयसि भारत // 64 कञ्चिदात्मानमेवाग्रे विजित्य विजितेन्द्रियः।। कञ्चिन्न लुब्धाश्चौरा वा वैरिणो वा विशां पते / पराञ्जिगीषसे पार्थ प्रमत्तानजितेन्द्रियान् // 50 अप्राप्तव्यवहारा वा तव कर्मस्वनुष्ठिताः // 65 कञ्चित्ते यास्यतः शत्रून्पूर्वं यान्ति स्वनुष्ठिताः / / कञ्चिन्न लुब्धैश्चौरैर्वा कुमारैः स्त्रीबलेन वा / साम दानं च भेदश्च दण्डश्च विधिवद्गुणाः / / 51 त्वया वा पीड्यते राष्ट्र कच्चित्पुष्टाः कृषीवलाः // 66 कञ्चिन्मूलं दृढं कृत्वा यात्रां यासि विशां पते / / कञ्चिद्राष्ट्र तडागानि पूर्णानि च महान्ति च / तांश्च विक्रमसे जेतुं जित्वा च परिरक्षसि / / 52 भागशो विनिविष्टानि न कृषिर्देवमातृका / / 67 कञ्चिदष्टाङ्गसंयुक्ता चतुर्विधवला चमूः / कञ्चिद्वीजं च भक्तं च कर्षकायावसीदते / बलमुख्यैः सुनीता ते द्विषतां प्रतिबाधनी // 53 प्रतिकं च शतं वृद्ध्या ददास्य॒णमनुग्रहम् // 68 कञ्चिल्लवं च मुष्टिं च परराष्ट्र परंतप / कञ्चित्स्वनुष्ठिता तात वार्ता ते साधुभिर्जनैः / अविहाय महाराज विहंसि समरे रिपून / / 54 वार्तायां संश्रितस्तात लोकोऽयं सुखमेधते // 69 कश्चित्स्वपरराष्ट्रेषु बहयोऽधिकृतास्तव / कञ्चिच्छुचिकृतः प्राज्ञाः पञ्च पञ्च स्वनुष्ठिताः / अर्थान्समनुतिष्ठन्ति रक्षन्ति च परस्परम् / / 55 क्षेमं कुर्वन्ति संहत्य राजञ्जनपदे तव // 70 कञ्चिदभ्यवहार्याणि गात्रसंस्पर्शकानि च / कच्चिन्नगरगुप्त्यर्थं ग्रामा नगरवत्कृताः / घेयाणि च महाराज रक्षन्त्यनुमतास्तव // 56 ग्रामवच्च कृता रक्षा ते च सर्वे तदर्पणाः / / 71 कश्चित्कोशं च कोष्ठं च वाहनं द्वारमायुधम् / कच्चिद्वलेनानुगताः समानि विषमाणि च / आयश्च कृतकल्याणैस्तव भक्तैरनुष्ठितः / / 57 पुराणचौराः साध्यक्षाश्चरन्ति विषये तव // 72 कञ्चिदाभ्यन्तरेभ्यश्च बाह्येभ्यश्च विशां पते। कञ्चिस्त्रियः सान्त्वयसि कञ्चित्ताश्च सुरक्षिताः / रक्षस्यात्मानमेवाग्रे तांश्च स्वेभ्यो मिथश्च तान् // 58 कञ्चिन्न श्रद्दधास्यासां कच्चिद्गुह्यं न भाषसे / / 73 कश्चिन्न पाने द्यूते वा क्रीडासु प्रमदासु च। कञ्चिच्चारान्निशि श्रुत्वा तत्कार्यमनुचिन्त्य च / प्रतिजानन्ति पूर्वाह्ने व्ययं व्यसनजं तव / / 59 प्रियाण्यनुभवशेषे विदित्वाभ्यन्तरं जनम् // 74 कञ्चिदायस्य चार्धेन चतुर्भागेन वा पुनः / कच्चिट्ठी प्रथमौ यामौ रात्र्यां सुप्त्वा विशां पते / पादभागैस्त्रिभिर्वापि व्ययः संशोध्यते तव // 60 संचिन्तयसि धर्मार्थो याम उत्थाय पश्चिमे // 75 कश्चिज्ज्ञातीन्गुरुन्वृद्धान्वणिजः शिल्पिनः श्रितान् / कञ्चिद्दर्शयसे नित्यं मनुष्यान्समलंकृतान् / अमीक्ष्णमनुगृह्णासि धनधान्येन दुर्गतान् // 61 उत्थाय काले कालज्ञः सह पाण्डव मत्रिभिः॥७६ कश्चिदायव्यये युक्ताः सर्वे गणकलेखकाः। कच्चिद्रक्ताम्बरधराः खड्गहस्ताः खलंकृताः / अनुतिष्ठन्ति पूर्वाह्ने नित्यमायव्ययं तव / / 62 अभितस्त्वामुपासन्ते रक्षणार्थमरिंदम // 77 म. भा. 38 - 297 -
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________________ 2. 5. 78] महाभारते [ 2. 5. 105 कच्चिद्दण्ड्येषु यमवत्पूज्येषु च विशां पते। कच्चिदार्यो विशुद्धात्मा क्षारितश्चौरकर्मणि। परीक्ष्य वर्तसे सम्यगप्रियेषु प्रियेषु च // 78 अदृष्टशास्त्रकुशलैर्न लोभाद्वध्यते शुचिः // 93 . कच्चिच्छारीरमाबाधमौषधैर्नियमेन वा / पृष्टो गृहीतस्तत्कारी तादृष्टः सकारणः।। मानसं वृद्धसेवाभिः सदा पार्थापकर्षसि // 79 कञ्चिन्न मुच्यते स्तेनो द्रव्यलोभान्नरर्षभ // 94 कच्चिद्वैद्याश्चिकित्सायामष्टाङ्गायां विशारदाः। व्युत्पन्ने कच्चिदाढ्यस्य दरिद्रस्य च भारत। सुहृदश्चानुरक्ताश्च शरीरे ते हिताः सदा // 80 अर्थान्न मिथ्या पश्यन्ति तवामात्या हृता धनैः॥९५ कच्चिन्न मानान्मोहाद्वा कामाद्वापि विशां पते / नास्तिक्यमनृतं क्रोधं प्रमादं दीर्घसूत्रताम् / अर्थिप्रत्यर्थिनः प्राप्तानपास्यसि कथंचन / / 81 अदर्शनं ज्ञानवतामालस्यं क्षिप्तचित्तताम् / / 96 कञ्चिन्न लोभान्मोहाद्वा विश्रम्भात्प्रणयेन वा। एकचिन्तनमर्थानामनर्थज्ञैश्च चिन्तनम्। आश्रितानां मनुष्याणां वृत्तिं त्वं संरुणत्सि च / / 82 निश्चितानामनारम्भं मत्रस्यापरिरक्षणम् // . 97 कञ्चित्पौरा न सहिता ये च ते राष्ट्रवासिनः।। मङ्गल्यस्याप्रयोगं च प्रसङ्गं विषयेषु च / त्वया सह विरुध्यन्ते परैः क्रीताः कथंचन / / 83 कञ्चित्त्वं वर्जयस्येतानराजदोषांश्चतुर्दश // 98 कञ्चित्ते दुर्बलः शत्रुर्बलेनोपनिपीडितः / कच्चित्ते सफला वेदाः कञ्चित्ते सफलं धनम् / मत्रेण बलवान्कश्चिदुभाभ्यां वा युधिष्ठिर / / 84 कञ्चित्ते सफला दाराः कञ्चित्ते सफलं श्रुतम् // 99 कञ्चित्सर्वेऽनुरक्तास्त्वां भूमिपालाः प्रधानतः / युधिष्ठिर उवाच। कञ्चित्प्राणांस्त्वदर्थेषु संत्यजन्ति त्वया हृताः॥ 85 कथं वै सफला वेदाः कथं वै सफलं धनम् / कञ्चित्ते सर्वविद्यासु गुणतोऽर्चा प्रवर्तते। कथं वै सफला दाराः कथं वै सफलं श्रुतम् // 100 ब्राह्मणानां च साधूनां तव निःश्रेयसे शुभा // 86 नारद उवाच / कच्चिद्धर्मे त्रयीमूले पूर्वैराचरिते जनैः / अग्निहोत्रफला वेदा दत्तभुक्तफलं धनम् / वर्तमानस्तथा कर्तुं तस्मिन्कर्मणि वर्तसे // 87 रतिपुत्रफला दाराः शीलवृत्तफलं श्रुतम् // 101 कच्चित्तव गृहेऽन्नानि स्वादून्यश्नन्ति वै द्विजाः / वैशंपायन उवाच। गुणवन्ति गुणोपेतास्तवाध्यक्षं सदक्षिणम् // 88 एतदाख्याय स मुनिर्नारदः सुमहातपाः / कञ्चित्क्रतूनेकचित्तो वाजपेयांश्च सर्वशः / पप्रच्छानन्तरमिदं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् // 102 पुण्डरीकांश्च कारन्यून यतसे कर्तुमात्मवान् // 89 नारद उवाच। कञ्चिज्ज्ञातीन्गुरून्वृद्धान्दैवतांस्तापसानपि / कच्चिदभ्यागता दूराद्वणिजो लाभकारणात्। / चैत्यांश्च वृक्षान्कल्याणान्ब्राह्मणांश्च नमस्यसि // 90 यथोक्तमवहार्यन्ते शुल्कं शुल्कोपजीविभिः॥ 103 कञ्चिदेषा च ते बुद्धिवृत्तिरेषा च तेऽनघ। कञ्चित्ते पुरुषा राजन्पुरे राष्ट्रे च मानिताः / आयुष्या च यशस्या च धर्मकामार्थदर्शिनी // 91 / उपानयन्ति पण्यानि उपधाभिरवश्चिताः // 104 एतया वर्तमानस्य बुद्ध्या राष्ट्रं न सीदति / कच्चिच्छृणोषि वृद्धानां धर्मार्थसहिता गिरः / विजित्य च महीं राजा सोऽत्यन्तं सुखमेधते // 92 नित्यमर्थविदां तात तथा धर्मानुदर्शिनाम् // 105 -298 -
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________________ 2. 5. 106 ] सभापर्व [2. 6. 14 कञ्चित्ते कृषितन्त्रेषु गोषु पुष्पफलेषु च / धर्मार्थ च द्विजातिभ्यो दीयते मधुसर्पिषी // 106 वैशंपायन उवाच / द्रव्योपकरणं कञ्चित्सर्वदा सर्वशिल्पिनाम् / संपूज्याथाभ्यनुज्ञातो महर्षेर्वचनात्परम् / चातुर्मास्यावरं सम्यङियतं संप्रयच्छसि // 107 प्रत्युवाचानुपूर्येण धर्मराजो युधिष्ठिरः // 1 कञ्चित्कृतं विजानी' कर्तारं च प्रशंससि / भगवन्न्याय्यमाहैतं यथावद्धर्मनिश्चयम् / सतां मध्ये महाराज सत्करोषि च पूजयन् // 108 यथाशक्ति यथान्यायं क्रियतेऽयं विधिर्मया // 2 क्रश्चित्सूत्राणि सर्वाणि गृह्णासि भरतर्षभ / राजभिर्यद्यथा कार्य पुरा तत्तन्न संशयः / हस्तिसूत्राश्वसूत्राणि रथसूत्राणि चाभिभो // 109 यथान्यायोपनीतार्थं कृतं हेतुमदर्थवत् / / 3 कश्चिदभ्यस्यते शश्वद्गृहे ते भरतर्षभ / वयं तु सत्पथं तेषां यातुमिच्छामहे प्रभो / धनुर्वेदस्य सूत्रं च यत्रसूत्रं च नागरम् // 110 न तु शक्यं तथा गन्तुं यथा तैर्नियतात्मभिः॥४ कश्चिदत्राणि सर्वाणि ब्रह्मदण्डश्च तेऽनघ / एवमुक्त्वा स धर्मात्मा वाक्यं तदभिपूज्य च / विषयोगाश्च ते सर्वे विदिताः शत्रुनाशनाः / / 111 मुहूर्तात्प्राप्तकालं च दृष्ट्वा लोकचरं मुनिम् // 5 कञ्चिदग्निभयाञ्चैव सर्पव्यालभयात्तथा / नारदं स्वस्थमासीनमुपासीनो युधिष्ठिरः / अपृच्छत्पाण्डवस्तत्र राजमध्ये महामतिः // 6 रोगरक्षोभयाञ्चैव राष्ट्रं स्वं परिरक्षसि // 112 भवान्संचरते लोकान्सदा नानाविधान्बहून् / कञ्चिदन्धांश्च मूकांश्च पङ्गेन्व्यङ्गानबान्धवान् / ब्रह्मणा निर्मितान्पूर्व प्रेक्षमाणो मनोजवः / / 7 पितेव पासि धर्मज्ञ तथा प्रव्रजितानपि // 113 ईदृशी भवता काचिदृष्टपूर्वा सभा क्वचित् / वैशंपायन उवाच / इतो वा श्रेयसी ब्रह्मस्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः / / 8 एताः कुरूणामृषभो महात्मा तच्छ्रुत्वा नारदस्तस्य धर्मराजस्य भाषितम् / श्रुत्वा गिरो ब्राह्मणसत्तमस्य / पाण्डवं प्रत्युवाचेदं स्मयन्मधुरया गिरा // 9 प्रणम्य पादावभिवाद्य हृष्टो मानुषेषु न मे तात दृष्टपूर्वा न च श्रुता / राजाब्रवीन्नारदं देवरूपम् / / 114 सभा मणिमयी राजन्यथेयं तव भारत // 10 एवं करिष्यामि यथा त्वयोक्तं सभां तु पितृराजस्य वरुणस्य च धीमतः / प्रज्ञा हि मे भूय एवाभिवृद्धा / कथयिष्ये तथेन्द्रस्य कैलासनिलयस्य च // 11 उक्त्वा तथा चैव चकार राजा ब्रह्मणश्च सभां दिव्यां कथयिष्ये गतक्लमाम् / लेभे महीं सागरमेखलां च // 115 यदि ते श्रवणे बुद्धिर्वर्तते भरतर्षभ / / 12 नारद उवाच / नारदेनैवमुक्तस्तु धर्मराजो युधिष्ठिरः।। एवं यो वर्तते राजा चातुर्वर्ण्यस्य रक्षणे / प्राञ्जलिर्धातृभिः साधं तैश्च सर्वैर्नृपैर्वृतः / / 13 म विहृत्येह सुसुखी शक्रस्यैति सलोकताम् // 116 / नारदं प्रत्युवाचेदं धर्मराजो महामनाः / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि पञ्चमोऽध्यायः // 5 // | सभाः कथय ताः सर्वाः श्रोतुमिच्छामहे वयम्।।१४ - 299 -
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________________ 2. 6. 15 ] महाभारते [2. 7. 23 किंद्रव्यास्ताः सभा ब्रह्मन्किंविस्ताराः किमायताः / शङ्खश्च लिखितश्चैव तथा गौरशिरा मुनिः // 9 पितामहं च के तस्यां सभायां पर्युपासते // 15 दुर्वासाश्च दीर्घतपा याज्ञवल्क्योऽथ भालुकिः / वासवं देवराजं च यमं वैवस्वतं च के। उद्दालकः श्वेतकेतुस्तथा शाट्यायनः प्रभुः / / 10 वरुणं च कुबेरं च सभायां पर्युपासते // 16 हविष्मांश्च गविष्ठश्च हविश्चन्द्रश्च पार्थिवः। एतत्सर्वं यथातत्त्वं देवर्षे वदतस्तव / हृद्यश्चोदरशाण्डिल्यः पाराशर्यः कृषीह्वलः / / 11 श्रोतुमिच्छाम सहिताः परं कौतूहलं हि नः // 17 वातस्कन्धो विशाखश्च विधाता काल एव च / एवमुक्तः पाण्डवेन नारदः प्रत्युवाच तम् / अनन्तदन्तस्त्वष्टा च विश्वकर्मा च तुम्बुरुः // 12 क्रमेण राजन्दिव्यास्ताः श्रूयन्तामिह नः सभाः॥१८ अयोनिजा योनिजाश्च वायुभक्षा हुताशिनः / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि षष्ठोऽध्यायः // 6 // ईशानं सर्वलोकस्य वज्रिणं समुपासते // 13 सहदेवः सुनीथश्च वाल्मीकिश्च महातपाः / नारद उवाच / समीकः सत्यवांश्चैव प्रचेताः सत्यसंगरः // 14 .. शक्रस्य तु सभा दिव्या भास्वरा कर्मभिर्जिता / मेधातिथिर्वामदेवः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः / स्वयं शक्रेण कौरव्य निर्मितार्कसमप्रभा / / 1 मरुतश्च मरीचिश्च स्थाणुश्चात्रिर्महातपाः // 15 विस्तीर्णा योजनशतं शतमध्यर्धमायता। कक्षीवान्गौतमस्तार्क्ष्यस्तथा वैश्वानरो मुनिः। वैहायसी कामगमा पञ्चयोजनमुच्छ्रिता // 2 मुनिः कालकवृक्षीय आश्राव्योऽथ हिरण्यदः / जराशोकक्लमापेता निरातङ्का शिवा शुभा। संवर्तो देवहव्यश्च विष्वक्सेनश्च वीर्यवान् // 16 वेश्मासनवती रम्या दिव्यपादपशोभिता // 3 दिव्या आपस्तथौषध्यः श्रद्धा मेधा सरस्वती / तस्यां देवेश्वरः पार्थ सभायां परमासने / अर्थो धर्मश्च कामश्च विद्युतश्चापि पाण्डव // 17 आस्ते शच्या महेन्द्राण्या श्रिया लक्ष्म्या च भारत॥४ जलवाहास्तथा मेघा वायवः स्तनयित्नवः / बिभ्रद्वपुरनिर्देश्यं किरीटी लोहिताङ्गदः / प्राची दिग्यज्ञवाहाश्च पावकाः सप्तविंशतिः // 18 विरजोम्बरश्चित्रमाल्यो ह्रीकीर्तिद्युतिभिः सह / / 5 , अग्नीषोमो तथेन्द्राग्नी मित्रोऽथ सवितार्यमा / तस्यामुपासते नित्यं महात्मानं शतक्रतुम् / भगो विश्वे च साध्याश्च शुक्रो मन्थी च भारत॥१९ मरुतः सर्वतो राजन्सर्वे च गृहमेधिनः / यज्ञाश्च दक्षिणाश्चैव ग्रहाः स्तोभाश्च सर्वशः / सिद्धा देवर्षयश्चैव साध्या देवगणास्तथा // 6 यज्ञवाहाश्च ये मत्राः सर्वे तत्र समासते // 20 एते सानुचराः सर्वे दिव्यरूपाः स्वलंकृताः / तथैवाप्सरसो राजन्गन्धर्वाश्च मनोरमाः / उपासते महात्मानं देवराजमरिंदमम् // 7 नृत्यवादित्रगीतैश्च हास्यैश्च विविधरपि / तथा देवर्षयः सर्वे पार्थ शक्रमुपासते / रमयन्ति स्म नृपते देवराजं शतक्रतुम् / / 21 अमला धूतपाप्मानो दीप्यमाना इवाग्नयः / स्तुतिभिर्मङ्गलैश्चैव स्तुवन्तः कर्मभिस्तथा।। तेजस्विनः सोमयुजो विपापा विगतक्लमाः // 8 विक्रमैश्च महात्मानं बलवृत्रनिषूदनम् / / 22 / पराशरः पर्वतश्च तथा सावर्णिगालवौ / ब्रह्मराजर्षयः सर्वे सर्वे देवर्षयस्तथा / -300 -
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________________ 2..7. 23 ] सभापर्व [2. 8. 25 विमानैर्विविधैर्दिव्यैर्भ्राजमानैरिवाग्निभिः // 23 चतुरश्वः सदश्वोर्मिः कार्तवीर्यश्च पार्थिवः 10 स्रग्विणो भूषिताश्चान्ये यान्ति चायान्ति चापरे। भरतस्तथा सुरथः सुनीथो नैषधो नलः / बृहस्पतिश्च शुक्रश्च तस्यामाययतुः सह // 24 दिवोदासोऽथ सुमना अम्बरीषो भगीरथः 11 एते चान्ये च बहवो यतात्मानो यतव्रताः। व्यश्वः सदश्वो व यश्वः पञ्चहस्तः पृथुश्रवाः। विमानैश्चन्द्रसंकाशैः सोमवत्प्रियदर्शनाः / रुषद्गुर्वृषसेनश्च क्षुपश्च सुमहाबलः / / 12 ब्रह्मणो वचनाद्राजन्भृगुः सप्तर्षयस्तथा // 25 रुषदश्वो वसुमनाः पुरुकुत्सो ध्वजी रथी। एषा सभा मया राजन्दृष्टा पुष्करमालिनी। आर्टिषेणो दिलीपश्च महात्मा चाप्युशीनरः // 13 शतक्रतोर्महाराज याम्यां शृण ममानघ // 26 औशीनरः पुण्डरीकः शर्यातिः शरभः शुचिः / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि सप्तमोऽध्यायः // 7 // अङ्गोऽरिष्टश्च वेनश्च दुःषन्तः संजयो जयः॥ 14 भाङ्गास्वरिः सुनीथश्च निषधोऽथ त्विषीरथः / नारद उवाच / करंधमो बाहिकश्च सुद्युम्नो बलवान्मधुः // 15 कथयिष्ये सभां दिव्यां युधिष्ठिर निबोध ताम् / / कपोतरोमा तृणकः सहदेवार्जुनी तथा / वैवस्वतस्य यामर्थे विश्वकर्मा, चकार ह // 1 रामो दाशरथिश्चैव लक्ष्मणोऽथ प्रतर्दनः // 16 तैजसी सा सभा राजन्बभूव शतयोजना / अलर्कः कक्षसेनश्च गयो गौराश्व एव च / विस्तारायामसंपन्ना भूयसी चापि पाण्डव // 2 जामदग्न्योऽथ रामोऽत्र नाभागसगरौ तथा // 17 अर्कप्रकाशा भ्राजिष्णुः सर्वतः कामचारिणी।। भूरिद्युम्नो महाश्वश्च पृथ्वश्वो जनकस्तथा / नैवातिशीता नात्युष्णा मनसश्च प्रहर्षिणी / / 3 / वैन्यो राजा वारिषेणः पुरुजो जनमेजयः / / 18 न शोको न जरा तस्यां क्षुत्पिपासे न चाप्रियम्। ब्रह्मदत्तस्त्रिगर्तश्च राजोपरिचरस्तथा। न च दैन्यं क्लमो वापि प्रतिकूलं न चाप्युत // 4 इन्द्रद्युम्नो भीमजानुर्गयः पृष्ठो नयोऽनघः // 19 सर्वे कामाः स्थितास्तस्यां ये दिव्या ये च मानुषाः / पद्मोऽथ मुचुकुन्दश्च भूरिद्युम्नः प्रसेनजित् / रसवञ्च प्रभूतं च भक्ष्यभोज्यमरिंदम // 5 अरिष्टनेमिः प्रद्युम्नः पृथगश्वोऽजकस्तथा / / 20 पुण्यगन्धाः स्रजस्तत्र नित्यपुष्पफलद्रुमाः / शतं मत्स्या नृपतयः शतं नीपाः शतं हयाः / रसवन्ति च तोयानि शीतान्युष्णानि चैव ह // 6 / धृतराष्ट्राश्चैकशतमशीतिर्जनमेजयाः॥ 21 तस्यां राजर्षयः पुण्यास्तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः।। शतं च ब्रह्मदत्तानामीरिणां वैरिणां शतम् / यमं वैवस्वतं तात प्रहृष्टाः पर्युपासते // 7 शंतनुश्चैव राजर्षिः पाण्डुश्चैव पिता तव // 22 ययातिनहुषः पूरुर्मान्धाता सोमको नृगः / उशद्गवः शतरथो देवराजो जयद्रथः / त्रसदस्युश्च तुरयः कृतवीर्यः श्रुतश्रवाः // 8 वृषादर्भिश्च राजर्षिर्धाम्ना सह समत्रिणा // 23 अरिप्रणुत्सुसिंहश्च कृतवेगः कृतिर्निमिः / अथापरे सहस्राणि ये गताः शशबिन्दवः / प्रतर्दनः शिबिर्मत्स्यः पृथ्वक्षोऽथ बृहद्रथः // 9 / इष्ट्वाश्वमेधैर्बहुभिर्महद्भिर्भूरिदक्षिणैः / / 24 ऐडो मरुत्तः कुशिकः सांकाश्यः सांकृतिर्भवः / / एते राजर्षयः पुण्याः कीर्तिमन्तो बहुश्रुताः / - 301 -
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________________ 2. 8. 25] महाभारते [2.9. 14 तस्यां सभायां राजर्षे वैवस्वतमुपासते // 25 अगस्त्योऽथ मतङ्गश्च कालो मृत्युस्तथैव च / नारद उवाच / यज्वानश्चैव सिद्धाश्च ये च योगशरीरिणः // 26 युधिष्ठिर सभा दिव्या वरुणस्य सितप्रभा। अग्निष्वात्ताश्च पितरः फेनपाश्चोष्मपाश्च ये / प्रमाणेन यथा याम्या शुभप्राकारतोरणा // 1 स्वधावन्तो बर्हिषदो मूर्तिमन्तस्तथापरे // 27 अन्तःसलिलमास्थाय विहिता विश्वकर्मणा / कालचक्रं च साक्षाच्च भगवान्हव्यवाहनः / दिव्यरत्नमयेवृक्षः फलपुष्पप्रदैर्युता // 2 . नरा दुष्कृतकर्माणो दक्षिणायनमृत्यवः // 28 नीलपीतासितश्यामैः सितैर्लोहितकैरपि / कालस्य नयने युक्ता यमस्य पुरुषाश्च ये। अवतानैस्तथा गुल्मैः पुष्पमञ्जरिधारिभिः / / 3 तस्यां शिंशपपालाशास्तथा काशकुशादयः / तथा शकुनयस्तस्यां नानारूपा मृदुस्वराः / उपासते धर्मराजं मूर्तिमन्तो निरामयाः // 29 अनिर्देश्या वपुष्मन्तः शतशोऽथ सहस्रशः // 4 एते चान्ये च बहवः पितृराजसभासदः / सा सभा सुखसंस्पर्शा न शीता न च धर्मदा। अशक्याः परिसंख्यातुं नामभिः कर्मभिस्तथा // 30 वेश्मासनवती रम्या सिता वरुणपालिता // 5 असंबाधा हि सा पार्थ रम्या कामगमा सभा। यस्यामास्ते स वरुणो वारुण्या सह भारत / दीर्घकालं तपस्तत्वा निर्मिता विश्वकर्मणा // 31 दिव्यरत्नाम्बरधरो भूषणैरुपशोभितः // 6 प्रभासन्ती ज्वलन्तीव तेजसा स्वेन भारत / स्रग्विणो भूषिताश्चापि दिव्यमाल्यानुकर्षिणः। तामुग्रतपसो यान्ति सुव्रताः सत्यवादिनः / / 32 आदित्यास्तत्र वरुणं जलेश्वरमुपासते // 7 शान्ताः संन्यासिनः सिद्धाः पूताः पुण्येन कर्मणा। वासुकिस्तक्षकश्चैव नागश्चैरावतस्तथा / सर्वे भास्वरदेहाश्च सर्वे च विरजोम्बराः // 33 कृष्णश्च लोहितश्चैव पद्मश्चित्रश्च वीर्यवान् // 8 . चित्राङ्गदाश्चित्रमाल्याः सर्वे .ज्वलितकुण्डलाः। कम्बलाश्वतरौ नागौ धृतराष्ट्रबलाहको / सुकृतैः कर्मभिः पुण्यैः परिबहैर्विभूषिताः // 34 मणिमान्कुण्डलधरः कर्कोटकधनंजयौ // 9 प्रह्लादो मूषिकादश्च तथैव जनमेजयः / गन्धर्वाश्च महात्मानः शतशश्चाप्सरोगणाः / / पताकिनो मण्डलिनः फणवन्तश्च सर्वशः / / 10 वादित्रं नृत्तगीतं च हास्यं लास्यं च सर्वशः // 35 एते चान्ये च बहवः सस्तिस्यां युधिष्ठिर / पुण्याश्च गन्धाः शब्दाश्च तस्यां पार्थ समन्ततः / उपासते महात्मानं वरुणं विगतक्लमाः // 11 दिव्यानि माल्यानि च तामुपतिष्ठन्ति सर्वशः॥३६ बलिवैरोचनो राजा नरकः पृथिवींजयः / शतं शतसहस्राणि धर्मिणां तं प्रजेश्वरम् / प्रह्लादो विप्रचित्तिश्च कालखञ्जाश्च सर्वशः / / 12 उपासते महात्मानं रूपयुक्ता मनस्विनः / / 37 / सुहनुर्दुर्मुखः शङ्खः सुमनाः सुनतिः स्वनः / ईदृशी सा सभा राजन्पितृराज्ञो महात्मनः / घटोदरो महापार्श्वः क्रथनः पिठरस्तथा / / 13 वरुणस्यापि वक्ष्यामि सभां पुष्करमालिनीम् // 38 / विश्वरूपः सुरूपश्च विरूपोऽथ महाशिराः / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अष्टमोऽध्यायः // 8 // | दशग्रीवश्च वाली च मेघवासा दशावरः // 14 - 302 -
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________________ 2. 9. 15] सभापर्व [2. 10. 18 कैटभो विटटूतश्च संहादश्वेन्द्रतापनः / दिव्या हेममयैरुच्चैः पादपैरुपशोभिता // 3 दैत्यदानवसंघाश्च सर्वे रुचिरकुण्डलाः // 15 रश्मिवती भास्वरा च दिव्यगन्धा मनोरमा / स्रग्विणो मौलिनः सर्वे तथा दिव्यपरिच्छदाः / सिताभ्रशिखराकारा प्लवमानेव दृश्यते // 4 सर्वे लब्धवराः शूराः सर्वे विगतमृत्यवः // 16 तस्यां वैश्रवणो राजा विचित्राभरणाम्बरः। ते तस्यां वरुणं देवं धर्मपाशस्थिताः सदा। स्त्रीसहस्रावृतः श्रीमानास्ते ज्वलितकुण्डलः // 5 उपासते महात्मानं सर्वे सुचरितव्रताः // 17 / दिवाकरनिभे पुण्ये दिव्यास्तरणसंवृते / तथा समुद्राश्चत्वारो नदी भागीरथी च या। दिव्यपादोपधाने च निषण्णः परमासने // 6 कालिन्दी विदिशा वेण्णा नर्मदा वेगवाहिनी // 18 मन्दाराणामुदाराणां वनानि सुरभीणि च। विपाशा च शतद्रुश्च चन्द्रभागा सरस्वती / सौगन्धिकानां चादाय गन्धान्गन्धवहः शुचिः // 7 इरावती वितस्ता च सिन्धुर्देवनदस्तथा // 19 नलिन्याश्चालकाख्यायाश्चन्दनानां वनस्य च। . गोदावरी कृष्णवेण्णा कावेरी च सरिद्वरा / मनोहृदयसंहादी वायुस्तमुपसेवते // 8 एताश्चान्याश्च सरितस्तीर्थानि च सरांसि च॥२० तत्र देवाः सगन्धर्वा गणैरप्सरसां वृताः / कृपाश्च सप्रस्रवणा देहवन्तो युधिष्ठिर / दिव्यतानेन गीतानि गान्ति दिव्यानि भारत // 9 पल्वलानि तडागानि देहवन्त्यथ भारत // 21 मिश्रकेशी च रम्भा च चित्रसेना शुचिस्मिता। दिशस्तथा मही चैव तथा सर्वे महीधराः / चारुनेत्रा घृताची च मेनका पुञ्जिकस्थला // 10 उपासते महात्मानं सर्वे जलचरास्तथा // 22 विश्वाची सहजन्या च प्रम्लोचा उर्वशी इरा। गीतवादित्रवन्तश्च गन्धर्वाप्सरसां गणाः / बर्गा च सौरभेयी च समीची बुद्बुदा लता // 11 स्तुवन्तो वरुणं तस्यां सर्व एव समासते // 23 एताः सहस्रशश्चान्या नृत्तगीतविशारदाः / महीधरा रत्नवन्तो रसा येषु प्रतिष्ठिताः / उपतिष्ठन्ति धनदं पाण्डवाप्सरसां गणाः // 12 सर्वे विग्रहवन्तस्ते तमीश्वरमुपासते // 24 अनिशं दिव्यवादित्रैर्नृत्तैर्गीतैश्च सा सभा / एषा मया संपतता वारुणी भरतर्षभ / अशून्या रुचिरा भाति गन्धर्वाप्सरसां गणैः / / 13 दृष्टपूर्वा सभा रम्या कुबेरस्य सभां शृणु // 25 किंनरा नाम गन्धर्वा नरा नाम तथापरे / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि नवमोऽध्यायः // 9 // मणिभद्रोऽथ धनदः श्वेतभद्रश्च गुह्यकः / / 14 कशेरको गण्डकण्डः प्रद्योतश्च महाबलः। नारद उवाच। कुस्तुम्बुरुः पिशाचश्च गजकर्णो विशालकः / / 15 सभा वैश्रवणी राजशतयोजनमायता। वराहकर्णः सान्द्रोष्ठः फलभक्षः फलोदकः / विस्तीर्णा सप्ततिश्चैव योजनानि सितप्रभा // 1 अङ्गचूडः शिखावर्तो हेमनेत्रो विभीषणः // 16 तपसा निर्मिता राजन्स्वयं वैश्रवणेन सा।। पुष्पाननः पिङ्गलकः शोणितोदः प्रवालकः / शशिप्रभा खेचरीणां कैलासशिखरोपमा // 2 वृक्षवास्यनिकेतश्च चीरवासाश्च भारत // 17 गुह्यकैरुह्यमाना सा खे विषक्तव दृश्यते / / एते चान्ये च बहवो यक्षाः शतसहस्रशः। - 303 -
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________________ 2. 10. 18 ] महाभारते [2. 11. 23 सदा भगवती च श्रीस्तथैव नलकूबरः // 18 क्षणेन हि बिभर्त्यन्यदनिर्देश्यं वपुस्तथा // 8 अहं च बहुशस्तस्यां भवन्त्यन्ये च मद्विधाः। न वेद परिमाणं वा संस्थानं वापि भारत / आचार्याश्चाभवंस्तत्र तथा देवर्षयोऽपरे // 19 न च रूपं मया तादृग्दृष्टपूर्वं कदाचन // 9 भगवान्भूतसंघेश्च वृतः शतसहस्रशः / सुसुखा सा सभा राजन्न शीता न च धर्मदा। उमापतिः पशुपतिः शूलधृग्भगनेत्रहा // 20 न क्षुत्पिपासे न ग्लानिं प्राप्य तां प्राप्नुवन्त्युत // 10 त्र्यम्बको राजशार्दूल देवी च विगतक्लमा। नानारूपैरिव कृता सुविचित्रैः सुभास्वरैः / वामनैर्विकटैः कुब्जैः क्षतजा:मनोजवैः // 21 स्तम्भैर्न च धृता सा तु शाश्वती न च सा क्षरा॥ 11 मांसमेदोवसाहारैरुग्रश्रवणदर्शनैः / / अति चन्द्रं च सूर्यं च शिखिनं च स्वयंप्रभा / नानाप्रहरणैरैर्वातैरिव महाजवैः / दीप्यते नाकपृष्ठस्था भासयन्तीव भास्करम् / / 12 वृतः सखायमन्वास्ते सदैव धनदं नृप // 22 / तस्यां स भगवानास्ते विदधद्देवमायया। सा सभा तादृशी राजन्मया दृष्टान्तरिक्षगा। स्वयमेकोऽनिशं राजल्लोकाललोकपितामहः / / 13 पितामहसभां राजन्कथयिष्ये गतलमाम् // 23 उपतिष्ठन्ति चाप्येनं प्रजानां पतयः प्रभुम् / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि दशमोऽध्यायः॥१०॥ दक्षः प्रचेताः पुलहो मरीचिः कश्यपस्तथा // 14 11 भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च गौतमश्च तथाङ्गिराः / नारद उवाच। मनोऽन्तरिक्षं विद्याश्च वायुस्तेजो जलं मही // 15 पुरा देवयुगे राजन्नादित्यो भगवान्दिवः / शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च भारत / आगच्छन्मानुषं लोकं दिदृक्षुर्विगतक्लमः // 1 प्रकृतिश्च विकारश्च यच्चान्यत्कारणं भुवः॥१६ चरन्मानुषरूपेण सभां दृष्ट्वा स्वयंभुवः / चन्द्रमाः सह नक्षत्रैरादित्यश्च गभस्तिमान् / सभामकथयन्मह्यं ब्राह्मी तत्त्वेन पाण्डव // 2 वायवः क्रतवश्चैव संकल्पः प्राण एव च // 17 अप्रमेयप्रभां दिव्यां मानतीं भरतर्षभ / एते चान्ये च बहवः स्वयंभुवमुपस्थिताः / अनिर्देश्यां प्रभावेन सर्वभूतमनोरमाम् // 3 अर्थो धर्मश्च कामश्च हर्षो द्वेषस्तपो दमः / / 18 श्रुत्वा गुणानहं तस्याः सभायाः पाण्डुनन्दन / आयान्ति तस्यां सहिता गन्धर्वाप्सरसस्तथा / दर्शनेप्सुस्तथा राजन्नादित्यमहमब्रुवम् // 4 विंशतिः सप्त चैवान्ये लोकपालाश्च सर्वशः॥ 19 भगवन्द्रष्टुमिच्छामि पितामहसभामहम् / शुक्रो बृहस्पतिश्चैव बुधोऽङ्गारकः एव च / येन सा तपसा शक्या कर्मणा वापि गोपते // 5 शनैश्चरश्च राहुश्च ग्रहाः सर्वे तथैव च // 20 औषधैर्वा तथा युक्तैरुत वा मायया यया / / मत्रो रथंतरश्चैव हरिमान्वसुमानपि / तन्ममाचक्ष्व भगवन्पश्येयं तां सभां कथम् // 6 आदित्याः साधिराजानो नानाद्वंद्वैरुदाहृताः // 21 ततः स भगवान्सूर्यो मामुपादाय वीर्यवान् / मरुतो विश्वकर्मा च वसवश्चैव भारत / अगच्छत्तां सभां ब्राह्मी विपापां विगतक्लमाम् / / 7 / / तथा पितृगणाः सर्वे सर्वाणि च हवींष्यथ // 22 एवंरूपेति सा शक्या न निर्देष्टुं जनाधिप। - ऋग्वेदः सामवेदश्च यजुर्वेदश्च पाण्डव। -304 -
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________________ 2. 11. 23 ] सभापर्व [2. 11. 52 अथर्ववेदश्च तथा पर्वाणि च विशां पते / / 23 सान्त्वमानार्थसंभोगैर्युनक्ति मनुजाधिप // 38 . इतिहासोपवेदाश्च वेदाङ्गानि च सर्वशः / तथा तैरुपयातैश्च प्रतियातैश्च भारत / महा यज्ञाश्च सोमश्च देवतानि च सर्वशः // 24 | आकुला सा सभा तात भवति स्म सुखप्रदा // 39 सावित्री दुर्गतरणी वाणी सप्तविधा तथा। सर्वतेजोमयी दिव्या ब्रह्मर्षिगणसेविता / मेधा धृतिः श्रुतिश्चैव प्रज्ञा बुद्धिर्यशः क्षमा // 25 ब्राहृया श्रिया दीप्यमाना शुशुभे विगतक्लमा॥४० सामानि स्तुतिशस्त्राणि गाथाश्च विविधास्तथा।। सा सभा तादृशी दृष्टा सर्वलोकेषु दुर्लभा। भाष्याणि तर्कयुक्तानि देहवन्ति विशां पते // 26 सभेयं राजशार्दूल मनुष्येषु यथा तव // 41 क्षणा लवा मुहूर्ताश्च दिवा रात्रिस्तथैव च। एता मया दृष्टपूर्वाः सभा देवेषु पाण्डव / अर्धमासाश्च मासाश्च ऋतवः षट् च भारत // 27 तवेयं मानुषे लोके सर्वश्रेष्ठतमा सभा // 42 संवत्सराः पञ्चयुगमहोरात्राश्चतुर्विधाः। युधिष्ठिर उवाच / कालचक्रं च यदिव्यं नित्यमक्षयमव्ययम् // 28 प्रायशो राजलोकस्ते कथितो वदतां वर / अदितिदितिर्दनुश्चैव सुरसा विनता इरा। वैवस्वतसभायां तु यथा वदसि वै प्रभो // 43 कालका सुरभिर्देवी सरमा चाथ गौतमी // 29 वरुणस्य सभायां तु नागास्ते कथिता विभो / आदित्या वसवो रुद्रा मस्तश्चाश्विनावपि। दैत्येन्द्राश्चैव भूयिष्ठाः सरितः सागरास्तथा // 44 विश्वेदेवाश्च साध्याश्च पितरश्च मनोजवाः // 30 तथा धनपतेर्यक्षा गुह्यका राक्षसास्तथा। राक्षसाश्च पिशाचाश्च दानवा गुह्यकास्तथा / गन्धर्वाप्सरसश्चैव भगवांश्च वृषध्वजः 45 सुपर्णनागपशवः पितामहमुपासते // 31 पितामहसभायां तु कथितास्ते महर्षयः / देवो नारायणस्तस्यां तथा देवर्षयश्च ये। सर्वदेवनिकायाश्च सर्वशास्त्राणि चैव हि // 46 ऋषयो वालखिल्याश्च योनिजायोनिजास्तथा।। 32 शतक्रतुसभायां तु देवाः संकीर्तिता मुने / यञ्च किंचित्रिलोकेऽस्मिन्दृश्यते स्थाणुजङ्गमम् / उद्देशतश्च गन्धर्वा विविधाश्च महर्षयः // 47 सर्वं तस्यां मया दृष्टं तद्विंद्धि मनुजाधिप / / 33 एक एव तु राजर्षिर्हरिश्चन्द्रो महामुने / अष्टाशीतिसहस्राणि यतीनामूर्ध्वरेतसाम् / कथितस्ते सभानित्यो देवेन्द्रस्य महात्मनः // 48 प्रजावतां च पश्चाशदृषीणामपि पाण्डव // 34 किं कर्म तेनाचरितं तपो वा नियतव्रतम् / ते स्म तत्र यथाकामं दृष्ट्वा सर्वे दिवौकसः / / येनासौ सह शक्रेण स्पर्धते स्म महायशाः॥४९ प्रणम्य शिरसा तस्मै प्रतियान्ति यथागतम् // 35 पितृलोकगतश्चापि त्वया विप्र पिता मम / अतिथीनागतान्देवान्दैत्यान्नागान्मुनींस्तथा / दृष्टः पाण्डुर्महाभागः कथं चासि समागतः // 50 पक्षान्सुपर्णान्कालेयान्गन्धर्वाप्सरसस्तथा // 36 किमुक्तवांश्च भगवन्नेतदिच्छामि वेदितुम् / महाभागानमितधीब्रह्मा लोकपितामहः / त्वत्तः श्रोतुमहं सर्वं परं कौतूहलं हि मे // 51 दयावान्सर्वभूतेषु यथार्ह प्रतिपद्यते // 37 नारद उवाच / तिगृह्य च विश्वात्मा स्वयंभूरमितप्रभः / / यन्मां पृच्छसि राजेन्द्र हरिश्चन्द्रं प्रति प्रभो। म.भा. 39 - 305 -
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________________ 2. 11. 52] महाभारते [2. 12.5 तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि माहात्म्यं तस्य धीमतः / / 52 तस्य त्वं पुरुषव्याघ्र संकल्पं कुरु पाण्डव / स राजा बलवानासीत्सम्राट् सर्वमहीक्षिताम् / गन्तारस्ते महेन्द्रस्य पूर्वैः सह सलोकताम् / / 67 तस्य सर्वे महीपालाः शासनावनताः स्थिताः॥५३ बहुविनश्च नृपते ऋतुरेष स्मृतो महान् / तेनैकं रथमास्थाय जैत्रं हेमविभूषितम् / छिद्राण्यत्र हि वाञ्छन्ति यज्ञन्ना ब्रह्मराक्षसाः।।६८ शस्त्रप्रतापेन जिता द्वीपाः सप्त नरेश्वर // 54 युद्धं च पृष्ठगमनं पृथिवीक्षयकारकम् / . स विजित्य महीं सर्वां सशैलवनकाननाम् / किंचिदेव निमित्तं च भवत्यत्र क्षयावहम् // 69 आजहार महाराज राजसूयं महाक्रतुम् / / 55 एतत्संचिन्त्य राजेन्द्र यत्क्षमं तत्समाचर / तस्य सर्वे महीपाला धनान्याज राज्ञया। अप्रमत्तोत्थितो नित्यं चातुर्वर्ण्यस्य रक्षणे / द्विजानां परिवेष्टारस्तस्मिन्यज्ञे च तेऽभवन् // 56 भव एधस्व मोदस्व दानैस्तर्पय च द्विजान् // 70 प्रादाच्च द्रविणं प्रीत्या याजकानां नरेश्वरः / एतत्ते विस्तरेणोक्तं यन्मां. त्वं परिपृच्छसि / यथोक्तं तत्र तैस्तस्मिंस्ततः पञ्चगुणाधिकम् // 57 आपृच्छे त्वां गमिष्यामि दाशाईनगरी प्रति // 71 अतर्पयच्च विविधैर्वसुभिर्ब्राह्मणांस्तथा / वैशंपायन उवाच / प्रासर्पकाले संप्राप्ते नानादिग्भ्यः समागतान् // 58 एवमाख्याय पार्थेभ्यो नारदो जनमेजय / भक्ष्यैर्भोज्यैश्च विविधैर्यथाकामपुरस्कृतैः / जगाम तैर्वृतो राजन्नृषिभिर्यैः समागतः // 72 रत्नौघतर्पितैस्तुष्टैर्द्विजैश्च समुदाहृतम् / गते तु नारदे पार्थो भ्रातृभिः सह कौरव। . तेजस्वी च यशस्वी च नृपेभ्योऽभ्यधिकोऽभवत् 59 / राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं चिन्तयामास भारत // 73 एतस्मात्कारणात्पार्थ हरिश्चन्द्रो विराजते / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि एकादशोऽध्यायः॥ 11 तेभ्यो राजसहस्रेभ्यस्तद्विद्धि भरतर्षभ // 60 . // समाप्तं सभापर्व // समाप्य च हरिश्चन्द्रो महायज्ञं प्रतापवान् / अभिषिक्तः स शुशुभे साम्राज्येन नराधिप // 61 - वैशंपायन उवाच। ये चान्येऽपि महीपाला राजसूयं महाक्रतुम् / ऋषेस्तद्वचनं श्रुत्वा निशश्वास युधिष्ठिरः / यजन्ते ते महेन्द्रेण मोदन्ते सह भारत / / 62 चिन्तयनराजसूयाप्तिं न लेभे शर्म भारत // 1 ये चापि निधनं प्राप्ताः संग्रामेष्वपलायिनः / राजर्षीणां हि तं श्रुत्वा महिमानं महात्मनाम् / ते तत्सदः समासाद्य मोदन्ते भरतर्षभ // 63 यज्वनां कर्मभिः पुण्यैर्लोकप्राप्तिं समीक्ष्य च // 2 तपसा ये च तीव्रण त्यजन्तीह कलेवरम् / हरिश्चन्द्रं च राजर्षि रोचमानं. विशेषतः / तेऽपि तत्स्थानमासाद्य श्रीमन्तो भान्ति नित्यशः॥६४ यज्वानं यज्ञमाहर्तुं राजसूयमियेष सः // 3 पिता च त्वाह कौन्तेय पाण्डुः कौरवनन्दनः। युधिष्ठिरस्ततः सर्वानर्चयित्वा सभासदः / हरिश्चन्द्रे श्रियं दृष्ट्वा नृपती जातविस्मयः॥६५ प्रत्यर्चितश्च तैः सर्वैर्यज्ञायैव मनो दधे // 4 समर्थोऽसि महीं जेतुं भ्रातरस्ते वशे स्थिताः। स राजसूयं राजेन्द्र कुरूणामृषभः ऋतुम् / राजसूयं क्रतुश्रेष्ठमाहरवेति भारत / / 66 / आहर्तुं प्रवणं चक्रे मनः संचिन्त्य सोऽसकृत् // 5 -306 - 12 वशपाच
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________________ 2. 12. 6] सभापर्व [2. 12. 33 भूयश्चाद्भुतवीर्यौजा धर्ममेवानुपालयन् / वैशंपायन उवाच। किं हितं सर्वलोकानां भवेदिति मनो दधे // 6 एवमुक्तास्तु ते तेन राज्ञा राजीवलोचन / अनुगृह्णन्प्रजाः सर्वाः सर्वधर्मविदां वरः / इदमूचुर्वचः काले धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / अविशेषेण सर्वेषां हितं चक्रे युधिष्ठिरः // 7 अर्हस्त्वमसि धर्मज्ञ राजसूयं महाक्रतुम् / / 20 एवं गते ततस्तस्मिन्पितरीवाश्वसञ्जनाः। अथैवमुक्त नृपतावृत्विग्भिर्ऋषिभिस्तथा। न तस्य विद्यते द्वेष्टा ततोऽस्याजातशत्रुता // 8 मत्रिणो भ्रातरश्चास्य तद्वचः प्रत्यपूजयन् // 21 स मत्रिणः समानाय्य भ्रातूंश्च वदतां वरः। . स तु राजा महाप्राज्ञः पुनरेवात्मनात्मवान् / राजसूयं प्रति तदा पुनः पुनरपृच्छत // 9 भूयो विममृशे पार्थो लोकानां हितकाम्यया // 22 ते पृच्छयमानाः सहिता वचोऽयं मत्रिणस्तदा। सामर्थ्य योगं संप्रेक्ष्य देशकालौ व्ययागमौ। युधिष्ठिरं महाप्राज्ञं यियक्षुमिदमब्रुवन् // 10 विमृश्य सम्यक्च धिया कुर्वन्प्राज्ञो न सीदति // 23 येनाभिषिक्तो नृपतिर्वारुणं गुणमृच्छति / न हि यज्ञसमारम्भः केवलात्मविपत्तये / तेन राजापि सन्कृत्स्नं सम्राङ्गुणमभीप्सति // 11 भवतीति समाज्ञाय यत्नतः कार्यमुद्वहन् // 24 तस्य सम्रागुणार्हस्य भवतः कुरुनन्दन। . स निश्चयार्थं कार्यस्य कृष्णमेव जनार्दनम् / राजसूयस्य समयं मन्यन्ते सुहृदस्तव // 12 सर्वलोकात्परं मत्वा जगाम मनसा हरिम् / / 25 तस्य यज्ञस्य समयः स्वाधीनः क्षत्रसंपदा। अप्रमेयं महाबाहुं कामाज्जातमजं नृषु / साम्ना षडग्नयो यस्मिंश्चीयन्ते संशितव्रतैः // 13 पाण्डवस्तर्कयामास कर्मभिर्देवसंमितैः // 26 दर्वीहोमानुपादाय सर्वान्यः प्राप्नुते क्रतून् / नास्य किंचिदविज्ञातं नास्य किंचिदकर्मजम् / अभिषेकं च यज्ञान्ते सर्वजित्तेन चोच्यते // 14 न स किंचिन्न विषहेदिति कृष्णममन्यत / / 27 समर्थोऽसि महाबाहो सर्वे ते वशगा वयम् / / स तु तां नैष्ठिकी बुद्धिं कृत्वा पार्थो युधिष्ठिरः / अविचार्य महाराज राजसूये मनः कुरु / / 15 गुरुवद्भूतगुरवे प्राहिणोदूतमञ्जसा / / 28 इत्येवं सुहृदः सर्वे पृथक्च सह चाब्रुवन् / शीघ्रगेन रथेनाशु स दूतः प्राप्य यादवान् / स धयं पाण्डवस्तेषां वचः श्रुत्वा विशां पते / द्वारकावासिनं कृष्णं द्वारवत्यां समासदत् // 29 धृष्टमिष्टं वरिष्ठं च जग्राह मनसारिहा / / 16 दर्शनाकाङ्किणं पार्थं दर्शनाकास्याच्युतः। श्रुत्वा सुहृद्वचस्तच्च जानंश्चाप्यात्मनः क्षमम् / इन्द्रसेनेन सहित इन्द्रप्रस्थं ययौ तदा / / 30 पुनः पुनर्मनो दधे राजसूयाय भारत // 17 व्यतीत्य विविधान्देशांस्त्वरावान्क्षिप्रवाहनः / स भ्रातृभिः पुन/मानृत्विग्भिश्च महात्मभिः / इन्द्रप्रस्थगतं पार्थमभ्यगच्छजनार्दनः // 31 धौम्यद्वैपायनाद्यैश्च मन्त्रयामास मत्रिभिः॥ 18 स गृहे भ्रातृवद्धात्रा धर्मराजेन पूजितः। युधिष्ठिर उवाच / भीमेन च ततोऽपश्यत्स्वसारं प्रीतिमान्पितुः // 32 इयं या राजसूयस्य सम्राडर्हस्य सुक्रतोः / प्रीतः प्रियेण सुहृदा रेमे स सहितस्तदा / श्रद्दधानस्य वदतः स्पृहा मे सा कथं भवेत् // 19 / अर्जुनेन यमाभ्यां च गुरुवत्पर्युपस्थितः // 33 - 307 -
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________________ 2. 12. 34 ] महाभारते [2. 13. 21 तं विश्रान्तं शुभे देशे क्षणिनं कल्यमच्युतम् / तेषां तथैव तां लक्ष्मी सर्वक्षत्रमुपासते / धर्मराजः समागम्य ज्ञापयत्स्वं प्रयोजनम् // 34 सोऽवनीं मध्यमां भुक्त्वा मिथोभेदेष्वमन्यत / / 7 युधिष्ठिर उवाच / चतुर्युस्त्वपरो राजा यस्मिन्नेकशतोऽभवत् / प्रार्थितो राजसूयो मे न चासौ केवलेप्सया। स साम्राज्यं जरासंधः प्राप्तो भवति योनितः / / 8 प्राप्यते येन तत्ते ह विदितं कृष्ण सर्वशः // 35 / तं स राजा महाप्राज्ञ संश्रित्य किल सर्वशः / यस्मिन्सर्वं संभवति यश्च सर्वत्र पूज्यते। राजन्सेनापतिर्जातः शिशुपालः प्रतापवान् // 9 यश्च सर्वेश्वरो राजा राजसूयं स विन्दति // 36 तमेव च महाराज शिष्यवत्समुपस्थितः। तं राजसूयं सुहृदः कार्यमाहुः समेत्य मे। वक्रः करूषाधिपतिर्मायायोधी महाबलः // 10 तत्र मे निश्चिततमं तव कृष्ण गिरा भवेत् // 37 अपरौ च महावीरों महात्मानौ समाश्रितौ / केचिद्धि सौहृदादेव दोषं न परिचक्षते / जरासंधं महावीर्यं तौ हंसडिभकावुभौ // .11 अर्थहेतोस्तथैवान्ये प्रियमेव वदन्त्युत / / 38 दन्तवक्रः करूषश्च कलभो मेघवाहनः / प्रियमेव परीप्सन्ते केचिदात्मनि यद्धितम् / मूर्ना दिव्यं मणिं बिभ्रद्यं तं भूतमणिं विदुः / / 12 एवंप्रायाश्च दृश्यन्ते जनवादाः प्रयोजने // 39 / मुरं च नरकं चैव शास्ति यो यवनाधिपौ / त्वं तु हेतूनतीत्यैतान्कामक्रोधी व्यतीत्य च। अपर्यन्तबलो राजा प्रतीच्यां वरुणो यथा // 13 / परमं नः क्षमं लोके यथावद्वक्तुमर्हसि // 40 भगदत्तो महाराज वृद्धस्तव पितुः सखा / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्वादशोऽध्यायः // 12 // स वाचा प्रणतस्तस्य कर्मणा चैव भारत / / 14 स्नेहबद्धस्तु पितृवन्मनसा भक्तिमांस्त्वयि / श्रीकृष्ण उवाच / प्रतीच्या दक्षिणं चान्तं पृथिव्याः पाति यो नृपः।।१५ सर्वैर्गुणैर्महाराज राजसूयं त्वमर्हसि / मातुलो भवतः शूरः पुरुजित्कुन्तिवर्धनः / जानतस्त्वेव ते सर्वं किंचिद्वक्ष्यामि भारत / / 1 / स ते संनतिमानेकः स्नेहतः शत्रुतापनः / / 16 जामदग्न्येन रामेण क्षत्रं यदवशेषितम् / जरासंधं गतस्त्वेवं पुरा यो न मया हतः / तस्मादवरजं लोके यदिदं क्षत्रसंज्ञितम् // 2 पुरुषोत्तमविज्ञातो योऽसौ चेदिषु दुर्मतिः // 17 कृतोऽयं कुलसंकल्पः क्षत्रियैर्वसुधाधिप / आत्मानं प्रतिजानाति लोकेऽस्मिन्पुरुषोत्तमम् / निदेशवाग्भिस्तत्ते ह विदितं भरतर्षभ / 3 आदत्ते सततं मोहाद्यः स चिद्रं च मामकम् // 18 ऐलस्येक्ष्वाकुवंशस्य प्रकृति परिचक्षते / वङ्गपुण्डकिरातेषु राजा बलसमन्वितः / राजानः श्रेणिबद्धाश्च ततोऽन्ये क्षत्रिया भुवि / / 4 / / पौण्डको वासुदेवेति योऽसौ लोकेषु विश्रुतः // 19 ऐलवंश्यास्तु ये राजंस्तथैवेक्ष्वाकवो नृपाः / / चतुर्युः स महाराज भोज इन्द्रसखो बली / तानि चैकशतं विद्धि कुलानि भरतर्षभ // 5 विद्याबलाद्यो व्यजयत्पाण्ड्यक्रथककैशिकान् // 20 ययातेस्त्वेव भोजानां विस्तरोऽतिगुणो महान् / भ्राता यस्याहृतिः शूरो जामदग्न्यसमो युधि / भजते च महाराज विस्तरः स चतुर्दिशम् // 6 / स भक्तो मागधं राजा भीष्मकः परवीरहा // 21 -308 -
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________________ 2. 13. 22 ] सभापर्व [2. 13. 51 प्रियाण्याचरतः प्रह्वान्सदा संबन्धिनः सतः। तावुभौ सहितौ वीरौ जरासंधश्च वीर्यवान् / भजतो न भजत्यस्मानप्रियेषु व्यवस्थितः // 22 त्रयस्त्रयाणां लोकानां पर्याप्ता इति मे मतिः॥ 37 न कुलं न बलं राजन्नभिजास्तथात्मनः। न हि केवलमस्माकं यावन्तोऽन्ये च पार्थिवाः / पश्यमानो यशो दीप्तं जरासंधमुपाश्रितः / / 23 तथैव तेषामासीच्च बुद्धिबुद्धिमतां वर // 38 उदीच्यभोजाश्च तथा कुलान्यष्टादशाभिभो / अथ हंस इति ख्यातः कश्चिदासीन्महान्नृपः / जरासंधभयादेव प्रतीची दिशमाश्रिताः // 24 स चान्यैः सहितो राजन्संग्रामेऽष्टादशावरैः // 39 शरसेना भद्रकारा बोधाः शाल्वाः पटञ्चराः। हतो हंस इति प्रोक्तमथ केनापि भारत / सुस्थराश्च सुकुट्टाश्च कुणिन्दाः कुन्तिभिः सह // 25 तच्छ्रुत्वा डिभको राजन्यमुनाम्भस्यमज्जत // 40 शाल्वेयानां च राजानः सोदर्यानुचरैः सह। . विना हंसेन लोकेऽस्मिन्नाहं जीवितुमुत्सहे। दक्षिणा ये च पाञ्चालाः पूर्वाः कुन्तिषु कोशलाः।।२६ इत्येतां मतिमास्थाय डिभको निधनं गतः // 41 तथोत्तरां दिशं चापि परित्यज्य भयार्दिताः / तथा तु डिभकं श्रुत्वा हंसः परपुरंजयः / मत्स्याः संन्यस्तपादाश्च दक्षिणां दिशमाश्रिताः।।२७ प्रपेदे यमुनामेव सोऽपि तस्यां न्यमज्जत // 42 तथैव सर्वपाश्चाला जरासंधभयार्दिताः। तौ स राजा जरासंधः श्रुत्वाप्सु निधनं गतौ / स्वराष्ट्रं संपरित्यज्य विद्रुताः सर्वतोदिशम् // 28 स्वपुरं शूरसेनानां प्रययौ भरतर्षभ // 43 कस्यचित्त्वथ कालस्य कंसो निर्मथ्य बान्धवान् / ततो वयममित्रघ्न तस्मिन्प्रतिगते नृपे / बार्हद्रथसुते देव्यावुपागच्छदृथामतिः // 29 पुनरानन्दिताः सर्वे मथुरायां वसामहे // 44 अस्तिः प्राप्तिश्च नाम्ना ते सहदेवानुजेऽबले। यदा त्वभ्येत्य पितरं सा वै राजीवलोचना / बलेन तेन स ज्ञातीनभिभूय वृथामतिः // 30 कसभार्या जरासंधं दुहिता मागधं नृपम् // 45 श्रैष्ठ्यं प्राप्तः स तस्यासीदतीवापनयो महान्। चोदयत्येव राजेन्द्र पतिव्यसनदुःखिता। भोजराजन्यवृद्धस्तु पीड्यमानैर्दुरात्मना // 31 पतिनं मे जहीत्येवं पुनः पुनररिंदम॥४६ ज्ञातित्राणमभीप्सद्भिरस्मत्संभावना कृता / ततो वयं महाराज तं मनं पूर्वमत्रितम् / दत्त्वाकराय सुतनुं तामाहुकसुतां तदा / / 32 संस्मरन्तो विमनसो व्यपयाता नराधिप / / 47 संकर्षणद्वितीयेन ज्ञातिकार्य मया कृतम् / पृथक्त्वेन द्रुता राजन्संक्षिप्य महतीं श्रियम / हतौ कंससुनामानौ मया रामेण चाप्युत // 33 प्रपतामो भयात्तस्य सधनज्ञातिबान्धवाः // 48 भये तु समुपक्रान्ते जरासंधे समुद्यते / इति संचिन्त्य सर्वे स्म प्रतीची दिशमाश्रिताः / मश्रोऽयं मत्रितो राजन्कुलैरष्टादशावरैः // 34 कुशस्थली पुरी रम्यां रैवतेनोपशोभिताम् // 49 अनारमन्तो निघ्नन्तो महास्त्रैः शतघातिभिः / पुनर्निवेशनं तस्यां कृतवन्तो वयं नृप। न हन्याम वयं तस्य त्रिभिर्वर्षशतैर्बलम् // 35 तथैव दुर्गसंस्कार देवैरपि दुरासदम् // 50 तस्य ह्यमरसंकाशौ बलेन बलिनां वरौ / स्त्रियोऽपि यस्यां युध्येयुः किं पुनर्वृष्णिपुंगवाः / नामभ्यां हंसडिभकावित्यास्तां योधसत्तमौ // 36 / तस्यां वंयममित्रघ्न निवसामोऽकुतोभयाः॥५१ -309 -
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________________ 2. 13. 52] महाभारते [2. 14. 10 आलोक्य गिरिमुख्यं तं माधवीतीर्थमेव च / यतस्व तेषां मोक्षाय जरासंधवधाय च // 66 माधवाः कुरुशार्दूल परां मुदमवाप्नुवन् // 52 समारम्भो हि शक्योऽयं नान्यथा कुरुनन्दन। . एवं वयं जरासंधादादितः कृतकिल्बिषाः / राजसूयस्य कात्स्न्येन कर्तुं मतिमतां वर / / 67 सामर्थ्यवन्तः संबन्धाद्भवन्तं समुपाश्रिताः॥ 53 इत्येषा मे मती राजन्यथा वा मन्यसेऽनघ / त्रियोजनायतं सद्म त्रिस्कन्धं योजनादधि / एवं गते ममाचक्ष्व स्वयं निश्चित्य हेतुभिः // 68 योजनान्ते शतद्वारं विक्रमक्रमतोरणम् / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ अष्टादशावरैर्न, क्षत्रियैयुद्धदुर्मदैः // 54 अष्टादश सहस्राणि वातानां सन्ति नः कुले / युधिष्ठिर उवाच। आहुकस्य शतं पुत्रा एकैकस्त्रिशतावरः // 55 उक्तं त्वया बुद्धिमता यन्नान्यो वक्तुमर्हति / चारुदेष्णः सह भ्रात्रा चक्रदेवोऽथ सात्यकिः / संशयानां हि निर्मोक्ता त्वन्नान्यो विद्यते भुवि // 1 अहं च रौहिणेयश्च साम्बः शौरिसमो युधि // 56 गृहे गृहे हि राजानः स्वस्य स्वस्य प्रियंकराः / एवमेते रथाः सप्त राजन्नन्यान्निबोध मे / न च साम्राज्यमाप्तास्ते सम्राटशब्दो हि कृत्स्नभाक् // कृतवर्मा अनाधृष्टिः समीकः समितिंजयः // 57 कथं परानुभावज्ञः स्खं प्रशंसितुमर्हति / कह्वः शङ्कुर्निदान्तश्च सप्तैवैते महारथाः / परेण समवेतस्तु यः प्रशस्तः स पूज्यते / / 3 पुत्रौ चान्धकभोजस्य वृद्धो राजा च ते दश // 58 विशाला बहुला भूमिबहुरत्नसमाचिता / लोकसंहनना वीरा वीर्यवन्तो महाबलाः / दूरं गत्वा विजानाति श्रेयो वृष्णिकुलोढह // 4 स्मरन्तो मध्यमं देशं वृष्णिमध्ये गतव्यथाः // 59 शममेव परं मन्ये न तु मोक्षाद्भवेच्छमः / स त्वं सम्राङ्गुणैयुक्तः सदा भरतसत्तम / आरम्भे पारमेष्ठयं तु न प्राप्यमिति मे मतिः // 5 क्षत्रे सम्राजमात्मानं कर्तुमर्हसि भारत / / 60 एवमेवाभिजानन्ति कुले जाता मनस्विनः / न तु शक्यं जरासंधे जीवमाने महाबले / कश्चित्कदाचिदेतेषां भवेच्छ्रेष्ठो जनार्दन // 6 राजसूयस्त्वया प्राप्तुमेषा राजन्मतिर्मम // 61 . भीम उवाच / तेन रुद्धा हि राजानः सर्वे जित्वा गिरिव्रजे / अनारम्भपरो राजा वल्मीक इव सीदति / कन्दरायां गिरीन्द्रस्य सिंहेनेव महाद्विपाः // 62 दुर्बलश्चानुपायेन बलिनं योऽधितिष्ठति // 7 सोऽपि राजा जरासंधो यियक्षुर्वसुधाधिपैः / अतन्द्रितस्तु प्रायेण दुर्बलो बलिनं रिपुम् / आराध्य हि महादेवं निर्जितास्तेन पार्थिवाः // 63 जयेत्सम्यङयो राजन्नीत्यार्थानात्मनों हितान् // 8 स हि निर्जित्य निर्जित्य पार्थिवान्पृतनागतान् / कृष्णे नयो मयि बलं जयः पार्थे धनंजये / पुरमानीय बवा च चकार पुरुषव्रजम् / / 64 / मागधं साधयिष्यामो वयं त्रय इवाग्नयः // 9 वयं चैव महाराज जरासंधभयात्तदा। कृष्ण उवाच / मथुरां संपरित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम् // 65 आदत्तेऽर्थपरो बालो नानुबन्धमवेक्षते / यदि त्वेनं महाराज यज्ञं प्राप्तुमिहेच्छसि। तस्मादरिं न मृष्यन्ति बालमर्थपरायणम् / / 10 -310 -
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________________ 2. 14. 11] आदिपर्व [2. 15. 16 हित्वा करान्यौवनाश्वः पालनाच्च भगीरथः / श्रमो हि वः पराजय्यात्किमु तत्र विचेष्टितम् // 3 कार्तवीर्यस्तपोयोगाद्बलात्तु भरतो विभुः / अस्मिन्नर्थान्तरे युक्तमनर्थः प्रतिपद्यते / ऋद्ध्या मरुत्तस्तान्पश्च सम्राज इति शुश्रुमः // 11 यथाहं विमृशाम्येकस्तत्तावच्छ्रयतां मम / / 4 / निग्राह्यलक्षणं प्राप्तो धर्मार्थनयलक्षणैः / संन्यासं रोचये साधु कार्यस्यास्य जनार्दन / : बार्हद्रथो जरासंधस्तद्विद्धि भरतर्षभ / / 12 प्रतिहन्ति मनो मेऽद्य राजसूयो दुरासदः // 5 : न चैनमनुरुध्यन्ते कुलान्येकशतं नृपाः / वैशंपायन उवाच / तस्मादेतद्वलादेव साम्राज्यं कुरुतेऽद्य सः // 13 पार्थः प्राप्य धनुःश्रेष्ठमक्षय्यौ च महेषुधी। रत्नभाजो हि राजानो जरासंधमुपासते। . रथं ध्वजं सभां चैव युधिष्ठिरमभाषत / / 6 न च तुष्यति तेनापि बाल्यादनयमास्थितः // 14 धनुरस्त्रं शरा वीर्यं पक्षो भूमिर्यशो बलम् / मूर्धाभिषिक्तं नृपतिं प्रधानपुरुषं बलात् / प्राप्तमेतन्मया राजन्दुष्प्रापं यदभीप्सितम् // 7 आदत्ते न च नो दृष्टोऽभागः पुरुषतः कचित्॥१५ कुले जन्म प्रशंसन्ति वैद्याः साधु सुनिष्ठिताः / एवं सर्वान्वशे चक्रे जरासंधः शतावरान् / बलेन सदृशं नास्ति वीर्यं तु मम रोचते // 8 तं दुर्बलतरो राजा कथं पार्थ उपैष्यति // 16 कृतवीर्यकुले जातो निर्वीर्यः किं करिष्यति। प्रोक्षितानां प्रमृष्टानां राज्ञां पशुपतेर्गृहे। क्षत्रियः सर्वशो राजन्यस्य वृत्तिः पराजये // 9 पशूनामिव का प्रीतिर्जीविते भरतर्षभ // 17 सर्वैरपि गुणैहीनो वीर्यवान्हि तरेद्रिपून् / क्षत्रियः शस्त्रमरणो यदा भवति सत्कृतः / सर्वैरपि गुणैर्युक्तो निर्वीर्यः किं करिष्यति // 10 ननु स्म मागधं सर्वे प्रतिबाधेम यद्वयम् // 18 द्रव्यभूता गुणाः सर्वे तिष्ठन्ति हि पराक्रमे / षडशीतिः समानीताः शेषा राजश्चतुर्दश / जयस्य हेतुः सिद्धिर्हि कर्म दैवं च संश्रितम् // 11 जरासंधेन राजानस्ततः क्रूरं प्रपत्स्यते // 19 संयुक्तो हि बलैः कश्चित्प्रमादान्नोपयुज्यते / प्राप्नुयात्स यशो दीप्तं तत्र यो विघ्नमाचरेत् / तेन द्वारेण शत्रुभ्यः क्षीयते सबलो रिपुः // 12 जयेद्यश्च जरासंधं स सम्राण्नियतं भवेत् // 20 दैन्यं यथाबलवति तथा मोहो बलान्विते। इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः॥ 14 // तावुभौ नाशकौ हेतू राज्ञा त्याज्यौ जयार्थिना।। 13 जरासंधविनाशं च राज्ञां च परिमोक्षणम् / . युधिष्ठिर उवाच। यदि कुर्याम यज्ञार्थं किं ततः परमं भवेत् // 14 सम्राङ्गणमभीप्सन्वै युष्मानस्वार्थपरायणः। अनारम्भे तु नियतो भवेदगुणनिश्चयः / कथं प्रहिणुयां भीमं बलात्केवलसाहसात् // 1 . गुणान्निःसंशयाद्राजन्नैर्गुण्यं मन्यसे कथम् // 15 भीमार्जुनावुभौ नेत्रे मनो मन्ये जनार्दनम् / काषायं सुलभं पश्चान्मुनीनां शममिच्छताम् / मनश्चक्षुर्विहीनस्य कीदृशं जीवितं भवेत् // 2 साम्राज्यं तु तवेच्छन्तो वयं योत्स्यामहे परैः // 16 जरासंधबलं प्राप्य दुष्पारं भीमविक्रमम् / / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // -311 -
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________________ 2. 16. 1] महाभारते [2. 16. 27 नित्यं दीक्षाकृशतनुः शतक्रतुरिवापरः // 13 वासुदेव उवाच / तेजसा सर्यसदृशः क्षमया पृथिवीसमः / जातस्य भारते वंशे तथा कुन्त्याः सुतस्य च / यमान्तकसमः कोपे श्रिया वैश्रवणोपमः // 14 या वै युक्ता मतिः सेयमर्जुनेन प्रदर्शिता // 1 तस्याभिजनसंयुक्तैर्गुणैर्भरतसत्तम। न मृत्योः समयं विद्म रात्रौ वा यदि वा दिवा / व्याप्तेयं पृथिवी सर्वा सूर्यस्येव गभस्तिभिः // 15 न चापि कंचिदमरमयुद्धनापि शुश्रुमः // 2 स काशिराजस्य सुते यमजे भरतर्षभ / . एतावदेव पुरुषैः कार्यं हृदयतोषणम् / उपयेमे महावीर्यो रूपद्रविणसंमते / / 16 नयेन विधिदृष्टेन यदुपक्रमते परान् // 3 तयोश्चकार समयं मिथः स पुरुषर्षभः / सुनयस्यानपायस्य संयुगे परमः क्रमः / नातिवर्तिष्य इत्येवं पत्नीभ्यां संनिधौ तदा // 17 संशयो जायते साम्ये साम्यं च न भवेहयोः॥४ स ताभ्यां शुशुभे राजा पत्नीभ्यां मनुजाधिप। ते वयं नयमास्थाय शत्रुदेहसमीपगाः / प्रियाभ्यामनुरूपाभ्यां करेणुभ्यामिव द्विपः // 18 कथमन्तं न गच्छेम वृक्षस्येव नदीरयाः / तयोर्मध्यगतश्चापि रराज वसुधाधिपः / पररन्धे पराक्रान्ताः स्वरन्ध्रावरणे स्थिताः // 5 गङ्गायमुनयोर्मध्ये मूर्तिमानिव सागरः॥ 19 व्यूढानीकैरनुबलैनोंपेयाद्बलवत्तरम् / विषयेषु निमग्नस्य तस्य यौवनमत्यगात् / इति बुद्धिमतां नीतिस्तन्ममापीह रोचते // 6 न च वंशकरः पुत्रस्तस्याजायत कश्चन / / 20 / अनवद्या ह्यसंबुद्धाः प्रविष्टाः शत्रुसद्म तत् / मङ्गलैबहुभिर्योमैः पुत्रकामाभिरिष्टिभिः / शत्रुदेहमुपाक्रम्य तं कामं प्राप्नुयामहे // 7 नाससाद नृपश्रेष्ठः पुत्रं कुलविवर्धनम् // 21 एको ह्येव श्रियं नित्यं बिभर्ति पुरुषर्षभ / अथ काक्षीवतः पुत्रं गौतमस्य महात्मनः / अन्तरात्मेव भूतानां तत्क्षये वै बलक्षयः // 8 शश्राव तपसि श्रान्तमदारं चण्डकौशिकम॥ 22 अथ चेत्तं निहत्याजौ शेषेणाभिसमागताः / यदृच्छयागतं तं तु वृक्षमूलमुपाश्रितम् / प्राप्नुयाम ततः स्वर्ग ज्ञातित्राणपरायणाः // 9 पत्नीभ्यां सहितो राजा सर्वरत्नैरतोषयत् / / 23 युधिष्ठिर उवाच। तमब्रवीत्सत्यधृतिः सत्यवागृषिसत्तमः / कृष्ण कोऽयं जरासंधः किंवीर्यः किंपराक्रमः। परितष्टोऽस्मि ते राजन्वरं वरय सव्रत // 24 यस्त्वां स्पृष्ट्वाग्निसदृशं न दग्धः शलभो यथा // 10 ततः सभार्यः प्रणतस्तमुवाच बृहद्रथः / कृष्ण उवाच / पुत्रदर्शननैराश्याद्वाष्पगद्गदया गिरा / / 25 शृणु राजञ्जरासंधो यद्वीर्यो यत्पराक्रमः / बृहद्रथ उवाच / यथा चोपेक्षितोऽस्माभिर्बहुशः कृतविप्रियः॥ 11 / भगवराज्यमुत्सृज्य प्रस्थितस्य तपोवनम् / अक्षौहिणीनां तिसृणामासीत्समरदर्पितः / किं वरेणाल्पभाग्यस्य किं राज्येनाप्रजस्य मे // 26 राजा बृहद्रथो नाम मगधाधिपतिः पतिः // 12 कृष्ण उवाच / रूपवान्वीर्यसंपन्नः श्रीमानतुलविक्रमः / एतच्छ्रुत्वा मुनिर्ध्यानमगमत्क्षुभितेन्द्रियः / -312 -
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________________ 2. 16. 27 ] सभापर्व / [2. 17.4 तस्यैव चाम्रवृक्षस्य छायायां समुपाविशत् // 27 प्राक्रोशदतिसंरम्भात्सतोय इव तोयदः // 42 तस्योपविष्टस्य मुनेरुत्सङ्गे निपपात ह। तेन शब्देन संभ्रान्तः सहसान्तःपुरे जनः / अवातमशुकादष्टमेकमाम्रफलं किल / / 28 निर्जगाम नरव्याघ्र राज्ञा सह परंतप // 43 तत्प्रगृह्य मुनिश्रेष्ठो हृदयेनाभिमय च। ते चाबले परिग्लाने पयःपूर्णपयोधरे / राज्ञे ददावप्रतिमं पुत्रसंप्राप्तिकारकम् // 29 निराशे पुत्रलाभाय सहसैवाभ्यगच्छताम् // 44 उवाच च महाप्राज्ञस्तं राजानं महामुनिः। - अथ दृष्ट्वा तथाभूते राजानं चेष्टसंततिम् / गच्छ राजन्कृतार्थोऽसि निवर्त मनुजाधिप // 30 तं च बालं सुबलिनं चिन्तयामास राक्षसी // 45 यथासमयमाज्ञाय तदा स नृपसत्तमः / नार्हामि विषये राज्ञो वसन्ती पुत्रगृद्धिनः / द्वाभ्यामेकं फलं प्रादात्पत्नीभ्यां भरतर्षभ // 31 . बालं पुत्रमुपादातुं मेघलेखेव भास्करम् // 46 ते तदानं द्विधा कृत्वा भक्षयामासतुः शुभे।। सा कृत्वा मानुषं रूपमुवाच मनुजाधिपम् / भावित्वादपि चार्थस्य सत्यवाक्यात्तथा मुनेः // 32 बृहद्रथ सुतस्तेऽयं महत्तः प्रतिगृह्यताम् // 47 तयोः समभवद्गर्भः फलप्राशनसंभवः / तव पत्नीद्वये जातो द्विजातिवरशासनात् / ते च दृष्ट्वा नरपतिः परां मुमवाप ह // 33 धात्रीजनपरित्यक्तो मयायं परिरक्षितः // 48 अथ काले महाप्राज्ञ यथासमयमागते / ततस्ते भरतश्रेष्ठ काशिराजसुते शुभे / प्रजायंतामुभे राजशरीरशकले तदा // 34 तं बालमभिपत्याशु प्रस्नवैरभिषिञ्चताम् // 49 एकाक्षिबाहुचरणे अर्धेदरमुखस्फिजे। ततः स राजा संहृष्टः सर्वं तदुपलभ्य च / दृष्ट्वा शरीरशकले प्रवेपाते उभे भृशम् // 35 अपृच्छन्नवहेमाभां राक्षसी तामराक्षसीम् // 50 उद्विमे सह संमय ते भगिन्यौ तदाबले। का त्वं कमलगर्भाभे मम पुत्रप्रदायिनी / सजीवे प्राणिशकले तत्यज्ञाते सुदुःखिते // 36 कामया ब्रूहि कल्याणि देवता प्रतिभासि मे // 51 तयोर्धाच्या सुसंवीते कृत्वा ते गर्भसंप्लवे / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि षोडशोऽध्यायः // 16 // निर्गम्यान्तःपुरद्वारात्समुत्सृज्याशु जग्मतुः // 37 से चतुष्पथनिक्षिप्ते जरा नामाथ राक्षसी / राक्षस्युवाच / जप्राह मनुजव्याघ्र मांसशोणितभोजना // 38 जरा नामास्मि भद्रं ते राक्षसी कामरूपिणी / कर्तुकामा सुखवहे शकले सा तु राक्षसी / तव वेश्मनि राजेन्द्र पूजिता न्यवसं सुखम् // 1 संघट्टयामास तदा विधानबलचोदिता / / 39 साहं प्रत्युपकारार्थं चिन्तयन्त्यनिशं नृप / से समानीतमात्रे तु शकले पुरुषर्षभ / तवेमे पुत्रशकले दृष्टवत्यस्मि धार्मिक // 2 एकमूर्तिकृते वीरः कुमारः समपद्यत // 40 संश्लेषिते मया दैवात्कुमारः समपद्यत / ततः सा राक्षसी राजन्विस्मयोत्फुल्ललोचना / तव भाग्यैर्महाराज हेतुमात्रमहं त्विह // 3 न शशाक समुद्वोढुं वज्रसारमयं शिशुम् // 41 / कृष्ण उवाच / बालस्ताम्रतलं मुष्टिं कृत्वा चास्ये निधाय सः। एवमुक्त्वा तु सा राजंस्तत्रैवान्तरधीयत / म.भा. 40 -313 -
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________________ 2. 17. 4] महाभारते [2. 18.4 स गृह्य च कुमारं तं प्राविशत्स्वगृहं नृपः // 4 एष रुद्रं महादेवं त्रिपुरान्तकरं हरम् / तस्य बालस्य यत्कृत्यं तच्चकार नृपस्तदा।। सर्वलोकेष्वतिबलः स्वयं द्रक्ष्यति मागधः // 19 आज्ञापयञ्च राक्षस्या मागधेषु महोत्सवम् // 5 . एवं ब्रुवन्नेव मुनिः स्वकार्यार्थं विचिन्तयन् / तस्य नामाकरोत्तत्र प्रजापतिसमः पिता। विसर्जयामास नृपं बृहद्रथमथारिहन् // 20 जरया संधितो यस्माजरासंधस्ततोऽभवत् // 6 प्रविश्य नगरं चैव ज्ञातिसंबन्धिभिर्वृतः। .. सोऽवर्धत महातेजा मगधाधिपतेः सुतः / अभिषिच्य जरासंधं मगधाधिपतिस्तदा / / प्रमाणबलसंपन्नो हुताहुतिरिवानलः / / 7 बृहद्रथो नरपतिः परां निवृतिमाययौ / / 21 कस्यचित्त्वथ कालस्य पुनरेव महातपाः / अभिषिक्ते जरासंधे तदा राजा बृहद्रथः। मगधानुपचक्राम भगवांश्चण्डकौशिकः // 8 पत्नीद्वयेनानुगतस्तपोवनरतोऽभवत् // 22 तस्यागमनसंहृष्टः सामात्यः सपुरःसरः / तपोवनस्थे पितरि मातृभ्यां सह भारत।. सभार्यः सह पुत्रेण निर्जगाम बृहद्रथः // 9 जरासंधः स्ववीर्येण पार्थिवानकरोद्वशे॥२३ पाद्यार्थ्याचमनीयैस्तमर्चयामास भारत / अथ दीर्घस्य कालस्य तपोवनगतो नृपः / स नृपो राज्यसहितं पुत्रं चास्मै न्यवेदयत् // 10 सभार्यः स्वर्गमगमत्तपस्तप्त्वा बृहद्रथः / / 24 प्रतिगृह्य तु तां पूजां पार्थिवाद्भगवानृषिः / / तस्यास्तां हंसडिभकावशस्त्रनिधनावुभौ / / उवाच मागधं राजन्प्रहृष्टेनान्तरात्मना // 11 मन्त्रे मतिमतां श्रेष्ठौ युद्धशास्त्रविशारदौ // 25 सर्वमेतन्मया राजन्विज्ञातं ज्ञानचक्षुषा। यौ तौ मया ते कथितौ पूर्वमेव महाबलौ। पुत्रस्तु शृणु राजेन्द्र यादृशोऽयं भविष्यति // 12 त्रयस्त्रयाणां लोकानां प्रर्याप्ता इति मे मतिः // 26 अस्य वीर्यवतो वीर्यं नानुयास्यन्ति पार्थिवाः।। एवमेष तदा वीर बलिभिः कुकुरान्धकैः। . देवैरपि विसृष्टानि शस्त्राण्यस्य महीपते / वृष्णिभिश्च महाराज नीतिहेतोरुपेक्षितः // 27 . न रुजं जनयिष्यन्ति गिरेरिव नदीरयाः // 13 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि सप्तदशोऽध्यायः // 17 // सर्वमूर्धाभिषिक्तानामेष मूर्ध्नि ज्वलिष्यति / // समाप्तं मन्त्रपर्व // सर्वेषां निष्प्रभकरो ज्योतिषामिव भास्करः // 14 एनमासाद्य राजानः समृद्धबलवाहनाः / वासुदेव उवाच / विनाशमुपयास्यन्ति शलभा इव पावकम् / / 15 पतितौ हंसडिभको कंसामात्यौ निपातितौ / एष श्रियं समुदितां सर्वराज्ञां ग्रहीष्यति / जरासंधस्य निधने कालोऽयं समुपागतः // 1 वर्षा स्विवोद्धतजला नदीनदनदीपतिः // 16 न स शक्यो रणे जेतुं सर्वैरपि सुरासुरैः।। एष धारयिता सम्यक्चातुर्वर्ण्य महाबलः / प्राणयुद्धेन जेतव्यः स इत्युपलभामहे // 2 शुभाशुभमिव स्फीता सर्वसस्यधरा धरा // 17 मयि नीतिबलं भीमे रक्षिता चावयोर्जुनः / अस्याज्ञावशगाः सर्वे भविष्यन्ति नराधिपाः। साधयिष्याम तं राजन्वयं त्रय इवाग्नयः // 3 सर्वभूतात्मभूतस्य वायोरिव शरीरिणः // 18 / त्रिभिरासादितोऽस्माभिर्विजने स नराधिपः / -314 -
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________________ 2. 18. 4] सभापर्व [2. 19. 1 न संदेहो यथा युद्धमेकेनाभ्युपयास्यति // 4 एवं प्रज्ञानयबलं क्रियोपायसमन्वितम् / अवमानाञ्च लोकस्य व्यायतत्वाच्च धर्षितः / पुरस्कुर्वीत कार्येषु कृष्ण कार्यार्थसिद्धये // 19 भीमसेनेन युद्धाय ध्रुवमभ्युपयास्यति // 5 एवमेव यदुश्रेष्ठं पार्थः कार्यार्थसिद्धये / अलं तस्य महाबाहुर्भीमसेनो महाबलः / अर्जुनः कृष्णमन्वेतु भीमोऽन्वेतु धनंजयम् / लोकस्य समुदीर्णस्य निधनायान्तको यथा // 6 नयो जयो बलं चैव विक्रमे सिद्धिमेष्यति // 20 यदि ते हृदयं वेत्ति यदि ते प्रत्ययो मयि / एवमुक्तास्ततः सर्वे भ्रातरो विपुलौजसः / भीमसेनार्जुनौ शीघ्रं न्यासभूतौ प्रयच्छ मे // 7 वार्ष्णेयः पाण्डवेयौ च प्रतस्थुर्मागधं प्रति // 21 वैशंपायन उवाच। / वर्चस्विनां ब्राह्मणानां स्नातकानां परिच्छदान् / एवमुक्तो भगवता प्रत्युवाच युधिष्ठिरः। आच्छाद्य सुहृदां वाक्यैर्मनोहरभिनन्दिताः // 22 भीमपार्थो समालोक्य संप्रहृष्टमुखौ स्थितौ // 8 अमर्षादभितप्तानां ज्ञात्यर्थं मुख्यवाससाम् / अच्युताच्युत मा मैवं व्याहरामित्रकर्षण / रविसोमाग्निवपुषां भीममासीत्तदा वपुः // 23 / पाण्डवानां भवान्नाथो भवन्तं चाश्रिता वयम् // 9 हतं मेने जरासंधं दृष्ट्वा भीमपुरोगमौ / यथा वदसि गोविन्द सर्वं तदुपपद्यते / एककार्यसमुद्युक्तौ कृष्णौ युद्धेऽपराजितौ // 24 न हि त्वमग्रतस्तेषां येषां लक्ष्मीः पराङ्मुखी // 10 ईशौ हि तौ महात्मानौ सर्वकार्यप्रवर्तने / निहतश्च जरासंधो मोक्षिताश्च महीक्षितः / धर्मार्थकामकार्याणां कार्याणामिव निग्रहे // 25 राजसूयश्च मे लब्धो निदेशे तव तिष्ठतः // 11 कुरुभ्यः प्रस्थितास्ते तु मध्येन कुरुजाङ्गलम् / क्षिप्रकारिन्यथा त्वेतत्कार्यं समुपपद्यते / रम्यं पद्मसरो गत्वा कालकूटमतीत्य च // 26 मम कार्यं जगत्कार्यं तथा. कुरु नरोत्तम // 12 गण्डकीयां तथा शोणं सदानीरां तथैव च / त्रिभिर्भवद्भिर्हि विना नाहं जीवितुमुत्सहे। एकपर्वतके नद्यः क्रमेणैत्य व्रजन्ति ते // 27 धर्मकामार्थरहितो रोगात इव दुर्गतः // 13 . संतीय सरयूं रम्यां दृष्ट्वा पूर्वांश्च कोसलान् / न शौरिणा विना पार्थो न शौरिः पाण्डवं विना / अतीत्य जग्मुर्मिथिलां मालां चर्मण्वती नदीम् // 28 नाजेयोऽस्त्यनयोर्लोके कृष्णयोरिति मे मतिः // 14 उत्तीर्य गङ्गां शोणं च सर्वे ते प्राङ्मुखास्त्रयः / अयं च बलिनां श्रेष्ठः श्रीमानपि वृकोदरः।। कुरवोरश्छदं जग्मुर्मागधं क्षेत्रमच्युताः // 29 / युवाभ्यां सहितो वीरः किं न कुर्यान्महायशाः॥१५ ते शश्वद्गोधनाकीर्णमम्बुमन्तं शुभद्रुमम् / सुप्रणीतो बलौघो हि कुरुते कार्यमुत्तमम् / गोरथं गिरिमासाद्य ददृशुर्मागधं पुरम् // 30 अन्धं जडं बलं प्राहुः प्रणेतव्यं विचक्षणैः // 16 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अष्टादशोऽध्यायः // 18 // यतो हि निम्नं भवति नयन्तीह ततो जलम् / यतश्छिद्रं ततश्चापि नयन्ते धीधना बलम् // 17 वासुदेव उवाच / तस्मान्नयविधानझं पुरुषं लोकविश्रुतम् / एष पार्थ महान्स्वादुः पशुमान्नित्यमम्बुमान् / वयमाश्रित्य गोविन्दं यतामः कार्यसिद्धये // 18 / निरामयः सुवेश्माढ्यो निवेशो मागधः शुभः // 1. - 315 -
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________________ 2. 19. 2] महाभारते [2. 19. 31 वैहारो विपुलः शैलो वराहो वृषभस्तथा / यत्र ताः प्राणदन्भेर्यो दिव्यपुष्पावचूर्णिताः // 16 तथैवर्षिगिरिस्तात शुभाश्चैत्यकपश्चमाः // 2 मागधानां सुरुचिरं चैत्यकान्तं समाद्रवन् / एते पश्च महाशृङ्गाः पर्वताः शीतलद्रुमाः / शिरसीव जिघांसन्तो जरासंधजिघांसवः // 17 रक्षन्तीवाभिसंहत्य संहताङ्गा गिरिव्रजम् // 3 स्थिरं सुविपुलं शृङ्ग सुमहान्तं पुरातनम् / पुष्पवेष्टितशाखाग्रैर्गन्धवद्भिर्मनोरमैः / अर्चितं माल्यदामैश्च सततं सुप्रतिष्ठितम् // 18 निगूढा इव लोध्राणां वनैः कामिजनप्रियैः // 4 विपुलैर्बाहुभिर्वीरास्तेऽभिहत्याभ्यपातयन् / . शूद्रायां गौतमो यत्र महात्मा संशितव्रतः। ततस्ते मागधं दृष्ट्वा पुरं प्रविविशुस्तदा // 19 . औशीनर्यामजनयत्काक्षीवादीन्सुतानृषिः // 5 एतस्मिन्नेव काले तु जरासंधं समर्चयन् / गौतमः क्षयणादस्मादथासौ तत्र वेश्मनि / पर्यग्नि कुर्वंश्च नृपं द्विरदस्थं पुरोहिताः // 20 भजते मागधं वंशं स नृपाणामनुग्रहात् // 6 स्नातकव्रतिनस्ते तु बाहुशस्त्रा निरायुधाः।। अङ्गवङ्गादयश्चैव राजानः सुमहाबलाः / युयुत्सवः प्रविविशुर्जरासंधेन भारत // 21 गौतमक्षयमभ्येत्य रमन्ते स्म पुरार्जुन // 7 भक्ष्यमाल्यापणानां च ददृशुः श्रियमुत्तमाम् / वनराजीस्तु पश्येमाः प्रियालानां मनोरमाः / स्फीतां सर्वगुणोपेतां सर्वकामसमृद्धिनीम् // 22 लोध्राणां च शुभाः पार्थ गौतमौकःसमीपजाः॥८ तां तु दृष्ट्वा समृद्धिं ते वीथ्यां तस्यां नरोत्तमाः / अर्बुदः शक्रवापी च पन्नगौ शत्रुतापनौ / राजमार्गेण गच्छन्तः कृष्णभीमधनंजयाः // 23 स्वस्तिकस्यालयश्चात्र मणिनागस्य चोत्तमः // 9 बलाद्गृहीत्वा माल्यानि मालाकारान्महाबलाः / अपरिहार्या मेघानां मागधेयं मणेः कृते / विरागवसनाः सर्वे स्रग्विणो मृष्टकुण्डलाः / / 24 कौशिको मणिमांश्चैव ववृधाते ह्यनुग्रहम् // 10 निवेशनमथाजग्मुर्जरासंधस्य धीमतः / अर्थसिद्धिं त्वनपगां जरासंधोऽभिमन्यते। गोवासमिव वीक्षन्तः सिंहा हैमवता यथा // 25 वयमासादने तस्य दर्पमद्य निहन्म हि // 11 शैलस्तम्भनिभास्तेषां चन्दनागुरुभूषिताः / वैशंपायन उवाच / अशोभन्त महाराज बाहवो बाहुशालिनाम् // 26 एवमुक्त्वा ततः सर्वे भ्रातरो विपुलौजसः / | तान्दृष्ट्वा द्विरदप्रख्याशालस्कन्धानिवोद्गतान् / वार्ष्णेयः पाण्डवेयौ च प्रतस्थुर्मागधं पुरम् // 12 व्यूढोरस्कान्मागधानां विस्मयः समजायत // 27 तुष्टपुष्टजनोपेतं चातुर्वर्ण्यजनाकुलम् / ते त्वतीत्य जनाकीर्णास्तिस्रः कक्ष्या नरर्षभाः / स्फीतोत्सवमनाधृष्यमासेदुश्च गिरिव्रजम् // 13 अहंकारेण राजानमुपतस्थुर्महाबलाः / / 28 / तेऽथ द्वारमनासाद्य पुरस्य गिरिमुच्छ्रितम् / तान्पाद्यमधुपर्कान्मिानान्सिस्कृतिं गतान् / बार्हद्रथैः पूज्यमानं तथा नगरवासिभिः // 14 प्रत्युत्थाय जरासंध उपतस्थे यथाविधि // 29 / यत्र माषादमृषभमाससाद बृहद्रथः / उवाच चैतानराजासौ स्वागतं वोऽस्त्विति प्रभुः / तं हत्वा माषनालाश्च तिस्रो भेरीरकारयत् // 15 तस्य ह्येतद्रूतं राजन्बभूव भुवि विश्रुतम् / / 30 आनह्य चर्मणा तेन स्थापयामास स्वे पुरे। स्नातकान्ब्राह्मणान्प्राप्ताञ्श्रुत्वा स समितिंजयः / - 316 -
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________________ 2. 19. 31] सभापर्व [2. 20.9 20 अप्यर्धरात्रे नृपतिः प्रत्युद्गच्छति भारत // 31 पुष्पवत्सु ध्रुवा श्रीश्च पुष्पवन्तस्ततो वयम् // 46 तांस्त्वपूर्वेण वेषेण दृष्ट्वा नृपतिसत्तमः / क्षत्रियो बाहुवीर्यस्तु न तथा वाक्यवीर्यवान् / / उपतस्थे जरासंधो विस्मितश्चाभवत्तदा // 32 अप्रगल्भं वचस्तस्य तस्माद्वार्हद्रथे स्मृतम् // 47 ते तु दृष्ट्वैव राजानं जरासंधं नरर्षभाः / स्ववीय क्षत्रियाणां च बाह्वोर्धाता न्यवेशयत् / इदमूचुरमित्रघ्नाः सर्वे भरतसत्तम // 33 तद्दिदृक्षसि चेद्राजन्द्रष्टास्यद्य न संशयः / / 48 खल्यस्तु कुशलं राजनिति सर्वे व्यवस्थिताः / अद्वारेण रिपोर्गेहं द्वारेण सुहृदो गृहम् / सं नृपं नृपशार्दूल विप्रेक्षन्त परस्परम् // 34 प्रविशन्ति सदा सन्तो द्वारं नो वर्जितं ततः // 49 सानब्रवीजरासंधस्तदा यादवपाण्डवान् / कार्यवन्तो गृहानेत्य शत्रुतो नार्हणां वयम् / मास्यतामिति राजेन्द्र ब्राह्मणच्छद्मसंवृतान् // 35 प्रतिगृह्णीम तद्विद्धि एतन्नः शाश्वतं व्रतम् // 50 . बयोपविविशुः सर्वे त्रयस्ते पुरुषर्षभाः। इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः॥१९॥ संप्रदीप्तास्त्रयो लक्ष्म्या महाध्वर इवाग्मयः // 36 वानुवाच जरासंधः सत्यसंधो नराधिपः। . जरासंध उवाच / विगर्हमाणः कौरव्य वेषग्रहणकारणात् // 37 न स्मरेयं कदा वैरं कृतं युष्माभिरित्युत। न मातकव्रता विप्रा बहिर्माल्यानुलेपनाः। चिन्तयंश्च न पश्यामि भवतां प्रति वैकृतम् // 1 भवन्तीति नृलोकेऽस्मिन्विदितं मम सर्वशः // 38 वैकृते चासति कथं मन्यध्वं मामनागसम् / से यूयं पुष्पवन्तश्च भुजैाघातलक्षणैः / अरिं विब्रूत तद्विप्राः सतां समय एष हि // 2 बिभ्रतः क्षात्रमोजश्च ब्राह्मण्यं प्रतिजानथ // 39 अथ धर्मोपघाताद्धि मनः समुपतप्यते / एवं विरागवसना बहिर्माल्यानुलेपनाः। योऽनागसि प्रसृजति क्षत्रियोऽपि न संशयः // 3 सत्यं वदत के यूयं सत्यं राजसु शोभते // 40 अतोऽन्यथाचरल्लोके धर्मज्ञः सन्महाव्रतः। चैत्यकं च गिरेः शृङ्ग भित्त्वा किमिव सद्म नः / वृजिनां गतिमाप्नोति श्रेयसोऽप्युपहन्ति च // 4 : अद्वारेण प्रविष्टाः स्थ निर्भया राजकिल्बिषात् // 41 त्रैलोक्ये क्षत्रधर्माद्धि श्रेयांसं साधुचारिणाम् / . कर्म चैतद्विलिङ्गस्य किं वाद्य प्रसमीक्षितम् / अनागसं प्रजानानाः प्रमादादिव जल्पथ // 5 पदध्वं वाचि वीर्यं च ब्राह्मणस्य विशेषतः // 42 वासुदेव उवाच। एवं च मामुपस्थाय कस्माच्च विधिनाणाम् / कुलकार्य महाराज कश्चिदेकः कुलोद्वहः / प्रणीतां नो न गृह्णीत कार्य किं चास्मदागमे // 43 वहते तन्नियोगाद्वै वयमभ्युत्थितास्त्रयः // 6 एवमुक्तस्ततः कृष्णः प्रत्युवाच महामनाः / त्वया चोपहृता राजन्क्षत्रिया लोकवासिनः / निग्धगम्भीरया वाचा वाक्यं वाक्यविशारदः॥४४ तदागः क्रूरमुत्पाद्य मन्यसे किं त्वनागसम् / / 7 मातकव्रतिनो राजन्ब्राह्मणाः क्षत्रिया विशः / राजा राज्ञः कथं साधून्हिस्यान्नपतिसत्तम / / विशेषनियमाश्चैषामविशेषाश्च सन्त्युत // 45 तद्राज्ञः संनिगृह्य त्वं रुद्रायोपजिहीर्षसि // 8 विशेषवांश्च सततं क्षत्रियः श्रियमर्छति / अस्मांस्तदेनो गच्छेत त्वया बार्हद्रथे कृतम् / -317
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________________ 2. 20. 9] महाभारते [2. 21. 2 वयं हि शक्ता धर्मस्य रक्षणे धर्मचारिणः // 9 मुश्च वा नृपतीन्सर्वान्मा गमस्त्वं यमक्षयम् // 24 मनुष्याणां समालम्भो न च दृष्टः कदाचन / जरासंध उवाच / स कथं मानुषैर्देवं यष्टुमिच्छसि शंकरम् // 10 नाजितान्वै नरपतीनहमादद्मि कांश्चन / सवर्णो हि सवर्णानां पशुसंज्ञां करिष्यति / जितः कः पर्यवस्थाता कोऽत्र यो न मया जितः।।२५ कोऽन्य एवं यथा हि त्वं जरासंध वृथामतिः // 11 क्षत्रियस्यैतदेवाहुर्धम्यं कृष्णोपजीवनम् / ते त्वां ज्ञातिक्षयकरं वयमार्तानुसारिणः / विक्रम्य वशमानीय कामतो यत्समाचरेत् // 26 ज्ञातिवृद्धिनिमित्तार्थं विनियन्तुमिहागताः // 12 / देवतार्थमुपाकृत्य राज्ञः कृष्णो कथं भयात् / नास्ति लोके पुमानन्यः क्षत्रियेष्विति चैव यत् / अहमद्य विमुञ्चयं क्षात्रं व्रतमनुस्मरन् // 27 मन्यसे स च ते राजन्सुमहान्बुद्धिविप्लवः // 13 सैन्यं सैन्येन व्यूढेन एक एकेन वा पुनः / को हि जानन्नभिजनमात्मनः क्षत्रियो नृप / द्वाभ्यां त्रिभिर्वा योत्स्येऽहं युगपत्पृथगेव वा // 28 नाविशेत्स्वर्गमतुलं रणानन्तरमव्ययम् / / 14 वैशंपायन उवाच / स्वर्ग ह्येव समास्थाय रणयज्ञेषु दीक्षिताः। एवमुक्त्वा जरासंधः सहदेवाभिषेचनम् / यजन्ते क्षत्रिया लोकांस्तद्विद्धि मगधाधिप // 15 आज्ञापयत्तदा राजा युयुत्सुीमकर्मभिः / / 29 स्वर्गयोनिर्जयो राजन्स्वर्गयोनिर्महद्यशः / स तु सेनापती राजा सस्मार भरतर्षभ। स्वर्गयोनिस्तपो युद्धे मार्गः सोऽव्यभिचारवान्॥१६ कौशिकं चित्रसेनं च तस्मिन्युद्ध उपस्थिते // 30 एष बैन्द्रो वैजयन्तो गुणो नित्यं समाहितः / ययोस्ते नामनी लोके हंसेति डिभकेति च / येनासुरान्पराजित्य जगत्पाति शतक्रतुः // 17 पूर्व संकथिते पुम्भिर्तृलोके लोकसत्कृते // 31 स्वर्गमास्थाय कस्य स्याद्विग्रहित्वं यथा तव / तं तु राजन्विभुः शौरी राजानं बलिनां वरम्। .. मागधैर्विपुलैः सैन्यैर्बाहुल्यबलदर्पितैः // 18 स्मृत्वा पुरुषशार्दूल शार्दूलसमविक्रमम् / / 32. मावमस्थाः परान्राजन्नास्ति वीर्यं नरे नरे। सत्यसंधो जरासंधं भुवि भीमपराक्रमम् / समं तेजस्त्वया चैव केवलं मनुजेश्वर // 19 भागमन्यस्य निर्दिष्टं वध्यं भूमिभृदच्युतः // 33 यावदेव न संबुद्धं तावदेव भवेत्तव / नात्मनात्मवतां मुख्य इयेष मधुसूदनः / विषह्यमेतदस्माकमतो राजन्ब्रवीमि ते // 20 ब्रह्मणोऽऽज्ञां पुरस्कृत्य हन्तुं हलधरानुजः // 34 जहि त्वं सदृशेष्वेव मानं दर्षं च भागध / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि विंशोऽध्यायः // 20 // मा गमः ससुतामात्यः सबलश्च यमक्षयम् // 21 दम्भोद्भवः कार्तवीर्य उत्तरश्च बृहद्रथः / वैशंपायन उवाच / श्रेयसो ह्यवमन्येह विनेशुः सबला नृपाः // 22 ततस्तं निश्चितात्मानं युद्धाय यदुनन्दनः / मुमुक्षमाणास्त्वत्तश्च न वयं ब्राह्मणब्रुवाः / उवाच वाग्मी राजानं जरासंधमधोक्षजः // 1 शौरिरस्मि हृषीकेशो नृवीरौ पाण्डवाविमौ // 23 त्रयाणां केन ते राजन्योद्धं वितरते मनः / त्वामाह्वयामहे राजन्स्थिरो युध्यस्व मागध / अस्मदन्यतमेनेह सज्जीभवतु को युधि // 2 -318 -
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________________ 2. 21. 3] समापर्व [2. 22.8 22 एवमुक्तः स कृष्णेन युद्धं वव्रे महाद्युतिः / तद्वृत्तं तु त्रयोदश्यां समवेतं महात्मनोः। जरासंधस्ततो राजन्भीमसेनेन मागधः // 3 चतुर्दश्यां निशायां तु निवृत्तो मागधः क्लमात्॥१८ धारयन्नगदान्मुख्यान्निवृतीवेदनानि च / तं राजानं तथा क्लान्तं दृष्ट्वा राजञ्जनार्दनः / उपतस्थे जरासंधं युयुत्सुं वै पुरोहितः॥४ उवाच भीमकर्माणं भीमं संबोधयन्निव // 19 कृतस्वस्त्ययनो विद्वान्ब्राह्मणेन यशस्विना / क्लान्तः शत्रुन कौन्तेय लभ्यः पीडयितुं रणे / समनह्यज्जरासंधः क्षत्रधर्ममनुव्रतः // 5 पीड्यमानो हि कास्न्येन जह्याज्जीवितमात्मनः॥२० अवमुच्य किरीटं स केशान्समनुमृज्य च। तस्मात्ते नैव कौन्तेय पीडनीयो नराधिपः / उदतिष्ठज्जरासंधो वेलातिग इवार्णवः॥६ सममेतेन युध्यस्व बाहुभ्यां भरतर्षभ // 21 / उवाच मतिमाराजा भीमं भीमपराक्रमम् / एवमुक्तः स कृष्णेन पाण्डवः परवीरहा / भीम योत्स्ये त्वया सार्धं श्रेयसा निर्जितं वरम् // 7 जरासंधस्य तद्रन्धं ज्ञात्वा चक्रे मतिं वधे // 22 एवमुक्त्वा जरासंधो भीमसेनमरिंदमः / ततस्तमजितं जेतुं जरासंधं वृकोदरः / प्रत्युद्ययौ महातेजाः शक्रं बलिरिवासुरः // 8 . संरभ्य बलिनां मुख्यो जग्राह कुरुनन्दनः / / 23 ततः संमत्र्य कृष्णेन कृतस्वस्त्ययनो बली। इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि एकविंशोऽध्यायः॥२१॥ भीमसेनो जरासंधमाससाद युयुत्सया॥९ ततस्तौ नरशार्दूलौ बाहुशस्त्रौ समीयतुः / वैशंपायन उवाच / वीरौ परमसंहृष्टावन्योन्यजयकाङ्किणौ // 10 भीमसेनस्ततः कृष्णमुवाच यदुनन्दनम् / तयोरथ भुजाघातान्निग्रहप्रग्रहात्तथा / बुद्धिमास्थाय विपुलां जरासंधजिघांसया // 1 आसीत्सुभीमसंह्रादो वज्रपर्वतयोरिव // 11 नायं पापो मया कृष्ण युक्तः स्यादनुरोधितुम् / उभौ परमसंहृष्टौ बलेनातिबलावुभौ / प्राणेन यदुशार्दूल बद्धवङ्कणवाससा // 2 अन्योन्यस्यान्तरं प्रेप्सू परस्परजयैषिणौ // 12 एवमुक्तस्ततः कृष्णः प्रत्युवाच वृकोदरम् / तद्भीममुत्सार्य जनं युद्धमासीदुपह्वरे / त्वरयन्पुरुषव्याघ्रो जरासंधवधेप्सया // 3 बलिनोः संयुगे राजन्वृत्रवासवयोरिव // 13 यत्ते देवं परं सत्त्वं यच्च ते मातरिश्वनः / प्रकर्षणाकर्षणाभ्यामभ्याकर्षविकर्षणैः / बलं भीम जरासंधे दर्शयाशु तदद्य नः // 4 आकर्षतां तथान्योन्यं जानुभिश्चाभिजघ्नतुः // 14 एवमुक्तस्तदा भीमो जरासंधमरिंदमः। ततः शब्देन महता भर्त्सयन्तौ परस्परम् / उत्क्षिप्य भ्रामयद्राजन्बलवन्तं महाबलः // 5 . पाषाणसंघातनिभैः प्रहारैरभिजघ्नतुः // 15 भ्रामयित्वा शतगुणं भुजाभ्यां भरतर्षभ।। व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ नियुद्धकुशलावुभौ / बभञ्ज पृष्ठे संक्षिप्य निष्पिष्य विननाद च // 6 बाहुभिः समसजेतामायसैः परिधैरिव // 16 / तस्य निष्पिष्यमाणस्य पाण्डवस्य च गर्जतः / कार्तिकस्य तु मासस्य प्रवृत्तं प्रथमेऽहनि अभवत्तुमुलो नादः सर्वप्राणिभयंकरः॥७ अनारतं दिवारात्रमविश्रान्तमवर्तत // 17 ... | वित्रेसुर्मागधाः सर्वे स्त्रीणां गर्भाश्च सुस्रुवुः। .. -319 -
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________________ 2. 22. 8] महाभारते [2. 22. 38 भीमसेनस्य नादेन जरासंधस्य चैव ह // 8 // तस्थौ रथवरे तस्मिन्गरुत्मान्पन्नगाशनः // 23 किं नु स्विद्धिमवान्भिन्नः किं नु स्विदीर्यते मही। दुर्निरीक्ष्यो हि भूतानां तेजसाभ्यधिकं बभौ / इति स्म मागधा जजुर्भीमसेनस्य निस्वनात् // 9 आदित्य इवा मध्याह्ने सहस्रकिरणावृतः // 24 ततो राजकुलद्वारि प्रसुप्तमिव तं नृपम् / न स सज्जति वृक्षेषु शस्त्रैश्चापि न रिष्यते / रात्रौ परासुमुत्सृज्य निश्चक्रमररिंदमाः // 10 दिव्यो ध्वजवरो राजन्दृश्यते देवमानुषैः // 25 जरासंधरथं कृष्णो योजयित्वा पताकिनम् / तमास्थाय रथं दिव्यं पर्जन्यसमनिस्वनम् / ' आरोप्य भ्रातरौ चैव मोक्षयामास बान्धवान् // 11 निर्ययौ पुरुषव्याघ्रः पाण्डवाभ्यां सहाच्युतः / / 26 ते वै रत्नभुजं कृष्णं रत्नाई पृथिवीश्वराः / यं लेभे वासवाद्राजा वसुस्तस्माद्ब्रहद्रथः / राजानश्चक्रुरासाद्य मोक्षिता महतो भयात् / / 12 बृहद्रथाक्रमेणैव प्राप्तो बार्हद्रथं नृपम् // 27 अक्षतः शस्त्रसंपन्नो जितारिः सह राजभिः। स निर्ययौ महाबाहुः पुण्डरीकेक्षणस्ततः / . रथमास्थाय तं दिव्यं निर्जगाम गिरिव्रजात् // 13 गिरिव्रजाहिस्तस्थौ समे देशे महायशाः // 28 यः स सोदर्यवान्नाम द्वियोधः कृष्णसारथिः / तत्रैनं नागराः सर्वे सत्कारेणाभ्ययुस्तदा / अभ्यासघाती संदृश्यो दुर्जयः सर्वराजभिः // 14 ब्राह्मणप्रमुखा राजन्विधिदृष्टेन कर्मणा // 29 भीमार्जुनाभ्यां योधाभ्यामास्थितः कृष्णसारथिः / बन्धनाद्विप्रमुक्ताश्च राजानो मधुसूदनम् / शुशुभे रथवर्योऽसौ दुर्जयः सर्वधन्विभिः // 15 पूजयामासुरूचुश्च सान्त्वपूर्वमिदं वचः // 30 शक्रविष्णू हि संग्रामे चेरतुस्तारकामये / नैतच्चित्रं महाबाहो त्वयि देवकिनन्दन / रथेन तेन तं कृष्ण उपारुह्य ययौ तदा // 16 भीमार्जुनबलोपेते धर्मस्य परिपालनम् // 31 तप्तचामीकराभेण किङ्किणीजालमालिना। जरासंधहदे घोरे दुःखपङ्के निमज्जताम् / मेघनिर्घोषनादेन जैत्रेणामित्रघातिना // 17 राज्ञां समभ्युद्धरणं यदिदं कृतमद्य ते // 32 येन शक्रो दानवानां जघान नवतीनव / विष्णो समवसन्नानां गिरिदुर्गे सुदारुणे / तं प्राप्य समहृष्यन्त रथं ते पुरुषर्षभाः॥१८ दिष्टया मोक्षाद्यशो दीप्तमाप्तं ते पुरुषोत्तम // 33 ततः कृष्णं महाबाहुं भ्रातृभ्यां सहितं तदा। किं कुर्मः पुरुषव्याघ्र ब्रवीहि पुरुषर्षभ / रथस्थं मागधा दृष्ट्वा समपद्यन्त विस्मिताः // 19 कृतमित्येव तज्ज्ञेयं नृपैर्यद्यपि दुष्करम् // 34 हयैर्दिव्यैः समायुक्तो रथो वायुसमो जवे / तानुवाच हृषीकेशः समाश्वास्य महामनाः / अधिष्ठितः स शुशुभे कृष्णेनातीव भारत // 20 युधिष्ठिरो राजसूयं ऋतुमाहर्तुमिच्छति // 35 असङ्गी देवविहितस्तस्मिन्रथवरे ध्वजः / तस्य धर्मप्रवृत्तस्य पार्थिवत्वं चिकीर्षतः / योजनाद्ददृशे श्रीमानिन्द्रायुधसमप्रभः // 21 सर्वैर्भवद्भिर्यज्ञार्थे साहाय्यं दीयतामिति // 36 चिन्तयामास कृष्णोऽथ गरुत्मन्तं स चाभ्ययात् / ततः प्रतीतमनसस्ते नृपा भरतर्षभ / क्षणे तस्मिन्स तेनासीञ्चैत्ययूप इवोच्छ्रितः // 22 तथेत्येवाब्रुवन्सर्वे प्रतिजक्षुश्च तां गिरम् // 37 व्यादितास्यैर्महानादैः सह भूतैर्ध्वजालयैः / रत्नभाजं च दाशार्ह चक्रुस्ते पृथिवीश्वराः। - 320 -
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________________ 2. 22. 38 ] सभापर्व [2. 23.7 कृच्छ्राजग्राह गोविन्दस्तेषां तदनुकम्पया // 38 धौम्यमामन्त्रयित्वा च प्रययौ स्वां पुरीं प्रति // 53 जरासंधात्मजश्चैव सहदेवो महारथः / तेनैव रथमुख्येन तरुणादित्यवर्चसा / निर्ययौ सजनामात्यः पुरस्कृत्य पुरोहितम् // 39 धर्मराजविसृष्टेन दिव्येनानादयन्दिशः // 54 स नीचैः प्रश्रितो भूत्वा बहुरत्नपुरोगमः / ततो युधिष्ठिरमुखाः पाण्डवा भरतर्षभ / सहदेवो नृणां देवं वासुदेवमुपस्थितः // 40 प्रदक्षिणमकुर्वन्त कृष्णमक्लिष्टकारिणम् // 55 भयार्ताय ततस्तस्मै कृष्णो दत्त्वाभयं तदा / ततो गते भगवति कृष्णे देवकिनन्दने / अभ्यषिश्चत तत्रैव जरासंधात्मजं तदा // 41 जयं लब्ध्वा सुविपुलं राज्ञामभयदास्तदा // 56 गत्वैकत्वं च कृष्णेन पार्थाभ्यां चैव सत्कृतः / संवर्धितौजसो भूयः कर्मणा तेन भारत / विवेश राजा मतिमान्पुनर्बार्हद्रथं पुरम् // 42. द्रौपद्याः पाण्डवा राजन्परां प्रीतिमवर्धयन् // 57 कृष्णस्तु सह पार्थाभ्यां श्रिया परमया ज्वलन् / तस्मिन्काले तु यद्युक्तं धर्मकामार्थसंहितम् / रत्नान्यादाय भूरीणि प्रययौ पुष्करेक्षणः // 43 . तद्राजा धर्मतश्चक्रे राज्यपालनकीर्तिमान् // 58 इन्द्रप्रस्थमुपागम्य पाण्डवाभ्यां सहाच्युतः। इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः // 22 // समेत्य धर्मराजानं प्रीयमाणोऽभ्यभाषत / / 44 // समाप्तं जरासंधवधपर्व // दिष्टया भीमेन बलवाञ्जरासंधो निपातितः / 23 राजानो मोक्षिताश्चेमे बन्धनान्नृपसत्तम // 45 वैशंपायन उवाच / दिष्टया कुशलिनौ चेमौ भीमसेनधनंजयौ / पार्थः प्राप्य धनुःश्रेष्ठमक्षय्यौ च महेषुधी / पुनः स्वनगरं प्राप्तावक्षताविति भारत // 46 रथं ध्वजं सभा चैव युधिष्ठिरमभाषत // 1 ततो युधिष्ठिरः कृष्णं पूजयित्वा यथार्हतः। धनुरस्रं शरा वीर्यं पक्षो भूमिर्यशो बलम् / भीमसेनार्जुनौ चैव प्रहृष्टः परिषस्वजे // 47 प्राप्तमेतन्मया राजन्दुष्प्रापं यदभीप्सितम् // 2 ततः क्षीणे जरासंधे भ्रातृभ्यां विहितं जयम् / तत्र कृत्यमहं मन्ये कोशस्यास्य विवर्धनम् / अजातशत्रुरासाद्य मुमुदें भ्रातृभिः सह / / 48 करमाहारयिष्यामि राज्ञः सर्वान्नृपोत्तम // 3 यथावयः समागम्य राजभिस्तैश्च पाण्डवः / विजयाय प्रयास्यामि दिशं धनदरक्षिताम् / सत्कृत्य पूजयित्वा च विससर्ज नराधिपान् // 49 तिथावथ मुहूर्ते च नक्षत्रे च तथा शिवे // 4 युधिष्ठिराभ्यनुज्ञातास्ते नृपा हृष्टमानसाः / धनंजयवचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः / जग्मुः स्वदेशांस्त्वरिता यानरुच्चावचैस्ततः॥ 50 स्निग्धगम्भीरनादिन्या तं गिरा प्रत्यभाषत // 5 एवं पुरुषशार्दूलो महाबुद्धिर्जनार्दनः / स्वस्ति वाच्याहतो विप्रान्प्रयाहि भरतर्षभ / पाण्डवैर्घातयामास जरासंधमरिं तदा // 51 दुहृदामप्रहर्षाय सुहृदां नन्दनाय च। घातयित्वा जरासंधं बुद्धिपूर्वमरिंदमः / विजयस्ते ध्रुवं पार्थ प्रियं काममवाप्नुहि // 6 धर्मराजमनुज्ञाप्य पृथां कृष्णां च भारत // 52 इत्युक्तः प्रययौ पार्थः सैन्येन महता वृतः / सुभद्रां भीमसेनं च फल्गुनं यमजौ तथा। अग्निदत्तेन दिव्येन रथेनाद्भुतकर्मणा // 7 म. भा. 41 -321 -
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________________ 2. 23. 8] महाभारते [ 2. 24. 8 तथैव भीमसेनोऽपि यमौ च पुरुषर्षभौ। अहं सखा सुरेन्द्रस्य शक्रादनवमो रणे / ससैन्याः प्रययुः सर्वे धर्मराजाभिपूजिताः // 8 न च शक्नोमि ते तात स्थातुं प्रमुखतो युधि // 22 दिशं धनपतेरिष्टामजयत्पाकशासनिः / किमीप्सितं पाण्डवेय ब्रूहि किं करवाणि ते / भीमसेनस्तथा प्राची सहदेवस्तु दक्षिणाम् // 9 यद्वक्ष्यसि महाबाहो तत्करिष्यामि पुत्रक // 23 प्रप्तीची नकुलो राजन्दिशं व्यजयदत्रवित् / अर्जुन उवाच / खाण्डवप्रस्थमध्यास्ते धर्मराजो युधिष्ठिरः॥ 10 कुरूणामृषभो राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / / जनमेजय उवाच। तस्य पार्थिवतामीप्से करस्तस्मै प्रदीयताम् // 24 दिशामभिजयं ब्रह्मन्विस्तरेणानुकीर्तय / भवान्पितृसखा चैव प्रीयमाणो मयापि च / न हि तृप्यामि पूर्वेषां शृण्वानश्चरितं महत् // 11 ततो नाज्ञापयामि त्वां प्रीतिपूर्वं प्रदीयताम् // 25 वैशंपायन उवाच। भगदत्त उवाच / .. धनंजयस्य वक्ष्यामि विजयं पूर्वमेव ते। कुन्तीमातर्यथा मे त्वं तथा. राजा युधिष्ठिरः / यौगपद्येन पाथैर्हि विजितेयं वसुंधरा // 12 सर्वमेतत्करिष्यामि किं चान्यत्करवाणि ते // 26 पूर्वं कुणिन्दविषये वशे चक्रे महीपतीन् / / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः // 23 // धनंजयो महाबाहु तितीव्रण कर्मणा // 13 आनन्किालकूटांश्च कुणिन्दांश्च विजित्य सः / - वैशंपायन उवाच। सुमण्डलं पापजितं कृतवाननुसैनिकम् / / 14 / तं विजित्य महाबाहुः कुन्तीपुत्रो धनंजयः / स तेन सहितो राजन्सव्यसाची परंतपः। प्रययावुत्तरां तस्मादिशं धनदपालिताम् // 1 . विजिग्ये सकलं द्वीपं प्रतिविन्ध्यं च पार्थिवम् // 15 अन्तर्गिरिं च कौन्तेयस्तथैव च बहिनिरिम / सकलद्वीपवासांश्च सप्तद्वीपे च ये नृपाः / तथोपरिगिरिं चैव विजिग्ये पुरुषर्षभः // 2 अर्जुनस्य च सैन्यानां विग्रहस्तुमुलोऽभवत् // 16 विजित्य पर्वतान्सर्वान्ये च तत्र नराधिपाः / स तानपि महेष्वासो विजित्य भरतर्षभ। तान्वशे स्थापयित्वा स रत्नान्यादाय सर्वशः / / 3 तैरेव सहितः सर्वैः प्राग्ज्योतिषमुपाद्रवत् / / 17 तैरेव सहितः सर्वैरनुरज्य च तान्नृपान् / तत्र राजा महानासीद्भगदत्तो विशां पते। कुलूतवासिनं राजन्बृहन्तमुपजग्मिवान् // 4 तेनासीत्सुमहद्युद्धं पाण्डवस्य महात्मनः / / 18 मृदङ्गवरनादेन रथनेमिस्वनेन च / स किरातैश्च चीनैश्च वृतः प्राग्ज्योतिषोऽभवत् / हस्तिनां च निनादेन कम्पयन्वसुधामिमाम् // 5. अन्यैश्च बहुभिर्योधैः सागरानूपवासिभिः // 19 ततो बृहन्तस्तरुणो बलेन चतुरङ्गिणा। ततः स दिवसानष्टौ योधयित्वा धनंजयम् / निष्क्रम्य नगरात्तस्माद्योधयामास पाण्डवम् // 6 प्रहसन्नब्रवीद्राजा संग्रामे विगतक्लमः / / 20 सुमहान्संनिपातोऽभूद्धनंजयबृहन्तयोः / उपपन्नं महाबाहो त्वयि पाण्डवनन्दन / न शशाक बृहन्तस्तु सोढुं पाण्डवविक्रमम् / / 7 पाकशासनदायादे वीर्यमाहवशोभिनि // 21 / सोऽविषह्यतमं ज्ञात्वा कौन्तेयं पर्वतेश्वरः / - 322 -
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________________ 2. 24. 8] सभापर्व [2. 25. 9 उपावर्तत दुर्मेधा रत्नान्यादाय सर्वशः // 8 निवसन्ति वने ये च तान्सर्वानजयत्प्रभुः // 23 स तद्राज्यमवस्थाप्य कुलूतसहितो ययौ / लोहान्परमकाम्बोजानृषिकानुत्तरानपि / सेनाबिन्दुमथो राजनराज्यादाशु समाक्षिपत् // 9 सहितांस्तान्महाराज व्यजयत्पाकशासनिः॥ 24 मोदापुरं वामदेवं सुदामानं सुसंकुलम् / ऋषिकेषु तु संग्रामो बभूवातिभयंकरः / कुलूतानुत्तरांश्चैव तांश्च राज्ञः समानयत् // 10 तारकामयसंकाशः परमर्षिकपार्थयोः // 25 तत्रस्थः पुरुषैरेव धर्मराजस्य शासनात् / स विजित्य ततो राजनषिकान्रणमूर्धनि। व्यजयद्धनंजयो राजन्देशान्पञ्च प्रमाणतः / / 11 शुकोदरसमप्रख्यान्हयानष्टौ समानयत् / स दिवःप्रस्थमासाद्य सेनाबिन्दोः पुरं महत् / / मयूरसदृशानन्यानुभयानेव चापरान् // 26 बलेन चतुरङ्गेण निवेशमकरोत्प्रभुः // 12 स विनिर्जित्य संग्रामे हिमवन्तं सनिष्कुटम् / स तैः परिवृतः सर्वैर्विष्वगश्वं नराधिपम् / श्वेतपर्वतमासाद्य न्यवसत्पुरुषर्षभः // 27 अभ्यगच्छन्महातेजाः पौरवं पुरुषर्षभः // 13 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि चतुर्विंशोऽध्यायः // 24 // विजित्य चाहवे शूरान्पार्वतीयान्महारथान् / ध्वजिन्या व्यजयद्राजन्पुरं पौरवरक्षितम् // 14 वैशंपायन उवाच। पौरवं तु विनिर्जित्य दस्यून्पर्वतवासिनः / स श्वेतपर्वतं वीरः समतिक्रम्य भारत / गणानुत्सवसंकेतानजयत्सप्त पाण्डवः // 15 देशं किंपुरुषावासं द्रुमपुत्रेण रक्षितम् // 1 ततः काश्मीरकान्वीरान्क्षत्रियान्क्षत्रियर्षभः / महता संनिपातेन क्षत्रियान्तकरेण ह / व्यजयल्लोहितं चैव मण्डलैदशभिः सह // 16 व्यजयत्पाण्डवश्रेष्ठः करे चैव न्यवेशयत् // 2 तत्रस्त्रिगर्तान्कौन्तेयो दार्वान्कोकनदाश्च ये / तं जित्वा हाटकं नाम देशं गुह्यकरक्षितम् / क्षत्रिया बहवो राजन्नुपावर्तन्त सर्वशः / / 17 पाकशासनिरव्यग्रः सहसैन्यः समासदत् // 3 अभिसारी ततो रम्यां विजिग्ये कुरुनन्दनः / तांस्तु सान्त्वेन निर्जित्य मानसं सर उत्तमम् / उरशावासिनं चैव रोचमानं रणेऽजयत् / / 18 ऋषिकुल्याश्च ताः सर्वा ददर्श कुरुनन्दनः॥ 4 . ततः सिंहपुरं रम्यं चित्रायुधसुरक्षितम् / सरो मानसमासाद्य हाटकानभितः प्रभुः / प्रामथलमास्थाय पाकशासनिराहवे // 19 गन्धर्वरक्षितं देशं व्यजयत्पाण्डवस्ततः / / 5 ततः सुझांश्च चोलांश्च किरीटी पाण्डवर्षभः / तत्र तित्तिरिकल्माषान्मण्डूकाक्षान्हयोत्तमान् / सहितः सर्वसैन्येन प्रामथत्कुरुनन्दनः / / 20 लेभे स करमत्यन्तं गन्धर्वनगरात्तदा // 6 ततः परमविक्रान्तो बाह्रीकान्कुरुनन्दनः / / उत्तरं हरिवर्षं तु समासाद्य स पाण्डवः / महता परिमर्देन वशे चक्रे दुरासदान् // 21 इयेष जेतुं तं देशं पाकशासननन्दनः // 7 गृहीत्वा तु बलं सारं फल्गु चोत्सृज्य पाण्डवः / तत एनं महाकाया महावीर्या महाबलाः / दरदान्सह काम्बोजैरजयत्पाकशासनिः // 22 द्वारपालाः समासाद्य हृष्टा वचनमब्रुवन् / / 8 प्रागुत्तर दिशं ये च वसन्त्याश्रित्य दस्यवः / / पार्थ नेदं त्वया शक्यं पुरं जेतुं कथंचन। -323 -
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________________ 2. 25. 9] महाभारते [2. 26. 16 उपावर्तस्व कल्याण पर्याप्तमिदमच्युत // 9 स गत्वा राजशार्दूलः पाञ्चालानां पुरं महम् / इदं पुरं यः प्रविशेद्धवं स न भवेन्नरः / पाश्चालान्विविधोपायैः सान्त्वयामास पाण्डवः / / 3 प्रीयामहे त्वया वीर पर्याप्तो विजयस्तव // 10 ततः स गण्डकी शूरो विदेहांश्च नरर्षभः / न चापि किंचिज्जेतव्यमर्जुनात्र प्रदृश्यते / विजित्याल्पेन कालेन दशार्णानगमत्प्रभुः // 4 उत्तराः कुरवो ह्येते नात्र युद्धं प्रवर्तते // 11 तत्र दाशार्णको राजा सुधर्मा लोमहर्षणम् / प्रविष्टश्चापि कौन्तेय नेह द्रक्ष्यसि किंचन / कृतवान्कर्म भीमेन महाद्धं निरायुधम् // 5 . न हि मानुषदेहेन शक्यमत्राभिवीक्षितुम् / / 12 भीमसेनस्तु तदृष्ट्वा तस्य कर्म परंतपः / अथेह पुरुषव्याघ्र किंचिदन्यच्चिकीर्षसि / अधिसेनापतिं चक्रे सुधर्माणं महाबलम् // 6 तद्भवीहि करिष्यामो वचनात्तव भारत // 13 ततः प्राची दिशं भीमो ययौ भीमपराक्रमः / ततस्तानब्रवीद्राजन्नर्जुनः पाकशासनिः / सैन्येन महता राजन्कम्पयन्निव मेदिनीम् // 7 पार्थिवत्वं चिकीर्षामि धर्मराजस्य धीमतः // 14 सोऽश्वमेधेश्वरं राजन्रोचमानं सहानुजम् / न प्रवेक्ष्यामि वो देशं बाध्यत्वं यदि मानुषैः / जिगाय समरे वीरो बलेन बलिनां वरः॥ 8 युधिष्ठिराय यत्किंचित्करवन्नः प्रदीयताम् / / 15 / स तं निर्जित्य कौन्तेयो नातितीव्रण कर्मणा / ततो दिव्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च / / पूर्वदेशं महावीर्यो विजिग्ये कुरुनन्दनः // 9 मोकाजिनानि दिव्यानि तस्मै ते प्रददुः करम् // 16 ततो दक्षिणमागम्य पुलिन्दनगरं महत् / एवं स पुरुषव्याघ्रो विजिग्ये दिशमुत्तराम् / सुकुमारं वशे चक्रे सुमित्रं च नराधिपम् // 10 संग्रामान्सुबहून्कृत्वा क्षत्रियैर्दस्युभिस्तथा / / 17 / ततस्तु धर्मराजस्य शासनाद्भरतर्षभः / स विनिर्जित्य राज्ञस्तान्करे च विनिवेश्य ह। शिशुपालं महावीर्यमभ्ययाजनमेजय // 11 धनान्यादाय सर्वेभ्यो रत्नानि विविधानि च // 18 / चेदिराजोऽपि तच्छ्रुत्वा पाण्डवस्य चिकीर्षितम् / यांस्तित्तिरिकल्माषाशुकपत्रनिभानपि / उपनिष्क्रम्य नगरात्प्रत्यगृहात्परंतपः // 12 मयूरसदृशांश्चान्यान्सर्वाननिलरंहसः // 19 तौ समेत्य महाराज कुरुचेदिवृषौ तदा / वृतः सुमहता राजन्बलेन चतुरङ्गिणा / उभयोरात्मकुलयोः कौशल्यं पर्यपृच्छताम् // 13 आजगाम पुनर्वीरः शक्रप्रस्थं पुरोत्तमम् // 20 ततो निवेद्य तद्राष्ट्रं चेदिराजो विशां पते / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // उवाच भीमं प्रहसन्किमिदं कुरुषेऽनघ / / 14 तस्य भीमस्तदाचख्यौ धर्मराजचिकीर्षितम् / वैशंपायन उवाच / एतस्मिन्नेव काले तु भीमसेनोऽपि वीर्यवान् / स च तत्प्रतिगृह्मैव तथा चक्रे नराधिपः // 15 धर्मराजमनुज्ञाप्य ययौ प्राची दिशं प्रति // 1 ततो भीमस्तत्र राजन्नुपित्वा त्रिदशाः क्षपाः / महता बलचक्रेण परराष्ट्रावमर्दिना / सत्कृतः शिशुपालेन ययौ सबलवाहनः // 16 वृतो भरतशार्दूलो द्विषच्छोकविवर्धनः // 2 इति श्रीहाभारते सभापर्वणि षड्रिंशोऽध्यायः॥ 26 // - 324 -
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________________ 2. 27. 1] सभापर्व [2. 27. 28 ર૭ . किरातानामधिपतीन्व्यजयत्सप्त पाण्डवः // 13 वैशंपायन उवाच / ततः सुझान्प्राच्यसुझान्समक्षांश्चैव वीर्यवान् / ततः कुमारविषये श्रेणिमन्तमथाजयत् / विजित्य युधि कौन्तेयो मागधानुपयाद्बली // 14 कोसलाधिपतिं चैव बृहद्बलमरिंदमः // 1 दण्डं च दण्डधारं च विजित्य पृथिवीपतीन् / अयोध्यायां तु धर्मज्ञं दीर्घप्रज्ञं महाबलम् / तैरेव सहितः सर्वैर्गिरिव्रजमुपाद्रवत् // 15 अजयत्पाण्डवश्रेष्ठो नातितीव्रण कर्मणा // 2 जारासंधिं सान्त्वयित्वा करे च विनिवेश्य ह / ततो गोपालकच्छं च सोत्तमानपि चोत्तरान् / तैरेव सहितो राजन्कर्णमभ्यद्रवद्बली // 16 मल्लानामधियं चैव पार्थिवं व्यजयत्प्रभुः // 3 स कम्पयन्निव महीं बलेन चतुरङ्गिणा / ततो हिमवतः पार्श्व समभ्येत्य जरद्वम् / . युयुधे पाण्डवश्रेष्ठः कर्णेनामित्रघातिना / / 17 सर्वमल्पेन कालेन देशं चक्रे वशे बली // 4 स कर्ण युधि निर्जित्य वशे कृत्वा च भारत / एवं बहुविधान्देशान्विजित्य पुरुषर्षभः / ततो विजिग्ये बलवानराज्ञः पर्वतवासिनः // 18 उन्नाटमभितो जिग्ये कुक्षिमन्तं च पर्वतम् / अथ मोदागिरिं चैव राजानं बलवत्तरम् / पाण्डवः सुमहावीर्यो बलेन बलिनां वरः // 5 पाण्डवो बाहुवीर्येण निजघान महामृधे / / 19 स काशिराजं समरे सुबन्धुमनिवर्तिनम् / ततः पौण्डाधिपं वीरं वासुदेवं महाबलम्। वशे चक्रे महाबाहुर्रमो भीमपराक्रमः // 6 कौशिकीकच्छनिलयं राजानं च महौजसम् // 20 ततः सुपार्श्वमभितस्तथा राजपतिं क्रथम् / उभौ बलवृतौ वीरावुभौ तीव्रपराक्रमौ / युध्यमानं बलात्संख्ये विजिग्ये पाण्डवर्षभः / / 7 निर्जित्याजी महाराज वङ्गराजमुपाद्रवत् // 21 ततो मत्स्यान्महातेजा मलयांश्च महाबलान् / समुद्रसेनं निर्जित्य चन्द्रसेनं च पार्थिवम् / अनवद्यान्गयांश्चैव पशुभूमिं च सर्वशः / / 8 ताम्रलिप्तं च राजानं काचं वङ्गाधिपं तथा // 22 निवृत्य च महाबाहुर्मदर्वीकं महीधरम / सुहानामधिपं चैव ये च सागरवासिनः / सोपदेशं विनिर्जित्य प्रययावुत्तरामुखः / सर्वान्म्लेच्छगणांश्चैव विजिग्ये भरतर्षभः / / 23 वत्सभूमिं च कौन्तेयो विजिग्ये बलवान्बलात् // 9 एवं बहुविधान्देशान्विजित्य पवनात्मजः / भर्गाणामधिपं चैव निषादाधिपतिं तथा / वसु तेभ्य उपादाय लौहित्यमगमदली / / 24 विजिग्ये भूमिपालांश्च मणिमत्प्रमुखान्बहून् // 10 स सर्वान्म्लेच्छनृपतीन्सागरद्वीपवासिनः / ततो दक्षिणमल्लांश्च भोगवन्तं च पाण्डवः / करमाहारयामास रत्नानि विविधानि च // 25 तरसैवाजयद्भीमो नातितीव्रण कर्मणा // 11 चन्दनागुरुवस्त्राणि मणिमुक्तमनुत्तमम् / शर्मकान्वर्मकांश्चैव सान्त्वेनैवाजयत्प्रभुः / काञ्चनं रजतं वनं विद्रुमं च महाधनम् / / 26 वैदेहकं च राजानं जनकं जगतीपतिम् / स कोटिशतसंख्येन धनेन महता तदा। विजिग्ये पुरुषव्याघ्रो नातितीव्रण कर्मणा // 12 अभ्यवर्षदमेयात्मा धनवर्षेण पाण्डवम् // 27 . वैदेहस्थस्तु कौन्तेय इन्द्रपर्वतमन्तिकात् / इन्द्रप्रस्थमथागम्य भीमो भीमपराक्रमः / -325 -
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________________ 2. 27. 28 ] महाभारत [2. 28. 21 निवेदयामास तदा धर्मराजाय तद्धनम् // 28 ततो हया रथा नागाः पुरुषाः कवचानि च / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥ प्रदीप्तानि व्यदृश्यन्त सहदेवबले तदा // 14 ततः सुसंभ्रान्तमना बभूव कुरुनन्दनः / वैशंपायन उवाच। नोत्तरं प्रतिवक्तुं च शक्तोऽभूजनमेजय // 15 तथैव सहदेवोऽपि धर्मराजेन पूजितः / जनमेजय उवाच।। महत्या सेनया सार्धं प्रययौ दक्षिणां दिशम् / / 1 / किमर्थं भगवानग्निः प्रत्यमित्रोऽभवद्युधि / स शूरसेनान्कास्न्येन पूर्वमेवाजयत्प्रभुः / सहदेवस्य यज्ञार्थं घटमानस्य वै द्विज // 16 मत्स्यराजं च कौरव्यो वशे चक्रे बलाबली // 2 वैशंपायन उवाच / अधिराजाधिपं चैव दन्तवक्र महाहवे / तत्र माहिष्मतीवासी भगवान्हव्यवाहनः। जिगाय करदं चैव स्वराज्ये संन्यवेशयत् / / 3 श्रूयते निगृहीतो वै पुरस्तात्पारदारिकः // 17 सुकुमारं वशे चक्रे सुमित्रं च नराधिपम् / नीलस्य राज्ञः पूर्वेषामुपनीतश्च सोऽभवत् / ' तथैवापरमत्स्यांश्च व्यजयत्स पटच्चरान् // 4 तदा ब्राह्मणरूपेण चरमाणो यदृच्छया / / 18 निषादभूमि गोशृङ्गं पर्वतप्रवरं तथा। तं तु राजा यथाशास्त्रमन्वशाद्धार्मिकस्तदा।। तरसा व्यजयद्धीमाश्रेणिमन्तं च पार्थिवम् / / 5 प्रजज्वाल ततः कोपाद्भगवान्हव्यवाहनः / / 19 नवराष्ट्रं विनिर्जित्य कुन्तिभोजमुपाद्रवत् / तं दृष्ट्वा विस्मितो राजा जगाम शिरसा कविम् / प्रीतिपूर्वं च तस्यासौ प्रतिजग्राह शासनम् / / 6 चक्रे प्रसादं च तदा तस्य राज्ञो विभावसुः / / 20 ततश्चर्मण्वतीकूले जम्भकस्यात्मजं नृपम् / . वरेण छन्दयामास तं नृपं स्विष्टकृत्तमः / ददर्श वासुदेवेन शेषितं पूर्ववैरिणा / / 7 अभयं च स जग्राह स्वसैन्ये वै महीपतिः // 21 चक्रे तत्र स संग्रामं सह भोजेन भारत / ततःप्रभृति ये केचिदज्ञानात्तां पुरी नृपाः / स तमाजौ विनिर्जित्य दक्षिणाभिमुखो ययौ / / 8 जिगीषन्ति बलाद्राजंस्ते दह्यन्तीह वह्निना // 22 करांस्तेभ्य उपादाय रत्नानि विविधानि च / तस्यां पुर्यां तदा चैव माहिष्मत्यां कुरूद्वह / ततस्सैरेव सहितो नर्मदामभितो ययौ // 9 बभूवुरनभिग्राह्या योषितश्छन्दतः किल / / 23 विन्दानुविन्दावावन्त्यौ सैन्येन महता वृत्तौ / एवमग्निर्वरं प्रादात्स्त्रीणामप्रतिवारणे / जिगाय समरे वीरावाश्विनेयः प्रतापवान् // 10 स्वैरिण्यस्तत्र नार्यो हि यथेष्टं प्रचरन्त्युत // 24 ततो रत्नान्युपादाय पुरी माहिष्मती ययौ / वर्जयन्ति च राजानस्तद्राष्ट्रं पुरुषोत्तम / तत्र नीलेन राज्ञा स चक्रे युद्धं नरर्षभः / / 11 भयादग्नेर्महाराज तदाप्रभृति सर्वदा // 25 पाण्डवः परवीरनः सहदेवः प्रतापवान् / सहदेवस्तु धर्मात्मा सैन्यं दृष्ट्वा भयादितम् / ततोऽस्य सुमहाद्धमासीद्भीरुभयंकरम् // 12 परीतमग्निना राजन्नाकम्पत यथा गिरिः // 26 सैन्यक्षयकरं चैव प्राणानां संशयाय च / उपस्पृश्य शुचिर्भूत्वा सोऽब्रवीत्पावकं ततः / चक्रे तस्य हि साहाय्यं भगवान्हव्यवाहनः // 13 त्वदर्थोऽयं समारम्भः कृष्णवर्त्मन्नमोऽस्तु ते / / 27 - 326 -
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________________ 2. 28. 28 ] सभापर्व [2. 28. 55 मुखं त्वमसि देवानां यज्ञस्त्वमसि पावक। ततः स रत्नान्यादाय पुनः प्रायायुधां पतिः // 42 पावनात्पावकश्वासि वहनाद्धव्यवाहनः // 28 ततः शूर्पारकं चैव गणं चोपकृताह्वयम् / वेदास्त्वदर्थं जाताश्च जातवेदास्ततो ह्यसि / / वशे चक्रे महातेजा दण्डकांश्च महाबलः // 43 यज्ञविघ्नमिमं कर्तुं नार्हस्त्वं हव्यवाहन / / 29 सागरद्वीपवासांश्च नृपतीन्म्लेच्छयोनिजान् / एवमुक्त्वा तु माद्रेयः कुशैरास्तीर्य मेदिनीम् / निषादान्पुरुषादांश्च कर्णप्रावरणानपि // 44 विधिवत्पुरुषव्याघ्रः पावकं प्रत्युपाविशत् / / 30 ये च कालमुखा नाम नरा राक्षसयोनयः / प्रमुखे सर्वसैन्यस्य भीतोद्विग्नस्य भारत / कृत्स्नं कोल्लगिरिं चैव मुरचीपत्तनं तथा // 45 न चैनमत्यगाद्वहिर्वेलामिव महोदधिः // 31 . द्वीपं ताम्राह्वयं चैव पर्वतं रामकं तथा / तमभ्येत्य शनैर्वह्निरुवाच कुरुनन्दनम् / तिमिगिलं च नृपतिं वशे चक्रे महामतिः॥ 46 सहदेवं नृणां देवं सान्त्वपूर्वमिदं वचः॥३२ एकपादांश्च पुरुषान्केवलान्वनवासिनः / उत्तिष्ठोत्तिष्ठ कौरव्य जिज्ञासेयं कृता मया / नगरी संजयन्ती च पिच्छण्डं करहाटकम् / वेद्मि सर्वमभिप्रायं तव धर्मसुतस्य च // 33 दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत् // 47 मया तु रक्षितव्येयं पुरी भरतसत्तम / पाण्ड्यांश्च द्रविडांश्चैव सहितांश्चोकेरलैः / यावद्राज्ञोऽस्य नीलस्य कुलवंशधरा इति / अन्ध्रांस्तलवनांश्चैव कलिङ्गानोष्ट्रकर्णिकान् // 48 ईप्सितं तु करिष्यामि मनसस्तव पाण्डव // 34 अन्ताखीं चैव रोमां च यवनानां पुरं तथा। तत उत्थाय हृष्टात्मा प्राञ्जलिः शिरसानतः / दूतैरेव वशे चक्रे करं चैनानदापयत् // 49 . पूजयामास माद्रेयः पावकं पुरुषर्षभः // 35 भरुकच्छं गतो धीमान्दूतान्माद्रवतीसुतः। पावके विनिवृत्ते तु नीलो राजाभ्ययात्तदा / प्रेषयामास राजेन्द्र पौलस्त्याय महात्मने। सत्कारेण नरव्याघ्रं सहदेवं युधां पतिम् // 36 विभीषणाय धर्मात्मा प्रीतिपूर्वमरिंदमः // 50 प्रतिगृह्य च तां पूजा करे च विनिवेश्य तम् / स चास्य प्रतिजग्राह शासनं प्रीतिपूर्वकम् / माद्रीसुतस्ततः प्रायाद्विजयी दक्षिणां दिशम् // 37 तच्च कालकृतं धीमानन्वमन्यत स प्रभुः // 51 त्रैपुरं स वशे कृत्वा राजानममितौजसम् / ततः संप्रेषयामास रत्नानि विविधानि च / निजग्राह महाबाहुस्तरसा पोतनेश्वरम् // 38 चन्दनागुरुमुख्यानि दिव्यान्याभरणानि च // 52 आहृतिं कौशिकाचार्यं यत्नेन महता ततः / वासांसि च महार्हाणि मणींश्चैव महाधनान् / / वशे चक्रे महाबाहुः सुराष्ट्राधिपतिं तथा // 39 | न्यवर्तत ततो धीमान्सहदेवः प्रतापवान् // 53 सुराष्ट्रविषयस्थश्च प्रेषयामास रुक्मिणे / एवं निर्जित्य तरसा सान्त्वेन विजयेन च / राज्ञे भोजकटस्थाय महामात्राय धीमते॥ 40 करदान्पार्थिवान्कृत्वा प्रत्यागच्छदरिंदमः // 54 . भीष्मकाय स धर्मात्मा साक्षादिन्द्रसखाय वै। धर्मराजाय तत्सर्वं निवेद्य भरतर्षभ / स चास्य ससुतो राजन्प्रतिजग्राह शासनम् / / 41 कृतकर्मा सुखं राजन्नुवास जनमेजय // 55 प्रीतिपूर्वं महाबाहुर्वासुदेवमवेक्ष्य च / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अष्टाविंशोऽध्यायः // 28 // -327 -
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________________ 2. 29. 1] महाभारते [2. 30. 8 29 रत्नानि भूरीण्यादाय संप्रतस्थे युधां पतिः // 14 वैशंपायन उवाच। ततः सागरकुक्षिस्थान्म्लेच्छान्परमदारुणान् / नकुलस्य तु वक्ष्यामि कर्माणि विजयं तथा / पह्रवान्बर्बरांश्चैव तान्सर्वाननयद्वशम् // 15 वासुदेवजितामाशां यथासौ व्यजयत्प्रभुः // 1 ततो रत्नान्युपादाय वशे कृत्वा च पार्थिवान् / निर्याय खाण्डवप्रस्थात्प्रतीचीमभितो दिशम् / न्यवर्तत नरश्रेष्ठो नकुलश्चित्रमार्गवित् / / 16 ' उद्दिश्य मतिमान्प्रायान्महत्या सेनया सह // 2 करभाणां सहस्राणि कोशं तस्य महात्मनः / सिंहनादेन महता योधानां गर्जितेन च / ऊहुर्दश महाराज कृच्छ्रादिव महाधनम् // 17 रथनेमिनिनादैश्च कम्पयन्वसुधामिमाम् // 3 इन्द्रप्रस्थगतं वीरमभ्येत्य स युधिष्ठिरम् / ततो बहुधनं रम्यं गवाश्वधनधान्यवत् / ततो माद्रीसुतः श्रीमान्धनं तस्मै न्यवेदयत् / / 18 कार्तिकेयस्य दयितं रोहीतकमुपाद्रवत् // 4 एवं प्रतीची नकुलो दिशं वरुणपालिताम् / तत्र युद्धं महद्वृत्तं शूरैर्मत्तमयूरकैः / विजिग्ये वासुदेवेन निर्जितां भरतर्षभः // 19 मरुभूमिं च कास्न्येन तथैव बहुधान्यकम् // 5 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः // 29 // शैरीषकं महेच्छं च वशे चक्रे महाद्युतिः / // समाप्तं दिग्विजयपर्व // शिबीस्निगर्तानम्बष्ठान्मालवान्पश्चकपटान् // 6 तथा मध्यमिकायांश्च वाटधानान्द्विजानथ / उवाच / पुनश्च परिवृत्याथ पुष्करारण्यवासिनः // 7 रक्षणाद्धर्मराजस्य सत्यस्य परिपालनात / गणानुत्सवसंकेतान्व्यजयत्पुरुषर्षभः / शत्रूणां क्षपणाच्चैव स्वकर्मनिरताः प्रजाः // 1 सिन्धुकूलाश्रिता ये च ग्रामणेया महाबलाः // 8 बलीनां सम्यगादानाद्धर्मतश्चानुशासनात् / शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम् / निकामवर्षी पर्जन्यः स्फीतो जनपदोऽभवत // 2 वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिनः॥ 9 सर्वारम्भाः सुप्रवृत्ता गोरक्षं कर्षणं वणिक् / कृत्स्नं पश्चनदं चैव तथैवापरपर्यटम् / विशेषात्सर्वमेवैतत्संजज्ञे राजकर्मणः // 3 उत्तरज्योतिकं चैव तथा वृन्दाटकं पुरम् / दस्युभ्यो वश्चकेभ्यो वा राजन्प्रति परस्परम् / द्वारपालं च तरसा वशे चक्रे महाद्युतिः // 10 राजवल्लभतश्चैव नाश्रूयन्त मृषा गिरः // 4 रमठान्हारहूणांश्च प्रतीच्याश्चैव ये नृपाः / अवर्षं चातिवर्षं च व्याधिपावकमूर्छनम् / तान्सर्वान्स वशे चक्रे शासनादेव पाण्डवः // 11 सर्वमेतत्तदा नासीद्धर्मनित्ये युधिष्ठिरे।। 5 तत्रस्थः प्रेषयामास वासुदेवाय चाभिभुः। प्रियं कर्तुमुपस्थातुं बलिकर्म स्वभावजम् / स चास्य दशभी राज्यैः प्रतिजग्राह शासनम् // 12 अभिहर्तुं नृपा जग्मुर्नान्यैः कार्यैः पृथक्पृथक्॥ / ततः शाकलमभ्येत्य मद्राणां पुटभेदनम् / धर्धनागमैस्तस्य ववृधे निचयो महान् / मातुलं प्रीतिपूर्वेण शल्यं चक्रे वशे बली // 13 / कर्तुं यस्य न शक्येत क्षयो वर्षशतैरपि // 7 स तस्मिन्सत्कृतो राज्ञा सत्कारार्हो विशां पते। / स्वकोशस्य परीमाणे कोष्ठस्य च महीपतिः / -328
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________________ 2. 30. 8] सभापर्व [2. 30. 36 विज्ञाय राजा कौन्तेयो यज्ञायैव मनो दधे // 8 / त्वमेव राजशार्दूल सम्राडो महाक्रतुम् / सुहृदश्चैव तं सर्वे पृथक्च सह चाब्रुवन् / संप्राप्नुहि त्वया प्राप्ते कृतकृत्यास्ततो वयम् // 23 यज्ञकालस्तव विभो क्रियतामत्र सांप्रतम् / / 9 | यजस्वाभीप्सितं यज्ञं मयि श्रेयस्यवस्थिते / अथैवं ब्रुवतामेव तेषामभ्याययो हरिः / नियुङ्ख चापि मां कृत्ये सर्वं कर्तास्मि ते वचः।।२४ ऋषिः पुराणो वेदात्मा दृश्यश्चापि विजानताम्॥१० युधिष्ठिर उवाच / जगतस्तस्थुषां श्रेष्ठः प्रभवश्वाप्ययश्च ह। सफलः कृष्ण संकल्पः सिद्धिश्च नियता मम / भूतभव्यभवन्नाथः केशवः केशिसूदनः / / 11 यस्य मे त्वं हृषीकेश यथेप्सितमुपस्थितः // 25 प्राकारः सर्ववृष्णीनामापत्स्वभयदोऽरिहा। . वैशंपायन उवाच / बलाधिकारे निक्षिप्य संहत्यानकदुन्दुभिम् / / 12 अनुज्ञातस्तु कृष्णेन पाण्डवो भ्रातृभिः सह / उच्चावचमुपादाय धर्मराजाय माधवः / ईहितुं राजसूयाय साधनान्युपचक्रमे // 26 धनौघं पुरुषव्याघ्रो बलेन महता वृतः / / 13 तत आज्ञापयामास पाण्डवोऽरिनिबर्हणः / तं धनौघमपर्यन्तं रत्नसागरमक्षयम् / सहदेवं युधां श्रेष्ठं मत्रिणश्चैव सर्वशः // 27 नादयन्रथघोषेण प्रविवेश पुरोत्तमम् / / 14 अस्मिन्क्रतौ यथोक्तानि यज्ञाङ्गानि द्विजातिभिः / असूर्यमिव सूर्येण निवातमिव वायुना। तथोपकरणं सर्वं मङ्गलानि च सर्वशः // 28 कृष्णेन समुपेतेन जहृषे भारतं पुरम / / 15 अधियज्ञांश्च संभारान्धौम्योक्तान्क्षिप्रमेव हि / तं मुदाभिसमागम्य सत्कृत्य च यथाविधि / समानयन्तु पुरुषा यथायोगं यथाक्रमम् // 29 संपृष्ट्वा कुशलं चैव सुखासीनं युधिष्ठिरः॥ 16 इन्द्रसेनो विशोकश्च पूरुश्चार्जुनसारथिः / धौम्यद्वैपायनमुखैर्ऋत्विग्भिः पुरुषर्षभः / अन्नाद्याहरणे युक्ताः सन्तु मत्प्रियकाम्यया // 30 भीमार्जुनयमैश्चापि सहितः कृष्णमब्रवीत् // 17 सर्वकामाश्च कार्यन्तां रसगन्धसमन्विताः। त्वत्कृते पृथिवी सर्वा मद्वशे कृष्ण वर्तते।। मनोहराः प्रीतिकरा द्विजानां कुरुसत्तम // 31 धनं च बहु वार्ष्णेय त्वत्प्रसादादुपार्जितम् // 18 तद्वाक्यसमकालं तु कृतं सर्वमवेदयत् / सोऽहमिच्छामि तत्सर्वं विधिवदेवकीसुत / सहदेवो युधां श्रेष्ठो धर्मराजे महात्मनि // 32 उपयोक्तुं द्विजाग्र्येषु हव्यवाहे च माधव // 19 ततो द्वैपायनो राजन्नृत्विजः समुपानयत् / तदहं यष्टुमिच्छामि दाशार्ह सहितस्त्वया। वेदानिव महाभागान्साक्षान्मूर्तिमतो द्विजान्॥३३ अनुजेश्च महाबाहो तन्मानुज्ञातुमर्हसि / / 20 स्वयं ब्रह्मत्वमकरोत्तस्य सत्यवतीसुतः / स दीक्षापय गोविन्द त्वमात्मानं महाभुज।। धनंजयानामृषभः सुसामा सामगोऽभवत् // 34 त्वयष्टिवति दाशार्ह विपाप्मा भविता ह्यहम् // 21 याज्ञवल्क्यो बभूवाथ ब्रह्मिष्ठोऽध्वर्युसत्तमः / मां वाप्यभ्यनुजानीहि सहैभिरनुजैविभो। पैलो होता वसोः पुत्रो धौम्येन सहितोऽभवत्॥३५ अनुज्ञातस्त्वया कृष्ण प्राप्नुयां ऋतुमुत्तमम् / / 22 एतेषां शिष्यवर्गाश्च पुत्राश्च भरतर्षभ / तं कृष्णः प्रत्युवाचेदं बहूक्त्वा गुणविस्तरम् / बभूवुर्होत्रगाः सर्वे वेदवेदाङ्गपारगाः // 36 म.भा. 42 - 329 -
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________________ 2. 30. 37] महाभारते [ 2. 31. 10 ते वाचयित्वा पुण्याहमीहयित्वा च तं विधिम् / गवां शतसहस्राणि शयनानां च भारत / शास्त्रोक्तं योजयामासुस्तदेवयजनं महत् / / 37 रुक्मस्य योषितां चैव धर्मराजः पृथग्ददौ // 51 तत्र चक्ररनुज्ञाताः शरणान्युत शिल्पिनः / प्रावर्ततैवं यज्ञः स पाण्डवस्य महात्मनः। रत्नवन्ति विशालानि वेश्मानीव दिवौकसाम् // 38 / पृथिव्यामेकवीरस्य शक्रस्येव त्रिविष्टपे // 52 तत आज्ञापयामास स राजा राजसत्तमः / ततो युधिष्ठिरो राजा प्रेषयामास पाण्डवम् / सहदेवं तदा सद्यो मत्रिणं कुरुसत्तमः / / 39 नकुलं हास्तिनपुरं भीष्माय भरतर्षभ / / 53 . आमन्त्रणार्थं दूतांस्त्वं प्रेषयस्वाशुगान्द्रुतम् / द्रोणाय धृतराष्ट्राय विदुराय कृपाय च / उपश्रुत्य वचो राज्ञः स तान्प्राहिणोत्तदा / / 40 भ्रातृणां चैव सर्वेषां येऽनुरक्ता युधिष्ठिरे / / 54 आमत्रयध्वं राष्ट्रेषु ब्राह्मणान्भूमिपानपि / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥ विशश्च मान्याशूद्रांश्च सर्वानानयतेति च // 41 31 . . ते सर्वान्पृथिवीपालापाण्डवेयस्य शासनात् / वैशंपायन उवाच। आमन्त्रयांबभूवुश्च प्रेषयामास चापरान् // 42 स गत्वा हास्तिनपुरं नकुलः समितिंजयः / ततस्ते तु यथाकालं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् / भीष्ममामत्रयामास धृतराष्ट्रं च पाण्डवः // 1 दीक्षयांचक्रिरे विप्रा राजसूयाय भारत / / 43 प्रययुः प्रीतमनसो यज्ञं ब्रह्मपुरःसराः / दीक्षितः स तु धर्मात्मा धर्मराजो युधिष्ठिरः / संश्रुत्य धर्मराजस्य यज्ञं यज्ञविदस्तदा // 2 जगाम यज्ञायतनं वृतो विप्रैः सहस्रशः / / 44 अन्ये च शतशस्तुष्टैर्मनोभिर्मनुजर्षभ / भ्रातृभिमा॑तिभिश्चैव सुहृद्भिः सचिवैस्तथा / द्रष्टुकामाः सभां चैव धर्मराजं च पाण्डवम् // 3 क्षत्रियैश्च मनुष्येन्द्र नानादेशसमागतैः / दिग्भ्यः सर्वे समापेतुः पार्थिवास्तत्र भारत / अमात्यैश्च नृपश्रेष्ठो धर्मो विग्रहवानिव // 45 समुपादाय रत्नानि विविधानि महान्ति च // 4 आजग्मुर्ब्राह्मणास्तत्र विषयेभ्यस्ततस्ततः / धृतराष्ट्रश्च भीष्मश्च विदुरश्च महामतिः / सर्वविद्यासु निष्णाता वेदवेदाङ्गपारगाः // 46 दुर्योधनपुरोगाश्च भ्रातरः सर्व एव ते // 5 तेषामावसथांश्चक्रुर्धर्मराजस्य शासनात् / सत्कृत्यामश्रिताः सर्वे आचार्यप्रमुखा नृपाः / बन्नाशयनैर्युक्तान्सगणानां पृथक्पृथक् / गान्धारराजः सुबलः शकुनिश्च महाबलः // 6 सर्वर्तुगुणसंपन्नाशिल्पिनोऽथ सहस्रशः / / 47 अचलो वृषकश्चैव कर्णश्च रथिनां वरः। तेषु ते न्यवसन्राजन्ब्राह्मणा भृशसत्कृताः / ऋतः शल्यो मद्रराजो बाह्निकश्च महारथः // 7 कथयन्तः कथा बह्वीः पश्यन्तो नटनर्तकान् // 48 सोमदत्तोऽथ कौरव्यो भूरिभूरिश्रवाः शलः / भुञ्जतां चैव विप्राणां वदतां च महास्वनः / अश्वत्थामा कृपो द्रोणः सैन्धवश्व जयद्रथः // 8 अनिशं श्रूयते स्मात्र मुदितानां महात्मनाम् // 49 यज्ञसेनः सपुत्रश्च शाल्वश्च वसुधाधिपः / दीयतां दीयतामेषां भुज्यतां भुज्यतामिति / प्राग्ज्योतिषश्च नृपतिर्भगदत्तो महायशाः // 9 एवंप्रकाराः संजल्पाः श्रूयन्ते स्मात्र नित्यशः / / 50 / सह सर्वैस्तथा म्लेच्छैः सागरानूपवासिभिः / - 330 -
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________________ 2. 31. 10] सभापर्व [2. 32. 11 पार्वतीयाश्च राजानो राजा चैव बृहद्वलः // 10 तत्सदः पार्थिवैः कीर्णं ब्राह्मणैश्च महात्मभिः / पौण्डको वासुदेवश्च वङ्गः कालिङ्गकस्तथा / भ्राजते स्म तदा राजन्नाकपृष्ठमिवामरैः॥ 25 आकर्षः कुन्तलश्चैव वानवास्यान्ध्रकास्तथा // 11 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः॥३१॥ द्रविडाः सिंहलाश्चैव राजा काश्मीरकस्तथा / 32 कुन्तिभोजो महातेजाः सुमश्च सुमहाबलः / / 12 वैशंपायन उवाच / बाहिकाश्चापरे शरा राजानः सर्व एव ते / पितामहं गुरुं चैव प्रत्युद्गम्य युधिष्ठिरः / विराटः सह पुत्रैश्च माचेल्लश्च महारथः / अभिवाद्य ततो राजन्निदं वचनमब्रवीत् / राजानो राजपुत्राश्च नानाजनपदेश्वराः // 13 भीष्मं द्रोणं कृपं द्रौणिं दुर्योधनविविंशती // 1 शिशुपालो महावीर्यः सह पुत्रेण भारत / अस्मिन्यज्ञे भवन्तो मामनुगृह्णन्तु सर्वशः / आगच्छत्पाण्डवेयस्य यज्ञं संग्रामदुर्मदः // 14 इदं वः स्वमहं चैव यदिहास्ति धनं मम / रामश्चैवानिरुद्धश्च बभ्रुश्च सहसारणः / प्रीणयन्तु भवन्तो मां यथेष्टमनियन्त्रिताः // 2 गदप्रद्युम्नसाम्बाश्च चारुदेष्णश्च वीर्यवान् / / 15 एवमुक्त्वा स तान्सर्वान्दीक्षितः पाण्डवाग्रजः / उल्मुको निशठश्चैव वीरः प्राधुनिरेव च / युयोज ह यथायोगमधिकारेष्वनन्तरम् / / 3 वृष्णयो निखिलेनान्ये समाजग्मुर्महारथाः / / 16 भक्ष्यभोज्याधिकारेषु दुःशासनमयोजयत् / एते चान्ये च बहवो राजानो मध्यदेशजाः / परिग्रहे ब्राह्मणानामश्वत्थामानमुक्तवान् // 4 आजग्मुः पाण्डुपुत्रस्य राजसूयं महाक्रतुम् // 17 राज्ञां तु प्रतिपूजार्थं संजयं संन्ययोजयत् / ददुस्तेषामावसथान्धर्मराजस्य शासनात् / कृताकृतपरिज्ञाने भीष्मद्रोणी महामती // 5 बहुकक्ष्यान्वितान्राजन्दीर्घिकावृक्षशोभितान् / / 18 हिरण्यस्य सुवर्णस्य रत्नानां चान्ववेक्षणे / तथा धर्मात्मजस्तेषां चक्रे पूजामनुत्तमाम् / दक्षिणानां च वै दाने कृपं राजा न्ययोजयत् / सत्कृताश्च यथोद्दिष्टाञ्जग्मुरावसथान्नृपाः // 19 तथान्यान्पुरुषव्याघ्रांस्तस्मिंस्तस्मिन्न्ययोजयत् // 6 कैलासशिखरप्रख्यान्मनोज्ञान्द्रव्यभूषितान् / / बाह्निको धृतराष्टश्च सोमदत्तो जयद्रथः / सर्वतः संवृतानुच्चैः प्राकारैः सुकृतैः सितैः // 20 नकुलेन समानीताः स्वामिवत्तत्र रेमिरे // 7 सुवर्णजालसंवीतान्मणिकुट्टिमशोभितान् / क्षत्ता व्ययकरस्त्वासीद्विदुरः सर्वधर्मवित् / सुखारोहणसोपानान्महासनपरिच्छदान् // 21 दुर्योधनस्त्वर्हणानि प्रतिजग्राह सर्वशः // 8 स्रग्दामसमवच्छन्नानुत्तमागुरुगन्धिनः / सर्वलोकः समावृत्तः पिप्रीषुः फलमुत्तमम् / हंसांशुवर्णसदृशानायोजनसुदर्शनान / / 22 द्रष्टुकामः सभां चैव धर्मराजं च पाण्डवम् / / 9 असंबाधान्समद्वारान्युतानुच्चावचैर्गुणैः / / न कश्चिदाहरत्तत्र सहस्रावरमहणम् / बहुधातुपिनद्धाङ्गान्हिमवच्छिखरानिव / / 23 रत्नैश्च बहुभिस्तत्र धर्मराजमवर्धयन् // 10 विश्रान्तास्ते ततोऽपश्यन्भूमिपा भूरिदक्षिणम् / / कथं तु मम कौरव्यो रत्नदानैः समाप्नुयात् / वृतं सदस्यैबहुभिधर्मराज युधिष्ठिरम् / / 24 / यज्ञमित्येव राजानः स्पर्धमाना ददुर्धनम् // 11 -331 -
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________________ 2. 32. 12 ] महाभारते [2. 33. 21 भवनैः सविमानाप्रैः सोदकैबलसंवृतैः। विचिक्षिपुर्यथा श्येना नभोगतमिवामिषम् // 6 लोकराजविमानैश्च ब्राह्मणावसथैः सह / / 12 / केचिद्धर्मार्थसंयुक्ताः कथास्तत्र महाव्रताः / कृतैरावसथैर्दिव्यैर्विमानप्रतिमैस्तथा / रेमिरे कथयन्तश्च सर्ववेदविदां वराः / / 7 विचित्र रत्नवद्भिश्च ऋद्धथा परमया युतैः॥ 13 सा वेदिर्वेदसंपन्नैर्देवद्विजमहर्षिभिः / राजभिश्च समावृत्तैरतीवश्रीसमृद्धिभिः। आबभासे समाकीर्णा नक्षत्रैौरिवामला // 8 अशोभत सदो राजन्कौन्तेयस्य महात्मनः 14 न तस्यां संनिधौ शूदः कश्चिदासीन्न चाव्रतः / ऋद्धथा च वरुणं देवं स्पर्धमानो युधिष्ठिरः। अन्तर्वेद्यां तदा राजन्युधिष्ठिरनिवेशने // 9 षडग्निनाथ यज्ञेन सोऽयजद्दक्षिणावता / तां तु लक्ष्मीवतो लक्ष्मी तदा यज्ञविधानजाम् / सर्वाञ्जनान्सर्वकामैः समृद्धैः समतर्पयत् // 15 तुतोष नारदः पश्यन्धर्मराजस्य धीमतः // 10 अन्नवान्बहुभक्ष्यश्च भुक्तवजनसंवृतः / अथ चिन्तां समापेदे स मुनिर्मनुजाधिप / रत्नोपहारकर्मण्यो बभूव स समागमः / / 16 नारदस्तं तदा पश्यन्सर्वक्षत्रसमागमम् // 11 इडाज्यहोमाहुतिभिर्मशिक्षासमन्वितैः / सस्मार च पुरावृत्तां कथां तां भरतर्षभ / तस्मिन्हि ततृपुर्देवास्तते यज्ञे महर्षिभिः॥ 17 अंशावतरणे यासौ ब्रह्मणो भवनेऽभवत् // 12 यथा देवास्तथा विप्रा दक्षिणान्नमहाधनैः॥ देवानां संगमं तं तु विज्ञाय कुरुनन्दन / तत्पुः सर्ववर्णाश्च तस्मिन्यज्ञे मुदान्विताः // 18 नारदः पुण्डरीकाक्षं सस्मार मनसा हरिम् // 13 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः॥ 32 // साक्षात्स विबुधारिनः क्षत्रे नारायणो विभुः / / / समाप्तं राजसूयपर्व // प्रतिज्ञां पालयन्धीमाञ्जातः परपुरंजयः // 14 संदिदेश पुरा योऽसौ विबुधान्भूतकृत्स्वयम् / वैशंपायन उवाच / अन्योन्यमभिनिघ्नन्तः पुनर्लोकानवाप्स्यथ // 15 ततोऽभिषेचनीयेऽह्नि ब्राह्मणा राजभिः सह / इति नारायणः शंभुर्भगवाञ्जगतः प्रभुः / अन्तर्वेदी प्रविविशुः सत्कारार्थं महर्षयः // 1 आदिश्य विबुधान्सर्वानजायत यदुक्षये // 16 नारदप्रमुखास्तस्यामन्तवेद्यां महात्मनः। क्षितावन्धकवृष्णीनां वंशे वंशभृतां वरः / समासीनाः शुशुभिरे सह राजर्षिभिस्तदा // 2 परया शुशुभे लक्ष्म्या नक्षत्राणामिवोडुराट् // 17 समेता ब्रह्मभवने देवा देवर्षयो यथा / यस्य बाहुबलं सेन्द्राः सुराः सर्व उपासते / कर्मान्तरमुपासन्तो जजल्पुरमितौजसः // 3 सोऽयं मानुषवन्नाम हरिरास्तेऽरिमर्दनः // 18 इदमेवं न चाप्येवमेवमेतन्न चान्यथा। अहो बत महद्भूतं स्वयंभूर्यदिदं स्वयम् / इत्यूचुर्बहवस्तत्र वितण्डानाः परस्परम् // 4 आदास्यति पुनः क्षत्रमेवं बलसमन्वितम् // 19 कृशानांस्तथा केचिदकृशांस्तत्र कुर्वते / / इत्येतां नारदश्चिन्तां चिन्तयामास धर्मवित् / अकृशांश्च कृशांश्चक्रुर्हेतुभिः शास्त्रनिश्चितैः // 5 / हरि नारायणं ज्ञात्वा यज्ञरीड्यं तमीश्वरम् // 20 तत्र मेधाविनः केचिदर्थमन्यैः प्रपूरितम् / तस्मिन्धर्मविदां श्रेष्ठो धर्मराजस्य धीमतः। - 332 -
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________________ 2. 33. 21] सभापर्व [2. 34. 16 महाध्वरे महाबुद्धिस्तस्थौ स बहुमानतः // 21 / नायं युक्तः समाचारः पाण्डवेषु महात्मसु / ततो भीष्मोऽब्रवीद्राजन्धर्मराज युधिष्ठिरम् / / यत्कामात्पुण्डरीकाक्षं पाण्डवार्चितवानसि // 2 / क्रियतामहणं राज्ञां यथार्ह मिति भारत // 22 बाला यूयं न जानीध्वं धर्मः सूक्ष्मो हि पाण्डवाः। आचार्यमृत्विजं चैव संयुक्तं च युधिष्ठिर / अयं तत्राभ्यतिक्रान्त आपगेयोऽल्पदर्शनः // 3 स्नातकं च प्रियं चाहुः षडान्नृिपं तथा॥ 23 त्वादृशो धर्मयुक्तो हि कुर्वाणः प्रियकाम्यया। एताननिभिगतानाहुः संवत्सरोषितान् / भवत्यभ्यधिकं भीष्मो लोकेष्ववमतः सताम् / / 4 त इमे कालपूगस्य महतोऽस्मानुपागताः / / 24 कथं ह्यराजा दाशार्हो मध्ये सर्वमहीक्षिताम् / एषामेकैकशो राजन्नयमानीयतामिति / अर्हणामर्हति तथा यथा युष्माभिरर्चितः // 5 अथ चैषां वरिष्ठाय समर्थायोपनीयताम् // 25 अथ वा मन्यसे कृष्णं स्थविरं भरतर्षभ। युधिष्ठिर उवाच / वसुदेवे स्थिते वृद्धे कथमर्हति तत्सुतः // 6 कस्मै भवान्मन्यतेऽर्घमेकस्मै कुरुनन्दन / अथ वा वासुदेवोऽपि प्रियकामोऽनुवृत्तवान् / उपनीयमानं युक्तं च तन्मे ब्रूहि पितामह / / 26 द्रुपदे तिष्ठति कथं माधवोऽर्हति पूजनम् // 7 वैशंपायन उवाच / आचार्यं मन्यसे कृष्णमथ वा कुरुपुंगव / ततो भीष्मः शांतनवो बुद्ध्या निश्चित्य भारत / द्रोणे तिष्ठति वार्ष्णेयं कस्मादर्चितवानसि // 8 . वार्ष्णेयं मन्यते कृष्णमहणीयतमं भुवि / / 27 ऋत्विजं मन्यसे कृष्णमथ वा कुरुनन्दन। एष ह्येषां समेतानां तेजोबलपराक्रमैः / द्वैपायने स्थिते विप्रे कथं कृष्णोऽर्चितस्त्वया / / 9 मध्ये तपन्निवाभाति ज्योतिषामिव भास्करः // 28 नैव ऋत्विक चाचार्यो न राजा मधुसूदनः / असूर्यमिव सूर्येण निवातमिव वायुना / अर्चितश्च कुरुश्रेष्ठ किमन्यत्प्रियकाम्यया // 10 भासितं ह्रादितं चैव कृष्णेनेदं सदो हि नः / / 29 अथ वाप्यर्चनीयोऽयं युष्माकं मधुसूदनः / तस्मै भीष्माभ्यनुज्ञातः सहदेवः प्रतापवान् / किं राजभिरिहानीतैरवमानाय भारत // 11 उपजह्वेऽथ विधिवद्वानुयायाय॑मुत्तमम् / / 30 वयं तु न भयादस्य कौन्तेयस्य महात्मनः / प्रतिजग्राह तत्कृष्णः शास्त्रदृष्टेन कर्मणा / प्रयच्छामः करान्सर्वे न लोभान्न च सान्त्वनात् // 12 शिशुपालस्तु तां पूजां वासुदेवे न चक्षमे // 31 अस्य धर्मप्रवृत्तस्य पार्थिवत्वं चिकीर्षतः / स उपालभ्य भीष्मं च धर्मराजं च संसदि / करानस्मै प्रयच्छामः सोऽयमस्मान्न मन्यते // 13 अपाक्षिपद्वासुदेवं चेदिराजो महाबलः / / 32 किमन्यदवमानाद्धि यदिमं राजसंसदि / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः // 33 // अप्राप्तलक्षणं कृष्णमयेणार्चितवानसि // 14 अकस्माद्धर्मपुत्रस्य धर्मात्मेति यशो गतम् / .. शिशुपाल उवाच / को हि धर्मच्युते पूजामेवं युक्तां प्रयोजयेत् / नायमर्हति वार्ष्णेयस्तिष्ठत्स्विह महात्मसु / योऽयं वृष्णिकुले जातो राजानं हतवान्पुरा // 15 महीपतिषु कौरव्य राजवत्पार्थिवाहणम् // 1 - अद्य धर्मात्मता चैव व्यपकृष्टा युधिष्ठिरात् / - 333 -
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________________ 2. 34. 16] महाभारते [2. 35. 20 कृपणत्वं निविष्टं च कृष्णेऽय॑स्य निवेदनात्॥१६ लोकवृद्धतमे कृष्णे योऽर्हणां नानुमन्यते // 6 यदि भीताश्च कौन्तेयाः कृपणाश्च तपस्विनः / / क्षत्रियः क्षत्रियं जित्वा रणे रणकृतां वरः / ननु त्वयापि बोद्धव्यं यां पूजां माधवोऽर्हति // 17 यो मुश्चति वशे कृत्वा गुरुर्भवति तस्य सः॥७ अथ वा कृपणैरेतामुपनीतां जनार्दन / अस्यां च समितौ राज्ञामेकमप्यजितं युधि। पूजामनहः कस्मात्त्वमभ्यनुज्ञातवानसि // 18 न पश्यामि महीपालं सात्वतीपुत्रतेजसा // 8 अयुक्तामात्मनः पूजां त्वं पुनर्बहु मन्यसे / / न हि केवलमस्माकमयमर्च्यतमोऽच्युतः। . हविषः प्राप्य निष्यन्दं प्राशितुं श्वेव निर्जने // 19 त्रयाणामपि लोकानामर्चनीयो जनार्दनः // 9 न त्वयं पार्थिवेन्द्राणामवमानः प्रयुज्यते / कृष्णेन हि जिता युद्धे बहवः क्षत्रियर्षभाः। त्वामेव कुरवो व्यक्तं प्रलम्भन्ते जनार्दन // 20 / जगत्सर्वं च वाष्णेये निखिलेन प्रतिष्ठितम् // 10 क्लीबे दारक्रिया यादृगन्धे वा रूपदर्शनम् / तस्मात्सत्स्वपि वृद्धेषु कृष्णमर्चाम नेतरान् / अराज्ञो राजवत्पूजा तथा ते मधुसूदन // 21 एवं वक्तुं न चाहस्त्वं मा भूत्ते बुद्धिरीदृशी।। 11 दृष्टो युधिष्ठिरो राजा दृष्टो भीष्मश्च यादृशः / ज्ञानवृद्धा मया राजन्बहवः पर्युपासिताः / वासुदेवोऽप्ययं दृष्टः सर्वमेतद्यथातथम् // 22 तेषां कथयतां शौरेरहं गुणवतो गुणान् / इत्युक्त्वा शिशुपालस्तानुत्थाय परमासनात् / समागतानामश्रीषं बहून्बहुमतान्सताम् / / 12 निर्ययौ सदसस्तस्मात्सहितो राजभिस्तदा // 23 कर्माण्यपि च यान्यस्य जन्मप्रभृति धीमतः / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥ 34 // बहुशः कथ्यमानानि नरैर्भूयः श्रुतानि मे // 13 न केवलं वयं कामाचेदिराज जनार्दनम् / वैशंपायन उवाच / न संबन्धं पुरस्कृत्य कृतार्थं वा कथंचन / / 14 ततो युधिष्ठिरो राजा शिशुपालमुपाद्रवत् / अर्चामहेऽर्चितं सद्भिभुवि भौमसुखावहम् / उवाच चैनं मधुरं सान्त्वपूर्वमिदं वचः // 1 यशः शौर्यं जयं चास्य विज्ञायार्चा प्रयुज्महे // 15 नेदं युक्तं महीपाल यादृशं वै त्वमुक्तवान् / न हि कश्चिदिहास्माभिः सुबालोऽप्यपरीक्षितः / अधर्मश्च परो राजन्पारुष्यं च निरर्थकम् / / 2 गुणैवृद्धानतिक्रम्य हरिरर्यतमो मतः // 16 न हि धर्म परं जातु नाववुध्येत पार्थिव / ज्ञानवृद्धो द्विजातीनां क्षत्रियाणां बलाधिकः / भीष्मः शांतनवस्त्वेनं मावसंस्था अतोऽन्यथा // 3 पूज्ये ताविह गोविन्दे हेतू द्वावपि संस्थितौ // 17 पश्य चेमान्महीपालांस्त्वत्तो वृद्धतमान्बहून् / वेदवेदाङ्गविज्ञानं बलं चाप्यमितं तथा / मृष्यन्ते चार्हणां कृष्णे तद्वत्त्वं क्षन्तुमर्हसि / / 4 नृणां हि लोके कस्यास्ति विशिष्टं केशवादृते // 18 वेद तत्त्वेन कृष्णं हि भीष्मश्चेदिपते भृशम् / दानं दाक्ष्यं श्रुतं शौर्य ह्रीः कीर्तिबुद्धिरुत्तमा / न ह्येनं त्वं तथा वेत्थ यथैनं वेद कौरवः / / 5 संनतिः श्रीधृतिस्तुष्टिः पुष्टिश्च नियताच्युते // 19 भीष्म उवाच / तमिम सर्वसंपन्नमाचार्य पितरं गुरुम् / नास्मा अनुनयो देयो नायमर्हति सान्त्वनम् / अय॑मर्चितम_हं सर्वे संमन्तुमर्हथ // 20 -334
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________________ 2. 36. 21] सभापर्व [2. 37.3 ऋत्विग्गुरुर्विवाह्यश्च स्नातको नृपतिः प्रियः / / मानिनां बलिनां राज्ञां मध्ये संदर्शिते पदे // 5 सर्वमेतद्धृषीकेशे तस्मादभ्यर्चितोऽच्युतः // 21 / ततोऽपतत्पुष्पवृष्टिः सहदेवस्य मूर्धनि / कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाप्ययः / / अदृश्यरूपा वाचश्चाप्यब्रुवन्साधु साध्विति // 6 कृष्णस्य हि कृते भूतमिदं विश्वं समर्पितम् / / 22 / आविध्यदजिनं कृष्णं भविष्यद्भूतजल्पकः / एष प्रकृतिरव्यक्ता कर्ता चैव सनातनः / सर्वसंशयनिर्मोक्ता नारदः सर्वलोकवित् // 7 परश्च सर्वभूतेभ्यस्तस्माद्वृद्धतमोऽच्युतः // 23 / तत्राहूतागताः सर्वे सुनीथप्रमुखा गणाः। बुद्धिर्मनो महान्वायुस्तेजोऽम्भः खं मही च या / संप्रादृश्यन्त संक्रुद्धा विवर्णवदनास्तथा / / 8 चतुर्विधं च यद्भूतं सर्वं कृष्णे प्रतिष्ठितम् / / 24 युधिष्ठिराभिषेकं च वासुदेवस्य चाहणम् / आदित्यश्चन्द्रमाश्चैव नक्षत्राणि ग्रहाश्च ये। अब्रुवंस्तत्र राजानो निर्वेदादात्मनिश्चयात् // 9 दिशश्वोपदिशश्चैव सर्वं कृष्णे प्रतिष्ठितम् / / 25 सुहृद्भिर्वार्यमाणानां तेषां हि वपुराबभौ / अयं तु पुरुषो बालः शिशुपालो न बुध्यते। आमिषादपकृष्टानां सिंहानामिव गर्जताम् // 10 सर्वत्र सर्वदा कृष्णं तस्मादेवं प्रभाषते // 26 तं बलौघमपर्यन्तं राजसागरमक्षयम् / यो हि धर्म विचिनुयादुत्कृष्टं मतिमान्नरः। कुर्वाणं समयं कृष्णो युद्धाय बुबुधे तदा // 11 स वै पश्येद्यथाधर्मं न तथा चेदिराडयम् // 27 पूजयित्वा तु पूजाहं ब्रह्मक्षत्रं विशेषतः / सवृद्धबालेष्वथ वा पार्थिवेषु महात्मसु / सहदेवो नृणां देवः समापयत कर्म तत् // 12 को नार्ह मन्यते कृष्णं को वाप्येनं न पूजयेत्॥२८ तस्मिन्नभ्यर्चिते कृष्ण सुनीथः शत्रुकर्षणः / / अथेमां दुष्कृतां पूजां शिशुपालो व्यवस्यति / अतिताप्रेक्षणः कोपादुवाच मनुजाधिपान् // 13 दुष्कृतायां यथान्यायं तथायं कर्तुमर्हति // 29 स्थितः सेनापतिवोऽहं मन्यध्वं किं नु सांप्रतम् / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः // 35 // युधि तिष्ठाम संनह्य समेतान्वृष्णिपाण्डवान् // 14 इति सर्वान्समुत्साह्य राजस्तांश्चेदिपुंगवः / वैशंपायन उवाच / यज्ञोपघाताय ततः सोऽमत्रयत राजभिः // 15 एवमुक्त्वा ततो भीष्मो विरराम महायशाः / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि पत्रिंशोऽध्यायः॥३६॥ व्याजहारोत्तरं तत्र सहदेवोऽर्थवद्वचः // 1 // समाप्तम/भिहरणपर्व // केशवं केशिहन्तारमप्रमेयपराक्रमम् / पूज्यमानं मया यो वः कृष्णं न सहते नृपाः // 2 वैशंपायन उवाच / सर्वेषां बलिनां मूर्ध्नि मयेदं निहितं पदम् / ततः सागरसंकाशं दृष्ट्वा नृपतिसागरम् / एवमुक्ते मया सम्यगुत्तरं प्रब्रवीतु सः // 3 रोषात्प्रचलितं सर्वमिदमाह युधिष्ठिरः // 1 मतिमन्तस्तु ये केचिदाचार्यं पितरं गुरुम् / भीष्मं मतिमतां श्रेष्ठं वृद्धं कुरुपितामहम् / अय॑मर्चितमर्चार्हमनुजानन्तु ते नृपाः / / 4 बृहस्पतिं बृहत्तेजाः पुरहूत इवारिहा / / 2 ततो न व्याजहारैषां कश्चिद्बुद्धिमतां सताम् / असौ रोषात्प्रचलितो महान्नृपतिसागरः। - 335 -
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________________ 2. 37. 3] महाभारते [2. 38. 16 अत्र यत्प्रतिपत्तव्यं तन्मे ब्रूहि पितामह // 3 युक्तमेतत्तृतीयायां प्रकृतौ वर्तता त्वया / यज्ञस्य च न विघ्नः स्यात्प्रजानां च शिवं भवेत् / / वक्तुं धर्मादपेतार्थं त्वं हि सर्वकुरूत्तमः / / 2 यथा सर्वत्र तत्सर्वं ब्रूहि मेऽद्य पितामह // 4 नावि नारिव संबद्धा यथान्धो वान्धमन्वियात् / इत्युक्तवति धर्मज्ञे धर्मराजे युधिष्ठिरे / तथाभूता हि कौरव्या भीष्म येषां त्वमग्रणीः // 3 उवाचेदं वचो भीष्मस्ततः कुरुपितामहः // 5 पूतनाघातपूर्वाणि कर्माण्यस्य विशेषतः। मा भैस्त्वं कुरुशार्दूल श्वा सिंहं हन्तुमर्हति / त्वया कीर्तयतास्माकं भूयः प्रच्यावितं मनः // 4 शिवः पन्थाः सुनीतोऽत्र मया पूर्वतरं वृतः॥ 6 अवलिप्तस्य मूर्खस्य केशवं स्तोतुमिच्छतः / प्रसुप्ते हि यथा सिंहे श्वानस्तत्र समागताः / कथं भीष्म न ते जिह्वा शतधेयं विदीर्यते // 5 भषेयुः सहिताः सर्वे तथेमे वसुधाधिपाः // 7 यत्र कुत्सा प्रयोक्तव्या भीष्म बालतरैनरैः। वृष्णिसिंहस्य सुप्तस्य तथेमे प्रमुखे स्थिताः / तमिमं ज्ञानवृद्धः सन्गोपं संस्तोतुमिच्छसि / / 6 भषन्ते तात संक्रुद्धाः श्वानः सिंहस्य संनिधौ // 8 यद्यनेन हता बाल्ये शकुनिश्चित्रमत्र किम् / न हि संबुध्यते तावत्सुप्तः सिंह इवाच्युतः / तौ वाश्ववृषभौ भीष्म यौ न युद्धविशारदौ // 7 तेन सिंहीकरोत्येतान्नृसिंहश्चेदिपुंगवः // 9 चेतनारहितं काष्ठं यद्यनेन निपातितम् / पार्थिवान्पार्थिवश्रेष्ठ शिशुपालोऽल्पचेतनः।। पादेन शकटं भीष्म तत्र किं कृतमद्भुतम् // 8 सर्वान्सर्वात्मना तात नेतुकामो यमक्षयम् // 10 वल्मीकमात्रः सप्ताहं यद्यनेन तोऽचलः / नूनमेतत्समादातुं पुनरिच्छत्यधोक्षजः / तदा गोवर्धनो भीष्म न तच्चित्रं मतं मम // 9 यदस्य शिशुपालस्थं तेजस्तिष्ठति भारत // 11 / / भुक्तमेतेन बह्वन्नं क्रीडता,नगमूर्धनि / विप्लुता चास्य भद्रं ते बुद्धिबुद्धिमतां वर / इति ते भीष्म शृण्वानाः परं विस्मयमागताः // 10 चेदिराजस्य कौन्तेय सर्वेषां च महीक्षिताम् // 12 यस्य चानेन धर्मज्ञ भुक्तमन्नं बलीयसः / आदातुं हि नरव्याघ्रो यं यमिच्छत्ययं यदा / स चानेन हतः कंस इत्येतन्न महामृतम् // 11 तस्य विप्लवते बुद्धिरेवं चेदिपतेर्यथा // 13 न ते श्रुतमिदं भीष्म ननं कथयतां सताम। चतुर्विधानां भूतानां त्रिषु लोकेषु माधवः / यद्वक्ष्ये त्वामधर्मज्ञ वाक्यं कुरुकुलाधम / / 12 प्रभवश्चैव सर्वेषां निधनं च युधिष्ठिर // 14 स्त्रीषु गोषु न शस्त्राणि पातयेद्ब्राह्मणेषु च / इति तस्य वचः श्रुत्वा ततश्चेदिपतिर्नृपः / यस्य चान्नानि भुञ्जीत यश्च स्याच्छरणागतः / / 13 भीष्मं रूक्षाक्षरा वाचः श्रावयामास भारत / / 15 इति सन्तोऽनुशासन्ति सज्जना धर्मिणः सदा। इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः // 37 // भीष्म लोके हि तत्सर्वं वितथं त्वयि दृश्यते // 14 38 ज्ञानवृद्धं च वृद्धं च भूयांसं केशवं मम / शिशुपाल उवाच / अजानत इवाख्यासि संस्तुवन्कुरुसत्तम / विभीषिकाभिर्बह्वीभिर्भाषयन्सर्वपार्थिवान् / गोन्नः स्त्रीनश्च सन्भीष्म कथं संस्तवमर्हति // 15 न व्यपत्रपसे कस्माद्वृद्धः सन्कुलपांसनः // 1 / असौ मतिमतां श्रेष्ठो य एष जगतः प्रभुः / - 836 -
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________________ 2. 38. 16 ] सभापर्व [2. 39. 4 संभावयति यद्येवं त्वद्वाक्याच्च जनार्दनः / धर्मं चरत माधर्ममिति तस्य वचः किल / एवमेतत्सर्वमिति सर्व तद्वितथं ध्रुवम् / / 16 पक्षिणः शुश्रुवुर्भीष्म सततं धर्मवादिनः / / 31 न गाथा गाथिनं शास्ति बहु चेदपि गायति / अथास्य भक्ष्यमाजगुः समुद्रजलचारिणः / प्रकृतिं यान्ति भूतानि भूलिङ्गशकुनिर्यथा // 17 अण्डजा भीष्म तस्यान्ये धर्मार्थमिति शुश्रुम // 32 नूनं प्रकृतिरेषा ते जघन्या नात्र संशयः / तस्य चैव समभ्याशे निक्षिप्याण्डानि सर्वशः / अतः पापीयसी चैषां पाण्डवानामपीष्यते / / 18 समुद्राम्भस्यमोदन्त चरन्तो भीष्म पक्षिणः // 33 येषामच॑तमः कृष्णस्त्वं च येषां प्रदर्शकः / तेषामण्डानि सर्वेषां भक्षयामास पापकृत् / धर्मवाक्त्वमधर्मज्ञः सतां मार्गादवप्लुतः / / 19 स हंसः संप्रमत्तानामप्रमत्तः स्वकर्मणि / / 34 को हि धर्मिणमात्मानं जानज्ञानवतां वरः। ततः प्रक्षीयमाणेषु तेष्वण्डेष्वण्डजोऽपरः / कुर्याद्यथा त्वया भीष्म कृतं धर्ममवेक्षता // 20 अशङ्कत महाप्राज्ञस्तं कदाचिद्ददर्श ह // 35 अन्यकामा हि धर्मज्ञ कन्यका प्राज्ञमानिना। ततः स कथयामास दृष्ट्वा हंसस्य किल्बिषम् / अम्बा नामेति भद्रं ते कथं सापहृता त्वया // 21 / तेषां परमदुःखार्तः स पक्षी सर्वपक्षिणाम् / / 36 यां त्वयापहृतां भीष्म कन्यां नैषितवान्नपः। ततः प्रत्यक्षतो दृष्ट्वा पक्षिणस्ते समागताः। भ्राता विचित्रवीर्यस्ते सतां वृत्तमनुष्ठितः / / 22 निजघ्नुस्तं तदा हंस मिथ्यावृत्तं कुरूद्वह // 37 दारयोर्यस्य चान्येन मिषतः प्राज्ञमानिनः। ते त्वां हंससधर्माणमपीमे वसुधाधिपाः / तव जातान्यपत्यानि सज्जनाचरिते पथि / / 23 निहन्युर्भीष्म संक्रुद्धाः पक्षिणस्तमिवाण्डजम् // 38 न हि धर्मोऽस्ति ते भीष्म ब्रह्मचर्यमिदं वृथा। गाथामप्यत्र गायन्ति ये पुराणविदो जनाः / यद्धारयसि मोहाद्वा क्लीबत्वाद्वा न संशयः / / 24 भीष्म यां तां च ते सम्यक्कथयिष्यामि भारत // 39 न त्वहं तव धर्मज्ञ पश्याम्युपचयं क्वचित् / अन्तरात्मनि विनिहिते रौषि पत्ररथ वितथम् / न हि ते सेविता वृद्धा य एवं धर्ममब्रुवन् // 25 अण्डभक्षणमशुचि ते कर्म वाचमतिशयते // 40 इष्टं दत्तमधीतं च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अष्टत्रिंशोऽध्यायः॥३८॥ सर्वमेतदपत्यस्य कलां नार्हति षोडशीम् // 26 / व्रतोपवासैर्बहुभिः कृतं भवति भीष्म यत् / शिशुपाल उवाच / सर्व तदनपत्यस्य मोघं भवति निश्चयात् // 27 स मे बहुमतो राजा जरासंधो महाबलः / सोऽनपत्यश्च वृद्धश्च मिथ्याधर्मानुशासनात् / योऽनेन यद्धं नेयेष दासोऽयमिति संयुगे // 1 हंसवत्त्वमपीदानीं ज्ञातिभ्यः प्राप्नुया वधम् // 28 केशवेन कृतं यत्तु जरासंधवधे तदा / एवं हि कथयन्त्यन्ये नरा ज्ञानविदः पुरा। भीमसेनार्जुनाभ्यां च कस्तत्साध्विति मन्यते // 2 भीष्म यत्तदहं सम्यग्वक्ष्यामि तव शृण्वतः // 29 अद्वारेण प्रविष्टेन छद्मना ब्रह्मवादिना / वृद्धः किल समुद्रान्ते कश्चिद्धंसोऽभवत्पुरा / दृष्टः प्रभावः कृष्णेन जरासंधस्य धीमतः॥३ दृष्टः प्रभावः 10 धर्मवागन्यथावृत्तः पक्षिणः सोऽनुशास्ति ह // 30 येन धर्मात्मनात्मानं ब्रह्मण्यमभिजानता। म. भा. 43 - - 337 -
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________________ 2. 39. 4] महाभारते [2. 40. 11 नैषितं पाद्यमस्मै तद्दातुमने दुरात्मने // 4 मुश्चैनं भीष्म पश्यन्तु यावदेनं नराधिपाः / भुज्यतामिति तेनोक्ताः कृष्णभीमधनंजयाः। मत्प्रतापाग्निनिर्दग्धं पतंगमिव वह्निना // 19 जरासंधेन कौरव्य कृष्णेन विकृतं कृतम् // 5 ततश्चेदिपतेर्वाक्यं तच्छ्रुत्वा कुरुसत्तमः / यद्ययं जगतः कर्ता यथैनं मूर्ख मन्यसे। भीमसेनमुवाचेदं भीष्मो मतिमतां वरः // 20 कस्मान्न ब्राह्मणं सम्यगात्मानमवगच्छति // 6 / इति सभापर्वणि महाभारते इदं त्वाश्चर्यभूतं मे यदिमे पाण्डवास्त्वया। एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः // 39 // अपकृष्टाः सतां मार्गान्मन्यन्ते तच्च साध्विति // 7 40 अथ वा नैतदाश्चर्यं येषां त्वमसि भारत / भीष्म उवाच। स्त्रीसधर्मा च वृद्धश्च सर्वार्थानां प्रदर्शकः // 8 / चेदिराजकुले जातरुयक्ष एष चतुर्भुजः। / वैशंपायन उवाच। रासभारावसदृशं रुराव च ननाद च // 1 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा रूक्षं रूक्षाक्षरं बहु / तेनास्य मातापितरौ ऽसतुस्तौ सबान्धवौ / चुकोप बलिनां श्रेष्ठो भीमसेनः प्रतापवान् // 9 वैकृतं तच्च तौ दृष्ट्वा त्यागाय कुरुतां मतिम् // 2 तस्य पद्मप्रतीकाशे स्वभावायतविस्तृते। ततः सभार्यं नृपतिं सामात्यं सपुरोहितम् / भूयः क्रोधाभिताम्रान्ते रक्ते नेत्रे बभूवतुः // 10 चिन्तासंमूढहृदयं वागुवाचाशरीरिणी॥३ त्रिशिखां भृकुटी चास्य ददृशुः सर्वपार्थिवाः / एष ते नृपते पुत्रः श्रीमाञ्जातो महाबलः / ललाटस्थां त्रिकूटस्थां गङ्गां त्रिपथगामिव // 11 तस्मादस्मान्न भेतव्यमव्यग्रः पाहि वै शिशुम् // 4 दन्तान्संदशतस्तस्य कोपाददृशुराननम् / न चैवैतस्य मृत्युस्त्वं न कालः प्रत्युपस्थितः / युगान्ते सर्वभूतानि कालस्येव दिधक्षतः॥ 12 मृत्युहन्तास्य शस्त्रेण स चोत्पन्नो नराधिप // 5 उत्पतन्तं तु वेगेन जग्राहैनं मनस्विनम् / संश्रुत्योदाहृतं वाक्यं भूतमन्तर्हितं ततः / भीष्म एव महाबाहुर्महासेनमिवेश्वरः // 13 पुत्रस्नेहाभिसंतप्ता जननी वाक्यमब्रवीत् // 6 तस्य भीमस्य भीष्मेण वार्यमाणस्य भारत / येनेदमीरितं वाक्यं ममैव तनयं प्रति / गुरुणा विविधैर्वाक्यैः क्रोधः प्रशममागतः // 14 प्राञ्जलिस्तं नमस्यामि ब्रवीतु स पुनर्वचः॥७ नातिचक्राम भीष्मस्य स हि वाक्यमरिंदमः / श्रोतुमिच्छामि पुत्रस्य कोऽस्य मृत्युभविष्यति / समुद्भूतो घनापाये वेलामिव महोदधिः // 15 अन्तर्हितं ततो भूतमुवाचेदं पुनर्वचः॥ 8 शिशुपालस्तु संक्रुद्धे भीमसेने नराधिप / येनोत्सङ्गे गृहीतस्य भुजावभ्यधिकावुभौ / नाकम्पत तदा वीरः पौरुषे स्वे व्यवस्थितः // 16 पतिष्यतः क्षितितले पञ्चशीर्षा विवोरगौ // 9 उत्पतन्तं तु वेगेन पुनः पुनररिंदमः / तृतीयमेतद्वालस्य ललाटस्थं च लोचनम् / न स तं चिन्तयामास सिंहः क्षुद्रमृगं यथा // 17 / निमजिष्यति यं दृष्ट्वा सोऽस्य मृत्युभविष्यति // 10 प्रहसंश्चाब्रवीद्वाक्यं चेदिराजः प्रतापवान् / | व्यक्षं चतुर्भजं श्रुत्वा तथा च समुदाहृतम् / / भीमसेनमतिक्रुद्धं दृष्ट्वा भीमपराक्रमम् // 18 / धरण्यां पार्थिवाः सर्वे अभ्यगच्छन्दिदृक्षवः॥ 11 -338 -
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________________ 2. 40. 12] समापर्व [2. 41. 15 तान्पूजयित्वा संप्राप्तान्यथाहँ स महीपतिः / नूनमेष जगद्भर्तुः कृष्णस्यैव विनिश्चयः // 1 एकैकस्य नृपस्याङ्के पुत्रमारोपयत्तदा // 12 को हि मां भीमसेनाद्य क्षितावर्हति पार्थिवः / एवं राजसहस्राणां पृथक्त्वे न यथाक्रमम् / क्षेप्तुं दैवपरीतात्मा यथैष कुलपांसनः / / 2 शिशुरके समारूढो न तत्प्राप निदर्शनम् // 13 एष ह्यस्य महाबाहो तेजोंशश्च हरेवुवम् / ततश्चेदिपुरं प्राप्ती संकर्षणजनार्दनौ। . तमेव पुनरादातुमिच्छत्पृथुयशा हरिः॥३ यादवौ यादवीं द्रष्टुं स्वसारं तां पितुस्तदा // 14 येनैष कुरुशार्दूल शार्दूल इव चेदिराट् / अभिवाद्य यथान्यायं यथाज्येष्ठं नृपांश्च तान् / गर्जत्यतीव दुर्बुद्धिः सर्वानस्मानचिन्तयन् // 4 कुशलानामयं पृष्ट्वा निषण्णौ रामकेशवौ // 15 वैशंपायन उवाच / अभ्यर्चितौ तदा वीरौ प्रीत्या चाभ्यधिकं ततः / ततो न ममृषे चैद्यस्तद्भीष्मवचनं तदा / पुत्रं दामोदरोत्सङ्गे देवी संन्यदधात्स्वयम् // 16 उवाच चैनं संक्रुद्धः पुनर्भीष्ममथोत्तरम् // 5 न्यस्तमात्रस्य तस्याङ्के भुजावभ्यधिकावुभौ / शिशुपाल उवाच। पेततुस्तच्च नयनं निममज ललाटजम् // 17 द्विषतां नोऽस्तु भीष्मैष प्रभावः केशवस्य यः / तदृष्ट्वा व्यथिता त्रस्ता वरं कृष्णमयाचत / यस्य संस्तववक्ता त्वं बन्दिवत्सततोत्थितः // 6 ददख मे वरं कृष्ण भयार्ताया महाभुज // 18 संस्तवाय मनो भीष्म परेषां रमते सदा। त्वं ह्यार्तानां समाश्वासो भीतानामभयंकरः / यदि संस्तौषि राज्ञस्त्वमिमं हित्वा जनार्दनम् // 7 पितृष्वसारं मा भैषीरित्युवाच जनार्दनः / / 19 दरदं स्तुहि बाह्रीकमिमं पार्थिवसत्तमम् / ददानि कं वरं किं वा करवाणि पितृष्वसः / जायमानेन येनेयमभवदारिता मही / / 8 शक्यं वा यदि वाशक्यं करिष्यामि वचस्तव // 20 वङ्गाङ्गविषयाध्यक्षं सहस्राक्षसमं बले। एवमुक्ता ततः कृष्णमब्रवीद्यदुनन्दनम् / स्तुहि कर्णमिमं भीष्म महाचापविकर्षणम् // 9 शिशुपालस्यापराधान्क्षमेथास्त्वं महाबल // 21 द्रोणं द्रौणिं च साधु त्वं पितापुत्रौ महारथौ। कृष्ण उवाच / स्तुहि स्तुत्याविमौ भीष्म सततं द्विजसत्तमौ // 10 अपराधशतं क्षाम्यं मया ह्यस्य पितृष्वसः / ययोरन्यतरो भीष्म संक्रुद्धः सचराचराम् / पुत्रस्य ते वधार्हाणां मा त्वं शोके मनः कृथाः।।२२ इमां वसुमती कुर्यादशेषामिति मे मतिः // 11 __ भीष्म उवाच / द्रोणस्य हि समं युद्धे न पश्यामि नराधिपम् / एवमेष नृपः पापः शिशुपालः सुमन्दधीः / अश्वत्थाम्नस्तथा भीष्म न चैतौ स्तोतुमिच्छसि // 12 त्वां समाह्वयते वीर गोविन्दवरदर्पितः // 23 शल्यादीनपि कस्मात्त्वं न स्तौषि वसुधाधिपान् / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि चत्वारिंशोऽध्यायः // 40 // स्तवाय यदि ते बुद्धिवर्तते भीष्म सर्वदा // 13 41 किं हि शक्यं मया कर्तुं यद्वृद्धानां त्वया नृप / भीष्म उवाच / पुरा कथयतां नूनं न श्रुतं धर्मवादिनाम् // 14 नैषा चेदिपतेबुद्धिर्यया त्वाह्वयतेऽच्युतम् / आत्मनिन्दात्मपूजा च परनिन्दा परस्तवः / - 339 -
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________________ 2. 41. 15] महाभारते [2. 42.9 अनाचरितमार्याणां वृत्तमेतच्चतुर्विधम् // 15 उक्तस्योक्तस्य नेहान्तमहं समुपलक्षये / यदस्तव्यमिमं शश्वमोहात्संस्तौषि भक्तितः / यत्तु वक्ष्यामि तत्सर्वं शृणुध्वं वसुधाधिपाः // 30 केशवं तच्च ते भीष्म न कश्चिदनुमन्यते // 16 पशुवद्वातनं वा मे दहनं वा कटाग्निना / कथं भोजस्य पुरुषे वर्गपाले दुरात्मनि / क्रियतां मूर्ध्नि वो न्यस्तं मयेदं सकलं पदम् // 31 समावेशयसे सर्वं जगत्केवलकाम्यया // 17 एष तिष्ठति गोविन्दः पूजितोऽस्माभिरच्युतः / अथ वैषा न ते भक्तिः प्रकृतिं याति भारत / यस्य वस्त्वरते बुद्धिर्मरणाय स माधवम् // 32 मयैव कथितं पूर्वं भूलिङ्गशकुनिर्यथा // 18 कृष्णमाह्वयतामद्य युद्धे शार्ङ्गगदाधरम् / भूलिङ्गशकुनि म पार्श्वे हिमवतः परे / यावदस्यैव देवस्य देहं विशतु पातितः // 33 भीष्म तस्याः सदा वाचः श्रूयन्तेऽर्थविगर्हिताः॥१९ / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि मा साहसमितीदं सा सततं वाशते किल / एकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥ साहसं चात्मनातीव चरन्ती नावबुध्यते // 20 सा हि मांसागलं भीष्म मुखात्सिंहस्य खादतः वैशंपायन उवाच। दन्तान्तरविलग्नं यत्तदादत्तेऽल्पचेतना // 21 ततः श्रुत्वैव भीष्मस्य चेदिराडुरुविक्रमः। इच्छतः सा हि सिंहस्य भीष्म जीवत्यसंशयम् / / युयुत्सुर्वासुदेवेन वासुदेवमुवाच ह // 1 // तद्वत्त्वमप्यधर्मज्ञ सदा वाचः प्रभाषसे // 22 आह्वये त्वां रणं गच्छ मया साधं जनार्दन। .. इच्छतां पार्थिवेन्द्राणां भीष्म जीवस्यसंशयम् / यावदद्य निहन्मि त्वां सहितं सर्वपाण्डवैः // 2 लोकविद्विष्टकर्मा हि नान्योऽस्ति भवता समः 23 सह त्वया हि मे वध्याः पाण्डवाः कृष्ण सर्वथा / वैशंपायन उवाच नृपतीन्समतिक्रम्य यैरराजा त्वमर्चितः // 3 .. ततश्चेदिपतेः श्रुत्वा भीष्मः स कटुकं वचः / ये त्वां दासमराजानं बाल्यादर्चन्ति दुर्मतिम् / उवाचेदं वचो राजंश्चेदिराजस्य शृण्वतः / / 24 अनर्हमर्हवत्कृष्ण वध्यास्त इति मे मतिः / इच्छतां किल नामाहं जीवाम्येषां महीक्षिताम् / इत्युक्त्वा राजशार्दूलस्तस्थौ गर्जन्नमर्षणः // 4 योऽहं न गणयाम्येतांस्तृणानीव नराधिपान् // 25 एवमुक्ते ततः कृष्णो मृदुपूर्वमिदं वचः। एवमुक्ते तु भीष्मेण ततः संचुक्रधुनृपाः / उवाच पार्थिवान्सर्वांस्तत्समक्षं च पाण्डवान् // 5 केचिजहृषिरे तत्र केचिद्भीष्मं जगर्हिरे // 26 एष नः शत्रुरत्यन्तं पार्थिवाः सात्वतीसुतः / केचिदूचुर्महेष्वासाः श्रुत्वा भीष्मस्य तद्वचः / सात्वतानां नृशंसात्मा न हितोऽनपकारिणाम् // 6 पापोऽवलिप्तो वृद्धश्च नायं भीष्मोऽर्हति क्षमाम्॥ प्राग्ज्योतिषपुरं यातानस्माज्ञात्वा नृशंसकृत् / हन्यतां दुर्मतिर्भीष्मः पशुवत्साध्वयं नृपः।। अदहहारकामेष स्वस्रीयः सन्नराधिपाः // 7 सर्वैः समेत्य संरब्धैर्दह्यतां वा कटाग्निना // 28 / क्रीडतो भोजराजन्यानेष रैवतके गिरौ / इति तेषां वचः श्रुत्वा ततः कुरुपितामहः। हत्वा बद्धा च तान्सर्वानुपायात्स्वपुरं पुरा // 8 उवाच मतिमान्भीष्मस्तानेव वसुधाधिपान् // 29 - अश्वमेधे हयं मेध्यमुत्सृष्टं रक्षिभिर्वृतम् / -340 -
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________________ 2. 42. 9] सभापर्व [2. 42. 37 पितुर्मे यज्ञविघ्नार्थमहरत्पापनिश्चयः // 9 तदद्भुतममन्यन्त दृष्ट्वा सर्वे महीक्षितः / सौवीरान्प्रतिपत्तौ च बभ्रोरेष यशस्विनः / यद्विवेश महाबाहुं तत्तेजः पुरुषोत्तमम् // 24 भार्यामभ्यहरन्मोहादकामां तामितो गताम् // 10 अनभ्रे प्रववर्ष द्यौः पपात ज्वलिताशनिः / एष मायाप्रतिच्छन्नः करूषार्थे तपस्विनीम् / कृष्णेन निहते चैद्ये चचाल च वसुंधरा / / 25 जहार भद्रां वैशाली मातुलस्य नृशंसकृत् / / 11 / ततः केचिन्महीपाला नाब्रुवंस्तत्र किंचन। पितृष्वसुः कृते दुःखं सुमहन्मर्षयाम्यहम्।। अतीतवाक्पथे काले प्रेक्षमाणा जनार्दनम् // 26 दिष्ट्या त्विदं सर्वराज्ञां संनिधावद्य वर्तते // 1 हस्तैर्हस्ताग्रमपरे प्रत्यपीपन्नमर्षिताः / पश्यन्ति हि भवन्तोऽद्य मय्यतीव व्यतिक्रमम् / अपरे दशनैरोष्ठानदशन्क्रोधमूर्छिताः // 27 कृतानि तु परोक्षं मे यानि तानि निबोधत // 13 रहस्तु केचिद्वार्ष्णेयं प्रशशंसुर्नराधिपाः / इमं त्वस्य न शक्ष्यामि क्षन्तुमद्य व्यतिक्रमम् / केचिदेव तु संरब्धा मध्यस्थास्त्वपरेऽभवन् // 28 अवलेपाद्वधार्हस्य समग्रे राजमण्डले // 14 प्रहृष्टाः केशवं जग्मुः संस्तुवन्तो महर्षयः / रुक्मिण्यामस्य मूढस्य प्रार्थनासीन्मुमूर्षतः / ब्राह्मणाश्च महात्मानः पार्थिवाश्च महाबलाः // 29 न च तां प्राप्तवान्मूढः शूद्रो वेदश्रुतिं यथा // 15 पाण्डवस्त्वब्रवीद्धातॄन्सत्कारेण महीपतिम् / एवमादि ततः सर्वे सहितास्ते नराधिपाः / दमघोषात्मजं वीरं संसाधयत माचिरम् / वासुदेववचः श्रुत्वा चेदिराजं व्यगर्हयन् / / 16 तथा च कृतवन्तस्ते भ्रातुर्वै शासनं तदा // 30 ततस्तद्वचनं श्रुत्वा शिशुपालः प्रतापवान् / चेदीनामाधिपत्ये च पुत्रमस्य महीपतिम् / जहास स्वनवद्धासं प्रहस्येदमुवाच ह / / 17 अभ्यषिश्चत्तदा पार्थः सह तैर्वसुधाधिपैः // 31 मत्पूर्वी रुक्मिणी कृष्ण संसत्सु परिकीर्तयन्। ततः स कुरुराजस्य क्रतुः सर्वसमृद्धिमान् / विशेषतः पार्थिवेषु व्रीडां न कुरुषे कथम् / / 18 यूनां प्रीतिकरो राजन्संबभी विपुलौजसः // 32 मन्यमानो हि कः सत्सु पुरुषः परिकीर्तयेत् / शान्तविघ्नः सुखारम्भः प्रभूतधनधान्यवान् / अन्यपूर्वां स्त्रियं जातु त्वदन्यो मधुसूदन / / 19 अन्नवान्बहुभक्ष्यश्च केशवेन सुरक्षितः।। 33 क्षम वा यदि ते श्रद्धा मा वा कृष्ण मम क्षम / समापयामास च तं राजसूयं महाक्रतुम् / क्रुद्धाद्वापि प्रसन्नाद्वा किं मे त्वत्तो भविष्यति // 20 तं तु यज्ञं महाबाहुरा समाप्तेजनार्दनः / तथा ब्रुवत एवास्य भगवान्मधुसूदनः / ररक्ष भगवाशौरिः शार्ङ्गचक्रगदाधरः // 34 व्यपाहरच्छिरः क्रुद्धश्चक्रेणामित्रकर्षणः / ततस्त्ववभृथस्नातं धर्मराज युधिष्ठिरम् / स पपात महाबाहुर्वजाहत इवाचलः // 21 समस्तं पार्थिवं क्षत्रमभिगम्येदमब्रवीत् // 35 ततश्चेदिपतेदेहात्तेजोऽयं ददृशुर्नृपाः। दिष्ट्या वर्धसि धर्मज्ञ साम्राज्यं प्राप्तवान्विभो / उत्पतन्तं महाराज गगनादिव भास्करम् // 22 आजमीढाजमीढानां यशः संवर्धितं त्वया / ततः कमलपत्राक्षं कृष्णं लोकनमस्कृतम् / कर्मणैतेन राजेन्द्र धर्मश्च सुमहान्कृतः // 36 ववन्दे तत्तदा तेजो विवेश च नराधिप / / 23 | आपृच्छामो नरव्याघ्र सर्वकामैः सुपूजिताः / -341 -
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________________ 2. 42. 37] महाभारते [2. 43.2 स्वराष्ट्राणि गमिष्यामस्तदनुज्ञातुमर्हसि // 37 अनुज्ञातस्त्वया चाहं द्वारकां गन्तुमुत्सहे / श्रुत्वा तु वचनं राज्ञां धर्मराजो युधिष्ठिरः / सुभद्रां द्रौपदी चैव सभाजयत केशवः // 52 यथार्ह पूज्य नृपतीन्भ्रातॄन्सर्वानुवाच ह // 38 निष्क्रम्यान्तःपुराच्चैव युधिष्ठिरसहायवान् / राजानः सर्व एवैते प्रीत्यास्मान्समुपागताः / स्नातश्च कृतजप्यश्च ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च // 53 प्रस्थिताः स्वानि राष्ट्राणि मामापृच्छय परंतपाः / ततो मेघवरप्रख्यं स्यन्दनं वै सुकल्पितम्। . तेऽनुव्रजत भद्रं वो विषयान्तं नृपोत्तमान् // 39 योजयित्वा महाराज दारुकः प्रत्युपस्थितः / / 54 भ्रातुर्वचनमाज्ञाय पाण्डवा धर्मचारिणः / उपस्थितं रथं दृष्ट्वा तायप्रवरकेतनम् / यथार्ह नृपमुख्यास्तानेकैकं समव्रनुजन् // 40 प्रदक्षिणमुपावृत्य समारुह्य महामनाः / विराटमन्वयात्तूर्णं धृष्टद्युम्नः प्रतापवान् / प्रययौ पुण्डरीकाक्षस्ततो द्वारवतीं पुरीम् / / 55 धनंजयो यज्ञसेनं महात्मानं महारथः // 41 तं पद्भ्यामनुवव्राज धर्मराजो युधिष्ठिरः / . भीष्मं च धृतराष्ट्रं च भीमसेनो महाबलः / भ्रातृभिः सहितः श्रीमान्वासुदेवं महाबलम् // 56 . द्रोणं च ससुतं वीरं सहदेवो महारथः // 42 ततो मुहूर्त संगृह्य स्यन्दनप्रवरं हरिः / नकुलः सुबलं राजन्सहपुत्रं समन्वयात् / अब्रवीत्पुण्डरीकाक्षः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् / / 57 द्रौपदेयाः ससौभद्राः पार्वतीयान्महीपतीन् // 43 अप्रमत्तः स्थितो नित्यं प्रजाः पाहि विशां पते। अन्वगच्छंस्तथैवान्यान्क्षत्रियान्क्षत्रियर्षभाः। . पर्जन्यमिव भूतानि महाद्रुममिवाण्डजाः / एवं संपूजितास्ते वै जग्मुर्विप्राश्च सर्वशः // 44 बान्धवास्त्वोपजीवन्तु सहस्राक्षमिवामराः // 58 गतेषु पार्थिवेन्द्रेषु सर्वेषु भरतर्षभ / कृत्वा परस्परेणैवं संविदं कृष्णपाण्डवो / युधिष्ठिरमुवाचेदं वासुदेवः प्रतापवान् // 45 अन्योन्यं समनुज्ञाप्य जग्मतुः स्वगृहान्प्रति // 59 आपृच्छे त्वां गमिष्यामि द्वारकां कुरुनन्दन / गते द्वारवती कृष्णे सात्वतप्रवरे नृप। राजसूयं ऋतुश्रेष्ठं दिष्ट्या त्वं प्राप्तवानसि // 46 एको दुर्योधनो राजा शकुनिश्चापि सौबलः / तमुवाचैवमुक्तस्तु धर्मराण्मधुसूदनम्। तस्यां सभायां दिव्यायामूषतुस्तौ नरर्षभौ // 60 तव प्रसादाद्गोविन्द प्राप्तवानस्मि वै ऋतुम् // 47 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि समस्तं पार्थिवं क्षत्रं त्वत्प्रसादाद्वशानुगम् / द्विचत्वारिंशोऽध्यायः // 42 // उपादाय बलिं मुख्यं मामेव समुपस्थितम् // 48 // समातं शिशुपालवधपर्व // न वयं त्वामृते वीर रस्यामेह कथंचन / अवश्यं चापि गन्तव्या त्वया द्वारवती पुरी // 49 वैशंपायन उवाच / एवमुक्तः स धर्मात्मा युधिष्ठिरसहायवान् / वसन्दुर्योधनस्तस्यां सभायां भरतर्षभ / अभिगम्याब्रवीत्प्रीतः पृथां पृथुयशा हरिः // 50 शनैर्ददर्श तां सर्वां सभां शकुनिना सह // 1 साम्राज्यं समनुप्राप्ताः पुत्रास्तेऽद्य पितृष्वसः।। तस्यां दिव्यानभिप्रायान्ददर्श कुरुनन्दनः / सिद्धार्था वसुमन्तश्च सा त्वं प्रीतिमवाप्नुहि // 51 . न दृष्टपूर्वा ये तेन नगरे नागसाह्वये // 2 -342 -
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________________ 2. 43. 3] सभापर्व [2. 43. 32 स कदाचित्सभामध्ये धार्तराष्ट्रो महीपतिः।। अनेकाग्रं तु तं दृष्ट्वा शकुनिः प्रत्यभाषत / स्फाटिकं तलमासाद्य जलमित्यभिशङ्कया // 3 दुर्योधन कुतोमूलं निःश्वसन्निव गच्छसि // 18 स्ववस्रोत्कर्षणं राजा कृतवान्बुद्धिमोहितः / दुर्योधन उवाच। दुर्मना विमुखश्चैव परिचक्राम तां सभाम् // 4 दृष्ट्वेमां पृथिवीं कृत्स्नां युधिष्ठिरवशानुगाम् / ततः स्फाटिकतोयां वै स्फाटिकाम्बुजशोभिताम् / जितामस्त्रप्रतापेन श्वेताश्वस्य महात्मनः // 19 वापी मत्वा स्थलमिति सवासाः प्रापतजले // 5 तं च यज्ञं तथाभूतं दृष्ट्वा पार्थस्य मातुल / जले निपतितं दृष्ट्वा किंकरा जहसुभृशम् / यथा शक्रस्य देवेषु तथाभूतं महायुते // 20 वासांसि च शुभान्यस्मै प्रददू राजशासनात् // 6 अमर्षेण सुसंपूर्णो दह्यमानो दिवानिशम् / तथागतं तु तं दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः / शुचिशुक्रागमे काले शुष्ये तोयमिवाल्पकम् // 21 अर्जुनश्च यमौ चोभौ सर्वे ते प्राहसंस्तदा॥७ पश्य सात्वतमुख्येन शिशुपालं निपातितम् / नामर्षयत्ततस्तेषामवहासममर्षणः / न च तत्र पुमानासीत्कश्चित्तस्य पदानुगः // 22 आकारं रक्षमाणस्तु न स तान्समुदैक्षत // 8 दह्यमाना हि राजानः पाण्डवोत्थेन वह्निना। पुनर्वसनमुक्षिप्य प्रतरिष्यन्निव स्थलम् / क्षान्तवन्तोऽपराधं तं को हि तं क्षन्तुमर्हति // 23 आरोह ततः सर्वे जहसुस्ते पुनर्जनाः // 9 वासुदेवेन तत्कर्म तथायुक्तं महत्कृतम् / द्वारं च विवृताकारं ललाटेन समाहनत् / सिद्धं च पाण्डवेयानां प्रतापेन महात्मनाम् // 24 संवृतं चेति मन्वानो द्वारदेशादुपारमत् // 10 तथा हि रत्नान्यादाय विविधानि नृपा नृपम् / एवं प्रलम्भान्विविधान्प्राप्य तत्र विशां पते / उपतिष्ठन्ति कौन्तेयं वैश्या इव करप्रदाः // 25 पाण्डवेयाभ्यनुज्ञातस्ततो दुर्योधनो नृपः // 11 श्रियं तथाविधां दृष्ट्वा ज्वलन्तीमिव पाण्डवे / अप्रहृष्टेन मनसा राजसूये महाक्रतौ / अमर्षवशमापन्नो दोऽहमतथोचितः // 26 प्रेक्ष्य तामद्भुतामृद्धिं जगाम गजसाह्वयम् // 12 वह्निमेव प्रवेक्ष्यामि भक्षयिष्यामि वा विषम् / पाण्डवश्रीप्रतप्तस्य ध्यानग्लानस्य गच्छतः। अपो वापि प्रवेक्ष्यामि न हि शक्ष्यामि जीवितुम्॥ दुर्योधनस्य नृपतेः पापा मतिरजायत // 13 को हि नाम पुमाललोके मर्षयिष्यति सत्त्ववान् / पार्थान्सुमनसो दृष्ट्वा पार्थिवांश्च वशानुगान् / सपत्नानृध्यतो दृष्ट्वा हानिमात्मन एव च // 28 कृत्स्नं चापि हितं लोकमाकुमारं कुरूद्वह // 14 सोऽहं न स्त्री न चाप्यस्त्री न पुमान्नापुमानपि / महिमानं परं चापि पाण्डवानां महात्मनाम् / योऽहं तां मर्षयाम्यद्य तादृशीं श्रियमागताम् // 29 दुर्योधनो धार्तराष्ट्रो विवर्णः समपद्यत // 15 ईश्वरत्वं पृथिव्याश्च वसुमत्तां च तादृशीम् / स तु गच्छन्ननेकाग्रः सभामेवानुचिन्तयन् / यज्ञं च तादृशं दृष्ट्वा मादृशः को न संज्वरेत् // 30 श्रियं च तामनुपमां धर्मराजस्य धीमतः // 16 अशक्तश्चैक एवाहं तामाहर्तुं नृपश्रियम / प्रमत्तो धृतराष्ट्रस्य पुत्रो दुर्योधनस्तदा। सहायांश्च न पश्यामि तेन मृत्युं विचिन्तये / / 31 नाभ्यभाषत्सुबलजं भाषमाणं पुनः पुनः / / 17 / दैवमेव परं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् / - 343 -
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________________ 2. 43. 32] महाभारते [2. 44. A दृष्ट्वा कुन्तीसुते शुभ्रां श्रियं तामाहृतां तथा // 32 / तन्मिथ्या भ्रातरो हीमे सहायास्ते महारथाः // 9 कृतो यत्नो मया पूर्व विनाशे तस्य सौबल। द्रोणस्तव महेष्वासः सह पुत्रेण धीमता। तञ्च सर्वमतिक्रम्य स वृद्धोऽप्स्विव पङ्कजम् // 33 सूतपुत्रश्च राधेयो गौतमश्च महारथः // 10 तेन दैवं परं मन्ये पौरुषं तु निरर्थकम् / अहं च सह सोदर्यैः सौमदत्तिश्च वीर्यवान् / धार्तराष्ट्रा हि हीयन्ते पार्था वर्धन्ति नित्यशः // 34 एतैस्त्वं सहितः सर्वैर्जय कृत्स्ना वसुंधराम् // 11 सोऽहं श्रियं च तां दृष्ट्वा सभां तां च तथाविधाम् / दुर्योधन उवाच। रक्षिभिश्वावहासं तं परितप्ये यथामिना // 35 त्वया च सहितो राजन्नतैश्चान्यैर्महारथैः / स मामभ्यनुजानीहि मातुलाद्य सुदुःखितम् / एतानेव विजेष्यामि यदि त्वमनुमन्यसे // 12 अमर्ष च समाविष्टं धृतराष्ट्र निवेदय // 36 एतेषु विजितेष्वद्य भविष्यति मही मम। इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि सर्वे च पृथिवीपालाः सभा सा च महाधना / / 13 त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः // 43 // शकुनिरुवाच / धंनजयो वासुदेवो भीमसेनो युधिष्ठिरः। शकुनिरुवाच / नकुलः सहदेवश्च द्रुपदश्च सहात्मजैः // 14 दुर्योधन न तेऽमर्षः कार्यः प्रति युधिष्ठिरम् / नैते युधि बलाज्जेतुं शक्याः सुरगणैरपि / भागधेयानि हि स्वानि पाण्डवा भुञ्जते सदा // 1 महारथा महेष्वासाः कृतास्त्रा युद्धदुर्मदाः // 15 अनेकैरभ्युपायैश्च त्वयारब्धाः पुरासकृत् / अहं तु तद्विजानामि विजेतुं येन शक्यते / विमुक्ताश्च नरव्याघ्रा भागधेयपुरस्कृताः।। 2 युधिष्ठिरं स्वयं राजस्तन्निबोध जुषस्व च // 16 तैर्लब्धा द्रौपदी भार्या द्रुपदश्च सुतैः सह / सहायः पृथिवीलाभे वासुदेवश्च वीर्यवान् // 3 दुर्योधन उवाच। लब्धश्च नाभिभूतोऽर्थः पित्र्योंऽशः पृथिवीपते / अप्रमादेन सुहृदामन्येषां च महात्मनाम् / विवृद्धस्तेजसा तेषां तत्र का परिदेवना / / 4 यदि शक्या विजेतुं ते तन्ममाचक्ष्व मातुल // 17 धनंजयेन गाण्डीवमक्षय्यौ च महेषुधी। शकुनिरुवाच / लब्धान्यस्त्राणि दिव्यानि तर्पयित्वा हुताशनम् // 5 द्यूतप्रियश्च कौन्तेयो न च जानाति देवितुम् / तेन कार्मुकमुख्येन बाहुवीर्येण चात्मनः / समाहूतश्च राजेन्द्रो न शक्ष्यति निवर्तितुम् // 18 कृता वशे महीपालास्तत्र का परिदेवना // 6 देवने कुशलश्चाहं न मेऽस्ति सदृशो भुवि / अग्निदाहान्मयं चापि मोक्षयित्वा स दानवम् / त्रिषु लोकेषु कौन्तेयं तं त्वं ब्रूते समाह्वय // 19 सभां तां कारयामास सव्यसाची परंतपः // 7 तस्याक्षकुशलो राजन्नादास्येऽहमसंशयम् / तेन चैव मयेनोक्ताः किंकरा नाम राक्षसाः / राज्यं श्रियं च तां दीप्तां त्वदर्थं पुरुषर्षभ / 20 वहन्ति तां सभां भीमास्तत्र का परिदेवना॥८ इदं तु सर्वं त्वं राज्ञे दुर्योधन निवेदय / यच्चासहायतां राजन्नुक्तवानसि भारत / अनुज्ञातस्तु ते पित्रा विजेष्ये तं न संशयः // 21 - 344 -
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________________ 2. 44. 22 ] सभापर्व [2. 45. 25 दुर्योधन उवाच। दुर्योधन उवाच। त्वमेव कुरुमुख्याय धृतराष्ट्राय सौबल / अश्नाम्याच्छादये चाहं यथा कुपुरुषस्तथा। निवेदय यथान्यायं नाहं शक्ष्ये निशंसितुम् / / 22 अमर्षं धारये चोग्रं तितिक्षन्कालपर्ययम् / / 12 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अमर्षणः स्वाः प्रकृतीरभिभूय परे स्थिताः / चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः // 44 // क्लेशान्मुमुक्षुः परजान्स वै पुरुष उच्यते // 13 संतोषो वै श्रियं हन्ति अभिमानश्च भारत / वैशंपायन उवाच / अनुक्रोशभये चोभे यैर्वृतो नाश्नुते महत् // 14 अनुभूय तु राज्ञस्तं राजसूयं महाक्रतुम् / / न मामवति तद्भुक्तं श्रियं दृष्ट्वा युधिष्ठिरे / युधिष्ठिरस्य नृपतेर्गान्धारीपुत्रसंयुतः // 1 . ज्वलन्तीमिव कौन्तेये विवर्णकरणीं मम // 15 प्रियकृन्मतमाज्ञाय पूर्वं दुर्योधनस्य तत् / सपत्नानृध्यतोऽऽत्मानं हीयमानं निशाम्य च / प्रज्ञाचक्षुषमासीनं शकुनिः सौबलस्तदा // 2 अदृश्यामपि कौन्तेये स्थितां पश्यन्निवोद्यताम् / दुर्योधनवचः श्रुत्वा धृतराष्ट्रं जनाधिपम् / तस्मादहं विवर्णश्च दीनश्च हरिणः कृशः // 16 उपगम्य महाप्राज्ञं शकुनिर्वाक्यमब्रवीत् // 3 अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः / / दुर्योधनो महाराज विवर्णो हरिणः कृशः / त्रिंशदासीक एकैको यान्बिभर्ति युधिष्ठिरः // 17 दीनश्चिन्तापरश्चैव तद्विद्धि भरतर्षभ // 4 दशान्यानि सहस्राणि नित्यं तत्रान्नमुत्तमम् / न वै परीक्षसे सम्यगसह्यं शत्रुसंभवम् / भुञ्जते रुक्मपात्रीभियुधिष्ठिरनिवेशने // 18 ज्येष्ठपुत्रस्य शोकं त्वं किमर्थं नावबुध्यसे // 5 कदलीमृगमोकानि कृष्णश्यामारुणानि च / धृतराष्ट्र उवाच / काम्बोजः प्राहिणोत्तस्मै परार्ध्यानपि कम्बलान्॥१९ दुर्योधन कुतोमूलं भृशमार्तोऽसि पुत्रक। रथयोषिद्गवाश्वस्य शतशोऽथ सहस्रशः / श्रोतव्यश्चेन्मया सोऽर्थो हि मे कुरुनन्दन // 6 त्रिंशतं चोष्ट्रवामीनां शतानि विचरन्त्युत // 20 अयं त्वां शकुनिः प्राह विवर्णं हरिणं कृशम् / पृथग्विधानि रत्नानि पार्थिवाः पृथिवीपते। चिन्तयंश्च न पश्यामि शोकस्य तव संभवम् // 7 आहरन्क्रतुमुख्येऽस्मिन्कुन्तीपुत्राय भूरिशः / / 21 ऐश्वर्य हि महत्पुत्र त्वयि सर्वं समर्पितम् / न क्वचिद्धि मया दृष्टस्तादृशो नैव च श्रुतः। भ्रातरः सुहृदश्चैव नाचरन्ति तवाप्रियम् // 8 यादृग्धनागमो यज्ञे पाण्डुपुत्रस्य धीमतः॥ 22 आच्छादयसि प्रावारानश्नासि पिशितौदनम्। अपर्यन्तं धनौघं तं दृष्ट्वा शत्रोरहं नृप / आजानेया वहन्ति त्वां केनासि हरिणः कृशः // 9 शर्म नैवाधिगच्छामि चिन्तयानोऽनिशं विभो॥२३ शयनानि महार्हाणि योषितश्च मनोरमाः / ब्राह्मणा वाटधानाश्च गोमन्तः शतसंघशः / गुणवन्ति च वेश्मानि विहाराश्च यथासुखम् // 10 / त्रैखर्वं बलिमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः // 24 देवानामिव ते सर्वं वाचि बद्धं न संशयः / कमण्डलनुपादाय जातरूपमया शुभान् / / स दीन इव दुर्धर्षः कस्माच्छोचसि पुत्रक // 11 / एवं बलिं समादाय प्रवेशं लेभिरे ततः / / 25 म. भा. 44 - 345 -
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________________ 2. 45. 26 ] महाभारते [2. 45.52 यन्नैव मधु शक्राय धारयन्त्यमरस्त्रियः / अयमुत्सहते राजश्रियमाहर्तुमक्षवित् / तदस्मै कांस्यमाहार्षीद्वारुणं कलशोदधिः // 26 द्यूतेन पाण्डुपुत्रस्य तदनुज्ञातुमर्हसि // 40 शैक्यं रुक्मसहस्रस्य बहुरत्नविभूषितम् / धृतराष्ट्र उवाच। दृष्ट्वा च मम तत्सर्वे ज्वररूपमिवाभवत् // 27 क्षत्ता मत्री महाप्राज्ञः स्थितो यस्यास्मि शासने / गृहीत्वा तत्तु गच्छन्ति समुद्रौ पूर्वदक्षिणौ / तेन संगम्य वेत्स्यामि कार्यस्यास्य विनिश्चयम्॥४१ तथैव पश्चिमं यान्ति गृहीत्वा भरतर्षभ // 28 स हि धर्म पुरस्कृत्य दीर्घदर्शी परं हितम् / उत्तरं तु न गच्छन्ति विना तात पतत्रिभिः। उभयोः पक्षयोर्युक्तं वक्ष्यत्यर्थविनिश्चयम् // 42 इदं चाद्भुतमत्रासीत्तन्मे निगदतः शृणु // 29 दुर्योधन उवाच / पूर्णे शतसहस्रे तु विप्राणां परिविष्यताम् / निवर्तयिष्यति त्वासौ यदि क्षत्ता समेष्यति / स्थापिता तत्र संज्ञाभूच्छङ्खो मायति नित्यशः।।३० निवृत्ते त्वयि राजेन्द्र मरिष्येऽहमसंशयम् // 43 मुहुर्मुहुः प्रणदतस्तस्य शङ्खस्य भारत / उत्तमं शब्दमश्रीषं ततो रोमाणि मेऽहृषन् // 31 स मयि त्वं मृते राजन्विदुरेण सुखी भव / पार्थिवैर्बहुभिः कीर्णमुपस्थानं दिक्षुभिः / भोक्ष्यसे पृथिवीं कृत्स्नां किं मया त्वं करिष्यसि॥४४ सर्वरत्नान्युपादाय पार्थिवा वै जनेश्वर // 32 वैशंपायन उवाच / यज्ञे तस्य महाराज पाण्डुपुत्रस्य धीमतः / आर्तवाक्यं तु तत्तस्य प्रणयोक्तं निशम्य सः। वैश्या इव महीपाला द्विजातिपरिवेषकाः // 33 धृतराष्ट्रोऽब्रवीत्प्रेष्यान्दुर्योधनमते स्थितः // 45 न सा श्रीदेवराजस्य यमस्य वरुणस्य वा। स्थूणासहौव्हतीं शतद्वारा सभां मम / गुह्यकाधिपतेर्वापि या श्री राजन्युधिष्ठिरे // 34 मनोरमां दर्शनीयामाशु कुर्वन्तु शिल्पिनः // 46 तां दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रस्य श्रियं परमिकामहम् / / ततः संस्तीर्य रत्नस्तामक्षानावाप्य सर्वशः / शान्तिं न परिगच्छामि दह्यमानेन चेतसा // 35 सुकृतां सुप्रवेशां च निवेदयत मे शनैः // 47 शकुनिरुवाच / दुर्योधनस्य शान्त्यर्थमिति निश्चित्य भूमिपः / यामेतामुत्तमां लक्ष्मी दृष्टवानसि पाण्डवे / धृतराष्ट्रो महाराज प्राहिणोद्विदुराय वै // 48 तस्याः प्राप्तावुपायं मे शृणु सत्यपराक्रम // 36 अपृष्ट्वा विदुरं ह्यस्य नासीत्कश्चिद्विनिश्चयः / अहमक्षेष्वभिज्ञातः पृथिव्यामपि भारत / यूतदोषांश्च जानन्स पुत्रस्नेहादकृष्यत / / 49 हृदयज्ञः पणज्ञश्च विशेषज्ञश्च देवने // 37 तच्छ्रुत्वा विदुरो धीमान्कलिद्वारमुपस्थितम् / द्यूतप्रियश्च कौन्तेयो न च जानाति देवितुम् / विनाशमुखमुत्पन्नं धृतराष्ट्रमुपाद्रवत् / / 50 आहूतश्चैष्यति व्यक्तं दीव्यावेत्याह्वयस्व तम्॥ 38 सोऽभिगम्य महात्मानं भ्राता भ्रातरमग्रजम् / वैशंपायन उवाच। मूर्जा प्रणम्य चरणाविदं वचनमब्रवीत् / / 51 एवमुक्तः शकुनिना राजा दुर्योधनस्तदा / नाभिनन्दामि ते राजन्व्यवसायमिमं प्रभो। धृतराष्ट्रमिदं वाक्यमपदान्तरमब्रवीत् // 39 / पुत्रैर्भेदो यथा न स्याद्दयूतहेतोस्तथा कुरु // 52 -346 -
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________________ 2. 45. 53] सभापर्व [2. 46. 20 धृतराष्ट्र उवाच / दुर्योधनमिदं वाक्यमुवाच विजने पुनः॥ 6 क्षत्तः पुत्रेषु पुत्रमें कलहो न भविष्यति / अलं यतेन गान्धारे विदुरो न प्रशंसति / दिवि देवाः प्रसादं नः करिष्यन्ति न संशयः।।५३ न ह्यसौ सुमहाबुद्धिरहितं नो वदिष्यति // 7 अशुभं वा शुभं वापि हितं वा यदि वाहितम् / हितं हि परमं मन्ये विदुरो यत्प्रभाषते / प्रवर्ततां सुहृद्द्यूतं दिष्टमेतन्न संशयः // 54 क्रियतां पुत्र तत्सर्वमेतन्मन्ये हितं तव // 8 मयि संनिहिते चैव भीष्मे च भरतर्षभे / देवर्षिर्वासवगुरुर्देवराजाय धीमते / अनयो दैवविहितो न कथंचिद्भविष्यति // 55 यत्प्राह शास्त्रं भगवान्बृहस्पतिरुदारधीः // 9 गच्छ त्वं रथमास्थाय हयैर्वातसमैर्जवे / तद्वेद विदुरः सर्वं सरहस्यं महाकविः। खाण्डवप्रस्थमद्यैव समानय युधिष्ठिरम् // 56 स्थितश्च वचने तस्य सदाहमपि पुत्रक // 10 न वार्यो व्यवसायो मे विदुरैतद्भवीमि ते / विदुरो वापि मेधावी कुरूणां प्रवरो मतः / दैवमेव परं मन्ये येनैतदुपपद्यते // 57 उद्धवो वा महाबुद्धिवृष्णीनामर्चितो नृप // 11 इत्युक्तो विदुरो धीमान्नैतदस्तीति चिन्तयन् / द्यूतेन तदलं पुत्र द्यूते भेदो हि दृश्यते। आपगेयं महाप्राज्ञमभ्यगच्छत्सुदुःखितः / / 58 भेदे विनाशो राज्यस्य तत्पुत्र परिवर्जय // 12 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि पित्रा मात्रा च पुत्रस्य यद्वै कार्य परं स्मृतम् / पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः // 45 // प्राप्तस्त्वमसि तत्तात पितृपैतामहं पदम् / / 13 अधीतवान्कृती शास्त्रे लालितः सततं गृहे / - जनमेजय उवाच / भ्रातृज्येष्ठः स्थितो राज्ये विन्दसे किं न शोभनम // कथं समभवद्यूतं भ्राणां तन्महात्ययम् / पृथग्जनैरलभ्यं यद्भोजनाच्छादनं परम् / यत्र तद्व्यसनं प्राप्तं पाण्डवैर्म पितामहैः / / 1 तत्प्राप्तोऽसि महाबाहो कस्माच्छोचसि पुत्रक // 15 के च तत्र सभास्तारा राजानो ब्रह्मवित्तम / स्फीतं राष्ट्र महाबाहो पितृपैतामहं महत् / के चैनमन्वमोदन्त के चैनं प्रत्यषेधयन् // 2 नित्यमाज्ञापयन्भासि दिवि देवेश्वरो यथा // 16 विस्तरेणैतदिच्छामि कथ्यमानं त्वया द्विज / तस्य ते विदितप्रज्ञ शोकमूलमिदं कथम् / मूलं ह्येतद्विनाशस्य पृथिव्या द्विजसत्तम / / 3 समुत्थितं दुःखतरं तन्मे शंसितुमर्हसि // 17 सूत उवाच / दुर्योधन उवाच। एवमुक्तस्तदा राज्ञा व्यासशिष्यः प्रतापवान् / अश्नाम्याच्छादयामीति प्रपश्यन्पापपूरुषः / आचचक्षे यथावृत्तं तत्सर्वं सर्ववेदवित् // 4 नामर्ष कुरुते यस्तु पुरुषः सोऽधमः स्मृतः॥ 18 वैशंपायन उवाच / न मां प्रीणाति राजेन्द्र लक्ष्मीः साधारणा विभो / शृणु मे विस्तरेणेमां कथां भरतसत्तम / ज्वलितामिव कौन्तेये श्रियं दृष्ट्वा च विव्यथे॥१९ भूय एव महाराज यदि ते श्रवणे मतिः // 5 सर्वां हि पृथिवीं दृष्ट्वा युधिष्ठिरवशानुगाम् / विदुरस्य मतं ज्ञात्वा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः। स्थिरोऽस्मि योऽहं जीवामि दुःखादेतद्रवीमि ते॥२० -347 -
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________________ 2. 46. 21] महाभारते [2. 47. 12 आवर्जिता इवाभान्ति निघ्नाश्चैत्रकिकौकुराः / यानि दृष्टानि मे तस्यां मनस्तपति तच्च मे // 35 कारस्करा लोहजङ्घा युधिष्ठिरनिवेशने / / 21 / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि हिमवत्सागरानूपाः सर्वरत्नाकरास्तथा / षट्चत्वारिंशोऽध्यायः॥ 46 // अन्त्याः सर्वे पयुदस्ता युधिष्ठिरनिवेशने // 22 ज्येष्ठोऽयमिति मां मत्वा श्रेष्ठश्चेति विशां पते / दुर्योधन उवाच / युधिष्ठिरेण सत्कृत्य युक्तो रत्नपरिग्रहे // 23 यन्मया पाण्डवानां तु दृष्टं तच्छृणु भारत। उपस्थितानां रत्नानां श्रेष्ठानामर्घहारिणाम् / आहृतं भूमिपालैहि वसु मुख्यं ततस्ततः // 1 नादृश्यत परः प्रान्तो नापरस्तत्र भारत // 24 न विन्दे दृढमात्मानं दृष्ट्वाहं तदरेर्धनम् / न मे हस्तः समभवद्वसु तत्प्रतिगृह्णतः / फलतो भूमितो वापि प्रतिपद्यस्व भारत // 2 प्रातिष्ठन्त मयि श्रान्ते गृह्य दूराहृतं वसु // 25 ऐडांश्चैलान्वार्षदंशाञ्जातरूपपरिष्कृतान् / . कृतां बिन्दुसरोरत्नैर्मयेन स्फाटिकच्छदाम् / प्रावाराजिनमुख्यांश्च काम्बोजः प्रददौ वसु // 3 अपश्यं नलिनी पूर्णामुदकस्येव भारत // 26 अश्वांस्तित्तिरिकल्माषांत्रिशतं शुकनासिकान् / वस्त्रमुत्कर्षति मयि प्राहसत्स वृकोदरः / / उष्ट्रवामीस्त्रिशतं च पुष्टाः पीलुशमीमुदैः॥ 4 शत्रोर्ऋद्धिविशेषेण विमूढं रत्नवर्जितम् / / 27 गोवासना ब्राह्मणाश्च दासमीयाश्च सर्वशः / तत्र स्म यदि शक्तः स्यां पातयेयं वृकोदरम् / प्रीत्यर्थं ते महाभागा धर्मराज्ञो महात्मनः / सपत्नेनावहासो हि स मां दहति भारत // 28 त्रिखर्वं बलिमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः // 5 पुनश्च तादृशीमेव वापी जलजशालिनीम् / कमण्डलनुपादाय जातरूपमयाशुभान् / मत्वा शिलासमां तोये पतितोऽस्मि नराधिप // 29 एवं बलिं प्रदायाथ प्रवेशं लेभिरे ततः // 6 . तत्र मां प्राहसत्कृष्णः पार्थेन सह सस्वनम् / शतं दासीसहस्राणां कार्यासिकनिवासिनाम् / द्रौपदी च सह स्त्रीभिर्व्यथयन्ती मनो मम // 30 श्यामास्तन्व्यो दीर्घकेश्यो हेमाभरणभूषिताः। क्लिन्नवस्त्रस्य च जले किंकरा राजचोदिताः / शूद्रा विप्रोत्तमार्हाणि राङ्कवान्यजिनानि च // 7 ददुर्वासांसि मेऽन्यानि तच्च दुःखतरं मम / / 31 बलिं च कृत्स्नमादाय भरुकच्छनिवासिनः / प्रलम्भं च शृणुष्वान्यं गदतो मे नराधिप / उपनिन्युर्महाराज हयान्गान्धारदेशजान् // 8 अद्वारेण विनिर्गच्छन्द्वारसंस्थानरूपिणा। इन्द्रकृष्टैर्वतयन्ति धान्यैर्नदीमुखैश्च ये। अभिहत्य शिलां भूयो ललाटेनास्मि विक्षतः // 32 समुद्रनिष्कुटे जाताः परिसिन्धु च मानवाः // 9' तत्र मां यमजी दूरादालोक्य ललितौ किल / ते वैरामाः पारदाश्च वङ्गाश्च कितवैः सह / बाहुभिः परिगृह्णीतां शोचन्तौ सहितावुभौ // 33 विविधं बलिमादाय रत्नानि विविधानि च // 10 उवाच सहदेवस्तु तत्र मां विस्मयन्निव / अजाविकं गोहिरण्यं खरोष्ट्रं फलजं मधु / इदं द्वारमितो गच्छ राजनिति पुनः पुनः॥ 34 / कम्बलान्विविधांश्चैव द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः॥११ नामधेयानि रत्नानां पुरस्तान्न श्रुतानि मे / प्राग्ज्योतिषाधिपः शूरो म्लेच्छानामधिपो बली। - 348 -
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________________ 2. 47. 12] सभापर्व [2. 48.8 यवनैः सहितो राजा भगदत्तो महारथः // 12 बलिमादाय विविधं द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः // 27 आजानेयान्हयाशीघ्रानादायानिलरंहसः / आसनानि महार्हाणि यानानि शयनानि च / बलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठति वारितः॥ 13 मणिकाञ्चनचित्राणि गजदन्तमयानि च // 28 अश्मसारमयं भाण्डं शुद्धदन्तत्सरूनसीन् / रथांश्च विविधाकाराञ्जातरूपपरिष्कृतान् / प्राग्ज्योतिषोऽथ तद्दत्त्वा भगदत्तोऽव्रजत्तदा // 14 हयैर्विनीतैः संपन्नान्वैयाघ्रपरिवारणान् // 29 व्यक्षांख्यक्षाल्ललाटाक्षान्नानादिग्भ्यः समागतान् / विचित्रांश्च परिस्तोमारत्नानि च सहस्रशः / औष्णीषाननिवासांश्च बाहुकान्पुरुषादकान् // 15 नाराचानधनाराचाशस्त्राणि विविधानि च // 30 एकपादांश्च तत्राहमपश्यं द्वारि वारितान् / एतद्दत्त्वा महद्रव्यं पूर्वदेशाधिपो नृपः / बल्यर्थं ददतस्तस्मै हिरण्यं रजतं बहु // 16 प्रविष्टो यज्ञसदनं पाण्डवस्य महात्मनः // 31 इन्द्रगोपकवर्णाभाञ्शुकवर्णान्मनोजवान् / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि तथैवेन्द्रायुधनिभान्संध्याभ्रसदृशानपि // 17 सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥ 47 // अनेकवर्णानारण्यान्गृहीत्वाश्वान्मनोजवान् / जातरूपमनध्यं च ददुस्तस्यैकपादकाः // 18 - दुर्योधन उवाच / चीनान्हूणाञ्शकानोडान्पर्वतान्तरवासिनः / दायं तु तस्मै विविधं शृणु मे गदतोऽनघ / वार्ष्णेयान्हारहूणांश्च कृष्णान्हैमवतांस्तथा // 19 यज्ञार्थं राजभिर्दत्तं महान्तं धनसंचयम् // 1 न पारयाम्यभिगतान्विविधान्द्वारि वारितान् / मेरुमन्दरयोर्मध्ये शैलोदामभितो नदीम् / बल्यर्थं ददतस्तस्य नानारूपाननेकशः // 20 ये ते कीचकवेणूनां छायां रम्यामुपासते // 2 कृष्णग्रीवान्महाकायान्रासभाञ्शतपातिनः / खशा एकाशनाज्योहाः प्रदरा दीर्घवेणवः / आहापुर्दशसाहस्रान्विनीतान्दिक्षु विश्रुतान् / / 21 पशुपाश्च कुणिन्दाश्च तङ्गणाः परतङ्गणाः // 3 प्रमाणरागस्पर्शाढ्यं बाह्रीचीनसमुद्भवम् / ते वै पिपीलिकं नाम वरदत्तं पिपीलिकैः। औणं च राङ्कवं चैव कीटजं पट्टजं तथा / / 22 जातरूपं द्रोणमेयमहार्पः पुञ्जशो नृपाः // 4 कुट्टीकृतं तथैवान्यत्कमलाभं सहस्रशः / कृष्णालँललामांश्चमराशुक्लांश्चान्याञ्शशिप्रभान / लक्ष्णं वस्त्रमकासमाविकं मृदु चाजिनम् // 23 हिमवत्पुष्पजं चैव स्वादु क्षौद्रं तथा बहु // 5 निशितांश्चैव दीर्घासीनृष्टिशक्तिपरश्वधान् / उत्तरेभ्यः कुरुभ्यश्चाप्यपोढं माल्यमम्बुभिः / अपरान्तसमुद्भूतांस्तथैव परशूशितान् / / 24 उत्तरादपि कैलासादोषधीः सुमहाबलाः // 6 रंसान्गन्धांश्च विविधान्रत्नानि च सहस्रशः। पार्वतीया बलिं चान्यमाहृत्य प्रणताः स्थिताः / बलिं च कृत्स्नमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः / / 25 अजातशत्रोनृपतेभरि तिष्ठन्ति वारिताः // 7 शकास्तुखाराः कङ्काश्च रोमशाः शृङ्गिणो नराः।। ये परार्धे हिमवतः सूर्योदयगिरौ नृपाः / महागमान्दूरगमान्गणितानबुंदं हयान् // 26 / वारिषेणसमुद्रान्ते लोहित्यमभितश्च ये / कोटिशश्चैव बहुशः सुवर्णं पद्मसंमितम् / फलमूलाशना ये च किराताश्चर्मवाससः // 8 -349 -
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________________ 2. 48. 9] महाभारते [ 2. 48. 37 चन्दनागुरुकाष्ठानां भारान्कालीयकस्य च / कृती तु राजा कौरव्य शूकराणां विशां पते / चर्मरत्नसुवर्णानां गन्धानां चैव राशयः // 9 अददद्गजरत्नानां शतानि सुबहून्यपि // 24 कैरातिकानामयुतं दासीनां च विशां पते / विराटेन तु मत्स्येन बल्यर्थं हेममालिनाम् / आहृत्य रमणीयार्थान्दूरजान्मृगपक्षिणः // 10 / कुञ्जराणां सहस्र द्वे मत्तानां समुपाहृते // 25 निचितं पर्वतेभ्यश्च हिरण्यं भूरिवर्चसम् / पांशुराष्ट्राद्वसुदानो राजा षडिंशतिं गजान् / बलिं च कृतलमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः // 11 अश्वानां च सहस्रे द्वे राजन्काश्चनमालिनाम् // 26 कायव्या दरदा दार्वाः शूरा वैयमकास्तथा / जवसत्त्वोपपन्नानां वयःस्थानां नराधिप / औदुम्बरा दुर्विभागाः पारदा बाह्निकैः सह / / 12 / बलिं च कृत्स्नमादाय पाण्डवेभ्यो न्यवेदयत् // 27 काश्मीराः कुन्दमानाश्च पौरका हंसकायनाः। यज्ञसेनेन दासीनां सहस्राणि चतुर्दश / शिबित्रिगर्तयौधेया राजन्या मद्रकेकयाः॥ 13 दासानामयुतं चैव सदाराणां विशां पते // 28 अम्बष्ठाः कौकुरास्ताा वस्त्रपाः पह्नवैः सह / गजयुक्ता महाराज रथाः षडिशतिस्तथा / वसातयः समौलेयाः सह क्षुद्रकमालवैः / / 14 राज्यं च कृत्स्नं पार्थेभ्यो यज्ञार्थं वै निवेदितम् // 29 शौण्डिकाः कुक्कराश्चैव शकाश्चैव विशां पते।। समुद्रसारं वैडूर्य मुक्ताः शङ्खांस्तथैव च / अङ्गा वङ्गाश्च पुण्डाश्च शानवत्या गयास्तथा / / 15 शतशश्च कुथांस्तत्र सिंहलाः समुपाहरन् // 30 सुजातयः श्रेणिमन्त: श्रेयांसः शस्त्रपाणयः। संवृता मणिचौरैस्तु श्यामास्ताम्रान्तलोचनाः / आहायुः क्षत्रिया वित्तं शतशोऽजातशत्रवे // 16 तान्गृहीत्वा नरास्तत्र द्वारि तिष्ठन्ति वारिताः // 31 वङ्गाः कलिङ्गपतयस्ताम्रलिप्ताः सपुण्डकाः / प्रीत्यर्थं ब्राह्मणाश्चैव क्षत्रियाश्च विनिर्जिताः / दुकूलं कौशिकं चैव पत्रोणं प्रावरानपि // 17 उपाजह्नुर्विशश्चैव शूद्राः शुश्रूषवोऽपि च / तत्र स्म द्वारपालैस्ते प्रोच्यन्ते राजशासनात् / प्रीत्या च बहुमानाच्च अभ्यगच्छन्युधिष्ठिरम् // 32 कृतकाराः सुबलयस्ततो द्वारमवाप्स्यथ // 18 सर्वे म्लेच्छाः सर्ववर्णा आदिमध्यान्तजास्तथा / ईषादन्तान्हेमकक्षान्पद्मवर्णान्कुथावृतान् / नानादेशसमुत्थैश्च नानाजातिभिरागतैः / शैलाभान्नित्यमत्तांश्च अभितः काम्यकं सरः // 19 पर्यस्त इव लोकोऽयं युधिष्ठिरनिवेशने // 33 दत्त्वैकको दशशतान्कुञ्जरान्कवचावतान। उच्चावचानुपग्राहाराजभिः प्रहितान्बहून् / क्षमावतः कुलीनांश्च द्वारेण प्राविशंस्ततः॥ 20 शत्रूणां पश्यतो दुःखान्मुमूर्षा मेऽद्य जायते // 34 एते चान्ये च बहवो गणा दिग्भ्यः समागताः / भृत्यास्तु ये पाण्डवानां तांस्ते वक्ष्यामि भारत / अन्यैश्चोपाहृतान्यत्र रत्नानीह महात्मभिः // 21 येषामामं च पकं च संविधत्ते युधिष्ठिरः // 35 राजा चित्ररथो नाम गन्धर्वो वासवानुगः / अयुतं त्रीणि पद्मानि गजारोहाः ससादिनः / शतानि चत्वार्यददद्धयानां वातरंहसाम् // 22 रथानामबुंदं चापि पादाता बहवस्तथा // 36 तुम्बुरुस्तु प्रमुदितो गन्धर्वो वाजिनां शतम् / प्रमीयमाणमारब्धं पच्यमानं तथैव च / आम्रपत्रसवर्णानामददद्धेममालिनाम् / / 23 विसृज्यमानं चान्यत्र पुण्याहस्वन एव च // 37 - 350 -
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________________ 2. 48. 38 ] सभापर्व [2. 49. 23 सपाण नामुक्तवन्तं नाहृष्टं नासुभिक्षं कथंचन / आवन्त्यस्त्वभिषेकार्थमापो बहुविधास्तथा // 8 अपश्यं सर्ववर्णानां युधिष्ठिरनिवेशने // 38 चेकितान उपासङ्गं धनुः काश्य उपाहरत् / अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः। असिं रुक्मत्सरूं शल्यः शैक्यं काश्चनभूषणम् // 9 त्रिंशदासीक एकैको यान्बिभर्ति युधिष्ठिरः / अभ्यषिश्चत्ततो धौम्यो व्यासश्च सुमहातपाः। सुप्रीताः परितुष्टाश्च तेऽप्याशंसन्त्यरिक्षयम् // 39 नारदं चै पुरस्कृत्य देवलं चासितं मुनिम् // 10 दशान्यानि सहस्राणि यतीनामूर्ध्वरेतसाम् / प्रीतिमन्त उपातिष्ठनभिषेकं महर्षयः / भुञ्जते रुक्मपात्रीषु युधिष्ठिरनिवेशने // 40 जामदग्न्येन सहितास्तथान्ये वेदपारगाः // 11 भुक्ताभुक्तं कृताकृतं सर्वमाकुब्जवामनम्। . अभिजग्मुर्महात्मानं मनवद्भरिदक्षिणम् / अभुञ्जाना याज्ञसेनी प्रत्यवैक्षद्विशां पते // 41 महेन्द्रमिव देवेन्द्रं दिवि सप्तर्षयो यथा // 12 द्वौ करं न प्रयच्छेतां कुन्तीपुत्राय भारत / अधारयच्छत्रमस्य सात्यकिः सत्यविक्रमः / वैवाहिकेन पाश्चालाः सख्येनान्धकवृष्णयः / / 42 धनंजयश्च व्यजने भीमसेनश्च पाण्डवः // 13 . इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि उपागृह्णाद्यमिन्द्राय पुराकल्पे प्रजापतिः / अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः // 48 // तमस्मै शङ्खमाहाद्विारुणं कलशोदधिः॥ 14 सिक्तं निष्कसहस्रेण सुकृतं विश्वकर्मणा / दुर्योधन उवाच / तेनाभिषिक्तः कृष्णेन तत्र मे कश्मलोऽभवत्॥१५ आर्यास्तु ये वै राजानः सत्यसंधा महाव्रताः / गच्छन्ति पूर्वादपरं समुद्रं चापि दक्षिणम् / पर्याप्तविद्या वक्तारो वेदान्तावभृथाप्लुताः // 1 उत्तरं तु न गच्छन्ति विना तात पतत्रिभिः // 16 धृतिमन्तो ह्रीनिषेधा धर्मात्मानो यशस्विनः / तत्र स्म दध्मः शतशः शङ्खान्मङ्गल्यकारणात् / मूर्धाभिषिक्तास्ते चैनं राजानः पर्युपासते॥२ प्राणदस्ते समाध्मातास्तत्र रोमाणि मेऽहृषन् // 17 दक्षिणार्थ समानीता राजभिः कांस्यदोहनाः / प्रणता भूमिपाश्चापि पेतुर्लीनाः स्वतेजसा / आरण्या बहुसाहस्रा अपश्यं तत्र तत्र गाः // 3 धृष्टद्युम्नः पाण्डवाश्च सात्यकिः केशवोऽष्टमः // 18 आजद्दुस्तत्र सत्कृत्य स्वयमुद्यम्य भारत। सत्त्वस्थाः शौर्यसंपन्ना अन्योन्यप्रियकारिणः / अभिषेकार्थमव्यग्रा भाण्डमुच्चावचं नृपाः // 4 विसंज्ञानभूमिपान्दृष्ट्वा मां च ते प्राहसंस्तदा // 19 बाह्रीको रथमाहार्षीजाम्बूनदपरिष्कृतम् / ततः प्रहृष्टो बीभत्सुः प्रादाद्धेमविषाणिनाम् / सुदक्षिणस्तं युयुजे श्वेतैः काम्बोजजैर्हयैः // 5 शतान्यनडुहां पञ्च द्विजमुख्येषु भारत // 20 सुनीथोऽप्रतिमं तस्य अनुकर्ष महायशाः / नैवं शम्बरहन्ताभूद्यौवनाश्वो मनुर्न च / वजं चेदिपतिः क्षिप्रमहार्षीत्स्वयमुद्यतम् // 6 न च राजा पृथुबॅन्यो न चाप्यासीद्भगीरथः॥२१ दाक्षिणात्यः संनहनं स्रगुष्णीषे च मागधः / यथातिमात्रं कौन्तेयः श्रिया परमया युतः / वसुदानो महेष्वासो गजेन्द्रं षष्टिहायनम् // 7 राजसूयमवाप्यैवं हरिश्चन्द्र इव प्रभुः // 22 मत्स्यस्त्वक्षानवाबध्नादेकलव्य उपानदौ / एतां दृष्ट्वा श्रियं पार्थे हरिश्चन्द्रे यथा विभो / - 351 -
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________________ 2. 49. 23 ] महाभारत [2. 50. 24 50 कथं नु जीवितं श्रेयो मम पश्यसि भारत / / 23 दुर्योधन उवाच। अन्धेनेव युगं नद्धं विपर्यस्तं नराधिप / जानन्वै मोहयसि मां नावि नौरिव संयता / कनीयांसो विवर्धन्ते ज्येष्ठा हीयन्ति भारत // 24 स्वार्थे किं नावधानं ते उताहो द्वेष्टि मां भवान् // 10 एवं दृष्ट्वा नाभिविन्दामि शर्म न सन्तीमे धार्तराष्ट्रा येषां त्वमनुशासिता / परीक्षमाणोऽपि कुरुप्रवीर। भविष्यमर्थमाख्यासि सदा त्वं कृत्यमात्मनः / / 11 तेनाहमेवं कृशतां गतश्च परप्रणेयोऽग्रणीहि यश्च मार्गात्प्रमुह्यति / विवर्णतां चैव सशोकतां च // 25 पन्थानमनुगच्छेयुः कथं तस्य पदानुगाः // 12 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि राजन्परिगतप्रज्ञो वृद्धसेवी जितेन्द्रियः / एकोनपञ्चाशोऽध्यायः॥४९॥ प्रतिपन्नान्स्वकार्येषु संमोहयसि नो भृशम् // 13 लोकवृत्ताद्राजवृत्तमन्यदाह बृहस्पतिः / . धृतराष्ट्र उवाच / तस्माद्राज्ञा प्रयत्नेन स्वार्थश्चिन्त्यः सदैव हि // 14 त्वं वै ज्येष्ठो ज्यैष्ठिनेयः पुत्र मा पाण्डवान्द्विषः / क्षत्रियस्य महाराज जये वृत्तिः समाहिता / द्वेष्टा ह्यसुखमादत्ते यथैव निधनं तथा // 1 स वै धर्मोऽस्त्वधर्मो वा स्ववृत्ती भरतर्षभ // 15 प्रकालयेद्दिशः सर्वाः प्रतोदेनेव सारथिः / अव्युत्पन्नं समानार्थं तुल्यमित्रं युधिष्ठिरम् / अद्विषन्तं कथं द्विष्यात्त्वादृशो भरतर्षभ // 2 प्रत्यमित्रश्रियं दीप्तां बुभूषुर्भरतर्षभ // 16 प्रच्छन्नो वा प्रकाशो वा यो योगो रिपुबाधनः / तुल्याभिजनवीर्यश्च कथं भ्रातुः श्रियं नृप। तद्वै शस्त्रं शस्त्रविदां न शस्त्रं छेदनं स्मृतम् // 17 पुत्र कामयसे मोहान्मैवं भूः शाम्य साध्विह // 3 असंतोषः श्रियो मूलं तस्मात्तं कामयाम्यहम् / अथ यज्ञविभूतिं तां कासे भरतर्षभ / समुच्छ्रये यो यतते स राजन्परमो नयी // 18 ऋत्विजस्तव तन्वन्तु सप्ततन्तुं महाध्वरम् // 4 ममत्वं हि न कर्तव्यमैश्वर्ये वा धनेऽपि वा / आहरिष्यन्ति राजानस्तवापि विपुलं धनम् / पूर्वावाप्तं हरन्त्यन्ये राजधर्म हि तं विदुः // 19 प्रीत्या च बहमानाच्च रत्नान्याभरणानि च / / 5 अद्रोहे समयं कृत्वा चिच्छेद नमुचेः शिरः। अनर्थाचरितं तात परस्वस्पृहणं भृशम् / शक्रः सा हि मता तस्य रिपौ वृत्तिः सनातनी॥२० स्वसंतुष्टः स्वधर्मस्थो यः स वै सुखमेधते॥ 6 द्वावेतौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव / अव्यापारः परार्थेषु नित्योद्योगः स्वकर्मसु / राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम // 21 उद्यमो रक्षणे स्वेषामेतद्वैभवलक्षणम् // 7 नास्ति वै जातितः शत्रुः पुरुषस्य विशां पते। विपत्तिष्वव्यथो दक्षो नित्यमुत्थानवान्नरः / येन साधारणी वृत्तिः स शत्रुर्नेतरो जनः // 22 अप्रमत्तो विनीतात्मा नित्यं भद्राणि पश्यति // 8 शत्रुपक्षं समृध्यन्तं यो मोहात्समुपेक्षते / अन्तर्वेद्यां ददद्वित्तं कामाननुभवन्प्रियान् / व्याधिराप्यायित इव तस्य मूलं छिनत्ति सः॥२३ क्रीडन्त्रीभिर्निरातङ्कः प्रशाम्य भरतर्षभ // 9 अल्पोऽपि ह्यरित्त्यन्तं वर्धमानपराक्रमः / -352
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________________ 2. 50. 24 ] सभापर्व [2. 51. 15 वल्मीको मूलज इव असते वृक्षमन्तिकात् // 24 भयं परिहरन्मन्द आत्मानं परिपालयन् / आजमीढ रिपोर्लक्ष्मीर्मा ते रोचिष्ट भारत / | वर्षासु क्लिन्नकटवत्तिष्ठन्नेवावसीदति // 8 एष भारः सत्त्ववतां नयः शिरसि धिष्ठितः // 25 / न व्याधयो नापि यमः श्रेयःप्राप्तिं प्रतीक्षते / जन्मवृद्धिमिवार्थानां यो वृद्धिमभिकाङ्कते। यावदेव भवेत्कल्पस्तावच्छ्रेयः समाचरेत् // 9 एधते ज्ञातिषु स वै सद्योवृद्धिर्हि विक्रमः // 26 / धृतराष्ट्र उवाच / नाप्राप्य पाण्डवैश्वर्यं संशयो मे भविष्यति / सर्वथा पुत्र बलिभिर्विग्रहं ते न रोचये / अवाप्स्ये वा श्रियं तां हि शेष्ये वा निहतो युधि // 27 / वैरं विकारं सृजति तद्वै शस्त्रमनायसम् // 10 अतादृशस्य किं मेऽद्य जीवितेन विशां पते / अनर्थमर्थं मन्यसे राजपुत्र वर्धन्ते पाण्डवा नित्यं वयं तु स्थिरवृद्धयः // 28 ___ संग्रन्थनं कलहस्यातिघोरम् / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि तद्वै प्रवृत्तं तु यथाकथंचिपञ्चाशोऽध्यायः // 50 // द्विमोक्षयेच्चाप्यसिसायकांश्च // 11 दुर्योधन उवाच। शकुनिरुवान। यां त्वमेतां श्रियं दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रे युधिष्ठिरे / द्यूते पुराणैर्व्यवहारः प्रणीत स्तत्रात्ययो नास्ति न संप्रहारः / तप्यसे तां हरिष्यामि द्यूतेनाहूयतां परः॥ 1 तद्रोचतां शकुनेर्वाक्यमद्य अगत्वा संशयमहमयुवा च चमूमुखे / सभां क्षिप्रं त्वमिहाज्ञापयस्व // 12 अक्षान्क्षिपन्नक्षतः सन्विद्वानविदुषो जये // 2 लहान्धनूंषि मे विद्धि शरानक्षांश्च भारत / स्वर्गद्वारं दीव्यतां नो विशिष्टं अक्षाणां हृदयं मे ज्यां रथं विद्धि ममास्तरम् // 3 तद्वर्तिनां चापि तथैव युक्तम् / . दुर्योधन उवाच / भवेदेवं ह्यात्मना तुल्यमेव अयमुत्सहते राजश्रियमाहर्तुमक्षवित् / दुरोदरं पाण्डवैस्त्वं कुरुष्व // 13 द्यूतेन पाण्डुपुत्रेभ्यस्तत्तुभ्यं तात रोचताम् // 4 धृतराष्ट्र उवाच / धृतराष्ट्र उवाच / वाक्यं न मे रोचते यत्त्वयोक्तं स्थितोऽस्मि शासने भ्रातुर्विदुरस्य महात्मनः / ___ यत्ते प्रियं तक्रियतां नरेन्द्र। तेन संगम्य वेत्स्यामि कार्यस्यास्य विनिश्चयम् // 5 पश्चात्तप्स्यसे तदुपाक्रम्य वाक्यं दुर्योधन उवाच / न हीदृशं भावि वचो हि धर्म्यम् // 14 विहनिष्यति ते बुद्धिं विदुरो मुक्तसंशयः / दृष्टं ह्येतद्विदुरेणैवमेव पाण्डवानां हिते युक्तो न तथा मम कौरव // 6 ___ सर्वं पूर्वं बुद्धिविद्यानुगेन / नारभेत्परसामर्थ्यात्पुरुषः कार्यमात्मनः। तदेवैतदवशस्याभ्युपैति मतिसाम्यं द्वयोर्नास्ति कार्येषु कुरुनन्दन / / 7. ____ महद्भयं क्षत्रियबीजघाति // 15 म.भा. 45 - 353 -
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________________ 2. 51. 16 ] महाभारते [2. 52.5 वैशंपायन उवाच / __मैवं कृथाः कुलनाशाद्विभेमि। एवमुक्त्वा धृतराष्ट्रो मनीषी पुत्रैभिन्नैः कलहस्ते ध्रुवं स्यादैवं मत्वा परमं दुस्तरं च। देतच्छके द्यूतकृते नरेन्द्र // 24 शशासोच्चैः पुरुषान्पुत्रवाक्ये धृतराष्ट्र उवाच / स्थितो राजा दैवसंमूढचेताः // 16 नेह क्षत्तः कलहस्तप्स्यते मां सहस्रस्तम्भां हेमवैडूर्यचित्रां न चेदैवं प्रतिलोमं भविष्यत् / . शतद्वारां तोरणस्फाटिशृङ्गाम् / धात्रा तु दिष्टस्य वशे किलेदं सभामग्र्यां क्रोशमात्रायतां मे सर्वं जगच्चेष्टति न स्वतन्त्रम् // 25 तद्विस्तारामाशु कुर्वन्तु युक्ताः // 17 तदद्य विदुर प्राप्य राजानं मम शासनात् / श्रुत्वा तस्य त्वरिता निर्विशङ्काः क्षिप्रमानय दुर्धर्षं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् // 26 प्राज्ञा दक्षास्तां तथा चक्रुराशु / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि सर्वद्रव्याण्युपजगुः सभायां एकपञ्चाशोऽध्यायः॥५१॥ सहस्रशः शिल्पिनश्चापि युक्ताः॥ 18 कालेनाल्पेनाथ निष्ठां गतां तां वैशंपायन उवाच / सभां रम्यां बहुरत्नां विचित्राम् / ततः प्रायाद्विदुरोऽश्वैरुदारैचित्रै?मैरासनैरभ्युपेता ___ महाजवैलिभिः साधुदान्तैः / माचख्युस्ते तस्य राज्ञः प्रतीताः // 19 बलान्नियुक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा ततो विद्वान्विदुरं मत्रिमुख्य मनीषिणां पाण्डवानां सकाशम् // 1 . मुवाचेदं धृतराष्ट्रो नरेन्द्रः। सोऽभिपत्य तदध्वानमासाद्य नृपतेः पुरम् / युधिष्ठिरं राजपुत्रं हि गत्वा प्रविवेश महाबुद्धिः पूज्यमानो द्विजातिभिः // 2 मद्वाक्येन क्षिप्रमिहानयस्व // 20 स राजगृहमासाद्य कुबेरभवनोपमम् / सभेयं मे बहुरत्ना विचित्रा अभ्यगच्छत धर्मात्मा धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम् // 3 शय्यासनैरुपपन्ना महाहैः। तं वै राजा सत्यधृतिर्महात्मा सा दृश्यतां भ्रातृभिः सार्धमेत्य अजातशत्रुर्विदुरं यथावत् / सुहृद्यूतं वर्ततामत्र चेति // 21 पूजापूर्वं प्रतिगृह्याजमीढमतमाज्ञाय पुत्रस्य धृतराष्ट्रो नराधिपः / स्ततोऽपृच्छद्धृतराष्ट्रं सपुत्रम् // 4 मत्वा च दुस्तरं दैवमेतद्राजा चकार ह // 22 युधिष्ठिर उवाच / अन्यायेन तथोक्तस्तु विदुरो विदुषां वरः। विज्ञायते ते मनसो न प्रहर्षः नाभ्यनन्दद्वचो भ्रातुर्वचनं चेदमब्रवीत् / / 23 कञ्चित्क्षत्तः कुशलेनागतोऽसि / नाभिनन्दामि नृपते प्रैषमेतं कच्चित्पुत्राः स्थविरस्यानुलोमा -354 -
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________________ 2. 52. 5] सभापर्व [2. 52. 19 वशानुगाश्चापि विशोऽपि कञ्चित् // 5 विना राज्ञो धृतराष्ट्रस्य पुत्रैः। विदुर उवाच / पृच्छामि त्वां विदुर ब्रूहि नस्ताराजा महात्मा कुशली सपुत्र न्यैर्दीव्यामः शतशः संनिपत्य // 12 आस्ते वृतो ज्ञातिभिरिन्द्रकल्पैः / विदुर उवाच / प्रीतो राजन्पुत्रगणैर्विनीतै गान्धारराजः शकुनिर्विशां पते विशोक एवात्मरतिदृढात्मा // 6 राजातिदेवी कृतहस्तो मताक्षः / इदं तु त्वां कुरुराजोऽभ्युवाच विविंशतिश्चित्रसेनश्च राजा पूर्वं पृष्ट्वा कुशलं चाव्ययं च। सत्यव्रतः पुरुमित्रो जयश्च // 13 इयं सभा त्वत्सभातुल्यरूपा युधिष्ठिर उवाच। ___ भ्रातृणां ते पश्य तामेत्य पुत्र // 7 महाभयाः कितवाः संमिविष्टा समागम्य भ्रातृभिः पार्थ तस्यां मायोपधा देवितारोऽत्र सन्ति / ___ सुहृद्दयूतं क्रियतां रम्यतां च / धात्रा तु दिष्टस्य वशे किलेदं प्रीयामहे भवतः संगमेन नादेवनं कितवैरद्य तैर्मे // 14 समागताः कुरवश्चैव सर्वे // 8 नाहं राज्ञो धृतराष्ट्रस्य शासनादुरोदरा विहिता ये तु तत्र न गन्तुमिच्छामि कवे दुरोदरम् / ___ महात्मना धृतराष्ट्रेण राज्ञा / इष्टो हि पुत्रस्य पिता सदैव तान्द्रक्ष्यसे कितवान्संनिविष्टा ___ तदस्मि कर्ता विदुरात्थ मां यथा // 15 नित्यागतोऽहं नृपते तज्जुषस्व // 9 न चाकामः शकुनिना देविताहं युधिष्ठिर उवाच / न चेन्मां धृष्णुराहयिता सभायाम् / द्यूते क्षत्तः कलहो विद्यते नः आहूतोऽहं न निवर्ते कदाचिको वै द्यूतं रोचयेद्वध्यमानः / ___ त्तदाहितं शाश्वतं वै व्रतं मे // 16 किं वा भवान्मन्यते युक्तरूपं वैशंपायन उवाच / ... भवद्वाक्ये सर्व एव स्थिताः स्म // 10 एवमुक्त्वा विदुरं धर्मराजः विदुर उवाच / प्रायात्रिकं सर्वमाज्ञाप्य तूर्णम् / जानाम्यहं द्यूतमनर्थमूलं प्रायाच्छोभूते सगणः सानुयात्रः कृतश्च यत्नोऽस्य मया निवारणे / सह स्त्रीभिद्रौपदीमादिकृत्वा // 17 राजा तु मां प्राहिणोत्त्वत्सकाशं दैवं प्रज्ञां तु मुष्णाति तेजश्चक्षुरिवापतत् / श्रुत्वा विद्वश्रेय इहाचरस्व // 11 धातुश्च वशमन्वेति पाशैरिव नरः सितः // 18 युधिष्ठिर उवाच / इत्युक्त्वा प्रययौ राजा सह क्षत्रा युधिष्ठिरः / के तत्रान्ये कितवा दीव्यमाना अमृष्यमाणस्तत्पार्थः समाह्वानमरिंदमः / / 19 - 355 -
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________________ 2. 52. 20] महाभारते [2. 53.7 बाह्निकेन रथं दत्तमास्थाय परवीरहा / मनोज्ञमशनं भुक्त्वा विविशुः शरणान्यथ / परिच्छन्नो ययौ पार्थो भ्रातृभिः सह पाण्डवः॥२० उपगीयमाना नारीभिरस्वपन्कुरुनन्दनाः / / 35 राजश्रिया दीप्यमानो ययौ ब्रह्मपुरःसरः / जगाम तेषां सा रात्रिः पुण्या रतिविहारिणाम् / धृतराष्ट्रण चाहूतः कालस्य समयेन च // 21 स्तूयमानाश्च विश्रान्ताः काले निद्रामथात्यजन्॥३६ स हास्तिनपुरं गत्वा धृतराष्ट्रगृहं ययौ / समियाय च धर्मात्मा धृतराष्ट्रेण पाण्डवः // 22 सभां रम्यां प्रविविशुः कितवैरभिसंवृताम् // 37 तथा द्रोणेन भीष्मेण कर्णेन च कृपेण च / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि समियाय यथान्यायं द्रौणिना च विभुः सह // 23 द्विपञ्चाशोऽध्यायः // 52 // समेत्य च महाबाहुः सोमदत्तेन चैव ह / दुर्योधनेन शल्येन सौबलेन च वीर्यवान् // 24 शकुनिरुवाच / ये चान्ये तत्र राजानः पूर्वमेव समागताः / उपस्तीर्णा सभा राजनरन्तुं चैते कृतक्षणाः / जयद्रथेन च तथा कुरुभिश्चापि सर्वशः // 25 अक्षानुप्त्वा देवनस्य समयोऽस्तु युधिष्ठिर // 1 ततः सर्वैर्महाबाहुर्भ्रातृभिः परिवारितः। युधिष्ठिर उवाच। प्रविवेश गृहं राज्ञो धृतराष्ट्रस्य धीमतः / / 26 / निकृतिर्देवनं पापं न क्षात्रोऽत्र पराक्रमः / ददर्श तत्र गान्धारी देवी पतिमनुव्रताम् / न च नीतिधुंवा राजन्किं त्वं द्यूतं प्रशंससि // 2 स्नुषाभिः संवृतां शश्वत्ताराभिरिव रोहिणीम् / / 27 न हि मानं प्रशंसन्ति निकृतौ कितवस्य ह / अभिवाद्य स गान्धारी तया च प्रतिनन्दितः / शकुने मैव नो जैषीरमार्गेण नृशंसवत् // 3 ददर्श पितरं वृद्धं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम् / / 28 . शकुनिरुवाच। राज्ञा मूर्धन्युपाघातास्ते च कौरवनन्दनाः / योऽन्वेति संख्या निकृतौ विधिज्ञचत्वारः पाण्डवा राजन्भीमसेनपुरोगमाः॥२९ श्चेष्टास्वखिन्नः कितवोऽक्षजासु। ततो हर्षः समभवत्कौरवाणां विशां पते / महामतिर्यश्च जानाति घृतं तान्दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रान्पाण्डवान्प्रियदर्शनान् // 30 ___ स वै सर्वं सहते प्रक्रियासु॥४ विविशुस्तेऽभ्यनुज्ञाता रत्नवन्ति गृहाण्यथ / अक्षग्लहः सोऽभिभवेत्परं नददृशुश्चोपयातास्तान्द्रौपदीप्रमुखाः स्त्रियः // 31 स्तेनैव कालो भवतीदमात्थ। याज्ञसेन्याः परामृद्धिं दृष्ट्वा प्रज्वलितामिव / दीव्यामहे पार्थिव मा विशङ्का स्नुषास्ता धृतराष्ट्रस्य नातिप्रमनसोऽभवन् // 32 कुरुष्व पाणं च चिरं च मा कृथाः // 5 ततस्ते पुरुषव्याघ्रा गत्वा स्त्रीभिस्तु संविदम् / युधिष्ठिर उवाच / कृत्वा व्यायामपूर्वाणि कृत्यानि प्रतिकर्म च // 33 / एवमाहायमसितो देवलो मुनिसत्तमः / ततः कृताह्निकाः सर्वे दिव्यचन्दनरूषिताः। इमानि लोकद्वाराणि यो वै संचरते सदा // 6 कल्याणमनसश्चैव ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च // 34 / इदं वै देवनं पापं मायया कितवैः सह / -356
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________________ 2. 53. 7] सभापर्व [2. 54.5 धर्मेण तु जयो युद्धे तत्परं साधु देवनम् // 7 शुशुभे सा सभा राजनराजभिस्तैः समागतैः / नार्या म्लेच्छन्ति भाषाभिर्मायया न चरन्त्युत / देवैरिव महाभागैः समवेतैत्रिविष्टपम् // 20 अजिह्ममशठं युद्धमेतत्सत्पुरुषव्रतम् // 8 सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे भास्वरमूर्तयः / शक्तितो ब्राह्मणान्वन्द्याञ्शिक्षितुं प्रयतामहे / प्रावर्तत महाराज सुहृद्दयूतमनन्तरम् / / 21 तद्वै वित्तं मातिदेवीर्मा जैषीः शकुने परम् // 9 युधिष्ठिर उवाच / नाहं निकृत्या कामये सुखान्युत धनानि वा।। अयं बहुधनो राजन्सागरावर्तसंभवः / कितवस्याप्यनिकृतेवृत्तमेतन्न पूज्यते // 10 मणिहारोत्तरः श्रीमान्कनकोत्तमभूषणः // 22 शकुनिरुवाच / . एतद्राजन्धनं मह्यं प्रतिपाणस्तु कस्तव / श्रोत्रियोऽश्रोत्रियमुत निकृत्यैव युधिष्ठिर। भवत्वेष क्रमस्तात जयाम्येनं दुरोदरम् // 23 विद्वानविदुषोऽभ्येति नाहुस्तां निकृतिं जनाः॥११ दुर्योधन उवाच / एवं त्वं मामिहाभ्येत्य निकृतिं यदि मन्यसे / सन्ति मे मणयश्चैव धनानि विविधानि च / देवनाद्विनिवर्तस्व यदि ते विद्यते भयम् / / 12 मत्सरश्च न मेऽर्थेषु जयाम्येनं दुरोदरम् // 24 युधिष्ठिर उवाच। वैशंपायन उवाच। आहूतो न निवर्तेयमिति मे व्रतमाहितम् / ततो जग्राह शकुनिस्तानक्षानक्षतत्त्ववित् / विधिश्च बलवानराजन्दिष्टस्यास्मि वशे स्थितः // 13 / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 25 अस्मिन्समागमे केन देवनं मे भविष्यति। इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि प्रतिपाणश्च कोऽन्योऽस्ति ततो द्यूतं प्रवर्तताम॥१४ त्रिपञ्चाशोऽध्यायः // 53 // दुर्योधन उवाच। अहं दातास्मि रत्नानां धनानां च विशां पते। युधिष्ठिर उवाच। मदर्थे देविता चायं शकुनिर्मातुलो मम / / 15 मत्तः कैतवकेनैव यजितोऽस्मि दुरोदरम् / युधिष्ठिर उवाच। शकुने हन्त दीव्यामो ग्लहमानाः सहस्रशः॥ 1 अन्येनान्यस्य विषमं देवनं प्रतिभाति मे / इमे निष्कसहस्रस्य कुण्डिनो भरिताः शतम् / एतद्विद्वन्नुपादत्स्व काममेवं प्रवर्तताम् // 16 कोशो हिरण्यमक्षय्यं जातरूपमनेकशः / वैशंपायन उवाच। एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया // 2 उपोह्यमाने द्यूते तु राजानः सर्व एव ते। वैशंपायन उवाच। धृतराष्ट्र पुरस्कृत्य विविशुस्तां सभां ततः // 17 इत्युक्तः शकुनिः प्राह जितमित्येव तं नृपम् // 3 भीष्मो द्रोणः कृपश्चैव विदुरश्च महामतिः / युधिष्ठिर उवाच / . नातीवप्रीतमनसस्तेऽन्ववर्तन्त भारत // 18 अयं सहस्रसमितो वैयाघ्रः सुप्रवर्तितः / ते द्वंद्वशः पृथक्चैव सिंहग्रीवा महौजसः / सुचक्रोपस्करः श्रीमान्किङ्किणीजालमण्डितः // 4 सिंहासनानि भूरीणि विचित्राणि च भेजिरे // 19 / संह्रादनो राजरथो य इहास्मानुपावहत् / -357 -
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________________ 2. 54.5] महाभारते [2. 54. 26 जैत्रो रथवरः पुण्यो मेघसागरनिस्वनः / / 5 प्रदक्षिणानुलोमाश्च प्रावारवसनाः सदा // 16 अष्टौ यं कुररच्छायाः सदश्वा राष्ट्रसंमताः / प्राज्ञा मेधाविनो दक्षा युवानो मृष्टकुण्डलाः / वहन्ति नैषामुच्येत पदा भूमिमुपस्पृशन् / पात्रीहस्ता दिवारात्रमतिथीन्भोजयन्त्युत / एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया // 6 एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया // 17 वैशंपायन उवाच / वैशंपायन उवाच / एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 7 जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 18 युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर उवाच / सहस्रसंख्या नागा मे मत्तास्तिष्ठन्ति सौबल / रथास्तावन्त एवेमे हेमभाण्डाः पताकिनः / हेमकक्षाः कृतापीडाः पद्मिनो हेममालिनः // 8 हयैर्विनीतैः संपन्ना रथिभिश्चित्रयोधिभिः // 19 सुदान्ता राजवहनाः सर्वशब्दक्षमा युधि। एकैको यत्र लभते सहस्रपरमां भृतिम् / ईषादन्ता महाकायाः सर्वे चाष्टकरेणवः // 9 युध्यतोऽयुध्यतो वापि वेतनं मासकालिकम् / सर्वे च पुरभेत्तारो नगमेघनिभा गजाः / एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया / 20 एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया // 10 वैशंपायन उवाच। वैशंपायन उवाच। इत्येवमुक्ते पार्थेन कृतवैरो दुरात्मवान् / तमेवंवादिनं पार्थं प्रहसन्निव सौबलः / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 21 जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 11 युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर उवाच / अश्वांस्तित्तिरिकल्माषान्गान्धर्वान्हेममालिनः। . शतं दासीसहस्राणि तरुण्यो मे प्रभद्रिकाः। ददी चित्ररथस्तुष्टो यांस्तान्गाण्डीवधन्वने / कम्बुकेयूरधारिण्यो निष्ककण्ठ्यः स्वलंकृताः॥१२ एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया // 22 महार्हमाल्याभरणाः सुवस्त्राश्चन्दनोक्षिताः। वैशंपायन उवाच। मणीन्हेम च बिभ्रत्यः सर्वा वै सूक्ष्मवाससः॥१३ एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / अनुसेवां चरन्तीमाः कुशला नृत्यसामसु / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत / / 23 स्नातकानाममात्यानां राज्ञां च मम शासनात् / युधिष्ठिर उवाच। एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया // 14 रथानां शकटानां च हयानां चायुतानि मे / वैशंपायन उवाच / युक्तानामेव तिष्ठन्ति वाहैरुचावचैर्वृताः // 24 एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / एवं वर्णस्य वर्णस्य समुच्चीय सहस्रशः / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 15 क्षीरं पिबन्तस्तिष्ठन्ति भुञ्जानाः शालितण्डुलान् // 25 युधिष्ठिर उवाच / षष्टिस्तानि सहस्राणि सर्वे पृथुलवक्षसः। एतावन्त्येव दासानां सहस्राण्युत सन्ति मे। एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया // 26 -358 -
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________________ 2. 54. 27 ] सभापर्व [2. 56. 2 वैशंपायन उवाच / त्वन्नियुक्तः सव्यसाची निगृह्णातु सुयोधनम् / एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / निग्रहादस्य पापस्य मोदन्तां कुरवः सुखम् // 8 जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 27 काकेनेमांश्चित्रबर्दाशार्दूलान्क्रोष्टुकेन च / युधिष्ठिर उवाच। क्रीणीष्व पाण्डवान्राजन्मा मज्जीः शोकसागरे // 9 ताम्रलोहैः परिवृता निधयो मे चतुःशताः / त्यजेत्कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् / पश्चद्रौणिक एकैकः सुवर्णस्याहतस्य वै / ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् // 10 एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया // 28 सर्वज्ञः सर्वभावज्ञः सर्वशत्रुभयंकरः / वैशंपायन उवाच / इति स्म भाषते काव्यो जम्भत्यागे महासुरान्॥११ एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः। हिरण्यष्ठीविनः कश्चित्पक्षिणो वनगोचरान् / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत / / 29 गृहे किल कृतावासाल्लोभाद्राजन्नपीडयत् // 12 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि . सदोपभोज्याल्लोभान्धो हिरण्यार्थे परंतप / चतुःपञ्चाशोऽध्यायः // 54 // आयतिं च तदात्वं च उभे सद्यो व्यनाशयत् // 13 55 तदात्वकामः पाण्डूंस्त्वं मा द्रुहो भरतर्षभ / विदुर उवाच। मोहात्मा तप्यसे पश्चात्पक्षिहा पुरुषो यथा // 14 महाराज विजानीहि यत्त्वां वक्ष्यामि तच्छृणु / जातं जातं पाण्डवेभ्यः पुष्पमादत्स्व भारत / मुमूर्षोरौषधमिव न रोचेतापि ते श्रुतम् // 1 मालाकार इवारामे स्नेहं कुर्वन्पुनः पुनः // 15 यद्वै पुरा जातमात्रो रुराव वृक्षानङ्गारकारीव मैनान्धाक्षीः समूलकान् / गोमायुवद्विस्वरं पापचेताः / मा गमः ससुतामात्यः सबलश्च पराभवम् / / 16 दुर्योधनो भारतानां कुलन्नः समवेतान्हि कः पार्थान्प्रतियुध्येत भारत / . . सोऽयं युक्तो भविता कालहेतुः // 2 मरुद्भिः सहितो राजन्नपि साक्षान्मरुत्पतिः // 17 गृहे वसन्तं गोमायुं त्वं वै मत्वा न बुध्यसे / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि दुर्योधनस्य रूपेण शृणु काव्यां गिरं मम // 3 पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः // 55 // मधु वै माध्विको लब्ध्वा प्रपातं नावबुध्यते / आरुह्य तं मजति वा पतनं वाधिगच्छति // 4 विदुर उवाच। सोऽयं मत्तोऽक्षदेवेन मधुवन्न परीक्षते / द्यूतं मूलं कलहस्यानुपाति प्रपातं बुध्यते नैव वैरं कृत्वा महारथैः // 5 ___ मिथोभेदाय महते वा रणाय / विदितं ते महाराज राजस्वेवासमञ्जसम् / यदास्थितोऽयं धृतराष्ट्रस्य पुत्रो अन्धका यादवा भोजाः समेताः कंसमत्यजन् / / 6 / दुर्योधनः सृजते वैरमुग्रम् // 1 नियोगाच्च हते तस्मिन्कृष्णेनामित्रघातिना। प्रातिपीयाः शांतनवा भैमसेनाः सबालिकाः / एवं ते ज्ञातयः सर्वे मोदमानाः शतं समाः // 7 दुर्योधनापराधेन कृच्छ्रे प्राप्स्यन्ति सर्वशः // 2 - 359 -
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________________ 2. 56. 3] महाभारते [ 2. 57.7 दुर्योधनो मदेव क्षेमं राष्ट्रादपोहति / मायायोधी भारत पार्वतीयः // 10 विषाणं गौरिव मदात्स्वयमारुजते बलात् // 3 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि यश्चित्तमन्वेति परस्य राज षट्पञ्चाशोऽध्यायः // 56 // न्वीरः कविः स्वामतिपत्य दृष्टिम् / नावं समुद्र इव बालनेत्रा दुर्योधन उवाच / __मारुह्य घोरे व्यसने निमज्जेत् // 4 परेषामेव यशसा श्लाघसे त्वं दुर्योधनो ग्लहते पाण्डवेन सदा छन्नः कुत्सयन्धार्तराष्ट्रान् / प्रियायसे त्वं जयतीति तच्च / जानीमस्त्वां विदुर यत्प्रियस्त्वं अतिनर्माज्जायते संप्रहारो बालानिवास्मानवमन्यसे त्वम् // 1 यतो विनाशः समुपैति पुंसाम् // 5 / सुविज्ञेयः पुरुषोऽन्यत्रकामो आकर्षस्तेऽवाक्फलः कुप्रणीतो निन्दाप्रशंसे हि तथा युनक्ति / हृदि प्रौढो मत्रपदः समाधिः / जिह्वा मनस्ते हृदयं निर्व्यनक्ति युधिष्ठिरेण सफलः संस्तवोऽस्तु ___ ज्यायो निराह मनसः प्रातिकूल्यम् // 2 उत्सङ्गेन व्याल इवाहृतोऽसि साम्नः सुरिक्तोऽरिमतेः सुधन्वा // 6 मार्जारवत्पोषकं चोपहंसि / प्रातिपीयाः शांतनवाश्च राज भर्तृघ्नत्वान्न हि पापीय आहुन्काव्यां वाचं शृणुत मात्यगाद्वः / स्तस्मात्क्षत्तः किं न बिभेषि पापात् // 3 वैश्वानरं प्रज्वलितं सुघोर जित्वा शत्रून्फलमाप्तं महन्नो मयुद्धेन प्रशमयतोत्पतन्तम् // 7 मास्मान्क्षत्तः परुषाणीह वोचः। यदा मन्यु पाण्डवोऽजातशत्रु द्विषद्भिस्त्वं संप्रयोगाभिनन्दी न संयच्छेदक्षमयाभिभूतः / मुहुर्तेषं यासि नः संप्रमोहात् // 4 वृकोदरः सव्यसाची यमौ च अमित्रतां याति नरोऽक्षमं ब्रुवकोऽत्र द्वीपः स्यात्तुमुले वस्तदानीम् // 8 * निगूहते गुह्यममित्रसंस्तवे। महाराज प्रभवस्त्वं धनानां तदाश्रितापत्रपा किं न बाधते ___पुरा द्यूतान्मनसा यावदिच्छेः / ___ यदिच्छसि त्वं तदिहाद्य भाषसे // 5 बहु वित्तं पाण्डवांश्चेजयेस्त्वं मा नोऽवमंस्था विद्म मनस्तवेदं ___किं तेन स्याद्वसु विन्देह पार्थान् // 9 शिक्षस्व बुद्धिं स्थविराणां सकाशात् / जानीमहे देवितं सौबलस्य यशो रक्षस्व विदुर संप्रणीतं __ वेद द्यूते निकृतिं पार्वतीयः / ___ मा व्यापृतः परकार्येषु भूस्त्वम् // 6 यतः प्राप्तः शकुनिस्तत्र यातु अहं कर्तेति विदुर मावसंस्था - 360 -
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________________ 2. 57.7] सभापर्व [2. 58. 3 मा नो नित्यं परुषाणीह वोचः / अनुप्रियं चेदनुकाङ्क्षसे त्वं न त्वां पृच्छामि विदुर यद्धितं मे सर्वेषु कार्येषु हिताहितेषु / स्वस्ति क्षत्तर्मा तितिक्षुन्क्षिणु त्वम् // 7 स्त्रियश्च राजञ्जडपङ्गुकांश्च एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता पृच्छ त्वं वै ताशांश्चैव मूढान् // 16 गर्ने शयानं पुरुष शास्ति शास्ता। लभ्यः खलु प्रातिपीय नरोऽनुप्रियवागिह / तेनानुशिष्टः प्रवणादिवाम्भो अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः // 17 __ यथा नियुक्तोऽस्मि तथा वहामि // 8 यस्तु धर्मे पराश्वस्य हित्वा भर्तुः प्रियाप्रिये / भिनत्ति शिरसा शैलमहिं भोजयते च यः। अप्रियाण्याह पथ्यानि तेन राजा सहायवान् // 18 स एव तस्य कुरुते कार्याणामनुशासनम् // 9 अव्याधिजं कटुकं तीक्ष्णमुष्णं यो बलादनुशास्तीह सोऽमित्रं तेन विन्दति / यशोमुषं परुषं पूतिगन्धि। मित्रतामनुवृत्तं तु समुपेक्षेत पण्डितः // 10 सतां पेयं यन्न पिबन्त्यसन्तो प्रदीप्य यः प्रदीप्ताग्निं प्राक्त्वरन्नाभिधावति / ___ मन्यु महाराज पिब प्रशाम्य // 19 भस्मापि न स विन्देत शिष्टं वचन भारत // 11 वैचित्रवीर्यस्य यशो धनं च न वासयेत्पारवयं द्विषन्तं वाञ्छाम्यहं सहपुत्रस्य शश्वत् / . विशेषतः क्षत्तरहितं मनुष्यम् / यथा तथा वोऽस्तु नमश्च वोऽस्तु स यत्रेच्छसि विदुर तत्र गच्छ ममापि च स्वस्ति दिशन्तु विप्राः // 20 सुसान्त्वितापि ह्यसती स्त्री जहाति // 12 आशीविषान्नेत्रविषान्कोपयेन्न तु पण्डितः / विदुर उवाच / एवं तेऽहं वदामीदं प्रयतः कुरुनन्दन // 21 एतावता ये पुरुषं त्यजन्ति इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि . तेषां सख्यमन्तवद्रूहि राजन् / ___ सप्तपञ्चाशोऽध्यायः // 57 // राज्ञां हि चित्तानि परिप्लुतानि / सान्त्वं दत्त्वा मुसलैर्घातयन्ति // 13 शकुनिरुवाच। अबालस्त्वं मन्यसे राजपुत्र बहु वित्तं पराजैषीः पाण्डवानां युधिष्ठिर / __ बालोऽहमित्येव सुमन्दबुद्धे / आचक्ष्व वित्तं कौन्तेय यदि तेऽस्त्यपराजितम् // 1 यः सौहृदे पुरुषं स्थापयित्वा युधिष्ठिर उवाच। - पश्चादेनं दूषयते स बालः // 14 मम वित्तमसंख्येयं यदहं वेद सौबल / न श्रेयसे नीयते मन्दबुद्धिः अथ त्वं शकुने कस्माद्वित्तं समनुपृच्छसि // 2 स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा / अयुतं प्रयुतं चैव खर्व पद्मं तथार्बुदम् / ध्रुवं न रोद्भरतर्षभस्य शङ्ख चैव निखर्वं च समुद्रं चात्र पण्यताम् / ___ पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः // 15 एतन्मम धनं राजंस्तेन दीव्याम्यहं त्वया // 3 म.भा. 46 -861 -
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________________ 2. 58. 4] महाभारते [2. 58. 21 वैशंपायन उवाच। वैशंपायन उवाच / एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / एवमुक्त्वा तु शकुनिस्तानक्षान्प्रत्यपद्यत / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 4 जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 13 युधिष्ठिर उवाच / __ युधिष्ठिर उवाच / गवाश्वं बहुधेनूकमसंख्येयमजाविकम् / अयं धर्मान्सहदेवोऽनुशास्ति। यत्किंचिदनुवर्णानां प्राक्सिन्धोरपि सौबल / ___ लोके ह्यस्मिन्पण्डिताख्यां गतश्च / एतन्मम धनं राजंस्तेन दीव्याम्यहं त्वया // 5 अनर्हता राजपुत्रेण तेन वैशंपायन उवाच / त्वया दीव्याम्यप्रियवत्प्रियेण // 14 एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / वैशंपायन उवाच / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 6 एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / युधिष्ठिर उवाच / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 15 पुरं जनपदो भूमिरब्राह्मणधनैः सह / शकुनिरुवाच / अब्राह्मणाश्च पुरुषा राजशिष्टं धनं मम / माद्रीपुत्रौ प्रियौ राजंस्तवमौ विजितौ मया। . एतद्राजन्धनं मह्यं तेन दीव्याम्यहं त्वया // 7 गरीयांसौ तु ते मन्ये भीमसेनधनंजयौ // 16 वैशंपायन उवाच / युधिष्ठिर उवाच / एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / / अधर्मं चरसे नूनं यो नावेक्षसि वै नयम् / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 8 यो नः सुमनसा मूढ विभेदं कर्तुमिच्छसि // 17 युधिष्ठिर उवाच / . शकुनिरुवाच / राजपुत्रा इमे राजशोभन्ते येन भूषिताः / गर्ने मत्तः प्रपतति प्रमत्तः स्थाणुमृच्छति / कुण्डलानि च निष्काश्च सर्वं चाङ्गविभूषणम् / ज्येष्ठो राजन्वरिष्ठोऽसि नमस्ते भरतर्षभ // 18 एतन्मम धनं राजंस्तेन दीव्याम्यहं त्वया // 9 स्वप्ने न तानि पश्यन्ति जाग्रतो वा युधिष्ठिर / वैशंपायन उवाच / कितवा यानि दीव्यन्तः प्रलपन्त्युत्कटा इव // 19 एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / . युधिष्ठिर उवाच / . जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 10 यो नः संख्ये नौरिव पारनेता युधिष्ठिर उवाच / __ जेता रिपूणां राजपुत्रस्तरस्वी। श्यामो युवा लोहिताक्षः सिंहस्कन्धो महाभुजः / अनर्हता लोकवीरेण तेन नकुलो ग्लह एको मे यच्चैतत्स्वगतं धनम् // 11 दीव्याम्यहं शकुने फल्गुनेन // 20 ___ शकुनिरुवाच / वैशंपायन उवाच / प्रियस्ते नकुलो राजनराजपुत्रो युधिष्ठिर / एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / अस्माकं धनतां प्राप्तो भूयस्त्वं केन दीव्यसि // 12 / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 21 -862 -
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________________ 1. 58. 22] सभापर्व [2. 58.42 शकुनिरुवाच। वैशंपायन उवाच / अयं मया पाण्डवानां धनुर्धरः एवमुक्त्वा मताक्षस्तान्ग्लहे सर्वानवस्थितान् / पराजितः पाण्डवः सव्यसाची / पराजयल्लोकवीरानाक्षेपेण पृथक्पृथक् // 30 . मीमेन राजन्दयितेन दीव्य शकुनिरुवाच / यत्कैतव्यं पाण्डव तेऽवशिष्टम् // 22 अस्ति वै ते प्रिया देवी ग्लह एकोऽपराजितः / युधिष्ठिर उवाच / पणस्व कृष्णां पाञ्चालीं तयात्मानं पुनर्जय // 31 यो नो नेता यो युधां नः प्रणेता युधिष्ठिर उवाच। __ यथा वञी दानवशत्रुरेकः / नैव ह्रस्वा न महती नातिकृष्णा न रोहिणी / तिर्यक्प्रेक्षी संहतभ्रूमहात्मा सरागरक्तनेत्रा च तया दीव्याम्यहं त्वया // 32 सिंहस्कन्धो यश्च सदात्यमर्षी // 23 शारदोत्पलपत्राक्ष्या शारदोत्पलगन्धया। बलेन तुल्यो यस्य पुमान्न विद्यते शारदोत्पलसेविन्या रूपेण श्रीसमानया // 33 ___ गदाभृतामग्र्य इहारिमर्दनः। तथैव स्यादानृशंस्यात्तथा स्याद्रूपसंपदा / अनर्हता राजपुत्रेण तेन . . तथा स्याच्छीलसंपत्त्या यामिच्छेत्पुरुषः स्त्रियम् 34 दीव्याम्यहं भीमसेनेन राजन् / / 24 चरमं संविशति या प्रथमं प्रतिबुध्यते / वैशंपायन उवाच / आ गोपालाविपालेभ्यः सर्वं वेद कृताकृतम् // 35 एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृतिं समुपाश्रितः / आभाति पद्मवद्वक्त्रं सस्वेदं मल्लिकेव च / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 25 वेदीमध्या दीर्घकेशी ताम्राक्षी नातिरोमशा // 36 शकुनिरुवाच / तयैवंविधया राजन्पाञ्चाल्याहं सुमध्यया / ग्लहं दीव्यामि चार्वङ्गया द्रौपद्या हन्त सौबल // 37 बहु वित्तं पराजैषीर्धासुंश्च सहयद्विपान् / वैशंपायन उवाच / आचक्ष्व वित्तं कौन्तेय यदि तेऽस्त्यपराजितम् // 26 एवमुक्ते तु वचने धर्मराजेन भारत / ... युधिष्ठिर उवाच / धिग्धिगित्येव वृद्धानां सभ्यानां निःसृता गिरः।।३८ अहं विशिष्टः सर्वेषां भ्रातृणां दयितस्तथा। चुक्षुभे सा सभा राजनराज्ञां संजज्ञिरे कथाः / कुर्यामस्ते जिताः कर्म स्वयमात्मन्युपप्लवे // 27 भीष्मद्रोणकृपादीनां स्वेदश्च समजायत // 39 वैशंपायन उवाच / शिरो गृहीत्वा विदुरो गतसत्त्व इवाभवत् / एतच्छ्रुत्वा व्यवसितो निकृति समुपाश्रितः / आस्ते ध्यायन्नधोवक्त्रो निःश्वसन्पन्नगो यथा // 40 जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत / 28 धृतराष्ट्रस्तु संहृष्टः पर्यपृच्छत्पुनः पुनः / शकुनिरुवाच / किं जितं किं जितमिति ह्याकारं नाभ्यरक्षत // 41 एतत्पापिष्ठमकरोर्यदात्मानं पराजितः / जहर्ष कर्णोऽतिभृशं सह दुःशासनादिभिः / शिष्टे सति धने राजन्पाप आत्मपराजयः // 29 / इतरेषां तु सभ्यानां नेत्रेभ्यः प्रापतज्जलम् // 42 - 363 -
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________________ 2. 58. 43] महाभारते [ 2. 60.2 सौबलस्त्वविचार्यैव जितकाशी मदोत्कटः / तान्पण्डितो नावसजेत्परेषु // 7 जितमित्येव तानक्षान्पुनरेवान्वपद्यत // 43 अजो हि शस्त्रमखनत्किलैकः इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि ____ शस्त्रे विपन्ने पद्भिरपास्य भूमिम् / अष्टपञ्चाशोऽध्यायः॥ 54 // निकृन्तनं स्वस्य कण्ठस्य घोरं तद्वद्वैरं मा खनीः पाण्डुपुत्रैः // 8 दुर्योधन उवाच। न किंचिदीड्यं प्रवदन्ति पापं एहि क्षत्तद्रौपदीमानयस्व वनेचरं वा गृहमेधिनं वा। प्रियां भार्यां संमतां पाण्डवानाम् / तपस्विनं संपरिपूर्णविद्यु संमार्जतां वेश्म परैतु शीघ्र ___ भषन्ति हैवं श्वनराः सदैव // 9 मानन्दो नः सह दासीभिरस्तु // 1 द्वारं सुघोरं नरकस्य जिज्ञ विदुर उवाच / न बुध्यसे धृतराष्ट्रस्य पुत्र / दुर्विभाव्यं भवति त्वादृशेन त्वामन्वेतारो बहवः कुरूणां / __न मन्द संबुध्यसि पाशबद्धः / द्यूतोदये सह दुःशासनेन // 10 प्रपाते त्वं लम्बमानो न वेत्सि / मज्जन्त्यलाबूनि शिलाः प्लवन्ते व्याघ्रान्मृगः कोपयसेऽतिबाल्यात् // 2 __मुह्यन्ति नावोऽम्भसि शश्वदेव / आशीविषाः शिरसि ते पूर्णकोशा महाविषाः। मूढो राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो मा कोपिष्टाः सुमन्दात्मन्मा गमस्त्वं यमक्षयम् // 3 न मे वाचः पथ्यरूपाः शृणोति // 11 न हि दासीत्वमापन्ना कृष्णा भवति भारत / अन्तो नूनं भवितायं कुरूणां अनीशेन हि राज्ञैषा पणे न्यस्तेति मे मतिः॥४ सुदारुणः सर्वहरो विनाशः। अयं धत्ते वेणुरिवात्मघाती वाचः काव्याः सुहृदां पथ्यरूपा फलं राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रः। .. न श्रूयन्ते वर्धते लोभ एव // 12 द्यूतं हि वैराय महाभयाय इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि पक्को न बुध्यत्ययमन्तकाले // 5 एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥ 59 // नारंतुदः स्यान्न नृशंसवादी __ न हीनतः परमभ्याददीत / वैशंपायन उवाच / ययास्य वाचा पर उद्विजेत धिगस्तु क्षत्तारमिति ब्रुवाणो न तां वदेद्रुशती पापलोक्याम् // 6 दर्पण मत्तो धृतराष्ट्रस्य पुत्रः / समुच्चरन्त्यतिवादा हि वक्त्रा अवैक्षत प्रातिकामी सभायाबैराहतः शोचति रात्र्यहानि / ____ मुवाच चैनं परमार्यमध्ये // 1 परस्य नामर्मसु ते पतन्ति त्वं प्रातिकामिन्द्रौपदीमानयस्व - 364 -
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________________ 1. 60. 2] सभापर्व [2. 60. 17 द्रौपद्युवाच / न ते भयं विद्यते पाण्डवेभ्यः / / युधिष्ठिरस्तु निश्चेष्टो गतसत्त्व इवाभवत् / क्षत्ता ह्ययं विवदत्येव भीरु न तं सूतं प्रत्युवाच वचनं साध्वसाधु वा // 9 न चास्माकं वृद्धिकामः सदैव / / 2 दुर्योधन उवाच / एवमुक्तः प्रातिकामी स सूतः इहैत्य कृष्णा पाञ्चाली प्रश्नमेतं प्रभाषताम् / प्रायाच्छीघ्रं राजवचो निशम्य / इहैव सर्वे शृण्वन्तु तस्या अस्य च यद्वचः // 10 प्रविश्य च श्वेव स सिंहगोष्ठं वैशंपायन उवाच / समासदन्महिषीं पाण्डवानाम् // 3 स गत्वा राजभवनं दुर्योधनवशानुगः / प्रातिकाम्युवाच / उवाच द्रौपदी सूतः प्रातिकामी व्यथन्निव // 11 युधिष्ठिरे द्यूतमदेन मत्ते सभ्यास्त्वमी राजपुत्र्याह्वयन्ति दुर्योधनो द्रौपदि त्वामजैषीत् / / मन्ये प्राप्तः संक्षयः कौरवाणाम् / सा प्रपद्य त्वं धृतराष्ट्रस्य वेश्म न वै समृद्धिं पालयते लघीयानयामि त्वां कर्मणे याज्ञसेनि // 4 न्यत्त्वं सभामेष्यसि राजपुत्रि / / 12 द्रौपधुवाच / कथं त्वेवं वदसि प्रातिकामि एवं नूनं व्यदधात्संविधाता : को वै दीव्येद्भार्यया राजपुत्रः / ____ स्पर्शावुभौ स्पृशतो धीरबालौ / मूढो राजा द्यूतमदेन मत्त धर्मं त्वेकं परमं प्राह लोके ... आहो नान्यत्कैतवमस्य किंचित् // 5 स नः शमं धास्यति गोप्यमानः // 13 प्रातिकाम्युवाच / वैशंपायन उवाच / यदा नाभूकैतवमन्यदस्य युधिष्ठिरस्तु तच्छ्रुत्वा दुर्योधनचिकीर्षितम् / . . तदादेवीत्पाण्डवोऽजातशत्रुः / द्रौपद्याः संमतं दूतं प्राहिणोद्भरतर्षभ / / 14 न्यस्ताः पूर्वं भ्रातरस्तेन राज्ञा एकवस्त्रा अधोनीवी रोदमाना रजस्वला / स्वयं चात्मा त्वमथो राजपुत्रि // 6 सभामागम्य पाञ्चाली श्वशुरस्याग्रतोऽभवत् // 15 द्रोपद्युवाच / ततस्तेषां मुखमालोक्य राजा गच्छ त्वं कितवं गत्वा सभायां पृच्छ सूतज / दुर्योधनः सूतमुवाच हृष्टः / किं नु पूर्वं पराजैषीरात्मानं मां नु भारत / इहैवैतामानय प्रातिकामिएतज्ज्ञात्वा त्वमागच्छ ततो मां नय सूतज // 7 न्प्रत्यक्षमस्याः कुरवो ब्रुवन्तु // 16 वैशंपायन उवाच / ततः सूतस्तस्य वशानुगामी सभां गत्वा स चोवाच द्रौपद्यास्तद्वचस्तदा / ___ भीतश्च कोपामुपदात्मजायाः / कस्येशो नः पराजैषीरिति त्वामाह द्रौपदी / विहाय मानं पुनरेव सभ्याकिं नु पूर्वं पराजैषीरात्मानमथ वापि माम् // 8 नुवाच कृष्णां किमहं ब्रवीमि // 17 -365 -
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________________ 2. 60. 18 ] महाभारते [2. 60. 32 दुर्योधन उवाच। शनैरुवाचाद्य रजखलास्मि / दुःशासनैष मम सूतपुत्रो एकं च वासो मम मन्दबुद्धे वृकोदरादुद्विजतेऽल्पचेताः। सभां नेतुं नार्हसि मामनार्य // 25 स्वयं प्रगृह्यानय याज्ञसेनी ततोऽब्रवीत्तां प्रसभं निगृह्य - किं ते करिष्यन्त्यवशाः सपत्नाः // 18 केशेषु कृष्णेषु तदा स कृष्णाम् / ततः समुत्थाय स राजपुत्रः कृष्णं च जिष्णुं च हरि नरं च श्रुत्वा भ्रातुः कोपविरक्तदृष्टिः / त्राणाय विक्रोश नयामि हि त्वाम् // 26 प्रविश्य तद्वेश्म महारथाना रजस्वला वा भव याज्ञसेनि मित्यब्रवीद्रौपदी राजपुत्रीम् // 19 ___ एकाम्बरा वाप्यथ वा विवस्त्रा। एोहि पाश्चालि जितासि कृष्णे द्यूते जिता चासि कृतासि दासी दुर्योधनं पश्य विमुक्तलज्जा। दासीषु कामश्च यथोपजोषम् / / 27 कुरून्भजस्वायतपद्मनेत्रे प्रकीर्णकेशी पतितार्धवस्त्रा धर्मेण लब्धासि सभां परैहि // 20 दुःशासनेन व्यवधूयमाना। ततः समुत्थाय सुदुर्मनाः सा ह्रीमत्यमर्षेण च दह्यमाना विवर्णमामृज्य मुखं करेण / शनैरिदं वाक्यमुवाच कृष्णा // 28 आर्ता प्रदुद्राव यतः स्त्रियस्ता इमे सभायामुपदिष्टशास्त्राः .. वृद्धस्य राज्ञः कुरुपुंगवस्य // 21 क्रियावन्तः सर्व एवेन्द्रकल्पाः / ततो जवेनाभिससार रोषा गुरुस्थाना गुरवश्चैव सर्वे ___ दुःशासनस्तामभिगजमानः। तेषामग्रे नोत्सहे स्थातुमेवम् // 29 दीर्धेषु नीलेष्वथ चोर्मिमत्सु नृशंसकर्मस्त्वमनायवृत्त जग्राह केशेषु नरेन्द्रपत्नीम् // 22 मा मां विवस्त्रां कृधि मा विकार्षीः / : ये राजसूयावभृथे जलेन न मर्षयेयुस्तव राजपुत्राः __महाक्रती मत्रपूतेन सिक्ताः। . सेन्द्रापि देवा यदि ते सहायाः // 30 ते पाण्डवानां परिभूय वीर्य धर्मे स्थितो धर्मसुतश्च राजा ___ बलात्प्रमृष्टा धृतराष्ट्रजेन // 23 धर्मश्च सूक्ष्मो निपुणोपलभ्यः / स तां परामृश्य सभासमीप वाचापि भर्तुः परमाणुमात्रं __ मानीय कृष्णामतिकृष्णकेशीम् / नेच्छामि दोषं स्वगुणान्विसृज्य // 31 दुःशासनो नाथवतीमनाथव इदं त्वनार्यं कुरुवीरमध्ये ____चकर्ष वायुः कदलीमिवार्ताम् // 24 रजस्वलां यत्परिकर्षसे माम् / सा कृष्यमाणा नमिताङ्गयष्टिः न चापि कश्चित्कुरुतेऽत्र पूजा - 366 -
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________________ 2. 60. 32] समापर्व [2. 60. 48 ध्रुवं तवेदं मतमन्वपद्यन् // 32 धिगस्तु नष्टः खलु भारतानां ... धर्मस्तथा क्षत्रविदां च वृत्तम् / यत्राभ्यतीतां कुरुधर्मवेलां ... प्रेक्षन्ति सर्वे कुरवः सभायाम् // 33 द्रोणस्य भीष्मस्य च नास्ति सत्त्वं .... ध्रुवं तथैवास्य महात्मनोऽपि / राज्ञस्तथा हीममधर्ममुग्रं न लक्षयन्ते कुरुवृद्धमुख्याः // 34 . तथा ब्रुवन्ती करुणं सुमध्यमा ___ काक्षेण भर्तृन्कुपितानपश्यत् / सा पाण्डवान्कोपपरीतदेहा- न्संदीपयामास कटाक्षपातैः // 35 हृतेन राज्येन तथा धनेन रत्नैश्च मुख्यैर्न तथा बभूव / यथार्तया कोपसमीरितेन - कृष्णाकटाक्षेण बभूव दुःखम् // 36 दुःशासनश्चापि समीक्ष्य कृष्णा मवेक्षमाणां कृपणान्पतींस्तान्। आधूय वेगेन विसंज्ञकल्पा मुवाच दासीति हसन्निवोनः // 37 कर्णस्तु तद्वाक्यमतीव हृष्टः संपूजयामास हसन्सशब्दम् / गान्धारराजः सुबलस्य पुत्र. स्तथैव दुःशासनमभ्यनन्दत् // 38 सभ्यास्तु ये तत्र बभूवुरन्ये ताभ्यामृते धार्तराष्ट्रण चैव / तेषामभूदुःखमतीव कृष्णां दृष्ट्वा सभायां परिकृष्यमाणाम् / / 39 . / - 367 भीष्म उवाच। न धर्मसौक्ष्म्यात्सुभगे विवक्तुं ___ शक्नोमि ते प्रश्नमिमं यथावत् / अस्वो ह्यशक्तः पणितुं परस्वं स्त्रियश्च भर्तुर्वशतां समीक्ष्य // 40 त्यजेत सर्वां पृथिवीं समृद्धां युधिष्ठिरः सत्यमथो न जह्यात् / उक्तं जितोऽस्मीति च पाण्डवेन तस्मान्न शक्नोमि विवेक्तुमेतत् // 41 .. यतेऽद्वितीयः शकुनि रेषु कुन्तीसुतस्तेन निसृष्टकामः / न मन्यते तां निकृतिं महात्मा तस्मान्न ते प्रश्नमिमं ब्रवीमि // 42 / द्रौपधुवाच / आहूय राजा कुशलैः सभायां __ दुष्टात्मभिनॆकृतिकैरनार्यैः / तप्रियैर्नातिकृतप्रयत्नः _कस्मादयं नाम निसृष्टकामः॥ 43 स शुद्धभावो निकृतिप्रवृत्ति मबुध्यमानः कुरुपाण्डवाय्यः। संभूय सर्वैश्च जितोऽपि यस्मा त्पश्चाच्च यत्कैतवमभ्युपेतः / / 44 तिष्ठन्ति चेमे कुरवः सभाया मीशाः सुतानां च तथा स्नुषाणाम् / समीक्ष्य सर्वे मम चापि वाक्यं विब्रूत मे प्रश्नमिमं यथावत् // 45 .. वैशंपायन उवाच। तथा ब्रुवन्तीं करुणं रुदन्ती मवेक्षमाणामसकृत्पतींस्तान्। दुःशासनः परुषाण्यप्रियाणि -
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________________ 2. 60. 46 ] महाभारते [2. 61. 25 वाक्यान्युवाचामधुराणि चैव // 46 वैशंपायन उवाच। तां कृष्यमाणां च रजस्वलां च तथा तान्दुःखितान्दृष्ट्वा पाण्डवान्धृतराष्ट्रजः / स्रस्तोत्तरीयामतदर्हमाणाम् / क्लिश्यमानां च पाञ्चालीं विकर्ण इदमब्रवीत् // 11 वृकोदरः प्रेक्ष्य युधिष्ठिरं च याज्ञसेन्या यदुक्तं तद्वाक्यं विब्रूत पार्थिवाः / चकार कोपं परमार्तरूपः // 47 अविवेकेन वाक्यस्य नरकः सद्य एव नः // 12 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि षष्टितमोऽध्यायः॥ 6 // भीष्मश्च धृतराष्ट्रश्च कुरुवृद्धतमावुभौ / 61 समेत्य नाहतुः किंचिद्विदुरश्च महामतिः // 13 भीम उवाच / भारद्वाजोऽपि सर्वेषामाचार्यः कृप एव च / भवन्ति देशे बन्धक्यः कितवानां युधिष्ठिर / अत एतावपि प्रश्नं नाहतुर्द्विजसत्तमौ // 14 न ताभिस्त दीव्यन्ति दया चैवास्ति तास्वपि // 1 ये त्वन्ये पृथिवीपालाः समेताः सर्वतो दिशः / काश्यो यद्वलिमाहाद्रिव्यं यच्चान्यदुत्तमम् / कामक्रोधौ समुत्सृज्य ते ब्रुवन्तु यथामति // 15 तथान्ये पृथिवीपाला यानि रत्नान्युपाहरन् // 2 यदिदं द्रौपदी वाक्यमुक्तवत्यसकृच्छुभा / वाहनानि धनं चैव कवचान्यायुधानि च / विमृश्य कस्य कः पक्षः पार्थिवा वदतोत्तरम् // 16 राज्यमात्मा वयं चैव कैतवेन हृतं परैः // 3 एवं स बहुशः सर्वानुक्तवांस्तान्सभासदः / न च मे तत्र कोपोऽभूत्सर्वस्येशो हि नो भवान् / न च ते पृथिवीपालास्तमूचुः साध्वसाधु वा // 17 इदं त्वतिकृतं मन्ये द्रौपदी यत्र पण्यते // 4 उक्त्वा तथासकृत्सर्वान्विकर्णः पृथिवीपतीन् / एषा ह्यनहती बाला पाण्डवान्प्राप्य कौरवैः / पाणिं पाणौ विनिष्पिष्य निःश्वसन्निदमब्रवीत्॥१८ त्वत्कृते क्लिश्यते क्षुदैर्नृशंसैनिकृतिप्रियः // 5 विब्रूत पृथिवीपाला वाक्यं मा वा कथंचन / अस्याः कृते मन्युरयं त्वयि राजन्निपात्यते / मन्ये न्याय्यं यदत्राहं तद्धि वक्ष्यामि कौरवाः // 19 बाहू ते संप्रधक्ष्यामि सहदेवाग्निमानय // 6 चत्वार्याहुर्नरश्रेष्ठा व्यसनानि महीक्षिताम् / अर्जुन उवाच / मृगयां पानमक्षांश्च ग्राम्ये चैवातिसक्तताम् // 20 न पुरा भीमसेन त्वमीदृशीर्वदिता गिरः / एतेषु हि नरः सक्तो धर्ममुत्सृज्य वर्तते / परैस्ते नाशितं नूनं नृशंसैधर्मगौरवम् / / 7 तथायुक्तेन च कृतां क्रियां लोको न मन्यते // 21 न सकामाः परे कार्या धर्ममेवाचरोत्तमम् / तदयं पाण्डुपुत्रेण व्यसने वर्तता भृशम् / भ्रातरं धार्मिकं ज्येष्ठं नातिक्रमितुमर्हति // 88 समाहूतेन कितवैरास्थितो द्रौपदीपणः // 22 आहूतो हि परै राजा क्षात्रधर्ममनुस्मरन् / साधारणी च सर्वेषां पाण्डवानामनिन्दिता। दीव्यते परकामेन तन्नः कीर्तिकरं महत् / / 9 / जितेन पूर्वं चानेन पाण्डवेन कृतः पणः // 23 भीमसेन उवाच। इयं च कीर्तिता कृष्णा सौबलेन पणार्थिना / एवमस्मिकृतं विद्यां यद्यन्याहं धनंजय / एतत्सर्वं विचार्याहं मन्ये न विजितामिमाम् // 24 दीप्तेऽनौ सहितौ बाहू निर्दहेयं बलादिव // 10 / एतच्छ्रुत्वा महानादः सभ्यानामुदतिष्ठत / -368 -
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________________ 2. 61. 25 ] सभापर्व [2. 61. 54 विकर्णं शंसमानानां सौबलं च विनिन्दताम् // 25 सभामध्ये समाक्षिप्य व्यपक्रष्टुं प्रचक्रमे // 40 तस्मिन्नुपरते शब्दे राधेयः क्रोधमूर्छितः / आकृष्यमाणे वसने द्रौपद्यास्तु विशां पते / प्रगृह्य रुचिरं बाहुमिदं वचनमब्रवीत् // 26 तद्रूपमपरं वस्त्रं प्रादुरासीदनेकशः // 41 दृश्यन्ते वै विकणे हि वैकृतानि बहून्यपि / ततो हलहलाशब्दस्तत्रासीद्धोरनिस्वनः / तज्जस्तस्य विनाशाय यथामिररणिप्रजः // 27 तदद्भुततमं लोके वीक्ष्य सर्वमहीक्षिताम् // 42 एते न किंचिदप्याहुश्चोद्यमानापि कृष्णया। शशाप तत्र भीमस्तु राजमध्ये महास्वनः / धर्मेण विजितां मन्ये मन्यन्ते द्रुपदात्मजाम् // 28 क्रोधाद्विस्फुरमाणोष्ठो विनिष्पिष्य करे करम् / / 43 त्वं तु केवलबाल्येन धार्तराष्ट्र विदीर्यसे / इदं मे वाक्यमादद्धं क्षत्रिया लोकवासिनः / यद्भवीषि सभामध्ये बालः स्थविरभाषितम् // 29 नोक्तपूर्वं नरैरन्यैर्न चान्यो यद्वदिष्यति // 44 न च धर्म यथातत्त्वं वेत्सिं दुर्योधनावर। यद्येतदेवमुक्त्वा तु न कुर्यां पृथिवीश्वराः। यद्भवीषि जितां कृष्णामजितेति सुमन्दधीः // 30 / पितामहानां सर्वेषां नाहं गतिमवाप्नुयाम् // 45 कथं ह्यविजितां कृष्णां मन्यसे धृतराष्ट्रज / अस्य पापस्य दुर्जाते रतापसदस्य च। यदा सभायां सर्वस्वं न्यस्तवान्पाण्डवाग्रजः॥ 31 न पिबेयं बलाद्वक्षो भित्त्वा चेद्रुधिरं युधि // 46 अभ्यन्तरा च सर्वस्खे द्रौपदी भरतर्षभ / तस्य ते वचनं श्रुत्वा सर्वलोकप्रहर्षणम् / एवं धर्मजितां कृष्णां मन्यसे न जितां कथम् // 32 प्रचक्रुर्बहुलां पूजां कुत्सन्तो धृतराष्ट्रजम् // 47 कीर्तिता द्रौपदी वाचा अनुज्ञाता च पाण्डवैः / यदा तु वाससां राशिः सभामध्ये समाचितः / भवत्यविजिता केन हेतुनैषा मता तव // 33 ततो दुःशासनः श्रान्तो व्रीडितः समुपाविशत्॥४८ मन्यसे वा सभामेतामानीतामेकवाससम् / धिक्शब्दस्तु ततस्तत्र समभूल्लोमहर्षणः। अधर्मेणेति तत्रापि शृणु मे वाक्यमुत्तरम् // 34 सभ्यानां नरदेवानां दृष्ट्वा कुन्तीसुतांस्तदा // 49 एको भर्ता स्त्रिया देवैर्विहितः कुरुनन्दन / न विब्रुवन्ति कौरव्याः प्रश्नमेतमिति स्म ह / इयं त्वनेकवशगा बन्धकीति विनिश्चिता // 35 स जनः क्रोशति स्मात्र धृतराष्ट्र विगर्हयन् / / 50 अस्याः सभामानयनं न चित्रमिति मे मतिः। ततो बाहू समुच्छ्रित्य निवार्य च सभासदः / एकाम्बरधरत्वं वाप्यथ वापि विवस्त्रता // 36 विदुरः सर्वधर्मज्ञ इदं वचनमब्रवीत् // 51 यश्चैषां द्रविणं किंचिद्या चैषा ये च पाण्डवाः / विदुर उवाच / सौबलेनेह तत्सर्व धर्मेण विजितं वसु // 37 द्रौपदी प्रश्नमुक्त्वैवं रोरवीति ह्यनाथवत् / दुःशासन सुबालोऽयं विकर्णः प्राज्ञवादिकः / न च विब्रूत तं प्रश्नं सभ्या धर्मोऽत्र पीड्यते॥५२ पाण्डवानां च वासांसि द्रौपद्याश्चाप्युपाहर // 38 सभां प्रपद्यते ह्यातः प्रज्वलन्निव हव्यवाट् / तच्छ्रुत्वा पाण्डवाः सर्वे स्वानि वासांसि भारत / तं वै सत्येन धर्मेण सभ्याः प्रशमयन्त्युत // 53 अवकीर्योत्तरीयाणि सभायां समुपाविशन् // 39 / धर्मप्रश्नमथो ब्रूयादातः सभ्येषु मानवः / ततो दुःशासनो राजन्द्रौपद्या वसनं बलात् / वियुस्तत्र ते प्रश्नं कामक्रोधवशातिगाः // 54 म.भा.४७ - 369 -
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________________ 2. 61. 55] महाभारते [2. 61. 81 विकर्णेन यथाप्रज्ञमुक्तः प्रश्नो नराधिपाः / | विद्धो धर्मो ह्यधर्मेण सभां यत्र प्रपद्यते / भवन्तोऽपि हि तं प्रश्नं विब्रुवन्तु यथामति // 55 न चास्य शल्यं कृन्तन्ति विद्धास्तत्र सभासदः॥६९ यो हि प्रश्नं न विब्रूयाद्धर्मदर्शी सभां गतः। अर्धं हरति वै श्रेष्ठः पादो भवति कर्तृषु / अनृते या फलावाप्तिस्तस्याः सोऽर्धं समश्नुते // 56 पादश्चैव सभासत्सु ये न निन्दन्ति निन्दितम् // 70 यः पुनर्वितथं ब्रूयाद्धर्मदर्शी सभां गतः। अनेना भवति श्रेष्ठो मुच्यन्ते च सभासदः। अनृतस्य फलं कृत्स्नं संप्राप्नोतीति निश्चयः // 57 एनो गच्छति कर्तारं निन्दा) यत्र निन्द्यते // 71 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / वितथं तु वदेयुर्ये धर्मं प्रह्लाद पृच्छते / प्रह्लादस्य च संवादं मुनेराङ्गिरसस्य च // 58 इष्टापूर्तं च ते घ्नन्ति सप्त चैव परावरान् // 72 प्रह्लादो नाम दैत्येन्द्रस्तस्य पुत्रो विरोचनः / हृतस्वस्य हि यहुःखं हतपुत्रस्य चापि यत् / कन्याहेतोराङ्गिरसं सुधन्वानमुपाद्रवत् // 59 ऋणिनं प्रति यच्चैव राज्ञा प्रस्तस्य चापि यत् // 73 अहं ज्यायानहं ज्यायानिति कन्येप्सया तदा। स्त्रियाः पत्या विहीनायाः सार्थाद्धष्टस्य चैव यत् / तयोर्देवनमत्रासीत्प्राणयोरिति नः श्रुतम् // 60 अध्यूढायाश्च यदुःखं साक्षिभिर्विहतस्य च // 74 तयोः प्रश्नविवादोऽभूत्प्रह्लाद तावपृच्छताम् / एतानि वै समान्याहुर्दुःखानि त्रिदशेश्वराः / ज्यायान्क आवयोरेकः प्रश्नं प्रब्रूहि मा मृषा // 61 तानि सर्वाणि दुःखानि प्राप्नोति वितथं ब्रुवन्॥७५ स वै विवदनाद्भीतः सुधन्वानं व्यलोकयत् / समक्षदर्शनात्साक्ष्यं श्रवणाच्चेति धारणात् / तं सुधन्वाब्रवीत्क्रुद्धो ब्रह्मदण्ड इव ज्वलन् // 62 तस्मात्सत्यं ब्रुवन्साक्षी धर्मार्थाभ्यां न हीयते॥७६ यदि वै वक्ष्यसि मृषा प्रह्लादाथ न वक्ष्यसि / विदुर उवाच / शतधा ते शिरो वज्री वज्रेण प्रहरिष्यति / / 63 कश्यपस्य वचः श्रुत्वा प्रह्लादः पुत्रमब्रवीत् / सुधन्वना तथोक्तः सन्व्यथितोऽश्वत्थपर्णवत् / श्रेयान्सुधन्वा त्वत्तो वै मत्तः श्रेयांस्तथाङ्गिराः॥७७ जगाम कश्यपं दैत्यः परिप्रष्टुं महौजसम् // 64 माता सुधन्वनश्चापि श्रेयसी मातृतस्तव / विरोचन सुधन्वायं प्राणानामीश्वरस्तव // 78 त्वं वै धर्मस्य विज्ञाता दैवस्येहासुरस्य च / . सुधन्वोवाच / ब्राह्मणस्य महाप्राज्ञ धर्मकृच्छ्रमिदं शृणु // 65 पुत्रस्नेहं परित्यज्य यस्त्वं धर्मे प्रतिष्ठितः / यो वै प्रश्नं न वियाद्वितथं वापि निर्दिशेत् / अनुजानामि ते पुत्रं जीवत्वेष शतं समाः॥ 79 के वै तस्य परे लोकास्तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः / / 66 विदुर उवाच / कश्यप उवाच। एवं वै परमं धर्मं श्रुत्वा सर्वे सभासदः। जानन्न विब्रुवन्प्रश्नं कामाक्रोधात्तथा भयात् / यथाप्रश्नं तु कृष्णाया मन्यध्वं तत्र किं परम् // 80 सहस्रं वारुणान्पाशानात्मनि प्रतिमुञ्चति // 67 वैशंपायन उवाच। तस्य संवत्सरे पूर्णे पाश एकः प्रमुच्यते / विदुरस्य वचः श्रुत्वा नोचुः किंचन पार्थिवाः / तस्मात्सत्यं तु वक्तव्यं जानता सत्यमञ्जसा // 68 / कर्णो दुःशासनं त्वाह कृष्णां दासी गृहान्नय // 81 - 370 - प्रह्लाद उवाच।
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________________ 2. 61. 82] सभापर्व [2. 62. 23 द्रौपद्युवाच / तां वेपमानां सव्रीडां प्रलपन्तीं स्म पाण्डवान् / अयं हि मां दृढं क्षुद्रः कौरवाणां यशोहरः / दुःशासनः सभामध्ये विचकर्ष तपस्विनीम् / / 82 / क्लिश्नाति नाहं तत्सोढुं चिरं शक्ष्यामि कौरवाः॥१२ इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि जितां वाप्यजितां वापि मन्यध्वं वा यथा नृपाः / ___ एकषष्टितमोऽध्यायः // 61 // . तथा प्रत्युक्तमिच्छामि तत्करिष्यामि कौरवाः॥ 13 भीष्म उवाच / द्रौपद्युवाच / उक्तवानस्मि कल्याणि धर्मस्य तु परां गतिम् / पुरस्तात्करणीयं मे न कृतं कार्यमुत्तरम् / लोके न शक्यते गन्तुमपि विप्रैर्महात्मभिः // 14 विह्वलास्मि कृतानेन कर्षता बलिना बलात् // 1 बलवांस्तु यथा धर्मं लोके पश्यति पूरुषः / अभिवादं करोम्येषां गुरूणां कुरुसंसदि / स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहितः परैः // 15 न मे स्यादपराधोऽयं यदिदं न कृतं मया // 2 न विवेक्तुं च ते प्रश्नमेतं शक्नोमि निश्चयात् / वैशंपायन उवाच / सूक्ष्मत्वाद्गहनत्वाच्च कार्यस्यास्य च गौरवात् / / 16 सा तेन च समुद्धृता दुःखेन च तपस्विनी / नूनमन्तः कुलस्यास्य भविता नचिरादिव / पतिता विललापेदं सभायामतथोचिता // 3 तथा हि कुरवः सर्वे लोभमोहपरायणाः // 17 कुलेषु जाताः कल्याणि व्यसनाभ्याहता भृशम् / स्वयंवरे यास्मि नृपैदृष्टा रङ्गे समागतैः। धान्मार्गान्न च्यवन्ते यथा नस्त्वं वधूः स्थिता॥१८ न दृष्टपूर्वा चान्यत्र साहमद्य सभां गता // 4 उपपन्नं च पाञ्चालि तवेदं वृत्तमीदृशम् / यां न वायुन चादित्यो दृष्टवन्तौ पुरा गृहे। यत्कृच्छ्रमपि संप्राप्ता धर्ममेवान्ववेक्षसे // 19 साहमद्य सभामध्ये दृश्यामि कुरुसंसदि / / 5 एते द्रोणादयश्चैव वृद्धा धर्मविदो जनाः। यां न मृष्यन्ति वातेन स्पृश्यमानां पुरा गृहे / शून्यैः शरीस्तिष्ठन्ति गतासव इवानताः / 20 स्पृश्यमानां सहन्तेऽद्य पाण्डवास्तां दुरात्मना // 6 युधिष्ठिरस्तु प्रश्भेऽस्मिन्प्रमाणमिति मे मतिः / मृष्यन्ते कुरवश्वेमे मन्ये कालस्य पर्ययम् / अजितां वा जितां वापि स्वयं व्याहर्तुमर्हति // 21 स्नुषां दुहितरं चैव क्लिश्यमानामनर्हतीम् / / 7 वैशंपायन उवाच / किं त्वतः कृपणं भूयो यदहं स्त्री सती शुभा / तथा तु दृष्ट्वा बहु तत्तदेवं सभामध्यं विगाहेऽद्य क नु धर्मो महीक्षिताम् // 8 - रोरूयमाणां कुररीमिवार्ताम् / धाः स्त्रियः सभा पूर्वं न नयन्तीति नः श्रुतम् / नोचुर्वचः साध्वथ वाप्यसाधु स नष्टः कौरवेयेषु पूर्वो धर्मः सनातनः // 9 महीक्षितो धार्तराष्ट्रस्य भीताः // 22 कथं हि भार्या पाडूनां पार्षतस्य स्वसा सती। दृष्ट्वा तु तान्पार्थिवपुत्रपौत्रांवासुदेवस्य च सखी पार्थिवानां सभामियाम् // 10 स्तूष्णीभूतान्धृतराष्ट्रस्य पुत्रः / / तामिमां धर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णजाम् / स्मयन्निवेदं वचनं बभाषे बत दासीमदासी वा तत्करिष्यामि कौरवाः // 11 | पाञ्चालराजस्य सुतां तदानीम् // 23 - 371 -
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________________ 2. 62. 24] महाभारते [2.63.4 63 तिष्ठत्वयं प्रश्न उदारसत्त्वे ईशो नः पुण्यतपसां प्राणानामपि चेश्वरः / ___ भीमेऽर्जुने सहदेवे तथैव / मन्यते जितमात्मानं यद्येष विजिता वयम् / / 33 पत्यौ च ते नकुले याज्ञसेनि न हि मुच्येत जीवन्मे पदा भूमिमुपस्पृशन् / वदन्त्वेते वचनं त्वत्प्रसूतम् // 24 मर्त्यधर्मा परामृश्य पाञ्चाल्या मूर्धजानिमान् // 34 अनीश्वरं विब्रुवन्त्वार्यमध्ये पश्यध्वमायतौ वृत्तौ भुजौ मे परिघाविव / युधिष्ठिरं तव पाञ्चालि हेतोः। नैतयोरन्तरं प्राप्य मुच्येतापि शतक्रतुः // 35 कुर्वन्तु सर्वे चानृतं धर्मराज धर्मपाशसितस्त्वेवं नाधिगच्छामि संकटम् / पाश्चालि त्वं मोक्ष्यसे दासभावात् // 25 गौरवेण निरुद्धश्च निग्रहादर्जुनस्य च // 36 धर्मे स्थितो धर्मराजो महात्मा धर्मराजनिसृष्टस्तु सिंहः क्षुद्रमृगानिव / स्वयं चेदं कथयत्विन्द्रकल्पः / धार्तराष्ट्रानिमान्पापान्निष्पिषेयं तलासिभिः // 37 ईशो वा ते यद्यनीशोऽथ वैष तमुवाच तदा भीष्मो द्रोणो विदुर एव च। ___ वाक्यादस्य क्षिप्रमेकं भजस्व // 26 क्षम्यतामेवमित्येवं सर्वं संभवति त्वयि // 38 .. सर्वे हीमे कौरवेयाः सभायां इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि दुःखान्तरे वर्तमानास्तवैव। . द्विषष्टितमोऽध्यायः॥ 62 // न विब्रुवन्त्यार्यसत्त्वा यथावत्पतींश्च ते समवेक्ष्याल्पभाग्यान् // 27 कर्ण उवाच। ततः सभ्याः कुरुराजस्य तत्र त्रयः किलेमे अधना भवन्ति __वाक्यं सर्वे प्रशशंसुस्तदोच्चैः / ___ दासः शिष्यश्चास्वतन्त्रा च नारी / चेलावेधांश्चापि चक्रुर्नदन्तो दासस्य पत्नी त्वं धनमस्य भद्रे हा हेत्यासीदपि चैवात्र नादः / हीनेश्वरा दासधनं च दासी // 1 सर्वे चासन्पार्थिवाः प्रीतिमन्तः प्रविश्य सा नः परिचारैर्भजस्व ___ कुरुश्रेष्ठं धार्मिकं पूजयन्तः // 28 - तत्ते कार्य शिष्टमावेश्य वेश्म / युधिष्ठिरं च ते सर्वे समुदैक्षन्त पार्थिवाः / ईशाः स्म सर्वे तव राजपुत्रि किं नु वक्ष्यति धर्मज्ञ इति साचीकृताननाः॥२९ ___ भवन्ति ते धार्तराष्ट्रा न पार्थाः // 2 किं नु वक्ष्यति बीभत्सुरजितो युधि पाण्डवः।। अन्यं वृणीष्व पतिमाशु भामिनि भीमसेनो यमौ चेति भृशं कौतूहलान्विताः // 30 यस्मादास्यं न लभसे देवनेन / तस्मिन्नुपरते शब्दे भीमसेनोऽब्रवीदिदम् / अनवद्या वै पतिषु कामवृत्तिप्रगृह्य विपुलं वृत्तं भुजं चन्दनरूषितम् // 31 नित्यं दास्ये विदितं वै तवास्तु // 3 यद्येष गुरुरस्माकं धर्मराजो युधिष्ठिरः / पराजितो नकुलो भीमसेनो न प्रभुः स्यात्कुलस्यास्य न वयं मर्षयेमहि // 32 / युधिष्ठिरः सहदेवोऽर्जुनश्च / - 372 -
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________________ 2. 63. 4] सभापर्व [2. 63. 21 दासीभूता प्रविश याज्ञसेनि यद्यतमूरुं गदया न भिन्द्यां ते महाहवे // 14 पराजितास्ते पतयो न सन्ति // 4 क्रुद्धस्य तस्य स्रोतोभ्यः सर्वेभ्यः पावकार्चिषः / प्रयोजनं चात्मनि किं नु मन्यते वृक्षस्येव विनिश्चेरुः कोटरेभ्यः प्रदह्यतः // 15 . : पराक्रमं पौरुषं चेह पार्थः / विदुर उवाच। पाश्चाल्यस्य द्रुपदस्यात्मजामिमां परं भयं पश्यत भीमसेनासभामध्ये योऽतिदेवीगुहेषु // 5 . द्रुध्यध्वं राज्ञो वरुणस्येव पाशात् / वैशंपायन उवाच / दैवेरितो नूनमयं पुरस्तातद्वै श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षी त्परोऽनयो भरतेषूदपादि // 16 भृशं निशश्वास तदार्तरूपः। अतिद्यूतं कृतमिदं धार्तराष्ट्रा * राजानुगो धर्मपाशानुबद्धो येऽस्यां स्त्रियं विवध्वं सभायाम् / - दहन्निवैनं कोपविरक्तदृष्टिः // 6 योगक्षेमो दृश्यते वो महाभयः भीम उवाच / ___ पापान्मत्रान्कुरवो मत्रयन्ति // 17 . नाहं कुप्ये सूतपुत्रस्य राज इमं धर्म कुरवो जानताशु . भेष सत्यं दासधर्मः प्रविष्टः / दुईष्टेऽस्मिन्परिषत्संप्रदुष्येत्। : किं विद्विषो वाद्य मां धारयेयु इमां चेत्पूर्वं कितवोऽग्लहीष्यर्नादेवीस्त्वं यद्यनया नरेन्द्र // 7 ____दीशोऽभविष्यदपराजितात्मा // 18 . वैशंपायन उवाच / स्वप्ने यथैतद्धि धनं जितं स्याराधेयस्य वचः श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तदा।। __त्तदेवं मन्ये यस्य दीव्यत्यनीशः / युधिष्ठिरमुवाचेदं तूष्णीभूतमचेतसम् // 8 गान्धारिपुत्रस्य वचो निशम्य मीमार्जुनौ यमौ चैव स्थितौ ते नृप शासने। धर्मादस्मात्कुरवो मापयात // 19 प्रमं प्रबेहि कृष्णां त्वमजितां यदि मन्यसे // 9 दुर्योधन उवाच / एवमुक्त्वा स कौन्तेयमपोह्य वसनं स्वकम् / भीमस्य वाक्ये तद्वदेवार्जुनस्य स्मयन्निवैक्षत्पाञ्चालीमैश्वर्यमदमोहितः // 10 स्थितोऽहं वै यमयोश्चैवमेव / / कदलीदण्डसदृशं सर्वलक्षणपूजितम् / / युधिष्ठिरं चेत्प्रवदन्त्यनीशगजहस्तप्रतीकाशं वज्रप्रतिमगौरवम् // 11 मथो दास्यान्मोक्ष्यसे याज्ञसेनि // 20 अभ्युत्स्मयित्वा राधेयं भीममाधर्षयन्निव / अर्जुन उवाच / द्रौपद्याः प्रेक्षमाणायाः सव्यमूहमदर्शयत् / / 12 ईशो राजा पूर्वमासीद्गृहे नः वृकोदरस्तदालोक्य नेत्रे उत्फाल्य लोहिते। ___ कुन्तीपुत्रो धर्मराजो महात्मा। प्रोवाच राजमध्ये तं सभां विश्रावयन्निव // 13 ईशस्त्वयं कस्य पराजितात्मा पितृभिः सह सालोक्यं मा स्म गच्छेद्वृकोदरः / तज्जानीध्वं कुरवः सर्व एव // 21 -373 -
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________________ 2. 63. 22 ] महाभारते [2. 64.4 वैशंपायन उवाच / लालितो दासपुत्रत्वं पश्यन्नश्येद्धि भारत // 30 ततो राज्ञो धृतराष्ट्रस्य गेहे. धृतराष्ट्र उवाच / गोमायुरुच्चाहरदग्निहोत्रे / द्वितीयं ते वरं भद्रे ददामि वरयस्व माम् / तं रासभाः प्रत्यभाषन्त राज मनो हि मे वितरति नैकं त्वं वरमर्हसि // 31 ____ समन्ततः पक्षिणश्चैव रौद्राः // 22 द्रौपद्युवाच / तं च शब्दं विदुरस्तत्त्ववेदी सरथौ सधनुष्कौ च भीमसेनधनंजयौ। शुश्राव घोरं सुबलात्मजा च। नकुलं सहदेवं च द्वितीयं वरये वरम् // 32 भीष्मद्रोणौ गौतमश्चापि विद्वा धृतराष्ट्र उवाच। न्वस्ति स्वस्तीत्यपि चैवाहुरुचैः / / 23 तृतीयं वरयास्मत्तो नासि द्वाभ्यां सुसत्कृता / ततो गान्धारी विदुरश्चैव विद्वां त्वं हि सर्वस्नुषाणां मे श्रेयसी धर्मचारिणी // 33 स्तमुत्पातं घोरमालक्ष्य राखे। निवेदयामासतुरार्तवत्तदा द्रौपद्युवाच। ततो राजा वाक्यमिदं बभाषे // 24 लोभो धर्मस्य नाशाय भगवन्नाहमुत्सहे / हतोऽसि दुर्योधन मन्दबुद्धे अनर्हा वरमादातुं तृतीयं राजसत्तम // 34 ___ यस्त्वं सभायां कुरुपुंगवानाम् / एकमाहुर्वैश्यवरं द्वौ तु क्षत्रस्त्रिया वरौ / स्त्रियं समाभाषसि दुर्विनीत त्रयस्तु राज्ञो राजेन्द्र ब्राह्मणस्य शतं वराः / / 35 विशेषतो द्रौपदी धर्मपत्नीम् // 25 पापीयांस इमे भूत्वा संतीर्णाः पतयो मम / एवमुक्त्वा धृतराष्ट्रो मनीषी वेत्स्यन्ति चैव भद्राणि राजन्पुण्येन कर्मणा // 36 हितान्वेषी बान्धवानामपायात् / - इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि त्रिषष्टितमोऽध्यायः॥ 63 // कृष्णां पाश्चालीमब्रवीत्सान्त्वपूर्व विमृश्यैतत्प्रज्ञया तत्त्वबुद्धिः // 26 धृतराष्ट्र उवाच / कर्ण उवाच / वरं वृणीष्व पाश्चालि मत्तो यदभिकाङ्क्षसि / या नः श्रुता मनुष्येषु स्त्रियो रूपेण संमताः / वधूनां हि विशिष्टा मे त्वं धर्मपरमा सती // 27 तासामेतादृशं कर्म न कस्यांचन शुश्रुमः // 1 द्रौपधुवाच / क्रोधाविष्टेषु पार्थेषु धार्तराष्ट्रेषु चाप्यति / ददासि चेद्वरं मह्यं वृणोमि भरतर्षभ / द्रौपदी पाण्डुपुत्राणां कृष्णा शान्तिरिहाभवत् // 2 सर्वधर्मानुगः श्रीमानदासोऽस्तु युधिष्ठिरः // 28 अप्लवेऽम्भसि मनानामप्रतिष्ठे निमज्जताम् / मनस्विनमजानन्तो मा वै ब्रूयुः कुमारकाः। पाञ्चाली पाण्डुपुत्राणां नौरेषा पारगाभवत् // 3 एष वै दासपुत्रेति प्रतिविन्ध्यं तमागतम् / / 29 वैशंपायन उवाच / राजपुत्रः पुरा भूत्वा यथा नान्यः पुमान्कचित् / / तद्वै श्रुत्वा भीमसेनः कुरुमध्येऽत्यमर्षणः / - 374 -
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________________ 2. 64. 4] सभापर्व . [2. 65. 12 स्त्री गतिः पाण्डुपुत्राणामित्युवाच सुदुर्मनाः // 4 / पितरं समुपातिष्ठद्धृतराष्ट्रं कृताञ्जलिः // 17 त्रीणि ज्योतींषि पुरुष इति वै देवलोऽब्रवीत् / / इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अपत्यं कर्म विद्या च यतः सृष्टाः प्रजास्ततः // 5 चतुःषष्टितमोऽध्यायः // 64 // अमेध्ये वै गतप्राणे शून्ये ज्ञातिभिरुज्झिते / देहे त्रितयमेवैतत्पुरुषस्योपजायते // 6 युधिष्ठिर उवाच / तन्नो ज्योतिरभिहतं दाराणामभिमर्शनात् / राजन्किं करवामस्ते प्रशाध्यस्मांस्त्वमीश्वरः / धनंजय कथं स्वित्स्यादपत्यमभिमृष्टजम् // 7 नित्यं हि स्थातुमिच्छामस्तव भारत शासने // 1 अर्जुन उवाच / धृतराष्ट्र उवाच। न चैवोक्ता न चानुक्ता हीनतः परुषा गिरः / अजातशत्रो भद्रं ते अरिष्टं स्वस्ति गच्छत / भारताः प्रतिजल्पन्ति सदा तूत्तमपूरुषाः // 8 अनुज्ञाताः सहधनाः स्वराज्यमनुशासत // 2 स्मरन्ति सुकृतान्येव न वैराणि कृतानि च / इदं त्वेवावबोद्धव्यं वृद्धस्य मम शासनम् / सन्तः प्रतिविजानन्तो लब्ध्वा प्रत्ययमात्मनः // 9 धिया निगदितं कृत्स्नं पथ्यं निःश्रेयसं परम् // 3 वेत्थ त्वं तात धर्माणां गतिं सूक्ष्मां युधिष्ठिर / भीम उवाच। विनीतोऽसि महाप्राज्ञ वृद्धानां पर्युपासिता // 4 इहैवैतांस्तुरा सर्वान्हन्मि शत्रून्समागतान् / यतो बुद्धिस्ततः शान्तिः प्रशमं गच्छ भारत / अथ निष्कम्य राजेन्द्र समूलान्कृन्धि भारत॥ 10 नादारौ क्रमते शस्त्रं दारौ शस्त्रं निपात्यते // 5 किं नो विवदितेनेह किं नः क्लेशेन भारत / न वैराण्यभिजानन्ति गुणान्पश्यन्ति नागुणान् / अद्यैवैतान्निहन्मीह प्रशाधि वसुधामिमाम् // 11 विरोधं नाधिगच्छन्ति ये त उत्तमपूरुषाः // 6 - वैशंपायन उवाच / संवादे परुषाण्याहुयुधिष्ठिर नराधमाः / इत्युक्त्वा भीमसेनस्तु कनिष्ठैर्धातृभिर्वृतः / प्रत्याहुर्मध्यमास्त्वेतानुक्ताः परुषमुत्तरम् // 7 मृगमध्ये यथा सिंहो मुहुः परिघमैक्षत // 12 . नैवोक्ता नैव चानुक्ता अहिताः परुषा गिरः / सान्त्व्यमानो वीज्यमानः पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा / प्रतिजल्पन्ति वै धीराः सदा उत्तमपूरुषाः // 8 स्विद्यते च महाबाहुरन्तर्दाहेन वीर्यवान् // 13 स्मरन्ति सुकृतान्येव न वैराणि कृतान्यपि / क्रुद्धस्य तस्य स्रोतोभ्यः कर्णादिभ्यो नराधिप / सन्तः प्रतिविजानन्तो लब्ध्वा प्रत्ययमात्मनः // 9 सधूमः सस्फुलिङ्गार्चिः पावकः समजायत // 14 तथाचरितमार्येण त्वयास्मिन्सत्समागमे। . भृकुटीपुटदुष्प्रेक्ष्यमभवत्तस्य तन्मुखम् / दुर्योधनस्य पारुष्यं तत्तात हृदि मा कृथाः // 10 युगान्तकाले संप्राप्ते कृतान्तस्येव रूपिणः // 15 मातरं चैव गान्धारी मां च त्वद्गुणकाङ्क्षिणम् / . युधिष्ठिरस्तमावार्य बाहुना बाहुशालिनम् / उपस्थितं वृद्धमन्धं पितरं पश्य भारत // 11 मैवमित्यब्रवीच्चैनं जोषमास्स्वेति भारत // 16 प्रेक्षापूर्वं मया द्यूतमिदमासीदुपेक्षितम् / निवार्य तं महाबाहुं कोपसंरक्तलोचनम् / / | मित्राणि द्रष्टुकामेन पुत्राणां च बलाबलम् // 12 -375 -
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________________ 2. 65. 13 ] महाभारते [2. 66. 21 अशोच्याः कुरवो राजन्येषां त्वमनुशासिता। दुर्योधन उवाच / मन्त्री च विदुरो धीमान्सर्वशास्त्रविशारदः॥ 13 न त्वयेदं श्रुतं राजन्यजगाद बृहस्पतिः / त्वयि धर्मोऽर्जुने वीर्यं भीमसेने पराक्रमः / शक्रस्य नीतिं प्रवदन्विद्वान्देवपुरोहितः / / 7 / / श्रद्धा च गुरुशुश्रूषा यमयोः पुरुषाग्र्ययोः // 14 सर्वोपायैर्निहन्तव्याः शत्रवः शत्रुकर्षण। अजातशत्रो भद्रं ते खाण्डवप्रस्थमाविश / पुरा युद्धाद्बलाद्वापि प्रकुर्वन्ति तवाहितम् // 8 भ्रातृभिस्तेऽस्तु सौभ्रानं धर्मे ते धीयतां मनः॥ 15 ते वयं पाण्डवधनैः सर्वान्संपूज्य पार्थिवान् / वैशंपायन उवाच। यदि तान्योधयिष्यामः किं वा नः परिहास्यति / / 9 इत्युक्तो भरतश्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः / अहीनाशीविषान्क्रुद्धान्दंशाय समुपस्थितान् / कृत्वार्यसमयं सर्वं प्रतस्थे भ्रातृभिः सह // 16 कृत्वा कण्ठे च पृष्ठे च कः समुत्स्रष्टुमर्हति // 10 ते रथान्मेघसंकाशानास्थाय सह कृष्णया / आत्तशस्त्रा रथगताः कुपितास्तात पाण्डवाः / प्रययुहृष्टमनस इन्द्रप्रस्थं पुरोत्तमम् / / 17 निःशेषं नः करिष्यन्ति क्रुद्धा ह्याशीविषा यथा॥११ संनद्धो ह्यर्जुनो याति विवृत्य परमेषुधी। इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः // 65 // गाण्डीवं मुहुरादत्ते निःश्वसंश्च निरीक्षते // 12 गदां गुवी समुद्यम्य त्वरितश्च वृकोदरः / // समाप्तं द्यूतपर्व // स्वरथं योजयित्वाशु निर्यात इति नः श्रुतम् // 13 नकुलः खड्गमादाय चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम् / जनमेजय उवाच। सहदेवश्च राजा च चक्रुराकारमिङ्गितैः // 14 अनुज्ञातांस्तान्विदित्वा सरत्नधनसंचयान् / ते त्वास्थाय रथान्सर्वे बहुशस्त्रपरिच्छदान् / . पाण्डवान्धार्तराष्ट्राणां कथमासीन्मनस्तदा // 1. अभिघ्नन्तो रथवातान्सेनायोगाय निर्ययुः // 15 न ऑस्यन्ते तथास्माभिर्जातु विप्रकृता हि ते / अनुज्ञातांस्तान्विदित्वा धृतराष्ट्रेण धीमता। द्रौपद्याश्च परिक्लेशं कस्तेषां क्षन्तुमर्हति // 16 राजन्दुःशासनः क्षिप्रं जगाम भ्रातरं प्रति // 2 पुनर्दीव्याम भद्रं ते वनवासाय पाण्डवैः / दुर्योधनं समासाद्य सामात्यं भरतर्षभ / एवमेतान्वशे कर्तुं शक्ष्यामो भरतर्षभ // 17 दुःखातों भरतश्रेष्ठ इदं वचनमब्रवीत् / / 3 ते वा द्वादश वर्षाणि वयं वा द्यूतनिर्जिताः / दुःखेनैतत्समानीतं स्थविरो नाशयत्यसौ / प्रविशेम महारण्यमजिनैः प्रतिवासिताः // 18 शत्रुसाद्गमयद्व्यं तद्बुध्यध्वं महारथाः / / 4 त्रयोदशं च सजने अज्ञाताः परिवत्सरम् / / अथ दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः / ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश // 19 मिथः संगम्य सहिताः पाण्डवान्प्रति मानिनः // 5 | निवसेम वयं ते वा तथा द्यूतं प्रवर्तताम् / वैचित्रवीर्य राजानं धृतराष्ट्र मनीषिणम् / अक्षानुप्त्वा पुन तमिदं दीव्यन्तु पाण्डवाः // 20 अभिगम्य त्वरायुक्ताः श्लक्ष्णं वचनमब्रुवन् // 6 / एतत्कृत्यतमं राजन्नस्माकं भरतर्षभ। - 376 - वैशंपायन उवाच।
