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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य
का
बृहद् इतिहास
कल्पसूत्र
आचारांग
उत्तराध्ययन
यतिदिनचर्या
श्राद्धविधिप्रकरण
'विधिमार्गप्रपा
भगवतीआराधना
आचारदिनकर
साधुविधिप्रकाश
पंचवस्तुक
सम्प्रेरिका
लेखिका प.पू. शशिप्रभा श्रीजी साध्वी सौम्यगुणा श्री
संपादक डॉ. सागरमल जैन
प्रकाशक-प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर : श्री जिनकुशलसूरि बाड़मेर ट्रस्ट, मालेगांव
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श्री जिनकुशल सूरी जैन दादावाड़ी, मालेगांव
For Oivate & Personal use only.
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श्री महावीर स्वामी भगवान
मालेगांवause Day
Jandation Intematonal
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सादर समर्पण
अहिंसा अनेकान्त
Nain Education International
अपरिग्रह के
अविरल दीप से
सतत प्रकाशवान
जिन शासन को सादर समर्पित
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www.jainelibra org
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मणिधारी दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी
आतम हितकारी
भगवान
'आदिनाथ
दादा श्री जिनदत्तसूरिजी
दादा श्री जिनचन्द्रसूरिजी
दादा श्री जिनकुशलसूरिजी
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परम उपकारी
पू. गणाधीश कैलाशसागरजी म. सा.
पू. विचक्षणश्रीजी म. सा.
पू. उपाध्याय श्री मणिप्रभसागरजी म. सा.
पू. शशिप्रभाजी म. सा.
पू. सज्जन श्रीजी म. सा.
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य
DI
बृहद् इतिहास
भाग-1
सम्प्रेरिका सज्जनमणि श्री शशिप्रभा श्रीजी म. सा.
लेखिका साध्वी सौम्यगुणा श्री (विधिप्रभा)
सम्पादक/निर्देशक डॉ.सागरमल जैन
- प्रकाशक - प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.) श्री जिनकुशलसूरि दादाबाड़ी, बाडमेर ट्रस्ट, मालेगांव (महा.)
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रास
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य
का बृहद् इतिहास
• लेखन - पूज्या आगमज्योति प्रवर्तिनी महोदया
श्री सज्जन श्रीजी म.सा.की सुशिष्या
साध्वी सौम्यगुणाश्री • सम्पादन - डॉ. सागरमल जैन - प्रकाशक - प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर • श्रुतसहयोगी - श्री जिनकुशलसूरी दादावाडी बाड़मेर ट्रस्ट,
मालेगांव फोन : 02544-257222 - प्राप्तिस्थल - (1) सज्जनमणि' ग्रन्थमाला
टूल्स एण्ड हार्डवेयर, संजयगांधी चौक, स्टेशनरोड़, रायपुर 492009 (छ.ग.) फोन : 0771-2524183 (2) डॉ. सागरमल जैन प्राच्य विद्यापीठ, दुपाडा रोड शाजापुर (म.प्र.)-465001
सन् 2006 - मूल्य - 151/
आकृति ऑफसेट, 5, नईपेठ, उज्जैन (म.प्र.) फोन : 0734-2561720 मो. 98276-77780, 98272-42489
- वर्ष
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- मुद्रक -
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2800000
प्रकाशकीय
किसी भी धर्म, समाज या संस्कृति के आभ्यन्तर स्वरूप का साक्षात् अवबोध करना अथवा दीर्घ या पूर्णकालिक घटक तत्त्वों का श्रृंखलाबद्ध आलेखन करने का नाम इतिहास है। इतिहास का संपोषक तत्त्व है साहित्य! साहित्य के माध्यम से इतिहास सजीव आकार धारण करता है। वस्तुतः साहित्य वह विधा है जो इतिहास का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती है। सज्जनमणि गुरुवर्या श्री शशिप्रभा श्रीजी म.सा की अन्तेवासिनी विदुषीवर्या साध्वी सौम्यगुणाजी ने इसी दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने विधि-विधान परक जैन साहित्य के इतिहास को लिखकर एक कमी पूर्ति की है। सत्प्रयासों के सुपरिणाम अवश्य होते है अतः यह कृति धर्मसंघ के लिये बहुत उपयोगी सिद्ध होगी।
साध्वी श्री बहुमुखी प्रतिभा की धनी है। हमारा मालेगांव संघ इन साध्वीवर्या के मार्गदर्शन से लाभान्वित होता रहा है।
आज इस ऐतिहासिक ग्रन्थ का प्रकाशन करते हुए जिनकुशलसूरिदादाबाड़ी बाडमेर ट्रस्ट, मालेगांव का कण-कण पुलकित व हर्षविभोर है। श्री संघ का यह सौभाग्य है कि उन्हें श्रुतसेवा का यह अनुपम एवं स्वर्णिम अवसर मिला है। आशा करते है .इस इतिहास को सराहा जायेगा और यह धर्मोन्मुखी साधकवर्ग के लिए नवोन्मेष का दीप प्रज्वलित करता रहेगा।
जिनकुशलसूरि दादाबाड़ी ट्रस्ट
मालेगांव
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मालेगांव दादाबाडी का अद्भुत इतिहास
मालेगांव नगर महाराष्ट्र प्रान्त के नासिक जिल्हे में 'पावरलुममण्डी' के नाम से सुविख्यात है। सन् 1980 की बात -मरूधर प्रदेशान्तर्गत बाडमेर नगर के युवावर्ग का व्यावसायिक दृष्टिकोण से यहाँ आना प्रारंभ हुआ तथा करोबार की सफलताओं ने इस क्रम को प्रवर्द्धमान रखा । अपनी जन्मभूमि छोड़कर इस कर्मभूमि में आने के उपरान्त भी पूर्व संस्कारों के फलस्वरूप देव-गुरु-धर्म के प्रति हम लोगों की आस्थाएँ और भक्ति भावनाएँ उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती रही तथा स्थानीय गुजराती एवं गोडवाली संघ के साथ धार्मिक आराधनाओं को लेकर निरन्तर जुड़ाव बढ़ता
रहा ।
सन् 1988-89 के स्वर्णिम पल! पूज्या महत्तरा मनोहर श्रीजी म.सा. की सुशिष्याएँ तरूणप्रभा श्रीजी आदि ठाणा 3 का विचरण करते हुए इधर आना हुआ, तब अधिकृत स्थान की महती आवश्यकता का अहसास हुआ। उस समय जिनालय दादाबाड़ी निर्माण की पृष्ठभूमि का भी विचारोदय हुआ ।
श्री संघ के लिए सुखद संयोग की बात - सन् 1990 में मरूधरजयोति साध्वी मणिप्रभाश्रीजी म.सा. का वर्षावास मालेगांव के समीपस्थ (50 कि.मी. दूर ) धुलिया नगरी में था । बाडमेर युवाओं का श्री संघ उनके दर्शनार्थ पहुँचा । हमारी आग्रहपूर्ण विनंती एवं उल्लास भाव को देख वर्षावास सम्पन्न कर आर्या श्री मालेगांव की
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पुण्य धरा पर पधारी । आप श्री की निश्रा में मन्दिर-दादाबाडी व उपाश्रय के निर्माण की रूपरेखा का आरम्भ हुआ एवं उसे साकार रूप देते हुए महावीर नगर केम्प में जमीन ली गई। साथ ही महावीरस्वामी देरासर पायधुनी, मुंबई से दादा जिनकुशलसूरी की प्रतिमा मंगवाकर एक भव्य कक्ष में स्थापित कर दी गई। उस समय से सेवा-पूजा, आरती-भक्ति आदि का क्रम प्रारंभ हो गया।
इसके कुछ समय पश्चात् जिनमंदिर-दादाबाड़ी हेतु भूमिपूजन और शिलान्यास का कार्यक्रम भी सम्पन्न हुआ। व्यवसायरत युवा वर्ग, छोटा सा संघ और इतना बड़ा कार्य लोगों के मन में शंकाएं पैदा करने लगा। इधर गुरुदेव की साधना-शक्ति से युवावर्ग का उल्लास भाव दिन दुगुना-रात चौगुना बढ़ता चला और स्वयं के द्वारा न्यायोपार्जित द्रव्य से इस कार्य को निर्विघ्नतया सुसम्पन्न किया। इस रूपरेखा को तैयार करने एवं आगे बढ़ाने में बाबूलालजी संखलेचा, शांतिलालजी छाजेड़, छगनराजजी मेहता, सम्पतराजी बोथरा, मूलचन्दजी बोहरा, रामलालजी बोहरा, कैलाशजी मेहता आदि प्रमुख थे।
इस अवधि के दरम्यान इस धरा पर खरतरगच्छीय साधु-साध्वियों का आगमन निरन्तर बना रहा। संघ भी धार्मिक आराधनाओं में संलग्न रहा। प्रतिवर्ष पयूषण की आराधना करवाने के लिए महाकौशल संघ(छत्तीसगढ़) द्वारा सुयोग्य स्वाध्यायियों का सान्निध्य भी प्राप्त हुआ, जिनमें प्रमुखतः कुमारपाल भाई शाह, किशनलालजी कोटड़िया, ज्योतिकुमार जी कोठारी, धनराजजी चौपड़ा आदि। कार्य पूर्णाहूति के पश्चात् स्वप्न को साकार रूप देने की घड़िया निकट आ पहुँची। परिणामतः आचार्य श्री महोदयसागरसूरीश्वरजी म.सा. की पावन निश्रा, उपाध्याय श्री मणिप्रभसागर जी म.सा. द्वारा प्रदत्त शुभमुहूर्त माघकृष्णाषष्ठी, 26 जनवरी 2000 के दिन अंजनशलाका-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम अत्यन्त भावोल्लास के साथ सम्पन्न हुआ। इस अवसर पर पूज्या मणिप्रभाश्रीजी म.सा. की पुण्य निश्रा भी संप्राप्त हुई। इस प्रसंग में दुर्ग निवासिनी रेखा दूगड़ की भागवती दीक्षा का आयोजन सोने में सुहागा रूप बना। इसी दिन मालेगांव दादाबाड़ी के इतिहास को स्वर्णिम पृष्ठों पर
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अंकित कर देने वाली चमत्कारिक घटना यह हुई कि रेखा दूगड़ की दीक्षा एवं देवाधिदेव की प्रतिष्ठा सम्पन्न हो जाने के बाद विधिकारक के रूप में आमन्त्रित जयपुर निवासी महेश भाई और राजनांदगांव निवासी किशनलाल जी कोटडिया ने पारिवारिकजन एवं धर्मपत्नी की अनुमति प्राप्तकर चिर अभिलषित भावनाओं को साकार रूप देते हुए बिना किसी आडंबर के मुनिवेश धारण किए। जब वे हजारों की संख्या में उपस्थित जन समूह के बीच नये वेश में पधारे तो जनमेदिनी के आश्चर्य का पारावार न रह गया। यौवन की दहलीज पर पहुँचकर भरे-पूरे परिवार पत्नी व बच्चों के प्रति सहज, किन्तु प्रगाढ़ रूप से रहे मोहभाव का सहसा परित्याग कर देना शूरवीरों का ही कार्य है । उस दृश्य को देखकर जन- मेदिनी भावविह्वल हो गई। सभी की आँखों से हर्ष, उत्साह एवं अतिरेक से अश्रु की अविरल धारा बहने लगी। इस अद्भुत घटना ने मालेगांव नगर को और अधिक विख्यात कर दिया । सुयोग्य महेशभाई एवं किशनलालजी का क्रमशः मणिरत्नसागरजी एवं कल्परत्नसागरजी नाम रखा गया और पूज्य महोदयसागरसूरी जी के शिष्य घोषित किए गए।
में
अब दादाबाडी एवं घरों के बीच दो-ढाई कि.मी. की दूरी होने के कारण चातुर्मास करवाने की समस्या उत्पन्न हुई परन्तु श्री संघ का प्रबल पुण्योदय समझें सन् 2001 में पूज्या सज्जनमणि शशिप्रभाश्रीजी म.सा. आदि ठाणा 5 का इस संघ को सुखद सान्निध्य मिला । 'श्री जिनकुशलसूरि दादाबाड़ी बाडमेर ट्रस्ट' के तत्त्वावधान पूज्या श्री का ऐतिहासिक चातुर्मास सम्पन्न हुआ । यह मालेगांव बाडमेर संघ के लिए प्रथम चातुर्मास था, अतः युवापीढ़ी में उमंग व उल्लास का होना स्वाभाविक था । इस चातुर्मास के अन्तराल में प्रतियोगिताएँ, तपस्याएँ, शिविर, जपानुष्ठान आदि विभिन्न स्तर की आराधनाओं का सिलसिला इस तरह से चल पड़ा कि चातुर्मास काल की पूर्णता का भी अहसास न हो पाया। साथ ही तप अनुमोदन -समारोह, सरस्वती - अनुष्ठान, युवा-युवति - महिला शिविर, आओ प्रभु से बात करें, धार्मिक हाऊजी, आदि धर्ममय अनुष्ठान इतिहास के अविस्मरणीय अंग बन गए। इसी कड़ी में दादा आदिनाथ के पगल्यों की टांकणी का कार्यक्रम भी रखा गया। साध्वी
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सौम्यगुणा जी के चैण्क्क वायवा के साक्षी बनने का भी इस संघ को सौभाग्य मिला। तभी से साध्वीवर्या द्वारा आलेखित शोध ग्रन्थ प्रकाशन की भावना जागृत हुई। इस तरह यह वर्षावास युवा-जागृति, धर्म-प्रेरणा, संस्कार–बीजारोपण व आत्म अभ्युदय, सभी दृष्टियों से सफलतम रहा।
इसके अनन्तर पूज्या सुलोचनाश्रीजी म.सा. की सुशिष्याएँ साध्वी प्रियस्मिताश्रीजी आदि ठाणा 6, पूज्या हेमप्रभाश्री जी म.सा. की सुशिष्याएँ साध्वी अमितयशाजी ठाणा 4 का भी चातुर्मास लाभ प्राप्त हुआ।
___ हम आज भी पयूषण पर्वाधिराज की आराधना अत्यन्त भावोल्लास के साथ सम्पन्न करते हैं तथा जिनालय व दादाबाड़ी की वर्षगांठ भक्तिभाव पूर्वक मनाते हैं।
श्री जिनकुशलसूरी दादाबाड़ी बाडमेर ट्रस्ट, मालेगांव
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प.प्रवर्तिनी गुरुवर्या श्री सज्जन श्री जी म.सा. संक्षिप्त परिचय
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जन्म - नाम - माता-पिता - दीक्षा सं. - दीक्षा नाम - गुरुव- - प्रवर्तिनीपद -
अध्ययन
वैशाख पूर्णिमा, वि.सं. 1965, जयपुर सज्जन कुमारी महताबदेवी-गुलाबचन्दजी लूणिया आषाढ़ शुक्ला 2 वि.सं. 1999, जयपुर सज्जन श्री प्रवर्तिनी श्री ज्ञान श्री जी म.सा. मिगसर कृष्णा 6, वि.सं. 2039, जोधपुर आचार्य जिनकान्तिसागरसूरि के कर-कमलों द्वारा हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, राजस्थानी, अंग्रेजी भाषाओं की अधिकृत विदुषी आगमज्योति, वि.सं. 2032, जयपुर संघ द्वारा आशुकवयित्री, आगम मर्मज्ञा वि.सं. 1981, 'श्रमणी नामक ग्रन्थ जयपुर संघ द्वारा अर्पित पू.उपाध्याय मणिप्रभसागर जी म.सा. की पावन निश्रा में, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, गुजरात आदि जैन-जैनेत्तर सभी पर्वो में श्रेष्ठ मौन एकादशी, वि.सं. 2046, जयपुर वर्तमान में साध्वी श्री शशिप्रभाश्री जी म. आदि 22
पदवी
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अभिनन्दन -
विचरण
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स्वर्गवास
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शिष्यामंडली -
रचित एवं अनुदित साहित्य - पुण्य जीवन ज्योति, श्रमणसर्वस्व, देशनासार, द्रव्य
प्रकाश, कल्पसूत्र, चैत्यवन्दनकुलक, द्वादश पर्व व्याख्यान, श्री देवचन्द्र चौबीसीस्वोपज्ञ, सज्जन संगीत
सुधा, सज्जन भजन भारती, सज्जन वचन पीयूष विशिष्टता- अत्यन्त सरल-सहजमानस, समन्वय साधिका, सौम्य
व्यक्तित्व, अद्भुत वक्तृत्वकला, सर्वजनप्रिय, गुरूजनों की कृपापात्री
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सज्जनमणि श्री शशिप्रभाश्रीजी म.सा. संक्षिप्त परिचय
अध्ययन
जन्म - वि.सं. 2001, फलोदी, भाद्रकृष्णा अमावस्या नाम - किरणकुमारी माता-पिता - बालादेवी-ताराचंदजी गोलेच्छा दीक्षा - मिगसर वदि 6, वि.सं. 2014, ब्यावर दीक्षा नाम . - आर्या शशिप्रभा श्री . गुरुवर्या - प्रवर्तिनी श्री सज्जन श्री जी म.सा.
