________________ 3. 190. 31] महाभारते [ 3. 190.7 -' अथ मण्डूकवधे घोरे क्रियमाणे दिक्षु सर्वासु राज्ञः संबभूवुः शलो दलो बलश्चेति / ततस्तेषां ज्येष्ठ मण्डुकान्भयमाविशत् / ते भीता मण्डूकराशे यथा- शलं समये पिता राज्येऽभिषिच्य तपसि धृतात्मा वृत्तं न्यवेदयन् // 31 // ततो मण्डूकराट् तापस- वनं जगाम // 43 / / . वेषधारी राजानमभ्यगच्छत् // 32 // उपेत्य चैन- .. अथ कदाचिच्छलो मृगयामचरत्। मृगं चासाद्य मुवाच / मा राजन्क्रोधवशं गमः / प्रसादं कुरु / रथेनान्वधावत् // 44 // सूतं चोवाच / शीघ्रं मां नाईसि मण्डूकानामनपराधिनां वधं कर्तुमिति वहस्वेति ॥४५॥स तथोक्तः सूतो राजानमब्रवीत्। // 33 // श्लोकौ चात्र भवतः / मा क्रियतामनुबन्धः / नैष शक्यस्त्वया मृगो ग्रहीतुं 'मा मण्डूकाञ्जिघांस त्वं कोपं संधारयाच्युत / यद्यपि ते रथे युक्तौ वाम्यौ स्यातामिति // 46 // प्रक्षीयते धनोद्रको जनानामविजानताम् // 34 ___ ततोऽब्रवीद्राजा सूतम् / आचक्ष्व मे वाम्यौ। प्रतिजानीहि नैतांस्त्वं प्राप्य क्रोधं विमोक्ष्यसे / हन्मि वा त्वामिति // 47 // स एवमुक्तो राजभयअलं कृत्वा तवाधर्मं मण्डूकैः किं हतैर्हि ते // 35 भीतो वामदेवशापभीतश्च सन्नाचख्यौ राज्ञे / वाम... तमेवंवादिनमिष्टजनशोकपरीतात्मा राजा प्रो- देवस्याश्वौ वाम्यौ मनोजवाविति // 48 // अथैनवाच / न हि क्षम्यते तन्मया। हनिष्याम्येतान् / मेवं ब्रुवाणमब्रवीद्राजा / वामदेवाश्रमं याहीति एतैर्दुरात्मभिः प्रिया मे भक्षिता / सर्वथैव मे वध्या // 49 // स गत्वा वामदेवाश्रमं तमृषिमब्रवीत् / मण्डूकाः / नार्हसि विद्वन्मामुपरोद्भुमिति // 36 // भगवन्मृगो मया विद्धः पलायते। तं संभावयेयम्। स तद्वाक्यमुपलभ्य व्यथितेन्द्रियमनाः प्रोवाच / अर्हसि मे वाम्यौ दातुमिति // 50 // तमब्रवीदृषिः / प्रसीद राजन् / अहमायुर्नाम मण्डूकराजः / मम सा ददानि ते वाम्या / कृतकार्येण भवता ममैव निर्यादुहिता सुशोभना नाम / तस्या दौःशील्यमेतत् / यौ क्षिप्रमिति / / 51 // स च तावश्वौ प्रतिगृह्या"बहवो हि राजानस्तया विप्रलब्धपूर्वा इति // 37 // नुज्ञाप्य चर्षि प्रायाद्वाम्यसंयुक्तेन रथेन मृगं प्रति / तमब्रवीद्राजा / तयास्म्यर्थी / सा मे दीयतामिति गच्छंश्चाब्रवीत्सूतम् / अश्वरत्नाविमावयोग्यौ ब्राह्म॥ 38 // अथैनां राज्ञे पितादात् / अब्रवीचैनाम् / णानाम् / नैतौ प्रतिदेयौ वामदेवायेति // 52 // एनं राजानं शुश्रूषस्वेति // 39 // स उवाच दुहित- एवमुक्त्वा मृगमवाप्य स्वनगरमेत्याश्वावन्तःपुरे. “रम् / यस्मात्त्वया राजानो विप्रलब्धास्तस्माद- ऽस्थापयत् // 53 // ब्रह्मण्यानि तवापत्यानि भविष्यन्त्यनृतकत्वात्तवेति ____अथर्षिश्चिन्तयामास / तरुणो राजपुत्रः कल्याणं // 40 // स च राजा तामुपलभ्य तस्यां सुरतगुणनि- पत्रमासाद्य रमते / न मे प्रतिनिर्यातयति / अहो बद्धहृदयो लोकत्रयैश्वर्यमिवोपलभ्य हर्षबाष्पकलया कष्टमिति // 54 // मनसा निश्चित्य मासि पूर्णे षाचा प्रणिपत्याभिपूज्य मण्डूकराजानमब्रवीत् / शिष्यमब्रवीत् / गच्छात्रेय / राजानं ब्रूहि / यदि "अनुगृहीतोऽस्मीति // 41 // स च मण्डूकराजो पर्याप्तं निर्यातयोपाध्यायवाम्याविति // 55 // स "जामातरमनुज्ञाप्य यथागतमगच्छत् // 42 // गत्वैवं तं राजानमब्रवीत् // 56 // तं राजा प्रत्युअथ कस्यचित्कालस्य तस्यां कुमारास्त्रयस्तस्य / वाच / राज्ञामेतद्वाहनम् / अनर्हा. ब्राह्मणा रत्नाना -654