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________________ 2. 66. 21] सभापर्व [2. 67.8 अयं हि शकुनिर्वेद सविद्यामक्षसंपदम् // 21 जाता बुद्धिः सास्तु ते मा प्रतीपा। दृढमूला वयं राज्ये मित्राणि परिगृह्य च / प्रध्वंसिनी क्रूरसमाहिता श्रीसारषद्विपुलं सैन्यं सत्कृत्य च दुरासदम् // 22 मृदुप्रौढा गच्छति पुत्रपौत्रान् // 35 ते च त्रयोदशे वर्षे पारयिष्यन्ति चेद्बतम् / अथाब्रवीन्महाराजो गान्धारी धर्मदर्शिनीम् / जेष्यामस्तान्वयं राजन्रोचतां ते परंतप // 23 अन्तः कामं कुलस्यास्तु न शक्ष्यामि निवारितुम् // 36 धृतराष्ट्र उवाच / यथेच्छन्ति तथैवास्तु प्रत्यागच्छन्तु पाण्डवाः / तूर्णं प्रत्यानयस्वतान्कामं व्यध्वगतानपि / पुनर्वृतं प्रकुर्वन्तु मामकाः पाण्डवैः सह / / 37 आगच्छन्तु पुन तमिदं कुर्वन्तु पाण्डवाः // 24 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि वैशंपायन उवाच। षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६॥ ततो द्रोणः सोमदत्तो बोह्रीकश्च महारथः। 67 विदुरो द्रोणपुत्रश्च वैश्यापुत्रश्च वीर्यवान् // 25 वैशंपायन उवाच / भूरिश्रवाः शांतनवो विकर्णश्च महारथः। ततो व्यध्वगतं पार्थं प्रातिकामी युधिष्ठिरम् / मा द्यूतमित्यभाषन्त शमोऽस्त्विति च सर्वशः॥२६ उवाच वचनाद्राज्ञो धृतराष्ट्रस्य धीमतः // 1 अकामानां च सर्वेषां सुहृदामर्थदर्शिनाम् / उपस्तीर्णा सभा राजन्नक्षानुप्त्वा युधिष्ठिर / अकरोत्पाण्डवाह्वानं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः // 27 एहि पाण्डव दीव्येति पिता त्वामाह भारत // 2 अथाब्रवीन्महाराज धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् / . युधिष्ठिर उवाच / पुत्रहाद्धर्मयुक्तं गान्धारी शोककर्शिता // 28 धातुर्नियोगाद्भूतानि प्राप्नुवन्ति शुभाशुभम् / जाते दोधने क्षत्ता महामतिरभाषत / न निवृत्तिस्तयोरस्ति देवितव्यं पुनर्यदि // 3 नीयतां परलोकाय साध्वयं कुलपांसनः // 29 अक्षयूते समाह्वानं नियोगास्थविरस्य च / व्यनदजातमात्रो हि गोमायुरिव भारत / जानन्नपि क्षयकरं नातिक्रमितुमुत्सहे // 4 अन्तो नूनं कुलस्यास्य कुरवस्तन्निबोधत // 30 - वैशंपायन उवाच / मा बालानामशिष्टानामभिमंस्था मतिं प्रभो। इति ब्रुवन्निववृते भ्रातृभिः सह पाण्डवः / मा कुलस्य क्षये घोरे कारणं त्वं भविष्यसि // 31 - जानंश्च शकुनेर्मायां पार्थो द्यूतमियात्पुनः॥ 5 बद्धं सेतुं को नु भिन्द्याद्धमेच्छान्तं च पावकम् / विविशुस्ते सभां तां तु पुनरेव महारथाः / ' शमे धृतान्पुनः पार्थान्कोपयेत्को नु भारत // 32 व्यथयन्ति स्म चेतांसि सुहृदां भरतर्षभाः॥ 6 स्मरन्तं त्वामाजमीढ स्मारयिष्याम्यहं पुनः। ययोपजोषमासीनाः पुनर्वृतप्रवृत्तये / शास्त्रं न शास्ति दुर्बुद्धिं श्रेयसे वेतराय वा // 33 सर्वलोकविनाशाय देवेनोपनिपीडिताः॥७ न वै वृद्धो बालमतिर्भवेद्राजन्कथंचन / शकुनिरुवाच। त्वन्नेत्राः सन्तु ते पुत्रा मा त्वां दीर्णाः प्रहासिषुः।।३४ / अमुश्चत्स्थविरो यद्वो धनं पूजितमेव तत् / शमेन धर्मेण परस्य बुद्ध्या महाधनं ग्लहं त्वेकं शृणु मे भरतर्षभ // 8 म.भा. 48 - 377
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________________ 2. 67.9] महाभारते [2. 68. 10 68 वयं द्वादश वर्षाणि युष्माभि तनिर्जिताः / जितमित्येव शकुनियुधिष्ठिरमभाषत // 21 प्रविशेम महारण्यं रौरवाजिनवाससः // 9 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि. त्रयोदशं च सजने अज्ञाताः परिवत्सरम् / सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥६७॥ ज्ञाताश्च पुनरन्यानि वने वर्षाणि द्वादश // 10 अस्माभिर्वा जिता यूयं वने वर्षाणि द्वादश / वैशंपायन उवाच / वसध्वं कृष्णया सार्धमजिनैः प्रतिवासिताः॥११ वनवासाय चक्रुस्ते मतिं पार्थाः पराजिताः / त्रयोदशे च निवृत्ते पुनरेव यथोचितम् / अजिनान्युत्तरीयाणि जगृहुश्च यथाक्रमम् // 1 स्वराज्यं प्रतिपत्तव्यमितरैरथ वेतरैः // 12 अजिनैः संवृतान्दृष्ट्वा हृतराज्यानरिंदमान्। अनेन व्यवसायेन सहास्माभिर्युधिष्ठिर / प्रस्थितान्वनवासाय ततो दुःशासनोऽब्रवीत् // 2 अक्षानुप्त्वा पुन तमेहि दीव्यस्व भारत // 13 प्रवृत्तं धार्तराष्ट्रस्य चक्रं राज्ञो महात्मनः। सभासद ऊचुः। पराभूताः पाण्डुपुत्रा विपत्तिं परमां गताः // 3 अहो धिग्बान्धवा नैनं बोधयन्ति महद्भयम् / अद्य देवाः संप्रयाताः समैवर्त्मभिरस्थलैः / बुद्ध्या बोध्यं न बुध्यन्ते स्वयं च भरतर्षभाः॥ 14 गुणज्येष्ठास्तथा ज्येष्ठा भूयांसो यद्वयं परैः // 4 वैशंपायन उवाच नरकं पातिताः पार्था दीर्घकालमनन्तकम्। : जनप्रवादान्सुबहूनिति शृण्वन्नराधिपः / सुखाच हीना राज्याच विनष्टाः शाश्वतीः समाः॥ ह्रिया च धर्मसङ्गाच्च पार्थो द्यूतमियात्पुनः // 15 बलेन मत्ता ये ते स्म धार्तराष्ट्रान्प्रहासिषुः / जानन्नपि महाबुद्धिः पुनर्घतमवर्तयत् / ते निर्जिता हृतधना वनमेष्यन्ति पाण्डवाः // 6 अप्ययं न विनाशः स्यात्कुरूणामिति चिन्तयन् // चित्रान्संनाहानवमुश्चन्तु चैषां युधिष्ठिर उवाच। वासांसि दिव्यानि च भानुमन्ति / कथं वै मद्विधो राजा स्वधर्ममनुपालयन् / निवास्यन्तां रुरुचर्माणि सर्वे आहूतो विनिवर्तेत दीव्यामि शकुने त्वया // 17 यथा ग्लह सौबलस्याभ्युपेताः // 7 . शकुनिरुवाच। न सन्ति लोकेषु पुमांस ईदृशा गवाश्वं बहुधेनूकमपर्यन्तमजाविकम् / - इत्येव ये भावितबुद्धयः सदा / गजाः कोशो हिरण्यं च दासीदासं च सर्वशः // ज्ञास्यन्ति तेऽऽत्मानमिमेऽद्य पाण्डवा एष नो ग्लह एवैको वनवासाय पाण्डवाः / विपर्यये षण्ढतिला इवाफलाः // 8 यूयं वयं वा विजिता वसेम वनमाश्रिताः॥ 19 अयं हि वासोदय ईदृशानां अनेन व्यवसायेन दीव्याम भरतर्षभ / मनस्विनां कौरव मा भवेद्वः। समुत्क्षेपेण चैकेन वनवासाय भारत // 20 / अदीक्षितानामजिनानि यद्ववैशंपायन उवाच / दलीयसां पश्यत पाण्डवानाम् // 9 प्रतिजग्राह तं पार्थो ग्लहं जग्राह सौबलः। महाप्राज्ञः सोमको यज्ञसेनः -378 -
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________________ 2. 68. 10] सभापर्व [2. 68. 29 कन्यां पाञ्चालीं पाण्डवेभ्यः प्रदाय / दुःखाभिभूतं परिनृत्यति स्म। अकार्षीद्वै दुष्कृतं नेह सन्ति मध्ये कुरूणां धर्मनिबद्धमार्ग क्लीबाः पार्थाः पतयो याज्ञसेन्याः // 10 गौौरिति स्माह्वयन्मुक्तलजः // 19 सूक्ष्मान्प्रावारानजिनानि चोदिता भीमसेन उवाच / न्दृष्ट्वारण्ये निर्धनानप्रतिष्ठान / नृशंसं परुषं क्रूरं शक्यं दुःशासन त्वया / कां त्वं प्रीतिं लप्स्यसे याज्ञसेनि निकृत्या हि धनं लब्ध्वा को विकत्थितुमर्हति // 20 पतिं वृणीष्ब यमिहान्यमिच्छसि // 11 मा ह स्म सुकृताल्लोकान्गच्छेत्पार्थो वृकोदरः। एते हि सर्वे कुरवः समेताः यदि वक्षसि भित्त्वा ते न पिबेच्छोणितं रणे // 21 क्षान्ता दान्ताः सुद्रविणोपपन्नाः। धार्तराष्ट्रारणे हत्वा मिषतां सर्वधन्विनाम् / एषां वृणीष्वकतमं पतित्वे शमं गन्तास्मि नचिरात्सत्यमेतद्भवीमि वः // 22 ___ न त्वां तपेत्कालविपर्ययोऽयम् // 12 वैशंपायन उवाच / यथाफलाः षण्ढतिला यथा चर्ममया मृगाः / तस्य राजा सिंहगतेः सखेलं तथैव पाण्डवाः सर्वे यथा काकयवा अपि // 13 ___ दुर्योधनो भीमसेनस्य हर्षात् / किं पाण्डवांस्त्वं पतितानुपास्से गतिं स्वगत्यानुचकार मन्दो ___मोघः श्रमः षण्ढतिलानुपास्य / - निर्गच्छतां पाण्डवानां सभायाः // 23 एवं नृशंसः परुषाणि पार्था नैतावता कृतमित्यब्रवीत्तं :: नश्रावयद्धृतराष्ट्रस्य पुत्रः // 14 वृकोदरः संनिवृत्तार्धकायः। . तद्वै श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षी शीघ्रं हि त्वा निहतं सानुबन्धं निर्मोच्चैस्तं निगृह्मैव रोषात् / संस्मार्याहं प्रतिवक्ष्यामि मूढ // 24 . उवाचेदं सहसैवोपगम्य एतत्समीक्ष्यात्मनि चावमानं .. सिंहो यथा हैमवतः शृगालम् // 15 नियम्य मन्युं बलवान्स मानी। . भीमसेन उवाच / राजानुगः संसदि कौरवाणां कर पापजनैर्जुष्टमकृतार्थ प्रभाषसे / विनिष्क्रमन्वाक्यमुवाच भीमः // 25 गान्धारविद्यया हि त्वं राजमध्ये विकत्थसे // 16 - अहं दुर्योधनं हन्ता कर्णं हन्ता धनंजयः / यथा तुदसि मर्माणि वाक्शरैरिह नो भृशम् / शकुनि चाक्षकितवं सहदेवो हनिष्यति // 26 तथा स्मारयिता तेऽहं कृन्तन्मर्माणि संयुगे॥ 17 इदं च भूयो वक्ष्यामि सभामध्ये बृहद्वचः। ये च त्वामनुवर्तन्ते कामलोभवशानुगाः। सत्यं देवाः करिष्यन्ति यन्नो युद्धं भविष्यति // 27 गोप्तारः सानुबन्धास्तान्नेष्यामि यमसादनम् // 18 / सुयोधनमिमं पापं हन्तास्मि गदया युधि / वैशंपायन उवाच / शिरः पादेन चास्याहमधिष्ठास्यामि भूतले // 28 एवं ब्रुवाणमजिनैर्विवासितं वाक्यशूरस्य चैवास्य परुषस्य दुरात्मनः / -379 -
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________________ 2. 68. 29 ] महाभारते [ 2. 69.8 दुःशासनस्य रुधिरं पातास्मि मृगराडिव // 29 / यैर्वाचः श्राविता रूक्षाः स्थितैर्दुर्योधनप्रिये // 43 ___ अर्जुन उवाच / तान्धार्तराष्ट्रान्दुर्वृत्तान्मुमूषून्कालचोदितान् / नैव वाचा व्यवसितं भीम विज्ञायते सताम् / दर्शयिष्यामि भूयिष्ठमहं वैवस्वतक्षयम् // 44 इतश्चतुर्दशे वर्षे द्रष्टारो यद्भविष्यति // 30 निदेशाद्धर्मराजस्य द्रौपद्याः पदवीं चरन् / दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्च दुरात्मनः / निर्धार्तराष्ट्रां पृथिवीं कर्तास्मि नचिरादिव // 45. दुःशासनचतुर्थानां भूमिः पास्यति शोणितम् // 31 / एवं ते पुरुषव्याघ्राः सर्वे व्यायतबाहवः / ... असूयितारं वक्तारं प्रस्रष्टारं दुरात्मनाम् / प्रतिज्ञा बहुलाः कृत्वा धृतराष्ट्रमुपागमन् // 46 भीमसेन नियोगात्ते हन्ताहं कर्णमाहवे // 32 _इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि अर्जुनः प्रतिजानीते भीमस्य प्रियकाम्यया। अष्टषष्टितमोऽध्यायः // 68 // कर्ण कर्णानुगांश्चैव रणे हन्तास्मि पत्रिभिः // 33 ये चान्ये प्रतियोत्स्यन्ति बुद्धिमोहेन मां नृपाः / युधिष्ठिर उवाच / तांश्च सर्वाशितैर्बाणैर्नास्मि यमसादनम् // 34 आमत्रयामि भरतांस्तथा वृद्धं पितामहम् / चलेद्धि हिमवान्स्थानान्निष्प्रभः स्याद्दिवाकरः / / राजानं सोमदत्तं च महाराजं च बाह्निकम् // 1 शैत्यं सोमात्प्रणश्येत मत्सत्यं विचलेद्यदि // 35. द्रोणं कृपं नृपांश्चान्यानश्वत्थामानमेव च / न प्रदास्यति चेद्राज्यमितो वर्षे चतुर्दशे / विदुरं धृतराष्ट्रं च धार्तराष्ट्रांश्च सर्वशः // 2 दुर्योधनो हि सत्कृत्य सत्यमेतद्भविष्यति // 36 युयुत्सुं संजयं चैव तथैवान्यान्सभासदः / . वैशंपायन उवाच।। सर्वानामय गच्छामि द्रष्वस्मि पुनरेत्य वः॥३ इत्युक्तवति पार्थे तु श्रीमान्माद्रवतीसुतः / वैशंपायन उवाच / प्रगृह्य विपुलं बाहुं सहदेवः प्रतापवान् // 37 / / न च किंचित्तदोचुस्ते ह्रिया सन्तो युधिष्ठिरम् / सौबलस्य वधं प्रेप्सुरिदं वचनमब्रवीत् / मनोभिरेव कल्याणं दध्युस्ते तस्य भीमतः // 4 क्रोधसंरक्तनयनो निःश्वसन्निव पन्नगः // 38 विदुर उवाच / अक्षान्यान्मन्यसे मूढ गान्धाराणां यशोहर / नैतेऽक्षा निशिता बाणास्त्वयैते समरे वृताः // 39 आर्या पृथा राजपुत्री नारण्यं गन्तुमर्हति / यथा चैवोक्तवान्भीमस्त्वामुद्दिश्य सबान्धवम् / सुकुमारी च वृद्धा च नित्यं चैव सुखोचिता // 5 कर्ताहं कर्मणस्तस्य कुरु कार्याणि सर्वशः // 40 इह वत्स्यति कल्याणी सत्कृता मम वेश्मनि / हन्तास्मि तरसा युद्धे त्वां बिक्रम्य सबान्धवम् / इति पार्था विजानीध्वमगदं वोऽस्तु सर्वशः // 6 यदि स्थास्यसि संग्रामे क्षत्रधर्मेण सौबल // 41 युधिष्ठिर विजानीहि ममेदं भरतर्षभ / सहदेववचः श्रुत्वा नकुलोऽपि विशां पते / नाधर्मेण जितः कश्चिद्व्यथते वै पराजयात् / / 7 दर्शनीयतमो नृणामिदं वचनमब्रवीत् // 42 त्वं वै धर्मान्विजानीषे युधां वेत्ता धनंजयः / सुतेयं यज्ञसेनस्य द्यूतेऽस्मिन्धृतराष्ट्रजैः / हन्तारीणां भीमसेनो नकुलस्त्वर्थसंग्रही // 8 -880 O
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________________ 2. 69. 9] सभापर्व [2. 70. 14 संयन्ता सहदेवस्तु धौम्यो ब्रह्मविदुत्तमः / / धर्मार्थकुशला चैव द्रौपदी धर्मचारिणी // 9 वैशंपायन उवाच। अन्योन्यस्य प्रियाः सर्वे तथैव प्रियवादिनः / तस्मिन्संप्रस्थिते कृष्णा पृथां प्राप्य यशस्विनीम् / परैरभेद्याः संतुष्टाः को वो न स्पृहयेदिह // 10 आपृच्छद्भृशदुःखार्ता याश्चान्यास्तत्र योषितः // 1 एष वै सर्वकल्याणः समाधिस्तव भारत / यथार्ह वन्दनाश्लेषान्कृत्वा गन्तुमियेष सा। नैनं शत्रुर्विषहते शक्रेणापि समोऽच्युत // 11 ततो निनादः सुमहान्पाण्डवान्तःपुरेऽभवत् // 2 हिमवत्यनुशिष्टोऽसि मेरुसावर्णिना पुरा / कुन्ती च भृशसंतप्ता द्रौपदी प्रेक्ष्य गच्छतीम् / द्वैपायनेन कृष्णेन नगरे वारणावते // 12 शोकविह्वलया वाचा कृच्छ्राद्वचनमब्रवीत् // 3 भृगुतुङ्गे च रामेण दृषद्वत्यां च शंभुना / वत्से शोको न ते कार्यः प्राप्येदं व्यसनं महत् / अश्रौषीरसितस्यापि महर्षेरञ्जनं प्रति // 13 स्त्रीधर्माणामभिज्ञासि शीलाचारवती तथा // 4 द्रष्टा सदा नारदस्य धौम्यस्तेऽयं पुरोहितः / न त्वां संदेष्टुमर्हामि भर्तृन्प्रति शुचिस्मिते / मा हार्षीः सांपराये त्वं बुद्धि तामृषिपूजिताम् // साध्वीगुणसमाधानैर्भूषितं ते कुलद्वयम् // 5 पुरूरवसमैलं त्वं बुद्ध्या जयसि पाण्डव / सभाग्याः कुरवश्वेमे ये न दग्धास्त्वयानघे / शक्त्या जयसि राज्ञोऽन्यानृषीन्धर्मोपसेवया // 15 अरिष्टं व्रज पन्थानं मदनुध्यानबृंहिता // 6 ऐन्द्रे जये धृतमना याम्ये कोपविधारणे / भाविन्यर्थे हि सत्स्त्रीणां वैक्लव्यं नोपजायते / विसर्गे चैव कौबेरे वारुणे चैव संयमे // 16 / गुरुधर्माभिगुप्ता च श्रेयः क्षिप्रमवाप्स्यसि // 7 आत्मप्रदानं सौम्यत्वमझ्यश्चैवोपजीवनम् / सहदेवश्च मे पुत्रः सदावेक्ष्यो वने वसन् / भूमेः क्षमा च तेजश्च समग्रं सूर्यमण्डलात् // 17 यथेदं व्यसनं प्राप्य नास्य सीदेन्महन्मनः // 8 वायोर्बलं विद्धि स त्वं भूतेभ्यश्चात्मसंभवम्।। तथेत्युक्त्वा तु सा देवी स्रवन्नेत्रजलाविला / अंगदं वोऽस्तु भद्रं वो द्रक्ष्यामि पुनरागतान् // 18 शोणिताक्तैकवसना मुक्तकेश्यभिनिर्ययौ // 9 आपद्धर्मार्थकृच्छेषु सर्वकार्येषु वा पुनः / तां क्रोशन्तीं पृथा दुःखादनुवव्राज गच्छतीम् / यथावत्प्रतिपद्येथाः काले काले युधिष्ठिर // 19 / अथापश्यत्सुतान्सर्वान्हृताभरणवाससः // 10 आपृष्टोऽसीह कौन्तेय स्वस्ति प्राप्नुहि भारत / रुरुचर्मावृततनून्हिया किंचिदवाङ्मुखान् / परैः परीतान्संहृष्टैः सुहृद्भिश्चानुशोचितान् // 11 कृतार्थं स्वस्तिमन्तं त्वां द्रक्ष्यामः पुनरागतम् // 20 | तदवस्थान्सुतान्सर्वानुपसृत्यातिवत्सला / वैशंपायन उवाच / | सस्वजानावदच्छोकात्तत्तद्विलपती बहु // 12 एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा पाण्डवः सत्यविक्रमः / कथं सद्धर्मचारित्रवृत्तस्थितिविभूषितान् / भीष्मद्रोणी नमस्कृत्य प्रातिष्ठत युधिष्ठिरः // 21 अक्षुद्रान्दृढभक्तांश्च दैवतेज्यापरान्सदा // 13 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि व्यसनं वः समभ्यागात्कोऽयं विधिविपर्ययः / एकोनसप्ततितमोऽध्यायः // 69 // कस्यापध्यानजं चेदमागः पश्यामि वो धिया॥१४ -- 381 -
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________________ 2. 70. 15 ] महाभारते [-2. 71. 18 स्यात्तु मद्भाग्यदोषोऽयं याहं युष्मानजीजनम् / बाहू विशालौ कृत्वा तु भीमो गच्छति पाण्डवः / / दुःखायासभुजोऽत्यर्थं युक्तानप्युत्तमैर्गुणैः // 15 सिकता वपन्सव्यसाची राजानमनुच्छति / कथं वत्स्यथ दुर्गेषु वनेष्वृद्धिविनाकृताः। माद्रीपुत्रः सहदेवो मुखमालिप्य गच्छति // 4 वीर्यसत्त्वबलोत्साहतेजोभिरकृशाः कृशाः // 16 पांसूपलिप्तसर्वाङ्गो नकुलश्चित्तविह्वलः / यद्येतदहमज्ञास्यं वनवासो हि वो ध्रुवम् / दर्शनीयतमो लोके राजानमनुगच्छति // 5 . शतशृङ्गान्मृते पाण्डा नागमिष्यं गजाह्वयम् / / 17 / कृष्णा केशैः प्रतिच्छाद्य मुखमायतलोचना / धन्यं वः पितरं मन्ये तपोमेधान्वितं तथा। दर्शनीया प्ररुदती राजानमनुगच्छति // 6 यः पुत्राधिमसंप्राप्य स्वर्गेच्छामकरोत्प्रियाम् // 18 धौम्यो याम्यानि सामानि रौद्राणि च विशां पते / धन्यां चातीन्द्रियज्ञानामिमां प्राप्तां परां गतिम् / गायन्गच्छति मार्गेषु कुशानादाय पाणिना // 7 मन्येऽद्य माद्री धर्मज्ञां कल्याणी सर्वथैव हि // 19 धृतराष्ट्र उवाच / रत्या मत्या च गत्या च ययाहमभिसंधिता। विविधानीह रूपाणि कृत्वा गच्छन्ति पाण्डवाः / जीवितप्रियतां मह्यं धिगिमां क्लेशभागिनीम् // 20 तन्ममाचक्ष्व विदुर कस्मादेवं व्रजन्ति ते // 8 एवं विलपती कुन्तीमभिसान्त्व्य प्रणम्य च / विदुर उवाच। पाण्डवा विगतानन्दा वनायैव प्रवव्रजुः // 21 निकृतस्यापि ते पुत्रैर्हृते राज्ये धनेषु च / विदुरादयश्च तामाता कुन्तीमाश्वास्य हेतुभिः / न धर्माच्चलते बुद्धिर्धर्मराजस्य धीमतः // 9 प्रावेशयन्गृहं क्षत्तुः स्वयमार्ततराः शनैः / / 22 योऽसौ राजा घृणी नित्यं धार्तराष्ट्रेषु भारत / राजा च धृतराष्ट्रः स शोकाकुलितचेतनः। निकृत्या क्रोधसंतप्तो नोन्मीलयति लोचने // 10 क्षत्तुः संप्रेषयामास शीघ्रमागम्यतामिति // 23 नाहं जनं निर्दहेयं दृष्ट्वा घोरेण चक्षुषा / ततो जगाम विदुरो धृतराष्ट्रनिवेशनम् / स पिधाय मुखं राजा तस्माद्गच्छति पाण्डवः // 11 तं पर्यपृच्छत्संविग्नो धृतराष्ट्रो नराधिपः // 24 यथा च भीमो व्रजति तन्मे निगदतः शृणु। इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि बाह्वोर्बले नास्ति समो ममेति भरतर्षभ // 12 सप्ततितमोऽध्यायः // 7 // बाहू विशालौ कृत्वा तु तेन भीमोऽपि गच्छति / बाहू दर्शयमानो हि वाहुद्रविणदर्पितः / धृतराष्ट्र उवाच। चिकीर्षन्कर्म शत्रुभ्यो बाहुद्रव्यानुरूपतः // 13 कथं गच्छति कौन्तेयो धर्मराजो युधिष्ठिरः / प्रदिशशरसंपातान्कुन्तीपुत्रोऽर्जुनस्तदा / भीमसेनः सव्यसाची माद्रीपुत्रौ च तावुभौ // 1 सिकता वपन्सव्यसाची राजानमनुगच्छति // 14 धौम्यश्चैव कथं क्षत्तीपदी वा तपस्विनी / असक्ताः सिकतास्तस्य यथा संप्रति भारत / श्रोतुमिच्छाम्यहं सर्वं तेषामङ्गविचेष्टितम् // 2 असक्तं शरवर्षाणि तथा मोक्ष्यति शत्रुषु // 15 विदुर उवाच / न मे कश्चिद्विजानीयान्मुखमद्येति भारत / वस्त्रेण संवृत्य मुखं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। मुखमालिप्य तेनासौ सहदेवोऽपि गच्छति // 16 -382 -
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________________ 2. 71. 17] सभापर्व [2.71.46 नाहं मनांस्याददेयं मार्गे स्त्रीणामिति प्रभो। ततो दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः। पांसूपचितसर्वाङ्गो नकुलस्तेन गच्छति // 17 द्रोणं द्वीपममन्यन्त राज्यं चास्मै न्यवेदयन् // 32 एकवस्त्रा तु रुदती मुक्तकेशी रजस्वला / अथाब्रवीत्ततो द्रोणो दुर्योधनममर्षणम् / शोणिताक्तार्द्रवसना द्रौपदी वाक्यमब्रवीत् // 18 दुःशासनं च कर्णं च सर्वानेव च भारतान् // 33 यत्कृतेऽहमिमां प्राप्ता तेषां वर्षे चतुर्दशे / अवध्यान्पाण्डवानाहुदेवपुत्रान्द्विजातयः / हतपत्यो हतसुता हतबन्धुजनप्रियाः // 19 अहं तु शरणं प्राप्तान्वर्तमानो यथाबलम् // 34 बन्धुशोणितदिग्धाङ्गयो मुक्तकेश्यो रजस्वलाः / गतान्सर्वात्मना भक्त्या धार्तराष्ट्रान्सराजकान् / एवं कृतोदका नार्यः प्रवेक्ष्यन्ति गजाह्वयम् // 20 नोत्सहे समभित्यक्तुं दैवमूलमतः परम् // 35 कृत्वा तु नैर्ऋतान्दर्भान्धीरो धौम्यः पुरोहितः / धर्मतः पाण्डुपुत्रा वै वनं गच्छन्ति निर्जिताः / सामामि गायन्याम्यानि पुरतो याति भारत / / 21 ते च द्वादश वर्षाणि वने वत्स्यन्ति कौरवाः॥३६ हतेषु भारतेष्वाजौ कुरूणां गुरवस्तदा। चरितब्रह्मचर्याश्च क्रोधामर्षवशानुगाः / एवं सामानि गास्यन्तीत्युक्त्वा धौम्योऽपि गच्छति // वैरं प्रत्यानयिष्यन्ति मम दुःखाय पाण्डवाः॥ 37 हा हा गच्छन्ति नो नाथाः समवेक्षध्वमीदृशम् / मया तु भ्रंशितो राज्याद्रुपदः सखिविग्रहे। इति पौराः सुदुःखार्ताः क्रोशन्ति स्म समन्ततः॥२३ पुत्रार्थमयजत्क्रोधाद्वधाय मम भारत // 38 एवमाकारलिङ्गैस्ते व्यवसायं मनोगतम् / याजोपयाजतपसा पुत्रं लेभे स पावकात् / कथयन्तः स्म कौन्तेया वनं जग्मुर्मनस्विनः // 24 धृष्टद्युम्नं द्रौपदी च वेदीमध्यात्सुमध्यमाम् // 39 एवं तेषु नराग्र्येषु निर्यत्सु गजसाह्वयात् / ज्वालावर्णो देवदत्तो धनुष्मान्कवची शरी / अनभ्रे विद्युतश्चासन्भूमिश्च समकम्पत // 25 मर्त्यधर्मतया तस्मादिति मां भयमाविशत् // 40 राहुरग्रसदादित्यमपर्वणि विशां पते / गतो हि पक्षतां तेषां पार्षतः पुरुषर्षभः / उल्का चाप्यपसव्यं तु पुरं कृत्वा व्यशीर्यत // 26 सृष्टप्राणो भृशतरं तस्माद्योत्स्ये तवारिभिः // 41 प्रव्याहरन्ति क्रव्यादा गृध्रगोमायुवायसाः। मद्वधाय श्रुतो ह्येष लोके चाप्यतिविश्रुतः / देवायतनचैत्येषु प्राकाराट्टालकेषु च // 27 नूनं सोऽयमनुप्राप्तस्त्वत्कृते कालपर्ययः // 42 एवमेते महोत्पाता वनं गच्छति पाण्डवे / त्वरिताः कुरुत श्रेयो नैतदेतावता कृतम् / भारतानामभावाय राजन्दुर्मत्रिते तव // 28 मुहूर्तं सुखमेवैतत्तालच्छायेव हैमनी / / 43 नारदश्व सभामध्ये कुरूणामग्रतः स्थितः / यजध्वं च महायज्ञैर्भोगाननीत दत्त च / महर्षिभिः परिवृतो रौद्रं वाक्यमुवाच ह // 29 इतश्चतुर्दशे वर्षे महत्प्राप्स्यथ वैशसम् / / 44 इतश्चतुर्दशे वर्षे विनयन्तीह कौरवाः / दुर्योधन निशम्यैतत्प्रतिपद्य यथेच्छसि / दुर्योधनापराधेन भीमार्जुनबलेन च // 30 साम वा पाण्डवेयेषु प्रयुद्ध यदि मन्यसे // 45 इत्युक्त्वा दिवमाक्रम्य क्षिप्रमन्तरधीयत / वैशंपायन उवाच / ब्राह्मीं श्रियं सुविपुलां बिभ्रदेवर्षिसत्तमः / / 31 / द्रोणस्य वचनं श्रुत्वा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् / -383 -
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________________ 2. 71. 46] महाभारते [2. 72. 25 : 72 सम्यगाह गुरुः क्षत्तरुपावर्तय पाण्डवान् / / 46 न कालो दण्डमुद्यम्य शिरः कृन्तति कस्यचित् / यदि वा न निवर्तन्ते सत्कृता यान्तु पाण्डवाः / कालस्य बलमेतावद्विपरीतार्थदर्शनम् // 11 सशस्त्ररथपादाता भोगवन्तश्च पुत्रकाः // 47 आसादितमिदं घोरं तुमुलं लोमहर्षणम् / ' इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि पाश्चालीमपकर्षद्भिः सभामध्ये तपस्विनीम् // 12 एकसप्ततितमोऽध्यायः // 71 // अयोनिजां रूपवती कुले जातां विभावरीम् / . को नु तां सर्वधर्मज्ञां परिभूय यशस्विनीम् / / 13 वैशंपायन उवाच / पर्यानयेत्सभामध्यमृते दुर्दूतदेविनम् / वनं गतेषु पार्थेषु निर्जितेषु दुरोदरे / स्त्रीधर्मिणी वरारोहां शोणितेन समुक्षिताम् // 14 धृतराष्ट्र महाराज तदा चिन्ता समाविशत् // 1 एकवस्त्रां च पाञ्चाली पाण्डवानभ्यवेक्षतीम् / तं चिन्तयानमासीनं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् / हृतस्वान्भ्रष्टचित्तांस्तान्हृतदारान्हृतश्रियः / / 15 निःश्वसन्तमनेकाग्रमिति होवाच संजयः / / 2 विहीनान्सर्वकामेभ्यो दासभाववशं गतान् / अवाप्य वसुसंपूर्णां वसुधां वसुधाधिप / धर्मपाशपरिक्षिप्तानशक्तानिव विक्रमे // 16 प्रव्राज्य पाण्डवानराज्याद्राजन्किमनुशोचसि // 3 क्रुद्धाममर्षितां कृष्णां दुःखितां कुरुसंसदि / धृतराष्ट्र उवाच। दुर्योधनश्च कर्णश्च कटुकान्यभ्यभाषताम् // 17 अशोच्यं तु कुतस्तेषां येषां वैरं भविष्यति / तस्याः कृपणचक्षुर्त्यां प्रदह्येतापि मेदिनी / पाण्डवैर्युद्धशौण्डैर्हि मित्रवद्भिर्महारथैः // 4 अपि शेषं भवेदद्य पुत्राणां मम संजय / / 18 संजय उवाच। भारतानां स्त्रियः सर्वा गान्धार्या सह संगताः / तवेदं सुकृतं राजन्महद्वैरं भविष्यति / प्राक्रोशन्भैरवं तत्र दृष्ट्वा कृष्णां सभागताम् / / 19 विनाशः सर्वलोकस्य सानुबन्धो भविष्यति // 5 अग्निहोत्राणि सायाह्न न चाहूयन्त सर्वशः / वार्यमाणोऽपि भीष्मेण द्रोणेन विदुरेण च / ब्राह्मणाः कुपिताश्चासन्द्रौपद्याः परिकर्षणे / 20 पाण्डवानां प्रियां भार्यां द्रौपदी धर्मचारिणीम् // 6 / आसीन्निष्टानको घोरो निर्घातश्च महानभूत् / प्राहिणोदानयेहेति पुत्रो दुर्योधनस्तव / दिवोल्काश्चापतन्घोरा राहुश्चार्कमुपाग्रसत् / सूतपुत्रं सुमन्दात्मा निर्लज्जः प्रातिकामिनम् / / 7 अपर्वणि महाघोरं प्रजानां जनयन्भयम् // 21 धृतराष्ट्र उवाच / तथैव रथशालासु प्रादुरासीद्धुताशनः / यस्मै देवाः प्रयच्छन्ति पुरुषाय पराभवम् / ध्वजाश्च व्यवशीर्यन्त भरतानामभूतये // 22 बुद्धिं तस्यापकर्षन्ति सोऽपाचीनानि पश्यति // 8 दुर्योधनस्याग्निहोत्रे प्राक्रोशन्भैरवं शिवाः / बुद्धौ कलुषभूतायां विनाशे प्रत्युपस्थिते / तास्तदा प्रत्यभाषन्त रासभाः सर्वतोदिशम् // 23 अनयो नयसंकाशो हृदयानापसर्पति // 9 प्रातिष्ठत ततो भीष्मो द्रोणेन सह संजय / अनर्थाश्चार्थरूपेण अर्थाश्चानर्थरूपिणः / कृपश्च सोमदत्तश्च बाह्रीकश्च महारथः // 24 उत्तिष्ठन्ति विनाशान्ते नरं तच्चास्य रोचते // 10 / ततोऽहमब्रुवं तत्र विदुरेण प्रचोदितः / -384
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________________ 2. 72. 25] सभापर्व [2. 72. 36 वरं ददानि कृष्णायै काङ्कितं यद्यदिच्छति // 25 अवृणोत्तत्र पाञ्चाली पाण्डवानमितौजसः। सरथान्सधनुष्कांश्चाप्यनुज्ञासिषमप्यहम् // 26 अथाब्रवीन्महाप्राज्ञो विदुरः सर्वधर्मवित् / एतदन्ताः स्थ भरता यद्वः कृष्णा सभां गता // 27 एषा पाञ्चालराजस्य सुतैषा श्रीरनुत्तमा। पाञ्चाली पाण्डवानेतान्दैवसृष्टोपसर्पति // 28 / तस्याः पार्थाः परिक्लेशं न ऑस्यन्तेऽत्यमर्षणाः। वृष्णयो वा महेष्वासाः पाञ्चाला वा महौजसः॥ तेन सत्यामिसंधेन वासुदेवेन रक्षिताः / आगमिष्यति बीभत्सुः पाञ्चालैरभिरक्षितः॥३० तेषां मध्ये महेष्वासो भीमसेनो महाबलः / आगमिष्यति धुन्वानो गदां दण्डमिवान्तकः॥ 31 ततो गाण्डीवनिर्घोषं श्रुत्वा पार्थस्य धीमतः / गदावेगं च भीमस्य नालं सोढुं नराधिपाः // 32 तत्र मे रोचते नित्यं पार्थैः सार्धं न विग्रहः / कुरुभ्यो हि सदा मन्ये पाण्डवाशक्तिमत्तरान् / तथा हि बलवानराजा जरासंधो महाद्युतिः / बाहुप्रहरणेनैव भीमेन निहतो युधि // 34 तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ / उभयोः पक्षयोयुक्तं क्रियतामविशङ्कया // 35 एवं गावल्गणे क्षत्ता धर्मार्थसहितं वचः / उक्तवान्न गृहीतं च मया पुत्रहितेप्सया // 36 इति श्रीमहाभारते सभापर्वणि द्विसप्ततितमोऽध्यायः // 72 // // समाप्तमनुद्यूतपर्व // // समाप्तं सभापर्व // म. भा. 49 -985
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________________ आरण्यकपर्व रथैरनुययुः शीघैः स्त्रिय आदाय सर्वशः // 10 जनमेजय उवाच। व्रजतस्तान्विदित्वा तु पौराः शोकाभिपीडिताः / एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः / गर्हयन्तोऽसकृद्भीष्मविदुरद्रोणगौतमान् / धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैनिकृत्या द्विजसत्तम // 1 ऊचुर्विगतसंत्रासाः समागम्य परस्परम् // 11 श्राविताः परुषा वाचः सृजद्भिर्वैरमुत्तमम्। नेदमस्ति कुलं सर्वं न वयं न च नो गृहाः। किमकुर्वन्त कौरव्या मम पूर्वपितामहाः // 2 यत्र दुर्योधनः पापः सौबलेयेन पालितः / कथं चैश्वर्यविभ्रष्टाः सहसा दुःखमेयुषः / कर्णदुःशासनाभ्यां च राज्यमेतच्चिकीर्षति // 12 वने विजहिरे पार्थाः शक्रप्रतिमतेजसः / / 3 नो चेत्कुलं न चाचारो न धर्मोऽर्थः कुतः सुखम् / के चैनानन्ववर्तन्त प्राप्तान्व्यसनमुत्तमम् / यत्र पापसहायोऽयं पापो राज्यं बुभूषते // 13 किमाहाराः किमाचाराः क च वासो महात्मनाम्॥४ दुर्योधनो गुरुद्वेषी त्यक्ताचारसुहृज्जनः / कथं द्वादश वर्षाणि वने तेषां महात्मनाम् / अर्थलुब्धोऽभिमानी च नीचः प्रकृतिनिघृणः // 14 व्यतीयुर्ब्राह्मणश्रेष्ठ शूराणामरिघातिनाम् / / 5 नेयमस्ति मही कृत्स्ना यत्र दुर्योधनो नृपः / कथंच राजपत्री सा प्रवरा सर्वयोषिताम / साधु गच्छामहे सर्वे यत्र गच्छन्ति पाण्डवाः / 15 पतिव्रता महाभागा सततं सत्यवादिनी / सानुक्रोशा महात्मानो विजितेन्द्रियशत्रवः / वनवासमदुःखार्हा दारुणं प्रत्यपद्यत // 6 हीमन्तः कीर्तिमन्तश्च धर्माचारपरायणाः // 16 एतदाचक्ष्व मे सर्वं विस्तरेण तपोधन / एवमुक्त्वानुजग्मुस्तान्पाण्डवांस्ते समेत्य च / श्रोतुमिच्छामि चरितं भूरिद्रविणतेजसाम् / ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे तान्कुन्तीमाद्रिनन्दनान् // 17 कथ्यमानं त्वया विप्र परं कौतूहलं हि मे // 7 क गमिष्यथ भद्रं वस्त्यक्त्वास्मान्दुःखभागिनः / वैशंपायन उवाच। वयमप्यनुयास्यामो यत्र यूयं गमिष्यथ // 18 एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः / अधर्मेण जिताऽश्रुत्वा युष्मांस्त्यक्तघृणैः परैः। धार्तराष्ट्रः सहामात्यैर्निर्ययुगेजसाह्वयात् // 8 उद्विग्नाः स्म भृशं सर्वे नास्मान्हातुमिहार्हथ // 19 वर्धमानपुरद्वारेणाभिनिष्क्रम्य ते तदा / भक्तानुरक्ताः सुहृदः सदा प्रियहिते रतान् / उदङ्मुखाः शस्त्रभृतः प्रययुः सह कृष्णया // 9 / कुराजाधिष्ठिते राज्ये न विनश्येम सर्वशः // 20 इन्द्रसेनादयश्चैनान्भृत्याः परिचतुर्दश / / श्रूयतां चाभिधास्यामो गुणदोषान्नरर्षभाः / - 386 -
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________________ 3. 1. 21] आरण्यकपर्व [3.2.4 शुभाशुभाधिवासेन संसर्ग कुरुते यथा // 21 एतद्धि मम कार्याणां परमं हृदि संस्थितम् / वस्त्रमापस्तिलान्भूमिं गन्धो वासयते यथा। सुकृतानेन मे तुष्टिः सत्कारश्च भविष्यति // 36 पुष्पाणामधिवासेन तथा संसर्गजा गुणाः // 22 वैशंपायन उवाच / मोहजालस्य योनिर्हि मूढेरेव समागमः / तथानुमश्रितास्तेन धर्मराजेन ताः प्रजाः / अहन्यहनि धर्मस्य योनिः साधुसमागमः // 23 चक्रुरार्तस्वरं घोरं हा राजनिति दुःखिताः // 37 तस्मात्प्राज्ञैश्च वृद्धैश्च सुस्वभावैस्तपस्विभिः। गुणान्पार्थस्य संस्मृत्य दुःखार्ताः परमातुराः / सद्भिश्च सह संसर्गः कार्यः शमपरायणैः // 24 अकामाः संन्यवर्तन्त समागम्याथ पाण्डवान् // 38 येषां त्रीण्यवदातानि योनिर्विद्या च कर्म च। निवृत्तेषु तु पौरेषु रथानास्थाय पाण्डवाः / तान्सेवेत्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी // प्रजग्मुर्जाह्नवीतीरे प्रमाणाख्यं महावटम् // 39 निरारम्भा ह्यपि वयं पुण्यशीलेषु साधुषु / तं ते दिवसशेषेण वटं गत्वा तु पाण्डवाः / पुण्यमेवाप्नुयामेह पापं पापोपसेवनात् // 26 ऊषुस्तां रजनी वीराः संस्पृश्य सलिलं शुचि। असतां दर्शनात्स्पर्शात्संजल्पनसहासनात् / उदकेनैव तां रात्रिमूषुस्ते दुःखकर्शिताः // 40 धर्माचाराः प्रहीयन्ते न च सिध्यन्ति मानवाः॥ अनुजग्मुश्च तत्रैतान्नेहात्केचिद्विजातयः / बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचैः सह समागमात्। साग्नयोऽनग्नयश्चैव सशिष्यगणबान्धवाः / मध्यमैर्मध्यतां याति श्रेष्ठतां याति चोत्तमैः // 28 स तैः परिवृतो राजा शुशुभे ब्रह्मवादिभिः // 41 ये गुणाः कीर्तिता लोके धर्मकामार्थसंभवाः / / तेषां प्रादुष्कृताग्नीनां मुहूर्ते रम्यदारुणे। लोकाचारात्मसंभूता वेदोक्ताः शिष्टसंमताः // 29 ब्रह्मघोषपुरस्कारः संजल्पः समजायत // 42 ते युष्मासु समस्ताश्च व्यस्ताश्चैवेह सद्गुणाः। राजानं तु कुरुश्रेष्ठं ते हंसमधुरस्वराः / इच्छामो गुणवन्मध्ये वस्तुं श्रेयोभिकाङ्क्षिणः // 30 आश्वासयन्तो विप्राय्याः क्षपां सर्वां व्यनोदयन् / / .. युधिष्ठिर उवाच / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि प्रथमोऽध्यायः // 1 // धन्या वयं यदस्माकं स्नेहकारुण्ययश्रिताः / असतोऽपि गुणानाहुर्ब्राह्मणप्रमुखाः प्रजाः॥३१ वैशंपायन उवाच / तदहं भ्रातृसहितः सर्वान्विज्ञापयामि वः / प्रभातायां तु शर्वयां तेषामक्लिष्टकर्मणाम् / नान्यथा तद्धि कर्तव्यमस्मत्स्नेहानुकम्पया // 32 वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः / भीष्मः पितामहो राजा विदुरो जननी च मे। तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः॥ 1 सुहृजनश्च प्रायो मे नगरे नागसाह्वये // 33 वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः / ते त्वस्मद्धितकामार्थं पालनीयाः प्रयत्नतः। फलमूलामिषाहारा वनं यास्याम दुःखिताः॥२ युष्माभिः सहितैः सर्वैः शोकसंतापविह्वलाः॥ 34 वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम् / निवर्ततागता दूरं समागमनशापिताः। परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति // 3 स्वजने न्यासभूते मे कार्या स्नेहान्विता मतिः॥ / ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत् / -387 -
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________________ 3. 2. 4] महाभारते [ 3. 2. 31 किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः॥४ श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः // 16 ब्राह्मणा ऊचुः। अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोविघातिनीम् / गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः। श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां सा राजंस्त्वय्यवस्थिता // 17 नाईथास्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिनः // 5 अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च / अनुकम्पां हि भक्तेषु दैवतान्यपि कुर्वते / शारीरमानसैर्दुःखैन सीदन्ति भवद्विधाः // 18 . विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु / / 6 श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा। युधिष्ठिर उवाच / आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना // 19 ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः / मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत् / सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम् // 7 तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु // 20 आहरेयुर्हि मे येऽपि फलमूलमृगांस्तथा। व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात् / त इमे शोकजैर्दुःखैतिरो मे विमोहिताः // 8 दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः संप्रवर्तते // 21 द्रौपद्या विप्रकर्षण राज्यापहरणेन च / तदाशुप्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात् / दुःखान्वितानिमान्क्लेशै हं योक्तुमिहोत्सहे // 9 आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु // 22 ब्राह्मणा ऊचुः। . मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते / अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव / मानसस्य प्रियाख्यानैः संभोगोपनयैर्नृणाम् // 23 स्वयमाहृत्य वन्यानि अनुयास्यामहे वयम् // 10 मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते / अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव / अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम् // 24 कथाभिश्चानुकूलाभिः सह रस्यामहे वने // 11 मानसं शमयेत्तस्माज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना / युधिष्ठिर उवाच / प्रशान्ते मानसे दुःखे शारीरमुपशाम्यति // 25 एवमेतन्न संदेहो रमेयं ब्राह्मणैः सह / मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते / न्यूनभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः // 12 - स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च // 26 कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृतभोजनान् / स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च / मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनौन्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान् // शोकहर्षों तथायासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते // 27 वैशंपायन उवाच। स्नेहात्कारणरागश्च प्रजज्ञे वैषयस्तथा। इत्युक्त्वा स नृपः शोचन्निषसाद महीतले / अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः // 28 तमध्यात्मरतिर्विद्वाशौनको नाम वै द्विजः। कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत् / योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत् // 14 - धर्मार्थिनं तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत् // 29 शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च। विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमात् / दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् // 15 / विरागं भजते जन्तुर्निवैरो निष्परिग्रहः // 30 न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु / तस्मात्स्नेहं स्वपक्षेभ्यो मित्रेभ्यो धनसंचयात् / / -388
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________________ 3. 2. 31] आरण्यकपर्व [3. 2. 59 स्वशरीरसमुत्थं तु ज्ञानेन विनिवर्तयेत् // 31 ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येदेषु न पण्डितः // 45 ज्ञानान्वितेषु मुख्येषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।। त्यजेत संचयांस्तस्मात्तज्जं क्लेशं सहेत कः। न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विंवोदकम् // 32 न हि संचयवान्कश्चिदृश्यते निरुपद्रवः // 46 . रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते / / अतश्च धर्मिभिः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते। इच्छा संजायते तस्य ततस्तृष्णा प्रवर्तते // 33 प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् / / 47 तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी नृणाम् / युधिष्ठिरैवमर्थेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि / अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी // 34 धर्मेण यदि ते कार्य विमुक्तेच्छो भवार्थतः // 48 या दुस्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः / युधिष्ठिर उवाच।। योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् // नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम / अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम् / भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्गे न लोभतः // 49 विनाशयति संभूता अयोनिज इवानलः // 36 कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे / यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति / भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम् / / 50 तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति // 37 संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव शिष्यते / राजतः सलिलादग्नेश्वोरतः स्वजनादपि / तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना // 51 भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव / / 38 तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता / यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि / सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन // 52 भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वेण वित्तवान् / / 39 | देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम् / अर्थ एव हि केषांचिदनों भविता नृणाम् / तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम् // 53 अर्थश्रेयसि चासक्तो न श्रेयो विन्दते नरः / चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम् / तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः // 40 प्रत्युद्गम्याभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम् // 54 कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एवं च / अग्निहोत्रमनडांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः।। अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम्॥४१ पुत्रदारभृताश्चैव निर्दहेयुरपूजिताः॥ 55 अर्थस्योपार्जने दुःखं पालने च क्षये तथा / नात्मार्थ पाचयेदन्नं न वृथा घातयेत्पशून् / नाशे दुःखं व्यये दुःखं नन्ति चैवार्थकारणात्॥४२ न च तत्स्वयमश्नीयाद्विधिवद्यन्न निर्वपेत् // 56 अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चापि तेऽसुखाः / / | श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि / दुःखेन चाधिगम्यन्ते तेषां नाशं न चिन्तयेत्॥४३ वैश्वदेवं हि नामैतत्सायंप्रातर्विधीयते // 57 असंतोषपरा मूढाः संतोष यान्ति पण्डिताः। विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः / अन्तो नास्ति पिपासायाः संतोषः परमं सुखम् / / विघसं भृत्यशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम् // 58 तस्मात्संतोषमेवेह धनं पश्यन्ति पण्डिताः॥ 44 | एतां यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे / अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं द्रव्यसंचयः / / तस्य धर्म परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे / / 59 -389 -
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________________ 3. 2. 60] महाभारते [3. 3.7 शौनक उवाच / सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात् // 74 अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत् / सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात् / येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति // 60 सम्यकर्मोपसंन्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात् / शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु / एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः // 75 मोहरागसमाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः // 61 रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्य देवता गताः। .. ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः / रुद्राः साध्यास्तथादित्या वसयोऽथाश्विनावपि / विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्धान्तैरिव सारथिः / / 62 योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः॥ 76 षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा। तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम् / तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसंकल्पजं मनः // 63 तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत // 77 मनो यस्येन्द्रियग्रामविषयं प्रति चोदितम्। पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते। तस्यौत्सुक्यं संभवति प्रवृत्तिश्चोपजायते // 64 तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै // 78 ततः संकल्पवीर्यण कामेन विषयेषुभिः / सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात् / विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात्पतंगवत् / / 65 तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम् / / 79 ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च विशां पते। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः // 2 // महामोहमुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते // 66 एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु / वैशंपायन उवाच। अविद्याकर्मतृष्णाभिर्धाम्यमागोऽथ चक्रवत् / / 67 / शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते / पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येऽब्रवीदिदम् // 1 जले भुवि तथाकाशे जायमानः पुनः पुनः।। 68 प्रस्थितं मानुयान्तीमे ब्राह्मणा वेदपारगाः / अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु। न चास्मि पालने शक्तो बहुदुःखसमन्वितः // 2 ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः // 69 परित्यक्तुं न शक्नोमि दानशक्तिश्च नास्ति मे। यदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च। कथमत्र मया कार्य भगवांस्तद्भवीतु मे // 3 तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत् // 70 मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम् / इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः। युधिष्ठिरमुवाचेदं धौम्यो धर्मभृतां वरः // 4 अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः // 71 पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम् / तत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयानपथे स्थितः / / ततोऽनुकम्पया तेषां सविता स्वपिता इव // 5 कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत् / / 72 गत्वोत्तरायणं तेजोरसानुद्धृत्य रश्मिभिः / उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा। दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रविः // 6 अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत् // 73 क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपतिः।। सम्यक्संकल्पसंबन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात् / - दिवस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा / / 7 - 390 -
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________________ 8. 3.8] आरण्यकपर्व [3. 3. 33 निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः सूयते भूगतो रविः / वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः / ओषध्यः षड्सा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि / / 8 / धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः // 21 एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम् / कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वामराश्रयः / पितैष सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज // 9 कला काष्ठा मुहूर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा // 22 राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः / संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः / उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम् // 10 पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः // 23 भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च / . लोकाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः / तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धृता ह्यापदः प्रजाः // 11 वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा // 24 तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः / भूताश्रयो भूतपतिः सर्वभूतनिषेवितः / तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत // 12 मणिः सुवर्णो भूतादिः कामदः सर्वतोमुखः // 25 एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः। जयो विशालो वरदः शीघ्रगः प्राणधारणः / धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम् / / 13 धन्वन्तरिधूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥२६ पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम् / द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः / योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रियः / स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् // 27 गाङ्गेयं वायुपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान् // 14 देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः / जनमेजय उवाच। चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेण वपुषान्वितः // 28 कथं कुरूणामृषभः स तु राजा युधिष्ठिरः। एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यैव महात्मनः / विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतविक्रमम् // 15 नाम्नामष्टशतं पुण्यं शक्रेणोक्तं महात्मना // 29 वैशंपायन उवाच / शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यश्च तदनन्तरम् / शृणुष्वावहितो राजशुचिर्भूत्वा समाहितः।। धौम्याधुधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान् // 30. क्षणं च कुरु राजेन्द्र सर्वं वक्ष्याम्यशेषतः / / 16 सुरपितृगणयक्षसेवितं धौम्येन तु यथा प्रोक्तं पार्थाय सुमहात्मने / ___ ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम् / नाम्नामष्टशतं पुण्यं तच्छृणुष्व महामते // 17 वरकनकहुताशनप्रभं सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः / त्वमपि मनस्यभिधेहि भास्करम् // 31 . गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः // 18 सूर्योदये यस्तु समाहितः पठेपृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम् / त्स पुत्रलाभं धनरत्नसंचयान् / सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च // 19 लभेत जातिस्मरतां सदा नरः इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्वरः। स्मृतिं च मेधां च स विन्दते पराम् // 32 ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः / / 20 / इमं स्तवं देववरस्य यो नरः - 391 -
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________________ 8.. 3. 33] महाभारते [3.5.1 प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः स मुच्यते शोकदवाग्निसागरा वैशंपायन उवाच / ल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान् // 33 वनं प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तृतीयोऽध्यायः॥३॥ ___ प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानोऽम्बिकेयः। धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धिं / वैशंपायन उवाच / सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा // 1 . ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम् / प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः // 1 ___ धर्मं च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम् / यत्तेऽभिलषितं राजन्सर्वमेतदवाप्स्यसि / समश्च त्वं संमतः कौरवाणां अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः॥२ पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि // 2 .. एवं गते विदुर यदद्य कार्य फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे। पौराश्चेमे कथमस्मान्भजेरन् / चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति / ते चाप्यस्मान्नोद्धरेयुः समूलाधनं च विविधं तुभ्यमित्युक्त्वान्तरधीयत // 3 न्न कामये तांश्च विनश्यमानान् // 3 लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित् / विदुर उवाच। जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातृ॑श्चास्वजताच्युतः // 4 त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र द्रौपद्या सह संगम्य पश्यमानोऽभ्ययात्प्रभुः / राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति / महानसे तदानं तु साधयामास पाण्डवः / / 5 धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या संस्कृतं प्रसवं याति वन्यमन्नं चतुर्विधम् / __पुत्रान्सर्वान्पाहि कुन्तीसुतांश्च // 4 अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेन भोजयते द्विजान् // 6 स वै धर्मो विप्रलुप्तः सभायां भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वानुजानपि / ____ पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः। शेषं विघससंज्ञं तु पश्चाद्भुङ्क्ते युधिष्ठिरः / आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती // 7 * पराजैषीत्सत्यसंधं सुतस्ते // 5 एवं दिवाकरात्प्राप्य दिवाकरसमद्युतिः / एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजकामान्मनोभिलषितान्ब्राह्मणेभ्यो ददौ प्रभुः // 8 शेषस्याहं परिपश्याम्युपायम् / पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु। यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापायज्ञियार्थाः प्रवर्तन्ते विधिमत्रप्रमाणतः॥ 9 न्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु // 6 ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवाः / तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां द्विजसंधैः परिवृताः प्रययुः काम्यकं वनम् // 10 ___यत्तद्राजन्नतिसृष्टं त्वयासीत् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ एष धर्मः परमो यत्स्वकेन -392
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________________ 3. 5. 7] आरण्यकपर्व [3. 5. 20 राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत् // 7 प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्ताम् / एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं दुःशासनो याचतु भीमसेनं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः। सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च // 14 एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्या युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व देतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व // 8 राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य / अथैतदेवं न करोषि राज त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः / मेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन् // 15 न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा धृतराष्ट्र उवाच / __ शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके // 9 एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायायेषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो मिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च। धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम् / हितं तेषामहितं मामकानायेषां भीमो बाहुशाली च योद्धा ___मेतत्सर्वं मम नोपैति चेतः॥ 16 . तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति // 10 इदं त्विदानी कुत एव निश्चितं उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ / मया यत्ते हितमासीत्तदानीम् / तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्ये ___ कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम् // 17 ... त्येतद्राजन्न च तत्त्वं चकर्थ / असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा इदानीं ते हितमुक्तं न चेत्त्वं दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः / कर्तासि राजन्परितप्तासि पश्चात् // 11 स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते को नु ब्रूयात्समतामन्ववेक्षन् // 18 __ संप्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम् / स मा जिमं विदुर सर्वं ब्रवीषि तापो न ते वै भविता प्रीतियोगा मानं च तेऽहमधिकं धारयामि / त्वं चेन गृह्णासि सुतं सहायैः / यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं अथापरो भवति हि तं निगृह्य सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति // 19 ___पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये // 12 वैशंपायन उवाच / अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यधर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन् / दन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन् / ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः॥ 13 संप्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः // 20 दुर्योधनः शकुनि सूतपुत्रः इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः॥५॥ म. भा. 50 -393 -
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________________ 3. 6. 1] महाभारते [3. 6.17 तैः सत्कृतः स च तानाजमीढो वैशंपायन उवाच / ___ यथोचितं पाण्डुपुत्रान्समेयात् // 10 पाण्डवास्तु वने वासमुद्दिश्य भरतर्षभाः / समाश्वस्तं विदुरं ते नरर्षभाप्रययुर्जाह्नवीकूलात्कुरुक्षेत्रं सहानुगाः // 1 स्ततोऽपृच्छन्नागमनाय हेतुम् / सरस्वतीदृषद्वत्यौ यमुनां च निषेव्य ते / स चापि तेभ्यो विस्तरतः शशंस ययुर्वनेनैव वनं सततं पश्चिमां दिशम् // 2 यथावृत्तो धृतराष्ट्रोऽम्बिकेयः॥ 11 . ततः सरस्वतीकूले समेषु मरुधन्वसु / विदुर उवाच। काम्यकं नाम ददृशुर्वनं मुनिजनप्रियम् // 3 अवोचन्मां धृतराष्ट्रोऽनुगुप्ततत्र ते न्यवसन्वीरा वने बहुमृगद्विजे / ___ मजातशत्रो परिगृह्याभिपूज्य / अन्वास्यमाना मुनिभिः सान्त्व्यमानाश्च भारत॥४ एवं गते समतामभ्युपेत्य . विदुरस्त्वपि पाण्डूनां तदा दर्शनलालसः / पथ्यं तेषां मम चैव ब्रवीहि // 12 जगामैकरथेनैव काम्यकं वनमृद्धिमत् // 5 मयाप्युक्तं यत्क्षमं कौरवाणां ततो यात्वा विदुरः काननं त हितं पथ्यं धृतराष्ट्रस्य चैव। ___च्छी|रश्वैर्वाहिना स्यन्दनेन। . . तद्वै पथ्यं तन्मनो नाभ्युपैति ददर्शासीनं धर्मराजं विविक्ते ___ ततश्चाहं क्षममन्यन्न मन्ये // 13 ___ साधं द्रौपद्या भ्रातृभिर्ब्राह्मणैश्च // 6 परं श्रेयः पाण्डवेया मयोक्तं ततोऽपश्यद्विदुरं तूर्णमारा न मे तच्च श्रुतवानाम्बिकेयः / __दभ्यायान्तं सत्यसंधः स राजा। यथातुरस्येव हि पथ्यमन्नं अथाब्रवीद्धातरं भीमसेनं न रोचते स्मास्य तदुच्यमानम् // 14 किं नु क्षत्ता वक्ष्यति नः समेत्य // 7 न श्रेयसे नीयतेऽजातशत्रो कच्चिन्नायं वचनात्सौबलस्य ___ स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा। ___ समाह्वाता देवनायोपयाति / ब्रुवन्न रुच्यै भरतर्षभस्य कच्चिक्षुद्रः शकुनि युधानि .. पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः // 15 जेष्यत्यस्मान्पुनरेवाक्षवत्याम् // 8 ध्रुवं विनाशो नृप कौरवाणां समाहूतः केनचिदाद्रवेति ___ न वै श्रेयो धृतराष्ट्रः परैति / ___ नाहं शक्तो भीमसेनापयातुम् / यथा पणे पुष्करस्येव सिक्तं गाण्डीवे वा संशयिते कथंचि जलं न तिष्ठेत्पथ्यमुक्तं तथास्मिन् // 16 द्राज्यप्राप्तिः संशयिता भवेन्नः॥९ ततः क्रुद्धो धृतराष्ट्रोऽब्रवीन्मां तत उत्थाय विदुरं पाण्डवेयाः यत्र श्रद्धा भारत तत्र याहि / प्रत्यगृह्णन्नृपते सर्व एव / नाहं भूयः कामये त्वां सहायं - 394 -
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________________ 3. 6. 17 ] आरण्यकपर्व [3. 7. 18 महीमिमां पालयितुं पुरं वा // 17 / समीपोपस्थितं राजा संजयं वाक्यमब्रवीत् // 3 सोऽहं त्यक्तो धृतराष्ट्रेण राज भ्राता मम सुहृच्चैव साक्षाद्धर्म इवापरः / ___ स्त्वां शासितुमुपयातस्त्वरावान् / तस्य स्मृत्वाद्य सुभृशं हृदयं दीर्यतीव मे // 4 तद्वै सर्वं यन्मयोक्तं सभायां तमानयस्व धर्मज्ञं मम भ्रातरमाशु वै। __ तद्धार्यतां यत्प्रवक्ष्यामि भूयः // 18 इति ब्रुवन्स नृपतिः करुणं पर्यदेवयत् // 5 क्लेशैस्तीत्रैयुज्यमानः सपत्नैः पश्चात्तापाभिसंतप्तो विदुरस्मारकर्शितः / क्षमां कुर्वन्कालमुपासते यः। . भ्रातृस्नेहादिदं राजन्संजयं वाक्यमब्रवीत् // 6 संवर्धयन्स्तोकमिवाग्निमात्मवा गच्छ संजय जानीहि भ्रातरं विदुरं मम / ___स वै भुङ्क्ते पृथिवीमेक एव // 19 यदि जीवति रोषेण मया पापेन निर्धतः॥ 7 यस्याविभक्तं वसु रोजन्सहायै न हि तेन मम भ्रात्रा सुसूक्ष्ममपि किंचन / स्तस्य दुःखेऽप्यंशभाजः सहायाः / व्यलीकं कृतपूर्वं मे प्राज्ञेनामितबुद्धिना / / 8 सहायानामेष संग्रहणेऽभ्युपायः स व्यलीकं कथं प्राप्तो मत्तः परमबुद्धिमान् / ____ सहायाप्तौ पृथिवीप्राप्तिमाहुः // 20 न जह्याज्जीवितं प्राज्ञस्तं गच्छानय संजय // 9 सत्यं श्रेष्ठं पाण्डव निष्प्रलापं तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राज्ञस्तमनुमान्य च / तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायैः / संजयो बाढमित्युक्त्वा प्राद्रवत्काम्यकं वनम् // 10 आत्मा चैषामग्रतो नातिवर्ते सोऽचिरेण समासाद्य तद्वनं यत्र पाण्डवाः। - देवंवृत्तिर्वर्धते भूमिपालः // 21 रौरवाजिनसंवीतं ददर्शाथ युधिष्ठिरम् // 11 युधिष्ठिर उवाच / विदुरेण सहासीनं ब्राह्मणैश्च सहस्रशः / एवं करिष्यामि यथा ब्रवीषि भ्रातृभिश्चाभिसंगुप्तं देवैरिव शतक्रतुम् // 12 * ' परां बुद्धिमुपगम्याप्रमत्तः। युधिष्ठिरमथाभ्येत्य पूजयामास संजयः / यच्चाप्यन्यद्देशकालोपपन्नं भीमार्जुनयमांश्चापि तदहँ प्रत्यपद्यत // 13 तद्वै वाच्यं तत्करिष्यामि कृत्स्नम् // 22 राज्ञा पृष्टः स कुशलं सुखासीनश्च संजयः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि षष्ठोऽध्यायः // 6 // शशंसागमने हेतुमिदं चैवाब्रवीद्वचः॥ 14 राजा स्मरति ते क्षत्तधृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः / वैशंपायन उवाच। तं पश्य गत्वा त्वं क्षिप्रं संजीवय च पार्थिवम् // 15 गते तु विदुरे राजन्नाश्रमं पाण्डवान्प्रति / सोऽनुमान्य नरश्रेष्ठान्पाण्डवान्कुरुनन्दनान् / धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः पर्यतप्यत भारत // 1 नियोगाद्राजसिंहस्य गन्तुमर्हसि मानद // 16 स सभाद्वारमागम्य विदुरस्मारमोहितः / एवमुक्तस्तु विदुरो धीमान्स्वजनवत्सलः / समक्षं पार्थिवेन्द्राणां पपाताविष्टचेतनः // 2 युधि पाद्गजाह्वयम्॥ 17 स तु लब्ध्वा पुनः संज्ञां समुत्थाय महीतलात् / तमब्रवीन्महाप्राज्ञं धृतराष्ट्रः प्रतापवान् / - 395 -
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________________ 3. 7. 18] महाभारते [ 3. 8. 19 दिष्ट्या प्राप्तोऽसि धर्मज्ञ दिष्ट्या स्मरसि मेऽनघ।।१८ शकुनिरुवाच / अद्य रात्री दिवा चाहं त्वत्कृते भरतर्षभ। किं बालिशां मतिं राजन्नास्थितोऽसि विशां पते। प्रजागरे प्रपश्यामि विचित्रं देहमात्मनः // 19 गतास्ते समयं कृत्वा नैतदेवं भविष्यति // 7 सोऽङ्कमादाय विदुरं मूर्युपाघ्राय चैव ह। सत्यवाक्ये स्थिताः सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ / क्षम्यतामिति चोवाच यदुक्तोऽसि मया रुषा॥२० पितुस्ते वचनं तात न ग्रहीष्यन्ति कर्हिचित्॥८ विदर उवाच / अथ वा ते ग्रहीष्यति पुनरेष्यन्ति वा पुरम् / क्षान्तमेव मया राजन्गुरुनः परमो भवान् / निरस्य समयं भूयः पणोऽस्माकं भविष्यति // 9 तथा ह्यस्म्यागतः क्षिप्रं त्वद्दर्शनपरायणः / / 21 सर्वे भवामो मध्यस्था राज्ञश्छन्दानुवर्तिनः / भवन्ति हि नरव्याघ्र पुरुषा धर्मचेतसः। छिद्रं बहु प्रपश्यन्तः पाण्डवानां सुसंवृताः // 10 दीनाभिपातिनो राजन्नात्र कार्या विचारणा / / 22 दुःशासन उवाच / पाण्डोः सुता यादृशा मे तादृशा मे सुतास्तव / एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि मातुल / दीना इति हि मे बुद्धिरभिपन्नाद्य तान्प्रति // 23 नित्यं हि मे कथयतस्तव बुद्धिर्हि रोचते // 11 वैशंपायन उवाच / कर्ण उवाच / अन्योन्यमनुनीयैवं भ्रातरौ तौ महाद्युती। काममीक्षामहे सर्वे दुर्योधन तवेप्सितम् / विदुरो धृतराष्ट्रश्च लेभाते परमां मुदम् / / 24 ऐकमत्यं हि नो राजन्सर्वेषामेव लक्ष्यते // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि सप्तमोऽध्यायः // 7 // वैशंपायन उवाच / एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा / वैशंपायन उवाच। नातिहृष्टमनाः क्षिप्रमभवत्स पराङ्मखः॥ 13 श्रुत्वा च विदुरं प्राप्तं राज्ञा च परिसान्त्वितम् / उपलभ्य ततः कर्णो विवृत्य नयने शुभे। धृतराष्ट्रात्मजो राजा पर्यतप्यत दुर्मतिः॥१ रोषाद्दुःशासनं चैव सौबलेयं च तावुभौ // 14 स सौबलं समानाय्य कर्णदुःशासनावपि। उवाच परमक्रुद्ध उद्यम्यात्मानमात्मना / अब्रवीद्वचनं राजा प्रविश्याबुद्धिजं तमः // 2 अहो मम मतं यत्तन्निबोधत नराधिपाः // 15 एष प्रत्यागतो मन्त्री धृतराष्ट्रस्य संमतः / प्रियं सर्वे चिकीर्षामो राज्ञः किंकरपाणयः। विदुरः पाण्डुपुत्राणां सुहृद्विद्वान्हिते रतः॥३ न चास्य शक्नुमः सर्वे प्रिये स्थातुमतन्द्रिताः // 16 यावदस्य पुनर्बुद्धिं विदुरो नापकर्षति / वयं तु शस्त्राण्यादाय रथानास्थाय दंशिताः / पाण्डवानयने तावन्मत्रयध्वं हितं मम // 4 गच्छामः सहिता हन्तुं पाण्डवान्वनगोचरान् // 17 अथ पश्याम्यहं पार्थान्प्राप्तानिह कथंचन / तेषु सर्वेषु शान्तेषु गतेष्वविदितां गतिम् / पुनः शोषं गमिष्यामि निरासुर्निरवग्रहः // 5 निर्विवादा भविष्यन्ति धार्तराष्ट्रास्तथा वयम्॥ 18 विषमुन्धनं वापि शस्त्रमग्निप्रवेशनम् / यावदेव परिघुना यावच्छोकपरायणाः / करिष्ये न हि तानृद्धान्पुनर्द्रष्टुमिहोत्सहे // 6 यावन्मित्रविहीनाश्च तावच्छक्या मतं मम // 19 -396 - .
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________________ 3. 8. 20] आरण्यकपर्व [3. 10. 10 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पूजयन्तः पुनः पुनः। यदि स्यात्कृतकार्योऽद्य भवेस्त्वं मनुजेश्वर // 10 बाढमित्येव ते सर्वे प्रत्यूचुः सूतजं तदा // 20 अथ वा जायमानस्य यच्छीलमनुजायते। एवमुक्त्वा तु संक्रुद्धा रथैः सर्वे पृथक्पृथक् / श्रूयते तन्महाराज नामृतस्यापसर्पति // 11 निर्ययुः पाण्डवान्हन्तुं संघशः कृतनिश्चयाः॥ 21 कथं वा मन्यते भीष्मो द्रोणो वा विदुरोऽपि वा। तान्प्रस्थितान्परिज्ञाय कृष्णद्वैपायनस्तदा / भवान्वात्र क्षमं कार्य पुरा चार्थोऽतिवर्तते // 12 आजगाम विशुद्धात्मा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा // 22 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि नवमोऽध्यायः॥ 9 // प्रतिषिध्याथ तान्सर्वान्भगवाल्लोकपूजितः / प्रज्ञाचक्षुषमासीनमुवाचाभ्येत्य सत्वरः / / 23 धृतराष्ट्र उवाच / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अष्टमोऽध्यायः // 8 // भगवन्नाहमप्येतद्रोचये द्यूतसंस्तवम् / मन्ये तद्विधिनाक्रम्य कारितोऽस्मीति वै मुने // 1 व्यास उवाच / नैतद्रोचयते भीष्मो न द्रोणो विदुरो न च। धृतराष्ट्र महाप्राज्ञ निबोध वचनं मम / गान्धारी नेच्छति यूतं तच्च मोहात्प्रवर्तितम् // 2 वक्ष्यामि त्वा कौरवाण्यं सर्वेषां हितमुत्तमम् // 1 परित्यक्तुं न शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम् / न मे प्रियं महाबाहो यद्गताः पाण्डवा वनम् / पुत्रस्नेहेन भगवञ्जानन्नपि यतव्रत // 3 निकृत्या निर्जिताश्चैव दुर्योधनवशानुगैः // 2 व्यास उवाच / ते स्मरन्तः परिक्लेशान्वर्षे पूर्णे त्रयोदशे। वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान् / विमोक्ष्यन्ति विषं क्रुद्धाः कौरवेयेषु भारत // 3 / दृढं वेद्मि परं पुत्रं परं पुत्रान्न विद्यते // 4 तदयं किं नु पापात्मा तव पुत्रः सुमन्दधीः / इन्द्रोऽप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधितः। पाण्डवान्नित्यसंक्रुद्धो राज्यहेतोर्जिघांसति // 4 अन्यैः समृद्धरप्यर्थैर्न सुताद्विद्यते परम् // 5 वार्यतां साध्वयं मूढः शमं गच्छतु ते सुतः / अत्र ते वर्तयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम् / वनस्थांस्तानयं हन्तुमिच्छन्प्राणैर्विमोक्ष्यते // 5 सुरभ्याश्चैव संवादमिन्द्रस्य च विशां पते // 6 यथाह विदुरः प्राज्ञो यथा भीष्मो यथा वयम् / त्रिविष्टपगता राजन्सुरभिः प्रारुदत्किल / यथा कृपश्च द्रोणश्च तथा साधु विधीयताम् / / 6 गवां माता पुरा तात तामिन्द्रोऽन्वकृपायत // 7 विग्रहो हि महाप्राज्ञ स्वजनेन विगर्हितः / ___ इन्द्र उवाच। अधर्म्यमयशस्यं च मा राजन्प्रतिपद्यथाः // 7 किमिदं रोदिषि शुभे कञ्चित्क्षेमं दिवौकसाम् / समीक्षा यादृशी ह्यस्य पाण्डवान्प्रति भारत। मानुषेष्वथ वा गोषु नैतदल्पं भविष्यति // 8 उपेक्ष्यमाणा सा राजन्महान्तमनयं स्पृशेत् / / 8 सुरभिरुवाच। अथ वायं सुमन्दात्मा वनं गच्छतु ते सुतः। विनिपातो न वः कश्चिदृश्यते त्रिदशाधिप / पाण्डवैः सहितो राजन्नेक एवासहायवान् // 9 अहं तु पुत्रं शोचामि तेन रोदिमि कौशिक // 9 ततः संसर्गजः स्नेहः पुत्रस्य तव पाण्डवैः। | पश्यैनं कर्षकं रौद्रं दुर्बलं मम पुत्रकम् / -397 -
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________________ 3. 10. 10] महाभारते [ 3. 11. 12 प्रतोदेनाभिनिघ्नन्तं लाङ्गलेन निपीडितम् // 10 दुर्योधनस्तव सुतः शमं गच्छतु पाण्डवैः // 23 एतं दृष्ट्वा भृशं श्रान्तं वध्यमानं सुराधिप / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दशमोऽध्यायः // 10 // कृपाविष्टास्मि देवेन्द्र मनश्चोद्विजते मम // 11 11 . एकस्तत्र बलोपेतो धुरमुद्वहतेऽधिकाम् / धृतराष्ट्र उवाच। अपरोऽल्पबलप्राणः कृशो धमनिसंततः / एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि नो मुने। कृच्छ्रादुद्वहते भारं तं वै शोचामि वासव // 12 अहं चैव विजानामि सर्वे चेमे नराधिपाः // 1 वध्यमानः प्रतोदेन तुद्यमानः पुनः पुनः / भवांस्तु मन्यते साधु यत्कुरूणां सुखोदयम् / नैव शक्नोति तं भारमुद्वोढुं पश्य वासव // 13 तदेव विदुरोऽप्याह भीष्मो द्रोणश्च मां मुने // 2 ततोऽहं तस्य दुःखार्ता विरौमि भृशदुःखिता। यदि त्वहमनुग्राह्यः कौरवेषु दया यदि / अश्रूण्यावर्तयन्ती च नेत्राभ्यां करुणायती // 14 अनुशाधि दुरात्मानं पुत्रं दुर्योधनं मम // 3. ___ इन्द्र उवाच / व्यास उवाच / तव पुत्रसहस्रेषु पीड्यमानेषु शोभने / अयमायाति वै राजन्मैत्रेयो भगवानृषिः / किं कृपायितमस्त्यत्र पुत्र एकोऽत्र पीड्यते // 15 अन्वीय पाण्डवान्भ्रातृनिहैवास्मदिदृक्षया // 4 सुरभिरुवाच / एष दुर्योधनं पुत्रं तव राजन्महानृषिः / यदि पुत्रसहस्रं मे सर्वत्र सममेव मे। अनुशास्ता यथान्यायं शमायास्य कुलस्य ते // 5 दीनस्य तु सतः शक्र पुत्रस्याभ्यधिका कृपा // 16 ब्रूयाद्यदेष राजेन्द्र तत्कार्यमविशङ्कया। व्यास उवाच / अक्रियायां हि कार्यस्य पुत्रं. ते शप्स्यते रुषा॥ 6 तदिन्द्रः सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मितः / वैशंपायन उवाच / जीवितेनापि कौरव्य मेनेऽभ्यधिकमात्मजम् // 17 एवमुक्त्वा ययौ व्यासो मैत्रेयः प्रत्यदृश्यत / प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम् / पूजया प्रतिजग्राह संपुत्रस्तं नराधिपः / / 7 कर्षकस्याचरन्विघ्नं भगवान्पाकशासनः // 18 दत्त्वााद्याः क्रियाः सर्वा विश्रान्तं मुनिपुंगवम् / तद्यथा सुरभिः प्राह सममेवास्तु ते तथा।। प्रश्रयेणाब्रवीद्राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः // 8 सुतेषु राजन्सर्वेषु दीनेष्वभ्यधिका कृपा // 19 सुखेनागमनं कञ्चिद्भगवन्कुरुजाङ्गले। यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मेऽसि पुत्रक / कञ्चित्कुशलिनो वीरा भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः॥९ विदुरश्च महाप्राज्ञः स्नेहादेतद्भवीम्यहम् // 20 समये स्थातुमिच्छन्ति कच्चिच्च पुरुषर्षभाः / चिराय तव पुत्राणां शतमेकश्च पार्थिव / कञ्चित्कुरूणां सौभ्रात्रमव्युच्छित्रं भविष्यति // 10 पाण्डोः पञ्चैव लक्ष्यन्ते तेऽपि मन्दाः सुदुःखिताः।। मैत्रेय उवाच / कथं जीवेयुरत्यन्तं कथं वर्धेयुरित्यपि / तीर्थयात्रामनुक्रामन्प्राप्तोऽस्मि कुरुजाङ्गलम् / इति दीनेषु पार्थेषु मनो मे परितप्यते // 22 यदृच्छया धर्मराजं दृष्टवान्काम्यके वने // 11 यदि पार्थिव कौरव्याञ्जीवमानानिहेच्छसि। तं जटाजिनसंवीतं तपोवननिवासिनम् / -398 -
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________________ 3. 11. 12] आरण्यकपर्व [3. 11. 39 समाजग्मुर्महात्मानं द्रष्टुं मुनिगणाः प्रभो // 12 / कस्तान्युधि समासीत जरामरणवान्नरः // 26 . तत्राश्रीषं महाराज पुत्राणां तव विभ्रमम् / तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ / अनयं द्यूतरूपेण महापायमुपस्थितम् // 13 कुरु मे वचनं राजन्मा मृत्युवशमन्वगाः॥ 27 ततोऽहं त्वामनुप्राप्तः कौरवाणामवेक्षया। एवं तु ब्रुवतस्तस्य मैत्रेयस्य विशां पते / सदा ह्यभ्यधिकः स्नेहः प्रीतिश्च त्वयि मे प्रभो॥ 14 ऊरुं गजकराकारं करेणाभिजघान सः॥ 28 नैतदौपयिक राजंस्त्वयि भीष्मे च जीवति / दुर्योधनः स्मितं कृत्वा चरणेनालिखन्महीम् / यदन्योन्येन ते पुत्रा विरुध्यन्ते नराधिप // 15 न किंचिदुक्त्वा दुर्मेधास्तस्थौ किंचिदवाङ्मुखः॥२९ मेढीभूतः स्वयं राजन्निग्रहे प्रग्रहे भवान् / तमशुश्रूषमाणं तु विलिखन्तं वसुंधराम् / किमर्थमनयं घोरमुत्पतन्तमुपेक्षसे // 16 दृष्ट्वा दुर्योधनं राजन्मैत्रेयं कोप आविशत् // 30 दस्यूनामिव यद्वृत्तं सभायां कुरुनन्दन। स कोपवशमापन्नो मैत्रेयो मुनिसत्तमः / तेन न भ्राजसे राजस्तापसानां समागमे // 17 विधिना संप्रयुक्तश्च शापायास्य मनो दधे // 31 वैशंपायन उवाच / ततः स वायुपस्पृश्य कोपसंरक्तलोचनः / ततो व्यावृत्य राजानं दुर्योधनममर्षणम् / मैत्रेयो धार्तराष्ट्रं तमशपहुष्टचेतसम् // 32 उवाच श्लक्ष्णया वाचा मैत्रेयो भगवानृषिः // 18 यस्मात्त्वं मामनादृत्य नेमां वाचं चिकीर्षसि / दुर्योधन महाबाहो निबोध वदतां वर। तस्मादस्याभिमानस्य सद्यः फलमवाप्नहि // 33 वचनं मे महाप्राज्ञ ब्रुवतो यद्धितं तव // 19 त्वदभिद्रोहसंयुक्तं युद्धमुत्पत्स्यते महत् / मा द्रुहः पाण्डवानराजन्कुरुष्व हितमात्मनः। यत्र भीमो गदापातैस्तवोरं भेत्स्यते बली // 34 पाण्डवानां कुरूणां च लोकस्य च नरर्षभ // 20 इत्येवमुक्ते वचने धृतराष्ट्रो महीपतिः। ते हि सर्वे नरव्याघ्राः शूरा विक्रान्तयोधिनः / प्रसादयामास मुनि नैतदेवं भवेदिति // 35 सर्वे नागायुतप्राणा वज्रसंहनना दृढाः // 21 मैत्रेय उवाच / सत्यव्रतपराः सर्वे सर्वे पुरुषमानिनः। शमं यास्यति चेत्पुत्रस्तव राजन्यथा तथा। हन्तारो देवशत्रूणां रक्षसां कामरूपिणाम् / शापो न भविता तात विपरीते भविष्यति // 36 हिडिम्बबकमुख्यानां किर्मीरस्य च रक्षसः / / 22 वैशंपायन उवाच / इतः प्रच्यवतां रात्रौ यः स तेषां महात्मनाम् / स विलक्षस्तु राजेन्द्र दुर्योधनपिता तदा। आवृत्य मार्ग रौद्रात्मा तस्थौ गिरिरिवाचलः // 23 मैत्रेयं प्राह किर्मीरः कथं भीमेन पातितः / / 37 तं भीमः समरश्लाघी बलेन बलिनां वरः / मैत्रेय उवाच / जघान पशुमारेण व्याघ्रः क्षुद्रमृगं यथा // 24 नाहं वक्ष्याम्यसूया ते न ते शुश्रूषते सुतः / पश्य दिग्विजये राजन्यथा भीमेन पातितः। एष ते विदुरः सर्वमाख्यास्यति गते मयि // 38 जरासंधो महेष्वासो नागायुतबलो युधि // 25 वैशंपायन उवाच / संबन्धी वासुदेवश्च येषां श्यालश्च पार्पतः। इत्येवमुक्त्वा मैत्रेयः प्रातिष्ठत यथागतम् / -399 -
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________________ 3. 11. 39 ] महाभारते [3. 12. 26 किर्मीरवधसंविग्नो बहिर्दुर्योधनोऽगमत् // 39 / विदूरजाताश्च लताः समाश्लिष्यन्त पादपान् // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तस्मिन्क्षणेऽथ प्रववौ मास्तो भृशदारुणः / एकादशोऽध्यायः // 11 // रजसा संवृतं तेन नष्टक्षमभवन्नभः // 13 ॥समाप्तमारण्यकपर्व // पश्चानां पाण्डुपुत्राणामविज्ञातो महारिपुः / पश्चानामिन्द्रियाणां तु शोकवेग इवातुलः // 14 धृतराष्ट्र उवाच / स दृष्ट्वा पाण्डवान्दूरात्कृष्णाजिनसमावृतान् / किर्मीरस्य वधं क्षत्तः श्रोतुमिच्छामि कथ्यताम् / आवृणोत्तद्वनद्वारं मैनाक इव पर्वतः // 15 रक्षसा भीमसेनस्य कथमासीत्समागमः // 1 तं समासाद्य वित्रस्ता कृष्णा कमललोचना। विदुर उवाच। अदृष्टपूर्व संत्रासान्न्यमीलयत लोचने // 16 शृणु भीमस्य कर्मेदमतिमानुषकर्मणः / दुःशासनकरोत्सृष्टविप्रकीर्णशिरोरुहा।.. श्रुतपूर्वं मया तेषां कथान्तेषु पुनः पुनः॥२ पश्चपर्वतमध्यस्था नदीवाकुलतां गता // 17 इतः प्रयाता राजेन्द्र पाण्डवा यूतनिर्जिताः। मोमुह्यमानां तां तत्र जगृहुः पञ्च पाण्डवाः / जग्मुनिभिरहोरात्रैः काम्यकं नाम तद्वनम् // 3 इन्द्रियाणि प्रसक्तानि विषयेषु यथा रतिम् // 18 रात्रौ निशीथे स्वाभीले गतेऽर्धसमये नृप। अथ तां राक्षसी मायामुत्थितां घोरदर्शनाम् / प्रचारे पुरुषादानां रक्षसां भीमकर्मणाम् // 4 रक्षोप्नैर्विविधैर्मत्रैधौम्यः सम्यक्प्रयोजितैः / तद्वनं तापसा नित्यं शेषाश्च वनचारिणः / पश्यतां पाण्डुपुत्राणां नाशयामास वीर्यवान् // 19 दूरात्परिहरन्ति स्म पुरुषादभयात्किल // 5 स नष्टमायोऽतिबलः क्रोधविस्फारितेक्षणः / तेषां प्रविशतां तत्र मार्गमावृत्य भारत। काममूर्तिधरः क्षुद्रः कालकल्पो व्यदृश्यत // 20 दीप्ताक्षं भीषणं रक्षः सोल्मुकं प्रत्यदृश्यत // 6 तमुवाच ततो राजा दीर्घप्रज्ञो युधिष्ठिरः / बाहू महान्तौ कृत्वा तु तथास्यं च भयानकम् / को भवान्कस्य वा किं ते क्रियतां कार्यमुच्यताम् // स्थितमावृत्य पन्थानं येन यान्ति कुरूद्वहाः / / 7 प्रत्युवाचाथ तद्रक्षो धर्मराज युधिष्ठिरम्। दष्टोष्ठदंष्ट्र ताम्राक्षं प्रदीप्तोर्ध्वशिरोरुहम् / अहं बकस्य वै भ्राता किसर इति विश्रुतः / / 22 सार्करश्मितडिच्चक्रं सबलाकमिवाम्बुदम् / / 8 वनेऽस्मिन्काम्यके शून्ये निवसामि गतज्वरः / सृजन्तं राक्षसी मायां महारावविराविणम् / युधि निर्जित्य पुरुषानाहारं नित्यमाचरन् // 23 मुश्चन्तं विपुलं नादं सतोयमिव तोयदम् // 9 के यूयमिह संप्राप्ता भक्ष्यभूता ममान्तिकम् / तस्य नादेन संत्रस्ताः पक्षिणः सर्वतोदिशम् / युधि निर्जित्य वः सर्वान्भक्षयिष्ये गतज्वरः // 24 विमुक्तनादाः संपेतुः स्थलजा जलजैः सह // 10 युधिष्ठिरस्तु तच्छ्रुत्वा वचस्तस्य दुरात्मनः / संप्रद्रुतमृगद्वीपिमहिषःसमाकुलम / आचचक्षे ततः सर्वं गोत्रनामादि भारत // 25 तद्वनं तस्य नादेन संप्रस्थितमिवाभवत् // 11 पाण्डवो धर्मराजोऽहं यदि ते श्रोत्रमागतः / तस्योरुवाताभिहता ताम्रपल्लवबाहवः / सहितो भ्रातृभिः सर्वैर्भीमसेनार्जुनादिभिः // 26 - 400 -
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________________ 3. 12. 27 ] आरण्यकपर्व [ 3. 12. 56 हृतराज्यो वने वासं वस्तुं कृतमतिस्ततः / इत्युक्त्वैनमभिक्रुद्धः कक्ष्यामुत्पीड्य पाण्डवः / वनमभ्यागतो घोरमिदं तव परिग्रहम् // 27 निष्पिष्य पाणिना पाणिं संदष्टोष्ठपुटो बली। किर्मीरस्त्वब्रवीदेनं दिष्ट्या देवैरिदं मम / तमभ्यधावद्वेगेन भीमो वृक्षायुधस्तदा // 42 उपपादितमद्येह चिरकालान्मनोगतम् // 28 यमदण्डप्रतीकाशं ततस्तं तस्य मूर्धनि / भीमसेनवधार्थं हि नित्यमभ्युद्यतायुधः / पातयामास वेगेन कुलिशं मघवानिव // 43 चरामि पृथिवीं कृत्स्नां नैनमासादयाम्यहम् // 29 असंभ्रान्तं तु तद्रक्षः समरे प्रत्यदृश्यत। सोऽयमासादितो दिष्ट्या भ्रातृहा कातितश्चिरम्। चिक्षेप चोल्मुकं दीप्तमशनिं ज्वलितामिव // 44 अनेन हि मम भ्राता बको विनिहतः प्रियः // 30 तदुदस्तमलातं तु भीमः प्रहरतां वरः। वेत्रकीयगृहे राजन्ब्राह्मणच्छद्मरूपिणा। . पदा सव्येन चिक्षेप तद्रक्षः पुनराव्रजत् // 45 विद्याबलमुपाश्रित्य न ह्यस्त्यस्यौरसं बलम् // 31 किर्मीरश्चापि सहसा वृक्षमुत्पाट्य पाण्डवम् / हिडिम्बश्च सखा मह्यं दयितो वनगोचरः / / दण्डपाणिरिव ऋद्धः समरे प्रत्ययध्यत॥४६ हतो दुरात्मनानेन स्वसा चास्य हृता पुरा // 32 तद्वृक्षयुद्धमभवन्महीरुहविनाशनम् / सोऽयमभ्यागतो मूढो ममेदं गहनं वनम् / वालिसुग्रीवयोर्धात्रोर्यथा श्रीकाङ्क्षिणोः पुरा // 47 प्रचारसमयेऽस्माकमर्धरात्रे समास्थिते // 33 शीर्षयोः पतिता वृक्षा बिभिदु३कधा तयोः / अद्यास्य यातयिष्यामि तद्वैरं चिरसंभृतम्। यथैवोत्पलपद्मानि मत्तयोपियोस्तथा // 48 तर्पयिष्यामि च बकं रुधिरेणास्य भूरिणा // 34 मुञ्जवजर्जरीभूता बहवस्तत्र पादपाः / अद्याहमनृणो भूत्वा भ्रातुः सख्युस्तथैव च। चीराणीव व्युदस्तानि रेजुस्तत्र महावने // 49 शान्ति लब्धास्मि परमां हत्वा राक्षसकण्टकम् // 35 तद्वृक्षयुद्धमभवत्सुमुहूर्तं विशां पते / यदि तेन पुरा मुक्तो भीमसेनो बकेन वै। राक्षसानां च मुख्यस्य नराणामुत्तमस्य च // 50 अद्यैनं भक्षयिष्यामि पश्यतस्ते युधिष्ठिर // 36 ततः शिलां समुक्षिप्य भीमस्य युधि तिष्ठतः / एनं हि विपुलप्राणमद्य हत्वा वृकोदरम् / प्राहिणोद्राक्षसः क्रुद्धो भीमसेनश्वचाल ह // 51 संभक्ष्य जरयिष्यामि यथागस्त्यो महासुरम् // 37 तं शिलाताडनजडं पर्यधावत्स राक्षसः / एवमुक्तस्तु धर्मात्मा सत्यसंधो युधिष्ठिरः। बाहुविक्षिप्तकिरणः स्वर्भानुरिव भास्करम् // 52 नैतदस्तीति सक्रोधो भर्त्सयामास राक्षसम् // 38 तावन्योन्यं समाश्लिष्य प्रकर्षन्तौ परस्परम् / ततो भीमो महाबाहुरारुज्य तरसा द्रुमम् / उभावपि चकाशेते प्रयुद्धौ वृषभाविव // 53 दशव्याममिवोद्विद्धं निष्पत्रमकरोत्तदा॥ 39 तयोरासीत्सुतुमुलः संप्रहारः सुदारुणः। चकार सज्यं गाण्डीवं वज्रनिष्पेषगौरवम् / नखदंष्ट्रायुधवतोर्व्याघ्रयोरिव दृप्तयोः॥ 54 निमेषान्तरमात्रेण तथैव विजयोऽर्जुनः॥ 40 दुर्योधननिकाराच्च बाहुवीर्याच्च दर्पितः / निवार्य भीमो जिष्णुं तु तद्रक्षो घोरदर्शनम् / कृष्णानयनदृष्टश्च व्यवर्धत वृकोदरः॥ 55 अभिद्रुत्याब्रवीद्वाक्यं तिष्ठ तिष्ठति भारत // 41 अभिपत्याथ बाहुभ्यां प्रत्यगृह्णादमर्षितः / म.भा. 51 - 401 -
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________________ 3. 12. 56 ] महाभारते [3. 13.6 मातङ्ग इव मातङ्गं प्रभिन्नकरटामुखः // 56 भीमेन वचनात्तस्य धर्मराजस्य कौरव // 69 तं चाप्यथ ततो रक्षः प्रतिजग्राह वीर्यवान् / ततो निष्कण्टकं कृत्वा वनं तदपराजितः / तमाक्षिपद्भीमसेनो बलेन बलिनां वरः॥ 57 द्रौपद्या सह धर्मज्ञो वसतिं तामुवास ह॥७० तयोर्भुजविनिष्पेषादुभयोर्बलिनोस्तदा / समाश्वास्य च ते सर्वे द्रौपदीं भरतर्षभाः। शब्दः समभवद्धोरो वेणुस्फोटसमो युधि // 58 प्रहृष्टमनसः प्रीत्या प्रशशंसुर्वृकोदरम् // 71 . अथैनमाक्षिप्य बलाद्गृह्य मध्ये वृकोदरः। भीमबाहुबलोषिष्टे विनष्टे राक्षसे ततः। धूनयामास वेगेन वायुश्चण्ड इव द्रुमम् // 59 विविशुस्तद्वनं वीराः क्षेमं निहतकण्टकम् // 72 स भीमेन परामृष्टो दुर्बलो बलिना रणे। स मया गच्छता मार्गे विनिकीर्णो भयावहः। व्यस्पन्दत यथाप्राणं विचकर्ष च पाण्डवम् // 60 वने महति दुष्टात्मा दृष्टो भीमबलाद्धतः // 73 तत एनं परिश्रान्तमुपलभ्य वृकोदरः / तत्राश्रौषमहं चैतत्कर्म भीमस्य भारत। योक्त्रयामास बाहुभ्यां पशुं रशनया यथा // 61 ब्राह्मणानां कथयतां ये तत्रासन्समागताः // 74 विनदन्तं महानादं भिन्नभेरीसमस्वनम् / वैशंपायन उवाच / भ्रामयामास सुचिरं विस्फुरन्तमचेतसम् // 62 एवं विनिहतं संख्ये किर्मीरं राक्षसोत्तमम् / तं विषीदन्तमाज्ञाय राक्षसं पाण्डुनन्दनः / श्रुत्वा ध्यानपरो राजा निशश्वासार्तवत्तदा // 75 प्रगृह्य तरसा दोभ्यां पशुमारममारयत् // 63 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि द्वादशोऽध्यायः // 12 आक्रम्य स कटीदेशे जानुना राक्षसाधमम् / ॥समाप्तं किौरवधपर्व // अपीडयत बाहुभ्यां कण्ठं तस्य वृकोदरः॥ 64 अथ तं जडसर्वाङ्गं व्यावृत्तनयनोल्बणम् / वैशंपायन उवाच / भूतले पातयामास वाक्यं चेदमुवाच ह // 65 भोजाः प्रव्रजिताश्रुत्वा वृष्णयश्चान्धकैः सह / हिडिम्बबकयोः पाप न त्वमथुप्रमार्जनम् / पाण्डवान्दुःखसंतप्तान्समाजग्मुर्महावने // 1 करिष्यसि गतश्चासि यमस्य सदनं प्रति // 66 पाश्चालस्य च दायादा धृष्टकेतुश्च चेदिपः। इत्येवमुक्त्वा पुरुषप्रवीर केकयाश्च महावीर्या भ्रातरो लोकविश्रुताः॥२ स्तं राक्षसं क्रोधविवृत्तनेत्रः / वने तेऽभिययुः पार्थान्क्रोधामर्षसमन्विताः / प्रस्रस्तवस्त्राभरणं स्फुरन्त गर्हयन्तो धार्तराष्ट्रान् िकुर्म इति चाब्रुवन् // 3 मुद्धान्तचित्तं व्यसुमुत्ससर्ज // 67 वासुदेवं पुरस्कृत्य सर्वे ते क्षत्रियर्षभाः / तस्मिन्हते तोयदतुल्यरूपे परिवार्योपविविशुधर्मराज युधिष्ठिरम् // 4 कृष्णां पुरस्कृत्य नरेन्द्रपुत्राः / वासुदेव उवाच / भीमं प्रशस्याथ गुणैरनेकै दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्च दुरात्मनः / हृष्टास्ततो द्वैतवनाय जग्मुः // 68 दुःशासनचतुर्थानां भूमिः पास्यति शोणितम् // 5 एवं विनिहतः संख्ये किर्मीरो मनुजाधिप। ततः सर्वेऽभिषिञ्चामो धर्मराज युधिष्ठिरम् / - 402 -
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________________ 3. 18. 6] आरण्यकपर्व [3. 13. 34 निकृत्योपचरन्वध्य एष धर्मः सनातनः // 6 वायुर्वैश्रवणो रुद्रः कालः खं पृथिवी दिशः।। वैशंपायन उवाच। __ अजश्चराचरगुरुः स्रष्टा त्वं पुरुषोत्तम // 20 पार्थानामभिषङ्गेण तथा क्रुद्धं जनार्दनम् / तुरायणादिभिर्देव ऋतुभि रिदक्षिणैः / अर्जुनः शमयामास दिधक्षन्तमिव प्रजाः // 7 अयजो भरितेजा वै कृष्ण चैत्ररथे वने // 21 संक्रुद्धं केशवं दृष्ट्वा पूर्वदेहेषु फल्गुनः / शतं शतसहस्राणि सुवर्णस्य जनार्दन / कीर्तयामास कर्माणि सत्यकीर्तेर्महात्मनः // 8 एकैकस्मिंस्तदा यज्ञे परिपूर्णानि भागशः // 22 पुरुषस्याप्रमेयस्य सत्यस्यामिततेजसः / अदितेरपि पुत्रत्वमेत्य यादवनन्दन / प्रजापतिपतेर्विष्णोर्लोकनाथस्य धीमतः॥ 9 त्वं विष्णुरिति विख्यात इन्द्रादवरजो भुवि // 23 अर्जुन उवाच। . शिशुभूत्वा दिवं खं च पृथिवीं च परंतप / दश वर्षसहस्राणि यत्रसायंगृहो मुनिः। त्रिभिर्विक्रमणैः कृष्ण क्रान्तवानसि तेजसा // 24 व्यचरस्त्वं पुरा कृष्ण पर्वते गन्धमादने / 10 संप्राप्य दिवमाकाशमादित्यसदने स्थितः / दश वर्षसहस्राणि दश वर्षशतानि च / अत्यरोचश्च भूतात्मन्भास्करं स्वेन तेजसा / / 25 पुष्करेष्ववसः कृष्ण त्वमपो भक्षयन्पुरा // 11 सादिता मौरवाः पाशा निसुन्दनरको हतौ / ऊर्ध्वबाहुर्विशालायां बदाँ मधुसूदन / कृतः क्षेमः पुनः पन्थाः पुरं प्राग्ज्योतिषं प्रति॥२६ अतिष्ठ एकपादेन वायुभक्षः शतं समाः // 12 जारूथ्यामाहु[हतिः क्राथः शिशुपालो जनैः सह / अपकृष्टोत्तरासङ्गः कृशो धमनिसंततः। भीमसेनश्च शैब्यश्च शतधन्वा च निर्जितः // 27 आसीः कृष्ण सरस्वत्यां सत्रे द्वादशवार्षिके // 13 तथा पर्जन्यघोषेण रथेनादित्यवर्चसा। प्रभासं चाप्यथासाद्य तीर्थं पुण्यजनोचितम् / अवाक्षीमहिषीं भोज्यां रणे निर्जित्य रुक्मिणम् // 28 तथा कृष्ण महातेजा दिव्यं वर्षसहस्रकम् / इन्द्रद्युम्नो हतः कोपाद्यवनश्च कशेरुमान् / आतिष्ठस्तप एकेन पादेन नियमे स्थितः // 14 हतः सौभपतिः शाल्वस्त्वया सौभं च पातितम् / / क्षेत्रज्ञः सर्वभूतानामादिरन्तश्च केशव / इरावत्यां तथा भोजः कार्तवीर्यसमो युधि / निधानं तपसां कृष्ण यज्ञस्त्वं च सनातनः // 15 गोपतिस्तालकेतुश्च त्वया विनिहतावुभौ // 30 / निहत्य नरकं भौममाहृत्य मणिकुण्डले। तां च भोगवतीं पुण्यामृषिकान्तां जनार्दन / प्रथमोत्पादितं कृष्ण मेध्यमश्वमवासृजः // 16 द्वारकामात्मसात्कृत्वा समुद्रं गमयिष्यसि // 31 कृत्वा तत्कर्म लोकानामृषभः सर्वलोकजित् / न क्रोधो न च मात्सर्यं नानृतं मधुसूदन / अवधीस्त्वं रणे सर्वान्समेतान्दैत्यदानवान् / / 17 / त्वयि तिष्ठति दाशार्ह न नृशंस्यं कुतोऽनृजु // 32 ततः सर्वेश्वरत्वं च संप्रदाय शचीपतेः / आसीनं चित्तमध्ये त्वां दीप्यमानं स्वतेजसा। मानुषेषु महाबाहो प्रादुर्भूतोऽसि केशव // 18 / आगम्य ऋषयः सर्वेऽयाचन्ताभयमच्युत / / 33 स त्वं नारायणो भूत्वा हरिरासीः परंतप / युगान्ते सर्वभूतानि संक्षिप्य मधुसूदन / ब्रह्मा सोमश्च सूर्यश्च धर्मो धाता यमोऽनलः // 19 आत्मन्येवात्मसात्कृत्वा जगदारसे परंतप // 34 - 403 -
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________________ 3. 13. 35 ] महाभारते [ 3. 13. 63 नैवं पूर्वे नापरे वा करिष्यन्ति कृतानि ते / सर्वधर्मोपपन्नानां त्वं गतिः पुरुषोत्तम // 49 कर्माणि यानि देव त्वं बाल एव महाद्युते // 35 त्वं प्रभुस्त्वं विभुस्त्वं भूरात्मभूस्त्वं सनातनः / कृतवान्पुण्डरीकाक्ष बलदेवसहायवान् / लोकपालाश्च लोकाश्च नक्षत्राणि दिशो दश / वैराजभवने चापि ब्रह्मणा न्यवसः सह // 36 नभश्चन्द्रश्च सूर्यश्च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् // 50 वैशंपायन उवाच / मर्त्यता चैव भूतानाममरत्वं दिवौकसाम् / एवमुक्त्वा तदात्मानमात्मा कृष्णस्य पाण्डवः / त्वयि सर्व महाबाहो लोककार्य प्रतिष्ठितम् // 51 तूष्णीमासीत्ततः पार्थमित्युवाच जनार्दनः // 37 सा तेऽहं दुःखमाख्यास्ये प्रणयान्मधुसूदन / ममैव त्वं तवैवाहं ये मदीयास्तवैव ते / ईशस्त्वं सर्वभूतानां ये दिव्या ये च मानुषाः // 52 यस्त्वां द्वेष्टि स मां द्वेष्टि यस्त्वामनु स मामनु // 38 कथं नु भार्या पार्थानां तव कृष्ण सखी विभो / नरस्त्वमसि दुर्धर्ष हरिर्नारायणो ह्यहम् / धृष्टद्युम्नस्य भगिनी सभां कृष्येत मादृशी // 53 लोकालोकमिमं प्राप्तौ नरनारायणावृषी // 39 स्त्रीधर्मिणी वेपमाना रुधिरेण समुक्षिता / अनन्यः पार्थ मत्तस्त्वमहं त्वत्तश्च भारत / एकवस्त्रा विकृष्टास्मि दुःखिता कुरुसंसदि // 54 नावयोरन्तरं शक्यं वेदितुं भरतर्षभ // 40 राजमध्ये सभायां तु रजसाभिसमीरिताम् / तस्मिन्वीरसमावाये संरब्धेष्वथ राजसु / दृष्ट्वा च मां धार्तराष्ट्राः प्राहसन्पापचेतसः // 55 धृष्टद्युम्नमुखेवारैर्धातृभिः परिवारिता // 41 दासीभावेन भोक्तुं मामीषुस्ते मधुसूदन / पाञ्चाली पुण्डरीकाक्षमासीनं यादवैः सह / जीवत्सु पाण्डुपुत्रेषु पाञ्चालेष्वथ वृष्णिषु // 56 अभिगम्याब्रवीत्कृष्णा शरण्यं शरणैषिणी // 42 नन्वहं कृष्ण भीष्मस्य धृतराष्ट्रस्य चोभयोः / पूर्व प्रजानिसर्गे त्वामाहुरेकं प्रजापतिम् / स्नुषा भवामि धर्मेण साहं दासीकृता बलात् // 57 स्रष्टारं सर्वभूतानामसितो देवलोऽब्रवीत् // 43 गर्हये पाण्डवांस्त्वेव युधि श्रेष्ठान्महाबलान् / विष्णुस्त्वमसि दुर्धर्ष त्वं यज्ञो मधुसूदन / ... ये क्लिश्यमानां प्रेक्षन्ते धर्मपत्नी यशस्विनीम् // 58 यष्टा त्वमसि यष्टव्यो जामदग्न्यो यथाब्रवीत् // 44 / धिग्बलं भीमसेनस्य धिक्पार्थस्य धनुष्मताम् / ऋषयस्त्वां क्षमामाहुः सत्यं च पुरुषोत्तम। यौ मां विप्रकृतां क्षुद्रैमर्षयेतां जनार्दन // 59 सत्याद्यज्ञोऽसि संभूतः कश्यपस्त्वां यथाब्रवीत् // शाश्वतोऽयं धर्मपथः सद्भिराचरितः सदा। साध्यानामपि देवानां वसूनामीश्वरेश्वरः। यद्भार्यां परिरक्षन्ति भर्तारोऽल्पबला अपि // 60 लोकभावन लोकेश यथा त्वां नारदोऽब्रवीत् // 46 / भार्यायां रक्ष्यमाणायां प्रजा भवति रक्षिता / दिवं ते शिरसा व्याप्तं पद्भ्यां च पृथिवी विभो / प्रजायां रक्ष्यमाणायामात्मा भवति रक्षितः // 61 जठरं ते इमे लोकाः पुरुषोऽसि सनातनः / / 47 आत्मा हि जायते तस्यां तस्माज्जाया भवत्युत / विद्यातपोभितप्तानां तपसा भावितात्मनाम् / भर्ता च भार्यया रक्ष्यः कथं जायान्ममोदरे॥६२ आत्मदर्शनसिद्धानामृषीणामृषिसत्तम // 48 नन्विमे शरणं प्राप्तान्न त्यजन्ति कदाचन / राजर्षीणां पुण्यकृतामाहवेष्वनिवर्तिनाम् / ते मां शरणमापन्नां नान्वपद्यन्त पाण्डवाः॥६३ - 404 -
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________________ 3. 13. 64] आरण्यकपर्व [ 3. 13. 93 पञ्चेमे पञ्चभिर्जाताः कुमाराश्चामितौजसः / यत्रार्या रुदती भीता पाण्डवानिदमब्रवीत् / एतेषामप्यवेक्षार्थं त्रातव्यास्मि जनार्दन // 64 महद्र्यसनमापन्ना शिखिना परिवारिता / / 79 प्रतिविन्ध्यो युधिष्ठिरात्सुतसोमो वृकोदरात् / हा हतास्मि कुतो न्वद्य भवेच्छान्तिरिहानलात् / अर्जुनाच्छ्रुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलिः / 65 अनाथा विनशिष्यामि बालकैः पुत्रकैः सह // 80 कनिष्ठाच्छ्रुतकर्मा तु सर्वे सत्यपराक्रमाः / तत्र भीमो महाबाहुर्वायुवेगपराक्रमः / प्रद्युम्नो यादृशः कृष्ण तादृशास्ते महारथाः // 66 आर्यामाश्वासयामास भ्रातृ॑श्चापि वृकोदरः // 81 नन्विमे धनुपि श्रेष्ठा अजेया युधि शात्रवैः। वैनतेयो यथा पक्षी गरुडः पततां वरः / किमर्थं धार्तराष्ट्राणां सहन्ते दुर्बलीयसाम् // 67 तथैवाभिपतिष्यामि भयं वो नेह विद्यते // 82 अधर्मेण हृतं राज्यं सर्वे दासाः कृतास्तथा / आर्यामङ्केन वामेन राजानं दक्षिणेन च। सभायां परिकृष्टाहमेकवस्त्रा रजस्वला // 68 अंसयोश्च यमौ कृत्वा पृष्ठे बीभत्सुमेव च // 83 नाधिज्यमपि यच्छक्यं कर्तुमन्येन गाण्डिवम् / सहसोत्पत्य वेगेन सर्वानादाय वीर्यवान् / अन्यत्रार्जुनभीमाभ्यां त्वया वा मधुसूदन / / 69 भ्रातृनार्यां च बलवान्मोक्षयामास पावकात् / / 84 धिग्भीमसेनस्य बलं धिक्पार्थस्य च गाण्डिवम् / ते रात्रौ प्रस्थिताः सर्वे मात्रा सह यशस्विनः / यत्र दुर्योधनः कृष्ण मुहूर्तमपि जीवति // 70 अभ्यगच्छन्महारण्यं हिडिम्बवनमन्तिकात् // 85 य एतानाक्षिपद्राष्ट्रासह मात्राविहिंसकान् / श्रान्ताः प्रसुप्तास्तत्रेमे मात्रा सह सुदुःखिताः / अधीयानान्पुरा बालान्त्रतस्थान्मधुसूदन // 71 सुप्तांश्चैनानभ्यगच्छद्धिडिम्बा नाम राक्षसी // 86 भोजने भीमसेनस्य पापः प्राक्षेपयद्विषम् / भीमस्य पादौ कृत्वा तु स्व उत्सङ्गे ततो बलात् / कालकूटं नवं तीक्ष्णं संभृतं लोमहर्षणम् // 72 पर्यमदत संहृष्टा कल्याणी मृदुपाणिना // 87 तज्जीर्णमविकारेण सहान्नेन जनार्दन / तामबुध्यदमेयात्मा बलवान्सत्यविक्रमः / सशेषत्वान्महाबाहो भीमस्य पुरुषोत्तम // 73 पर्यपृच्छच्च तां भीमः किमिहेच्छस्यनिन्दिते // 88 प्रमाणकोट्यां विश्वस्तं तथा सुप्तं वृकोदरम् / तयोः श्रुत्वा तु कथितमागच्छद्राक्षसाधमः / बद्धेनं कृष्ण गङ्गायां प्रक्षिप्य पुनराव्रजत् // 74 भीमरूपो महानादान्विसृजन्भीमदर्शनः // 89 यदा विबुद्धः कौन्तेयस्तदा संछिद्य बन्धनम् / केन साधं कथयसि आनयनं ममान्तिकम् / उदतिष्ठन्महाबाहुर्भीमसेनो महाबलः // 75 हिडिम्बे भक्षयिष्यावो न चिरं कर्तुमर्हसि // 90 आशीविषैः कृष्णसर्पः सुप्तं चैनमदंशयत् / सा कृपासंगृहीतेन हृदयेन मनस्विनी। सर्वेष्वेवाङ्गदेशेषु न ममार च शत्रुहा // 76 नैनमैच्छत्तदाख्यातुमनुक्रोशादनिन्दिता // 91 प्रतिबुद्धस्तु कौन्तेयः सर्वान्सर्पानपोथयत् / स नादान्विनदन्घोराराक्षसः पुरुषादकः / सारथिं चास्य दयितमपहस्तेन जग्निवान् / / 77 अभ्यद्रवत वेगेन भीमसेनं तदा किल // 92 पुनः सुप्तानुपाधाक्षीद्वालकान्वारणावते / तमभिद्रुत्य संक्रुद्धो वेगेन महता बली / शयानानार्यया साधू को नु तत्कर्तुमर्हति // 78 / अगृह्णात्पाणिना पाणिं भीमसेनस्य राक्षसः // 93 - 405 -
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________________ 3. 13. 94] महाभारते [3. 14.1 इन्द्राशनिसमस्पर्श वनसंहननं दृढम् / इत्युक्त्वा प्रारुदत्कृष्णा मुखं प्रच्छाद्य पाणिना / संहत्य भीमसेनाय व्याक्षिपत्सहसा करम् // 94 पद्मकोशप्रकाशेन मृदुना मृदुभाषिणी // 109 गृहीतं पाणिना पाणिं भीमसेनोऽथ रक्षसा। स्तनावपतिता पीनी सुजातौ शुभलक्षणौ। नामृष्यत महाबाहुस्तत्राक्रुध्यद्वृकोदरः // 95 अभ्यवर्षत पाञ्चाली दुःखजैरश्रुबिन्दुभिः // 110 तत्रासीत्तुमुलं युद्धं भीमसेनहिडिम्बयोः / चक्षुषी परिमार्जन्ती निःश्वसन्ती पुनः पुनः / सर्वास्त्रविदुषो?र वृत्रवासवयोरिव // 96 बाष्पपूर्णेन कण्ठेन क्रुद्धा वचनमब्रवीत् // 111 हत्वा हिडिम्बं भीमोऽथ प्रस्थितो भ्रातृभिः सह / नैव मे पतयः सन्ति न पुत्रा मधुसूदन / हिडिम्बामग्रतः कृत्वा यस्यां जातो घटोत्कचः // 97 न भ्रातरोन च पिता नैव त्वं न च बान्धवाः॥११२ ततश्च प्राद्रवन्सर्वे सह मात्रा यशस्विनः। ये मां विप्रकृतां क्षुदैरुपेक्षध्वं विशोकवत् / एकचक्रामभिमुखाः संवृता ब्राह्मणव्रजैः॥ 98 / न हि मे शाम्यते दुःखं कर्णो यत्प्राहसत्तदा॥११३ प्रस्थाने व्यास एषां च मत्री प्रियहितोऽभवत् / अथैनामब्रवीत्कृष्णस्तस्मिन्वीरसमागमे / ततोऽगच्छन्नेकचक्रां पाण्डवाः संशितव्रताः // 99 रोदिष्यन्ति स्त्रियो ह्येवं येषां क्रुद्धासि भामिनि 114 तत्राप्यासादयामासुर्बकं नाम महाबलम् / बीभत्सुशरसंछन्नाञ्शोणितौघपरिप्लुतान् / पुरुषादं प्रतिभयं हिडिम्बेनैव संमितम् // 100 निहताञ्जीवितं त्यक्त्वा शयनान्वसुधातले // 115 तं चापि विनिहत्योगं भीमः प्रहरतां वरः / यत्समर्थं पाण्डवानां तत्करिष्यामि मा शुचः / सहितो भ्रातृभिः सर्वैर्दुपदस्य पुरं ययौ // 101 सत्यं ते प्रतिजानामि राज्ञां राज्ञी भविष्यसि॥११६ लब्धाहमपि तत्रैव वसता सव्यसाचिना। पतेहथौर्हिमवाञ्शीर्येत्पृथिवी शकलीभवेत् / ' यथा त्वया जिता कृष्ण रुक्मिणी भीष्मकात्मजा // शुष्येत्तोयनिधिः कृष्णे न मे मोघं वचो भवेत्।।११७ एवं सुयुद्धे पार्थेन जिताहं मधुसूदन / धृष्टद्युम्न उवाच। स्वयंवरे महत्कर्म कृत्वा नसुकरं परैः // 103 अहं द्रोणं हनिष्यामि शिखण्डी तु पितामहम् / एवं क्लेशैः सुबहुभिः क्लिश्यमानाः सुदुःखिताः / दुर्योधनं भीमसेनः कर्णं हन्ता धनंजयः॥ 118 निवसामार्यया हीनाः कृष्ण धौम्यपुरःसराः॥१०४ रामकृष्णौ व्यपाश्रित्य अजेयाः स्म शुचिस्मिते / त इमे सिंहविक्रान्ता वीर्येणाभ्यधिकाः परैः। अपि वृत्रहणा युद्धे किं पुनधृतराष्ट्रजैः // 119 विहीनैः परिक्लिश्यन्ती समुपेक्षन्त मां कथम्॥१०५ . वैशंपायन उवाच / एतादृशानि दुःखानि सहन्ते दुर्बलीयसाम्। इत्युक्तेऽभिमुखा वीरा वासुदेवमुपस्थिताः / दीर्घकालं प्रदीप्तानि पापानां क्षुद्रकर्मणाम् // 106 तेषां मध्ये महाबाहुः केशवो वाक्यमब्रवीत् // 120 कुले महति जातास्मि दिव्येन विधिना किल / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः॥१३॥ पाण्डवानां प्रिया भार्या स्नुषा पाण्डोर्महात्मनः॥ कचग्रहमनुप्राप्ता सास्मि कृष्ण वरा सती। वासुदेव उवाच / पश्चानामिन्द्रकल्पानां प्रेक्षतां मधुसूदन // 108 / नेदं कृच्छ्रमनुप्राप्तो भवान्स्याद्वसुधाधिप / -406 -
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________________ 3. 14. 1] आरण्यकपर्व [ 3. 15. 11 यद्यहं द्वारकायां स्यां राजन्संनिहितः पुरा // 1 तूर्णमभ्यागतोऽस्मि त्वां द्रष्टकामो विशां पते॥१६ आगच्छेयमहं द्यूतमनाहूतोऽपि कौरवैः। अहो कृच्छ्रमनुप्राप्ताः सर्वे स्म भरतर्षभ / आम्बिकेयेन दुर्धर्ष राज्ञा दुर्योधनेन च // 2 ये वयं त्वां व्यसनिनं पश्यामः सह सोदरैः // 17 वारयेयमहं द्यूतं बहून्दोषान्प्रदर्शयन् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि भीष्मद्रोणौ समानाय्य कृपं बाह्रीकमेव च // 3 चतुर्दशोऽध्यायः॥ 14 // वैचित्रवीर्य राजानमलं द्यूतेन कौरव। पुत्राणां तव राजेन्द्र त्वन्निमित्तमिति प्रभो // 4 युधिष्ठिर उवाच / तत्र वक्ष्याम्यहं दोषान्यैर्भवानवरोपितः / असांनिध्यं कथं कृष्ण तवासीद्वृष्णिनन्दन / वीरसेनसुतो यैश्च राज्यात्प्रभ्रंशितः पुरा // 5 क चासीद्विप्रवासस्ते किं वाकार्षीः प्रवासकः // 1 अभक्षितविनाशं च देवनेन विशां पते / कृष्ण उवाच / सातत्यं च प्रसङ्गस्य वर्णयेयं यथातथम् // 6 शाल्वस्य नगरं सौभं गतोऽहं भरतर्षभ / स्त्रियोऽक्षा मृगया पानमेतत्कामसमुत्थितम् / विनिहन्तुं नरश्रेष्ठ तत्र मे शृणु कारणम् // 2. व्यसनं चतुष्टयं प्रोक्तं यै राजन्भ्रश्यते श्रियः // 7 महातेजा महाबाहुर्यः स राजा महायशाः। . तत्र सर्वत्र वक्तव्यं मन्यन्ते शास्त्रकोविदाः / / दमघोषात्मजो वीरः शिशुपालो मया हतः // 3. विशेषतश्च वक्तव्यं छूते पश्यन्ति तद्विदः॥ 8 यज्ञे ते भरतश्रेष्ठ राजसूयेऽर्हणां प्रति / एकाह्रा द्रव्यनाशोऽत्र ध्रुवं व्यसनमेव च / स रोषवशसंप्राप्तो नामृष्यत दुरात्मवान् // 4 : अभुक्तनाशश्चार्थानां वाक्पारुष्यं च केवलम् // 9 श्रुत्वा तं निहतं शाल्वस्तीव्ररोषसमन्वितः। एतच्चान्यच्च कौरव्य प्रसङ्गि कटुकोदयम् / उपायाहारकां शून्यामिहस्थे मयि भारत / / 5 / द्यूते ब्रूयां महाबाहो समासाद्याम्बिकासुतम् // 10 स तत्र योधितो राजन्बालकैर्वृष्णिपुंगवैः / एवमुक्तो यदि मया गृह्णीयाद्वचनं मम / आगतः कामगं सौभमारुयैव नृशंसकृत् // 6 / अनामयं स्याद्धर्मस्य कुरूणां कुरुनन्दन // 11 ततो वृष्णिप्रवीरांस्तान्बालान्हत्वा बहूस्तदा / न चेत्स मम राजेन्द्र गृह्णीयान्मधुरं वचः। पुरोद्यानानि सर्वाणि भेदयामास दुर्मतिः / / 7 पथ्यं च भरतश्रेष्ठ निगृह्णीयां बलेन तम् // 12 उक्तवांश्च महाबाहो कासौ वृष्णिकुलाधमः / अथैनानभिनीयैवं सुहृदो नाम दुहृदः / वासुदेवः सुमन्दात्मा वसुदेवसुतो गतः // 8 सभासदश्च तान्सर्वान्भेदयेयं दुरोदरान् // 13 तस्य युद्धार्थिनो दर्प युद्धे नाशयितास्म्यहम् / असांनिध्यं तु कौरव्य ममानर्तेष्वभूत्तदा। आनर्ताः सत्यमाख्यात तत्र गन्तास्मि यत्र सः॥९ येनेदं व्यसनं प्राप्ता भवन्तो द्यूतकारितम् // 14 तं हत्वा विनिवर्तिष्ये कंसकेशिनिषूदनम् / सोऽहमेत्य कुरुश्रेष्ठ द्वारकां पाण्डुनन्दन / अहत्वा न निवर्तिष्ये सत्येनायुधमालभे // 10 अश्रौषं त्वां व्यसनिनं युयुधानाद्यथातथम् / / 15 क्कासौ कासाविति पुनस्तत्र तत्र विधावति / श्रुत्वैव चाहं राजेन्द्र परमोद्विग्नमानसः / मया किल रणे युद्धं काश्माणः स सौभराट् // 11 -407 -
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________________ 3. 15. 12] महाभारते [ 3. 16. 17 अद्य तं पापकर्माणं क्षुद्रं विश्वासघातिनम् / उपायाद्भरतश्रेष्ठ शाल्वो द्वारवतीं पुरीम् // 2 शिशुपालवधामर्षाद्गमयिष्ये यमक्षयम् // 12 अरुन्धत्तां सुदुष्टात्मा सर्वतः पाण्डुनन्दन / मम पापस्वभावेन भ्राता येन निपातितः। शाल्वो वैहायसं चापि तत्पुरं व्यूह्य विष्ठितः // 3 शिशुपालो महीपालस्तं वधिष्ये महीतले // 13 तत्रस्थोऽथ महीपालो योधयामास तां पुरीम् / भ्राता बालश्च राजा च न च संग्राममूर्धनि / अभिसारेण सर्वेण तत्र युद्धमवर्तत // 4 प्रमत्तश्च हतो वीरस्तं हनिष्ये जनार्दनम् // 14 पुरी समन्ताद्विहिता सपताका सतोरणा। . एवमादि महाराज विलप्य दिवमास्थितः। सचक्रा सहुडा चैव सयन्त्रखनका तथा // 5 कामगेन स सौभेन क्षिप्त्वा मां कुरुनन्दन // 15 सोपतल्पप्रतोलीका साट्टाट्टालकगोपुरा / तमश्रौषमहं गत्वा यथा वृत्तः सुदुर्मतिः / सकचग्रहणी चैव सोल्कालातावपोथिका // 6 मयि कौरव्य दुष्टात्मा मार्त्तिकावतको नृपः // 16 सोष्ट्रिका भरतश्रेष्ठ सभेरीपणवानका। . ततोऽहमपि कौरव्य रोषव्याकुललोचनः / समित्तृणकुशा राजन्सशतघ्नीकलाङ्गला // 7 निश्चित्य मनसा राजन्वधायास्य मनो दधे // 17 सभुशुण्ड्यश्मलगुडा सायुधा सपरश्वधा / आनर्तेषु विमदं च क्षेपं चात्मनि कौरव। लोहचर्मवती चापि साग्निः सहुडगृङ्गिका // 8 प्रवृद्धमवलेपं च तस्य दुष्कृतकर्मणः // 18 शास्त्रदृष्टेन विधिना संयुक्ता भरतर्षभ / ततः सौभवधायाहं प्रतस्थे पृथिवीपते / व्यैरनेकैर्विविधेर्गदसाम्बोद्भवादिभिः॥ 9 स मया सागरावर्ते दृष्ट आसीत्परीप्सता // 19 पुरुषैः कुरुशार्दूल समर्थैः प्रतिबाधने। ततः प्रध्माप्य जलजं पाञ्चजन्यमहं नृप। अभिख्यातकुलैरैदृष्टवीर्यैश्च संयुगे // 10 आहूय शाल्वं समरे युद्धाय समवस्थितः / / 20 मध्यमेन च गुल्मेन रक्षिता सारसंज्ञिता। सुमुहूर्तमभूद्युद्धं तत्र मे दानवैः सह / उत्क्षिप्तगुल्मैश्च तथा हयैश्चैव पदातिभिः // 11 वशीभूताश्च मे सर्वे भूतले च निपातिताः // 21 आघोषितं च नगरे न पातव्या सुरेति ह / एतत्कायं महाबाहो येनाहं नागमं तदा / प्रमादं परिरक्षद्भिरुग्रसेनोद्धवादिभिः // 12 श्रुत्वैव हास्तिनपुरं द्यूतं चाविनयोत्थितम् // 22 प्रमत्तेष्वभिघातं हि कुर्याच्छाल्वो नराधिपः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि इति कृत्वाप्रमत्तास्ते सर्वे वृष्ण्यन्धकाः स्थिताः // 13 पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // आनाश्च तथा सर्वे नटनर्तकगायनाः। बहिर्विवासिताः सर्वे रक्षद्भिर्वित्तसंचयान् // 14 युधिष्ठिर उवाच / संक्रमा भेदिताः सर्वे नावश्च प्रतिषेधिताः। वासुदेव महाबाहो विस्तरेण महामते / परिखाश्चापि कौरव्य कीलैः सुनिचिताः कृताः॥१५ सौभस्य वधमाचक्ष्व न हि तृप्यामि कथ्यतः॥ 1 उदपानाः कुरुश्रेष्ठ तथैवाप्यम्बरीषकाः / वासुदेव उवाच। समन्तात्क्रोशमानं च कारिता विषमा च भूः॥१६ हतं श्रुत्वा महाबाहो मया श्रौतश्रवं नृपम् / प्रकृत्या विषमं दुर्ग प्रकृत्या च सुरक्षितम् / - 408 - 16
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________________ 3. 16. 17 ] आरण्यकपर्व [3. 17. 22 17 . प्रकृत्या चायुधोपेतं विशेषेण तदानघ // 17 तदापतन्तं संदृश्य बलं शाल्वपतेस्तदा / सुरक्षितं सुगुप्तं च सर्वायुधसमन्वितम् / निर्याय योधयामासुः कुमारा वृष्णिनन्दनाः // 8 तत्पुरं भरतश्रेष्ठ यथेन्द्रभवनं तथा // 18 असहन्तोऽभियानं तच्छाल्वराजस्य कौरव / न चामुद्रोऽभिनिर्याति न चामुद्रः प्रवेश्यते / चारुदेष्णश्च साम्बश्च प्रद्युम्नश्च महारथः // 9 वृष्ण्यन्धकपुरे राजस्तदा सौभसमागमे // 19 ते रथैर्दशिताः सर्वे विचित्राभरणध्वजाः / अनु रथ्यासु सर्वासु चत्वरेषु च कौरव / संसक्ताः शाल्वराजस्य बहुभिर्योधपुंगवैः // 10 बलं बभूव राजेन्द्र प्रभूतगजवाजिमत् // 20 गृहीत्वा तु धनुः साम्बः शाल्वस्य सचिवं रणे / दत्तवेतनभक्तं च दत्तायुधपरिच्छदम् / योधयामास संहृष्टः क्षेमवृद्धिं चमूपतिम् // 11 कृतापदानं च तदा बलमासीन्महाभुज // 21 तस्य बाणमयं वर्षं जाम्बवत्याः सुतो महत् / न कुप्यवेतनी कश्चिन्न चातिक्रान्तवेतनी / मुमोच भरतश्रेष्ठ यथा वर्ष सहस्रहक् // 12 नानुग्रहभृतः कश्चिन्न चादृष्टपराक्रमः / / 22 तद्वाणवर्ष तुमुलं विषेहे स चमूपतिः / एवं सुविहिता राजन्द्वारका भूरिदक्षिणैः / क्षेमवृद्धिर्महाराज हिमवानिव निश्चलः // 13 आहुकेन सुगुप्ता च राजा राजीवलोचन // 23 ततः साम्बाय राजेन्द्र क्षेमवृद्धिरपि स्म ह / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि षोडशोऽध्यायः॥१६॥ मुमोच मायाविहितं शरजालं महत्तरम् // 14 ततो मायामयं जालं माययैव विदार्य सः। वासुदेव उवाच / साम्बः शरसहस्रेण रथमस्याभ्यवर्षत // 15 तां तूपयात्वा राजेन्द्र शाल्वः सौभपतिस्तदा / ततः स विद्धः साम्बेन क्षेमवृद्धिश्चमपतिः / प्रभूतनरनागेन बलेनोपविवेश ह // 1 अपायाजवनैरश्वैः साम्बबाणप्रपीडितः // 16 समे निविष्टा सा सेना प्रभूतसलिलाशये। तस्मिन्विप्रद्रुते करे शाल्वस्याथ चमूपतौ। चतुरङ्गबलोपेता शाल्वराजाभिपालिता // 2 वेगवान्नाम दैतेयः सुतं मेऽभ्यद्रवद्बली // 17 वर्जयित्वा श्मशानानि देवतायतनानि च / अभिपन्नस्तु राजेन्द्र साम्बो वृष्णिकुलोद्वहः / वल्मीकांश्चैव चैत्यांश्च तन्निविष्टमभूदलम् / / 3 वेगं वेगवतो राजस्तस्थौ वीरो विधारयन् // 18 अनीकानां विभागेन पन्थानः षट्कृताभवन् / स वेगवति कौन्तेय साम्बो वेगवतीं गदाम् / प्रवणा नव चैवासञ्शाल्वस्य शिबिरे नृप / 4 चिक्षेप तरसा वीरो व्याविध्य सत्यविक्रमः // 19 सर्वायुधसमोपेतं सर्वशस्त्रविशारदम् / तया त्वभिहतो राजन्वेगवानपतद्भुवि / रथनागाश्वकलिलं पदातिध्वजसंकुलम् // 5 वातरुग्ण इव क्षुण्णो जीर्णमूलो वनस्पतिः // 20 तुष्टपुष्टजनोपेतं वीरलक्षणलक्षितम् / / तस्मिन्निपतिते वीरे गदानुन्ने महासुरे / विचित्रध्वजसंनाहं विचित्ररथकार्मुकम् // 6 प्रविश्य महतीं सेनां योधयामास मे सुतः // 21 संनिवेश्य च कौरव्य द्वारकायां नरर्षभ / चारुदेष्णेन संसक्तो विविन्ध्यो नाम दानवः / अभिसारयामास तदा वेगेन पतगेन्द्रवत् // 7 / महारथः समाज्ञातो महाराज महाधनुः // 22 . म.भा. 52 - 409 --
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________________ 3. 17. 23 ] महाभारते [ 3. 18. 18 ततः सुतुमुलं युद्धं चारुदेष्णविविन्ध्ययोः / तूणखड्गधरः शूरो बद्धगोधामुलित्रवान् // 3 वृत्रवासवयो राजन्यथा पूर्व तथाभवत् // 23 स विद्युच्चलितं चापं विहरन्वै तलात्तलम् / अन्योन्यस्याभिसंक्रुद्धावन्योन्यं जघ्नतुः शरैः। मोहयामास दैतेयान्सर्वान्सौभनिवासिनः // 4 विनदन्ती महाराज सिंहाविव महाबलौ // 24 नास्य विक्षिपतश्चापं संदधानस्य चासकृत् / रौक्मिणेयस्ततो बाणमग्न्यर्कोपमवर्चसम् / / अन्तरं ददृशे कश्चिन्निन्नतः शात्रवान्रणे // 5 अभिमत्रय महास्त्रेण संदधे शत्रुनाशनम् // 25 मुखस्य वर्णो न विकल्पतेऽस्य स विविन्ध्याय सक्रोधः समाहूय महारथः। __ चेलुश्च गात्राणि न चापि तस्य / चिक्षेप मे सुतो राजन्स गतासुरथापतत् // 26 सिंहोन्नतं चाप्यभिगर्जतोऽस्य विविन्ध्यं निहतं दृष्ट्वा तां च विक्षोभितां चमूम् / शुश्राव लोकोऽद्भुतरूपमग्र्यम् // 6 कामगेन स सौभेन शाल्वः पुनरुपागमत् / / 27 जलेचरः काञ्चनयष्टिसंस्थो ततो व्याकुलितं सर्वं द्वारकावासि तद्बलम् / व्यात्ताननः सर्वतिमिप्रमाथी। दृष्ट्वा शाल्वं महाबाहो सौभस्थं पृथिवीगतम् / / 28 वित्रासयनराजति वाहमुख्ये ततो निर्याय कौन्तेय व्यवस्थाप्य च तद्बलम् / शाल्वस्य सेनाप्रमुखे ध्वजाग्र्यः // 7 आनर्तानां महाराज प्रद्युम्नो वाक्यमब्रवीत् // 29 / ततः स तूर्णं निष्पत्य प्रद्युम्नः शत्रुकर्शनः। सर्वे भवन्तस्तिष्ठन्तु सर्वे पश्यन्तु मां युधि। शाल्वमेवाभिदुद्राव विधास्यन्कलहं नृप // 8 निवारयन्तं संग्रामे बलात्सौभं सराजकम् // 30 अभियानं तु वीरेण प्रद्युम्नेन महाहवे। अहं सौभपतेः सेनामायसैर्भुजगैरिव / नामर्षयत संक्रुद्धः शाल्वः कुरुकुलोद्वह // 9 धनुर्भुजविनिर्मुक्तैर्नाशयाम्यद्य यादवाः // 31 स रोषमदमत्तो वै कामगादवरुह्य च / आश्वसध्वं न भीः कार्या सौभराडद्य नश्यति / प्रद्युम्नं योधयामास शाल्वः परपुरंजयः // 10 मयाभिपन्नो दुष्टात्मा ससौभो विनशिष्यति // 32 तयोः सुतुमुलं युद्धं शाल्ववृष्णिप्रवीरयोः। एवं ब्रुवति संहृष्टे प्रद्युम्ने पाण्डुनन्दन / समेता ददृशुर्लोका बलिवासवयोरिव // 11 विष्ठितं तद्बलं वीर युयुधे च यथासुखम् // 33 तस्य मायामयो वीर रथो हेमपरिष्कृतः / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः॥१७॥ सध्वजः सपताकश्च सानुकर्षः सतूणवान् // 12 18 स तं रथवरं श्रीमान्समारुह्य किल प्रभो / वासुदेव उवाच। मुमोच बाणान्कौरव्य प्रद्युम्नाय महाबलः // 13 एवमुक्त्वा रौक्मिणेयो यादवान्भरतर्षभ / ततो बाणमयं वर्ष व्यसृजत्तरसा रणे / दंशितैर्हरिभिर्युक्तं रथमास्थाय काञ्चनम् // 1 प्रद्युम्नो भुजवेगेन शाल्वं संमोहयन्निव // 14 उच्छ्रित्य मकरं केतुं व्यात्ताननमलंकृतम् / स तैरभिहतः संख्ये नामर्षयत सौभराट् / उत्पतद्भिरिवाकाशं तैर्हयैरन्वयात्परान् // 2 शरान्दीप्तामिसंकाशान्मुमोच तनये मम // 15 विक्षिपन्नादयंश्चापि धनुःश्रेष्ठं महाबलः / स शाल्वबाणै राजेन्द्र विद्धो रुक्मिणिनन्दनः / - 410 -
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________________ 3. 18. 16] आरण्यकपर्व [3. 19. 18 मुमोच बाणं त्वरितो मर्मभेदिनमाहवे // 16 नैष वृष्णिप्रवीराणामाहवे धर्म उच्यते // 5 तस्य वर्म विभिद्याशु स बाणो मत्सुतेरितः / कञ्चित्सौते न ते मोहः शाल्वं दृष्ट्वा महाहवे / बिभेद हृदयं पत्री स पपात मुमोह च // 17 विषादो वा रणं दृष्ट्वा ब्रूहि मे त्वं यथातथम् // 6 तस्मिन्निपतिते वीरे शाल्वराजे विचेतसि / सूत उवाच / संप्राद्रवन्दानवेन्द्रा दारयन्तो वसुंधराम् // 18 जानार्दने न मे मोहो नापि मे भयमाविशत् / हाहाकृतमभूत्सैन्यं शाल्वस्य पृथिवीपते / अतिभारं तु ते मन्ये शाल्वं केशवनन्दन // 7 नष्टसंज्ञे निपतिते तदा सौभपतौ नृप // 19 सोऽपयामि शनैर्वीर बलवानेष पापकृत् / तत उत्थाय कौरव्य प्रतिलभ्य च चेतनाम् / मोहितश्च रणे शूरो रक्ष्यः सारथिना रथी / / 8 मुमोच बाणं तरसा प्रद्युम्नाय महाबलः // 20 आयुष्मंस्त्वं मया नित्यं रक्षितव्यस्त्वयाप्यहम् / तेन विद्धो महाबाहुः प्रद्युम्नः समरे स्थितः। रक्षितव्यो रथी नित्यमिति कृत्वापयाम्यहम् // 9 जत्रुदेशे भृशं वीरो व्यवासीदद्रथे तदा // 21 एकश्चासि महाबाहो बहवश्चापि दानवाः / तं स विद्धा महाराज शाल्वो रुक्मिणिनन्दनम् / नसमं रौक्मिणेयाहं रणं मत्वापयाम्यहम् // 10 ननाद सिंहनादं वै नादेनापूरयन्महीम् // 22 वासुदेव उवाच / ततो मोहं समापन्ने तनये मम भारत / एवं ब्रुवति सूते तु तदा मकरकेतुमान् / मुमोच बाणांस्त्वरितः पुनरन्यान्दुरासदान् // 23 उवाच सूतं कौरव्य निवर्तय रथं पुनः॥ 11 स तैरभिहतो बाणैर्बहुभिस्तेन मोहितः / दारुकात्मज मैवं त्वं पुनः कार्षीः कथंचन / निश्चेष्टः कौरवश्रेष्ठ प्रद्युम्नोऽभूद्रणाजिरे // 24 व्यपयानं रणात्सौते जीवतो मम कर्हिचित् // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि न स वृष्णिकुले जातो यो वै त्यजति संगरम् / अष्टादशोऽध्यायः // 18 // यो वा निपतितं हन्ति तवास्मीति च वादिनम् // 13 तथा स्त्रियं वै यो हन्ति वृद्धं बालं तथैव च / वासुदेव उवाच। शाल्वबाणार्दिते तस्मिन्प्रद्युम्ने बलिनां वरे। विरथं विप्रकीर्णं च भग्नशस्त्रायुधं तथा // 14 . त्वं च सूतकुले जातो विनीतः सूतकर्मणि। . वृष्णयो भग्नसंकल्पा विव्यथुः पृतनागताः // 1 हाहाकृतमभूत्सर्वं वृष्ण्यन्धकबलं तदा। धर्मज्ञश्चासि वृष्णीनामाहवेष्वपि दारुके // 15 प्रद्युम्ने पतिते राजन्परे च मुदिताभवन् // 2 स जानंश्चरितं कृत्स्नं वृष्णीनां पृतनामुखे / तं तथा मोहितं दृष्ट्वा सारथिर्जवनैहयैः / / अपयानं पुनः सौते मैवं कार्षीः कथंचन // 16 रणादपाहरत्तूर्णं शिक्षितो दारुकिस्ततः // 3 अपयातं हतं पृष्ठे भीतं रणपलायिनम् / नातिदूरापयाते तु रथे रथवरप्रणुत् / गदाग्रजो दुराधर्षः किं मां वक्ष्यति माधवः // 17 धनुगृहीत्वा यन्तारं लब्धसंज्ञोऽब्रवीदिदम् // 4 केशवस्याग्रजो वापि नीलवासा मदोत्कटः। .. सौते किं ते व्यवसितं कस्माद्यासि पराङ्मुखः। / किं वक्ष्यति महाबाहुर्बलदेवः समागतः // 18 - -411 -
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________________ 3. 19. 19 ] महाभारते [ 8. 20. 13 किं वक्ष्यति शिनेनप्ता नरसिंहो महाधनुः / मयि युद्धार्थिनि भृशं स त्वं याहि यतो रणम्॥३३ अपयातं रणात्सौते साम्बश्च समितिंजयः॥ 19 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि चारुदेष्णश्च दुर्धर्षस्तथैव गदसारणौ / एकोनविंशोऽध्यायः // 19 // अक्रूरश्च महाबाहुः किं मां वक्ष्यति सारथे // 20 शूरं संभावितं सन्तं नित्यं पुरुषमानिनम् / वासुदेव उवाच / स्त्रियश्च वृष्णिवीराणां किं मां वक्ष्यन्ति संगताः॥२१ एवमुक्तस्तु कौन्तेय सूतपुत्रस्तदा मृधे / प्रद्युम्नोऽयमुपायाति भीतत्यक्त्वा महाहवम् / प्रद्युम्नमब्रवीच्छुक्ष्णं मधुरं वाक्यमञ्जसा // 1 . धिगेनमिति वक्ष्यन्ति न तु वक्ष्यन्ति साध्विति॥२२ न मे भयं रौक्मिणेय संग्रामे यच्छतो हयान् / धिग्वाचा परिहासोऽपि मम वा मद्विधस्य वा। युद्धज्ञश्चास्मि वृष्णीनां नात्र किंचिदतोऽन्यथा // 2 मृत्युनाभ्यधिकः सौते स त्वं मा व्यपयाः पुनः॥२३ आयुष्मन्नुपदेशस्तु सारथ्ये वर्ततां स्मृतः। भारं हि मयि संन्यस्य यातो मधुनिहा हरिः। सर्वार्थेषु रथी रक्ष्यस्त्वं चापि भृशपीडितः॥ 3 . यज्ञं भरतसिंहस्य पार्थस्यामिततेजसः॥२४ / त्वं हि शाल्वप्रयुक्तेन पत्रिणाभिहतो भृशम् / / कृतवर्मा मया वीरो निर्यास्यन्नेव वारितः। कश्मलाभिहतो वीर ततोऽहमपयातवान् // 4 . . शाल्वं निवारयिष्येऽहं तिष्ठ त्वमिति सूतज // 25 स त्वं सात्वतमुख्याद्य लब्धसंज्ञो यदृच्छया / स च संभावयन्मां वै निवृत्तो हृदिकात्मजः। . पश्य मे हयसंयाने शिक्षा केशवनन्दन // 5 . तं समेत्य रणं त्यक्त्वा किं वक्ष्यामि महारथम् // 26 दारुकेणाहमुत्पन्नो यथावञ्चैव शिक्षितः। वीतभीः प्रविशाम्येतां शाल्वस्य महतीं चमूम् // 6 उपयातं दुराधर्ष शङ्खचक्रगदाधरम् / पुरुषं पुण्डरीकाक्षं किं वक्ष्यामि महाभुजम् // 27 एवमुक्त्वा ततो वीर हयान्संचोद्य संगरे। सात्यकि बलदेवं च ये चान्येऽन्धकवृष्णयः।। रश्मिभिश्च समुद्यम्य जवेनाभ्यपतत्तदा / / 7 मण्डलानि विचित्राणि यमकानीतराणि च / मया स्पर्धन्ति सततं किं नु वक्ष्यामि तानहम्॥२८ सव्यानि च विचित्राणि दक्षिणानि च सर्वशः // 8 त्यक्त्वा रणमिमं सौते पृष्ठतोऽभ्याहतः शरैः / प्रतोदेनाहता राजरश्मिभिश्च समुद्यताः / त्वयापनीतो विवशो न जीवेयं कथंचन // 29 उत्पतन्त इवाकाशं विबभुस्ते हयोत्तमाः॥ 9 स निवर्त रथेनाशु पुनर्दारुकनन्दन। ते हस्तलाघवोपेतं विज्ञाय नृप दारुकिम् / न चैतदेवं कर्तव्यमथापत्सु कथंचन // 30 दह्यमाना इव तदा पस्पृशुश्चरणैर्महीम् // 10 न जीवितमहं सौते बहु मन्ये कदाचन। सोऽपसव्यां चमू तस्य शाल्वस्य भरतर्षभ / अपयातो रणाद्भीतः पृष्ठतोऽभ्याहतः शरैः / / 31 चकार नातियत्नेन तदद्भुतमिवाभवत् // 11 कदा वा सूतपुत्र त्वं जानीषे मां भयार्दितम् / अमृष्यमाणोऽपसव्यं प्रद्युम्नेन स सौभराट् / . अपयातं रणं हित्वा यथा कापुरुषं तथा // 32 . यन्तारमस्य सहसा त्रिभिर्बाणैः समर्पयत् // 12 . न युक्तं भवता त्यक्तुं संग्रामं दारुकात्मज / दारुकस्य सुतस्तं तु बाणवेगमचिन्तयन् / - 412 -
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________________ 3. 20. 13] आरण्यकपर्व [3. 21. 12 भूय एव महाबाहो प्रययौ हयसंमतः // 13 सौभमास्थाय राजेन्द्र दिवमाचक्रमे तदा // 27 ततो बाणान्बहुविधान्पुनरेव स सौभराट् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि विंशोऽध्यायः॥२०॥ मुमोच तनये वीरे मम रुक्मिणिनन्दने // 14 तानप्राप्ताशितैर्बाणैश्चिच्छेद परवीरहा। वासुदेव उवाच / रौक्मिणेयः स्मितं कृत्वा दर्शयन्हस्तलाघवम् // 15 आनर्तनगरं मुक्तं ततोऽहमगमं तदा। / छिन्नान्दृष्ट्वा तु तान्बाणान्प्रद्युम्नेन स सौभराट् / महातौ राजसूये निवृत्ते नृपते तव // 1 आसुरी दारुणी मायामास्थाय व्यसृजच्छरान्॥ 16 अपश्यं द्वारकां चाहं महाराज हतत्विषम् / प्रयुज्यमानमाज्ञाय दैतेयास्त्रं महाबलः / .. निःस्वाध्यायवषट्कारां निर्भूषणवरस्त्रियम् // 2 ब्रह्मास्त्रेणान्तरा छित्त्वा मुमोचान्यान्पतत्रिणः // 17 अनभिज्ञेयरूपाणि द्वारकोपवनानि च / ते तदनं विधूयाशु विव्यधू रुधिराशनाः / दृष्ट्वा शङ्कोपपन्नोऽहमपृच्छं हृदिकात्मजम् // 3 शिरस्युरसि वक्त्रे च स मुमोह पपात च // 18 अस्वस्थनरनारीकमिदं वृष्णिपुरं भृशम् / तस्मिन्निपतिते क्षुद्रे शाल्वे बाणप्रपीडिते / किमिदं नरशार्दूल श्रोतुमिच्छामहे वयम् // 4 रौक्मिणेयोऽपरं बाणं संदधे शत्रुनाशनम् // 19 एवमुक्तस्तु स मया विस्तरेणेदमब्रवीत् / तमर्चितं सर्वदाशार्हपूगै रोधं मोक्षं च शाल्वेन हार्दिक्यो राजसत्तम // 5 ____ राशीर्भिरर्कज्वलनप्रकाशम् / ततोऽहं कौरवश्रेष्ठ श्रुत्वा सर्वमशेषतः / दृष्ट्वा शरं ज्यामभिनीयमानं विनाशे शाल्वराजस्य तदैवाकरवं मतिम् // 6 ... बभूव हाहाकृतमन्तरिक्षम् / / 20 ततोऽहं भरतश्रेष्ठ समाश्वास्य पुरे जनम् / ततो देवगणाः सर्वे सेन्द्राः सहधनेश्वराः / राजानमाहुकं चैव तथैवानकदुन्दुभिम् / नारदं प्रेषयामासुः श्वसनं च महाबलम् // 21 सर्ववृष्णिप्रवीरांश्च हर्षयन्नब्रुवं तदा // 7 तौ रौक्मिणेयमागम्य वचोऽब्रूतां दिवौकसाम् / अप्रमादः सदा कार्यो नगरे यादवर्षभाः।। नैष वध्यस्त्वया वीर शाल्वराजः कथंचन / / 22 शाल्वराजविनाशाय प्रयातं मां निबोधत // 8 . संहरस्व पुनर्बाणमवध्योऽयं त्वया रणे / नाहत्वा तं निवर्तिष्ये पुरी द्वारवतीं प्रति / एतस्य हि शरस्याजौ नावध्योऽस्ति पुमान्कचित् / / सशाल्वं सौभनगरं हत्वा द्रष्टास्मि वः पुनः। . मृत्युरस्य महाबाहो रणे देवकिनन्दनः / त्रिसामा हन्यतामेषा दुन्दुभिः शत्रुभीषणी // 9 . कृष्णः संकल्पितो धात्रा तन्न मिथ्या भवेदिति // | ते मयाश्वासिता वीरा यथावद्भरतर्षभ / ततः परमसंहृष्टः प्रद्युम्नः शरमुत्तमम् / सर्वे मामब्रुवन्हृष्टाः प्रयाहि जहि शात्रवान् // 10 संजहार धनुःश्रेष्ठात्तणे चैव न्यवेशयत् // 25 तैः प्रहृष्टात्मभिर्वीरैराशीभिरभिनन्दितः / तत उत्थाय राजेन्द्र शाल्वः परमदुर्मनाः / वाचयित्वा द्विजश्रेष्ठान्प्रणम्य शिरसाहुकम् // 11 व्यपायात्सबलस्तूर्णं प्रद्युम्नशरपीडितः // 26 / सैन्यसुग्रीवयुक्तेन रथेनानादयन्दिशः।। स द्वारका परित्यज्य क्रूरो वृष्णिभिरर्दितः / / | प्रध्माप्य शङ्खप्रवरं पाञ्चजन्यमहं नृप // 12 - 413 -
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________________ 3. 21. 13 ] महाभारते [ 3. 22.1 प्रयातोऽस्मि नरव्याघ्र बलेन महता वृतः / ततो हलहलाशब्दः सौभमध्ये व्यवर्धत / क्लप्तेन चतुरङ्गेण बलेन जितकाशिना // 13 वध्यतां विशिखैस्तीक्ष्णैः पततां च महार्णवे // 28 समतीत्य बहून्देशान्गिरीश्च बहुपादपान् / ते निकृत्तभुजस्कन्धाः कबन्धाकृतिदर्शनाः / सरांसि सरितश्चैव मार्त्तिकावतमासदम् // 14 / नदन्तो भैरवान्नादान्निपतन्ति स्म दानवाः // 29. तत्राश्रौषं नरव्याघ्र शाल्वं नगरमन्तिकात् / ततो गोक्षीरकुन्देन्दुमृणालरजतप्रभम् / प्रयातं सौभमास्थाय तमहं पृष्ठतोऽन्वयाम् // 15 जलजं पाश्चजन्यं वै प्राणेनाहमपूरयम् // 30 .. ततः सागरमासाद्य कुक्षौ तस्य महोर्मिणः। तान्दृष्ट्वा पतितांस्तत्र शाल्वः सौभपतिस्तदा / समुद्रनाभ्यां शाल्वोऽभूत्सौभमास्थाय शत्रुहन् // 16 मायायुद्धेन महता योधयामास मां युधि / / 31 स समालोक्य दूरान्मां स्मयन्निव युधिष्ठिर / ततो हुडहुडाः प्रासाः शक्तिशूलपरश्वधाः। आह्वयामास दुष्टात्मा युद्धायैव मुहुर्मुहुः / / 17 पट्टिशाश्व भुशुण्ड्यश्च प्रापतन्ननिशं मयि // 32 तस्य शाङ्गविनिर्मुक्तैर्बहुभिर्मर्मभेदिभिः। . तानहं माययैवाशु प्रतिगृह्य व्यनाशयम् / पुरं नासाद्यत शरैस्ततो मां रोष आविशत् / / 18 तस्यां हतायां मायायां गिरिशृङ्गैरयोधयत् / / 33 स चापि पापप्रकृतिदैतेयापसदो नृप। ततोऽभवत्तम इव प्रभातमिव चाभवत् / मय्यवर्षत दुर्धर्षः शरधाराः सहस्रशः // 19 / दुर्दिनं सुदिनं चैव शीतमुष्णं च भारत // 34 सैनिकान्मम सूतं च हयांश्च समवाकिरत् / एवं मायां विकुर्वाणो योधयामास मां रिपुः। . अचिन्तयन्तस्तु शरान्वयं युध्याम भारत // 20 विज्ञाय तदहं सर्वं माययैव व्यनाशयम् / ततः शतसहस्राणि शराणां नतपर्वणाम् / यथाकालं तु युद्धेन व्यधमं सर्वतः शरैः // 35 चिक्षिपुः समरे वीरा मयि शाल्वपदानुगाः॥ 21 ततो व्योम महाराज शतसूर्यमिवाभवत् / / ते हयान्मे रथं चैव तदा दारुकमेव च / शतचन्द्रं च कौन्तेय सहस्रायुततारकम् // 36 छादयामासुरसुरा बाणैर्मर्मविभेदिभिः // 22 / ततो नाज्ञायत तदा दिवारानं तथा दिशः / न हया न रथो वीर न यन्ता मम दारुकः / / ततोऽहं मोहमापन्नः प्रज्ञास्त्रं समयोजयम् / अदृश्यन्त शरैश्छन्नास्तथाहं सैनिकाश्च मे // 23 ततस्तदत्रमस्त्रेण विधूतं शरतूलवत् // 37 ततोऽहमपि कौरव्य शराणामयुतान्बहून् / तथा तदभवद्युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम् / अभिमश्रितानां धनुषा दिव्येन विधिनाक्षिपम्॥२४ लब्धालोकश्च राजेन्द्र पुनः शत्रुमयोधयम् / / 38 न तत्र विषयस्त्वासीन्मम सैन्यस्य भारत / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि खे विषक्तं हि तत्सौभं क्रोशमात्र इवाभवत् // 25 एकविंशोऽध्यायः॥२१॥ ततस्ते प्रेक्षकाः सर्वे रङ्गवाट इव स्थिताः / हर्षयामासुरुञ्चैर्मा सिंहनादतलस्वनैः / / 26 वासुदेव उवाच / मत्कार्मुकविनिर्मुक्ता दानवानां महारणे / | एवं स पुरुषव्याघ्र शाल्वो राज्ञां महारिपुः / अङ्गेषु रुधिराक्तास्ते विविशुः शलभा इव // 27 / युध्यमानो मया संख्ये वियदभ्यागमत्पुनः // 1 -414 - 22
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________________ 3. 22. 2] आरण्यकपर्व / [3. 22. 29 ततः शतघ्नीश्च महागदाश्च इत्यहं तस्य वचनं श्रुत्वा परमदुर्मनाः / दीप्तांश्च शूलान्मुसलानसींश्च / निश्चयं नाधिगच्छामि कर्तव्यस्येतरस्य वा // 15 चिक्षेप रोषान्मयि मन्दबुद्धिः सात्यकिं बलदेवं च प्रद्युम्नं च महारथम् / शाल्वो महाराज जयाभिकाङ्क्षी // 2 जगहें मनसा वीर तच्छ्रुत्वा विप्रियं वचः // 16 तानाशुगैरापततोऽहमाशु अहं हि द्वारकायाश्च पितुश्च कुरुनन्दन / निवार्य तूर्णं खगमान्ख एव / तेषु रक्षा समाधाय प्रयातः सौभपातने / / 17 द्विधा त्रिधा चाच्छिनमाशु मुक्तै बलदेवो महाबाहुः कच्चिज्जीवति शत्रुहा / स्ततोऽन्तरिक्षे निनदो बभूव // 3 सात्यकी रौक्मिणेयश्च चारुदेष्णश्च वीर्यवान् / ततः शतसहस्रेण शराणां नतपर्वणाम् / साम्बप्रभृतयश्चैवेत्यहमासं सुदुर्मनाः // 18 दारुकं वाजिनश्चैव रथं च समवाकिरत् // 4 एतेषु हि नरव्याघ्र जीवत्सु न कथंचन। ततो मामब्रवीद्वीर दारुको विह्वलन्निव / शक्यः शूरसुतो हन्तुमपि वज्रभृता स्वयम् // 19 स्थातव्यमिति तिष्ठामि शाल्वबाणप्रपीडितः // 5 हतः शूरसुतो व्यक्तं व्यक्तं ते च परासवः / / इति तस्य निशम्याहं सारथेः करुणं वचः। बलदेवमुखाः सर्वे इति मे निश्चिता मतिः // 20 अवेक्षमाणो यन्तारमपश्यं शरपीडितम् // 6 सोऽहं सर्वविनाशं तं चिन्तयानो मुहुर्मुहुः / न तस्योरसि नो मूर्ध्नि न काये न भुजद्वये / सुविह्वलो महाराज पुनः शाल्वमयोधयम् // 21 अन्तरं पाण्डवश्रेष्ठ पश्यामि नहतं शरैः॥ 7 ततोऽपश्यं महाराज प्रपतन्तमहं तदा / स तु बाणवरोत्पीडाद्विस्रवत्यसृगुल्बणम् / सौभाच्छूरसुतं वीर ततो मां मोह आविशत् // 22 अभिवृष्टो यथा मेधैर्गिरि रिकधातुमान् // 8 तस्य रूपं प्रपततः पितुर्मम नराधिप / अभीषुहस्तं तं दृष्ट्वा सीदन्तं सारथिं रणे। ययातः क्षीणपुण्यस्य स्वर्गादिव महीतलम् / / 23 . अस्तम्भयं महाबाहो शाल्वबाणप्रपीडितम् // 9 विशीर्णगलितोष्णीषः प्रकीर्णाम्बरमूर्धजः। अथ मां पुरुषः कश्चिद्वारकानिलयोऽब्रवीत् / प्रपतन्दृश्यते ह स्म क्षीणपुण्य इव ग्रहः // 24 त्वरितो रथमभ्येत्य सौहृदादिव भारत // 10 ततः शाङ्गं धनुःश्रेष्ठं करात्प्रपतितं मम / आहुकस्य वचो वीर तस्यैव परिचारकः / मोहात्सन्नश्च कौन्तेय रथोपस्थ उपाविशम् // 25 विषण्णः सन्नकण्ठो वै तन्निबोध युधिष्ठिर॥ 11 ततो हाहाकृतं सर्वं सैन्यं मे गतचेतनम् / . द्वारकाधिपतिर्वीर आह त्वामाहको वचः। मां दृष्ट्वा रथनीडस्थं गतासुमिव भारत // 26 . केशवेह विजानीष्व यत्त्वां पितृसखोऽब्रवीत् // 12 प्रसार्य बाहू पततः प्रसार्य चरणावपि / उपयात्वाद्य शाल्वेन द्वारकां वृष्णिनन्दन / रूपं पितुरपश्यं तच्छकुनेः पततो यथा // 27 विषक्ते त्वयि दुर्धर्ष हतः शूरसुतो बलात् // 13 तं पतन्तं महाबाहो शूलपट्टिशपाणयः / तदलं साधु युद्धेन निवर्तस्व जनार्दन / अभिघ्नन्तो भृशं वीरा मम चेतो व्यकम्पयन् // 28 द्वारकामेव रक्षस्व कार्यमेतन्महत्तव // 14 ततो मुहूर्ताप्रतिलभ्य संज्ञा-..... -415 -
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________________ 3. 22. 29 ] महाभारते [ 3. 23. 26 महं तदा वीर महाविमर्दे। वल्मीक इव राजेन्द्र पर्वतोपचितोऽभवम् // 11 न तत्र सौभं न रिपुं न शाल्वं ततोऽहं पर्वतचितः सहयः सहसारथिः / __पश्यामि वृद्धं पितरं न चापि // 29 अप्रख्यातिमियां राजन्सध्वजः पर्वतै श्चितः // 12 ततो ममासीन्मनसि मायेयमिति निश्चितम् / ततो वृष्णिप्रवीरा ये ममासन्सैनिकास्तदा। प्रबुद्धोऽस्मि ततो भूयः शतशो विकिरशरान्॥३० ते भयार्ता दिशः सर्वाः सहसा विप्रदुद्रुवुः // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततो हाहाकृतं सर्वमभूत्किल विशां पते / द्वाविंशोऽध्यायः॥२२॥ द्यौश्च भूमिश्च खं चैवादृश्यमाने तथा मयि // 14 23 ततो विषण्णमनसो मम राजन्सुहृजनाः / वासुदेव उवाच / रुरुदुश्चक्रुशुश्चैव दुःखशोकसमन्विताः // 15 ततोऽहं भरतश्रेष्ठ प्रगृह्य रुचिरं धनुः / द्विषतां च प्रहर्षोऽभूदार्तिश्चाद्विषतामपि। . शरैरपातयं सौभाच्छिरांसि विबुधद्विषाम् // 1 एवं विजितवान्वीर पश्चादीषमच्युत // 16 . शरांश्चाशीविषाकारानूर्ध्वगांस्तिग्मतेजसः / / ततोऽहमा दयितं सर्वपाषाणभेदनम् / अप्रैषं शाल्वराजाय शार्ङ्गमुक्तान्सुवाससः // 2 वनमुद्यम्य तान्सर्वान्पर्वतान्समशातयम् // 17 ततो नादृश्यत तदा सौभं कुरुकुलोद्वह / ततः पर्वतभारार्ता मन्दप्राणविचेष्टिताः / अन्तर्हितं माययाभूत्ततोऽहं विस्मितोऽभवम् // 3 हया मम महाराज वेपमाना इवाभवन् // 18 अथ दानवसंघास्ते विकृताननमूर्धजाः / मेघजालमिवाकाशे विदार्याभ्युदितं रविम्। . उदकोशन्महाराज विष्ठिते मयि भारत // 4 . दृष्ट्वा मां बान्धवाः सर्वे हर्षमाहारयन्पुनः // 19 . ततोऽत्रं शब्दसाहं वै त्वरमाणो महाहवे / ततो मामब्रवीत्सूतः प्राञ्जलिः प्रणतो नृप। अयोजयं तद्वधाय ततः शब्द उपारमत् // 5 साधु संपश्य वार्ष्णेय शाल्वं सौभपतिं स्थितम्॥२० हतास्ते दानवाः सर्वे यैः स शब्द उदीरितः / अलं कृष्णावमन्यैनं साधु यत्नं समाचर / शरैरादित्यसंकाशैवलितैः शब्दसाधनैः // 6 मार्दवं सखितां चैव शाल्वादद्य व्यपाहर // 21 तस्मिन्नुपरते शब्दे पुनरेवान्यतोऽभवत् / जहि शाल्वं महाबाहो मैनं जीवय केशव / शब्दोऽपरो महाराज तत्रापि प्राहरं शरान् / / 7 सर्वैः पराक्रमैर्वीर वध्यः शत्रुरमित्रहन् // 22 एवं दश दिशः सर्वास्तिर्यगूवं च भारत / न शत्रुरवमन्तव्यो दुर्बलोऽपि बलीयसा। नादयामासुरसुरास्ते चापि निहता मया // 8 योऽपि स्यात्पीठगः कश्चित्किं पुनः समरे स्थितः।।२३ ततः प्राग्ज्योतिषं गत्वा पुनरेव व्यदृश्यत / स त्वं पुरुषशार्दूल सर्वयत्नैरिमं प्रभो। सौभं कामगमं वीर मोहयन्मम चक्षुषी // 9 जहि वृष्णिकुलश्रेष्ठ मा त्वां कालोऽत्यगात्पुनः॥२४ ततो लोकान्तकरणो दानवो वानराकृतिः / नैष मार्दवसाध्यो वै मतो नापि सखा तव / शिलावर्षेण सहसा महता मां समावृणोत् // 10 येन त्वं योधितो वीर द्वारका चावमर्दिता // 25 सोऽहं पर्वतवर्षेण वध्यमानः समतन्तः / एवमादि तु कौन्तेय श्रुत्वाहं सारथेर्वचः।। -416 -
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________________ 3. 23. 26 ] आरण्यकपर्व [3. 24. 1 तत्त्वमेतदिति ज्ञात्वा युद्धे मतिमधारयम् // 26 यद्यगां परवीरघ्न न हि जीवेत्सुयोधनः॥ 41 वधाय शाल्वराजस्य सौभस्य च निपातने / वैशंपायन उवाच। दारुकं चाब्रुवं वीर मुहूर्त स्थीयतामिति // 27 एवमुक्त्वा महाबाहुः कौरवं पुरुषोत्तमः / ततोऽप्रतिहतं दिव्यमभेद्यमतिवीर्यवत् / / आमत्र्य प्रययौ धीमान्पाण्डवान्मधुसूदनः॥ 42 आग्नेयमस्त्रं दयितं सर्वसाहं महाप्रभम् // 28 अभिवाद्य महाबाहुर्धर्मराज युधिष्ठिरम् / यक्षाणां राक्षसानां च दानवानां च संयुगे। राज्ञा मूर्धन्युपाघ्रातो भीमेन च महाभुजः // 43 राज्ञां च प्रतिलोमानां भस्मान्तकरणं महत् // 29 सुभद्रामभिमन्युं च रथमारोप्य काश्चनम् / क्षुरान्तममलं चक्रं कालान्तकयमोपमम् / आरुरोह रथं कृष्णः पाण्डवैरभिपूजितः // 44 अभिमन्याहमतुलं द्विषतां च निबर्हणम् // 30 सैन्यसुग्रीवयुक्तेन रथेनादित्यवर्चसा / जहि सौभं स्ववीर्येण ये चात्र रिपयो मम / द्वारकां प्रययौ कृष्णः समाश्वास्य युधिष्ठिरम् // 45 इत्युक्त्वा भुजवीर्येण तस्मै प्राहिणवं रुषा // 31 ततः प्रयाते दाशार्हे धृष्टद्युम्नोऽपि पार्षतः / रूपं सुदर्शनस्यासीदाकाशे पततस्तदा / द्रौपदेयानुपादाय प्रययौ स्वपुरं तदा // 46 द्वितीयस्येव सूर्यस्य युगान्ते परिविष्यतः // 32 धृष्टकेतुः स्वसारं च समादायाथ चेदिराट् / तत्समासाद्य नगरं सौभं व्यपगतत्विषम् / जगाम पाण्डवान्दृष्ट्वा रम्यां शुक्तिमती पुरीम् // 47 मध्येन पाटयामास क्रकचो दार्विवोच्छ्रितम् // 33 केयाश्चाप्यनुज्ञाताः कौन्तेयेनामितौजसा / द्विधा कृतं ततः सौभं सुदर्शनबलाद्धतम् / आमत्र्य पाण्डवान्सर्वान्प्रययुस्तेऽपि भारत // 48 महेश्वरशरोद्भूतं पपात त्रिपुरं यथा // 34 ब्राह्मणाश्च विशश्चैव तथा विषयवासिनः / तस्मिन्निपतिते सौभे चक्रमागात्करं मम / विसृज्यमानाः सुभृशं न त्यजन्ति स्म पाण्डवान।।४९ पुनश्चोय वेगेन शाल्वायेत्यहमब्रुवम् // 35 समवायः स राजेन्द्र सुमहाद्भुतदर्शनः / ततः शाल्वं गदां गुर्वीमाविध्यन्तं महाहवे। आसीन्महात्मनां तेषां काम्यके भरतर्षभ // 50 द्विधा चकार सहसा प्रजज्वाल च तेजसा // 36 युधिष्ठिरस्तु विप्रांस्ताननुमान्य महामनाः। तस्मिन्निपतिते वीरे दानवास्त्रस्तचेतसः / शशास पुरुषान्काले रथान्योजयतेति ह // 51 हाहाभूता दिशो जग्मुरर्दिता मम सायकैः // 37 ___ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततोऽहं समवस्थाप्य रथं सौभसमीपतः / त्रयोविंशोऽध्यायः॥ 23 // शङ्ख प्रध्माप्य हर्षेण सुहृदः पर्यहर्षयम् // 38 तन्मेरुशिखराकारं विध्वस्ताट्टालगोपुरम् / वैशंपायन उवाच / दह्यमानमभिप्रेक्ष्य स्त्रियस्ताः संप्रदुद्रुवुः // 39 तस्मिन्दशार्हाधिपतौ प्रयाते एवं निहत्य समरे शाल्वं सौभं निपात्य च / युधिष्ठिरो भीमसेनार्जुनौ च। आनन्पुिनरागम्य सुहृदां प्रीतिमावहम् // 40 यमौ च कृष्णा च पुरोहितश्च एवस्मात्कारणाद्राजन्नागमं नागसाह्वयम् / रथान्महार्हान्परमाश्वयुक्तान् // 1 म. भा. 53. -417 - 24
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________________ 3. 24. 2] महाभारते [ 3. 24.16 आस्थाय वीराः सहिता वनाय ___ प्रतस्थिरे भूतपतिप्रकाशाः / हिरण्यनिष्कान्वसनानि गाश्च ___ प्रदाय शिक्षाक्षरमत्रविद्भयः // 2 प्रेष्याः पुरो विंशतिरात्तशस्त्रा धनूंषि वर्माणि शरांश्च पीतान् / मौर्वीश्च यत्राणि च सायकांश्च सर्वे समादाय जघन्यमीयुः // 3 ततस्तु वासांसि च राजपुत्र्या ___ धात्र्यश्च दास्यश्च विभूषणं च। तदिन्द्रसेनस्त्वरितं प्रगृह्य जघन्यमेवोपययौ रथेन // 4 ततः कुरुश्रेष्ठमुपेत्य पौराः ... प्रदक्षिणं चक्रुरदीनसत्त्वाः / . __तं ब्राह्मणाश्चाभ्यवदन्प्रसन्ना - मुख्याश्च सर्वे कुरुजाङ्गलानाम् // 5 स चापि तानभ्यवदत्प्रसन्नः ___ सहैव तैर्धातृभिर्धर्मराजः। तस्थौ च तत्राधिपतिर्महात्मा . . दृष्ट्वा जनैौघं कुरुजाङ्गलानाम् // 6 पितेव पुत्रेषु स तेषु भावं ___ चक्रे कुरूणामृषभो महात्मा। ते चापि तस्मिन्भरतप्रबहे . तदा बभूवुः पितरीव पुत्राः॥७ ततः समासाद्य महाजनौघाः ___ कुरुप्रवीरं परिवार्य तस्थुः। हा नाथ हा धर्म इति ब्रुवन्तो ह्रिया च सर्वेऽश्रुमुखा बभूवुः / / 8 वरः कुरूणामधिपः प्रजानां पितेव पुत्रानपहाय चास्मान् / पौरानिमाञ्जानपदांश्च सर्वा__न्हित्वा प्रयातः क नु धर्मराजः॥९ धिग्धार्तराष्ट्रं सुनृशंसबुद्धिं ससौबलं पापमतिं च कर्णम् / अनर्थमिच्छन्ति नरेन्द्र पापा __ ये धर्मनित्यस्य सतस्तवोग्राः॥ 10 ... स्वयं निवेश्याप्रतिमं महात्मा पुरं महद्देवपुरप्रकाशम् / शतक्रतुप्रस्थममोघकर्मा हित्वा प्रयातः क नु धर्मराजः॥ 11 चकार यामप्रतिमां महात्मा सभा मयो देवसभाप्रकाशाम् / तां देवगुप्तामिव देवमायां हित्वा प्रयातः क नु धर्मराजः // 12 तान्धर्मकामार्थविदुत्तमौजा बीभत्सुरुचैः सहितानुवाच / आदास्यते वासमिमं निरुष्य वनेषु राजा द्विषतां यशांसि // 13 / द्विजातिमुख्याः सहिताः पृथक्च भवद्भिरासाद्य तपस्विनश्च / प्रसाद्य धर्मार्थविदश्च वाच्या __ यथार्थसिद्धिः परमा भवेन्नः // 14 इत्येवमुक्ते वचनेऽर्जुनेन ते ब्राह्मणाः सर्ववर्णाश्च राजन् / मुदाभ्यनन्दनसहिताश्च चक्रुः ___ प्रदक्षिणं धर्मभृतां वरिष्ठम् // 15 आमक्रय पार्थं च वृकोदरं च धनंजयं याज्ञसेनी यमौ च / प्रतस्थिरे राष्ट्रमपेतहर्षा - 418 -
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________________ 3. 24. 16 ] आरण्यकपर्व [3. 25.21 युधिष्ठिरेणानुमता यथास्वम् // 16 गच्छाम पुण्यं विख्यातं महद्वैतवनं सरः॥ 12 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि वैशंपायन उवाच / चतुर्विंशोऽध्यायः॥ 24 // ततस्ते प्रययुः सर्वे पाण्डवा धर्मचारिणः / / ब्राह्मणैर्बहुभिः साधं पुण्यं द्वैतवनं सरः // 13 वैशंपायन उवाच। ब्राह्मणाः साग्निहोत्राश्च तथैव च निरग्नयः / ततस्तेषु प्रयातेषु कौन्तेयः सत्यसंगरः। स्वाध्यायिनो भिक्षवश्च सजपा वनवासिनः // 14 अभ्यभाषत धर्मात्मा भ्रातृन्सर्वान्युधिष्ठिरः॥ 1 बहवो ब्राह्मणास्तत्र परिवद्र्युधिष्ठिरम्। द्वादशेमाः समास्माभिर्वस्तव्यं निर्जने वने / तपस्विनः सत्यशीलाः शतशः संशितव्रताः // 15 समीक्षध्वं महारण्ये देशं बहुमृगद्विजम् // 2 ते यात्वा पाण्डवास्तत्र बहुभिर्ब्राह्मणैः सह / बहुपुष्पफलं रम्यं शिवं पुण्यजनोचितम् / पुण्यं द्वैतवनं रम्यं विविशुर्भरतर्षभाः // 16 यत्रेमाः शरदः सर्वाः सुखं प्रतिवसेमहि // 3 तच्छालतालाम्रमधूकनीपएवमुक्ते प्रत्युवाच धर्मराजं धनंजयः। ___ कदम्बसर्जार्जुनकर्णिकारैः। गुरुवन्मानवगुरुं मानयित्वा मनस्विनम् // 4 तपात्यये पुष्पधरैरुपेतं अर्जुन उवाच / महावनं राष्ट्रपतिर्ददर्श // 17 भवानेव महर्षीणां वृद्धानां पर्युपासिता / महाद्रुमाणां शिखरेषु तस्थुअज्ञातं मानुषे लोके भवतो नास्ति किंचन // 5 - मनोरमां वाचमुदीरयन्तः / त्वया झुपासिता नित्यं ब्राह्मणा भरतर्षभ / मयूरदात्यूहचकोरसंघाद्वैपायनप्रभृतयो नारदश्च महातपाः॥६ __स्तस्मिन्वने काननकोकिलाश्च // 18 यः सर्वलोकद्वाराणि नित्यं संचरते वशी / करेणुयूथैः सह यूथपानां देवलोकाद्ब्रह्मलोकं गन्धर्वाप्सरसामपि // 7 मदोत्कटानामचलप्रभाणाम् / / सर्वा गतीविजानासि ब्राह्मणानां न संशयः / महान्ति यूथानि महाद्विपानां प्रभावांश्चैव बेत्थ त्वं सर्वेषामेव पार्थिव // 8 ___ तस्मिन्वने राष्ट्रपतिर्ददर्श // 19 / त्वमेव राजञ्जानासि श्रेयःकारणमेव च / मनोरमां भोगवतीमुपेत्य यत्रेच्छसि महाराज निवासं तत्र कुर्महे // 9 धृतात्मनां चीरजटाधराणाम् / इदं द्वैतवनं नाम सरः पुण्यजनोचितम् / / तस्मिन्वने धर्मभृतां निवासे बहुपुष्पफलं रम्यं नानाद्विजनिषेवितम् // 10 ददर्श सिद्धर्षिगणाननेकान् // 20 अत्रेमा द्वादश समा विहरेमेति रोचये। ततः स यानादवरुह्य राजा यदि तेऽनुमतं राजन्किं वान्यन्मन्यते भवान् // 11 ___सभ्रातृकः सजनः काननं तत् / युधिष्ठिर उवाच / विवेश धर्मात्मवतां वरिष्ठममाप्येतन्मतं पार्थ त्वया यत्समुदाहृतम् / स्त्रिविष्टपं शक्र इवामितीजाः॥२१ - 419 -
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________________ 3. 25. 22 ] महाभारते [8. 26.9 सं सत्यसंध सहिताभिपेतु द्विजातिमुख्यानृषभः कुरूणां दिदृक्षवश्चारणसिद्धसंघाः। संतर्पयामास महानुभावः // 2 वनौकसश्चापि नरेन्द्रसिंह इष्टीश्च पित्र्याणि तथाग्रियाणि मनस्विनं संपरिवार्य तस्थुः // 22 महावने वसतां पाण्डवानाम् / स तत्र सिद्धानभिवाद्य सर्वा पुरोहितः सर्वसमृद्धतेजा-. ___ न्प्रत्यर्चितो राजवदेववञ्च / श्वकार धौम्यः पितृवत्कुरूणाम् / / 3 विवेश सर्वैः सहितो द्विजाग्र्यैः अपेत्य राष्ट्राद्वसतां तु तेषाकृताञ्जलिर्धर्मभृतां वरिष्ठः // 23 मृषिः पुराणोऽतिथिराजगाम / स पुण्यशीलः पितृवन्महात्मा .. तमाश्रमं तीव्रसमृद्धतेजा तपस्विभिर्धर्मपरैरुपेत्य। ___ मार्कण्डेयः श्रीमतां पाण्डवानाम् // .4 प्रत्यर्चितः पुष्पधरस्य मूले स सर्वविद्रौपदी प्रेक्ष्य कृष्णां महाद्रुमस्योपविवेश राजा // 24 युधिष्ठिरं भीमसेनार्जुनौ च / भीमश्च कृष्णा च धनंजयश्च संस्मृत्य रामं मनसा महात्मा यमौ च ते चानुचरा नरेन्द्रम् / तपस्विमध्येऽस्मयतामितौजाः // 5 विमुच्य वाहानवरुह्य सर्वे तं धर्मराजो विमना इवाब्रवीतत्रोपतस्थुर्भरतप्रबर्हाः // 25 त्सर्वे ह्रिया सन्ति तपस्विनोऽमी। लतावतानावनतः स पाण्डवै भवानिदं किं स्मयतीव हृष्टमहाद्रुमः पञ्चभिरुयधन्विभिः / . स्तपस्विनां पश्यतां मामुदीक्ष्य // 6 बभौ निवासोपगतैर्महात्मभि मार्कण्डेय उवाच / महागिरिरिणयूथपैरिव // 26 न तात हृष्यामि न च स्मयामि इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि प्रहर्षजो मां भजते न दर्पः। पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // तवापदं त्वद्य समीक्ष्य राम 26 सत्यव्रतं दाशरथिं स्मरामि // 7 वैशंपायन उवाच / स चापि राजा सह लक्ष्मणेन तत्काननं प्राप्य नरेन्द्रपुत्राः वने निवासं पितुरेव शासनात् / सुखोचिता वासमुपेत्य कृच्छ्रम् / धन्वी चरन्पार्थ पुरा मयैव विजझुरिन्द्रप्रतिमाः शिवेषु दृष्टो गिरेर्ऋष्यमूकस्य सानौ // 8 सरस्वतीशालवनेषु तेषु // 1 सहस्रनेत्रप्रतिमो महात्मा यतींश्च सर्वान्स मुनींश्च राजा मयस्य जेता नमुचेश्च हन्ता / तस्मिन्यने मूलफलैरुदौः। पितुर्निदेशादनघः स्वधर्मं . - 420 -
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________________ 3. 26.9] आरण्यकपर्व [3.27.9 कृच्छ्रे वने वासमिमं निरुष्य / ततः श्रियं तेजसा स्वेन दीप्तामादास्यसे पार्थिव कौरवेभ्यः // 17 वैशंपायन उवाच / तमेवमुक्त्वा वचनं महर्षि___ स्तपस्विमध्ये सहितं सुहृद्भिः। आमत्र्य धौम्यं सहितांश्च पार्थां स्ततः प्रतस्थे दिशमुत्तरां सः // 18 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि षड्विंशोऽध्यायः // 26 // वने वासं दाशरथिश्चकार // 9 स चापि शक्रस्य समप्रभावो महानुभावः समरेष्वजेयः। विहाय भोगानचरद्वनेषु नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् // 10 नृपाश्च नाभागभगीरथादयो महीमिमां सागरान्तां विजित्य / सत्येन तेऽप्यजयंस्तात लोका नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् // 11 अलर्कमाहुर्नरवर्य सन्तं सत्यव्रतं काशिकरूपराजम् / विहाय राष्ट्राणि वसूनि चैव . नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् // 12 धात्रा विधिर्यो विहितः पुराण- स्तं पूजयन्तो नरवर्य सन्तः / सप्तर्षयः पार्थ दिवि प्रभान्ति - नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् // 13 महाबलान्पर्वतकूटमात्रा-- विषाणिनः पश्य गजान्नरेन्द्र / स्थितांन्निदेशे नरवर्य धातु र्नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् // 14 सर्वाणि भूतानि नरेन्द्र पश्य __ यथा यथावद्विहितं विधात्रा। स्वयोनितस्तत्कुरुते प्रभावा नेशे बलस्येति चरेदधर्मम् // 15 सत्येन धर्मेण यथार्हवृत्त्या ह्रिया तथा सर्वभूतान्यतीत्य / यशश्च तेजश्च तवापि दीप्तं विभावसोर्भास्करस्येव पार्थ // 16 यथाप्रतिज्ञं च महानुभाव , वैशंपायन उवाच / वसत्स्वथ द्वैतवने पाण्डवेषु महात्मसु / अनुकीर्णं महारण्यं ब्राह्मणैः समपद्यत // 1 ईर्यमाणेन सततं ब्रह्मघोषेण सर्वतः / ब्रह्मलोकसमं पुण्यमासीद्वैतवनं सरः // 2 यजुषामृचां च साम्नां च गद्यानां चैव सर्वशः / आसीदुच्चार्यमाणानां निस्वनो हृदयंगमः // 3 ज्याघोषः पाण्डवेयानां ब्रह्मघोषश्च धीमताम् / संसृष्टं ब्रह्मणा क्षत्रं भूय एव व्यरोचत // 4 अथाब्रवीद्वको दाल्भ्यो धर्मराज युधिष्ठिरम् / संध्यां कौन्तेयमासीनमृषिभिः परिवारितम् // 5 पश्य द्वैतवने पार्थ ब्राह्मणानां तपस्विनाम् / होमवेलां कुरुश्रेष्ठ संप्रज्वलितपावकाम् // 6 चरन्ति धर्मं पुण्येऽस्मिंस्त्वया गुप्ता धृतव्रताः / भृगवोऽङ्गिरसश्चैव वासिष्ठाः काश्यपैः सह // 7 आगस्त्याश्च महाभागा आत्रेयाश्चोत्तमव्रताः / सर्वस्य जगतः श्रेष्ठा ब्राह्मणाः संगतास्त्वया / / 8 इदं तु वचनं पार्थ शृण्वेकाग्रमना मम / भ्रातृभिः सह कौन्तेय यत्त्वा वक्ष्यामि कौरव॥ 9 -421 -
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________________ 8. 27. 10 ] महाभारते [3. 28.8 ब्रह्म क्षत्रेण संसृष्टं क्षत्रं च ब्रह्मणा सह। ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे बकं दाल्भ्यमपूजयन् / उदीर्णो दहतः शत्रून्वनानीवाग्निमारुतौ // 10 युधिष्ठिरे स्तूयमाने भूयः सुमनसोऽभवन् // 21 नाब्राह्मणस्तात चिरं बुभूषे द्वैपायनो नारदश्च जामदग्न्यः पृथुश्रवाः / ___दिच्छन्निमं लोकममुं च जेतुम् / इन्द्रद्युम्नो भालुकिश्च कृतचेताः सहस्रपात् // 22 विनीतधर्मार्थमपेतमोहं कर्णश्रवाश्च मुञ्जश्च लवणाश्वश्च काश्यपः / लब्ध्वा द्विजं नुदति नृपः सपत्नान् // 11 हारीतः स्थूणकर्णश्च अग्निवेश्योऽथ शौनकः // 23 चरन्नैःश्रेयसं धर्म प्रजापालनकारितम् / ऋतवाक्च सुवाक्चैव बृहदश्व ऋतावसुः / नाध्यगच्छदलिलॊके तीर्थमन्यत्र वै द्विजात् // 12 ऊर्ध्वरेता वृषामित्रः सुहोत्रो होत्रवाहनः // 24 अनूनमासीदसुरस्य कामै एते चान्ये च बहवो ब्राह्मणाः संशितव्रताः / __वैरोचनेः श्रीरपि चाक्षयासीत् / अजातशत्रुमानचुः पुरंदरमिवर्षयः // 25 लब्ध्वा महीं ब्राह्मणसंप्रयोगा इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि त्तेष्वाचरन्दुष्टमतो व्यनश्यत् // 13 सप्तविंशोऽध्यायः // 27 // नाब्राह्मणं भूमिरियं सभूतिवर्णं द्वितीयं भजते चिराय। वैशंपायन उवाच / समुद्रनेमिनमते तु तस्मै ततो वनगताः पार्थाः सायाह्ने सह कृष्णया / यं ब्राह्मणः शास्ति नयैर्विनीतः // 14 उपविष्टाः कथाश्चक्रुर्दुःखशोकपरायणाः // 1 कुअरस्येव संग्रामेऽपरिगृह्याङ्कुशग्रहम् / प्रिया च दर्शनीया च पण्डिता च पतिव्रता / ब्राह्मणैर्विप्रहीणस्य क्षत्रस्य क्षीयते बलम् // 15 ततः कृष्णा धर्मराजमिदं वचनमब्रवीत् // 2 ब्रह्मण्यनुपमा दृष्टिः क्षात्रमप्रतिमं बलम् / न नूनं तस्य पापस्य दुःखमस्मासु किंचन / तौ यदा चरतः सार्धमथ लोकः प्रसीदति // 16 विद्यते धार्तराष्ट्रस्य नृशंसस्य दुरात्मनः / / 3 यथा हि सुमहानग्निः कक्षं दहति सानिलः / यस्त्वां राजन्मया सार्धमजिनैः प्रतिवासितम् / तथा दहति राजन्यो ब्राह्मणेन समं रिपून // 17 भ्रातृभिश्च तथा सर्वैर्नाभ्यभाषत किंचन / ब्राह्मणेभ्योऽथ मेधावी बुद्धिपर्येषणं चरेत् / वनं प्रस्थाप्य दुष्टात्मा नान्वतप्यत दुर्मतिः॥४ अलब्धस्य च लाभाय लब्धस्य च विवृद्धये // 18 आयसं हृदयं नूनं तस्य दुष्कृतकर्मणः / अलब्धलाभाय च लब्धवृद्धये यस्त्वां धर्मपरं श्रेष्ठं रूक्षाण्यश्रावयत्तदा // 5 ___ यथार्हतीर्थप्रतिपादनाय / सुखोचितमदुःखाहँ दुरात्मा ससुहृद्गणः / यशस्विनं वेदविदं विपश्चितं ईदृशं दुःखमानीय मोदते पापपूरुषः // 6 ___ बहुश्रुतं ब्राह्मणमेव वासय // 19 चतुर्णामेव पापानामश्रु वै नापतत्तदा / ब्राह्मणेषूत्तमा वृत्तिस्तव नित्यं युधिष्ठिर / त्वयि भारत निष्क्रान्ते वनायाजिनवाससि // 7 तेन ते सर्वलोकेषु दीप्यते प्रथितं यशः // 20 / दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्च दुरात्मनः / -422 -
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________________ 3. 28.8] आरण्यकपर्व [3. 28. 37 दुर्धातुस्तस्य चोग्रस्य तथा दुःशासनस्य च // 8 / योऽर्जुनेनार्जुनस्तुल्यो द्विबाहुबेहुबाहुना। इतरेषां तु सर्वेषां कुरूणां कुरुसत्तम / शरातिसर्गे शीघ्रत्वात्कालान्तकयमोपमः // 23 . दुःखेनाभिपरीतानां नेत्रेभ्यः प्रापतज्जलम् // 9 यस्य शस्त्रप्रतापेन प्रणताः सर्वपार्थिवाः। इदं च शयनं दृष्ट्वा यच्चासीत्ते पुरातनम् / यज्ञे तव महाराज ब्राह्मणानुपतस्थिरे // 24 शोचामि त्वां महाराज दुःखानहँ सुखोचितम् // 10 तमिमं पुरुषव्याघ्र पूजितं देवदानवैः / दान्तं यच्च सभामध्ये आसनं रत्नभूषितम् / ध्यायन्तमर्जुनं दृष्ट्वा कस्मान्मन्युर्न वर्धते // 25 दृष्ट्वा कुशवृसी चेमां शोको मां रुन्धयत्ययम् // 11 दृष्ट्वा वनगतं पार्थमदुःखाहं सुखोचितम् / यद्पश्यं सभायां त्वां राजभिः परिवारितम् / . | न च ते वर्धते मन्युस्तेन मुह्यामि भारत // 26 तञ्च राजन्नपश्यन्याः का शान्तिर्हृदयस्य मे // 12 यो देवांश्च मनुष्यांश्च सांश्चैकरथोऽजयत्। या त्वाहं चन्दनादिग्धमपश्यं सूर्यवर्चसम् / तं ते वनगतं दृष्ट्वा कस्मान्मन्युर्न वर्धते // 27 सा त्वा पङ्कमलादिग्धं दृष्ट्वा मुह्यामि भारत / / 13 | यो यानरद्भुताकारैर्हयै गैश्च संवृतः / या वै त्वा कौशिकैर्वस्त्रैः शुभैर्बहुधनैः पुरा / प्रसह्य वित्तान्यादत्त पार्थिवेभ्यः परंतपः // 28 दृष्टवत्यस्मि राजेन्द्र सा त्वा पश्यामि चीरिणम्॥१४ क्षिपत्येकेन वेगेन पञ्च बाणशतानि यः। यच्च तद्रुक्मपात्रीभिर्ब्राह्मणेभ्यः सहस्रशः। तं ते वनगतं दृष्ट्वा कस्मान्मन्युर्न वर्धते // 29 / ह्रियते ते गृहादन्नं संस्कृतं सार्वकामिकम् // 15 श्यामं बृहन्तं तरुणं चर्मिणामुत्तमं रणे। .. यतीनामगृहाणां ते तथैव गृहमेधिनाम् / नकुलं ते वने दृष्ट्वा कस्मान्मन्युन वर्धते // 30 दीयते भोजनं राजन्नतीव गुणवत्प्रभो / दर्शनीयं च शूरं च माद्रीपुत्रं युधिष्ठिर / तञ्च राजन्नपश्यन्त्याः का शान्तिर्हृदयस्य मे // 16 सहदेवं वने दृष्ट्वा कस्मान्मन्युर्न वर्धते // 31 यांस्ते भ्रातॄन्महाराज युवानो मृष्टकुण्डलाः।। द्रुपदस्य कुले जातां स्नुषां पाण्डोर्महात्मनः / अभोजयन्त मृष्टान्नैः सूदाः परमसंस्कृतैः // 17 सांस्तानद्य पश्यामि वने वन्येन जीवतः / मां ते वनगतां दृष्ट्वा कस्मान्मन्युन वर्धते // 32 अदुःखान्मिनुष्येन्द्र नोपशाम्यति मे मनः // 18 नूनं च तव नैवास्ति मन्युर्भरतसत्तम / भीमसेनमिमं चापि दुःखितं वनवासिनम् / यत्ते भ्रातृ॑श्च मां चैव दृष्ट्वा न व्यथते मनः // 33 ध्यायन्तं किं न मन्युस्ते प्राप्ते काले विवर्धते // 19 न निर्मन्युः क्षत्रियोऽस्ति लोके निर्वचनं स्मृतम् / मीमसेनं हि कर्माणि स्वयं कुर्वाणमच्युत / तदद्य त्वयि पश्यामि क्षत्रिये विपरीतवत् // 34 सुखाई दुःखितं दृष्ट्वा कस्मान्मन्युन वर्धते // 20 यो न दर्शयते तेजः क्षत्रियः काल आगते।। सत्कृतं विविधैर्यानैर्वस्त्रैरुच्चावचैस्तथा। सर्वभूतानि तं पार्थ सदा परिभवन्त्युत // 35 तं ते वनगतं दृष्ट्वा कस्मान्मन्युन वर्धते // 21 तत्त्वया नं क्षमा कार्या शत्रून्प्रति कथंचन / कुरूनपि हि यः सर्वान्हन्तुमुत्सहते प्रभुः / तेजसैव हि ते शक्या निहन्तुं नात्र संशयः // 36 त्वत्प्रसादं प्रतीक्षस्तु सहतेऽयं वृकोदरः / / 22 / तथैव यः क्षमाकाले क्षत्रियो नोपशाम्यति / .. -423 -
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________________ 3. 28. 37 ] महाभारते [ 3. 25.27 अप्रियः सर्वभूतानां सोऽमुत्रेह च नश्यति // 37 / क्षमिणं तादृशं तात ब्रुवन्ति कटुकान्यपि / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि प्रेष्याः पुत्राश्च भृत्याश्च तथोदासीनवृत्तयः // 13 मष्टाविंशोऽध्यायः // 28 // अप्यस्य दारानिच्छन्ति परिभूय क्षमावतः / दाराश्चास्य प्रवर्तन्ते यथाकाममचेतसः // 14 द्रौपधुवाच। तथा च नित्यमुदिता यदि स्वल्पमपीश्वरात् / . अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / दण्डमर्हन्ति दुष्यन्ति दुष्टाश्चाप्यपकुर्वते // 15 प्रहादस्य च संवादं बलेवैरोचनस्य च // 1 एते चान्ये च बहवो नित्यं दोषाः क्षमावताम् / असुरेन्द्र महाप्राज्ञं धर्माणामागतागमम् / / अथ वैरोचने दोषानिमान्विद्धयक्षमावताम् // 16 बलिः पप्रच्छ दैत्येन्द्र प्रह्लादं पितरं पितुः // 2 अस्थाने यदि वा स्थाने सततं रजसावृतः।। क्षमा स्विच्छ्रेयसी तात उताहो तेज इत्युत / क्रुद्धो दण्डान्प्रणयति विविधान्स्वेन तेजसा // 17 एतन्मे संशयं तात यथावद्रूहि पृच्छते॥३ मित्रैः सह विरोधं च प्राप्नुते तेजसावृतः / श्रेयो यदत्र धर्मज्ञ ब्रूहि मे तदसंशयम्। प्राप्नोति द्वेष्यतां चैव लोकात्स्वजनतस्तथा // 18 करिष्यामि हि तत्सर्वं यथावदनुशासनम् // 4 सोऽवमानादर्थहानिमुपालम्भमनादरम् / तस्मै प्रोवाच तत्सर्वमेवं पृष्टः पितामहः / संतापद्वेषलोभांश्च शत्रूश्च लभते नरः॥ 19 सर्वनिश्चयवित्प्राज्ञः संशयं परिपृच्छते॥५ क्रोधाद्दण्डान्मनुष्येषु विविधान्पुरुषो नयन् / . प्रह्लाद उवाच / भ्रश्यते शीघ्रमैश्वर्यात्प्राणेभ्यः स्वजनादपि // 20 न श्रेयः सततं तेजो न नित्यं श्रेयसी क्षमा। योऽपकर्तृश्च कर्तृश्च तेजसैवोपगच्छति। इति तात विजानीहि द्वयमेतदसंशयम् // 6 तस्मादुद्विजते लोकः सर्पाद्वेश्मगतादिव // 21 यो नित्यं क्षमते तात बहून्दोषान्स विन्दति / यस्मादुद्विजते लोकः कथं तस्य भवो भवेत्। भृत्याः परिभवन्त्येनमुदासीनास्तथैव च // 7 अन्तरं ह्यस्य दृष्ट्वैव लोको विकुरुते ध्रुवम् / सर्वभूतानि चाप्यस्य न नमन्ते कदाचन / तस्मान्नात्युत्सृजेत्तेजो न च नित्यं मृदुर्भवेत्॥२२ तस्मान्नित्यं क्षमा तात पण्डितैरपवादिता॥ 8 काले मृदुर्यो भवति काले भवति दारुणः / अवज्ञाय हि तं भृत्या भजन्ते बहुदोषताम् / / स वै सुखमवाप्नोति लोकेऽमुष्मिन्निहैव च // 23 आदातुं चास्य वित्तानि प्रार्थयन्तेऽल्पचेतसः // 9 क्षमाकालांस्तु वक्ष्यामि शृणु मे विस्तरेण तान् / यानं वस्त्राण्यलंकाराशयनान्यासनानि च। ये ते नित्यमसंत्याज्या यथा प्राहुर्मनीषिणः // 24 भोजनान्यथ पानानि सर्वोपकरणानि च // 10 पूर्वोपकारी यस्तु स्यादपराधेऽगरीयसि / आददीरन्नधिकृता यथाकाममचेतसः / उपकारेण तत्तस्य क्षन्तव्यमपराधिनः // 25 प्रदिष्टानि च देयानि न दद्युभर्तृशासनात् // 11 / अबुद्धिमाश्रितानां च क्षन्तव्यमपराधिनाम् / न चैनं भर्तपूजाभिः पूजयन्ति कदाचन / ' न हि सर्वत्र पाण्डित्यं सुलभं पुरुषेण वै // 26 अवज्ञानं हि लोकेऽस्मिन्मरणादपि गर्हितम् // 12 / अथ चेद्बुद्धिजं कृत्वा ब्रूयुस्ते तदबुद्धिजम् / - 424 -
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________________ 4. 29. 27 ] आरण्यकपर्व [3. 30. 18 = द्रौपद्युवाच। पापान्वल्पेऽपि तान्हन्यादपराधे तथानृजून् // 27 / क्रुद्धः पापं नरः कुर्यात्क्रुद्धो हन्याद्गुरूनपि / सर्वस्यैकोऽपराधस्ते क्षन्तव्यः प्राणिनो भवेत् / क्रुद्धः परुषया वाचा श्रेयसोऽप्यवमन्यते // 4 द्वितीये सति वध्यस्तु स्वल्पेऽप्यपकृते भवेत् // 28 वाच्यावाच्ये हि कुपितो न प्रजानाति कर्हिचित् / अजानता भवेत्कश्चिदपराधः कृतो यदि / नाकार्यमस्ति क्रुद्धस्य नावाच्यं विद्यते तथा॥५ क्षन्तव्यमेव तस्याहुः सुपरीक्ष्य परीक्षया // 29 | हिंस्यात्क्रोधादवध्यांश्च वध्यान्संपूजयेदपि।। मृदुना मार्दवं हन्ति मृदुना हन्ति दारुणम् / / आत्मानमपि च क्रुद्धः प्रेषयेद्यमसादनम् // 6 नासाध्यं मृदुना किंचित्तस्मात्तीक्ष्णतरो मृदुः॥३० एतान्दोषान्प्रपश्यद्भिर्जितः क्रोधो मनीषिभिः / देशकालौ तु संप्रेक्ष्य बलाबलमथात्मनः / इच्छद्भिः परमं श्रेय इह चामुत्र चोत्तमम् // 7 नादेशकाले किंचित्स्यादेशः कालः प्रतीक्ष्यते। तं क्रोधं वर्जितं धीरैः कथमस्मद्विधश्चरेत् / तथा लोकभयाञ्चैव क्षन्तव्यमपराधिनः // 31 एतद्रौपदि संधाय न मे मन्युः प्रवर्धते // 8 एत एवंविधाः कालाः क्षमायाः परिकीर्तिताः। आत्मानं च परं चैव त्रायते महतो भयात् / अतोऽन्यथानुवर्तत्सु तेजसः काल उच्यते // 32 क्रुध्यन्तमप्रतिक्रुध्यन्द्वयोरेष चिकित्सकः // 9 मूढो यदि क्लिश्यमानः क्रुध्यतेऽशक्तिमान्नरः / तदहं तेजसः कालं तव मन्ये नराधिप। बलीयसां मनुष्याणां त्यजत्यात्मानमन्ततः॥ 10 धार्तराष्ट्रषु लुब्धेषु सततं चापकारिषु // 33 तस्यात्मानं संत्यजतो लोका नश्यन्त्यनात्मनः / . न हि कश्चित्क्षमाकालो विद्यतेऽद्य कुरून्प्रति / तस्माद्रौपद्यशक्तस्य मन्योर्नियमनं स्मृतम् // 11 . तेजसश्चागते काले तेज उत्स्रष्टुमर्हसि // 34 . विद्वांस्तथैव यः शक्तः क्लिश्यमानो न कुप्यति / सूदुर्भवत्यवज्ञातस्तीक्ष्णादुद्विजते जनः / स नाशयित्वा क्लेष्टारं परलोके च नन्दति // 12 काले प्राप्ते द्वयं ह्येतद्यो वेद स महीपतिः // 35 तस्मादलवता चैव दुर्बलेन च नित्यदा। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि क्षन्तव्यं पुरुषेणाहुरापत्स्वपि विजानता // 13 - एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥२९॥ मन्योर्हि विजयं कृष्णे प्रशंसन्तीह साधवः / क्षमावतो जयो नित्यं साधोरिह सतां मतम् // 14 युधिष्ठिर उवाच। सत्यं चानृततः श्रेयो नृशंसाच्चानृशंसता। क्रोधो हन्ता मनुष्याणां क्रोधो भावयिता पुनः / तमेवं बहुदोषं तु क्रोधं साधुविवर्जितम् / इति विद्धि महाप्राज्ञे क्रोधमूलौ भवाभवौ // 1 मादृशः प्रसृजेत्कस्मात्सुयोधनवधादपि // 15 यो हि संहरते क्रोधं भावस्तस्य सुशोभने। तेजस्वीति यमाहुवै पण्डिता दीर्घदर्शिनः / यः पुनः पुरुषः क्रोधं नित्यं न सहते शुभे। न क्रोधोऽभ्यन्तरस्तस्य भवतीति विनिश्चितम्॥१६ तस्याभावाय भवति क्रोधः परमदारुणः // 2 यस्तु क्रोधं समुत्पन्नं प्रज्ञया प्रतिबाधते / क्रोधमूलो विनाशो हि प्रजानामिह दृश्यते / तेजस्विनं तं विद्वांसो मन्यन्ते तत्त्वदर्शिनः // 17 तत्कथं मादृशः क्रोधमुत्सृजेल्लोकनाशनम् // 3 . | क्रुद्धो हि कार्य सुश्रोणि न यथावत्प्रपश्यति / .. म.भा. 54 -425 -
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________________ 3. 30. 18] महाभारते [3. 30. न कार्य न च मर्यादां नरः क्रुद्धोऽनुपश्यति॥१८ यश्च नित्यं जितक्रोधो विद्वानुत्तमपूरुषः // 33 हन्त्यवध्यानपि क्रुद्धो गुरून्रूक्षैस्तुदत्यपि। प्रभाववानपि नरस्तस्य लोकाः सनातनाः / तस्मात्तेजसि कर्तव्ये क्रोधो दूरात्प्रतिष्ठितः // 19 क्रोधनस्त्वल्पविज्ञानः प्रेत्य चेहच नश्यति॥३५ दाक्ष्यं ह्यमर्षः शौर्यं च शीघ्रत्वमिति तेजसः।। अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा नित्यं क्षमावताम् / गुणाः क्रोधाभिभूतेन न शक्याः प्राप्तुमञ्जसा // 20 गीताः क्षमावता कृष्णे काश्यपेन महात्मना // 35 क्रोधं त्यक्त्वा तु पुरुषः सम्यक्तेजोऽभिपद्यते। क्षमा धर्मः क्षमा यज्ञः क्षमा वेदाः क्षमा श्रुतम् / कालयुक्तं महाप्राज्ञे क्रुद्धस्तेजः सुदुःसहम् // 21 यस्तामेवं विजानाति स सर्व क्षन्तुमर्हति // 36 क्रोधस्त्वपण्डितैः शश्वत्तेज इत्यभिधीयते / क्षमा ब्रह्म क्षमा सत्यं क्षमा भूतं च भावि च / रजस्तल्लोकनाशाय विहितं मानुषान्प्रति // 22 / क्षमा तपः क्षमा शौचं क्षमया चोद्धृतं जगत् // 35 तस्माच्छश्वत्त्यजेत्क्रोधं पुरुषः सम्यगाचरन् / अति ब्रह्मविदां लोकानति चापि तपस्विनाम् / . श्रेयान्स्वधर्मानपगो न क्रुद्ध इति निश्चितम् // 23 अति यज्ञविदां चैव क्षमिणः प्राप्नुवन्ति तान् // 38 यदि सर्वमबुद्धीनामतिक्रान्तममेधसाम् / क्षमा तेजस्विनां तेजः क्षमा ब्रह्म तपस्विनाम् / अतिक्रमो मद्विधस्य कथं स्वित्स्यादनिन्दिते // 24 क्षमा सत्यं सत्यवतां क्षमा दानं क्षमा यशः // 39 यदि न स्युर्मनुष्येषु क्षमिणः पृथिवीसमाः। तां क्षमामीदृशीं कृष्णे कथमस्मद्विधस्त्यजेत् / / न स्यात्संधिर्मनुष्याणां क्रोधमूलो हि विग्रहः // 25 यस्यां ब्रह्म च सत्यं च यज्ञा लोकाश्च विष्ठिताः / अभिषक्तो ह्यभिषजेदाहन्याद्गुरुणा हतः / भुज्यन्ते यज्वनां लोकाः क्षमिणामपरे तथा॥४० एवं विनाशो भूतानामधर्मः प्रथितो भवेत् // 26 क्षन्तव्यमेव सततं पुरुषेण विजानता। आक्रुष्टः पुरुषः सर्वः प्रत्याक्रोशेदनन्तरम् / यदा हि क्षमते सर्वं ब्रह्म संपद्यते तदा // 41 - प्रतिहन्याद्धतश्चैव तथा हिंस्याच्च हिंसितः // 27 क्षमावतामयं लोकः परश्चैव क्षमावताम् / हन्युर्हि पितरः पुत्रान्पुत्राश्चापि तथा पितॄन् / इह संमानमृच्छन्ति परत्र च शुभां गतिम् // 42 हन्युश्च पतयो भार्याः पतीन्भार्यास्तथैव च // 28 येषां मन्युर्मनुष्याणां क्षमया निहतः सदा / एवं संकुपिते लोके जन्म कृष्णे न विद्यते। तेषां परतरे लोकास्तस्मात्क्षान्तिः परा मता // 43 प्रजानां संधिमूलं हि जन्म विद्धि शुभानने // 29 इति गीताः काश्यपेन गाथा नित्यं क्षमावताम् / ताः क्षीयेरन्प्रजाः सर्वाः क्षिप्रं द्रौपदि तादृशे। श्रुत्वा गाथाः क्षमायास्त्वं तुष्य द्रौपदि मा क्रुधः॥४४ तस्मान्मन्युर्विनाशाय प्रजानामभवाय च // 30 पितामहः शांतनवः शमं संपूजयिष्यति / यस्मात्तु लोके दृश्यन्ते क्षमिणः पृथिवीसमाः। आचार्यो विदुरः क्षत्ता शममेव वदिष्यतः / तस्माजन्म च भूतानां भवश्व प्रतिपद्यते // 31 कृपश्च संजयश्चैव शममेव वदिष्यतः // 45 क्षन्तव्यं पुरुषेणेह सर्वास्वापत्सु शोभने / सोमदत्तो युयुत्सुश्च द्रोणपुत्रस्तथैव च / क्षमा भवो हि भूतानां जन्म चैव प्रकीर्तितम् // 32 / पितामहश्च नो व्यासः शमं वदति नित्यशः // 46 आक्रुष्टस्ताडितः क्रुद्धः क्षमते यो बलीयसा। एतैर्हि राजा नियतं चोद्यमानः शमं प्रति / - 426 -
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________________ 3. 30. 47] आरण्यकपर्व [3. 31. 25 राज्यं दातेति मे बुद्धिर्न चेल्लोभान्नशिष्यति // 47 ब्राह्मणाः सर्वकामैस्ते सततं पार्थ तर्पिताः। / कालोऽयं दारुणः प्राप्तो भरतानामभूतये / / यतयो मोक्षिणश्चैव गृहस्थाश्चैव भारत // 11 निश्चितं मे सदैवैतत्पुरस्तादपि भामिनि // 48 आरण्यकेभ्यो लौहानि भाजनानि प्रयच्छसि / सुवोधनो नाहतीति क्षमामेवं न विन्दति / नादेयं ब्राह्मणेभ्यस्ते गृहे किंचन विद्यते // 12 अर्हस्तस्याहमित्येव तस्मान्मां विन्दते क्षमा // 49 यदिदं वैश्वदेवान्ते सायंप्रातः प्रदीयते / एतदात्मवतां वृत्तमेष धर्मः सनातनः / तहत्त्वातिथिभृत्येभ्यो राजशेषेण जीवसि // 13 क्षमा चैवानृशंस्यं च तत्कर्तास्म्यहमञ्जसा // 50 इष्टयः पशुबन्धाश्च काम्यनैमित्तिकाश्च ये। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥ वर्तन्ते पाकयज्ञाश्च यज्ञकर्म च नित्यदा // 14 अस्मिन्नपि महारण्ये विजने दस्युसेविते / द्रौपद्युवाच / राष्ट्रादपेत्य वसतो धर्मस्ते नावसीदति // 15 नमो धात्रे विधात्रे च या मोहं चक्रतुस्तव / अश्वमेधो राजसूयः पुण्डरीकोऽथ गोसवः / पितृपैतामहे वृत्ते वोढव्ये तेऽन्यथा मतिः // 1 एतैरपि महायज्ञैरिष्टं ते भूरिदक्षिणैः // 16 नेह धर्मानृशंस्याभ्यां न क्षान्त्या नार्जवेन च / राजन्परीतया बुद्धया विषमेऽक्षपराजये / पुरुषः श्रियमाप्नोति न घृणित्वेन कर्हि चित् // 2 राज्यं वसून्यायुधानि भ्रातृन्मां चासि निर्जितः // त्वां चेद्वयसनमभ्यागादिदं भारत दुःसहम् / ऋजोर्मदोर्वदान्यस्य ह्रीमतः सत्यवादिनः / यत्त्वं नार्हसि नापीमे भ्रातरस्ते महौजसः॥ 3 / कथमक्षव्यसनजा बुद्धिरापतिता तव // 18 न हि तेऽध्यगमञ्जातु तदानीं नाद्य भारत / अतीव मोहमायाति मनश्च परिदूयते / धर्मात्प्रियतरं किंचिदपि चेज्जीवितादिह // 4 निशाम्य ते दुःखमिदमिमां चापदमीदृशीम् // 19 धर्मार्थमेव ते राज्यं धर्मार्थं जीवितं च ते। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / ब्राह्मणा गुरवश्चैव जानन्त्यपि च देवताः // 5 ईश्वरस्य वशे लोकस्तिष्ठते नात्मनो यथा // 20 भीमसेनार्जुनौ चैव माद्रेयौ च मया सह / . धातैव खलु भूतानां सुखदुःखे प्रियाप्रिये / त्यजेस्त्वमिति मे बुद्धिर्न तु धर्म परित्यजेः॥६ दधाति सर्वमीशानः पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरन् // 21 राजानं धर्मगोप्तारं धर्मो रक्षति रक्षितः / यथा दारुमयी योषा नरवीर समाहिता / इति मे श्रुतमार्याणां त्वां तु मन्ये न रक्षति // 7 ईरयत्यङ्गमङ्गानि तथा राजन्निमाः प्रजाः // 22 अन्यथा हि नरव्याघ्र नित्यदा धर्ममेव ते। आकाश इव भूतानि व्याप्य सर्वाणि भारत / बुद्धिः सततमन्वेति छायेव पुरुषं निजा // 8 ईश्वरो विदधातीह कल्याणं यच्च पापकम् // 23 नावमंस्था हि सदृशान्नावराश्रेयसः कुतः। . शकुनिस्तन्तुबद्धो वा नियतोऽयमनीश्वरः / अवाप्य पृथिवीं कृत्स्नां न ते शृङ्गमवर्धत // 9 ईश्वरस्य वशे तिष्ठन्नान्येषां नात्मनः प्रभुः // 24 स्वाहाकारैः स्वधाभिश्च पूजाभिरपि च द्विजान् / | मणिः सूत्र इव प्रोतो नस्योत इव गोवृषः / दैवतानि पिढेश्चैव सततं पार्थ सेवस // 10 धातुरादेशमन्वेति तन्मयो हि तदर्पणः // 25 -427 -
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________________ 8. 31. 26 ] महाभारते [3. 32. 11 नात्माधीनो मनुष्योऽयं कालं भवति कंचन। कर्म चेत्कृतमन्वेति कर्तारं नान्यमृच्छति। स्रोतसो मध्यमापन्नः कूलाद्वृक्ष इव च्युतः // 26 कर्मणा तेन पापेन लिप्यते नूनमीश्वरः / / 41 अझो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः / अथ कर्म कृतं पापं न चेत्कर्तारमृच्छति / ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग नरकमेव च // 27 कारणं बलमेवेह जनाञ्शोचामि दुर्बलान् // 42 यथा वायोस्तृणापाणि वशं यान्ति बलीयसः। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि धातुरेवं वशं यान्ति सर्वभूतानि भारत // 28 एकत्रिंशोऽध्यायः // 31 // . आर्यकर्मणि युञ्जानः पापे वा पुनरीश्वरः / . 32 व्याप्य भूतानि चरते न चायमिति लक्ष्यते // 29 युधिष्ठिर उवाच / हेतुमात्रमिदं धातुः शरीरं क्षेत्रसंज्ञितम् / वल्गु चित्रपदं श्लक्ष्णं याज्ञसेनि त्वया वचः। येन कारयते कर्म शुभाशुभफलं विभुः // 30 उक्तं तच्छ्रुतमस्माभिर्नास्तिक्यं तु प्रभाषसे // 1 पश्य मायाप्रभावोऽयमीश्वरेण यथा कृतः। नाहं धर्मफलान्वेषी राजपुत्रि चराम्युत। यो हन्ति भूतैर्भूतानि मोहयित्वात्ममायया // 31 ददामि देयमित्येव यजे यष्टव्यमित्युत // 2 अन्यथा परिदृष्टानि मुनिभिर्वेददर्शिमिः / अस्तु वात्र फलं मा वा कर्तव्यं पुरुषेण यत् / अन्यथा परिवर्तन्ते वेगा इव नभस्वतः॥३२ गृहानावसता कृष्णे यथाशक्ति करोमि तत् // 3 अन्यथैव हि मन्यन्ते पुरुषास्तानि तानि च। धर्म चरामि सुश्रोणि न धर्मफलकारणात् / अन्यथैव प्रभुस्तानि करोति विकरोति च // 33 आगमाननतिक्रम्य सतां वृत्तमवेक्ष्य च। यथा काष्ठेन वा काष्ठमश्मानं चाश्मना पुनः / धर्म एव मनः कृष्णे स्वभावाश्चैव मे धृतम् // 4 अयसा चाप्ययश्छिन्द्यानिर्विचेष्टमचेतनम् // 34 न धर्मफलमाप्नोति यो धर्म दोग्धुमिच्छति। एवं स भगवान्देवः स्वयंभूः प्रपितामहः / यश्चैनं शङ्कते कृत्वा नास्तिक्यात्पापचेतनः // 5 . हिनस्ति भूतैर्भूतानि छद्म कृत्वा युधिष्ठिर // 35 अतिवादान्मदाश्चैव मा धर्ममतिशङ्किथाः। संप्रयोज्य वियोज्यायं कामकारकरः प्रभुः / धर्मातिशङ्की पुरुषस्तिर्यग्गतिपरायणः // 6 क्रीडते भगवान्भूतैर्बालः क्रीडनकैरिव // 36 . धर्मो यस्यातिशङ्कयः स्यादाएं वा दुर्बलात्मनः / न मातृपितृवद्राजन्धाता भूतेषु वर्तते / वेदाच्छूद्र इवापेयात्स लोकादजरामरात् // 7 रोषादिव प्रवृत्तोऽयं यथायमितरो जनः // 37 वेदाध्यायी धर्मपरः कुले जातो यशस्विनि / आर्याशीलवतो दृष्ट्वा ह्रीमतो वृत्तिकर्शितान् / स्थविरेषु स योक्तव्यो राजभिर्धर्मचारिभिः // 8 अनार्यान्सुखिनश्चैव विह्वलामीव चिन्तया // 38 पापीयान्हि स शद्रेभ्यस्तस्करेभ्यो विशेषतः। : तवेमामापदं दृष्ट्वा समृद्धिं च सुयोधने। शास्त्रातिगो मन्दबुद्धिर्यो धर्ममतिशङ्कते // 9 धातारं गर्हये पार्थ विषमं योऽनुपश्यति // 39 प्रत्यक्षं हि त्वया दृष्ट ऋषिर्गच्छन्महातपाः / आर्यशास्त्रातिगे करे लुब्धे धर्मापचायिनि / मार्कण्डयोऽप्रमेयात्मा धर्मेण चिरजीविताम् // 10 धार्तराष्ट्र श्रियं दत्त्वा धाता किं फलमभुते // 40 // व्यासो वसिष्ठो मैत्रेयो नारदो लोमशः शुकः / - 428 -
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________________ 8. 32. 11] आरण्यकपर्व [3. 32. 40 अन्ये च ऋषयः सिद्धा धर्मेणैव सुचेतसः॥ 11 नाचरिष्यन्परे धर्म परे परतरे च ये। . प्रत्यक्षं पश्यसि ह्येतान्दिव्ययोगसमन्वितान् / विप्रलम्भोऽयमत्यन्तं यदि स्युरफलाः क्रियाः॥२६ शापानुग्रहणे शक्तान्देवैरपि गरीयसः // 12 ऋषयश्चैव देवाश्च गन्धर्वासुरराक्षसाः। एते हि धर्ममेवादौ वर्णयन्ति सदा मम / ईश्वराः कस्य हेतोस्ते चरेयुर्धर्ममादृताः॥२७ कर्तव्यममरप्रख्याः प्रत्यक्षागमबुद्धयः // 13 फलदं त्विह विज्ञाय धातारं श्रेयसि ध्रुवे / अतो नाहसि कल्याणि धातारं धर्ममेव च / धर्म ते ह्याचरन्कृष्णे तद्धि धर्म सनातनम् // 28 रजोमूढेन मनसा क्षेप्तुं शङ्कितुमेव च // 14 स चायं सफलो धर्मो न धर्मोऽफल उच्यते।। धर्मातिशङ्की नान्यस्मिन्प्रमाणमधिगच्छति / दृश्यन्तेऽपि हि विद्यानां फलानि तपसां तथा // 29 आत्मप्रमाण उन्नद्धः श्रेयसो ह्यवमन्यकः // 15 त्वय्येतद्वै विजानीहि जन्म कृष्णे यथा श्रुतम् / : इन्द्रियप्रीतिसंबद्धं यदिदं लोकसाक्षिकम्। वेत्थ चापि यथा जातो धृष्टद्युम्नः प्रतापवान् // 30 एतावान्मन्यते बालो मोहमन्यत्र गच्छति // 16 एतावदेव पर्याप्तमुपमानं शुचिस्मिते / प्रायश्चित्तं न तस्यास्ति यो धर्ममतिशङ्कते। कर्मणां फलमस्तीति धीरोऽल्पेनापि तुष्यति // 31 ध्यायन्स कृपणः पापो न लोकान्प्रतिपद्यते // 17 / बहुनापि ह्यविद्वांसो नैव तुष्यन्त्यबुद्धयः। प्रमाणान्यतिवृत्तो हि वेदशास्त्रार्थनिन्दकः। तेषां न धर्मजं किंचित्प्रेत्य शर्मास्ति कर्म वा // 32 कामलोभानुगो मूढो नरकं प्रतिपद्यते // 18 कर्मणामुत पुण्यानां पापानां च फलोदयः / यस्तु नित्यं कृतमतिर्धर्ममेवाभिपद्यते / प्रभवश्वाप्ययश्चैव देवगुह्यानि भामिनि // 33 : अशङ्कमानः कल्याणि सोऽमुत्रानन्त्यमश्नुते॥१९ नैतानि वेद यः कश्चिन्मुह्यन्त्यत्र प्रजा इमाः। : आर्ष प्रमाणमुत्क्रम्य धर्मानपरिपालयन् / रक्ष्याण्येतानि देवानां गूढमाया हि देवताः॥ 34 सर्वशास्त्रातिगो मूढः शं जन्मसु न विन्दति // 20 कृशाङ्गाः सुव्रताश्चैव तपसा दग्धकिल्बिषाः। ‘शिष्टैराचरितं धर्म कृष्णे मा स्मातिशङ्किथाः / प्रसन्नैर्मानसैर्युक्ताः पश्यन्त्येतानि वै द्विजाः // 35 पुराणमृषिभिः प्रोक्तं सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः // 21 न फलादर्शनाद्धर्मः शङ्कितव्यो न देवताः। धर्म एव प्लवो नान्यः स्वर्ग द्रौपदि गच्छताम् / यष्टव्यं चाप्रमत्तेन दातव्यं चानसूयता // 36 सैव नौः सागरस्येव वणिजः पारमृच्छतः // 22 कर्मणां फलमस्तीति तथैतद्धर्म शाश्वतम् / अफलो यदि धर्मः स्याच्चरितो धर्मचारिभिः / ब्रह्मा प्रोवाच पुत्राणां यदृषिर्वेद कश्यपः // 37. अप्रतिष्ठे तमस्येतज्जगन्मजेदनिन्दिते // 23 / तस्मात्ते संशयः कृष्णे नीहार इव नश्यतु / निर्वाणं नाधिगच्छेयुर्जीवेयुः पशुजीविकाम् / व्यवस्य सर्वमस्तीति नास्तिक्यं भावमुत्सृज // 38 विघातेनैव युज्येयुर्न चार्थ किंचिदाप्नुयुः // 24 ईश्वरं चापि भूतानां धातारं मा विचिक्षिपः / तपश्च ब्रह्मचर्यं च यज्ञः स्वाध्याय एव च। शिक्षस्वैनं नमस्वैनं मा ते भूद्बुद्धिरीदृशी // 39 . दानमार्जवमेतानि यदि स्युरफलानि वै // 25 यस्य प्रसादात्तद्भक्तो मर्यो गच्छत्यमर्त्यताम् / . -429 -
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________________ 3. 32. 40] महाभारते [3.38. 27 33 उत्तमं दैवतं कृष्णे मातिवोचः कथंचन // 40 तथैव हठबुद्धिर्यः शक्तः कर्मण्यकर्मकृत् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि आसीत न चिरं जीवेदनाथ इव दुर्बलः // 13 द्वात्रिंशोऽध्यायः॥ 32 // अकस्मादपि यः कश्चिदर्थं प्राप्नोति पूरुषः / तं हठेनेति मन्यन्ते स हि यत्नो न कस्यचित् // 14 द्रौपधुवाच / यच्चापि किंचित्पुरुषो दिष्टं नाम लभत्युत / नावमन्ये न गर्दै च धर्मं पार्थ कथंचन / दैवेन विधिना पार्थ तदैवमिति निश्चितम् // 15 ईश्वरं कुत एवाहमवमस्ये प्रजापतिम् // 1 यत्स्वयं कर्मणा किंचित्फलमाप्नोति पूरुषः। आर्ताहं प्रलपामीदमिति मां विद्धि भारत / प्रत्यक्षं चक्षुषा दृष्टं तत्पौरुषमिति स्मृतम् // 16 भूयश्च विलपिष्यामि सुमनास्तन्निबोध मे // 2 स्वभावतः प्रवृत्तोऽन्यः प्राप्नोत्यर्थानकारणात् / कर्म खल्विह कर्तव्यं जातेनामित्रकर्शन / तत्स्वभावात्मकं विद्धि फलं पुरुषसत्तम // 17 अकर्माणो हि जीवन्ति स्थावरा नेतरे जनाः // 3 एवं हठाच दैवाञ्च स्वभावात्कर्मणस्तथा। आ मातृस्तनपानाच्च यावच्छय्योपसर्पणम्। . यानि प्राप्नोति पुरुषस्तत्फलं पूर्वकर्मणः // 18 जङ्गमाः कर्मणा वृत्तिमाप्नुवन्ति युधिष्ठिर // 4 धातापि हि स्वकर्मैव तैस्तैहेतुभिरीश्वरः / जङ्गमेषु विशेषेण मनुष्या भरतर्षभ। - विदधाति विभज्येह फलं पूर्वकृतं नृणाम् // 19 इच्छन्ति कर्मणा वृत्तिमवाप्तुं प्रेत्य चेह च // 5 यद्धययं पुरुषः किंचित्कुरुते वै शुभाशुभम् / . उत्थानमभिजानन्ति सर्वभूतानि भारत / तद्धातृविहितं विद्धि पूर्वकर्मफलोदयम् / / 20 प्रत्यक्षं फलमश्नन्ति कर्मणां लोकसाक्षिकम् // 6. कारणं तस्य देहोऽयं धातुः कर्मणि कर्मणि / पश्यामि स्वं समुत्थानमुपजीवन्ति जन्तवः / स यथा प्रेरयत्येनं तथायं कुरुतेऽवशः // 21. अपि धाता विधाता च यथायमुदके बकः // 7 तेषु तेषु हि कृत्येषु विनियोक्ता महेश्वरः। स्वकर्म कुरु मा ग्लासीः कर्मणा भव दंशितः। सर्वभूतानि कौन्तेय कारयत्यवशान्यपि / / 22 कृत्यं हि योऽभिजानाति सहस्र नास्ति सोऽस्ति वा॥ मनसार्थान्विनिश्चित्य पश्चात्प्राप्नोति कर्मणा / तस्य चापि भवेत्कार्य विवृद्धौ रक्षणे तथा / बुद्धिपूर्वं स्वयं धीरः पुरुषस्तत्र कारणम् // 23 भक्ष्यमाणो ह्यनावापः क्षीयते हिमवानपि // 9 संख्यातुं नैव शक्यानि कर्माणि पुरुषर्षभ / उत्सीदेरन्प्रजाः सर्वा न कुर्युः कर्म चेद्यदि / अगारनगराणां हि सिद्धिः पुरुषहैतुकी // 24 अपि चाप्यफलं कर्म पश्यामः कुर्वतो जनान् / तिले तैलं गवि क्षीरं काष्ठे पावकमन्ततः। नान्यथा ह्यभिजानन्ति वृत्तिं लोके कथंचन / / 10 धिया धीरो विजानीयादुपायं चास्य सिद्धये // 25 यश्च दिष्टपरो लोके यश्चायं हठवादकः / ततः प्रवर्तते पश्चात्कारणेष्वस्य सिद्धये / उभावपसदावेतौ कर्मबुद्धिः प्रशस्यते // 11 / तां सिद्धिमुपजीवन्ति कर्मणामिह जन्तवः / / 26 यो हि दिष्टमुपासीनो निर्विचेष्टः सुखं स्वपेत् / / कुशलेन कृतं कर्म क; साधु विनिश्चितम् / अवसीदेसुदुर्बुद्धिरामो घट इवाम्भसि // 12 / इदं त्वकुशलेनेति विशेषादुपलभ्यते॥ 27 - 430 -
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________________ 3. 33. 28 ] आरण्यकपर्व [3. 33. 55 इष्टापूर्तफलं न स्यान्न शिष्यो न गुरुर्भवेत् / अथ वा सिद्धिरेव स्यान्महिमा तु तथैव ते। पुरुषः कर्मसाध्येषु स्याञ्चेदयमकारणम् // 28 वृकोदरस्य बीभत्सोर्धात्रोश्च यमयोरपि // 42 कर्तृत्वादेव पुरुषः कर्मसिद्धौ प्रशस्यते / अन्येषां कर्म सफलमस्माकमपि वा पुनः / असिद्धौ निन्द्यते चापि कर्मनाशः कथं त्विह॥२९ विप्रकर्षण बुध्येत कृतकर्मा यथा फलम् // 43 सर्वमेव हठेनैके दिष्टेनैके वदन्त्युत / पृथिवीं लाङ्गलेनैव भित्त्वा बीजं वपत्युत / पुरुषप्रयत्न केचित्रैधमेतन्निरुच्यते // 30 आस्तेऽथ कर्षकस्तूष्णीं पर्जन्यस्तत्र कारणम् // 44 न चैवैतावता कार्य मन्यन्त इति चापरे। वृष्टिश्चेन्नानुगृह्णीयादनेनास्तत्र कर्षकः / अस्ति सर्वमदृश्यं तु दिष्टं चैव तथा हठः। यदन्यः पुरुषः कुर्यात्कृतं तत्सकलं मया // 45 दृश्यते हि हठाच्चैव दिष्टाच्चार्थस्य संततिः // 31 तच्चेदफलमस्माकं नापराधोऽस्ति नः कचित् / किंचिदैवाद्धठात्किंचित्किंचिदेव स्वकर्मतः। इति धीरोऽन्ववेक्ष्यैव नात्मानं तत्र गर्हयेत् // 46 पुरुषः फलमाप्नोति चतुर्थ नात्र कारणम् / कुर्वतो नार्थसिद्धिर्मे भवतीति ह भारत / कुशलाः प्रतिजानन्ति ये तत्त्वविदुषो जनाः // 32 निर्वेदो नात्र गन्तव्यो द्वावेतौ ह्यस्य कर्मणः / तथैव धाता भूतानामिष्टानिष्टफलप्रदः। सिद्धिर्वाप्यथ वासिद्धिरप्रवृत्तिरतोऽन्यथा // 47 यदि न स्यान्न भूतानां कृपणो नाम कश्चन // 33 बहूनां समवाये हि भावानां कर्म सिध्यति / यं यमर्थमभिप्रेप्सुः कुरुते कर्म पूरुषः / गुणाभावे फलं न्यूनं भवत्यफलमेव वा। तत्तत्सफलमेव स्याद्यदि न स्यात्पुराकृतम् // 34 अनारम्भे तु न फलं न गुणो दृश्यतेऽच्युत // 48 त्रिद्वारामर्थसिद्धिं तु नानुपश्यन्ति ये नराः। देशकालावुपायांश्च मङ्गलं स्वस्ति वृद्धये / तथैवानर्थसिद्धिं च यथा लोकास्तथैव ते // 35 युनक्ति मेधया धीरो यथाशक्ति यथाबलम् // 49 कर्तव्यं त्वेव कर्मेति मनोरेष विनिश्चयः। अप्रमत्तेन तत्कार्यमुपदेष्टा पराक्रमः। एकान्तेन ह्यनीहोऽयं पराभवति पूरुषः // 36 भूयिष्ठं कर्मयोगेषु सर्व एव पराक्रमः // 50 कुर्वतो हि भवत्येव प्रायेणेह युधिष्ठिर। यं तु धीरोऽन्ववेक्षेत श्रेयांसं बहुभिर्गुणैः / एकान्तफलसिद्धिं तु न विन्दत्यलसः कचित् // 37 / साम्नवार्थ ततो लिप्सत्कर्म चास्मै प्रयोजयेत् // 51 असंभवे त्वस्य हेतुः प्रायश्चित्तं तु लक्ष्यते।। व्यसनं वास्य काङ्केत विनाशं वा युधिष्ठिर। कृते कर्मणि राजेन्द्र तथानृण्यमवाप्यते // 38 अपि सिन्धोगिरेर्वापि किं पुनर्मर्त्यधर्मिणः // 52 अलक्ष्मीराविशत्येनं शयानमलसं नरम् / उत्थानयुक्तः सततं परेषामन्तरेषणे। निःसंशयं फलं लब्ध्वा दक्षो भूतिमुपाश्नुते // 39 / आनृण्यमाप्नोति नरः परस्यात्मन एव च // 53 अनर्थं संशयावस्थं वृण्वते मुक्तसंशयाः। न चैवात्मावमन्तव्यः पुरुषेण कदाचन। धीरा नराः कर्मरता न तु निःसंशयं कचित् / / 40 / न ह्यात्मपरिभूतस्य भूतिर्भवति भारत // 54 एकान्तेन ह्यनर्थोऽयं वर्ततेऽस्मासु सांप्रतम् / एवंसंस्थितिका सिद्धिरियं लोकस्य भारत। न तु निःसंशयं न स्यात्त्वयि कर्मण्यवस्थिते // 41 / चित्रा सिद्धिगतिः प्रोक्ता कालावस्थाविभागतः॥ - 431 -
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________________ 3. 38. 56] .. महाभारते - [3. 34.28 ब्राह्मणं मे पिता पूर्व वासयामास पण्डितम् / अथैनामन्ववेक्षस्व मृगचर्यामिवात्मनः / सोऽस्मा अर्थमिमं प्राह पित्रे मे भरतर्षभ // 56 अवीराचरितां राजन्न बलस्थैर्निषेविताम् // 11 नीतिं बृहस्पतिप्रोक्ता भ्रातृन्मेऽग्राहयत्पुरा / यां न कृष्णो न बीभत्सु भिमन्युन सृञ्जयः / तेषां सांकथ्यमश्रौषमहमेतत्तदा गृहे // 57 न चाहमभिनन्दामि न च माद्रीसुतावुभौ // 12 स मां राजन्कर्मवतीमागतामाह सान्त्वयन् / भवान्धर्मो धर्म इति सततं व्रतकर्शितः। शुश्रूषमाणामासीनां पितुरङ्के युधिष्ठिर // 58 कञ्चिद्राजन्न निर्वेदादापन्नः क्लीबजीविकाम् // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दुर्मनुष्या हि निर्वेदमफलं सर्वघातिनम्। .. त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः // 33 // अशक्ताः श्रियमाहर्तुमात्मनः कुर्वते प्रियम् // 14 स भवान्दृष्टिमाशक्तः पश्यन्नात्मनि पौरुषम् / वैशंपायन उवाच / आनृशंस्यपरो राजन्नानर्थमवबुध्यसे // 15 ... याज्ञसेन्या वचः श्रुत्वा भीमसेनोऽत्यमर्षणः / अस्मानमी धार्तराष्ट्राः क्षममाणानलं सतः। निःश्वसन्नुपसंगम्य क्रुद्धो राजानमब्रवीत् // 1 अशक्तानेव मन्यन्ते तद्दःखं नाहवे वधः॥१६ राज्यस्य पदवी धां व्रज सत्पुरुषोचिताम् / तत्र चेयुध्यमानानामजिह्ममनिवर्तिनाम् / धर्मकामार्थहीनानां किं नो वस्तुं तपोवने // 2 सर्वशो हि वधः श्रेयान्प्रेत्य लोकाल्लभेमहि // 15 नैव धर्मेण तद्राज्यं नार्जवेन न चौजसा / अथ वा वयमेवैतान्निहत्य भरतर्षभ। अक्षकूटमधिष्ठाय हृतं दुर्योधनेन नः // 3 आददीमहि गां सर्वां तथापि श्रेय एव नः // 18 गोमायुनेव सिंहानां दुर्बलेन बलीयसाम् / सर्वथा कार्यमेतन्नः स्वधर्ममनुतिष्ठताम्। आमिषं विघसाशेन तद्वद्राज्यं हि नो हृतम् // 4 काङ्कतां विपुलां कीर्ति वैरं प्रतिचिकीर्षताम् // 11 धर्मलेशप्रतिच्छन्नः प्रभवं धर्मकामयोः / आत्मार्थ युध्यमानानां विदिते कृत्यलक्षणे। अर्थमुत्सृज्य किं राजन्दुर्गेषु परितप्यसे / 5 अन्यैरपहृते राज्ये प्रशंसैव न गर्हणा // 20 भवतोऽनुविधानेन राज्यं नः पश्यतां हृतम्। कर्शनार्थो हि यो धर्मो मिंत्राणामात्मनस्तथा। अहार्यमपि शक्रेण गुप्तं गाण्डीवधन्वना // 6 व्यसनं नाम तद्राजन्न स धर्मः कुधर्म तत् // 21 कुणीनामिव बिल्वानि पङ्गुनामिव धेनवः / सर्वथा धर्मनित्यं तु पुरुष धर्मदुर्बलम् / हृतमैश्वर्यमस्माकं जीवतां भवतः कृते॥७ जहतस्तात धर्मार्थों प्रेतं दुःखसुखे यथा॥ 22 भवतः प्रियमित्येवं महद्व्यसनमीदृशम् / यस्य धर्मो हि धर्मार्थं क्लेशभाङ् न स पण्डितः। धर्मकामे प्रतीतस्य प्रतिपन्नाः स्म भारत // 8 न स धर्मस्य वेदार्थ सूर्यस्यान्धः प्रभामिव // 23 कर्शयामः स्वमित्राणि नन्दयामश्च शात्रवान्। यस्य चार्थार्थमेवार्थः स च नार्थस्य कोविदः / आत्मानं भवतः शास्त्रे नियम्य भरतर्षभ // 9 रक्षते भृतकोऽरण्यं यथा स्यात्ताहगेव सः॥ 24 यद्वयं न तदैवैतान्धार्तराष्ट्रान्निहन्महि। अतिवेलं हि योऽर्थार्थी नेतरावनुतिष्ठति / भवतः शास्त्रमादाय तन्नस्तपति दुष्कृतम् // 10 स वध्यः सर्वभूतानां ब्रह्मदेव जुगुप्सितः // 25 -432 -
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________________ 8. 34. 26 ] आरण्यकपर्व [3. 34. 64 सततं यश्च कामार्थी नेतरावनुतिष्ठति / कामं पूर्व धनं मध्ये जघन्ये धर्ममाचरेत् / मित्राणि तस्य नश्यन्ति धर्मार्थाभ्यां च हीयते // वयस्यनुचरेदेवमेष शास्त्रकृतो विधिः॥४० तस्य धर्मार्थहीनस्य कामान्ते निधनं ध्रुवम् / / धर्म चार्थं च कामं च यथावद्वदतां वर। कामतो रममाणस्य मीनस्येवाम्भसः क्षये // 27 विभज्य काले कालज्ञः सर्वान्सेवेत पण्डितः // तस्माद्धर्मार्थयोर्नित्यं न प्रमाद्यन्ति पण्डिताः / मोक्षो वा परमं श्रेय एष राजन्सुखार्थिताम्। . प्रकृतिः सा हि कामस्य पावकस्यारणिर्यथा॥ 28 प्राप्तिर्वा बुद्धिमास्थाय सोपायं कुरुनन्दन // 42 सर्वथा धर्ममूलोऽर्थो धर्मश्चार्थपरिग्रहः / तद्वाशु क्रियतां राजन्प्राप्तिर्वाप्यधिगम्यताम् / इतरेतरयोनी तौ विद्धि मेघोदधी यथा // 29 जीवितं ह्यातुरस्येव दुःखमन्तरवर्तिनः॥ 43 द्रव्यार्थस्पर्शसंयोगे या प्रीतिरुपजायते। . विदितश्चैव ते धर्मः सततं चरितश्च ते। स कामश्चित्तसंकल्पः शरीरं नास्य विद्यते // 30 जानते त्वयि शंसन्ति सुहृदः कर्मचोदनाम् // 44 अर्थार्थी पुरुषो राजन्बृहन्तं धर्ममृच्छति / दानं यज्ञः सतां पूजा वेधारणमार्जवम् / अर्थमृच्छति कामार्थी न कामादन्यमृच्छति // 31 एष धर्मः परो राजन्फलवान्प्रेत्य चेह च // 45 न हि कामेन कामोऽन्यः साध्यते फलमेव तत् / एष नार्तविहीनेन शक्यो राजनिषेवितुम्। उपयोगात्फलस्येव काष्ठाद्भस्मेव पण्डितः // 32 अखिलाः पुरुषव्याघ्र गुणाः स्युर्यद्यपीतरे // 46 इमाशकुनिकान्राजन्हन्ति वैतंसिको यथा। धर्ममूलं जगद्राजन्नान्यद्धर्माद्विशिष्यते। एतद्रूपमधर्मस्य भूतेषु च विहिंसताम् // 33 धर्मश्चार्थेन महता शक्यो राजन्निषेवितुम् // 47 कामाल्लोभाच धर्मस्य प्रवृत्ति यो न पश्यति / न चार्थो भैक्षचर्येण नापि क्लैब्येन कर्दिचित् / स वध्यः सर्वभूतानां प्रेत्य चेह च दुर्मतिः // 34 वेत्तुं शक्यः सदा राजन्केवलं धर्मबुद्धिना // 48 व्यक्तं ते विदितो राजन्नर्थो द्रव्यपरिग्रहः / . प्रतिषिद्धा हि ते याच्या यया सिध्यति वै द्विजः। प्रकृतिं चापि वेत्थास्य विकृतिं चापि भूयसीम् // तेजसैवार्थलिप्सायां यतस्व पुरुषर्षभ // 49 तस्य नाशं विनाशं वा जरया मरणेन वा। .. भैक्षचर्या न विहिता न च विट्शूद्रजीविका / अनर्थमिति मन्यन्ते सोऽयमस्मासु वर्तते / / 36 : | क्षत्रियस्य विशेषेण धर्मस्तु बलमौरसम् // 50 इन्द्रियाणां च पश्चानां मनसो हृदयस्य च / उदारमेव विद्वांसो धर्म प्राहुर्मनीषिणः / विषये वर्तमानानां या प्रीतिरुपजायते। उदारं प्रतिपद्यस्व नावरे स्थातुमर्हसि // 51 स काम इति मे बुद्धिः कर्मणां फलमुत्तमम् // 37 अनुबुध्यस्व राजेन्द्र वेत्थ धर्मान्सनातनान् / एवमेव पृथग्दृष्ट्वा धर्मार्थो काममेव च / क्रूरकर्माभिजातोऽसि यस्मादुद्विजते जनः // 52 न धर्मपर एव स्यान्न चार्थपरमो नरः। प्रजापालनसंभूतं फलं तव न गर्हितम्। न कामपरमो वा स्यात्सर्वान्सेवेत सर्वदा // 38 / एष ते विहितो राजन्धात्रा धर्मः सनातनः // 53 धर्म पूर्व धनं मध्ये जघन्ये काममाचरेत् / तस्माद्विचलितः पार्थ लोके हास्यं गमिष्यसि / अहन्यनुचरेदेवमेष शास्त्रकृतो विधिः // 39 . स्वधर्माद्धि मनुष्याणां चलनं न प्रशस्यते // 54 म.भा. 55 -433
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________________ 3. 34. 55] महामारते [3. 34. * स क्षात्रं हृदयं कृत्वा त्यक्त्वेदं शिथिलं मनः / एतद्ध्यपि तपो राजन्पुराणमिति नः श्रुतम् / वीर्यमास्थाय कौन्तेय धुरमुबह धुर्यवत् // 55 विधिना पालनं भूमेयत्कृतं नः पितामहैः // 70 न हि केवलधर्मात्मा पृथिवीं जातु कश्चन / अपेयात्किल भाः सूर्यालक्ष्मीश्चन्द्रमसस्तथा। पार्थिवो व्यजयद्राजन्न भूतिं न पुनः श्रियम् // 56 इति लोको व्यवसितो दृष्ट्वेमां भवतो व्यथाम् // 71 जिह्वां दत्त्वा बहूनां हि क्षुद्राणां लुब्धचेतसाम् / भवतश्च प्रशंसाभिर्निन्दाभिरितरस्य च। निकृत्या लभते राज्यमाहारमिव शल्यकः॥ 57 कथायुक्ताः परिषदः पृथग्राजन्समागताः // 72 भ्रातरः पूर्वजाताश्च सुसमृद्धाश्च सर्वशः। इदमभ्यधिकं राजन्ब्राह्मणा गुरवश्च ते। निकृत्या निर्जिता देवैरसुराः पाण्डवर्षभ // 58 समेताः कथयन्तीह मुदिताः सत्यसंधताम् // 73 एवं बलवतः सर्वमिति बुद्धा महीपते / यन्न मोहान्न कार्पण्यान्न लोभान्न भयादपि। जहि शत्रून्महाबाहो परां निकृतिमास्थितः // 59 अनृतं किंचिदुक्तं ते न कामानार्थकारणात् // 74 न ह्यर्जुनसमः कश्चिद्युधि योद्धा धनुर्धरः। यदेनः कुरुते किंचिद्राजा भूमिमवाप्नुवन् / भविता वा पुमान्कश्चिन्मत्समो वा गदाधरः॥ 60 सर्व तन्नुदते पश्चाद्यज्ञैर्विपुलदक्षिणैः // 75 सत्त्वेन कुरुते युद्धं राजन्सुबलवानपि / ब्राह्मणेभ्यो ददवामान्गाश्च राजन्सहस्रशः / . न प्रमाणेन नोत्साहात्सत्त्वस्थो भव पाण्डव // 61 मुच्यते सर्वपापेभ्यस्तमोभ्य इव चन्द्रमाः॥७६ . सत्त्वं हि मूलमर्थस्य वितथं यदतोऽन्यथा। पौरजानपदाः सर्वे प्रायशः कुरुनन्दन / न तु प्रसक्तं भवति वृक्षच्छायेव हैमनी // 62 सवृद्धबालाः सहिताः शंसन्ति त्वां युधिष्ठिर // 77 अर्थत्यागो हि कार्यः स्यादर्थं श्रेयांसमिच्छता। श्वदृती क्षीरमासक्तं ब्रह्म वा वृषले यथा / बीजौपम्येन कौन्तेय मा ते भूदत्र संशयः // 63. सत्यं स्तेने बलं नाणं राज्यं दुर्योधने तथा // 78 . अर्थेन तु समोऽनर्थों यत्र लभ्येत नोदयः।। इति निर्वचनं लोके चिरं चरति भारत / न तत्र विपणः कार्यः खरकण्डूयितं हि तत् // 64 अपि चैतत्त्रियो बालाः स्वाध्यायमिव कुर्वते // 79 एवमेव मनुष्येन्द्र धर्मं त्यक्त्वाल्पकं नरः। स भवान्रथमास्थाय सर्वोपकरणान्वितम् / बृहन्तं धर्ममाप्नोति स बुद्ध इति निश्चितः // 65 त्वरमाणोऽभिनिर्यातु चिरमर्थोपपादकम् // 80 अमित्रं मित्रसंपन्नं मित्रमिन्दन्ति पण्डिताः / वाचयित्या द्विजश्रेष्ठानद्यैव गजसाह्वयम् / भिन्नमित्रैः परित्यक्तं दुर्बलं कुरुते वशे // 66 अस्त्रविद्भिः परिवृतो भ्रातृभिदृढधन्विमिः / सत्त्वेन कुरुते युद्धं राजन्सुबलवानपि / आशीविषसमैर्वीरैमरुद्भिरिव वृत्रहा // 81 नोद्यमेन न होत्राभिः सर्वाः स्वीकुरुते प्रजाः॥६७ / अमित्रांस्तेजसा मृद्गन्नसुरेभ्य इवारिहा। सर्वथा संहतैरेव दुर्बलैबलवानपि। श्रियमादत्स्व कौन्तेय धार्तराष्ट्रान्महाबल // 82 अमित्रः शक्यते हन्तुं मधुहा भ्रमरैरिव // 68 न हि गाण्डीवमुक्तानां शराणां गावाससाम् / यथा राजन्प्रजाः सर्वाः सूर्यः पाति गभस्तिभिः। स्पर्शमाशीविषाभानां मर्त्यः कश्चन संसहेत् // 83 अत्ति चैव तथैव त्वं सवितुः सदृशो भव // 69 / न स वीरो न मातङ्गो न सदश्वोऽस्ति भारत / -434 -
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________________ 3. 34. 84] आरण्यकपर्व * [3. 35. 14 यः सहेत गदावेगं मम क्रुद्धस्य संयुगे॥ 84 यत्राभवच्छरणं द्रौपदी नः // 6 सञ्जयैः सह कैकेयैवृष्णीनामृषभेण च / त्वं चापि तद्वेत्थ धनंजयश्च कथं स्विद्युधि कौन्तेय राज्यं न प्राप्नुयामहे // 85 पुन तायागतानां सभां नः।। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि यन्माब्रवीद्धृतराष्ट्रस्य पुत्र चतुस्त्रिंशोऽध्यायः // 34 // ____ एकग्लहाथं भरतानां समक्षम् // 7 वने समा द्वादश राजपुत्र युधिष्ठिर उवाच / ___ यथाकामं विदितमजातशत्रो। असंशयं भारत सत्यमेत अथापरं चाविदितं चरेथाः द्यन्मा तुदन्वाक्यशल्यैः क्षिणोषि / सर्वैः सह भ्रातृभिश्छद्मगूढः // 8 न त्वा विगहे प्रतिकूलमेत त्वां चेच्छ्रुत्वा तात तथा चरन्त___न्ममानयाद्धि व्यसनं व आगात् // 1 ___ मवभोत्स्यन्ते भारतानां चराः स्म / अहं ह्यक्षानन्वपद्यं जिहीर्ष अन्यांश्चरेथास्तावतोऽब्दांस्ततस्त्वं . राज्यं सराष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पुत्रात् / निश्चित्य तत्प्रतिजानीहि पार्थ // 9 - तन्मा शठः कितवः प्रत्यदेवी चरैश्चेन्नोऽविदितः कालमेतं . सुयोधनार्थ सुबलस्य पुत्रः // 2 युक्तो राजन्मोहयित्वा मदीयान् / महामायः शकुनिः पार्वतीयः / ब्रवीमि सत्यं कुरुसंसदीह .. सदा सभायां प्रवपन्नक्षपूगान् / * तवैव ता भारत पश्च नद्यः॥ 10 अमायिनं मायया प्रत्यदेवी वयं चैवं भ्रातरः सर्व एव - त्ततोऽपश्यं वृजिनं भीमसेन // 3 त्वया जिताः कालमपास्य भोगान् / अक्षान्हि दृष्ट्वा शकुनेर्यथाव वसेम इत्याह पुरा स राजा - कामानुलोमानयुजो युजश्च / मध्ये कुरूणां स मयोक्तस्तथेति // 11 शक्यं नियन्तुमभविष्यदात्मा तत्र द्यूतमभवन्नो जघन्यं ___ मन्युस्तु हन्ति पुरुषस्य धैर्यम् // 4 तस्मिञ्जिताः प्रव्रजिताश्च सर्वे / यन्तुं नात्मा शक्यते पौरुषेण इत्थं च देशाननुसंचरामो ___ मानेन वीर्येण च तात नद्धः। वनानि कृच्छ्राणि च कृच्छ्ररूपाः // 12 न ते वाचं भीमसेनाभ्यसूये सुयोधनश्चापि न शान्तिमिच्छ__ मन्ये तथा तद्भवितव्यमासीत् // 5 न्भूयः स मन्योर्वशमन्वगच्छत् / स नो राजा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो उद्योजयामास कुरूंश्च सर्वान्यपातयद्व्यसने राज्यमिच्छन् / न्ये चास्य केचिद्वशमन्वगच्छन् // 13 * दास्यं च नोऽगमयद्भीमसेन तं संधिमास्थाय सतां सकाशे -435
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________________ 3. 35. 14 ] महाभारते [3. 38. 13 को नाम जह्यादिह राज्यहेतोः / सर्व न सत्यस्य कलामुपैति // 21 ---- आर्यस्य मन्ये मरणादरीयो इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि यद्धर्ममुत्क्रम्य महीं प्रशिष्यात् // 14. पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥ 35 // तदैव चेद्वीरकर्माकरिष्यो यदा द्यूते परिघं पर्यमृक्षः। __भीमसेन उवाच / बाहू दिधक्षन्वारितः फल्गुनेन संधिं कृत्वैव कालेन अन्तकेन पतत्रिणा। . किं दुष्कृतं भीम तदाभविष्यत् // 15 अनन्तेनाप्रमेयेन स्रोतसा सर्वहारिणा // 1 प्रागेव चैवं समयक्रियायाः प्रत्यक्षं मन्यसे कालं मर्त्यः सन्कालबन्धनः / किं नाब्रवीः पौरुषमाविदानः / फेनधर्मा महाराज फलधर्मा तथैव च // 2 प्राप्तं तु कालं त्वभिपद्य पश्चा निमेषादपि कौन्तेय यस्यायुरपचीयते। किं मामिदानीमतिवेलमात्थ // 16 सूच्येवाञ्जनचूर्णस्य किमिति प्रतिपालयेत् // 3 भूयोऽपि दुःखं मम भीमसेन यो नूनममितायुः स्यादथ वापि प्रमाणवित् / दूये विषस्येव रसं विदित्वा / स कालं वै प्रतीक्षेत सर्वप्रत्यक्षदर्शिवान् // 4 यद्याज्ञसेनी परिकृष्यमाणां प्रतीक्षमाणान्कालो नः समा राजंस्त्रयोदश।.. संदृश्य तत्क्षान्तमिति स्म भीम // 17 आयुषोऽपचयं कृत्वा मरणायोपनेष्यति // 5 . न त्वद्य शक्यं भरतप्रवीर शरीरिणां हि मरणं शरीरे नित्यमाश्रितम् / कृत्वा यदुक्तं कुरुवीरमध्ये। प्रागेव मरणात्तस्माद्राज्यायैव, घटामहे // 6 कालं प्रतीक्षस्व सुखोदयस्य यो न याति प्रसंख्यानमस्पष्टो भूमिवर्धनः / पक्तिं फलानामिव बीजवापः // 18 अयातयित्वा वैराणि सोऽवसीदति गौरिव // 7 यदा हि पूर्व निकृतो निकृत्या यो न यातयते वैरमल्पसत्त्वोद्यमः पुमान् / वैरं सपुष्पं सफलं विदित्वा / अफलं तस्य जन्माहं मन्ये दुर्जातजायिनः॥ 8 महागुणं हरति हि पौरुषेण हैरण्यौ भवतो बाहू श्रुतिर्भवति पार्थिव / तदा वीरो जीवति जीवलोके // 19 हत्वा द्विषन्तं संग्रामे भुक्त्वा बाह्वर्जितं वसु // 9 श्रियं च लोके लभते समयां हत्वा चेत्पुरुषो राजन्निकर्तारमरिंदम।। - मन्ये चास्मै शत्रवः संनमन्ते। अह्नाय नरकं गच्छेत्स्वर्गेणास्य स संमितः // 10 मित्राणि चैनमतिरागाद्भजन्ते अमर्षजो हि संतापः पावकाद्दीप्तिमत्तरः। ' देवा इवेन्द्रमनुजीवन्ति चैनम् // 20 येनाहमभिसंतप्तो न नक्तं न दिवा शये // 11 मम प्रतिज्ञां च निबोध सत्यां अयं च पार्थो बीभत्सुर्वरिष्ठो ज्याविकर्षणे / / वृणे धर्मममृताज्जीविताच्च / आस्ते परमसंतप्तो नूनं सिंह इवाशये // 12 राज्यं च पुत्राश्च यशो धनं च योऽयमेकोऽभिमनुते सर्वाल्लोके धनुर्धतः।-436 -
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________________ 3. 36. 13] आरण्यकपर्व [ 3. 37.7 सोऽयमात्मजमूष्माणं महाहस्तीव यच्छति // 13 / राजानो राजपुत्राश्च धृतराष्ट्रमनुव्रताः // 28 .. नकुलः सहदेवश्च वृद्धा माता च वीरसूः। न हि तेऽप्युपशाम्यन्ति निकृतानां निराकृताः। / तवैव प्रियमिच्छन्त आसते जडमूकवत् // 14 अवश्यं तैर्निकर्तव्यमस्माकं तत्प्रियैषिभिः॥२९ सर्वे ते प्रियमिच्छन्ति बान्धवाः सह सृञ्जयैः / तेऽप्यस्मासु प्रयुञ्जीरन्प्रच्छन्नान्सुबहूञ्जनान् / अहमेकोऽभिसंतप्तो माता च प्रतिविन्ध्यतः // 15 आचक्षीरंश्च नो ज्ञात्वा तन्नः स्यात्सुमहद्भयम् // 30 प्रियमेव तु सर्वेषां यद्भवीम्युत किंचन / अस्माभिरुषिताः सम्यग्वने मासास्त्रयोदश। . . सर्वे हि व्यसनं प्राप्ताः सर्वे युद्धाभिनन्दिनः॥१६ परिमाणेन तान्पश्य तावतः परिवत्सरान् // 31 . नेतः पापीयसी काचिदापद्राजन्भविष्यति / अस्ति मासः प्रतिनिधिर्यथा प्राहुर्मनीषिणः। यन्नो नीचैरल्पबलै राज्यमाच्छिद्य भुज्यते // 17 पूतिकानिव सोमस्य तथेदं क्रियतामिति // 32 शीलदोषाद्धृणाविष्ट आनृशंस्यात्परंतप / अथ वानडुहे राजन्साधवे साधुवाहिने। . क्लेशांस्तितिक्षसे राजन्नान्यः कश्चित्प्रशंसति // 18 सौहित्यदानादेकस्मादेनसः प्रतिमुच्यते // 33 घृणी ब्राह्मणरूपोऽसि कथं क्षत्रे अजायथाः / / तस्माच्छत्रुवधे राजन्क्रियतां निश्चयस्त्वया / अस्यां हि योनौ जायन्ते प्रायशः क्रूरबुद्धयः / / 19 क्षत्रियस्य तु सर्वस्य नान्यो धर्मोऽस्ति संयुगात् // 34 अौषीस्त्वं राजधर्मान्यथा वै मनुरब्रवीत् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि फरान्निकृतिसंयुक्तान्विहितानशमात्मकान् // 20 . षटूत्रिंशोऽध्यायः // 36 // कर्तव्ये पुरुषव्याघ्र किमास्से पीठसर्पवत् / बुद्ध्या वीर्येण संयुक्तः श्रुतेनाभिजनेन च // 21 वैशंपायन उवाच। तृणानां मुष्टिनैकेन हिमवन्तं तु पर्वतम् / भीमसेनवचः श्रुत्वा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। छन्नमिच्छसि कौन्तेय योऽस्मान्संवर्तुमिच्छसि // निःश्वस्य पुरुषव्याघ्रः संप्रदध्यौ परंतपः॥१ .अज्ञातचर्या गूढेन पृथिव्यां विश्रुतेन च। स मुहूर्तमिव ध्यात्वा विनिश्चित्येतिकृत्यताम्। . दिवीव पार्थ सूर्येण न शक्या चरितुं त्वया // 23 भीमसेनमिदं वाक्यमपदान्तरमब्रवीत् // 2 बृहच्छाल इवानूपे शाखापुष्पपलाशवान् / . एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत / हस्ती श्वेत इवाज्ञातः कथं जिष्णुश्चरिष्यति // 24 इदमन्यत्समाधत्स्व वाक्यं मे वाक्यकोविद // . इमौ च सिंहसंकाश भ्रातरौ सहितौ शिशू / महापापानि कर्माणि यानि केवलसाहसात्। . नकुलः सहदेवश्च कथं पार्थ चरिष्यतः // 25 आरभ्यन्ते भीमसेन व्यथन्ते तानि भारत // 4 . पुण्यकीर्ती राजपुत्री द्रौपदी वीरसूरियम् / सुमश्रिते सुविक्रान्ते सुकृते सुविचारिते / विश्रुता कथमज्ञाता कृष्णा पार्थ चरिष्यति // 26 / सिध्यन्त्यर्था महाबाहो दैवं चात्र प्रदक्षिणम् // 5 मां चापि राजञ्जानन्ति आकुमारमिमाः प्रजाः। स्वं तु केवलचापल्यालदर्पोच्छ्रितः स्वयम् / अज्ञातचर्यां पश्यामि मेरोरिव निगृहनम् // 27 / | आरब्धव्यमिदं कर्म मन्यसे शृणु तत्र मे // 6 तथैव बहवोऽस्माभी राष्ट्रेभ्यो विप्रवासिताः। भूरिश्रवाः शलश्चैव जलसंधश्च वीर्यवान् / -437 - 37
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________________ 3. 37.7] महाभारते __ [3. 37. 36 भीष्मो द्रोणश्च कर्णश्च द्रोणपुत्रश्च वीर्यवान् // 7 मनीषया ततः क्षिप्रमागतोऽस्मि नरर्षभ // 22 धार्तराष्ट्रा दुराधर्षा दुर्योधनपुरोगमाः। भीष्माद्रोणास्कृपात्कृर्णाद्रोणपुत्राच्च भारत / सर्व एव कृतास्त्राश्च सततं चाततायिनः // 8 यत्ते भयममित्रघ्न हृदि संपरिवर्तते // 23 राजानः पार्थिवाश्चैव येऽस्माभिरुपतापिताः / तत्तेऽहं नाशयिष्यामि विधिदृष्टेन हेतुना। सैश्रिताः कौरवं पक्षं जातस्नेहाश्च सांप्रतम् // 9 तच्छ्रुत्वा धृतिमास्थाय कर्मणा प्रतिपादय // 24 . दुर्योधनहिते युक्ता न तथास्मासु भारत / तत एकान्तमुन्नीय पाराशर्यो युधिष्ठिरम् / पूर्णकोशा बलोपेताः प्रयतिष्यन्ति रक्षणे // 10 अब्रवीदुपपन्नार्थमिदं वाक्यविशारदः // 25 सर्वे कौरवसैन्यस्य सपुत्रामात्यसैनिकाः / श्रेयसस्ते परः कालः प्राप्तो भरतसत्तम / संविभक्ता हि मात्राभिर्भोगैरपि च सर्वशः॥ 11 येनाभिभविता शत्रूरणे पार्थो धनंजयः // 26 दुर्योधनेन ते वीरा मानिताश्च विशेषतः / गृहाणेमां मया प्रोक्तां सिद्धिं मूर्तिमतीमिव / . प्राणांस्यक्ष्यन्ति संग्रामे इति मे निश्चिता मतिः॥१२ विद्यां प्रतिस्मृतिं नाम प्रपन्नाय ब्रवीमि ते। समा यद्यपि भीष्मस्य वृत्तिरस्मासु तेषु च। यामवाप्य महाबाहुरर्जुनः साधयिष्यति // 27 द्रोणस्य च महाबाहो कृपस्य च महात्मनः // 13 अस्त्रहेतोर्महेन्द्रं च रुद्रं चैवाभिगच्छतु / अवश्यं राजपिण्डस्तैर्निर्वेश्य इति मे मतिः। वरुणं च धनेशं च धर्मराजं च पाण्डव / तस्मात्त्यक्ष्यन्ति संग्रामे प्राणानपि सुदुस्त्यजान्॥१४ शक्तो ह्येष सुरान्द्रष्टुं तपसा विक्रमेण च // 28 सर्वे दिव्यास्त्रविद्वांसः सर्वे धर्मपरायणाः / ऋषिरेष महातेजा नारायणसहायवान् / अजेयाश्चेति मे बुद्धिरपि देवैः सवासवैः // 15 पुराणः शाश्वतो देवो विष्णोरंशः सनातनः // 29 अमर्षी नित्यसंहृष्टस्तत्र कर्णो महारथः। अनाणीन्द्राच्च रुद्राच्च लोकपालेभ्य एव च / सर्वास्त्रविदनाधृष्य अभेद्यकवचावृतः // 16 समादाय महाबाहुर्महत्कर्म करिष्यति // 30 अनिर्जित्य रणे सर्वानेतान्पुरुषसत्तमान् / वनादस्माच्च कौन्तेय वनमन्यद्विचिन्त्यताम्। अशक्यो ह्यसहायेन हन्तुं दुर्योधनस्त्वया // 17 निवासार्थाय यद्युक्तं भवेद्वः पृथिवीपते // 31 न निद्रामधिगच्छामि चिन्तयानो वृकोदर / एकत्र चिरवासो हि न प्रीतिजननो भवेत् / अति सर्वान्धनुर्पाहान्सूतपुत्रस्य लाघवम् // 18 तापसानां च शान्तानां भवेदुद्वेगकारकः / 32 एतद्वचनमाज्ञाय भीमसेनोऽत्यमर्षणः / मृगाणामुपयोगश्च वीरुदोषधिसंक्षयः / बभूव विमनास्त्रस्तो न चैवोवाच किंचन // 19 बिभर्षि हि बहून्विप्रान्वेदवेदाङ्गपारगान / / 33 तयोः संवदतोरेवं तदा पाण्डवयोर्द्वयोः / एवमुक्त्वा प्रपन्नाय शुचये भगवान्प्रभुः। आजगाम महायोगी व्यासः सत्यवतीसुतः // 20 / प्रोवाच योगतत्त्वज्ञो योगविद्यामनुत्तमाम् // 34 सोऽभिगम्य यथान्यायं पाण्डवैः प्रतिपूजितः। / धर्मराज्ञे तदा धीमान्व्यासः सत्यवतीसुतः / युधिष्ठिरमिदं वाक्यमुवाच वदतां वरः // 21 / अनुज्ञाय च कौन्तेयं तत्रैवान्तरधीयत // 35 युधिष्ठिर महाबाहो वेद्मि ते हृदि मानसम्। / युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा तद्ब्रह्म मनसा यतः। -438 -
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________________ 8. 37. 36] आरण्यकपर्व [3. 38: 20 धारयामास मेधावी काले काले समभ्यसन् // 36 / अद्य चेयं मही कृत्स्ना दुर्योधनवशानुगा। स व्यासवाक्यमुदितो वनाद्वैतवनात्ततः / त्वयि व्यपाश्रयोऽस्माकं त्वयि भारः समाहितः / ययौ सरस्वतीतीरे काम्यकं नाम काननम् // 37 तत्र कृत्यं प्रपश्यामि प्राप्तकालमरिंदम // 8 : तमन्वयुर्महाराज शिक्षाक्षरविदस्तथा। कृष्णद्वैपायनात्तात गृहीतोपनिषन्मया। ब्राह्मणास्तपसा युक्ता देवेन्द्रमृषयो यथा // 38 तया प्रयुक्तया सम्यग्जगत्सर्वं प्रकाशते // 9 ततः काम्यकमासाद्य पुनस्ते भरतर्षभाः। तेन त्वं ब्रह्मणा तात संयुक्तः सुसमाहितः / न्यविशन्त महात्मानः सामात्याः सपदानुगाः॥ 39 देवतानां यथाकालं प्रसादं प्रतिपालय // 10 . तत्र ते न्यवसन्राजन्कंचित्कालं मनस्विनः / तपसा योजयात्मानमुद्रण भरतर्षभ / धनुर्वेदपरा वीराः शृण्वाना वेदमुत्तमम् // 40 धनुष्मान्कवची खड्गी मुनिः सारसमन्वितः। - चरन्तो मृगयां नित्यं शुद्धैर्बाणैर्मृगार्थिनः / न कस्यचिद्ददन्मार्ग गच्छ तातोत्तरां दिशम् // 11 पितृदेवतविप्रेभ्यो निर्वपन्तो यथाविधि // 41 इन्द्रे ह्यस्त्राणि दिव्यानि समस्तानि धनंजय / . इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि वृत्राद्भीतैस्तदा देवैर्बलमिन्द्रे समर्पितम्।। , सप्तत्रिंशोऽध्यायः // 37 // तान्येकस्थानि सर्वाणि ततस्त्वं प्रतिपत्स्यसे / / 12 शक्रमेव प्रपद्यस्व स तेऽस्राणि प्रदास्यति / वैशंपायन उवाच / दीक्षितोऽद्यैव गच्छ त्वं द्रष्टुं देवं पुरंदरम् // 13 कस्यचित्त्वथ कालस्य धर्मराजो युधिष्ठिरः।। एवमुक्त्वा धर्मराजस्तमध्यापयत प्रभुः। संस्मृत्य मुनिसंदेशमिदं वचनमब्रवीत् // 1 दीक्षितं विधिना तेन यतवाक्कायमानसम् / विविक्ते विदितप्रज्ञमर्जुनं भरतर्षभम् / अनुजज्ञे ततो वीरं भ्राता भ्रातरमग्रजः॥ 14 सान्त्वपूर्व स्मितं कृत्वा पाणिना परिसंस्पृशन् // 2 निदेशाद्धर्मराजस्य द्रष्टुं देवं पुरंदरम् / स मुहूर्तमिव ध्यात्वा वनवासमरिंदमः / धनुर्गाण्डीवमादाय तथाक्षय्यौ महेषुधी // 15 धनंजयं धर्मराजो रहसीदमुवाच ह॥३ कवची सतलत्राणो बद्धगोधामुलित्रवान् / भीष्मे द्रोणे कृपे कर्णे द्रोणपुत्रे च भारत। हुत्वाग्निं ब्राह्मणान्निष्कैः स्वस्ति वाच्य महाभुजः॥१६ तत्र ते न्यवसन्राजन्कंचित्कालं मनस्विनः / प्रातिष्ठत महाबाहुः प्रगृहीतशरासनः / , धनुर्वेदश्चतुष्पाद एतेष्वद्य प्रतिष्ठितः // 4 वधाय धार्तराष्ट्राणां निःश्वस्योर्ध्वमुदीक्ष्य च // 17 ब्राह्मं देवमासुरं च सप्रयोगचिकित्सितम् / तं दृष्ट्वा तत्र कौन्तेयं प्रगृहीतशरासनम् / ... सर्वास्त्राणां प्रयोगं च तेऽभिजानन्ति कृत्स्नशः // 5 अब्रुवन्ब्राह्मणाः सिद्धा भूतान्यन्तर्हितानि च / ते सर्वे धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण परिसान्त्विताः। क्षिप्रं प्राप्नुहि कौन्तेय मनसा यद्यदिच्छसि // 1.8 संविभक्ताश्च तुष्टाश्च गुरुवत्तेषु वर्तते // 6 तं सिंहमिव गच्छन्तं शालस्कन्धोरुमर्जुनम् / सर्वयोधेषु चैवास्य सदा वृत्तिरनुत्तमा / मनांस्यादाय सर्वेषां कृष्णा वचनमब्रवीत् // 19 शक्तिं न हापयिष्यन्ति ते काले प्रतिपूजिताः // 7 यत्ते कुन्ती महाबाहो जातस्यैच्छद्धनंजय। .. - 439 -
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________________ 8. 38. 20 ] महाभारते [3. 38. 45 तत्तेऽस्तु सर्व कौन्तेय यथा च स्वयमिच्छसि // 20 / नेहास्ति धनुषा कार्य न संग्रामेण कर्हिचित् / मास्माकं क्षत्रियकुले जन्म कश्चिदवाप्नुयात् / / निक्षिपैतद्धनुस्तात प्राप्तोऽसि परमां गतिम् // 34 . ब्राह्मणेभ्यो नमो नित्यं येषां युद्धे न जीविका // 21 इत्यनन्तौजसं वीरं यथा चान्यं पृथग्जनम् / नूनं ते भ्रातरः सर्वे त्वत्कथाभिः प्रजागरे / तथा वाचमथाभीक्ष्णं ब्राह्मणोऽर्जुनमब्रवीत् / रंस्यन्ते वीरकर्माणि कीर्तयन्तः पुनः पुनः // 22 न चैनं चालयामास धैर्यात्सुदृढनिश्चयम् // 35 नैव नः पार्थ भोगेषु न धने नोत जीविते।। तमुवाच ततः प्रीतः स द्विजः प्रहसन्निव। . तुष्टिर्बुद्धिर्भवित्री वा त्वयि दीर्घप्रवासिनि // 23 वरं वृणीष्व भद्रं ते शक्रोऽहमरिसूदन // 36 त्वयि नः पार्थ सर्वेषां सुखदुःखे समाहिते / एवमुक्तः प्रत्युवाच सहस्राक्षं धनंजयः। जीवितं मरणं चैव राज्यमैश्वर्यमेव च / प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा शूरः कुरुकुलोद्वहः // 37 आपृष्टो मेऽसि कौन्तेय स्वस्ति प्राप्नुहि पाण्डव // 24 ईप्सितो ह्येष मे कामो वरं चैनं प्रयच्छ मे। नमो धात्रे विधात्रे च स्वस्ति गच्छ ह्यनामयम् / त्वत्तोऽद्य भगवन्नां कृत्स्नमिच्छामि वेदितुम् // 38 स्वस्ति तेऽस्त्वान्तरिक्षेभ्यः पार्थिवेभ्यश्च भारत / प्रत्युवाच महेन्द्रस्तं प्रीतात्मा प्रहसन्निव / दिव्येभ्यश्चैव भूतेभ्यो ये चान्ये परिपन्थिनः॥२५ इह प्राप्तस्य किं कार्यमस्पैस्तव धनंजय। .. . ततः प्रदक्षिणं कृत्वा भ्रातॄन्धौम्यं च पाण्डवः।। कामान्वृणीष्व लोकांश्च प्राप्तोऽसि परमां गतिम्॥३.९ प्रातिष्ठत महाबाहुः प्रगृह्य रुचिरं धनुः // 26 एवमुक्तः प्रत्युवाच सहस्राक्षं धनंजयः। तस्य मार्गादपाक्रामन्सर्वभूतानि गच्छतः। न लोकान्न पुनः कामान्न देवत्वं कुतः सुखम् // 40 युक्तस्यैन्द्रेण योगेन पराक्रान्तस्य शुष्मिणः // 27 न च सर्वामरैश्वर्यं कामये त्रिदशाधिप। सोऽगच्छत्पर्वतं पुण्यमेकाह्नव महामनाः। भ्रातॄस्तान्विपिने त्यक्त्वा वैरमप्रतियात्य च। मनोजवगतिर्भूत्वा योगयुक्तो यथानिलः // 28 अकीर्ति सर्वलोकेषु गच्छेयं शाश्वतीः समाः॥४१ हिमवन्तमतिक्रम्य गन्धमादनमेव च। अत्यक्रामत्स दुर्गाणि दिवारानमतद्रितः // 29 एवमुक्तः प्रत्युवाच वृत्रहा पाण्डुनन्दनम् / इन्द्रकीलं समासाद्य ततोऽतिष्ठद्धनंजयः / सान्त्वयश्लक्ष्णया वाचा सर्वलोकनमस्कृतः॥४२ अन्तरिक्षे हि शुश्राव तिष्ठेति स वचस्तदा // 30 यदा द्रक्ष्यसि भूतेशं त्र्यक्षं शूलधरं शिवम् / ततोऽपश्यत्सव्यसाची वृक्षमूले तपस्विनम् / / तदा दातास्मि ते तात दिव्यान्यस्त्राणि सर्वशः॥४३ ब्राह्मया श्रिया दीप्यमानं पिङ्गलं जटिलं कृशम् // 31 क्रियतां दर्शने यत्नो देवस्य परमेष्ठिनः / सोऽब्रवीदर्जुनं तत्र स्थितं दृष्ट्वा महातपाः / दर्शनात्तस्य कौन्तेय संसिद्धः स्वर्गमेष्यसि // 44 कस्त्वं तातेह संप्राप्तो धनुष्मान्कवची शरी। इत्युक्त्वा फल्गुनं शक्रो जगमादर्शनं ततः / निबद्धासितलत्राणः क्षत्रधर्ममनुव्रतः // 32 अर्जुनोऽप्यथ तत्रैव तस्थौ योगसमन्वितः॥ 45 नेह शस्त्रेण कर्तव्यं शान्तानामयमालयः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि विनीतक्रोधहर्षाणां ब्राह्मणानां तपस्विनाम् // 33 / अष्टात्रिंशोऽध्यायः // 38 // -440 -
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________________ 3. 39. 1] आरण्यकपर्व [3. 39. 26 नानापुष्पफलोपेतं नानापक्षिनिषेवितम् / जनमेजय उवाच। नानामृगगणाकीर्ण सिद्धचारणसेवितम् // 13 भगवश्रोतुमिच्छामि पार्थस्याक्लिष्टकर्मणः / ततः प्रयाते कौन्तेये वनं मानुषवर्जितम् / विस्तरेण कथामेतां यथास्त्राण्युपलब्धवान् // 1 शङ्खानां पटहानां च शब्दः समभवद्दिवि // 14 कथं स पुरुषव्याघ्रो दीर्घबाहुर्धनंजयः / पुष्पवर्ष च सुमहन्निपपात महीतले। किं च तेन कृतं तत्र वसता ब्रह्मवित्तम / मेघजालं च विततं छादयामास सर्वतः // 15 कथं च भगवान्स्थाणुर्देवराजश्व तोषितः॥३ अतीत्य वनदुर्गाणि संनिकर्षे महागिरेः। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्प्रसादाहिजोत्तम / शुशुभे हिमवत्पृष्ठे वसमानोऽर्जुनस्तदा // 16 त्वं हि सर्वज्ञ दिव्यं च मानुषं चैव वेत्थ ह॥ 4 तत्रापश्यदुमान्फुल्लान्विहगैर्वल्गुनादितान् / अत्यद्भुतं महाप्राज्ञ रोमहर्षणमर्जुनः / नदीश्च बहुलावर्ता नीलवैडूर्यसंनिभाः॥ 17 भवेन सह संग्रामं चकाराप्रतिमं किल / हंसकारण्डवोद्गीताः सारसाभिरुतास्तथा / पुरा प्रहरतां श्रेष्ठः संग्रामेष्वपराजितः॥ 5 पुस्कोकिलरुताश्चैव क्रौञ्चबर्हिणनादिताः॥१८ गच्छुखा नरसिंहानां दैन्यहर्षातिविस्मयात् / मनोहरवनोपेतास्तस्मिन्नतिरथोऽर्जुनः / शूराणामपि पार्थानां हृदयानि चकम्पिरे॥ 6 पुण्यशीतामलजलाः पश्यन्प्रीतमनाभवत् // 19 यद्यच कृतवानन्यत्पार्थस्तदखिलं वद / रमणीये वनोद्देशे रममाणोऽर्जुनस्तदा / नबस्य निन्दितं जिष्णोः सुसूक्ष्ममपि लक्षये। तपस्युग्रे वर्तमान उग्रतेजा महामनाः // 20 प्रेरितं तस्य शूरस्य तन्मे सर्व प्रकीर्तय // 7 दर्भचीरं निवस्याथ दण्डाजिनविभूषितः / - वैशंपायन उवाच / पूर्णे पूर्णे त्रिरात्रे तु मासमेकं फलाशनः। कथयिष्यामि ते तात कथामेतां महात्मनः। द्विगुणेनैव कालेन द्वितीयं मासमत्यगात् // 21 .दिव्यां कौरवशार्दूल महतीमद्भुतोपमाम् // 8 तृतीयमपि मासं स पक्षणाहारमाचरन् / गात्रसंस्पर्शसंबन्धं त्र्यम्बकेण सहानघ / शीणं च पतितं भूमौ पर्ण समुपयुक्तवान् // 22 पार्यस्य देवदेवेन शृणु सम्यक्समागमम् // 9 चतुर्थे त्वथ संप्राप्ते मासि पूर्णे ततः परम् / बुधिष्ठिरनियोगात्स जगामामितविक्रमः। वायुभक्षो महाबाहुरभवत्पाण्डुनन्दनः / सुरेश्वरं द्रष्टुं देवदेवं च शंकरम् / / 10 ऊर्ध्वबाहुनिरालम्बः पादाङ्गुष्ठाप्रविष्ठितः // 23 दिव्यं तद्धनुरादाय खड्गं च पुरुषर्षभः / सदोपस्पर्शनाच्चास्य बभूवुरमितौजसः / महाबलो महाबाहुरर्जुनः कार्यसिद्धये / विद्युदम्भोरुहनिभा जटास्तस्य महात्मनः // 24 विशं घुदीची कौरव्यो हिमवच्छिखरं प्रति // 11 ततो महर्षयः सर्वे जग्मुर्देवं पिनाकिनम् / ऐन्द्रिः स्थिरमना राजन्सर्वलोकमहारथः / शितिकण्ठं महाभागं प्रणिपत्य प्रसाद्य च / खरया परया युक्तस्तपसे धृतनिश्चयः। सर्वे निवेदयामासुः कर्म तत्फल्गुनस्य ह // 25 क्नं कण्टकितं घोरमेक एवान्वपद्यत // 12 एष पार्थो महातेजा हिमवत्पृष्ठमाश्रितः / म.भा. 56 - 441 -
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________________ 3. 39. 26 ] महाभारते [3. 40. 22 उप्रे तपसि दुष्पारे स्थितो धूमाययन्दिशः // 26 हन्तुं परमदुष्टात्मा तमुवाचाथ फल्गुनः // 8 तस्य देवेश न वयं विद्मः सर्वे चिकीर्षितम् / / गाण्डीवं धनुरादाय शरांश्चाशीविषोपमान् / संतापयति नः सर्वानसौ साधु निवार्यताम् // 27 सज्यं धनुर्वरं कृत्वा ज्याघोषेण निनादयन् // 9 महेश्वर उवाच / यन्मां प्रार्थयसे हन्तुमनागसमिहागतम् / शीघ्रं गच्छत संहृष्टा यथागतमतन्द्रिताः / तस्मात्त्वां पूर्वमेवाहं नेष्यामि यमसादनम् // 10 अहमस्य विजानामि संकल्पं मनसि स्थितम् // 28 तं दृष्ट्वा प्रहरिष्यन्तं फल्गुनं दृढधन्विनम् / . नास्य स्वर्गस्पृहा काचिन्नैश्वर्यस्य न चायुषः / किरातरूपी सहसा वारयामास शंकरः // 11 यत्त्वस्य काङ्कितं सर्वं तत्करिष्येऽहमद्य वै // 29 मयैष प्रार्थितः पूर्व नीलमेघसमप्रभः / वैशंपायन उवाच। अनादृत्यैव तद्वाक्यं प्रजहाराथ फल्गुनः // 12 ते श्रुत्वा शर्ववचनमृषयः सत्यवादिनः / किरातश्च समं तस्मिन्नेकलक्ष्ये महाद्युतिः।. प्रहृष्टमनसो जग्मुर्यथाखं पुनराश्रमान् // 30 प्रमुमोचाशनिप्रख्यं शरमग्निशिखोपमम् // 13 .. इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तौ मुक्तौ सायको ताभ्यां समं तत्र निपेततुः / एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥ 39 // मूकस्य गात्रे विस्तीर्णे शैलसंहनने तदा // 14 यथाशनिविनिष्पेषो वनस्येव च पर्वते। वैशंपायन उवाच / तथा तयोः संनिपातः शरयोरभवत्तदा // 15 गतेषु तेषु सर्वेषु तपस्विषु महात्मसु / स विद्धो बहुभिर्बाणैर्दीप्तास्यैः पन्नगैरिव / पिनाकपाणिर्भगवान्सर्वपापहरो हरः // 1 ममार राक्षसं रूपं भूयः कृत्वा विभीषणम् // 16 कैरातं वेषमास्थाय काश्चनद्रुमसंनिभम् / ददर्शाथ ततो जिष्णुः पुरुषं काश्चनप्रभम् / विभ्राजमानो वपुषा गिरिर्मेरुरिवापरः // 2 किरातवेषप्रच्छन्नं स्त्रीसहायममित्रहा / श्रीमद्धनुरुपादाय शरांश्चाशीविषोपमान् / तमब्रवीत्प्रीतमनाः कौन्तेयः प्रहसन्निव / / 17 निष्पपात महार्चिष्मान्दहन्कक्षमिवानलः // 3 को भवानटते शून्ये वने स्त्रीगणसंवृतः / देव्या सहोमया श्रीमान्समानव्रतवेषया। न त्वमस्मिन्वने घोरे बिभेषि कनकप्रभ // 18 नानावेषधरैर्दृष्टैर्भूतैरनुगतस्तदा // 4 किमर्थं च त्वया विद्धो मृगोऽयं मत्परिप्रहः / किरातवेषप्रच्छन्नः स्त्रीभिश्चानु सहस्रशः। मयाभिपन्नः पूर्वं हि राक्षसोऽयमिहागतः॥ 19 अशोभत तदा राजन्स देवोऽतीव भारत // 5 कामात्परिभवाद्वापि न मे जीवन्विमोक्ष्यसे। क्षणेन तद्वनं सर्वं निःशब्दमभवत्तदा / न ह्येष मृगयाधर्मो यस्त्वयाद्य कृतो मयि / नादः प्रस्रवणानां च पक्षिणां चाप्युपारमत् // 6 तेन त्वां भ्रंशयिष्यामि जीवितात्पर्वताश्रय // 20 स संनिकर्षमागम्य पार्थस्याक्लिष्टकर्मणः / इत्युक्तः पाण्डवेयेन किरातः प्रहसन्निव / मूकं नाम दितेः पुत्रं ददर्शाद्भुतदर्शनम् // 7 उवाच श्लक्ष्णया वाचा पाण्डवं सव्यसाचिनम्॥२१ वाराहं रूपमास्थाय तर्कयन्तमिवार्जुनम् / ममैवायं लक्ष्यभूतः पूर्वमेव परिग्रहः / -442 -
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________________ 3. 40. 22] आरण्यकपर्व [3. 40. 51 ममैव च प्रहारेण जीविताद्व्यवरोपितः।। 22 अयं च पुरुषः कोऽपि बाणान्प्रसति सर्वशः // 37 दोषान्स्वान्नाईसेऽन्यस्मै वक्तुं स्वबलदर्पितः अहमेनं धनुष्कोट्या शूलाग्रेणेव कुञ्जरम् / अभिषक्तोऽस्मि मन्दात्मन्न मे जीवन्विमोक्ष्यसो॥२३ नयामि दण्डधारस्य यमस्य सदनं प्रति // 38 / स्थिरो भवस्व मोक्ष्यामि सायकानशनीनिव। संप्रायुध्यद्धनुष्कोट्या कौन्तेयः परवीरहा। घटस्व परया शक्त्या मुश्च त्वमपि सायकान् / / 24 तदप्यस्य धनुर्दिव्यं जप्रास गिरिगोचरः // 39 ततस्तौ तत्र संरब्धौ गर्जमानौ मुहुर्मुहुः। . ततोऽर्जुनो प्रस्तधनुः खड्गपाणिरतिष्ठत / शरैराशीविषाकारैस्ततक्षाते परस्परम् // 25 युद्धस्यान्तमभीप्सन्वै वेगेनाभिजगाम तम् // 40 ततोऽर्जुनः शरवर्ष किराते समवासृजत् / तस्य मूर्ध्नि शितं खड्गमसक्तं पर्वतेष्वपि / तत्प्रसन्नेन मनसा प्रतिजग्राह शंकरः // 26 मुमोच भुजवीर्येण विक्रम्य कुरुनन्दनः / मुहूर्त शरवर्ष तत्प्रतिगृह्य पिनाकधृक् / तस्य मूर्धानमासाद्य पफालासिवरो हि सः॥४१ अक्षतेन शरीरेण तस्थौ गिरिरिवाचलः // 27 ततो वृक्षैः शिलाभिश्च योधयामास फल्गुनः / स दृष्ट्वा बाणवर्ष तन्मोघीभूतं धनंजयः / यथा वृक्षान्महाकायः प्रत्यगृह्णादथो शिलाः // 42 परमं विस्मयं चक्रे साधु साध्विति चाब्रवीत् // 28 किरातरूपी भगवांस्ततः पार्थो महाबलः। अहोऽयं सुकुमाराङ्गो हिमवच्छिखरालयः। मुष्टिभिर्वञसंस्पर्शधूममुत्पादयन्मुखे / गाण्डीवमुक्तान्नारांचान्प्रतिगृह्णात्यविह्वलः // 29 प्रजहार दुराधर्षे किरातसमरूपिणि // 43 कोऽयं देवो भवेत्साक्षाद्रुद्रो यक्षः सुरेश्वरः ततः शक्राशनिसमैMष्टिभिर्भृशदारुणैः / विद्यते हि गिरिश्रेष्ठे त्रिदशानां समागमः // 30 किरातरूपी भगवानर्दयामास फल्गुनम् // 44 . न हि मद्वाणजालानामुत्सृष्टानां सहस्रशः / ततश्चटचटाशब्दः सुघोरः समजायत / शक्तोऽन्यः सहितुं वेगमृते देवं पिनाकिनम् // 31 पाण्डवस्य च मुष्टीनां किरातस्य च युध्यतः // 45 देवो वा यदि वा यक्षो रुद्रादन्यो व्यवस्थितः।। सुमुहूर्त महद्युद्धमासीत्तल्लोमहर्षणम् / अहमेनं शरैस्तीक्ष्णैर्नयामि यमसादनम् // 32 . भुजप्रहारसंयुक्तं वृत्रवासवयोरिव // 46 ततो हृष्टमना जिष्णुाराचान्मर्मभेदिनः / / जहाराथ ततो जिष्णुः किरातमुरसा बली / व्यसृजच्छतधा राजन्मयूखानिव भास्करः // 33 पाण्डवं च विचेष्टन्तं किरातोऽप्यहनदलात् // 47 तान्प्रसन्नेन मनसा भगवाँल्लोकभावनः / तयोर्भुजविनिष्पेषात्संघर्षणोरसोस्तथा / शूलपाणिः प्रत्यगृह्णाच्छिलावर्षमिवाचलः // 34 समजायत गात्रेषु पावकोऽङ्गारधूमवान् // 48 / क्षणेन क्षीणबाणोऽथ संवृत्तः फल्गुनस्तदा। तत एनं महादेवः पीड्य गात्रैः सुपीडितम् / वित्रासं च जगामाथ तं दृष्ट्वा शरसंक्षयम् // 35 तेजसा व्याक्रमद्रोषाच्चतस्तस्य विमोहयन् // 49 चिन्तयामास जिष्णुस्तु भगवन्तं हुताशनम् / ततो निपीडितैर्गात्रैः पिण्डीकृत इवाबभौ / पुरस्तादक्षयौ दत्तौ तूणी येनास्य खाण्डवे // 36 | | फल्गुनो गात्रसंरुद्धो देवदेवेन भारत // 50 किं नु मोक्ष्यामि धनुषा यन्मे बाणाः क्षयं गताः। निरुच्छासोऽभवञ्चैव संनिरुद्धो महात्मना। / - 443 8
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________________ 3. 40. 51] महाभारते [3. 41. 14 ततः पपात संमूढस्ततः प्रीतोऽभवद्भवः // 51 भगवानुवाच / / भो भो फल्गुन तुष्टोऽस्मि कर्मणाप्रतिमेन ते। शौर्येणानेन धृत्या च क्षत्रियो नास्ति ते समः॥ 52 समं तेजश्च वीर्यं च ममाद्य तव चानघ / प्रीतस्तेऽहं महाबाहो पश्य मां पुरुषर्षभ // 53 ददानि ते विशालाक्ष चक्षुः पूर्वऋषिर्भवान् / विजेष्यसि रणे शत्रूनपि सर्वान्दिवौकसः // 54 वैशंपायन उवाच / ततो देवं महादेवं गिरिशं शूलपाणिनम् / ददर्श फल्गुनस्तत्र सह देव्या महाद्युतिम् // 55 स जानुभ्यां महीं गत्वा शिरसा प्रणिपत्य च। प्रसादयामास हरं पार्थः परपुरंजयः॥ 56 अर्जुन उवाच। . कपर्दिन्सर्वभूतेश भगनेत्रनिपातन / व्यतिक्रमं मे भगवन्क्षन्तुमर्हसि शंकर // 57 भगवद्दर्शनाकाङ्क्षी प्राप्तोऽस्मीमं महागिरिम् / दयितं तव देवेश तापसालयमुत्तमम् // 58 प्रसादये त्वां भगवन्सर्वभूतनमस्कृत / न मे स्यादपराधोऽयं महादेवातिसाहसात् / / 59 कृतो मया यदज्ञानाद्विमर्दोऽयं त्वया सह / शरणं संप्रपन्नाय तत्क्षमस्वाद्य शंकर // 60 वैशंपायन उवाच / तमुवाच महातेजाः प्रहस्य वृषभध्वजः। प्रगृह्य रुचिरं बाहुं क्षान्तमित्येव फल्गुनम् // 61 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि चत्वारिंशोऽध्यायः॥४०॥ 41 भगवानुवाच / नरस्त्वं पूर्वदेहे वै नारायणसहायवान् / - बदाँ तप्तवानुग्रं तपो वर्षायुतान्बहून् // 1 त्वयि वा परमं तेजो विष्णौ वा पुरुषोत्तमे / युवाभ्यां पुरुषाग्र्याभ्यां तेजसा धार्यते जगत् // 2 शक्राभिषेके सुमहद्धनुर्जलदनिस्वनम् / प्रगृह्य दानवाः शस्तास्त्वया कृष्णेन च प्रभो॥३. एतत्तदेव गाण्डीवं तव पार्थ करोचितम् / . मायामास्थाय यद्स्तं मया पुरुषसत्तम / तूणौ चाप्यक्षयौ भूयस्तव पार्थ यथोचितौ // 4 प्रीतिमानस्मि वै पार्थ तव सत्यपराक्रम / गृहाण वरमस्मत्तः काङ्कितं यन्नरर्षभः // 5... न त्वया सदृशः कश्चित्पुमान्मत्र्येषु मानद / दिवि वा विद्यते क्षत्रं त्वत्प्रधानमरिंदम // 6 - अर्जुन उवाच / भगवन्ददासि चेन्मह्यं कामं प्रीत्या वृषध्वज / कामये दिव्यमस्रं तद्बोरं पाशुपतं प्रभो // 7 यत्तद्ब्रह्मशिरो नाम रौद्रं भीमपराक्रमम् / युगान्ते दारुणे प्राप्ते कृत्स्नं संहरते जगत् // 8 दहेयं येन संग्रामे दानवानराक्षसांस्तथा / भूतानि च पिशाचांश्च गन्धर्वानथ पन्नगान् // 9 यतः शूलसहस्राणि गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः / शराश्चाशीविषाकाराः संभवन्त्यनुमश्रिताः // 10 युध्येयं येन भीष्मेण द्रोणेन च कृपेण च / सूतपुत्रेण च रणे नित्यं कटुकभाषिणा // 11 एष मे प्रथमः कामो भगवन्भगनेत्रहन् / त्वत्प्रसादाद्विनिर्वृत्तः समर्थः स्यामहं यथा // 12 भगवानुवाच / ददानि तेऽस्त्रं दयितमहं पाशुपतं महत् / समर्थो धारणे मोक्षे संहारे चापि पाण्डव // 13 नैतद्वेद महेन्द्रोऽपि न यमो न च यक्षराट् /
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________________ 3. 41. 14] आरण्यकपर्व [ 3. 42. 18 वरुणो वाथ वा वायुः कुतो वेत्स्यन्ति मानवाः // 14 | जगाम खं पुरुषवरस्य पश्यतः // 26 न त्वेतत्सहसा पार्थ मोक्तव्यं पुरुषे कचित् / / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि जगद्विनिर्दहेत्सर्वमल्पतेजसि पातितम् // 15 एकचत्वारिंशोऽध्यायः // 41 // अवध्यो नाम नास्यस्य त्रैलोक्ये सचराचरे / 42 मनसा चक्षुषा वाचा धनुषा च निपात्यते // 16 / उवाच / - वैशंपायन उवाच। तस्य संपश्यतस्त्वेव पिनाकी वृषभध्वजः / तच्छ्रुत्वा त्वरितः पार्थः शुचिर्भूत्वा समाहितः / जगामादर्शनं भानुर्लोकस्येवास्तमेयिवान् // 1 उपसंगृह्य विश्वेशमधीष्वेति च सोऽब्रवीत् // 17 ततोऽर्जुनः परं चक्रे विस्मयं परवीरहा। ततस्त्वध्यापयामास सरहस्यनिवर्तनम् / मया साक्षान्महादेवो दृष्ट इत्येव भारत // 2 तदलं पाण्डवश्रेष्ठं मूर्तिमन्तमिवान्तकम् // 18 धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यन्मया त्र्यम्बको हरः / उपतस्थे महात्मानं यथा त्र्यक्षमुमापतिम् / पिनाकी वरदो रूपी दृष्टः स्पृष्टश्च पाणिना / / 3 प्रतिजग्राह तच्चापि प्रीतिमानर्जुनस्तदा // 19 कृतार्थ चावगच्छामि परमात्मानमात्मना। ततश्चचाल पृथिवी सपर्वतवनद्रुमा। शत्रूश्च विजितान्सन्निर्वृत्तं च प्रयोजनम् // 4 ससागरवनोद्देशा सग्रामनगराकरा // 20 ततो वैडूर्यवर्णाभो भासयन्सर्वतो दिशः / शङ्खदुन्दुभिघोषाश्च भेरीणां च सहस्रशः / यादोगणवृतः श्रीमानाजगाम जलेश्वरः // 5 तस्मिन्मुहूर्ते संप्राप्ते निर्घातश्च महानभूत् // 21 नागैर्नदैनंदीभिश्च दैत्यैः साध्यैश्च दैवतैः / वरुणो यादसां भर्ता वशी तं देशमागमत् // 6 अथास्त्रं जाज्वलद्बोरं पाण्डवस्यामितौजसः / अथ जाम्बूनदवपुर्विमानेन महार्चिषा / मूर्तिमद्विष्ठितं पार्श्वे ददृशुर्देवदानवाः // 22 कुबेरः समनुप्राप्तो यक्षैरनुगतः प्रभुः // 7 स्पृष्टस्य च त्र्यम्बकेन फल्गुनस्यामितौजसः / विद्योतयन्निवाकाशमद्भुतोपमदर्शनः / यत्किंचिदशुभं देहे तत्सर्वं नाशमेयिवत् // 23 धनानामीश्वरः श्रीमानर्जुनं द्रष्टुमागतः॥ 8 स्वर्ग गच्छेत्यनुज्ञातरूयम्बकेन तदार्जुनः। तथा लोकान्तकृच्छ्रीमान्यमः साक्षात्प्रतापवान् / प्रणम्य शिरसा पार्थः प्राञ्जलिर्देवमैक्षत // 24 मूर्त्यमूर्तिधरैः सार्धं पितृभिर्लोकभावनैः // 9 ततः प्रभुस्त्रिदिवनिवासिनां वशी दण्डपाणिरचिन्त्यात्मा सर्वभूतविनाशकृत्। महामतिर्गिरिश उमापतिः शिवः। वैवस्वतो धर्मराजो विमानेनावभासयन् // 10 धनुर्महद्दितिजपिशाचसूदनं त्रील्लोकान्गुह्यकांश्चैव गन्धर्वांश्च सपन्नगान् / ददौ भवः पुरुषवराय गाण्डिवम् / / 25. द्वितीय इव मार्तण्डो युगान्ते समुपस्थिते // 1.1 ततः शुभं गिरिवरमीश्वरस्तदा भानुमन्ति विचित्राणि शिखराणि महागिरेः। सहोमया सिततटसानुकन्दरम् / समास्थायार्जुनं तत्र ददृशुस्तपसान्वितम् // 12 विहाय तं पतगमहर्षिसेवितं ततो मुहूर्ताद्भगवानरावतशिरोगतः। - 445 -
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________________ 3. 42. 13 ] महाभारते [ 3. 42.4i आजगाम सहेन्द्राण्या शक्रः सुरगणैर्वृतः // 13 पश्य मां पृथुताम्राक्ष वरुणोऽस्मि जलेश्वरः // 26 पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि / मया समुद्यतान्पाशान्वारुणाननिवारणान्। शुशुभे तारकाराजः सितमभ्रमिवास्थितः // 14 प्रतिगृह्णीष्व कौन्तेय सरहस्यनिवर्तनान् // 27 .. संस्तूयमानो गन्धर्वैर्ऋषिभिश्च तपोधनैः। एभिस्तदा मया वीर संग्रामे तारकामये। शृङ्गं गिरेः समासाद्य तस्थौ सूर्य इवोदितः॥१५ दैतेयानां सहस्राणि संयतानि महात्मनाम् // 28 .. अथ मेघस्वनो धीमान्व्याजहार शुभां गिरम् / तस्मादिमान्महासत्त्व मत्प्रसादात्समुत्थितान्। . यमः परधर्मज्ञो दक्षिणां दिशमास्थितः // 16 गृहाण न हि ते मुच्येदन्तकोऽप्याततायिनः॥२९ अर्जुनार्जुन पश्यास्माल्लोकपालान्समागतान् / अनेन त्वं यदास्त्रेण संग्रामे विचरिष्यसि / दृष्टिं ते वितरामोऽद्य भवानों हि दर्शनम् // 17 तदा निःक्षत्रिया भूमिभविष्यति न संशयः 30 पूर्वर्षिरमितात्मा त्वं नरो नाम महाबलः / ततः कैलासनिलयो धनाध्यक्षोऽभ्यभाषत। ..." नियोगाद्ब्रह्मणस्तात मर्त्यतां समुपागतः। दत्तेष्वस्त्रेषु दिव्येषु वरुणेन यमेन च // 31 / त्वं वासवसमुद्भूतो महावीर्यपराक्रमः॥ 18 सव्यसाचिन्महाबाहो पूर्वदेव सनातन / क्षत्रं चाग्निसमस्पर्श भारद्वाजेन रक्षितम् / सहास्माभिर्भवाश्रान्तः पुराकल्पेषु नित्यशः॥ 32 दानवाश्च महावीर्या ये मनुष्यत्वमागताः / मत्तोऽपि त्वं गृहाणास्त्रमन्तर्धानं प्रियं मम। निवातकवचाश्चैव संसाध्याः कुरुनन्दन // 19 ओजस्तेजोद्युतिहरं प्रस्वापनमरातिहन् // 33 . पितुर्ममांशो देवस्य सर्वलोकप्रतापिनः / ततोऽर्जुनो महाबाहुर्विधिवत्कुरुनन्दनः। कर्णः स सुमहावीर्यस्त्वया वध्यो धनंजय // 20 कौबेरमपि जग्राह दिव्यमस्त्रं महाबलः // 34 अंशाश्च क्षितिसंप्राप्ता देवगन्धर्वरक्षसाम् / ततोऽब्रवीदेवराजः पार्थमक्लिष्टकारिणम् / त्वया निपातिता युद्धे स्वकर्मफलनिर्जिताम् / सान्त्वयलक्ष्णया वाचा मेघदुन्दुभिनिस्वनः॥३५ गतिं प्राप्स्यन्ति कौन्तेय यथास्वमरिकर्शन // 21 कुन्तीमातर्महाबाहो त्वमीशानः पुरातनः / अक्षया तव कीर्तिश्च लोके स्थास्यति फल्गुन / परां सिद्धिमनुप्राप्तः साक्षाद्देवंगतिं गतः // 36 त्वया साक्षान्महादेवस्तोषितो हि महामृधे / देवकार्य हि सुमहत्त्वया कार्यमरिंदम / लघ्वी वसुमती चापि कर्तव्या विष्णुना सह // 22 आरोढव्यस्त्वया स्वर्गः सज्जीभव महाद्युते // 37 गृहाणास्त्रं महाबाहो दण्डमप्रतिवारणम् / रथो मातलिसंयुक्त आगन्ता त्वत्कृते महीम् / अनेनास्त्रेण सुमहत्त्वं हि कर्म करिष्यसि // 23 तत्र तेऽहं प्रदास्यामि दिव्यान्यस्त्राणि कौरव // 38 प्रतिजग्राह तत्पार्थो विधिवत्कुरुनन्दनः / तान्दृष्ट्वा लोकपालांस्तु समेतान्गिरिमूर्धनि / समनं सोपचारं च समोक्षं सनिवर्तनम् // 24 जगाम विस्मयं धीमान्कुन्तीपुत्रो धनंजयः // 39 ततो जलधरश्यामो वरुणो यादसां पतिः / ततोऽर्जुनो महातेजा लोकपालान्समागतान् / पश्चिम दिशमास्थाय गिरमुञ्चारयन्प्रभुः // 25 / पूजयामास विधिवद्वाग्भिरद्भिः फलैरपि // 40 पार्थ क्षत्रियमुख्यस्त्वं क्षत्रधर्मे व्यवस्थितः। ततः प्रतिययुर्देवाः प्रतिपूज्य धनंजयम् / - 446 -
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________________ 3. 42. 41] आरण्यकपर्व . [3. 43. 25 यथागतेन विबुधाः सर्वे काममनोजवाः॥ 41 आह माममरश्रेष्ठः पिता तव शतक्रतुः। ततोऽर्जुनो मुदं लेभे लब्धास्त्रः पुरुषर्षभः / / कुन्तीसुतमिह प्राप्तं पश्यन्तु त्रिदशालयाः॥ 12 कृतार्थमिव चात्मानं स मेने पूर्णमानसः // 42 एष शक्रः परिवृतो देवैर्ऋषिगणैस्तथा। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि गन्धर्वैरप्सरोभिश्च त्वां दिदृक्षुः प्रतीक्षते // 13 . द्विचत्वारिंशोऽध्यायः // 42 // अस्माल्लोकादेवलोकं पाकशासनशासनात्। ... // समाप्तं कैरातपर्व // आरोह त्वं मया साधं लब्धास्त्रः पुनरेष्यसि॥१४ अर्जुन उवाच।। वैशंपायन उवाच। .. मातले गच्छ शीघ्रं त्वमारोहस्व रथोत्तमम् / / गतेषु लोकपालेषु पार्थः शत्रुनिबर्हणः। राजसूयाश्वमेधानां शतैरपि सुदुर्लभम् // 15 चिन्तयामास राजेन्द्र देवराजरथागमम् // 1 पार्थिवैः सुमहाभागैर्यज्वभिर्भूरिदक्षिणैः। ततश्चिन्तयमानस्य गुडाकेशस्य धीमतः। . दैवतैर्वा समारोढुं दानवैर्वा रथोत्तमम् // 16 .. रथो मातलिसंयुक्त आजगाम महाप्रभः // 2 .. नातप्ततपसा शक्य एष दिव्यो महारथः।। नभो वितिमिरं कुर्वञ्जलदान्पाटयन्निव / द्रष्टुं वाप्यथ वा स्प्रष्टुमारोढुं कुत एव तु // 17 दिशः संपरयन्नादैर्महामेघरवोपमैः॥३ त्वयि प्रतिष्ठिते साधो रथस्थे स्थिरवाजिनि। असयः शक्तयो भीमा गदाश्चोग्रप्रदर्शनाः / पश्चादहमथारोक्ष्ये सुकृती सत्पथं यथा // 18. दिव्यप्रभावा प्रासाश्च विद्युतश्च महाप्रभाः॥ 4 वैशंपायन उवाच। तथैवाशनयस्तत्र चक्रयुक्ता हुडागुडाः / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा मातलिः शक्रसारथिः। . वायुस्फोटाः सनिर्घाता बर्हिमेघनिभवनाः // 5 सत्र नागा महाकाया ज्वलितास्याः सुदारुणाः। आरुरोह रथं शीघ्र हयान्येमे च रश्मिभिः // 19 सिताभ्रकूटप्रतिमाः संहताश्च यथोपलाः // 6 ततोऽर्जुनो हृष्टमना गङ्गायामाप्लुतः शुचिः। .... दश वाजिसहस्राणि हरीणां वातरंहसाम् / जजाप जप्यं कौन्तेयो विधिवत्कुरुनन्दनः // 20 वहन्ति यं नेत्रमुषं दिव्यं मायामयं रथम् // 7 ततः पितॄन्यथान्यायं तर्पयित्वा यथाविधि। तत्रापश्यन्महानीलं वैजयन्तं महाप्रभम् / मन्दरं शैलराजं तमाप्रष्टुमुपचक्रमे // 21 ध्वजमिन्दीवरश्यामं वंशं कनकभूषणम् // 8 साधूनां धर्मशीलानां मुनीनां पुण्यकर्मणाम्। ... तस्मिन्नरथे स्थितं सूतं तप्तहेमविभूषितम् / त्वं सदा संश्रयः शैल स्वर्गमार्गाभिकाशिणाम् // 22 दृष्ट्वा पार्थो महाबाहुर्देवमेवान्वतर्कयत्॥९ त्वत्प्रसादात्सदा शैल ब्राह्मणाः क्षत्रिया विशः / तथा तर्कयतस्तस्य फल्गुनस्याथ मातलिः। . स्वर्ग प्राप्ताश्चरन्ति स्म देवैः सह गतव्यथाः॥२३ संनतः प्रश्रितो भूत्वा वाक्यमर्जुनमब्रवीत् // 10 अद्रिराज महाशैल मुनिसंश्रय तीर्थवन् / भो भो शात्मज श्रीमाञ्शक्रस्त्वां द्रष्टुमिच्छति। गच्छाम्यामश्यामि त्वां सुखमस्म्युषितस्त्वयि // 24 आरोहतु भवाञ्शीघ्रं रथमिन्द्रस्य संमतम् // 11 / तव सानूनि कुञ्जाश्च नद्यः प्रस्रवणानि च / -447 -
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________________ 8. 43. 25 ] महाभारते [ 3. 44. 14 तीर्थानि च सुपुण्यानि मया दृष्टान्यनेकशः // 25 एवमुक्त्वार्जुनः शैलमामय परवीरहा / वैशंपायन उवाच। आरुरोह रथं दिव्यं द्योतयन्निव भास्करः॥ 26 / / स ददर्श पुरी रम्यां सिद्धचारणसेविताम् / स तेनादित्यरूपेण दिव्येनाद्भुतकर्मणा। सर्वर्तुकुसुमैः पुण्यैः पादपैरुपशोभिताम् // 1 ऊर्ध्वमाचक्रमे धीमान्प्रहृष्टः कुरुनन्दनः // 27 तत्र सौगन्धिकानां स द्रुमाणां पुण्यगन्धिनाम् / सोऽदर्शनपथं यात्वा मानां भूमिचारिणाम् / उपवीज्यमानो मिश्रेण वायुना पुण्यगन्धिना // 2 ददर्शाद्भुतरूपाणि विमानानि सहस्रशः // 28 नन्दनं च वनं दिव्यमप्सरोगणसेवितम् / न तत्र सूर्यः सोमो वा द्योतते न च पावकः। ददर्श दिव्यकुसुमैराह्वयद्भिरिव द्रुमैः // 3 स्वयैव प्रभया तत्र द्योतन्ते पुण्यलब्धया // 29 नातप्ततपसा शक्यो द्रष्टुं नानाहिताग्निना। तारारूपाणि यानीह दृश्यन्ते द्युतिमन्ति वै। स लोकः पुण्यकर्तृणां नापि युद्धपराङ्मुखैः // 4.. दीपवद्विप्रकृष्टत्वादणूनि सुमहान्यपि // 30 नायज्वभिर्नानृतकैर्न वेदश्रुतिवर्जितैः / तानि तत्र प्रभास्वन्ति रूपवन्ति च पाण्डवः। नानाप्लुताङ्गैस्तीर्थेषु यज्ञदानबहिष्कृतैः॥ 5 ददर्श स्वेषु धिष्ण्येषु दीप्तिमन्ति स्वयार्चिषा // 31 नापि यज्ञहनैः क्षुदैर्द्रष्टुं शक्यः कथंचन। तत्र राजर्षयः सिद्धा वीराश्च निहता युधि / पानपैर्गुरुतल्पैश्च मांसादैर्वा दुरात्मभिः // 6 तपसा च जितस्वर्गाः संपेतुः शतसंघशः // 32 स तदिव्यं वनं पश्यन्दिव्यगीतनिनादितम् / गन्धर्वाणां सहस्राणि सूर्यज्वलनतेजसाम् / प्रविवेश महाबाहुः शक्रस्य दयितां पुरीम् // 7 गुह्यकानामृषीणां च तथैवाप्सरसां गणाः // 33 तत्र देवविमानानि कामगानि. सहस्रशः / लोकानात्मप्रभान्पश्यन्फल्गुनो विस्मयान्वितः। संस्थितान्यभियातानि ददर्शायुतशस्तदा / / 8 पप्रच्छ मातलिं प्रीत्या स चाप्येनमुवाच ह // 34 संम्तूयमानो गन्धर्वैरप्सरोभिश्च पाण्डवः / पुष्पगन्धवहैः पुण्यैर्वायुभिश्चानुवीजितः // 9 पते सुकृतिनः पार्थ स्वेषु धिष्ण्येष्ववस्थिताः। ततो देवाः सगन्धर्वाः सिद्धांश्च परमर्षयः / यान्दृष्टवानसि विभो तारारूपाणि भूतले // 35 हृष्टाः संपूजयामासुः पार्थमक्लिष्टकारिणम् // 10 ततोऽपश्यस्थितं द्वारि सितं वैजयिनं गजम् / आशीर्वादैः स्तूयमानो दिव्यवादित्रनिस्वनैः / ऐरावतं चतुर्दन्तं कैलासमिव शृङ्गिणम् // 36 प्रतिपेदे महाबाहुः शङ्खदुन्दुभिनादितम् // 11 स सिद्धमार्गमाक्रम्य कुरुपाण्डवसत्तमः / नक्षत्रमार्ग विपुलं सुरवीथीति विश्रुतम् / ' व्यरोचत यथा पूर्व मान्धाता पार्थिवोत्तमः // 37 इन्द्राज्ञया ययौ पार्थः स्तूयमानः समन्ततः॥१२ अतिचक्राम लोकान्स राज्ञां राजीवलोचनः।। तत्र साध्यास्तथा विश्वे मरुतोऽथाश्विनावपि / ततो ददर्श शक्रस्य पुरी ताममरावतीम् // 38 आदित्या वसवो रुद्रास्तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि राजर्षयश्च बहवो दिलीपप्रमुखा नृपाः। त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः // 43 // तुम्बुरुर्नारदश्चैव गन्धर्वो च हहाहुहू // 14 -448 -
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________________ 3:44. 15] आरण्यकपर्व [3. 45. 10 वान्सर्वान्स समागम्य विधिवत्कुरुनन्दनः / गोपाली सहजन्या च कुम्भयोनिः प्रजागरा / ततोऽपश्यदेवराजं शतक्रतुमरिंदमम् // 15 चित्रसेना चित्रलेखा सहा च मधुरवरा // 30 ततः पार्थो महाबाहुरवतीर्य रथोत्तमात् / एताश्चान्याश्च ननूतुस्तत्र तत्र वराङ्गनाः। ... ददर्श साक्षाद्देवेन्द्रं पितरं पाकशासनम् // 16 चित्तप्रमथने युक्ताः सिद्धानां पद्मलोचनाः॥ 31. पाण्डुरेणातपत्रेण हेमदण्डेन चारुणा। महाकटितटश्रोण्यः कम्पमानैः पयोधरैः। दिव्यगन्धाधिवासेन व्यजनेन विधूयता // 17 कटाक्षहावमाधुर्यैश्वेतोबुद्धिमनोहराः॥३२ विश्वावसुप्रभृतिभिर्गन्धर्वैः स्तुतिवन्दनैः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि स्तूयमानं द्विजाग्र्यैश्च ऋग्यजुःसामसंस्तवैः।। 18 चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४४॥ ततोऽभिगम्य कौन्तेयः शिरसाभ्यनमदली। स चैनमनुवृत्ताभ्यां भुजाभ्यां प्रत्यगृहत // 19 वैशंपायन उवाच / ततः शक्रासने पुण्ये देवराजर्षिपूजिते / ततो देवाः सगन्धर्वाः समादायार्थ्यमुत्तमम् / . शक्रः पाणौ गृहीत्वैनमुपावेशयदन्तिके // 20 शक्रस्य मतमाज्ञाय पार्थमानचुरञ्जसा // 1 मूर्ध्नि चैनमुपाघ्राय देवेन्द्रः परवीरहा। पाद्यमाचमनीयं च प्रतिग्राह्य नृपात्मजम् / / अङ्कमारोपयामास प्रश्रयावनतं तदा // 21 प्रवेशयामासुरथो पुरंदरनिवेशनम् // 2 सहस्राक्षनियोगात्स पार्थः शक्रासनं तदा / एवं संपूजितो जिष्णुरुवास भवने पितुः। .. अध्यकामदमेयात्मा द्वितीय इव वासवः॥ 22 उपशिक्षन्महास्राणि ससंहाराणि पाण्डवः // 3 . ततः प्रेम्णा वृत्रशत्रुरर्जुनस्य शुभं मुखम् / शक्रस्य हस्तादयितं वज्रमस्त्रं दुरुत्सहम् / पस्पर्श पुण्यगन्धेन करेण परिसान्त्वयन् // 23 अशनीश्च महानादा मेघबर्हिणलक्षणाः // 4 परिमार्जमानः शनकैर्बाहू चास्यायती शुभौ / गृहीतास्त्रस्तु कौन्तेयो भ्रातृन्सस्मार पाण्डवः / ज्याशरक्षेपकठिनौ स्तम्भाविव हिरण्मयौ // 24 पुरंदरनियोगाच्च पश्चाब्दमवसत्सुखी // 5 वज्रग्रहणचिह्नन करेण बलसूदनः / ततः शक्रोऽब्रवीत्पार्थ कृतास्त्रं काल आगते / मुहुर्मुहुर्वअधरो बाहू संस्फालयशनैः // 25 नृत्तं गीतं च कौन्तेय चित्रसेनादवाप्नुहि // 6 स्मयन्निव गुडाकेशं प्रेक्षमाणः सहस्रदृक् / वादित्रं देवविहितं नृलोके यन्न विद्यते / हर्षेणोत्फुल्लनयनो न चातृप्यत वृत्रहा // 26 तदर्जयस्व कौन्तेय श्रेयो वै ते भविष्यति // 7 एकासनोपविष्टौ तौ शोभयांचक्रतुः सभाम् / सखायं प्रददौ चास्य चित्रसेनं पुरंदरः / सूर्याचन्द्रमसौ व्योग्नि चतुर्दश्यामिवोदितौ // 27 / स तेन सह संगम्य रेमे पार्थो निरामयः // 8 तत्र स्म गाथा गायन्ति साम्ना परमवल्गुना। / कदाचिदटमानस्तु महर्षिस्त लोमशः / गन्धर्वास्तुम्बुरुश्रेष्ठाः कुशला गीतसामसु // 28 जगाम शक्रभवनं पुरंदरदिदृक्षया॥९ घृताची मेनका रम्भा पूर्वचित्तिः स्वयंप्रभा। स समेत्य नमस्कृत्य देवराज महामुनिः / उर्वशी मिश्रकेशी च डुण्डुर्गौरी वरूथिनी // 29 / ददर्शार्धासनगतं पाण्डवं वासवस्य ह // 10 म.भा. 55 -449 -
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________________ 3. 45. 11] महाभारते. [ 3. 45. 38 ततः शकाभ्यनुज्ञात आसने विष्टरोत्तरे। : कपिलो नाम देवोऽसौ भगवानजितो हरिः // 25 निषसाद द्विजश्रेष्ठः पूज्यमानो महर्षिभिः // 11 येन पूर्व महात्मानः खनमाना रसातलम् / तस्य दृष्ट्वाभवद्बुद्धिः पार्थमिन्द्रासने स्थितम् / . दर्शनादेव निहताः सगरस्यात्मजा विभो // 26 कथं नु क्षत्रियः पार्थः शक्रासनमवाप्तवान् // 12 तेन कार्य महत्कार्यमस्माकं द्विजसत्तम / किं त्वस्य सुकृतं कर्म लोका वा के विनिर्जिताः / पार्थेन च महायुद्धे समेताभ्यामसंशयम् // 27 य एवमुपसंप्राप्तः स्थानं देवनमस्कृतम् / / 13 अयं तेषां समस्तानां शक्तः प्रतिसमासने। . तस्य विज्ञाय संकल्पं शक्रो वृत्रनिषूदनः। ताग्निहत्य रणे शूरः पुनर्यास्यति मानुषान् // 28 लोमशं प्रहसन्वाक्यमिदमाह शचीपतिः // 14 भवांश्वास्मन्नियोगेन यातु तावन्महीतलम् / ब्रह्मर्षे श्रूयतां यत्ते मनसैतद्विवक्षितम् / . काम्यके द्रक्ष्यसे वीरं निवसन्तं युधिष्ठिरम् // 29 नायं केवलमयों वै क्षत्रियत्वमुपागतः // 15 स वाच्यो मम संदेशाद्धर्मात्मा सत्यसंगरः / महर्षे मम पुत्रोऽयं कुन्त्यां जातो महाभुजः।। नोत्कण्ठा फाल्गुने कार्या कृतास्त्रः शीघ्रमेष्यति॥३० अनहेतोरिह प्राप्तः कस्माञ्चित्कारणान्तरात् // 16 नाशुद्धबाहुवीर्येण नाकृतास्त्रेण वा रणे। अहो नैनं भवान्वेत्ति पुराणमृषिसत्तमम् / / भीष्मद्रोणादयो युद्धे शक्याः प्रतिसमासितुम् // 31 शृणु मे वदतो ब्रह्मन्योऽयं यच्चास्य कारणम् // 17 गृहीतास्रो गुडाकेशो महाबाहुर्महामनाः / नरनारायणौ यौ तौ पुराणावृषिसत्तमौ / / नृत्तवादित्रगीतानां दिव्यानां पारमेयिवान् // 32 ताविमावभिजानीहि हृषीकेशधनंजयौ // 18 / भवानपि विविक्तानि तीर्थानि मनुजेश्वर / यन्न शक्यं सुरैर्दष्टुमृषिभिर्वा महात्मभिः / भ्रातृभिः सहितः सर्वैर्द्रष्टुमर्हत्यरिंदम // 33 तदाश्रमपदं पुण्यं बदरी नाम विश्रुतम् // 19 तीर्थेष्वाप्लुत्य पुण्येषु विपाप्मा विगतज्वरः / स निवासोऽभवद्विप्र विष्णोर्जिष्णोस्तथैव च।। राज्यं भोक्ष्यसि राजेन्द्र सुखी विगतकल्मषः // 34 यतः प्रववृते गङ्गा सिद्धचारणसेविता // 20 भवांश्चैनं द्विजश्रेष्ठ पर्यटन्तं महीतले। तौ मन्नियोगाद्ब्रह्मर्षे क्षितौ जातौ महाद्युती / त्रातुमर्हति विप्राय तपोबलसमन्वितः // 35 भूमे रावतरणं महावी? करिष्यतः // 21 // गिरिदुर्गेषु हि सदा देशेषु विषमेषु च / उद्वृत्ता ह्यसुराः केचिन्निवातकवचा इति / वसन्ति राक्षसा रौद्रास्तेभ्यो रक्षेत्सदा भवान् // 36 विप्रियेषु स्थितास्माकं वरदानेन मोहिताः // 22 स तथेति प्रतिज्ञाय लोमशः सुमहातपाः / तर्कयन्ते सुरान्हन्तुं बलदर्पसमन्विताः। काम्यकं वनमुद्दिश्य समुपायान्महीतलम् // 37 देवान्न गणयन्ते च तथा दत्तवरा हि ते // 23 ददर्श तत्र कौन्तेयं धर्मराजमरिंदमम् / पातालवासिनो रौद्रा दनोः पुत्रा महाबलाः। तापसैर्धातृभिश्चैव सर्वतः परिवारितम् // 38 सर्वे देवनिकाया हि नालं योधयितुं स्म तान्॥२४ ___ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः॥४५॥ .. योऽसौ भूमिगतः श्रीमान्विष्णुर्मधुनिषूदनः। .. -450 -
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________________ 8. 46. 1] आरण्यकपर्व [3. 46.20 जिगाय पार्थिवान्सर्वानराजसूये महाक्रतौ // 14 जनमेजय उवाच / शेषं कुर्याद्रेिर्वजं निपतन्मूर्ध्नि संजय। अत्यद्भुतमिदं कर्म पार्थस्यामिततेजसः / न तु कुर्युः शराः शेषमस्तास्तात किरीटिना / / 15 धृतराष्ट्रो महातेजाः श्रुत्वा विप्र किमब्रवीत् // 1 यथा हि किरणा भानोस्तपन्तीह चराचरम् / वैशंपायन उवाच। तथा पार्थभुजोत्सृष्टाः शरास्तप्स्यन्ति मे सुतान् // 16 शक्रलोकगतं पार्थं श्रुत्वा राजाम्बिकासुतः / अपि वा रथघोषेण भयार्ता सव्यसाचिनः / ' द्वैपायनादृषिश्रेष्ठात्संजयं वाक्यमब्रवीत् // 2 प्रतिभाति विदीर्णेव सर्वतो भारती चमूः // 17 भुतं मे सूत कार्येन कर्म पार्थस्य धीमतः। यदुद्वपन्प्रवपंश्चैव बाणाकश्चित्तवापि विदितं यथातथ्येन सारथे // 3 - स्थाताततायी समरे किरीटी। प्रमत्तो ग्राम्यधर्मेषु मन्दात्मा पापनिश्चयः / सृष्टोऽन्तकः सर्वहरो विधात्रा मम पुत्रः सुदुर्बुद्धिः पृथिवीं घातयिष्यति // 4 भवेद्यथा तद्वदपारणीयः // 18 : यस्य नित्यमृता वाचः स्वैरेष्वपि महात्मनः / / संजय उवाच / त्रैलोक्यमपि तस्य स्याद्योद्धा यस्य धनंजयः // 5 यदेतत्कथितं राजंस्त्वया दुर्योधनं प्रति / अस्यतः कर्णिनाराचांस्तीक्ष्णामांश्च शिलाशितान् / सर्वमेतद्यथात्थ त्वं नैतन्मिथ्या महीपते // 19 ; कोऽर्जुनस्याग्रतस्तिष्ठेदपि मृत्युर्जरातिगः // 6 मन्युना हि समाविष्टाः पाण्डवास्तेऽमितौजसः। : मम पुत्रा दुरात्मानः सर्वे मृत्युवशं गताः। दृष्ट्वा कृष्णां सभां नीतां धर्मपत्नी यशस्विनीम् // 20 येषां युद्धं दुराधर्षैः पाण्डवैः प्रत्युपस्थितम् // 7 . दुःशासनस्य ता वाचः श्रुत्वा ते दारुणोदयाः। . तस्यैव च न पश्यामि युधि गाण्डीवधन्वनः। . कर्णस्य च महाराज न स्वप्स्यन्तीति मे मतिः // 21 अनिशं चिन्तयानोऽपि य एनमुदियाद्रथी॥ 8 // श्रुतं हि ते महाराज यथा पार्थेन संयुगे। द्रोणकर्णौ प्रतीयातां यदि भीष्मोऽपि वा रणे। एकादशतनुः स्थाणुर्धनुषा परितोषितः // 22 महान्स्यात्संशयो लोके न तु पश्यामि नो जयम्॥ 9 कैरातं वेषमास्थाय योधयामास फल्गुनम् / / / घृणी कर्णः प्रमादी च आचार्यः स्थविरो गुरुः / अमर्षी बलवान्पार्थः संरम्भी दृढविक्रमः // 10 जिज्ञासुः सर्वदेवेशः कपर्दी भगवान्स्वयम् // 23 भवेत्सुतुमुलं युद्धं सर्वशोऽप्यपराजितम् / तत्रैनं लोकपालास्ते दर्शयामासुरर्जुनम् / सर्वे शस्त्रविदः शूराः सर्वे प्राप्ता महद्यशः // 11 अनहेतोः पराक्रान्तं तपसा कौरवर्षभम् // 24 . अपि सर्वेश्वरत्वं हि न वाञ्छेरन्पराजिताः / नैतदुत्सहतेऽन्यो हि लब्धुमन्यत्र फल्गुनात् / - वधे नूनं भवेच्छान्तिस्तेषां वा फल्गनस्य वा॥ 12 साक्षादर्शनमेतेषामीश्वराणां नरो भुवि // 25 : न तु हन्तार्जुनस्यास्ति जेता वास्य न विद्यते / महेश्वरेण यो राजन्न जीर्णो प्रस्तमूर्तिमान् / / मन्युस्तस्य कथं शाम्येन्मन्दान्प्रति समुत्थितः॥१३ कस्तमुत्सहते वीरं युद्धे जरयितुं पुमान् // 26 // त्रिदशेशसमो वीरः खाण्डवेऽग्निमतर्पयत् / - आसादितमिदं घोरं तुमुलं लोमहर्षणम् / - 451 -
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________________ 8. 46. 21] महाभारते [3. 47.11 47 द्रौपदी परिकर्षद्भिः कोपयद्भिश्च पाण्डवान् // 27 | क्रुद्ध पार्थे च भीमे च वासुदेवे च सात्वते // 41 यत्र विस्फुरमाणोष्ठो भीमः प्राह वचो महत्। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि . प्रम दुर्योधनेनोरू द्रौपद्या दर्शितावुभौ // 28 षट्चत्वारिंशोऽध्यायः // 16 // ऊरू भेत्स्यामि ते पाप गदया वज्रकल्पया। प्रयोदशानां वर्षाणामन्ते दुर्घतदेविनः // 29 जनमेजय उवाच। सर्वे प्रहरता श्रेष्ठाः सर्वे चामिततेजसः। यदिदं शोचितं राज्ञा धृतराष्ट्रेण वै मुने। .सर्वे सर्वास्त्रविद्वांसो देवैरपि सुदुर्जयाः / / 30 प्रव्राज्य पाण्डवान्वीरान्सर्वमेतन्निरर्थकम् // 1 मन्ये मन्युसमुद्भूताः पुत्राणां तव संयुगे। कथं हि राजा पुत्रं स्वमुपेक्षेताल्पचेतसम् / अन्तं पार्थाः करिष्यन्ति वीर्यामर्षसमन्विताः॥३१ दुर्योधनं पाण्डुपुत्रान्कोपयानं महारथान् // 2 धृतराष्ट्र उवाच / किमासीत्पाण्डुपुत्राणां वने भोजनमुच्यताम् / .. किं कृतं सूत कर्णेन वदता परुषं वचः / वानेयमथ वा कृष्टमेतदाख्यातु मे भवान् // 3 : पर्याप्तं वैरमेतावद्यत्कृष्णा सा सभां गता // 32 वैशंपायन उवाच / अपीदानीं मम सुतास्तिष्ठेरन्मन्दचेतसः / वानेयं च मृगांश्चैव शुद्धैर्बाणैर्निपातितान् / येषां भ्राता गुरुज्येष्ठो विनये नावतिष्ठते // 33 ब्राह्मणानां निवेद्याप्रमभुञ्जन्पुरुषर्षभाः॥४. तांस्तु शूरान्महेष्वासांस्तदां निवसतो वने। ममापि वचनं सूत न शुश्रूषति मन्दभाक् / अन्वयुर्ब्राह्मणा राजन्सानयोऽनग्नयस्तथा // 5 दृष्ट्वा मां चक्षुषा हीनं निर्विचेष्टमचेतनम् // 34 ब्राह्मणानां सहस्राणि स्नातकानां महात्मनाम् / ये चास्य सचिवा मन्दाः कर्णसौबलकादयः। दश मोक्षविदां तद्वद्यान्विभर्ति युधिष्ठिरः॥ 6 तेऽप्यस्य भूयसो दोषान्वर्धयन्ति विचेतसः॥ 35 रुरुन्कृष्णमृगांश्चैव मेध्यांश्चान्यान्वनेचरान् / स्वैरमुक्ता अपि शराः पार्थेनामिततेजसा / बाणैरुन्मथ्य विधिवदाह्मणेभ्यो न्यवेदयत् // 7 निर्दहेयुर्मम सुतान्किं पुनर्मन्युनेरिताः // 36 न तत्र कश्चिहुवर्णो व्याधितो वाप्यदृश्यत / पार्थबाहुबलोत्सृष्टा महाचापविनिःसृताः। कृशो वा दुर्बलो वापि दीनो भीतोऽपि वा नरः॥८ दिव्यास्त्रमत्रमुदिताः सादयेयुः सुरानपि // 37 पुत्रानिव प्रियाञातीन्भ्रातृनिव सहोदरान् / .. यस्य मत्री च गोप्ता च सुहृञ्चैव जनार्दनः। पुपोष कौरवश्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः॥९ हरित्रैलोक्यनाथः स किं नु तस्य न निर्जितम्।।३८ पतींश्च द्रौपदी सर्वान्द्विजांश्चैव यशस्विनी।। इदं च सुमहच्चित्रमर्जुनस्येह संजय / मातेव भोजयित्वाग्रे शिष्टमाहारयत्तदा // 10 महादेवेन बाहुभ्यां यत्समेत इति श्रुतिः // 39 प्राची राजा दक्षिणां भीमसेनो प्रत्यक्षं सर्वलोकस्य खाण्डवे यत्कृतं पुरा। ___ यमौ प्रतीचीमथ वाप्युदीचीम् / फल्गुनेन सहायार्थे वह्वेर्दामोदरेण च // 40 धनुर्धरा मांसहेतोम॑गाणां सर्वथा नास्ति मे पुत्रः सामात्यः सहबान्धवः / ___ क्षयं चक्रुर्नित्यमेवोपगम्य // 11 -452
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________________ 3. 47. 12] आरम्यकपर्व [3. 48. 24 तथा तेषां वसतां काम्यके वै - संजय उवाच / बिहीनानामर्जुनेनोत्सुकानाम्। व्यतिक्रमोऽयं सुमहांस्त्वया राजन्नुपेक्षितः।। पञ्चैव वर्षाणि तदा व्यतीयु समर्थेनापि यन्मोहात्पुत्रस्ते न निवारितः // 11... रधीयतां जपतां जुह्वतां च // 12 श्रुत्वा हि निर्जितान्ते पाण्डवान्मधुसूदनः। -- इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि त्वरितः काम्यके पार्थान्समभावयदच्युतः // 12 सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥४७॥ द्रुपदस्य तथा पुत्रा धृष्टद्युम्नपुरोगमाः। विराटो धृष्टकेतुश्च केकयाश्च महारथाः॥ 13 . वैशंपायन उवाच / वैश्च यत्कथितं तत्र दृष्ट्वा पार्थान्पराजितान् / सुदीर्घमुष्णं निःश्वस्य धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुसः / चारेण विदितं सर्व तन्मया वेदितं च ते॥१४ अब्रवीत्संजयं सूतमामय भरतर्षभ // 1 समागम्य वृतस्तत्र पाण्डवैर्मधुसूदनः। देवपुत्रौ महाभागौ देवराजसमद्युती। सारथ्ये फल्गुनस्याजौ तथेत्याह च तान्हरिः॥ 15 नकुलः सहदेवश्च पाण्डवौ युद्धदुर्मदौ // 2 अमर्षितो हि कृष्णोऽपि दृष्ट्वा पार्थांस्तथागतान् / दृढायुधौ दूरपातौ युद्धे च कृतनिश्चयौ। कृष्णाजिनोत्तरासङ्गानब्रवीच युधिष्ठिरम् // 16 शीघ्रहस्तौ दृढक्रोधौ नित्ययुक्तौ तरस्विनौ // 3 या सा समृद्धिः पार्थानामिन्द्रप्रस्थे बभूव ह। भीमार्जुनौ पुरोधाय यदा तौ रणमूर्धनि / राजसूये मया दृष्टा नृपैरन्यैः सुदुर्लभा // 17 स्थास्येते सिंहविक्रान्तावश्विनाविव दुःसहौ / यत्र सर्वान्महीपालाशनतेजोभयार्दितान् / न शेषमिह पश्यामि तदा सैन्यस्य संजय // 4 सवङ्गाङ्गान्सपौण्डोडान्सचोलद्रविडान्ध्रकान् // 18 तौ ह्यप्रतिरथौ युद्धे देवपुत्रौ महारथौ। ' सागरानूपगांश्चैव ये च पत्तनवासिनः / द्रौपद्यास्तं परिक्लेशं न ऑस्येते त्वमर्षिणौ // 5 सिंहलान्बर्बरान्म्लेच्छान्ये च जाङ्गलवासिनः॥ 19 वृष्णयो वा महेष्वासा पाञ्चाला वा महौजसः। : पश्चिमानि च राज्यानि शतशः सागरान्तिकान् / युधि सत्याभिसंधेन वासुदेवेन रक्षिताः। पड़वान्दरदान्सर्वान्किरातान्यवनाशकान् // 20 प्रधक्ष्यन्ति रणे पार्थाः पुत्राणां मम वाहिनीम् // 6 हारहूणांश्च चीनांश्च तुखारान्सैन्धवांस्तथा / रामकृष्णप्रणीतानां वृष्णीनां सूतनन्दन। जागुडान्रमठान्मुण्डान्स्त्रीराज्यानथ तङ्गणान् // 21 न शक्यः सहितुं वेगः पर्वतैरपि संयुगे // 7 एते चान्ये च बहवो ये च ते भरतर्षभ / तेषां मध्ये महेष्वासो भीमो भीमपराक्रमः / आगतानहमद्राक्षं यज्ञे ते परिवेषकान् // 22 शैक्यया वीरघातिन्या गदया विचरिष्यति // 8 सा ते समृद्धिरात्ता चपला प्रतिसारिणी / वथा गाण्डीवनिर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः / आदाय जीवितं तेषामाहरिष्यामि तामहम् // 23 गदावेगं च भीमस्य नालं सोढुं नराधिपाः॥९ रामेण सह कौरव्य भीमार्जुनयमैस्तथा / ततोऽहं सुहृदां वाचो दुर्योधनवशानुगः / अरगदसाम्बैश्च प्रद्युम्नेनाहुकेन च / . स्मरणीयाः स्मरिष्यामि मया या न कृताः पुरा // 10 / धृष्टद्युम्नेन वीरेण शिशुपालात्मजेन च // 24 -453 -
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________________ 3:48. 25] महामारते [ 3. 49. दुर्योधनं रणे हत्वा सद्यः कर्ण च भारत / दुःशासनं सौबलेयं यश्चान्यः प्रतियोत्स्यते // 25 ततस्त्वं हास्तिनपुरे भ्रातृभिः सहितो वसन् / / धार्तराष्ट्रीं श्रियं प्राप्य प्रशाधि पृथिवीमिमाम् // 26 अर्थनमब्रवीद्राजा तस्मिन्वीरसमागमे / शृण्वत्सु तेषु सर्वेषु धृष्टद्युम्नमुखेषु च // 27 प्रतिगृह्णामि ते वाचं सत्यामेतां जनार्दन / अमित्रान्मे महाबाहो सानुबन्धान्हनिष्यसि // 28 वर्षात्रयोदशादूचं सत्यं मां कुरु केशव। . प्रतिज्ञातो वने वासो राजमध्ये मया ह्ययम् / / 29 तद्धर्मराजवचनं प्रतिश्रुत्य सभासदः। धृष्टद्युम्नपुरोगास्ते शमयामासुरञ्जसा / केशवं मधुरैर्वाक्यः कालयुक्तैरमर्षितम् // 30 पाञ्चालीं चाहुरक्लिष्टां वासुदेवस्य शृण्वतः। दुर्योधनस्तव क्रोधादेवि त्यक्ष्यति जीवितम् / प्रतिजानीम ते सत्यं मा शुचो वरवर्णिनि // 31 ये स्म ते कुपितां कृष्णे दृष्ट्वा त्वां प्राहसंस्तदा। मांसानि तेषां खादन्तो हसिष्यन्ति मृगद्विजाः॥३२ पास्यन्ति रुधिरं तेषां गृध्रा गोमायवस्तथा। उत्तमाङ्गानि कर्षन्तो यैस्त्वं कृष्टा सभातले // 33 तेषां द्रक्ष्यसि पाश्चालि गात्राणि पृथिवीतले। क्रव्यादैः कृष्यमाणानि भक्ष्यमाणानि चासकृत्॥३४ परिक्लिष्टासि यैस्तत्र यैश्चापि समुपेक्षिता। तेषामुत्कृत्तशिरसां भूमिः पास्यति शोणितम्॥३५ एवं बहुविधा वाचस्तदोचुः पुरुषर्षभाः। / सर्वे तेजस्विनः शूराः सर्वे चाहतलक्षणाः // 36 से धर्मराजेन वृता वर्षादूर्ध्व त्रयोदशात् / / पुरस्कृत्योपयास्यन्ति वासुदेवं महारथाः // 37 रामश्च कृष्णश्च धनंजयश्च * प्रद्युम्नसाम्बौ युयुधानभीमौ। माद्रीसुतौ केकयराजपुत्राः पाञ्चालपुत्राः सह धर्मराज्ञा // 38 एतान्सल्लिोकवीरानजेया___ महात्मनः सानुबन्धान्ससैन्यान् / को जीवितार्थी समरे प्रत्युदीयाक्रुद्धान्सिंहान्केसरिणो यथैव // 39 . धृतराष्ट्र उवाच। यन्माब्रवीद्विदुरो द्यूतकाले त्वं पाण्डवाओष्यसि चेन्नरेन्द्र। ध्रुवं कुरूणामयमन्तकालो महाभयो भविता शोणिचौघः // 40 मन्ये तथा तद्भवितेति सूत ___ यथा क्षत्ता प्राह वचः पुरा माम् / असंशयं भविता युद्धमेत द्गते काले पाण्डवानां यथोक्तम् // 41 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि __ अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः // 8 // 0 जनमेजय उवाच / अनहेतोगते पार्थे शक्रलोकं महात्मनि / युधिष्ठिरप्रभृतयः किमकुर्वन्त पाण्डवाः // 1 वैशंपायन उवाच। अनहेतोगते पार्थे शक्रलोकं महात्मनि / न्यवसन्कृष्णया साधं काम्यके पुरुषर्षभाः // 2 ततः कदाचिदेकान्ते विविक्त इव शाहले। दुःखार्ता भरतश्रेष्ठा निषेदुः सह कृष्णया / धनंजयं शोचमानाः साश्रुकण्ठाः सुदुःखिताः // 3 तद्वियोगाद्धि तान्सर्वाञ्शोकः समभिपुप्लुवे / धनंजयवियोगाश्च राज्यनाशाच दुःखिताः॥ 4 अथ भीमो महाबाहुर्युधिष्ठिरमभाषत। - 454 -