जैन दर्शन में आचार्य,धर्म-दर्शन-तत्त्व का गहन अध्ययन, संस्कृत, गुजराती, राजस्थानी भाषाओं में
निष्णात पदालंकृत - वि.सं. 2060, पालीताणा, पू.उपाध्याय मणिप्रभसागर
जी म.सा. द्वारा संघरत्ना' से विभूषित विचरण क्षेत्र - राजस्थान, गुजरात, थलीप्रदेश, उत्तरप्रदेश,
मेवाड़, बिहार, बंगाल, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश,
कर्नाटक, तमिलनाड आदि विशेषता - अनुशासनप्रिय, संघसमर्पित, दृढ़मनोबली,
तप-जप-संयम परायणी,अप्रमत्तचेता,अध्यात्मवेत्ता, प्रवचनपटु बंगाल-बिहार प्रान्त के जनमानस में धर्म का विशिष्ट बीजारोपण, थली प्रान्त में मन्दिर-दादाबाडियों का निरीक्षण, सिद्धाचल तीर्थस्थित सांचासुमतिनाथ जिनालय का भव्य जीर्णोद्धार आदि।
शासनप्रभावना
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जैन विद्या के समर्पित डॉ. सागरमल जैन एक परिचय
डॉ.सागरमलजी जैन का जन्म सन् 1932 में शाजापुर में हुआ। 18 वर्ष की अवस्था में ही आप व्यवसायिक कार्य में संलग्न हो गये। आपने व्यवसाय के साथ-साथ विशारद, साहित्यरत्न और एम. ए. की उपाधियाँ प्राप्त की। उसके अनेक वर्ष पश्चात् अध्ययन रूचि को निरन्तर जागृत बनाये रखने हेतु व्यवसाय से पूर्ण निवृत्ति लेकर शासकीय सेवा में प्रवेश किया और रीवा, ग्वालियर व इंदौर में महाविद्यालयों के दर्शनशास्त्र के अध्यापक तथा हमीदिया महाविद्यालय भोपाल में दर्शन विभाग के अध्यक्ष रहें। तत्पश्चात् पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान - वाराणसी के निर्देशक, अ.भा. जैन विद्वत् परिषद् के उपाध्यक्ष, अ.भा. दर्शन परिषद् के कोषाध्यक्ष और दार्शनिक' एवं 'श्रमण' के क्रमशः प्रबन्ध सम्पादक एवं सम्पादक रहें। आपका शोधनिबन्ध 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन दो खण्डों में प्रकाशित है। आपके 40 ग्रन्थ एवं 250 से अधिक उच्चस्तरीय लेख प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही शताधिक ग्रन्थों का कुशल सम्पादन भी किया है। प्रदीपकुमार रामपुरिया, स्वामी प्रणवानन्द डिप्टीमल, हस्तीमल स्मृति पुरस्कार द्वारा आपको पुरस्कृत किया गया है। आप विदेशों में व्याख्यानों के लिए शिकागो, राले, ह्यस्टून, न्यूजर्सी, वाशिंगटन, सेन फ्रांसिस्को, लॉस एंजिल्स, फनीक्स, सेंटलुईस, टोरण्टो, न्यूयार्क और लन्दन आदि नगरों का भ्रमण कर चुके हैं।
आपका जीवन गंभीरता, सरलता, मधुरता, अनुशासनप्रियता, क्रियाशीलता आदि विशिष्ट गुणों का समन्वित पुंज है। इस 75 वर्ष की उम्र में भी लेखन, पठन, वाचन आदि की प्रवृत्तियाँ यथावत् जारी है।
सम्प्रति प्राच्यविद्यापीठ, शाजापुर के संस्थापक एवं निर्देशक हैं। आपके मार्गदर्शन में अब तक 50 से अधिक शोधार्थी पीएच.डी. हेतु कार्य कर चुके हैं। यह श्रृंखला अधुनाऽपि गतिशील है।
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सम्पादकीय
HASTRA
धार्मिक साधना का मूल लक्ष्य तो आत्मविशुद्धि ही है। निवृत्ति प्रधान जैन धर्म में समग्र साधना राग-द्वेष और कषाय की कलुषता को दूर करने के लिये की जाती है। एक अन्य अपेक्षा से जैन धर्म में मुक्ति का आधार कर्मों का क्षय भी माना गया है। तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय ही मोक्ष है। दूसरी ओर आ. हरिभद्र कहते हैं कि कषायों से मुक्ति ही वस्तुतः मुक्ति है। जहाँ तक राग-द्वेष और कषाय का प्रश्न है वे मूलतः आन्तरिक तत्त्व हैं, किन्तु क्रोधादि कषायों की बाह्यअभिव्यक्ति भी देखी जाती है इसी प्रकार कर्मों के भी दो पक्ष हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म। भावकर्म मूलतः आन्तरिक हैं और आत्मा से ही सम्बन्धित है, जबकि द्रव्यकर्म पौद्गलिक हैं और इस दृष्टि से उन्हें बाह्य भी कहा जा सकता है। जैन दर्शन मानता है कि हमारे मनोभावों का प्रभाव हमारे बाह्य क्रियाकलापों में अभिव्यक्त होता है। अन्तर और बाह्य एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं है। इसी प्रकार द्रव्यकर्म और भावकर्म भी एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं है। अन्तर और बाह्य की यह सापेक्षता ही साधना को दो रूपों में विभक्त कर देती है। आन्तरिक साधना और बाह्य विधि-विधान यदि परस्पर सापेक्ष है तो उन्हें यह मानना होगा कि जहाँ एक ओर आन्तरिक विशुद्धि का प्रभाव हमारे क्रियाकलापों पर होता है वहीं दूसरी
ओर हमारे बाह्य क्रिया-कलाप भी हमारे मनोभावों को प्रभावित करते हैं। यही कारण रहा है कि प्रत्येक धर्मसाधना पद्धति में आन्तरिक विशुद्धि के प्रयत्नों के साथ-साथ बाह्य विधि-विधानों का प्रादुर्भाव हुआ। जैनधर्म भी इसका अपवाद नहीं है। कालक्रम में उसमें भी अनेक प्रकार के विधि-विधान अस्तित्व में आये चाहे हमारी साधना का मूलभूत लक्ष्य आत्मविशुद्धि ही हो, किन्तु उस आत्म–विशुद्धि के लिए जो प्रयत्न व पुरुषार्थ करना होता है वह किसी न किसी रूप में विधि-विधान के साथ जुड़ भी जाता है।
30000000000000TRAIS50906010586057337520555575500609009568965888560870880090008000
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जैन धर्म के इतिहासको यदि हम सम्यक् रूप से समझने का प्रयास करें तो यह स्पष्ट है कि कालक्रम में उसमें सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से अनेक प्रकार के विधि-विधानों और कर्मकाण्डों का प्रवेश हुआ। प्रारंभिक जैन आगम साहित्य में मूलतः संयमी मुनि जीवन कैसे जीये इसको लेकर अनेक नियम और उपनियम बनें, चाहे मुनि का मूलभूत लक्ष्य कषाय रूपी कचरे का परिमार्जन रहा हो, किन्तु यदि उसे जीवन जीना है तो निर्धारित क्रियाकलाप तो करने ही होगे । यह सत्य है कि प्रारम्भिक जैन आगमों में मुनि जीवन से सम्बन्धित विधि-विधान ही मिलते हैं । उसकी जीवनचर्या और दिनचर्या इन विधि-विधानों के साथ ही योजित है । जैन संघ में केवल मुनि और साध्वियाँ ही नहीं होती, उसमें उपासक और उपासिकाएँ भी होती हैं अतः यह भी आवश्यक प्रतीत हुआ कि उपासकों और उपासिकाओं से सम्बन्धित विधि-विधान भी अस्तित्व में आयें । जहाँ तक इन प्रारम्भिक विधि-विधानों का प्रश्न हैं वहाँ उनका मूल सम्बन्ध दिनचर्या और बाह्य व्यवहार से ही है । जहाँ तक उपासना से सम्बन्धित विधि-विधान का प्रश्न है उसमें सर्वप्रथम षट्आवश्यकों का विधान हुआ । इन षट्आवश्यकों के अन्तर्गत 1. सामायिक 2. स्तुति और स्तवन 3. गुरुवंदन 4. प्रतिक्रमण 5. कायोत्सर्ग (ध्यान-साधना) और 6. प्रत्याख्यान (तप और संयम सम्बन्धी नियम ग्रहण) - इन छः का विधान किया गया। इस प्रकार जैन धर्म में विधि-विधानों का जो विकास हुआ उनका सम्बन्ध मूलतः संयमपूर्ण जीवन शैली से था। प्रारंभिक विधि-विधान हमें ये ही बताते हैं कि चाहे गृहस्थ हो या मुनि उसे अपना जीवन किस प्रकार जीना चाहिये, किन्तु कालान्तर में जब जैनधर्म में चैत्यों का निर्माण और मूर्तिपूजा का विकास हुआ तो उससे सम्बन्धित विधि-विधान ही अस्तित्व में आये। इस प्रकार जैन धर्म में पूजा और प्रतिष्ठा को लेकर अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड विकसित हुए। इन विविध कर्मकाण्डों के विकास में सहवर्ती अन्य धर्म परम्पराओं का प्रभाव भी आया । यद्यपि जैन आचार्यों ने अन्य परम्पराओं से गृहित विधि-विधानों को अपनी परम्परा के अनुकूल बनाने का प्रयत्न तो किया फिर भी अन्य परम्पराओं का प्रभाव यथावत् बना रहा । मात्र ये ही नही, जैन देवमंडल में तीर्थंकरों के साथ-साथ अन्य देव - देवीयों का प्रवेश भी हुआ और उनके पूजा-उपासना सम्बन्धी विधि-विधान भी अस्तित्व में आये । जैन विधि-विधान की यह विकास यात्रा ऐतिहासिक दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है । यद्यपि आचार्य हरिभद्र या उनके भी कुछ पूर्व से जैन विधि-विधान सम्बन्धी कुछ ग्रन्थ मिलते हैं किन्तु इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रायः दसवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं शताब्दी तक लिखे गए। इन ग्रन्थों में भी सूक्ष्म से अध्ययन करने पर विधि-विधानों की विकास यात्रा का न केवल
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हमें परिचय प्राप्त होता है, अपितु तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ये विधि-विधान कहाँ से, किस रूप में लिए गये और उन्हें किस रूप में परिमार्जित किया गया। जैन परम्परा में विधि-विधान सम्बन्धी लगभग शताधिक ग्रन्थ मिलते हैं, किन्तु उनके ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन के सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं हुआ, मात्र यही नहीं उनको हिन्दी भाषा में या गुजराती भाषा में अनुदित करके प्रकाशित करने का भी कोई प्रयत्न नहीं हुआ । संयोग से सन् 1995 में साध्वी प्रियदर्शनाश्री जी के साथ साध्वी सौम्यगुणाश्री जी आदि वाराणसी में मेरे सानिध्य में अध्ययन करने के लिए आये । उस समय मैंने उन्हें जैन विधि-विधानों से युक्त खरतरगच्छ के जिनप्रभसूरि का ग्रन्थ विधिमार्गप्रपा न केवल अनुदित करने के लिए दिया अपितु उसी विषय पर शोधकार्य करने का भी निर्देश दिया। यहीं से साध्वी सौम्यगुणाश्री जी की जैन विधि-विधानों के अध्ययन की रूचि का विकास हुआ और इस सम्बन्ध में तुलनात्मक दृष्टि से कुछ लिखने का प्रयत्न भी उन्होंने प्रारम्भ किया। उनके इन्हीं प्रयासों का सुफल है कि जहाँ एक और विधिमार्गप्रपा जैसे विधि-विधानों के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ पर उन्हें चेक की उपाधि प्राप्त हुई, वहीं यह ग्रन्थ हिन्दी भाषा में अनुदित होकर प्रकाशित भी हुआ। इस उपलब्धि ने उन्हें इस दिशा में आगे कार्य करने के लिए प्रेरित किया और इसी लक्ष्य को लेकर वे जैन विधि-विधानों के तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन की दिशा में प्रवृत्त हुई, किन्तु इस अध्ययन में प्रवृत्त होने के पूर्व विधि-विधानों से सम्बन्धित साहित्य का आलोडन, विलोडन आवश्यक था । इसी तथ्य को लक्ष्य में रखकर मैंने उन्हें सर्वप्रथम जैन विधि-विधानों के साहित्य का विस्तृत इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया । साध्वी श्रीजी ने मेरे सानिध्य में कठोर परिश्रम करके विगत एक वर्ष की अवधि में विधि-विधान सम्बन्धी जैन साहित्य के बृहद् इतिहास का प्रणयन किया । मालेगांव जैन संघ के अर्थ सहयोग से आज ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है यह प्रसन्नता का विषय है। मुझे विश्वास है कि यह कृति न केवल विद्वद्वर्ग, अपितु जैन विधि-विधानों में रूचि रखने वाले सामान्य पाठकों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी। इसमें संपादन और मार्गदर्शन चाहे मेरा हो, किन्तु वास्तविक श्रम तो साध्वी जी का ही है। उन्होंने जैन साहित्य के बृहद् भण्डार का आलोडन - विलोडन करके यह ग्रन्थ रत्न लिखा है । मेरी यही भावना है। कि साध्वी श्री सौम्यगुणा श्री जी इस दिशा में अनवरत अध्ययनशील बनी रहें और ऐसे अनेकों ग्रन्थ रत्नों का निर्माण कर जैन विद्या को आलोकित करें।
आषाढ़ शुक्ला पंचमी
डॉ. सागरमल जैन शाजापुर
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हृदयोदगार
किसी भी धर्म दर्शन में उपासनाओं का विधान अवश्यमेव होता है । भारतीय सभी धर्म दर्शनों में आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु अनेक प्रकार से उपासनाएं बतलाई गई है । जीवमात्र के लिए जनकल्याण की शुभकामना करने वाले हमारे पूज्य ऋषि मुनिओं द्वारा दानशील तप जपादि अनेकविध धर्म आराधनाओं का विधान किया गया है ।
प्रत्येक उपासनाओं का विधि-क्रम अलग अलग होता है । इसी प्रकार जैन विधि विधानों का इतिहास और वैविध्यपूर्ण जानकारियाँ इस ग्रंथ में दी है । ज्ञान उपासिका साध्वी सौम्यगुणीश्रीजी ने खूब मेहनत करके इसका सुन्दर संयोजन किया है ।
भव्य जीवों को अपने योग्य आराधनाओं के बारे में बहुत कुछ जानकारियाँ इस ग्रन्थ के द्वारा मिल सकती है ।
मैं साध्वी श्री सौम्यगुणाजी को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ कि इन्होंने आराधकों के लिए उपयोगी सामग्री से भरपूर विधि विधान जैसे ग्रंथ का संपादन किया । ___ मैं कामना करता हूँ कि इसके माध्यम से अनेक ज्ञानपिपासु अपना इच्छित लाभ पास करेंगे ।
आचार्य पद्मसागरसूरि सादड़ी-राणकपुर भवन पालिताणा
अन्तराशीष
हमें यह ज्ञात कर अत्यंत प्रसन्नता की अनुभूति हुई है कि आपने जैन धर्म के विधानों के साहित्य के इतिहास के संदर्भ में एक ओर नई पुस्तक को प्रस्तुत करने का प्रबल पुरूषार्थ किया है।
मैं आपको इस पुरूषार्थ हेतु बधाई प्रस्तुत करता हूँ और गुरूदेव से कामना करता हूँ कि आपका पुरूषार्थ सतत् इस क्षेत्र में प्रवृत्त होता रहे और शासन व गच्छ को नये प्रकाशनों का उपहार प्राप्त होता रहे ।
उपाध्याय मणिप्रभसागर
22 जुलाई 2006 पूना
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'योग' से 'महायोग' के 'संयोग' को प्रणाम
'योग' जैन परंपरा का साधना–पथ है जैनदर्शन में मन-वचन-काया के संयम की साधना 'त्रिकरण योग' कहलाती है. 'तीन गुप्ति' और 'पांच समिति' इसके व्यावहारिक स्वरूप है. यहीं से योग जन्म लेता है. इसीलिए इनको प्रवचन माताएं' कहते है. ____मां, जन्मदात्री है हमारी तीन गुप्ति और पांच समिति जन्मदात्री है योग की, निर्वाण की संसार में हमारे लिये दो ही विकल्प है. एकः योग, दूसराः भोग योग उन्नति है, भोग अवनति है.
जब योग के रूप में अध्यात्म की साधना नहीं होती तो भोग के रूप में आत्म-पतन का पथ तो प्रशस्त हो ही जाता है. इसीलिए योग जीवन के लिये अनिवार्य है. ___जैन विचारधारा में योग के दो स्वरूप है. एकः ज्ञानयोग, दूसराः क्रियायोग. दोनों एक-दूसरे के परस्पर पूरक है. इसीलिए ये दो होते हुए भी एक है।
इनको अलग-अलग समझ तो सकते हैं, पर अलग-अलग अपना नहीं सकते । क्रम में ज्ञान पहले हैं और क्रिया बाद में, लेकिन ज्ञानयोग के बिना क्रियायोग कसरत बन जाता है और क्रियायोग के बगैर ज्ञानयोग अधूरा रह जाता है ।
ज्ञान चक्षुवान् है, किन्तु पैरों से विकल है. क्रिया अंध है, लेकिन पैरों से सक्षम है. दोनों का मिलन ही साधना है. सम्यग्दर्शन की आधारशीला इन दोनों योगों के संयोग को आत्म-कल्याणकारी बनाती है.
