________________ 3. 59. 1] आरण्यकपर्व [3. 60.2 चिन्तयित्वाध्यगाद्राजा वस्त्रार्धस्यावकर्तनम् // 14 नल उवाच / कथं वासो विकर्तेयं न च बुध्येत मे प्रिया। यथा राज्यं पितुस्ते तत्तथा मम न संशयः। चिन्त्यैवं नैषधो राजा सभां पर्यचरत्तदा // 15 न तु तत्र गमिष्यामि विषमस्थः कथंचन // 1 परिधावन्नथ नल इतश्चेतश्च भारत। कथं समृद्धो गत्वाहं तव हर्षविवर्धनः। आससाद सभोद्देशे विकोशं खड्गमुत्तमम् // 16 परियूनो गमिष्यामि तव शोकविवर्धनः // 2 तेनाधं वाससश्छित्वा निवस्य च परंतपः / .. बृहदश्व उवाच / सुप्तामुत्सृज्य वैदर्भी प्राद्रवद्गतचेतनः // 17 इति ब्रुवन्नलो राजा दमयन्तीं पुनः पुनः / ततो निबद्धहृदयः पुनरागम्य तां सभाम् / सान्त्वयामास कल्याणी वाससोऽर्धेन संवृताम् // 3 दमयन्ती तथा दृष्ट्वा रुरोद निषधाधिपः // 18 तावेकवस्त्रसंवीतावटमानावितस्ततः / यां न वायुन चादित्यः पुरा पश्यति मे प्रियाम् / क्षुत्पिपासापरिश्रान्तौ सभां कांचिदुपेयतुः // 4 . सेयमद्य सभामध्ये शेते भूमावनाथवत् / / 19. तां सभामुपसंप्राप्य तदा स निषधाधिपः / इयं वस्त्रावकर्तेन संवीता चारुहासिनी / वैदा सहितो राजा निषसाद महीतले // 5 उन्मत्तेव वरारोहा कथं बुवा भविष्यति // 20 . स वै विवस्त्रो मलिनो विकचः पांसुगुण्ठितः। कथमेका सती भैमी मया विरहिता शुभा। : दमयन्त्या सह श्रान्तः सुष्वाप धरणीतले // 6 चरिष्यति वने घोरे मृगव्यालनिषेविते // 21 दमयन्त्यपि कल्याणी निद्रयापहृता ततः। गत्वा गत्वा नलो राजा पुनरेति सभां मुहुः / सहसा दुःखमासाद्य सुकुमारी तपस्विनी // 7 आकृष्यमाणः कलिना सौहृदेनापकृष्यते // 22 . सुप्तायां दमयन्त्यां तु नलो राजा विशां पते। द्विधेव हृदयं तस्य दुःखितस्याभवत्तदा / / शोकोन्मथितचित्तात्मा न स्म शेते यथा पुरा // 8. | दोलेव मुहुरायाति याति चैव सभां मुहुः // 23 स तद्राज्यापहरणं सुहृत्त्यागं च सर्वशः। सोऽपकृष्टस्तु कलिना मोहितः प्राद्रवन्नलः / वने च तं परिध्वंसं प्रेक्ष्य चिन्तामुपेयिवान् // 9 . सुप्तामुत्सृज्य तां भार्यां विलप्य करुणं बहु // 24 किं नु मे स्यादिदं कृत्वा किं नु मे स्यादकुर्वतः / नष्टात्मा कलिना स्पृष्टस्तत्तद्विगणयन्नृपः / / किं नु मे मरणं श्रेयः परित्यागो जनस्य वा // 10 जगामैव वने शून्ये भार्यामुत्सृज्य दुःखितः॥२५ मामियं ह्यनुरक्तेदं दुःखमाप्नोति मत्कृते। .. इति श्रीमहाभारते आरण्यकपर्वणि मद्विहीना त्वियं गच्छेत्कदाचित्स्वजनं प्रति // 11 ... एकोनषष्टितमोऽध्यायः // 59 // मया निःसंशयं दुःखमियं प्राप्स्यत्यनुत्तमा। . उत्सर्गे संशयः स्यात्तु विन्देतापि सुखं क्वचित् // 12 बृहदश्व उवाच / स विनिश्चित्य बहुधा विचार्य च पुनः पुनः। अपक्रान्ते नले राजन्दमयन्ती गतक्लमा। . उत्सर्गेऽमन्यत श्रेयो दमयन्त्या नराधिपः // 13 अबुध्यत वरारोहा संत्रस्ता विजने वने // 1 सोऽवस्त्रतामात्मनश्च तस्याश्वाप्येकवस्त्रताम् / . | सापश्यमाना भर्तारं दुःखशोकसमन्विता। ... म. भा. 59 - 465 -