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________________ 8. 49.5] आरण्यकपर्व [3. 49. 28 निदेशात्ते महाराज गतोऽसौ पुरुषर्षभः। एवमेतद्भवेद्राजन्यवि राजा न बालिशः। अर्जुनः पाण्डुपुत्राणां यस्मिन्प्राणाः प्रतिष्ठिताः॥५ अस्माकं दीर्घसूत्रः स्याद्भवान्धर्मपरायणः // 19: यस्मिन्विनष्टे पाञ्चालाः सह पुत्रैस्तथा वयम् / . निकृत्या निकृतिप्रज्ञा हन्तव्या इति निश्चयः / सात्यकिर्वासुदेवश्च विनश्येयुरसंशयम् // 6 न हि नैकृतिकं हत्वा निकृत्या पापमुच्यते // 20 योऽसौ गच्छति तेजस्वी बहून्क्लेशानचिन्तयन्।। तथा भारत धर्मेषु धर्मज्ञैरिह दृश्यते। भवन्नियोगाद्वीभत्सुस्ततो दुःखतरं नु किम् // 7. अहोरात्रं महाराज तुल्यं संवत्सरेण हि // 21. ध्यस्य बाहू समाश्रित्य वयं सर्वे- महात्मनः। तथैव वेदवचनं श्रूयते नित्यदा विभो। मन्यामहे जितानाजी परान्प्राप्तां च मेदिनीम् // 8 संवत्सरो महाराज पूर्णो भवति कृच्छ्रतः // 220 यस्य प्रभावान्न मया सभामध्ये धनुष्मतः।.. यदि वेदाः प्रमाणं ते दिवसादूर्ध्वमच्युत। नीता लोकममुं सर्वे धार्तराष्ट्राः ससौबलाः॥ 9 त्रयोदश समाः कालो ज्ञायतां परिनिष्ठितः // 23 ते वयं बाहुबलिनः क्रोधमुत्थितमात्मनः। कालो दुर्योधनं हन्तुं सानुबन्धमरिंदम / : सहामहे भवन्मूलं वासुदेवेन पालिताः // 10 ... एकाग्रां पृथिवीं सर्वां पुरा राजन्करोति सः॥२४ वयं हि सह कृष्णेन हत्वा कर्णमुखान्परान् / .. एवं ब्रुवाणं भीमं तु धर्मराजो युधिष्ठिरः। स्वबाहुविजितां कृत्स्ना प्रशासेम वसुंधराम् // 11 उवाच सान्त्वयनराजा मूर्युपाघ्राय पाण्डवम् // 25 भवतो द्यूतदोषेण सर्वे वयमुपप्लुताः। असंशयं महाबाहो हनिष्यसि सुयोधनम्। अहीनपौरुषा राजन्बलिभिर्बलवत्तमाः // 12 वर्षात्रयोदशादूर्ध्वं सह गाण्डीवधन्वना // 26 5 क्षात्र धर्म महाराज समवेक्षितुमर्हसि / यञ्च मा भाषसे पार्थ प्राप्तः काल इति प्रभो। न हि धर्मो महाराज क्षत्रियस्य वनाश्रयः / .. अनृतं नोत्सहे वक्तुं न ह्येतन्मयि विद्यते // 27 राज्यमेव परं धर्म क्षत्रियस्य विदुर्बुधाः // 13 : अन्तरेणापि कौन्तेय निकृतिं पापनिश्चयम् / . स क्षत्रधर्मविद्राजन्मा धान्नीनशः पथः।। हन्ता त्वमसि दुर्धर्ष सानुबन्धं सुयोधनम् // 28 प्रारद्वादशं समा राजन्धार्तराष्ट्रान्निहन्महि // 14 एवं ब्रुवति भीमं तु धर्मराजे युधिष्ठिरे। निवर्त्य च वनात्पार्थमानाय्य च जनार्दनम् / आजगाम महाभागो बृहदश्वो महानृषिः // 29H व्यूढानीकान्महाराज जवेनैव महाहवे। तमभिप्रेक्ष्य धर्मात्मा संप्राप्तं धर्मचारिणम् / धार्तराष्ट्रानमुं लोकं गमयामि विशां पते // 15 शास्त्रवन्मधुपर्केण पूजयामास धर्मराट् // 30. सर्वानहं हनिष्यामि धार्तराष्ट्रान्ससौबलान् / ... आश्वस्तं चैनमासीनमुपासीनो युधिष्ठिरः। दुर्योधनं च कर्णं च यो वान्यः प्रतियोत्स्यते // 16 अभिप्रेक्ष्य महाबाहुः कृपणं बह्वभाषत // 31 पया प्रशमिते पश्चात्त्वमेष्यसि वनात्पुनः। अक्षयूतेन भगवन्धनं राज्यं च मे हृतम् / एवं कृते न ते दोषो भविष्यति विशां पते // 17 / आहूय निकृतिप्रज्ञैः कितवैरक्षकोविदैः // 32 यज्ञैश्च विविधैस्तात कृतं पापमरिंदम। ... / अनक्षज्ञस्य हि सतो निकृत्या पापनिश्चयैः / अवधूय महाराज गच्छेम स्वर्गमुत्तमम् / / 18 / भार्या च मे सभां नीता प्राणेभ्योऽपि गरीयसी॥३३ -:45 -
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________________ 8. 49. 34] महामारते . [ 3. 50. 18 अस्ति राजा मया कश्चिदल्पभाग्यतरो भुवि / उपपन्नो गुणैरिष्टै रूपवानश्वकोविदः // 1 भवता दृष्टपूर्वो वा श्रुतपूर्वोऽपि वा भवेत् / अतिष्ठन्मनुजेन्द्राणां मूनि देवपतिर्यथा / न मत्तो दुःखिततरः पुमानस्तीति मे मतिः॥३४ उपर्युपरि सर्वेषामादित्य इव तेजसा // 2 बृहदश्व उवाच / ब्रह्मण्यो वेदविच्छूरो निषधेषु महीपतिः। यद्भवीषि महाराज न मत्तो विद्यते क्वचित् / अक्षप्रियः सत्यवादी महानक्षौहिणीपतिः // 3 अल्पभाग्यतरः कश्चित्पुमानस्तीति पाण्डव // 35 ईप्सितो वरनारीणामुदारः संयतेन्द्रियः। : अत्र ते कथयिष्यामि यदि शुश्रूषसेऽनघ / / रक्षिता धन्विनां श्रेष्ठः साक्षादिव मनुः स्वयम्॥४ यस्त्वत्तो दुःखिततरो राजासीत्पृथिवीपते // 36 तथैवासीद्विदर्भेषु भीमो भीमपराक्रमः / . वैशंपायन उवाच / शूरः सर्वगुणैर्युक्तः प्रजाकामः स चाप्रजः // 5 अयैनमब्रवीद्राजा ब्रवीतु भगवानिति / स प्रजार्थे परं यत्नमकरोत्सुसमाहितः / .. इमामवस्थां संप्राप्तं श्रोतुमिच्छामि पार्थिवम् // 37 तमभ्यगच्छद्ब्रह्मर्षिर्दमनो नाम भारत // 6 बृहदश्व उवाच। तं स भीमः प्रजाकामस्तोषयामास धर्मवित् / / शृणु राजन्नवहितः सह भ्रातृभिरच्युत / महिष्या सह राजेन्द्र सत्कारेण सुवर्चसम् // 7 यस्त्वत्तो दुःखिततरो राजासीत्पृथिवीपते // 38 तस्मै प्रसन्नो दमनः सभार्याय वरं ददौ / निषधेषु महीपालो वीरसेन इति स्म ह / कन्यारत्नं कुमारांश्च त्रीनुदारान्महायशाः // 8 . तस्य पुत्रोऽभवन्नाम्ना नलो धर्मार्थदर्शिवान् // 39 / दमयन्ती दमं दान्तं दमनं च सुवर्चसम्। स निकृत्या जितो राजा पुष्करेणेति नः श्रुतम् / उपपन्नान्गुणैः सर्वैर्भीमान्भीमपराक्रमान् // 9 बनधासमदुःखा) भार्यया न्यवसत्सह // 40 दमयन्ती तु रूपेण तेजसा यशसा श्रिया। न तस्याश्वो न च रथो न भ्राता न च बान्धवाः। सौभाग्येन च लोकेषु यशः प्राप सुमध्यमा // 10 वने निवसतो राजशिष्यन्ते स्म कदाचन // 41 अथ तां वयसि प्राप्ते दासीनां समलंकृतम्। भवान्हि संवृतो वीरैतृभिर्देवसंमितैः। शतं सखीनां च तथा पर्युपास्ते शचीमिव // 11 प्रकल्पैर्द्विजाग्र्यैश्च तस्मान्नाईसि शोचितुम् // 42 तत्र स्म भ्राजते भैमी सर्वाभरणभूषिता। युधिष्ठिर उवाच। सखीमध्येऽनवद्याङ्गी विद्युत्सौदामिनी यथा / विस्तरेणाहमिच्छामि नलस्य सुमहात्मनः। अतीव रूपसंपन्ना श्रीरिवायतलोचना // 12 .. चरितं वदतां श्रेष्ठ तन्ममाख्यातुमर्हसि // 43 / / न देवेषु न यक्षेषु तादृग्रूपवती कचित् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि मानुषेष्वपि चान्येषु दृष्टपूर्वा न च श्रुता / एकोनपञ्चाशोऽध्यायः॥४९॥ चित्तप्रमाथिनी बाला देवानामपि सुन्दरी // 13 नलश्च नरशार्दूलो रूपेणाप्रतिमो भुवि / बृहदश्व उवाच / कन्दर्प इव रूपेण मूर्तिमानभवत्स्वयम् // 14 आसीद्राजा नलो नाम वीरसेनसुतो बली। तस्याः समीपे तु नलं प्रशशंसुः कुतूहलात् / -1456 50
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________________ 3. 50. 15 ] आरण्यकपर्व [3. 51. 12 नैषधस्य समीपे तु दमयन्तीं पुनः पुनः // 15 / अब्रवीत्तत्र तं हसं तमप्येवं नलं वद // 30 तयोरदृष्टकामोऽभूच्छृण्वतोः सततं गुणान् / तथेत्युक्त्वाण्डजः कन्यां वैदर्भस्य विशां पते / अन्योन्यं प्रति कौन्तेय स व्यवर्धत हृच्छयः॥१६ पुनरागम्य निषधानले सर्व न्यवेदयत् // 31 अशक्नुवन्नलः कामं तदा धारयितुं हृदा। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि अन्तःपुरसमीपस्थे वन आस्ते रहोगतः // 17 पञ्चाशोऽध्यायः॥५०॥ . स ददर्श तदा हंसाञ्जातरूपपरिच्छदान् / . . वने विचरतां तेषामेकं जग्राह पक्षिणम् // 18 बृहदश्व उवाच / ततोऽन्तरिक्षगो वाचं व्याजहार तदा नलम् / दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा वचो हंसस्य भारत। न हन्तव्योऽस्मि ते राजन्करिष्यामि हि ते प्रियम् // तदाप्रभृति नस्वस्था नलं प्रति बभूव सा॥१ दमयन्तीसकाशे त्वां कथयिष्यामि नैषध / ततश्चिन्तापरा दीना विवर्णवदना कृशा। .. यथा त्वदन्यं पुरुषं न सा मंस्यति कर्हिचित् // 20 बभूव दमयन्ती तु निःश्वासपरमा तदा // 2 .. एवमुक्तस्ततो हंसमुत्ससर्ज महीपतिः। ऊर्ध्वदृष्टिानपरा बभूवोन्मत्तदर्शना।। ते तु हंसाः समुत्पत्य विदर्भानगमंस्ततः // 21 . न शय्यासनभोगेषु रतिं विन्दति कर्हिचित् // 3 विदर्भनगरी गत्वा दमयन्त्यास्तदान्तिके। न नक्तं न दिवा शेते हा हेति वदती मुहुः / निपेतुस्ते गरुत्मन्तः सा ददर्शाथ तान्खगान् // 22 तामस्वस्थां तदाकारां सख्यस्ता जडरिङ्गितैः॥ 4 . सा तानद्भुतरूपान्वै दृष्ट्वा सखिगणावृता। ततो विदर्भपतये दमयन्त्याः सखीगणः / हृष्टा ग्रहीतुं खगमांस्त्वरमाणोपचक्रमे // 23 न्यवेदयत नस्वस्थां दमयन्ती नरेश्वर // 5 अथ हंसा विससूपुः सर्वतः प्रमदावने / तच्छ्रुत्वा नृपतिर्भीमो दमयन्तीसखीगणात् / एकैकशस्ततः कन्यास्तान्हंसान्समुपाद्रवन् // 24 चिन्तयामास तत्कार्य सुमहत्स्वां सुतां प्रति // 6 . दमयन्ती तु यं हंसं समुपाधावदन्तिके / स समीक्ष्य महीपालः स्वां सुतां प्राप्तयौवनाम् / स मानुषर्षी गिरं कृत्वा दमयन्तीमथाब्रवीत् // 25 अपश्यदात्मनः कार्य दमयन्त्याः स्वयंवरम् // 7. दमयन्ति नलो नाम निषधेषु महीपतिः / स संनिपातयामास महीपालान्विशां पते।। अश्विनोः सदृशो रूपे न समास्तस्य मानुषाः // 26 अनुभूयतामयं वीराः स्वयंवर इति प्रभो // 8. .. तस्य वै यदि भार्या त्वं भवेथा वरवर्णिनि / श्रुत्वा तु पार्थिवाः सर्वे दमयन्त्याः स्वयंवरम् / सफलं ते भवेज्जन्म रूपं चेदं सुमध्यमे // 27 . अभिजग्मुस्तदा भीमं राजानो भीमशासनात् // 9 वयं हि देवगन्धर्वमनुष्योरगराक्षसान् / हस्त्यश्वरथघोषेण नादयन्तो वसुंधराम् / दृष्टवन्तो न चास्माभिदृष्टपूर्वस्तथाविधः // 28 विचित्रमाल्याभरणैर्बलैईश्यैः स्खलंकृतैः // 10 त्वं चापि रत्नं नारीणां नरेषु च नलो वरः। . एतस्मिन्नेव काले तु पुराणावृषिसत्तमा / विशिष्टाया विशिष्टेन संगमो गुणवान्भवेत् // 29 अटमानौ महात्मानाविन्द्रलोकमितो गतौ // 11 एवमुक्ता तु हंसेन दमयन्ती विशां पते। . . / नारदः पर्वतश्चैव महात्मानौ महाव्रतौ। .. .. म. भा. 58 -- 457 -
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________________ - 3. 51. 12] महाभारते [3. 52.9 पाण देवराजस्य भवनं विविशाते सुपूजितौ // 12 साक्षादिव स्थितं मूर्त्या मन्मथं रूपसंपदा // 26 तावर्चित्वा सहस्राक्षस्ततः कुशलमव्ययम् / तं दृष्ट्वा लोकपालास्ते भ्राजमानं यथा रविम् / पप्रच्छानामयं चापि तयोः सर्वगतं विभुः // 13 | तस्थुर्विगतसंकल्पा विस्मिता रूपसंपदा // 27 नारद उवाच / ततोऽन्तरिक्ष विष्टभ्य विमानानि दिवौकसः / आवयोः कुशलं देव सर्वत्रगतमीश्वर / अब्रुवन्नैषधं राजन्नवतीर्य नभस्तलात् // 28 लोके च मघवन्कृत्स्ने नृपाः कुशलिनो विभो॥१४ | भो भो नैषध राजेन्द्र नल सत्यव्रतो भवान् / ' बृहदश्व उवाच / अस्माकं कुरु साहाय्यं दूतो भव नरोत्तम // 29 नारदस्य वचः श्रुत्वा पप्रच्छ बलवृत्रहा। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि धर्मज्ञाः पृथिवीपालास्त्यक्तजीवितयोधिनः // 15 एकपञ्चाशोऽध्यायः॥५१॥ शस्त्रेण निधनं काले ये गच्छन्त्यपराङ्मुखाः। अयं लोकोऽक्षयस्तेषां यथैव मम कामधुक् // 16 बृहदश्व उवाच / क नु ते क्षत्रियाः शूरा न हि पश्यामि तानहम् / तेभ्यः प्रतिज्ञाय नलः करिष्य इति भारत / आगच्छतो महीपालानतिथीन्दयितान्मम // 17 / अथैनान्परिपप्रच्छ कृताञ्जलिरवस्थितः // 1 एवमुक्तस्तु शक्रेण नारदः प्रत्यभाषत / के वै भवन्तः कश्चासौ यस्याहं दूत ईप्सितः / शृणु मे भगवन्येन न दृश्यन्ते. महीक्षितः // 18 किं च तत्र मया कार्य कथयध्वं यथातथम् // 2 विदर्भराजदुहिता दमयन्तीति विश्रुता। एवमुक्ते नैषधेन मघवान्प्रत्यभाषत। रूपेण समतिक्रान्ता पृथिव्यां सर्वयोषितः // 19 अमरान्वै निबोधास्मान्दमयन्त्यर्थमागतान // 3 तस्याः स्वयंवरः शक्र भविता नचिरादिव। अहमिन्द्रोऽयमग्निश्च तथैवायमपांपतिः / तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्च सर्वशः // 20 शरीरान्तकारो नृणां यमोऽयमपि पार्थिव // 4 . तां रत्नभूतां लोकस्य प्रार्थयन्तो महीक्षितः / स वै त्वमागतानस्मान्दमयन्त्यै निवेदय / कान्ति स्म विशेषेण बलवृत्रनिषूदन // 21 लोकपालाः सहेन्द्रास्त्वां समायान्ति दिक्षवः॥५ एतस्मिन्कथ्यमाने तु लोकपालाश्च साग्निकाः। प्राप्तुमिच्छन्ति देवास्त्वां शक्रोऽग्निर्वरुणो यमः / आजग्मुर्देवराजस्य समीपममरोत्तमाः // 22 तेषामन्यतमं देवं पतित्वे वरयस्व ह // 6 ततस्तच्छुश्रुवुः सर्वे नारदस्य वचो महत्। . एवमुक्तः स शक्रेण नलः प्राञ्जलिरब्रवीत् / श्रुत्वा चैवाब्रुवन्हृष्टा गच्छामो वयमप्युत // 23 एकार्थसमवेतं मां न प्रेषयितुमर्हथ // 7 ततः सर्वे महाराज सगणाः सहवाहनाः / देवा ऊचुः। विदर्भानभितो जग्मुर्यत्र सर्वे महीक्षितः // 24 करिष्य इति संश्रुत्य पूर्वमस्मासु नैषध / नलोऽपि राजा कौन्तेय श्रुत्वा राज्ञां समागमम् / न करिष्यसि कस्मात्त्वं व्रज नैषध माचिरम् // 8 अभ्यगच्छददीनात्मा दमयन्तीमनुव्रतः // 25 बृहदश्व उवाच / अथ देवाः पथि नलं ददृशुर्भूतले स्थितम् / / एवमुक्तः स देवैस्तै३षधः पुनरब्रवीत् / - 458 -
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________________ 3. 52.9] आरण्यकपर्व [3. 53. 13 सुरक्षितानि वेश्मानि प्रवेष्टुं कथमुत्सहे // 9 . एतच्छ्रुत्वा शुभे बुद्धिं प्रकुरुष्व यथेच्छसि // 24 प्रवेक्ष्यसीति तं शक्रः पुनरेवाभ्यभाषत / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि जगाम स तथेत्युक्त्वा दमयन्त्या निवेशनम् // 10 द्विपञ्चाशोऽध्यायः // 52 // ददर्श तत्र वैदी सखीगणसमावृताम् / देदीप्यमानां वपुषा श्रिया च वरवर्णिनीम् // 11 बृहदश्व उवाच / अतीवं सुकुमाराङ्गी तनुमध्यां सुलोचनाम् / सा नमस्कृत्य देवेभ्यः प्रहस्य नलमब्रवीत् / / आक्षिपन्तीमिव च भाः शशिनः स्वेन तेजसा॥ 12 प्रणयस्व यथाश्रद्धं राजन्किं करवाणि ते // 1 तस्य दृष्ट्वैव ववृधे कामस्तां चारुहासिनीम् / अहं चैव हि यच्चान्यन्ममास्ति वसु किंचन। सत्यं चिकीर्षमाणस्तु धारयामास हृच्छयम् // 13 सर्वं तत्तव विश्रब्धं कुरु प्रणयमीश्वर // 2.. ततस्ता नैषधं दृष्ट्वा संभ्रान्ताः परमाङ्गनाः / हंसानां वचनं यत्तत्तन्मां दहति पार्थिव / आसनेभ्यः समुत्पेतुस्तेजसा तस्य धर्षिताः // 14 त्वत्कृते हि मया वीर राजानः संनिपातिताः // 3 प्रशशंसुश्च सुप्रीता नलं ता विस्मयान्विताः। यदि चेद्भजमानां मां प्रत्याख्यास्यसि मानद / न चैनमभ्यभाषन्त मनोभिस्त्वभ्यचिन्तयन् // 15 विषमग्निं जलं रज्जुमास्थास्ये तव कारणात् // 4 अहो रूपमहो कान्तिरहो धैर्य महात्मनः / एवमुक्तस्तु वैदा नलस्तां प्रत्युवाच ह। कोऽयं देवो नु यक्षो नु गन्धर्वो न भविष्यति॥१६ तिष्ठत्सु लोकपालेषु कथं मानुषमिच्छसि // 5 // न त्वेनं शक्नुवन्ति स्म व्याहर्तुमपि किंचन / येषामहं लोककृतामीश्वराणां महात्मनाम् / तेजसा धर्षिताः सर्वा लज्जावत्यो वराङ्गनाः // 17 न पादरजसा तुल्यो मनस्ते तेषु वर्तताम् // 6 अथैनं स्मयमानेव स्मितपूर्वाभिभाषिणी। विप्रियं ह्याचरन्मयों देवानां मृत्युमृच्छति / दमयन्ती नलं वीरमभ्यभाषत विस्मिता // 18 त्राहि मामनवद्याङ्गि वरयस्व सुरोत्तमान् // 7 कस्त्वं सर्वानवद्याङ्ग मम हृच्छयवर्धन / ततो बाष्पकलां वाचं दमयन्ती शुचिस्मिता / प्राप्तोऽस्यमरवद्वीर ज्ञातुमिच्छामि तेऽनघ / 19 प्रव्याहरन्ती शनकैर्नलं राजानमब्रवीत् // 8 कथमागमनं चेह कथं चासि न लक्षितः।। अस्त्युपायो मया दृष्टो निरपायो नरेश्वर / सुरक्षितं हि मे वेश्म राजा चैवोप्रशासनः // 20 येन दोषो न भविता तव राजन्कथंचन // 9 एवमुक्तस्तु वैदा नलस्तां प्रत्युवाच ह। त्वं चैव हि नरश्रेष्ठ देवाश्चाग्निपुरोगमाः। नलं मां विद्धि कल्याणि देवदूतमिहागतम् // 21 आयान्तु सहिताः सर्वे मम यत्र स्वयंवरः // 10 देवास्त्वां प्राप्तुमिच्छन्ति शक्रोऽग्निर्वरुणो यमः। ततोऽहं लोकपालानां संनिधौ त्वां नरेश्वर।। तेषामन्यतमं देवं पतिं वरय शोभने // 22 वरयिष्ये नरव्याघ्र नैवं दोषो भविष्यति // 11 तेषामेव प्रभावेन प्रविष्टोऽहमलक्षितः / एवमुक्तस्तु वैदा नलो राजा विशां पते / प्रविशन्तं हि मां कश्चिन्नापश्यन्नाप्यवारयत् // 23 | | आजगाम पुनस्तत्र यत्र देवाः समागताः // 12 . एतदर्थमहं भद्रे प्रेषितः सुरसत्तमैः। / तमपश्यंस्तथायान्तं लोकपालाः सहेश्वराः। - 459 -
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________________ 8. 53. 13] महाभारते [ 3. 54. 18 दृष्ट्वा चैनं ततोऽपृच्छन्वृत्तान्तं सर्वमेव तत् // 13 / सुरभिस्रग्धराः सर्वे सुमृष्टमणिकुण्डलाः // 4 देवा ऊचुः। तां राजसमितिं पूर्णां नागैर्भोगवतीमिव / कश्चिदृष्टा त्वया राजन्दमयन्ती शुचिस्मिता। संपूर्णा पुरुषव्याघेाङ्ग्रनिरिगुहामिव // 5 .... किमब्रवीच्च नः सर्वान्वद भूमिपतेऽनघ // 14 तत्र स्म पीना दृश्यन्ते बाहवः परिघोपमाः। . नल उवाच। आकारवन्तः सुश्तक्ष्णाः पञ्चशीर्षा इवोरगाः॥६ भवद्भिरहमादिष्टो दमयन्त्या निवेशनम् / सुकेशान्तानि चारूणि सुनासानि शुभानि च / प्रविष्टः सुमहाकक्ष्यं दण्डिभिः स्थविरैर्वृतम् // 15 मुखानि राज्ञां शोभन्ते नक्षत्राणि यथा दिवि // 7 प्रविशन्तं च मां तत्र न कश्चिदृष्टवान्नरः / / दमयन्ती ततो रङ्ग प्रविवेश शुभानना।। ऋते तां पार्थिवसुतां भवतामेव तेजसा // 16 मुष्णन्ती प्रभया राज्ञां चक्षंषि च मनांसि च // 8 सख्यश्वास्या मया दृष्टास्ताभिश्चाप्युपलक्षितः।। तस्या गात्रेषु पतिता तेषां दृष्टिर्महात्ममाम् / विस्मिताश्चाभवन्दृष्ट्वा सर्वा मां विबुधेश्वराः // 17 तत्र तत्रैव सक्ताभून्न चचाल च पश्यताम् // 9 वर्ण्यमानेषु च मया भवत्सु रुचिरानना। ततः संकीर्त्यमानेषु राज्ञां नामसु भारत / मामेव गतसंकल्पा वृणीते सुरसत्तमाः॥ 18 ददर्श भैमी पुरुषान्पश्च तुल्याकृतीनिव // 10 .. अब्रवीञ्चैव मां बाला आयान्तु सहिताः सुराः / तान्समीक्ष्य ततः सर्वान्निर्विशेषाकृतीस्थितान् / त्वया सह नरश्रेष्ठ मम यत्र स्वयंवरः // 19 / संदेहादथ वैदर्भी नाभ्यजानान्नलं नृपम् / / तेषामहं संनिधौ त्वां वरयिष्ये नरोत्तम / यं यं हि ददृशे तेषां तं तं मेने नलं नृपम् // 11 एवं तव महाबाहो दोषो न भवितेति ह // 20 सा चिन्तयन्ती बुद्ध्याथ तर्कयामास भामिनी। एतावदेव विबुधा यथावृत्तमुदाहृतम् / कथं नु देवाञ्जानीयां कथं विद्यां नलं नृपम् // 12 मयाशेषं प्रमाणं तु भवन्तस्त्रिदशेश्वराः // 21 एवं संचिन्तयन्ती सा वैदर्भी भृशदुःखिता। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि श्रुतानि देवलिङ्गानि चिन्तयामास भारत // 13 त्रिपञ्चाशोऽध्यायः॥५३॥ देवानां यानि लिङ्गानि स्थविरेभ्यः श्रुतानि मे / तानीह तिष्ठतां भूमावेकस्यापि न लक्षये // 14 बृहदश्व उवाच। सा विनिश्चित्य बहुधा विचार्य च पुनः पुनः / अथ काले शुभे प्राप्ते तिथौ पुण्ये क्षणे तथा / शरणं प्रति देवानां प्राप्तकालममन्यत // 15 आजुहाव महीपालान्भीमो राजा स्वयंवरे // 1 वाचा च मनसा चैव नमस्कारं प्रयुज्य सा। तच्छ्रुत्वा पृथिवीपालाः सर्वे हृच्छयपीडिताः। देवेभ्यः प्राञ्जलिर्भूत्वा वेपमानेदमब्रवीत् // 16 त्वरिताः समुपाजग्मुर्दमयन्तीमभीप्सवः // 2 हंसानां वचनं श्रुत्वा यथा मे नैषधो वृतः।। कनकस्तम्भरुचिरं तोरणेन विराजितम् / पतित्वे तेन सत्येन देवास्तं प्रदिशन्तु मे // 17 विविशुस्ते महारङ्गं नृपाः सिंहा इवाचलम् // 3 वाचा च मनसा चैव यथा नामिचराम्यहम् / तत्रासनेषु विविधेष्वासीनाः पृथिवीक्षितः / तेन सत्येन विबुधास्तमेव प्रदिशन्तु मे // 18 . -460 - 54
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________________ 3. 54. 19] आरण्यकपर्व [3. 55.7 यथा देवैः स मे भर्ता विहितो निषधाधिपः / पार्थिवाश्चानुभूयास्या विवाहं विस्मयान्विताः।। सेन सत्येन मे देवास्तमेव प्रदिशन्तु मे // 19 दमयन्त्याः प्रमुदिताः प्रतिजग्मुर्यथागतम् // 33 खं चैव रूपं पुष्यन्तु लोकपालाः सहेश्वराः / अवाप्य नारीरत्नं तत्पुण्यश्लोकोऽपि पार्थिवः। - अथाहमभिजानीयां पुण्यश्लोकं नराधिपम् // 20 रेमे सह तया राजा शच्येव बलवृत्रहा // 34 . निशम्य दमयन्त्यास्तत्करुणं परिदेवितम् / अतीव मुदितो राजा भ्राजमानोंऽशुमानिव / / निश्चयं परमं तथ्यमनुरागं च नैषधे // 21 अरञ्जयत्प्रजा वीरो धर्मेण परिपालयन् // 35 . मनोविशुद्धिं बुद्धिं च भक्तिं रागं च भारत। ईजे चाप्यश्वमेधेन ययातिरिव नाहुषः। / यथोक्तं चक्रिरे देवाः सामर्थ्य लिङ्गधारणे / / 22 अन्यैश्च क्रतुभिर्धीमान्बहुभिश्चाप्तदक्षिणैः // 36 सापश्यद्विबुधान्सर्वानस्वेदान्स्तब्धलोचनान् / पुनश्च रमणीयेषु वनेषूपवनेषु च / हषितस्रग्रजोहीनान्स्थितानस्पृशतः क्षितिम् // 23 दमयन्त्या सह नलो विजहारामरोपमः॥ 37 छायाद्वितीयो म्लानस्रग्रजःस्वेदसमन्वितः / / एवं स यजमानश्च विहरंश्च नराधिपः / ... भूमिष्ठो नैषधश्चैव निमेषेण च सूचितः // 24 | ररक्ष वसुसंपूर्णां वसुधां वसुधाधिपः // 38 सा समीक्ष्य ततो देवान्पुण्यश्लोकं च भारत। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि नैषधं वरयामास भैमी धर्मेण भारत // 25 चतुःपञ्चाशोऽध्यायः॥ 54 // विलजमाना वस्त्रान्ते जग्राहायतलोचना / स्कन्धदेशेऽसृजच्चास्य स्रज परमशोभनाम् / बृहदश्व उवाच / घरयामास चैवैनं पतित्वे वरवर्णिनी // 26 वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजसः।" खतो हा हेति सहसा शब्दो मुक्तो नराधिपैः। यान्तो ददृशुरायान्तं द्वापरं कलिना सह // 1 देवैर्महर्षिभिश्चैव साधु साध्विति भारत / अथाब्रवीत्कलिं शक्रः संप्रेक्ष्य बलवृत्रहा। विस्मितैरीरितः शब्दः प्रशंसद्भिर्नलं नृपम् // 27 द्वापरेण सहायेन कले बेहि क यास्यसि // 2. वृते तु नैषधे भैम्या लोकपाला महौजसः / ततोऽब्रवीत्कलिः शक्रं दमयन्त्याः स्वयंवरम् / प्रहृष्टमनसः सर्वे नलायाष्टौ वरान्ददुः॥२८ गत्वाहं वरयिष्ये तां मनो हि मम तद्गतम् // 3 प्रत्यक्षदर्शनं यज्ञे गतिं चानुत्तमां शुभाम् / तमब्रवीत्प्रहस्येन्द्रो निर्वृत्तः स स्वयंवरः / नैषधाय ददौ शक्रः प्रीयमाणः शचीपतिः // 29 वृतस्तया नलो राजा पतिरस्मत्समीपतः // 4 . अमिरात्मभवं प्रादाद्यत्र वाञ्छति नैषधः / / एवमुक्तस्तु शक्रेण कलिः कोपसमन्वितः। . लोकानात्मप्रभांश्चैव ददौ तस्मै हुताशनः // 30 देवानामव्य तान्सर्वानुवाचेदं वचस्तदा // 5 यमस्त्वन्नरसं प्रादाद्धर्मे च परमां स्थितिम् / देवानां मानुषं मध्ये यत्सा पतिमविन्दत / अपांपतिरपां भावं यत्र वाञ्छति नैषधः // 31 | ननु तस्या भवेन्न्याय्यं विपुलं दण्डधारणम् // 6 स्रजं चोत्तमगन्धाढ्यां सर्वे च मिथुनं ददुः। एवमुक्ते तु कलिना प्रत्यूचुस्ते दिवौकसः। वरानेवं प्रदायास्य देवास्ते त्रिदिवं गताः // 32 / अस्माभिः समनुज्ञातो दमयन्त्या नलो वृतः // 5 -461
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________________ 3. 55. 8] महाभारते [ 3. 57.2 कश्च सर्वगुणोपेतं नाश्रयेत नलं नृपम् / न चक्षमे ततो राजा समाह्वानं महामनाः। यो वेद धर्मानखिलान्यथावच्चरितव्रतः // 8 . वैदाः प्रेक्षमाणायाः पणकालममन्यत // 8 यस्मिन्सत्यं धृतिर्दानं तपः शौचं. दमः शमः / हिरण्यस्य सुवर्णस्य यानयुग्यस्य वाससाम् / ध्रुवाणि पुरुषव्याघ्र लोकपालसमे नृपे // 9 आविष्ठः कलिना द्यूते जीयते स्म नलस्तदा // 9 आत्मानं स शपेन्मूढो हन्याञ्चात्मानमात्मना / तमक्षमदसंमत्तं सुहृदां न तु कश्चन / एवंगुणं नलं यो वै कामयेच्छपितुं कले // 10 निवारणेऽभवच्छत्तो दीव्यमानमचेतसम् // 10 कृच्छ्रे स नरके मजेदगाधे विपुलेऽप्लवे / ततः पौरजनः सर्वो मत्रिभिः सह भारत / एवमुक्त्वा कलिं देवा द्वापरं च दिवं ययुः // 11 राजानं द्रष्टुमागच्छन्निवारयितुमातुरम् // 11 ततो गतेषु देवेषु कलिभपरमब्रवीत्। . ततः सूत उपागम्य दमयन्त्यै न्यवेदयत् / संहा नोत्सहे कोपं नले वत्स्यामि द्वापर // 12 एष पौरजनः सर्वो द्वारि तिष्ठति कार्यवान् // 12 भ्रंशयिष्यामि तं राज्यान्न भैम्या सह रंस्यते / निवेद्यतां नैषधाय सर्वाः प्रकृतयः स्थिताः / त्वमप्यक्षान्समाविश्य कर्तुं साहाय्यमर्हसि // 13 अमृष्यमाणा व्यसनं राज्ञो धर्मार्थदर्शिनः // 13 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि ततः सा बाष्पकलया वाचा दुःखेन कर्शिता / पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः // 55 // उवाच नैषधं भैमी शोकोपहतचेतना // 14 / राजन्पौरजनो द्वारि त्वां दिदृक्षुरवस्थितः। बृहदश्व उवाच / मत्रिभिः सहितः सर्वै राजभक्तिपुरस्कृतः। एवं स समयं कृत्वा द्वापरेण कलिः सह। तं द्रष्टुमर्हसीत्येवं पुनः पुनरभाषत // 15 आजगाम ततस्तत्र यत्र राजा स नैषधः // 1 तां तथा रुचिरापाङ्गी विलपन्ती सुमध्यमाम् / स नित्यमन्तरप्रेक्षी निषधेष्ववसच्चिरम् / आविष्टः कलिना राजा नाभ्यभाषत किंचन / / 16 अथास्य द्वादशे वर्षे ददर्श कलिरन्तरम् // 2 ततस्ते मत्रिणः सर्वे ते चैव पुरवासिनः। कृत्वा मूत्रमुपस्पृश्य संध्यामास्ते स्म नैषधः / नायमस्तीति दुःखार्ता वीडिता जग्मुरालयान् // 17 अकृत्वा पादयोः शौचं तत्रैनं कलिराविशत् // 3 तथा तदभवड्यूतं पुष्करस्य नलस्य च / स समाविश्य तु नलं समीपं पुष्करस्य ह / / युधिष्ठिर बहून्मासान्पुण्यश्लोकस्त्वजीयत // 18 गत्वा पुष्करमाहेदमेहि दीव्य नलेन वै // 4 इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि अक्षयूते नलं जेता भवान्हि सहितो मया। षट्पञ्चाशोऽध्यायः॥५६॥ निषधान्प्रतिपद्यस्व जित्वा राजन्नलं नृपम् // 5 एवमुक्तस्तु कलिना पुष्करो नलमभ्ययात् / बृहदश्व उवाच / कलिश्चैव वृषो भूत्वा गवां पुष्करमभ्ययात् // 6 / दमयन्ती ततो दृष्ट्वा पुण्यश्लोकं नराधिपम् / आसाद्य तु नलं वीरं पुष्करः परवीरहा / उन्मत्तवदनुन्मत्ता देवने गतचेतसम् // 1 दीच्यावेत्यब्रवीद्धाता वृषेणेति मुहुर्मुहुः // 7 भयशोकसमाविष्टा राजन्भीमसुता ततः / -462 57
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________________ 3. 57. 2] . आरण्यकपर्व [3. 58.6 चिन्तयामास तत्कार्यं सुमहत्पार्थिवं प्रति // 2 .. नलस्य दयितानश्वान्योजयित्वा महाजवान् / सा शङ्कमाना तत्पापं चिकीर्षन्ती च तत्प्रियम् / इदमारोप्य मिथुनं कुण्डिनं यातुमर्हसि // 17 / नलं च हृतसर्वस्वमुपलभ्येदमब्रवीत् // 3 मम ज्ञातिषु निक्षिप्य दारको स्यन्दनं तथा / बृहत्सेने बजामात्यानानाय्य नलशासनात् / अश्वांश्चैतान्यथाकामं वस वान्यत्र गच्छ वा // 18 आचक्ष्व यद्धतं द्रव्यमवशिष्टं च यद्वसु // 4 दमयन्त्यास्तु तद्वाक्यं वार्ष्णेयो नलसारथिः। , ततस्ते मत्रिणः सर्वे विज्ञाय नलशासनम् / न्यवेदयदशेषेण नलामात्येषु मुख्यशः // 19 मा अपि नो भागधेयं स्यादित्युक्त्वा पुनराव्रजन // 5 तैः समेत्य विनिश्चित्य सोऽनुज्ञातो महीपते / तास्तु सर्वाः प्रकृतयो द्वितीयं समुपस्थिताः / / ययौ मिथुनमारोप्य विदर्भास्तेन वाहिना // 20. न्यवेदयद्भीमसुता न च तत्प्रत्यनन्दत.॥६ हयांस्तत्र विनिक्षिप्य सूतो रथवरं च तम् / वाक्यमप्रतिनन्दन्तं भर्तारमभिवीक्ष्य सा। इन्द्रसेनां च तां कन्यामिन्द्रसेनं च बालकम् // 21 दमयन्ती पुनर्वेश्म व्रीडिता प्रविवेश ह // 7 आमव्य भीमं राजानमार्तः शोचन्नलं नृपम् / निशम्य सततं चाक्षान्पुण्यश्लोकपराङ्मुखान् / अटमानस्ततोऽयोध्यां जगाम नगरी तदा // 22.. नलं च हृतसर्वस्वं धात्री पुनरुवाच ह // 8 ऋतुपर्ण स राजानमुपतस्थे सुदुःखितः / पृहत्सेने पुनर्गच्छ वार्ष्णेयं नलशासनात् / भृति चोपययौ तस्य सारथ्येन महीपतेः॥ 23 // सूतमानय कल्याणि महत्कार्यमुपस्थितम् // 9 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि बृहत्सेना तु तच्छ्रुत्वा दमयन्त्याः प्रभाषितम् / सप्तपञ्चशोऽध्यायः // 57 // बार्णेयमानयामास पुरुषैराप्तकारिभिः // 10 वार्ष्णेयं तु ततो भैमी सान्त्वयश्लक्ष्णया गिरा। बृहदश्व उवाच / उवाच देशकालज्ञा प्राप्तकालमनिन्दिता // 11 / ततस्तु याते वार्ष्णेये पुण्यश्लोकस्य दीव्यतः / 'जानीषे त्वं यथा राजा सम्यग्वृत्तः सदा त्वयि / पुष्करेण हृतं राज्यं यच्चान्यद्वसु किंचन // 1 तस्य त्वं विषमस्थस्य साहाय्यं कर्तुमर्हसि // 12 हृतराज्यं नलं राजन्प्रहसन्पुष्करोऽब्रवीत्। यथा यथा हि नृपतिः पुष्करेणेह जीयते। .. द्यूतं प्रवर्ततां भूयः प्रतिपाणोऽस्ति कस्तव // 2 तथा तथास्य छूते वै रागो भूयोऽभिवर्धते // 13 शिष्टा ते दमयन्त्येका सर्वमन्यद्धृतं मया। यथा च पुष्करस्याक्षा वर्तन्ते वशवर्तिनः। दमयन्त्याः पणः साधु वर्ततां यदि मन्यसे // 3 तथा विपर्ययश्चापि नलस्याक्षेषु दृश्यते // 14 पुष्करेणैवमुक्तस्य पुण्यश्लोकस्य मन्युना। सुहृत्स्वजनवाक्यानि यथावन्न शृणोति च / व्यदीर्यतेव हृदयं न चैनं किंचिदब्रवीत् // 4 नूनं मन्ये न शेषोऽस्ति नैषधस्य महात्मनः // 15 ततः पुष्करमालोक्य नलः परममन्युमान् / / यत्र मे वचनं राजा नाभिनन्दति मोहितः। उत्सृज्य सर्वगात्रेभ्यो भूषणानि महायशाः॥५ शरणं त्वां प्रपन्नास्मि सारथे कुरु मद्वचः। एकवासा असंवीतः सुहृच्छोकविवर्धनः / न हि मे शुध्यते भावः कदाचिद्विनशेदिति // 16 / निश्चक्राम तदा राजा त्यक्त्वा सुविपुलां श्रियम् // 6 - 468 -
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________________ 3. 58.7] महाभारते [ 3. 58. 34 दमयन्त्येकवस्त्रा तं गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वियात् / / एष पन्था विदर्भाणामयं गच्छति कोसलान् / स तया बाह्यतः सार्धं त्रिरात्रं नैषधोऽवसत् // 7 अतः परं च देशोऽयं दक्षिणे दक्षिणापथः // 22 पुष्करस्तु महाराज घोषयामास वै पुरे। ततः सा बाष्पकलया वाचा दुःखेन कर्शिता / नले यः सम्यगातिष्ठेत्स गच्छेद्वध्यतां मम // 8 उवाच दमयन्ती तं नैषधं करुणं वचः // 23 पुष्करस्य तु वाक्येन तस्य विद्वेषणेन च / उद्वेपते मे हृदयं सीदन्त्यङ्गानि सर्वशः। पौरा न तस्मिन्सत्कारं कृतवन्तो युधिष्ठिर // 9 तव पार्थिव संकल्पं चिन्तयन्त्याः पुनः पुनः॥२४ स तथा नगराभ्याशे सत्कारार्हो न सत्कृतः / हृतराज्यं हृतधनं विवस्त्रं क्षुच्छ्रमान्वितम् / त्रिरात्रमुषितो राजा जलमात्रेण वर्तयन् // 10 कथमुत्सृज्य गच्छेयमहं त्वां विजने वने // 25 क्षुधासंपीड्यमानस्तु नलो बहुतिथेऽहनि / श्रान्तस्य ते क्षुधार्तस्य चिन्तयानस्य तत्सुखम् / . अपश्यच्छकुनान्कांश्चिद्धिरण्यसदृशच्छदान् // 11 वने घोरे महाराज नाशयिष्यामि ते क्लमम् // 26 स चिन्तयामास तदा निषधाधिपतिर्बली / न च भार्यासमं किंचिद्विद्यते भिषजां मतम् / . अस्ति भक्षो ममाद्यायं वसु चेदं भविष्यति // 12 | औषधं सर्वदुःखेषु सत्यमेतद्रवीमि ते // 27 ततस्तानन्तरीयेण वाससा समवास्तृणोत् / नल उवाच / तस्यान्तरीयमादाय जग्मुः सर्वे विहायसा // 13 / एवमेतद्यथात्थ त्वं दमयन्ति सुमध्यमे / उत्पतन्तः खगास्ते तु वाक्यमाहुस्तदा नलम् / नास्ति भार्यासमं मित्रं नरस्यार्तस्य भेषजम् // 28 दृष्ट्वा दिग्वाससं भूमौ स्थितं दीनमधोमुखम् // 14 / न चाहं त्यक्तुकामस्त्वां किमर्थं भीरु शङ्कसे।। वयमक्षाः सुदुर्बुद्धे तव वासो जिहीर्षवः। | त्यजेयमहमात्मानं न त्वेव त्वामनिन्दिते // 29 आगता न हि नः प्रीतिः सवाससि गते त्वयि।। 15 . दमयन्त्युवाच। .. तान्समीक्ष्य गतानक्षानात्मानं च विवाससम् / / यदि मां त्वं महाराज न विहातुमिहेच्छसि / पुण्यश्लोकस्ततो राजा दमयन्तीमथाब्रवीत् // 16 / तत्किमर्थं विदर्भाणां पन्थाः समुपदिश्यते // 30 येषां प्रकोपादैश्वर्यात्प्रच्युतोऽहमनिन्दिते / अवैमि चाहं नृपते न त्वं मां त्यक्तुमर्हसि / प्राणयात्रां न विन्दे च दुःखितः क्षुधयादितः॥१७ चेतसा त्वपकृष्टेन मां त्यजेथा महीपते // 31 येषां कृते न सत्कारमकुर्वन्मयि नैषधाः / पन्थानं हि ममाभीक्ष्णमाख्यासि नरसत्तम / त इमे शकुना भूत्वा वासोऽप्यपहरन्ति मे // 18 अतोनिमित्तं शोक मे वर्धयस्यमरप्रभ // 32 वैषम्यं परमं प्राप्तो दुःखितो गतचेतनः। यदि चायमभिप्रायस्तव राजन्प्रजेदिति / भर्ता तेऽहं निबोधेदं वचनं हितमात्मनः // 19 सहितावेव गच्छावो विदर्भान्यदि मन्यसे // 33 एते गच्छन्ति बहवः पन्थानो दक्षिणापथम् / विदर्भराजस्तत्र त्वां पूजयिष्यति मानद / अवन्तीमृक्षवन्तं च समतिक्रम्य पर्वतम् // 20 तेन त्वं पूजितो राजन्सुखं वत्स्यसि नो गृहे // 34 एष विन्ध्यो महाशैलः पयोष्णी च समुद्रगा। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि आश्रमाश्च महर्षीणाममी पुष्पफलान्विताः // 21 अष्टपञ्चाशोऽध्यायः॥ 58 //
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________________ 3. 59. 1] आरण्यकपर्व [3. 60.2 चिन्तयित्वाध्यगाद्राजा वस्त्रार्धस्यावकर्तनम् // 14 नल उवाच / कथं वासो विकर्तेयं न च बुध्येत मे प्रिया। यथा राज्यं पितुस्ते तत्तथा मम न संशयः। चिन्त्यैवं नैषधो राजा सभां पर्यचरत्तदा // 15 न तु तत्र गमिष्यामि विषमस्थः कथंचन // 1 परिधावन्नथ नल इतश्चेतश्च भारत। कथं समृद्धो गत्वाहं तव हर्षविवर्धनः। आससाद सभोद्देशे विकोशं खड्गमुत्तमम् // 16 परियूनो गमिष्यामि तव शोकविवर्धनः // 2 तेनाधं वाससश्छित्वा निवस्य च परंतपः / .. बृहदश्व उवाच / सुप्तामुत्सृज्य वैदर्भी प्राद्रवद्गतचेतनः // 17 इति ब्रुवन्नलो राजा दमयन्तीं पुनः पुनः / ततो निबद्धहृदयः पुनरागम्य तां सभाम् / सान्त्वयामास कल्याणी वाससोऽर्धेन संवृताम् // 3 दमयन्ती तथा दृष्ट्वा रुरोद निषधाधिपः // 18 तावेकवस्त्रसंवीतावटमानावितस्ततः / यां न वायुन चादित्यः पुरा पश्यति मे प्रियाम् / क्षुत्पिपासापरिश्रान्तौ सभां कांचिदुपेयतुः // 4 . सेयमद्य सभामध्ये शेते भूमावनाथवत् / / 19. तां सभामुपसंप्राप्य तदा स निषधाधिपः / इयं वस्त्रावकर्तेन संवीता चारुहासिनी / वैदा सहितो राजा निषसाद महीतले // 5 उन्मत्तेव वरारोहा कथं बुवा भविष्यति // 20 . स वै विवस्त्रो मलिनो विकचः पांसुगुण्ठितः। कथमेका सती भैमी मया विरहिता शुभा। : दमयन्त्या सह श्रान्तः सुष्वाप धरणीतले // 6 चरिष्यति वने घोरे मृगव्यालनिषेविते // 21 दमयन्त्यपि कल्याणी निद्रयापहृता ततः। गत्वा गत्वा नलो राजा पुनरेति सभां मुहुः / सहसा दुःखमासाद्य सुकुमारी तपस्विनी // 7 आकृष्यमाणः कलिना सौहृदेनापकृष्यते // 22 . सुप्तायां दमयन्त्यां तु नलो राजा विशां पते। द्विधेव हृदयं तस्य दुःखितस्याभवत्तदा / / शोकोन्मथितचित्तात्मा न स्म शेते यथा पुरा // 8. | दोलेव मुहुरायाति याति चैव सभां मुहुः // 23 स तद्राज्यापहरणं सुहृत्त्यागं च सर्वशः। सोऽपकृष्टस्तु कलिना मोहितः प्राद्रवन्नलः / वने च तं परिध्वंसं प्रेक्ष्य चिन्तामुपेयिवान् // 9 . सुप्तामुत्सृज्य तां भार्यां विलप्य करुणं बहु // 24 किं नु मे स्यादिदं कृत्वा किं नु मे स्यादकुर्वतः / नष्टात्मा कलिना स्पृष्टस्तत्तद्विगणयन्नृपः / / किं नु मे मरणं श्रेयः परित्यागो जनस्य वा // 10 जगामैव वने शून्ये भार्यामुत्सृज्य दुःखितः॥२५ मामियं ह्यनुरक्तेदं दुःखमाप्नोति मत्कृते। .. इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि मद्विहीना त्वियं गच्छेत्कदाचित्स्वजनं प्रति // 11 ... एकोनषष्टितमोऽध्यायः // 59 // मया निःसंशयं दुःखमियं प्राप्स्यत्यनुत्तमा। . उत्सर्गे संशयः स्यात्तु विन्देतापि सुखं क्वचित् // 12 बृहदश्व उवाच / स विनिश्चित्य बहुधा विचार्य च पुनः पुनः। अपक्रान्ते नले राजन्दमयन्ती गतक्लमा। . उत्सर्गेऽमन्यत श्रेयो दमयन्त्या नराधिपः // 13 अबुध्यत वरारोहा संत्रस्ता विजने वने // 1 सोऽवस्त्रतामात्मनश्च तस्याश्वाप्येकवस्त्रताम् / . | सापश्यमाना भर्तारं दुःखशोकसमन्विता। ... म. भा. 59 - 465 -
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________________ 3. 60. 2] महाभारते [ 3. 60.2 प्राक्रोशदुच्चैः संत्रस्ता महाराजेति नैषधम् // 2 अन्वेषति स्म भर्तारं वने श्वापदसेविते // 17 हा नाथ हा महाराज हा स्वामिन्किं जहासि माम्। उन्मत्तवद्भीमसुता विलपन्ती ततस्ततः / हा हतास्मि विनष्टास्मि भीतास्मि विजने वने // 3 हा हा राजनिति मुहुरितश्चेतश्च धावति // 18 ननु नाम महाराज धर्मज्ञः सत्यवागसि। तां शुष्यमाणामत्यर्थं कुररीमिव वाशतीम् / कथमुक्त्वा तथासत्यं सुप्तामुत्सृज्य मां गतः // 4 करुणं बहु शोचन्तीं विलपन्तीं मुहुर्मुहुः // 19 कथमुत्सृज्य गन्तासि वश्यां भार्यामनुव्रताम् / सहसाभ्यागतां भैमीमभ्याशपरिवर्तिनीम् / . विशेषतोऽनपकृते परेणापकृते सति // 5 जग्राहाजगरो ग्राहो महाकायः क्षुधान्वितः // 20 शक्ष्यसे ता गिरः सत्याः कर्तुं मयि नरेश्वर / सा ग्रस्यमाना ग्राहेण शोकेन च पराजिता। यास्त्वया लोकपालानां संनिधौ कथिताः पुरा // 6 नात्मानं शोचति तथा यथा शोचति नैषधम् // 21 पर्याप्तः परिहासोऽयमेतावान्पुरुषर्षभ / हा नाथ मामिह वने ग्रस्यमानामनाथवत् / भीताहमस्मि दुर्धर्ष दर्शयात्मानमीश्वर // 7 प्राहेणानेन विपिने किमर्थं नाभिधावसि // 22 दृश्यसे दृश्यसे राजन्नेष तिष्ठसि नैषध / कथं भविष्यसि पुनर्मामनुस्मृत्य नैषध / आवार्य गुल्मैरात्मानं किं मां न प्रतिभाषसे // 8 पापान्मुक्तः पुनर्लब्ध्वा बुद्धिं चेतो धनानि च // 23 नृशंसं बत राजेन्द्र यन्मामेवंगतामिह / श्रान्तस्य ते क्षुधार्तस्य परिग्लानस्य नैषध / विलपन्तीं समालिङ्गथ नाश्वासयसि पार्थिव // 9 कः श्रमं राजशार्दूल नाशयिष्यति मानद // 24 न शोचाम्यहमात्मानं न चान्यदपि किंचन।। तामकस्मान्मृगव्याधो विचरन्गहने वने। कथं नु भवितास्येक इति त्वां नृप शोचिमि॥१० आक्रन्दतीमुपश्रुत्य जवेनाभिससार ह // 25 कथं नु राजस्तृषितः क्षुधितः श्रमकर्शितः / तां स दृष्ट्वा तथा प्रस्तामुरगेणायतेक्षणाम् / सायाह्ने वृक्षमूलेषु मामपश्यन्भविष्यसि // 11. त्वरमाणो मृगव्याधः समभिक्रम्य वेगितः // 26 ततः सा तीव्रशोकार्ता प्रदीप्तेव च मन्युना। मुखतः पाटयामास शस्त्रेण निशितेन ह। इतश्चेतश्च रुदती पर्यधावत दुःखिता // 12 निर्विचेष्टं भुजंगं तं विशस्य मृगजीवनः // 27 मुहुरुत्पतते बाला मुहुः पतति विह्वला / मोक्षयित्वा च तां व्याधः प्रक्षाल्य सलिलेन च / मुहुरालीयते भीता मुहुः क्रोशति रोदिति // 13 समाश्वास्य कृताहारामथ पप्रच्छ भारत // 28 . सा तीव्रशोकसंतप्ता मुहुनिःश्वस्य विह्वला। कस्य त्वं मृगशावाक्षि कथं चाभ्यागता वनम् / उवाच भैमी निष्कम्य रोदमाना पतिव्रता // 14 कथं चेदं महत्कृच्छं प्राप्तवत्यसि भामिनि // 29 यस्याभिशापाहुःखार्तो दुःखं विन्दति नैषधः / दमयन्ती तथा तेन पृच्छयमाना विशां पते / तस्य भूतस्य तदुःखाहुःखमभ्यधिकं भवेत् // 15 सर्वमेतद्यथावृत्तमाचचक्षेऽस्य भारत // 30 अपापचेतसं पापो य एवं कृतवान्नलम् / तामर्धवस्त्रसंवीतां पीनश्रोणिपयोधराम् / तस्माद्दुःखतरं प्राप्य जीवत्वसुखजीविकाम् // 16 सुकुमारानवद्याङ्गी पूर्णचन्द्रनिभाननाम् // 31 एवं तु विलपन्ती सा राज्ञो भार्या महात्मनः। .. अरालपक्ष्मनयनां तथा मधुरभाषिणीम् / - 466 -
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________________ 3. 60. 32] आरण्यकपर्व [3. 61.20 लक्षयित्वा मृगव्याधः कामस्य वशमेयिवान् // 32 | | सा बहून्भीमरूपांश्च पिशाचोरगराक्षसान् / तामथ श्लक्ष्णया वाचा लुब्धको मृदुपूर्वया। पल्बलानि तडागानि गिरिकूटानि सर्वशः। सान्त्वयामास कामार्तस्तबुध्यत भामिनी // 33 सरितः सागरांश्चैव ददर्शाद्भुतदर्शनान् // 7. दमयन्ती तु तं दुष्टमुपलभ्य पतिव्रता। यूथशो ददृशे चात्र विदर्भाधिपनन्दिनी। तीव्ररोषसमाविष्टा प्रजज्वालेव मन्युना // 34 महिषान्वराहान्गोमांयूनृक्षवानरपन्नगान् // 8 स तु पापमतिः क्षुद्रः प्रधर्षयितुमातुरः / तेजसा यशसा स्थित्या श्रिया च परया युता। दुर्धर्षा तर्कयामास दीप्तामग्निशिखामिव / / 35 वैदर्भी विचरत्येका नलमन्वेषती तदा // 9 दमयन्ती तु दुःखार्ता पतिराज्यविनाकृता / नाबिभ्यत्सा नृपसुता भैमी तत्राथ कस्यचित् / अतीसवाक्पथे काले शशापैनं रुषा किल // 36 दारुणामटवीं प्राप्य भर्तृव्यसनकर्शिता // 10 यथाहं नैषधादन्यं मनसापि न चिन्तये।। विदर्भतनया राजन्विललाप सुदुःखिता। तथायं पततां क्षुद्रः परासुमंगजीवनः / / 37 भर्तृशोकपरीताङ्गी शिलातलसमाश्रिता // 11 उक्तमात्रे तु वचने तया स मृगजीवनः / दमयन्त्युवाच / न्यसुः पपात मेदिन्यामग्निदग्ध इव द्रुमः॥ 38 सिंहोरस्क महाबाहो निषधानां जनाधिप। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि क नु राजन्गतोऽसीह त्यक्त्वा मां निर्जने वने // 12 . षष्टितमोऽध्यायः // 6 // अश्वमेधादिभिर्वीर क्रतुभिः स्वाप्तदक्षिणैः। कथमिष्ट्वा नरव्याघ्र मयि मिथ्या प्रवर्तसे // 13 बृहदश्व उवाच / यत्त्वयोक्तं नरव्याघ्र मत्समक्षं महायुते / सा निहत्य मृगव्याधं प्रतस्थे कमलेक्षणा / कर्तुमर्हसि कल्याण तहतं पार्थिवर्षभ // 14 . वनं प्रतिभयं शून्यं झिल्लिकागणनादितम् // 1 यथोक्तं विहगैर्हसैः समीपे तव भूमिप / सिंहव्याघ्रवराहक्षरुरुद्वीपिनिषेवितम् / मत्सकाशे च तैरुक्तं तदवेक्षितुमर्हसि // 15 नानापक्षिगणाकीर्णं म्लेच्छतस्करसेवितम् // 2 चत्वार एकतो वेदाः साङ्गोपाङ्गाः सविस्तराः / शालवेणुधवाश्वत्थतिन्दुकेमुदकिंशुकैः।। स्वधीता मानवश्रेष्ठ सत्यमेकं किलैकतः // 16 अर्जुनारिष्टसंछन्नं चन्दनैश्च सशाल्मलैः // 3 तस्मादर्हसि शत्रुघ्न सत्यं कर्तुं नरेश्वर / जम्ब्वाम्रलोध्रखदिरशाकवेत्रसमाकुलम् / उक्तवानसि यद्वीर मत्सकाशे पुरा वचः॥ 17 काश्मर्यामलकप्लक्षकदम्बोदुम्बरावृतम् // 4 हा वीर ननु नामाहमिष्टा किल तवानघ। बदरीबिल्वसंछन्नं न्यग्रोधैश्च समाकुलम् / अस्यामटव्यां घोरायां किं मां न प्रतिभाषसे // 18 प्रियालतालखजूरहरीतकबिभीतकैः // 5 भर्त्सयत्येष मां रौद्रो व्यात्तास्यो दारुणाकृतिः / नानाधातुशतैर्नद्धान्विविधानपि चाचलान् / अरण्यराट् क्षुधाविष्टः किं मां न त्रातुमर्हसि // 19 निकुञ्जान्पक्षिसंघुष्टान्दरीश्चाद्भुतदर्शनाः / न मे त्वदन्या सुभगे प्रिया इत्यब्रवीस्तदा। नदीः सरांसि वापीश्च विविधांश्च मृगद्विजान् // 6 तामृतां कुरु कल्याण पुरोक्तां भारती नृप // 20" -467 -
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________________ 3. 61. 21] ..महाभारते [3. 61.49 उन्मत्तां विलपन्तीं मां भार्यामिष्टां नराधिप। | इमं शिलोच्चयं पुण्यं शृङ्गैर्बहुभिरुच्छ्रितैः। ईप्सितामीप्सितो नाथ किं मां न प्रतिभाषसे॥२१ विराजद्भिर्दिवस्पृग्भिर्नैकवर्णैर्मनोरमैः // 35 कृशां दीनां विवर्णां च मलिनां वसुधाधिप / नानाधातुसमाकीणं विविधोपलभूषितम् / वस्त्रार्धप्रावृतामेकां विलपन्तीमनाथवत् // 22 , अस्यारण्यस्य महतः केतुभूतमिवोच्छ्रितम् // 36 यूथभ्रष्टामिवैकां मां हरिणीं पृथुलोचन / सिंहशार्दूलमातङ्गवराहक्षमृगायुतम् / न मानयसि मानाई रुदतीमरिकर्शन // 23 पतत्रिभिर्बहुविधैः समन्तादनुनादितम् // 37 महाराज महारण्ये मामिहैकाकिनी सतीम् / किंशुकाशोकबकुल'नागैरुपशोभितम् / आभाषमाणां स्वां पत्नी किं मां न प्रतिभाषसे॥२४ सरिद्भिः सविहंगाभिः शिखरैश्चोपशोभितम्।। कुलशीलोपसंपन्नं चारसर्वाङ्गशोभनम् / . गिरिराजमिमं तावत्पृच्छामि नृपतिं प्रति // 38. नाद्य त्वामनुपश्यामि गिरावस्मिन्नरोत्तम / भगवन्नचलश्रेष्ठ दिव्यदर्शन विश्रुत / वने चास्मिन्महाघोरे सिंहव्याघ्रनिषेविते // 25 शरण्य बहुकल्याण नमस्तेऽस्तु महीधर // 39 : शयानमुपविष्टं वा स्थितं वा निषधाधिप / प्रणमे त्वाभिगम्याहं राजपुत्री निबोध माम् / / प्रस्थितं वा नरश्रेष्ठ मम शोकविवर्धन // 26 राज्ञः स्नुषां राजभायाँ दमयन्तीति विश्रुताम्॥४० . के नु पृच्छामि दुःखार्ता त्वदर्थे शोककर्शिता / राजा विदर्भाधिपतिः पिता मम महारथः। कञ्चिदृष्टस्त्वयारण्ये संगत्येह नलो नृपः // 27 भीमो नाम क्षितिपतिश्चातुर्वर्ण्यस्य रक्षिता // 41 को नु मे कथयेदद्य वनेऽस्मिन्विष्ठितं नलम् / राजसूयाश्वमेधानां ऋतूनां दक्षिणावताम् / अभिरूपं महात्मानं परव्यूहविनाशनम् // 28 आहर्ता पार्थिवश्रेष्ठः पृथुचार्वश्चितेक्षणः // 42 यमन्वेषसि राजानं नलं पद्मनिभेक्षणम् / ब्रह्मण्यः साधुवृत्तश्च सत्यवागनसूयकः / . अयं स इति कस्याद्य श्रोष्यामि मधुरां गिरम्॥२९ शीलवान्सुसमाचारः पृथुश्रीधर्मविच्छुचिः // 43 अरण्यराडयं श्रीमांश्चतुर्दष्ट्रो महाहनुः / सम्यग्गोप्ता विदर्भाणां निर्जितारिगणः प्रभुः। शार्दूलोऽभिमुखः प्रैति पृच्छाम्येनमशङ्किता // 30 तस्य मां विद्धिः तनयां भगवंस्त्वामुपस्थिताम् // 44 भवान्मृगाणामधिपस्त्वमस्मिन्कानने प्रभुः। निषधेषु महाशैल श्वशुरो मे नृपोत्तमः / विदर्भराजतनयां दमयन्तीति विद्धि माम् // 31 सुगृहीतनामा विख्यातो वीरसेन इति स्म ह // 45 निषधाधिपतेर्भा नलस्यामित्रघातिनः / तस्य राज्ञः सुतो वीरः श्रीमान्सत्यपराक्रमः / , पतिमन्वेषतीमेकां कृपणां शोककर्शिताम् / क्रमप्राप्तं पितुः स्खं यो राज्यं समनुशास्ति ह // 46 आश्वासय मृगेन्द्रह यदि दृष्टस्त्वया नलः // 32 नलो नामारिदमनः पुण्यश्लोक इति श्रुतः / ... अथ वारण्यनृपते नलं यदि न शंससि। ब्रह्मण्यो वेदविद्वाग्मी पुण्यकृत्सोमपोऽग्निचित् // 47 मामदस्व मृगश्रेष्ठ विशोकां कुरु दुःखिताम् // 33 | यष्टा दाता च योद्धा च सम्यक्चैव प्रशासिता / श्रुत्वारण्ये विलपितं ममैष मृगराट् स्वयम् / तस्य मामचलश्रेष्ठ विद्धि भार्यामिहागताम् // 48 यात्येतां मृष्टसलिलामापगां सागरंगमाम् // 34 / त्यक्तश्रियं भर्तृहीनामनाथां व्यसनान्विताम् / ... . -468 -
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________________ 3. 61. 49] - आरण्यकपर्व [3. 61.78 अन्वेषमाणां भर्तारं तं वै नरवरोत्तमम् // 49 साभिवाद्य तपोवृद्धान्विनयावनता स्थिता। ' खमुल्लिखद्भिरेतैर्हि त्वया शृङ्गशतैर्नृपः / खागतं त इति प्रोक्ता तैः सर्वैस्तापसैश्च सा // 6.4 कश्चिदृष्टोऽचलश्रेष्ठ वनेऽस्मिन्दारुणे नलः // 50 पूजां चास्या यथान्यायं कृत्वा तत्र तपोधनाः। गजेन्द्रविक्रमो धीमान्दीर्घबाहुरमर्षणः / आस्यतामित्यथोचुस्ते ब्रूहि किं करवामहे // 65 विक्रान्तः सत्यवाग्धीरो भर्ता मम महायशाः। तानुवाच वरारोहा कच्चिद्भगवतामिह / निषधानामधिपतिः कच्चिदृष्टस्त्वया नलः // 51 तपस्यनिषु धर्मेषु मृगपक्षिषु चानघाः / कि मां विलपतीमेकां पर्वतश्रेष्ठ दुःखिताम् / कुशलं वो महाभागाः स्वधर्मचरणेषु च // 66 : गिरा नाश्वासयस्यद्य स्वां सुतामिव दुःखिताम्॥५२ तैरुक्ता कुशलं भद्रे सर्वत्रेति यशस्विनी। वीर विक्रान्त धर्मज्ञ सत्यसंध महीपते। बहि सर्वानवद्याङ्गि का त्वं किं च चिकीर्षसि॥६७ यद्यस्यस्मिन्वने राजन्दर्शयात्मानमात्मना // 53 दृष्ट्वैव ते परं रूपं द्युतिं च परमामिह / कदा नु स्निग्धगम्भीरां जीमूतस्वनसंनिभाम् / विस्मयो नः समुत्पन्नः समाश्वसिहि मा शुचः॥६८ श्रोष्यामि नैषधस्याहं वाचं ताममृतोपमाम् // 54 अस्यारण्यस्य महती देवता वा महीभृतः। वैदर्भीत्येव कथितां शुभां राज्ञो महात्मनः / अस्या नु नद्याः कल्याणि वद सत्यमनिन्दिते // 69 आनायसारिणीमृद्धां मम शोकनिबर्हिणीम् // 55 साब्रवीत्तानृषीन्नाहमरण्यस्यास्य देवता / / इति सा तं गिरिश्रेष्ठमुक्त्वा पार्थिवनन्दिनी। न चाप्यस्य गिरेविप्रा न नद्या देवताप्यहम् / / 70 दमयन्ती ततो भूयो जगाम दिशमुत्तराम् // 56 मानुषी मां विजानीत यूयं सर्वे तपोधनाः। सा गत्वा त्रीनहोरात्रान्ददर्श परमाङ्गना। विस्तरेणामिधास्यामि तन्मे शृणुत सर्वशः // 71 तापसारण्यमतुलं दिव्यकाननदर्शनम् // 57 विदर्भेषु महीपालो मीमो नाम महाद्युतिः। वसिष्ठभृग्वत्रिसमैस्तापसैरुपशोभितम् / तस्य मां तनयां सर्वे जानीत द्विजसत्तमाः॥ 72 नियतैः संयताहारैर्दमशौचसमन्वितैः // 58 निषधाधिपतिर्धीमान्नलो नाम महायशाः। अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च पत्राहारैस्तथैव च / वीरः संग्रामजिद्विद्वान्मम भर्ता विशां पतिः॥७३ जितेन्द्रियैर्महाभागैः स्वर्गमार्गदिक्षुभिः // 59 देवताभ्यर्चनपरो द्विजातिजनवत्सलः / वल्कलाजिनसंवीतैर्मुनिभिः संयतेन्द्रियैः।। गोप्ता निषधवंशस्य महाभागो महाद्युतिः // 74 : तापसाध्युषितं रम्यं ददर्शाश्रममण्डलम् // 60 सत्यवाग्धर्मवित्प्राज्ञः सत्यसंधोऽरिमर्दनः। सा दृष्ट्वैवाश्रमपदं नानामृगनिषेवितम् / ब्रह्मण्यो दैवतपरः श्रीमान्परपुरंजयः // 75 शाखामृगगणैश्चैव तापसैश्च समन्वितम् // 61 नलो नाम नृपश्रेष्ठो देवराजसमद्युतिः। सुभ्रः सुकेशी सुश्रोणी सुकुचा सुद्विजानना।। मम भर्ता विशालाक्षः पूर्णेन्दुवदनोऽरिहा॥ 76 वर्चस्विनी सुप्रतिष्ठा स्वश्चितोद्यतगामिनी // 62. आहर्ता ऋतुमुख्यानां वेदवेदाङ्गपारगः। / सा विवेशाश्रमपदं वीरसेनसुतप्रिया। सपत्नानां मृधे हन्ता रविसोमसमप्रभः // 77 / योषिद्रत्नं महाभागा दमयन्ती मनस्विनी / / 63 / स कैश्चिन्निकृतिप्रज्ञैरकल्याणैनराधमैः / -469 -
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________________ 8. 61. 78] महाभारते [ 3. 61. 107 आहूय पृथिवीपालः सत्यधर्मपरायणः / किं नु स्वप्नो मया दृष्टः कोऽयं विधिरिहाभवत् / देवने कुशलैर्जिौर्जितो राज्यं वसूनि च // 78 क नु ते तापसाः सर्वे क तदाश्रममण्डलम् / / 93 तस्य मामवगच्छध्वं भार्यां राजर्षभस्य वै।। क सा पुण्यजला रम्या नानाद्विजनिषेविता।। दमयन्तीति विख्यातां भर्तृदर्शनलालसाम् // 79 नदी ते च नगा हृद्याः फलपुष्पोपशोभिताः॥९४ सा वनानि गिरींश्चैव सरांसि सरितस्तथा।। ध्यात्वा चिरं भीमसुता दमयन्ती शुचिस्मिता।' पल्वलानि च रम्याणि तथारण्यानि सर्वशः।। 80 भर्तृशोकपरा दीना विवर्णवदनाभवत् / / 95 . अन्वेषमाणा भर्तारं नलं रणविशारदम् / सा गत्वाथापरां भूमि बाष्पसंदिग्धया गिरा। महात्मानं कृतास्त्रं च विचरामीह दुःखिता // 81 विललापाश्रुपूर्णाक्षी दृष्ट्वाशोकतरं ततः // 96 कञ्चिद्भगवतां पुण्यं तपोवनमिदं नृपः। उपगम्य तरुश्रेष्ठमशोकं पुष्पितं तदा। भवेत्प्राप्तो नलो नाम निषधानां जनाधिपः // 82 पल्लवापीडितं हृद्यं विहंगैरनुनादितम् // 97 यत्कृतेऽहमिदं विप्राः प्रपन्ना भृशदारुणम् / अहो बतायमगमः श्रीमानस्मिन्वनान्तरे। वनं प्रतिभयं घोरं शार्दूलमृगसेवितम् // 83 आपीडैबहुभिर्भाति श्रीमान्द्रमिडराडिव // 98. यदि कैश्चिदहोरात्रैर्न द्रक्ष्यामि नलं नृपम् / विशोकां कुरु मां क्षिप्रमशोक प्रियदर्शन / आत्मानं श्रेयसा योक्ष्ये देहस्यास्य विमोचनात्॥८४ वीतशोकभयाबाधं कञ्चित्त्वं दृष्टवान्नृपम् // 99 को नु मे जीवितेनार्थस्तमृते पुरुषर्षभम् / नलं नामारिदमनं दमयन्त्याः प्रियं पतिम् / / कथं भविष्याम्यद्याहं भर्तृशोकाभिपीडिता // 85 निषधानामधिपतिं दृष्टवानसि मे प्रियम् // 100 एवं विलपतीमेकामरण्ये भीमनन्दिनीम् / एकवस्त्रार्धसंवीतं सुकुमारतनुत्वचम् / दमयन्तीमथोचुस्ते तापसाः सत्यवादिनः // 86 व्यसनेनार्दितं वीरमरण्यमिदमागतम् // 101 प्रदर्कस्तव कल्याणि कल्याणो भविता शुभे। यथा विशोका गच्छेयमशोकनग तत्कुरु / षयं पश्याम तपसा क्षिप्रं द्रक्ष्यसि नैषधम् // 87 सत्यनामा भवाशोक मम शोकविनाशनात् // 102 निषधानामधिपतिं नलं रिपुनिघातिनम् / एवं साशोकवृक्षं तमार्ता त्रिः परिगम्य ह।' भैमि धर्मभृतां श्रेष्ठं द्रक्ष्यसे विगतज्वरम् / / 88 जगाम दारुणतरं देशं भैमी वराङ्गना // 103 विमुक्तं सर्वपापेभ्यः सर्वरत्नसमन्वितम् / सा ददर्श नगान्नैकान्नकाश्च सरितस्तथा। तदेव नगरश्रेष्ठं प्रशासन्तमरिंदमम् / / 89 नैकांश्च पर्वतारम्यान्नैकांश्च मृगपक्षिणः // 104 द्विषतां भयकर्तारं सुहृदां शोकनाशनम् / कन्दरांश्च नितम्बांश्च नदांश्चाद्भुतदर्शनान् / पतिं द्रक्ष्यसि कल्याणि कल्याणाभिजनं नृपम् // 90 ददर्श सा भीमसुता पतिमन्वेषती तदा // 105 एवमुक्त्वा नलस्येष्टां महिषीं पार्थिवात्मजाम् / / गत्वा प्रकृष्टमध्वानं दमयन्ती शुचिस्मिता। अन्तर्हितास्तापसास्ते साग्निहोत्राश्रमास्तदा // 91 / ददर्शाथ महासा) हस्त्यश्वरथसंकुलम् // 106 सा दृष्ट्वा महदाश्चयं विस्मिता अभवत्तदा। उत्तरन्तं नदी रम्यां प्रसन्नसलिलां शुभाम् / दमयन्त्यनवद्याङ्गी वीरसेननृपस्नुषा॥ 92 / सुशीततोयां विस्तीर्णां ह्रदिनीं वेतसैर्वृताम् // 107 - 470 -
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________________ 3. 61. 108 ] आरण्यकपर्व [ 3. 62.8 62 प्रोद्दष्टां क्रौञ्चकुररैश्चक्रवाकोपकूजिताम् / अहं सार्थस्य नेता वै सार्थवाहः शुचिस्मिते। कूर्मग्राहझषाकीर्णां पुलिनद्वीपशोभिताम् // 108 मनुष्यं नलनामानं न पश्यामि यशस्विनि॥ 122 सा दृष्ट्वैव महासाथ नलपत्नी यशस्विनी / कुञ्जरद्वीपिमहिषशार्दूलक्षमृगानपि। उपसर्प्य वरारोहा जनमध्यं विवेश ह // 109 पश्याम्यस्मिन्वने कष्टे अमनुष्यनिषेविते। उन्मत्तरूपा शोकार्ता तथा वस्त्रार्धसंवृता। तथा नो यक्षराडद्य मणिभद्रः प्रसीदतु // 123 कृशा विवर्णा मलिना पांसुध्वस्तशिरोरुहा // 110 साब्रवीद्वणिजः सर्वान्सार्थवाहं च तं ततः / तां दृष्ट्वा तत्र मनुजाः केचिद्भीताः प्रदुद्रुवुः / क नु यास्यति सार्थोऽयमेतदाख्यातुमर्हथ // 124 केचिश्चिन्तापरास्तस्थुः केचित्तत्र विचुक्रुशुः // 111 सार्थवाह उवाच / प्रहसन्ति स्म तां केचिदभ्यसूयन्त चापरे / सार्थोऽयं चेदिराजस्य सुबाहोः सत्यवादिनः / चक्रुस्तस्यां दयां केचित्पप्रच्छुश्चापि भारत // 112 क्षिप्रं जनपदं गन्ता लाभाय मनुजात्मजे // 125 कासि कस्यासि कल्याणि किं वा मृगयसे वने / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि त्वां दृष्ट्वा व्यथिताः स्मेह कञ्चित्त्वमसि मानुषी // एकषष्टितमोऽध्यायः // 61 // वद सत्यं वनस्यास्य पर्वतस्याथ वा दिशः। देवता त्वं हि कल्याणि त्वां वयं शरणं गताः // 114 बृहदश्व उवाच / यक्षी वा राक्षसी वा त्वमुताहोऽसि वराङ्गना। सा तच्छ्रुत्वानवद्याङ्गी सार्थवाहवचस्तदा। सर्वथा कुरु नः स्वस्ति रक्षस्वास्माननिन्दिते॥११५ अगच्छत्तेन वै सार्धं भर्तृदर्शनलालसा // 1 . यथायं सर्वथा सार्थः क्षेमी शीघ्रमितो व्रजेत् / अथ काले बहुतिथे वने महति दारुणे। . तथा विधत्स्व कल्याणि त्वां वयं शरणं गताः॥११६ तडागं सर्वतोभद्रं पद्मसौगन्धिकं महत् // 2 , तथोक्ता तेन सार्थेन दमयन्ती नृपात्मजा। ददृशुर्वणिजो रम्यं प्रभूतयवसेन्धनम् / प्रत्युवाच ततः साध्वी भर्तृव्यसनदुःखिता। बहुमूलफलोपेतं नानापक्षिगणैर्वृतम् // 3 सार्थवाहं च सार्थं च जना ये चात्र केचन॥ 117 तं दृष्ट्वा मृष्टसलिलं मनोहरसुखावहम् / / यूनः स्थविरबालाश्च सार्थस्य च पुरोगमाः / सुपरिश्रान्तवाहास्ते निवेशाय मनो दधुः // 4. मानुषीं मां विजानीत मनुजाधिपतेः सुताम् / संमते सार्थवाहस्य विविशुर्वनमुत्तमम्। ... मृपस्नुषां राजभायां भर्तृदर्शनलालसाम् // 118 उवास सार्थः सुमहान्वेलामासाद्य पश्चिमाम् // 5 विदर्भराण्मम पिता भर्ता राजा च नैषधः। अथार्धरात्रसमये निःशब्दस्तिमिते तदा / गली नाम महाभागस्तं मार्गाम्यपराजितम्॥११९ / सुप्ते सार्थे परिश्रान्ते हस्तियूथमुपागमत् / यदि जानीत नृपतिं क्षिप्रं शंसत मे प्रियम् / पानीयाथ गिरिनदी मदप्रस्रवणाविलाम् // 6. नलं पार्थिवशार्दूलममित्रगणसूदनम् / / 120 मार्ग संरुध्य संसुप्तं पद्मिन्याः सार्थमुत्तमम् / वामुवाचानवद्याङ्गी सार्थस्य महतः प्रभुः / सुप्तं ममर्द सहसा चेष्टमानं महीतले // 7 सार्थवाहः शुचिर्नाम शृणु कल्याणि मद्वचः // 121 / हाहारवं प्रमुञ्चन्तः सार्थिकाः शरणार्थिनः / . -471 - 3
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________________ 8. 62. 8] महामारते [ 3. 62. 34 वनगुल्मांश्च धावन्तो निद्रान्धा महतो भयात् / / प्रविशन्तीं तु तां दृष्ट्वा चेदिराजपुरीं तदा / केचिद्दन्तैः करैः केचित्केचित्पद्भ्यां हता नराः // 8 अनुजग्मुस्ततो बाला ग्रामिपुत्राः कुतूहलात् // 20 गोखरोष्ट्राश्वबहुलं पदातिजनसंकुलम् / सा तैः परिवृतागच्छत्समीपं राजवेश्मनः। , भयातं धावमानं तत्परस्परहतं तदा // 9 तां प्रासादगतापश्यद्राजमाता जनैर्वृताम् // 21 घोरान्नादान्विमुञ्चन्तो निपेतुर्धरणीतले।। सा जनं वारयित्वा तं प्रासादतलमुत्तमम्। वृक्षेष्वासज्य संभग्नाः पतिता विषमेषु च। आरोग्य विस्मिता राजन्दमयन्तीमपृच्छत // 22 तथा तन्निहतं सर्व समृद्धं सार्थमण्डलम् // 10 एवमप्यसुखाविष्टा बिभर्षि परमं वपुः / अथापरेद्युः संप्राप्ते हतशिष्टा जनास्तदा / भासि विद्युदिवाभ्रेषु शंस मे कासि कस्य वा॥२३ वनगुल्माद्विनिष्क्रम्य शोचन्तो वैशसं कृतम् / न हि ते मानुषं रूपं भूषणैरपि वर्जितम् / भ्रातरं पितरं पुत्रं सखायं च जनाधिप // 11 असहाया नरेभ्यश्च नोद्विजस्यमरप्रभे // 24.. अशोचत्तत्र वैदर्भी किं नु मे दुष्कृतं कृतम् / तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या भैमी वचनमब्रवीत् / योऽपि मे निर्जनेऽरण्ये संप्राप्तोऽयं जनार्णवः / मानुषीं मां विजानीहि भर्तारं समनुव्रताम् // 25 हतोऽयं हस्तियूथेन मन्दभाग्यान्ममैव तु // 12 सैरन्ध्री जातिसंपन्नां भुजिष्यां कामवासिनीम् / प्राप्तव्यं सुचिरं दुःखं मया नूनमसंशयम् / फलमूलाशनामेकां यत्रसायंप्रतिश्रयाम् // 26 : नाप्राप्तकालो म्रियते श्रुतं वृद्धानुशासनम् // 13 असंख्येयगुणो भर्ता मां च नित्यमनुव्रतः / / यन्नाहमय मृदिता हस्तियूथेन दुःखिता। भर्तारमपि तं वीरं छायेवानपगा सदा // 27 : न ह्यदैवकृतं किंचिन्नराणामिह विद्यते // 14 तस्य दैवात्प्रसङ्गोऽभूदतिमात्रं स्म देवने / न च मे बालभावेऽपि किंचिद्व्यपकृतं कृतम् / द्यूते स निर्जितश्चैव वनमेकोऽभ्युपेयिवान् // 28 कर्मणा मनसा वाचा यदिदं दुःखमागतम् // 15 तमेकवसनं वीरमुन्मत्तमिव विह्वलम् / मन्ये स्वयंवरकृते लोकपालाः समागताः / आश्वासयन्ती भर्तारमहमन्वगमं वनम् // 29 . प्रत्याख्याता मया तत्र नलस्यार्थाय देवताः / स कदाचिद्वने वीरः कस्मिंश्चित्कारणान्तरे। . नूनं तेषां प्रभावेन वियोगं प्राप्तवत्यहम् // 16 क्षुत्परीतः सुविमनास्तदप्येकं व्यसर्जयत् // 30 / एवमादीनि दुःखानि सा विलप्य वराङ्गना / तमेकवसनं ननमुन्मत्तं गतचेतसम् / इत्तशिष्टैः सह तदा ब्राह्मणैर्वेदपारगैः / / अनुव्रजन्ती बहुला न स्वपामि निशाः सदा // 31 अगच्छद्राजशार्दूल दुःखशोकपरायणा // 17 ततो बहुतिथे काले सुप्तामुत्सृज्य मां कचित् / गच्छन्ती सा चिरात्कालात्पुरमासादयन्महत् / वाससोऽधं परिच्छिद्य त्यक्तवान्मामनागसम्॥३२ सायाह्ने चेदिराजस्य सुबाहोः सत्यवादिनः / तं मार्गमाणा भर्तारं दह्यमाना दिनक्षपाः / वस्त्रार्धकर्तसंवीता प्रविवेश पुरोत्तमम् // 18 | न विन्दाम्यमरप्रख्यं प्रियं प्राणधनेश्वरम् // 33 तां विवर्णां कृशां दीनां मुक्तकेशीममार्जनाम्।। तामझुपरिपूर्णाक्षी विलपन्ती तथा बहु / उन्मत्तामिव गच्छन्तीं ददृशुः पुरवासिनः // 19 / राजमाताब्रवीदाता भैमीमार्ततरा स्वयम् // 34 . -472 -
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________________ 3. 62. 35] आरण्यकपर्व [3.63. 19 वसस्व मयि कल्याणि प्रीतिर्मे त्वयि वर्तते। मया प्रलब्धो ब्रह्मर्षिरनागाः सुमहातपाः / मृगयिष्यन्ति ते भद्रे भर्तारं पुरुषा मम // 35 तेन मन्युपरीतेन शप्तोऽस्मि मनुजाधिप // 5 अथ वा स्वयमागच्छेत्परिधावन्नितस्ततः। तस्य शापान्न शक्नोमि पदाद्विचलितुं पदम् / इहैव वसती भद्रे भर्तारमुपलप्स्यसे // 36 उपदेक्ष्यामि ते श्रेयस्रातुमर्हति मां भवान् // 6 राजमातुर्वचः श्रुत्वा दमयन्ती वचोऽब्रवीत् / सखा च ते भविष्यामि मत्समो नास्ति पन्नगः / समयेनोत्सहे वस्तं त्वयि वीरप्रजायिनि // 37 लघुश्च ते भविष्यामि शीघ्रमादाय गच्छ माम् // 7 उच्छिष्टं नैव भुञ्जीयां न कुर्या पादधावनम् / . एवमुक्त्वा स नागेन्द्रो बभूवाङ्गुष्ठमात्रकः / न चाहं पुरुषानन्यान्संभाषेयं कथंचन // 38 तं गृहीत्वा नलः प्रायादुद्देशं दाववर्जितम् // 8 प्रार्थयेद्यदि मां कश्चिद्दण्ड्यस्ते स पुमान्भवेत् / आकाशदेशमासाद्य विमुक्तं कृष्णवर्त्मना / भर्तुरन्वेषणार्थं तु पश्येयं ब्राह्मणानहम् // 39 उत्स्रष्टुकामं तं नागः पुनः कर्कोटकोऽब्रवीत् // 9 यद्येवमिह कर्तव्यं वसाम्यहमसंशयम् / पदानि गणयन्गच्छ स्वानि नैषध कानिचित् / अतोऽन्यथा न मे वासो वर्तते हृदये कचित्॥४० तत्र तेऽहं महाराज श्रेयो धास्यामि यत्परम् // 10 तां प्रहृष्टेन मनसा राजमातेदमब्रवीत् / ततः संख्यातुमारब्धमदशद्दशमे पदे / सर्वमेतत्करिष्यामि दिष्ट्या ते व्रतमीदृशम् // 41 तस्य दष्टस्य तद्रूपं क्षिप्रमन्तरधीयत // 11 एवमुक्त्वा ततो भैमी राजमाता विशां पते / स दृष्ट्वा विस्मितस्तस्थावात्मानं विकृतं नलः / उवाचेदं दुहितरं सुनन्दा नाम भारत // 42 स्वरूपधारिणं नागं ददर्श च महीपतिः // 12 सैरन्ध्रीमभिजानीष्व सुनन्दे देवरूपिणीम् / ततः कर्कोटको नागः सान्त्वयन्नलमब्रवीत् / एतया सह मोदस्व निरुद्विग्नमनाः स्वयम् // 43 मया तेऽन्तर्हितं रूपं न त्वा विद्युर्जना इति॥ 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि यत्कृते चासि विकृतो दुःखेन महता नल। द्विषष्टितमोऽध्यायः॥ 62 // विषेण स मदीयेन त्वयि दुःखं निवत्स्यति // 14 विषेण संवृतैर्गात्रैर्यावत्त्वां न विमोक्ष्यति / बृहदश्व उवाच / तावत्त्वयि महाराज दुःखं वै स निवत्स्यति // 15 उत्सृज्य दमयन्ती तु नलो राजा विशां पते।.. अनागा येन निकृतस्त्वमन) जनाधिप / ददर्श दावं दह्यन्तं महान्तं गहने वने // 1 क्रोधादसूययित्वा तं रक्षा मे भवतः कृता // 16 तत्र शुश्राव मध्येऽग्नौ शब्दं भूतस्य कस्यचित् / न ते भयं नरव्याघ्र दंष्ट्रिभ्यः शत्रुतोऽपि वा। अभिधाव नलेत्युच्चैः पुण्यश्लोकेति चासकृत् // 2 ब्रह्मविद्यश्च भविता मत्प्रसादान्नराधिप // 17 मा भैरिति नलञ्चोक्त्वा मध्यमग्नेः प्रविश्य तम् / / राजन्विषनिमित्ता च न ते पीडा भविष्यति / ददर्श नागराजानं शयानं कुण्डलीकृतम् // 3 ... संग्रामेषु च राजेन्द्र शश्वजयमवाप्स्यसि / / 18 स नागः प्राञ्जलिर्भूत्वा वेपमानो नलं तदा। गच्छ राजन्नितः सूतो बाहुकोऽहमिति ब्रुवन् / उवाच विद्धि मां राजन्नागं कर्कोटकं नृप // 4 समीपमृतुपर्णस्य स हि वेदाक्षनैपुणम् / .. म.भा. 60 - 473 -
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________________ 3. 63. 19] महाभारते [3. 64. 19 अयोध्या नगरी रम्यामधैव निषधेश्वर // 19 | त्वामुपस्थास्यतश्चेमौ नित्यं वार्ष्णेयजीवलौ। स तेऽक्षहृदयं दाता राजाश्वहृदयेन वै / एताभ्यां रंस्यसे साधं वस वै मयि बाहुक // 7 इक्ष्वाकुकुलजः श्रीमान्मित्रं चैव भविष्यति // 20 बृहदश्व उवाच / भविष्यसि यदाक्षज्ञः श्रेयसा योक्ष्यसे तदा। एवमुक्तो नलस्तेन न्यवसत्तत्र पूजितः / समेष्यसि च दारैस्त्वं मा स्म शोके मनः कृथाः। ऋतुपर्णस्य नगरे सहवार्ष्णेयजीवलः // 8 . राज्येन तनयाभ्यां च सत्यमेतद्भवीमि ते // 21 स तत्र निवसनराजा वैदर्भीमनुचिन्तयन् / . स्वरूपं च यदा द्रष्टुमिच्छेथास्त्वं मराधिप / सायं सायं सदा चे श्लोकमेकं जगाद ह॥९ संस्मर्तव्यस्तदा तेऽहं वासश्चेदं निवासयेः॥ 22 | क नु सा क्षुत्पिपासार्ता श्रान्ता शेते तपस्विनी। अनेन वाससाच्छन्नः स्वरूपं प्रतिपत्स्यसे / स्मरन्ती तस्य मन्दस्य कं वा साद्योपतिष्ठति // 10 इत्युक्त्वा प्रददावस्मै दिव्यं वासोयुगं तदा // 23 एवं ब्रुवन्तं राजानं निशायां जीवलोऽब्रवीत् / एवं नलं समादिश्य वासो दत्त्वा च कौरव / / कामेनां शोचसे नित्यं श्रोतुमिच्छामि बाहुक॥ 11 नागराजस्ततो राजंस्तत्रैवान्तरधीयत // 24 तमुवाच नलो राजा मन्दप्रज्ञस्य कस्यचित् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि आसीद्वहुमता नारी तस्या दृढतरं च सः॥ 12 त्रिषष्टितमोऽध्यायः // 13 // स वै केनचिदर्थेन तया मन्दो व्ययुज्यत / . विप्रयुक्तश्च मन्दात्मा भ्रमत्यसुखपीडितः // 13 बृहदश्व उवाच। दह्यमानः स शोकेन दिवारात्रमतन्द्रितः। तस्मिन्नन्तर्हिते नागे प्रययौ नैषधो नलः / निशाकाले स्मरंस्तस्याः श्लोकमेकं स्म गायति // 14 ऋतुपर्णस्य नगर प्राविशद्दशमेऽहनि // 1 स वै भ्रमन्महीं सां कचिदासाद्य किंचन। स राजानमुपातिष्ठद्वाहुकोऽहमिति ब्रुवन् / वसत्यनहस्तदुःखं भूय एवानुसंस्मरन् // 15 अश्वानां वाहने युक्तः पृथिव्यां नास्ति मत्समः // 2 सा तु तं पुरुषं नारी कृच्छ्रेऽप्यनुगता वने / अर्थकृच्छ्रेषु चैवाहं प्रष्टव्यो नैपुणेषु च / त्यक्ता तेनाल्पपुण्येन दुष्करं यदि जीवति // 16 अन्नसंस्कारमपि च जानाम्यन्यैर्विशेषतः // 3 एका बालानभिज्ञा च मार्गाणामतथोचिता। यानि शिल्पानि लोकेऽस्मिन्यच्चाप्यन्यत्सुदुष्करम् / क्षुत्पिपासापरीता च दुष्करं यदि जीवति // 1. सर्व यतिष्ये तत्कर्तुमृतुपर्ण भरस्व माम् // 4 श्वापदाचरिते नित्यं वने महति दारुणे। ऋतुपर्ण उवाच / त्यक्ता तेनाल्पपुण्येन मन्दप्रज्ञेन मारिष // 18 . वस बाहुक भद्रं ते सर्वमेतत्करिष्यसि / इत्येवं नैषधो राजा दमयन्तीमनुस्मरन् / शीघ्रयाने सदा बुद्धिर्धीयते मे विशेषतः // 5 / अज्ञातवासमवसद्राज्ञस्तस्य निवेशने // 19 स त्वमातिष्ठ योगं तं येन शीघ्रा हया मम / इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि भवेयुरश्वाध्यक्षोऽसि वेतनं ते शतं शताः // 6 चतुःषष्टितमोऽध्यायः // 6 //
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________________ 2. 65. 1] आरण्यरूपवे [3. 65.27 पतिशोकाकुलां दीनां शुष्कस्रोतां नदीमिव // 13 बृहदश्व उवाच। विध्वस्तपर्णकमलां वित्रासितविहंगमाम् / हृतराज्ये नले भीमः सभार्ये प्रेष्यतां गते। हस्तिहस्तपरिक्लिष्टां व्याकुलामिव पद्मिनीम् // 14 द्विजान्प्रस्थापयामास नलदर्शनकाझ्या // 1 सुकुमारी सुजाताङ्गी रत्नगर्भगृहोचिताम् / संविदेश च तान्भीमो वसु दत्त्वा च पुष्कलम् / दहमानामिवोष्णेन मृणालीमचिरोद्धृताम् // 15. सुगयध्वं नलं चैव दमयन्तीं च मे सुताम् // 2 रूपौदार्यगुणोपेतां मण्डनार्हाममण्डिताम् / . अस्मिन्कर्मणि निष्पन्ने विज्ञाते निषधाधिपे / चन्द्रलेखामिव नवां व्योम्नि नीलाभ्रसंकृताम् // 16 गवां सहस्रं दास्यामि यो वस्तावानयिष्यति / कामभोगैः प्रियहीनां हीनां बन्धुजनेन च। अग्रहारं च दास्यामि प्रामं नगरसंमितम् // 3 | देहं धारयती दीनां भर्तृदर्शनकायया // 17 न चेच्छक्याविहानेतुं दमयन्ती नलोऽपि वा। भर्ता नाम परं नार्या भूषणं भूषणैर्विना। जातमात्रेऽपि दास्यामि गवां दशशतं धनम् // 4 एषा विरहिता तेन शोभनापि न शोभते // 18 इत्युक्तास्ते ययुर्हृष्टा ब्राह्मणाः सर्वतोदिशम् / दुष्करं कुरुतेऽत्यर्थं हीनो यदनया नलः / पुरराष्ट्राणि चिन्वन्तो नैषधं सह भार्यया // 5 धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनावसीदति // 19 / ततश्चेदिपुरी रम्या सुदेवो नाम बै द्विजः। इमामसितकेशान्तां शतपत्रायतेक्षणाम् / विचिन्वानोऽथ वैदर्भीमपश्यद्राजवेश्मनि / सुखाहाँ दुःखितां दृष्ट्वा ममापि ब्यथते मनः // 20 पुण्याहवाचने राज्ञः सुनन्दासहितां स्थिताम् // 6 कदा नु खलु दुःखस्य पारं यास्यति वै शुभा। मन्दप्रख्यायमानेन रूपेणाप्रतिमेन ताम् / भर्तुः समागमात्साध्वी रोहिणी शशिनो यथा॥२१ पिनद्धां धूमजालेन प्रभामिव विभावसोः // 7 अस्या नूनं पुनर्लाभान्नैषधः प्रीतिमेष्यति / तां समीक्ष्य विशालाक्षीमधिकं मलिनां कृशाम् / राजा राज्यपरिभ्रष्टः पुनर्लब्ध्वेव मेदिनीम् // 22 तर्कयामास भैमीति कारणैरुपपादयन् // 8 तुल्यशीलवयोयुक्तां तुल्याभिजनसंयुताम् / - सुदेव उवाच। नैषधोऽर्हति वैदीं तं चेयमसितेक्षणा // 23 . यथेयं मे पुरा दृष्टा तथारूपेयमङ्गना। युक्तं तस्याप्रमेयस्य वीर्यसत्त्ववतो मया / कृतार्थोऽस्म्यद्य दृष्ट्वेमा लोककान्तामिव श्रियम् // 9 समाश्वासयितुं भायाँ पतिदर्शनलालसाम् 24 पूर्णचन्द्राननां श्यामां चारवृत्तपयोधराम् / अयमाश्वासयाम्येनां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् / कुर्वन्ती प्रभया देवी सर्वा वितिमिरा दिशः // 10 अदृष्टपूर्वा दुःखस्य दुःखाता ध्यानतत्पराम् // 25 चारुपद्मपलाशाक्षी मन्मथस्य रतीमिव / बृहदश्व उवाच / इष्टां सर्वस्य जगतः पूर्णचन्द्रप्रभामिव // 11 / / एवं विमृश्य विविधैः कारणैर्लक्षणैश्च ताम् / विदर्भसरसस्तस्मादेवदोषादिवोद्धृताम् / | उपगम्य ततो भैमी सुदेवो ब्राह्मणोऽब्रवीत् // 26 मलपङ्कानुलिप्ताङ्गी मृणालीमिव तां भृशम् // 12 / अहं सुदेवो वैदर्भि भ्रातुस्ते दयितः सखा / पौर्णमासीमिव निशां राहुग्रस्तनिशाकराम् / / भीमस्य वचनाद्राज्ञस्त्वामन्वेष्टुमिहागतः // 27
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________________ हैं. 6. 28 ] महाभारते [3. 66. कुंशली ते पिता राज्ञि जनित्री भ्रातरश्च ते। दमयन्त्या गतः साधं न प्रज्ञायत कर्हिचित् // 3 आयुष्मन्तौ कुशलिनौ तत्रस्थौ दारकौ च ते / / ते वयं दमयन्त्यर्थे चरामः पृथिवीमिमाम् / त्वत्कृते बन्धुवर्गाश्च गतसत्त्वा इवासते // 28 सेयमासादिता बाला तव पुत्रनिवेशने // 4 . अमिज्ञाय सुदेवं तु दमयन्ती युधिष्ठिर। अस्या रूपेण सदृशी मानुषी नेह विद्यते। पर्यपृच्छत्ततः सन्क्रिमेण सुहृदः स्वकान् // 29 अस्याश्चैव ध्रुवोर्मध्ये सहजः पिप्लुरुत्तमः / .. लोद च भृशं राजन्वैदर्भी शोककर्शिता। श्यामायाः पद्मसंकाशो लक्षितोऽन्तर्हितो मया // 6 दृष्ट्वा सुदेवं सहसा भ्रातुरिष्टं द्विजोत्तमम् // 30 मलेन संवृतो ह्यस्यास्तन्वभ्रेणेव चन्द्रमाः। :: ततो रुदन्तीं तां दृष्ट्वा सुनन्दा शोककर्शिताम् / चिह्नभूतो विभूत्यर्थमयं धात्रा विनिर्मितः // 6. सुदेवेन सहैकान्ते कथयन्ती च भारत // 31 प्रतिपत्कलुषेवेन्दोर्लेखा नाति विराजते। जनित्र्यै प्रेषयामास सैरन्ध्री रुदते भृशम् / / न चास्या नश्यते रूपं वपुर्मलसमाचितम् / ... ब्राह्मणेन समागम्य तां वेद यदि मन्यसे // 32 असंस्कृतमपि व्यक्तं भाति काञ्चनसंनिभम् / / अथ चेदिपतेर्माता राज्ञश्वान्तःपुरात्तदा। / अनेन वपुषा बाला पिप्लुनानेन चैव ह। जगाम यत्र सा बाला ब्राह्मणेन सहाभवत् // 33 लक्षितेयं मया देवी पिहितोऽमिरिवोष्मणा // 8 ततः सुदेवमानाय्य राजमाता विशां पते / बृहदश्व उवाच। पप्रच्छ भार्या कस्येयं सुता वा कस्य भामिनी॥३४ तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सुदेवस्य विशां पते। . कथं च नष्टा ज्ञातिभ्यो भर्तुर्वा वामलोचना। सुनन्दा शोधयामास पिप्लुप्रच्छादनं मलम् // 9 . त्वया च विदिता विप्र कथमेवंगता सती // 35. स मलेनापकृष्टेन पिप्लुस्तस्या व्यरोचत। एतदिच्छाम्यहं त्वत्तो ज्ञातुं सर्वमशेषतः। दमयन्त्यास्तदा व्यभ्रे नमसीव निशाकरः // 10 तत्वेन हि ममाचक्ष्व पृच्छन्त्या देवरूपिणीम् // 36 पिप्लु दृष्ट्वा सुनन्दा च राजमाता च भारत / एवमुक्तस्तया राजन्सुदेवो द्विजसत्तमः / रुदन्त्यौ तां परिष्वज्य मुहूर्तमिव तस्थतुः / सुखोपविष्ट आचष्ट दमयन्त्या यथातथम् // 37 उत्सृज्य बाष्पं शनकै राजमातेदमब्रवीत् // 11 . इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि भगिन्या दुहिता मेऽसि पिप्लुनानेन सूचिता। , पञ्चषष्टितमोऽध्यायः // 65 // अहं च तव माता च राजन्यस्य महात्मनः / / सुते दशार्णाधिपतेः सुदाम्नश्चारुदर्शने // 12 सुदेव उवाच / भीमस्य राज्ञः सा दत्ता वीरबाहोरहं पुनः / विदर्भराजो धर्मात्मा भीमो भीमपराक्रमः। त्वं तु जाता मया दृष्टा दशार्णेषु पितुर्गृहे // 13 सुतेयं तस्य कल्याणी दमयन्तीति विश्रुता // 1 यथैव ते पितुर्गेहं तथेदमपि भामिनि / राजा तु नैषधो नाम वीरसेनसुतो नलः / यथैव हि ममैश्वर्यं दमयन्ति तथा तव // 14 / भार्येयं तस्य कल्याणी पुण्यश्लोकस्य धीमतः // 2 | तां प्रहृष्टेन मनसा दमयन्ती विशां पते। स वै द्यूते जितो भ्रात्रा हृतराज्यो महीपतिः। अभिवाद्य मातुर्भगिनीमिदं वचनमब्रवीत् // 15 -476 -
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________________ 3. 66. 16] आरण्यकपर्व [3. 67.17 अज्ञायमानापि सती सुखमसम्युषितेह वै। बाष्पेण पिहिता राजन्नोत्तरं किंचिदब्रवीत् / / 2 सर्वकामैः सुविहिता रक्ष्यमाणा सदा त्वया // 16 तदवस्थां तु तां दृष्ट्वा सर्वमन्तःपुरं तदा। सुखात्सुखतरो वासो भविष्यति न संशयः / हाहाभूतमतीवासीभृशं च प्रोद ह // 3 . चिरविप्रोषितां मातामनुज्ञातुमर्हसि // 17 ततो भीमं महाराज भार्या वचनमब्रवीत् / / दारकी च हि मे नीतौ वसतस्तत्र बालकौ / दमयन्ती तव सुता भर्तारमनुशोचति // 4 .... पित्रा विहीनौ शोकातॊ मया चैव कथं नु तौ // 18 अपकृष्य च लज्जां मां स्वयमुक्तवती नृप / यदि चापि प्रियं किंचिन्मयि कर्तुमिहेच्छसि। प्रयतन्तु तव प्रेष्याः पुण्यश्लोकस्य दर्शने // 5 विदर्भान्यातुमिच्छामि शीघ्रं में यानमांदिश // 19 तया प्रचोदितो राजा ब्राह्मणान्वशवर्तिनः। बाढमित्येव तामुक्त्वा हृष्टा मातृष्वसा नृप। प्रास्थापयदिशः सर्वा यतध्वं नलदर्शने // 6 गुप्तां बलेन महता पुत्रस्यानुमते ततः // 20 ततो विदर्भाधिपतेनियोगाद्राह्मणर्षभाः। प्रस्थापयद्राजमाता श्रीमता नरवाहिना। दमयन्तीमथो दृष्ट्वा प्रस्थिताः स्मेत्यथाब्रुवन् // 5 यानेन भरतश्रेष्ठ स्वन्नपानपरिच्छदाम् // 21 ... अथ तानब्रवीद्रैमी सर्वराष्ट्रेष्विदं वचः। / ततः सा नचिरादेव विदर्भानगमच्छुभा / . ब्रुवध्वं जनसंसत्सु तत्र तत्र पुनः पुनः // 8 तो तु बन्धुजनः सर्वः प्रहृष्टः प्रत्यपूजयत् // 22 क नु त्वं कितव छित्त्वा वस्त्रार्धं प्रस्थितो मम / सर्वान्कुशलिनो दृष्ट्वा बान्धवान्दारकी च तौ। उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय // 9 मातरं पितरं चैव सर्वं चैव सखीजनम् // 23 सा वै यथा समादिष्टा तत्रास्ते त्वत्प्रतीक्षिणी। देवताः पूजयामास ब्राह्मणांश्च यशस्विनी। दह्यमाना भृशं बाला वस्त्रार्धेनाभिसंवृता // 10 विधिना परेण कल्याणी दमयन्ती विशां पते // 24 तस्या रुदन्त्याः सततं तेन शोकेन पार्थिव / अतर्पयत्सुदेवं च गोसहस्रेण पार्थिवः। प्रसादं कुरु वै वीर प्रतिवाक्यं ददस्व च // 11' प्रीतो दृष्ट्वैव तनयां ग्रामेण द्रविणेन च // 25 एतदन्यच्च वक्तव्यं कृपां कुर्याद्यथा मयि। / सा व्युष्टा रजनी तत्र पितुर्वेश्मनि भामिनी। वायुना धूयमानो हि वनं दहति पावकः // 12 विश्रान्ता मातरं राजन्निदं वचनमब्रवीत् // 26 भर्तव्या रक्षणीया च पत्नी हि पतिना सदा।। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तन्नष्टमुभयं कस्माद्धर्मज्ञस्य सतस्तव // 13. . षट्षष्टितमोऽध्यायः // 66 // ख्यातः प्राज्ञः कुलीनश्च सानुक्रोशश्च त्वं सदा।' संवृत्तो निरनुक्रोशः शङ्के मद्भाग्यसंक्षयात् // 14 .. दमयन्त्युवाच / स कुरुष्व महेष्वास दयां मयि नरर्षम। मां चेदिच्छसि जीवन्ती मातः सत्यं ब्रवीमि ते / आनृशंस्यं परो धर्मस्त्वत्त एव हि मे श्रुतम् // 15 नरवीरस्य वै तस्य नलस्यानयने यत // 1 एवं ब्रुवाणान्यदि वः प्रतिब्याद्धि कश्चन। - बृहदश्व उवाच। ... स नरः सर्वथा ज्ञेयः कश्चासौ क च वर्तते॥१६ दमयन्त्या तथोक्ता तु सा देवी भृशदुःखिता। / यच्च वो वचनं श्रुत्वा ब्रूयात्प्रतिवचो नरः / - -
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________________ 3. 67. 17 ] महाभारते [3. 68.24 तदादाय वचः क्षिप्रं ममावेद्यं द्विजोत्तमाः // 17 आत्मानमात्मना सत्यो जितस्वर्गा न संशयः / यथा च वो न जानीयाचरतो भीमशासनात् / रहिता भर्तृभिश्चैव न क्रुध्यन्ति कदाचन // 8 पुनरागमनं चैव तथा कार्यमतन्द्रितैः // 18 विषमस्थेन मूढेन परिभ्रष्टसुखेन च। यदि वासौ समृद्धः स्याद्यदि वाप्यधनो भवेत् / यत्सा तेन परित्यक्ता तत्र न क्रोद्भुमर्हति // 9 यदि वाप्यर्थकामः स्याज्ज्ञेयमस्य चिकीर्षितम् // 19 प्राणयात्रां परिप्रेप्सोः शकुनैहृतवाससः। एवमुक्तास्त्वगच्छंस्ते ब्राह्मणाः सर्वतोदिशम् / आधिभिर्दह्यमानस्य श्यामा न क्रोद्भुमर्हति // 10 नलं मृगयितुं राजंस्तथा व्यसनिनं तदा // 20 सत्कृतासत्कृता वापि पतिं दृष्ट्वा तथागतम् / ते पुराणि सराष्ट्राणि प्रामान्घोषांस्तथाश्रमान् / भ्रष्टराज्यं श्रिया हीनं श्यामा न क्रोडुमर्हति // 11 अन्वेषन्तो नलं राजन्नाधिजग्मुर्द्विजातयः // 21 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा त्वरितोऽहमिहागतः / तच वाक्यं तथा सर्वे तत्र तत्र विशां पते / श्रुत्वा प्रमाणं भवती राज्ञश्चैव निवेदय // 12 श्रावयांचक्रिरे विप्रा दमयन्त्या यथेरितम् // 22 एतच्छ्रुत्वाश्रुपूर्णाक्षी पर्णादस्य विशां पते। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि दमयन्ती रहोऽभ्येत्य मातरं प्रत्यभाषत // 13 सप्तषष्टितमोऽध्यायः // 6 // अयमर्थो न संवेद्यो भीमें मातः कथंचन / त्वत्संनिधौ समादेक्ष्ये सुदेवं द्विजसत्तमम् // 14 बृहदश्व उवाच। / यथा न नृपतिर्भीमः प्रतिपद्येत मे मतम् / अथ दीर्घस्य कालस्य पर्णादो नाम वै द्विजः। तथा त्वया प्रयत्तव्यं मम चेत्प्रियमिच्छसि // 15 प्रत्येत्य नगरं भैमीमिदं वचनमब्रवीत् // 1 यथा चाहं समानीता सुवेनाशु बान्धवान् / नैषधं मृगयानेन दमयन्ति दिवानिशम् / तेनैव मङ्गलेनाशु सुदेवो यातु माचिरम् / अयोध्या नगरी गत्वा भाङ्गस्वरिरुपस्थितः // 2 समानेतुं नलं मातरयोध्यां नगरीमितः // 16 श्रावितश्च मया वाक्यं त्वदीयं स महाजने / विश्रान्तं च ततः पश्चात्पर्णादं द्विजसत्तमम् / ऋतुपर्णो महाभागो यथोक्तं वरवर्णिनि // 3 अर्चयामास वैदर्भी धनेनातीव भामिनी // 17 तच्छ्रुत्वा नाब्रवीत्किंचितुपर्णो नराधिपः। नले चेहागते विप्र भूयो दास्यामि ते वसु / न च पारिषदः कश्चिद्भाष्यमाणो मयासकृत् // 4 त्वया हि मे बहु कृतं यथा नान्यः करिष्यति / अनुज्ञातं तु मां राज्ञा विजने कश्चिदब्रवीत् / यद्भाहं समेष्यामि शीघ्रमेव द्विजोत्तम / / 18 ऋतुपर्णस्य पुरुषो बाहुको नाम नामतः // 5 एवमुक्तोऽर्चयित्वा तामाशीर्वादैः सुमङ्गलैः / सूतस्तस्य नरेन्द्रस्य विरूपो ह्रस्वबाहुकः / गृहानुपययौ चापि कृतार्थः स महामनाः // 19 शीघ्रयाने सुकुशलो मृष्टकर्ता च भोजने // 6 ततश्चानाय्य तं विप्रं दमयन्ती युधिष्ठिर / स विनिःश्वस्य बहुशो रुदित्वा च मुहुर्मुहुः / अब्रवीत्संनिधौ मातुर्दुःखशोकसमन्विता // 20 कुशलं चैव मां पृष्वा पश्चादिदमभाषत // 7 गत्वा सुदेव नगरीमयोध्यावासिनं नृपम् / वैषम्यमपि संप्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रियः। ऋतुपर्ण वचो ब्रूहि पतिमन्यं चिकीर्षति / -18 -
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________________ 3. 68. 21] . आरण्यकपर्व [3. 69.21 आस्थास्यति पुन:मी दमयन्ती स्वयंवरम् // 21 प्रतिजानामि ते सत्यं गमिष्यसि नराधिप / तत्र गच्छन्ति राजानो राजपुत्राश्च सर्वशः / / | एकाह्रा पुरुषव्याघ्र विदर्भनगरी नृप // 9 यथा च गणितः कालः श्वोभूते स भविष्यति // 22 ततः परीक्षामश्वानां चक्रे राजन्स बाहुकः / यदि संभावनीयं ते गच्छ शीघ्रमरिंदम / अश्वशालामुपागम्य भाङ्गस्वरिनृपाज्ञया // 10 सूर्योदये द्वितीयं सा भर्तारं वरयिष्यति / स त्वर्यमाणो बहुश ऋतुपर्णेन बाहुकः / न हि स ज्ञायते वीरो नलो जीवन्मृतोऽपि वा।।२३ अध्यगच्छत्कृशानश्वान्समर्थानध्वनि क्षमान् // 11 एवं तया यथोक्तं वै गत्वा राजानमब्रवीत् / तेजोबलसमायुक्तान्कुलशीलसमन्वितान् / ऋतुपर्ण महाराज सुवो ब्राह्मणस्तदा // 24 वर्जिताल्लक्षण_नैः पृथुप्रोथान्महाहनून् / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि शुद्धान्दशभिरावतैः सिन्धुजान्वातरंहसः॥ 12 * अष्टषष्टितमोऽध्यायः॥ 68 // दृष्ट्वा तानब्रवीद्राजा किंचित्कोपसमन्वितः। किमिदं प्रार्थितं कर्तुं प्रलब्धव्या हि ते वयम् // 13 बृहदश्व उवाच / कथमल्पबलप्राणा वक्ष्यन्तीमे हया मम / श्रुत्वा वचः सुदेवस्य ऋतुपर्णो नराधिपः / महानध्वा च तुरगैर्गन्तव्यः कथमीदृशैः // 14 सान्त्वयश्लक्ष्णया वाचा बाहुकं प्रत्यभाषत // 1 बाहुक उवाच / विदर्भान्यातुमिच्छामि दमयन्त्याः स्वयंवरम् / एते हया गमिष्यन्ति विदर्भान्नात्र संशयः / एकाह्रा हयतत्त्वज्ञ मन्यसे यदि बाहुक // 2 अथान्यान्मन्यसे राजन्ब्रूहि कान्योजयामि ते // 15 एवमुक्तस्य कौन्तेय तेन राज्ञा नलस्य ह। _ ऋतुपर्ण उवाच / व्यदीर्यत मनो दुःखात्प्रदध्यौ च महामनाः // 3 त्वमेव हयतत्त्वज्ञः कुशलश्चासि बाहुक / दमयन्ती भवेदेतत्कुर्याद्दुःखेन मोहिता / यान्मन्यसे समर्थांस्त्वं क्षिप्रं तानेव योजय // 16 अस्मदर्थे भवेद्वायमुपायश्चिन्तितो महान् // 4 बृहदश्व उवाच। नृशंसं बत वैदर्भी कर्तुकामा तपस्विनी / ततः सदश्वांश्चतुरः कुलशीलसमन्वितान् / मया क्षुद्रेण निकृता पापेनाकृतबुद्धिना // 5 योजयामास कुशलो जवयुक्तारथे नलः // 17 स्त्रीस्वभावश्चलो लोके मम दोषश्च दारुणः / ततो युक्तं रथं राजा समारोहत्त्वरान्वितः / स्यादेवमपि कुर्यात्सा विवशा गतसौहृदा। अथ पर्यपतन्भूमौ जानुभिस्ते हयोत्तमाः // 18 मम शोकेन संविना नैराश्यात्तनुमध्यमा // 6 ततो नरवरः श्रीमान्नलो राजा विशां पते / न चैव कर्हिचित्कुर्यात्सापत्या च विशेषतः / सान्त्वयामास तानश्वांस्तेजोबलसमन्वितान् // 19 यदत्र तथ्यं पथ्यं च गत्वा वेत्स्यामि निश्चयम् / | रश्मिभिश्च समुद्यम्य नलो यातुमियेष सः। ऋतुपर्णस्य वै काममात्मार्थं च करोम्यहम् // 7 सृतमारोप्य वार्ष्णेयं जवमास्थाय वै परम् // 20 इति निश्चित्य मनसा बाहुको दीनमानसः। ते चोद्यमाना विधिना बाहुकेन हयोत्तमाः / कृताञ्जलिरुवाचेदमृतुपर्ण नराधिपम् // 8 समुत्पेतुरिवाकाशं रथिनं मोहयन्निव // 21 .. -479 -
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________________ 3. 69. 22] महाभारते . [3. 70.14 तथा तु दृष्ट्वा तानश्वान्वहतो वातरंहसः। अयोध्याधिपति/मान्विस्मयं परमं ययौ // 22 रयघोषं तु तं श्रुत्वा हयसंग्रहणं च तत्। वार्ष्णेयश्चिन्तयामास बाहुकस्य हयज्ञताम् // 23 किं नु स्यान्मातलिरयं देवराजस्य सारथिः। . तथा हि लक्षणं वीरे बाहुके दृश्यते महत् // 24 शालिहोत्रोऽथ किं नु स्याद्धयानां कुलतत्त्ववित् / मानुषं समनुप्राप्तो वपुः परमशोभनम् // 25 / उताहो खिद्भवेद्राजा नलः परपुरंजयः। सोऽयं नृपतिरायात इत्येवं समचिन्तयत् // 26 अथ वा यां नलो वेद विद्यां तामेव बाहुकः / / तुल्यं हि लक्षये ज्ञानं बाहुकस्य नलस्य च // 27 अपि चेदं वयस्तुल्यमस्य मन्ये नलस्य च / नायं नलो महावीर्यस्तद्विद्यस्तु भविष्यति // 28 प्रच्छन्ना हि महात्मानश्चरन्ति पृथिवीमिमाम् / ... दैवेन विधिना युक्ताः शास्त्रोक्तैश्च विरूपणैः // 29 भवेत्तु मतिभेदो मे गात्रवैरूप्यतां प्रति / प्रमाणात्परिहीनस्तु भवेदिति हि मे मतिः // 30 क्याप्रमाणं तत्तुल्यं रूपेण तु विपर्ययः / नलं सर्वगुणैर्युक्तं मन्ये बाहुकमन्ततः // 31 हृदयेन महाराज पुण्यश्लोकस्य सारथिः // 32 ऋतुपर्णस्तु राजेन्द्र बाहुकस्य हयज्ञताम् / चिन्तयन्मुमुदे राजा सहवार्ष्णेयसारथिः // 33 . बलं वीर्य तथोत्साहं हयसंग्रहणं च तत् / . परं यत्नं च संप्रेक्ष्य परां मुदमवाप ह // 34 " इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि . .. एकोनसप्ततितमोऽध्यायः // 69 // अचिरेणातिचक्राम खेचरः खे चरन्निव // 1 . तथा प्रयाते तु रथे तदा भाङ्गवरिपः / उत्तरीयमथापश्यद्दष्टं परपुरंजयः // 2 ततः स त्वरमाणस्तु पटे निपतिते तदा। प्रहीष्यामीति तं राजा नलमाह महामनाः // 3... निगृहीष्व महाबुद्धे हयानेतान्महाजवान् / .. वार्ष्णेयो यावदेतं मे पटमानयतामिति // 4... नलस्तं प्रत्युवाचाथ दूरे भ्रष्टः पटस्तव / योजनं समतिक्रान्तो न स शक्यस्त्वया पुनः॥५ एवमुक्ते नलेनाथ तदा भाङ्गवरितृपः / आससाद वने राजन्फलवन्तं बिभीतकम् // 6 तं दृष्ट्वा बाहुकं राजा त्वरमाणोऽभ्यभाषत / ममापि सूत पश्य त्वं संख्याने परमं बलम् // 7 सर्वः सर्व न जानाति सर्वज्ञो नास्ति कश्चन। नैकत्र परिनिष्ठास्ति ज्ञानस्य पुरुषे कचित् // 8 वृक्षेऽस्मिन्यानि पर्णानि फलान्यपि च बाहुक / पतितानि च यान्यत्र तत्रैकमधिकं शतम् / एकपत्राधिक पत्रं फलमेकं च बाहुक // 9 पञ्च कोट्योऽथ पत्राणां द्वयोरपि च शाखयोः / प्रचिनुह्यस्य शाखे द्वे याश्चाप्यन्याः प्रशाखिकाः / आभ्यां फलसहस्रे द्वे पञ्चोनं शतमेव च // 10 ततो रथादवप्लुत्य राजानं बाहुकोऽब्रवीत् / परोक्षमिव मे राजन्कत्थसे शत्रुकर्शन // 11 अथ ते गणिते राजन्विद्यते न परोक्षता। प्रत्यक्षं ते महाराज गणयिष्ये बिभीतकम् // 12 अहं हि नाभिजानामि भवेदेवं न वेति च। .. संख्यास्यामि फलान्यस्य पश्यतस्ते जनाधिप। .. मुहूर्तमिव वार्ष्णेयो रश्मीन्यच्छतु वाजिनाम् // 13 तमब्रवीन्नृपः सूतं नायं कालो विलम्बितुम् / बाहुकस्त्वब्रवीदेनं परं यत्नं समास्थितः // 14 . बृहदश्व उवाच। स नदीः पर्वतांश्चैव वनानि च सरांसि च।
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________________ 8.70. 15 ] आरम्यकपर्व [3. TH.2 प्रतीक्षस्व मुहूर्त त्वमथ वा त्वरते भवान्। | तं शप्तुमैच्छत्कुपितो निषधाधिपतिर्नलः // 29.. एष याति शिवः पन्था याहि वार्ष्णेयसारथिः॥१५ तमुवाच कलिर्भातो वेपमानः कृताञ्जलिः / अब्रवीतुपर्णस्तं सान्त्वयन्कुरुनन्दन। कोपं संयच्छ नृपते कीर्तिं दास्यामि ते पराम् // 30 त्वमेव यन्ता नान्योऽस्ति पृथिव्यामपि बाहुक // 16 / इन्द्रसेनस्य जननी कुपिता माशपत्पुरा / त्वत्कृते यातुमिच्छामि विदर्भान्हयकोविद / यदा त्वया परित्यक्ता ततोऽहं भृशपीडितः // 31 शरणं त्वां प्रपन्नोऽस्मि न विघ्नं कर्तुमर्हसि // 17 / अवसं त्वयि राजेन्द्र सुदुःखमपराजित / कामं च ते करिष्यामि यन्मां वक्ष्यसि बाहुक। विषेण नागराजस्य दह्यमानो दिवानिशम् // 32 विदर्भान्यदि यात्वाद्य सूर्य दर्शयितासि मे // 18 ये च त्वां मनुजा लोके कीर्तयिष्यन्त्यतन्द्रिताः / अथाब्रवीद्वाहुकस्तं संख्यायेमं बिभीतकम् / / मत्प्रसूतं भयं तेषां न कदाचिद्भविष्यति // 33 . ततो विदर्भान्यास्यामि कुरुष्वेदं वचो मम // 19 एवमुक्तो नलो राजा न्ययच्छत्कोपमात्मनः / ..... अकाम इव तं राजा गणयस्वेत्युवाच ह। ततो भीतः कलिः क्षिप्रं प्रविवेश बिमीतकम् / .. सोऽवतीर्य रथात्तूर्ण शातयामास तं द्रुमम् // 20. कलिस्त्वन्येन नादृश्यत्कथयन्नैषधेन वै // 34 ततः स विस्मयाविष्ट्रो राजानमिदमब्रवीत् / ततो गतज्वरो राजा नैषधः परवीरहा। गणयित्वा यथोक्तानि तावन्त्येव फलानि च // 21 संप्रनष्टे कलौ राजन्संख्यायाथ फलान्युत // 35 .. अत्यद्भुतमिदं राजन्दृष्टवानस्मि ते बलम् / मुदा परमया युक्तस्तेजसा च परेण ह। श्रोतुमिच्छामि तां विद्यां यथैतज्ज्ञायते नृप // 22 रथमारुह्य तेजस्वी प्रययौ जवनैहयैः / तमुवाच ततो राजा त्वरितो गमने तदा। बिभीतकश्चाप्रशस्तः संवृत्तः कलिसंश्रयात् // 36 विद्ध्यक्षहृदयज्ञं मां संख्याने च विशारदम् // 23 हयोत्तमानुत्पततो द्विजानिव पुनः पुनः। बाहुकस्तमुवाचाथ देहि विद्यामिमां मम / .. नलः संचोदयामास प्रहृष्टेनान्तरात्मना // 37. मत्तोऽपि चाश्वहृदयं गृहाण पुरुषर्षभ / / 24.. विदर्भाभिमुखो राजा प्रययौ स महामनाः / ऋतुपर्णस्ततो राजा बाहुकं कार्यगौरवात् / नले तु समतिक्रान्ते कलिरप्यगमगृहान् // 38 : हयज्ञानस्य लोभाच तथेत्येवाब्रवीद्वचः॥२५॥ ततो गतज्वरो राजा नलोऽभूत्पृथिवीपते / यथेष्टं त्वं गृहाणेदमक्षाणां हृदयं परम्। विमुक्तः कलिना राजनरूपमात्रवियोजितः // 39 निक्षेपो मेऽश्वहृदयं त्ययि तिष्ठतु बाहुक / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एवमुक्त्वा ददौ विद्यामृतुपर्णो नलाय वै // 26 / सप्ततितमोऽध्यायः॥७॥ तस्यामहृदयज्ञस्य शरीरान्निःसृतः कलिः। / कर्कोटकविषं तीक्ष्णं मुखात्सततमुद्वमन् // 27 बृहदश्व उवाच / कलेस्तस्य तदार्तस्य शापाग्निः स विनिःसृतः। ततो विदर्भान्संप्राप्तं सायाह्ने सत्यविक्रमम् / स तेन कर्शितो राजा दीर्घकालमनात्मवान् / / 28 ऋतुपर्ण जना राज्ञे भीमाय प्रत्यवेदयन् // 1 तसो विषविमुक्तात्मा स्वरूपमकरोत्कलिः। .. .. स भीमवचनाद्राजा कुण्डिनं प्राविशत्पुरम् / ..." म. भा. 61
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________________ 8. 71.2] महाभारते [3.71.30 3 नादयारथघोषेण सर्वाः सोपदिशो दश // 2 आरुरोह महद्वेश्म पुण्यश्लोकदिदृक्षया // 16 ततस्तं रथनिर्घोषं नलाश्वास्तत्र शुश्रुवुः / / ततो मध्यमकक्षायां ददर्श रथमास्थितम् / श्रुत्वा च समहृष्यन्त पुरेव नलसंनिधौ // 3 / / ऋतुपणं महीपालं सहवार्ष्णेयबाहुकम् // 17 दमयन्ती च शुश्राव रथघोषं नलस्य तम् / स्तोऽवतीर्य वार्ष्णेयो बाहुकश्च रथोत्तमात् / यथा मेघस्य नदतो गम्भीरं जलदागमे // 4 हयांस्तानवमुच्याथ स्थापयामासतू रथम् // 18.' नलेन संगृहीतेषु पुरेव नलवाजिषु / सोऽवतीये रथोपस्थाइतपर्णो नराधिपः / सदृशं रथनिर्घोषं मेने भैमी तथा हयाः // 5 उपतस्थे महाराज भीमं भीमपराक्रमम // 19 प्रासादस्थाश्च शिखिनः शालास्थाश्चैव वारणाः / तं भीमः प्रतिजग्राह पूजया परया ततः। हयाश्च शुश्रुवुस्तत्र रथघोषं महीपतेः // 6 अकस्मात्सहसा प्राप्तं स्त्रीमत्रं न स्म विन्दति // 20 ते श्रुत्वा रथनिर्घोषं वारणाः शिखिनस्तथा। किं कार्य स्वागतं तेऽस्तु राज्ञा पृष्टश्च भारत / प्रणेदुरुन्मुखा राजन्मेघोदयमिवेक्ष्य ह॥७ नाभिजज्ञे स नृपतिर्दुहित्रर्थे समागतम् // 21 दमयन्त्युवाच। ऋतुपर्णोऽपि राजा स धीमान्सत्यपराक्रमः। यथासौ रथनिर्घोषः पूरयन्निव मेदिनीम् / राजानं राजपुत्रं वा न स्म पश्यति कंचन / मम हादयते चेतो नल एष महीपतिः॥८ नैव स्वयंवरकथां न च विप्रसमागमम् // 22 अद्य चन्द्राभवक्त्रं तं न पश्यामि नलं यदि। ततो विगणयनराजा मनसा कोसलाधिपः / असंख्येयगुणं वीरं विनशिष्याम्यसंशयम् // 9 आगतोऽस्मीत्युवाचैनं भवन्तमभिवादकः // 23 यदि वै तस्य वीरस्य बाह्वोर्नाद्याहमन्तरम्।। राजापि च स्मयन्भीमो मनसाभिविचिन्तयत् / प्रविशामि सुखस्पर्श विनशिष्याम्यसंशयम् // 10 अधिकं योजनशतं तस्यागमनकारणम् // 24 यदि मां मेघनिर्घोषो नोपगच्छति नैषधः / प्रामान्बहूनतिक्रम्य नाध्यगच्छद्यथातथम् / अद्य चामीकरप्रख्यो विनशिष्याम्यसंशयम् // 11 अल्पकार्य विनिर्दिष्टं तस्यागमनकारणम् // 25 यदि मां सिंहविक्रान्तो मत्तवारणवारणः। नैतदेवं स नृपतिस्तं सत्कृत्य व्यसर्जयत् / नाभिगच्छति राजेन्द्रो विनशिष्याम्यसंशयम् // 12 विश्राम्यतामिति वदन्छान्तोऽसीति पुनः पुनः॥२६ न स्मराम्यनृतं किंचिन्न स्मराम्यनुपाकृतम् / स सत्कृतः प्रहृष्टात्मा प्रीतः प्रीतेन पार्थिवः / न च पर्युषितं वाक्यं स्वैरेष्वपि महात्मनः // 13 / राजप्रेष्यैरनुगतो दिष्टं वेश्म समाविशत् / / 27 प्रभुः क्षमावान्वीरश्च मृदुर्दान्तो जितेन्द्रियः / ऋतुपर्णे गते राजन्वार्ष्णेयसहिते नृपे। रहोऽनीचानुवर्ती च क्लीषवन्मम नैषधः॥ 14 बाहुको रथमास्थाय रथशालामुपागमत् // 28 गुणांस्तस्य स्मरन्त्या मे तत्पराया दिवानिशम् / स मोचयित्वा तानश्वान्परिचार्य च शास्त्रतः। हृदयं दीर्यत इदं शोकात्प्रियविनाकृतम् // 15 स्वयं चैतान्समाश्वास्य रथोपस्थ उपाविशत् // 29 बृहदश्व उवाच। दमयन्ती तु शोकार्ता दृष्ट्वा भाङ्गस्वरिं नृपम् / एवं विलपमाना सा नष्टसंज्ञेव भारत। | सूतपुत्रं च वार्ष्णेयं बाहुकं च तथाविधम् // 30 -482
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________________ 8. 71. 31] आरण्यकपर्व [3. 72.20 चिन्तयामास वैदर्भी कस्यैष रथनिस्वनः / द्वितीयो दमयन्त्या वै श्वोभूत इति भामिनि // 8 नलस्येव महानासीन्न च पश्यामि नैषधम् // 31 श्रुत्वा तं प्रस्थितो राजा शतयोजनयायिभिः / वार्ष्णेयेन भवेन्नूनं विद्या सैवोपशिक्षिता / हयैर्वातजवैर्मुख्यैरहमस्य च सारथिः॥९ . तेनास्य स्थनिर्घोषो नलस्येव महानभूत् / / 32 केशिन्युवाच। आहो खितुपर्णोऽपि यथा राजा नलस्तथा / . अथ योऽसौ तृतीयो वः स कुतः कस्य वा पुनः / ततोऽयं रथनिर्घोषो नैषधस्येव लक्षये // 33 त्वं च कस्य कथं चेदं त्वयि कर्म समाहितम् // 10 एवं वितर्कयित्वा तु दमयन्ती विशां पते। बाहुक उवाच। दूतीं प्रस्थापयामास नैषधान्वेषणे नृप // 34 पुण्यश्लोकस्य वै सूतो वार्ष्णेय इति विश्रुतः। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि सनले विद्रुते भद्रे भाङ्गस्खरिमुपस्थितः // 11 . एकसप्ततितमोऽध्यायः // 71 // अहमप्यश्वकुशलः सूदत्वे च सुनिष्ठितः / 72 ऋतुपर्णेन सारथ्ये भोजने च वृतः स्वयम् // 12 दमयन्त्युवाच / केशिन्युवाच / गच्छ केशिनि जानीहि क एष रथवाहकः / अथ जानाति वार्ष्णेयः क नु राजा नलो गतः / उपविष्टो रथोपस्थे विकृतो ह्रस्वबाहुकः // 1 कथंचित्त्वयि वैतेन कथितं स्यात्तु बाहुक // 13 : अभ्येत्य कुशलं भद्रे मृदुपूर्व समाहिता / बाहुक उवाच / पृच्छेथाः पुरुष ह्येनं यथातत्त्वमनिन्दिते // 2 इहैव पुत्रौ निक्षिप्य नलस्याशुभकर्मणः / अत्र मे महती शङ्का भवेदेष नलो नृपः। गतस्ततो यथाकामं नैष जानाति नैषधम् // 14 तथा च मे मनस्तुष्टिहृदयस्य च निर्वृतिः // 3 न चान्यः पुरुषः कश्चिन्नलं वेत्ति यशस्विनि / अयाश्चैनं कथान्ते त्वं पर्णादवचनं यथा / गूढश्चरति लोकेऽस्मिन्नष्टरूपो महीपतिः॥१५ प्रतिवाक्यं च सुश्रोणि बुध्येथास्त्वमनिन्दिते // 4 / आत्मैव हि नलं वेत्ति या चास्य तदनन्तरा। - बृहदश्व उवाच। न हि वै तानि लिङ्गानि नलं शंसन्ति कर्हि चित्॥१६ एवं समाहिता गत्वा दूती बाहुकमब्रवीत् / केशिन्युवाच। दमयन्त्यपि कल्याणी प्रासादस्थान्ववैक्षत // 5 योऽसावयोध्यां प्रथमं गतवान्ब्राह्मणस्तदा / केशिन्युवाच / इमानि नारीवाक्यानि कथयानः पुनः पुनः // 17 स्वागतं ते मनुष्येन्द्र कुशलं ते ब्रवीम्यहम् / क नु त्वं कितव छित्त्वा वस्त्रार्धं प्रस्थितो मम / दमयन्त्या वचः साधु निबोध पुरुषर्षभ // 6 उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय // 18 कदा वै प्रस्थिता यूयं किमर्थमिह चागताः / / सा वै यथा समादिष्टा तत्रास्ते त्वत्प्रतीक्षिणी / तत्त्वं ब्रूहि यथान्यायं वैदर्भी श्रोतुमिच्छति॥७ / दह्यमाना दिवारानं वस्त्रार्थेनाभिसंवृता // 19 बाहुक उवाच। तस्या रुदन्त्याः सततं तेन दुःखेन पार्थिव / श्रुतः स्वयंवरो राज्ञा कौसल्येन यशस्विना / प्रसादं कुरु वै वीर प्रतिवाक्यं प्रयच्छ च // 20 - 483 -
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________________ 8. 72. 21] महाभारते [ 3. 78. in तस्यास्तत्प्रियमाख्यानं प्रब्रवीहि महामते। तत्र संचेष्टमानस्य संलक्ष्यं ते विचेष्टितम् // 3. तदेव वाक्यं वैदर्भी श्रोतुमिच्छत्यनिन्दिता // 21 न चास्य प्रतिबन्धेन देयोऽग्निरपि भामिनि / एतच्छ्रुत्वा प्रतिवचस्तस्य दत्तं त्वया किल। याचते न जलं देयं सम्यगत्वरमाणया॥४ यत्पुरा तत्पुनस्त्वत्तो वैदर्भी श्रोतुमिच्छति // 22 एतत्सर्व समीक्ष्य त्वं चरितं मे निवेदय। .... बृहदश्व उवाच। यच्चान्यदपि पश्येथास्तच्चाख्येयं त्वया मम // 5: एवमुक्तस्य केशिन्या नलस्य कुरुनन्दन। दमयन्त्यैवमुक्ता सा जगामाथाशु केशिनी। .:हृदयं व्यथितं चासीदश्रुपूर्णे च लोचने // 23 निशाम्य च हयज्ञस्य लिङ्गानि पुनरागमत् // 6 स निगृह्यात्मनो दुःखं दह्यमानो महीपतिः।. सा तत्सर्वं यथावृत्तं दमन्यत्यै न्यवेदयत्। बाष्पसंदिग्धया वाचा पुनरेवेदमत्रवीत् // 24::: निमित्तं यत्तदा दृष्टं बाहुके दिव्यमानुषम् // 7 वैषम्यमपि संप्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रियः। .. - केशिन्युवाच। . . आत्मानमात्मना सत्यो जितस्वर्गा न संशयः॥२५ दृढं शुच्युपचारोऽसौ न मया मानुषः क्वचित् / रहिता भर्तृभिश्चैव न क्रुध्यन्ति कदाचन। दृष्टपूर्वः श्रुतो वापि दमयन्ति तथाविधः // 8 प्राणांश्चारित्रकवचा धारयन्तीह सस्त्रियः // 26 हस्खमासाद्य संचारं नासौ विनमते कचित् / प्राणयात्रां परिप्रेप्सोः शकुनैर्हृतवाससः। ... तं तु दृष्ट्वा यथासङ्गमुत्सर्पति यथासुखम्। आधिभिर्दह्यमानस्य श्यामा न क्रोद्धुमर्हति // 27 संकटेऽप्यस्य सुमहद्विवरं जायतेऽधिकम् // 9 // सत्कृतासत्कृता वापि पतिं दृष्ट्वा तथागतम्। ऋतुपर्णस्य चार्थाय भोजनीयमनेकशः / भ्रष्टराज्यं श्रिया हीनं क्षुधितं व्यसनाप्लुतम् // 28 प्रेषितं तत्र राज्ञा च मांसं सुबहु पाशवम् // 10 एवं ब्रुवाणस्तद्वाक्यं नलः परमदुःखितः / तस्य प्रक्षालनार्थाय कुम्भस्तत्रोपकल्पितः / न बाष्पमशकत्सोढुं प्रसोद च भारत // 29 / स तेनावेक्षितः कुम्भः पूर्ण एवाभवत्तदा // 11 . ततः सा केशिनी गत्वा दमयन्त्यै न्यवेदयत्। . ततः प्रक्षालनं कृत्वा समधिश्रित्य बाहुकः। तत्सर्वं कथितं चैव विकारं चैव तस्य तम् // 30 तृणमुष्टिं समादाय आविध्यनं समादधत् // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अथ प्रज्वलितस्तत्र सहसा हव्यवाहनः। .. द्विसप्ततितमोऽध्यायः // 72 // तदद्भुततमं दृष्ट्वा विस्मिताहमिहागता // 13 , अन्यच्च तस्मिन्सुमहदाश्चर्य लक्षितं मया। बृहदश्व उवाच / यदग्निमपि संस्पृश्य नैव दह्यत्यसौ शभे॥१४ दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा भृशं शोकपरायणा / .. छन्देन चोदकं तस्य वहत्यावर्जितं द्रुतम् / / शङ्कमाना नलं तं वै केशिनीमिदमब्रवीत् // 1 / अतीव चान्यत्सुमहदाश्चर्य दृष्टवत्यहम् // 15 .. गच्छ केशिनि भूयस्त्वं परीक्षां कुरु बाहुके। . यत्स पुष्पाण्युपादाय हस्ताभ्यां ममृदे शनैः। अब्रुवाणा समीपस्था चरितान्यस्य लक्षय // 2 मृद्यमानानि पाणिभ्यां तेन पुष्पाणि तान्यथ // 16 यदा च किंचित्कुर्यात्स कारणं तत्र भामिनि। . भूय एव सुगन्धीनि हृषितानि भवन्ति.च। . -484 -
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________________ 3. 73. 17] आरण्यकपर्व [ 3. 74. 16 एतान्यद्भुतकल्पानि दृष्ट्वाहं द्रुतमागता // 17 आगत्य केशिनी क्षिप्रं दमयन्त्यै न्यवेदयत्॥ 1.. बृहदश्व उवाच / दमयन्ती ततो भूयः प्रेषयामास केशिनीम्।। दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा पुण्यश्लोकस्य चेष्टितम् / मातुः सकाशं दुःखार्ता नलशङ्कासमुत्सुका // 2: अमन्यत नलं प्राप्तं कर्मचेष्टाभिसूचितम् // 18 . परीक्षितो मे बहुशो बाहुको नलशङ्कया। सा शङ्कमाना भर्तारं नलं बाहुकरूपिणम्। रूपे मे संशयस्त्वेकः स्वयमिच्छामि वेदितुम् // 3 केशिनी श्क्ष्ण या वाचा रुदती पुनरब्रवीत् // 19 / स वा प्रवेश्यतां माता वानुज्ञातुमर्हसि। पुनर्गच्छ प्रमत्तस्य बाहुकस्योपसंस्कृतम्। विदितं वाथ वाज्ञातं पितुर्मे संविधीयताम् // 4, महानसाच्छृतं मांसं समादायैहि भामिनि // 20 | एवमुक्ता तु वैदा सा देवी भीममब्रवीत्। सा गत्वा बाहुके व्यग्रे तन्मांसमपकृष्य च। | दुहितुस्तमभिप्रायमन्वजानाञ्च पार्थिवः // 5. अत्युष्णमेव त्वरिता तत्क्षणं प्रियकारिणी। . सा वै पित्राभ्यनुज्ञाता मात्रा च भरतर्षभ। दमयन्त्यै ततः प्रादात्केशिनी कुरुनन्दन // 21.. नलं प्रवेशयामास यत्र तस्याः प्रतिश्रयः॥६ : सोचिता नलसिद्धस्य मांसस्य बहुशः पुरा। तं तु दृष्ट्वा तथायुक्तं दमयन्ती नलं तदा। / प्राश्य मत्वा नलं सूदं प्राक्रोशद्भशदुःखिता // 22 तीव्रशोकसमाविष्टा बभूव वरवर्णिनी॥७ वैक्लव्यं च परं गत्वा प्रक्षाल्य च मुखं ततः। ततः काषायवसना जटिला मलपकिनी। मिथुनं प्रेषयामास केशिन्या सह भारत // 23 दमयन्ती महाराज बाहुकं वाक्यमब्रवीत् // 8 इन्द्रसेनां सह भ्रात्रा समभिज्ञाय बाहुकः। दृष्टपूर्वस्त्वया कश्चिद्धर्मज्ञो नाम बाहुक। अभिद्रुत्य ततो राजा परिष्वज्याङ्कमानयत् // 24 सुप्तामुत्सृज्य विपिने गतो यः पुरुषः स्त्रियम् // 9 बाहुकस्तु समासाद्य सुतौ सुरसुतोपमौ। ... अनागसं प्रियां भार्यां विजने श्रममोहिताम् / भृशं दुःखपरीतात्मा सस्वरं प्रोद ह॥२५ अपहाय तु को गच्छेत्पुण्यश्लोकमृते नलम् // 10 नैषधो दर्शयित्वा तु विकारमसकृत्तदा / किं नु तस्य मया कार्यमपराद्धं महीपतेः / उत्सृज्य सहसा पुत्रौ केशिनीमिदमब्रवीत् // 26 यो मामुत्सृज्य विपिने गतवान्निद्रया हृताम् // 11 इदं सुसदृशं भद्रे मिथुनं मम पुत्रयोः। साक्षाद्देवानपाहाय वृतो यः स मया पुरा / ततो दृष्ट्वैव सहसा बाष्पमुत्सृष्टवानहम् // 27 अनुव्रतां साभिकामां पुत्रिणीं त्यक्तवान्कथम् // 12 बहुशः संपतन्तीं त्वां जनः शङ्केत दोषतः। अग्नौ पाणिगृहीतां च हंसानां वचने स्थिताम् / / क्यं च देशातिथयो गच्छ भद्रे नमोऽस्तु ते // 28 भरिष्यामीति सत्यं च प्रतिश्रुत्य क तद्गतम् // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दमयन्त्या ब्रुवन्त्यास्तु सर्वमेतदरिंदम। . त्रिसप्ततितमोऽध्यायः // 73 // शोकजं वारि नेत्राभ्यामसुखं प्रास्रवद्वहु / / 14 / अतीव कृष्णताराभ्यां रक्तान्ताभ्यां जलं तु तत् / . बृहदश्व उवाच। परिस्रवन्नलो दृष्ट्वा शोकात इदमब्रवीत् // 15 : सर्व विकारं दृष्ट्वा तु पृण्यश्लोकस्य धीमतः। | मम राज्यं प्रनष्टं यन्नाहं तत्कृतवान्स्वयम् / ... -485 74
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________________ 8. 74. 16 ] महामारते [3. 75. 20 कलिना तत्कृतं भीरु यच्च त्वामहमत्यजम् // 16 समर्थो योजनशतं गन्तुमश्वैर्नराधिप // 5 त्वया तु धर्मभृच्छ्रेष्ठे शापेनाभिहतः पुरा। .. तथा चेमौ महीपाल भजेऽहं चरणौ तव / वनस्थया दुःखितया शोचन्त्या मां विवाससम् // 17 यथा नासत्कृतं किंचिन्मनसापि चराम्यहम् // 6 स मच्छरीरे त्वच्छापाद्दह्यमानोऽवसत्कलिः / अयं चरति लोकेऽस्मिन्भूतसाक्षी सदागतिः। ' त्वच्छापदग्धः सततं सोऽनाविव समाहितः // 18 एष मुश्चतु मे प्राणान्यदि पापं चराम्यहम् // 7.' मम च व्यवसायेन तपसा चैव निर्जितः। तथा चरति तिग्मांशुः परेण भुवनं सदा। . दुःखस्यान्तेन चानेन भवितव्यं हि नौ शुभे॥१९ स विमुश्चतु मे प्राणान्यदि पापं चराम्यहम् // 8 विमुच्य मां गतः पापः स ततोऽहमिहागतः / चन्द्रमाः सर्वभूतानामन्तश्चरति साक्षिवत् / त्वदर्थं विपुलश्रोणि न हि मेऽन्यत्प्रयोजनम् // 20 स विमुञ्चतु मे प्राणान्यदि पापं चराम्यहम् / / 9 कथं नु नारी भर्तारमनुरक्तमनुव्रतम् / एते देवास्त्रयः कृत्स्नं त्रैलोक्यं धारयन्ति वै / उत्सज्य वरयेदन्यं यथा त्वं मीरु कर्हिचित // 21 विब्रुवन्तु यथासत्यमेते वाद्य त्यजन्तु माम् / / 10 दूताश्चरन्ति पृथिवीं कृत्स्नां नृपतिशासनात् / / एवमुक्ते ततो वायुरन्तरिक्षादभाषत / भैमी किल स्म भर्तारं द्वितीयं वरयिष्यति / / 22 नैषा कृतवती पापं नल सत्यं ब्रवीमि ते // 11 स्वैरवृत्ता यथाकाममनुरूपमिवात्मनः। . राजशीलनिधिः स्फीतो दमयन्त्या सुरक्षितः / श्रुत्वैव चैवं त्वरितो भागस्वरिरुपस्थितः // 23 साक्षिणो रक्षिणश्चास्या वयं त्रीन्परिवत्सरान् // 12 दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा नलस्य परिदेवितम् / उपायो विहितश्चायं त्वदर्थमतुलोऽनया। प्राञ्जलिर्वेपमाना च भीता वचनमब्रवीत् // 24 न ह्येकाला शतं गन्ता त्वदृतेऽन्यः पुमानिह // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि उपपन्ना त्वया भैमी त्वं च भैम्या महीपते / चतुःसप्ततितमोऽध्यायः // 7 // नात्र शङ्का त्वया कार्या संगच्छ सह भार्यया // 14 तथा ब्रुवति वायौ तु पुष्पवृष्टिः पपात ह। दमयन्त्युवाच / देवदुन्दुभयो नेदुर्ववौ च पवनः शिवः // 15 न मामर्हसि कल्याण पापेन परिशङ्कितुम् / तदद्भुततमं दृष्ट्वा नलो राजाथ भारत / मया हि देवानुत्सृज्य वृतस्त्वं निषधाधिप // 1 दमयन्त्यां विशङ्कां तां व्यपाकर्षदरिंदमः // 16 तवाभिगमनाथं तु सर्वतो ब्राह्मणा गताः / ततस्तद्वनमरजः प्रावृणोद्वसुधाधिपः / वाक्यानि मम गाथाभिर्गायमाना दिशो दश // 2 संस्मृत्य नागराजानं ततो लेभे वपुः स्वकम् / / 17 ततस्त्वां ब्राह्मणो विद्वान्पर्णादो नाम पार्थिव / स्वरूपिणं तु भर्तारं दृष्ट्वा भीमसुता तदा / अभ्यगच्छत्कोसलायामृतुपर्णनिवेशने // 3 प्राक्रोशदुच्चैरालिङ्गय पुण्यश्लोकमनिन्दिता // 18 तेन वाक्ये हृते सम्यक्प्रतिवाक्ये तथाहृते / भैमीमपि नलो राजा भ्राजमानो यथा पुरा / उपायोऽयं मया दृष्टो नैषधानयने तव // 4 सखजे स्वसुतौ चापि यथावत्प्रत्यनन्दत // 19 त्वामृते न हि लोकेऽन्य एकाह्रा पृथिवीपते। / ततः स्वोरसि विन्यस्य वक्त्रं तस्य शुभानना / -486
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________________ 8. 75. 20] आरण्यकार्व [3.76. 18 पीता तेन दुःखेन निशश्वासायतेक्षणा // 20 ततो बभूव नगरे सुमहान्हर्षनिस्वनः / तथैव मलदिग्धाङ्गी परिष्वज्य शुचिस्मिता / जनस्य संप्रहृष्टस्य नलं दृष्ट्वा तथागतम् // 5 / सुचिरं पुरुषव्याघ्रं तस्थौ साश्रुपरिप्लुता // 21 अशोभयच्च नगरं पताकाध्वजमालिनम्। ततः सर्वं यथावृत्तं दमयन्त्या नलस्य च / सिक्तसंमृष्टपुष्पाढ्या राजमार्गाः कृतास्तदा // 6 भीमायाकथयत्प्रीत्या वैदा जननी नृप // 22 द्वारि द्वारि च पौराणां पुष्पभङ्गः प्रकल्पितः। ततोऽब्रवीन्महाराजः कृतशौचमहं नलम्। आर्चितानि च सर्वाणि देवतायतनानि च // 7 दमयन्त्या सहोपेतं काल्यं द्रष्टा सुखोषितम् // 23 ऋतुपर्णोऽपि शुश्राव बाहुकच्छमिनं नलम्। . ततस्तौ सहितौ रात्रिं कथयन्तौ पुरातनम् / दमयन्त्या समायुक्तं जहृषे च नराधिपः // 8 वने विचरितं सर्वमूषतुर्मुदितौ नृप // 24 तमानाय्य नलो राजा क्षमयामास पार्थिवम् / स चतुर्थे ततो वर्षे संगम्य सह भार्यया / स च तं क्षमयामास हेतुभिर्बुद्धिसंमतः // 9 सर्षकामैः सुसिद्धार्थो लब्धवान्परमां मुदम् / / 25 | स सत्कृतो महीपालो नैषधं विस्मयान्वितः / दमयन्त्यपि भर्तारमवाप्याप्यायिता भृशम् / दिष्ट्या समेतो दारैः स्वैभवानित्यभ्यनन्दत // 10 अर्धसंजातसस्येव तोयं प्राप्य वसुंधरा // 26 कञ्चित्तु नापराधं ते कृतवानस्मि नैषध / सैवं समेत्य व्यपनीततन्द्री अज्ञातवासं वसतो मद्गृहे निषधाधिप // 11 शान्तज्वरा हर्षविवृद्धसत्त्वा। यदि वा बुद्धिपूर्वाणि यद्यबुद्धानि कानिचित् / . रराज भैमी समवाप्तकामा मया कृतान्यकार्याणि तानि मे क्षन्तुमर्हसि // 12 .. शीतांशुना रात्रिरिवोदितेन // 27 - नल उवाच / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि न मेऽपराधं कृतवांस्त्वं स्वल्पमपि पार्थिव। / पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः // 5 // कृतेऽपि च न मे कोपः क्षन्तव्यं हि मया तव॥१३ पूर्व ह्यसि सखा मेऽसि संबन्धी च नराधिप / बृहदश्व उवाच। अत ऊर्ध्वं तु भूयस्त्वं प्रीतिमाहर्तुमर्हसि // 14 अथ तां व्युषितो रात्रिं नलो राजा स्खलंकृतः। . सर्वकामैः सुविहितः सुखमस्म्युषितस्त्वयि। वैदा सहितः काल्यं ददर्श वसुधाधिपम् // 1 न तथा स्वगृहे राजन्यथा तव गृहे सदा // 15 ततोऽभिवादयामास प्रयतः श्वशुरं नलः / इदं चैव हयज्ञानं त्वदीयं मयि तिष्ठति / तस्यानु दमयन्ती च ववन्दे पितरं शुभा // 2 तदुपाकर्तुमिच्छामि मन्यसे यदि पार्थिव // 16 तं भीमः प्रतिजग्राह पुत्रवत्परया मुदा। बृहदश्व उवाच। यथार्ह पूजयित्वा तु समाश्वासयत प्रभुः। एवमुक्या ददौ विद्यामृतुपर्णाय नैषधः / नलेन सहितां तत्र दमयन्ती पतिव्रताम् / / 3 / / स च तां प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा // 17 तामर्हणां नलो राजा प्रतिगृह्य यथाविधि। ततो गृह्याश्वहृदयं तदा भाङ्गस्वरिनृपः / परिचर्या स्वकां तस्मै यथावत्प्रत्यवेदयत् / / 4 / सूतमन्यमुपादाय ययौ स्वपुरमेव हि // 18.. -487 - सान। /
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________________ 8. 76. 19 ] 'महाभारत [ 8. 77. 26 ऋतुपर्णे प्रतिगते नलो राजा विशां पते। दिष्टया च ध्रियसे राजन्सदारोऽरिनिबर्हण // 12 नगरे कुण्डिने कालं नातिदीर्घमिवावसत् // 19 धनेनानेन वैदर्भी जितेन समलंकृता। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि मामुपस्थास्यति व्यक्तं दिवि शक्रमिवाप्सराः॥१३ षट्सप्ततितमोऽध्यायः // 76 // नित्यशो हि स्मरामि त्वां प्रतीक्षामि च नैषध / ' 77 देवने च मम प्रीतिर्न भवत्यसुहृद्णैः // 14 . बृहदश्व उवाच / जित्वा त्वद्य वरारोहां दमयन्तीमनिन्दिताम् / स मासमुष्य कौन्तेय भीममामय नैषधः। कृतकृत्यो भविष्यामि सा हि मे नित्यशो हृदि // 15 पुरादल्पपरीवारो जगाम निषधान्प्रति // 1 . श्रुत्वा तु तस्य ता वाचो बह्वबद्धप्रलापिनः / रथेनैकेन शुभेण दन्तिभिः परिषोडशैः। इयेष स शिरश्छेत्तुं खङ्गेन कुपितो नलः // 16 पञ्चाशद्रियैश्चैव षट्शतैश्च पदातिभिः // 2 स्मयंस्तु रोषताम्राक्षस्तमुवाच ततो नृपः। ... स कम्पयन्निव महीं त्वरमाणो महीपतिः। पणावः किं व्याहरसे जित्वा वै व्याहरिष्यसि॥१७ प्रविवेशातिसंरब्धस्तरसैव महामनाः॥३ ततः प्रावर्तत द्यतं पुष्करस्य नलस्य च / ततः पुष्करमासाद्य वीरसेनसुतो नलः / एकपाणेन भद्रं ते नलेन स पराजितः। उवाच दीव्याव पुनर्बहु वित्तं मयार्जितम् // 4 सरत्नकोशनिचयः प्राणेन पणितोऽपि च // 18 दमयन्ती च यच्चान्यन्मया वसु समर्जितम्। . जित्वा च पुष्करं राजा प्रहसन्निदमब्रवीत् / एष वै मम संन्यासस्तव राज्यं तु पुष्कर / / 5 / मम सर्वमिदं राज्यमव्यग्रं हतकण्टकम् // 19 पुनः प्रवर्ततां गतामिति मे निश्चिता मतिः / वैदर्भी न त्वया शक्या राजापसद वीक्षितुम् / एकपाणेन भद्रं ते प्राणयोश्च पणावहे // 6. तस्यास्त्वं सपरीवारो मूढ दासत्वमागतः // 20 जित्वा परस्वमाहृत्य राज्यं वा यदि वा वसु। . न तत्त्वया कृतं कर्म येनाहं निर्जितः पुरा / प्रतिपाणः प्रदातव्यः परं हि धनमुच्यते // 7 कलिना तत्कृतं कर्म त्वं तु मूढ न बुध्यसे / न चेद्वाञ्छसि तद्द्यूतं युद्धद्यूतं प्रवर्तताम्। नाहं परकृतं दोषं त्वय्याधास्ये कथंचन // 21 द्वैरथेनास्तु वै शान्तिस्तव वा मम वा नृप // 8 यथासुखं त्वं जीवस्व प्राणानभ्युत्सृजामि ते। वंशभोज्यमिदं राज्यं मार्गितव्यं यथा तथा। तथैव च मम प्रीतिस्त्वयि वीर न संशयः // 22 येन तेनाप्युपायेन वृद्धानामिति शासनम् // 9 सौभ्रात्रं चैव मे त्वत्तो न कदाचित्प्रहास्यति। . द्वयोरेकतरे बुद्धिः क्रियतामद्य पुष्कर। पुष्कर त्वं हि मे भ्राता संजीवस्व शतं समाः॥२३ कैतवेनाक्षवत्यां वा युद्धे वा नम्यतां धनुः / / 10 एवं नलः सान्त्वयित्वा भ्रातरं सत्यविक्रमः / / नैषधेनैवमुक्तस्तु पुष्करः प्रहसन्निव / . स्वपुरं प्रेषयामास परिष्वज्य पुनः पुनः // 24 / ' ध्रुक्मात्मजयं मत्वा प्रत्याह पृथिवीपतिम् // 11 सान्त्वितो नैषधेनैवं पुष्करः प्रत्युवाच तम् / / दिष्टया त्वयार्जितं वित्तं प्रतिपाणाय नैषध / पुण्यश्लोकं तदा राजन्नभिवाद्य कृताञ्जलिः // 25 दिष्टया च दुष्कृतं कर्म दमयन्त्याः क्षयं गतम् / कीर्तिरस्तु तवाक्षय्या जीव वर्षायुतं सुखी। . . -488 -
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________________ 8. 77. 26 ] . आरण्यकपर्व [3. 78. 23 यो मे वितरसि प्राणानधिष्ठानं च पार्थिव // 26 / इतिहासमिमं चापि कलिनाशनमुच्यते। स तथा सत्कृतो राज्ञा मासमुष्य तदा नृपः। शक्यमाश्वासितुं श्रुत्वा त्वद्विधेन विशां पते // 10 प्रययौ स्वपुरं हृष्टः पुष्करः स्वजनावृतः॥ 27 अस्थिरत्वं च संचिन्त्य पुरुषार्थस्य नित्यदा। महत्या सेनया राजन्विनीतैः परिचारकैः।। तस्याये च व्यये चैव समाश्वसिहि मा शुचः॥११ भ्राजमान इवादित्यो वपुषा पुरुषर्षभ // 28 ये चेदं कथयिष्यन्ति नलस्य चरितं महत् / प्रस्थाप्य पुष्करं राजा वित्तवन्तमनामयम् / श्रोष्यन्ति चाप्यमीक्ष्णं वै नालक्ष्मीस्तान्भजिष्यति / प्रविवेश पुरं श्रीमानत्यर्थमुपशोभितम् / अर्थास्तस्योपपत्स्यन्ते धन्यतां च गमिष्यति // 12 प्रविश्य सान्त्वयामास पौरांश्च निषधाधिपः // 29 इतिहासमिमं श्रुत्वा पुराणं शश्वदुत्तमम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि पुत्रान्पौत्रान्पशृंश्चैव वेत्स्यते नृषु चाय्यताम् / सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥७७॥ अरोगः प्रीतिमांश्चैव भविष्यति न संशयः // 13 78 भयं पश्यसि यच्च त्वमाह्वयिष्यति मां पुनः। बृहदश्व उवाच। अक्षज्ञ इति तत्तेऽहं नाशयिष्यामि पार्थिव // 14 प्रशान्ते तु पुरे हृष्टे संप्रवृत्ते महोत्सवे / वेदाक्षहृदयं कृत्स्नमहं सत्यपराक्रम / महत्या सेनया राजा दमयन्तीमुपानयत् // 1 उपपद्यस्व कौन्तेय प्रसन्नोऽहं ब्रवीमि ते // 55 दमयन्तीमपि पिता सत्कृत्य परवीरहा। वैशंपायन उवाच / प्रस्थापयदमेयात्मा भीमो भीमपराक्रमः॥२ ततो हृष्टमना राजा बृहदश्वमुवाच ह। आगतायां तु वैदा सपुत्रायां नलो नृपः / भगवन्नक्षहृदयं ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः // 16 वर्तयामास मुदितो देवराडिव नन्दने // 3 ततोऽक्षहृदयं प्रादात्पाण्डवाय महात्मने। तथा प्रकाशतां यातो जम्बूद्वीपेऽथ राजसु / दत्त्वा चाश्वशिरोऽगच्छदुपस्प्रष्टुं महातपाः // 17 पुनः स्खे चावसद्राज्ये प्रत्याहृत्य महायशाः॥४ बृहदश्वे गते पार्थमश्रौषीत्सव्यसाचिनम् / ईजे च विविधैर्यविधिवत्स्वाप्तदक्षिणैः / वर्तमानं तपस्युने वायुभक्षं मनीषिणम् // 18 तथा त्वमपि राजेन्द्र ससुहृद्वक्ष्यसेऽचिरात् // 5 ब्राह्मणेभ्यस्तपस्विभ्यः संपतद्भ्यस्ततस्ततः / दुःखमेतादृशं प्राप्तो नलः परपुरंजयः। तीर्थशैलवरेभ्यश्च समेतेभ्यो दृढव्रतः // 19 देखनेन नरश्रेष्ठ सभार्यो भरतर्षभ // 6 इति पार्थो महाबाहुर्दुरापं तप आस्थितः। एकाकिनैव सुमहन्नलेन पृथिवीपते / न तथा दृष्टपूर्वोऽन्यः कश्चिदुग्रतपा इति // 20 दुःखमासादितं घोरं प्राप्तश्चाभ्युदयः पुनः॥७ यथा धनंजयः पार्थस्तपस्वी नियतव्रतः। त्वं पुनर्धातृसहितः कृष्णया चैव पाण्डव / मुनिरेकचरः श्रीमान्धर्मो विग्रहवानिव // 21 रमसेऽस्मिन्महारण्ये धर्ममेवानुचिन्तयन् // 8 तं श्रुत्वा पाण्डवो राजस्तप्यमानं महावने / ब्राह्मणैश्च महाभागैर्वेदवेदाङ्गपारगैः / अन्वशोचत कौन्तेयः प्रियं वै भ्रातरं जयम् // 22 नित्यमन्वास्यसे राजंस्तत्र का परिदेवना // 9 दह्यमानेन तु हृदा शरणार्थी महावने। . म.भा. 62 -489.-.
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________________ 3. 78. 23 ] महाभारते [3. 79. 26 ब्राह्मणान्विविधज्ञानान्पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः // 23 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि भष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥७८॥ जनमेजय उवाच। भगवन्काम्यकात्पार्थे गते मे प्रपितामहे / पाण्डवाः किमकुर्वन्त तमृते सव्यसाचिनम् // 1 स हि तेषां महेष्वासो गतिरासीदनीकजित्। आदित्यानां यथा विष्णुस्तथैव प्रतिभाति मे // 2 तेनेन्द्रसमवीर्येण संग्रामेष्वनिवर्तिना। विनाभूता वने वीराः कथमासन्पितामहाः॥३ वैशंपायन उवाच / गते तु काम्यकात्तात पाण्डवे सव्यसाचिनि / बभूवुः कौरवेयास्ते दुःखशोकपरायणाः // 4 आक्षिप्तसूत्रा मणयश्छिन्नपक्षा इव द्विजाः / अप्रीतमनसः सर्वे बभूवुरथ पाण्डवाः॥५ वनं च तदभूत्तेन हीनमक्लिष्टकर्मणा। कुबेरेण यथा हीनं वनं चैत्ररथं तथा // 6 तमूते पुरुषव्याघ्रं पाण्डवा जनमेजय / मुदमप्राप्नुवन्तो वै काम्यके न्यवसंस्तदा // 7 ब्राह्मणार्थे पराक्रान्ताः शुद्धैर्बाणैर्महारथाः। निघ्नन्तो भरतश्रेष्ठ मेध्यान्बहुविधान्मृगान् // 8 नित्यं हि पुरुषव्याघ्रा वन्याहारमरिंदमाः। विप्रसृत्य समाहृत्य ब्राह्मणेभ्यो न्यवेदयन् // 9 एवं ते न्यवसंस्तत्र सोत्कण्ठाः पुरुषर्षभाः।। अहृष्टमनसः सर्वे गते राजन्धनंजये॥१० अथ विप्रोषितं वीरं पाञ्चाली मध्यमं पतिम् / स्मरन्ती पाण्डवश्रेष्ठमिदं वचनमब्रवीत् // 11 योऽर्जुनेनार्जुनस्तुल्यो द्विबाहुर्बहुबाहुना / तमृते पाण्डवश्रेष्ठं वनं न प्रतिभाति मे। शून्यामिव च पश्यामि तत्र तत्र महीमिमाम् // 12 बह्वाश्चर्यमिदं चापि वनं कुसुमितद्रुमम् / न तथा रमणीयं मे तमृते सव्यसाचिनम् // 13 नीलाम्बुदसमप्रख्यं मत्तमातङ्गविक्रमम् / तमृते पुण्डरीकाक्षं काम्यकं नातिभाति मे // 14 यस्य स्म धनुषो घोषः श्रूयतेऽशनिनिस्वनः। . न लभे शर्म तं राजन्स्मरन्ती सव्यसाचिनम्॥१५ तथा लालप्यमानां तां निशम्य परवीरहा। भीमसेनो महाराज द्रौपदीमिदमब्रवीत्॥१६ मनःप्रीतिकरं भद्रे यद्ववीषि सुमध्यमे। तन्मे प्रीणाति हृदयममृतप्राशनोपमम् // 17 यस्य दी? समौ पीनौ भुजौ परिघसंनिभौ / मौर्वीकृतकिणौ वृत्तौ खगायुधगदाधरौ॥ 18 : निष्काङ्गदकृतापीडौ पञ्चशीर्षा विवोरगौ। तमृते पुरुषव्याघ्र नष्टसूर्यमिदं वनम् // 19 यमाश्रित्य महाबाहुं पाञ्चालाः कुरवस्तथा / सुराणामपि यत्तानां पृतनासु,न बिभ्यति // 20 यस्य बाहू समाश्रित्य वयं सर्वे महात्मनः / मन्यामहे जितानाजौ परान्प्राप्तां च मेदिनीम् // 21 तमृते फल्गुनं वीरं न लभे काम्यके धृतिम् / शून्यामिव च पश्यामि तत्र तत्र महीमिमाम्॥२२ नकुल उवाच / य उदीची दिशं गत्वा जित्वा युधि महाबलान् / गन्धर्वमुख्याञ्शतशो हयाल्लेभे स वासविः॥२३ राजस्तित्तिरिकल्माषाञ्श्रीमाननिलरंहसः / प्रादादात्रे प्रिय: प्रेम्णा राजसूये महाक्रतौ // 24 तमृते भीमधन्वानं भीमादवरजं वने / कामये काम्यके वासं नेदानीममरोपमम् // 25 सहदेव उवाच। | यो धनानि च कन्याश्च युधि जित्वा महारथान् /
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________________ 3. 79. 26] आरण्यक [3. 80.23 आजहार पुरा राज्ञे राजसूये महाक्रती // 26 / प्रदक्षिणं यः कुरुते पृथिवीं तीर्थतत्परः / यः समेतान्मृधे जित्वा यादवानमितद्युतिः। किं फलं तस्य कास्न्येन तद्ब्रह्मन्वक्तुमर्हसि // 10 सुभद्रामाजहारैको वासुदेवस्य संमते // 27 नारद उवाच। तस्य जिष्णोद्देसी दृष्ट्वा शून्यामुपनिवेशने। शृणु राजन्नवहितो यथा भीष्मेण भारत। हृदयं मे महाराज न शाम्यति कदाचन / / 28 . पुलस्त्यस्य सकाशाद्वै सर्वमेतदुपश्रुतम् // 11 : वनादस्माद्विवासं तु रोचयेऽहमरिंदम / पुरा भागीरथीतीरे भीष्मो धर्मभृतां वरः। / न हि नस्तमृते वीरं रमणीयमिदं वनम् // 29 पित्र्यं व्रतं समास्थाय न्यवसन्मुनिवत्तदा // 12 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि / शुभे देशे महाराज पुण्ये देवर्षिसेविते / ___एकोनाशीतितमोऽध्यायः // 79 // गङ्गाद्वारे महातेजा देवगन्धर्वसेविते // 13 . / समाप्तमिन्द्रलोकाभिगमनपर्व // स पितृस्तर्पयामास देवांश्च परमद्युतिः / ऋषींश्च तोषयामास विधिदृष्टेन कर्मणा // 14 वैशंपायन उवाच / कस्यचित्त्वथ कालस्य जपन्नेव महातपाः। धनंजयोत्सुकास्ते तु वने तस्मिन्महारथाः। ददर्शाद्भुतसंकाशं पुलस्त्यमृषिसत्तमम् // 15 न्यवसन्त महाभागा द्रौपद्या सह पाण्डवाः॥ 1 स तं दृष्ट्वोपतपसं दीप्यमानमिव श्रिया। अथापश्यन्महात्मानं देवर्षिं तत्र नारदम् / प्रहर्षमतुलं लेभे विस्मयं च परं ययौ // 16 / दीप्यमानं श्रिया ब्राया दीप्ताग्निसमतेजसम् // 2 उपस्थितं महाराज पूजयामास भारत / स तैः परिवृतः श्रीमान्भ्रातृभिः कुरुसत्तमः / भीष्मो धर्मभृतां श्रेष्ठो विधिदृष्टेन कर्मणा // 17 विबभावतिदीप्तौजा देवैरिव शतक्रतुः // 3 शिरसा चाय॑मादाय शुचिः प्रयतमानसः। यथा च वेदान्सावित्री याज्ञसेनी तथा सती / नाम संकीर्तयामास तस्मिन्ब्रह्मर्षिसत्तमे // 18 न जहौ धर्मतः पार्थान्मेरुमर्कप्रभा यथा // 4 . भीष्मोऽहमस्मि भद्रं ते दासोऽस्मि तव सुव्रत / प्रतिगृह्य तु तां पूजां नारदो भगवानृषिः / तव संदर्शनादेव मुक्तोऽहं सर्वकिल्बिषैः // 19 आश्वासयद्धर्मसुतं युक्तरूपमिवानघ // 5 एवमुक्त्वा महाराज भीष्मो धर्मभृतां वरः / उवाच च महात्मानं धर्मराज युधिष्ठिरम् / वाग्यतः प्राञ्जलिर्भूत्वा तूष्णीमासीद्युधिष्ठिर // 20 अहि धर्मभृतां श्रेष्ठ केनार्थः किं ददामि ते // 6 तं दृष्ट्वा नियमेनाथ स्वाध्यायानायकर्शितम् / अथ धर्मसुतो राजा प्रणम्य भ्रातृभिः सह / भीष्मं कुस्कुलश्रेष्ठं मुनिः प्रीतमनाभवत् // 21 उवाच प्राञ्जलिर्वाक्यं नारदं देवसंमितम् // 7 पुलस्त्य उवाच / त्वयि तुष्टे महाभाग सर्वलोकाभिपूजिते। अनेन तव धर्मज्ञ प्रश्रयेण दमेन च / कृतमित्येव मन्येऽहं प्रसादात्तव सुव्रत // 8 सत्येन च महाभाग तुष्टोऽस्मि तव सर्वशः // 22 यदि त्वहमनुप्राह्यो भ्रातृभिः सहितोऽनघ / यस्येदृशस्ते धर्मोऽयं पितृभक्त्याश्रितोऽनघ / संदेहं मे मुनिश्रेष्ठ हृदिस्थं छेत्तुमर्हसि // 9. तेन पश्यसि मां पुत्र प्रीतिश्चापि मम त्वयि // 23 -491 -
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________________ 3. 80. 24 ] महाभारते [3. 80.52 अमोघदर्शी भीष्माहं ब्रूहि किं करवाणि ते / ऋषीणां परमं गुह्यमिदं भरतसत्तम / यद्वक्ष्यसि कुरुश्रेष्ठ तस्य दातास्मि तेऽनघ // 24 तीर्थाभिगमनं पुण्यं यज्ञैरपि विशिष्यते // 38 भीष्म उवाच। अनुपोष्य त्रिरात्राणि तीर्थान्यनभिगम्य च।। प्रीते त्वयि महाभाग सर्वलोकाभिपूजिते / अदत्त्वा काश्चनं गाश्च दरिद्रो नाम जायते // 39 कृतमित्येव मन्येऽहं यदहं दृष्टवान्प्रभुम् // 25 अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैरिष्ट्वा विपुलदक्षिणैः / यदि त्वहमनुग्राह्यस्तव धर्मभृतां वर / न तत्फलमवाप्नोति तीर्थाभिगमनेन यत् // 40 वक्ष्यामि हृत्स्थं संदेहं तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि // 26 | नृलोके देवदेवस्य तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् / अस्ति मे भगवन्कश्चित्तीर्थेभ्यो धर्मसंशयः। पुष्करं नाम विख्यातं महाभागः समाविशेत् // 41 तमहं श्रोतुमिच्छामि पृथक्संकीर्तितं त्वया // 27 दश कोटिसहस्राणि तीर्थानां वै महीपते। प्रदक्षिणं यः पृथिवीं करोत्यमितविक्रम / सांनिध्यं पुष्करे येषां त्रिसंध्यं कुरुनन्दन // 42 किं फलं तस्य विप्रर्षे तन्मे ब्रूहि तपोधन // 28 आदित्या वसबो रुद्राः साध्याश्च समरुद्गणाः। पुलस्त्य उवाच / गन्धर्वाप्सरसश्चैव नित्यं संनिहिता विभो // 43 हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि यदृषीणां परायणम् / यत्र देवास्तपस्तप्त्वा दैत्या ब्रह्मर्षयस्तथा। तदेकाप्रमनास्तात शृणु तीर्थेषु यत्फलम् // 29 दिव्ययोगा महाराज पुण्येन महतान्विताः // 44 यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चैव सुसंयतम् / मनसाप्यभिकामस्य पुष्कराणि मनस्विनः / विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमभुते // 30 पूयन्ते सर्वपापानि नाकपृष्ठे च पूज्यते // 45 प्रतिग्रहादुपावृत्तः संतुष्टो नियतः शुचिः। तस्मिंस्तीर्थे महाभाग नित्यमेव पितामहः / अहंकारनिवृत्तश्च स तीर्थफलमश्नुते // 31 उवास परमप्रीतो देवदानवसंमतः॥४६ अकल्कको निरारम्भो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः / पुष्करेषु महाभाग देवाः सर्षिपुरोगमाः / विमुक्तः सर्वदोषैर्यः स तीर्थफलमश्नुते // 32 सिद्धिं समभिसंप्राप्ताः पुण्येन महतान्विताः॥ 47 अक्रोधनश्च राजेन्द्र सत्यशीलो दृढव्रतः - तत्राभिषेकं यः कुर्यात्पितृदेवार्चने रतः / आत्मोपमश्च भूतेषु स तीर्थफलमश्नुते // 33 अश्वमेधं दशगुणं प्रवदन्ति मनीषिणः // 48 ऋषिभिः क्रतवः प्रोक्ता वेदेष्विह यथाक्रमम् / अप्येकं भोजयेद्विप्रं पुष्करारण्यमाश्रितः / फलं चैव यथातत्त्वं प्रेत्य चेह च सर्वशः // 34 तेनासौ कर्मणा भीष्म प्रेत्य चेह च मोदते // 49 न ते शक्या दरिद्रेण यज्ञाः प्राप्तुं महीपते। शाकमूलफलैर्वापि येन वर्तयते स्वयम् / बहूपकरणा यज्ञाः नानासंभारविस्तराः // 35 तद्वै दद्याद्राह्मणाय श्रद्धावाननसूयकः। प्राप्यन्ते पार्थिवैरेते समृद्धैर्वा नरैः कचित् / तेनैव प्राप्नुयात्प्राज्ञो हयमेधफलं नरः॥५० . . नार्थन्यूनोपकरणैरेकात्मभिरसंहतैः॥३६ ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वा राजसत्तम / यो दरिद्रैरपि विधिः शक्यः प्राप्तुं नरेश्वर / न वियोनि व्रजन्त्येते नातास्तीर्थे महात्मनः // 51 तुल्यो यज्ञफलैः पुण्यैस्तं निबोध युधां वर // 37 / कार्तिक्यां तु विशेषेण योऽभिगच्छेत पुष्करमा - 492 --
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________________ 3. 80. 52] आरण्यकपर्व [3. 80.80 फलं तत्राक्षयं तस्य वर्धते भरतर्षभ // 52 प्रदक्षिणं ततः कृत्वा ययातिपतनं व्रजेत् / सायं प्रातः स्मरेद्यस्तु पुष्कराणि कृताञ्जलिः।। हयमेधस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति तत्र वै॥६७ उपस्पृष्टं भवेत्तन सर्वतीर्थेषु भारत / महाकालं ततो गच्छेन्नियतो नियताशनः। .. प्राप्नुयाच्च नरो लोकान्ब्रह्मणः सदनेऽक्षयान् / / 53 कोटितीर्थमुपस्पृश्य हयमेधफलं लभेत् // 68 जन्मप्रभृति यत्पापं स्त्रियो वा पुरुषस्य वा। ततो गच्छेत धर्मज्ञ पुण्यस्थानमुमापतेः / पुष्करे स्नातमात्रस्य सर्वमेव प्रणश्यति // 54 * नाम्ना भद्रवटं नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् // 69 यथा सुराणां सर्वेषामादिस्तु मधुसूदनः।। तत्राभिगम्य चेशानं गोसहस्रफलं लभेत् / तथैव पुष्करं राजस्तीर्थानामादिरुच्यते // 55 महादेवप्रसादाच्च गाणपत्यमवाप्नुयात् // 70 मुष्य द्वादश वर्षाणि पुष्करे नियतः शुचिः।। नर्मदामथ चासाद्य नदीं त्रैलोक्यविश्रुताम् / ऋतून्सर्वानवाप्नोति ब्रह्मलोकं च गच्छति // 56 तर्पयित्वा पितॄन्देवानग्निष्टोमफलं लभेत् // 71 यस्तु वर्षशतं पूर्णमग्निहोत्रमुपासते। दक्षिणं सिन्धुमासाद्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। कार्तिकी वा वसेदेकां पुष्करे सममेव तत् // 57 अग्निष्टोममवाप्नोति विमानं चाधिरोहति // 72 दुष्करं पुष्करं गन्तुं दुष्करं पुष्करे तपः / चर्मण्वतीं समासाद्य नियतो नियताशनः / दुष्करं पुष्करे दानं वस्तुं चैव सुदुष्करम् // 58 रन्तिदेवाभ्यनुज्ञातो अग्निष्टोमफलं लभेत् // 73 उष्य द्वादशरात्रं तु नियतो नियताशनः / ततो गच्छेत धर्मज्ञ हिमवत्सुतमबुंदम्।। प्रदक्षिणमुपावृत्तो जम्बूमार्ग समाविशेत् // 59 पृथिव्यां यत्र वै छिद्रं पूर्वमासीद्युधिष्ठिर // 74 जम्बूमार्गं समाविश्य देवर्षिपितृसेवितम् / तत्राश्रमो बसिष्ठस्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतः / अश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति // 60 तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् // 75 तत्रोष्य रजनीः पञ्च षष्ठकालक्षमी नरः / पिङ्गातीर्थमुपस्पृश्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। न दुर्गतिमवाप्नोति सिद्धि प्राप्नोति चोत्तमाम् // 61 कपिलानां नरव्याघ्र शतस्य फलमश्नुते // 76 जम्बूमार्गादुपावृत्तो गच्छेत्तण्डुलिकाश्रमम् / ततो गच्छेत धर्मज्ञ प्रभासं लोकविश्रुतम्। न दुर्गतिमवाप्नोति स्वर्गलोके च पूज्यते // 62 यत्र संनिहितो नित्यं स्वयमेव हुताशनः / अगस्त्यसर आसाद्य पितृदेवार्चने रतः / देवतानां मुखं वीर अनलोऽनिलसारथिः॥ 77 त्रिरात्रोपोषितो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् // 63 तस्मिंस्तीर्थवरे स्नात्वा शुचिः प्रयतमानसः। शतकवृत्तिः फलैर्वापि कौमारं विन्दते पदम् / अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं प्राप्नोति मानवः 78 कण्वाश्रमं समासाद्य श्रीजुष्टं लोकपूजितम् // 64 ततो गत्वा सरस्वत्याः सागरस्य च संगमे। धर्मारण्यं हि तत्पुण्यमाद्यं च भरतर्षभ। गोसहस्रफलं प्राप्य स्वर्गलोके महीयते / यत्र प्रविष्टमात्रो वै पापेभ्यो विप्रमुच्यते // 65 दीप्यमानोऽग्निवन्नित्यं प्रभया भरतर्षभ // 79 अर्चयित्वा पितॄन्देवान्नियतो नियताशनः / त्रिरात्रमुषितस्तत्र तर्पयेपितृदेवताः / सर्वकामसमृद्धस्य यज्ञस्य फलमश्नुते // 66 / प्रभासते यथा सोमो अश्वमेधं च विन्दति // 80 -493 -
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________________ 3. 80. 81] महाभारते [3. 80. 109 वरदानं ततो गच्छेत्तीथं भरतसत्तम / तत्र स्नात्वा च पीत्वा च वसूनां संमतो भवेत्॥९४ विष्णोर्दुर्वाससा यत्र वरो दत्तो युधिष्ठिर / सिन्धूत्तममिति ख्यातं सर्वपापप्रणाशनम् / वरदाने नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् // 81 तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ लभेद्बहु सुवर्णकम् // 95 . ततो द्वारवतीं गच्छेन्नियतो नियताशनः / ब्रह्मतुङ्ग समासाद्य शुचिः प्रयतमानसः / पिण्डारके नरः स्नात्वा लभेद्बहु सुवर्णकम् // 82 ब्रह्मलोकमवाप्नोति सुकृती विरजा नरः॥ 96 तस्मिंस्तीर्थे महाभाग पद्मलक्षणलक्षिताः / कुमारिकाणां शक्रस्य तीर्थ सिद्धनिषेवितम् / अद्यापि मुद्रा दृश्यन्ते तदद्भुतमरिंदम // 83 तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं शकलोकमवाप्नुयात् // 97 त्रिशूलाङ्कानि पद्मानि दृश्यन्ते कुरुनन्दन / रेणुकायाश्च तत्रैव तीर्थं देवनिषेवितम् / महादेवस्य सांनिध्यं तत्रैव भरतर्षभ / / 84 तत्र स्नात्वा भवेद्विप्रो विमलश्चन्द्रमा यथा // 98 सागरस्य च सिन्धोश्च संगमं प्राप्य भारत। अथ पञ्चनदं गत्वा नियतो.नियताशनः / तीर्थे सलिलराजस्य स्नात्वा प्रयतमानसः // 85 पञ्च यज्ञानवाप्नोति क्रमशो येऽनुकीर्तिताः // 99 तर्पयित्वा पितॄन्देवानृषींश्च भरतर्षभ। ततो गच्छेत धर्मज्ञ भीमायाः स्थानमुत्तमम् / प्राप्नोति वारुणं लोकं दीप्यमानः स्वतेजसा॥ 86 / तत्र स्नात्वा तु योन्यां वै नरो भरतसत्तम // 100 शङ्ककर्णेश्वरं देवमर्चयित्वा युधिष्ठिर। देव्याः पुत्रो भवेद्राजस्तप्तकुण्डलविग्रहः / अश्वमेधं दशगुणं प्रवदन्ति मनीषिणः // 87 गवां शतसहस्रस्य फलं चैवाप्नुयान्महत्॥१०१ . प्रदक्षिणमुपावृत्य गच्छेत भरतर्षभ / गिरिमुखं समासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् / / तीर्थ कुरुवरश्रेष्ठ त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् / पितामहं नमस्कृत्य गोसहस्रफलं लभेत् // 102 हमीति नाम्ना विख्यातं सर्वपापप्रमोचनम् // 88 ततो गच्छेत धर्मज्ञ विमलं तीर्थमुत्तमम्। यत्र ब्रह्मादयो देवा उपासन्ते महेश्वरम् / अद्यापि यत्र दृश्यन्ते मत्स्याः सौवर्णराजताः॥१०३ तत्र सात्वार्चयित्वा च रुद्रं देवगणैर्वृतम् / तत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ वाजपेयमवाप्नुयात् / जन्मप्रभृति पापानि कृतानि नुदते नरः / / 89 . सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेच्च परमां गतिम् // 104 हमी चात्र नरश्रेष्ठ सर्वदेवैरभिष्टुता / ततो गच्छेत मलदां त्रिषु लोकेषु विश्रुताम् / तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र हयमेधमवानुयात् // 90 पश्चिमायां तु संध्यायामुपस्पृश्य यथाविधि॥१०५ जित्वा यत्र महाप्राज्ञ विष्णुना प्रभविष्णुना / चरं नरेन्द्र सप्तार्यथाशक्ति निवेदयेत् / पुरा शौचं कृतं राजन्हत्वा दैवतकण्टकान् // 91 पितॄणामक्षयं दानं प्रवदन्ति मनीषिणः // 106 ततो गच्छेत धर्मज्ञ वसोर्धारामभिष्टुताम् / गवां शतसहस्रेण राजसूयशतेन च / गमनादेव तस्यां हि हयमेधमवाप्नुयात् / / 92 अश्वमेधसहस्रेण श्रेयान्सप्तार्चिषश्चरुः // 107 स्नात्वा कुरुवरश्रेष्ठ प्रयतात्मा तु मानवः। ततो निवृत्तो राजेन्द्र वस्त्रापदमथाविशेत् / तर्घ्य देवान्पितूंश्चैव विष्णुलोके महीयते // 93 अभिगम्य महादेवमश्वमेधफलं लभेत् // 108 तीर्थ चात्र परं पुण्यं वसूनां भरतर्षभ। मणिमन्तं समासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः। . -494 -
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________________ 3. 80. 109 ] आरण्यकपर्व [3. 81. 1 एकरात्रोषितो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् // 109 / / कुमारकोटिमासाद्य नियतः कुरुनन्दन। अथ गच्छेत राजेन्द्र देविकां लोकविश्रुताम् / तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः। प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ // 110 गवामयमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् // 123 . त्रिशूलपाणेः स्थानं च त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् / / ततो गच्छेत धर्मज्ञ रुद्रकोटिं समाहितः। . देविकायां नरः स्नात्वा समभ्यर्च्य महेश्वरम्॥१११ पुरा यत्र महाराज ऋषिकोटिः समाहिता। यथाशक्ति चरुं तत्र निवेद्य भरतर्षभ। प्रहर्षेण च संविष्टा देवदर्शनकावया // 124 सर्वकामसमृद्धस्य यज्ञस्य लभते फलम् // 112 अहं पूर्वमहं पूर्व द्रक्ष्यामि वृषभध्वजम् / कामाख्यं तत्र रुद्रस्य तीर्थ देवर्षिसेवितम् / एवं संप्रस्थिता राजन्नृषयः किल भारत // 125 : तत्र स्नात्वा नरः क्षिप्रं सिद्धिमाप्नोति भारत // 113 ततो योगेश्वरेणापि योगमास्थाय भूपते। . यजनं याजनं गत्वा तथैव ब्रह्मवालुकाम् / तेषां मन्युप्रणाशार्थमृषीणां भावितात्मनाम् // 126 पुष्पन्यास उपस्पृश्य न शोचेन्मरणं ततः // 114 सृष्टा कोटिस्तु रुद्राणामृषीणामप्रतः स्थिता। . , अर्धयोजनविस्तारां पञ्चयोजनमायताम् / मया पूर्वतरं दृष्ट इति ते मेनिरे पृथक् // 127 / एतावदेविकामाहुः पुण्यां देवर्षिसेविताम् // 115 तेषां तुष्टो महादेव ऋषीणामुग्रतेजसाम्। ततो गच्छेत धर्मज्ञ दीर्घसत्रं यथाक्रमम् / भक्त्या परमया राजन्वरं तेषां प्रदिष्टवान् / यत्र ब्रह्मादयो देवाः सिद्धाश्च परमर्षयः / अद्यप्रभृति युष्माकं धर्मवृद्धिर्भविष्यति // 128 : दीर्घसत्रमुपासन्ते दक्षिणाभिर्यतव्रताः॥११६ तत्र सात्वा नरव्याघ्र रुद्रकोट्यां नरः शुचिः।। गमनादेव राजेन्द्र दीर्घसत्रमरिंदम। अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् // 129 :: राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलं प्राप्नोति मानवः॥ 117 ततो गच्छेत राजेन्द्र संगमं लोकविश्रुतम् / / ततो विनशनं गच्छेन्नियतो नियताशनः / सरस्वत्या महापुण्यमुपासन्ते जनार्दनम् // 130 : गच्छत्यन्तर्हिता यत्र मरुपृष्ठे सरस्वती। यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयः सिद्धचारणाः / चमसे च शिवौद्भेदे नागोद्भेदे च दृश्यते // 118 अभिगच्छन्ति राजेन्द्र चैत्रशुक्लचतुर्दशीम् // 131 नात्वा च चमसोद्भेदे अग्निष्टोमफलं लभेत् / .. तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र विन्देद्बहु सुवर्णकम् / .. शिवोद्भदे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् / / सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोकं च गच्छति // 132 नागोद्भेदे नरः स्नात्वा नागलोकमवाप्नुयात्॥ 119 ऋषीणां यत्र सत्राणि समाप्तानि नराधिप। शशयानं च राजेन्द्र तीर्थमासाद्य दुर्लभम् / सत्रावसानमासाद्य गोसहस्रफलं लभेत् // 133 शशरूपप्रतिच्छन्नाः पुष्करा यत्र भारत // 120 / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि सरस्वत्यां महाराज अनु संवत्सरं हि ते / भशीतितमोऽध्यायः // 8 // सायन्ते भरतश्रेष्ठ वृत्तां वै कार्तिकी सदा // 121 / तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र द्योतते शशिवत्सदा / पुलस्त्य उवाच / गोसहस्रफलं चैव प्राप्नुयाद्भरतर्षभ // 122 / ततो गच्छेत राजेन्द्र कुरुक्षेत्रमभिष्टुतम् / . .. - 495
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________________ 3. 81. 1] महाभारते [ 3. 81.27 पापेभ्यो विप्रमुच्यन्ते तद्गताः सर्वजन्तवः // 1 . विष्णुराहरूपेण पूर्वं यत्र स्थितोऽभवत् / कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम् / तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र अग्निष्टोमफलं लभेत् // 15 य एवं सततं ब्रूयात्सोऽपि पापैः प्रमुच्यते // 2 ततो जयन्त्या राजेन्द्र सोमतीर्थ समाविशेत् / तत्र मासं वसेद्वीर सरस्वत्यां युधिष्ठिर / स्नात्वा फलमवाप्नोति राजसूयस्य मानवः / यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयः सिद्धचारणाः॥३ एकहंसे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् // 16 गन्धर्वाप्सरसो यक्षाः पन्नगाश्च महीपते / कृतशौचं समासाद्य तीर्थसेवी कुरूद्वह। . ब्रह्मक्षेत्रं महापुण्यमभिगच्छन्ति भारत // 4 पुण्डरीकमवाप्नोति कृतशौचो भवेन्नरः॥ 17 मनसाप्यभिकामस्य कुरुक्षेत्रं युधिष्ठिर / ततो मुञ्जवटं नाम महादेवस्य धीमतः। पापानि विप्रणश्यन्ति ब्रह्मलोकं च गच्छति // 5 तत्रोष्य रजनीमेकां गाणपत्यमवाप्नुयात् // 18 गत्वा हि श्रद्धया युक्तः कुरुक्षेत्रं कुरूद्वह / तत्रैव च महाराज यक्षी लोकपरिश्रुता। राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलं प्राप्नोति मानवः॥६ तां चाभिगम्य राजेन्द्र पुण्याल्लोकानवाप्नुयात्।।१९ ततो मचक्रुकं राजन्द्वारपालं महाबलम् / कुरुक्षेत्रस्य तद्वारं विश्रुतं भरतर्षभ / यक्षं समभिवाद्यैव गोसहस्रफलं लभेत् // 7 प्रदक्षिणमुपावृत्य तीर्थसेवी समाहितः॥२० ततो गच्छेत धर्मज्ञ विष्णोः स्थानमनुत्तमम्। संमिते पुष्कराणां च स्नात्वाच॑ पितृदेवताः / सततं नाम राजेन्द्र यत्र संनिहितो हरिः // 8 जामदग्न्येन रामेण आहृते वै महात्मना। तत्र स्नात्वार्चयित्वा च त्रिलोकप्रभवं हरिम् / कृतकृत्यो भवेद्राजन्नश्वमेधं च विन्दति॥२१ अश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति // 9 ततो रामहदान्गच्छेत्तीर्थसेवी नराधिप / ततः पारिप्लवं गच्छेत्तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् / यत्र रामेण राजेन्द्र तरसा दीप्ततेजसा / अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं प्राप्नोति मानवः // 10 क्षत्रमुत्साद्य वीर्येण ह्रदाः पश्च निवेशिताः // 22 पृथिव्यास्तीर्थमासाद्य गोसहस्रफलं लभेत् / पूरयित्वा नरव्याघ्र रुधिरेणेति नः श्रुतम् / ततः शालूकिनी गत्वा तीर्थसेवी नराधिप / पितरस्तर्पिताः सर्वे तथैवं च पितामहाः। दशाश्वमेधिके स्नात्वा तदेव लभते फलम् // 11 ततस्ते पितरः प्रीता राममूचुर्महीपते // 23 सर्पदर्वी समासाद्य नागानां तीर्थमुत्तमम् / राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव / अमिष्टोममवाप्नोति नागलोकं च विन्दति // 12 अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण च ते विभो / ततो गच्छेत धर्मज्ञ द्वारपालं. तरन्तुकम् / वरं वृणीष्व भद्रं ते किमिच्छसि महायुते // 24 तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् // 13 एवमुक्तः स राजेन्द्र रामः प्रहरतां वरः / ततः पश्चनदं गत्वा नियतो नियताशनः / अब्रवीत्प्राञ्जलिर्वाक्यं पितॄन्स गगने स्थितान्॥२५ कोटितीर्थमुपस्पृश्य हयमेधफलं लभेत् / भवन्तो यदि मे प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि / अश्विनोस्तीर्थमासाद्य रूपवानभिजायते // 14 पितृप्रसादादिच्छेयं तपसाप्यायनं पुनः // 26 ततो गच्छेत धर्मज्ञ वाराहं तीर्थमुत्तमम् / यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया। -496
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________________ 3. 81. 27 ] आरण्यकपर्व [3. 81.52 ततश्च पापान्मुच्येयं युष्माकं तेजसा ह्यहम् / / अर्चयित्वा पितॄन्देवानुपवासपरायणः / हृदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः॥ 27 अग्निष्टोममवाप्नोति सूर्यलोकं च गच्छति // 39 एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं रामस्य पितरस्तदा / गवांभवनमासाद्य तीर्थसेवी यथाक्रमम् / प्रत्यूचुः परमप्रीता रामं हर्षसमन्विताः // 28 तत्राभिषेकं कुर्वाणो गोसहस्रफलं लभेत् // 40 : तपस्ते वर्धतां भूयः पितृभक्त्या विशेषतः / शङ्खिनीं तत्र आसाद्य तीर्थसेवी कुरूद्वह / यञ्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं त्वया // 29 देव्यास्तीर्थे नरः स्नात्वा लभते रूपमुत्तमम् // 41 ततश्च पापान्मुक्तस्त्वं कर्मभिस्ते च पातिताः / ततो गच्छेत राजेन्द्र द्वारपालमरन्तुकम्। हृदाश्च तव तीर्थत्वं गमिष्यन्ति न संशयः // 30 तस्य तीर्थं सरस्वत्यां यक्षेन्द्रस्य महात्मनः / देष्वेतेषु यः स्नात्वा पितॄन्सतर्पयिष्यति / तत्र स्नात्वा नरो राजन्नग्निष्टोमफलं लभेत् // 42 पितरस्तस्य वै प्रीता दास्यन्ति भुवि दुर्लभम् / ततो गच्छेत धर्मज्ञ ब्रह्मावर्तं नराधिप। ईप्सितं मनसः कामं स्वर्गलोकं च शाश्वतम् // 31 ब्रह्मावर्ते नरः स्नात्वा ब्रह्मलोकमवाप्नुयात् // 43 एवं दत्त्वा वरानराजनरामस्य पितरस्तदा। ततो गच्छेत धर्मज्ञ सुतीर्थकमनुत्तमम् / आमव्य भार्गवं प्रीतास्तत्रैवान्तर्दधुस्तदा // 32 यत्र संनिहिता नित्यं पितरो दैवतैः सह // 44 एवं रामहृदाः पुण्या भार्गवस्य महात्मनः / तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः। स्नात्वा हृदेषु रामस्य ब्रह्मचारी शुभव्रतः। अश्वमेधमवाप्नोति पितृलोकं च गच्छति // 45 राममभ्यर्च्य राजेन्द्र लभेद्वहु सुवर्णकम् // 33 ततोऽम्बुवश्यं धर्मज्ञ समासाद्य यथाक्रमम् / वंशमूलकमासाद्य तीर्थसेवी कुरूद्वह / कोशेश्वरस्य तीर्थेषु स्नात्वा भरतसत्तम / स्ववंशमुद्धरेद्राजन्स्नात्वा वै वंशमूलके // 34 सर्वव्याधिविनिर्मुक्तो ब्रह्मलोके महीयते // 46 कायशोधनमासाद्य तीर्थ भरतसत्तम / मातृतीर्थं च तत्रैव यत्र स्नातस्य भारत / शरीरशुद्धिः स्नातस्य तस्मिंस्तीर्थे न संशयः। प्रजा विवर्धते राजन्ननन्तां चाभुते श्रियम् // 47 शुद्धदेहश्च संयाति शुभाल्लोकाननुत्तमान् // 35 ततः शीतवनं गच्छेन्नियतो नियताशनः / ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् / तीर्थं तत्र महाराज महदन्यत्र दुर्लभम् // 48 लोका यत्रोद्धृताः पूर्वं विष्णुना प्रभविष्णुना // 36 पुनाति दर्शनादेव दण्डेनैकं नराधिप। लोकोद्धारं समासाद्य तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्। केशानभ्युक्ष्य वै तस्मिन्पूतो भवति भारत // 49 स्नात्वा तीर्थवरे राजल्लोकानुद्धरते स्वकान् / तीर्थं तत्र महाराज श्वानलोमापहं स्मृतम् / श्रीतीथं च समासाद्य विन्दते श्रियमुत्तमाम् // 37 यत्र विप्रा नरव्याघ्र विद्वांसस्तीर्थतत्पराः // 50 कपिलातीर्थमासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः। श्वानलोमापनयने तीर्थे भरतसत्तम / तत्र स्नात्वार्चयित्वा च दैवतानि पितॄस्तथा। प्राणायामैर्निर्हरन्ति श्वलोमानि द्विजोत्तमाः। कपिलानां सहस्रस्य फलं विन्दति मानवः // 38 पूतात्मानश्च राजेन्द्र प्रयान्ति परमां गतिम् // 51 सूर्यतीर्थं समासाद्य स्नात्वा नियतमानसः। दशाश्वमेधिकं चैव तस्मिंस्तीर्थे महीपते। म.भा. 63 - 497 -
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________________ B. 81. 52] महामारते [8. 81.79 तत्र स्नात्वा मरव्याघ्र गच्छेत परमां गतिम् // 52 / अप्रमेयमवाप्नोति दानं जप्यं च भारत // 65 ततो गच्छेत राजेन्द्र मानुषं लोकविश्रुतम् / कलश्यां चाप्युपस्पृश्य श्रद्दधानो जितेन्द्रियः / यत्र कृष्णमृगा राजन्व्याधेन परिपीडिताः। अमिष्टोमस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः // 66 अवगाह्य तस्मिन्सरसि मानुषत्वमुपागताः॥५३ सरकस्य तु पूर्वेण नारदस्य महात्मनः। तस्मिंस्तीर्थे नरः स्नात्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। तीर्थ कुरुवरश्रेष्ठ अनाजन्मेति विश्रुतम् // 67 .. सर्वपापविशुद्धात्मा स्वर्गलोके महीयते // 54 तत्र तीर्थे नरः स्नात्वा प्राणांश्चोत्सृज्य भारत / मानुषस्य तु पूर्वेण क्रोशमात्रे महीपते / नारदेनाभ्यनुज्ञातो लोकान्प्राप्नोति दुर्लभान् // 68 आपगा नाम विख्याता नदी सिद्धनिषेविता // 55 शुक्लपक्षे दशम्यां तु पुण्डरीकं समाविशेत् / श्यामाकभोजनं तत्र यः प्रयच्छति मानवः / / तत्र स्नात्वा नरो राजन्पुण्डरीकफलं लभेत् // 69 देवान्पिढेश्च उद्दिश्य तस्य धर्मफलं महत्।। ततत्रिविष्टपं गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम् / ... एकस्मिम्भोजिते विप्रे कोटिर्मवति भोजिता॥ 56 तत्र वैतरणी पुण्या नदी पापप्रमोचनी // 70 तत्र स्नात्वार्चयित्वा च दैवतानि पितॄस्तथा। तत्र स्नात्वार्चयित्वा च शूलपाणिं वृषध्वजम् / उषित्वा रजनीमेकामग्निष्टोमफलं लभेत् // 57 सर्वपापविशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम् // 71 : ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मणः स्थानमुत्तमम् / ततो गच्छेत राजेन्द्र फलकीवनमुत्तमम् / ब्रह्मोदुम्बरमित्येव प्रकाशं भुवि भारत // 58 यत्र देवाः सदा राजन्फलकीवनमाश्रिताः। तत्र सप्तर्षिकुण्डेषु स्नातस्य कुरुपुंगव / तपश्चरन्ति विपुलं बहुवर्षसहस्रकम् // 72 .... केदारे चैव राजेन्द्र कपिष्ठलमहात्मनः / / 59 / दृषद्वत्यां नरः स्नात्वा तर्पयित्वा च देवताः / ब्रह्माणमभिगम्याथ शुचिः प्रयतमानसः / अग्निष्टोमातिरानाभ्यां फलं विन्दति भारत // 73 सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोकं प्रपद्यते // 60 तीर्थे च सर्वदेवानां सात्वा भरतसत्तम / कपिष्ठलस्य केदारं समासाद्य सुदुर्लभम् / गोसहस्रस्य राजेन्द्र फलं प्राप्नोति मानवः // 74 अन्तर्धानमवाप्नोति तपसा दुग्धकिल्बिषः // 61 पाणिखाते नरः स्नात्वा तर्पयित्वा च देवताः / ततो गच्छेत राजेन्द्र सरकं लोकविश्रुतम् / राजसूयमवाप्नोति ऋषिलोकं च गच्छति // 75 कृष्णपक्षे चतुर्दश्यामभिगम्य वृषध्वजम् / ततो गच्छेत राजेन्द्र मिश्रकं तीर्थमुत्तमम् / लभते सर्वकामान्हि स्वर्गलोकं च गच्छति // 62 तत्र तीर्थानि राजेन्द्र मिश्रितानि महात्मना / / 76 तिस्रः कोट्यस्तु तीर्थानां सरके कुरुनन्दन / व्यासेन नृपशार्दूल द्विजार्थमिति नः श्रुतम् / / रुद्रकोटिस्तथा कूपे हदेषु च महीपते। , सर्वतीर्थेषु स नाति मिश्रके नाति यो नरः // 77 इलास्पदं च तत्रैव तीर्थ भरतसत्तम / / 63 ततो व्यासवनं गच्छेन्नियतो नियताशनः / तत्र स्नात्वार्चयित्वा च पितॄन्देवांश्च भारत / मनोजवे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् // 78 न दुर्गतिमवाप्नोति वाजपेयं च विन्दति // 64 गत्वा मधुवटीं चापि देव्यास्तीथं नरः शुचिः / किंदाने च नरः स्नात्वा किंजप्ये च महीपते। तत्र स्नात्वार्चयेदेवान्पिढंश्च प्रयतः शुचिः / , -98 -
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________________ 8. 81. 79] आरण्यकपर्व [3. 81. 105 मनुज्ञातो गोसहस्रफलं लभेत् // 79 / ततः कुञ्जः सरस्वत्यां कृतो भरतसत्तम / कौशिक्याः संगमे यस्तु दृषद्वत्याश्च भारत। ऋषीणामवकाशः स्याद्यथा तुष्टिकरो महान् // 93 साति वै नियताहारः सर्वपापैः प्रमुच्यते // 80 तस्मिन्कुले नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् / ततो व्यासस्थली नाम यत्र व्यासेन धीमता / लन्यातीर्थे नरः सात्वा अग्निष्टोमफलं लभेत् // 94 पुत्रशोकाभितप्तेन देहत्यागार्थनिश्चयः // 81 ततो गच्छेन्नरव्याघ्र ब्रह्मणः स्थानमुत्तमम् / / कृतो देवैश्च राजेन्द्र पुनरुत्थापितस्तदा / तत्र वर्णावरः सात्वा ब्राह्मण्यं लभते नरः / / अभिगम्य स्थलीं तस्य गोसहस्रफलं लभेत् // 82 ब्राह्मणश्च विशुद्धात्मा गच्छेत परमां गतिम् // 95 किंदत्तं कूपमासाद्य तिलप्रस्थं प्रदाय च। ततो गच्छेन्नरश्रेष्ठ सोमतीर्थमनुत्तमम् / र, गच्छेत परमां सिद्धिमृणैर्मुक्तः कुरूद्वह // 83 तत्र स्नात्वा नरो राजन्सोमलोकमवाप्नुयात् // 96 * अहश्च सुदिनं चैव द्वे तीर्थे च सुदुर्लभे। सप्तसारस्वतं तीर्थं ततो गच्छेन्नराधिप। तयोः स्नात्वा नरव्याघ्र सूर्यलोकमवाप्नुयात् // 84 यत्र मकणकः सिद्धो महर्षिलोकविश्रुतः // 97 सुगधूमं ततो गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम् / पुरा मङ्कणको राजन्कुशाग्रेणेति नः श्रुतम् / / तत्र गङ्गाहदे स्नात्वा समभ्यर्च्य च मानवः / क्षतः किल करे राजस्तस्य शाकरसोऽस्रवत् // 98 शूलपाणिं महादेवमश्वमेधफलं लभेत् // 85 स वै शाकरसं दृष्ट्वा हर्षाविष्टो महातपाः / देवतीर्थे मरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् / प्रनृत्तः किल विप्रर्षिविस्मयोत्फुल्ललोचनः॥ 99 - अथ वामनकं गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम् / / 86 ततस्तस्मिन्प्रनृत्ते वै स्थावरं जङ्गमं च यत् / तत्र विष्णुपदे स्नात्वा अर्चयित्वा च वामनम् / प्रनृत्तमुभयं वीर तेजसा तस्य मोहितम् // 100 सर्वपापविशुद्धात्मा विष्णुलोकमवाप्नुयात् // 87 ब्रह्मादिभिः सुरै राजन्नृषिभिश्च तपोधनैः। . कुलंपुने नरः स्नात्वा पुनाति स्वकुलं नरः / / विज्ञप्तो वै महादेव ऋषेरर्थे नराधिप / पवनस्य ह्रदं गत्वा मरुतां तीर्थमुत्तमम् / नायं नृत्येद्यथा देव तथा त्वं कर्तुमर्हसि // 101 तत्र सात्वा नरव्याघ्र वायुलोके महीयते // 88 ततः प्रनृत्तमासाद्य हर्षाविष्टेन चेतसा।। अमराणां हृदे स्नात्वा अमरेषु नराधिप / सुराणां हितकामार्थमृषि देवोऽभ्यभाषत // 102 अमराणां प्रभावेन स्वर्गलोके महीयते // 89 अहो महर्षे धर्मज्ञ किमर्थं नृत्यते भवान् / मालिहोत्रस्य राजेन्द्र शालिशूर्प यथाविधि / हर्षस्थानं किमर्थं वा तवाद्य मुनिपुंगव // 103 मात्वा नरवरश्रेष्ठ गोसहस्रफलं लभेत् // 90 . ऋषिरुवाच / श्रीकुखं च सरस्वत्यां तीर्थं भरतसत्तम / किं न पश्यसि मे देव कराच्छाकरसं त्रुतम् / तत्र स्नात्वा नरो राजन्नमिष्टोमफलं लभेत् // 91 | यं दृष्ट्वाहं प्रनृत्तो वै हर्षेण महतान्वितः॥ 104 ततो नैमिषकुझं च समासाद्य कुरूद्वह / पुलस्त्य उवाच / ऋषयः किल राजेन्द्र नैमिषेयास्तपोधनाः।। तं प्रहस्थाब्रवीदेवो मुनिं रागेण मोहितम् / तीर्थयात्रां पुरस्कृत्य कुरुक्षेत्रं गताः पुरा // 92 / अहं वै विस्मयं विप्र न गच्छामीति पश्य माम्।।१०५ -499 -
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________________ 3.81. 106 ] महामारते [3. 81. 138 एवमुक्त्वा नरश्रेष्ठ महादेवेन धीमता।... विश्वामित्रस्य तत्रैव तीर्थ भरतसत्तम / अङ्गुल्यप्रेण राजेन्द्र स्वाङ्गुष्ठस्ताडितोऽनघ // 106 तत्र सात्वा महाराज ब्राह्मण्यमभिजायते // 120 ततो भस्म क्षताद्राजग्निर्गतं हिमसंनिभम्। ब्रह्मयोनि समासाद्य शुचिः प्रयतमानसः। . सदृष्ट्वा वीडितो राजन्स मुनिः पादयोर्गतः // 107 तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र ब्रह्मलोकं प्रपद्यते। नान्यं देवमहं मन्ये रुद्रात्परतरं महत्। .: पुनात्यासप्तमं चैव कुलं नास्त्यत्र संशयः॥ 121... सुरासुरस्य जगतो गतिस्त्वमसि शूलधृक् // 108 ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्। .: त्वया सृष्टमिदं विश्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्। . पृथूदकमिति ख्यातं कार्तिकेयस्य वै नृप। स्वामेव भगवन्सर्वे प्रविशन्ति युगक्षये // 109 तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः॥ 122 देवैरपि न शक्यस्त्वं परिज्ञातुं कुतो मया। . अज्ञानाज्ज्ञानतो वापि स्त्रिया वा पुरुषेण वा। स्वयि सर्वे च दृश्यन्ते सुरा ब्रह्मादयोऽनघ॥११० / यत्किंचिदशुभं कर्म कृतं मानुषबुद्धिना // 12.3... सर्वस्त्वमसि लोकानां कर्ता कारयिता च ह। तत्सर्व नश्यते तस्य स्नातमात्रस्य भारत। त्वत्प्रसादात्सुराः सर्वे मोदन्तीहाकुतोभयाः। अश्वमेधफलं चापि स्वर्गलोकं च गच्छति। 124 एवं स्तुत्वा महादेवं स ऋषिः प्रणतोऽभवत् // 111 पुण्यमाहुः कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात्सरस्वतीम् / ऋषिरुवाच।. सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथूदकम् // 125 त्वत्प्रसादान्महादेव तपो मे न क्षरेत वै॥ 112 उत्तमे सर्वतीर्थानां यत्यजेदात्मनस्तनुम्। पुलस्त्य उवाच / पृथूदके जप्यपरो नैनं श्वोमरणं तपेत् // 126 ततो देवः प्रहृष्टात्मा ब्रह्मर्षिमिदमब्रवीत्। गीतं सनत्कुमारेण ब्यासेन च महात्मना। तपस्ते वर्धतां विप्र मत्प्रसादात्सहस्रधा॥ 113 वेदे च नियतं राजन्नभिगच्छेत्पृथूदकम् // 127 आश्रमे चेह वत्स्यामि त्वया साधं महामुने। पृथूदकात्पुण्यतमं नान्यत्तीर्थ नरोत्तम। सप्तसारखते सात्वा अर्चयिष्यन्ति ये तु मामा११४ एतन्मेध्यं पवित्रं च पावनं च न संशयः॥१२८ न तेषां दुर्लभं किंचिदिह लोके परत्र च। .. तत्र स्नात्वा दिवं यान्ति अपि पापकृतो जनाः। सारस्वतं च ते लोकं गमिष्यन्ति न संशयः॥११५ पृथूदके नरश्रेष्ठ प्राहुरेवं मनीषिणः // 129 ... ततस्त्वौशनसं गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम् / मधुस्रवं च तत्रैव तीर्थ भरतसत्तम / यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः // 116 तत्र स्नात्वा नरो राजन्गोसहस्रफलं लभेत् // 130 कार्तिकेयश्च भगवांत्रिसंध्यं किल भारत / ततो गच्छेन्नरश्रेष्ठ तीर्थ देव्या यथाक्रमम् / सांनिध्यमकरोत्तत्र भार्गवप्रियकाम्यया // 117 .. सरस्वत्यारुणायाश्च संगम लोकविश्रुतम् // 131 कपालमोचनं तीर्थं सर्वपापप्रमोचनम् / त्रिरात्रोपोषितः स्नात्वा मुच्यते ब्रह्महत्यया। .. तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र सर्वपापैः प्रमुच्यते। 118 अग्निष्टोमातिरात्राभ्यां फलं विन्दति मानवः। अग्नितीर्थ ततो गच्छेत्तत्र स्नास्वा नरर्षभ। आसप्तमं कुलं चैव पुनाति भरतर्षभ // 132 अमिलोकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् // 119 / अवतीणं च तत्रैव तीर्थ कुरुकुलोद्वह। .... . -500
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________________ 8. 81. 133] आरण्यकपर्व [3. 81. 160 विप्राणामनुकम्पार्थ दर्भिणा निर्मितं पुरा // 133 तत्र स्नात्वा नरो राजन्न दुर्गतिमषाप्नुयात् // 146 व्रतोपनयनाभ्यां वा उपवासेन वा द्विजः / तत्र ब्रह्मा स्वयं नित्यं देवैः सह महीपते। क्रियामन्त्रैश्च संयुक्तो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः॥१३४ अन्वास्यते नरश्रेष्ठ नारायणपुरोगमैः // 147 क्रियामबविहीनोऽपि तत्र स्नात्वा नरर्षभ। सांनिध्यं चैव राजेन्द्र रुद्रपल्याः कुरूद्वह। . चीर्णव्रतो भवेद्विप्रो दृष्टमेतत्पुरातने // 135 अभिगम्य च तां देवीं न दुर्गतिमवाप्नुयात् // 148 समुद्राश्चापि चत्वारः समानीताश्च दर्भिणा। तत्रैव च महाराज विश्वेश्वरमुमापतिम् / येषु सातो नरव्याघ्र न दुर्गतिमवाप्नुयात् / / अभिगम्य महादेवं मुच्यते सर्वकिल्बिषैः // 149 फलानि गोसहस्राणां चतुर्णा विन्दते च सः॥१३६ नारायणं चाभिगम्य पद्मनाभमरिंदमम् / ततो गच्छेत राजेन्द्र तीर्थ शतसहस्रकम् / शोभमानो महाराज विष्णुलोकं प्रपद्यते // 150 साहस्रकं च तत्रैव द्वे तीर्थे लोकविश्रुते // 137. तीर्थे तु सर्वदेवानां स्नातः स पुरुषर्षभ / ... उभयोर्हि नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् / / सर्वदुःखैः परित्यक्तो द्योतते शशिवत्सदा // 151 दानं वाप्युपवासो वा सहस्रगुणितं भवेत् // 138 ततः स्वस्तिपुरं गच्छेत्तीर्थसेवी नराधिप। . ततो गच्छेत राजेन्द्र रेणुकातीर्थमुत्तमम्। पावनं तीर्थमासाद्य तर्पयेत्पितृदेवताः। तत्राभिषेकं कुर्वीत पितृदेवार्चने रतः / अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः / / 152 सर्वपापविशुद्धात्मा अग्निष्टोमफलं लभेत् // 139 गङ्गाह्रदश्च तत्रैव कूपश्च भरतर्षभ। ... विमोचनमुपस्पृश्य जितमन्युजितेन्द्रियः। तिस्रः कोट्यस्तु तीर्थानां तस्मिन्कूपे महीपते।। प्रतिग्रहकृतैर्दोषैः सर्वैः स परिमुच्यते // 140. तत्र स्नात्वा नरो राजन्स्वर्गलोकं प्रपद्यते // 153 ततः पञ्चवटं गत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः / आपगायां नरः स्नात्वा अर्चयित्वा महेश्वरम्। . पुण्येन महता युक्तः सतां लोके महीयते // 141 गाणपत्यमवाप्नोति कुलं चोद्धरते स्वकम् // 154 अत्र योगेश्वरः स्थाणुः स्वयमेव वृषध्वजः। ... ततः स्थाणुवटं गच्छेत्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। तमर्चयित्वा देवेशं गमनादेव सिध्यति // 142 तत्र स्नात्वा स्थितो रात्रिं रुद्रलोकमवानुयात्॥ 155 औजसं वारुणं तीर्थं दीप्यते स्वेन तेजसा। बदरीपाचनं गच्छेद्वसिष्ठस्याश्रमं ततः। यत्र ब्रह्मादिभिर्देवैर्ऋषिभिश्च तपोधनैः। . बदरं भक्षयेत्तत्र त्रिरात्रोपोषितो नरः // 156 / सेनापत्येन देवानामभिषिक्तो गुहस्तदा // 143 . सम्यग्द्वादश वर्षाणि बदरान्भक्षयेत्तु यः। ...... औजसस्य तु पूर्वेण कुरुतीर्थं कुरूद्वह। त्रिरात्रोपोषितश्चैव भवेत्तुल्यो नराधिप // 1572 कुरुतीर्थे नरः स्नात्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः / इन्द्रमार्ग समासाद्य तीर्थसेवी नराधिप। .. सर्वपापविशुद्धात्मा कुरुलोकं प्रपद्यते // 144 . अहोरात्रोपवासेन शक्रलोके महीयते // 158 वर्गद्वारं ततो गच्छेन्नियतो नियताशनः / एकरात्रं समासाद्य एकरात्रोषितो नरः। स्वर्गलोकमवाप्नोति ब्रह्मलोकं च गच्छति // .145 - नियतः सत्यवादी ब्रह्मलोके महीयते // 159 / स्तो गच्छेदनरकं तीर्थसेवी नराधिप। ततो गच्छेत धर्मज्ञ तीर्थ त्रैलोक्यविश्रुतम् / / -501 -
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________________ 3. 81. 160] महाभारते [3. 82.6 आदित्यस्याश्रमो यत्र तेजोराशेर्महात्मनः // 160 / त्रयाणामपि लोकानां कुरुक्षेत्रं विशिष्यते // 17 // तस्मिंस्तीर्थे नरः स्नात्वा पूजयित्वा विभावसुम् / पांसवोऽपि कुरुक्षेत्रे वायुना समुदीरिताः / आदित्यलोकं व्रजति कुलं चैव समुद्धरेत्॥ 161 अपि दुष्कृतकर्माणं नयन्ति परमां गतिम् // 174 सोमतीर्थे नरः स्नात्वा तीर्थसेवी कुरूद्वह / दक्षिणेन सरस्वत्या उत्तरेण दृषद्वतीम् / सोमलोकमवाप्नोति नरो नास्त्यत्र संशयः // 162 ये वसन्ति कुरुक्षेत्रे ते वसन्ति त्रिविष्टपे // 175 ततो गच्छेत धर्मज्ञ दधीचस्य महात्मनः / कुरुक्षेत्रं गमिष्यामि कुरुक्षेत्रे वसाम्यहम्। .. तीर्थ पुण्यतमं राजन्पावनं लोकविश्रुतम् // 163 अप्येकां वाचमुत्सृज्य सर्वपापैः प्रमुच्यते // 176 यत्र सारस्वतो राजन्सोऽङ्गिरास्तपसो निधिः। ब्रह्मवेदी कुरुक्षेत्रं पुण्यं ब्रह्मर्षिसेवितम् / तस्मिंस्तीर्थे नरः स्नात्वा वाजपेयफलं लभेत् / तदावसन्ति ये राजन्न ते शोच्याः कथंचन // 17 // सारस्वतीं गतिं चैव लभते नात्र संशयः 164 तरन्तुकारन्तुकयोर्यदन्तरं ... . . वतः कन्याश्रमं गच्छेन्नियतो ब्रह्मचर्यवान् / रामहदानां च मचक्रुकस्य / त्रिरात्रोपोषितो राजन्नुपवासपरायणः / एतत्कुरुक्षेत्रसमन्तपञ्चकं . लभेत्कन्याशतं दिव्यं ब्रह्मलोकं च गच्छति॥१६५ पितामहस्योत्तरवेदिरुच्यते // 178 : पत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः। इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि मासि मासि समायान्ति पुण्येन महतान्विताः // ___ एकाशीतितमोऽध्यायः // 4 // संनिहित्यामुपस्पृश्य राहुप्रस्ते दिवाकरे। अश्वमेधशतं तेन इष्टं भवति शाश्वतम् // 167 पुलस्त्य उवाच। पृथिव्यां यानि तीर्थानि अन्तरिक्षचराणि च / ततो गच्छेत धर्मज्ञ धर्मतीथं पुरातनम्। नद्यो नदास्तडागाश्च सर्वप्रस्रवणानि च // 168 तत्र स्नात्वा नरो राजन्धर्मशीलः समाहितः / उदपानाश्च वप्राश्च पुण्यान्यायतनानि च। आसप्तमं कुलं राजन्पुनीते नात्र संशयः॥१ मासि मासि समायान्ति संनिहित्यां न संशयः॥ ततो गच्छेत धर्मज्ञ कारापतनमुत्तमम् / यत्किंचिद्दुष्कृतं कर्म स्त्रिया वा पुरुषस्य वा। अग्निष्टोममवाप्नोति मुनिलोकं च गच्छति // 2 मातमात्रस्य तत्सर्वं नश्यते नात्र संशयः। सौगन्धिकं वनं राजंस्ततो गच्छेत मानवः / पद्मवर्णेन यानेन ब्रह्मलोकं स गच्छति // 170 यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः // 3 अभिवाद्य ततो यक्षं द्वारपालमरन्तुकम् / सिद्धचारणगन्धर्वाः किंनराः समहोरगाः / कोटिरूपमुपस्पृश्य लभेद्बहु सुवर्णकम् // 171 . तद्वनं प्रविशन्नेव सर्वपापैः प्रमुच्यते // 4 गङ्गाह्रदश्च तत्रैव तीर्थ भरतसत्तम / ततो हि सा सरिच्छ्रेष्ठा नदीनामुत्तमा नदी / तत्र स्नातस्तु धर्मज्ञ ब्रह्मचारी समाहितः।। प्लक्षाद्देवी चुता राजन्महापुण्या सरस्वती // 5 राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलं विन्दति शाश्वतम् // 172 / तत्राभिषेकं कुर्वीत वल्मीकाग्निःसृते जले। पृथिव्यां नैमिषं पुण्यमन्तरिक्षे च पुष्करम् / अर्चयित्वा पितॄन्देवानश्वमेधफलं लभेत् // 6 -502 -
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________________ 3. 82.7] आरण्यकपर्व - [3. 82.24 ईशानाध्युषितं नाम तत्र तीर्थ सुदुर्लभम् / देव्यास्तु दक्षिणार्धेन रथावर्तो नराधिप। षट्सु शम्यानिपातेषु वल्मीकादिति निश्चयः॥७ तत्रारोहेत धर्मज्ञ श्रद्दधानो जितेन्द्रियः / कपिलानां सहस्रं च वाजिमेधं च विन्दति। .. महादेवप्रसादाद्धि गच्छेत परमं गतिम् / / 21 तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र दृष्टमेतत्पुरातने // 8 प्रदक्षिणमुपावृत्य गच्छेत भरतर्षभ।। सुगन्धां शतकुम्भां च पञ्चयज्ञां च भारत / धारां नाम महाप्राज्ञ सर्वपापप्रणाशिनीम् / अभिगम्य नरश्रेष्ठ स्वर्गलोके महीयते // 9 तत्र स्नात्वा नरव्याघ्र न शोचति नराधिप // 19 त्रिशूलखातं तत्रैव तीर्थमासाद्य भारत। ततो गच्छेत धर्मज्ञ नमस्कृत्य महागिरिम् / तत्राभिषेक कति पितृदेवार्चने रतः। स्वर्गद्वारेण यत्तुल्यं गङ्गाद्वारं न संशयः // 23 गाणपत्यं स लभते देहं त्यक्त्वा न संशयः // 10 तत्राभिषेकं कुर्वीत कोटितीर्थे समाहितः। ततो गच्छेत राजेन्द्र देव्याः स्थानं सुदुर्लभम् / पुण्डरीकमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् // 24 शाकंभरीति विख्याता त्रिषु लोकेषु विश्रुता // 11 सप्तगङ्गे त्रिगङ्गे च शक्रावर्ते च तर्पयन् / दिव्यं वर्षसहस्रं हि शाकेन किल सुव्रत। देवान्पिढेश्च विधिवत्पुण्यलोके महीयते // 25 आहारं सा कृतवती मासि मासि नराधिप // 12 ततः कनखले स्नात्वा त्रिरात्रोपोषितो नरः। ऋषयोऽभ्यागतास्तत्र देव्या भक्त्या तपोधनाः / अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // 26 . : आतिथ्यं च कृतं तेषां शाकेन किल भारत / कपिलावटं च गच्छेत तीर्थसेवी नराधिप। .. ततः शाकंभरीत्येव नाम तस्याः प्रतिष्ठितम् // 13 उष्यैकां रजनीं तत्र गोसहस्रफलं लभेत् // 27.. शाकंभरी समासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः। नागराजस्य राजेन्द्र कपिलस्य महात्मनः। त्रिरात्रमुषितः शाकं भक्षयेन्नियतः शुचिः // 14 तीर्थ कुरुवरश्रेष्ठ सर्वलोकेषु विश्रुतम् // 28 शाकाहारस्य यत्सम्यग्वादशभिः फलम् / .. तत्राभिषेकं कुर्वीत नागतीर्थे नराधिप। तत्फलं तस्य भवति देव्याश्छन्देन भारत // 15 कपिलानां सहस्रस्य फलं प्राप्नोति मानवः // 29 ततो गच्छेत्सुवर्णाक्षं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। .. ततो ललितिकां गच्छेच्छंतनोस्तीर्थमुत्तमम् / .. यत्र विष्णुः प्रसादार्थ रुद्रमाराधयत्पुरा // 16 . तत्र स्नात्वा नरो राजन्न दुर्गतिमवाप्नुयात् // 30 वरांश्च सुबहल्लेभे दैवतेषु सुदुर्लभान् / गङ्गासंगमयोश्चैव स्नाति यः संगमे नरः। उक्तश्च त्रिपुरग्नेन परितुष्टेन भारत // 17 दशाश्वमेधानाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् // 31 : अपि चास्मत्प्रियतरो लोके कृष्ण भविष्यसि / ततो गच्छेत राजेन्द्र सुगन्धां लोकविश्रुताम् / स्वन्मुखं च जगत्कृत्स्नं भविष्यति न संशयः // 18 सर्वपापविशुद्धात्मा ब्रह्मलोके महीयते // 32, तत्राभिगम्य राजेन्द्र पूजयित्वा वृषध्वजम् / रुद्रावतं ततो गच्छेत्तीर्थसेवी नराधिप। .. अश्वमेधमवाप्नोति गाणपत्यं च विन्दति // 19 तत्र स्नात्वा नरो राजन्स्वर्गलोके महीयते // 33 धूमावतीं ततो गच्छेत्रिरात्रोपोषितो नरः। गङ्गायाश्च नरश्रेष्ठ सरस्वत्याश्च संगमे। मनसा प्रार्थितान्कामालभते नात्र संशयः // 20 / स्नातोऽश्वमेधमाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // 34 -503 -
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________________ 3. 82. 35] महाभारते [3. 82.63 भद्रकर्णेश्वरं गत्वा देवमय॑ यथाविधि / सर्वपापविशुद्धात्मा विन्द्याहु सुवर्णकम् // 49 न दुर्गतिमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // 35 अथ वेतसिकां गत्वा पितामहनिषेविताम् / ततः कुब्जाम्रकं गच्छेत्तीर्थसेवी यथाक्रमम् / अश्वमेधमवाप्नोति गच्छेच्चौशनसी गतिम् // 50 गोसहस्रमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // 36 अथ सुन्दरिकातीर्थ प्राप्य सिद्धनिषेवितम् / अरुन्धतीवटं गच्छेत्तीर्थसेवी नराधिप / रूपस्य भागी भवति दृष्टमेतत्पुरातने // 51 . सामुद्रकमुपस्पृश्य त्रिरात्रोपोषितो नरः। ततो वै ब्राह्मणीं गत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। . गोसहस्रफलं विन्देत्कुलं चैव समुद्धरेत् // 37 पद्मवर्णेन यानेन ब्रह्मलोकं प्रपद्यते // 52 ब्रह्मावतं ततो गच्छेद्ब्रह्मचारी समाहितः। ततश्च नैमिषं गच्छेत्पुण्यं सिद्धनिषेवितम् / अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // 38 तत्र नित्यं निवसति ब्रह्मा देवगणैर्वृतः // 53 / यमुनाप्रभवं गत्वा उपस्पृश्य च यामुने / नैमिषं प्रार्थयानस्य पापस्याध प्रणश्यति। अश्वमेधफलं लब्ध्वा स्वर्गलोके महीयते // 39 प्रविष्टमात्रस्तु नरः सर्वपापैः प्रमुच्यते // 54 दर्वीसंक्रमणं प्राप्य तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् / तत्र मासं वसेद्धीरो नैमिषे तीर्थतत्परः / अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // 40 पृथिव्यां यानि तीर्थानि नैमिषे तानि भारत // 55 सिन्धोश्च प्रभवं गत्वा सिद्धगन्धर्वसेवितम् / / अभिषेककृतस्तत्र नियतो नियताशनः। तत्रोष्य रजनीः पञ्च विन्द्याबहु सुवर्णकम् // 41 गवामयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति भारत / ... अथ वेदी समासाद्य नरः परमदुर्गमाम् / पुनात्यासप्तमं चैव कुलं भरतसत्तम // 56 . अश्वमेधमवाप्नोति गच्छेच्चौशनसी गतिम् // 42 यस्त्यजेन्नैमिषे प्राणानुपवासपरायणः / ऋषिकुल्यां समासाद्य वासिष्ठं चैव भारत। . स मोदेत्स्वर्गलोकस्थ एवमाहुर्मनीषिणः / / वासिष्ठं समतिक्रम्य सर्वे वर्णा द्विजातयः॥ 43 नित्यं पुण्यं च मेध्यं च नैमिषं नृपसत्तम / / 57 ऋषिकुल्यां नरः स्नात्वा ऋषिलोकं प्रपद्यते। गणोद्भेदं समासाद्यं त्रिरात्रोपोषितो नरः। यदि तत्र वसेन्मासं शाकाहारो नराधिप // 44 वाजपेयमवाप्नोति ब्रह्मभूतंश्च जायते // 58 . भृगुतुङ्गं समासाद्य वाजिमेधफलं लभेत् / सरस्वतीं समासाद्य तर्पयेपितृदेवताः। . गत्वा वीरप्रमोक्षं च सर्वपापैः प्रमुच्यते॥४५ सारस्वतेषु लोकेषु मोदते नात्र संशयः॥ 59 कृत्तिकामघयोश्चैव तीर्थमासाद्य भारत। ततश्च बाहुदां गच्छेद्ब्रह्मचारी समाहितः। अनिष्टोमातिरात्राभ्यां फलं प्राप्नोति पुण्यकृत् // 46 देवसत्रस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः // 60 ततः संध्यां समासाद्य विद्यातीर्थमनुत्तमम्।। ततश्वीरवतीं गच्छेत्पुण्यां पुण्यतमैर्वृताम् / / उपस्पृश्य च विद्यानां सर्वासां पारगो भवेत्॥४७ पितृदेवार्चनरतो वाजपेयमवाप्नुयात् // 61 महाश्रमे वसेद्रात्रिं सर्वपापप्रमोचने / विमलाशोकमासाद्य विराजति यथा शशी। एककालं निराहारो लोकानावसते शुभान् // 48 तत्रोष्य रजनीमेकां स्वर्गलोके महीयते // 62 षष्ठकालोपवासेन मासमुष्य महालये। गोप्रतारं ततो गच्छेत्सरय्वास्तीर्थमुत्तमम् / -504 -
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________________ 3. 82. 63] आरण्यकपर्व [3. 82. 89 यत्र रामो गतः स्वर्ग सभृत्यबलवाहनः // 63 सर्वपापविशुद्धात्मा सोमलोकं व्रजेब्रुवम् // 76 : देहं त्यक्त्वा दिवं यातस्तस्य तीर्थस्य तेजसा / तत्र चिह्न महाराज अद्यापि हि न संशयः। रामस्य च प्रसादेन व्यवसायाच भारत // 64 कपिला सह वत्सेन पर्वते विचरत्युत। तस्मिंस्तीर्थे नरः स्नात्वा गोप्रतारे नराधिप। सवत्सायाः पदानि स्म दृश्यन्तेऽद्यापि भारत॥७७ सर्वपापविशुद्धात्मा स्वर्गलोके महीयते // 65 तेषूपस्पृश्य राजेन्द्र पदेषु नृपसत्तम / रामतीर्थे नरः सात्वा गोमत्यां कुरुनन्दन / यत्किंचिदशुभं कर्म तत्प्रणश्यति भारत // 78 अश्वमेधमवाप्नोति पुनाति च कुलं नरः // 66 ततो गृध्रवटं गच्छेत्स्थानं देवस्य धीमतः। शतसाहसिकं तत्र तीर्थं भरतसत्तम। . स्नायीत भस्मना तत्र अभिगम्य वृषध्वजम् 79 तत्रोपस्पर्शनं कृत्वा नियतो नियताशनः / ब्राह्मणेन भवेच्चीर्णं व्रतं द्वादशवार्षिकम् / गोसहस्रफलं पुण्यं प्राप्नोति भरतर्षभ // 67 इतरेषां तु वर्णानां सर्वपापं प्रणश्यति // 80 ततो गच्छेत राजेन्द्र भर्तृस्थानमनुत्तमम् / गच्छेत तत उद्यन्तं पर्वतं गीतनादितम् / कोटितीर्थे नरः स्नात्वा अर्चयित्वा गुहं नृप / सावित्रं तु पदं तत्र दृश्यते भरतर्षभ // 81 गोसहस्रफलं विन्देत्तेजस्वी च भवेन्नरः / / 68 / तत्र संध्यामुपासीत ब्राह्मणः संशितव्रतः / ततो वाराणसी गत्वा अर्चयित्वा वृषध्वजम् / उपास्ता च भवेत्संध्या तेन द्वादशवार्षिकी / / 82 कपिलाहदे नरः स्नात्वा राजसूयफलं लभेत् // 69 / योनिद्वारं च तत्रैव विश्रुतं भरतर्षभ / . मार्कण्डेयस्य राजेन्द्र तीर्थमासाद्य दुर्लभम् / तत्राभिगम्य मुच्येत पुरुषो योनिसंकरात् // 83 गोमतीगङ्गयोश्चैव संगमे लोकविश्रुते / कृष्णशुक्लावुभौ पक्षौ गयायां यो वसेन्नरः / अमिष्टोममवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् // 70 पुनात्यासप्तमं राजन्कुलं नास्त्यत्र संशयः॥ 84 ततो गयां समासाद्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः / एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्यकोऽपि गयां व्रजेत् / अश्वमेधमवाप्नोति गमनादेव भारत // 71 / यजेत वाश्वमेधेन नीलं वा वृषमुत्सृजेत् // 85 तत्राक्षयवटो नाम त्रिषु लोकेषु विश्रुतः / ततः फल्गुं व्रजेद्राजस्तीर्थसेवी नराधिप। पितृणां तत्र वै दत्तमक्षयं भवति प्रभो // 72 अश्वमेधमवाप्नोति सिद्धिं च महतीं व्रजेत् // 86 महानद्यामुपस्पृश्य तर्पयेपितृदेवताः। ततो गच्छेत राजेन्द्र धर्मपृष्ठं समाहितः / अक्षयान्प्राप्नुयाल्लोकान्कुलं चैव समुद्धरेत् // 73 यत्र धर्मो महाराज नित्यमास्ते युधिष्ठिर। ततो ब्रह्मसरो गच्छेद्धर्मारण्योपशोभितम्। . अभिगम्य ततस्तत्र वाजिमेधफलं लभेत् // 87 पौण्डरीकमवाप्नोति प्रभातामेव शर्वरीम् // 74 ततो गच्छेत राजेन्द्र ब्रह्मणस्तीर्थमुत्तमम्। तस्मिन्सरसि राजेन्द्र ब्रह्मणो यूप उच्छ्रितः। तत्रार्चयित्वा राजेन्द्र ब्रह्माणममितौजसम् / यूपं प्रदक्षिणं कृत्वा वाजपेयफलं लभेत् // 75 राजसूयाश्वमेधाभ्यां फलं प्राप्नोति मानवः॥ 88 ततो गच्छेत राजेन्द्र धेनुकां लोकविश्रुताम् / ततो राजगृहं गच्छेत्तीर्थसेवी नराधिप / एकरात्रोषितो राजन्प्रयच्छेत्तिलधेनुकाम् / ..., उपस्पृश्य तपोदेषु काक्षीवानिव मोदते // 89 , म.भा. 64 -505 -
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________________ 3. 82. 90] महाभारते [3. 82. in यक्षिण्या नैत्यकं तत्र प्राश्नीत पुरुषः शुचिः / कूर्मरूपेण राजेन्द्र असुरेण दुरात्मना। यक्षिण्यास्तु प्रसादेन मुच्यते भ्रूणहत्यया // 90 ह्रियमाणाहृता राजन्विष्णुना प्रभविष्णुना // 104 मणिनागं ततो गत्वा गोसहस्रफलं लभेत्। तत्राभिषेकं कुर्वाणस्तीर्थकोट्यां युधिष्ठिर / नैत्यकं भुञ्जते यस्तु मणिनागस्य मानवः // 91 पुण्डरीकमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति // 105 दष्टस्याशीविषेणापि न तस्य क्रमते विषम्। . ततो गच्छेत राजेन्द्र स्थानं नारायणस्य तु। ' तत्रोष्य रजनीमेकां सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ 92 सदा संनिहितो यत्र हरिर्वसति भारत / ततो गच्छेत ब्रह्मर्षेौतमस्य वनं नृप। शालग्राम इति ख्यातो विष्णोरद्भुतकर्मणः॥ 106 अहल्याया हृदे स्नात्वा व्रजेत परमां गतिम् / अभिगम्य त्रिलोकेशं वरदं विष्णुमव्ययम् / अभिगम्य श्रियं राजन्विन्दते श्रियमुत्तमाम्॥ 93 अश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति // 107 तत्रोदपानो धर्मज्ञ त्रिषु लोकेषु विश्रुतः / तत्रोदपानो धर्मज्ञ सर्वपापप्रमोचनः / तत्राभिषे कृत्वा तु वाजिमेधमवाप्नुयात् // 94 समुद्रास्तत्र चत्वारः कूपे संनिहिताः सदा / जनकस्य तु राजर्षेः कूपत्रिदशपूजितः। ततोपस्पृश्य राजेन्द्र न दुर्गतिमवाप्नुयात् // 108 तत्राभिषेकं कृत्वा तु विष्णुलोकमवाप्नुयात् // 95 अभिगम्य महादेवं वरदं विष्णुमव्ययम्। ततो विनशनं गच्छेत्सर्वपापप्रमोचनम् / विराजति यथा सोम ऋणैर्मुक्तो युधिष्ठिर // 109 वाजपेयमवानोति सोमलोकं च गच्छति // 96 जातिस्मर उपस्पृश्य शुचिः प्रयतमानसः / गण्डकी तु समासाद्य सर्वतीर्थजलोद्भवाम् / जातिस्मरत्वं प्राप्नोति स्नात्वा तत्र न संशयः // 110 वाजपेयमवाप्नोति सूर्यलोकं च गच्छति // 97 वटेश्वरपुरं गत्वा अर्चयित्वा तु केशवम् / ततोऽधिवंश्यं धर्मज्ञ समाविश्य तपोवनम् / ईप्सिताल्लभते कामानुपवासान्न संशयः॥ 111 गुह्यकेषु महाराज मोदते नात्र संशयः // 98 ततस्तु वामनं गत्वा सर्वपापप्रमोचनम् / कम्पनां तु समासाद्य नदी सिद्धनिषेविताम् / अभिवाद्य हरिं देवं न दुर्गतिमवाप्नुयात् // 112 पुण्डरीकमवाप्नोति सूर्यलोकं च गच्छति // 99 भरतस्याश्रमं गत्वा सर्वपापप्रमोचनम् / ततो विशालामासाद्य नदीं त्रैलोक्यविश्रुताम्। कौशिकी तत्र सेवेत महापातकनाशिनीम् / अग्निष्टोममवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // 100 राजसूयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः // 113 अथ माहेश्वरी धारां समासाद्य नराधिप / ततो गच्छेत धर्मज्ञ चम्पकारण्यमुत्तमम् / अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् // 101 / तत्रोष्य रजनीमेकां गोसहस्रफलं लभेत् // 114 दिवौकसां पुष्करिणीं समासाद्य नरः शुचिः / अथ ज्येष्ठिलमासाद्य तीर्थ परमसंमतम् / न दुर्गतिमवाप्नोति वाजपेयं च विन्दति // 102 उपोष्य रजनीमेकामग्निष्टोमफलं लभेत् // 115 महेश्वरपदं गच्छेद्ब्रह्मचारी समाहितः। तत्र विश्वेश्वरं दृष्ट्वा देव्या सह महाद्युतिम् / महेश्वरपदे सात्वा वाजिमेधफलं लभेत् // 103 मित्रावरुणयोर्लोकानाप्नोति पुरुषर्षभ // 116 तत्र कोटिस्तु तीर्थानां विश्रुता भरतर्षभ / | कन्यासंवेद्यमासाद्य नियतो नियताशनः / -506 -
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________________ 3. 82. 117] आरण्यकपर्व [3. 83.2 मनोः प्रजापतेर्लोकानाप्नोति भरतर्षभ // 117 यमेधमवाप्नोति शकलोकं च गच्छति // 132 कन्यायां ये प्रयच्छन्ति पानमन्नं च भारत / ... ताम्रारुणं समासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः / तवक्षयमिति प्राहुर्ऋषयः संशितव्रताः 118 . अश्वमेधमवाप्नोति शकलोकं च गच्छति // 133 निश्चीरां च समासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुताम् / नन्दिन्यां च समासाद्य कूपं त्रिदशसेवितम् / अश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति 119 नरमेधस्य यत्पुण्यं तत्प्राप्नोति कुरूद्वह // 134 . ये तु दानं प्रयच्छन्ति निश्चीरासंगमे नराः।। कालिकासंगमे स्नात्वा कौशिक्यारुणयोर्यतः / ते यान्ति नरशार्दूल ब्रह्मलोकं न संशयः // 120 त्रिरात्रोपोषितो विद्वान्सर्वपापैः प्रमुच्यते // 135 तत्राश्रमो वसिष्ठस्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतः / उर्वशीतीर्थमासाद्य ततः सोमाश्रमं बुधः / तत्राभिषेकं कुर्वाणो वाजपेयमवाप्नुयात् // 121 कुम्भकर्णाश्रमे स्नात्वा पूज्यते भुवि मानवः // 136 देवकूटं समासाद्य ब्रह्मर्षिगणसेवितम् / स्नात्वा कोकामुखे पुण्ये ब्रह्मचारी यतव्रतः / अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत् // 122 जातिस्मरत्वं प्राप्नोति दृष्टमेतत्पुरातने // 137 ततो गच्छेत राजेन्द्र कौशिकस्य मुनेह्रदम् / सकृन्नन्दा समासाद्य कृतात्मा भवति द्विजः / यत्र सिद्धिं परां प्राप्तो विश्वामित्रोऽथ कौशिकः // सर्वपापविशुद्धात्मा शकलोकं च गच्छति // 138 तत्र मासं वसेद्वीर कौशिक्यां भरतर्षभ। ऋषभद्वीपमासाद्य सेव्यं क्रौश्चनिषूदनम् // अश्वमेधस्य यत्पुण्यं तन्मासेनाधिगच्छति // 124 सरस्वत्यामुपस्पृश्य विमानस्थो विराजते // 139 सर्वतीर्थवरे चैव यो वसेत महाहदे / औद्दालकं महाराज तीर्थं मुनिनिषेवितम् / न दुर्गतिमवाप्नोति विन्देद्वहु सुवर्णकम् // 125 तत्राभिषेकं कुर्वीत सर्वपापैः प्रमुच्यते // 140 . कुमारमभिगत्वा च वीराश्रमनिवासिनम् / धर्मतीथं समासाद्य पुण्यं ब्रह्मर्षिसेवितम् / . अश्वमेधमवाप्नोति नरो नास्त्यत्र संशयः॥ 126 वाजपेयमवाप्नोति नरो नास्यत्र संशयः॥ 141 अग्निधारां समासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुताम् / तथा चम्पां समासाद्य भागीरथ्यां कृतोदकः / अग्निष्टोममवाप्नोति न च स्वर्गान्निवर्तते // 127 दण्डार्कमभिगम्यैव गोसहस्रफलं लभेत् // 142 पितामहसरो गत्वा शैलराजप्रतिष्ठितम् / लवेडिकां ततो गच्छेत्पुण्यां पुण्योपसेविताम् / तत्राभिषेकं कुर्वाणो अग्निष्टोमफलं लभेत् // 128 वाजपेयमवाप्नोति विमानस्थश्च पूज्यते // 143 पितामहस्य सरसः प्रस्रुता लोकपावनी / इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि कुमारधारा तत्रैव त्रिषु लोकेषु विश्रुता // 129 यत्र स्नात्वा कृतार्थोऽस्मीत्यात्मानमवगच्छति / षष्ठकालोपवासेन मुच्यते ब्रह्महत्यया // 130 पुलरत्य उवाच / शिखरं वै महादेव्या गौर्यास्त्रैलोक्यविश्रुतम् / अथ संध्यां समासाद्य संवेद्यं तीर्थमुत्तमम्। समारुह्य नरः श्राद्धः स्तनकुण्डेषु संविशेत्॥१३१ / उपस्पृश्य नरो विद्वान्भवेन्नास्यत्र संशयः // 1 . तत्राभिषेकं कुर्वाणः पितृदेवार्चने रतः / | रामस्य च प्रसादेन तीर्थ राजन्कृतं पुरा। - 507 - यशीतितमोऽध्यायः॥८२॥
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________________ 8. 83.2] महाभारते [ 3. 83. 31 तल्लोहित्यं समासाद्य विन्द्याद्वहु सुवर्णकम् // 2 .. न्यवसत्परमप्रीतो ब्रह्मा च त्रिदशैर्वृतः॥ 17 करतोयां समासाद्य त्रिरात्रोपोषितो नरः / तत्र देवह्नदे स्नात्वा शुचिः प्रयतमानसः / अश्वमेधमवाप्नोति कृते पैतामहे विधौ // 3 अश्वमेधमवाप्नोति परां सिद्धिं च गच्छति // 18 गङ्गायास्त्वथ राजेन्द्र सागरस्य च संगमे। ऋषभं पर्वतं गत्वा पाण्ड्येषु सुरपूजितम्। अश्वमेधं दशगुणं प्रवदन्ति मनीषिणः॥४ वाजपेयमवाप्नोति नाकपृष्ठे च मोदते // 19 . गङ्गायास्त्वपरं द्वीपं प्राप्य यः नाति भारत। ततो गच्छेत कावेरी वृतामप्सरसां गणैः। . त्रिरात्रोपोषितो राजन्सर्वकामानवाप्नुयात् // 5 तत्र स्नात्वा नरो राजनगोसहस्रफलं लभेत् // 20 ततो वैतरणीं गत्वा नदी पापप्रमोचनीम् / ततस्तीरे समुद्रस्य कन्यातीर्थ उपस्पृशेत् / विरजं तीर्थमासाद्य विराजति यथा शशी // 6 तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र सर्वपापैः प्रमुच्यते // 21 प्रभवेश्च कुले पुण्ये सर्वपापं व्यपोहति / अथ गोकर्णमासाद्य त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् / गोसहस्रफलं लब्ध्वा पुनाति च कुलं नरः॥७ समुद्रमध्ये राजेन्द्र सर्वलोकनमस्कृतम् // 22 शोणस्य ज्योतिरथ्याश्च संगमे निवसञ्शुचिः। यत्र ब्रह्मादयो देवा ऋषयश्च तपोधनाः / / तर्पयित्वा पितॄन्देवानमिष्टोमफलं लभेत् // 8 भूतयक्षपिशाचाश्च किंनराः समहोरगाः // 23 शोणस्य नर्मदायाश्च प्रभवे कुरुनन्दन। . सिद्धचारणगन्धर्वा मानुषाः पन्नगास्तथा। वंशगुल्म उपस्पृश्य वाजिमेधफलं लभेत् // 9 सरितः सागराः शैला उपासन्त उमापतिम् // 24 ऋषभं तीर्थमासाद्य कोशलायां नराधिप / तत्रेशानं समभ्यर्च्य त्रिरात्रोपोषितो नरः।। वाजपेयमवाप्नोति त्रिरात्रोपोषितो नरः॥ 10 दशाश्वमेधमाप्नोति गाणपत्यं च विन्दति। कोशलायां समासाद्य कालतीर्थ उपस्पृशेत् / उष्य द्वादशरात्रं तु कृतात्मा भवते नरः // 25 वृषभैकादशफलं लभते नात्र संशयः॥ 11 तत एव तु गायत्र्याः स्थानं त्रैलोक्यविश्रुतम् / पुष्पवत्यामुपस्पृश्य त्रिरात्रोपोषितो नरः। त्रिरात्रमुषितस्तत्र गोसहस्रफलं लभेत् // 26 गोसहस्रफलं विन्द्यात्कुलं चैव समुद्धरेत् // 12 निदर्शनं च प्रत्यक्षं ब्राह्मणानां नराधिप / ततो बदरिकातीर्थे स्नात्वा प्रयतमानसः।। गायत्री पठते यस्तु योनिसंकरजस्तथा / दीर्घमायुरवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // 13 गाथा वा गीतिका वापि तस्य संपद्यते नृप // 27 ततो महेन्द्रमासाद्य जामदग्न्यनिषेवितम् / संवर्तस्य तु विप्रर्षेर्वापीमासाद्य दुर्लभाम् / रामतीर्थे नरः स्नात्वा वाजिमेधफलं लभेत् // 14 रूपस्य भागी भवति सुभगश्चैव जायते // 28 मतङ्गस्य तु केदारस्तत्रैव कुरुनन्दन / ततो वेण्णां समासाद्य तर्पयेत्पितृदेवताः। तत्र स्नात्वा नरो राजन्गोसहस्रफलं लभेत् // 15 / मयूरहंससंयुक्तं विमानं लभते नरः // 29 श्रीपर्वतं समासाद्य नदीतीर उपस्पृशेत् / ततो गोदावरी प्राप्य नित्यं सिद्धनिषेविताम् / अश्वमेधमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // 16 / गवामयमवाप्नोति वासुकेर्लोकमाप्नुयात् // 30 श्रीपर्वते महादेवो देव्या सह महाद्युतिः। वेण्णायाः संगमे स्नात्वा वाजपेयफलं लभेत् / -508 -
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________________ 3. 83. 31] आरण्यकपर्व [3. 83. 61 वरदासंगमे स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् // 31 / हरिनारायणो देवो महादेवस्तथैव च // 46 ब्रह्मस्थानं समासाद्य त्रिरात्रमुषितो नरः / पितामहश्च भगवान्देवैः सह महाद्युतिः / गोसहस्रफलं विन्देत्स्वर्गलोकं च गच्छति // 32 / भृगु नियोजयामास याजनार्थे महाद्युतिम् // 47 कुशप्लवनमासाद्य ब्रह्मचारी समाहितः / ततः स चक्रे भगवानृषीणां विधिवत्तदा / त्रिरात्रमुषितः स्नात्वा अश्वमेधफलं लभेत् // 33 सर्वेषां पुनराधानं विधिदृष्टेन कर्मणा // 48 ततो देवह्वदे रम्ये कृष्णवेण्णाजलोद्भवे। आज्यभागेन वै तत्र तर्पितास्तु यथाविधि / जातिमात्रहदे चैव तथा कन्याश्रमे नृप // 34 देवास्त्रिभुवनं याता ऋषयश्च यथासुखम् // 49 यत्र क्रतुशतैरिष्ट्वा देवराजो दिवं गतः / / तदरण्यं प्रविष्टस्य तुङ्गकं राजसत्तम / अग्निष्टोमशतं विन्देद्गमनादेव भारत // 35 पापं प्रणश्यते सर्व स्त्रियो वा पुरुषस्य वा // 50 सर्वदेवहदे स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् / तत्र मासं वसेद्धीरो नियतो नियताशनः / जातिमात्रहदे स्नात्वा भवेजातिस्मरो नरः // 36 ब्रह्मलोकं व्रजेद्राजन्पुनीते च कुलं नरः // 51 ततोऽवाप्य महापुण्यां पयोष्णीं सरितां वराम् / / मेधाविकं समासाद्य पितॄन्देवांश्च तर्पयेत् / पितृदेवार्चनरतो गोसहस्रफलं लभेत् // 37 अमिष्टोममवाप्नोति स्मृति मेधां च विन्दति // 52 दण्डकारण्यमासाद्य महाराज उपस्पृशेत् / ततः कालंजरं गत्वा पर्वतं लोकविश्रुतम् / गोसहस्रफलं तत्र स्नातमात्रस्य भारत // 38 / तत्र देवह्रदे स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् // 53 शरभङ्गाश्रमं गत्वा शुकस्य च महात्मनः / आत्मानं साधयेत्तत्र गिरौ कालंजरे नृप / न दुर्गतिमवाप्नोति पुनाति च कुलं नरः // 39 स्वर्गलोके महीयेत नरो नास्यत्र संशयः // 54 . ततः शूर्पारकं गच्छेन्जामदग्न्यनिषेवितम् / ततो गिरिवरश्रेष्ठे चित्रकूटे विशां पते / रामतीर्थे नरः सात्वा विन्द्यावहु सुवर्णकम् // 40 मन्दाकिनी समासाद्य नदी पापप्रमोचनीम् // 55 सप्तगोदावरे स्नात्वा नियतो नियताशनः / तत्राभिषेकं कुर्वाणः पितृदेवार्चने रतः / महत्पुण्यमवाप्नोति देवलोकं च गच्छति // 41 अश्वमेधमवाप्नोति गतिं च परमां व्रजेत् // 56 ततो देवपथं गच्छेन्नियतो नियताशनः / / ततो गच्छेत राजेन्द्र भर्तृस्थानमनुत्तमम् / देवसत्रस्य यत्पुण्यं तदवाप्नोति मानवः // 42 यत्र देवो महासेनो नित्यं संनिहितो नृप // 57. तुङ्गकारण्यमासाद्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। पुमांस्तत्र नरश्रेष्ठ गमनादेव सिध्यति / वेदानध्यापयत्तत्र ऋषिः सारस्वतः पुरा // 43 कोटितीर्थे नरः स्नात्वा गोसहस्रफलं लभेत् // 58 तत्र वेदान्प्रनष्टांस्तु मुनेरङ्गिरसः सुतः / प्रदक्षिणमुपावृत्य ज्येष्ठस्थानं व्रजेन्नरः / उपविष्टो महर्षीणामुत्तरीयेषु भारत // 44 अभिगम्य महादेवं विराजति यथा शशी // 59 ॐकारेण यथान्यायं सम्यगुच्चारितेन च। तत्र कूपो महाराज विश्रुतो भरतर्षभ / येन यत्पूर्वमभ्यस्तं तत्तस्य समुपस्थितम् / / 45 समुद्रास्तत्र चत्वारो निवसन्ति युधिष्ठिर // 60 ऋषयस्तत्र देवाश्च वरुणोऽमिः प्रजापतिः। तत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् / -509 -
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________________ 3. 83. 61] महाभारते [3. 83.90 नियतात्मा नरः पूतो गच्छेत परमां गतिम् // 61 तत्राभिषेकं यः कुर्यात्संगमे संशितव्रतः / ततो गच्छेत्कुरुश्रेष्ठ शृङ्गवेरपुरं महत्। पुण्यं स फलमाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः॥ 76 यत्र तीर्णो महाराज रामो दाशरथिः पुरा // 62 एषा यजनभूमिर्हि देवानामपि सत्कृता। गङ्गायां तु नरः सात्वा ब्रह्मचारी समाहितः। तत्र दत्तं सूक्ष्ममपि महद्भवति भारत // 77. विधूतपाप्मा भवति वाजपेयं च विन्दति // 63 न वेदवचनात्तात न लोकवचनादपि। अभिगम्य महादेवमभ्यर्च्य च नराधिप। मतिरुत्क्रमणीया ते प्रयागमरणं प्रति // 78 . प्रदक्षिणमुपावृत्य गाणपत्यमवाप्नुयात् // 64 दश तीर्थसहस्राणि षष्टिकोट्यस्तथापराः। ततो गच्छेत राजेन्द्र प्रयागमृषिसंस्तुतम् / येषां सांनिध्यमत्रैव कीर्तितं कुरुनन्दन // 79 / यत्र ब्रह्मादयो देवा दिशश्च सदिगीश्वराः॥ 65 चातुर्वेदे च यत्पुण्यं सत्यवादिषु चैव यत् / लोकपालाश्च साध्याश्च नैर्ऋताः पितरस्तथा।। स्नात एव तदाप्नोति गङ्गायमुनसंगमे // 80... सनत्कुमारप्रमुखास्तथैव परमर्षयः // 66 तत्र भोगवती नाम वासुकेस्तीर्थमुत्तमम् / अङ्गिरःप्रमुखाश्चैव तथा ब्रह्मर्षयोऽपरे / तत्राभिषेकं यः कुर्यात्सोऽश्वमेधमवाप्नुयात् // 81 तथा नागाः सुपर्णाश्च सिद्धाश्चक्रचरास्तथा // 67 तत्र हंसप्रपतनं तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम् / सरितः सागराश्चैव गन्धर्वाप्सरसस्तथा / / दशाश्वमेधिकं चैव गङ्गायां कुरुनन्दन // 82 . हरिश्च भगवानास्ते प्रजापतिपुरस्कृतः // 68 यत्र गङ्गा महाराज स देशस्तत्तपोवनम् / तत्र त्रीण्यग्निकुण्डानि येषां मध्ये च जाह्नवी / सिद्धक्षेत्रं तु तज्ज्ञेयं गङ्गातीरसमाश्रितम् // 83 प्रयागादभिनिष्क्रान्ता सर्वतीर्थपुरस्कृता॥ 69 इदं सत्यं द्विजातीनां साधूनामात्मजस्य च / तपनस्य सुता तत्र त्रिषु लोकेषु विश्रुता। सुहृदां च जपेत्कर्णे शिष्यस्यानुगतस्य च // 84 यमुना गङ्गया साध संगता लोकपावनी // 70 इदं धर्म्यमिदं पुण्यमिदं मेध्यमिदं सुखम् / गङ्गायमुनयोर्मध्यं पृथिव्या जघनं स्मृतम् / इदं स्वर्ग्यमिदं रम्यमिदं पावनमुत्तमम् // 85 प्रयागं जघनस्यान्तमुपस्थमृषयो विदुः // 71 महर्षीणामिदं गुह्यं सर्वपापप्रमोचनम्। . प्रयागं सप्रतिष्ठानं कम्बलाश्वतरौ तथा। अधीत्य द्विजमध्ये च निर्मलत्वमवाप्नुयात् // 86 तीर्थं भोगवती चैव वेदी प्रोक्ता प्रजापतेः॥ 72 यश्चेदं शृणुयान्नित्यं तीर्थपुण्यं सदा शुचिः / तत्र वेदाश्च यज्ञाश्च मूर्तिमन्तो युधिष्ठिर / जातीः स स्मरते बह्वी कपृष्ठे च मोदते // 87 प्रजापतिमुपासन्ते ऋषयश्च महाव्रताः / गम्यान्यपि च तीर्थानि कीर्तितान्यगमानि च। यजन्ते ऋतुभिर्देवास्तथा चक्रचरा नृप // 73 मनसा तानि गच्छेत सर्वतीर्थसमीक्षया // 88 ततः पुण्यतमं नास्ति त्रिषु लोकेषु भारत / एतानि वसुभिः साध्यैरादित्यैर्मरुदश्विभिः / प्रयागः सर्वतीर्थेभ्यः प्रभवत्यधिकं विभो // 74 ऋषिभिर्देवकल्पैश्च श्रितानि सुकृतैषिभिः॥ 89 श्रवणात्तस्य तीर्थस्य नामसंकीर्तनादपि / एवं त्वमपि कौरव्य विधिनानेन सुव्रत / मृत्तिकालम्भनाद्वापि नरः पापात्प्रमुच्यते // 75 | व्रज तीर्थानि नियतः पुण्यं पुण्येन वर्धते // 90 - 510
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________________ 3. 83. 91] आरण्यकपर्व [3.84.8 भावितैः कारणैः पूर्वमास्तिक्याच्छ्रुतिदर्शनात् / / एभिः सह महाराज तीर्थान्येतान्यनुव्रज // 105 प्राप्यन्ते तानि तीर्थानि सद्भिः शिष्टानुदर्शिभिः॥ / एष वै लोमशो नाम देवर्षिरमितद्युतिः। नाव्रतो नाकृतात्मा च नाशुचिर्न च तस्करः। समेष्यति त्वया चैव तेन सार्धमनुव्रज // 106 : स्नाति तीर्थेषु कौरव्य न च वक्रमतिर्नरः॥ 92 मया च सह धर्मज्ञ तीर्थान्येतान्यनुव्रज। - त्वया तु सम्यग्वृत्तेन नित्यं धर्मार्थदर्शिना / प्राप्स्यसे महतीं कीर्तिं यथा राजा महाभिषः // 10 // पितरस्तारितास्तात सर्वे च प्रपितामहाः // 93 यथा ययातिर्धर्मात्मा यथा राजा पुरूरवाः। पितामहपुरोगाश्च देवाः सर्षिगणा नृप। तथा त्वं कुरुशार्दूल स्वेन धर्मेण शोभसे // 108 तव धर्मेण धर्मज्ञ नित्यमेवाभितोषिताः // 94 यथा भगीरथो राजा यथा रामश्च विश्रुतः।। अवाप्स्यसि च लोकान्वै वसूनां वासवोपम / तथा त्वं सर्वराजभ्यो भ्राजसे रश्मिवानिव // 109 कीर्तिं च महतीं भीष्म प्राप्स्यसे भुवि शाश्वतीम् / / 95 यथा मनुर्यथेक्ष्वाकुर्यथा पूरुर्महायशाः। नारद उवाच / यथा वैन्यो महातेजास्तथा त्वमपि विश्रुतः॥११. एवमुक्त्वाभ्यनुज्ञाप्य पुलस्त्यो भगवानृषिः। . यथा च वृत्रहा सर्वान्सपत्नानिर्दहत्पुरा। प्रीतः प्रीतेन मनसा तत्रैवान्तरधीयत // 96 . तथा शत्रुक्षयं कृत्वा प्रजास्त्वं पालयिष्यसि // 111 भीष्मश्च कुरुशार्दूल शास्त्रतत्त्वार्थदर्शिवान् / स्वधर्मविजितामुर्वी प्राप्य राजीवलोचन। पुलस्त्यवचनाच्चैव पृथिवीमनुचक्रमे // 97 ख्यातिं यास्यसि धर्मेण कार्तवीर्यार्जुनो यथा॥११२ अनेन विधिना यस्तु पृथिवीं संचरिष्यति / - वैशंपायन उवाच / अश्वमेधशतस्याग्र्यं फलं प्रेत्य स भोक्ष्यते // 98 एवमाश्वास्य राजानं नारदो भगवानृषिः। अतश्चाष्टगुणं पार्थ प्राप्स्यसे धर्ममुत्तमम् / अनुज्ञाप्य महात्मानं तत्रैवान्तरधीयत // 113 - मेता च त्वमृषीन्यस्मात्तेन तेऽष्टगुणं फलम् // 99 युधिष्ठिरोऽपि धर्मात्मा तमेवार्थं विचिन्तयन् / रक्षोगणावकीर्णानि तीर्थान्येतानि भारत। तीर्थयात्राश्रयं पुण्यमृषीणां प्रत्यवेदयत् // 114 न गतिर्विद्यतेऽन्यस्य त्वामृते कुरुनन्दन // 100 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि इदं देवर्षिचरितं सर्वतीर्थार्थसंश्रितम् / ज्यशीतितमोऽध्यायः॥८३॥.. - यः पठेत्कल्यमुत्थाय सर्वपापैः प्रमुच्यते // 101 ऋषिमुख्याः सदा यत्र वाल्मीकिस्त्वथ काश्यपः / वैशंपायन उवाच / पात्रेयस्त्वथ कौण्डिन्यो विश्वामित्रोऽथ गौतमः // भ्रातॄणां मतमाज्ञाय नारदस्य च धीमतः। . असितो देवलश्चैव मार्कण्डेयोऽथ गालवः / पितामहसमं धौम्यं प्राह राजा युधिष्ठिरः // 1; भरद्वाजो वसिष्ठश्च मुनिरुद्दालकस्तथा // 103 मया स पुरुषव्याघ्रो जिष्णुः सत्यपराक्रमः।शौनकः सह पुत्रेण व्यासश्च जपतां वरः। अनहेतोर्महाबाहुरमितात्मा विवासितः ॥२दुर्वासाश्च मुनिश्रेष्ठो गालवश्च महातपाः // 104 स हि वीरोऽनुरक्तश्च समर्थश्च तपोधन / " : एते ऋषिवराः सर्वे त्वत्प्रतीक्षास्तपोधनाः / / कृती च भृशमप्यस्ने वासुदेव इव प्रभुः // 3 ... --511 -
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________________ 8. 84. 4] महाभारते [ 8. 85.9 अहं घेतावुभौ ब्रह्मन्कृष्णावरिनिघातिनौ। आख्यातु रमणीयं च सेवितं पुण्यकर्मभिः // 17 अभिजानामि विक्रान्तौ तथा व्यासः प्रतापवान् / यत्र कंचिद्वयं कालं वसन्तः सत्यविक्रमम / त्रियुगौ पुण्डरीकाक्षौ वासुदेवधनंजयौ // 4 / प्रतीक्षामोऽर्जुनं वीरं वर्षकामा इवाम्बुदम् // 18 नारदोऽपि तथा वेद सोऽप्यशंसत्सदा मम / / विविधानाश्रमान्कांश्चिहिजातिभ्यः परिश्रुतान् / तथाहमपि जानामि नरनारायणावृषी // 5 सरांसि सरितश्चैव रमणीयांश्च पर्वतान् // 19 / शक्तोऽयमित्यतो मत्वा मया संप्रेषितोऽर्जुनः / आचक्ष्व न हि नो ब्रह्मन्रोचते तमृतेऽर्जुनम् / इन्द्रादनवरः शक्तः सुरसूनुः सुराधिपम् / / वनेऽस्मिन्काम्यके वासो गच्छामोऽन्यां दिशं प्रति // द्रष्टुमस्त्राणि चादातुमिन्द्रादिति विवासितः // 6 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि मीष्मद्रोणावतिरथौ कृपो द्रौणिश्च दुर्जयः / चतुरशीतितमोऽध्यायः॥८॥ धृतराष्ट्रस्य पुत्रेण वृता युधि महाबलाः / सर्वे वेदविदः शूराः सर्वेऽस्रकुशलास्तथा // 7 वैशंपायन उवाच / योद्धुकामश्च पार्थेन सततं यो महाबलः / तान्सर्वानुत्सुकान्दृष्ट्वा पाण्डवान्दीनचेतसः / स च दिव्यास्त्रविकर्णः सूतपुत्रो महारथः // 8 आश्वासयंस्तदा धौम्यो बृहस्पतिसमोऽब्रवीत् // 1 सोऽश्ववेगानिलबलः शरार्चिस्तलनिस्वनः। . ब्राह्मणानुमतान्पुण्यानाश्रमान्भरतर्षभ। रजोधूमोऽस्त्रसंतापो धार्तराष्ट्रानिलोद्धतः // 9 दिशस्तीर्थानि शैलांश्च शृणु मे गदतो नृप // 2 निसृष्ट इव कालेन युगान्तज्वलनो यथा। पूर्व प्राची दिशं राजनराजर्षिगणसेविताम् / मम सैन्यमयं कक्षं प्रधक्ष्यति न संशयः // 10 रम्यां ते कीर्तयिष्यामि युधिष्ठिर यथास्मृति // 3 तं स कृष्णानिलोद्धृतो दिव्यास्त्रजलदो महान् / तस्यां देवर्षिजुष्टायां नैमिषं नाम भारत। . श्वेतवाजिबलाकाभृगाण्डीवेन्द्रायुधोज्ज्वलः // 11 यत्र तीर्थानि देवानां सुपुण्यानि पृथक्पृथक् // 4 सततं शरधारामिः प्रदीप्तं कर्णपावकम् / यत्र सा गोमती पुण्या रम्या देवर्षिसेविता / उदीर्णोऽर्जुनमेघोऽयं शमयिष्यति संयुगे // 12 यज्ञभूमिश्च देवानां शामित्रं च विवस्वतः // 5 स साक्षादेव सर्वाणि शक्रात्परपुरंजयः / तस्यां गिरिवरः पुण्यो गयो राजर्षिसत्कृतः / दिव्यान्यस्त्राणि बीभत्सुस्तत्त्वतः प्रतिपत्स्यते // 13 शिवं ब्रह्मसरो यत्र सेवितं त्रिदशर्षिभिः // 6 . अलं स तेषां सर्वेषामिति मे धीयते मतिः। यदयं पुरुषव्याघ्र कीर्तयन्ति पुरातनाः / नास्ति त्वतिक्रिया तस्य रणेऽरीणां प्रतिक्रिया // 14 एष्टव्या बहवः पुत्रा योकोऽपि गयां व्रजेत् // 7 तं वयं पाण्डवं सर्वे गृहीतास्त्रं धनंजयम् / महानदी च तत्रैव तथा गयशिरोऽनघ। द्रष्टारो न हि बीभत्सुर्भारमुद्यम्य सीदति // 15 यत्रासौ कीर्त्यते विप्रैरक्षय्यकरणो वटः / वयं तु तमृते वीरं वनेऽस्मिन्द्विपदां वर / यत्र दत्तं पितृभ्योऽन्नमक्षय्यं भवति प्रभो // 8 अवधानं न गच्छामः काम्यके सह कृष्णया॥१६ सा च पुण्यजला यत्र फल्गुनामा महानदी / भवानन्यद्वनं साधु बन्नं फलवच्छुचि / | बहुमूलफला चापि कौशिकी भरतर्षभ / -512 -
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________________ 3. 85.9] आरण्यकपर्व [3. 86. 13 विश्वामित्रोऽभ्यगाद्यत्र ब्राह्मणत्वं तपोधनः॥९ / सरितः पर्वतांश्चैव पुण्यान्यायतनानि च // 23 गङ्गा यत्र नदी पुण्या यस्यास्तीरे भगीरथः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अयजत्तात बहुभिः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः // 10 पञ्चाशीतितमोऽध्यायः॥८५॥ पाश्चालेषु च कौरव्य कथयन्त्युत्पलावतम् / विश्वामित्रोऽयजद्यत्र शक्रेण सह कौशिकः / . धौम्य उवाच / यत्रानुवंशं भगवाञ्जामदग्न्यस्तथा जगौ // 11 दक्षिणस्यां तु पुण्यानि शृणु तीर्थानि भारत / विश्वामित्रस्य तां दृष्ट्वा विभूतिमतिमानुषीम्। विस्तरेण यथाबुद्धि कीर्त्यमानानि भारत // 1 कन्यकुब्जेऽपिबत्सोममिन्द्रेण सह कौशिकः / / यस्यामाख्यायते पुण्या दिशि गोदावरी नदी / ततः क्षत्रादपाक्रामब्राह्मणोऽस्मीति चाब्रवीत् // 12 बह्वारामा बहुजला तापसाचरिता शुभा // 2 पवित्रमृषिभिर्जुष्टं पुण्यं पावनमुत्तमम् / वेण्णा भीमरथी चोभे नद्यौ पापभयापहे। गङ्गायमुनयोर्वीर संगमं लोकविश्रुतम् // 13 मृगद्विजसमाकीर्णे तापसालयभूषिते // 3 यत्रायजत भूतात्मा पूर्वमेव पितामहः।। राजर्षेस्तत्र च सरिन्नृगस्य भरतर्षभ। प्रयागमिति विख्यातं तस्माद्भरतसत्तम / / 14 रम्यतीर्था बहुजला पयोष्णी द्विजसेविता // 4 अगस्त्यस्य च राजेन्द्र तत्राश्रमवरो महान् / अपि चात्र महायोगी मार्कण्डेयो महातपाः / : हिरण्यबिन्दुः कथितो गिरौ कालंजरे नृप // 15 अनुवंश्यां जगौ गाथां नृगस्य धरणीपतेः // 5 अत्यन्यान्पर्वतान्राजन्पुण्यो गिरिवरः शिवः / / नृगस्य यजमानस्य प्रत्यक्षमिति नः श्रुतम् / / महेन्द्रो नाम कौरव्य भार्गवस्य महात्मनः // 16 अमाद्यदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिर्द्विजातयः // 6 अयजद्यत्र कौन्तेय पूर्वमेव पितामहः / माठरस्य वनं पुण्यं बहुमूलफलं शिवम् / यत्र भागीरथी पुण्या सदस्यासीद्युधिष्ठिर // 17 / यूपश्च भरतश्रेष्ठ वरुणस्रोतसे गिरौ // 7 यत्रासौ ब्रह्मशालेति पुण्या ख्याता विशां पते। प्रवेण्युत्तरपार्श्वे तु पुण्ये कण्वाश्रमे तथा। धूतपाप्मभिराकीर्णा पुण्यं तस्याश्च दर्शनम् // 18 तापसानामरण्यानि कीर्तितानि यथाश्रुति // 8 पवित्रो मङ्गलीयश्च ख्यातो लोके सनातनः / वेदी शूर्पारके तात जमदग्नेर्महात्मनः / केदारश्च मतङ्गस्य महानाश्रम उत्तमः // 19 रम्या पाषाणतीर्था च पुरश्चन्द्रा च भारत // 9 कुण्डोदः पर्वतो रम्यो बहुमूलफलोदकः। अशोकतीर्थ मर्येषु कौन्तेय बहुलाश्रमम् / नैषधस्तृषितो यत्र जलं शर्म च लब्धवान् // 20 अगस्त्यतीर्थं पाण्डयेषु वारुणं च युधिष्ठिर // 10 यत्र देववनं रम्यं तापसैरुपशोभितम् / कुमार्यः कथिताः पुण्याः पाण्डयेष्वेव नरर्षभ / बाहुदा च नदी यत्र नन्दा च गिरिमूर्धनि // 21 / ताम्रपर्णी तु कौन्तेय कीर्तयिष्यामि तां शृणु // 11 तीर्थानि सरितः शैलाः पुण्यान्यायतनानि च। यत्र देवैस्तपस्तप्तं महदिच्छद्भिराश्रमे। . प्राच्यां दिशि महाराज कीर्तितानि मया तव // 22 / गोकर्णमिति विख्यातं त्रिषु लोकेषु भारत // 12 तिसृष्वन्यासु पुण्यानि दिक्षु तीर्थानि मे शृणु। / शीततोयो बहुजलः पुण्यस्तात शिवश्च सः। . म.भा. 65 - 513 -
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________________ 3. 86. 13] महाभारते [3. 87. 15 ह्रदः परमदुष्पापो मानुषैरकृतात्मभिः // 13 प्रियङ्ग्वाम्रवनोपेता वानीरवनमालिनी / तत्रैव तृणसोमाग्नेः संपन्नफलमूलवान् / प्रत्यक्स्रोता नदी पुण्या नर्मदा तत्र भारत // 2 .. आश्रमोऽगस्त्यशिष्यस्य पुण्यो देवसभे गिरौ // 14 निकेतः ख्यायते पुण्यो यत्र विश्रवसो मुनेः। वैडूर्यपर्वतस्तत्र श्रीमान्मणिमयः शिवः / / जज्ञे धनपतिर्यत्र कुबेरो नरवाहनः // 3 अगस्त्यस्याश्रमश्चैव बहुमूलफलोदकः // 15 वैडूर्यशिखरो नाम पुण्यो गिरिवरः शुभः। सुराष्ट्रष्वपि वक्ष्यामि पुण्यान्यायतनानि च। दिव्यपुष्पफलास्तत्र पादपा हरितच्छदाः // 4 आश्रमान्सरितः शैलान्सरांसि च नराधिप॥१६ तस्य शैलस्य शिखरे सरस्तत्र च धीमतः / चमसोन्मज्जनं विप्रास्तत्रापि कथयन्त्युत / प्रफुल्लनलिनं राजन्देवगन्धर्वसेवितम् // 5 प्रभासं चोदधौ तीर्थ त्रिदशानां युधिष्ठिर // 17 बह्वाश्चर्य महाराज दृश्यते तत्र पर्वते / तत्र पिण्डारकं नाम तापसाचरितं शुभम् / पुण्ये स्वर्गोपमे दिव्ये नित्यं देवर्षिसेविते // 6 उज्जयन्तश्च शिखरी क्षिप्रं सिद्धिकरो महान् // 18 ह्रदिनी पुण्यतीर्था च राजर्षेस्तत्र वै सरित् / तत्र देवर्षिवर्येण नारदेनानुकीर्तितः / विश्वामित्रनदी पारा पुण्या परपुरंजय // 7 पुराणः श्रूयते श्लोकस्तं निबोध युधिष्ठिर / / 19 यस्याम्तीरे सतां मध्ये ययातिर्नहुषात्मजः / पुण्ये गिरौ सुराष्ट्रेषु मृगपक्षिनिषेविते। . पपात स पुनर्लोकालेभे धर्मान्सनातनान् // 8 उज्जयन्ते स्म तप्ताङ्गो नाकपृष्ठे महीयते // 20 / तत्र पुण्यहृदस्तात मैनाकश्चैव पर्वतः। पुण्या द्वारवती तत्र यत्रास्ते मधुसूदनः / बहुमूलफलो वीर असितो नाम पर्वतः // 9 साक्षादेवः पुराणोऽसौ स हि धर्मः सनातनः॥२१ / आश्रमः कक्षसेनस्य पुण्यस्तत्र युधिष्ठिर / ये च वेदविदो विप्रा ये चाध्यात्मविदो जनाः / च्यवनस्याश्रमश्चैव ख्यातः सर्वत्र पाण्डव / ते वदन्ति महात्मानं कृष्णं धर्म सनातनम् // 22 तत्राल्पेनैव सिध्यन्ति मानवास्तपसा विभो // 10 पवित्राणां हि गोविन्दः पवित्रं परमुच्यते / / / जम्बूमार्गो महाराज ऋषीणां भावितात्मनाम् / पुण्यानामपि पुण्योऽसौ मङ्गलानां च मङ्गलम्॥२३ / आश्रमः शाम्यतां श्रेष्ठ मृगद्विजगणायुतः॥ 11 त्रैलोक्यं पुण्डरीकाक्षो देवदेवः सनातनः। ततः पुण्यतमा राजन्सततं तापसायुता। . आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा तत्रैव मधुसूदनः // 24 केतुमाला च मेध्या च गङ्गारण्यं च भूमिप / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ख्यातं च सैन्धवारण्यं पुण्यं द्विजनिषेवितम् // 12 षडशीतिमोऽध्यायः॥८६॥ पितामहसरः पुण्यं पुष्करं नाम भारत / वैखानसानां सिद्धानामृषीणामाश्रमः प्रियः // 13 धौम्य उवाच। अप्यत्र संस्तवार्थाय प्रजापतिरथो जगौ। अवन्तिषु प्रतीच्यां वै कीर्तयिष्यामि ते दिशि। पुष्करेषु कुरुश्रेष्ठ गाथां सुकृतिनां वर // 14 यानि तत्र पवित्राणि पुण्यान्यायतनानि च // 1 - मनसाप्यभिकामस्य पुष्कराणि मनस्विनः / -514 - 87
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________________ 3. 87. 15] आरण्यकपर्व [3. 88. 28 पापानि विप्रणश्यन्ति नाकपृष्ठे च मोदते // 15 / पलाशकेषु पुण्येषु रम्येष्वयजतामिभूः॥ 13 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि यत्र सर्वाः सरिच्छ्रेष्ठाः साक्षात्तमृषिसत्तमम्। सप्ताशीतितमोऽध्यायः // 87 // खं स्वं तोयमुपादाय परिवार्योपतस्थिरे // 14 अपि चात्र महाराज स्वयं विश्वावसुर्जगौ / धौम्य उवाच / इमं श्लोकं तदा वीर प्रेक्ष्य वीर्य महात्मनः॥ 15 उदीच्यां राजशार्दूल दिशि पुण्यानि यानि वै।। यजमानस्य वै देवाञ्जमदग्नेर्महात्मनः / तानि ते कीर्तयिष्यामि पुण्यान्यायतनानि च // 1 आगम्य सरितः सर्वा मधुना समतर्पयन् // 16 सरस्वती पुण्यवहा ह्रदिनी वनमालिनी / गन्धर्वयक्षरक्षोभिरप्सरोभिश्च शोभितम् / समुद्रगा महावेगा यमुना यत्र पाण्डव // 2 किरातकिंनरावासं शैलं शिखरिणां वरम् // 17 तत्र पुण्यतमं तीर्थ प्लक्षावतरणं शिवम् / बिभेद तरसा गङ्गा गङ्गाद्वारे युधिष्ठिर / यत्र सारस्वतैरिष्ट्वा गच्छन्त्यवभृथं द्विजाः॥३ पुण्यं तत्ख्यायते राजन्ब्रह्मर्षिगणसेवितम् // 18 पुण्यं चाख्यायते दिव्यं शिवमग्निशिरोऽनघ / सनत्कुमारः कौरव्य पुण्यं कनखलं तथा / सहदेवोऽयजद्यत्र शम्याक्षेपेण भारत // 4 पर्वतश्च पुरुर्नाम यत्र जातः पुरूरवाः // 19 एतस्मिन्नेव चार्थेयमिन्द्रगीता युधिष्ठिर / भृगुर्यत्र तपस्तेपे महर्षिगणसेवितः। गाथा चरति लोकेऽस्मिन्गीयमाना द्विजातिभिः॥५ / स राजन्नाश्रमः ख्यातो भृगुतुङ्गो महागिरिः॥२० अग्नयः सहदेवेन ये चिता यमुनामनु / यच्च भूतं भविष्यच्च भवञ्च पुरुषर्षभ / शतं शतसहस्राणि सहस्रशतदक्षिणाः // 6 नारायणः प्रभुर्विष्णुः शाश्वतः पुरुषोत्तमः / / 21 तत्रैव भरतो राजा चक्रवर्ती महायशाः। तस्यातियशसः पुण्यां विशालां बदरीमनु। विंशतिं सप्त चाष्टौ च हयमेधानुपाहरत् // 7 आश्रमः ख्यायते पुण्यस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः॥ 22 कामकृयो द्विजातीनां श्रुतस्तात मया पुरा। उष्णतोयवहा गङ्गा शीततोयवहापरा / अत्यन्तमाश्रमः पुण्यः सरकस्तस्य विश्रुतः॥८ सुवर्णसिकता राजन्विशालां बदरीमनु // 23 सरस्वती नदी सद्भिः सततं पार्थ पूजिता ऋषयो यत्र देवाश्च महाभागा महौजसः / वालखिल्यैर्महाराज यत्रेष्टमृषिभिः पुरा // 9 प्राप्य नित्यं नमस्यन्ति देवं नारायणं विभुम् // 24 दृषद्वती पुण्यतमा तत्र ख्याता युधिष्ठिर / यत्र नारायणो देवः परमात्मा सनातनः / तत्र वैवर्ण्यवर्णौ च सुपुण्यौ मनुजाधिप // 10 तत्र कृत्स्नं जगत्पार्थ तीर्थान्यायतनानि च // 25 वेदज्ञौ वेदविदितौ विद्यावेदविदावुभौ। तत्पुण्यं तत्परं ब्रह्म तत्तीर्थं तत्तपोवनम् / यजन्तौ ऋतुभिर्नित्यं पुण्यैर्भरतसत्तम // 11 तत्र देवर्षयः सिद्धाः सर्वे चैव तपोधनाः // 26 समेत्य बहुशो देवाः सेन्द्राः सवरुणाः पुरा / आदिदेवो महायोगी यत्रास्ते मधुसूदनः / विशाखयूपेऽतप्यन्त तस्मात्पुण्यतमः स वै // 12. पुण्यानामपि तत्पुण्यं तत्र ते संशयोऽस्तु मा // 27 ऋषिर्महान्महाभागो जमदग्निमहायशाः। / एतानि राजन्पुण्यानि पृथिव्यां पृथिवीपते / - 515 -
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________________ 3. 88. 28 ] महाभारते [ 3. 90.1 कीर्तितानि नरश्रेष्ठ तीर्थान्यायतनानि च // 28 . अमृतादुत्थितं रौद्रं तल्लब्धं सव्यसाचिना / एतानि वसुभिः साध्यैरादित्यैर्मरुदश्विभिः। तत्समन्त्रं ससंहारं सप्रायश्चित्तमङ्गलम् // 11 ऋषिभिर्ब्रह्मकल्पैश्च सेवितानि महात्मभिः // 29 वनं चान्यानि चास्त्राणि दण्डादीनि युधिष्ठिर / चरन्नेतानि कौन्तेय सहितो ब्राह्मणर्षभैः / यमात्कुबेराद्वरुणादिन्द्राच्च कुरुनन्दन। भ्रातृभिश्च महाभागैरुत्कण्ठां विजहिष्यसि // 30 अनाण्यधीतवान्पार्थो दिव्यान्यमितविक्रमः // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि विश्वावसोश्च तनयाद्गीतं नृत्तं च साम च / . अष्टाशीतितमोऽध्यायः॥ 88 // वादित्रं च यथान्यायं प्रत्यविन्दद्यथाविधि // 13 एवं कृतास्त्रः कौन्तेयो गान्धवं वेदमाप्तवान् / - वैशंपायन उवाच / सुखं वसति बीभत्सुरनुजस्यानुजस्तव // 14 एवं संभाषमाणे तु धौम्ये कौरवनन्दन / यदर्थं मां सुरश्रेष्ठ इदं वचनमब्रवीत् / लोमशः सुमहातेजा ऋषिस्तत्राजगाम ह // 1 तञ्च ते कथयिष्यामि युधिष्ठिर निबोध मे // 15 तं पाण्डवाग्रजो राजा सगणो ब्राह्मणाश्च ते / भवान्मनुष्यलोकाय गमिष्यति न संशयः। उदतिष्ठन्महाभागं दिवि शक्रमिवामराः // 2 ब्रूयाधुधिष्ठिरं तत्र वचनान्मे द्विजोत्तम // 16 . तमभ्यर्च्य यथान्यायं धर्मराजो युधिष्ठिरः / आगमिष्यति ते भ्राता कृतास्त्रः क्षिप्रमर्जुनः।। पप्रच्छागमने हेतुमटने च प्रयोजनम् // 3 सुरकार्य महत्कृत्वा यदशक्यं दिवौकसैः // 17 स पृष्टः पाण्डुपुत्रेण प्रीयमाणो महामनाः / तपसा तु त्वमात्मानं भ्रातृभिः सह योजय / उवाच श्लक्ष्णया वाचा हर्षयन्निव पाण्डवान् // 4 तपसो हि परं नास्ति तपसा विन्दते महत् // 18 संचरन्नस्मि कौन्तेय सर्वलोकान्यदृच्छया / अहं च कर्ण जानामि यथावद्भरतर्षभ / गतः शक्रस्य सदनं तत्रापश्यं सुरेश्वरम् // 5 न स पार्थस्य संग्रामे कलामर्हति षोडशीम् // 19 तव च भ्रातरं वीरमपश्यं सव्यसाचिनम् / यच्चापि ते भयं तस्मान्मनसिस्थमरिंदम / शक्रस्यार्धासनगतं तत्र मे विस्मयो महान् / तच्चाप्यपहरिष्यामि सव्यसाचाविहागते // 20 आसीत्पुरुषशार्दूल दृष्ट्वा पार्थं तथागतम् // 6 यच्च ते मानसं वीर तीर्थयात्रामिमां प्रति / आह मां तत्र देवेशो गच्छ पाण्डुसुतानिति / तच्च ते लोमशः सर्वं कथयिष्यत्यसंशयम् // 21 सोऽहमभ्यागतः क्षिप्रं दिदृक्षुस्त्वां सहानुजम् // 7 | यच्च किंचित्तपोयुक्तं फलं तीर्थेषु भारत / वचनात्पुरुहूतस्य पार्थस्य च महात्मनः / महर्षिरेष यद्वयात्तच्छ्रद्धेयमनन्यथा // 22 आख्यास्ये ते प्रियं तात महत्पाण्डवनन्दन // 8 इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि / भ्रातृभिः सहितो राजन्कृष्णया चैव तच्छणु / एकोननवतितमोऽध्यायः // 89 // यत्त्वयोक्तो महाबाहुरस्त्रार्थ पाण्डवर्षभ // 9 तदनमाप्तं पार्थेन रुद्रादप्रतिमं महत् / लोमश उवाच। यत्तद्ब्रह्मशिरो नाम तपसा रुद्रमागतम् // 10 धनंजयेन चाप्युक्तं यत्तच्छृणु युधिष्ठिर / - 516 -
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________________ 3. 90. 1] आरण्यकपर्व [3. 91.8 युधिष्ठिरं भ्रातरं मे योजयेर्धर्म्यया श्रिया // 1 / यब मां भगवानाह तीर्थानां दर्शनं प्रति / त्वं हि धर्मान्परान्वेत्थ तपांसि च तपोधन। धौम्यस्य वचनादेषा बुद्धिः पूर्व कृतैव मे // 16 श्रीमतां चापि जानासि राज्ञां धर्म सनातनम् // 2 तद्यदा मन्यसे ब्रह्मन्गमनं तीर्थदर्शने / स भवान्यत्परं वेद पावनं पुरुषान्प्रति / तदैव गन्तास्मि दृढमेष मे निश्चयः परः॥ 17 तेन संयोजयेथास्त्वं तीर्थपुण्येन पाण्डवम् // 3 वैशंपायन उवाच।। यथा तीर्थानि गच्छेत गाश्च दद्यात्स पार्थिवः / गमने कृतबुद्धिं तं पाण्डवं लोमशोऽब्रवीत् / तथा सर्वात्मना कार्यमिति मां विजयोऽब्रवीत् // 4 लघुर्भव महाराज लघुः खैरं गमिष्यसि // 18 // भवता चानुगुप्तोऽसौ चरेत्तीर्थानि सर्वशः। युधिष्ठिर उवाच। रक्षोभ्यो रक्षितव्यश्च दुर्गेषु विषमेषु च // 5 भिक्षाभुजो निवर्तन्तां ब्राह्मणा यतयश्च ये। दधीच इव देवेन्द्रं यथा चाप्यङ्गिरा रविम् / ये चाप्यनुगताः पौरा राजभक्तिपुरस्कृताः // 19 तथा रक्षस्व कौन्तेयं राक्षसेभ्यो द्विजोत्तम // 6 धृतराष्ट्र महाराजमभिगच्छन्तु चैव ते। यातुधाना हि बहवो राक्षसाः पर्वतोपमाः। स दास्यति यथाकालमुचिता यस्य या भूतिः॥२० त्वयाभिगुप्तान्कौन्तेयान्नातिवर्तेयुरन्तिकात् // 7 स चेयथोचितां वृत्तिं न दद्यान्मनुजेश्वरः। सोऽहमिन्द्रस्य वचनान्नियोगादर्जुनस्य च / अस्मत्प्रियहितार्थाय पाञ्चाल्यो वः प्रदास्यति॥२१ रक्षमाणो भयेभ्यस्त्वां चरिष्यामि त्वया सह॥८" वैशंपायन उवाच। द्विस्तीर्थानि मया पूर्व दृष्टानि कुरुनन्दन। . ततो भूयिष्ठशः पौरा गुरुभारसमाहिताः। इदं तृतीयं द्रक्ष्यामि तान्येव भवता सह // 9 विप्राश्च यतयो युक्ता जग्मुर्नागपुरं प्रति // 22 इयं राजर्षिभिर्याता पुण्यकृद्भिर्युधिष्ठिर / तान्सर्वान्धर्मराजस्य प्रेम्णा राजाम्बिकासुतः। ' मन्वादिभिर्महाराज तीर्थयात्रा भयापहा // 10 प्रतिजग्राह विधिवद्धनैश्च समतर्पयत् // 23 .नानृजुर्नाकृतात्मा च नावैद्यो न च पापकृत् / ततः कुन्तीसुतो राजा लघुभिर्ब्राह्मणैः सह। नाति तीर्थेषु कौरव्य न च वक्रमतिर्नरः // 11 लोमशेन च सुप्रीतस्त्रिरात्रं काम्यकेऽवसत् // 24 त्वं तु धर्ममतिर्नित्यं धर्मज्ञः सत्यसंगरः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि विमुक्तः सर्वपापेभ्यो भूय एव भविष्यसि // 12 नवतितमोऽध्यायः // 9 // . यथा भगीरथो राजा राजानश्च गयादयः। यथा ययातिः कौन्तेय तथा त्वमपि पाण्डव // 13 वैशंपायन उवाच / - युधिष्ठिर उवाच / ततः प्रयान्तं कौन्तेयं ब्राह्मणा वनवासिनः। न हर्षात्संप्रपश्यामि वाक्यस्यास्योत्तरं कचित् / / अभिगम्य तदा राजन्निदं वचनमब्रुवन् // 1 ... स्मरेद्धि देवराजो यं किं नामाभ्यधिकं ततः॥१४ / राजस्तीर्थानि गन्तासि पुण्यानि भ्रातृभिः सह / भवता संगमो यस्य भ्राता यस्य धनंजयः। देवर्षिणा च सहितो लोमशेन महात्मना // 2 पासवः स्मरते यस्य को नामाभ्यधिकस्ततः // 15 / अस्मानपि महाराज नेतुमर्हसि पाण्डव / -517 .1
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________________ 3. 91.3] महाभारते [3. 92.1 अस्माभिहि न शक्यामि त्वद्वते तानि कौरव // 3 / अथ व्यासो महाभागस्तथा नारदपर्वतौ / श्वापदैरुपसृष्टानि दुर्गाणि विषमाणि च / काम्यके पाण्डवं द्रष्टुं समाजग्मुर्मनीषिणः // 17 अगम्यानि नरैरल्पैस्तीर्थानि मनुजेश्वर // 4 तेषां युधिष्ठिरो राजा पूजां चक्रे यथाविधि / भवन्तो भ्रातरः शूरा धनुर्धरवराः सदा। सत्कृतास्ते महाभागा युधिष्ठिरमथाब्रुवन् // 18 भवद्भिः पालिताः शूरैर्गच्छेम वयमप्युत // 5 युधिष्ठिर यमौ भीम मनसा कुरुतार्जवम् / भवत्प्रसादाद्धि वयं प्राप्नयाम फलं शुभम् / / मनसा कृतशौचा वै शुद्धास्तीर्थानि गच्छत // 19 तीर्थानां पृथिवीपाल व्रतानां च विशां पते // 6 शरीरनियमं ह्याहुाह्मणा मानुषं व्रतम् / तव वीर्यपरित्राताः शुद्धास्तीर्थपरिप्लुताः। मनोविशुद्धां बुद्धिं च दैवमाहुव्रतं द्विजाः // 20 भवेम धूतपाप्मानस्तीर्थसंदर्शनानृप // 7 मनो ह्यदुष्टं शूराणां पर्याप्तं वै नराधिप / भवानपि नरेन्द्रस्य कार्तवीर्यस्य भारत। मैत्री बुद्धिं समास्थाय शुद्धास्तीर्थानि गच्छत // 21 अष्टकस्य च राजर्षेर्लोमपादस्य चैव ह // 8 ते यूयं मानसैः शुद्धाः शरीरनियमव्रतैः। भारतस्य च वीरस्य सार्वभौमस्य पार्थिव / दैवं व्रतं समास्थाय यथोक्तं फलमाप्स्यथ // 22 ध्रुवं प्राप्स्यसि दुष्प्रापाल्लोकांस्तीर्थपरिप्लुतः // 9 / ते तथेति प्रतिज्ञाय कृष्णया सह पाण्डवाः। प्रभासादीनि तीर्थानि महेन्द्रादींश्च पर्वतान् / कृतस्वस्त्ययनाः सर्वे मुनिभिर्दिव्यमानुषैः // 23 गङ्गाद्याः सरितश्चैव प्लक्षादींश्च वनस्पतीन् / लोमशस्योपसंगृह्य पादौ द्वैपायनस्य च / त्वया सह महीपाल द्रष्टुमिच्छामहे वयम् // 10 नारदस्य च राजेन्द्र देवर्षेः पर्वतस्य च // 24 यदि ते ब्राह्मणेष्वस्ति काचित्प्रीतिर्जनाधिप / धौम्येन सहिता वीरास्तथान्यैर्वनवासिभिः / कुरु क्षिप्रं वचोऽस्माकं ततः श्रेयोऽभिपत्स्यसे॥११ / मार्गशीर्ष्यामतीतायां पुष्येण प्रययुस्ततः // 25 तीर्थानि हि महाबाहो तपोविघ्नकरैः सदा / कठिनानि समादाय चीराजिनजटाधराः / अनुकीर्णानि रक्षोभिस्तेभ्यो नत्रातुमर्हसि // 12 अभेद्यैः कवचैर्युक्तास्तीर्थान्यन्वचरंस्तदा // 26 तीर्थान्युक्तानि धौम्येन नारदेन च धीमता। इन्द्रसेनादिभिर्भूत्यै रथैः परिचतुर्दशैः / यान्युवाच च देवर्षिर्लोमशः सुमहातपाः // 13 महानसव्यापृतैश्च तथान्यैः परिचारकैः // 27 विधिवत्तानि सर्वाणि पर्यटस्व नराधिप / सायुधा बद्धनिस्त्रिंशास्तूणवन्तः समार्गणाः / धूतपाप्मा सहास्माभिर्लोमशेन च पालितः // 14 | प्राङ्मुखाः प्रययुर्वीराः पाण्डवा जनमेजय // 28 स तथा पूज्यमानस्तैर्हर्षादश्रुपरिप्लुतः। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि . भीमसेनादिभिर्वीरैतृभिः परिवारितः। एकनवतितमोऽध्यायः // 91 // बाढमित्यब्रवीत्सर्वांस्तानृषीपाण्डवर्षभः // 15 लोमशं समनुज्ञाप्य धौम्यं चैव पुरोहितम् / युधिष्ठिर उवाच / ततः स पाण्डवश्रेष्ठो भ्रातृभिः सहितो वशी। | न वै निर्गुणमात्मानं मन्ये देवर्षिसत्तम / द्रौपद्या चानवद्याङ्गथा गमनाय मनो दधे // 16 / तथास्मि दुःखसंतप्तो यथा नान्यो महीपतिः // 1 -518 -
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________________ 3. 92.2] आरण्यकपर्व [3.93.8 परांश्च निर्गुणान्मन्ये न च धर्मरतानपि / तथा त्वमपि राजेन्द्र स्नात्वा तीर्थेषु सानुजः।। ते च लोमश लोकेऽस्मिन्नध्यन्ते केन हेतुना / / 2 पुनर्वेत्स्यसि तां लक्ष्मीमेष पन्थाः सनातनः // 16 लोमश उवाच। यथैव हि नृगो राजा शिबिरौशीनरो यथा / नात्र दुःखं त्वया राजन्कार्य पार्थ कथंचन / भगीरथो वसुमना गयः पूरुः पुरूरवाः // 17 . यदधर्मेण वधैरन्नधर्मरुचयो जनाः // 3 चरमाणास्तपो नित्यं स्पर्शनादम्भसश्च ते। वर्धत्यधर्मेण नरस्ततो भद्राणि पश्यति / तीर्थाभिगमनात्पूता दर्शनाच्च महात्मनाम् // 18 ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति // 4 अलभन्त यशः पुण्यं धनानि च विशां पते।। मया हि दृष्टा दैतेया दानवाश्च महीपते। तथा त्वमपि राजेन्द्र लब्धासि विपुलां श्रियम् // 19 वर्धमाना ह्यधर्मेण क्षयं चोपगताः पुनः॥ 5 यथा चेक्ष्वाकुरचरत्सपुत्रजनबान्धवः। पुरा देवयुगे चैव दृष्टं सर्व मया विभो / मुचुकुन्दोऽथ मान्धाता मरुत्तश्च महीपतिः // 20 अरोचयन्सुरा धर्म धर्म तत्यजिरेऽसुराः // 6 कीर्तिं पुण्यामविन्दन्त यथा देवास्तपोबलात् / . तीर्थानि देवा विविशु विशन्भारतासुराः। देवर्षयश्च कात्स्न्येन तथा त्वमपि वेत्स्यसे // 21 तानधर्मकृतो दर्पः पूर्वमेव समाविशत् // 7 धार्तराष्ट्रास्तु दर्पण मोहेन च वशीकृताः / दन्मिानः समभवन्मानाक्रोधो व्यजायत / नचिराद्विनशिष्यन्ति दैत्या इव न संशयः // 22 क्रोधादह्रीस्ततोऽलज्जा वृत्तं तेषां ततोऽनशत् // 8 | इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तानलज्जान्गतहीकान्हीनवृत्तान्वृथाव्रतान् / द्विनवतितमोऽध्यायः॥१२॥ क्षमा लक्ष्मीश्च धर्मश्च नचिरात्प्रजहुस्ततः / लक्ष्मीस्तु देवानगमदलक्ष्मीरसुरानृप // 9 वैशंपायन उवाच / तानलक्ष्मीसमाविष्टान्दर्पोपहतचेतसः / ते तथा सहिता वीरा वसन्तस्तत्र तत्र ह / दैतेयान्दानवांश्चैव कलिरप्याविशत्ततः // 10 . क्रमेण पृथिवीपाल नैमिषारण्यमागताः // 1 तानलक्ष्मीसमाविष्टान्दानवान्कलिना तथा / ततस्तीर्थेषु पुण्येषु गोमत्याः पाण्डवा नृप / दामिभूतान्कौन्तेय क्रियाहीनानचेतसः // 11 कृताभिषेकाः प्रददुर्गाश्च वित्तं च भारत // 2 मानाभिभूतानचिराद्विनाशः प्रत्यपद्यत / तत्र देवान्पितृन्विप्रांस्तर्पयित्वा पुनः पुनः / निर्यशस्यास्ततो दैत्याः कृत्स्नशो विलयं गताः॥१२ कन्यातीर्थेऽश्वतीर्थे च गवां तीर्थे च कौरवाः // 3 देवास्तु सागरांश्चैव सरितश्च सरांसि च / वालकोट्यां वृषप्रस्थे गिरावुष्य च पाण्डवाः / अभ्यगच्छन्धर्मशीलाः पुण्यान्यायतनानि च // 13 बाहुदायां महीपाल चक्रुः सर्वेऽभिषेचनम् // 4 तपोभिः क्रतुभिर्दानैराशीर्वादैश्च पाण्डव / प्रयागे देवयजने देवानां पृथिवीपते / प्रजहुः सर्वपापानि श्रेयश्च प्रतिपेदिरे // 14 / / ऊषुराप्लुत्य गात्राणि तपश्चातस्थुरुत्तमम् // 5 एवं हि दानवन्तश्च क्रियावन्तश्च सर्वशः / गङ्गायमुनयोश्चैव संगमे सत्यसंगराः। तीर्थान्यगच्छन्विबुधास्तेनापुभूतिमुत्तमाम् / / 15 / / विपाप्मानो महात्मानो विप्रेभ्यः प्रददुर्वसु // 6.. -b19 -
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________________ $. 93.7] महाभारते [ 3. 94.7 तपस्विजनजुष्टां च ततो वेदी प्रजापतेः / पुण्येन चरता राजन्भूर्दिशः खं नभस्तथा / जग्मुः पाण्डुसुता राजन्ब्राह्मणैः सह भारत // 7 आपूर्णमासीच्छब्देन तदप्यासीन्महाद्भुतम् // 22 तत्र ते न्यवसन्वीरास्तपश्चातस्थुरुत्तमम् / तत्र स्म गाथा गायन्ति मनुष्या भरतर्षभ / संतर्पयन्तः सततं वन्येन हविषा द्विजान् // 8 अन्नपानैः शुभैस्तृप्ता देशे देशे सुवर्चसः // 23 . ततो महीधरं जग्मुर्धर्मज्ञेनाभिसत्कृतम् / गयस्य यज्ञे के त्वद्य प्राणिनो भोक्तुमीप्सवः / राजर्षिणा पुण्यकृता गयेनानुपमद्युते // 9 यत्र भोजनशिष्टस्य पर्वताः पञ्चविंशतिः // 24 सरो गयशिरो यत्र पुण्या चैव महानदी। न स्म पूर्वे जनाश्चक्रुर्न करिष्यन्ति चापरे / ऋषिजुष्टं सुपुण्यं तत्तीर्थं ब्रह्मसरोत्तमम् // 10 गयो यदकरोद्यज्ञे राजर्षिरमितद्युतिः // 25 / अगस्त्यो भगवान्यत्र गतो वैवस्वतं प्रति। .. कथं नु देवा हविषा गयेन परितर्पिताः / उवास च स्वयं यत्र धर्मो राजन्सनातनः // 11 पुनः शक्ष्यन्त्युपादातुमन्यैर्दत्तानि कानिचित् // 26 सर्वासां सरितां चैव समुद्भेदो विशां पते। / एवंविधाः सुबहवस्तस्य यज्ञे महात्मनः / यत्र संनिहितो नित्यं महादेवः पिनाकधृक् // 12 बभूवुरस्य सरसः समीपे कुरुनन्दन // 27 तत्र ते पाण्डवा वीराश्चातुर्मास्यैस्तदेजिरे। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ऋषियज्ञेन महता यत्राक्षयवटो महान् // 13 विनवतितमोऽध्यायः // 13 // ब्राह्मणास्तत्र शतशः समाजग्मुस्तपोधनाः / चातुर्मास्येनायजन्त आर्षेण विधिना तदा // 14 वैशंपायन उवाच / तत्र विद्यातपोनित्या ब्राह्मणा वेदपारगाः / ततः संप्रस्थितो राजा कौन्तेयो भूरिदक्षिणः / कथाः प्रचक्रिरे पुण्याः सदसिस्था महात्मनाम्॥१५ अगस्त्याश्रममासाद्य दुर्जयायामुवास ह // 1 तत्र विद्याव्रतस्नातः कौमारं व्रतमास्थितः / तत्र वै लोमशं राजा पप्रच्छ वदतां वरः / शमठोऽकथयद्राजन्नामूर्तरयसं गयम् // 16 अगस्त्येनेह वातापिः किमर्थमुपशामितः // 2 अमूर्तरयसः पुत्रो गयो राजर्षिसत्तमः / आसीद्वा किंप्रभावश्च स दैत्यो मानवान्तकः / पुण्यानि यस्य कर्माणि तानि मे शृणु भारत // 17 किमर्थं चोद्गतो मन्युरगस्त्यस्य महात्मनः // 3 यस्य यज्ञो बभूवेह बन्नो बहुदक्षिणः / लोमश उवाच। यत्रानपर्वता राजशतशोऽथ सहस्रशः // 18 इल्वलो नाम दैतेय आसीत्कौरवनन्दन / घृतकुल्याश्च दध्रश्च नद्यो बहुशतास्तथा। मणिमत्यां पुरि पुरा वातापिस्तस्य चानुजः // 4 व्यञ्जनानां प्रवाहाश्च महार्हाणां सहस्रशः // 19 स ब्राह्मणं तपोयुक्तमुवाच दितिनन्दनः। अहन्यहनि चाप्येतद्याचतां संप्रदीयते / पुत्रं मे भगवानेकमिन्द्रतुल्यं प्रयच्छतु // 5 . अन्यत्तु ब्राह्मणा राजन्भुञ्जतेऽन्नं सुसंस्कृतम् // 20 / तस्मै स ब्राह्मणो नादात्पुत्रं वासवसंमितम् / तत्र वै दक्षिणाकाले ब्रह्मघोषो दिवं गतः। चुक्रोध सोऽसुरस्तस्य ब्राह्मणस्य ततो भृशम् // 6 न स्म प्रज्ञायते किंचिद्ब्रह्मशब्देन भारत // 21 / समाह्वयति यं वाचा गतं वैवस्वतक्षयम् / .. -520 -
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________________ 8. 94.7] औरण्यकपर्व [ 3. 95.8 स पुनर्देहमास्थाय जीवन्स्म प्रतिदृश्यते // 7 / अप्स्विवोत्पलिनी शीघ्रममेरिव शिखा शुभा॥२२ ततो वातापिमसुरं छागं कृत्वा सुसंस्कृतम् / तां यौवनस्थां राजेन्द्र शतं कन्याः स्वलंकृताः / तं ब्राह्मणं भोजयित्वा पुनरेव समाह्वयत् // 8. दासीशतं च कल्याणीमुपतस्थुवंशानुगाः // 23 तस्य पार्श्व विनिर्भिद्य ब्राह्मणस्य महासुरः। सा स्म दासीशतवृता मध्ये कन्याशतस्य च / वातापिः प्रहसनराजन्निश्चक्राम विशां पते // 9 आस्ते तेजस्विनी कन्या रोहिणीव दिवि प्रभो॥२४ एवं स ब्राह्मणानराजन्भोजयित्वा पुनः पुनः / यौवनस्थामपि च तां शीलाचारसमन्विताम् / हिंसयामास दैतेय इल्वलो दुष्टचेतनः // 10 न वव्रे पुरुषः कश्चिद्भयात्तस्य महात्मनः // 25 अगस्त्यश्चापि भगवानेतस्मिन्काल एव तु / सा तु सत्यवती कन्या रूपेणाप्सरसोऽप्यति / / पितृन्ददर्श गर्ने वै लम्बमानानधोमुखान् // 11 तोषयामास पितरं शीलेन स्वजनं तथा // 26 .. सोऽपृच्छल्लम्बमानांस्तान्भवन्त इह किंपराः / वैदर्भी तु तथायुक्तां युवतीं प्रेक्ष्य वै पिता। संतानहेतोरिति ते तमूचुर्ब्रह्मवादिनः // 12 मनसा चिन्तयामास कस्मै दद्यां सुतामिति // 27 ते तस्मै कथयामासुर्वयं ते पितरः स्वकाः / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि गर्तमेतमनुप्राप्ता लम्बामः प्रसवार्थिनः // 13 चतुर्नवतितमोऽध्यायः॥ 9 // यदि नो जनयेथास्त्वमगस्त्यापत्यमुत्तमम् / स्यान्नोऽस्मान्निरयान्मोक्षस्त्वं च पुत्राप्नुया गतिम् // लोमश उवाच। . स तानुवाच तेजस्वी सत्यधर्मपरायणः। यदा त्वमन्यतागस्त्यो गार्हस्थ्ये तां क्षमामिति / . करिष्ये पितरः कामं व्येतु वो मानसो ज्वरः॥१५ तदामिंगम्य प्रोवाच वैदर्भ पृथिवीपतिम् // 1 ततः प्रसवसंतानं चिन्तयन्भगवानृषिः / राजनिवेशे बुद्धिर्मे वर्तते पुत्रकारणात् / ..... आत्मनः प्रसवस्यार्थे नापश्यत्सदृशीं स्त्रियम् // 16 वरये त्वां महीपाल लोपामुद्रां प्रयच्छ मे // 2 . स तस्य तस्य सत्त्वस्य तत्तदङ्गमनुत्तमम् / / एवमुक्तः स मुनिना महीपालो विचेतनः। ' संभृत्य तत्समैरङ्गैर्निर्ममे स्त्रियमुत्तमाम् // 17 प्रत्याख्यानाय चाशक्तः प्रदातुमपि नैच्छत // 3 . स तां विदर्भराजाय पुत्रकामाय ताम्यते / ततः स भार्यामभ्येत्य प्रोवाच पृथिवीपतिः / निर्मितामात्मनोऽर्थाय मुनिः प्रादान्महातपाः // 18 महर्षिर्वीर्यवानेष क्रुद्धः शापाग्निना दहेत् // 4 . सा तत्र जज्ञे सुभगा विद्युत्सौदामिनी यथा / तं तथा दुःखितं दृष्ट्वा सभायं पृथिवीपतिम् / . विभ्राजमाना वपुषा व्यवर्धत शुभानना // 19 लोपामुद्राभिगम्येदं काले वचनमब्रवीत् // 5 जातमात्रां च तां दृष्ट्वा वैदर्भः पृथिवीपतिः / न मत्कृते महीपाल पीडामभ्येतुमर्हसि।. .. प्रहर्षेण द्विजातिभ्यो न्यवेदयत भारत // 20 प्रयच्छ मामगस्त्याय बाह्यात्मानं मया पितः॥६ अभ्यनन्दन्त तां सर्वे ब्राह्मणा वसुधाधिप। / / दुहितुर्वचनाद्राजा सोऽगस्त्याय महात्मने। लोपामुद्रेति तस्याश्च चक्रिरे नाम ते द्विजाः // 21 लोपामुद्रां ततः प्रादाद्विधिपूर्वं विशां पते // 7 .. ववृधे सा महाराज बिभ्रती रूपमुत्तमम् / ... प्राप्य भार्यामगस्त्यस्तु लोपामुद्रामभाषत / ..... [म.भा. 66
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________________ 3. 95.8] महाभारते [3. 96.8 महार्हाण्युत्सृजैतानि वासांस्याभरणानि च // 8 लोपामुद्रोवाच / ततः सा दर्शनीयानि महार्हाणि तनूनि च / अल्पावशिष्टः कालोऽयमृतौ मम तपोधन / समुत्ससर्ज रम्भोसर्वसनान्यायतेक्षणा // 9 न चान्यथाहमिच्छामि त्वामुपैतुं कथंचन // 22 ततश्वीराणि जग्राह वल्कलान्यजिनानि च / न चापि धर्ममिच्छामि विलोप्तुं ते तपोधन / समानव्रतचर्या च बभूवायतलोचना // 10 एतत्तु मे यथाकामं संपादयितुमर्हसि // 23 गङ्गाद्वारमथागम्य भगवानृषिसत्तमः / अगस्त्य उवाच / उप्रमातिष्ठत तपः सह पल्यानुकूलया // 11 यद्येष कामः सुभगे तव बुद्ध्या विनिश्चितः / सा प्रीत्या बहुमानाच्च पतिं पर्यचरत्तदा। हन्त गच्छाम्यहं भद्रे चर काममिह स्थिता // 24 अगस्त्यश्च परां प्रीति भार्यायामकरोत्प्रभुः // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततो बहुतिथे काले लोपामुद्रां विशां पते। पञ्चनवतितमोऽध्यायः // 95 // . तपसा द्योतितां स्नातां ददर्श भगवानृषिः॥ 13 स तस्याः परिचारेण शौचेन च दमेन च / लोमश उवाच / .. . श्रिया रूपेण च प्रीतो मैथुनायाजुहाव ताम् // 14 ततो जगाम कौरव्य सोऽगस्त्यो भिक्षितुं वसु। ततः सा प्राञ्जलिर्भूत्वा लजमानेव भामिनी / श्रुतर्वाणं महीपालं यं वेदाभ्यधिकं नृपैः // 1 . तदा सप्रणयं वाक्यं भगवन्तमथाब्रवीत् // 15 स विदित्वा तु नृपतिः कुम्भयोनिमुपागमत् / . असंशयं प्रजाहेतोर्भायां पतिरविन्दत / विषयान्ते सहामात्यः प्रत्यगृहात्सुसत्कृतम् // 2 या तु त्वयि मम प्रीतिस्तामृषे कर्तुमर्हसि // 16 तस्मै चाध्यं यथान्यायमानीय पृथिवीपतिः / यथा पितुर्गृहे विप्र प्रासादे शयनं मम / प्राञ्जलिः प्रयतो भूत्वा पप्रच्छागमनेऽर्थिताम् // 3 तथाविधे त्वं शयने मामुपैतुमिहार्हसि // 17 __ अगस्त्य उवाच / इच्छामि त्वां स्रग्विणं च भूषणैश्च विभूषितम् / वित्तार्थिनमनुप्राप्तं विद्धि मां पृथिवीपते / उपसतुं यथाकामं दिव्याभरणभूषिता // 18 यथाशक्त्यविहिंस्यान्यान्संविभागं प्रयच्छ मे // 4 अगस्त्य उवाच। लोमश उवाच / न वै धनानि विद्यन्ते लोपामुद्रे तथा मम। तत आयव्ययौ पूर्णौ तस्मै राजा न्यवेदयत् / .. यथाविधानि कल्याणि पितुस्तव सुमध्यमे // 19 अतो विद्वन्नुपादत्स्व यदत्र वसु मन्यसे // 5 - लोपामुद्रोवाच / तत आयव्ययौ दृष्ट्वा समौ सममतिर्द्विजः। ईशोऽसि तपसा सर्व समाहर्तुमिहेश्वर। - सर्वथा प्राणिनां पीडामुपादानादमन्यत // 6 .. क्षणेन जीवलोके यद्वसु किंचन विद्यते // 20 स श्रुतर्वाणमादाय वध्यश्वमगमत्ततः। अगस्त्य उवाच / स च तौ विषयस्यान्ते प्रत्यगृहाद्यथाविधि // 7 एवमेतद्यथात्थ त्वं तपोव्ययकरं तु मे। तयोरयं च पाद्यं च वध्यश्वः प्रत्यवेदयत् / यथा तु मे न नश्येत तपस्तन्मां प्रचोदय // 21 / अनुज्ञाप्य च पप्रच्छ प्रयोजनमुपक्रमे // 8 . -522 -
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________________ 3.96.9] आरण्यकपर्व [ 3. 97. 18 अगस्त्य उवाच / वित्तकामाविह प्राप्तौ विद्ध्यावां पृथिवीपते / लोमश उवाच। यथाशक्त्यविहिंस्यान्यान्संविभागं प्रयच्छे नौ // 9 / इल्वलस्तान्विदित्वा तु महर्षिसहितान्नृपान्। लोमश उवाच / उपस्थितान्सहामात्यो विषयान्तेऽभ्यपूजयत् // 1 तत आयव्ययौ पूर्णौ ताभ्यां राजा न्यवेदयत्।। तेषां ततोऽसुरश्रेष्ठ आतिथ्यमकरोत्तदा। ततो ज्ञात्वा समादत्तां यदत्र व्यतिरिच्यते // 10 स संस्कृतेन कौरव्य भ्रात्रा वातापिना किल // 2 तत आयव्ययौ दृष्ट्वा समौ सममतिर्द्विजः। ततो राजर्षयः सर्वे विषण्णा गतचेतसः / सर्वथा प्राणिनां पीडामुपादानादमन्यत // 11 / / वातापिं संस्कृतं दृष्ट्वा मेषभूतं महासुरम् // 3 . पौरुकुत्सं ततो जग्मुत्रसदस्युं महाधनम् / अथाब्रवीदगस्त्यस्ताराजर्षीनृषिसत्तमः / अगस्त्यश्च श्रुतर्वा च वध्यश्वश्च महीपतिः // 12 विषादो वो न कर्तव्यो अहं भोक्ष्ये महासुरम् // 4 त्रसदस्युश्च तान्सर्वान्प्रत्यगृह्णाद्यथाविधि / धुर्यासनमथासाद्य निषसाद महामुनिः / अभिगम्य महाराज विषयान्ते सवाहनः // 13 तं पर्यवेषदत्येन्द्र इल्वलः प्रहसन्निव // 5 अर्चयित्वा यथान्यायमिक्ष्वाकू राजसत्तमः / अगस्त्य एव कृत्स्नं तु वातापिं बुभुजे ततः / समाश्वस्तांस्ततोऽपृच्छत्प्रयोजनमुपक्रमे // 14 भुक्तवत्यसुरोऽऽह्वानमकरोत्तस्य इल्वलः // 6 अगस्त्य उवाच / तयो वायुः प्रादुरभूदगस्त्यस्य महात्मनः / वित्तकामानिह प्राप्तान्विद्धि नः पृथिवीपते / इल्वलश्च विषण्णोऽभूदृष्ट्वा जीणं महासुरम् // 7 यथाशक्त्यविहिंस्यान्यान्संविभागं प्रयच्छ नः॥१५ प्राञ्जलिश्च सहामात्यैरिदं वचनमब्रवीत् / लोमश उवाच / किमर्थमुपयाताः स्थ ब्रूत किं करवाणि वः // 8 तत आयव्ययौ पूर्णौ तेषां राजा न्यवेदयत् / प्रत्युवाच ततोऽगस्त्यः प्रहसन्निल्वलं तदा। अतो ज्ञात्वा समादवं यदत्र व्यतिरिच्यते // 16 ईशं ह्यसुर विद्मस्त्वां वयं सर्वे धनेश्वरम् // 9 तत आयव्ययौ दृष्ट्वा समौ सममतिर्द्विजः। इमे च नातिधनिनो धनार्थश्च महान्मम। . सर्वथा प्राणिनां पीडामुपादानादमन्यत // 17 यथाशक्त्यविहिंस्यान्यान्संविभागं प्रयच्छ नः॥१० ततः सर्वे समेत्याथ ते नृपास्तं महामुनिम् / ततोऽभिवाद्य तमृषिमिल्वलो वाक्यमब्रवीत् / इदमूचुर्महाराज समवेक्ष्य परस्परम् // 18 दित्सितं यदि वेत्सि त्वं ततो दास्यामि ते वसु॥११ अयं वै दानवो ब्रह्मन्निल्वलो वसुमान्भुवि / व अगस्त्य उवाच / तमभिक्रम्य सर्वेऽद्य वयं याचामहे वसु // 19 गवां दश सहस्राणि राज्ञामेकैकशोऽसुर / तेषां तदासीद्रुचितमिल्वलस्योपभिक्षणम् / तावदेव सुवर्णस्य दित्सितं ते महासुर // 12 ततस्ते सहिता राजन्निल्वलं समुपाद्रवन् // 20 / मह्यं ततो वै द्विगुणं रथश्चैव हिरण्मयः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि . मनोजवौ वाजिनौ च दित्सितं ते महासुर / षण्णवतितमोऽध्यायः॥१६॥ जिज्ञास्यता रथः सद्यो व्यक्तमेष हिरण्मयः // 13 -523
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________________ 3. 97. 14 ] महाभारते [8. 98.9 लोमश उवाच / तथायुक्तं च तं दृष्ट्वा मुमुदे स मुनिस्तदा / जिज्ञास्यमानः स रथः कौन्तेयासीद्धिरण्मयः। लेभिरे पितरश्चास्य लोकान्राजन्यथेप्सितान् // 25 ततः प्रव्यथितो दैत्यो ददावभ्यधिकं वसु // 14 अगस्त्यस्याश्रमः ख्यातः सर्वतुकुसुमान्वितः / विवाजश्च सुवाजश्च तस्मिन्युक्तौ रथे हयौ। प्राहादिरेवं वातापिरगस्त्येन विनाशितः // 26 ऊहतुस्तौ वसून्याशु तान्यगस्त्याश्रमं प्रति / तस्यायमाश्रमो राजन्रमणीयो गुणैर्युतः। सर्वान्राज्ञः सहागस्त्यान्निमेषादिव भारत // 15 / एषा भागीरथी पुण्या यथेष्टमवगाह्यताम् // 27 अगस्त्येनाभ्यनुज्ञाता जग्मू राजर्षयस्तदा / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि कृतवांश्च मुनिः सर्वं लोपामुद्राचिकीर्षितम् // 16 ___ सप्तनवतितमोऽध्यायः॥ 97 // लोपामुद्रोवाच / कृतवानसि तत्सर्वं भगवन्मम कासितम्। युधिष्ठिर उवाच। उत्पादय सकृन्मह्यमपत्यं वीर्यवत्तरम् // 17 भूय एवाहमिच्छामि महर्षेस्तस्य धीमतः / __अगस्त्य उवाच / कर्मणां विस्तरं श्रोतुमगस्त्यस्य द्विजोत्तम // 1 तुष्टोऽहमस्मि कल्याणि तव वृत्तेन शोभने / लोमश उवाच / विचारणामपत्ये तु तव वक्ष्यामि तां शृणु // 18 शृणु राजन्कथां दिव्यामद्भुतामतिमानुषीम् / सहस्रं तेऽस्तु पुत्राणां शतं वा दशसंमितम् / अगस्त्यस्य महाराज प्रभावममितात्मनः // 2 दश वा शततुल्याः स्युरेको वापि सहस्रवत् // 19 आसन्कृतयुगे घोरा दानवा युद्धदुर्मदाः। लोपामुद्रोवाच / कालेया इति विख्याता गणाः परमदारुणाः॥ 3 सहस्रसंमितः पुत्र एको मेऽस्तु तपोधन / ते तु वृत्रं समाश्रित्य नानाप्रहरणोद्यताः। एको हि बहुभिः श्रेयान्विद्वान्साधुरसाधुभिः // 20 समन्तात्पर्यधावन्त महेन्द्रप्रमुखान्सुरान् // 4 लोमश उवाच। वतो वृत्रवधे यत्नमकुर्वस्त्रिदशाः पुरा। स तथेति प्रतिज्ञाय तया समभवन्मुनिः। पुरंदरं पुरस्कृत्य ब्रह्माणमुपतस्थिरे // 5 समये समशीलिन्या श्रद्धावाञ्श्रद्दधानया // 21 कृताञ्जलींस्तु तान्सर्वान्परमेष्ठी उवाच ह। तत आधाय गर्भ तमगमद्वनमेव सः। विदितं मे सुराः सर्वं यद्वः कार्य चिकीर्षितम् // 6 तस्मिन्वनगते गर्भो ववृधे सप्त शारदान् // 22 तमुपायं प्रवक्ष्यामि यथा वृत्रं वधिष्यथ / सप्तमेऽब्दे गते चापि प्राच्यवत्स महाकविः / दधीच इति विख्यातो महाऋषिरुदारधीः // 7 ज्वलन्निव प्रभावेन दृढस्युर्नाम भारत / तं गत्वा सहिताः सर्वे वरं वै संप्रयाचत / साङ्गोपनिषदान्वेदाञ्जपन्नेव महायशाः // 23 स वो दास्यति धर्मात्मा सुप्रीतेनान्तरात्मना // 8 तस्य पुत्रोऽभवदृषेः स तेजस्वी महानृषिः / | स वाच्यः सहितैः सर्वैर्भवद्भिर्जयकातिभिः / स बाल एव तेजस्वी पितुस्तस्य निवेशने / खान्यस्थीनि प्रयच्छेति त्रैलोक्यस्य हिताय वै / इध्मानां भारमाजढे इध्मवाहस्ततोऽभवत् // 24 / स शरीरं समुत्सृज्य स्वान्यस्थीनि प्रदास्यति // 9 -524 -
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________________ 1. 98. 10] भारम्यकपर्व [8. 99.8 तस्यास्थिभिर्महाघोरं वनं संभ्रियतां दृढम् / स्वष्टारमागम्य तमर्थमूचुः / महच्छत्रुहणं तीक्ष्णं षडअं भीमनिखनम् // 10 त्वष्टा तु तेषां वचनं निशम्य तेन वत्रेण वै वृत्रं वधिष्यति शतक्रतुः / प्रहृष्टरूपः प्रयतः प्रयत्नात् // 22 एतद्वः सर्वमाख्यातं तस्माच्छीघ्रं विधीयताम् // 11 चकार व भृशमुप्ररूपं एवमुक्तास्ततो देवा अनुज्ञाप्य पितामहम् / कृत्वा च शक्रं स उवाच हृष्टः। नारायणं पुरस्कृत्य दधीचस्याश्रमं ययुः // 12 अनेन वनप्रवरेण देव . सरस्वत्याः परे पारे नानाद्रुमलतावृतम् / _भस्मीकुरुष्वाद्य सुरारिमुग्रम् // 23 षट्पदोद्गीतनिनदैर्विघुष्टं सामगैरिव / . ततो हतारिः सगणः सुखं वै पुंस्कोकिलरवोन्मिश्रं जीवंजीवकनादितम् // 13 ___ प्रशाधि कृत्स्नं त्रिदिवं दिविष्ठः / महिषैश्च वराहैश्च समरैश्चमरैरपि / त्वष्ट्रा तथोक्तः स पुरंदरस्तु तत्र तत्रानुचरितं शार्दूलभयवर्जितैः // 14 . वकं प्रहृष्टः प्रयतोऽभ्यगृहात् // 24 करेणुमिरिणैश्च प्रभिन्नकरटामुखैः / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि सरोवगाढैः क्रीडद्भिः समन्तादनुनादितम् // 15 अष्टनवतितमोऽध्यायः // 98 // सिंहव्यात्रैर्महानादानदद्भिरनुनादितम् / / अपरैश्चापि संलीनैर्गुहाकन्दरवासिभिः // 16 लोमश उवाच / तेषु तेष्ववकाशेषु शोभितं सुमनोरमम्। ततः स वनी बलिभिर्दैवतैरभिरक्षितः / त्रिविष्टपसमप्रख्यं दधीचाश्रममागमन् // 17 आससाद ततो वृत्रं स्थितमावृत्य रोदसी // 1 तत्रापश्यन्दधीचं ते दिवाकरसमद्युतिम् / / कालकेयैर्महाकायैः समन्तादभिरक्षितम् / जाज्वल्यमानं वपुषा यथा लक्ष्म्या पितामहम्॥ 18 समुद्यतप्रहरणैः सशृङ्गैरिव पर्वतैः॥२ तस्य पादौ सुरा राजन्नभिवाद्य प्रणम्य च / ततो युद्धं समभवदेवानां सह दानवैः / अयाचन्त वरं सर्वे यथोक्तं परमेष्ठिना // 19 मुहूर्त भरतश्रेष्ठ लोकत्रासकरं महत् // 3 ततो दधीचः परमप्रतीतः उद्यतप्रतिपिष्टानां खङ्गानां वीरबाहुभिः। सुरोत्तमांस्तानिदमभ्युवाच / आसीत्सुतुमुलः शब्दः शरीरेष्वभिपात्यताम् // 4 करोमि यद्वो हितमद्य देवाः शिरोभिः प्रपतद्भिश्च अन्तरिक्षान्महीतलम् / स्वं चापि देहं त्वहमुत्सृजामि // 20 तालैरिव महीपाल वृन्ताद्भष्टैरदृश्यत // 5 स एवमुक्त्वा द्विपदां वरिष्ठः ते हेमकवचा भूत्वा कालेयाः परिघायुधाः / प्राणान्वशी स्वान्सहसोत्ससर्ज। त्रिदशानभ्यवर्तन्त दावदग्धा इवाद्रयः // 6 ततः सुरास्ते जगृहुः परासो तेषां वेगवतां वेगं सहितानां प्रधावताम् / रस्थीनि तस्याथ यथोपदेशम् // 21 न शेकुस्त्रिदशाः सोढुं ते भनाः प्राद्रवन्भयात्॥७. प्रहृष्टरूपाश्च जयाय देवा तान्दृष्ट्वा द्रवतो भीतान्सहस्राक्षः पुरंदरः। -525
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________________ 3. 99. 8] महामारते [ 8. 100. वृत्रे विवर्धमाने च कश्मलं महदाविशत् // 8 झषाकुलं रत्नसमाकुलं च // 17 तं शक्रं कश्मलाविष्टं दृष्ट्वा विष्णुः सनातनः। . तदा स्म मन्त्रं सहिताः प्रचक्रुखतेजो व्यधाच्छके बलमस्य विवर्धयन् // 9 बैलोक्यनाशार्थमभिस्मयन्तः / विष्णुनाप्यायितं शक्रं दृष्ट्वा देवगणास्ततः। तत्र स्म केचिन्मतिनिश्वग्रज्ञाखं स्वं तेजः समादध्युस्तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः॥१० स्तांस्तानुपायाननुवर्णयन्ति // 18 स समाप्यायितः शक्रो विष्णुना दैवतैः सह / तेषां तु तत्र क्रमकालयोगाऋषिभिश्च महाभागैर्बलवान्समपद्यत // 11 दोरा मतिश्चिन्तयतां बभूव। ज्ञात्वा बलस्थं त्रिदशाधिपं तु / ये सन्ति विद्यातपसोपपन्नाननाद वृत्रो महतो निनादान् / - स्तेषां विनाशः प्रथमं तु कार्यः॥ 19 तस्य प्रणादेन धरा दिशश्च लोका हि सर्वे तपसा ध्रियन्ते / खं द्यौर्नगाश्चापि चचाल सर्वम् // 12 ___ तस्मात्त्वरध्वं तपसः क्षयाय / ततो महेन्द्रः परमाभितप्तः ये सन्ति केचिद्धि वसुंधरायां श्रुत्वा रवं घोररूपं महान्तम् / - तपस्विनो धर्मविदश्व तज्ज्ञाः / भये निमग्नस्त्वरितं मुमोच तेषां वधः क्रियतां क्षिप्रमेव वनं महत्तस्य वधाय राजन् // 13 तेषु प्रनष्टेषु जगत्प्रनष्टम् // 20 स शक्रवत्राभिहतः पपात एवं हि सर्वे गतबुद्धिभावा * महासुरः काञ्चनमाल्यधारी। . जगद्विनाशे परमप्रहृष्टाः। यथा महाशैलवरः पुरस्ता दुर्ग समाश्रित्य महोर्मिमन्तं त्स मन्दरो विष्णुकरात्प्रमुक्तः // 14 रत्नाकरं वरुणस्यालयं स्म // 21 तस्मिन्हते दैत्यवरे भयार्तः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि शक्रः प्रदुद्राव सरः प्रवेष्टुम् / .. . नवनवतितमोऽध्यायः॥ 99 // वजं न मेने स्वकरात्प्रमुक्तं वृत्रं हतं चापि भयान्न मेने // 15 - लोमश उवाच। सर्वे च देवा मुदिताः प्रहृष्टा समुद्रं ते समाश्रित्य वारुणं निधिमम्भसाम् / महर्षयश्चेन्द्रमभिष्टुवन्तः। कालेयाः संप्रवर्तन्त त्रैलोक्यस्य विनाशने // 1 सर्वांश्च दैत्यांस्त्वरिताः समेत्य / ' ते रात्री समभिक्रुद्धा भक्षयन्ति सदा मुनीन् / जन्नुः सुरा वृत्रवधाभितप्तान् // 16 आश्रमेषु च ये सन्ति पुण्येष्वायतनेषु च // 2 ते वध्यमानास्त्रिदशैस्तदानीं वसिष्ठस्याश्रमे विप्रा भक्षितास्तैर्दुरात्मभिः / " समुद्रमेवाविविशुर्भयार्ताः। अशीतिशतमष्टौ च नव चान्ये तपस्विनः // 3 प्रविश्य चैवोदधिमप्रमेयं च्यवनस्याश्रमं गत्वा पुण्यं द्विजनिषेवितम् / -526 - 100
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________________ 3. 100. 4] मारण्यकपर्व [3. 101.8 फलमूलाशनानां हि मुनीनां भक्षितं शतम् // 4 | त्वं नः स्रष्टा च पाता च भर्ता च जगतः प्रभो। एवं रात्रौ स्म कुर्वन्ति विविशुश्चार्णवं दिवा।। त्वया सृष्टमिदं सर्व यच्चेङ्गं यच्च नेति // 18 भरद्वाजाश्रमे चैव नियता ब्रह्मचारिणः / त्वया भूमिः पुरा नष्टा समुद्रात्पुष्करेक्षण / --- वाय्वाहाराम्बुभक्षाश्च विंशतिः संनिपातिताः 5.. वाराहं रूपमास्थाय जगदर्थे समुद्धृता // 19. एवं क्रमेण सर्वांस्तानाश्रमान्दानवास्तदा। . आदिदैत्यो महावीर्यो हिरण्यकशिपुस्त्वया। . निशायां परिधावन्ति मत्ता भुजबलाश्रयात्। . नारसिंहं वपुः कृत्वा सूदितः पुरुषोत्तम // 20 कालोपसृष्टाः कालेया नन्तो द्विजगणान्बहून् // 6 अवध्यः सर्वभूतानां बलिश्चापि महासुरः। . न चैनानन्वबुध्यन्त मनुजा मनुजोत्तम / .... वामनं वपुराश्रित्य त्रैलोक्याशितस्त्वया // 21 एवं प्रवृत्तान्दैत्यांस्तांस्तापसेषु तपस्विष // 7 असुरश्च महेष्वासो जम्भ इत्यभिविश्रुतः। .. प्रभाते समदृश्यन्त नियताहारकर्शिताः / यज्ञक्षोभकरः क्रूरस्त्वयैव विनिपातितः // 22 महीतलस्था मुनयः शरीरैर्गतजीवितैः // 8 .. एवमादीनि कर्माणि येषां संख्या न विद्यते / क्षीणमांसैविरुधिरैर्विमज्जात्रैर्विसंधिभिः। अस्माकं भयभीतानां त्वं गतिमधुसूदन // 23 आकीर्णैराचिता भूमिः शङ्खानामिव राशिभिः॥९ / तस्मात्त्वां देवदेवेश लोकार्थ ज्ञापयामहे / कलशैविप्रविद्धैश्च सुवैर्भमैस्तथैव च। रक्ष लोकांश्च देवांश्च शक्रं च महतो भयात् // 24 विकीर्णैरग्निहोत्रैश्च भूर्बभूव समावृता // 10 इति श्रीमहाभारते आरम्यकपर्वणि.. निःखाध्यायवषट्कारं नष्टयज्ञोत्सवक्रियम्। शततमोऽध्यायः // 10 // जगदासीनिरुत्साहं कालेयभयपीडितम् // 11 एवं प्रक्षीयमाणाश्च. मानवा मनुजेश्वर / देवा ऊचुः। आत्मत्राणपरा भीताः प्राद्रवन्त दिशो भयात् // 12 इतः प्रदानाद्वर्तन्ते प्रजाः सर्वाश्चतुर्विधाः / केचिद्गुहाः प्रविविशुर्निर्झरांश्चापरे श्रिताः।। ता भाविता भावयन्ति हव्यकव्यैर्दिवौकसः / / अपरे मरणोद्विग्ना भयात्प्राणान्समुत्सृजन् // 13 लोका ह्येवं वर्तयन्ति अन्योन्यं समुपाश्रिताः।। केचिदत्र महेष्वासाः शूराः परमदर्पिताः। त्वत्प्रसादान्निरुद्विग्नास्त्वयैव परिरक्षिताः // 2 : मार्गमाणाः परं यत्नं दानवानां प्रचक्रिरे // 14. इदं च समनुप्राप्तं लोकानां भयमुत्तमम्। / न चैतानधिजग्मुस्ते समुद्रं समुपाश्रितान्। न च जानीम केनेमे रात्री वध्यन्ति ब्राह्मणाः॥३ श्रमं जग्मुश्च परममाजग्मुः क्षयमेव च // 15 क्षीणेषु च ब्राह्मणेषु पृथिवी क्षयमेष्यति / जगत्युपशमं याते नष्टयज्ञोत्सवक्रिये / ततः पृथिव्यां क्षीणायां त्रिदिवं क्षयमेष्यति // 4 आजग्मुः परमामात त्रिदशा मनुजेश्वर // 16 : . त्वत्प्रसादान्महाबाहो लोकाः सर्वे जगत्पते / समेत्य समहेन्द्राश्च भयान्मन्त्रं प्रचक्रिरे। विनाशं नाधिगच्छेयुस्त्वया वै परिरक्षिताः॥५ नारायणं पुरस्कृत्य वैकुण्ठमपराजितम् // 17 . विष्णुरुवाच / ततो देवाः समेतास्ते तदोचुर्मधुसूदनम्। विदितं मे सुराः सर्व प्रजानां क्षयकारणम् / - -
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________________ 3. 101. 6] महाभारत [3. 102.11 'भवतां चापि वक्ष्यामि शृणुध्वं विगतज्वराः // 6 / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण महामुने // 1 कालेय इति विख्यातो गणः परमदारुणः। लोमश उवाच। तैश्च वृत्रं समाश्रित्य जगत्सर्वं प्रबाधितम् // 7 अद्रिराजं महाशैलं मेरुं कनकपर्वतम् / ते वृत्रं निहतं दृष्ट्वा सहस्राक्षेण धीमता। उदयास्तमये भानुः प्रदक्षिणमवर्तत // 2 जीवितं परिरक्षन्तः प्रविष्टा वरुणालयम् // 8 तं तु दृष्ट्वा तथा विन्ध्यः शैलः सूर्यमथाब्रवीत् / ते प्रविश्योदधिं घोरं नक्रमाहसमाकुम् / यथा हि मेरुर्भवता नित्यशः परिगम्यते। . उत्सादनाथं लोकानां रात्रौ नन्ति मुनीनिह // 9 प्रदक्षिणं च क्रियते मामेवं कुरु भास्कर // 3. न तु शक्याः क्षयं नेतुं समुद्राश्रयगा हि ते / एवमुक्तस्ततः सूर्यः शैलेन्द्र प्रत्यभाषत / समुद्रस्य क्षये बुद्धिर्भवद्भिः संप्रधार्यताम् / नाहमात्मेच्छया शैल करोम्येनं प्रदक्षिणम् / .. अगस्त्येन विना को हि शक्तोऽन्योऽर्णवशोषणे॥१० एष मार्गः प्रदिष्टो मे येनेदं निर्मितं जगत् // 4 एतच्छ्रुत्वा वचो देवा विष्णुना समुदाहृतम् / एवमुक्तस्ततः क्रोधात्प्रवृद्धः सहसाचलः / परमेष्ठिनमाज्ञाप्य अगस्त्यस्याश्रमं ययुः // 11 सूर्याचन्द्रमसोर्मार्ग रोद्भुमिच्छन्परंतप // 5 तत्रापश्यन्महात्मानं वारुणिं दीप्ततेजसम् / ततो देवाः सहिताः सर्व एव उपास्यमानमृषिभिर्देवैरिव पितामहम् // 12 ___ सेन्द्राः समागम्य महाद्रिराजम् / तेऽभिगम्य महात्मानं मैत्रावरुणिमच्युतम् / निवारयामासुरुपायतस्तं आश्रमस्थं तपोराशिं कर्मभिः स्वैरभिष्टुवन् // 13 न च स्म तेषां वचनं चकार // 6 - देवा ऊचुः। अथाभिजग्मुर्मुनिमाश्रमस्थं नहुषेणामितप्तानां त्वं लोकानां गतिः पुरा / तपस्विनं धर्मभृतां वरिष्ठम् / . . भ्रंशितश्च सुरैश्वर्याल्लोकार्थ लोककण्टकः // 14 अगस्त्यमत्यद्भुतवीर्यदीप्तं क्रोधात्प्रवृद्धः सहसा भास्करस्य नगोत्तमः / तं चार्थमूचुः सहिताः सुरास्ते॥७ वचस्तवानतिक्रामन्विन्ध्यः शैलो न वर्धते // 15 देवा ऊचुः। तमसा चावृते लोके मृत्युनाभ्यर्दिताः प्रजाः। सूर्याचन्द्रमसोर्माग नक्षत्राणां गतिं तथा। त्वामेव नाथमासाद्य निर्वृतिं परमां गताः // 16 / शैलराजो वृणोत्येष विन्ध्यः क्रोधवशानुगः॥ 8 अस्माकं भयभीतानां नित्यशो भगवान्गतिः।। तं निवारयितुं शक्तो नान्यः कश्चिद्विजोत्तम / ततस्त्वार्ताः प्रयाचामस्त्वां वरं वरदो ह्यसि // 17 ऋते त्वां हि महाभाग तस्मादेनं निवारय // 9 ' इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि लोमश उवाच / एकाधिकशततमोऽध्यायः // 10 // तछुवा पचनं विप्रः सुराणां शैलमभ्यगात् / . .. 102 सोऽभिगम्याब्रवीद्विन्ध्यं सदारः समुस्थितः // 10 युधिष्ठिर उवाच / मार्गमिच्छाम्यहं दत्तं भवता पर्वत्तोत्तम / किमर्थ सहसा विन्ध्यः प्रवृद्धः क्रोधमूर्छितः / दक्षिणामभिगन्तास्मि दिशं कार्येण केनचित् // 1.1 -628 -
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________________ 8. 102. 12] आरण्यकपर्व [3. 108. 11 यावदागमनं मह्यं तावत्त्वं प्रतिपालय। .... निवृत्ते मयि शैलेन्द्र ततो वर्धस्व कामतः // 12 . लोमश उवाच / / एवं स समयं कृत्वा विन्ध्येनामित्रकर्शन / समुद्रं स समासाद्य वारुणिर्भगवानृषिः / अद्यापि दक्षिणादेशाद्वारुणिर्न निवर्तते // 13 . उवाच सहितान्देवानृषींश्चैव समागतान् // 1 एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा विन्ध्यो न वर्धते। एष लोकहितार्थं वै पिबामि वरुणालयम् / / अगस्त्यस्य प्रभावेन यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 14 / भवद्भिर्यदनुष्ठेयं तच्छीघ्रं संविधीयताम् // 2 कालेयास्तु यथा राजन्सुरैः सर्वैर्निषूदिताः। एतावदुक्त्वा वचनं मैत्रावरुणिरच्युतः।।. अगस्त्याद्वरमासाद्य तन्मे निगदतः शृणु // 15 // समुद्रमपिबत्क्रुद्धः सर्वलोकस्य पश्यतः // 3 : त्रिदशानां वचः श्रुत्वा मैत्रावरुणिरब्रवीत् / पीयमानं समुद्र तु दृष्ट्वा देवाः सपासवाः। किमर्थमभियाताः स्थ वरं मत्तः किमिच्छथ / विस्मयं परमं जग्मुः स्तुतिभिश्चाप्यपूजयन् // 4 एवमुक्तास्ततस्तेन देवास्तं मुनिमब्रुवन् // 16 .. त्वं नखाता विधाता च लोकानां लोकभावनः / एवं त्वयेच्छाम कृतं महर्षे त्वत्प्रसादात्समुच्छेदं न गच्छेत्सामरं जगत् // 5 महार्णवं पीयमानं महात्मन् / संपूज्यमाननिदशैर्महात्मा ततो वधिष्याम सहानुबन्धा ___ गन्धर्वतूर्येषु नदत्सु सर्वशः। -कालेयसंज्ञान्सुरविद्विषस्तान् // 17 / दिन्यैश्च पुष्पैरवकीर्यमाणो त्रिदशानां वचः श्रुत्वा तथेति मुनिरब्रवीत् / - महार्णवं निःसलिलं चकार // 6 करिष्ये भवतां कामं लोकानां च महत्सुखम् // 18 दृष्ट्वा कृतं निःसलिलं महार्णवं एवमुक्त्वा ततोऽगच्छत्समुद्रं सरितां पतिम् / .. सुराः समस्ताः परमप्रहृष्टाः। ऋषिभिश्च तपःसिद्धैः सार्धं देवैश्च सुव्रतः॥ 19 प्रगृह्य दिव्यानि वरायुधानि .. तान्दानवाञ्जघरदीनसत्त्वाः // 7 मनुष्योरगगन्धर्वयक्षकिंपुरुषास्तथा। ते वध्यमानास्त्रिदशैर्महात्मभिअनुजग्मुर्महात्मानं द्रष्टुकामास्तदद्भुतम् // 20..... __ महाबलैर्वेगिभिरुन्नदद्भिः। दतोऽभ्यगच्छन्सहिताः समुद्रं भीमनिस्वनम्। . न सेहिरे वेगवतां महात्मनां नृत्यन्तमिव चोर्मीभिर्वलगन्तमिव वायुना // 21 . .. वेगं तदा धारयितुं दिवौकसाम् // 8 .. हसन्तमिव फेनौधैः स्खलन्तं कन्दरेषु च। .. ते वध्यमानास्त्रिदशैर्दानवा भीमनिस्वनाः / नानाग्राहसमाकीर्ण नानाद्विजगणायुतम् // 22 . चक्रुः सुतुमुलं युद्ध मुहूर्तमिव भारत // 9 . . अगत्यसहिता देवाः सगन्धर्वमहोरगाः। ... ते पूर्व तपसा दग्धा मुनिभिर्भावितात्मभिः / अपयश्च महाभागाः समासेदुर्महोदधिम् // 23 .' यतमानाः परं शक्त्या त्रिदशैर्विनिषूदिताः॥१० इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ते हेमनिष्काभरणाः कुण्डलाङ्गदधारिणः। ... ..... द्वयधिकशततमोऽध्यायः॥ 102 // निहत्य बलशोभन्त पुष्पिता इव किंशुकाः // 11 म. भा. 67 -629 -
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________________ 3. 103. 12] महामारते [ 8. 104.17 हतशेषास्ततः केचित्कालेया मनुजोत्तम / कथ्यमानं त्वया विप्र राज्ञां चरितमुत्तमम् // 4 विदार्य वसुधां देवीं पातालतलमाश्रिताः // 12 वैशंपायन उवाच / निहतान्दानवान्दृष्ट्वा त्रिदशा मुनिपुंगवम् / / एवमुक्तस्तु विप्रेन्द्रो धर्मराज्ञा महात्मना / तुष्टुवुर्विविधैर्वाक्यैरिदं चैवाब्रुवन्वचः // 13 कथयामास माहात्म्यं सगरस्य महात्मनः // 5 त्वत्प्रसादान्महाभाग लोकैः प्राप्तं महत्सुखम् / लोमश उवाच। त्वत्तेजसा च निहताः कालेयाः क्रूरविक्रमाः॥ 14 इक्ष्वाकूणां कुले जातः सगरो नाम पार्थिवः / पूरयस्व महाबाहो समुद्रं लोकभावन। रूपसत्त्वबलोपेतः स चापुत्रः प्रतापवान् // 6 यत्त्वया सलिलं पीतं तदस्मिन्पुनरुत्सृज // 15 स हैहयान्समुत्साद्य तालजङ्घांश्च भारत / एवमुक्तः प्रत्युवाच भगवान्मुनिपुंगवः / वशे च कृत्वा राज्ञोऽन्यान्स्वराज्यमन्वशासत // 7 जीणं तद्धि मया तोयमुपायोऽन्यः प्रचिन्त्यताम्।। तस्य भार्ये त्वभवतां रूपयौवनदर्पिते / पूरणार्थ समुद्रस्य भवद्भिर्यत्नमास्थितैः // 16 / वैदर्भी भरतश्रेष्ठ शैब्या च भरतर्षभ // 8 एतच्छ्रुत्वा तु वचनं महर्षे वितात्मनः / स पुत्रकामो नृपतिस्तताप सुमहत्तपः / विस्मिताश्च विषण्णाश्च बभूवुः सहिताः सुराः॥१७ पत्नीभ्यां सह राजेन्द्र कैलासं गिरिमाश्रितः // 9 परस्परमनुज्ञाप्य प्रणम्य मुनिपुंगवम् / ' स तप्यमानः सुमहत्तपो योगसमन्वितः।। प्रजाः सर्वा महाराज विप्रजग्मुर्यथागतम् // 18 आससाद महात्मानं त्र्यक्षं त्रिपुरमर्दनम् // 10 त्रिदशा विष्णुना सार्धमुपजग्मुः पितामहम् / / शंकरं भवमीशानं शूलपाणिं पिनाकिनम् / / पूरणार्थ समुद्रस्य मन्त्रयित्वा पुनः पुनः / त्र्यम्बकं शिवमुप्रेशं बहुरूपमुमापतिम् // 11 ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे सागरस्याभिपूरणम् // 19 स तं दृष्ट्वैव वरदं पत्नीभ्यां सहितो नृपः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि प्रणिपत्य महाबाहुः पुत्रार्थ समयाचत // 12 . श्यधिकशततमोऽध्यायः // 103 // तं प्रीतिमान्हरः प्राह सभार्य नृपसत्तमम् / 104 यस्मिन्वृतो मुहूर्तेऽहं त्वयेह नृपते वरम् // 13 लोमश उवाच। षष्टिः पुत्रसहस्राणि शूराः समरदर्पिताः / तानुवाच समेतांस्तु ब्रह्मा लोकपितामहः / एकस्वां संभविष्यन्ति पत्न्यां तव नरोत्तम // 14 गच्छध्वं विबुधाः सर्वे यथाकामं यथेप्सितम्॥१ ते चैव सर्वे सहिताः क्षयं यास्यन्ति पार्थिव / महता कालयोगेन प्रकृतिं यास्यतेऽर्णवः / एको वंशधरः शूर एकस्यां संभविष्यति / ज्ञातीन्वै कारणं कृत्वा महाराज्ञो भगीरथात् // 2 एवमुक्त्वा तु तं रुद्रस्तत्रैवान्तरधीयत // 15 युधिष्ठिर उवाच / स चापि सगरो राजा जगाम स्वं निवेशनम् / कथं वै ज्ञातयो ब्रह्मन्कारणं चात्र किं मुने / पत्नीभ्यां सहितस्तात सोऽतिहृष्टमनास्तदा // 16 कथं समुद्रः पूर्णश्च भगीरथपरिश्रमात् // 3 तस्याथ मनुजश्रेष्ठ ते भार्ये कमलेक्षणे। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण तपोधन / वैदर्भी चैव शैब्या च गर्भिण्यौ संबभूवतुः // 17 - 580
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________________ 8. 104. 18] आरण्यकपर्व [3. 105.21 ततः कालेन वैदर्भी गर्भालाबु व्यजायत / ततः काले बहुतिथे व्यतीते भरतर्षभ। शैब्या च सुषुवे पुत्रं कुमारं देवरूपिणम् // 18 / दीक्षितः सगरो राजा हयमेधेन वीर्यवान् / तदालाबु समुत्स्रष्टुं मनश्चक्रे स पार्थिवः / तस्याश्वो व्यचरद्भूमिं पुत्रैः सुपरिरक्षितः // 9 अथान्तरिक्षाच्छुश्राव वाचं गम्भीरनिस्वनाम् // 19 समुद्रं स समासाद्य निस्तोयं भीमदर्शनम् / राजन्मा साहसं कार्षीः पुत्रान्न त्यक्तुमर्हसि / रक्ष्यमाणः प्रयत्नेन तत्रैवान्तरधीयत // 10 अलाबुमध्यानिष्कृष्य बीजं यत्नेन गोप्यताम् // 20 ततस्ते सागरास्तात हृतं मत्वा हयोत्तमम् / सोपस्वेदेषु पात्रेषु घृतपूर्णेषु भागशः। आगम्य पितुराचख्युरदृश्यं तुरगं हृतम् / ततः पुत्रसहस्राणि षष्टिं प्राप्स्यसि पार्थिव // 21 तेनोक्ता दिक्षु सर्वासु सर्वे मार्गत वाजिनम् // 11 महादेवेन दिष्टं ते पुत्रजन्म नराधिप / ततस्ते पितुराज्ञाय दिक्षु सर्वासु तं हयम् / अनेन क्रमयोगेन मा ते बुद्धिरतोऽन्यथा // 22 अमार्गन्त महाराज सर्व च पृथिवीतलम् // 12 इति श्रीमहाभारते आरम्यकपर्वणि ततस्ते सागराः सर्वे समुपेत्य परस्परम् / चतुरधिकशततमोऽध्यायः // 10 // नाध्यगच्छन्त तुरगमश्वहारमेव च // 13 आगम्य पितरं चोचुस्ततः प्राञ्जलयोऽप्रतः / लोमश उवाच / ससमुद्रवनद्वीपा सनदीनदकन्दरा। एतच्छ्रुत्वान्तरिक्षाच्च स राजा राजसत्तम / सपर्वतवनोदेशा निखिलेन मही नृप // 14 यथोक्तं तच्चकाराथ श्रद्दधद्भरतर्षभ // 1 अस्माभिर्विचिता राजशासनात्तव पार्थिव / षष्टिः पुत्रसहस्राणि तस्याप्रतिमतेजसः।। न चाश्वमधिगच्छामो नाश्वहर्तारमेव च // 15 रुद्रप्रसादाद्राजर्षेः समजायन्त पार्थिव // 2 श्रुत्वा तु वचनं तेषां स राजा क्रोधमूर्छितः / ते घोराः क्रूरकर्माण आकाशपरिसर्पिणः। उवाच वचनं सर्वांस्तदा दैववशान्नुप // 16 बहुत्वाचावजानन्तः सर्वाल्लोकान्सहामरान् // 3 अनागमाय गच्छध्वं भूयो मार्गत वाजिनम् / त्रिदशांश्चाप्यबाधन्त तथा गन्धर्वराक्षसान् / यज्ञियं तं विना ह्यश्वं नागन्तव्यं हि पुत्रकाः॥१५ सर्वाणि चैव भूतानि शूराः समरशालिनः // 4 प्रतिगृह्य तु संदेशं ततस्ते सगरात्मजाः / वध्यमानास्ततो लोकाः सागरैर्मन्दबुद्धिभिः / / भूय एव महीं कृत्स्नां विचेतुमुपचक्रमुः॥ 18 ब्रह्माणं शरणं जग्मुः सहिताः सर्वदैवतैः // 5 अथापश्यन्त ते वीराः पृथिवीमवदारिताम् / तानुवाच महाभागः सर्वलोकपितामहः / समासाद्य बिलं तच्च खनन्तः सगरात्मजाः / गच्छध्वं त्रिदशाः सर्वे लोकैः साधं यथागतम्॥६ / कुहालैहेषुकैश्चैव समुद्रमखनस्तदा // 19 नातिदीर्पण कालेन सागराणां क्षयो महान् / स खन्यमानः सहितैः सागरैर्वरुणालयः / भविष्यति महाघोरः स्वकृतैः कर्मभिः सुराः // 7 अगच्छत्परमामाति दार्यमाणः समन्ततः // 20 / एवमुक्तास्ततो देवा लोकाश्च मनुजेश्वर / असुरोरगरक्षांसि सत्त्वानि विविधानि च। पितामहमनुज्ञाप्य विप्रजग्मुर्यथागतम् // 8 / आर्तनाद्मकुर्वन्त वध्यमानानि सागरैः // 21 ...