जैन परंपरा में दोनों योगों पर खूब काम हुआ है, लेकिन ज्ञानयोग जितना प्रकाश में आया है, उतना क्रियायोग नहीं आ पाया
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है, यही वजह है कि क्रियायोग के बारे में जनमानस में अनेक भ्रांतियां भी हैं और अरूचि भी.वैसे, अध्यात्म की प्रारंभिक साधना में विधि-विधान के रूप में क्रियायोग बहुत महत्त्वपूर्ण है. बालक ज्यों खिलौनों के सहारे चलना सीखते हैं. त्यों जैन साहितय में परिभाषित 'बालजीव' क्रियायोग से ही साधना-पथ पर आगे बढ़ पाते हैं.
ज्ञानयोग कठिन है. वह श्रमसाध्य है. वह ज्ञानावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के अधीन है. हर किसी की जिन्दगी में ज्ञानसाधना के पुष्प भव्यता से नहीं खिलते है.
आत्म-साधना के पथ पर काफी आगे बढ़ने के बाद महान योगी-पुरुषों के जीवन में आत्म अनुभूति के ऐसे अमूल्य अवसर आते हैं, जब क्रियायोग के विधि-विधान गौण बन जाते हैं और ज्ञान की 'योगदृष्टि' प्रधान हो जाती है. लेकिन यह असामान्य उपलब्धि है. आत्म-अनुभूति का यह विषय बालजीवों की समझ से बहुधा परे है ।
अतः आत्म-साधना के परम शिखर के स्पर्श से पूर्व सम्यग्ज्ञान के आलोक में विधि-विधानों के द्वारा होता क्रियायोग ही श्रेयष्कर है, आत्मउत्कर्ष का राजमार्ग है.
खरतरगच्छीय परंपरा के स्वनामधन्य महान आचार्य श्री जिनप्रभसूरिजी ने 'विधिमार्गप्रपा तथा वर्धमानसूरिजी ने आचार दिनकर में ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना कर धार्मिक क्रियाओं और विधि-विधानों को कालजयी बनाने का महत्तम कार्य किया है. जैन साहित्य और परंपरा के संदर्भो को लेकर अस्तित्व में आयी पूज्यवरों की यह अमर कृति बालजीवों और योग-साधकों के लिये प्रकाश-स्तम्भ' है ।
आदरणीया मातृहृदया प्रवर्तिनी साध्वी श्री सज्जनश्रीजी महाराज के ज्ञानयोग व क्रियायोग की साधना के आलोक में पली-बढ़ी ज्ञानपिपासु होनहार साध्वी श्री सौम्यगुणाश्रीजी महाराज ने 'विधिमार्गप्रपा' पर 'शोध-प्रबंध लिख कर श्रद्धेय आचार्य श्री जिनप्रभसूरिजी महाराज के विगत काल के 'श्रम' को 'संगीत' में बदल दिया है।
___ गौरवशाली संत' के 'गौरवशाली ग्रन्थ' को लेकर 'सौम्यगुणाजी भी 'गौरवान्वित हुई है. महान और ऐतिहासिक कार्यों का संपादन हर एक के नसीब में नहीं होता. ज्ञानावरणीय कर्मों का तीव्र क्षयोपशम ही ऐसे सत्कार्यों का आधार बनता
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साध्वीजी के स्वभाव में 'सौम्यता भी है और 'गुण' का निधान भी इसीलिए 'सौम्यगुणाजी' के रूप में उन्होंने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति का उत्कृष्ठ उदाहरण जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास लिखकर प्रस्तुत किया है।
प्रांजल परिश्रम के कुछ अवसरों का मैं भी साक्षी हूँ, अतः अन्तरतम से मानता हूँ कि साध्वीजी का यह ज्ञान-पुरुषार्थ भाव से प्रणम्य है ।
स्वाध्याय सौम्याजी का स्वभाव बन गया है. प्रशस्त योग की इस प्रक्रिया का उन्होंने खूब अभ्यास किया है. सांसारिक रिश्तों के मायने में सौम्याजी मेरी चचेरी बहन है, अतः उनकी उपलब्धि मेरे लिये विशेष गौरव का विषय है मुझे विश्वास है कि उनका यह परिश्रम अनेक जिज्ञासुओं का पथदर्शक बनेगा. यह शोध-ग्रन्थ विधि-विधान के संदर्भ में समाज को साध्वीजी की अमूल्य भेंट है ।
ज्ञान के क्षेत्र में तृप्त होकर कभी रुकना नहीं होता, अतः अपनी मंगल कामनाएँ अर्पित करता हुआ यह अपेक्षा करता हूँ कि सौम्यगुणाजी प्राचीन वाङ्मय के शोध खोल के रूप नये नजराने जिनशासन को अर्पित करती रहें ।
- मुनि विमलसागर
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अप्रतिम कार्य
साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। किसी भी धर्म, समाज,देश या परम्परा का भलीभाँति ज्ञान अर्जित करने के लिए उसके साहित्य का पर्यावलोकन परम अपेक्षित है। जो धर्मसंघ जितना विकसित, पल्लवित व पुष्पित होता है उसका साहित्य भी उतना ही उन्नत व समृद्ध होता है।
जैन धर्म सम्बन्धी विधि-विधानों का इतिहास शोध की दृष्टि से भले ही परवर्ती हो, किन्तु कार्य की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। श्रुतधरों व पूर्वाचार्यों द्वारा प्रणीत ये विधि-विधान न केवल आध्यात्मिक जगत् की प्रविष्टि का मार्ग ही प्रस्तुत करते हैं, अपितु व्यावहारिक जगत् को न्याय-नीति, संयम-सदाचार से आप्लावित कर शाश्वत सुख की ओर अग्रसर करते हैं।
साध्वी सौम्यगुणाजी का अध्ययन-लेखन के प्रति विशेष लगाव है। वह श्रमशील व संकल्पनिष्ठ साध्वी है और श्रम करती अघाती नहीं है, बल्कि कठिनाईयों का पार पाती हुई आगे बढ़ती रहती है। विगत कुछ वर्षों से जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण एवं अब तक अनछुये विषय का तलस्पर्शी अध्ययन कर रही हैं। इस प्रज्ञाशील साध्वी के माध्यम से कुछ ऐसे अपूर्व ग्रन्थ निर्मित होने की संभावनाएँ हैं जो युग-युगान्तर तक शोधार्थियों, जिज्ञासु पाठकों एवं विद्वत् वर्ग के लिए लाभकारी व उपयोगी सिद्ध हो सकेंगे। यह इस दिशा में किये गये प्रयत्न का प्रथम चरण(खण्ड) है।
जहाँ तक मुझे जानकारी है इसमें विधि-विधान विषयक समूचे साहित्य का अवगाहन कर उसको विषयवार वर्गीकृत किया गया है, जिसके माध्यम से अनेकों शोध विद्यार्थी आसानी से रिसर्च कर सकेंगे। साध्वी सौम्यगुणाजी ने बड़े परिश्रम एवं अनुसंधान के साथ इस खण्ड को पूरा किया है। इस कार्य सम्पादन का सम्पूर्ण श्रेय डॉ.सागरमलजी जैन को जाता है, जिन्होंने पूर्ण निष्ठा व शासन लाभ को दृष्टि में रखते हुए इस कलेवर को तैयार करने-करवाने का दिशा-निर्देश दिया। साध्वी सौम्याजी इस दिशा में उत्तरोत्तर प्रयत्नरत रहें, यही अन्तरंग हृदय की शुभ भावना है।
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आषाढशुक्लाएकादशी सूरत
आर्या शशिप्रभाश्री
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स्वकथ्य
जैन धर्म उपासनाप्रधान निवृत्तिमूलक धर्म है। इस धर्म संघ में निवृत्तिमूलक साधना को मुख्य और प्रवृत्तिमूलक साधना को गौण स्थान दिया गया है। वस्तुतः साधना के दो पक्ष हैं, भाव उपासना और द्रव्य उपासना। इसे निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म भी कहा जा सकता है।
मूलतः भाव उपासना आभ्यन्तर और द्रव्य उपासना बाह्य होती है। यद्यपि भाव और द्रव्य दोनों का अस्तित्व भिन्न-भिन्न हैं, तथापि एक सीमा तक ये अन्योन्याश्रित भी रहते हैं।
भारतीय मनीषा कहती है-भाव साधना की ओर उन्मुख होने या भाव साधना में प्रवेश करने का मुख्य द्वार द्रव्य अर्थात् बाह्यविधान है। सिद्धान्ततः भी नीचे से ऊपर की ओर जाया जाता है। इस दृष्टि से साधना का प्रथम चरण द्रव्य पक्ष और द्वितीय चरण भाव पक्ष है और भाव के समन्वित स्वरूप में ही 'विधि-विधान' अपना अभिधान पाते हैं। __ वर्तमान युग में भौतिकवादी संस्कृति के तले कर्मकाण्डमूलक आराधनाओं का सिलसिला बढ़ता हुआ नजर आ रहा है। इससे द्रव्योपासना अर्थात् धर्म के बाह्य प्रदर्शन की प्रवृत्ति बलवती बन रही है, किन्तु भावोपासना निर्बलता के कगार पर खड़ी है। यही कारण है कि निवृत्यात्मक धर्म भी प्रवृत्यात्मक बन गया है। इस कथन का अर्थ यह नहीं है कि द्रव्योपासना को स्थान ही न दिया जाये, परन्तु उसे सर्वेसर्वा मानते हुए भावोपासना की उपेक्षा करना अनुचित है। अतएव दोनों को यथानुरूप स्थान दिया जाये, इसी में आराधक वर्ग की उपासना का साफल्य और विधि-विधान का वैशिष्ट्य है।
वस्तुतः विधि-विधान क्या है? और जीवन में इनकी उपादेयता कितनी है? इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में इन बिन्दुओं पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। अतः यहाँ उनका
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पुनरावर्तन करना पुनरुक्ति दोष ही होगा। प्रस्तुत कृति एक बृहद् रचना है । इसमें जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य के ग्रन्थों का संकलन मात्र ही नहीं हैं, अपितु तत्सम्बन्धी साहित्य का सारगर्भित परिचय भी प्रस्तुत किया गया है। इस कृति की अपनी कुछ विशिष्टताएँ हैं -
इसमें विद्वद्वर्ग के दृष्टिकोण से सारभूत सामग्री संकलित की गई है।
शोधार्थियों की सुविधाओं का ध्यान रखते हुए विधि- विधानपरक साहित्य को विषयवार वर्गीकृत किया गया है, यथा-श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य, श्रमणाचार सम्बन्धी साहित्य, प्रायश्चित सम्बन्धी साहित्य आदि । यह वर्गीकरण विधिकारकों एवं सुज्ञ पाठकों हेतु भी उपादेय होगा, ऐसा विश्वास है । सारग्राही पाठकवर्ग की रूचि का ध्यान रखते हुए वैधानिक ग्रन्थों का सूची क्रम अकारादि वर्णमाला से प्रस्तुत किया है।
• कौनसा ग्रन्थ कितना प्राचीन, मौलिक व प्रामाणिक है? तदर्थ कृति का काल भी दिया गया है। जहाँ काल सम्बन्धी निश्चित प्रमाण नही मिल पाये हैं, वहाँ उस रचना की भाषाशैली और विषयवस्तु के आधार पर काल निर्णीत कर उसके आगे 'लगभग' शब्द जोड़ दिया है।
• विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य में विशिष्ट स्थान पाने वाले ग्रन्थों का अपेक्षाकृत विस्तृत परिचय दिया गया है, जो सुधीवर्ग एवं ज्ञान पिपासुओं के लिए सदैव उपयोगी रहेगा ।
इस ग्रन्थ की उपादेयता प्रत्येक वर्ग के लिए बनी रहें, अतएव ये बिन्दू भी ज्ञातव्य हैं
विधि सम्बन्धी साहित्य का आलोडन करते समय ग्रन्थ की विषय वस्तु में निहित विधि-विधानों के परिचय पर विशेष बल दिया गया है। साथ ही विधि-विधान के विभिन्न पक्षों को भी उजागर करने का पूरा प्रयास किया है तथा अनावश्यक कलेवर न बढ़ जाये, इस बात का भी यथासम्भव ध्यान रखा गया है ।
सन्देहास्पद स्थलों की सम्पूर्ति प्रश्नचिन्ह लगा कर की गई है। विधि-विधान सम्बन्धी उपलब्ध साहित्य का समग्र विवरण प्रस्तुत किया गया है ।
जो ग्रन्थ हमें उपलब्ध न हो सकें अथवा जो हमसे अनभिज्ञ रहें हों उन कुछ अलभ्य ग्रन्थों की जानकारी 'जिनरत्नकोश' के आधार पर प्रस्तुत की है। यद्यपि ध्यान-1 - विधि आदि से सन्दर्भित कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ छूट भी गए हैं।
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सारतः इस ग्रन्थ को सर्वजन उपयोगी बनाने के लिए जैन विधि-विधान की विकास यात्रा, विधि का महत्त्व, विधि-विधान का स्वरूप, विधि-विधान के प्रयोजन, प्राचीन - अर्वाचीन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य, अन्य परम्पराओं के विधि-विधानों का तुलनात्मक विवेचन आदि तथ्यमूलक पहलूओं पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार इस रचना को हर तरह से सर्वग्राही बनाने का प्रयास किया गया है।
इस बृहद् ग्रन्थ आलेखन के गुरु-गंभीर कार्य की पूर्णाहुति प्रसंग पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोगी जनों के प्रति आभार अनुज्ञापित करने के लिए मेरे हृदय मन्दिर में जितना सघन अहसास है, उतने शब्द नहीं हैं। फिर भी मैं सर्वप्रथम युगादिकर्त्ता प्रभु आदिनाथ एवं शासनाधिपति प्रभु महावीर के चरणों श्रद्धाप्रणत हूँ, जिन्होंने प्राणीमात्र को मोक्ष का पथ दिखलाया ।
इस ज्ञानयज्ञ की सम्पन्नता में विश्वास व आत्मबल का निर्धूम दीपक प्रज्वलित करने वाले शासन उपकारी, युगप्रभावी चारों दादा गुरूदेवों के पाद - पद्मों में श्रद्धायुक्त नमन करती हूँ ।
इस श्रुतगंगा में चेतन मन को सदैव आप्लावित करते रहने की परोक्ष प्रेरणा प्रदान करने वाली श्रुतगंगोत्री, आगममर्मज्ञा प्रवर्त्तिनी महोदया गुरुवर्य्या श्री सज्जन श्री जी म.सा. के पाद - प्रसूनों में श्रद्धा सिंचित प्रणाम करती हूँ ।
जिनशासन के आशुकवि, ज्योतिर्विद, उपाध्यायप्रवर श्री मणिप्रभ सागरजी म.सा. को मेरा नमन, जिन्होंने अध्ययन के प्रति सदैव जागरूक रहने एवं प्रगति पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देकर पाथेय प्रदान किया ।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के प्रणयन में शिक्षागुरू का अहम् स्थान होता है, उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ अनिर्वचनीय हैं, जिन्होंने मेरे कोमल हृदय में अनवरत अध्ययन की प्रवृत्ति का बीजारोपण किया और सामाजिक एवं सामुदायिक जिम्मेदारियों से मुक्त रखकर समय व स्थान की भरपूर सुविधा प्रदान की, उन सज्जनमणि, संघरत्ना, वात्सल्यहृदयी पू. शशिप्रभाश्रीजी म. को श्रद्धा भरी वन्दना करती हूँ ।
