________________ 3. 73. 17] आरण्यकपर्व [ 3. 74. 16 एतान्यद्भुतकल्पानि दृष्ट्वाहं द्रुतमागता // 17 आगत्य केशिनी क्षिप्रं दमयन्त्यै न्यवेदयत्॥ 1.. बृहदश्व उवाच / दमयन्ती ततो भूयः प्रेषयामास केशिनीम्।। दमयन्ती तु तच्छ्रुत्वा पुण्यश्लोकस्य चेष्टितम् / मातुः सकाशं दुःखार्ता नलशङ्कासमुत्सुका // 2: अमन्यत नलं प्राप्तं कर्मचेष्टाभिसूचितम् // 18 . परीक्षितो मे बहुशो बाहुको नलशङ्कया। सा शङ्कमाना भर्तारं नलं बाहुकरूपिणम्। रूपे मे संशयस्त्वेकः स्वयमिच्छामि वेदितुम् // 3 केशिनी श्क्ष्ण या वाचा रुदती पुनरब्रवीत् // 19 / स वा प्रवेश्यतां माता वानुज्ञातुमर्हसि। पुनर्गच्छ प्रमत्तस्य बाहुकस्योपसंस्कृतम्। विदितं वाथ वाज्ञातं पितुर्मे संविधीयताम् // 4, महानसाच्छृतं मांसं समादायैहि भामिनि // 20 | एवमुक्ता तु वैदा सा देवी भीममब्रवीत्। सा गत्वा बाहुके व्यग्रे तन्मांसमपकृष्य च। | दुहितुस्तमभिप्रायमन्वजानाञ्च पार्थिवः // 5. अत्युष्णमेव त्वरिता तत्क्षणं प्रियकारिणी। . सा वै पित्राभ्यनुज्ञाता मात्रा च भरतर्षभ। दमयन्त्यै ततः प्रादात्केशिनी कुरुनन्दन // 21.. नलं प्रवेशयामास यत्र तस्याः प्रतिश्रयः॥६ : सोचिता नलसिद्धस्य मांसस्य बहुशः पुरा। तं तु दृष्ट्वा तथायुक्तं दमयन्ती नलं तदा। / प्राश्य मत्वा नलं सूदं प्राक्रोशद्भशदुःखिता // 22 तीव्रशोकसमाविष्टा बभूव वरवर्णिनी॥७ वैक्लव्यं च परं गत्वा प्रक्षाल्य च मुखं ततः। ततः काषायवसना जटिला मलपकिनी। मिथुनं प्रेषयामास केशिन्या सह भारत // 23 दमयन्ती महाराज बाहुकं वाक्यमब्रवीत् // 8 इन्द्रसेनां सह भ्रात्रा समभिज्ञाय बाहुकः। दृष्टपूर्वस्त्वया कश्चिद्धर्मज्ञो नाम बाहुक। अभिद्रुत्य ततो राजा परिष्वज्याङ्कमानयत् // 24 सुप्तामुत्सृज्य विपिने गतो यः पुरुषः स्त्रियम् // 9 बाहुकस्तु समासाद्य सुतौ सुरसुतोपमौ। ... अनागसं प्रियां भार्यां विजने श्रममोहिताम् / भृशं दुःखपरीतात्मा सस्वरं प्रोद ह॥२५ अपहाय तु को गच्छेत्पुण्यश्लोकमृते नलम् // 10 नैषधो दर्शयित्वा तु विकारमसकृत्तदा / किं नु तस्य मया कार्यमपराद्धं महीपतेः / उत्सृज्य सहसा पुत्रौ केशिनीमिदमब्रवीत् // 26 यो मामुत्सृज्य विपिने गतवान्निद्रया हृताम् // 11 इदं सुसदृशं भद्रे मिथुनं मम पुत्रयोः। साक्षाद्देवानपाहाय वृतो यः स मया पुरा / ततो दृष्ट्वैव सहसा बाष्पमुत्सृष्टवानहम् // 27 अनुव्रतां साभिकामां पुत्रिणीं त्यक्तवान्कथम् // 12 बहुशः संपतन्तीं त्वां जनः शङ्केत दोषतः। अग्नौ पाणिगृहीतां च हंसानां वचने स्थिताम् / / क्यं च देशातिथयो गच्छ भद्रे नमोऽस्तु ते // 28 भरिष्यामीति सत्यं च प्रतिश्रुत्य क तद्गतम् // 13 इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि दमयन्त्या ब्रुवन्त्यास्तु सर्वमेतदरिंदम। . त्रिसप्ततितमोऽध्यायः // 73 // शोकजं वारि नेत्राभ्यामसुखं प्रास्रवद्वहु / / 14 / अतीव कृष्णताराभ्यां रक्तान्ताभ्यां जलं तु तत् / . बृहदश्व उवाच। परिस्रवन्नलो दृष्ट्वा शोकात इदमब्रवीत् // 15 : सर्व विकारं दृष्ट्वा तु पृण्यश्लोकस्य धीमतः। | मम राज्यं प्रनष्टं यन्नाहं तत्कृतवान्स्वयम् / ... -485 74