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________________ 3. 105. 22 ] महाभारते [3. 106. 20 छिन्नशीर्षा विदेहाश्च भिन्नजान्वस्थिमस्तकाः। | धर्म संरक्षमाणेन पौराणां हितमिच्छता // 8 / प्राणिनः समदृश्न्त शतशोऽथ सहस्रशः // 22 - युधिष्ठिर उवाच।। .. एवं हि खनतां तेषां समुद्रं मकरालयम् / किमर्थ राजशार्दूल: सगरः पुत्रमात्मजम् / व्यतीतः सुमहान्कालो न चाश्वः समदृश्यत॥२३ यक्तवान्दुस्त्यजं वीरं तन्मे ब्रूहि तपोधन // 9 ततः पूर्वोत्तरे देशे समुद्रस्य महीपते / लोमश उवाच / विदार्य पातालमथ संक्रुद्धाः सगरात्मजाः / असमञ्जा इति ख्यातः सगरस्य सुतो ह्यभूत्। अपश्यन्त हयं तत्र विचरन्तं महीतले // 24 / यं शैब्या जनयामास पौराणां स हि दारकान् / कपिलं च महात्मानं तेजोराशिमनुत्तमम् / / खुरेषु क्रोशतो गृह्य नद्यां चिक्षेप दुर्बलान् // 10 // तपसा दीप्यमानं तं ज्वालाभिरिव पावकम् // 25 ततः पौराः समाजग्मुर्भयशोकपरिप्लुताः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ... सगरं चाभ्ययाचन्त सर्वे प्राञ्जलयः स्थिताः / / 1.1 : पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः // 105 // - त्वं नस्त्राता महाराज परचक्रादिभिर्भयैः। असमञ्जोभयादोरात्ततो नत्रातुमर्हसि // 12 - लोमश उवाच। पौराणां वचनं श्रुत्वा घोरं नृपतिसत्तमः। ते तं दृष्ट्वा हयं राजन्संप्रहृष्टतनूरुहाः। . मुहूर्त विमना भूत्वा सचिवानिदमब्रवीत् // 13 अनादृत्य महात्मानं कपिलं कालचोदिताः। असमञ्जाः पुरादद्य सुतो मे विप्रवास्यताम् / .. संक्रुद्धाः समधावन्त अश्वग्रहणकाशिणः // 1. यदि वो मत्प्रियं कार्यमेतच्छीघ्रं विधीयताम् // 14 ततः क्रुद्धो महाराज कपिलो मुनिसत्तमः। एवमुक्ता नरेन्द्रेण सचिवास्ते नराधिप। वासुदेवेति यं प्राहुः कपिलं मुनिसत्तमम् // 2 .. यथोक्तं त्वरिताश्चक्रुर्यथाज्ञापितवान्नृपः // 15 स चक्षुर्विवृतं कृत्वा तेजस्तेषु समुत्सृजन् / .. एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा पुत्रो महात्मना / : ददाह सुमहातेजा मन्दबुद्धीन्स सागरान् // 3 : पौराणां हितकामेन सगरेण विवासितः // 16 तान्दृष्ट्वा भस्मसाद्भूतान्नारदः सुमहातपाः / .. अंशुमांस्तु महेष्वासो यदुक्तः सगरेण ह। सगरान्तिकमागच्छत्तच्च तस्मै न्यवेदयत् // 4 . तत्ते सर्व प्रवक्ष्यामि कीर्त्यमानं निबोध मे // 17 स तच्छ्रुत्वा वचो घोरं राजा मुनिमुखोद्गतम्। : . सगर उवाच / मुहूर्त विमना भूत्वा स्थाणोर्वाक्यमचिन्तयत् / | पितुश्च तेऽहं त्यागेन पुत्राणां निधनेन च। . आत्मानमात्मनाश्वास्य हयमेवान्वचिन्तयत् // 5 / / अलाभेन तथाश्वस्य परितप्यामि पुत्रक // 18 अंशुमन्तं समाहूय असमञ्जःसुतं तदा। .. तस्माहुःखामिसंतप्तं यज्ञविघ्नाच मोहितम् / पौत्रं भरतशार्दूल इदं वचनमब्रवीत् // 6 हयस्यानयनात्पौत्र नरकान्मां समुद्धर // 19 षष्टिस्तानि सहस्राणि पुत्राणाममितौजसाम् / . . . लोमश उवाच। . कापिलं तेज आसाद्य मत्कृते निधनं गताः॥.. | अंशुमानेवमुक्तस्तु सगरेण महात्मना। ... तव चापि पिता तात परित्यक्तो मयानघ / जगाम दुःखात्वं देशं यत्र वै दारिता मही॥ 20 -582 -
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________________ 3. 106. 21] आरकर्व [3. 107. स तु तेनैव मार्गेण समुद्रं प्रविवेश ह। प्रशशास महाराज यथैवास्य पितामहः // 35 अपश्यञ्च महात्मानं कपिलं तुरगं च तम् // 21 तस्य पुत्रः समभवदिलीपो नाम धर्मवित् / स दृष्ट्वा तेजसो राशिं पुराणमृषिसत्तमम् / तस्मै राज्यं समाधाय अंशुमानपि संस्थितः // 36 प्रणम्य शिरसा भूमौ कार्यमस्मै न्यवेदयत् / / 22 दिलीपस्तु ततः श्रुत्वा पितॄणां निधनं महत् / ततः प्रीतो महातेजाः कपिलोंऽशुमतोऽभवत् / पर्यतप्यत दुःखेन तेषां गतिमचिन्तयत् // 37 उवाच चैनं धर्मात्मा वरदोऽस्मीति भारत // 23 गङ्गावतरणे यनं सुमहच्चाकरोन्नृपः / स ववे तुरगं तत्र प्रथमं यज्ञकारणात् / . न चावतारयामास चेष्टमानो यथाबलम् // 38 द्वितीयमुदकं वने पितॄणां पावनेप्सया // 24... तस्य पुत्रः समभवच्छ्रीमान्धर्मपरायणः / / तमुवाच महातेजाः कपिलो मुनिपुंगवः। भगीरथ इति ख्यातः सत्यवागनसूयकः // 39 ददानि तव भद्रं ते यद्यत्प्रार्थयसेऽनघ // 25 अभिषिच्य तु तं राज्ये दिलीपो वनमाश्रितः। त्वयि क्षमा च धर्मश्च सत्यं चापि प्रतिष्ठितम् / / तपःसिद्धिसमायोगात्स राजा भरतर्षभ। त्वया कृतार्थः सगरः पुत्रवांश्च त्वया पिता // 26 / वनाजगाम त्रिदिवं कालयोगेन भारत // 40 तव चैव प्रभावेन स्वर्ग यास्यन्ति सागराः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि पौत्रश्च ते त्रिपथगां त्रिदिवादानयिष्यति / षडधिकशततमोऽध्यायः॥१०६॥ :: पावनार्थ सागराणां तोषयित्वा महेश्वरम् // 27 107 हयं नयस्व भद्रं ते यज्ञियं नरपुंगव / यज्ञः समाप्यतां तात सगरस्य महात्मनः // 28." स तु राजा महेष्वासश्चक्रवर्ती महारथः। . अंशुमानेवमुक्तस्तु कपिलेन महात्मना / बभूव सर्वलोकस्य मनोनयननन्दनः // 1 आजगाम हयं गृह्य यज्ञवाटं महात्मनः॥ 29 , स शुश्राव महाबाहुः कपिलेन महात्मना। सोऽभिवाद्य ततः पादौ सगरस्य महात्मनः। . पितॄणां निधनं घोरमप्राप्तिं त्रिदिवस्य च // 2 मूर्ध्नि तेनाप्युपांघातस्तस्मै सर्व न्यवेदयत् / / 30 स राज्यं सचिवे न्यस्य हृदयेन विदूयता / . यथा दृष्टं श्रुतं चापि सागराणां क्षयं तथा / / जगाम हिमवत्पावं तपस्तप्तं नरेश्वरः // 3. तं चास्मै हयमाचष्ट यज्ञवाटमुपागतम् // 31 आरिराधयिषुर्गङ्गां तपसा दग्धकिल्बिषः / / तछ्रुत्वा सगरो राजा पुत्रजं दुःखमत्यजत् / सोऽपश्यत नरश्रेष्ठ हिमवन्तं नगोत्तमम् // 4 अंशुमन्तं च संपूज्य समापयत तं क्रतुम् // 32 शृङ्गैर्बहुविधाकारैर्धातुमद्भिरलंकृतम् / समाप्तयज्ञः सगरो देवैः सर्वैः सभाजितः / .. पवनालम्बिभिर्मेधैः परिष्वक्तं समन्ततः॥५ पुत्रत्वे कल्पयामास समुद्रं वरुणालयम् // 33 नदीकुञ्जनितम्बैश्च सोदकैरुपशोभितम् / / प्रशास्य सुचिरं कालं राज्यं राजीवलोचनः। | गुहाकन्दरसलीनैः सिंहव्याटुनिषेवितम् // 6 पौत्रे भारं समावेश्य जगाम त्रिदिवं तदा // 34 | शकुनैश्च विचित्राङ्गैः कूजद्भिर्विविधा गिरः / अंशुमानपि धर्मात्मा महीं सागरमेखलाम् / . | भृङ्गराजैस्तथा हंसैत्यूहैर्जलकुकुरैः // 7 -538 - लोमश उवाच।
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________________ 3. 107. 8] | महाभारते [3. 108.7 मयूरैः शतपत्रैश्च कोकिलैर्जीवजीवकैः। . चकोरैरसितापाङ्गैस्तथा पुत्रप्रियैरपि // 8 जलस्थानेषु रम्येषु पद्मिनीभिश्च संकुलम् / सारसानां च मधुरैाहतैः समलंकृतम् // 9 किंनरैरप्सरोभिश्च निषेवितशिलातलम् / दिशागजविषाणाप्रैः समन्ताद्धृष्टपादपम् // 10 - विद्याधरानुचरितं नानारत्नसमाकुलम् / विषोल्बणैर्भुजंगैश्च दीप्तजिलैर्निषेवितम् // 11 कचित्कनकसंकाशं कचिद्रजतसंनिभम् / कचिदञ्जनपुञ्जामं हिमवन्तमुपागमत् // 12 स तु तत्र नरश्रेष्ठस्तपो घोरं समाश्रितः। फलमूलाम्बुभक्षोऽभूत्सहस्रं परिवत्सरान् // 13 संवत्सरसहस्रे तु गते दिव्ये महानदी / दर्शयामास तं गङ्गा तदा मूर्तिमती स्वयम् // 14 गङ्गोवाच / किमिच्छसि महाराज मत्तः किं च ददानि ते / तद्भवीहि नरश्रेष्ठ करिष्यामि वचस्तव // 15 लोमश उवाच / एवमुक्तः प्रत्युवाच राजा हैमवतीं तदा। पितामहा मे वरदे कपिलेन महानदि। अन्वेषमाणास्तुरगं नीता वैवस्वतक्षयम् // 16 षष्टिस्तानि सहस्राणि सागराणां महात्मनाम् / कापिलं तेज आसाद्य क्षणेन निधनं गताः // 17 तेषामेवं विनष्टानां स्वर्गे वासो न विद्यते। यावत्तानि शरीराणि त्वं जलै भिषिश्चसि // 18 स्वर्ग नय महाभागे मत्पितॄन्सगरात्मजान् / तेषामर्थेऽभियाचामि त्वामहं वै महानदि // 19 एतच्छत्वा वचो राज्ञो गङ्गा लोकनमस्कृता। भगीरथमिदं वाक्यं सुप्रीता समभाषत // 20 करिष्यामि महाराज वचस्ते नात्र संशयः। वेगं तु मम दुर्धार्य पतन्त्या गगनाच्युतम् / / 21 न शक्तस्त्रिषु लोकेषु कश्चिद्धारयितुं नृप। अन्यत्र विबुधश्रेष्ठान्नीलकण्ठान्महेश्वरात् // 22 / तं तोषय महाबाहो तपसा वरदं हरम् / स तु मां प्रच्युतां देवः शिरसा धारयिष्यति / करिष्यति च ते कामं पितॄणां हितकाम्यया // 23 एतच्छ्रुत्वा वचो राजन्महाराजो भगीरथः / कैलास पर्वतं गत्वा तोषयामास शंकरम् // 24 ततस्तेन समागम्य कालयोगेन केनचित् / अगृहाच वरं तस्माद्गङ्गाया धारणं नृप। स्वर्गवासं समुद्दिश्य पितॄणां स नरोत्तमः // 25 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि . सप्ताधिकशततमोऽध्यायः // 10 // 108 लोमश उवाच। भगीरथवचः श्रुत्वा प्रियार्थं च दिवौकसाम् / एक्सस्त्विति राजानं भगवान्प्रत्यभाषत // 1 धारयिष्ये महाबाहो गगनात्प्रच्युतां शिवाम् / दिव्यां देवनदी पुण्यां त्वत्कृते नृपसत्तम // 2 एवमुक्त्वा महाबाहो हिमवन्तमुपागमत् / / संवृतः पार्षदैोरै नाप्रहरणोद्यतैः // 3 . ततः स्थित्वा नरश्रेष्ठं भगीरथमुवाच ह। प्रयाचस्व महाबाहो शैलराजसुतां नदीम् / पतमानां सरिच्छ्रेष्ठां धारयिष्ये त्रिविष्टपात् // 4 एतच्छ्रुत्वा वचो राजा शर्वेण समुदाहृतम् / प्रयतः प्रणतो भूत्वा गङ्गां समनुचिन्तयत् // 5 ततः पुण्यजला रम्या राज्ञा समनुचिन्तिता / ईशानं च स्थितं दृष्ट्वा गगनात्सहसा च्युता // 6 तां प्रच्युतां ततो दृष्ट्वा देवाः साधं महर्षिभिः। गन्धर्वोरगरक्षांसि समाजग्मुर्दिदृक्षया॥ 7
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________________ 8. 108.8] औरण्यकपर्व [3. 109. . ततः पपात गगनाद्गङ्गा हिमवतः सुता / 109 समुद्धान्तमहावर्ता मीनप्राहसमाकुला // 8 वैशंपायन उवाच / तां दधार हरो राजनगङ्गां गगनमेखलाम् / ततः प्रयातः कौन्तेयः क्रमेण भरतर्षभ / ललाटदेशे पतितां मालां मुक्तामयीमिव // 9 . नन्दामपरनन्दा च नद्यौ पापभयापहे / / 1 / सा बभूव विसर्पन्ती त्रिधा राजन्समुद्रगा। स पर्वतं समासाद्य हेमकूटमनामयम् // फेनपुञ्जाकुलजला हंसानामिव पतयः // 10 अचिन्त्यानद्भुतान्भावान्ददर्श सुबहून्नृपः // 2 कचिदाभोगकुटिला प्रस्खलन्ती कचित्वचित् / वाचो यत्राभवन्मेघा उपलाश्च सहस्रशः / स्वफेनपटसंवीता मत्तेव प्रमदाव्रजत् / नाशक्नुवंस्तमारोढुं विषण्णमनसो जनाः // 3 कचित्सा तोयनिनदैनंदन्ती नादमुत्तमम् // 11 वायुर्नित्यं ववौ यत्र नित्यं देवश्च वर्षति / एवं प्रकारान्सुबहून्कुर्वन्ती गगनाच्युता। सायं प्रातश्च भगवान्दृश्यते हव्यवाहनः / / 4 पृथिवीतलमासाद्य भगीरथमथाब्रवीत् // 12 एवं बहुविधाभावानद्भुतान्वीक्ष्य पाण्डवः / दर्शयस्व महाराज मार्ग केन व्रजाम्यहम् / लोमशं पुनरेव स्म पर्यपृच्छत्तदद्भुतम् // 5 त्वदर्थमवतीर्णास्मि-पृथिवीं पृथिवीपते // 13 लोमश उवाच / एतच्छ्रुत्वा वचो राजा प्रातिष्ठत भगीरथः / यथाश्रुतमिदं पूर्वमस्माभिररिकर्शन / यत्र तानि शरीराणि सागराणां महात्मनाम् / तदेकाप्रमना राजन्निबोध गदतो मम // 6 पावमार्थ नरश्रेष्ठ पुण्येन सलिलेन ह // 14 अस्मिन्ऋषभकूटेऽभूदृषभो नाम तापसः / अनेकशतवर्षायुस्तपस्वी कोपनो भृशम् // 7 गङ्गाया धारणं कृत्वा हरो लोकनमस्कृतः / स वै संभाष्यमाणोऽन्यैः कोपागिरिमुवाच ह कैलास पर्वतश्रेष्ठं जगाम त्रिदशैः सह // 15 य इह व्याहरेत्कश्चिदुपलानुत्सृजेस्तदा / / 8 समुद्रं च समासाद्य गङ्गया सहितो नृपः / वातं चाहूय मा शब्दमित्युवाच स तापसः / पूरयामास वेगेन समुद्रं वरुणालयम् // 16 . व्याहरंश्चैव पुरुषो मेघेन विनिवार्यते // 9 दुहितृत्वे च नृपतिर्गङ्गां समनुकल्पयत् / एवमेतानि कर्माणि राजस्तेन महर्षिणा। पितॄणां चोदकं तत्र ददौ पूर्णमनोरथः // 17 कृतानि कानिचित्कोपात्प्रतिषिद्धानि कानिचित्॥१० एतत्ते सर्वमाख्यातं गङ्गा त्रिपथगा यथा। नन्दामभिगतान्देवान्पुरा राजनिति श्रुतिः / पूरणार्थ समुद्रस्य पृथिवीमवतारिता // 18 अन्वपद्यन्त सहसा पुरुषा देवदर्शिनः // 11 समुद्रश्च यथा पीतः कारणार्थे महात्मना। ते दर्शनमनिच्छन्तो देवाः शक्रपुरोगमाः / वातापिश्च यथा नीतः क्षयं स ब्रह्महा प्रभो। दुर्ग चक्रुरिमं देशं गिरिप्रत्यूहरूपकम् // 12 अगस्त्येन महाराज यन्मां त्वं परिपृच्छसि / / 19 तदाप्रभृति कौन्तेय नरा गिरिमिमं सदा। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि नाशक्नुवन्नभिद्रष्टुं कुत एवाधिरोहितुम् // 13 ..... अष्टाधिकशक्तमोऽध्यायः // 10 // नातप्ततपसा शक्यो द्रष्टुमेष महागिरिः। ... -585 -
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________________ 3. 109. 14 ] महाभारते [ 3. 110.20 - आरोढं वापि कौन्तेय तस्मानियतवाग्भव // 14 विरुद्धे योनिसंसर्गे कथं च तपसा युतः // 6 इह देवाः सदा सर्वे यज्ञानाजगुरुत्तमान् / किमर्थं च भयाच्छक्रस्तस्य बालस्य धीमतः / तेषामेतामि लिङ्गानि दृश्यन्तेऽद्यापि भारत // 15 / अनावृष्टयां प्रवृत्तायां ववर्ष बलवृत्रहा // 7 कुशाकारेव दूर्वेयं संस्तीर्णेव च भूरियम्।. कथंरूपा च शान्ताभूद्राजपुत्री यतव्रता। यूपप्रकारा बहवो वृक्षाश्चेमे विशां पते // 16 / लोभयामास या चेतो मृगभूतस्य तस्य वै // 8 देवाश्च ऋषयश्चैव वसन्त्यद्यापि भारत / लोमपादश्च राजर्षिर्यदाश्रयत धार्मिकः / तेषां सायं तथा प्रातर्दृश्यते हव्यवाहनः // 17 कथं वै विषये तस्य नावर्षत्पाकशासनः // 9 इहाप्लुतानां कौन्तेय सद्यः पाप्मा विहन्यते / एतन्मे भगवन्सर्व विस्तरेण यथातथम् / . कुरुश्रेष्ठाभिषेक वै तस्मात्कुरु सहानुजः // 18 : वक्तुमईसि शुश्रूषोर्ऋश्यशृङ्गस्य चेष्टितम् // 10 ततो मम्दाप्लुताङ्गस्त्वं कौशिकीमभियास्यसि / . लोमश उवाच / विश्वामित्रेण यत्रोमं तपस्तप्तमनुत्तमम् // 19 / विभाण्डकस्य ब्रह्मपेस्तपसा भावितात्मनः / ... वैशंपायन उवाच / अमोघवीर्यस्य सतः प्रजापतिसमद्युतेः // 11 ततस्तत्र समाप्लुत्य गात्राणि सगणो नृपः। शृणु पुत्रो यथा जात ऋश्यशृङ्गः प्रतापवान् / जगाम कौशिकी पुण्यां रम्यां शिवजलां नदीम्॥२० महाहदे महातेजा बालः स्थविरसंमतः // 12 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि महाबदं समासाद्य काश्यपस्तपसि स्थितः।। . नवाधिकशततमोऽध्यायः // 109 // .. दीर्घकालं परिश्रान्त ऋषिदेवर्षिसंमतः // 13 . तस्य रेतः प्रचस्कन्द दृष्ट्वाप्सरसमुर्वशीम्। लोमश उवाच। अप्सूपस्पृशतो राजन्मृगी तच्चापिबत्तदा // 14 एषा देवनदी पुण्या कौशिकी भरतर्षभ। सह तोयेन तृषिता सा गर्भिण्यभवन्नृप। विश्वामित्राश्रमो रम्यो एष चात्र प्रकाशते // 1 .. अमोघत्वाद्विधेश्चैव भावित्वादेवनिर्मितात् // 15 आश्रमश्चैव पुण्याख्यः काश्यपस्य महात्मनः। तस्यां मृग्यां समभवत्तस्य पुत्रो महानृषिः। ऋश्यशृङ्गः सुतो यस्य तपस्वी संयतेन्द्रियः // 2 ऋश्यशृङ्गस्तपोनित्यो वन एव व्यवर्धत // 16 : जपसो यः प्रभावेन वर्षयामास वासवम् / ... तस्ययशृङ्गं शिरसि राजन्नासीन्महात्मनः / अनावृष्टयां भयाद्यस्य ववर्ष बलवृत्रहा // 3 // तेनर्यशृङ्ग इत्येवं तदा स प्रथितोऽभवत् // 17 मृग्यां जातः स तेजस्वी काश्यपस्य सुतः प्रभुः / न तेन दृष्टपूर्वोऽन्यः पितुरन्यत्र मानुषः। विषये लोमपादस्य यश्चकाराद्भुतं महत् // 4. . तस्मात्तस्य मनो नित्यं ब्रह्मचर्येऽभवन्नृप // 18 . निवर्तितेषु सस्येषु यस्मै शान्तां ददौ नृपः। एतस्मिन्नेव काले तु सखा दशरथस्य वै। ... लोमपादो दुहितरं सावित्री सविता यथा // 5 . लोमपाद इति ख्यातो अङ्गानामीश्वरोऽभवत् // 19 2. युधिष्ठिर उवाच / / तेन कामः कृतो मिथ्या ब्राह्मणेभ्य इति श्रुतिः / ऋश्यशृङ्गः कथं मृग्यामुत्पन्नः काश्यपात्मजः। स ब्राह्मणैः परित्यक्तस्तदा वै जगतीपतिः // 20 -595
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________________ 3. 110. 21] आरण्यकपव [3. 111.9 पुरोहितापचाराच्च तस्य राज्ञो यदृच्छया। धनं च प्रददौ भूरि रत्नानि विविधानि च // 35 न ववर्ष सहस्राक्षस्ततोऽपीड्यन्त वै प्रजाः // 21 ततो रूपेण संपन्ना वयसा च महीपते / ... स ब्राह्मणान्पर्यपृच्छत्तपोयुक्तान्मनीषिणः / स्त्रिय आदाय काश्चित्सा जगाम वनमञ्जसा / / 36 प्रवर्षणे सुरेन्द्रस्य समर्थान्पृथिवीपतिः // 22 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि . कथं प्रवर्षेत्पर्जन्य उपायः परिदृश्यताम् / / दशाधिकशततमोऽध्यायः // 110 // तमूचुश्चोदितास्तेन स्वमतानि मनीषिणः // 23 तत्र त्वेको मुनिवरस्तं राजानमुवाच ह / / __ .. लोमश उवाच / कुपितास्तव राजेन्द्र ब्राह्मणा निष्कृतिं चर // 24 सा तु नाव्याश्रमं चक्रे राजकार्यार्थसिद्धये / ऋश्यशृङ्ग मुनिसुतमानयस्व च पार्थिव। . संदेशाञ्चैव नृपतेः स्वबुद्ध्या चैव भारत // 1. वानेयमनभिज्ञं च नारीणामार्जवे रतम् // 25 नानापुष्पफलैवृक्षैः कृत्रिमैरुपशोभितम् / स चेदवतरेद्राजन्विषयं ते महातपाः। ... नानागुल्मलतोपेतैः स्वादुकामफलप्रदैः // 2... सद्यः प्रवर्षेत्पर्जन्य इति मे नात्र संशयः // 26 अतीव रमणीयं तदतीव च मनोहरम् / एतच्छ्रुत्वा वचो राजन्कृत्वा निष्कृतिमात्मानः / चक्रे नाव्याश्रमं रम्यमद्भुतोपमदर्शनम् // 3 स गत्वा पुनरागच्छत्प्रसन्नेषु द्विजातिषु। ततो निबध्य तां नावमदूरे काश्यपाश्रमात् / राजानमागतं दृष्ट्वा प्रतिसंजगृहुः प्रजाः / / 27 चारयामास पुरुषैर्विहारं तस्य वै मुनेः॥४ ततोऽङ्गपतिराहूय सचिवान्मन्त्रकोविदान। ततो दुहितरं वेश्या समाधायेतिकृत्यताम् / . ऋश्यशृङ्गागमे यत्नमकरोन्मन्त्रनिश्चये // 28 दृष्ट्वान्तरं काश्यपस्य प्राहिणोद्बुद्धिसंमताम् // 5 सोऽध्यगच्छदुपायं तु तैरमात्यैः सहाच्युतः / सा तत्र गत्वा कुशला तपोनित्यस्य संनिधौ। शास्त्रज्ञैरलमर्थज्ञैर्नीत्यां च परिनिष्ठितैः // 29 . आश्रमं तं समासाद्य ददर्श तमृषेः सुतम् // 6 तत आनाययामास वारमुख्या महीपतिः / . वेश्योवाच / वेश्याः सर्वत्र निष्णातास्ता उवाच स पार्थिवः / / 30 कञ्चिन्मुने कुशलं तापसानां ऋश्यशृङ्गमृषेः पुत्रमानयध्वमुपायतः / / ___ कच्चिञ्च वो मूलफलं प्रभूतम् / . लोभयित्वाभिविश्वास्य विषयं मम शोभनाः // 31 कश्चिद्भवारमते चाश्रमेऽस्मिता राजभयभीताश्च शापभीताश्च योषितः / ___ स्त्वां वै द्रष्टुं सांप्रतमागतोऽस्मि // 7 अशक्यमूचुस्तत्कार्य विवर्णा गतचेतसः // 32 कश्चित्तपो वर्धते तापसानां तत्र त्वेका जरद्योषा राजानमिदमब्रवीत् / पिता च ते कञ्चिदहीनतेजाः / प्रयतिष्ये महाराज तमानेतुं तपोधनम् // 33 कञ्चित्त्वया प्रीयते चैव विप्र अभिप्रेतांस्तु मे कामान्समनुज्ञातुमर्हसि / कञ्चित्स्वाध्यायः क्रियते ऋश्यशृङ्ग // 8 ततः शक्ष्ये लोभयितुमृश्यशृङ्गमृषेः सुतम् // 34 ऋश्यशृङ्ग उवाच। तस्याः सर्वमभिप्रायमन्वजानात्स पार्थिवः। ऋद्धो भवाआयोतिरिव प्रकाशते प. मा. 68 -57
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________________ 3. 111. 9] [3. 111.29 . मन्ये चाहं त्वामभिवादनीयम् / सर्जानशोकांस्तिलकांश्च वृक्षापाचं वै ते संप्रदास्यामि कामा न्प्रपुष्पितानवनाम्यावभज्य / यथाधर्म फलमूलानि चैव // 9 विलज्जमानेव मदाभिभूता कौश्यां बृस्यामारस्व यथोपजोषं प्रलोभयामास सुतं महर्षेः॥१६ कृष्णाजिनेनावृतायां सखायाम / अथर्यशृङ्ग विकृतं समीक्ष्य क चाश्रमस्तव किं नाम चेदं पुनः पुनः पीड्य च कायमस्य / व्रतं ब्रह्मश्चरसि हि देववत्त्वम् // 10 अवेक्षमाणा शनकैर्जगाम वेश्योवाच / कृत्वाग्निहोत्रस्य तदापदेशम् // 17 ममाश्रमः काश्यपपुत्र रम्य तस्यां गतायां मदनेन मत्तो स्त्रियोजनं शैलमिमं परेण / विचेतनश्चाभवदृश्यशृङ्गः। तत्र स्वधर्मोऽनभिवादनं नो तामेव भावेन गतेन शून्यो . . . . . न चोदकं पाद्यमुपस्पृशामः // 11 _ विनिःश्वसन्नार्तरूपो बभूव // 18 ऋश्यशृङ्ग उवाच / ततो मुहूर्ताद्धरिपिङ्गलाक्षः फलानि पक्कानि ददानि तेऽहं प्रवेष्टितो रोमभिरा नखापात् / भल्लातकान्यामलकानि चैव। खाध्यायवान्वृत्तसमाधियुक्तो परूषकानीमुदधन्वनानि विभाण्डकः काश्यपः प्रादुरासीत् // 11 . प्रियालानां कामकारं कुरुष्व // 12 / सोऽप्रश्यदासीनमुपेत्य पुत्रं लोमश उवाच। ध्यायन्तमेकं विपरीतचित्तम् / मा तानि सर्वाणि विसर्जयित्वा विनिःश्वसन्तं मुहुरूर्ध्वदृष्टिं __ भक्षान्महान्प्रिददौ ततोऽस्मै / विभाण्डकः पुत्रमुवाच दीनम् // 21 . तान्यृश्यशृङ्गस्य महारसानि न कल्प्यन्ते समिधः किं नु तात __ भृशं सुरूपाणि रुचिं ददुर्हि // 13 कञ्चिद्भुतं चाग्निहोत्रं त्वयाद्य। ददौ च माल्यानि सुगन्धवन्ति सुनिर्णिक्तं मुक्नुवं होमधेनुः चिन्नाणि वासांसि च भानुमन्ति। कञ्चित्सवत्सा च कृता त्वयाध // 21 पानानि चाग्र्याणि ततो मुमोद न वै यथापूर्वमिवासि पुत्र चिक्रीड चैव प्रजहास चैव // 14 चिन्तापरश्वासि विचेतनश्च / सा कन्दुकेनारमतास्य मूले दीनोऽतिमात्रं त्वमिहाद्य किं नु विभज्यमाना फलिता लतेव / पृच्छामि त्वां क इहाद्यागतोऽभूत् // 22 गात्रैश्च गात्राणि निषेवमाणा इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि समाश्लिषञ्चासकृदृश्यशृङ्गम् // 15 एकादशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 111 // =588
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________________ 4: 112. 1] [3. 12:18 112 ऋश्यशृङ्ग उवाच / इहागतो जटिलो ब्रह्मचारी न वै हस्खो नातिदी? मनस्वी। सुवर्णवर्णः कमलायताक्षः सुतः सुराणामिव शोभमानः॥१ समृद्धरूपः सवितेव दीप्तः __सुशुक्लकृष्णाक्षतरश्चकोरैः। नीलाः प्रसन्नाश्च जटाः सुगन्धा : ___ हिरण्यरज्जुग्रथिताः सुदीर्घाः॥२ आधाररूपा पुनरस्य कण्ठे विभ्राजते विद्युदिवान्तरिक्षे। द्वौ चास्य पिण्डावधरेण कण्ठ___मजातरोमौ सुमनोहरौ च // 3 विलममध्यश्च स नाभिदेशे कटिश्च तस्यातिकृतप्रमाणा। तथास्य चीरान्तरिता प्रभाति हिरण्मयी मेखला मे यथेयम् // 4 अन्यच्च तस्याद्भुतदर्शनीयं विकूजितं पादयोः संप्रभाति / पाण्योश्च तद्वत्स्वनवन्निबद्धौ कलापकावक्षमाला यथेयम् // 5 विचेष्टमानस्य च तस्य तानि __ कूजन्ति हंसाः सरसीव मत्ताः। चीराणि तस्याद्भुतदर्शनानि नेमानि तद्वन्मम रूपवन्ति // 6 वक्त्रं च तस्याद्भुतदर्शनीयं ___ प्रव्याहृतं हादयतीव चेतः। पुंस्कोकिलस्येव च तस्य वाणी तां शृण्वतो में व्यथितोऽन्तरात्मां // 7 / - 53 यथा वनं माधवमासि मध्ये समीरितं श्वसनेनाभिवाति / तथा स वात्युत्तमपुण्यगन्धी निषेव्यमाणः पवनेन तात // 8 सुसंयताश्चापि जटा विभक्ता द्वैधीकृता भान्ति समा ललाटे। कौँ च चित्रैरिव चक्रवालैः समावृतौ तस्य सुरूपवद्भिः // 9 / तथा फलं वृत्तमथो विचित्रं समाहनत्पाणिना दक्षिणेन। तद्भूमिमासाद्य पुनः पुनश्च __ समुत्पतत्यद्भुतरूपमुच्चैः॥ 10 तच्चापि हत्वा परिवर्ततेऽसौ वातेरितो वृक्ष इवावघूर्णः। तं प्रेक्ष्य मे पुत्रमिवामराणां प्रीतिः परा तात रतिश्च जाता // 11 स मे समाश्लिष्य पुनः शरीरं जटासु गृह्याभ्यवनाम्य वक्त्रम् / वक्त्रेण वक्त्रं प्रणिधाय शब्दं चकार तन्मेऽजनयत्प्रहर्षम् // 12 न चापि पाद्यं बहु मन्यतेऽसौ - फलानि चेमानि मयाहृतानि / एवंव्रतोऽस्मीति च मामवोच त्फलानि चान्यानि नवान्यदान्मे // 13 मयोपयुक्तानि फलानि तानि नेमानि तुल्यानि रसेन तेषाम् / न चापि तेषां त्वगियं यथैषां साराणि नैषामिव सन्ति तेषाम् // 14 तोयानि चैवातिरसानि मह्यं प्रादास वै पातुमुदाररूपः / -
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________________ 3. 112. 15 ] महाभारते. [3. 113. 11 पीत्वैव यान्यभ्यधिकः प्रहर्षो .... असज्जनेनाचरितानि पुत्र ममाभवद्भश्चलितेव चासीत् // 15 पापान्यपेयानि मधूनि तानि / इमानि चित्राणि च गन्धवन्ति - माल्यानि चैतानि न वै मुनीनां ... माल्यानि तस्योद्थितानि पट्टैः।। स्मृतानि चित्रोज्वलगन्धवन्ति // 4 यानि प्रकीर्येह गतः स्वमेव लोमश उवाच। . .. स आश्रमं तपसा द्योतमानः // 16 रक्षांसि तानीति निवार्य पुत्र गतेन तेनास्मि कृतो विचेता __ विभाण्डकस्तां मृगयांबभूव / गात्रं च मे संपरितप्यतीव। नासादयामास यदा त्र्यहेण इच्छामि तस्यान्तिकमाशु गन्तुं ___तदा स पर्याववृतेऽऽश्रमाय // 5 . तं चेह नित्यं परिवर्तमानम् // 17 यदा पुनः काश्यपो वै जगाम गच्छामि तस्यान्तिकमेव तात... . फलान्याहाँ विधिना श्रामणेन / का नाम सा व्रतचर्या च तस्य / तदा पुनर्लोभयितुं जगाम इच्छाम्यहं चरितुं तेन साधं ___ सा वेशयोषा मुनिमृश्यशृङ्गम् // 6 यथा तपः स चरत्युग्रकर्मा // 18 दृष्ट्वैव तामृश्यशृङ्गः प्रहृष्टः इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि . . . . संभ्रान्तरूपोऽभ्यपतत्तदानीम् / द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः // 112 // प्रोवाच चैनां भवतोऽऽश्रमाय ___ गच्छाव यावन्न पिता ममैति // 7 विभाण्डक उवाच। ततो राजन्काश्यपस्यैकपुत्रं रक्षांसि चैतानि चरन्ति पुत्र . प्रवेश्य योगेन विमुच्य नावम् / . रूपेण तेनाद्भुतदर्शनेन / प्रलोभयन्त्यो विविधैरुपायैअतुल्यरूपाण्यतिघोरवन्ति राजग्मुरङ्गाधिपतेः समीपम् // 8 विघ्नं सदा तपसश्चिन्तयन्ति // 1 संस्थाप्य तामाश्रमदर्शने तु सुरूपरूपाणि च तानि तात . संतारितां नावमतीव शुभ्राम् / .. . प्रलोभयन्ते विविधैरुपायैः। तीरादुपादाय तथैव चक्रे सुखाच्च लोकाच्च निपातयन्ति राजाश्रमं नाम वनं विचित्रम् // 9. तान्युप्रकर्माणि मुनीन्वनेषु // 2 .. अन्तःपुरे तं तु निवेश्य राजा न तानि सेवेत मुनिर्यतात्मा विभाण्डकस्यात्मजमेकपुत्रम् / सतां लोकान्प्रार्थयानः कथंचित् / ददर्श देवं सहसा प्रवृष्टकृत्वा विघ्नं तापसानां रमन्ते / मापूर्यमाणं च जगजलेन // 10 . . पापाचारास्तपसस्तान्यपाप // 3 ___स लोमपादः परिपूर्णकामः . . - 540
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________________ 3. 113. 11] आरण्यकपर्व [3. 113.25 सुतां ददावृश्यशृङ्गाय शान्ताम् / प्रशान्तभूयिष्ठरजाः प्रहृष्टः क्रोधप्रतीकारकरं च चक्रे ___ समाससादाङ्गपतिं पुरस्थम् // 18 गोभिश्च मार्गेष्वभिकर्षणं च // 11 . संपूजितस्तेन नरर्षभेण विभाण्डकस्याव्रजतः स राजा ददर्श पुत्रं दिवि देवं यथेन्द्रम् / पशून्प्रभूतान्पशुपांश्च वीरान्। शान्तां स्नुषां चैव ददर्श तत्र समादिशपुत्रगृद्धी महर्षि __ सौदामिनीमुच्चरन्तीं यथैव // 19 विभाण्डकः परिपृच्छेद्यदा वः // 12. .. प्रामांश्च घोषांश्च सुतं च दृष्ट्वा स वक्तव्यः प्राञ्जलिभिर्भवद्भिः शान्तां च शान्तोऽस्य परः स कोपः। ... पुत्रस्य ते पशवः कर्षणं च / . चकार तस्मै परमं प्रसादं किं ते प्रियं वै क्रियतां महर्षे / विभाण्डको भूमिपतेर्नरेन्द्र // 20 . दासाः स्म सर्वे तव वाचि बद्धाः // 13 स तत्र निक्षिप्य सुतं महर्षिअथोपायात्स मुनिश्चण्डकोपः रुवाच सूर्यानिसमप्रभावम् / __ स्वमाश्रमं फलमूलानि गृह्य / जाते पुत्रे वनमेवाव्रजेथा अन्वेषमाणश्च न तत्र पुत्रं - राज्ञः प्रियाण्यस्य सर्वाणि कृत्वा // 21 - ददर्श चुक्रोध ततो भृशं सः॥ 14 स तद्वचः कृतवानृश्यशृङ्गो ततः स कोपेन विदीर्यमाण . ययौ च यत्रास्य पिता बभूव / -- आशङ्कमानो नृपतेर्विधानम्। शान्ता चैनं पर्यचरद्यथावजगाम चम्पां प्रदिधक्षमाण खे रोहिणी सोममिवानुकूला // 22 स्तमङ्गराज विषयं च तस्य // 15 अरुन्धती वा सुभगा वसिष्ठं स वै श्रान्तः क्षुधितः काश्यपस्ता लोपामुद्गा वापि यथा ह्यगस्त्यम् / / न्घोषान्समासादितवान्समृद्धान् / नलस्य वा दमयन्ती यथाभूगोपैश्च तैर्विधिवत्पूज्यमानो द्यथा शची वज्रधरस्य चैव // 23 राजेव तां रात्रिमुवास तत्र // 16 नाडायनी चेन्द्रसेना यथैव संप्राप्य सत्कारमतीव तेभ्यः वश्या नित्यं मुद्गलस्याजमीढ। प्रोवाच कस्य प्रथिताः स्थ सौम्याः। तथा शान्ता ऋश्यशृङ्गं वनस्थं ऊचुस्ततस्तेऽभ्युपगम्य सर्वे प्रीत्या युक्ता पर्यचरन्नरेन्द॥२५ धनं तवेदं विहितं सुतस्य // 17 तस्याश्रमः पुण्य एषो विभाति देशे तु देशे तु स पूज्यमान महाहदं शोभयन्पुण्यकीर्तेः। •स्तांश्चैव शृण्वन्मधुरान्प्रलापान् / . अत्र स्नातः कृतकृत्यो विशुद्ध-541 -
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________________ s: 118. 25] महाभारत [ 3. 114. 25 स्तीर्थान्यन्यान्यनुसंयाहि राजन् / / 25 वैशंपायन उवाच। इति श्रीमहाभारते औरण्यकपर्वणि ततो वैतरणी सर्वे पाण्डवा द्रौपदी तथा। त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः // 113 // अवतीर्य महाभागा तर्पयांचक्रिरे पितॄन् / 13 __ 114 युधिष्ठिर उवाच। वैशंपायन उवाच / उपस्पृश्यैव भगवन्नस्यां नद्यां तपोधन / ततः प्रयातः कौशिक्याः पाण्डवो जनमेजय / मानुषादस्मि विषयादपेतः पश्य लोमश // 14 आनुपूर्येण सर्वाणि जगामायतनान्युत // 1 सल्लिोकान्प्रपश्यामि प्रसादात्तव सुव्रत / स सागर समासाद्य गङ्गायाः संगमे नृप / वैखानसानां जपतामेष शब्दो महात्मनाम् // 15 नदीशतानां पश्चानां मध्ये चक्रे समाप्लवम् // 2 लोमश उवाच / / ततः समुद्रतीरेण जगाम वसुधाधिपः / त्रिशतं वै सहस्राणि योजनानां युधिष्ठिर / .. भ्रातृभिः सहितो वीरः कलिङ्गान्प्रति भारत // 3 यत्र ध्वनिं शृणोष्येनं तूष्णीमास्स्व विशां पते // 16 लोमश उवाच / एतत्स्वयंभुवो राजन्वनं रम्यं प्रकाशते / एते कलिङ्गाः कौन्तेय यत्र वैतरणी नदी / यत्रायजत कौन्तेय विश्वकर्मा प्रतापवान् // 17 यत्रायजत धर्मोऽपि देवाशरणमेत्य वै॥४ यस्मिन्यज्ञे हि भूर्दत्ता कश्यपाय महात्मने / ऋषिभिः समुपायुक्तं यज्ञियं गिरिशोभितम् / . सपर्वतवनोद्देशा दक्षिणा वै स्वयंभुवा // 18 उत्तरं तीरमेतद्धि सततं द्विजसेवितम् // 5 अवासीदच्च कौन्तेय दत्तमात्रा मही तदा / समेन देवयानेन पथा स्वर्गमुपेयुषः / उवाच चापि कुपिता लोकेश्वरमिदं प्रभुम् // 19 अत्र वै ऋषयोऽन्येऽपि पुरा क्रतुभिरीजिरे॥६ न मां माय भगवन्कस्मैचिदातुमर्हसि। अत्रैव रुद्रो राजेन्द्र पशुमादत्तवान्मखे / प्रदानं मोघमेतत्ते यास्याम्येषा रसातलम् // 20 रुद्रः पशुं मानवेन्द्र भागोऽयमिति चाब्रवीत् // 7 विषीदन्तीं तु तां दृष्ट्वा कश्यपो भगवानृषिः / हृते पशौ तदा देवास्तमूचुर्भरतर्षभ / प्रसादयांबभूवाथ ततो भूमिं विशां पते // 21 मा परस्वमभिद्रोग्धा मा धर्मान्सकलानशीः॥ 8 ततः प्रसन्ना पृथिवी तपसा तस्य पाण्डव / ततः कल्याणरूपाभिर्वाग्भिस्ते रुद्रमस्तुवन् / . पुनरुन्मजय सलिलाद्वेदीरूपा स्थिता बभौ // 22 इष्ट्या चैनं तर्पयित्वा मानयांचक्रिरे तदा // 9 सैषा प्रकाशते राजन्वेदीसंस्थानलक्षणा / ततः स पशुमुत्सृज्य देवयानेन जग्मिवान् / आरुह्यात्र महाराज वीर्यवान्वै भविष्यसि // 23 अत्रानुवंशो रुद्रस्य तं निबोध युधिष्ठिर // 10 अहं च ते स्वस्त्ययनं प्रयोक्ष्ये अयातयामं सर्वेभ्यो भागेभ्यो भागमुत्तमम् / ___ यथा त्वमेनामधिरोक्ष्यसेऽद्य / देवाः संकल्पयामासुर्भयाद्रुद्रस्य शाश्वतम् // 11 स्पृष्टा हि मर्येन ततः समुद्रइमां गाथामत्र गायन्नपः स्पृशति यो नरः / ___ मेषा वेदी प्रविशत्याजमीढ // 24 देवयानस्तस्य पन्थाश्चक्षुश्चैव प्रकाशते // 12 अग्निमित्रो योनिरापोऽथ देव्यो -542
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________________ 3. 114. 25 ] [3. 115. विष्णो रेतस्त्वममृतस्य नाभिः / - अकृतव्रण उवाच / एवं ब्रुवन्पाण्डव सत्यवाक्यं कन्यकुब्जे महानासीत्पार्थिवः सुमहाबलः / , वेदीमिमां त्वं तरसाधिरोह // 25 गाधीति विश्रुतो लोके वनवासं जगाम सः॥ वैशंपायन उवाच। वने तु तस्य वसतः कन्या जनेऽप्सरःसमा / ततः कृतस्वस्त्ययनो महात्मा ऋचीको भार्गवस्तां च वरयामास भारत // 19. युधिष्ठिरः सागरगामगच्छत् / तमुवाच ततो राजा ब्राह्मणं संशितव्रतम् / कृत्वा च तच्छासनमस्य सर्व उचितं नः कुले किंचित्पूर्वैर्यत्संप्रवर्तितम् / / 11... महेन्द्रमासाद्य निशामुवास // 26 .. एकतःश्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरविनाम् / / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि सहस्रं वाजिनां शुल्कमिति विद्धि द्विजोत्तम // 12. चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः // 11 // .... न चापि भगवान्वाच्यो दीयतामिति भार्गव। : देया मे दुहिता चेयं त्वद्विधाय महात्मने // 13 वैशंपायन उवाच। ऋचीक उवाच। / स तत्र तामुषित्वैकां रजनीं पृथिवीपतिः। एकतःश्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरविनाम् / .. तापसानां परं चक्रे सत्कारं भ्रातृभिः सह // 1 . दास्याम्यश्वसहस्रं ते मम भार्या सुतास्तु ते॥१४ लोमशश्चास्य तान्सर्वानाचख्या तत्र वापसान् / . अकृतव्रण उवाच। भृगूनङ्गिरसश्चैव वासिष्ठानथ काश्यपान् // 2 स तथेति प्रतिज्ञाय राजन्वरुणमब्रवीत्। . वान्समेत्य स राजर्षिरभिवाद्य कृताञ्जलिः। एकतःश्यामकर्णानां पाण्डुराणां तरविनाम् / रामस्यानुचरं वीरमपृच्छदकृतव्रणम् // 3 . सहस्रं वाजिनामेकं शुल्कार्थ मे प्रदीयताम् // 15 कदा नु रामो भगवांस्तापसान्दर्शयिष्यति / . तस्मै प्रादात्सहस्रं वै वाजिनां वरुणस्तदा। तेनैवाहं प्रसङ्गेन दृष्टुमिच्छामि भार्गवम् // 4 तदश्वतीर्थ विख्यातमुत्थिता यत्र ते हयाः // 16 . अकृतव्रण उवाच / गवायां कन्यकुब्जे वै ददौ सत्यवतीं वदा। आयानेवासि विदितो रामस्य विदितात्मनः / ततो गाधिः सुतां तस्मै जन्याश्चासन्सुरास्तदा / प्रीतिस्त्वयि च रामस्य क्षिप्रं त्वां दर्शयिष्यति // लब्ध्वा हयसहस्रं तु तांश्च दृष्ट्वा दिवौकसः॥ 17 चतुर्दशीमष्टमी च रामं पश्यन्ति तापसाः। धर्मेण लब्ध्वा तां भार्यामृचीको द्विजसत्तमः / अस्यां राज्यां व्यतीतायां भवित्री च चतुर्दशी // 6 यथाकामं यथाजोषं तया रेमे सुमध्यया // 18 युधिष्ठिर उवाच / | तं विवाहे कृते राजन्सभार्यमवलोककः / / भवाननुगतो वीरं जामदग्न्यं महाबलम् / आजगाम भृगुश्रेष्ठः पुत्रं दृष्ट्वा ननन्द च // 19 प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पूर्ववृत्तस्य कर्मणः // 7 भार्यापती तमासीनं गुरुं सुरगणार्चितम् / / सु भवान्कथयत्वेतद्यथा रामेण निर्जिताः। अर्चित्वा पर्युपासीनी प्राञ्जली तस्थतुस्तदा // 31 आहवे क्षत्रियाः सर्वे कथं केन च हेतुना / / 8 / ततः स्नुषां स भगवान्प्रहृष्टो भूगुरब्रवीत्।। - 543 -
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________________ 3. 115. 21] महामारते [ 3. 118. 18 वरं वृणीष्व सुभगे दाता पस्मि तवेप्सितम् // 21 आश्रमस्थस्तया साधं तपस्तेपेऽनुकूलया // 3 सा वै प्रसादयामास तं गुरुं पुत्रकारणात् / तस्याः कुमाराश्चत्वारो जज्ञिरे रामपञ्चमाः / आत्मनश्चैव मातुश्च प्रसादं च चकार सः // 22 सर्वेषामजघन्यस्तु राम आसीजघन्यजः॥४ भृगुरुवाच / फलाहारेषु सर्वेषु गतेष्वथ सुतेषु वै। . ऋतौ त्वं चैव माता च नाते पुंसवनाय वै / रेणुका मातुमगमत्कदाचिन्नियतव्रता // 5 आलिङ्गेतां पृथग्वृक्षौ साश्वत्थं त्वमुदुम्बरम् / / 23 सा तु चित्ररथं नाम मार्तिकावतकं नृपम् / आलिङ्गने तु ते राजश्चक्रतुः स्म विपर्ययम् / / ददर्श रेणुका राजन्नागच्छन्ती यदृच्छया // 6 कदाचिदगुरागच्छत्तं च वेद विपर्ययम् // 24 क्रीडन्तं सलिले दृष्ट्वा सभार्य पद्ममालिनम् / अयोवाच महातेजा भृगुः सत्यवतीं जुषाम् / ऋद्धिमन्तं ततस्तस्य स्पृहयामास रेणुका // 7 प्राह्मणः क्षत्रवृत्तिवै तव पुत्रो भविष्यति // 25 व्यभिचारात्तु सा तस्मात्छिन्नाम्भसि विचेतना। . क्षत्रियो ब्राह्मणाचारो मातुस्तव सुतो महान् / . प्रविवेशाश्रमं त्रस्ता तां वै भन्विबुध्यत // 8 भविष्यति महावीर्यः साधूनां मार्गमास्थितः // 26 स तां दृष्ट्वा च्युतां धैर्याब्राह्मया लक्ष्म्या विवर्जिताम् / ततः प्रसादयामास श्वशुरं सा पुनः पुनः। धिक्शब्देन महातेजा गर्हयामास वीर्यवान् // 9 नमे पुत्रो भवेदीमुक्कामं पौत्रो भवेदिति // 27 ततो ज्येष्ठो जामदग्न्यो रुमण्वान्नाम नामतः। एवमस्त्विति सा तेन पाण्डव प्रतिनन्दिता। आजगाम सुषेणश्च वसुर्विश्वावसुस्तथा // 10 जमदग्निं ततः पुत्रं सा जज्ञे काल आगते / तानानुपूर्व्याद्भगवान्वधे मातुरचोदयत् / .. तेजसा वर्चसा चैव युक्तं भार्गवनन्दनम् // 28 न च ते जातसंमोहाः किंचिदूचुर्विचेतसः // 11 ‘स वर्धमानस्तेजस्वी वेदस्याध्ययनेन वै। ततः शशाप तान्कोपात्ते शप्ताश्चेतना जहुः / बहूनृषीन्महातेजाः पाण्डवेयात्यवर्तत // 29 मृगपक्षिसधर्माणः क्षिप्रमासञ्जडोपमाः // 12 तं तु कृरनो धनुर्वेदः प्रत्यभाद्भरतर्षभ। ततो रामोऽभ्यगात्पश्चादाश्रमं परवीरहा। " चतुर्विधानि चास्त्राणि भास्करोपमवर्चसम् / / 30 तमुवाच महामन्युर्जमदग्निर्महातपाः॥१३ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि जहीमां मातरं पापां मा च पुत्र व्यथां कृथाः। पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 115 // तत आदाय परशुं रामो मातुः शिरोऽहरत्॥ 14 ततस्तस्य महाराज जमदग्नेर्महात्मनः / अकृतव्रण उवाच / कोपो अगच्छत्सहसा प्रसन्नश्चानवीदिदम् // 15 स वेदाध्ययने युक्तो जमदग्निर्महातपाः। ममेदं वचनात्तात' कृतं ते कर्म दुष्करम् / तपतेपे ततो देवान्नियमावशमानयत् // 1 वृणीष्व कामान्धर्मज्ञ यावतो वाञ्छसे हृदा // 16 स प्रसेनजितं राजन्नधिगम्य नराधिपम् / स वने मातुरुत्थानमस्मृतिं च वधस्य वै / रेणुकां वरयामास स च तस्मै ददौ नृपः // 2 पापेन तेन चास्पर्श भ्रातॄणां प्रकृति तथा // 17 रेणुकां त्वथ संप्राप्य भायां भार्गवनन्दनः। अप्रतिद्वन्द्वतां युद्धे दीर्घमायुश्च भारत / ... -544 - __116
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________________ 3. 116. 18] आरजर्व [3. 117. 18 ददौ च सर्वान्कामांस्ताञ्जमदग्निर्महातपाः॥१८ मृत्युरेवंविधो युक्तः सर्वभूतेष्वनागसः॥२ कदाचित्तु तथैवास्य विनिष्क्रान्ताः सुताः प्रमो। / किं नु सैनं कृतं पापं यैर्भवांस्तपसि स्थितः / अथानूपपतिर्वीरः कार्तवीर्योऽभ्यवर्तत // 19 अयुध्यमानो वृद्धः सन्हतः शरशतैः शितैः / / तमाश्रमपदं प्राप्तमृर्भार्या समर्चयत् / -: किं नु ते तत्र वक्ष्यन्ति सचिवेषु सुहृत्सु च। : स युद्धमदसंमतो नाभ्यनन्दत्तथार्चनम् // 20 अबुध्यमानं धर्मज्ञमेकं हत्वानपत्रपाः // 4 . प्रमथ्य चाश्रमात्तस्माद्धोमधेन्वास्तदा बलात् / अकृतव्रण उवाच। जहार कसं क्रोशन्त्या बभञ्ज च महाद्रुमान्॥२१ क्लिप्यैवं स करणं बहु नानाविधं नृप / आगताय च रामाय तदाचष्ट पिता स्वयम् / प्रेतकार्याणि सर्वाणि पितुश्चक्रे महातपाः॥५ गां च रोरूयती दृष्ट्वा कोपो रामं समाविशत्॥२२ ददाह पितरं चामौ रामः परपुरंजयः। स मन्युवशमापन्नः कार्तवीर्यमुपाद्रवत् / प्रतिजज्ञे वधं चापि सर्वक्षत्रस्य भारत // 6 : तस्याथ युधि विक्रम्य भार्गवः परवीरहा / / 23 संक्रुद्धोऽतिबलः शूरः शस्त्रमादाय वीर्यवान् / चिच्छेद निशितैर्भल्लैहून्परिघसंनिभान्। जनिवान्कार्तवीर्यस्य सुतानेकोऽन्तकोपमः // 7 सहस्रसंमितान्राजन्प्रगृह्य रुचिरं धनुः // 24 तेषां चानुगता ये च क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ / अर्जुनस्याथ दायादा रामेण कृतमन्यवः। तांश्च सर्वानवामृद्गादामः प्रहरतां वरः॥ 8. आश्रमस्थं विना रामं जमदग्निमुपाद्रवन् // 25 त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः। ते तं जन्नुर्महावीर्यमयुध्यन्तं तपस्विनम्। / समन्तपञ्चके पञ्च चकार रुधिरहदान् // 9 असकृद्राम रामेति विक्रोशन्तमनाथवत् // 26 स तेषु र्पयामास पितॄन्भृगुकुलोद्वहः / कार्तवीर्यस्य पुत्रास्तु जमदग्निं युधिष्ठिर / साक्षाद्ददर्श चर्चीकं स च रामं न्यवारयत्॥ 10 घातयित्वा शरैर्जग्मुर्यथागतमरिंदमाः // 27 ततो यज्ञेन महता जामदग्न्यः प्रतापवान् / अपक्रान्तेषु चैतेषु जमदग्नौ तथागते। तर्पयामास देवेन्द्रमृत्विग्भ्यश्च महीं ददौ // 11 समित्पाणिरुपागच्छदाश्रमं भृगुनन्दनः // 28 वेदी चाप्यददद्धैमी कश्यपाय महात्मने / स दृष्ट्वा पितरं वीरस्तथा मृत्युवशं गतम् / दशव्यामायतां कृत्वा नवोत्सेधां विशां पते // 12 अनर्हन्तं तथाभूतं विललाप सुदुःखितः॥२९ तां कश्यपस्यानुमते ब्राह्मणाः खण्डशस्तदा। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि व्यमजस्तेन ते राजन्प्रख्याताः खाण्डवायनाः॥१३ षोडशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 116 // स प्रदाय महीं तस्मै कश्यपाय महात्मने / - 117 अस्मिन्महेन्द्रे शैलेन्द्रे वसत्यमितविक्रमः // 94 सम उवाच / एवं वैरमभूत्तस्य क्षत्रियैर्लोकवासिभिः / ममापराधात्तैः क्षुद्रैर्हतस्त्वं तात बालिशैः। पृथिवी चापि विजिता रामेणामिततेजसा // 15 कार्तवीर्यस्य दायादैर्वने मृग इवेषुभिः // 1 - वैशंपायन उवाच / धर्मज्ञस्य कथं तात वर्तमानस्य सत्पथे। .. | ततश्चतुर्दशी रामः समयेन महामनाः। म.भा, 69
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________________ 3. 117. 16 ] महाभारते [ 3. 118. 18 दर्शयामास तान्विप्रान्धर्मराजं च सानुजम्॥१६ - कृष्णासहायः सहितोऽनुजैश्च / स तमानर्च राजेन्द्रो भ्रातृभिः सहितः प्रभुः। संपूजयन्विक्रममर्जुनस्य . . द्विजानां च परां पूजां चक्रे नृपतिसत्तमः // 17 . रेमे महीपालपतिः पृथिव्याम् // 6 अर्चयित्वा जामदग्न्यं पूजितस्तेन चाभिभूः। . ततः सहस्राणि गवां प्रदाय महेन्द्र उष्य तां रात्रिं प्रययौ दक्षिणामुखः // 18 / तीर्थेषु तेष्वम्बुधरोत्तमस्य / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि हृष्टः सह भ्रातृभिरर्जुनस्य सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः॥ 11 // संकीर्तयामास गवां प्रदानम्॥७ स तानि तीर्थानि च सागरस्य वैशंपायन उवाच। पुण्यानि चान्यानि बहूनि राजन् / गच्छन्स तीर्थानि महानुभावः क्रमेण गच्छन्परिपूर्णकामः ... . पुण्यानि रम्याणि ददर्श राजा। शूर्पारकं पुण्यतमं ददर्श // 8 सर्वाणि विप्रैरुपशोभितानि तत्रोदधेः कंचिदतीत्य देशं कचित्कचिद्भारत सागरस्य // 1 ख्यातं पृथिव्यां वनमाससाद। स वृत्तवांस्तेषु कृताभिषेक तप्तं सुरैर्यत्र तपः पुरस्ता5. सहानुजः पार्थिवपुत्रपौत्रः। दिष्टं तथा पुण्यतमैनरेन्द्रैः॥९ समुद्रगां पुण्यतमा प्रशस्तां स तत्र तामग्र्यधनुर्धरस्य ___ जगाम पारिक्षित पाण्डुपुत्रः // 2 वेदी ददर्शायतपीनबाहुः। .. तत्रापि चाप्लुत्य महानुभावः ऋचीकपुत्रस्य तपस्विसंधैः ___ संतर्पयामास पितॄन्सुरांश्च / समावृतां पुण्यकृदर्चनीयाम् // 10 द्विजातिमुख्येषु धनं विसृज्य ततो वसूनां वसुधाधिपः स गोदावरी सागरगामगच्छत् // 3 मरुद्गणानां च तथाश्विनोश्च। 5 ततो विपाप्मा द्रविडेषु राज वैवस्वतादित्यधनेश्वराणान्समुद्रमासाद्य च लोकपुण्यम् / मिन्द्रस्य विष्णोः सवितुर्विभोश्च // 11 . 23 अगस्त्यतीथं च पवित्रपुण्यं भगस्य चन्द्रस्य दिवाकरस्य नारीतीर्थान्यथ वीरो ददर्श // 4 / पतेरपां साध्यगणस्य चैव। . तत्रार्जुनस्याग्र्यधनुर्धरस्य धातुः पितॄणां च तथा महात्मा . __निशम्य तत्कर्म परैरसह्यम् / रुद्रस्य राजन्सगणस्य चैव // 12 .संपूज्यमानः परमर्षिसंधैः सरस्वत्याः सिद्धगणस्य चैव परां मुदं पाण्डुसुतः स लेभे // 5 पूष्णश्च ये चाप्यमरास्तथान्ये / स तेषु तीर्थेष्वभिषिक्तगात्रः पुण्यानि चाप्यायतनानि तेषां -546 -
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________________ 3. 118. 13] आरम्यकपर्व [3. 119.6 ___ ददर्श राजा सुमनोहराणि // 13 स्तैः सत्कृताः पाण्डुसुतैस्तथैव / तेषूपवासान्विविधानुपोष्य युधिष्ठिरं संपरिवार्य राजदत्त्वा च रत्नानि महाधनानि / अपाविशन्देवगणा यथेन्द्रम् // 21 तीर्थेषु सर्वेषु परिप्लुताङ्गः तेषां स सर्व चरितं परेषां पुनः स शूपरिकमाजगाम // 14 वने च वासं परमप्रतीतः। स तेन तीर्थेन तु सागरस्य अस्त्रार्थमिन्द्रस्य गतं च पार्थ पुनः प्रयातः सह सोदरीयैः / कृष्णे शशंसामरराजपुत्रम् / / 22 द्विजैः पृथिव्यां प्रथितं महद्भि श्रुत्वा तु ते तस्य वचः प्रतीता__ स्तीथं प्रभासं समुपाजगाम // 15 -स्तांश्चापि दृष्ट्वा सुकृशानतीव / तत्राभिषिक्तः पृथुलोहिताक्षः नेत्रोद्भवं संमुमुचुर्दशार्दा ___ सहानुजैर्देवगणाम्पितॄश्च। दुःखार्तिजं वारि महानुभावाः // 23 संतर्पयामास तथैव कृष्णा इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ते चापि विप्राः सह लोमशेन // 16 अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः॥११८॥ स द्वादशाहं जलवायुभक्षः . कुर्वन्क्षपाहःसु तदाभिषेकम् / जनमेजय उवाच। : समन्ततोऽनीनुपदीपयित्वा प्रभासतीर्थं संप्राप्य वृष्णयः पाण्डवास्तथा। तेपे तपो धर्मभृतां वरिष्ठः // 17 किमकुर्वन्कथाश्चैषां कास्तत्रासंस्तपोधन // 1 : तमुप्रमास्थाय तपश्चरन्तं ते हि सर्वे महात्मानः सर्वशास्त्रविशारदाः / . शुश्राव रामश्च जनार्दनश्च / वृष्णयः पाण्डवाश्चैव सुहृदश्च परस्परम् // 2" . . तौ सर्ववृष्णिप्रवरौ ससैन्यौ . वैशंपायन उवाच / ... . युधिष्ठिरं जग्मतुराजमीढम् // 18 प्रभासतीर्थ संप्राज्य पुण्यं तीर्थं महोदधेः। ते वृष्णयः पाण्डुसुतान्समीक्ष्य वृष्णयः पाण्डवान्वीरान्परिवार्योपतस्थिरे॥३ . भूमौ शयानान्मलदिग्धगात्रान् / ततो गोक्षीरकुन्देन्दुमृणालरजतप्रभः। / अनर्हती द्रौपदीं चापि दृष्ट्वा | वनमाली हली रामो बभाषे पुष्करेक्षणम् // 4 सुदुःखिताश्चुक्रुशुरार्तनादम् // 19 / न कृष्ण धर्मश्चरितो भवाय ततः स रामं च जनार्दनं च जन्तोरधर्मश्च पराभवाय / काणि च साम्बं च शिनेश्च पौत्रम् / युधिष्ठिरो यत्र जटी महात्मा अन्यांश्च वृष्णीनुपगम्य पूजा वनाश्रयः क्लिश्यति चीरवासाः॥५ __ चक्रे यथाधर्ममदीनसत्त्वः॥ 20 दुर्योधनश्चापि महीं प्रशास्ति . ते चापि सर्वान्प्रतिपूज्य पार्था- .. न चास्य भूमिर्विवरं ददाति। -547.
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________________ ...119.8] [3. 119.21 धर्मादधर्मश्चरितो गरीया योऽयं परेषां पृतनां समृद्धां नितीव मन्येत नरोऽल्पबुद्धिः // 6 // ___ निरायुधो दीर्घभुजो निहन्यात् / / दुर्योधने चापि विवर्धमाने . श्रुत्वैव शब्दं हि वृकोदरस्य युधिष्ठिरे चासुख आत्तराज्ये। मुञ्चन्ति सैन्यानि शकृत्समूत्रम् // 14 कि न्वद्य कर्तव्यमिति प्रजाभिः स क्षुत्पिपासाध्वकृशस्तरस्वी ___ शङ्का मिथः संजनिता नराणाम् // 7 __ समेत्य नानायुधबाणपाणिः / अयं हि धर्मप्रभवो नरेन्द्रो वने स्मरन्वासमिमं सुघोरं धर्मे रतः सत्यधृतिः प्रदाता। ... शेषं न कुर्यादिति निश्चितं मे // 15, चलेद्धि राज्याच सुखाश्च पार्थो न बस्य वीर्येण बलेन कश्चिधर्मादपेतश्च कथं विवर्धेत् // 8 ___ त्समः पृथिव्यां भविता नरेषु। क्थं नु भीष्मश्च कृपश्च विप्रो शीतोष्णवातातपकर्शिताङ्गो द्रोणश्च राजा च कुलस्य वृद्धः। न शेषमाजावसुहृत्सु कुर्यात् // 16 प्राज्य पार्थान्सुखमाप्नुवन्ति / प्राच्यां नृपानेकरथेन जित्वा धिक्पापबुद्धीन्भरतप्रधानान् // 9. ___ वृकोदरः सानुचरारणेषु। किं नाम वक्ष्यत्यवनिप्रधानः . स्वस्त्यागमद्योऽतिरथस्तरस्वी पितृन्समागम्य परत्र पापः। . . ___सोऽयं वने क्लिश्यति चीरवासाः // 17 पुत्रेषु सम्यक्चरितं मयेति यो क्न्तकूरे व्यजयन्नृदेवा___पुत्रानपापानवरोप्य राज्यात् // 10 न्समागतान्दाक्षिणात्यान्महीपाम् / नासौ धिया संप्रतिपश्यति स्म म तं पश्यतेमं सहदेवमद्य किं नाम कृत्वाहमचक्षुरेवम् / तपस्विनं तापसवेषरूपम् // 18 जातः पृथिव्यामिति पार्थिवेषु यः पार्थिवानेकरथेन वीरो प्रव्राज्य कौन्तेयमथापि राज्यात् // 11 ___दिशं प्रतीची प्रति युद्धशौण्डः। नूनं समृद्धान्पितृलोकभूमौ सोऽयं वने मूलफलेन जीव. चामीकराभान्क्षितिजान्प्रफुल्लान् / __ अटी चरत्यद्य मलाचिताङ्गः // 19 विचित्रवीर्यस्य सुतः सपुत्रः सत्रे समृद्धेऽतिरथस्य राज्ञो कृत्वा नृशंसं बत पश्यति स्म / / 12 __ वेदीतलादुत्पतिता सुता या। / व्यूढोत्तरांसान्पृथुलोहिताक्षा सेयं वने वासमिमं सुदुःखं नेमानस्म पृच्छन्स शृणोति नूनम् / कथं सहत्यद्य सती सुखार्हा // 20 प्रस्थापयद्यत्स वनं ह्यशङ्को त्रिवर्गमुख्यस्य समीरणस्य युधिष्ठिरं सानुजमात्तशस्त्रम् // 13 देवेश्वरस्याप्यथ वाश्विनोश्च। -548 -
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________________ 3. 119. 21] [8. 120.19 एषां सुराणां तनयाः कथं नु न वने चरन्त्यल्पसुखाः सुखार्हाः // 21 जिते हि धर्मस्य सुते सभार्ये : सभ्रातृके सानुचरे निरस्ते। दुर्योधने चापि विवर्धमाने कथं न सीदत्यवनिः सशैला // 22 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 119 // 120 सात्यकिरुवाच / न राम कालः परिदेवनाय - यदुत्तरं तत्र तदेव सर्वे। समाचरामो हनतीतकालं युधिष्ठिरो यद्यपि नाह किंचित् // 1. ये नाथवन्तो हि भवन्ति लोके ते नात्मना कर्म समारभन्ते। तेषां तु कार्येषु भवन्ति नाथाः . . शैब्यादयो राम यथा ययातः॥२ . येषां तथा राम समारभन्ते . कार्याणि नाथाः स्वमतेन लोके। ते नाथवन्तः पुरुषप्रवीरा _____ नानाथवत्कृच्छ्रमवाप्नुवन्ति // 3 कस्वादयं रामजनार्दनौ च प्रद्युम्नसाम्बौ च मया समेतौ / वसत्यरण्ये सह सोदरीयै___ त्रैलोक्यनाथानधिगम्य नाथान् // 4 निर्यातु साध्वद्य दशार्हसेना प्रभूतनानायुधचित्रवर्मा / यमक्षयं गच्छतु धार्तराष्ट्रः . सबान्धवो वृष्णिवेलाभिभूतः // 5 त्वं ह्येव कोपात्पृथिवीमपीमां संवेष्टयेस्विस्तु शाङ्गधन्या। स धार्तराष्ट्र जहि सानुबन्धं ___ वृत्रं यथा देवपतिर्महेन्द्रः॥६ . भ्राता च मे यश्च सखा गुरुश्चक जनार्दनस्यात्मसमश्च पार्थः / / यदर्थमभ्युद्यतमुत्तमंत करोति कर्माग्यमपारणीयम् // 7 तस्यास्त्रवर्षाण्यहमुत्तमान हित्य सर्वाणि रणेऽभिभूय / कायाच्छिरः सर्पविषामिकल्पैः शरोत्तमैरुन्मथितास्मि राम // 8 खगेन चाहं निशितेन संख्ये कायाच्छिरस्तस्य बलात्प्रमथ्य। ततोऽस्य सर्वाननुगान्हनिष्ये दुर्योधनं चापि कुरूंश्च सर्वान् // 9 आत्तायुधं मामिह रौहिणेय पश्यन्तु भौमा युधि जातहर्षाः। निघ्नन्तमेकं कुरुयोधमुख्या न्काले महाकक्षमिवान्तकामिः॥ 10 प्रद्युम्नमुक्तान्निशितान्न शक्ताः ___ सोढुं कृपद्रोणविकर्णकर्णाः। जानामि वीर्यं च तवात्मजस्य काणिर्भवत्येष यथा रणस्थः // 11 साम्बः ससूतं सरथं भुजाभ्यां दुःशासनं शास्तु बलात्प्रमथ्य। न विद्यते जाम्बवतीसुतस्य रणेऽविषयं हि रणोत्कटस्य // 12 / एतेन बालेन हि शम्बरस्य दैत्यस्य सैन्यं सहसा प्रणुन्नम् /
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________________ 8.126. 18] [ 8. 120.0 वृत्तोसरत्यायतपीनवाहु युधिष्ठिरः पारयते महात्मा रेतेन संख्ये निहतोऽश्वचक्रः। यूते यथोक्तं कुरुसत्तमेन // 20 को नाम साम्बस्य रणे मनुष्यो...,E अस्मत्प्रमुक्तैर्विशिखैर्जितारिगत्वान्तरं वै भुजयोर्धरेत // 13 स्ततो महीं भोन्यति धर्मराजः। यथा प्रविश्यान्तरमन्तकस्य : निर्धार्तराष्ट्रां हतसूतपुत्रा__काले मनुष्यो न विनिष्क्रमेत। मेतद्धि नः कृत्यतमं यशस्यम् // 21 तथा प्रविश्यान्तरमस्य संख्येनी वासुदेव वाच। ___ को नाम जीवन्पुनराव्रजेत // 14 असंशयं माधव सत्यमेतद्रोणं च भीष्मं च महारथौ तौ . दृहीम ते वाक्यमदीनसत्त्व। . . ___ सुतैर्वृतं चाप्यथ सोमदत्तम्।। स्वाभ्यां भुजाभ्यामजितां तु भूमि सर्वाणि सैन्यानि च वासुदेवः / नेच्छेत्कुरूणामृषभः कथंचित् // 22 प्रधक्ष्यते सायकवलिजालैः॥१५ / न घेष कामान भयान्न लोभाकिं नाम लोकेष्वविषयमस्ति युधिष्ठिरो जातु जगात्स्वधर्मम् / कृष्णस्य सर्वेषु सदैवतेषु। .. भीमार्जुनौ चातिरथौ यमौ वा आत्तायुधस्योत्तमबाणपाणे __तथैव कृष्णा द्रुपदात्मजेयम् // 23 चक्रायुधस्याप्रतिमस्य युद्धे // 16 उभौ हि युद्धेऽप्रतिमौ पृथिव्यां ततोऽनिरुद्धोऽप्यसिचर्मपाणि वृकोदरश्चैव धनंजयश्च / __ महीमिमां धार्तराष्ट्रविसंझैः। कस्मान्न कृत्स्नां पृथिवीं प्रशासेहृतोत्तमाङ्गनिहतैः करोतु न्माद्रीसुताभ्यां च पुरस्कृतोऽयम् // 24 कीणां कुर्वेदिमिवाध्वरेषु॥१७ .. यदा तु पाञ्चालपतिर्महात्मा गदोल्मुको बाहुकभानुनीथाः सकेकयश्चेदिपतिर्वयं च। शूरश्च संख्ये निशठः कुमारः। योत्स्याम विक्रम्य परांस्तदा वै रणोत्कटौ सारणचारुदेष्णौ / सुयोधनस्त्यक्ष्यति जीवलोकम् // 25 कुलोचितं विप्रथयन्तु कर्म // 18 युधिष्ठिर उवाच। संवृष्णिभोजान्धकयोधमुख्या नैतञ्चित्रं माधव यद्भवीषि ... ___समागता क्षत्रियशूरसेना। सत्यं तु मे रक्ष्यतमं न राज्यम् / हत्वा रणे तान्धृतराष्ट्रपुत्रा कृष्णस्तु मां वेद यथावदेकः __लोके यशः स्फीतमुपाकरोतु // 19 कृष्णं च वेदाहमथो यथावत् // 26 ततोऽभिमन्युः पृथिवीं प्रशास्तु / यदैव कालं पुरुषप्रवीरो यावद्वतं धर्मभृतां वरिष्ठः। वेत्स्यत्ययं माधव विक्रमस्य / -550
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________________ a. 120. 27] [8. 21.0 तदा रणे त्वं च शिनिप्रवीर स्वयमुत्थापयामासुर्देवाः सेन्द्रा युधिष्ठिर सुयोधनं जेष्यसि केशवश्च // 27 .. तेलु तल मखाग्र्येषु गयस्य पृथिवीपतेः / प्रतिप्रयान्त्वद्य दशाईवीरा अमाधदिन्द्रः सोमेन दक्षिणाभिजिातकार / ढोऽस्मि नाथेनरलोकनाथैः / / सिकता या यथा लोके यथा वा दिवि तारा धर्मेऽप्रमादं कुरुताप्रमेया यथा षा वर्षतो धारा असंख्येयाश्च केनचिनार द्रष्टास्मि भूयः सुखिनः समेतान् // 28 तथैव तदसंख्येयं धनं यत्प्रददौ गयः। ... वैशंपायन उवाच / सदस्येभ्यो महाराज तेषु यज्ञेषु सप्तसु // 9 तेऽन्योन्यमामव्य तथाभिवाच भवेत्संख्येयमेतद्वै यदेतत्परिकीर्तितम् / - वृद्धापरिष्वज्य शिशुंश्च सर्वान् / न सा शक्या तु संख्यातुं दक्षिणा दक्षिणावा. / यदुप्रवीराः स्वगृहाणि जग्मू / हिरणायीभिगोभिश्च कृताभिर्विश्वकर्मणा / . राजापि तीर्थान्यनुसंचचार॥२९ / - ब्राह्मणांस्तर्पयामास नानादिग्भ्यः समागतान 111 :: विसृज्य कृष्णं त्वथ धर्मराजो , आपावशेषा पृथिवी चैत्यैरासीन्महात्मनः / विदर्भराजोपचितां सुतीर्थाम् / गयस्य यजमानस्य तत्र तत्र विशां पते // 12 सुतेन सोमेन विमिश्रितोदा स लोकान्प्राप्तवानन्द्रान्कर्मणा तेन भारत / . ततः पयोष्णी प्रति स युवास // 30 सलोकतां तस्य गच्छेत्पयोष्ण्यां य उपस्पृशेत् // 15 इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि तस्मात्त्वमत्र राजेन्द्र भ्रातृभिः सहितोऽनघ। विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः / 120 // उपस्पृश्य महीपाल धूतपाप्मा भविष्यसि // 15 . . 121 . वैशंपायन उवाच / / लोमश उवाच / स पयोष्ण्यां नरश्रेष्ठः स्नात्वा वै भ्रातृभिः सह / .. नृगेण यजमानेन सोमेनेह पुरंदरः। वैडूर्यपर्वतं चैव नर्मदां च महानदीम् / तर्पितः श्रूयते राजन्स तृप्तो मदमभ्यगात् // 1 / समाजगाम तेजस्वी भ्रातृभिः सहितोऽनक | इह देवैः सहेन्द्रर्हि प्रजापतिभिरेव च / तहोऽस्य सर्षाण्याचख्यौ लोमशो भगवानृषिः। छ.बहुविधैर्यज्ञैर्महद्भिर्भूरिदक्षिणैः // 2 तीर्थानि रमणीयानि तत्र तत्र विशां पते // 16 आमूर्तरयसश्वेह राजा वनधरं प्रभुम् / यथायोगं यथाप्रीति प्रययौ भ्रातृभिः सह / सर्पयामास सोमेन हयमेघेषु सप्तसु // 3 - ददमान्मेऽसकृद्वित्तं ब्राह्मणेभ्यः सहस्रशः // तस्य सप्तसु यज्ञेषु सर्वमासीद्धिरण्मयम् / - लोमश उवाच / वानस्पत्यं च भौमं च यद्रव्यं नियतं मखे॥४ देवानामेति कौन्तेय तथा राज्ञां सलोकताम् / तेष्वेव चास्य यज्ञेषु प्रयोगाः सप्त विश्रुताः। वैडूर्य पर्वतं दृष्ट्वा नर्मदामवतीर्य च // 18 " , सप्तकैकस्य यूपस्य चषालाश्वोपरि स्थिताः॥५ संधिरेप नरश्रेष्ठ त्रेताया द्वापरस्य च / तस्य स्म यूपान्यज्ञेषु भ्राजमानान्हिरण्मयाम् / / एतमासाय कौन्तेय सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१९॥ -501
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________________ (8. 131. 20] [3. 122.2 एष भर्यातियज्ञस्य देशस्तात प्रकाशते / रूपेण वयसा चैव मदनेन मदेन च / साक्षाद्यवामिवत्सोममश्विभ्यां सह कौशिकः // 20 बभञ्ज वनवृक्षाणां शाखाः परमपुष्पिताः॥९ चुकोष भार्गपश्चापि महेन्द्रस्य महातपाः / तां सखीरहितामेकामेकवस्त्रामलंकृताम् / संसामयामास च तं वासवं च्यवनः प्रभुः। ददर्श भार्गवो धीमांश्चरन्तीमिव विद्युतम् // 10 सुजनां चापि भार्या स राजपुत्रीमवाप्तवान् // 21 तां पश्यमानो विजने स रेमे परमद्युतिः। युधिष्ठिर उवाच / ममकण्ठश्च ब्रह्मर्षिस्तपोबलसमन्वितः। कथं विष्टम्भितस्तेन भगवान्पाकशासनः। तामाबभाषे कल्याणी सा चास्य न शृणोति वै // किमर्थ भार्गवश्वापि कोपं चक्रे महातपाः / / 22 ततः सुकन्या वल्मीके दृष्ट्वा भार्गवचक्षुषी। आगौ च कथं ब्रह्मन्कृतवान्सोमपीयिनौ। : कौतूहलात्कण्टकेन बुद्धिमोहबलात्कृता // 12 एतत्सर्व यथावृत्तमाख्यातु भगवान्मम // 25 / किं नु खल्विदमित्युक्त्वा निर्बिभेदास्य लोचने / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि . . अक्रुध्यत्स तया विद्धे नेत्रे परममन्युमान् / एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 121 ततः शर्यातिसैन्यस्य शकृन्मूत्रं समावृणोत् // 13 . 122 ततो रुद्ध शकृन्मूत्रे सैन्यमानाहदुःखितम्। लोमश उवाच / तथागतमभिप्रेक्ष्य पर्यपृच्छत्स पार्थिवः॥ 14 भूगोमहर्षेः पुत्रोऽभूच्यवनो नाम भार्गवः / तपोनित्यस्य वृद्धस्य रोषणस्य विशेषतः। समीपे सरसः सोऽस्य तपस्तेपे महाद्युतिः // 1 केनापकृतमधेह भार्गवस्य महात्मनः। स्मणुभूतो महातेजा वीरस्थानेन पाण्डव। ज्ञातं वा यदि वाज्ञातं तदृतं. ब्रूत माचिरम् // 15 अतिष्ठसुबहून्कालानेकदेशे विशां पते // 2 . तमूचुः सैनिकाः सर्वे न विद्मोऽपकृतं वयम् / सपस्मीकोऽभवदृषिलताभिरभिसंवृतः। सर्वोपायैर्यथाकामं भवास्तदधिगच्छतु // 16 कालेन महता राजन्समाकीर्णः पिपीलिकैः // 5 ततः स पृथिवीपालः साम्ना चोग्रेण च स्वयम्। तथा व संकृतो धीमान्मृत्पिण्ड इव सर्वशः। पर्यपृच्छत्सुहृद्वगं प्रत्यजानन्नं चैव ते // 17 तण्यति स्म सपो राजन्वल्मीकेन समावृत्तः॥४ आनाहातं ततो दृष्ट्वा तत्सैन्यमसुखार्दितम् / अथ दीर्घस्य कालस्य शर्याति म पार्थिवः। पितरं दुःखितं चापि सुकन्येदमथाब्रवीत् // 18 आजगाम सरो रम्यं विहर्तुमिदमुत्तमम् // 5 - मयाटन्त्येह वल्मीके दृष्टं सत्त्वमभिज्वलत्।' तय स्त्रीणां सहस्राणि चत्वार्यासन्परिग्रहः। खद्योतवदमिज्ञातं तन्मया विद्धमन्तिकात् // 19 एकैव च सुता शुभ्रा सुकन्या नाम भारत // 6 एतच्छ्रुत्वा तु शकतिर्वल्मीकं तूर्णमाद्रवत्। सा सखीभिः परिघृता सर्वाभरणभूषिता। तऋपश्यत्तपोवृद्धं वयोवृद्धं च भार्गवम् / / 20 चक्रम्बमाणा वल्मीकं भार्गवस्य समासदत् // 7 अयाचदथ सैन्यार्थं प्राञ्जलिः पृथिवीपतिः। सा चैव सुदती तत्र पश्यमाना मनोरमान। अज्ञानाद्वालया यत्ते कृतं तत्क्षन्तुमर्हसि // 21 वनस्पतीम्विचिन्वन्सी विजहार सखीचता // 8. ततोऽप्रवीन्महीपालं च्यवनो भार्गवस्तदा। -582
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________________ 1. 122. 22 ] आरण्यकार्य [3. 123.21 रूपौदार्यसमायुक्ता लोभमोहबलात्कृताम् // 22 त्वमुपास्से ह कल्याणि कामभोगबहिष्कृतम् // 8 तामेव प्रतिगृह्याहं राजन्दुहितरं तव / असमर्थं परित्राणे पोषणे च शुचिस्मिते / क्षमिष्यामि महीपाल सत्यमेतद्रवीमि ते // 23 साधु च्यवनमुत्सृज्य वरयस्वैकमावयोः / ऋषेर्वचनमाज्ञाय शर्यातिरविचारयन् / पत्यर्थं देवगर्भाभे मा वृथा यौवनं कृथाः॥९.. ददौ दुहितरं तस्मै च्यवनाय महात्मने // 24 एवमुक्ता सुकन्या तु सुरौ ताविदमब्रवीत् / प्रतिगृह्य च तां कन्यां च्यवनः प्रससाद ह। रताहं च्यवने पत्यौ मैवं मा पर्यशङ्किथाः // 10 प्राप्तप्रसादो राजा स ससैन्यः पुनराव्रजत् / / 25 तावतां पुनस्त्वेनामावां देवभिषग्वरौ / सुकन्यापि पतिं लब्ध्वा तपस्विनमनिन्दिता। युवानं रूपसंपन्नं करिष्यावः पतिं तव // 11 नित्यं पर्यचरत्प्रीत्या तपसा नियमेन च // 26 ततस्तस्यावयोश्चैव पतिमेकतमं वृणु। अग्नीनामतिथीनां च शुश्रूषुरनसूयिका। एतेन समयेनैनमामत्रय वरानने // 12 समाराधयत क्षिप्रं च्यवनं सा शुभानना // 27 सा तयोर्वचनाद्राजन्नुपसंगम्य भार्गवम् / .. इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि उवाच वाक्यं यत्ताभ्यामुक्तं भृगुसुतं प्रति // 13 द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 122 // तच्छ्रुत्वा च्यवनो भार्यामुवाच क्रियतामिति / 123 भर्ना सा समनुज्ञाता क्रियतामित्यथाब्रवीत् // 14 लोमश उवाच / श्रुत्वा तदश्विनौ वाक्यं तत्तस्याः क्रियतामिति / कस्यचित्त्वथ कालस्य सुराणामश्विनौ नृप।। ऊचतू राजपुत्रीं तां पतिस्तव विशत्वपः // 15 कताभिषेकां विवृतां सुकन्यां तामपश्यताम् // 1 ततोऽम्भश्च्यवनः शीघ्रं रूपार्थी प्रविवेश ह। ... तां दृष्ट्वा दर्शनीयाङ्गी देवराजसुतामिव / . अश्विनावपि तद्राजन्सरः प्रविशतां प्रभो॥ 16 उचतुः समभिद्रुत्य नासत्यावश्विनाविदम् // 2 ततो मुहूर्तादुत्तीर्णाः सर्वे ते सरसस्ततः / कस्य त्वमसि वामोरु किं वने वै करोषि च।। दिव्यरूपधराः सर्वे युवानो मृष्टकुण्डलाः।.. इच्छाव भद्रे ज्ञातुं त्वां तत्त्वमाख्याहि शोभने॥३ | तुल्यरूपधराश्चैव मनसः प्रीतिवर्धनाः // 17 ... ततः सुकन्या संवीता तावुवाच सुरोत्तमौ।। तेऽब्रुवन्सहिताः सर्वे वृणीष्वान्यतमं शुभे। .. शतितनयां वित्तं भार्यां च च्यवनस्य माम् // 4 अस्माकमीप्सितं भद्रे पतित्वे वरवर्णिनि / अथाश्विनौ प्रहस्यैतामतां पुनरेव तु / यत्र वाप्यभिकामासि तं वृणीष्व सुशोभने // 18 कथं त्वमसि कल्याणि पित्रा दत्ता गताध्वने // 5- सा समीक्ष्य तु तान्सर्वांस्तुल्यरूपधरान्स्थितान् / भ्राजसे वनमध्ये त्वं विद्युत्सौदामिनी यथा / . निश्चित्य मनसा बुद्ध्या देवी पत्रे स्वकं पतिम् // 19 न देवेष्वपि तुल्यां हि त्वया पश्याव भामिनि // 6 लब्ध्वा तु च्यवनो भार्या वयो रूपं च वान्छितम् / सर्वाभरणसंपन्ना परमाम्बरधारिणी। हृष्टोऽब्रवीन्महातेजास्तौ नासत्याविदं वचः॥ 20 शोभेयास्त्वनवद्याङ्गि न त्वेवं मलपकिनी // 7 यथाहं रूपसंपन्नो वयसा च समन्वितः / कस्मादेवंविधा भूत्वा जराजर्जरितं पतिम् / . ... कृतो भवद्भ्यां वृद्धः सन्भायां च प्राप्तवानिमाम् // 21 म.भा.७० -553
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________________ 3..123. 22] समारते [ 3. 124.28 तस्मायुवां करिष्यामि प्रीत्याहं सोमपीथिनौ। / ऋते त्वां विबुधांश्चान्यान्कयं वै नार्हतः सवम् / मिषतो देवराजस्य सत्यमेतद्भवीमि वाम् // 22 / अश्विनावपि देवेन्द्र देवौ विद्धि पुरंदर // 11 : तच्छ्रुत्वा हृष्टमनसौ दिवं तौ प्रतिजग्मतुः / इन्द्र उवाच / च्यवनोऽपि सुकन्या च सुराविव विजहतुः // 23 चिकित्सको कर्मकरौ कामरूपसमन्वितौ। .. इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि लोके चरन्तौ मर्त्यानां कथं सोममिहार्हतः॥ 12 त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 123 // . लोमश उवाच / 124 एतदेव यदा वाक्यमानेडयति वासवः। लोमश उवाच / अनादृत्य ततः शक्र ग्रहं जग्राह भार्गवः // 13: ततः श्रुत्वा तु शोतिर्वयःस्थं च्यवनं कृतम् / प्रहीष्यन्तं तु तं सोममश्विनोरुत्तमं तदा। संहृष्टः सेनया सार्धमुपायाद्भार्गवाश्रमम् // 1 . समीक्ष्य बलभिदेव इदं वचनमब्रवीत् // 14: च्यवनं च सुकन्यां च दृष्ट्वा देवसुताविव / आभ्यामर्थाय सोमं त्वं ग्रहीष्यसि यदि स्वयम्। रेमे महीपः शातिः कृत्स्नां प्राप्य महीमिव // 2 वनं. ते प्रहरिष्यामि घोररूपमनुत्तमम् // 15 ऋषिणा सत्कृतस्तेन सभार्यः पृथिवीपतिः / एवमुक्तः स्मयन्निन्द्रमभिवीक्ष्य स भार्गवः / उपोपविष्टः कल्याणीः कथाश्चक्रे महामनाः॥ 3 . जप्राह विधिवत्सोममश्विभ्यामुत्तमं ग्रहम् // 16 अथैनं भार्गवो राजनुवाच परिसान्त्वयन् / ततोऽस्मै प्राहरद्वनं घोररूपं शचीपतिः।। याजयिष्यामि राजंस्त्वां संभारानुपकल्पय // 4 तस्य प्रहरतो बाहुं स्तम्भयामास भार्गवः // 17: ततः परमसंहृष्टः शर्यातिः पृथिवीपतिः। संस्तम्भयित्वा च्यवनो जुहुवे मनतोऽनलम् / च्यवनस्य महाराज तद्वाक्यं प्रत्यपूजयत् // 5 .. कृत्यार्थी सुमहातेजा देवं हिंसितुमुद्यतः // 18 : प्रशस्तेऽहनि यज्ञीये सर्वकामसमृद्धिमत् / : ततः कृत्या समभवदृषेस्तस्य तपोबलात् / कारयामास शर्यातिर्यज्ञायतनमुत्तमम् // 6 मदो नाम महावीर्यो बृहत्कायो महासुरः। ... तत्रैनं च्यवनो राजन्याजयामास भार्गवः। शरीरं यस्य निर्देष्टुमशक्यं तु सुरासुरैः॥ 19 . अद्भुतानि च तत्रासन्यानि तानि निबोध मे // 7 तस्यास्यमभवद्धोरं तीक्ष्णाप्रदशनं महत् / ... अगृहाच्यवनः सोममश्विनोर्देवयोस्तदा।। हनुरेका स्थिता तस्य भूमावेका दिवं गता // 205 तमिन्द्रो वारयामास गृह्यमाणं तयोर्ग्रहम् // 8 चतस्र आयता दंष्ट्रा योजनानां शतं शतम् / .. इन्द्र उवाच / इतरे त्वस्य दशना बभूवुर्दशयोजनाः। उभावेतौ न सोमाौँ नासत्याविति मे मतिः।। प्राकारसदृशाकाराः शूलाग्रसमदर्शनाः // 21.. मिषजौ देवपुत्राणां कर्मणा नैवमर्हतः // 9. बाहू पर्वतसंकाशावायतावयुतं समौ / . च्यवन उवाच / नेत्रे रविशशिप्रख्ये वक्त्रमन्तकसंनिभम् // 22 . मावमंस्था महात्मानौ रूपद्रविणवत्तरौ / लेलिहञ्जिह्वया वक्त्रं विद्युञ्चपललोलया। यौ चक्रतुर्मा मघवन्वृन्दारकमिवाजरम् // 10 / व्यात्ताननो घोरदृष्टिर्घसन्निव जगदलात् // 23 -554
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________________ 3. 124. 24 ] आरण्यकपर्व [ 3. 126.1 स भक्षयिष्यन्संक्रुद्धः शतक्रतुमुपाद्रवत् / / सैन्धवारण्यमासाद्य कुल्यानां कुरु दर्शनम् / महता घोररूपेण लोकाशब्देन नादयन् // 24 पुष्करेषु महाराज सर्वेषु च जलं स्पृश / / 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि आर्चीकपर्वतश्चैव निवासो वै मनीषिणाम् / : चतुर्विशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 124 // सदाफलः सदास्रोतो मरुतां स्थानमुत्तमम् / चैत्याश्चैते बहुशतास्त्रिदशानां युधिष्ठिर // 13 लोमश उवाच। एतञ्चन्द्रमसस्तीर्थमृषयः पर्युपासते / तं दृष्ट्वा घोरवदनं मदं देवः शतक्रतुः / वैखानसाश्च ऋषयो वालखिल्यास्तथैव च // 14 आयान्तं भक्षयिष्यन्तं व्यात्ताननमिवान्तकम् // 1 शृङ्गाणि त्रीणि पुण्यानि त्रीणि प्रस्रवणानि च / भयात्संस्तम्भितभुजः सूक्किणी लेलिहन्मुहुः। सर्वाण्यनुपरिक्रम्य यथाकाममुपस्पृश / / 15 ततोऽब्रवीदेवराजच्यवनं भयपीडितः॥२ शंतनुश्चात्र कौन्तेय शुनकश्च नराधिप / सोमाविश्विनावेतावद्यप्रभृति भार्गव।। नरनारायणौ चोभौ स्थानं प्राप्ताः सनातनम् // 16 भविष्यतः सत्यमेतद्वचो ब्रह्मन्ब्रवीमि ते // 3. इह नित्यशया देवाः पितरश्च महर्षिभिः / न ते मिथ्या समारम्भो भवत्वेष परो विधिः। आर्चीकपर्वते तेपुस्तान्यजस्व युधिष्ठिर // 17 : जानामि चाहं विप्रर्षे न मिथ्या त्वं करिष्यसि // 4 इह ते वै चरून्प्राभन्ऋषयश्च विशां पते / सोमाहविश्विनावेतौ यथैवाद्य कृतौ त्वया / यमुना चाक्षयस्रोताः कृष्णश्चेह तपोरतः // 18 भूय एव तु ते वीर्य प्रकाशेदिति भार्गव // 5 . यमौ च भीमसेनश्च कृष्णा चामित्रकर्शन। सुकन्यायाः पितुश्चास्य लोके कीर्तिः प्रथेदिति / सर्वे चात्र गमिष्यामः सुकृशाः सुतपस्विनः // 19 अतो मयैतद्विहितं तव वीर्यप्रकाशनम् / एतत्प्रस्रवणं पुण्यमिन्द्रस्य मनुजाधिप। तस्मात्प्रसादं कुरु मे भवत्वेतद्यथेच्छसि // 6 यत्र धाता विधाता च वरुणश्चोर्ध्वमागताः // 20 एवमुक्तस्य शक्रेण च्यवनस्य महात्मनः / इह ते न्यवसन्राजन्क्षान्ताः परमधर्मिणः / स मन्युर्व्यगमच्छीघ्रं मुमोच च पुरंदरम् / / 7 मैत्राणामृजुबुद्धीनामयं गिरिवरः शुभः // 21 / मदं च व्यभजद्राजन्पाने स्त्रीषु च वीर्यवान् / एषा सा यमुना राजनराजर्षिगणसेविता / अक्षेषु मृगयायां च पूर्वसृष्टं पुनः पुनः // 8 नानायज्ञचिता राजन्पुण्या पापभया हा // 22 तथा मदं विनिक्षिप्य शक्रं संतर्घ्य चेन्दुना। अत्र राजा महेष्वासो मान्धात यज / स्वयम् / / अश्विभ्यां सहितान्देवान्याजयित्वा च तं नृपम् / / 9 सहदेवश्च कौन्तेय सोमको ददतां वरः / / 23 / विख्याप्य वीर्य सर्वेषु लोकेषु वदतां वरः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि सुकन्यया सहारण्ये विजहारानुरक्तया // 10 पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 125 // - तस्यैतद्विजसंघुष्टं सरो राजन्प्रकाशते / 126 अत्र त्वं सह सोदर्यैः पितॄन्देवांश्च तर्पय // 11 युधिष्ठिर उवाच। एतदृष्ट्वा महीपाल सिकताक्षं च भारत / मान्धाता राजशार्दूलत्रिषु लोकेषु विश्रुतः / - 555 -
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________________ 3. 126. 1] महाभारते [ 3. 126. 28 कथं जातो महाब्रह्मन्यौवनाश्वो नृपोत्तमः / स पीत्वा शीतलं तोयं पिपासातॊ महीपतिः / कथं चैतां परां काष्ठां प्राप्तवानमितद्युतिः // 1 निर्वाणमगमद्धीमान्सुसुखी चाभवत्तदा // 15 यस्य लोकास्त्रयो वश्या विष्णोरिव महात्मनः / ततस्ते प्रत्यबुध्यन्त ऋषयः सनराधिपाः / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं चरितं तस्य धीमतः // 2 निस्तोयं तं च कलशं ददृशुः सर्व एव ते // 16 यथा मान्धातृशब्दश्च तस्य शक्रसमद्युतेः / कस्य कर्मेदमिति च पर्यपृच्छन्समागताः / जन्म चाप्रतिवीर्यस्य कुशलो ह्यसि भाषितुम् // 3 युवनाश्वो मयेत्येव सत्यं समभिपद्यत // 17 लोमश उवाच। . न युक्तमिति तं प्राह भगवान्भार्गवस्तदा / शृणुष्वावहितो राजन्राज्ञस्तस्य महात्मनः / सुतार्थं स्थापिता ह्यापस्तपसा चैव संभृताः // 18 यथा मान्धातृशब्दो वै लोकेषु परिगीयते॥४ मया ह्यत्राहितं ब्रह्म तप आस्थाय दारुणम् / इक्ष्वाकुवंशप्रभवो युवनाश्वो महीपतिः / पुत्रार्थ तव राजर्षे महाबलपराक्रम // 19. सोऽयजत्पृथिवीपालः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः // 5 महाबलो महावीर्यस्तपोबलसमन्वितः / अश्वमेधसहस्रं च प्राप्य धर्मभृतां वरः। यः शक्रमपि वीर्येण गमयेद्यमसादनम् / / 20 अन्यैश्च क्रतुभिर्मुख्यैर्विविधैराप्तदक्षिणैः // 6 / अनेन विधिना राजन्मयैतदुपपादितम् / अनपत्यस्तु राजर्षिः स महात्मा दृढव्रतः। अब्भक्षणं त्वया राजन्नयुक्तं कृतमद्य वै॥२१ मश्रिष्वाधाय तद्राज्यं वननित्यो बभूव ह॥७ न त्वद्य शक्यमस्माभिरेतत्कर्तुमतोऽन्यथा। शास्त्रदृष्टेन विधिना संयोज्यात्मानमात्मना / नूनं दैवकृतं ह्येतद्यदेवं कृतवानसि // 22 पिपासाशुष्कहृदयः प्रविवेशाश्रमं भृगोः॥ 8 पिपासितेन याः पीता विधिमत्रपुरस्कृताः / तामेव रात्रिं राजेन्द्र महात्मा भृगुनन्दनः / आपस्त्वया महाराज मत्तपोवीर्यसंभृताः / इष्टिं चकार सौद्युम्नेमहर्षिः पुत्रकारणात् // 9 ताभ्यस्त्वमात्मना पुत्रमेवीर्यं जनिष्यसि // 23 संभृतो मत्रपूतेन वारिणा कलशो महान् / विधास्यामो वयं तत्र तवेष्टिं परमाद्भुताम् / तत्रातिष्ठत राजेन्द्र पूर्वमेव समाहितः / यथा शक्रसमं पुत्रं जनयिष्यसि वीर्यवान् // 24 यत्प्राश्य प्रसवेत्तस्य पत्नी शक्रसमं सुतम् // 10 तं न्यस्य वेद्यां कलशं सुषुपुस्ते महर्षयः। ततो. वर्षशते पूर्णे तस्य राज्ञो महात्मनः / रात्रिजागरणश्रान्ताः सौद्युम्निः समतीत्य तान् // 11 वामं पार्वं विनिर्भिद्य सुतः सूर्य इवापरः // 25 शुष्ककण्ठः पिपासातः पानीयार्थी भृशं नृपः / निश्चक्राम महातेजा न च तं मृत्युराविशत् / तं प्रविश्याश्रमं श्रान्तः पानीयं सोऽभ्ययाचत॥१२ युवनाश्वं नरपतिं तदद्भुतमिवाभवत् // 26 तस्य श्रान्तस्य शुष्केण कण्ठेन क्रोशतस्तदा।। ततः शक्रो महातेजास्तं दिदृक्षुरुपागमत् / नाौषीत्कश्चन तदा शकुनेरिव वाशितम् // 13 प्रदेशिनी ततोऽस्यास्ये शक्रः समभिसंदधे // 27 ततस्तं कलशं दृष्ट्वा जलपूर्ण स पार्थिवः / मामयं धास्यतीत्येवं परिभाष्टः स वज्रिणा / अभ्यद्रवत वेगेन पीत्वा चाम्भो व्यवासृजत् // 14 / मान्धातेति च नामास्य चक्रुः सेन्द्रा दिवौकसः // 28 - 556 -
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________________ 3. 126. 29 ] आरण्यकपर्व [ 3. 127. 12 प्रदेशिनीं शक्रदत्तामास्वाद्य स शिशुस्तदा / जन्म चाग्यं महीपाल यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 43 अवर्धत महीपाल किष्कूणां च त्रयोदश // 29 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि वेदास्तं सधनुर्वेदा दिव्यान्यस्त्राणि चेश्वरम् / पड़िशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 126 // उपतस्थुमहाराज ध्यातमात्राणि सर्वशः // 30 127 धनुराजगवं नाम शराः शृङ्गोद्भवाश्च ये। युधिष्ठिर उवाच / अभेद्यं कवचं चैव सद्यस्तमुपसंश्रयन् // 31 कथंवीर्यः स राजाभूत्सोमको वदतां वर / सोऽभिषिक्तो मघवता स्वयं शक्रेण भारत / कर्माण्यस्य प्रभावं च श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः॥१ धर्मेण व्यजयल्लोकांस्त्रीन्विष्णुरिव विक्रमैः॥ 32 लोमश उवाच / तस्याप्रतिहतं चक्रं प्रावर्तत महात्मनः / युधिष्ठिरासीन्नृपतिः सोमको नाम धार्मिकः / . रत्नानि चैव राजर्षि स्वयमेवोपतस्थिरे // 33 तस्य भार्याशतं राजन्सदृशीनामभूत्तदा // 2 तस्येयं वसुसंपूर्णा वसुधा वसुधाधिप। स वै यत्नेन महता तासु पुत्रं महीपतिः। . तेनेष्टं विविधैर्यज्ञैर्बहुभिः स्वातदक्षिणैः // 34 कंचिन्नासादयामास कालेन महता अपि // 3 . चितचैत्यो महातेजा धर्म प्राप्य च पुष्कलम् / कदाचित्तस्य वृद्धस्य यतमानस्य यत्नतः। शक्रस्यार्धासनं राजल्लब्धवानमितद्युतिः // 35 जन्तु म सुतस्तस्मिन्स्त्रीशते समजायत // 4 . एकाह्रा पृथिवी तेन धर्मनित्येन धीमता। तं जातं मातरः सर्वाः परिवार्य समासते। निर्जिता शासनादेव सरत्नाकरपत्तना // 36 सततं पृष्ठतः कृत्वा कामभोगान्विशां पते // 5 // तस्य चित्यैर्महाराज क्रतूनां दक्षिणावताम् / ततः पिपीलिका जन्तुं कदाचिददशत्स्फिजि। . चतुरन्ता मही व्याप्ता नासीत्किंचिदनावृतम् // 37 स दष्टो व्यनदद्राजस्तेन दुःखेन बालकः // 6 . तेन पद्मसहस्राणि गवां दश महात्मना / ततस्ता मातरः सर्वाः प्राक्रोशन्भृशदुःखिताः। ब्राह्मणेभ्यो महाराज दत्तानीति प्रचक्षते // 38 परिवार्य जन्तुं सहिताः स शब्दस्तुमुलोऽभवत् // 7 तमार्तनादं सहसा शुश्राव स महीपतिः।। तेन द्वादशवार्षिक्यामनावृष्टयां महात्मना। अमात्यपरिषन्मध्ये उपविष्टः सहत्विजैः॥८ वृष्टं सस्यविवृद्ध्यर्थं मिषतो वज्रपाणिनः // 39 ततः प्रस्थापयामास किमेतदिति पार्थिवः / / तेन सोमकुलोत्पन्नो गान्धाराधिपतिर्महान् / तस्मै क्षत्ता यथावृत्तमाचचक्षे सुतं प्रति // 9 गर्जन्निव महामेघः प्रमथ्य निहतः शरैः॥४० त्वरमाणः स चोत्थाय सोमकः सह मत्रिभिः / प्रजाश्चतुर्विधास्तेन जिता राजन्महात्मना / प्रविश्यान्तःपुरं पुत्रमाश्वासयदरिंदमः॥ 10 तेनात्मतपसा लोकाः स्थापिताश्चापि तेजसा // 41 सान्त्वयित्वा तु तं पुत्रं निष्क्रम्यान्तःपुरान्नृपः। तस्यैतद्देवयजनं स्थानमादित्यवर्चसः / ऋत्विजैः सहितो राजन्सहामात्य उपाविशत्॥११ पश्य पुण्यतमे देशे कुरुक्षेत्रस्य मध्यतः॥ 42 सोमक उवाच / एतत्ते सर्वमाख्यातं मान्धातुश्चरितं महत् / धिगस्त्विहैकपुत्रत्वमपुत्रत्वं वरं भवेत् / - 557 -
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________________ 3. 127. 12] 'महाभारत [3. 128. 14 नित्यातुरत्वाद्भूतानां शोक एवैकपुत्रता // 12 / मातरस्तु बलात्पुत्रमपाकर्षः कृपान्विताः / इदं भार्याशतं ब्रह्मन्परीक्ष्योपचितं प्रभो। हा हताः स्मेति वाशन्त्यस्तीव्रशोकसमन्विताः // 2 पुत्रार्थिना मया वोढं न चासां विद्यते प्रजा॥१३ तं मातरः प्रत्यकर्षन्गृहीत्वा दक्षिणे करे। . एकः कथंचिदुत्पन्नः पुत्रो जन्तुरयं मम। सव्ये पाणौ गृहीत्वा तु याजकोऽपि स्म कर्षति / यतमानस्य सर्वासु किं नु दुःखमतः परम् // 14 कुररीणामिवार्तानामपाकृष्य तु तं सुतम्। वयश्च समतीतं मे सभार्यस्य द्विजोत्तम। " विशस्य चैनं विधिना वपामस्य जुहाव सः // 4 आसां प्राणाः समायत्ता मम चात्रैकपुत्रके // 15 वपायां हूयमानायां गन्धमाघ्राय मातरः। स्यान्नु कर्म तथा युक्तं येन पुत्रशतं भवेत् / .. आर्ता निपेतुः सहसा पृथिव्यां कुरुनन्दन / महता लघुना वापि कर्मणा दुष्करेण वा // 16 सर्वाश्च गर्भानलभंस्ततस्ताः पार्थिवाङ्गनाः // 5 ऋत्विगुवाच। .. ततो दशसु मासेषु सोमकस्य विशां पते। . अस्ति वै तादृशं कर्म येन पुत्रशतं भवेत्। जज्ञे पुत्रशतं पूर्ण तासु सर्वासु भारत // 6 यदि शक्नोषि तत्कर्तुमथ वक्ष्यामि सोमक // 17 जन्तुर्येष्ठः समभवजनित्र्यामेव भारत / सोमक उवाच। स तासामिष्ट एवासीन्न तथान्ये निजाः सुताः // 7 कार्य वा यदि वाकार्य येन पुत्रशतं भवेत्। / तच्च लक्षणमस्यासीत्सौवर्णं पार्श्व उत्तरे / कृतमेव हि तद्विद्धि भगवान्प्रब्रवीतु मे // 18 . तस्मिन्पुत्रशते चाग्र्यः स बभूव गुणैर्युतः // 8 .. ऋत्विगुवाच। ततः स लोकमगमत्सोमकस्य गुरुः परम् / यजस्व जन्तुना राजंस्त्वं मया वितते क्रतौ।" अथ काले व्यतीते तु सोमकोऽप्यगमत्परम् // 9 ततः पुत्रशतं श्रीमद्भविष्यत्यचिरेण ते // 19. अथ तं नरके घोरे पच्यमानं ददर्श सः। वपायां हूयमानायां धूममाघ्राय मातरः / तमपृच्छत्किमर्थं त्वं नरके पच्यसे द्विज // 10 ततस्ताः सुमहावीर्याञ्जनयिष्यन्ति ते सुतान् // 20 तमब्रवीद्गुरुः सोऽथ पच्यमानोऽग्निना भृशम्। : तस्यामेव तु ते जन्तुर्भविता पुनरात्मजः। त्वं मया याजितो राजस्तस्येदं कर्मणः फलम्॥११ उत्तरे चास्य सौवर्णं लक्ष्म पार्श्वे भविष्यति॥२१ एतच्छ्रुत्वा स राजर्षिर्धर्मराजानमब्रवीत् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अहमत्र प्रवेक्ष्यामि मुच्यतां मम याजकः। . - सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 127 // मत्कृते हि महाभागः पच्यते नरकाग्निना // 12 _ धर्म उवाच। . सोमक उवाच / नान्यः कर्तुः फलं राजन्नुपभुङ्क्ते कदाचन / ब्रह्मन्यद्यद्यथा कार्य तत्तत्कुरु तथा तथा। इमानि तव दृश्यन्ते फलानि ददतां वर // 13 पुत्रकामतया सर्व करिष्यामि वचस्तव // 1 सोमक उवाच। लोमश उवाच। पुण्यान्न कामये लोकानृतेऽहं ब्रह्मवादिनम् / ततः स याजयामास सोमकं तेन जन्तुना। इच्छाम्यहमनेनैव सह वस्तुं सुरालये // 14 - 558 - __128 R
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________________ 8. 128. 15 ] आरण्यकपर्व [3. 129. 20 नरके वा धर्मराज कर्मणास्य समो ह्यहम् / ' | अपसर्पणं महीपाल रौप्यायाममितौजसः // 7.-: पुण्यापुण्यफलं देव सममस्त्वावयोरिदम् // 15 अत्रानुवंशं पठतः शृणु मे कुरुनन्दन / . धर्म उवाच। उलूखलैराभरणैः पिशाची यदभाषत / / 8 . यद्येवमीप्सितं राजन्भुक्ष्वास्य सहितः फलम् / युगंधरे दधि प्राश्य उषित्वा चाच्युतस्थले। तुल्यकालं सहानेन पश्चात्प्राप्स्यसि सद्गतिम् // 16 तद्वद्भूतिलये स्नात्वा सपुत्रा वस्तुमिच्छसि // 9 लोमश उवाच / एकरात्रमुषित्वेह द्वितीयं यदि वत्स्यसि।। स चकार तथा सर्वं राजा राजीवलोचनः / / एतद्वै ते दिवा वृत्तं रात्रौ वृत्तमतोऽन्यथा // 10 पुनश्च लेभे लोकान्स्वान्कर्मणा निर्जिताञ्शुभान्। अत्राद्याहो निवत्स्यामः क्षपां भरतसत्तम / सह तेनैव विप्रेण गुरुणा स गुरुप्रियः // 17 // द्वारमेतद्धि कौन्तेय कुरुक्षेत्रस्य भारत // 11 // एष तस्याश्रमः पुण्यो य एषोऽने विराजते। .. अत्रैव नाहुषो राजा राजन्क्रतुभिरिष्टवान् / - क्षान्त उष्यात्र षडानं प्राप्नोति सुगतिं नरः॥ 18 ययातिर्बहुरत्नाढ्यैर्यवेन्द्रो मुदमभ्यगात् // 12 : एतस्मिन्नपि राजेन्द्र वत्स्यामो विगतज्वराः / / एतत्प्लक्षावतरणं यमुनातीर्थमुच्यते / षडानं नियतात्मानः सज्जीभव कुरूद्वह // 19 . एतद्वै नाकपृष्ठस्य द्वारमाहुर्मनीषिणः // 13. इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अत्र सारस्वतैर्यज्ञैरीजानाः परमर्षयः। . भष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 128 // यूपोलूखलिनस्तात गच्छन्त्यवभृथाप्लवम् // 14 अत्रैव भरतो राजा मेध्यमश्वमवासृजत् / / लोमश उवाच / असकृत्कृष्णसारङ्गं धर्मेणावाप्य मेदिनीम् // 15 अस्मिन्किल स्वयं राजन्निष्टवान्दै प्रजापतिः। - अत्रैव पुरुषव्याघ्र मरुत्तः सत्रमुत्तमम् / सत्रमिष्टीकृतं नाम पुरा वर्षसहस्रिकम् // 1 आस्ते देवर्षिमुख्येन संवर्तेनाभिपालितः॥ 16 : अम्बरीषश्च नाभाग इष्टवान्यमुनामनु / अत्रोपस्पृश्य राजेन्द्र सर्वाल्लोकान्प्रपश्यति / / यज्ञैश्च तपसा चैव परां सिद्धिमवाप सः॥ 2 पूयते दुष्कृताञ्चैव समुपस्पृश्य भारत // 17 . देशो नाहुषयज्ञानामयं पुण्यतमो नृप / - वैशंपायन उवाच / यत्रेष्ट्वा दश पद्मानि सदस्येभ्यो निसृष्टवान् // 3 तत्र सभ्रातृकः स्नात्वा स्तूयमानो महर्षिभिः। सार्वभौमस्य कौन्तेय ययातेरमितौजसः। लोमशं पाण्डवश्रेष्ठ इदं वचनमब्रवीत् // 18 : स्पर्धमानस्य शक्रेण पश्येदं यज्ञवास्त्विह // 4: सर्वाल्लोकान्प्रपश्यामि तपसा सत्यविक्रम / पश्य नानाविधाकारैरग्निभिर्निचितां महीम् / इहस्थः पाण्डवश्रेष्ठं पश्यामि श्वेतवाहनम् // 19 : मजन्तीमिव चाक्रान्तां ययातेर्यज्ञकर्मभिः // 5 लोमश उवाच। / एषा शम्येकपत्रा सा शरकं चैतदुत्तमम् / एवमेतन्महाबाहो पश्यन्ति परमर्षयः / पश्य रामहदानेतान्पश्य नारायणाश्रमम् // 6 / सरस्वतीमिमां पुण्यां पश्यैकशरणावृताम् / एतदा कपुत्रस्य योगैर्विचरतो महीम् / .. | यत्र स्नात्वा नरश्रेष्ठ धूतपाप्मा भविष्यसि // 20. -559 -
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________________ 3. 129. 21] महाभारते [3. 131.4 इह सारस्वतैर्यज्ञैरिष्टवन्तः सुरर्षयः / एतहारं महाराज मानसस्य प्रकाशते / ऋषयश्चैव कौन्तेय तथा राजर्षयोऽपि च // 21 वर्षमस्य गिरेमध्ये रामेण श्रीमता कृतम् // 12 वेदी प्रजापतेरेषा समन्तात्पञ्चयोजना / एष वातिकषण्डो वै प्रख्यातः सत्यविक्रमः / कुरोर्वे यज्ञशीलस्य क्षेत्रमेतन्महात्मनः // 22 नाभ्यवर्तत यहारं विदेहानुत्तरं च यः॥ 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एष उज्जानको नाम यवक्रीयंत्र शान्तवान्। एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 129 // अरुन्धतीसहायश्च वसिष्ठो भगवानृषिः // 14 130 ह्रदश्च कुशवानेष यत्र पद्मं कुशेशयम् / __ लोमश उवाच। आश्रमश्चैव रुक्मिण्या यत्राशाम्यदकोपना // 15 इह मास्तपस्तत्वा स्वर्ग गच्छन्ति भारत।। समाधीनां समासस्तु पाण्डवेय श्रुतस्त्वया / मर्तुकामा नरा राजनिहायान्ति सहस्रशः // 1 तं द्रक्ष्यसि महाराज भृगुतुङ्गं महागिरिम् // 16 एवमाशीः प्रयुक्ता हि दक्षेण यजता पुरा / अलां चोपजलां चैव यमुनामभितो नदीम् / इह ये व मरिष्यन्ति ते वै स्वर्गजितो नराः॥२ उशीनरो वै यत्रेष्ट्वा वासवादत्यरिच्यत // 17 एषा सरस्वती पुण्या दिव्या चोघवती नदी। तां देवसमितिं तस्य वासवश्व विशां पते। एतद्विनशनं नाम सरस्वत्या विशां पते // 3 अभ्यगच्छत राजानं ज्ञातुमग्निश्च भारत // 18 द्वारं निषादराष्ट्रस्य येषां द्वेषात्सरस्वती / जिज्ञासमानौ वरदौ महात्मानमुशीनरम् / प्रविष्टा पृथिवीं वीर मा निषादा हि मां विदुः॥४ इन्द्रः श्येनः कपोतोऽनिर्भूत्वा यज्ञेऽभिजग्मतुः॥१९ एष वै चमसोद्भेदो यत्र दृश्या सरस्वती / ऊरुं राज्ञः समासाद्य कपोतः श्येनजाद्भयात् / यत्रैनामभ्यवर्तन्त दिव्याः पुण्याः समुद्रगाः // 5 शरणार्थी तदा राजन्निलिल्ये भयपीडितः॥२० एतसिन्धोर्महत्तीथं यत्रागस्त्यमरिंदम / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि लोपामुद्रा समागम्य भर्तारमवृणीत वै // 6 त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 130 // एतत्प्रभासते तीथं प्रभासं भास्कराते। इन्द्रस्य दयितं पुण्यं पवित्रं पापनाशनम् // 7 श्येन उवाच। एतद्विष्णुपदं नाम दृश्यते तीर्थमुत्तमम् / धर्मात्मानं त्वाहुरेकं सर्वे राजन्महीक्षितः / एषा रम्या विपाशा च नदी परमपावनी // 8 / स वै धर्मविरुद्धं त्वं कस्मात्कर्म चिकीर्षसि // 1 अत्रैव पुत्रशोकेन वसिष्ठो भगवानृषिः / विहितं भक्षणं राजन्पीड्यमानस्य मे क्षुधा / बद्धात्मानं निपतितो विपाशः पुनरुत्थितः॥९ मा भातीधर्मलोभेन धर्ममुत्सृष्टवानसि // 2 काश्मीरमण्डलं चैतत्सर्वपुण्यमरिंदम। राजोवाच / महर्षिभिश्चाध्युषितं पश्येदं भ्रातृभिः सह // 10 संत्रस्तरूपस्त्राणार्थी त्वत्तो भीतो महाद्विज / अत्रोत्तराणां सर्वेषामृषीणां नाहुषस्य च / मत्सकाशमनुप्राप्तः प्राणगृध्रुरयं द्विजः॥३ अमेश्चात्रैव संवादः काश्यपस्य च भारत // 11 / एवमभ्यागतस्येह कपोतस्याभयार्थिनः / -560 -
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________________ 8. 131. 4] आरण्यकपर्व [3. 131. 29 अप्रदाने परोऽधर्मः किं त्वं श्येन प्रपश्यसि // 4 भक्षयामि महाराज किमन्नाद्येन तेन मे // 17 प्रस्पन्दमानः संभ्रान्तः कपोतः श्येन लक्ष्यते। यस्तु मे दैवविहितो भक्षः क्षत्रियपुंगव / मत्सकाशं जीवितार्थी तस्य त्यागो विगर्हितः // 5 तमुत्सृज महीपाल कपोतमिममेव मे // 18 . श्येन उवाच / श्येनाः कपोतान्खादन्ति स्थितिरेषा सनातनी / आहारात्सर्वभूतानि संभवन्ति महीपते / मा राजन्मार्गमाज्ञाय कदलीस्कन्धमारुह // 19 आहारेण विवर्धन्ते तेन जीवन्ति जन्तवः // 6 राजोवाच / शक्यते दुस्त्यजेऽप्यर्थे चिररात्राय जीवितुम् / राज्यं शिबीनामृद्धं वै शाधि पक्षिगणार्चित / .... न तु भोजनमुत्सृज्य शक्यं वर्तयितुं चिरम् // 7 यद्वा कामयसे किंचिच्छथेन सर्वं ददानि ते / भक्ष्याद्विलोपितस्याद्य मम प्राणा विशां पते / विनेमं पक्षिणं श्येन शरणार्थिनमागतम् // 20 विसृज्य कायमेष्यन्ति पन्थानमपुनर्भवम् // 8 येनेमं वर्जयेथास्त्वं कर्मणा पक्षिसत्तम / प्रमृते मयि धर्मात्मन्पुत्रदारं नशिष्यति / / तदाचक्ष्व करिष्यामि न हि दास्ये कपोतकम् // 21 रक्षमाणः कपोतं त्वं बहून्प्राणान्नशिष्यसि // 9 श्येन उवाच / धर्म यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत् / उशीनर कपोते ते यदि स्नेहो नराधिप / अविरोधी तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम // 10 आत्मनो मांसमुत्कृत्य कपोततुलया धृतम् // 22 विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरुलाघवम् / यदा समं कपोतेन तव मांसं भवेन्नृप / न बाधा विद्यते यत्र तं धर्म समुदाचरेत् // 11 तदा प्रदेयं तन्मह्यं सा मे तुष्टिर्भविष्यति // 23 गुरुलाघवमाज्ञाय धर्माधर्मविनिश्चये। राजोवाच / यतो भूयांस्ततो राजन्कुरु धर्मविनिश्चयम् // 12 अनुग्रहमिमं मन्ये श्येन यन्माभियाचसे / राजोवाच / तस्मात्तेऽद्य प्रदास्यामि स्वमांसं तुलया धृतम् // 24 बहुकल्याणसंयुक्तं भाषसे विहगोत्तम / लोमश उवाच।। सुपर्णः पक्षिराट् किं त्वं धर्मज्ञश्चास्यसंशयम् / अथोत्कृत्य स्वमांसं तु राजा परमधर्मवित् / तथा हि धर्मसंयुक्तं बहु चित्रं प्रभाषसे // 13 तुलयामास कौन्तेय कपोतेन सहाभिभो // 25 न तेऽस्त्यविदितं किंचिदिति त्वा लक्षयाम्यहम् / ध्रियमाणस्तु तुलया कपोतो व्यतिरिच्यते। शरणैषिणः परित्यागं कथं साध्विति मन्यसे / / 14 पुनश्चोत्कृत्य मांसानि राजा प्रादादुशीनरः // 26 आहारार्थ समारम्भस्तव चायं विहंगम / न विद्यते यदा मांसं कपोतेन समं धृतम् / शक्यश्चाप्यन्यथा कर्तुमाहारोऽप्यधिकस्त्वया // 15 तत उत्कृत्तमांसोऽसावारुरोह स्वयं तुलाम् // 27 गोवृषो वा वराहो वा मृगो वा महिषोऽपि वा। श्येन उवाच / त्वदर्थमद्य क्रियतां यद्वान्यदभिकाङ्क्षसे // 16 . इन्द्रोऽहमस्मि धर्मज्ञ कपोतो हव्यवाडयम् / श्येन उवाच। जिज्ञासमानौ धर्मे त्वां यज्ञवाटमुपागतौ // 28 न वराहं न चोक्षाणं न मृगान्विविधांस्तथा। यत्ते मांसानि गात्रेभ्य उत्कृत्तानि विशां पते / म. भा. 71 - 561
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________________ 3. 131. 29 ] महाभारते [ 3. 132. 12 एषा ते भास्वरी कीर्तिर्लोकानभिभविष्यति // 29 स्तथायुक्तं यो निजग्राह बन्दिम् / यावल्लोके मनुष्यास्त्वां कथयिष्यन्ति पार्थिव / अष्टावक्र: केन चासौ बभूव तावत्कीर्तिश्च लोकाश्च स्थास्यन्ति तव शाश्वताः॥३० तत्सर्वं मे लोमश शंस तत्त्वम् // 5 - लोमश उवाच / लोमश उवाच। तत्पाण्डवेय सदनं राज्ञस्तस्य महात्मनः / उद्दालकस्य नियतः शिष्य एको पश्यस्वैतन्मया सार्धं पुण्यं पापप्रमोचनम् // 31 नाम्ना कहोडेति बभूव राजन् / / अत्र वै सततं देवा मुनयश्च सनातनाः / शुश्रूषुराचार्यवशानुवर्ती दृश्यन्ते ब्राह्मणै राजन्पुण्यवद्भिर्महात्मभिः॥ 32 दीर्घ कालं सोऽध्ययनं चकार // 6 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि तं वै विप्राः पर्यभवंश्च शिष्या___ एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 131 // ___ स्तं च ज्ञात्वा विप्रकारं गुरुः सः। तस्मै प्रादात्सद्य एव श्रुतं च लोमश उवाच भार्यां च वै दुहितरं स्वां सुजाताम् // 7 यः कथ्यते मत्रविदग्र्यबुद्धि तस्या गर्भः समभवदग्निकल्पः - रौदालकिः श्वेतकेतुः पृथिव्याम् / सोऽधीयानं पितरमथाभ्युवाच / तस्याश्रमं पश्य नरेन्द्र पुण्यं सवां रात्रिमध्ययनं करोषि ... सदाफलैरुपपन्नं महीजैः॥१ नेदं पितः सम्यगिवोपवर्तते // 8 साक्षादत्र श्वेतकेतुर्ददर्श उपालब्धः शिष्यमध्ये महर्षिः सरस्वती मानुषदेहरूपाम् / स तं कोपादुदरस्थं शशाप / 3 वेत्स्यामि वाणीमिति संप्रवृत्तां यस्मात्कुक्षौ वर्तमानो ब्रवीषि __ सरस्वती श्वेतकेतुर्बभाषे // 2 तस्माद्वको भवितास्यष्टकृत्वः॥ 9 तस्मिन्काले ब्रह्मविदां वरिष्ठा स वै तथा वक्र एवाभ्यजाय, वास्तां तदा मातुलभागिनेयौ। ___दष्टावक्रः प्रथितो वै महर्षिः। अष्टावक्रश्चैव कहोडसूनु तस्यासीद्वै मातुलः श्वेतकेतुः रौद्दालकिः श्वेतकेतुश्च राजन् // 3 ___स तेन तुल्यो वयसा बभूव // 10 विदेहराजस्य महीपतेस्तौ संपीड्यमाना तु तदा सुजाता . :: विप्रावुभौ मातुलभागिनेयौ। विवर्धमानेन सुतेन कुक्षौ। प्रविश्य यज्ञायतनं विवादे उवाच भर्तारमिदं रहोगता बन्दि निजग्राहतुरप्रमेयम् // 4 प्रसाद्य हीनं वसुना धनार्थिनी // 11 युधिष्ठिर उवाच। कथं करिष्याम्यधना महर्षे कथंप्रभावः स बभूव विप्र मासश्चायं दशमो वर्तते मे। -562 -
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________________ 1. 132. 12] आरण्यकपर्व [3. 133.5 विचक्षणत्वं च भविष्यते नौ __ शिवश्व सौम्यश्च हि ब्रह्मघोषः // 19 तौ जग्मतुर्मातुलभागिनेयौ यज्ञं समृद्ध जनकस्य राज्ञः। अष्टावक्र: पथि राज्ञा समेत्य उत्सार्यमाणो वाक्यमिदं जगाद // 20 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 132 // न चास्ति ते वसु किंचित्प्रजाता येनाहमेतामापदं निस्तरेयम् // 12 उक्तस्त्वेवं भार्यया वै कहोडो वित्तस्यार्थे जनकमथाभ्यगच्छत् / स वै तदा वादविदा निगृह्य निमजितो बन्दिनेहाप्सु विप्रः // 13 उहालकस्तं तु तदा निशम्य सूतेन वादेऽप्सु तथा निमज्जितम् / उवाच तां तत्र ततः सुजाता___ मष्टावक्रे गृहितव्योऽयमर्थः // 14 ररक्ष सा चाप्यति तं सुमनं जातोऽप्येवं न स शुश्राव विप्रः / उद्दालकं पितृवच्चापि मेने ___ अष्टावक्रो भ्रातृवच्छेतकेतुम् // 15 ततो वर्षे द्वादशे श्वेतकेतु___रष्टावक्र पितुरङ्के निषण्णम् / अपाकर्षद्गृह्य पाणौ रुदन्तं ___ नायं तवाङ्कः पितुरित्युक्तवांश्च // 16 यत्तेनोक्तं दुरुक्तं तत्तदानीं हृदि स्थितं तस्य सुदुःखमासीत् / गृहं गत्वा मातरं रोदमानः ____ पप्रच्छेदं क नु तातो ममेति // 17 ततः सुजाता परमार्तरूपा शापाद्भीता सर्वमेवाचचक्षे। तद्वै तत्त्वं सर्वमाज्ञाय मातु___रित्यब्रवीच्छेतकेतुं स विप्रः // 18 गच्छाव यज्ञं जनकस्य राज्ञो बह्वाश्चर्यः श्रूयते तस्य यज्ञः / श्रोष्यावोऽत्र ब्राह्मणानां विवाद... मन्नं चाग्र्यं तत्र भोक्ष्यावहे च / / अष्टावक्र उवाच / अन्धस्य पन्था बधिरस्य पन्थाः स्त्रियः पन्था वैवधिकस्य पन्थाः। राज्ञः पन्था ब्राह्मणेनासमेत्य समेत्य तु ब्राह्मणस्यैव पन्थाः // 1 : राजोवाच / पन्था अयं तेऽद्य मया निसृष्टो 'येनेच्छसे तेन कामं व्रजस्व / न पावको विद्यते वै लघीयानिन्द्रोऽपि नित्यं नमते ब्राह्मणानाम् // 2 अष्टावक्र उवाच / यज्ञं द्रष्टुं प्राप्तवन्तौ स्व तात ___ कौतूहलं नौ बलवद्वै विवृद्धम् / आवां प्राप्तावतिथी संप्रवेशं काङ्क्षावहे द्वारपते तवाज्ञाम् // 3 ऐन्द्रद्युम्नेर्यज्ञदृशाविहावां विवक्षू वै जनकेन्द्रं दिदृक्ष। न वै क्रोधाद्वयाधिनैवोत्तमेन संयोजय द्वारपाल क्षणेन // 4 द्वारपाल उवाच / बन्देः समादेशकरा वयं स्म - / - 563
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________________ 8. 133.5] महाभारते [3. 133. 19 निबोध वाक्यं च मयेर्यमाणम् / न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः / ने वै बालाः प्रविशन्त्यत्र विप्रा : ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान् // 12 वृद्धा विद्वांसः प्रविशन्ति द्विजाग्र्याः॥ 5 दिदृक्षुरस्मि संप्राप्तो बन्दिनं राजसंसदि / अष्टावक्र उवाच / निवेदयस्व मां द्वाःस्थ राज्ञे पुष्करमालिने॥ 13 यद्यत्र वृद्धेषु कृतः प्रवेशो द्रष्टास्यद्य वदतो द्वारपाल - युक्तं मम द्वारपाल प्रवेष्टुम् / ___ मनीषिभिः सह वादे विवृद्धे / वयं हि वृद्धाश्चरितव्रताश्च उताहो वाप्युच्चतां नीचतां वा ' वेदप्रभावेन प्रवेशनार्हाः॥६ तूष्णीं भूतेष्वथ सर्वेषु चाद्य // 14 / शुश्रूषवश्वापि जितेन्द्रियाश्च द्वारपाल उवाच। ज्ञानागमे चापि गताः स्म निष्ठाम् / कथं यज्ञं दशवर्षो विशेस्त्वं न बाल इत्यवमन्तव्यमाहु विनीतानां विदुषां संप्रवेश्यम् / बोलोऽप्यग्निर्दहति स्पृश्यमानः // 7 उपायतः प्रयतिष्ये तवाहं द्वारपाल उवाच / प्रवेशने कुरु यत्नं यथावत् // 15 सरस्वतीमीरय वेदजुष्टा अष्टावक्र उवाच। मेकाक्षरां बहुरूपां विराजम् / भो भो राजञ्जनकानां वरिष्ठ अङ्गात्मानं समवेक्षस्व बालं . . ___ सभाज्यस्त्वं त्वयि सर्व समृद्धम् / किं श्लाघसे दुर्लभा वादसिद्धिः // 8 त्वं वा कर्ता कर्मणां यज्ञियानां अष्टावक्र उवाच / ययातिरेको नृपतिर्वा पुरस्तात् // 16 5 न ज्ञायते कायवृद्ध्या विवृद्धि विद्वान्वन्दी वेदविदो निगृह्य यथाष्ठीला शाल्मले: संप्रवृद्धा / वादे भग्नानप्रतिशङ्कमानः। हस्वोऽल्पकायः फलितो विवृद्धो त्वया निसृष्टैः पुरुषैराप्तकृद्भियश्चाफलस्तस्य न वृद्धभावः // 9 जले सर्वान्मजयतीति नः श्रुतम् // 17 द्वारपाल उवाच / वृद्धेभ्य एवेह मतिं स्म बाला स तच्छ्रुत्वा ब्राह्मणानां सकाशा द्ब्रह्मोद्यं वै कथयितुमागतोऽस्मि / गृह्णन्ति कालेन भवन्ति वृद्धाः। . न हि ज्ञानमल्पकालेन शक्यं कासौ बन्दी यावदेनं समेत्य कस्माद्बालो वृद्ध इवावभाषसे // 10 नक्षत्राणीव सविता नाशयामि // 18 अष्टावक्र उवाच / राजोवाच न तेन स्थविरो भवति येनास्य पलितं शिरः / आशंससे बन्दिनं त्वं विजेतुबालोऽपि यः प्रजानाति तं देवाः स्थविरं विदुः॥११ / ___मविज्ञात्वा वाक्यबलं परस्य / -564
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________________ 3. 133. 19 ] आरण्यकपर्व [3. 134.6 विज्ञातवीर्यैः शक्यमेवं प्रवक्तुं तस्माहारं वितराम्येष बन्दी // 27 दृष्टश्चासौ ब्राह्मणैर्वादशीलैः॥ 19 / इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि अष्टावक्र उवाच / प्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 133 // विवादितोऽसौ न हि मादृशैर्हि सिंहीकृतस्तेन वदत्यभीतः। अष्टावक्र उवाच / समेत्य मां निहतः शेष्यतेऽद्य अत्रोग्रसेनसमितेषु राजमार्गे भग्नं शकटमिवाबलाक्षम् // 20 न्समागतेष्वप्रतिमेषु राजसु / राजोवाच। न वै विवित्सान्तरमस्ति वादिनां षण्णाभेर्द्वादशाक्षस्य चतुर्विंशतिपर्वणः। ___ महाजले हंसनिनादिनामिव // 1 . यनिषष्टिशतारस्य वेदार्थं स परः कविः // 21 न मेऽद्य वक्ष्यस्यतिवादिमानिअष्टावक्र उवाच। नलहं प्रपन्नः सरितामिवागमः। . चतुर्विंशतिपर्व त्वां षण्णाभि द्वादशप्रधि / हुताशनस्येव समिद्धतेजसः .. तत्रिषष्टिशतारं वै चक्रं पातु सदागति॥२२ स्थिरो भवस्वेह ममाद्य बन्दिन् // 2 राजोवाच। बन्धुवाच। वडवे इव संयुक्ते श्येनपाते दिवौकसाम् / व्याघ्रं शयानं प्रति मा प्रबोधय कस्तयोर्गर्भमाधत्ते गर्भ सुषुवतुश्च कम् // 23 आशीविषं सृक्किणी लेलिहानम् / . .. अष्टावक्र उवाच। पदाहतस्येव शिरोऽभिहत्य मा स्म ते ते गृहे राजशात्रवाणामपि ध्रुवम् / ___नादष्टो वै मोक्ष्यसे तन्निबोध // 3 - वातसारथिराधत्ते गर्भ सुषुवतुश्च तम् // 24 यो वै दत्सिंहननोपपन्नः .. राजोवाच / __ सुदुर्बलः पर्वतमाविहन्ति / किं स्वित्सुप्तं न निमिषति किं स्विज्जातं न चोपति। तस्यैव पाणिः सनखो विशीर्यते कस्य स्विद्धृदयं नास्ति किं स्विद्वेगेन वर्धते // 25 न चैव शैलस्य हि दृश्यते व्रणः॥ 4 अष्टावक्र उवाच। सर्वे राज्ञो मैथिलस्य मैनाकस्येव पर्वताः। - मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चोपति / निकृष्टभूता राजानो वत्सा अनडुहो यथा // 5 अश्मनो हृदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते // 26 लोमश उवाच। राजोवाच / अष्टावक्रः समिती गर्जमानो न त्वा मन्ये मानुषं देवसत्त्वं जातक्रोधो बन्दिनमाह राजन् / - न त्वं बालः स्थविरस्त्वं मतो मे। उक्ते वाक्ये चोत्तरं मे ब्रवीहि न ते तुल्यो विद्यते वाक्प्रलापे . वाक्यस्य चाप्युत्तरं ते ब्रवीमि // 6 -565 -
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________________ 3. 134.7] महाभारते [3. 134. 18 बन्धुवाच / एक एवाग्निर्बहुधा समिध्यते - एकः सूर्यः सर्वमिदं प्रभासते / एको वीरो देवराजो निहन्ता यमः पितॄणामीश्वरश्चैक एव // 7 ___ अष्टावक्र उवाच / द्वाविन्द्राग्नी चरतो वै सखायौ द्वौ देवर्षी नारदः पर्वतश्च / द्वावश्विनौ द्वे च रथस्य चक्रे __ भार्यापती द्वौ विहितौ विधात्रा // 8 बन्धुवाच / त्रिः सूयते कर्मणा वै प्रजेयं त्रयो युक्ता वाजपेयं वहन्ति / अध्वर्यवस्त्रिषवणानि तन्वते त्रयो लोकास्त्रीणि ज्योतींषि चाहुः // 9 अष्टावक्र उवाच / चतुष्टयं ब्राह्मणानां निकेतं ___ चत्वारो युक्ता यज्ञमिमं वहन्ति / दिशश्चतस्रश्चतुरश्च वर्णाश्चतुष्पदा गौरापि शश्वदुक्ता / / 10 बन्धुवाच। पञ्चाग्नयः पञ्चपदा च पति यज्ञाः पञ्चैवाप्यथ पञ्चेन्द्रियाणि / दृष्टा वेदे पश्चचूडाश्च पञ्च लोके ख्यातं पञ्चनदं च पुण्यम् // 11 अष्टावक्र उवाच / षडाधाने दक्षिणामाहुरेके षडेवेमे ऋतवः कालचक्रम् / षडिन्द्रियाण्युत षट् कृत्तिकाश्च षट् साद्यस्काः सर्ववेदेषु दृष्टाः // 12 / बन्धुवाच / सप्त ग्राम्याः पशवः सप्त वन्याः सप्त छन्दांसि ऋतुमेकं वहन्ति / सप्तर्षयः सप्त चाप्यर्हणानि सप्ततश्री प्रथिता चैव वीणा // 13 अष्टावक्र उवाच। अष्टौ शाणाः शतमानं वहन्ति ____तथाष्टपादः शरभः सिंघाती / अष्टौ वसूशुश्रुम देवतासु यूपश्चाष्टानिर्विहितः सर्वयज्ञः // 14 ... बन्धुवाच। . . नवैवोक्ताः सामिधेन्यः पितॄणां . . __तथा प्राहुर्नवयोगं विसर्गम्। नवाक्षरा बृहती संप्रदिष्टा नवयोगो गणनामेति शश्वत् // 15 अष्टावक्र उवाच / दशा दशोक्ताः पुरुषस्य लोके __ सहस्रमाहुर्दश पूर्णं शतानि / दशैव मासान्बिभ्रति गर्भवत्यो ___दर्शरका दश दाशा दशाणाः // 16 बन्धुकाच / एकादशैकादशिनः पशूना. मेकादशैवात्र भवन्ति यूपाः। एकादश प्राणभृतां विकारा एकादशोक्ता दिवि देवेषु रुद्राः // 17 अष्टावक्र उवाच / संवत्सरं द्वादशमासमाहु र्जगत्याः पादो द्वादशैवाक्षराणि। द्वादशाहः प्राकृतो यज्ञ उक्तो द्वादशादित्यान्कथयन्तीह विप्राः // 18 -566
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________________ 8. 134. 19 ] आरण्यकपर्व [ 3. 134. 32 बन्धुवाच / अष्टावक्र उवाच / त्रयोदशी तिथिरुक्ता महोग्रा विप्राः समुद्राम्भसि मन्जितास्ते त्रयोदशद्वीपवती मही च // 19 - वाचा जिता मेधया आविदानाः / लोमश उवाच / तां मेधया वाचमथोज्जहार एतावदुक्त्वा विरराम बन्दी ___ यथा वाचमवचिन्वन्ति सन्तः // 26 . श्लोकस्यार्धं व्याजहाराष्टवक्रः। अग्निर्दहञ्जातवेदाः सतां गृहात्रयोदशाहानि ससार केशी विसर्जयस्तेजसा न स्म धाक्षीत् / त्रयोदशादीन्यतिच्छन्दांसि चाहुः // 20 बालेषु पुत्रेषु कृपणं वदत्सु ततो महानुदतिष्ठन्निनाद तथा वाचमवचिन्वन्ति सन्तः // 27 - स्तूष्णीभूतं सूतपुत्रं निशम्य / श्लेष्मातकी क्षीणवर्चाः शृणोषि अधोमुखं ध्यानपरं तदानी ___उताहो त्वां स्तुतयो मादयन्ति / मष्टावक्रं चाप्युदीर्यन्तमेव // 21 हस्तीव त्वं जनक वितुद्यमानो। * तस्मिंस्तथा संकुले वर्तमाने न मामिकां वाचमिमां शृणोषि // 28 स्फीते यज्ञे जनकस्याथ राज्ञः / जनक उवाच / अष्टावक्रं पूजयन्तोऽभ्युपेयु शृणोमि वाचं तव दिव्यरूपाविप्राः सर्वे प्राञ्जलयः प्रतीताः // 22 ममानुषी दिव्यरूपोऽसि साक्षात् / .. अष्टावक्र उवाच / अजैषीर्यद्वन्दिनं त्वं विवादे अनेन वै ब्राह्मणाः शुश्रुवांसो निसृष्ट एष तव कामोऽद्य बन्दी // 29 वादे जित्वा सलिले मज्जिताः किल / अष्टावक्र उवाच। * तानेव धर्मानयमद्य बन्दी नानेन जीवता कश्चिदर्थो मे बन्दिना नृप / प्राप्नोतु गृह्याप्सु निमज्जयैनम् / / 23 पिता यद्यस्य वरुणो मज्जयैनं जलाशये // 30 . वन्धुवाच। अहं पुत्रो वरुणस्योत राज्ञ बन्धुवाच। स्तत्रास सत्रं द्वादशवार्षिकं वै। अहं पुत्रो वरुणस्योत राज्ञो सत्रेण ते जनक तुल्यकालं ____न मे भयं सलिले मज्जितस्य / तदर्थं ते प्रहिता मे द्विजाग्र्याः // 24 इमं मुहूर्त पितरं द्रक्ष्यतेऽयएते सर्वे वरुणस्योत यज्ञं मष्टावक्रश्चिरनष्टं कहोडम् // 31 द्रष्टुं गता इह आयान्ति भूय:। लोमश उवाच। : अष्टावक्र पूजये पूजनीयं ततस्ते पूजिता विप्रा वरुणेन महात्मना। ... यस्य हेतो नितारं समेष्ये // 25 // उदतिष्ठन्त ते सर्वे जनकस्य समीपतः // 32 // -567
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________________ 3. 134. 38 ] महाभारते [ 3. 135. 15 कहोड उवाच। एतत्कर्दमिलं नाम भरतस्याभिषेचनम् // 1 इत्यर्थमिच्छन्ति सुताञ्जना जनक कर्मणा / अलक्ष्म्या किल संयुक्तो वृत्रं हत्वा शचीपतिः / यदहं नाशकं कर्तुं तत्पुत्रः कृतवान्मम // 33 आप्लुतः सर्वपापेभ्यः समंगायां व्यमुच्यत // 2 उताबलस्य बलवानुत बालस्य पण्डितः। एतद्विनशनं कुक्षौ मैनाकस्य नरर्षभ / उत वाविदुषो विद्वान्पुत्रो जनक जायते // 34 अदितिर्यत्र पुत्रार्थ तदन्नमपचत्पुरा // 3 . बन्धुवाच / एनं पर्वतराजानमारुह्य पुरुषर्षभ। शितेन ते परशुना स्वयमेवान्तको नृप। अयशस्यामसंशब्दयामलक्ष्मी व्यपनोत्स्यथ // 4 शिरांस्यपाहरत्वाजौ रिपूणां भद्रमस्तु ते // 35 एते कनखला राजन्नृषीणां दयिता नगाः / महदुक्थ्यं गीयते साम चाग्र्यं एषा प्रकाशते गङ्गा युधिष्ठिर महानदी॥ 5 __ सम्यक्सोमः पीयते चात्र सत्रे। सनत्कुमारो भगवानत्र सिद्धिमगात्पराम / शुचीन्भागान्प्रतिजगृहुश्च हृष्टाः आजमीढावगाबैनां सर्वपापैः प्रमोक्ष्यसे // 6 साक्षाद्देवा जनकस्येह यज्ञे // 36 . अपां ह्रदं च पुण्याख्यं भृगुतुङ्गं च पर्वतम् / लोमश उवाच / तूष्णीं गङ्गां च कौन्तेय सामात्यः समुपस्पृश // 7 समुत्थितेष्वथ सर्वेषु राज आश्रमः स्थूलशिरसो रमणीयः प्रकाशते / न्विप्रेषु तेष्वधिकं सुप्रभेषु / अत्र मानं च कौन्तेय क्रोधं चैव विवर्जय // 8 अनुज्ञातो जनकनाथ राज्ञा एष रैभ्याश्रमः श्रीमान्पाण्डवेय प्रकाशते / विवेश तोयं सागरस्योत बन्दी॥ 37 भारद्वाजो यत्र कविर्यवक्रीतो व्यनश्यत // 9 . अष्टावक्र: पितरं पूजयित्वा __युधिष्ठिर उवाच। संपूजितो ब्राह्मणैस्तैर्यथावत् / कथंयुक्तोऽभवदृषिर्भरद्वाजः प्रतापवान् / प्रत्याजगामाश्रममेव चाग्र्यं किमर्थं च यवक्रीत ऋषिपुत्रो व्यनश्यत // 10 जित्वा बन्दि सहितो मातुलेन / / 38 एतत्सर्व यथावृत्तं श्रोतुमिच्छामि लोमश / अत्र कौन्तेय सहितो भ्रातृभिस्त्वं कर्मभिर्देवकल्पानां कीर्त्यमानै शं रमे // 11 सुखोषितः सह विप्रैः प्रतीतः। पुण्यान्यन्यानि शुचिकर्मैकभक्ति भरद्वाजश्च रेभ्यश्च सखायौ संबभूवतुः / मया साधं चरितास्याजमीढ // 39 तावूषतुरिहात्यन्तं प्रीयमाणौ वनान्तरे // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि रैभ्यस्य तु सुतावास्तामर्वावसुपरावसू / चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 134 // आसीद्यवक्रीः पुत्रस्तु भरद्वाजस्य भारत // 13 135 रेभ्यो विद्वान्सहापत्यस्तपस्वी चेतरोऽभवत् / लोमश उवाच। / तयोश्चाप्यतुला प्रीतिर्बाल्यात्प्रभृति भारत // 14 एषा मधुविला राजन्समंगा संप्रकाशते। .... / यवक्रीः पितरं दृष्ट्वा तपखिनमसत्कृतम् / -568 - शमश उवाच। ..