इसी क्रम में स्नेह गंगोत्री, कोयल सम जन-जन को धर्माभिमुख करने वाली जयेष्ठ भागिनी पू. प्रियदर्शनाश्रीजी म.सा. के पादप्रसूनों में कृतज्ञता के सुमन लिए प्रतिपल नतमस्तक हूँ, जिनके सम्यक् सुझावों के परिणामस्वरूप इस कलेवर को तैयार करने में सक्षम बन सकी ।
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मेरा सहवर्ती भगिनी मंडल पू. जयप्रभाश्रीजी म., पू.दिव्यदर्शनाश्रीजी म., पू. तत्त्वदर्शनाश्रीजी म., पू. सम्यक्दर्शनाश्रीजी म., पू. शुभदर्शनाश्रीजी म., पू. मुदितप्रज्ञाश्रीजी म., पू. शीलगुणाश्रीजी म. आदि सर्व को नतमस्तकेन वंदन, जिनकी स्नेहिल भावनाएँ मेरे कार्य की गति-प्रगति में सहायक बनी।
मैं आभारी हूँ-साध्वीद्वया सरलमना स्थितप्रज्ञाजी एवं मौनसाधिका संवेगप्रज्ञाजी के प्रति, जिन्होंने इस ग्रन्थ के लेखन काल में व्यावहारिक औपचारिकताओं से मुक्त रखने, प्रूफ संशोधन करने एवं हर तरह की सेवाएँ प्रदान करने में विशिष्ट भूमिका अदा की। साथ ही गुरू आज्ञा को शिरोधार्य कर ज्ञानोपासाना के पलों में निरन्तर मेरी सहचरी बनी रहीं।
मैं उन सभी चारित्रात्माओं के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ, जिनका यहाँ उल्लेख नहीं किया जा सका, लेकिन जिनका मुझे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में सहयोग प्राप्त हुआ।
जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्मदर्शन के निष्णात विद्वान, प्राच्यविद्यापीठ संस्थापक, आदरणीय डॉ. सागरमलजी के प्रति भी हार्दिक कृतज्ञता अभिव्यक्त करती हूँ, जिन्होंने न केवल मेरा उत्साहवर्द्धन ही किया, अपितु पितृ तुल्य वात्सल्य भाव रखते हुए सदैव स्वावलम्बी बनने की सम्प्रेरणाएँ प्रदान की। निर्देशक होने के नाते मेरे द्वारा आलेखित ऐतिहासिक सामग्री का न केवल अवलोकन एवं संपादन ही किया, अपितु संशोधन कर इस कृति को निर्दोष भी बनाया। उन्होंने एक मार्गदर्शक के रूप में मेरा जो सम्यक् मार्गदर्शन किया, वह चिरस्मरणीय तथा मेरी साधना यात्रा में भी सहयोगी रहेगा। मेरी यही कामना है उन सन्त पुरुष का स्नेहभाव मुझे अनवरत मिलता रहे।
आदरणीया कमलाबाई सा. सुपुत्र नरेन्द्रभाई एवं उनके समस्त परिवार के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने अध्ययनकाल में स्थान आदि सेवाएँ प्रदान कर अनूठा धर्मलाभ अर्जित किया।
इन सुखद क्षणों में अन्तरमन से आभारी हूँ, जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् डॉ. डी.एस.बया के प्रति, जिन्होंने अपने मौलिक चिन्तन से अनेक सुझाव दिये।
इस अवसर पर संघमान्य अध्यक्ष लोकेन्द्र भाई नारेलिया, ज्ञानचन्दजी गोलेच्छा, पारसजी मांडलिक, राजेन्द्रजी जैन आदि समस्त शाजापुर संघ के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ , जिन्होंने अध्ययन यात्रा में हर संभव सहयोग दिया।
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इस ज्ञानार्जन में हर तरह की सेवाएं प्रदान करने वाले भक्तिनिष्ठ श्री सुनीलजी बोथरा (रायपुर) का अन्तर्मन से अनुमोदन करती हूँ। साथ ही मनोजजी गोलेच्छा (चेन्नई), प्रीतिजी पारख (जगदलपुर), सीमा छाजेड़ (मालेगांव), मोनिका बेराठी (जयपुर) आदि की सेवाएँ भी सराहनीय रही हैं।
इस कृति को जन-जन तक पहुँचाने के लिए विशेष रूप से कटिबद्ध मालेगांव संघ के पदाधिकारीगण बाबूलालजी संखलेचा, शांतिलालजी छाजेड़, कैलाशजी मेहता आदि समस्त ट्रस्ट मंडल की भावविभोर हो अनुशंसा करती हूँ।
इस ग्रन्थ प्रकाशन के परम सहयोगी श्री जिनकुशलसूरी दादावाड़ी बाड़मेर ट्रस्ट, मालेगांव का नाम इस कृति के साथ सदैव जुड़ा रहेगा। साथ ही उनकी उदारता एवं सत्साहित्य सर्जन की अमरगाथाएँ युग-युगों तक विद्यमान रहेंगी।
इस अनुपम वेला में श्री कैलाश सागर सूरि ज्ञान मंदिर-कोबा, प्राच्यविद्यापीठ-शाजापुर, खरतरगच्छज्ञानभंडार-जयपुर, जिनदत्तसूरिज्ञानभंडार-मुंबई, आदि ग्रंथागार एवं अन्य ग्रन्थालयों के सभी ग्रन्थ और ग्रंथकार मेरे लिए वन्दनीय हैं। ग्रन्थागार के संरक्षणगण एवं कार्यकर्तागण, यथा-मनोजजी, अरूणजी झा आदि से ज्ञानसामग्री उपलब्ध करवाने में विशेष सहयोग प्राप्त हुआ, मैं उन सभी के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ। ___ मैं अनिल वर्मा का भी आभार ज्ञापित करती हूँ, जिन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ को कम्प्यूटराईज्ड करने में सहयोग प्रदान किया।
इस कृति को नया आकार देने में अनेक विद्वानों की कृतियों का उपयोग हुआ है, उनके प्रति भी कृतज्ञ भाव प्रस्तुत करती हूँ। इस कार्य से विद्वद्वर्ग या पाठकवर्ग यत्किंचित् भी लाभान्वित बनेगा तो मेरे श्रम की सार्थकता होगी। अन्ततः इष्टदेवों-पूज्यवरों से प्रार्थना करती हूँ कि वे मुझे ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि मेरी श्रुतयात्रा प्रवर्द्धमान रहें। साथ ही जिनाज्ञा विरूद्ध की कुछ भी लिखा गया हो, तो त्रियोग शुद्धि पूर्वक मिच्छामि दुक्कडं।
साध्वी सौम्यगुणाश्री
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अनुक्रमणिका
१-३१
३३-८५
८७-१२७
१२९-१५८
१५९-१७८
१७९-२६४
- अध्याय-१
जैन विधि-विधानों का उद्भव एवं विकास अध्याय-२ श्रावकाचार सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य-सूची - अध्याय-३ साध्वाचार सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य अध्याय-४ षडावश्यक (प्रतिक्रमण) सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य - अध्याय-५ विविध तप सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य अध्याय-६ संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य - अध्याय-७ समाधिमरण सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य अध्याय-८ प्रायश्चित सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य - अध्याय-९
योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य - अध्याय-१०
पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य - अध्याय-११
मंत्र-यंत्र विद्या सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य - अध्याय-१२
ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य अध्याय-१३ विविध विषय सम्बन्धी विधि-विधान परक साहित्य
२६५-२९९
३०१-३७७
३७९-४१३
४१५-५१४
५१५-५७६
५७७-६२४
६२५-६७२
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अध्याय-1
388
जैन विधि-विधानों का उद्भव एवं विकास
38888
333333389
3888888888800388
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/3
अध्याय १ जैन धर्म में विधि-विधानों का उद्भव और विकास
कार्य की सफलता का मुख्य आधार उसके सम्पादन की विधि होती है -
"विधिपूर्वमेव विहितं कार्य सर्व फलान्वितं भवति" अर्थात कोई भी कार्य विधिपूर्वक किया जाता है तब ही वह फल वाला बनता है। विधि का अर्थ है- कार्य करने का तरीका चाहे वह कार्य कृषि सम्बन्धी हो या पाक सम्बन्धी, व्यापार सम्बन्धी हो या धर्म सम्बन्धी- परन्तु वह पद्धतिपूर्वक किया जाये तो ही योग्य फल देने वाला बनता है इसलिए सभी कार्य विधिपूर्वक करने चाहिए।
__ मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में आचारगत विधि-व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारतीय धर्म-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में आचारशास्त्र (विधिशास्त्र) के विभिन्न सिद्धान्तों, दृष्टियों और मर्यादाओं का वर्गीकरण हुआ है। तदनुरूप धर्म या सम्प्रदाय विशेष में प्रतिष्ठापित नियमों, सिद्धान्तों के अनुरूप व्यक्ति अपनी आचार-व्यवस्था या नैतिक व्यवस्था का पालन करता है। अतएव प्रायः सभी धर्मों का केन्द्र बिन्दु यही आचारगत- नैतिक व्यवस्था मानी जाती है। यही मानव धर्म का नियामक तत्त्व भी है। देशकालानुसार इन विधि- व्यवस्थाओं में परिवर्तन एवं परिवर्धन होते रहते हैं। निवृत्तिमार्गी परम्परा _ भारतीय संस्कृति की दो मूल धारायें हैं - एक प्रवृत्तिमार्गी वैदिक (ब्राह्मण) संस्कृति और दूसरी निवृत्तिमार्गी श्रमण संस्कृति । यद्यपि दोनों संस्कृतियों में गृहस्थ वर्ग और श्रमणवर्ग के आचार विषयक अनेक नियम, उपनियम एवं विधि सम्बन्धी सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है। श्रमण संस्कृति के प्रतिनिधि बौद्ध व जैन धर्म में विधि-संहिता सम्बन्धी नियमोपनियमों को प्रतिष्ठापित करने के लिए संघ को चार भागों में विभाजित किया गया है - १. भिक्षुसंघ २. भिक्षुणीसंघ ३. श्रावकसंघ ४. श्राविकासंघ
यहाँ इतना जानने योग्य है कि भिक्षु-भिक्षुणियों (साधु-साध्वियों) का संघ सुव्यवस्थित एवं सुनियंत्रित होता है, जबकि श्रावक-श्राविकाओं का संघ उतना अनुशासित और एकरूप नहीं होता है। श्रावक-श्राविकाओं को अपने व्रत, नियम, कर्तव्य आदि के पालन में व्यक्तिगत स्वतन्त्रताएँ होती है। वे अपनी रूचि, शक्ति, परिस्थिति आदि के अनुसार यथायोग्य धार्मिक क्रिया करते हैं एवं समाज के सामान्य नियमानुसार व्यावहारिक प्रवृत्तियों में लगे रहते हैं, जबकि श्रमणवर्ग सांसारिक क्रियाकलापों से सर्वथा मुक्त रहता है और केवल संयम-तप- त्याग की आराधना
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4/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
का उद्देश्य लेकर आध्यात्मिक पथ पर निरन्तर गतिशील बना रहता है। श्रमण स्वार्थ और परार्थमूलक उभयपक्षीय साधना का व्रत होता है। वह आत्म विद्या की उपलब्धि करता हुआ गृहस्थ वर्ग को भी आध्यात्मिक मार्ग का पाथेय प्रदान करता है, जिस पर चलने के लिए गृहस्थ को कुछ विशिष्ट प्रकार की लोचपूर्ण आचार-व्यवस्था या विधि-व्यवस्था का अनुपालन करना होता है। इस तरह जैन एवं बौद्ध संघ में श्रमण एवं ग्रहस्थ दोनों की आचार संहिता या विधि का निरूपण हुआ है। यहां विशेष रूप से यह उल्लेखनीय हैं कि दोनों धर्मों में अधिकांश विधि सम्बन्धी नियमों एवं उपनियमों का निर्माण प्रमुखतया भिक्ष- भिक्षुणियों के लिए ही किया गया है। जैन एवं बौद्ध संघ में यद्यपि व्यक्तिगत साधना पर पूर्वकाल से बल रहा है फिर भी उनमें सामुदायिक साधना की पद्धति ही मुख्य रही है।
यह भी स्मरणीय है कि जैन एवं बौद्ध आचार व्यवस्था का आधार क्रमशः भगवान महावीर और भगवान् बुद्ध के उपदेश ही थे। परन्तु यह भी सत्य है कि सभी नियम और उपनियमों का निर्माण तीर्थंकर ही नहीं करते, बहुत से ऐसे नियम और उपनियम हैं जिनके निर्माता श्रुतकेवली भद्रबाहु और अन्य गीतार्थ स्थविर रहे है। उन्होंने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को दृष्टि में रखकर मूल नियमों के अनुकूल और अविरोधी नियमोपनियम का निर्माण किया है।
जैन आगमों के सर्वप्रथम संस्कृत टीकाकार आचार्य हरिभद्र ने यह स्पष्ट कहा है कि जो भी विधि-विधान या नियम संयम - साधना में अभिवृद्धि करते हों और असंयम की प्रवृत्ति का विरोध करते हों, वे नियम भले ही किसी के द्वारा निर्मित क्यों न हो, ग्राह्य है । '
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जैन और बौद्ध परम्परा निवृत्तिमार्गी होने के साथ-साथ मूलतः आचार प्रधान रही है। दोनों परम्पराएँ आचार पर बल देती हैं किन्तु दोनों की पद्धति में उल्लेखनीय अन्तर है। 'जैन एवं बौद्ध परम्परा में आचार को लेकर ही विभिन्न शाखाओं यथा- दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी या हीनयान, महायान आदि में मतभेद रहा है।
प्रवृत्तिमार्गी परम्परा
सामान्यतया वैदिक धर्म को प्रवृत्तिमार्गी और श्रमणधर्मों को निवृत्तिमार्गी कहा जाता है।
प्रवृत्तिमार्गी परम्परा में वैदिक धर्म आता है। प्रवर्तक धर्म भोग प्रधान है अतः उसने अपनी साधना का लक्ष्य सुविधाओं की प्राप्ति को ही बनाया है। इस
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"
श्रमण अंक अक्टूबर-दिसम्बर २००४, डॉ. चन्द्ररेखासिंह द्वारा आलेखित लेख पर आधारित
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/5 .
परम्परा के प्रवर्तकों ने ऐहिक जीवन के लिए धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि की कामना की है और पारलौकिक जीवन के लिए स्वर्ग प्राप्ति की प्रार्थना की। आगे जाकर उन्होंने यह भी अनुभव किया कि सुख-सुविधाओं की प्राप्ति व्यक्ति के अपने पुरुषार्थ पर ही आधारित नहीं है अपितु अलौकिक शक्तियों की कृपा पर भी निर्भर है तब से यह परम्परा उन देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए उनकी स्तुति करने लगी तथा बलि और यज्ञों के माध्यम से उन्हें सन्तुष्ट करने लगी। इस प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ (१) भक्तिमार्ग और (२) कर्ममार्ग। मूलतः प्रवर्तक धर्म के अनुयायी भौतिक सुख की प्राप्ति के लिये देवी-देवताओं की स्तुति करते हैं या यज्ञ-यगादि करते हैं। इस परम्परा में मुख्यतः यज्ञ-होमादि को लेकर ही कर्मकाण्डों या विधि-विधानों का निर्माण हुआ है तथा यह संस्कृति मूल रूप से भौतिक प्रधान रही है। जबकि इसके विपरीत निवृत्तिमार्गी परम्परा ने योगों से विरक्ति को ही अपना लक्ष्य बनाया है। यह परम्परा प्राचीनकाल में श्रमण परम्परा, आर्हत् परम्परा या व्रात्य परम्परा के नाम से जानी जाती थी। इस निवर्तक धर्म का लक्ष्य निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति रहा, इसलिए इस परम्परा ने ज्ञान और वैराग्य पक्ष को स्वीकार किया। किन्तु ज्ञान और वैराग्यपूर्ण जीवन सामाजिक एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के बीच सम्भव नहीं था, इसलिए इस धर्म में संन्यास मार्ग का विकास हुआ। आगे जाकर निवर्त्तक धर्म भी दो शाखाओं में विभक्त हो गया (१) ज्ञानमार्ग और (२) तपमार्ग।
यदि गहराई से अध्ययन करें तो यह पाते हैं कि इस निवृत्तिमार्गी परम्परा में प्रारम्भ में कर्मकाण्ड जैसी कोई चीज नहीं थी। उसमें इसका क्रमशः विकास हुआ है। इस विषय को हम आगे अधिक स्पष्ट कर रहे हैं। उससे पूर्व यह ज्ञात कर लेना आवश्यक है कि प्राचीनकाल में श्रमण परम्परा में (१) जैन, (२) बौद्ध, (३) औपनिषदिक और (४) सांख्य-योग की धाराएँ भी सम्मिलित थी। यद्यपि आज औपनिषदिक और सांख्य-योग की धाराएँ हिन्दू-धर्म का अंग बन चुकी हैं इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ श्रमण धाराएँ भी थी, जो आज विलुप्त सी हो चुकी है। आज श्रमण परम्परा के जीवन्त धर्मों में बौद्धधर्म और जैनधर्म अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। इसमें बौद्धधर्म भारत में जन्मा, यहीं विकसित हुआ किन्तु यहाँ से सुदूर पूर्व में जाकर फैला, जबकि जैनधर्म अति प्राचीनकाल से आज तक अपना अस्तित्व भारत में बनाये हुए है। वस्तुतः इन दोनों ही परम्पराओं के विषय में यह उल्लेख मिलता है कि प्रारम्भ में इन परम्पराओं के अनुयायी तपस्या करते थे और कों का नाश करके मोक्ष पाते थे। इस प्रक्रिया में आराधक को शारीरिक चेष्टा अधिक नहीं करनी होती है वे केवल तप ध्यान-योगादि के द्वारा कर्मक्षय करते हैं। इस प्रकार यह सम्पूर्ण प्रक्रिया प्रवृत्ति प्रधान नहीं है इसलिए इन्हें निवृत्तिमार्गी धर्म कहा गया है।
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6/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
प्रवृत्तिमूलक- निवृत्तिमूलक परम्परा
यह उल्लेख्य हैं कि प्रवर्त्तक (वैदिक) और निवर्त्तक ( श्रमण ) धर्म परम्परा में विधि-विधानों का उद्भव एवं विकास किस' प्रक्रिया के आधार पर और किस क्रमपूर्वक हुआ? इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जी जैन ने दो सारणियाँ निर्मित की हैं जो प्रवर्त्तक और निवर्त्तक धर्म के विकास की प्रक्रिया को समझ सकने में अधिक उपयोगी सिद्ध होती है। प्रथम सारिणी इस प्रकार है।
-
( प्रवर्तक धर्म)
देह
1
वासना
I
भोग
|
अभ्युदय (प्रेय) 1
स्वर्ग
一一
प्रवृत्ति
प्रवर्त्तक धर्म
I
मनुष्य
9
जैन धर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा ले. डॉ. सागरमल जैन, पृ. ५
( निवर्त्तक धर्म)
चेतना
I
विवेक
विराग (त्याग) I
निःश्रेयस्
I
मोक्ष (निर्वाण ) 1
संन्यास
I
निवृत्ति
निवर्त्तक धर्म I
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/7
अलौकिक शक्तियों की उपासना
आत्मोपलब्धि
समर्पण मूलक भक्ति मार्ग
यज्ञ मूलक कर्म मार्ग
चिंतन प्रधान ज्ञान मार्ग
देहदण्डन मूलक
तप मार्ग
उक्त सारिणी के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि प्रवर्तक एवं निवर्त्तक दोनों धाराओं का विकास भिन्न-भिन्न दृष्टियों से हुआ है। गहराई के साथ सोचा जाये तो दोनों धाराओं के मतभेद का मूल आधार कर्मकाण्ड ही रहा है।
पुनः दोनों परम्पराओं की पारस्परिक भिन्नता को अधिक स्पष्टता के साथ समझने के लिए यहाँ द्वितीय सारणी अधिक उपयोगी प्रतीत होती हैं वह निम्न है'
नता
-
m
प्रवर्तक धर्म
निवर्त्तक धर्म १ जैविक मूल्यों की प्रधानता १ आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता। २ विधायक जीवन-दृष्टि
२ निषेधक जीवन-दृष्टि। ३ समष्टिवादी
व्यष्टिवादी। व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी ४ व्यवहार में नैष्कर्मण्यता का दैविक शक्तियों की कृपा पर समर्थन फिर भी आत्मकल्याण हेतु विश्वास
वैयक्तिक पुरुषार्थ पर बल। ईश्वरवादी
५ अनीश्वरवादी। ६ ईश्वरीय कृपा पर विश्वास ६ वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, कर्म
सिद्धान्त का समर्थन। ७ साधना के बाह्य साधनों पर बल ७ आन्तरिक विशुद्धता पर बल। र जीवन का लक्ष्य स्वर्ग या ईश्वर ८ जीवन का लक्ष्य मोक्ष एवं निर्वाण के सान्निध्य की प्राप्ति
की प्राप्ति। ६ वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद का ६ जातिवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था जन्मना आधार पर समर्थन
का केवल कर्मणा आधार पर समर्थन।
'जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा - ले. डॉ. सागरमल जैन, पृ. ६
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8/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
१० गृहस्थ जीवन की प्रधानता १० संन्यास जीवन की प्रधानता। ११ सामाजिक जीवन शैली | ११ एकाकी जीवन शैली। १२ राजतन्त्र का समर्थन । १२ जनतन्त्र का समर्थन। १३ शक्तिशाली की पूजा
१३ सदाचारी की पूजा। १४ विधि-विधानों एवं कर्मकाण्डों की १४ ध्यान और तप की प्रधानता।
प्रधानता १५ पुरोहित-वर्ग का विकास १५ श्रमण-संस्था का विकास १६ उपासनामूलक
१६ समाधिमूलक।
उपर्युक्त सारिणी के माध्यम से इतना अवश्य सिद्ध हो जाता है कि वैदिक धर्म मूलतः प्रवृत्तिप्रधान और श्रमणधर्म निवृत्ति प्रधान रहा है।
___ जब उक्त दोनों धाराओं की अर्वाचीन स्थिति पर दृष्टिपात करते हैं तो लगता है वैदिक धारा से विकसित हिन्दू धर्म में भले ही यज्ञ-त्याग और कर्मकाण्ड की प्रधानता रही हो, तथापि उसमें संन्यास, मोक्ष और वैराग्य का अभाव नहीं है। चाहे अध्यात्म, संन्यास और वैराग्य के ये तत्त्व उन्होंने श्रमण परम्परा से ही क्यों न ग्रहण किये हो। आज हिन्दू धर्म में संन्यास, वैराग्य, तप-त्याग, ध्यान और मोक्ष की जो अवधारणाएँ विकसित हुई हैं, वे सभी इस बात को प्रमाणित करती हैं कि वर्तमान में हिन्दू धर्म ने श्रमणधारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। इसी प्रकार कालान्तर में श्रमणधारा ने भी चाहे-अनचाहे वैदिक धारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। मूलतः श्रमण धर्म भले ही निवृत्ति प्रधान और कर्मकाण्ड रहित हो, परन्तु वर्तमान में कर्मकाण्ड (विधि-विधान) और पूजा पद्धति का जो विकसित रूप देखने को मिलता है वह लगभग हिन्दु परम्परा से आया हुआ ही प्रतीत होता है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जहाँ एक ओर भारतीय श्रमण परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणाएँ प्रदान की, वहीं दूसरी ओर तीसरी-चौथी शती से वैदिक परम्परा के प्रभाव से पूजा-विधान और तान्त्रिक साधनाएँ जैन-धर्म और बौद्ध-धर्म में प्रविष्टि हो गईं। अनेक हिन्दु देव-देवियाँ भी प्रकारान्तर से जैन धर्म में स्वीकार कर ली गई। इतना ही नहीं वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मन्दिरों में भी अब यज्ञ होने लगे हैं और पूजा-विधान में हिन्दू- देवताओं की तरह तीर्थंकरों का भी आहान एवं विसर्जन किया जाने लगा है। अधिक तो क्या कहें, हिन्दूओं की पूजा-विधि में जो मन्त्र उच्चरित होते हैं उन मन्त्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों के
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/9
साथ जैनों के द्वारा स्वीकार कर लिए गए हैं, ऐसा अवगत होता है। इस प्रकार वर्तमान की स्थिति को देखते हुए प्रतीत होता है कि जैन परम्परा में तप, ध्यान
और समाधि की साधना गौण होकर पूजा-बलि-हवन आदि कई विधि-विधान प्रमुख हो गये हैं।
डॉ. सागरमल जैन के अनुसार इन दोनों परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हुआ है कि जहाँ हिन्दू परम्परा में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में भी राम
और कृष्ण को शलाका पुरुष के रूप में स्वीकार किया गया। यद्यपि परम्परागत मान्यताएँ तो इससे भिन्न मत रखती हैं। डॉ. जैन के उक्त विवेचन से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि वैदिकधर्म और श्रमण धर्म ये दोनों परम्पराएँ प्रारम्भ काल में भिन्न-भिन्न होते हुए भी मध्यकाल तक आते-आते दोनों एक दूसरे से अत्यधिक प्रभावित हो गई थी, चूंकि उत्तरकालीन के पूजादि के कछ विधानों की अपेक्षा दोनों धाराएँ एक दूसरे से अति निकट प्रतीत होती है। यहां समीक्षात्मक दृष्टि से यह कह देना भी न्यायोचित होगा कि चाहे जैनों के पूजादि विधि-विधान वैदिक (हिन्दू) परम्परा से प्रभावित होकर विकसित हुए हों और इन विधि-विधानों ने एक नया रूप धारण किया हो। किन्तु इनके अतिरिक्त जो आचार सम्बन्धी विधि-विधान हैं जैसे, व्रतारोपणविधि, पौषधविधि, भिक्षाविधि, दीक्षाविधि, आदि आज भी मूल आगमिक स्रोतों के समरूप हैं। इन विधि-विधानों के सम्बन्ध में ये बिन्दू मुख्य रूप से विचारणीय हैं कि किन विधि-विधानों में कब-कैसे परिवर्तन हुए? इनसे सम्बन्धित कौन-कौन से ग्रन्थ लिखे गये? आज मूल रूप में कौन-कौन से विधि-विधान प्रचलित है और किनमें कितना परिवर्तन आया है? इत्यादि जैन आगमों में विधि-विधान स्वरूप
पूजाविधान, अनुष्ठान और अध्यात्ममूलक साधनाएँ प्रत्येक उपासना पद्धति के अनिवार्य अंग हैं। कर्मकाण्डपरक अनुष्ठान उसका शरीर है, तो अध्यात्म साधना उसका प्राण है। भारतीय धर्मों में प्राचीनकाल से ही ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। यह हम पूर्व में ही कह चुके हैं कि जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म कर्मकाण्डात्मक अधिक रहा है वहाँ प्राचीन श्रमण परम्पराएँ आध्यात्मिक साधनात्मक अधिक रही है। जैन परम्परा मूलतः श्रमण परम्परा का ही एक अंग है और इसलिए यह भी अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन जैन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ कर्मकाण्ड का विरोध ही परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन
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10 / जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है।
यह स्मरणीय है कि भारतीय अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों में यज्ञ, स्नान आदि अति प्राचीनकाल से प्रचलित रहे हैं। वैदिक साहित्य इन सबके उल्लेखों से भरा पड़ा है। श्रमण साहित्य में उत्तराध्ययनसूत्र' में यज्ञ का जो आध्यात्मिक स्वरूप उपलब्ध होता है वह यह बताता है कि श्रमण परम्परा में यज्ञ को नये रूप में व्याख्यायित किया है। उसमें कहा गया है कि “जो पाँच संवरों से पूर्णतया सुसंवृत्त है, जो जीवन के प्रति अनासक्त है, जिन्हें शरीर के प्रति ममत्व भाव नहीं है, जो पवित्र है और जो विदेह भाव में रहते हैं, वे आत्मजयी साधक ही श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं । उनके लिए तप ही अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच ) है और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है। यही यज्ञ संयम से युक्त होने के कारण शान्तिदायक और सुखदायक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञों की प्रशंसा की है।" इस सम्बन्ध में अन्य और भी विवरण आगमों में परिलक्षित होते हैं, किन्तु प्रसंगदोष के निवारणार्थ इस विवेचन को यहीं विराम देते हैं।
हमारा मुख्य ध्येय जैन परम्परा में कर्मकाण्ड या विधि-विधान का विकास एवं उनका सूत्रपात कैसे हुआ, उसकी चर्चा करना है। यदि जैनगमों का समीक्षात्मक पहलू से अवलोकन करते हैं तो जैन धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थों में धार्मिक कर्मकाण्डों एवं विधि-विधानों के सम्बन्ध में केवल तप एवं ध्यान की विधियों के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नहीं मिलता है। प्रभु पार्श्वनाथ ने तो तप के कर्मकाण्डात्मक स्वरूप का भी विरोध किया था। सामान्यतया प्राचीनतम आगमों के परिप्रेक्ष्य में विधि-विधानों का प्रारम्भिक स्वरूप सर्वप्रथम आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौवें अध्ययन में प्राप्त होता है । इस अध्ययन में भगवान महावीर की जीवन चर्चा के प्रसंग को लेकर, उनकी ध्यान एवं तप साधना की पद्धति का उल्लेख हुआ है। इसके पश्चात् आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में हमें मुनि जीवन से सम्बन्धित भिक्षा, आहार, निवास एवं विहार सम्बन्धी विधि-विधानों के उल्लेख मिलते हैं। उत्तराध्ययन के तीसवें अध्याय में तपस्या के विविध रूपों की चर्चा भी उपलब्ध होती है। इसी प्रकार तपस्याओं की विविध विधियाँ हमें अन्तकृद्दशा में भी उपलब्ध होती हैं जो कि उत्तराध्ययनसूत्र के तप सम्बन्धी उल्लेखों की अपेक्षा परवर्ती है। एवं विधि-विधान परक भी है।
यहाँ यह ध्यान रखने योग्य हैं कि ( अंतकृतद्दशा) सूत्र का वर्तमान स्वरूप ईसा की ५ वीं शताब्दी के पश्चात् का ही है। उसके आठवें वर्ग में
و
उत्तराध्ययन
-
१२/४०-४४
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/11
गुणरत्नसंवत्सर-तप, रत्नावती-तप, लघुसिंहक्रीड़ा-तप, कनकावली-तप, मुक्तावलीतप, महासिंहनिष्क्रीड़ित-तप, सर्वतोभद्र-तप, भद्रोत्तर-तप, महासर्वतोभद्र-तप, और आयम्बिलवर्धमान-तप आदि की विधियाँ उल्लेखित हैं। इसके बाद आचार्य हरिभद्र के तपपंचाशक में आगमनिर्दिष्ट उपरोक्त तपों की चर्चा के साथ ही कुछ लौकिक व्रतों एवं तप विधियों की चर्चा हुई है। इस वर्णन के आधार पर यह जाना जा सकता है कि कालक्रम के आधार पर तप की विधियों का कैसे विकास हुआ और इन तप विधियों का क्रमिक रूप प्राचीन ग्रन्थों में किस प्रकार का उपलब्ध होता है। यही प्रक्रिया अन्य विधि-विधानों में भी जाननी चाहिए। जहाँ तक जैन श्रमण साधकों के नित्य करने योग्य धार्मिक कृत्यों एवं विधियों का सम्बन्ध है, हमें ध्यान और स्वाध्याय के ही उल्लेख मिलते है। उत्तराध्ययन में निर्देश है कि मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में भिक्षाचर्या और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करें। इसी प्रकार रात्रि के चार प्रहरों में भी प्रथम में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में निद्रा, और चतुर्थ में पुनः स्वाध्ययाय करें।