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________________ 3. 135. 15 ] आरण्यकपर्व [ 3. 135. 39 दृष्ट्वा च सत्कृतं विप्रै रैभ्यं पुत्रैः सहानघ // 15 होष्यामि वा मघवंस्तन्निबोध / पर्यतप्यत तेजस्वी मन्युनाभिपरिप्लुतः / यद्येतदेवं न करोषि कामं तपस्तेपे ततो घोरं वेदज्ञानाय पाण्डव // 16 / ममेप्सितं देवराजेह सर्वम् // 28 सुसमिद्धे महत्यग्नौ शरीरमुपतापयन् / लोमश उवाच। जनयामास संतापमिन्द्रस्य सुमहातपाः // 17 निश्चयं तमभिज्ञाय मुनेस्तस्य महात्मनः / तत इन्द्रो यवक्रीतमुपगम्य युधिष्ठिर / प्रतिवारणहेत्व) बुद्ध्या संचिन्त्य बुद्धिमान् // 29 अब्रवीत्कस्य हेतोस्त्वमास्थितस्तप उत्तमम् // 18 तत इन्द्रोऽकरोद्रूपं ब्राह्मणस्य तपस्विनः / ___यवक्रीरुवाच / अनेकशतवर्षस्य दुर्बलस्य सयक्ष्मणः // 30 द्विजानामनधीता वै वेदाः सुरगणार्चित / यवक्रीतस्य यत्तीर्थमुचितं शौचकर्मणि। प्रतिभान्त्विति तप्येऽहमिदं परमकं तपः // 19 / भागीरथ्यां तत्र सेतुं वालुकाभिश्चकार सः // 31 स्वाध्यायार्थे समारम्भो ममायं पाकशासन / यदास्य वदतो वाक्यं न स चक्रे द्विजोत्तमः। तपसा ज्ञातुमिच्छामि सर्वज्ञानानि कौशिक // 20 वालुकाभिस्ततः शक्रो गङ्गां समभिपूरयन् // 32 कालेन महता वेदाः शक्या गुरुमुखाद्विभो। वालुकामुष्टिमनिशं भागीरथ्यां व्यसर्जयत् / प्राप्तुं तस्मादयं यत्नः परमो मे समास्थितः // 21 सेतुमभ्यारभच्छको यवक्रीतं निदर्शयन् // 33 इन्द्र उवाच / तं ददर्श यवक्रीस्तु यत्नवन्तं निबन्धने / अमार्ग एष विप्रर्षे येन त्वं यातुमिच्छसि / प्रहसंश्चाब्रवीद्वाक्यमिदं स मुनिपुंगवः // 34 किं विघातेन ते विप्र गच्छाधीहि गुरोर्मुखात्॥२२ किमिदं वर्तते ब्रह्मन्किं च ते ह चिकीर्षितम् / - लोमश उवाच। अतीव हि महान्यत्नः क्रियतेऽयं निरर्थकः // 35 एवमुक्त्वा गतः शक्रो यवक्रीरपि भारत / इन्द्र उवाच / भूय एवाकरोद्यत्नं तपस्यमितविक्रम / / 23 बन्धिष्ये सेतुना गङ्गां सुखः पन्था भविष्यति / घोरेण तपसा राजस्तप्यमानो महातपाः / / क्लिश्यते हि जनस्तात तरमाणः पुनः पुनः // 36 संतापयामास भृशं देवेन्द्रमिति नः श्रुतम् // 24 यवक्रीरुवाच / तं तथा तप्यमानं तु तपस्तीव्र महामुनिम् / नायं शक्यस्त्वया बद्धं महानोघः कथंचन / उपेत्य बलभिद्देवो वारयामास वै पुनः // 25 अशक्याद्विनिवर्तस्व शक्यमर्थं समारभ // 37 अशक्योऽर्थः समारब्धो नैतद्बुद्धिकृतं तव / इन्द्र उवाच / प्रतिभास्यन्ति वै वेदास्तव चैव पितुश्च ते // 26 यथैव भवता चेदं तपो वेदार्थमुद्यतम् / यवक्रीरुवाच / अशक्यं तद्वदस्माभिरयं भारः समुद्यतः // 38 न चैतदेवं क्रियते देवराज ममेप्सितम् / यवक्रीरुवाच। महता नियमेनाहं तप्स्ये घोरतरं तपः // 27 यथा तव निरर्थोऽयमारम्भत्रिदशेश्वर / * समिद्धेऽनावुपकृत्याङ्गमङ्गं | तथा यदि ममापीदं मन्यसे पाकशासन // 39 म, भा, 72 -569 -
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________________ 3. 135. 40] महाभारते [3. 137.2 क्रियतां यद्भवेच्छक्यं मया सुरगणेश्वर / तस्यापचक्रे मेधावी तं शशाप स वीर्यवान् / वरांश्च मे प्रयच्छान्यान्यैरन्यान्भवितास्म्यति // 40 भव भस्मेति चोक्तः स न भस्म समपद्यत // 9 लोमश उवाच / धनुषाक्षस्तु तं दृष्ट्वा मेधाविनमनामयम् / तस्मै प्रादाद्वरानिन्द्र उक्तवान्यान्महातपाः / निमित्तमस्य महिषैर्भेदयामास वीर्यवान् // 10 प्रतिभास्यन्ति ते वेदाः पित्रा सह यथेप्सिताः॥४१ स निमित्ते विनष्टे तु ममार सहसा शिशुः / / यच्चान्यत्काङ्कसे कामं यवक्रीर्गम्यतामिति / तं मृतं पुत्रमादाय विललाप ततः पिता // 1.1 स लब्धकामः पितरमुपेत्याथ ततोऽब्रवीत् // 42 लालप्यमानं तं दृष्ट्वा मुनयः पुनरार्तवत् / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि ऊचुर्वेदोक्तया पूर्व गाथया तन्निबोध मे // 12 पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 135 // न दिष्टमर्थमत्येतुमीशो मर्त्यः कथंचन। 136 . महिषैर्भेदयामास धनुषाक्षो महीधरान् // 13 यवक्रीरुवाच एवं लब्ध्वा वरान्बाला दर्पपूर्णास्तरविनः / प्रतिभास्यन्ति वै वेदा मम तातस्य चोभयोः।। क्षिप्रमेव विनश्यन्ति यथा न स्यात्तथा भवान् // अति चान्यान्भविष्यावो वरा लब्धास्तथा मया॥१ एष रैभ्यो महावीर्यः पुत्रौ चास्य तथाविधौ / भरद्वाज उवाच / तं यथा पुत्र नाभ्येषि तथा कुर्यास्त्वतन्द्रितः॥१५ दर्पस्ते भविता तात वरालब्ध्वा यथेप्सितान् / / स हि क्रुद्धः समर्थस्त्वां पुत्र पीडयितुं रुषा / स दर्पपूर्णः कृपणः क्षिप्रमेव विनश्यसि // 2 वैद्यश्चापि तपस्वी च कोपनश्च महानृषिः॥ 16 अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा देवैरुदाहृताः। - यवक्रीरुवाच। ऋषिरासीत्पुरा पुत्र बालधिर्नाम वीर्यवान् // 3 एवं करिष्ये मा तापं तात कार्षीः कथंचन / स पुत्रशोकादुद्विग्नस्तपस्तेपे सुदुश्चरम् / यथा हि मे भवान्मान्यस्तथा रैभ्यः पिता मम॥१७ भवेन्मम सुतोऽमर्त्य इति तं लब्धवांश्च सः॥ 4 लोमश उवाच / तस्य प्रसादो देवैश्च कृतो न त्वमरैः समः। उक्त्वा स पितरं श्लक्ष्णं यवक्रीरकुतोभयः। नामो विद्यते मर्यो निमित्तायुभविष्यति // 5 विप्रकुर्वन्नृषीनन्यानतुष्यत्परया मुदा // 18 बालधिरुवाच / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि यथेमे पर्वताः शश्वत्तिष्ठन्ति सुरसत्तमाः / षत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 136 // अक्षयास्तन्निमित्तं मे सुतस्यायुभवेदिति // 6 137 भरद्वाज उवाच / लोमश उवाच। तस्य पुत्रस्तदा जज्ञे मेधावी क्रोधनः सदा / चङ्गम्यमाणः स तदा यवक्रीरकुतोभयः। स तच्छ्रुत्वाकरोद्दर्पमृषींश्चैवावमन्यत // 7 जगाम माधवे मासि रैभ्याश्रमपदं प्रति // 1 विकुर्वाणो मुनीनां तु चरमाणो महीमिमाम् / स ददर्शाश्रमे पुण्ये पुष्पितद्रुमभूषिते। आससाद महावीर्य धनुषाक्षं मनीषिणम् // 8 / विचरन्तीं स्नुषां तस्य किंनरीमिव भारत // 2 -570 -
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________________ 8. 137. 3] आरण्यकपर्व [ 3. 138.9 % 3D यवक्रीस्तामुवाचेदमुपतिष्ठस्व मामिति / स वै प्रविशमानस्तु शूद्रेणान्धेन रक्षिणा। निर्लज्जो लजया युक्तां कामेन हृतचेतनः / / 3 निगृहीतो बलाहारि सोऽवातिष्ठत पार्थिव // 18 सा तस्य शीलमाज्ञाय तस्माच्छापाच्च बिभ्यती। निगृहीतं तु शूद्रेण यवक्रीतं स राक्षसः। तेजस्वितां च रैभ्यस्य तथेत्युक्त्वा जगाम सा॥४ ताडयामास शूलेन स मिन्नहृदयोऽपतत् // 19 तत एकान्तमुन्नीय मज्जयामास भारत। यवक्रीतं स हत्वा तु राक्षसो रैभ्यमागमत् / आजगाम तदा रैभ्यः स्वमाश्रममरिंदम // 5 अनुज्ञातस्तु रैभ्येण तया नार्या सहाचरत् // 20 रुदन्तीं च स्नुषां दृष्ट्वा भार्यामाता परावसोः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि सान्त्वयश्क्ष्ण या वाचा पर्यपृच्छयुधिष्ठिर // 6 सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 137 // सा तस्मै सर्वमाचष्ट यवक्रीभाषितं शुभा। 138 प्रत्युक्तं च यवक्रीतं प्रेक्षापूर्वं तदात्मना // 7 लोमश उवाच / शृण्वानस्यैव रैभ्यस्य यवक्रीतविचेष्टितम् / भरद्वाजस्तु कौन्तेय कृत्वा स्वाध्यायमाह्निकम् / दहन्निव तदा चेतः क्रोधः समभवन्महान् // 8 समित्कलापमादाय प्रविवेश स्वमाश्रमम् // 1 स तदा मन्युनाविष्टस्तपस्वी भृशकोपनः / / तं स्म दृष्ट्वा पुरा सर्वे प्रत्युत्तिष्ठन्ति पावकाः / अवलुप्य जटामेकां जुहावाग्नौ सुसंस्कृते // 9 न त्वेनमुपतिष्ठन्ति हतपुत्रं तदाग्नयः // 2 ततः समभवन्नारी तस्या रूपेण संमिता। वैकृतं त्वग्निहोत्रे स लक्षयित्वा महातपाः। अवलुप्यापरां चाथ जुहावाग्नौ जटां पुनः॥ 10 तमन्धं शूद्रमासीनं गृहपालमथाब्रवीत् // 3 ततः समभवद्रक्षो घोराक्षं भीमदर्शनम् / किं नु मे नाग्नयः शूद्र प्रतिनन्दन्ति दर्शनम्। अब्रूतां तौ तदा रैभ्यं किं कार्य करवामहे // 11 त्वं चापि न यथापूर्वं कच्चित्क्षेममिहाश्रमे // 4 तावब्रवीदृषिः क्रुद्धो यवक्रीर्वध्यतामिति / कच्चिन्न रैभ्यं पुत्रो मे गतवानल्पचेतनः / जग्मतुस्ती तथेत्युक्त्वा यवक्रीतजिघांसया // 12 एतदाचक्ष्व मे शीघ्रं न हि मे शुध्यते मनः // 5 ततस्तं समुपास्थाय कृत्या सृष्टा महात्मना। शूद्र उवाच। कमण्डलु जहारास्य मोहयित्वा तु भारत // 13 रैभ्यं गतो नूनमसौ सुतस्ते मन्दचेतनः / उच्छिष्टं तु यवक्रीतमपकृष्टकमण्डलुम् / तथा हि निहतः शेते राक्षसेन बलीयसा // 6 तत उद्यतशूलः स राक्षसः समुपाद्रवत् // 14 प्रकाल्यमानस्तेनायं शूलहस्तेन रक्षसा / तमापतन्तं संप्रेक्ष्य शूलहस्तं जिघांसया। | अम्यागारं प्रति द्वारि मया दोभ्यां निवारितः॥ 7 यवक्रीः सहसोत्थाय प्राद्रवद्येन वै सरः॥ 15 ततः स निहतो ह्यत्र जलकामोऽशुचिर्बुवम् / जलहीनं सरो दृष्ट्वा यवक्रीस्त्वरितः पुनः / संभावितो हि तूर्णेन शूलहस्तेन रक्षसा // 8 जगाम सरितः सर्वास्ताश्चाप्यासन्विशोषिताः॥१६ लोमश उवाच / स काल्यमानो घोरेण शूलहस्तेन रक्षसा। . | भरद्वाजस्तु शूद्रस्य तच्छ्रुत्वा विप्रियं वचः / अग्निहोत्रं पितुर्भीतः सहसा समुपाद्रवत् // 17 / गतासु पुत्रमादाय विललाप सुदुःखितः // 9 - 571 -
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________________ 3. 138. 10] महाभारते [3. 139. 17 ब्राह्मणानां किलार्थाय ननु त्वं तप्तवांस्तपः। . अथावलोककोऽगच्छद्गृहानेकः परावसुः / द्विजानामनधीता वै वेदाः संप्रतिभान्विति // 10 कृष्णाजिनेन संवीतं ददर्श पितरं वने // 4 तथा कल्याणशीलस्त्वं ब्राह्मणेषु महात्मसु / जघन्यरात्रे निद्रान्धः सावशेषे तमस्यपि / अनागाः सर्वभूतेषु कर्कशत्वमुपेयिवान् // 11 चरन्तं गहनेऽरण्ये मेने स पितरं मृगम् // 5 प्रतिषिद्धो मया तात रैभ्यावसथदर्शनात् / मृगं तु मन्यमानेन पिता वै तेन हिंसितः / . गतवानेव तं क्षुद्रं कालान्तकयमोपमम् // 12 अकामयानेन तदा शरीरत्राणमिच्छता // 6. यः स जानन्महातेजा वृद्धस्यैकं ममात्मजम् / स तस्य प्रेतकार्याणि कृत्वा सर्वाणि भारत / गतवानेव कोपस्य वशं परमदुर्मतिः // 13 पुनरागम्य तत्सत्रमब्रवीद्धातरं वचः // 7 पुत्रशोकमनुप्राप्य एष रैभ्यस्य कर्मणा / इदं कर्म न शक्तस्त्वं वोढुमेकः कथंचन / त्यक्ष्यामि त्वामृते पुत्र प्राणानिष्टतमान्भुवि // 14 मया तु हिंसितस्तातो मन्यमानेन तं मृगम् // 8 यथाहं पुत्रशोकेन देहं त्यक्ष्यामि किल्बिषी। सोऽस्मदर्थे व्रतं साधु चर त्वं ब्रह्महिंसनम् / तथा ज्येष्ठः सुतो रैभ्यं हिंस्याच्छीघ्रमनागसम्॥१५ समर्थो ह्यहमेकाकी कर्म कर्तुमिदं मुने // 9 सुखिनो वै नरा येषां जात्या पुत्रो न विद्यते। अर्वावसुरुवाच / ते पुत्रशोकमप्राप्य विचरन्ति यथासुखम् // 16 करोतु वै भवान्सत्रं बृहद्दथुम्नस्य धीमतः / ये तु पुत्रकृताच्छोकाशं व्याकुलचेतसः। ब्रह्महत्यां चरिष्येऽहं त्वदर्थं नियतेन्द्रियः॥ 10 शपन्तीष्टान्सखीनास्तेिभ्यः पापतरो नु कः // 17 लोमश उवाच / परासुश्च सुतो दृष्टः शप्तश्चेष्टः सखा मया। स तस्या ब्रह्महत्यायाः पारं गत्वा युधिष्ठिर / ईदृशीमापदं को नु द्वितीयोऽनुभविष्यति // 18 अर्वावसुस्तदा सत्रमाजगाम पुनर्मुनिः // 11 विलप्यैवं बहुविधं भरद्वाजोऽदहत्सुतम् / ततः परावसुदृष्ट्वा भ्रातरं समुपस्थितम् / सुसमिद्धं ततः पश्चात्प्रविवेश हुताशनम् // 19 बृहद्दथुम्नमुवाचेदं वचनं परिषद्गतम् // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एष ते ब्रह्महा यज्ञं मा द्रष्टुं प्रविशेदिति / अष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 138 // ब्रह्महा प्रेक्षितेनापि पीडयेत्त्वां न संशयः // 13 139 प्रेष्यैरुत्सार्यमाणस्तु राजन्नर्वावसुस्तदा / लोमश उवाच / न मया ब्रह्महत्येयं कृतेत्याह पुनः पुनः // 14 एतस्मिन्नेव काले तु बृहद्दयुम्नो महीपतिः / / उच्यमानोऽसकृत्प्रेष्यैर्ब्रह्महन्निति भारत / सत्रमास्ते महाभागो रैभ्ययाज्यः प्रतापवान् // 1 नैव स प्रतिजानाति ब्रह्महत्यां स्वयं कृताम् / तेन रैभ्यस्य वै पुत्रावर्वावसुपरावसू / मम भ्रात्रा कृतमिदं मया तु परिरक्षितम् // 15 वृतौ सहायौ सत्रार्थे बृहद्दयुम्नेन धीमता // 2 / प्रीतास्तस्याभवन्देवाः कर्मणावसोनूप / तत्र तौ समनुज्ञातौ पित्रा कौन्तेय जग्मतुः / तं ते प्रवरयामासुर्निरासुश्च परावसुम् // 16 आश्रमे त्वभवद्रेभ्यो भार्या चैव परावसोः // 3 / ततो देवा वरं तस्मै दुदुरग्निपुरोगमाः / -572
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________________ 3. 139. 17] आरण्यकपर्व [3. 140. 15 स चापि वरयामास पितुरुत्थानमात्मनः // 17 / अष्टाशीतिसहस्राणि गन्धर्वाः शीघ्रचारिणः / भनागस्त्वं तथा भ्रातुः पितुश्चास्मरणं वधे / तथा किंपुरुषा राजन्यक्षाश्चैव चतुर्गुणाः // 5 भरद्वाजस्य चोत्थानं यवक्रीतस्य चोभयोः // 18 अनेकरूपसंस्थाना नानाप्रहरणाश्च ते / ततः प्रादुर्बभूवुस्ते सर्व एव युधिष्ठिर / यक्षेन्द्रं मनुजश्रेष्ठ माणिभद्रमुपासते // 6 अथाब्रवीद्यवक्रीतो देवानग्निपुरोगमान् // 19 तेषामृद्धिरतीवाग्र्या गतौ वायुसमाश्च ते / समधीतं मया ब्रह्म व्रतानि चरितानि च।। स्थानात्प्रच्यावयेयुर्ये देवराजमपि ध्रुवम् // 7 कथं नु रैभ्यः शक्तो मामधीयानं तपस्विनम् / तैस्तात बलिभिर्गुप्ता यातुधानैश्च रक्षिताः / तथायुक्तेन विधिना निहन्तुममरोत्तमाः // 20 दुर्गमाः पर्वताः पार्थ समाधि परमं कुरु // 8 देवा ऊचुः। कुबेरसचिवाश्चान्ये रौद्रा मैत्राश्च राक्षसाः। मैवं कृथा यवक्रीत यथा वदसि वै मुने। तैः समेष्याम कौन्तेय यत्तो विक्रमणे भव // 9 ऋते गुरुमधीता हि सुखं वेदास्त्वया पुरा // 21 कैलासः पर्वतो राजन्षड्योजनशतान्युत / अनेन तु गुरून्दुःखात्तोषयित्वा स्वकर्मणा। यत्र देवाः समायान्ति विशाला यत्र भारत // 10 कालेन महता क्लेशाद्ब्रह्माधिगतमुत्तमम् // 22 असंख्येयास्तु कौन्तेय यक्षराक्षसकिनराः / लोमश उवाच / नागाः सुपर्णा गन्धर्वाः कुबेरसदनं प्रति // 11 यवक्रीतमथोक्त्वैवं देवाः साग्निपुरोगमाः। तान्विगाहस्व पार्थाद्य तपसा च दमेन च / संजीवयित्वा तान्सर्वान्पुनर्जग्मुत्रिविष्टपम् // 23 रक्ष्यमाणो मया राजन्भीमसेनबलेन च // 12 आश्रमस्तस्य पुण्योऽयं सदापुष्पफलद्रुमः / अत्रोष्य राजशार्दूल सर्वपापैः प्रमोक्ष्यसे // 24 स्वस्ति ते वरुणो राजा यमश्च समितिंजयः / गङ्गा च यमुना चैव पर्वतश्च दधातु ते // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 139 // इन्द्रस्य जाम्बूनदपर्वताये ___ शृणोभि घोषं तव देवि गङ्गे / लोमश उवाच / गोपाययेमं सुभगे गिरिभ्यः उशीरबीजं मैनाकं गिरि श्वेतं च भारत / सर्वाजमीढापचितं नरेन्द्रम् / समतीतोऽसि कौन्तेय कालशैलं च पार्थिव // 1 भवस्व शर्म प्रविविक्षतोऽस्य एषा गङ्गा सप्तविधा राजते भरतर्षभ / शैलानिमाशैलसुते नृपस्य // 14 स्थानं विरजसं रम्यं यत्राग्निर्नित्यमिध्यते // 2 युधिष्ठिर उवाच / एतद्वै मानुषेणाद्य न शक्यं द्रष्टुमप्युत / अपूर्वोऽयं संभ्रमो लोमशस्य समाधिं कुरुताव्यग्रास्तीर्थान्येतानि द्रक्ष्यथ // 3 कृष्णां सर्वे रक्षत मा प्रमादम् / श्वेतं गिरिं प्रवेक्ष्यामो मन्दरं चैव पर्वतम् / देशो ह्ययं दुर्गतमो मतोऽस्य यत्र माणिचरो यक्षः कुबेरश्चापि यक्षराट् // 4 तस्मात्परं शौचमिहाचरध्वम् // 15 - 573 -
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________________ 3. 140. 16 ] महाभारते [ 3. 141. 22 वैशंपायन उवाच / तव चाप्यरतिस्तीवा वर्धते तमपश्यतः / ततोऽब्रवीद्भीममुदारवीर्य किं पुनः सहदेवं च मां च कृष्णां च भारत // 9 ___ कृष्णां यत्तः पालय मीमसेन / रथाः कामं निवर्तन्तां सर्वे च परिचारकाः। शून्येऽर्जुनेऽसंनिहिते च तात सूदाः पौरोगवाश्चैव मन्यते यत्र नो भवान् // 10 त्वमेव कृष्णां भजसेऽसुखेषु // 16 / / न ह्यहं हातुमिच्छामि भवन्तमिह कर्हिचित् / ततो महात्मा यमजौ समेत्य शैलेऽस्मिन्राक्षसाकीर्णे दुर्गेषु विषमेषु च // 11 मूर्धन्युपाघ्राय विमृज्य गात्रे / इयं चापि महाभागा राजपुत्री यतव्रता / उवाच तो बाष्पकलं स राजा त्वामृते पुरुषव्याघ्र नोत्सहेद्विनिवर्तितुम् // 12 मा भैष्टमागच्छतमप्रमत्तौ // 17 तथैव सहदेवोऽयं सततं त्वामनुव्रतः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि न जातु विनिवर्तेत मतज्ञो ह्यहमस्य वै // 13 चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 140 // अपि चात्र महाराज सव्यसाचिदिदृक्षया / 141 सर्वे लालसभूताः स्म तस्माद्यास्यामहे सह // 14 युधिष्ठिर उवाच / यद्यशक्यो रथैर्गन्तुं शैलोऽयं बहुकन्दरः / अन्तर्हितानि भूतानि रक्षांसि बलवन्ति च। पद्भिरेव गमिष्यामो मा राजन्विमना भव // 15 अग्निना तपसा चैव शक्यं गन्तुं वृकोदर // 1 अहं वहिष्ये पाञ्चालीं यत्र यत्र न शक्ष्यति / संनिवर्तय कौन्तेय क्षुत्पिपासे बलान्वयात् / इति मे वर्तते बुद्धिर्मा राजन्विमना भव // 16 ततो बलं च दाक्ष्यं च संश्रयस्व कुरूद्वह // 2 सुकुमारौ तथा वीरौ माद्रीनन्दिकरावुभौ / ऋषेस्त्वया श्रुतं वाक्यं कैलास पर्वतं प्रति / दुर्गे संतारयिष्यामि यद्यशक्तौ भविष्यतः // 17 बुद्ध्या प्रपश्य कौन्तेय कथं कृष्णा गमिष्यति॥३ युधिष्ठिर उवाच / अथ वा सहदेवेन धौम्येन च सहाभिभो। एवं ते भाषमाणस्य बलं भीमाभिवर्धताम् / सूदैः पौरोगवैश्चैव सर्वैश्च परिचारकैः // 4 यस्त्वमुत्सहसे वोढुं द्रौपदी विपुलेऽध्वनि // 18 रथैरश्वैश्च ये चान्ये विप्राः क्लेशासहाः पथि / यमजौ चापि भद्रं ते नैतदन्यत्र विद्यते / सबैस्त्वं सहितो भीम निवर्तस्वायतेक्षण // 5 बलं च. ते यशश्चैव धर्मः कीर्तिश्च वर्धताम् // 19 त्रयो वयं गमिष्यामो लघ्वाहारा यतव्रताः / यस्त्वमुत्सहसे नेतुं भ्रातरौ सह कृष्णया / अहं च नकुलश्चैव लोमशश्च महातपाः // 6 मा ते ग्लानिर्महाबाहो मा च तेऽस्तु पराभवः।।२० ममागमनमाकाङ्कन्गङ्गाद्वारे समाहितः।। वैशंपायन उवाच / वसेह द्रौपदी रक्षन्यावदागमनं मम // 7 ततः कृष्णाब्रवीद्वाक्यं प्रहसन्ती मनोरमा / . भीम उवाच / गमिष्यामि न संतापः कार्यो मां प्रति भारत॥२१ राजपुत्री श्रमेणार्ता दुःखार्ता चैव भारत। लोमश उवाच। व्रजत्येव हि कल्याणी श्वेतवाहदिदृक्षया // 8 तपसा शक्यते गन्तुं पर्वतो गन्धमादनः / -574
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________________ 3. 141. 22] आरण्यकपर्व [ 3. 142. 19 तपसा चैव कौन्तेय सर्वे योक्ष्यामहे वयम् // 22 नकुलात्पूर्वजं पार्थं न पश्याम्यमितौजसम्। नकुलः सहदेवश्च भीमसेनश्च पार्थिव / अजेयमुप्रधन्वानं तेन तप्ये वृकोदर // 5 . अहं च त्वं च कौन्तेय द्रक्ष्यामः श्वेतवाहनम् // 23 तीर्थानि चैव रम्याणि वनानि च सरांसि च / वैशंपायन उवाच / चरामि सह युष्माभिस्तस्य दर्शनकाझ्या // 6... एवं संभाषमाणास्ते सुबाहोर्विषयं महत् / पश्च वर्षाण्यहं वीरं सत्यसंधं धनंजयम् / ... ददृशुर्मुदिता राजन्प्रभूतगजवाजिमत् // 24 यन्न पश्यामि बीभत्सुं तेन तप्ये वृकोदर // 7 किराततङ्गणाकीर्णं कुणिन्दशतसंकुलम् / तं वै श्याम गुडाकेशं सिंहविक्रान्तगामिनम् / . हिमवत्यमरैर्जुष्टं बह्वाश्चर्यसमाकुलम् // 25 न पश्यामि महाबाहुं तेन तप्ये वृकोदर // 8, सुबाहुश्चापि तान्दृष्ट्वा पूजया प्रत्यगृहृत / कृतास्त्रं निपुणं युद्धे प्रतिमानं धनुष्मताम् / . विषयान्ते कुणिन्दानामीश्वरः प्रीतिपूर्वकम् // 26 न पश्यामि नरश्रेष्ठं तेन तप्ये वृकोदर // 9 . तत्र ते पूजितास्तेन सर्व एव सुखोषिताः / चरन्तमरिसंघेषु कालं क्रुद्धमिवान्तकम् / प्रतस्थुर्विमले सूर्ये हिमवन्तं गिरिं प्रति // 27 प्रभिन्नमिव मातङ्ग सिंहस्कन्धं धनंजयम् // 10 इन्द्रसेनमुखांश्चैव भृत्यान्पौरोगवांस्तथा / यः स शक्रादनवरो वीर्येण द्रविणेन च। .. सूदांश्च परिबहं च द्रौपद्याः सर्वशो नृप // 28 यमयोः पूर्वजः पार्थः श्वेताश्वोऽमितविक्रमः // 11 राज्ञः कुणिन्दाधिपतेः परिदाय महारथाः / दुःखेन महताविष्टः स्वकृतेनानिवर्तिना। पद्भिरेव महावीर्या ययुः कौरवनन्दनाः // 29 अजेयमुप्रधन्वानं तं न पश्यामि फल्गुनम् // 12 ते शनैः प्राद्रवन्सर्वे कृष्णया सह पाण्डवाः / सततं यः क्षमाशीलः क्षिप्यमाणोऽप्यणीयसा।। तस्माद्देशात्सुसंहृष्टा द्रष्टुकामा धनंजयम् // 30 ऋजुमार्गप्रपन्नस्य शर्मदाताभयस्य च // 13, इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि स तु जिह्मप्रवृत्तस्य माययाभिजिघांसतः / . . एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 141 // अपि वज्रधरस्यापि भवेत्कालविषोपमः // 14 शत्रोरपि प्रपन्नस्य सोऽनृशंसः प्रतापवान् / युधिष्ठिर उवाच / दाताभयस्य बीभत्सुरमितात्मा महाबलः // 15 भीमसेन यमौ चोभौ पाश्चालि च निबोधत / / सर्वेषामाश्रयोऽस्माकं रणेऽरीणां प्रमर्दिता। नास्ति भूतस्य नाशो वै पश्यतास्मान्वनेचरान् // 1 आहर्ता सर्वरत्नानां सर्वेषां नः सुखावहः॥ 16 दुर्बलाः क्लेशिताः स्मेति यद्भवीथेतरेतरम् / रत्नानि यस्य वीर्येण दिव्यान्यासन्पुरा मम। . अशक्येऽपि व्रजामेति धनंजयदिदृक्षया // 2 बहूनि बहुजातानि यानि प्राप्तः सुयोधनः // 17 तन्मे दहति गात्राणि तूलराशिमिवानलः / यस्य बाहुबलाद्वीर सभा चासीत्पुरा मम / यञ्च वीरं न पश्यामि धनंजयमुपान्तिके // 3 सर्वरत्नमयी ख्याता त्रिषु लोकेषु पाण्डव // 18 तस्य दर्शनतृष्णं मां सानुजं वनमास्थितम् / वासुदेवसमं वीर्ये कार्तवीर्यसमं युधि / याज्ञसेन्याः परामर्शः स च वीर दहत्युत // 4 / अजेयमजितं युद्धे तं न पश्यामि फल्गुनम् // 19 -575
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________________ 3. 142. 20] महाभारते [ 3. 143. 18 संकर्षणं महावीर्य त्वां च भीमापराजितम् / चेरुरुञ्चावचाकारान्देशान्विषमसंकटान् / अनुजातः स वीर्येण वासुदेवं च शत्रुहा // 20 पश्यन्तो मृगजातानि बहूनि विविधानि च // 4 यस्य बाहुबले तुल्यः प्रभावे च पुरंदरः / ऋषिसिद्धामरयुतं गन्धर्वाप्सरसां प्रियम् / जवे वायुर्मुखे सोमः क्रोधे मृत्युः सनातनः // 21 विविशुस्ते महात्मानः किंनराचरितं गिरिम् / / 5 ते वयं तं नरव्याघ्रं सर्वे वीर दिदृक्षवः / प्रविशत्स्वथ वीरेषु पर्वतं गन्धमादनम् / प्रवेक्ष्यामो महाबाहो पर्वतं गन्धमादनम् / / 22 चण्डवातं महद्वष प्रादुरासीद्विशां पते // 6 . विशाला बदरी यत्र नरनारायणाश्रमः / ततो रेणुः समुद्भूतः सपत्रबहुलो महान् / तं सदाध्युषितं यःक्ष्यामो गिरिमुत्तमम् // 23 पृथिवीं चान्तरिक्षं च द्यां चैव तमसावृणोत् // 7 कुबेरनलिनी रम्यां राक्षसैरभिरक्षिताम् / न स्म प्रज्ञायते किंचिदावृते व्योम्नि रेणुना / पद्भिरेव गमिष्यामस्तप्यमाना महत्तपः // 24 न चापि शेकुस्ते कर्तुमन्योन्यस्याभिभाषणम् / / 8 नातप्ततपसा शक्यो देशो गन्तुं वृकोदर / न चापश्यन्त तेऽन्योन्यं तमसा हतचक्षुषः / न.नृशंसेन लुब्धेन नाप्रशान्तेन भारत // 25 आकृष्यमाणा वातेन साश्मचूर्णेन भारत // 9 तत्र सर्वे गमिष्यामो भीमार्जुनपदैषिणः / द्रुमाणां वातभग्नानां पततां भूतले भृशम् / सायुधा बद्धनिस्त्रिंशाः सह विप्रेर्महाव्रतैः // 26 अन्येषां च महीजानां शब्दः समभवन्महान् // 10 मक्षिकान्मशकान्देशान्व्याघ्रान्सिहान्सरीसृपान् / द्यौः स्वित्पतति किं भूमौ दीर्यन्ते पर्वता नु किम् / प्राप्नोत्यनियतः पार्थ नियतस्तान्न पश्यति // 27 इति ते मेनिरे सर्वे पवनेन विमोहिताः // 11 ते वयं नियतात्मानः पर्वतं गन्धमादनम् / ते यथानन्तरान्वृक्षान्वल्मीकान्विषमाणि च / प्रवेक्ष्यामो मिताहारा धनंजयदिदृक्षवः / / 28 पाणिभिः परिमार्गन्तो भीता वायोर्निलिल्यिरे॥१२ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततः कार्मुकमुद्यम्य भीमसेनो महाबलः / द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 142 // कृष्णामादाय संगत्या तस्थावाश्रित्य पादपम् // 13 धर्मराजश्च धौम्यश्च निलिल्याते महावने / वैशंपायन उवाच / अग्निहोत्राण्युपादाय सहदेवस्तु पर्वते // 14 ते शूरास्ततधन्वानस्तूणवन्तः समार्गणाः। नकुलो ब्राह्मणाश्चान्ये लोमशश्च महातपाः / बद्धगोधाङ्गुलित्राणाः खड्गवन्तोऽमितौजसः // 1 वृक्षानासाद्य संत्रस्तास्तत्र तत्र निलिलियरे // 15 परिगृह्य द्विजश्रेष्ठा श्रेष्ठाः सर्वधनुष्मताम् / मन्दीभते च पवने तस्मिन्रजसि शाम्यति / पाञ्चालीसहिता राजन्प्रययुर्गन्धमादनम् // 2 महद्भिः पृषतैस्तूर्णं वर्षमभ्याजगाम ह // 16 सरांसि सरितश्चैव पर्वतांश्च वनानि च। ततोऽश्मसहिता धाराः संवृण्वन्त्यः समन्ततः / वृक्षांश्च बहुलच्छायान्ददृशुर्गिरिमूर्धनि / / प्रपेतुरनिशं तत्र शीघ्रवातसमीरिताः // 17 नित्यपुष्पफलान्देशान्देवर्षिगणसेवितान् // 3 / ततः सागरगा आपः कीर्यमाणाः समन्ततः / आत्मन्यात्मानमाधाय वीरा मूलफलाशनाः। .. प्रादुरासन्सकलुपाः फेनवत्यो विशां पते // 18 -576
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________________ 3. 143. 19] आरण्यकपर्व [3. 144. 24 वहन्त्यो वारि बहुलं फेनोडुपपरिप्लुतम् / कथं वेश्मसु गुप्तेषु स्वास्तीर्णशयनोचिता। परिससर्महाशब्दाः प्रकर्षन्त्यो महीरहान् // 19 शेते निपतिता भूमौ सुखार्हा वरवर्णिनी // 10 तस्मिन्नुपरते वर्षे वाते च समतां गते। सुकुमारौ कथं पादौ मुखं च कमलप्रभम् / गते ह्यम्भसि निम्नानि प्रादुर्भूते दिवाकरे // 20 मत्कृतेऽद्य वराहा॑याः श्यामतां समुपागतम् // 11 निर्जग्मुस्ते शनैः सर्वे समाजग्मुश्च भारत / किमिदं द्यूतकामेन मया कृतमबुद्धिना / प्रतस्थुश्च पुनर्वीराः पर्वतं गन्धमादनम् // 21 आदाय कृष्णां चरता वने मृगगणायुते // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि सुखं प्राप्स्यति पाञ्चाली पाण्डवान्प्राप्य वै पतीन् / त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 143 // इति द्रुपदराजेन पित्रा दत्तायतेक्षणा // 13 144 तत्सर्वमनवाप्यैव श्रमशोकाद्धि कर्शिता। वैशंपायन उवाच / शेते निपतिता भूमौ पापस्य मम कर्मभिः // 14 ततः प्रयातमात्रेषु पाण्डवेषु महात्मसु / तथा लालप्यमाने तु धर्मराजे युधिष्ठिरे / पळ्यामनुचिता गन्तुं द्रौपदी समुपाविशत् // 1 धौम्यप्रभृतयः सर्वे तत्राजग्मुर्द्विजोत्तमाः // 15 श्रान्ता दुःखपरीता च वातवर्षेण तेन च।। ते समाश्वासयामासुराशीर्भिश्चाप्यपूजयन् / सौकुमार्याच्च पाञ्चाली संमुमोह यशस्विनी // 2 रक्षोनांश्च तथा मत्राओपुश्चक्रुश्च ते क्रियाः // 16 सा पात्यमाना मोहेन बाहुभ्यामसितेक्षणा / पठ्यमानेषु मत्रेषु शान्त्यर्थं परमर्षिभिः। वृत्ताभ्यामनुरूपाभ्यामूरू समवलम्बत // 3 स्पृश्यमाना करैः शीतैः पाण्डवैश्च मुहुर्मुहुः॥ 17 आलम्बमाना सहितावूरू गजकरोपमौ / सेव्यमाना च शीतेन जलमिश्रेण वायुना। पपात सहसा भूमौ वेपन्ती कदली यथा // 4 पाश्चाली सुखमासाद्य लेभे चेतः शनैः शनैः॥१८ तां पतन्ती वरारोहां सज्जमानां लतामिव / परिगृह्य च तां दीनां कृष्णामजिनसंस्तरे। नकुलः समभिद्रुत्य परिजग्राह वीर्यवान् / / 5 तदा विश्रामयामासुर्लब्धसंज्ञां तपस्विनीम् // 19 . नकुल उवाच / तस्या यमौ रक्ततलौ पादौ पूजितलक्षणौ / राजन्पाञ्चालराजस्य सुतेयमसितेक्षणा / कराभ्यां किणजाताभ्यां शनकैः संववाहतुः // 20 श्रान्ता निपतिता भूमौ तामवेक्षस्व भारत // 6 पर्याश्वासयदप्येनां धर्मराजो युधिष्ठिरः / अदुःखार्हा परं दुःखं प्राप्तेयं मृदुगामिनी / उवाच च कुरुश्रेष्ठो भीमसेनमिदं वचः॥ 21 आश्वासय महाराज तामिमां श्रमकर्शिताम् // 7 बहवः पर्वता भीम विषमा हिमदुर्गमाः। __ वैशंपायन उवाच / तेषु कृष्णा महाबाहो कथं नु विचरिष्यति // 22 राजा तु वचनात्तस्य भृशं दुःखसमन्वितः / भीमसेन उवाच / मीमश्च सहदेवश्च सहसा समुपाद्रवन् // 8 त्वां राजनराजपुत्रीं च यमौ च पुरुषर्षभौ / तामवेक्ष्य तु कौन्तेयो विवर्णवदनां कृशाम् / स्वयं नेष्यामि राजेन्द्र मा विषादे मनः कृथाः॥२३ अङ्कमानीय धर्मात्मा पर्यदेवयदातुरः // 9 अथ वासौ मया जातो विहगो मदलोपमः / म.भा.७३ . -577 -
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________________ 3. 144. 24 ] महाभारते [ 3. 145. 21 वहेदनघ सर्वान्नो वचनात्ते घटोत्कचः // 24 पाण्डूनां मध्यगो वीरः पाण्डवानपि चापरे // 7 वैशंपायन उवाच / लोमशः सिद्धमार्गेण जगामानुपमद्युतिः / अनुज्ञातो धर्मराज्ञा पुत्रं सम्मार राक्षसम् / स्वेनैवात्मप्रभावेन द्वितीय इव भास्करः // 8 घटोत्कचश्च धर्मात्मा स्मृतमात्रः पितुस्तदा / ब्राह्मणांश्चापि तान्सर्वान्समुपादाय राक्षसाः। कृताञ्जलिरुपातिष्ठदभिवाद्याथ पाण्डवान् // 25 नियोगाद्राक्षसेन्द्रस्य जग्मुर्भीमपराक्रमाः // 9 . ब्राह्मणांश्च महाबाहुः स च तैरभिनन्दितः / एवं सुरमणीयानि वनान्युपवनानि च / उवाच भीमसेनं स पितरं सत्यविक्रमः // 26 आलोकयन्तस्ते जग्मुर्विशालां बदरी प्रति // 10 स्मृतोऽस्मि भवता शीघ्रं शुश्रूषुरहमागतः / ते त्वाशुगतिभिर्वीरा राक्षसैस्तैर्महाबलैः / आज्ञापय महाबाहो सर्वं कर्तास्म्यसंशयम् / उह्यमाना ययुः शीघ्रं महदध्वानमल्पवत् // 11 तच्छ्रुत्वा भीमसेनस्तु राक्षसं परिषस्वजे // 27 देशान्म्लेच्छगणाकीर्णान्नानारत्नाकरायुतान् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ददृशुर्गिरिपादांश्च नानाधातुसमाचितान् // 12 चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 144 // | विद्याधरगणाकीर्णान्युतान्वानरकिंनरैः। तथा किंपुरुषैश्चैव गन्धर्वैश्च समन्ततः // 13 युधिष्ठिर उवाच / / नदीजालसमाकीर्णान्नानापक्षिरुताकुलान् / धर्मज्ञो बलवाशूरः सद्यो राक्षसपुंगवः / नानाविधैर्मगैर्जुष्टान्वानरैश्चोपशोभितान् // 14 भक्तोऽस्मानौरसः पुत्रो भीम गृह्णातु मातरम् // 1 ते व्यतीत्य बहून्देशानुत्तरांश्च कुरूनपि।। तव भीम बलेनाहमतिभीमपराक्रम / ददृशुर्विविधाश्चर्यं कैलास पर्वतोत्तमम् // 15 अक्षतः सह पाश्चाल्या गच्छेयं गन्धमादनम् // 2 तस्याभ्याशे तु ददृशुर्नरनारायणाश्रमम् / वैशंपायन उवाच / उपेतं पादपैर्दिव्यैः सदापुष्पफलोपगैः // 16 भ्रातुर्वचनमाज्ञाय भीमसेनो घटोत्कचम् / ददृशुस्तां च बदरीं वृत्तस्कन्धां मनोरमाम् / आदिदेश नरव्याघ्रस्तनयं शत्रुकर्शनम् // 3 स्निग्धामविरलच्छायां श्रिया परमया युताम् // 17 हैडिम्बेय परिश्रान्ता तव मातापराजिता। पत्रैः स्निग्धैरविरलैरुपेतां मृदुभिः शुभाम् / त्वं च कामगमस्तात बलवान्वह तां खग / / 4 / / विशालशाखा विस्तीर्णामतिद्युतिसमन्विताम् // 18 स्कन्धमारोप्य भद्रं ते मध्येऽस्माकं विहायसा। फलैरुपचितैर्दिव्यैराचितां स्वादुभिर्भृशम् / गच्छ नीचिकया गत्या यथा चैनां न पीडयेः॥५ मधुस्रवैः सदा दिव्यां महर्षिगणसेविताम् / घटोत्कच उवाच / मदप्रमुदितैर्नित्यं नानाद्विजगणैर्युताम् // 19 धर्मराजं च धौम्यं च राजपुत्री यमौ तथा। अदंशमशके देशे बहुमूलफलोदके / एकोऽप्यहमलं वोढुं किमुताद्य सहायवान् // 6 नीलशाद्वलसंछन्ने देवगन्धर्वसेविंते // 20 वैशंपायन उवाच / सुसमीकृतभूभागे स्वभावविहिते शुभे। एवमुक्त्वा ततः कृष्णामुवाह स घटोत्कचः। जातां हिममृदुस्पर्शे देशेऽपहतकण्टके / / 21 - 578 -
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________________ 3. 145. 22 ] आरण्यकपर्व [3. 146. 4 तामुपेत्य महात्मानः सह तैाह्मणर्षभैः / विवेश शोभया युक्तं भ्रातृभिश्च सहानघ / अवतेरुस्ततः सर्वे राक्षसस्कन्धतः शनैः // 22 ब्राह्मणैर्वेदवेदाङ्गपारगैश्च सहाच्युतः॥ 36 ततस्तमाश्रमं पुण्यं नरनारायणाश्रितम् / तत्रापश्यत्स धर्मात्मा देवदेवर्षिपूजितम् / ददृशुः पाण्डवा राजन्सहिता द्विजपुंगवैः // 23 नरनारायणस्थानं भागीरथ्योपशोभितम् // 37 तमसा रहितं पुण्यमनामृष्टं रवेः करैः। . मधुस्रवफलां दिव्यां महर्षिगणसेविताम् / क्षुत्तट्शीतोष्णदोषैश्च वर्जितं शोकनाशनम् / / 24 तामुपेत्य महात्मानस्तेऽवसन्ब्राह्मणैः सह / / 38 महर्षिगणसंबाधं ब्राह्मया लक्ष्म्या समन्वितम् / आलोकयन्तो मैनाकं नानाद्विजगणायुतम् / दुष्प्रवेशं महाराज नरैर्धर्मबहिष्कृतैः / / 25 हिरण्यशिखरं चैव तच्च बिन्दुसरः शिवम् / / 39 बलिहोमार्चितं दिव्यं सुसंमृष्टानुलेपनम् / भागीरथीं सुतीर्थां च शीतामलजलां शिवाम् / दिव्यपुष्पोपहारैश्च सर्वतोऽभिविराजितम् // 26 मणिप्रवालप्रस्तारां पादपैरुपशोभिताम् // 40 विशालैरग्निशरणैः सुग्भाण्डैराचितं शुभैः / दिव्यपुष्पसमाकीर्णां मनसः प्रीतिवर्धनीम् / महद्भिस्तोयकलशैः कठिनैश्चोपशोभितम् / वीक्षमाणा महात्मानो विजट्ठस्तत्र पाण्डवाः // 41 शरण्यं सर्वभूतानां ब्रह्मघोषनिनादितम् // 27 तत्र देवान्पितॄश्चैव तर्पयन्तः पुनः पुनः / दिव्यमाश्रयणीयं तमाश्रमं श्रमनाशनम् / ब्राह्मणैः सहिता वीरा न्यवसन्पुरुषर्षभाः / / 42 श्रिया युतमनिर्देश्यं देवचर्योपशोभितम् // 28 कृष्णायास्तत्र पश्यन्तः क्रीडितान्यमरप्रभाः / फलमूलाशनैर्दान्तैश्चीरकृष्णाजिनाम्बरैः / विचित्राणि नरव्याघ्रा रेमिरे तत्र पाण्डवाः // 43 सूर्यवैश्वानरसमैस्तपसा भावितात्मभिः // 29 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि महर्षिभिर्मोक्षपरैर्यतिभिर्नियतेन्द्रियैः। पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 145 // ब्रह्मभूतैर्महाभागैरुपेतं ब्रह्मवादिभिः / / 30 सोऽभ्यगच्छन्महातेजास्तानृषीन्नियतः शुचिः / वैशंपायन उवाच। भ्रातृभिः सहितो धीमान्धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः॥३१ / तत्र ते पुरुषव्याघ्राः परमं शौचमास्थिताः / दिव्यज्ञानोपपन्नास्ते दृष्ट्वा प्राप्तं युधिष्ठिरम् / षडात्रमवसन्वीरा धनंजयदिदृक्षया / अभ्यगच्छन्त सुप्रीताः सर्व एव महर्षयः / तस्मिन्विहरमाणाश्च रममाणाश्च पाण्डवाः // 1 आशीर्वादान्प्रयुञ्जानाः स्वाध्यायनिरता भृशम् / / 32 मनोज्ञे काननवरे सर्वभूतमनोरमे / प्रीतास्ते तस्य सत्कारं विधिना पावकोपमाः / पादपैः पुष्पविकचैः फलभारावनामितैः // 2 उपाजह्वश्च सलिलं पुष्पमूलफलं शुचि // 33 शोभितं सर्वतोरम्यैः पुंस्कोकिलकुलाकुलैः / स तैः प्रीत्याथ सत्कारमुपनीतं महर्षिभिः / स्निग्धपत्रैरविरलैः शीतच्छायैर्मनोरमैः / / 3 प्रयतः प्रतिगृह्याथ धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः // 34 सरांसि च विचित्राणि प्रसन्नसलिलानि च। तं शक्रसदनप्रख्यं दिव्यगन्धं मनोरमम् / कमलैः सोत्पलैस्तत्र भ्राजमानानि सर्वशः / प्रीतः स्वर्गापमं पुण्यं पाण्डवः सह कृष्णया॥३५ / पश्यन्तश्चारुरूपाणि रेमिरे तत्र पाण्डवाः // 4 - 579 -
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________________ 3. 146.5] महाभारते [ 3. 146. 34 पुण्यगन्धः सुखस्पर्शो ववौ तत्र समीरणः।। पुंस्कोकिलनिनादेषु षट्पदाभिरुतेषु च / हादयन्पाण्डवान्सर्वान्सकृष्णान्सद्विजर्षभान् // 5 बद्धश्रोत्रमनश्चक्षुर्जगामामितविक्रमः // 20 ततः पूर्वोत्तरो वायुः पवमानो यदृच्छया / जिघ्रमाणो महातेजाः सर्वतुकुसुमोद्भवम् / सहस्रपत्रमर्काभं दिव्यं पद्ममुदावहत् // 6 गन्धमुद्दाममुद्दामो वने मत्त इव द्विपः // 21 तदपश्यत पाश्चाली दिव्यगन्धं मनोरमम् / ह्रियमाणश्रमः पित्रा संप्रहृष्टतनूरुहः। अनिलेनाहृतं भूमौ पतितं जलजं शुचि // 7 पितुः संस्पर्शशीतेन गन्धमादनवायुना // 22. . तच्छुभा शुभमासाद्य सौगन्धिकमनुत्तमम् / स यक्षगन्धर्वसुरब्रह्मर्षिगणसेवितम् / अतीव मुदिता राजन्भीमसेनमथाब्रवीत् // 8 विलोडयामास तदा पुष्पहेतोररिंदमः // 23 पश्य दिव्यं सुरुचिरं भीम पुष्पमनुत्तमम् / विषमच्छेदरचितैरनुलिप्तमिवामुलैः। गन्धसंस्थानसंपन्नं मनसो मम नन्दनम् // 9 विमलैर्धातुविच्छेदैः काञ्चनाञ्जनराजतैः // 24 एतत्तु धर्मराजाय प्रदास्यामि परंतप / सपक्षमिव नृत्यन्तं पार्श्वलनैः पयोधरैः / हरेरिदं मे कामाय काम्यके पुनराश्रमे // 10 / मुक्ताहारैरिव चितं च्युतैः प्रस्रवणोदकैः // 25 यदि तेऽहं प्रिया पार्थ बहूनीमान्युपाहर। अभिरामनदीकुञ्जनिझरोदरकन्दरम् / तान्यहं नेतुमिच्छामि काम्यकं पुनराश्रमम् // 11 अप्सरोनपुररवैः प्रनृत्तबहुबर्हिणम् // 26 एवमुक्त्वा तु पाञ्चाली भीमसेनमनिन्दिता / दिग्वारणविषाणात्रैर्वृष्टोपलशिलातलम् / जगाम धर्मराजाय पुष्पमादाय तत्तदा // 12 स्रस्तांशुकमिवाक्षोभ्यैर्निम्नगानिःसृतैर्जलैः // 27. अभिप्रायं तु विज्ञाय महिष्याः पुरुषर्षभः / सशष्पकवलैः स्वस्थैरदूरपरिवर्तिभिः / प्रियाया प्रियकामः सः भीमो भीमपराक्रमः // 13 भयस्याज्ञैश्च हरिणैः कौतूहलनिरीक्षितः // 28 वातं तमेवाभिमुखो यतस्तत्पुष्पमागतम् / चालयन्नूरुवेगेन लताजालान्यनेकशः / आजिहीर्षुर्जगामाशु स पुष्पाण्यपराण्यपि // 14 आक्रीडमानः कौन्तेयः श्रीमान्वायुसुतो ययौ // 29 रुक्मपृष्ठं धनुर्गृह्य शरांश्चाशीविषोपमान / प्रियामनोरथं कर्तुमुद्यतश्चारुलोचनः / मृगरांडिव संक्रुद्धः प्रभिन्न इव कुञ्जरः // 15 / प्रांशुः कनकतालाभः सिंहसंहननो युवा // 30 द्रौपद्याः प्रियमन्विच्छन्स्वबाहुबलमाश्रितः / मत्तवारणविक्रान्तो मत्तवारणवेगवान् / व्यपेतभयसंमोहः शैलमभ्यपतद्बली // 16 मत्तवारणताम्राक्षो मत्तवारणवारणः // 31 स तं द्रुमलतागुल्मच्छन्नं नीलशिलातलम् / प्रियपार्थोपविष्टाभिावृत्ताभिर्विचेष्टितैः / गिरिं चचारारिहरः किंनराचरितं शुभम् // 17 यक्षगन्धर्वयोषाभिरदृश्याभिर्निरीक्षितः // 32 नानावर्णधरैश्चित्रं धातुद्रुममृगाण्डजैः / नवावतारं रूपस्य विक्रीणन्निव पाण्डवः / सर्वभूषणसंपूर्ण भूमे जमिवोच्छ्रितम् // 18 चचार रमणीयेषु गन्धमादनसानुषु / / 33 सर्वर्तुरमणीयेषु गन्धमादनसानुषु / संस्मरन्विविधान्क्लेशान्दुर्योधनकृतान्बहून् / सक्तचक्षुरभिप्रायं हृदयेनानुचिन्तयन् // 19 / द्रौपद्या वनवासिन्याः प्रियं कर्तुं समुद्यतः // 34 -580 -
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________________ 3. 146. 35] आरण्यकपर्व [ 3. 146. 62 सोऽचिन्तयद्गते स्वर्गमर्जुने मयि चागते / प्रविवेश ततः क्षिप्रं तानपास्य महाबलः / पुष्पहेतोः कथं न्वार्यः करिष्यति युधिष्ठिरः // 35 वनं पाण्डुसुतः श्रीमाशब्देनापूरयन्दिशः // 49 मेहान्नरवरो नूनमविश्वासाद्वनस्य च / तेन शब्देन चोग्रेण भीमसेनरवेण च / नकुलं सहदेवं च न मोक्ष्यति युधिष्ठिरः // 36 वनान्तरगताः सर्वे वित्रेसुर्मुगपक्षिणः // 50 . कथं नु कुसुमावाप्तिः स्याच्छीघ्रमिति चिन्तयन् / तं शब्दं सहसा श्रुत्वा मृगपक्षिसमीरितम् / प्रतस्थे नरशार्दूलः पक्षिराडिव वेगितः // 37 जलार्द्रपक्षा विहगाः समुत्पेतुः सहस्रशः // 51 कम्पयन्मेदिनी पद्भ्यां निर्घात इव पर्वसु। तानौदकान्पक्षिगणान्निरीक्ष्य भरतर्षभः। . त्रासयन्गजयूथानि वातरंहा वृकोदरः // 38 तानेवानुसरन्रम्यं ददर्श सुमहत्सरः // 52 . सिंहव्याघ्रगणांश्चैव मर्दमानो महाबलः / काश्चनैः कदलीषण्डैर्मन्दमारुतकम्पितैः / उन्मूलयन्महावृक्षान्पोथयंश्चोरसा बली // 39 वीज्यमानमिवाक्षोभ्यं तीरान्तरविसर्पिभिः // 53 लतावल्लीश्च वेगेन विकर्षन्पाण्डुनन्दनः / तत्सरोऽथावतीर्याशु प्रभूतकमलोत्पलम् / उपर्युपरि शैलाग्रमारुरुक्षुरिव द्विपः / महागज इवोद्दामश्चिक्रीड बलवद्बली। विनर्दमानोऽतिभृशं सविद्युदिव तोयदः // 40 विक्रीड्य तस्मिन्सुचिरमुत्ततारामितद्युतिः // 54 : तस्य शब्देन घोरेण धनुर्घोषेण चाभिभो। ततोऽवगाह्य वेगेन तद्वनं बहुपादपम् / त्रस्तानि मृगयूथानि समन्ताद्विप्रदुद्रुवुः // 41 दध्मौ च शङ्ख स्वनवत्सर्वप्राणेन पाण्डवः // 55 अथापश्यन्महाबाहुर्गन्धमादनसानुषु / तस्य शङ्खस्य शब्देन भीमसेनरवेण च / सुरम्यं कदलीषण्डं बहुयोजनविस्तृतम् // 42 बाहुशब्देन चोग्रेण नर्दन्तीव गिरेगेंहाः // 56 तमभ्यगच्छद्वेगेन क्षोभयिष्यन्महाबलः / तं वज्रनिष्पेषसममास्फोटितरवं भृशम् / महागज इवास्रावी प्रभञ्जन्विविधान्द्रुमान् // 43 श्रुत्वा शैलगुहासुप्तैः सिंहैर्मुक्तो महास्वनः // 57 उत्पाट्य कदलीस्कन्धान्बहुतालसमुच्छ्रयान् / सिंहनादभयत्रस्तैः कुञ्जरैरपि भारत / चिक्षेप तरसा भीमः समन्ताद्वलिनां वरः / / 44 मुक्तो विरावः सुमहान्पर्वतो येन पूरितः // 58 : ततः सत्त्वान्युपाक्रामन्बहूनि च महान्ति च / तं तु नादं ततः श्रुत्वा सुप्तो वानरपुंगवः / रुरुवारणसंघाश्च महिषाश्च जलाश्रयाः // 45 प्राजृम्भत महाकायो हनूमान्नाम वानरः // 59 सिंहव्याघ्राश्च संक्रुद्धा भीमसेनमभिद्रवन् / कदलीषण्डमध्यस्थो निद्रावशगतस्तदा / व्यादितास्या महारौद्रा विनदन्तोऽतिभीषणाः // 46 जम्भमाणः सुविपुलं शक्रध्वजमिवोच्छ्रितम् / . ततो वायुसुतः क्रोधात्स्वबाहुबलमाश्रितः / आस्फोटयत लाङ्गुलमिन्द्राशनिसमस्वनम् // 60 गजेनानन्गजं भीमः सिंहं सिंहेन चाभिभूः / तस्य लाङ्गुलनिनदं पर्वतः स गुहामुखैः। तलप्रहारैरन्यांश्च व्यहनत्पाण्डवो बली // 47 उद्गारमिव गौनर्दमुत्ससर्ज समन्ततः॥ 61 ते हन्यमाना भीमेन सिंहव्याघ्रतरक्षवः / स लाङ्गूलरवस्तस्य मत्तवारणनिस्वनम् / भयाद्विससूपुः सर्वे शकृन्मूत्रं च सुनुवुः // 48 अन्तर्धाय विचित्रेषु चचार गिरिसानुषु / / 62 - 581 -
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________________ 8. 146. 63] महाभारते [ 3. 147.7 स भीमसेनस्तं श्रुत्वा संप्रहृष्टतनूरुहः / न त्वं धर्म विजानासि वृद्धा नोपासितास्त्वया / शब्दप्रभवमन्विच्छंश्चचार कदलीवनम् // 63 अल्पबुद्धितया वन्यानुत्सादयसि यन्मृगान्॥ 77 कदलीवनमध्यस्थमथ पीने शिलातले / बहि कस्त्वं किमर्थं वा वनं त्वमिदमागतः / स ददर्श महाबाहुर्वानराधिपतिं स्थितम् // 64 वर्जितं मानुषैर्भावैस्तथैव पुरुषैरपि // 78 विद्युत्संघातदुष्प्रेक्ष्यं विद्युत्संघातपिङ्गलम् / अतः परमगम्योऽयं पर्वतः सुदुरारुहः। विद्युत्संघातसदृशं विद्युत्संघातचञ्चलम् // 65 विना सिद्धगति वीर गतिरत्र न विद्यते / / 79 बाहुस्वस्तिकविन्यस्तपीनहस्खशिरोधरम् / कारुण्यात्सौहृदाच्चैव वारये त्वां महाबल / स्कन्धभूयिष्ठकायत्वात्तनुमध्यकटीतटम् // 66 नातः परं त्वया शक्यं गन्तुमाश्वसिहि प्रभो // 80 किंचिच्चाभुग्नशीर्षेण दीर्घरोमाञ्चितेन च / इमान्यमृतकल्पानि मूलानि च फलानि च / लाङ्गलेनोर्ध्वगतिना ध्वजेनेव विराजितम् // 67 भक्षयित्वा निवर्तस्व ग्राह्यं यदि वचो मम // 81 रक्तोष्ठं ताम्रजिह्वास्यं रक्तकणं चलद्भुवम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि वदनं वृत्तदंष्ट्राग्रं रश्मिवन्तमिवोडुपम् // 68 षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 146 // वदनाभ्यन्तरगतैः शुक्लभासैरलंकृतम् / 147 केसरोत्करसंमिश्रमशोकानामिवोत्करम् / / 69 वैशंपायन उवाच / हिरण्मयीनां मध्यस्थं कदलीनां महाद्युतिम् / एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य वानरेन्द्रस्य धीमतः / दीप्यमानं स्ववपुषा अर्चिष्मन्तमिवानलम् // 70 भीमसेनस्तदा वीरः प्रोवाचामित्रकर्शनः // 1 . निरीक्षन्तमवित्रस्तं लोचनैर्मधुपिङ्गलैः। को भवान्किनिमित्तं वा वानरं वपुराश्रितः / तं वानरवरं वीरमतिकायं महाबलम् // 71 ब्राह्मणानन्तरो वर्णः क्षत्रियस्त्वानुपृच्छति // 2 अथोपसृत्य तरसा भीमो भीमपराक्रमः / कौरवः सोमवंशीयः कुन्त्या गर्भेण धारितः / सिंहनादं समकरोद्बोधयिष्यन्कपिं तदा // 72 पाण्डवो वायुतनयो भीमसेन इति श्रुतः // 3 तेन शब्देन भीमस्य वित्रेसुम॒गपक्षिणः / स वाक्यं भीमसेनस्य स्मितेन प्रतिगृह्य तत् / हनूमांश्च महासत्त्व ईषदुन्मील्य लोचने / हनूमान्वायुतनयो वायुपुत्रमभापत // 4 अवैक्षदथ सावज्ञं लोचनैर्मधुपिङ्गलैः / / 73 वानरोऽहं न ते मार्ग प्रदास्यामि यथेप्सितम् / स्मितेनाभाष्य कौन्तेयं वानरो नरमब्रवीत् / साधु गच्छ निवर्तस्व मा त्वं प्राप्स्यसि वैशसम्॥५ किमर्थं सरुजस्तेऽहं सुखसुप्तः प्रबोधितः // 74 भीम उवाच। . ननु नाम त्वया कार्या दया भूतेषु जानता।। वैशसं वास्तु यद्वान्यन्न त्वा पृच्छामि वानर / वयं धर्मं न जानीमस्तिर्यग्योनि समाश्रिताः // 75 प्रयच्छोत्तिष्ठ मार्ग मे मा त्वं प्राप्स्यसि वैशसम् // मनुष्या बुद्धिसंपन्ना दयां कुर्वन्ति जन्तुषु / हनूमानुवाच / रेषु कर्मसु कथं देहवाक्चित्तदूषिषु / नास्ति शक्तिर्ममोत्थातुं व्याधिना क्लेशितो ह्यहम् / धर्मघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः // 76 / यद्यवश्यं प्रयातव्यं लवयित्वा प्रयाहि माम् // 7 -582 -
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________________ 3. 147. 8] आरण्यकपर्व [ 3. 147. 34 भीम उवाच। प्रणिपत्य च कौन्तेयः प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् / निर्गुणः परमात्मेति देहं ते व्याप्य तिष्ठति / प्रसीद कपिशार्दूल दुरुक्तं क्षम्यतां मम // 21 तमहं ज्ञानविज्ञेयं नावमन्ये न लङ्घये // 8 सिद्धो वा यदि वा देवो गन्धर्वो वाथ गुह्यकः / यद्यागमैन विन्देयं तमहं भूतभावनम् / पृष्टः सन्कामया ब्रूहि कस्त्वं वानररूपधृक् // 22 क्रमेयं त्वां गिरिं चेमं हनूमानिव सागरम् // 9 हनूमानुवाच। हनूमानुवाच / यत्ते मम परिज्ञाने कौतूहलमरिंदम। क एष हनुमान्नाम सागरो येन लचितः / तत्सर्वमखिलेन त्वं शृणु पाण्डवनन्दन // 23 पृच्छामि त्वा कुरुश्रेष्ठ कथ्यतां यदि शक्यते॥१० अहं केसरिणः क्षेत्रे वायुना जगदायुषा। भीम उवाच / जातः कमलपत्राक्ष हनूमान्नाम वानरः // 24 : भ्राता मम गुणश्लाघ्यो बुद्धिसत्त्वबलान्वितः / सूर्यपुत्रं च सुग्रीवं शक्रपुत्रं च वालिनम्। रामायणेऽतिविख्यातः शूरो वानरपुंगवः // 11 सर्ववानरराजानौ सर्ववानरयूथपाः // 25 रामपत्नीकृते येन शतयोजनमायतः / उपतस्थर्महावीर्या मम चामित्रकर्शन / सागरः प्लवगेन्द्रेण क्रमेणैकेन लङ्घितः // 12 सुग्रीवेणाभवत्प्रीतिरनिलस्याग्निना यथा // 26 . स मे भ्राता महावीर्यस्तुल्योऽहं तस्य तेजसा / निकृतः स ततो भ्रात्रा कस्मिंश्चित्कारणान्तरे / बले पराक्रमे युद्धे शक्तोऽहं तव निग्रहे // 13 ऋश्यमूके मया साधं सुग्रीवो न्यवसच्चिरम् // 27 उत्तिष्ठ देहि मे मार्ग पश्य वा मेऽद्य पौरुषम् / अथ दाशरथिर्वीरो रामो नाम महाबलः / मच्छासनमकुर्वाणं मा त्वा नेष्ये यमक्षयम् // 14 विष्णुर्मानुषरूपेण चचार वसुधामिमाम् // 28 - वैशंपायन उवाच। स पितुः प्रियमन्विच्छन्सहभार्यः सहानुजः। विज्ञाय तं बलोन्मत्तं बाहुवीर्येण गर्वितम् / / सधनुर्धन्विनां श्रेष्ठो दण्डकारण्यमाश्रितः // 29 हृदयेनावहस्यैनं हनूमान्वाक्यमब्रवीत् // 15 तस्य भार्या जनस्थानाद्रावणेन हृता बलात् / प्रसीद नास्ति में शक्तिरुत्थातुं जरयानघ / वश्चयित्वा महाबुद्धिं मृगरूपेण राघवम् // 30 ममानुकम्पया त्वेतत्पुच्छमुत्सार्य गम्यताम् // 16 हृतदारः सह भ्रात्रा पत्नी मार्गन्स राघवः / सावज्ञमथ वामेन स्मयञ्जग्राह पाणिना / दृष्टवाशैलशिखरे सुग्रीवं वानरर्षभम् // 31 .. न चाशकच्चालयितुं भीमः पुच्छं महाकपेः॥ 17 तेन तस्याभवत्सख्यं राघवस्य महात्मनः / उच्चिक्षेप पुनर्दोामिन्द्रायुधमिवोच्छ्रितम् / स हत्वा वालिनं राज्ये सुग्रीवं प्रत्यपादयत् / नोद्धर्तुमशकद्भीमो दोामपि महाबलः // 18 स हरीन्प्रेषयामास सीतायाः परिमार्गणे // 32. उत्क्षिप्तभूर्विवृत्ताक्षः संहतभृकुटीमुखः। ततो वानरकोटीभिर्या वयं प्रस्थिता दिशम् / विनगात्रोऽभवद्भीमो न चोद्धतुं शशाक ह // 19 तत्र प्रवृत्तिः सीताया गृध्रेण प्रतिपादिता // 33 यत्नवानपि तु श्रीमाल्लाङ्गुलोद्धरणोद्भुतः। ततोऽहं कार्यसिद्ध्यर्थं रामस्याक्लिष्टकर्मणः / कपेः पार्श्वगतो भीमस्तस्थी व्रीडादधोमुखः॥२० / शतयोजनविस्तीर्णमर्णवं सहसाप्लुतः // 34 . -583 -
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________________ 3. 147. 35] महाभारते [3. 148. 18 दृष्टा सा च मया देवी रावणस्य निवेशने / न तच्छक्यं त्वया द्रष्टुं रूपं नान्येन केनचित् / प्रत्यागतश्चापि पुनर्नाम तत्र प्रकाश्य वै // 35 कालावस्था तदा ह्यन्या वर्तते सा न सांप्रतम् // 5 तो टमेण लीटेगा हर लालदासार। . माया सत्दु कालखतत्वद्वत्परेडेपरः / पुनः प्रत्याहृता भार्या नष्टा वेदश्रुतिर्यथा // 36 अयं प्रध्वंसनः कालो नाद्य तद्रूपमस्ति मे // 6 ततः प्रतिष्ठिते रामे वीरोऽयं याचितो मया। भूमिनद्यो नगाः शैलाः सिद्धा देवा महर्षयः / यावद्रामकथा वीर भवेल्लोकेषु शत्रुहन् / कालं समनुवर्तन्ते यथा भावा युगे युगे। . तावज्जीवेयमित्येवं तथास्त्विति च सोऽब्रवीत् // 37 बलवर्मप्रभावा हि प्रहीयन्त्युद्भवन्ति च // 7 दश वर्षसहस्राणि दश वर्षशतानि च / तदलं तव तद्रूपं द्रष्टुं कुरुकुलोद्वह / राज्यं कारितवान्रामस्ततस्तु त्रिदिवं गतः // 38 युगं समनुवर्तामि कालो हि दुरतिक्रमः॥ 8 तदिहाप्सरसस्तात गन्धर्वाश्च सदानघ / भीम उवाच / तस्य वीरस्य चरितं गायन्त्यो रमयन्ति माम् // 39 युगसंख्यां समाचक्ष्व आचारं च युगे युगे। अयं च मार्गो मानामगम्यः कुरुनन्दन / धर्मकामार्थभावांश्च वर्म वीयं भवाभवौ // 9 ततोऽहं रुद्धवान्मार्ग तवेमं देवसेवितम् / हनूमानुवाच। धर्षयेद्वा शपेद्वापि मा कश्चिदिति भारत // 40 कृतं नाम युगं तात यत्र धर्मः सनातनः / दिव्यो देवपथो ह्येष नात्र गच्छन्ति मानुषाः / कृतमेव न कर्तव्यं तस्मिन्काले युगोत्तमे // 10 यदर्थमातगश्चासि तत्सरोऽभ्यर्ण एव हि // 41 न तत्र धर्माः सीदन्ति न क्षीयन्ते च वै प्रजाः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततः कृतयुगं नाम कालेन गुणतां गतम् / / 11 सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 147 // देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसपन्नगाः। 148 नासन्कृतयुगे तात तदा न क्रयविक्रयाः // 12 वैशंपायन उवाच। न सामयजुऋग्वर्णाः क्रिया नासीच मानवी / एवमुक्तो महाबाहुर्भीमसेनः प्रतापवान् / अभिध्याय फलं तत्र धर्मः संन्यास एव च // 13 प्रणिपत्य ततः प्रीत्या भ्रातरं हृष्टमानसः / न तस्मिन्युगसंसर्गे व्याधयो नेन्द्रियक्षयः / उवाच श्लक्ष्णया वाचा हनूमन्तं कपीश्वरम् // 1 नासूया नापि रुदितं न दो नापि पैशुनम् // 14 मया धन्यतरो नास्ति यदायं दृष्टवानहम् / न विग्रहः कुतस्तन्द्री न द्वेषो नापि वैकृतम् / अनुग्रहो मे सुमहांस्तृप्तिश्च तव दर्शनात् / / 2 न भयं न च संतापो न चेा न च मत्सरः // 15 एवं तु कृतमिच्छामि त्वयार्याद्य प्रियं मम / / ततः परमकं ब्रह्म या गतियोगिनां परा / यत्ते तदासीत्प्लवतः सागरं मकरालयम् / आत्मा च सर्वभूतानां शुक्लो नारायणस्तदा // 16 रूपमप्रतिमं वीर तदिच्छामि निरीक्षितुम् // 3 / ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च कृतलक्षणाः / एवं तुष्टो भविष्यामि श्रद्धास्यामि च ते वचः। / कृते युगे समभवन्स्वकर्मनिरताः प्रजाः // 17 एवमुक्तः स तेजस्वी प्रहस्य हरिरब्रवीत् // 4 . | समाश्रमं समाचारं समज्ञानमतीबलम् / -584
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________________ 3. 148. 18] आरण्यकपर्व [3. 149.6 तदा हि समकर्माणो वर्णा धर्मानवाप्नुवन् // 18 वेदाचाराः प्रशाम्यन्ति धर्मयज्ञक्रियास्तथा // 33 एकवेदसमायक्ता एकमत्रविधिक्रियाः। ईतयो व्याधयस्तन्द्री दोषाः क्रोधादयस्तथा / पृथग्धर्मास्त्वेकवेदा धर्ममेकमनुव्रताः // 19 उपद्रवाश्च वर्तन्ते आधयो व्याधयस्तथा // 34 चातुराश्रम्ययुक्तेन कर्मणा कालयोगिना। . युगेष्वावर्तमानेषु धर्मो व्यावर्तते पुनः / अकामफलसंयोगात्प्राप्नुवन्ति परां गतिम् // 20 धर्मे व्यावर्तमाने तु लोको व्यावर्तते पुनः // 35 आत्मयोगसमायुक्तो धर्मोऽयं कृतलक्षणः / / लोके क्षीणे क्षयं यान्ति भावा लोकप्रवर्तकाः / कृते युगे चतुष्पादश्चातुर्वर्ण्यस्य शाश्वतः॥२१ युगक्षयकृता धर्माः प्रार्थनानि विकुर्वते // 36 एतत्कृतयुगं नाम त्रैगुण्यपरिवर्जितम् / / एतत्कलियुगं नाम अचिराद्यत्प्रवर्तते। त्रेतामपि निबोध त्वं यस्मिन्सनं प्रवर्तते // 22 युगानुवर्तनं त्वेतत्कुर्वन्ति चिरजीविनः // 37 पादेन हसते धर्मो रक्ततां याति चाच्युतः / यच्च ते मत्परिज्ञाने कौतूहलमरिंदम / सत्यप्रवृत्ताश्च नराः क्रियाधर्मपरायणाः // 23 अनर्थकेषु को भावः पुरुषस्य विजानतः // 38 ततो यज्ञाः प्रवर्तन्ते धर्माश्च विविधाः क्रियाः / एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि / त्रेतायां भावसंकल्पाः क्रियादानफलोदयाः // 24 युगसंख्यां महाबाहो स्वस्ति प्राप्नुहि गम्यताम् // 39 प्रचलन्ति न वै धर्मात्तपोदानपरायणाः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि स्वधर्मस्थाः क्रियावन्तो जनास्त्रेतायुगेऽभवन् // 25 अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 148 // द्वापरेऽपि युगे धर्मो द्विभागोनः प्रवर्तते / विष्णुवै पीततां याति चतुर्धा वेद एव च // 26 भीम उवाच / ततोऽन्ये च चतुर्वेदास्त्रिवेदाश्च तथापरे / पूर्वरूपमदृष्ट्वा ते न यास्यामि कथंचन / द्विवेदाश्चैकवेदाश्चाप्यनृचश्च तथापरे // 27 यदि तेऽहमनुग्राह्यो दर्शयात्मानमात्मना // 1 एवं शास्त्रेषु भिन्नेषु बहुधा नीयते क्रिया। वैशंपायन उवाच / तपोदानप्रवृत्ता च राजसी भवति प्रजा // 28 एवमुक्तस्तु भीमेन स्मितं कृत्वा प्लवंगमः / एकवेदस्य चाज्ञानाद्वेदास्ते बहवः कृताः। तद्रूपं दर्शयामास यद्वै सागरलङ्घने // 2 सत्यस्य चेह विभ्रंशात्सत्ये कश्चिदवस्थितः // 29 भ्रातुः प्रियमभीप्सन्वै चकार सुमहद्वपुः / सत्यात्प्रच्यवमानानां व्याधयो बहवोऽभवन् / देहस्तस्य ततोऽतीव वर्धत्यायामविस्तरैः // 3 कामाश्वोपद्रवाश्चैव तदा दैवतकारिताः // 30 तद्रूपं कदलीषण्डं छादयन्नमितद्युतिः / यैरर्यमानाः सुभृशं तपस्तप्यन्ति मानवाः। गिरेश्वोच्छ्रयमागम्य तस्थौ तत्र स वानरः // 4 कामकामाः स्वर्गकामा यज्ञांस्तन्वन्ति चापरे // 31 समुच्छ्रितमहाकायो द्वितीय इव पर्वतः / एवं द्वापरमासाद्य प्रजाः क्षीयन्त्यधर्मतः / ताम्रक्षणस्तीक्ष्णदंष्ट्रो भृकुटीकृतलोचनः / पादेनैकेन कौन्तेय धर्मः कलियुगे स्थितः // 32 दीर्घलाङ्गुलमाविध्य दिशो व्याप्य स्थितः कपिः॥५ तामसं युगमासाद्य कृष्णो भवति केशवः। तद्रूपं महदालक्ष्य भ्रातुः कौरवनन्दनः / म. भा. 74 - 585 -
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________________ 3. 149. 6] . महाभारते [ 3. 149. 36 विसिस्मिये तदा भीमो जहषे च पुनः पुनः // 6 अरिष्टं क्षेममध्वानं वायुना परिरक्षितः // 21 तमर्कमिव तेजोभिः सौवर्णमिव पर्वतम् / एष पन्थाः कुरुश्रेष्ठ सौगन्धिकवनाय ते / प्रदीप्तमिव चाकाशं दृष्ट्वा भीमो न्यमीलयत् // 7 द्रक्ष्यसे धनदोद्यानं रक्षितं यक्षराक्षसैः // 22 आबभाषे च हनुमान्भीमसेनं स्मयन्निव / न च ते तरसा कार्यः कुसुमावचयः स्वयम् / एतावदिह शक्तस्त्वं रूपं द्रष्टुं ममानघ // 8 दैवतानि हि मान्यानि पुरुषेण विशेषतः // 23 वर्धेऽहं चाप्यतो भूयो यावन्मे मनसेप्सितम् / बलिहोमनमस्कारैर्मत्रैश्च भरतर्षभ। . भीम शत्रुषु चात्यर्थं वर्धते मूर्तिरोजसा // 9 दैवतानि प्रसादं हि भक्त्या कुर्वन्ति भारत // 24 तदद्भुतं महारौद्रं विन्ध्यमन्दरसंनिभम् / मा तात साहसं कार्षीः स्वधर्ममनुपालय / दृष्ट्वा हनूमतो वर्म संभ्रान्तः पवनात्मजः // 10 स्वधर्मस्थः परं धर्म बुध्यस्वागमयस्व च // 25 प्रत्युवाच ततो भीमः संप्रहृष्टतनूरुहः / न हि धर्ममविज्ञाय वृद्धाननुपसेव्य च। . कृताञ्जलिरदीनात्मा हनूमन्तमवस्थितम् // 11 धर्मो वै वेदितुं शक्यो बृहस्पतिसमैरपि // 26 दृष्टं प्रमाणं विपुलं शरीरस्यास्य ते विभो / अधर्मो यत्र धर्माख्यो धर्मश्चाधर्मसंज्ञितः / संहरस्व महावीर्य स्वयमात्मानमात्मना // 12 विज्ञातव्यो विभागेन यत्र मुह्यन्त्यबुद्धयः॥ 27 न हि शक्नोमि त्वां द्रष्टुं दिवाकरमिवोदितम् / आचारसंभवो धर्मो धर्माद्वेदाः समुत्थिताः। अप्रमेयमनाधृष्यं मैनाकमिव पर्वतम् // 13 वेदैर्यज्ञाः समुत्पन्ना यज्ञैर्देवाः प्रतिष्ठिताः // 28 विस्मयश्चैव मे वीर सुमहान्मनसोऽद्य वै / वेदाचारविधानोक्तैर्यज्ञैर्धार्यन्ति देवताः। यद्रामस्त्वयि पार्श्वस्थे स्वयं रावणमभ्यगात् // 14 बृहस्पत्युशनोक्तैश्च नयैर्धार्यन्ति मानवाः // 29 त्वमेव शक्तस्तां लङ्कां सयोधां सहवाहनाम् / पण्याकरवणिज्याभिः कृष्याथो योनिपोषणैः / स्वबाहुबलमाश्रित्य विनाशयितुमोजसा // 15 वार्तया धार्यते सर्व धर्मैरेतैर्द्विजातिभिः // 30 न हि ते किंचिदप्राप्यं मारुतात्मज विद्यते / त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्तिस्रो विद्या विजानताम् / तव नैकस्य पर्याप्तो रावणः सगणो युधि // 16 ताभिः सम्यक्प्रयुक्ताभिर्लोकयात्रा विधीयते॥३१ एवमुक्तस्तु भीमेन हनूमान्प्लवगर्षभः / सा चेद्धर्मक्रिया न स्यात्रयीधर्ममृते भुवि / प्रत्युवाच ततो वाक्यं स्निग्धगम्भीरया गिरा॥१७ दण्डनीतिमृते चापि निर्मर्यादमिदं भवेत् // 32 एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत। वार्ताधर्मे ह्यवर्तन्त्यो विनश्येयुरिमाः प्रजाः / भीमसेन न पर्याप्तो ममासौ राक्षसाधमः // 18 सुप्रवृत्तस्त्रिभिद्येतैर्धमैः सूयन्ति वै प्रजाः // 33 मया तु तस्मिन्निहते रावणे लोककण्टके / द्विजानाममृतं धर्मो ह्येकश्चैवैकवर्णिकः / कीर्तिनश्येद्राघवस्य तत एतदुपेक्षितम् // 19 यज्ञाध्ययनदानानि त्रयः साधारणाः स्मृताः॥ 34 तेन वीरेण हत्वा तु सगणं राक्षसाधिपम् / याजनाध्यापने चोभे ब्राह्मणानां प्रतिग्रहः / आनीता स्वपुरं सीता लोके कीर्तिश्च स्थापिता॥२० / पालनं क्षत्रियाणां वै वैश्यधर्मश्च पोषणम् // 35 तद्गच्छ विपुलप्रज्ञ भ्रातुः प्रियहिते रतः। शुश्रूषा तु द्विजातीनां शूद्राणां धर्म उच्यते। -586 -
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________________ 3. 149. 36] आरण्यकपर्व [ 3. 150. 11 भैक्षहोमव्रतैींनास्तथैव गुरुवासिनाम् // 36 दानातिथ्यक्रियाधमैर्यान्ति वैश्याश्च सद्गतिम् // 51 क्षत्रधर्मोऽत्र कौन्तेय तव धर्माभिरक्षणम् / क्षत्रं याति तथा स्वर्ग भुवि निग्रहपालनैः / खधर्म प्रतिपद्यस्व विनीतो नियतेन्द्रियः // 37 / सम्यक्प्रणीय दण्डं हि कामद्वेषविवर्जिताः। वृद्धैः संमत्रय सद्भिश्च बुद्धिमद्भिः श्रुतान्वितैः / अलुब्धा विगतक्रोधाः सतां यान्ति सलोकताम्॥५२ सुस्थितः शास्ति दण्डेन व्यसनी परिभूयते // 38 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि निग्रहानुग्रहैः सम्यग्यदा राजा प्रवर्तते। एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 149 // तदा भवति लोकस्य मर्यादा सुव्यवस्थिता // 39 150 तस्माद्देशे च दुर्गे च शत्रुमित्रबलेषु च / वैशंपायन उवाच / नित्यं चारेण बोद्धव्यं स्थानं वृद्धिः क्षयस्तथा॥४० ततः संहृत्य विपुलं तद्वपुः कामवर्धितम् / राज्ञामुपायाश्चत्वारो बुद्धिमत्रः पराक्रमः / भीमसेनं पुनर्दोभ्यां पर्यष्वजत वानरः // 1 निग्रहानुग्रहौ चैव दाक्ष्यं तत्कार्यसाधनम् // 41 परिष्वक्तस्य तस्याशु भ्रात्रा भीमस्य भारत / साम्ला दानेन भेदेन दण्डेनोपेक्षणेन च / श्रमो नाशमुपागच्छत्सर्वं चासीत्प्रदक्षिणम् / / 2 साधनीयानि कार्याणि समासव्यासयोगतः // 42 ततः पुनरथोवाच पर्यश्रुनयनो हरिः। मन्त्रमूला नयाः सर्वे चाराश्च भरतर्षभ / भीममाभाष्य सौहार्दाद्वाष्पगद्गदया गिरा // 3 सुमत्रितैर्नयैः सिद्धिस्तद्विदैः सह मत्रयेत् // 43 गच्छ वीर स्वमावासं स्मर्तव्योऽस्मि कथान्तरे / स्त्रिया मूढेन लुब्धेन बालेन लघुना तथा / इहस्थश्च कुरुश्रेष्ठ न निवेद्योऽस्मि कस्यचित् // 4 न मन्त्रयेत गुह्यानि येषु चोन्मादलक्षणम् / / 44 धनदस्यालयाच्चापि विसृष्टानां महाबल / मनयेत्सह विद्वद्भिः शक्तैः कर्माणि कारयेत् / देशकाल इहायातुं देवगन्धर्वयोषिताम् // 5 स्निग्धैश्च नीतिविन्यासान्मूर्खान्सर्वत्र वर्जयेत्॥४५ ममापि सफलं चक्षुः स्मारितश्चास्मि राघवम् / धार्मिकान्धर्मकार्येषु अर्थकार्येषु पण्डितान् / मानुषं गात्रसंस्पर्शं गत्वा भीम त्वया सह // 6 स्त्रीषु क्लीबान्नियुञ्जीत क्रूरान्करेषु कर्मसु // 46 तदस्मद्दर्शनं वीर कौन्तेयामोघमस्तु ते / स्वेभ्यश्चैव परेभ्यश्च कार्याकार्यसमुद्भवा / भ्रातृत्वं त्वं पुरस्कृत्य वरं वरय भारत // 7 बुद्धिः कर्मसु विज्ञेया रिपूणां च बलाबलम् // 47 यदि तावन्मया क्षुद्रा गत्वा वारणसाह्वयम् / बुद्ध्या सुप्रतिपन्नेषु कुर्यात्साधुपरिग्रहम् / धार्तराष्ट्रा निहन्तव्या यावदेतत्करोम्यहम् // 8 निग्रहं चाप्यशिष्टेषु निर्मर्यादेषु कारयेत् // 48 शिलया नगरं वा तन्मदितव्यं मया यदि / निग्रहे प्रग्रहे सम्यग्यदा राजा प्रवर्तते। यावदद्य करोम्येतत्कामं तव महाबल // 9 तदा भवति लोकस्य मर्यादा सुव्यवस्थिता // 49 / भीमसेनस्तु तद्वाक्यं श्रुत्वा तस्य महात्मनः / एष ते विहितः पार्थ घोरो धर्मो दुरन्वयः। प्रत्युवाच हनूमन्तं प्रहृष्टेनान्तरात्मना // 10 तं स्वधर्मविभागेन विनयस्थोऽनुपालय // 50 कृतमेव त्वया सर्व मम वानरपुंगव / तपोधर्मदमेज्याभिर्विप्रा यान्ति यथा दिवम् / | स्वस्ति तेऽस्तु महाबाहो क्षामये त्वां प्रसीद मे // 11 - 587 -
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________________ 3. 150. 12] महाभारते [3. 151. 10 151 सनाथाः पाण्डवाः सर्वे त्वया नाथेन वीर्यवन् / मत्तकारण्डवयुतां चक्रवाकोपशोभिताम् / तवैव तेजसा सर्वान्विजेष्यामो वयं रिपून् // 12 रचितामिव तस्याद्रेर्मालां विमलपङ्कजाम् // 26 एवमुक्तस्तु हनुमान्भीमसेनमभाषत / तस्यां नद्यां महासत्त्वः सौगन्धिकवनं महत् / भ्रातृत्वात्सौहृदाचापि करिष्यामि तव प्रियम् // 13 अपश्यत्प्रीतिजननं बालार्कसदृशद्युति // 27 चमू विगाह्य शत्रूणां शरशक्तिसमाकुलाम् / तदृष्ट्वा लब्धकामः स मनसा पाण्डुनन्दनः। . यदा सिंहरवं वीर करिष्यसि महाबल। वनवासपरिक्लिष्टां जगाम मनसा प्रियाम // 28 तदाहं बृंहयिष्यामि स्वरवेण वं तव // 14 इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि विजयस्य ध्वजस्थश्च नादान्मोक्ष्यामि दारुणान् / पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 150 // शत्रूणां ते प्राणहरानित्युक्त्वान्तरधीयत // 15 गते तस्मिन्हरिवरे भीमोऽपि बलिनां वरः / वैशंपायन उवाच / तेन मार्गेण विपुलं व्यचरद्गन्धमादनम् // 16 स गत्वां नलिनी रम्यां राक्षसैरभिरक्षिताम् / अनुस्मरन्वपुस्तस्य श्रियं चाप्रतिमां भुवि / कैलासशिखरे रम्ये ददर्श शुभकानने // 1 माहात्म्यमनुभावं च स्मरन्दाशरथेर्ययौ // 17 कुबेरभवनाभ्याशे जातां पर्वतनिर्झरे। स तानि रमणीयानि वनान्युपवनानि च / सुरम्यां विपुलच्छायां नानाद्रुमलतावृताम् // 2 विलोडयामास तदा सौगन्धिकवनेप्सया // 18 हरिताम्बुजसंछन्नां दिव्यां कनकपुष्कराम् / फुल्लपद्मविचित्राणि पुष्पितानि वनानि च / पवित्रभूतां लोकस्य शुभामद्भुतदर्शनाम् // 3 मत्तवारणयूथानि पङ्कक्लिन्नानि भारत / तत्रामृतरसं शीतं लघु कुन्तीसुतः शुभम् / वर्षतामिव मेघानां वृन्दानि ददृशे तदा // 19 ददर्श विमलं तोयं शिवं बहु च पाण्डवः // 4 हरिणैश्चञ्चलापाङ्गैर्हरिणीसहितैर्वने / तां तु पुष्करिणीं रम्यां पद्मसौगन्धिकायुताम् / सशष्पकवलैः श्रीमान्पथि दृष्टो द्रुतं ययौ // 20 जातरूपमयैः पद्मश्छन्नां परमगन्धिभिः // 5 महिषैश्च वराहैश्च शार्दूलैश्च निषेवितम् / वैडूर्यवरनालैश्च बहुचित्रैर्मनोहरैः। व्यपेतभीगिरि शौर्याद्भीमसेनो व्यगाहत // 21 हंसकारण्डवोद्भूतैः सृजद्भिरमलं रजः // 6 कुसुमानतशाखैश्च ताम्रपल्लवकोमलैः / आक्रीडं यक्षराजस्य कुबेरस्य महात्मनः। याच्यमान इवारण्ये द्रुमैर्मारुतकम्पितैः // 22 गन्धर्वैरप्सरोभिश्च देवैश्च परमार्चिताम् // 7 कृतपद्माञ्जलिपुटा मत्तषट्पदसेविताः / सेवितामृषिभिर्दिव्यां यक्षैः किंपुरुषैस्तथा / प्रियतीर्थवना मार्गे पद्मिनी: समतिक्रमन् // 23 राक्षसैः किंनरैश्चैव गुप्तां वैश्रवणेन च // 8 सज्जमानमनोदृष्टिः फुल्लेषु गिरिसानुषु / तां च दृष्ट्वैव कौन्तेयो भीमसेनो महाबलः / द्रौपदीवाक्यपाथेयो भीमः शीघ्रतरं ययौ // 24 बभूव परमप्रीतो दिव्यं संप्रेक्ष्य तत्सरः // 9 परिवृत्तेऽहनि ततः प्रकीर्णहरिणे वने / तच्च क्रोधवशा नाम राक्षसा राजशासनात् / काश्चनैर्विमलैः पद्मर्ददर्श विपुलां नदीम् // 25 / रक्षन्ति शतसाहस्राश्चित्रायुधपरिच्छदाः // 10 -588 -
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________________ 3. 151. 11] आरण्यकपर्व [ 3. 152. 17 ते तु दृष्ट्वैव कौन्तेयमजिनैः परिवारितम् / भीम उवाच / रुक्माङ्गदधरं वीरं भीमं भीमपराक्रमम् // 11 राक्षसास्तं न पश्यामि धनेश्वरमिहान्तिके / सायुधं बद्धनिस्त्रिंशमशङ्कितमरिंदमम् / दृष्ट्वापि च महाराजं नाहं याचितुमुत्सहे // 8 पुष्करेप्सुमुपायान्तमन्योन्यमभिचुक्रुशुः // 12 न हि याचन्ति राजान एष धर्मः सनातनः / अयं पुरुषशार्दूल: सायुधोऽजिनसंवृतः / न चाहं हातुमिच्छामि क्षात्रधर्मं कथंचन // 9 यच्चिकीर्षुरिह प्राप्तस्तत्संप्रष्टुमिहार्हथ // 13 इयं च नलिनी रम्या जाता पर्वतनिर्झरे / ततः सर्वे महाबाहुँ समासाद्य वृकोदरम् / नेयं भवनमासाद्य कुबेरस्य महात्मनः // 10 तेजोयुक्तमपृच्छन्त कस्त्वमाख्यातुमर्हसि // 14 / तुल्या हि सर्वभूतानामियं वैश्रवणस्य च। मुनिवेषधरश्चासि चीरवासाश्च लक्ष्यसे / एवंगतेषु द्रव्येषु कः कं याचितुमर्हति // 11 यदर्थमसि संप्राप्तस्तदाचक्ष्व महाद्युते // 15 वैशंपायन उवाच / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि इत्युक्त्वा राक्षसान्सर्वान्भीमसेनो व्यगाहत / एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 151 // ततः स राक्षसैर्वाचा प्रतिषिद्धः प्रतापवान् / 152 मा मैवमिति सक्रोधैर्भर्त्सयद्भिः समन्ततः // 12 भीम उवाच / कदर्थीकृत्य तु स ताराक्षसान्भीमविक्रमः / पाण्डवो भीमसेनोऽहं धर्मपुत्रादनन्तरः / व्यगाहत महातेजास्ते तं सर्वे न्यवारयन् // 13 विशालां बदरी प्राप्तो भ्रातृभिः सह राक्षसाः॥१ गृहीत बनीत निकृन्ततेमं अपश्यत्तत्र पाञ्चाली सौगन्धिकमनुत्तमम् / पचाम खादाम च भीमसेनम् / अनिलोढमितो नूनं सा बहूनि परीप्सति॥२ क्रुद्धा ब्रुवन्तोऽनुययुद्भुतं ते तस्या मामनवद्याङ्गया धर्मपत्न्याः प्रिये स्थितम् / शस्त्राणि चोद्यम्य विवृत्तनेत्राः॥१४ पुष्पाहारमिह प्राप्तं निबोधत निशाचराः // 3 ततः स गुर्वी यमदण्डकल्पां राक्षसा ऊचुः। महागदां काश्चनपट्टनद्धाम् / आक्रीडोऽयं कुबेरस्य दयितः पुरुषर्षभ / प्रगृह्य तानभ्यपतत्तरस्वी नेह शक्यं मनुष्येण विहाँ मर्त्यधर्मिणा // 4 ___ ततोऽब्रवीत्तिष्ठत तिष्ठतेति // 15 देवर्षयस्तथा यक्षा देवाश्चात्र वृकोदर। ते तं तदा तोमरपट्टिशाद्यैआमत्र्य यक्षप्रवरं पिबन्ति विहरन्ति च / ___ाविध्य शस्त्रैः सहसाभिपेतुः / गन्धर्वाप्सरसश्चैव विहरन्त्यत्र पाण्डव // 5 जिघांसवः क्रोधवशाः सुभीमा अन्यायेनेह यः कश्चिदवमन्य धनेश्वरम् / भीमं समन्तात्परिवQरुयाः // 16 विहर्तुमिच्छेदुर्वृत्तः स विनश्येदसंशयम् // 6 वातेन कुन्त्यां बलवान्स जातः तमनादृत्य पद्मानि जिहीर्षसि बलादितः / शूरस्तरस्वी द्विषतां निहन्ता। धर्मराजस्य चात्मानं ब्रवीषि भ्रातरं कथम् // 7 सत्ये च धर्मे च रतः सदैव -589 -
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________________ 3. 152. 17 ] महाभारते. [ 3. 153. 12 पराक्रमे शत्रुभिरप्रधृष्यः // 17 जग्मुः कुरूणां प्रवरं विरोषाः। ... तेषां स मार्गान्विविधान्महात्मा भीमं च तस्यां ददृशुर्नलिन्यां . निहत्य शस्त्राणि च शात्रवाणाम् / यथोपजोषं विहरन्तमेकम् // 25 : यथाप्रवीरान्निजघान वीरः इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि परःशतान्पुष्करिणीसमीपे॥१८ द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 152 // .. ते तस्य वीर्यं च बलं च दृष्ट्वा 153 विद्याबलं बाहुबलं तथैव / वैशंपायन उवाच। अशक्नुवन्तः सहिताः समन्ता ततस्तानि महार्हाणि दिव्यानि भरतर्षभ। द्धतप्रवीराः सहसा निवृत्ताः॥ 19 बहूनि बहुरूपाणि विरजांसि समाददे // 1 विदीर्यमाणास्तत एव तूर्ण ततो वायुर्महाशीघ्रो नीचैः शकरकर्षणः / माकाशमास्थाय विमूढसंज्ञाः / प्रादुरासीत्खरस्पर्शः संग्राममभिचोदयन् // 2 कैलासशृङ्गाण्यभिदुद्रुवुस्ते पपात महती चोल्का सनिर्घाता महाप्रभा। - भीमार्दिताः क्रोधवशाः प्रभग्नाः // 20 निष्प्रभश्चाभवत्सूर्यश्छन्नरश्मिस्तमोवृतः // 3 स शक्रवद्दानवदैत्यसंघा निर्घातश्चाभवद्भीमो भीमे विक्रममास्थिते। विक्रम्य जित्वा च रणेऽरिसंघान् / चचाल पृथिवी चापि पांसुवर्षं पपात च // 4 विगाह्य तां पुष्करिणीं जितारिः सलोहिता दिशश्वासन्खरवाचो मृगद्विजाः / कामाय जग्राह ततोऽम्बुजानि // 21 / तमोवृतमभूत्सर्वं न प्रज्ञायत किंचन // 5 ततः स पीत्वामृतकल्पमम्भो तदद्भुतमभिप्रेक्ष्य धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / . भूयो बभूवोत्तमवीर्यतेजाः। उवाच वदतां श्रेष्ठः कोऽस्मानभिभविष्यति // 6 // उत्पाट्य जग्राह ततोऽम्बुजानि सज्जीभवत भद्रं वः पाण्डवा युद्धदुर्मदाः। सौगन्धिकान्युत्तमगन्धवन्ति // 22 यथारूपाणि पश्यामि स्वभ्यग्रो नः पराक्रमः // 7 ततस्तु ते क्रोधवशाः समेत्य एवमुक्त्वा ततो राजा वीक्षांचक्रे समन्ततः। धनेश्वरं भीमबलप्रणुन्नाः। अपश्यमानो भीमं च धर्मराजो युधिष्ठिरः // 8 भीमस्य वीर्यं च बलं च संख्ये तत्र कृष्णां यमौ चैव समीपस्थानरिंदमः। __यथावदाचख्युरतीव दीनाः // 23 पप्रच्छ भ्रातरं भीमं भीमकर्माणमाहवे // 9 . तेषां वचस्तत्तु निशम्य देवः कच्चिन्न भीमः पाञ्चालि किंचित्कृत्यं चिकीर्षति / __ प्रहस्य रक्षांसि ततोऽभ्युवाच / कृतवानपि वा वीरः साहसं साहसप्रियः // 10 गृह्णातु भीमो जलजानि कामं इमे ह्यकस्मादुत्पाता महासमरदर्शिनः / ___ कृष्णानिमित्तं विदितं ममैतत् // 24 दर्शयन्तो भयं तीव्र प्रादुर्भूताः समन्ततः // 11 ततोऽभ्यनुज्ञाय धनेश्वरं ते तं तथावादिनं कृष्णा प्रत्युवाच मनस्विनी / -590
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________________ 3. 153. 12] आरण्यकपर्व [3. 154.7 प्रिया प्रियं चिकीर्षन्ती महिषी चारुहासिनी // 12 / पुनरेवं न कर्तव्यं मम चेदिच्छसि प्रियम् // 27 यत्तत्सौगन्धिकं राजन्नाहृतं मातरिश्वना / अनुशास्य च कौन्तेयं पद्मानि प्रतिगृह्य च / . तन्मया भीमसेनस्य प्रीतयाद्योपपादितम् // 13 तस्यामेव नलिन्यां ते विजह्वरमरोपमाः // 28 अपि चोक्तो मया वीरो यदि पश्येद्बहून्यपि / एतस्मिन्नेव काले तु प्रगृहीतशिलायुधाः। तानि सर्वाण्युपादाय शीघ्रमागम्यतामिति॥ 14 प्रादुरासन्महाकायास्तस्योद्यानस्य रक्षिणः // 29 स तु नूनं महाबाहुः प्रियार्थं मम पाण्डवः / ते दृष्ट्वा धर्मराजानं देवर्षिं चापि लोमशम् / / प्रागुदीची दिशं राजस्तान्याहर्तुमितो गतः // 15 नकुलं सहदेवं च तथान्यान्ब्राह्मणर्षभान्। उक्तस्त्वेवं तया राजा यमाविदमथाब्रवीत् / विनयेनानताः सर्वे प्रणिपेतुश्च भारत // 30 गच्छाम सहितास्तूणं येन यातो वृकोदरः // 16 सान्त्विता धर्मराजेन प्रसेदुः क्षणदाचराः / वहन्तु राक्षसा विप्रान्यथाश्रान्तान्यथाकृशान् / / विदिताश्च कुबेरस्य ततस्ते नरपुंगवाः / त्वमप्यमरसंकाश वह कृष्णां घटोत्कच // 17 उषु तिचिरं कालं रममाणाः कुरूद्वहाः // 31 व्यक्तं दूरमितो भीमः प्रविष्ट इति मे मतिः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि चिरं च तस्य कालोऽयं स च वायुसमो जवे // 18 त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 153 // तरस्वी वैनतेयस्य सदृशो भुवि लङ्घने / // समाप्तं तीर्थयात्रापर्व // उत्पतेदपि चाकाशं निपतेच्च यथेच्छकम् // 19 154 तमन्वियाम भवतां प्रभावाद्रजनीचराः / वैशंपायन उवाच / पुरा स नापरानोति सिद्धानां ब्रह्मवादिनाम् // 20 ततस्तान्परिविश्वस्तान्वसतस्तत्र पाण्डवान् / तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे हैडिम्बप्रमुखास्तदा / गतेषु तेषु रक्षःसु भीमसेनात्मजेऽपि च // 1. उद्देशज्ञाः कुबेरस्य नलिन्या भरतर्षभ / / 21 रहितान्भीमसेनेन कदाचित्तान्यदृच्छया। आदाय पाण्डवांश्चैव तांश्च विप्राननेकशः / जहार धर्मराजानं यमौ कृष्णां च राक्षसः॥ 2 लोमशेनैव सहिताः प्रययुः प्रीतमानसाः // 22 ब्राह्मणो मत्रकुशलः सर्वास्त्रेष्वस्त्रवित्तमः। ते गत्वा सहिताः सर्वे ददृशुस्तत्र कानने। इति ब्रुवन्पाण्डवेयान्पर्युपास्ते स्म नित्यदा // 3: प्रफुल्लपङ्कजवती नलिनी सुमनोहराम् // 23 परीक्षमाणः पार्थानां कलापानि धनंषि च / तं च भीमं महात्मानं तस्यास्तीरे व्यवस्थितम् / अन्तरं समभिप्रेप्सुर्नाम्ना ख्यातो जटासुरः॥ 4 ददृशुर्निहतांश्चैव यक्षान्सुविपुलेक्षणान् // 24 स भीमसेने निष्क्रान्ते मृगयार्थमरिंदमे / उद्यम्य च गदां दोभ्यां नदीतीरे व्यवस्थितम् / अन्यद्रूपं समास्थाय विकृतं भैरवं महत् // 5 प्रजासंक्षेपसमये दण्डहस्तमिवान्तकम् // 25 गृहीत्वा सर्वशस्त्राणि द्रौपदी परिगृह्य च / .. तं दृष्ट्वा धर्मराजस्तु परिष्वज्य पुनः पुनः। प्रातिष्ठत स दुष्टात्मा त्रीन्गृहीत्वा च पाण्डवान्॥६ उवाच श्लक्ष्णया वाचा कौन्तेय किमिदं कृतम् / / 26 / सहदेवस्तु यत्नेन ततोऽपक्रम्य पाण्डवः / साहसं बत भद्रं ते देवानामपि चाप्रियम् / | आक्रन्दद्भीमसेनं वै येन यातो महाबलः // 7 .. -591 -
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________________ 3. 154. 8] महामारते [3. 154. 35 तमब्रवीद्धर्मराजो ह्रियमाणो युधिष्ठिरः / सहदेवस्तु तं दृष्ट्वा राक्षसं मूढचेतसम् / धर्मस्ते हीयते मूढ न चैनं समवेक्षसे // 8 उवाच वचनं राजन्कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् // 22 येऽन्ये केचिन्मनुष्येषु तिर्यग्योनिगता अपि / राजन्किं नाम तत्कृत्यं क्षत्रियस्यारत्यतोऽधिकम् / गन्धर्वयक्षरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा। यद्युद्धेऽभिमुखः प्राणांस्त्यजेच्छत्रूञ्जयेत वा // 23 मनुष्यानुपजीवन्ति ततस्त्वमुपजीवसि // 9 एष चास्मान्वयं चैनं युध्यमानाः परंतप। समृद्ध्या ह्यस्य लोकस्य लोको युष्माकमृध्यते / सूदयेम महाबाहो देशकालो ह्ययं नृप // 24. इमं च लोकं शोचन्तमनुशोचन्ति देवताः।। क्षत्रधर्मस्य संप्राप्तः कालः सत्यपराक्रम / पूज्यमानाश्च वर्धन्ते हव्यकव्यैर्यथाविधि // 10 जयन्तः पात्यमाना वा प्राप्तुमर्हाम सद्गतिम् // 25 वयं राष्ट्रस्य गोप्तारो रक्षितारश्च राक्षस / राक्षसे जीवमानेऽद्य रविरस्तमियाद्यदि। राष्ट्रस्यारक्ष्यमाणस्य कुतो भूतिः कुतः सुखम् // 11 नाहं ब्रूयां पुनर्जातु क्षत्रियोऽस्मीति भारत // 26 न च राजावमन्तव्यो रक्षसा जात्वनागसि / भो भो राक्षस तिष्ठस्व सहदेवोऽस्मि पाण्डवः / अणुरप्यपचारश्च नास्त्यस्माकं नराशन // 12 हत्वा वा मां नयस्वैनान्हतो वाद्येह स्वप्स्यसि // 27 द्रोग्धव्यं न च सित्रेषु न विश्वस्तेषु कहिचित् / तथैव तस्मिन्ब्रुवति भीमसेनो यदृच्छया। येषां चान्नानि भुञ्जीत यत्र च स्यात्प्रतिश्रयः // 13 प्रादृश्यत महाबाहुः सवज्र इव वासवः॥ 28 स त्वं प्रतिश्रयेऽस्माकं पूज्यमानः सुखोषितः।। सोऽपश्यद्धातरौ तत्र द्रौपदी च यशस्विनीम् / भुक्त्वा चान्नानि दुष्प्रज्ञ कथमस्माञ्जिहीर्षसि॥१४ क्षितिस्थं सहदेवं च क्षिपन्तं राक्षसं तदा // 29 एवमेव वृथाचारो वृथावृद्धो वृथामतिः / मार्गाच्च राक्षसं मूढं कालोपहतचेतसम् / वृथामरणमर्हस्त्वं वृथाद्य न भविष्यसि // 15 भ्रमन्तं तत्र तत्रैव दैवेन विनिवारितम् // 30 अथ चेद्दुष्टबुद्धिस्त्वं सर्वैर्धमैर्विवर्जितः / भ्रातृस्तान्हियतो दृष्ट्वा द्रौपदी च महाबलः / प्रदाय शस्त्राण्यस्माकं युद्धेन द्रौपदी हर // 16 . क्रोधमाहारयद्भीमो राक्षसं चेदमब्रवीत् // 31 अथ चेत्त्वमविज्ञाय इदं कर्म करिष्यसि / विज्ञातोऽसि मया पूर्व चेष्टशस्त्रपरीक्षणे / अधर्म चाप्यकीर्तिं च लोके प्राप्स्यसि केवलम्॥१७ आस्था तु त्वयि मे नास्ति यतोऽसि न हतस्तदा। एतामद्य परामृश्य स्त्रियं राक्षस मानुषीम् / ब्रह्मरूपप्रतिच्छन्नो न नो वदसि चाप्रियम् // 32 विषमेतत्समालोड्य कुम्भेन प्राशितं त्वया // 18 प्रियेषु चरमाणं त्वां न चैवाप्रियकारिणम् / ततो युधिष्ठिरस्तस्य भारिकः समपद्यत / अतिथिं ब्रह्मरूपं च कथं हन्यामनागसम् / स तु भाराभिभूतात्मा न तथा शीघ्रगोऽभवत् // 19 राक्षसं मन्यमानोऽपि यो हन्यान्नरकं व्रजेत्॥३३ अथाब्रवीद्रौपदी च नकुलं च युधिष्ठिरः / अपक्कस्य च कालेन वधस्तव न विद्यते / मा भैष्ट राक्षसान्मूढाद्गतिरस्य मया हृता // 20 / नूनमद्यासि संपको यथा ते मतिरीदृशी / नातिदूरे महाबाहुर्भविता पवनात्मजः / दत्ता कृष्णापहरणे कालेनाद्भुतकर्मणा // 34 अस्सिन्मुहूर्ते संप्राप्ते न भविष्यति राक्षसः॥२१ / बडिशोऽयं त्वया ग्रस्तः कालसूत्रेण लम्बितः / -592 -
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________________ 8. 154.35] आरण्यकपर्व [3. 154. 64 मत्स्योऽम्भसीव स्यूतास्यः कथं मेऽद्य गमिष्यसि 35 / वालिसुग्रीवयोर्धात्रोः पुरेव कपिसिंहयोः // 49 यं चासि प्रस्थितो देशं मनः पूर्वं गतं च ते। आविध्याविध्य तौ वृक्षान्मुहूर्तमितरेतरम् / न तं गन्तासि गन्तासि मार्ग बकहिडिम्बयोः // 36 ताडयामासतुरुभौ विनदन्तौ मुहुर्मुहुः // 50 एवमुक्तस्तु भीमेन राक्षसः कालचोदितः / तस्मिन्देशे यदा वृक्षाः सर्व एव निपातिताः / भीत उत्सृज्य तान्सर्वान्युद्धाय समुपस्थितः // 37 पुञ्जीकृताश्च शतशः परस्परवधेप्सया // 51 / अब्रवीच्च पुनर्भीमं रोषात्प्रस्फुरिताधरः। तदा शिलाः समादाय मुहूर्तमिव भारत। न मे मूढा दिशः पाप त्वदर्थं मे विलम्बनम् // 38 महाभैरिव शैलेन्द्रौ युयुधाते महाबलौ॥ 52 श्रुता मे राक्षसा ये ये त्वया विनिहता रणे। उप्राभिरुग्ररूपाभिव्हतीभिः परस्परम् / तेषामद्य करिष्यामि तवास्रणोदकक्रियाम् // 39 / वरिव महावेगैराजन्नतुरमर्षणौ // 53 एवमुक्तस्ततो भीमः सृकिणी परिसंलिहन् / अभिहत्य च भूयस्तावन्योन्यं बलदर्पितौ / स्मयमान इव क्रोधात्साक्षात्कालान्तकोपमः / भुजाभ्यां परिगृह्याथ चकर्षाते गजाविव // 54 बाहुसंरम्भमेवेच्छन्नभिदुद्राव राक्षसम् // 40 मुष्टिभिश्च महाघोरैरन्योन्यमभिपेततुः / राक्षसोऽपि तदा भीमं युद्धार्थिनमवस्थितम् / तयोश्चटचटाशब्दो बभूव सुमहात्मनोः // 55 अमिदुद्राव संरब्धो बलो बज्रधरं यथा // 41 ततः संहृत्य मुष्टिं तु पञ्चशीर्षमिवोरगम् / वर्तमाने तदा ताभ्यां बाहुयुद्धे सुदारुणे / वेगेनाभ्यहनगीमो राक्षसस्य शिरोधराम् // 56 माद्रीपुत्रावभिक्रुद्धावुभावप्यभ्यधावताम् / / 42 ततः श्रान्तं तु तद्रक्षो भीमसेनभुजाहतम् / न्यवारयत्तौ प्रहसन्कुन्तीपुत्रो वृकोदरः / सुपरिश्रान्तमालक्ष्य भीमसेनोऽभ्यवर्तत // 57 शक्तोऽहं राक्षसस्येति प्रेक्षध्वमिति चाब्रवीत् // 43 तत एनं महाबाहुर्बाहुभ्याममरोपमः / आत्मना भ्रातृभिश्चाहं धर्मेण सुकृतेन च / समुत्क्षिप्य बलाद्भीमो निष्पिपेष महीतले // 58 इष्टेन च शपे राजन्सूदयिष्यामि राक्षसम् // 44 तस्य गात्राणि सर्वाणि चूर्णयामास पाण्डवः / इत्येवमुक्त्वा तौ वीरौ स्पर्धमानौ परस्परम् / अरनिना चाभिहत्य शिरः कायादपाहरत् // 59 बाहुभिः समसज्जेतामुभौ रक्षोवृकोदरौ // 45 संदष्टोष्ठं विवृत्ताक्षं फलं वृन्तादिव च्युतम् / तयोरासीत्संप्रहारः क्रुद्धयोर्भीमरक्षसोः / जटासुरस्य तु शिरो भीमसेनबलाद्धृतम् / अमृष्यमाणयोः संख्ये देवदानवयोरिव // 46 पपात रुधिरादिग्धं संदष्टदशनच्छदम् // 60 आरुज्यारुज्य तौ वृक्षानन्योन्यमभिजन्नतुः / / तं निहत्य महेष्वासो युधिष्ठिरमुपागमत् / जीमूताविव धर्मान्ते विनदन्तौ महाबलौ // 47 / स्तूयमानो द्विजाग्र्यैस्तैर्मरुद्भिरिव वासवः // 61 बभञ्जतुर्महावृक्षानूरुभिर्बलिनां वरौ / | इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अन्योन्येनाभिसंरब्धौ परस्परजयैषिणौ // 48 चतुःपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥१५॥ तदृश्ययुद्धमभवन्महीरुहविनाशनम्। . ॥समाप्तं जटासुरवधपर्व / म, भा, 75 -593 -
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________________ 3. 155. 1] महाभारते [3. 155. 28 155 उपर्युपरि शैलस्य बह्वीश्च सरितः शिवाः। वैशंपायन उवाच / प्रस्थं हिमवतः पुण्यं ययौ सप्तदशेऽहनि // 15 निहते राक्षसे तस्मिन्पुनर्नारायणाश्रमम् / ददृशुः पाण्डवा राजन्गन्धमादनमन्तिकात् / अभ्येत्य राजा कौन्तेयो निवासमकरोत्प्रभुः॥ 1 / / पृष्ठे हिमवतः पुण्ये नानाद्रुमलतायुते // 16 स समानीय तान्सर्वान्भ्रातृनित्यब्रवीद्वचः।। सलिलावर्तसंजातैः पुष्पितैश्च महीरहैः / द्रौपद्या सहितान्काले संस्मरन्ध्रातरं जयम् // 2 . समावृतं पुण्यतममाश्रमं वृषपर्वणः // 17 ... समाश्चतस्रोऽभिगताः शिवेन चरतां वने। तमुपक्रम्य राजर्षि धर्मात्मानमरिंदमाः / कृतोद्देशश्च बीभत्सुः पञ्चमीमभितः समाम् // 3 पाण्डवा वृषपर्वाणमवन्दन्त गतक्लमाः // 18 प्राप्य पर्वतराजानं श्वेतं शिखरिणां वरम्। अभ्यनन्दत्स राजर्षिः पुत्रवद्भरतर्षभान् / तत्रापि च कृतोद्देशः समागमदिदृक्षुभिः॥४ पूजिताश्चावसंस्तत्र सप्तरात्रमरिंदमाः // 19 कृतश्च समयस्तेन पार्थेनामिततेजसा। अष्टमेऽहनि संप्राप्ते तमृषि लोकविश्रुतम् / पञ्च वर्षाणि वत्स्यामि विद्यार्थीति पुरा मयि // 5 आमव्य वृषपर्वाणं प्रस्थानं समरोचयन् // 20 तत्र गाण्डीवधन्वानमवाप्तास्त्रमरिंदमम् / एकैकशश्च तान्विप्रान्निवेद्य वृषपर्वणे। देवलोकादिमं लोकं द्रक्ष्यामः पुनरागतम् // 6 न्यासभूतान्यथाकालं बम्धूनिव सुसत्कृतान् // 21 इत्युक्त्वा ब्राह्मणान्सर्वानामबयत पाण्डवः / ततस्ते वरवस्त्राणि शुभान्याभरणानि च / कारणं चैव तत्तेषामाचचक्षे तपस्विनाम् // 7 न्यदधुः पाण्डवास्तस्मिन्नाश्रमे वृषपर्वणः // 22 तमुग्रतपसः प्रीताः कृत्वा पार्थं प्रदक्षिणम् / अतीतानागते विद्वान्कुशलः सर्वधर्मवित् / ब्राह्मणास्तेऽन्वमोदन्त शिवेन कुशलेन च // 8 अन्वशासत्स धर्मज्ञः पुत्रवद्भरतर्षभान् // 23 सुखोदकमिमं क्लेशमचिराद्भरतर्षभ / तेऽनुज्ञाता महात्मानः प्रययुर्दिशमुत्तराम् / क्षत्रधर्मेण धर्मज्ञ तीर्खा गां पालयिष्यसि // 9 कृष्णया सहिता वीरा ब्राह्मणैश्च महात्मभिः / तत्तु राजा वचस्तेषां प्रतिगृह्य तपस्विनाम् / तान्प्रस्थितानन्वगच्छद्वृषपर्वा महीपतिः // 24 प्रतस्थे सह विप्रैस्तैतृभिश्च परंतपः // 10 उपन्यस्य महातेजा विप्रेभ्यः पाण्डवांस्तदा / द्रौपद्या सहितः श्रीमान्हैडिम्बेयादिभिस्तथा / अनुसंसाध्य कौन्तेयानाशीर्भिरभिनन्द्य च / राक्षसैरनुयातश्च लोमशेनाभिरक्षितः // 11 वृषपर्वा निववृते पन्थानमुपदिश्य च // 25 क्वचिजगाम पद्भ्यां तु राक्षसैरुह्यते क्वचित् / नानामृगगणैर्जुष्टं कौन्तेयः सत्यविक्रमः / तत्र तत्र महातेजा भ्रातृभिः सह सुव्रतः॥ 12 पदातिर्धातृभिः सार्धं प्रातिष्ठत युधिष्ठिरः // 26 ततो युधिष्ठिरो राजा बहून्क्लेशान्विचिन्तयन् / नानाद्रुमनिरोधेषु वसन्तः शैलसानुषु / सिंहव्याघ्रगजाकीर्णामुदीची प्रययौ दिशम् // 13 / पर्वतं विविशुः श्वेतं चतुर्थेऽहनि पाण्डवाः // 27 अवेक्षमाणः कैलासं मैनाकं चैव पर्वतम् / महाभ्रघनसंकाशं सलिलोपहितं शुभम् / गन्धमादनपादांश्च मेरुं चापि शिलोच्चयम् // 14 / मणिकाञ्चनरम्यं च शैलं नानासमुच्छ्रयम् // 28 -594 -
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________________ 3. 155. 29 ] आरण्यकपर्व [3. 155. 55 ते समासाद्य पन्थानं यथोक्तं वृषपर्वणा / इङ्गुदान्करवीरांश्च तिन्दुकांश्च महाफलान् / . अनुससुर्यथोद्देशं पश्यन्तो विविधान्नगान् // 29 एतानन्यांश्च विविधान्गन्धमादनसानुषु // 43 उपर्युपरि शैलस्य गुहाः परमदुर्गमाः। फलैरमृतकल्पैस्तानाचितान्स्वादुभिस्तरून् / सुदुर्गमांस्ते सुबहून्सुखेनैवाभिचक्रमुः // 30 तथैव चम्पकाशोकान्केतकान्बकुलांस्तथा // 44 धौम्यः कृष्णा च पार्थाश्च लोमशश्च महानृषिः / नागान्सप्तपर्णाश्च कर्णिकारान्सकेतकान् / / अगमन्सहितास्तत्र न कश्चिदवहीयते // 31 पाटलान्कुटजारम्यान्मन्दारेन्दीवरांस्तथा // 45 : ते मृगद्विजसंघुष्टं नानाद्विजसमाकुलम् / पारिजातान्कोविदारान्देवदारुतरूंस्तथा / शाखामृगगणैश्चैव सेवितं सुमनोहरम् // 32 शालांस्तालांस्तमालांश्च प्रियालान्बकुलांस्तथा। पुण्यं पद्मसरोपेतं सपल्वलमहावनम् / शाल्मलीः किंशुकाशोकाशिशपांस्तरलांस्तथा॥४६ उपतरथुमहावीर्या माल्यवन्तं महागिरिम् // 33 चकोरैः शतपत्रैश्च भृङ्गराजैस्तथा शुकैः।। ततः किंपुरुषावासं सिद्धचारणसेवितम् / कोकिलैः कलविकैश्च हारीतैर्जीवजीवकैः // 47 ददृशुढेष्टरोमाणः पर्वतं गन्धमादनम् // 34 प्रियव्रतैश्चातकैश्च तथान्यैर्विविधैः खगैः / विद्याधरानुचरितं किंनरीभिस्तथैव च / श्रोत्ररम्यं सुमधुरं कूजद्भिश्चाप्यधिष्ठितान् // 48 . गजसिंहसमाकीर्णमुदीर्णशरभायुतम् // 35 सरांसि च विचित्राणि प्रसन्नसलिलानि च।। उपेतमन्यैश्च तदा मृगैर्मृदुनिनादिभिः / / कुमुदैः पुण्डरीकैश्च तथा कोकनदोत्पलैः। ते गन्धमादनवनं तन्नन्दनवनोपमम् // 36 कारैः कमलैश्चैव आचितानि समन्ततः // 49 मुदिताः पाण्डुतनया मनोहृदयनन्दनम् / कदम्बैश्चक्रवाकैश्च कुररैर्जलवुक्कुटैः / विविशुः क्रमशो वीरा अरण्यं शुभकाननम् / / 37 कारण्डवैः प्लवैहँसैर्वकैर्मद्गुभिरेव च / द्रौपदीसहिता वीरास्तैश्च विप्रैर्महात्मभिः। एतैश्चान्यैश्च कीर्णानि समन्ताज्जलचारिभिः॥ 50 शृण्वन्तः प्रीतिजननान्वल्गून्मदकलाशुभान् / हृष्टैस्तथा तामरसरसासवमदालसैः / श्रोत्ररम्यान्सुमधुराशब्दान्खगमुखरितान् // 38 पद्मोदरच्युतरजःकिञ्जल्कारुणरञ्जितैः / / 51 सर्वर्तुफलभाराढ्यान्सर्वतुकुसुमोज्ज्वलान् / मधुरस्वरैर्मधुकरैर्विरुतान्कमलाकरान् / पश्यन्तः पादपांश्चापि फलभारावनामितान् / / 39 पश्यन्तस्ते मनोरम्यान्गन्धमादनसानुषु // 52 . आम्रानाम्रातकान्फुल्लान्नारिकेलान्सतिन्दुकान् / तथैव पद्मषण्डैश्च मण्डितेषु समन्ततः / अजातकांस्तथा जीरान्दाडिमान्बीजपूरकान् // 40 शिखण्डिनीभिः सहिताल्लतामण्डपकेषु च / पनसाल्लिँकुचान्मोचान्खजूरानाम्रवेतसान् / मेघतूर्यरवोद्दाममदनाकुलितान्भृशम् // 53 पारावतांस्तथा क्षौद्रान्नीपांश्चापि मनोरमान् // 41 कृत्वैव केकामधुरं संगीतमधुरस्वरम् / बिल्वान्कपित्थाञ्जम्बूश्च काश्मरीबंदरीस्तथा / चित्रान्कलापान्विस्तीर्य सविलासान्मदालसान् / प्लक्षानुदुम्बरवटानश्वत्थान्क्षीरिणस्तथा। मयूरान्ददृशुश्चित्रान्नृत्यतो वनलासकान् // 54 भल्लातकानामलकान्हरीतकबिभीतकान् // 42 कान्ताभिः सहितानन्यानपश्यन्रमतः सुखम् / - 595 -
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________________ 3. 155. 55] महाभारते [3. 156.82 वल्लीलतासंकटेषु कटकेषु स्थितांस्तथा // 55 एते चान्ये च बहवस्तत्र काननजा द्रुमाः / कांश्चिच्छकुनजातांश्च विटपेषूत्कटानपि / लताश्च विविधाकाराः पत्रपुष्पफलोच्चयाः / / 68 कलापरचिताटोपान्विचित्रमुकुटानिव / युधिष्ठिरस्तु तान्वृक्षान्पश्यमानो नगोत्तमे। विवरेषु तरूणां च मुदितान्ददृशुश्च ते // 56 भीमसेनमिदं वाक्यमब्रवीन्मधुराक्षरम् // 69 सिन्धुवारानथोद्दामान्मन्मथस्येव तोमरान् / पश्य भीम शुभान्देशान्देवाक्रीडान्समन्ततः / सुवर्णकुसुमाकीर्णानिगरीणां शिखरेषु च // 57 अमानुषगतिं प्राप्ताः संसिद्धाः स्म वृकोदर // 70 कर्णिकारान्विरचितान्कर्णपूरानिवोत्तमान् / लताभिश्चैव बह्वीभिः पुष्पिताः पादपोत्तमाः / अथापश्यन्कुरबकान्वनराजिषु पुष्पितान् / संश्लिष्टाः पार्थ शोभन्ते गन्धमादनसानुषु // 71 कामवश्योत्सुककरान्कामस्येव शरोत्करान् // 58 शिखण्डिनीभिश्चरतां सहितानां शिखण्डिनाम् / तथैव वनराजीनामुदारान्रचितानिव / नर्दतां शृणु निर्घोषं भीम पर्वतसानुषु // 72 विराजमानांस्तेऽपश्यंस्तिलकांस्तिलकानिव // 59 चकोराः शतपत्राश्च मत्तकोकिलशारिकाः / तथानङ्गशराकारान्सहकारान्मनोरमान् / पत्रिणः पुष्पितानेतान्संश्लिष्यन्ति महाद्रुमान् // 73 अपश्यन्भ्रमरारावान्मञ्जरीभिर्विराजितान् // 60 रक्तपीतारुणाः पार्थ पादपाग्रगता द्विजाः। हिरण्यसदृशैः पुष्पैर्दावाग्निसदृशैरपि / परस्परमुदीक्षन्ते बहवो जीवजीवकाः // 74 लोहितैरञ्जनाभैश्च वैडूर्यसदृशैरपि // 61 हरितारुणवर्णानां शाद्वलानां समन्ततः / तथा शालांस्तमालांश्च पाटल्यो बकुलानि च / सारसाः प्रतिदृश्यन्ते शैलप्रस्रवणेष्वपि // 75 माला इव समासक्ताः शैलानां शिखरेषु च // 62 वदन्ति मधुरा वाचः सर्वभूतमनोनुगाः। एवं क्रमेण ते वीरा वीक्षमाणाः समन्ततः। भृङ्गराजोपचक्राश्च लोहपृष्ठाश्च पत्रिणः // 76 गजसंघसमाबाधं सिंहव्याघ्रसमायुतम् // 63 चतुर्विषाणाः पद्माभाः कुञ्जराः सकरेणवः / शरभोन्नादसंघुष्टं नानारावनिनादितम् / एते वैडूर्यवर्णाभं क्षोभयन्ति महत्सरः // 77 सर्वर्तुफलपुष्पाढयं गन्धमादनसानुषु // 64 बहुतालसमुत्सेधाः शैलंशृङ्गात्परिच्युताः / पीता भास्वरवर्णाभा बभूवुर्वनराजयः / नानाप्रस्रवणेभ्यश्च वारिधाराः पतन्त्यमूः // 78 नात्र कण्टकिनः केचिन्नात्र केचिदपुष्पिताः / भास्कराभप्रभा भीम शारदाभ्रघनोपमाः / स्निग्धपत्रफला वृक्षा गन्धमादनसानुषु // 65 शोभयन्ति महाशैलं नानारजतधातवः // 79 . विमलस्फटिकाभानि पाण्डुरच्छदनैर्द्विजैः / क्वचिदञ्जनवर्णाभाः कचित्काञ्चनसंनिभाः।। राजहंसैरुपेतानि सारसाभिरुतानि च / धातवो हरितालस्य कचिद्धिमुलकस्य च // 80 सरांसि सरितः पार्थाः पश्यन्तः शैलसानुषु // 66 मनःशिलागुहाश्चैव संध्याभ्रनिकरोपमाः। पद्मोत्पलविचित्राणि सुखस्पर्शजलानि च / शशलोहितवर्णाभाः कचिद्वैरिकधातवः // 81 गन्धवन्ति च माल्यानि रसवन्ति फलानि च।। सितासिताभ्रप्रतिमा बालसूर्यसमप्रभाः / अतीव वृक्षा राजन्ते पुष्पिताः शैलसानुषु // 67 / एते बहुविधाः शैलं शोभयन्ति महाप्रभाः // 82 - 596 -
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________________ 3. 155. 83 ] आरण्यकपर्व [3. 156. 20 गन्धर्वाः सह कान्ताभिर्यथोक्तं वृषपर्वणा। नानृते कुरुषे भावं कच्चिद्धर्मे च वर्तसे। दृश्यन्ते शैलशृङ्गेषु पार्थ किंपुरुषैः सह // 83 मातापित्रोश्च ते वृत्तिः कच्चित्पार्थ न सीदति // 6 गीतानां तलतालानां यथा साम्नां च निस्वनः / कञ्चित्ते गुरवः सर्वे वृद्धा वैद्याश्च पूजिताः। . श्रूयते बहुधा भीम सर्वभूतमनोहरः // 84 कञ्चिन्न कुरुषे भावं पार्थ पापेषु कर्मसु // 7 महागङ्गामुदीक्षस्व पुण्यां देवनदी शुभाम् / सुकृतं प्रतिकर्तुं च कच्चिद्धातुं च दुष्कृतम् / कलहंसगणैर्जुष्टामृषिकिंनरसेविताम् // 85 यथान्यायं कुरुश्रेष्ठ जानासि न च कत्थसे // 8 धातुभिश्च सरिद्भिश्च किंनरैर्मृगपक्षिभिः / यथार्ह मानिताः कच्चित्त्वया नन्दन्ति साधवः / गन्धर्वैरप्सरोभिश्च काननैश्च मनोरमैः // 86 वनेष्वपि वसन्कच्चिद्धर्ममेवानुवर्तसे // 9 व्यालैश्च विविधाकारैः शतशीः समन्ततः / कञ्चिद्धौम्यस्त्वदाचारैर्न पार्थ परितप्यते / उपेतं पश्य कौन्तेय शैलराजमरिंदम // 87 दानधर्मतपःशौचैरार्जवेन तितिक्षया // 10 ते प्रीतमनसः शूराः प्राप्ता गतिमनुत्तमाम् / पितृपैतामहं वृत्तं कच्चित्पार्थानुवर्तसे / नातृप्यन्पर्वतेन्द्रस्य दर्शनेन परंतपाः // 88 कञ्चिद्राजर्षियातेन पथा गच्छसि पाण्डव // 11 उपेतमथ माल्यैश्च फलवद्भिश्च पादपैः / स्वे स्वे किल कुले जाते पुत्रे नप्तरि वा पुनः / आर्टिषेणस्य राजर्षेराश्रमं ददृशुस्तदा // 89 पितरः पितृलोकस्थाः शोचन्ति च हसन्ति च // 12 ततस्तं तीव्रतपसं कृशं धमनिसंततम् / किं न्वस्य दुष्कृतेऽस्माभिः संप्राप्तव्यं भविष्यति / पारगं सर्वधर्माणामार्टिषेणमुपागमन् // 90 किं चास्य सुकृतेऽस्माभिः प्राप्तव्यमिति शोभनम् // इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि पिता माता तथैवाग्निर्गुरुरात्मा च पञ्चमः / पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 155 // यस्यैते पूजिताः पार्थ तस्य लोकावुभौ जितौ॥१४ . 156 अब्भक्षा वायुभक्षाश्च प्लवमाना विहायसा।। .. वैशंपायन उवाच / जुषन्ते पर्वतश्रेष्ठमृषयः पर्वसंधिषु // 15 युधिष्ठिरस्तमासाद्य तपसा दग्धकिल्बिषम् / कामिनः सह कान्ताभिः परस्परमनुव्रताः / अभ्यवादयत प्रीतः शिरसा नाम कीर्तयन् // 1 दृश्यन्ते शैलशृङ्गस्थास्तथा किंपुरुषा नृप // 16. ततः कृष्णा च भीमश्च यमौ चापि यशस्विनौ। अरजांसि च वासांसि वसानाः कौशिकानि च / शिरोभिः प्राप्य राजर्षिं परिवार्योपतस्थिरे // 2 दृश्यन्ते बहवः पार्थ गन्धर्वाप्सरसां गणाः // 17 तथैव धौम्यो धर्मज्ञः पाण्डवानां पुरोहितः / विद्याधरगणाश्चैव स्रग्विणः प्रियदर्शनाः / यथान्यायमुपाक्रान्तस्तमृषि संशितव्रतम् // 3 महोरगगणाश्चैव सुपर्णाश्चोरगादयः // 18 अन्वजानात्स धर्मज्ञो मुनिर्दिव्येन चक्षुषा। अस्य चोपरि शैलस्य श्रूयते पर्वसंधिषु / पाण्डोः पुत्रान्कुरुश्रेष्ठानास्यतामिति चाब्रवीत् // 4 भेरीपणवशङ्खानां मृदङ्गानां च निस्वनः // 19 कुरूणामृषभं प्राज्ञ पूजयित्वा महातपाः। इहस्थैरेव तत्सर्वं श्रोतव्यं भरतर्षभाः। सह भ्रातृभिरासीनं पर्यपृच्छदनामयम् // 5 न कार्या वः कथंचित्स्यात्तत्राभिसरणे मतिः // 20 -597 -
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________________ 8. 156. 21] महाभारते [ 3. 157. 16 न चाप्यतः परं शक्यं गन्तुं भरतसत्तमाः। . वसतां लोकवीराणामासंस्तब्रूहि सत्तम // 2 विहारो ह्यत्र देवानाममानुषगतिस्तु सा / / 21 / विस्तरेण च मे शंस भीमसेनपराक्रमम् / ईषञ्चपलकर्माणं मनुष्यमिह भारत। यद्यच्चक्रे महाबाहुस्तस्मिन्हैमवते गिरौ / द्विषन्ति सर्वभूतानि ताडयन्ति च राक्षसाः // 22 न खल्वासीत्पुनयुद्धं तस्य यक्षैर्द्विजोत्तम // 3 अभ्यतिक्रम्य शिखरं शैलस्यास्य युधिष्ठिर / कञ्चित्समागमस्तेषामासीद्वैश्रवणेन च / गतिः परमसिद्धानां देवर्षीणां प्रकाशते // 23 . तत्र ह्यायाति धनद आर्टिषेणो यथाब्रवीत् // 4 . चापलादिह गच्छन्तं पार्थ यानमतः परम् / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण तपोधन / अयःशूलादिभिर्ध्नन्ति राक्षसाः शत्रुसूदन // 24 न हि मे शृण्वतस्तृप्तिरस्ति तेषां विचेष्टितम् // 5 अप्सरोभिः परिवृतः समृद्ध्या नरवाहनः / वैशंपायन उवाच / इह वैश्रवणस्तात पर्वसंधिषु दृश्यते // 25 एतदात्महितं श्रुत्वा तस्याप्रतिमतेजसः / शिखरे तं समासीनमधिपं सर्वरक्षसाम् / ' शासनं सततं चक्रुस्तथैव भरतर्षभाः // 6 . प्रेक्षन्ते सर्वभूतानि भानुमन्तमिवोदितम् // 26 भुञ्जाना मुनिभोज्यानि रसवन्ति फलानि च / देवदानवसिद्धानां तथा वैश्रवणस्य च / शुद्धबाणहतानां च मृगाणां पिशितान्यपि // 7 गिरेः शिखरमुद्यानमिदं भरतसत्तम // 27 मेध्यानि हिमवत्पृष्ठे मधूनि विविधानि च / उपासीनस्य धनदं तुम्बुरोः पर्वसंधिषु / एवं ते न्यवसंस्तत्र पाण्डवा भरतर्षभाः // 8 गीतसामस्वनस्तात श्रूयते गन्धमादने // 28 तथा निवसतां तेषां पञ्चमं वर्षमभ्यगात् / / एतदेवंविधं चित्रमिह तात युधिष्ठिर / शृण्वतां लोमशोक्तानि वाक्यानि विविधानि च // 9 प्रेक्षन्ते सर्वभूतानि बहुशः पर्वसंधिषु // 29 कृत्यकाल उपस्थास्य इति चोक्त्वा घटोत्कचः / भुञ्जानाः सर्वभोज्यानि रसवन्ति फलानि च / राक्षसैः सहितः सर्वैः पूर्वमेव गतः प्रभो // 10 वसध्वं पाण्डवश्रेष्ठा यावदर्जुनदर्शनम् // 30 आर्टिषेणाश्रमे तेषां वसतां वै महात्मनाम् / न तात चपलैर्भाव्यमिह प्राप्तैः कथंचन / अगच्छन्बहवो मासाः पश्यतां महदद्भुतम् // 11 उषित्वेह यथाकामं यथाश्रद्धं विहृत्य च / तैस्तत्र रममाणैश्च विहरद्भिश्च पाण्डवैः / ततः शस्त्रभृतां श्रेष्ठ पृथिवीं पालयिष्यसि // 31 प्रीतिमन्तो महाभागा मुनयश्चारणास्तथा // 12 * इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि आजग्मुः पाण्डवान्द्रष्टुं सिद्धात्मानो यतव्रताः। षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 156 // तैस्तैः सह कथाश्चक्रुर्दिव्या भरतसत्तमाः॥ 13 ततः कतिपयाहस्य महाहदनिवासिनम / जनमेजय उवाच / ऋद्धिमन्तं महानागं सुपर्णः सहसाहरत् // 14 पाण्डोः पुत्रा महात्मानः सर्वे दिव्यपराक्रमाः / प्राकम्पत महाशैलः प्रामृद्यन्त महाद्रुमाः। कियन्तं कालमवसन्पर्वते गन्धमादने // 1 ददृशुः सर्वभूतानि पाण्डवाश्च तदद्भुतम् // 15 कानि चाभ्यवहार्याणि तत्र तेषां महात्मनाम् / | ततः शैलोत्तमस्याग्रात्पाण्डवान्प्रति मारुतः / -598 - 157
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________________ 3. 157. 16 ] आरण्यकपर्व [3. 157. 44 अवहत्सर्वमाल्यानि गन्धवन्ति शुभानि च // 16 ददृशुः सर्वभूतानि बाणखड्गधनुर्धरम् // 30 तत्र पुष्पाणि दिव्यानि सुहृद्भिः सह पाण्डवाः / द्रौपद्या वर्धयन्हर्षं गदामादाय पाण्डवः / ददृशुः पश्चवर्णानि द्रौपदी च यशस्विनी // 17 व्यपेतभयसंमोहः शैलराजं समाविशत् // 31 भीमसेनं ततः कृष्णा काले वचनमब्रवीत् / न ग्लानिन च कातयं न वैक्लव्यं न मत्सरः। : विविक्ते पर्वतोद्देशे सुखासीनं महाभुजम् // 18 कदाचिजुषते पार्थमात्मजं मातरिश्वनः // 32 सुपर्णानिलवेगेन श्वसनेन महाबलात् / तदेकायनमासाद्य विषमं भीमदर्शनम् / पञ्चवर्णानि पात्यन्ते पुष्पाणि भरतर्षभ / बहुतालोच्छ्रयं शृङ्गमारुरोह महाबलः // 33 .. प्रत्यक्षं सर्वभूतानां नदीमश्वरथां प्रति // 19 स किंनरमहानागमुनिगन्धर्वराक्षसान् / खाण्डवे सत्यसंधेन भ्रात्रा तव नरेश्वर / हर्षयन्पर्वतस्याग्रमाससाद महाबलः // 34 . गन्धर्वोरगरक्षांसि वासवश्च निवारितः / तत्र वैश्रवणावासं ददर्श भरतर्षभः / हता मायाविनश्चोग्रा धनुः प्राप्तं च गाण्डिवम् // 20 काञ्चनैः स्फाटिकाकारैर्वेश्मभिः समलंकृतम् // 35 तवापि सुमहत्तेजो महद्बाहुबलं च ते। मोदयन्सर्वभूतानि गन्धमादनसंभवः / अविषह्यमनाधृष्यं शतक्रतुबलोपमम् // 21 / / सर्वगन्धवहस्तत्र मारुतः सुसुखो ववौ // 36 . त्वदाहुबलवेगेन त्रासिताः सर्वराक्षसाः। चित्रा विविधवर्णाभाश्चित्रमञ्जरिधारिणः / . हित्वा शैलं प्रपद्यन्तां भीमसेन दिशो दश // 22 अचिन्त्या विविधास्तत्र द्रुमाः परमशोभनाः // 37 ततः शैलोत्तमस्याग्रं चित्रमाल्यधरं शिवम् / रत्नजालपरिक्षिप्तं चित्रमाल्यधरं शिवम् / व्यपेतभयसंमोहाः पश्यन्तु सुहृदस्तव // 23 राक्षसाधिपतेः स्थानं ददर्श भरतर्षभः // 38 : एवं प्रणिहितं भीम चिरात्प्रभृति मे मनः / गदाखड्गधनुष्पाणिः समभित्यक्तजीवितः / .. द्रष्टुमिच्छामि शैलाग्रं त्वद्वाहुबलमाश्रिता // 24 भीमसेनो महाबाहुस्तस्थौ गिरिरिवाचलः // 39. ततः क्षिप्तमिवात्मानं द्रौपद्या स परंतपः / ततः शङ्खमुपाध्मासीद्विषतां लोमहर्षणम् / ... नामृष्यत महाबाहुः प्रहारमिव सद्गवः / / 25 ज्याघोषतलघोषं च कृत्वा भूतान्यमोहयत् // 40 सिंहर्षभगतिः श्रीमानुदारः कनकप्रभः / ततः संहृष्टरोमाणः शब्दं तमभिदुद्रुवुः। मनस्वी बलवान्दृप्तो मानी शूरश्च पाण्डवः // 26 यक्षराक्षसगन्धर्वाः पाण्डवस्य समीपतः॥ 41 लोहिताक्षः पृथुव्यंसो मत्तवारणविक्रमः / / गदापरिघनिस्त्रिंशशक्तिशूलपरश्वधाः। सिंहदंष्ट्रो बृहत्स्कन्धः शालपोत इवोद्गतः // 27 प्रगृहीता व्यरोचन्त यक्षराक्षसबाहुभिः॥ 42 . महात्मा चारुसङ्गिः कम्बुग्रीवो महाभुजः / ततः प्रववृते युद्धं तेषां तस्य च भारत। रुक्मपृष्ठं धनुः खड्गं तूणांश्चापि परामृशत् // 28 तैः प्रयुक्तान्महाकायैः शक्तिशूलपरश्वधान् / . केसरीव यथोत्सिक्तः प्रभिन्न इव वारणः / भल्लैर्भीमः प्रचिच्छेद भीमवेगतरैस्ततः // 43 व्यपेतभयसंमोहः शैलमभ्यपतद्बली // 29 अन्तरिक्षचराणां च भूमिष्ठानां च गर्जताम् / तं मृगेन्द्रमिवायान्तं प्रभिन्नमिव वारणम् / ... / शरैर्विव्याध गात्राणि राक्षसानां महाबलः // 44. -599 -
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________________ 8. 157. 45 ] महामारते [ 3. 158.2 सा लोहितमहावृष्टिरभ्यवर्षन्महाबलम् / गदायुद्धसमाचारं बुध्यमानः स वीर्यवान् / कायेभ्यः प्रच्युता धारा राक्षसानां समन्ततः॥४५ व्यंसयामास तं तस्य प्रहार भीमविक्रमः // 60 भीमबाहुबलोत्सृष्टैबहुधा यक्षरक्षसाम् / ततः शक्तिं महाघोरां रुक्मदण्डामयस्मयीम्। विनिकृत्तान्यदृश्यन्त शरीराणि शिरांसि च // 46 तस्मिन्नेवान्तरे धीमान्प्रजहाराथ राक्षसः॥ 61 ' प्रच्छाद्यमानं रक्षोभिः पाण्डवं प्रियदर्शनम् / सा भुजं भीमनिर्हादा भित्त्वा भीमस्य दक्षिणम् / ददृशुः सर्वभूतानि सूर्यमभ्रगणैरिव // 47 साग्निज्वाला महारौद्रा पपात सहसा भुवि // 62 स रश्मिभिरिवादित्यः शरैररिनिघातिभिः / सोऽतिविद्धो महेष्वासः शक्त्यामितपराक्रमः / सर्वानार्छन्महाबाहुर्बलवान्सत्यविक्रमः // 48 गदां जग्राह कौरव्यो गदायुद्धविशारदः॥ 63 अभितर्जयमानाश्च रुवन्तश्च महारवान् / तां प्रगृह्योन्नदन्भीमः सर्वशैक्यायसी गदाम् / ' न मोहं भीमसेनस्य ददृशुः सर्वराक्षसाः॥४९ तरसा सोऽभिदुद्राव मणिमन्तं महाबलम् / / 64 ते शरैः क्षतसर्वाङ्गा भीमसेनभयार्दिताः / दीप्यमानं महाशूलं प्रगृह्य मणिमानपि / ' भीममार्तस्वरं चक्रुर्विप्रकीर्णमहायुधाः / / 50 प्राहिणोद्भीमसेनाय वेगेन महता नदन् // 65 उत्सृज्य ते गदाशूलानसिशक्तिपरश्वधान् / भक्त्वा शूलं गदाग्रेणं गदायुद्धविशारदः / दक्षिणां दिशमाजग्मुत्रासिता दृढधन्वना // 51 अभिदुद्राव तं तूर्णं गरुत्मानिव पन्नगम् / / 66 सत्र शूलगदापाणिव्यूढोरस्को महाभुजः / सोऽन्तरिक्षमभिप्लुत्य विधूय सहसा गदाम् / सखा वैश्रवणस्यासीन्मणिमान्नाम राक्षसः // 52 प्रचिक्षेप महाबाहुर्विनद्य रणमूर्धनि // 67 अदर्शयदधीकारं पौरुषं च महाबलः / सेन्द्राशनिरिवेन्द्रेण विसृष्टा वातरंहसा / स तान्दृष्ट्वा परावृत्तान्स्मयमान इवाब्रवीत् / / 53 हत्वा रक्षः क्षितिं प्राप्य कृत्येव निपपात ह॥६८ एकेन बहवः संख्ये मानुषेण पराजिताः। तं राक्षसं भीमबलं भीमसेनेन पातितम् / प्राप्य वैश्रवणावासं किं वक्ष्यथ धनेश्वरम् // 54 ददृशुः सर्वभूतानि सिंहेनेव गवां पतिम् // 69 एवमाभाष्य तान्सर्वान्न्यवर्तत स राक्षसः / तं प्रेक्ष्य निहतं भूमौ हतशेषा निशाचराः / शक्तिशूलगदापाणिरभ्यधावञ्च पाण्डवम् // 55 भीममार्तस्वरं कृत्वा जग्मुः प्राची दिशं प्रति // 70 तमापतन्तं वेगेन प्रभिन्नमिव वारणम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि वत्सदन्तै स्त्रिभिः पार्श्व भीमसेनः समर्पयत् // 56 सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 157 // मणिमानपि संक्रुद्धः प्रगृह्य महतीं गदाम् / 158 प्राहिणोद्भीमसेनाय परिक्षिप्य महाबलः // 57 वैशंपायन उवाच। विद्युद्रूपां महाघोरामाकाशे महतीं गदाम् / श्रुत्वा बहुविधैः शब्दैर्नाद्यमाना गिरेगुहाः / शरैर्बहुभिरभ्यर्छद्भीमसेनः शिलाशितैः // 58 अजातशत्रुः कौन्तेयो माद्रीपुत्रावुभावपि // 1 प्रत्यहन्यन्त ते सर्वे गदामासाद्य सायकाः / धौम्यः कृष्णा च विप्राश्च सर्वे च सुहृदस्तथा / न बेगं धारयामासुर्गदावेगस्य वेगिताः // 59 / भीमसेनमपश्यन्तः सर्वे विमनसोऽभवन् // 2 . -600 -
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________________ 3. 158. 3] आरण्यकपर्व [ 3. 158. 31 द्रौपदीमार्टिषेणाय प्रदाय तु महारथाः / गदापरिघनिस्त्रिंशतोमरप्रासयोधिनः / सहिताः सायुधाः शूराः शैलमारुरुहुस्तदा // 3 राक्षसा निहताः सर्वे तव देव पुरःसराः॥ 17 ततः संप्राप्य शैलाग्रं वीक्षमाणा महारथाः / प्रमृद्य तरसा शैलं मानुषेण धनेश्वर। ददृशुस्ते महेष्वासा भीमसेनमरिंदमम् // 4 एकेन सहिताः संख्ये हताः क्रोधवशा गणाः // 18 रस्फुरतश्च महाकायान्गतसत्त्वांश्च राक्षसान् / प्रवरा राक्षसेन्द्राणां यक्षाणां च धनाधिप। महाबलान्महाघोरान्भीमसेनेन पातितान // 5 शेरते निहता देव गतसत्त्वाः परासवः // 19 शुशुभे स महाबाहुर्गदाखङ्गधनुर्धरः / लब्धः शैलो वयं मुक्ता मणिमांस्ते सखा हतः। निहत्य समरे सर्वान्दानवान्मघवानिव // 6 मानुषेण कृतं कर्म विधत्स्व यदनन्तरम् // 20 ततस्ते समतिक्रम्य परिष्वज्य वृकोदरम् / स तच्छ्रुत्वा तु संक्रुद्धः सर्वयक्षगणाधिपः / तत्रोपविविशुः पार्थाः प्राप्ता गतिमनुत्तमाम् // 7 कोपसंरक्तनयनः कथमित्यब्रवीद्वचः॥२१ तैश्चतुर्भिर्महेष्वासैर्गिरिशृङ्गमशोभत / द्वितीयमपराध्यन्तं भीमं श्रुत्वा धनेश्वरः / लोकपालैर्महाभागैर्दिवं देववरैरिव // 8 चुक्रोध यक्षाधिपतियुज्यतामिति चाब्रवीत् // 22 कुबेरसदनं दृष्ट्वा राक्षसांश्च निपातितान् / अथाभ्रघनसंकाशं गिरिकूटमिवोच्छ्रितम् / भ्राता भ्रातरमासीनमभ्यभाषत पाण्डवम् // 9 हयैः संयोजयामासुर्गान्धर्वैरुत्तमं रथम् // 23 साहसाद्यदि वा मोहाद्भीम पापमिदं कृतम् / तस्य सर्वगुणोपेता विमलाक्षा हयोत्तमाः। नैतत्ते सदृशं वीर मुनेरिव मृषावचः // 10 तेजोबलजवोपेता नानारत्नविभूषिताः // 24 राजद्विष्टं न कर्तव्यमिति धर्मविदो विदुः / शोभमाना रथे युक्तास्तरिष्यन्त इवाशुगाः। त्रिदशानामिदं द्विष्टं भीमसेन त्वया कृतम् / / 11 हर्षयामासुरन्योन्यमिङ्गितैर्विजयावहैः॥२५ अर्थधर्मावनादृत्य यः पापे कुरुते मनः / स तमास्थाय भगवान्राजराजो महारथम् / कर्मणां पार्थ पापानां स फलं विन्दते ध्रुवम् / प्रययौ देवगन्धर्वैः स्तूयमानो महाद्युतिः // 26 पुनरेवं न कर्तव्यं मम चेदिच्छसि प्रियम् // 12 तं प्रयान्तं महात्मानं सर्वयक्षधनाधिपम् / एवमुक्त्वा स धर्मात्मा भ्राता भ्रातरमच्युतम् / रक्ताक्षा हेमसंकाशा महाकाया महाबलाः॥ 27 अर्थतत्त्वविभागज्ञः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। सायुधा बद्धनिस्त्रिंशा यक्षा दशशतायुताः / विरराम महातेजास्तमेवार्थं विचिन्तयन् // 13 जवेन महता वीराः परिवार्योपतस्थिरे // 28 ततस्तु हतशिष्टा ये भीमसेनेन राक्षसाः / तं महान्तमुपायान्तं धनेश्वरमुपान्तिके / सहिताः प्रत्यपद्यन्त कुबेरसदनं प्रति // 14 ददृशुर्हष्टरोमाणः पाण्डवाः प्रियदर्शनम् // 29 ते जवेन महावेगाः प्राप्य वैश्रवणालयम् / कुबेरस्तु महासत्त्वान्पाण्डोः पुत्रान्महारथान् / भीममार्तस्वरं चक्रुर्भीमसेनभयार्दिताः // 15 आत्तकार्मुकनिस्त्रिंशान्दृष्ट्वा प्रीतोऽभवत्तदा // 30 न्यस्तशस्त्रायुधाः श्रान्ताः शोणिताक्तपरिच्छदाः / / ते पक्षिण इवोत्पत्य गिरेः शृङ्गं महाजवाः / प्रकीर्णमूर्धजा राजन्यक्षाधिपतिमब्रुवन् // 16 / तस्थुस्तेषां समभ्याशे धनेश्वरपुरःसराः // 31 म. भा. 76 -601 -
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________________ 3. 158. 32] महाभारते [ 3. 158. 58 ततस्तं हृष्टमनसं पाण्डवान्प्रति भारत / स्वबाहुबलमाश्रित्य तेनाहं प्रीतिमांस्त्वयि / समीक्ष्य यक्षगन्धर्वा निर्विकारा व्यवस्थिताः / / 32 शापादस्मि विनिर्मुक्तो घोरादद्य वृकोदर // 46 पाण्डवाश्च महात्मानः प्रणम्य धनदं प्रभुम् / अहं पूर्वमगस्त्येन क्रुद्धेन परमर्षिणा / मकुलः सहदेवश्च धर्मपुत्रश्च धर्मवित् // 33 / शप्तोऽपराधे कस्मिंश्चित्तस्यैषा निष्कृतिः कृता // 47 अपराद्धमिवात्मानं मन्यमाना महारथाः / दृष्टो हि मम संक्लेशः पुरा पाण्डवनन्दन / तस्थुः प्राञ्जलयः सर्वे परिवार्य धनेश्वरम् // 34 न तवात्रापराधोऽस्ति कथंचिदपि शत्रुहन् // 48 शय्यासनवरं श्रीमत्पुष्पकं विश्वकर्मणा / युधिष्ठिर उवाच। विहितं चित्रपर्यन्तमातिष्ठत धनाधिपः // 35 कथं शप्तोऽसि भगवन्नगस्त्येन महात्मना। तमासीनं महाकायाः शङ्कुकर्णा महाजवाः / श्रोतुमिच्छाम्यहं देव तवैतच्छापकारणम् // 49 उपोपविविशुर्यक्षा राक्षसाश्च सहस्रशः // 36 इदं चाश्चर्यभूतं मे यत्नोधात्तस्य धीमतः। शतशश्चापि गन्धर्वास्तथैवाप्सरसां गणाः / तदैव त्वं न निर्दग्धः सबलः सपदानुगः // 50 परिवार्योपतिष्ठन्त यथा देवाः शतक्रतुम् // 37 वैश्रवण उवाच / काञ्चनीं शिरसा बिभ्रद्भीमसेनः स्रजं शुभाम् / देवतानामभून्मन्त्रः कुशवत्यां नरेश्वर / बाणखड्गधनुष्पाणिरुदैक्षत धनाधिपम् // 38 वृतस्तत्राहमगमं महापद्मशतैत्रिभिः / न भीर्रमस्य न ग्लानिर्विक्षतस्यापि राक्षसैः / यक्षाणां घोररूपाणां विविधायुधधारिणाम् // 51 आसीत्तस्यामवस्थायां कुबेरमपि पश्यतः // 39 अध्वन्यहमथापश्यमगस्त्यमृषिसत्तमम् / आददानं शितान्बाणान्यो काममवस्थितम् / / उग्रं तपस्तपस्यन्तं यमुनातीरमाश्रितम् / दृष्ट्वा भीमं धर्मसुतमब्रवीन्नरवाहनः / / 40 नानापक्षिगणाकीर्णं पुष्पितद्रुमशोभितम् // 52 विदुस्त्वां सर्वभूतानि पार्थ भूतहिते रतम् / तमूर्ध्वबाहुं दृष्ट्वा तु सूर्यस्याभिमुखं स्थितम्। निर्भयश्चापि शैलाग्रे वस त्वं सह बन्धुभिः॥४१ / तेजोराशिं दीप्यमानं हुताशनमिवैधितम् // 53 न च मन्युस्त्वया कार्यो भीमसेनस्य पाण्डव / राक्षसाधिपतिः श्रीमान्मणिमान्नाम मे सखा / कालेनैते हताः पूर्वं निमित्तमनुजस्तव // 42 मौादज्ञानभावाच्च दन्मिोहाच्च भारत। व्रीडा चात्र न कर्तव्या साहसं यदिदं कृतम्। न्यष्ठीवदाकाशगतो महर्षेस्तस्य मूर्धनि // 54 दृष्टश्चापि सुरैः पूर्वं विनाशो यक्षरक्षसाम् // 43 स कोपान्मामुवाचेदं दिशः सर्वा दहन्निव / न भीमसेने कोपो मे प्रीतोऽस्मि भरतर्षभ / मामवज्ञाय दुष्टात्मा यस्मादेष सखा तव // 55 कर्मणानेन भीमस्य मम तुष्टिरभूत्पुरा // 44 धर्षणां कृतवानेतां पश्यतस्ते धनेश्वर / एवमुक्त्वा तु राजानं भीमसेनमभाषत / तस्मात्सहैभिः सैन्यैस्ते वधं प्राप्स्यति मानुषात्॥५६ नैतन्मनसि मे तात वर्तते कुरुसत्तम / त्वं चाप्येभिर्हतैः सैन्यैः क्लेशं प्राप्स्यसि दुर्मते। यदिदं साहसं भीम कृष्णार्थे कृतवानसि // 45 / तमेव मानुषं दृष्ट्वा किल्बिषाद्विप्रमोक्ष्यसे // 57 मामनादृत्य देवांश्च विनाशं यक्षरक्षसाम् / / सैन्यानां तु तवैतेषां पुत्रपौत्रबलान्वितम् / - 602 -
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________________ 3. 158. 58 ] आरण्यकपर्व [3. 159. 25 न शापं प्राप्स्यते घोरं गच्छ तेऽऽज्ञां करिष्यति॥५८ / साहसेषु च संतिष्ठन्निह शैले वृकोदरः। एष शापो मया प्राप्तः प्राक्तस्मादृषिसत्तमात् / / वार्यतां साध्वयं राजंस्त्वया धर्मभृतां वर // 12 स भीमेन महाराज भ्रात्रा तव विमोक्षितः॥ 59 / इतः परं च राजेन्द्र द्रक्ष्यन्ति वनगोचराः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि उपस्थास्यन्ति च सदा रक्षिष्यन्ति च सर्वशः॥१३ अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 158 // तथैव चान्नपानानि स्वादूनि च बहूनि च / उपस्थास्यन्ति वो गृह्य मत्प्रेष्याः पुरुषर्षभ // 14 वैश्रवण उवाच / यथा जिष्णुमहेन्द्रस्य यथा वायोवृकोदरः / युधिष्ठिर धृतिर्दाक्ष्यं देशकालौ पराक्रमः / . धर्मस्य त्वं यथा तात योगोत्पन्नो निजः सुतः॥ 15 लोकतन्त्रविधानानामेष पञ्चविधो विधिः // 1 आत्मजावात्मसंपन्नौ यमौ चोभौ यथाश्विनोः। . धृतिमन्तश्च दक्षाश्च स्वे स्वे कर्मणि भारत / रक्ष्यास्तद्वन्ममापीह यूयं सर्वे युधिष्ठिर // 16 पराक्रमविधानज्ञा नराः कृतयुगेऽभवन् // 2 अर्थतत्त्वविभागज्ञः सर्वधर्मविशेषवित् / धृतिमान्देशकालज्ञः सर्वधर्मविधानवित् / भीमसेनादवरजः फल्गुनः कुशली दिवि // 17 क्षत्रियः क्षत्रियश्रेष्ठ पृथिवीमनुशास्ति वै॥३ . याः काश्चन मता लोकेष्वग्र्याः परमसंपदः / य एवं वर्तते पार्थ पुरुषः सर्वकर्मसु / जन्मप्रभृति ताः सर्वाः स्थितास्तात धनंजये // 18 स लोके लभते वीर यशः प्रेत्य च सद्गतिम् // 4 / दमो दानं बलं बुद्धिर्टीधृतिस्तेज उत्तमम् / देशकालान्तरप्रेप्सुः कृत्वा शक्रः पराक्रमम् / एतान्यपि महासत्त्वे स्थितान्यमिततेजसि // 19 संप्राप्तस्त्रिदिवे राज्यं वृत्रहा वसुभिः सह // 5 न मोहात्कुरुते जिष्णुः कर्म पाण्डव गर्हितम् / पापात्मा पापबुद्धिर्यः पापमेवानुवर्तते / न पार्थस्य मृषोक्तानि कथयन्ति नरा नृषु // 20 कर्मणामविभागज्ञः प्रेत्य चेह च नश्यति // 6 स देवपितृगन्धर्वैः कुरूणां कीर्तिवर्धनः / अकालज्ञः सुदुर्मेधाः कार्याणामविशेषवित् / मानितः कुरुतेऽस्त्राणि शक्रसद्मनि भारत // 21 वृथाचारसमारम्भः प्रेत्य चेह च नश्यति // 7 योऽसौ सर्वान्महीपालान्धर्मेण वशमानयत् / साहसे वर्तमानानां निकृतीनां दुरात्मनाम् / स शंतनुर्महातेजाः पितुस्तव पितामहः / सर्वसामर्थ्य लिप्सूनां पापो भवति निश्चयः // 8 प्रीयते पार्थ पार्थेन दिवि गाण्डीवधन्वना // 22 अधर्मज्ञोऽवलिप्तश्च बालबुद्धिरमर्षणः / सम्यक्चासौ महावीर्यः कुलधुर्य इव स्थितः / निर्भयो भीमसेनोऽयं तं शाधि पुरुषर्षभ // 9 पितॄन्देवांस्तथा विप्रान्पूजयित्वा महायशाः / आर्टिषेणस्य राजर्षेः प्राप्य भूयस्त्वमाश्रमम् / सप्त मुख्यान्महामेधानाहरद्यमुनां प्रति // 23 तामिस्रं प्रथमं पक्षं वीतशोकभयो वस // 10 अधिराजः स राजंस्त्वां शंतनुः प्रपितामहः / अलकाः सह गन्धर्वैयक्षैश्च सह राक्षसैः / स्वर्गजिच्छकलोकस्थः कुशलं परिपृच्छति // 24 मन्नियुक्ता मनुष्येन्द्र सर्वे च गिरिवासिनः / वैशंपायन उवाच / रक्षन्तु त्वा महाबाहो सहितं द्विजसत्तमैः॥ 11 / ततः शक्तिं गदां खड्गं धनुश्च भरतर्षभ / - 603 -
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________________ 3. 159. 25 ] महाभारते [3. 160. 18 प्राध्वं कृत्वा नमश्चक्रे कुबेराय वृकोदरः // 25 .. प्राची दिशमभिप्रेक्ष्य महर्षिरिदमब्रवीत् // 3' ततोऽब्रवीद्धनाध्यक्षः शरण्यः शरणागतम् / असौ सागरपर्यन्तां भूमिमावृत्य तिष्ठति / मानहा भव शत्रूणां सुहृदां नन्दिवर्धनः // 26 शैलराजो महाराज मन्दरोऽभिविराजते // 4 स्वेषु वेश्मसु रम्येषु वसतामित्रतापनाः। इन्द्रवैश्रवणावेतां दिशं पाण्डव रक्षतः / कामानुपहरिष्यन्ति यक्षा वो भरतर्षभाः॥२७ / पर्वतैश्च वनान्तैश्च काननैश्चोपशोभिताम् // 5 शीघ्रमेव गुडाकेशः कृतास्त्रः पुरुषर्षभः / एतदाहुमहेन्द्रस्य राज्ञो वैश्रवणस्य च। साक्षान्मघवता सृष्टः संप्राप्स्यति धनंजयः // 28 ऋषयः सर्वधर्मज्ञाः सद्म तात मनीषिणः // 6 एवमुत्तमकर्माणमनुशिष्य युधिष्ठिरम् / अतश्वोद्यन्तमादित्यमुपतिष्ठन्ति वै प्रजाः। अस्तं गिरिवरश्रेष्ठं प्रययौ गुह्यकाधिपः // 29 ऋषयश्चापि धर्मज्ञाः सिद्धाः साध्याश्च देवताः॥७ तं परिस्तोमसंकीर्णैर्नानारत्नविभूषितैः / यमस्तु राजा धर्मात्मा सर्वप्राणभृतां प्रभुः / यानैरनुययुर्यक्षा राक्षसाश्च सहस्रशः // 30 प्रेतसत्त्वगतीमेतां दक्षिणामाश्रितो दिशम् // 8 पक्षिणामिव निर्घोषः कुबेरसदनं प्रति। एतत्संयमनं पुण्यमतीवाद्भुतदर्शनम् / बभूव परमाश्वानामैरावतपथे यताम् / / 31 प्रेतराजस्य भवनमृद्ध्या परमया युतम् // 9 ते जग्मुस्तूर्णमाकाशं धनाधिपतिवाजिनः / यं प्राप्य सविता राजन्सत्येन प्रतितिष्ठति / प्रकर्षन्त इवाभ्राणि पिबन्त इव मारुतम् // 32 अस्तं पर्वतराजानमेतमाहुर्मनीषिणः // 10 ततस्तानि शरीराणि गतसत्त्वानि रक्षसाम् / एतं पर्वतराजानं समुद्रं च महोदधिम्।। अपाकृष्यन्त शैलाग्राद्धनाधिपतिशासनात् // 33 आवसन्वरुणो राजा भूतानि परिरक्षति // 11 तेषां हि शापकालोऽसौ कृतोऽगस्त्येन धीमता / उदीची दीपयन्नेष दिशं तिष्ठति कीर्तिमान् / समरे निहतास्तस्मात्सर्वे मणिमता सह // 34 महामेरुर्महाभाग शिवो ब्रह्मविदां गतिः // 12 पाण्डवास्तु महात्मानस्तेषु वेश्मसु तां क्षपाम् / यस्मिन्ब्रह्मसदश्चैव तिष्ठते च प्रजापतिः / सुखमूर्गतोद्वेगाः पूजिताः सर्वराक्षसैः // 35 भूतात्मा विसृजन्सर्वं यत्किंचिज्जङ्गमागमम् // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि यानाहुब्रह्मणः पुत्रान्मानसान्दक्षसप्तमान् / एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः // 159 // तेषामपि महामेरुः स्थानं शिवमनामयम् // 14 160 अत्रैव प्रतितिष्ठन्ति पुनरत्रोदयन्ति च / वैशंपायन उवाच। सप्त देवर्षयस्तात वसिष्ठप्रमुखाः सदा / / 15 ततः सूर्योदये धौम्यः कृत्वाह्निकमरिंदम। देशं विरजसं पश्य मेरोः शिखरमुत्तमम् / आर्टिषेणेन सहितः पाण्डवानभ्यवर्तत // 1 यत्रात्मतृप्तरध्यास्ते देवैः सह पितामहः // 16 तेऽभिवाद्यार्टिषेणस्य पादौ धौम्यस्य चैव ह / यमाहुः सर्वभूतानां प्रकृतेः प्रकृतिं ध्रुवम् / ततः प्राञ्जलयः सर्वे ब्राह्मणांस्तानपूजयन् // 2 अनादिनिधनं देवं प्रभुं नारायणं परम् // 17 ततो युधिष्ठिरं धौम्यो गृहीत्वा दक्षिणे करे। ब्रह्मणः सदनात्तस्य परं स्थानं प्रकाशते / / -604
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________________ 3. 160. 18 ] आरण्यकपर्व [ 3. 161.5 देवाश्च यत्नात्पश्यन्ति दिव्यं तेजोमयं शिवम् // 18 / पुनः सजति वर्षाणि भगवान्भावयन्प्रजाः॥ 33 अत्यर्कानलदीप्तं तत्स्थानं विष्णोर्महात्मनः / वृष्टिमारुतसंतापैः सुखैः स्थावरजङ्गमान् / स्वयैव प्रभया राजन्दुष्प्रेक्ष्यं देवदानवैः // 19 / वर्धयन्सुमहातेजाः पुनः प्रतिनिवर्तते // 34 तद्वै ज्योतींषि सर्वाणि प्राप्य भासन्ति नोऽपि च / एवमेष चरन्पार्थ कालचक्रमतन्द्रितः। स्वयं विभुरदीनात्मा तत्र ह्यभिविराजते // 20 प्रकर्षन्सर्वभूतानि सविता परिवर्तते // 35 यतयस्तत्र गच्छन्ति भक्त्या नारायणं हरिम्। संतता गतिरेतस्य नैष तिष्ठति पाण्डव / परेण तपसा युक्ता भाविताः कर्मभिः शुभैः // 21 आदायैव तु भूतानां तेजो विसृजते पुनः // 36 योगसिद्धा महात्मानस्तमोमोहविवर्जिताः। विभजन्सर्वभूतानामायुः कर्म च भारत / तत्र गत्वा पुनर्नेमं लोकमायान्ति भारत // 22 / अहोरात्रान्कलाः काष्ठाः सृजत्येष सदा विभुः॥३७ स्थानमेतन्महाभाग ध्रुवमक्षयमव्ययम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ईश्वरस्य सदा ह्येतत्प्रणमात्र युधिष्ठिर // 23 षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः // 16 // एतं ज्योतींषि सर्वाणि प्रकर्षन्भगवानपि / 161 कुरुते वितमस्कर्मा आदित्योऽभिप्रदक्षिणम् // 24 वैशंपायन उवाच। अस्तं प्राप्य ततः संध्यामतिक्रम्य दिवाकरः / तस्मिन्नगेन्द्रे वसतां तु तेषां उदीची भजते काष्ठां दिशमेष विभावसुः // 25 __ महात्मनां सद्तमास्थितानाम् / स मेरुमनुवृत्तः सन्पुनर्गच्छति पाण्डव / रतिः प्रमोदश्च बभूव तेषाप्राङ्मुखः सविता देवः सर्वभूतहिते रतः // 26 माकाङ्क्षतां दर्शनमर्जुनस्य // 1 स मासं विभजन्कालं बहुधा पर्वसंधिषु / तान्वीर्ययुक्तान्सुविशुद्धसत्त्वांतथैव भगवान्सोमो नक्षत्रैः सह गच्छति // 27 - स्तेजस्विनः सत्यधृतिप्रधानान् / एवमेव परिक्रम्य महामेरुमतन्द्रितः / संप्रीयमाणा बहवोऽमिजग्मुभावयन्सर्वभूतानि पुनर्गच्छति मन्दरम् / / 28 गन्धर्वसंघाश्च महर्षयश्च // 2 तथा तमिस्रहा देवो मयूखैर्भावयञ्जगत् / तं पादपैः पुष्पधरैरुपेतं मार्गमेतदसंबाधमादित्यः परिवर्तते // 29 - नगोत्तमं प्राप्य महारथानाम् / सिसूक्षुः शिशिराण्येष दक्षिणां भजते दिशम् / मनःप्रसादः परमो बभूव ततः सर्वाणि भूतानि कालः शिशिरमृच्छति // 30 यथा दिवं प्राप्य मरुद्गणानाम् // 3 स्थावराणां च भूतानां जङ्गमानां च तेजसा। मयूरहंसस्खननादितानि तेजांसि समुपादत्ते निवृत्तः सन्विभावसुः // 31 ___ पुष्पोपकीर्णानि महाचलस्य / ततः स्वेदः क्लमस्तन्द्री ग्लानिश्च भजते नरान् / शृङ्गाणि सानूनि च पश्यमाना प्राणिभिः ससतं स्वप्नो ह्यभीक्ष्णं च निषेव्यते॥३२ गिरेः परं हर्षमवाप्य तस्थुः // 4 एवमेतदनिर्देश्यं मार्गमावृत्य भानुमान् / साक्षात्कुबेरेण कृताश्च तस्मि- 605 -
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________________ 8. 161. 5] महाभारते [3. 161. 20 नगोत्तमे संवृतकूलरोधसः। पार्थास्तपोयोगपरा बभूवुः // 12 कादम्बकारण्डवहंसजुष्टाः दृष्ट्वा विचित्राणि गिरौ वनानि पद्माकुलाः पुष्करिणीरपश्यन् // 5 किरीटिनं चिन्तयतामभीक्ष्णम् / क्रीडाप्रदेशांश्च समृद्धरूपा बभूव रात्रिर्दिवसश्च तेषां .न्सुचित्रमाल्यावृतजातशोभान् / __ संवत्सरेणैव समानरूपः // 13 मणिप्रवेकान्सुमनोहरांश्च यदैव धौम्यानुमते महात्मा यथा भवेयुर्धनदस्य राज्ञः // 6 कृत्वा जटाः प्रव्रजितः स जिष्णुः / / अनेकवर्णैश्च सुगन्धिभिश्च तदैव तेषां न बभूव हर्षः महाद्रुमैः संततमभ्रमालिभिः / कुतो रतिस्तद्गतमानसानाम् // 14 तपःप्रधानाः सततं चरन्तः भ्रातुर्नियोगात्तु युधिष्ठिरस्य. _ शृङ्गं गिरेश्चिन्तयितुं न शेकुः // 7 वनादसौ वारणमत्तगामी / स्वतेजसा तस्य नगोत्तमस्य यत्काम्यकात्प्रव्रजितः स जिष्णुमहौषधीनां च तथा प्रभावात् / स्तदैव ते शोकहता बभूवुः // 15 विभक्तभावो न बभूव कश्चि तथा तु तं चिन्तयतां सिताश्वदहर्निशानां पुरुषप्रवीर // 8 मस्त्रार्थिनं वासवमभ्युपेतम् / यमास्थितः स्थावरजङ्गमानि मासोऽथ कृच्छ्रेण तदा व्यतीतविभावसुर्भावयतेऽमितौजाः / स्तस्मिन्नगे भारत भारतानाम् // 16 तस्योदयं चास्तमयं च वीरा ततः कदाचिद्धरिसंप्रयुक्तं स्तत्र स्थितास्ते ददृशुर्नृसिंहाः // 9 __ महेन्द्रवाहं सहसोपयातम् / रवेस्तमिस्रागमनिर्गमांस्ते विद्युत्प्रभं प्रेक्ष्य महारथानां तथोदयं चास्तमयं च वीराः। ___ हर्षोऽर्जुनं चिन्तयतां बभूव // 17 समावृताः प्रेक्ष्य तमोनुदस्य स दीप्यमानः सहसान्तरिक्षं गभस्तिजालैः प्रदिशो दिशश्च // 10 . प्रकाशयन्मातलिसंगृहीतः / स्वाध्यायवन्तः सततक्रियाश्च बभौ महोल्केव घनान्तरस्था धर्मप्रधानाश्च शुचिव्रताश्च। शिखेव चाग्नेवलिता विधूमा // 18 सत्ये स्थितास्तस्य महारथस्य तमास्थितः संददृशे किरीटी सत्यव्रतस्यागमनप्रतीक्षाः // 11 स्रग्वी वराण्याभरणानि बिभ्रत् / इहैव हर्षोऽस्तु समागतानां धनंजयो वज्रधरप्रभावः क्षिप्रं कृतास्त्रेण धनंजयेन / श्रिया ज्वलन्पर्वतमाजगाम // 19 इति ब्रुवन्तः परमाशिषस्ते स शैलमासाद्य किरीटमाली - 606 -
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________________ 3. 161. 20] आरण्यकपर्व [3. 162.8 स विशुद्धकर्मा . महेन्द्रवाहादवरुह्य तस्मात् / धौम्यस्य पादावभिवाद्य पूर्व__मजातशत्रोस्तदनन्तरं च // 20 वृकोदरस्यापि ववन्द पादौ ___माद्रीसुताभ्यामभिवादितश्च / समेत्य कृष्णां परिसान्त्व्य चैनां प्रह्वोऽभवद्धातुरुपह्वरे सः // 21 बभूव तेषां परमः प्रहर्ष स्तेनाप्रमेयेण समागतानाम् / . स चापि तान्प्रेक्ष्य किरीटमाली ननन्द राजानमभिप्रशंसन् // 22 यमास्थितः सप्त जघान पूगा न्दितेः सुतानां नमुचेनिहन्ता / तमिन्द्रवाहं समुपेत्य पार्थाः ___ प्रदक्षिणं चक्रुरदीनसत्त्वाः // 23 ते मातलेश्चक्रुरतीव हृष्टाः . . सत्कारमय्यं सुरराजतुल्यम् / सर्व यथावच्च दिवौकसस्ता न्पप्रच्छुरेनं कुरुराजपुत्राः // 24 . तानप्यसौ मातलिरभ्यनन्द त्पितेव पुत्राननुशिष्य चैनान् / क्यौ रथेनाप्रतिमप्रभेण ____ पुनः सकाशं त्रिदिवेश्वरस्य // 25 गते तु तस्मिन्वरदेववाहे शक्रात्मजः सर्वरिपुप्रमाथी। शक्रेण दत्तानि ददौ महात्मा महाधनान्युत्तमरूपवन्ति / दिवाकरामाणि विभूषणानि प्रीतः प्रियायै सुतसोममात्रे // 26 लतः स तेषां कुरुपुंगवानां तेषां च सूर्याग्निसमप्रमाणाम् / विप्रर्षभाणामुपविश्य मध्ये ___सर्वं यथावत्कथयांबभूव // 27 एवं मयास्त्राण्युपशिक्षितानि ___ शक्राच वाताच शिवाच्च साक्षात् / तथैव शीलेन समाधिना च प्रीताः सुरा मे सहिताः सहेन्द्राः // 28 संक्षेपतो वै स विशुद्धकर्मा तेभ्यः समाख्याय दिवि प्रवेशम् / माद्रीसुताभ्यां सहितः किरीटी सुष्वाप तामावसतिं प्रतीतः // 29 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि __ एकषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 161 // 162 वैशंपायन उवाच। एतस्मिन्नेव काले तु सर्ववादितनिस्वनः / बभूव तुमुलः शब्दस्त्वन्तरिक्षे दिवौकसाम् // 1 रथनेमिस्खनश्चैव घण्टाशब्दश्च भारत / पृथग्व्यालमृगाणां च पक्षिणां चैव सर्वशः / / 2. तं समन्तादनुययुर्गन्धर्वाप्सरसस्तथा / विमानैः सूर्यसंकाशैर्देवराजमरिंदमम् // 3 ततः स हरिभिर्युक्तं जाम्बूनदपरिष्कृतम् / मेघनादिनमारुह्य श्रिया परमया ज्वलन् // 4 पार्थानभ्याजगामाशु देवराजः पुरंदरः / आगत्य च सहस्राक्षो रथादवरोह वै // 5 तं दृष्ट्वैव महात्मानं धर्मराजो युधिष्ठिरः / भ्रातृभिः सहितः श्रीमान्देवराजमुपागमत् // 6 .. पूजयामास चैवाथ विधिवद्भूरिदक्षिणः / यथार्हममितात्मानं विधिदृष्टेन कर्मणा // 7 धनंजयश्च तेजस्वी प्रणिपत्य पुरंदरम् / -607 -
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________________ 3. 162. 8] महाभारते [ 3. 163. 17 भृत्यवत्प्रणतस्तस्थौ देवराजसमीपतः / / 8 कञ्चित्सुराधिपः प्रीतो रुद्रश्चास्त्राण्यदात्तव // 4 आप्यायत महातेजाः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / यथा दृष्टश्च ते शक्रो भगवान्वा पिनाकधृक् / धनंजयमभिप्रेक्ष्य विनीतं स्थितमन्तिके // 9 यथा चास्त्राण्यवाप्तानि यथा चाराधितश्च ते // 5 जटिलं देवराजस्य तपोयुक्तमकल्मषम् / . यथोक्तवांस्त्वां भगवाशतक्रतुररिंदम / हर्षेण महताविष्टः फल्गुनस्याथ दर्शनात् // 10 कृतप्रियस्त्वयास्मीति तच्च ते किं प्रियं कृतम् / तं तथादीनमनसं राजानं हर्षसंप्लुतम् / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण महायुते // 6 उवाच वचनं धीमान्देवराजः पुरंदरः // 11 यथा तुष्टो महादेवो देवराजश्च तेऽनघ / त्वमिमां पृथिवीं राजन्प्रशासिष्यसि पाण्डव / यञ्चापि वज्रपाणेस्ते प्रियं कृतमरिंदम। खस्ति प्राप्नुहि कौन्तेय काम्यकं पुनराश्रमम् // 12 एतदाख्याहि मे सर्वमखिलेन धनंजय // 7 अत्राणि लब्धानि च पाण्डवेन अर्जुन उवाच / - सर्वाणि मत्तः प्रयतेन राजन् / शृणु हन्त महाराज विधिना येन दृष्टवान् / कृतप्रियश्चास्मि धनंजयेन शतक्रतुमहं देवं भगवन्तं च शंकरम् // 8 जेतुं न शक्यस्त्रिभिरेष लोकैः // 13 विद्यामधीत्य तां राजंस्त्वयोक्तामरिमर्दन / एवमुक्त्वा सहस्राक्षः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् / भवता च समादिष्टस्तपसे प्रस्थितो वनम् // 9 जगाम त्रिदिवं हृष्टः स्तूयमानो महर्षिभिः॥ 14 भृगुतुङ्गमथो गत्वा काम्यकादास्थितस्तपः / धनेश्वरग्रहस्थानां पाण्डवानां समागमम / एकरात्रोषितः कंचिदपश्यं ब्राह्मणं पथि // 10 शक्रेण य इमं विद्वानधीयीत समाहितः // 15 स मामपृच्छत्कौन्तेय कासि गन्ता ब्रवीहि मे / संवत्सरं ब्रह्मचारी नियतः संशितव्रतः / तस्मा अवितथं सर्वमब्रुवं कुरुनन्दन // 11 स, जीवेत निराबाधः सुसुखी शरदां शतम् // 16 स तथ्यं मम तच्छ्रुत्वा ब्राह्मणो राजसत्तम / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अपूजयत मां राजन्प्रीतिमांश्चाभवन्मयि // 12 द्विषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 12 // ततो मामब्रवीत्प्रीतस्तपं आतिष्ठ भारत / 163 तपस्वी नचिरेण त्वं द्रक्ष्यसे विबुधाधिपम् // 13 वैशंपायन उवाच। ततोऽहं वचनात्तस्य गिरिमारुह्य शैशिरम् / यथागतं गते शक्रे भ्रातृभिः सह संगतः / तपोऽतप्यं महाराज मासं मूलफलाशनः // 14 कृष्णया चैव बीभत्सुर्धर्मपुत्रमपूजयत् / / 1 द्वितीयश्चापि मे मासो जलं भक्षयतो गतः / अभिवादयमानं तु मूर्युपाघ्राय पाण्डवम् / निराहारस्तृतीयेऽथ मासे पाण्डवनन्दन // 15 हर्षगद्गदया वाचा प्रहृष्टोऽर्जुनमब्रवीत् // 2 ऊर्ध्वबाहुश्चतुर्थं तु मासमस्मि स्थितस्तदा / कथमर्जुन कालोऽयं स्वर्गे व्यतिगतस्तव / न च मे हीयते प्राणस्तदद्भुतमिवाभवत् // 16 कथं चास्त्राण्यवाप्तानि देवराजश्च तोषितः॥ 3 चतुर्थे समभिक्रान्ते प्रथमे दिवसे गते / सम्यग्वा ते गृहीतानि कच्चिदत्राणि भारत / / वराहसंस्थितं भूतं मत्समीपमुपागमत् // 17 -608 -
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________________ 3. 163. 18 ] आरण्यकपर्व [3. 163. 46 निघ्नन्प्रोथेन पृथिवीं विलिखंश्चरणैरपि / जग्रास प्रहसंस्तानि सर्वाण्यस्त्राणि मेऽनघ / 32 संमार्जञ्जठरेणोर्वी विवर्तश्च मुहुर्मुहुः / / 18 तेषु सर्वेषु शान्तेषु ब्रह्मास्त्रमहमादिशम् / अनु तस्यापरं भूतं महत्कैरातसंस्थितम् / ततः प्रज्वलितैर्बाणैः सर्वतः सोपचीयत / धनुर्बाणासिमत्प्राप्तं स्त्रीगणानुगतं तदा // 19 उपचीयमानश्च मया महास्त्रेण व्यवर्धत // 33 ततोऽहं धनुरादाय तथाक्षय्यौ महेषुधी / ततः संतापितो लोको मत्प्रसूतेन तेजसा। अताडयं शरेणाथ तद्भूतं लोमहर्षणम् // 20 क्षणेन हि दिशः खं च सर्वतोऽभिविदीपितम्॥३४ युगपत्तत्किरातश्च विकृष्य बलवद्धनुः / तदप्यत्रं महातेजाः क्षणेनैव व्यशातयत् / अभ्याजन्ने दृढतरं कम्पयन्निव मे मनः / / 21 ब्रह्मास्त्रे तु हते राजन्भयं मां महदाविशत् // 35 स तु मामब्रवीद्राजन्मम पूर्वपरिग्रहः / ततोऽहं धनुरादाय तथाक्षय्यौ महेषुधी। मृगयाधर्ममुत्सृज्य किमर्थं ताडितस्त्वया // 22 सहसाभ्यहनं भूतं तान्यप्यस्त्राण्यभक्षयत् // 36 एष ते निशितैर्बाणैर्दपं हन्मि स्थिरो भव / हतेष्वस्त्रेषु सर्वेषु भक्षितेष्वायुधेषु च / सवम॑वान्महाकायस्ततो मामभ्यधावत // 23 मम तस्य च भूतस्य बाहुयुद्धमवर्तत // 37 ततो गिरिमिवात्यर्थमावृणोन्मां महाशरैः / व्यायामं मुष्टिभिः कृत्वा तलैरपि समाहतौ / तं चाहं शरवर्षेण महता समवाकिरम् // 24 अपातयञ्च तद्भूतं निश्चेष्टो ह्यगमं महीम् // 38 ततः शरैर्दीप्तमुखैः पत्रितैरनुमत्रितैः / ततः प्रहस्य तद्भूतं तत्रैवान्तरधीयत / प्रत्यविध्यमहं तं तु वरिव शिलोच्चयम् // 25 सह स्त्रीभिर्महाराज पश्यतो मेऽद्भुतोपमम् // 39 तस्य तच्छतधा रूपमभवच्च सहस्रधा / एवं कृत्वा स भगवांस्ततोऽन्यद्रूपमात्मनः / तानि चास्य शरीराणि शरैरहमताडयम् // 26 दिव्यमेव महाराज वसानोऽद्भुतमम्बरम् // 40 पुनस्तानि शरीराणि एकीभूतानि भारत / हित्वा किरातरूपं च भगवांत्रिदशेश्वरः / अदृश्यन्त महाराज तान्यहं व्यधमं पुनः / / 27 स्वरूपं दिव्यमास्थाय तस्थौ तत्र महेश्वरः // 41 अणुहच्छिरा भूत्वा बृहच्चाणुशिराः पुनः / अदृश्यत ततः साक्षाद्भगवान्गोवृषध्वजः / एकीभूतस्तदा राजन्सोऽभ्यवर्तत मां युधि // 28 उमासहायो हरिदृग्बहुरूपः पिनाकधृक् // 42 यदामिभवितुं बाणैर्नैव शक्नोमि तं रणे। स मामभ्येत्य समरे तथैवाभिमुखं स्थितम् / ततोऽहमस्त्रमातिष्ठं वायव्यं भरतर्षभ / / 29 शूलपाणिरथोवाच तुष्टोऽस्मीति परंतप // 43 न चैनमशकं हन्तुं तदद्भुतमिवाभवत् / ततस्तद्धनुरादाय तूणौ चाक्षय्यसायको / तस्मिन्प्रतिहते चास्ने विस्मयो मे महानभूत् / / 30 प्रादान्ममैव भगवान्वरयस्वेति चाब्रवीत् // 44 भूयश्चैव महाराज सविशेषमहं ततः / तुष्टोऽस्मि तव कौन्तेय ब्रूहि किं करवाणि ते। अनपूगेन महता रणे भूतमवाकिरम् // 31 यत्ते मनोगतं वीर तद्रूहि वितराम्यहम् / स्थूणाकर्णमयोजालं शरवर्ष शरोल्बणम् / अमरत्वमपाहाय ब्रूहि यत्ते मनोगतम् // 45 शैलास्त्रमश्मवर्ष च समास्थायाहमभ्ययाम् / - ततः प्राञ्जलिरेवाहमनेषु गतमानसः / म.भा. 77 - 609 -
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________________ 3. 163. 46 ] महाभारते [3. 164. 20 प्रणम्य शिरसा शर्वं ततो वचनमाददे // 46 एवमुक्त्वा स मां राजन्नाश्लिष्य च पुनः पुनः / भगवान्मे प्रसन्नश्चेदीप्सितोऽयं वरो मम / अगच्छत्स यथाकामं ब्राह्मणः सूर्यसंनिभः // 6 अत्राणीच्छाम्यहं ज्ञातुं यानि देवेषु कानिचित् / अथापराह्ने तस्याह्नः प्रावात्पुण्यः समीरणः / ददानीत्येव भगवानब्रवीत्रयम्बकश्च माम् // 47 पुनर्नवमिमं लोकं कुर्वन्निव सपत्नहन् // 7 रौद्रमस्र मदीयं त्वामुपस्थास्यति पाण्डव / दिव्यानि चैव माल्यानि सुगन्धीनि नवानि च / प्रददौ च मम प्रीतः सोऽत्रं पाशुपतं प्रभुः // 48 शैशिरस्य गिरेः पादे प्रादुरासन्समीपतः // 8 उवाच च महादेवो दत्त्वा मेऽस्त्रं सनातनम्। वादित्राणि च दिव्यानि सुघोषाणि समन्ततः / न प्रयोज्यं भवेदेतन्मानुषेषु कथंचन // 49 स्तुतयश्चेन्द्रसंयुक्ता अश्रयन्त मनोहराः // 9 पीड्यमानेन बलवत्प्रयोज्यं ते धनंजय / गणाश्चाप्सरसां तत्र गन्धर्वाणां तथैव च / अस्त्राणां प्रतिघाते च सर्वथैव प्रयोजयेः॥ 50 पुरस्ताद्देवदेवस्य जगुर्गीतानि सर्वशः // 10. तदप्रतिहतं दिव्यं सर्वास्त्रप्रतिषेधनम् / मरुतां च गणास्तत्र देवयानैरुपागमन् / मूर्तिमन्मे स्थितं पार्श्वे प्रसन्ने गोवृषध्वजे // 51 महेन्द्रानुचरा ये च देवसद्मनिवासिनः // 11 उत्सादनममित्राणां परसेनानिकर्तनम् / ततो मरुत्वान्हरिभिर्युक्तैर्वाहैस्वलंकृतैः / दुरासदं दुष्प्रहसं सुरदानवराक्षसैः // 52 शचीसहायस्तत्रायात्सह सर्वैस्तदामरैः // 12 अनुज्ञातम्त्वहं तेन तत्रैव समुपाविशम् / एतस्मिन्नेव काले तु कुबेरो नरवाहनः / प्रेक्षतश्चैव मे देवसत्रैवान्तरधीयत // 53 दर्शयामास मां राजलक्ष्म्या परमया युतः॥१३ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दक्षिणस्यां दिशि यमं प्रत्यपश्यं व्यवस्थितम् / त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 163 // वरुणं देवराजं च यथास्थानमवस्थितम् // 14 164 ते मामूचुर्महाराज सान्त्वयित्वा सुरर्षभाः / अर्जुन उवाच। सव्यसाचिन्समीक्षस्व लोकपालानवस्थितान् // 15 ततस्तामवसं प्रीतो रजनीं तत्र भारत / सुरकार्यार्थसिद्ध्यर्थं दृष्टवानसि शंकरम् / प्रसादाद्देवदेवस्य त्र्यम्बकस्य महात्मनः // 1 अस्मत्तोऽपि गृहाण त्वमस्त्राणीति समन्ततः // 16 व्युषितो रजनीं चाहं कृत्वा पूर्वाह्निकक्रियाम् / ततोऽहं प्रयतो भूत्वा प्रणिपत्य सुरर्षभान् / अपश्यं तं द्विजश्रेष्ठं दृष्टवानस्मि यं पुरा // 2 प्रत्यगृहं तदास्त्राणि महान्ति विधिवत्प्रभो // 17 तस्मै चाहं यथावृत्तं सर्वमेव न्यवेदयम् / गृहीतास्त्रस्ततो देवैरनुज्ञातोऽस्मि भारत / भगवन्तं महादेवं समेतोऽस्मीति भारत // 3 अथ देवा ययुः सर्वे यथागतमरिंदम // 18 स मामुवाच राजेन्द्र प्रीयमाणो द्विजोत्तमः / मघवानपि देवेशो रथमारुह्य सुप्रभम् / दृष्टस्त्वया महादेवो यथा नान्येन केनचित् // 4 / उवाच भगवान्वाक्यं स्मयन्निव सुरारिहा // 19 समेत्य लोकपालैस्तु सर्वैर्वैवस्वतादिमिः। पुरैवागमनादस्माद्वेदाहं त्वां धनंजय / द्रष्टास्यनघ देवेन्द्रं स च तेऽस्त्राणि दास्यति // 5 / अतः परं त्वहं वै त्वां दर्शये भरतर्षभ // 20 -610 -
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________________ 3. 164. 21] आरण्यकपर्व [3. 164. 47 त्वया हि तीर्थेषु पुरा समाप्लावः कृतोऽसकृत् / संसिद्धस्त्वं महाबाहो कुरु कार्यमनुत्तमम् / / तपश्चेदं पुरा तप्तं स्वर्ग गन्तासि पाण्डव // 21 पश्य पुण्यकृतां लोकान्सशरीरो दिवं व्रज // 33 भूयश्चैव तु तप्तव्यं तपः परमदारुणम् / इत्युक्तोऽहं मातलिना गिरिमामय शैशिरम् / उवाच भगवान्सर्वं तपसश्चोपपादनम् // 22 प्रदक्षिणमुपावृत्य समारोहं रथोत्तमम् // 34 मातलिर्मन्नियोगात्त्वां त्रिदिवं प्रापयिष्यति / चोदयामास स ह्यान्मनोमारुतरंहसः। विदितस्त्वं हि देवानामृषीणां च महात्मनाम् // 23 मातलिईयशास्त्रज्ञो यथावद्भरिदक्षिणः // 35 / ततोऽहमब्रुवं शक्रं प्रसीद भगवन्मम / अवैक्षत च मे वक्त्रं स्थितस्याथ स सारथिः। आचार्य वरये त्वाहमस्त्रार्थ त्रिदशेश्वर // 24 तथा भ्रान्ते रथे राजन्विस्मितश्चेदमब्रवीत् // 36 इन्द्र उवाच। अत्यद्भुतमिदं मेऽद्य विचित्रं प्रतिभाति माम् / क्रूरं कर्मास्त्रवित्तात करिष्यसि परंतप / यदास्थितो रथं दिव्यं पदा न चलितो भवान् // 37 यदर्थमस्राणीप्सुस्त्वं तं कामं पाण्डवाप्नुहि // 25 देवराजोऽपि हि मया नित्यमत्रोपलक्षितः / अर्जुन उवाच / विचलन्प्रथमोत्पाते हयानां भरतर्षभ // 38 ततोऽहमब्रुवं नाहं दिव्यान्यस्त्राणि शत्रुहन् / त्वं पुनः स्थित एवात्र रथे भ्रान्ते कुरूद्वह / मानुषेषु प्रयोक्ष्यामि विनास्त्रप्रतिघातनम् // 26 अतिशक्रमिदं सत्त्वं तवेति प्रतिभाति मे // 39 तानि दिव्यानि मेऽस्त्राणि प्रयच्छ विबुधाधिप / इत्युक्त्वाकाशमाविश्य मातलिविबुधालयान् / . लोकांश्चास्त्रजितान्पश्चाल्लभेयं सुरपुंगव // 27 दर्शयामास मे राजन्विमानानि च भारत // 40 . इन्द्र उवाच / नन्दनादीनि देवानां वनानि बहुलान्युत / परीक्षार्थं मयैतत्ते वाक्यमुक्तं धनंजय / दर्शयामास मे प्रीत्या मातलिः शक्रसारथिः // 41 ममात्मजस्य वचनं सूपपन्नमिदं तव // 28 ततः शक्रस्य भवनमपश्यममरावतीम् / शिक्ष मे भवनं गत्वा सर्वाण्यस्त्राणि भारत / दिव्यैः कामफलैवौ रत्नश्च समलंकृताम् / / 42 वायोरग्नेर्वसुभ्योऽथ वरुणात्समरुद्गणात् // 29 न तां भासयते सूर्यो न शीतोष्णे न च क्लमः / साध्यं पैतामहं चैव गन्धर्वोरंगरक्षसाम् / रजः पङ्को न च तमस्तत्रास्ति न जरा नृप // 43 वैष्णवानि च सर्वाणि नैर्ऋतानि तथैव च / न तत्र शोको दैन्यं वा वैवयं चोपलक्ष्यते / मद्गतानि च यानीह सर्वास्त्राणि कुरूद्वह // 30 दिवौकसां महाराज न च ग्लानिररिंदम // 44 अर्जुन उवाच। न क्रोधलोभी तत्रास्तामशुभं.च विशां पते। एवमुक्त्वा तु मां शकस्तत्रैवान्तरधीयत / नित्यतुष्टाश्च हृष्टाश्च प्राणिनः सुरवेश्मनि // 45 अथापश्यं हरियुजं रथमैन्द्रमुपस्थितम् / नित्यपुष्पफलास्तत्र पादपा हरितच्छदाः। दिव्यं मायामयं पुण्यं यत्तं मातलिना नृप // 31 / पुष्करिण्यश्च विविधाः पद्मसौगन्धिकायुताः // 46 लोकपालेषु यातेषु मामुवाचाथ मातलिः। / शीतस्तत्र ववौ वायुः सुगन्धो जीवनः शुचिः।। द्रष्टुमिच्छति शास्त्वां देवराजो महायुते // 32 / सर्वरत्नविचित्रा च भूमिः पुष्पविभूषिता // 47 : - 611 -
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________________ 3. 164. 48] महाभारते [ 3. 165. 16 मृगद्विजाश्च बहवो रुचिरा मधुरस्वराः / अप्रमेयोऽप्रधृष्यश्च युद्धेष्वप्रतिमस्तथा // 2 विमानयायिनश्चात्र दृश्यन्ते बहवोऽमराः // 48 अथाब्रवीत्पुनर्देवः संप्रहृष्टतनूरुहः / ततोऽपश्यं वसून्रुद्रान्साध्यांश्च समरुद्गणान् / अस्त्रयुद्धे समो वीर न ते कश्चिद्भविष्यति // 3 आदित्यानश्विनौ चैव तान्सर्वान्प्रत्यपूजयम् // 49 | अप्रमत्तः सदा दक्षः सत्यवादी जितेन्द्रियः / ते मां वीर्येण यशसा तेजसा च बलेन च। ब्रह्मण्यश्चास्त्रविच्चासि शूरश्चासि कुरूद्वह // 4 . अस्त्रैश्चाप्यन्वजानन्त संग्रामविजयेन च // 50 अस्त्राणि समवाप्तानि त्वया दश च पश्च च। .. प्रविश्य तां पुरी रम्यां देवगन्धर्वसेविताम् / पश्चभिर्विधिभिः पार्थ न त्वया विद्यते समः॥५ देवराजं सहस्राक्षमुपातिष्ठं कृताञ्जलिः // 51 प्रयोगमुपसंहारमावृत्तिं च धनंजय / ददावर्धासनं प्रीतः शक्रो मे ददतां वरः।। प्रायश्चित्तं च वेत्थ त्वं प्रतिघातं च सर्वशः // 6 बहुमानाच्च गात्राणि पस्पर्श मम वासवः // 52 तव गुर्वर्थकालोऽयमुपपन्नः परंतष / तत्राहं देवगन्धर्वैः सहितो भूरिदक्षिण / प्रतिजानीष्व तं कर्तुमतो वेत्स्याम्यहं परम् // 7 अस्त्रार्थमवसं स्वर्गे कुर्वाणोऽस्त्राणि भारत // 53 ततोऽहमब्रुवं राजन्देवराजमिदं वचः / विश्वावसोश्च मे पुत्रश्चित्रसेनोऽभवत्सखा। विषां चेन्मया कर्तुं कृतमेव निबोध तत् // 8 स च गान्धर्वमखिलं ग्राहयामास मां नृप॥५४ ततो मामब्रवीद्राजन्प्रहस्य बलवृत्रहा। ततोऽहमवसं राजन्गृहीतास्त्रः सुपूजितः / नाविषह्यं तवाद्यास्ति त्रिषु लोकेषु किंचन // 9 सुखं शक्रस्य भवने सर्वकामसमन्वितः // 55 निवातकवचा नाम दानवा मम शत्रवः / / शृण्वन्वै गीतशब्दं च तूर्यशब्दं च पुष्कलम् / समुद्रकुक्षिमाश्रित्य दुर्गे प्रतिवसन्त्युत / / 10 पश्यंश्वाप्सरसः श्रेष्ठा नृत्यमानाः परंतप // 56 तिस्रः कोट्यः समाख्यातास्तुल्यरूपबलप्रभाः / तत्सर्वमनवज्ञाय तथ्यं विज्ञाय भारत / तांस्तत्र जहि कौन्तेय गुर्वर्थस्ते भविष्यति // 11 अत्यर्थं प्रतिगृह्याहमनेष्वेव व्यवस्थितः // 57 ततो मातलिसंयुक्तं मयूरसमरोमभिः / ततोऽतुष्यत्सहस्राक्षस्तेन कामेन मे विभुः।। हयैरुपेतं प्रादान्मे रथं दिव्यं महाप्रभम् / / 12 एवं मे वसतो राजन्नेष कालोऽत्यगादिवि // 58 बबन्ध चैव मे मूर्ध्नि किरीटमिदमुत्तमम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि स्वरूपसदृशं चैव प्रादादङ्गविभूषणम् // 13 चतुःषष्टयधिकशततमोऽध्यायः॥ 164 // अभेद्यं कवचं चेदं स्पर्शरूपवदुत्तमम् / * 165 अजरां ज्यामिमां चापि गाण्डीवे समयोजयत्॥१४ अर्जुन उवाच / ततः प्रायामहं तेन स्यन्दनेन विराजता / कृतास्त्रमभिविश्वस्तमथ मां हरिवाहनः / येनाजयदेवपतिर्बलिं वैरोचनिं पुरा // 15 संस्पृश्य मूर्ध्नि पाणिभ्यामिदं वचनमब्रवीत् // 1 ततो देवाः सर्व एव तेन घोषेण बोधिताः / न त्वमद्य युधा जेतुं शक्यः सुरगणैरपि / मन्वाना देवराजं मां समाजग्मुर्विशां पते / किं पुनर्मानुषे लोके मानुषैरकृतात्मभिः / दृष्ट्वा च मामपृच्छन्त किं करिष्यसि फल्गुन / / 16 - 612
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________________ 3. 165. 17] आरण्यकपर्व [3. 166. 20 तानब्रुवं यथाभूतमिदं कर्तास्मि संयुगे। वायुश्च घूर्णते भीमस्तदद्भुतमिवाभवत् // 5 निवातकवचानां तु प्रस्थितं मां वधैषिणम् / तमतीत्य महावेगं सर्वाम्भोनिधिमुत्तमम् / निबोधत महाभागाः शिवं चाशास्त मेऽनघाः॥१७ अपश्यं दानवाकीर्णं तदैत्यपुरमन्तिकात् // 6 तुष्टुवुमा प्रसन्नास्ते यथा देवं पुरंदरम् / तत्रैव मातलिस्तूर्णं निपत्य पृथिवीतले / रथेनानेन मघवा जितवाञ्झम्बरं युधि / नादयन्रथघोषेण तत्पुरं समुपाद्रवत् // 7 नमुचिं बलवृत्रौ च प्रह्लादनरकावपि // 18 रथघोषं तु तं श्रुत्वा स्तनयित्नोरिवाम्बरे / बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च / मन्वाना देवराजं मां संविग्ना दानवाभवन् // 8 रथेनानेन दैत्यानां जितवान्मघवान्युधि // 19 सर्वे संभ्रान्तमनसः शरचापधराः स्थिताः। त्वमप्येतेन कौन्तेय निवातकवचारणे / तथा शूलासिपरशुगदामुसलपाणयः॥ 9 विजेता युधि विक्रम्य पुरेव मघवान्वशी // 20 ततो द्वाराणि पिदधुर्दानवास्त्रस्तचेतसः। अयं च शङ्खप्रवरो येन जेतासि दानवान् / संविधाय पुरे रक्षां न स्म कश्चन दृश्यते // 10 अनेन विजिता लोकाः शक्रेणापि महात्मना // 21 ततः शङ्खमुपादाय देवदत्तं महास्वनम् / प्रदीयमानं देवैस्तु देवदत्तं जलोद्भवम् / पुरमासुरमाश्लिष्य प्राधमं तं शनैरहम् // 11 / प्रत्यगृहं जयायैनं स्तूयमानस्तदामरैः / / 22 स तु शब्दो दिवं स्तब्ध्वा प्रतिशब्दमजीजनत् / स शङ्खी कवची बाणी प्रगृहीतशरासनः / वित्रेसुश्च निलिल्युश्च भूतानि सुमहान्यपि // 12 दानवालयमत्युग्रं प्रयातोऽस्मि युयुत्सया॥ 23 ततो निवातकवचाः सर्व एव समन्ततः / / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दंशिता विविधैस्त्राणैर्विविधायुधपाणयः / / 13 . __ पञ्चषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 165 // आयसैश्च महाशूलैर्गदाभिर्मुसलैरपि / पट्टिशैः करवालैश्च रथचक्रैश्च भारत // 14 अर्जुन उवाच / शतघ्नीभिर्भुशुण्डीभिः खङ्गैश्चित्रैः स्वलंकृतैः / ततोऽहं स्तूयमानस्तु तत्र तत्र महर्षिभिः / प्रगृहीतैर्दितेः पुत्राः प्रादुरासन्सहस्रशः // 15 अपश्यमुदधिं भीममपांपतिमथाव्ययम् // 1 ततो विचार्य बहुधा रथमार्गेषु तान्हयान / फेनवत्यः प्रकीर्णाश्च संहताश्च समुच्छ्रिताः। प्राचोदयत्समे देशे मातलिर्भरतर्षभ // 16 . ऊर्मयश्चात्र दृश्यन्ते चलन्त इव पर्वताः। तेन तेषां प्रणुन्नानामाशुत्वाच्छीघ्रगामिनाम् / नावः सहस्रशस्तत्र रत्नपूर्णाः समन्ततः // 2 नान्वपश्यं तदा किंचित्तन्मेऽद्भुतमिवाभवत् // 17 तिमिगिलाः कच्छपाश्च तथा तिमितिमिगिलाः। ततस्ते दानवास्तत्र योधवातान्यनेकशः / मकराश्चात्र दृश्यन्ते जले ममा इवाद्रयः // 3 विकृतस्वररूपाणि भृशं सर्वाण्यचोदयन् // 18. शङ्खानां च सहस्राणि मग्नान्यप्सु समन्ततः / तेन शब्देन महता समुद्रे पर्वतोपमाः। दृश्यन्ते स्म यथा रात्रौ तारास्तन्वभ्रसंवृताः॥ 4 आप्लवन्त गतैः सत्त्वैमत्स्याः शतसहस्रशः // 19 तथा सहस्रशस्तत्र रत्नसंघाः प्लवन्त्युत। ततो वेगेन महता दानवा मामुपाद्रवन् / -613 -
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________________ 3. 166. 20 ] महाभारते [ 3. 167. 24 विमुश्चन्तः शितान्बाणाञ्शतशोऽथ सहस्रशः // 20 मम बाणनिपातैश्च हतास्ते शतशोऽसुराः // 9 . स संप्रहारस्तुमुलस्तेषां मम च भारत / गतासवस्तथा चान्ये प्रगृहीतशरासनाः। अवर्तत महाघोरो निवातकवचान्तकः // 21 हतसारथयस्तत्र व्यकृष्यन्त तुरंगमैः // 10 ततो देवर्षयश्चैव दानवर्षिगणाश्च ये। ते दिशो विदिशः सर्वाः प्रतिरुध्य प्रहारिणः / ब्रह्मर्षयश्च सिद्धाश्च समाजग्मुर्महामृधे // 22 निघ्नन्ति विविधैः शस्त्रैस्ततो मे व्यथितं मनः // 11 ते वै मामनुरूपाभिर्मधुराभिर्जयैषिणः / ततोऽहं मातलेर्वीर्यमपश्यं परमाद्भुतम् / अस्तुवन्मुनयो वाग्भिर्यथेन्द्रं तारकामये // 23 अश्वांस्तथा वेगवतो यदयत्नादधारयत् // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततोऽहं लघुभिश्चित्रैरङ्गस्तानसुरारणे / षषष्टयधिकशततमोऽध्यायः // 166 // सायुधानच्छिनं राजशतशोऽथ सहस्रशः॥ 13 167 एवं मे चरतस्तत्र सर्वयत्नेन शत्रुहन् / अर्जुन उवाच / प्रीतिमानभवद्वीरो मातलिः शक्रसारथिः // 14 ततो निवातकवचाः सर्वे वेगेन भारत / वध्यमानास्ततस्ते तु हयैस्तेन रथेन च। अभ्यद्रवन्मा सहिताः प्रगृहीतायुधा रणे // 1 अगमन्प्रक्षयं केचिन्न्यवर्तन्त तथापरे // 15 आच्छिद्य रथपन्थानमुत्क्रोशन्तो महारथाः / स्पर्धमाना इवास्माभिर्निवातकवचा रणे।' आवृत्य सर्वतस्ते मां शरवर्षैरवाकिरन् // 2 शरवषैर्महद्भिर्मा समन्तात्प्रत्यवारयन् // 16 ततोऽपरे महावीर्याः शूलपट्टिशपाणयः। ततोऽहं लघुभिश्चित्रैब्रह्मास्त्रपरिमश्रितैः / शूलानि च भुशुण्डीश्च मुमुचुर्दानवा मयि / / 3 व्यधर्म सायकैराशु शतशोऽथ सहस्रशः // 17 तच्छूलवर्ष सुमहद्गदाशक्तिसमाकुलम् / ततः संपीड्यमानास्ते क्रोधाविष्टा महासुराः / अनिशं सृज्यमानं तैरपतन्मद्रथोपरि // 4 अपीडयन्मां सहिताः शरशूलासिवृष्टिभिः // 18 अन्ये मामभ्यधावन्त निवातकवचा युधि / ततोऽहमस्त्रमातिष्ठं परमं तिग्मतेजसम् / शितशस्त्रायुधा रौद्राः कालरूपाः प्रहारिणः // 5 दयितं देवराजस्य माधवं नाम भारत // 19 तानहं विविधैर्बाणैर्वेगवद्भिरजिह्मगैः / ततः खड्गांत्रिशूलांश्च तोमरांश्च सहस्रशः। गाण्डीवमुक्तैरभ्यन्नमेकैकं दशभिर्मधे। अत्रवीर्येण शतधा तैमुक्तानहमच्छिनम् // 20 ते कृता विमुखाः सर्वे मत्प्रयुक्तैः शिलाशितैः॥६ छित्त्वा प्रहरणान्येषां ततस्तानपि सर्वशः / ततो मातलिना तूर्णं हयास्ते संप्रचोदिताः। प्रत्यविध्यमहं रोषाद्दशभिर्दशभिः शरैः // 21 रथमार्गान्बहूंस्तत्र विचेसर्वातरंहसः / गाण्डीवाद्धि तदा संख्ये यथा भ्रमरपतयः / सुसंयता मातलिना प्रामनन्त दितेः सुतान् // 7 निष्पतन्ति तथा बाणास्तन्मातलिरपूजयत् // 22 शतं शतास्ते हरयस्तस्मिन्युक्ता महारथे। तेषामपि तु बाणास्ते बहुत्वाच्छलभा इव। तदा मातलिना यत्ता व्यचरन्नल्पका इव // 8 अवाकिरन्मां बलवत्तानहं व्यधमं शरैः // 23 तेषां चरणपातेन रथनेमिस्वनेन च / वध्यमानास्ततस्ते तु निवातकवचाः पुनः / -614
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________________ 3. 167. 24] आरण्यकपर्व [3. 168. 24 168 शरवर्षैर्महद्भिर्मा समन्तात्पर्यवारयन् // 24. मुमुचुर्दानवा मायामग्निं वायुं च मानद / / 9 / शरवेगान्निहत्याहमस्त्रैः शरविघातिभिः / ततोऽहमाग्निं व्यधमं सलिलास्त्रेण सर्वशः / ज्वलद्भिः परमैः शीस्तानविध्यं सहस्रशः // 25 शैलेन च महास्त्रेण वायोर्वेगमधारयम् // 10 तेषां छिन्नानि गात्राणि विसृजन्ति स्म शोणितम् / तस्यां प्रतिहतायां तु दानवा युद्धदुर्मदाः / प्रावृषीवातिवृष्टानि शृङ्गाणीव धराभृताम् // 26 प्राकुर्वन्विविधा माया यौगपद्येन भारत // 11 इन्द्राशनिसमस्पशैर्वेगवद्भिरजिह्मगैः / ततो वर्ष प्रादुरभूत्सुमहल्लोमहर्षणम् / मद्वाणैर्वध्यमानास्ते समुद्विग्नाः स्म दानवाः // 27 अस्त्राणां घोररूपाणामग्नेयोस्तथाश्मनाम् / / 12 शतधा भिन्नदेहात्राः क्षीणप्रहरणौजसः / सा तु मायामयी वृष्टिः पीडयामास मां युधि / ततो निवातकवचा मामयुध्यन्त मायया.॥ 28 अथ घोरं तमस्तीव्र प्रादुरासीत्समन्ततः // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तमसा संवृते लोके घोरेण परुषेण च / सप्तषष्टयधिकशततमोऽध्यायः॥१६७॥ तुरगा विमुखाश्चासन्प्रास्खलच्चापि मातलिः // 14 हस्ताद्धिरण्मयश्चास्य प्रतोदः प्रापतद्भुवि / अर्जुन उवाच। असकृच्चाह मां भीतः क्कासीति भरतर्षभ // 15 ततोऽश्मवर्ष सुमहत्प्रादुरासीत्समन्ततः / मां च भीराविशत्तीव्रा तस्मिन्विगतचेतसि / मंगमात्रैर्महाघोरै स्तन्मां दृढमपीडयत् // 1 स च मां विगतज्ञानः संत्रस्त इदमब्रवीत् // 16 तदहं वज्रसंकाशैः शरैरिन्द्रास्त्रचोदितैः / सुराणामसुराणां च संग्रामः सुमहानभूत् / अचूर्णयं वेगवद्भिः शतधैकैकमाहवे॥२ अमृतार्थे पुरा पार्थ स च दृष्टो मयानघ // 17 चूर्ण्यमानेऽश्मवर्षे तु पावकः समजायत / शम्बरस्य वधे चापि संग्रामः सुमहानभूत् / तत्राश्मचूर्णमपतत्पावकप्रकरा इव // 3 सारथ्यं देवराजस्य तत्रापि कृतवानहम् // 18 ततोऽश्मवर्षे निहते जलवर्ष महत्तरम् / तथैव वृत्रस्य वधे संगृहीता हया मया। धाराभिरक्षमात्राभिः प्रादुरासीन्ममान्तिके / / 4 / / वैरोचनेर्मया युद्धं दृष्टं चापि सुदारुणम् // 19 नभसः प्रच्युता धारास्तिग्मवीर्याः सहस्रशः / एते मया महाघोराः संग्रामाः पर्युपासिताः / आवृण्वन्सर्वतो व्योम दिशश्चोपदिशस्तथा // 5 न चापि विगतज्ञानो भूतपूर्वोऽस्मि पाण्डव // 20 धाराणां च निपातेन वायोर्विस्फर्जितेन च। पितामहेन संहारः प्रजानां विहितो ध्रुवम् / गर्जितेन च दैत्यानां न प्राज्ञायत किंचन / / 6 न हि युद्धमिदं युक्तमन्यत्र जगतः क्षयात् // 21 धारा दिवि च संबद्धा वसुधायां च सर्वशः।। तस्य तद्वचनं श्रुत्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना / व्यामोहयन्त मां तत्र निपतन्त्योऽनिशं भुवि // 7 मोहयिष्यन्दानवानामहं मायामयं बलम् // 22 तत्रोपदिष्टमिन्द्रेण दिव्यमस्त्रं विशोषणम् / अब्रुवं मातलिं भीतं पश्य मे भुजयोर्बलम् / दीप्तं प्राहिणवं घोरमशुष्यत्तेन तज्जलम् // 8 / अस्त्राणां च प्रभाव मे धनुषो गाण्डिवस्य च // 23 हतेऽश्मवर्षे तु मया जलवर्षे च शोषिते / अद्यास्त्रमाययैतेषां मायामेतां सुदारुणाम् / -615
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________________ 3. 168. 24 ] महाभारते [ 3. 169. 22 विनिहन्मि तमश्चोयं मा भैः सूत स्थिरो भव // 24 / अदृश्या ह्मभ्यवर्तन्त विसृजन्तः शिलोच्चयान् // 7 एवमुक्त्वाहमसजमस्त्रमायां नराधिप / अन्तर्भूमिगताश्चान्ये हयानां चरणान्यथ / मोहनी सर्वशत्रूणां हिताय त्रिदिवौकसाम् // 25 न्यगृहन्दानवा घोरा रथचक्रे च भारत // 8 पीड्यमानासु मायासु तासु तास्वसुरेश्वराः / विनिगृह्य हरीनश्वारथं च मम युध्यतः / पुनर्बहुविधा मायाः प्राकुर्वन्नमितौजसः // 26 सर्वतो मामचिन्वन्त सरथं धरणीधरैः // 9 . पुनः प्रकाशमभवत्तमसा प्रस्यते पुनः। पर्वतैरुपचीयद्भिः पतमानैस्तथापरैः। . व्रजत्यदर्शनं लोकः पुनरप्सु निमज्जति // 27 स देशो यत्र वर्ताम गुहेव समपद्यत / / 10 सुसंगृहीतैर्हरिभिः प्रकाशे सति मातलिः / पर्वतेश्छाद्यमानोऽहं निगृहीतैश्च वाजिभिः / व्यचरत्स्यन्दनाग्र्येण संग्रामे लोमहर्षणे // 28 अगच्छं परमामातिँ मातलिस्तदलक्षयत् // 11 ततः पर्यपतन्नुमा निवातकवचा मयि। लक्षयित्वा तु मां भीतमिदं वचनमब्रवीत् / . तानहं विवरं दृष्ट्वा प्राहिण्वं यमसादनम् // 29 अर्जुनार्जुन मा भैस्त्वं वनमनमुदीरय // 12 वर्तमाने तथा युद्धे निवातकवचान्तके / ततोऽहं तस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा वनमुदीरयम् / नापश्यं सहसा सर्वान्दानवान्माययावृतान् // 30 देवराजस्य दयितं वज्रमस्रं नराधिप // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अचलं स्थानमासाद्य गाण्डीवमनुमन्य च / अष्टषष्टयधिकशततमोऽध्यायः॥१६८॥ अमुञ्चं वनसंस्पर्शानायसान्निशिताशरान् // 14 ततो मायाश्च ताः सर्वा निवातकवांश्च तान् / अर्जुन उवाच / ते वचोदिता बाणा वज्रभूताः समाविशन् // 15 अदृश्यमानास्ते दैत्या योधयन्ति स्म मायया / ते वनवेगाभिहता दानवाः पर्वतोपमाः / अदृश्यानत्रवीर्येण तानप्यहमयोधयम् // 1 इतरेतरमाश्लिष्य न्यपतन्पृथिवीतले // 16 गाण्डीवमुक्ता विशिखाः सम्यगस्त्रप्रचोदिताः। अन्तर्भूमौ तु येऽगृहन्दानवा रथवाजिनः / अच्छिन्दन्नुत्तमाङ्गानि यत्र यत्र स्म तेऽभवन् // 2 अनुप्रविश्य तान्बाणाः प्राहिण्वन्यमसादनम् / / 17 ततो निवातकवचा वध्यमाना मया युधि / हतैर्निवातकवचैर्निरस्तैः पर्वतोपमैः / संहृत्य मायां सहसा प्राविशन्पुरमात्मनः // 3 समाच्छाद्यत देशः स विकीर्णैरिव पर्वतैः॥ 18 व्यपयातेषु दैत्येषु प्रादुर्भूते च दर्शने / न हयानां क्षतिः काचिन्न रथस्य न मातलेः / अपश्यं दानवांस्तत्र हताशतसहस्रशः // 4 मम चादृश्यत तदा तदद्भुतमिवाभवत् / / 19 विनिष्पिष्टानि तत्रैषां शस्राण्याभरणानि च / / ततो मां प्रहसनराजन्मातलिः प्रत्यभाषत / कूटशः स्म प्रदृश्यन्ते गात्राणि कवचानि च // 5 / नैतदर्जुन देवेषु त्वयि वीर्य यदीक्ष्यते // 20 हयानां नान्तरं ह्यासीत्पदाद्विचलितुं पदम् / हतेष्वसुरसंघेषु दारास्तेषां तु सर्वशः / उत्पत्य सहसा तस्थुरन्तरिक्षगमास्ततः // 6 प्राक्रोशन्नगरे तस्मिन्यथा शरदि लक्ष्मणाः / / 21 ततो निवातकवचा व्योम संछाद्य केवलम् / / ततो मातलिना सार्धमहं तत्पुरमभ्ययाम् / - 616 -
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________________ 3. 169. 22 ] आरण्यकपर्व [3. 170. 10 त्रासयन्रथघोषेण निवातकवचस्त्रियः // 22 पुनर्मातलिना सार्धमगच्छं देवसद्म तत् // 35 तान्दृष्ट्वा दशसाहस्रान्मयूरसदृशान्हयान् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 169 // रथं च रविसंकाशं प्राद्रवन्गणशः स्त्रियः // 23 ताभिराभरणैः शब्दत्रासिताभिः समीरितः / 170 शिलानामिव शैलेषु पतन्तीनामभूत्तदा // 24 अर्जुन उवाच। वित्रस्ता दैत्यनार्यस्ताः स्वानि वेश्मान्यथाविशन् / निवर्तमानेन मया महदृष्टं ततोऽपरम् / बहुरत्नविचित्राणि शातकुम्भमयानि च // 25 पुरं कामचरं दिव्यं पावकार्कसमप्रभम् // 1 द्रुमै रत्नमयैश्चित्रैर्भास्वरैश्च पतत्रिभिः / तदद्भुताकारमहं दृष्ट्वा नगरमुत्तमम् / पौलोमैः कालकेयैश्च नित्यहृष्टैरधिष्ठितम् // 2 विशिष्टं देवनगरादपृच्छं मातलिं ततः // 26 गोपुराट्टालकोपेतं चतुरिं दुरासदम् / इदमेवंविधं कस्माद्देवता नाविशन्त्युत / सर्वरत्नमयं दिव्यमद्भुतोपमदर्शनम् / पुरंदरपुराद्धीदं विशिष्टमिति लक्षये // 27 द्रुमैः पुष्पफलोपेतैर्दिव्यरत्नमयैर्वृतम् // 3 मातलिरुवाच / तथा पतत्रिभिर्दिव्यैरुपेतं सुमनोहरैः / आसीदिदं पुरा पार्थ देवराजस्य नः पुरम् / असुरैर्नित्यमुदितैः शूलर्टिमुसलायुधैः / ततो निवातकवचैरितः प्रच्याविताः सुराः // 28 चापमुद्गरहस्तैश्च स्रग्विभिः सर्वतो वृतम् // 4 तपस्तत्वा महत्तीव्र प्रसाद्य च पितामहम् / तदहं प्रेक्ष्य दैत्यानां पुरमद्भुतदर्शनम् / इदं वृतं निवासाय देवेभ्यश्चाभयं युधि // 29 अपृच्छं मातलिं राजन्किमिदं दृश्यतेति वै // 5 ततः शक्रेण भगवान्स्वयंभूरभिचोदितः / मातलिरुवाच / विधत्तां भगवानāत्यात्मनो हितकाम्यया // 30 / पुलोमा नाम दैतेयी कालका च महासुरी। . तत उक्तो भगवता दिष्टमत्रेति वासवः / दिव्यं वर्षसहस्रं ते चेरतुः परमं तपः / भवितान्तस्त्वमेवैषां देहेनान्येन वृत्रहन् // 31 तपसोऽन्ते ततस्ताभ्यां स्वयंभूरददाद्वरम् // 6 ततः एषां वधार्थाय शक्रोऽस्राणि ददौ तव / अगृहीतां वरं ते तु सुतानामल्पदुःखताम् / न हि शक्याः सुरैर्हन्तुं य एते निहतास्त्वया // 32 अवध्यतां च राजेन्द्र सुरराक्षसपन्नगैः // 7 रमणीयं पुरं चेदं खचरं सुकृतप्रभम् / कालस्य परिणामेन ततस्त्वमिह भारत / सर्वरत्नैः समुदितं दुर्धर्षममरैरपि / एषामन्तकरः प्राप्तस्तत्त्वया च कृतं तथा // 33 सयक्षगन्धर्वगणैः पन्नगासुरराक्षसः // 8 दानवानां विनाशार्थं महास्त्राणां महद्बलम् / सर्वकामगुणोपेतं वीतशोकमनामयम् / प्राहितस्त्वं महेन्द्रेण पुरुषेन्द्र तदुत्तमम् // 34 ब्रह्मणा भरतश्रेष्ठ कालकेयकृते कृतम् // 9 . अर्जुन उवाच / तदेतत्खचरं दिव्यं चरत्यमरवर्जितम् / ततः प्रविश्य नगरं दानवांश्च निहत्य तान् / पौलोमाध्युषितं वीर कालकेयैश्च दानवैः // 10 म. भा. 78 -817 -
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________________ 8. 170. 11] महाभारते [ 3. 170. 39 हिरण्यपुरमित्येतत्ख्यायते नगरं महत् / अमरावतिसंकाशं पुरं कामगमं तु तत् / रक्षितं कालकेयैश्च पौलोमैश्च महासुरैः // 11 अहमस्त्रैर्बहुविधैः प्रत्यगृहं नराधिप // 25 त एते मुदिता नित्यमवध्याः सर्वदैवतैः।। ततोऽहं शरजालेन दिव्यास्त्रमुदितेन च / निवसन्त्यत्र राजेन्द्र गतोद्वेगा निरुत्सुकाः / न्यगृहं सह दैतेयैस्तत्पुरं भरतर्षभ / / 26 मानुषो मृत्युरेतेषां निर्दिष्टो ब्रह्मणा पुरा // 12 विक्षतं चायसैर्बाणैर्मत्प्रयुक्तैरजिह्मगैः / अर्जुन उवाच। महीमभ्यपतद्राजन्प्रभग्नं पुरमासुरम् // 27. सुरासुरैरवध्यांस्तानहं ज्ञात्वा ततः प्रभो। ते वध्यमाना मद्वाणैर्वनवेगैरयस्मयैः / अब्रुवं मातलिं हृष्टो याह्येतत्पुरमञ्जसा // 13 पर्यभ्रमन्त वै राजन्नसुराः कालचोदिताः // 28 त्रिदशेशद्विषो यावत्क्षयमस्त्रैर्नयाम्यहम् / ततो मातलिरप्याशु पुरस्तानिपतन्निव / न कथंचिद्धि मे पापा न वध्या ये सुरद्विषः // 14 महीमवातरत्क्षिप्रं रथेनादित्यवर्चसा // 29. उवाह मां ततः शीघ्रं हिरण्यपुरमन्तिकात् / ततो रथसहस्राणि षष्टिस्तेषाममर्षिणाम् / रथेन तेन दिव्येन हरियुक्तेन मातलिः // 15 युयुत्सूनां मया साधं पर्यवर्तन्त भारत // 30 ते मामालक्ष्य दैतेया विचित्राभरणाम्बराः। तानहं निशितैर्बाणैर्व्यधमं गार्धवाजितैः / समुत्पेतुर्महावेगा रथानास्थाय दंशिताः // 16 . ते युद्धे संन्यवर्तन्त समुद्रस्य यथोर्मयः // 31 / ' ततो नालीकनाराचैर्भल्लशक्त्यष्टितोमरैः / नेमे शक्या मानुषेण युद्धेनेति प्रचिन्त्य वै / / अभ्यनन्दानवेन्द्रा मां क्रुद्धास्तीव्रपराक्रमाः // 17 ततोऽहमानुपूर्येण सर्वाण्यत्राण्ययोजयम् // 32 तदहं चास्त्रवर्षेण महता प्रत्यवारयम् / ततस्तानि सहस्राणि रथानां चित्रयोधिनाम् / शस्त्रवर्ष महद्राजन्विद्याबलमुपाश्रितः // 18 अस्त्राणि मम दिव्यानि प्रत्यनशनकैरिव // 33 व्यामोहयं च तान्सर्वान्रथमार्गेश्वररणे / रथमार्गान्विचित्रांस्ते विचरन्तो महारथाः / तेऽन्योन्यमभिसंमूढाः पातयन्ति स्म दानवाः // 19 प्रत्यदृश्यन्त संग्रामे शतशोऽथ सहस्रशः // 34 तेषामहं विमूढानामन्योन्यमभिधावताम् / विचित्रमुकुटापीडा विचित्रकवचध्वजाः। शिरांसि विशिखैर्दीप्तैर्व्यहरं शतसंघशः // 20 विचित्राभरणाश्चैव नन्दयन्तीव मे मनः // 35 . ते वध्यमाना दैतेयाः पुरमास्थाय तत्पुनः / अहं तु शरवर्षेस्तानस्त्रप्रमुदितै रणे / खमुत्पेतुः सनगरा मायामास्थाय दानवीम् // 21 नाशक्नुवं पीडयितुं ते तु मां पर्यपीडयन् // 36 ततोऽहं शरवर्षेण महता प्रत्यवारयम् / तैः पीड्यमानो बहुभिः कृताखैः कुशलैयुधि / मार्गमावृत्य दैत्यानां गतिं चैषामवारयम् // 22 व्यथितोऽस्मि महायुद्धे भयं चागान्महन्मम // 37 तत्पुरं खचरं दिव्यं कामगं दिव्यवर्चसम् / ततोऽहं देवदेवाय रुद्राय प्रणतो रणे / दैतेयैर्वरदानेन धार्यते स्म यथासुखम् // 23 स्वस्ति भूतेभ्य इत्युक्त्वा महास्त्रं समयोजयम् / अन्तभूमौ निपतितं पुनरूचं प्रतिष्ठते / यत्तद्रौद्रमिति ख्यातं सर्वामित्रविनाशनम् // 38 पुनस्तिर्यक्प्रयात्याशु पुनरप्सु निमज्जति // 24 / ततोऽपश्यं त्रिशिरसं पुरुषं नवलोचनम् / - 618 -
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________________ 8. 170. 39 ] आरण्यकपर्व [3. 170. 66 त्रिमुखं षड्भुजं दीप्तमर्कज्वलनमूर्धजम् / तदसह्यं कृतं कर्म देवैरपि दुरासदम् / . लेलिहानैर्महानागैः कृतशीर्षममित्रहन् // 39 दृष्ट्वा मां पूजयामास मातलिः शक्रसारथिः / / 52 विभीस्ततस्तदत्रं तु घोरं रौद्रं सनातनम् / उवाच चेदं वचनं प्रीयमाणः कृताञ्जलिः। .. दृष्ट्वा गाण्डीवसंयोगमानीय भरतर्षभ // 40 सुरासुरैरसह्यं हि कर्म यत्साधितं त्वया / नमस्कृत्वा त्रिनेत्राय शर्वायामिततेजसे। न ह्येतत्संयुगे कर्तुमपि शक्तः सुरेश्वरः // 53 . मुक्तवान्दानवेन्द्राणां पराभावाय भारत // 41 सुरासुरैरवध्यं हि पुरमेतत्खगं महत् / मुक्तमात्रे ततस्तस्मिन्रूपाण्यासन्सहस्रशः / त्वया विमथितं वीर स्ववीर्यास्त्रतपोबलात् / / 54 सृगाणामथ सिंहानां व्याघ्राणां च विशां पते। विध्वस्तेऽथ पुरे तस्मिन्दानवेषु हतेषु च / ऋक्षाणां महिषाणां च पन्नगानां तथा गवाम्॥४२ विनदन्त्यः स्त्रियः सर्वा निष्पेतुर्नगराबहिः॥ 55 गजानां सृमराणां च शरभाणां च सर्वशः / . प्रकीर्णकेश्यो व्यथिताः कुरर्य इव दुःखिताः / ऋषभाणां वराहाणां मार्जाराणां तथैव च / पेतुः पुत्रान्पितृन्भ्रातृशोचमाना महीतले // 56 शालावृकाणां प्रेतानां भुरुण्डानां च सर्वशः // 43 रुदन्त्यो दीनकण्ठ्यस्ता विनदन्त्यो हतेश्वराः। गृध्राणां गरुडानां च मकराणां तथैव च / उरांसि पाणिभिनन्त्यः प्रसस्तस्रग्विभूषणाः // 57 पिशाचानां सयक्षाणां तथैव च सुरद्विषाम् // 44 तच्छोकयुक्तमश्रीकं दुःखदैन्यसमाहतम् / गुह्यकानां च संग्रामे नैर्ऋतानां तथैव च / न बभौ दानवपुरं हतत्विट्कं हतेश्वरम् / / 58 ; झषाणां गजवक्त्राणामुलूकानां तथैव च // 45 गन्धर्वनगराकारं हतनागमिव ह्रदम्। .. मीनकूर्मसमूहानां नानाशस्त्रासिपाणिनाम् / शुष्कवृक्षमिवारण्यमदृश्यमभवत्पुरम् // 59 तथैव यातुधानानां गदामुद्रधारिणाम् // 46 मां तु संहृष्टमनसं क्षिप्रं मातलिरानयत् / / एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्नानारूपधरैस्तथा। देवराजस्य भवनं कृतकर्माणमाहवात् // 60 .. सर्वमासीजगद्वयाप्तं तस्मिन्नस्त्रे विसर्जिते / / 47 हिरण्यपुरमारुज्य निहत्य च महासुरान् / त्रिशिरोभिश्चतुर्दष्ट्रैश्चतुरास्यैश्चतुर्भुजैः / निवातकवचांश्चैव ततोऽहं शक्रमागमम् // 61 : अनेकरूपसंयुक्तैर्मीसमेदोवसाशिभिः / मम कर्म च देवेन्द्रं मातलिविस्तरेण तत् / / अभीक्ष्णं वध्यमानास्ते दानवा ये समागताः // 48 सर्वं विश्रावयामास यथाभूतं महाद्युते / / 62 अर्कज्वलनतेजोभिर्वघ्राशनिसमप्रभैः / हिरण्यपुरघातं च मायानां च निवारणम् / अद्रिसारमयैश्चान्यैर्बाणैररिविदारणैः / निवातकवचानां च वधं संख्ये महौजसाम् // 63 न्यहनं दानवान्सर्वान्मुहूर्तेनैव भारत // 49 तच्छ्रुत्वा भगवान्प्रीतः सहस्राक्षः पुरंदरः। गाण्डीवास्त्रप्रणुन्नांस्तान्गतासून्नभसभ्युतान् / मरुद्भिः सहितः श्रीमान्साधु साध्वित्यथाब्रवीत्॥६४ दृष्ट्वाहं प्राणमं भूयस्त्रिपुरनाय वेधसे // 50 ततो मां देवराजो वै समाश्वास्य पुनः पुनः / .' तथा रौद्रास्त्रनिष्पिष्टान्दिव्याभरणभूषितान् / अब्रवीद्विबुधैः सार्धमिदं सुमधुरं वचः // 65 निशाम्य परमं हर्षमगमद्देवसारथिः // 51 अतिदेवासुरं कर्म कृतमेतत्त्वया रणे। / - 619 -
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________________ 8. 170. 66 ] महाभारते [ 8. 172.4 गुर्वर्थश्च महान्पार्थ कृतः शत्रून्नता मम // 66 गन्धमादनमासाद्य पर्वतस्यास्य मूर्धनि // 10 एवमेव सदा भाव्यं स्थिरेणाजौ धनंजय / युधिष्ठिर उवाच / असंमूढेन चास्त्राणां कर्तव्यं प्रतिपादनम् // 67 दिष्टया धनंजयास्त्राणि त्वया प्राप्तानि भारत। अविषह्यो रणे हि त्वं देवदानवराक्षसैः / दिष्टया चाराधितो राजा देवानामीश्वरः प्रभुः // 11 सयक्षासुरगन्धर्वैः सपक्षिगणपन्नगैः // 68 दिष्टया च भगवान्स्थाणुर्देव्या सह परंतप / " वसुधां चापि कौन्तेय त्वद्वाहुबलनिर्जिताम् / साक्षादृष्टः सुयुद्धेन तोषितश्च त्वयानघ / 12 . पालयिष्यति धर्मात्मा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः // 69 दिष्टया च लोकपालैस्त्वं समेतो भरतर्षभ / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दिष्टया वर्धामहे सर्वे दिष्ट्यासि पुनरागतः // 13 सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 170 // अद्य कृत्स्नामिमां देवीं विजितां पुरमालिनीम् / 171 . मन्ये च धृतराष्ट्रस्य पुत्रानपि वशीकृतान् // 14 अर्जुन उवाच / तानि त्विच्छामि ते द्रष्टुं दिव्यान्यस्त्राणि भारत / ततो मामभिविश्वस्तं संरूढशरविक्षतम् / यैस्तथा वीर्यवन्तस्ते निवातकवचा हताः // 15 देवराजोऽनुगृह्येदं काले वचनमब्रवीत् // 1 अर्जुन उवाच / दिव्यान्यस्त्राणि सर्वाणि त्वयि तिष्ठन्ति भारत। श्वः प्रभाते भवान्द्रष्टा दिव्यान्यस्त्राणि सर्वशः / न स्वाभिभवितुं शक्तो मानुषो भुवि कश्चन // 2 निवातकवचा घोरा यैर्मया विनिपातिताः // 16 भीष्मो द्रोणः कृपः कर्णः शकुनिः सह राजभिः / वैशंपायन उवाच। संग्रामस्थस्य ते पुत्र कलां नार्हन्ति षोडशीम् // 3 एवमागमनं तत्र कथयित्वा धनंजयः / इदं च मे तनुत्राणं प्रायच्छन्मघवान्प्रभुः। भ्रातृभिः सहितः सर्वं रजनी तामुवास ह // 17 अभेद्यं कवचं दिव्यं स्रजं चैव हिरण्मयीम् // 4 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि देवदत्तं च मे शङ्ख देवः प्रादान्महारवम् / एकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 171 // दिव्यं चेदं किरीटं मे स्वयमिन्द्रो युयोज ह // 5 172 ततो दिव्यानि वस्त्राणि दिव्यान्याभरणानि च / वैशंपायन उवाच। प्रादाच्छको ममैतानि रुचिराणि बृहन्ति च // 6 तस्यां रजन्यां व्युष्टायां धर्मराजो युधिष्ठिरः / एवं संपूजितस्तत्र सुखमस्म्युषितो नृप / उत्थायावश्यकार्याणि कृतवान्भ्रातृभिः सह // 1 इन्द्रस्य भवने पुण्ये गन्धर्वशिशुभिः सह // 7 ततः संचोदयामास सोऽर्जुनं भ्रातृनन्दनम् / ततो मामब्रवीच्छक्रः प्रीतिमानमरैः सह / दर्शयास्त्राणि कौन्तेय यैर्जिता दानवास्त्वया // 2 समयोऽर्जुन गन्तुं ते भ्रातरो हि स्मरन्ति ते // 8 ततो धनंजयो राजन्देवैर्दत्तानि पाण्डवः / एवमिन्द्रस्य भवने पञ्च वर्षाणि भारत / अस्त्राणि तानि दिव्यानि दर्शयामास भारत // 3 उषितानि मया राजन्स्मरता द्यूतजं कलिम् // 9 / यथान्यायं महातेजाः शौचं परममास्थितः / ततो भवन्तमद्राक्षं भ्रातृभिः परिवारितम् / | गिरिकूबरं पादपाङ्गं शुभवेणु त्रिवेणुकम् / -620 -
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________________ 8. 172.4] आरण्यकपर्व [ 3. 178.2 पार्थिवं रथमास्थाय शोभमानो धनंजयः // 4 प्रयोगे सुमहान्दोषो ह्यस्त्राणां कुरुनन्दन // 19 ततः सुदंशितस्तेन कवचेन सुवर्चसा। एतानि रक्ष्यमाणानि धनंजय यथागमम् / / धनुरादाय गाण्डीवं देवदत्तं च वारिजम् // 5 बलवन्ति सुखार्हाणि भविष्यन्ति न संशयः // 20 शोशुभ्यमानः कौन्तेय आनुपूर्व्यान्महाभुजः / अरक्ष्यमाणान्येतानि त्रैलोक्यस्यापि पाण्डव / अस्त्राणि तानि दिव्यानि दर्शनायोपचक्रमे // 6 भवन्ति स्म विनाशाय मैवं भूयः कृथाः कचित्॥२१ अथ प्रयोक्ष्यमाणेन दिव्यान्यस्त्राणि तेन वै। अजातशत्रो त्वं चैव द्रक्ष्यसे तानि संयुगे। समाक्रान्ता मही पद्भ्यां समकम्पत सद्रुमा॥७ योज्यमानानि पार्थेन द्विषतामवमर्दने // 22 क्षुभिताः सरितश्चैव तथैव च महोदधिः। निवार्याथ ततः पार्थं सर्वे देवा यथागतम् / शैलाश्चापि व्यशीर्यन्त न ववौ च समीरणः // 8 जग्मुरन्ये च ये तत्र समाजग्मुर्नरर्षभ // 23 न बभासे सहस्रांशुनै जज्वाल च पावकः / तेषु सर्वेषु कौरव्य प्रतियातेषु पाण्डवाः / न वेदाः प्रतिभान्ति स्म द्विजातीनां कथंचन // 9 तस्मिन्नेव वने हृष्टास्त ऊषुः सह कृष्णया // 24 अन्तर्भमिगता ये च प्राणिनो जनमेजय।। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि पीड्यमानाः समुत्थाय पाण्डवं पर्यवारयन् // 10 द्विसप्तत्यधिकशततमोध्यायः॥ 172 // वेपमानाः प्राञ्जलयस्ते सर्वे पिहिताननाः / / समाप्तं यक्षयुद्धपर्व // दह्यमानास्तदास्पैस्तैर्याचन्ति स्म धनंजयम् // 11 173 ततो ब्रह्मर्षयश्चैव सिद्धाश्चैव सुरर्षयः / ___जनमेजय उवाच / जङ्गमानि च भूतानि सर्वाण्येवावतस्थिरे // 12 तस्मिन्कृतास्त्रे रथिनां प्रधाने राजर्षयश्च प्रवरास्तथैव च दिवौकसः।। प्रत्यागते भवनाद्वृत्रहन्तुः। यक्षराक्षसगन्धर्वास्तथैव च पतत्रिणः // 13 अतः परं किमकुर्वन्त पार्थाः ततः पितामहश्चैव लोकपालाश्च सर्वशः / समेत्य शूरेण धनंजयेन // 1 भगवांश्च महादेवः सगणोऽभ्याययौ तदा // 14 . वैशंपायन उवाच / ततो वायुमहाराज दिव्यैर्माल्यैः सुगन्धिभिः / वनेषु तेष्वेव तु ते नरेन्द्राः अभितः पाण्डवांश्चित्रैरवचक्रे समन्ततः // 15 * सहार्जुनेनेन्द्रसमेन वीराः। जगुश्च गाथा विविधा गन्धर्वाः सुरचोदिताः / तस्मिंश्च शैलप्रवरे सुरम्ये ननूतुः संघशश्चैव राजन्नप्सरसां गणाः // 16 धनेश्वराक्रीडगता विजगुः // 2 . तस्मिंस्तु तुमुले काले नारदः सुरचोदितः / / वेश्मानि तान्यप्रतिमानि पश्यआगम्याह वचः पार्थं श्रवणीयमिदं नृप // 17 क्रीडाश्च नानाद्रुमसंनिकर्षाः। अर्जुनार्जुन मा युझ्व दिव्यान्यस्त्राणि भारत / चचार धन्वी बहुधा नरेन्द्रः नैतानि निरधिष्ठाने प्रयुज्यन्ते कदाचन // 18 / सोऽस्त्रेषु यत्तः सततं किरीटी // 3 अधिष्ठाने न वानातः प्रयुञ्जीत कदाचन / अवाप्य वासं नरदेवपुत्राः - 621 -
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________________ 8. 173. 4] महाभारते [ 3. 173. 18 प्रसादजं वैश्रवणस्य राज्ञः / .. शक्यो विहन्तुं नरदेव शोकः // 11 न प्राणिनां ते स्पृहयन्ति राज कीर्तिश्च ते भारत पुण्यगन्धा , शिवश्च कालः स बभूव तेषाम् // 4 . .. नश्येत लोकेषु चराचरेषु / समेत्य पार्थेन यथैकरात्र तत्प्राप्य राज्यं कुरुपुंगवानां ... मूषुः समास्तत्र तदा चतस्रः / शक्यं महत्प्राप्तुमथ क्रियाश्च // 12 पूर्वाश्च षट् ता दश पाण्डवानां इदं तु शक्यं सततं नरेन्द्र शिवा बभूवुर्वसतां वनेषु // 5 ... ___प्राप्तुं त्वया यल्लभसे कुबेरात् / ततोऽब्रवीद्वायुसुतस्तरस्वी कुरुष्व बुद्धिं द्विषतां वधाय - जिष्णुश्च राजानमुपोपविश्य। कृतागसां भारत निग्रहे च // 13 यमौ च वीरौ सुरराजकल्पा तेजस्तवोग्रं न सहेत राज- वेकान्तमास्थाय हितं प्रियं च // 6 : समेत्य साक्षादपि वज्रपाणिः / तव प्रतिज्ञां कुरुराज सत्यां . न हि व्यथां जातु करिष्यतस्तौ . चिकीर्षमाणास्त्वदनु प्रियं च। . समेत्य देवैरपि धर्मराज // 14 ततोऽनुगच्छाम वनान्यपास्य . त्वदर्थसिद्ध्यर्थमभिप्रवृत्ती सुयोधनं सानुचरं निहन्तुम् // 7 सुपर्णकेतुश्च शिनेश्च नप्ता। एकादशं वर्षमिदं वसामः यथैव कृष्णोऽप्रतिमो बलेन सुयोधनेनात्तसुखाः सुखार्हाः। - तथैव राजन्स शिनिप्रवीरः // 15 तं वश्चयित्वाधमबुद्धिशील तवार्थसिद्ध्यर्थमभिप्रवृत्तौ मज्ञातवासं सुखमाप्नुयामः // 8 .. यथैव कृष्णः सह यादवैस्तैः / तवाज्ञया पार्थिव निर्विशङ्का : तथैव चावां नरदेववर्य विहाय मानं विचरन्वनानि / - यमौ च वीरौ कृतिनौ प्रयोगे। समीपवासेन विलोभितास्ते त्वदर्थयोगप्रभवप्रधानाः ज्ञास्यन्ति नास्मानपकृष्टदेशान् // 9 . समं करिष्याम परान्समेत्य // 16 संवत्सरं तं तु विहृत्य गूढं ततस्तदाज्ञाय मतं महात्मा नराधमं तं सुखमुद्धरेम। तेषां स धर्मस्य सुतो वरिष्ठः / निर्यात्य वैरं सफलं सपुष्पं प्रदक्षिणं वैश्रवणाधिवासं तस्मै नरेन्द्राधमपूरुषाय // 10 __ चकार धर्मार्थविदुत्तमोजाः // 17 सुयोधनायानुचरैर्वृताय आमय वेश्मानि नदीः सरांसि - ततो महीमाहर धर्मराज / . सर्वाणि रक्षांसि च धर्मराजः। स्वर्गापमं शैलमिमं चरद्भिः यथागतं मार्गमवेक्षमाणः - 622 -
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________________ 8. 173. 18 ] आरम्यकपर्व [ 3. 174. 10 पुनर्गिरिं चैव निरीक्षमाणः // 18 गोष्ठानिगरीणां गिरिसेतुमालाः / समाप्तकर्मा सहितः सुहृद्भि बहून्प्रपातांश्च समीक्ष्य वीराः जित्वा सपत्नान्प्रतिलभ्य राज्यम् / स्थलानि निम्नानि च तत्र तत्र // 3 शैलेन्द्र भूयस्तपसे धृतात्मा तथैव चान्यानि महावनानि द्रष्टा तवास्मीति मतिं चकार // 19 मृगद्विजानेकपसेवितानि / वृतः स सर्वैरनुर्द्विजैश्च आलोकयन्तोऽभिययुः प्रतीता___ तेनैव मार्गेण पतिः कुरूणाम् / स्ते. धन्विनः खङ्गधरा नराग्र्याः॥४ उवाह चैनान्सगणांस्तथैव / वनानि रम्याणि सरांसि नद्यो घटोत्कचः पर्वतनिर्झरेषु // 20 . ___ गुहा गिरीणां गिरिगह्वराणि / तान्प्रस्थितान्प्रीतमना महर्षिः एते निवासाः सततं बभूवु. पितेव पुत्राननुशिष्य सर्वान्। ___निशानिशं प्राप्य नरर्षभाणाम् // 5 स लोमशः प्रीतमना जगाम ते दुर्गवासं बहुधा निरुष्य दिवौकसां पुण्यतमं निवासम् // 21 : व्यतीत्य कैलासमचिन्त्यरूपम् / तेनानुशिष्टार्टिषेणेन चैव आसेदुरत्यर्थमनोरमं वै तीर्थानि रम्याणि तपोवनानि / तमाश्रमाय्यं वृषपर्वणस्ते // 6 महान्ति चान्यानि सरांसि पार्थाः समेत्य राज्ञा वृषपर्वणा ते संपश्यमानाः प्रययुनराग्र्याः // 22 प्रत्यर्चितास्तेन च वीतमोहाः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि . . शशंसिरे विस्तरशः प्रवास त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 13 // शिवं यथावदृषपर्वणस्ते // 7 .. . 174 सुखोषितास्तत्र त एकरात्रं वैशंपायन उवाच। पुण्याश्रमे देवमहर्षिजुष्टे / नगोत्तमं प्रस्रवणैरुपेतं अभ्याययुस्ते बदरी विशाला __दिशां गजैः किंनरपक्षिभिश्च / सुखेन वीराः पुनरेव वासम् // 8 सुखं निवासं जहतां हि तेषां ऊषुस्ततस्तत्र महानुभावा . ... ___ न प्रीतिरासीद्भरतर्षभाणाम् // 1.. नारायणस्थानगता नराठ्याः / ततस्तु तेषां पुनरेव हर्षः / कुबेरकान्तां नलिनी विशोकाः कैलासमालोक्य महान्बभूव / संपश्यमानाः सुरसिद्धजुष्टाम् // 9 कुबेरकान्तं भरतर्षभाणां तां चाथ दृष्ट्वा नलिनी विशोकाः महीधरं वारिधरप्रकाशम् // 2 पाण्डोः सुताः सर्वनरप्रवीराः / . समुच्छ्रयान्पर्वतसंनिरोधा ते रेमिरे नन्दनवासमेत्य -1623--
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________________ 8. 174. 10] [ 8. 174.22 द्विजर्षयो वीतभया यथैव // 10 क्षुधादितं मृत्युमिवोग्ररूपम् / ततः क्रमेणोपययुनूवीरा वृकोदरः पर्वतकन्दरायां यथागतेनैव पथा समग्राः। . विषादमोहव्यथितान्तरात्मा // 18 विहृत्य मासं सुखिनो बदाँ द्वीपोऽभवद्यत्र वृकोदरस्य किरातराज्ञो विषयं सुबाहोः // 11 ' युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः / चीनांस्तुखारान्दरदान्सदा अमोक्षयद्यस्तमनन्ततेजा 5न्देशान्कुणिन्दस्य च भूरिरत्नान् / ___ ग्राहेण संवेष्टितसर्वगात्रम् // 19 . अतीत्य दुर्गं हिमवत्प्रदेश ते द्वादशं वर्षमथोपयान्तं पुरं सुबाहोर्ददृशुर्नृवीराः॥ 12 __ वने विहाँ कुरवः प्रतीताः। श्रुत्वा च तान्पार्थिवपुत्रपौत्रा तस्माद्वनाञ्चैत्ररथप्रकाशाप्राप्तान्सुबाहुर्विषये समग्रान् / च्छ्रिया ज्वलन्तस्तपसा च युक्ताः॥२० प्रत्युद्ययौ प्रीतियुतः स राजा ततश्च यात्वा मरुधन्वपार्श्व तं चाभ्यनन्दन्वृषभाः कुरूणाम् // 13 सदा धनुर्वेदरतिप्रधानाः। ... समेत्य राज्ञा तु सुबाहुना ते सरस्वतीमेत्य निवासकामाः सूतैर्विशोकप्रमुखैश्च सर्वैः / सरस्ततो द्वैतवनं प्रतीयुः // 21 / सहेन्द्रसेनैः परिचारकैश्च समीक्ष्य तान्द्वैतवने निविष्टापौरोगवैर्ये च महानसस्थाः // 14 निवासिनस्तत्र ततोऽभिजग्मुः / सुखोषितास्तत्र त एकरात्रं सूतानुपादाय रथांश्च सर्वान् / तपोदमाचारसमाधियुक्ता __ स्तृणोदपात्राहरणाश्मकुट्टाः // 22 घटोत्कचं सानुचरं विसृज्य ततोऽभ्ययुर्यामुनमदिराजम् // 15 प्लक्षाक्षरौहीतकवेतसाच तस्मिन्गिरौ प्रस्रवणोपपन्ने स्नुहा बदर्यः खदिराः शिरीषाः / हिमोत्तरीयारुणपाण्डुसानौ / बिल्वेङ्गुदाः पीलुशमीकरीराः विशाखयूपं समुपेत्य चक्रु सरस्वतीतीररुहा बभूवुः // 23 : स्तदा निवासं पुरुषप्रवीराः / / 16 तां यक्षगन्धर्वमहर्षिकान्ता- . वराहनानामृगपक्षिजुष्टं मायागभूतामिव देवतानाम् / महद्वनं चैत्ररथप्रकाशम् / सरस्वती प्रीतियुताश्चरन्तः शिवेन यात्वा मृगयाप्रधानाः सुखं विजह्वर्नरदेवपुत्राः // 24 संवत्सरं तत्र वने विजद्दुः // 17 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तत्राससादातिबलं भुजंग चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 17 // -1604 -
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________________ 8. 175. 1] आरण्यकपर्व [ 3. 176.6 175 दीप्ताक्षेणातिताम्रण लिहन्तं सृक्किणी मुहुः // 14 जनमेजय उवाच / त्रासनं सर्वभूतानां कालान्तकयमोपमम् / कथं नागायुतप्राणो भीमसेनो महाबलः / निःश्वासक्ष्वेडनादेन भर्त्सयन्तमिव स्थितम् // 15 भयमाहारयत्तीव्र तस्मादजगरान्मुने // 1 स भीमं सहसाभ्येत्य पृदाकुः क्षुधितो भृशम् / पौलस्त्यं योऽऽह्वययुद्धे धनदं बलदर्पितः / जग्राहाजगरो ग्राहो भुजयोरुभयोर्बलात् // 16 नलिन्यां कदनं कृत्वा वराणां यक्षरक्षसाम् // 2 तेन संस्पृष्टमात्रस्य भीमसेनस्य वै तदा। तं शंससि भयाविष्टमापन्नमरिकर्षणम् / संज्ञा मुमोह सहसा वरदानेन तस्य ह // 17 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे // 3 दश नागसहस्राणि धारयन्ति हि यदलम् / वैशंपायन उवाच / तद्बलं भीमसेनस्य भुजयोरसमं परैः॥ 18 बलाश्चर्ये वने तेषां वसतामुग्रधन्विनाम् / स तेजस्वी तथा तेन भुजगेन वशीकृतः / प्राप्तानामाश्रमाद्राजनराजर्षवृषपर्वणः // 4 विस्फुरशनकैीमो न शशाक विचेष्टितुम् // 19 यदृच्छया धनुष्पाणिर्बद्धखड्गो वृकोदरः / नागायुतसमप्राणः सिंहस्कन्धो महाभुजः। ददर्श तद्वनं रम्यं देवगन्धर्वसेवितम् // 5 गृहीतो व्यजहात्सत्त्वं वरदानेन मोहितः // 20 स ददर्श शुभान्देशान्गिरेहिमवतस्तदा। स हि प्रयत्नमकरोत्तीव्रमात्मविमोक्षणे / देवर्षिसिद्धचरितानप्सरोगणसेवितान् // 6 न चैनमशकद्वीरः कथंचित्प्रतिबाधितुम् // 21 चकोरैश्चक्रवाकैश्च पक्षिभिर्जीवजीवकैः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि कोकिलै ङ्गराजैश्च तत्र तत्र विनादितान् // 7 . पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 175 // नित्यपुष्पफलैर्वृक्षैर्हिमसंस्पर्शकोमलैः / 176 उपेतान्बहुलच्छायैर्मनोनयननन्दनैः // 8 वैशंपायन उवाच / स संपश्यन्गिरिनदीर्वैडूर्यमणिसंनिभैः। स भीमसेनस्तेजस्वी तथा सर्पवशं गतः / सलिलैर्हिमसंस्पशैर्हसकारण्डवायुतैः // 9 चिन्तयामास सर्पस्य वीर्यमत्यद्भुतं महत् // 1 वनानि देवदारूणां मेघानामिव वागुराः / उवाच च महासर्प कामया ब्रूहि पन्नग / हरिचन्दनमिश्राणि तुङ्गकालीयकान्यपि // 10 कस्त्वं भो भुजगश्रेष्ठ किं मया च करिष्यसि // 2 मृगयां परिधावन्स समेषु मरुधन्वसु / पाण्डवो भीमसेनोऽहं धर्मराजादनन्तरः / विध्यन्मृगाशरैः शुद्धेश्वचार सुमहाबलः // 11 नागायुतसमप्राणस्त्वया नीतः कथं वशम् // 3 स ददर्श महाकायं भुजंगं लोमहर्षणम् / सिंहाः केसरिणो व्याघ्रा महिषा वारणास्तथा / गिरिदुर्गे समापन्नं कायेनावृत्य कन्दरम् // 12 समागताश्च बहुशो निहताश्च मया मृधे // 4 पर्वताभोगवाणं भोगैश्चन्द्रार्कमण्डलैः / दानवाश्च पिशाचाश्च राक्षसाश्च महाबलाः / चित्राङ्गमजिनैश्चित्रैर्हरिद्रासदृशच्छविम् / / 13 / / भुजवेगमशक्ता मे सोढुं पन्नगसत्तम // 5 गुहाकारेण वक्त्रेण चतुर्दष्ट्रेण राजता। किं नु विद्याबलं किं वा वरदानमथो तव / म. भा. 79 - 625 -
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________________ 3. 176. 6] महाभारते [3. 176. 36 उद्योगमपि कुर्वाणो वशगोऽस्मि कृतस्त्वया // 6 स त्वां मोक्षयिता शापादिति मामब्रवीदृषिः॥२१ असत्यो विक्रमो नृणामिति मे निश्चिता मतिः। गृहीतस्य त्वया राजन्प्राणिनोऽपि बलीयसः। यथेदं मे त्वया नाग बलं प्रतिहतं महत् // 7 सत्त्वभ्रंशोऽधिकस्यापि सर्वस्याशु भविष्यति // 22 इत्येवंवादिनं वीरं भीममक्लिष्टकारिणम् / इति चाप्यहमश्रौषं वचस्तेषां दयावताम् / भोगेन महता सर्पः समन्तात्पर्यवेष्टयत् // 8 मयि संजातहार्दानामथ तेऽन्तर्हिता द्विजाः॥२३ निगृह्य तं महाबाहुं ततः स भुजगस्तदा / सोऽहं परमदुष्कर्मा वसामि निरयेऽशुचौ / विमुच्यास्य भुजौ पीनाविदं वचनमब्रवीत् // 9 सर्पयोनिमिमां प्राप्य कालाकाङ्क्षी महाद्युते // 24 दिष्टया त्वं क्षुधितस्याद्य देवैर्भक्षो महाभुज / तमुवाच महाबाहुर्भीमसेनो भुजंगमम् / दिष्टया कालस्य महतः प्रियाः प्राणा हि देहिनाम् / / न ते कुप्ये महासर्प न चात्मानं विगर्हये // 25 यथा त्विदं मया प्राप्तं भुजंगत्वमरिंदम / यस्मादभावी भावी वा मनुष्यः सुखदुःखयोः / तदवश्यं मया ख्याप्यं तवाद्य शृणु सत्तम // 11 आगमे यदि वापाये न तत्र ग्लपयेन्मनः // 26 इमामवस्थां संप्राप्तो ह्यहं कोपान्मनीषिणाम् / दैवं पुरुषकारेण को निवर्तितुमर्हति / शापस्यान्तं परिप्रेप्सुः सर्पस्य कथयामि तत् // 12 दैवमेव परं मन्ये पुरुषार्थो निरर्थकः // 27 नहुषो नाम राजर्षिर्व्यक्तं ते श्रोत्रमागतः / पश्य दैवोपघाताद्धि भुजवीर्यव्यपाश्रयम् / तवैव पूर्वः पूर्वेषामायोवंशकरः सुतः / / 13 इमामवस्थां संप्राप्तमनिमित्तमिहाद्य माम् // 28 सोऽहं शापादगस्त्यस्य ब्राह्मणानवमन्य च / किं तु नाद्यानुशोचामि तथात्मानं विनाशितम् / इमामवस्थामापन्नः पश्य दैवमिदं मम // 14 यथा तु विपिने न्यस्तान्भ्रातृनराज्यपरिच्युतान्॥२९ त्वां चेदवध्यमायान्तमतीव प्रियदर्शनम् / हिमवांश्च सुदुर्गोऽयं यक्षराक्षससंकुलः / / अहमद्योपयोक्ष्यामि विधानं पश्य यादृशम् / / 15 मां च ते समुदीक्षन्तः प्रपतिष्यन्ति विह्वलाः॥३० न हि मे मुच्यते कश्चित्कथंचिगृहणं गतः / विनष्टमथ वा श्रुत्वा भविष्यन्ति निरुद्यमाः / गजो वा महिषो वापि षष्ठे काले नरोत्तम // 16 धर्मशीला मया ते हि बाध्यन्ते राज्यगृद्धिना॥ 31 नासि केवलसर्पण तिर्यग्योनिषु वर्तता / अथ वा नार्जुनो धीमान्विषादमुपयास्यति / गृहीतः कौरवश्रेष्ठ वरदानमिदं मम / / 17 सवस्त्रिविदनाधृष्यो देवगन्धर्वराक्षसैः // 32 पतता हि विमानाप्रान्मया शक्रासनाद्रुतम् / समर्थः स महाबाहुरेकाह्रा सुमहाबलः / कुरु शापान्तमित्युक्तो भगवान्मुनिसत्तमः // 18 देवराजमपि स्थानात्प्रच्यावयितुमोजसा // 33 स मामुवाच तेजस्वी कृपयाभिपरिप्लुतः / किं पुनधृतराष्ट्रस्य पुत्रं दुर्वृतदेविनम् / मोक्षस्ते भविता राजन्कस्माञ्चित्कालपर्ययात् / / 19 | विद्विष्टं सर्वलोकस्य दम्भलोभपरायणम् // 34 ततोऽस्मि पतितो भूमौ न च मामजहात्स्मृतिः। मातरं चैव शोचामि कृपणां पुत्रगृद्धिनीम् / स्मार्तमस्ति पुराणं मे यथैवाधिगतं तथा // 20 यास्माकं नित्यमाशास्ते महत्त्वमधिकं परैः // 35 यस्तु ते व्याहृतान्प्रश्नान्प्रतिब्रूयाद्विशेषवित् / कथं नु तस्यानाथाया मद्विनाशाद्भुजंगम / - 626 -
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________________ 3. 176. 36 ] आरण्यकपर्व [3. 177. 12 अफलास्ते भविष्यन्ति मयि सर्वे मनोरथाः॥३६ - गृहीतं भुजगेन्द्रेण निश्चेष्टमनुजं तथा // 51 नकुलः सहदेवश्च यमजौ गुरुवर्तिनौ / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि मबाहुबलसंस्तब्धौ नित्यं पुरुषमानिनौ // 37 षट्सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 176 // : निरुत्साहौ भविष्येते भ्रष्टवीर्यपराक्रमौ / 177 मद्विनाशात्परिघुनाविति मे वर्तते मतिः॥ 38 वैशंपायन उवाच। एवंविधं बहु तदा विललाप वृकोदरः / युधिष्ठिरस्तमासाद्य सर्पभोगाभिवेष्टितम् / भुजंगभोगसंरुद्धो नाशकच्च विचेष्टितुम् // 39 दयितं भ्रातरं वीरमिदं वचनमब्रवीत् // 1 युधिष्ठिरस्तु कौन्तेयो बभूवास्वस्थचेतनः। . कुन्तीमातः कथमिमामापदं त्वमवाप्तवान् / अनिष्टदर्शनान्घोरानुत्पातान्परिचिन्तयन् // 40 कश्चायं पर्वताभोगप्रतिमः पन्नगोत्तमः / / 2 दारुणं ह्यशिवं नादं शिषा दक्षिणतः स्थिता। स धर्मराजमालक्ष्य भ्राता भ्रातरमग्रजम् / दीप्तायां दिशि वित्रस्ता रौति तस्याश्रमस्य ह // 41 कथयामास तत्सर्वं ग्रहणादि विचेष्टितम् / / 3 एकपक्षाक्षिचरणा वर्तिका घोरदर्शना। युधिष्ठिर उवाच / रुधिरं वमन्ती ददृशे प्रत्यादित्यमपस्वरा // 42 देवो वा यदि वा दैत्य उरगो वा भवान्यदि। प्रववावनिलो रूक्षश्चण्डः शर्करकर्षणः / सत्यं सर्प वचो ब्रूहि पृच्छति त्वां युधिष्ठिरः॥४ अपसव्यानि सर्वाणि मृगपक्षिरुतानि च // 43 किमाहृत्य विदित्वा वा प्रीतिस्ते स्याद्भुजंगम / पृष्ठतो वायसः कृष्णो याहि याहीति वाशति / किमाहारं प्रयच्छामि कथं मुश्चेद्भवानिमम् // 5 मुहुर्मुहुः प्रस्फुरति दक्षिणोऽस्य भुजस्तथा // 44 सपे उवाच / हृदयं चरणश्चापि वामोऽस्य परिवर्तते / नहुषो नाम राजाहमासं पूर्वस्तवानघ / सव्यस्याक्ष्णो विकारश्चाप्यनिष्टः समपद्यत // 45 प्रथितः पञ्चमः सोमादायोः पुत्रो नराधिप / / 6 स धर्मराजो मेधावी शङ्कमानो महद्भयम् / ऋतुभिस्तपसा चैव स्वाध्यायेन दमेन च। द्रौपदी परिपप्रच्छ क भीम इति भारत // 46 त्रैलोक्यैश्वर्यमव्ययं प्राप्तो विक्रमणेन च // 7 शशंस तस्मै पाञ्चाली चिरयातं वृकोदरम्। तदैश्वयं समासाद्य दो मामगमत्तदा / स प्रतस्थे महाबाहुधौम्येन सहितो नृपः॥ 47 सहस्रं हि द्विजातीनामुवाह शिबिकां मम / / 8 द्रौपद्या रक्षणं कार्यमित्युवाच धनंजयम् / ऐश्वर्यमदमत्तोऽहमवमन्य ततो द्विजान् / नकुलं सहदेवं च व्यादिदेश द्विजान्प्रति // 48 इमामगस्त्येन दशामानीतः पृथिवीपते // 9 स तस्य पदमुन्नीय तस्मादेवाश्रमात्प्रभुः / न तु मामजहात्प्रज्ञा यावदद्यति पाण्डव / ददर्श पृथिवीं चिह्नर्भीमस्य परिचिह्निताम् // 49 तस्यैवानुग्रहाद्राजन्नगस्त्यस्य महात्मनः // 10 धावतस्तस्य वीरस्य मृगार्थे वातरंहसः / षष्ठे काले ममाहारः प्राप्तोऽयमनुजस्तव / ऊरुवातविनिर्भग्नान्द्रुमान्व्यावर्जितान्पथि // 50 नाहमेनं विमोक्ष्यामि न चान्यमभिकामये // 11 स गत्वा तैस्तदा चिद्वैर्ददर्श गिरिगह्वरे / प्रश्नानुच्चारितांस्तु त्वं व्याहरिष्यसि चेन्मम / - 627 -
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________________ 8. 177. 12] महाभारते [ 3. 178.2 अथ पश्चाद्विमोक्ष्यामि भ्रातरं ते वृकोदरम् // 12 एषा मम मतिः सर्प यथा वा मन्यते भवान् // 24 युधिष्ठिर उवाच / सर्प उवाच / अहि सर्प यथाकामं प्रतिवक्ष्यामि ते वचः / यदि ते वृत्ततो राजन्ब्राह्मणः प्रसमीक्षितः। अपि चेच्छक्नुयां प्रीतिमाहर्तुं ते भुजंगम // 13 / व्यर्था जातिस्तदायुष्मन्कृतिर्यावन्न दृश्यते // 25 वेद्यं यद्ब्राह्मणेनेह तद्भवान्वेत्ति केवलम् / युधिष्ठिर उवाच। सर्पराज ततः श्रुत्वा प्रतिवक्ष्यामि ते वचः // 14 जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते। . सर्प उवाच। संकरात्सर्ववर्णानां दुष्परीक्ष्येति मे मतिः // 26 ब्राह्मणः को भवेद्राजन्वेद्यं किं च युधिष्ठिर। सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति यदा नराः / अवीह्यतिमतिं त्वां हि वाक्यैरनुमिमीमहे // 15 / वाङ्मैथुनमथो जन्म मरणं च समं नृणाम् // 27 युधिष्ठिर उवाच। इदमाएं प्रमाणं च ये यजामह इत्यपि / सत्यं दानं क्षमा शीलमानृशंस्यं दमो घृणा। तस्माच्छीलं प्रधानेष्टं विदुर्ये तत्त्वदर्शिनः // 28 दृश्यन्ते यत्र नागेन्द्र स ब्राह्मण इति स्मृतः // 16 प्राङ्गाभिवर्धनात्पुंसो जातकर्म विधीयते / वेद्यं सर्प परं ब्रह्म निर्दुःखमसुखं च यत् / तत्रास्य माता सावित्री पिता त्वाचार्य उच्यते / / यत्र गत्वा न शोचन्ति भवतः किं विवक्षितम् // 17 वृत्त्या शूद्रसमो ह्येष यावद्वेदे न जायते / सर्प उवाच / अस्मिन्नेवं मतिद्वैधे मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् // 30 चातुर्वर्ण्य प्रमाणं च सत्यं च ब्रह्म चैव ह। कृतकृत्याः पुनर्वर्णा यदि वृत्तं न विद्यते / शूद्रेष्वपि च सत्यं च दानमक्रोध एव च। संकरस्तत्र नागेन्द्र बलवान्प्रसमीक्षितः // 31 आनृशंस्यमहिंसा च घृणा चैव युधिष्ठिर // 18 यत्रेदानी महासर्प संस्कृतं वृत्तमिष्यते / वेद्यं यच्चात्य निर्दुःखमसुखं च नराधिप / तं ब्राह्मणमहं पूर्वमुक्तवान्भुजगोत्तम // 32 ताभ्यां हीनं पदं चान्यन्न तदस्तीति लक्षये // 19 सर्प उवाच / युधिष्ठिर उवाच। श्रुतं विदितवेद्यस्य तव वाक्यं युधिष्ठिर / शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते। भक्षयेयमहं कस्माद्भातरं ते वृकोदरम् // 33 न वै शूद्रो भवेच्छूद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः॥ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि यत्रैतल्लक्ष्यते सर्प वृत्तं स ब्राह्मणः स्मृतः / सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 177 // यत्रैतन्न भवेत्सर्प तं शद्रमिति निर्दिशेत् // 21 178 यत्पुनर्भवता प्रोक्तं न वेद्यं विद्यतेति ह / युधिष्ठिर उवाच / ताभ्यां हीनमतीत्यात्र पदं नास्तीति चेदपि // 22 - भवानेतादृशो लोके वेदवेदाङ्गपारगः / एवमेतन्मतं सर्प ताभ्यां हीनं न विद्यते। ब्रूहि किं कुर्वतः कर्म भवेद्गतिरनुत्तमा // 1 यथा शीतोष्णयोर्मध्ये भवेन्नोष्णं न शीतता // 23 / सर्प उवाच / एवं वै सुखदुःखाभ्यां हीनमस्ति पदं क्वचित्। / पात्रे दत्त्वा प्रियाण्युक्त्वा सत्यमुक्त्वा च भारत। - 628 -
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________________ 3. 178. 2] आरण्यकपर्व [3. 178. 27 अहिंसानिरतः स्वर्ग गच्छेदिति मतिर्मम // 2 फलार्थस्तात निष्पृक्तः प्रजालक्षणभावनः // 15 युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर उवाच / दानाद्वा सर्प सत्याद्वा किमतो गुरु दृश्यते / शब्दे स्पर्शे च रूपे च तथैव रसगन्धयोः / अहिंसाप्रिययोश्चैव गुरुलाघवमुच्यताम् // 3 तस्याधिष्ठानमव्यग्रं ब्रूहि सर्प यथातथम् // 16 सर्प उवाच / किं न गृहासि विषयान्युगपत्त्वं महामते / दाने रतत्वं सत्यं च अहिंसा प्रियमेव च। एतावदुच्यतां चोक्तं सर्वं पन्नगसत्तम // 17 एषां कार्यगरीयस्त्वादृश्यते गुरुलाघवम् // 4 सर्प उवाच। कस्माच्चिदानयोगाद्धि सत्यमेव विशिष्यते / यदात्मद्रव्यमायुष्मन्देहसंश्रयणान्वितम् / सत्यवाक्याच्च राजेन्द्र किंचिदानं विशिष्यते // 5 करणाधिष्ठितं भोगानुपभुङ्क्ते यथाविधि // 18 एवमेव महेष्वास प्रियवाक्यान्महीपते / ज्ञानं चैवात्र बुद्धिश्च मनश्च भरतर्षभ / अहिंसा दृश्यते गुर्वी ततश्च प्रियमिष्यते // 6 तस्य भोगाधिकरणे करणानि निबोध मे // 19 एवमेतद्भवेद्राजन्कार्यापेक्षमनन्तरम् / मनसा तात पर्येति क्रमशो विषयानिमान् / यदभिप्रेतमन्यत्ते ब्रूहि यावद्भवीम्यहम् // 7 विषयायतनस्थेन भूतात्मा क्षेत्रनिःसृतः॥२० युधिष्ठिर उवाच / अत्र चापि नरव्याघ्र मनो जन्तोर्विधीयते / कथं स्वर्गे गतिः सर्प कर्मणां च फलं ध्रुवम् / तस्माद्युगपदस्यात्र ग्रहणं नोपपद्यते // 21 अशरीरस्य दृश्येत विषयांश्च ब्रवीहि मे // 8 स आत्मा पुरुषव्याघ्र ध्रुवोरन्तरमाश्रितः / सर्प उवाच / तिस्रो वै गतयो राजन्परिदृष्टाः स्वकर्मभिः / द्रव्येषु सृजते बुद्धिं विविधेषु परावराम् // 22 बुद्धरुत्तरकालं च वेदना दृश्यते बुधैः।। मानुष्यं स्वर्गवासश्च तिर्यग्योनिश्च तत्रिधा // 9 एष वै राजशार्दूल विधिः क्षेत्रज्ञभावनः // 23 तत्र वै मानुषाल्लोकादानादिभिरतन्द्रितः / / अहिंसार्थसमायुक्तैः कारणैः स्वर्गमश्नुते // 10 युधिष्ठिर उवाच / विपरीतैश्च राजेन्द्र कारणैर्मानुषो भवेत् / मनसश्चापि बुद्धेश्च ब्रूहि मे लक्षणं परम् / तिर्यग्योनिस्तथा तात विशेषश्चात्र वक्ष्यते // 11 एतदध्यात्मविदुषां परं कार्य विधीयते // 24 कामक्रोधसमायुक्तो हिंसालोभसमन्वितः।। सर्प उवाच / मनुष्यत्वात्परिभ्रष्टस्तिर्यग्योनौ प्रसूयते // 12 बुद्धिरात्मानुगा तात उत्पातेन विधीयते / तिर्यग्योन्यां पृथग्भावो मनुष्यत्वे विधीयते / तदाश्रिता हि संज्ञैषा विधिस्तस्यैषणे भवेत् / 25 गवादिभ्यस्तथाश्वेभ्यो देवत्वमपि दृश्यते // 13 बुद्धेर्गुणविधिर्नास्ति मनस्तु गुणवद्भवेत् / सोऽयमेता गतीः सर्वा जन्तुश्चरति कार्यवान् / बुद्धिरुत्पद्यते कार्ये मनस्तूत्पन्नमेव हि // 26 नित्ये महति चात्मानमवस्थापयते नृप // 14 / एतद्विशेषणं तात मनोबुद्ध्योर्मयेरितम् / जातो जातश्च बलवान्भुङ्क्ते चात्मा स देहवान् / / त्वमप्यत्राभिसंबुद्धः कथं वा मन्यते भवान् / / 27 - 629 -
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________________ 3. 178. 28 ] महाभारते [3. 179.3 युधिष्ठिर उवाच / ततो मे विस्मयो जातस्तदृष्ट्वा तपसो बलम् / .. अहो बुद्धिमतां श्रेष्ठ शुभा बुद्धिरियं तव / ब्रह्म च ब्राह्मणत्वं च येन त्वाहमचूचुदम् // 42 विदितं वेदितव्यं ते कस्मान्मामनुपृच्छसि // 28 सत्यं दमस्तपो योगमहिंसा दाननित्यता / सर्वज्ञं त्वां कथं मोह आविशत्स्वर्गवासिनम् / साधकानि सदा पुंसां न जातिर्न कुलं नृप // 45 एवमद्भुतकर्माणमिति मे संशयो महान् // 29 अरिष्ट एष ते भ्राता भीमो मुक्तो महाभुजः।। सर्प उवाच / खस्ति तेऽस्तु महाराज गमिष्यामि दिवं पुनः॥४४ सुप्रझमपि चेच्छूरमृद्धिर्मोहयते नरम् / वैशंपायन उवाच। वर्तमानः सुखे सर्वो नावैतीति मतिर्मम // 30 इत्युक्त्वाजगरं देहं त्यक्त्वा स नहुषो नृपः / सोऽहमैश्वर्यमोहेन मदाविष्टो युधिष्ठिर / दिव्यं वपुः समास्थाय गतस्त्रिदिवमेव ह // 45 पतितः प्रतिसंबुद्धस्त्वां तु संबोधयाम्यहम् // 31 युधिष्ठिरोऽपि धर्मात्मा भ्रात्रा भीमेन संगतः। कृतं कार्य महाराज त्वया मम परंतप / धौम्येन सहितः श्रीमानाश्रमं पुनरभ्यगात् // 46 क्षीणः शापः सुकृच्छ्रो मे त्वया संभाष्य साधुना // ततो द्विजेभ्यः सर्वेभ्यः समेतेभ्यो यथातथम् / अहं हि दिवि दिव्येन विमानेन चरन्पुरा।। कथयामास तत्सर्वं धर्मराजो युधिष्ठिरः // 47 अभिमानेन मत्तः सन्कंचिन्नान्यमचिन्तयम् // 33 तच्छ्रुत्वा ते द्विजाः सर्वे भ्रातरश्वास्य ते त्रयः / ब्रह्मर्षिदेवगन्धर्वयक्षराक्षसकिनराः। आसन्सुव्रीडिता राजन्द्रौपदी च यशस्विनी // 48 करान्मम प्रयच्छन्ति सर्वे त्रैलोक्यवासिनः // 34 ते तु सर्वे द्विजश्रेष्ठाः पाण्डवानां हितेप्सया। चक्षुषा यं प्रपश्यामि प्राणिनं पृथिवीपते / मैवमित्यब्रुवन्भीमं गर्हयन्तोऽस्य साहसम् // 49 तस्य तेजो हराम्याशु तद्धि दृष्टिबलं मम / / 35 पाण्डवास्तु भयान्मुक्तं प्रेक्ष्य भीमं महाबलम् / ब्रह्मर्षीणां सहस्रं हि उवाह शिबिकां मम / हर्षमाहारयांचक्रुर्विजह्वश्च मुदा युताः // 50 स मामपनयो राजन्भ्रंशयामास वै श्रियः // 36 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तत्र ह्यगस्त्यः पादेन वहनस्पृष्टो मया मुनिः / ___अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः // 178 // अदृष्टेन ततोऽस्म्युक्तो ध्वंस सर्पति वै रुषा // 37 // समाप्तमाजगरपर्व // ततस्तस्माद्विमानापात्प्रच्युतच्युतभूषणः। 179 प्रपतन्बुबुधेऽऽत्मानं व्यालीभूतमधोमुखम् // 38 वैशंपायन उवाच। अयाचं तमहं विप्रं शापस्यान्तो भवेदिति। निदाघान्तकरः कालः सर्वभूतसुखावहः। अज्ञानात्संप्रवृत्तस्य भगवन्क्षन्तुमर्हसि // 39 / तत्रैव वसतां तेषां प्रावृट् समभिपद्यत // 1 ततः स मामुवाचेदं प्रपतन्तं कृपान्वितः। छादयन्तो महाघोषाः खं दिशश्च बलाहकाः। . युधिष्ठिरो धर्मराजः शापात्त्वां मोक्षयिष्यति // 40 प्रववर्षार्दिवारात्रमसिताः सततं तदा // 2 अभिमानस्य घोरस्य बलस्य च नराधिप / / तपात्ययनिकेताश्च शतशोऽथ सहस्रशः। फले क्षीणे महाराज फलं पुण्यमवाप्स्यसि // 41 / अपेतार्कप्रभाजालाः सविद्युद्विमलप्रभाः // 3 . - 630 -
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________________ 3. 179. 4] आरम्यकपर्व [3. 180. 18 विरूढशष्पा पृथिवी मत्तदंशसरीसृपा। सूतैः पौरोगवैश्चैव काम्यकं प्रययुर्वनम् // 18 बभूव पयसा सिक्ता शान्तधूमरजोरुणा // 4 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि न स्म प्रज्ञायते किंचिदम्भसा समवस्तृते / एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 179 // समं वा विषमं वापि नद्यो वा स्थावराणि वा // 5 180 क्षुब्धतोया महाघोषाः श्वसमाना इवाशुगाः / वैशंपायन उवाच / सिन्धवः शोभयांचक्रः काननानि तपात्यये॥६ काम्यकं प्राप्य कौन्तेया युधिष्ठिरपुरोगमाः / नदतां काननान्तेषु श्रूयन्ते विविधाः स्वनाः / कृतातिथ्या मुनिगणैनिषेदुः सह कृष्णया // 1 वृष्टिभिस्ताड्यमानानां वराहमृगपक्षिणाम् // 7 ततस्तान्परिविश्वस्तान्वसतः पाण्डुनन्दनान् / स्तोककाः शिखिनश्चैव पुंस्कोकिलगणैः सह / ब्राह्मणा बहवस्तत्र समन्तात्पर्यवारयन् // 2 मत्ताः परिपतन्ति स्म दुर्दुराश्चैव दर्पिताः॥ 8 अथाब्रवीहिजः कश्चिदर्जुनस्य प्रियः सखा / तथा बहुविधाकारा प्रावृण्मेघानुनादिता / एष्यतीह महाबाहुर्वशी शौरिरुदारधीः // 3 अभ्यतीता शिवा तेषां चरतां मरुधन्वसु // 9 विदिता हि हरेयमिहायाताः कुरूद्वहाः / क्रौञ्चहंसगणाकीर्णा शरत्प्रणिहिताभवत्। सदा हि दर्शनाकाङ्क्षी श्रेयोन्वेषी च वो हरिः॥४ रूढकक्षवनप्रस्था प्रसन्नजलनिग्नगा // 10 बहुवत्सरजीवी च मार्कण्डेयो महातपाः। विमलाकाशनक्षत्रा शरत्तेषां शिवाभवत् / स्वाध्यायतपसा युक्तः क्षिप्रं युष्मान्समेष्यति // 5 मृगद्विजसमाकीर्णा पाण्डवानां महात्मनाम् // 11 तथैव तस्य ब्रुवतः प्रत्यदृश्यत केशवः / पश्यन्तः शान्तरजसः क्षपा जलदशीतलाः। सैन्यसुग्रीवयुक्तेन रथेन रथिनां वरः // 6 प्रहनक्षत्रसंधैश्च सोमेन च विराजिताः // 12 मघवानिव पौलोम्या सहितः सत्यभामया। कुमुदैः पुण्डरीकैश्च शीतवारिधराः शिवाः / उपायाद्देवकीपुत्रो दिदृक्षुः कुरुसत्तमान् // 7 अवतीर्य रथात्कृष्णो धर्मराजं यथाविधि / नदीः पुष्करिणीश्चैव ददृशुः समलंकृताः // 13 ववन्दे मुदितो धीमान्मीमं च बलिनां वरम् // 8 आकाशनीकाशतटां नीपनीवारसंकुलाम् / पूजयामास धौम्यं च यमाभ्यामभिवादितः / बभूव चरतां हर्षः पुण्यतीर्थां सरस्वतीम् // 14 परिष्वज्य गुडाकेशं द्रौपदी पर्यसान्त्वयत् // 9 ते वै मुमुदिरे वीराः प्रसन्नसलिलां शिवाम् / स दृष्ट्वा फल्गुनं वीरं चिरस्य प्रियमागतम् / पश्यन्तो दृढधन्वानः परिपूर्णां सरस्वतीम् // 15 पर्यध्वजत दाशार्हः पुनः पुनररिंदमम् // 10 तेषां पुण्यतमा रात्रिः पर्वसंधौ स्म शारदी। | तथैव सत्यभामापि द्रौपदी परिषस्वजे। तत्रैव वसतामासीत्कार्तिकी जनमेजय // 16 पाण्डवानां प्रियां भायां कृष्णस्य महिषी प्रिया॥ 11 पुण्यकृद्भिर्महासत्त्वैस्तापसैः सह पाण्डवाः / ततस्ते पाण्डवाः सर्वे सभार्याः सपुरोहिताः / तत्सर्वं भरतश्रेष्ठाः समूहुर्योगमुत्तमम् // 17 आनचुः पुण्डरीकाक्षं परिवत्रुश्च सर्वशः // 12 तमिस्राभ्युदये तस्मिन्धौम्येन सह पाण्डवाः। कृष्णस्तु पार्थेन समेत्य विद्वा - 631 -
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________________ 8. 180. 13] [ 3. 180.27 न्धनंजयेनासुरतर्जनेन। सहेत तत्पाण्डव कस्त्वदन्यः // 20 बभौ यथा भूतपतिर्महात्मा असंशयं सर्वसमृद्धकामः समेत्य साक्षाद्भगवान्गुहेन॥ 13 क्षिप्रं प्रजाः पालयितासि सम्यक् / ततः समस्तानि किरीटमाली इमे वयं निग्रहणे कुरूणां वनेषु वृत्तानि गदाग्रजाय / यदि प्रतिज्ञा भवतः समाप्ता // 21.. उक्त्वा यथावत्पुनरन्वपृच्छ धौम्यं च कृष्णां च युधिष्ठिरं च कथं सुभद्रा च तथाभिमन्युः॥ 14 यमौ च भीमं च दशाहसिंहः / स पूजयित्वा मधुहा यथाव उवाच दिष्ट्या भवतां शिवेन पार्थांश्च कृष्णां च पुरोहितं च / प्राप्तः किरीटी मुदितः कृतास्नः // 22 उषाच राजानमभिप्रशंस प्रोवाच कृष्णामपि याज्ञसेनी न्युधिष्ठिरं तत्र सहोपविश्य // 15 ___ दशाहभर्ता सहितः सुहृद्भिः। धर्मः परः पाण्डव राज्यलाभा कृष्णे धनुर्वेदरतिप्रधानाः त्तस्यार्थमाहुस्तप एव राजन् / __ सत्यव्रतास्ते शिशवः सुशीलाः / सत्यार्जवाभ्यां चरता स्वधर्म सद्भिः सदैवाचरितं समाधि जितस्तवायं च परश्च लोकः // 16 चरन्ति पुत्रास्तव याज्ञसेनि // 23 अधीतमग्रे चरता व्रतानि राज्येन राष्ट्रैश्च निमश्यमाणाः सम्यग्धनुर्वेदमवाप्य कृत्स्नम् / पित्रा च कृष्णे तव सोदरैश्च / क्षात्रेण धर्मेण वसूनि लब्ध्वा न यज्ञसेनस्य न मातुलानां सर्वे ह्यवाप्ताः क्रतवः पुराणाः // 17 गृहेषु बाला रतिमाप्नुवन्ति // 24 न ग्राम्यधर्मेषु रतिस्तवास्ति आनर्तमेवाभिमुखाः शिवेन कामान किंचित्कुरुषे नरेन्द्र / . गत्वा धनुर्वेदरतिप्रधानाः। न चार्थलोभात्प्रजहासि धर्म तवात्मजा वृष्णिपुरं प्रविश्य .. तस्मात्स्वभावादसि धर्मराजः // 18 . न दैवतेभ्यः स्पृहयन्ति कृष्णे // 25 दानं च सत्यं च तपश्च राज यथा त्वमेवाईसि तेषु वृत्तिं श्रद्धा च शान्तिश्च धृतिः क्षमा च / ___ प्रयोक्तुमार्या च यथैव कुन्ती / अवाप्य राष्ट्राणि वसूनि भोगा तेष्वप्रमादेन सदा करोति नेषा परा पार्थ सदा रतिस्ते // 19 तथा च भूयश्च तथा सुभद्रा // 26 यदा जनौघः कुरुजाङ्गलानां यथानिरुद्धस्य यथाभिमन्यो___ कृष्णां सभायामवशामपश्यत् / र्यथा सुनीथस्य यथैव भानोः / अपेतधर्मव्यवहारवृत्तं तथा विनेता च गतिश्च कृष्णे -632
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________________ 8. 180. 27] आरण्यकपर्व [3. 180. 45 तवात्मजानामपि रौक्मिणेयः // 27 विहृत्य यत्रेच्छसि तत्र कामम् / . गदासिचर्मग्रहणेषु शूरा ततः समृद्धं प्रथमं विशोकः .. नत्रेषु शिक्षासु रथाश्वयाने / __ प्रपत्स्यसे नागपुरं सराष्ट्रम् // 35 सम्यग्विनेता विनयत्यतन्द्री ततस्तदाज्ञाय मतं महात्मा ___स्तांश्चाभिमन्युः सततं कुमारः॥२८ यथावदुक्तं पुरुषोत्तमेन / स चापि सम्यक्प्रणिधाय शिक्षा प्रशस्य विप्रेक्ष्य च धर्मराजः मस्त्राणि चैषां गुरुवत्प्रदाय / कृताञ्जलिः केशवमित्युवाच // 36 : तवात्मजानां च तथाभिमन्योः असंशयं केशव पाण्डवानां पराक्रमैस्तुष्यति रौक्मिणेयः॥ 29 भवान्गतिस्त्वच्छरणा हि पार्थाः। यदा विहारं प्रसमीक्षमाणाः कालोदये तच्च ततश्च भूयः प्रयान्ति पुत्रास्तव याज्ञसेनि / कर्ता भवान्कर्म न संशयोऽस्ति // 37 एकैकमेषामनुयान्ति तत्र यथाप्रतिज्ञं विहृतश्च कालः ____ रथाश्च यानानि च दन्तिनश्च // 30 सर्वाः समा द्वादश निर्जनेषु / अथाब्रवीद्धर्मराजं तु कृष्णो अज्ञातचर्यां विधिवत्समाप्य . दशाहयोधाः कुकुरान्धकाश्च / भवद्गताः केशव पाण्डवेयाः 38 एते निदेशं तव पालयन्ति वैशंपायन उवाच / तिष्ठन्ति यत्रेच्छसि तत्र राजन् // 31 तथा वदति वार्ष्णेये धर्मराजे च भारत / आवर्ततां कार्मुकवेगवाता अथ पश्चात्तपोवृद्धो बहुवर्षसहस्रधृक् / __ हलायुधप्रग्रहणा मधूनाम् / प्रत्यदृश्यत धर्मात्मा मार्कण्डेयो महातपाः // 39 सेना तवार्थेषु नरेन्द्र यत्ता तमागतमृषि वृद्धं बहुवर्षसहस्रिणम् / ___ ससादिपत्त्यश्वरथा सनागा // 32 आनचुंब्राह्मणाः सर्वे कृष्णश्च सह पाण्डवैः॥४० प्रस्थाप्यतां पाण्डव धार्तराष्टः तमर्चितं सुविश्वस्तमासीनमृषिसत्तमम् / सुयोधनः पापकृतां वरिष्ठः / ब्राह्मणानां मतेनाह पाण्डवानां च केशवः॥ 41 . स सानुबन्धः ससुहृद्गणश्च शुश्रषवः पाण्डवास्ते ब्राह्मणाश्च समागताः।। सौभस्य सौभाधिपतेश्च मार्गम् // 33 द्रौपदी सत्यभामा च तथाहं परमं वचः // 42 कामं तथा तिष्ठ नरेन्द्र तस्मि पुरावृत्ताः कथाः पुण्याः सदाचाराः सनातनाः / . न्यथा कृतस्ते समयः सभायाम् / राज्ञा स्त्रीणामृषीणां च मार्कण्डेय विचक्ष्व नः॥४३ दाशार्हयोधैस्तु ससादियोधं तेषु तत्रोपविष्टेषु देवर्षिरपि नारदः / प्रतीक्षतां नागपुरं भवन्तम् // 34 आजगाम विशुद्धात्मा पाण्डवानवलोककः // 44 च्यपेतमन्युयंपनीतपाप्मा तमप्यथ महात्मानं सर्वे ते पुरुषर्षभाः / म.मा. 80 -633 -
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________________ 3. 180. 45 ] महाभारते [ 3. 181. 22 पाद्यााभ्यां यथान्यायमुपतस्थुर्मनीषिणम् // 45 मार्कण्डेय उवाच / नारदस्त्वथ देवर्षित्विा तांस्तु कृतक्षणान् / त्वद्युक्तोऽयमनुप्रश्नो यथावद्वदतां वर / मार्कण्डेयस्य वदतस्तां कथामन्वमोदत // 46 / विदितं वेदितव्यं ते स्थित्यर्थमनुपृच्छसि // 9 उवाच चैनं कालज्ञः स्मयन्निव स नारदः / अत्र ते वर्तयिष्यामि तदिहैकमनाः शृणु। ब्रह्मर्षे कथ्यतां यत्ते पाण्डवेषु विवक्षितम् // 47 यथेहामुत्र च नरः सुखदुःखमुपाभुते // 10. एवमुक्तः प्रत्युवाच मार्कण्डेयो महातपाः। निर्मलानि शरीराणि विशुद्धानि शरीरिणाम् / क्षणं कुरुध्वं विपुलमाख्यातव्यं भविष्यति // 48 ससर्ज धर्मतत्राणि पूर्वोत्पन्नः प्रजापतिः // 11 एवमुक्ताः क्षणं चक्रुः पाण्डवाः सह तैर्द्विजैः / अमोघबलसंकल्पाः सुव्रताः सत्यवादिनः / मध्यंदिने यथादित्यं प्रेक्षन्तस्तं महामुनिम् // 49 ब्रह्मभूता नराः पुण्याः पुराणाः कुरुनन्दन // 12 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि सर्वे देवैः समायान्ति स्वच्छन्देन नभस्तलम् / भशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 180 // ततश्च पुनरायान्ति सर्वे स्वच्छन्दचारिणः // 13 181 स्वच्छन्दमरणाश्चासन्नराः स्वच्छन्दजीविनः / वैशंपायन उवाच। अल्पबाधा निरातङ्का सिद्धार्था निरुपद्रवाः // 14 तं विवक्षन्तमालक्ष्य कुरुराजो महामुनिम् / द्रष्टारो देवसंघानामृषीणां च महात्मनाम् / कथासंजननार्थाय चोदयामास पाण्डवः // 1 प्रत्यक्षाः सर्वधर्माणां दान्ता विगतमत्सराः॥ 15 भवान्दैवतदैत्यानामृषीणां च महात्मनाम् / आसन्वर्षसहस्राणि तथा पुत्रसहस्रिणः / राजर्षीणां च सर्वेषां चरितज्ञः सनातनः // 2 ततः कालान्तरेऽन्यस्मिन्पृथिवीतलचारिणः // 16 सेव्यश्वोपासितव्यश्च मतो नः काङ्कित्तश्विरम् / कामक्रोधाभिभूतास्ते मायाव्याजोपजीविनः / अयं च देवकीपुत्रः प्राप्तोऽस्मानवलोककः // 3 लोभमोहाभिभूताश्च त्यक्ता देवैस्ततो नराः // 17 अशुभैः कर्मभिः पापास्तिर्यड्नरकगामिनः / भवत्येव हि मे बुद्धिदृष्ट्वात्मानं सुखाच्युतम् / संसारेषु विचित्रेषु पच्यमानाः पुनः पुनः // 18 धार्तराष्ट्रांश्च दुर्वृत्तानुध्यतः प्रेक्ष्य सर्वशः // 4 मोघेष्टा मोघसंकल्पा मोघज्ञाना विचेतसः / कर्मणः पुरुषः कर्ता शुभस्याप्यशुभस्य च / सर्वातिशङ्किनश्चैव संवृत्ताः क्लेशभागिनः / खफलं तदुपाभाति कथं कर्ता स्विदीश्वरः॥५ अशुभैः कर्मभिश्चापि प्रायशः परिचिह्निताः // 19 अथ वा सुखदुःखेषु नृणां ब्रह्मविदां वर / दौष्कुल्या व्याधिबहुला दुरात्मानोऽप्रतापिनः / इह वा कृतमन्वेति परदेहेऽथ वा पुनः॥ 6 भवन्त्यल्पायुषः पापा रौद्रकर्मफलोदयाः। देही च देहं संत्यज्य मृग्यमाणः शुभाशुभैः / नाथन्तः सर्वकामानां नास्तिका भिन्नसेतवः // 20 कथं संयुज्यते प्रेत्य इह वा द्विजसत्तम // 7 जन्तोः प्रेतस्य कौन्तेय गतिः स्वैरिह कर्मभिः / ऐहलौकिकमेवैतदुताहो पारलौकिकम् / प्राज्ञस्य हीनबुद्धेश्च कर्मकोशः क तिष्ठति / / 21 क च कर्माणि तिष्ठन्ति जन्तोः प्रेतस्य भार्गव // 8- कस्थस्तत्समुपाश्नाति सुकृतं यदि वेतरत् / - 634 -
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________________ 8. 181. 22 ] आरण्यकपर्व [3. 182.1 इति ते दर्शनं यच तत्राप्यनुनयं शृणु // 22 / ये योगयुक्तास्तपसि प्रसक्ताः अयमादिशरीरेण देवसृष्टेन मानवः / स्वाध्यायशीला जरयन्ति देहान् / शुभानामशुभानां च कुरुते संचयं महत् // 23 / जितेन्द्रिया भूतहिते निविष्टाआयुषोऽन्ते प्रहायेदं क्षीणप्रायं कलेवरम् / स्तेषामसौ नायमरिन लोकः // 36 संभवत्येव युगपद्योनौ नास्त्यन्तराभवः // 24. ये धर्ममेव प्रथमं चरन्ति तवास्य स्वकृतं कर्म छायेवानुगतं सदा / धर्मेण लब्ध्वा च धनानि काले। , फलत्यथ सुखार्हो वा दुःखार्हो वापि जायते॥२५ दारानवाप्य क्रतुभिर्यजन्ते कृवान्तविधिसंयुक्तः स जन्तुर्लक्षणैः शुभैः / तेषामयं चैव परश्च लोकः // 37 अशुभैर्वा निरादानो लक्ष्यते ज्ञानदृष्टिमिः // 26 ये नैव विद्यां न तपो न दानं एषा तावदबुद्धीनां गतिरुक्ता युधिष्ठिर / न चापि मूढाः प्रजने यतन्ते / / अतः परं ज्ञानवतां निबोध गतिमुत्तमाम् // 27 न चाधिगच्छन्ति सुखान्यभाग्यामनुष्यास्तप्ततपसः सर्वागमपरायणाः / स्तेषामयं चैव परश्च नास्ति / / 38 स्थिरव्रताः सत्यपरा गुरुशुश्रूषणे रताः // 28 / सर्वे भवन्तस्त्वतिवीर्यसत्त्वा सुशीलाः शुक्लजातीयाः क्षान्ता दान्ताः सुतेजसः। दिव्यौजसः संहननोपपन्नाः / शुभयोन्यन्तरगताः प्रायशः शुभलक्षणाः // 29 लोकादमुष्मादवनि प्रपन्नाः जितेन्द्रियत्वाद्वशिनः शुक्लत्वान्मन्दरोगिणः / स्वधीतविद्याः सुरकार्यहेतोः // 39 अल्पबाधपरित्रासाद्भवन्ति निरुपद्रवाः // 30 कृत्वैव कर्माणि महान्ति शूराच्यवन्तं जायमानं च गर्भस्थं चैव सर्वशः / स्तपोदमाचारविहारशीलाः। खमात्मानं परं चैव बुध्यन्ते ज्ञानचक्षुषः / देवानृषीन्प्रेतगणांश्च सर्वाकर्मभूमिमिमां प्राप्य पुनर्यान्ति सुरालयम् // 31 न्सतर्पयित्वा विधिना परेण // 40 किंचिदैवाद्धठात्किंचित्किंचिदेव स्वकर्मभिः / स्वर्ग परं पुण्यकृतां निवासं प्राप्नुवन्ति नरा राजन्मा तेऽस्त्वन्या विचारणा॥३२ ___ क्रमेण संप्राप्स्यथ कर्मभिः स्वैः / इमामत्रोपमां चापि निबोध वदतां वर। मा भूद्विशङ्का तव कौरवेन्द्र मनुष्यलोके यच्छ्रेयः परं मन्ये युधिष्ठिर // 33 दृष्ट्वात्मनः क्लेशमिमं सुखार्ह // 41 इह वैकस्य नामुत्र अमुन्नैकस्य नो इह / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि इह चामुत्र चैकस्य नामुत्रैकस्य नो इह // 34 एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 181 // धनानि येषां विपुलानि सन्ति नित्यं रमन्ते सुविभूषिताङ्गाः। वैशंपायन उवाच। तेषामयं शत्रुवरघ्न लोको मार्कण्डेयं महात्मानमूचुः पाण्डुसुतास्तदा।। * नासौ सदा देहसुखे रतानाम् // 35 | माहात्म्यं द्विजमुख्यानां श्रोतुमिच्छाम कथ्यताम्॥१ - 635 -
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________________ 3. 182. 2] महाभारते [ 3. 183.. एवमुक्तः स भगवान्मार्कण्डेयो महातपाः / किमेतत्तपसो वीर्य येनायं जीवितः पुनः। उवाच सुमहातेजाः सर्वशास्त्रविशारदः // 2 श्रोतुमिच्छाम विप्रर्षे यदि श्रोतव्यमित्युत // 15 हैहयानां कुलकरो राजा परपुरंजयः / स तानुवाच नास्माकं मृत्युः प्रभवते नृपाः / / कुमारो रूपसंपन्नो मृगयामचरद्धली // 3 कारणं वः प्रवक्ष्यामि हेतुयोगं समासतः // 16 चरमाणस्तु सोऽरण्ये तृणवीरुत्समावृते / सत्यमेवाभिजानीमो नानृते कुर्महे मनः।। कृष्णाजिनोत्तरासङ्गं ददर्श मुनिमन्तिके / स्वधर्ममनुतिष्ठामस्तस्मान्मृत्युभयं न नः // 17 स तेन निहतोऽरण्ये मन्यमानेन वै मृगम् // 4 यद्ब्राह्मणानां कुशलं तदेषां कथयामहे / व्यथितः कर्म तत्कृत्वा शोकोपहतचेतनः / नैषां दुश्चरितं ब्रूमस्तस्मान्मृत्युभयं न नः // 18 ' जगाम हैहयानां वै सकाशं प्रथितात्मनाम् / / 5 अतिथीनन्नपानेन भृत्यानत्यशनेन च / राज्ञां राजीवनेत्रोऽसौ कुमारः पृथिवीपते / तेजस्विदेशवासाच्च तस्मान्मृत्युभयं न नः // 19 तेषां च तद्यथावृत्तं कथयामास वै तदा॥६ एतद्वै लेशमात्रं वः समाख्यातं विमत्सराः / तं चापि हिसितं तात मुनिं मूलफलाशिनम् / गच्छध्वं सहिताः सर्वे न पापाद्भयमस्ति वः // 2 // श्रुत्वा दृष्ट्वा च ते तत्र बभूवुर्दीनमानसाः // 7 एवमस्त्विति ते सर्वे प्रतिपूज्य महामुनिम् / कस्यायमिति ते सर्वे मार्गमाणास्ततस्ततः / / स्वदेशमगमन्हृष्टा राजानो भरतर्षभ // 21 . जग्मुश्चारिष्टनेमेस्ते तार्क्ष्यस्याश्रममञ्जसा // 8 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तेऽभिवाद्य महात्मानं तं मुनि संशितव्रतम् / द्वयशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 182 // तस्थुः सर्वे स तु मुनिस्तेषां पूजामथाहरत् // 9 ते तमूचुर्महात्मानं न वयं सक्रियां मुने। मार्कण्डेय उवाच / त्वत्तोऽर्हाः कर्मदोषेण ब्राह्मणो हिंसितो हि नः॥१० भूय एव तु माहात्म्यं ब्राह्मणानां निबोध मे। तानब्रवीत्स विप्रर्षिः कथं वो ब्राह्मणो हतः। वैन्यो नामेह राजर्षिरश्वमेधाय दीक्षितः / क चासौ ब्रूत सहिताः पश्यध्वं मे तपोबलम्॥११ तमत्रिर्गन्तुमारेभे वित्तार्थमिति नः श्रुतम् // 1 ते तु तत्सर्वमखिलमाख्यायास्मै यथातथम् / भूयोऽथ नानुरुध्यत्स धर्मव्यक्तिनिदर्शनात् / नापश्यंस्तमृषिं तत्र गतासुं ते समागताः / संचिन्त्य स महातेजा वनमेवान्वरोचयत् / अन्वेषमाणाः सव्रीडाः स्वप्नवद्गतमानसाः॥ 12 धर्मपत्नीं समाहूय पुत्रांश्चेदमुवाच ह // 2 तानब्रवीत्तत्र मुनिस्तायः परपुरंजयः / प्राप्स्यामः फलमत्यन्तं बहुलं निरुपद्रवम् / स्यादयं ब्राह्मणः सोऽथ यो युष्माभिर्विनाशितः / अरण्यगमनं क्षिप्रं रोचतां वो गुणाधिकम् // 3 पुत्रो ह्ययं मम नृपास्तपोबलसमन्वितः // 13 तं भार्या प्रत्युवाचेदं धर्ममेवानुरुध्यती / ते तु दृष्ट्वैव तमृषि विस्मयं परमं गताः। वैन्यं गत्वा महात्मानमर्थयस्व धनं बहु / महदाश्चर्यमिति वै विब्रुवाणा महीपते // 14 स ते दास्यति राजर्षिर्यजमानोऽर्थिने धनम // 4 मृतो ह्ययमतो दृष्टः कथं जीवितमाप्तवान् / तत आदाय विप्रर्षे प्रतिगृह्य धनं बहु / -636 -
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________________ 8. 183. 5] आरम्यकपर्व [3. 183. 29 भृत्यान्सुतान्संविभज्य ततो व्रज यथेप्सितम् / प्रवेशः केन दत्तोऽयमनयोर्वैन्यसंसदि / एष वै परमो धर्मो धर्मविद्भिरुदाहृतः // 5 . उच्चैः समभिभाषन्तौ केन कार्येण विष्ठितौ // 15 अत्रिरुवाच / ततः परमधर्मात्मा काश्यपः सर्वधर्मवित् / कथितो मे महाभागे गौतमेन महात्मना। विवादिनावनुप्राप्तौ तावुभौ प्रत्यवेदयत् // 18 / वैन्यो धर्मार्थसंयुक्तः सत्यव्रतसमन्वितः॥ 6 अथाब्रवीत्सदस्यांस्तु गौतमो मुनिसत्तमान् / / किं त्वस्ति तत्र द्वेष्टारो निवसन्ति हि मे द्विजाः / आवयोाहृतं प्रश्नं शृणुत द्विजपुंगवाः। . यथा मे गौतमः प्राह ततो न व्यवसाम्यहम् // 7 वैन्यो विधातेत्याहात्रिरत्र नः संशयो महान् // 19 तत्र स्म वाचं कल्याणी धर्मकामार्थसंहिताम् / श्रुत्वैव तु महात्मानो मुनयोऽभ्यद्रवन्द्रुतम् / मयोक्तामन्यथा युस्ततस्ते वै निरर्थकाम् / / 8 सनत्कुमारं धर्मज्ञं संशयच्छेदनाय वै // 20 . गमिष्यामि महाप्राज्ञे रोचते मे वचस्तव। स च तेषां वचः श्रुत्वा यथातत्त्वं महातपाः / गाश्च मे दास्यते वैन्यः प्रभूतं चार्थसंचयम् // 9 प्रत्युवाचाथ तानेवं धर्मार्थसहितं वचः // 21 मार्कण्डेय उवाच / सनत्कुमार उवाच / एवमुक्त्वा जगामाशु वैन्ययज्ञं महातपाः। ब्रह्म क्षत्रेण सहितं क्षत्रं च ब्रह्मणा सह / गत्वा च यज्ञायतनमत्रिस्तुष्टाव तं नृपम् // 10 राजा वै प्रथमो धर्मः प्रजानां पतिरेव च / / राजन्वैन्य त्वमीशश्च भुवि त्वं प्रथमो नृपः। स एव शक्रः शुक्रश्च स धाता स बृहस्पतिः // 22 स्तुवन्ति त्वां मुनिगणास्त्वदन्यो नास्ति धर्मवित्॥११ प्रजापतिविराट् सम्राट् क्षत्रियो भूपतिर्नृपः। तमब्रवीदृषिस्तत्र वचः क्रुद्धो महातपाः। य एभिः स्तूयते शब्दैः कस्तं नार्चितुमर्हति // 23 मैवमत्रे पुनर्ब्रया न ते प्रज्ञा समाहिता। पुरायोनियुधाजिच्च अभिया मुदितो भवः / अत्र नः प्रथम स्थाता महेन्द्रो वै प्रजापतिः // 12 स्वर्णेता सहजिभ्रुरिति राजाभिधीयते // 24 अथात्रिरपि राजेन्द्र गौतमं प्रत्यभाषत / सत्यमन्युयुधाजीवः सत्यधर्मप्रवर्तकः / अयमेव विधाता च यथैवेन्द्रः प्रजापतिः / अधर्मादृषयो भीता बलं क्षत्रे समादधन् // 25 त्वमेव मुह्यसे मोहान्न प्रज्ञानं तवास्ति ह // 13 आदित्यो दिवि देवेषु तमो नुदति तेजसा / गौतम उवाच / तथैव नृपतिर्भूमावधर्म नुदते भृशम् // 26 जानामि नाहं मुह्यामि त्वं विवक्षुर्विमुह्यसे / : अतो राज्ञः प्रधानत्वं शास्त्रप्रामाण्यदर्शनात् / स्तोष्यसेऽभ्युदयप्रेप्सुस्तस्य दर्शनसंश्रयात् // 14 उत्तरः सिध्यते पक्षो येन राजेति भाषितम् // 27 न वेत्थ परमं धर्म न चावैषि प्रयोजनम् / मार्कण्डेय उवाच / बालस्त्वमसि मूढश्च वृद्धः केनापि हेतुना // 15 ततः स राजा संहृष्टः सिद्धे पक्षे महामनाः / मार्कण्डेय उवाच। तमत्रिमब्रवीत्प्रीतः पूर्वं येनाभिसंस्तुतः // 28 विवदन्तौ तथा तौ तु मुनीनां दर्शने स्थितौ। / | यस्मात्सर्वमनुष्येषु ज्यायांसं मामिहाब्रवीः। ये तस्य यज्ञे संवृत्तास्तेऽपृच्छन्त कथं त्विमौ // 16 / सर्वदेवैश्च विप्रर्षे संमितं श्रेष्ठमेव च। -637 -
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________________ 3. 183. 29 ] महामारते [3. 184.10 तस्मात्तेऽहं प्रदास्यामि विविधं वसु भूरि च // 29 स्वाध्यायनित्यः शुचिरप्रमत्तः। दासीसहस्रं श्यामानां सुवस्त्राणामलंकृतम् / स वै पुरो देवपुरस्य गन्ता दश कोट्यो हिरण्यस्य रुक्मभारांस्तथा दश। महामरैः प्राप्नुयात्प्रीतियोगम् // 5 एतददानि ते विप्र सर्वज्ञस्त्वं हि मे मतः // 30 तत्र स्म रम्या विपुला विशोकाः तदविन्यायतः सर्वं प्रतिगृह्य महामनाः / सुपुष्पिताः पुष्करिण्यः सुपुण्याः। प्रत्याजगाम तेजस्वी गृहानेव महातपाः // 31 . भकर्दमा मीनवत्यः सुतीर्था प्रदाय च धनं प्रीतः पुत्रेभ्यः प्रयतात्मवान् / __ हिरण्मयैरावृताः पुण्डरीकैः // 6 तपः समभिसंधाय वनमेवान्वपद्यत // 32 . तासां तीरेष्वासते पुण्यकर्मा इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि ___ महीयमानः पृथगप्सरोभिः। ज्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 183 // सुपुण्यगन्धाभिरलंकृताभि-.. .. ___ हिरण्यवर्णाभिरतीव हृष्टः // 7 मार्कण्डेय उवाच / परं लोकं गोपदास्त्वाप्नुवन्ति / अत्रैव च सरस्वत्या गीतं परपुरंजय। ___ दत्त्वानड़ाहं सूर्यलोकं व्रजन्ति। पृष्टया मुनिना वीर शृणु ताक्ष्येण धीमता // 1 वासो दत्त्वा चन्द्रमसः स लोकं ताक्ष्य उवाच / दत्त्वा हिरण्यममृतत्वमेति // 8 किं नु श्रेयः पुरुषस्येह भद्रे धेनुं दत्त्वा सुव्रतां साधुदोहां - कथं कुर्वन्न च्यवते स्वधर्मात् / कल्याणवत्सामपलायिनी च। आचक्ष्व मे चारसर्वाङ्गि सर्व यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्यात्वयानुशिष्टो न च्यवेयं स्वधर्मात् // 2 स्तावद्वर्षाण्यश्नुते स्वर्गलोकम् // 9 कथं चाग्निं जुहुयां पूजये वा अनडाहं सुव्रतं यो ददाति - कस्मिन्काले केन धर्मो न नश्येत् / हलस्य वोढारमनन्तवीर्यम् / एतत्सर्वं सुभगे प्रब्रवीहि धुरंधरं बलवन्तं युवानं ___ यथा लोकान्विरजाः संचरेयम् // 3 . प्राप्नोति लोकान्दश धेनुदस्य // 10 मार्कण्डेय उवाच / यः सप्त वर्षाणि जुहोति तार्क्ष्य - एवं पृष्टा प्रीतियुक्तेन तेन . हव्यं त्वग्नौ सुव्रतः साधुशीलः / शुश्रूषुमीक्ष्योत्तमबुद्धियुक्तम् / सप्तावरान्सप्त पूर्वान्पुनाति ताक्ष्यं विप्रं धर्मयुक्तं हितं च पितामहानात्मनः कर्मभिः स्वैः॥११ - सरस्वती वाक्यमिदं बभाषे // 4 ___ तार्य उवाच / सरस्वत्युवाच / किमग्निहोत्रस्य व्रतं पुराणयो ब्रह्म जानाति यथाप्रदेशं माचक्ष्व मे पृच्छतश्वारुरूपे / - 638 -
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________________ 8. 184. 12] आरनकार्व [3. 184. 25 त्वयानुशिष्टोऽहमिहाद्य विद्या सरस्वत्युवाच / यदग्निहोत्रस्य व्रतं पुराणम् // 12 श्रेष्ठानि यानि द्विपदां वरिष्ठ सरस्वत्युवाच / यज्ञेषु विद्वन्नुपपादयन्ति / न चाशुचिर्नाप्यनिर्णिक्तपाणि तैरेवाहं संप्रवृद्धा भवामि ब्रिह्मविजुहुयान्नाविपश्चित् / __ आप्यायिता रूपवती च विप्र // 19 बुभुक्षवः शुचिकामा हि देवा यचापि द्रव्यमुपयुज्यते ह ___नाश्रधानाद्धि हविर्जुषन्ति॥१३ वानस्पत्यमायसं पार्थिवं वा। नाश्रोत्रियं देवव्ये नियुझ्या दिव्येन रूपेण च प्रज्ञया च ___ मोघं परा सिञ्चति तादृशो हि। तेनैव सिद्धिरिति विद्धि विद्वन् // 20 अपूर्णमश्रोत्रियमाह तार्क्ष्य ताक्ष्य उवाच / __ न वै तारग्जुहुयादग्निहोत्रम् // 14 कृशानुं ये जुह्वति श्रद्दधानाः इदं श्रेयः परमं मन्यमाना व्यायच्छन्ते मुनयः संप्रतीताः। . सत्यव्रता हुतशिष्टाशिनश्च / गवां लोकं प्राप्य ते पुण्यगन्धं आचक्ष्व मे तं परमं विशोकं मोक्षं परं यं प्रविशन्ति धीराः॥ 21 पश्यन्ति देवं परमं चापि सत्यम् // 15 तार्य उवाच / सरस्वत्युवाच। क्षेत्राभूतां परलोकभावे तं वै परं वेदविदः प्रपन्नाः कर्मोदये बुद्धिमतिप्रविष्टाम् / ___परं परेभ्यः प्रथितं पुराणम् / प्रज्ञां च देवीं सुभगे विमृश्य स्वाध्यायदानव्रतपुण्ययोगै... पृच्छामि त्वां का ह्यसि चारुरूपे // 16 स्तपोधना वीतशोका विमुक्ताः // 22 सरस्वत्युवाच / तस्याथ मध्ये वेतसः पुण्यगन्धः अमिहोत्रादहमभ्यागतास्मि सहस्रशाखो विमलो विभाति। विप्रर्षभाणां संशयच्छेदनाय / . तस्य मूलात्सरितः प्रस्रवन्ति त्वत्संयोगादहमेतब्रुवं मधूदकप्रस्रवणा रमण्यः // 23 // भावे स्थिता तथ्यमर्थं यथावत् // 17 शाखा शाखां महानद्यः संयान्ति सिकतासमाः। ताक्ष्य उवाच / धानापूपा मांसशाकाः सदा पायसकर्दमाः॥ 24 न हि त्वया सदृशी काचिदस्ति यस्मिन्नग्निमुखा देवाः सेन्द्राः सह मरुद्गणैः / / विभ्राजसे ह्यतिमात्रं यथा श्रीः। . ईजिरे ऋतुभिः श्रेष्ठैस्तत्पदं परमं मुने // 25 .. रूपं च ते दिव्यमत्यन्तकान्तं इति श्रीमहाभारते मारण्यकपर्वणि . प्रज्ञां च देवीं सुभगे बिभर्षि // 18 चतुरशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१४॥ -639 -
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________________ 3. 185.1] महाभारते [3. 185. 28 भगवन्साधु मेऽद्यान्यत्स्थानं संप्रतिपादय // 14 वैशंपायन उवाच / उद्धृत्यालिञ्जरात्तस्मात्ततः स भगवान्मुनिः / ततः स पाण्डवो भूयो मार्कण्डेयमुवाच ह / तं मत्स्यमनयद्वापी महतीं स मनुस्तदा // 15 कथयस्वेह चरितं मनोवैवस्वतस्य मे // 1 तत्र तं प्राक्षिपञ्चापि मनुः परपुरंजय / मार्कण्डेय उवाच / अथावर्धत मत्स्यः स पुनर्वर्षगणान्बहून् // 16 विवस्वतः सुतो राजन्परमर्षिः प्रतापवान् / द्वियोजनायता वापी विस्तृता चापि योजनम् / बभूव नरशार्दूल प्रजापतिसमद्युतिः // 2 तस्यां नासौ समभवन्मत्स्यो राजीवलोचन / ओजसा तेजसा लक्ष्म्या तपसा च विशेषतः / विचेष्टितुं वा कौन्तेय मत्स्यो वाप्यां विशां पते // 17 अतिचक्राम पितरं मनुः स्वं च पितामहम् // 3 मनुं मत्स्यस्ततो दृष्ट्वा पुनरेवाभ्यभाषत / ऊर्ध्वबाहुर्विशालायां बदर्यां स नराधिपः / नय मां भगवन्साधो समुद्रमहिषीं प्रभो / एकपादस्थितस्तीव्र चचार सुमहत्तपः // 4 गङ्गां तत्र निवत्स्यामि यथा वा तात मन्यसे // 18 अवाक्शिरास्तथा चापि नेत्रैरनिमिषैर्दृढम् / एवमुक्तो मनुर्मत्स्यमनयद्भगवान्वशी / सोऽतप्यत तपो घोरं वर्षाणामयुतं तदा // 5 नदीं गङ्गां तत्र चैनं स्वयं प्राक्षिपदच्युतः॥ 19 तं कदाचित्तपस्यन्तमार्द्रचीरजटाधरम् / . स तत्र ववृधे मत्स्यः किंचित्कालमरिंदम।। वीरिणीतीरमागम्य मत्स्यो वचनमब्रवीत् // 6 ततः पुनर्मनुं दृष्ट्वा मत्स्यो वचनमब्रवीत् // 20 भगवन्क्षुद्रमत्स्योऽस्मि बलवद्भ्यो भयं मम। गङ्गायां हि न शक्नोमि बृहत्त्वाच्चेष्टितुं प्रभो। मत्स्येभ्यो हि ततो मां त्वं त्रातुमर्हसि सुव्रत // 7 समुद्रं नय मामाशु प्रसीद भगवन्निति // 21 दुर्बलं बलवन्तो हि मत्स्यं मत्स्या विशेषतः / / उद्धृत्य गङ्गासलिलात्ततो मत्स्यं मनुः स्वयम् / भक्षयन्ति यथा वृत्तिर्विहिता नः सनातनी // 8 समुद्रमनयत्पार्थ तत्र चैनमवासृजत् // 22 तस्माद्भयौघान्महतो मज्जन्तं मां विशेषतः / सुमहानपि मत्स्यः सन्स मनोर्मनसस्तदा। त्रातुमर्हसि कर्तास्मि कृते प्रतिकृतं तव // 9 आसीद्यथेष्टहार्यश्च स्पर्शगन्धसुखश्च वै / / 23 स मत्स्यवचनं श्रुत्वा कृपयाभिपरिप्लुतः / यदा समुद्रे प्रक्षिप्तः स मत्स्यो मनुना तदा / मनुर्वैवस्वतोऽगृह्णात्तं मत्स्य पाणिना स्वयम् // 10 तत एनमिदं वाक्यं स्मयमान इवाब्रवीत् / / 24 उदकान्तमुपानीय मत्स्यं वैवस्वतो मनुः / भगवन्कृता हि मे रक्षा त्वया सर्वा विशेषतः / अलिञ्जरे प्राक्षिपत्स चन्द्रांशुसदृशप्रभम् // 11 प्राप्तकालं तु यत्कार्य त्वया तच्छ्रयतां मम // 25 स तत्र ववृधे राजन्मत्स्यः परमसत्कृतः / अचिराद्भगवन्भौममिदं स्थावरजङ्गमम् / पुत्रवञ्चाकरोत्तस्मिन्मनुर्भावं विशेषतः।। 12 / सर्वमेव महाभाग प्रलयं वै गमिष्यति // 26 अथ कालेन महता स मत्स्यः सुमहानभूत् / संप्रक्षालनकालोऽयं लोकानां समुपस्थितः / अलिञ्जरे जले चैव नासौ समभवत्किल // 13 तस्मात्त्वां बोधयाम्यद्य यत्ते हितमनुत्तमम् // 27 अथ मत्स्यो मनुं दृष्ट्वा पुनरेवाभ्यभाषत / त्रसानां स्थावराणां च यच्चङ्गं यच्च नेङ्गति / -640 -
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________________ 8. 185. 28 ] आरण्यकपर्व [3. 185. 54 तस्य सर्वस्य संप्राप्तः कालः परमदारुणः // 28 अदृश्यन्त सप्तर्षयो मनुमत्स्यः सहैव ह // 42 नौश्च कारयितव्या ते दृढा युक्तवटाकरा। एवं बहून्वर्षगणांस्तां नावं सोऽथ मत्स्यकः / तत्र सप्तर्षिभिः सार्धमारुहेथा महामुने // 29 चकर्षातन्द्रितो राजस्तस्मिन्सलिलसंचये // 43 बीजानि चैव सर्वाणि यथोक्तानि मया पुरा / ततो हिमवतः शृङ्गं यत्परं पुरुषर्षभ / तस्यामारोहयेर्नावि सुसंगुप्तानि भागशः // 30 तत्राकर्षत्ततो नावं स मत्स्यः कुरुनन्दन // 44 नौस्थश्च मां प्रतीक्षेथास्तदा मुनिजनप्रिय / ततोऽब्रवीत्तदा मत्स्यस्तानृषीन्प्रहसशनैः / आगमिष्याम्यहं शृङ्गी विज्ञेयस्तेन तापस // 31 अस्मिन्हिमवतः शृङ्गे नावं बध्नीत माचिरम् // 45 एवमेतत्त्वया कार्यमापृष्टोऽसि व्रजाम्यहम् / सा बद्धा तत्र तैस्तूर्णमृषिभिर्भरतर्षभ / नातिशङ्कयमिदं चापि वचनं ते ममाभिभो // 32 नौमत्स्यस्य वचः श्रुत्वा शृङ्गे हिमवतस्तदा // 46 एवं करिष्य इति तं स मत्स्यं प्रत्यभाषत / तच्च नौबन्धनं नाम शृङ्गं हिमवतः परम् / जग्मतुश्च यथाकाममनुज्ञाप्य परस्परम् // 33 ख्यातमद्यापि कौन्तेय तद्विद्धि भरतर्षभ // 47 ततो मनुर्महाराज यथोक्तं मत्स्यकेन ह / अथाब्रवीदनिमिषस्तानृषीन्सहितांस्तदा। बीजान्यादाय सर्वाणि सागरं पुप्लुवे तदा / अहं प्रजापतिर्ब्रह्मा मत्परं नाधिगम्यते / नावा तु शुभया वीर महोर्मिणमरिंदम // 34 मत्स्यरूपेण यूयं च मयास्मान्मोक्षिता भयात् // चिन्तयामास च मनुस्तं मत्स्यं पृथिवीपते / मनुना च प्रजाः सर्वाः सदेवासुरमानवाः / स च तच्चिन्तितं ज्ञात्वा मत्स्यः परपुरंजय / स्रष्टव्याः सर्वलोकाश्च यच्चेङ्गं यच्च नेङ्गति // 49 शृङ्गी तत्राजगामाशु तदा भरतसत्तम // 35 तं दृष्ट्वा मनुजेन्द्रेन्द्र मनुमत्स्यं जलार्णवे / तपसा चातितीव्रण प्रतिभास्य भविष्यति / शृङ्गिणं तं यथोक्तेन रूपेणाद्रिमिवोच्छ्रितम् // 36 मत्प्रसादात्प्रजासर्गे न च मोहं गमिष्यति // 50 वटाकरमयं पाशमथ मत्स्यस्य मूर्धनि / इत्युक्त्वा वचनं मत्स्यः क्षणेनादर्शनं गतः / मनुर्मनुजशार्दूल तस्मिशृङ्गे न्यवेशयत् // 37 स्रष्टुकामः प्रजाश्चापि मर्नुर्वैवस्वतः स्वयम् / संयतस्तेन पाशेन मत्स्यः परपुरंजय / प्रमूढोऽभूत्प्रजासर्गे तपस्तेपे महत्ततः // 51 वेगेन महता नावं प्राकर्षल्लवणाम्भसि // 38 तपसा महता युक्तः सोऽथ स्रष्टुं प्रचक्रमे / स ततार तया नावा समुद्रं मनुजेश्वर / सर्वाः प्रजा मनुः साक्षाद्यथावद्भरतर्षभ // 52 नृत्यमानमिवोर्मीभिर्गर्जमानमिवाम्भसा // 39 इत्येतन्मात्स्यकं नाम पुराणं परिकीर्तितम् / क्षोभ्यमाणा महावातैः सा नौस्तस्मिन्महोदधौ / आख्यानमिदमाख्यातं सर्वपापहरं मया // 53 घूर्णते चपलेव स्त्री मत्ता परपुरंजय // 40 य इदं शृणुयान्नित्यं मनोश्चरितमादितः / नैव भूमिर्न च दिशः प्रदिशो वा चकाशिरे। स सुखी सर्वसिद्धार्थः स्वर्गलोकमियान्नरः // 54 सर्वमाम्भसमेवासीत्वं द्यौश्च नरपुंगव // 41 / / ___ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एवंभूते तदा लोके संकुले भरतर्षभ। पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 185 // . म. भा. 81 , -641 -
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________________ 3. 186. 1] महाभारते [3. 186.27 य एष पृथुदीर्घाक्षः पीतवासा जनार्दनः / वैशंपायन उवाच। एष कर्ता विकर्ता च सर्वभावनभूतकृत् // 14 ततः स पुनरेवाथ मार्कण्डेयं यशखिनम् / अचिन्त्यं महदाश्चर्य पवित्रमपि चोत्तमम् / पप्रच्छ विनयोपेतो धर्मराजो युधिष्ठिरः // 1 अनादिनिधनं भूतं विश्वमक्षयमव्ययम् // 15 नैके युगसहस्रान्तास्त्वया दृष्टा महामुने।। एष कर्ता न क्रियते कारणं चापि पौरुषे / न चापीह समः कश्चिदायुषा तव विद्यते / यो ह्येनं पुरुष वेत्ति देवा अपि न तं विदुः॥१६ वर्जयित्वा महात्मानं ब्रह्माणं परमेष्ठिनम् // 2 सर्वमाश्चर्यमेवैतन्निवृत्तं राजसत्तम / अनन्तरिक्षे लोकेऽस्मिन्देवदानववर्जिते / आदितो मनुजव्याघ्र कृत्स्नस्य जगतः क्षये // 17 त्वमेव प्रलये विप्र ब्रह्माणमुपतिष्ठसि // 3 चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम् / प्रलये चापि निवृत्ते प्रबुद्धे च पितामहे / तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च ततः परम् // 18 त्वमेव सृज्यमानानि भूतानीह प्रपश्यसि // 4 त्रीणि वर्षसहस्राणि त्रेतायुगमिहोच्यते / चतुर्विधानि विप्रर्षे यथावत्परमेष्ठिना / तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च ततः परम्॥१९ वायुभूता दिशः कृत्वा विक्षिप्यापस्ततस्ततः // 5 तथा वर्षसहस्रे द्वे द्वापरं परिमाणतः / त्वया लोकगुरुः साक्षात्सर्वलोकपितामहः / तस्यापि द्विशती संध्या संध्यांशश्च ततः परम् // 20 आराधितो द्विजश्रेष्ठ तत्परेण समाधिना // 6 सहस्रमेकं वर्षाणां ततः कलियुगं स्मृतम् / तस्मात्सर्वान्तको मृत्युर्जरा वा देहनाशिनी / तस्य वर्षशतं संध्या संध्यांशश्च ततः परम् / न त्वा विशति विप्रर्षे प्रसादात्परमेष्ठिनः // 7 संध्यासंध्यांशयोस्तुल्यं प्रमाणमुपधारय // 21 यदा नैव रविर्नाग्निर्न वायुनं च चन्द्रमाः / क्षीणे कलियुगे चैव प्रवर्तति कृतं युगम् / नैवान्तरिक्षं नैवोर्वी शेषं भवति किंचन // 8 एषा द्वादशसाहस्री युगाख्या परिकीर्तिता // 22 तस्मिन्नेकार्णवे लोके नष्टे स्थावरजङ्गमे। एतत्सहस्रपर्यन्तमहो ब्राह्ममुदाहृतम् / नष्टे देवासुरगणे समुत्सन्नमहोरगे॥९ विश्वं हि ब्रह्मभवने सर्वशः परिवर्तते / शयानममितात्मानं पद्मे पद्मनिकेतनम् / लोकानां मनुजव्याघ्र प्रलयं तं विदुर्बुधाः // 23 त्वमेकः सर्वभूतेशं ब्रह्माणमुपतिष्ठसि // 10 अल्पावशिष्टे तु तदा युगान्ते भरतर्षभ / एतत्प्रत्यक्षतः सर्वं पूर्ववृत्तं द्विजोत्तम / सहस्रान्ते नराः सर्वे प्रायशोऽनृतवादिनः // 24 तस्मादिच्छामहे श्रोतुं सर्वहेत्वात्मिकां कथाम्॥११ यज्ञप्रतिनिधिः पार्थ दानप्रतिनिधिस्तथा / अनुभूतं हि बहुशस्त्वयैकेन द्विजोत्तम / व्रतप्रतिनिधिश्चैव तस्मिन्काले प्रवर्तते॥२५ नतेऽस्यविदितं किंचित्सर्वलोकेषु नित्यदा / / 12 / ब्राह्मणाः शूद्रकमाणस्तथा शुद्रा धनार्जकाः / . मार्कण्डेय उवाच / क्षत्रधर्मेण वाप्यत्र वर्तयन्ति गते युगे // 26 हन्त ते कथयिष्यामि नमस्कृत्वा स्वयंभुवे / निवृत्तयज्ञस्वाध्यायाः पिण्डोदकविवर्जिताः। पुरुषाय पुराणाय शाश्वतायाव्ययाय च // 13 / ब्राह्मणाः सर्वभक्षाश्च भविष्यन्ति कलौ युगे // 27 - 642 -
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________________ 3. 186. 28 ] आरण्यकपर्व [3. 186. 56 अजपा ब्राह्मणास्तात शूद्रा जपपरायणाः। आश्रमेषु वृथाचाराः पानपा गुरुतल्पगाः। .. विपरीते तदा लोके पूर्वरूपं क्षयस्य तत् // 28 ऐहलौकिकमीहन्ते मांसशोणितवर्धनम् // 42 बहवो म्लेच्छराजानः पृथिव्यां मनुजाधिप। बहुपाषण्डसंकीर्णाः परानगुणवादिनः। मिध्यानुशासिनः पापा मृषावादपरायणाः // 29 आश्रमा मनुजव्याघ्र न भवन्ति युगक्षये // 43 . आन्ध्राः शकाः पुलिन्दाश्च यवनाश्च नराधिपाः। यथर्तुवर्षी भगवान्न तथा पाकशासनः। काम्बोजा और्णिकाः शूद्रास्तथामीरा नरोत्तम॥३० न तदा सर्वबीजानि सम्यग्रोहन्ति भारत / न तदा ब्राह्मणः कश्चित्स्वधर्ममुपजीवति / अधर्मफलमत्यर्थं तदा भवति चानघ // 44 क्षत्रिया अपि वैश्याश्च विकर्मस्था नराधिप / 31 तथा च पृथिवीपाल यो भवेद्धर्मसंयुतः। अल्पायुषः स्वल्पबला अल्पतेजःपराक्रमाः। अल्पायुः स हि मन्तव्यो न हि धर्मोऽस्ति कश्चन // अल्पदेहाल्पसाराश्च तथा सत्याल्पभाषिणः / / 32 भूयिष्ठं कूटमानैश्च पण्यं विक्रीणते जनाः। बहुशून्या जनपदा मृगव्यालावृता दिशः / वणिजश्च नरव्याघ्र बहुमाया भवन्त्युत // 46 . युगान्ते समनुप्राप्ते वृथा च ब्रह्मचारिणः / / धर्मिष्ठाः परिहीयन्ते पापीयान्वर्धते जनः / भोवादिनस्तथा शूद्रा ब्राह्मणाश्चार्यवादिनः // 33 धर्मस्य बलहानिः स्यादधर्मश्च बली तथा // 47 युगान्ते मनुजव्याघ्र भवन्ति बहुजन्तवः। अल्पायुषो दरिद्राश्च धर्मिष्ठा मानवास्तदा / न तथा घ्राणयुक्ताश्च सर्वगन्धा विशां पते / दीर्घायुषः समृद्धाश्च विधर्माणो युगक्षये // 48 रसाश्च मनुजव्याघ्र न तथा स्वादुयोगिनः // 34 अधर्मिष्ठरुपायैश्च प्रजा व्यवहरन्त्युत / बहुप्रजा ह्रस्वदेहाः शीलाचारविवर्जिताः। संचयेनापि चाल्पेन भवन्त्याढ्या मदान्विताः॥४९ मुखेभगाः स्त्रियो राजन्भविष्यन्ति युगक्षये // 35 धनं विश्वासतो न्यस्तं मिथो भूयिष्ठशो नराः।। अट्टशूला जनपदाः शिवशूलाश्चतुष्पथाः / हतुं व्यवसिता राजन्मायाचारसमन्विताः॥ 50 केशशूलाः स्त्रियो राजन्भविष्यन्ति युगक्षये // 36 पुरुषादानि सत्त्वानि पक्षिणोऽथ मृगास्तथा / अल्पक्षीरास्तथा गावो भविष्यन्ति जनाधिप / नगराणां विहारेषु चैत्येष्वपि च शेरते // 51 अल्पपुष्पफलाश्चापि पादपा बहुवायसाः // 37 सप्तवर्षाष्टवर्षाश्च स्त्रियो गर्भधरा नृप। ब्रह्मवध्यावलिप्तानां तथा मिथ्याभिशंसिनाम् / दशद्वादशवर्षाणां पुंसां पुत्रः प्रजायते // 52 . नृपाणां पृथिवीपाल प्रतिगृह्णन्ति वै द्विजाः॥ 38 भवन्ति षोडशे वर्षे नराः पलितिनस्तथा। लोभमोहपरीताश्च मिथ्याधर्मध्वजावृताः। आयुःक्षयो मनुष्याणां क्षिप्रमेव प्रपद्यते // 53 मिक्षार्थ पृथिवीपाल चञ्चर्यन्ते द्विजैर्दिशः // 39 क्षीणे युगे महाराज तरुणा वृद्धशीलिनः / करभारभयात्पुंसो गृहस्थाः परिमोषकाः / तरुणानां च यच्छीलं तद्वृद्धेषु प्रजायते // 54 मुनिच्छद्माकृतिच्छन्ना वाणिज्यमुपजीवते // 40 . विपरीतास्तदा नार्यो वश्चयित्वा रहः पतीन् / मिथ्या च नखरोमाणि धारयन्ति नरास्तदा।। व्युच्चरन्त्यपि दुःशीला दासैः पशुभिरेव च // 55 अर्थलोभान्नरव्याघ्र वृथा च ब्रह्मचारिणः / / 41 तस्मिन्युगसहस्रान्ते संप्राप्ते चायुषः क्षये / - 643 -
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________________ 8. 186. 56] महाभारते [ 3. 186.85 अनावृष्टिर्महाराज जायते बहुवार्षिकी / / 56 ततस्ते जलदा घोरा राविणः पुरुषर्षभ / ततस्तान्यल्पसाराणि सत्त्वानि क्षुधितानि च / सर्वतः प्लावयन्त्याशु चोदिताः परमेष्ठिना / / 71 प्रलयं यान्ति भूयिष्ठं पृथिव्यां पृथिवीपते // 57 वर्षमाणा महत्तोयं पूरयन्तो वसुंधराम् / ततो दिनकरैर्दीप्तैः सप्तभिर्मनुजाधिप / सुघोरमशिवं रौद्रं नाशयन्ति च पावकम् // 72 पीयते सलिलं सर्व समुद्रेषु सरित्सु च // 58 ततो द्वादश वर्षाणि पयोदास्त उपप्लवे / यच्च काष्ठं तृणं चापि शुष्कं चा च भारत / धाराभिः पूरयन्तो वै चोद्यमाना महात्मना // 73 सर्व तद्भस्मसाद्भूतं दृश्यते भरतर्षभ // 59 ततः समुद्रः स्वां वेलामतिक्रामति भारत / ततः संवर्तको वह्निर्वायुना सह भारत / पर्वताश्च विशीयन्ते मही चापि विशीर्यते // 74 लोकमाविशते पूर्वमादित्यैरुपशोषितम् // 60 सर्वतः सहसा भ्रान्तास्ते पयोदा नभस्तलम् / ततः स पृथिवीं भित्त्वा समाविश्य रसातलम् / संवेष्टयित्वा नश्यन्ति वायुवेगपराहताः // 75 देवदानवयक्षाणां भयं जनयते महत् // 61 ततस्तं मारुतं घोरं स्वयंभूर्मनुजाधिप / निर्दहन्नागलोकं च यच्च किंचित्क्षिताविह / आदिपद्मालयो देवः पीत्वा स्वपिति भारत // 76 अधस्तात्पृथिवीपाल सर्वं नाशयते क्षणात् // 62 तस्मिन्नेकार्णवे घोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे / ततो योजनविंशानां सहस्राणि शतानि च / / नष्टे देवासुरगणे यक्षराक्षसवर्जिते // 77 निर्दहत्यशिवो वायुः स च संवर्तकोऽनलः // 63 निर्मनुष्ये महीपाल निःश्वापदमहीरहे / सदेवासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् / अनन्तरिक्षे लोकेऽस्मिन्भ्रमाम्येकोऽहमादृतः // 78 ततो दहति दीप्तः स सर्वमेव जगद्विभुः 64 एकार्णवे जले घोरे विचरन्पार्थिवोत्तम / ततो गजकुलप्रख्यास्तडिन्मालाविभूषिताः / अपश्यन्सर्वभूतानि वैक्लव्यमगमं परम् // 79 . उत्तिष्ठन्ति महामेघा नभस्यद्भुतदर्शनाः / / 65 ततः सुदीर्घ गत्वा तु प्लवमानो नराधिप / केचिन्नीलोत्पलश्यामाः केचित्कुमुदसंनिभाः। श्रान्तः क्वचिन्न शरणं लभाम्यहमतन्द्रितः // 80 केचित्किञ्जल्कसंकाशाः केचित्पीताः पयोधराः॥६६ ततः कदाचित्पश्यामि तस्मिन्सलिलसंप्लवे / केचिद्धारिद्रसंकाशाः काकाण्डकनिभास्तथा / न्यग्रोधं सुमहान्तं वै विशालं पृथिवीपते // 81 केचित्कमलपत्राभाः केचिद्धिमुलकप्रभाः // 67 शाखायां तस्य वृक्षस्य विस्तीर्णायां नराधिप / केचित्पुरवराकाराः केचिद्गजकुलोपमाः / पर्यके पृथिवीपाल दिव्यास्तरणसंस्तृते / / 82 केचिदञ्जनसंकाशाः केचिन्मकरसंस्थिताः / उपविष्टं महाराज पूर्णेन्दुसदृशाननम् / विद्युन्मालापिनद्धाङ्गाः समुत्तिष्ठन्ति वै घनाः // 68 फुल्लपद्मविशालाक्षं बालं पश्यामि भारत // 83 घोररूपा महाराज घोरस्वननिनादिताः / ततो मे पृथिवीपाल विस्मयः सुमहानभूत् / ततो जलधराः सर्वे व्याप्नुवन्ति नभस्तलम् // 69 कथं त्वयं शिशुः शेते लोके नाशमुपागते // 84 तैरियं पृथिवी सर्वा सपर्वतवनाकरा / तपसा चिन्तयंश्चापि तं शिशुं नोपलक्षये। आपूर्यते महाराज सलिलौघपरिप्लुता / / 70 भूतं भव्यं भविष्यच्च जानन्नपि नराधिप // 85 -644 -
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________________ 3. 186. 86] आरण्यकपर्व [ 3. 186. 118 अतसीपुष्पवर्णाभः श्रीवत्सकृतलक्षणः / वैश्याः कृषि यथान्यायं कारयन्ति नराधिप / साक्षाल्लक्ष्म्या इवावासः स तदा प्रतिभाति मे॥८६ शुश्रूषायां च निरता द्विजानां वृषलास्तथा // 100 ततो मामब्रवीद्वालः स पद्मनिभलोचनः / ततः परिपतनराजंस्तस्य कुक्षौ महात्मनः / श्रीवत्सधारी द्युतिमान्वाक्यं श्रुतिसुखावहम् / / 87 हिमवन्तं च पश्यामि हेमकूटं च पर्वतम् // 101 जानामि त्वा परिश्रान्तं तात विश्रामकाङ्क्षिणम् / / निषधं चापि पश्यामि श्वेतं च रजताचितम् / मार्कण्डेय इहारस्व त्वं यावदिच्छसि भार्गव // 88 पश्यामि च महीपाल पर्वतं गन्धमादनम् // 102 अभ्यन्तरं शरीरं मे प्रविश्य मुनिसत्तम / मन्दरं मनुजव्याघ्र नीलं चापि महागिरिम् / आस्स्व भो विहितो वासः प्रसादस्ते कृतो मया // 89 पश्यामि च महाराज मेरं कनकपर्वतम् / / 103 ततो बालेन तेनैवमुक्तस्यासीत्तदा मम / महेन्द्रं चैव पश्यामि विन्ध्यं च गिरिमुत्तमम् / निर्वेदो जीविते दीर्घ मनुष्यत्वे च भारत // 90 मलयं चापि पश्यामि पारियानं च पर्वतम् // 104 ततो बालेन तेनास्यं सहसा विवृतं कृतम् / एते चान्ये च बहवो यावन्तः पृथिवीधराः / तस्याहमवशो वक्त्रं दैवयोगात्प्रवेशितः // 91 तस्योदरे मया दृष्टाः सर्वरत्नविभूषिताः // 105 ततः प्रविष्टस्तत्कुक्षिं सहसा मनुजाधिप / सिंहाव्याघ्रान्वराहांश्च नागांश्च मनुजाधिप / सराष्ट्रनगराकीर्णां कृत्स्ना पश्यामि मेदिनीम् // 92 पृथिव्यां यानि चान्यानि सत्त्वानि जगतीपते / गङ्गां शतद्वं सीतां च यमुनामथ कौशिकीम् / तानि सर्वाण्यहं तत्र पश्यन्पर्यचरं तदा // 106 चर्मण्वती वेत्रवती चन्द्रभागां सरस्वतीम् // 93 कुक्षौ तस्य नरव्याघ्र प्रविष्टः संचरन्दिशः / सिन्धुं चैव विपाशां च नदी गोदावरीमपि। शक्रादींश्चापि पश्यामि कृत्स्नान्देवगणांस्तथा॥१०७ वस्खोकसारां नलिनी नर्मदां चैव भारत // 94 गन्धर्वाप्सरसो यक्षानृषींश्चैव महीपते / नदी ताम्रां च वेण्णां च पुण्यतोयां शुभावहाम्। दैत्यदानवसंघांश्च कालेयांश्च नराधिप / सुवेणमं कृष्णवेणां च इरामां च महानदीम् / सिंहिकातनयांश्चापि ये चान्ये सुरशत्रवः // 108 शोणं च पुरुषव्याघ्र विशल्यां कंपुनामपि // 95 यच्च किंचिन्मया लोके दृष्टं स्थावरजङ्गमम् / एताश्चान्याश्च नद्योऽहं पृथिव्यां या नरोत्तम / तदपश्यमहं सर्वं तस्य कुक्षौ महात्मनः / परिक्रामन्प्रपश्यामि तस्य कुक्षौ महात्मनः // 96 फलाहारः प्रविचरन्कृत्स्नं जगदिदं तदा // 109 ततः समुद्रं पश्यामि यादोगणनिषेवितम् / अन्तः शरीरे तस्याहं वर्षाणामधिकं शतम् / रत्नाकरममित्रघ्न निधानं पयसो महत् // 97 न च पश्यामि तस्याहमन्तं देहस्य कुत्रचित्॥११० ततः पश्यामि गगनं चन्द्रसूर्यविराजितम् / सततं धावमानश्च चिन्तयानो विशां पते / जाज्वल्यमानं तेजोभिः पावकार्कसमप्रभैः।। आसादयामि नैवान्तं तस्य राजन्महात्मनः // 111 पश्यामि च महीं राजन्काननैरुपशोभिताम् // 98 ततस्तमेव शरणं गतोऽस्मि विधिवत्तदा / यजन्ते हि तदा राजन्ब्राह्मणा बहुभिः सवैः / / वरेण्यं वरदं देवं मनसा कर्मणैव च // 112 क्षत्रियाश्च प्रवर्तन्ते सर्ववर्णानुरञ्जने // 99 / ततोऽहं सहसा राजन्वायुवेगेन निःसृतः / -645 -
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________________ 3. 186. 113] महाभारते [3. 187. 11 महात्मनो मुखात्तस्य विवृतात्पुरुषोत्तम // 113 एतदिच्छामि देवेश श्रोतुं ब्राह्मणकाम्यया। ततस्तस्यैव शाखायां न्यग्रोधस्य विशां पते। त्वत्तः कमलपत्राक्ष विस्तरेण यथातथम् / आस्ते मनुजशार्दूल कृत्स्नमादाय वै जगत् // 114 महत्येतदचिन्त्यं च यदहं दृष्टवान्प्रभो // 128 : तेनैष बालवेषेण श्रीवत्सकृतलक्षणम् / इत्युक्तः स मया श्रीमान्देवदेवो महाद्युतिः / आसीनं तं नरव्याघ्र पश्याम्यमिततेजसम्॥११५ सान्त्वयन्मामिदं वाक्यमुवाच वदतां वरः॥ 129 ततो मामब्रवीद्वीर स बालः प्रहसन्निव / इति भीमहाभारते भारण्यकपर्वणि श्रीवत्सधारी द्युतिमान्पीतवासा महाद्युतिः॥ 116 पत्शीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 186 // अंपीदानी शरीरेऽस्मिन्मामके मुनिसत्तम / 187 उषितस्त्वं सुविश्रान्तो मार्कण्डेय ब्रवीहि मे // 117 . देव उवाच / मुहूर्तादथ मे दृष्टिः प्रादुर्भूता पुनर्नवा। कामं देवापि मां विप्र न विजानन्ति तत्त्वतः / यया निर्मुक्तमात्मानमपश्यं लब्धचेतसम् // 118 त्वत्प्रीत्या तु प्रवक्ष्यामि यथेदं विसृजाम्यहम् // 1 तस्य ताम्रतलौ तात चरणौ सुप्रतिष्ठितौ / पितृभक्तोऽसि विप्रर्षे मां चैव शरणं गतः / सुजाती मृदुरक्ताभिरङ्गुलीभिरलंकृतौ // 119 अतो दृष्टोऽस्मि ते साक्षाब्रह्मचर्यं च ते महत् // 2 प्रयतेन मया मूर्धा गृहीत्वा ह्यभिवन्दितौ / आपो नारा इति प्रोक्ताः संज्ञानाम कृतं मया / दृष्ट्वापरिमितं तस्य प्रभावममितौजसः // 120 तेन नारायणोऽस्म्युक्तो मम तद्ध्ययनं सदा // 3 विनयेनाञ्जलिं कृत्वा प्रयत्नेनोपगम्य च।। अहं नारायणो नाम प्रभवः शाश्वतोऽव्ययः / दृष्टो मया स भूतात्मा देवः कमललोचनः / / 121 विधाता सर्वभूतानां संहर्ता च द्विजोत्तम // 4 तमहं प्राञ्जलिर्भूत्वा नमस्कृत्येदमब्रुवम् / अहं विष्णुरहं ब्रह्मा शक्रश्चाहं सुराधिपः / ज्ञातुमिच्छामि देव त्वां मायां चेमां तवोत्तमाम् // अहं वैश्रवणो राजा यमः प्रेताधिपस्तथा // 5 आस्येनानुप्रविष्टोऽहं शरीरं भगवंस्तव / अहं शिवश्च सोमश्च कश्यपश्च प्रजापतिः / दृष्टवानखिलाल्लोकान्समस्ताञ्जठरे तव // 123 अहं धाता विधाता च यज्ञश्चाहं द्विजोत्तम // 6 तव देव शरीरस्था देवदानवराक्षसाः / अग्निरास्यं क्षितिः पादौ चन्द्रादित्यौ च लोचने / यक्षगन्धर्वनागाश्च जगत्स्थावरजङ्गमम् // 124 सदिशं च नभः कायो वायुर्मनसि मे स्थितः॥७ त्वत्प्रसादाच्च मे देव स्मृतिर्न परिहीयते / मया क्रतुशतैरिष्टं बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः / द्रुतमन्तः शरीरे ते सततं परिधावतः / / 125 यजन्ते वेदविदुषो मां देवयजने स्थितम् // 8 इच्छामि पुण्डरीकाक्ष ज्ञातुं त्वाहमनिन्दित / पृथिव्यां क्षत्रियेन्द्राश्च पार्थिवाः स्वर्गकाङ्गिणः / इंह भूत्वा शिशुः साक्षात्कं भवानवतिष्ठते / यजन्ते मां तथा वैश्याः स्वर्गलोकजिगीषवः // 9 पीत्वा जगदिदं विश्वमेतदाख्यातुमर्हसि // 126 चतुःसमुद्रपर्यन्तां मेरुमन्दरभूषणाम् / किमर्थं च जगत्सर्वं शरीरस्थं तवानघ / शेषो भूत्वाहमेवैतां धारयामि वसुंधराम् // 10 कियन्तं च त्वया कालमिह स्थेयमरिंदम // 127 / वाराह रूपमास्थाय मयेयं जगती पुरा / -646 -
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________________ 3. 187. 11] आरण्यकपर्व [3. 187. 40 मज्जमाना जले विप्र वीर्येणासीत्समुद्धता // 11 / अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् // 26 अग्निश्च वडवावक्त्रो भूत्वाहं द्विजसत्तम। दैत्या हिंसानुरक्ताश्च अवध्याः सुरसत्तमैः। .. पिबाम्यपः समाविद्धास्ताश्चैव विसजाम्यहम् // 12 राक्षसाश्चापि लोकेऽस्मिन्यदोत्पत्स्यन्ति दारुणाः॥ ब्रह्म वक्त्रं भुजौ क्षत्रमूरू मे संश्रिता विशः / तदाहं संप्रसूयामि गृहेषु शुभकर्मणाम् / .. पादौ शूद्रा भजन्ते मे विक्रमेण क्रमेण च // 13 प्रविष्टो मानुषं देहं सर्व प्रशमयाम्यहम् // 28 : ऋग्वेदः सामवेदश्च यजुर्वेदोऽप्यथर्वणः। .. सृष्ट्वा देवमनुष्यांश्च गन्धर्वोरगराक्षसान् / ... मत्तः प्रादुर्भवन्त्येते मामेव प्रविशन्ति च // 14 स्थावराणि च भूतानि संहराम्यात्ममायया // 29 यतयः शान्तिपरमा यतात्मानो मुमुक्षवः / कर्मकाले पुनर्देहमनुचिन्त्य सृजाम्यहम्। कामक्रोधद्वेषमुक्ता निःसङ्गा वीतकल्मषाः // 15 प्रविश्य मानुषं देहं मर्यादाबन्धकारणात् // 30 सत्त्वस्था निरहंकारा नित्यमध्यात्मकोविदाः। . श्वेतः कृतयुगे वर्णः पीतस्त्रेतायुगे मम / मामेव सततं विप्राश्चिन्तयन्त उपासते // 16 .. रक्तो द्वापरमासाद्य कृष्णः कलियुगे तथा // 31. अहं संवर्तको ज्योतिरहं संवर्तको यमः / त्रयो भागा ह्यधर्मस्य तस्मिन्काले भवन्त्युत। . अहं संवर्तकः सूर्यो अहं संवर्तकोऽनिलः // 17 अन्तकाले च संप्राप्ते कालो भूत्वातिदारुणः / / तारारूपाणि दृश्यन्ते यान्येतानि नभस्तले। त्रैलोक्यं नाशयाम्येकः कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम् // 32 मम रूपाण्यथैतानि विद्धि त्वं द्विजसत्तम // 18 अहं त्रिवा सर्वात्मा सर्वलोकसुखावहः / रत्नाकराः समुद्राश्च सर्व एव चतुर्दिशम् / अभिभूः सर्वगोऽनन्तो हृषीकेश उरुक्रमः // 33 वसनं शयनं चैव निलयं चैव विद्धि मे // 19 कालचक्रं नयाम्येको ब्रह्मन्नहमरूपि वै।। कामं क्रोधं च हर्ष च भयं मोहं तथैव च / शमनं सर्वभूतानां सर्वलोककृतोद्यमम् // 34 ममैव विद्धि रूपाणि सर्वाण्येतानि सत्तम // 20 एवं प्रणिहितः सम्यआयात्मा मुनिसत्तम / प्राप्नुवन्ति नरा विप्र यत्कृत्वा कर्म शोभनम् / सर्वभूतेषु विप्रेन्द्र न च मां वेत्ति कश्चन // 35 सत्यं दानं तपश्चोग्रमहिंसा चैव जन्तुषु // 21 / यच किंचित्त्वया प्राप्तं मयि क्लेशात्मकं द्विज / मद्विधानेन विहिता मम देहविहारिणः / सुखोदयाय तत्सर्वं श्रेयसे च तवानघ // 36 मयाभिभूतविज्ञाना विचेष्टन्ते न कामतः // 22 यच किंचित्त्वया लोके दृष्टं स्थावरजङ्गमम् / . सम्यग्वेदमधीयाना यजन्तो विविधैर्मखैः / विहितः सर्वथैवासौ ममात्मा मुनिसत्तम // 37 शान्तात्मानो जितक्रोधाः प्राप्नुवन्ति द्विजातयः // 23 अधं मम शरीरस्य सर्वलोकपितामहः। प्राप्तुं न शक्यो यो विद्वन्नरैर्दुष्कृतकर्मभिः / | अहं नारायणो नाम शङ्खचक्रगदाधरः॥ 38 लोभाभिभूतैः कृपणैरनार्यैरकृतात्मभिः // 24 यावागानां विप्रर्षे सहस्रपरिवर्तनम् / तं मां महाफलं विद्धि पदं सुकृतकर्मणः / तावत्स्वपिमि विश्वात्मा सर्वलोकपितामहः // 39 दुष्प्रापं विप्रमूढानां मार्ग योगैर्निषेवितम् // 25 / एवं सर्वमहं कालमिहासे मुनिसत्तम / यदा यदा च धर्मस्य ग्लानिर्भवति सत्तमः। अशिशुः शिशुरूपेण यावद्ब्रह्मा न बुध्यते // 40 - 647 -
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________________ 3. 187. 41] महाभारते [ 3. 188. 12 मया च विप्र दत्तोऽयं वरस्ते ब्रह्मरूपिणा। गच्छध्वमेनं शरणं शरण्यं कौरवर्षभाः॥ 55 असकृत्परितुष्टेन विप्रर्षिगणपूजित // 41 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि सर्वमेकार्णवं दृष्ट्वा नष्टं स्थावरजङ्गमम् / सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१८७॥ विक्लवोऽसि मया ज्ञातस्ततस्ते दर्शितं जगत्॥४२ 188 अभ्यन्तरं शरीरस्य प्रविष्टोऽसि यदा मम / वैशंपायन उवाच / दृष्ट्वा लोकं समस्तं च विस्मितो नावबुध्यसे॥४३ एवमुक्तास्तु ते पार्था यमौ च पुरुषर्षभौ। ततोऽसि वक्त्राद्विप्रर्षे द्रुतं निःसारितो मया। द्रौपद्या कृष्णया साधं नमश्चक्रुर्जनार्दनम् // 1 आख्यातस्ते मया चात्मा दुज्ञेयोऽपि सुरासुरैः॥४४ स चैतान्पुरुषव्याघ्र साम्ना परमवल्गुना। यावत्स भगवान्ब्रह्मा न बध्यति महातपाः। सान्त्वयामास मानान्मिन्यमानो यथाविधि // 2 तावत्त्वमिह विप्रर्षे विश्रब्धश्चर वै सुखम् // 45 युधिष्ठिरस्तु कौन्तेयो मार्कण्डेयं महामुनिम् / ततो विबुद्धे तस्मिंस्तु सर्वलोकपितामहे / पुनः पप्रच्छ साम्राज्ये भविष्यां जगतो गतिम् // 3 एकीभूतो हि स्रक्ष्यामि शरीराहिजसत्तम // 46 आश्चर्यभूतं भवतः श्रुतं नो वदतां वर। आकाशं पृथिवीं ज्योतिर्वायु सलिलमेव च / मुने भार्गव यद्वृत्तं युगादौ प्रभवाप्ययौ // 4 लोके यच्च भवेच्छेषमिह स्थावरजङ्गमम् // 47 अस्मिन्कलियुगेऽप्यस्ति पुनः कौतूहलं मम / ___मार्कण्डेय उवाच। समाकुलेषु धर्मेषु किं नु शेषं भविष्यति / / 5 इत्युक्त्वान्तर्हितस्तात स देवः परमाद्भुतः। किंवीर्या मानवास्तत्र किमाहारविहारिणः। : प्रजाश्चेमाः प्रपश्यामि विचित्रा बहुधाकृताः।। 48 किमायुषः किंवसना भविष्यन्ति युगक्षये // 6 एतदृष्टं मया राजस्तस्मिन्प्राप्ते युगक्षये। कां च काष्ठां समासाद्य पुनः संपत्स्यते कृतम् / आश्चर्य भरतश्रेष्ठ सर्वधर्मभृतां वर // 49 विस्तरेण मुने ब्रूहि विचित्राणीह भाषसे // 7 यः स देवो मया दृष्टः पुरा पद्मनिभेक्षणः / इत्युक्तः स मुनिश्रेष्ठः पुनरेवाभ्यभाषत / स एष पुरुषव्याघ्र संबन्धी ते जनार्दनः // 50 रमयन्वृष्णिशार्दूलं पाण्डघांश्च महामुनिः॥ 8 अस्यैव वरदानाद्धि स्मृतिर्न प्रजहाति माम् / मार्कण्डेय उवाच / दीर्घमायुश्च कौन्तेय स्वच्छन्दमरणं तथा // 51 भविष्यं सर्वलोकस्य वृत्तान्तं भरतर्षभ / स एष कृष्णो वार्ष्णेयः पुराणपुरुषो विभुः। कलुषं कालमासाद्य कथ्यमानं निबोध मे // 9 आस्ते हरिरचिन्त्यात्मा क्रीडन्निव महाभुजः // 52 | कृते चतुष्पात्सकलो निर्व्याजोपाधिवर्जितः / एष धाता विधाता च संहर्ता चैव सात्वतः। वृषः प्रतिष्ठितो धर्मो मनुष्येष्वभवत्पुरा // 10 श्रीवत्सवक्षा गोविन्दः प्रजापतिपतिः प्रभुः // 53 / अधर्मपादविद्धस्तु त्रिभिरंशैः प्रतिष्ठितः / दृष्ट्वेमं वृष्णिशार्दूलं स्मृतिर्मामियमागता। त्रेतायां द्वापरेऽर्धेन व्यामिश्रो धर्म उच्यते // 11 आदिदेवमजं विष्णुं पुरुषं पीतवाससम् // 54 / त्रिभिरंशेरधर्मस्तु लोकानाक्रम्य तिष्ठति / सर्वेषामेव भूतानां पिता माता च माधवः। चतुर्थांशेन धर्मस्तु मनुष्यानुपतिष्ठति // 12 -648 -
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________________ 3. 188. 13 ] आरण्यकपर्व [3. 188. 41 आयुर्वीर्यमथो बुद्धिबलं तेजश्च पाण्डव / पुत्रः पितृवधं कृत्वा पिता पुत्रवधं तथा / मनुष्याणामनुयुगं हसतीति निबोध मे // 13 निरुद्वेगो बृहद्वादी न निन्दामुपलप्स्यते / / 28 राजानो ब्राह्मणा वैश्याः शूद्राश्चैव युधिष्ठिर / म्लेच्छभूतं जगत्सर्वं निष्क्रियं यज्ञवर्जितम् / व्याजैर्धम चरिष्यन्ति धर्मवैतंसिका नराः // 14 भविष्यति निरानन्दमनुत्सवमथो तथा // 29 सत्यं संक्षेप्स्यते लोके नरैः पण्डितमानिभिः / प्रायशः कृपणानां हि तथा बन्धुमतामपि / सत्यहान्या ततस्तेषामायुरल्पं भविष्यति // 15 विधवानां च वित्तानि हरिष्यन्तीह मानवाः // 30 आयुषः प्रक्षयाद्विद्यां न शक्ष्यन्त्युपशिक्षितुम् / अल्पवीर्यबलाः स्तब्धा लोभमोहपरायणाः / विद्याहीनानविज्ञानाल्लोभोऽप्यभिभविष्यति // 16 तत्कथादानसंतुष्टा दुष्टानामपि मानवाः / लोभक्रोधपरा मूढाः कामसक्ताश्च मानवाः। परिग्रहं करिष्यन्ति पापाचारपरिग्रहाः // 31 वैरबद्धा भविष्यन्ति परस्परवधेप्सवः / / 17 संघातयन्तः कौन्तेय राजानः पापबुद्धयः / ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः संकीर्यन्तः परस्परम् / परस्परवधोद्युक्ता मूर्खाः पण्डितमानिनः / शूद्रप्तुल्या भविष्यन्ति तपःसत्यविवर्जिताः॥ 18 भविष्यन्ति युगस्यान्ते क्षत्रिया लोककण्टकाः // 32 अन्त्या मध्या भविष्यन्ति मध्याश्चान्तावसायिनः / अरक्षितारो लुब्धाश्च मानाहंकारदर्पिताः / ईदृशो भविता लोको युगान्ते पर्युपस्थिते // 1-9 केवलं दण्डरुचयो भविष्यन्ति युगक्षये // 33 वस्त्राणां प्रवरा शाणी धान्यानां कोरदूषकाः।। आक्रम्याक्रम्य साधूनां दारांश्चैव धनानि च / भार्या मित्राश्च पुरुषा भविष्यन्ति युगक्षये // 20 भोक्ष्यन्ते निरनुक्रोशा रुदतामपि भारत // 34 मत्स्यामिषेण जीवन्तो दुहन्तश्चाप्यजैडकम् / न कन्यां याचते कश्चिन्नापि कन्या प्रदीयते / गोषु नष्टासु पुरुषा भविष्यन्ति युगक्षये // 21 स्वयंग्राहा भविष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते // 35 अन्योन्यं परिमुष्णन्तो हिंसयन्तश्च मानवाः। राजानश्चाप्यसंतुष्टाः परार्थान्मूढचेतसः / अजपा नास्तिकाः स्तेना भविष्यन्ति युगक्षये॥२२ सर्वोपायैर्ह रिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते // 36 सरित्तीरेषु कुद्दालैर्वापयिष्यन्ति चौषधीः / म्लेच्छीभूतं जगत्सर्वं भविष्यति च भारत। ताश्चाप्यल्पफलास्तेषां भविष्यन्ति युगक्षये // 23 / हस्तो हस्तं परिमुषेयुगान्ते पर्युपस्थिते // 37 वाद्धे दैवे च पुरुषा ये च नित्यं धृतव्रताः / सत्यं संक्षिप्यते लोके नरैः पण्डितमानिभिः / तेऽपि लोभसमायुक्ता भोक्ष्यन्तीह परम्परम् // 24 स्थविरा बालमतयो बालाः स्थविरबुद्धयः // 38 पिता पुत्रस्य भोक्ता च पितुः पुत्रस्तथैव च / भीरवः शूरमानीनः शूरा भीरुविषादिनः / अतिक्रान्तानि भोज्यानि भविष्यन्ति युगक्षये // 25 / न विश्वसन्ति चान्योन्यं युगान्ते पर्युपस्थिते // 39 न व्रतानि चरिष्यन्ति ब्राह्मणा वेदनिन्दकाः। . एकाहार्यं जगत्सर्वं लोभमोहव्यवस्थितम् / न यक्ष्यन्ति न होष्यन्ति हेतुवादविलोभिताः॥२६ / अधर्मो वर्धति महान्न च धर्मः प्रवर्तते // 40 निम्ने कृषि करिष्यन्ति योक्ष्यन्ति धुरि धेनुकाः।। ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या न शिष्यन्ति जनाधिप / एकहायनवत्सांश्च वाहयिष्यन्ति मानवाः // 27 / एकवर्णस्तदा लोको भविष्यति युगक्षये // 41 म. भा. 82 -649 -
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________________ 3. 188. 42] महाभारते [3. 188. 70 न क्षंस्यति पिता पुत्रं पुत्रश्च पितरं तथा। तथा लोभाभिभूताश्च चरिष्यन्ति महीमिमाम् / भार्या च पतिशुश्रूषां न करिष्यति काचन // 42 ब्राह्मणाश्च भविष्यन्ति ब्रह्मस्वानि च भुञ्जते // 57 ये यवान्ना जनपदा गोधूमान्नास्तथैव च। हाहाकृता द्विजाश्चैव भयार्ता वृषलार्दिताः। तान्देशान्संश्रयिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते // 43 त्रातारमलभन्तो वै भ्रमिष्यन्ति महीमिमाम् // 58 स्वैराहाराश्च पुरुषा योषितश्च विशां पते।। जीवितान्तकरा रौद्राः कुराः प्राणिविहिंसकाः। अन्योन्यं न सहिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते // 44 / यदा भविष्यन्ति नरास्तदा संक्षेप्स्यते युगम् // 59 म्लेच्छभूतं जगत्सर्वं भविष्यति युधिष्ठिर।। आश्रयिष्यन्ति च नदीः पर्वतान्विषमाणि च। न श्राद्धैर्हि पितॄश्चापि तर्पयिष्यन्ति मानवाः // 45 प्रधावमाना वित्रस्ता द्विजाः कुरुकुलोद्वह // 60 न कश्चित्कस्यचिच्छ्रोता न कश्चित्कस्यचिद्गुरुः / / दस्युप्रपीडिता राजन्काका इव द्विजोत्तमाः। तमोग्रस्तस्तदा लोको भविष्यति नराधिप // 46 कुराजभिश्च सततं करभारप्रपीडिताः॥६१ परमायुश्च भविता तदा वर्षाणि षोडश / धैर्यं त्यक्त्वा महीपाल दारुणे युगसंक्षये / ततः प्राणान्विमोक्ष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते // 47 विकर्माणि करिष्यन्ति शूद्राणां परिचारकाः॥ 62 पञ्चमे वाथ षष्ठे वा वर्षे कन्या प्रसूयते / शूद्रा धर्म प्रवक्ष्यन्ति ब्राह्मणाः पर्युपासकाः / सप्तवर्षाष्टवर्षाश्च प्रजास्यन्ति नरास्तदा // 48 श्रोतारश्च भविष्यन्ति प्रामाण्येन व्यवस्थिताः॥६३ पत्यौ स्त्री तु तदा राजन्पुरुषो वा स्त्रियं प्रति / विपरीतश्च लोकोऽयं भविष्यत्यधरोत्तरः / युगान्ते राजशार्दूल न तोषमुपयास्यति // 49 एडूकान्पूजयिष्यन्ति वर्जयिष्यन्ति देवताः / अल्पद्रव्या वृथालिङ्गा हिंसा च प्रभविष्यति / शूद्राः परिचरिष्यन्ति न द्विजान्युगसंक्षये // 64 न कश्चित्कस्यचिद्दाता भविष्यति युगक्षये // 50 / आश्रमेषु महर्षीणां ब्राह्मणावसथेषु च / अट्टशूला जनपदाः शिवशलाश्चतुष्पथा। देवस्थानेषु चैत्येषु नागानामालयेषु च // 65 केशशूलाः खियश्चापि भविष्यन्ति युगक्षये // 51 एडूकचिह्ना पृथिवी न देवगृहभूषिता / म्लेच्छाः क्रूराः सर्वभक्षा दारुणाः सर्वकर्मसु / / भविष्यति युगे क्षीणे तद्युगान्तस्य लक्षणम् // 66 भाविनः पश्चिमे काले मनुष्या नात्र संशयः॥५२ यदा रौद्रा धर्महीना मांसादाः पानपास्तथा। क्रयविक्रयकाले च सर्वः सर्वस्य वश्चनम् / भविष्यन्ति नरा नित्यं तदा संक्षेप्स्यते युगम्॥६० युगान्ते भरतश्रेष्ठ वृत्तिलोभात्करिष्यति // 53 पुष्पे पुष्पं यदा राजन्फले फलमुपाश्रितम् / ज्ञानानि चाप्यविज्ञाय करिष्यन्ति क्रियास्तथा / प्रजास्यति महाराज तदा संक्षेप्स्यते युगम् // 68 आत्मच्छन्देन वर्तन्ते युगान्ते पर्युपस्थिते // 54 अकालवर्षी पर्जन्यो भविष्यति गते युगे। स्वभावात्क्रूरकर्माणश्चान्योन्यमभिशङ्किनः। अक्रमेण मनुष्याणां भविष्यति तदा क्रिया। भवितारो जनाः सर्वे संप्राप्ते युगसंक्षये // 55 | विरोधमथ यास्यन्ति वृषला ब्राह्मणैः सह / / 69 आरामांश्चैव वृक्षांश्च नाशयिष्यन्ति निर्व्यथाः / मही म्लेच्छसमाकीर्णा भविष्यति ततोऽचिरात् / भविता संक्षयो लोके जीवितस्य च देहिनाम् // 56 / करभारभयाद्विप्रा भजिष्यन्ति दिशो दश // 70 - 650 -
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________________ 3. 188. 71] आरण्यकपर्व [ 3. 189.3 निर्विशेषा जनपदा नरावृष्टिभिरर्दिताः / विक्रोशमानश्चान्योन्यं जनो गां पर्यटिष्यति // 84 आश्रमानभिपत्स्यन्ति फलमूलोपजीविनः / / 71 / ततस्तुमुलसंघाते वर्तमाने युगक्षये / एवं पर्याकुले लोके मर्यादा न भविष्यति / द्विजातिपूर्वको लोकः क्रमेण प्रभविष्यति // 85 न स्थास्यन्त्युपदेशे च शिष्या विप्रियकारिणः॥७२ ततः कालान्तरेऽन्यस्मिन्पुनर्लोकविवृद्धये। आचार्योपनिधिश्चैव वत्स्यते तदनन्तरम् / भविष्यति पुनर्दैवमनुकूलं यदृच्छया // 86 . अर्थयुक्त्या प्रवत्स्यन्ति मित्रसंबन्धिबान्धवाः।। यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती / अभावः सर्वभूतानां युगान्ते च भविष्यति / / 73 एकाराशौ समेष्यन्ति प्रपत्स्यति तदा कृतम् // 87 दिशः प्रज्वलिताः सर्वा नक्षत्राणि चलानि च / कालवर्षी च पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानि च / ज्योतींषि प्रतिकूलानि वाताः पर्याकुलास्तथा / प्रदक्षिणा ग्रहाश्चापि भविष्यन्त्यनुलोमगाः / उल्कापाताश्च बहवो महाभयनिदर्शकाः // 74 क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निरामयम् // 88 षाद्भिरन्यैश्च सहितो भास्करः प्रतपिष्यति / कल्किर्विष्णुयशा नाम द्विजः कालप्रचोदितः। " तुमुलाश्चापि निर्झदा दिग्दाहाश्चापि सर्वशः / उत्पत्स्यते महावीर्यो महाबुद्धिपराक्रमः // 89 / कबन्धान्तर्हितो भानुरुदयास्तमये तदा // 75 संभूतः सम्भलग्रामे ब्राह्मणावसथे शुभे। अकालवर्षी च तदा भविष्यति सहस्रदृक् / मनसा तस्य सर्वाणि वाहनान्यायुधानि च। सस्यानि च न रोक्ष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते॥ 76 उपस्थास्यन्ति योधाश्च शस्त्राणि कवचानि च // 90 अभीक्ष्णं क्रूरवादिन्यः परुषा रुदितप्रियाः / स धर्मविजयी राजा चक्रवर्ती भविष्यति / भर्तृणां वचने चैव न स्थास्यन्ति तदा स्त्रियः / / 77 स चे संकुलं लोकं प्रसादमुपनेष्यति // 91 पुत्राश्च मातापितरौ हनिष्यन्ति युगक्षये / उत्थितो ब्राह्मणो दीप्तः क्षयान्तकृदुदारधीः। सूदयिष्यन्ति च पतीन्स्त्रियः पुत्रानपाश्रिताः॥ 78 स संक्षेपो हि सर्वस्य युगस्य परिवर्तकः / / 92 अपर्धणि महाराज सूर्य राहुरुपैष्यति / स सर्वत्र गतान्क्षुद्रान्ब्राह्मणैः परिवारितः / युगान्ते हुतभुक्चापि सर्वतः प्रज्वलिष्यति // 79 उत्सादयिष्यति तदा सर्वान्म्लेच्छगणान्द्विजः॥९३ पानीयं भोजनं चैव याचमानास्तदाध्वगाः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि न लप्स्यन्ते निवासं च निरस्ताः पथि शेरते // 80 अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः // 188 // निर्घातवायसा नागाः शकुनाः समृगद्विजाः।। रूक्षा वाचो विमोक्ष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते।। 81 मार्कण्डेय उवाच / मित्रसंबन्धिनश्चापि संत्यक्ष्यन्ति नरास्तदा। ततश्चोरक्षयं कृत्वा द्विजेभ्यः पृथिवीमिमाम् / जनं परिजनं चापि युगान्ते पर्युपस्थिते॥ 82 वाजिमेधे महायज्ञे विधिवत्कल्पयिष्यति // 1 अथ देशान्दिशश्चापि पत्तनानि पुराणि च। स्थापयित्वा स मर्यादाः स्वयंभुविहिताः शुभाः / क्रमशः संश्रयिष्यन्ति युगान्ते पर्युपस्थिते // 83 वनं पुण्ययशःकर्मा जरावान्संश्रयिष्यति // 2 हा तात हा सुतेत्येवं तदा वाचः सुदारुणाः / / तच्छीलमनुवय॑न्ते मनुष्या लोकवासिनः / - 651 - 189
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________________ 3. 189. 3] महाभारते [3. 189. 29 विप्रैश्चोरक्षये चैव कृते क्षेमं भविष्यति // 3 धर्मे त्वयात्मा संयोज्यो नित्यं धर्मभृतां वर / कृष्णाजिनानि शक्तीश्च त्रिशूलान्यायुधानि च / धर्मात्मा हि सुखं राजा प्रेत्य चेह च नन्दति // 17 स्थापयन्विप्रशार्दूलो देशेषु विजितेषु च // 4 निबोध च शुभां वाणी यां प्रवक्ष्यामि तेऽनघ / संस्तूयमानो विप्रेन्द्रर्मानयानो द्विजोत्तमान् / न ब्राह्मणे परिभवः कर्तव्यस्ते कदाचन / कल्किश्चरिष्यति महीं सदा दस्युवधे रतः // 5 ब्राह्मणो रुषितो हन्यादपि लोकान्प्रतिज्ञया // 18 हा तात हा सुतेत्येवं तास्ता वाचः सुदारुणाः / वैशंपायन उवाच / विक्रोशमानान्सुभृशं दस्यून्नेष्यति संशयम् // 6 मार्कण्डेयवचः श्रुत्वा कुरूणां प्रवरो नृपः। .. ततोऽधर्मविनाशो वै धर्मवृद्धिश्च भारत / उवाच वचनं धीमान्परमं परमद्युतिः॥ 19 भविष्यति कृते प्राप्ते क्रियावांश्च जनस्तथा // 7 कस्मिन्धर्मे मया स्थेयं प्रजाः संरक्षता मुने / आरामाश्चैव चैत्याश्च तटाकान्यवटास्तथा। कथं च वर्तमानो वै न च्यवेयं स्वधर्मतः // 20 यज्ञक्रियाश्च विविधा भविष्यन्ति कृते युगे॥ 8 मार्कण्डेय उवाच / ब्राह्मणाः साधवश्चैव मुनयश्च तपस्विनः / दयावान्सर्वभूतेषु हितो रक्तोऽनसूयकः / आश्रमाः सहपाषण्डाः स्थिताः सत्ये जनाः प्रजाः॥९ अपत्यानामिव स्वेषां प्रजानां रक्षणे रतः / जास्यन्ति सर्वबीजानि उप्यमानानि चैव ह। चर धर्मं त्यजाधम पितॄन्देवांश्च पूजय // 21 सर्वेष्वृतुषु राजेन्द्र सर्वं सस्यं भविष्यति // 10 प्रमादाद्यत्कृतं तेऽभूत्सम्यग्दानेन तज्जय / नरा दानेषु निरता व्रतेषु नियमेषु च। अलं ते मानमाश्रित्य सततं परवान्भव // 22 जपयज्ञपरा विप्रा धर्मकामा मुदा युताः। विजित्य पृथिवीं सर्वां मोदमानः सुखी भव। पालयिष्यन्ति राजानो धर्मेणेमां वसुंधराम् // 11 एष भूतो भविष्यश्च धर्मस्ते समुदीरितः / / 23 व्यवहाररता वैश्या भविष्यन्ति कृते युगे। न तेऽस्यविदितं किंचिदतीतानागतं भुवि / षट्कर्मनिरता विप्राः क्षत्रिया रक्षणे रताः // 12 तस्मादिमं परिक्लेशं त्वं तात हृदि मा कृथाः॥२४ शुश्रूषायां रताः शूद्रास्तथा वर्णत्रयस्य च / एष कालो महाबाहो अपि सर्वदिवौकसाम् / एष धर्मः कृतयुगे त्रेतायां द्वापरे तथा। मुह्यन्ति हि प्रजास्तात कालेनाभिप्रचोदिताः // 25 पश्चिमे युगकाले च यः स ते संप्रकीर्तितः // 13 मा च तेऽत्र विचारो भूद्यन्मयोक्तं तवानघ / सर्वलोकस्य विदिता युगसंख्या च पाण्डव / अतिशङ्कय वचो ह्येतद्धर्मलोपो भवेत्तव // 26 एतत्ते सर्वमाख्यातमतीतानागतं मया। जातोऽसि प्रथिते वंशे कुरूणां भरतर्षभ / वायुप्रोक्तमनुस्मृत्य पुराणमृषिसंस्तुतम् // 14 कर्मणा मनसा वाचा सर्वमेतत्समाचर // 27 एवं संसारमार्गा मे बहुशश्विरजीविना / युधिष्ठिर उवाच / दृष्टाश्चैवानुभूताश्च तांस्ते कथितवानहम् // 15 यत्त्वयोक्तं द्विजश्रेष्ठ वाक्यं श्रुतिमनोहरम् / इदं चैवापरं भूयः सह भ्रातृभिरच्युत / तथा करिष्ये यत्नेन भवतः शासनं विभो / / 28 धर्मसंशयमोक्षार्थं निबोध वचनं मम // 16 / न मे लोभोऽस्ति विप्रेन्द्र न भयं न च मत्सरः। - 652 -
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________________ 3. 189. 29 ] भारण्यकपर्व [3. 190. 30 %3 ण्डेयः // 2 // करिष्यामि हि तत्सर्वमुक्तं यत्ते मयि प्रभो // 29 / त्वया लब्धुम् / नान्यथेति // 15 // तां राजा समवैशंपायन उवाच / यमपृच्छत् // 16 // ततः कन्येदमुवाच / उदकं श्रुत्वा तु वचनं तस्य पाण्डवस्य महात्मनः / . मे न दर्शयितव्यमिति // 17 // स राजा बाढप्रहृष्टाः पाण्डवा राजन्सहिताः शार्ङ्गधन्वना / / 30 मित्युक्त्वा तां समागम्य तया सहास्ते // 18 // तथा कथां शुभां श्रुत्वा मार्कण्डेयस्य धीमतः / ___ तत्रैवासीने राजनि सेनान्वगच्छत् / पदेनानुपई विस्मिताः समपद्यन्त पुराणस्य निवेदनात् // 31 दृष्ट्वा राजानं परिवार्यातिष्ठत् // 19 // पर्याश्वस्तश्च इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि राजा तयैव सह शिबिकया प्रायादविघाटितया / एकोननवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 189 // स्वनगरमनुप्राप्य रहसि तया सह रमन्नास्ते। नान्म१९० त्किंचनापश्यत् // 20 // वैशंपायन उवाच / __अथ प्रधानामात्यस्तस्याभ्याशचराः खियोभूय एव ब्राह्मणमहाभाग्यं वक्तुमर्हसीत्यब्रवी- ऽपृच्छत् / किमत्र प्रयोजनं वर्तत इति // 21 // पाण्डवेयो मार्कण्डेयम् / / 1 // अथाचष्ट मार्क- अथाब्रुवस्ताः स्त्रियः। अपूर्वमिव पश्याम उदकं नात्र नीयत इति // 22 // अथामात्योऽनुदकं वनं कारअयोध्यायामिक्ष्वाकुकुलोत्पन्नः पार्थिवः परि- यित्वोदारवृक्षं बहुमूलपुष्पफलं रहस्युपगम्य राजाक्षिन्नाम मृगयामगमत् // 3 // तमेकाश्वेन मृगमन- नमब्रवीत् / वनमिदमुदारमनुदकम् / साध्वत्र रम्यसरन्तं मृगो दूरमपाहरत् // 4 // अथाध्वनि जात- तामिति // 23 // प्रमः क्षुत्तृष्णाभिभूतश्च कस्मिंश्चिदुद्देशे नीलं बन- स तस्य वचनात्तयैव सह देव्या तद्वनं प्राविपण्डमपश्यत् / तच्च विवेश // 5 // ततस्तस्य वन- शत् / स कदाचित्तस्मिन्वने रम्ये तयैव सह व्यवपण्डस्य मध्येऽतीव रमणीयं सरो दृष्ट्वा साश्व एव हरत् / अथ क्षुत्तृष्णार्दितः श्रान्तोऽतिमात्रमतिमुक्ताव्यगाहत्त // 6 // अथाश्वस्तः स बिसमृणालमश्व- गारमपश्यत् / / 24 // तत्प्रविश्य राजा सह प्रियया स्याग्रे निक्षिप्य पुष्करिणीतीरे समाविशत् // 7 // सुधातलसुकृतां विमलसलिलपूर्णां वापीमपश्यत बतः शयानो मधुरं गीतशब्दमशृणोत् / / 8 // स // 25 // दृष्ट्वैव च तां तस्या एव तीरे सहैव तया श्रुत्वाचिन्तयत्। नेह मनुष्यगतिं पश्यामि। कस्य देव्या व्यतिष्ठत् // 26 // अथ तां देवीं स राजाखल्वयं गीतशब्द इति // 9 // ब्रवीत् / साध्ववतर वापीसलिलमिति // 27 ॥सा अथापश्यत्कन्यां परमरूपदर्शनीयां पुष्पाण्यव- तद्वचः श्रुत्वावतीर्य वापी न्यमज्जत् / न पुनरुदमचिन्वतीं गायन्ती च // 10 // अथ सा राज्ञः ज्जत् // 28 // तां मृगयमाणो राजा नापश्यत समीपे पर्यक्रामत् / / 11 // तामब्रवीद्राजा / कस्या- ॥२९॥वापीमपि निःस्राव्य मण्डूकं श्वभ्रमुखे दृक्षा सि सुभगे त्वमिति // 12 // सा प्रत्युवाच / कन्या- क्रुद्ध आज्ञापयामास / सर्वमण्डूकवधः क्रियतास्मीति // 13 // तां राजोवाच / अर्थी त्वयाह- मिति / यो मयार्थी स मृतकैर्मण्डूकैरुपायनर्मामुपमिति // 14 // अथोवाच कन्या। समयेनाहं शक्या / तिष्ठदिति // 30 // -653 -
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________________ 3. 190. 31] महाभारते [ 3. 190.7 -' अथ मण्डूकवधे घोरे क्रियमाणे दिक्षु सर्वासु राज्ञः संबभूवुः शलो दलो बलश्चेति / ततस्तेषां ज्येष्ठ मण्डुकान्भयमाविशत् / ते भीता मण्डूकराशे यथा- शलं समये पिता राज्येऽभिषिच्य तपसि धृतात्मा वृत्तं न्यवेदयन् // 31 // ततो मण्डूकराट् तापस- वनं जगाम // 43 / / . वेषधारी राजानमभ्यगच्छत् // 32 // उपेत्य चैन- .. अथ कदाचिच्छलो मृगयामचरत्। मृगं चासाद्य मुवाच / मा राजन्क्रोधवशं गमः / प्रसादं कुरु / रथेनान्वधावत् // 44 // सूतं चोवाच / शीघ्रं मां नाईसि मण्डूकानामनपराधिनां वधं कर्तुमिति वहस्वेति ॥४५॥स तथोक्तः सूतो राजानमब्रवीत्। // 33 // श्लोकौ चात्र भवतः / मा क्रियतामनुबन्धः / नैष शक्यस्त्वया मृगो ग्रहीतुं 'मा मण्डूकाञ्जिघांस त्वं कोपं संधारयाच्युत / यद्यपि ते रथे युक्तौ वाम्यौ स्यातामिति // 46 // प्रक्षीयते धनोद्रको जनानामविजानताम् // 34 ___ ततोऽब्रवीद्राजा सूतम् / आचक्ष्व मे वाम्यौ। प्रतिजानीहि नैतांस्त्वं प्राप्य क्रोधं विमोक्ष्यसे / हन्मि वा त्वामिति // 47 // स एवमुक्तो राजभयअलं कृत्वा तवाधर्मं मण्डूकैः किं हतैर्हि ते // 35 भीतो वामदेवशापभीतश्च सन्नाचख्यौ राज्ञे / वाम... तमेवंवादिनमिष्टजनशोकपरीतात्मा राजा प्रो- देवस्याश्वौ वाम्यौ मनोजवाविति // 48 // अथैनवाच / न हि क्षम्यते तन्मया। हनिष्याम्येतान् / मेवं ब्रुवाणमब्रवीद्राजा / वामदेवाश्रमं याहीति एतैर्दुरात्मभिः प्रिया मे भक्षिता / सर्वथैव मे वध्या // 49 // स गत्वा वामदेवाश्रमं तमृषिमब्रवीत् / मण्डूकाः / नार्हसि विद्वन्मामुपरोद्भुमिति // 36 // भगवन्मृगो मया विद्धः पलायते। तं संभावयेयम्। स तद्वाक्यमुपलभ्य व्यथितेन्द्रियमनाः प्रोवाच / अर्हसि मे वाम्यौ दातुमिति // 50 // तमब्रवीदृषिः / प्रसीद राजन् / अहमायुर्नाम मण्डूकराजः / मम सा ददानि ते वाम्या / कृतकार्येण भवता ममैव निर्यादुहिता सुशोभना नाम / तस्या दौःशील्यमेतत् / यौ क्षिप्रमिति / / 51 // स च तावश्वौ प्रतिगृह्या"बहवो हि राजानस्तया विप्रलब्धपूर्वा इति // 37 // नुज्ञाप्य चर्षि प्रायाद्वाम्यसंयुक्तेन रथेन मृगं प्रति / तमब्रवीद्राजा / तयास्म्यर्थी / सा मे दीयतामिति गच्छंश्चाब्रवीत्सूतम् / अश्वरत्नाविमावयोग्यौ ब्राह्म॥ 38 // अथैनां राज्ञे पितादात् / अब्रवीचैनाम् / णानाम् / नैतौ प्रतिदेयौ वामदेवायेति // 52 // एनं राजानं शुश्रूषस्वेति // 39 // स उवाच दुहित- एवमुक्त्वा मृगमवाप्य स्वनगरमेत्याश्वावन्तःपुरे. “रम् / यस्मात्त्वया राजानो विप्रलब्धास्तस्माद- ऽस्थापयत् // 53 // ब्रह्मण्यानि तवापत्यानि भविष्यन्त्यनृतकत्वात्तवेति ____अथर्षिश्चिन्तयामास / तरुणो राजपुत्रः कल्याणं // 40 // स च राजा तामुपलभ्य तस्यां सुरतगुणनि- पत्रमासाद्य रमते / न मे प्रतिनिर्यातयति / अहो बद्धहृदयो लोकत्रयैश्वर्यमिवोपलभ्य हर्षबाष्पकलया कष्टमिति // 54 // मनसा निश्चित्य मासि पूर्णे षाचा प्रणिपत्याभिपूज्य मण्डूकराजानमब्रवीत् / शिष्यमब्रवीत् / गच्छात्रेय / राजानं ब्रूहि / यदि "अनुगृहीतोऽस्मीति // 41 // स च मण्डूकराजो पर्याप्तं निर्यातयोपाध्यायवाम्याविति // 55 // स "जामातरमनुज्ञाप्य यथागतमगच्छत् // 42 // गत्वैवं तं राजानमब्रवीत् // 56 // तं राजा प्रत्युअथ कस्यचित्कालस्य तस्यां कुमारास्त्रयस्तस्य / वाच / राज्ञामेतद्वाहनम् / अनर्हा. ब्राह्मणा रत्नाना -654
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________________ 3. 190. 57 ] आरम्यकपर्व [ 3. 190. 71 मेवंविधानाम् / किं च ब्राह्मणानामश्वैः कार्यम् / साधु राजोवाच / . प्रतिगम्यतामिति // 57 // स गत्वैवमुपाध्यायाया- ये त्वा विदुर्ब्राह्मणं वामदेव पष्ट // 58 // तच्छ्रुत्वा वचनमप्रियं वामदेवः क्रोध- ___वाचा हन्तुं मनसा कर्मणा वा / परीतात्मा स्वयमेव राजानमभिगम्याश्वार्थमभ्यचो- ते त्वां सशिष्यमिह पातयन्तु दयत् / न चादाद्राजा // 59 // . मद्वाक्यनुन्नाः शितशूलासिहस्ताः // 65 वामदेव उवाच। वामदेव उवाच / प्रयच्छ वाम्यौ मम पार्थिव त्वं नानुयोगा ब्राह्मणानां भवन्ति ___ कृतं हि ते कार्यमन्यैरशक्यम् / ___ वाचा राजन्मनसा कर्मणा वा। मा त्वा वधीद्वरुणो घोरपाशै यस्त्वेवं ब्रह्म तपसान्वेति विद्वां. ब्रह्मक्षत्रस्यान्तरे वर्तमानः // 60 __ स्तेन श्रेष्ठो भवति हि जीवमानः // 66 राजोवाच / ____ मार्कण्डेय उवाच। अनड्वाहौ सुव्रतौ साधु दान्ता एवमुक्ते वामदेवेन राजवेतद्विप्राणां वाहनं वामदेव / न्समुत्तस्थू राक्षसा घोररूपाः / ताभ्यां याहि त्वं यत्र कामो महर्षे तैः शूलहस्तैर्वध्यमानः स राजा ____ छन्दांसि वै त्वादृशं संवहन्ति // 61 प्रोवाचेदं वाक्यमुच्चैस्तदानीम् // 67 वामदेव उवाच / इक्ष्वाकवो यदि ब्रह्मन्दलो वा छन्दांसि वै मादृशं संवहन्ति विधेया मे यदि वान्ये विशोऽपि / ___ लोकेऽमुष्मिन्पार्थिव यानि सन्ति / नोत्स्रक्ष्येऽहं वामदेवस्य वाम्यौ अस्मिंस्तु लोके मम यानमेत नैवंविधा धर्मशीला भवन्ति // 68 . दस्मद्विधानामपरेषां च राजन् // 62 एवं ब्रुवन्नेव स यातुधानराजोवाच / ___ हतो जगामाशु महीं क्षितीशः / चत्वारो वा गर्दभास्त्वां वहन्तु ततो विदित्वा नृपतिं निपातित__ श्रेष्ठाश्वतर्यो हरयो वा तुरंगाः / मिक्ष्वाकवो वै दलमभ्यषिश्चन् // 69 तैस्त्वं याहि क्षत्रियस्यैष वाहो राज्ये तदा तत्र गत्वा स विप्रः - मम वाम्यौ न तवैतौ हि विद्धि // 63 - प्रोवाचेदं वचनं वामदेवः। वामदेव उवाच / दलं राजानं ब्राह्मणानां हि देय+ - घोरं व्रतं ब्राह्मणस्यैतदाहु मेवं राजन्सर्वधर्मेषु दृष्टम् // 70 रेतद्राजन्यदिहाजीवमानः / बिभेषि चेत्त्वमधर्मान्नरेन्द्र अयस्मया घोररूपा महान्तो प्रयच्छ मे शीघ्रमेवाद्य वाम्यौ / मा... वहन्तु त्वां शितशूलाश्चतुर्धा // 64 एतच्छ्रुत्वा वामदेवस्य वाक्यं -655 -
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________________ 3. 190. 71] महामारते [3. 191.1 % E स पार्थिवः सूतमुवाच रोषात् // 71 वामदेव उवाच / एकं हि मे सायकं चित्ररूपं संस्पृशैनां महिषीं सायकेन दिग्धं विषेणाहर संगृहीतम् / ततस्तस्मादेनसो मोक्ष्यसे त्वम्॥ 78 . येन विद्धो वामदेवः शयीत मार्कण्डेय उवाच / .. संदश्यमानः श्वभिरार्तरूपः // 72 ततस्तथा कृतवान्पार्थिवस्तु वामदेव उवाच / __ततो मुनि राजपुत्री बभाषे / जानामि पुत्रं दशवर्षं तवाहं यथा युक्तं वामदेवाहमेनं जातं महिष्यां श्येनजितं नरेन्द्र / दिने दिने संविशन्ती व्यशंसम् / तं जहि त्वं मद्वचनात्प्रणुन्न ब्राह्मणेभ्यो मृगयन्ती सूनृतानि :स्तूर्णं प्रियं सायकै?ररूपैः // 73 तथा ब्रह्मन्पुण्यलोकं लभेयम् // 79 मार्कण्डेय उवाच / वामदेव उवाच। एवमुक्तो वामदेवेन राज त्वया त्रातं राजकुलं शुभेक्षणे . वरं वृणीष्वाप्रतिमं ददानि ते। नन्तःपुरे राजपुत्रं जघान। प्रशाधीमं स्वजनं राजपुत्रि स सायकस्तिग्मतेजा विसृष्टः - इक्ष्वाकुराज्यं सुमहच्चाप्यनिन्थे // 80 श्रुत्वा दलस्तच्च वाक्यं बभाषे॥७४ राजपुत्र्युवाच / इक्ष्वाकवो हन्त चरामि वः प्रियं वरं वृणे भगवन्नेकमेव निहन्मीमं विप्रमद्य प्रमथ्य। विमुच्यतां किल्बिषादद्य भर्ता / आनीयतामपरस्तिग्मतेजाः शिवेन चाध्याहि सपुत्रबान्धवं पश्यध्वं मे वीर्यमद्य क्षितीशाः // 75 क्रो वृतो ह्येष मया द्विजाय // 81 वामदेव उवाच / मार्कण्डेय उवाच / यं त्वमेनं सायकं घोररूपं श्रुत्वा वचः स मुनी राजपुत्र्याविषेण दिग्धं मम संदधासि / . स्तथास्त्विति प्राह कुरुप्रवीर / न त्वमेनं शरवयं विमोक्तुं ततः स राजा मुदितो बभूव संधातुं वा शक्ष्यसि मानवेन्द्र // 76 वाम्यौ चास्मै संप्रददौ प्रणम्य / / 82 राजोवाच / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि इक्ष्वाकवः पश्यत मां गृहीतं नवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 19 // न वै शक्नोम्येष शरं विमोक्तुम् / 191 न चास्य कर्तुं नाशमभ्युत्सहामि वैशंपायन उवाच। आयुष्मान्दै जीवतु वामदेवः॥ 77 ___ मार्कण्डेयमृषयः पाण्डवाश्च पर्यपृच्छन् / अस्ति -656 -.