नित्यकर्म के सम्बन्ध में प्राचीनतम उल्लेख प्रतिक्रमण अर्थात् अपने दुष्कर्मों की समालोचना और प्रायश्चित्त विधि के मिलते हैं। प्रभु पार्श्वनाथ और प्रभु महावीर की धर्म देशना का एक मुख्य अन्तर प्रतिक्रमण की अनिवार्यता भी रही है। महावीर के धर्म को सप्रतिक्रमण धर्म कहा गया है। महावीर के धर्म संघ में सर्वप्रथम प्रतिक्रमण एक दैनिक अनुष्ठान बना। इसी से षडावश्यकों की अवधारणा का विकास हुआ। आज भी प्रतिक्रमण की विधि षड़ावश्यकों के साथ ही की जाती है। श्वेताम्बर परम्परा के आवश्यकसूत्र एवं दिगम्बर परम्परा के मूलाचार' में षड़ावश्यक विधि का स्पष्ट स्वरूप उल्लेखित है। ये षड़ावश्यक कर्म है- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, गुरूवंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग (ध्यान) और प्रत्याख्यान। आवश्यकनियुक्ति में वंदन', कायोत्सर्ग आदि की विधियों एवं उनके दोषों की जो चर्चा है, उससे इतना अवश्य फलित होता है कि क्रमशः इन दैनन्दिन क्रियाओं को भी अनुष्ठानपरक बनाया गया है। आज एक रूढ़ क्रिया के रूप में ही षड़ावश्यकों को सम्पन्न किया जाता है।
जहाँ तक गृहस्थ उपासकों के धार्मिक कृत्यों या अनुष्ठानों का प्रश्न है हमें उनके सम्बन्ध में भी ध्यान एवं उपोसथ या पौषधविधि के ही प्राचीन उल्लेख उपलब्ध होते हैं। उपासकदशांग में शकडालपुत्र एवं कुण्डकौलिक के द्वारा मध्याह्न में
' मूलाचार - ६/२२, ७/१५ २ आवश्यकनियुक्ति - १२२०-२६ ३ वही - १५६०-६१
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12 /जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
अशोकवन में शिलापट्ट पर बैठकर उत्तरीय वस्त्र एवं आभूषण उतारकर महावीर की धर्म प्रज्ञप्ति की साधना अर्थात् सामायिक एवं ध्यान साधना करने का वर्णन है । बौद्ध त्रिपिटक साहित्य से यह ज्ञात होता है कि निर्ग्रन्थ श्रमण अपने उपासकों को ममत्व भाव का विसर्जन करवाकर कुछ समय के लिए समभाव अर्थात् सामायिक एवं ध्यान की साधना करवाते थे। इसी प्रकार भगवतीसूत्र में भोजनोपरान्त अथवा निराहार रहकर श्रावकों के द्वारा पौषध करने का विवेचन मिलता है । त्रिपिटक में बौद्धों ने निर्ग्रन्थों के उपोसथ (पौषध) की आलोचना भी की है। इससे यह बात पुष्ट होती है कि सामायिक, प्रतिक्रमण एवं पौषध की परम्परा महावीर के काल में व्यवस्थित रूप से प्रचलित थी।
जहाँ तक स्तुति, स्तवन एवं वन्दन सम्बन्धी अनुष्ठानों का प्रश्न है हमें ये कृत्य सूत्रकृतांगसूत्र में मिलते हैं। इस सूत्र में महावीर की जो स्तुति दृष्टिगत होती है, वह सम्भवतः जैन परम्परा में तीर्थंकरों के स्तवन का प्राचीनतम रूप है। उसके बाद कल्पसूत्र, भगवतीसूत्र एवं राजप्रश्नीय में वीरासन से शक्रस्तव ( णमुत्थुणं) का पाठ करने का उल्लेख प्राप्त होता है। दिगम्बर परम्परा में आज वंदन के अवसर पर जो 'नमोऽस्तु' कहने की परम्परा है वह इसी 'नमोत्थुणं' का ही संस्कृत रूप प्रतीत होता है। चतुर्विंशतिस्तव का एक रूप आवश्यकसूत्र में उपलब्ध है। इसे 'लोगस्ससूत्र' का पाठ भी कहते हैं। यह पाठ कुछ परिवर्तन के साथ दिगम्बर परम्परा के तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में भी उपलब्ध है। गुरुवंदन के अवसर पर प्राचीनकाल से प्रचलित है क्योंकि यह पाठ आवश्यकसूत्र जैसे प्राचीन आगम में मिलता है। अनुमानतः वंदनविधि के आधार पर ही चैत्यवंदन विधि का विकास हुआ और परवर्ती काल में चैत्यवंदन विधि को लेकर अनेक स्वतंत्र ग्रन्थ भी रचे गये हैं। प्रासंगिक स्तवन एवं वंदन की प्रक्रिया का विकसित रूप जिनपूजा में उपलब्ध होता है, जो कि जैन अनुष्ठान का महत्वपूर्ण एवं अपेक्षाकृत प्राचीन अंग है।
जहाँ तक जिनपूजा विधि सम्बन्धी अनुष्ठानों का प्रश्न है, हमें आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, भगवती आदि प्राचीन आगमों में जिनपूजा विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। अपेक्षाकृत परवर्ती आगमों स्थानांग आदि में जिनप्रतिमा एवं जिनमंदिर के उल्लेख तो हैं, किन्तु उनमें भी पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। इसका प्राथमिक रूप राजप्रश्नीयसूत्र एवं ज्ञाताधर्मकथासूत्र में प्राप्त होता है। राजप्रश्नीय में सूर्याभदेव और ज्ञाताधर्मकथा में द्रोपदी के द्वारा जिनप्रतिमाओं के पूजन करने के स्पष्ट उल्लेख हैं। यद्यपि राजप्रश्नीय के वे अंश जिसमें सूर्याभदेव के द्वारा जिनप्रतिमा - पूजन एवं जिनप्रतिमा के समक्ष नृत्य, नाटक, गान आदि करने के जो वर्णन हैं वे ज्ञाताधर्मकथा से परवर्ती है। फिर भी यह
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/13
मानना होगा कि जिन-पूजा-विधि का इससे विकसित एवं प्राचीन उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा के आगम साहित्य में अन्यत्र नहीं है। इसी प्रकार जहाँ तक उपधानविधि का प्रश्न है वहां इसका प्रारम्भिक स्वरूप आचारांगसूत्र में और विकसित स्वरूप महानिशीथसूत्र में प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त प्राचीन एवं अर्वाचीन अन्य अनेक प्रकार के जो विधि-विधान हमें दृष्टिगत होते हैं जैसे- पदस्थापनादि की विधि, साधुओं के योग्य चातुर्मासिक कृत्य विधान, संस्तारक आदि लाने की विधि, पुनः लौटाने की विधि, उपधि आदि ग्रहण करने सम्बन्धी विधि आदि का सर्वप्रथम सांकेतिक उल्लेख बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र में मिलता है। इन सूत्रों में कई प्रकार के विधि-विधानों का सामान्य विवरण दिया गया है तो कुछ विधि-विधानों का विस्तृत प्रतिपादन भी उपलब्ध है।
वस्तुतः आगमसाहित्य में छेदसूत्र विधि-विधानों की दृष्टि से आधार रूप हैं। जहाँ तक अनशनविधि, समाधिमरणग्रहणविधि, सागारीसंथारा आदि की विधियों का प्रश्न है तो वह हमें भक्तपरिज्ञा, मरणसमाधि, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारकप्रकीर्णक आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होती है इनमें इन विधियों का प्रारम्भिक एवं सुव्यवस्थित स्वरूप देखने को मिलता है। जहाँ तक प्रायश्चित विधि, आलोचना विधि की बात है तो इनका सूक्ष्म रूप बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र में तो प्राप्त होता ही है किन्तु इनका विकसित स्वरूप जीतकल्पसूत्र, निशीथसूत्र, पंचकल्पभाष्य आदि प्राचीन आगमसूत्रों में भी दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त जैन विधि-विधानों की उद्गम एवं विकास की दृष्टि से विचार किया जाये तो दशवैकालिकसूत्र प्रश्नव्याकरणसूत्र, पिंडनियुक्तिसूत्र आदि में जैन मुनियों की आहार विधि का सुन्दर वर्णन परिलक्षित होता है। उपासकदशास्त्र में जैन गृहस्थ के लिए बारह व्रत ग्रहण करने की विधि का प्रारम्भिक रूप उपलब्ध होता है।
इससे आगे बढ़ते हैं तो आवश्यकनियुक्ति आदि नियुक्ति साहित्य के ग्रन्थों, विशेषावश्यकभाष्य आदि भाष्य सम्बन्धी ग्रन्थों एवं निशीथचूर्णि आदि चूर्णिपरक ग्रन्थों में विधि-विधानों का विकसित एवं विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। इस तरह हम पाते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा मूलक साहित्य में कहीं सूक्ष्य तो कहीं विस्तृत स्परूप में अधिकांश विधि-विधान उपलब्ध हो जाते हैं।
___ यदि दिगम्बर परम्परा के साहित्य का आलोडन किया जाय तो जैन अनुष्ठानों का उल्लेख सर्वप्रथम हमें कुन्दकुन्द रचित 'दसभक्तियों' में एवं मूलाचार के षड़ावश्यक अध्ययन में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में संस्कृत भाषा में रचित 'बारह-भक्तियाँ' भी मिलती है। इन सब भक्तियों में मुख्यतः पंचपरमेष्ठि-तीर्थकर, सिद्ध, आचार्य, मुनि एवं श्रुत आदि की स्तुतियाँ हैं। श्वेताम्बर परम्परा में जिस
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प्रकार णमोत्थुणं (शक्रस्तव) लोगस्स (चतुर्विंशतिस्तव), चैत्यवंदनसूत्र आदि उपलब्ध हैं इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में ये भक्तियाँ उपलब्ध हैं। इनके आधार पर ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में जिन प्रतिमाओं के सम्मुख केवल स्तवन आदि करने की परम्परा रही होगी। भावपूजा विधि के रूप में स्तवन की यह परम्परा जो कि जैन अनुष्ठान विधि का सरलतम एवं प्राचीन रूप है वह आज भी निर्विवाद रूप से चला आ रहा है। वस्तुतः श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में मुनियों के लिए केवल भावपूजा अर्थात् स्तवन का ही विधान किया गया है। राजप्रश्नीयसूत्र के अन्तर्गत द्रव्यपूजा का विधान तो मात्र गृहस्थों के लिए ही है। द्रव्यपूजा के सम्बन्ध में जो वर्णन मिलता है वह पूजा-विधि आज भी श्वेताम्बर परम्परा में उसी रूप में प्रचलित है। उसमें प्रतिमा के प्रमार्जन, स्नान, अंगोंछन, गंधविलेपन, वस्त्र आदि अर्पण के स्पष्ट उल्लेख हैं। ऐतिहासिक अध्ययन से यह भी सुज्ञात होता है कि राजप्रश्नीय में उल्लिखित पूजाविधि भी जैन परम्परा में एकदम विकसित नहीं हुई। सम्भवतः स्तवन से चैत्यवन्दन और चैत्यवन्दन से पुष्प आदि द्रव्य अर्चा का प्रारम्भ हुआ है। फिर क्रमशः पूजा की सामग्री में वृद्धि होती गई और अष्टद्रव्यों से पूजा होने लगी। डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में- 'पूजन सामग्री के विकास की एक सुनिश्चित परम्परा रही है। आरम्भ में पूजन विधि केवल पुष्पों द्वारा सम्पन्न की जाती थी, फिर क्रमशः धूप, चंदन और नैवेद्य आदि द्रव्यों के द्वारा पूजा करने की अवधारणा का विकास हुआ।"
दिगम्बर परम्परा के आचार्य कन्दकन्द ने रयणसार (६०) में दान और पूजा को गृहस्थ का मुख्य कर्त्तव्य माना है इससे सिद्ध होता है कि इस परम्परा में भी पूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों को गृहस्थ के कर्तव्य के रूप में प्रधानता मिली है। परिणामतः आज गृहस्थों के लिए अहिंसादि अणुव्रतों का पालन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है, जितना पूजा आदि के विधि-विधानों को सम्पन्न करना। इतना ही नहीं दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिए प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर निम्न षट्दैनिक कृत्यों की कल्पना की गयी हैं- जिनपूजा, गुरूसेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान।।
इस समग्र चर्चा से है यह निःसंदेह स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा में जो भी विधि-विधान प्रचलित है उनके मूल उद्गम स्रोत प्राचीन आगम ग्रन्थ ही रहे हैं तथापि उन विधि-विधानों का विकास आगमिकव्याख्या साहित्य - नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका आदि के काल से ही अधिक हुआ है। उसके बाद तत्सम्बन्धी जो अनेक ग्रन्थ लिखे गये उनमें उन विधि-विधानों का और भी विकसित रूप दृष्टिगत होता है।
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उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह भी ज्ञात हो जाता है कि जैन परम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षड़ावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षड़ावश्यकों में प्रतिक्रमण, वन्दन, कायोत्सर्ग, तथा स्तवन या स्तुति का स्थान भी था। उसी से आगे चलकर भावपूजा और द्रव्य पूजा की कल्पना सामने आई। उसमें भी द्रव्य पूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर, और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिन पूजा सम्बन्धी जो जटिल विधि-विधानों का विस्तार हुआ, वह सभी ब्राह्यण परम्परा का प्रभाव प्रतीत होता है। फिर आगे चलकर जिन मंदिर के निर्माण एवं जिन बिंबों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। इस सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन करते हैं तो यह भी अवगत होता है कि जैन धर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक कर्मकाण्डों का प्रवेश सम्भवतः ईसा की छठी-सातवीं शती तक हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में आचार्य हरिभद्र को इनमें से अनेक कर्मकाण्डों का मुनियों के लिए निषेध करना पड़ा। ज्ञातव्य है कि आ. हरिभद्र ने सम्बोधप्रकरण के कुगुरु अधिकार में चैत्यों में निवास करना, जिन प्रतिमा की द्रव्यपूजा करना, जिनप्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि करना जैन मुनि के लिए निषेध किया है किन्तु पंचाशक प्रकरण में उन्होंने इन द्रव्य पूजा विधानों को गृहस्थ के लिए करणीय माना है। इस तरह प्रतिफलित होता है कि जैन धर्म के आगम साहित्य एवं आगमिक व्याख्यापरक साहित्य में विधि-विधानों के मूल स्रोत न्यूनाधिक रूप में ही सही अवश्यमेव सन्निविष्ट है तथा आचारांग, दशवैकालिक उत्तराध्ययन, व्यवहार, बृहत्कल्प, आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति ओघनियुक्ति आदि मुनि आचार सम्बन्धी विधि-विधान के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं। जैन धर्म का विधि-विधान परक साहित्य
जब हम जैन विधि-विधानों को लेकर आगमेतरकालीन साहित्य पर दृष्टिपात करते हैं जैन परंपरा के दोनों ही सम्प्रदायों में अनेक ग्रन्थ रचे गये प्राप्त होते हैं। इनमें श्वेताम्बर परम्परा में आ. हरिभद्र सूरि (वीं शती) के पंचवस्तुक, श्रावकप्रज्ञप्ति, श्रावकधर्मविधिप्रकरण, पंचाशकप्रकरण प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में कहे जाते हैं। उनके पंचवस्तुक ग्रन्थ में दीक्षाविधि से लेकर संलेखना विधि तक पाँच द्वारों का संयुक्तिक एवं सहेतुक विवेचन हुआ है। यह ग्रन्थ साधुजीवन की चर्या से ही सम्बन्धित है। इसमें मुख्य रूप से पाँच प्रकार के विधान ही चर्चित है किन्तु अवान्तर रूप से देखा जाये तो अनेक विधि-विधान निर्दिष्ट किये गये हैं। यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नही होगा कि आगम ग्रन्थों एवं व्याख्यापरक साहित्य ग्रन्थों के पश्चात् विधि-विधानों का विस्तृत, व्यवस्थित एवं प्रामाणिक उल्लेख सर्वप्रथम
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आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों में ही देखने को मिलता है उनमें भी पंचवस्तुक ग्रन्थ का स्थान प्राथमिक है। आचार्य हरिभद्र का ही पंचाशक प्रकरण जिसमें श्रावकधर्म-पंचाशक, दीक्षा-पंचाशक, वंदन-पंचाशक, पूजा-पंचाशक (इसमें विस्तार से जिन पूजा का उल्लेख है), प्रत्याख्यान-पंचाशक, स्तवन-पंचाशक, जिनभवन-निर्माण-पंचाशक, जिनबिंब-प्रतिष्ठा-पंचाशक, जिनयात्रा-विधान-पंचाशक, श्रमणोपासकप्रतिमा-पंचाशक, साधुधर्म-पंचाशक, साधूसामाचारी-पंचाशक, पिण्डविशुद्धि-पंचाशक, शीलअंग-पंचाशक, आलोचना-पंचाशक, प्रायश्चित्त-पंचाशक, दसकल्प-पंचाशक, भिक्षुप्रतिमा-पंचाशक, तप-पंचाशक आदि हैं। प्रत्येक पंचाशक ५०-५० गाथाओं में अपने-अपने विषय का विवरण प्रस्तुत करता है। इस पर चन्द्रकुल के नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि का विवरण भी उपलब्ध है।
इसके पश्चात् उमास्वाति के नाम से लगभग ११वीं शती का 'पूजाविधिप्रकरण' मिलता है। इसकी प्रामाणिकता के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। उसके बाद पादलिप्तसूरि (११ वीं शती) की निर्वाणकालिका अपरनाम 'प्रतिष्ठाविधान' प्राप्त होता है। जैन धार्मिक क्रियाओं के सम्बन्ध में एक दूसरा प्रमुख ग्रन्थ 'अनुष्ठानविधि' है। यह धनेश्वरसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि (१३ वीं शती) की रचना है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है तथा इसमें सम्यकत्वआरोपणविधि, व्रतआरोपणविधि, पाण्मासिकसामायिकविधि, श्रावकप्रतिमा- वहनविधि, उपधानविधि, मालारोपणविधि, तपविधि, आराधनाविधि, प्रव्रज्याविधि, उपस्थापनाविधि, केशलोचविधि, पंचप्रतिक्रमणविधि, आचार्य, उपाध्याय एवं महत्तरा पद-प्रदानविधि, पौषधविधि, ध्वजारोपणविधि, कलशारोपणविधि आदि बीस प्रकार के विधि-विधान कहे गये हैं। प्रस्तुत कृति का अपरनाम सुबोधासामाचारी है। इस कृति के पश्चात तिलकाचार्य (१३ वीं शती) की 'समाचारी' नामक कृति भी लगभग इन्हीं विषयों का विवेचन करती है। इसमें कुल तैंतीस प्रकार के विधि-विधान निर्दिष्ट किये गये हैं।
इसके पश्चात् जिनप्रभसूरि (वि.सं.१३६३) की 'विधिमार्गप्रपा' भी उक्त विषयों का ही विवेचन करती है। लेकिन विधि-विधानों के बढ़ते हुए विकास क्रम की दृष्टि से देखें तो इसमें ४१ प्रकार के विधि-विधान निरूपित है और वे भी सुव्यवस्थित क्रम से दिये गये हैं। इन ४१ प्रकारों (द्वारों/प्रकरणों) में से प्रथम के १२ द्वारों का विषय मुख्य करके श्रावक जीवन के साथ सम्बन्ध रखने वाली क्रिया-विधियों से है, बारह से लेकर २६ वें द्वारा तक में विहित क्रिया विधियाँ प्रायः करके साधु जीवन के साथ सम्बन्ध रखती हैं और आगे के ३० वें द्वार से लेकर, अन्त के ४१ वें द्वार तक में वर्णित क्रिया विधान साधु और श्रावक दोनों के जीवन के साथ सम्बन्ध रखने
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वाली कर्त्तव्य रूप विधियों के संग्राहक हैं। जिनप्रभसूरि का 'सरिमंत्रबहतकल्पविवरण' भी है जिसमें सरिपद की साधना विधि का विस्तृत वर्णन है। इसी क्रम में आगे देखें तो विधिप्रपागत विषयों की ही समरूपता को लिये हुए वर्धमानसूरिकृत (१६वीं शती) 'आचारदिनकर' समुपलब्ध होता हैं। इसमें भी ४० प्रकार के विधि-विधान उल्लिखित हैं। विषयानुक्रम की दृष्टि से कहें तो विधिमार्गप्रपा का अनुकरण किया गया ही प्रतीत होता है चूंकि इसमें भी गृहस्थ सम्बन्धी, साधु सम्बन्धी एवं गृहस्थ-साधु दोनों से सम्बन्धित विधि-विधान विधिप्रपा के क्रम से वर्णित किये गये हैं। विषयवस्तु की अपेक्षा से देखें तो आचारदिनकर में कुछ विधान जैसे सोलह संस्कार विधान, क्षुल्लकत्वदीक्षाविधान, शांतिककर्म, पौष्टिककर्म आदि विधान विधिमार्गप्रपा से भिन्न हैं तथा इसमें विधि-विधानों का विस्तार भी अपेक्षाकृत अधिक है।
इसी तरह जैन कर्मकाण्डों (विधि-विधानों) का विवेचन करने वाले अन्य ग्रन्थों में जिनवल्लभगणि (१०-११ वीं शती) का ‘पिंडविशुद्धिप्रकरण'-जिसमें मुख्यतया जैन साधुओं की आहारविधि प्रतिपादित है, हरिभूषणगणि (वि.सं.१४८०) का 'श्राद्धविधिविनिश्चय', भावदेवसूरि, (१५वीं शती) की ‘यतिसामाचारी', तरूणप्रभाचार्य (१५ वीं शती) की 'षड़ावश्यकबालावबोधवृत्ति', रत्नशेखरसूरि (१६वीं शती) का 'श्राद्धविधिप्रकरण', जयचन्द्रसूरि (१६वीं शती) का 'प्रतिक्रमणहेतुगर्भः', देवेन्द्रसूरि (१५ वीं शती) के 'श्राद्धजीतकल्प', तथा 'श्राद्धदिनकृत्य', देवसूरि (१२-१३ वीं शती) की ‘यतिदिनचर्या', प्राचीनआचार्य विरचित 'सामाचारीप्रकरण' एवं 'श्राद्धदिनकृत्य' सिंहतिलकसूरि (१४वीं शती) का 'मन्त्रराजरहस्यम्, महोपाध्याय समयसुन्दर (१७वीं शती) का 'समाचारीशतक', नेमिचन्द्रसूरि (१६वीं शती) का 'प्रवचनसारोद्वार', क्षमाकल्याणोपाध्याय (१६वीं शती) का 'साधुविधिप्रकाश', उपाध्याय मानविजय का 'धर्मसंग्रह', जीवदेवसूरि रचित (११-१२ वीं शती) जिनस्नात्रविधि, वादिवेताल शान्तिसूरिकृत (११-१२ वीं शती) अर्हदभिषेकविधि आदि भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनके अतिरिक्त प्रतिष्ठाकल्प के नाम से अनेक लेखकों की कृतियाँ हैं; जैसे भद्रबाहुस्वामी का 'प्रतिष्ठाकल्प', श्यामाचार्य का 'प्रतिष्ठाकल्प', हरिभद्रसूरि का 'प्रतिष्ठाकल्प', हेमचन्द्रसूरि रचित 'प्रतिष्ठाकल्प', गुणरत्नाकरसूरि का 'प्रतिष्ठाकल्प' इन सभी प्रतिष्ठाकल्पों का उल्लेख सकलचन्द्रगणिकृत 'प्रतिष्ठाकल्प' के अन्त में है। इन सभी में सकलचन्द्रगणि (१७वीं शती) का प्रतिष्ठाकल्प अपेक्षाकृत अधिक विस्तार वाला प्रतीत होता है। इसके साथ ही मंदिरनिर्माणविधि, भूमिखननविधि आदि से सम्बन्धित ठक्कर फेरु (१४वीं शती) का वास्तुसारप्रकरण, कल्याणविजय- गणि (१७वीं शती) की कल्याणकलिका, रत्नशेखरसूरि (१५वीं शती) की जलयात्रादि विधि आदि। इनके अतिरिक्त जैन विधि-विधानों के और भी अनेक ग्रन्थ रचित एवं
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18/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
संग्रहीत रूप में उपलब्ध होते हैं जो विषयवस्तु एवं प्रायोगिक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं जैसे - आवश्यकविधिसंग्रह, सप्तोपधानविधि, श्री सूरिमंत्रपटालेखन विधि, उपधानविधि, पौषधविधि, तपरत्नाकर ( चाँदमल सीपानी ) तपोरत्नमहोदधि ( कल्याणसूरि जी), जैनतपावलि (यशोविजयजी), तपसुधानिधि (श्री हीरालाल दूगड़ ), तप रत्नाकर (रत्नाकरविजयजी), तपदीपक प्रकाश ( महानंद विजयजी), तपोविधि संग्रह, तपाराधना (जयानंद विजयजी), तपसौरभ, शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय (भा. १-३) ( कल्याणसागरसूरि जी), प्रतिक्रमणविधिसंग्रह (कल्याणविजयगणि), विधिसंग्रह (चमरेन्द्रसागर जी), बृहद्योगविधि ( देवेन्द्रसागरसूरि जी), सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चय (मुनि जम्बुविजय जी ), सचित्रपौषधविधि (कान्तिसागरसूरि जी ) इत्यादि ।
दिगम्बर परम्परा में धार्मिक क्रियाकाण्डों को लेकर वट्टकेर (छठी शती) का 'मूलाचार', शिवार्य (छठी शती) की 'भगवती आराधना', वसुनन्दि (वि. सं. ११५० ) का 'प्रतिष्ठासारसंग्रह आशाधर ( १३वीं शती) के 'अणगारधर्मामृत', 'सागारधर्मामृत' ‘जिनयज्ञकल्प' (वि.सं. १२८५) एवं 'महाभिषेककल्प' आदि, सुमतिसागर का ‘दंसलाक्षणिकव्रतोद्यापन', सिंहनन्दी का 'व्रततिथिनिर्णय', जयसागर का ‘रविव्रतोद्यापन’, ब्रह्मजिनदास (१५वीं शती) का 'जम्बूद्वीपपूजन', 'अनन्तव्रत - पूजन', ‘मेघमालोद्यापनपूजन’, विश्वसेन का ' षण्नवतिक्षेत्रपाल पूजन, ( १६वीं शती), विद्याभूषण ( १७वीं शती) के 'ऋषिमण्डलपूजन', 'बृहत्कलिकुण्डपूजन' और सिद्धचक्रपूजन' बुधवीरू ( १६वीं शती) का 'धर्मचक्रपूजन' एवं पंचपरमेष्ठी पूजन' षोडशकारण पूजन' एवं 'गणधरवलयपूजन', श्री भूषण का ' षोडशसागार व्रतोद्यापन', नागनन्दि का ‘प्रतिष्ठाकल्प' आ. मल्लिषेण ( १२वीं शती) का 'भैरव पद्मावतीकल्प, ज्वालामालिनीकल्प, सरस्वतीकल्प, इन्द्रनन्दि का विद्यानुवाद, मल्लिसेन ( १२वीं शती) का विद्यानुशासन आदि प्रमुख कहे जा सकते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से ध्वनित होता है कि जैन परम्परा से सम्बन्धित विधि-विधान विषयक अनेक ग्रन्थ रचे गए हैं। साथ ही जैन अवधारणा में कौन-कौन से विधि-विधान किस-किस स्वरूप में परम्पराओं से आकर जुड़े ? उनमें किस क्रम से परिवर्तन आए ? परिवर्तन के मुख्य आधार क्या रहे ? प्राथमिक स्रोत के रूप में उनका स्वरूप क्या था? इत्यादि शोधपरक बिन्दू भी उपलब्ध साहित्य से सहजतया स्पष्ट हो जाते हैं।
जैन परम्परा के विविध विधि-विधान
जैन परम्परा के अपने मौलिक विधि-विधानों का इतिहास भी जानने योग्य है जैन धर्म में गृहस्थ एवं साधु दोनों से सम्बन्धित कई विधि-विधान मूलरूप से देखने को मिलते हैं उनकी संक्षिप्त चर्चा पूर्व में कर चुके हैं। यहाँ आराधकों की
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 19
श्रेणियों की अपेक्षा उनका नामनिर्देश इस प्रकार है -
जैन परम्परा में प्रचलित विविध अनुष्ठानों में सामायिक विधि, प्रतिक्रमण विधि, गुरूवन्दन-विधि, चैत्यवन्दन - विधि, प्रत्याख्यानग्रहण - विधि, मुनि को आहार प्रदान की विधि, जिनपूजा-विधि आदि गृहस्थ के नित्यकर्म सम्बन्धी अनुष्ठान माने गये हैं। जैन परम्परा में श्वेताम्बर स्थानकवासी एवं तेरापंथी तथा दिगम्बर तारणपंथ को छोड़कर शेष परम्पराएँ जिनप्रतिमा के पूजन को श्रावक का एक आवश्यक कर्त्तव्य मानती हैं। श्वेताम्बर परम्परा में पूजा सम्बन्धी जो विविध अनुष्ठान प्रचलित हैं उनमें अष्टप्रकारीपूजा, स्नात्रपूजा या जन्मकल्याणकपूजा, पंचकल्याणक - पूजा, लघुशान्तिस्नात्रपूजा, बृहदशान्तिस्नात्रपूजा, नमिऊणपूजा, अर्हत्पूजा, सिद्ध- चक्रपूजा, नवपदपूजा, सत्रहभेदीपूजा, अष्टकर्मनिवारणपूजा, अन्तरायकर्मपूजा, आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त और भी अनेक पूजाएँ रची गई हैं जिनका उल्लेख शोधग्रन्थ में करेंगे। वर्तमान में भक्तामर - महापूजन, जयतिहुअण - महापूजन, पद्मावतीपार्श्वनाथमहापूजन, नवग्रह-पूजन, उवसग्गहरंरं- महापूजन, सरस्वतीदेवी - महापूजन आदि विशेष प्रचलित हैं।
दिगम्बर परम्परा में प्रचलित पूजा अनुष्ठानों में अभिषेकपूजा, नित्यपूजा, देवशास्त्रगुरूपूजा, जिनचैत्यपूजा, सिद्धपूजा आदि के विधान विशेष रूप से प्रचलित हैं। इन सामान्य पूजाओं के अतिरिक्त पर्व दिन सम्बन्धी विशिष्ट पूजाओं का भी उल्लेख मिलता है। पर्व पूजाओं में षोडशकारणपूजा, पंचमेरूपूजा, दशलक्षण-पूजा, रत्नत्रयपूजा आदि का उल्लेख किया जा सकता है।
यहाँ ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा की पूजा पद्धति में बीसपंथ और तेरापंथ में कुछ मतभेद है। जहाँ बीसपंथी परम्परा पुष्प आदि सचित्त द्रव्यों से जिनपूजा करती है, वहाँ तेरापंथी परम्परा पुष्प के स्थान पर रंगीन अक्षतों का उपयोग करते हैं। इसी प्रकार जहाँ बीसपंथ में बैठकर वहीं तेरापंथ में खड़े होकर पूजा करने की परम्परा है। यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के ग्रन्थों में अष्टद्रव्यों से पूजा के उल्लेख मिलते हैं। इस प्रकार गृहस्थ के नित्यकर्म सम्बन्धी ये विधि-विधान जानने चाहिए।
गृहस्थ के नैमित्तिक कर्म सम्बन्धी अनुष्ठानों का विवरण भी उपलब्ध होता है उनमें सम्यकत्वव्रतारोपण - विधि, बारहव्रतारोपण-विधि, उपधान-विधि, पौषध-विधि, उपासकप्रतिमाग्रहण-विधि, नन्दिरचना - विधि आदि विशिष्ट हैं। दिगम्बर परम्परा में उक्त विधि-विधान वर्तमान में प्रायः प्रचलित नहीं है।
साधु के नित्यकर्म सम्बन्धी जो विधि-विधान कहे गये हैं उनमें से प्रतिक्रमण विधि, सज्झाय विधि, उपयोग विधि, पौरुषी पढ़ने की विधि,
वस्त्र - पात्र
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20 / जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
आदि उपकरणों की प्रतिलेखन विधि, गोचरीगमन विधि, आहारग्रहण - विधि, गोचरीआलोचना विधि, संथारापौरुषी पढ़ने की विधि, चौबीसमांडला विधि आदि प्रमुख हैं। दिगम्बर परम्परा में इनमें से प्रतिक्रमण, आहार ग्रहण आदि विधियाँ ही प्रचलित हैं। उनके यहाँ आवश्यक क्रिया विधानों में भक्तिपाठ करने का प्रचलन विशेष है।
साधु जीवन सम्बन्धी नैमित्तिक क्रियाकलापों में दीक्षा-विधि, लूंचन-विधि, उपस्थापना-विधि, योगवहन ( शास्त्र अध्ययन ) विधि, आचार्य - उपाध्याय - वाचनाचार्यमहत्तरा प्रवर्त्तिनी आदि पदस्थापना - विधि, मृतसाधु के देह-परिष्ठापन की विधि आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कुछ विधि-विधान उभयकोटि के हैं जो गृहस्थ और साधु दोनों के द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं उनमें तप - विधि (दो सौ से अधिक तप निरूपित हैं), अनशन-विधि, आलोचना-विधि, प्रायश्चित - विधि, तीर्थयात्रा - विधि, मुद्रा-विधि, प्रतिष्ठा - विधि आदि प्रमुख हैं।
इन विधानों के अतिरिक्त जैन श्वेताम्बर परम्परा में पर्यूषण पर्व, नवपद ओली - पर्व, चैत्री पूर्णिमा - पर्व, कार्तिकपूर्णिमा पर्व, चातुर्मासिक-पर्व आदि सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले अनुष्ठान हैं। उपधान नामक तप अनुष्ठान भी श्वेताम्बर परम्परा में बहुप्रचलित हैं और वह भी समूह रूप में ही सम्पन्न किया जाता है।
दिगम्बर परम्परा में गृहस्थ एवं साधु दोनों के द्वारा सम्पन्न किये जाने प्रमुख अनुष्ठान या व्रत विधान निम्न है- दशलक्षण व्रत, अष्टामिका-व्रत, द्वारावलोकन-व्रत, जिनमुखावलोकन-व्रत, जिनपूजा - व्रत, गुरुभक्ति एवं शास्त्रभक्तिव्रत, तपांजलि-व्रत, मुक्तावलि - व्रत, कनकावलि - व्रत, एकावलि-व्रत, द्विकावलि - व्रत, रत्नावलि - व्रत, मुकुटसप्तमी - व्रत, सिंहनिष्क्रीडित - व्रत, निर्दोषसप्तमी - व्रत, अनन्त - व्रत, षोडशकारण- व्रत, ज्ञानपच्चीसी - व्रत, चन्दनषष्ठी - व्रत, रोहिणी व्रत, अक्षयनिधि - व्रत, पंचपरमेष्ठी व्रत, सर्वार्थसिद्धी - व्रत, धर्मचक्र - व्रत, नवनिधि-व्रत, कर्मचूर - व्रत, सुखसम्पत्ति-व्रत, इष्टसिद्धिकारकनिःशल्य अष्टमी व्रत आदि। इनके अतिरिक्त दिगम्बर में पंचकल्याणक बिम्ब-प्रतिष्ठा, वेदी - प्रतिष्ठा, सिद्धचक्र-विधान, इन्द्रध्वज - विधान, समवसरण - विधान, ढाईद्वीप - विधान, त्रिलोक-विधान, बृहद्चारित्रशुद्धि-विधान, महामस्तकाभिषेक आदि ऐसे प्रमुख अनुष्ठान हैं जो कि बृहद् स्तर पर मनाये जाते हैं। इनके अलावा पद्मावती आदि देवियों एवं विभिन्न यक्षों, क्षेत्रपालों- भैरवों आदि के भी पूजा विधान जैन परम्परा में प्रचलित हैं।
परम्परा
निष्कर्षतः श्रमण संस्कृति में भी विधि-विधानों का बाहुल्य है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि जैनधर्म अध्यात्मप्रधान और उपासनामूलक धर्म होते हुए भी विधि-विधानों से अछूता नहीं रहा है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/21
भारतीय संस्कृति की विभिन्न परम्पराओं में विधि-विधान
____ भारतीय दर्शन की प्रायः सभी परम्पराओं में विधि-विधानों का उल्लेख मिलता है। यह संभव है कि किसी परम्परा में अपने मौलिक विधि-विधान कम हों
और किसी परम्परा में अधिक हों, किन्तु सभी के अपने-अपने विधि-विधान हैं। जैसे, जंगल में रहने वाले आदिवासियों की अपनी सामाजिक परम्परा होती है, उनके भी धार्मिक रीति-रिवाज होते हैं। यहूदी, मुस्लिम, खिस्ती, बौद्ध, सिक्ख
आदि के अपने-अपने विधि-विधान है। यहूदियों में सुन्नत, करावकी, कोशर (धार्मिक रीति के अनुसार पवित्र माने जाने वाला बोराक) लेना, मस्तक पर टोपी पहनना, शक्रवार को सूर्यास्त के बाद किसी प्रकार का कार्य नहीं करना, हिब्रू भाषा बोलना, सीनेगोग में जाकर प्रार्थना करना, सन्ध्या काल के समय स्नानपूर्वक गृहांगन में दीपक प्रगटाना आदि कई धार्मिक नियम एवं विधान है। इस्लाम धर्म में भी सुन्नत का रिवाज है। स्त्रियों को काला बुरखा पहनना, पाँच समय नमाज पढ़ना, टोपी पहनना, हज की यात्रा करना, काबा की प्रदक्षिणा करना आदि धार्मिक नियमों एवं विधियों का पालन करना आवश्यक माना गया है। खिस्तियों में बालक को खिस्ती धर्म की दीक्षा दी जाती है। वे लोग चर्च में प्रार्थना करते हैं वहाँ ब्रेड एवं शराब का प्रसाद दिया जाता है। इसी प्रकार बपस्तिमा आदि उनके धार्मिक विधि-विधान है। पारसी धर्म में बालक को नौजोत अर्थात् पारसी धर्म की दीक्षा देते हैं और दीक्षा के समय चद्दर देते हैं।
बौद्ध धर्म में सामनेर दीक्षा (जैन परम्परा की छह मासिक सामायिक के समान प्रतिज्ञा ग्रहण), उपसंपदा (बड़ी दीक्षा के समान प्रतिज्ञा स्वीकार), उपोसथ (पौषध), प्रवारणा (पाक्षिक प्रतिक्रमण की भाँति आलोचना की क्रिया) एवं प्रायश्चित्त आदि के विधि-विधान प्रचलित है। इनमें सामनेर दीक्षा ग्रहण करने वाला साधक दीक्षा की अवधि पूर्ण होने के बाद चाहे तो पुनः गृहस्थ जीवन में जा सकता है। हिन्दु धर्म में षोडश संस्कारों की परम्परा है। इसमें ब्राह्मण आदि उच्च वर्गों में जनेऊ धारण करना, विशेष अवसर पर यज्ञ, हवन करना-करवाना, वेदमन्त्रों का पाठ करना, सन्ध्या करना, नवग्रह की शान्ति हेतु शान्तिकर्म करना, पुष्टिकर्म करना, वृद्धावस्था में वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण करना इत्यादि कई प्रकार के विधि-विधान है। इनके अतिरिक्त मृतकादि के अवसर पर भिक्षुओं को दान देना, मन्दिर में मोमबत्ती या दीपक जलाना आदि विधान भी किये जाते हैं।
इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से फलित होता है कि सभी परम्पराओं में किसी न किसी रूप में अपने-अपने विधि-विधान और धार्मिक रीति-रिवाज होते ही हैं। वस्तुतः किसी धर्म की उपासना पद्धति का मूल अंग विधि-विधान ही होते हैं।
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22/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
विधि विधान की आवश्यकता क्यों ?