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________________ 3. 191. 1] आरण्यकपर्व [3. 191. 28 कश्चिद्भवतश्विरजाततर इति // 1 // स तानुवाच / ध्वागम्यतां तावदिति // 15 // एतच्छ्रुत्वा स अस्ति खलु राजर्षिरिन्द्रद्युम्नो नाम क्षीणपुण्यस्त्रि कच्छपस्तस्मात्सरस उत्थायाभ्यगच्छद्यत्र तिष्ठामो दिवात्प्रच्युतः। कीर्तिस्ते व्युच्छिन्नेति / स मामुपा वयं तस्य सरसस्तीरे // 16 // आगतं चैनं वयमतिष्ठत् / अथ प्रत्यभिजानाति मां भवानिति॥२॥ पृच्छाम / भवानिन्द्रद्युम्नं राजानमभिजानातीति तमहमब्रुवम् / न वयं रासायनिकाः शरीरोपता // 17 // स मुहूर्तं ध्यात्वा बाष्पपूर्णनयन उद्विग्नपेनात्मनः समारभामहेऽर्थानामनुष्ठानम् // 3 // हृदयो वेपमानो विसंज्ञकल्पः प्राञ्जलिरब्रवीत् / अस्ति खलु हिमवति प्राकारकर्णो नामोलूकः / स किमहमेनं न प्रत्यभिजानामि / अहं ह्यनेन सहस्रभवन्तं यदि जानीयात् / प्रकृष्टे चाध्वनि हिमवान् / कृत्वः पूर्वमग्निचितिषूपहितपूर्वः / सरश्चेदमस्य तत्रासौ प्रतिवसतीति // 4 // दक्षिणादत्ताभिर्गोभिरतिक्रममाणाभिः कृतम् / अत्र . स मामश्वो भूत्वा तत्रावहद्यत्र बभूवोलूकः॥५॥ चाहं प्रतिवसामीति // 18 // अथैनं स राजर्षिः पर्यपृच्छत् / प्रत्यभिजानाति मां ____ अथैतत्कच्छपेनोदाहृतं श्रुत्वा समनन्तरं देवलोभवानिति // 6 // स मुहूर्त ध्यात्वाब्रवीदेनम् / कादेवरथः प्रादुरासीत् // 19 // वाचश्चाश्रूयन्तेन्द्रनाभिजाने भवन्तमिति // 7 // स एवमुक्तो राज द्युम्नं प्रति / प्रस्तुतस्ते स्वर्गः। यथोचितं स्थानमभिपिरिन्द्रद्युम्नः पुनस्तमुलूकमब्रवीत् / अस्ति कश्चि- . पद्यस्व / कीर्तिमानसि / अव्यग्रो याहीति // 20 // इवतश्चिरजाततर इति // 8 // स एवमुक्तोऽब्रवी दिवं स्पृशति भूमिं च शब्दः पुण्यस्य कर्मणः / देनम् / अस्ति खल्विन्द्रद्युम्नसरो नाम / तस्मिन्ना यावत्स शब्दो भवति तावत्पुरुष उच्यते // 21 डीजको नाम बकः प्रतिवसति / सोऽस्मत्तश्चिरजात अकीर्तिः कीर्त्यते यस्य लोके भूतस्य कस्यचित् / तरः / तं पृच्छेति // 9 // पतत्येवाधमाल्लोकान्यावच्छब्दः स कीर्त्यते॥ 22 . तत इन्द्रद्युम्नो मां चोलूकं चादाय तत्सरोऽगच्छ तस्मात्कल्याणवृत्तः स्यादत्यन्ताय नरो भुवि / पत्रासौ नाडीजङ्घो नाम बको बभूव // 10 // सो विहाय वृत्तं पापिष्ठं धर्ममेवाभिसंश्रयेत् // 23 ऽस्माभिः पृष्टः / भवानिन्द्रद्युम्नं राजानं प्रत्यभिजाना ___ इत्येतच्छ्रुत्वा स राजाब्रवीत् / तिष्ठ तावद्यावतीति // 11 // स एवमुक्तोऽब्रवीन्मुहूर्त ध्यात्वा। दिदानीमिमौ वृद्धौ यथास्थानं प्रतिपादयामीति नाभिजानाम्यहमिन्द्रद्युम्नं राजानमिति // 12 // ततः // 24 // स मां प्राकारकर्णं चोलूकं यथोचिते स्थाने सोऽस्माभिः पृष्टः / अस्ति कश्चिदन्यो भवतश्चिरजा प्रतिपाद्य तेनैव यानेन संसिद्धो यथोचितं स्थानं ततर इति // 13 ॥स नोऽब्रवीत् / अस्ति खल्विहैव प्रतिपन्नः // 25 // एतन्मयानुभूतं चिरजीविना सरस्यकूपारो नाम कच्छपः प्रतिवसति। स मत्तश्चिर दृष्टमिति पाण्डवानुवाच मार्कण्डेयः // 26 // जाततर इति / स यदि कथंचिदभिजानीयादिमं पाण्डवाश्चोचुः प्रीताः। साधु / शोभनं कृतं राजानं तमकूपारं पृच्छाम इति // 14 // भवता राजानमिन्द्रद्युम्नं स्वर्गलोकाच्युतं स्वे स्थाने ततः स बकस्तमकूपारं कच्छपं विज्ञापयामास। स्वर्गे पुनः प्रतिपादयतेति // 27 // अस्यस्माकमभिप्रेतं भवन्तं कंचिदर्थमभिप्रष्टुम् / सा- अथैनानब्रवीदसौ / ननु देवकीपुत्रेणापि कृष्णेन -657 - म.भा.३
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________________ 3. 191. 28 ] महाभारते [3. 192. 24 नरके मज्जमानो राजर्षिगस्तस्मात्कृच्छ्रात्समुद्धृत्य ब्रह्म वेदाश्च वेद्यं च त्वया सृष्टं महाद्युते // 11 पुनः स्वर्ग प्रतिपादित इति / / 28 // शिरस्ते गगनं देव नेत्रे शशिदिवाकरौ / .. इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि निःश्वासः पवनश्चापि तेजोऽग्निश्च तवाच्युत। एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 191 // बाहवस्ते दिशः सर्वाः कुक्षिश्चापि महार्णवः // 12 ऊरू ते पर्वता देव खं नाभिर्मधुसूदन।। वैशंपायन उवाच। पादौ ते पृथिवी देवी रोमाण्योषधयस्तथा // 13 युधिष्ठिरो धर्मराजः पप्रच्छ भरतर्षभ / इन्द्रसोमाग्निवरुणा देवासुरमहोरगाः / मार्कण्डेयं तपोवृद्धं दीर्घायुषमकल्मषम् // 1 प्रह्वास्त्वामुपतिष्ठन्ति स्तुवन्तो विविधैः स्तवैः // 14 विदितास्तव धर्मज्ञ देवदानवराक्षसाः / त्वया व्याप्तानि सर्वाणि भूतानि भुवनेश्वर। राजवंशाश्च विविधा ऋषिवंशाश्च शाश्वताः / योगिनः सुमहावीर्याः स्तुवन्ति त्वां महर्षयः // 15 न तेऽस्यविदितं किंचिदस्मिल्लोके द्विजोत्तम // 2 त्वयि तुष्टे जगत्स्वस्थं त्वयि क्रुद्ध महद्भयम् / कथां वेत्सि मुने दिव्यां मनुष्योरगरक्षसाम् / भयानामपनेतासि त्वमेकः पुरुषोत्तम // 16 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तत्त्वेन कथितं द्विज // 3 देवानां मानुषाणां च सर्वभूतसुखावहः / कुवलाश्व इति ख्यात इक्ष्वाकुरपराजितः। त्रिभिर्विक्रमणैर्देव त्रयो लोकास्त्वयाहृताः / कथं नाम विपर्यासाश्रुन्धुमारत्वमागतः // 4 असुराणां समृद्धानां विनाशश्च त्वया कृतः // 17 एतदिच्छामि तत्त्वेन ज्ञातुं भार्गवसत्तम। तव विक्रमणैर्देवा निर्वाणमगमन्परम् / विपर्यस्तं यथा नाम कुवलाश्वस्य धीमतः // 5 पराभवं च दैत्येन्द्रास्त्वयि क्रुद्धे महाद्युते // 18 मार्कण्डेय उवाच। त्वं हि कर्ता विकर्ता च भूतानामिह सर्वशः / हन्त ते कथयिष्यामि शृणु राजन्युधिष्ठिर / आराधयित्वा त्वां देवाः सुखमेधन्ति सर्वशः॥१९ धर्मिष्ठमिदमाख्यानं धुन्धुमारस्य तच्छृणु // 6 एवं स्तुतो हृषीकेश उत्तङ्केन महात्मना। यथा स राजा इक्ष्वाकुः कुवलाश्वो महीपतिः। उत्तङ्कमब्रवीद्विष्णुः प्रीतस्तेऽहं वरं वृणु // 20 धुन्धुमारत्वमगमत्तच्छृणुष्व महीपते // 7 उत्तङ्क उवाच। महर्षिर्विश्रुतस्तात उत्तङ्क इति भारत। पर्याप्तो मे वरो ह्येष यदहं दृष्टवान्हरिम् / मरुधन्वसु रम्येषु आश्रमस्तस्य कौरव // 8 पुरुषं शाश्वतं दिव्यं स्रष्टारं जगतः प्रभुम् // 21 उत्तङ्कस्तु महाराज तपोऽतप्यत्सुदुश्चरम् / विष्णुरुवाच। आरिराधयिषुर्विष्णुं बहून्वर्षगणान्विभो॥ 9 प्रीतस्तेऽहमलौल्येन भक्त्या चं द्विजसत्तम / तस्य प्रीतः स भगवान्साक्षाद्दर्शनमेयिवान् / अवश्यं हि त्वया ब्रह्मन्मत्तो ग्राह्यो वरो द्विज // 22 दृष्ट्वैव चर्षिः प्रहस्तं तुष्टाव विविधैः स्तवैः // 10 एवं संछन्द्यमानस्तु वरेण हरिणा तदा। त्वया देव प्रजाः सर्वाः सदेवासुरमानवाः / उत्तङ्कः प्राञ्जलिर्वत्रे वरं भरतसत्तम / / 23 स्थावराणि च भूतानि जङ्गमानि तथैव च। यदि मे भगवान्प्रीतः पुण्डरीकनिभेक्षणः / - 658 -
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________________ 3. 192. 24 ] आरण्यकपर्व [ 3. 193. 19 धर्मे सत्ये दमे चैव बुद्धिर्भवतु मे सदा / समये तं ततो राज्ये बृहदश्वोऽभ्यषेचयत् / अभ्यासश्च भवेद्भक्त्या त्वयि नित्यं महेश्वर / / 24 कुवलाश्वं महाराज शूरमुत्तमधार्मिकम् // 6 विष्णुरुवाच / पुत्रसंक्रामितश्रीस्तु बृहदश्वो महीपतिः। सर्वमेतद्धि भविता मत्प्रसादात्तव द्विज। जगाम तपसे धीमांस्तपोवनममित्रहा // 7 प्रतिभास्यति योगश्च येन युक्तो दिवौकसाम् / अथ शुश्राव राजर्षि तमुत्तको युधिष्ठिर / त्रयाणामपि लोकानां महत्कार्यं करिष्यसि // 25 वनं संप्रस्थितं राजन्बृहदश्वं द्विजोत्तमः // 8 उत्सादनार्थं लोकानां धुन्धुर्नाम महासुरः। . तमुत्तको महातेजाः सर्वास्त्रविदुषां वरम् / तपस्यति तपो घोरं शृणु यस्तं हनिष्यति / / 26 न्यवारयदमेयात्मा समासाद्य नरोत्तमम् // 9 वृहदश्व इति ख्यातो भविष्यति महीपतिः। उत्तङ्क उवाच / तस्य पुत्रः शुचिर्दान्तः कुर्वलाश्व इति श्रुतः॥२७ भवता रक्षणं कार्यं तत्तावत्कर्तुमर्हसि / स योगबलमास्थाय मामकं पार्थिवोत्तमः / निरुद्विग्ना वयं राजंस्त्वत्प्रसादाद्वसेमहि // 10 शासनात्तव विप्रर्षे धुन्धुमारो भविष्यति // 28 त्वया हि पृथिवी राजरक्ष्यमाणा महात्मना। मार्कण्डेय -उवाच / भविष्यति निरुद्विग्ना नारण्यं गन्तुमर्हसि // 11 उत्तङ्कमेवमुक्त्वा तु विष्णुरन्तरधीयत // 29 पालने हि महान्धर्मः प्रजानामिह दृश्यते / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि न तथा दृश्यतेऽरण्ये मा ते भूद्बुद्धिरीदृशी॥ 12 द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 192 // ईदृशो न हि राजेन्द्र धर्मः कचन दृश्यते / प्रजानां पालने यो वै पुरा राजर्षिभिः कृतः / मार्कण्डेय उवाच / रक्षितव्याः प्रजा राज्ञा तास्त्वं रक्षितुमर्हसि // 13 इक्ष्वाको संस्थिते राजशशादः पृथिवीमिमाम्। / निरुद्विग्नस्तपश्चर्तुं न हि शक्नोमि पार्थिव / प्राप्तः परमधर्मात्मा सोऽयोध्यायां नृपोऽभवत् // 1 ममाश्रमसमीपे वै समेषु मरुधन्वसु // 14 शशादस्य तु दायादः ककुत्स्थो नाम वीर्यवान् / समुद्रो वालुकापूर्ण उज्जानक इति स्मृतः। अनेनाश्चापि काकुत्स्थः पृथुश्चानेनसः सुतः॥२ बहुयोजनविस्तीर्णो बहुयोजनमायतः // 15 विष्वगश्वः पृथोः पुत्रस्तस्मादास्तु जज्ञिवान् / तत्र रौद्रो दानवेन्द्रो महावीर्यपराक्रमः / आर्द्रस्य युवनाश्वस्तु श्रावस्तस्तस्य चात्मजः // 3 मधुकैटभयोः पुत्रो धुन्धुर्नाम सुदारुणः / / 16 जज्ञे श्रावस्तको राजा श्रावस्ती येन निर्मिता / अन्तर्भूमिगतो राजन्वसत्यमितविक्रमः / श्रावस्तस्य तु दायादो बृहदश्वो महाबलः / तं निहत्य महाराज वनं त्वं गन्तुमर्हसि // 17 बृहदश्वसुतश्चापि कुवलाश्व इति स्मृतः // 4 शेते लोकविनाशाय तप आस्थाय दारुणम् / कुवलाश्वस्य पुत्राणां सहस्राण्येकविंशतिः / त्रिदशानां विनाशाय लोकानां चापि पार्थिव॥ 18 सर्वे विद्यासु निष्णाता बलवन्तो दुरासदाः // 5 अवध्यो देवतानां स दैत्यानामथ रक्षसाम् / कुवलाश्वस्तु पितृतो गुणैरभ्यधिकोऽभवत् / नागानामथ यक्षाणां गन्धर्वाणां च सर्वशः / - 659 -
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________________ 3. 193. 19 ] महाभारते [ 3. 194. 14 अवाप्य स वरं राजन्सर्वलोकपितामहात् // 19 / प्रियं वै सर्वमेतत्ते करिष्यति न संशयः॥३ तं विनाशय भद्रं ते मा ते बुद्धिरतोऽन्यथा। पुत्रैः परिवृतः सर्वैः शूरैः परिघबाहुभिः / प्राप्स्यसे महतीं कीर्तिं शाश्वतीमव्ययां ध्रुवाम्॥२० विसर्जयस्व मां ब्रह्मन्यस्तशस्त्रोऽस्मि सांप्रतम् // क्रूरस्य स्वपतस्तस्य वालुकान्तर्हितस्य वै / तथास्त्विति च तेनोक्तो मुनिनामिततेजसा / संवत्सरस्य पर्यन्ते निःश्वासः संप्रवर्तते।। स तमादिश्य तनयमुत्तकाय महात्मने। यदा तदा भूश्चलति सशैलवनकानना // 21 क्रियतामिति राजर्षिर्जगाम वनमुत्तमम् / / 5 तस्य निःश्वासवातेन रज उद्भूयते महत् / युधिष्ठिर उवाच / आदित्यपथमावृत्य सप्ताहं भूमिकम्पनम् / क एष भगवन्दैत्यो महावीर्यस्तपोधन / सविस्फुलिङ्गं सज्वालं सधूमं ह्यतिदारुणम् / / 22 कस्य पुत्रोऽथ नप्ता वा एतदिच्छामि वेदितुम् // तेन राजन्न शक्नोमि तस्मिन्स्थातुं स्व आश्रमे। एवं महाबलो दैत्यो न श्रुतो मे तपोधन। तं विनाशय राजेन्द्र लोकानां हितकाम्यया। एतदिच्छामि भगवन्याथातथ्येन वेदितुम् / लोकाः स्वस्था भवन्त्वद्य तस्मिन्विनिहतेऽसुरे॥२३ / सर्वमेव महाप्राज्ञ विस्तरेण तपोधन // 7 त्वं हि तस्य विनाशाय पर्याप्त इति मे मतिः। मार्कण्डेय उवाच / तेजसा तव तेजश्व विष्णुराप्याययिष्यति / / 24 शृणु राजन्निदं सर्वं यथावृत्तं नराधिप / विष्णुना च वरो दत्तो मम पूर्वं ततो वधे / एकार्णवे तदा घोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे / यस्तं महासुरं रौद्रं वधिष्यति महीपतिः / प्रनष्टेषु च भूतेषु सर्वेषु भरतर्षभ // 8 तेजस्तं वैष्णवमिति प्रवेक्ष्यति दुरासदम् / / 25 प्रभवः सर्वभूतानां शाश्वतः पुरुषोऽव्ययः / तत्तेजस्त्वं समाधाय राजेन्द्र भुवि दुःसहम् / सुष्वाप भगवान्विष्णुरप्शय्यामेक एव ह। तं निषूदय संदुष्टं दैत्यं रौद्रपराक्रमम् // 26 नागस्य भोगे महति शेषस्यामिततेजसः // 9 न हि धुन्धुर्महातेजास्तेजसाल्पेन शक्यते / लोककर्ता महाभाग भगवानच्युतो हरिः। निर्दग्धं पृथिवीपाल स हि वर्षशतैरपि // 27 नागभोगेन महता परिरभ्य महीमिमाम् // 10 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि स्वपतस्तस्य देवस्य पद्मं सूर्यसमप्रभम् / विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 193 // नाभ्यां विनिःसृतं तत्र यत्रोत्पन्नः पितामहः / साक्षाल्लोकगुरुर्ब्रह्मा पद्मे सूर्येन्दुसप्रभे // 11 मार्कण्डेय उवाच / चतुर्वेदश्चतुर्मूर्तिस्तथैव च चतुर्मुखः। स एवमुक्तो राजर्षिरुत्तङ्केनापराजितः / स्वप्रभावाहुराधर्षों महाबलपराक्रमः // 12 उत्तङ्कं कौरवश्रेष्ठ कृताञ्जलिरथाब्रवीत् // 1 कस्यचित्त्वथ कालस्य दानवौ वीर्यवत्तरौ / न तेऽभिगमनं ब्रह्मन्मोघमेतद्भविष्यति / मधुश्च कैटभश्चैव दृष्टवन्तौ हरिं प्रभुम् // 13 पुत्रो ममायं भगवन्कुवलाश्व इति स्मृतः // 2 शयानं शयने दिव्ये नागभोगे महाद्युतिम् / धृतिमान्क्षिप्रकारी च वीर्येणाप्रतिमो भुवि / बहुयोजनविस्तीर्णे बहुयोजनमायते // 14 -660
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________________ 3. 194. 15]] आरण्यकपर्व [ 3. 195.8 किरीटकौस्तुभधरं पीतकौशेयवाससम् / वर ऍष वृतो देव तद्विद्धि सुरसत्तम // 27 दीप्यमानं श्रिया राजंस्तेजसा वपुषा तथा। भगवानुवाच / सहस्रसूर्यप्रतिममद्भुतोपमदर्शनम् // 15 बाढमेवं करिष्यामि सर्वमेतद्भविष्यति // 28 विस्मयः सुमहानासीन्मधुकैटभयोस्तदा / मार्कण्डेय उवाच। दृष्ट्वा पितामहं चैव पद्म पद्मनिभेक्षणम् // 16 विचिन्त्य त्वथ गोविन्दो नापश्यद्यदनावृतम् / वित्रासयेतामथ तौ ब्रह्माणममितौजसम् / अवकाशं पृथिव्यां वा दिवि वा मधुसूदनः // 29 वित्रास्यमानो बहुशो ब्रह्मा ताभ्यां महायशाः / खकावनावृतावूरू दृष्ट्वा देववरस्तदा / अकम्पयत्पद्मनालं ततोऽबुध्यत केशवः // 17 मधुकैटभयो राजशिरसी मधुसूदनः / अथापश्यत गोविन्दो दानवौ वीर्यवत्तरौ। चक्रेण शितधारेण न्यकृन्तत महायशाः // 30 दृष्ट्वा तावब्रवीदेवः स्वागतं वां महाबलौ / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि ददानि वां वरं श्रेष्ठं प्रीतिर्हि मम जायते // 18 चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 194 // तौ प्रहस्य हृषीकेशं महावी? महासुरौ / प्रत्यब्रूतां महाराज सहितौ मधुसूदनम् // 19 मार्कण्डेय उवाच / आवां वरय देव त्वं वरदौ स्वः सुरोत्तम। धुन्धुर्नाम महातेजास्तयोः पुत्रो महाद्युतिः। . दातारौ स्वो वरं तुभ्यं तद्भवीह्यविचारयन् / / 20 / स तपोऽतप्यत महन्महावीर्यपराक्रमः // 1 . भगवानुवाच / अतिष्ठदेकपादेन कृशो धमनिसंततः / प्रतिगृह्वे वरं वीरावीप्सितश्च वरो मम / तस्मै ब्रह्मा ददौ प्रीतो वरं वव्रे स च प्रभो॥२ युवां हि वीर्यसंपन्नौ न वामस्ति समः पुमान् // देवदानवयक्षाणां सर्पगन्धर्वरक्षसाम् / वध्यत्वमुपगच्छेतां मम सत्यपराक्रमौ / अवध्योऽहं भवेयं वै वर एष वृतो मया // 3 . एतदिच्छाम्यहं कामं प्राप्तुं लोकहिताय वै // 22 एवं भवतु गच्छेति तमुवाच पितामहः / / ___ मधुकैटभावूचतुः। स एवमुक्तस्तत्पादौ मूर्धा स्पृश्य जगाम ह // 4 अनृतं नोक्तपूर्वं नौ स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा। स तु धुन्धुर्वरं लब्ध्वा महावीर्यपराक्रमः / सत्ये धर्मे च निरतौ विद्ध्यावां पुरुषोत्तम // 23 अनुस्मरन्पितृवधं ततो विष्णुमुपाद्रवत् // 5 बले रूपे च वीर्ये च शमे च न समोऽस्ति नौ / स तु देवान्सगन्धर्वाञ्जित्वा धुन्धुरमर्षणः / धर्मे तपसि दाने च शीलसत्त्वदमेषु च // 24 बबाध सर्वानसकृद्देवान्विष्णुं च वै भृशम् // 6 उपप्लवो महानस्मानुपावर्तत केशव / समुद्रो वालुकापूर्ण उज्जानक इति स्मृतः / उक्तं प्रतिकुरुष्व त्वं कालो हि दुरतिक्रमः // 25 आगम्य च स दुष्टात्मा तं देशं भरतर्षभ / आवामिच्छावहे देव कृतमेकं त्वया विभो। बाधते स्म परं शक्त्या तमुत्तङ्काश्रमं प्रभो॥७ अनावृतेऽस्मिन्नाकाशे वधं सुरवरोत्तम // 26 अन्तर्भूमिगतस्तत्र वालुकान्तर्हितस्तदा / पुत्रत्वमभिगच्छाव तव चैव सुलोचन / मधुकैटभयोः पुत्रो धुन्धुर्भीमपराक्रमः // 8 - 661 -
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________________ 3. 195.9] महाभारते [ 3. 195. 34 शेते लोकविनाशाय तपोबलसमाश्रितः / स वध्यमानः संक्रुद्धः समुत्तस्थौ महाबलः / उत्तङ्कस्याश्रमाभ्याशे निःश्वसन्पावकार्चिषः // 9 क्रुद्धश्चाभक्षयत्तेषां शस्त्राणि विविधानि च // 23 एतस्मिन्नेव काले तु सभृत्यबलवाहनः / आस्याद्वमन्पावकं स संवर्तकसमं तदा। कुवलाश्वो नरपतिरन्वितो बलशालिनाम् / / 10 तान्सर्वान्नृपतेः पुत्रानदहत्स्वेन तेजसा // 24 सहस्रैरेकविंशत्या पुत्राणामरिमर्दनः / मुखजेनाग्निना क्रुद्धो लोकानुद्वर्तयन्निव / प्रायादुत्तङ्कसहितो धुन्धोस्तस्य निवेशनम् / / 11 क्षणेन राजशार्दूल पुरेव कपिलः प्रभुः / तमाविशत्ततो विष्णुभंगवांस्तेजसा प्रभुः / सगरस्यात्मजान्क्रुद्धस्तदद्भुतमिवाभवत् // 25 उत्तङ्कस्य नियोगेन लोकानां हितकाम्यया // 12 तेषु क्रोधाग्निदग्धेषु तदा भरतसत्तम / तस्मिन्प्रयाते दुर्धर्षे दिवि शब्दो महानभूत् / / तं प्रबुद्धं महात्मानं कुम्भकर्णमिवापरम् / एष श्रीमान्नृपसुतो धुन्धुमारो भविष्यति // 13 आससाद महातेजाः कुवलाश्वो महीपतिः // 26 दिव्यैश्च पुष्पैस्तं देवाः समन्तात्पर्यवाकिरन् / तस्य वारि महाराज सुस्राव बहु देहतः। देवदुन्दुभयश्चैव नेदुः स्वयमुदीरिताः // 14 तदापीयत तत्तेजो राजा वारिमयं नृप। शीतश्च वायुः प्रववौ प्रयाणे तस्य धीमतः / योगी योगेन वह्निं च शमयामास वारिणा // 27 विपांसुलां महीं कुर्वन्ववर्ष च सुरेश्वरः // 15 ब्रह्मास्त्रेण तदा राजा दैत्यं क्रूरपराक्रमम् / अन्तरिक्षे विमानानि देवतानां युधिष्ठिर / ददाह भरतश्रेष्ठ सर्वलोकाभयाय वै // 28 तत्रैव समदृश्यन्त धुन्धुर्यत्र महासुरः // 16 सोऽस्त्रेण दग्ध्वा राजर्षिः कुवलाश्वो महासुरम् / कुवलाश्वस्य धुन्धोश्च युद्धकौतूहलान्विताः / सुरशत्रुममित्रघ्नस्त्रिलोकेश ड्रवापरः / देवगन्धर्वसहिताः समवैक्षन्महर्षयः // 17 धुन्धुमार इति ख्यातो नाम्ना समभवत्ततः // 29 नारायणेन कौरव्य तेजसाप्यायितस्तदा / प्रीतैश्च त्रिदशैः सर्वैर्महर्षिसहितैस्तदा। स गतो नृपतिः क्षिप्रं पुत्रैस्तैः सर्वतोदिशम् // 18 वरं वृणीष्वेत्युक्तः सं प्राञ्जलिः प्रणतस्तदा। अर्णवं खानयामास कुवलाश्वो महीपतिः / अतीव मुदितो राजन्निदं वचनमब्रवीत् // 30 कुवलाश्वस्य पुत्रैस्तु तस्मिन्वै वालुकार्णवे // 19 दद्यां वित्तं द्विजायेभ्यः शत्रूणां चापि दुर्जयः। सप्तभिर्दिवसैः खात्वा दृष्टो धुन्धुर्महाबलः / सख्यं च विष्णुना मे स्याद्भूतेष्वद्रोह एव च / आसीद्वोरं वपुस्तस्य वालुकान्तर्हितं महत् / धर्मे रतिश्च सततं स्वर्गे वासस्तथाक्षयः // 31 दीप्यमानं यथा सूर्यस्तेजसा भरतर्षभ / 20 तथास्त्विति ततो देवैः प्रीतैरुक्तः स पार्थिवः / ततो धुन्धुमहाराज दिशमाश्रित्य पश्चिमाम् / ऋषिभिश्च सगन्धर्वैरुत्ततेन च धीमता / / 32 सुप्तोऽभूदाजशार्दूल कालानलसमद्युतिः // 21 सभाज्य चैनं विविधैराशीर्वादैस्ततो नृपम् / कुवलाश्वस्य पुत्रैस्तु सर्वतः परिवारितः। देवा महर्षयश्चैव स्वानि स्थानानि भेजिरे // 33 अभिद्रुतः शरैस्तीक्ष्णैर्गदाभिमुसलैरपि / तस्य पुत्रास्त्रयः शिष्टा युधिष्ठिर तदाभवन् / पट्टिशैः परिघैः प्रासैः खङ्गैश्च विमलैः शितैः // 22 / दृढाश्वः कपिलाश्वश्व चन्द्राश्वश्चैव भारत / -662
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________________ 3. 195. 34] आरण्यकपर्व [3. 196. 20 तेभ्यः परंपरा राजन्निक्ष्वाकूणां महात्मनाम् // 34 स्त्रीणां धर्मात्सुघोराद्धि नान्यं पश्यामि दुष्करम् / एवं स निहतस्तेन कुवलाश्वेन सत्तम / साध्वाचाराः स्त्रियो ब्रह्मन्यत्कुर्वन्ति सदाहताः / धुन्धुर्दैत्यो महावीर्यो मधुकैटभयोः सुतः // 35 दुष्करं बत कुर्वन्ति पितरो मातरश्च वै // 8 कुवलाश्वस्तु नृपतिधुन्धुमार इति स्मृतः / एकपत्न्यश्च या नार्यो याश्च सत्यं वदन्त्युत / नाना च गुणसंयुक्तस्तदाप्रभृति सोऽभवत् // 36 कुक्षिणा दश मासांश्च गर्भ संधारयन्ति याः / एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि / नार्यः कालेन संभूय किमद्भुततरं ततः // 9 धौन्धुमारमुपाख्यानं प्रथितं यस्य कर्मणा // 37 संशयं परमं प्राप्य वेदनामतुलामपि / इदं तु पुण्यमाख्यानं विष्णोः समनुकीर्तनम् / प्रजायन्ते सुतान्नार्यो दुःखेन महता विभो। शृणुयाद्यः स धर्मात्मा पुत्रवांश्च भवेन्नरः / / 38 पुष्णन्ति चापि महता स्नेहेन द्विजसत्तम // 10 आयुष्मान्धृतिमांश्चैव श्रुत्वा भवति पर्वसु / ये च क्रूरेषु सर्वेषु वर्तमाना जुगुप्सिताः / न च व्याधिभयं किंचित्प्राप्नोति विगतज्वरः / / 39 स्वकर्म कुर्वन्ति सदा दुष्करं तच्च मे मतम् / / 11 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि क्षत्रधर्मसमाचारं तथ्यं चाख्याहि मे द्विज / पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 195 // धर्मः सुदुर्लभो विप्र नृशंसेन दुरात्मना // 12 एतदिच्छामि भगवन्प्रश्नं प्रश्नविदां वर / वैशंपायन उवाच / श्रोतुं भृगुकुलश्रेष्ठ शुश्रूषे तव सुव्रत // 13 ततो युधिष्ठिरो राजा मार्कण्डेयं महाद्युतिम् / मार्कण्डेय उवाच / पप्रच्छ भरतश्रेष्ठो धर्मप्रश्नं सुदुर्वचम् // 1 हन्त ते सर्वमाख्यास्ये प्रश्नमेतं सुदुर्वचम् / श्रोतुमिच्छामि भगवन्त्रीणां माहात्म्यमुत्तमम् / तत्त्वेन भरतश्रेष्ठ गदतस्तन्निबोध मे // 14 कथ्यमानं त्वया विप्र सूक्ष्मं धर्मं च तत्त्वतः // 2 मातरं सदृशीं तात पितॄनन्ये च मन्यते / प्रत्यक्षेण हि विप्रर्षे देवा दृश्यन्ति सत्तम / दुष्करं कुरुते माता विवर्धयति या प्रजाः // 15 सूर्याचन्द्रमसौ वायुः पृथिवी वह्निरेव च // 3 तपसा देवतेज्याभिर्वन्दनेन तितिक्षया / पिता माता च भगवन्गाव एव च सत्तम / अभिचारैरुपायैश्च ईहन्ते पितरः सुतान् // 16 यच्चान्यदेव विहितं तच्चापि भृगुनन्दन // 4 एवं कृच्छ्रेण महता पुत्रं प्राप्य सुदुर्लभम् / मन्येऽहं गुरुवत्सर्वमेकपल्यस्तथा स्त्रियः / चिन्तयन्ति सदा वीर कीदृशोऽयं भविष्यति // 17 पतिव्रतानां शुश्रूषा दुष्करा प्रतिभाति मे // 5 आशंसते च पुत्रेषु पिता माता च भारत / पतिव्रतानां माहात्म्यं वक्तुमर्हसि नः प्रभो। यशः कीर्तिमथैश्वर्यं प्रजा धर्मं तथैव च // 18 निरुध्य चेन्द्रियग्रामं मनः संरुध्य चानघ / तयोराशां तु सफलां यः करोति स धर्मवित्। पतिं दैवतवच्चापि चिन्तयन्त्यः स्थिता हि याः॥ 6 / पिता माता च राजेन्द्र तुष्यतो यस्य नित्यदा। भगवन्दुष्करं ह्येतत्प्रतिभाति मम प्रभो। इह प्रेत्य च तस्याथ कीर्तिधर्मश्च शाश्वतः // 19 मातापितॄषु शुश्रूषा स्त्रीणां भर्तृषु च द्विज // 7 नैव यज्ञः स्त्रियः कश्चिन्न श्राद्धं नोपवासकम् / - 663 -
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________________ 3. 196. 20] महाभारते [3. 197. 24 या तु भर्तरि शुश्रूषा तया स्वर्गमुपाश्नुते // 20 उच्छिष्टं भुञ्जते भर्तुः सा तु नित्यं युधिष्ठिर / एतत्प्रकरणं राजन्नधिकृत्य युधिष्ठिर / दैवतं च पतिं मेने भर्तुश्चित्तानुसारिणी // 12 प्रतिव्रतानां नियतं धर्म चावहितः शृणु // 21 न कर्मणा न मनसा नात्यश्नान्नापि चापिबत् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तं सर्वभावोपगता पतिशुश्रूषणे रता // 13 . षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९६॥ साध्वाचारा शुचिर्दक्षा कुटुम्बस्य हितैषिणी। . 197 भर्तुश्चापि हितं यत्तत्सततं सानुवर्तते // 14 मार्कण्डेय उवाच / देवतातिथिभृत्यानां श्वश्रूश्वशुरयोस्तथा। कश्चिहिजातिप्रवरो वेदाध्यायी तपोधनः / शुश्रूषणपरा नित्यं सततं संयतेन्द्रिया / / 15 तपस्वी धर्मशीलश्च कौशिको नाम भारत // 1 सा ब्राह्मणं तदा दृष्ट्वा संस्थितं भैक्षकाटिणम् / साङ्गोपनिषदान्वेदानधीते द्विजसत्तमः / कुर्वती पतिशुश्रूषां सस्माराथ शुभेक्षणा // 16 स वृक्षमूले कस्मिंश्चिद्वदानुच्चारयन्स्थितः // 2 . वीडिता साभवत्साध्वी तदा भरतसत्तम। उपरिष्टाच्च वृक्षस्य बलाका संन्यलीयत / भिक्षामादाय विप्राय निर्जगाम यशस्विनी // 17 तया पुरीषमुत्सृष्टं ब्राह्मणस्य तदोपरि / / 3 ब्राह्मण उवाच। तामवेक्ष्य ततः क्रुद्धः समपध्यायत द्विजः। किमिदं भवति त्वं मां तिष्ठेत्युक्त्वा वराङ्गने / भृशं क्रोधाभिभूतेन बलाका सा निरीक्षिता // 4 उपरोधं कृतवती न विसर्जितवत्यसि // 18 अपध्याता च विप्रेण न्यपतद्वसुधातले / मार्कण्डेय उवाच। बलाकां पतितां दृष्ट्वा गतसत्त्वामचेतनाम् / ब्राह्मणं क्रोधसंतप्तं ज्वलन्तमिव तेजसा। कारुण्यादभिसंतप्तः पर्यशोचत तां द्विजः // 5 दृष्ट्वा साध्वी मनुष्येन्द्र सान्त्वपूर्व वचोऽब्रवीत् / / अकार्य कृतवानस्मि रागद्वेषबलात्कृतः / क्षन्तुमर्हसि मे विप्र भर्ता मे दैवतं महत्। इत्युक्त्वा बहुशो विद्वान्यामं भैक्षाय संश्रितः / / 6 स चापि क्षुधितः श्रान्तः प्राप्तः शुश्रूषितो मया // 20 प्रामे शुचीनि प्रचरन्कुलानि भरतर्षभ / ब्राह्मण उवाच। प्रविष्टस्तत्कुलं यत्र पूर्व चरितवांस्तु सः॥ 7 ब्राह्मणा न गरीयांसो गरीयांस्ते पतिः कृतः / देहीति याचमानो वै तिष्ठेत्युक्तः स्त्रिया ततः / गृहस्थधर्मे वर्तन्ती ब्राह्मणानवमन्यसे // 21 शौचं तु यावत्कुरुते भाजनस्य कुटुम्बिनी // 8 इन्द्रोऽप्येषां प्रणमत किं पुनर्मानुषा भुवि / एतस्मिन्नन्तरे राजन्क्षुधासंपीडितो भृशम् / अवलिप्ते न जानीषे वृद्धानां न श्रुतं. त्वया। भर्ता प्रविष्टः सहसा तस्या भरतसत्तम // 9 / ब्राह्मणाः ह्यग्निसदृशा दहेयुः पृथिवीमपि // 22 सा तु दृष्ट्वा पतिं साध्वी ब्राह्मणं व्यपहाय तम् / स्युवाच। पाद्यमाचमनीयं च ददौ भत्रे तथासनम् // 10 नावजानाम्यहं विप्रान्देवैस्तुल्यान्मनस्विनः। प्रह्ला पर्यचरचापि भर्तारमसितेक्षणा / अपराधमिमं विप्र क्षन्तुमर्हसि मेऽनघ / 23 आहारेणाथ भक्ष्यैश्च वाक्यैः सुमधुरैस्तथा // 11 / जानामि तेजो विप्राणां महाभाग्यं च धीमताम् / -664 -
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________________ 3. 197. 24] आरण्यकपर्व [3. 198.4 अपेयः सागरः क्रोधात्कृतो हि लवणोदकः // 24 दुर्जेयः शाश्वतो धर्मः स तु सत्ये प्रतिष्ठितः। तथैव दीप्ततपसां मुनीनां भावितात्मनाम् / श्रुतिप्रमाणो धर्मः स्यादिति वृद्धानुशासनम् // 39 येषां क्रोधाग्निरद्यापि दण्डके नोपशाम्यति // 25 बहुधा दृश्यते धर्मः सूक्ष्म एव द्विजोत्तम / ब्राह्मणानां परिभवाद्वातापिश्च दुरात्मवान् / भवानपि च धर्मज्ञः स्वाध्यायनिरतः शुचिः / अगस्त्यमृषिमासाद्य जीर्णः क्रूरो महासुरः // 26 / न तु तत्त्वेन भगवन्धर्मान्वेत्सीति मे मतिः॥४० प्रभावा बहवश्चापि श्रूयन्ते ब्रह्मवादिनाम् / मातापितृभ्यां शुश्रूषुः सत्यवादी जितेन्द्रियः / क्रोधः सुविपुलो ब्रह्मन्प्रसादश्च महात्मनाम् / / 27 मिथिलायां वसन्व्याधः स ते धर्मान्प्रवक्ष्यति / अस्मिंस्त्वतिक्रमे ब्रह्मन्क्षन्तुमर्हसि मेऽनघ / तत्र गच्छस्व भद्रं ते यथाकामं द्विजोत्तम // 41 पतिशुश्रूषया धर्मो यः स मे रोचते द्विज // 28 अत्युक्तमपि मे सर्व क्षन्तुमर्हस्यनिन्दित / दैवतेष्वपि सर्वेषु भर्ता मे दैवतं परम् / स्त्रियो ह्यवध्याः सर्वेषां ये धर्मविदुषो जनाः।। 42 अविशेषेण तस्याहं कुर्यां धर्म द्विजोत्तम // 29 ब्राह्मण उवाच। शुश्रूषायाः फलं पश्य पत्युर्ब्राह्मण यादृशम् / प्रीतोऽस्मि तव भद्रं ते गतः क्रोधश्च शोभने। बलाका हि त्वया दग्धा रोषात्तद्विदितं मम // 30 उपालम्भस्त्वया ह्युक्तो मम निःश्रेयसं परम् / क्रोधः शत्रुः शरीरस्थो मनुष्याणां द्विजोत्तम।। स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि साधयिष्यामि शोभने // यः क्रोधमोहौ त्यजति तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥ 31 मार्कण्डेय उवाच / यो वदेदिह सत्यानि गुरुं संतोषयेत च। तया विसृष्टो निर्गम्य स्वमेव भवनं ययौ। हिंसितश्च न हिंसेत तं देवा ब्राह्मणं विदुः / / 32 / विनिन्दन्स द्विजोऽऽत्मानं कौशिको नरसत्तम // 44 जितेन्द्रियो धर्मपरः स्वाध्यायनिरतः शुचिः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि कामक्रोधौ वशे यस्य तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 33 सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 19 // यस्य चात्मसमो लोको धर्मज्ञस्य मनस्विनः / सर्वधर्मेषु च रतस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 34 मार्कण्डेय उवाच / योऽध्यापयेदधीयीत यजेद्वा याजयीत वा। चिन्तयित्वा तदाश्चयं स्त्रिया प्रोक्तमशेषतः। दद्याद्वापि यथाशक्ति तं देवा ब्राह्मणं विदुः / / 35 विनिन्दन्स द्विजोऽऽत्मानमागस्कृत इवाबभौ // 1 ब्रह्मचारी च वेदान्यो अधीयीत द्विजोत्तमः / / चिन्तयानः स धर्मस्य सूक्ष्मां गतिमथाब्रवीत् / खाध्याये चाप्रमत्तो वै तं देवा ब्राह्मणं विदुः॥३६ श्रद्दधानेन भाव्यं वै गच्छामि मिथिलामहम् // 2 यद्राह्मणानां कुशलं तदेषां परिकीर्तयेत् / कृतात्मा धर्मवित्तस्यां व्याधो निवसते किल / सत्यं तथा व्याहरतां नानृते रमते मनः // 37 तं गच्छाम्यहमद्यैव धर्म प्रष्टुं तपोधनम् // 3 धनं तु ब्राह्मणस्याहुः स्वाध्यायं दममार्जवम्। / इति संचिन्त्य मनसा श्रद्दधानः स्त्रिया वचः / इन्द्रियाणां निग्रहं च शाश्वतं द्विजसत्तम / बलाकाप्रत्ययेनासौ धम्यश्च वचनैः शुभैः। सत्यार्ज वे धर्ममाहुः परं धर्मविदो जनाः // 38 / संप्रतस्थे स मिथिलां कौतूहलसमन्वितः // 4 . म. भा. 84 -665 -
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________________ 3. 198. 5] महाभारते [ 3. 198. 32 अतिक्रामन्नरण्यानि ग्रामांश्च नगराणि च / कर्मैतद्वै न सदृशं भवतः प्रतिभाति मे। ततो जगाम मिथिलां जनकेन सुरक्षिताम् // 5 अनुतप्ये भृशं तात तव घोरेण कर्मणा // 18 धर्मसेतुसमाकीर्णां यज्ञोत्सववतीं शुभाम् / व्याध उवाच / गोपुराट्टालकवतीं गृहप्राकारशोभिताम् // 6 कुलोचितमिदं कर्म पितृपैतामहं मम / प्रविश्य स पुरी रम्यां विमानैर्बहुभिर्वृताम् / वर्तमानस्य मे धर्मे स्वे मन्युं मा कृथा द्विज // 19 पण्यैश्च बहुभिर्युक्तां सुविभक्तमहापथाम् // 7 धात्रा तु विहितं पूर्वं कर्म स्वं पालयाम्यहम् / अश्वै रथैस्तथा नागैर्यानैश्च बहुभिर्वृताम् / प्रयत्नाच्च गुरू वृद्धौ शुश्रूषेऽहं द्विजोत्तम / / 20 हृष्टपुष्टजनाकीर्णां नित्योत्सवसमाकुलाम् / / 8 सत्यं वदे नाभ्यसूये यथाशक्ति ददामि च / सोऽपश्यद्वहुवृत्तान्तां ब्राह्मणः समतिक्रमन् / देवतातिथिभृत्यानामवशिष्टेन वर्तये // 21 धर्मव्याधमपृच्छच्च स चास्य कथितो द्विजैः॥९ न कुत्सयाम्यहं किंचिन्न गर्हे बलवत्तरम् / अपश्यत्तत्र गत्वा तं सूनामध्ये व्यवस्थितम् / कृतमन्वेति कर्तारं पुरा कर्म द्विजोत्तम // 22 मार्गमाहिषमांसानि विक्रीणन्तं तपस्विनम् / कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यमिह लोकस्य जीवनम् / आकुलत्वात्तु केतृणामेकान्ते संस्थितो द्विजः // 10 दण्डनीतिस्त्रयी विद्या तेन लोका भवन्त्युत // 23 स तु ज्ञात्वा द्विजं प्राप्त सहसा संभ्रमोत्थितः / कर्म शूद्रे कृषिर्वैश्ये संग्रामः क्षत्रिये स्मृतः / आजगाम यतो विप्रः स्थित एकान्त आसने // 11 ब्रह्मचर्यं तपो मत्राः सत्यं च ब्राह्मणे सदा // 24 ___ व्याध उवाच। राजा प्रशास्ति धर्मेण स्वकर्मनिरताः प्रजाः। अभिवादये त्वा भगवन्स्वागतं ते द्विजोत्तम। विकर्माणश्च ये केचित्तान्युनक्ति स्वकर्मसु // 25 अहं व्याधस्तु भद्रं ते किं करोमि प्रशाधि माम्॥१२ भेतव्यं हि सदा राज्ञां प्रजानामधिपा हि ते। एकपल्या यदुक्तोऽसि गच्छ त्वं मिथिलामिति / मारयन्ति विकर्मस्थं लुब्धा मृगमिवेषुभिः // 26 जानाम्येतदहं सर्वं यदर्थं त्वमिहागतः // 13 जनकस्येह विप्रर्षे विकर्मस्थो न विद्यते / मार्कण्डेय उवाच / स्वकर्मनिरता वर्णाश्चत्वारोऽपि द्विजोत्तम // 27 श्रुत्वा तु तस्य तद्वाक्यं स विप्रो भृशहर्षितः / स एष जनको राजा दुर्वृत्तमपि चेत्सुतम् / द्वितीयमिदमाश्चर्यमित्यचिन्तयत द्विजः // 14 दण्ड्यं दण्डे निक्षिपति तथा न ग्लाति धार्मिकम् // अदेशस्थं हि ते स्थानमिति व्याधोऽब्रवीहिजम् / सुयुक्तचारो नृपतिः सर्व धर्मेण पश्यति / गृहं गच्छाव भगवन्यदि रोचयसेऽनघ / 15 श्रीश्च राज्यं च दण्डश्च क्षत्रियाणां द्विजोत्तम // 29 बाढमित्येव संहृष्टो विप्रो वचनमब्रवीत् / / राजानो हि स्वधर्मेण श्रियमिच्छन्ति भूयसीम् / अग्रतस्तु द्विजं कृत्वा स जगाम गृहान्प्रति // 16 सर्वेषामेव वर्णानां त्राता राजा भवत्युत // 30 प्रविश्य च गृहं रम्यमासनेनाभिपूजितः / परेण हि हतान्ब्रह्मन्वराहमहिषानहम् / पाद्यमाचमनीयं च प्रतिगृह्य द्विजोत्तमः // 17 न स्वयं हन्मि विप्रर्षे विक्रीणामि सदा त्वहम् // 31 ततः सुखोपविष्टस्तं व्याधं वचनमब्रवीत् / / न भक्षयामि मांसानि ऋतुगामी तथा ह्यहम् / - 666 -
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________________ 3. 198. 32] आरण्यकपर्व [ 3. 198. 56 सदोपवासी च तथा नक्तभोजी तथा द्विज // 32 / दर्शयत्यन्तरात्मानं दिवा रूपमिवांशुमान् // 45 अशीलश्चापि पुरुषो भूत्वा भवति शीलवान् / न लोके राजते मूर्खः केवलात्मप्रशंसया। प्राणिहिंसारतश्चापि भवते धार्मिकः पुनः / / 33 / | अपि चेह मजा हीनः कृतविद्यः प्रकाशते // 46 व्यभिचारान्नरेन्द्राणां धर्मः संकीर्यते महान् / / अब्रुवन्कस्यचिन्निन्दामात्मपूजामवर्णयन् / अधर्मो वर्धते चापि संकीर्यन्ते तथा प्रजाः॥३४ न कश्चिद्गुणसंपन्नः प्रकाशो भुवि दृश्यते // 47 उरुण्डा वामनाः कुब्जाः स्थूलशीर्षास्तथैव च। विकर्मणा तप्यमानः पापाद्विपरिमुच्यते / छीबाश्चान्धाश्च जायन्ते बधिरा लम्बचूचुकाः / नैतत्कुर्यां पुनरिति द्वितीयात्परिमुच्यते // 48 पार्थिवानामधर्मत्वात्प्रजानामभवः सदा // 35 कर्मणा येन तेनेह पापाहिजवरोत्तम / स एष राजा जनकः सर्व धर्मेण पश्यति / एवं श्रुतिरियं ब्रह्मन्धर्मेषु परिदृश्यते // 49 अनुगृह्णन्प्रजाः सर्वाः स्वधर्मनिरताः सदा // 36 पापान्यबुद्धेह पुरा कृतानि ये चैव मां प्रशंसन्ति ये च निन्दन्ति मानवाः / प्राग्धर्मशीलो विनिहन्ति पश्चात् / सर्वान्सुपरिणीतेन कर्मणा तोषयाम्यहम् / / 37 धर्मो ब्रह्मन्नुदते पूरुषाणां ये जीवन्ति स्वधर्मेण संभुञ्जन्ते च पार्थिवाः / यत्कुर्वते पापमिह प्रमादात् // 50 न किंचिदुपजीवन्ति दक्षा उत्थानशीलिनः // 38 पापं कृत्वा हि मन्येत नाहमस्मीति पूरुषः / शक्त्यान्नदानं सततं तितिक्षा धर्मनित्यता / चिकीर्षेदेव कल्याणं श्रद्दधानोऽनसूयकः // 51 यथार्ह प्रतिपूजा च सर्वभूतेषु वै दया। वसनस्येव छिद्राणि साधूनां विवृणोति यः / त्यागान्नान्यत्र मानां गुणास्तिष्ठन्ति पूरुषे // 39 पापं चेत्पुरुषः कृत्वा कल्याणमभिपद्यते / मृषावाद परिहरेत्कुत्प्रियमयाचितः / मुच्यते सर्वपापेभ्यो महाभैरिव चन्द्रमाः // 52 न च कामान्न संरम्भान्न द्वेषाद्धर्ममुत्सृजेत् // 40 यथादित्यः समुद्यन्वै तमः सर्वं व्यपोहति / प्रिये नातिभृशं हृष्येदप्रिये न च संज्वरेत् / एवं कल्याणमातिष्ठन्सर्वपापैः प्रमुच्यते // 53 न मुह्येदर्थकृच्छ्रेषु न च धर्म परित्यजेत् // 41 कर्म चेत्किंचिदन्यत्स्यादितरन्न समाचरेत् / पापानां विद्ध्यधिष्ठानं लोभमेव द्विजोत्तम। यत्कल्याणमभिध्यायेत्तत्रात्मानं नियोजयेत् // 42 लुब्धाः पापं व्यवस्यन्ति नरा नातिबहुश्रुताः। न पापं प्रति पापः स्यात्साधुरेव सदा भवेत् / / अधर्मा धर्मरूपेण तृणैः कूपा इवावृताः // 54 आत्मनैव हतः पापो यः पापं कर्तुमिच्छति // 43 तेषां दमः पवित्राणि प्रलापा धर्मसंश्रिताः। / कर्म चैतदसाधूनां वृजिनानामसाधुवत् / सर्वं हि विद्यते तेषु शिष्टाचारः सुदुर्लभः // 55 न धर्मोऽस्तीति मन्वानाः शुचीनवहसन्ति ये। मार्कण्डेय उवाच / अश्रद्दधाना धर्मस्य ते नश्यन्ति न संशयः // 44 / स तु विप्रो महाप्राज्ञो धर्मव्याधमपृच्छत / महाद्दतिरिवाध्मातः पापो भवति नित्यदा। शिष्टाचारं कथमहं विद्यामिति नरोत्तम / मूढानामवलिप्तानामसारं भाषितं भवेत् / एतन्महामते व्याध प्रब्रवीहि यथातथम् / / 56... -667 -
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________________ 3. 198. 57 ] महाभारते [3. 198.85 व्याध उवाच। यो यथाप्रकृतिर्जन्तुः स्वां स्वां प्रकृतिमभुते / यज्ञो दानं तपो वेदाः सत्यं च द्विजसत्तम / पापात्मा क्रोधकामादीन्दोषानामोत्यनात्मवान् // 01 पञ्चैतानि पवित्राणि शिष्टाचारेषु नित्यदा // 57 आरम्भो न्याययुक्तो यः स हि धर्म इति स्मृतः / कामक्रोधौ वशे कृत्वा दम्भ लोभमनार्जवम् / अनाचारस्त्वधर्मेति एतच्छिष्टानुशासनम् / / 72 धर्म इत्येव संतुष्टास्ते शिष्टाः शिष्टसंमताः // 58 अक्रुध्यन्तोऽनसूयन्तो निरहंकारमत्सराः। न तेषां विद्यतेऽवृत्तं यज्ञस्वाध्यायशीलिनाम् / ऋजवः शमसंपन्नाः शिष्टाचारा भवन्ति ते // 73 आचारपालनं चैव द्वितीयं शिष्टलक्षणम् // 59 त्रैविद्यवृद्धाः शुचयो वृत्तवन्तो मनस्विनः / गुरुशुश्रूषणं सत्यमक्रोधो दानमेव च / गुरुशुश्रूषवो दान्ताः शिष्टाचारा भवन्त्युत // 74 एतञ्चतुष्टयं ब्रह्मशिष्टाचारेषु नित्यदा // 60 तेषामदीनसत्त्वानां दुष्कराचारकर्मणाम् / शिष्टाचारे मनः कृत्वा प्रतिष्ठाप्य च सर्वशः / स्वैः कर्मभिः सत्कृतानां घोरत्वं संप्रणश्यति॥७५ यामयं लभते तुष्टिं सा न शक्या ह्यतोऽन्यथा // 61 तं सदाचारमाश्चर्य पुराणं शाश्वतं ध्रुवम् / वेदस्योपनिषत्सत्यं सत्यस्योपनिषदमः / धर्म धर्मेण पश्यन्तः स्वर्ग यान्ति मनीषिणः // 76 दमस्योपनिषत्त्यागः शिष्टाचारेषु नित्यदा // 62 आस्तिका मानहीनाश्च द्विजातिजनपूजकाः। . ये तु धर्ममसूयन्ते बुद्धिमोहान्विता नराः / श्रुतवृत्तोपसंपन्नाः ते सन्तः स्वर्गगामिनः / / 77 अपथा गच्छतां तेषामनुयातापि पीज्यते // 63 वेदोक्तः परमो धर्मो धर्मशास्त्रेषु चापरः / ये तु शिष्टाः सुनियताः श्रुतित्यागपरायणाः / / शिष्टाचीर्णश्च शिष्टानां त्रिविधं धर्मलक्षणम् // 78 धयं पन्थानमारूढाः सत्यधर्मपरायणाः // 64 पारणं चापि विद्यानां तीर्थानामवगाहनम् / नियच्छन्ति परां बुद्धिं शिष्टाचारान्विता नराः / क्षमा सत्यार्जवं शौचं शिष्टाचारनिदर्शनम् // 79 उपाध्यायमते युक्ताः स्थित्या धर्मार्थदर्शिनः // 65 सर्वभूतदयावन्तो अहिंसानिरताः सदा। नास्तिकान्भिन्नमर्यादाक्रूरान्पापमतौ स्थितान् / / परुषं न प्रभाषन्ते सदा सन्तो द्विजप्रियाः / / 80 त्यज ताज्ञानमाश्रित्य धार्मिकानुपसेव्य च // 66 शुभानामशुभानां च कर्मणां फलसंचये। कामलोभग्रहाकीर्णां पञ्चेन्द्रियजलां नदीम् / विपाकममिजानन्ति ते शिष्टाः शिष्टसंमताः // 81 नावं धृतिमयीं कृत्वा जन्मदुर्गाणि संतर // 67 न्यायोपेता गुणोपेताः सर्वलोकहितैषिणः / क्रमेण संचितो धर्मो बुद्धियोगमयो महान् / / सन्तः स्वर्गजितः शुक्लाः संनिविष्टाश्च सत्पथे / / 82 शिष्टाचारे भवेत्साधू रागः शुक्लेव वाससि // 68 दातारः संविभक्तारो दीनानुग्रहकारिणः / अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतहितं परम् / सर्वभूतदयावन्तस्ते शिष्टाः शिष्टसंमताः // 83 अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः / / सर्वपूज्याः श्रुतधनास्तथैव च तपस्विनः / सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः // 69 / दाननित्याः सुखाल्लोकानाप्नुवन्तीह च श्रियम् // 84 सत्यमेव गरीयस्तु शिष्टाचारनिषेवितम् / पीडया च कलत्रस्य भृत्यानां च समाहिताः / आचारश्च सतां धर्मः सन्तश्चाचारलक्षणाः // 70 अतिशक्त्या प्रयच्छन्ति सन्तः सद्भिः समागताः॥ - 668 -
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________________ 8. 198. 86] आरण्यकपर्व [3. 199. 15 लोकयात्रां च पश्यन्तो धर्ममात्महितानि च / निमित्तभूता हि वयं कर्मणोऽस्य द्विजोत्तम // 3 एवं सन्तो वर्तमाना एधन्ते शाश्वतीः समाः॥८६ येषां हतानां मांसानि विक्रीणामो वयं द्विज / अहिंसा सत्यवचनमानृशंस्यमथार्जवम् / तेषामपि भवेद्धर्म उपभोगेन भक्षणात् / अद्रोहो नातिमानश्च हीस्तितिक्षा दमः शमः // 87 देवतातिथिभृत्यानां पितॄणां प्रतिपूजनात् // 4 / धीमन्तो धृतिमन्तश्च भूतानामनुकम्पकाः। ओषध्यो वीरुधश्चापि पशवो मृगपक्षिणः। अकामद्वेषसंयुक्तास्ते सन्तो लोकसत्कृताः॥ 88 अन्नायभूता लोकस्य इत्यपि श्रूयते श्रुतिः // 5 - बीण्येव तु पदान्याहुः सतां वृत्तमनुत्तमम् / / आत्ममांसप्रदानेन शिबिरौशीनरो नृपः / न दुह्येश्चैव दद्याच्च सत्यं चैव सदा वदेत् // 89 स्वर्ग सुदुर्लभं प्राप्तः क्षमावान्द्विजसत्तम // 6 . सर्वत्र च दयावन्तः सन्तः करुणवेदिनः / राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्य वै द्विज / गच्छन्तीह सुसंतुष्टा धयं पन्थानमुत्तमम् / द्वे सहस्रे तु वध्येते पशूनामन्वहं तदा // 7 . शिष्टाचारा महात्मानो येषां धर्मः सुनिश्चितः॥९० / समांसं ददतो ह्यन्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः / अनसूया क्षमा शान्तिः संतोषः प्रियवादिता / अतुला कीर्तिरभवन्नृपस्य द्विजसत्तम / कामक्रोधपरित्यागः शिष्टाचारनिषेवणम् / / 91 चातुर्मास्येषु पशवो वध्यन्त इति नित्यशः / / 8 : कर्मणा श्रुतसंपन्नं सतां मार्गमनुत्तमम्। अग्नयो मांसकामाश्च इत्यपि श्रयते श्रुतिः। . शिष्टाचारं निषेवन्ते नित्यं धर्मेष्वतन्द्रिताः // 92 यझेष पशवो ब्रह्मन्वध्यन्ते सततं द्विजैः / प्रज्ञाप्रासादमारुह्य मुह्यतो महतो जनान् / संस्कृताः किल मन्त्रैश्च तेऽपि स्वर्गमवाप्नुवन् // 9 प्रेक्षन्तो लोकवृत्तानि विविधानि द्विजोत्तम। यदि नैवाग्नयो ब्रह्मन्मांसकामाभवन्पुरा। अतिपुण्यानि पापानि तानि द्विजवरोत्तम // 93 भक्ष्यं नैव भवेन्मांसं कस्यचिद्विजसत्तम // 10 : एतत्ते सर्वमाख्यातं यथाप्रज्ञं यथाश्रुतम् / अत्रापि विधिरक्तश्च मुनिमिमांसभक्षणे। शिष्टाचारगुणान्ब्रह्मन्पुरस्कृत्य द्विजर्षभ // 94 देवतानां पितॄणां च भुङ्क्ते दत्त्वा तु यः सदा / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि यथाविधि यथाश्रद्धं न स दुष्यति भक्षणात् // 11 अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः // 198 // अमांसाशी भवत्येवमित्यपि श्रूयते श्रुतिः। . भायां गच्छन्ब्रह्मचारी ऋतौ भवति ब्राह्मणः॥१२ मार्कण्डेय उवाच / सत्यानृते विनिश्चित्य अत्रापि विधिरुच्यते। . स तु विप्रमथोवाच धर्मव्याधो युधिष्ठिर / सौदासेन पुरा राज्ञा मानुषा भक्षिता द्विज। . यदहं ह्याचरे कर्म घोरमेतदसंशयम् // 1 शापाभिभूतेन भृशमत्र किं प्रतिभाति ते // 13 . विधिस्तु बलवान्ब्रह्मन्दुस्तरं हि पुराकृतम् / स्वधर्म इति कृत्वा तु न त्यजामि द्विजोत्तम / , पुराकृतस्य पापस्य कर्मदोषो भवत्ययम् / पुराकृतमिति ज्ञात्वा जीवाम्येतेन कर्मणा // 14 दोषस्यैतस्य वै ब्रह्मन्विघाते यत्नवानहम् // 2 स्वकर्म त्यजतो ब्रह्मन्नधर्म इह दृश्यते / विधिना विहिते पूर्व निमित्तं घातको भवेत् / स्वकर्मनिरतो यस्तु स धर्म इति निश्चयः // 15 - 669 -
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________________ 3. 199. 16 ] महाभारते [ 3. 200.1 पूर्व हि विहितं कर्म देहिनं न विमुञ्चति / अहिंसायां तु निरता यतयो द्विजसत्तम / धात्रा विधिरयं दृष्टो बहुधा कर्मनिर्णये // 16 कुर्वन्त्येव हि हिंसां ते यत्नादल्पतरा भवेत् // 29 द्रष्टव्यं तु भवेत्प्राज्ञ क्रूरे कर्मणि वर्तता / आलक्ष्याश्चैव पुरुषाः कुले जाता महागुणाः। कथं कर्म शुभं कुर्यां कथं मुच्ये पराभवात् / महाघोराणि कर्माणि कृत्वा लज्जन्ति वै न च // 34 कर्मणस्तस्य घोरस्य बहुधा निर्णयो भवेत् // 17 सुहृदः सुहृदोऽन्यांश्च दुर्हदश्चापि दुहृदः।। दाने च सत्यवाक्ये च गुरुशुश्रूषणे तथा।। सम्यक्प्रवृत्तान्पुरुषान्न सम्यगनुपश्यतः // 31. द्विजातिपूजने चाहं धर्मे च निरतः सदा / समृद्धैश्च न नन्दन्ति बान्धवा बान्धवैरपि / अतिवादातिमानाभ्यां निवृत्तोऽस्मि द्विजोत्तम॥१८ | गुरूंश्चैव विनिन्दन्ति मूढाः पण्डितमानिनः // 32 कृषि साध्विति मन्यन्ते तत्र हिंसा परा स्मृता। | बहु लोके विपर्यस्तं दृश्यते द्विजसत्तम / कर्षन्तो लाङ्गलैः पुंसो नन्ति भूमिशयान्बहून्। / धर्मयुक्तमधर्म च तत्र किं प्रतिभाति ते // 33 जीवानन्यांश्च बहुशस्तत्र किं प्रतिभाति ते // 19 / वक्तुं बहुविधं शक्यं धर्माधर्मेषु कर्मसु / धान्यबीजानि यान्याहुर्तीह्यादीनि द्विजोत्तम। | स्वकर्मनिरतो यो हि स यशः प्राप्नुयान्महत्॥ 34 सर्वाण्येतानि जीवानि तत्र किं प्रतिभाति ते॥२० इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अध्याक्रम्य पशृंश्चापि नन्ति वै भक्षयन्ति च / एकोनद्विशततमोऽध्यायः॥ 199 // वृक्षानथौषधीश्चैव छिन्दन्ति पुरुषा द्विज // 21 200 जीवा हि बहवो ब्रह्मन्वृक्षेषु च फलेषु च / मार्कण्डेय उवाच / उदके बहवश्चापि तत्र किं प्रतिभाति ते // 22 धर्मव्याधस्तु निपुणं पुनरेव युधिष्ठिर / सर्व व्याप्तमिदं ब्रह्मन्प्राणिभिः प्राणिजीवनैः।। विप्रर्षभमुवाचेदं सर्वधर्मभृतां वरः // 1 मत्स्या असन्ते मत्स्यांश्च तत्र किं प्रतिभाति ते॥२३ | श्रुतिप्रमाणो धर्मो हि वृद्धानामिति भाषितम् / सत्त्वैः सत्त्वानि जीवन्ति बहुधा द्विजसत्तम।। सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य बहुशाखा ह्यनन्तिका / / 2 प्राणिनोऽन्योन्यभक्षाश्च तत्र किं प्रतिभाति ते॥२४ प्राणात्यये विवाहे च वक्तव्यमनृतं भवेत् / चक्रम्यमाणा जीवांश्च धरणीसंश्रितान्बहून्। अनृतं च भवेत्सत्यं सत्यं चैवानृतं भवेत् // 3 पद्भ्यां नन्ति नरा विप्र तत्र किं प्रतिभाति ते॥२५ यद्भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा / उपविष्टाः शयानाश्च नन्ति जीवाननेकशः। विपर्ययकृतोऽधर्मः पश्य धर्मस्य सूक्ष्मताम् // 4 ज्ञानविज्ञानवन्तश्च तत्र किं प्रतिभाति ते // 26 यत्करोत्यशुभं कर्म शुभं वा द्विजसत्तम / जीवैर्ग्रस्तमिदं सर्वमाकाशं पृथिवी तथा / अवश्यं तत्समाप्नोति पुरुषो नात्र संशयः // 5 अविज्ञानाच्च हिंसन्ति तत्र किं प्रतिभाति ते // 27 विषमां च दशां प्राप्य देवान्गर्हति वै भृशम् / अहिंसेति यदुक्तं हि पुरुषैर्विस्मितैः पुरा / आत्मनः कर्मदोषाणि न विजानात्यपण्डितः॥६ के न हिंसन्ति जीवान्वै लोकेऽस्मिन्द्विजसत्तम। - मूढो नैकृतिकश्चापि चपलश्च द्विजोत्तम / बहु संचिन्त्य इह वै नास्ति कश्चिदहिंसकः / / 28 / सुखदुःखविपर्यासो यदा समुपपद्यते / - 670 -
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________________ 3. 200. 7] आरण्यकपर्व [3. 200. 32 नैनं प्रज्ञा सुनीतं वा त्रायते नैव पौरुषम् // 7 कर्मणा प्राकृतानां वै इह सिद्धिः प्रदृश्यते // 22 यो यमिच्छेद्यथा कामं तं तं कामं समश्नुयात् / यथा श्रुतिरियं ब्रह्मञ्जीवः किल सनातनः / यदि स्यादपराधीनं पुरुषस्य क्रियाफलम् // 8 शरीरमध्रुवं लोके सर्वेषां प्राणिनामिह // 23 / संयताश्चापि दक्षाश्च मतिमन्तश्च मानवाः / वध्यमाने शरीरे तु देहनाशो भवत्युत / दृश्यन्ते निष्फलाः सन्तः प्रहीणाः सर्वकर्मभिः॥९ जीवः संक्रमतेऽन्यत्र कर्मबन्धनिबन्धनः // 24 . भूतानामपरः कश्चिद्धिंसायां सततोत्थितः। / ब्राह्मण उवाच / वञ्चनायां च लोकस्य स सुखेनेह जीवति // 10 / कथं धर्मभृतां श्रेष्ठ जीवो भवति शाश्वतः / / अचेष्टमानमासीनं श्रीः कंचिदुपतिष्ठति / एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं तत्त्वेन वदतां वर // 25 / कश्चित्कर्माणि कुर्वन्हि न प्राप्यमधिगच्छति // 11 व्याध उवाच। देवानिष्ट्वा तपस्तप्त्वा कृपणैः पुत्रगृद्धिभिः / न जीवनाशोऽस्ति हि देहभेदे वशमासधृता गर्भ जायन्ते कुलपांसनाः // 12 ___मिथ्यैतदाहुम्रियतेति मूढाः / अपरे धनधान्यैश्च भोगैश्च पितृसंचितैः। जीवस्तु देहान्तरितः प्रयाति विपुलैरभिजायन्ते लब्धास्तैरेव मङ्गलैः // 13 __दशार्धतैवास्य शरीरभेदः // 26 कर्मजा हि मनुष्याणां रोगा नास्त्यत्र संशयः / अन्यो हि नानाति कृतं हि कर्म . आधिभिश्चैव बाध्यन्ते व्याधैः क्षुद्रमृगा इव // 14 स एव कर्ता सुखदुःखभागी। ते चापि कुशलैवैद्यैर्निपुणैः संभृतौषधैः / यत्तेन किंचिद्धि कृतं हि कर्म व्याधयो विनिवार्यन्ते मृगा व्याधैरिव द्विज // 15 तदनुते नास्ति कृतस्य नाशः / / 27 / येषामस्ति च भोक्तव्यं ग्रहणीदोषपीडिताः / अपुण्यशीलाश्च भवन्ति पुण्या न शक्नुवन्ति ते भोक्तुं पश्य धर्मभृतां वर // 16 नरोत्तमाः पापकृतो भवन्ति / अपरे बाहुबलिनः क्लिश्यन्ते बहवो जनाः / नरोऽनुयातस्त्विह कर्मभिः स्वैदुःखेन चाधिगच्छन्ति भोजनं द्विजसत्तम // 17 स्ततः समुत्पद्यति भावितस्तैः // 28 इति लोकमनाक्रन्दं मोहशोकपरिप्लुतम् / ब्राह्मण उवाच। स्रोतसासकृदाक्षिप्तं द्वियमाणं बलीयसा // 18 कथं संभवते योनौ कथं वा पुण्यपापयोः / न म्रियेयुर्न जीर्येयुः सर्वे स्युः सार्वकामिकाः / जातीः पुण्या ह्यपुण्याश्च कथं गच्छति सत्तम॥२९ नाप्रियं प्रतिपश्येयुर्वशित्वं यदि वै भवेत् // 19 व्याध उवाच / उपर्युपरि लोकस्य सर्वो गन्तुं समीहते / गर्भाधानसमायुक्तं कर्मेदं संप्रदृश्यते / यतते च यथाशक्ति न च तद्वर्तते तथा // 20 समासेन तु ते क्षिप्रं प्रवक्ष्यामि द्विजोत्तम / / 30 बहवः संप्रदृश्यन्ते तुल्यनक्षत्रमङ्गलाः / यथा संभृतसंभारः पुनरेव प्रजायते / महच्च फलवैषम्यं दृश्यते कर्मसंधिषु // 21 शुभकृच्छुभयोनीषु पापकृत्पापयोनिषु // 31 न कश्चिदीशते ब्रह्मन्स्वयंग्राहस्य सत्तम / | शुभैः प्रयोगैर्देवत्वं व्यामिर्मानुषो भवेत् / - 671 -
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________________ 13. 200. 32 ] महाभारते [3. 201.4 मोहनीयैर्वियोनीषु त्वधोगामी च किल्विषैः // 32 / प्रभुत्वं लभते चापि धर्मस्यैतत्फलं विदुः // 46 जातिमृत्युजरादुःखैः सततं समभिद्रुतः / धर्मस्य च फलं लब्ध्वा न तृप्यति महाद्विज / संसारे पच्यमानश्च दोषैरात्मकृतैर्नरः / / 33 अतृप्यमाणो निर्वेदमादत्ते ज्ञानचक्षुषा / / 47 तिर्यग्योनिसहस्राणि गत्वा नरकमेव च / प्रज्ञाचक्षुर्नर इह दोषं नैवानुरुध्यते / जीवाः संपरिवर्तन्ते कर्मबन्धनिबन्धनाः // 34 विरज्यति यथाकामं न च धर्मं विमुञ्चति // 48 जन्तुस्तु कर्मभिस्तैस्तैः स्वकृतैः प्रेत्य दुःखितः / सर्वत्यागे च यतते दृष्ट्वा लोकं क्षयात्मकम् / .. तदुःखप्रतिघातार्थमपुण्यां योनिमश्नुते // 35 ततो मोक्षे प्रयतते नानुपायादुपायतः // 49 ततः कर्म समादत्ते पुनरन्यन्नवं बहु। एवं निर्वेदमादत्ते पापं कर्म जहाति च / पच्यते तु पुनस्तेन भुक्त्वापथ्यमिवातुरः // 36 धार्मिकश्चापि भवति मोक्षं च लभते परम् // 50 अजस्रमेव दुःखार्तोऽदुःखितः सुखसंज्ञितः। तपो निःश्रेयसं जन्तोस्तस्य मूलं शमो दमः / ततोऽनिवृत्तबन्धत्वात्कर्मणामुदयादपि। तेन सर्वानवाप्नोति कामान्यान्मनसेच्छति // 51 परिक्रामति संसारे चक्रवद्वहुवेदनः / / 37 इन्द्रियाणां निरोधेन सत्येन च दमेन च / स चेन्निवृत्तबन्धस्तु विशुद्धश्चापि कर्मभिः / ब्रह्मणः पदमाप्नोति यत्परं द्विजसत्तम // 52 प्राप्नोति सुकृताल्लोकान्यत्र गत्वा न शोचति // 38 ब्राह्मण उवाच / पापं कुर्वन्पापवृत्तः पापस्यान्तं न गच्छति / इन्द्रियाणि तु यान्याहुः कानि तानि यतव्रत / तस्मात्पुण्यं यतेत्कर्तुं वर्जयेत च पातकम् // 39 निप्रहश्च कथं कार्यो निप्रहस्य च किं फलम् // 53 अनसूयुः कृतज्ञश्च कल्याणान्येव सेवते / कथं च फलमाप्नोति तेषां धर्मभृतां वर / सुखानि धर्ममर्थं च स्वर्ग च लभते नरः // 40 एतदिच्छामि तत्त्वेन धर्म ज्ञातुं सुधार्मिक // 55 संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि प्राज्ञस्यानन्तरा वृत्तिरिह लोके परत्र च // 41 ' द्विशततमोऽध्यायः // 20 // सतां धर्मेण वर्तेत क्रियां शिष्टवदाचरेत् / 201 असंक्वेशेन लोकस्य वृत्तिं लिप्सेत वै द्विज / / 42 मार्कण्डेय उवाच / सन्ति ह्यागतविज्ञानाः शिष्टाः शास्त्रविचक्षणाः। एवमुक्तस्तु विप्रेण धर्मव्याधो युधिष्ठिर। स्वधर्मेण क्रिया लोके कर्मणः सोऽप्यसंकरः॥४३ प्रत्युवाच यथा विप्रं तच्छृणुष्व नराधिप // 1 प्राज्ञो धर्मेण रमते धर्म चैवोपजीवति / व्याध उवाच। तस्य धर्मादवाप्तेषु धनेषु द्विजसत्तम / विज्ञानार्थं मनुष्याणां मनः पूर्वं प्रवर्तते। तस्यैव सिञ्चते मूलं गुणान्पश्यति यत्र वै // 44 तत्प्राप्य कामं भजते क्रोधं च द्विजसत्तम / / 2 धर्मात्मा भवति ह्येवं चित्तं चास्य प्रसीदति / ततस्तदर्थं यतते कर्म चारभते महत् / स मैत्रजनसंतुष्ट इह प्रेत्य च नन्दति // 45 इष्टानां रूपगन्धानामभ्यासं च निषेवते // 3 शब्दं स्पर्श तथा रूपं गन्धानिष्टांश्च सत्तम / ततो रागः प्रभवति द्वेषश्च तदनन्तरम् / - 672 -
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________________ 3. 201. 4] आरण्यकपर्व [ 3. 202.8 ततो लोभः प्रभवति मोहश्च तदनन्तरम् // 4 | पूर्वपूर्वगुणाः सर्वे क्रमशो गुणिषु त्रिषु // 17 तस्य लोभाभिभूतस्य रागद्वेषहतस्य च / षष्ठस्तु चेतना नाम मन इत्यभिधीयते / न धर्मे जायते बुद्धिाजाद्धर्म करोति च // 5 सप्तमी तु भवेद्बुद्धिरहंकारस्ततः परम् // 18 व्याजेन चरते धर्ममर्थ व्याजेन रोचते / इन्द्रियाणि च पञ्चैव रजः सत्त्वं तमस्तथा / व्याजेन सिध्यमानेषु धनेषु द्विजसत्तम / इत्येष सप्तदशको राशिरव्यक्तसंज्ञकः // 19 तत्रैव रमते बुद्धिस्ततः पापं चिकीर्षति // 6 सर्वैरिहेन्द्रियार्थै स्तु व्यक्ताव्यक्तैः सुसंवृतः / सुहृद्भिर्वार्यमाणश्च पण्डितैश्च द्विजोत्तम / चतुर्विंशक इत्येव व्यक्ताव्यक्तमयो गुणः / उत्तरं श्रुतिसंबद्धं ब्रवीति श्रुतियोजितम् // 7 एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 20 अधर्मनिविधस्तस्य वर्धते रागदोषतः। . इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि पापं चिन्तयते चापि ब्रवीति च करोति च // 8 एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 201 // तस्याधर्मप्रवृत्तस्य गणा नश्यन्ति साधवः / 202 एकशीलाश्च मित्रत्वं भजन्ते पापकर्मिणः // 9 मार्कण्डेय उवाच / स तेनासुखमाप्नोति परत्र च विहन्यते / एवमुक्तः स विप्रस्तु धर्मव्याधेन भारत / पापात्मा भवति ह्येवं धर्मलाभं तु मे शृणु // 10 कथामकथयद्भूयो मनसः प्रीतिवर्धनीम् // 1 यस्त्वेतान्प्रज्ञया दोषान्पूर्वमेवानुपश्यति।। ब्राह्मण उवाच / कुशलः सुखदुःखेषु साधूंश्चाप्युपसेवते। . महाभूतानि यान्याहुः पञ्च धर्मविदां वर। तस्य साधुसमारम्भाद्बुद्धिर्धर्मेषु जायते // 11 एकैकस्य गुणान्सम्यक्पश्चानामपि मे वद // 2 ब्राह्मण उवाच / व्याध उवाच / प्रवीषि सूनृतं धर्म यस्य वक्ता न विद्यते / भूमिरापस्तथा ज्योतिर्वायुराकाशमेव च / दिव्यप्रभावः सुमहानृषिरेव मतोऽसि मे // 12 गुणोत्तराणि सर्वाणि तेषां वक्ष्यामि ते गुणान् // 3 . व्याध उवाच / भूमिः पञ्चगुणा ब्रह्मन्नुदकं च चतुर्गुणम् / प्राह्मणा वै महाभागाः पितरोऽग्रभुजः सदा।। गुणास्त्रयस्तेजसि च त्रयश्चाकाशवातयोः // 4 तेषां सर्वात्मना कार्य प्रियं लोके मनीषिणा // 13 शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः / / यत्तेषां च प्रियं तत्ते वक्ष्यामि द्विजसत्तम / एते गुणाः पञ्च भूमेः सर्वेभ्यो गुणवत्तराः // 5 नमस्कृत्वा ब्राह्मणेभ्यो ब्राह्मी विद्यां निबोध मे॥१४ शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसश्चापि द्विजोत्तम / इदं विश्वं जगत्सर्वमजय्यं चापि सर्वशः। अपामेते गुणा ब्रह्मन्कीर्तितास्तव सुव्रत // 6 महाभूतात्मकं ब्रह्मन्नातः परतरं भवेत् // 15 / / शब्दः स्पर्शश्च रूपं च तेजसोऽथ गुणास्त्रयः / महाभूतानि खं वायुरनिरापस्तथा च भूः। शब्दः स्पर्शश्च वायौ तु शब्द आकाश एव च // 7 शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च तद्गुणाः // 16 एते पञ्चदश ब्रह्मन्गुणा भूतेषु पञ्चसु / तेषामपि गुणाः सर्वे गुणवृत्तिः परस्परम् / / वर्तन्ते सर्वभूतेषु येषु लोकाः प्रतिष्ठिताः / म.भा.८५ - 673 -
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________________ 3. 202. 8] महाभारते [ 3. 203.8 अन्योन्यं नातिवर्तन्ते संपच्च भवति द्विज // 8 दन्तैिः सुखं याति रथीव धीरः // 21 यदा तु विषमीभावमाचरन्ति चराचराः। षण्णामात्मनि नित्यानामिन्द्रियाणां प्रमाथिनाम् / तदा देही देहमन्यं व्यतिरोहति कालतः // 9 यो धीरो धारयेद्रश्मीन्स स्यात्परमसारथिः॥ 22 आनुपूर्व्या विनश्यन्ति जायन्ते चानुपूर्वशः / इन्द्रियाणां प्रसृष्टानां हयानामिव वर्त्मसु। तत्र तत्र हि दृश्यन्ते धातवः पाञ्चभौतिकाः / धृतिं कुर्वीत सारथ्ये धृत्या तानि जयेद्धवम् // 23 यैरावृतमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् // 10 इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते। . इन्द्रियैः सृज्यते यद्यत्तत्तद्व्यक्तमिति स्मृतम् / / तदस्य हरते बुद्धिं नावं वायुरिवाम्भसि // 24 अव्यक्तमिति विज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम् // 11 येषु विप्रतिपद्यन्ते षट्सु मोहात्फलागमे / यथास्वं ग्राहकान्येषां शब्दादीनामिमानि तु। तेष्वध्यवसिताध्यायी विन्दते ध्यानजं फलम् // 25 इन्द्रियाणि यदा देही धारयन्निह तप्यते // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणिं लोके विततमात्मानं लोकं चात्मनि पश्यति। द्वयधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 202 // परावरज्ञः सक्तः सन्सर्वभूतानि पश्यति / / 13 203 पश्यतः सर्वभूतानि सर्वावस्थासु सर्वदा। मार्कण्डेय उवाच। ब्रह्मभूतस्य संयोगो नाशुभेनोपपद्यते // 14 एवं तु सूक्ष्मे कथिते धर्मव्याधेन भारत / ज्ञानमूलात्मकं क्लेशमतिवृत्तस्य मोहजम् / ब्राह्मणः स पुनः सूक्ष्म पप्रच्छ सुसमाहितः॥१ लोको बुद्धिप्रकाशेन ज्ञेयमार्गेण दृश्यते // 15 / ब्राह्मण उवाच / अनादिनिधनं जन्तुमात्मयोनि सदाव्ययम् / / सत्त्वस्य रजसश्चैव तमसश्च यथातथम् / अनौपम्यममूर्तं च भगवानाह बुद्धिमान् / गुणांस्तत्त्वेन मे ब्रूहि यथावदिह पृच्छतः // 2 तपोमूलमिदं सर्वं यन्मां विप्रानुपृच्छसि // 16 व्याध उवाच / इन्द्रियाण्येव तत्सर्वं यत्स्वर्गनरकावुभौ / हन्त ते कथयिष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि। निगृहीतविसृष्टानि स्वर्गाय नरकाय च // 17 एषां गुणान्पृथक्त्वेन निबोध गदतो मम // 3 एष योगविधिः कृत्स्नो यावदिन्द्रियधारणम्। मोहात्मकं तमस्तेषां रज एषां प्रवर्तकम् / एतन्मूलं हि तपसः कृत्स्नस्य नरकस्य च // 18 प्रकाशबहुलत्वाच्च सत्त्वं ज्याय इहोच्यते // 4 इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम् / अविद्याबहुलो मूढः स्वप्नशीलो विचेतनः / संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिमवाप्नुते // 19 दुर्दशीकस्तमोध्वस्तः सक्रोधस्तामसोऽलसः॥५ षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योऽधिगच्छति / प्रवृत्तवाक्यो मत्री च योऽनुराग्यभ्यसूयकः / न स पापैः कुतोऽनथैयुज्यते विजितेन्द्रियः // 20 विवित्समानो विप्रर्षे स्तब्धो मानी स राजसः॥६ रथः शरीरं पुरुषस्य दृष्ट प्रकाशबहुलो धीरो निर्विवित्सोऽनसूयकः / मात्मा नियन्तेन्द्रियाण्याहुरश्वान् / अक्रोधनो नरो धीमान्दान्तश्चैव स सात्त्विकः // 7 तैरप्रमत्तः कुशली सदश्व सात्त्विकस्त्वथ संबुद्धो लोकवृत्तेन क्लिश्यते / - 674 -
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________________ 3. 203. 8] आरण्यकपर्व [ 3. 203. 34 यदा बुध्यति बोद्धव्यं लोकवृत्तं जुगुप्सते // 8 धातुष्वग्निस्तु विततः स तु वायुसमीरितः। वैराग्यस्य हि रूपं तु पूर्वमेव प्रवर्तते। रसान्धातूंश्च दोषांश्च वर्तयन्परिधावति // 21 मृदुर्भवत्यहंकारः प्रसीदत्यार्जवं च यत् // 9 प्राणानां संनिपातात्तु संनिपातः प्रजायते / ततोऽस्य सर्वद्वंद्वानि प्रशाम्यन्ति परस्परम् / ऊष्मा चाग्निरिति ज्ञेयो योऽन्नं पचति देहिनाम् // 22 न चास्य संयमो नाम क्वचिद्भवति कश्चन // 10 अपानोदानयोर्मध्ये प्राणव्यानौ समाहितौ / शूद्रयोनौ हि जातस्य स्वगुणानुपतिष्ठतः / / समन्वितस्त्वधिष्ठानं सम्यक्पचति पावकः / / 23 वैश्यत्वं भवति ब्रह्मन्क्षत्रियत्वं तथैव च // 11 तस्यापि पायुपर्यन्तस्तथा स्याद्गुदसंज्ञितः / आर्जवे वर्तमानस्य ब्राह्मण्यमभिजायते / स्रोतांसि तस्माज्जायन्ते सर्वप्राणेषु देहिनाम् / / 24 गुणास्ते कीर्तिताः सर्वे किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 12 अग्निवेगवहः प्राणो गुदान्ते प्रतिहन्यते / ब्राह्मण उवाच / / स ऊर्ध्वमागम्य पुनः समुरिक्षपति पावकम् // 25 पार्थिवं धातुमासाद्य शारीरोऽग्निः कथं भवेत् / पक्काशयस्त्वधो नाभ्या ऊर्ध्वमामाशयः स्थितः। अवकाशविशेषेण कथं वर्तयतेऽनिलः // 13 नाभिमध्ये शरीरस्य प्राणाः सर्वे प्रतिष्ठिताः॥२६ ___मार्कण्डेय उवाच।। प्रवृत्ता हृदयात्सर्वास्तिर्यगूलमधस्तथा / प्रश्नमेतं समुद्दिष्टं ब्राह्मणेन युधिष्ठिर / वहन्त्यन्नरसान्नाड्यो दश प्राणप्रचोदिताः // 27 व्याधः स कथयामास ब्राह्मणाय महात्मने / / 14 योगिनामेष मार्गस्तु येन गच्छन्ति तत्परम् / व्याध उवाच / जितक्लमासना धीरा मूर्धन्यात्मानमादधुः / मूर्धानमाश्रितो वह्निः शरीरं परिपालयन् / एवं सर्वेषु विततौ प्राणापानौ हि देहिषु // 28 प्राणो मूर्धनि चाग्नौ च वर्तमानो विचेष्टते / एकादशविकारात्मा कलासंभारसंभृतः / भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्व प्राणे प्रतिष्ठितम् // 15 मूर्तिमन्तं हि तं विद्धि नित्यं कर्मजितात्मकम् // 29 श्रेष्ठं तदेव भूतानां ब्रह्मज्योतिरुपास्महे / तस्मिन्यः संस्थितो ह्यग्निर्नित्यं स्थाल्यामिवाहितः / स जन्तुः सर्वभूतात्मा पुरुषः स सनातनः / / आत्मानं तं विजानीहि नित्यं योगजितात्मकम्॥३० मनो बुद्धिरहंकारो भूतानां विषयश्च सः // 16 देवो यः संस्थितस्तस्मिन्नब्बिन्दुरिव पुष्करे। . एवं त्विह स सर्वत्र प्राणेन परिपाल्यते / क्षेत्रज्ञं तं विजानीहि नित्यं त्यागजितात्मकम् / / 31 पृष्ठतस्तु समानेन स्वां स्वां गतिमुपाश्रितः // 17 जीवात्मकानि जानीहि रजः सत्त्वं तमस्तथा / बस्तिमूले गुदे चैव पावकः समुपाश्रितः। जीवमात्मगुणं विद्धि तथात्मानं परात्मकम् // 32 वहन्मत्रं पुरीषं चाप्यपानः परिवर्तते // 18 सचेतनं जीवगुणं वदन्ति प्रयत्ने कर्मणि बले य एकत्रिषु वर्तते / स चेष्टते चेष्ट्रयते च सर्वम् / उदान इति तं प्राहुरध्यात्मविदुषो जनाः // 19 ततः परं क्षेत्रविदो वदन्ति संधौ संधौ संनिविष्टः सर्वेष्वपि तथानिलः / / प्राकल्पयद्यो भुवनानि सप्त // 33 शरीरेषु मनुष्याणां व्यान इत्युपदिश्यते // 20 / एवं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मा न प्रकाशते / - -675 -
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________________ 3. 203. 34 ] महाभारते [ 3. 204.8 दृश्यते त्वत्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया ज्ञानवेदिभिः॥३४ एतद्ब्राह्मण ते वृत्तमाहुरेकपदं सुखम् // 49 चित्तस्य हि प्रसादेन हन्ति कर्म शुभाशुभम् / / परित्यजति यो दुःखं सुखं चाप्युभयं नरः / प्रसन्नात्मात्मनि स्थित्वा सुखमानन्त्यमभुते // 35 ब्रह्म प्राप्नोति सोऽत्यन्तमसङ्गेन च गच्छति // 50 लक्षणं तु प्रसादस्य यथा तृप्तः सुखं स्वपेत् / / यथाश्रुतमिदं सब समासेन द्विजोत्तम / निवाते वा यथा दीपो दीप्येत्कुशलदीपितः // 36 एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥५१ पूर्वरात्रे परे चैव युञ्जानः सततं मनः। इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि लघ्वाहारो विशुद्धात्मा पश्यन्नात्मानमात्मनि॥३७ / ज्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 21 // प्रदीप्तेनेव दीपेन मनोदीपेन पश्यति / 204 दृष्ट्वात्मानं निरात्मानं तदा स तु विमुच्यते // 38 मार्कण्डेय उवाच / सर्वोपायैस्तु लोभस्य क्रोधस्य च विनिग्रहः / एवं संकथिते कृत्स्ने मोक्षधर्मे युधिष्ठिर। .. एतत्पवित्रं यज्ञानां तपो वै संक्रमो मतः // 39 दृढं प्रीतमना विप्रो धर्मव्याधमुवाच ह // 1 नित्यं क्रोधात्तपो रक्षेच्छ्रियं रक्षेत मत्सरात् / न्याययुक्तमिदं सर्वं भवता परिकीर्तितम् / विद्यां मानापमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः // 40 न तेऽस्यविदितं किंचिद्धर्मेष्विह हि दृश्यते // 2 आनृशंस्यं परो धर्मः क्षमा च परमं बलम् / व्याध उवाच / आत्मज्ञानं परं ज्ञानं परं सत्यव्रतं व्रतम् // 41 प्रत्यक्षं मम यो धर्मस्तं पश्य द्विजसत्तम / सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यं ज्ञानं हितं भवेत् / येन सिद्धिरियं प्राप्ता मया ब्राह्मणपुंगव // 3 यद्भूतहितमत्यन्तं तद्वै सत्यं परं मतम् // 42 उत्तिष्ठ भगवन्क्षिप्रं प्रविश्याभ्यन्तरं गृहम् / यस्य सर्वे समारम्भाः निराशीबन्धनाः सदा।। द्रष्टुमर्हसि धर्मज्ञ मातरं पितरं च मे // 4 त्यागे यस्य हुतं सर्वं स त्यागी स च बुद्धिमान्॥ 43 मार्कण्डेय उवाच। यतो न गुरुरप्येनं च्यावयेदुपपादयन् / इत्युक्तः स प्रविश्याथ ददर्श परमार्चितम् / तं विद्याद्ब्रह्मणो योगं वियोगं योगसंज्ञितम् // 44 सौधं हृद्यं चतुःशालमतीव च मनोहरम् // 5 न हिंस्यात्सर्वभूतानि मैत्रायणगतश्चरेत् / देवतागृहसंकाशं दैवतैश्च सुपूजितम् / नेदं जीवितमासाद्य वैरं कुर्वीत केनचित् // 45 शयनासनसंबाधं गन्धैश्च परभैर्युतम् // 6 आकिंचन्यं सुसंतोषो निराशित्वमचापलम् / तत्र शुक्लाम्बरधरौ पितरावस्य पूजिता / एतदेव परं ज्ञानं सदात्मज्ञानमुत्तमम्॥ 46 कृताहारौ सुतुष्टौ तावुपविष्टौ वरासने। परिग्रहं परित्यज्य भव बुद्ध्या यतव्रतः / धर्मव्याधस्तु तौ दृष्ट्वा पादेषु शिरसापतत् // 7 अशोकं स्थानमातिष्ठेन्निश्चलं प्रेत्य चेह च // 47 वृद्धावूचतुः। तपोनित्येन दान्तेन मुनिना संयतात्मना / उत्तिष्ठोत्तिष्ठ धर्मज्ञ धर्मस्त्वामभिरक्षतु / अजितं जेतुकामेन भाव्यं सङ्गेष्वसङ्गिना // 48 / प्रीतौ स्वस्तव शौचेन दीर्घमायुरवाप्नुहि / गुणागुणमनासङ्गमेककार्यमनन्तरम् / | सत्पुत्रेण त्वया पुत्र नित्यकालं सुपूजितौ // 8 - 676 -
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________________ 8. 204. 9] आरण्यकपर्व [3. 205.6 न तेऽन्यदैवतं किंचिदैवतेष्वपि वर्तते / एतदर्थ मम प्राणा भार्या पुत्राः सुहृज्जनाः / प्रयतत्वाद्विजातीनां दमेनासि समन्वितः॥ 9 सपुत्रदारः शुश्रूषां नित्यमेव करोम्यहम् // 22 / पितुः पितामहा ये च तथैव प्रपितामहाः / स्वयं च स्नापयाम्येतौ तथा पादौ प्रधावये। प्रीतास्ते सततं पुत्र दमेनावां च पूजया // 10 आहारं संप्रयच्छामि स्वयं च द्विजसत्तम // 23 मनसा कर्मणा वाचा शुश्रूषा नैव हीयते। अनुकूलाः कथा वच्मि विप्रियं परिवर्जयन् / न चान्या वितथा बुद्धिदृश्यते सांप्रतं तव // 11 अधर्मेणापि संयुक्तं प्रियमाभ्यां करोम्यहम् / / 24 जामदग्न्येन रामेण यथा वृद्धौ सुपूजितौ। . धर्ममेव गुरुं ज्ञात्वा करोमि द्विजसत्तम / तथा त्वया कृतं सर्व तद्विशिष्टं च पुत्रक / / 12 अतन्द्रितः सदा विप्र शुश्रूषां वै करोम्यहम् // 25 मार्कण्डेय उवाच। / पश्चैव गुरवो ब्रह्मन्पुरुषस्य बूभूषतः। ततस्तं ब्राह्मणं ताभ्यां धर्मव्याधो न्यवेदयत् / / पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च द्विजसत्तम // 26 तौ स्वागतेन तं विप्रमर्चयामासतुस्तदा // 13 . एतेषु यस्तु वर्तेत सम्यगेव द्विजोत्तम / प्रतिगृह्य च तां पूजां द्विजः पप्रच्छ तावुभौ। भवेयुरमयस्तस्य परिचीर्णास्तु नित्यशः / सपुत्राभ्यां सभृत्याभ्यां कच्चिद्वां कुशलं गृहे। गार्हस्थ्ये वर्तमानस्य धर्म एष सनातनः / / 27 / अनामयं च वां कच्चित्सदैवेह शरीरयोः // 14 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि - वृद्धावूचतुः। चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः // 204 // कुशलं नो गृहे विप्र भृत्यवर्गे च सर्वशः / / 205 कञ्चित्त्वमप्यविघ्नेन संप्राप्तो भगवन्निह // 15 मार्कण्डेय उवाच / मार्कण्डेय उवाच। गुरू निवेद्य विप्राय तौ मातापितरावुभौ। / बाढमित्येव तौ विप्रः प्रत्युवाच मुदान्वितः।। पुनरेव स धर्मात्मा व्याधो ब्राह्मणमब्रवीत् // 1 धर्मव्याधस्तु तं विप्रमर्थवद्वाक्यमब्रवीत् // 16 . प्रवृत्तचक्षुर्जातोऽस्मि संपश्य तपसो बलम् / पिता माता च भगवन्नेतौ मे दैवतं परम् / यदर्थमुक्तोऽसि तया गच्छस्व मिथिलामिति // 2 यदैवतेभ्यः कर्तव्यं तदेताभ्यां करोम्यहम् // 17 पतिशुश्रूषपरया दान्तया सत्यशीलया / त्रयस्त्रिंशद्यथा देवाः सर्वे शक्रपुरोगमाः। मिथिलायां वसन्व्याधः स ते धर्मान्प्रवक्ष्यति // 3 संपूज्याः सर्वलोकस्य तथा वृद्धाविमौ मम // 18 ब्राह्मण उवाच / उपहारानाहरन्तो देवतानां यथा द्विजाः। पतिव्रतायाः सत्यायाः शीलाढ्याया यतव्रत / कुर्वते तद्वदेताभ्यां करोम्यहमतन्द्रितः // 19 संस्मृत्य वाक्यं धर्मज्ञ गुणवानसि मे मतः // 4 एतौ मे परमं ब्रह्मन्पिता माता च दैवतम् / व्याध उवाच / एता पुष्पैः फलै रत्नस्तोषयामि सदा द्विज // 20 / यत्तदा त्वं द्विजश्रेष्ठ तयोक्तो मां प्रति प्रभो।' एतावेवाग्नयो मह्यं यान्वदन्ति मनीषिणः / दृष्टमेतत्तया सम्यगेकपन्या न संशयः॥५ यज्ञा वेदाश्च चत्वारः सर्वमेतौ मम द्विज // 21 / त्वदनुग्रहबुद्ध्या तु विप्रैतद्दर्शितं मया / -677 -
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________________ 8. 205. 6] महाभारते [ 3. 205. 20 वाक्यं च शृणु मे तात यत्ते वक्ष्ये हितं द्विज // 6 | न त्वां शूद्रमहं मन्ये भवितव्यं हि कारणम् / त्वया विनिकृता माता पिता च द्विजसत्तम / येन कर्मविपाकेन प्राप्तेयं शूद्रता त्वया // 19 अनिसृष्टोऽसि निष्क्रान्तो गृहात्ताभ्यामनिन्दित / एतदिच्छामि विज्ञातुं तत्त्वेन हि महामते / वेदोच्चारणकार्यार्थमयुक्तं तत्त्वया कृतम् // 7 कामया ब्रूहि मे तथ्यं सर्वं त्वं प्रयतात्मवान् // 20 तव शोकेन वृद्धौ तावन्धौ जातौ तपस्विनौ / व्याध उवाच / चौ प्रसादयितुं गच्छ मा त्वा धर्मोऽत्यगान्महान् // 8 अनतिक्रमणीया हि ब्राह्मणा वै द्विजोत्तम / तपस्वी त्वं महात्मा च धर्मे च निरतः सदा / शृणु सर्वमिदं वृत्तं पूर्वदेहे ममानघ / / 21 . सर्वमेतदपार्थं ते क्षिप्रं तौ संप्रसादय // 9 अहं हि ब्राह्मणः पूर्वमासं द्विजवरात्मज / श्रद्दधस्व मम ब्रह्मन्नान्यथा कर्तुमर्हसि / वेदाध्यायी सुकुशलो वेदाङ्गानां च पारगः / सम्यतामद्य विप्रर्षे श्रेयस्ते कथयाम्यहम् // 10 आत्मदोषकृतैर्ब्रह्मन्नवस्था प्राप्तवानिमाम् / / 2.2 ब्राह्मण उवाच। कश्चिद्राजा मम सखा धनुर्वेदपरायणः / यदेतदुक्तं भवता सर्वं सत्यमसंशयम् / संसर्गाद्धनुषि श्रेष्ठस्ततोऽहमभवं द्विज // 23 प्रीतोऽस्मि तव धर्मज्ञ साध्वाचारगुणान्वित // 11 एतस्मिन्नेव काले तु मृगयां निर्गतो नृपः / व्याध उवाच। दैवतप्रतिमो हि त्वं यस्त्वं धर्ममनुव्रतः / सहितो योधमुख्यैश्च मत्रिभिश्च सुसंवृतः / पुराणं शाश्वतं दिव्यं दुष्प्रापमकृतात्मभिः॥ 12 ततोऽभ्यहन्मृगांस्तत्र सुबहूनाश्रमं प्रति // 24 अतन्द्रितः कुरु क्षिप्रं मातापित्रोहि पूजनम् / अथ क्षिप्तः शरो घोरो मयापि द्विजसत्तम / अतः परमहं धर्म नान्यं पश्यामि कंचन // 13 ताडितश्च मुनिस्तेन शरेणानतपर्वणा // 25 ब्राह्मण उवाच / भूमौ निपतितो ब्रह्मन्नुवाच प्रतिनादयन् / इहाहमागतो दिष्टया दिष्ट्या मे संगतं त्वया। नापराध्याम्यहं किंचित्केन पापमिदं कृतम् // 26 ईदृशा दुर्लभा लोके नरा धर्मप्रदर्शकाः // 14 मन्वानस्तं मृगं चाहं संप्राप्तः सहसा मुनिम् / एको नरसहस्रेषु धर्मविद्विद्यते न वा / अपश्यं तमृषि विद्धं शरेणानतपर्वणा / प्रीतोऽस्मि तव सत्येन भद्रं ते पुरुषोत्तम // 15 तमुग्रतपसं विप्रं निष्टनन्तं महीतले // 27 पतमानो हि नरके भवतास्मि समुद्धृतः / अकार्यकरणाच्चापि भृशं मे व्यथितं मनः / भवितव्यमथैवं च यदृष्टोऽसि मयानघ // 16 अजानता कृतमिदं मयेत्यथ तमब्रुवम् / राजा ययातिौहित्रैः पतितस्तारितो यथा / क्षन्तुमर्हसि मे ब्रह्मन्निति चोक्तो मया मुनिः॥२८ सद्भिः पुरुषशार्दूल तथाहं भवता त्विह // 17 ततः प्रत्यब्रवीद्वाक्यमृषिर्मा क्रोधमूर्छितः / मातापितृभ्यां शुश्रषां करिष्ये वचनात्तव / / व्याधस्त्वं भविता क्रूर शूद्रयोनाविति द्विज // 29 नाकृतात्मा वेदयति धर्माधर्मविनिश्चयम् // 18 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दुज्ञेयः शाश्वतो धर्मः शूद्रयोनौ हि वर्तता / पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 205 // - 678 -
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________________ 8. 206. 1] आरण्यकपर्व [ 3. 206.28 206 यस्तु शूद्रो दमे सत्ये धर्मे च सततोत्थितः / व्याध उवाच / तं ब्राह्मणमहं मन्ये वृत्तेन हि भवेहिजः।। 12, एवं शप्तोऽहमृषिणा तदा द्विजवरोत्तम / कर्मदोषेण विषमां गतिमाप्नोति दारुणाम् / अभिप्रसादयमृर्षि गिरा वाक्यविशारदम् // 1 क्षीणदोषमहं मन्ये चाभितस्त्वां नरोत्तम // 13 अजानता मयाकार्यमिदमद्य कृतं मुने / कर्तुमर्हसि नोत्कण्ठां त्वद्विधा ह्यविषादिनः / क्षन्तुमर्हसि तत्सर्वं प्रसीद भगवन्निति // 2 लोकवृत्तान्तवृत्तज्ञा नित्यं धर्मपरायणाः // 14 ऋषिरुवाच / ___ व्याध उवाच / नान्यथा भविता शाप एवमेतदसंशयम् / / प्रज्ञया मानसं दुःखं हन्याच्छारीरमौषधैः / आनृशंस्यादहं किंचित्कर्तानुग्रहमद्य ते // 3 . एतद्विज्ञानसामर्थ्य न बालैः समतां व्रजेत् // 15 शद्रयोनौ वर्तमानो धर्मज्ञो भविता ह्यसि / अनिष्टसंप्रयोगाच्च विप्रयोगात्प्रियस्य च / मातापित्रोश्च शुश्रूषां करिष्यसि न संशयः // 4 मानुषा मानसैदुःखैर्युज्यन्ते अल्पबुद्धयः // 16 : तया शुश्रूषया सिद्धिं महतीं समवाप्स्यसि। गुणैर्भूतानि युज्यन्ते वियुज्यन्ते तथैव च। जातिस्मरश्च भविता स्वर्गं चैव गमिष्यसि / . सर्वाणि नैतदेकस्य शोकस्थानं हि विद्यते // 17 शापक्षयान्ते निवृत्ते भवितासि पुनर्द्विजः // 5 अनिष्टेनान्वितं पश्यंस्तथा क्षिप्रं विरज्यते / व्याध उवाच / ततश्च प्रतिकुर्वन्ति यदि पश्यन्त्युपक्रमम् / एवं शप्तः पुरा तेन ऋषिणास्म्युग्रतेजसा। शोचतो न भवेत्किंचित्केवलं परितप्यते // १८प्रसादश्च कृतस्तेन ममैवं द्विपदां वर // 6 परित्यजन्ति ये दुःखं सुखं वाप्युभयं नराः। शरं चोद्धृतवानस्मि तस्य वै द्विजसत्तम। त एव सुखमेधन्ते ज्ञानतृप्ता मनीषिणः // 19 आश्रमं च मया नीतो न च प्राणैर्व्ययुज्यत // 7 असंतोषपरा मूढाः संतोषं यान्ति पण्डिताः।। एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा मम पुराभवत् / असंतोषस्य नास्त्यन्तस्तुष्टिस्तु परमं सुखम् / अमितश्चापि गन्तव्यं मया स्वर्ग द्विजोत्तम / / 8 न शोचन्ति गताध्वानः पश्यन्तः परमां गतिम् // 20 - ब्राह्मण उवाच। न विषादे मनः कार्य विषादो विषमुत्तमम् / एवमेतानि पुरुषा दुःखानि च सुखानि च। मारयत्यकृतप्रज्ञं बालं क्रुद्ध इवोरगः // 21 प्राप्नुवन्ति महाबुद्धे नोत्कण्ठां कर्तुमर्हसि / यं विषादोऽभिभवति विषमे समुपस्थिते / / दुष्करं हि कृतं तात जानता जातिमात्मनः॥ 9 तेजसा तस्य हीनस्य पुरुषार्थो न विद्यते // 22 कर्मदोषश्च वै विद्वन्नात्मजातिकृतेन वै। अवश्यं क्रियमाणस्य कर्मणो दृश्यते फलम् / कंचित्कालं मृष्यतां वै ततोऽसि भविता द्विजः / न हि निर्वेदमागम्य किंचित्प्राप्नोति शोभनम्॥ 23 सांप्रतं च मतो मेऽसि ब्राह्मणो नात्र संशयः॥ 10 अथाप्युपायं पश्येत दुःखस्य परिमोक्षणे। प्राह्मणः पतनीयेषु वर्तमानो विकर्मसु / अशोचन्नारभेतैव युक्तश्चाव्यसनी भवेत् / / 24 दाम्भिको दुष्कृतप्रायः शूद्रेण सदृशो भवेत् // 11 / भूतेष्वभावं संचिन्त्य ये तु बुद्धेः परं गताः। : -679 -
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________________ 3. 206. 25 ] महाभारते [ 3. 207. 15 न शोचन्ति कृतप्रज्ञाः पश्यन्तः परमां गतिम् // 25 - नष्टेऽनौ हव्यमवहदग्निभूत्वा महानृषिः // 2 न शोचामि च वै विद्वन्कालाकाङ्की स्थितोऽस्म्यहम्। अग्निर्यदा त्वेक एव बहुत्वं चास्य कर्मसु / एतैर्निदर्शनैर्ब्रह्मन्नावसीदामि सत्तम // 26 दृश्यते भगवन्सर्वमेतदिच्छामि वेदितुम् // 3 ब्राह्मण उवाच / / कुमारश्च यथोत्पन्नो यथा चाग्नेः सुतोऽभवत् / कृतप्रज्ञोऽसि मेधावी बुद्धिश्च विपुला तव / यथा रुद्राञ्च संभूतो गङ्गायां कृत्तिकासु च // 4 नाहं भवन्तं शोचामि ज्ञानतृप्तोऽसि धर्मवित् // 27 एतदिच्छाम्यहं त्वत्तः श्रोतुं भार्गवनन्दन / . आपृच्छे त्वां स्वस्ति तेऽस्तु धर्मस्त्वा परिरक्षतु / कौतूहलसमाविष्टो यथातथ्यं महामुने // 5 अप्रमादस्तु कर्तव्यो धर्मे धर्मभृतां वर // 28 मार्कण्डेय उवाच / - मार्कण्डेय उवाच। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / बाढमित्येव तं व्याधः कृताञ्जलिरुवाच ह। यथा क्रुद्धो हुतवहस्तपस्तप्तुं वनं गतः // 6 .. प्रदक्षिणमथो कृत्वा प्रस्थितो द्विजसत्तमः // 29 यथा च भगवानग्निः स्वयमेवाङ्गिराभवत्।। स तु गत्वा द्विजः सर्वां शुश्रूषां कृतवांस्तदा। संतापयन्स्वप्रभया नाशयंस्तिमिराणि च // 7 // मातापितृभ्यां वृद्धाभ्यां यथान्यायं सुसंशितः // 30 आश्रमस्थो महाभागो हव्यवाहं विशेषयन् / / एतत्ते सर्वमाख्यातं निखिलेन युधिष्ठिर / तथा स भूत्वा तु तदा जगत्सर्वं प्रकाशयन् // 8 पृष्टवानास यं तात धर्मं धर्मभृतां वर // 31 तपश्चरंश्च हुतभुक्संतप्तस्तस्य तेजसा / पतिव्रताया माहात्म्यं ब्राह्मणस्य च सत्तम / भृशं ग्लानश्च तेजस्वी न स किंचित्प्रजज्ञिवान्॥१ मातापित्रोश्च शुश्रूषा व्याधे धर्मश्च कीर्तितः॥ 32 अथ संचिन्तयामास भगवान्हव्यवाहनः / युधिष्ठिर उवाच / अन्योऽग्निरिह लोकानां ब्रह्मणा संप्रवर्तितः। अत्यद्भुतमिदं ब्रह्मन्धर्माख्यानमनुत्तमम् / अग्नित्वं विप्रनष्टं हि तप्यमानस्य मे तपः // 10 सर्वधर्मभृतां श्रेष्ठ कथितं द्विजसत्तम // 33 कथमग्निः पुनरहं भवेयमिति चिन्त्य सः / सुखश्रव्यतया विद्वन्मुहूर्तमिव मे गतम् / अपश्यदग्निवल्लोकांस्तापयन्तै महामुनिम् / / 11 . न हि तृप्तोऽस्मि भगवशृण्वानो धर्ममुत्तमम् // 34 सोपासर्पच्छनैर्भातस्तमुवाच तदाङ्गिराः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि शीघ्रमेव भवस्वाग्निस्त्वं पुनर्लोकभावनः / / षडधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 206 // विज्ञातश्चासि लोकेषु त्रिषु संस्थानचारिषु॥ 12 207 त्वमग्ने प्रथमः सृष्टो ब्रह्मणा तिमिरापहः / वैशंपायन उवाच। स्वस्थानं प्रतिपद्यस्व शीघ्रमेव तमोनुद // 13 श्रुत्वेमां धर्मसंयुक्तां धर्मराजः कथां शुभाम् / अग्निरुवाच / पुनः पप्रच्छ तमृर्षि मार्कण्डेयं तपस्विनम् // 1 नष्टकीर्तिरहं लोके भवाञ्जातो हुताशनः / युधिष्ठिर उवाच / भवन्तमेव ज्ञास्यन्ति पावकं न तु मां जनाः॥११ कथमग्निर्वनं यातः कथं चाप्यङ्गिराः पुरा। निक्षिपाम्यहमग्नित्वं त्वमग्निः प्रथमो भव। . -680 -
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________________ 3. 207. 15] आरण्यकपर्व [3. 209. 12 209 भविष्यामि द्वितीयोऽहं प्राजापत्यक एव च // 15 महामतीति विख्याता सप्तमी कथ्यते सुता // 7. अङ्गिरा उवाच / यां तु दृष्ट्वा भगवतीं जनः कुहुकुहायते / कुरु पुण्यं प्रजास्वयं भवाग्निस्तिमिरापहः / एकानंशेति यामाहुः कुहूमङ्गिरसः सुताम् / / 8 मां च देव कुरुष्वाग्ने प्रथमं पुत्रमञ्जसा // 16 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि मार्कण्डेय उवाच / अष्टाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 208 // : तच्छ्रुत्वाङ्गिरसो वाक्यं जातवेदास्तथाकरोत् / राजन्बृहस्पति म तस्याप्यङ्गिरसः सुतः // 17 मार्कण्डेय उवाच। ज्ञात्वा प्रथमजं तं तु वढेराङ्गिरसं सुतम् / / बृहस्पतेश्चान्द्रमसी भार्याभूद्या यशस्विनी / उपेत्य देवाः पप्रच्छुः कारणं तत्र भारत // 18 अग्नीन्साजनयत्पुण्यान्षडेकां चापि पुत्रिकाम् // 1 स तु पृष्टस्तदा देवैस्ततः कारणमब्रवीत् / आहुतिष्वेव यस्याग्नेह विषाज्यं विधीयते / प्रत्यगृह्णस्तु देवाश्च तद्वचोऽङ्गिरसस्तदा // 19 सोऽग्निबृहस्पतेः पुत्रः शंयुर्नाम महाप्रभः // 2 अत्र नानाविधानग्नीन्प्रवक्ष्यामि महाप्रभान् / चातुर्मास्येषु यस्येष्टयामश्वमेधेऽग्रजः पशुः / कर्मभिर्बहुभिः ख्यातान्नानात्वं ब्राह्मणेष्विह // 20 दीप्तो ज्वालैरनेकाभैरग्निरेकोऽथ वीर्यवान् // 3 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि शंयोरप्रतिमा भार्या सत्या सत्या च धर्मजा। सप्ताधिकद्विशततमोऽध्यायः // 207 // अग्निस्तस्य सुतो दीप्तस्तिस्रः कन्याश्च सुव्रताः॥४ 208 प्रथमेनाज्यभागेन पूज्यते योऽग्निरध्वरे / मार्कण्डेय उवाच / अग्निस्तस्य भरद्वाजः प्रथमः पुत्र उच्यते // 5 ब्रह्मणो यस्तृतीयस्तु पुत्रः कुरुकुलोद्वह।. . पौर्णमास्येषु सर्वेषु हविषाज्यं स्रुवोद्यतम् / तस्यापवसुता भार्या प्रजास्तस्यापि मे शृणु // 1 भरतो नामतः सोऽग्निर्द्वितीयः शंयुतः सुतः // 6 बृहज्योतिबृहत्कीर्तिबृहद्ब्रह्मा बृहन्मनाः / तिस्रः कन्या भवन्त्यन्या यासां स भरतः पतिः / बृहन्मत्रो बृहद्भासस्तथा राजन्बृहस्पतिः / / 2 भरतस्तु सुतस्तस्य भवत्येका च पुत्रिका / / 7 प्रजासु तासु सर्वासु रूपेणाप्रतिमाभवत् / भरतो भरतस्यानेः पावकस्तु प्रजापतेः / देवी भानुमती नाम प्रथमाङ्गिरसः सुता / / 3 महानत्यर्थमहितस्तथा भरतसत्तम // 8 भूतानामेव सर्वेषां यस्यां रागस्तदाभवत् / भरद्वाजस्य भार्या तु वीरा वीरश्च पिण्डदः / रागाद्रागेति यामाहुर्द्वितीयाङ्गिरसः सुता / / 4 प्राहुराज्येन तस्येज्यां सोमस्येव द्विजाः शनैः // 9 यां कपर्दिसुतामाहुद्देश्यादृश्येति देहिनः / हविषा यो द्वितीयेन सोमेन सह युज्यते। तनुत्वात्सा सिनीवाली तृतीयाङ्गिरसः सुता // 5 रथप्रभू रथध्वानः कुम्भरेताः स उच्यते // 10 पश्यत्यर्चिष्मती भाभिहविभिश्च हविष्मती। सरय्वां जनयत्सिद्धिं भानु भाभिः समावृणोत् / षष्ठीमङ्गिरसः कन्यां पुण्यामाहुर्हविष्मतीम् // 6 आग्नेयमानयन्नित्यमाह्वानेष्वेष कथ्यते // 11 बहामखेष्वाङ्गिरसी दीप्तिमत्सु महामती / / यस्तु न च्यवते नित्यं यशसा वर्चसा श्रिया। म. भा. 86 -681 -
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________________ 3. 209. 12] महाभारते [ 3. 210. 14 अग्निर्निश्च्यवनो नाम पृथिवीं स्तौति केवलम् // 12 210 विपाप्मा कलुषैर्मुक्तो विशुद्धश्चार्चिषा ज्वलन् / मार्कण्डेय उवाच / विपापोऽग्निः सुतस्तस्य सत्यः समयकर्मसु // 13 / काश्यपो ह्यथ वासिष्ठः प्राणश्च प्राणपुत्रकः / आक्रोशतां हि भूतानां यः करोति हि निष्कृतिम्। अग्निराङ्गिरसश्चैव च्यवनस्त्रिषुवर्चकः // 1 अग्निः स निष्कृति म शोभयत्यभिसेवितः // 14 अचरन्त तपस्तीव्र पुत्रार्थे बहुवार्षिकम् / अनुकूजन्ति येनेह वेदनार्ताः स्वयं जनाः। पुत्रं लभेम धर्मिष्ठं यशसा ब्रह्मणा समम् // 2 तस्य पुत्रः स्वनो नाम पावकः स रुजस्करः॥१५ महाव्याहृतिभिर्ध्यातः पञ्चभिस्तैस्तदा त्वथ / यस्तु विश्वस्य जगतो बुद्धिमाक्रम्य तिष्ठति / / जज्ञे तेजोमयोऽर्चिष्मान्पञ्चवर्णः प्रभावनः // 3 तं प्राहुरध्यात्मविदो विश्वजिन्नाम पावकम् / / 16 समिद्धोऽग्निः शिरस्तस्य बाहू सूर्यनिभौ तथा। अन्तराग्निः श्रितो यो हि भुक्तं पचति देहिनाम् / त्वनेत्रे च सुवर्णाभे कृष्णे जो च भारत // 4 स यज्ञे विश्वभुङ् नाम सर्वलोकेषु भारत // 17 पञ्चवर्णः स तपसा कृतस्तैः पञ्चभिर्जनैः / ब्रह्मचारी यतात्मा च सततं विपुलव्रतः / पाञ्चजन्यः श्रुतो वेदे पञ्चवंशकरस्तु सः // 5 ब्राह्मणाः पूजयन्त्येनं पाकयज्ञेषु पावकम् // 18 दश वर्षसहस्राणि तपस्तप्त्वा महातपाः / प्रथितो गोपतिर्नाम नदी यस्याभवत्प्रिया / जनयत्पावकं घोरं पितॄणां स प्रजाः सृजन् // 6 तस्मिन्सर्वाणि कर्माणि क्रियन्ते कर्मकर्तृभिः // 19 बृहद्रथंतरं मूों वक्त्राच्च तरसाहरौ / वडवामुखः पिबत्यम्भो योऽसौ परमदारुणः / / शिवं नाभ्यां बलादिन्द्रं वाय्वनी प्राणतोऽसृजत्॥ ऊर्श्वभागप्रभाङ नाम कविः प्राणाश्रितस्तु सः।।२० बाहुभ्यामनुदात्तौ च विश्वे भूतानि चैव ह / उदग्द्वारं हविर्यस्य गृहे नित्यं प्रदीयते। एतान्सृष्ट्वा ततः पञ्च पितॄणामसृजत्सुतान् // 8 ततः स्विष्टं भवेदाज्यं स्विष्टकृत्परमः स्मृतः // 21 बृहदूर्जस्य प्रणिधिः काश्यपस्य बृहत्तरः / यः प्रशान्तेषु भूतेषु मन्युर्भवति पावकः / भानुरङ्गिरसो वीरः पुत्रो वर्चस्य सौभरः॥९ क्रोधस्य तु रसो जज्ञे मन्यती चाथ पुत्रिका / प्राणस्य चानुदात्तश्च व्याख्याताः पञ्च वंशजाः। खाहेति दारुणा करा सर्वभूतेषु तिष्ठति // 22 देवान्यज्ञमुषश्चान्यान्सृजन्पञ्चदशोत्तरान् // 10 त्रिदिवे यस्य सदृशो नास्ति रूपेण कश्चन / अमीममतिभीमं च भीमं भीमबलाबलम् / अतुल्यत्वात्कृतो देवैर्नाम्ना कामस्तु पावकः // 23 एतान्यज्ञमुषः पञ्च देवानभ्यसृजत्तपः // 11 संहर्षाद्धारयन्क्रोधं धन्वी लग्वी रथे स्थितः / सुमित्रं मित्रवन्तं च मित्रज्ञं मित्रवर्धनम् / समरे नाशयेच्छवूनमोघो नाम पावकः // 24 मित्रधर्माणमित्येतान्देवानभ्यसृजत्तपः // 12 उक्थो नाम महाभाग त्रिभिरुक्थैरभिष्टुतः। सुरप्रवीरं वीरं च सुकेशं च सुवर्चसम् / महावाचं त्वजनयत्सकामाश्वं हि यं विदुः // 25 सुराणामपि हन्तारं पञ्चैतानसृजत्तपः // 13 त्रिविधं संस्थिता ह्येते पञ्च पञ्च पृथक्पृथक् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 209 // | मुष्णन्त्यत्र स्थिता ह्येते स्वर्गतो यज्ञयाजिनः // 14 -682 -
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________________ 3. 210. 15 ] भारण्यकपर्व [ 3. 211. 22 तेषामिष्टं हरन्त्येते निघ्नन्ति च महद्भुवि / तपसश्च मनुं पुत्रं भानुं चाप्यङ्गिरासृजत् / स्पर्धया हव्यवाहानां निघ्नन्त्येते हरन्ति च / / 15 बृहद्भानुं तु तं प्राहुर्ब्राह्मणा वेदपारगाः।। 8 इविद्यां तदादानं कुशलैः संप्रवर्तितम् / भानोर्भार्या सुप्रजा तु बृहद्भासा तु सोमजा / तदेते नोपसर्पन्ति यत्र चाग्निः स्थितो भवेत्॥१६ असूजेतां तु षट् पुत्राशृणु तासां प्रजाविधिम्॥९ चितोऽग्निरुद्वन्यज्ञं पक्षाभ्यां तान्प्रबाधते। दुर्बलानां तु भूतानां तनुं यः संप्रयच्छति / सत्रैः प्रशमिता ह्येते नेष्टं मुष्णन्ति यज्ञियम् // 17 तमग्नि बलदं प्राहः प्रथमं भानुतः सुतम् // 10 वृहदुक्थतपस्यैव पुत्रो भूमिमुपाश्रितः / यः प्रशान्तेषु भूतेषु मन्युर्भवति दारुणः / भग्निहोत्रे हूयमाने पृथिव्यां सद्भिरिज्यते // 18 अग्निः स मन्युमान्नाम द्वितीयो भानुतः सुतः / / 11 रथंतरश्च तपसः पुत्रोऽग्निः परिपठ्यते / दर्श च पौर्णमासे च यस्येह हविरुच्यते / मित्रविन्दाय वै तस्य हविरध्वर्यवो विदुः / विष्णुर्नामेह योऽग्निस्तु धृतिमान्नाम सोऽङ्गिराः।।१२ मुदे परमप्रीतः सह पुत्रैर्महायशाः // 19 इन्द्रेण सहितं यस्य हविराग्रयणं स्मृतम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अग्निरामयणो नाम भानोरेवान्वयस्तु सः / / 13 दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 210 // चातुर्मास्येषु नित्यानां हविषां यो निरग्रहः / चतुर्भिः सहितः पुत्रैर्भानोरेवान्वयस्तु सः // 14 मार्कण्डेय उवाच / निशां त्वजनयत्कन्यामग्नीषोमावुभौ तथा / गुरुभिर्नियमैर्युक्तो भरतो नाम पावकः / मनोरेवाभवद्भार्या सुषुवे पश्च पावकान् // 15 अग्निः पुष्टिमतिर्नाम तुष्टः पुष्टिं प्रयच्छति / / पूज्यते हविषाग्र्येण चातुर्मास्येषु पावकः / भरत्येष प्रजाः सर्वास्ततो भरत उच्यते // 1 पर्जन्यसहितः श्रीमानग्निर्वैश्वानरस्तु सः // 16 अग्निर्यस्तु शिवो नाम शक्तिपूजापरश्च सः / अस्य लोकस्य सर्वस्य यः पतिः परिपठ्यते। दुःखार्तानां स सर्वेषां शिवकृत्सततं शिवः / / 2 सोऽग्निर्विश्वपति म द्वितीयो वै मनोः सुतः / तपसस्तु फलं दृष्ट्वा संप्रवृद्धं तपो महत् / ततः स्विष्टं भवेदाज्यं स्विष्टकृत्परमः स्मृतः / / 17 उद्धर्तुकामो मतिमान्पुत्रो जज्ञे पुरंदरः // 3 कन्या सा रोहिणी नाम हिरण्यकशिपोः सुता। ऊष्मा चैवोष्मणो जज्ञे सोऽनिर्भूतेषु लक्ष्यते। कर्मणासौ बभौ भार्या स वह्निः स प्रजापतिः॥१८ अग्निश्चापि मनु म प्राजापत्यमकारयत् / / 4 प्राणमाश्रित्य यो देहं प्रवर्तयति देहिनाम् / शंभुमग्निमथ प्राहुर्ब्राह्मणा वेदपारगाः। तस्य संनिहितो नाम शब्दरूपस्य साधनः // 19 आवसध्यं द्विजाः प्राहुर्दीप्तमग्निं महाप्रभम् / / 5 शुक्लकृष्णगतिर्देवो यो बिभर्ति हुताशनम् / ऊर्जस्करान्हव्यवाहान्सुवर्णसदृशप्रभान् / अकल्मषः कल्मषाणां कर्ता क्रोधाश्रितस्तु सः॥२० अग्निस्तपो ह्यजनयत्पश्च यज्ञसुतानिह // 6 कपिलं परमर्षि च यं प्राहुर्यतयः सदा / प्रशान्तेऽग्निर्महाभाग परिश्रान्तो गवांपतिः / अग्निः स कपिलो नाम सांख्ययोगप्रवर्तकः // 21 असुराञ्जनयन्घोरान्मत्यांश्चैव पृथग्विधान् // 7 अग्निर्यच्छति भूतानि येन भूतानि नित्यदा। - 683 -
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________________ 3. 211. 22] महाभारते [3. 212. 18 कर्मस्विह विचित्रेषु सोऽग्रणीर्वह्निरुच्यते // 22 हुतं वहति यो हव्यमस्य लोकस्य पावकः // 4 इमानन्यान्समसृजत्पावकान्प्रथितान्भुवि / अपां गर्भो महाभागः सहपुत्रो महाद्भुतः / अग्निहोत्रस्य दुष्टस्य प्रायश्चित्तार्थमुल्बणान् // 23 भूपतिर्भुवभर्ता च महतः पतिरुच्यते // 5 संस्पृशेयुर्यदान्योन्यं कथंचिद्वायुनाग्नयः / दहन्मृतानि भूतानि तस्याग्निर्भरतोऽभवत् / इष्टिरष्टाकपालेन कार्या वै शुचयेऽग्नये // 24 अग्निष्टोमे च नियतः क्रतुश्रेष्ठो भरस्य तु // 6 . दक्षिणाग्निर्यदा द्वाभ्यां संसृजेत तदा किल। आयान्तं नियतं दृष्ट्वा प्रविवेशार्णवं भयात् / .. इष्टिरष्टाकपालेन कार्या वै वीतयेऽग्नये // 25 देवास्तं नाधिगच्छन्ति मार्गमाणा यथादिशम् // 5 यद्यग्नयो हि स्पृश्येयुर्निवेशस्था दवाग्निना। दृष्ट्वा त्वग्निरथर्वाणं ततो वचनमब्रवीत् / इष्टिरष्टाकपालेन कार्या तु शुचयेऽग्नये // 26 देवानां वह हव्यं त्वमहं वीर सुदुर्बलः। अग्निं रजस्वला चेत्स्त्री संस्पृशेदग्निहोत्रिकम् / अथर्वन्गच्छ मध्वक्षं प्रियमेतत्कुरुष्व मे / / 8 . इष्टिरष्टाकपालेन कार्या दस्युमतेऽग्नये // 27 प्रेष्य चाग्निरथर्वाणमन्यं देशं ततोऽगमत् / / मृतः श्रयेत यो जीवन्परेयुः पशवो यथा / मत्स्यास्तस्य समाचख्युः क्रुद्धस्तानग्निरब्रवीत् // 9 इष्टिरष्टाकपालेन कर्तव्याभिमतेऽग्नये // 28 भक्ष्या वै विविधैर्भावैर्भविष्यथ शरीरिणाम् / आतॊ न जुहुयादग्निं त्रिरात्रं यस्तु ब्राह्मणः / अथर्वाणं तथा चापि हव्यवाहोऽब्रवीद्वचः // 10 इष्टिरष्टाकपालेन कार्या स्यादुत्तराग्नये // 29 अनुनीयमानोऽपि भृशं देववाक्याद्धि तेन सः। दर्श च पौर्णमासं च यस्य तिष्ठेत्प्रतिष्ठितम् / नैच्छद्वोढुं हविः सर्वं शरीरं च समत्यजत् // 11 इष्टिरष्टाकपालेन कार्या पथिकृतेऽग्नये // 30 स तच्छरीरं संत्यज्य प्रविवेश धरां तदा / सूतिकाग्निर्यदा चाग्निं संस्पृशेदग्निहोत्रिकम् / भूमिं स्पृष्ट्वासजद्धातून्पृथक्पृथगतीव हि / / 12 इष्टिरष्टाकपालेन कार्या चाग्निमतेऽग्नये // 31 आस्यात्सुगन्धि तेजश्च अस्थिभ्यो देवदारु च / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि श्लेष्मणः स्फटिकं तस्य पित्तान्मरकतं तथा // 13 एकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 211 // यकृत्कृष्णायसं तस्य त्रिमिरेव बभः प्रजाः। 212 नखास्तस्याभ्रपटलं शिराजालानि विद्रुमम् / मार्कण्डेय उवाच। शरीरात्रिविधाश्चान्ये धातवोऽस्याभवन्नप // 14 आपस्य मुदिता भार्या सहस्य परमा प्रिया / एवं त्यक्त्वा शरीरं तु परमे तपसि स्थितः / भूपतिर्भुवभर्ता च जनयत्पावकं परम् // 1 भृग्वगिरादिभिर्भूयस्तपसोत्थापितस्तदा // 15 भूतानां चापि सर्वेषां यं प्राहुः पावकं पतिम् / भृशं जज्वाल तेजस्वी तपसाप्यायितः शिखी। आत्मा भुवनभर्तेति सान्वयेषु द्विजातिषु // 2 दृष्ट्वा ऋषीन्भयाच्चापि प्रविवेश महार्णवम् // 16 महतां चैव भूतानां सर्वेषामिह यः पतिः / तस्मिन्नष्टे जगद्भीतमथर्वाणमथाश्रितम् / भगवान्स महातेजा नित्यं चरति पावकः // 3 अर्चयामासुरेवैनमथर्वाणं सुरर्षयः // 17 अग्निर्गृहपतिर्नाम नित्यं यज्ञेषु पूज्यते / अथर्वा त्वसृजल्लोकानात्मनालोक्य पावकम् / / - 684 -
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________________ 3. 212. 18] आरण्यकपर्व [3.213. 13 मिषतां सर्वभूतानामुन्ममाथ महार्णवम् // 18 213 एवमग्निर्भगवता नष्टः पूर्वमथर्वणा / मार्कण्डेय उवाच / आहूतः सर्वभूतानां हव्यं वहति सर्वदा // 19 अग्नीनां विविधो वंशः कीर्तितस्ते मयानघ। एवं त्वजनयद्धिष्ण्यान्वेदोक्तान्विबुधान्बहून् / शृणु जन्म तु कौरव्य कार्तिकेयस्य धीमतः // 1 विचरन्विविधान्देशान्भ्रममाणस्तु तत्र वै // 20 अद्भुतस्याद्भुतं पुत्रं प्रवक्ष्याम्यमितौजसम् / / सिन्धुवर्ज पञ्च नद्यो देविकाथ सरस्वती। जातं सप्तर्षिभार्याभिर्ब्रह्मण्यं कीर्तिवर्धनम् // 2 गङ्गा च शतकुम्भा च शरयूगण्डसाह्वया // 21 | देवासुराः पुरा यत्ता विनिघ्नन्तः परस्परम् / / चर्मण्वती मही चैव मेध्या मेधातिथिस्तथा। तत्राजयन्सदा देवान्दानवा घोररूपिणः // 3 . वध्यमानं बलं दृष्ट्वा बहुशस्तैः पुरंदरः। ताम्रावती वेत्रवती नद्यस्तिस्रोऽथ कौशिकी // 22 स्वसैन्यनायकार्थाय चिन्तामाप भृशं तदा // 4 तमसा नर्मदा चैव नदी गोदावरी तथा। देवसेनां दानवैर्यो भग्नां दृष्ट्वा महाबलः / वेण्णा प्रवेणी भीमा च मेद्रथा चैव भारत // 23 पालयेद्वीर्यमाश्रित्य स ज्ञेयः पुरुषो मया // 5 . भारती सुप्रयोगा च कावेरी मुर्मुरा तथा। स शैलं मानसं गत्वा ध्यायन्नर्थमिमं भृशम् / कृष्णा च कृष्णवेण्णां च कपिला शोण एव च। शुश्रावार्तस्वरं घोरमथ मुक्तं स्त्रिया तदा // 6 एता नद्यस्तु धिष्ण्यानां मातरो याः प्रकीर्तिताः॥२४ अभिधावतु मा कश्चित्पुरुषस्त्रातु चैव ह / अद्भुतस्य प्रिया भार्या तस्याः पुत्रो विडूरथः।। पतिं च मे प्रदिशतु स्वयं वा पतिरस्तु मे // 7 यावन्तः पावकाः प्रोक्ताः सोमास्तावन्त एव च // 25 पुरंदरस्तु तामाह मा भर्नास्ति भयं तव / अत्रेश्चाप्यन्वये जाता ब्रह्मणो मानसाः प्रजाः। एवमुक्त्वा ततोऽपश्यत्केशिनं स्थितमग्रतः॥ 8 अत्रिः पुत्रान्स्रष्टुकामस्तानेवात्मन्यधारयत् / किरीटिनं गदापाणिं धातुमन्तमिवाचलम् / तस्य तद्ब्रह्मणः कायान्निर्हरन्ति हुताशनाः // 26 हस्ते गृहीत्वा तां कन्यामथैनं वासवोऽब्रवीत् // 9 एवमेते महात्मानः कीर्तितास्तेऽग्नयो मया / अनार्यकर्मन्कस्मात्त्वमिमां कन्यां जिहीर्षसि / अप्रमेया यथोत्पन्नाः श्रीमन्तस्तिमिरापहाः॥२७ वञिणं मां विजानीहि विरमास्याः प्रबाधनात्॥१० अद्भुतस्य तु माहात्म्यं यथा वेदेषु कीर्तितम् / केश्युवाच / तादृशं विद्धि सर्वेषामेको ह्येष हुताशनः // 28 / / विसृजस्व त्वमेवैनां शक्रैषा प्रार्थिता मया / एक एवैष भगवान्विज्ञेयः प्रथमोऽङ्गिराः। क्षमं ते जीवतो गन्तुं स्वपुरं पाकशासन // 11 बहुधा निःसृतः कायाज्योतिष्टोमः क्रतुर्यथा // 29 मार्कण्डेय उवाच / इत्येष वंशः सुमहानग्नीनां कीर्तितो मया। एवमुक्त्वा गदां केशी चिक्षेपेन्द्रवधाय वै। पावितो विविधैर्मन्त्रैर्हव्यं वहति देहिनाम् // 30 तामापतन्तीं चिच्छेद मध्ये वज्रेण वासवः // 12 अथास्य शैलशिखरं केशी क्रुद्धो व्यवासृजत् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 212 // // तदापतन्तं संप्रेक्ष्य शैलशृङ्ग शतक्रतुः / -685 -
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________________ 3. 213. 13 ] महाभारते [ 3. 213. 37 बिभेद राजन्वत्रेण भुवि तन्निपपात ह / / 13 अस्या देव्याः पतिर्नास्ति यादृशं संप्रभाषते // 25 पतता तु तदा केशी तेन शृङ्गेण ताडितः / अथापश्यत्स उदये भास्करं भास्करद्युतिः / हित्वा कन्यां महाभागां प्राद्रवमृशपीडितः // 14 सोमं चैव महाभागं विशमानं दिवाकरम् // 26 अपयातेऽसुरे तस्मिंस्तां कन्यां वासवोऽब्रवीत् / अमावास्यां संप्रवृत्तं मुहूतं रौद्रमेव च / कासि कस्यासि किं चेह कुरुषे त्वं शुभानने // 15 देवासुरं च संग्रामं सोऽपश्यदुदये गिरौ॥ 27 कन्योवाच / लोहितैश्च घनैर्युक्तां पूर्वा संध्यां शतक्रतुः / अहं प्रजापतेः कन्या देवसेनेति विश्रुता / अपश्यल्लोहितोदं च भगवान्वरुणालयम् / / 28 भगिनी दैत्यसेना मे सा पूर्व केशिना हृता // 16 भृगुमिश्वाङ्गिरोभिश्च हुतं मत्रैः पृथग्विधैः। सहैवावां भगिन्यौ तु सखीभिः सह मानसम् / हव्यं गृहीत्वा वहिं च प्रविशन्तं दिवाकरम् // 29 आगच्छावेह रत्यर्थमनुज्ञाप्य प्रजापतिम् // 17 पर्व चैव चतुर्विंशं तदा सूर्यमुपस्थितम् / नित्यं चावां प्रार्थयते हतु केशी महासुरः।। तथा धर्मगतं रौद्रं सोमं सूर्यगतं च तम् // 30 इच्छत्येनं दैत्यसेना न त्वहं पाकशासन // 18 समालोक्यैकतामेव शशिनो भास्करस्य च / सा हृता तेन भगवन्मुक्ताहं त्वद्वलेन तु। समवायं तु तं रौद्रं दृष्ट्वा शक्रो व्यचिन्तयत् // 31 त्वया देवेन्द्र निर्दिष्टं पतिमिच्छामि दुर्जयम्॥ 19 एष रौद्रश्च संघातो महान्युक्तश्च तेजसा। इन्द्र उवाच। सोमस्य वह्निसूर्याभ्यामद्भुतोऽयं समागमः / मम मातृष्वसेया त्वं माता दाक्षायणी मम। जनयेद्यं सुतं सोमः सोऽस्या देव्याः पतिर्भवेत्॥३२ आख्यातं त्वहमिच्छामि स्वयमात्मबलं त्वया / / 20 अग्निश्चैतैर्गुणैर्युक्तः सर्वैरग्निश्च देवता। कन्योवाच / एष चेजनयेद्गर्भ सोऽस्या देव्याः पतिर्भवेत् // 33 अबलाहं महाबाहो पतिस्तु बलवान्मम / एवं संचिन्त्य भगवान्ब्रह्मलोकं तदा गतः / वरदानात्पितुर्भावी सुरासुरनमस्कृतः / / 21 गृहीत्वा देवसेनां तामवन्दत्स पितामहम् / इन्द्र उवाच। उवाच चास्या देव्यास्त्वं साधु शूरं पतिं दिश।।३४ कीदृशं वै बलं देवि पत्युस्तव भविष्यति / ब्रह्मोवाच / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तव वाक्यमनिन्दिते / / 22 यथैतञ्चिन्तितं कार्य त्वया दानवसूदन / कन्योवाच / तथा स भविता गर्भो बलवानुरुविक्रमः // 35 देवदानवयक्षाणां किंनरोरगरक्षसाम् / स भविष्यति सेनानीस्त्वया सह शतक्रतो। जेता स दृष्टो दुष्टानां महावीर्यो महाबलः / / 23 / अस्या देव्याः पतिश्चैव स भविष्यति वीर्यवान् // 36 यस्तु सर्वाणि भूतानि त्वया सह विजेष्यति।। मार्कण्डेय उवाच / स हि मे भविता भर्ता ब्रह्मण्यः कीर्तिवर्धनः।।२४ / एतच्छ्रुत्वा नमस्तस्मै कृत्वासौ सह कन्यया / ___ मार्कण्डेय उवाच / तत्राभ्यगच्छद्देवेन्द्रो यत्र देवर्षयोऽभवन् / इन्द्रस्तस्या वचः श्रुत्वा दुःखितोऽचिन्तयद्धृशम् / / वसिष्ठप्रमुखा मुख्या विप्रेन्द्राः सुमहाव्रताः // 37 -686 -
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________________ 3. 213. 38] आरण्यकपर्व [3. 214. 10 भागार्थ तपसोपात्तं तेषां सोमं तथाध्वरे / अहं सप्तर्षिपत्नीनां कृत्वा रूपाणि पावकम् / पिपासवो ययुर्देवाः शतक्रतुपुरोगमाः // 38 कामयिष्यामि कामात तासां रूपेण मोहितम् / इष्टिं कृत्वा यथान्यायं सुसमिद्धे हुताशने / एवं कृते प्रीतिरस्य कामावाप्तिश्च मे भवेत् // 52 जुहुवुस्ते महात्मानो हव्यं सर्वदिवौकसाम् // 39 __ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि समाहूतो हुतवहः सोऽद्भुतः सूर्यमण्डलात् / त्रयोदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 213 // विनिःसत्याययौ वह्निर्वाग्यतो विधिवत्प्रभुः / आगम्याहवनीयं वै तैर्द्विजैर्मनतो हुतम् // 40 मार्कण्डेय उवाच / स तत्र विविधं हव्यं प्रतिगृह्य हुताशनः / शिवा भार्या त्वङ्गिरसः शीलरूपगुणान्विता / ऋषिभ्यो भरतश्रेष्ठ प्रायच्छत दिवौकसाम् // 41 तस्याः सा प्रथमं रूपं कृत्वा देवी जनाधिप। निष्कामंश्चाप्यपश्यत्स पत्नीस्तेषां महात्मनाम् / जगाम पावकाभ्याशं तं चोवाच वराङ्गना // 1 स्वेष्वाश्रमेषूपविष्टाः स्नायन्तीश्च यथासुखम् // 42 मामग्ने कामसंतप्तां त्वं कामयितुमर्हसि। रुक्मवेदिनिभास्तास्तु चन्द्रलेखा इवामलाः। करिष्यसि न चेदेवं मृतां मामुपधारय // 2 हुताशनार्चिप्रतिमाः सर्वास्तारा इवामृताः // 43 / / अहमङ्गिरसो भार्या शिवा नाम हुताशन / स तद्गतेन मनसा बभूव क्षुभितेन्द्रियः / सखीभिः सहिता प्राप्ता मत्रयित्वा विनिश्चयम् // 3 पत्नीदृष्ट्वा द्विजेन्द्राणां वह्निः कामवशं ययौ // 44 अग्निरुवाच / स भूयश्चिन्तयामास न न्याय्यं क्षुभितोऽस्मि यत्। कथं मां त्वं विजानीषे कामार्तमितराः कथम् / साध्वीः पत्नीर्द्विजेन्द्राणामकामाः कामयाम्यहम् / / यास्त्वया कीर्तिताः सर्वाः सप्तर्षीणां प्रियाः स्त्रियः॥४ नैताः शक्या मया द्रष्टुं स्प्रष्टुं वाप्यनिमित्ततः / शिवोवाच / गार्हपत्यं समाविश्य तस्मात्पश्याम्यभीक्ष्णशः॥४६ अस्माकं त्वं प्रियो नित्यं बिभीमस्तु वयं तव / संस्पृशनिव सर्वास्ताः शिखाभिः काञ्चनप्रभाः / त्वञ्चित्तमिङ्गितैत्विा प्रेषितास्मि तवान्तिकम् // 5 पश्यमानश्च मुमुदे गार्हपत्यं समाश्रितः / / 47 मैथुनायेह संप्राप्ता कामं प्राप्तं द्रुतं चर / निरुष्य तत्र सुचिरमेवं वहिर्वशं गतः / मातरो मां प्रतीक्षन्ते गमिष्यामि हुताशन // 6 मनस्तासु विनिक्षिप्य कामयानो वराङ्गनाः॥४८ मार्कण्डेय उवाच / कामसंतप्तहृदयो देहत्यागे सुनिश्चितः / ततोऽग्निरुपयेमे तां शिवां प्रीतिमुदायुतः। अलाभे ब्राह्मणस्त्रीणामग्निर्वनमुपागतः // 49 प्रीत्या देवी च संयुक्ता शुक्र जग्राह पाणिना॥. खाहा तं दक्षदुहिता प्रथमं कामयत्तदा / अचिन्तयन्ममेदं ये रूपं द्रक्ष्यन्ति कानने / सा तस्य छिद्रमन्वैच्छञ्चिरात्प्रभृति भामिनी / ते ब्राह्मणीनामनृतं दोषं वक्ष्यन्ति पावके / / 8 अप्रमत्तस्य देवस्य न चापश्यदनिन्दिता / / 50 तस्मादेतद्रक्ष्यमाणा गरुडी संभवाम्यहम् / सा तं ज्ञात्वा यथावत्तु वहिँ वनमुपागतम् / वनान्निर्गमनं चैव सुखं मम भविष्यति // 9 तत्त्वतः कामसंतप्तं चिन्तयामास भामिनी // 51 / सुपर्णी सा तदा भूत्वा निर्जगाम महावनात् / - 687 -
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________________ 3. 214. 10] महाभारते [ 3. 214. 37 अपश्यत्पर्वतं श्वेतं शरस्तम्वैः सुसंवृतम् // 10 महाकायमुपश्लिष्टं कुक्कुटं बलिनां वरम् / दृष्टीविषैः सप्तशी!गुप्तं भोगिभिरद्भुतैः। गृहीत्वा व्यनदद्भीमं चिक्रीड च महाबलः // 24 रक्षोभिश्च पिशाचैश्च रौद्रैर्भतगणैस्तथा। द्वाभ्यां भुजाभ्यां बलवान्गृहीत्वा शङ्खमुत्तमम् / राक्षसीभिश्च संपूर्णमनेकैश्च मृगद्विजैः // 11 / प्राध्मापयत भूतानां त्रासनं बलिनामपि // 25 सा तत्र सहसा गत्वा शैलपृष्ठं सुदुर्गमम् / द्वाभ्यां भुजाभ्यामाकाशं बहुशो निजघान सः / प्राक्षिपत्काञ्चने कुण्डे शुक्र सा त्वरिता सती॥१२ क्रीडन्भाति महासेनस्त्रील्लोकान्वदनैः पिबन् / शिष्टानामपि सा देवी सप्तर्षीणां महात्मनाम् / पर्वतारोऽप्रमेयात्मा रश्मिमानुदये यथा // 26 पत्नीसरूपतां कृत्वा कामयामास पावकम् // 13 स तस्य पर्वतस्याग्रे निषण्णोऽद्भुतविक्रमः / दिव्यरूपमरुन्धत्याः कर्तुं न शकितं तया / व्यलोकयदमेयात्मा मुखैर्नानाविधैर्दिशः / तस्यास्तपःप्रभावेण भर्तृशुश्रूषणेन च / / 14 स पश्यन्विविधान्भावांश्चकार निनदं पुनः // 27 षटकृत्वस्तत्तु निक्षिप्तमग्ने रेतः कुरूत्तम / / तस्य तं निनदं श्रुत्वा न्यपतन्बहुधा जनाः / तस्मिन्कुण्डे प्रतिपदि कामिन्या स्वाहया तदा // 15 भीताश्चोद्विग्नमनसस्तमेव शरणं ययुः // 28 तत्स्कन्नं तेजसा तत्र संभृतं जनयत्सुतम् / ये तु तं संश्रिता देवं नानावर्णास्तदा जनाः / ऋषिभिः पूजितं स्कन्नमनयत्स्कन्दतां ततः // 16 तानप्याहुः पारिषदान्ब्राह्मणाः सुमहाबलान् // 29 शिरा द्विगुणश्रोत्रो द्वादशाक्षिभुजक्रमः / स तूत्थाय महाबाहुरुपसान्त्व्य च ताञ्जनान् / एकग्रीवस्त्वेककायः कुमारः समपद्यत // 17 धनुर्विकृष्य व्यसृजद्वाणान् श्वेते महागिरौ // 30 द्वितीयायामभिव्यक्तस्तृतीयायां शिशुर्बभौ / बिभेद स शरैः शैलं क्रौञ्च हिमवतः सुतम् / अङ्गप्रत्यङ्गसंभूतश्चतुर्थ्यामभवद्गुहः॥ 18 तेन हंसाश्च गृध्राश्च मेरुं गच्छन्ति पर्वतम् // 31 लोहिताभ्रेण महता संवृतः सह विद्युता / स विशीर्णोऽपतच्छेलो भृशमार्तस्वरान्रुवन् / लोहिताभ्रे सुमहति भाति सूर्य इवोदितः / / 19 तस्मिन्निपतिते त्वन्ये नेदुः शैला भृशं भयात् // 32 गृहीतं तु धनुस्तेन विपुलं लोमहर्षणम् / स तं नादं भशार्तानां श्रुत्वापि बलिनां वरः / न्यस्तं यत्रिपुरनेन सुरारिविनिकृन्तनम् // 20 न प्राव्यथदमेयात्मा शक्तिमुद्यम्य चानदत् / / 33 तद्गृहीत्वा धनुःश्रेष्ठं ननाद बलवांस्तदा / सा तदा विपुला शक्तिः क्षिप्ता तेन महात्मना / संमोहयन्निवेमान्स बील्लोकान्सचराचरान् // 21 बिभेद शिखरं घोरं श्वतस्य तरसा गिरेः / / 34 तस्य तं निनदं श्रुत्वा महामेघौघनिस्वनम् / स तेनाभिहतो दीनो गिरिः श्वेतोऽचलैः सह / उत्पेततुर्महानागी चित्रश्चरावतश्च ह // 22 उत्पपात महीं त्यक्त्वा भीतस्तस्मान्महात्मनः॥३५ तावापतन्तौ संप्रेक्ष्य स बालार्कसमद्युतिः / ततः प्रव्यथिता भूमिळशीर्यत समन्ततः / द्वाभ्यां गृहीत्वा पाणिभ्यां शक्तिं चान्येन पाणिना। आर्ता स्कन्दं समासाद्य पुनर्बलवती बभौ // 36 अपरेणाग्निदायादस्ताम्रचूडं भुजेन सः // 23 पर्वताश्च नमस्कृत्य तमेव पृथिवीं गताः। - 688 -
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________________ 3. 214. 37] आरण्यकपर्व [3. 215. 23 अथायमभजल्लोकः स्कन्दं शुक्नुस्य पञ्चमीम् // 37 / विश्वामित्रश्चकारैतत्कर्म लोकहिताय वै। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तस्मादृषिः कुमारस्य विश्वामित्रोऽभवत्प्रियः // 11 ___चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२१४ // अन्वजानाच्च स्वाहाया रूपान्यत्वं महामुनिः / 215 अब्रवीच्च मुनीन्सर्वान्नापराध्यन्ति वै स्त्रियः / मार्कण्डेय उवाच / श्रुत्वा तु तत्त्वतस्तस्मात्ते पत्नीः सर्वतोऽत्यजन्॥१२ ऋषयस्तु महाघोरान्दृष्ट्वोत्पातान्पृथग्विधान् / स्कन्दं श्रुत्वा ततो देवा वासवं सहिताब्रुवन् / अकुर्वशान्तिमुद्विग्ना लोकानां लोकभावनाः // 1 अविषाबलं स्कन्दं जहि शक्राशु माचिरम् // 13 निवसन्ति वने ये तु तस्मिंश्चैत्ररथे जनाः / यदि वा न निहंस्येनमद्येन्द्रोऽयं भविष्यति / तेऽब्रुवन्नेष नोऽनर्थः पावकेनाहृतो महान् / . त्रैलोक्यं संनिगृह्यास्मांस्त्वां च शक्र महाबलः // 14 संगम्य षड्भिः पत्नीभिः सप्तर्षीणामिति स्म ह॥२ स तानुवाच व्यथितो बालोऽयं सुमहाबलः / अपरे गरुडीमाहुस्त्वयानर्थोऽयमाहृतः।। स्रष्टारमपि लोकानां युधि विक्रम्य नाशयेत् // 15 पैदृष्टा सा तदा देवी तस्या रूपेण गच्छती। सर्वास्त्वद्याभिगच्छन्तु स्कन्दं लोकस्य मातरः। न तु तत्स्वाहया कर्म कृतं. जानाति वै जनः // 3 कामवीर्या नन्तु चैनं तथेत्युक्त्वा च ता ययुः॥१६ सुपर्णी तु वचः श्रुत्वा ममायं तनयस्त्विति / / तमप्रतिबलं दृष्ट्वा विषण्णवदनास्तु ताः / उपगम्य शनैः स्कन्दमाहाहं जननी तव // 4 अशक्योऽयं विचिन्त्यैवं तमेव शरणं ययुः // 17 अथ सप्तर्षयः श्रुत्वा जातं पुत्रं महौजसम् / ऊचुश्चापि त्वमस्माकं पुत्रोऽस्माभिधृतं जगत् / तत्यजुः षट् तदा पत्नीविना देवीमरुन्धतीम् // 5 / अभिनन्दस्व नः सर्वाः प्रस्नताः स्नेहविक्लवाः॥१८ षड्भिरेव तदा जातमाहुस्तद्वनवासिनः / ताः संपूज्य महासेनः कामांश्चासां प्रदाय सः / सप्तर्षीनाह च स्वाहा मम पुत्रोऽयमित्युत। अपश्यदग्निमायान्तं पितरं बलिनां बली // 19 अहं जाने नैतदेवमिति राजन्पुनः पुनः // 6 स तु संपूजितस्तेन सह मातृगणेन ह। विश्वामित्रस्तु कृत्वेष्टिं सप्तर्षीणां महामुनिः / परिवार्य महासेनं रक्षमाणः स्थितः स्थिरम् // 20 पावकं कामसंतप्तमदृष्टः पृष्ठतोऽन्वगात् / सर्वासां या तु मातृणां नारी क्रोधसमुद्भवा / तत्तेन निखिलं सर्वमवबुद्धं यथातथम् / / 7 धात्री सा पुत्रवत्स्कन्दं शूलहस्ताभ्यरक्षत // 21 विश्वामित्रस्तु प्रथमं कुमारं शरणं गतः / लोहितस्योदधेः कन्या क्रूरा लोहितभोजना। स्तवं दिव्यं संप्रचक्रे महासेनस्य चापि सः॥ 8 परिष्वज्य महासेनं पुत्रवत्पर्यरक्षत // 22 मङ्गलानि च सर्वाणि कौमाराणि त्रयोदश। अग्निर्भूत्वा नैगमेयश्छागवक्त्रो बहुप्रजः। जातकर्मादिकास्तस्य क्रियाश्चक्रे महामुनिः // 9 रमयामास शैलस्थं बालं क्रीडनकैरिव // 23 षड्वक्त्रस्य तु माहात्म्य कुक्कुटस्य च साधनम्। / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि शक्त्या देव्याः साधनं च तथा पारिषदामपि॥१० / पञ्चदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 215 // - 689 - म.भा. 87
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________________ 3. 216. 1] महाभारते [ 3. 217. 8 बिभेद च महाराज पार्श्व तस्य महात्मनः // 12 मार्कण्डेय उवाच / वनप्रहारात्स्कन्दस्य संजातः पुरुषोऽपरः / प्रहाः सोपग्रहाश्चैव ऋषयो मातरस्तथा / युवा काश्चनसंनाहः शक्तिधृग्दिव्यकुण्डलः / हुताशनमुखाश्चापि दीप्ताः पारिषदां गणाः // 1 यद्वनविशनाज्जातो विशाखस्तेन सोऽभवत् // 13 एते चान्ये च बहवो घोरास्त्रिदिववासिनः / तं जातमपरं दृष्ट्वा कालानलसमद्युतिम् / परिवार्य महासेनं स्थिता मातृगणैः सह // 2 भयादिन्द्रस्ततः स्कन्दं प्राञ्जलिः शरणं गतः॥ 14 संदिग्धं विजयं दृष्ट्वा विजयेप्सुः सुरेश्वरः / तस्याभयं ददौ स्कन्दः सहसैन्यस्य सत्तम / आरुदैरावतस्कन्धं प्रययौ दैवतैः सह / ततः प्रहृष्टास्त्रिदशा वादित्राण्यभ्यवादयन् // 15 विजिघांसुर्महासेनमिन्द्रस्तूर्णतरं ययौ // 3 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि उग्रं तच्च महावेगं देवानीकं महाप्रभम् / षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः // 216 // विचित्रध्वजसंनाहं नानावाहनकार्मुकम् / प्रवराम्बरसंवीतं श्रिया जुष्टमलंकृतम् // 4 मार्कण्डेय उवाच / विजिघांसुं तदायान्तं कुमारः शक्रमभ्ययात् / स्कन्दस्य पार्षदान्घोराञ्शृणुष्वाद्भुतदर्शनान् / विनदन्पथि शक्रस्तु द्रुतं याति महाबलः / वनप्रहारात्स्कन्दस्य जजुस्तत्र कुमारकाः / संहर्षयन्देवसेनां जिघांसुः पावकात्मजम् // 5 ये हरन्ति शिशूञ्जातान्गर्भस्थांश्चैव दारुणाः॥१ संपूज्यमानस्त्रिदशैस्तथैव परमर्षिभिः / वअप्रहारात्कन्याश्च जज्ञिरेऽस्य महाबलाः / समीपमुपसंप्राप्तः कार्तिकेयस्य वासवः // 6 कुमाराश्च विशाखं तं पितृत्वे समकल्पयन् // 2 सिंहनादं ततश्चक्रे देवेशः सहितः सुरैः। स भूत्वा भगवान्संख्ये रक्षंश्छागमुखस्तदा / गुहोऽपि शब्दं तं श्रुत्वा व्यनदत्सागरो यथा // 7 वृतः कन्यागणैः सर्वैरात्मनीनैश्च पुत्रकैः // 3 तस्य शब्देन महता समुद्धृतोदधिप्रभम् / मातृणां प्रेक्षतीनां च भद्रशाखश्च कौशलः / बभ्राम तत्र तत्रैव देवसैन्यमचेतनम् // 8 ततः कुमारपितरं स्कन्दमाहुर्जना भुवि / / 4 जिघांसूनुपसंप्राप्तान्देवान्दृष्ट्वा स पावकिः / रुद्रमनिमुमा स्वाहां प्रदेशेषु महाबलाम् / विससर्ज मुखाक्रुद्धः प्रवृद्धाः पावकार्चिषः / यजन्ति पुत्रकामाश्च पुत्रिणश्च सदा जनाः // 5 ता देवसैन्यान्यदहन्वेष्टमानानि भूतले // 9 यास्तास्त्वजनयत्कन्यास्तपो नाम हुताशनः / ते प्रदीप्तशिरोदेहाः प्रदीप्तायुधवाहनाः / किं करोमीति ताः स्कन्दं संप्राप्ताः समभाषत॥ 6 प्रच्युताः सहसा भान्ति चित्रास्तारागणा इव // 10 मातर ऊचुः। दयमानाः प्रपन्नास्ते शरणं पावकात्मजम् / भवेम सर्वलोकस्य वयं मातर उत्तमाः / देवा वनधरं त्यक्त्वा ततः शान्तिमुपागताः // 11 / प्रसादात्तव पूज्याश्च प्रियमेतत्कुरुष्व नः // 7 त्यक्तो देवैस्ततः स्कन्दे वनं शक्रोऽभ्यवासृजत् / मार्कण्डेय उवाच / तद्विसृष्टं जघानाशु पार्श्व स्कन्दस्य दक्षिणम् / / सोऽब्रवीद्वाढमित्येवं भविष्यध्वं पृथग्विधाः / -690 -
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________________ 3. 217. 8] आरण्यकपर्व [8. 218. 18 अशिवाश्च शिवाश्चैव पुनः पुनरुदारधीः॥ 8 / अभयं च पुनर्दत्तं त्वयैवैषां सुरोत्तम / ततः संकल्प्य पुत्रत्वे स्कन्दं मातृगणोऽगमत् / तस्मादिन्द्रो भवानस्तु त्रैलोक्यस्याभयंकरः // 7 काकी च हलिमा चैव रुद्राथ बृहली तथा / स्कन्द उवाच। आर्या पलाला वै मित्रा सप्तैताः शिशुमातरः॥ 9 / | किमिन्द्रः सर्वलोकानां करोतीह तपोधनाः। एतासां वीर्यसंपन्नः शिशु मातिदारुणः / / कथं देवगणांश्चैव पाति नित्यं सुरेश्वरः // 8 स्कन्दप्रसादजः पुत्रो लोहिताक्षो भयंकरः॥ 10 ऋषय ऊचुः। एष वीराष्टकः प्रोक्तः स्कन्दमातृगणोद्भवः।। इन्द्रो दिशति भूतानां बलं तेजः प्रजाः सुखम् / छागवक्त्रेण सहितो नवकः परिकीर्त्यते॥११ तुष्टः प्रयच्छति तथा सर्वान्दायान्सुरेश्वरः // 9 षष्ठं छागमयं वक्त्रं स्कन्दस्यैवेति विद्धि तत् / दुर्वृत्तानां संहरति वृत्तस्थानां प्रयच्छति / पशिरोभ्यन्तरं राजनित्यं मातृगणार्चितम् / / 12 अनुशास्ति च भूतानि कार्येषु बलसूदनः // 10 पण्णां तु प्रवरं तस्य शीर्षाणामिह शब्दयते / असूर्ये च भवेत्सूर्यस्तथाचन्द्रे च चन्द्रमाः। . शक्तिं येनासृजदिव्यां भद्रशाख इति स्म ह // 13 भवत्यग्निश्च वायुश्च पृथिव्यापश्च कारणैः // 11 इत्येतद्विविधाकारं वृत्तं शुक्लस्य पञ्चमीम् / एतदिन्द्रेण कर्तव्यमिन्द्रे हि विपुलं बलम् / / तत्र युद्धं महाघोरं वृत्तं षष्ठयां जनाधिप // 14 त्वं च वीर बलश्रेष्ठस्तस्मादिन्द्रो भवस्व नः // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि. शक्र उवाच / सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 217 // भवस्वेन्द्रो महाबाहो सर्वेषां नः सुखावहः / 218 अभिषिच्यस्व चैवाद्य प्राप्तरूपोऽसि सत्तम // 13 मार्कण्डेय उवाच / उपविष्टं ततः स्कन्दं हिरण्यकवचस्रजम् / स्कन्द उवाच / हिरण्यचूडमुकुटं हिरण्याक्षं महाप्रभम् // 1 शाधि त्वमेव त्रैलोक्यमव्यग्रो विजये रतः / लोहिताम्बरसंवीतं तीक्ष्णदंष्ट्रं मनोरमम् / / अहं ते किंकरः शक्र न ममेन्द्रत्वमीप्सितम् // 14 सर्वलक्षणसंपन्नं त्रैलोक्यस्यापि सुप्रियम् // 2 शक्र उवाच / ततस्तं वरदं शूरं युवानं मृष्टकुण्डलम् / बलं तवाद्भुतं वीर त्वं देवानामरीञ्जहि / अभजत्पद्मरूपा श्रीः स्वयमेव शरीरिणी // 3 अवज्ञास्यन्ति मां लोका वीर्येण तव विस्मिताः॥१५ श्रिया जुष्टः पृथुयशाः स कुमारवरस्तदा / इन्द्रत्वेऽपि स्थितं वीर बलहीनं पराजितम् / निषण्णो दृश्यते भूतैः पौर्णमास्यां यथा शशी // 4 आवयोश्च मिथो भेदे प्रयतिष्यन्त्यतन्द्रिताः // 16 अपूजयन्महात्मानो ब्राह्मणास्तं महाबलम् / / भेदिते च त्वयि विभो लोको द्वैधमुपेष्यति / इदमाहुस्तदा चैव स्कन्दं तत्र महर्षयः / / 5 द्विधाभूतेषु लोकेषु निश्चितेष्वावयोस्तथा / हिरण्यवर्ण भद्रं ते लोकानां शंकरो भव / विग्रहः संप्रवर्तेत भूतभेदान्महाबल // 17 वया षडात्रजातेन सर्वे लोका वशीकृताः // 6 तत्र त्वं मां रणे तात यथाश्रद्धं विजेष्यसि / -691 -
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________________ 3. 218. 18] महाभारते [ 3. 218.5 तस्मादिन्द्रो भवानद्य भविता मा विचारय // 18 अरजे वाससी रक्ते वसानः पावकात्मजः / स्कन्द उवाच। भाति दीप्तवपुः श्रीमान्रक्ताभ्राभ्यामिवांशुमान्॥३१ त्वमेव राजा भद्रं ते त्रैलोक्यस्य ममैव च। कुकुटश्चाग्निना दत्तस्तस्य केतुरलंकृतः। करोमि किं च ते शक शासनं तद्भवीहि मे // 19 / रथे समुच्छ्रितो भाति कालाग्निरिव लोहितः // 32 शक उवाच / विवेश कवचं चास्य शरीरं सहजं ततः। यदि सत्यमिदं वाक्यं निश्चयाद्भाषितं त्वया / | युध्यमानस्य देवस्य प्रादुर्भवति तत्सदा // 33 यदि वा शासनं स्कन्द कर्तुमिच्छसि मे शृणु॥२० शक्तिवर्म बलं तेजः कान्तत्वं सत्यमक्षतिः / अभिषिच्यस्व देवानां सेनापत्ये महाबल। ब्रह्मण्यत्वमसंमोहो भक्तानां परिरक्षणम् // 34 अहमिन्द्रो भविष्यामि तव वाक्यान्महाबल / / 21 निकृन्तनं च शत्रूणां लोकानां चाभिरक्षणम् / स्कन्द उवाच। स्कन्देन सह जातानि सर्वाण्येव जनाधिप // 35 दानवानां विनाशाय देवानामर्थसिद्धये / एवं देवगणैः सर्वैः सोऽभिषिक्तः स्वलंकृतः / गोब्राह्मणस्य त्राणार्थं सेनापत्येऽभिषिञ्च माम्॥२२ बभौ प्रतीतः सुमनाः परिपूर्णेन्दुदर्शनः // 36 मार्कण्डेय उवाच / इष्टैः स्वाध्यायघोषैश्च देवतूर्यरवैरपि / सोऽभिषिक्तो मघवता सर्वैर्देवगणैः सह / / देवगन्धर्वगीतैश्च सर्वैरप्सरसां गणैः // 37 अतीव शुशुभे तत्र पूज्यमानो महर्षिभिः // 23 / एतैश्चान्यैश्च विविधैर्हृष्टतुष्टैरलंकृतैः / तस्य तत्काञ्चनं छत्रं ध्रियमाणं व्यरोचत / क्रीडन्निव तदा देवैरभिषिक्तः स पावकिः // 38 यथैव सुसमिद्धस्य पावकस्यात्ममण्डलम् // 24 अभिषिक्तं महासेनमपश्यन्त दिवौकसः। विश्वकर्मकृता चास्य दिव्या माला हिरण्मयी। विनिहत्य तमः सूर्यं यथेहाभ्युदितं तथा / / 39 आबद्धा त्रिपुरनेन स्वयमेव यशस्विना / / 25 अथैनमभ्ययुः सर्वा देवसेनाः सहस्रशः / आगम्य मनुजव्याघ्र सह देव्या परंतप / अस्माकं त्वं पतिरिति ब्रुवाणाः सर्वतोदिशम्॥४० अर्चयामास सुप्रीतो भगवान्गोवृषध्वजः / / 26 ताः समासाद्य भगवान्सर्वभूतगणैर्वृतः / रुद्रमग्निं द्विजाः प्राहू रुद्रसूनुस्ततस्तु सः / अर्चितश्च स्तुतश्चैव सान्त्वयामास ता अपि // 41 रुद्रेण शुक्रमुत्सृष्टं तच्छ्रुतः पर्वतोऽभवत्।। शतक्रतुश्चाभिषिच्य स्कन्द सेनापति तदा। पावकस्येन्द्रियं श्वेते कृत्तिकाभिः कृतं नगे // 27 सस्मार तां देवसेनां या सा तेन विमोक्षिता // 42 पूज्यमानं तु रुद्रेण दृष्ट्वा सर्वे दिवौकसः / अयं तस्याः पतिर्नूनं विहितो ब्रह्मणा स्वयम् / रुद्रसूनुं ततः प्राहुर्गुहं गुणवतां वरम् // 28 इति चिन्त्यानयामास देवसेनां स्खलंकृताम् // 43 अनुप्रविश्य रुद्रेण वह्नि जातो ह्ययं शिशुः / / स्कन्दं चोवाच बलभिदियं कन्या सुरोत्तम / तत्र जातस्ततः स्कन्दो रुद्रसूनुस्ततोऽभवत् // 29 / अजाते त्वयि निर्दिष्टा तव पत्नी स्वयंभुवा // 44 रुद्रस्य वह्नः स्वाहायाः षण्णां स्त्रीणां च तेजसा। / तस्मात्त्वमस्या विधिवत्पाणिं मत्रपुरस्कृतम् / जातः स्कन्दः सुरश्रेष्ठो रुद्रसनुस्ततोऽभवत् / / 30 | गृहाण दक्षिणं देव्याः पाणिना पद्मवर्चसम् // 45 -692 -
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________________ 3. 218. 46 ] आरण्यकपर्व [ 3. 219. 19 = एवमुक्तः स जग्राह तस्याः पाणिं यथाविधि। इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता // 8 बृहस्पतिर्मत्रविधिं जजाप च जुहाव च // 46 तत्र मूढोऽस्मि भद्रं ते नक्षत्रं गगनाच्च्युतम् / एवं स्कन्दस्य महिषी देवसेनां विदुर्बुधाः / कालं त्विमं परं स्कन्द ब्रह्मणा सह चिन्तय // 9 षष्ठी यां ब्राह्मणाः प्राहुर्लक्ष्मीमाशां सुखप्रदाम् / धनिष्ठादिस्तदा कालो ब्रह्मणा परिनिर्मितः / सिनीवाली कुहूं चैव सद्वृत्तिमपराजिताम् / / 47 रोहिण्याद्योऽभवत्पूर्वमेवं संख्या समाभवत् // 10 यदा स्कन्दः पतिर्लब्धः शाश्वतो देवसेनया। एवमुक्ते तु शक्रेण त्रिदिवं कृत्तिका गताः / तदा तमाश्रयलक्ष्मीः स्वयं देवी शरीरिणी // 48 नक्षत्रं शकटाकारं भाति तद्वह्निदैवतम् // 11 श्रीजुष्टः पञ्चमीं स्कन्दस्तस्माच्छ्रीपञ्चमी स्मृता / विनता चाब्रवीत्स्कन्दं मम त्वं पिण्डदः सुतः। षष्ठयां कृतार्थोऽभूद्यस्मात्तस्मात्षष्ठी महातिथिः / / 49 इच्छामि नित्यमेवाहं त्वया पुत्र सहासितुम् // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि स्कन्द उवाच / अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२१८॥ एवमस्तु नमस्तेऽस्तु पुत्रस्नेहात्प्रशाधि माम् / - 219 स्नुषया पूज्यमाना वै देवि वत्स्यसि नित्यदा // 13 मार्कण्डेय उवाच / मार्कण्डेय उवाच / श्रिया जुष्टं महासेनं देवसेनापतिं कृतम् / अथ मातृगणः सर्वः स्कन्दं वचनमब्रवीत् / सप्तर्षिपन्यः षड् देव्यस्तत्सकाशमथागमन् // 1 / वयं सर्वस्य लोकस्य मातरः कविभिः स्तुताः / ऋषिभिः संपरित्यक्ता धर्मयुक्ता महाव्रताः / इच्छामो मातरस्तुभ्यं भवितुं पूजयस्व नः॥१४ द्रुतमागम्य चोचुस्ता देवसेनापतिं प्रभुम् // 2 स्कन्द उवाच / वयं पुत्र परित्यक्ता भर्तृभिर्देवसंमितैः / मातरस्तु भवत्यो मे भवतीनामहं सुतः / अकारणाद्रुषा तात पुण्यस्थानात्परिच्युताः / / 3 उच्यतां यन्मया कार्यं भवतीनामथेप्सितम् // 15 अस्माभिः किल जातस्त्वमिति केनाप्युदाहृतम् / मातर ऊचुः। असत्यमेतत्संश्रुत्य तस्मान्नस्त्रातुमर्हसि // 4 / यास्तु ता मातरः पूर्वं लोकस्यास्य प्रकल्पिताः / अक्षयश्च भवेत्स्वर्गस्त्वत्प्रसादाद्धि नः प्रभो। अस्माकं तद्भवेत्स्थानं तासां चैव न तद्भवेत् // 16 त्वां पुत्रं चाप्यभीप्सामः कृत्वैतदनृणो भव // 5 भवेम पूज्या लोकस्य न ताः पूज्याः सुरर्षभ / स्कन्द उवाच / प्रजास्माकं हृतास्ताभिस्त्वत्कृते ताः प्रयच्छ नः॥१७ मातरो हि भवत्यो मे सुतो वोऽहमनिन्दिताः। स्कन्द उवाच / यञ्चाभीप्सथ तत्सर्वं संभविष्यति वस्तथा // 6 दत्ताः प्रजा न ताः शक्या भवतीभिनिषेवितुम् / ____मार्कण्डेय उवाच। अन्यां वः कां प्रयच्छामि प्रजा यां मनसेच्छथ॥१८ एवमुक्ते ततः शक्रं किं कार्यमिति सोऽब्रवीत् / मातर ऊचुः। उक्तः स्कन्देन ब्रहीति सोऽब्रवीद्वासवस्ततः // 7 इच्छाम तासां मातृणां प्रजा भोक्तुं प्रयच्छ नः / अभिजित्स्पर्धमाना तु रोहिण्या कन्यसी स्वसा। | त्वया सह पृथग्भूता ये च तासामथेश्वराः॥१९ -693 -
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________________ 3. 219. 20] महाभारते [ 3. 219.46 स्कन्द उवाच / गवां माता तु या प्राज्ञैः कथ्यते सुरभिर्नृप / प्रजा वो दद्मि कष्टं तु भवतीभिरुदाहृतम् / शकुनिस्तामथारुह्य सह भुङ्क्ते शिशून्भुवि / / 32 परिरक्षत भद्रं वः प्रजाः साधु नमस्कृताः॥२० सरमा नाम या माता शुनां देवी जनाधिप।' मातर ऊचुः / सापि गर्भान्समादत्ते मानुषीणां सदैव हि // 33 परिरक्षाम भद्रं ते प्रजाः स्कन्द यथेच्छसि / / पादपानां च या माता करञ्जनिलया हि सा। त्वया नो रोचते स्कन्द सहवासश्चिरं प्रभो॥२१ करले तां नमस्यन्ति तस्मात्पुत्रार्थिनो नराः॥ 34 स्कन्द उवाच / इमे त्वष्टादशान्ये वै ग्रहा मांसमधुप्रियाः। यावत्षोडश वर्षाणि भवन्ति तरुणाः प्रजाः।। द्विपञ्चरात्रं तिष्ठन्ति सततं सूतिकागृहे // 35 प्रबाधत मनुष्याणां तावद्रूपैः पृथग्विधैः / / 22 कदू : सूक्ष्मवपुर्भूत्वा गर्भिणी प्रविशेद्यदा। अहं च वः प्रदास्यामि रौद्रमात्मानमव्ययम् / भुङ्क्ते सा तत्र तं गर्भ सा तु नागं प्रसूयते // 36 परमं तेन सहिता सुखं वत्स्यथ पूजिताः // 23 गन्धर्वाणां तु या माता सा गर्भ गृह्य गच्छति। मार्कण्डेय उवाच। ततो विलीनगर्भा सा मानुषी भुवि दृश्यते // 37 ततः शरीरात्स्कन्दस्य पुरुषः काञ्चनप्रभः / या जनित्री त्वप्सरसां गर्भमास्ते प्रगृह्य सा। भोक्तुं प्रजाः स मानां निष्पपात महाबलः // 24 उपविष्टं ततो गर्भ कथयन्ति मनीषिणः 38 अपतत्स तदा भूमौ विसंज्ञोऽथ क्षुधान्वितः। लोहितस्योदधेः कन्या धात्री स्कन्दस्य सा स्मृता। स्क्वन्देन सोऽभ्यनुज्ञातो रौद्ररूपोऽभवद्हः।। लोहितायनिरित्येवं कदम्बे सा हि पूज्यते // 39 स्कन्दापस्मारमित्याहुम्रहं तं द्विजसत्तमाः // 25 पुरुषेषु यथा रुद्रस्तथार्या प्रमदास्वपि / विनता तु महारौद्रा कथ्यते शकुनिग्रहः / आर्या माता कुमारस्य पृथक्कामार्थमिज्यते // 40 पूतनां राक्षसी प्राहुस्तं विद्यात्पूतनाग्रहम् / / 26 एवमेते कुमाराणां मया प्रोक्ता महाग्रहाः।। कष्टा दारुणरूपेण घोररूपा निशाचरी। यावत्षोडश वर्षाणि अशिवास्ते शिवास्ततः 41 पिशाची दारुणाकारा कथ्यते शीतपूतना। ये च मातृगणाः प्रोक्ताः पुरुषाश्चैव ये ग्रहाः / गर्भान्सा मानुषीणां तु हरते घोरदर्शना // 27 सर्वे स्कन्दग्रहा नाम ज्ञेया नित्यं शरीरिभिः // 42 अदितिं रेवतीं प्राहुर्ग्रहस्तस्यास्तु रैवतः / तेषां प्रशमनं कार्य स्नानं धूपमथाञ्जनम् / सोऽपि बालाशिशून्घोरो बाधते वै महाग्रहः॥२८ बलिकर्मोपहारश्च स्कन्दस्येज्या विशेषतः // 43 दैत्यानां या दितिर्माता तामाहुर्मुखमण्डिकाम्। एवमेतेऽर्चिताः सर्वे प्रयच्छन्ति शुभं नृणाम् / अत्यर्थं शिशुमांसेन संप्रहृष्टा दुरासदा // 29 आयुर्वीयं च राजेन्द्र सम्यक्पूजानमस्कृताः // 44 कुमाराश्च कुमार्यश्च ये प्रोक्ताः स्कन्दसंभवाः / ऊर्ध्वं तु षोडशाद्वर्षाद्ये भवन्ति ग्रहा नृणाम् / तेऽपि गर्भभुजः सर्वे कौरव्य सुमहाग्रहाः // 30 / तानहं संप्रवक्ष्यामि नमस्कृत्य महेश्वरम् / / 45 तासामेव कुमारीणां पतयस्ते प्रकीर्तिताः / | यः पश्यति नरो देवाञ्जाग्रद्वा शयितोऽपि वा। अज्ञायमाना गृह्णन्ति बालकान्रौद्रकर्मिणः // 31 / / उन्माद्यति स तु क्षिप्रं तं तु देवग्रहं विदुः॥ 46 -694
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________________ 3. 219. 47 ] आरण्यकपर्व [3. 220. 14 आसीनश्च शयानश्च यः पश्यति नरः पितॄन् / इच्छाम्यहं त्वया दत्तां प्रीतिं परमदुर्लभाम् / उन्माद्यति स तु क्षिप्रं स ज्ञेयस्तु पितृग्रहः // 47 तामब्रवीत्ततः स्कन्दः प्रीतिमिच्छसि कीदृशीम् // 2 अवमन्यति यः सिद्धान्क्रुद्धाश्चापि शपन्ति यम् / स्वाहोवाच / उन्माद्यति स तु क्षिप्रं ज्ञेयः सिद्धग्रहस्तु सः॥४८ दक्षस्याहं प्रिया कन्या स्वाहा नाम महाभुज / उपाघ्राति च यो गन्धारसांश्चापि पृथग्विधान् / बाल्यात्प्रभति नित्यं च जातकामा हुताशने // 3 उन्माद्यति स तु क्षिप्रं स ज्ञेयो राक्षसो ग्रहः // 49 न च मां कामिनी पुत्र सम्यग्जानाति पावकः / गन्धर्वाश्चापि यं दिव्याः संस्पृशन्ति नरं भुवि।। इच्छामि शाश्वतं वासं वस्तुं पुत्र सहाग्निना // 4 उन्माद्यति स तु क्षिप्रं ग्रहो गान्धर्व एव सः॥ 50 स्कन्द उवाच / आविशन्ति च यं यक्षाः पुरुषं कालपर्यये। हव्यं कव्यं च यत्किंचिहिजा मत्रपुरस्कृतम् / उन्माद्यति स तु क्षिप्रं ज्ञेयो यक्षग्रहस्तु सः॥ 51 होष्यन्त्यग्नौ सदा देवि स्वाहेत्युक्त्वा समुद्यतम्॥५ अधिरोहन्ति यं नित्यं पिशाचाः पुरुषं कचित् / अद्यप्रभृति दास्यन्ति सुवृत्ताः सत्पथे स्थिताः / उन्माद्यति स तु क्षिप्रं पैशाचं तं ग्रहं विदुः // 52 एवमग्निस्त्वया साधं सदा वत्स्यति शोभने // 6 यस्य दोषैः प्रकुपितं चित्तं मुह्यति देहिनः / मार्कण्डेय उवाच। उन्माद्यति स तु क्षिप्रं साधनं तस्य शास्त्रतः // 53 एवमुक्ता ततः स्वाहा तुष्टा स्कन्देन पूजिता / वैक्लव्याञ्च भयाञ्चैव घोराणां चापि दर्शनात् / पावकेन समायुक्ता भ; स्कन्दमपूजयत् // 7 उन्माद्यति स तु क्षिप्रं सत्त्वं तस्य तु साधनम् // 54 ततो ब्रह्मा महासेनं प्रजापतिरथाब्रवीत् / कश्चित्क्रीडितुकामो वै भोक्तुकामस्तथापरः। अभिगच्छ महादेवं पितरं त्रिपुरार्दनम् / / 8 अभिकामस्तथैवान्य इत्येष त्रिविधो ग्रहः // 55 रुद्रेणाग्निं समाविश्य स्वाहामाविश्य चोमया। यावत्सप्ततिवर्षाणि भवन्त्येते ग्रहा नृणाम् / हितार्थं सर्वलोकानां जातस्त्वमपराजितः // 9 अतः परं देहिनां तु ग्रहतुल्यो भवेज्वरः॥५६ उमायोन्यां च रुद्रेण शुक्रं सिक्तं महात्मना। अप्रकीर्णेन्द्रियं दान्तं शुचिं नित्यमतन्द्रितम् / आस्ते गिरौ निपतितं मिञ्जिकामिञ्जिकं यतः॥ 10 आस्तिकं श्रद्दधानं च वर्जयन्ति सदा ग्रहाः॥ 57 संभूतं लोहितोदे तु शुक्रशेषमवापतत् / इत्येष ते ग्रहोदेशो मानुषाणां प्रकीर्तितः। सूर्यरश्मिषु चाप्यन्यदन्यञ्चैवापतद्भुवि / न स्पृशन्ति ग्रहा भक्तानरान्देवं महेश्वरम् / / 58 आसक्तमन्यदृश्लेषु तदेवं पञ्चधापतत् // 11 . इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि त एते विविधाकारा गणा ज्ञेया मनीषिभिः / एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२१९॥ तव पारिषदा घोरा य एते पिशिताशनाः // 12 एवमस्त्विति चाप्युक्त्वा महासेनो महेश्वरम् / मार्कण्डेय उवाच / अपूजयदमेयात्मा पितरं पितृवत्सलः // 13 यदा स्कन्देन मातृणामेवमेतत्प्रियं कृतम् / अर्कपुष्पैस्तु ते पञ्च गणाः पूज्या धनार्थिभिः / अथैनमब्रवीत्स्वाहा मम पुत्रस्त्वमौरसः / / 1 - व्याधिप्रशमनार्थं च तेषां पूजां समाचरेत् // 14 -695 -
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________________ 3. 220. 15 ] महाभारते [ 3. 221. 14 मिञ्जिकामिञ्जिकं चैव मिथुनं रुद्रसंभवम् / 221 नमस्कार्यं सदैवेह बालानां हितमिच्छता // 15 मार्कण्डेय उवाच / स्त्रियो मानुषमांसादा वृद्धिका नाम नामतः / यदाभिषिक्तो भगवान्सेनापत्येन पावकिः / वृक्षेषु जातास्ता देव्यो नमस्कार्याः प्रजार्थिभिः॥१६ तदा संप्रस्थितः श्रीमान्दृष्टो भद्रवटं हरः / एवमेते पिशाचानामसंख्येया गणाः स्मृताः। रथेनादित्यवर्णेन पार्वत्या सहितः प्रभुः // 1 घण्टायाः सपताकायाः शृणु मे संभवं नृप // 17 सहस्रं तस्य सिंहानां तस्मिन्युक्तं रथोत्तमे / ऐरावतस्य घण्टे द्वे वैजयन्त्याविति श्रुते / उत्पपात दिवं शुभ्रं कालेनाभिप्रचोदितः॥२ गुहस्य ते स्वयं दत्ते शक्रेणानाय्य धीमता // 18 ते पिबन्त इवाकाशं त्रासयन्तश्चराचरान् / एका तत्र विशाखस्य घण्टा स्कन्दस्य चापरा / सिंहा नभस्यगच्छन्त नदन्तश्चारुकेसराः // 3 तस्मिन्रथे पशुपतिः स्थितो भात्युमया सह। .. पताका कार्तिकेयस्य विशाखस्य च लोहिता॥१९ विद्युता सहितः सूर्यः सेन्द्रचापे घने यथा // 4 यानि क्रीडनकान्यस्य देवैर्दत्तानि वै तदा / अग्रतस्तस्य भगवान्धनेशो गुह्यकैः सह। तैरेव रमते देवो महासेनो महाबलः // 20 आस्थाय रुचिरं याति पुष्पकं नरवाहनः // 5 स संवृतः पिशाचानां गणैर्देवगणैस्तथा। ऐरावतं समास्थाय शक्रश्चापि सुरैः सह / शुशुभे काञ्चने शैले दीप्यमानः श्रिया वृतः॥२१ पृष्ठतोऽनुययौ यान्तं वरदं वृषभध्वजम् // 6 तेन वीरेण शुशुभे स शैलः शुभकाननः / जम्भकैर्यक्षरक्षोभिः स्रग्विभिः समलंकृतः / आदित्येनेवांशुमता मन्दरश्चारुकन्दरः / / 22 यात्यमोघो महायक्षो दक्षिणं पक्षमास्थितः॥७ संतानकवनैः फुल्लैः करवीरवनैरपि / तस्य दक्षिणतो देवा मरुतश्चित्रयोधिनः / पारिजातवनैश्चैव जपाशोकवनस्तथा॥ 23 गच्छन्ति वसुभिः सार्धं रुद्रैश्च सह संगताः॥ 8 कदम्बतरुषण्डैश्च दिव्यैर्मृगगणैरपि / यमश्च मृत्युना सार्धं सर्वतः परिवारितः / दिव्यैः पक्षिगणैश्चैव शुशुभे श्वेतपर्वतः // 24 घोरैर्व्याधिशतैर्याति घोररूपवपुस्तथा // 9 तत्र देवगणाः सर्वे सर्वे चैव महर्षयः / यमस्य पृष्ठतश्चैव घोरखिशिखरः शितः / विजयो नाम रुद्रस्य याति शूल: स्वलंकृतः // 10 मेघतूर्यरवाश्चैव क्षुब्धोदधिसमस्वनाः // 25 तमुग्रपाशो वरुणो भगवान्सलिलेश्वरः / तत्र दिव्याश्च गन्धर्वा नृत्यन्त्यप्सरसस्तथा / परिवार्य शनैर्याति यादोभिर्विविधैर्वृतः // 11 हृष्टानां श्रूतत्र भूतानां यते निनदो महान् // 26 पृष्ठतो विजयस्यापि याति रुद्रस्य पट्टिशः / एवं सेन्द्रं जगत्सर्वं श्वेतपर्वतसंस्थितम् / गदामुसलशक्त्याद्यवृतः प्रहरणोत्तमैः // 12 प्रहृष्टं प्रेक्षते स्कन्दं न च ग्लायति दर्शनात् // 27 / पट्टिशं त्वन्वगाद्राजंछत्रं रौद्रं महाप्रभम्। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि कमण्डलुश्चाप्यनु तं महर्षिगणसंवृतः // 13 विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 220 // / तस्य दक्षिणतो भाति दण्डो गच्छश्रिया वृतः। - 696 -
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________________ 3. 221. 14] आरण्यकपर्व [3. 221. 39 भृग्वङ्गिरोभिः सहितो देवश्चाप्यभिपूजितः // 14 स्कन्द उवाच / एषां तु पृष्ठतो रुद्रो विमले स्यन्दने स्थितः / सप्तमं मारुतस्कन्धं पालयिष्याम्यहं प्रभो। याति संहर्षयन्सर्वांस्तेजसा त्रिदिवौकसः // 15 यदन्यदपि मे कार्य देव तद्वद माचिरम् // 27 ऋषयश्चैव देवाश्च गन्धर्वा भुजगास्तथा / रुद्र उवाच / नद्यो नदा द्रुमाश्चैव तथैवाप्सरसां गणाः // 16 कार्येष्वहं त्वया पुत्र संद्रष्टव्यः सदैव हि / नक्षत्राणि ग्रहाश्चैव देवानां शिशवश्च ये। दर्शनान्मम भक्त्या च श्रेयः परमवाप्स्यसि // 28 स्त्रियश्च विविधाकारा यान्ति रुद्रस्य पृष्ठतः / मार्कण्डेय उवाच / सजन्यः पुष्पवर्षाणि चारुरूपा वराङ्गनाः / / 17 इत्युक्त्वा विससर्जनं परिष्वज्य महेश्वरः / पर्जन्यश्चाप्यनुययौ नमस्कृत्य पिनाकिनम् / विसर्जिते ततः स्कन्दे बभूवौत्पातिकं महत् / छत्रं तु पाण्डुरं सोमस्तस्य मूर्धन्यधारयत्। . सहसैव महाराज देवान्सर्वान्प्रमोहयत् // 29 चामरे चापि वायुश्च गृहीत्वाग्निश्च विष्ठितौ // 18 जज्वाल खं सनक्षत्रं प्रमूढं भुवनं भृशम् / शक्रश्च पृष्ठतस्तस्य याति राजश्रिया वृतः / चचाल व्यनदच्चोर्वी तमोभूतं जगत्प्रभो // 30 सह राजर्षिभिः सर्वैः स्तुवानो वृषकेतनम् // 19 ततस्तद्दारुणं दृष्ट्वा क्षुभितः शंकरस्तदा / गौरी विद्याथ गान्धारी केशिनी मित्रसाह्वया / उमा चैव महाभागा देवाश्च समहर्षयः // 31 सावित्र्या सह सर्वास्ताः पार्वत्या यान्ति पृष्ठतः॥२० ततस्तेषु प्रमूढेषु पर्वताम्बुदसंनिभम् / नानाप्रहरणं घोरमदृश्यत महद्वलम् // 32 तत्र विद्यागणाः सर्वे ये केचित्कविभिः कृताः / तद्धि घोरमसंख्येयं गर्जच विविधा गिरः / यस्य कुर्वन्ति वचनं सेन्द्रा देवाश्चमूमुखे // 21 अभ्यद्रवद्रणे देवान्भगवन्तं च शंकरम् // 33 स गृहीत्वा पताकां तु यात्यग्रे राक्षसो ग्रहः / तैर्विसृष्टान्यनीकेषु बाणजालान्यनेकशः / व्यापृतस्तु श्मशाने यो नित्यं रुद्रस्य वै सखा / पर्वताश्च शतघ्यश्च प्रासाश्च परिघा गदाः // 34 पिङ्गली नाम यक्षेन्द्रो लोकस्यानन्ददायकः // 22 निपतद्भिश्च तैोरैर्देवानीकं महायुधैः / एभिः स सहितस्तत्र ययौ देवो यथासुखम् / क्षणेन व्यद्रवत्सर्व विमुखं चाप्यदृश्यत // 35 / अप्रतः पृष्ठतश्चैव न हि तस्य गतिधुंवा // 23 निकृत्तयोधनागाश्वं कृत्तायुधमहारथम् / रुद्रं सत्कर्मभिर्माः पूजयन्तीह दैवतम् / दानवैरर्दितं सैन्यं देवानां विमुखं बभौ // 36 शिवमित्येव यं प्राहुरीशं रुद्रं पिनाकिनम् / असुरैर्वध्यमानं तत्पावकैरिव काननम् / भावैस्तु विविधाकारैः पूजयन्ति महेश्वरम् / / 24 अपतहग्धभूयिष्ठं महाद्रुमवनं यथा // 37 देवसेनापतिस्त्वेवं देवसेनाभिरावृतः / ते विभिन्न शिरोदेहाः प्रच्यवन्ते दिवौकसः / अनुगच्छति देवेशं ब्रह्मण्यः कृत्तिकासुतः // 25 / न नाथमध्यगच्छन्त वध्यमाना महारणे // 38 अथाब्रवीन्महासेनं महादेवो बृहद्वचः / अथ तद्विद्रुतं सैन्यं दृष्ट्वा देवः पुरंदरः। सप्तमं मारुतस्कन्धं रक्ष नित्यमतन्द्रितः // 26 / आश्वासयन्नुवाचेदं बलवदानवादितम् // 39 . म.भा. 88 -697
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________________ 3. 221. 40], महाभारते [ 3. 221. 68 भयं त्यजत भद्रं वः शूराः शस्त्राणि गृह्णतः। भीमरूपेण निहतमयुतं प्रापतद्भुवि // 54 कुरुध्वं विक्रमे बुद्धिं मा वः काचिद्व्यथा भवेत्॥४० अथ तैर्दानवैः सार्धं महिषस्त्रासयन्सुरान् / जयतैनान्सुदुर्वृत्तान्दानवान्घोरदर्शनान् / अभ्यद्रवद्रणे तूर्णं सिंहः क्षुद्रमृगानिव // 55 अभिद्रवत भद्रं वो मया सह महासुरान् // 41 तमापतन्तं महिषं दृष्ट्वा सेन्द्रा दिवौकसः / शक्रस्य वचनं श्रुत्वा समाश्वस्ता दिवौकसः। व्यद्रवन्त रणे भीता विशीर्णायुधकेतनाः॥ 56 दानवान्प्रत्ययुध्यन्त शक्रं कृत्वा व्यपाश्रयम् // 42 ततः स महिषः क्रुद्धस्तूर्णं रुद्ररथं ययौ। . ततस्ते त्रिदशाः सर्वे मरुतश्च महाबलाः / अभिद्रुत्य च जग्राह रुद्रस्य रथकूबरम् // 57 प्रत्युद्ययुर्महावेगाः साध्याश्च वसुभिः सह // 43 यदा रुद्ररथं क्रुद्धो महिषः सहसा गतः। तैर्विसृष्टान्यनीकेषु क्रुद्धैः शस्त्राणि संयुगे / रेसतू रोदसी गाढं मुमुहुश्च महर्षयः // 58 शराश्च दैत्यकायेषु पिबन्ति स्मासुगुल्बणम् // 44 व्यनदंश्च महाकाया दैत्या जलधरोपमाः। . तेषां देहान्विनिर्भिद्य शरास्ते निशितास्तदा। आसीच्च निश्चितं तेषां जितमस्माभिरित्युत // 59 निष्पतन्तो अदृश्यन्त नगेभ्य इव पन्नगाः // 45 तथाभूते तु भगवान्नावधीन्महिषं रणे / तानि दैत्यशरीराणि निर्भिन्नानि स्म सायकैः। सस्मार च तदा स्कन्दं मृत्युं तस्य दुरात्मनः॥ 60 अपतन्भूतले राजश्छिन्नाभ्राणीव सर्वशः // 46 महिषोऽपि रथं दृष्ट्वा रौद्रं रुद्रस्य नानदत् / ततस्तद्दानवं सैन्यं सर्वैर्देवगणैर्युधि / देवान्संत्रासयंश्चापि दैत्यांश्चापि प्रहर्षयन् // 61 त्रासितं विविधैर्बाणैः कृतं चैव पराङ्मुखम् // 47 ततस्तस्मिन्भये घोरे देवानां समुपस्थिते / अथोत्क्रुष्टं तदा हृष्टैः सर्वैर्देवैरुदायुधैः / आजगाम महासेनः क्रोधात्सूर्य इव ज्वलन् // 62 संहतानि च तूर्याणि तदा सर्वाण्यनेकशः // 48 लोहिताम्बरसंवीतो लोहितस्रग्विभूषणः / एवमन्योन्यसंयुक्तं युद्धमासीत्सुदारुणम् / लोहितास्यो महाबाहुर्हिरण्यकवचः प्रभुः // 63 देवानां दानवानां च मांसशोणितकर्दमम् // 49 / रथमादित्यसंकाशमास्थितः कनकप्रभम् / अनयो देवलोकस्य सहसैव व्यदृश्यत / तं दृष्ट्वा दैत्यसेना सा व्यंद्रवत्सहसा रणे // 64 तथा हि दानवा घोरा विनिम्नन्ति दिवौकसः॥५० स चापि तां प्रज्वलितां महिषस्य विदारिणीम् / ततस्तूर्यप्रणादाश्च भेरीणां च महास्वनाः / मुमोच शक्तिं राजेन्द्र महासेनो महाबलः / / 65 बभूवुर्दानवेन्द्राणां सिंहनादाश्च दारुणाः // 51 सा मुक्ताभ्यहनच्छक्तिर्महिषस्य शिरो महत् / अथ दैत्यबलाद्वोरान्निष्पपात महाबलः / पपात भिन्ने शिरसि महिषस्त्यक्तजीवितः / / 66 दानवो महिषो नाम प्रगृह्य विपुलं गिरिम् // 52 क्षिप्ताक्षिप्ता तु सा शक्तिर्हत्वा शत्रून्सहस्रशः / ते तं घनैरिवादित्यं दृष्ट्वा संपरिवारितम् / स्कन्दहस्तमनुप्राप्ता दृश्यते देवदानवैः // 67 समुद्यतगिरिं राजन्व्यद्रवन्त दिवौकसः // 53 प्रायः शरैर्विनिहता महासेनेन धीमता / अथाभिद्रुत्य महिषो देवांश्चिक्षेप तं गिरिम् / शेषा दैत्यगणा घोरा भीतास्त्रस्ता दुरासदैः / पतता तेन गिरिणा देवसैन्यस्य पार्थिव / / स्कन्दस्य पार्षदैर्ह त्वा भक्षिताः शतसंघशः॥ 68 -698 -
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________________ 3. 221. 69 ] आरण्यकपर्व [ 3. 222. 13 दानवान्भक्षयन्तस्ते प्रपिबन्तश्च शोणितम् / 222 क्षणान्निर्दानवं सर्वमकार्षर्भशहर्षिताः // 69 वैशंपायन उवाच / तमांसीव यथा सूर्यो वृक्षानग्निर्घनान्खगः / उपासीनेषु विप्रेषु पाण्डवेषु महात्मसु / तथा स्कन्दोऽजयच्छत्रून्स्वेन वीर्येण कीर्तिमान् 70 द्रौपदी सत्यभामा च विविशाते तदा समम् / संपूज्यमानस्त्रिदशैरभिवाद्य महेश्वरम् / जाहस्यमाने सुप्रीते सुखं तत्र निषीदतुः // 1 शुशुभे कृत्तिकापुत्रः प्रकीर्णांशुरिवांशुमान् / / 71 / / चिरस्य दृष्ट्वा राजेन्द्र तेऽन्योन्यस्य प्रियंवदे। नष्टशत्रुर्यदा स्कन्दः प्रयातश्च महेश्वरम् / कथयामासतुश्चित्राः कथाः कुरुयदुक्षिताम् // 2 अथाब्रवीन्महासेनं परिष्वज्य पुरंदरः / / 72 अथाब्रवीत्सत्यभामा कृष्णस्य महिषी प्रिया / ब्रह्मदत्तवरः स्कन्द त्वयायं महिषो हतः।। सात्राजिती याज्ञसेनी रहसीदं सुमध्यमा // 3 देवास्तृणमया यस्य बभूवुर्जयतां वर / केन द्रौपदि वृत्तेन पाण्डवानुपतिष्ठसि / सोऽयं त्वया महाबाहो शमितो देवकण्टकः // 73 लोकपालोपमान्वीरान्यूनः परमसंमतान् / शतं महिषतुल्यानां दानवानां त्वया रणे। कथं च वशगास्तुभ्यं न कुप्यन्ति च ते शुभे // 4 निहतं देवशत्रूणां यैर्वयं पूर्वतापिताः // 74 तव वश्या हि सततं पाण्डवाः प्रियदर्शने / मुखप्रेक्षाश्च ते सर्वे तत्त्वमेतद्भवीहि मे // 5 तावकैक्षिताश्चान्ये दानवाः शतसंघशः / व्रतचर्या तपो वापि स्नानमत्रौषधानि वा। अजेयस्त्वं रणेऽरीणामुमापतिरिव प्रभुः // 75 विद्यावीयं मूलवीर्यं जपहोमस्तथागदाः // 6 एतत्ते प्रथमं देव ख्यातं कर्म भविष्यति / मम आचक्ष्व पाश्चालि यशस्यं भगवेदनम् / त्रिषु लोकेषु कीर्तिश्च तवाक्षय्या भविष्यति / येन कृष्णे भवेन्नित्यं मम कृष्णो वशानुगः // 7 वशगाश्च भविष्यन्ति सुरास्तव सुरात्मज // 76 एवमुक्त्वा सत्यभामा विरराम यशस्विनी / महासेनेत्येवमुक्त्वा निवृत्तः सह दैवतैः / पतिव्रता महाभागा द्रौपदी प्रत्युवाच ताम् / / 8 अनुज्ञातो भगवता त्र्यम्बकेन शचीपतिः // 77 असत्स्त्रीणां समाचारं सत्ये मामनुपृच्छसि / गतो भद्रवटं रुद्रो निवृत्ताश्च दिवौकसः / असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम् // 9 उक्ताश्च देवा रुद्रेण स्कन्दं पश्यत मामिव / / 78 अनुप्रश्नः संशयो वा नैतत्त्वय्युपपद्यते / स हत्वा दानवगणान्पूज्यमानो महर्षिभिः / / तथा ह्युपेता बुद्ध्या त्वं कृष्णस्य महिषी प्रिया॥१० एकाद्वैवाजयत्सर्वं त्रैलोक्यं वह्निनन्दनः // 79 / यदैव भर्ता जानीयान्मत्रमूलपरां स्त्रियम् / स्कन्दस्य य इदं जन्म पठते सुसमाहितः / उद्विजेत तदैवास्याः सर्पाद्वेश्मगतादिव / / 11 स पुष्टिमिह संप्राप्य स्कन्दसालोक्यतामियात्॥८० उद्विग्नस्य कुतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि न जातु वशगो भर्ता स्त्रियाः स्यान्मन्त्रकारणात्॥ 12 एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 221 // अमित्रप्रहितांश्चापि गदान्परमदारुणान् / ' समाप्तं मार्कण्डेयसमास्यापर्व // . / मूलप्रवादैर्हि विषं प्रयच्छन्ति जिघांसवः // 13 -699 -
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________________ 3. 222. 24 ] महाभारते [ 3. 222. 42 जिह्वया यानि पुरुषस्त्वचा वाप्युपसेवते। सर्वथा भर्तृरहितं न ममेष्टं कथंचन // 28 तत्र चूर्णानि दत्तानि हन्युः क्षिप्रमसंशयम् // 14 यदा प्रवसते भर्ता कुटुम्बार्थेन केनचित् / जलोदरसमायुक्ताः श्वित्रिणः पलितास्तथा। सुमनोवर्णकापेता भवामि व्रतचारिणी // 29 भपुमांसः कृताः स्त्रीमिर्जडान्धबधिरास्तथा // 15 यच्च भर्ता न पिबति यच्च भर्ता न खादति / पापानुगास्तु पापास्ताः पतीनुपसृजन्त्युत / यञ्च नानाति मे भर्ता सर्वं तद्वर्जयाम्यहम् // 3. न जातु विप्रियं भर्तुः स्त्रिया कार्य कथंचन // 16 यथोपदेशं नियता वर्तमाना वराङ्गने। .. वर्ताम्यहं तु यां वृत्तिं पाण्डवेषु महात्मसु / स्वलंकृता सुप्रयता भर्तुः प्रियहिते रता / / 31 . तां सर्वां शृणु मे सत्यां सत्यभामे यशस्विनि // 17 ये च धर्माः कुटुम्बेषु श्वश्र्वा मे कथिताः पुरा / अहंकारं विहायाहं कामक्रौधौ च सर्वदा / भिक्षाबलिश्राद्धमिति स्थालीपाकाश्च पर्वसु / सदारान्पाण्डवान्नित्यं प्रयतोपचराम्यहम् // 18 मान्यानां मानसत्कारा ये चान्ये विदिता मया // 32 प्रणयं प्रतिसंगृह्य निधायात्मानमात्मनि / तान्सर्वाननुवामि दिवारानमतन्द्रिता / शुश्रूषुर्निरभीमाना पतीनां चित्तरक्षिणी // 19 विनयान्नियमांश्चापि सदा सर्वात्मना श्रिता // 33 दुर्व्याहृताच्छङ्कमाना दुःस्थिताहुरवेक्षितात् / मृदून्सतः सत्यशीलान्सत्यधर्मानुपालिनः / दुरासिताहुव्रजितादिङ्गिताध्यासितादपि // 20 आशीविषानिव क्रुद्धान्पतीन्परिचराम्यहम् // 34 सूर्यवैश्वानरनिभान्सोमकल्पान्महारथान् / पत्याश्रयो हि मे धर्मो मतः स्त्रीणां सनातनः / सेवे चक्षुहणः पार्थानुग्रतेजःप्रतापिनः // 21 स देवः सा गतिर्नान्या तस्य का विप्रियं चरेत्॥३५ देवो मनुष्यो गन्धर्वो युवा चापि स्वलंकृतः / अहं पतीन्नातिशये नात्यने नातिभूषये। द्रव्यवानभिरूपो वा न मेऽन्यः पुरुषो मतः॥२२ नापि परिवदे श्वश्रृं सर्वदा परियन्त्रिता // 36 नाभुक्तवति नास्नाते नासंविष्टे च भर्तरि / . अवधानेन सुभगे नित्योत्थानतयैव च / न संविशामि नाश्नामि सदा कर्मकरेष्वपि // 23 भर्तारो वशगा मह्यं गुरुशुश्रूषणेन च // 37 क्षेत्राद्वनाद्वा ग्रामाद्वा भर्तारं गृहमागतम्। नित्यमार्यामहं कुन्तीं वीरतूं सत्यवादिनीम् / प्रत्युत्थायामिनन्दामि आसनेनोदकेन च // 24 स्वयं परिचराम्येका स्नानाच्छादनभोजनैः // 38 प्रमृष्टभाण्डा मृष्टान्ना काले भोजनदायिनी / नैतामतिशये जातु वस्त्रभूषणभोजनैः / संयता गुप्तधान्या च सुसंमृष्टनिवेशना // 25 नापि परिवदे चाहं तां पृथां पृथिवीसमाम् // 39 अतिरस्कृतसंभाषा दुःस्त्रियो नानुसेवती / अष्टावग्रे ब्राह्मणानां सहस्राणि स्म नित्यदा / अनुकूलवती नित्यं भवाम्यनलसा सदा // 26 भुञ्जते रुक्मपात्रीषु युधिष्ठिरनिवेशने // 40 अनमें चापि हसनं द्वारि स्थानमभीक्ष्णशः / अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातका गृहमेधिनः। अवस्करे चिरस्थानं निष्कुटेषु च वर्जये // 27 त्रिंशदासीक एकैको यान्बिभर्ति युधिष्ठिरः // 41 अतिहासातिरोषौ च क्रोधस्थानं च वर्जये। दशान्यानि सहस्राणि येषामन्नं सुसंस्कृतम् / निरताहं सदा सत्ये भर्तृणामुपसेवने / ह्रियते रुक्मपात्रीभिर्यतीनामूर्ध्वरेतसाम् // 42 -700 - ना
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________________ 3. 222. 43] आरण्यकपर्व [ 3. 223.8; तान्सर्वानप्रहारेण ब्राह्मणान्ब्रह्मवादिनः / तच्छ्रुत्वा धर्मसहितं व्याहृतं कृष्णया तदा / यथाहं पूजयामि स्म पानाच्छादनभोजनः // 13 उवाच सत्या सत्कृत्य पाञ्चालीं धर्मचारिणीम् / / 58 शतं दासीसहस्राणि कौन्तेयस्य महात्मनः। अभिपन्नास्मि पाञ्चालि याज्ञसेनि क्षमस्व मे / कम्वुकेयरधारिण्यो निष्ककण्ठ्यः स्खलंकृताः॥४४ कामकारः सखीनां हि सोपहासं प्रभाषितुम् / / 59 महार्हमाल्याभरणाः सुवर्णाश्चन्दनोक्षिताः / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि मणीन्हेम च बिभ्रत्यो नृत्यगीतविशारदाः // 45 द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 222 // तासां नाम च रूपं च भोजनाच्छादनानि च / 223 सर्वासामेव वेदाहं कर्म चैव कृताकृतम् // 46 द्रौपद्युवाच। शतं दासीसहस्राणि कुन्तीपुत्रस्य धीमतः। . इमं तु ते मार्गमपेतदोषं पात्रीहस्ता दिवारात्रमतिथीभोजयन्त्युत // 47 वक्ष्यामि चित्तग्रहणाय भर्तुः। .. शतमश्वसहस्राणि दश नागायुतानि च। यस्मिन्यथावत्सखि वर्तमाना युधिष्ठिरस्यानुयात्रमिन्द्रप्रस्थनिवासिनः // 48 __ भर्तारमाच्छेत्स्यसि कामिनीभ्यः // 1 एतदासीत्तदा राज्ञो यन्महीं पर्यपालयत् / नैतादृशं दैवतमस्ति सत्ये येषां संख्याविधिं चैव प्रदिशामि शृणोमि च // 49 सर्वेषु लोकेषु सदैवतेषु। अन्तःपुराणां सर्वेषां भृत्यानां चैव सर्वशः / यथा पतिस्तस्य हि सर्वकामा आ गोपालाविपालेभ्यः सर्वं वेद कृताकृतम्॥५० लभ्याः प्रसादे कुपितश्च हन्यात् // 2 सर्व राज्ञः समुदयमायं च व्ययमेव च / एकाहं वेद्मि कल्याणि पाण्डवानां यशस्विनाम्॥ 51 तस्मादपत्यं विविधाश्च भोगाः शय्यासनान्या मयि सर्व समासज्य कुटुम्बं भरतर्षभाः।।. उपासनरताः सर्वे घटन्ते स्म शुभानने // 52 वस्त्राणि माल्यानि तथैव गन्धाः तमहं भारमासक्तमनाधृष्यं दुरात्ममिः। स्वर्गश्च लोको विषमा च कीर्तिः // 3 सुखं सर्व परित्यज्य राज्यहानि घटामि वै // 53 सुखं सुखेनेह न जातु लभ्यं अधृष्यं वरुणस्येव निधिपूर्णमिवोदधिम् / दुःखेन साध्वी लभते सुखानि। . एकाहं वेद्मि कोशं वै पतीनां धर्मचारिणाम्॥५४ सा कृष्णमाराधय सौहृदेन अनिशायां निशायां च सहायाः क्षुत्पिपासयोः / - प्रेम्णा च नित्यं प्रतिकर्मणा च // 4. आराधयन्त्याः कौरव्यांस्तुल्या रात्रिरहश्च मे // 55 तथाशनैश्चारुभिरग्र्यमाल्यैप्रथमं प्रतिबुध्यामि चरमं संविशामि च / र्दाक्षिण्ययोगैर्विविधैश्च गन्धैः। नित्यकालमहं सत्ये एतत्संवननं मम / / 56 / अस्याः प्रियोऽस्मीति यथा विदित्वा एतज्जानाम्यहं कर्तुं भर्तृसंवननं महत् / / त्वामेव संश्लिष्यति सर्वभावैः // 5 असत्स्त्रीणां समाचारं नाहं कुर्यां न कामये॥५७ / / श्रुत्वा स्वरं द्वारगतस्य भर्तुः -701 -
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________________ 8. 223. 6] महाभारते [ 3. 224. 14 प्रत्युत्थिता तिष्ठ गृहस्य मध्ये। 224 दृष्ट्वा प्रविष्टं त्वरितासनेन वैशंपायन उवाच। पायेन चैव प्रतिपूजय त्वम् // 6 मार्कण्डेयादिभिर्विप्रैः पाण्डवैश्च महात्मभिः। संप्रेषितायामथ चैव दास्या कथाभिरनुकूलाभिः सहासित्वा जनार्दनः // 1 मुत्थाय सर्वं स्वयमेव कुर्याः / ततस्तैः संविदं कृत्वा यथावन्मधुसूदनः। जानातु कृष्णस्तव भावमेतं आरुरुक्ष रथं सत्यामाह्वयामास केशवः // 2 . सर्वात्मना मां भजतीति सत्ये // 7 सत्यभामा ततस्तत्र स्वजित्वा द्रुपदात्मजाम् / त्वत्संनिधौ यत्कथयेत्पतिस्ते उवाच वचनं हृद्यं यथाभावसमाहितम् // 3 कृष्णे मा भूत्तवोत्कण्ठा मा व्यथा मा प्रजागरः / यद्यप्यगुह्यं परिरक्षितव्यम् / भर्तृभिर्देवसंकाशैर्जितां प्राप्स्यसि मेदिनीम् // 4 काचित्सपत्नी तव वासुदेवं न ह्येवं शीलसंपन्ना नैवं पूजितलक्षणाः / प्रत्यादिशेत्तेन भवेद्विरागः // 8 प्राप्नुवन्ति चिरं क्लेशं यथा त्वमसितेक्षणे // 5 प्रियांश्च रक्तांश्च हितांश्च भर्तु अवश्यं च त्वया भूमिरियं निहतकण्टका / ___ स्तान्भोजयेथा विविधैरुपायैः / भर्तृभिः सह भोक्तव्या निर्द्वद्वेति श्रुतं मया // 6 द्वेष्यैरपक्षैरहितैश्च तस्य धार्तराष्ट्रवधं कृत्वा वैराणि प्रतियात्य च / मिद्यस्व नित्यं कुहकोद्धतैश्च // 9 युधिष्ठिरस्थां पृथिवीं द्रष्टासि द्रुपदात्मजे॥७ मदं प्रमादं पुरुषेषु हित्वा यास्ताः प्रव्राजमानां त्वां प्राहसन्दर्पमोहिताः / ___ संयच्छ भावं प्रतिगृह्य मौनम् / ताः क्षिप्रं हतसंकल्पा द्रक्ष्यसि त्वं कुरुस्त्रियः॥८ प्रद्युम्नसाम्बावपि ते कुमारी तव दुःखोपपन्नाया थैराचरितमप्रियम् / नोपासितव्यौ रहिते कदाचित् // 10 विद्धि संप्रस्थितान्सर्वांस्तान्कृष्णे यमसादनम् // 9 महाकुलीनाभिरपापिकाभिः पुत्रस्ते प्रतिविन्ध्यश्च सुतसोमस्तथा विभुः / स्त्रीभिः सतीभिस्तव सख्यमस्तु / श्रुतकर्मार्जुनिश्चैव शतानीकश्च नाकुलिः / चण्डाश्च शौण्डाश्च महाशनाश्च सहदेवाच्च यो जातः श्रुतसेनस्तवात्मजः // 10 चौराश्च दुष्टाश्चपलाश्च वाः॥ 11 सर्वे कुशलिनो वीराः कृतास्त्राश्च सुतास्तव / एतद्यशस्यं भगवेदनं च अभिमन्युरिव प्रीता द्वारवत्यां रता भृशम् // 11 स्वयं तथा शत्रुनिबर्हणं च। त्वमिवैषां सुभद्रा च प्रीत्या सर्वात्मना स्थिता / महार्हमाल्याभरणाङ्गरागा प्रीयते भावनिद्वा तेभ्यश्च विगतज्वरा // 12 भर्तारमाराधय पुण्यगन्धा // 12 भेजे सर्वात्मना चैव प्रद्युम्नजननी तथा। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि भानुप्रभृतिभिश्चैनान्विशिनष्टि च केशवः // 13 त्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 223 // | भोजनाच्छादने चेषां नित्यं मे श्वशुरः स्थितः। -702 -
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________________ 3. 224. 14 ] आरण्यकपर्व [3. 225. 12 225 रामप्रभृतयः सर्वे भजन्त्यन्धकवृष्णयः / अथोपविष्टः प्रतिसत्कृतश्च तुल्यो हि प्रणयस्तेषां प्रद्युम्नस्य च भामिनि // 14 ___ वृद्धेन राज्ञा कुरुसत्तमेन / एवमादि प्रियं प्रीत्या हृद्यमुक्त्वा मनोनुगम् / प्रचोदितः सन्कथयांबभूव गमनाय मनश्चक्रे वासुदेवरथं प्रति // 15 धर्मानिलेन्द्रप्रभवान्यमौ च // 5 तां कृष्णां कृष्णमहिषी चकाराभिप्रदक्षिणम् / कृशांश्च वातातपकर्शिताङ्गाआरोह रथं शौरेः सत्यभामा च भामिनी॥१६ न्दुःखस्य चोग्रस्य मुखे प्रपन्नान् / स्मयित्वा तु यदुश्रेष्ठो द्रौपदी परिसान्त्व्य च / तां चाप्यनाथामिव वीरनाथां उपावर्त्य ततः शीघैर्हयैः प्रायात्परंतपः // 17 ___ कृष्णां परिक्लेशगुणेन युक्ताम् // 6 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततः कथां तस्य निशम्य राजा चतुर्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 224 // ___ वैचित्रवीर्यः कृपयाभितप्तः / / समाप्तं द्रौपदीसत्यभामासंवादपर्व // वने स्थितान्पार्थिवपुत्रपौत्रा श्रुत्वा तदा दुःखनदी प्रपन्नान् // 7 जनमेजय उवाच / प्रोवाच दैन्याभिहतान्तरात्मा एवं वने वर्तमाना नराग्र्याः निःश्वासबाष्पोपहतः स पार्थान् / ___ शीतोष्णवातातपकर्शिताङ्गाः। वाचं कथंचित्स्थिरतामुपेत्य सरस्तदासाद्य वनं च पुण्यं - तत्सर्वमात्मप्रभवं विचिन्त्य // 8 ततः परं किमकुर्वन्त पार्थाः॥१ कथं नु सत्यः शुचिरार्यवृत्तो वैशंपायन उवाच / ज्येष्ठः सुतानां मम धर्मराजः / सरस्तदासाद्य तु पाण्डुपुत्रा अजातशत्रुः पृथिवीतलस्थः ... जनं समुत्सृज्य विधाय चैषाम् / शेते पुरा राङ्कवकूटशायी // 9 वनानि रम्याण्यथ पर्वतांश्च प्रबोध्यते मागधसूतपूगैनदीप्रदेशांश्च तदा विचेरुः // 2 नित्यं स्तुवद्भिः स्वयमिन्द्रकल्पः / तथा वने तान्वसतः प्रवीरा पतत्रिसंधैः स जघन्यरात्रे स्वाध्यायवन्तश्च तपोधनाश्च। प्रबोध्यते नूनमिडातलस्थः // 10 अभ्याययुर्वेदविदः पुराणा कथं नु वातातपकर्शिताङ्गो स्तान्पूजयामासुरथो नराग्र्याः // 3 वृकोदरः कोपपरिप्लुताङ्गः। ततः कदाचित्कुशलः कथासु शेते पृथिव्यामतथोचिताङ्गः विप्रोऽभ्यगच्छद्भुवि कौरवेयान् / कृष्णासमक्षं वसुधातलस्थः॥ 11 स तैः समेत्याथ यदृच्छयैव तथार्जुनः सुकुमारो मनस्वी . वैचित्रवीर्यं नृपमभ्यगच्छत् / / 4 वशे स्थितो धर्मसुतस्य राज्ञः। -703 -
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________________ 3. 225. 12] महाभारते [ 3. 225. 27 विदूयमानैरिव सर्वगात्रै गाण्डीवधन्वा च वृकोदरश्च ध्रुवं न शेते वसतीरमर्षात् // 12 संरम्भिणावन्तककालकल्पौ। यमौ च कृष्णां च युधिष्ठिरं च न शेषयेतां युधि शत्रुसेनां भीमं च दृष्ट्वा सुखविप्रयुक्तान् / . शरान्किरन्तावशनिप्रकाशान् // 20 विनिःश्वसन्सर्प इवोग्रतेजा दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रो ध्रुवं न शेते वसतीरमर्षात् // 13 दुःशासनश्चापि सुमन्दचेताः। तथा यमौ चाप्यसुखौ सुखाहौँ मधु प्रपश्यन्ति न तु प्रपातं समृद्धरूपावमरौ दिवीव / वृकोदरं चैव धनंजयं च // 21 प्रजागरस्थौ ध्रुवमप्रशान्तौ शुभाशुभं पुरुषः कर्म कृत्वा धर्मेण सत्येन च वार्यमाणौ // 14 प्रतीक्षते तस्य फलं स्म कर्ता। समीरणेनापि समो बलेन स तेन युज्यत्यवशः फलेन . समीरणस्यैव सुतो बलीयान् / मोक्षः कथं स्यात्पुरुषस्य तस्मात् // 22 स धर्मपाशेन सितोग्रतेजा क्षेत्रे सुकृष्ट ह्युपिते च बीजे ध्रुवं विनिःश्वस्य सहत्यमर्षम् // 15 देवे च वर्षत्युतुकालयुक्तम् / स चापि भूमौ परिवर्तमानो न स्यात्फलं तस्य कुतः प्रसिद्धि___ वधं सुतानां मम कामाणः / रन्यत्र दैवादिति चिन्तयामि // 23 सत्येन धर्मेण च वार्यमाणः कृतं मताक्षेण यथा न साधु कालं प्रतीक्षत्यधिको रणेऽन्यैः // 16 साधुप्रवृत्तेन च पाण्डवेन / अजातशत्रौ तु जिते निकृत्या मया च दुष्पुत्रवशानुगेन दुःशासनो यत्परुषाण्यवोचत् / यथा कुरूणामयमन्तकालः // 24 तानि प्रविष्टानि वृकोदराङ्गं . भुवं प्रवास्यत्यसमीरितोऽपि ___दहन्ति मर्माग्निरिवेन्धनानि // 17 ध्रुवं प्रजास्यत्युत गर्भिणी या। न पापकं ध्यास्यति धर्मपुत्रो भुवं दिनादौ रजनीप्रणाशधनंजयश्वाप्यनुवर्तते तम्। / खया धपादौ च दिनप्रणाशः // 25 अरण्यवासेन विवर्धते तु क्रियेत कस्मान्न परे च कुर्यु___ भीमस्य कोपोऽग्निरिवानिलेन // 18 वित्तं न द्यः पुरुषाः कथंचित् / स तेन कोपेन विदीर्यमाणः प्राप्यार्थकालं च भवेदनर्थः करं करेणाभिनिपीज्य वीरः। कथं नु तत्स्यादिति तत्कुतः स्यात् // 2 // चिनिःश्वसत्युष्णमतीव घोरं कथं न भियत न च सवेत दहन्निवेमान्मम पुत्रपौत्रान् // 19 न च प्रसिच्येदिति रक्षितव्यम् / -704 -
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________________ 3. 225. 27 ] आरण्यकपर्व [3. 226. 19 अरक्ष्यमाणः शतधा विशीर्येद् इन्द्रप्रस्थगते यां तां दीप्यमानां युधिष्ठिरे। . ध्रुवं न नाशोऽस्ति कृतस्य लोके // 27 अपश्याम श्रियं राजन्नचिरं शोककर्शिताः॥ 5 गतो ह्यरण्यादपि शक्रलोकं सा तु बुद्धिबलेनेयं राज्ञस्तस्माद्युधिष्ठिरात् / धनंजयः पश्यत वीर्यमस्य / त्वयाक्षिप्ता महाबाहो दीप्यमानेव दृश्यते / / 6 अस्त्राणि दिव्यानि चतुर्विधानि तथैव तव राजेन्द्र राजानः परवीरहन् / / ज्ञात्वा पुनर्लोकमिमं प्रपन्नः॥२८ शासनेऽधिष्ठिताः सर्वे किं कुर्म इति वादिनः // 7 // स्वर्ग हि गत्वा सशरीर एव तवाद्य पृथिवी राजन्निखिला सागराम्बरा / __ को मानुषः पुनरागन्तुमिच्छेत् / सपर्वतवना देवी सग्रामनगराकरा। अन्यत्र कालोपहताननेका नानावनोद्देशवती पत्तनैरुपशोभिता // 8 न्समीक्षमाणस्तु कुरून्मुमूर्षुन्॥ 29 वन्द्यमानो द्विजै राजन्पूज्यमानश्च राजभिः / धनुर्माहश्चार्जुनः सव्यसाची पौरुषाद्दिवि देवेषु भ्राजसे रश्मिवानिव // 9 धनुश्च तद्गाण्डिवं लोकसारम् / .. रुद्ररिव यमो राजा मरुद्भिरिव वासवः / अस्त्राणि दिव्यानि च वानि तस्य कुरुभिस्त्वं वृतो राजन्भासि नक्षत्रराडिव // 10. त्रयस्य तेजः प्रसहेत को नु // 30 ये स्म ते नाद्रियन्तेऽऽज्ञां नोद्विजन्ते कदा च न / निशम्य तद्वचनं पार्थिवस्य / पश्यामस्ताश्रिया हीनान्पाण्डवान्वनवासिनः // 11 दुर्योधनो रहिते सौबलश्च। श्रूयन्ते हि महाराज सरो द्वैतवनं प्रति / अबोधयत्कर्णमुपेत्य सर्व वसन्तः पाण्डवाः सार्धं ब्राह्मणैर्वनवासिभिः // 12 _स चाप्यहृष्टोऽभवदल्पचेताः // 31 स प्रयाहि महाराज श्रिया परमया युतः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि प्रतपन्पाण्डुपुत्रांस्त्वं रश्मिवानिव तेजसा // 13 / पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 225 // स्थितो राज्ये च्युतान्राज्याच्छ्रिया हीनाश्रिया वृतः। असमृद्धान्समृद्धार्थः पश्य पाण्डुसुतान्नृप // 14 . वैशंपायन उवाच / महाभिजनसंपन्नं भद्रे महति संस्थितम् / धृतराष्ट्रस्य तद्वाक्यं निशम्य सहसौबलः / पाण्डवास्त्वाभिवीक्षन्तां ययातिमिव नाहुषम् // 15 दुर्योधनमिदं काले कर्णो वचनमब्रवीत् // 1 यां श्रियं सुहृदश्चैव दुहृदश्च विशां पते / प्रव्राज्य पाण्डवान्वीरान्स्वेन वीर्येण भारत / पश्यन्ति पुरुषे दीप्तां सा समर्था भवत्युत // 16 भुक्ष्वेमां पृथिवीमेको दिवं शम्बरहा यथा // 2 समस्थो विषमस्थान्हि दुहृदो योऽभिवीक्षते। प्राच्याश्च दाक्षिणात्याश्च प्रतीच्योदीच्यवासिनः / जगतीस्थानिवाद्रिस्थः किं ततः परमं सुखम् // 17 कृताः करप्रदाः सर्वे राजानस्ते नराधिप // 3 न पुत्रधनलाभेन न राज्येनापि विन्दति / या हि सा दीप्यमानेव पाण्डवान्भजते पुरा। / प्रीतिं नृपतिशार्दूल याममित्राघदर्शनात् // 18 साद्य लक्ष्मीस्त्वया राजन्नवाप्ता भ्रातृभिः सह // 4 / किं नु तस्य सुखं न स्यादाश्रमे यो धनंजयम् / म. भा. 89 -705 - 226
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________________ 3. 226. 19] महाभारते [3. 227. 24 अभिवीक्षेत सिद्धार्थो वल्कलाजिनवाससम् // 19 किं नु स्यादधिकं तस्माद्यदहं द्रुपदात्मजाम् / सुवाससो हि ते भार्या वल्कलाजिनवाससम् / / द्रौपदी कर्ण पश्येयं काषायवसनां वने // 10. पश्यन्त्वसुखितां कृष्णां सा चं निर्विद्यतां पुनः। यदि मां धर्मराजश्व भीमसेनश्च पाण्डवः / विनिन्दतां तथात्मानं जीवितं च धनच्युता // 20 युक्तं परमया लक्ष्म्या पश्येतां जीवितं भवेत् // 11 न तथा हि सभामध्ये तस्या भवितुमर्हति / / उपायं न तु पश्यामि येन गच्छेम तद्वनम् / वैमनस्यं यथा दृष्ट्वा तव भार्याः स्वलंकृताः // 21 यथा चाभ्यनुजानीयाद्गच्छन्तं मां महीपतिः // 12 एवमुक्त्वा तु राजानं कर्णः शकुनिना सह / / स सौबलेन सहितस्तथा दुःशासनेन च / तूष्णीं बभूवतुरुभौ वाक्यान्ते जनमेजय // 22 उपायं पश्य निपुणं येन गच्छेम तद्वनम् // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अहमप्यद्य निश्चित्य गमनायेतराय वा / षड्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 226 // काल्यमेव गमिष्यामि समीपं पार्थिवस्य ह // 14 રર૭ मयि तत्रोपविष्टे तु भीष्मे च कुरुसत्तमे / वैशंपायन उवाच। उपायो यो भवेदृष्टस्तं ब्रूयाः सहसौबलः // 15 कर्णस्य वचनं श्रुत्वा राजा दुर्योधनस्तदा / तनो भीष्मस्य राज्ञश्च निशम्य गमनं प्रति / हृष्टो भूत्वा पुनर्दीन इदं वचनमब्रवीत् // 1 व्यवसायं करिष्येऽहमनुनीय पितामहम् // 16 ब्रवीषि यदिदं कर्ण सर्वं मे मनसि स्थितम् / तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे जन्मुरावसथान्प्रति / : न त्वभ्यनुज्ञां लप्स्यामि गमने यत्र पाण्डवाः // 2 व्युषिताहां रजन्यां तु कर्णो राजानमभ्ययात् // 17 परिदेवति तान्वीरान्धृतराष्ट्रो महीपतिः / ततो दुर्योधनं कर्णः प्रहसन्निदमब्रवीन / मन्यतेऽभ्यधिकांश्चापि तपोयोगेन पाण्डवान् // 3 उपायः परिदृष्टोऽयं तं निबोध जनेश्वर // 18 अथ वाप्यनुबुध्येत नृपोऽस्माकं चिकीर्षितम् / घोषा द्वैतवने सर्वे त्वत्प्रतीक्षा नराधिप / एवमप्यायति रक्षन्नाभ्यनुज्ञातुमर्हति // 4 घोषयात्रापदेशेन गमिष्यामो न संशयः // 19 न हि द्वैतवने किंचिद्विद्यतेऽन्यत्प्रयोजनम् / उचितं हि सदा गन्तुं घोषयात्रां विशां पते / उत्सादनमृते तेषां वनस्थानां मम द्विषाम् // 5 जानासि हि यथा क्षत्ता द्यूतकाल उपस्थिते / एवं च त्वां पिता राजन्समनुज्ञातुमर्हति // 20 अब्रवीद्यच्च मां त्वां च सौबलं च वचस्तदा // 6 तथा कथयमानौ तौ घोषयात्राविनिश्चयम् / तानि पूर्वाणि वाक्यानि यच्चान्यत्परिदेवितम् / गान्धारराजः शकुनिः प्रत्युवाच हसन्निव // 21 विचिन्त्य नाधिगच्छामि गमनायेतराय वा॥ 7 उपायोऽयं मया दृष्टो गमनाय निरामयः / ममापि हि महान्हर्षो यदहं भीमफल्गुनौ / | अनुज्ञास्यति नो राजा चोदयिष्यति चाप्युत // 22 क्लिष्टावरण्ये पश्येयं कृष्णया सहिताविति // 8 घोषा द्वैतवने सर्वे त्वत्प्रतीक्षा नराधिप / न तथा प्राप्नुयां प्रीतिमवाप्य वसुधामपि / घोषयात्रापदेशेन गमिष्यामो न संशयः // 23 दृष्ट्वा यथा पाण्डुसुतान्वल्कलाजिनवाससः // 9 / ततः प्रहसिताः सर्वे तेऽन्योन्यस्य तलान्ददुः / - 706 -
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________________ 3. 227. 24] आरण्यकपर्व [3. 228. 26 तदेव च विनिश्चित्य ददृशुः कुरुसत्तमम् // 24 उषितो हि महाबाहुरिन्द्रलोके धनंजयः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दिव्यान्यस्त्राण्यवाप्याथ ततः प्रत्यागतो वनम् // 13 सप्तविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 227 // अकृतास्त्रेण पृथिवी जिता बीभत्सुना पुरा / 228 किं पुनः स कृतास्त्रोऽद्य न हन्याद्वो महारथः॥१४ वैशंपायन उवाच। अथ वा मद्वचः श्रुत्वा तत्र यत्ता भविष्यथ / धृतराष्ट्रं ततः सर्वे ददृशुर्जनमेजय। उद्विग्नवासो विश्रम्भाद्दुःखं तत्र भविष्यति // 15 पृष्ट्वा सुखमथो राज्ञः पृष्टा राज्ञा च भारत // 1 अथ वा सैनिकाः केचिदपकुर्युयुधिष्ठिरे / ततस्तैर्विहितः पूर्वं समङ्गो नाम बल्लवः / तबुद्धिकृतं कर्म दोषमुत्पादयेच्च वः // 16 समीपस्थास्तदा गावो धृतराष्ट्र न्यवेदयत् // 2 तस्माद्गच्छन्तु पुरुषाः स्मारणायाप्तकारिणः / अनन्तरं च राधेयः शकुनिश्च विशां पते / न स्वयं तत्र गमनं रोचये तव भारत // 17 आहतुः पार्थिवश्रेष्ठं धृतराष्ट्रं जनाधिपम् // 3 शकुनिरुवाच / रमणीयेषु देशेषु घोषाः संप्रति कौरव / धर्मज्ञः पाण्डवो ज्येष्ठः प्रतिज्ञातं च संसदि। स्मारणासमयः प्राप्तो वत्सानामपि चाङ्कनम् // 4 तेन द्वादश वर्षाणि वस्तव्यानीति भारत // 18 मृगया चोचिता राजन्नस्मिन्काले सुतस्य ते / अनुवृत्ताश्च ते सर्वे पाण्डवा धर्मचारिणः / दुर्योधनस्य गमनं त्वमनुज्ञातुमर्हसि // 5 युधिष्ठिरश्च कौन्तेयो न नः कोपं करिष्यति // 19 धृतराष्ट्र उवाच / मृगयां चैव नो गन्तुमिच्छा संवर्धते भृशम् / मृगया शोभना तात गवां च समवेक्षणम् / स्मारणं च चिकीर्षामो न तु पाण्डवदर्शनम् // 20 विश्रम्भस्तु न गन्तव्यो, बल्लवानामिति स्मरे // 6 न चानार्यसमाचारः कश्चित्तत्र भविष्यति / ते तु तत्र नरव्याघ्राः समीप इति नः श्रुतम् / न च तत्र गमिष्यामो यत्र तेषां प्रतिश्रयः // 21 अतो. नाभ्यनुजानामि गमनं तत्र वः स्वयम् // 7 वैशंपायन उवाच / छद्मना निर्जितास्ते हि कर्शिताश्च महावने / एवमुक्तः शकुनिना धृतराष्ट्रो जनेश्वरः / तपोनित्याश्च राधेय समर्थाश्च महारथाः॥ 8 दुर्योधनं सहामात्यमनुजज्ञे न कामतः / / 22 धर्मराजो न संक्रुध्येद्भीमसेनस्त्वमर्षणः / अनुज्ञातस्तु गान्धारिः कर्णेन सहितस्तदा / यज्ञसेनस्य दुहिता तेज एव तु केवलम् // 9 निर्ययौ भरतश्रेष्ठो बलेन महता वृतः॥ 23 यूयं चाप्यपराध्येयुर्दर्पमोहसमन्विताः / दुःशासनेन च तथा सौबलेन च देविना। . ततो विनिर्दहेयुस्ते तपसा हि समन्विताः / / 10 संवृतो भ्रातृभिश्चान्यैः स्त्रीभिश्चापि सहस्रशः // 24 अथ वा सायुधा वीरा मन्युनाभिपरिप्लुताः / तं निर्यान्तं महाबाहुं द्रष्टुं द्वैतवनं सरः / सहिता बद्धनिस्त्रिंशा दहेयुः शस्त्रतेजसा // 11 पौराश्चानुययुः सर्वे सहदारा वनं च तत् / / 25 अथ यूयं बहुत्वात्तानारभध्वं कथंचन / अष्टौ रथसहस्राणि त्रीणि नागायुतानि च / / अनार्यं परमं तत्स्यादशक्यं तच्च मे मतम् // 12 / पत्तयो बहुसाहस्रा हयाश्च नवतिः शताः // 26 -707 -
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________________ 3. 228. 27] महाभारते [ 3. 229. 24 शकटापणवेश्याश्च वणिजो बन्दिनस्तथा। स ताशरैर्विनिर्भिन्दनगजान्बध्नन्महावने / नराश्च मृगयाशीलाः शतशोऽथ सहस्रशः // 27 रमणीयेषु देशेषु ग्राहयामास वै मृगान् // 11 ततः प्रयाणे नृपतेः सुमहानभवत्स्वनः / गोरसानुपयुञ्जान उपभोगांश्च भारत / प्रावृषीव महावायोरुद्धतस्य विशां पते // 28 पश्यन्सुरमणीयानि पुष्पितानि वनानि च // 12 गव्यूतिमात्रे न्यवसद्राजा दुर्योधनस्तदा। मत्तभ्रमरजुष्टानि बर्हिणाभिरुतानि च। प्रयातो वाहनैः सर्वैस्ततो द्वैतवनं सरः // 29 अगच्छदानुपूर्येण पुण्यं द्वैतवनं सरः। ... इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ऋद्ध्या परमया युक्तो महेन्द्र इव वज्रभृत् // 13 अष्टाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 228 // यदृच्छया च तदहो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / 229 ईजे राजर्षियज्ञेन सद्यस्केन विशां पते। वैशंपायन उवाच / दिव्येन विधिना राजा वन्येन कुरुसत्तमः // 14 अथ दुर्योधनो राजा तत्र तत्र वने वसन् / कृत्वा निवेशमभितः सरसस्तस्य कौरवः / जगाम घोषानभितस्तत्र चक्रे निवेशनम् // 1 द्रौपद्या सहितो धीमान्धर्मपल्या नराधिपः // 15 रमणीये समाज्ञाते सोदके समहीरहे / ततो दुर्योधनः प्रेष्यानादिदेश सहानुजः / देशे सर्वगुणोपेते चक्रुरावसथं नराः // 2 आक्रीडावसथाः क्षिप्रं क्रियन्तामिति भारत // 16 तथैव तत्समीपस्थान्पृथगावसथान्बहून् / ते तथेत्येव कौरव्यमुक्त्वा वचनकारिणः / कर्णस्य शकुनेश्चैव भ्रातॄणां चैव सर्वशः // 3 / चिकीर्षन्तस्तदाक्रीडाञ्जग्मुद्वैतवनं सरः॥ 17 / ददर्श स तदा गावः शतशोऽथ सहस्रशः / सेनाग्रं धार्तराष्ट्रस्य प्राप्तं द्वैतवनं सरः। अबैलबैश्च ताः सर्वा लक्षयामास पार्थिवः॥ 4 प्रविशन्तं वनद्वारि गन्धर्वाः समवारयन् // 18 अङ्कयामास वत्सांश्च जज्ञे चोपसृतास्त्वपि / तत्र गन्धर्वराजो वै पूर्वमेव विशां पते / बालवत्साश्च या गावः कालयामास ता अपि // 5 कुबेरभवनाद्राजन्नाजगाम गणावृतः॥ 19 .. अथ स स्मारणं कृत्वा लक्षयित्वा त्रिहायनान् / गणैरप्सरसां चैव त्रिदशानां तथात्मजैः / वृतो गोपालकैः प्रीतो व्यहरत्कुरुनन्दनः // 6 / विहारशीलः क्रीडार्थं तेन तत्संवृतं सरः // 20 स च पौरजनः सर्वः सैनिकाश्च सहस्रशः / तेन तत्संवृतं दृष्ट्वा ते राजपरिचारकाः। यथोपजोषं चिक्रीडुर्वने तस्मिन्यथामराः // 7 प्रतिजग्मुस्ततो राजन्यत्र दुर्योधनो नृपः // 21 : ततो गोपाः प्रगातारः कुशला नृत्तवादिते। स तु तेषां वचः श्रुत्वा सैनिकान्युद्धदुर्मदान् / धार्तराष्ट्रमुपातिष्ठन्कन्याश्चैव स्वलंकृताः / / 8 प्रेषयामास कौरव्य उत्सारयत तानिति // 22 . स स्त्रीगणवृतो राजा प्रहृष्टः प्रददौ वसु। तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राज्ञः सेनाग्रयायिनः / तेभ्यो यथार्हमन्नानि पानानि विविधानि च // 9 / सरो द्वैतवनं गत्वा गन्धर्वानिदमब्रुवन् // 23 ततस्ते सहिताः सर्वे तरक्षन्महिषान्मृगान् / राजा दुर्योधनो नाम धृतराष्ट्रसुतो बली। गवयर्फवराहांश्च समन्तात्पर्यकालयन् // 10 विजिहीर्षुरिहायाति तदर्थमपसर्पत // 24 -708 -
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________________ 3. 229. 25 ] आरण्यकपर्व [3. 230. 22 एवमुक्तास्तु गन्धर्वाः प्रहसन्तो विशां पते / अनार्याशासतेत्येवं चित्रसेनोऽत्यमर्षणः // 8 . प्रत्यब्रुवंस्तान्पुरुषानिदं सुपरुषं वचः / / 25 अनुज्ञातास्तु गन्धर्वाश्चित्रसेनेन भारत / न चेतयति वो राजा मन्दबुद्धिः सुयोधनः / प्रगृहीतायुधाः सर्वे धार्तराष्ट्रानभिद्रवन् // 9 . योऽस्मानाज्ञापयत्येवं वश्यानिव दिवौकसः॥२६ तान्दृष्ट्वा पततः शीघ्रान्गन्धर्वानुद्यतायुधान् / यूयं मुमूर्षवश्वापि मन्दप्रज्ञा न संशयः / / सर्वे ते प्राद्रवन्संख्ये धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः // 10: ये तस्य वचनादेवमस्मान्त विचेतसः // 27 तान्दृष्ट्वा द्रवतः सर्वान्धार्तराष्ट्रान्पराङ्मुखान् / गच्छत त्वरिताः सर्वे यत्र राजा स कौरवः / वैकर्तनस्तदा वीरो नासीत्तत्र पराङ्मुखः // 11 - द्वेष्यं माद्यैव गच्छध्वं धर्मराजनिवेशनम् / / 28 आपतन्तीं तु संप्रेक्ष्य गन्धर्वाणां महाचमूम्। एवमुक्तास्तु गन्धर्वै राज्ञः सेनाग्रयायिनः।। महता शरवर्षेण राधेयः प्रत्यवारयत् / / 12 / संप्राद्रवन्यतो राजा धृतराष्ट्रसुतोऽभवत् / / 29 क्षुरप्रैर्विशिखैभल्लैर्वत्सदन्तैस्तथायसैः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि गन्धर्वाञ्शतशोऽभ्यनलघुत्वात्सूतनन्दनः // 13. एकोनत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 229 // पातयन्नुत्तमाङ्गानि गन्धर्वाणां महारथः। .. 230 क्षणेन व्यधमत्सर्वां चित्रसेनस्य वाहिनीम् // 14 वैशंपायन उवाच / ते वध्यमाना गन्धर्वाः सूतपुत्रेण धीमता। ततस्ते सहिताः सर्वे दुर्योधनमुपागमन् / भूय एवाभ्यवर्तन्त शतशोऽथ सहस्रशः // 15 .. अब्रुवंश्च महाराज यदूचुः कौरवं प्रति // 1 गन्धर्वभूता पृथिवी क्षणेन समपद्यत। गन्धर्वैर्वारिते सैन्ये धार्तराष्ट्रः प्रतापवान् / आपतद्भिर्महावेगैश्चित्रसेनस्य सैनिकैः / / 16 / अमर्षपूर्णः सैन्यानि प्रत्यभाषत भारत // 2 अथ दुर्योधनो राजा शकुनिश्चापि सौबलः / / शासतैनानधर्मज्ञान्मम विप्रियकारिणः / दुःशासनो विकर्णश्च ये चान्ये धृतराष्ट्रजाः।। यदि. प्रक्रीडितो देवैः सर्वैः सह शतक्रतुः // 3 न्यहनंस्तत्तदा सैन्यं रथैर्गरुडनिस्वनैः // 17 / दुर्योधनवचः श्रुत्वा धार्तराष्ट्रा महाबलाः / भूयश्च योधयामासुः कृत्वा कर्णमथाग्रतः। सर्व एवाभिसंनद्धा योधाश्चापि सहस्रशः॥ 4 . महता रथघोषेण हयचारेण चाप्युत / ततः प्रमथ्य गन्धर्वांस्तद्वनं विविशुर्बलात् / वैकर्तनं परीप्सन्तो गन्धर्वान्समवारयन् // 18 सिंहनादेन महता पूरयन्तो दिशो दश // 5 ततः संन्यपतन्सर्वे गन्धर्वाः कौरवैः सह / / ततोऽपरैरवार्यन्त गन्धर्वैः कुरुसैनिकाः।। तदा सुतुमुलं युद्धमभवल्लोमहर्षणम् / / 19 ते वार्यमाणा गन्धर्वैः साम्नैव वसुधाधिप। ततस्ते मृदवोऽभूवन्गन्धर्वाः शरपीडिताः / ताननादृत्य गन्धर्वांस्तद्वनं विविशुर्महत् / 6 उच्चुक्रुशुश्च कौरव्या गन्धर्वान्प्रेक्ष्य पीडितान्॥२० यदा वाचा न तिष्ठन्ति धार्तराष्ट्राः सराजकाः / गन्धवांस्त्रासितान्दृष्ट्वा चित्रसेनोऽत्यमर्षणः / ततस्ते खेचराः सर्वे चित्रसेने न्यवेदयन् // 7 उत्पपातासनाक्रुद्धो वधे तेषां समाहितः / / 21 . गन्धर्वराजस्तान्सर्वानब्रवीत्कौरवान्प्रति / ततो मायास्त्रमास्थाय युयुधे चित्रमार्गवित् / - 709
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________________ 3. 230. 22 ] महाभारते [ 3. 231. 18 तयामुह्यन्त कौरव्याश्चित्रसेनस्य मायया // 22 दुर्योधनं जिघांसन्तः समन्तात्पर्यवारयन् // 4 एकैको हि तदा योधो धार्तराष्ट्रस्य भारत / युगमीषां वरूथं च तथैव ध्वजसारथी / पर्यवर्तत गन्धर्वैर्दशभिर्दशभिः सह // 23 अश्वांत्रिवेणुं तल्पं च तिलशोऽभ्यहनन्रथम् // 5 ततः संपीड्यमानास्ते बलेन महता तदा / दुर्योधनं चित्रसेनो विरथं पतितं भुवि / प्राद्रवन्त रणे भीता यत्र राजा युधिष्ठिरः // 24 अभिद्रुत्य महाबाहुर्जीवग्राहमथाग्रहीत् // 6 . भज्यमानेष्वनीकेषु धार्तराष्ट्रेषु सर्वशः / तस्मिन्गृहीते राजेन्द्र स्थितं दुःशासनं रथे। .. कर्णो वैकर्तनो राजस्तस्थौ गिरिरिवाचलः // 25 पर्यगृह्णन्त गन्धर्वाः परिवार्य समन्ततः // 7 दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिश्चापि सौबलः / विविंशतिं चित्रसेनमादायान्ये प्रदुद्रुवुः / गन्धर्वान्योधयांचक्रुः समरे भृशविक्षताः // 26 विन्दानुविन्दावपरे राजदारांश्च सर्वशः // 8 सर्व एव तु गन्धर्वाः शतशोऽथ सहस्रशः / सैन्यास्तु धार्तराष्ट्रस्य गन्धर्वैः समभिद्रुताः / जिघांसमानाः सहिताः कर्णमभ्यद्रवरणे // 27 पूर्वं प्रभग्नैः सहिताः पाण्डवानभ्ययुस्तदा // 9 असिभिः पट्टिशैः शूलैर्गदाभिश्च महाबलाः / शकटापणवेश्याश्च यानयुग्यं च सर्वशः। सूतपुत्रं जिघांसन्तः समन्तात्पर्यवारयन् // 28 शरणं पाण्डवाञ्जग्मुढियमाणे महीपतौ // 10 अन्येऽस्य युगमच्छिन्दन्ध्वजमन्ये न्यपातयन् / प्रियदर्शनो महाबाहुर्धार्तराष्ट्रो महाबलः / ईषामन्ये हयानन्ये सूतमन्ये न्यपातयन् / / 29 गन्धर्वैढियते राजा पार्थास्तमनुधावत // 11 अन्ये छत्रं वरूथं च वन्धुरं च तथापरे। दुःशासनो दुर्विषहो दुर्मुखो दुर्जयस्तथा / गन्धर्वो बहुसाहस्राः खण्डशोऽभ्यहनन्रथम् // 30 बद्धा ह्रियन्ते गन्धर्वै राज़दाराश्च सर्वशः // 12 ततो रथादवप्लुत्य सूतपुत्रोऽसिचर्मभृत् / इति दुर्योधनामात्याः क्रोशन्तो राजगृद्धिनः / विकर्णरथमास्थाय मोक्षायाश्वानचोदयत् // 31 आर्ता दीनस्वराः सर्वे युधिष्ठिरमुपागमन् // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तांस्तथा व्यथितान्दीनान्भिक्षमाणान्युधिष्ठिरम् / त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 230 // वृद्धान्दुर्योधनामात्यान्भीमसेनोऽभ्यभाषत // 14 231 अन्यथा वर्तमानानामर्थो जातोऽयमन्यथा। वैशंपायन उवाच / अस्माभिर्यदनुष्ठेयं गन्धर्वैस्तदनुष्ठितम् / / 15 गन्धर्वैस्तु महाराज भग्ने कर्णे महारथे / दुर्मत्रितमिदं तात राज्ञो दुतदेविनः / संप्राद्रवञ्चमूः सर्वा धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः॥ 1 द्वेष्टारमन्ये क्लीबस्य पातयन्तीति नः श्रुतम् // 16 तान्दृष्ट्वा द्रवतः सर्वान्धार्तराष्ट्रान्पराङ्मुखान् / तदिदं कृतं नः प्रत्यक्षं गन्धर्वैरतिमानुषम् / दुर्योधनो महाराज नासीत्तत्र पराङ्मुखः // 2 दिष्टया लोके पुमानस्ति कश्चिदस्मत्प्रिये स्थितः / तामापतन्ती संप्रेक्ष्य गन्धर्वाणां महाचमूम् / येनास्माकं हृतो भार आसीनानां सुखावहः॥१७ महता शरवर्षेण सोऽभ्यवर्षदरिंदमः / / 3 शीतवातातपसहांस्तपसा चैव कर्शितान् / अचिन्त्य शरवर्षं तु गन्धर्वास्तस्य तं रथम् / / समस्थो विषमस्थान्हि द्रष्टुमिच्छति दुर्मतिः॥१८ -710
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________________ 3. 231. 19 ] आरण्यकपर्व [3. 233. 1 अधर्मचारिणस्तस्य कौरव्यस्य दुरात्मनः / क इहान्यो भवेत्राणमभिधावेति चोदितः / ये शीलमनुवर्तन्ते ते पश्यन्ति पराभवम् // 19 प्राञ्जलिं शरणापन्नं दृष्ट्वा शत्रुमपि ध्रुवम् // 11 अधर्मो हि कृतस्तेन येनैतदुपशिक्षितम् / वरप्रदानं राज्यं च पुत्रजन्म च पाण्डव / अनृशंसास्तु कौन्तेयास्तस्याध्यक्षान्ब्रवीमि वः // 20 शत्रोश्च मोक्षणं क्लेशात्रीणि चैकं च तत्समम्॥१२ एवं ब्रुवाणं कौन्तेयं भीमसेनममर्षणम् / किं ह्यभ्यधिकमेतस्माद्यदापन्नः सुयोधनः / न कालः परुषस्यायमिति राजाभ्यभाषतः // 21 त्वबाहुबलमाश्रित्य जीवितं परिमार्गति // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि स्वयमेव प्रधावेयं यदि न स्याद्वृकोदर / एकत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 231 // विततोऽयं ऋतुर्वीर न हि मेऽत्र विचारणा // 14 232 साम्नैव तु यथा भीम मोक्षयेथाः सुयोधनम् / युधिष्ठिर उवाच। तथा सर्वैरुपायैस्त्वं यतेथाः कुरुनन्दन // 15 अस्मानभिगतांस्तात भयार्ताशरणैषिणः।। न साम्ना प्रतिपद्येत यदि गन्धर्वराडसौ। कौरवान्विषमप्राप्तान्कथं ब्रूयास्त्वमीदृशम् // 1 पराक्रमेण मृदुना मोक्षयेथाः सुयोधनम् // 16 भवन्ति भेदा ज्ञातीनां कलहाश्च वृकोदर।। अथासौ मृदुयुद्धेन न मुञ्चेझीम कौरवान् / प्रसक्तानि च वैराणि ज्ञातिधर्मो न नश्यति // 2 सर्वोपायैर्विमोच्यास्ते निगृह्य परिपन्थिनः // 17 यदा तु कश्चिज्ज्ञातीनां बाह्यः प्रार्थयते कुलम् / एतावद्धि मया शक्यं संदेष्टुं वै वृकोदर / न मर्षयन्ति तत्सन्तो बाह्येनाभिप्रमर्षणम् // 3 वैताने कर्मणि तते वर्तमाने च भारत // 18 जानाति ह्येष दुर्बुद्धिरस्मानिह चिरोषितान् / - वैशंपायन उवाच / स एष परिभूयास्मानकार्षी दिदमप्रियम् // 4 अजातशत्रोर्वचनं तच्छ्रुत्वा तु धनंजयः / दुर्योधनस्य ग्रहणाद्गन्धर्वेण बलाद्रणे / प्रतिजज्ञे गुरोर्वाक्यं कौरवाणां विमोक्षणम् // 19 स्त्रीणां बाह्याभिमर्शाच्च हतं भवति नः कुलम् // 5 अर्जुन उवाच / शरणं च प्रपन्नानां त्राणार्थं च कुलस्य नः। यदि सान्ना न मोक्ष्यन्ति गन्धर्वा धृतराष्ट्रजान् / उत्तिष्ठध्वं नरव्याघ्राः सज्जीभवत माचिरम् / / 6 अद्य गन्धर्वराजस्य भूमिः पास्यति शोणितम् / / 20 अर्जुनश्च यमौ चैव त्वं च भीमापराजितः / वैशंपायन उवाच / मोक्षयध्वं धार्तराष्ट्र ह्रियमाणं सुयोधनम् / / 7 अर्जुनस्य तु तां श्रुत्वा प्रतिज्ञां सत्यवादिनः / एते रथा नरव्याघ्राः सर्वशस्त्रसमन्विताः। कौरवाणां तदा राजन्पुनः प्रत्यागतं मनः / / 21 इन्द्रसेनादिभिः सूतैः संयताः कनकध्वजाः // 8 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि एतानास्थाय वै तात गन्धर्वान्यो माहवे / द्वात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 232 // सुयोधनस्य मोक्षाय प्रयतध्वमतन्द्रिताः // 9 233 य एव कश्चिद्राजन्यः शरणार्थमिहागतम् / वैशंपायन उवाच। परं शक्त्याभिरक्षेत किं पुनस्त्वं वृकोदर / / 10 / युधिष्ठिरवचः श्रुत्वा भीमसेनपुरोगमाः / -711 -
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________________ 3. 233. 1] महाभारते [ 3. 234.8 प्रहृष्टवदनाः सर्वे समुत्तस्थुनरर्षभाः // 1 न शास्ता विद्यतेऽस्माकमन्यस्तस्मात्सुरेश्वरात्॥१६ अभेद्यानि ततः सर्वे समनह्यन्त भारत / एवमुक्तस्तु गन्धर्वैः कुन्तीपुत्रो धनंजयः / जाम्बूनदविचित्राणि कवचानि महारथाः // 2 गन्धर्वान्पुनरेवेदं वचनं प्रत्यभाषत / / 17 ते दंशिता रथैः सर्वे ध्वजिनः सशरासनाः / यदि साम्ना न मोक्षध्वं गन्धर्वा धृतराष्ट्रजम् / . पाण्डवाः प्रत्यदृश्यन्त ज्वलिता इव पावकाः // 3 मोक्षयिष्यामि विक्रम्य स्वयमेव सुयोधनम् // 18 तारथान्साधु संपन्नान्संयुक्ताञ्जवनैर्हयैः / एवमुक्त्वा ततः पार्थः सव्यसाची धनंजयः।। आस्थाय रथशार्दूलाः शीघ्रमेव ययुस्ततः / / 4 ससर्ज निशितान्बाणान्खचरान्खचरान्प्रति // 19 ततः कौरवसैन्यानां प्रादुरासीन्महास्वनः / तथैव शरवर्षेण गन्धर्वास्ते बलोत्कटाः / प्रयातान्सहितान्दृष्ट्वा पाण्डुपुत्रान्महारथान् // 5 पाण्डवानभ्यवर्तन्त पाण्डवाश्च दिवौकसः // 20 जितकाशिनश्च खचरास्त्वरिताश्च महारथाः / ततः सुतुमुलं युद्धं गन्धर्वाणां तरस्विनाम् / क्षणेनैव वने तस्मिन्समाजग्मुरभीतवत् // 6 | बभूव भीमवेगानां पाण्डवानां च भारत // 21 न्यवर्तन्त ततः सर्वे गन्धर्वा जितकाशिनः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दृष्ट्वा रथगतान्वीरान्पांण्डवांश्चतुरो रणे // 7 त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 233 // तांस्तु विभ्राजतो दृष्ट्वा लोकपालानिवोद्यतान् / 234 व्यूढानीका व्यतिष्ठन्त गन्धमादनवासिनः // 8 वैशंपायन उवाच / राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा धर्मराजस्य धीमतः / ततो दिव्यास्त्रसंपन्ना गन्धर्वा हेममालिनः / क्रमेण मृदुना युद्धमुपक्रामन्त भारत // 9 विसृजन्तः शरान्दीप्तासमन्तात्पर्यवारयन् // 1 न तु गन्धर्वराजस्य सैनिका मन्दचेतसः / चत्वारः पाण्डवा वीरा गन्धर्वाश्च सहस्रशः / शक्यन्ते मृदुना श्रेयः प्रतिपादयितुं तदा // 10 रणे संन्यपतनराजंस्तदद्भुतमिवाभवत् / / 2 / / ततस्तान्युधि दुर्धर्षः सव्यसाची परंतपः / यथा कर्णस्य च रथो धार्तराष्ट्रस्य चोभयोः / सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यमुवाच खचरान्रणे / / 11 गन्धर्वैः शतशश्छिन्नौ तथा तेषां प्रचक्रिरे // 3 नैतद्गन्धर्वराजस्य युक्तं कर्म जुगुप्सितम् / तान्समापततो राजन्गन्धर्वाञ्शतशो रणे / परदाराभिमर्शश्च मानुषैश्च समागमः // 12 प्रत्यगृहन्नरव्याघ्राः शरवर्षैरनेकशः / / 4 उत्सृजध्वं महावीर्यान्धृतराष्ट्रसुतानिमान / अवकीर्यमाणाः खगमाः शरवर्षैः समन्ततः / दारांश्चैषां विमुञ्चध्वं धर्मराजस्य शासनात् // 13 न शेकुः पाण्डुपुत्राणां समीपे परिवर्तितुम् // 5 एवमुक्तास्तु गन्धर्वाः पाण्डवेन यशस्विना। अभिक्रुद्धानभिप्रेक्ष्य गन्धर्वानर्जुनस्तदा। उत्स्मयन्तस्तदा पार्थमिदं वचनमब्रुवन् // 14 लक्षयित्वाथ दिव्यानि महास्नाण्युपचक्रमे // 6 एकस्यैव वयं तात कुर्याम वचनं भुवि / सहस्राणां सहस्रं स प्राहिणोद्यमसादनम् / यस्य शासनमाज्ञाय चराम विगतज्वराः // 15 आग्नेयेनार्जुनः संख्ये गन्धर्वाणां बलोत्कटः॥" तेनैकेन यथादिष्टं तथा वर्ताम भारत / तथा भीमो महेष्वासः संयुगे बलिनां वरः। . - 712 - .
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________________ 3. 234. 8] आरण्यकपर्व - [3. 235.6 गन्धर्वाञ्शतशो राजञ्जघान निशितैः शरैः॥ 8 / गन्धर्वराजो बलवान्माययान्तर्हितस्तदा। माद्रीपुत्रावपि तथा युध्यमानौ बलोत्कटौ / अन्तर्हितं समालक्ष्य प्रहरन्तमथार्जुनः / परिगृह्याग्रतो राजञ्जघ्नतः शतशः परान् // 9 ताडयामास खचरैर्दिव्यास्त्रप्रतिमत्रितैः // 23 ते वध्यमाना गन्धर्वा दिव्यैरस्वैर्महात्मभिः / अन्तर्धानवधं चास्य चक्रे क्रुद्धोऽर्जुनस्तदा / उत्पेतुः खमुपादाय धृतराष्ट्रसुतांस्ततः // 10 शब्दवेध्यमुपाश्रित्य बहुरूपो धनंजयः // 24 तानुत्पतिष्णन्बुद्धा तु कुन्तीपुत्रो धनंजयः / स वध्यमानस्तैरत्रैरर्जुनेन महात्मना / - महता शरजालेन समन्तात्पर्यवारयत् / / 11 अथास्य दर्शयामास तदात्मानं प्रियः सखा // 25 ते बद्धाः शरजालेन शकुन्ता इव पञ्जरे / चित्रसेनमथालक्ष्य सखायं युधि दुर्बलम् / ववर्षरर्जुनं क्रोधाद्दाशक्त्यृष्टिवृष्टिभिः // 12 संजहारास्त्रमथ तत्प्रसृष्टं पाण्डवर्षभः // 26 गदाशक्त्यसिवृष्टीस्ता निहत्य स महास्ववित् / दृष्ट्वा तु पाण्डवाः सर्वे संहृतास्त्रं धनंजयम् / गात्राणि चाहनद्भल्लैर्गन्धर्वाणां धनंजयः // 13 संजह्वः प्रद्रुतानश्वाशरवेगान्धनूंषि च // 27 शिरोभिः प्रपतद्भिश्च चरणैर्बाहुभिस्तथा। चित्रसेनश्च भीमश्च सव्यसाची यमावपि / अश्मवृष्टिरिवाभाति परेषामभवद्भयम् // 14 पृष्ट्वा कौशलमन्योन्यं रथेष्वेवावतस्थिरे // 28 ते वध्यमाना गन्धर्वाः पाण्डवेन महात्मना। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि भूमिष्ठमन्तरिक्षस्थाः शरवर्षैरवाकिरन // 15 चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 234 // तेषां तु शरवर्षाणि सव्यसाची परंतपः / 235 अस्त्रैः संवार्य तेजस्वी गन्धर्वान्प्रत्यविध्यत // 16 वैशंपायन उवाच / स्थूणाकर्णेन्द्रजालं च सौरं चापि तथार्जुनः। ततोऽर्जुनश्चित्रसेनं प्रहसन्निदमब्रवीत् / आग्नेयं चापि सौम्यं च ससर्ज कुरुनन्दनः // 17 मध्ये गन्धर्वसैन्यानां महेष्वासो महाद्युतिः // 1 ते दह्यमाना गन्धर्वाः कुन्तीपुत्रस्य सायकैः / किं ते व्यवसितं वीर कौरवाणां विनिग्रहे। दैतेया इव शक्रेण विषादमगमन्परम् // 18 किमर्थं च सदारोऽयं निगृहीतः सुयोधनः // 2 ऊर्ध्वमाक्रममाणाश्च शरजालेन वारिताः / चित्रसेन उवाच / विसर्पमाणा भल्लैश्च वार्यन्ते सव्यसाचिना // 19 / विदितोऽयमभिप्रायस्तत्रस्थेन महात्मना / गन्धर्वांस्त्रासितान्दृष्ट्वा कुन्तीपुत्रेण धीमता। दुर्योधनस्य पापस्य कर्णस्य च धनंजय // 3 चित्रसेनो गदां गृह्य सव्यसाचिनमाद्रवत् / / 20 वनस्थान्भवतो ज्ञात्वा क्लिश्यमानाननर्हवत् / तस्याभिपततस्तूर्णं गदाहस्तस्य संयुगे। इमेऽवहसितुं प्राप्ता द्रौपदी च यशस्विनीम् // 4 गदां सर्वायसी पार्थः शरैश्चिच्छेद सप्तधा // 21 ज्ञात्वा चिकीर्षितं चैषां मामुवाच सुरेश्वरः / स गदां बहुधा दृष्ट्वा कृत्तां बाणैस्तरस्विना / गच्छ दुर्योधनं बद्धा सामात्यं त्वमिहानय / / 5 संवृत्य विद्ययात्मानं योधयामास पाण्डवम् / धनंजयश्च ते रक्ष्यः सह भ्रातृभिराहवे / अस्माणि तस्य दिव्यानि योधयामास खे स्थितः // 22 स हि प्रियः सखा तुभ्यं शिष्यश्च तव पाण्डवः // 6 म, भा. 90 . -713 -
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________________ 3. 235.7] महाभारते [ 3. 236.7 वचनाद्देवराजस्य ततोऽस्मीहागतो द्रुतम् / युधिष्ठिरः सप्रणयमिदं वचनमब्रवीत् // 20 / अयं दुरात्मा बद्धश्च गमिष्यामि सुरालयम् // 7 मा स्म तात पुनः कार्षीरीदृशं साहसं क्वचित् / अर्जुन उवाच।। न हि साहसकर्तारः सुखमेधन्ति भारत // 21 उत्सृज्यतां चित्रसेन भ्रातास्माकं सुयोधनः / स्वस्तिमान्सहितः सर्वैर्धातृभिः कुरुनन्दन / धर्मराजस्य संदेशान्मम चेदिच्छसि प्रियम् // 8 गृहान्व्रज यथाकामं वैमनस्यं च मा कृथाः // 22 चित्रसेन उवाच।। पाण्डवेनाभ्यनुज्ञातो राजा दुर्योधनस्तदा। . पापोऽयं नित्यसंदुष्टो न विमोक्षणमर्हति / विदीर्यमाणो व्रीडेन जगाम नगरं प्रति // 23 : प्रलब्धा धर्मराजस्य कृष्णायाश्च धनंजय // 9 तस्मिन्गते कौरवेये कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / नेदं चिकीर्षितं तस्य कुन्तीपुत्रो महाव्रतः। / भ्रातृभिः सहितो वीरः पूज्यमानो द्विजातिभिः॥२१ जानाति धर्मराजो हि श्रुत्वा कुरु यथेच्छसि // 10 तपोधनैश्च तैः सर्वैर्वृतः शक्र इवामरैः। . वैशंपायन उवाच / वने द्वैतवने तस्मिन्विजहार मुदा युतः // 25 ते सर्व एव राजानमभिजग्मुर्युधिष्ठिरम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अभिगम्य च तत्सर्वं शशंसुस्तस्य दुष्कृतम् // 11 / पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 235 // अजातशत्रुस्तच्छ्रुत्वा गन्धर्वस्य वचस्तदा / ____236 मोक्षयामास तान्सर्वान्गन्धर्वान्प्रशशंस च // 12 जनमेजय उवाच / दिष्टया भवद्भिर्बलिभिः शक्तैः सर्वैर्न हिंसितः। शत्रुभिर्जितबद्धस्य पाण्डवैश्च महात्मभिः / दुर्वृत्तो धार्तराष्ट्रोऽयं सामान्यज्ञातिबान्धवः // 13 मोक्षितस्य युधा पश्चान्मानस्थस्य दुरात्मनः // 1 उपकारो महांस्तात कृतोऽयं मम खेचराः।। कत्थनस्यावलिप्तस्य गर्वितस्य च नित्यशः / कुलं न परिभूतं मे मोक्षेणास्य दुरात्मनः // 14 सदा च पौरुषौदार्यैः पाण्डवानवमन्यतः // 2 आज्ञापयध्वमिष्टानि प्रीयामो दर्शनेन वः। दुर्योधनस्य पापस्य नित्याहंकारवादिनः। प्राप्य सर्वानभिप्रायांस्ततो व्रजत माचिरम् // 15 प्रवेशो हास्तिनपुरे दुष्करः प्रतिभाति मे // 3 अनुज्ञातास्तु गन्धर्वाः पाण्डुपुत्रेण धीमता। तस्य लज्जान्वितस्यैव शोकव्याकुलचेतसः / सहाप्सरोभिः संहृष्टाश्चित्रसेनमुखा ययुः॥१६ प्रवेशं विस्तरेण त्वं वैशंपायन कीर्तय॥४ देवराडपि गन्धर्वान्मृतांस्तान्समजीवयत् / वैशंपायन उवाच / दिव्येनामृतवर्षेण ये हताः कौरवैयुधि // 17. धर्मराजनिसृष्टस्तु धार्तराष्ट्रः सुयोधनः / झानीस्तानवमुच्याथ राजदारांश्च सर्वशः / लज्जयाधोमुखः सीदन्नुपासर्पत्सुदुःखितः॥ 5 कृत्वा च दुष्करं कर्म प्रीतियुक्ताश्च पाण्डवाः॥१८ स्वपुरं प्रययौ राजा चतुरङ्गबलानुगः / सस्त्रीकुमारैः कुरुभिः पूज्यमाना महारथाः। शोकोपहतया बुद्ध्या चिन्तयानः पराभवम् // 6 वभ्राजिरे महात्मानः कुरुमध्ये यथाग्नयः // 19 / विमुच्य पथि यानानि देशे सुयवसोदके। ततो दुर्योधनं मुच्य भ्रातृभिः सहितं तदा। / संनिविष्टः शुभे रम्ये भूमिभागे. यथेप्सितम् / -714.
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________________ 3. 236. 7] आरण्यकपर्व [3. 238.. हस्त्यश्वरथपादातं यथास्थानं न्यवेशयत् // . उच्चैराकाशमार्गेण ह्रियामस्तैः सुदुःखिताः // 4 : अथोपविष्टं राजानं पर्यके ज्वलनप्रभे। अथ नः सैनिकाः केचिदमात्याश्च महारथान् / उपप्पुतं यथा सोमं राहुणा रात्रिसंक्षये। उपगम्याब्रुवन्दीनाः पाण्डवाशरणप्रदान् // 5 : उपगम्याब्रवीत्कर्णो दुर्योधनमिदं तदा // 8 एष दुर्योधनो राजा धार्तराष्ट्रः सहानुजः। दिष्टया जीवसि गान्धारे दिष्टया नः संगमः पुनः। सामात्यदारो द्वियते गन्धर्वैर्दिवमास्थितैः // 6 // दिष्टया त्वया जिताश्चैव गन्धर्वाः कामरूपिणः / / 9 तं मोक्षयत भद्रं वः सहदारं नराधिपम् / / दिष्टया समग्रान्पश्यामि भ्रातृ॑स्ते कुरुनन्दन / / परामर्शो मा भविष्यत्कुरुदारेषु सर्वशः // 7 / विजिगीषूनरणान्मुक्तानिर्जितारीन्महारथान् // 10 एवमुक्ते तु धर्मात्मा ज्येष्ठः पाण्डुसुतस्तदा।। अहं त्वभिद्रुतः सर्वैर्गन्धर्वैः पश्यतस्तव / प्रसाद्य सोदरान्सर्वानाज्ञापयत मोक्षणे // 8 नाशक्नुवं स्थापयितुं दीर्यमाणां स्ववाहिनीम् // 11 अथागम्य तमुद्देशं पाण्डवाः पुरुषर्षभाः। शरक्षताङ्गश्च भृशं व्यपयातोऽभिपीडितः / सान्त्वपूर्वमयाचन्त शक्ताः सन्तो महारथाः॥ 9 इदं त्वत्यद्भुतं मन्ये यद्युष्मानिह भारत // 12 यदा चास्मान्न मुमुचुर्गन्धर्वाः सान्त्विता अपि / / अरिष्टानक्षतांश्चापि सदारधनवाहनान् / ततोऽर्जुनश्च भीमश्च यमजौ च बलोत्कटौ। विमुक्तान्संप्रपश्यामि तस्माद्युद्धादमानुषात् // 13 मुमुचुः शरवर्षाणि गन्धर्वान्प्रत्यनेकशः // 10.. नैतस्य कर्ता लोकेऽस्मिन्पुमान्विद्येत भारत। अथ सर्वे रणं मुक्त्वा प्रयाताः खचरा दिवम् / / यत्कृतं ते महाराज सह भ्रातृभिराहवे // 14 अस्मानेवाभिकर्षन्तो दीनान्मुदितमानसाः // 11: एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा / ततः समन्तात्पश्यामि शरजालेन वेष्टितम् / उवाचावाक्शिरा राजन्बाष्पगद्गदया गिरा // 15 अमानुषाणि चास्त्राणि प्रयुञ्जानं धनंजयम् // 12H इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि समावृता दिशो दृष्ट्वा पाण्डवेन शितैः शरैः। . षत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 236 // धनंजयसखात्मानं दर्शयामास वै तदा // 13 - 237 चित्रसेनः पाण्डवेन समाश्लिष्य परंतपः / / दुर्योधन उवाच / कुशलं परिपप्रच्छ तैः पृष्टश्चाप्यनामयम् // 14 : अजानतस्ते राधेय नाभ्यसूयाम्यहं वचः / ते समेत्य तथान्योन्यं संनाहान्विप्रमुच्य च। . जानासि त्वं जिताञ्शत्रून्गन्धर्वांस्तेजसा मया // 1 एकीभूतास्ततो वीरा गन्धर्वाः सह पाण्डवैः। आयोधितास्तु गन्धर्वाः सुचिरं सोदरैर्मम / / अपूजयेतामन्योन्यं चित्रसेनधनंजयौ // 15 मया सह महाबाहो कृतश्चोभयतः क्षयः॥ 2 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि मायाधिकास्त्वयुध्यन्त यदा शूरा वियद्गताः / सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 237 // : तदा नो नसमं युद्धमभवत्सह खेचरैः // 3 238 पराजयं च प्राप्ताः स्म रणे बन्धनमेव च / दुर्योधन उवाच / सभृत्यामात्यपुत्राश्च सदारधनवाहनाः / | चित्रसेनं समागम्य प्रहसन्नर्जुनस्तदा / - 715 -
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________________ 3. 238. 1] महाभारते [3. 238. 29 इदं वचनमक्लीबमब्रवीत्परवीरहा // 1 किं मां वक्ष्यन्ति किं चापि प्रतिवक्ष्यामि तानहम् 15 भ्रातृनर्हसि नो वीर मोक्तुं गन्धर्वसत्तम। रिपूणां शिरसि स्थित्वा तथा विक्रम्य चोरसि / अनर्हा धर्षणं हीमे जीवमानेषु पाण्डुषु // 2 . आत्मदोषात्परिभ्रष्टः कथं वक्ष्यामि तानहम् // 16 एवमुक्तस्तु गन्धर्वः पाण्डवेन महात्मना / दुर्विनीताः श्रियं प्राप्य विद्यामैश्वर्यमेव च / उवाच यत्कर्ण वयं मन्त्रयन्तो विनिर्गताः। तिष्ठन्ति न चिरं भद्रे यथाहं मदगर्वितः // 17 द्रष्टारः स्म सुखाद्धीनान्सदारान्पाण्डवानिति // 3 अहो बत यथेदं मे कष्टं दुश्चरितं कृतम्। . तस्मिन्नुच्चार्यमाणे तु गन्धर्वेण वचस्यथ / स्वयं दुर्बुद्धिना मोहाद्येन प्राप्तोऽस्मि संशयम्॥१८ भूमेर्विवरमन्वैच्छं प्रवेष्टुं व्रीडयान्वितः // 4 तस्मात्प्रायमुपासिष्ये न हि शक्ष्यामि जीवितुम् / युधिष्ठिरमथागम्य गन्धर्वाः सह पाण्डवैः / चेतयानो हि को जीवेत्कृच्छ्राच्छत्रुभिरुद्धृतः॥१९ अस्मदुर्मत्रितं तस्मै बद्धांश्चास्मान्न्यवेदयन् // 5 शत्रुभिश्चावहसितो मानी पौरुपवर्जितः / स्त्रीसमक्षमहं दीनो बद्धः शत्रुवशं गतः / पाण्डवैर्विक्रमाढयैश्च सावमानमवेक्षितः // 20 युधिष्ठिरस्योपहृतः किं नु दुःखमतः परम् // 6 वैशंपायन उवाच / ये मे निराकृता नित्यं रिपुर्येषामहं सदा / एवं चिन्तापरिगतो दुःशासनमथाब्रवीत् / तैर्मोक्षितोऽहं दुर्बुद्धिर्दत्तं तैर्जीवितं च मे // 7 दुःशासन निबोधेदं वचनं मम भारत / / 21 प्राप्तः स्यां यद्यहं वीर वधं तस्मिन्महारणे / प्रतीच्छ त्वं मया दत्तमभिषेकं नृपो भव / श्रेयस्तद्भविता मह्यमेवंभूतं न जीवितम् // 8 प्रशाधि पृथिवीं स्फीतां कर्णसौबलपालिताम् // 22 भवेद्यशः पृथिव्यां मे ख्यातं गन्धर्वतो वधात् / भ्रातृन्पालय विस्रब्धं मरुतो वृत्रहा यथा / प्राप्ताश्च लोकाः पुण्याः स्युर्महेन्द्रसदनेऽक्षयाः॥९ बान्धवास्त्वोपजीवन्तु देवा इव शतक्रतुम् / / 23 यत्त्वद्य मे व्यवसितं तच्छृणुध्वं नरर्षभाः।। ब्राह्मणेषु सदा वृत्तिं कुर्वीथाश्चाप्रमादतः / इह प्रायमुपासिष्ये यूयं व्रजत वै गृहान् / बन्धूनां सुहृदां चैव भवेथास्त्वं गतिः सदा // 24 भ्रातरश्चैव मे सर्वे प्रयान्त्वद्य पुरं प्रति // 10 ज्ञातींश्चाप्यनुपश्येथा विष्णुर्देवगणानिव / कर्णप्रभृतयश्चैव सुहृदो बान्धवाश्च ये / गुरवः पालनीयास्ते गच्छ पालय मेदिनीम् / / 25 दुःशासनं पुरस्कृत्य प्रयान्त्वद्य पुरं प्रति // 11 नन्दयन्सुहृदः सर्वाञ्शात्रवांश्चावभर्त्सयन् / न ह्यहं प्रतियास्यामि पुरं शत्रुनिराकृतः। कण्ठे चैनं परिष्वज्य गम्यतामित्युवाच ह // 26 शत्रुमानापहो भूत्वा सुहृदां मानकृत्तथा / / 12 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा दीनो दुःशासनोऽब्रवीत् / स सुहृच्छोकदो भूत्वा शत्रूणां हर्षवर्धनः / / अश्रुकण्ठः सुदुःखार्तः प्राञ्जलिः प्रणिपत्य च / वारणाह्वयमासाद्य किं वक्ष्यामि जनाधिपम् / / 13 / सगद्गदमिदं वाक्यं भ्रातरं ज्येष्ठमात्मनः / / 27 भीष्मो द्रोणः कृपो द्रौणिर्विदुरः संजयस्तथा। प्रसीदेत्यपतद्भूमो दूयमानेन चेतसा / बाह्रीकः सोमदत्तश्च ये चान्ये वृद्धसंमताः॥ 14 दुःखितः पादयोस्तस्य नेत्रजं जलमुत्सृजन // 28 ब्राह्मणाः श्रेणिमुख्याश्च तथोदासीनवृत्तयः। उक्तवांश्च नरव्याघ्रो नैतदेवं भविष्यति / -716 -
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________________ 3. 238. 29] . आरण्यकपर्व [ 3. 239.8 विदीर्येत्सनगा भूमिॉश्चापि शकलीभवेत् / तैः संगम्य नृपार्थाय यतितव्यं यथातथम् // 41 रविरात्मप्रभां जह्यात्सोमः शीतांशुतां त्यजेत् // 29 यद्येवं पाण्डवै राजन्भवद्विषयवासिभिः / वायुः शैघ्यमथो जह्याद्धिमवांश्च परिव्रजेत् / यदृच्छया मोक्षितोऽद्य तत्र का परिदेवना // 42 शुष्येत्तोयं समुद्रेषु वह्निरप्युष्णतां त्यजेत् // 30 न चैतत्साधु यद्राजन्पाण्डवास्त्वां नृपोत्तम / न चाहं त्वदृते राजन्प्रशासेयं वसुंधराम् / स्वसेनया संप्रयान्तं नानुयान्ति स्म पृष्ठतः / / 43 पुनः पुनः प्रसीदेति वाक्यं चेदमुवाच ह। शूराश्च बलवन्तश्च संयुगेष्वपलायिनः / त्वमेव नः कुले राजा भविष्यसि शतं समाः॥३१ भवतस्ते सभायां वै प्रेष्यतां पूर्वमागताः // 44 एवमुक्त्वा स राजेन्द्र सस्वनं प्ररुरोद ह। पाण्डवेयानि रत्नानि त्वमद्याप्युपभुञ्जसे / / पादौ संगृह्य मानाही भ्रातुर्येष्ठस्य भारत // 32 सत्त्वस्थान्पाण्डवान्पश्य न ते प्रायमुपाविशन् / तथा तौ दुःखितौ दृष्ट्वा दुःशासनसुयोधनौ / . उत्तिष्ठ राजन्भद्रं ते न चिन्तां कर्तुमर्हसि // 45 अभिगम्य व्यथाविष्टः कर्णस्तौ प्रत्यभाषत // 33 अवश्यमेव नृपते राज्ञो विषयवासिभिः / विषीदथः किं कौरव्यौ बालिश्यात्प्राकृताविव / / प्रियाण्याचरितव्यानि तत्र का परिदेवना // 46 न शोकः शोचमानस्य विनिवर्तेत कस्यचित् // 34 मद्वाक्यमेतद्राजेन्द्र यद्येवं न करिष्यसि / यदा च शोचतः शोको व्यसनं नापकर्षति / . स्थास्यामीह भवत्पादौ शुश्रूषन्नरिमर्दन // 47 सामर्थ्य किं त्वतः शोके शोचमानौ प्रपश्यथः।। नोत्सहे जीवितुमहं त्वद्विहीनो नरर्षभ / धृतिं गृह्णीत मा शत्रूशोचन्तौ नन्दयिष्यथः॥३५ / प्रायोपविष्टस्तु नृप राज्ञां हास्यो भविष्यसि // 48 कर्तव्यं हि कृतं राजन्पाण्डवैस्तव मोक्षणम् / वैशंपायन उवाच / नित्यमेव प्रियं कार्य राज्ञो विषयवासिभिः / एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा / पाल्यमानास्त्वया ते हि निवसन्ति गतज्वराः।।३६ / नैवोत्थातुं मनश्चक्रे स्वर्गाय कृतनिश्चयः // 49 नाहस्येवंगते मन्युं कर्तुं प्राकृतवद्यथा। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि विषण्णास्तव सोदर्यास्त्वयि प्रायं समास्थिते / अष्टात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 238 // उत्तिष्ठ व्रज भद्रं ते समाश्वासय सोदरान् / / 37 239 राजन्नद्यावगच्छामि तवेह लघुसत्त्वताम् / वैशंपायन उवाच / किमत्र चित्रं यद्वीर मोक्षितः पाण्डवैरसि / / प्रायोपविष्टं राजानं दुर्योधनममर्षणम् / सद्यो वशं समापन्नः शत्रूणां शत्रुकर्शन / / 38 / उवाच सान्त्वयनराजशकुनिः सौबलस्तदा // 1 सेनाजीवैश्च कौरव्य तथा विषयवासिभिः / सम्यगुक्तं हि कर्णेन तच्छ्रुतं कौरव त्वया / अज्ञातैर्यदि वा ज्ञातैः कर्तव्यं नृपतेः प्रियम्॥३९ / मयाहृतां श्रियं स्फीतां मोहात्समपहाय किम् / प्रायः प्रधानाः पुरुषाः क्षोभयन्त्यरिवाहिनीम् / / त्वमबुद्ध्या नृपवर प्राणानुत्स्रष्टुमिच्छसि // 2 / निगृह्यन्ते च युद्धेषु मोक्ष्यन्ते च स्वसैनिकैः॥४० | अद्य चाप्यवगच्छामि न वृद्धाः सेवितास्त्वया / सेनाजीवाश्च ये राज्ञां विषये सन्ति मानवाः। - यः समुत्पतितं हर्ष दैन्यं वा न नियच्छति / -717 - पण
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________________ 8. 239. 3] महाभारते [ 3. 240.1 स नश्यति श्रियं प्राप्य पात्रमाममिवाम्भसि // 3 . संस्पृश्यापः शुचिर्भूत्वा भूतलं समुपाश्रितः // 16 अतिभीरुमतिक्लीबं दीर्घसूत्रं प्रमादिनम् / कुशचीराम्बरधरः परं नियममास्थितः। व्यसनाद्विषयाक्रान्तं न भजन्ति नृपं श्रियः // 4 वाग्यतो राजशार्दूलः स स्वर्गगतिकाङ्ख्या / सत्कृतस्य हि ते शोको विपरीते कथं भवेत् / मनसोपचितिं कृत्वा निरस्य च बहिष्क्रियाः॥१५ मा कृतं शोभनं पार्थैः शोकमालम्ब्य नाशय // 5 अथ तं निश्चयं तस्य बुद्धा दैतेयदानवाः। यत्र हर्षस्त्वया कार्यः सत्कर्तव्याश्च पाण्डवाः / / पातालवासिनो रौद्राः पूर्व देवैर्विनिर्जिताः // 18 तत्र शोचसि राजेन्द्र विपरीतमिदं तव // 6 / ते स्वपक्षक्षयं तं तु ज्ञात्वा दुर्योधनस्य वै / प्रसीद मा त्यजात्मानं तुष्टश्च सुकृतं स्मर।। आह्वानाय तदा चक्रुः कर्म वैतानसंभवम् / / 19 प्रयच्छ राज्यं पार्थानां यशो धर्ममवाप्नुहि / / 7 / / बृहस्पत्युशनोक्तैश्च मत्रैर्मत्रविशारदाः / क्रियामेतां समाज्ञाय कृतघ्नो न भविष्यसि / अथर्ववेदप्रोक्तैश्च याश्चोपनिषदि क्रियाः / सौभ्रानं पाण्डवैः कृत्वा समवस्थाप्य चैव तान् / मत्रजप्यसमायुक्तास्तास्तदा समवर्तयन् / / 20 / पित्र्यं राज्यं प्रयच्छैषां ततः सुखमवाप्नहि / / 8 जुह्वत्यग्नौ हविः क्षीरं मत्रवत्सुसमाहिताः। .. शकुनेस्तु वचः श्रुत्वा दुःशासनमवेक्ष्य च।। ब्राह्मणा वेदवेदाङ्गपारगाः सदृढव्रताः // 21 पादयोः पतितं वीरं विक्लवं भ्रातृसौहृदात् // 9 कर्मसिद्धौ तदा तत्र जृम्भमाणा महाद्भुता / बाहुभ्यां साधुजाताभ्यां दुःशासनमारदमम् / कृत्या समुत्थिता राजन्किं करोमीति चाब्रवीत्॥ 22 उत्थाप्य संपरिष्वज्य प्रीत्याजिघ्रत मूर्धनि // 10 आहुदैत्याश्च तां तत्र सुप्रीतेनान्तरात्मना। कर्णसौबलयोश्चापि संस्मृत्य वचनान्यसौ / प्रायोपविष्टं राजानं धार्तराष्ट्रमिहानय // 23 निर्वेदं परमं गत्वा राजा दुर्योधनस्तदा। तथेति च प्रतिश्रुत्य सा कृत्या प्रययौ तदा। वीडयामिपरीतात्मा नैराश्यमगमत्परम् // 11 निमेषादगमच्चापि यत्र राजा सुयोधनः / / 24 सुहृदां चैव तच्छ्रुत्वा समन्युरिदमब्रवीत् / समादाय च राजानं प्रविवेश रसातलम् / न धर्मधनसौख्येन नैश्वर्येण न चाज्ञया / दानवानां मुहूर्ताच्च तमानीतं न्यवेदयत् // 25 नैव भोगैश्च मे कार्य मा विहन्यत गच्छत // 12 तमानीतं नृपं दृष्ट्वा रात्रौ संहत्य दानवाः / निश्चितेयं मम मतिः स्थिता प्रायोपवेशने / प्रहृष्टमनसः सर्वे किंचिदुत्फुल्ललोचनाः। गच्छध्वं नगरं सर्वे पूज्याश्च गुरवो मम // 13 साभिमानमिदं वाक्यं दुर्योधनमथाब्रुवन् // 26 त एवमुक्ताः प्रत्यूचू राजानमरिमर्दनम्। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि . या गतिस्तव राजेन्द्र सास्माकमपि भारत / / एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 239 // कथं वा संप्रवेक्ष्यामरत्वहिहीनाः पुरं वयम् // 14 स सुहृद्भिरमात्यैश्च भ्रातृभिः स्वजनेन च / दानवा ऊचुः। बहुप्रकारमप्युक्तो निश्चयान्न व्यचाल्यत / / 15 / | भोः सुयोधन राजेन्द्र भरतानां कुलोद्वह। दर्भप्रस्तरमास्तीर्य निश्चयाद्धृतराष्ट्रजः / शूरैः परिवृतो नित्यं तथैव च महात्मभिः // 1 - 718 -
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________________ 3. 240. 2] आरण्यकपर्व [3. 240. 28 अकार्षीः साहसमिदं कस्मात्प्रायोपवेशनम् / तेऽपि शक्त्या महात्मानः प्रतियोत्स्यन्ति पाण्डवाः / आत्मत्यागी ह्यवाग्याति वाच्यतां चायशस्करीम् // 2 वधं चैषां करिष्यन्ति दैवयुक्ता महाबलाः // 16 न हि कार्यविरुद्धेषु बह्वपायेषु कर्मसु। . दैत्यरक्षोगणाश्चापि संभूताः क्षत्रयोनिषु। मूलघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः // 3 योत्स्यन्ति युधि विक्रम्य शत्रुभिस्तव पार्थिव / : नियच्छता मतिं राजन्धर्मार्थसुखनाशिनीम् / गदाभिर्मुसलैः खङ्गैः शस्त्रैरुच्चावचैस्तथा // 17, यशःप्रतापधैर्यनीं शत्रूणां हर्षवर्धनीम् // 4 यञ्च तेऽन्तर्गतं वीर भयमर्जुनसंभवम् / .: श्रूयतां च प्रभो तत्त्वं दिव्यतां चात्मनो नृप। . तत्रापि विहितोऽस्माभिर्वधोपायोऽर्जुनस्य वै // 18 निर्माणं च शरीरस्य ततो धैर्यमवाप्नुहि // 5 / हतस्य नरकस्यात्मा कर्णमूर्तिमुपाश्रितः / पुरा त्वं तपसास्माभिर्लब्धो देवान्महेश्वरात् / / तद्वैरं संस्मरन्वीर योत्स्यते केशवार्जुनौ // 19: पूर्वकायश्च सर्वस्ते निर्मितो वनसंचयैः // 6 स ते विक्रमशौण्डीरो रणे पार्थं विजेष्यति। अस्त्रैरभेद्यः शस्त्रैश्चाप्यधःकायश्च तेऽनघ। कर्णः प्रहरतां श्रेष्ठः सर्वांश्वारीन्महारथः // 20 ; कृतः पुष्पमयो देव्या रूपतः स्त्रीमनोहरः // 7 . ज्ञात्वैतच्छद्मना वज्री रक्षार्थं सव्यसाचिनः / एवमीश्वरसंयुक्तस्तव देहो नृपोत्तम / कुण्डले कवचं चैव कर्णस्यापहरिष्यति // 21 : देव्या च राजशार्दूल दिव्यस्त्वं हि न मानुषः // 8 तस्मादस्माभिरप्यत्र दैत्याः शतसहस्रशः / क्षत्रियाश्च महावीर्या भगदत्तपुरोगमाः / नियुक्ता राक्षसाश्चैव ये ते संशप्तका इति। दिव्यास्त्रविदुषः शूराः क्षपयिष्यन्ति ते रिपून // 9 प्रख्यातास्तेऽर्जुनं वीरं निहनिष्यन्ति मा शुचः॥२२ तदलं ते विषादेन भयं तव न विद्यते। असपत्ना त्वया हीयं भोक्तव्या वसुधा नृप। साह्यार्थं च हि ते वीराः संभूता भुवि दानवाः / / 10 मा विषादं नयस्वास्मान्नैतत्त्वय्युपपद्यते। भीष्मद्रोणकृपादींश्च प्रवेक्ष्यन्त्यपरेऽसुराः। विनष्टे त्वयि चास्माकं पक्षो हीयेत कौरव // 23 यैराविष्टा घृणां त्यक्त्वा योत्स्यन्ते तव वैरिभिः॥११ गच्छ वीर न ते बुद्धिरन्या कार्या कथंचन / नैव पुत्रान्न च भ्रातृन्न पितृन्न च बान्धवान् / त्वमस्माकं गतिर्नित्यं देवतानां च पाण्डवाः // 24 नैव शिष्यान्न च ज्ञातीन्न बालान्स्थविरान्न च // 12 वैशंपायन उवाच / युधि संप्रहरिष्यन्तो मोक्ष्यन्ति कुरुसत्तम / एवमुक्त्वा परिष्वज्य दैत्यास्तं राजकुअरम् / निःस्नेहा दानवाविष्टाः समाक्रान्तेऽन्तरात्मनि // 13 समाश्वास्य च दुर्धर्ष पुत्रवदानवर्षभाः // 25 :प्रहरिष्यन्ति बन्धुभ्यः स्नेहमुत्सृज्य दूरतः। - स्थिरां कृत्वा बुद्धिमस्य प्रियाण्युक्त्वा च भारत / हृष्टाः पुरुषशार्दूलाः कलुषीकृतमानसाः। गम्यतामित्यनुज्ञाय जयमाप्नुहि चेत्यथ // 26 .. अविज्ञानविमूढाश्च दैवाच्च विधिनिर्मितात् // 14 / / तैर्विसृष्टं महाबाहुं कृत्या सैवानयत्पुनः / व्याभाषमाणाश्चान्योन्यं न मे जीवन्विमोक्ष्यसे / तमेव देशं यत्रासौ तदा प्रायमुपाविशत् // 27 : सर्वशस्त्रास्त्रमोक्षेण पौरुषे समवस्थिताः। प्रतिनिक्षिप्य तं वीरं कृत्या समभिपूज्य च।। श्लाघमानाः कुरुश्रेष्ठ करिष्यन्ति जनक्षयम् // 15 / अनुज्ञाता च राज्ञा सा तत्रैवान्तरधीयत // 28 -719 -
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________________ 3. 240. 29 ] महाभारते [ 3. 241.5 गतायामथ तस्यां तु राजा दुर्योधनस्तदा / रथनागाश्वकलिलां पदातिजनसंकुलाम् / / 41 स्वप्नभूतमिदं सर्वमचिन्तयत भारत / गङ्गौघप्रतिमा राजन्प्रयाता सा महाचमूः / विजेष्यामि रणे पाण्डूनिति तस्याभवन्मतिः // 29 / श्वेतच्छत्रैः पताकाभिश्चामरैश्च सुपाण्डुरैः // 42 कर्णं संशप्तकांश्चैव पार्थस्यामित्रघातिनः। रथै गैः पदातैश्च शुशुभेऽतीव संकुला / अमन्यत वधे युक्तान्समर्थांश्च सुयोधनः // 30 व्यपेताभ्रघने काले द्यौरिवाव्यक्तशारदी / / 43 एवमाशा दृढा तस्य धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः / जयाशीभिर्द्विजेन्द्रैस्तु स्तूयमानोऽधिराजवत् / विनिर्जये पाण्डवानामभवद्भरतर्षभ // 31 गृहन्नञ्जलिमालाश्च धार्तराष्ट्रो जनाधिपः // 44 कर्णोऽप्याविष्टचित्तात्मा नरकस्यान्तरात्मना। सुयोधनो ययावग्रे श्रिया परमया ज्वलन् / अर्जुनस्य वधे क्रूरामकरोत्स मतिं तदा // 32 कर्णेन सार्धं राजेन्द्र सौबलेन च देविना / / 45 संशप्तकाश्च ते वीरा राक्षसाविष्टचेतसः / दुःशासनादयश्चास्य भ्रातरः सर्व एव ते। . रजस्तमोभ्यामाक्रान्ताः फल्गुनस्य वधैषिणः / / 33 भूरिश्रवाः सोमदत्तो महाराजश्च बाह्निकः // 46 भीष्मद्रोणकृपाद्याश्च दानवाक्रान्तचेतसः / स्थैर्नानाविधाकारैर्हयैर्गजवरैस्तथा। न तथा पाण्डुपुत्राणां स्नेहवन्तो विशां पते। प्रयान्तं नृपसिंहं तमनुजग्मुः कुरूद्वहाः / न चाचचक्षे कस्मैचिदेतद्राजा सुयोधनः // 34 कालेनाल्पेन राजंस्ते विविशुः स्वपुरं तदा // 47 दुर्योधनं निशान्ते च कर्णो वैकर्तनोऽब्रवीत् / / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि स्मयन्निवाञ्जलिं कृत्वा पार्थिवं हेतुमद्वचः // 35 चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 24 // न मृतो जयते शत्रूञ्जीवन्भद्राणि पश्यति / 241 मृतस्य भद्राणि कुतः कौरवेय कुतो जयः / जनमेजय उवाच / न कालोऽद्य विषादस्य भयस्य मरणस्य वा // 36 | वसमानेषु पार्थेषु वने तस्मिन्महात्मसु / परिष्वज्याब्रवीच्चैनं भुजाभ्यां स महाभुजः / धार्तराष्ट्रा महेष्वासाः किमकुर्वन्त सत्तम // 1 उत्तिष्ठ राजन्कि शेषे कस्माच्छोचसि शत्रुहन् / कर्णो वैकर्तनश्चापि शकुनिश्च महाबलः / शत्रून्प्रताप्य वीर्येण स कथं मर्तुमिच्छसि // 37 भीष्मद्रोणकृपाश्चैव तन्मे शंसितुमर्हसि // 2 अथ वा ते भयं जातं दृष्ट्वार्जुनपराक्रमम् / - वैशंपायन उवाच / सत्यं ते प्रतिजानामि वधिष्यामि रणेऽर्जुनम् // 38 | एवं गतेषु पार्थेषु विसृष्टे च सुयोधने / गते त्रयोदशे वर्षे सत्येनायुधमालभे / आगते हास्तिनपुरं मोक्षिते पाण्डुनन्दनैः / आनयिष्याम्यहं पार्थान्वशं तव जनाधिप॥३९ भीष्मोऽब्रवीन्महाराज धार्तराष्ट्रमिदं वचः // 3 एवमुक्तस्तु कर्णेन दैत्यानां वचनात्तथा। उक्तं तात मया पूर्वं गच्छतस्ते तपोवनम् / प्रणिपातेन चान्येषामुदतिष्ठत्सुयोधनः / गमनं मे न रुचितं तव तन्न कृतं च ते॥ 4 दैत्यानां तद्वचः श्रुत्वा हृदि कृत्वा स्थिरां मतिम् // 40 ततः प्राप्तं त्वया वीर ग्रहणं शत्रुभिर्बलात् / ततो मनुजशार्दूलो योजयामास वाहिनीम् / मोक्षितश्चासि धर्मज्ञैः पाण्डवैन च लजसे // 5 -720 -
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________________ 3. 241. 6] आरण्यकपर्व - [3. 241. 33 प्रत्यक्षं तव गान्धारे ससैन्यस्य विशां पते / मम स्पृहा समुत्पन्ना तां संपादय सूतज // 19 सूतपुत्रोऽपयाद्भीतो गन्धर्वाणां तदा रणात् / एवमुक्तस्ततः कर्णो राजानमिदमब्रवीत् / क्रोशतस्तव राजेन्द्र ससैन्यस्य नृपात्मज // 6 तवाद्य पृथिवीपाला वश्याः सर्वे नृपोत्तम // 20 दृष्टस्ते विक्रमश्चैव पाण्डवानां महात्मनाम् / आहूयन्तां द्विजवराः संभाराश्च यथाविधि / कर्णस्य च महाबाहो सूतपुत्रस्य दुर्मतेः // 7 संभ्रियन्तां कुरुश्रेष्ठ यज्ञोपकरणानि च // 21 न चापि पादभाकर्णः पाण्डवानां नृपोत्तम / ऋत्विजश्च समाहूता यथोक्तं वेदपारगाः / धनुर्वेदे च शौर्ये च धर्मे वा धर्मवत्सल // 8 क्रियां कुर्वन्तु ते राजन्यथाशास्त्रमरिंदम // 22 तस्य तेऽहं क्षमं मन्ये पाण्डवैस्तैर्महात्मभिः / बन्नपानसंयुक्तः सुसमृद्धगुणान्वितः / संधि संधिविदां श्रेष्ठ कुलस्यास्य विवृद्धये // 9 प्रवर्ततां महायज्ञस्तवापि भरतर्षभ // 23 एवमुक्तस्तु भीष्मेण धार्तराष्ट्रो जनेश्वरः / एवमुक्तस्तु कर्णेन धार्तराष्ट्रो विशां पते / प्रहस्य सहसा राजन्विप्रतस्थे ससौंबलः // 10 पुरोहितं समानाय्य इदं वचनमब्रवीत् // 24 तं तु प्रस्थितमाज्ञाय कर्णदुःशासनादयः। राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं समाप्तवरदक्षिणम् / अनुजग्मुर्महेष्वासा धार्तराष्ट्र महाबलम् / / 11 आहर त्वं मम कृते यथान्यायं यथाक्रमम् // 25 तांस्तु संप्रस्थितान्दृष्ट्वा भीष्मः कुरुपितामहः।। स एवमुक्तो नृपतिमुवाच द्विजपुंगवः / लज्जया वीडितो राजञ्जगाम स्वं निवेशनम् // 12 न स शक्यः क्रतुश्रेष्ठो जीवमाने युधिष्ठिरे / गते भीष्मे महाराज धार्तराष्ट्रो जनाधिपः / आहतुं कौरवश्रेष्ठ कुले तव नृपोत्तम // 26 पुनरागम्य तं देशममन्त्रयत मत्रिभिः // 13 दीर्घायुर्जीवति च वै धृतराष्ट्रः पिता तव / किमस्माकं भवेच्छ्रेयः किं कार्यमवशिष्यते / अतश्चापि विरुद्धस्ते क्रतुरेष नृपोत्तम // 27 कथं नु सुकृतं च स्यान्मत्रयामास भारत // 14 अस्ति त्वन्यन्महत्सत्रं राजसूयसमं प्रभो। .. कर्ण उवाच। तेन त्वं यज राजेन्द्र शृणु चेदं वचो मम // 28 दुर्योधन निबोधेदं यत्त्वा वक्ष्यामि कौरव / य इमे पृथिवीपालाः करदास्तव पार्थिव / श्रुत्वा च तत्तथा सर्व कर्तुमर्हस्यरिंदम // 15 ते करान्संप्रयच्छन्तु सुवर्णं च कृताकृतम् // 29 तवाद्य पृथिवी वीर निःसपत्ना नृपोत्तम / तेन ते क्रियतामद्य लाङ्गलं नृपसत्तम / तां पालय यथा शको हतशत्रुर्महामनाः // 16 यज्ञवाटस्य ते भूमिः कृष्यतां तेन भारत // 30 वैशंपायन उवाच / तत्र यज्ञो नृपश्रेष्ठ प्रभूतान्नः सुसंस्कृतः / एवमुक्तस्तु कर्णेन कर्णं राजाब्रवीत्पुनः / प्रवर्ततां यथान्यायं सर्वतो ह्यनिवारितः // 31 न किंचिडुर्लभं तस्य यस्य त्वं पुरुषर्षभ // 17 एष ते वैष्णवो नाम यज्ञः सत्पुरुषोचितः / सहायश्चानुरक्तश्च मदर्थं च समुद्यतः / एतेन नेष्टवान्कश्चिदृते विष्णुं पुरातनम् // 32 अभिप्रायस्तु मे कश्चित्तं वै शृणु यथातथम् // 18 - राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं स्पर्धत्येष महाक्रतुः / राजसूयं पाण्डवस्य दृष्ट्वा क्रतुवरं तदा / अस्माकं रोचते चैव श्रेयश्च तव भारत / अ.भा. 91 - 721 -
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________________ 3. 241. 33 ] महाभारते [3. 242. 22 अविनश्च भवेदेष सफला स्यास्पृहा तव // 33 दुर्योधनो महाराज यजते नृपसत्तमः // 8 एवमुक्तस्तु तैर्विप्रैर्धार्तराष्ट्रो महीपतिः / स्ववीर्यार्जितमाँघमवाप्य कुरुनन्दनः / कर्ण च सौबलं चैव भ्रातृ॑श्चैवेदमब्रवीत् // 34 तत्र गच्छन्ति राजानो ब्राह्मणाश्च ततस्ततः॥९ रोचते मे वचः कृत्स्नं ब्राह्मणानां न संशयः / अहं तु प्रेषितो राजन्कौरवेण महात्मना / रोचते यदि युष्माकं तन्मा प्रब्रूत माचिरम् // 35 आमन्नयति वो राजा धार्तराष्ट्रो जनेश्वरः / एवमुक्तास्तु ते सर्वे तथेत्यूचुनराधिपम् / मनोभिलषितं राज्ञस्तं क्रतुं द्रष्टुमर्हथ // 10 संदिदेश ततो राजा व्यापारस्थान्यथाक्रमम् // 36 ततो युधिष्ठिरो राजा तच्छ्रुत्वा दूतभाषितम् / हलस्य करणे चापि व्यादिष्टाः सर्वशिल्पिनः / अब्रवीन्नृपशार्दूलो दिष्टया राजा सुयोधनः / यथोक्तं च नृपश्रेष्ठ कृतं सर्व यथाक्रमम् // 37 यजते ऋतुमुख्येन पूर्वेषां कीर्तिवर्धनः // 11 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि वयमप्युपयास्यामो न त्विदानी कथंचन / . एकचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 241 // समयः परिपाल्यो नो यावद्वर्ष त्रयोदशम् // 12 242 श्रुत्वैतद्धर्मराजस्य भीमो वचनमब्रवीत्। वैशंपायन उवाच / तदा तु नृपतिर्गन्ता धर्मराजो युधिष्ठिरः // 13 ततस्तु शिल्पिनः सर्वे अमात्यप्रवराश्च ह। अस्त्रशस्त्रप्रदीप्तेऽग्नौ यदा तं पातयिष्यति / विदुरश्च महाप्राज्ञो धार्तराष्ट्रे न्यवेदयत् // 1 वर्षात्रयोदशादृय रणसत्रे नराधिपः // 14. सज्जं क्रतुवरं राजन्कालप्राप्तं च भारत / यदा क्रोधहविर्मोक्ता धार्तराष्ट्रेषु पाण्डवः / सौवर्णं च कृतं दिव्यं लागलं सुमहाधनम् // 2 आगन्तारस्तदा स्मेति वाच्यस्ते स सुयोधनः // 1 / एतच्छ्रुत्वा नृपश्रेष्ठो धार्तराष्ट्रो विशां पते / शेषास्तु पाण्डवा राजन्नैवोचुः किंचिदप्रियम् / आज्ञापयामास नृपः क्रतुराजप्रवर्तनम् // 3 दूतश्चापि यथावृत्तं धार्तराष्ट्र न्यवेदयत् // 16 ततः प्रववृते यज्ञः प्रभूतान्नः सुसंस्कृतः / अथाजग्मुर्नरश्रेष्ठा नानाजनपदेश्वराः / दीक्षितश्चापि गान्धारियथाशास्त्रं यथाक्रमम् // 4 ब्राह्मणाश्च महाभागा धार्तराष्ट्रपुरं प्रति // 17 प्रहृष्टो धृतराष्ट्रोऽभूद्विदुरश्च महायशाः / ते त्वर्चिता यथाशास्त्रं यथावणं यथाक्रमम् / भीष्मो द्रोणः कृपः कर्णो गान्धारी च यशस्विनी॥५ मुदा परमया युक्ताः प्रीत्या चापि नरेश्वर // 18 निमश्रणा) दूतांश्च प्रेषयामास शीघ्रगान् / धृतराष्टोऽपि राजेद्र संवृतः सर्वकौरवैः / पार्थिवानां च राजेन्द्र ब्राह्मणानां तथैव च / हर्षेण महता युक्तो विदुरं प्रत्यभाषत // 19 ते प्रयाता यथोद्दिष्टं दूतास्त्वरितवाहनाः // 6 यथा सुखी जनः सर्वः क्षत्तः स्यादन्नसंयुतः। तत्र कंचित्प्रयातं तु दूतं दुःशासनोऽब्रवीत्। तुष्येच्च यज्ञसदने तथा क्षिप्रं विधीयताम् // 20 गच्छ द्वैतवनं शीघ्रं पाण्डवान्पापपूरुषान् / विदुरस्त्वेवमाज्ञप्तः सर्ववर्णानारदम / निमन्त्रय यथान्यायं विप्रास्तस्मिन्महावने // 7 यथाप्रमाणतो विद्वान्पूजयामास धर्मवित् // 21 स गत्वा पाण्डवावासमुवाचाभिप्रणम्य तान्। / भक्ष्यभोज्यानपानेन माल्यैश्चापि सुगन्धिभिः। -722 -
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________________ 3. 242. 22 ] आरण्यकपर्व [ 3. 243. 23 243 वासोभिर्विविधैश्चैव योजयामास हृष्टवत् // 22 / | आहृतेऽहं नरश्रेष्ठ त्वां सभाजयिता पुनः // 10. कृत्वा ह्यवभृथं वीरो यथाशास्त्रं यथाक्रमम् / / तमब्रवीन्महाराजो धार्तराष्ट्रो महायशाः / सान्त्वयित्वा च राजेन्द्रो दत्त्वा च विविधं वसु / सत्यमेतत्त्वया वीर पाण्डवेषु दुरात्मसु // 11 . विसर्जयामास नृपान्ब्राह्मणांश्च सहस्रशः // 23 निहतेषु नरश्रेष्ठ प्राप्ते चापि महाक्रतौ / विसर्जयित्वा स नृपान्भ्रातृभिः परिवारितः / राजसूये पुनर्वीर त्वं मां संवर्धयिष्यसि // 12 विवेश हास्तिनपुरं सहितः कर्णसौबलैः // 24 एवमुक्त्वा महाप्राज्ञः कर्णमाश्लिष्य भारत / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि राजसूयं क्रतुश्रेष्ठं चिन्तयामास कौरवः // 13 द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 242 // सोऽब्रवीत्सुहृदश्चापि पार्श्वस्थान्नपसत्तमः / कदा तु तं क्रतुवरं राजसूयं महाधनम् / वैशंपायन उवाच / निहत्य पाण्डवान्सर्वानाहरिष्यामि कौरवाः // 14 प्रविशन्तं महाराज सूतास्तुष्टुवुरच्युतम् / तमब्रवीत्तदा कर्णः शृणु मे राजकुञ्जर / जनाश्चापि महेष्वासं तुष्टुवू राजसत्तमम् // 1 पादौ न धावये तावद्यावन्न निहतोऽर्जुनः // 15 लाजैश्चन्दनचूर्णैश्चाप्यवकीर्य जनास्तदा / अथोत्क्रुष्टं महेष्वासैर्धार्तराष्ट्रमहारथैः / ऊचुर्दिष्टया नृपाविघ्नात्समाप्तोऽयं क्रतुस्तव // 2 प्रतिज्ञाते फल्गुनस्य वधे कर्णेन संयुगे। अपरे त्वब्रुवंस्तत्र वातिकास्तं महीपतिम् / विजितांश्चाप्यमन्यन्त पाण्डवान्धृतराष्ट्रजाः // 16 युधिष्ठिरस्य यज्ञेन न समो ह्येष ते क्रतुः। दुर्योधनोऽपि राजेन्द्र विसृज्य नरपुंगवान् / नैव तस्य क्रतोरेष कलामर्हति षोडशीम् // 3 प्रविवेश गृहं श्रीमान्यथा चैत्ररथं प्रभुः / एवं तत्राब्रुवन्केचिद्वातिकास्तं नरेश्वरम् / तेऽपि सर्वे महेष्वासा जग्मुर्वेश्मानि भारत // 17 सुहृदस्त्वब्रुवंस्तत्र अति सर्वानयं क्रतुः // 4 पाण्डवाश्च महेष्वासा दूतवाक्यप्रचोदिताः / ययातिनहुषश्चापि मान्धाता भरतस्तथा / चिन्तयन्तस्तमेवार्थं नालभन्त सुखं क्वचित् // 18 ऋतुमेनं समाहृत्य पूताः सर्वे दिवं गताः // 5 . . भूयश्च चारै राजेन्द्र प्रवृत्तिरुपपादिता / एता वाचः शुभाः शृण्वन्सुहृदां भरतर्षभ / प्रतिज्ञा सूतपुत्रस्य विजयस्य वधं प्रति // 19 प्रविवेश पुरं हृष्टः स्ववेश्म च नराधिपः // 6 एतच्छ्रुत्वा धर्मसुतः समुद्विग्नो नराधिप / अभिवाद्य ततः पादौ मातापित्रोर्विशां पते / अभेद्यकवचं मत्वा कर्णमद्भुतविक्रमम् / भीष्मंद्रोणकृपाणां च विदुरस्य च धीमतः॥ 7 अनुस्मरंश्च संक्लेशान्न शान्तिमुपयाति सः॥२० अभिवादितः कनीयोभिर्धातृभिर्धातृवत्सलः / तस्य चिन्तापरीतस्य बुद्धिर्जज्ञे महात्मनः / निषसादासने मुख्ये भ्रातृभिः परिवारितः // 8 बहुव्यालमृगाकीणं त्यक्तुं द्वैतवनं वनम् // 21 तमुत्थाय महाराज सूतपुत्रोऽब्रवीद्वचः / धार्तराष्ट्रोऽपि नृपतिः प्रशशास वसुंधराम् / दिष्ट्या ते भरतश्रेष्ठ समाप्तोऽयं महाक्रतुः // 9 भ्रातृभिः सहितो वीरैर्भीष्मद्रोणकृपैस्तथा // 22 हतेषु युधि पार्थेषु राजसूये तथा त्वया / संगम्य सूतपुत्रेण कर्णेनाहवशोभिना। - 723,
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________________ 3. 243. 23 ] महाभारते [ 3. 245.6 दुर्योधनः प्रिये नित्यं वर्तमानो महीपतिः / उक्तो रात्रौ मृगैरस्मि स्वप्नान्ते हतशेषितैः / पूजयामास विप्रेन्द्रान्क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः॥ 23 तनुभूताः स्म भद्रं ते दया नः क्रियतामिति // 11 भ्रातृणां च प्रियं राजन्स चकार परंतपः / ते सत्यमाहुः कर्तव्या दयास्माभिर्वनौकसाम् / निश्चित्य मनसा वीरो दत्तभुक्तफलं धनम् // 24 साष्टमासं हि नो वर्षं यदेनानुपयुमहे // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि पुनर्बहुमृगं रम्यं काम्यकं काननोत्तमम् / त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 243 // मरुभूमेः शिरः ख्यातं तृणबिन्दुसरः प्रति / // समाप्तं घोषयात्रापर्व / / तत्रेमा वसतीः शिष्टा विहरन्तो रमेमहि // 13 244 ततस्ते पाण्डवाः शीघ्रं प्रययुर्धर्मकोविदाः / जनमेजय उवाच। ब्राह्मणैः सहिता राजन्ये च तत्र सहोषिताः। दुर्योधनं मोचयित्वा पाण्डुपुत्रा महाबलाः / इन्द्रसेनादिभिश्चैव प्रेष्यैरनुगतास्तदा // 14 किमकापुर्वने तस्मिंस्तन्ममाख्यातुमर्हसि॥१ ते यात्वानुसृतैर्मार्गः स्वन्नैः शुचिजलान्वितैः / वैशंपायन उवाच / ददृशुः काम्यकं पुण्यमाश्रमं तापसायुतम् // 15 ततः शयानं कौन्तेयं रात्री द्वैतवने मृगाः / विविशुस्ते स्म कौरव्या वृता विप्रर्षभैस्तदा। / स्वप्नान्ते दर्शयामासुर्बाष्पकण्ठा युधिष्ठिरम् // 2 / तद्वनं भरतश्रेष्ठाः स्वर्ग सुकृतिनो यथा // 16 तानब्रवीत्स राजेन्द्रो वेपमानान्कृताञ्जलीन् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ब्रूत यद्वक्तुकामाः स्थ के भवन्तः किमिष्यते // 3 चतुश्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 244 // एवमुक्ताः पाण्डवेन कौन्तेयेन यशस्विना। // समाप्तं मृगस्वप्नभयपर्व // प्रत्यब्रुवन्मृगास्तत्र हतशेषा युधिष्ठिरम् // 4 245 वयं मृगा द्वैतवने हतशिष्टाः स्म भारत / वैशंपायन उवाच / नोत्सीदेम महाराज क्रियतां वासपर्ययः // 5 वने निवसतां तेषां पाण्डवानां महात्मनाम् / भवन्तो भ्रातरः शूराः सर्व एवास्त्रकोविदाः / वर्षाण्येकादशातीयुः कृच्छ्रेण भरतर्षभ // 1 कुलान्यल्पावशिष्टानि कृतवन्तो वनौकसाम् // 6 फलमूलाशनास्ते हि सुखार्हा दु:खमुत्तमम् / बीजभूता वयं केचिदवशिष्टा महामते / प्राप्तकालमनुध्यान्तः सेहुरुत्तमपूरुषाः // 2 विवर्धेमहि राजेन्द्र प्रसादात्ते युधिष्ठिर // 7 युधिष्ठिरस्तु राजर्षिरात्मकर्मापराधजम् / / तान्वेपमानान्वित्रस्तान्बीजमात्रावशेषितान् / चिन्तयन्स महाबाहुर्धातॄणां दुःखमुत्तमम् // 3 मृगान्दृष्ट्वा सुदुःखार्तो धर्मराजो युधिष्ठिरः // 8 न सुष्वाप सुखं राजा हृदि शल्यैरिवार्पितः / तांस्तथेत्यब्रवीद्राजा सर्वभूतहिते रतः। दौरात्म्यमनुपश्यंस्तत्काले द्यूतोद्भवस्य हि // 4 तथ्यं भवन्तो ब्रुवते करिष्यामि च तत्तथा // 9 / संस्मरन्परुषा वाचः सूतपुत्रस्य पाण्डवः / इत्येवं प्रतिबुद्धः स रात्र्यन्ते राजसत्तमः / निःश्वासपरमो दीनो बिभ्रत्कोपविषं महत् // 5 अब्रवीत्सहितान्भ्रातृन्दयापन्नो मृगान्प्रति // 10 / अर्जुनो यमजौ चोभी द्रौपदी च यशस्विनी / -724 -
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________________ 3. 245. 6] आरण्यकपर्व [3. 245. 34 स च भीमो महातेजाः सर्वेषामुत्तमो बली। काले पात्रे च हृष्टात्मा राजन्विगतमत्सरः // 20 युधिष्ठिरमुदीक्षन्तः सेहुर्दुःखमनुत्तमम् // 6 / सत्यवादी लभेतायुरनायासमथार्जवी। अवशिष्टमल्पकालं मन्वानाः पुरुषर्षभाः / अक्रोधनोऽनसूयश्च निर्वृतिं लभते पराम् // 21 वपुरन्यदिवाकार्षुरुत्साहामर्षचेष्टितैः // 7 दान्तः शमपरः शश्वत्परिक्लेशं न विन्दति / कस्यचित्त्वथ कालस्य व्यासः सत्यवतीसुतः / न च तप्यति दान्तात्मा दृष्ट्वा परगतां श्रियम् // 22 आजगाम महायोगी पाण्डवानवलोककः // 8 संविभक्ता च दाता च भोगवान्सुखवान्नरः / तमागतमभिप्रेक्ष्य कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / / भवत्यहिंसकश्चैव परमारोग्यमभुते // 23 प्रत्युद्गम्य महात्मानं प्रत्यगृह्णाद्यथाविधि // 9 मान्यान्मानयिता जन्म कुले महति विन्दति / तमासीनमुपासीनः शुश्रूषुर्नियतेन्द्रियः / व्यसनैर्न तु संयोगं प्राप्नोति विजितेन्द्रियः // 24 तोषयन्प्रणिपातेन व्यासं पाण्डवनन्दनः // 10 शुभानुशयबुद्धिर्हि संयुक्तः कालधर्मणा। तानवेक्ष्य कृशान्पौत्रान्वने वन्येन जीवतः / प्रादुर्भवति तद्योगात्कल्याणमतिरेव सः // 25 महर्षिरनुकम्पार्थमब्रवीद्वाष्पगद्गदम् // 11 युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर महाबाहो शृणु धर्मभृतां वर / भगवन्दानधर्माणां तपसो वा महामुने / नातप्ततपसः पुत्र प्राप्नुवन्ति महत्सुखम् // 12 / किं स्विद्वहुगुणं प्रेत्य किं वा दुष्करमुच्यते॥२६ सुखदुःखे हि पुरुषः पर्यायेणोपसेवते / व्यास उवाच। नात्यन्तमसुखं कश्चित्प्राप्नोति पुरुषर्षभ // 13 दानान्न दुष्करतरं पृथिव्यामस्ति किंचन। प्रज्ञावांस्त्वेव पुरुषः संयुक्तः परया धिया / अर्थे हि महती तृष्णा स च दुःखेन लभ्यते॥२७ उदयास्तमयज्ञो हि न शोचति न हृष्यति // 14 परित्यज्य प्रियान्प्राणान्धनार्थं हि महाहवम् / सुखमापतितं सेवेद्दुःखमापतितं सहेत् / प्रविशन्ति नरा वीराः समुद्रमटवीं तथा // 28 कालप्राप्तमुपासीत सस्यानामिव कर्षकः // 15 / कृषिगोरक्ष्यमित्येके प्रतिपद्यन्ति मानवाः / तपसो हि परं नास्ति तपसा विन्दते महत् / / पुरुषाः प्रेष्यतामेके निर्गच्छन्ति धनार्थिनः // 29 नासाध्यं तपसः किंचिदिति बुध्यस्व भारत // 16 तस्य दुःखार्जितस्यैवं परित्यागः सुदुष्करः / सत्यमार्जवमक्रोधः संविभागो दमः शमः / न दुष्करतरं दानात्तस्मादानं मतं मम // 30 अनसूयाविहिंसा च शौचमिन्द्रियसंयमः / विशेषस्त्वत्र विज्ञेयो न्यायेनोपार्जितं धनम् / साधनानि महाराज नराणां पुण्यकर्मणाम् // 17 पात्रे देशे च काले च साधुभ्यः प्रतिपादयेत् // 31 अधर्मरुचयो मूढास्तिर्यग्गतिपरायणाः। अन्यायसमुपात्तेन दानधर्मो धनेन यः / कृच्छ्रां योनिमनुप्राप्य न सुखं विन्दते जनाः // 18 क्रियते न स कर्तारं त्रायते महतो भयात् // 32 इह यत्क्रियते कर्म तत्परत्रोपभुज्यते / पात्रे दानं स्वल्पमपि काले दत्तं युधिष्ठिर / तस्माच्छरीरं युञ्जीत तपसा नियमेन च // 19 / मनसा सुविशुद्धेन प्रेत्यानन्तफलं स्मृतम् // 33 यथाशक्ति प्रयच्छेच्च संपूज्याभिप्रणम्य च / / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / -725 -
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________________ 3. 245. 34 ] महाभारते [3. 246: 27 व्रीहिद्रोणपरित्यागायत्फलं प्राप मुद्गलः // 34 अभिगम्याथ तं विप्रमुवाच मुनिसत्तमः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अन्नार्थिनमनुप्राप्तं विद्धि मां मुनिसत्तम // 13 : पत्रचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः / / 245 // स्वागतं तेऽस्त्विति मुनि मुद्गलः प्रत्यभाषत / 246 पाद्यमाचमनीयं च प्रतिवेद्यान्नमुत्तमम् // 14 युधिष्ठिर उवाच / प्रादात्स तपसोपात्तं क्षुधितायातिथिव्रती।। व्रीहिद्रोणः परित्यक्तः कथं तेन महात्मना। उन्मत्ताय परां श्रद्धामास्थाय स धृतव्रतः // 15 . कस्मै दत्तश्च भगवन्विधिना केन चात्थ मे // 1 ततस्तदन्नं रसवत्स एव क्षुधयान्वितः / प्रत्यक्षधर्मा भगवान्यस्य तुष्टो हि कर्मभिः। बुभुजे कृस्नमुन्मत्तः प्रादात्तस्मै च मुद्गलः // 16 सफलं तस्य जन्माहं मन्ये सद्धर्मचारिणः // 2 भुक्त्वा चान्नं ततः सर्वमुच्छिष्टेनात्मनस्ततः / / ___ व्यास उवाच / अथानुलिलिपेऽङ्गानि जगाम च. यथागतम् // 17 शिलोञ्छवृत्तिधर्मात्मा मुद्गलः संशितव्रतः / एवं द्वितीये संप्राप्ते पर्वकाले मनीषिणः / '' आसीद्राजन्कुरुक्षेत्रे सत्यवागनसूयकः // 3 आगम्य बुभुजे सर्वमन्नमुञ्छोपजीविनः / / 18 अतिथिव्रती क्रियावांश्च कापोती वृत्तिमास्थितः / निराहारस्तु स मुनिरुञ्छमार्जयते पुनः / सत्रमिष्टीकृतं नाम समुपास्ते महातपाः // 4 न चैनं विक्रियां नेतुमशकन्मुद्गलं क्षुधा // 19 सपुत्रदारो हि मुनिः पक्षाहारो बभूव सः। न क्रोधो न च मात्सर्यं नावमानो न संभ्रमः। . कपोतवृत्त्या पक्षेण व्रीहिद्रोणमुपार्जयत् // 5 सपुत्रदारमुञ्छन्तमाविवेश द्विजोत्तमम् / / 20 दर्श च पौर्णमासं च कुर्वन्विगतमत्सरः / तथा तमुञ्छधर्माणं दुर्वासा मुनिसत्तमम् / देवतातिथिशेषेण कुरुते देहयापनम् // 6 उपतस्थे यथाकालं षट्कृत्वः कृतनिश्चयः // 21 तस्येन्द्रः सहितो देवैः साक्षात्रिभुवनेश्वरः / न चास्य मानसं किंचिद्विकारं ददृशे मुनिः। . प्रत्यगृह्णान्महाराज भागं पर्वणि पर्वणि // 7 शुद्धसत्त्वस्य शुद्धं स ददृशे निर्मलं मनः // 22 स पर्वकालं कृत्वा तु मुनिवृत्त्या समन्वितः / तमुवाच ततः प्रीतः स मुनिर्मुद्गलं तदा / अतिथिभ्यो ददावन्नं प्रहृष्टेनान्तरात्मना // 8 त्वत्समो नास्ति लोकेऽस्मिन्दाता मात्सर्यवर्जितः॥ व्रीहिद्रोणस्य तदहो ददतोऽन्नं महात्मनः / क्षुद्धर्मसंज्ञां प्रणुदत्यादत्ते धैर्यमेव च / शिष्टं मात्सर्यहीनस्य वर्धत्यतिथिदर्शनात् // 9 विषयानुसारिणी जिह्वा कर्षत्येव रसान्प्रति // 24 तच्छतान्यपि भुञ्जन्ति ब्राह्मणानां मनीषिणाम् / आहारप्रभवाः प्राणा मनो दुर्निग्रहं चलम् / मुनेस्त्यागविशुद्ध्या तु तदन्नं वृद्धिमृच्छति // 10 मनसश्चेन्द्रियाणां चाप्यैकाग्र्यं निश्चितं तपः॥२५ तं तु शुश्राव धर्मिष्ठं मुद्गलं संशितव्रतम् / श्रमेणोपार्जितं त्यक्तुं दुःखं शुद्धेन चेतसा / दुर्वासा नृप दिग्वासास्तमथाभ्याजगाम ह / / 11 / तत्सर्वं भवता साधो यथावदुपपादितम् // 26 . बिभ्रञ्चानियतं वेषमुन्मत्त इव पाण्डव / प्रीताः स्मोऽनुगृहीताश्च समेत्य भवता सह / विकचः परुषा वाचो व्याहरन्विविधा मुनिः // 12 / इन्द्रियाभिजयो धैर्य संविभागो दमः शमः // 27 -726 -
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________________ 3. 246. 28 ] आरण्यकपर्व [ 3. 247. 19 दया सत्यं च धर्मश्च त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम् / तत्र गच्छन्ति कर्माग्र्यं कृत्वा शमदमात्मकम् / जितास्ते कर्मभिर्लोकाः प्राप्तोऽसि परमां गतिम् / / लोकान्पुण्यकृतां ब्रह्मन्सद्भिरासेवितान्नभिः // 5 . : अहो दानं विघुष्टं ते सुमहत्स्वर्गवासिभिः / देवाः साध्यास्तथा विश्वे मरुतश्च महर्षिभिः। . सशरीरो भवान्गन्ता स्वर्ग सुचरितव्रत // 29 यामा धामाश्च मौद्गल्य गन्धर्वाप्सरसस्तथा // 6 इत्येवं वदतस्तस्य तदा दुर्वाससो मुनेः / एषां देवनिकायानां पृथक्पृथगनेकशः। देवदूतो विमानेन मुद्गलं प्रत्युपस्थितः // 30 भास्वन्तः कामसंपन्ना लोकास्तेजोमयाः शुभाः // हंससारसयुक्तेन किङ्किणीजालमालिना। . त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि योजनानां हिरण्मयः / कामगेन विचित्रेण दिव्यगन्धवता तथा // 31 मेरुः पर्वतराड्यत्र देवोद्यानानि मुद्गल // 8 . उवाच चैनं विप्रर्षि विमानं कर्मभिर्जितम् / . नन्दनादीनि पुण्यानि विहाराः पुण्यकर्मणाम् / समुपारोह संसिद्धि प्राप्तोऽसि परमां मुने // 32 न क्षुत्पिपासे न ग्लानिन शीतोष्णभयं तथा // 9 तमेवंवादिनमृषिर्देवदूतमुवाच ह। बीभत्समशुभं वापि रोगा वा तत्र केचन। इच्छामि भवता प्रोक्तान्गुणान्स्वर्गनिवासिनाम् / मनोज्ञाः सर्वतो गन्धाः सुखस्पर्शाश्च सर्वशः॥ 10 के गुणास्तत्र वसतां किं तपः कश्च निश्चयः / शब्दाः श्रुतिमनोग्राह्याः सर्वतस्तत्र वै मुने / स्वर्गे स्वर्गसुखं किं च दोषो वा देवदूतक // 34 न शोको न जरा तत्र नायासपरिदेवने // 11 / सतां सप्तपदं मित्रमाहुः सन्तः कुलोचिताः / ईदृशः स मुने लोकः स्वकर्मफलहेतुकः / मित्रतां च पुरस्कृत्य पृच्छामि त्वामहं विभो॥३५ | सुकृतस्तत्र पुरुषाः संभवन्त्यात्मकर्मभिः // 12 यदत्र तथ्यं पथ्यं च तद्भवीह्यविचारयन्। तैजसानि शरीराणि भवन्त्यत्रोपपद्यताम् / श्रुत्वा तथा करिष्यामि व्यवसायं गिरा तव // 36 कर्मजान्येव मौद्गल्य न मातृपितृजान्युत // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि न च स्वेदो न दौर्गन्ध्यं पुरीषं मूत्रमेव च। षट्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 246 // तेषां न च रजो वसं बाधते तत्र वै मुने // 14 247 देवदूत उवाच न म्लायन्ति स्रजस्तेषां दिव्यगन्धा मनोरमाः। महर्षेऽकार्यबुद्धिस्त्वं यः स्वर्गसुखमुत्तमम् / पर्युह्यन्ते विमानैश्च ब्रह्मन्नेवंविधाश्च ते // 15: संप्राप्तं बहु मन्तव्यं विमृशस्यबुधो यथा // 1 ईर्ष्याशोकलमापेता मोहमात्सर्यवर्जिताः / उपरिष्टादसौ लोको योऽयं स्वरिति संज्ञितः / सुखं स्वर्गजितस्तत्र वर्तयन्ति महामुने // 16 ऊर्ध्वगः सत्पथः शश्वदेवयानचरो मुने // 2 तेषां तथाविधानां तु लोकानां मुनिपुंगव / / नातप्ततपसः पुंसो नामहायज्ञयाजिनः / उपर्युपरि शक्रस्य लोका दिव्यगुणान्विताः // 17 नानृता नास्तिकाश्चैव तत्र गच्छन्ति मुद्गल // 3 पुरस्ताद्ब्रह्मणस्तत्र लोकास्तेजोमयाः शुभाः। धर्मात्मानो जितात्मानः शान्ता दान्ता विमत्सराः। यत्र यान्त्यषयो ब्रह्मन्पूताः स्वैः कर्मभिः शुभैः // 18 दानधर्मरताः पुंसः शूराश्चाहतलक्षणाः / / 4 .. / ऋभवो नाम तत्रान्ये देवानामपि देवताः। . -727 -
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________________ 3. 247. 19 ] महाभारते [ 3. 247. 47 तेषां लोकाः परतरे तान्यजन्तीह देवताः // 19 तत्रापि मुमहाभागः सुखभागभिजायते / स्वयंप्रभास्ते भास्वन्तो लोकाः कामदुघाः परे। न चेत्संबुध्यते तत्र गच्छत्यधमतां ततः // 34 न तेषां स्वीकृतस्तापो न लोकैश्वर्यमत्सरः // 20 इह यत्क्रियते कर्म तत्परत्रोपभुज्यते / न वर्तयन्त्याहुतिभिस्ते नाप्यमृतभोजनाः / कर्मभूमिरियं ब्रह्मन्फलभूमिरसौ मता // 35 तथा दिव्यशरीरास्ते न च विग्रहमूर्तयः // 21 एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां पृच्छसि मुद्गल / न सुखे सुखकामाश्च देवदेवाः सनातनाः / तवानुकम्पया साधो साधु गच्छाम माचिरम् // 36 न कल्पपरिवर्तेषु परिवर्तन्ति ते तथा / / 22 व्यास उवाच / जरा मृत्युः कुतस्तेषां हर्षः प्रीतिः सुखं न च / एतच्छ्रुत्वा तु मौद्गल्यो वाक्यं विममृशे धिया / न दुःखं न सुखं चापि रागद्वेषो कुतो मुने / 23 विमृश्य च मुनिश्रेष्ठो देवदूतमुवाच ह // 37 देवानामपि मौद्गल्य काङ्किता सा गतिः परा। देवदूत नमस्तेऽस्तु गच्छ तात यथासुखम् / .' दुष्प्रापा परमा सिद्धिरगम्या कामगोचरैः // 24 महादोषेण मे कार्यं न स्वर्गेण सुखेन वा // 38 त्रयस्त्रिंशदिमे लोकाः शेषा लोका मनीषिभिः / पतनं तन्महदुःखं परितापः सुदारुणः / गम्यन्ते नियमैः श्रेष्ठैर्दा नैर्वा विधिपूर्वकैः // 25 स्वर्गभाजच्यवन्तीह तस्मात्स्वर्ग न कामये // 39 सेयं दानकृता व्युटिरत्र प्राप्ता सुखावहा / यत्र गत्वा न शोचन्ति न व्यथन्ति चलन्ति वा। तां भुड्क्ष्व सुकृतैर्लब्धां तपसा द्योतितप्रभः // 26 तदहं स्थानमत्यन्तं मार्गयिष्यामि केवलम् // 40 एतत्स्वर्गसुखं विप्र लोका नानाविधास्तथा / इत्युक्त्वा स मुनिर्वाक्यं देवदूतं विसृज्य तम् / गुणाः स्वर्गस्य प्रोक्तास्ते दोषानपि निबोध मे // 27 शिलोञ्छवृत्तिमुत्सृज्य शममातिष्ठदुत्तमम् // 41 कृतस्य कर्मणस्तत्र भुज्यते यत्फलं दिवि / तुल्यनिन्दास्तुतिर्भूत्वा समलोष्टाश्मकाञ्चनः न चान्यत्क्रियते कर्म मूलच्छेदेन भुज्यते // 28 ज्ञानयोगेन शुद्धेन ध्याननित्यो बभूव ह / / 42 सोऽत्र दोषो मम मतस्तस्यान्ते पतनं च यत् / ध्यानयोगाद्बलं लब्ध्वा प्राप्य चर्द्धिमनुत्तमाम् / सुखव्याप्तमनस्कानां पतनं यच्च मुद्गल / / 29 जगाम शाश्वतीं सिद्धिं परां निर्वाणलक्षणाम्॥४३ असंतोषः परीतापो दृष्ट्वा दीप्ततराः श्रियः / तस्मात्त्वमपि कौन्तेय न शोकं कतुमर्हसि / यद्भवत्यवरे स्थाने स्थितानां तच्च दुष्करम् // 30 राज्यास्फीतात्परिभ्रष्टस्तपसा तदवाप्स्यसि // 44 संज्ञामोहश्च पततां रजसा च प्रधर्षणम् / सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् / प्रम्लानेषु च माल्येषु ततः पिपतिषोर्भयम् // 31 / पर्यायेणोपवर्तन्ते नरं नेमिमरा इव // 45 आ ब्रह्मभवनादेते दोषा मौद्गल्य दारुणाः / पितृपैतामहं राज्यं प्राप्स्यस्यमितविक्रम / नाकलोके सुकृतिनां गुणास्त्वयुतशो नृणाम् // 32 / वर्षात्रयोदशादूचं व्येतु ते मानसो ज्वरः // 46 अयं त्वन्यो गुणः श्रेष्ठश्युतानां स्वर्गतो मुने।। वैशंपायन उवाच / शुभानुशययोगेन मनुष्येषूपजायते // 33 एवमुक्त्वा स भगवान्व्यासः पाण्डवनन्दनम् / -728 -
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________________ 3. 247. 47] आरण्यकपर्व [ 3. 249. 4 जगाम तपसे धीमान्पुनरेवाश्रमं प्रति // 47 विवाहार्थो न मे कश्चिदिमां दृष्ट्वातिसुन्दरीम् / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि एतामेवाहमादाय गमिष्यामि स्वमालयम् // 13 सप्तचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२४७॥ गच्छ जानीहि सौम्यैनां कस्य का च कुतोऽपि वा। समाप्तं व्रीहिद्रौणिकपर्व // किमर्थमागता सुभ्ररिदं कण्टकितं वनम् // 14 248 अपि नाम वरारोहा मामेषा लोकसुन्दरी। वैशंपायन उवाच / भजेदद्यायतापाङ्गी सुदती तनुमध्यमा // 15 तस्मिन्बहुमृगेऽरण्ये रममाणा महारथाः। अप्यहं कृतकामः स्यामिमां प्राप्य वरस्त्रियम् / काम्यके भरतश्रेष्ठा विजहस्ते यथामराः // 1 गच्छ जानीहि को न्वस्या नाथ इत्येव कोटिक॥१६ प्रेक्षमाणा बहुविधान्वनोदेशान्समन्ततः / स कोटिकाश्यस्तच्छ्रुत्वा रथात्प्रस्कन्ध कुण्डली। यथर्तुकालरम्याश्च वनराजी: सुपुष्पिताः // 2 उपेत्य पप्रच्छ तदा क्रोष्टा व्याघ्रवधूमिव // 17 पाण्डवा मृगयाशीलाश्चरन्तस्तन्महावनम् / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि विजझुरिन्द्रप्रतिमाः कंचित्कालमरिंदमाः // 3 भष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२४८॥ ततस्ते योगपद्येन ययुः सर्वे चतुर्दिशम् / 249 मृगयां पुरुषव्याघ्रा ब्राह्मणार्थे परंतपाः // 4 कोटिकाश्य उवाच / द्रौपदीमाश्रमे न्यस्य तृणबिन्दोरनुज्ञया / का त्वं कदम्बस्य विनम्य शाखामहर्दीप्ततपसो धौम्यस्य च पुरोधसः // 5 __ मेकाश्रमे तिष्ठसि शोभमाना। ततस्तु राजा सिन्धूनां वार्द्धक्षत्रिमहायशाः / देदीप्यमानाग्निशिखेव नक्तं विवाहकामः शाल्वेयान्प्रयातः सोऽभवत्तदा // 6 __दोधूयमाना पवनेन सुभ्रः // 1 महता परिबर्हेण राजयोग्येन संवृतः / अतीव रूपेण समन्विता त्वं राजभिर्बहुभिः सार्धमुपायात्काम्यकं च सः // 7 न चाप्यरण्येषु बिभेषि किं नु / तत्रापश्यत्प्रियां भायां पाण्डवानां यशस्विनीम् / देवी नु यक्षी यदि दानवी वा तिष्ठन्तीमाश्रमद्वारि द्रौपदी निर्जने वने // 8 वराप्सरा दैत्यवराङ्गना वा // 2 विभ्राजमानां वपुषा बिभ्रती रूपमुत्तमम् / वपुष्मती वोरगराजकन्या भाजयन्तीं वनोद्देशं नीलाभ्रमिव विद्युतम् // 9 वनेचरी वा क्षणदाचरस्त्री। अप्सरा देवकन्या वा माया वा देवनिर्मिता / यद्येव राज्ञो वरुणस्य पत्नी इति कृत्वाञ्जलिं सर्वे ददृशुस्तामनिन्दिताम् // 10 ___ यमस्य सोमस्य धनेश्वरस्य // 3 ततः स राजा सिन्धूनां वार्द्धक्षत्रिर्जयद्रथः / धातुर्विधातुः सवितुर्विभोर्वा विस्मितस्तामनिन्द्याङ्गी दृष्ट्वासीद्धृष्टमानसः // 11 शक्रस्य वा त्वं सदनात्प्रपन्ना / स कोटिकाश्यं राजानमब्रवीत्काममोहितः। न ह्येव नः पृच्छसि ये वयं स्म कस्य त्वेषानवद्याङ्गी यदि वापि न मानुषी // 12 / न चापि जानीम तवेह नाथम् // 4 म.भा. 92 -729.
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________________ 3. 249. 5] महाभारते [ 3. 250.5 वयं हि मानं तव वर्धयन्तः __पृच्छाम भद्रे प्रभवं प्रभुं च / आचक्ष्व बन्धुंश्च पतिं कुलं च तत्त्वेन यच्चेह करोषि कार्यम् // 5 अहं तु राज्ञः सुरथस्य पुत्रो यं कोटिकाश्येति विदुर्मनुष्याः / असौ तु यस्तिष्ठति काञ्चनाङ्गे रथे हुतोऽग्निश्चयने यथैव / त्रिगर्तराजः कमलायताक्षि क्षेमंकरो नाम स एष वीरः॥ 6 अस्मात्परस्त्वेष महाधनुष्मा न्पुत्रः कुणिन्दाधिपतेर्वरिष्ठः / निरीक्षते त्वां विपुलायतांसः ___ सुविस्मितः पर्वतवासनित्यः // 7 असौ तु यः पुष्करिणीसमीपे __श्यामो युवा तिष्ठति दर्शनीयः / इक्ष्वाकुराज्ञः सुबलस्य पुत्रः स एष हन्ता द्विषतां सुगात्रि // 8 यस्यानुयात्रं ध्वजिनः प्रयान्ति सौवीरका द्वादश राजपुत्राः। शोणाश्वयुक्तेषु रथेषु सर्वे ___ मखेषु दीप्ता इव हव्यवाहाः // 9 अङ्गारकः कुञ्जरगुप्तकश्च शत्रुजयः संजयसुप्रवृद्धौ / प्रभंकरोऽथ भ्रमरो रविश्व शूरः प्रतापः कुहरश्च नाम // 10 यं षट्सहस्रा रथिनोऽनुयान्ति नागा हयाश्चैव पदातिनश्च / जयद्रथो नाम यदि श्रुतस्ते सौवीरराजः सुभगे स एषः॥ 11 तस्यापरे भ्रातरोऽदीनसत्त्वा ___ बलाहकानीकविदारणाद्याः। सौवीरवीराः प्रवरा युवानो राजानमेते बलिनोऽनुयान्ति // 12 एतैः सहायैरुपयाति राजा मरुद्गणैरिन्द्र इवाभिगुप्तः। अजानतां ख्यापय नः सुकेशि कस्यासि भार्या दुहिता च कस्य // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 249 // 250 वैशंपायन उवाच / अथाब्रवीद्रौपदी राजपुत्री ___पृष्टा शिबीनां प्रवरेण तेन / अवेक्ष्य मन्दं प्रविमुच्य शाखां संगृह्णती कौशिकमुत्तरीयम् // 1 बुद्ध्याभिजानामि नरेन्द्रपुत्र न मादृशी त्वामभिभाष्टुमरे / न त्वेह वक्तास्ति तवेह वाक्य मन्यो नरो वाप्यथ वापि नारी // 2 एका ह्यहं संप्रति तेन वाचं ___ ददानि वै भद्र निबोध चेदम् / अहं ह्यरण्ये कथमेकमेका त्वामालपेयं निरता स्वधर्मे // 3 जानामि च त्वां सुरथस्य पुत्रं . यं कोटिकाश्येति विदुर्मनुष्याः / तस्मादहं शैब्य तथैव तुभ्य___माख्यामि बन्धून्प्रति तन्निबोध // 4 अपत्यमस्मि द्रुपदस्य राज्ञः कृष्णेति मां शैब्य विदुर्मनुष्याः। -730 --
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________________ 3. 250. 5 ] आरण्यकपर्व [3. 251. 17 साहं वृणे पञ्च जनान्पतित्वे कोटिकाश्य उवाच / ये खाण्डवप्रस्थगताः श्रुतास्ते // 5 एषा वै द्रौपदी कृष्णा राजपुत्री यशस्विनी / युधिष्ठिरो भीमसेनार्जुनौ च पञ्चानां पाण्डुपुत्राणां महिषी संमता भृशम् // 5 मायाश्च पुत्रौ पुरुषप्रवीरौ / सर्वेषां चैव पार्थानां प्रिया बहुमता सती / ते मां निवेश्येह दिशश्चतस्रो तया समेत्य सौवीर सुवीरान्सुसुखी व्रज // 6 . विभज्य पार्था मृगयां प्रयाताः॥६ वैशंपायन उवाच / प्राची राजा दक्षिणां भीमसेनो एवमुक्तः प्रत्युवाच पश्यामो द्रौपदीमिति / जयः प्रतीची यमजावुदीचीम् / पतिः सौवीरसिन्धूनां दुष्टभावो जयद्रथः // 7 मन्ये तु तेषां रथसत्तमानां स प्रविश्याश्रमं शून्यं सिंहगोष्ठं वृको यथा / कालोऽभितः प्राप्त इहोपयातुम् // 7 आत्मना सप्तमः कृष्णामिदं वचनमब्रवीत् // 8 संमानिता यास्यथ तैर्यथेष्टं कुशलं ते वरारोहे भर्तारस्तेऽप्यनामयाः / विमुच्य वाहानवगाहयध्वम् / येषां कुशलकामासि तेऽपि कच्चिदनामयाः // 9 प्रियातिथिधर्मसुतो महात्मा द्रौपद्युवाच / प्रीतो भविष्यत्यभिवीक्ष्य युष्मान् // 8 कौरव्यः कुशली राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / एतावदुक्त्वा द्रुपदात्मजा सा अहं च भ्रातरश्चास्य यांश्चान्यान्परिपृच्छसि // 10 शैव्यात्मजं चन्द्रमुखी प्रतीता। पाद्यं प्रतिगृहाणेदमासनं च नृपात्मज / विवेश तां पर्णकुटी प्रशस्तां मृगान्पश्चाशतं चैव प्रातराशं ददानि ते // 11 संचिन्त्य तेषामतिथिस्वधर्मम् // 9 ऐणेयान्पृषतान्न्यङ्कन्हरिणाञ्झरभाशशान् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ऋश्यान्रुरूझम्बरांश्च गवयांश्च मृगान्बहून् // 12 पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२५॥ वराहान्महिषांश्चैव याश्चान्या मृगजातयः / 251 प्रदास्यति स्वयं तुभ्यं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः // 13 वैशंपायन उवाच / जयद्रथ उवाच / अथासीनेषु सर्वेषु तेषु राजसु भारत / कुशलं प्रातराशस्य सर्वा मेऽपचितिः कृता / कोटिकाश्यवचः श्रुत्वा शैब्यं सौवीरकोऽब्रवीत्॥१ एहि मे रथमारोह सुखमाप्नुहि केवलम् // 14 पदा वाचं व्याहरन्त्यामस्यां मे रमते मनः।। गतश्रीकांच्युतान्राज्यात्कृपणान्गतचेतसः। सीमन्तिनीनां मुख्यायां विनिवृत्तः कथं भवान् // 2 अरण्यवासिनः पार्थान्नानुरोद्धं त्वमर्हसि // 15 एतां दृष्ट्वा स्त्रियो मेऽन्या यथा शाखामृगस्त्रियः। न वै प्राज्ञा गतश्रीकं भर्तारमुपयुञ्जते / प्रतिभान्ति महाबाहो सत्यमेतद्भवीमि ते // 3 युञ्जानमनुयुञ्जीत न श्रियः संक्षये वसेत् // 16 दर्शनादेव हि मनस्तया मेऽपहृतं भृशम् / श्रिया विहीना राज्याच्च विनष्टाः शाश्वतीः समाः / शां समाचक्ष्व कल्याणीं यदि स्याच्छैन्य मानुषी॥ 4 / अलं ते पाण्डुपुत्राणां भक्त्या क्लेशमुपासितुम् // 17 - 731 -
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________________ 3. 251. 18] महाभारते [ 3. 252. 12 भार्या मे भव सुश्रोणि त्यजैनान्सुखमाप्नुहि / अखिलान्सिन्धुसौवीरानवाप्नुहि मया सह // 18 . वैशंपायन उवाच / इत्युक्ता सिन्धुराजेन वाक्यं हृदयकम्पनम् / कृष्णा तस्मादपाक्रामद्देशात्स<कुटीमुखी॥ 19 अवमत्यास्य तद्वाक्यमाक्षिप्य च सुमध्यमा। मैवमित्यब्रवीत्कृष्णा लज्जस्वेति च सैन्धवम् // 20 सा काङ्क्षमाणा भर्तृणामुपयानमनिन्दिता / विलोभयामास परं वाक्यैर्वाक्यानि युञ्जती // 21 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 251 // 252 वैशंपायन उवाच। सरोषरागोपहतेन वल्गुना ___ सरागनेत्रेण नतोन्नतभ्रुवा। मुखेन विस्फूर्य सुवीरराष्ट्रपं ततोऽब्रवीत्तं द्रुपदात्मजा पुनः // 1 यशस्विनस्तीक्ष्णविषान्महारथा नधिक्षिपन्मूढ न लजसे कथम् / महेन्द्रकल्पान्निरतान्स्वकर्मसु स्थितान्समूहेष्वपि यक्षरक्षसाम् // 2 न किंचिदीड्यं प्रवदन्ति पापं वनेचरं वा गृहमेधिनं वा। तपस्विनं संपरिपूर्णविद्यु भषन्ति हैवं श्वनराः सुवीर // 3 अहं तु मन्ये तव नास्ति कश्चि देतादृशे क्षत्रियसंनिवेशे। यस्त्वाद्य पातालमुखे पतन्तं पाणौ गृहीत्वा प्रतिसंहरेत॥४ नागं प्रभिन्नं गिरिकूटकल्प मुपत्यकां हैमवतीं चरन्तम्। दण्डीव यूथादपसेधसे त्वं यो जेतुमाशंससि धर्मराजम्॥५ बाल्यात्प्रसुप्तस्य महाबलस्य सिंहस्य पक्ष्माणि मुखाल्लुनासि / पदा समाहत्य पलायमानः ___ क्रुद्धं यदा द्रक्ष्यसि भीमसेनम् // 6 महाबलं घोरतरं प्रवृद्धं जातं हरिं पर्वतकन्दरेषु / प्रसुप्तमुग्रं प्रपदेन हसि ___ यः क्रुद्धमासेत्स्यसि जिष्णुमुग्रम् // 7 कृष्णोरगौ तीक्ष्णविषौ द्विजिह्वौ ___ मत्तः पदाक्रामसि पुच्छदेशे। यः पाण्डवाभ्यां पुरुषोत्तमाभ्यां ___ जघन्यजाभ्यां प्रयुयुत्ससे त्वम् // 8 यथा च वेणुः कदली नलो वा फलन्त्यभावाय न भूतयेऽऽत्मनः / तथैव मां तैः परिरक्ष्यमाणामादास्यसे कर्कटकीव गर्भम् // 9 जयद्रथ उवाच। जानामि कृष्णे विदितं ममैत द्यथाविधास्ते नरदेवपुत्राः / न त्वेवमेतेन विभीषणेन शक्या वयं त्रासयितुं त्वयाद्य // 10 वयं पुनः सप्तदशेषु कृष्णे ___कुलेषु सर्वेऽनवमेषु जाताः। षड्भ्यो गुणेभ्योऽभ्यधिका विहीना न्मन्यामहे द्रौपदि पाण्डुपुत्रान् // 11 सा क्षिप्रमातिष्ठ गजं रथं वा न वाक्यमात्रेण वयं हि शक्याः / - 732 -
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________________ 3. 252. 12] आरण्यकपर्व [ 3. 252. 26 ता। आशंस वा त्वं कृपणं वदन्ती माद्रीपुत्रौ संपतन्तौ दिशश्च / सौवीरराजस्य पुनः प्रसादम् // 12 अमर्मजं क्रोधविषं वमन्तौ द्रौपधुवाच / दृष्ट्वा चिरं तापमुपैष्यसेऽधम // 19 / महाबला किं त्विह दुर्बलेव यथा चाहं नातिचरे कथंचि__ सौवीरराजस्य मताहमस्मि / त्पतीन्महान्मिनसापि जातु / याहं प्रमाथादिह संप्रतीता तेनाद्य सत्येन वशीकृतं त्वां सौवीरराजं कृपणं वयम् // 13 . द्रष्टास्मि पाथैः परिकृष्यमाणम् // 20 यस्या हि कृष्णौ पदवीं चरेतां न संभ्रमं गन्तुमहं हि शक्ष्ये समास्थितावेकरथे सहायौ। त्वया नृशंसेन विकृष्यमाणा। इन्द्रोऽपि तां नापहरेत्कथंचि समागताहं हि कुरुप्रवीरैः न्मनुष्यमात्रः कृपणः कुतोऽन्यः॥ 14 पुनर्वनं काम्यकमागता च // 21 यदा किरीटी परवीरघाती वैशंपायन उवाच / निघ्नरथस्थो द्विषतां मनांसि। सा ताननुप्रेक्ष्य विशालनेत्रा मदन्तरे त्ववजिनी प्रवेष्टा जिघृक्षमाणानवभयिन्ती। कक्षं दहन्नग्निरिवोष्णगेषु // 15 प्रोवाच मा मा स्पृशतेति भीता जनार्दनस्यानुगा वृष्णिवीरा धौम्यं प्रचुक्रोश पुरोहितं सा // 22 महेष्वासाः केकयाश्चापि सर्वे / एते हि सर्वे मम राजपुत्राः जग्राह तामुत्तरवस्त्रदेशे प्रहृष्टरूपाः पदवीं चरेयुः // 16 जयद्रथस्तं समवाक्षिपत्सा। मौर्वीविसृष्टाः स्तनयित्नुघोषा तया समाक्षिप्ततनुः स पापः ___ गाण्डीवमुक्तास्त्वतिवेगवन्तः / पपात शाखीव निकृत्तमूलः // 23 / हस्तं समाहत्य धनंजयस्य प्रगृह्यमाणा तु महाजवेन भीमाः शब्दं घोरतरं नदन्ति // 17 - मुहुर्विनिःश्वस्य च राजपुत्री। गाण्डीवमुक्तांश्च महाशरौघा सा कृष्यमाणा रथमारुरोह, .. पतंगसंघानिव शीघ्रवेगान् / धौम्यस्य पादावभिवाद्य कृष्णा // 24 सशङ्खघोषः सतलत्रघोषो धौम्य उवाच / ___ गाण्डीवधन्वा मुहुरुद्वमंश्च / नेयं शक्या त्वया नेतुमविजित्य महारथान् / यदा शरानर्पयिता तवोरसि धर्म क्षत्रस्य पौराणमवेक्षस्व जयद्रथ / / 25 तदा मनस्ते किमिवाभविष्यत् // 18 क्षुद्रं कृत्वा फलं पापं प्राप्स्यसि त्वमसंशयम् / गदाहस्तं भीममभिद्रवन्तं आसाद्य पाण्डवान्वीरान्धर्मराजपुरोगमान् // 26 -733: -
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________________ 3. 252. 27 ] महाभारते [ 3. 253. 18 वैशंपायन उवाच / स्तदाश्रमायाभिमुखा बभूवुः // 6 इत्युक्त्वा द्वियमाणां तां राजपुत्री यशस्विनीम् / तेषां तु गोमायुरनल्पघोषो अन्वगच्छत्तदा धौम्यः पदातिगणमध्यगः // 27 निवर्ततां वाममुपेत्य पार्श्वम् / / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि प्रव्याहरत्तं प्रविमृश्य राजा द्विपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 252 // प्रोवाच भीमं च धनंजयं च // 7 253 यथा वदत्येष विहीनयोनिः वैशंपायन उवाच / शालावृको वाममुपेत्य पार्श्वम् / ततो दिशः संप्रविहृत्य पार्था सुव्यक्तमस्मानवमन्य पापैः मृगान्वराहान्महिषांश्च हत्वा। __ कृतोऽभिमर्दः कुरुभिः प्रसह्य // 8 धनुर्धराः श्रेष्ठतमाः पृथिव्यां इत्येव ते तद्वनमाविशन्तो पृथक्चरन्तः सहिता बभूवुः // 1 महत्यरण्ये मृगयां चरित्वा / ततो मृगव्यालगणानुकीर्ण बालामपश्यन्त तदा रुदन्ती ___ महावनं तद्विहगोपघुष्टम् / धात्रेयिकां प्रेष्यवधू प्रियायाः // .9 भ्रातृ॑श्च तानभ्यवद्द्युधिष्ठिरः तामिन्द्रसेनस्त्वरितोऽभिसृत्य श्रुत्वा गिरो व्याहरतां मृगाणाम् // 2 रथादवप्लुत्य ततोऽभ्यधावत् / आदित्यदीप्तां दिशमभ्युपेत्य प्रोवाच चैनां वचनं नरेन्द्र मृगद्विजाः क्रूरमिमे वदन्ति / ___ धात्रेयिकामार्ततरस्तदानीम् // 10 आयासमुग्रं प्रतिवेदयन्तो किं रोदिषि त्वं पतिता धरण्यां महाहवं शत्रुभिर्वावमानम् // 3 किं ते मुखं शुष्यति दीनवर्णम् / क्षिप्रं निवर्तध्वमलं मृगों कञ्चिन्न पापैः सुनृशंसकृद्भिः __ मनो हि मे दूयति दह्यते च / * प्रमाथिता द्रौपदी राजपुत्री। बुद्धिं समाच्छाद्य च मे समन्यु अनिन्द्यरूपा सुविशालनेत्रा रुद्धूयते प्राणपतिः शरीरे / / 4 / शरीरतुल्या कुरुपुंगवानाम् // 11 सरः सुपर्णेन हृतोरगं यथा यद्येव देवी पृथिवीं प्रविष्टा राष्ट्रं यथाराजकमात्तलक्ष्मि। दिवं प्रपन्नाप्यथ वा समुद्रम् / एवंविधं मे प्रतिभाति काम्यक तस्या गमिष्यन्ति पदं हि पार्थाशौण्डैर्यथा पीतरसश्च कुम्भः // 5 स्तथा हि संतप्यति धर्मराजः // 12 ते सैन्धवैरत्यनिलौघवेगै को हीदृशानामरिमर्दनानां महाजवैर्वाजिभिरुह्यमानाः / क्लेशक्षमाणामपराजितानाम् / युक्तैर्वृहद्भिः सुरथैर्नृवीरा प्राणैः समामिष्टतमां जिहीर्षे-734
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________________ 8. 253. 13] आरण्यकपव [ 3. 253. 28 दनुत्तमं रत्नमिव प्रमूढः। पुरा शृगालो नलिनी विगाहते // 19 न बुध्यते नाथवतीमिहाद्य मा वः प्रियायाः सुनसं सुलोचनं बहिश्चरं हृदयं पाण्डवानाम् // 13 चन्द्रप्रभाच्छं वदनं प्रसन्नम् / कस्याद्य कायं प्रतिभिद्य घोरा स्पृश्याच्छुभं कश्चिदकृत्यकारी महीं प्रवेक्ष्यन्ति शिताः शराग्र्याः। श्वा वै पुरोडाशमिवोपयुकीत्। मा त्वं शुचस्तां प्रति भीरु विद्धि एतानि वान्यनुयात शीघ्रं यथाद्य कृष्णा पुनरेष्यतीति / मा वः कालः क्षिप्रमिहात्यगावै // 20 निहत्य सर्वान्द्विषतः समग्रा युधिष्ठिर उवाच / न्पार्थाः समेष्यन्त्यथ याज्ञसेन्या॥१४ भद्रे तूष्णीमास्स्व नियच्छ वाचं अथाब्रवीचारुमुखं प्रमृज्य ___ मास्मत्सकाशे परुषाण्यवोचः / - धात्रेयिका सारथिमिन्द्रसेनम् / राजानो वा यदि वा राजपुत्रा जयद्रथेनापहृता प्रमथ्य बलेन मत्ता वश्चनां प्राप्नुवन्ति // 21 पश्चन्द्रकल्पान्परिभूय कृष्णा // 15 वैशंपायन उवाच / तिष्ठन्ति वानि नवान्यमूनि एतावदुक्त्वा प्रययुर्हि शीघ्र : वृक्षाश्च न म्लान्ति तथैव भग्नाः / तान्येव वन्यिनुवर्तमानाः / आवर्तयध्वं ह्यनुयात शीघ्र मुहुर्मुहुालवदुच्छसन्तो नदूरयातैव हि राजपुत्री // 16 ज्यां विक्षिपन्तश्च महाधनुयः // 22 संनयध्वं सर्व एवेन्द्रकल्पा ततोऽपश्यंस्तस्य सैन्यस्य रेणुमहान्ति चारूणि च दशनानि / मुद्भूतं वै वाजिखुरप्रणुन्नम् / गृहीत चापानि महाधनानि पदातीनां मध्यगतं च धौम्यं शरांश्च शीघ्र पदवीं व्रजध्वम् // 17 विक्रोशन्तं भीममभिद्रवेति // 23 पुरा हि निर्भर्त्सनदण्डमोहिता ते सान्त्व्य धौम्यं परिदीनसत्त्वाः __ प्रमूढचित्ता वदनेन शुष्यता। सुखं भवानेत्विति राजपुत्राः। ददाति कस्मैचिदनहते तनुं श्येना यथैवामिषसंप्रयुक्ता वराज्यपूर्णामिव भस्मनि स्रुचम् // 18 जवेन तत्सैन्यमथाभ्यधावन् // 24 पुरा तुषानाविव हूयते हविः तेषां महेन्द्रोपमविक्रमाणां ___पुरा श्मशाने स्रगिवापविध्यते। संरब्धानां धर्षणाद्याज्ञसेन्याः / पुरा च सोमोऽध्वरगोऽवलिह्यते क्रोधः प्रजज्वाल जयद्रथं च शुना यथा विप्रजने प्रमोहिते। दृष्ट्वा प्रियां तस्य रथे स्थितां च // 25 महत्यरण्ये मृगयां चरित्वा प्रचुक्रुशुश्चाप्यथ सिन्धुराज -735 -
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________________ 8. 253. 26 ] महामारते [ 3. 254. 14 __ वृकोदरश्चैव धनंजयश्च / य एष जाम्बूनदशुद्धगौरः यमौ च राजा च महाधनुर्धरा प्रचण्डघोणस्तनुरायताक्षः / स्ततो दिशः संमुमुहुः परेषाम् // 26 एतं कुरुश्रेष्ठतमं वदन्ति इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि युधिष्ठिरं धर्मसुतं पतिं मे // 7 त्रिपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 25 // अप्येष शत्रोः शरणागतस्य 254 दद्यात्प्राणान्धर्मचारी नृवीरः / / वैशंपायन उवाच। परैलेनं मूढ जवेन भूतये ततो घोरतरः शब्दो वने समभवत्तदा / त्वमात्मनः प्राञ्जलियस्तशस्त्रः // 8 भीमसेनार्जुनौ दृष्ट्वा क्षत्रियाणाममर्षिणाम् // 1 अथाप्येनं पश्यसि यं रथस्थं तेषां ध्वजाप्राण्यभिवीक्ष्य राजा महाभुजं शालमिव प्रवृद्धम् / .. स्वयं दुरात्मा कुरुपुंगवानाम् / संदष्टोष्ठं भृकुटीसंहतध्रुवं जयद्रथो याज्ञसेनीमुवाच वृकोदरो नाम पतिर्ममैषः // 9 __ रथे स्थितां भानुमती हतौजाः // 2 आजानेया बलिनः साधु दान्ता आयान्तीमे पञ्च रथा महान्तो महाबलाः शूरमुदावहन्ति / मन्ये च कृष्णे पतयस्तवैते। एतस्य कर्माण्यतिमानुषाणि सा जानती ख्यापय नः सुकेशि भीमेति शब्दोऽस्य गतः पृथिव्याम्॥१० ___ परं परं पाण्डवानां रथस्थम् // 3 नास्यापराद्धाः शेषमिहाप्नुवन्ति द्रौपद्युवाच। . नाप्यस्य वैरं विस्मरते कदाचित् / किं ते ज्ञातैमूढ महाधनुर्धरै वैरस्यान्तं संविधायोपयाति ___ रनायुष्यं कर्म कृत्वातिघोरम् / पश्चांच्छान्ति न च गच्छत्यतीव // 11 एते वीराः पतयो मे समेता - मृदुर्वदान्यो धृतिमान्यशस्वी न वः शेषः कश्चिदिहास्ति युद्धे / / 4 / जितेन्द्रियो वृद्धसेवी नृवीरः / आख्यातव्यं त्वेव सर्व मुमूर्षो भ्राता च शिष्यश्च युधिष्ठिरस्य र्मया तुभ्यं पृष्टया धर्म एषः / धनंजयो नाम पतिर्ममैषः // 12 न मे व्यथा विद्यते त्वद्भयं वा यो वै न कामान्न भयान्न लोभासंपश्यन्त्याः सानुजं धर्मराजम् // 5 __ त्यजेद्धर्म न नृशंसं च कुर्यात् / यस्य ध्वजाग्रे नदतो मृदङ्गो स एष वैश्वानरतुल्यतेजाः नन्दोपनन्दौ मधुरौ युक्तरूपौ। कुन्तीसुतः शत्रुसहः प्रमाथी // 13 एतं स्वधर्मार्थविनिश्चय यः सर्वधर्मार्थविनिश्चयज्ञो सदा जनाः कृत्यवन्तोऽनुयान्ति // 6 भयार्तानां भयहर्ता मनीषी। -736 -
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________________ 3. 254. 14] आरण्यकपर्व [ 3. 255. 12 यस्योत्तमं रूपमाहुः पृथिव्यां स्त्यक्त्वा त्रस्तान्प्राञ्जलीस्तान्पदातीन् / यं पाण्डवाः परिरक्षन्ति सर्वे // 14 रथानीकं शरवर्षान्धकारं प्राणैर्गरीयांसमनुव्रतं वै चक्रुः क्रुद्धाः सर्वतः संनिगृह्य // 21 ___ स एष वीरो नकुलः पतिर्मे / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि यः खङ्गयोधी लघुचित्रहस्तो चतुःपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 254 // महांश्च धीमान्सहदेवोऽद्वितीयः॥ 15 255 यस्याद्य कर्म द्रक्ष्यसे मूढसत्त्व वैशंपायन उवाच / शतक्रतोर्वा दैत्यसेनासु संख्ये। संतिष्ठत प्रहरत तूर्णं विपरिधावत / शूरः कृतास्त्रो मतिमान्मनीषी इति स्म सैन्धवो राजा चोदयामास तान्नृपान् // 1 प्रियंकरो धर्मसुतस्य राज्ञः // 16 ततो घोरतरः शब्दो रणे समभवत्तदा / य एष चन्द्रार्कसमानतेजा भीमार्जुनयमान्दृष्ट्वा सैन्यानां सयुधिष्ठिरान् // 2 जघन्यजः पाण्डवानां प्रियश्च / शिबिसिन्धुत्रिगर्तानां विषादश्चाप्यजायत / बुद्ध्या समो यस्य नरो न विद्यते तान्दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रान्व्याघ्रानिव बलोत्कटान् // 3 ___ वक्ता तथा सत्सु विनिश्चयज्ञः // 17 हेमचित्रसमुत्सेधां सर्वशैक्यायसीं गदाम् / स एष शूरो नित्यममर्षणश्च प्रगृह्याभ्यद्रवद्भीमः सैन्धवं कालचोदितम् // 4 धीमान्प्राज्ञः सहदेवः पतिर्म। तदन्तरमथावृत्य कोटिकाश्योऽभ्यहारयत् / त्यजेत्प्राणान्प्रविशेद्धव्यवाह महता रथवंशेन परिवार्य वृकोदरम् // 5 ' न त्वेवैष व्याहरेद्धर्मबाह्यम् / शक्तितोमरनाराचैर्वीरबाहुप्रचोदितैः। सदा मनस्वी क्षत्रधर्मे निविष्टः कीर्यमाणोऽपि बहुभिर्न स्म भीमोऽभ्यकम्पत // 6 ... कुन्त्याः प्राणैरिष्टतमो नृवीरः // 18 गजं तु सगजारोहं पदातींश्च चतुर्दश / विशीर्यन्तीं नावमिवार्णवान्ते जघान गदया भीमः सैन्धवध्वजिनीमुखे // 7 रत्नाभिपूर्णा मकरस्य पृष्ठे। पार्थः पञ्चशताशूरान्पार्वतीयान्महारथान् / सेनां तवेमां हतसर्वयोधां परीप्समानः सौवीरं जघान ध्वजिनीमुखे / / 8 ___ विक्षोभितां द्रक्ष्यसि पाण्डुपुत्रैः॥ 19 राजा स्वयं सुवीराणां प्रवराणां प्रहारिणाम् / इत्येते वै कथिताः पाण्डुपुत्रा निमेषमात्रेण शतं जघान समरे तदा // 9 यांस्त्वं मोहादवमन्य प्रवृत्तः / ददृशे नकुलस्तत्र रथात्प्रस्कन्द्य खड्गधृक् / यद्येतैस्त्वं मुच्यसेऽरिष्टदेहः शिरांसि पादरक्षाणां बीजवत्प्रवपन्मुहुः // 10 पुनर्जन्म प्राप्स्यसे जीव एव // 20 सहदेवस्तु संयाय रथेन गजयोधिनः / वैशंपायन उवाच / पातयामास नाराचै?मेभ्य इव बर्हिणः // 11 ततः पार्थाः पञ्च पञ्चेन्द्रकल्पा ततस्त्रिगर्तः सधनुरवतीर्य महारथात् / म. भा. 93 -737 -
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________________ 3. 255. 12] महाभारते [3. 255. 41 गदया चतुरो वाहान्राज्ञस्तस्य तदावधीत् // 12 चकर्त निशितैर्भल्लैर्धनूंषि च शिरांसि च // 27 तमभ्याशगतं राजा पदातिं कुन्तिनन्दनः। शिबीनिक्ष्वाकुमुख्यांश्च त्रिगर्तान्सैन्धवानपि। अर्धचन्द्रेण बाणेन विव्याधोरसि धर्मराट् // 13 जघानातिरथः संख्ये बाणगोचरमागतान् // 28 स भिन्नहृदयो वीरो वक्त्राच्छोणितमुद्वमन् / सादिताः प्रत्यदृश्यन्त बहवः सव्यसाचिना / पपाताभिमुखः पार्थं छिन्नमूल इव द्रुमः // 14 सपताकाश्च मातङ्गाः सध्वजाश्च महारथाः / / 29 इन्द्रसेनद्वितीयस्तु रथात्प्रस्कन्ध धर्मराट् / प्रच्छाद्य पृथिवीं तस्थुः सर्वमायोधनं प्रति / हताश्वः सहदेवस्य प्रतिपेदे महारथम् // 15 शरीराण्यशिरस्कानि विदेहानि शिरांसि च // 30 नकुलं त्वभिसंधाय क्षेमंकरमहामुखौ / श्वगृध्रकङ्ककाकोलभासगोमायुवायसाः / उभावुभयतस्तीक्ष्णैः शरवर्षैरवर्षताम् // 16 अतृप्यंस्तत्र वीराणां हतानां मांसशोणितैः // 31 तौ शरैरभिवर्षन्तौ जीमूताविव वार्षिको।। हतेषु तेषु वीरेषु सिन्धुराजो जयद्रथः / . एकैकेन विपाठेन जन्ने माद्रवतीसुतः // 17 विमुच्य कृष्णां संत्रस्तः पलायनपरोऽभवत् // 32 त्रिगर्तराजः सुरथस्तस्याथ रथधूर्गतः / स तस्मिन्संकुले सैन्ये द्रौपदीमवतार्य वै / रथमाक्षेपयामास गजेन गजयानवित् // 18 प्राणप्रेप्सुरुषाधावद्वनं येन नराधमः // 33 नकुलस्त्वपभीस्तस्माद्रथाच्चर्मासिपाणिमान् / द्रौपदी धर्मराजस्तु दृष्ट्वा धौम्यपुरस्कृताम् / उद्धान्तं स्थानमास्थाय तस्थौ गिरिरिवाचलः // 19 / माद्रीपुत्रेण वीरेण रथमारोपयत्तदा // 34 सुरथस्तं गजवरं वधाय नकुलस्य तु / ततस्तद्विद्रुतं सैन्यमपयाते जयद्रथे / प्रेषयामास सक्रोधमभ्युच्छ्रितकरं ततः // 20 आदिश्यादिश्य नाराचैराजघान वृकोदरः // 35 नकुलस्तस्य नागस्य समीपपरिवर्तिनः / सव्यसाची तु तं दृष्ट्वा पलायन्तं जयद्रथम् / सविषाणं भुजं मूले खङ्गेन निरकृन्तत // 21 वारयामास निघ्नन्तं मीमं सैन्धवसैनिकान् // 36 स विनद्य महानादं गजः कङ्कणभूषणः / अर्जुन उवाच / पतन्नवाक्शिरा भूमौ हस्त्यारोहानपोथयत् // 22 यस्यापचारात्प्राप्तोऽयमस्मान्क्लेशो दुरासदः / स तत्कर्म महत्कृत्वा शूरो माद्रवतीसुतः / तमस्मिन्समरोद्देशे न पश्यामि जयद्रथम् // 37 भीमसेनरथं प्राप्य शर्म लेभे महारथः // 23 तमेवान्विष भद्रं ते किं ते योधैर्निपातितैः / भीमस्त्वापततो राज्ञः कोटिकाश्यस्य संगरे / अनामिषमिदं कर्म कथं वा मन्यते भवान् // 38 सूतस्य नुदतो वाहान्क्षुरेणापाहरच्छिरः // 24 वैशंपायन उवाच। न बुबोध हतं सूतं स राजा बाहुशालिना। इत्युक्तो भीमसेनस्तु गुडाकेशेन धीमता। तस्याश्वा व्यद्रवन्संख्ये हतसूतास्ततस्ततः // 25 युधिष्ठिरमभिप्रेक्ष्य वाग्मी वचनमब्रवीत् // 39 विमुखं हत्तसूतं तं भीमः प्रहरतां वरः / हतप्रवीरा रिपवो भूयिष्ठं विद्रुता दिशः / जघान तलयुक्तेन प्रासेनाभ्येत्य पाण्डवः // 26 गृहीत्वा द्रौपदी राजन्निवर्ततु भवानितः // 40 द्वादशानां तु सर्वेषां सौवीराणां धनंजयः / यमाभ्यां सह राजेन्द्र धौम्येन.च महात्मना / -738 -
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________________ 3. 255. 41 ] आरण्यकपर्व [ 3. 256.7 256 प्राप्याश्रमपदं राजन्द्रौपदी परिसान्त्वय / / 41 / / हताश्वं सैन्धवं भीतमेकं व्याकुलचेतसम् // 55 न हि मे मोक्ष्यते जीवन्मूढः सैन्धवको नृपः / सैन्धवस्तु हतान्दृष्ट्वा तथाश्वान्स्वान्सुदुःखितः / पातालतलसंस्थोऽपि यदि शक्रोऽस्य सारथिः // 42 दृष्ट्वा विक्रमकर्माणि कुर्वाणं च धनंजयम् / युधिष्ठिर उवाच / पलायनकृतोत्साहः प्राद्रवद्येन वै वनम् // 56 / न हन्तव्यो महाबाहो दुरात्मापि स सैन्धवः / सैन्धवं त्वभिसंप्रेक्ष्य पराक्रान्तं पलायने। दुःशलामभिसंस्मृत्य गान्धारी च यशस्विनीम् / / 43 अनुयाय महाबाहुः फल्गुनो वाक्यमब्रवीत् / / 57 वैशंपायन उवाच। अनेन वीर्येण कथं स्त्रियं प्रार्थयसे बलात् / / तच्छ्रुत्वा द्रौपदी भीममुवाच व्याकुलेन्द्रिया / / राजपुत्र निवर्तस्व न ते युक्तं पलायनम् / कुपिता ह्रीमती प्राज्ञा पती भीमार्जुनावुभौ // 44 कथं चानुचरान्हित्वा शत्रुमध्ये पलायसे // 58 . कर्तव्यं चेत्प्रियं मह्यं वध्यः स पुरुषाधमः / इत्युच्यमानः पार्थेन सैन्धवो न न्यवर्तत / सैन्धवापसदः पापो दुर्मतिः कुलपांसनः / / 45 तिष्ठ तिष्ठति तं भीमः सहसाभ्यद्रवदली। . भार्याभिहर्ता निवैरो यश्च राज्यहरो रिपुः / मा वधीरिति पार्थस्तं दयावानभ्यभाषत // 59 . याचमानोऽपि संग्रामे न स जीवितुमर्हति // 46 | इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि इत्युक्तो तौ नरव्याघ्रौ ययतुर्यत्र सैन्धवः / पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 255 // राजा निववृते कृष्णामादाय सपुरोहितः // 47 स प्रविश्याश्रमपदं व्यपविद्धबृसीघटम् / वैशंपायन उवाच / मार्कण्डेयादिभिर्विप्रैरनुकीर्णं ददर्श ह // 48 | जयद्रथस्तु संप्रेक्ष्य भ्रातरावुद्यतायुधौ / द्रौपदीमनुशोचद्भिाह्मणैस्तैः समागतैः / प्राद्रवत्तर्णमव्यग्रो जीवितेप्सुः सुदुःखितः // 1 : समियाय महाप्राज्ञः सभार्यो भ्रातृमध्यगः // 49 / तं भीमसेनो धावन्तमवतीर्य रथावली / ते स्म तं मुदिता दृष्ट्वा पुनरभ्यागतं नृपम् / अभिद्रुत्य निजग्राह केशपक्षेऽत्यमर्षणः // 2 . जित्वा तान्सिन्धुसौवीरान्द्रौपदी चाहृतां पुनः॥५० समुद्यम्य च तं रोषानिष्पिपेष महीतले। स तैः परिवृतो राजा तत्रैवोपविवेश ह / गले गृहीत्वा राजानं ताडयामास चैव ह // 3 . प्रविवेशाश्रमं कृष्णा यमाभ्यां सह भामिनी // 51 पुनः संजीवमानस्य तस्योत्पतितुमिच्छतः। भीमार्जुनावपि श्रुत्वा क्रोशमात्रगतं रिपुम् / पदा मूर्ध्नि महाबाहुः प्राहरद्विलपिष्यतः॥ 4 . . स्वयमश्वांस्तुदन्तौ तौ जवेनैवाभ्यधावताम् // 52 तस्य जानुं ददौ भीमो जन्ने चैनमरनिना। - इदमत्यद्भुतं चात्र चकार पुरुषोऽर्जुनः / स मोहमगमद्राजा प्रहारवरपीडितः // 5 : क्रोशमात्रगतानश्वान्सैन्धवस्य जघान यत् / / 53 / विरोष भीमसेनं तु वारयामास फल्गुनः / स हि दिव्यास्त्रसंपन्नः कृच्छ्रकालेऽप्यसंभ्रमः। दुःशलायाः कृते राजा यत्तदाहेति कौरव // 6 अकरोदुष्करं कर्म शरैरस्त्रानुमश्रितैः // 54 भीमसेन उवाच। ततोऽभ्यधावतां वीरावुभौ भीमधनंजयौ। नायं पापसमाचारो मत्तो जीवितुमर्हति / -739 -
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________________ 3. 256.7] महाभारते [ 3. 257.4 द्रौपद्यास्तदनस्याः परिक्लेष्टा नराधमः // 7 गतसत्त्वमिव ज्ञात्वा कर्तारमशुभस्य तम् / किं नु शक्यं मया कर्तुं यद्राजा सततं घृणी / संप्रेक्ष्य भरतश्रेष्ठः कृपां चक्रे नराधिपः // 22 त्वं च बालिशया बुद्ध्या सदैवास्मान्प्रबाधसे / / 8 धर्मे ते वर्धतां बुद्धिर्मा चाधर्मे मनः कृथाः। एवमुक्त्वा सटास्तस्य पञ्च चक्रे वृकोदरः / साश्वः सरथपादातः स्वस्ति गच्छ जयद्रथ // 23 अर्धचन्द्रेण बाणेन किंचिदब्रुवतस्तदा // 9 एवमुक्तस्तु सव्रीडं तूष्णीं किंचिदवाङ्मुखः / विकल्पयित्वा राजानं ततः प्राह वृकोदरः / जगाम राजा दुःखार्तो गङ्गाद्वाराय भारत // 24 जीवितुं चेच्छसे मूढ हेतुं मे गदतः शृणु // 10 स देवं शरणं गत्वा विरूपाक्षमुमापतिम् / दासोऽस्मीति त्वया वाच्यं संसत्सु च सभासु च / तपश्चचार विपुलं तस्य प्रीतो वृषध्वजः // 25 एवं ते जीवितं दद्यामेष युद्धजितो विधिः // 11 बलिं स्वयं प्रत्यगृह्णात्प्रीयमाणस्त्रिलोचनः / एवमस्त्विति तं राजा कृच्छ्रप्राणो जयद्रथः।। वरं चास्मै ददौ देवः स च जग्राह तच्छृणु // 26 प्रोवाच पुरुषव्याघ्र भीममाहवशोभिनम् // 12 समस्तान्सरथान्पञ्च जयेयं युधि पाण्डवान् / तत एनं विचेष्टन्तं बद्धा पार्थो वृकोदरः / इति राजाब्रवीदेवं नेति देवस्तमब्रवीत् // 27 रथमारोपयामास विसंज्ञं पांसुगुण्ठितम् // 13 अजय्यांश्चाप्यवध्यांश्च वारयिष्यसि तान्युधि / ततस्तं रथमास्थाय भीमः पार्थानुगस्तदा। ऋतेऽर्जुनं महाबाहुं देवैरपि दुरासदम् // 28 अभ्येत्याश्रममध्यस्थमभ्यगच्छद्युधिष्ठिरम् // 14 यमाहुरजितं देवं शङ्खचक्रगदाधरम् / दर्शयामास भीमस्तु तदवस्थं जयद्रथम् / प्रधानः सोऽस्त्रविदुषां तेन कृष्णेन रक्ष्यते // 29 तं राजा प्राहसदृष्ट्वा मुच्यतामिति चाब्रवीत् // 15 एवमुक्तस्तु नृपतिः स्वमेव, भवनं ययौ / राजानं चाब्रवीद्भीमो द्रौपद्यै कथयेति वै / पाण्डवाश्च वने तस्मिन्न्यवसन्काम्यके तदा // 30 दासभावं गतो ह्येष पाण्डूनां पापचेतनः // 16 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तमुवाच ततो ज्येष्ठो भ्राता सप्रणयं वचः / षट्पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 256 // मुञ्चैनमधमाचारं प्रमाणं यदि ते वयम् // 17 द्रौपदी चाब्रवीद्भीममभिप्रेक्ष्य युधिष्ठिरम् / जनमेजय उवाच / दासोऽयं मुच्यतां राज्ञस्त्वया पञ्चसटः कृतः॥१८ एवं हृतायां कृष्णायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम् / स मुक्तोऽभ्येत्य राजानमभिवाद्य युधिष्ठिरम् / / अत ऊर्ध्वं नरव्याघ्राः किमकुर्वत पाण्डवाः // 1 ववन्दे विह्वलो राजा तांश्च सर्वान्मुनीस्तदा // 19 वैशंपायन उवाच / ' तमुवाच घृणी राजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / एवं कृष्णां मोक्षयित्वा विनिर्जित्य जयद्रथम् / तथा जयद्रथं दृष्ट्वा गृहीतं सव्यसाचिना // 20 / आसांचक्रे मुनिगणैर्धर्मराजो युधिष्ठिरः // 2 अदासो गच्छ मुक्तोऽसि मैवं कार्षीः पुनः कचित्।। तेषां मध्ये महर्षीणां शृण्वतामनुशोचताम् / स्त्रीकामुक धिगस्तु त्वां क्षुद्रः क्षुद्रसहायवान् / / मार्कण्डेयमिदं वाक्यमब्रवीत्पाण्डुनन्दनः // 3 एवंविधं हि कः कुर्यात्त्वदन्यः पुरुषाधमः // 21 | मन्ये कालश्च बलवान्दैवं च विधिनिर्मितम् / -740 257
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________________ 3. 257. 4] आरण्यकपर्व [3. 259. 2 भवितव्यं च भूतानां यस्य नास्ति व्यतिक्रमः॥४ मार्कण्डेय उवाच / कथं हि पत्नीमस्माकं धर्मज्ञां धर्मचारिणीम्। अजो नामाभवद्राजा महानिक्ष्वाकुवंशजः / संस्पृशेदीदृशो भावः शुचिं स्तैन्यमिवानृतम् // 5 तस्य पुत्रो दशरथः शश्वत्स्वाध्यायवाञ्शुचिः॥ 6 न हि पापं कृतं किंचित्कर्म वा निन्दितं क्वचित् / अभवंस्तस्य चत्वारः पुत्रा धर्मार्थकोविदाः / द्रौपद्या ब्राह्मणेष्वेव धर्मः सुचरितो महान् // 6 रामलक्ष्मणशत्रुघ्ना भरतश्च महाबलः // 7 तां जहार बलाद्राजा मूढबुद्धिर्जयद्रथः / रामस्य माता कौसल्या कैकेयी भरतस्य तु / तस्याः संहरणात्प्राप्तः शिरसः केशवापनम् / सुतौ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ सुमित्रायाः परंतपौ // 8 पराजयं च संग्रामे ससहायः समाप्तवान् // 7 विदेहराजो जनकः सीता तस्यात्मजा विभो / प्रत्याहृता तथास्माभिर्हत्वा तत्सैन्धवं बलम् / यां चकार स्वयं त्वष्टा रामस्य महिषीं प्रियाम् // 9 तद्दारहरणं प्राप्तमस्माभिरवितर्कितम् // 8 . एतद्रामस्य ते जन्म सीतायाश्च प्रकीर्तितम् / दुःखश्चायं वने वासो मृगयायां च जीविका / रावणस्यापि ते जन्म व्याख्यास्यामि जनेश्वर॥१० हिंसा च मृगजातीनां वनौकोभिर्वनौकसाम् / पितामहो रावणस्य साक्षादेवः प्रजापतिः / ज्ञातिभिर्विप्रवासश्च मिथ्या व्यवसितैरयम् // 9 स्वयंभूः सर्वलोकानां प्रभुः स्रष्टा महातपाः // 11 अस्ति नूनं मया कश्चिदल्पभाग्यतरो नरः।। पुलस्त्यो नाम तस्यासीन्मानसो दयितः सुतः / भवता दृष्टपूर्वो वा श्रुतपूर्वोऽपि वा भवेत् // 10 तस्य वैश्रवणो नाम गवि पुत्रोऽभवत्प्रभुः // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि पितरं स समुत्सृज्य पितामहमुपस्थितः। सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः // 257 // तस्य कोपात्पिता राजन्ससर्जात्मानमात्मना // 13 258 स जज्ञे विश्रवा नाम तस्यात्मार्धेन वै द्विजः / मार्कण्डेय उवाच। प्रतीकाराय सक्रोधस्ततो वैश्रवणस्य वै / 14 प्राप्तमप्रतिमं दुःखं रामेण भरतर्षभ / पितामहस्तु प्रीतात्मा ददौ वैश्रवणस्य ह / रक्षसा जानकी तस्य हृता भार्या बलीयसा // 1 अमरत्वं धनेशत्वं लोकपालत्वमेव च // 15 आश्रमाद्राक्षसेन्द्रेण रावणेन विहायसा / ईशानेन तथा सख्यं पुत्रं च नलकूबरम् / मायामास्थाय तरसा हत्वा गृधं जटायुषम् // 2 राजधानीनिवेशं च लङ्का रक्षोगणान्विताम् // 16 प्रत्याजहार तां रामः सुग्रीवबलमाश्रितः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि बद्धा सेतुं समुद्रस्य दग्ध्वा लङ्कां शितैः शरैः / / 3 अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 258 // युधिष्ठिर उवाच। 259 कस्मिन्रामः कुले जातः किंवीर्यः किंपराक्रमः / मार्कण्डेय उवाच। रावणः कस्य वा पुत्रः किं वैरं तस्य तेन ह // 4 पुलस्त्यस्य तु यः क्रोधादर्धदेहोऽभवन्मुनिः / एतन्मे भगवन्सर्वं सम्यगाख्यातुमर्हसि / विश्रवा नाम सक्रोधः स वैश्रवणमैक्षत // 1 श्रोतुमिच्छामि चरितं रामस्याक्लिष्टकर्मणः // 5 / बुबुधे तं तु सक्रोधं पितरं राक्षसेश्वरः / -741 -
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________________ 8. 259. 2] महाभारते [ 3. 259. 29 कुबेरस्तत्प्रसादार्थं यतते स्म सदा नृप // 2 विभीषणः शीर्णपर्णमेकमभ्यवहारयत् / / 17 . स राजराजो लङ्कायां निवसन्नरवाहनः / उपवासरति/मान्सदा जप्यपरायणः / राक्षसीः प्रददौ तिस्रः पितुर्वै परिचारिकाः // 3 तमेव कालमातिष्ठत्तीव्र तप उदारधीः / / 18 / तास्तदा तं महात्मानं संतोषयितुमुद्यताः / खरः शूर्पणखा चैव तेषां वै तप्यतां तपः।। ऋषि भरतशार्दूल नृत्तगीतविशारदाः॥४। परिचर्यां च रक्षां च चतुर्दृष्टमानसौ // 19 // पुष्पोत्कटा च राका च मालिनी च विशां पते। पूर्ण वर्षसहस्रे तु शिरश्छित्त्वा दशाननः। .. अन्योन्यस्पर्धया राजश्रेयस्कामाः सुमध्यमाः // 5 जुहोत्यग्नौ दुराधर्षस्तेनातुष्यजगत्प्रभुः // 20 तासां स भगवांस्तुष्टो महात्मा प्रददौ वरान् / ततो ब्रह्मा स्वयं गत्वा तपसस्तान्न्यवारयत् / लोकपालोपमान्पुत्रानेकैकस्या यथेप्सितान् // 6 प्रलोभ्य वरदानेन सर्वानेव पृथक्पृथक् / / 21 पुष्पोत्कटायां जज्ञाते द्वौ पुत्रौ राक्षसेश्वरौ / ब्रह्मोवाच / कुम्भकर्णदशग्रीवौ बलेनाप्रतिमौ भुवि / / 7 प्रीतोऽस्मि वो निवर्तध्वं वरान्वृणुत पुत्रकाः / मालिनी जनयामास पुत्रमेकं विभीषणम् / यद्यदिष्टमृते त्वेकममरत्वं तथास्तु तत् // 22 राकायां मिथुनं जज्ञे खरः शूर्पणखा तथा // 8 यद्यदग्नौ हुतं सर्वं शिरस्ते महदीप्सया / विभीषणस्तु रूपेण सर्वेभ्योऽभ्यधिकोऽभवत् / तथैव तानि ते देहे भविष्यन्ति यथेप्सितम् // 23 स बभूव महाभागो धर्मगोप्ता क्रियारतिः // 9 वैरूप्यं च न ते देहे कामरूपधरस्तथा। दशग्रीवस्तु सर्वेषां ज्येष्ठो राक्षसपुंगवः / भविष्यसि रणेऽरीणां विजेतासि न संशयः // 24 महोत्साहो महावीर्यो महासत्त्वपराक्रमः // 10 रावण उवाच / कुम्भकर्णो बलेनासीत्सर्वेभ्योऽभ्यधिकस्तदा / गन्धर्वदेवासुरतो यक्षराक्षसतस्तथा / मायावी रणशौण्डश्च रौद्रश्च रजनीचरः॥ 11 सर्पकिंनरभूतेभ्यो न मे भूयात्पराभवः / / 25 खरो धनुषि विक्रान्तो ब्रह्मद्विट पिशिताशनः / ब्रह्मोवाच / सिद्धविघ्नकरी चापि रौद्रा शूर्पणखा तथा // 12 य एते कीर्तिताः सर्वे न तेभ्योऽस्ति भयं तव / सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे सचरितव्रताः / ऊषुः पित्रा सह रता गन्धमादनपर्वते // 13 ऋते मनुष्याद्भद्रं ते तथा तद्विहितं मया // 26 ततो वैश्रवणं तत्र ददृशुर्नरवाहनम् / मार्कण्डेय उवाच / पित्रा सार्धं समासीनमृद्ध्या परमया युतम् // 14 एवमुक्तो दशग्रीवस्तुष्टः समभवत्तदा / जातस्पर्धास्ततस्ते तु तपसे धृतनिश्चयाः / अवमेने हि दुर्बुद्धिर्मनुष्यान्पुरुषादकः / / 27 ब्रह्माणं तोषयामासुर्पोरेण तपसा तदा // 15 कुम्भकर्णमथोवाच तथैव प्रपितामहः / अतिष्ठदेकपादेन सहस्रं परिवत्सरान् / स वने महतीं निद्रां तमसा ग्रस्तचेतनः // 28 वायुभक्षो दशग्रीवः पञ्चाग्निः सुसमाहितः॥१६ तथा भविष्यतीत्युक्त्वा विभीषणमुवाच ह। अधःशायी कुम्भकर्णो यताहारो यतव्रतः। वरं वृणीष्व पुत्र त्वं प्रीतोऽस्मीति पुनः पुनः॥२९ - 742
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________________ 3. 259. 29 ] आरण्यकपर्व [3. 260. 13 विभीषण उवाच। | हव्यवाहं पुरस्कृत्य ब्रह्माणं शरणं गताः // 1 परमापद्गतस्यापि नाधर्मे मे मतिर्भवेत् / अग्निरुवाच / अशिक्षितं च भगवन्ब्रह्मास्त्रं प्रतिभातु मे // 30 | यः स विश्रवसः पुत्रो दशग्रीवो महाबलः / ब्रह्मोवाच / अवध्यो वरदानेन कृतो भगवता पुरा // 2 यस्माद्राक्षसयोनौ ते जातस्यामित्रकर्शन / | स बाधते प्रजाः सर्वा विप्रकारैर्महाबलः / नाधर्मे रमते बुद्धिरमरत्वं ददामि ते // 31 . ततो नस्त्रातु भगवन्नान्यस्त्राता हि विद्यते // 3 मार्कण्डेय उवाच / ब्रह्मोवाच / राक्षसस्तु वरं लब्ध्वा दशग्रीवो विशां पते। न स देवासुरैः शक्यो युद्धे जेतुं विभावसो। लङ्कायाच्यावयामास युधि जित्वा धनेश्वरम् / / 32 विहितं तत्र यत्कार्यमभितस्तस्य निग्रहे // 4 / हित्वा स भगवालङ्कामाविंशद्गन्धमादनम् / तदर्थमवतीर्णोऽसौ मन्नियोगाच्चतुर्भुजः। . . गन्धर्वयक्षानुगतो रक्षःकिंपुरुषैः सह // 33 विष्णुः प्रहरतां श्रेष्ठः स कर्मैतत्करिष्यति // 5 विमानं पुष्पकं तस्य जहाराक्रम्य रावणः / मार्कण्डेय उवाच / शशाप तं वैश्रवणो न त्वामेतद्वहिष्यति // 34 पितामहस्ततस्तेषां संनिधौ वाक्यमब्रवीत् / यस्तु त्वां समरे हन्ता तमेवैतद्वहिष्यति / सर्वैर्देवगणैः साधं संभवध्वं महीतले // 6 अवमन्य गुरुं मां च क्षिप्रं त्वं न भविष्यसि॥३५ विष्णोः सहायानृक्षीषु वानरीषु च सर्वशः / विभीषणस्तु धर्मात्मा सतां धर्ममनुस्मरन् / जनयध्वं सुतान्वीरान्कामरूपबलान्वितान् // 7 अन्वगच्छन्महाराज श्रिया परमया युतः॥ 36 ततो भागानुभागेन देवगन्धर्वदानवाः / तस्मै स भगवांस्तुष्टो भ्राता भ्रात्रे धनेश्वरः / अवतर्तुं महीं सर्वे रञ्जयामासुरञ्जसा // 8 सेनापत्यं ददौ धीमान्यक्षराक्षससेनयोः // 37 तेषां समक्षं गन्धर्वी दुन्दुभी नाम नामतः / राक्षसाः 'पुरुषादाश्च पिशाचाश्च महाबलाः / शशास वरदो देवो देवकार्यार्थसिद्धये // 9 सर्वे समेत्य राजानमभ्यषिश्चन्दशाननम् / / 38 पितामहवचः श्रुत्वा गन्धर्वी दुन्दुभी ततः / दशग्रीवस्तु दैत्यानां देवानां च बलोत्कटः / मन्थरा मानुषे लोके कुब्जा समभवत्तदा // 10 आक्रम्य रत्नान्यहरत्कामरूपी विहंगमः / / 39 शक्रप्रभृतयश्चैव सर्वे ते सुरसत्तमाः। रावयामास लोकान्यत्तस्माद्रावण उच्यते / वानरक्षवरस्त्रीषु जनयामासुरात्मजान् / दशग्रीवः कामबलो देवानां भयमादधत् // 40 तेऽन्ववर्तन्पितॄन्सर्वे यशसा च बलेन च // 11 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि भेत्तारो गिरिशृङ्गाणां शालतालशिलायुधाः। ____ एकोनषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 259 // वज्रसंहननाः सर्वे सर्वे चौघबलास्तथा // 12 260 कामवीर्यधराश्चैव सर्वे युद्धविशारदाः / मार्कण्डेय उवाच / नागायुतसमप्राणा वायुवेगसमा जवे / ततो ब्रह्मर्षयः सिद्धा देवराजर्षयस्तथा / / यत्रेच्छकनिवासाश्च केचिदत्र वनौकसः // 13. .. -743 -
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________________ 3. 260. 14 ] महाभारते [3. 261. 25 एवं विधाय तत्सर्वं भगवाल्लोकभावनः / जितेन्द्रियममित्राणामपि दृष्टिमनोहरम् // 11 मन्थरां बोधयामास यद्यत्कार्यं यथा यथा // 14 नियन्तारमसाधूनां गोप्तारं धर्मचारिणाम् / सा तद्वचनमाज्ञाय तथा चक्रे मनोजवा / धृतिमन्तमनाधृष्यं जेतारमपराजितम् // 12 इतश्चेतश्च गच्छन्ती वैरसंधुक्षणे रता // 15 / पुत्रं राजा दशरथः कौसल्यानन्दवर्धनम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि संदृश्य परमां प्रीतिमगच्छत्कुरुनन्दन // 13 . पट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 26 // चिन्तयंश्च महातेजा गुणान्रामस्य वीर्यवान् / 261 अभ्यभाषत भद्रं ते प्रीयमाणः पुरोहितम् // 14 युधिष्ठिर उवाच / अद्य पुष्यो निशि ब्रह्मन्पुण्यं योगमुपैष्यति / उक्तं भगवता जन्म रामादीनां पृथक्पृथक् / / संभाराः संभ्रियन्तां मे रामश्चोपनिमत्र्यताम् // 15 प्रस्थानकारणं ब्रह्मश्रोतुमिच्छामि कथ्यताम् // 1 इति तद्राजवचनं प्रतिश्रुत्याथ मन्थरा। . कथं दाशरथी वीरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ / कैकेयीमभिगम्येदं काले वचनमब्रवीत् // 16 प्रस्थापितो वनं ब्रह्मन्मैथिली च यशस्विनी // 2 अद्य कैकेयि दौर्भाग्यं राज्ञा ते ख्यापितं महत् / मार्कण्डेय उवाच / आशीविषस्त्वां संक्रुद्धश्चण्डो दशति दुर्भगे॥ 17 जातपुत्रो दशरथः प्रीतिमानभवन्नपः / / सुभगा खलु कौसल्या यस्याः पुत्रोऽभिषेक्ष्यते / क्रियारतिधर्मपरः सततं वृद्धसेविता // 3 कुतो हि तव सौभाग्यं यस्याः पुत्रो न राज्यभाक् // क्रमेण चास्य ते पुत्रा व्यवर्धन्त महौजसः। सा तद्वचनमाज्ञाय सर्वाभरणभूषिता। वेदेषु सरहस्येषु धनुर्वेदे च पारगाः॥४ वेदीविलग्नमध्येव बिभ्रती रूपमुत्तमम् // 19 चरितब्रह्मचर्यास्ते कृतदाराश्च पार्थिव / विविक्ते पतिमासाद्य हसन्तीव शुचिस्मिता। यदा तदा दशरथः प्रीतिमानभक्सुत्खी // 5 प्रणयं व्यञ्जयन्तीव मधुरं वाक्यमब्रवीत् // 20 ज्येष्ठो रामोऽभवत्तैषां रमयामास हि प्रजाः / सत्यप्रतिज्ञ यन्मे त्वं काममेकं निसृष्टवान् / मनोहरतया धीमान्पितुईदयतोषणः / / 6 उपाकुरुष्व तद्राजस्तस्मान्मुच्यस्व संकटात् // 21 ततः स राजा मतिमान्मत्वात्मानं वयोधिकम् / राजोवाच / मन्त्रयामास सचिवैर्धर्मज्ञैश्च पुरोहितैः॥७ वरं ददानि ते हन्त तगृहाण यदिच्छसि / अभिषेकाय रामस्य यौवराज्येन भारत / अवध्यो वध्यतां कोऽद्य वध्यः कोऽद्य विमुच्यताम्॥ प्राप्तकालं च ते सर्वे मेनिरे मत्रिसत्तमाः // 8 धनं ददानि कस्याद्य ह्रियतां कस्य वा पुनः / लोहिताक्षं महाबाहुं मत्तमातङ्गगामिनम्। ब्राह्मणस्वादिहान्यत्र यत्किंचिद्वित्तमस्ति मे // 23 दीर्घबाहुं महोरकं नीलकुञ्चितमूर्धजम् / / 9 मार्कण्डेय उवाच / दीप्यमानं श्रिया वीरं शक्रादनवमं बले / सा तद्वचनमाज्ञाय परिगृह्य नराधिपम् / पारगं सर्वधर्माणां बृहस्पतिसमं मतौ // 10 आत्मनो बलमाज्ञाय तत एनमुवाच ह / / 24 सर्वानुरक्तप्रकृतिं सर्वविद्याविशारदम् / | आभिषेचनिकं यत्ते रामार्थमुपकल्पितम्। -744
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________________ 3. 261. 25 ] आरण्यकपर्व [3. 261. 55 भरतस्तदवाप्नोतु वनं गच्छतु राघवः // 25 नदी गोदावरी रम्यामाश्रित्य न्यवसत्तदा // 40 स तद्राजा वचः श्रुत्वा विप्रियं दारुणोदयम् / वसतस्तस्य रामस्य ततः शूर्पणखाकृतम् / दुःखार्तो भरतश्रेष्ठ न किंचिद्व्याजहार ह // 26 खरेणासीन्महद्वैरं जनस्थाननिवासिना // 41 ततस्तथोक्तं पितरं रामो विज्ञाय वीर्यवान् / रक्षार्थं तापसानां च राघवो धर्मवत्सलः / वनं प्रतस्थे धर्मात्मा राजा सत्यो भवत्विति // 27 चतुर्दश सहस्राणि जघान भुवि रक्षसाम् // 42 तमन्वगच्छल्लक्ष्मीवान्धनुष्मालँलक्ष्मणस्तदा / दूषणं च खरं चैव निहत्य सुमहाबलौ / सीता च भार्या भद्रं ते वैदेही जनकात्मजा॥२८ चक्रे क्षेमं पुनर्धीमान्धर्मारण्यं स राघवः // 43 ततो वनं गते रामे राजा दशरथस्तदा / हतेषु तेषु रक्षःसु ततः शूर्पणखा पुनः / समयुज्यत देहस्य कालपर्यायधर्मणा // 29 . ययौ निकृत्तनासोष्ठी लङ्कां भ्रातुर्निवेशनम् // 44 रामं तु गतमाज्ञाय राजानं च तथागतम् / ततो रावणमभ्येत्य राक्षसी दुःखमूर्छिता। आनाय्य भरतं देवी कैकेयी वाक्यमब्रवीत् // 30 पपात पादयोर्धातुः संशुष्करुधिरानना // 45 गतो दशरथः स्वर्ग वनस्थौ रामलक्ष्मणौ / / | तां तथा विकृतां दृष्ट्वा रावणः क्रोधमूर्छितः / गृहाण राज्यं विपुलं क्षेमं निहतकण्टकम् // 31 उत्पपातासनात्क्रुद्धो दन्तैर्दन्तानुपस्पृशन् // 46 तामुवाच स धर्मात्मा नृशंसं बत ते कृतम् / स्वानमात्यान्विसृज्याथ विविक्ते तामुवाच सः। पतिं हत्वा कुलं चेदमुत्साद्य धनलुब्धया / / 32 केनास्येवं कृता भद्रे मामचिन्त्यावमन्य च // 47 अयशः पातयित्वा मे मूर्ध्नि त्वं कुलपांसने / कः शूलं तीक्ष्णमासाद्य सर्वगात्रैनिषेवते / सकामा भव मे मातरित्युक्त्वा प्ररुरोद ह // 33 कः शिरस्यग्निमाधाय विश्वस्तः स्वपते सुखम् // 48 स चारित्रं विशोध्याथ सर्वप्रकृतिसंनिधौ / आशीविष घोरतरं पादेन स्पृशतीह कः / अन्वयाद्भातरं रामं विनिवर्तनलालसः // 34 सिंह केसरिणं कश्च दंष्ट्रासु स्पृश्य तिष्ठति // 49 कौसल्यां च सुमित्रां च कैकेयीं च सुदुःखितः / | इत्येवं ब्रुवतस्तस्य स्रोतोभ्यस्तेजसोऽर्चिषः / अग्रे प्रस्थाप्य यानैः स शत्रुघ्नसहितो ययौ // 35 निश्चेरुर्दह्यतो रात्रौ वृक्षस्येव स्वरन्ध्रतः // 50 वसिष्ठवामदेवाभ्यां विप्रैश्चान्यैः सहस्रशः / तस्य तत्सर्वमाचख्यौ भगिनी रामविक्रमम् / पौरजानपदैः सार्धं रामानयनकाया // 36 खरदूषणसंयुक्त राक्षसानां पराभवम् // 51 ददर्श चित्रकूटस्थं स रामं सहलक्ष्मणम् / स निश्चित्य ततः कृत्यं स्वसारमुपसान्त्व्य च / तापसानामलंकारं धारयन्तं धनुर्धरम् // 37 ऊर्ध्वमाचक्रमे राजा विधाय नगरे विधिम् // 52 विसर्जितः स रामेण पितुर्वचनकारिणा / त्रिकूटं समतिक्रम्य कालपर्वतमेव च / नन्दिप्रामेऽकरोद्राज्यं पुरस्कृत्यास्य पादुके // 38 ददर्श मकरावासं गम्भीरोदं महोदधिम् // 53 रामस्तु पुनराशङ्कय पौरजानपदागमम् / तमतीत्याथ गोकर्णमभ्यगच्छदशाननः / प्रविवेश महारण्यं शरभङ्गाश्रमं प्रति / / 39 दयितं स्थानमव्यग्रं शूलपाणेर्महात्मनः // 54 . सत्कृत्य शरभङ्ग स दण्डकारण्यमाश्रितः / तत्राभ्यगच्छन्मारीचं पूर्वामात्यं दशाननः / म.भा. 94 -745 -
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________________ 3. 261. 55 ] महाभारते [ 3. 262. 27 पुरा रामभयादेव तापस्यं समुपाश्रितम् // 55 भार्यावियोगाद्दुर्बुद्धिरेतत्साह्यं कुरुष्व मे // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि इत्येवमुक्तो मारीचः कृत्वोदकमथात्मनः / एकषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 26 // ततस्तस्याश्रमं गत्वा रामस्याक्लिष्टकर्मणः / 262 रावणं पुरतो यान्तमन्वगच्छत्सुदुःखितः // 14 मार्कण्डेय उवाच / चक्रतुस्तत्तथा सर्वमुभौ यत्पूर्वमश्रितम् // 15 मारीचस्त्वथ संभ्रान्तो दृष्ट्वा रावणमागतम् / रावणस्तु यतिर्भूत्वा मुण्डः कुण्डी त्रिदण्डधृक् / पूजयामास सत्कारैः फलमूलादिभिस्तथा // 1 मृगश्च भूत्वा मारीचस्तं देशमुपजग्मतुः // 16 विश्रान्तं चैनमासीनमन्वासीनः स राक्षसः / दर्शयामास वैदेहीं मारीचो मृगरूपधृक् / उवाच प्रश्रितं वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यकोविदम्॥२ चोदयामास तस्यार्थे सा रामं विधिचोदिता॥ 17 न ते प्रकृतिमान्वर्णः कच्चित्क्षेमं पुरे तव / रामस्तस्याः प्रियं कुर्वन्धनुरादाय सत्वरः / . कच्चित्प्रकृतयः सर्वा भजन्ते त्वां यथा पुरा // 3 रक्षार्थे लक्ष्मणं न्यस्य प्रययौ मृगलिप्सया // 18 किमिहागमने चापि कार्य ते राक्षसेश्वर / स धन्वी बद्धतूणीरः खड्गगोधाङ्गुलित्रवान् / कृतमित्येव तद्विद्धि यद्यपि स्यात्सुदुष्करम् // 4 अन्वधावन्मृगं रामो रुद्रस्तारामृगं यथा // 19 शशंस रावणस्तस्मै तत्सर्वं रामचेष्टितम् / सोऽन्तर्हितः पुनस्तस्य दर्शनं राक्षसो व्रजन् / मारीचस्त्वब्रवीच्छ्रुत्वा समासेनैव रावणम् / / 5 चकर्ष महदध्वानं रामस्तं बुबुधे ततः // 20 अलं ते राममासाद्य वीर्यज्ञो ह्यस्मि तस्य वै / निशाचरं विदित्वा तं राघवः प्रतिभानवान् / बाणवेगं हि कस्तस्य शक्तः सोढुं महात्मनः // 6 अमोघं शरमादाय जघान मृगरूपिणम् / / 21 प्रव्रज्यायां हि मे हेतुः स एव पुरुषर्षभः / स रामबाणाभिहतः कृत्वा रामस्वरं तदा / विनाशमुखमेतत्ते केनाख्यातं दुरात्मना // 7 हा सीते लक्ष्मणेत्येवं चुक्रोशार्तस्वरेण ह // 22 तमुवाचाथ सक्रोधो रावणः परिभर्सयन् / शुश्राव तस्य वैदेही ततस्तां करुणां गिरम् / अकुर्वतोऽस्मद्वचनं स्यान्मृत्युरपि ते ध्रुवम् // 8 सा प्राद्रवद्यतः शब्दस्तामुवाचाथ लक्ष्मणः / / 23 मारीचश्चिन्तयामास विशिष्टान्मरणं वरम् / अवश्यं मरणे प्राप्ते करिष्याम्यस्य यन्मतम् // 9 अलं ते शङ्कया भीरु को रामं विषहिष्यति / मुहूर्ताद्रक्ष्यसे राममागतं तं शुचिस्मिते // 24 ततस्तं प्रत्युवाचाथ मारीचो राक्षसेश्वरम् / किं ते साह्यं मया कार्य करिष्याम्यवशोऽपि तत्॥१० इत्युक्ता सा प्ररुदती पर्यशङ्कत देवरम् / तमब्रवीद्दशग्रीवो गच्छ सीतां प्रलोभय / हता वै स्त्रीस्वभावेन शुद्धचारित्रभूषणम् // 25 रत्नशृङ्गो मृगो भूत्वा रत्नचित्रतनूरुहः // 11 सा तं परुषमारब्धा वक्तुं साध्वी पतिव्रता / ध्रुवं सीता समालक्ष्य त्वां रामं चोदयिष्यति। नैष कालो भवेन्मूढ यं त्वं प्रार्थयसे हृदा // 26 अपक्रान्ते च काकुत्स्थे सीता वश्या भविष्यति // 12 / अप्यहं शस्त्रमादाय हन्यामात्मानमात्मना / तामादायापनेष्यामि ततः स न भविष्यति। पतेयं गिरिशृङ्गाद्वा विशेयं वा हुताशनम् // 27 -746 -
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________________ 3. 262. 28 ] आरण्यकपर्व [3. 263. 12 रामं भर्तारमुत्सृज्य न त्वहं त्वां कथंचन / रुदतीं राम रामेति ह्रियमाणां तपस्विनीम् // 41 निहीनमुपतिष्ठेयं शार्दूली क्रोष्टकं यथा // 28 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एतादृशं वचः श्रुत्वा लक्ष्मणः प्रियराघवः / द्विषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 262 // पिधाय को सद्वृत्तः प्रस्थितो येन राघवः / 263 स रामस्य पदं गृह्य प्रससार धनुर्धरः॥ 29 मार्कण्डेय उवाच। एतस्मिन्नन्तरे रक्षो रावणः प्रत्यदृश्यत / सखा दशरथस्यासीजटायुररुणात्मजः। अभव्यो भव्यरूपेण भस्मच्छन्न इवानलः / गृध्रराजो महावीर्यः संपातिर्यस्य सोदरः // 1 यतिवेषप्रतिच्छन्नो जिहीर्षस्तामनिन्दिताम् / / 30 स ददर्श तदा सीतां रावणाङ्कगतां स्नुषाम् / सा तमालक्ष्य संप्राप्तं धर्मज्ञा जनकात्मजा। . क्रोधादभ्यद्रवत्पक्षी रावणं राक्षसेश्वरम् // 2 निमन्त्रयामास तदा फलमूलाशनादिभिः // 31 अथैनमब्रवीगृध्रो मुञ्च मुश्चेति मैथिलीम्। अवमन्य स तत्सर्वं स्वरूपं प्रतिपद्य च / ध्रियमाणे मयि कथं हरिष्यसि निशाचर / सान्त्वयामास वैदेहीमिति राक्षसपुंगवः // 32 न हि मे मोक्ष्यसे जीवन्यदि नोत्सृजसे वधूम्॥३ सीते राक्षसराजोऽहं रावणो नाम विश्रुतः / उक्त्वैवं राक्षसेन्द्रं तं चकत नखरैर्भृशम् / मम लङ्का पुरी नाम्ना रम्या पारे महोदधेः // 33 पक्षतुण्डप्रहारैश्च बहुशो जर्जरीकृतः / / तत्र त्वं वरनारीषु शोभिष्यसि मया सह / चक्षार रुधिरं भूरि गिरिः प्रस्रवणैरिव // 4 भार्या मे भव सुश्रोणि तापसं त्यज्य राघवम् / / 34 स वध्यमानो गृध्रेण रामप्रियहितैषिणा। एवमादीनी वाक्यानि श्रुत्वा सीताथ जानकी / खगमादाय चिच्छेद भुजौ तस्य पतत्रिणः // 5 पिधाय कौँ सुश्रोणी मैवमित्यब्रवीद्वचः // 35 निहत्य गृध्रराजं स छिन्नाभ्रशिखरोपमम् / / ऊर्ध्वमाचक्रमे सीतां गृहीत्वाङ्केन राक्षसः // 6. प्रपतेद्दयौः सनक्षत्रा पृथिवी शकलीभवेत् / शैत्यमग्निरियान्नाहं त्यजेयं रघुनन्दनम् // 36 यत्र यत्र तु वैदेही पश्यत्याश्रममण्डलम् / सरो वा सरितं वापि तत्र मुञ्चति भूषणम् // 7 कथं हि भिन्नकरटं पद्मिनं वनगोचरम् / सा ददर्श गिरिप्रस्थे पञ्च वानरपुंगवान् / उपस्थाय महानागं करेणुः सूकरं स्पृशेत् // 37 तत्र वासो महदिव्यमुत्ससर्ज मनस्विनी॥ 8 कथं हि पीत्वा माध्वीकं पीत्वा च मधुमाधवीम्। तत्तेषां वानरेन्द्राणां पपात पवनोद्भुतम् / लोभं सौवीरके कुर्यान्नारी काचिदिति स्मरे // 38 मध्ये सुपीतं पश्चानां विद्युन्मेघान्तरे यथा // 9 इति सा तं समाभाष्य प्रविवेशाश्रमं पुनः। एवं हृतायां वैदेह्यां रामो हत्वा महामृगम् / तामनुद्रुत्य सुश्रोणी रावणः प्रत्यषेधयत् // 39 / निवृत्तो ददृशे धीमान्भ्रातरं लक्ष्मणं तदा // 10 भर्त्सयित्वा तु रूक्षेण स्वरेण गतचेतनाम् / कथमुत्सृज्य वैदेहीं वने राक्षससेविते। मूर्धजेषु निजग्राह खमुपाचक्रमे ततः // 40 इत्येवं भ्रातरं दृष्ट्वा प्राप्तोऽसीति व्यगईयत् // 11 तां ददर्श तदा गृध्रो जटायुर्गिरिगोचरः / मृगरूपधरेणाथ रक्षसा सोऽपकर्षणम् / -747 -
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________________ 3. 263. 12 ] महाभारते [3. 263.41 भ्रातुरागमनं चैव चिन्तयन्पर्यतप्यत // 12 विषादमगमत्सद्यः सौमित्रिरथ भारत // 26 गर्हयन्नेव रामस्तु त्वरितस्तं समासदत् / स राममभिसंप्रेक्ष्य कृष्यते येन तन्मुखम् / अपि जीवति वैदेही नेति पश्यामि लक्ष्मण // 13 विषण्णश्चाब्रवीद्रामं पश्यावस्थामिमां मम // 27 तस्य तत्सर्वमाचख्यौ सीताया लक्ष्मणो वचः। हरणं चैव वैदेह्या मम चायमुपप्लवः। यदुक्तवत्यसदृशं वैदेही पश्चिमं वचः // 14 राज्यभ्रंशश्च भवतस्तातस्य मरणं तथा // 28 दह्यमानेन तु हृदा रामोऽभ्यपतदाश्रमम् / नाहं त्वां सह वैदेह्या समेतं कोसलागतम् / स ददर्श तदा गृधं निहतं पर्वतोपमम् // 55 द्रक्ष्यामि पृथिवीराज्ये पितृपैतामहे स्थितम् // 29 राक्षसं शङ्कमानस्तु विकृष्य बलवद्धनुः / द्रक्ष्यन्त्यार्यस्य धन्या ये कुशलाजशमीलवैः। अभ्यधावत काकुत्स्थस्ततस्तं सहलक्ष्मणः // 16 अभिषिक्तस्य वदनं सोमं साभ्रलवं यथा // 30 स तावुवाच तेजस्वी सहितौ रामलक्ष्मणौ / एवं बहुविधं धीमान्विललाप सं लक्ष्मणः / . गृध्रराजोऽस्मि भद्रं वां सखा दशरथस्य ह // 17 तमुवाचाथ काकुत्स्थः संभ्रमेष्वप्यसंभ्रमः // 31 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा संगृह्य धनुषी शुभे। मा विषीद नरव्याघ्र नैष कश्चिन्मयि स्थिते / कोऽयं पितरमस्माकं नाम्नाहेत्यूचतुश्च तौ // 18 छिन्ध्यस्य दक्षिणं बाहुं छिन्नः सव्यो मया भुजः॥ ततो ददृशतुस्तौ तं छिन्नपक्षद्वयं तथा। इत्येवं वदता तस्य भुजो रामेण पातितः। तयोः शशंस गृध्रस्तु सीतार्थे रावणाद्वधम् / / 19 खड्गेन भृशतीक्ष्णेन निकृत्तस्तिलकाण्डवत् // 33 अपृच्छद्राघवो गृभं रावणः कां दिशं गतः / ततोऽस्य दक्षिणं बाहुं खड्गेनाजनिवान्बली। तस्य गृध्रः शिरःकम्पैराचचक्षे ममार च // 20 / सौमित्रिरपि संप्रेक्ष्य भ्रातरं राघवं स्थितम् / / 34 दक्षिणामिति काकुत्स्थो विदित्वास्य तदिङ्गितम् / पुनरभ्याहनपार्श्वे तद्रक्षो लक्ष्मणो भृशम् / संस्कारं लम्भयामास सखायं पूजयन्पितुः // 21 गतासुरपतद्भूमौ कबन्धः सुमहांस्ततः / / 35 ततो दृष्ट्वाश्रमपदं व्यपविद्धबृसीघटम् / तस्य देहाद्विनिःसृत्य पुरुषो दिव्यदर्शनः / विध्वस्तकलशं शून्यं गोमायुबलसेवितम् // 22 ददृशे दिवमास्थाय दिवि सूर्य इव ज्वलन् // 36 दुःखशोकसमाविष्टौ वैदेहीहरणार्दितौ। पप्रच्छ रामस्तं वाग्मी कस्त्वं प्रब्रूहि पृच्छतः / जग्मतुर्दण्डकारण्यं दक्षिणेन परंतपौ // 23 कामया किमिदं चित्रमाश्चर्यं प्रतिभाति मे // 37 बने महति तस्मिंस्तु रामः सौमित्रिणा सह / तस्याचचक्षे गन्धर्वो विश्वावसुरहं नृप / ददर्श मृगयूथानि द्रवमाणानि सर्वशः / प्राप्तो ब्रह्मानुशापेन योनि राक्षससेविताम् // 38 शब्दं च घोरं सत्त्वानां दावाग्नेरिव वर्धतः // 24 रावणेन हृता सीता राज्ञा लङ्कानिवासिना। अपश्येतां मुहूर्ताच्च कबन्धं घोरदर्शनम् / सुग्रीवमभिगच्छस्व स ते साह्यं करिष्यति // 39 मेघपर्वतसंकाशं शालस्कन्धं महाभुजम् / एषा पम्पा शिवजला हंसकारण्डवायुता / उरोगतविशालाक्षं महोदरमहामुखम् // 25 ऋश्यमूकस्य शैलस्य संनिकर्षे तटाकिनी // 40 यदृच्छयाथ तद्रक्षः करे जग्राह लक्ष्मणम् / संवसत्यत्र सुग्रीवश्चतुर्भिः सचिवैः .सह / - 748 -
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________________ 3. 263. 41] आरण्यकपर्व [ 3. 264. 26 भ्राता वानरराजस्य वालिनो हेममालिनः // 41 सख्यं वानरराजेन चक्रे रामस्ततो नृप // 11 एतावच्छक्यमस्माभिर्वक्तुं द्रष्टासि जानकीम् / तद्वासो दर्शयामासुस्तस्य कार्ये निवेदिते / ध्रुवं वानरराजस्य विदितो रावणालयः // 42 वानराणां तु यत्सीता ह्रियमाणाभ्यवासृजत् // 12 इत्युक्त्वान्तर्हितो दिव्यः पुरुषः स महाप्रभः / तत्प्रत्ययकरं लब्ध्वा सुग्रीवं प्लवगाधिपम् / विस्मयं जग्मतुश्चोभौ तौ वीरौ रामलक्ष्मणौ // 43 पृथिव्यां वानरैश्वर्ये स्वयं रामोऽभ्यषेचयत् // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि प्रतिजज्ञे च काकुत्स्थः समरे वालिनो वधम् / . त्रिषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 263 // सुग्रीवश्चापि वैदेह्याः पुनरानयनं नृप // 14 264 इत्युक्त्वा समयं कृत्वा विश्वास्य च परस्परम् / मार्कण्डेय उवाच / अभ्येत्य सर्वे किष्किन्धां तस्थुर्युद्धाभिकाङ्गिणः // 15 ततोऽविदूरे नलिनी प्रभूतंकमलोत्पलाम् / सुग्रीवः प्राप्य किष्किन्धां ननादौघनिभस्वनः / सीताहरणदुःखार्तः पम्पां रामः समासदत् // 1 नास्य तन्ममृषे वाली तं तारा प्रत्यषेधयत् // 16 मारुतेन सुशीतेन सुखेनामृतगन्धिना / यथा नदति सुग्रीवो बलवानेष वानरः / सेव्यमानो वने तस्मिञ्जग्मम मनसा प्रियाम् // 2 मन्ये चाश्रयवान्प्राप्तो न त्वं निर्गन्तुमर्हसि // 17 विललाप स राजेन्द्रस्तत्र कान्तामनुस्मरन् / हेममाली ततो वाली तारां ताराधिपाननाम् / कामबाणाभिसंतप्तः सौमित्रिस्तमथाब्रवीत् / / 3 प्रोवाच वचनं वाग्मी तां वानरपतिः पतिः // 18 न त्वामेवंविधो भावः स्प्रष्टुमर्हति मानद / सर्वभूतरुतज्ञा त्वं पश्य बुद्ध्या समन्विता। आत्मवन्तमिव व्याधिः पुरुषं वृद्धशीलिनम् // 4 केनापाश्रयवान्प्राप्तो ममैष भ्रातृगन्धिकः // 19 प्रवृत्तिरुपलब्धा ते वैदेह्या रावणस्य च। चिन्तयित्वा मुहूर्तं तु तारा ताराधिपप्रभा / तां त्वं पुरुषकारेण बुद्ध्या चैवोपपादय / / 5 पतिमित्यब्रवीत्प्राज्ञा शृणु सर्व कपीश्वर / / 20 अभिगच्छाव सुग्रीवं शैलस्थं हरिपुंगवम् / हृतदारो महासत्त्वो रामो दशरथात्मजः / मयि शिष्ये च भृत्ये च सहाये च समाश्वस॥६ तुल्यारिमित्रतां प्राप्तः सुग्रीवेण धनुर्धरः // 21 एवं बहुविधैर्वाक्यलक्ष्मणेन स राघवः / भ्राता चास्य महाबाहुः सौमित्रिरपराजितः / उक्तः प्रकृतिमापेदे कार्ये चानन्तरोऽभवत् // 7 लक्ष्मणो नाम मेधावी स्थितः कार्यार्थसिद्धये // 22 निषेव्य वारि पम्पायास्तर्पयित्वा पितृ नपि / मैन्दश्च द्विविदश्चैव हनूमांश्चानिलात्मजः / प्रतस्थतुरुभौ वीरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ // 8 जाम्बवानृक्षराजश्च सुग्रीवसचिवाः स्थिताः // 23 तावृश्यमूकमभ्येत्य बहुमूलफलं गिरिम् / सर्व एते महात्मानो बुद्धिमन्तो महाबलाः / गिर्यग्रे वानरान्पञ्च वीरौ ददृशतुस्तदा // 9 अलं तव विनाशाय रामवीर्यव्यपाश्रयात् // 24 सुग्रीवः प्रेषयामास सचिवं वानरं तयोः / तस्यास्तदाक्षिप्य वचो हितमुक्तं कपीश्वरः। बुद्धिमन्तं हनूमन्तं हिमवन्तमिव स्थितम् // 10 पर्यशङ्कत तामीर्षुः सुग्रीवगतमानसाम् / / 25 तेन संभाष्य पूर्वं तौ सुग्रीवमभिजग्मतुः / तारां परुषमुक्त्वा स निर्जगाम गुहामुखात् / - 749 -
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________________ 3. 264. 26 ] महाभारते [ 3. 264. 55 स्थितं माल्यवतोऽभ्याशे सुग्रीवं सोऽभ्यभाषत // 26 सीतां निवेशयामास भवने नन्दनोपमे / असकृत्त्वं मया मूढ निर्जितो जीवितप्रियः / अशोकवनिकाभ्याशे तापसाश्रमसंनिभे // 41 मुक्तो ज्ञातिरिति ज्ञात्वा का त्वरा मरणे पुनः॥२७ भर्तृस्मरणतन्वङ्गी तापसीवेषधारिणी। इत्युक्तः प्राह सुग्रीवो भ्रातरं हेतुमद्वचः / उपवासतपःशीला तत्र सा पृथुलेक्षणा / प्राप्तकालममित्रघ्नो रामं संबोधयन्निव // 28 उवास दुःखवसती: फलमूलकृताशना // 42 हृतदारस्य मे राजन्हृतराज्यस्य च त्वया / दिदेश राक्षसीस्तत्र रक्षणे राक्षसाधिपः / / किं नु जीवितसामर्थ्यमिति विद्धि समागतम् // 29 प्रासासिशूलपरशुमुद्रालातधारिणीः // 43 एवमुक्त्वा बहुविधं ततस्तौ संनिपेततुः। व्यक्षी त्र्यक्षीं ललाटाक्षीं दीर्घजिह्वाम जिबिकाम् / समरे वालिसुग्रीवौ शालतालशिलायुधौ // 30 त्रिस्तनीमेकपादां च त्रिजटामेकलोचनाम् // 44 उभौ जन्नतुरन्योन्यमुभी भूमौ निपेततुः / एताश्चान्याश्च दीप्ताक्ष्यः करभोत्कटमूर्धजाः / . उभौ ववल्गतुश्चित्रं मुष्टिभिश्च निजघ्नतुः / / 31 परिवार्यासते सीतां दिवारात्रमतन्द्रिताः // 45 उभौ रुधिरसंसिक्तौ नखदन्तपरिक्षतौ / तास्तु तामायतापाङ्गी पिशाच्यो दारुणस्वनाः / शुशुभाते तदा वीरौ पुष्पिताविव किंशुकौ // 32 तर्जयन्ति सदा रौद्राः परुषव्यञ्जनाक्षराः॥४६ न विशेषस्तयोयुद्धे तदा कश्चन दृश्यते / खादाम पाटयामैनां तिलशः प्रविभज्य ताम् / सुग्रीवस्य तदा मालां हनूमान्कण्ठ आसजत् // 33 येयं भर्तारमस्माकमवमन्येह जीवति // 47 . स मालया तदा वीरः शुशुभे कण्ठसक्तया। इत्येवं परिभर्त्सन्तीस्त्रास्यमाना पुनः पुनः / श्रीमानिव महाशैलो मलयो मेघमालया // 34 भर्तृशोकसमाविष्टा निःश्वस्येदमुवाच ताः // 48 कृतचिद्रं तु सुग्रीवं रामो दृष्ट्वा महाधनुः / आर्याः खादत मां शीघ्रं न मे लोभोऽस्ति जीविते। विचकर्ष धनुःश्रेष्ठं वालिमुद्दिश्य लक्ष्यवत् // 35 विना तं पुण्डरीकाक्षं नीलकुञ्चितमूर्धजम् / / 49 विस्फारस्तस्य धनुषो यत्रस्येव तदा बभौ। आयेवाहं निराहारा जीवितप्रियवर्जिता / वितत्रास तदा वाली शरेणाभिहतो हृदि // 36 / शोषयिष्यामि गात्राणि व्याली तालगता यथा॥५० स भिन्नमर्माभिहतो वक्त्राच्छोणितमुद्वमन् / न त्वन्यमभिगच्छेयं पुमांसं राघवादृते / ददर्शावस्थितं राममारात्सौमित्रिणा सह // 37 / / इति जानीत सत्यं मे क्रियतां यदनन्तरम् // 51 गर्हयित्वा स काकुत्स्थं पपात भुवि मूर्छितः / तस्यास्तद्वचनं श्रुत्वा राक्षस्यस्ताः खरस्वनाः / तारा ददर्श तं भूमौ तारापतिमिव च्युतम् // 38 आख्यातुं राक्षसेन्द्राय जग्मुस्तत्सर्वमादितः // 52 हते वालिनि सुग्रीवः किष्किन्धां प्रत्यपद्यत। गतासु तासु सर्वासु त्रिजटा नाम राक्षसी। तां च तारापतिमुखीं तारां निपतितेश्वराम् // 39 सान्त्वयामास वैदेही धर्मज्ञा प्रियवादिनी // 53 रामस्तु चतुरो मासान्पृष्ठे माल्यवतः शुभे। सीते वक्ष्यामि ते किंचिद्विश्वासं कुरु मे सखि / निवासमकरोद्धीमान्सुग्रीवेणाभ्युपस्थितः // 40 भयं ते व्येतु वामोरु शृणु चेदं वचो मम॥ 54 रावणोऽपि पुरीं गत्वा लङ्कां कामबलात्कृतः। अविन्ध्यो नाम मेधावी वृद्धो राक्षसपुंगवः / -750
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________________ 3. 264. 55] आरण्यकपर्व [3. 265. 10 स रामस्य हितान्वेषी त्वदर्थे हि स मावदत्॥५५ असकृत्त्वं मया दृष्टा गच्छन्ती दिशमुत्तराम् // 70 सीता भद्वचनाद्वाच्या समाश्वास्य प्रसाद्य च / / हर्षमेष्यसि वैदेहि क्षिप्रं भर्तृसमन्विता / भर्ता ते कुशली रामो लक्ष्मणानुगतो बली / / 56 राघवेण सह भ्रात्रा सीते त्वमचिरादिव // 71 सख्यं वानरराजेन शक्रप्रतिमतेजसा / इति सा मृगशावाक्षी तच्छ्रुत्वा त्रिजटावचः / कृतवान्राघवः श्रीमांस्त्वदर्थे च समुद्यतः // 57 बभूवाशावती बाला पुनर्भर्तृसमागमे // 72 / मा च तेऽस्तु भयं भीरु रावणाल्लोकगर्हितात् / यावदभ्यागता रौद्राः पिशाच्यस्ताः सुदारुणाः / नलकूबरशापेन रक्षिता ह्यस्यनिन्दिते // 58 ददृशुस्तां त्रिजटया सहासीनां यथा पुरा // 73 शप्तो ह्येष पुरा पापो वधू रम्भा परामृशन् / . इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि न शक्तो विवशां नारीमुपैतुम जितेन्द्रियः // 59 चतुःषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 264 // क्षिप्रमेष्यति ते भर्ता सुग्रीवेणाभिरक्षितः / 265 सौमित्रिसहितो धीमांस्त्वां चेतो मोक्षयिष्यति॥६० मार्कण्डेय उवाच / स्वप्ना हि सुमहाघोरा दृष्टा मेऽनिष्टदर्शनाः / ततस्तां भर्तृशोकार्ता दीनां मलिनवाससम् / विनाशायास्य दुर्बुद्धेः पौलस्त्यकुलघातिनः // 61 मणिशेषाभ्यलंकारां रुदतीं च पतिव्रताम् // 1 दारुणो ह्येष दुष्टात्मा क्षुद्रकर्मा निशाचरः / राक्षसीभिरुपास्यन्तीं समासीनां शिलातले। स्वभावाच्छीलदोषेण सर्वेषां भयवर्धनः 62 रावणः कामबाणा” ददर्शोपससर्प च // 2 स्पर्धते सर्वदेवैर्यः कालोपहतचेतनः। देवदानवगन्धर्वयक्षकिंपुरुषैयुधि / मया विनाशलिङ्गानि स्वप्ने दृष्टानि तस्य वै // 63 अजितोऽशोकवनिकां ययौ कन्दर्पमोहितः // 3 तैलाभिषिक्तो विकचो मजन्पङ्के दशाननः / / दिव्याम्बरधरः श्रीमान्सुमृष्टमणिकुण्डलः / असकृत्खरयुक्ते तु रथे नृत्यन्निव स्थितः // 64 विचित्रमाल्यमुकुटो वसन्त इव मूर्तिमान् // 4 कुम्भकर्णादयश्चेमे नग्नाः पतितमूर्धजाः / स कल्पवृक्षसदृशो यत्नादपि विभूषितः / कृष्यन्ते दक्षिणामाशां रक्तमाल्यानुलेपनाः // 65 श्मशानचैत्यद्रुमवद्भूषितोऽपि भयंकरः॥ 5 श्वेतातपत्रः सोष्णीषः शुक्लमाल्यविभूषणः / स तस्यास्तनुमध्यायाः समीपे रजनीचरः। .. श्वेतपर्वतमारूढ एक एव विभीषणः // 66 ददृशे रोहिणीमेत्य शनैश्चर इव ग्रहः // 6 सचिवाश्चास्य चत्वारः शुक्लमाल्यानुलेपनाः। स तामामय सुश्रोणी पुष्पकेतुशराहतः / श्वेतपर्वतमारूढा मोक्ष्यन्तेऽस्मान्महाभयात् // 67 इदमित्यब्रवीद्वालां त्रस्तां रौहीमिवाबलाम् / / 7 रामस्यास्त्रेण पृथिवी परिक्षिप्ता ससागरा / सीते पर्याप्तमेतावत्कृतो भर्तुरनुग्रहः। यशसा पृथिवीं कृत्स्नां. पूरयिष्यति ते पतिः॥६८ प्रसादं कुरु तन्वनि क्रियतां परिकर्म ते // 8 अस्थिसंचयमारूढो भुञ्जानो मधुपायसम् / भजस्व मां वरारोहे महार्हाभरणाम्बरा / लक्ष्मणश्च मया दृष्टो निरीक्षन्सर्वतो दिशः // 69 भव मे सर्वनारीणामुत्तमा वरवर्णिनि // 9 रुदती रुधिरार्द्राङ्गी व्याघेण परिरक्षिता। | सन्ति मे देवकन्याश्च राजर्षीणां तथाङ्गनाः। . -751 -
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________________ 3. 265. 10] महाभारते [ 3. 266.7 सन्ति दानवकन्याश्च दैत्यानां चापि योषितः॥१० / तस्या रुदत्या भामिन्या दीर्घा वेणी सुसंयता / चतुर्दश पिशाचानां कोट्यो मे वचने स्थिताः / / ददृशे स्वसिता स्निग्धा काली व्यालीव मूर्धनि॥ द्विस्तावत्पुरुषादानां रक्षसां भीमकर्मणाम् // 11 तच्छ्रुत्वा रावणो वाक्यं सीतयोक्तं सुनिष्ठुरम् / ततो मे त्रिगुणा यक्षा ये मद्वचनकारिणः / प्रत्याख्यातोऽपि दुर्मेधाः पुनरेवाब्रवीद्वचः // 26 केचिदेव धनाध्यक्षं भ्रातरं मे समाश्रिताः // 12 काममङ्गानि मे सीते दुनोतु मकरध्वजः / गन्धर्वाप्सरसो भद्रे मामापानगतं सदा / न त्वामकामां सुश्रोणी समेष्ये चारहासिनीम्॥२७ उपतिष्ठन्ति वामोरु यथैव भ्रातरं मम // 13 किं नु शक्यं मया कर्तुं यत्त्वमद्यापि मानुषम् / पुत्रोऽहमपि विप्रर्षेः साक्षाद्विश्रवसो मुनेः। आहारभूतमस्माकं राममेवानुरुध्यसे // 28 पञ्चमो लोकपालानामिति मे प्रथितं यशः // 14 इत्युक्त्वा तामनिन्द्याङ्गी स राक्षसगणेश्वरः / दिव्यानि भक्ष्यभोज्यानि पानानि विविधानि च / तत्रैवान्तर्हितो भूत्वा जगामाभिमतां दिशम् // 29 यथैव त्रिदशेशस्य तथैव मम भामिनि // 15 राक्षसीभिः परिवृता वैदेही शोककर्शिता / क्षीयतां दुष्कृतं कर्म वनवासकृतं तव / सेव्यमाना त्रिजटया तत्रैव न्यवसत्तदा / / 30 भार्या मे भव सुश्रोणि यथा मन्दोदरी तथा / / 16 / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि इत्युक्ता तेन वैदेही परिवृत्य शुभानना / पञ्चषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 265 // तृणमन्तरतः कृत्वा तमुवाच निशाचरम् // 17 .. 266 अशिवेनातिवामोरूरजस्रं नेत्रवारिणा / मार्कण्डेय उवाच / स्तनावपतितौ बाला सहितावभिवर्षती / राघवस्तु ससौमित्रिः सुग्रीवेणाभिपालितः। उवाच वाक्यं तं क्षुद्रं वैदेही पतिदेवता // 18 वसन्माल्यवतः पृष्ठे ददर्श विमलं नभः // 1 असकृद्वदतो वाक्यमीदृशं राक्षसेश्वर / स दृष्ट्वा विमले व्योम्नि निर्मलं शशलक्षणम् / विषादयुक्तमेतत्ते मया श्रुतमभाग्यया // 19 ग्रहनक्षत्रताराभिरनुयातममित्रहा // 2 तद्भद्रसुख भद्रं ते मानसं विनिवर्त्यताम् / कुमुदोत्पलपद्मानां गन्धमादाय वायुना / परदारास्म्यलभ्या च सततं च पतिव्रता // 20 महीधरस्थः शीतेन सहसा प्रतिबोधितः // 3 न चैवोपयिकी भार्या मानुषी कृपणा तव / प्रभाते लक्ष्मणं वीरमभ्यभाषत दुर्मनाः / विवशां धर्षयित्वा च कां वं प्रीतिमवाप्स्यसि // 21 / सीतां संस्मृत्य धर्मात्मा रुद्धां राक्षसवेश्मनि // 4 प्रजापतिसमो विप्रो ब्रह्मयोनिः पिता तव। गच्छ लक्ष्मण जानीहि किष्किन्धायां कपीश्वरम् / न च पालयसे धर्म लोकपालसमः कथम् // 22 प्रमत्तं ग्राम्यधर्मेषु कृतघ्नं स्वार्थपण्डितम् // 5 भ्रातरं राजराजानं महेश्वरसखं प्रभुम् / योऽसौ कुलाधमो मूढो मया राज्येऽभिषेचितः / धनेश्वरं व्यपदिशन्कथं त्विह न लज्जसे // 23 सर्ववानरगोपुच्छा यमृक्षाश्च भजन्ति वै // 6 इत्युक्त्वा प्रारुदत्सीता कम्पयन्ती पयोधरौ / यदर्थ निहतो वाली मया रघुकुलोढह / शिरोधरां च तन्वङ्गी मुखं प्रच्छाद्य वाससा // 24 / त्वया सह महाबाहो किष्किन्धोपवने तदा // 7 -752 -
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________________ 3. 266.8] आरण्यकपर्व [3. 266. 36 कृतघ्नं तमहं मन्ये वानरापसदं भुवि / इत्येवं वानरेन्द्रास्ते समाजग्मुः सहस्रशः / यो मामेवंगतो मूढो न जानीतेऽद्य लक्ष्मण // 8 दिशस्तिस्रो विचित्याथ न तु ये दक्षिणां गताः॥ असौ मन्ये न जानीते समयप्रतिपादनम् / आचख्युस्ते तु रामाय महीं सागरमेखलाम् / कृतोपकारं मां नूनमवमन्याल्पया धिया // 9 विचितां न तु वैदेह्या दर्शनं रावणस्य वा // 23 यदि तावदनुयुक्तः शेते कामसुखात्मकः / गतास्तु दक्षिणामाशां ये वै वानरपुंगवाः / नेतव्यो वालिमार्गेण सर्वभूतगतिं त्वया // 10 / आशावांस्तेषु काकुत्स्थः प्राणानार्तोऽप्यधारयत् // 24 अथापि घटतेऽस्माकमर्थे वानरपुंगवः / द्विमासोपरमे काले व्यतीते प्लवगास्ततः / तमादायैहि काकुत्स्थ त्वरावान्भव माचिरम् // 11 सुग्रीवमभिगम्येदं त्वरिता वाक्यमब्रुवन् // 25 इत्युक्तो लक्ष्मणो भ्रात्रा गुरुवाक्यहिते रतः। . रक्षितं वालिना यत्तत्स्फीतं मधुवनं महत् / प्रतस्थे रुचिरं गृह्य समार्गणगुणें धनुः / त्वया च प्लवगश्रेष्ठ तद्भुते पवनात्मजः // 26 किष्किन्धाद्वारमासाद्य प्रविवेशानिवारितः॥ 12 वालिपुत्रोऽङ्गदश्चैव ये चान्ये प्लवगर्षभाः / सक्रोध इति तं मत्वा राजा प्रत्युद्ययौ हरिः। विचेतुं दक्षिणामाशां राजन्प्रस्थापितास्त्वया // 27 तं सदारो विनीतात्मा सुग्रीवः प्लवगाधिपः / तेषां तं प्रणयं श्रुत्वा मेने स कृतकृत्यताम् / पूजया प्रतिजग्राह प्रीयमाणस्तदर्हया // 13 कृतार्थानां हि भृत्यानामेतद्भवति चेष्टितम् // 28 तमब्रवीद्रामवचः सौमित्रिरकुतोभयः / स तद्रामाय मेधावी शशंस प्लवगर्षभः / स तत्सर्वमशेषेण श्रुत्वा प्रह्वः कृताञ्जलिः // 14 रामश्चाप्यनुमानेन मेने दृष्टां तु मैथिलीम् / / 29 सभृत्यदारो राजेन्द्र सुग्रीवो वानराधिपः / हनूमत्प्रमुखाश्चापि विश्रान्तास्ते प्लवंगमाः / इदमाह वचः प्रीतो लक्ष्मणं नरकुञ्जरम् // 15 अभिजग्मुर्हरीन्द्रं तं रामलक्ष्मणसंनिधौ // 30 नास्मि लक्ष्मण दुर्मेधा न कृतघ्नो न निघृणः / गतिं च मुखवर्णं च दृष्ट्वा रामो हनूमतः / श्रयतां यः प्रयत्नो मे सीतापर्येषणे कृतः // 16 अगमत्प्रत्ययं भूयो दृष्टा सीतेति भारत // 31 दिशः प्रस्थापिताः सर्वे विनीता हरयो मया। हनूमत्प्रमुखास्ते तु वानराः पूर्णमानसाः / सर्वेषां च कृतः कालो मासेनागमनं पुनः॥ 17 प्रणेमुर्विधिवद्रामं सुग्रीवं लक्ष्मणं तथा // 32 यैरियं सवना साद्रिः सपुरा सागराम्बरा / तानुवाचागतान्रामः प्रगृह्य सशरं धनुः / विचेतव्या मही वीर सग्रामनगराकरा // 18 अपि मां जीवयिष्यध्वमपि वः कृतकृत्यता // 33 स मासः पञ्चरात्रेण पूर्णो भवितुमर्हति / अपि राज्यमयोध्यायां कारयिष्याम्यहं पुनः। ततः श्रोष्यसि रामेण सहितः सुमहत्प्रियम् / / 19 निहत्य समरे शत्रूनाहृत्य जनकात्मजाम् // 34 इत्युक्तो लक्ष्मणस्तेन वानरेन्द्रेण धीमता। अमोक्षयित्वा वैदेहीमहत्वा च रिपूरणे / त्यक्त्वा रोषमदीनात्मा सुग्रीवं प्रत्यपूजयत् // 20 / हृतदारोऽवधूतश्च नाहं जीवितुमुत्सहे // 35 स रामं सहसुग्रीवो माल्यवत्पृष्ठमास्थितम् / इत्युक्तवचनं रामं प्रत्युवाचानिलात्मजः। अभिगम्योदयं तस्य कार्यस्य प्रत्यवेदयत् // 21 / प्रियमाख्यामि ते राम दृष्टा सा जानकी मया // 36 म. भा. 95 -753 -
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________________ 3. 266. 37] महाभारते [ 3. 266.65 विचित्य दक्षिणामाशां सपर्वतवनाकराम् / विषण्णचेताः पप्रच्छ पुनरस्मानरिंदम // 51 श्रान्ताः काले व्यतीते स्म दृष्टवन्तो महागुहाम्॥ 37 कः स रामः कथं सीता जटायुश्च कथं हतः / प्रविशामो वयं तां तु बहुयोजनमायताम् / इच्छामि सर्वमेवैतच्छ्रोतुं प्लवगसत्तमाः // 52 अन्धकारां सुविपिनां गहनां कीटसेविताम् // 38 तस्याहं सर्वमेवैतं भवतो व्यसनागमम् / गत्वा सुमहदध्वानमादित्यस्य प्रभां ततः / / प्रायोपवेशने चैव हेतुं विस्तरतोऽब्रुवम् // 53 . दृष्टवन्तः स्म तत्रैव भवनं दिव्यमन्तरा // 39 सोऽस्मानुत्थापयामास वाक्येनानेन पक्षिराट् / मयस्य किल दैत्यस्य तदासीद्वेश्म राघव / रावणो विदितो मह्यं लङ्का चास्य महापुरी // 54 तत्र प्रभावती नाम तपोऽतप्यत तापसी // 40 दृष्टा पारे समुद्रस्य त्रिकूटगिरिकन्दरे। तया दत्तानि भोज्यानि पानानि विविधानि च / भवित्री तत्र वैदेही न मेऽस्त्यत्र विचारणा // 55 भुक्त्वा लब्धबलाः सन्तस्तयोक्तेन पथा ततः / / 41 इति तस्य वचः श्रुत्वा वयमुत्थाय सत्वराः / निर्याय तस्मादुद्देशात्पश्यामो लवणाम्भसः। सागरप्लवने मन्त्रं मन्त्रयामः परंतप // 56 समीपे सह्यमलयौ दुर्दुरं च महागिरिम् // 42 नाध्यवस्यद्यदा कश्चित्सागरस्य विलङ्घने / ततो मलयमारुह्य पश्यन्तो वरुणालयम् / ततः पितरमाविश्य पुप्लवेऽहं महार्णवम् / विषण्णा व्यथिताः खिन्ना निराशा जीविते भृशम् / / शतयोजनविस्तीर्णं निहत्य जलराक्षसीम् // 57 अनेकशतविस्तीर्णं योजनानां महोदधिम् / तत्र सीता मया दृष्टा रावणान्तःपुरे सती। तिमिनक्रझषावासं चिन्तयन्तः सुदुःखिताः // 44 उपवासतपःशीला भर्तृदर्शनलालसा / तत्रानशनसंकल्पं कृत्वासीना वयं तदा / जटिला मलदिग्धाङ्गी कृशा दीना तपस्विनी // 58 ततः कथान्ते गृध्रस्य जटायोरभवत्कथा // 45 निमित्तैस्तामहं सीतामुपलभ्य पृथग्विधैः / ततः पर्वतशृङ्गाभं घोररूपं भयावहम् / उपसृत्याब्रुवं चार्यामभिगम्य रहोगताम् // 59 पक्षिणं दृष्टवन्तः स्म वैनतेयमिवापरम् // 46 सीते रामस्य दूतोऽहं वानरो मारुतात्मजः / सोऽस्मानतर्कयद्भोक्तुमथाभ्येत्य वचोऽब्रवीत् / त्वदर्शनमभिप्रेप्सुरिह प्राप्तो विहायसा // 60 भोः क एष मम भ्रातुर्जटायोः कुरुते कथाम् // 47 राजपुत्रौ कुशलिनौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ / संपातिर्नाम तस्याहं ज्येष्ठो भ्राता खगाधिपः / सर्वशाखामृगेन्द्रेण सुग्रीवेणाभिपालितौ // 61 अन्योन्यस्पर्धयारूढावावामादित्यसंसदम् // 48 कुशलं त्वाब्रवीद्रामः सीते सौमित्रिणा सह / ततो दग्धाविमौ पक्षौ न दग्धौ तु जटायुषः / सखिभावाच्च सुग्रीवः कुशलं त्वानुपृच्छति // 62 तदा मे चिरदृष्टः स भ्राता गृध्रपतिः प्रियः। क्षिप्रमेष्यति ते भर्ता सर्वशाखामृगैः सह / निर्दग्धपक्षः पतितो ह्यहमस्मिन्महागिरौ // 49 प्रत्ययं कुरु मे देवि वानरोऽस्मि न राक्षसः॥ 63 तस्यैवं वदतोऽस्माभिर्हतो भ्राता निवेदितः। मुहूर्तमिव च ध्यात्वा सीता मां प्रत्युवाच ह / व्यसनं भवतश्चेदं संक्षेपावै निवेदितम् // 50 अवैमि त्वां हनूमन्तमविन्ध्यवचनादहम् / / 64 स संपातिस्तदा राजश्रुत्वा सुमहदप्रियम् / / अविन्ध्यो हि महाबाहो राक्षसो वृद्धसंमतः / - 754 -
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________________ 3. 266. 65] आरण्यकपर्व [3. 267. 24 कथितस्तेन सुग्रीवस्त्वद्विधैः सचिवैर्वृतः // 65 शिरीषकुसुमाभानां सिंहानामिव नर्दताम् / गम्यतामिति चोक्त्वा मां सीता प्रादादिमं मणिम् / / श्रूयते तुमुलः शब्दस्तत्र तत्र प्रधावताम् // 10 धारिता येन वैदेही कालमेतमनिन्दिता // 66 / गिरिकूटनिभाः केचित्केचिन्महिषसंनिभाः। प्रत्ययार्थं कथां चेमां कथयामास जानकी / शरदभ्रप्रतीकाशाः पिष्टहिङ्गुलकाननाः॥ 11 क्षिप्तामिषीकां काकस्य चित्रकूटे महागिरौ / उत्पतन्तः पतन्तश्च प्लवमानाश्च वानराः / भवता पुरुषव्याघ्र प्रत्यभिज्ञानकारणात् / / 67 उद्धन्वन्तोऽपरे रेणून्समाजग्मुः समन्ततः / / 12 श्रावयित्वा तदात्मानं ततो दग्ध्वा च तां पुरीम् / . स वानरमहालोकः पूर्णसागरसंनिभः / संप्राप्त इति तं रामः प्रियवादिनमर्चयत् // 68 . निवेशमकरोत्तत्र सुग्रीवानुमते तदा // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततस्तेषु हरीन्द्रेषु समावृत्तेषु सर्वशः / षषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 266 // तिथौ प्रशस्ते नक्षत्रे मुहूर्ते चाभिपूजिते // 14 267 तेन व्यूढेन सैन्येन लोकानुद्वर्तयन्निव / माकण्डेय उवाच / प्रययौ राघवः श्रीमान्सुग्रीवसहितस्तदा // 15 ततस्तत्रैव रामस्य समासीनस्य तैः सह / मुखमासीत्तु सैन्यस्य हनूमान्मारुतात्मजः / समाजग्मुः कपिश्रेष्ठाः सुग्रीववचनात्तदा // 1 जघनं पालयामास सौमित्रिरकुतोभयः // 16 वृतः कोटिसहस्रेण वानराणां तरस्विनाम् / बद्धगोधाङ्गुलित्राणौ राघवौ तत्र रेजतुः / श्वशुरो वालिनः श्रीमान्सुषेणो राममभ्ययात् / / 2 वृतौ हरिमहामात्रैश्चन्द्रसूर्यौ ग्रहैरिव // 17 कोटीशतवृता चापि गजो गवय एव च। प्रबभौ हरिसैन्यं तच्छालतालशिलायुधम् / वानरेन्द्रौ महावीरों पृथक्पृथगदृश्यताम् // 3 सुमहच्छालिभवनं यथा सूर्योदयं प्रति / / 18 षष्टिकोटिसहस्राणि प्रकर्षन्प्रत्यदृश्यत / नलनीलाङ्गदकाथमैन्दद्विविदपालिता। गोलाङ्कलो महाराज गवाक्षो भीमदर्शनः // 4 ययौ सुमहती सेना राघवस्यार्थसिद्धये // 19 गन्धमादनवासी तु प्रथितो गन्धमादनः / विधिवत्सुप्रशस्तेषु बहुमूलफलेषु च / कोटीसहस्रमुग्राणां हरीणां समकर्षत // 5 प्रभूतमधुमासेषु वारिमत्सु शिवेषु च // 20 पनसो नाम मेधावी वानरः सुमहाबलः / निवसन्ती निराबाधा तथैव गिरिसानुषु / कोटीर्दश द्वादश च त्रिंशत्पञ्च प्रकर्षति // 6 उपायाद्धरिसेना सा क्षारोदमथ सागरम् // 21 श्रीमान्दधिमुखो नाम हरिवृद्धोऽपि वीर्यवान् / द्वितीयसागरनिभं तद्बलं बहुलध्वजम् / प्रचकर्ष महत्सैन्यं हरीणां भीमतेजसाम् / / 7 वेलावनं समासाद्य निवासमकरोत्तदा // 22 कृष्णानां मुखपुण्ड्राणामृक्षाणां भीमकर्मणाम् / ततो दाशरथिः श्रीमान्सुग्रीवं प्रत्यभाषत / कोटीशतसहस्रेण जाम्बवान्प्रत्यदृश्यत॥ 8 मध्ये वानरमुख्यानां प्राप्तकालमिदं वचः // 23 एते चान्ये च बहवो हरियूथपयूथपाः / उपायः को नु भवतां मतः सागरलङ्घने / असंख्येया महाराज समीयू रामकारणात् // 9 / इयं च महती सेना सागरश्चापि दुस्तरः॥२४ - 755 -
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________________ 3. 267. 25] महाभारते [3. 267.54 तत्रान्ये व्याहरन्ति स्म वानराः पटमानिनः / यदि दास्यामि ते मार्ग सैन्यस्य व्रजतोऽऽज्ञया / समर्था लङ्घने सिन्धोर्न तु कृत्स्नस्य वानराः॥२५ अन्येऽप्याज्ञापयिष्यन्ति मामेवं धनुषो बलात्॥४० केचिन्नौभिर्व्यवस्यन्ति केचिच्च विविधैः प्लवैः / अस्ति त्वत्र नलो नाम वानरः शिल्पिसंमतः / नेति रामश्च तान्सर्वान्सान्त्वयन्प्रत्यभाषत / / 26 त्वष्टुर्देवस्य तनयो बलवान्विश्वकर्मणः // 41 शतयोजनविस्तारं न शक्ताः सर्ववानराः / स यत्काष्ठं तृणं वापि शिलां वा क्षेप्स्यते मयि / क्रान्तुं तोयनिधिं वीरा नैषा वो नैष्ठिकी मतिः॥२७ सर्वं तद्धारयिष्यामि स ते सेतुर्भविष्यति // 42 नावो न सन्ति सेनाया बयस्तारयितुं तथा। इत्युक्त्वान्तर्हिते तस्मिन्रामो नलमुवाच ह। . वणिजामपघातं च कथमस्मद्विधश्चरेत // 28 कुरु सेतुं समुद्रे त्वं शक्तो ह्यसि मतो मम // 43 विस्तीर्णं चैव नः सैन्यं हन्याच्छिद्रेषु वै परः / तेनोपायेन काकुत्स्थः सेतुबन्धमकारयत् / प्लवोडुपप्रतारश्च नैवात्र मम रोचते॥२९ दशयोजनविस्तारमायतं शतयोजनम् // 44 . अहं त्विमं जलनिधिं समारप्स्याम्युपायतः / नलसेतुरिति ख्यातो योऽद्यापि प्रथितो भुवि / प्रतिशेष्याम्युपवसन्दर्शयिष्यति मां ततः // 30 रामस्याज्ञां पुरस्कृत्य धार्यते गिरिसंनिभः // 45 न चेद्दर्शयिता मार्ग धक्ष्याम्येनमहं ततः / तत्रस्थं स तु धर्मात्मा समागच्छद्विभीषणः / महास्त्रैरप्रतिहतैरत्यग्निपवनोज्वलैः // 31 भ्राता वै राक्षसेन्द्रस्य चतुर्भिः सचिवैः सह / / 46 इत्युक्त्वा सहसौमित्रिरुपस्पृश्याथ राघवः / प्रतिजग्राह रामस्तं स्वागतेन महामनाः / प्रतिशिश्ये जलनिधिं विधिवत्कुशसंस्तरे // 32 सुग्रीवस्य तु शङ्काभूत्प्रणिधिः स्यादिति स्म ह // 47 सागरस्तु ततः स्वप्ने दर्शयामास राघवम् / राघवस्तस्य चेष्टाभिः सम्यक्च चरितेङ्गितैः / देवो नदनदीभर्ता श्रीमान्यादोगणैर्वृतः // 33 यदा तत्त्वेन तुष्टोऽभूत्तत एनमपूजयत् / / 48 कौसल्यामातरित्येवमाभाष्य मधुरं वचः।। सर्वराक्षसराज्ये चाप्यभ्यपिञ्चद्विभीषणम् / इदमित्याह रत्नानामाकरैः शतशो वृतः // 34 चक्रे च मन्त्रानुचरं सुहृदं लक्ष्मणस्य च // 49 ब्रूहि किं ते करोम्यत्र साहाय्यं पुरुषर्षभ / विभीषणमते चैव सोऽत्यकामन्महार्णवम् / इक्ष्वाकुरस्मि ते ज्ञातिरिति रामस्तमब्रवीत् // 35 ससैन्यः सेतुना तेन मासेनैव नराधिप / 50 मार्गमिच्छामि सैन्यस्य दत्तं नदनदीपते / येन गत्वा दशग्रीवं हन्यां पौलस्त्यपांसनम् // 36 ततो गत्वा समासाद्य लङ्कोद्यानान्यनेकशः / यद्येवं याचतो मार्ग न प्रदास्यति मे भवान् / भेदयामास कपिभिर्महान्ति च बहूनि च // 51 शरैस्त्वां शोषयिष्यामि दिव्यास्त्रप्रतिमत्रितैः // 37 तत्रास्तां रावणामात्या राक्षसौ शुकसारणौ / इत्येवं ब्रवतः श्रुत्वा रामस्य वरुणालयः / चारौ वानररूपेण तो जग्राह विभीषणः // 52 उवाच व्यथितो वाक्यमिति बद्धाञ्जलिः स्थितः॥३८ / प्रतिपन्नौ यदा रूपं राक्षसं तौ निशाचरौ / नेच्छामि प्रतिघातं ते नास्मि विघ्नकरस्तव / दर्शयित्वा ततः सैन्यं रामः पश्चादवासृजत् // 53 शृणु चेदं वचो राम श्रुत्वा कर्तव्यमाचर // 39 / निवेश्योपवने सैन्यं तच्छूरः प्राज्ञवानरम् / -756 -
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________________ 3. 267. 54 ] आरण्यकपर्व [3. 268. 28 यथाहताः स्त्रियः / प्रेषयामास दौत्येन रावणस्य ततोऽङ्गदम् // 54 ऋषयो हिंसिताः पूर्वं देवाश्चाप्यवमानिताः // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि राजर्षयश्च निहता रुदन्त्यश्चाहृताः सप्तषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 267 // तदिदं समनुप्राप्तं फलं तस्यानयस्य ते // 14 268 हन्तास्मि त्वां सहामात्यं युध्यस्व पुरुषो भव / / मार्कण्डेय उवाच / पश्य मे धनुषो वीर्य मानुषस्य निशाचर // 15 . प्रभूतान्नोदके तस्मिन्बहुमूलफले वने। मुच्यतां जानकी सीता न मे मोक्ष्यसि कर्हिचित् / सेनां निवेश्य काकुत्स्थो विधिवत्पर्यरक्षत // 1 अराक्षसमिमं लोकं कर्तास्मि निशितैः शरैः // 16 रावणश्च विधिं चक्रे लङ्कायां शास्त्रनिर्मितम् / इति तस्य ब्रुवाणस्य दूतस्य परुषं वचः / प्रकृत्यैव दुराधर्षा दृढप्राकारतोरणा // 2 . श्रुत्वा न ममृषे राजा रावणः क्रोधमूर्छितः // 17 अगाधतोयाः परिखा मीननक्रसमाकुलाः / इङ्गितज्ञास्ततो भर्तुश्चत्वारो रजनीचराः। बभूवुः सप्त दुर्धर्षाः खादिरैः शङ्कभिश्चिताः / / 3 चतुर्वङ्गेषु जगृहुः शार्दूलमिव पक्षिणः // 18 कर्णाट्टयन्त्रदुर्धर्षा बभूवुः सहुडोपलाः / तांस्तथाङ्गेषु संसक्तानङ्गदो रजनीचरान् / साशीविषघटायोधाः ससर्जरसपांसवः // 4 आदायैव खमुत्पत्य प्रासादतलमाविशत् / / 19 मुसलालातनाराचतोमरासिपरश्वधैः / वेगेनोत्पततस्तस्य पेतुस्ते रजनीचराः। अन्विताश्च शतघ्नीभिः समधूच्छिष्टमुद्गराः // 5 भुवि संभिन्नहृदयाः प्रहारपरिपीडिताः // 20 पुरद्वारेषु सर्वेषु गुल्माः स्थावरजङ्गमाः / स मुक्तो हर्म्यशिखरात्तस्मात्पुनरवापतत् / बभूवुः पत्तिबहुलाः प्रभूतगजवाजिनः / / 6 लवयित्वा पुरीं लङ्का स्वबलस्य समीपतः // 21 . अङ्गदस्त्वथ लङ्काया द्वारदेशमुपागतः / कोसलेन्द्रमथाभ्येत्य सर्वमावेद्य चाङ्गदः। . विदितो राक्षसेन्द्रस्य प्रविवेश गतव्यथः / / 7 विशश्राम स तेजस्वी राघवेणाभिनन्दितः // 22 मध्ये राक्षसकोटीनां बह्वीनां सुमहाबलः। ततः सर्वाभिसारेण हरीणां वातरंहसाम् / शुशुभे मेघमालाभिरादित्य इव संवृतः // 8 भेदयामास लङ्कायाः प्राकारं रघुनन्दनः // 23 // स समासाद्य पौलस्त्यममात्यैरभिसंवृतम् / विभीषणाधिपती पुरस्कृत्याथ लक्ष्मणः / रामसंदेशमामय वाग्मी वक्तुं प्रचक्रमे // 9 दक्षिणं नगरद्वारमवामृद्गाद्दुरासदम् // 24 आह त्वां राघवो राजन्कोसलेन्द्रो महायशाः / करभारुणगात्राणां हरीणां युद्धशालिनाम् / प्राप्तकालमिदं वाक्यं तदादत्स्व कुरुष्व च // 10 कोटीशतसहस्रेण लङ्कामभ्यपतत्तदा // 25 अकृतात्मानमासाद्य राजानमनये रतम् / उत्पतद्भिः पतद्भिश्च निपतद्भिश्च वानरैः / विनश्यन्त्यनयाविष्टा देशाश्व नगराणि च // 11 नादृश्यत तदा सूर्यो रजसा नाशितप्रभः / / 26 त्वयैकेनापराद्धं मे सीतामाहरता बलात् / शालिप्रसूनसदृशैः शिरीषकुसुमप्रभैः / / वधायानपराद्धानामन्येषां तद्भविष्यति / / 12 तरुणादित्यसदृशैः शरगौरैश्च वानरैः / / 27 ये त्वया बलदर्पाभ्यामाविष्टेन वनेचराः। / प्राकारं ददृशुस्ते तु समन्तात्कपिलीकृतम् / - 757 -
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________________ 3. 268. 28 ] महाभारते [3. 269. 14 राक्षसा विस्मिता राजन्सस्त्रीवृद्धाः समन्ततः॥२८ अभिजग्मुर्गणानेके पिशाचक्षुद्ररक्षसाम् // 1 बिभिदुस्ते मणिस्तम्भान्कर्णाट्टशिखराणि च / / पर्वणः पूतनो जम्भः खरः क्रोधवशो हरिः। भग्नोन्मथितवेगानि यत्राणि च विचिक्षिपुः // 29 प्ररुजश्चारुजश्चैव प्रघसश्चैवमादयः // 2 परिगृह्य शतघ्नीश्च सचक्राः सहुडोपलाः। ततोऽभिपततां तेषामदृश्यानां दुरात्मनाम् / चिक्षिपुर्भुजवेगेन लङ्कामध्ये महाबलाः // 30 अन्तर्धानवधं तज्ज्ञश्चकार स विभीषणः // 3 प्राकारस्थाश्च ये केचिन्निशाचरगणास्तदा / ते दृश्यमाना हरिभिर्बलिभिर्दूरपातिभिः / ' प्रदुद्रुवुस्ते शतशः कपिभिः समभिद्रुताः // 31 निहताः सर्वशो राजन्मही जग्मुर्गतासवः // 4 ततस्तु राजवचनाद्राक्षसाः कामरूपिणः / अमृष्यमाणः सबलो रावणो निर्ययावथ / निर्ययुर्विकृताकाराः सहस्रशतसंघशः // 32 व्यूह्य चौशनसं व्यूहं हरीन्सर्वानहारयत् // 5 शस्त्रवर्षाणि वर्षन्तो द्रावयन्तो वनौकसः / राघवस्त्वभिनिर्याय व्यूढानीकं दशाननम् / प्राकारं शोधयन्तस्ते परं विक्रममास्थिताः // 33 बार्हस्पत्यं विधिं कृत्वा प्रत्यव्यूहन्निशाचरम्॥ 6 स माषराशिसदृशैर्बभूव क्षणदाचरैः / समेत्य युयुधे तत्र ततो रामेण रावणः / कृतो निर्वानरो भूयः प्राकारो भीमदर्शनैः // 34 युयुधे लक्ष्मणश्चैव तथैवेन्द्रजिता सह // 7 पेतुः शूलविभिन्नाङ्गा बहवो वानरर्षभाः / विरूपाक्षेण सुग्रीवस्तारेण च निखर्वटः / स्तम्भतोरणभग्नाश्च पेतुस्तत्र निशाचराः // 35 तुण्डेन च नलस्तत्र पटुशः पनसेन च // 8 केशाकेश्यभवद्युद्धं रक्षसां वानरैः सह / विषह्यं यं हि यो मेने स स तेन समेयिवान् / नखैर्दन्तैश्च वीराणां खादतां वै परस्परम् // 36 युयुधे युद्धवेलायां स्वबाहुबलमाश्रितः / / 9 निष्टनन्तो युभयतस्तत्र वानरराक्षसाः / हता निपतिता भूमौ न मुञ्चन्ति परस्परम् // 37 स संप्रहारो ववृधे भीरूणां भयवर्धनः / रामस्तु शरजालानि ववर्ष जलदो यथा / लोमसंहर्षणो घोरः पुरा देवासुरे यथा // 10 तानि लङ्का समासाद्य जन्नुस्तान्रजनीचरान् // 38 रावणो राममानर्छच्छक्तिशलासिवृष्टिभिः / सौमित्रिरपि नाराचैर्दृढधन्वा जितक्लमः / निशितैरायसैस्तीक्ष्णै रावणं चापि राघवः // 11 आदिश्यादिश्य दुर्गस्थान्पातयामास राक्षसान् / तथैवेन्द्रजितं यत्तं लक्ष्मणो मर्मभेदिभिः / ततः प्रत्यवहारोऽभूत्सैन्यानां राघवाज्ञया / इन्द्रजिच्चापि सौमित्रिं बिभेद बहुभिः शरैः // 12 कृते विमर्दे लङ्कायां लब्धलक्षो जयोत्तरः // 40 विभीषणः प्रहस्तं च प्रहस्तश्च विभीषणम् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि खगपत्रैः शरैस्तीक्ष्णैरभ्यवर्षद्गतव्यथः // 13 भष्टषष्टयधिकद्विशततमोऽध्यायः // 268 // तेषां बलवतामासीन्महास्त्राणां समागमः / विव्यथुः सकला येन त्रयो लोकाश्वराचराः // 14 मार्कण्डेय उवाच। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततो निविशमानांस्तान्सैनिकान्रावणानुगाः / एकोनसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 269 // -758
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________________ 3. 270. 1] आरण्यकपर्व [3. 270. 29 270 ततस्तं निहतं दृष्ट्वा धूम्राक्षं राक्षसोत्तमम् / मार्कण्डेय उवाच। हरयो जातविस्रम्भा जरभ्येत्य सैनिकान् // 15 ततः प्रहस्तः सहसा समभ्येत्य विभीषणम् / ते वध्यमाना बलिभिर्हरिभिर्जितकाशिभिः / गदया ताडयामास विनद्य रणकर्वशः // 1 राक्षसा भनसंकल्पा लङ्कामभ्यपतन्भयात् // 16 स तयाभिहतो धीमान्गदया भीमवेगया। तेऽभिपत्य पुरं भग्ना हतशेषा निशाचराः / नाकम्पत महाबाहुर्हिमवानिव सुस्थिरः // 2 सर्व राज्ञे यथावृत्तं रावणाय न्यवेदयन् // 17 ततः प्रगृह्य विपुलां शतघण्टां विभीषणः / श्रुत्वा तु रावणस्तेभ्यः प्रहस्तं निहतं युधि / अभिमत्र्य महाशक्तिं चिक्षेपास्य शिरः प्रति // 3 धूम्राक्षं च महेष्वासं ससैन्यं वानरर्षभैः // 18 पतन्त्या स तया वेगाद्राक्षसोऽशनिनादया। . सुदीर्घमिव निःश्वस्य समुत्पत्य वरासनात् / हृतोत्तमाङ्गो ददृशे वातरुग्ण इव द्रुमः // 4 उवाच कुम्भकर्णस्य कर्मकालोऽयमागतः // 19 तं दृष्ट्वा निहतं संख्ये प्रहस्तं क्षणदाचरम् / इत्येवमुक्त्वा विविधैर्वादित्रैः सुमहास्वनैः / अभिदुद्राव धूम्राक्षो वेगेन महता कपीन् / 5 शयानमतिनिद्रालुं कुम्भकर्णमबोधयत् // 20 तस्य मेघोपमं सैन्यमापतद्भीमदर्शनम् / प्रबोध्य महता चैनं यत्नेनागतसाध्वसः / दृष्ट्वैव सहसा दीर्णा रणे वानरपुंगवाः॥६ स्वस्थमासीनमव्यग्रं विनिद्रं राक्षसाधिपः। ततस्तान्सहसा दीर्णान्दृष्ट्वा वानरपुंगवान् / ततोऽब्रवीदशग्रीवः कुम्भकर्ण महाबलम् // 21 निर्याय कपिशार्दूलो हनूमान्पर्यवस्थितः॥ 7 धन्योऽसि यस्य ते निद्रा कुम्भकर्णेयमीदृशी। तं दृष्ट्वावस्थितं संख्ये हरयः पवनात्मजम् / य इमं दारुणं कालं न जानीषे महाभयम् // 22 वेगेन महता राजन्संन्यवर्तन्त सर्वशः॥ 8 एष तीर्वार्णवं रामः सेतुना हरिभिः सह / ततः शब्दो महानासीत्तुमुलो लोमहर्षणः / अवमन्येह नः सर्वान्करोति कदनं महत् / / 23 रामरावणसैन्यानामन्योन्यमभिधावताम् // 9 मया ह्यपहृता भार्या सीता नामास्य जानकी / तस्मिन्प्रवृत्ते संग्रामे घोरे रुधिरकर्दमे / तां मोक्षयिषुरायातो बद्धवा सेतुं महार्णवे // 24 धूम्राक्षः कपिसैन्यं तद्रावयामास पत्रिभिः // 10 तेन चैव प्रहस्तादिमहान्नः स्वजनो हतः। तं राक्षसमहामात्रमापतन्तं सपत्नजित् / तस्य नान्यो निहन्तास्ति त्वदृते शत्रुकर्शन // 25 तरसा प्रतिजग्राह हनूमान्पवनात्मजः // 11 स दंशितोऽभिनिर्याय त्वमद्य बलिनां वर / तयोर्युद्धमभूद्वोरं हरिराक्षसवीरयोः / रामादीन्समरे सर्वाञ्जहि शत्रूनरिंदम // 26 जिगीषतोयुधान्योन्यमिन्द्रप्रह्लादयोरिव // 12 दूषणावरजौ चैव वज्रवेगप्रमाथिनौ / गदाभिः परिधैश्चैव राक्षसो जन्निवान्कपिम् / तौ त्वां बलेन महता सहितावनुयास्यतः॥ 27 कपिश्च जनिवारक्षः सस्कन्धविटपैर्दुमैः // 13 इत्युक्त्वा राक्षसपतिः कुम्भकर्णं तरस्विनम् / ततस्तमतिकायेन साश्वं सरथसारथिम् / संदिदेशेतिकर्तव्ये वज्रवेगप्रमाथिनौ / / 28 धूम्राक्षमवधीद्धीमान्हनूमान्मारुतात्मजः / / 14 तथेत्युक्त्वा तु तौ वीरौ रावणं दूषणानुजौ / -759 -
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________________ 3. 270. 29 ] महाभारते [3. 271. 27 कुम्भकर्णं पुरस्कृत्य तूर्णं निर्ययतुः पुरात् // 29 तथा स भिन्नहृदयः समुत्सृज्य कपीश्वरम् / - इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि कुम्भकर्णो महेष्वासः प्रगृहीतशिलायुधः / सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 27 // अभिद्रुद्राव सौमित्रिमुद्यम्य महतीं शिलाम् // 13 तस्याभिद्रवतस्तूर्णं क्षुराभ्यामुच्छ्रितो करौ / मार्कण्डेय उवाच / चिच्छेद निशिताग्राभ्यां स बभूव चतुर्भुजः॥१४ ततो विनिर्याय पुरात्कुम्भकर्णः सहानुगः / तानप्यस्य भुजान्सर्वान्प्रगृहीतशिलायुधान् / अपश्यत्कपिसैन्यं तज्जितकाश्यग्रतः स्थितम् // 1 क्षरैश्चिच्छेद लध्वस्त्रं सौमित्रिः प्रतिदर्शयन् / / 15 तमभ्येत्याशु हरयः परिवार्य समन्ततः / स बभूवातिकायश्च बहुपादशिरोभुजः / अभ्यनंश्च महाकायैर्बहुभिर्जगतीरुहैः / तं ब्रह्मास्त्रेण सौमित्रिर्ददाहादिचयोपमम् / / 16 करजैरतुदंश्चान्ये विहाय भयमुत्तमम् // 2 स पपात महावीर्यो दिव्यास्त्राभिहतो रणे / बहुधा युध्यमानास्ते युद्धमार्गः प्लवंगमाः / महाशनिविनिर्दग्धः पादपोऽङ्कुरवानिव // 17 नानाप्रहरणैर्भीमं राक्षसेन्द्रमताडयन् // 3 तं दृष्ट्वा वृत्रसंकाशं कुम्भकर्णं तरस्विनम् / स ताड्यमानः प्रहसन्भक्षयामास वानरान् / गतासुं पतितं भूमौ राक्षसाः प्राद्रवन्भयात् // 18 पनसं च गवाक्षं च वज्रबाहुं च वानरम् / / 4 तथा तान्द्रवतो योधान्दृष्ट्वा तो दूषणानुजौ / तदृष्ट्वा व्यथनं कर्म कुम्भकर्णस्य रक्षसः / अवस्थाप्याथ सौमित्रिं संक्रुद्धावभ्यधावताम् / / 19 उदकोशन्परित्रस्तास्तारप्रभृतयस्तदा // 5 तावाद्रवन्तौ संक्रुद्धो वज्रवेगप्रमाथिनौ / तं तारमुच्चैः क्रोशन्तमन्यांश्च हरियूथपान् / प्रतिजग्राह सौमित्रिविनद्योभौ पतत्रिभिः // 20 अभिदुद्राव सुग्रीवः कुम्भकर्णमपेतभीः // 6 ततः सुतुमुलं युद्धमभवल्लोमहर्षणम् / ततोऽभिपत्य वेगेन कुम्भकर्णं महामनाः / दृषणानुजयोः पार्थ लक्ष्मणस्य च धीमतः // 21 शालेन जनिवान्मूर्ध्नि चलेन कपिकुञ्जरः // 7 महता शरवर्षेण राक्षसौ सोऽभ्यवर्षत / स महात्मा महावेगः कुम्भकर्णस्य मूर्धनि / तौ चापि वीरौ संक्रुद्धावुभौ तौ समवर्षताम् / / 22 बिभेद शालं सुग्रीवो न चैवाव्यथयत्कपिः॥ 8 . मुहूर्तमेवमभवद्वज्रवेगप्रमाथिनोः / ततो विनद्य प्रहसशालस्पर्शविबोधितः / सौमित्रेश्च महाबाहोः संप्रहारः सुदारुणः // 23 दोर्ध्यामादाय सुग्रीवं कुम्भकर्णोऽहरद्वलात् // 9 अथाद्रिशृङ्गमादाय हनूमान्मारुतात्मजः / ह्रियमाणं तु सुग्रीवं कुम्भकर्णेन रक्षसा। अभिद्रुत्याददे प्राणान्वज्रवेगस्य रक्षसः // 24 अवेक्ष्याभ्यद्रवद्वीरः सौमित्रिमित्रनन्दनः // 10 नीलश्च महता ग्राव्णा दूषणावरजं हरिः / सोऽभिपत्य महावेगं रुक्मपुङ्ख महाशरम् / प्रमाथिनमभिद्रुत्य प्रममाथ महाबलः // 25 प्राहिणोत्कुम्भकर्णाय लक्ष्मणः परवीरहा // 11 . ततः प्रावर्तत पुनः संग्रामः कटुकोदयः / स तस्य देहावरणं भित्त्वा देहं च सायकः / रामरावणसैन्यानामन्योन्यमभिधावताम् / / 26 जगाम दारयन्भूमिं रुधिरेण समुक्षितः // 12 शतशो नैर्ऋतान्वन्या जनुर्वन्यांश्च नैर्ऋताः / - 760 -
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________________ 3. 271. 27 ] आरण्यकपर्व [3. 272. 26 नैऋतास्तत्र वध्यन्ते प्रायशो न तु वानराः // 27 तानागतान्स चिच्छेद सौमित्रिनिशितैः शरैः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ते निकृत्ताः शरैस्तीक्ष्णैर्यपतन्वसुधातले // 13 एकसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 271 // तमङ्गदो वालिसुतः श्रीमानुद्यम्य पादपम् / 272 अभिद्रुत्य महावेगस्ताडयामास मूर्धनि // 14 मार्कण्डेय उवाच। तस्येन्द्रजिदसंभ्रान्तः प्रासेनोरसि वीर्यवान् / ततः श्रुत्वा हतं संख्ये कुम्भकर्णं सहानुगम् / प्रहर्तुमैच्छत्तं चास्य प्रासं चिच्छेद लक्ष्मणः / / 15 प्रहस्तं च महेष्वासं धूम्राक्षं चातितेजसम् // 1 तमभ्याशगतं वीरमङ्गदं रावणात्मजः / पुत्रमिन्द्रजितं शूरं रावणः प्रत्यभाषत / गदयाताडयत्सव्ये पार्श्व वानरपुंगवम् // 16 जहि रामममित्रघ्न सुग्रीवं च सलक्ष्मणम् // 2 तमचिन्त्य प्रहारं स बलवान्वालिनः सुतः / त्वया हि मम सत्पुत्र यशो दीप्तमुपार्जितम् / ससर्जेन्द्रजितः क्रोधाच्छालस्कन्धममित्रजित् / / 17 जित्वा वज्रधरं संख्ये सहस्राक्षं शचीपतिम् // 3 सोऽङ्गदेन रुषोत्सृष्टो वधायेन्द्रजितस्तरुः / अन्तर्हितः प्रकाशो वा दिव्यैर्दत्तवरैः शरैः। जघानेन्द्रजितः पार्थ रथं साश्वं ससारथिम् // 18 जहि शत्रूनमित्रघ्न मम शस्त्रभृतां वर / 4 ततो हताश्वात्प्रस्कन्द्य रथात्स हतसारथिः / रामलक्ष्मणसुग्रीवाः शरस्पर्श न तेऽनघ। तत्रैवान्तर्दधे राजन्मायया रावणात्मजः // 19 समर्थाः प्रतिसंसोढुं कुतस्तदनुयायिनः // 5 अन्तर्हितं विदित्वा तं बहुमायं च राक्षसम् / अकृता या प्रहस्तेन कुम्भकर्णेन चानघ / रामस्तं देशमागम्य तत्सैन्यं पर्यरक्षत // 20 खरस्यापचितिः संख्ये तां गच्छस्व महाभुज // 6 स राममुद्दिश्य शरैस्ततो दत्तवरैस्तदा / त्वमद्य निशितैर्बाणैर्ह त्वा शत्रून्ससैनिकान् / विव्याध सर्वगात्रेषु लक्ष्मणं च महारथम् // 21 प्रतिनन्दय मां पुत्र पुरा बवेव वासवम् // 7 तमदृश्यं शरैः शूरौ माययान्तर्हितं तदा / इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा रथमास्थाय दंशितः। योधयामासतुरुभौ रावणिं रामलक्ष्मणौ // 22 प्रययाविन्द्रजिद्राजस्तूर्णमायोधनं प्रति / / 8 स रुषा सर्वगात्रेषु तयोः पुरुषसिंहयोः / तत्र विश्राव्य विस्पष्टं नाम राक्षसपुंगवः / व्यसृजत्सायकान्भूयः शतशोऽथ सहस्रशः // 23 आह्वयामास समरे लक्ष्मणं शुभलक्षणम् // 9 तमदृश्यं विचिन्वन्तः सृजन्तमनिशं शरान् / तं लक्ष्मणोऽप्यभ्यधावत्प्रगृह्य सशरं धनुः / हरयो विविशुाम प्रगृह्य महती: शिलाः // 24 त्रासयंस्तलघोषेण सिंहः क्षुद्रमृगं यथा // 10 तांश्च तौ चाप्यदृश्यः स शरैर्विव्याध राक्षसः / तयोः समभवद्युद्धं सुमहज्जयगृद्धिनोः / स भृशं ताडयन्वीरो रावणिर्मायया वृतः // 25 दिव्यास्त्रविदुषोस्तीत्रमन्योन्यस्पर्धिनोस्तदा // 11 तौ शरैराचितौ वीरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ / रावणिस्तु यदा नैनं विशेषयति सायकैः। पेततुर्गगनाद्भूमि सूर्याचन्द्रमसाविव // 26 ततो गुरुतरं यत्नमातिष्टद्धलिनां वरः // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तत एनं महावेगैरर्दयामास तोमरैः / . द्विसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२७२॥ म. भा. 96 -761 -
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________________ 3. 273. 1] महाभारते [3. 273. 29 मार्कण्डेय उवाच। 273 इन्द्रजित्कृतकर्मा तु पित्रे कर्म तदात्मनः / निवेद्य पुनरागच्छत्त्वरयाजिशिरः प्रति // 15 तावुभौ पतितौ दृष्ट्वा भ्रातरावमितौजसौ। तमापतन्तं संक्रुद्धं पुनरेव युयुत्सया / बबन्ध रावणिर्भूयः शरैर्दत्तवरैस्तदा // 1 अभिदुद्राव सौमित्रिर्विभीषणमते स्थितः // 16 तौ वीरौ शरजालेन बद्धाविन्द्रजिता रणे। अकृताहिकमेवैनं जिघांसुर्जितकाशिनम् / रेजतुः पुरुषव्याघ्रौ शकुन्ताविव पञ्जरे // 2 शरैर्जघान संक्रुद्धः कृतसंज्ञोऽथ लक्ष्मणः / / 17 तौ दृष्ट्वा पतितौ भूमौ शतशः सायकैश्चितौ / तयोः समभवद्युद्धं तदान्योन्यं जिगीषतोः / सुग्रीवः कपिभिः सार्धं परिवार्य ततः स्थितः // 3 अतीव चित्रमाश्चर्यं शक्रप्रह्लादयोरिव / / 18 सुषेणमैन्दद्विविदैः कुमुदेनाङ्गदेन च। अविध्यदिन्द्रजित्तीक्ष्णैः सौमित्रिं मर्मभेदिभिः / हनूमन्नीलतारैश्च नलेन च कपीश्वरः॥ 4 सौमित्रिश्चानलस्पर्शरविध्यद्रावणिं शरैः // 19 ततस्तं देशमागम्य कृतकर्मा विभीषणः / सौमित्रिशरसंम्पर्शाद्रावणिः क्रोधमूर्छितः / बोधयामास तौ वीरौ प्रज्ञास्त्रेण प्रबोधितौ // 5 असृजल्लक्ष्मणायाष्टौ शरानाशीविषोपमान् // 20 विशल्यौ चापि सुग्रीवः क्षणेनोभौ चकार तौ / तस्यासून्पावकस्पर्शः सौमित्रिः पत्रिभित्रिभिः / विशल्यया महौषध्या दिव्यमश्रप्रयुक्तया॥६ यथा निरहरद्वीरस्तन्मे निगदतः शृणु / / 21 तौ लब्धसंज्ञौ नृवरौ विशल्यावुदतिष्ठताम् / एकेनास्य धनुष्मन्तं बाहुं देहादपातयत् / गततन्द्रीक्लमौ चास्तां क्षणेनोभी महारथौ // 7 द्वितीयेन सनाराचं भुजं भूमौ न्यपातयत् // 22 ततो विभीषणः पार्थ राममिक्ष्वाकुनन्दनम् / तृतीयेन तु बाणेन पृथुधारेण भास्वता। उवाच विज्वरं दृष्ट्वा कृताञ्जलिरिदं वचः॥ 8 जहार सुनसं चारु शिरो भ्राजिष्णुकुण्डलम // 23 अयमम्भो गृहीत्वा तु राजराजस्य शासनात् / विनिकृत्तभुजस्कन्धं कबन्धं भीमदर्शनम् / गुह्यकोऽभ्यागतः श्वेतात्त्वत्सकाशमरिंदम // 9 तं हत्वा सूतमप्यस्यैर्जघान बलिनां वरः // 24 इदमम्भः कुबेरस्ते महाराजः प्रयच्छति / लङ्कां प्रवेशयामासुजिनस्तं रथं तदा / अन्तर्हितानां भूतानां दर्शनार्थं परंतप // 10 ददर्श रावणस्तं च रथं पुत्रविनाकृतम् // 25 अनेन स्पृष्टनयनो भूतान्यन्तर्हितान्युत / ‘स पुत्रं निहतं दृष्ट्वा त्रासात्संभ्रान्तलोचनः / भवान्द्रक्ष्यति यस्मै च भवानेतत्प्रदास्यति // 11 रावणः शोकमोहातॊ वैदेहीं हन्तुमुद्यतः / / 26 तथेति रामस्तद्वारि प्रतिगृह्याथ सत्कृतम् / अशोकवनिकास्थां तां रामदर्शनलालसाम् / चकार नेत्रयोः शौचं लक्ष्मणश्च महामनाः // 12 खड्गमादाय दुष्टात्मा जवेनाभिपपात ह // 27 सुग्रीवजाम्बवन्तौ च हनूमानङ्गदस्तथा। तं दृष्ट्वा तस्य दुर्बुद्धेरविन्ध्यः पापनिश्चयम् / मैन्दद्विविदनीलाश्च प्रायः प्लवगसत्तमाः // 13 शमयामास संक्रुद्धं श्रूयतां येन हेतुना // 28 तथा समभवच्चापि यदुवाच विभीषणः / महाराज्ये स्थितो दीप्ते न स्त्रियं हन्तुमर्हसि / क्षणेनातीन्द्रियाण्येषां चढूंष्यासन्युधिष्ठिर // 14 हतैवैषा यदा स्त्री च बन्धनस्था च ते गृहे // 29 - 762 -
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________________ 3. 273. 30] आरण्यकपर्व [3. 274. 23 न चैषा देहभेदेन हता स्यादिति मे मतिः। तां दृष्ट्वा राक्षसेन्द्रस्य मायामिक्ष्वाकुनन्दनः / जहि भर्तारमेवास्या हते तस्मिन्हता भवेत् // 30 | उवाच रामं सौमित्रिरसंभ्रान्तो बृहद्वचः // 10 न हि ते विक्रमे तुल्यः साक्षादपि शतक्रतुः / / जहीमान्राक्षसान्पापानात्मनः प्रतिरूपकान् / असकृद्धि त्वया सेन्द्रास्त्रासितास्त्रिदशा युधि // 31 जघान रामस्तांश्चान्यानात्मनः प्रतिरूपकान् // 11 एवं बहुविधैर्वाक्यैरविन्ध्यो रावणं तदा। ततो हर्यश्वयुक्तेन रथेनादित्यवर्चसा / क्रुद्धं संशमयामास जगृहे च स तद्वचः / / 32 उपतस्थे रणे रामं मातलिः शक्रसारथिः // 12 निर्याणे स मतिं कृत्वा निधायासिं क्षपाचरः / मातलिरुवाच / आज्ञापयामास तदा रथो मे कल्प्यतामिति // 33 अयं हर्यश्वयुग्जैत्रो मघोनः स्यन्दनोत्तमः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अनेन शक्रः काकुत्स्थ समरे दैत्यदानवान् / त्रिसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 273 // शतशः पुरुषव्याघ्र रथोदारेण जनिवान् // 13 : 274 तदनेन नरव्याघ्र मया यत्तेन संयुगे। मार्कण्डेय उवाच / स्यन्दनेन जहि क्षिप्रं रावणं मा चिरं कृथाः॥ 14 ततः क्रुद्धो दशग्रीवः प्रिये पुत्रे निपातिते / इत्युक्तो राघवस्तथ्यं वचोऽशङ्कत मातलेः / निर्ययौ रथमास्थाय हेमरत्नविभूषितम् // 1 / / मायेयं राक्षसस्येति तमुवाच विभीषणः // 15 संवृतो राक्षसैोरै विविधायुधपाणिभिः / , नेयं माया नरव्याघ्र रावणस्य दुरात्मनः / अभिदुद्राव रामं स पोथयन्हरियूथपान् // 2 तदातिष्ठ रथं शीघ्रमिममैन्द्रं महाद्युते // 16 तमाद्रवन्तं संक्रुद्धं मैन्दनीलनलाङ्गदाः। .. ततः प्रहृष्टः काकुत्स्थस्तथेत्युक्त्वा विभीषणम् / हनूमाञ्जाम्बवांश्चैव ससैन्याः पर्यवारयन् // 3 रथेनाभिपपाताशु दशग्रीवं रुषान्वितः // 17 ते दशग्रीवसैन्यं तदृक्षवानरयूथपाः / हाहाकृतानि भूतानि रावणे समभिद्रुते / द्रुमैर्विध्वंसयांचक्रुर्दशग्रीवस्य पश्यतः॥४ सिंहनादाः सपटहा दिवि दिव्याश्च नानदन् // 18 ततः स्वसैन्यमालोक्य वध्यमानमरातिभिः / स रामाय महाघोरं विससर्ज निशाचरः / मायावी व्यदधान्मायां रावणो राक्षसेश्वरः // 5 शूलमिन्द्राशनिप्रख्यं ब्रह्मदण्डमिवोद्यतम् // 19 तस्य देहाद्विनिष्क्रान्ताः शतशोऽथ सहस्रशः / तच्छूलमन्तरा रामश्चिच्छेद निशितैः शरैः / राक्षसाः प्रत्यदृश्यन्त शरशक्त्यष्टिपाणयः // 6 तदृष्ट्वा दुष्करं कर्म रावणं भयमाविशत् // 20 तान्रामो जनिवान्सर्वान्दिव्येनास्त्रेण राक्षसान् / ततः क्रुद्धः ससर्जाशु दशग्रीवः शिताशरान् / अथ भूयोऽपि मायां स व्यदधाद्राक्षसाधिपः॥७ सहस्रायुतशो रामे शस्त्राणि विविधानि च // 21 कृत्वा रामस्य रूपाणि लक्ष्मणस्य च भारत / ततो भुशुण्डीः शूलांश्च मुसलानि परश्वधान् / अभिदुद्राव रामं च लक्ष्मणं च दशाननः / / 8 / शक्तीश्च विविधाकाराः शतघ्नीश्च शितक्षुराः॥२२ ततस्ते राममर्छन्तो लक्ष्मणं च क्षपाचराः / तां मायां विकृतां दृष्ट्वा दशग्रीवस्य रक्षसः। अभिपेतुस्तदा राजन्प्रगृहीतोच्चकार्मुकाः॥ 9 | भयात्प्रदुद्रुवुः सर्वे वानराः सर्वतोदिशम् // 23 / - 763 -
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________________ 3. 274. 24 ] महाभारते [ 3. 275. 20 ततः सुपत्रं सुमुखं हेमपुझं शरोत्तमम् / ततः सीतां पुरस्कृत्य विभीषणपुरस्कृताम् / तूणादादाय काकुत्स्थो ब्रह्मास्त्रेण युयोज ह॥२४ अविन्ध्यो नाम सुप्रज्ञो वृद्धामात्यो विनिर्थयौ // 6 तं बाणवयं रामेण ब्रह्मास्त्रेणाभिमत्रितम् / उवाच च महात्मानं काकुस्थं दैन्यमास्थितम् / जहषुर्देवगन्धर्वा दृष्ट्वा शक्रपुरोगमाः // 25 प्रतीच्छ देवीं सद्वृत्तां महात्मञ्जानकीमिति // 7 अल्पावशेषमायुश्च ततोऽमन्यन्त रक्षसः / एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्मादवतीर्य रथोत्तमात् / ब्रह्मास्त्रोदीरणाच्छनोर्देवगन्धर्वकिंनराः // 26 बाष्पेणापिहितां सीतां ददर्शेक्ष्वाकुनन्दनः // 8 ततः ससर्ज तं रामः शरमप्रतिमौजसम् / तां दृष्ट्वा चारसर्वाङ्गी यानस्थां शोककर्शिताम् / रावणान्तकरं घोरं ब्रह्मदण्डमिवोद्यतम् / / 27 मलोपचितसर्वाङ्गी जटिलां कृष्णवाससम् // 9 स तेन राक्षसश्रेष्ठः सरथः साश्वसारथिः / उवाच रामो वैदेही परामर्शविशङ्कितः / प्रजज्वाल महाज्वालेनाग्निनाभिपरिष्कृतः // 28 गच्छ वैदेहि मुक्ता त्वं यत्कार्यं तन्मया कृतम् // 10 ततः प्रहृष्टास्त्रिदशाः सगन्धर्वाः सचारणाः / मामासाद्य पतिं भद्रे न त्वं राक्षसवेश्मनि / निहतं रावणं दृष्ट्वा रामेणाक्लिष्टकर्मणा / / 29 जरां व्रजेथा इति मे निहतोऽसौ निशाचरः॥ 11 तत्यजुस्तं महाभागं पञ्च भूतानि रावणम् / कथं ह्यस्मद्विधो जातु जानन्धर्मविनिश्चयम् / भ्रंशितः सर्वलोकेषु स हि ब्रह्मास्त्रतेजसा // 30 परहस्तगतां नारी मुहूर्तमपि धारयेत् // 12 शरीरधातवो ह्यस्य मांसं रुधिरमेव च / सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामद्य मैथिलि / नेशुब्रह्मास्त्रनिर्दग्धा न च भस्माप्यदृश्यत // 31 नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ततः सा सहसा बाला तच्छ्रुत्वा दारुणं वचः। चतुःसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 274 // पपात देवी व्यथिता निकृत्ता कदली यथा // 14 275 यो ह्यस्या हर्षसंभूतो मुखरागस्तदाभवत् / मार्कण्डेय उवाच / क्षणेन स पुनर्धष्टो निःश्वासादिव दर्पणे // 15 स हत्वा रावणं क्षुद्रं राक्षसेन्द्रं सुरद्विषम् / ततस्ते हरयः सर्वे तच्छ्रुत्वा रामभाषितम् / बभूव हृष्टः ससुहृद्रामः सौमित्रिणा सह // 1 गतासुकल्पा निश्चेष्टा बभूवुः सहलक्ष्मणाः // 16 ततो हते दशग्रीवे देवाः सर्षिपुरोगमाः / / ततो देवो विशुद्धात्मा विमानेन चतुर्मुखः / आशीर्भिर्जययुक्ताभिरानचुस्तं महाभुजम् // 2 पितामहो जगत्स्रष्टा दर्शयामास राघवम् // 17 रामं कमलपत्राक्षं तुष्टुवुः सर्वदेवताः / शक्रश्चाग्निश्च वायुश्च यमो वरुण एव च / गन्धर्वाः पुष्पवर्षेश्च वाग्भिश्च त्रिदशालयाः // 3 यक्षाधिपश्च भगवांस्तथा सप्तर्षयोऽमलाः // 18 पूजयित्वा यथा रामं प्रतिजग्मुर्यथागतम् / राजा दशरथश्चैव दिव्यभास्वरमूर्तिमान् / तन्महोत्सवसंकाशमासीदाकाशमच्युत // 4 विमानेन महार्हेण हंसयुक्तेन भास्वता // 19 ततो हत्वा दशग्रीवं लङ्का रामो महायशाः / ततोऽन्तरिक्षं तत्सर्वं देवगन्धर्वसंकुलम् / विभीषणाय प्रददौ प्रभुः परपुरंजयः // 5 शुशुभे तारकाचित्रं शरदीव नभस्तलम् // 20 - 764
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________________ 3. 275. 21] आरण्यकपर्व [3. 275. 47 तत उत्थाय वैदेही तेषां मध्ये यशस्विनी / नात्र शङ्का त्वया कार्या प्रतीच्छेमां महागुते / उवाच वाक्यं कल्याणी रामं पृथुलवक्षसम् // 21 कृतं त्वया महत्कार्यं देवानाममरप्रभ // 34 राजपुत्र न ते कोपं करोमि विदिता हि मे। दशरथ उवाच। गतिः स्त्रीणां नराणां च शृणु चेदं वचो मम // 22 प्रीतोऽस्मि वत्स भद्रं ते पिता दशरथोऽस्मि ते / अन्तश्चरति भूतानां मातरिश्वा सदागतिः / अनुजानामि राज्यं च प्रशाधि पुरुषोत्तम // 35 स मे विमुश्चतु प्राणान्यदि पापं चराम्यहम् // 23 राम उवाच / अग्निरापस्तथाकाशं पृथिवी वायुरेव च / अभिवादये त्वां राजेन्द्र यदि त्वं जनको मम / विमुश्चन्तु मम प्राणान्यदि पापं चराम्यहम् // 24 गमिष्यामि पुरीं रम्यामयोध्यां शासनात्तव // 36 ततोऽन्तरिक्षे वागासीत्सर्वा विश्रावयन्दिशः / / मार्कण्डेय उवाच / पुण्या संहर्षणी तेषां वानराणां महात्मनाम् // 25 . तमुवाच पिता भूयः प्रहृष्टो मनुजाधिप / वायुरुवाच।। गच्छायोध्यां प्रशाधि त्वं राम रक्तान्तलोचन // 37 भो भो राघव सत्यं वै वायुरस्मि सदागतिः / ततो देवान्नमस्कृत्य सुहृद्भिरभिनन्दितः / अपापा मैथिली राजन्संगच्छ सह भार्यया // 26 महेन्द्र इव पौलोम्या भार्यया स समेयिवान् // 38 ___ अग्निरुवाच / ततो वरं ददौ तस्मै अविन्ध्याय परंतपः / अहमन्तःशरीरस्थो भूतानां रघुनन्दन / त्रिजटां चार्थमानाभ्यां योजयामास राक्षसीम्॥३९ सुसूक्ष्ममपि काकुत्स्थ मैथिली नापराध्यति // 27 तमुवाच ततो ब्रह्मा देवैः शक्रमुखैर्वृतः / . वरुण उवाच। कौसल्यामातरिष्टांस्ते वरानद्य ददानि कान् // 40 रसा वै मत्प्रसूता हि भूतदेहेषु राघव / वत्रे रामः स्थितिं धर्मे शत्रुभिश्चापराजयम् / अहं वै त्वां प्रब्रवीमि मैथिली प्रतिगृह्यताम् // 28 राक्षसैनिहतानां च वानराणां समुद्भवम् // 41. ... ब्रह्मोवाच / ततस्ते ब्रह्मणा प्रोक्ते तथेति वचने तदा / पुत्र नैतदिहाश्चर्यं त्वयि राजर्षिधर्मिणि / समुत्तस्थुमहाराज वानरा लब्धचेतसः // 42 साधो सद्वृत्तमार्गस्थे शृणु चेदं वचो मम // 29 सीता चापि महाभागा वरं हनुमते ददौ / शत्रुरेष त्वया वीर देवगन्धर्वभोगिनाम् / रामकी, समं पुत्र जीवितं ते भविष्यति // 43 यक्षाणां दानवानां च महर्षीणां च पातितः // 30 दिव्यास्त्वामुपभोगाश्च मत्प्रसादकृताः सदा। अवध्यः सर्वभूतानां मत्प्रसादात्पुराभवत् / उपस्थास्यन्ति हनुमन्निति स्म हरिलोचन // 44 कस्माच्चित्कारणात्पापः कंचित्कालमुपेक्षितः // 31 ततस्ते प्रेक्षमाणानां तेषामक्लिष्टकर्मणाम् / वधार्थमात्मनस्तेन हृता सीता दुरात्मना। अन्तर्धानं ययुर्देवाः सर्वे शक्रपुरोगमाः // 45 नलकूबरशापेन रक्षा चास्याः कृता मया // 32 दृष्ट्वा तु रामं जानक्या समेतं शक्रसारथिः / यदि ह्यकामामासेवेत्स्त्रियमन्यामपि ध्रुवम् / उवाच परमप्रीतः सुहृन्मध्य इदं वचः // 46 शतधास्य फलेदेह इत्युक्तः सोऽभवत्पुरा / / 33 / देवगन्धर्वयक्षाणां मानुषासुरभोगिनाम् / -765 -
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________________ 3. 275. 47] महाभारते [3. 276.6 अपनीतं त्वया दुःखमिदं सत्यपराक्रम // 47 राघवः सहसौमित्रिMमुदे भरतर्षभ / / 62 सदेवासुरगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः / तथा भरतशत्रुघ्नौ समेतौ गुरुणा तदा / कथयिष्यन्ति लोकास्त्वां यावद्भमिर्धरिष्यति // 48 वैदेह्या दर्शनेनोभौ प्रहर्षं समवापतुः // 63 इत्येवमुक्त्वानुज्ञाप्य रामं शस्त्रभृतां वरम् / तस्मै तद्भरतो राज्यमागतायाभिसत्कृतम् / संपूज्यापाक्रमत्तेन रथेनादित्यवर्चसा // 49 न्यासं निर्यातयामास युक्तः परमया मुदा // 64 ततः सीतां पुरस्कृत्य रामः सौमित्रिणा सह / ततस्तं वैष्णवे शूरं नक्षत्रेऽभिमतेऽहनि / .. सुग्रीवप्रमुखैश्चैव सहितः सर्ववानरैः // 50 वसिष्ठो वामदेवश्च सहितावभ्यपिञ्चताम् // 65 विधाय रक्षां लङ्कायां विभीषणपुरस्कृतः / सोऽभिषिक्तः कपिश्रेष्ठं सुग्रीवं ससुहृज्जनम् / संततार पुनस्तेन सेतुना मकरालयम् / / 51 विभीषणं च पौलस्त्यमन्वजानाद्गृहान्प्रति // 66 पुष्पकेण विमानेन खेचरेण विराजता / अभ्यर्च्य विविधै रत्नैः प्रीतियुक्तौ मुदा युतौ / कामगेन यथामुख्यैरमात्यैः संवृतो वशी // 52 समाधायेतिकर्तव्यं दुःखेन विससर्ज ह // 67 ततस्तीरे समुद्रस्य यत्र शिश्ये स पार्थिवः। पुष्पकं च विमानं तत्पूजयित्वा स राघवः / तत्रैवोवास धर्मात्मा सहितः सर्ववानरैः // 53 प्रादाद्वैश्रवणायैव प्रीत्या स रघुनन्दनः / / 68 अथैनाराघवः काले समानीयाभिपूज्य च / / ततो देवर्षिसहितः सरितं गोमतीमनु / विसर्जयामास तदा रत्नैः संतोष्य सर्वशः // 54 दशाश्वमेधानाजढे जारूथ्यान्स निरर्गलान् // 69 गतेषु वानरेन्द्रेषु गोपुच्छर्तेषु तेषु च / ___ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि सुग्रीवसहितो रामः किष्किन्धां पुनरागमत् // 55 पञ्चसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 275 // विभीषणेनानुगतः सुग्रीवसहितस्तदा / 276 पुष्पकेण विमानेन वैदेह्या दर्शयन्वनम् // 56 मार्कण्डेय उवाच / किष्किन्धां तु समासाद्य रामः प्रहरतां वरः / एवमेतन्महाबाहो रामेणामिततेजसा / अङ्गदं कृतकर्माणं यौवराज्येऽभ्यषेचयत् // 57 प्राप्तं व्यसनमत्युग्रं वनवासकृतं पुरा // 1 ततस्तैरेव सहितो रामः सौमित्रिणा सह / मा शुचः पुरुषव्याघ्र क्षत्रियोऽसि परंतप / यथागतेन मार्गेण प्रययौ स्वपुरं प्रति // 58 बहुवीर्याश्रये मार्गे वर्तसे दीप्तनिर्णये // 2 अयोध्यां स समासाद्य पुरीं राष्ट्रपतिस्ततः / न हि ते वृजिनं किंचिदृश्यते परमण्वपि / भरताय हनूमन्तं दूतं प्रस्थापयत्तदा // 59 अस्मिन्मार्गे विषीदेयुः सेन्द्रा अपि सुरासुराः // 3 लक्षयित्वेङ्गितं सर्वं प्रियं तस्मै निवेद्य च / संहत्य निहतो वृत्रो मरुद्भिर्वज्रपाणिना / वायुपुत्रे पुनः प्राप्ते नन्दिग्राममुपागमत् // 60 नमुचिश्चैव दुर्धर्षा दीर्घजिह्वा च राक्षसी // 4 स तत्र मलदिग्धाङ्गं भरतं चीरवाससम् / सहायवति सर्वार्थाः संतिष्ठन्तीह सर्वशः। अग्रतः पादुके कृत्वा ददर्शासीनमासने // 61 किं नु तस्याजितं संख्ये भ्राता यस्य धनंजयः // 5 समेत्य भरतेनाथ शत्रुघ्नेन च वीर्यवान् / अयं च बलिनां श्रेष्ठो भीमो भीमपराक्रमः / -766 -
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________________ 3. 276. 6 ] आरण्यकपर्व [3. 277. 17 युवानौ च महेष्वासौ यमौ माद्रवतीसुतौ / सर्वमेतद्यथा प्राप्तं सावित्र्या राजकन्यया // 4 . एभिः सहायैः कस्मात्त्वं विषीदसि परंतप // 6 आसीन्मद्रेषु धर्मात्मा राजा परमधार्मिकः / य इमे वज्रिणः सेनां जयेयुः समरुद्गणाम् / ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च सत्यसंधो जितेन्द्रियः // 5 त्वमप्येभिर्महेष्वासैः सहायैर्देवरूपिभिः / यज्वा दानपतिर्दक्षः पौरजानपदप्रियः / विजेष्यसि रणे सर्वानमित्रान्भरतर्षभ // 7 पार्थिवोऽश्वपति म सर्वभूतहिते रतः // 6 इतश्च त्वमिमां पश्य सैन्धवेन दुरात्मना / क्षमावाननपत्यश्च सत्यवाग्विजितेन्द्रियः। बलिना वीर्यमत्तेन हृतामेभिर्महात्मभिः॥ 8 अतिक्रान्तेन वयसा संतापमुपजग्मिवान् // 7 आनीतां द्रौपदी कृष्णां कृत्वा कर्म सुदुष्करम् / अपत्योत्पादनार्थं स तीव्र नियममास्थितः / जयद्रथं च राजानं विजितं वशमागतम् // 9 . काले परिमिताहारो ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः // 8 असहायेन रामेण वैदेही पुनराहृता। हुत्वा शतसहस्रं स सावित्र्या राजसत्तम / हत्वा संख्ये दशग्रीवं राक्षसं भीमविक्रमम् // 10 षष्ठे षष्ठे तदा काले बभूव मितभोजनः // 9 यस्य शाखामृगा मित्रा ऋक्षाः कालमुखास्तथा। एतेन नियमेनासीद्वर्षाण्यष्टादशैव तु / जात्यन्तरगता राजन्नेतद्बुद्ध्यानुचिन्तय // 11 . पूर्णे त्वष्टादशे वर्षे सावित्री तुष्टिमभ्यगात् / . तस्मात्त्वं कुरुशार्दूल मा शुचो भरतर्षभ। स्वरूपिणी तदा राजन्दर्शयामास तं नृपम् / / 10 त्वद्विधा हि महात्मानो न शोचन्ति परंतप // 12 अग्निहोत्रात्समुत्थाय हर्षेण महतान्विता / वैशंपायन उवाच / उवाच चैनं वरदा वचनं पार्थिवं तदा // 11 एवमाश्वासितो राजा मार्कण्डेयेन धीमता / ब्रह्मचर्येण शुद्धेन दमेन नियमेन च / त्यक्त्वा दुःखमदीनात्मा पुनरेवेदमब्रवीत् // 13 सर्वात्मना च मद्भक्त्या तुष्टास्मि तव पार्थिव // 12 * इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि वरं वृणीष्वाश्वपते मद्राराज यथेप्सितम् / षट्सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 276 // न प्रमादश्च धर्मेषु कर्तव्यस्ते कथंचन // 13 - 277 अश्वपतिरुवाच। युधिष्ठिर उवाच। अपत्यार्थः समारम्भः कृतो धर्मेप्सया मया / नात्मानमनुशोचामि नेमान्भ्रातृन्महामुने। पुत्रा मे बहवो देवि भवेयुः कुलभावनाः // 14 हरणं चापि राज्यस्य यथेमां द्रुपदात्मजाम् // 1 तुष्टासि यदि मे देवि काममेतं वृणोम्यहम् / द्यूते दुरात्मभिः क्लिष्टाः कृष्णया तारिता वयम् / संतानं हि परो धर्म इत्याहुर्मा द्विजातयः // 15 जयद्रथेन च पुनर्वनादपहृता बलात् // 2 सावित्र्युवाच। अस्ति सीमन्तिनी काचिदृष्टपूर्वाथ वा श्रुता। पूर्वमेव मया राजन्नभिप्रायमिमं तव / पतिव्रता महाभागा यथेयं द्रुपदात्मजा // 3 ज्ञात्वा पुत्रार्थमुक्तो वै तव हेतोः पितामहः // 16 मार्कण्डेय उवाच।। प्रसादाच्चैव तस्मात्ते स्वयंभुविहिताद्भुवि / शृणु राजन्कुलस्त्रीणां महाभाग्यं युधिष्ठिर। कन्या तेजस्विनी सौम्य क्षिप्रमेव भविष्यति // 17 - 767 -
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________________ 3. 277. 18] महाभारते [ 3. 278.2 उत्तरं च न ते किंचिद्व्याहर्तव्यं कथंचन / राजोवाच / पितामहनिसर्गेण तुष्टा ह्येतद्भवीमि ते // 18 पुत्रि प्रदानकालस्ते न च कश्चिद्वणोति माम्। मार्कण्डेय उवाच। स्वयमन्विच्छ भर्तारं गुणैः सदृशमात्मनः // 32 स तथेति प्रतिज्ञाय सावित्र्या वचनं नृपः / प्रार्थितः पुरुषो यश्च स निवेद्यस्त्वया मम / प्रसादयामास पुनः क्षिप्रमेव भवेदिति // 19 विमृश्याहं प्रदास्यामि वरय त्वं यथेप्सितम्॥३३ अन्तर्हितायां सावित्र्यां जगाम स्वगृहं नृपः / / श्रुतं हि धर्मशास्त्रे मे पठ्यमानं द्विजातिभिः। स्वराज्ये चावसत्प्रीतः प्रजा धर्मेण पालयन् // 20 तथा त्वमपि कल्याणि गदतो मे वचः शृणु // 34 कस्मिंश्चित्तु गते काले स राजा नियतव्रतः / अप्रदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन्पतिः / ज्येष्ठायां धर्मचारिण्यां महिष्यां गर्भमादधे / / 21 / मृते भर्तरि पुत्रश्च वाच्यो मातुररक्षिता // 35 राजपुत्र्यां तु गर्भः स मालव्यां भरतर्षभ / इदं मे वचनं श्रुत्वा भर्तुरन्वेषणे त्वर। .. व्यवर्धत यथा शुक्ले तारापतिरिवाम्बरे // 22 देवतानां यथा वाच्यो न भवेयं तथा कुरु // 36 प्राप्ते काले तु सुषुवे कन्यां राजीवलोचनाम् / मार्कण्डेय उवाच / क्रियाश्च तस्या मुदितश्चक्रे स नृपतिस्तदा // 23 एवमुक्त्वा दुहितरं तथा वृद्धांश्च मत्रिणः / सावित्र्या प्रीतया दत्ता सावित्र्या हुतया ह्यपि / व्यादिदेशानुयात्रं च गम्यतामित्यचोदयत् // 37 सावित्रीत्येव नामास्याश्चक्रुर्विप्रास्तथा पिता // 24 साभिवाद्य पितुः पादौ वीडितेव मनस्विनी / सा विग्रहवतीव श्रीयंवर्धत नृपात्मजा। पितुर्वचनमाज्ञाय निर्जगामाविचारितम् / / 38 कालेन चापि सा कन्या यौवनस्था बभूव ह॥२५ सा हैमं रथमास्थाय स्थविरैः सचिवैर्वृता / तां सुमध्यां पृथुश्रोणी प्रतिमां काञ्चनीमिव / तपोवनानि रम्याणि राजर्षीणां जगाम ह // 39 मान्यानां तत्र वृद्धानां कृत्वा पादाभिवन्दनम् / प्राप्तेयं देवकन्येति दृष्ट्वा संमेनिरे जनाः // 26 वनानि क्रमशस्तात सर्वाण्येवाभ्यगच्छत / / 40 तां तु पद्मपलाशाक्षी ज्वलन्तीमिव तेजसा / एवं सर्वेषु तीर्थेषु धनोत्सर्ग नृपात्मजा। न कश्चिद्वरयामास तेजसा प्रतिवारितः / / 27 कुर्वती द्विजमुख्यानां तं तं देशं जगाम ह // 41 अथोपोष्य शिरःस्नाता दैवतान्यभिगम्य सा। इंति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि हुत्वाग्निं विधिवद्विप्रान्वाचयामास पर्वणि // 28 सप्तसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 277 // ततः सुमनसः शेषाः प्रतिगृह्य महात्मनः / 278 पितुः सकाशमगमद्देवी श्रीरिव रूपिणी // 29 मार्कण्डेय उवाच / साभिवाद्य पितुः पादौ शेषाः पूर्वं निवेद्य च।। अथ मद्राधिपो राजा नारदेन समागतः / कृताञ्जलिर्वरारोहा नृपतेः पार्श्वतः स्थिता // 30 उपविधः सभामध्ये कथायोगेन भारत // 1 यौवनस्थां तु तां दृष्ट्वा स्वां सुतां देवरूपिणीम् / / | ततोऽभिगम्य तीर्थानि सर्वाण्येवाश्रमांस्तथा / अयाच्यमानां च वरैर्नृपतिर्दुःखितोऽभवत् / / 31 / आजगाम पितुर्वेश्म सावित्री सह मत्रिभिः // 2 -768 -
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________________ 3. 278. 3] आरण्यकपर्व [3. 278. 26 नारदेन सहासीनं दृष्ट्वा सा पितरं शुभा। नारद उवाच / उभयोरेव शिरसा चक्रे पादाभिवन्दनम् // 3 विवस्वानिव तेजस्वी बृहस्पतिसमो मतौ। नारद उवाच / महेन्द्र इव शूरश्च वसुधेव क्षमान्वितः // 15 क गताभूत्सुतेयं ते कुतश्चैवाग़ता नृप / , अश्वपतिरुवाच / किमर्थं युवती भत्रे न चैनां संप्रयच्छसि॥४ अपि राजात्मजो दाता ब्रह्मण्यो वापि सत्यवान् / अश्वपतिरुवाच / रूपवानप्युदारो वाप्यथ वा प्रियदर्शनः // 16 कार्येण खल्वनेनैव प्रेषिताद्यैव चागता। नारद उवाच / तदस्याः शृणु देवर्षे भर्तारं योऽनया वृतः॥ 5 साङ्कते रन्तिदेवस्य स शक्त्या दानतः समः / मार्कण्डेय उवाच / ब्रह्मण्यः सत्यवादी च शिबिरौशीनरो यथा॥ 17 ययातिरिव चोदारः सोमवत्प्रियदर्शनः / सा हि विस्तरेणेति पित्रा संचोदिता शुभा। . रूपेणान्यतमोऽश्विभ्यां द्युमत्सेनसुतो बली // 18 दैवतस्येव वचनं प्रतिगृह्येदमब्रवीत् // 6 स दान्तः स मृदुः शूरः स सत्यः स जितेन्द्रियः / आसीच्छाल्वेषु धर्मात्मा क्षत्रियः पृथिवीपतिः / स मैत्रः सोऽनसूयश्च स ह्रीमान्धृतिमांश्च सः॥१९ द्युमत्सेन इति ख्यातः पश्चादन्धो बभूव ह / / 7 नित्यशश्चार्जवं तस्मिन्स्थितिस्तस्यैव च ध्रुवा / विनष्टचक्षुषस्तस्य बालपुत्रस्य धीमतः / संक्षेपतस्तपोवृद्धैः शीलवृद्धैश्च कथ्यते // 20 सामीप्येन हृतं राज्यं छिद्रेऽस्मिन्पूर्ववैरिणा॥ 8 स बालवत्सया सार्धं भार्यया प्रस्थितो वनम् / - अश्वपतिरुवाच। गुणैरुपेतं सर्वैस्तं भगवन्प्रब्रवीषि मे / महारण्यगतश्चापि तपस्तेपे महाव्रतः // 9 तस्य पुत्रः पुरे जातः संवृद्धश्च तपोवने / / दोषानप्यस्य मे ब्रूहि यदि सन्तीह केचन // 21 सत्यवाननुरूपो मे भर्तेति मनसा वृतः / / 10 नारद उवाच / एको दोषोऽस्य नान्योऽस्ति सोऽद्यप्रभृति सत्यवान् / नारद उवाच / संवत्सरेण क्षीणायुर्देहन्यासं करिष्यति // 22 अहो बत महत्पापं सावित्र्या नृपते कृतम् / राजोवाच / अजानन्त्या यदनया गुणवान्सत्यवान्वृतः॥ 11 एहि सावित्रि गच्छ त्वमन्यं वरय शोभने / सत्यं वदत्यस्य पिता सत्यं माता प्रभाषते / तस्य दोषो महानेको गुणानाक्रम्य तिष्ठति // 23 ततोऽस्य ब्राह्मणाश्चक्रुर्नामैतत्सत्यवानिति / / 12 यथा मे भगवानाह नारदो देवसत्कृतः / बालस्याश्वाः प्रियाश्चास्य करोत्यश्वांश्च मृन्मयान् / संवत्सरेण सोऽल्पायुर्देहन्यासं करिष्यति // 24 चित्रेऽपि च लिखत्यश्वांश्चित्राश्व इति चोच्यते॥१३ सावित्र्युवाच / राजोवाच / सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते / अपीदानी स तेजस्वी बुद्धिमान्वा नृपात्मजः।। सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् // 25 क्षमावानपि वा शूरः सत्यवान्पितृनन्दनः // 14 / दीर्घायुरथ वाल्पायुः सगुणो निर्गुणोऽपि वा। म. भा. 97 -769 -
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________________ 3. 278. 26 ] महाभारते [ 3. 279. 15 सकृद्धृतो मया भर्ता न द्वितीयं वृणोम्यहम्॥२६ वाचा सुनियतो भूत्वा चकारात्मनिवेदनम् // 5 मनसा निश्चयं कृत्वा ततो वाचाभिधीयते / तस्याय॑मासनं चैव गां चावेद्य स धर्मवित् / क्रियते कर्मणा पश्चात्प्रमाणं मे मनस्ततः // 27 किमागमनमित्येवं राजा राजानमब्रवीत् // 6 नारद उवाच / तस्य सर्वमभिप्रायमितिकर्तव्यतां च ताम् / स्थिरा बुद्धिर्नरश्रेष्ठ सावित्र्या दुहितुस्तव / / सत्यवन्तं समुद्दिश्य सर्वमेव न्यवेदयत् // 7 नैषा चालयितुं शक्या धर्मादस्मात्कथंचन / / 28 अश्वपतिरुवाच / नान्यस्मिन्पुरुषे सन्ति ये सत्यवति वै गुणाः / सावित्री नाम राजर्षे कन्येयं मम शोभना / प्रदानमेव तस्मान्मे रोचते दुहितुस्तव // 29 तां स्वधर्मेण धर्मज्ञ स्नुषार्थे त्वं गृहाण मे // 8 राजोवाच / धुमत्सेन उवाच / अविचार्यमेतदुक्तं हि तथ्यं भगवता वचः / च्युताः स्म राज्याहनवासमाश्रिता- . करिष्याम्येतदेवं च गुरुर्हि भगवान्मम // 30 श्वराम धर्म नियतास्तपस्विनः / नारद उवाच / कथं त्वनर्दा वनवासमाश्रमे अविघ्नमस्तु सावित्र्याः प्रदाने दुहितुस्तव / सहिष्यते क्लेशमिमं सुता तव / / 9 साधयिष्यामहे तावत्सर्वेषां भद्रमस्तु वः // 31 अश्वपतिरुवाच / ___ मार्कण्डेय उवाच। सुखं च दुःखं च भवाभवात्मकं एवमुक्त्वा खमुत्पत्य नारदस्त्रिदिवं गतः / यदा विजानाति सुताहमेव च। राजापि दुहितुः सर्वं वैवाहिकमकारयत् // 32 न मद्विधे युज्यति- वाक्यमीदृशं इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि विनिश्चयेनाभिगतोऽस्मि ते नृप // 10 अष्टसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 278 // आशां नार्हसि मे हन्तुं सौहृदात्प्रणयेन च / 279 अभितश्चागतं प्रेम्णा प्रत्याख्यातुं न मार्हसि // 11 मार्कण्डेय उवाच / अनुरूपो हि संयोगे त्वं ममाहं तवापि च / अथ कन्याप्रदाने स तमेवार्थं विचिन्तयन् / स्नुषां प्रतीच्छ मे कन्यां भार्यां सत्यवतः सुताम्॥१२ समानिन्ये च तत्सर्वं भाण्डं वैवाहिकं नृपः // 1 धुमत्सेन उवाच / ततो वृद्धान्द्विजान्सर्वानृत्विजः सपुरोहितान् / . पूर्वमेवाभिलषितः संबन्धो मे त्वया सह / समाहूय तिथौ पुण्ये प्रययौ सह कन्यया // 2 भ्रष्टराज्यस्त्वहमिति तत एतद्विचारितम् // 13 मेध्यारण्यं स गत्वा च द्युमत्सेनाश्रमं नृपः।। अभिप्रायस्त्वयं यो मे पूर्वमेवाभिकाशितः / पद्भ्यामेव द्विजैः साधं राजर्षि तमुपागमत् // 3 स निर्वर्ततु मेऽद्यैव काङ्कितो ह्यसि मेऽतिथिः // तत्रापश्यन्महाभागं शालवृक्षमुपाश्रितम् / मार्कण्डेय उवाच / कौश्यां बृस्यां समासीनं चक्षु-नं नृपं तदा // 4 ततः सर्वान्समानीय द्विजानाश्रमवासिनः / स राजा तस्य राजर्षेः कृत्वा पूजां यथार्हतः। यथाविधि समुद्वाहं कारयामासतुनृपौ // 15 - 770 -
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________________ 3. 279. 16] आरण्यकपर्व [3. 280. 17 दत्त्वा त्वश्वपतिः कन्यां यथाहं च परिच्छदम् / सावित्र्युवाच / ययौ स्वमेव भवनं युक्तः परमया मुदा // 16 न कार्यस्तात संतापः पारयिष्याम्यहं व्रतम् / सत्यवानपि भायाँ तां लब्ध्वा सर्वगुणान्विताम् / व्यवसायकृतं हीदं व्यवसायश्च कारणम् // 6 मुमुदे सा च तं लब्ध्वा भर्तारं मनसेप्सितम् // 17 धुमत्सेन उवाच / गते पितरि सर्वाणि संन्यस्याभरणानि सा। व्रतं भिन्धीति वक्तुं त्वां नास्मि शक्तः कथंचन / जगृहे वल्कलान्येव वस्त्रं काषायमेव च // 18 पारयस्वेति वचनं युक्तमस्मद्विधो वदेत् // 7 परिचारैर्गुणैश्चैव प्रश्रयेण दमेन च / मार्कण्डेय उवाच / सर्वकामक्रियाभिश्च सर्वेषां तुष्टिमावहत् // 19 एवमुक्त्वा द्युमत्सेनो विरराम महामनाः / श्वश्रं शरीरसत्कारैः सर्वैराच्छादनादिभिः / तिष्ठन्ती चापि सावित्री काष्ठभूतेव लक्ष्यते // 8 श्वशुरं देवकार्यैश्च वाचः संयमनेन च // 20 श्वोभूते भर्तृमरणे सावित्र्या भरतर्षभ / तथैव प्रियवादेन नैपुणेन शमेन च / दुःखान्वितायास्तिष्ठन्त्याः सा रात्रिर्व्यत्यवर्तत // 9 रहश्चैवोपचारेण भर्तारं पर्यतोषयत् // 21 अद्य तद्दिवसं चेति हुत्वा दीप्तं हुताशनम् / एवं तत्राश्रमे तेषां तदा निवसतां सताम् / युगमात्रोदिते. सूर्ये कृत्वा पौर्वाह्निकीः क्रियाः॥१० कालस्तपस्यतां कश्चिदतिचक्राम भारत // 22 ततः सर्वान्द्विजान्वृद्धाश्वश्रू श्वशुरमेव च / सावित्र्यास्तु शयानायास्तिष्ठन्त्याश्च दिवानिशम् / अभिवाद्यानुपूर्येण प्राञ्जलिर्नियता स्थिता // 11 नारदेन यदुक्तं तद्वाक्यं मनसि वर्तते // 23 अवैधव्याशिषस्ते तु सावित्र्यर्थं हिताः शुभाः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ऊचुस्तपखिनः सर्वे तपोवननिवासिनः // 12 --- एकोनाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२७९॥ एवमस्त्विति सावित्री ध्यानयोगपरायणा / 280 मनसा ता गिरः सर्वाः प्रत्यगृहात्तपस्विनाम् // 13 ___मार्कण्डेय उवाच / तं कालं च मुहूर्तं च प्रतीक्षन्ती नृपात्मजा। ततः काले बहुतिथे व्यतिक्रान्ते कदाचन / यथोक्तं नारदवचश्चिन्तयन्ती सुदुःखिता // 14 प्राप्तः स कालो मर्तव्यं यत्र सत्यवता नृप॥१ गणयन्त्याश्च सावित्र्या दिवसे दिवसे गते / ततस्तु श्वश्रूश्वशुरावूचतुस्तां नृपात्मजाम् / एकान्तस्थामिदं वाक्यं प्रीत्या भरतसत्तम॥ 15 तद्वाक्यं नारदेनोक्तं वर्तते हृदि नित्यशः // 2 चतुर्थेऽहनि मर्तव्यमिति संचिन्त्य भामिनी / श्वशुरावूचतुः। व्रतं त्रिरात्रमुद्दिश्य दिवारानं स्थिताभवत् / / 3 व्रतो यथोपदिष्टोऽयं यथावत्पारितस्त्वया / तं श्रुत्वा नियमं दुःखं वध्वा दुःखान्वितो नृपः।। आहारकालः संप्राप्तः क्रियतां यदनन्तरम् // 16 उत्थाय वाक्यं सावित्रीमब्रवीत्परिसान्त्वयन् // 4 सावित्र्युवाच / अतितीव्रोऽयमारम्भस्त्वयारब्धो नृपात्मजे। अस्तं गते मयादित्ये भोक्तव्यं कृतकामया / तिसृणां वसतीनां हि स्थानं परमदुष्करम् // 5 / एष मे हृदि संकल्पः समयश्च कृतो मया // 17 -771 -
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________________ 3. 280. 18] महाभारते [3. 281.9 सावित्र्युवाच / मार्कण्डेय उवाच / सह भर्ना हसन्तीव हृदयेन विदूयता / / 29 एवं संभाषमाणायाः सावित्र्या भोजनं प्रति / सा वनानि विचित्राणि रमणीयानि सर्वशः / स्कन्धे परशुमादाय सत्यवान्प्रस्थितो वनम् // 18 मयूररवघुष्टानि ददर्श विपुलेक्षणा / / 30 सावित्री त्वाह भर्तारं नैकस्त्वं गन्तुमर्हसि / नदीः पुण्यवहाश्चैव पुष्पितांश्च नगोत्तमान् / सह त्वयागमिष्यामि न हि त्वां हातुमुत्सहे // 19 सत्यवानाह पश्येति सावित्री मधुराक्षरम् / / 31 सत्यवानुवाच / निरीक्षमाणा भर्तारं सर्वावस्थमनिन्दिता। . वनं न गतपूर्वं ते दुःखः पन्थाश्च भामिनि / / मृतमेव हि तं मेने काले मुनिवचः स्मरन् // 32 व्रतोपवासक्षामा च कथं पद्भ्यां गमिष्यसि // 20 अनुवर्तती तु भर्तारं जगाम मृदुगामिनी / द्विधेव हृदयं कृत्वा तं च कालमवेक्षती // 33 उपवासान्न मे ग्लानिर्नास्ति चापि परिश्रमः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि गमने च कृतोत्साहां प्रतिषेद्धं न मार्हसि // 21 अशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 280 // सत्यवानुवाच। 281 यदि ते गमनोत्साहः करिष्यामि तव प्रियम् / मार्कण्डेय उवाच / / मम त्वामन्त्रय गुरून्न मां दोषः स्पृशेदयम् / / 22 अथ भार्यासहायः स फलान्यादाय वीर्यवान् / ___ मार्कण्डेय उवाच। कठिनं पूरयामास ततः काष्ठान्यपाटयत् // 1 साभिगम्याब्रवीच्छश्रृं श्वशुरं च महाव्रता / तस्य पाटयतः काष्ठं स्वेदो वै समजायत। अयं गच्छति मे भर्ता फलाहारो महावनम् // 23 व्यायामेन च तेनास्य जज्ञे शिरसि वेदना / / 2 इच्छेयमभ्यनुज्ञातुमार्यया श्वशुरेण च / सोऽभिगम्य प्रियां भार्यामुवाच श्रमपीडितः / अनेन सह निर्गन्तुं न हि मे विरहः क्षमः // 24 व्यायामेन ममानेन जाता शिरसि वेदना // 3 गुर्वग्निहोत्रार्थकृते प्रस्थितश्च सुतस्तव / अङ्गानि चैव सावित्रि हृदयं दूयतीव च / न निवार्यो निवार्यः स्यादन्यथा प्रस्थितो वनम् // 25 अस्वस्थमिव चात्मानं लक्षये मितभाषिणि // 4 . संवत्सरः किंचिदूनो न निष्क्रान्ताहमाश्रमात् / शूलैरिव शिरो विद्धमिदं संलक्षयाम्यहम् / वनं कुसुमितं द्रष्टुं परं कौतूहलं हि मे // 26 / तत्स्वप्तुमिच्छे कल्याणि न स्थातुं शक्तिरस्ति मे // 5 धुमत्सेन उवाच। समासाद्याथ सावित्री भर्तारमुपगृह्य च / यतःप्रभृति सावित्री पित्रा दत्ता स्नुषा मम / उत्सङ्गेऽस्य शिरः कृत्वा निषसाद महीतले // 6 नानयाभ्यर्थनायुक्तमुक्तपूर्वं स्मराम्यहम् // 27 ततः सा नारदवचो विमृशन्ती तपस्विनी / तदेषा लभतां कामं यथाभिलषितं वधूः / / तं मुहूर्त क्षणं वेलां दिवसं च युयोज ह // 7 अप्रमादश्च कर्तव्यः पुत्रि सत्यवतः पथि // 28 मुहूर्तादिव चापश्यत्पुरुषं पीतवाससम् / मार्कण्डेय उवाच / बद्धमौलिं वपुष्मन्तमादित्यसमतेजसम् // 8 उभाभ्यामभ्यनुज्ञाता सा जगाम यशस्विनी। श्यामावदातं रक्ताक्षं पाशहस्तं भयावहम् / - 772 -
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________________ 3. 281. 9] .. आरण्यकपर्व [ 3. 281. 28 स्थितं सत्यवतः पार्श्वे निरीक्षन्तं तमेव च // 9 प्राहुः सप्तपदं मित्रं बुधास्तत्त्वार्थदर्शिनः / तं दृष्ट्वा सहसोत्थाय भर्तुर्यस्य शनैः शिरः / मित्रतां च पुरस्कृत्य किंचिद्वक्ष्यामि तच्छृणु // 22 कृताञ्जलिरुवाचार्ता हृदयेन प्रवेपता // 10 नानात्मवन्तस्तु वने चरन्ति दैवतं त्वाभिजानामि वपुरेतद्धयमानुषम् / - धर्म च वासं च परिश्रमं च / कामया ब्रूहि मे देव कस्त्वं किं च चिकीर्षसि॥११ विज्ञानतो धर्ममुदाहरन्ति - यम उवाच / तस्मात्सन्तो धर्ममाहुः प्रधानम् / / 23 पतिव्रतासि सावित्री तथैव च तपोन्विता। एकस्य धर्मेण सतां मतेन अतस्त्वामभिभाषामि विद्धि मां त्वं शुभे यमम्॥१२ सर्वे स्म तं मार्गमनुप्रपन्नाः। अयं ते सत्यवान्भर्ता क्षीणायुः पार्थिवात्मजः / मा वै द्वितीयं मा तृतीयं च वाञ्छे नेष्याम्येनमहं बवा विद्ध्येतन्मे चिकीर्षितम् // 13 तस्मात्सन्तो धर्ममाहुः प्रधानम् // 24 मार्कण्डेय उवाच / यम उवाच / इत्युक्त्वा पितृराजस्तां भगवान्वं चिकीर्षितम् / निवर्त तुष्टोऽस्मि तवानया गिरा यथावत्सर्वमाख्यातुं तत्प्रियार्थ प्रचक्रमे // 14 स्वराक्षरव्यञ्जनहेतुयुक्तया। अयं हि धर्मसंयुक्तो रूपवान्गुणसागरः। वरं वृणीष्वेह विनास्य जीवितं नाहों मत्पुरुषैर्नेतुमतोऽस्मि स्वयमागतः / / 15 ददानि ते सर्वमनिन्दिते वरम् // 25 ततः सत्यवतः कायात्पाशबद्धं वशं गतम् / . सावित्र्युवाच / अङ्गुष्ठमात्रं पुरुषं निश्चकर्ष यमो बलात् // 16 च्युतः स्वराज्याद्वनवासमाश्रितो / ततः समुद्धृतप्राणं गतश्वासं हतप्रभम् / विनष्टचक्षुः श्वशुरो ममाश्रमे / निर्विचेष्टं शरीरं तदभवाप्रियदर्शनम // 17 स लब्धचक्षुर्बलवान्भवेन्नृपयमस्तु तं. तथा बवा प्रयातो दक्षिणामुखः / स्तव प्रसादाज्वलनार्कसंनिभः / / 26 सावित्री चापि दुःखार्ता यममेवान्वगच्छत / यम उवाच / नियमव्रतसंसिद्धा महाभागा पतिव्रता // 18 ददानि ते सर्वमनिन्दिते वरं .. यम उवाच / / यथा त्वयोक्तं भविता च तत्तथा / निवर्त गच्छ सावित्रि कुरुष्वास्यौदेहिकम् / तवाध्वना ग्लानिमिवोपलक्षये कृतं भर्तुस्त्वयानृण्यं यावद्गम्यं गतं त्वया // 19 निवर्त गच्छस्व न ते श्रमो भवेत् / / 27 सावित्र्युवाच / सावित्र्युवाच। यत्र मे नीयते भर्ता स्वयं वा यत्र गच्छति / कुतः श्रमो भर्तृसमीपतो हि मे मयापि तत्र गन्तव्यमेष धर्मः सनातनः // 20 यतो हि भर्ता मम सा गतिर्बुवा / तपसा गुरुवृत्त्या च भर्तुः स्नेहागतेन च। यतः पतिं नेष्यसि तत्र मे गतिः तव चैव प्रसादेन न मे प्रतिहता गतिः // 21 सुरेश भूयश्च वचो निबोध मे // 28 -773 - // 17 . सल
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________________ 3. 281. 29 ] महाभारते [ 3. 281. 43 सतां सकृत्संगतमीप्सितं परं स्तथा त्वया वाक्यमिदं समीरितम् / - ततः परं मित्रमिति प्रचक्षते। विना पुनः सत्यवतोऽस्य जीवितं न चाफलं सत्पुरुषेण संगतं वरं वृणीष्वेह शुभे यदिच्छसि // 36 ततः सतां संनिवसेत्समागमे // 29 सावित्र्युवाच / यम उवाच। ममानपत्यः पृथिवीपतिः पिता मनोनुकूलं बुधबुद्धिवर्धनं भवेत्पितुः पुत्रशतं ममौरसम्। ... __ त्वयाहमुक्तो वचनं हिताश्रयम् / कुलस्य संतानकरं च यद्भवेविना पुनः सत्यवतोऽस्य जीवितं त्तृतीयमेतं वरयामि ते वरम् / / 37 वरं द्वितीयं वरयस्व भामिनि // 30 यम उवाच। सावित्र्युवाच / कुलस्य संतानकरं सुवर्चसं हृतं पुरा मे श्वशुरस्य धीमतः ___ शतं सुतानां पितुरस्तु ते शुभे। __ स्वमेव राज्यं स लभेत पार्थिवः / कृतेन कामेन नराधिपात्मजे जह्यात्स्वधर्मं न च मे गुरुर्यथा निवर्त दूरं हि पथस्त्वमागता // 38 द्वितीयमेतं वरयामि ते वरम् // 31 सावित्र्युवाच / यम उवाच। न दूरमेतन्मम भर्तृसंनिधौ स्वमेव राज्यं प्रतिपत्स्यतेऽचिरा ___ मनो हि मे दूरतरं प्रधावति / न च स्वधर्मात्परिहास्यते नृपः / तथा व्रजन्नेव गिरं.समुद्यतां कृतेन कामेन मया नृपात्मजे मयोच्यमानां शृणु भूय एव च // 39 निवर्त गच्छस्व न ते श्रमो भवेत् // 32 विवस्वतस्त्वं तनयः प्रतापवांसावित्र्युवाच / स्ततो हि वैवस्वत उच्यसे बुधैः / प्रजास्त्वयेमा नियमेन संयता शमेन धर्मेण च रञ्जिताः प्रजा__ नियम्य चैता नयसे न कामया। स्ततस्तवेहेश्वर धर्मराजता // 40 अतो यमत्वं तव देव विश्रुतं आत्मन्यपि न विश्वासस्तावान्भवति सत्सु यः / निबोध चेमां गिरमीरितां मया // 33 तस्मात्सत्सु विशेषेण सर्वः प्रणयमिच्छति // 46 अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा। सौहृदात्सर्वभूतानां विश्वासो नाम जायते / अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः // 34 तस्मात्सत्सु विशेषेण विश्वासं कुरुते जनः // 4 एवंप्रायश्च लोकोऽयं मनुष्याः शक्तिपेशलाः / यम उवाच / सन्तस्त्वेवाप्यमित्रेषु दयां प्राप्तेषु कुर्वते / / 35 उदाहृतं ते वचनं यदङ्गने यम उवाच / ___ शुभे न तादृक्त्वदृते मया श्रुतम् / पिपासितस्येव यथा भवेत्पय अनेन तुष्टोऽस्मि विनास्य जीवितं -774 -
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________________ 3. 281. 43] आरण्यकपर्व [3. 281. 60 वरं चतुर्थं वरयस्व गच्छ च // 43 वरं वृणीष्वाप्रतिमं यतव्रते // 50 सावित्र्युवाच / सावित्र्युवाच / ममात्मजं सत्यवतस्तथौरसं न तेऽपवर्गः सुकृताद्विनाकृत___ भवेदुभाभ्यामिह यत्कुलोद्वहम् / ___ स्तथा यथान्येषु वरेषु मानद / शतं सुतानां बलवीर्यशालिना वरं वृणे जीवतु सत्यवानयं मिदं चतुर्थं वरयामि ते वरम् // 44 ___ यथा मृता ह्येवमहं विना पतिम् // 51 यम उवाच / न कामये भर्तृविनाकृता सुखं शतं सुतानां बलवीर्यशालिनां ___ न कामये भर्तृविनाकृता दिवम् / भविष्यति प्रीतिकरं तवाबले। . न कामये भर्तृविनाकृता श्रियं परिश्रमस्ते न भवेन्नपात्मजे न भर्तृहीना व्यवसामि जीवितुम् // 52 निवर्त दूरं हि पथस्त्वमागता // 45 वरातिसर्गः शतपुत्रता मम सावित्र्युवाच / त्वयैव दत्तो ह्रियते च मे पतिः। सतां सदा शाश्वती धर्मवृत्तिः वरं वृणे जीवतु सत्यवानयं ____ सन्तो न सीदन्ति न च व्यथन्ति / तवैव सत्यं वचनं भविष्यति // 53 सतां सद्भिर्नाफलः संगमोऽस्ति मार्कण्डेय उवाच / ___ सद्भयो भयं नानुवर्तन्ति सन्तः // 46 तथेत्युक्त्वा तु तान्पाशान्मुक्त्वा वैवस्वतो यमः / सन्तो हि सत्येन नयन्ति सूर्य धर्मराजः प्रहृष्टात्मा सावित्रीमिदमब्रवीत् / / 54 - सन्तो भूमिं तपसा धारयन्ति / एष भद्रे मया मुक्तो भर्ता ते कुलनन्दिनि / सन्तो गतिर्भूतभव्यस्य राज- .. अरोगस्तव नेयश्च सिद्धार्थश्च भविष्यति // 55 . न्सतां मध्ये नावसीदन्ति सन्तः // 47 चतुर्वर्षशतं चायुस्त्वया सार्धमवाप्स्यति / आर्यजुष्टमिदं वृत्तमिति विज्ञाय शाश्वतम् / इष्ट्वा यज्ञैश्च धर्मेण ख्याति लोके गमिष्यति॥५६ सन्तः परार्थं कुर्वाणा नावेक्षन्ते प्रतिक्रियाम्॥४८ त्वयि पुत्रशतं चैव सत्यवाञ्जनयिष्यति / न च प्रसादः सत्पुरुषेषु मोघो ते चापि सर्वे राजानः क्षत्रियाः पुत्रपौत्रिणः / ____ न चाप्यर्थो नश्यति नापि मानः / ख्यातास्त्वन्नामधेयाश्च भविष्यन्तीह शाश्वताः॥५७ यस्मादेतन्नियतं सत्सु नित्यं पितुश्च ते पुत्रशतं भविता तव मातरि / - तस्मात्सन्तो रक्षितारो भवन्ति // 49 मालव्यां मालवा नाम शाश्वताः पुत्रपौत्रिणः / यम उवाच / भ्रातरस्ते भविष्यन्ति क्षत्रियास्त्रिदशोपमाः // 58 .. यथा यथा भाषसि धर्मसंहितं एवं तस्यै वरं दत्त्वा धर्मराजः प्रतापवान् / ___ मनोनुकूलं सुपदं महार्थवत् / निवर्तयित्वा सावित्री स्वमेव भवनं ययौ॥ 59 तथा तथा मे त्वयि भक्तिरुत्तमा सावित्र्यपि यमे याते भर्तारं प्रतिलभ्य च / -775 -
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________________ 3. 281. 60] महाभारते [ 3. 281. 87 जगाम तत्र यत्रास्या भर्तुः शावं कलेवरम् // 60 एताः शिवा घोरनादा दिशं दक्षिणपश्चिमाम् / सा भूमौ प्रेक्ष्य भर्तारमुपसृत्योपगृह्य च / आस्थाय विरुवन्त्युग्राः कम्पयन्त्यो मनो मम / / 74 उत्सङ्गे शिर आरोप्य भूमावुपविवेश ह // 61 सत्यवानुवाच / संज्ञां च सत्यवाललब्ध्वा सावित्रीमभ्यभाषत / वनं प्रतिभयाकारं घनेन तमसा वृतम् / प्रोष्यागत इव प्रेम्णा पुनः पुनरुदीक्ष्य वै // 62 न विज्ञास्यसि पन्थानं गन्तुं चैव न शक्ष्यसि // 75 सत्यवानुवाच / सावित्र्युवाच / सुचिरं बत सुप्तोऽस्मि किमर्थं नावबोधितः / / अस्मिन्नद्य वने दग्धे शुष्कवृक्षः स्थितो ज्वलन् / क चासौ पुरुषः श्यामो योऽसौ मां संचकर्ष ह॥६३ वायुना धम्यमानोऽग्निदृश्यतेऽत्र क्वचित्तचित्॥७६ सावित्र्युवाच / ततोऽग्निमानयित्वेह ज्वालयिष्यामि सर्वतः / सुचिरं बत सुप्तोऽसि ममाङ्के पुरुषर्षभ / काष्ठानीमानि सन्तीह जहि संतापमात्मनः / / 77 गतः स भगवान्देवः प्रजासंयमनो यमः॥ 64 यदि नोत्सहसे गन्तुं सरुजं त्वाभिलक्षये / विश्रान्तोऽसि महाभाग विनिद्रश्च नृपात्मज / न च ज्ञास्यसि पन्थानं तमसा संवृते वने // 78 यदि शक्यं समुत्तिष्ठ विगाढां पश्य शर्वरीम् // 65 श्वः प्रभाते वने दृश्ये यास्यावोऽनुमते तव / मार्कण्डेय उवाच / वसावेह क्षपामेतां रुचितं यदि तेऽनघ / 79 उपलभ्य ततः संज्ञां सुखसुप्त इवोत्थितः / सत्यवानुवाच / दिशः सर्वा वनान्तांश्च निरीक्ष्योवाच सत्यवान॥६६ शिरोरुजा निवृत्ता मे स्वस्थान्यङ्गानि लक्षये / फलाहारोऽस्मि निष्क्रान्तस्त्वया सह सुमध्यमे / मातापितृभ्यामिच्छामि संगमं त्वत्प्रसादजम् // 80 ततः पाटयतः काष्ठं शिरसो मे रुजाभवत्॥ 67 न कदाचिद्विकाले हि गतपूर्वो मयाश्रमः / शिरोभितापसंतप्तः स्थातुं चिरमशक्नुवन् / अनागतायां संध्यायां माता मे प्ररुणद्धि माम् // 81 तवोत्सङ्गे प्रसुप्तोऽहमिति सर्वं स्मरे शुभे // 68 दिवापि मयि निष्क्रान्ते संतप्यते गुरू मम / त्वयोपगढस्य च मे निद्रयापहृतं मनः / विचिनोति च मां तातः सहैवाश्रमवासिभिः॥ 82 ततोऽपश्यं तमो घोरं पुरुषं च महौजसम् // 69 मात्रा पित्रा च सुभृशं दुःखिताभ्यामहं पुरा। तद्यदि त्वं विजानासि किं तब्रूहि सुमध्यमे / उपालब्धः सुबहुशश्चिरेणागच्छसीति ह // 83 स्वप्नो मे यदि वा दृष्टो यदि वा सत्यमेव तत्॥७० का त्ववस्था तयोरद्य मदर्थमिति चिन्तये / तमुवाचाथ सावित्री रजनी व्यवगाहते / तयोरदृश्ये मयि च महद्दुःखं भविष्यति // 84 श्वस्ते सर्वं यथावृत्तमाख्यास्यामि नृपात्मज // 71 पुरा मामूचतुश्चैव रात्रावस्रायमाणकौ / उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते पितरौ पश्य सुव्रत / भृशं सुदुःखितौ वृद्धौ बहुशः प्रीतिसंयुतौ // 85 विगाढा रजनी चेयं निवृत्तश्च दिवाकरः / / 72 त्वया हीनौ न जीवाव मुहूर्तमपि पुत्रक / नक्तंचराश्चरन्त्येते हृष्टाः क्रूराभिभाषिणः / यावद्धरिष्यसे पुत्र तावन्नौ जीवितं ध्रुवम् // 86 श्रयन्ते पर्णशब्दाश्च मृगाणां चरतां वने // 73 वृद्धयोरन्धयोर्यष्टिस्त्वयि वंशः प्रतिष्ठितः / -776 -
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________________ 3. 281. 87] आरण्यकपर्व [3. 282.3 त्वयि पिण्डश्च कीर्तिश्च संतानं चावयोरिति // 87 मार्कण्डेय उवाच / माता वृद्धा पिता वृद्धस्तयोर्यष्टिरहं किल / सावित्री तत उत्थाय केशान्संयम्य भामिनी / तौ रात्रौ मामपश्यन्तौ कामवस्थां गमिष्यतः॥८८ पतिमुत्थापयामास बाहुभ्यां परिगृह्य वै॥ 100 निद्रायाश्चाभ्यसूयामि यस्या हेतोः पिता मम / उत्थाय सत्यवांश्चापि प्रमृज्याङ्गानि पाणिना। माता च संशयं प्राप्ता मत्कृतेऽनपकारिणी // 89 दिशः सर्वाः समालोक्य कठिने दृष्टिमादधे // 101 अहं च संशयं प्राप्तः कृच्छ्रामापदमास्थितः / तमुवाचाथ सावित्री श्वः फलानीह नेष्यसि / मातापितृभ्यां हि विना नाहं जीवितुमुत्सहे॥ 90 योगक्षेमार्थमेतत्ते नेष्यामि परशुं त्वहम् // 102 व्यक्तमाकुलया बुद्ध्या प्रज्ञाचक्षुः पिता मम / / कृत्वा कठिनभारं सा वृक्षशाखावलम्बिनम् / एकैकमस्यां वेलायां पृच्छत्याश्रमवासिनम् // 91 | गृहीत्वा परशुं भर्तुः सकाशं पुनरागमत् // 103 नात्मानमनुशोचामि यथाहं पितरं शुभे। वामे स्कन्धे तु वामोरूर्भर्तुर्बाहुं निवेश्य सा / भर्तारं चाप्यनुगतां मातरं परिदुर्बलाम् // 92 दक्षिणेन परिष्वज्य जगाम मृदुगामिनी // 104 मत्कृतेन हि तावद्य संतापं परमेष्यतः / . ___ सत्यवानुवाच / जीवन्तावनुजीवामि भर्तव्यो. तौ मयेति ह / अभ्यासगमनाद्भीरु पन्थानो विदिता मम / तयोः प्रियं मे कर्तव्यमिति जीवामि चाप्यहम्॥९३ वृक्षान्तरालोकितया ज्योत्स्नया चापि लक्षये॥१०५ - मार्कण्डेय उवाच / आगतौ स्वः पथा येन फलान्यवचितानि च / एवमुक्त्वा स धर्मात्मा गुरुवर्ती गुरुप्रियः / यथागतं शुभे गच्छ पन्थानं मा विचारय // 106 उच्छ्रित्य बाहू दुःखार्तः सस्वरं प्ररुरोद ह // 94 पलाशपण्डे चैतस्मिन्पन्था व्यावर्तते द्विधा / ततोऽब्रवीत्तथा दृष्ट्वा भर्तारं शोककर्शितम् / तस्योत्तरेण यः पन्थास्तेन गच्छ त्वरस्व च / प्रमृज्याणि नेत्राभ्यां सावित्री धर्मचारिणी // 95 स्वस्थोऽस्मि बलवानस्मि दिक्षुः पितरावुभौ 107 यदि मेऽस्ति तपस्तप्तं यदि दत्तं हुतं यदि / मार्कण्डेय उवाच / ब्रुवन्नेवं त्वरायुक्तः स प्रायादाश्रमं प्रति // 108 श्वश्रश्वशुरभर्तृणां मम पुण्यास्तु शर्वरी // 96 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि न स्मराम्युक्तपूर्वां वै स्वैरेष्वप्यनृतां गिरम् / एकाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 281 // तेन सत्येन तावद्य ध्रियेतां श्वशुरौ मम // 97 - सत्यवानुवाच / मार्कण्डेय उवाच। कामये दर्शनं पित्रोर्याहि सावित्रि माचिरम् / एतस्मिन्नेव काले तु द्युमत्सेनो महावने / पुरा मातुः पितुर्वापि यदि पश्यामि विप्रियम् / लब्धचक्षुः प्रसन्नात्मा दृष्ट्या सर्वं ददर्श ह // 1 न जीविष्ये वरारोहे सत्येनात्मानमालभे // 98 स सर्वानाश्रमान्गत्वा शैब्यया सह भार्यया। . यदि धर्मे च ते बुद्धिर्मा चेजीवन्तमिच्छसि। पुत्रहेतोः परामार्तिं जगाम मनुजर्षभ // 2 मम प्रियं वा कर्तव्यं गच्छस्वाश्रममन्तिकात् / / 99 , तावाश्रमान्नदीश्चैव वनानि च सरांसि च / -777 - म. भा. 98
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________________ 3. 282. 3] महाभारते [ 3. 282. 27 तांस्तान्देशान्विचिन्वन्तौ दंपती परिजग्मतुः // 3 भारद्वाज उवाच / श्रुत्वा शब्दं तु यत्किंचिदुन्मुखौ सुतशङ्कया। यथास्य भार्या सावित्री तपसा च दमेन च / सावित्रीसहितोऽभ्येति सत्यवानित्यधावताम् // 4 आचारेण च संयुक्ता तथा जीवति सत्यवान् // 16 भिन्नैश्च परुषैः पादैः सव्रणैः शोणितोक्षितैः / दाल्भ्य उवाच / कुशकण्टकविद्धाङ्गावुन्मत्ताविव धावतः // 5 यथा दृष्टिः प्रवृत्ता ते सावित्र्याश्च यथा व्रतम् / ततोऽभिसृत्य तैर्विरैः सर्वैराश्रमवासिभिः / गताहारमकृत्वा च तथा जीवति सत्यवान् // 17 परिवार्य समाश्वास्य समानीतौ स्वमाश्रमम् // 6 माण्डव्य उवाच। तत्र भार्यासहायः स वृतो वृद्धस्तपोधनैः / यथा वदन्ति शान्तायां दिशि वै मृगपक्षिणः / आश्वासितो विचित्रार्थैः पूर्वराज्ञां कथाश्रयैः // 7 पार्थिवी च प्रवृत्तिस्ते तथा जीवति सत्यवान् // 18 ततस्तौ पुनराश्वस्तौ वृद्धौ पुत्रदिदृक्षया। धौम्य उवाच / .. बाल्ये वृत्तानि पुत्रस्य स्मरन्तौ भृशदुःखितौ // 8 सर्वैर्गुणैरुपेतस्ते यथा पुत्रो जनप्रियः / पुनरुक्त्वा च करुणां वाचं तौ शोककर्शितौ। दीर्घायुर्लक्षणोपेतस्तथा जीवति सत्यवान् // 19 हा पुत्र हा साध्वि वधूः क्वासि क्कासीत्यरोदताम् // मार्कण्डेय उवाच। सुवर्चा उवाच / एवमाश्वासितस्तैस्तु सत्यवाग्भिस्तपस्विभिः / यथास्य भार्या सावित्री तपसा च दमेन च। तांस्तान्विगणयन्नर्थानवस्थित इवाभवत् // 20 आचारेण च संयुक्ता तथा जीवति सत्यवान् // 10 ततो मुहूर्तात्सावित्री भर्ना सत्यवता सह / गौतम उवाच। आजगामाश्रमं रात्रौ प्रहृष्टा प्रविवेश ह // 21 ब्राह्मणा ऊचुः। वेदाः साङ्गा मयाधीतास्तपो मे संचितं महत् / पुत्रेण संगतं त्वाद्य चक्षुष्मन्तं निरीक्ष्य च / कौमारं ब्रह्मचर्यं मे गुरवोऽग्निश्च तोषिताः // 11 सर्वे वयं वै पृच्छामो वृद्धिं ते पृथिवीपते // 22 समाहितेन चीर्णानि सर्वाण्येव व्रतानि मे। समागमेन पुत्रस्य सावित्र्या दर्शनेन च / वायुभक्षोपवासश्च कुशलानि च यानि मे // 12 चक्षुषश्चात्मनो लाभात्रिभिर्दिष्ट्या विवर्धसे // 23 अनेन तपसा वेद्मि सर्वं परिचिकीर्षितम् / सर्वैरस्माभिरुक्तं यत्तथा तन्नात्र संशयः। सत्यमेतन्निबोध त्वं ध्रियते सत्यवानिति // 13 भूयो भूयश्च वृद्धिस्ते क्षिप्रमेव भविष्यति // 24 शिष्य उवाच / मार्कण्डेय उवाच। उपाध्यायस्य मे वक्त्राद्यथा वाक्यं विनिःसृतम् / / ततोऽग्निं तत्र संज्वाल्य द्विजास्ते सर्व एव हि / नैतज्जातु भवेन्मिथ्या तथा जीवति सत्यवान् // 14 उपासांचक्रिरे पार्थ द्युमत्सेनं महीपतिम् // 25 ऋषय ऊचुः। शैब्या च सत्यवांश्चैव सावित्री चैकतः स्थिताः। यथास्य भार्या सावित्री सर्वैरेव सुलक्षणैः।। सर्वैस्तैरभ्यनुज्ञाता विशोकाः समुपाविशन् // 26 अवैधव्यकरैर्युक्ता तथा जीवति सत्यवान् // 15 ततो राज्ञा सहासीनाः सर्वे ते वनवासिनः / -778 - HTHHTHHHHHHE
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________________ 3. 282. 27 ] आरण्यकपर्व [ 3. 283.6 जातकौतूहलाः पार्थ पप्रच्छनृपतेः सुतम् // 27 / चतुर्वर्षशतायुर्मे भर्ता लब्धश्च सत्यवान् / प्रागेव नागतं कस्मात्सभार्येण त्वया विभो / भर्तुर्हि जीवितार्थं तु मया चीर्णं स्थिरं व्रतम् // 41 विरात्रे चागतं कस्मात्कोऽनुबन्धश्च तेऽभवत् // 28 एतत्सत्यं मयाख्यातं कारणं विस्तरेण वः / संतापितः पिता माता वयं चैव नृपात्मज / यथा वृत्तं सुखोदकमिदं दुःखं महन्मम // 42 नाकस्मादिति जानीमस्तत्सर्वं वक्तुमर्हसि // 29 ऋषय ऊचुः। सत्यवानुवाच / निमज्जमानं व्यसनैरभिद्रुतं पित्राहमभ्यनुज्ञातः सावित्रीसहितो गतः / __ कुलं नरेन्द्रस्य तमोमये हृदे। अथ मेऽभूच्छिरोदुःखं वने काष्ठानि भिन्दतः॥३० त्वया सुशीले धृतधर्मपुण्यया सुप्तश्चाहं वेदनया चिरमित्युपलक्षये / समुद्धृतं साध्वि पुनः कुलीनया // 43 तावत्कालं च न मया सुप्तपूर्वं कदाचन // 31 मार्कण्डेय उवाच। सर्वेषामेव भवतां संतापो मा भवेदिति / / तथा प्रशस्य ह्यभिपूज्य चैव ते अतो विरात्रागमनं नान्यदस्तीह कारणम् // 32 ___ वरस्त्रियं तामृषयः समागताः / . गौतम उवाच / नरेन्द्रमामय सपुत्रमञ्जसा अकस्माच्चक्षुषः प्राप्तिर्युमत्सेनस्य ते पितुः। शिवेन जग्मुर्मुदिताः स्वमालयम् // 44 नास्य त्वं कारणं वेत्थ सावित्री वक्तुमर्हति // 33 / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि श्रोतुमिच्छामि सावित्रि त्वं हि वेत्थ परावरम् / द्वयशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 282 // त्वां हि जानामि सावित्रि सावित्रीमिव तेजसा॥३४ 283 त्वमत्र हेतुं जानीषे तस्मात्सत्यं निरुच्यताम् / / मार्कण्डेय उवाच / रहस्यं यदि ते नास्ति किंचिदत्र वदस्व नः / / 35 | तस्यां रात्र्यां व्यतीतायामुदिते सूर्यमण्डले / ... सावित्र्युवाच / कृतपूर्वाहिकाः सर्वे समेयुस्ते तपोधनाः // 1 एवमेतद्यथा वेत्थ संकल्पो नान्यथा हि वः / / तदेव सर्व सावित्र्या महाभाग्यं महर्षयः / न च किंचिद्रहस्यं मे श्रूयतां तथ्यमत्र यत् // 36 द्युमत्सेनाय नातृप्यन्कथयन्तः पुनः पुनः // 2 मृत्युर्मे भर्तुराख्यातो नारदेन महात्मना / ततः प्रकृतयः सर्वाः शाल्वेभ्योऽभ्यागता नृप / स चाद्य दिवसः प्राप्तस्ततो नैनं जहाम्यहम् // 37 आचख्युनिहतं चैव स्वेनामात्येन तं नृपम् // 3 सुप्तं चैनं यमः साक्षादुपागच्छत्सकिंकरः / तं मत्रिणा हतं श्रुत्वा ससहायं सबान्धवम् / स एनमनयद्बद्ध्वा दिशं पितृनिषेविताम् // 38 न्यवेदयन्यथातत्त्वं विद्रुतं च द्विषद्बलम् // 4 अस्तौषं तमहं देवं सत्येन वचसा विभुम् / ऐकमत्यं च सर्वस्य जनस्याथ नृपं प्रति / पञ्च वै तेन मे दत्ता वराः शृणुत तान्मम // 39 / सचक्षुर्वाप्यचक्षुर्वा स नो राजा भवत्विति // 5 चक्षुषी च स्वराज्यं च द्वौ वरौ श्वशुरस्य मे। __ अनेन निश्चयेनेह वयं प्रस्थापिता नृप / लब्धं पितुः पुत्रशतं पुत्राणामात्मनः शतम् // 40 | प्राप्तानीमानि यानानि चतुरङ्गं च ते बलम् // 6 -779 -
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________________ 3. 283.7] महाभारते [3. 284.17 प्रयाहि राजन्भद्रं ते घुष्टस्ते नगरे जयः / किं नु तद्विदुषां श्रेष्ठ कर्णं प्रति महद्भयम। अध्यास्स्व चिररात्राय पितृपैतामहं पदम् // 7 आसीन्न च स धर्मात्मा कथयामास कस्यचित् // 3 चक्षुष्मन्तं च तं दृष्ट्वा राजानं वपुषान्वितम् / वैशंपायन उवाच / मूर्धभिः पतिताः सर्वे विस्मयोत्फुल्ललोचनाः // 8 अहं ते राजशार्दूल कथयामि कथामिमाम् / ततोऽभिवाद्य तान्वृद्धान्द्विजानाश्रमवासिनः। पृच्छते भरतश्रेष्ठ शुश्रूषस्व गिरं मम // 4 . तैश्चाभिपूजितः सर्वैः प्रययौ नगरं प्रति / / 9 द्वादशे समतिक्रान्ते वर्षे प्राप्ते त्रयोदशे। . शैब्याच सह साविच्या स्वास्तीर्णेन सवर्चसा / पाण्डूनां हितकृच्छक्रः कर्ण भिक्षितुमुद्यतः // 5 नरयुक्तेन यानेन प्रययौ सेनया वृता / / 10 अभिप्रायमथो ज्ञात्वा महेन्द्रस्य विभावसुः / ततोऽभिषिषिचुः प्रीत्या ह्युमत्सेनं पुरोहिताः। कुण्डलार्थे महाराज सूर्यः कर्णमुपागमत् // 6 पुत्रं चास्य महात्मानं यौवराज्येऽभ्यषेचयन् // 11 महार्हे शयने वीरं स्पास्तरणसंवृते / ततः कालेन महता सावित्र्याः कीर्तिवर्धनम् / शयानमभिविश्वस्तं ब्रह्मण्यं सत्यवादिनम् // 7 तद्वै पुत्रशतं जज्ञे शूराणामनिवर्तिनाम् // 12 स्वप्नान्ते निशि राजेन्द्र दर्शयामास रश्मिवान् / भ्रातृणां सोदराणां च तथैवास्याभवच्छतम् / कृपया परयाविष्टः पुत्रस्नेहाच्च भारत // 8 मद्राधिपस्याश्वपतेर्मालव्यां सुमहाबलम् / / 13 ब्राह्मणो वेदविद्भूत्वा सूर्यो योगाद्धि रूपवान् / एवमात्मा पिता माता श्वश्रूः श्वशुर एव च / हितार्थमब्रवीत्कर्ण सान्त्वपूर्वमिदं वचः।। 9 भर्तुः कुलं च सावित्र्या सर्वं कृच्छ्रात्समुद्धृतम्॥१४ कर्ण मद्वचनं तात शृणु सत्यभृतां वर। तथैवैषापि कल्याणी द्रौपदी शीलसंमता / ब्रुवतोऽद्य महाबाहो सौहृदात्परमं हितम् / / 10 तारयिष्यति वः सर्वान्सावित्रीव कुलाङ्गना // 15 उपायास्यति शक्रस्त्वां पाण्डवानां हितेप्सया / वैशंपायन उवाच / ब्राह्मणच्छद्मना कर्ण कुण्डलापजिहीर्षया // 11 एवं स पाण्डवस्तेन अनुनीतो महात्मना / विदितं तेन शीलं ते सर्वस्य जगतस्तथा / विशोको विज्वरो राजन्काम्यके न्यवसत्तदा // 16 यथा त्वं भिक्षितः सद्भिर्ददास्येव न याचसे // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि त्वं हि तात ददास्येव ब्राह्मणेभ्यः प्रयाचितः। ध्यशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 283 // वित्तं यच्चान्यदप्याहुन प्रत्याख्यासि कर्हि चित् // 13 // समाप्तं द्रौपदीहरणपर्व // तं त्वामेवंविधं ज्ञात्वा स्वयं वै पाकशासनः / 284 आगन्ता कुण्डलार्थाय कवचं चैव भिक्षितुम्॥१४ जनमेजय उवाच / तस्मै प्रयाचमानाय न देये कुण्डले त्वया। यत्तत्तदा महाब्रह्मलोमशो वाक्यमब्रवीत् / अनुनेयः परं शक्त्या श्रेय एतद्धि ते परम् // 15 इन्द्रस्य वचनादेत्य पाण्डुपुत्रं युधिष्ठिरम् // 1 कुण्डलार्थे ब्रुवंस्तात कारणैर्बहुभिस्त्वया / यच्चापि ते भयं तीव्र न च कीर्तयसे क्वचित् / अन्यैर्बहुविधैर्वित्तैः स निवार्यः पुनः पुनः॥ 16 तच्चाप्यपहरिष्यामि सव्यसाचाविहागते // 2 . रत्नैः स्त्रीभिस्तथा भोगैर्धनैर्बहुविधैरपि / -780 -
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________________ 3. 284. 17 ] आरण्यकपर्व [3. 285.4 निदर्शनैश्च बहुभिः कुण्डलेप्सुः पुरंदरः // 17 वृणोमि कीर्ति लोके हि जीवितेनापि भानुमन् / यदि दास्यसि कर्ण त्वं सहजे कुण्डले शुभे। कीर्तिमानभुते स्वर्ग हीनकीर्तिस्तु नश्यति // 31 आयुषः प्रक्षयं गत्वा मृत्योर्वशमुपेष्यसि // 18 कीर्तिर्हि पुरुषं लोके संजीवयति मातृवत् / कवचेन च संयुक्तः कुण्डलाभ्यां च मानद / अकीर्तिर्जीवितं हन्ति जीवतोऽपि शरीरिणः // 32 अवध्यस्त्वं रणेऽरीणामिति विद्धि वचो मम / / 19 अयं पुराणः श्लोको हि स्वयं गीतो विभावसो / अमृतादुत्थितं ह्येतदुभयं रत्नसंभवम् / धात्रा लोकेश्वर यथा कीर्तिरायुनरस्य वै॥३३ तस्माद्रक्ष्यं त्वया कर्ण जीवितं चेत्प्रियं तव // 20 पुरुषस्य परे लोके कीर्तिरेव परायणम् / कर्ण उवाच / इह लोके विशुद्धा च कीर्तिरायुर्विवर्धनी // 34 को मामेवं भवान्प्राह दर्शयन्सौहृदं परम् / सोऽहं शरीरजे दत्त्वा कीर्ति प्राप्स्यामि शाश्वतीम् / कामया भगवन्ब्रूहि को भवान्द्विज वेषधृक् // 21 दत्त्वा च विधिवद्दानं ब्राह्मणेभ्यो यथाविधि // 35 ब्राह्मण उवाच / हुत्वा शरीरं संग्रामे कृत्वा कर्म सुदुष्करम् / अहं तात सहस्रांशुः सौहृदात्त्वां निदर्शये। विजित्य वा परानाजौ यशः प्राप्स्यामि केवलम् // 36 कुरुष्वैतद्वचो मे त्वमेतच्छ्रेयः परं हि ते / / 22 भीतानामभयं दत्त्वा संग्रामे जीवितार्थिनाम् / ___कर्ण उवाच / वृद्धान्बालान्द्विजातींश्च मोक्षयित्वा महाभयात् // 37 श्रेय एव ममात्यन्तं यस्य मे गोपतिः प्रभुः।। प्राप्स्यामि परमं लोके यशः स्वर्भानुसूदन / प्रवक्ताद्य हितान्वेषी शृणु चेदं वचो मम // 23 जीवितेनापि मे रक्ष्या कीर्तिस्तद्विद्धि मे व्रतम् // 38 प्रसादये त्वां वरदं प्रणयाच्च ब्रवीम्यहम् / सोऽहं दत्त्वा मघवते भिक्षामेतामनुत्तमाम् / न निवार्यो व्रतादस्मादहं यद्यस्मि ते प्रियः / / 24 / ब्राह्मणच्छद्मिने देव लोके गन्ता परां गतिम् // 39 व्रतं वै मम लोकोऽयं वेत्ति कृत्स्नो विभावसो। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि यथाहं द्विजमुख्येभ्यो दद्यां प्राणानपि ध्रुवम् // 25 चतुरशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 284 // यद्यागच्छति शक्रो मां ब्राह्मणच्छद्मनावृतः। 285 हितार्थं पाण्डुपुत्राणां खेचरोत्तम भिक्षितुम् // 26 सूर्य उवाच / दास्यामि विबुधश्रेष्ठ कुण्डले वर्म चोत्तमम् / माहितं कर्ण कार्बस्त्वमात्मनः सुहृदां तथा। न मे कीर्तिः प्रणश्येत त्रिषु लोकेषु विश्रुता॥२७ पुत्राणामथ भार्याणामथो मातुरथो पितुः // 1 मद्विधस्यायशस्यं हि न युक्तं प्राणरक्षणम् / शरीरस्याविरोधेन प्राणिनां प्राणभृद्वर / युक्तं हि यशसा युक्तं मरणं लोकसंमतम् // 28 इष्यते यशसः प्राप्तिः कीर्तिश्च त्रिदिवे स्थिरा॥२ सोऽहमिन्द्राय दास्यामि कुण्डले सह वर्मणा / यस्त्वं प्राणविरोधेन कीर्तिमिच्छसि शाश्वतीम् / यदि मां बलवृत्रघ्नो भिक्षार्थमुपयास्यति // 29 / सा ते प्राणान्समादाय गमिष्यति न संशयः / / 3 हितार्थं पाण्डुपुत्राणां कुण्डले मे प्रयाचितुम् / / जीवतां कुरुते कार्यं पिता माता सुतास्तथा। तन्मे कीर्तिकरं लोके तस्याकीर्तिर्भविष्यति // 30 / ये चान्ये बान्धवाः केचिल्लोकेऽस्मिन्पुरुषर्षभ। -781 -
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________________ 3. 285. 4] महाभारते [ 3. 286. 11 राजानश्च नरव्याघ्र पौरुषेण निबोध तत् / / 4 / / संग्रामे यदि निर्जेतुं कर्ण कामयसेऽर्जुनम् // 17 कीर्तिश्च जीवतः साध्वी पुरुषस्य महाद्युते / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि पञ्चाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 285 // मृतस्य की किं कार्यं भस्मीभूतस्य देहिनः / मृतः कीर्तिं न जानाति जीवन्कीति समश्नुते // 5 286 कर्ण उवाच / मृतस्य कीर्तिमर्त्यस्य यथा माला गतायुषः / | भगवन्तमहं भक्तो यथा मां वेत्थ गोपते। अहं तु त्वां ब्रवीम्येतद्भक्तोऽसीति हितेप्सया // 6 तथा परमतिग्मांशो नान्यं देवं कथंचन // 1 भक्तिमन्तो हि मे रक्ष्या इत्येतेनापि हेतुना / न मे दारा न मे पुत्रा न चात्मा सुहृदो न च / भक्तोऽयं परया भक्त्या मामित्येव महाभुज / तथेष्टा वै सदा भक्त्या यथा त्वं गोपते मम // 2 ममापि भक्तिरुत्पन्ना स त्वं कुरु वचो मम // 7 इष्टानां च महात्मानो भक्तानां च न संशयः / अस्ति चात्र परं किंचिदध्यात्मं देवनिर्मितम् / कुर्वन्ति भक्तिमिष्टां च जानीषे त्वं च भास्कर॥३ अतश्च त्वां ब्रवीम्येतक्रियतामविशङ्कया // 8 इष्टो भक्तश्च मे कर्णो न चान्यदैवतं दिवि / देवगुह्यं त्वया ज्ञातुं न शक्यं पुरुषर्षभ / जानीत इति वै कृत्वा भगवानाह मद्धितम् // 4 तस्मान्नाख्यामि ते गुह्यं काले वेत्स्यति तद्भवान् // 9 - भूयश्च शिरसा याचे प्रसाद्य च पुनः पुनः / पुनरुक्तं च वक्ष्यामि त्वं राधेय निबोध तत् / / इति ब्रवीमि तिग्मांशो त्वं तु मे क्षन्तुमर्हसि // 5 मास्मै ते कुण्डले दद्या भिक्षवे वज्रपाणये // 10 बिभेमि न तथा मृत्योर्यथा बिभ्येऽनृतादहम् / शोभसे कुण्डलाभ्यां हि रुचिराभ्यां महायुते। विशेषेण द्विजातीनां सर्वेषां सर्वदा सताम् / विशाखयोर्मध्यगतः शशीव विमलो दिवि // 11 प्रदाने जीवितस्यापि न मेऽत्रास्ति विचारणा // 6 कीर्तिश्च जीवतः साध्वी पुरुषस्येति विद्धि तत् / यच्च मामात्थ देव त्वं पाण्डवं फल्गुनं प्रति। . प्रत्याख्येयस्त्वया तात कुण्डलार्थे पुरंदरः / / 12 व्येतु संतापजं दुःखं तव भास्कर मानसम् / शक्या बहुविधैर्वाक्यैः कुण्डलेप्सा त्वयानघ / अर्जुनं प्रति मां चैव विजेष्यामि रणेऽर्जुनम् // 7 तवापि विदितं देव ममाप्यत्रबलं महत् / विहन्तुं देवराजस्य हेतुयुक्तैः पुनः पुनः // 13 जामदग्न्यादुपात्तं यत्तथा द्रोणान्महात्मनः // 8 उपपत्त्युपपन्नार्थैर्माधुर्यकृतभूषणैः / इदं त्वमनुजानीहि सुरश्रेष्ठ व्रतं मम / पुरंदरस्य कर्ण त्वं बुद्धिमेतामपानुद // 14 भिक्षते वज्रिणे दद्यामपि जीवितमात्मनः // 9 त्वं हि नित्यं नरव्याघ्र स्पर्धसे सव्यसाचिना। सूर्य उवाच / सव्यसाची त्वया चैव युधि शूरः समेष्यति // 15 यदि तात ददास्येते वज्रिणे कुण्डले शुभे / न तु त्वामर्जुनः शक्तः कुण्डलाभ्यां समन्वितम् / / त्वमप्येनमथो ब्रूया विजयार्थं महाबल // 10 विजेतुं युधि यद्यस्य स्वयमिन्द्रः शरो भवेत् // 16 / नियमेन प्रदद्यास्त्वं कुण्डले वै शतक्रतोः। तस्मान्न देये शक्राय त्वयैते कुण्डले शुभे। अवध्यो ह्यसि भूतानां कुण्डलाभ्यां समन्वितः॥११ -782 -
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________________ 3. 286. 12] आरण्यकपर्व [3. 287. 18 अर्जुनेन विनाशं हि तव दानवसूदनः / कुन्तिभोज पुरा राजन्ब्राह्मणः समुपस्थितः / प्रार्थयानो रणे वत्स कुण्डले ते जिहीर्षति // 12 तिग्मतेजा महाप्रांशुः श्मश्रुदण्डजटाधरः // 4 स त्वमप्येनमाराध्य सूनृताभिः पुनः पुनः / . दर्शनीयोऽनवद्याङ्गस्तेजसा प्रज्वलन्निव / / अभ्यर्थयेथा देवेशममोघार्थं पुरंदरम् // 13 मधुपिङ्गो मधुरवाक्तपःस्वाध्यायभूषणः // 5 अमोघां देहि मे शक्तिममित्रविनिबर्हिणीम् / स राजानं कुन्तिभोजमब्रवीत्सुमहातपाः / दास्यामि ते सहस्राक्ष कुण्डले वर्म चोत्तमम् // 14 / भिक्षामिच्छाम्यहं भोक्तुं तव गेहे विमत्सर // 6 इत्येवं नियमेन त्वं दद्याः शक्राय कुण्डले।। न मे व्यलीकं कर्तव्यं त्वया वा तव चानुगैः / तया त्वं कर्ण संग्रामे हनिष्यसि रणे रिपून // 15 एवं वत्स्यामि ते गेहे यदि ते रोचतेऽनघ / 7 नाहत्वा हि महाबाहो शत्रूनेति करं पुनः / यथाकामं च गच्छेयमागच्छेयं तथैव च / सा शक्तिर्देवराजस्य शतशोऽथ सहस्रशः // 16 शय्यासने च मे राजन्नापराध्येत कश्चन // 8 वैशंपायन उवाच। तमब्रवीत्कुन्तिभोजः प्रीतियुक्तपिदं वचः / एवमुक्त्वा सहस्रांशुः सहसान्तरधीयत / एवमस्तु परं चेति पुनश्चैनमथाब्रवीत् // 9 ततः सूर्याय जप्यान्ते कर्णः स्वप्नं न्यवेदयत्॥१७ / मम कन्या महाब्रह्मन्पृथा नाम यशस्विनी / यथादृष्टं यथातत्त्वं यथोक्तमुभयोर्निशि / शीलवृत्तान्विता साध्वी नियता न च मानिनी // 10 तत्सर्वमानुपूर्येण शशंसास्मै वृषस्तदा // 18 उपस्थास्यति सा त्वां वै पूजयानवमन्य च / तच्छ्रुत्वा भगवान्देवो भानुः स्वर्भानुसूदनः / तस्याश्च शीलवृत्तेन तुष्टिं समुपयास्यसि // 11 उवाच तं तथेत्येव कर्णं सूर्यः स्मयन्निव // 19 एवमुक्त्वा तु तं विप्रमभिपूज्य यथाविधि / ततस्तत्त्वमिति ज्ञात्वा राधेयः परवीरहा। उवाच कन्यामभ्येत्य पृथां पृथुललोचनाम् // 12 शक्तिमेवाभिकाङ्कन्वै वासवं प्रत्यपालयत् // 20 अयं वत्से महाभागो ब्राह्मणो वस्तुमिच्छति / इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि मम गेहे मया चास्य तथेत्येवं प्रतिश्रुतम् // 13 षडशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 286 // त्वयि वत्से पराश्वस्य ब्राह्मणस्याभिराधनम् / 287 तन्मे वाक्यं न मिथ्या त्वं कर्तुमर्हसि कर्हिचित्॥१४ जनमेजय उवाच / अयं तपस्वी भगवान्स्वाध्यायनियतो द्विजः / किं तद्गुह्यं न चाख्यातं कर्णायेहोष्णरश्मिना / यद्यद्भूयान्महातेजास्तत्तद्देयममत्सरात् / / 15 कीदृशे कुण्डले ते च कवचं चैव कीदृशम् / / 1 ब्राह्मणा हि परं तेजो ब्राह्मणा हि परं तपः / कुतश्च कवचं तस्य कुण्डले चैव सत्तम / ब्राह्मणानां नमस्कारैः सूर्यो दिवि विराजते // 16 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तन्मे ब्रूहि तपोधन // 2 अमानयन्हि मानान्विातापिश्च महासुरः / . वैशंपायन उवाच / निहतो ब्रह्मदण्डेन तालजङ्घस्तथैव च // 17 अयं राजन्ब्रवीम्येतद्यत्तद्गुह्यं विभावसोः / सोऽयं वत्से महाभार आहितस्त्वयि सांप्रतम् / यादृशे कुण्डले चैव कवचं चैव यादृशम् // 3 / त्वं सदा नियता कुर्या ब्राह्मणस्याभिराधनम् // 18 -783 -
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________________ 3. 287. 19 ] महाभारते [ 3. 288. 16 जानामि प्रणिधानं ते बाल्यात्प्रभृति नन्दिनि। यद्येवैष्यति सायाह्ने यदि प्रातरथो निशि / ब्राह्मणेष्विह सर्वेषु गुरुबन्धुषु चैव ह // 19 यद्यर्धरात्रे भगवान्न मे कोपं करिष्यति // 3 तथा प्रेष्येषु सर्वेषु मित्रसंबन्धिमातृषु / लाभो ममैष राजेन्द्र यद्वै पूजयती द्विजान् / मयि चैव यथावत्त्वं सर्वमादृत्य वर्तसे // 20 आदेशे तव तिष्ठन्ती हितं कुर्यां नरोत्तम // 4 न ह्यतुष्टो जनोऽस्तीह पुरे चान्तःपुरे च ते। विस्रब्धो भव राजेन्द्र न व्यलीकं द्विजोत्तमः / सम्यग्वृत्त्यानवद्याङ्गि तव भृत्यजनेष्वपि // 21 वसन्प्राप्स्यति ते गेहे सत्यमेतद्भवीमि ते // 5 . संदेष्टव्यां तु मन्ये त्वां द्विजाति कोपनं प्रति / यत्प्रियं च द्विजस्यास्य हितं चैव तवानघ / पृथे बालेति कृत्वा वै सुता चासि ममेति च / / 22 यतिष्यामि तथा राजन्व्येतु ते मानसो ज्वरः // 6 वृष्णीनां त्वं कुले जाता शूरस्य दयिता सुता। ब्राह्मणा हि महाभागाः पूजिताः पृथिवीपते / दत्ता प्रीतिमता मह्यं पित्रा बाला पुरा स्वयम् / / 23 तारणाय समर्थाः स्युर्विपरीते वधाय च // 7. वसुदेवस्य भगिनी सुतानां प्रवरा मम / साहमेतद्विजानन्ती तोषयिष्ये द्विजोत्तमम् / अग्र्यमग्रे प्रतिज्ञाय तेनासि दुहिता मम / / 24 न मत्कृते व्यथां राजन्प्राप्स्यसि द्विजसत्तमात् // 8 तादृशे हि कुले जाता कुले चैव विवर्धिता।। अपराधे हि राजेन्द्र राज्ञामश्रेयसे द्विजाः / सुखात्सुखमनुप्राप्ता ह्रदादमिवागता // 25 भवन्ति च्यवनो यद्वत्सुकन्यायाः कृते पुरा // 9 दौष्कुलेया विशेषेण कथंचित्प्रग्रहं गताः / नियमेन परेणाहमुपस्थास्य द्विजोत्तमम् / बालभावाद्विकुर्वन्ति प्रायशः प्रमदाः शुभे // 26 यथा त्वया नरेन्द्रेदं भाषितं ब्राह्मणं प्रति // 10 पृथे राजकुले जन्म रूपं चाद्भुतदर्शनम् / राजोवाच / तेन तेनासि संपन्ना समुपेता च भामिनी // 27 एवमेतत्त्वया भद्रे कर्तव्यमविशङ्कया। सा त्वं दर्प परित्यज्य दम्भं मानं च भामिनि / मद्धितार्थं कुलार्थं च तथात्मार्थं च नन्दिनि // 11 आराध्य वरदं विप्रं श्रेयसा योक्ष्यसे पृथे / / 28 वैशंपायन उवाच। एवं प्राप्स्यसि कल्याणि कल्याणमनघे ध्रुवम् / एवमुक्त्वा तु तां कन्यां कुन्तिभोजो महायशाः / कोपिते तु द्विजश्रेष्ठे कृत्स्नं दह्येत मे कुलम् // 29 पृथां परिददौ तस्मै द्विजाय सुतवत्सलः // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि इयं ब्रह्मन्मम सुता बाला सुखविवर्धिता / सप्ताशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 287 // अपराध्येत यत्किंचिन्न तत्कार्य हृदि त्वया // 13 द्विजातयो महाभागा वृद्धबालतपस्विषु / कुन्त्युवाच / भवन्त्यकोधनाः प्रायो विरुद्धेष्वपि नित्यदा // 14 ब्राह्मणं यन्त्रिता राजन्नुपस्थास्यामि पूजया / सुमहत्यपराधेऽपि क्षान्तिः कार्या द्विजातिभिः / यथाप्रतिज्ञं राजेन्द्र न च मिथ्या ब्रवीम्यहम् / / 1 यथाशक्ति यथोत्साहं पूजा ग्राह्या द्विजोत्तम॥१५ एष चैव स्वभावो मे पूजयेयं द्विजानिति / तथेति ब्राह्मणेनोक्ते स राजा प्रीतमानसः / तव चैव प्रियं कार्यं श्रेयश्चैतत्परं मम // 2 हंसचन्द्रांशुसंकाशं गृहमस्य न्यवेदयत् // 16 -784 - 288
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________________ 3. 288. 17 ] आरण्यकपर्व [3. 289. 23 तत्राग्निशरणे क्लुप्तमासनं तस्य भानुमत् / / अपि तुष्यति ते पुत्रि ब्राह्मणः परिचर्यया // 10 आहारादि च सर्वं तत्तथैव प्रत्यवेदयत् // 17 तं सा परममित्येव प्रत्युवाच यशस्विनी / निक्षिप्य राजपुत्री तु तन्द्रीं मानं तथैव च। ततः प्रीतिमवापात्र्यां कुन्तिभोजो महामनाः॥११ आतस्थे परमं यत्नं ब्राह्मणस्याभिराधने // 18 ततः संवत्सरे पूर्णे यदासौ जपतां वरः / तत्र सा ब्राह्मणं गत्वा पृथा शौचपरा सती। नापश्यदुष्कृतं किंचित्पृथायाः सौहृदे रतः // 12 विधिवत्परिचारार्ह देववत्पर्यतोषयत् // 19 ततः प्रीतमना भूत्वा स एनां ब्राह्मणोऽब्रवीत् / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि प्रीतोऽस्मि परमं भद्रे परिचारेण ते शुभे // 13 अष्टाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 288 // वरान्वृणीष्व कल्याणि दुरापान्मानुषैरिह / 289 यैस्त्वं सीमन्तिनीः सर्वा यशसाभिभविष्यसि // 14 वैशंपायन उवाच / कुन्त्युवाच / सा तु कन्या महाराज ब्राह्मणं संशितव्रतम् / / कृतानि मम सर्वाणि यस्या मे वेदवित्तम / तोषयामास शद्धेन मनसा संशितव्रता // 1 त्वं प्रसन्नः पिता चैव कृतं विप्र वरैर्मम // 15 प्रातरायास्य इत्युक्त्वा कदाचिहिजसत्तमः / . ब्राह्मण उवाच / तत आयाति राजेन्द्र साये रात्रावथो पुनः / / 2 यदि नेच्छसि भद्रे त्वं वरं मत्तः शुचिस्मिते / तं च सर्वासु वेलासु भक्ष्यभोज्यप्रतिश्रयैः / इमं मत्रं गृहाण त्वमाह्वानाय दिवौकसाम् // 16 पूजयामास सा कन्या वर्धमानैस्तु सर्वदा // 3 यं यं देवं त्वमेतेन मत्रेणावाहयिष्यसि / अन्नादिसमुदाचारः शय्यासनकृतस्तथा। तेन तेन वशे भद्रे स्थातव्यं ते भविष्यति // 17 दिवसे दिवसे तस्य वर्धते न तु हीयते // 4 अकामो वा सकामो वा न स नैष्यति ते वशम् / निर्भर्त्सनापवादैश्च तथैवाप्रियया गिरा। विबुधो मत्रसंशान्तो वाक्ये भृत्य इवानतः // 18 ब्राह्मणस्य पृथा राजन्न. चकाराप्रियं तदा // 5 वैशंपायन उवाच / व्यस्ते काले पुनश्चैति न चैति बहुशो द्विजः / न शशाक द्वितीयं सा प्रत्याख्यातुमनिन्दिता / दुर्लभ्यमपि चैवान्नं दीयतामिति सोऽब्रवीत् // 6 तं वै द्विजातिप्रवरं तदा शापभयान्नृप // 19 कृतमेव च तत्सर्वं पृथा तस्मै न्यवेदयत् / ततस्तामनवद्याङ्गी ग्राहयामास वै द्विजः / शिष्यवत्पुत्रवञ्चैव स्वसृवच्च सुसंयता / / 7 मत्रग्राम तदा राजन्नथर्वशिरसि श्रुतम् // 20 यथोपजोष राजेन्द्र द्विजातिप्रवरस्य सा। तं प्रदाय तु राजेन्द्र कुन्तिभोजमुवाच ह। प्रीतिमुत्पादयामास कन्या यत्नैरनिन्दिता // 8 उषितोऽस्मि सुखं राजन्कन्यया परितोषितः // 21 तस्यास्तु शीलवृत्तेन तुतोष द्विजसत्तमः / तव गेहे सुविहितः सदा सुप्रतिपूजितः / अवधानेन भूयोऽस्य परं यत्नमथाकरोत् / / 9 / / साधयिष्यामहे तावदित्युक्त्वान्तरधीयत // 22 तां प्रभाते च साये च पिता पप्रच्छ भारत / | स तु राजा द्विजं दृष्ट्वा तत्रैवान्तर्हितं तदा / म. भा. 99 -785 -
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________________ 3. 289. 23 ] महाभारते [ 3. 290. 23 बभूव विस्मयाविष्टः पृथां च समपूजयत् // 23 न तु देवं समाहूय न्याय्यं प्रेषयितुं वृथा // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तवाभिसंधिः सुभगे सूर्यात्पुत्रो भवेदिति / एकोननवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 289 // वीर्येणाप्रतिमो लोके कवची कुण्डलीति च // 13 290 सा त्वमात्मप्रदानं वै कुरुष्व गजगामिनि / वैशंपायन उवाच / उत्पत्स्यति हि पुत्रस्ते यथासंकल्पमङ्गने // 14 गते तस्मिन्द्विजश्रेष्ठे कस्मिंश्चित्कालपर्यये / अथ गच्छाम्यहं भद्रे त्वयासंगम्य सुस्मिते / चिन्तयामास सा कन्या मत्रग्रामबलाबलम् // 1 शप्स्यामि त्वामहं क्रुद्धो ब्राह्मणं पितरं च ते॥१५ अयं वै कीदृशस्तेन मम दत्तो महात्मना। त्वत्कृते तान्प्रधक्ष्यामि सर्वानपि न संशयः / मत्रग्रामो बलं तस्य ज्ञास्ये नातिचिरादिव // 2 पितरं चैव ते मूढं यो न वेत्ति तवानयम् // 16 एवं संचिन्तयन्ती सा ददर्शर्तुं यदृच्छया / तस्य च ब्राह्मणस्याद्य योऽसौ मत्रमदात्तव / वीडिता साभवद्बाला कन्याभावे रजस्वला // 3 शीलवृत्तमविज्ञाय धास्यामि विनयं परम् // 17 अथोद्यन्तं सहस्रांशुं पृथा दीप्तं ददर्श ह / एते हि विबुधाः सर्वे पुरंदरमुखा दिवि / न ततर्प च रूपेण भानोः संध्यागतस्य सा॥४ त्वया प्रलब्धं पश्यन्ति स्मयन्त इव भामिनि // 18 तस्या दृष्टिरभूदिव्या सापश्यद्दिव्यदर्शनम् / पश्य चैनान्सुरगणान्दिव्यं चक्षुरिदं हि ते / आमुक्तकवचं देवं कुण्डलाभ्यां विभूषितम् // 5 पूर्वमेव मया दत्तं दृष्टवत्यसि येन माम् // 19 तस्याः कौतूहलं त्वासीन्मत्रं प्रति नराधिप / वैशंपायन उवाच / आह्वानमकरोत्साथ तस्य देवस्य भामिनी // 6 ततोऽपश्यत्रिदशान्राजपुत्री प्राणानुपस्पृश्य तदा आजुहाव दिवाकरम् / सर्वानेव स्वेषु धिष्ण्येषु खस्थान् / आजगाम ततो राजंस्त्वरमाणो दिवाकरः // 7 प्रभासन्तं भानुमन्तं महान्तं मधुपिङ्गो महाबाहुः कम्बुग्रीवो हसन्निव / यथादित्यं रोचमानं तथैव // 20 अङ्गदी बद्धमुकुटो दिशः प्रज्वालयन्निव // 8 सा तान्दृष्ट्वा ब्रीडमानेव बाला योगात्कृत्वा द्विधात्मानमाजगाम तताप च / सूर्य देवी वचनं प्राह भीता। आबभाषे ततः कुन्तीं साम्ना परमवल्गुना // 9 गच्छ त्वं वै गोपते स्वं विमानं आगतोऽस्मि वशं भद्रे तव मत्रबलात्कृतः / ___कन्याभावाद्दुःख एषोपचारः॥२१ किं करोम्यवशो राज्ञि ब्रूहि कर्ता तदस्मि ते॥१० पिता माता गुरवश्चैव येऽन्ये कुन्त्युवाच / देहस्यास्य प्रभवन्ति प्रदाने / गम्यतां भगवंस्तत्र यतोऽसि समुपागतः / नाहं धर्म लोपयिष्यामि लोके कौतूहलात्समाहूतः प्रसीद भगवन्निति // 11 स्त्रीणां वृत्तं पूज्यते देहरक्षा // 22 सूर्य उवाच / मया मन्त्रबलं ज्ञातुमाहूतस्त्वं विभावसो। गमिष्येऽहं यथा मां त्वं ब्रवीषि तनुमध्यमे / बाल्याद्वालेति कृत्वा तत्क्षन्तुमर्हसि मे विभो॥ 23 -786 -
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________________ 3. 290. 24 ] आरण्यकपर्व [3. 201. 20 सूर्य उवाच / न तेषु ध्रियमाणेषु विधिलोपो भवेदयम् // 8 बालेति कृत्वानुनयं तवाह त्वया मे संगमो देव यदि स्याद्विधिवर्जितः / __ ददानि नान्यानुनयं लभेत / मन्निमित्तं कुलस्यास्य लोके कीर्तिनशेत्ततः // 9 आत्मप्रदानं कुरु कुन्तिकन्ये अथ वा धर्ममेतं त्वं मन्यसे तपतां वर / शान्तिस्तवैवं हि भवेच्च भीरु // 24 ऋते प्रदानाद्वन्धुभ्यस्तव कामं करोम्यहम् // 10 न चापि युक्तं गन्तुं हि मया मिथ्याकृतेन वै / आत्मप्रदानं दुर्धर्ष तव कृत्वा सती त्वहम् / / गमिष्याम्यनवद्याङ्गि लोके समवहास्यताम् / त्वयि धर्मो यशश्चैव कीर्तिरायुश्च देहिनाम् // 11 सर्वेषां विबुधानां च वक्तव्यः स्यामहं शुभे // 25 सूर्य उवाच / सा त्वं मया समागच्छ पुत्रं लप्स्यसि मादृशम् / न ते पिता न ते माता गुरवो वा शुचिस्मिते। विशिष्टा सर्वलोकेषु भविष्यसि च भामिनि॥२६ प्रभवन्ति वरारोहे भद्रं ते शृणु मे वचः // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि सर्वान्कामयते यस्मात्कनेर्धातोश्च भामिनि / नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 29 // तस्मात्कन्येह सुश्रोणि स्वतत्रा वरवर्णिनि // 13 291 नाधर्मश्चरितः कश्चित्त्वया भवति भामिनि / वैशंपायन उवाच / अधर्मं कुत एवाहं चरेयं लोककाम्यया // 14 सा तु कन्या बहुविधं ब्रुवन्ती मधुरं वचः / अनावृताः स्त्रियः सर्वा नराश्च वरवर्णिनि / अनुनेतुं सहस्रांशुं न शशाक मनस्विनी // 1 स्वभाव एष लोकानां विकारोऽन्य इति स्मृतः // 15 न शशाक यदा बाला प्रत्याख्यातुं तमोनुदम् / सा मया सह संगम्य पुनः कन्या भविष्यसि / भीता शापात्ततो राजन्दध्यौ दीर्घमथान्तरम् // 2 पुत्रश्च ते महाबाहुर्भविष्यति महायशाः // 16 अनागसः पितुः शापो ब्राह्मणस्य तथैव च / कुन्त्युवाच / मन्निमित्तः कथं न स्यात्क्रुद्धादस्माद्विभावसोः // 3 यदि पुत्रो मम भवेत्त्वत्तः सर्वतमोपह / बालेनापि सता मोहादृशं सापह्नवान्यपि / .. नात्यासादयितव्यानि तेजांसि च तपांसि च // 4 कुण्डली कवची शूरो महाबाहुर्महाबलः // 17 साहमद्य भृशं भीता गृहीता च करे भृशम् / / सूर्य उवाच / कथं त्वकार्यं कुर्यां वै प्रदानं ह्यात्मनः स्वयम् // 5 भविष्यति महाबाहुः कुण्डली दिव्यवर्मभृत् / सैवं शापपरित्रस्ता बहु चिन्तयती तदा / उभयं चामृतमयं तस्य भद्रे भविष्यति // 18 मोहेनाभिपरीताङ्गी स्मयमाना पुनः पुनः॥६ कुन्त्युवाच / तं देवमब्रवीद्भीता बन्धूनां राजसत्तम / यद्येतदमृतादस्ति कुण्डले वर्म चोत्तमम् / व्रीडाविह्वलया वाचा शापत्रस्ता विशां पते // 7 मम पुत्रस्य यं वै त्वं मत्त उत्पादयिष्यसि // 19 कुन्त्युवाच / अस्तु मे संगमो देव यथोक्तं भगवंस्त्वया / / पिता मे ध्रियते देव माता चान्ये च बान्धवाः / / त्वद्वीर्यरूपसत्त्वौजा धर्मयुक्तो भवेत्स च // 20 -787 -
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________________ 3. 291. 21] महाभारते [3. 292. 16 सूर्य उवाच / शुक्ले दशोत्तरे पक्षे तारापतिरिवाम्बरे॥१ अदित्या कुण्डले राज्ञि दत्ते मे मत्तकाशिनि / सा बान्धवभयाद्वाला तं गर्भ विनिगृहती। तेऽस्य दास्यामि वै भीरु वर्म चैवेदमुत्तमम्॥२१ धारयामास सुश्रोणी न चैनां बुबुधे जनः // 2 पृथोवाच / / न हि तां वेद नार्यन्या काचिद्धात्रेयिकामृते / परमं भगवन्देव संगमिष्ये त्वया सह / कन्यापुरगतां बालां निपुणां परिरक्षणे // 3 यदि पुत्रो भवेदेवं यथा वदसि गोपते // 22 ततः कालेन सा गर्भं सुषुवे वरवर्णिनी। . वैशंपायन उवाच। कन्यैव तस्य देवस्य प्रसादादमरप्रभम् // 4 तथेत्युक्त्वा तु तां कुन्तीमाविवेश विहंगमः। तथैव बद्धकवचं कनकोज्ज्वलकुण्डलम् / स्वर्भानुशत्रुर्योगात्मा नाभ्यां पस्पर्श चैव ताम्।। 23 / हर्यक्षं वृषभस्कन्धं यथास्य पितरं तथा // 5 ततः सा विह्वलेवासीत्कन्या सूर्यस्य तेजसा। जातमात्रं च तं गर्भ धात्र्या संमत्र्य भामिनी। पपाताथ च सा देवी शयने मूढचेतना // 24 मञ्जूषायामवदधे स्वास्तीर्णायां समन्ततः // 6 सूर्य उवाच / मधूच्छिष्टस्थितायां सा सुखायां रुदती तथा। साधयिष्यामि सुश्रोणि पुत्रं वै जनयिष्यसि / श्लक्ष्णायां सुपिधानायामश्वनद्यामवासृजत् / / 7 सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठं कन्या चैव भविष्यसि / / 25 जानती चाप्यकर्तव्यं कन्याया गर्भधारणम् / वैशंपायन उवाच / पुत्रस्नेहेन राजेन्द्र करुणं पर्यदेवयत् // 8 / ततः सा वीडिता बाला तदा सूर्यमथाब्रवीत् / समुत्सृजन्ती मञ्जूषामश्वनद्यास्तदा जले। एवमस्त्विति राजेन्द्र प्रस्थितं भूरिवर्चसम् / / 26 उवाच रुदती कुन्ती यानि वाक्यानि तच्छृणु // 9 इति स्मोक्ता कुन्तिराजात्मजा सा स्वस्ति तेऽस्त्वान्तरिक्षेभ्यः पार्थिवेभ्यश्च पुत्रक / विवस्वन्तं याचमाना सलज्जा। दिव्येभ्यश्चैव भूतेभ्यस्तथा तोयचराश्च ये // 10. तस्मिन्पुण्ये शयनीये पपात शिवास्ते सन्तु पन्थानो मा च ते परिपन्थिनः / मोहाविष्टा भज्यमाना लतेव / / 27 आगमाश्च तथा पुत्र भवन्त्वद्रोहचेतसः // 11 तां तिग्मांशुस्तेजसा मोहयित्वा पातु त्वां वरुणो राजा सलिले सलिलेश्वरः / योगेनाविश्यात्मसंस्थां चकार / अन्तरिक्षेऽन्तरिक्षस्थः पवनः सर्वगस्तथा // 12 न चैवैनां दूषयामास भानुः पिता त्वां पातु सर्वत्र तपनस्तपतां वरः / संज्ञां लेभे भूय एवाथ बाला // 28 येन दत्तोऽसि मे पुत्र दिव्येन विधिना किल॥१३ इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि आदित्या वसवो रुद्राः साध्या विश्वे च देवताः। एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ 291 // मरुतश्च सहेन्द्रेण दिशश्च सदिगीश्वराः // 14 292 रक्षन्तु त्वां सुराः सर्वे समेषु विषमेषु च / / वैशंपायन उवाच। वेत्स्यामि त्वां विदेशेऽपि कवचेनोपसूचितम् // 15 ततो गर्भः समभवत्पृथायाः पृथिवीपते / धन्यस्ते पुत्र जनको देवो भानुर्विभावसुः / -788 -
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________________ 3. 292. 16 ] आरण्यकपर्व [ 3. 293. 16 यस्त्वां द्रक्ष्यति दिव्येन चक्षुषा वाहिनीगतम् // 16 / राधा नाम महाभागा न सा पुत्रमविन्दत / धन्या सा प्रमदा या त्वां पुत्रत्वे कल्पयिष्यति / अपत्यार्थे परं यत्नमकरोच्च विशेषतः // 2 यस्यास्त्वं तृषितः पुत्र स्तनं पास्यसि देवज // 17 . सा ददर्शाथ मञ्जूषामुह्यमानां यदृच्छया / को नु स्वप्नस्तया दृष्टो या त्वामादित्यवर्चसम् / दत्तरक्षाप्रतिसरामन्वालभनशोभिताम् / दिव्यवर्मसमायुक्तं दिव्यकुण्डलभूषितम् / / 18 ऊर्मीतरङ्गैर्जाह्नव्याः समानीतामुपह्वरम् // 3 पद्मायतविशालाक्षं पद्मताम्रतलोज्वलम्। सा तां कौतूहलाप्राप्तां ग्राहयामास भामिनी / सुललाटं सुकेशान्तं पुत्रत्वे कल्पयिष्यति // 19 ततो निवेदयामास सूतस्याधिरथस्य वै // 4 धन्या द्रक्ष्यन्ति पुत्र त्वां भूमौ संसर्पमाणकम् / स तामुद्धृत्य मञ्जूषामुत्सार्य जलमन्तिकात् / अव्यक्तकलवाक्यानि वदन्तं रेणुगुण्ठितम् // 20 यत्रैरुद्धाटयामास सोऽपश्यत्तत्र बालकम् // 5 धन्या द्रक्ष्यन्ति पुत्र त्वां पुनयौवनगे मुखे / तरुणादित्यसंकाशं हेमवर्मधरं तथा। हिमवद्वनसंभूतं सिंह केसरिणं यथा // 21 मृष्टकुण्डलयुक्तेन वदनेन विराजिता // 6 एवं बहुविधं राजन्विलप्य करुणं पृथा / स सूतो भार्यया सार्धं विस्मयोत्फुल्ललोचनः / अवासृजत मञ्जूषामश्वनद्यास्तदा जले / / 22 अङ्कमारोप्य तं बालं भायां वचनमब्रवीत् // 7 रुदती पुत्रशोकार्ता निशीथे कमलेक्षणा / इदमत्यद्भुतं भीरु यतो जातोऽस्मि भामिनि / धाच्या सह पृथा राजन्पुत्रदर्शनलालसा / / 23 दृष्टवान्देवगर्भोऽयं मन्येऽस्मान्समुपागतः // 8 विसर्जयित्वा मञ्जूषां संबोधनभयापितुः / अनपत्यस्य पुत्रोऽयं देवैर्दत्तो ध्रुवं मम। विवेश राजभवनं पुनः शोकातुरा ततः // 24 इत्युक्त्वा तं ददौ पुत्रं राधायै स महीपते // 9 मञ्जूषा त्वश्वनद्याः सा ययौ चर्मण्वती नदीम् / प्रतिजग्राह तं राधा विधिवदिव्यरूपिणम् / चर्मण्वत्याश्च यमुनां ततो गङ्गां जगाम ह / / 25 पुत्रं कमलगर्भाभं देवगर्भ श्रिया वृतम् // 10 गङ्गायाः सूतविषयं चम्पामभ्याययौ पुरीम् / पुपोष चैनं विधिवद्ववृधे स च वीर्यवान् / स मञ्जुषागतो गर्भस्तरङ्गैरुह्यमानकः / / 26 ततःप्रभृति चाप्यन्ये प्राभवन्नौरसाः सुताः // 11 अमृतादुत्थितं दिव्यं तत्तु वर्म सकुण्डलम् / वसुवर्मधरं दृष्ट्वा तं बालं हेमकुण्डलम् / धारयामास तं गर्भं दैवं च विधिनिर्मितम् // 27 नामास्य वसुषेणेति ततश्चक्रुर्द्विजातयः // 12 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि एवं स सूतपुत्रत्वं जगामामितविक्रमः / द्विनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 292 // वसुषेण इति ख्यातो वृष इत्येव च प्रभुः // 13 293 स ज्येष्ठपुत्रः सूतस्य ववृधेऽङ्गेषु वीर्यवान् / वैशंपायन उवाच / चारेण विदितश्चासीत्पृथाया दिव्यवर्मभृत् // 14 एतस्मिन्नेव काले तु धृतराष्ट्रस्य वै सखा / सूतस्त्वधिरथः पुत्रं विवृद्धं समये ततः / सूतोऽधिरथ इत्येव सदारो जाह्नवीं ययौ // 1 दृष्ट्वा प्रस्थापयामास पुरं वारणसाह्वयम् // 15 तस्य भार्याभवद्राजन्रूपेणासदृशी भुवि / तत्रोपसदनं चक्रे द्रोणस्येष्वस्त्रकर्मणि। . -789 -
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________________ 3. 293. 16 ] महाभारते [ 3. 294. 18 सख्यं दुर्योधनेनैवमगच्छत्स च वीर्यवान् // 16 कर्ण उवाच। द्रोणात्कृपाच्च रामाच्च सोऽस्रग्रामं चतुर्विधम् / अवनिं प्रमदा गाश्च निर्वापं बहुवार्षिकम् / लब्ध्वा लोकेऽभवत्ख्यातः परमेष्वासतां गतः॥ 17 तत्ते विप्र प्रदास्यामि न तु वर्म न कुण्डले // 6 संधाय धार्तराष्ट्रेण पार्थानां विप्रिये स्थितः / वैशंपायन उवाच / योद्धमाशंसते नित्यं फल्गुनेन महात्मना / / 18 एवं बहुविधैर्वाक्यैर्याच्यमानः स तु द्विजः / सदा हि तस्य स्पर्धासीदर्जुनेन विशां पते / कर्णेन भरतश्रेष्ठ नान्यं वरमयाचत // 7 . अर्जुनस्य च कर्णेन यतो दृष्टो बभूव सः // 19 सान्त्वितश्च यथाशक्ति पूजितश्च यथाविधि / तं तु कुण्डलिनं दृष्ट्वा वर्मणा च समन्वितम् / नैवान्यं स द्विजश्रेष्ठः कामयामास वै वरम् / / 8 अवध्यं समरे मत्वा पर्यतप्याधिष्ठिरः / 20 यदा नान्यं प्रवृणुते वरं वै द्विजसत्तमः / यदा तु कर्णो राजेन्द्र भानुमन्तं दिवाकरम् / तदैनमब्रवीद्भूयो राधेयः प्रहसन्निव // 9. स्तौति मध्यंदिने प्राप्ते प्राञ्जलिः सलिले स्थितः // 21 सहजं वर्म मे विप्र कुण्डले चामृतोद्भवे / तत्रैनमुपतिष्ठन्ति ब्राह्मणा धनहेतवः / तेनावध्योऽस्मि लोकेषु ततो नैतद्ददाम्यहम् // 10 नादेयं तस्य तत्काले किंचिदस्ति द्विजातिषु // 22 विशालं पृथिवीराज्यं क्षेमं निहतकण्टकम् / तमिन्द्रो ब्राह्मणो भूत्वा भिक्षां देहीत्युपस्थितः / प्रतिगृह्णीष्व मत्तस्त्वं साधु ब्राह्मणपुंगव / / 11 स्वागतं चेति राधेयस्तमथ प्रत्यभाषत // 23 कुण्डलाभ्यां विमुक्तोऽहं वर्मणा सहजेन च / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि गमनीयो भविष्यामि शत्रूणां द्विजसत्तम / / 12 बिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 293 // / उवाच / 294 यदा नान्यं वरं वने भगवान्पाकशासनः / वशंपायन उवाच / ततः प्रहस्य कर्णस्तं पुनरित्यब्रवीद्वचः॥ 13 देवराजमनुप्राप्तं ब्राह्मणच्छद्मना वृषः / विदितो देवदेवेश प्रागेवासि मम प्रभो। दृष्ट्वा स्वागतमित्याह न बुबोधास्य मानसम् // 1 न तु न्याय्यं मया दातुं तव शक्र वृथा वरम् // 14 हिरण्यकण्ठी: प्रमदा ग्रामान्वा बहुगोकुलान् / त्वं हि देवेश्वरः साक्षात्त्वया देयो वरो मम / किं ददानीति तं विप्रमुवाचाधिरथिस्ततः // 2 अन्येषां चैव भूतानामीश्वरो ह्यसि भूतकृत् // 15 ब्राह्मण उवाच / यदि दास्यामि ते देव कुण्डले कवचं तथा / हिरण्यकण्ठयः प्रमदा यच्चान्यत्प्रीतिवर्धनम् / वध्यतामुपयास्यामि त्वं च शक्रावहास्यताम् / / 16 नाहं दत्तमिहेच्छामि तदर्थभ्यः प्रदीयताम् / / 3 तस्माद्विनिमयं कृत्वा कुण्डले वर्म चोत्तमम् / यदेतत्सहज वर्म कुण्डले च तवानघ / हरस्व शक्र कामं मे न दद्यामहमन्यथा // 17 एतदुत्कृत्य मे देहि यदि सत्यव्रतो भवान् // 4 शक्र उवाच / एतदिच्छाम्यहं क्षिप्रं त्वया दत्तं परंतप / विदितोऽहं रवेः पूर्वमायन्नेव तवान्तिकम् / एष मे सर्वलाभाना लाभः परमको मतः॥ 5 तेन ते सर्वमाख्यातमेवमेतन्न संशयः // 18 -790 -
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________________ 3. 294. 19 ] आरण्यकपर्व [ 3. 294. 40 काममस्तु तथा तात तव कर्ण यथेच्छसि। इन्द्र उवाच। वर्जयित्वा तु मे वज्रं प्रवृणीष्व यदिच्छसि // 19 न ते बीभत्सता कर्ण भविष्यति कथंचन / वैशंपायन उवाच / व्रणश्चापि न गात्रेषु यस्त्वं नानृतमिच्छसि // 31 ततः कर्णः प्रहृष्टस्तु उपसंगम्य वासवम् / यादृशस्ते पितुर्वर्णस्तेजश्च वदतां वर / अमोघां शक्तिमभ्येत्य वत्रे संपूर्णमानसः // 20 तादृशेनैव वर्णेन त्वं कर्ण भविता पुनः // 32 कर्ण उवाच / विद्यमानेषु शस्त्रेषु यद्यमोघामसंशये / वर्मणा कुण्डलाभ्यां च शक्तिं मे देहि वासव / प्रमत्तो मोक्ष्यसे चापि त्वय्येवैषा पतिष्यति // 33 अमोघां शत्रुसंघानां घातनी पृतनामुखे // 21 कर्ण उवाच / ततः संचिन्त्य मनसा मुहूर्तमिव वासवः / . संशयं परमं प्राप्य विमोक्ष्ये वासवीमिमाम् / शक्त्यर्थं पृथिवीपाल कर्णं वाक्यमथाब्रवीत्।।२२ यथा मामात्थ शक्र त्वं सत्यमेतद्भवीमि ते // 34 कुण्डले मे प्रयच्छस्व वर्म चैव शरीरजम् / . वैशंपायन उवाच / गृहाण कर्ण शक्तिं त्वमनेन समयेन मे // 23 ततः शक्तिं प्रज्वलितां प्रतिगृह्य विशां पते। अमोघा हन्ति शतशः शत्रून्मम करच्युता। शस्त्रं गृहीत्वा निशितं सर्वगात्राण्यकृन्तत // 35 पुनश्च पाणिमभ्येति मम दैत्यान्विनिघ्नतः // 24 ततो देवा मानवा दानवाश्च सेयं तव करं प्राप्य हत्वैकं रिपुमूर्जितम् / ___निकृन्तन्तं कर्णमात्मानमेवम् / गर्जन्तं प्रतपन्तं च मामेवैष्यति सूतज // 25 दृष्ट्वा सर्वे सिद्धसंघाश्च नेदु- कर्ण उवाच / न ह्यस्यासीढुःखजो वै विकारः॥ 36 एकमेवाहमिच्छामि रिपुं हन्तुं महाहवे। ततो दिव्या दुन्दुभयः प्रणेदुः गर्जन्तं प्रतपन्तं च यतो मम भयं भवेत् / / 26 पपातोच्चैः पुष्पवर्षं च दिव्यम् / इन्द्र उवाच / दृष्ट्वा कर्णं शस्त्रसंकृत्तगात्रं एक हनिष्यसि रिपुं गर्जन्तं बलिनं रणे। __मुहुश्चापि स्मयमानं नृवीरम् / / 37 ततश्छित्वा कवचं दिव्यमङ्गात्वं तु यं प्रार्थयस्येकं रक्ष्यते स महात्मना // 27 .. त्तथैवाई प्रददौ वासवाय / यमाहुर्वेदविद्वांसो वराहम जितं हरिम् / तथोत्कृत्य प्रददौ कुण्डले ते नारायणमचिन्त्यं च तेन कृष्णेन रक्ष्यते // 28 वैकर्तनः कर्मणा तेन कर्णः // 38 .. कर्ण उवाच। ततः शक्रः प्रहसन्वञ्चयित्वा एवमप्यस्तु भगवन्नेकवीरवधे मम / कर्णं लोके यशसा योजयित्वा / अमोघा प्रवरा शक्तिर्येन हन्यां प्रतापिनम् / / 29 कृतं कार्य पाण्डवानां हि मेने उत्कृत्य तु प्रदास्यामि कुण्डले कवचं च ते। ततः पश्चाद्दिवमेवोत्पपात // 39 निकृत्तेषु च गात्रेषु न मे बीभत्सता भवेत् // 30 / श्रुत्वा कर्णं मुषितं धार्तराष्ट्रा -791 -
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________________ 3. 294. 40] - महाभारते [ 3. 295. 17 दीनाः सर्वे भग्नदर्पा इवासन् / अनुगुप्तफलाहाराः सर्व एव मिताशनाः / तां चावस्थां गमितं सूतपुत्रं न्यवसन्पाण्डवास्तत्र कृष्णया सह भारत // 4 श्रुत्वा पार्था जहषुः काननस्थाः॥४० वसन्द्वैतवने राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / जनमेजय उवाच। भीमसेनोऽर्जुनश्चैव माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ // 5 कस्था वीराः पाण्डवास्ते बभूवुः ब्राह्मणार्थे पराक्रान्ता धर्मात्मानो यतव्रताः। .. __कुतश्चैतच्छ्रुतवन्तः प्रियं ते / क्लेशमार्छन्त विपुलं सुखोदकं परंतपाः // 6 . किं वाकार्युादशेऽब्दे व्यतीते अजातशत्रुमासीनं भ्रातृभिः सहितं वने / तन्मे सर्वं भगवान्व्याकरोतु // 41 आगम्य ब्राह्मणस्तूर्णं संतप्त इदमब्रवीत् // 7 वैशंपायन उवाच / अरणीसहितं मह्यं समासक्तं वनस्पतौ / लब्ध्वा कृष्णां सैन्धवं द्रावयित्वा मृगस्य घर्षमाणस्य विषाणे समसज्जत / / 8 विप्रैः सार्धं काम्यकादाश्रमात्ते / तदादाय गतो राजंस्त्वरमाणो महामृगः। मार्कण्डेयाच्छ्रुतवन्तः पुराणं आश्रमात्त्वरितः शीघ्रं प्लवमानो महाजवः // 9 देवर्षीणां चरितं विस्तरेण // 42 तस्य गत्वा पदं शीघ्रमासाद्य च महामृगम् / प्रत्याजग्मुः सरथाः सानुयात्राः अग्निहोत्रं न लुप्येत तदानयत पाण्डवाः // 10 सर्वैः सार्धं सूदपौरोगवैश्च / ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा संतप्तोऽथ युधिष्ठिरः / ततः पुण्यं द्वैतवनं नृवीरा धनुरादाय कौन्तेयः प्राद्रवद्धातृभिः सह / / 11 निस्तीर्योग्रं वनवासं समग्रम् // 43 सन्नद्धा धन्विनः सर्वे प्राद्रवन्नरपुंगवाः / इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि ब्राह्मणार्थे यतन्तस्ते शीघ्रमन्वगमन्मृगम् / / 12 चतुर्नवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 294 // कर्णिनालीकनाराचानुत्सृजन्तो महारथाः / समाप्तं कुण्डलाहरणपर्व // नाविध्यन्पाण्डवास्तत्र पश्यन्तो मृगमन्तिकात्॥१३ 295 तेषां प्रयतमानानां नादृश्यत महामृगः / जनमेजय उवाच / अपश्यन्तो मृगं श्रान्ता दुःखं प्राप्ता मनस्विनः // 14 एवं हृतायां कृष्णायां प्राप्य क्लेशमनुत्तमम् / शीतलच्छायमासाद्य न्यग्रोधं गहने बने। प्रतिलभ्य ततः कृष्णां किमकुर्वत पाण्डवाः // 1 क्षुत्पिपासापरीताङ्गाः पाण्डवाः समुपाविशन् // 15 वैशंपायन उवाच / तेषां समुपविष्टानां नकुलो दुःखितस्तदा / एवं हृतायां कृष्णायां प्राप्य केशमनुत्तमम् / अब्रवीद्धातरं ज्येष्ठममर्षात्कुरुसत्तम // 16 विहाय काम्यकं राजा सह भ्रातृभिरच्युतः // 2 नास्मिन्कुले जातु ममज्ज धर्मो पुनद्वैतवनं रम्यमाजगाम युधिष्ठिरः / ___ न चालस्यादर्थलोपो बभूव / स्वादुमूलफलं रम्यं मार्कण्डेयाश्रमं प्रति // 3 अनुत्तराः सर्वभूतेषु भूयः -792
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________________ 3. 295. 17 ] आरण्यकपर्व [3. 296. 25 संप्राप्ताः स्मः संशयं केन राजन्॥ 17 पातुकामस्ततो वाचमन्तरिक्षात्स शुश्रुवे // 11 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः। पञ्चनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 295 // प्रश्नानुक्त्वा तु माद्रेय ततः पिब हरस्व च // 12 296 अनादृत्य तु तद्वाक्यं नकुलः सुपिपासितः / युधिष्ठिर उवाच / अपिबच्छीतलं तोयं पीत्वा च निपपात ह // 13 नापदामस्ति मर्यादा न निमित्तं न कारणम् / चिरायमाणे नकुले कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। धर्मस्तु विभजत्यत्र उभयोः पुण्यपापयोः // 1 अब्रवीद्धातरं वीरं सहदेवमरिंदमम् // 14 भीम उवाच / भ्राता चिरायते तात सहदेव तवाग्रजः / प्रातिकाम्यनयत्कृष्णां सभायां प्रेष्यवत्तदा / .. तं चैवानय सोदयं पानीयं च त्वमानय // 15 न मया निहतस्तत्र तेन प्राप्ताः स्म संशयम् // 2 सहदेवस्तथेत्युक्त्वा तां दिशं प्रत्यपद्यत / ___अर्जुन उवाच। ददर्श च हतं भूमौ भ्रातरं नकुलं तदा // 16 वाचस्तीक्ष्णास्थिभेदिन्यः सूतपुत्रेण भाषिताः। भ्रातृशोकाभिसंतप्तस्तृषया च प्रपीडितः / अतितीक्ष्णा मया क्षान्तास्तेन प्राप्ताः स्म संशयम्॥३ अभिदुद्राव पानीयं ततो वागभ्यभाषत // 17 सहदेव उवाच / मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः / शकुनिस्त्वां यदाजैषीदक्षद्यूतेन भारत / प्रश्नानुक्त्वा यथाकामं ततः पिब हरस्व च // 18 स मया न हतस्तत्र तेन प्राप्ताः स्म संशयम् // 4 अनादृत्य तु तद्वाक्यं सहदेवः पिपासितः / - वैशंपायन उवाच / अपिबच्छीतलं तोयं पीत्वा च निपपात ह // 19 ततो युधिष्ठिरो राजा नकुलं वाक्यमब्रवीत् / / अथाब्रवीत्स विजयं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। आरुह्य वृक्षं माद्रेय निरीक्षस्व दिशो दश // 5 भ्रातरौ ते चिरगतौ बीभत्सो शत्रुकर्शन / पानीयमन्तिके पश्य वृक्षान्वाप्युदकाश्रयान् / तौ चैवानय भद्रं ते पानीयं च त्वमानय / / 20 इमे हि भ्रातरः श्रान्तास्तव तात पिपासिताः॥६ एवमुक्तो गुडाकेशः प्रगृह्य सशरं धनुः / नकुलस्तु तथेत्युक्त्वा शीघ्रमारुह्य पादपम् / आमुक्तखड्गो मेधावी तत्सरः प्रत्यपद्यत // 21 अब्रवीद्धातरं ज्येष्ठमभिवीक्ष्य समन्ततः॥ 7 यतः पुरुषशार्दूलौ पानीयहरणे गतौ / पश्यामि बहुलान्राजन्वृक्षानुदकसंश्रयान् / तौ ददर्श हतौ तत्र भ्रातरौ श्वेतवाहनः // 22 सारसानां च निर्वादमत्रोदकमसंशयम् // 8 प्रसुप्ताविव तौ दृष्ट्वा नरसिंहः सुदुःखितः / ततोऽब्रवीत्सत्यधृतिः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / धनुरुद्यम्य कौन्तेयो व्यलोकयत तद्वनम् // 23 गच्छ सौम्य ततः शीघ्रं तूर्णं पानीयमानय // 9 नापश्यत्तत्र किंचित्स भूतं तस्मिन्महावने / नकुलस्तु तथेत्युक्त्वा भ्रातुर्येष्ठस्य शासनात् / / सव्यसाची ततः श्रान्तः पानीयं सोऽभ्यधावत // 24 प्राद्रवद्यत्र पानीयं शीघ्रं चैवान्वपद्यत // 10 अभिधावंस्ततो वाचमन्तरिक्षात्स शुश्रुवे। स दृष्ट्वा विमलं तोयं सारसैः परिवारितम् / किमासीदसि पानीयं नैतच्छक्यं बलात्त्वया // 25 म. भा. 10. . . -793 -
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________________ 3. 296. 26 ] महाभारते [ 3. 297.7 कौन्तेय यदि वै प्रश्नान्मयोक्तान्प्रतिपत्स्यसे। अविज्ञायैव तान्प्रश्नान्पीत्वैव निपपात ह // 38 ततः पास्यसि पानीयं हरिष्यसि च भारत // 26 | ततः कुन्तीसुतो राजा विचिन्त्य पुरुषर्षभः / वारितस्त्वब्रवीत्पार्थो दृश्यमानो निवारय / समुत्थाय महाबाहुर्दह्यमानेन चेतसा // 39 यावद्वाणैर्विनिर्भिन्नः पुनर्नैवं वदिष्यसि // 27 अपेतजननिर्घोषं प्रविवेश महावनम् / एवमुक्त्वा ततः पार्थः शरैरस्त्रानुमत्रितैः / रुरुभिश्च वराहैश्च पक्षिभिश्च निषेवितम् // 4. ववर्ष तां दिशं कृत्स्ना शब्दवेधं च दर्शयन् // 28 नीलभास्वरवर्णैश्च पादपैरुपशोभितम् / कर्णिनालीकनाराचानुत्सृजन्भरतर्षभ / भ्रमरैरुपगीतं च पक्षिभिश्च महायशाः // 41 अनेकैरिषुसंघातैरन्तरिक्षं ववर्ष ह // 29 स गच्छन्कानने तस्मिन्हेमजालपरिष्कृतम्। यक्ष उवाच / ददर्श तत्सरः श्रीमान्विश्वकर्मकृतं यथा // 42 किं विघातेन ते पार्थ प्रश्नानुक्त्वा ततः पिब। उपेतं नलिनीजालैः सिन्धुवारैश्च वेतसैः। . अनुक्त्वा तु ततः प्रश्नान्पीत्वैव न भविष्यसि // 30 केतकैः करवीरैश्च पिप्पलैश्चैव संवृतम् / वैशंपायन उवाच / श्रमार्तस्तदुपागम्य सरो दृष्ट्वाथ विस्मितः // 43 स त्वमोघानिषून्मुक्त्वा तृष्णयाभिप्रपीडितः। इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि अविज्ञायैव तान्प्रश्नान्पीत्वैव निपपात ह // 31 _षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 296 // अथाब्रवीद्भीमसेनं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। . 297 नकुलः सहदेवश्च बीभत्सुश्चापराजितः // 32 वैशंपायन उवाच। चिरं गतास्तोयहेतोर्न चागच्छन्ति भारत / स ददर्श हतान्भ्रातृल्लोकपालानिव च्युतान् / तांश्चैवानय भद्रं ते पानीयं च त्वमानय // 33 युगान्ते समनुप्राप्ते शक्रप्रतिमगौरवान् // 1 भीमसेनस्तथेत्युक्त्वा तां दिशं प्रत्यपद्यत। विप्रकीर्णधनुर्बाणं दृष्ट्वा निहतमर्जुनम् / यत्र ते पुरुषव्याघ्रा भ्रातरोऽस्य निपातिताः॥ 34 भीमसेनं यमौ चोभौ निर्विचेष्टान्गतायुषः // 2 तान्दृष्ट्वा दुःखितो भीमस्तृषया च प्रपीडितः / स दीर्घमुष्णं निःश्वस्य शोकबाष्पपरिप्लुतः / अमन्यत महाबाहुः कर्म तद्यक्षरक्षसाम् / बुद्ध्या विचिन्तयामास वीराः केन निपातिताः॥३ स चिन्तयामास तदा योद्धव्यं ध्रुवमद्य मे // 35 नैषां शस्त्रप्रहारोऽस्ति पदं नेहास्ति कस्यचित् / पास्यामि तावत्पानीयमिति पार्थो वृकोदरः। भूतं महदिदं मन्ये भ्रातरो येन मे हताः। ततोऽभ्यधावत्पानीयं पिपासुः पुरुषर्षभः // 36 एकाग्रं चिन्तयिष्यामि पीत्वा वेत्स्यामि वा जलम् // 4 यक्ष उवाच / स्यात्तु दुर्योधनेनेदमुपांशुविहितं कृतम् / मा तात साहसं कार्षीर्मम पूर्वपरिग्रहः / गान्धारराजरचितं सततं जिह्मबुद्धिना // 5 प्रश्नानुक्त्वा तु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च // 37 / यस्य कार्यमकार्य वा सममेव भवत्युत। वैशंपायन उवाच / कस्तस्य विश्वसेद्वीरो दुर्मतेरकृतात्मनः // 6 / अथ वा पुरुषैगुडैः प्रयोगोऽयं दुरात्मनः / -794 - कीयो राणामिततेजसा / एवमुक्तस्त
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________________ 3. 297.7] आरण्यकपर्व [3. 297. 29 भवेदिति महाबाहुर्बहुधा समचिन्तयत् // 7 वैशंपायन उवाच। तस्यासीन्न विषेणेदमुदकं दूषितं यथा। ततस्तामशिवां श्रुत्वा वाचं स परुषाक्षराम् / मुखवर्णाः प्रसन्ना मे भ्रातृणामित्यचिन्तयत् // 8 यक्षस्य अवतो राजन्नुपक्रम्य तदा स्थितः // 19 एकैकशश्चौघबलानिमान्पुरुषसत्तमान / विरूपाक्षं महाकायं यक्षं तालसमुच्छ्रयम् / कोऽन्यः प्रतिसमासेत कालान्तकयमादृते॥९ ज्वलनार्कप्रतीकाशमधृष्यं पर्वतोपमम् // 20 एतेनाध्यवसायेन तत्तोयमवगाढवान् / सेतुमाश्रित्य तिष्ठन्तं ददर्श भरतर्षभः / गाहमानश्च तत्तोयमन्तरिक्षात्स शुश्रुवे // 10 मेघगम्भीरया वाचा तर्जयन्तं महाबलम् // 21 यक्ष. उवाच / यक्ष उवाच / अहं बकः शैवलमत्स्यभक्षो इमे ते भ्रातरो राजन्वार्यमाणा मयासकृत् / ___ मया नीताः प्रेतवंशं तवानुजाः। बलात्तोयं जिहीर्षन्तस्ततो वै सूदिता मया // 22 त्वं पञ्चमो भविता राजपुत्र न पेयमुदकं राजन्प्राणानिह परीप्सता / न चेत्प्रश्नान्पृच्छतो व्याकरोषि // 11 पार्थ मा साहसं कार्मिम पूर्वपरिग्रहः। मा तात साहसं काढुर्मम पूर्वपरिग्रहः / प्रश्नानुक्त्वा तु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च // 23 प्रश्नानुक्त्वा तु कौन्तेय ततः पिब हरस्व च // 12 युधिष्ठिर उवाच। नैवाहं कामये यक्ष तव पूर्वपरिग्रहम् / युधिष्ठिर उवाच। कामं नैतत्प्रशंसन्ति सन्तो हि पुरुषाः सदा // 24 रुद्राणां वा वसूनां वा मरुतां वा प्रधानभाक् / यदात्मना स्वमात्मानं प्रशंसेत्पुरुषः प्रभो। पृच्छामि को भवान्देवो नैतच्छकुनिना कृतम् // 13 यथाप्रज्ञं तु ते प्रश्नान्प्रतिवक्ष्यामि पृच्छ माम् // 25 हिमवान्पारियात्रश्च विन्ध्यो मलय एव च / यक्ष उवाच / चत्वारः पर्वताः केन पातिता भुवि तेजसा // 14 किं स्विदादित्य मुन्नयति के च तस्याभितश्चराः। अतीव ते महत्कर्म कृतं बलवतां वर / कश्चैनमस्तं नयति कस्मिंश्च प्रतितिष्ठति // 26. यन्न देवा न गन्धर्वा नासुरा न च राक्षसाः / युधिष्ठिर उवाच / विषहेरन्महायुद्धे कृतं ते तन्महाद्भुतम् // 15 . ब्रह्मादित्यमुन्नयति देवास्तस्याभितश्चराः / न ते जानामि यत्कार्यं नाभिजानामि काङ्कितम् / धर्मश्चास्तं नयति च सत्ये च प्रतितिष्ठति // 27 कौतूहलं महज्जातं साध्वसं चागतं मम // 16 ___ यक्ष उवाच / येनास्म्युद्विग्नहृदयः समुत्पन्नशिरोज्वरः / केन स्विच्छ्रोत्रियो भवति केन विद्विन्दते महत् / पृच्छामि भगवंस्तस्मात्को भवानिह तिष्ठति // 17 / केन द्वितीयवान्भवति राजन्केन च बुद्धिमान्॥२८ यक्ष उवाच। युधिष्ठिर उवाच। यक्षोऽहमस्मि भद्रं ते नास्मि पक्षी जलेचरः। / श्रुतेन श्रोत्रियो भवति तपसा विन्दते महत् / मयैते निहताः सर्वे भ्रातरस्ते महौजसः // 18 धृत्या द्वितीयवान्भवति बुद्धिमान्वृद्धसेवया॥२९ -795 -
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________________ 3. 297. 30] महाभारते [ 3. 297. 49 यक्ष उवाच / यक्ष उवाच / किं ब्राह्मणानां देवत्वं कश्च धर्मः सतामिव / किं स्विद्गुरुतरं भूमेः किं स्विदुच्चतरं च खात् / कश्चैषां मानुषो भावः किमेषामसतामिव // 30 किं स्विच्छीघ्रतरं वायोः किं स्विद्वहुतरं नृणाम् // 40 युधिष्ठिर उवाच / __ युधिष्ठिर उवाच / स्वाध्याय एषां देवत्वं तप एषां सतामिव / माता गुरुतरा भूमेः पिता उच्चतरश्च खात् / / मरणं मानुषो भावः परिवादोऽसतामिव // 31 मनः शीघ्रतरं वायोश्चिन्ता बहुतरी नृणाम् / / 41 यक्ष उवाच। यक्ष उवाच / किं क्षत्रियाणां देवत्वं कश्च धर्मः सतामिव / किं स्वित्सुप्तं न निमिषति किं स्विज्जातं न चोपति / कश्चैषां मानुषो भावः किमेषामसतामिव // 32 कस्य स्विद्धृदयं नास्ति किं स्विद्वगेन वर्धते // 42 युधिष्ठिर उवाच / / युधिष्ठिर उवाच / इष्वस्त्रमेषां देवत्वं यज्ञ एषां सतामिव। मत्स्यः सुप्तो न निमिषत्यण्डं जातं न चोपति / भयं वै मानुषो भावः परित्यागोऽसतामिव // 33 अश्मनो हृदयं नास्ति नदी वेगेन वर्धते // 43 यक्ष उवाच / यक्ष उवाच / किमेकं यज्ञियं साम किमेकं यज्ञियं यजुः।। किं स्वित्प्रवसतो मित्रं किं स्विन्मित्रं गृहे सतः / का चैका वृश्चते यज्ञं कां यज्ञो नातिवर्तते // 34 आतुरस्य च किं मित्रं किं स्विन्मित्रं मरिष्यतः॥४४ युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर उवाच / प्राणो वै यज्ञियं साम मनो वै यज्ञियं यजुः / सार्थः प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः। वागेका वृश्चते यज्ञं तां यज्ञो नातिवर्तते // 35 | आतुरस्य भिषङ् मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः॥४५ . यक्ष उवाच / यक्ष उवाच / किं स्विदापततां श्रेष्ठं किं स्विन्निपततां वरम् / किं स्विदेको विचरति जातः को जायते पुनः / किं स्वित्प्रतिष्ठमानानां किं स्वित्प्रवदतां वरम् / / 36 किं स्विद्धिमस्य भैषज्यं किं स्विदावपनं महत्॥४६ युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर उवाच / वर्षमापततां श्रेष्ठं बीजं निपततां वरम् / सूर्य एको विचरति चन्द्रमा जायते पुनः / गावः प्रतिष्ठमानानां पुत्रः प्रवदतां वरः // 37 अग्निर्हिमस्य भैषज्यं भूमिरावपनं महत् // 47 ___ यक्ष उवाच / ___यक्ष उवाच / इन्द्रियार्थाननुभवन्बुद्धिमाललोकपूजितः / किं स्विदेकपदं धयं किं स्विदेकपदं यशः / संमतः सर्वभूतानामुच्छ्रसन्को न जीवति // 38 किं स्विदेकपदं स्वयं किं स्विदेकपदं सुखम् // 48 युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर उवाच। देवतातिथिभृत्यानां पितॄणामात्मनश्च यः / / दाक्ष्यमेकपदं धयं दानमेकपदं यशः / न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्रसन्न स जीवति // 39 सत्यमेकपदं स्वयं शीलमेकपदं सुखम् // 49 -796 -
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________________ 3. 297. 50] आरण्यकपर्व [3. 297. 70 यक्ष उवाच / यक्ष उवाच / किं स्विंदात्मा मनुष्यस्य किं स्विदैवकृतः सखा / का दिकिमुदकं प्रोक्तं किमन्नं पार्थ किं विषम् / उपजीवनं किं स्विदस्य किं स्विदस्य परायणम् / / 50 श्राद्धस्य कालमाख्याहि ततः पिब हरस्व च // 60 युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर उवाच / पुत्र आत्मा मनुष्यस्य भार्या दैवकृतः सखा / / सन्तो दिग्जलमाकाशं गौरन्नं प्रार्थना विषम्। उपजीवनं च पर्जन्यो दानमस्य परायणम् / / 51 श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः कथं वा यक्ष मन्यसे॥६१ यक्ष उवाच। यक्ष उवाच / धन्यानामुत्तमं किं स्विद्धनानां किं विदुत्तमम् / व्याख्याता मे त्वया प्रश्ना याथातथ्यं परंतप / लाभानामुत्तमं किं वित्किं सुखानां तथोत्तमम् // पुरुषं त्विदानीमाख्याहि यश्च सर्वधनी नरः॥६२ युधिष्ठिर उवाच / __ युधिष्ठिर उवाच। धन्यानामुत्तमं दाक्ष्यं धनानामुत्तमं श्रुतम् / / दिवं स्पृशति भूमिं च शब्दः पुण्यस्य कर्मणः / लाभानां श्रेष्ठमारोग्यं सुखानां तुष्टिरुत्तमा // 53 यावत्स शब्दो भवति तावत्पुरुष उच्यते // 63 यक्ष उवाच। तुल्ये प्रियाप्रिये यस्य सुखदुःखे तथैव च / कश्च धर्मः परो लोके कश्च धर्मः सदाफलः / अतीतानागते चोभे स वै सर्वधनी नरः॥ 64 . किं नियम्य न शोचन्ति कैश्च संधिर्न जीर्यते // यक्ष उवाच / युधिष्ठिर उवाच / व्याख्यातः पुरुषो राजन्यश्च सर्वधनी नरः / आनृशंस्यं परो धर्मस्त्रयीधर्मः सदाफलः / मनो यम्य न शोचन्ति सद्भिः संधिर्न जीर्यते // तस्मात्तवैको भ्रातॄणां यमिच्छसि स जीवतु // 65 यक्ष उवाच। युधिष्ठिर उवाच। किं नु हित्वा प्रियो भवति किं नु हित्वा न शोचति / श्यामो य एष रक्ताक्षो बृहच्छाल इवोद्गतः। / किं नु हित्वार्थवान्भवति किं नु हित्वा सुखी भवेत्॥ व्यूढोरस्को महाबाहुनकुलो यक्ष जीवतु // 66 : युधिष्ठिर उवाच / - यक्ष उवाच / मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति / प्रियस्ते भीमसेनोऽयमर्जुनो वः परायणम् / . कामं हित्वार्थवान्भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत् // स कस्मान्नकुलं राजन्सापत्नं जीवमिच्छसि // 67 यक्ष उवाच। यस्य नागसहस्रेण दशसंख्येन वै बलम् / मृतं कथं स्यात्पुरुषः कथं राष्ट्रं मृतं भवेत् / तुल्यं तं भीममुत्सृज्य नकुलं जीवमिच्छसि // 68 श्राद्धं मृतं कथं च स्यात्कथं यज्ञो मृतो भवेत्॥५८ तथैनं मनुजाः प्राहुर्भीमसेनं प्रियं तव।। युधिष्ठिर उवाच। अथ केनानुभावेन सापत्नं जीवमिच्छसि // 69 * मृतो दरिद्रः पुरुषो मृतं राष्ट्रमराजकम् / / यस्य बाहुबलं सर्वे पाण्डवाः समुपाश्रिताः। . मृतमश्रोत्रियं श्राद्धं मृतो यज्ञस्त्वदक्षिणः // 59 अर्जुनं तमपाहाय नकुलं जीवमिच्छसि // 70 : - 797
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________________ 3. 297. 71] महाभारते [3. 298. 20 युधिष्ठिर उवाच। अहिंसा समता शान्तिस्तपः शौचममत्सरः / आनृशंस्यं परो धर्मः परमार्थाच्च मे मतम् / द्वाराण्येतानि मे विद्धि प्रियो ह्यसि सदा मम // 8 आनृशंस्यं चिकीर्षामि नकुलो यक्ष जीवतु // 71 / दिष्टया पञ्चसु रक्तोऽसि दिष्ट्या ते षट्पदी जिता / धर्मशीलः सदा राजा इति मां मानवा विदुः। द्वे पूर्व मध्यमे द्वे च द्वे चान्ते सांपरायिके // 9 स्वधर्मान्न चलिष्यामि नकुलो यक्ष जीवतु // 72 धर्मोऽहमस्मि भद्रं ते जिज्ञासुस्त्वामिहागतः। . यथा कुन्ती तथा माद्री विशेषो नास्ति मे तयोः / आनृशंस्येन तुष्टोऽस्मि वरं दास्यामि तेऽनघ // 10 मातृभ्यां सममिच्छामि नकुलो यक्ष जीवतु // 73 / वरं वृणीष्व राजेन्द्र दाता ह्यस्मि तवानघ / यक्ष उवाच / ये हि मे पुरुषा भक्ता न तेषामस्ति दुर्गतिः॥११ यस्य तेऽर्थाच्च कामाच आनृशंस्यं परं मतम् / युधिष्ठिर उवाच / तस्मात्ते भ्रातरः सर्वे जीवन्तु भरतर्षभ // 74 अरणीसहितं यस्य मृग आदाय गच्छति। . इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि तस्याग्नयो न लुप्येरन्प्रथमोऽस्तु वरो मम // 12 सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः // 297 // . धर्म उवाच / 298 अरणीसहितं तस्य ब्राह्मणस्य हृतं मया। वैशंपायन उवाच / मृगवेषेण कौन्तेय जिज्ञासार्थं तव प्रभो // 13 ततस्ते यक्षवचनादुदतिष्ठन्त पाण्डवाः / वैशंपायन उवाच / क्षुत्पिपासे च सर्वेषां क्षणे तस्मिन्व्यगच्छताम् // 1 ददानीत्येव भगवानुत्तरं प्रत्यपद्यत / युधिष्ठिर उवाच / अन्यं वरय भद्रं ते वरं त्वममरोपम // 14 सरस्येकेन पादेन तिष्ठन्तमपराजितम् / . युधिष्ठिर उवाच / पृच्छामि को भवान्देवो न मे यक्षो मतो भवान्॥२ | वर्षाणि द्वादशारण्ये त्रयोदशमुपस्थितम् / वसूनां वा भवानेको रुद्राणामथ वा भवान् / तत्र नो नाभिजानीयुर्वसतो मनुजाः क्वचित् // 15 अथ वा मरुतां श्रेष्ठो वज्री वा त्रिदशेश्वरः // 3 . वैशंपायन उवाच / मम हि भ्रातर इमे सहस्रशतयोधिनः / ददानीत्येव भगवानुत्तरं प्रत्यपद्यत / न तं योगं प्रपश्यामि येन स्युर्विनिपातिताः॥ 4 भूयश्चाश्वासयामास कौन्तेयं सत्यविक्रमम् // 16 सुखं प्रतिविबुद्धानामिन्द्रियाण्युपलक्षये। यद्यपि स्वेन रूपेण चरिष्यथ महीमिमाम् / स भवान्सुहृदस्माकमथ वा नः पिता भवान् // 5 न वो विज्ञास्यते कश्चित्रिषु लोकेषु भारत // 17 यक्ष उवाच / वर्ष त्रयोदशं चेदं मत्प्रसादात्कुरूद्वहाः / अहं ते जनकस्तात धर्मो मृदुपराक्रम / विराटनगरे गूढा अविज्ञाताश्चरिष्यथ // 18 त्वां दिदृक्षुरनुप्राप्तो विद्धि मां भरतर्षभ // 6 यद्वः संकल्पितं रूपं मनसा यस्य यादशम। यशः सत्यं दमः शौचमार्जवं हीरचापलम् / तादृशं तादृशं सर्वे छन्दतो धारयिष्यथ // 19 दानं तपो ब्रह्मचर्यमित्येतास्तनवो मम // 7 अरणीसहितं चेदं ब्राह्मणाय प्रयच्छत / -798 -
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________________ 3. 298. 20] आरण्यकपर्व [3. 299. 14 जिज्ञासाथ मया ह्येतदाहृतं मृगरूपिणा // 20 उपोपविश्य विद्वांसः सहिताः संशितव्रताः॥ 1 तृतीयं गृह्यतां पुत्र वरमप्रतिमं महत् / ये तद्भक्ता वसन्ति स्म वनवासे तपस्विनः। त्वं हि मत्प्रभवो राजन्विदुरश्च ममांशभाक् // 21 तानब्रुवन्महात्मानः शिष्टाः प्राञ्जलयस्तदा। युधिष्ठिर उवाच / अभ्यनुज्ञापयिष्यन्तस्तं निवासं धृतव्रताः॥२ देवदेवो मया दृष्टो भवान्साक्षात्सनातनः / विदितं भवतां सर्वं धार्तराष्ट्रैर्यथा वयम् / यं ददासि वरं तुष्टस्तं ग्रहीष्याम्यहं पितः / / 22 छद्मना हृतराज्याश्च निःस्वाश्च बहुशः कृताः॥३ जयेयं लोभमोहौ च क्रोधं चाहं सदा विभो। उषिताश्च वने कृच्छं यत्र द्वादश वत्सरान् / दाने तपसि सत्ये च मनो मे सततं भवेत् // 23 अज्ञातवाससमयं शेषं वर्ष त्रयोदशम् / __ धर्म उवाच। तद्वत्स्यामो वयं छन्नास्तदनुज्ञातुमर्हथ / / 4 उपपन्नो गुणैः सर्वैः स्वभावेनासि पाण्डव / सुयोधनश्च दुष्टात्मा कर्णश्च सहसौबलः / भवान्धर्मः पुनश्चैव यथोक्तं ते भविष्यति // 24 जानन्तो विषमं कुर्युरस्मास्वत्यन्तवैरिणः / वैशंपायन उवाच / युक्ताचाराश्च युक्ताश्च पौरस्य स्वजनस्य च // 5 इत्युक्त्वान्तर्दधे धर्मो भगवाल्लोकभावनः / अपि नस्तद्भवेद्भयो यद्वयं ब्राह्मणैः सह / समेताः पाण्डवाश्चैव सुखसुप्ता मनस्विनः // 25 समस्ताः स्वेषु राष्ट्रेषु स्वराज्यस्था भवेमहि // 6 अभ्येत्य चाश्रमं वीराः सर्व एव गतक्लमाः / इत्युक्त्वा दुःखशोकार्तः शुचिर्धर्मसुतस्तदा / आरणेयं ददुस्तस्मै ब्राह्मणाय तपस्विने॥२६ संमूर्छितोऽभवद्राजा साश्रुकण्ठो युधिष्ठिरः॥ 7 इदं समुत्थानसमागमं मह तमथाश्वासयन्सर्वे ब्राह्मणा भ्रातृभिः सह / पितुश्च पुत्रस्य च कीर्तिवर्धनम् / अथ धौम्योऽब्रवीद्वाक्यं महार्थं नृपतिं तदा // 8 पठन्नरः स्याद्विजितेन्द्रियो वशी राजन्विद्वान्भवान्दान्तः सत्यसंधो जितेन्द्रियः / - सपुत्रपौत्रः शतवर्षभाग्भवेत् // 27 नैवंविधाः प्रमुह्यन्ति नराः कस्यांचिदापदि // 9 न चाप्यधर्मे न सुहृद्विभेदने देवैरप्यापदः प्राप्ताश्छन्नैश्च बहुशस्तथा / परस्वहारे परदारमर्शने / तत्र तत्र सपत्नानां निग्रहार्थं महात्मभिः॥ 10 कदर्यभावे न रमेन्मनः सदा इन्द्रेण निषधान्प्राप्य गिरिप्रस्थाश्रमे तदा / . नृणां सदाख्यानमिदं विजानताम् // 28 छन्नेनोष्य कृतं कर्म द्विषतां बलनिग्रहे // 11 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि विष्णुनाश्वशिरः प्राप्य तथादित्यां निवत्स्यता। अष्टनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः॥२९८॥ गर्भे वधार्थं दैत्यानामज्ञातेनोषितं चिरम् // 12 299 प्राप्य वामनरूपेण प्रच्छन्नं ब्रह्मरूपिणा / वैशंपायन उवाच। बलेर्यथा हृतं राज्यं विक्रमैस्तच्च ते श्रुतम् // 13 धर्मेण तेऽभ्यनुज्ञाताः पाण्डवाः सत्यविक्रमाः। और्वेण वसता छन्नमूरौ ब्रह्मर्षिणा तदा। अज्ञातवासं वत्स्यन्तश्छन्ना वर्ष त्रयोदशम् / यत्कृतं तात लोकेषु तच्च सर्वं श्रुतं त्वया // 14 -799 -
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________________ 3. 299. 15 ] महाभारते [3. 299. 29 प्रच्छन्नं चापि धर्मज्ञ हरिणा वृत्रनिग्रहे। वजं प्रविश्य शक्रस्य यत्कृतं तच्च ते श्रुतम् // 15 हुताशनेन यच्चापः प्रविश्य छन्नमासता / विबुधानां कृतं कर्म तच्च सर्व श्रुतं त्वया // 16 एवं विवस्वता तात छन्नेनोत्तमतेजसा / निर्दग्धाः शत्रवः सर्वे वसता भुवि सर्वशः // 17 विष्णुना वसता चापि गृहे दशरथस्य वै / दशग्रीवो हतश्छन्नं संयुगे भीमकर्मणा // 18 एवमेते महात्मानः प्रच्छन्नास्तत्र तत्र ह / अजयञ्शात्रवान्युद्धे तथा त्वमपि जेष्यसि // 19 तथा धौम्येन धर्मज्ञो वाक्यैः संपरितोषितः / शास्त्रबुद्ध्या स्वबुद्ध्या च न चचाल युधिष्ठिरः॥२० अथाब्रवीन्महाबाहुर्भीमसेनो महाबलः / राजानं बलिनां श्रेष्ठो गिरा संपरिहर्षयन् // 21 अवेक्षया महाराज तव गाण्डीवधन्वना / धर्मानुगतया बुद्ध्या न किंचित्साहसं कृतम् // 22 शक्तौ विध्वंसने तेषां शत्रुघ्नौ भीमविक्रमौ // 23 न वयं तत्प्रहास्यामो यस्मिन्योक्ष्यति नो भवान् / भवान्विधत्तां तत्सर्वं क्षिप्रं जेष्यामहे परान् // 24 इत्युक्ते भीमसेनेन ब्राह्मणाः परमाशिषः / प्रयुज्यापृच्छय भरतान्यथास्वान्स्वान्यप॒हान् // 25 सर्वे वेदविदो मुख्या यतयो मुनयस्तथा / आशीरुक्त्वा यथान्यायं पुनर्दर्शनकाङ्गिणः // 26 सह धौम्येन विद्वांसस्तथा ते पञ्च पाण्डवाः। . उत्थाय प्रययुर्वीराः कृष्णामादाय भारत // 27 क्रोशमात्रमतिक्रम्य तस्माद्देशान्निमित्ततः। ' श्वोभूते मनुजव्याघ्राश्छन्नवासार्थमुद्यताः // 28 पृथक्शास्त्रविदः सर्वे सर्वे मत्रविशारदाः / संधिविग्रहकालज्ञा मत्राय समुपाविशन् // 29 इति श्रीमहाभारते भारण्यकपर्वणि एकोनत्रिशततमोऽध्यायः // 299 // ॥समाप्तमारणेयपर्व // // समाप्तमारण्यकपर्व //
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________________ विराटपर्व वत्स्यामो यत्र राजेन्द्र संवत्सरमिमं वयम् // 10 जनमेजय उवाच। युधिष्ठिर उवाच / कथं विराटनगरे मम पूर्वपितामहाः। एवमेतन्महाबाहो यथा स भगवान्प्रभुः / अज्ञातवासमुषिता दुर्योधनभयार्दिताः // 1 / अब्रवीत्सर्वभूतेशस्तत्तथा न तदन्यथा // 11 वैशंपायन उवाच। अवश्यं त्वेव वासार्थ रमणीयं शिवं सुखम् / तथा तु स वराल्लब्ध्वा धर्माद्धर्मभृतां वरः / / संमन्य सहितैः सर्वैर्द्रष्टव्यमकुतोभयम् // 12 गत्वाश्रमं ब्राह्मणेभ्य आचख्यौ सर्वमेव तत् // 2 मत्स्यो विराटो बलवानभिरक्षेत्स पाण्डवान् / कथयित्वा तु तत्सर्वं ब्राह्मणेभ्यो युधिष्ठिरः / धर्मशीलो वदान्यश्च वृद्धश्च सुमहाधनः / / 13 अरणीसहितं तस्मै ब्राह्मणाय न्यवेदयत् // 3 विराटनगरे तात संवत्सरमिमं वयम् / ततो युधिष्ठिरो राजा धर्मपुत्रो महामनाः / कुर्वन्तस्तस्य कर्माणि विहरिष्याम भारत // 14 संनिवानुजान्सर्वानिति होवाच भारत // 4 यानि यानि च कर्माणि तस्य शक्ष्यामहे वयम् / द्वादशेमानि वर्षाणि राष्ट्राद्विप्रोषिता वयम् / कर्तुं यो यत्स तत्कर्म ब्रवीतु कुरुनन्दनाः / / 15 त्रयोदशोऽयं संप्राप्तः कृच्छ्रः परमदुर्वसः // 5 अर्जुन उवाच।। स साधु कौन्तेय इतो वासमर्जुन रोचय। . नरदेव कथं कर्म राष्ट्रे तस्य करिष्यसि / यत्रेमा वसतीः सर्वा वसेमाविदिताः परैः // 6 विराटनृपतेः साधो रंस्यसे केन कर्मणा // 16 . अर्जुन उवाच / मृदुर्वदान्यो ह्रीमांश्च धार्मिकः सत्यविक्रमः / तस्यैव वरदानेन धर्मस्य मनुजाधिप / राजंस्त्वमापदा क्लिष्टः किं करिष्यसि पाण्डव॥१७ अज्ञाता विचरिष्यामो नराणां भरतर्षभ // 7 न दुःखमुचितं किंचिद्राजन्वेद यथा जनः / किं तु वासाय राष्ट्राणि कीर्तयिष्यामि कानिचित् / स इमामापदं प्राप्य कथं घोरां तरिष्यसि // 18 . रमणीयानि गुप्तानि तेषां किंचित्स्म रोचय // 8 युधिष्ठिर उवाच / सन्ति रम्या जनपदा बन्नाः परितः कुरून् / शृणुध्वं यत्करिष्यामि कर्म वै कुरुनन्दनाः / पाञ्चालाश्चेदिमत्स्याश्च शूरसेनाः पटच्चराः। विराटमनुसंप्राप्य राजानं पुरुषर्षभम् // 19 दशार्णा नवराष्ट्रं च मल्लाः शाल्वा युगंधराः॥ 9 / सभास्तारो भविष्यामि तस्य राज्ञो महात्मनः / एतेषां कतमो राजनिवासस्तव रोचते / कङ्को नाम द्विजो भूत्वा मताक्षः प्रियदेविता // 20 म. भा. 101 - 801 -
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________________ 4. 1. 21] महाभारते [ 4. 2. 23 वैडूर्यान्काञ्चनान्दान्तान्फलैर्योतीरसैः सह। सोऽयं किं कर्म कौन्तेयः करिष्यति धनंजयः॥१० कृष्णाक्षाललोहिताक्षांश्च निर्वामि मनोरमान / योऽयमासाद्य तं दावं तर्पयामास पावकम् / आसं युधिष्ठिरस्याहं पुरा प्राणसमः सखा / विजित्यैकरथेनेन्द्रं हत्वा पन्नगराक्षसान् / इति वक्ष्यामि राजानं यदि मामनुयोक्ष्यते // 22 श्रेष्ठः प्रतियुधां नाम सोऽर्जुनः किं करिष्यति // 11 इत्येतद्वो मयाख्यातं विहरिष्याम्यहं यथा। सूर्यः प्रतपतां श्रेष्ठो द्विपदां ब्राह्मणो वरः। वृकोदर विराटे त्वं रंस्यसे केन कर्मणा // 23 आशीविषश्च सर्पाणामग्निस्तेजस्विनां वरः // 12 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥१॥ आयुधानां वरो वज्रः ककुद्मी च गवां वरः / ह्रदानामुदधिः श्रेष्ठः पर्जन्यो वर्षतां वरः // 13 भीम उवाच / धृतराष्ट्रश्च नागानां हस्तिष्वैरावतो वरः / पौरोगवो ब्रुवाणोऽहं बल्लवो नाम नामतः / पुत्रः प्रियाणामधिको भार्या च सुहृदां वरा // 14 उपस्थास्यामि राजानं विराटमिति मे मतिः // 1 यथैतानि विशिष्टानि जात्यां जात्यां वृकोदर / सूपानस्य करिष्यामि कुशलोऽस्मि महानसे / एवं युवा गुडाकेशः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम् // 15 कृतपूर्वाणि यैरस्य व्यञ्जनानि सुशिक्षितैः। सोऽयमिन्द्रादनवरो वासुदेवाच्च भारत / तानप्यभिभविष्यामि प्रीतिं संजनयन्नहम् / / 2 / गाण्डीवधन्वा श्वेताश्वो बीभत्सुः किं करिष्यति॥१६ आहरिष्यामि दारूणां निचयान्महतोऽपि च / उषित्वा पञ्च वर्षाणि सहस्राक्षस्य वेश्मनि / तत्प्रेक्ष्य विपुलं कर्म राजा प्रीतो भविष्यति / / 3 दिव्यान्यस्त्राण्यवाप्तानि देवरूपेण भास्वता // 17 द्विपा वा बलिनो राजन्वृषभा वा महाबलाः / यं मन्ये द्वादशं रुद्रमादित्यानां त्रयोदशम् / / विनिग्राह्या यदि मया निग्रहीष्यामि तानपि // 4 यस्य बाहू समौ दीघौ ज्याघातकठिनत्वचौ / ये च केचिन्नियोत्स्यन्ति समाजेषु नियोधकाः। दक्षिणे चैव सव्ये च गवामिव वहः कृतः // 18 तानहं निहनिष्यामि प्रीतिं तस्य विवर्धयन् // 5 हिमवानिव शैलानां समुद्रः सरितामिव / न त्वेतान्युध्यमानान्वै हनिष्यामि कथंचन / त्रिदशानां यथा शक्रो वसूनामिव हव्यवाट् // 19 तथैतान्पातयिष्यामि यथा यास्यन्ति न क्षयम् // 6 मृगाणानामिव शार्दूलो गरुडः पततामिव / आरालिको गोविकर्ता सूपकर्ता नियोधकः।। वरः संनयमानानामर्जुनः किं करिष्यति / / 20 आसं युधिष्ठिरस्याहमिति वक्ष्यामि पृच्छतः // 7 अर्जुन उवाच / आत्मानमात्मना रक्षंश्चरिष्यामि विशां पते / प्रतिज्ञां षण्ढकोऽस्मीति करिष्यामि महीपते / इत्येतत्प्रतिजानामि विहरिष्याम्यहं यथा // 8 ज्याघातौ हि महान्तौ मे संवर्तुं नृप दुष्करौ // 21 युधिष्ठिर उवाच / कर्णयोः प्रतिमुच्याहं कुण्डले ज्वलनोपमे। यमग्निर्ब्राह्मणो भूत्वा समागच्छन्नृणां वरम्। वेणीकृतशिरा राजन्नाम्ना चैव बृहन्नडा // 22 दिधक्षुः खाण्डवं दावं दाशार्हसहितं पुरा // 9 पठन्नाख्यायिकां नाम स्त्रीभावेन पुनः पुनः / महाबलं महाबाहुमजितं कुरुनन्दनम् / रमयिष्ये महीपालमन्यांश्चान्तःपुरे जनान् / / 23 -802 -
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________________ 4. 2. 24 ] विराटपर्व [4. 4. 1 गीतं नृत्तं विचित्रं च वादित्रं विविधं तथा / लक्षणं चरितं चापि गवां यच्चापि मङ्गलम् / शिक्षयिष्याम्यहं राजविराटभवने स्त्रियः॥ 24 तत्सर्वं मे सुविदितमन्यच्चापि महीपते // 9 प्रजानां समुदाचारं बहु कर्मकृतं वदन् / वृषभानपि जानामि राजन्पूजितलक्षणान् / छादयिष्यामि कौन्तेय माययात्मानमात्मना // 25 येषां मूत्रमुपाघ्राय अपि वन्ध्या प्रसूयते // 10 युधिष्ठिरस्य गेहेऽस्मि द्रौपद्याः परिचारिका। . सोऽहमेवं चरिष्यामि प्रीतिरत्र हि मे सदा। .. उषितास्मीति वक्ष्यामि पृष्टो राज्ञा च भारत // 26 / न च मां वेत्स्यति परस्तत्ते रोचतु पार्थिव // 11 एतेन विधिना छन्नः कृतकेन यथा नलः / युधिष्ठिर उवाच।। विहरिष्यामि राजेन्द्र विराटभवने सुखम् / / 27 | इयं तु नः प्रिया भार्या प्राणेभ्योऽपि गरीयसी / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः // 2 // मातेव परिपाल्या च पूज्या ज्येष्ठेव च स्वसा / / 12 केन स्म कर्मणा कृष्णा द्रौपदी विचरिष्यति / युधिष्ठिर उवाच / न हि किंचिद्विजानाति कर्म कर्तुं यथा स्त्रियः // 13 किं त्वं नकुल कुर्वाणस्तत्र तात चरिष्यसि / सुकुमारी च बाला च राजपुत्री यशस्विनी / सुकुमारश्च शूरश्च दर्शनीयः सुखोचितः // 1 पतिव्रता महाभागा कथं नु विचरिष्यति // 14 नकुल उवाच / माल्यगन्धानलंकारान्वस्त्राणि विविधानि च / अश्वबन्धो भविष्यामि विराटनृपतेरहम् / एतान्येवाभिजानाति यतो जाता हि भामिनी॥१५ प्रन्थिको नाम नाम्नाहं कर्मैतत्सुप्रियं मम // 2 द्रौपद्युवाच / कुशलोऽस्म्यश्वशिक्षायां तथैवाश्वचिकित्सिते / सैरन्ध्योऽरक्षिता लोके भुजिष्याः सन्ति भारत / प्रियाश्च सततं मेऽश्वाः कुरुराज यथा तव / / 3 नैवमन्याः स्त्रियो यान्ति इति लोकस्य निश्चयः॥१६ ये मामामत्रयिष्यन्ति विराटनगरे जनाः। . साहं ब्रुवाणा सैरन्ध्री कुशला केशकर्मणि / तेभ्य एवं प्रवक्ष्यामि विहरिष्याम्यहं यथा // 4 आत्मगुप्ता चरिष्यामि यन्मां त्वमनुपृच्छसि // 17 युधिष्ठिर उवाच / सुदेष्णां प्रत्युपस्थास्ये राजभायां यशस्विनीम् / सहदेव कथं तस्य समीपे विहरिष्यसि / सारक्षिष्यति मां प्राप्तां मा ते भूदुःखमीदृशम्॥१८ किं वा त्वं तात कुर्वाणः प्रच्छन्नो विचरिष्यसि // 5 युधिष्ठिर उवाच / सहदेव उवाच / कल्याणं भाषसे कृष्णे कुले जाता यथा वदेत् / गोसंख्याता भविष्यामि विराटस्य महीपतेः। न पापमभिजानासि साधु साध्वीव्रते स्थिता // 19 प्रतिषेद्धा च दोग्धा च संख्याने कुशलो गवाम् // 6 / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि तृतीयोऽध्यायः // 3 // तन्तिपाल इति ख्यातो नाम्ना विदितमस्तु ते / निपुणं च चरिष्यामि व्येतु ते मानसो ज्वरः // 7 युधिष्ठिर उवाच / अहं हि भवता गोषु सततं प्रकृतः पुरा। कर्माण्युक्तानि युष्माभिर्यानि तानि करिष्यथ / तत्र मे कौशलं कर्म अवबुद्धं विशां पते // 8 मम चापि यथाबुद्धि रुचितानि विनिश्चयात् // 1 - 803 -
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________________ 4. 4. 2] महाभारते [4. 4. 30 पुरोहितोऽयमस्माकमग्निहोत्राणि रक्षतु / अनृतेनोपचीर्णो हि हिंस्यादेनमसंशयम् // 16 सूदपौरोगवैः सार्धं द्रुपदस्य निवेशने // 2 यच्च भर्तानुयुञ्जीत तदेवाभ्यनुवर्तयेत् / इन्द्रसेनमुखाश्चेमे रथानादाय केवलान् / प्रमादमवहेलां च कोपं च परिवर्जयेत् // 17 यान्तु द्वारवतीं शीघ्रमिति मे वर्तते मतिः // 3 समर्थनासु सर्वासु हितं च प्रियमेव च / इमाश्च नार्यो द्रौपद्याः सर्वशः परिचारिकाः / संवर्णयेत्तदेवास्य प्रियादपि हितं वदेत् // 18 पाञ्चालानेव गच्छन्तु सूदपौरोगवैः सह // 4 अनुकूलो भवेच्चास्य सर्वार्थेषु कथासु च / / सर्वैरपि च वक्तव्यं न प्रज्ञायन्त पाण्डवाः / अप्रियं चाहितं यत्स्यात्तदस्मै नानुवर्णयेत् // 19 गता ह्यस्मानपाकीर्य सर्वे द्वैतवनादिति / / 5 नाहमस्य प्रियोऽस्मीति मत्वा सेवेत पण्डितः / धौम्य उवाच / अप्रमत्तश्च यत्तश्च हितं कुर्यात्रियं च यत् // 20 विदिते चापि वक्तव्यं सुहृद्भिरनुरागतः / नास्यानिष्टानि सेवेत नाहितैः सह संवसेत् / अतोऽहमपि वक्ष्यामि हेतुमानं निबोधत // 6 स्वस्थानान्न विकम्पेत स राजवसतिं वसेत् / / 21 हन्तेमां राजवसतिं राजपुत्रा ब्रवीमि वः / दक्षिणं वाथ वामं वा पार्थमासीत पण्डितः / यथा राजकुलं प्राप्य चरन्प्रेष्यो न रिष्यति // 7 रक्षिणां ह्यात्तशस्त्राणां स्थानं पश्चाद्विधीयते / दुर्वसं त्वेव कौरव्या जानता राजवेश्मनि / / नित्यं विप्रतिषिद्धं तु पुरस्तादासनं महत् / / 22 अमानितैः सुमानार्हा अज्ञातैः परिवत्सरम् // 8 न च संदर्शने किंचित्प्रवृद्धमपि संजपेत् / दिष्टद्वारो लभेहारं न च राजसु विश्वसेत् / अपि ह्येतद्दरिद्राणां व्यलीकस्थानमुत्तमम् / / 23 तदेवासनमन्विच्छेद्यत्र नाभिषजेत्परः॥९ न मृषाभिहितं राज्ञो मनुष्येषु प्रकाशयेत् / नास्य यानं न पर्यत न पीठं न गजं रथम् / / यं चासूयन्ति राजानः पुरुषं न वदेच तम् // 24 आरोहेत्संमतोऽस्मीति स राजवसतिं वसेत् / / 10 शूरोऽस्मीति न दृप्तः स्याद्बुद्धिमानिति वा पुनः / अथ यत्रैनमासीनं शङ्करन्दुष्टचारिणः / प्रियमेवाचरन्राज्ञः प्रियो भवति भोगवान् // 25 न तत्रोपविशेज्जातु स राजवसतिं वसेत् // 11 ऐश्वर्यं प्राप्य दुष्प्रापं प्रियं प्राप्य च राजतः / न चानुशिष्येद्राजानमपृच्छन्तं कदाचन / अप्रमत्तो भवेद्राज्ञः प्रियेषु च हितेषु च // 26 तूष्णीं त्वेनमुपासीत काले समभिपूजयन् // 12 यस्य कोपो महाबाधः प्रसादश्च महाफलः / असूयन्ति हि राजानो जनाननृतवादिनः / कस्तस्य मनसापीच्छेदनर्थं प्राज्ञसंमतः // 27 तथैव चावमन्यन्ते मत्रिणं वादिनं मृषा // 13 न चोष्टी निर्भुजेज्जातु न च वाक्यं समाक्षिपेत् / नैषां दारेषु कुर्वीत मैत्री प्राज्ञः कथंचन / सदा क्षुतं च वातं च ष्ठीवनं चाचरेच्छनैः।।२८ अन्तःपुरचरा ये च द्वेष्टि यानहिताश्च ये॥ 14 हास्यवस्तुषु चाप्यस्य वर्तमानेषु केषुचित् / विदिते चास्य कुर्वीत कार्याणि सुलघून्यपि / नातिगाढं प्रहृष्येत न चाप्युन्मत्तवद्धसेत् // 29 एवं विचरतो राज्ञो न क्षतिर्जायते क्वचित् // 15 न चातिधैर्येण चरेद्गुरुतां हि व्रजेत्तथा / यत्नाच्चोपचरेदेनमग्निवद्देववञ्च ह। स्मितं तु मृदुपूर्वेण दर्शयेत प्रसादजम् // 30 -804 -
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________________ 4. 4. 31] विराटपर्व . [4. 5.8 लाभे न हर्षयेद्यस्तु न व्यथेद्योऽवमानितः / कुन्तीमृते मातरं नो विदुरं च महामतिम् // 45 असंमूढश्च यो नित्यं स राजवसतिं वसेत् // 31 यदेवानन्तरं कार्यं तद्भवान्कर्तुमर्हति / राजानं राजपुत्रं वा संवर्तयति यः सदा।। तारणायास्य दुःखस्य प्रस्थानाय जयाय च 46 अमात्यः पण्डितो भूत्वा स चिरं तिष्ठति श्रियम् // 32 वैशंपायन उवाच / प्रगृहीतश्च योऽमात्यो निगृहीतश्च कारणैः / / एवमुक्तस्ततो राज्ञा धौम्योऽथ द्विजसत्तमः। न निर्बध्नाति राजानं लभते प्रग्रहं पुनः // 33 / अकरोद्विधिवत्सर्वं प्रस्थाने यद्विधीयते // 47 : प्रत्यक्षं च परोक्षं च गुणवादी विचक्षणः / तेषां समिध्य तानग्नीन्मत्रवच्च जुहाव सः।। उपजीवी भवेद्राज्ञो विषये चापि यो वसेत् / / 34 समृद्धिवृद्धिलाभाय पृथिवीविजयाय च // 48 अमात्यो हि बलाद्भोक्तुं राजानं प्रार्थयेत्तु यः। अग्निं प्रदक्षिणं कृत्वा ब्राह्मणांश्च तपोधनान् / न स तिष्ठेच्चिरं स्थानं गच्छेच्च प्राणसंशयम् // 35 / याज्ञसेनी पुरस्कृत्य षडेवाथ प्रवव्रजुः // 49 . श्रेयः सदात्मनो दृष्ट्वा परं राज्ञा न संवदेत् / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि चतुर्थोऽध्यायः // 4 // विशेषयन्न राजानं योग्याभूमिषु सर्वदा.॥ 36 अम्लानो बलवाशूरश्छायेवानपगः सदा / वैशंपायन उवाच / सत्यवादी मृदुर्दान्तः स राजवसतिं वसेत् // 37 ते वीरा बद्धनिस्त्रिंशास्ततायुधकलापिनः / अन्यस्मिन्प्रेष्यमाणे तु पुरस्ताद्यः समुत्पतेत् / / बद्धगोधाङ्गुलित्राणाः कालिन्दीमभितो ययुः // 1 अहं किं करवाणीति स राजवसतिं वसेत् / / 38 / ततस्ते दक्षिणं तीरमन्वगच्छन्पदातयः। उष्णे वा यदि वा शीते रात्रौ वा यदि वा दिया। वसन्तो गिरिदुर्गेषु वनदुर्गेषु धन्विनः // 2 आदिष्टो न विकल्पेत स राजवसतिं वसेत् / / 39 | विध्यन्तो मृगजातानि महेष्वासा महाबलाः। यो वै गृहेभ्यः प्रवसन्प्रियाणां नानुसंस्मरेत् / / उत्तरेण दशार्णास्ते पाश्चालान्दक्षिणेन तु // 3 : दुःखेन. सुखमन्विच्छेत्स राजवसतिं वसेत् // 40 अन्तरेण यकृल्लोमाशूरसेनांश्च पाण्डवाः / / समवेषं न कुर्वीत नात्युच्चैः संनिधौ हसेत्। लुब्धा ब्रुवाणा मत्स्यस्य विषयं प्राविशन्वनात् // 4 मन्त्रं न बहुधा कुर्यादेवं राज्ञः प्रियो भवेत् // 41 / ततो जनपदं प्राप्य कृष्णा राजानमब्रवीत्।। न कर्मणि नियुक्तः सन्धनं किंचिदुपस्पृशेत् / पश्यैकपद्यो दृश्यन्ते क्षेत्राणि विविधानि च // 5: प्राप्नोति हि हरन्द्रव्यं बन्धनं यदि वा वधम् // 42 व्यक्तं दूरे विराटस्य राजधानी भविष्यति। यानं वस्त्रमलंकारं यच्चान्यत्संप्रयच्छति / वसामेह परां रात्रिं बलवान्मे परिश्रमः॥ 6 : तदेव धारयेन्नित्यमेवं प्रियतरो भवेत् // 43 युधिष्ठिर उवाच / संवत्सरमिमं तात तथाशीला बुभूषवः / धनंजय समुद्यम्य पाञ्चालीं वह भारत / अथ स्वविषयं प्राप्य यथाकामं चरिष्यथ // 44 / राजधान्यां निवत्स्यामो विमुक्ताश्च वनादितः॥ 7. युधिष्ठिर उवाच / वैशंपायन उवाच / अनुशिष्टाः स्म भद्रं ते नैतद्वक्तास्ति कश्चन। तामादायार्जुनस्तूर्णं द्रौपदीं गजराडिव / - 805 -
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________________ 4. 5. 8] महाभारते [4. 6.2 संप्राप्य नगराभ्याशमवतारयदर्जुनः // 8 तस्य मौर्वीमपाकर्षच्छूरः संक्रन्दनो युधि // 22 स राजधानी संप्राप्य कौन्तेयोऽर्जुनमब्रवीत् / दक्षिणां दक्षिणाचारो दिशं येनाजयत्प्रभुः / क्वायुधानि समासज्य प्रवेक्ष्यामः पुरं वयम् // 9 अपज्यमकरोद्वीरः सहदेवस्तदायुधम् // 23 सायुधाश्च वयं तात प्रवेक्ष्यामः पुरं यदि। खगांश्च पीतान्दीर्घाश्च कलापांश्च महाधनान् / समुद्वेगं जनस्यास्य करिष्यामो न संशयः / / 10 विपाठान्क्षुरधारांश्च धनुर्भिनिदधुः सह // 24 ततो द्वादश वर्षाणि प्रवेष्टव्यं वनं पुनः / तामुपारुह्य नकुलो धनषि निदधत्स्वयम् / .. एकस्मिन्नपि विज्ञाते प्रतिज्ञातं हि नस्तथा // 11 यानि तस्यावकाशानि दृढरूपाण्यमन्यत // 25 अर्जुन उवाच / यत्र चापश्यत स वै तिरो वर्षाणि वर्षति / इयं कूटे मनुष्येन्द्र गहना महती शमी / तत्र तानि दृढैः पाशैः सुगाढं पर्यबन्धत // 26 भीमशाखा दुरारोहा श्मशानस्य समीपतः // 12 शरीरं च मृतस्यैकं समबध्नन्त पाण्डवाः / न चापि विद्यते कश्चिन्मनुष्य इह पार्थिव / विवर्जयिष्यन्ति नरा दूरादेव शमीमिमाम् / उत्पथे हि वने जाता मृगव्यालनिषेविते // 13 आबद्धं शवमत्रेति गन्धमाघ्राय पूतिकम् / / 27 समासज्यायुधान्यस्यां गच्छामो नगरं प्रति / अशीतिशतवर्षेयं माता न इति वादिनः / एवमत्र यथाजोषं विहरिष्याम भारत // 14 कुलधर्मोऽयमस्माकं पूर्वैराचरितोऽपि च / वैशंपायन उवाच / समासजाना वृक्षेऽस्मिन्निति वै व्याहरन्ति ते // 28 एवमुक्त्वा स राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / आ गोपालाविपालेभ्य आचक्षाणाः परंतपाः / प्रचक्रमे निधानाय शस्त्राणां भरतर्षभ // 15 आजग्मुर्नगराभ्याशं पार्थाः शत्रुनिबर्हणाः // 29 येन देवान्मनुष्यांश्च सांश्चैकरथोऽजयत् / जयो जयन्तो विजयो जयत्सेनो जयद्बलः / स्फीताञ्जनपदांश्चान्यानजयत्कुरुनन्दनः॥ 16 इति गुह्यानि नामानि चक्रे तेषां युधिष्ठिरः // 30 तदुदारं महाघोषं सपत्नगणसूदनम् / ततो यथाप्रतिज्ञाभिः प्राविशन्नगरं महत् / अपज्यमकरोत्पार्थो गाण्डीवमभयंकरम् // 17 अज्ञातचर्यां वत्स्यन्तो राष्ट्र वर्षं त्रयोदशम् // 31 येन वीरः कुरुक्षेत्रमभ्यरक्षत्परंतपः / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः // 5 // अमुश्चद्धनुषस्तस्य ज्यामक्षय्यां युधिष्ठिरः // 18 पाञ्चालान्येन संग्रामे भीमसेनोऽजयत्प्रभुः / वैशंपायन उवाच / प्रत्यषेधदहूनेकः सपत्नांश्चैव दिग्जये // 19 ततो विराटं प्रथमं युधिष्ठिरो निशम्य यस्य विस्फारं व्यद्रवन्त रणे परे। ___ राजा सभायामुपविष्टमाव्रजत् / पर्वतस्येव दीर्णस्य विस्फोटमशनेरिव // 20 वैडूर्यरूपान्प्रतिमुच्य काञ्चनासैन्धवं येन राजानं परामृषत चानघ / नक्षान्स कक्षे परिगृह्य वाससा // 1 ज्यापाशं धनुषस्तस्य भीमसेनोऽवतारयत् // 21 नराधिपो राष्ट्रपतिं यशस्विनं अजयत्पश्चिमामाशां धनुषा येन पाण्डवः / महायशाः कौरववंशवर्धनः / -806 -
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________________ 4. 6. 2] विराटपर्व [4. 6. 15 महानुभावो नरराजसत्कृतो गोत्रं च नामापि च शंस तत्त्वतः दुरासदस्तीक्ष्णविषो यथोरगः // 2 किं चापि शिल्पं तव विद्यते कृतम् // 9 बलेन रूपेण नरर्षभो महा युधिष्ठिर उवाच / नथार्चिरूपेण यथामरस्तथा। युधिष्ठिरस्यासमहं पुरा सखा महाभ्रजालैरिव संवृतो रवि वैयाघ्रपद्यः पुनरस्मि ब्राह्मणः / यथानलो भस्मवृतश्च वीर्यवान् // 3 अक्षान्प्रवप्तुं कुशलोऽस्मि देविता तमापतन्तं प्रसमीक्ष्य पाण्डवं कङ्केति नाम्नास्मि विराट विश्रुतः // 10 विराटराडिन्दुमिवाभ्रसंवृतम्। विराट उवाच। मब्रिद्विजान्सतमुखान्विशस्तथा ददामि ते हन्त वरं यमिच्छसि ये चापि केचित्परिषत्समासते। . प्रशाधि मत्स्यान्वशगो ह्यहं तव / पप्रच्छ कोऽयं प्रथमं समेयिवा प्रिया हि धूर्ता मम देविनः सदा __ननेन योऽयं प्रसमीक्षते सभाम् // 4 भवांश्च देवोपम राज्यमर्हति // 11 न तु द्विजोऽयं भविता नरोत्तमः युधिष्ठिर उवाच / ___ पतिः पृथिव्या इति मे मनोगतम् / आप्तो विवादः परमो विशां पते न चास्य दासो न रथो न कुण्डले न विद्यते किंचन मत्स्य हीनतः / समीपतो भ्राजति चायमिन्द्रवत् // 5 न मे जितः कश्चन धारयेद्धनं शरीरलिङ्गैरुपसूचितो ह्ययं वरो ममैषोऽस्तु तव प्रसादतः // 12 ___ मूर्धाभिषिक्तोऽयमितीव मानसम् / विराट उवाच। समीपमायाति च मे गतव्यथो हन्यामवध्यं यदि तेऽप्रियं चरे'यथा गजस्तामरसीं मदोत्कटः॥ 6 प्रव्राजयेयं विषयाहिजास्तथा / वितर्कयन्तं तु नरर्षभस्तदा शृण्वन्तु मे जानपदाः समागताः युधिष्ठिरोऽभ्येत्य विराटमब्रवीत् / कको यथाहं विषये प्रभुस्तथा // 13 सम्राडिजानात्विह जीवितार्थिनं समानयानो भवितासि मे सखा .. विनष्टसर्वस्वमुपागतं द्विजम् // 7 __ प्रभूतवस्रो बहुपानभोजनः। इहाहमिच्छामि तवानघान्तिके पश्येस्त्वमन्तश्च बहिश्च सर्वदा वस्तुं यथा कामचरस्तथा विभो / ___ कृतं च ते द्वारमपावृतं मया // 14 तमब्रवीत्स्वागतमित्यनन्तरं ये त्वानुवादेयुरवृत्तिकर्शिता राजा प्रहृष्टः प्रतिसंगृहाण च // 8 ब्रयाश्च तेषां वचनेन मे सदा / / कामेन ताताभिवदाम्यहं त्वां दास्यामि सर्वं तदहं न संशयो .. कस्यासि राज्ञो विषयादिहागतः / न ते भयं विद्यति संनिधौ मम // 15 -807 -
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________________ 4. 6. 16 ] महाभारते [4. 8. 1 वैशंपायन उवाच / सहस्रनेत्रप्रतिमो हि दृश्यसे। एवं स लब्ध्वा तु वरं समागमं श्रिया च रूपेण च विक्रमेण च विराटराजेन नरर्षभस्तदा। प्रभासि तातानवरो नरेष्विह // 6 उवास वीरः परमार्चितः सुखी भीम उवाच / न चापि कश्चिञ्चरितं बुबोध तत् // 16 नरेन्द्र सूदः परिचारकोऽस्मि ते इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि षष्ठोऽध्यायः // 6 // जानामि सपान्प्रथमेन केवलान् / आस्वादिता ये नृपते पुराभववैशंपायन उवाच / न्युधिष्ठिरेणापि नृपेण सर्वशः // 7 अथापरो भीमबलः श्रिया ज्वल बलेन तुल्यश्च न विद्यते मया नुपाययौ सिंहविलासविक्रमः / नियुद्धशीलश्च सदैव पार्थिव / . खजं च दर्वी च करेण धारय गजैश्च सिंहैश्च समेयिवानहं नसिं च कालाङ्गमकोशमव्रणम् / / 1 सदा करिष्यामि तवानघ प्रियम् // 8 स सूदरूपः परमेण वर्चसा विराट उवाच / __ रविर्यथा लोकमिमं प्रभासयन् / ददामि ते हन्त वरं महानसे सुकृष्णवासा गिरिराजसारवा तथा च कुर्याः कुशलं हि भाषसे / ___ स मत्स्यराजं समुपेत्य तस्थिवान् // 2 न चैव मन्ये तव कर्म तत्समं तं प्रेक्ष्य राजा वरयन्नुपागतं समुद्रनेमि पृथिवीं त्वमर्हसि // 9 ___ ततोऽब्रवीज्जानपदान्समागतान् / यथा हि कामस्तव तत्तथा कृतं सिंहोन्नतांसोऽयमतीव रूपवा ___महानसे त्वं भव मे पुरस्कृतः / प्रदृश्यते को नु नरर्षभो युवा // 3 नराश्च ये तत्र ममोचिताः पुरा अदृष्टपूर्वः पुरुषो रविर्यथा .. भवस्व तेषामधिपो मया कृतः // 10 वितर्कयन्नास्य लभामि संपदम् / वैशंपायन उवाच / तथास्य चित्तं ह्यपि संवितर्कय तथा स भीमो विहितो महानसे नरर्षभस्याद्य न यामि तत्त्वतः // 4 __विराटराज्ञो दयितोऽभवदृढम् / ततो विराटं समुपेत्य पाण्डवः उवास राजन्न च तं पृथग्जनो सुदीनरूपो वचनं महामनाः / बुबोध तत्रानुचरश्च कश्चन // 11 उवाच सूदोऽस्मि नरेन्द्र बल्लवो इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि सप्तमोऽध्यायः // 7 // - भजस्व मां व्यञ्जनकारमुत्तमम् // 5 विराट उवाच / वैशंपायन उवाच / न सूदतां मानद श्रद्दधामि ते ततः केशान्समुत्क्षिप्य वेल्लितानाननिन्दितान् / -808 -
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________________ 4. 8. 1] . विराटपर्व [4. 8. 28 जुगूह दक्षिणे पार्श्वे मृदूनसितलोचना // 1 / द्रौपद्युवाच / वासश्च परिधायैकं कृष्णं सुमलिनं महत् / नास्मि देवी न गन्धर्वी नासुरी न च राक्षसी। कृत्वा वेषं च सैरन्ध्याः कृष्णा व्यचरदार्तवत् // 2 सैरन्ध्री तु भुजिष्यास्मि सत्यमेतद्भवीमि ते // 15 तां नराः परिधावन्ती स्त्रियश्च समुपाद्रवन् / केशाञ्जानाम्यहं कर्तुं पिंषे साधु विलेपनम् / . अपृच्छंश्चैव तां दृष्ट्वा का त्वं किं च चिकीर्षसि // 3 प्रथयिष्ये विचित्राश्च स्रजः परमशोभनाः // 16 सा तानुवाच राजेन्द्र सैरन्ध्रयहमुपागता। आराधयं सत्यभामा कृष्णस्य महिषीं प्रियाम् / / कर्म चेच्छामि वै कर्तुं तस्य यो मां पुपुक्षति // 4 कृष्णां च भार्यां पाण्डूनां कुरूणामेकसुन्दरीम्॥१७ तस्या रूपेण वेषेण श्लक्ष्णया च तथा गिरा / तत्र तत्र चराम्येवं लभमाना सुशोभनम् / नाश्रद्दधत तां दासीमन्नहेतोरुपस्थिताम् // 5 . वासांसि यावच्च लभे तावत्तावद्रमे तथा // 18 विराटस्य तु कैकेयी भार्या परमसंमता / मालिनीत्येव मे नाम स्वयं देवी चकार सा। अवलोकयन्ती ददृशे प्रासादामुपदात्मजाम् // 6 साहमभ्यागता देवि सुदेष्णे त्वन्निवेशनम् / / 19 सा समीक्ष्य तथारूपामनाथामेकवाससम् / सुदेष्णोवाच / / समाहूयाब्रवीद्भद्रे का त्वं किं च चिकीर्षसि // 7 मूर्ध्नि त्वां वासयेयं वै संशयो मे न विद्यते / सा तामुवाच राजेन्द्र सैरन्ध्यहमुपागता / नो चेदिह तु राजा त्वां गच्छेत्सर्वेण चेतसा॥२० कर्म चेच्छाम्यहं कर्तुं तस्य यो मां पुपुक्षति // 8 स्त्रियो राजकुले पश्य याश्चेमा मम वेश्मनि / सुदेष्णोवाच। प्रसक्तास्त्वां निरीक्षन्ते पुमांसं कं न मोहयेः॥२१ नैवंरूपा भवन्त्येवं यथा वदसि भामिनि / वृक्षांश्चावस्थितान्पश्य य इमे मम वेश्मनि / प्रेषयन्ति च वै दासीर्दासांश्चैवंविधान्बहून् // 9 तेऽपि त्वां संनमन्तीव पुमांसं कं न मोहयेः // 22 राजा विराटः सुश्रोणि दृष्ट्वा वपुरमानुषम् / गूढगुल्फा संहतोरुस्त्रिगम्भीरा षडुन्नता। विहाय मां वरारोहे त्वां गच्छेत्सर्वचेतसा // 23 रक्ता पञ्चसु रक्तेषु हंसगद्गदभाषिणी // 10 यं हि त्वमनवद्याङ्गि नरमायतलोचने / सुकेशी सुस्तनी श्यामा पीनश्रोणिपयोधरा / प्रसक्तमभिवीक्षेथाः स कामवशगो भवेत् // 24 तेन तेनैव संपन्ना काश्मीरीव तुरंगमा // 11 यश्च त्वां सततं पश्येत्पुरुषश्चारुहासिनि / स्वरालपक्ष्मनयना बिम्बोष्ठी तनुमध्यमा। एवं सर्वानवद्याङ्गि स चानङ्गवशो भवेत् // 25 कम्बुग्रीवा गूढसिरा पूर्णचन्द्रनिभानना // 12 यथा कर्कटकी गर्भमाधत्ते मृत्युमात्मनः। का त्वं ब्रूहि यथा भद्रे नासि दासी कथंचन / तथाविधमहं मन्ये वासं तव शुचिस्मिते // 26 यक्षी वा यदि वा देवी गन्धर्वी यदि वाप्सराः॥१३ द्रौपद्युवाच। अलम्बुसा मिश्रकेशी पुण्डरीकाथ मालिनी। | नास्मि लभ्या विराटेन न चान्येन कथंचन / इन्द्राणी वारुणी वा त्वं त्वष्टुर्धातुः प्रजापतेः। / गन्धर्वाः पतयो मह्यं युवानः पञ्च भामिनि // 27 देव्यो देवेषु विख्यातास्तासां त्वं कतमा शुभे // 14 . पुत्रा गन्धर्वराजस्य महासत्त्वस्य कस्यचित् / म. भा. 102 - 809 -
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________________ 4. 8. 28 ] महाभारते [4. 9. 14 रक्षन्ति ते च मां नित्यं दुःखाचारा तथा न्वहम् // 28 विराट उवाच। यो मे न दद्यादुच्छिष्टं न च पादौ प्रधावयेत् / त्वं ब्राह्मणो यदि वा क्षत्रियोऽसि प्रीयेयुस्तेन वासेन गन्धर्वाः पतयो मम // 29 समुद्रनेमीश्वररूपवानसि। यो हि मां पुरुषो गृध्येद्यथान्याः प्राकृतस्त्रियः / आचक्ष्व मे तत्त्वममित्रकर्शन तामेव स ततो रात्रिं प्रविशेदपरां तनुम् // 30 ___ न वैश्यकर्म त्वयि विद्यते समम् // 6 न चाप्यहं चालयितुं शक्या केनचिदङ्गने / कस्यासि राज्ञो विषयादिहागतः | दुःखशीला हि गन्धर्वास्ते च मे बलवत्तराः॥३१ किं चापि शिल्पं तव विद्यते कृतम् / सुदेष्णोवाच / कथं त्वमस्मासु निवत्स्यसे सदा एवं त्वां वासयिष्यामि यथा त्वं नन्दिनीच्छसि / वदस्व किं चापि तवेह वेतनम् // 7 न च पादौ न चोच्छिष्टं स्प्रक्ष्यसि त्वं कथंचन // 32 सहदेव उवाच / वैशंपायन उवाच / पश्चानां पाण्डुपुत्राणां ज्येष्ठो राजा युधिष्ठिरः / एवं कृष्णा विराटस्य भार्यया परिसान्त्विता। तस्याष्टशतसाहस्रा गवां वर्गाः शतं शताः // 8 न चैनां वेद तत्रान्यस्तत्त्वेन जनमेजय / / 33 अपरे दशसाहस्रा द्विस्तावन्तस्तथापरे / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि अष्टमोऽध्यायः // 4 // तेषां गोसंख्य आसं वै तन्तिपालेति मां विदुः॥९ भूतं भव्यं भविष्यच्च यच्च संख्यागतं कचित् / वैशंपायन उवाच। न मेऽस्त्यविदितं किंचित्समन्ताद्दशयोजनम् // 10 सहदेवोऽपि गोपानां कृत्वा वेषमनुत्तमम् / गुणाः सुविदिता ह्यासन्मम तस्य महात्मनः / भाषां चैषां समास्थाय विराटमुपयादथ // 1 आसीच्च स मया तुष्टः कुरुराजो युधिष्ठिरः // 11 तमायान्तमभिप्रेक्ष्य भ्राजमानं नरर्षभम् / समुपस्थाय वै राजा पप्रच्छ कुरुनन्दनम् // 2 क्षिप्रं हि गावो बहुला भवन्ति कस्य वा त्वं कुतो वा त्वं किं वा तात चिकीर्षसि / . न तासु रोगो भवतीह कश्चित् / न हि मे दृष्टपूर्वस्त्वं तत्त्वं ब्रूहि नरर्षभ // 3 तैस्तैरुपायैर्विदितं मयैतस प्राप्य राजानममित्रतापन * देतानि शिल्पानि मयि स्थितानि // 12 ____स्ततोऽब्रवीन्मेघमहौघनिःस्वनः। वृषभांश्चापि जानामि राजन्पूजितलक्षणान् / वैश्योऽस्मि नाम्नाहमरिष्टनेमि येषां मूत्रमुपाघ्राय अपि वन्ध्या प्रसूयते // 13 \संख्य आसं कुरुपुंगवानाम् // 4 विराट उवाच। वस्तुं त्वयीच्छामि विशां वरिष्ठ शतं सहस्राणि समाहितानि तान्राजसिंहान्न हि वेद्मि पार्थान् / वर्णस्य वर्णस्य विनिश्चिता गुणैः / न शक्यते जीवितुमन्यकर्मणा पशून्सपालान्भवते ददाम्यहं न च त्वदन्यो मम रोचते नृपः॥ 5 / त्वदाश्रया मे पशवो भवन्त्विह // 14 -810 -
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________________ 4. 9. 15] विराटपर्व [4. 10. 18 वैशंपायन उवाच / आरुह्य यानं परिधावतां भवातथा स राज्ञोऽविदितो विशां पते ___ न्सुतैः समो मे भव वा मया समः॥६ उवास तत्रैव सुखं नरेश्वरः / वृद्धो ह्यहं वै परिहारकामः न चैनमन्येऽपि विदुः कथंचन ___ सर्वान्मत्स्यांस्तरसा पालयस्व / प्रादाच्च तस्मै भरणं यथेप्सितम् // 15 नैवंविधाः क्लीबरूपा भवन्ति इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि नवमोऽध्यायः // 9 // कथंचनेति प्रतिभाति मे मनः // 7 ___ अर्जुन उवाच। वैशंपायन उवाच। गायामि नृत्याम्यथ वादयामि अथापरोऽदृश्यत रूपसंपदा भद्रोऽस्मि नृत्ते कुशलोऽस्मि गीते / स्त्रीणामलंकारधरो बृहत्पुमान् / त्वमुत्तरायाः परिदत्स्व मां स्वयं प्राकारवप्रे प्रतिमुच्य कुण्डले __ भवामि देव्या नरदेव नर्तकः॥८. __ दीर्घ च कम्बू परिहाटके शुभे॥१ * इदं तु रूपं मम येन किं नु तबहूंश्च दीर्घाश्च विकीर्य मूर्धजा प्रकीर्तयित्वा भृशशोकवर्धनम् / न्महाभुजो वारणमत्तविक्रमः / बृहन्नडां वै नरदेव विद्धि मां गतेन भूमिमभिकम्पयंस्तदा सुतं सुतां वा पितृमातृवर्जिताम् // 9 विराटमासाद्य सभासमीपतः॥२ विराट उवाच। तं प्रेक्ष्य राजोपगतं सभातले ददामि ते हन्त वरं बृहन्नडे सत्रप्रतिच्छन्नमरिप्रमाथिनम् / सुतां च मे नर्तय याश्च तादृशीः / विराजमानं परमेण वर्चसा इदं तु ते कर्म समं न मे मतं . . सुतं महेन्द्रस्य गजेन्द्रविक्रमम् // 3 समुद्रनेमि पृथिवीं त्वमर्हसि // 10 सर्वानपृच्छंच्चं समीपचारिणः . वैशंपायन उवाच / . कुतोऽयमायाति न मे पुरा श्रुतः / बृहन्नडां तामभिवीक्ष्य मत्स्यराट न चैनमूचुर्विदितं तदा नराः ___ कलासु नृत्ते च तथैव वादिते / सविस्मितं वाक्यमिदं नृपोऽब्रवीत् // 4 अपुंस्त्वमप्यस्य निशम्य च स्थिरं सर्वोपपन्नः पुरुषो मनोरमः ___ ततः कुमारीपुरमुत्ससर्ज तम् // 11 श्यामो युवा वारणयूथपोपमः। स शिक्षयामास च गीतवादितं विमुच्य कम्बू परिहाटके शुभे सुतां विराटस्य धनंजयः प्रभुः / . विमुच्य वेणीमपिनह्य कुण्डले // 5 सखीश्च तस्याः परिचारिकास्तथा शिखी सुकेशः परिधाय चान्यथा प्रियश्च तासां स बभूव पाण्डवः // 12 ___ . भवस्व धन्वी कवची शरी तथा / तथा स सत्रेण धनंजयोऽवस- 811 -
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________________ 4. 10. 13] महाभारते [4. 11. 13 प्रियाणि कुर्वन्सह ताभिरात्मवान् / अश्वानां प्रकृतिं वेद्मि विनयं चापि सर्वशः / - तथागतं तत्र न जज्ञिरे जना दुष्टानां प्रतिपत्तिं च कृत्स्नं चैव चिकित्सितम् // 7 बहिश्वरा वाप्यथवान्तरेचराः // 13 न कातरं स्यान्मम जातु वाहनं इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि दशमोऽध्यायः॥ 10 // ___ न मेऽस्ति दुष्टा वडवा कुतो हयाः / जनस्तु मामाह स चापि पाण्डवो वैशंपायन उवाच / युधिष्ठिरो ग्रन्थिकमेव नामतः // 8. अथापरोऽदृश्यत पाण्डवः प्रभु विराट उवाच / विराटराज्ञस्तुरगान्समीक्षतः। यदस्ति किंचिन्मम वाजिवाहनं तमापतन्तं ददृशे पृथग्जनो ___ तदस्तु सर्वं त्वदधीनमद्य वै / विमुक्तमभ्रादिव सूर्यमण्डलम् // 1 ये चापि केचिन्मम वाजियोजका- ... स वै हयानैक्षत तांस्ततस्ततः ___ स्त्वदाश्रयाः सारथयश्च सन्तु मे // 9 समीक्षमाणं च ददर्श मत्स्यराट् / इदं तवेष्टं यदि वै सुरोपम ततोऽब्रवीत्ताननुगानमित्रहा __ ब्रवीहि यत्ते प्रसमीक्षितं वसु / .. ___ कुतोऽयमायाति नरोऽमरप्रभः // 2 न तेऽनुरूपं हयकर्म विद्यते अयं हयान्वीक्षति मामकान्हढं प्रभासि राजेव हि संमतो मम // 10 ध्रुवं यज्ञो भविता विचक्षणः / युधिष्ठिरस्येव हि दर्शनेन मे प्रवेश्यतामेष समीपमाशु मे ___ समं तवेदं प्रियदर्श दर्शनम् / विभाति वीरो हि यथामरस्तथा // 3 कथं तु भृत्यैः स विनाकृतो वने अभ्येत्य राजानममित्रहाब्रवी वसत्यनिन्द्यो रमते च पाण्डवः // 11 जयोऽस्तु ते पार्थिव भद्रमस्तु च / वैशंपायन उवाच। हयेषु युक्तो नृप संमतः सदा तवाश्वसूतो निपुणो भवाम्यहम् // 4 तथा स गन्धर्ववरोपमो युवा विराट उवाच। . विराटराज्ञा मुदितेन पूजितः / ददामि यानानि धनं निवेशनं न चैनमन्येऽपि विदुः कथंचन ममाश्वसूतो भवितुं त्वमर्हसि / प्रियाभिरामं विचरन्तमन्तरा // 12 कुतोऽसि कस्यासि कथं त्वमागतः एवं हि मत्स्ये न्यवसन्त पाण्डवा प्रब्रूहि शिल्पं तव विद्यते च यत् / / 5 यथाप्रतिज्ञाभिरमोघदर्शनाः / नकुल उवाच / अज्ञातचर्यां व्यचरन्समाहिताः पञ्चानां पाण्डुपुत्राणां ज्येष्ठो राजा युधिष्ठिरः / समुद्रनेमीपतयोऽतिदुःखिताः // 13 तेनाहमश्वेषु पुरा प्रकृतः शत्रुकर्शन // 6 | इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि एकादशोऽध्यायः // 11 // -812
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________________ 4. 12. 1] विराटपर्व [4. 12. 28 सिंहस्कन्धकटिग्रीवाः स्ववदाता मनस्विनः / जनमेजय उवाच / असकृल्लब्धलक्षास्ते रङ्गे पार्थिवसंनिधौ // 14 एवं मत्स्यस्य नगरे वसन्तस्तत्र पाण्डवाः। तेषामेको महानासीत्सर्वमल्लान्समाह्वयत् / अत ऊर्ध्वं महावीर्याः किमकुर्वन्त वै द्विज // 1 / आवलगमानं तं रङ्गे नोपतिष्ठति कश्चन // 15 वैशंपायन उवाच / यदा सर्वे विमनसस्ते मल्ला हतचेतसः। एवं ते न्यवसंस्तत्र प्रच्छन्नाः कुरुनन्दनाः / अथ सूदेन तं मल्लं योधयामास मत्स्यराट् // 16 आराधयन्तो राजानं यदकुर्वन्त तच्छृणु // 2 चोद्यमानस्ततो भीमो दुःखेनैवाकरोन्मतिम् / युधिष्ठिरः सभास्तारः सभ्यानामभवत्प्रियः / न हि शक्नोति विवृते प्रत्याख्यातुं नराधिपम् // 17 तथैव च विराटस्य सपुत्रस्य विशां पते // 3 ततः स पुरुषव्याघ्रः शार्दूलशिथिलं चरन् / स ह्यक्षहृदयज्ञस्तान्क्रीडयामास पाण्डवः / प्रविवेश महारङ्गं विराटमभिहर्षयन् // 18 अक्षवत्यां यथाकामं सूत्रबद्धानिव द्विजान् // 4 बबन्ध कक्ष्यां कौन्तेयस्ततस्तं हर्षयञ्जनम् / अज्ञातं च विराटस्य विजित्य वसु धर्मराट् / ततस्तं वृत्रसंकाशं भीमो मल्लं समाह्वयत् // 19 भ्रातृभ्यः पुरुषव्याघ्रो यथार्ह स्म प्रयच्छति // 5 तावुभौ सुमहोत्साहावुभौ तीव्रपराक्रमौ / भीमसेनोऽपि मांसानि भक्ष्याणि विविधानि च / मत्ताविव महाकाया वारणौ षष्टिहायनौ // 20 अतिसृष्टानि मत्स्येन विक्रीणाति युधिष्ठिरे // 6 चकर्ष दोभ्या॑मुत्पाट्य भीमो मल्लममित्रहा। . वासांसि परिजीर्णानि लब्धान्यन्तःपुरेऽर्जुनः। विनदन्तमभिक्रोशशार्दूल इव वारणम् // 21 विक्रीणानश्च सर्वेभ्यः पाण्डवेभ्यः प्रयच्छति / / 7 तमुद्यम्य महाबाहुर्धामयामास वीर्यवान् / सहदेवोऽपि गोपानां वेषमास्थाय पाण्डवः / ततो मल्लाश्च मत्स्याश्च विस्मयं चक्रिरे परम् // 22 दधि क्षीरं घृतं चैव पाण्डवेभ्यः प्रयच्छति // 8 भ्रामयित्वा शतगुणं गतसत्त्वमचेतनम् / नकुलोऽपि धनं लब्ध्वा कृते कर्मणि वाजिनाम् / प्रत्यापिंषन्महाबाहुर्मलं भुवि वृकोदरः // 23 तुष्टे तस्मिन्नरपतौ पाण्डवेभ्यः प्रयच्छति // 9 तस्मिन्विनिहते मल्ले जीमूते लोकविश्रुते / कृष्णापि सर्वान्भ्रातूंस्तान्निरीक्षन्ती तपस्विनी / विराटः परमं हर्षमगच्छद्वान्धवैः सह // 24 यथा पुनरविज्ञाता तथा चरति भामिनी // 10 संहर्षात्प्रददौ वित्तं बहु राजा महामनाः / एवं संपादयन्तस्ते तथान्योन्यं महारथाः। बल्लवाय महारङ्गे यथा वैश्रवणस्तथा // 25. प्रेक्षमाणास्तदा कृष्णामूषुश्छन्ना नराधिप // 11 एवं स सुबहून्मल्लान्पुरुषांश्च महाबलान् / अथ मासे चतुर्थे तु ब्रह्मणः सुमहोत्सवः।। विनिघ्नन्मत्स्यराजस्य प्रीतिमावहदुत्तमाम् // 26 आसीत्समृद्धो मत्स्येषु पुरुषाणां सुसंमतः // 12 यदास्य तुल्यः पुरुषो न कश्चित्तत्र विद्यते / तत्र मल्लाः समापेतुर्दिग्भ्यो राजन्सहस्रशः / / ततो व्याप्रैश्च सिंहैश्च द्विरदैश्चाप्ययोधयत् // 27 महाकाया महावीर्याः कालखञ्जा इवासुराः // 13 / पुनरन्तःपुरगतः स्त्रीणां मध्ये वृकोदरः / वीर्योन्नद्धा बलोदग्रा राज्ञा समभिपूजिताः। योध्यते स्म विराटेन सिंहैर्मत्तैर्महाबलैः // 28 - 818 -
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________________ 4. 12. 29 ] महाभारते [ 4. 13. 17 बीभत्सुरपि गीतेन सुनृत्तेन च पाण्डवः / विराटं तोषयामास सर्वाश्चान्तःपुरस्त्रियः // 29 अश्वैर्विनीतैर्जवनस्तत्र तत्र समागतैः। तोषयामास नकुलो राजानं राजसत्तम // 30 तस्मै प्रदेयं प्रायच्छत्प्रीतो राजा धनं बहु / विनीतान्वृषभान्दृष्ट्वा सहदेवस्य चाभिभो॥३१ एवं ते न्यवसंस्तत्र प्रच्छन्नाः पुरुषर्षभाः। कर्माणि तस्य कुर्वाणा विराटनृपतेस्तदा / / 32 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि द्वादशोऽध्यायः // 12 // // समाप्तं वैराटपर्व // 13 वैशंपायन उवाच / वसमानेषु पार्थेषु मत्स्यस्य नगरे तदा / महारथेषु छन्नेषु मासा दश समत्ययुः / / 1 याज्ञसेनी सुदेष्णां तु शुश्रूषन्ती विशां पते। अवसत्परिचारार्हा सुदुःखं जनमेजय // 2 तथा चरन्तीं पाञ्चाली सुदेष्णाया निवेशने / सेनापतिविराटस्य ददर्श जलजाननाम् // 3 तां दृष्ट्वा देवगर्भाभां चरन्ती देवतामिव / कीचकः कामयामास कामबाणप्रपीडितः॥४ स तु कामाग्निसंतप्तः सुदेष्णामभिगम्य वै। प्रहसन्निव सेनानीरिदं वचनमब्रवीत् // 5 नेयं पुरा जातु मयेह दृष्टा राज्ञो विराटस्य निवेशने शुभा। रूपेण चोन्मादयतीव मां भृशं गन्धेन जाता मदिरेव भामिनी / / 6 का देवरूपा हृदयंगमा शुभे आचक्ष्व मे का च कुतश्च शोभना। चित्तं हि निर्मथ्य करोति मां वशे न चान्यदत्रौषधमद्य मे मतम् // 7 अहो तवेयं परिचारिका शुभा प्रत्यग्ररूपा प्रतिभाति मामियम् / अयुक्तरूपं हि करोति कर्म ते ___ प्रशास्तु मां यच्च ममास्ति किंचन // 8 प्रभूतनागाश्वरथं महाधनं समृद्धियुक्तं बहुपानभोजनम्। . मनोहरं काश्चनचित्रभूषणं गृहं महच्छोभयतामियं मम // 9 ततः सुदेष्णामनुमत्र्य कीचक स्ततः समभ्येत्य नराधिपात्मजाम / उवाच कृष्णामभिसान्त्वयंस्तदा / ___ मृगेन्द्रकन्यामिव जम्बुको वने // 10 इदं च रूपं प्रथमं च ते वयो निरर्थकं केवलमद्य भामिनि / अधार्यमाणा स्रगिवोत्तमा यथा ___ न शोभसे सुन्दरि शोभना सती॥ 11 त्यजामि दारान्मम ये पुरातना भवन्तु दास्यस्तव चारुहासिनि / अहं च ते सुन्दरि दासवस्थितः सदा भविष्ये वशगो वरानने // 12 द्रौपद्युवाच / अप्रार्थनीयामिह मां सतपुत्राभिमन्यसे / विहीनवर्णां सैरन्ध्रीं बीभत्सां केशकारिकाम् // 13 परदारास्मि भद्रं ते न युक्तं त्वयि सांप्रतम् / दयिताः प्राणिनां दारा धर्मं समनुचिन्तय // 14 परदारे न ते बुद्धिर्जातु कार्या कथंचन / विवर्जनं ह्यकार्याणामेतत्सत्पुरुषव्रतम् // 15 मिथ्याभिगृध्नो हि नरः पापात्मा मोहमास्थितः / अयशः प्राप्नुयाद्धोरं सुमहत्प्राप्नुयाद्भयम् // 16 मा सूतपुत्र हृष्यस्व माद्य त्यक्ष्यसि जीवितम् /
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________________ 4. 13. 17 ] विराटपर्व [4. 14. 19 दुर्लभामभिमन्वानो मां वीरैभिरक्षिताम् // 17 सुरामाहारयामास राजाहाँ सुपरिस्रुताम् // 7 न चाप्यहं त्वया शक्या गन्धर्वाः पतयो मम / / आजौरभ्रं च सुभृशं बहूंश्चोच्चावचान्मृगान् / ते त्वां निहन्युः कुपिताः साध्वलं मा व्यनीनशः॥१८ कारयामास कुशलैरन्नपानं सुशोभनम् // 8 अशक्यरूपैः पुरुषैरध्वानं गन्तुमिच्छसि / तस्मिन्कृते तदा देवी कीचकेनोपमश्रिता / यथा निश्चेतनो बालः कूलस्थः कूलमुत्तरम् / सुदेष्णा प्रेषयामास सैरन्ध्रीं कीचकालयम् // 9 तर्तुमिच्छति मन्दात्मा तथा त्वं कर्तुमिच्छसि // 19 सुदेष्णोवाच / अन्तर्महीं वा यदि वोर्ध्वमुत्पतेः उत्तिष्ठ गच्छ सैरन्ध्रि कीचकस्य निवेशनम् / समुद्रपारं यदि वा प्रधावसि / पानमानय कल्याणि पिपासा मां प्रबाधते // 10 तथापि तेषां न विमोक्षमर्हसि द्रौपधुवाच / प्रमाथिनो देवसुता हि मे वराः // 20 न गच्छेयमहं तस्य राजपुत्रि निवेशनम् / त्वं कालरात्रीमिव कश्चिदातुरः त्वमेव राज्ञि जानासि यथा स निरपत्रपः॥ 11 किं मां दृढं प्रार्थयसेऽद्य कीचक / न चाहमनवद्याङ्गि तव वेश्मनि भामिनि / किं मातुरके शयितो यथा शिशु कामवृत्ता भविष्यामि पतीनां व्यभिचारिणी // 12 श्चन्द्रं जिघृक्षुरिव मन्यसे हि माम् // 21 त्वं चैव देवि जानासि यथा स समयः कृतः / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः // 13 // प्रविशन्त्या मया पूर्वं तव वेश्मनि भामिनि // 13 कीचकश्च सुकेशान्ते मूढो मदनदर्पितः / . वैशंपायन उवाच / सोऽवमंस्यति मां दृष्ट्वा न यास्ये तत्र शोभने // 14 प्रत्याख्यातो राजपुत्र्या सुदेष्णां कीचकोऽब्रवीत् / सन्ति बह्वथस्तव प्रेष्या राजपुत्रि वशानुगाः / अमर्यादेन कामेन घोरेणाभिपरिप्लुतः / / 1 / / अन्यां प्रेषय भद्रं ते स हि मामवमस्यते // 15 यथा कैकेयि सैरन्ध्या समेयां तद्विधीयताम् / - सुदेष्णोवाच / तां सुदेष्णे परीप्सस्व माहं प्राणान्प्रहासिषम् // 2 नैव त्वां जातु हिंस्यात्स इतः संप्रेषितां मया // 16 तस्य तां बहुशः श्रुत्वा वाचं विलपतस्तदा / वैशंपायन उवाच। विराटमहिषी देवी कृपां चक्रे मनस्विनी // 3 इत्यस्याः प्रददौ कांस्यं सपिधानं हिरण्मयम् / स्वमर्थमभिसंधाय तस्यार्थमनुचिन्त्य च / सा शङ्कमाना रुदती दैवं शरणमीयुषी। उद्वेगं चैव कृष्णायाः सुदेष्णा सूतमब्रवीत् // 4 प्रातिष्ठत सुराहारी कीचकस्य निवेशनम् // 17 पर्विणीं त्वं समुद्दिश्य सुरामन्नं च कारय / द्रौपद्युवाच / तत्रैनां प्रेषयिष्यामि सुराहारी तवान्तिकम् // 5 यथाहमन्यं पाण्डुभ्यो नाभिजानामि कंचन / तत्र संप्रेषितामेनां विजने निरवग्रहाम् / तेन सत्येन मां प्राप्तां कीचको मा वशे कृथाः॥ सान्त्वयेथा यथाकामं सान्त्व्यमाना रमेद्यदि / / 6 वैशंपायन उवाच। कीचकस्तु गृहं गत्वा भगिन्या वचनात्तदा। उपातिष्ठत सा सूर्य मुहूर्तमबला ततः / - 815 -
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________________ 4. 14. 19 ] महाभारते [4. 15. 24 स तस्यास्तनुमध्यायाः सर्वं सूर्योऽवबुद्धवान् // 19 / अमृष्यमाणौ कृष्णायाः कीचकेन पदा वधम् // 10 अन्तर्हितं ततस्तस्या रक्षो रक्षार्थमादिशत् / तस्य भीमो वधप्रेप्सुः कीचकस्य दुरात्मनः। तच्चैनां नाजहात्तत्र सर्वावस्थास्वनिन्दिताम् // 20 / दन्तैर्दन्तांस्तदा रोषानिष्पिपेष महामनाः // 11 तां मृगीमिव वित्रस्तां दृष्ट्वा कृष्णां समीपगाम् / अथाङ्गुष्ठेनावमृद्गादङ्गुष्ठं तस्य धर्मराट् / उदतिष्ठन्मुदा सूतो नावं लब्ध्वेव पारगः // 21 प्रबोधनभयाद्राजन्भीमस्य प्रत्यषेधयत् // 12 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // सा सभाद्वारमासाद्य रुदती मत्स्यमब्रवीत् / अवेक्षमाणा सुश्रोणी पतीस्तान्दीनचेतसः // 13 कीचक उवाच / आकारमभिरक्षन्ती प्रतिज्ञां धर्मसंहिताम् / स्वागतं ते सुकेशान्ते सुव्युष्टा रजनी मम। दह्यमानेव रौद्रेण चक्षुषा द्रुपदात्मजा // 14 स्वामिनी त्वमनुप्राप्ता प्रकुरुष्व मम प्रियम् // 1 द्रौपद्युवाच। सुवर्णमालाः कम्बूश्च कुण्डले परिहाटके। येषां वैरी न स्वपिति पदा भूमिमुपस्पृशन् / आहरन्तु च वस्त्राणि कौशिकान्यजिनानि च // 2 तेषां मां मानिनी भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् // 15 अस्ति मे शयनं शुभ्रं त्वदर्थमुपकल्पितम् / ये दानं च याचेयुब्रह्मण्याः सत्यवादिनः / एहि तत्र मया सार्धं पिबस्व मधुमाधवीम् // 3 तेषां मां मानिनीं भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् // 16 द्रौपद्युवाच / येषां दुन्दुभिनिर्घोषो ज्याघोषः श्रूयतेऽनिशम् / अप्रैषीद्राजपुत्री मां सुराहारी तवान्तिकम्। तेषां मां मानिनी भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् // 17 पानमानय मे क्षिप्रं पिपासा मेति चाब्रवीत् // 4 ये ते तेजस्विनो दान्ता बलवन्तोऽभिमानिनः / कीचक उवाच। तेषां मां मानिनी भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् // 18 अन्या भद्रे नयिष्यन्ति राजपुत्र्याः परिस्रुतम् // 5 सर्वलोकमिमं हन्युर्धर्मपाशसितास्तु ये / वैशंपायन उवाच / तेषां मां मानिनी भार्यां सूतपुत्रः पदावधीत् // 19 इत्येनां दक्षिणे पाणौ सूतपुत्रः परामृशत् / शरणं ये प्रपन्नानां भवन्ति शरणार्थिनाम् / सा गृहीता विधुन्वाना भूमावाक्षिप्य कीचकम् / चरन्ति लोके प्रच्छन्नाः क नु तेऽद्य महारथाः // 20 सभां शरणमाधावद्यत्र राजा युधिष्ठिरः / / 6 कथं ते सूतपुत्रेण वध्यमानां प्रियां सतीम् / तां कीचकः प्रधावन्ती केशपक्षे परामृशत् / मर्षयन्ति यथा क्लीबा बलवन्तोऽमितौजसः // 21 अथैनां पश्यतो राज्ञः पातयित्वा पदावधीत् / / 7 क नु तेषाममर्षश्च वीर्यं तेजश्च वर्तते / ततो योऽसौ तदार्केण राक्षसः संनियोजितः / न परीप्सन्ति ये भार्यां वध्यमानां दुरात्मना // 22 स कीचकमपोवाह वातवेगेन भारत // 8 मयात्र शक्यं किं कर्तुं विराटे धर्मदूषणम् / स पपात ततो भूमौ रक्षोबलसमाहतः / यः पश्यन्मां मर्षयति वध्यमानामनागसम् // 23 विघूर्णमानो निश्चष्टश्छिन्नमूल इव द्रुमः / / 9 न राजनराजवत्किंचित्समाचरसि कीचके / तां चासीनी ददृशतुर्भीमसेनयुधिष्ठिरौ। / दस्यूनामिव धर्मस्ते न हि संसदि शोभते // 24 -816 -
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________________ 4. 15. 25 ] विराटपर्व [4. 16.5 न कीचकः स्वधर्मस्थो न च मत्स्यः कथंचन / वैशंपायन उवाच / सभासदोऽप्यधर्मज्ञा य इमं पर्युपासते / / 25 इत्युक्त्वा प्राद्रवत्कृष्णा सुदेष्णाया निवेशनम् / नोपालभे त्वां नृपते विराट जनसंसदि / केशान्मुक्त्वा तु सुश्रोणी संरम्भालोहितेक्षणा // 36 नाहमेतेन युक्ता वै हन्तुं मत्स्य तवान्तिके। शुशुभे वदनं तस्या रुदन्त्याविरतं तदा / सभासदस्तु पश्यन्तु कीचकस्य व्यतिक्रमम् // 26 मेघलेखाविनिर्मुक्तं दिवीव शशिमण्डलम् // 37 विराट उवाच। सुदेष्णोवाच / परोक्षं नाभिजानामि विग्रहं युवयोरहम् / . कस्त्वावधीद्वरारोहे कस्माद्रोदिषि शोभने / अर्थतत्त्वमविज्ञाय किं नु स्यात्कुशलं मम // 27 कस्याद्य न सुखं भद्रे केन ते विप्रियं कृतम् // 38 वैशंपायन उवाच / द्रौपद्युवाच / ततस्तु सभ्या विज्ञाय कृष्णां भूयोऽभ्यपूजयन् / कीचको मावधीत्तत्र सुराहारीं गतां तव / साधु साध्विति चाप्याहुः कीचकं च व्यगर्हयन् // सभायां पश्यतो राज्ञो यथैव विजने तथा // 39 सुदेष्णोवाच / - सभ्या ऊचुः। घातयामि सुकेशान्ते कीचकं यदि मन्यसे। यस्येयं चारुसर्वाङ्गी भार्या स्यादायतेक्षणा / योऽसौ त्वां कामसंमत्तो दुर्लभामभिमन्यते // 40 परो लाभश्च तस्य स्यान्न स शोचेत्कदाचन // 29 द्रौपद्युवाच / वैशंपायन उवाच / अन्ये वै तं वधिष्यन्ति येषामागः करोति सः / एवं संपूजयंस्तत्र कृष्णां प्रेक्ष्य सभासदः। मन्ये चाद्यैव सुव्यक्तं परलोकं गमिष्यति // 41 युधिष्ठिरस्य कोपात्तु ललाटे स्वेद आसजत् / / 30 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः॥ 15 // अथाब्रवीद्राजपुत्री कौरव्यो महिषीं प्रियाम् / गच्छ सैरन्ध्रि मात्र स्थाः सुदेष्णाया निवेशनम् / / वैशंपायन उवाच / भर्तारमनुरुध्यन्त्यः क्लिश्यन्ते वीरपत्नयः / सा हता सूतपुत्रेण राजपुत्री समज्वलत् / शुश्रूषया क्लिश्यमानाः पतिलोकं जयन्त्युत / / 32 वधं कृष्णा परीप्सन्ती सेनावाहस्य भामिनी। मन्ये न कालं क्रोधस्य पश्यन्ति पतयस्तव / जगामावासमेवाथ तदा सा द्रुपदात्मजा // 1 . तेन त्वां नाभिधावन्ति गन्धर्वाः सूर्यवर्चसः॥३३ कृत्वा शौचं यथान्यायं कृष्णा वै तनुमध्यमा। अकालज्ञासि सैरन्ध्रि शैलूषीव विधावसि। गात्राणि वाससी चैव प्रक्षाल्य सलिलेन सा // 2 विघ्नं करोषि मत्स्यानां दीव्यतां राजसंसदि। चिन्तयामास रुदती तस्य दुःखस्य निर्णयम् / गच्छ सैरन्ध्र गन्धर्वाः करिष्यन्ति तव प्रियम् // 34 किं करोमि क गच्छामि कथं कार्यं भवेन्मम // 3 . द्रौपद्युवाच / इत्येवं चिन्तयित्वा सा भीमं वै मनसागमत् / अतीव तेषां घृणिनामर्थेऽहं धर्मचारिणी / नान्यः कर्ता ऋते भीमान्ममाद्य मनसः प्रियम् // तस्य तस्येह ते वध्या येषां ज्येष्ठोऽक्षदेविता / / 35 / तत उत्थाय रात्री सा विहाय शयनं स्वकम् / म.भा. 103 - 817 -
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________________ 4. 16.5] महाभारते [4. 17. 15 प्राद्रवन्नाथमिच्छन्ती कृष्णा नाथवती सती। जानन्सर्वाणि दुःखानि किं मां त्वं परिपृच्छसि // दुःखेन महता युक्ता मानसेन मनस्विनी // 5 यन्मां दासीप्रवादेन प्रातिकामी तदानयत् / सा वै महानसे प्राप्य भीमसेनं शुचिस्मिता। सभायां पार्षदो मध्ये तन्मां दहति भारत // 2 सर्वश्वेतेव माहेयी वने जाता त्रिहायनी / पार्थिवस्य सुता नाम का नु जीवेत मादृशी / उपातिष्ठत पाञ्चाली वाशितेव महागजम् // 6 अनुभूया भृशं दुःखमन्यत्र द्रौपदी प्रभो // 3 सा लतेव महाशालं फुल्लं गोमतितीरजम् / वनवासगतायाश्च सैन्धवेन दुरात्मना। . बाहुभ्यां परिरभ्यैनं प्राबोधयदनिन्दिता। परामर्श द्वितीयं च सोढुमुत्सहते नु का॥ 4 सिंहं सुप्तं वने दुर्गे मृगराजवधूरिव // 7 मत्स्यराज्ञः समक्षं च तस्य धूर्तस्य पश्यतः / वीणेव मधुराभाषा गान्धारं साधु मूर्च्छिता। कीचकेन पदा स्पृष्टा का नु जीवेत मादृशी // 5 अभ्यभाषत पाश्चाली भीमसेनमनिन्दिता // 8 एवं बहुविधैः क्लेशैः क्लिश्यमानां च भारत / उत्तिष्ठोत्तिष्ठ किं शेषे भीमसेन यथा मृतः। न मां जानासि कौन्तेय किं फलं जीवितेन मे॥६ नामृतस्य हि पापीयान्भार्यामालभ्य जीवति // 9 योऽयं राज्ञो विराटस्य कीचको नाम भारत / तस्मिञ्जीवति पापिष्ठे सेनावाहे मम द्विषि। सेनानीः पुरुषव्याघ्र स्यालः परमदुर्मतिः // 7 तत्कर्म कृतवत्यद्य कथं निद्रां निषेवसे // 10 स मां सैरन्ध्रवेषेण वसन्ती राजवेश्मनि / स संप्रहाय शयनं राजपुच्या प्रबोधितः / नित्यमेवाह दुष्टात्मा भार्या मम भवेति वै // 8 उपातिष्ठत मेघाभः पर्यके सोपसंग्रहे // 11 तेनोपमत्र्यमाणाया वधार्हेण सपत्नहन् / अथाब्रवीद्राजपुत्रीं कौरव्यो महिषीं प्रियाम् / कालेनेव फलं पक्कं हृदयं मे विदीर्यते // 9 केनास्यर्थेन संप्राप्ता त्वरितेव ममान्तिकम् // 12 भ्रातरं च विगर्हस्व ज्येष्ठं दुर्भुतदेविनम्। न ते प्रकृतिमान्वर्णः कृशा पाण्डुश्च लक्ष्यसे / यस्यास्मि कर्मणा प्राप्ता दुःखमेतदनन्तकम् // 10 आचक्ष्व परिशेषेण सर्व विद्यामहं यथा // 13 को हि राज्यं परित्यज्य सर्वस्वं चात्मना सह / सुखं वा यदि वा दुःखं द्वेष्यं वा यदि वा प्रियम् / प्रव्रज्यायैव दीव्येत विना दु तदेविनम् // 11 यथावत्सर्वमाचक्ष्व श्रुत्वा ज्ञास्यामि यत्परम् // 14 अहमेव हि ते कृष्णे विश्वास्यः सर्वकर्मसु / यदि निष्कसहस्रेण यच्चान्यत्सारवद्धनम् / अहमापत्सु चापि त्वां मोक्षयामि पुनः पुनः // 15 सायंप्रातरदेविष्यदपि संवत्सरान्बहून // 12 शीघ्रमुक्त्वा यथाकामं यत्ते कार्य विवक्षितम् / रुक्मं हिरण्यं वासांसि यानं युग्यमजाविकम् / गच्छ वै शयनायैव पुरा नान्योऽवबुध्यते // 16 अश्वाश्वतरसंघांश्च न जातु क्षयमावहेत् // 13 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि षोडशोऽध्यायः // 16 // सोऽयं द्यूतप्रवादेन श्रिया प्रत्यवरोपितः / 17 तूष्णीमास्ते यथा मूढः स्वानि कर्माणि चिन्तयन् // द्रौपद्युवाच / दश नागसहस्राणि पद्मिनां हेममालिनाम् / अशोच्यं नु कुतस्तस्या यस्या भर्ता युधिष्ठिरः। | यं यान्तमनुयान्तीह सोऽयं द्यूतेन जीवति // 15 -818 -
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________________ 4. 17. 16 ] विराटपर्व [4. 18. 14 18 तथा शतसहस्राणि नृणाममिततेजसाम् / उपासते महाराजमिन्द्रप्रस्थे युधिष्ठिरम् // 16 द्रौपद्युवाच। शतं दासीसहस्राणि यस्य नित्यं महानसे / इदं तु मे महद्दुःखं यत्प्रवक्ष्यामि भारत / पात्रीहस्तं दिवारात्रमतिथीन्भोजयन्त्युत // 17 न मेऽभ्यसूया कर्तव्या दुःखादेतद्भवीम्यहम् // 1 एष निष्कसहस्राणि प्रदाय ददतां वरः / शार्दूलैर्महिषैः सिंहैरागारे युध्यसे यदा। द्यूतजेन ह्यनर्थेन महता समुपावृतः // 18 कैकेय्याः प्रेक्षमाणायास्तदा मे कश्मलो भवेत् // 2 एनं हि स्वरसंपन्ना बहवः सूतमागधाः। प्रेक्षासमुत्थिता चापि कैकेयी ताः स्त्रियो वदेत् / सायंप्रातरुपातिष्ठन्सुमृष्टमणिकुण्डलाः / / 19 / प्रेक्ष्य मामनवद्यागी कश्मलोपहतामिव // 3 सहस्रमृषयो यस्य नित्यमासन्सभासदः। . स्नेहात्संवासजान्मन्ये सूदमेषा शुचिस्मिता / तपःश्रुतोपसंपन्नाः सर्वकामैरुपस्थिताः // 20 योध्यमानं महावीर्यैरिमं समनुशोचति // 4 अन्धान्वृद्धांस्तथानाथान्सर्वान्राष्टेषु दुर्गतान् / कल्याणरूपा सैरन्ध्री बल्लवश्वातिसुन्दरः / बिभर्त्यविमना नित्यमानृशंस्याद्युधिष्ठिरः // 21 स्त्रीणां च चित्तं दुज्ञेयं युक्तरूपौ च मे मतौ // 5 स एष निरयं प्राप्तो मत्स्यस्य परिचारकः / सैरन्ध्री प्रियसंवासान्नित्यं करुणवेदिनी। सभायां देविता राज्ञः कङ्को ब्रूते युधिष्ठिरः // 22 अस्मिन्राजकुले चेमौ तुल्यकालनिवासिनौ // 6 . इन्द्रप्रस्थे निवसतः समये यस्य पार्थिवाः / इति ब्रुवाणा वाक्यानि सा मां नित्यमवेदयत् / आसन्बलिभृतः सर्वे सोऽद्यान्यै तिमिच्छति // क्रुध्यन्तीं मां च संप्रेक्ष्य समशङ्कत मां त्वयि / / 7 पार्थिवाः पृथिवीपाला यस्यासन्वशवर्तिनः / तस्यां तथा ब्रुवत्यां तु दुःखं मां महदाविशत् / स वशे विवशो राजा परेषामद्य वर्तते / / 24 शोके यौधिष्ठिरे मग्ना नाहं जीवितुमुत्सहे॥ 8 यः सदेवान्मनुष्यांश्च सांश्चैकरथोऽजयत् / प्रताप्य पृथिवीं सा रश्मिवानिव तेजसा। सोऽयं राज्ञो विराटस्य कन्यानां नर्तको युवा // 9 सोऽयं राज्ञो विराटस्य सभास्तारो युधिष्ठिरः // 25 योऽतर्पयदमेयात्मा खाण्डवे जातवेदसम् / यमुपासन्त राजानः सभायामृषिभिः सह। सोऽन्तःपुरगतः पार्थः कूपेऽग्निरिव संवृतः॥ 10 तमुपासीनमद्यान्यं पश्य पाण्डव पाण्डवम् // 26 यस्माद्भयममित्राणां सदैव पुरुषर्षभात् / / अतदहँ महाप्राज्ञं जीवितार्थेऽभिसंश्रितम् / स लोकपरिभूतेन वेषेणास्ते धनंजयः // 11 / दृष्ट्वा कस्य न दुःखं स्याद्धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / / यस्य ज्यातलनि?षात्समकम्पन्त शत्रवः / / उपास्ते स्म सभायां यं कृत्स्ना वीर वसुंधरा / स्त्रियो गीतस्वनं तस्य मुदिताः पर्युपासते // 12 तमुपासीनमद्यान्यं पश्य भारत भारतम् // 28 | किरीटं सूर्यसंकाशं यस्य मूर्धनि शोभते। एवं बहुविधैर्दुःखैः पीड्यमानामनाथवत् / वेणीविकृतकेशान्तः सोऽयमद्य धनंजयः // 13 शोकसागरमध्यस्थां किं मां भीम न पश्यसि // 29 / यस्मिन्नस्त्राणि दिव्यानि समस्तानि महात्मनि। इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि सप्तदशोऽध्यायः // 17 // | आधारः सर्वविद्यानां स धारयति कुण्डले // 14 - 819 -
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________________ 4. 18. 15] महाभारते [ 4. 19.6 यं स्म राजसहस्राणि तेजसाप्रतिमानि वै / स तेऽरण्येषु बोद्धव्यो याज्ञसेनि क्षपास्वपि / / 29 समरे नातिवर्तन्ते वेलामिव महार्णवः // 15 तं दृष्ट्वा व्यापृतं गोषु वत्सचर्मक्षपाशयम् / सोऽयं राज्ञो विराटस्य कन्यानां नर्तको युवा / सहदेवं युधां श्रेष्ठं किं नु जीवामि पाण्डव // 30 आस्ते वेषप्रतिच्छन्नः कन्यानां परिचारकः / / 16 यस्त्रिभिनित्यसंपन्नो रूपेणास्त्रेण मेधया। यस्य स्म रथघोषेण समकम्पत मेदिनी / सोऽश्वबन्धो विराटस्य पश्य कालस्य पर्ययम् // 31 सपर्वतवना भीम सहस्थावरजङ्गमा // 17 अभ्यकीर्यन्त वृन्दानि दामग्रन्थिमुदीक्षताम् / . यस्मिञ्जाते महाभागे कुन्त्याः शोको व्यनश्यत / विनयन्तं जवेनाश्वान्महाराजस्य पश्यतः // 32 स शोचयति मामद्य भीमसेन तवानुजः // 18 अपश्यमेनं श्रीमन्तं मत्स्यं भ्राजिष्णुमुत्तमम् / भूषितं तमलंकारैः कुण्डलैः परिहाटकैः / विराटमुपतिष्ठन्तं दर्शयन्तं च वाजिनः // 33 कम्बुपाणिनमायान्तं दृष्ट्वा सीदति मे मनः // 19 किं नु मां मन्यसे पार्थ सुखितेति परंतप / तं वेणीकृतकेशान्तं भीमधन्वानमर्जुनम् / एवं दुःखशताविष्टा युधिष्ठिरनिमित्ततः // 34 कन्यापरिवृतं दृष्ट्वा भीम सीदति मे मनः // 20 अतः प्रतिविशिष्टानि दुःखान्यन्यानि भारत / यदा ह्येनं परिवृतं कन्याभिर्देवरूपिणम् / वर्तन्ते मयि कौन्तेय वक्ष्यामि शृणु तान्यपि // 35 प्रभिन्नमिव मातङ्गं परिकीणं करेणुभिः / / 21 युष्मासु ध्रियमाणेषु दुःखानि विविधान्युत / मत्स्यमर्थपतिं पार्थं विराटं समुपस्थितम् / शोषयन्ति शरीरं मे किं नु दुःखमतः परम् // 36 पश्यामि तूर्यमध्यस्थं दिशो नश्यन्ति मे तदा // 22 / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः // 18 // नूनमार्या न जानाति कृच्छ्रे प्राप्तं धनंजयम् / अजातशत्रु कौरव्यं मग्नं दूधूतदेविनम् / / 23 द्रौपद्युवाच / तथा दृष्ट्वा यवीयांसं सहदेवं युधां पतिम् / अहं सैरन्ध्रवेषेण चरन्ती राजवेश्मनि / गोषु गोवेषमायान्तं पाण्डुभूतास्मि भारत // 24 शौचदास्मि सुदेष्णाया अक्षधूर्तस्य कारणात् // 1 सहदेवस्य वृत्तानि चिन्तयन्ती पुनः पुनः / विक्रियां पश्य मे तीव्रां राजपुत्र्याः परंतप / न विन्दामि महाबाहो सहदेवस्य दुष्कृतम् / आसे कालमुपासीना सर्वं दुःखं किलार्तवत् // 2 यस्मिन्नेवंविधं दुःखं प्राप्नुयात्सत्यविक्रमः // 25 अनित्या किल मानामर्थसिद्धिर्जयाजयौ / दूयामि भरतश्रेष्ठ दृष्ट्वा ते भ्रातरं प्रियम् / इति कृत्वा प्रतीक्षामि भर्तृणामुदयं पुनः // 3 गोषु गोवृषसंकाशं मत्स्येनाभिनिवेशितम् // 26 य एव हेतुर्भवति पुरुषस्य जयावहः / संरब्धं रक्तनेपथ्यं गोपालानां पुरोगमम् / / पराजये च हेतुः स इति च प्रतिपालये // 4 विराटमभिनन्दन्तमथ मे भवति ज्वरः॥ 27 दत्त्वा याचन्ति पुरुषा हत्वा वध्यन्ति चापरे / सहदेवं हि मे वीरं नित्यमार्या प्रशंसति / पातयित्वा च पात्यन्ते परैरिति च मे श्रुतम् // 5 महाभिजनसंपन्नो वृत्तवाशीलवानिति / / 28 न दैवस्यातिभारोऽस्ति न दैवस्यातिवर्तनम् / हीनिषेधो मधुरवाग्धार्मिकश्च प्रियश्च मे / इति चाप्यागमं भूयो देवस्य प्रतिपालये // 6 - 820 -
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________________ 4. 19. 1] विराटपर्व [4. 20.2 स्थितं पूर्वं जलं यत्र पुनस्तत्रैव तिष्ठति / / इदं तु दुःखं कौन्तेय ममासा निबोध तत् // 21 इति पर्यायमिच्छन्ती प्रतीक्षाम्युदयं पुनः॥ 7 या न जातु स्वयं पिंपे गात्रोद्वर्तनमात्मनः / दैवेन किल यस्यार्थः सुनीतोऽपि विपद्यते / अन्यत्र कुन्त्या भद्रं ते साद्य पिंषामि चन्दनम् / दैवस्य चागमे यत्नस्तेन कार्यो विजानता // 8 . पश्य कौन्तेय पाणी मे नैवं यौ भवतः पुरा॥२२ यत्तु मे वचनस्यास्य कथितस्य प्रयोजनम् / वैशंपायन उवाच / पृच्छ मां दुःखितां तत्त्वमपृष्टा वा ब्रवीमि ते // 9 इत्यस्य दर्शयामास किणबद्धौ करावुभौ / / 23 महिषी पाण्डुपुत्राणां दुहिता द्रुपदस्य च / द्रौपद्युवाच / इमामवस्थां संप्राप्ता का मदन्या जिजीविषेत् // 10 बिभेमि कुन्त्या या नाहं युष्माकं वा कदाचन / कुरून्परिभवन्सर्वान्पाञ्चालानपि भारत / . साधाग्रतो विराटस्य भीता तिष्ठामि किंकरी // 24 पाण्डवेयांश्च संप्राप्तो मम क्लेशो ह्यरिंदम // 11 किं नु वक्ष्यति सम्राण्मां वर्णकः सुकृतो न वा। भ्रातृभिः श्वशुरैः पुत्रैर्बहुभिः परवीरहन् / नान्यपिष्टं हि मत्स्यस्य चन्दनं किल रोचते // 25 एवं समुदिता नारी का न्वन्या दुःखिता भवेत् / / वैशंपायन उवाच / नूनं हि बालया धातुर्मया वै विप्रियं कृतम् / सा कीर्तयन्ती दुःखानि भीमसेनस्य भामिनी / यस्य प्रसादाहुर्नीतं प्राप्तास्मि भरतर्षभ // 13 सरोद शनकैः कृष्णा भीमसेनमुदीक्षती // 26 वर्णावकाशमपि मे पश्य पाण्डव यादृशम् / सा बाष्पकलया वाचा निःश्वसन्ती पुनः पुनः / यादृशो मे न तत्रासीदुःखे परमके तदा // 14 हृदयं भीमसेनस्य घट्टयन्तीदमब्रवीत् // 27 त्वमेव भीम जानीषे यन्मे पार्थ सुखं पुरा / नाल्पं कृतं मया भीम देवानां किल्बिषं पुरा / साहं दासत्वमापन्ना न शान्तिमवशा लभे // 15 अभाग्या यत्तु जीवामि मर्तव्ये सति पाण्डव // 28 नादैविकमिदं मन्ये यत्र पार्थो धनंजयः / ततस्तस्याः करौ शूनौ किणबद्धौ वृकोदरः / भीमधन्वा महाबाहुरास्ते शान्त इवानलः // 16 मुखमानीय वेपन्या सरोद परवीरहा // 29 अशक्या वेदितुं पार्थ प्राणिनां वै गतिनरैः / तौ गृहीत्वा च कौन्तेयो बाष्पमुत्सृज्य वीर्यवान् / विनिपातमिमं मन्ये युष्माकमविचिन्तितम् // 17 ततः परमदुःखात इदं वचनमब्रवीत् // 30 यस्या मम मुखप्रेक्षा यूयमिन्द्रसमाः सदा / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि सा प्रेक्षे मुखमन्यासामवराणां वरा सती // 18 एकोनविंशोऽध्यायः // 19 // पश्य पाण्डव मेऽवस्थां यथा नार्हामि वै तथा / 20 युष्मासु ध्रियमाणेषु पश्य कालस्य पर्ययम् // 19 भीमसेन उवाच / यस्याः सागरपर्यन्ता पृथिवी वशवर्तिनी / धिगस्तु मे बाहुबलं गाण्डीवं फल्गुनस्य च / आसीत्साद्य सुदेष्णाया भीताहं वशवर्तिनी // 20 / यत्ते रक्तौ पुरा भूत्वा पाणी कृतकिणावुभौ // 1 यस्याः पुरःसरा आसन्पृष्ठतश्चानुगामिनः / सभायां स्म विराटस्य करोमि कदनं महत् / साहमद्य सुदेष्णायाः पुरः पश्चाच गामिनी। तत्र मां धर्मराजस्तु कटाक्षेण न्यवारयत् / - 821 -
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________________ 4. 20. 2] महाभारते [4. 20. 30 तदहं तस्य विज्ञाय स्थित एवास्मि भामिनि // 2 नित्यमुद्विजते राजा कथं नेयादिमामिति // 16 यच्च राष्ट्रात्प्रच्यवनं कुरूणामवधश्च यः / तस्या विदित्वा तं भावं स्वयं चानृतदर्शनः / सुयोधनस्य कर्णस्य शकुनेः सौबलस्य च // 3 | कीचकोऽयं सुदुष्टात्मा सदा प्रार्थयते हि माम् / / दुःशासनस्य पापस्य यन्मया न हृतं शिरः / तमहं कुपिता भीम पुनः कोपं नियम्य च। तन्मे दहति कल्याणि हृदि शल्यमिवार्पितम् / अब्रुवं कामसंमूढमात्मानं रक्ष कीचक // 18 . मा धर्मं जहि सुश्रोणि क्रोधं जहि महामते // 4 / गन्धर्वाणामहं भार्या पश्चानां महिषी प्रिया। इमं च समुपालम्भं त्वत्तो राजा युधिष्ठिरः। ते त्वां निहन्युर्दुर्धर्षाः शूराः साहसकारिणः // 19 शृणुयाद्यदि कल्याणि कृत्स्नं जह्यात्स जीवितम् // 5 एवमुक्तः स दुष्टात्मा कीचकः प्रत्युवाच ह। धनंजयो वा सुश्रोणि यमौ वा तनुमध्यमे / नाहं बिभेमि सैरन्ध्र गन्धर्वाणां शुचिस्मिते // 20 लोकान्तरगतेष्वेषु नाहं शक्ष्यामि जीवितुम् / / 6 / / शतं सहस्रमपि वा गन्धर्वाणामहं रणे। . सुकन्या नाम शार्याती भार्गवं च्यवनं वने। समागतं हनिष्यामि त्वं भीरु कुरु मे क्षणम् // 21 वल्मीकभूतं शाम्यन्तमन्वपद्यत भामिनी / / 7 इत्युक्ते चाब्रुवं सूतं कामातुरमहं पुनः / नाडायनी चेन्द्रसेना रूपेण यदि ते श्रुता / न त्वं प्रतिबलस्तेषां गन्धर्वाणां यशस्विनाम् // 22 पतिमन्वचरद्वृद्धं पुरा वर्षसहस्रिणम् // 8 धर्मे स्थितास्मि सततं कुलशीलसमन्विता। दुहिता जनकस्यापि वैदेही यदि ते श्रुता। नेच्छामि कंचिद्वध्यन्तं तेन जीवसि कीचक // 23 पतिमन्वचरत्सीता महारण्यनिवासिनम् // 9 एवमुक्तः स दुष्टात्मा प्रहस्य स्वनवत्तदा। रक्षसा निग्रहं प्राप्य रामस्य महिषी प्रिया / न तिष्ठति स्म सन्मार्गे न. च धर्मं बुभूषति / / 24 क्लिश्यमानापि सुश्रोणी राममेवान्वपद्यत / / 10 पापात्मा पापभावश्च कामरागवशानुगः / लोपामुद्रा तथा भीरु वयोरूपसमन्विता / अविनीतश्च दुष्टात्मा प्रत्याख्यातः पुनः पुनः। अगस्त्यमन्वयाद्धित्वा कामान्सर्वानमानुषान् // 11 दर्शने दर्शने हन्यात्तथा जह्यां च जीवितम् / / 25 यथैताः कीर्तिता नार्यो रूपवत्यः पतिव्रताः / तद्धर्मे यतमानानां महान्धर्मो नशिष्यति / तथा त्वमपि कल्याणि सर्वैः समुदिता गुणैः // 12 समयं रक्षमाणानां भार्या वो न भविष्यति // 26 मादीर्घ क्षम कालं त्वं मासमध्यर्धसंमितम् / / भार्यायां रक्ष्यमाणायां प्रजा भवति रक्षिता। पूर्ण त्रयोदशे वर्षे राज्ञो राज्ञी भविष्यसि // 13 प्रजायां रक्ष्यमाणायामात्मा भवति रक्षितः // 27 द्रौपद्युवाच / वदतां वर्णधर्मांश्च ब्राह्मणानां हि मे श्रुतम् / आर्तयैतन्मया भीम कृतं बाष्पविमोक्षणम् / क्षत्रियस्य सदा धर्मो नान्यः शत्रुनिबर्हणात् // 28 अपारयन्त्या दुःखानि न राजानमुपालभे // 14 पश्यतो धर्मराजस्य कीचको मां पदावधीत् / विमुक्तेन व्यतीतेन भीमसेन महाबल / तव चैव समक्षं वै भीमसेन महाबल // 29 प्रत्युपस्थितकालस्य कार्यस्यानन्तरो भव // 15 / त्वया ह्यहं परित्राता तस्माद्बोराजटासुरात् / ममेह भीम कैकेयी रूपाभिभवशङ्कया। | जयद्रथं तथैव त्वमजैषीर्धातृभिः सह // 30 -822
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________________ 4. 20. 31] विराटपर्व [4. 21. 21 जहीममपि पापं त्वं योऽयं मामवमन्यते / न चैवालभथास्त्राणमभिपन्ना बलीयसा // 8 : कीचको राजवाल्लभ्याच्छोककृन्मम भारत / / 31 प्रवादेन हि मत्स्यानां राजा नाम्नायमुच्यते / तमेवं कामसंमत्तं भिन्धि कुम्भमिवाश्मनि / अहमेव हि मत्स्यानां राजा वै वाहिनीपतिः // 9 यो निमित्तमनर्थानां बहूनां मम भारत // 32 सा सुख प्रतिपद्यस्व दासो भीरु भवामि ते / तं चेज्जीवन्तमादित्यः प्रातरभ्युदयिष्यति / अह्नाय तव सुश्रोणि शतं निष्कान्ददाम्यहम् // 10 विषमालोड्य पास्यामि मा कीचकवशं गमम्। .. दासीशतं च ते दद्यां दासानामपि चापरम् / श्रेयो हि मरणं मह्यं भीमसेन तवाग्रतः // 33 रथं चाश्वतरीयुक्तमस्तु नौ भीरु संगमः // 11 वैशंपायन उवाच / द्रौपद्यवाच / इत्युक्त्वा प्रारुदत्कृष्णा भीमस्योरः समाश्रिता। एकं मे समयं त्वद्य प्रतिपद्यस्व कीचक / भीमश्च तां परिष्वज्य महत्सान्त्वं प्रयुज्य च। न त्वां सखा वा भ्राता वा जानीयात्संगतं मया // कीचकं मनसागच्छत्सृक्किणी परिसंलिहन् // 34 अवबोधाद्धि भीतास्मि गन्धर्वाणां यशस्विनाम् / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि विंशोऽध्यायः // 20 // एवं मे प्रतिजानीहि ततोऽहं वशगा तव // 13 कीचक उवाच / भीमसेन उवाच / एवमेतन्करिष्यामि यथा सुश्रोणि भाषसे। तथा भद्रे करिष्यामि यथा त्वं भीरु भाषसे। एको भद्रे गमिष्यामि शून्यमावसथं तव // 14 अद्य तं सूदयिष्यामि कीचकं सहबान्धवम् // 1 . समागमार्थं रम्भोरु त्वया मदनमोहितः / अस्याः प्रदोषे शर्वर्याः कुरुष्वानेन संगमम् / यथा त्वां नावभोत्स्यन्ति गन्धर्वाः सूर्यवर्चसः // 15 दुःखं शोकं च निधूय याज्ञसेनि शुचिस्मिते // 2 द्रौपद्युवाच / यैषा नर्तनशाला वै मत्स्यराजेन कारिता / यदिदं नर्तनागारं मत्स्यराजेन कारितम् / दिवात्र कन्या नृत्यन्ति रात्रौ यान्ति यथागृहम् // 3 दिवात्र कन्या नृत्यन्ति रात्रौ यान्ति यथागृहम् // 16 तत्रास्ति शयनं भीरु दृढाङ्गं सुप्रतिष्ठितम् / तमिस्र तत्र गच्छेथा गन्धर्वास्तन्न जानते / तत्रास्य दर्शयिष्यामि पूर्वप्रेतान्पितामहान् // 4 तत्र दोषः परिहृतो भविष्यति न संशयः // 17 यथा च त्वां न पश्येयुः कुर्वाणां तेन संविदम् / . वैशंपायन उवाच / कुर्यास्तथा त्वं कल्याणि यथा संनिहितो भवेत् // 5 तमर्थं प्रतिजल्पन्त्याः कृष्णायाः कीचकेन ह / वैशंपायन उवाच / दिवसाधं समभवन्मासेनैव समं नृप // 18 तथा तौ कथयित्वा तु बाष्पमुत्सृज्य दुःखितौ। कीचकोऽथ गृहं गत्वा भृशं हर्षपरिप्लुतः / रात्रिशेषं तदत्युग्रं धारयामासतुहृदा // 6 / सैरन्ध्रीरूपिणं मूढो मृत्युं तं नावबुद्धवान् // 19 तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां प्रातरुत्थाय कीचकः / गन्धाभरणमाल्येषु व्यासक्तः स विशेषतः। गत्वा राजकुलायैव द्रौपदीमिदमब्रवीत् // 7. अलंचकार सोऽऽत्मानं सत्वरः काममोहितः // 20 सभायां पश्यतो राज्ञः पातयित्वा पदाहनम् / / तस्य तत्कुर्वतः कर्म कालो दीर्घ इवाभवत् / =823 -
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________________ 4. 21. 21] महाभारते [4. 21. 47 अनुचिन्तयतश्चापि तामेवायतलोचनाम् // 21 निगूढस्त्वं तथा वीर कीचक विनिपातय // 35 आसीदभ्यधिका चास्य श्रीः श्रियं प्रमुमुक्षतः / भीमसेन उवाच / निर्वाणकाले दीपस्य वर्तीमिव दिधक्षतः / / 22 एवमेतत्करिष्यामि यथा त्वं भीरु भाषसे / कृतसंप्रत्ययस्तत्र कीचकः काममोहितः / अदृश्यमानस्तस्याद्य तमस्विन्यामनिन्दिते // 36 नाजानाद्दिवसं यान्तं चिन्तयानः समागमम् / / 23 नागो बिल्वमिवाक्रम्य पोथयिष्याम्यहं शिरः / ततस्तु द्रौपदी गत्वा तदा भीमं महानसे / अलभ्यामिच्छतस्तस्य कीचकस्य दुरात्मनः॥ 37 उपातिष्ठत कल्याणी कौरव्यं पतिमन्तिकात् // 24 वैशंपायन उवाच / तमुवाच सुकेशान्ता कीचकस्य मया कृतः / भीमोऽथ प्रथमं गत्वा रात्रौ छन्न उपाविशत् / संगमो नर्तनागारे यथावोचः परंतप / / 25 मृगं हरिरिवादृश्यः प्रत्याकावत्स कीचकम् // 38 शून्यं स नर्तनागारमागमिष्यति कीचकः।। कीचकश्चाप्यलंकृत्य यथाकाममुपावजत् / .. एको निशि महाबाहो कीचकं तं निषूदय // 26 तां वेलां नर्तनागारे पाञ्चालीसंगमाशया // 39 तं सूतपुत्रं कौन्तेय कीचकं मददर्पितम् / मन्यमानः स संकेतमागारं प्राविशञ्च तम् / गत्वा त्वं नर्तनागारं निर्जीवं कुरु पाण्डव // 27 प्रविश्य च स तद्वेश्म तमसा संवृतं महत् // 40 दर्पाच्च सूतपुत्रोऽसो गन्धर्वानवमन्यते / पूर्वागतं ततस्तत्र भीममप्रतिमौजसम् / तं त्वं प्रहरतां श्रेष्ठ नडं नाग इवोद्धर // 28 एकान्तमास्थितं चैनमाससाद सुदुर्मतिः // 41 अश्रु दुःखाभिभूताया मम मार्जस्व भारत / | शयानं शयने तत्र मृत्यु सूतः परामृशत् / आत्मनश्चैव भद्रं ते कुरु मानं कुलस्य च // 29 जाज्वल्यमानं कोपेन कृष्णाधर्षणजेन ह // 42 भीमसेन उवाच / उपसंगम्य चैवैनं कीचकः काममोहितः। स्वागतं ते वरारोहे यन्मा वेदयसे प्रियम् / हर्षोन्मथितचित्तात्मा स्मयमानोऽभ्यभाषत // 43 न ह्यस्य कंचिदिच्छामि सहायं वरवर्णिनि // 30 प्रापितं ते मया वित्तं बहुरूपमनन्तकम् / या मे प्रीतिस्त्वयाख्याता कीचकस्य समागमे।। तत्सर्वं त्वां समुद्दिश्य सहसा समुपागतः / / 44 हत्वा हिडिम्बं सा प्रीतिर्ममासीद्वरवर्णिनि // 31 नाकस्मान्मां प्रशंसन्ति सदा गृहगताः स्त्रियः। सत्यं भ्रातृ॑श्च धर्मं च पुरस्कृत्य ब्रवीमि ते।। सुवासा दर्शनीयश्च नान्योऽस्ति त्वादृशः पुमान् // कीचकं निहनिष्यामि वृत्रं देवपतिर्यथा // 32 भीमसेन उवाच / तं गहरे प्रकाशे वा पोथयिष्यामि कीचकम् / दिष्टया त्वं दर्शनीयोऽसि दिष्टयात्मानं प्रशंससि / अथ चेदवभोत्स्यन्ति हस्ये मत्स्यानपि ध्रुवम् // 33 ईदृशस्तु त्वया स्पर्शः स्पृष्टपूर्वो न कर्हिचित् // 46 ततो दुर्योधनं हत्वा प्रतिपत्स्ये वसुंधराम् / वैशंपायन उवाच / कामं मत्स्यमुपास्तां हि कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः॥३४ / इत्युक्त्वा तं महाबाहुर्भीमो भीमपराक्रमः / द्रौपद्युवाच / समुत्पत्य च कौन्तेयः प्रहस्य च नराधमम् / यथा न संत्यजेथास्त्वं सत्यं वै मत्कृते विभो। | भीमो जग्राह केशेषु माल्यवत्सु. सुगन्धिषु // 47 - 824 -
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________________ 4. 21. 48 ] विराटपर्व [4. 22.9 स केशेषु परामृष्टो बलेन बलिनां वरः / कीचकं घातयित्वा तु द्रौपदी योषितां वरा / आक्षिप्य केशान्वेगेन बाह्वोर्जग्राह पाण्डवम् // 48 प्रहृष्टा गतसंतापा सभापालानुवाच ह // 63 बाहुयुद्धं तयोरासीत्क्रुद्धयोनरसिंहयोः / कीचकोऽयं हतः शेते गन्धर्वैः पतिभिर्मम / वसन्ते वाशिताहेतोर्बलवद्गजयोरिव / / 49 / / परस्त्रीकामसंमत्तः समागच्छत पश्यत // 64 ईषदागलितं चापि क्रोधाच्चलपदं स्थितम् / तच्छ्रुत्वा भाषितं तस्या नर्तनागाररक्षिणः / कीचको बलवान्भीमं जानुभ्यामाक्षिपद्भुवि // 50 सहसैव समाजग्मुरादायोल्काः सहस्रशः // 65 पातितो भुवि भीमस्तु कीचकेन बलीयसा। ततो गत्वाथ तद्वेश्म कीचकं विनिपातितम् / उत्पपाताथ वेगेन दण्डाहत इवोरगः / / 51 गतासुं ददृशुर्भूमौ रुधिरेण समुक्षितम् // 66 स्पर्धया च बलोन्मत्तौ तावुभौ सूतपाण्डवौ / कास्य ग्रीवा क चरणौ व पाणी व शिरस्तथा / निशीथे पर्यकर्पता बलिनी निशि निर्जने // 52 इति स्म तं परीक्षन्ते गन्धर्वेण हतं तदा // 67 ततस्तद्भवनश्रेष्ठं प्राकम्पत मुहुर्मुहुः / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि एकविंशोऽध्यायः // 21 // बलवच्चापि संक्रुद्धावन्योन्यं तावगर्जताम् // 53 22 तलाभ्यां तु स भीमेन वक्षस्यभिहतो बली / वैशंपायन उवाच / कीचको रोषसंतप्तः पदान्न चलितः पदम् // 54 तस्मिन्काले समागम्य सर्वे तत्रास्य बान्धवाः / मुहूर्त तु स तं वेगं सहित्वा भुवि दुःसहम् / रुरुदुः कीचकं दृष्ट्वा परिवार्य समन्ततः // 1 / बलादहीयत तदा सूतो भीमबलार्दितः // 55 सर्वे संहृष्टरोमाणः संत्रस्ताः प्रेक्ष्य कीचकम् / तं हीयमानं विज्ञाय भीमसेनो महाबलः / तथा सर्वाङ्गसंभुग्नं कूर्म स्थल इवोद्धृतम् // 2 वक्षस्यानीय वेगेन ममन्थैनं विचेतसम् / / 56 पोथितं भीमसेनेन तमिन्द्रेणेव दानवम् / क्रोधाविष्टो विनिःश्वस्य पुनश्चैनं वृकोदरः / संस्कारयितुमिच्छन्तो बहिर्नेतुं प्रचक्रमुः // 3 जग्राह जयतां श्रेष्ठः केशेष्वेव तदा भृशम् // 57 ददृशुस्ते ततः कृष्णां सूतपुत्राः समागताः / गृहीत्वा कीचकं भीमो विरुराव महाबलः। अदूरादनवद्याङ्गी स्तम्भमालिङ्गय तिष्ठतीम् // 4 शार्दूलः पिशिताकाङ्क्षी गृहीत्वेव महामृगम् // 58 समवेतेषु सूतेषु तानुवाचोपकीचकः / तस्य पादौ च पाणी च शिरो ग्रीवां च सर्वशः / हन्यतां शीघ्रमसती यत्कृते कीचको हतः॥ 5 काये प्रवेशयामास पशोरिव पिनाकधृक् // 59. अथ वा नेह हन्तव्या दह्यतां कामिना सह / तं संमथितसर्वाङ्ग मांसपिण्डोपमं कृतम् / मृतस्यापि प्रियं कार्य सूतपुत्रस्य सर्वथा // 6 कृष्णायै दर्शयामास भीमसेनो महाबलः / / 60 ततो विराटमूचुस्ते कीचकोऽस्याः कृते हतः / उवाच च महातेजा द्रौपदी पाण्डुनन्दनः / सहाद्यानेन दह्येत तदनुज्ञातुमर्हसि // 7 पश्यैनमेहि पाञ्चालि कामुकोऽयं यथा कृतः॥६१ / पराक्रमं तु सूतानां मत्वा राजान्वमोदत / तथा स कीचकं हत्वा गत्वा रोषस्य वै शमम् / / सैरन्ध्याः सूतपुत्रेण सह दाहं विशां पते // 8 आमय द्रोपदी कृष्णां क्षिप्रमायान्महानसम् // 62 / तां समासाद्य वित्रस्तां कृष्णां कमललोचनाम् / म.भा. 104 - 825 -
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________________ 4. 22.9] महाभारते [4. 23.3 मोमुह्यमानां ते तत्र जगृहुः कीचका भृशम् // 9 / तमन्तकमिवायान्तं गन्धर्व प्रेक्ष्य ते तदा / ततस्तु तां समारोप्य निबध्य च सुमध्यमाम् / / दिधक्षन्तस्तदा ज्येष्ठं भ्रातरं ह्युपकीचकाः / जग्मुरुद्यम्य ते सर्वे श्मशानमभितस्तदा // 10 परस्परमथोचुस्ते विषादभयकम्पिताः // 22 ह्रियमाणा तु सा राजन्सूतपुत्रैरनिन्दिता। गन्धर्वो बलवानेति क्रुद्ध उद्यम्य पादपम् / प्राक्रोशन्नाथमिच्छन्ती कृष्णा नाथवती सती // 11 सैरन्ध्री मुच्यतां शीघ्रं महन्नो भयमागतम् // 23 द्रौपद्युवाच / ते तु दृष्ट्वा तमाविद्धं भीमसेनेन पादपम्। . जयो जयन्तो विजयो जयत्सेनो जयद्बलः / विमुच्य द्रौपदी तत्र प्राद्रवन्नगरं प्रति // 24 ते मे वाचं विजानन्तु सूतपुत्रा नयन्ति माम् // 12 द्रवतस्तांस्तु संप्रेक्ष्य स वज्री दानवानिव / येषां ज्यातलनिर्घोषो विस्फूर्जितमिवाशनेः / शतं पञ्चाधिकं भीमः प्राहिणोद्यमसादनम् // 25 व्यश्रूयत महायुद्धे भीमघोषस्तरस्विनाम् // 13 / तत आश्वासयत्कृष्णां प्रविमुच्य विशां पते / रथघोषश्च बलवान्गन्धर्वाणां यशस्विनाम् / / उवाच च महाबाहुः पाञ्चालीं तत्र द्रौपदीम् / ते मे वाचं विजानन्तु सूतपुत्रा नयन्ति माम् // 14 अश्रुपूर्णमुखीं दीनां दुर्धर्षः स वृकोदरः // 26 वैशंपायन उवाच। एवं ते भीरु वध्यन्ते ये त्वां क्लिश्यन्त्यनागसम् / तस्यास्ताः कृपणा वाचः कृष्णायाः परिदेविताः। प्रैहि त्वं नगरं कृष्णे न भयं विद्यते तव / श्रुत्वैवाभ्यपतद्भीमः शयनादविचारयन् // 15 अन्येनाहं गमिष्यामि विराटस्य महानसम् // 27 भीमसेन उवाच / पश्चाधिकं शतं तच्च निहतं तत्र भारत / अहं शृणोमि ते वाचं त्वया सैरन्ध्र भाषिताम् / महावनमिव छिन्नं शिश्ये विगलितद्रुमम् // 28 तस्मात्ते सूतपुत्रेभ्यो न भयं भीरु विद्यते // 16 एवं ते निहता राजशतं पञ्च च कीचकाः / वैशंपायन उवाच / स च सेनापतिः पूर्वमित्येतत्सूतषट्शतम् // 29 इत्युक्त्वा स महाबाहुर्विजजृम्भे जिघांसया / तदृष्ट्वा महदाश्चर्यं नरा नार्यश्च संगताः / ततः स व्यायतं कृत्वा वेषं विपरिवर्त्य च / विस्मयं परमं गत्वा नोचुः किंचन भारत // 30 अद्वारेणाभ्यवस्कन्ध निर्जगाम बहिस्तदा // 17 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः // 22 // स भीमसेनः प्राकारादारुज्य तरसा द्रुमम् / श्मशानाभिमुखः प्रायाद्यत्र ते कीचका गताः॥१८ वैशंपायन उवाच। स तं वृक्षं दशव्यामं सस्कन्धविटपं बली / ते दृष्ट्वा निहतान्सूतान्राज्ञे गत्वा न्यवेदयन् / प्रगृह्याभ्यद्रवत्सतान्दण्डपाणिरिवान्तकः // 19 गन्धर्वनिहता राजन्सूतपुत्राः परःशताः // 1 ऊरुवेगेन तस्याथ न्यग्रोधाश्वत्थकिंशुकाः।। यथा वज्रेण वै दीर्णं पर्वतस्य महच्छिरः / भूमौ निपतिता वृक्षाः संघशस्तत्र शेरते / / 20 विनिकीर्णं प्रदृश्येत तथा सता महीतले // 2 तं सिंहमिव संक्रुद्धं दृष्ट्वा गन्धर्वमागतम् / सैरन्ध्री च विमुक्तासौ पुनरायाति ते गृहम् / वित्रेसुः सर्वतः सूता विषादभयकम्पिताः // 21 / सर्व संशयितं राजन्नगरं ते भविष्यति // 3 - 826 -
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________________ 4. 23. 4 ] विराटपर्व [4. 23. 28 तथारूपा हि सैरन्ध्री गन्धर्वाश्च महाबलाः / ततस्ता नर्तनागाराद्विनिष्क्रम्य सहार्जुनाः / पुंसामिष्टश्च विषयो मैथुनाय न संशयः॥ 4 / कन्या ददृशुरायान्ती कृष्णां क्लिष्टामनागसम् // 18 यथा सैरन्ध्रिवेषेण न ते राजन्निदं पुरम् / . कन्या ऊचुः। विनाशमेति वै क्षिप्रं तथा नीतिर्विधीयताम् // 5 दिष्टया सैरन्ध्रि मुक्तासि दिष्टयासि पुनरागता / तेषां तद्वचनं श्रुत्वा विराटो वाहिनीपतिः। दिष्टया विनिहताः सता ये त्वां क्लिश्यन्त्यनागसम्॥ अब्रवीक्रियतामेषां सूतानां परमक्रिया // 6 बृहन्नडोवाच / एकस्मिन्नेव ते सर्वे सुसमिद्धे हुताशने। कथं सैरन्ध्र मुक्तासि कथं पापाश्च ते हताः। दह्यन्तां कीचकाः शीघ्रं रत्नैर्गन्धैश्च सर्वशः / / 7 इच्छामि वै तव श्रोतुं सर्वमेव यथातथम् // 20 सुदेष्णां चाब्रवीद्राजा महिषीं जातसाध्वसः / सैरन्ध्युवाच / सैरन्ध्रीमागतां ब्रया ममैव वचनादिदम // 8 बृहन्नडे किं नु तव सैरन्ध्या कार्यमद्य वै / गच्छ सैरन्ध्र भद्रं ते यथाकामं चराबले। या त्वं वससि कल्याणि सदा कन्यापुरे सुखम्॥२१ बिभेति राजा सुश्रोणि गन्धर्वेभ्यः पराभवात् // 9 न हि दुःखं समाप्नोषि सैरन्ध्री यदुपाभुते / न हि तामुत्सहे वक्तुं स्वयं गन्धर्वरक्षिताम् / तेन मां दुःखितामेवं पृच्छसे प्रहसन्निव // 22 स्त्रियस्त्वदोषास्तां वक्तुमतस्त्वां प्रब्रवीम्यहम् // 10 बृहन्नडोवाच / अथ मुक्ता भयात्कृष्णा सूतपुत्रान्निरस्य च / बृहन्नडापि कल्याणि दुःखमाप्नोत्यनुत्तमम् / मोक्षिता भीमसेनेन जगाम नगरं प्रति // 11 / तिर्यग्योनिगता बाले न चैनामवबुध्यसे // 23 त्रासितेव मृगी बाला शार्दूलेन मनस्विनी / वैशंपायन उवाच / गात्राणि वाससी चैव प्रक्षाल्य सलिलेन सा॥१२ ततः सहैव कन्याभिद्रौपदी राजवेश्म तत् / तां दृष्ट्वा पुरुषा राजन्प्राद्रवन्त दिशो दश / प्रविवेश सुदेष्णायाः समीपमपलायिनी // 24 गन्धर्वाणां भयत्रस्ताः केचिदृष्टीय॑मीलयन् // 13 तामब्रवीद्राजपुत्री विराटवचनादिदम् / ततो महानसद्वारि भीमसेनमवस्थितम् / सैरन्ध्रि गम्यतां शीघ्रं यत्र कामयसे गतिम् // 25 ददर्श राजन्पाञ्चाली यथा मत्तं महाद्विपम् / / 14 राजा बिभेति भद्रं ते गन्धर्वेभ्यः पराभवात् / तं विस्मयन्ती शनकैः संज्ञाभिरिदमब्रवीत्। त्वं चापि तरुणी सुभ्र रूपेणाप्रतिमा भुवि // 26 गन्धर्वराजाय नमो येनास्मि परिमोचिता // 15 सैरन्ध्युवाच / भीमसेन उवाच / त्रयोदशाहमानं मे राजा क्षमतु भामिनि। . ये यस्या विचरन्तीह पुरुषा वशवर्तिनः / कृतकृत्या भविष्यन्ति गन्धर्वास्ते न संशयः // 27 तस्यास्ते वचनं श्रुत्वा अनृणा विचरन्त्युत // 16 ततो मां तेऽपनेष्यन्ति करिष्यन्ति च ते प्रियम् / . वैशंपायन उवाच / ध्रुवं च श्रेयसा राजा योक्ष्यते सह बान्धवैः / / 28 ततः सा नर्तनागारे धनंजयमपश्यत / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः // 23 // राज्ञः कन्या विराटस्य नर्तयानं महाभुजम् / / 17 / // समाप्तं कीचकवधपर्व // - 827 -
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________________ 4. 24. 1] महाभारते [4. 25.6 ___ 24 मृगयित्वा यथान्यायं विदितार्थाः स्म तत्त्वतः / वैशंपायन उवाच / प्राप्ता द्वारवतीं सूता ऋते पाथैः परंतप / / 55 कीचकस्य तु घातेन सानुजस्य विशां पते / न तत्र पाण्डवा राजन्नापि कृष्णा पतिव्रता। अत्याहितं चिन्तयित्वा व्यस्मयन्त पृथग्जनाः // 1 सर्वथा विप्रनष्टास्ते नमस्ते भरतर्षभ // 16 तस्मिन्पुरे जनपदे संजल्पोऽभूच्च सर्वशः। न हि विझो गतिं तेषां वासं वापि महात्मनाम् / शौर्याद्धि वल्लभो राज्ञो महासत्त्वश्च कीचकः // 2 पाण्डवानां प्रवृत्तिं वा विद्मः कर्मापि वा कृतम् / आसीत्प्रहर्ता च नृणां दारामर्शी च दुर्मतिः / स नः शाधि मनुष्येन्द्र अत ऊर्ध्वं विशां पते // 17 स हतः खलु पापात्मा गन्धर्वैर्दुष्टपूरुषः // 3 अन्वेषणे पाण्डवानां भूयः किं करवामहे / इत्यजल्पन्महाराज परानीकविशातनम् / इमां च नः प्रियामीक्ष वाचं भद्रवतीं शुभाम् // 18 देशे देशे मनुष्याश्च कीचकं दुष्प्रधर्षणम् // 4 येन त्रिगर्ता निकृता बलेन महता नृप। अथ वै धार्तराष्ट्रेण प्रयुक्ता ये बहिश्चराः / / सूतेन राज्ञो मत्स्यस्य कीचकेन महात्मना // 19 मृगयित्वा बहून्यामान्राष्ट्राणि नगराणि च // 5 स हतः पतितः शेते गन्धर्वैर्निशि भारत / संविधाय यथादिष्टं यथादेशप्रदर्शनम्। अदृश्यमानैदुष्टात्मा सह भ्रातृभिरच्युत // 20 कृतचिन्ता न्यवर्तन्त ते च नागपुरं प्रति // 6 प्रियमेतदुपश्रुत्य शत्रूणां तु पराभवम् / तत्र दृष्ट्वा तु राजानं कौरव्यं धृतराष्ट्रजम् / कृतकृत्यश्च कौरव्य विधत्स्व यदनन्तरम् // 21 द्रोणकर्णकृपैः सार्धं भीष्मेण च महात्मना // 7 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि संगतं भ्रातृभिश्चापि त्रिगतैश्च महारथैः / चतुर्विशोऽध्यायः // 24 // दुर्योधनं सभामध्ये आसीनमिदमब्रुवन् // 8 कृतोऽस्माभिः परो यत्नस्तेषामन्वेषणे सदा / वैशंपायन उवाच / पाण्डवानां मनुष्येन्द्र तस्मिन्महति कानने // 9 ततो दुर्योधनो राजा श्रुत्वा तेषां वचस्तदा। निर्जने मृगसंकीर्णे नानाद्रुमलतावृते / चिरमन्तर्मना भूत्वा प्रत्युवाच सभासदः // 1 लताप्रतानबहुले नानागुल्मसमावृते // 10 सुदुःखा खलु कार्याणां गतिर्विज्ञातुमन्ततः / न च विद्मो गता येन पार्थाः स्युईढविक्रमाः / तस्मात्सर्वे उदीक्षध्वं क नु स्युः पाण्डवा गताः // 2 मार्गमाणाः पदन्यासं तेषु तेषु तथा तथा // 11 अल्पावशिष्टं कालस्य गतभूयिष्ठमन्ततः / गिरिकूटेषु तुङ्गेषु नानाजनपदेषु च / तेषामज्ञातचर्यायामस्मिन्वर्षे त्रयोदशे // 3 जनाकीर्णेषु देशेषु खर्वटेषु पुरेषु च // 12 अस्य वर्षस्य शेषं चेद्व्यतीयुरिह पाण्डवाः। नरेन्द्र बहुशोऽन्विष्टा नैव विद्मश्च पाण्डवान् / निवृत्तसमयास्ते हि सत्यव्रतपरायणाः // 4 अत्यन्तभावं नष्टास्ते भद्रं तुभ्यं नरर्षभ / / 13 क्षरन्त इव नागेन्द्राः सर्व आशीविषोपमाः। वान्यन्विष्यमाणास्तु रथानां रथसत्तम / दुःखा भवेयुः संरब्धाः कौरवान्प्रति ते ध्रुवम् / / 5 कंचित्कालं मनुष्येन्द्र सूतानामनुगा वयम् // 14 / अर्वाक्कालस्य विज्ञाताः कृच्छ्ररूपधराः पुनः / - 828 -
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________________ 4. 25. 6] विराटपर्व [4. 27.5 प्रविशेयुर्जितक्रोधास्तावदेव पुनर्वनम् // 6 धर्मज्ञाश्च कृतज्ञाश्च धर्मराजमनुव्रताः // 2 तस्मारिक्षप्रं बुभुत्सधं यथा नोऽत्यन्तमव्ययम् / नीतिधर्मार्थतत्त्वज्ञं पितृवच्च समाहितम् / राज्यं निर्द्वन्द्वमव्यग्रं निःसपत्नं चिरं भवेत् // 7 धर्मे स्थितं सत्यधृतिं ज्येष्ठं ज्येष्ठापचायिनम् // 3 अथाब्रवीत्ततः कर्णः क्षिप्रं गच्छन्तु भारत / अनुव्रता महात्मानं भ्रातरं भ्रातरो नृप / अन्ये धूर्ततरा दक्षा निभृताः साधुकारिणः // 8 अजातशत्रु ह्रीमन्तं तं च भ्रातृननुव्रतम् // 4 . चरन्तु देशान्संवीताः स्फीताञ्जनपदाकुलान् / तेषां तथा विधेयानां निभृतानां महात्मनाम् / तत्र गोष्ठीष्वथान्यासु सिद्धप्रव्रजितेषु च // 9 किमर्थं नीतिमान्पार्थः श्रेयो नैषां करिष्यति // 5 परिचारेषु तीर्थेषु विविधेष्वाकरेषु च / . तस्माद्यत्नात्प्रतीक्षन्ते कालस्योदयमागतम् / विज्ञातव्या मनुष्यस्तैस्तर्कया सुविनीतया // 10 न हि ते नाशमृच्छेयुरिति पश्याम्यहं धिया // 6 विविधैस्तत्परैः सम्यक्त निपुणसंवृतैः / सांप्रतं चैव यत्कार्यं तच्च क्षिप्रमकालिकम् / अन्वेष्टव्याश्च निपुणं पाण्डवाश्छन्नवासिनः // 11 क्रियतां साधु संचिन्त्य वासश्चैषां प्रचिन्त्यताम् // 7 नदीकुलेषु तीर्थेषु ग्रामेषु नगरेषु च / यथावत्पाण्डुपुत्राणां सर्वार्थेषु धृतात्मनाम् / आश्रमेषु च रम्येषु पर्वतेषु गुहासु च // 12 दुर्जेयाः खलु शूरास्ते अपापास्तपसा वृताः // 8 अथाग्रजानन्तरजः पापभावानुरागिणम् / शुद्धात्मा गुणवान्पार्थः सत्यवान्नीतिमाञ्शुचिः। ज्येष्ठं दुःशासनस्तत्र भ्राता भ्रातरमब्रवीत् // 13 तेजोराशिरसंख्येयो गृह्णीयादपि चक्षुषी // 9 एतच्च कर्णो यत्प्राह सर्वमीक्षामहे तथा / विज्ञाय क्रियतां तस्माद्भूयश्च मृगयामहे / यथोद्दिष्टं चराः सर्वे मृगयन्तु ततस्ततः। ब्राह्मणैश्चारकैः सिद्धैर्ये चान्ये तद्विदो जनाः // 10 एते चान्ये च भूयांसो देशादेशं यथाविधि // 14 | इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि षड्डिशोऽध्यायः // 26 // न तु तेषां गतिर्वासः प्रवृत्तिश्चोपलभ्यते / 27 अत्याहितं वा गूढास्ते पारं वोर्मिमतो गताः // 15 . वैशंपायन उवाच / व्यालैर्वापि महारण्ये भक्षिताः शूरमानिनः / ततः शांतनवो भीष्मो भरतानां पितामहः / अथ वा विषमं प्राप्य विनष्टाः शाश्वतीः समाः॥१६ श्रुतवान्देशकालज्ञस्तत्त्वज्ञः सर्वधर्मवित् / / 1 तस्मान्मानसमव्यग्रं कृत्वा त्वं कुरुनन्दन / आचार्यवाक्योपरमे तद्वाक्यमभिसंदधत् / कुरु कार्यं यथोत्साहं मन्यसे यन्नराधिप // 17 हितार्थं स उवाचेमा भारती भारतान्प्रति // 2 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // युधिष्ठिरे समासक्तां धर्मज्ञे धर्मसंश्रिताम् / असत्सु दुर्लभां नित्यं सतां चाभिमतां सदा / वैशंपायन उवाच। भीष्मः समवदत्तत्र गिरं साधुभिरर्चिताम् // 3 अथाब्रवीन्महावीर्यो द्रोणस्तत्त्वार्थदर्शिवान् / यथैष ब्राह्मणः प्राह द्रोणः सर्वार्थतत्त्ववित् / न तादृशा विनश्यन्ति नापि यान्ति पराभवम् // 1 सर्वलक्षणसंपन्ना नाशं नार्हन्ति पाण्डवाः // 4 शूराश्च कृतविद्याश्च बुद्धिमन्तो जितेन्द्रियाः। श्रुतवृत्तोपसंपन्नाः साधुव्रतसमन्विताः / -829 -
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________________ 4. 27.5] महाभारते [4. 28.4 वृद्धानुशासने मग्नाः सत्यव्रतपरायणाः // 5 दृश्यानि च प्रसन्नानि यत्र राजा युधिष्ठिरः // 20 समयं समयज्ञास्ते पालयन्तः शुचिव्रताः / / स्वैः स्वैर्गुणैः सुसंयुक्तास्तस्मिन्वर्षे त्रयोदशे। नावसीदितुमर्हन्ति उद्वहन्तः सतां धुरम् // 6 देशे तस्मिन्भविष्यन्ति तात पाण्डवसंयुते // 21 धर्मतश्चैव गुप्तास्ते स्ववीर्येण च पाण्डवाः। संप्रीतिमाञ्जनस्तत्र संतुष्टः शुचिरव्ययः / न नाशमधिगच्छेयुरिति मे धीयते मतिः // 7 / देवतातिथिपूजासु सर्वभूतानुरागवान् // 22 तत्र बुद्धिं प्रणेष्यामि पाण्डवान्प्रति भारत / इष्टदानो महोत्साहः शश्वद्धर्मपरायणः / न तु नीतिः सुनीतस्य शक्यतेऽन्वेषितुं परैः // 8 / अशुभद्विट् शुभप्रेप्सुर्नित्ययज्ञः शुभवतः / यत्तु शक्यमिहास्माभिस्तान्वै संचिन्त्य पाण्डवान् / भविष्यति जनस्तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः // 23 बुद्धया प्रवक्तुं न द्रोहात्प्रवक्ष्यामि निबोध तत् // 9 त्यक्तवाक्यानृतस्तात शुभकल्याणमङ्गलः / सा त्वियं साधु वक्तव्या न त्वनीतिः कथंचन / / शुभार्थेप्सुः शुभमतिर्यत्र राजा युधिष्ठिरः। ..' वृद्धानुशासने तात तिष्ठतः सत्यशीलिनः // 10 भविष्यति जनस्तत्र नित्यं चेष्टप्रियन्तः // 24 अवश्यं त्विह धीरेण सतां मध्ये विवक्षता / / धर्मात्मा स तदादृश्यः सोऽपि तात द्विजातिभिः। यथामति विवक्तव्यं सर्वशो धर्मलिप्सया // 11 किं पुनः प्राकृतैः पार्थः शक्यो विज्ञातुमन्ततः // 25 तत्र नाहं तथा मन्ये यथायमितरो जनः / यस्मिन्सत्यं धृतिर्दानं परा शान्तिर्बुवा क्षमा / पुरे जनपदे वापि यत्र राजा युधिष्ठिरः // 12 हीः श्रीः कीर्तिः परं तेज आनृशंस्यमथार्जवम् // 26 नासूयको न चापीर्षुर्नातिवादी न मत्सरी / तस्मात्तत्र निवासं तु छन्नं सत्रेण धीमतः / भविष्यति जनस्तत्र स्वं स्खं धर्ममनुव्रतः // 13 गतिं वा परमां तस्य नोत्सहे वक्तुमन्यथा / / 27 ब्रह्मघोषाश्च भूयांसः पूर्णाहुत्यस्तथैव च / एवमेतत्तु संचिन्त्य यत्कृतं मन्यसे हितम् / ऋतवश्व भविष्यन्ति भूयांसो भूरिदक्षिणाः // 14 / तत्क्षिप्रं कुरु कौरव्य यद्येवं श्रद्दधासि मे // 28 सदा च तत्र पर्जन्यः सम्यग्वर्षी न संशयः / / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः॥२७॥ संपन्नसस्या च मही निरीतीका भविष्यति / / 15 . 28 रसवन्ति च धान्यानि गुणवन्ति फलानि च / वैशंपायन उवाच / गन्धवन्ति च माल्यानि शुभशब्दा च भारती॥१६ ततः शारद्वतो वाक्यमित्युवाच कृपस्तदा / वायुश्च सुखसंस्पर्शो निष्प्रतीपं च दर्शनम् / युक्तं प्राप्तं च वृद्धेन पाण्डवान्प्रति भाषितम् // 1 भयं नाभ्याविशेत्तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः // 17 धर्मार्थसहितं श्लक्ष्णं तत्त्वतश्च सहेतुमत् / गावश्च बहुलास्तत्र न कृशा न च दुर्दुहाः / तत्रानुरूपं भीष्मेण ममाप्यत्र गिरं शृणु / / 2 पयांसि दधिसपीषि रसवन्ति हितानि च // 18 तेषां चैव गतिस्तीर्थैर्वासश्चैपां प्रचिन्त्यताम् / गुणवन्ति च पानानि भोज्यानि रसवन्ति च।। नीतिर्विधीयतां चापि सांप्रतं या हिता भवेत् // 3 तत्र देशे भविष्यन्ति यत्र राजा युधिष्ठिरः // 19 / नावज्ञेयो रिपुस्तात प्राकृतोऽपि बुभूषता। रसाः स्पर्शाश्च गन्धाश्च शब्दाश्चापि गुणान्विताः।। किं पुनः पाण्डवास्तात सर्वास्त्रकुशला रणे // 4 - 830 -
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________________ 4. 28. 5] विराटपर्व [4. 29. 18 तस्मात्सत्रं प्रविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु / असकृन्मत्स्यराज्ञा मे राष्ट्रं बाधितमोजसा। गूढभावेषु छन्नेषु काले चोदयमागते // 5 प्रणेता कीचकश्चास्य बलवानभवत्पुरा // 4 स्वराष्ट्रपरराष्ट्रेषु ज्ञातव्यं बलमात्मनः / क्रूरोऽमर्षी स दुष्टात्मा भुवि प्रख्यातविक्रमः। उदये पाण्डवानां च प्राप्ते काले न संशयः // 6 निहतस्तत्र गन्धर्वैः पापकर्मा नृशंसवान् // 5 निवृत्तसमयाः पार्था महात्मानो महाबलाः। तस्मिंश्च निहते राजन्हीनदर्पो निराश्रयः / महोत्साहा भविष्यन्ति पाण्डवा ह्यतितेजसः // 7 भविष्यति निरुत्साहो विराट इति मे मतिः // 6 तस्माद्बलं च कोशं च नीतिश्चापि विधीयताम् / तत्र यात्रा मम मता यदि ते रोचतेऽनघ / यथा कालोदये प्राप्ते सम्यक्तैः संदधामहे // 8 कौरवाणां च सर्वेषां कर्णस्य च महात्मनः // 7 तात मन्यामि तत्सर्वं बुध्यस्व बलमात्मनः / एतत्प्राप्तमहं मन्ये कार्यमात्ययिकं हितम् / नियतं सर्वमित्रेषु बलवत्स्वबलेषु च // 9 / राष्ट्रं तस्याभियात्वाशु बहुधान्यसमाकुलम् // 8 उच्चावचं बलं ज्ञात्वा मध्यस्थं चापि भारत / आददामोऽस्य रत्नानि विविधानि वसूनि च / प्रहृष्टमप्रहृष्टं च संदधाम तथा परैः // 10 / प्रामान्राष्ट्राणि वा तस्य हरिष्यामो विभागशः // 9 साम्ना भेदेन दानेन दण्डेन बलिकर्मणा / अथ वा गोसहस्राणि बहूनि च शुभानि च / न्यायेनानम्य च परान्बलाच्चानम्य दुर्बलान् / / 11 विविधानि हरिष्यामः प्रतिपीड्य पुरं बलात् // 10 सान्त्वयित्वा च मित्राणि बलं चाभाष्यतां सुखम् / कौरवैः सह संगम्य त्रिगर्तेश्च विशां पते / सकोशबलसंवृद्धः सम्यक्सिद्धिमवाप्स्यसि // 12 / गास्तस्यापहरामाशु सह सर्वैः सुसंहताः // 11 योत्स्यसे चापि बलिभिररिभिः प्रत्युपस्थितैः / संधिं वा तेन कृत्वा तु निबध्नीमोऽस्य पौरुषम् / अन्यस्त्वं पाण्डवैर्वापि हीनस्वबलवाहनैः / / 13 हत्वा चास्य चमू कृत्स्नां वशमन्वानयामहे // 12 एवं सर्वं विनिश्चित्य व्यवसायं स्वधर्मतः / तं वशे न्यायतः कृत्वा सुखं वत्स्यामहे वयम् / यथाकालं मनुष्येन्द्र चिरं सुखमवाप्स्यसि // 14 भवतो बलवृद्धिश्च भविष्यति न संशयः॥ 13 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कर्णो राजानमब्रवीत् / अष्टाविंशोऽध्यायः // 28 // सूक्तं सुशर्मणा वाक्यं प्राप्तकालं हितं च नः // 14 तस्मारिक्षप्रं विनिर्यामो योजयित्वा वरूथिनीम् / वैशंपायन उवाच। विभाज्य चाप्यनीकानि यथा वा मन्यसेऽनघ॥१५ अथ राजा त्रिगर्तानां सुशर्मा रथयूथपः / प्रज्ञावान्कुरुवृद्धोऽयं सर्वेषां नः पितामहः / प्राप्तकालमिदं वाक्यमुवाच त्वरितो भृशम् // 1 आचार्यश्च तथा द्रोणः कृपः शारद्वतस्तथा // 16 . . असकृन्निकृतः पूर्वं मत्स्यैः साल्वेयकैः सह / मन्यन्ते ते यथा सर्वे तथा यात्रा विधीयताम् / सूतेन चैव मत्स्यस्य कीचकेन पुनः पुनः / / 2 संमत्र्य चाशु गच्छामः साधनार्थं महीपतेः // 17 बाधितो बन्धुभिः सार्धं बलाद्वलवता विभो। किं च नः पाण्डवैः कार्य हीनार्थबलपौरुषैः। स कर्णमभ्युदीक्ष्याथ दुर्योधनमभाषत / / 3.... अत्यर्थं वा प्रनष्टास्ते प्राप्ता वापि यमक्षयम् // 18 - 831 -
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________________ 4. 29. 19 ] महाभारते [4. 30. 18 यामो राजन्ननुद्विग्ना विराटविषयं वयम् / ततो जवेन महता गोपाः पुरमथाव्रजत् / आदास्यामो हि गास्तस्य विविधानि वसूनि च // 19 अपश्यन्मत्स्यराजं च रथात्प्रस्कन्ध कुण्डली // 4 ततो दुर्योधनो राजा वाक्यमादाय तस्य तत्। .. शूरैः परिवृतं योधैः कुण्डलाङ्गदधारिभिः / वैकर्तनस्य कर्णस्य क्षिप्रमाज्ञापयत्स्वयम् // 20 सद्भिश्च मन्त्रिभिः सार्धं पाण्डवैश्च नरर्षभैः // 5 शासने नित्यसंयुक्तं दुःशासनमनन्तरम् / तं सभायां महाराजमासीनं राष्टवर्धनम् / सह वृद्धस्तु संमत्य क्षिप्रं योजय वाहिनीम् // 21 सोऽब्रवीदुपसंगम्य विराटं प्रणतस्तदा // 6 . . यथोद्देशं च गच्छामः सहिताः सर्वकौरवैः / अस्मान्युधि विनिर्जित्य परिभूय सबान्धवान् / सुशर्मा तु यथोद्दिष्टं देशं यातु महारथः // 22 गवां शतसहस्राणि त्रिगर्ताः कालयन्ति ते / त्रिगतैः सहितो राजा समग्रबलवाहनः / तान्परीप्स मनुष्येन्द्र मा नेशुः पशवस्तव // 7 प्रागेव हि सुसंवीतो मत्स्यस्य विषयं प्रति // 23 तच्छ्रुत्वा नृपतिः सेनां मत्स्यानां समयोजयत् / जघन्यतो वयं तत्र यास्यामो दिवसान्तरम् / रथनागाश्वकलिलां पत्तिध्वजसमाकुलाम् // 8 विषयं मत्स्यराजस्य सुसमृद्धं सुसंहताः // 24 राजानो राजपुत्राश्च तनुत्राण्यत्र भेजिरे / ते यात्वा सहसा तत्र विराटनगरं प्रति / भानुमन्ति विचित्राणि सूपसेव्यानि भागशः // 9 क्षिप्रं गोपान्समासाद्य गृह्णन्तु विपुलं धनम् / / 25 सवज्रायसगर्भ तु कवचं तप्तकाञ्चनम् / गवां शतसहस्राणि श्रीमन्ति गुणवन्ति च। विराटस्य प्रियो भ्राता शतानीकोऽभ्यहारयत्॥१० वयमपि निगृह्णीमो द्विधा कृत्वा वरूथिनीम् // 26 सर्वपारसवं वर्म कल्याणपटलं दृढम् / स स्म गत्वा यथोद्दिष्टां दिशं वह्नर्महीपतिः / शतानीकादवरजो मदिराश्वोऽभ्यहारयत् / / 11 आदत्त गाः सुशर्माथ धर्मपक्षस्य सप्तमीम् / / 27 शतसूर्यं शतावतं शतबिन्दु शताक्षिमत् / अपरं दिवसं सर्वे राजन्संभूय कौरवाः / अभेद्यकल्पं मत्स्यानां राजा कवचमाहरत् / / 12 अष्टम्यां तान्यगृह्णन्त गोकुलानि सहस्रशः / / 28 उत्सेधे यस्य पद्मानि शतं सौगन्धिकानि च / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि सुवर्णपृष्ठं सूर्याभं सूर्यदत्तोऽभ्यहारयत् / / 13 एकोनत्रिंशोऽध्यायः // 29 // दृढमायसगर्भ तु श्वेतं वर्म शताक्षिमत् / विराटस्य सुतो ज्येष्ठो वीरः शङ्खोऽभ्यहारयत् // 14 वैशंपायन उवाच / शतशश्च तनुत्राणि यथास्वानि महारथाः। ततस्तेषां महाराज तत्रैवामिततेजसाम् / योत्स्यमानाभ्यनह्यन्त देवरूपाः प्रहारिणः // 15 छद्मलिङ्गप्रविष्टानां पाण्डवानां महात्मनाम् // 1 सूपस्करेषु शुभ्रेषु महत्सु च महारथाः / व्यतीतः समयः सम्यग्वसतां वै पुरोत्तमे। पृथक्काञ्चनसंनाहान्रथेष्वश्वानयोजयन् // 16 कुर्वतां तस्य कर्माणि विराटस्य महीपतेः // 2 सर्यचन्द्रप्रतीकाशो रथे दिव्ये हिरण्मयः / ततस्त्रयोदशस्यान्ते तस्य वर्षस्य भारत। महानुभावो मत्स्यस्य ध्वज उच्छिश्रिये तदा // 17 सुशर्मणा गृहीतं तु गोधनं तरसा बहु // 3 अथान्यान्विविधाकारान्ध्वजान्हेमविभूषितान् / -832
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________________ 4. 30. 18] विराटपर्व [4. 31. 13 यथास्वं क्षत्रियाः शूरा रथेषु समयोजयन् // 18 दृढायुधजनाकीर्णं गजाश्वरथसंकुलम् / / 30 अथ मत्स्योऽब्रवीद्राजा शतानीकं जघन्यजम् / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः // 30 // कङ्कबल्लवगोपाला दामग्रन्थिश्च वीर्यवान् / युध्येयुरिति मे बुद्भिर्वर्तते नात्र संशयः // 19 वैशंपायन उवाच / एतेषामपि दीयन्तां रथा ध्वजपताकिनः / निर्याय नगराच्छूरा व्यूढानीकाः प्रहारिणः / कवचानि विचित्राणि दृढानि च मृदूनि च / त्रिगर्तानस्पृशन्मत्स्याः सूर्ये परिणते सति // 1 प्रतिमुश्चन्तु गात्रेषु दीयन्तामायुधानि च // 20 ते त्रिगर्ताश्च मत्स्याश्च संरब्धा युद्धदुर्मदाः।। वीराङ्गरूपाः पुरुषा नागराजकरोपमाः। अन्योन्यमभिगर्जन्तो गोषु गृद्धा महाबलाः // 2 नेमे जातु न युध्येरन्निति मे धीयते मतिः // 21 भीमाश्च मत्तमातङ्गास्तोमराङ्कुशचोदिताः / एतच्छ्रुत्वा तु नृपतेर्वाक्यं त्वरितमानसः / ग्रामणीयैः समारूढाः कुशलैर्हस्तिसादिभिः // 3 शतानीकस्तु पार्थेभ्यो रथान्राजन्समादिशत् / .. तेषां समागमो घोरस्तुमुलो लोमहर्षणः / सहदेवाय राज्ञे च भीमाय नकुलाय च // 22 देवासुरसमो राजन्नासीत्सूर्ये विलम्बति // 4 तान्प्रहृष्टास्ततः सूता राजभक्तिपुरस्कृताः। उदतिष्ठद्रजो भौमं न प्रज्ञायत किंचन / निर्दिष्टान्नरदेवेन रथाशीघ्रमयोजयन् // 23 पक्षिणश्चापतन्भूमौ सैन्येन रजसावृताः // 5 कवचानि विचित्राणि दृढानि च मृदूनि च / इषुभिर्व्यतिसंयद्भिरादित्योऽन्तरधीयत / विराटः प्रादिशद्यानि तेषामक्लिष्टकर्मणाम् / खद्योतैरिव संयुक्तमन्तरिक्षं व्यराजत // 6 तान्यामुच्य शरीरेषु दंशितास्ते परंतपाः / / 24 रुक्मपृष्ठानि चापानि व्यतिषक्तानि धन्विनाम् / तरविनश्छन्नरूपाः सर्वे युद्धविशारदाः / पततां लोकवीराणां सव्यदक्षिणमस्यताम् // 7 विराटमन्वयुः पश्चात्सहिताः कुरुपुंगवाः / रथा रथैः समाजग्मुः पादातैश्च पदातयः / चत्वारो भ्रातरः शूराः पाण्डवाः सत्यविक्रमाः॥२५ सादिभिः सादिनश्चैव गजैश्चापि महागजाः // 8 भीमाश्च मत्तमातङ्गाः प्रभिन्नकरटामुखाः / असिभिः पट्टिशैः प्रासैः शक्तिभिस्तोमरैरपि / क्षरन्त इव जीमूताः सुदन्ताः षष्टिहायनाः // 26 संरब्धाः समरे राजन्निजनुरितरेतरम् // 9 स्वारूढा युद्धकुशलैः शिक्षितैर्ह स्तिसादिभिः / निघ्नन्तः समरेऽन्योन्यं शूराः परिघबाहवः / राजानमन्वयुः पश्चाच्चलन्त इव पर्वताः // 27 न शेकुरभिसंरब्धाः शूरान्कर्तुं पराङ्मुखान् // 10 विशारदानां वश्यानां हृष्टानां चानुयायिनाम् / क्लप्तोत्तरोष्ठं सुनसं क्लृप्तकेशमलंकृतम् / अष्टौ रथसहस्राणि दश नागशतानि च / अदृश्यत शिरश्छिन्नं रजोध्वस्तं सकुण्डलम् // 11 षष्टिश्चाश्वसहस्राणि मत्स्यानामभिनिर्ययुः // 28 अदृश्यंस्तत्र गात्राणि शरैश्छिन्नानि भागशः / तदनीकं विराटस्य शुशुभे भरतर्षभ / शालस्कन्धनिकाशानि क्षत्रियाणां महामृधे // 12 संप्रयातं महाराज निनीषन्तं गवां पदम् // 29 नागभोगनिकाशैश्च बाहुभिश्चन्दनोक्षितैः / तद्वलाय्यं विराटस्य संप्रस्थितमशोभत / आकीर्णा वसुधा तत्र शिरोभिश्च सकुण्डलैः॥१३ म. भा. 105 - 833 -
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________________ 4. 31. 14 ] महाभारते [4. 32. 15 उपशाम्यद्रजो भौमं रुधिरेण प्रसर्पता। ततः प्रकाशमासाद्य पुनयुद्धमवर्तत / कश्मलं प्राविशद्धोरं निर्मर्यादमवर्तत // 14 घोररूपं ततस्ते स्म नावेक्षन्त परस्परम् // 3 शतानीकः शतं हत्वा विशालाक्षश्चतुःशतम् / ततः सुशर्मा त्रैगर्तः सह भ्रात्रा यवीयसा। प्रविष्टौ महतीं सेनां त्रिगर्तानां महारथौ। . अभ्यद्रवन्मत्स्यराज रथबातेन सर्वशः // 4 आर्छतां बहुसंरब्धौ केशाकेशि नखानखि // 15 ततो रथाभ्यां प्रस्कन्ध भ्रातरौ क्षत्रियर्षभौ / लक्षयित्वा त्रिगर्तानां तौ प्रविष्टौ रथव्रजम् / गदापाणी सुसंरब्धौ समभ्यद्रवतां हयान् // 5 जग्मतुः सूर्यदत्तश्च मदिराश्वश्च पृष्ठतः // 16 तथैव तेषां तु बलानि तानि विराटस्तत्र संग्रामे हत्वा पञ्चशतान्रथान् / ___ क्रुद्धान्यथान्योन्यमभिद्रवन्ति / हयानां च शतान्यत्र हत्वा पञ्च महारथान् // 17 गदासिखङ्गैश्च परश्वधैश्च चरन्स विविधान्मार्गान्रथेषु रथयूथपः / प्रासैश्च तीक्ष्णाग्रसुपीतधारैः // 6 . त्रिगर्तानां सुशर्माणमा द्रुक्मरथं रणे // 18 बलं तु मत्स्यस्य बलेन राजा तौ व्यावहरतां तत्र महात्मानौ महाबलौ / सर्वं त्रिगर्ताधिपतिः सुशर्मा / अन्योन्यमभिगर्जन्तौ गोष्ठे गोवृषभाविव // 19 प्रमथ्य जित्वा च प्रसह्य मत्स्यं ततो रथाभ्यां रथिनौ व्यतियाय समन्ततः / विराटमोजस्विनमभ्यधावत् // 7 शरान्व्यसृजतां शीघ्रं तोयधारा घनाविव // 20 / तौ निहत्य पृथग्धुर्यावुभौ च पाणिसारथी / अन्योन्यं चातिसंरब्धौ विचेरतुरमर्षणौ। विरथं मत्स्यराजानं जीवग्राहमगृहृताम् // 8 कृतास्त्रौ निशितैर्बाणैरसिशक्तिगदाभृतौ // 21 तमुन्मथ्य सुशर्मा तु रुदतीं वधुकामिव / ततो राजा सुशर्माणं विव्याध दशभिः शरैः। स्यन्दनं स्वं समारोप्य प्रययौ शीघ्रवाहनः // 9 पञ्चभिः पञ्चभिश्चास्य विव्याध चतुरो हयान // 22 तस्मिन्गृहीते विरथे विराटे बलवत्तरे / तथैव मत्स्यराजानं सुशर्मा युद्धदुर्मदः। प्राद्रवन्त भयान्मत्स्यास्त्रिगर्तेरर्दिता भृशम् // 10 पञ्चाशता शितैर्बाणैर्विव्याध परमास्त्रवित् // 23 तेषु संत्रास्यमानेषु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / ततः सैन्यं समावृत्य मत्स्यराजसुशर्मणोः / अभ्यभाषन्महाबाहुं भीमसेनमरिंदमम् // 11 नाभ्यजानंस्तदान्योन्यं प्रदोषे रजसावृते // 24 मत्स्यराजः परामृष्टस्त्रिगर्तेन सुशर्मणा / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि एकास्त्रिंशोऽध्यायः॥३१॥ तं मोक्षय महाबाहो न गच्छेद्विषतां वशम् // 12 32 उषिताः स्मः सुखं सर्वे सर्वकामैः सुपूजिताः / वैशंपायन उवाच / भीमसेन त्वया कार्या तस्य वासस्य निष्कृतिः॥१३ तमसाभिप्लुते लोके रजसा चैव भारत / भीमसेन उवाच / व्यतिष्ठन्वै मुहूर्तं तु व्यूढानीकाः प्रहारिणः // 1 अहमेनं परित्रास्ये शासनात्तव पार्थिव / ततोऽन्धकारं प्रणुदन्नुदतिष्ठत चन्द्रमाः / पश्य मे सुमहत्कर्म युध्यतः सह शत्रुभिः // 14 कुर्वाणो विमलां रात्रि नन्दयन्क्षत्रियान्युधि // 2 / स्वबाहुबलमाश्रित्य तिष्ठ त्वं भ्रातृभिः सह / -834 -
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________________ 4. 32. 15] विराटपर्व [4. 32. 41 एकान्तमाश्रितो राजन्पश्य मेऽद्य पराक्रमम् // 15 समासाद्य सुशर्माणमश्वानस्य व्यपोथयत् // 28 सुस्कन्धोऽयं महावृक्षो गदारूप इव स्थितः। पृष्ठगोपौ च तस्याथ हत्वा परमसायकैः / एनमेव समारुज्य द्रावयिष्यामि शात्रवान् // 16 अथास्य सारथिं क्रुद्धो रथोपस्थादपाहरत् // 29 - वैशंपायन उवाच / चक्ररक्षश्च शूरश्च शोणाश्वो नाम विश्रुतः।। तं मत्तमिव मातङ्गं वीक्षमाणं वनस्पतिम् / स भयाद्वैरथं दृष्ट्वा त्रैगर्तं प्राजहत्तदा // 30 अब्रवीद्धातरं वीरं धर्मराजो युधिष्ठिरः // 17 ततो विराटः प्रस्कन्ध रथादथ सुशर्मणः / मा भीम साहसं का स्तिष्ठत्वेष वनस्पतिः / गदामस्य परामृश्य तमेवाजनिवान्बली / मा त्वा वृक्षेण कर्माणि कुर्वाणमतिमानुषम् / / स चचार गदापाणिवृद्धोऽपि तरुणो यथा // 31 जनाः समवबुध्येरन्भीमोऽयमिति भारत // 18 भीमस्तु भीमसंकाशो रथात्प्रस्कन्ध कुण्डली / अन्यदेवायुधं किंचित्प्रतिपद्यस्व मानुषम् / त्रिगर्तराजमादत्त सिंहः क्षुद्रमृगं यथा // 32 चापं वा यदि वा शक्तिं निस्त्रिंशं वा परश्वधम् // 19 तस्मिन्गृहीते विरथे त्रिगर्तानां महारथे / यदेव मानुषं भीम भवेदन्यैरलक्षितम् / अभज्यत बलं सर्वं गतं तद्भयातुरम् // 33 तदेवायुधमादाय मोक्षयाशु महीपतिम् / / 20 निवर्त्य गास्ततः सर्वाः पाण्डुपुत्रा महाबलाः / यमौ च चक्ररक्षौ ते भवितारौ महाबलौ / अवजित्य सुशर्माणं धनं चादाय सर्वशः // 34 व्यूहतः समरे तात मत्स्यराज परीप्सतः // 21 स्वबाहुबलसंपन्ना ह्रीनिषेधा यतव्रताः / ततः समस्तास्ते सर्वे तुरगानभ्यचोदयन् / संग्रामशिरसो मध्ये तां रात्रि सुखिनोऽवसन् // 35 दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणास्त्रिगर्तान्प्रत्यमर्षणाः // 22 ततो विराटः कौन्तेयानतिमानुषविक्रमान् / तान्निवृत्तरथान्दृष्ट्वा पाण्डवान्सा महाचमूः। . अर्चयामास वित्तेन मानेन च महारथान् // 36 वैराटी परमक्रुद्धा युयुधे परमाद्भुतम् // 23 विराट उवाच / सहस्रं न्यवधीत्तत्र कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। यथैव मम रत्नानि युष्माकं तानि वै तथा। भीमः सप्तशतान्योधान्परलोकमदर्शयत् / कार्यं कुरुत तैः सर्वे यथाकामं यथासुखम् // 37 नकुलश्चापि सप्तैव शतानि प्राहिणोच्छरैः // 24 ददान्यलंकृताः कन्या वसूनि विविधानि च / शतानि त्रीणि शूराणां सहदेवः प्रतापवान् / / मनसश्चाप्यभिप्रेतं यद्वः शत्रुनिबर्हणाः // 38 युधिष्ठिरसमादिष्टो निजन्ने पुरुषर्षभः। युष्माकं विक्रमादद्य मुक्तोऽहं स्वस्तिमानिह / भित्त्वा तां महतीं सेनां त्रिगर्तानां नरर्षभ // 25 तस्माद्भवन्तो मत्स्यानामीश्वराः सर्व एव हि // 39 ततो युधिष्ठिरो राजा त्वरमाणो महारथः / वैशंपायन उवाच / अभिद्रुत्य सुशर्माणं शरैरभ्यतुदद्भुशम् / 26 तथाभिवादिनं मत्स्यं कौरवेयाः पृथक्पृथक् / सुशर्मापि सुसंक्रुद्धस्त्वरमाणो युधिष्ठिरम् / ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे युधिष्ठिरपुरोगमाः // 40 अविध्यन्नवभिर्वाणैश्चतुर्भिश्चतुरो हयान् // 27 प्रतिनन्दाम ते वाक्यं सर्वं चैव विशां पते। ततो राजन्नाशुकारी कुन्तीपुत्रो वृकोदरः।। एतेनैव प्रतीताः स्मो यत्त्वं मुक्तोऽद्य शत्रुभिः॥४१ - 835 -
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________________ 4. 32. 42] महाभारत [ 4. 38. 19 अथाब्रवीत्प्रीतमना मत्स्यराजो युधिष्ठिरम्। घोषान्विद्राव्य तरसा गोधनं जहुरोजसा // 4 पुनरेव महाबाहुविराटो राजसत्तमः / षष्टिं गवां सहस्राणि कुरवः कालयन्ति ते। एहि त्वामभिषेक्ष्यामि मत्स्यराजोऽस्तु नो भवान् // महता रथवंशेन परिवार्य समन्ततः // 5 मनसश्चाप्यभिप्रेतं यत्ते शत्रुनिबर्हण / गोपालानां तु घोषेषु हन्यतां तैर्महारथैः। तत्तेऽहं संप्रदास्यामि सर्वमर्हति नो भवान् // 43 आरावः सुमहानासीत्संप्रहारे भयंकरे // 6 रत्नानि गाः सुवर्णं च मणिमुक्तमथापि वा।। गवाध्यक्षस्तु संत्रस्तो रथमास्थाय सत्वरः / वैयाघ्रपद्य विप्रेन्द्र सर्वथैव नमोऽस्तु ते // 44 जगाम नगरायैव परिक्रोशंस्तदातवत् // 7 त्वत्कृते ह्यद्य पश्यामि राज्यमात्मानमेव च।। स प्रविश्य पुरं राज्ञो नृपवेश्माभ्ययात्ततः / यतश्च जातः संरम्भः स च शत्रुर्वशं गतः // 45 अवतीर्य रथात्तर्णमाख्यातुं प्रविवेश ह // 8 ततो युधिष्ठिरो मत्स्यं पुनरेवाभ्यभाषत / दृष्ट्वा भूमिंजयं नाम पुत्रं मत्स्यस्य मानिनम् / प्रतिनन्दामि ते वाक्यं मनोझं मत्स्य भाषसे / / 46 तस्मै तत्सर्वमाचष्ट राष्ट्रस्य पशुकर्षणम् // 9 आनृशंस्यपरो नित्यं सुसुखः सततं भव / षष्टिं गवां सहस्राणि कुरवः कालयन्ति ते / गच्छन्तु दूतास्त्वरितं नगरं तव पार्थिव / तद्विजेतुं समुत्तिष्ठ गोधनं राष्ट्रवर्धनम् // 10 सुहृदां प्रियमाख्यातुं घोषयन्तु च ते जयम् // 47 राजपुत्र हितप्रेप्सुः क्षिप्रं निर्याहि वै स्वयम् / ततस्तद्वचनान्मत्स्यो दूतान्राजा समादिशत् / त्वां हि मत्स्यो महीपालः शून्यपालमिहाकरोत् // 11 आचक्षध्वं पुरं गत्वा संग्रामे विजयं मम // 48 त्वया परिषदो मध्ये श्लाघते स नराधिपः / कुमाराः समलंकृत्य पर्यागच्छन्तु मे पुरात् / / पुत्रो ममानुरूपश्च शूरश्चेति कुलोद्वहः // 12 वादित्राणि च सर्वाणि गणिकाश्च स्वलंकृताः // 49 , इष्वस्त्रे निपुणो योधः सदा वीरश्च मे सुतः / ते गत्वा केवलां रात्रिमथ सूर्योदयं प्रति / तस्य तत्सत्यमेवास्तु मनुष्येन्द्रस्य भाषितम् // 13 विराटस्य पुराभ्याशे दूता जयमघोषयन् // 50 / आवर्तय कुरूञ्जित्वा पशून्पशुमतां वर / / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः // 32 // निर्दहैषामनीकानि भीमेन शरतेजसा // 14 धनुभ्युतै रुक्मपुङ्खैः शरैः संनतपर्वभिः / वैशंपायन उवाच। द्विषतां भिन्ध्यनीकानि गजानामिव यूथपः // 15 याते त्रिगर्त मत्स्ये तु पशूस्तान्स्वान्परीप्सति / पाशोपधानां ज्यातत्री चापदण्डां महास्वनाम् / दुर्योधनः सहामात्यो विराटमुपयादथ / / 1 शरवर्णां धनुर्वीणां शत्रुमध्ये प्रवादय // 16 भीष्मो द्रोणश्च कर्णश्च कृपश्च परमास्त्रवित् / श्वेता रजतसंकाशा रथे युज्यन्तु ते हयाः / द्रौणिश्च सौबलश्चैव तथा दुःशासनः प्रभुः // 2 ध्वजं च सिंहं सौवर्णमुच्छ्रयन्तु तवाभिभोः // 17 विविंशतिर्विकर्णश्च चित्रसेनश्च वीर्यवान् / रुक्मपुङ्खाः प्रसन्नाया मुक्ता हस्तवता त्वया / दुर्मुखो दुःसहश्चैव ये चैवान्ये महारथाः // 3 छादयन्तु शराः सूर्यं राज्ञामायुर्निरोधिनः // 18 एते मत्स्यानुपागम्य विराटस्य महीपतेः / रणे जित्वा कुरून्सर्वान्वज्रपाणिरिवासुरान् / -836 -
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________________ 4. 33. 19] विराटपर्व [4. 35. यशो महदवाप्य त्वं प्रविशेदं पुरं पुनः // 19 व्रीडमानेव शनकैरिदं वचनमब्रवीत् // 11 त्वं हि राष्ट्रस्य परमा गतिर्मत्स्यपतेः सुतः। योऽसौ बृहद्वारणाभो युवा सुप्रियदर्शनः / गतिमन्तो भवन्त्वद्य सर्वे विषयवासिनः // 20 / बृहन्नडेति विख्यातः पार्थस्यासीत्स सारथिः॥१२ स्त्रीमध्य उक्तस्तेनासौ तद्वाक्यमभयंकरम् / / धनुष्यनवरश्वासीत्तस्य शिष्यो महात्मनः / अन्तःपुरे श्लाघमान इदं वचनमब्रवीत् // 21 / / दृष्टपूर्वो मया वीर चरन्त्या पाण्डवान्प्रति // 13 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः // 33 // यदा तत्पावको दावमदहत्खाण्डवं महत् / अर्जुनस्य तदानेन संगृहीता हयोत्तमाः॥ 14 उत्तर उवाच / तेन सारथिना पार्थः सर्वभूतानि सर्वशः / अद्याहमनुगच्छेयं दृढधन्वा गवां पदम् / .. अजयत्खाण्डवप्रस्थे न हि यन्तास्ति तादृशः // 15 यदि मे सारथिः कश्चिद्भवेदश्वेषु कोविदः // 1 येयं कुमारी सुश्रोणी भगिनी ते यवीयसी। तमेव नाधिगच्छामि यो मे यन्ता भवेन्नरः / अस्याः स वचनं वीर करिष्यति न संशयः // 16 पश्यध्वं सारथिं क्षिप्रं मम युक्तं प्रयास्यतः // 2 यदि वै सारथिः स स्यात्कुरून्सर्वानसंशयम् / . अष्टाविंशतिरात्रं वा मासं पा नूनमन्ततः / जित्वा गाश्च समादाय ध्रुवमागमनं भवेत् // 17 यत्तदासीन्महाद्धं तत्र मे सारथिर्हतः // 3 एवमुक्तः स सैरन्ध्या भगिनीं प्रत्यभाषत / स लभेयं यदि त्वन्यं हययानविदं नरम् / गच्छ त्वमनवद्याङ्गि तामानय बृहन्नडाम् // 18 त्वरावानद्य यात्वाहं समुच्छ्रितमहाध्वजम् // 4 सा भ्रात्रा प्रेषिता शीघ्रमगच्छन्नर्तनागृहम् / विगाह्य तत्परानीकं गजवाजिरथाकुलम् / यत्रास्ते स महाबाहुश्छन्नः सत्रेण पाण्डवः // 19 शस्त्रप्रतापनिर्वीर्यान्कुरूञ्जित्वानये पशून // 5 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः॥३४॥ दुर्योधनं शांतनवं कर्णं वैकर्तनं कृपम् / द्रोणं च सह पुत्रेण महेष्वासान्समागतान् // 6 वैशंपायन उवाच / वित्रासयित्वा संग्रामे दानवानिव वज्रभृत् / स तां दृष्ट्वा विशालाक्षी राजपुत्री सखी सखा। अनेनैव मुहूर्तेन पुनः प्रत्यानये पशून् // 7 प्रहसन्नब्रवीद्राजन्कुत्रागमनमित्युत // 1 शून्यमासाद्य कुरवः प्रयान्त्यादाय गोधनम् / तमब्रवीद्राजपुत्री समुपेत्य नरर्षभम् / किं नु शक्यं मया कर्तुं यदहं तत्र नाभवम् // 8 प्रणयं भावयन्ती स्म सखीमध्य इदं वचः // 2 पश्येयुरद्य मे वीर्यं कुरवस्ते समागताः। गावो राष्ट्रस्य कुरुभिः काल्यन्ते नो बृहन्नडे / किं नु पार्थोऽर्जुनः साक्षादयमस्मान्प्रबाधते // 9 . तान्विजेतुं मम भ्राता प्रयास्यति धनुर्धरः // 3 . वैशंपायन उवाच / नचिरं च हतस्तस्य संग्रामे रथसारथिः / तस्य तद्वचनं स्त्रीषु भाषतः स्म पुनः पुनः / तेन नास्ति समः सूतो योऽस्य सारथ्यमाचरेत्॥४ नामर्षयत पाञ्चाली बीभत्सोः परिकीर्तनम् // 10 तस्मै प्रयतमानाय सारथ्यर्थं बृहन्नडे / अथैनमुपसंगम्य स्त्रीमध्यात्सा तपस्विनी / आचचक्षे यज्ञाने सैरन्ध्री कौशलं तव / / 5 - 887 -
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________________ 4. 35. 6] महाभारत [4. 36.6 सा सारथ्यं मम भ्रातुः कुरु साधु बृहन्नडे / स बिभ्रत्कवचं चायं स्वयमप्यंशुमत्प्रभम् / पुरा दूरतरं गावो ह्रियन्ते कुरुभिर्हि नः / / 6 ध्वजं च सिंहमुच्छ्रित्य सारथ्ये समकल्पयत् // 20 अथैतद्वचनं मेऽद्य नियुक्ता न करिष्यसि / धनूंषि च महार्हाणि बाणांश्च रुचिरान्बहून् / प्रणयादुच्यमाना त्वं परित्यक्ष्यामि जीवितम् // 7 आदाय प्रययौ वीरः स बृहन्नडसारथिः // 21 एवमुक्तस्तु सुश्रोण्या तया सख्या परंतपः / अथोत्तरा च कन्याश्च सख्यस्तामब्रुवंस्तदा / जगाम राजपुत्रस्य सकाशममितौजसः // 8 . बृहन्नडे आनयेथा वासांसि रुचिराणि नः // 22 तं सा व्रजन्तं त्वरितं प्रभिन्नमिव कुञ्जरम् / पाश्चालिकार्थं सूक्ष्माणि चित्राणि विविधानि च / अन्वगच्छद्विशालाक्षी शिशुर्गजवधूरिव // 9 विजित्य संग्रामगतान्भीष्मद्रोणमुखान्कुरून् // 23 दूरादेव तु तं प्रेक्ष्य राजपुत्रोऽभ्यभाषत / अथ ता ब्रुवतीः कन्याः सहिताः पाण्डुनन्दनः। त्वया सारथिना पार्थः खाण्डवेऽग्निमतर्पयत् // 10 प्रत्युवाच हसन्पार्थो मेघदुन्दुभिनिःस्वनः // 24. . पृथिवीमजयत्कृत्रनां कुन्तीपुत्रो धनंजयः / यद्युत्तरोऽयं संग्रामे विजेष्यति महारथान् / सैरन्ध्री त्वां समाचष्ट सा हि जानाति पाण्डवान् / / अथाहरिष्ये वासांसि दिव्यानि रुचिराणि च // 25 संयच्छ मामकानश्वांस्तथैव त्वं बृहन्नडे / एवमुक्त्वा तु बीभत्सुस्ततः प्राचोदयद्धयान् / . कुरुभिर्योत्स्यमानस्य गोधनानि परीप्सतः // 12 कुरूनभिमुखाशूरो नानाध्वजपताकिनः // 26 अर्जुनस्य किलासीस्त्वं सारथिर्दयितः पुरा / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः // 35 // : त्वयाजयत्सहायेन पृथिवीं पाण्डवर्षभः // 13 एवमुक्ता प्रत्युवाच राजपुत्रं बृहन्नडा। वैशंपायन उवाच। का शक्तिर्मम सारथ्यं कर्तुं संग्राममूर्धनि // 14 स राजधान्या निर्याय वैराटिः पृथिवींजयः / गीतं वा यदि वा नृत्तं वादित्रं वा पृथग्विधम् / प्रयाहीत्यब्रवीत्सतं यत्र ते कुरवो गताः // 1 / तत्करिष्यामि भद्रं ते सारथ्यं तु कुतो मयि // 15 समवेतान्कुरून्यावजिगीषूनवजित्य वै / उत्तर उवाच / गाश्चैषां क्षिप्रमादाय पुनरायामि खं पुरम् // 2 बृहन्नडे गायनो वा नर्तनो वा पुनर्भव / ततस्तांश्चोदयामास सदश्वान्पाण्डुनन्दनः / क्षिप्रं मे रथमास्थाय निगृह्णीष्व हयोत्तमान् // 16 ते हया नरसिंहेन चोदिता वातरंहसः / वैशंपायन उवाच। आलिखन्त इवाकाशमूहुः काञ्चनमालिनः // 3 स तत्र नर्मसंयुक्तमकरोत्पाण्डवो बहु / नातिदूरमथो यात्वा मत्स्यपुत्रधनंजयौ / उत्तरायाः प्रमुखतः सर्वं जाननरिंदम / / 17 अवेक्षेताममित्रनी कुरूणां बलिनां बलम् / ऊर्ध्वमुत्क्षिप्य कवचं शरीरे प्रत्यमुश्चत / श्मशानमभितो गत्वा आससाद कुरूनथ // 4 कुमार्यस्तत्र तं दृष्ट्वा प्राहसन्पृथुलोचनाः // 18 तदनीकं महत्तेषां विबभौ सागरस्वनम् / स तु दृष्ट्वा विमुह्यन्तं स्वयमेवोत्तरस्ततः / सर्पमाणमिवाकाशे वनं बहुलपादपम् // 5 कवचेन महाहेण समनह्यगृहन्नडाम् // 19 ददृशे पार्थिवो रेणुजनितस्तेन सर्पता / -838 -
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________________ 4. 36. 6] विराटपर्व [4. 36. 31 दृष्टिप्रणाशो भूतानां दिवस्पृङरसत्तम // 6. नेष्यामि त्वां महाबाहो पृथिव्यामपि युध्यतास् // तदनीकं महदृष्ट्वा गजाश्वरथसंकुलम् / तथा स्त्रीषु प्रतिश्रुत्य पौरुषं पुरुषेषु च / / कर्णदुर्योधनकृपैगुप्तं शांतनवेन च // 7 कत्थमानोऽभिनिर्याय किमर्थं न युयुत्ससे // 20 द्रोणेन च सपुत्रेण महेष्वासेन धीमता। न चेद्विजित्य गास्तास्त्वं गृहान्वै प्रतियास्यसि। : हृष्टरोमा भयोद्विग्नः पार्थं वैराटिरब्रवीत् // 8 प्रहसिष्यन्ति वीर त्वां नरा नार्यश्च संगताः॥२१ नोत्सहे कुरुभिर्योद्धं रोमहर्षं हि पश्य मे।। अहमप्यत्र सैरन्ध्या स्तुतः सारथ्यकर्मणि / / बहुप्रवीरमत्युग्रं देवैरपि दुरासदम्। न हि शक्ष्याम्यनिर्जित्य गाः प्रयातुं पुरं प्रति // 22 प्रतियोढुं न शक्ष्यामि कुरसैन्यमनन्तकम् // 9 स्तोत्रेण चैव सैरन्ध्यास्तव वाक्येन तेन च।। नाशंसे भारती सेनां प्रवेष्टुं भीमकार्मुकाम् / कथं न युध्येयमहं कुरून्सर्वान्स्थिरो भव // 23 रथनागाश्वकलिलां पत्तिध्वजसमाकुलाम् / उत्तर उवाच / दृष्ट्वैव हि परानाजावात्मा प्रव्यथतीव मे // 10 कामं हरन्तु मत्स्यानां भूयांसं कुरवो धनम् / यत्र द्रोणश्च भीष्मश्च कृपः कर्णो विविंशतिः / प्रहसन्तु च मां नार्यो नरा वापि बृहन्नडे // 24 अश्वत्थामा विकर्णश्च सोमदत्तोऽथ बाह्निकः॥११ - वैशंपायन उवाच / दुर्योधनस्तथा वीरो राजा च रथिनां वरः / इत्युक्त्वा प्राद्रवद्भीतो रथात्प्रस्कन्ध कुण्डली / / धुलिमन्तो महेष्वासाः सर्वे युद्धविशारदाः // 12 त्यक्त्वा मानं स मन्दात्मा विसृज्य सशरं धनुः // दृष्ट्वैव हि कुरूनेतान्व्यूढानीकान्प्रहारिणः / बृहन्नडोवाच / हृषितानि च रोमाणि कश्मलं चागतं मम // 13 नैष पूर्वैः स्मृतो धर्मः क्षत्रियस्य पलायनम् / . वैशंपायन उवाच / श्रेयस्ते मरणं युद्धे न भीतस्य पलायनम् // 26 अवियातो वियातस्य माधूर्तस्य पश्यतः / वैशंपायन उवाच परिदेवयते मन्दः सकाशे सव्यसाचिनः // 14 एवमुक्त्वा तु कौन्तेयः सोऽवप्लुत्य रथोत्तमात् / त्रिगर्तान्मे पिता यातः शून्ये संप्रणिधाय माम् / तमन्वधावद्धावन्तं राजपुत्रं धनंजयः / सर्वां सेनामुपादाय न मे सन्तीह सैनिकाः // 15 दीर्घा वेणीं विधुन्वानः साधु रक्ते च वाससी // 27 सोऽहमेको बहून्बालः कृतास्त्रानकृतश्रमः। विधूय वेणी धावन्तमजानन्तोऽर्जुनं तदा / प्रतियोढुं न शक्ष्यामि निवर्तस्व बृहन्नडे // 16 सैनिकाः प्राहसन्केचित्तथारूपमवेक्ष्य तम् // 28 अर्जुन उवाच / तं शीघ्रमभिधावन्तं संप्रेक्ष्य कुरवोऽब्रुवन् / भयेन दीनरूपोऽसि द्विषतां हर्षवर्धनः / क एष वेषप्रच्छन्नो भस्मनेव हुताशनः // 29 न च तावत्कृतं किंचित्परैः कर्म रणाजिरे // 17 / किंचिदस्य यथा पुंसः किंचिदस्य यथा स्त्रियः। स्वयमेव च मामात्थ वह मां कौरवान्प्रति / सारूप्यमर्जुनस्येव क्लीबरूपं बिभर्ति च // 30 सोऽहं त्वां तत्र नेष्यामि यत्रैते बहुला ध्वजाः॥१८ | तदेवैतच्छिरोग्रीवं तौ बाहू परिघोपमौ / मध्यमामिषगृध्राणां कुरूणामाततायिनाम् / | तद्वदेवास्य विक्रान्तं नायमन्यो धनंजयात् // 31 - 839 -
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________________ 4. 36. 32] महाभारते 14. 37. 11 अमरेष्विव देवेन्द्रो मानुषेषु धनंजयः / यन्ता भूस्त्वं नरश्रेष्ठ योत्स्येऽहं कुरुभिः सह // 45 एकः कोऽस्मानुपायायादन्यो लोके धनंजयात्॥३२ एवं ब्रुवाणो बीभत्सुर्वैराटिमपराजितः / एकः पुत्रो विराटस्य शून्ये संनिहितः पुरे / समाश्वास्य मुहूर्तं तमुत्तरं भरतर्षभ / / 46 स एष किल निर्यातो बालभावान्न पौरुषात् // 33 तत एनं विचेष्टन्तमकामं भयपीडितम् / सत्रेण नूनं छन्नं हि चरन्तं पार्थमर्जुनम् / रथमारोपयामास पार्थः प्रहरतां वरः // 47 उत्तरः सारथिं कृत्वा निर्यातो नगराबहिः // 34 / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि पत्रिंशोऽध्यायः॥३६॥ स नो मन्ये ध्वजान्दृष्ट्वा भीत एष पलायति / 37 तं नूनमेष धावन्तं जिघृक्षति धनंजयः॥ 35 वैशंपायन उवाच / इति स्म कुरवः सर्वे विमृशन्त पृथक्पृथक् / तं दृष्ट्वा क्लीबवेषेण रथस्थं नरपुंगवम् / न च व्यवसितुं किंचिदुत्तरं शक्नुवन्ति ते / शमीमभिमुखं यान्तं रथमारोप्य चोत्तरम् // 1. . छन्नं तथा तं सत्रेण पाण्डवं प्रेक्ष्य भारत // 36 भीष्मद्रोणमुखास्तत्र कुरूणां रथसत्तमाः। उत्तरं तु प्रधावन्तमनुद्रुत्य धनंजयः / वित्रस्तमनसः सर्वे धनंजयकृताद्भयात् // 2 गत्वा पदशतं तूर्णं केशपक्षे परामृशत् // 37 तानवेक्ष्य हतोत्साहानुत्पातानपि चाद्भुतान् / सोऽर्जुनेन परामृष्टः पर्यदेवयदार्तवत् / / गुरुः शस्त्रभृतां श्रेष्ठो भारद्वाजोऽभ्यभाषत // 3 बहुलं कृपणं चैव विराटस्य सुतस्तदा // 38 चलाश्च वाताः संवान्ति रूक्षाः परुषनिःस्वनाः / शातकुम्भस्य शुद्धस्य शतं निष्कान्ददामि ते भस्मवर्णप्रकाशेन तमसा संवृतं नभः // 4 मणीनष्टौ च वैडूर्यान्हेमबद्धान्महाप्रभान // 39 रूक्षवर्णाश्च जलदा दृश्यन्तेऽद्भुतदर्शनाः / हेमदण्डप्रतिच्छन्नं रथं युक्तं च सुव्रजैः / निःसरन्ति च कोशेभ्यः शस्त्राणि विविधानि च॥५ मत्तांश्च दश मातङ्गान्मुञ्च मां त्वं बृहन्नडे // 40 शिवाश्च विनदन्त्येता दीप्तायां दिशि दारुणाः / वैशंपायन उवाच। हयाश्चाश्रूणि मुञ्चन्ति ध्वजाः कम्पन्त्यकम्पिताः॥६ एवमादीनि वाक्यानि विलपन्तमचेतसम् / यादृशान्यत्र रूपाणि संदृश्यन्ते बहून्यपि / प्रहस्य पुरुषव्याघ्रो रथस्यान्तिकमानयत् // 41 यत्ता भवन्तस्तिष्ठन्तु स्याद्युद्धं समुपस्थितम् // 7 अथैनमब्रवीत्पार्थो भयातं नष्टचेतसम् / रक्षध्वमपिं चात्मानं व्यूहध्वं वाहिनीमपि / यदि नोत्सहसे योद्धं शत्रुभिः शत्रुकर्शन / वैशसं च प्रतीक्षध्वं रक्षध्वं चापि गोधनम् // 8 एहि मे त्वं हयान्यच्छ युध्यमानस्य शत्रुभिः // 42 एष वीरो महेष्वासः सर्वशस्त्रभृतां वरः। प्रयाह्येतद्रथानीकं मबाहुबलरक्षितः / आगतः क्लीबवेषेण पार्थो नास्त्यत्र संशयः // 9 अप्रधृष्यतमं घोरं गुप्तं वीरैर्महारथैः // 43 स एष पार्थो विक्रान्तः सव्यसाची परंतपः / मा भैस्त्यं राजपुत्राय्य क्षत्रियोऽसि परंतप / नायुद्धेन निवर्तेत सर्वैरपि मरुद्गणैः // 10 अहं वै कुरुभिर्योत्स्याम्यवजेष्यामि ते पशून // 44 / क्लेशितश्च वने शूरो वासवेन च शिक्षितः / प्रविश्यैतद्रथानीकमप्रधृष्यं दुरासदम्। अमर्षवशमापन्नो योत्स्यते नात्र संशयः // 11 - 840 -
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________________ 4. 37. 12] विराटपर्व [4. 38. 19 नेहास्य प्रतियोद्धारमहं पश्यामि कौरवाः / सर्वायुधमहामात्रं शत्रुसंबाधकारकम् // 7 महादेवोऽपि पार्थेन श्रूयते युधि तोषितः // 12 सुवर्णविकृतं दिव्यं श्लक्ष्णमायतमव्रणम् / कर्ण उवाच / अलं भारं गुरुं वोढुं दारुणं चारुदर्शनम् / सदा भवान्फल्गुनस्य गुणैरस्मान्विकत्थसे / तादृशान्येव सर्वाणि बलवन्ति दृढानि च // 8 न चार्जुनः कला पूर्णा मम दुर्योधनस्य वा // 13 उत्तर उवाच। दुर्योधन उवाच / अस्मिन्वृक्षे किलोद्बद्धं शरीरमिति नः श्रुतम् / यद्येष पार्थो राधेय कृतं कार्य भवेन्मम / . तदहं राजपुत्रः सन्स्पृशेयं पाणिना कथम् // 9 ज्ञाताः पुनश्चरिष्यन्ति द्वादशान्यान्हि वत्सरान् / / 14 नैवंविधं मया युक्तमालब्धुं क्षत्रयोनिना। अथैष कश्चिदेवान्यः क्लीबवेषेण मानवः / महता राजपुत्रेण मन्त्रयज्ञविदा सता॥ 10 शरैरेनं सुनिशितैः पातयिष्यामि भूतले // 15 स्पृष्टवन्तं शरीरं मां शववाहमिवाशुचिम् / वैशंपायन उवाच / कथं वा व्यवहार्य वै कुर्वीथास्त्वं बृहन्नडे // 11 तस्मिन्ब्रुवति तद्वाक्यं धार्तराष्ट्र परंतपे / बृहन्नडोवाच / भीष्मो द्रोणः कृपो द्रौणिः पौरुषं तदपूजयन् // 16 व्यवहार्थश्च राजेन्द्र शुचिश्चैव भविष्यसि / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि सप्तत्रिंशोऽध्यायः // 37 // धनूंष्येतानि मा भैस्त्वं शरीरं नात्र विद्यते // 12 38 दायादं मत्स्यराजस्य कुले जातं मनस्विनम् / वैशंपायन उवाच / कथं त्वा निन्दितं कर्म कारयेयं नृपात्मज // 13 तां शमीमुपसंगम्य पार्थो वैराटिमब्रवीत् / वैशंपायन उवाच / सुकुमारं समाज्ञातं संग्रामे नातिकोविदम् // 1 एवमुक्तः स पार्थेन रथात्प्रस्कन्ध कुण्डली / समादिष्टो मया क्षिप्रं धनूंष्यवहरोत्तर / आरुरोह शमीवृक्षं वैराटिरवशस्तदा // 14 नेमानि हि त्वदीयानि सोढुं शक्ष्यन्ति मे बलम् // 2 तमन्वशासच्छत्रुनो रथे तिष्ठन्धनंजयः / भारं वापि गुरुं हर्तुं कुञ्जरं वा प्रमर्दितुम् / परिवेष्टनमेतेषां क्षिप्रं चैव व्यपानुद // 15 मम वा बाहुविक्षेपं शत्रूनिह विजेष्यतः // 3 तथा संनहनान्येषां परिमुच्य समन्ततः / तस्माद्भमिंजयारोह शमीमेतां पलाशिनीम। अपश्यद्गाण्डिवं तत्र चतुर्भिरपरैः सह // 16 अस्यां हि पाण्डुपुत्राणां धनूंषि निहितान्युत // 4 तेषां विमुच्यमानानां धनुषामर्कवर्चसाम् / युधिष्ठिरस्य भीमस्य बीभत्सोर्यमयोस्तथा। विनिश्चेरुः प्रभा दिव्या ग्रहाणामुदयेष्विव // 17 ध्वजाः शराश्च शूराणां दिव्यानि कवचानि च // 5 स तेषां रूपमालोक्य भोगिनामिव जम्भताम् / अत्र चैतन्महावीर्य धनुः पार्थस्य गाण्डिवम् / हृष्टरोमा भयोद्विमः क्षणेन समपद्यत // 18 एकं शतसहस्रेण संमितं राष्ट्रवर्धनम् // 6 संस्पृश्य तानि चापानि भानुमन्ति बृहन्ति च / व्यायामसहमत्यर्थं तृणराजसमं महत् / / वैराटिरर्जुनं राजन्निदं वचनमब्रवीत् // 19 म. भा. 106 - 841 -
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________________ 4. 38. 20 ] महाभारते [4. 38. 48 उत्तर उवाच / निस्त्रिंशोऽयं गुरुः पीतः सैक्यः परमनिर्बणः // 34 बिन्दवो जातरूपस्य शतं यस्मिन्निपातिताः / निर्दिशस्व यथातत्त्वं मया पृष्टा बृहन्नडे / सहस्रकोटिसौवर्णाः कस्यैतद्धनुरुत्तमम् / / 20 विस्मयो मे परो जातो दृष्ट्वा सर्वमिदं महत् // 35 वारणा यस्य सौवर्णाः पृष्ठे भासन्ति दंशिताः / बृहन्नडोवाच / सुपार्श्व सुग्रहं चैव कस्यैतद्धनुरुत्तमम् // 21 यन्मां पूर्वमिहापृच्छः शत्रुसेनानिबर्हणम् / तपनीयस्य शुद्धस्य षष्टिर्यस्येन्द्रगोपकाः / गाण्डीवमेतत्पार्थस्य लोकेषु विदितं धनुः // 36 पृष्ठे विभक्ताः शोभन्ते कस्यैतद्धनुरुत्तमम् / / 22 सर्वायुधमहामात्रं शातकुम्भपरिष्कृतम् / सूर्या यत्र च सौवर्णास्त्रयो भासन्ति दंशिताः / एतत्तदर्जुनस्यासीद्गाण्डीवं परमायुधम् // 37 तेजसा प्रज्वलन्तो हि कस्यैतद्धनुरुत्तमम् // 23 यत्तच्छतसहस्रेण संमितं राष्ट्रवर्धनम् / शालभा यत्र सौवर्णास्तपनीयविचित्रिताः / येन देवान्मनुष्यांश्च पार्थो विषहते मृधे // 38. सुवर्णमणिचित्रं च कस्यैतद्वनुरुत्तमम् // 24 देवदानवगन्धर्वैः पूजितं शाश्वतीः समाः / इमे च कस्य नाराचाः सहस्रा लोमवाहिनः / एतद्वर्षसहस्रं तु ब्रह्मा पूर्वमधारयत् / / 39 समन्तात्कलधौताया उपासङ्गे हिरण्मये // 25 ततोऽनन्तरमेवाथ प्रजापतिरधारयत् / विपाठाः पृथवः कस्य गार्धपत्राः शिलाशिताः / त्रीणि पञ्चशतं चैव शक्रोऽशीति च पश्च च // 40 हारिद्रवर्णाः सुनसाः पीताः सर्वायसाः शराः॥२६ सोमः पञ्चशतं राजा तथैव वरुणः शतम् / / कस्यायमसितावापः पञ्चशार्दूललक्षणः / पार्थः पञ्च च षष्टिं च वर्षाणि श्वेतवाहनः / / 41 वराहकर्णव्यामिश्रः शरान्धारयते दश // 27 महावीर्य महद्दिव्यमेतत्तद्धनुरुत्तमम् / कस्येमे पृथवो दीर्घाः सर्वपारशवाः शराः। पूजितं सुरमर्येषु बिभर्ति परमं वपुः / / 42 शतानि सप्त तिष्ठन्ति नाराचा रुधिराशनाः // 28 सुपार्श्व भीमसेनस्य जातरूपग्रहं धनुः / कस्येमे शुकपत्राभैः पूर्वैरर्धेः सुवाससः / येन पार्थोऽजयत्कृत्स्नां दिशं प्राची परंतपः // 43 उत्तरैरायसैः पीतैर्हेमपुत्रैः शिलाशितैः // 29 / इन्द्रगोपकचित्रं च यदेतच्चारुविग्रहम् / कस्यायं सायको दीर्घः शिलीपृष्ठः शिलीमुखः / राज्ञो युधिष्ठिरस्यैतद्वैराटे धनुरुत्तमम् // 44 वैयाघ्रकोशे निहितो हेमचित्रत्सरुर्महान् // 30 सूर्या यस्मिंस्तु सौवर्णाः प्रभासन्ते प्रभासिनः / सुफलचित्रकोशश्च किङ्किणीसायको महान् / तेजसा प्रज्वलन्तो वै नकुलस्यैतदायुधम् / / 45 कस्य हेमत्सरुर्दिव्यः खड्गः परमनिव्रणः // 31 शलभा यत्र सौवर्णास्तपनीयविचित्रिताः / कस्यायं विमलः खड्गो गव्ये कोशे समर्पितः / एतन्माद्रीसुतस्यापि सहदेवस्य कार्मुकम् // 46 हेमत्सरुरनाधृष्यो नैषध्यो भारसाधनः // 32 ये त्विमे क्षुरसंकाशाः सहस्रा लोमवाहिनः / कस्ख पाश्चनखे कोशे सायको हेमविग्रहः / एतेऽर्जुनस्य वैराटे शराः सर्पविषोपमाः // 47 प्रमाणरूपसंपन्नः पीत आकाशसंनिभः // 33 / / एते ज्वलन्तः संग्रामे तेजसा शीघ्रगामिनः / कस्य हेममये कोशे सुतप्ते पावकप्रभे। | भवन्ति वीरस्याक्षय्या ब्यूहतः समरे रिपून // 48 -842 -
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________________ 4. 38. 49] विराटपर्व [4. 39. 15 ये चेमे पृथवो दीर्घाश्चन्द्रबिम्बार्धदर्शनाः / जितानक्षैस्तदा कृष्णा तानेवान्वगमद्वनम् // 4 / एते भीमस्य निशिता रिपुक्षयकराः शराः // 49 अर्जुन उवाच / हारिद्रवर्णा ये त्वेते हेमपुङ्खाः शिलाशिताः / अहमस्म्यर्जुनः पार्थः सभास्तारो युधिष्ठिरः / नकुलस्य कलापोऽयं पञ्चशार्दूललक्षणः // 50 बल्लवो भीमसेनस्तु पितुस्ते रसपाचकः // 5 येनासौ व्यजयत्कृत्स्ना प्रतीची दिशमाहवे / अश्वबन्धोऽथ नकुलः सहदेवस्तु गोकुले / कलापो ह्येष तस्यासीन्माद्रीपुत्रस्य धीमतः // 51 / सैरन्ध्रीं द्रौपदीं विद्धि यत्कृते कीचका हताः // 6 ये त्विमे भास्कराकाराः सर्वपारशवाः शराः / उत्तर उवाच / एते चित्राः क्रियोपेताः सहदेवस्य धीमतः / / 52 दश पार्थस्य नामानि यानि पूर्व श्रुतानि मे / ये त्विमे निशिताः पीताः पृथवो दीर्घवाससः / प्रब्रूयास्तानि यदि मे श्रद्दध्यां सर्वमेव ते // 7 हेमपुङ्खास्त्रिपर्वाणो राज्ञ एते महाशराः // 53 यस्त्वयं सायको दीर्घः शिलीपृष्ठः शिलीमुखः / अर्जुन उवाच / अर्जुनस्यैष संग्रामे गुरुभारसहो दृढः // 54 हन्त तेऽहं समाचक्षे दश नामानि यानि मे / वैयाघ्रकोशस्तु महान्भीमसेनस्य सायकः / अर्जुनः फल्गुनो जिष्णुः किरीटी श्वेतवाहनः / गुरुभारसहो दिव्यः शात्रवाणां भयंकरः // 55 बीभत्सुर्विजयः कृष्णः सव्यसाची धनंजयः // 8 सुफलश्चित्रकोशश्च हेमत्सरुरनुत्तमः / उत्तर उवाच / निस्त्रिंशः कौरवस्यैष धर्मराजस्य धीमतः॥ 56 केनासि विजयो नाम केनासि श्वेतवाहनः / यस्तु पाश्चनखे कोशे निहितश्चित्रसेवने / किरीटी नाम केनासि सव्यसाची कथं भवान् // 9 नकुलस्यैष निस्त्रिंशो गुरुभारसहो दृढः // 57 अर्जुनः फल्गुनो जिष्णुः कृष्णो बीभत्सुरेव च / यस्त्वयं विमलः खड्गो गव्ये कोशे समर्पितः। धनंजयश्च केनासि प्रब्रूहि मम तत्त्वतः / सहदेवस्य विद्ध्येनं सर्वभारसहं दृढम् / / 58 / श्रुता मे तस्य वीरस्य केवला नामहेतवः // 10 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि अष्टत्रिंशोऽध्यायः // 38 // . अर्जुन उवाच / सर्वाञ्जनपदाञ्जित्वा वित्तमाच्छिद्य केवलम् / उत्तर उवाच / मध्ये धनस्य तिष्ठामि तेनाहुाँ धनंजयम् // 11 सुवर्णविकृतानीमान्यायुधानि महात्मनाम् / अभिप्रयामि संग्रामे यदहं युद्धदुर्मदान् / रुचिराणि प्रकाशन्ते पानामाशुकारिणाम् // 1 नाजित्वा विनिवामि तेन मां विजयं विदुः // 12 क नु स्विदर्जुनः पार्थः कौरव्यो वा युधिष्ठिरः / श्वेताः काञ्चनसंनाहा रथे युज्यन्ति मे हयाः / नकुलः सहदेवश्च भीमसेनश्च पाण्डवः // 2 संग्रामे युध्यमानस्य तेनाहं श्वेतवाहनः // 13 सर्व एव महात्मानः सर्वामित्रविनाशनाः / उत्तराभ्यां च पूर्वाभ्यां फल्गुनीभ्यामहं दिवा। . राज्यमक्षैः पराकीर्य न श्रूयन्ते कदाचन // 3 जातो हिमवतः पृष्ठे तेन मां फल्गुनं विदुः // 14 द्रौपदी क च पाञ्चाली स्त्रीरत्नमिति विश्रुता। / पुरा शक्रेण मे दत्तं युध्यतो दानवर्षभैः / -843 -
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________________ 4. 39. 15 ] महाभारत [ 4. 40. 18 किरीटं मूर्ध्नि सूर्याभं तेन माहुः किरीटिनम् // 15 एतान्सर्वानुपासङ्गान्क्षिप्रं बध्नीहि मे रथे। न कुर्या कर्म बीभत्सं युध्यमानः कथंचन / / एतं चाहर निस्त्रिंशं जातरूपपरिष्कृतम् / तेन देवमनुष्येषु बीभत्सुरिति मां विदुः // 16 अहं वै कुरुभियोत्स्याम्यवजेष्यामि ते पशून् // 4 उभौ मे दक्षिणी पाणी गाण्डीवस्य विकर्षणे / संकल्पपक्षविक्षेपं बाहुप्राकारतोरणम् / तेन देवमनुष्येषु सव्यसाचीति मां विदुः // 17 त्रिदण्डतूणसंबाधमनेकध्वजसंकुलम् // 5 . पृथिव्यां चतुरन्तायां वर्णो मे दुर्लभः समः।। ज्याक्षेपणं क्रोधकृतं नेमीनिनददुन्दुभि / करोमि कर्म शुक्लं च तेन मामर्जुनं विदुः // 18 नगरं ते मया गुप्तं रथोपस्थं भविष्यति // 6 अहं दुरापो दुर्धर्षो दमनः पाकशासनिः / अधिष्ठितो मया संख्ये रथो गाण्डीवधन्वना / तेन देवमनुष्येषु जिष्णुनामास्मि विश्रुतः // 19 अजेयः शत्रुसैन्यानां वैराटे व्येतु ते भयम् // 7 कृष्ण इत्येव दशमं नाम चक्रे पिता मम / उत्तर उवाच / कृष्णावदातस्य सतः प्रियत्वाद्वालकस्य वै // 20 बिभेमि नाहमेतेषां जानामि त्वां स्थिरं युधि / वैशंपायन उवाच / केशवेनापि संग्रामे साक्षादिन्द्रेण वा समम् // 8 ततः पार्थं स वैराटिरभ्यवादयदन्तिकात् / इदं तु चिन्तयन्नेव परिमुह्यामि केवलम् / अहं भूमिजयो नाम नाम्नाहमपि चोत्तरः // 21 निश्चयं चापि दुर्मेधा न गच्छामि कथंचन // 9 दिष्ट्या त्वां पार्थ पश्यामि स्वागतं ते धनंजय / एवं वीराङ्गरूपस्य लक्षणैरुचितस्य च / लोहिताक्ष महाबाहो नागराजकरोपम / केन कर्मविपाकेन क्लीबत्वमिदमागतम् // 10 यदज्ञानादवोचं त्वां क्षन्तुमर्हसि तन्मम // 22 मन्ये त्वा क्लीबवेषेण चरन्तं, शूलपाणिनम् / यतस्त्वया कृतं पूर्वं विचित्रं कर्म दुष्करम् / गन्धर्वराजप्रतिमं देवं वापि शतक्रतुम् // 11 अतो भयं व्यतीतं मे प्रीतिश्च परमा त्वयि // 23 अर्जुन उवाच। इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि भ्रातुर्नियोगाज्येष्ठस्य संवत्सरमिदं व्रतम् / एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः // 39 // चरामि ब्रह्मचर्यं वै सत्यमेतद्रवीमि ते // 12 40 नास्मि क्लीबो महाबाहो परवान्धर्मसंयुतः / उत्तर उवाच / समाप्तव्रतमुत्तीर्णं विद्धि मां त्वं नृपात्मज // 13 आस्थाय विपुलं वीर रथं सारथिना मया / उत्तर उवाच / कतमं यास्यसेऽनीकमुक्तो यास्याम्यहं त्वया // 1 परमोऽनुग्रहो मेऽद्य यत्प्रतों न मे वृथा। अर्जुन उवाच / न हीदृशाः क्लीबरूपा भवन्तीह नरोत्तमाः // 14 प्रीतोऽस्मि पुरुषव्याघ्र न भयं विद्यते तव / सहायवानस्मि रणे युध्येयममरैरपि / सर्वानुदामि ते शत्रूरणे रणविशारद // 2 साध्वसं तत्प्रनष्टं मे किं करोमि ब्रवीहि मे // 15 स्वस्थो भव महाबुद्धे पश्य मां शत्रुभिः सह। / अहं ते संग्रहीष्यामि हयाञ्शत्रुरथारुजः / युध्यमानं विमर्देऽस्मिन्कुर्वाणं भैरवं महत् // 3 शिक्षितो ह्यस्मि सारथ्ये तीर्थतः पुरुषर्षभ // 16 -844 -
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________________ 4. 40. 17] विराटपर्व [4. 41. 16 दारुको वासुदेवस्य यथा शक्रस्य मातलिः / दैवीं मायां रथे युक्त्वा विहितां विश्वकर्मणा / तथा मां विद्धि सारथ्ये शिक्षितं नरपुंगव // 17 | काञ्चनं सिंहलाङ्गूलं ध्वजं वानरलक्षणम् // 3 यस्य याते न पश्यन्ति भूमौ प्राप्तं पदं पदम् / मनसा चिन्तयामास प्रसादं पावकस्य च / दक्षिणं यो धुरं युक्तः सुग्रीवसदृशो हयः // 18 स च तञ्चिन्तितं ज्ञात्वा ध्वजे भूतान्यचोदयत्॥४ योऽयं धुरं धुर्यवरो वामं वहति शोभनः। सपताकं विचित्राङ्गं सोपासङ्गं महारथः / तं मन्ये मेघपुष्पस्य जवेन सदृशं हयम् // 19 रथमास्थाय बीभत्सुः कौन्तेयः श्वेतवाहनः // 5 योऽयं काश्चनसंनाहः पाणिं वहति शोभनः / बद्धासिः सतनुत्राणः प्रगृहीतशरासनः / वामं सैन्यस्य मन्ये तं जवेन बलवत्तरम् // 20 ततः प्रायादुदीची स कपिप्रवरकेतनः // 6 योऽयं वहति ते पाणि दक्षिणामश्चितोद्यतः / स्वनवन्तं महाशङ्ख बलवानरिमर्दनः / बलाहकापि मतः स जवें वीर्यवत्तरः // 21 प्राधमलमास्थाय द्विषतां लोमहर्षणम् // 7 त्वामेवायं रथो वो संग्रामेऽर्हति धन्विनम् / ततस्ते जवना धुर्या जानुभ्यामगमन्महीम् / त्वं चेमं रथमास्थाय योद्धुम) मतो मम / / 22 उत्तरश्चापि संत्रस्तो रथोपस्थ उपाविशत् // 8 वैशंपायन उवाच / संस्थाप्य चाश्वान्कौन्तेयः समुद्यम्य च रश्मिभिः / ततो निर्मुच्य बाहुभ्यां वलयानि स वीर्यवान् / उत्तरं च परिष्वज्य समाश्वासयदर्जुनः // 9 चित्रे दुन्दुभिसंनादे प्रत्यमुश्चत्तले शुभे // 23 मा भैस्त्वं राजपुत्राय क्षत्रियोऽसि परंतप / कृष्णान्भङ्गीमतः केशाश्वेतेनोद्थ्य वाससा। कथं पुरुषशार्दूल शत्रुमध्ये विषीदसि // 10 अधिज्यं तरसा कृत्वा गाण्डीवं व्याक्षिपद्धनुः॥२४ श्रुतास्ते शङ्खशब्दाश्च भेरीशब्दाश्च पुष्कलाः / तस्य विक्षिप्यमाणस्य धनुषोऽभून्महास्वनः / कुञ्जराणां च नदतां व्यूढानीकेषु तिष्ठताम् // 11 यथा शैलस्य महतः शैलेनैवाभिजनुषः // 25 स त्वं कथमिहानेन शङ्खशब्देन भीषितः / सनिर्घाताभवद्भमिर्दिनु वायुर्ववौ भृशम् / विषष्णरूपो वित्रस्तः पुरुषः प्राकृतो यथा // 12 भ्रान्तद्विजं खं तदासीत्प्रकम्पितमहाद्रुमम् // 26 उत्तर उवाच / तं शब्दं कुरवोऽजानन्विस्फोटमशनेरिव / श्रुता मे शङ्खशब्दाश्च भेरीशब्दाश्च पुष्कलाः / यदर्जुनो धनुःश्रेष्ठं बाहुभ्यामाक्षिपद्रथे // 27 कुञ्जराणां च निनदा व्यूढानीकेषु तिष्ठताम् // 13 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि चत्वारिंशोऽध्यायः // 40 // नैवंविधः शङ्खशब्दः पुरा जातु मया श्रुतः। 41 ध्वजस्य चापि रूप मे दृष्टपूर्व न हीदृशम् / - वैशंपायन उवाच / धनुषश्चैव निर्घोषः श्रुतपूर्वो न मे क्वचित् / / 14 उत्तरं सारथिं कृत्वा शमी कृत्वा प्रदक्षिणम् / अस्य शङ्खस्य शब्देन धनुषो निस्वनेन च। . आयुधं सर्वमादाय ततः प्रायाद्धनंजयः // 1 रथस्य च निनादेन मनो मुह्यति मे भृशम् // 15 ध्वज सिंहं रथात्तस्मादपनीय महारथः / व्याकुलाश्च दिशः सर्वा हृदयं व्यथतीव मे। प्रणिधाय शमीमूले प्रायादुत्तरसारथिः // 2 ध्वजेन पिहिताः सर्वा दिशो न प्रतिभान्ति मे / - 845 -
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________________ 4. 41. 16 ] महाभारते [4. 42. 18 गाण्डीवस्य च शब्देन कर्णौ मे बधिरीकृतौ // 16 वने जनपदेऽज्ञातैरेष एव पणो हि नः // 3 अर्जुन उवाच / तेषां न तावन्निर्वृत्तं वर्तते तु त्रयोदशम् / एकान्ते रथमास्थाय पद्भ्यां त्वमवपीडय / / अज्ञातवासं बीभत्सुरथास्माभिः समागतः // 4 दृढं च रश्मीन्संयच्छ शङ्ख ध्मास्याम्यहं पुनः॥१७ अनिवृत्ते तु निर्वासे यदि बीभत्सुरागतः / वैशंपायन उवाच / पुनर्वादश वर्षाणि वने वत्स्यन्ति पाण्डवाः // 5 तस्य शङ्खस्य शब्देन रथनेमिस्वनेन च / लोभाद्वा ते न जानीयुरस्मान्वा मोह आविशत् / गाण्डीवस्य च घोषेण पृथिवी समकम्पत // 18 हीनातिरिक्तमेतेषां भीष्मो वेदितुमर्हति / / 6 द्रोण उवाच / अर्थानां तु पुनद्वैधे नित्यं भवति संशयः / यथा रथस्य निर्घोषो यथा शङ्ख उदीर्यते / अन्यथा चिन्तितो ह्यर्थः पुनर्भवति चान्यथा // 7 कम्पते च यथा भूमि षोऽन्यः सव्यसाचिनः // 19 उत्तरं मार्गमाणानां मत्स्यसेनां युयुत्सताम् / . शस्त्राणि न प्रकाशन्ते न प्रहृष्यन्ति वाजिनः / यदि बीभत्सुरायातस्तेषां कः स्यात्पराङ्मुखः / / 8 अग्नयश्च न भासन्ते समिद्धास्तन्न शोभनम् // 20 त्रिगर्तानां वयं हेतोर्मत्स्यान्योद्भुमिहागताः / प्रत्यादित्यं च नः सर्वे मृगा घोरप्रवादिनः / मत्स्यानां विप्रकारांस्ते बहूनस्मानकीर्तयन् // 9 ध्वजेषु च निलीयन्ते वायसास्तन्न शोभनम् / तेषां भयाभिपन्नानां तदस्माभिः प्रतिश्रुतम् / शकुनाश्चापसव्या नो वेदयन्ति महद्भयम् / / 21 प्रथमं तैर्ग्रहीतव्यं मत्स्यानां गोधनं महत् // 10 गोमायुरेष सेनाया रुवन्मध्येऽनुधावति / सप्तमीमपराह्ने वै तथा नस्तैः समाहितम् / / अनाहतश्च निष्क्रान्तो महद्वेदयते भयम् / अष्टम्यां पुनरस्माभिरादित्यस्योदयं प्रति // 11 भवतां रोमकूपाणि प्रहृष्टान्युपलक्षये // 22 ते वा गावो न पश्यन्ति यदि वा स्युः पराजिताः / पराभूता च वः सेना न कश्चिद्योद्भुमिच्छति / अस्मान्वाप्यतिसंधाय कुर्युमत्स्येन संगतम् // 12 विवर्णमुखभूयिष्ठाः सर्वे योधा विचेतसः / अथ वा तानुपायातो मत्स्यो जानपदैः सह / गाः संप्रस्थाप्य तिष्ठामो व्यूढानीकाः प्रहारिणः // 23 सर्वया सेनया सार्धमस्मान्योद्धमुपागतः // 13 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि तेषामेव महावीर्यः कश्चिदेव पुरःसरः / एकचत्वारिंशोऽध्यायः // 4 // अस्माओतुमिहायातो मत्स्यो वापि स्वयं भवेत्॥१४ 42 यद्येष राजा मत्स्यानां यदि बीभत्सुरागतः / वैशंपायन उवाच / सर्वैर्योद्धव्यमस्माभिरिति नः समयः कृतः // 15 अथ दुर्योधनो राजा समरे भीष्ममब्रवीत् / अथ कस्मात्स्थिता ह्येते रथेषु रथसत्तमाः / द्रोणं च रथशार्दूलं कृपं च सुमहारथम् // 1 भीष्मो द्रोणः कृपश्चैव विकर्णो द्रौणिरेव च // 16 उक्तोऽयमर्थ आचार्यो मया कर्णेन चासकृत् / / संभ्रान्तमनसः सर्वे काले ह्यस्मिन्महारथाः / पुनरेव च वक्ष्यामि न हि तृप्यामि तं ब्रुवन् // 2 / नान्यत्र युद्धाच्छ्रयोऽस्ति तथात्मा प्रणिधीयताम् // पराजितैर्हि वस्तव्यं तैश्च द्वादश वत्सरान् / | आच्छिन्ने गोधनेऽस्माकमपि देवेन वत्रिणा / -846 -
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________________ 4. 42. 18] विराटपर्व [ 4. 43. 14 यमेन वापि संग्रामे को हास्तिनपुरं व्रजेत् / / 18 शरैरभिप्रणुन्नानां भग्नानां गहने वने / कर्ण उवाच / को हि जीवेत्पदातीनां भवेदश्वेषु संशयः / सर्वानायुष्मतो भीतान्संत्रस्तानिव लक्षये / आचार्य पृष्ठतः कृत्वा तथा नीतिर्विधीयताम् // 19 / अयुद्धमनसश्चैव सर्वांश्चैवानवस्थितान् // 1 जानाति हि मतं तेषामतस्त्रासयतीव नः / यद्येष राजा मत्स्यानां यदि बीभत्सुरागतः / अर्जुनेनास्य संप्रीतिमधिकामुपलक्षये // 20 अहमावारयिष्यामि वेलेव मकरालयम् // 2 तथा हि दृष्ट्वा बीभत्सुमुपायान्तं प्रशंसति / मम चापप्रमुक्तानां शराणां नतपर्वणाम् / यथा सेना न भज्येत तथा नीतिर्विधीयताम् // 21 नावृत्तिर्गच्छतामस्ति सर्पाणामिव सर्पताम् // 3 अदेशिका महारण्ये ग्रीष्मे शत्रुवशं गता / . रुक्मपुङ्खाः सुतीक्ष्णाग्रा मुक्ता हस्तवता मया / यथा न विभ्रमेत्सेना तथा नीतिर्विधीयताम् / / 22 छादयन्तु शराः पार्थ शलभा इव पादपम् // 4 अश्वानां हेषितं श्रुत्वा का प्रशंसा भवेत्परे / शराणां पुङ्खसक्तानां मौाभिहतया दृढम् / स्थाने वापि व्रजन्तो वा सदा हेषन्ति वाजिनः // श्रूयतां तलयोः शब्दो भेर्योराहतयोरिव // 5 सदा च वायवो वान्ति नित्यं वर्षति वासवः / समाहितो हि बीभत्सुवर्षाण्यष्टौ च पश्च च / स्तनयित्नोश्च निर्घोषः श्रूयते बहुशस्तथा // 24 जातस्नेहश्च युद्धस्य मयि संप्रहरिष्यति // 6 किमत्र कार्य पार्थस्य कथं वा स प्रशस्यते / पात्रीभूतश्च कौन्तेयो ब्राह्मणो गुणवानिव / अन्यत्र कामाहेषाद्वा रोषाद्वास्मासु केवलात् // 25 शरौघान्प्रतिगृह्णातु मया मुक्तान्सहस्रशः // 7 आचार्या वै कारुणिकाः प्राज्ञाश्चापायदर्शिनः / एष चैव महेष्वासस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः / नैते महाभये प्राप्ते संप्रष्टव्याः कथंचन // 26 अहं चापि कुरुश्रेष्ठा अर्जुनान्नावरः क्वचित् // 8 प्रासादेषु विचित्रेषु गोष्ठीष्वावसथेषु च / इतश्चेतश्च निर्मुक्तैः काञ्चनैर्गार्धवाजितैः / कथा विचित्राः कुर्वाणाः पण्डितास्तत्र शोभनाः // दृश्यतामद्य वै व्योम खद्योतैरिव संवृतम् // 9 बहून्याश्चर्यरूपाणि कुर्वन्तो जनसंसदि। अद्याहमृणमक्षय्यं पुरा वाचा प्रतिश्रुतम् / इष्वस्त्रे चारुसंधाने पण्डितास्तत्र शोभनाः // 28 धार्तराष्ट्रस्य दास्यामि निहत्य समरेऽर्जुनम् // 10 परेषां विवरज्ञाने मनुष्याचरितेषु च / अन्तरा छिद्यमानानां पुङ्खानां व्यतिशीर्यताम् / अन्नसंस्कारदोषेषु पण्डितास्तत्र शोभनाः // 29 शलभानामिवाकाशे प्रचारः संप्रदृश्यताम् // 11 पण्डितान्पृष्ठतः कृत्वा परेषां गुणवादिनः / / इन्द्राशनिसमस्पर्श महेन्द्रसमतेजसम् / विधीयतां तथा नीतिर्यथा वध्येत वै परः // 30 अर्दयिष्याम्यहं पार्थमुल्काभिरिव कुञ्जरम् // 12 गावश्चैव प्रतिष्ठन्तां सेनां व्यूहन्तु माचिरम् / तमग्निमिव दुर्धर्षमसिशक्तिशरेन्धनम् / आरक्षाश्च विधीयन्तां यत्र योत्स्यामहे परान् // 31 पाण्डवाग्निमहं दीप्तं प्रदहन्तमिवाहितान् / / 13 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि अश्ववेगपुरोवातो रथौघस्तनयित्नुमान् / द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥४२॥ | शरधारो महामेघः शमयिष्यामि पाण्डवम् // 14 - 847 -
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________________ 4. 43. 15 ] महाभारते [4. 44. 20 मत्कार्मुकविनिर्मुक्ताः पार्थमाशीविषोपमाः।। एकः सुभद्रामारोप्य द्वैरथे कृष्णमाह्वयत् / शराः समभिसर्पन्तु वल्मीकमिव पन्नगाः // 15 अस्मिन्नेव वने कृष्णो हृतां कृष्णामवाजयत् // 6 जामदग्न्यान्मया ह्यस्त्रं यत्प्राप्तमृषिसत्तमात् / एकश्च पञ्च वर्षाणि शक्रादत्राण्यशिक्षत / तदुपाश्रित्य वीर्यं च युध्येयमपि वासवम् // 16 एकः सांयमिनी जित्वा कुरूणामकरोद्यशः // 7 ध्वजाग्रे वानरस्तिष्ठन्भल्लेन निहतो मया। एको गन्धर्वराजानं चित्रसेनमरिंदमः। अद्यैव पततां भूमौ विनदन्भैरवान्रवान् // 17 / विजिग्ये तरसा संख्ये सेनां चास्य सुदुर्जयाम् // 8 शत्रोर्मयाभिपन्नानां भूतानां ध्वजवासिनाम् / तथा निवातकवचाः कालखञ्जाश्च दानवाः। दिशः प्रतिष्ठमानानामस्तु शब्दो दिवं गतः // 18 दैवतैरप्यवध्यास्ते एकेन युधि पातिताः // 9 अद्य दुर्योधनस्याहं शल्यं हृदि चिरस्थितम् / / एकेन हि त्वया कर्ण किं नामेह कृतं पुरा। समूलमुद्धरिष्यामि बीभत्सुं पातयन्रथात् / / 19 एकैकेन यथा तेषां भूमिपाला वशीकृताः // 10 हताश्वं विरथं पार्थं पौरुषे पर्यवस्थितम् / इन्द्रोऽपि हि न पार्थेन संयुगे योद्धुमर्हति / निःश्वसन्तं यथा नागमद्य पश्यन्तु कौरवाः॥२० यस्तेनाशंसते योद्धं कर्तव्यं तस्य भेषजम् // 11 कामं गच्छन्तु कुरवो धनमादाय केवलम् / आशीविषस्य क्रुद्धस्य पाणिमुद्यम्य दक्षिणम् / रथेषु वापि तिष्ठन्तो युद्धं पश्यन्तु मामकम् // 21 अविमृश्य प्रदेशिन्या दंष्ट्रामादातुमिच्छसि // 12 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि अथ वा कुञ्जरं मत्तमेक एव चरन्वने / त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः // 43 // अनङ्कुशं समारुह्य नगरं गन्तुमिच्छसि // 13 समिद्धं पावकं वापि घृतमेदोवसाहुतम् / कृप उवाच / घृताक्तश्वीरवासास्त्वं मध्येनोत्तर्तुमिच्छसि / / 14 सदैव तव राधेय युद्धे क्रूरतरा मतिः / आत्मानं यः समुद्वध्य कण्ठे बद्धा महाशिलाम् / नार्थानां प्रकृति वेत्थ नानुबन्धमवेक्षसे // 1 समुद्रं प्रतरेहोभ्यां तत्र किं नाम पौरुषम् // 15 नया हि बहवः सन्ति शास्त्राण्याश्रित्य चिन्तिताः। अकृतास्त्रः कृतास्त्रं वै बलवन्तं सुदुर्बलः / तेषां युद्धं तु पापिष्ठं वेदयन्ति पुराविदः // 2 तादृशं कर्ण यः पार्थ योद्धमिच्छेत्स दुर्मतिः // 16 देशकालेन संयुक्तं युद्धं विजयदं भवेत् / अस्माभिरेष निकृतो वर्षाणीह त्रयोदश / हीनकालं तदेवेह फलवन्न भवत्युत / सिंहः पाशविनिर्मुक्तो न नः शेषं करिष्यति // 17 देशे काले च विक्रान्तं कल्याणाय विधीयते // 3 एकान्ते पार्थमासीनं कूपेऽग्निमिव संवृतम् / आनुकूल्येन कार्याणामन्तरं संविधीयताम् / अज्ञानादभ्यवस्कन्ध प्राप्ताः स्मो भयमुत्तमम्॥१८ भारं हि रथकारस्य न व्यवस्यन्ति पण्डिताः // 4 सह युध्यामहे पार्थमागतं युद्धदुर्मदम् / परिचिन्त्य तु पार्थेन संनिपातो न नः क्षमः। सैन्यास्तिष्ठन्तु संनद्धा व्यूढानीका प्रहारिणः / / 19 एकः कुरूनभ्यरक्षदेकश्चाग्निमतर्पयत् // 5 द्रोणो दुर्योधनो भीष्मो भवान्द्रौणिस्तथा वयम् / एकश्च पञ्च वर्षाणि ब्रह्मचर्यमधारयत् / सर्वे युध्यामहे पार्थ कर्ण मा साहसं कृथाः॥२० -848 -
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________________ 4. 44. 21] विराटपर्व [4. 45. 26 वयं व्यवसितं पार्थं वज्रपाणिमिवोद्यतम् / एकवस्त्रा सभां नीता दुष्टकर्मन्रजस्वला // 11 षड्थाः प्रतियुध्येम तिष्ठेम यदि संहताः // 21 मूलमेषां महत्कृत्तं सारार्थी चन्दनं यथा / व्यूढानीकानि सैन्यानि यत्ताः परमधन्विनः / कर्म कारयिथाः शूर तत्र किं विदुरोऽब्रवीत् // 12 युध्यामहेऽर्जुनं संख्ये दानवा वासवं यथा // 22 यथाशक्ति मनुष्याणां शममालक्षयामहे / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि अन्येषां चैव सत्त्वानामपि कीटपिपीलिके // 13 चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः // 44 // द्रौपद्यास्तं परिक्लेशं न क्षन्तुं पाण्डवोऽर्हति / दुःखाय धार्तराष्ट्राणां प्रादुर्भूतो धनंजयः // 14 अश्वत्थामोवाच / त्वं पुनः पण्डितो भूत्वा वाचं वक्तुमिहेच्छसि / न च तावज्जिता गावो न च सीमान्तरं गताः / वैरान्तकरणो जिष्णुर्न नः शेषं करिष्यति // 15 न हास्तिनपुरं प्राप्तास्त्वं च कर्ण विकत्थसे // 1 नैष देवान्न गन्धर्वान्नासुरान्न च राक्षसान् / संप्रामान्सुबहूञ्जित्वा लब्ध्वा च विपुलं धनम् / / भयादिह न युध्येत कुन्तीपुत्रो धनंजयः // 16 विजित्य च परां भूमिं नाहुः किंचन पौरुषम् // 2 / यं यमेषोऽभिसंक्रुद्धः संग्रामेऽभिपतिष्यति / पचत्यग्निरवाक्यस्तु तूष्णीं भाति दिवाकरः। वृक्षं गरुडवेगेन विनिहत्य तमेष्यति // 17 तूष्णीं धारयते लोकान्वसुधा सचराचरान् // 3 त्वत्तो विशिष्टं वीर्येण धनुष्यमरराट्समम् / चातुर्वर्ण्यस्य कर्माणि विहितानि मनीषिभिः / वासुदेवसमं युद्धे तं पार्थं को न पूजयेत् // 18 धनं यैरधिगन्तव्यं यच्च कुर्वन्न दुष्यति // 4 दैवं दैवेन युध्येत मानुषेण च मानुषम् / अधीत्य ब्राह्मणो वेदान्याजयेत यजेत च / अस्त्रेणास्त्रं समाहन्यात्कोऽर्जुनेन समः पुमान् // 19 क्षत्रियो धनुराश्रित्य यजेतैव न याजयेत् / पुत्रादनन्तरः शिष्य इति धर्मविदो विदुः / वैश्योऽधिगम्य द्रव्याणि ब्रह्मकर्माणि कारयेत् // 5 / एतेनापि निमित्तेन प्रियो द्रोणस्य पाण्डवः // 20 वर्तमाना यथाशास्त्रं प्राप्य चापि महीमिमाम् / यथा त्वमकरो तमिन्द्रप्रस्थं यथाहरः / सत्कुर्वन्ति महाभागा गुरून्सुविगुणानपि // 6 यथानैषीः सभी कृष्णां तथा युध्यस्व पाण्डवम् // 21 प्राप्य द्यूतेन को राज्यं क्षत्रियस्तोष्टुमर्हति / अयं ते मातुलः प्राज्ञः क्षत्रधर्मस्य कोविदः / तथा नृशंसरूपेण यथान्यः प्राकृतो जनः // 7 दुर्वृतदेवी गान्धारः शकुनियुध्यतामिह // 22 तथावाप्तेषु वित्तेषु को विकत्थेद्विचक्षणः / / नाक्षान्क्षिपति गाण्डीवं न कृतं द्वापरं न च / निकृत्या वञ्चनायोगैश्चरन्वैतंसिको यथा // 8 ज्वलतो निशितान्बाणांस्तीक्ष्णान्क्षिपति गाण्डिवम् // कतमढेरथं युद्धं यत्राजैषीर्धनंजयम् / न हि गाण्डीवनिर्मुक्ता गार्धपत्राः सुतेजनाः / नकुलं सहदेवं च धनं येषां त्वया हृतम् // 9 अन्तरेष्ववतिष्ठन्ति गिरीणामपि दारणाः // 24 युधिष्ठिरो जितः कस्मिन्भीमश्च बलिनां वरः। अन्तकः शमनो मृत्युस्तथाग्निर्वडवामुखः / इन्द्रप्रस्थं त्वया कस्मिन्संग्रामे निर्जितं पुरा / / 10 / कुर्युरेते कचिच्छेषं न तु क्रुद्धो धनंजयः // 25 तथैव कतमं युद्धं यस्मिन्कृष्णा जिता त्वया / युध्यतां काममाचार्यों नाहं योत्स्ये धनंजयम् / म.भा. 107 -849 -
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________________ 4. 45. 26 ] महाभारते [4. 47.6 मत्स्यो ह्यस्माभिरायोध्यो यद्यागच्छेद्गवां पदम् // अभिषज्यमाने हि गुरौ तद्वृत्तं रोषकारितम् // 12 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि वैशंपायन उवाच / पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः // 45 // ततो दुर्योधनो द्रोणं क्षमयामास भारत / सह कर्णेन भीष्मेण कृपेण च महात्मना // 13 भीष्म उवाच / द्रोण उवाच / साधु पश्यति वै द्रोणः कृपः साध्वनुपश्यति। यदेव प्रथमं वाक्यं भीष्मः शांतनवोऽब्रवीत् / / कर्णस्तु क्षत्रधर्मेण यथावद्योद्भुमिच्छति // 1 तेनैवाहं प्रसन्नो वै परमत्र विधीयताम् // 14 आचार्यो नाभिषक्तव्यः पुरुषेण विजानता। यथा दुर्योधनेऽयत्ते नागः स्पृशति सैनिकान् / देशकालौ तु संप्रेक्ष्य योद्धव्यमिति मे मतिः // 2 साहसाद्यदि वा मोहात्तथा नीतिर्विधीयताम् // 15 यस्य सूर्यसमाः पश्च सपत्नाः स्युः प्रहारिणः / वनवासे ह्यनिवृत्ते दर्शयेन्न धनंजयः / कथमभ्युदये तेषां न प्रमुह्येत पण्डितः // 3 धनं वालभमानोऽत्र नाद्य नः क्षन्तुमर्हति // 16 स्वार्थे सर्वे विमुह्यन्ति येऽपि धर्मविदो जनाः / यथा नायं समायुज्याद्धार्तराष्ट्रान्कथंचन / तस्माद्राजन्ब्रवीम्येष वाक्यं ते यदि रोचते // 4 यथा च न पराजय्यात्तथा नीतिर्विधीयताम्॥१७ कर्णो यदभ्यवोचन्नस्तेजःसंजननाय तत् / ' उक्तं दुर्योधनेनापि पुरस्ताद्वाक्यमीदृशम् / आचार्यपुत्रः क्षमतां महत्कार्यमुपस्थितम् // 5 तदनुस्मृत्य गाङ्गेय यथावद्वक्तुमर्हसि // 18 नायं कालो विरोधस्य कौन्तेये समुपस्थिते / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि क्षन्तव्यं भवता सर्वमाचार्येण कृपेण च // 6 षट्चत्वारिंशोऽध्यायः // 46 // भवतां हि कृतास्त्रत्वं यथादित्ये प्रभा तथा। यथा चन्द्रमसो लक्ष्म सर्वथा नापकृष्यते / भीष्म उवाच / एवं भवत्सु ब्राह्मण्यं ब्रह्मास्त्रं च प्रतिष्ठितम् // 7 कलांशास्तात युज्यन्ते मुहूर्ताश्च दिनानि च / चत्वार एकतो वेदाः क्षात्रमेकत्र दृश्यते / अर्धमासाश्च मासाश्च नक्षत्राणि ग्रहास्तथा // 1 नैतत्समस्तमुभयं कस्मिंश्चिदनुशुश्रुमः // 8 ऋतवश्वापि युज्यन्ते तथा संवत्सरा अपि / अन्यत्र भारताचार्यात्सपुत्रादिति मे मतिः / एवं कालविभागेन कालचक्र प्रवर्तते // 2 ब्रह्मास्त्रं चैव वेदाश्च नैतदन्यत्र दृश्यते // 9 तेषां कालातिरेकेण ज्योतिषां च व्यतिक्रमात् / आचार्यपुत्रः क्षमतां नायं कालः स्वभेदने / पञ्चमे पञ्चमे वर्षे द्वौ मासावुपजायतः // 3 सर्वे संहत्य युध्यामः पाकशासनिमागतम् // 10 तेषामभ्यधिका मासाः पञ्च द्वादश च क्षपाः / बलस्य व्यसनानीह यान्युक्तानि मनीषिभिः / / त्रयोदशानां वर्षाणामिति मे वर्तते मतिः // 4 मुख्यो भेदो हि तेषां वै पापिष्ठो विदुषां मतः॥११ / सर्वं यथावञ्चरितं यद्यदेभिः परिश्रतम / अश्वत्थामोवाच / एवमेतद्धवं ज्ञात्वा ततो बीभत्सुरागतः / / 5 आचार्य एव क्षमतां शान्तिरत्र विधीयताम् / / सर्वे चैव महात्मानः सर्वे धर्मार्थकोविदाः / - 850 -
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________________ 4. 47. 6] विराटपर्व [4. 48. 12 येषां युधिष्ठिरो राजा कस्माद्धर्मेऽपरानयुः // 6 / अहं सर्वस्य सैन्यस्य पश्चात्स्थास्यामि पालयन् // 19 अलुब्धाश्चैव कौन्तेयाः कृतवन्तश्च दुष्करम् / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि न चापि केवलं राज्यमिच्छेयुस्तेऽनुपायतः // 7 सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः // 47 // तदैव ते हि विक्रान्तुमीषुः कौरवनन्दनाः। धर्मपाशनिबद्धास्तु न चेलुः क्षत्रियव्रतात् // 8 वैशंपायन उवाच / / यच्चानृत इति ख्यायेद्यच्च गच्छेत्पराभवम् / तथा व्यूढेष्वनीकेषु कौरवेयैर्महारथैः / वृणुयुर्मरणं पार्था नानृतत्वं कथंचन // 9 . उपायादर्जुनस्तूर्णं रथघोषेण नादयन् // 1 प्राप्ते तु काले प्राप्तव्यं नोत्सृजेयुर्नरर्षभाः। ददृशुस्ते ध्वजाग्रं वै शुश्रुवुश्च रथस्वनम् / अपि वज्रभृता गुप्तं तथावीर्या हि पाण्डवाः // 10 दोधूयमानस्य भृशं गाण्डीवस्य च निस्वनम् // 2 प्रतियुध्याम समरे सर्वशस्त्रभृतां वरम् / ततस्तत्सर्वमालोक्य द्रोणो वचनमब्रवीत् / तस्माद्यदत्र कल्याणं लोके सद्भिरनुष्ठितम् / महारथमनुप्राप्तं दृष्ट्वा गाण्डीवधन्विनम् // 3. तत्संविधीयतां क्षिप्रं मा नो ह्यर्थोऽतिगात्परान् // 11 एतद्धवजागं पार्थस्य दूरतः संप्रकाशते / न हि पश्यामि संग्रामे कदाचिदपि कौरव / एष घोषः सजलदो रोरवीति च वानरः // 4 / एकान्तसिद्धिं राजेन्द्र संप्राप्तश्च धनंजयः // 12 / एष तिष्ठन्रथश्रेष्ठो रथे रथवरप्रणुत् / / संप्रवृत्ते तु संग्रामे भावाभावी जयाजयौ / उत्कर्षति धनुःश्रेष्ठं गाण्डीवमशनिस्वनम् // 5 : अवश्यमेकं स्पृशतो दृष्टमेतदसंशयम् // 13 इमो हि बाणौ सहितौ पादयोर्मे व्यवस्थितौ / / तस्माद्युद्धावचरिकं कर्म वा धर्मसंहितम् / अपरौ चाप्यतिक्रान्तौ कर्णौ संस्पृश्य मे शरौ // 6 क्रियतामाशु राजेन्द्र संप्राप्तो हि धनंजयः // 14 / निरुष्य हि वने वासं कृत्वा कर्मातिमानुषम् / दुर्योधन उवाच / अभिवादयते पार्थः श्रोत्रे च परिपृच्छति // 7 नाहं राज्यं प्रदास्यामि पाण्डवानां पितामह / / __ अर्जुन उवाच / युद्धावचारिकं यत्तु तच्छीघ्रं संविधीयताम् // 15 इषुपाते च सेनाया हयान्संयच्छ सारथे / भीष्म उवाच / यावत्समीक्षे सैन्येऽस्मिन्कासौ कुरुकुलाधमः // 8 अत्र या मामकी बुद्धिः श्रूयतां यदि रोचते / सर्वानन्याननादृत्य दृष्ट्वा तमतिमानिनम् / क्षिप्रं बलचतुर्भागं गृह्य गच्छ पुरं प्रति / तस्य मूर्ध्नि पतिष्यामि तत एते पराजिताः // 9H ततोऽपरश्चतुर्भागो गाः समादाय गच्छतु // 16 एष व्यवस्थितो द्रोणो द्रौणिश्च तदनन्तरम् / वयं वर्धेन सैन्येन प्रतियोत्स्याम पाण्डवम् / भीष्मः कृपश्च कर्णश्च महेष्वासा व्यवस्थिताः॥१० मत्स्यं वा पुनरायातमथ वापि शतक्रतुम् // 17 राजानं नात्र पश्यामि गाः समादाय गच्छति / आचार्यो मध्यतस्तिष्ठत्वश्वत्थामा तु सव्यतः / दक्षिणं मार्गमास्थाय शङ्के जीवपरायणः // 11 कृपः शारद्वतो धीमान्पार्श्व रक्षतु दक्षिणम् / / 18 / उत्सृज्यैतद्रथानीकं गच्छ यत्र सुयोधनः / अग्रतः सूतपुत्रस्तु कर्णस्तिष्ठतु दंशितः / तत्रैव योत्स्ये वैराटे नास्ति युद्धं निरामिषम् / -851 - च।
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________________ 4. 48. 12] महाभारते [4. 49.8 तं जित्वा विनिवर्तिध्ये गाः समादाय वै पुनः॥१२ गास्ता विजित्याथ धनुर्धरात्र्यः / वैशंपायन उवाच। दुर्योधनायाभिमुखं प्रयातो एवमुक्तः स वैराटिहयान्संयम्य यत्नतः / भूयोऽर्जुनः प्रियमाजौ चिकीर्षन् // 1 नियम्य च ततो रश्मीन्यत्र ते कुरुपुंगवाः / गोषु प्रयातासु जवेन मत्स्याअचोदयत्ततो वाहान्यतो दुर्योधनस्ततः // 13 __किरीटिनं कृतकार्य च मत्वा / उत्सृज्य रथवंशं तु प्रयाते श्वेतवाहने। दुर्योधनायाभिमुखं प्रयान्तं अभिप्रायं विदित्वास्य द्रोणो वचनमब्रवीत् // 14 ___ कुरुप्रवीराः सहसाभिपेतुः // 2 नैषोऽन्तरेण राजानं बीभत्सुः स्थातुमिच्छति। तेषामनीकानि बहूनि गाढं तस्य पाणिं ग्रहीष्यामो जवेनाभिप्रयास्यतः // 15 व्यूढानि दृष्ट्वा बहुलध्वजानि / न ह्येनमभिसंक्रुद्धमेको युध्येत संयुगे। मत्स्यस्य पुत्रं द्विषतां निहन्ता अन्यो देवात्सहस्राक्षात्कृष्णाद्वा देवकीसुतात् // 16 __ वैराटिमामत्र्य ततोऽभ्युवाच // 3 किं नो गावः करिष्यन्ति धनं वा विपुलं तथा / एतेन तूर्ण प्रतिपादयेमादुर्योधनः पार्थजले पुरा नौरिव मजति // 17 ___ श्वेतान्हयान्काञ्चनरश्मियोक्त्रान् / तथैव गत्वा बीभत्सुर्नाम विश्राव्य चात्मनः / जवेन सर्वेण कुरु प्रयत्नशलभैरिव तां सेनां शरैः शीघ्रमवाकिरत् // 18 मासादयैतद्रथसिंहवृन्दम् // 4 कीर्यमाणाः शरौघैस्तु योधास्ते पार्थचोदितैः / गजो गजेनेव मया दुरात्मा नापश्यन्नावृतां भूमिमन्तरिक्षं च पत्रिभिः // 19 ___ यो योद्धमाकाङ्क्षति सूतपुत्रः / तेषां नात्मनिनो युद्धे नापयानेऽभवन्मतिः / तमेव मां प्रापय राजपुत्र शीघ्रत्वमेव पार्थस्य पूजयन्ति स्म चेतसा // 20 दुर्योधनापाश्रयजातदर्पम् // 5 ततः शङ्ख प्रदध्मौ स द्विषतां लोमहर्षणम् / स तैर्हयैर्वातजवैबृंहद्भिः विस्फार्य च धनुःश्रेष्ठं ध्वजे भूतान्यचोदयत् / / 21 पुत्रो विराटस्य सुवर्णकक्ष्यैः / तस्य शङ्खस्य शब्देन रथनेमिस्वनेन च / विध्वंसयंस्तद्रथिनामनीकं अमानुषाणां तेषां च भूतानां ध्वजवासिनाम् // 22 ततोऽवहत्पाण्डवमाजिमध्ये // 6 ऊर्ध्वं पुच्छान्विधुन्वाना रेभमाणाः समन्ततः / तं चित्रसेनो विशिखैर्विपाठैः गावः प्रतिन्यवर्तन्त दिशमास्थाय दक्षिणाम् / / 23 संग्रामजिच्छत्रुसहो जयश्च / / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि प्रत्युद्ययुर्भारतमापतन्तं अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः // 48 // ___ महारथाः कर्णमभीप्समानाः // 7 ततः स तेषां पुरुषप्रवीरः वैशंपायन उवाच / शरासनार्चिः शरवेगतापः / स शत्रुसेनां तरसा प्रणुद्य व्रातारथानामदत्समन्यु- . -852. 49
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________________ 4. 49. 8] विराटपर्व [4. 49. 28 र्वनं यथाग्निः कुरुपुंगवानाम् // 8 नागा यथा हैमवताः प्रवृद्धाः // 15 तस्मिंस्तु युद्धे तुमुले प्रवृत्ते तथा स शत्रून्समरे विनिम्नपार्थ विकर्णोऽतिरथं रथेन / न्गाण्डीवधन्वा पुरुषप्रवीरः। विपाठवर्षेण कुरुप्रवीरो चचार संख्ये प्रदिशो दिशश्च भीमेन भीमानुजमाससाद // 9 - दहन्निवाग्निर्वनमातपान्ते // 16 ततो विकर्णस्य धनुर्विकृष्य .. प्रकीर्णपर्णानि यथा वसन्ते जाम्बूनदाग्र्योपचितं दृढज्यम् / विशातयित्वात्यनिलो नुदन्खे / अपातयवजमस्य प्रमथ्य तथा सपत्नान्विकिरन्किरीटी छिन्नध्वजः सोऽप्यपयाजवेन // 10 . चचार संख्येऽतिरथो रथेन // 17 तं शात्रवाणां गणबाधितारं शोणाश्ववाहस्य हयान्निहत्य कर्माणि कुर्वाणममानुषाणि / __ वैकर्तनभ्रातुरदीनसत्त्वः / शव॒तपः कोपममृष्यमाणः एकेन संग्रामजितः शरेण ____समर्पयत्कूर्मनखेन पार्थम् // 11 शिरो जहाराथ किरीटमाली // 18 स तेन राज्ञातिरथेन विद्धो तस्मिन्हते भ्रातरि सूतपुत्रो . विगाहमानो ध्वजिनी कुरूणाम् / वैकर्तनो वीर्यमथाददानः। . शत्रुतपं पञ्चभिराशु विद्धा प्रगृह्य दन्ताविव नागराजो ततोऽस्य सूतं दशभिर्जघान // 12 __ महर्षभं व्याघ्र इवाभ्यधावत् / / 19 ततः स विद्धो भरतर्षभैण स पाण्डवं द्वादशभिः पृषत्कैबाणेन गात्रावरणातिगेन / (कर्तनः शीघ्रमुपाजघान। गतासुराजौ निपपात भूमौ विव्याध गात्रेषु हयांश्च सर्वानगो नगाग्रादिव वातरुग्णः // 13 विराटपुत्रं च शरैर्निजघ्ने / 20 रथर्षभास्ते तु रथर्षभेण स हस्तिनेवाभिहतो गजेन्द्रः - वीरा रणे वीरतरेण भग्नाः / प्रगृह्य भल्लान्निशितान्निषङ्गात् / चकम्पिरे वातवशेन काले आकर्णपूर्णं च धनुर्विकृष्य . प्रकम्पितानीव महावनानि // 14 विव्याध बाणैरथ सूतपुत्रम् // 21. हतास्तु पार्थेन नरप्रवीरा अथास्य बाहूरुशिरोललाट भूमौ युवानः सुषुपुः सुवेषाः / ग्रीवां रथाङ्गानि परावमर्दी। वसुप्रदा वासवतुल्यवीर्याः स्थितस्य बाणैयुधि निर्बिभेद पराजिता वासवजेन संख्ये। ___ गाण्डीवमुक्तैरशनिप्रकाशैः // 22 सुवर्णकार्णायसवर्मनद्धा स पार्थमुक्तैर्विशिखैः प्रणुनो -853
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________________ 4. 49. 23 ] महाभारते [4. 51.1 पवाण गजो गजेनेव जितस्तरस्वी। यस्य नागो ध्वजाग्रे वै हेमकेतनसंश्रितः / विहाय संग्रामशिरः प्रयातो धृतराष्ट्रात्मजः श्रीमानेष राजा सुयोधनः // 12 वैकर्तनः पाण्डवबाणतप्तः // 23 एतस्याभिमुखं वीर रथं पररथारुजः। इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि प्रापयस्वैष तेजोभिप्रमाथी युद्धदुर्मदः // 13 एकोनपञ्चाशोऽध्यायः // 49 // एष द्रोणस्य शिष्याणां शीघ्रास्त्रः प्रथमो मतः / 50 एतस्य दर्शयिष्यामि शीघ्रास्त्रं विपुलं शरैः // 14 वैशंपायन उवाच / नागकक्ष्या तु रुचिरा ध्वजाग्रे यस्य तिष्ठति / . अपयाते तु राधेये दुर्योधनपुरोगमाः / एष वैकर्तनः कर्णो विदितः पूर्वमेव ते // 15 अनीकेन यथास्वेन शरैरार्छन्त पाण्डवम् // 1 एतस्य रथमास्थाय राधेयस्य दुरात्मनः / बहुधा तस्य सैन्यस्य व्यूढस्यापततः शरैः / यत्तो भवेथाः संग्रामे स्पर्धत्येष मया सदा // 16 अभियानीयमाज्ञाय वैराटिरिदमब्रवीत् // 2 यस्तु नीलानुसारेण पञ्चतारेण केतुना / आस्थाय रुचिरं जिष्णो रथं सारथिना मया। हस्तावापी बृहद्धन्वा रथे तिष्ठति वीर्यवान् // 17 कतमद्यास्यसेऽनीकमुक्तो यास्याम्यहं त्वया // 3 यस्य तारार्कचित्रोऽसौ रथे ध्वजवरः स्थितः / अर्जुन उवाच / यस्यैतत्पाण्डुरं छत्रं विमलं मूर्ध्नि तिष्ठति // 18 लोहिताक्षमरिष्टं यं वैयाघ्रमनुपश्यसि / महतो रथवंशस्य नानाध्वजपताकिनः / नीलां पताकामाश्रित्य रथे तिष्ठन्तमुत्तर // 4 बलाहकाग्रे सूर्यो वा य एष प्रमुखे स्थितः // 19 कृपस्यैतद्रथानीकं प्रापयस्वैतदेव माम् / हैमं चन्द्रार्कसंकाशं कवचं यस्य दृश्यते / एतस्य दर्शयिष्यामि शीघ्रास्त्रं दृढधन्विनः // 5 जातरूपशिरस्त्राणस्त्रासयन्निव मे मनः / / 20 कमण्डलुद्धजे यस्य शातकुम्भमयः शुभः / एष शांतनवो भीष्मः सर्वेषां नः पितामहः / आचार्य एष वै द्रोणः सर्वशस्त्रभृतां वरः // 6 राजश्रियावबद्धस्तु दुर्योधनवशानुगः / / 21 सुप्रसन्नमना वीर कुरुष्वैनं प्रदक्षिणम् / पश्चादेष प्रयातव्यो न मे विघ्नकरो भवेत् / अत्रैव चाविरोधेन एष धर्मः सनातनः // 7 एतेन युध्यमानस्य यत्तः संयच्छ मे हयान् // 22 यदि मे प्रथमं द्रोणः शरीरे प्रहरिष्यति / / ततोऽभ्यवहदव्यग्रो वैराटिः सव्यसाचिनम् / ततोऽस्य प्रहरिष्यामि नास्य कोपो भविष्यति // 8 यत्रातिष्ठत्कृपो राजन्योत्स्यमानो धनंजयम् // 23 अस्याविदूरे तु धनुर्ध्वजाग्रे यस्य दृश्यते / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि आचार्यस्यैष पुत्रो वै अश्वत्थामा महारथः // 9 पञ्चाशोऽध्यायः // 50 // सदा ममैष मान्यश्च सर्वशस्त्रभृतामपि / एतस्य त्वं रथं प्राप्य निवर्तेथाः पुनः पुनः // 10 वैशंपायन उवाच / य एष तु स्थानीके सुवर्णकवचावृतः / तान्यनीकान्यदृश्यन्त कुरूणामुग्रधन्विनाम् / सेनाग्र्येण तृतीयेन व्यवहार्येण तिष्ठति // 11 संसर्पन्तो यथा मेघा घर्मान्ते मन्दमारुताः // 1 -854
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________________ 4. 51. 2] विराटपर्व [4. 52. 10 अभ्याशे वाजिनस्तस्थुः समारूढाः प्रहारिभिः। / प्रभासितमिवाकाशं चित्ररूपमलंकृतम् / भीमरूपाश्च मातङ्गास्तोमराङ्कुशचोदिताः // 2 . संपतद्भिः स्थितैश्चैव नानारत्नावभासितैः / ततः शक्रः सुरगणैः समारुह्य सुदर्शनम् / विमानैर्विविधैश्चित्रैरुपानीतैः सुरोत्तमैः॥ 17 सहोपायात्तदा राजन्विश्वाश्विमरुतां गणैः // 3 ___ इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि तद्देवयक्षगन्धर्वमहोरगसमाकुलम् / एकपञ्चाशोऽध्यायः // 51 // शुशुभेऽभ्रविनिर्मुक्तं ग्रहैरिव नभस्तलम् // 4 52 अत्राणां च बलं तेषां मानुषेषु प्रयुज्यताम् / वैशंपायन उवाच / तञ्च घोरं महाद्धं भीष्मार्जुनसमागमे // 5 . एतस्मिन्नन्तरे तत्र महावीर्यपराक्रमः / शतं शतसहस्राणां यत्र स्थूणा हिरण्मयाः। . आजगाम महासत्त्वः कृपः शस्त्रभृतां वरः। मणिरत्नमयाश्चान्याः प्रासादमुपधारयन् // 6 अर्जुनं प्रति संयोद्धं युद्धार्थी स महारथः // 1 . तत्र कामगमं दिव्यं सर्वरत्नविभूषितम् / तौ रथौ सूर्यसंकाशौ योत्स्यमानौ महाबलौ। विमानं देवराजस्य शुशुभे खेचरं तदा // 7 शारदाविव जीमूतौ व्यरोचेतां व्यवस्थितौ // 2 : तत्र देवात्रयस्त्रिंशत्तिष्ठन्ति सहवासवाः / ... पार्थोऽपि विश्रुतं लोके गाण्डीवं परमायुधम् / / गन्धर्वा राक्षसाः सर्पाः पितरश्च महर्षिभिः // 8 विकृष्य चिक्षेप बहून्नाराचान्मर्मभेदिनः // 3 ; तथा राजा वसुमना बलाक्षः सुप्रतर्दनः / तानप्राप्ताशितैर्बाणै राचारक्तभोजनान् / अष्टकश्च शिबिश्चैव ययातिनहुषो गयः // 9 कृपश्चिछेद पार्थस्य शतशोऽथ सहस्रशः // 4 मनुः क्षुपो रघुर्भानुः कृशाश्वः सगरः शलः / ततः पार्थश्च संक्रुद्धश्चित्रान्मार्गान्प्रदर्शयन् / / विमाने देवराजस्य समदृश्यन्त सुप्रभाः // 10 | दिशः संछादयन्बाणैः प्रदिशश्च महारथः // 5 अग्नेरीशस्य सोमस्य वरुणस्य प्रजापतेः। एकच्छायमिवाकाशं प्रकुर्वन्सर्वतः प्रभुः। . तथा धातुर्विधातुश्च कुबेरस्य यमस्य च // 11 प्रच्छादयदमेयात्मा पार्थः शरशतैः कृपम् // 6 अलम्बुसोग्रसेनस्य गन्धर्वस्य च तुम्बुरोः / स शरैरर्षितः क्रुद्धः शितैरग्निशिखोपमैः। - यथाभागं यथोद्देशं विमानानि चकाशिरे // 12 तूर्णं शरसहस्रेण पार्थमप्रतिमौजसम् / सर्वदेवनिकायाश्च सिद्धाश्च परमर्षयः / अर्पयित्वा महात्मानं ननाद समरे कृपः // 7 अर्जुनस्य कुरूणां च द्रष्टुं युद्धमुपागताः // 13 ततः कनकपुङ्खाप्रैर्वीरः संनतपर्वभिः / दिव्यानां तत्र माल्यानां गन्धः पुण्योऽथ सर्वशः / त्वरन्गाण्डीवनिर्मुक्तैरर्जुनस्तस्य वाजिनः। प्रससार वसन्ताग्रे वनानामिव पुष्पताम् // 14 / चतुर्भिश्चतुरस्तीक्ष्णैरविध्यत्परमेषुभिः // 8 : रक्तारक्तानि देवानां समदृश्यन्त तिष्ठताम् / ते हया निशितैर्विद्धा ज्वलद्भिरिव पन्नगैः। .. आतपत्राणि वासांसि स्रजश्व व्यजनानि च // 15 / उत्पेतुः सहसा सर्वे कृपः स्थानादथाच्यवत् // 9 उपशाम्यद्रजो भौमं सर्वं व्याप्तं मरीचिभिः / च्युतं तु गौतमं स्थानात्समीक्ष्य कुरुनन्दनः / दिव्यान्गन्धानुपादाय वायुर्योधानसेवत // 16 नाविध्यत्परवीरनो रक्षमाणोऽस्य गौरवम् // 10 -855.
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________________ 4. 52. 11] . महाभारते [4. 53.8 स तु लब्ध्वा पुनः स्थानं गौतमः सव्यसाचिनम् / / सा तु मुक्ता गदा गुर्वी कृपेण सुपरिष्कृता। विव्याध दशभिर्बाणैस्त्वरितः कङ्कपत्रिभिः // 11 / अर्जुनेन शरैर्नुन्ना प्रतिमार्गमथागमत् // 25 ततः पार्थो धनुस्तस्य भल्लेन निशितेन च।। ततो योधाः परीप्सन्तः शारद्वतममर्षणम् / चिच्छेदैकेन भूयश्च हस्ताच्चापमथाहरत् // 12 सर्वतः समरे पार्थं शरवर्षैरवाकिरन् // 26 अथास्य कवचं बाणैर्निशितैर्मर्मभेदिभिः / ततो विराटस्य सुतः सव्यमावृत्य वाजिनः / व्यधमन्न च पार्थोऽस्य शरीरमवपीडयत् // 13 / यमकं मण्डलं कृत्वा तान्योधान्प्रत्यवारयत् // 27 तस्य निर्मुच्यमानस्य कवचात्काय आबभौ / ततः कृपमुपादाय विरथं ते नरर्षभाः / समये मुच्यमानस्य सर्पस्येव तनुर्यथा // 14 अपाजहुर्महावेगाः कुन्तीपुत्राद्धनंजयात् // 28 छिन्ने धनुषि पार्थेन सोऽन्यदादाय कार्मुकम् / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि चकार गौतमः सज्यं तदद्भुतमिवाभवत् / / 15 द्विपञ्चाशोऽध्यायः // 52 // स तदप्यस्य कौन्तेयश्चिच्छेद नतपर्वणा। 53 एवमन्यानि चापानि बहूनि कृतहस्तवत् / अर्जुन उवाच / शारद्वतस्य चिच्छेद पाण्डवः परवीरहा // 16 यत्रैषा काश्चनी वेदी प्रदीप्ताग्निशिखोपमा / स छिन्नधनुरादाय अथ शक्तिं प्रतापवान् / उच्छ्रिता काश्चने दण्डे पताकाभिरलंकृता। प्राहिणोत्पाण्डुपुत्राय प्रदीप्तामशनीमिव // 17 तत्र मां वह भद्रं ते द्रोणानीकाय मारिष // 1. तामर्जुनस्तदायान्तीं शक्तिं हेमविभूषिताम् / / अश्वाः शोणाः प्रकाशन्ते बृहन्तश्चारुवाहिनः / वियद्गतां महोल्काभां चिच्छेद दशभिः शरैः / स्निग्धविद्रुमसंकाशास्ताम्रास्याः प्रियदर्शनाः / सापतद्दशधा छिन्ना भूमौ पार्थेन धीमता // 18 युक्ता रथवरे यस्य सर्वशिक्षाविशारदाः // 2 युगमध्ये तु भल्लैस्तु ततः स सधनुः कृपः। दीर्घबाहुर्महातेजा बलरूपसमन्वितः / तमाशु निशितैः पार्थं बिभेद दशभिः शरैः // 19 / सर्वलोकेषु विख्यातो भारद्वाजः प्रतापवान् // 3 ततः पार्थो महातेजा विशिखानग्नितेजसः। बुद्ध्या तुल्यो ह्युशनसा बृहस्पतिसमो नये / चिक्षेप समरे क्रुद्धस्त्रयोदश शिलाशितान् // 20 / वेदास्तथैव चत्वारो ब्रह्मचर्यं तथैव च // 4 अथास्य युगमेकेन चतुर्भिश्चतुरो हयान् / ससंहाराणि दिव्यानि सर्वाण्यत्राणि मारिष / षष्ठेन च शिरः कायाच्छरेण रथसारथेः // 21 / धनुर्वेदश्च कार्येन यस्मिन्नित्यं प्रतिष्ठितः // 5 त्रिभित्रिवेणुं समरे द्वाभ्यामक्षौ महाबलः / क्षमा दमश्च सत्यं च आनृशंस्यमथार्जवम् / द्वादशेन तु भल्लेन चकर्तास्य ध्वजं तथा // 22 एते चान्ये च बहवो गुणा यस्मिन्द्विजोत्तमे // 6 ततो वज्रनिकाशेन फल्गुनः प्रहसन्निव / तेनाहं योद्धुमिच्छामि महाभागेन संयुगे। त्रयोदशेनेन्द्रसमः कृपं वक्षस्यताडयत् // 23 तस्मात्त्वं प्रापयाचार्य क्षिप्रमुत्तर वाहय // 7 स छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः / वैशंपायन उवाच / गदापाणिरवप्लुत्य तूर्णं चिक्षेप तां गदाम् // 24 / अर्जुनेनैवमुक्तस्तु वैराटिहेमभूषितान् / -856 -
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________________ 4. 53. 8] विराटपर्व [4. 53. 36 चोदयामास तानश्वान्भारद्वाजरथं प्रति // 8 / द्रोणं हि समरे कोऽन्यो योद्धमर्हति फल्गुनात् / तमापतन्तं वेगेन पाण्डवं रथिनां वरम् / रौद्रः क्षत्रियधर्मोऽयं गुरुणा यदयुध्यत / द्रोणः प्रत्युद्ययौ पार्थं मत्तो मत्तमिव द्विपम् // 9 इत्यब्रुवञ्जनास्तत्र संग्रामशिरसि स्थिताः // 23 ततः प्राध्मापयच्छङ्ख भेरीशतनिनादितम् / वीरौ तावपि संरब्धौ संनिकृष्टौ महारथौ / प्रचुक्षुभे बलं सर्वमुद्भूत इव सागरः // 10 छादयेतां शरव्रातैरन्योन्यमपराजितौ // 24 . अथ शोणान्सदश्वांस्तान्हंसवर्णैर्मनोजवैः / विस्फार्य सुमहच्चापं हेमपृष्ठं दुरासदम् / मिश्रितान्समरे दृष्ट्वा व्यस्मयन्त रणे जनाः // 11 संरब्धोऽथ भरद्वाजः फल्गुनं प्रत्ययुध्यत // 25 तौ रथौ वीर्यसंपन्नौ दृष्ट्वा संग्राममूर्धनि / स सायकमयैर्जालैरर्जुनस्य रथं प्रति / आचार्यशिष्यावजितौ कृतविद्यौ मनस्विनौ // 12 भानुमद्भिः शिलाधौतैर्भानोः प्रच्छादयत्प्रभाम्॥२६ समाश्लिष्टौ तदान्योन्यं द्रोणपार्थो महाबलौ / पार्थं च स महाबाहुर्महावेगैर्महारथः / दृष्ट्वा प्राकम्पत मुहुर्भरतानां महद्बलम् // 13 विव्याध निशितैर्बाणैर्मेघो वृष्ट्येव पर्वतम् // 27 हर्षयुक्तस्तथा पार्थः प्रहसन्निव वीर्यवान् / तथैव दिव्यं गाण्डीवं धनुरादाय पाण्डवः / रथं रथेन द्रोणस्य समासाद्य महारथः // 14 शत्रुघ्नं वेगवद्धृष्टो भारसाधनमुत्तमम् / अभिवाद्य महाबाहुः सान्त्वपूर्वमिदं वचः / विससर्ज शरांश्चित्रान्सुवर्णविकृतान्बहून् // 28 उवाच श्लक्ष्णया वाचा कौन्तेयः परवीरहा // 15 नाशयशरवर्षाणि भारद्वाजस्य वीर्यवान् / उषिताः स्म वने वासं प्रतिकर्म चिकीर्षवः / तूर्णं चापविनिर्मुक्तैस्तदद्भुतमिवाभवत् // 29 कोपं नार्हसि नः कर्तुं सदा समरदुर्जय // 16 / स रथेन चरन्पार्थः प्रेक्षणीयो धनंजयः / अहं तु प्रहृते पूर्व प्रहरिष्यामि तेऽनघ / युगपदिक्षु सर्वासु सर्वशस्त्राण्यदर्शयत् // 30 इति मे वर्तते बुद्धिस्तद्भवान्कर्तुमर्हति // 17 एकच्छायमिवाकाशं बाणैश्चक्रे समन्ततः / ततोऽस्मै प्राहिणोद्रोणः शरानधिकविंशतिम् / नादृश्यत तदा द्रोणो नीहारेणेव संवृतः // 31 अप्राप्तांश्चैव तान्पार्थश्चिच्छेद कृतहस्तवत् // 18 तस्याभवत्तदा रूपं संवृतस्य शरोत्तमैः / ततः शरसहस्रेण रथं पार्थस्य वीर्यवान् / जाज्वल्यमानस्य यथा पर्वतस्येव सर्वतः // 32 अवाकिरत्ततो द्रोणः शीघ्रमस्रं विदर्शयन् // 19 दृष्ट्वा तु पार्थस्य रणे शरैः स्वरथमावृतम् / एवं प्रववृते युद्धं भारद्वाजकिरीटिनोः / स विस्फार्य धनुश्चित्रं मेघस्तनितनिस्वनम् // 33 समं विमुश्चतोः संख्ये विशिखान्दीप्ततेजसः॥२० अग्निचक्रोपमं घोरं विकर्षन्परमायुधम् / तावुभौ ख्यातकर्माणावुभौ वायुसमौ जवे / व्यशातयच्छरांस्तांस्तु द्रोणः समितिशोभनः / उभौ दिव्यास्त्रविदुषावुभावुत्तमतेजसौ। महानभूत्ततः शब्दो वंशानामिव दह्यताम् // 34 क्षिपन्तौ शरजालानि मोहयामासतुपान् // 21 / जाम्बूनदमयैः पुढेश्चित्रचापवरातिगैः / व्यस्मयन्त ततो योधाः सर्वे तत्र समागताः / प्राच्छादयदमेयात्मा दिशः सूर्यस्य च प्रभाम् // 35 शरान्विसृजतोस्तूर्णं साधु साध्विति पूजयन् / / 22 / ततः कनकपुङ्खानां शराणां नतपर्वणाम् / म.भा. 108 - 857,
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________________ 4. 53. 36] महाभारते [4. 53. 65 वियञ्चराणां वियति दृश्यन्ते बहुशः प्रजाः॥ 36 ततो नागा रथाश्चैव सादिनश्च विशां पते / द्रोणस्य पुखसक्ताश्च प्रभवन्तः शरासनात्। शोणिताक्ता व्यदृश्यन्त पुष्पिता इव किंशुकाः॥५१ एको दीर्घ इवादृश्यदाकाशे संहतः शरः // 37 बाहुभिश्च सकेयूरैर्विचित्रैश्च महारथैः / एवं तौ स्वर्णविकृतान्विमुश्चन्तौ महाशरान् / सुवर्णचित्रैः कवचैर्ध्वजैश्च विनिपातितैः // 52 आकाशं संवृतं वीरावुल्काभिरिव चक्रतुः // 38 योधैश्च निहतैस्तत्र पार्थबाणप्रपीडितैः / ' शरास्तयोश्च विबभुः कङ्कबर्हिणवाससः / बलमासीत्समुद्धान्तं द्रोणार्जुनसमागमे // 53 पङ्क्त्यः शरदि खस्थानां हंसानां चरतामिव॥३९ विधुन्वानी तु तौ वीरौ धनुषी भारसाधने / युद्धं समभवत्तत्र सुसंरब्धं महात्मनोः / आच्छादयेतामन्योन्यं तितक्षन्तौ रणेषुभिः // 54 द्रोणपाण्डवयो|रं वृत्रवासवयोरिव // 40 अथान्तरिक्षे नादोऽभूद्रोणं तत्र प्रशंसताम् / तौ गजाविव चासाद्य विषाणाप्रैः परस्परम् / दुष्करं कृतवान्द्रोणो यदर्जुनमयोधयत् // 55 शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यमभिजघ्नतुः / / / 41 प्रमाथिनं महावीर्यं दृढमुष्टिं दुरासदम्। तौ व्यवाहरतां शूरौ संरब्धौ रणशोभिनौ / जेतारं देवदैत्यानां सर्पाणां च महारथम् // 56 उदीरयन्तौ समरे दिव्यान्यस्त्राणि भागशः // 42 अविश्रमं च शिक्षां च लाघवं दूरपातिताम्। अथ त्वाचार्यमुख्येन शरान्सृष्टाशिलाशितान् / पार्थस्य समरे दृष्ट्वा द्रोणस्याभूञ्च विस्मयः // 57 न्यवारयच्छितैर्बाणैरर्जुनो जयतां वरः // 43 अथ गाण्डीवमुद्यम्य दिव्यं धनुरमर्षणः / दर्शयन्नैन्द्रिरात्मानमुग्रमुग्रपराक्रमः / विचकर्ष रणे पार्थो बाहुभ्यां भरतर्षभ // 58 इषुभिस्तूर्णमाकाशं बहुभिश्च समावृणोत् // 44 तस्य बाणमयं वर्ष शलभानामिवायतम् / जिघांसन्तं नरव्याघ्रमर्जुनं तिग्मतेजसम् / न च बाणान्तरे वायुरस्य शक्नोति सर्पितुम् // 59 आचार्यमुख्यः समरे द्रोणः शस्त्रभृतां वरः / अनिशं संदधानस्य शरानुत्सृजतस्तदा / अर्जुनेन सहाक्रीडच्छरैः संनतपर्वभिः // 45 ददृशे नान्तरं किंचित्पार्थस्याददतोऽपि च // 60 दिव्यान्यस्त्राणि मुञ्चन्तं भारद्वाजं महारणे / तथा शीघ्रास्त्रयुद्धे तु वर्तमाने सुदारुणे। अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य फल्गुनः समयोधयत् // 46 शीघ्राच्छीघ्रतरं पार्थः शरानन्यानुदीरयत् // 61 तयोरासीत्संप्रहारः क्रुद्धयोर्नरसिंहयोः / ततः शतसहस्राणि शराणां नतपर्वणाम् / अमर्षिणोस्तदान्योन्यं देवदानवयोरिव // 47 युगपत्प्रापतस्तत्र द्रोणस्य रथमन्तिकात् / / 62 ऐन्द्रं वायव्यमाग्नेयमस्त्रमस्त्रेण पाण्डवः। अवकीर्यमाणे द्रोणे तु शरैर्गाण्डीवधन्वना / द्रोणेन मुक्तं मुक्तं तु ग्रसते स्म पुनः पुनः // 48 हाहाकारो महानासीत्सैन्यानां भरतर्षभ // 63 एवं शूरौ महेष्वासौ विसृजन्तौ शिताशरान् / पाण्डवस्य तु शीघ्रास्त्रं मघवान्समपूजयत् / एकच्छायं चक्रतुस्तावाकाशं शरवृष्टिभिः // 49 गन्धर्वाप्सरसश्चैव ये च तत्र समागताः // 64 ततोऽर्जुनेन मुक्तानां पततां च शरीरिषु / ततो वृन्देन महता रथानां रथयूथपः / पर्वतेष्विव वज्राणां शराणां श्रूयते स्वनः // 50 / आचार्यपुत्रः सहसा पाण्डवं प्रत्यवारयत् // 65 -858 -
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________________ 4. 53. 66 ] विराटपर्व [4. 55.2 अश्वत्थामा तु तत्कर्म हृदयेन महात्मनः / वारणेनेव मत्तेन मत्तो वारणयूथपः // 9 पूजयामास पार्थस्य कोपं चास्याकरोद्भशम् // 66 / ततः प्रववृते युद्धं पृथिव्यामेकवीरयोः / स मन्युवशमापन्नः पार्थमभ्यद्रवद्रणे / रणमध्ये द्वयोरेव सुमहल्लोमहर्षणम् // 10 किर शरसहस्राणि पर्जन्य इव वृष्टिमान् // 67 तौ वीरौ कुरवः सर्वे ददृशुर्विस्मयान्विताः। आवृत्य तु महाबाहुर्यतो द्रौणिस्ततो हयान् / युध्यमानौ महात्मानौ यूथपाविव संगतौ // 11 अन्तरं प्रददौ पार्थो द्रोणस्य व्यपसर्पितुम् / / 68 तौ समाजघ्नतुर्वीरावन्योन्यं पुरुषर्षभौ। स तु लब्ध्वान्तरं तूर्णमपायाजवनैर्हयैः / शरैराशीविषाकारैर्बलद्भिरिव पन्नगैः // 12 छिन्नवर्मध्वजः शूरो निकृत्तः परमेषुभिः // 69 अक्षय्याविषुधी दिव्यौ पाण्डवस्य महात्मनः / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि तेन पार्थो रणे शूरस्तस्थौ गिरिरिवाचलः // 13 त्रिपञ्चाशोऽध्यायः // 53 // अश्वत्थाम्नः पुनर्बाणाः क्षिप्रमभ्यस्यतो रणे। जग्मुः परिक्षयं शीघ्रमभूत्तेनाधिकोऽर्जुनः // 14 वैशंपायन उवाच। ततः कर्णो महच्चापं विकृष्याभ्यधिकं रुषा। तं पार्थः प्रतिजग्राह वायुवेगमिवोद्धतम् / अवाक्षिपत्ततः शब्दो हाहाकारो महानभूत् // 15 शरजालेन महता वर्षमाणमिवाम्बुदम् // 1 तत्र चक्षुर्दधे पार्थो यत्र विस्फार्यते धनुः / तयोर्देवासुरसमः संनिपातो महानभूत् / ददर्श तत्र राधेयं तस्य कोपोऽत्यवीवृधत् // 16 किरतोः शरजालानि वृत्रवासवयोरिव // 2 स रोषवशमापन्नः कर्णमेव जिघांसया। न स्म सूर्यस्तदा भाति न च वाति समीरणः / अवैक्षत विवृत्ताभ्यां नेत्राभ्यां कुरुपुंगवः // 17 शरगाढे कृते व्योम्नि छायाभूते समन्ततः // 3 तथा तु विमुखे पार्थे द्रोणपुत्रस्य सायकान्। महांश्चटचटाशब्दो योधयोर्हन्यमानयोः / त्वरिताः पुरुषा राजन्नुपाजगुः सहस्रशः / / 18 दह्यतामिव वेणूनामासीत्परपुरंजय / / 4 उत्सृज्य च महाबाहुट्टैणपुत्रं धनंजयः। हयानस्यार्जुनः सर्वान्कृतवानल्पजीवितान् / अभिदुद्राव सहसा कर्णमेव सपत्नजित् // 19 स राजन्न प्रजानाति दिशं कांचन मोहितः // 5 तमभिद्रुत्य कौन्तेयः क्रोधसंरक्तलोचनः / ततो द्रौणिर्महावीर्यः पार्थस्य विचरिष्यतः। कामयन्द्वैरथे युद्धमिदं वचनमब्रवीत् // 20 विवरं सूक्ष्ममालोक्य ज्यां चिच्छेद क्षुरेण ह। इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि तदस्यापूजयन्देवाः कर्म दृष्ट्वातिमानुषम् // 6 चतुःपञ्चाशोऽध्यायः // 54 // ततो द्रौणिर्धनूंष्यष्टौ व्यपक्रम्य नरर्षभम् / पुनरभ्याहनत्पार्थं हृदये कङ्कपत्रिभिः // 7 ___ अर्जुन उवाच। ततः पार्थो महाबाहुः प्रहस्य स्वनवत्तदा। कर्ण यत्ते सभामध्ये बहु वाचा विकत्थितम् / योजयामास नवया मौळ गाण्डीवमोजसा // 8 / न मे युधि समोऽस्तीति तदिदं प्रत्युपस्थितम् // 1 ततोऽर्धचन्द्रमावृत्य तेन पार्थः समागमत् / / अवोचः परुषा वाचो धर्ममुत्सृज्य केवलम् / - 859 -
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________________ 4. 55. 2] महाभारते [ 4. 56. इदं तु दुष्करं मन्ये यदिदं ते चिकीर्षितम् // 2 प्रतिजग्राह तान्कर्णः शरानग्निशिखोपमान / यत्त्वया कथितं पूर्व मामनासाद्य किंचन / शरवर्षेण महता वर्षमाण इवाम्बुदः / / 16 तदद्य कुरु राधेय कुरुमध्ये मया सह // 3 उत्पेतुः शरजालानि घोररूपाणि सर्वशः। यत्सभायां स्म पाञ्चालीं क्लिश्यमानां दुरात्मभिः / अविध्यदश्वान्बाह्वोश्च हस्तावापं पृथक्पृथक् // 17 दृष्टवानसि तस्याद्य फलमाप्नुहि केवलम् // 4 सोऽमृष्यमाणः कर्णस्य निषङ्गस्यावलम्बनम् / धर्मपाशनिबद्धन यन्मया मर्षितं पुरा। चिच्छेद निशिताग्रेण शरेण नतपर्वणा // 18 / तस्य राधेय कोपस्य विजयं पश्य मे मृधे // 5 उपासङ्गादुपादाय कर्णो बाणानथापरान् / एहि कर्ण मया सार्धं प्रतिपद्यस्व संगरम् / विव्याध पाण्डवं हस्ते तस्य मुष्टिरशीर्यत / / 19 प्रेक्षकाः कुरवः सर्वे भवन्तु सहसैनिकाः // 6 .. ततः पार्थो महाबाहुः कर्णस्य धनुरच्छिनत् / कर्ण उवाच। स शक्तिं प्राहिणोत्तस्मै तां पार्थो व्यधमच्छरैः // 20 प्रवीषि वाचा यत्पार्थ कर्मणा तत्समाचर / ततोऽभिपेतुर्बहवो राधेयस्य पदानुगाः / अतिशेते हि वै वाचं कर्मेति प्रथितं भुवि // 7 तांश्च गाण्डीवनिर्मुक्तैः प्राहिणोद्यमसादनम् // 21 यत्त्वया मर्षितं पूर्वं तदशक्तेन मर्षितम् / ततोऽस्याश्वाशरैस्तीक्ष्णैभित्सु रसाधनैः / : इति गृह्णामि तत्पार्थ तव दृष्ट्वापराक्रमम् / / 8 आकर्णमुक्तैरभ्यन्नंस्ते हताः प्रापतन्भुवि // 22 धर्मपाशनिबद्धन यदि ते मर्षितं पुरा / अथापरेण बाणेन ज्वलितेन महाभुजः। तथैव बद्धमात्मानमबद्धमिव मन्यसे // 9 विव्याध कर्णं कौन्तेयस्तीक्ष्णेनोरसि वीर्यवान् // 23 यदि तावद्वने वासो यथोक्तश्चरितस्त्वया। तस्य भित्त्वा तनुत्राणं कायमभ्यपतच्छरः / तत्त्वं धर्मार्थविक्लिष्टः समयं भेत्तुमिच्छसि // 10 / ततः स तमसाविष्टो न स्म किंचित्प्रजज्ञिवान् // 24 यदि शक्रः स्वयं पार्थ युध्यते तव कारणात् / स गाढवेदनो हित्वा रणं प्रायादुदङ्मुखः / तथापि न व्यथा काचिन्मम स्याद्विक्रमिष्यतः॥११ ततोऽर्जुन उपाक्रोशदुत्तरश्च महारथः // 25 अयं कौन्तेय कामस्ते नचिरात्समुपस्थितः / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि योत्स्यसे त्वं मया सार्धमद्य द्रक्ष्यसि मे बलम्॥१२ .. पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः // 55 // अर्जुन उवाच / इदानीमेव तावत्त्वमपयातो रणान्मम / वैशंपायन उवाच / तेन जीवसि राधेय निहतस्त्वनुजस्तव // 13 ततो वैकर्तनं जित्वा पार्थो वैराटिमब्रवीत् / भ्रातरं घातयित्वा च त्यक्त्वा रणशिरश्च कः। एतन्मां प्रापयानीकं यत्र तालो हिरण्मयः // 1 त्वदन्यः पुरुषः सत्सु ब्रूयादेवं व्यवस्थितः // 14 / अत्र शांतनवो भीष्मो रथेऽस्माकं पितामहः / वैशंपायन उवाच / काङ्कमाणो मया युद्धं तिष्ठत्यमरदर्शनः / इति कर्ण ब्रुवन्नेव बीभत्सुरपराजितः। आदास्याम्यहमेतस्य धनुर्ध्यामपि चाहवे // 2 अभ्ययाद्विसृजन्बाणान्कायावरणभेदिनः // 15 / अस्यन्तं दिव्यमस्त्रं वां चित्रमद्य निशामय / -860 -
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________________ 4. 56. 3] विराटपर्व [4. 57.1 शतहदामिवायान्तीं स्तनयित्नोरिवाम्बरे // 3 तमायान्तं महाबाहु जिगीषन्तं रणे परान् / सुवर्णपृष्ठं गाण्डीवं द्रक्ष्यन्ति कुरवो मम। अभ्यवारयदव्यग्रः क्रूरकर्मा धनंजयम् // 17 दक्षिणेनाथ वामेन कतरेण स्विदस्यति / तं चित्रमाल्याभरणाः कृतविद्या मनस्विनः / इति मां संगताः सर्वे तर्कयिष्यन्ति शत्रवः // 4 आगच्छन्भीमधन्वानं मौर्वी पर्यस्य बाहुभिः // 18 शोणितोदां रथावर्ती नागनक्रां दुरत्ययाम् / दुःशासनो विकर्णश्च दुःसहोऽथ विविंशतिः। नदी प्रस्यन्दयिष्यामि परलोकप्रवाहिनीम् // 5 आगत्य भीमधन्वानं बीभत्सुं पर्यवारयन् // 19 पाणिपादशिरःपृष्ठबाहुशाखानिरन्तरम् / दुःशासनस्तु भल्लेन विद्धा वैराटिमुत्तरम् / वनं कुरूणां छेत्स्यामि भल्लैः संनतपर्वभिः // 6 द्वितीयेनार्जुनं वीरः प्रत्यविध्यत्स्तनान्तरे // 20 / जयतः कौरवीं सेनामेकस्य मम धन्विनः / .. तस्य जिष्णुरुपावृत्य पृथुधारेण कार्मुकम् / शतं मार्गा भविष्यन्ति पांवकस्येव कानने। चकर्त गार्धपत्रेण जातरूपपरिष्कृतम् // 21 मया चक्रमिवाविद्धं सैन्यं द्रक्ष्यसि केवलम् // 7 अथैनं पञ्चभिः पश्चात्प्रत्यविध्यत्स्तनान्तरे। असंभ्रान्तो रथे तिष्ठ समेषु विषमेषु च / सोऽपयातो रणं हित्वा पार्थबाणप्रपीडितः // 22 दिवमावृत्य तिष्ठन्तं गिरि भेत्स्यामि धारिभिः // 8 // तं विकर्णः शरैस्तीक्ष्णैर्गाधपत्रैरजिह्मगैः। अहमिन्द्रस्य वचनात्संग्रामेऽभ्यहनं पुरा। विव्याध परवीरनमर्जुनं धृतराष्ट्रजः // 23 . पौलोमान्कालखञ्जांश्च सहस्राणि शतानि च // 9 ततस्तमपि कौन्तेयः शरेणानतपर्वणा / अहमिन्द्रादृढां मुष्टिं ब्रह्मणः कृतहस्तताम् / ललाटेऽभ्यहनत्तूर्णं स विद्धः प्रापतद्रथात् // 24 प्रगाढं तुमुलं चित्रमतिविद्धं प्रजापतेः / / 10 ततः पार्थमभिद्रुत्य दुःसहः सविविंशतिः। अहं पारे समुद्रस्य हिरण्यपुरमारुजम् / अवाकिरच्छरैस्तीक्ष्णैः परीप्सन्भ्रातरं रणे // 25 जित्वा षष्टिसहस्राणि रथिनामुग्रधन्विनाम् // 11 तावुभौ गार्धपत्राभ्यां निशिताभ्यां धनंजयः / ध्वजवृक्षं पत्तितृणं रथसिंहगणायुतम् / विद्धा युगपदव्यग्रस्तयोर्वाहानसूदयत् // 26 वनमादीपयिष्यामि कुरूणामस्वतेजसा // 12 तौ हताश्वौ विविद्धाङ्गौ धृतराष्ट्रात्मजावुभौ / तानहं रथनीडेभ्यः शरैः संनतपर्वभिः / अभिपत्य रथैरन्यैरपनीतौ पदानुगैः // 27 एकः संकालयिष्यामि वज्रपाणिरिवासुरान् // 13 सर्वा दिशश्चाभ्यपतद्वीभत्सुरपराजितः / रौद्रं रुद्रादहं यस्त्रं वारुणं वरुणादपि / किरीटमाली कौन्तेयो लब्धलक्षो महाबलः // 28 अस्त्रमानेयमग्नेश्च वायव्यं मातरिश्वनः / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि वज्रादीनि तथास्त्राणि शक्रादहमवाप्तवान् // 14 षट्पञ्चाशोऽध्यायः // 56 // धार्तराष्ट्रवनं घोरं नरसिंहाभिरक्षितम् / . 57 अहमुत्पाटयिष्यामि वैराटे व्येतु ते भयम् // 15 वैशंपायन उवाच / एवमाश्वासितस्तेन वैराटिः सव्यसाचिना। | अथ संगम्य सर्वे तु कौरवाणां महारथाः। व्यगाहत रथानीकं भीमं भीष्मस्य धीमतः / / 16 / अर्जुनं सहिता यत्ताः प्रत्ययुध्यन्त भारत // 1 -861 - मिराक्षतम्।
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________________ 4. 57.2] महाभारते [4. 58.9 स सायकमयैर्जालैः सर्वतस्तान्महारथान् / अर्जुनो जयतां श्रेष्ठः पर्यवर्तत भारत // 16 प्राच्छादयदमेयात्मा नीहार इव पर्वतान् // 2 / प्रावर्तयन्नदी घोरां शोणितौघतरङ्गिणीम् / नदद्भिश्च महानागैर्हेषमाणैश्च वाजिभिः / अस्थिशैवलसंबाधां युगान्ते कालनिर्मिताम् / / 17 भेरीशङ्खनिनादैश्च स शब्दस्तुमुलोऽभवत् // 3 शरचापप्लवां घोरां मांसशोणितकर्दमाम् / नराश्वकायान्निर्भिद्य लोहानि कवचानि च / महारथमहाद्वीपां शङ्खदुन्दुभिनिस्वनाम् / पार्थस्य शरजालानि विनिष्पेतुः सहस्रशः // 4 चकार महतीं पार्थो नदीमुत्तरशोणिताम् // 18 त्वरमाणः शरानस्यन्पाण्डवः स बभौ रणे। आददानस्य हि शरान्संधाय च विमुञ्चतः / मध्यंदिनगतोऽर्चिष्माशरदीव दिवाकरः // 5 विकर्षतश्च गाण्डीवं न किंचिदृश्यतेऽन्तरम् // 19 उपप्लवन्त वित्रस्ता रथेभ्यो रथिनस्तदा / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि सादिनश्चाश्वपृष्टभ्यो भूमौ चापि पदातयः // 6 सप्तपञ्चाशोऽध्यायः // 57 // . शरैः संताड्यमानानां कवचानां महात्मनाम् / ताम्रराजतलोहानां प्रादुरासीन्महास्वनः // 7 वैशंपायन उवाच / छन्नमायोधनं सर्वं शरीरैर्गतचेतसाम् / अथ दुर्योधनः कर्णो दुःशासनविविंशती। गजाश्वसादिभिस्तत्र शितबाणात्तजीवितैः // 8 द्रोणश्च सह पुत्रेण कृपश्चातिरथो रणे // 1 रथोपस्थाभिपतितेरास्तृता मानवैर्मही / पुनरीयुः सुसंरब्धा धनंजयजिघांसया / प्रनृत्यदिव संग्रामे चापहस्तो धनंजयः // 9 विस्फारयन्तश्चापानि बलवन्ति दृढानि च // 2 श्रुत्वा गाण्डीवनिर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः / तान्प्रकीर्णपताकेन रथेनादित्यवर्चसा। त्रस्तानि सर्वभूतानि व्यगच्छन्त महाहवात् // 10 प्रत्युद्ययौ महाराज समस्तान्वानरध्वजः॥ 3 कुण्डलोष्णीषधारीणि जातरूपस्रजानि च / ततः कृपश्च कर्णश्च द्रोणश्च रथिनां वरः / पतितानि स्म दृश्यन्ते शिरांसि रणमूर्धनि // 11 / तं महास्त्रैर्महावीर्यं परिवार्य धनंजयम् // 4 विशिखोन्मथितैर्गात्रैर्बाहुभिश्च सकार्मुकैः / शरौघान्सम्यगस्यन्तो जीमूता इव वार्षिकाः / सहस्ताभरणैश्चान्यैः प्रच्छन्ना भाति मेदिनी // 12 ववर्षः शरवर्षाणि प्रपतन्तं किरीटिनम् / / 5 शिरसां पात्यमानानामन्तरा निशितैः शरैः / इषुभिर्बहुभिस्तूर्णं समरे लोमवाहिभिः / अश्मवृष्टिरिवाकाशादभवद्भरतर्षभ // 13 अदूरात्पर्यवस्थाय पूरयामासुरादृताः॥ 6 दर्शयित्वा तथात्मानं रौदं रुदपराक्रमः / तथावकीर्णस्य हि तैर्दिव्यैरस्त्रैः समन्ततः / अवरुद्धश्वरन्पार्थो दश वर्षाणि त्रीणि च / न तस्य व्यङ्गुलमपि विवृतं समदृश्यत // 7 क्रोधाग्निमुत्सृजद्वोरं धार्तराष्ट्रेषु पाण्डवः // 14 ततः प्रहस्य बीभत्सुर्दिव्यमैन्द्रं महारथः / सस्य तद्दहतः सैन्यं दृष्ट्वा चैव पराक्रमम् / अस्त्रमादित्यसंकाशं गाण्डीवे समयोजयत् // 8 सर्वे शान्तिपरा योधा धार्तराष्ट्रस्य पश्यतः // 15 / स रश्मिभिरिवादित्यः प्रतपन्समरे बली। वित्रासयित्वा तत्सैन्यं द्रावयित्वा महारथान् / किरीटमाली कौन्तेयः सर्वान्प्राच्छादयत्कुरून् // 9 - 862 -
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________________ 4. 58. 10] विराटपर्व [4. 59. 23 यथा बलाहके विद्युत्पावको वा शिलोच्चये। शीघ्रकृद्रथवाहांश्च तथोभौ पाणिसारथी // 9 तथा गाण्डीवमभवदिन्द्रायुधमिवाततम् // 10 तयोस्तदभवद्युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम् / यथा वर्षति पर्जन्ये विद्युद्विभ्राजते दिवि / भीष्मस्य सह पार्थेन बलिवासवयोरिव // 10 तथा दश दिशः सर्वाः पतद्गाण्डीवमावृणोत् // 11 भल्लभल्लाः समागम्य भीष्मपाण्डवयोयुधि। . त्रस्ताश्च रथिनः सर्वे बभूवुस्तत्र सर्वशः / अन्तरिक्षे व्यराजन्त खद्योताः प्रावृषीव हि // 11 सर्वे शान्तिपरा भूत्वा खचित्तानि न लेभिरे / अग्निचक्रमिवाविद्धं सव्यदक्षिणमस्यतः / संग्रामविमुखाः सर्वे योधास्ते हतचेतसः / / 12 गाण्डीवमभवद्राजन्पार्थस्य सृजतः शरान् // 12 एवं सर्वाणि सैन्यानि भग्नानि भरतर्षभ / स तैः संछादयामास भीष्मं शरशतैः शितैः / प्राद्रवन्त दिशः सर्वा निराशानि स्वजीविते // 13 पर्वतं वारिधाराभिश्छादयन्निव तोयदः // 13 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि तां स वेलामिवोद्धृतां शरवृष्टिं समुत्थिताम् / अष्टपञ्चाशोऽध्यायः // 58 // व्यधमत्सायकैर्भीष्मो अर्जुनं संनिवारयत् // 14 59 ततस्तानि निकृत्तानि शरजालानि भागशः / वैशंपायन उवाच / समरेऽभिव्यशीयन्त फल्गुनस्य रथं प्रति // 15 ततः शांतनवो भीष्मो दुराधर्षः प्रतापवान् / ततः कनकपुङ्खानां शरवृष्टिं समुत्थिताम् / वध्यमानेषु योधेषु धनंजयमुपाद्रवत् // 1 पाण्डवस्य रथात्तूर्णं शलभानामिवायतिम् / प्रगृह्य कार्मुकश्रेष्ठं जातरूपपरिष्कृतम् / व्यधमत्तां पुनस्तस्य भीष्मः शरशतैः शितैः॥१६ शरानादाय तीक्ष्णाग्रान्मर्मभेदप्रमाथिनः // 2 ततस्ते कुरवः सर्वे साधु साध्विति चाब्रुवन् / पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि / दुष्करं कृतवान्भीष्मो यदर्जुनमयोधयत् // 17 शुशुभे स नरव्याघ्रो गिरिः सूर्योदये यथा // 3 बलवांस्तरुणो दक्षः क्षिप्रकारी च पाण्डवः / प्रध्माय शङ्ख गाङ्गेयो धार्तराष्ट्रान्प्रहर्षयन् / कोऽन्यः समर्थः पार्थस्य वेगं धारयितुं रणे // 18 प्रदक्षिणमुपावृत्य बीभत्सुं समवारयत् // 4 ऋते शांतनवाद्भीष्मात्कृष्णाद्वा देवकीसुतात् / तमुवीक्ष्य तथायान्तं कौन्तेयः परवीरहा। आचार्यप्रवराद्वापि भारद्वाजान्महाबलात् // 19 प्रत्यगृह्णात्प्रहृष्टात्मा धाराधरमिवाचलः // 5 अौरस्त्राणि संवार्य क्रीडतः पुरुषर्षभौ / ततो भीष्मः शरानष्टौ ध्वजे पार्थस्य वीर्यवान् / चढूंषि सर्वभूतानां मोहयन्तौ महाबलौ // 20 समपर्यन्महावेगाञ्श्वसमानानिवोरगान् // 6 प्राजापत्यं तथैवैन्द्रमामेयं च सुदारुणम् / ते ध्वजं पाण्डुपुत्रस्य समासाद्य पतत्रिणः / कौबेरं वारुणं चैव याम्यं वायव्यमेव च / ज्वलन्तः कपिमाजघ्नुर्ध्वजाग्रनिलयांश्च तान् // 7 / प्रयुञ्जानौ महात्मानौ समरे तो विचेरतुः // 21 ततो भल्लेन महता पृथुधारेण पाण्डवः। विस्मितान्यथ भूतानि तौ दृष्ट्वा संयुगे तदा। छत्रं चिच्छेद भीष्मस्य तूर्णं तदपतद्भुवि // 8 साधु पार्थ महाबाहो साधु भीष्मेति चाब्रुवन् // 22 ध्वजं चैवास्य कौन्तेयः शरैरभ्यहनदृढम् / / नेदं युक्तं मनुष्येषु योऽयं संदृश्यते महान् / -863 -
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________________ 4. 59. 23 ] महाभारते [4. 60.3 महास्त्राणां संप्रयोगः समरे भीष्मपार्थयोः // 23 न शक्नुवन्ति सैन्यानि पाण्डवं प्रतिवीक्षितुम् // 37 एवं सर्वास्त्रविदुषोरवयुद्धमवर्तत / उभौ विश्रुतकर्माणावुभौ युद्धविशारदौ / अथ जिष्णुरुपावृत्य पृथुधारेण कार्मुकम् / . उभौ सदृशकर्माणावुभौ युधि दुरासदौ // 38. चकर्त भीष्मस्य तदा जातरूपपरिष्कृतम् // 24 इत्युक्तो देवराजस्तु पार्थभीष्मसमागमम् / निमेषान्तरमात्रेण भीष्मोऽन्यत्कार्मुकं रणे / पूजयामास दिव्येन पुष्पवर्षेण भारत // 39 समादाय महाबाहुः सज्यं चक्रे महाबलः / ततो भीष्मः शांतनवो वामे पार्श्वे समपर्यत् / शरांश्च सुबहून्क्रुद्धो मुमोचाशु धनंजये // 25 अस्यतः प्रतिसंधाय विवृतं सव्यसाचिनः // 40 अर्जुनोऽपि शरांश्चित्रान्भीष्माय निशितान्बहून् / ततः प्रहस्य बीभत्सुः पृथुधारेण कार्मुकम् / चिक्षेप सुमहातेजास्तथा भीष्मश्च पाण्डवे // 26 न्यकृन्तद्गार्धपत्रेण भीष्मस्यामिततेजसः // 41 तयोर्दिव्यास्त्रविदुषोरस्यतोरनिशं शरान् / अथैनं दशभिर्बाणैः प्रत्यविध्यत्स्तनान्तरे / न विशेषस्तदा राजलक्ष्यते स्म महात्मनोः // 27 यतमानं पराक्रान्तं कुन्तीपुत्रो धनंजयः // 42 अथावृणोद्दश दिशः शरैरतिरथस्तदा / स पीडितो महाबाहुर्गृहीत्वा रथकूबरम् / किरीटमाली कौन्तेयः शूरः शांतनवस्तथा / / 28 गाङ्गेयो युधि दुर्धर्षस्तस्थौ दीर्घमिवातुरः // 43 अतीव पाण्डवो भीष्मं भीष्मश्चातीव पाण्डवम् / तं विसंज्ञमपोवाह संयन्ता रथवाजिनाम् / बभूव तस्मिन्संग्रामे राजल्लोके तदद्भुतम् / / 29 उपदेशमनुस्मृत्य रक्षमाणो महारथम् // 44 पाण्डवेन हताः शूरा भीष्मस्य रथरक्षिणः / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि शेरते स्म तदा राजन्कौन्तेयस्याभितो रथम् / / 30 एकोनषष्टितमोऽध्यायः // 59 // ततो गाण्डीवनिर्मुक्ता निरमित्रं चिकीर्षवः / आगच्छन्पुङ्खसंश्लिष्टाः श्वेतवाहनपत्रिणः // 31 वैशंपायन उवाच / निष्पतन्तो रथात्तस्य धौता हैरण्यवाससः / भीष्मे तु संग्रामशिरो विहाय आकाशे समदृश्यन्त हंसानामिव पतयः // 32 ___ पलायमाने धृतराष्ट्रपुत्रः। तस्य तदिव्यमत्रं हि प्रगाढं चित्रमस्यतः / उच्छ्रित्य केतुं विनदन्महात्मा प्रेक्षन्ते स्मान्तरिक्षस्थाः सर्वे देवाः सवासवाः // 33 स्वयं विगृह्यार्जुनमाससाद // 1 तदृष्ट्वा परमप्रीतो गन्धर्वश्चित्रमद्भुतम् / स भीमधन्वानमुदग्रवीर्य शशंस देवराजाय चित्रसेनः प्रतापवान् // 34 धनंजयं शत्रुगणे चरन्तम्। पश्येमानरिनिर्दारान्संसक्तानिव गच्छतः / आकर्णपूर्णायतचोदितेन चित्ररूपमिदं जिष्णोर्दिव्यमस्त्रमुदीर्यतः // 35 भल्लेन विव्याध ललाटमध्ये // 2 नेदं मनुष्याः श्रद्दध्युन हीदं तेषु विद्यते / स तेन बाणेन समर्पितेन पौराणानां महास्त्राणां विचित्रोऽयं समागमः / / 36 . जाम्बूनदाभेन सुसंशितेन / मध्यंदिनगतं सूर्य प्रतपन्तमिवाम्बरे। रराज राजन्महनीयकर्मा -864 -
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________________ 4. 60. 3] विराटपर्व [4. 60. 18 यथैकपर्वा रुचिरैकशृङ्गः // 3 त्रासाद्विकर्णः सहसावतीर्य / अथास्य बाणेन विदारितस्य तूर्णं पदान्यष्टशतानि गत्वा प्रादुर्बभूवासृगजस्रमुष्णम् / विविंशतेः स्यन्दनमारुरोह // 11 सा तस्य जाम्बूनदपुष्पचित्रा निहत्य नागं तु शरेण तेन मालेव चित्राभिविराजते स्म // 4 वनोपमेनाद्रिवराम्बुदाभम् / स तेन बाणाभिहतस्तरस्वी तथाविधेनैव शरेण पार्थो दुर्योधनेनोद्धतमन्युवेगः। ___दुर्योधनं वक्षसि निर्बिभेद // 12 शरानुपादाय विषाग्निकल्पा ततो गजे राजनि चैव भिन्ने विव्याध राजानमदीनसत्त्वः // 5 . भन्ने विकणे च सपादरक्षे। दुर्योधनश्चापि तमुग्रतेजाः गाण्डीवमुक्तैर्विशिखैः प्रणुन्नापार्थश्च दुर्योधनमेकवीरः। स्ते योधमुख्याः सहसापजग्मुः // 13 अन्योन्यमाजौ पुरुषप्रवीरौ दृष्ट्वैव बाणेन हतं तु नागं ___ समं समाजघ्नतुराजमीढौ // 6. योधांश्च सर्वान्द्रवतो निशम्य / ततः प्रभिन्नेन महागजेन रथं समावृत्य कुरुप्रवीरो महीधराभेन पुनर्विकर्णः। रणात्प्रदुद्राव यतो न पार्थः // 14 रथैश्चतुर्भिर्गजपादरक्षैः तं भीमरूपं त्वरितं द्रवन्तं कुन्तीसुतं जिष्णुमथाभ्यधावत् // 7 दुर्योधनं शत्रुसहो निषङ्गी। तमापतन्तं त्वरितं गजेन्द्र प्राक्ष्वेडयद्यो मनाः किरीटी धनंजयः कुम्भविभागमध्ये / बाणेन विद्धं रुधिरं वमन्तम् // 15 आकर्णपूर्णेन दृढायसेन अर्जुन उवाच / बाणेन विव्याध महाजवेन // 8 विहाय कीर्तिं विपुलं यशश्च पार्थेन सृष्टः स तु गार्धपत्र __युद्धात्परावृत्य पलायसे किम् / आ पुङदेशात्प्रविवेश नागम् / न तेऽद्य तूर्याणि समाहतानि विदार्य शैलप्रवरप्रकाशं __ यथावदुद्यान्ति गतस्य युद्धे // 16 .. यथाशनिः पर्वतमिन्द्रसृष्टः // 9 युधिष्ठिरस्यास्मि निदेशकारी शरप्रतप्तः स तु नागराजः पार्थस्तृतीयो युधि च स्थिरोऽस्मि / प्रवेपिताङ्गो व्यथितान्तरात्मा। तदर्थमावृत्य मुखं प्रयच्छ संसीदमानो निपपात मह्यां नरेन्द्रवृत्तं स्मर धार्तराष्ट्र // 17 वज्राहतं शृङ्गमिवाचलस्य // 10 मोघं तवेदं भुवि नामधेयं निपातिते दन्तिवरे पृथिव्यां दुर्योधनेतीह कृतं पुरस्तात् / म. भा. 109 -865 -
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________________ 4. 60. 18 ] महाभारते [4. 61. 18 न हीह दुर्योधनता तवास्ति पलायमानस्य रणं विहाय // 18 / न ते पुरस्तादथ पृष्ठतो वा पश्यामि दुर्योधन रक्षितारम् / परैहि युद्धेन कुरुप्रवीर प्राणान्प्रियान्पाण्डवतोऽद्य रक्ष // 19 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि षष्टितमोऽध्यायः // 6 // वैशंपायन उवाच / आहूयमानस्तु स तेन संख्ये महामना धृतराष्ट्रस्य पुत्रः / निवर्तितस्तस्य गिराङ्कशेन ___ गजो यथा मत्त इवाङ्कुशेन // 1 सोऽमृष्यमाणो वचसाभिमृष्टो महारथेनातिरथस्तरस्वी। पर्याववर्ताथ रथेन वीरो भोगी यथा पादतलाभिमृष्टः // 2 तं प्रेक्ष्य कर्णः परिवर्तमानं निवर्त्य संस्तभ्य च विद्धगात्रः। दुर्योधनं दक्षिणतोऽभ्यगच्छ___त्पार्थं नृवीरो युधि हेममाली // 3 भीष्मस्ततः शांतनवो निवृत्य __ हिरण्यकक्ष्यांस्त्वरयंस्तुरंगान् / दुर्योधनं पश्चिमतोऽभ्यरक्ष__पार्थान्महाबाहुरधिज्यधन्वा // 4 द्रोणः कृपश्चैव विविंशतिश्च दुःशासनश्चैव निवृत्य शीघ्रम् / सर्वे पुरस्ताद्विततेषुचापा दुर्योधनार्थं त्वरिताभ्युपेयुः // 5 स तान्यनीकानि निवर्तमाना न्यालोक्य पूर्णौघनिभानि पार्थः / हंसो यथा मेघमिवापतन्तं / धनंजयः प्रत्यपतत्तरस्वी // 6 ते सर्वतः संपरिवार्य पार्थ मस्त्राणि दिव्यानि समाददानाः / ववर्षुरभ्येत्य शरैः समन्ता न्मेघा यथा भूधरमम्बुवेगैः // 7 ततोऽस्त्रमस्त्रेण निवार्य तेषां __गाण्डीवधन्वा कुरुपुंगवानाम् / संमोहनं शत्रुसहोऽन्यदस्त्रं प्रादुश्चकान्द्रिरपारणीयम् // 8 ततो दिशश्चानुदिशो विवृत्य शरैः सुधारैर्निशितैः सुपुङ्खैः / / गाण्डीवघोषेण मनांसि तेषां महाबलः प्रव्यथयांचकार // 9 ततः पुनर्भीमरवं प्रगृह्य दोभ्या॑ महाशङ्खमुदारघोषम् / व्यनादयत्स प्रदिशो दिशः खं भुवं च पार्थो द्विषतां निहन्ता // 10 ते शङ्खनादेन कुरुप्रवीराः संमोहिताः पार्थसमीरितेन। उत्सृज्य चापानि दुरासदानि __ सर्वे तदा शान्तिपरा बभूवुः // 11 तथा विसंज्ञेषु परेषु पार्थः ___ स्मृत्वा तु वाक्यानि तथोत्तरायाः / निर्याहि मध्यादिति मत्स्यपुत्र मुवाच यावत्कुरवो विसंज्ञाः // 12 आचार्यशारद्वतयोः सुशुक्ले कर्णस्य पीतं रुचिरं च वस्त्रम् / -866
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________________ 4. 61. 13] विराटपर्व [4. 61. 28 द्रौणेश्च राज्ञश्च तथैव नीले शान्तिं पराश्वस्य यथा स्थितोऽभूवस्त्रे समादत्स्व नरप्रवीर // 13 रुत्सृज्य बाणांश्च धनुश्च चित्रम् / भीष्मस्य संज्ञां तु तथैव मन्ये न त्वेव बीभत्सुरलं नृशंसं ___जानाति मेऽस्त्रप्रतिघातमेषः / कतु न पापेऽस्य मनो निविष्टम् // 21 एतस्य वाहान्कुरु सव्यतस्त्व त्रैलोक्यहेतोर्न जहेत्स्वधर्म मेवं हि यातव्यममूढसंज्ञैः // 14 तस्मान्न सर्वे निहता रणेऽस्मिन् / रश्मीन्समुत्सृज्य ततो महात्मा क्षिप्रं कुरून्याहि कुरुप्रवीर ___ रथादवप्लुत्य विराटपुत्रः। विजित्य गाश्च प्रतियातु पार्थः // 22 वस्त्राण्युपादाय महारथानां दुर्योधनस्तस्य तु तन्निशम्य __तूर्णं पुनः स्वं रथमारुरोह // 15 _ पितामहस्यात्महितं वचोऽथ / . ततोऽन्वशासच्चतुरः सदश्वा अतीतकामो युधि सोऽत्यमर्षी - न्पुत्रो विराटस्य हिरण्यकक्ष्यान् / राजा विनिःश्वस्य बभूव तूष्णीम् // 23 ते तद्वयतीयुद्धजिनामनीकं तद्भीष्मवाक्यं हितमीक्ष्य सर्वे .. श्वेता वहन्तोऽर्जुनमाजिमध्यात् // 16 धनंजयाग्निं च विवर्धमानम् / तथा तु यान्तं पुरुषप्रवीरं / निवर्तनायैव मनो निदध्यु- भीष्मः शरैरभ्यहनत्तरस्वी / दुर्योधनं ते परिरक्षमाणाः // 24 स चापि भीष्मस्य हयान्निहत्य तान्प्रस्थितान्प्रीतमनाः स पार्थो विव्याध पार्श्वे दशभिः पृषत्कैः // 17 धनंजयः प्रेक्ष्य कुरुप्रवीरान् / ततोऽर्जुनो भीष्ममपास्य युद्धे आभाषमाणोऽनुययौ मुहूर्त विद्धास्य यन्तारमरिष्टधन्वा / संपूजयंस्तत्र गुरून्महात्मा // 25 तस्थौ विमुक्तो रथवृन्दमध्या पितामहं शांतनवं स वृद्धं ___ द्राहुं विदार्येव सहस्ररश्मिः // 18 द्रोणं गुरुं च प्रतिपूज्य मूर्धा / लब्ध्वा तु संज्ञां च कुरुप्रवीरः द्रौणिं कृपं चैव गुरूंश्च सर्वा..पार्थ समीक्ष्याथ महेन्द्रकल्पम् / शरैर्विचित्रैरभिवाद्य चैव // 26 रणाद्विमुक्तं स्थितमेकमाजौ दुर्योधनस्योत्तमरत्नचित्रं ____ स धार्तराष्ट्रस्त्वरितो बभाषे // 19 चिच्छेद पार्थो मुकुटं शरेण / अयं कथंस्विद्भवतां विमुक्त आमत्र्य वीरांश्च तथैव मान्या____ स्तं वै प्रबनीत यथा न मुच्येत् / न्गाण्डीवघोषेण विनाद्य लोकान् // 27 तमब्रवीच्छांतनवः प्रहस्य स देवदत्तं सहसा विनाद्य कं ते गता बुद्धिरभूत्व वीर्यम् // 20 विदार्य वीरो द्विषतां मनांसि / -867 -
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________________ 4. 61. 28 ] महाभारते [ 4. 63.9 ध्वजेन सर्वानभिभूय शत्रू न्स हेमजालेन विराजमानः // 28 दृष्ट्वा प्रयातांस्तु कुरून्किरीटी हृष्टोऽब्रवीत्तत्र स मत्स्यपुत्रम् / आवर्तयाश्वान्पशवो जितास्ते याताः परे याहि पुरं प्रहृष्टः // 29 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि एकषष्टितमोऽध्यायः॥६१॥ गच्छन्तु त्वरिताश्चैव गोपालाः प्रेषितास्त्वया / नगरे प्रियमाख्यातुं घोषयन्तु च ते जयम् // 10 __ वैशंपायन उवाच / उत्तरस्त्वरमाणोऽथ दूतानाज्ञापयत्ततः / वचनादर्जुनस्यैव आचक्षध्वं जयं मम // 11 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि द्विषष्टितमोऽध्यायः // 2 // // समाप्तं गोग्रहणपर्व // 62 अर्जुन उवाच। वैशंपायन उवाच / वैशंपायन उवाच / ततो विजित्य संग्रामे कुरून्गोवृषभेक्षणः / अवजित्य धनं चापि विराटो वाहिनीपतिः / समानयामास तदा विराटस्य धनं महत् / / 1 / / प्राविशन्नगरं हृष्टश्चतुर्भिः सह पाण्डवैः // 1 गतेषु च प्रभग्नेषु धार्तराष्ट्रेषु सर्वशः। जित्वा त्रिगन्सिंग्रामे गाश्चैवादाय केवलाः / वनान्निष्क्रम्य गहनाद्बहवः कुरुसैनिकाः॥२ अशोभत महाराजः सह पाथैः श्रिया वृतः // 2 भयात्संत्रस्तमनसः समाजग्मुस्ततस्ततः / तमासनगतं वीरं सुहृदां प्रीतिवर्धनम्। मुक्तकेशा व्यदृश्यन्त स्थिताः प्राञ्जलयस्तदा // 3 उपतस्थुः प्रकृतयः समस्ता ब्राह्मणैः सह // 3 क्षुत्पिपासापरिश्रान्ता विदेशस्था विचेतसः। सभाजितः ससैन्यस्तु प्रतिनन्द्याथ मत्स्यराट् / ऊचुः प्रणम्य संभ्रान्ताः पार्थ किं करवाम ते // 4 / विसर्जयामास तदा द्विजांश्च प्रकृतीस्तथा // 4 ततः स राजा मत्स्यानां विराटो वाहिनीपतिः / स्वस्ति व्रजत भद्रं वो न भेतव्यं कथंचन / उत्तरं परिपप्रच्छ क यात इति चाब्रवीत् // 5 नाहमार्ताञ्जिघांसामि भृशमाश्वासयामि वः // 5 आचख्युस्तस्य संहृष्टाः स्त्रियः कन्याश्च वेश्मनि / वैशंपायन उवाच। अन्तःपुरचराश्चैव कुरुभिर्गोधनं हृतम् // 6 तस्य तामभयां वाचं श्रुत्वा योधाः समागताः। विजेतुमभिसंरब्ध एक एवातिसाहसात् / आयुःकीर्तियशोदाभिस्तमाशीर्भिरनन्दयन् // 6 बृहन्नडासहायश्च निर्यातः पृथिवींजयः // 7 ततो निवृत्ताः कुरवः प्रभग्ना वशमास्थिताः / उपयातानतिरथान्द्रोणं शांतनवं कृपम् / पन्थानमुपसंगम्य फल्गुनो वाक्यमब्रवीत् // 7 कर्णं दुर्योधनं चैव द्रोणपुत्रं च षड्थान // 8 राजपुत्र प्रत्यवेक्ष समानीतानि सर्वशः / राजा विराटोऽथ भृशं प्रतप्तः गोकुलानि महाबाहो वीर गोपालकैः सह // 8 श्रुत्वा सुतं ह्येकरथेन यातम् / ततोऽपराहे यास्यामो विराटनगरं प्रति। बृहन्नडासारथिमाजिवर्धनं आश्वास्य पाययित्वा च परिप्लाव्य च वाजिनः॥९ / / प्रोवाच सर्वानथ मत्रिमुख्यान // 9 - 868 -
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________________ 4. 68. 10] विराटपर्व [4. 63. 32 सर्वथा कुरवस्ते हि ये चान्ये वसुधाधिपाः। . ध्रुव एव जयस्तस्य यस्य यन्ता बृहन्नडा // 21 . त्रिगर्तानिर्जिताश्रुत्वा न स्थास्यन्ति कदाचन // 10 वैशंपायन उवाच / तस्माद्गच्छन्तु मे योधा बलेन महता वृताः। ततो विराटो नृपतिः संप्रहृष्टतनूरुहः / उत्तरस्य परीप्साथ ये त्रिगर्तेरविक्षताः // 11 श्रुत्वा तु विजयं तस्य कुमारस्यामितौजसः।.. हयांश्च नागांश्च रथांश्च शीघ्रं आच्छादयित्वा दूतांस्तान्मत्रिणः सोऽभ्यचोदयत्॥ पदातिसंघांश्च ततः प्रवीरान् / राजमार्गाः क्रियन्तां मे पताकाभिरलंकृताः / प्रस्थापयामास सुतस्य हेतो पुष्पोपहारैरर्च्यन्तां देवताश्चापि सर्वशः // 23 विचित्रशस्त्राभरणोपपन्नान् // 12 कुमारा योधमुख्याश्च गणिकाश्च स्खलंकृताः / एवं स राजा मत्स्यानां विराटोऽक्षौहिणीपतिः / वादित्राणि च सर्वाणि प्रत्युद्यान्तु सुतं मम.॥ 24 व्यादिदेशाथ तां क्षिप्रं वाहिनीं चतुरङ्गिणीम् // 13 घण्टापणवकः शीघ्रं मत्तमारुह्य वारणम् / कुमारमाशु जानीत यदि जीवति वा न वा। शृङ्गाटकेषु सर्वेषु आख्यातु विजयं मम // 25 यस्य यन्ता गतः षण्ढो मन्येऽहं न स जीवति॥१४ उत्तरा च कुमारीभिर्बह्वीभिरभिसंवृता। तमब्रवीद्धर्मराजः प्रहस्य शृङ्गारवेषाभरणा प्रत्युद्यातु बृहन्नडाम् // 26 विराटमातं कुरुभिः प्रतप्तम् / श्रुत्वा तु तद्वचनं पार्थिवस्य बृहन्नडा सारथिश्चेन्नरेन्द्र सर्वे पुनः स्वस्तिकपाणयश्च / परे न नेष्यन्ति तवाद्य गास्ताः // 15 भेर्यश्च तूर्याणि च वारिजाश्च सर्वान्महीपान्सहितान्कुरूंश्च वेषैः पराध्यैः प्रमदाः शुभाश्च // 27 तथैव देवासुरयक्षनागान् / तथैव सूताः सह मागधैश्च अलं विजेतुं समरे सुतस्ते नन्दीवाद्याः पणवास्तूर्यवाद्याः / स्वनुष्ठितः सारथिना हि तेन // 16 पुराद्विराटस्य महाबलस्य अथोत्तरेण प्रहिता दूतास्ते शीघ्रगामिनः / प्रत्युद्ययुः पुत्रमनन्तवीर्यम् // 28 विराटनगरं प्राप्य जयमावेदयंस्तदा // 17 प्रस्थाप्य सेनां कन्याश्च गणिकाश्च स्वलंकृताः / राज्ञस्ततः समाचख्यौ मन्त्री विजयमुत्तमम् / मत्स्यराजो महाप्राज्ञः प्रहृष्ट इदमब्रवीत् / पराजयं कुरूणां चाप्युपायान्तं तथोत्तरम् // 18 अक्षानाहर सैरन्ध्र कङ्क द्यूतं प्रवर्तताम् // 29 सर्वा विनिर्जिता गावः कुरवश्व पराजिताः / तं तथावादिनं दृष्ट्वा पाण्डवः प्रत्यभाषत / उत्तरः सह सूतेन कुशली च परंतप // 19 न देवितव्यं हृष्टेन कितवेनेति नः श्रुतम् // 30 कङ्क उवाच / न त्वामद्य मुदा युक्तमहं देवितुमुत्सहे। दिष्ट्या ते निर्जिता गावः कुरवश्च पराजिताः। प्रियं तु ते चिकीर्षामि वर्ततां यदि मन्यसे // 31 दिष्ट्या ते जीवितः पुत्रः श्रूयते पार्थिवर्षभ / 20 विराट उवाच / नाद्भुतं त्वेव मन्येहं यत्ते पुत्रोऽजयत्कुरून् / स्त्रियो गावो हिरण्यं च यच्चान्यद्वसु किंचन। . - 869 -
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________________ 4. 63. 32] महाभारते [ 4. 64.3 न मे किंचित्त्वया रक्ष्यमन्तरेणापि देवितुम् // 32 बलवत्प्रतिविद्धस्य नस्तः शोणितमागमत् / कङ्क उवाच / तदप्राप्तं महीं पार्थः पाणिभ्यां प्रत्यगृहृत / / 45 किं ते द्यूतेन राजेन्द्र बहुदोषेण मानद / अवैक्षत च धर्मात्मा द्रौपदी पार्श्वतः स्थिताम् / देवने बहवो दोषास्तस्मात्तत्परिवर्जयेत् // 33 सा वेद तमभिप्रायं भर्तुश्चित्तवशानुगा // 46 श्रुतस्ते यदि वा दृष्टः पाण्डवो वै युधिष्ठिरः / पूरयित्वा च सौवर्णं पात्रं कांस्यमनिन्दिता। स राज्यं सुमहत्स्फीतं भ्रातृ॑श्च त्रिदशोपमान्॥३४ तच्छोणितं प्रत्यगृह्णाद्यत्प्रसुस्राव पाण्डवात् 47 द्यूते हारितवान्सर्वं तस्माद्द्यूतं न रोचये / अथोत्तरः शुभैर्गन्धैर्माल्यैश्च विविधैस्तथा / अथ वा मन्यसे राजन्दीव्याव यदि रोचते // 35 अवकीर्यमाणः संहृष्टो नगरं स्वैरमागमत् // 48 वैशंपायन उवाच / सभाज्यमानः पौरैश्च स्त्रीभिर्जानपदैस्तथा / प्रवर्तमाने द्यूते तु मत्स्यः पाण्डवमब्रवीत् आसाद्य भवनद्वारं पित्रे स प्रत्यहारयत् // 49. ' पश्य पुत्रेण मे युद्धे तादृशाः कुरवो जिताः // 36 ततो द्वाःस्थः प्रविश्यैव विराटमिदब्रवीत् / ततोऽब्रवीन्मत्स्यराजं धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / बृहन्नडासहायस्ते पुत्रो द्वार्युत्तरः स्थितः // 50 बृहन्नडा यस्य यन्ता कथं स न विजेष्यति // 37 ततो हृष्टो मत्स्यराजः क्षत्तारमिदमब्रवीत् / . इत्युक्तः कुपितो राजा मत्स्यः पाण्डवमब्रवीत् / प्रवेश्यतामुभी तूर्णं दर्शनेप्सुरहं तयोः // 51 समं पुत्रेण मे षण्डं ब्रह्मबन्धो प्रशंससि // 38 क्षत्तारं कुरुराजस्तु शनैः कर्ण उपाजपत्। वाच्यावाच्यं न जानीषे नूनं मामवमन्यसे / उत्तरः प्रविशत्वेको न प्रवेश्या बृहन्नडा // 52 भीष्मद्रोणमुखान्सन्किस्मान्न स विजेष्यति // 39 एतस्य हि महाबाहो व्रतमेतत्समाहितम् / वयस्यत्वात्तु ते ब्रह्मन्नपराधमिमं क्षमे / यो ममाङ्गे व्रणं कुर्याच्छोणितं वापि दर्शयेत् / नेदृशं ते पुनर्वाच्यं यदि जीवितुमिच्छसि // 40 अन्यत्र संग्रामगतान्न स जीवेदसंशयम् / / 53 युधिष्ठिर उवाच / न मृष्याशसंक्रुद्धो मां दृष्ट्वैव सशोणितम् / यत्र द्रोणस्तथा भीष्मो द्रौणिर्वैकर्तनः कृपः / विराटमिह सामात्यं हन्यात्सबलवाहनम् // 54 दुर्योधनश्च राजेन्द्र तथान्ये च महारथाः // 41 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि मरुद्गणैः परिवृतः साक्षादपि शतक्रतुः / त्रिषष्टितमोऽध्यायः // 63 // कोऽन्यो बृहन्नडायास्तान्प्रतियुध्येत संगतान्॥ 42 64 विराट उवाच। वैशंपायन उवाच / बहुशः प्रतिषिद्धोऽसि न च वाचं नियच्छसि / ततो राज्ञः सुतो ज्येष्ठः प्राविशत्पृथिवींजयः / नियन्ता चेन्न विद्येत न कश्चिद्धर्ममाचरेत् // 43 सोऽभिवाद्य पितुः पादौ धर्मराजमपश्यत // 1 वैशंपायन उवाच / स तं रुधिरसंसिक्तमनेकाग्रमनागसम् / ततः प्रकुपितो राजा तमक्षेणाहनभृशम् / भूमावासीनमेकान्ते सैरन्ध्या समुपस्थितम् // 2 मुखे युधिष्ठिरं कोपान्नैवमित्येव भर्त्सयन् // 44 / ततः पप्रच्छ पितरं त्वरमाण इवोत्तरः / -870
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________________ 4. 64. 3] विराटपर्व [4. 64. 29 केनायं ताडितो राजन्केन पापमिदं कृतम् // 3 आचार्यपुत्रो यः शूरः सर्वशस्त्रभृतामपि / विराट उवाच / अश्वत्थामेति विख्यातः कथं तेन समागमः // 16 मयायं ताडितो जिह्मो न चाप्येतावदर्हति / / रणे यं प्रेक्ष्य सीदन्ति हृतस्वा वणिजो यथा। प्रशस्यमाने यः शूरे त्वयि षण्ढं प्रशंसति // 4 कृपेण तेन ते तात कथमासीत्समागमः // 17 . उत्तर उवाच। पर्वतं योऽभिविध्येत राजपुत्रो महेषुभिः / अकार्य ते कृतं राजन्क्षिप्रमेव प्रसाद्यताम् / दुर्योधनेन ते तात कथमासीत्समागमः // 18 मा त्वा ब्रह्मविषं घोरं समूलमपि निर्दहेत् // 5 उत्तर उवाच / वैशंपायन उवाच। न मया निर्जिता गावो न मया निर्जिताः परे / स पुत्रस्य वचः श्रुत्वा विराटो राष्ट्रवर्धनः / कृतं तु कर्म तत्सर्वं देवपुत्रेण केनचित् // 19 क्षमयामास कौन्तेयं भस्मच्छन्नमिवानलम् // 6 स हि भीतं द्रवन्तं मां देवपुत्रो न्यवारयत् / क्षमयन्तं तु राजानं पाण्डवः प्रत्यभाषत / स चातिष्ठद्रथोपस्थे वज्रहस्तनिभो युवा // 20 चिरं क्षान्तमिदं राजन्न मन्युर्विद्यते मम // 7 तेन ता निर्जिता गावस्तेन ते कुरवो जिताः / यदि ह्येतत्पतेद्भूमौ रुधिरं मम नस्ततः / तस्य तत्कर्म वीरस्य न मया तात तत्कृतम् // 21 सराष्ट्रस्त्वं महाराज विनश्येथा न संशयः // 8 स हि शारद्वतं द्रोणं द्रोणपुत्रं च वीर्यवान् / न दूषयामि ते राजन्यच्च हन्याददूषकम् / सूतपुत्रं च भीष्मं च चकार विमुखाशरैः // 22 बलवन्तं महाराज क्षिप्रं दारुणमाप्नुयात् // 9 दुर्योधनं च समरे सनागमिव यूथपम् / शोणिते तु व्यतिक्रान्ते प्रविवेश बृहन्नडा / प्रभनमब्रवीद्भीतं राजपुत्रं महाबलम् // 23 अभिवाद्य विराटं च कथं चाप्युपतिष्ठत // 10 न हास्तिनपुरे त्राणं तव पश्यामि किंचन / क्षमयित्वा तु कौरव्यं रणादुत्तरमागतम् / व्यायामेन परीप्सस्व जीवितं कौरवात्मज // 24 प्रशशंसं ततो मत्स्यः शृण्वतः सव्यसाचिनः // 11 न मोक्ष्यसे पलायंस्त्वं राजन्युद्धे मनः कुरु / त्वया दायादवानस्मि कैकेयीनन्दिवर्धन / पृथिवीं भोक्ष्यसे जित्वा हतो वा स्वर्गमाप्स्यसि // 25 त्वया मे सदृशः पुत्रो न भूतो न भविष्यति // 12 पदं पदसहस्रेण यश्चरन्नापरानुयात् / स निवृत्तो नरव्याघ्रो मुञ्चन्वज्रनिभाशरान् / तेन कर्णेन ते तात कथमासीत्समागमः // 13 सचिवैः संवृतो राजा रथे नाग इव श्वसन् // 26 मनुष्यलोके सकले यस्य तुल्यो न विद्यते / तत्र मे रोमहर्षोऽभूदूरुस्तम्भश्च मारिष / यः समुद्र इवाक्षोभ्यः कालाग्निरिव दुःसहः / यभ्रघनसंकाशमनीकं व्यधमच्छरैः // 27 तेन भीष्मेण ते तात कथमासीत्समागमः // 14 तत्प्रणुद्य रथानीकं सिंहसंहननो युवा। आचार्यो वृष्णिवीराणां पाण्डवानां च यो द्विजः / कुरूंस्तान्प्रहसन्राजन्वासांस्यपहरदली // 28 सर्वक्षत्रस्य चाचार्यः सर्वशस्त्रभृतां वरः / एकेन तेन वीरेण षड्थाः परिवारिताः। तेन द्रोणेन ते तात कथमासीत्समागमः // 15 / शार्दूलेनेव मत्तेन मृगास्तृणचरा वने // 29 -871 -
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________________ 4. 64. 30] महाभारते [ 4. 65. 18 विराट उवाच / आजगाम सभां कर्तुं राजकार्याणि सर्वशः // 4 क स वीरो महाबाहुर्देवपुत्रो महायशाः / श्रीमतः पाण्डवान्दृष्ट्वा ज्वलतः पावकानिव / यो मे धनमवाजैषीत्कुरुभिर्घस्तमाहवे // 30 अथ मत्स्योऽब्रवीत्कवं देवरूपमवस्थितम् / इच्छामि तमहं द्रष्टुमर्चितुं च महाबलम् / / मरुद्गणैरुपासीनं त्रिदशानामिवेश्वरम् // 5 येन मे त्वं च गावश्च रक्षिता देवसूनुना // 31 स किलाक्षातिवापस्त्वं सभास्तारो मया कृतः। उत्तर उवाच / अथ राजासने कस्मादुपविष्टोऽस्यलंकृतः // 6 . अन्तर्धानं गतस्तात देवपुत्रः प्रतापवान् / परिहासेप्सया वाक्यं विराटस्य निशम्य तत् / स तु श्वो वा परश्वो वा मन्ये प्रादुर्भविष्यति॥३२ स्मयमानोऽर्जुनो राजन्निदं वचनमब्रवीत् // 7 वैशंपायन उवाच / इन्द्रस्याप्यासनं राजन्नयमारोढुमर्हति / एवमाख्यायमानं तु छन्नं सत्रेण पाण्डवम् / ब्रह्मण्यः श्रुतवांस्त्यागी यज्ञशीलो दृढव्रतः / / 8. . वसन्तं तत्र नाज्ञासीद्विराटः पार्थमर्जुनम् // 33 अयं कुरूणामृषभः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / ततः पार्थोऽभ्यनुज्ञातो विराटेन महात्मना। अस्य कीर्तिः स्थिता लोके सूर्यस्येवोद्यतः प्रभा // 9 प्रददौ तानि वासांसि विराटदुहितुः स्वयम् // 34 संसरन्ति दिशः सर्वा यशसोऽस्य गभस्तयः / उत्तरा तु महार्हाणि विविधानि तनूनि च / उदितस्येव सूर्यस्य तेजसोऽनु गभस्तयः // 10 प्रतिगृह्याभवत्प्रीता तानि वासांसि भामिनी / / 35 एनं दश सहस्राणि कुञ्जराणां तरविनाम् / मत्रयित्वा तु कौन्तेय उत्तरेण रहस्तदा। अन्वयुः पृष्ठतो राजन्यावदध्यावसत्कुरून् // 11 इतिकर्तव्यतां सर्वां राजन्यथ युधिष्ठिरे // 36 त्रिंशदेनं सहस्राणि रथाः काञ्चनमालिनः / ततस्तथा तद्व्यदधाद्यथावत्पुरुषर्षभ / सदश्वैरुपसंपन्नाः पृष्ठतोऽनुययुः सदा // 12 सह पुत्रेण मत्स्यस्य प्रहृष्टो भरतर्षभः // 37 एनमष्टशताः सूताः सुमृष्टमणिकुण्डलाः / इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि अस्तुवन्मागधैः सार्धं पुरा शक्रमिवर्षयः // 13 चतुःषष्टितमोऽध्यायः // 6 // एनं नित्यमुपासन्त कुरवः किंकरा यथा। सर्वे च राजनराजानो धनेश्वरमिवामराः // 14 वैशंपायन उवाच / एष सर्वान्महीपालान्करमाहारयत्तदा / सतस्तृतीये दिवसे भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः / वैश्यानिव महाराज विवशान्स्ववशानपि // 15 स्नाताः शुक्लाम्बरधराः समये चरितव्रताः // 1 अष्टाशीतिसहस्राणि स्नातकानां महात्मनाम् / यधिष्ठिरं पुरस्कृत्य सर्वाभरणभूषिताः / उपजीवन्ति राजानमेनं सुचरितव्रतम् // 16 अभिपना यथा नागा भ्राजमाना महारथाः॥ 2 एष वृद्धाननाथांश्च व्यङ्गान्पडूंश्व मानवान् / विराटस्य सभां गत्वा भूमिपालासनेष्वथ / पुत्रवत्पालयाभास प्रजा धर्मेण चाभिभो // 17 निषेदुः पावकप्रख्याः सर्वे धिष्ण्येष्विवाग्नयः // 3 एष धर्मे दमे चैव क्रोधे चापि यतव्रतः / तेषु तत्रोपविष्टेषु विराटः पृथिवीपतिः / महाप्रसादो ब्रह्मण्यः सत्यवादी च पार्थिवः // 18 -872 -
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________________ 4. 65. 19] विराटपर्व [4. 66.21 श्रीप्रतापेन चैतस्य तप्यते स सुयोधनः / अज्ञातवासमुषिता गर्भवास इव प्रजाः // 10 सगणः सह कर्णेन सौबलेनापि वा विभुः // 19 वैशंपायन उवाच। न शक्यन्ते ह्यस्य गुणाः प्रसंख्यातुं नरेश्वर / यदार्जुनेन ते वीराः कथिताः पञ्च पाण्डवाः। एष धर्मपरो नित्यमानृशंस्यश्च पाण्डवः // 20 तदार्जुनस्य वैराटिः कथयामास विक्रमम् // 11 एवंयुक्तो महाराजः पाण्डवः पार्थिवर्षभः / अयं स द्विषतां मध्ये मृगाणामिव केसरी। कथं नार्हति राजाहमासनं पृथिवीपतिः // 21 अचरद्रथवृन्देषु निघ्नंस्तेषां वरान्वरान् // 12 इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि अनेन विद्धो मातङ्गो महानेकेषुणा हतः। पञ्चषष्टितमोऽध्यायः // 65 // हिरण्यकक्ष्यः संग्रामे दन्ताभ्यामगमन्महीम् // 13 अनेन विजिता गावो जिताश्च कुरवो युधि / विराट उवाच। अस्य शङ्खप्रणादेन कर्णौ मे बधिरीकृतौ // 14 // यद्येष राजा कौरव्यः कुन्तीपुत्रों युधिष्ठिरः / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा मत्स्यराजः प्रतापवान् / कतमोऽस्यार्जुनो भ्राता भीमश्च कतमो बली // 1 उत्तरं प्रत्युवाचेदमभिपन्नो युधिष्ठिरे // 15 नकुलः सहदेवो वा द्रौपदी वा यशस्विनी। प्रसादनं पाण्डवस्य प्राप्तकालं हि रोचये / यदा द्यूते जिताः पार्था न प्राज्ञायन्त ते क्वचित् // 2 उत्तरां च प्रयच्छामि पार्थाय यदि ते मतम् // 16 अर्जुन उवाच / उत्तर उवाच। य एष बल्लवो ब्रूते सूदस्तव नराधिप / अाः पूज्याश्च मान्याश्च प्राप्तकालं च मे मतम् / एष भीमो महाबाहुर्भीमवेगपराक्रमः // 3 पूज्यन्तां पूजनार्दाश्च महाभागाश्च पाण्डवाः // 17 एष क्रोधवशान्हत्वा पर्वते गन्धमादने / विराट उवाच / सौगन्धिकानि दिव्यानि कृष्णार्थे समुपाहरत् // 4 अहं खल्वपि संग्रामे शत्रूणां वशमागतः / गन्धर्व एष वै हन्ता कीचकानां दुरात्मनाम् / मोक्षितो भीमसेनेन गावश्च विजितास्तथा // 18 व्याघ्रानृक्षान्वराहांश्च हतवान्स्त्रीपुरे तव // 5 एतेषां बाहुवीर्येण यदस्माकं जयो मृधे। यश्वासीदश्वबन्धस्ते नकुलोऽयं परंतपः / वयं सर्वे सहामात्याः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् / . गोसंख्यः सहदेवश्च माद्रीपुत्रौ महारथौ // 6 प्रसादयामो भद्रं ते सानुजं पाण्डवर्षभम् // 19 शृङ्गारवेषाभरणौ रूपवन्तौ यशस्विनौ। यदस्माभिरजानद्भिः किंचिदुक्तो नराधिपः / / नानारथसहस्राणां समर्थों पुरुषर्षभौ // 7 क्षन्तुमर्हति तत्सर्व धर्मात्मा ह्येष पाण्डवः // 20 एषा पद्मपलाशाक्षी सुमध्या चारुहासिनी / वैशंपायन उवाच / सैरन्ध्री द्रौपदी राजन्यत्कृते कीचका हताः // 8 ततो विराटः परमाभितुष्टः अर्जुनोऽहं महाराज व्यक्तं ते श्रोत्रमागतः। __ समेत्य राज्ञा समयं चकार / भीमादवरजः पार्थो यमाभ्यां चापि पूर्वजः // 9 राज्यं च सर्व विससर्ज तस्मै उषिताः स्म महाराज सुखं तव निवेशने / सदण्डकोशं सपुरं महात्मा // 21 . म.भा. 110 -873 -
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________________ 4. 66. 22 ] महाभारते [4. 67. 18 पाण्डवांश्च ततः सर्वान्मत्स्यराजः प्रतापवान् / / शुद्धो जितेन्द्रियो दान्तस्तस्याः शुद्धिः कृता मया // 5 धनंजयं पुरस्कृत्य दिष्ट्या दिष्ट्येति चाब्रवीत् // 22 स्नुषाया दुहितुर्वापि पुत्रे चात्मनि वा पुनः / समुपाघ्राय मूर्धानं संश्लिष्य च पुनः पुनः / / अत्र शङ्कां न पश्यामि तेन शुद्धिर्भविष्यति // 6 युधिष्ठिरं च भीमं च माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ // 23 अभिषङ्गादहं भीतो मिथ्याचारात्परंतप / नातृप्यद्दर्शने तेषां विराटो वाहिनीपतिः / स्नुषार्थमुत्तरां राजन्प्रतिगृह्णामि ते सुताम् / / 7 संप्रीयमाणो राजानं युधिष्ठिरमथाब्रवीत् // 24 स्वस्रीयो वासुदेवस्य साक्षादेवशिशुर्यथा / दिष्टया भवन्तः संप्राप्ताः सर्वे कुशलिनो वनात् / दयितश्चक्रहस्तस्य बाल एवास्त्रकोविदः // 8 दिष्टया च पारितं कृच्छ्रमज्ञातं वै दुरात्मभिः // 25 अभिमन्युर्महाबाहुः पुत्रो मम विशां पते / इदं च राज्यं नः पार्था यच्चान्यद्वसु किंचन / जामाता तव युक्तो वै भर्ता च दुहितुस्तव // 9 प्रतिगृह्णन्तु तत्सर्वं कौन्तेया अविशङ्कया // 26 विराट उवाच / उत्तरां प्रतिगृह्णातु सव्यसाची धनंजयः / उपपन्नं कुरुश्रेष्ठे कुन्तीपुत्रे धनंजये / अयं ह्यौपयिको भर्ता तस्याः पुरुषसत्तमः / / 27 य एवं धर्मनित्यश्च जातज्ञानश्च पाण्डवः // 10 एवमुक्तो धर्मराजः पार्थमैक्षद्धनंजयम् / यत्कृत्यं मन्यसे पार्थ क्रियतां तदनन्तरम् / ... ईक्षितश्चार्जुनो भ्रात्रा मत्स्यं वचनमब्रवीत् // 28 सर्वे कामाः समृद्धा मे संबन्धी यस्य मेऽर्जुनः॥११ प्रतिगृह्णाम्यहं राजन्स्नुषां दुहितरं तव / वैशंपायन उवाच / युक्तश्चावां हि संबन्धो मत्स्यभारतसत्तमौ // 29 एवं ब्रुवति राजेन्द्रे कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि अन्वजानात्स संयोगं समये मत्स्यपार्थयोः // 12 षट्षष्टितमोऽध्यायः // 66 // ततो मित्रेषु सर्वेषु वासुदेवे च भारत / 67 प्रेषयामास कौन्तेयो विराटश्च महीपतिः // 13 विराट उवाच / ततस्त्रयोदशे वर्षे निवृत्ते पञ्च पाण्डवाः / किमर्थं पाण्डवश्रेष्ठ भार्यां दुहितरं मम / उपप्लव्ये विराटस्य समपद्यन्त सर्वशः // 14 प्रतिग्रहीतुं नेमां त्वं मया दत्तामिहेच्छसि // 1 तस्मिन्वसंश्च बीभत्सुरानिनाय जनार्दनम् / अर्जुन उवाच। आनर्तेभ्योऽपि दाशार्हानभिमन्युं च पाण्डवः॥१५ अन्तःपुरेऽहमुषितः सदा पश्यन्सुतां तव / काशिराजश्च शैब्यश्च प्रीयमाणो युधिष्ठिरे / रहस्यं च प्रकाशं च विश्वस्ता पितृवन्मयि // 2 अक्षौहिणीभ्यां सहितावागतौ पृथिवीपते // 16 प्रियो बहुमतश्चाहं नर्तको गीतकोविदः / अक्षौहिण्या च तेजस्वी यज्ञसेनो महाबलः / आचार्यवच मां नित्यं मन्यते दुहिता तव // 3 / द्रौपद्याश्च सुता वीराः शिखण्डी चापराजितः // 17 वयःस्थया तया राजन्सह संवत्सरोषितः / धृष्टद्युम्नश्च दुर्धर्षः सर्वशस्त्रभृतां वरः / अतिशङ्का भवेत्स्थाने तव लोकस्य चाभिभो // 4 समस्ताक्षौहिणीपाला यज्वानो भूरिदक्षिणाः / तस्मान्निमत्रये त्वाहं दुहितुः पृथिवीपते / सर्वे शस्त्रास्त्रसंपन्नाः सर्वे शूरास्तनुत्यजः // 18 - 874 -
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________________ 4. 67. 19] विराटपर्व . [4. 67. 38 तानागतानभिप्रेक्ष्य मत्स्यो धर्मभृतां वरः / आजग्मुश्चारुसर्वाङ्गथः सुमृष्टमणिकुण्डलाः // 29 प्रीतोऽभवहुहितरं दत्त्वा तामभिमन्यवे // 19 वर्णोपपन्नास्ता नार्यो रूपवत्यः स्वलंकृताः / ततः प्रत्युपयातेषु पार्थिवेषु ततस्ततः / सर्वाश्चाभ्यभवत्कृष्णा रूपेण यशसा श्रिया // 30 तत्रागमद्वासुदेवो वनमाली हलायुधः / परिवार्योत्तरां तास्तु राजपुत्रीमलंकृताम् / कृतवर्मा च हार्दिक्यो युयुधानश्च सात्यकिः // 20 सुतामिव महेन्द्रस्य पुरस्कृस्योपतस्थिरे // 31 अनाधृष्टिस्तथाक्रूरः साम्बो निशठ एव च। तां प्रत्यगृह्णात्कौन्तेयः सुतस्यार्थे धनंजयः / अभिमन्युमुपादाय सह मात्रा परंतपाः // 21. सौभद्रस्यानवद्याङ्गी विराटतनयां तदा // 32 इन्द्रसेनादयश्चैव रथैस्तैः सुसमाहितैः / तत्रातिष्ठन्महाराजो रूपमिन्द्रस्य धारयन् / आययुः सहिताः सर्वे परिसंवत्सरोषिताः // 22 स्नुषां तां प्रतिजग्राह कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः // 33 दशनागसहस्राणि हयानां च शतायुतम् / रथानामधंदं पूर्ण निखर्वं च पदातिनाम् // 23 प्रतिगृह्य च तां पार्थः पुरस्कृत्य जनार्दनम् / वृष्ण्यन्धकाश्च बहवो भोजाश्च परमौजसः। विवाहं कारयामास सौभद्रस्य महात्मनः // 34 अन्वयुर्वृष्णिशार्दूलं वासुदेवं महाद्युतिम् // 24 तस्मै सप्त सहस्राणि हयानां वातरंहसाम् / पारिबहँ ददौ कृष्णः पाण्डवानां महात्मनाम् / द्वे च नागशते मुख्ये प्रादाबहु धनं तदा // 35 स्त्रियो रत्नानि वासांसि पृथक्पृथगनेकशः / कृते विवाहे तु तदा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।। ततो विवाहो विधिवद्ववृते मत्स्यपार्थयोः // 25 ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं यदुपाहरदच्युतः // 36 ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च गोमुखाडम्बरास्तथा। गोसहस्राणि रत्नानि वस्त्राणि विविधानि च / पाथैः संयुज्यमानस्य नेदुर्मत्स्यस्य वेश्मनि // 26 | भूषणानि च मुख्यानि यानानि शयनानि च // 37 उच्चावचान्मृगाञ्जघ्नुर्मेध्यांश्च शतशः पशून् / तन्महोत्सवसंकाशं हृष्टपुष्टजनावृतम् / सुरामैरेयपानानि प्रभूतान्यभ्यहारयन् // 27 / नगरं मत्स्यराजस्य शुशुभे भरतर्षभ / 38 गायनाख्यानशीलाश्च नटा वैतालिकास्तथा। इति श्रीमहाभारते विराटपर्वणि स्तुवन्तस्तानुपातिष्ठन्सूताश्च सह मागधैः // 28 .. . सप्तषष्टितमोऽध्यायः॥ 67 // सुदेष्णां च पुरस्कृत्य मत्स्यानां च वरस्त्रियः / // समाप्तं वैवाहिकपर्व // // समाप्तं विराटपर्व // - 875 -
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