जैन परंपरा में विधि-विधान या अनुष्ठान का अर्थ क्रिया, आचरण या सम्यक् प्रवृत्ति से है। यह उल्लेख्य हैं कि मात्र क्रिया का कोई महत्त्व नहीं रहता। ज्ञान पूर्वक की गई प्रवृत्ति ही फलदायी होती है। शास्त्रवचन भी है - "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" अर्थात ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मात्र ज्ञान या मात्र क्रिया से साधना का विकास नहीं होता है साधना के शिखर को छूने के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों का होना अनिवार्य है।
जगत की प्रत्येक वस्तु ज्ञान एवं क्रिया पूर्वक ही संचालित होती है। जैसे शरीर दर्शाता है आँख से देखों और पॉव से चलो तभी इष्ट स्थान पर पहुँच सकते हो। यहाँ आँख ज्ञान रूप है, और पाँव क्रिया रूप है। शास्त्रों में कहा गया हैं, कि ज्ञान और क्रिया एक ही रथ के दो पहियें हैं इनमें से एक भी ढ़ीला पड़ जाये तो आत्मा रूपी रथ मुक्ति के मार्ग पर सम्यक् प्रकार से चल नहीं सकता है।
क्रिया रहित केवल ज्ञान निष्फल है जैसे - मार्ग को जानने वाला पथिक गति क्रिया किये बिना वांछित स्थल पर नहीं पहुंच सकता है वैसे ही शास्त्रों को जानने वाला साधक यदि सामायिक, प्रतिक्रमण पूजन आदि क्रियाएँ (आचरणा) नहीं करता है तो मोक्ष मार्ग को उपलब्ध नहीं कर सकता है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि'सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणिमोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र (आचरण-क्रिया) ये तीनों मिलकर ही मोक्षमार्ग के साधन बनते हैं। अकेला सम्यग्ज्ञान या अकेला सम्यग्चारित्र मोक्ष का साधन नहीं बन सकता है। कहा भी गया है -
क्रिया बिना ज्ञान नहीं कबहु क्रिया ज्ञान बिनुं नाहीं क्रिया ज्ञान दोउ मिलत रहत है
ज्यों जलरस जलमांहि __ आवश्यकनियुक्ति' यह भी उल्लेख हैं कि यदि आचरण विहीन अनेक शास्त्रों का ज्ञाता भी संसार समुद्र से पार नहीं हो सकता है। जिस प्रकार निपुण चालक भी वायु की गति के अभाव में जहाज को इच्छित किनारे पर नहीं पहुंचा सकता है उसी प्रकार ज्ञानी आत्मा भी तप संयम रूप सदाचरण के अभाव में मोक्ष प्राप्त नहीं
' आवश्यकनियुक्ति - गा. ६५-६८
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कर सकता है। भद्रबाहुस्वामी पुनः आवश्यकनियुक्ति' कहते हैं कि मात्र जानकारी होने से कभी भी कार्य सिद्धि नहीं होती है। जैसे कोई तैरना जानता हो किन्तु तैरने की क्रिया न करें तो डूब जाता है वैसे ही शास्त्रों को जानते हुए भी जो धर्म का आचरण नहीं करता है वह संसार सागर में डूब जाता है। जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता है, अकेला अंधा या अकेला पंगू इच्छित साध्य तक नहीं पहुँच सकता है उसी प्रकार मात्र ज्ञान या मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं हो सकती है। उपदेशकल्पवेली में कहा गया है कि यदि क्रिया (आचरण) नहीं है और क्रिया की रूचि भी नहीं है तो ज्ञान सही अर्थ में ज्ञान नहीं हो सकता है। यदि ज्ञान नहीं हो और आचरण मात्र हो तो वह आचरण भी सही अर्थ में सम्यक् आचरण नहीं होता है। लक्ष्य की प्राप्ति में ज्ञान और क्रिया दोनों का सहयोग होना जरुरी है। अकेली क्रिया फल नहीं देती है और अकेला ज्ञान भी कभी फल नहीं देता है जैसे-वन के बिना बसंत ऋतु का आनन्द प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
शास्त्र का यह वचन भी स्मरणीय है कि सम्यग्दर्शन के अभाव में सत्क्रिया करने वाले अभव्यजीव नवग्रैवेयक देवलोक तक चले जाते हैं, किन्तु मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। इससे सिद्ध होता है कि मुक्ति न तो मात्र ज्ञान से प्राप्त हो सकती है और न केवल सदाचरण से। किसी अपेक्षा ज्ञान स्वल्पमात्रा में हो तो भी चल सकता है परन्तु क्रिया (आचरण) यदि बराबर न हो तो व्यर्थ है। दूसरों के ज्ञान का उपयोग हम अपनी क्रियाओं में कर सकते हैं परंतु अन्य द्वारा की गई क्रिया हमारे लिए उपयोगी नहीं हो सकती है। यह तो प्रत्यक्ष सिद्ध हैं कि किसी भी प्रकार की विद्या या कला का फल तत्संबंधी ज्ञान को आचरण का रूप देने से ही प्राप्त होता है। शास्त्रों में तो यहाँ तक वर्णित है कि कदाचित् सूत्र का अर्थ न भी जानता हो, तब भी तीर्थकर प्रणीत सूत्रार्थ में श्रद्धा रखकर जो भावपूर्वक आचरण करता है उसका पापकर्म रूपी विष उतर जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ज्ञानपूर्वक किया गया आचरण यानि ज्ञानपूर्वक की गई क्रिया निश्चित रूप से मोक्षफल को प्रदान करती है। हर साधक का अंतिम लक्ष्य यही रहा है तथा लक्ष्य की सिद्धि जिनके आधार पर हो उस क्रिया की कितनी आवश्यकता हो सकती है ? यह तो अनुभवसिद्ध है। लक्ष्य की सिद्धि जिस क्रिया के अवलम्बन पर टिकी हुई हो उस क्रिया की आवश्यकता कब-कितनी हो सकती है ? यह अनुभवगम्य विषय है।
आवश्यकनियुक्ति गा. ११५४-११५६ २ वही गा. १०१-१०२
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24/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
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विधि-विधानों के प्रकार
जैन धर्म में अनेक प्रकार के विधि-विधान प्रचलित हैं। उन विधि-विधानों में विभाजन की अपेक्षा से देखें तो प्रमुखतः छह प्रकार के विधि-विधान परिलक्षित होते हैं जो निम्न हैं
संस्कार संबंधी विधि-विधान
आवश्यकक्रिया संबंधी विधि-विधान ३. शांतिक-पौष्टिक कर्म संबंधी विधि-विधान
प्रतिष्ठा संबंधी विधि-विधान और मांत्रिक साधना संबंधी विधि-विधान
योगोद्वहनादि संबंधी विधि-विधान।
१. संस्कार संबंधी विधि-विधान - मानव जन्म में जीवन को संस्कारित करने के लिए अनेक प्रकार के संस्कारों का विधान करना आर्यव्यवहार है। सोलह संस्कार के नाम प्रसिद्ध है। इन संस्कारों के विधान की प्रक्रिया आज भी ब्राह्मणादि वों में प्रचलित है। वर्धमानसरिकृत 'आचारदिनकर' नामक जैन ग्रन्थ में उक्त सोलह संस्कारों की विधियाँ सम्यक् प्रकार से उल्लिखित है। हिन्दू धर्म के अनुयायी वैश्य वर्ण में ये विधि विधान अभी भी प्रचलित हैं, किन्तु जैन कुलों में ये संस्कार विधान उत्तरोत्तर उपेक्षित होते जा रहे हैं, तथापि इनमें से कुछ संस्कार यथा मुण्डन, नामकरण कर्णवेध आदि लोक व्यवहारानुसार आज भी प्रचलित है। इनके सिवाय बारहव्रत- आरोपण, मुनि-दीक्षा, उपधान तप आदि संस्कार आज भी विधिपूर्वक सम्पन्न किये जाते हैं।
२. आवश्यकक्रिया संबंधी विधि-विधान - सामायिक, चैत्यवन्दन, देववन्दन, प्रतिक्रमण, पौषध आदि नित्य-नैमित्तिक रूप में की जाने वाली क्रियाएँ आवश्यक विधि-विधान कहलाते हैं। इससे संबंधित अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। ये सभी विधि-विधान प्रतिदिन के व्यवहार में होने से जीवंत भी हैं फिर भी इन विधि-विधानों में विशेष शुद्धि और अप्रमत्त भावों का होना आवश्यक है। इनके मूलपाठ प्राकृत भाषा में होने के कारण ये अनुष्ठान प्रायः समझपूर्वक नहीं किये जाते हैं।
३. शांतिक-पौष्टिक संबंधी विधि-विधान - विश्व में काल के दुष्प्रभाव से अनेक तरह के उपद्रव होते रहते हैं। संकटकालीन स्थितियाँ बनती रहती हैं। उन प्रसंगों में शांतिकर्म का विधान अत्यन्त राहत देता है। व्यावहारिक जीवन में हर कोई व्यक्ति चाहता है कि उसके विघ्न शान्त हो और अनुकूल पदार्थों की प्राप्ति
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हों, इन सभी में परम कारणभूत शान्तिक- पैष्टिक कर्म संबंधी विधि-विधान है। पृथक्-पृथक् धर्मों में इस प्रकार के अनेक विधि-विधान प्रचलित है। जैन धर्म में इस उद्देश्य से मुख्यतः शांतिस्नात्र - अष्टोत्तरीस्नात्र आदि प्रचलित हैं। इनके अतिरिक्त अर्हत् महापूजन आदि भी कुछ विधान किए जाते हैं। यथा प्रसंग इन विधानों का उपयोग भी होता है। प्रस्तुत विधान के संबंध में एक बात विशेष ध्यान रखने योग्य है कि इन विधि-विधानों के मूलभूत गंभीर तत्त्वों को यदि समझकर सम्पन्न करते हैं तो शीघ्र फलदायी होते हैं अन्यथा उतने फलदायी नहीं होते हैं।
४. प्रतिष्ठादि संबंधी विधि-विधान प्रतिमा की निर्माण विधि से लेकर प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा तक अनेक प्रकार के विधि-विधान किये जाते हैं। वे सभी विधान प्रतिष्ठा की विधि रूप में प्रचलित हैं। इन विधियों का उपयोग प्रत्येक मन्दिर में प्रतिष्ठा के समय होता है। इन विधानों के अंतर्गत भूमिखनन, शिलास्थापना, कुंभस्थापन, दीपकस्थापन, जवारारोपण, सकलीकरण, अधिवासना, अंजनशलाका आदि-आदि आते हैं।
५. मांत्रिक विधि-विधान इन विधि-विधानों का क्षेत्र अत्यन्त विशाल और गंभीर है। सामान्य साधना से लेकर विश्वतंत्र को स्तंभित कर सकें इन सब प्रकार की साधना इस क्षेत्र में आती है। इन विधि-विधानों की साधना में अत्यंत सावधानीपूर्वक आगे बढ़ना चाहिये। कितनी ही आवश्यक सावधानियाँ या तत्संबंधी जानकारियाँ प्राप्त किये बिना जो इस विषय में प्रवेश करते हैं वे प्रायः निष्फल होते हैं। जो साधक दिशा, काल, आसन, तप, व्रत, नियम आदि का यथायोग्य पालन करते हुए उक्त विधि-विधानों को सम्पन्न करते हैं उन्हें कार्य की सफलता के साथ-साथ सिद्धि भी प्राप्त होती है।
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६. योगोद्वहनादि विधि-विधान दीक्षा, उपस्थापना, व्रतग्रहण, कालग्रहण, पदस्थापना, आगमपठन आदि से संबंधित अनुष्ठान योगोद्वहनादि के विधि-विधान कहलाते हैं। इन अनुष्ठानों को विधिपूर्वक करने से आराधना वेगवती बनती है और उसका सुन्दर फल प्राप्त होता है इन सभी विधि-विधानों को व्यवस्थित रूप से सम्पन्न करने हेतु अनेक ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए हैं। निष्कर्षतः इन विधि- विधानों में शांतिस्नात्र, अष्टोत्तरीस्नात्र स्नात्रपूजा आदि कुछ विधि-विधान ऐसे हैं जो श्री संघ के अभ्युदय के मुख्य आधार रूप होते हैं। जिनबिंबप्रतिष्ठा, कलशप्रतिष्ठा, ध्वजप्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, रथयात्रा, शोभायात्रा आदि कुछ विधि-विधान ऐसे हैं जो म-शुद्धि के साथ-साथ जिन शासन की महान् प्रभावना करने वाले हैं। वाचनाचार्यपद-स्थापना, उपाध्यायपद-स्थापना, आचार्यपद-स्थापना, प्रवर्त्तिनीमहत्तरापद-स्थापना आदि ये विधि-विधान इस प्रकार के हैं, जो पूर्वकाल से चली
आत्म
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आ रही जिन शासन की उत्तम प्रणाली; जैसे संघीय अनुशासन, आचारव्यवस्था एवं संयमनिष्ठता आदि को अखण्ड रखने वाले हैं। प्रव्रज्या (लघुदीक्षा) उपस्थापना, नन्दिरचना आदि कुछ विधि-विधान ऐसे हैं जो आत्मविशुद्धि के साथ-साथ अन्य भव्यप्राणियों के लिए भी आत्म साधना के मार्ग पर आरुढ़ होने के लिए वैराग्य और संयम के भाव उत्पन्न करते हैं।
___ कुंभस्थापना, दीपकस्थापना, जवारारोपण आदि विधि-विधान तत्संबंधी अनुष्ठानों में मंगलकारी होते हैं और प्रारंभ किये गये सुकृत्यों को निर्विघ्न सम्पन्न करते हैं। सकलीकरण, शुचिविद्या आरोपण, छोटिका प्रदर्शन, विघ्नोत्त्रासन, दिक्पाल आह्वान, भूतबलिप्रक्षेपण आदि विधि- विधान प्रतिष्ठादि के समय प्रतिष्ठा सम्बन्धी कार्यों को सम्पादित करने वाले वाले प्रतिष्ठाचार्य, विधिकारक एवं स्नात्रकार आदि के द्वारा नूतन चैत्य, नूतन जिनप्रतिमा आदि की बाहरी आसुरी शक्तियों से रक्षा करते हैं, सभी प्रकार के उपद्रवों को शान्त करते हैं और सत्क्रियाओं को निर्विघ्नतया सम्पन्न करने में निमित्तभूत बनते हैं। उपधान, योगोद्वहन, ध्यान आदि विधि-विधान उस कोटि के हैं, जिनके द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की निर्जरा होती हैं, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र पुष्ट होता हैं तथा परंपरा से मोक्ष फल की प्राप्ति होती है। सामायिक, प्रतिक्रमण, वंदन, पूजन, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग आदि विधि-विधान कषायभावों को शांत करने वाले, दैनिक पापों की शुद्धि करने वाले, अध्यवसायों (परिणामों) को निर्मल बनाने वाले, पापक्रियाओं से विरत करने वाले और साधना की उच्चकोटी पर पहुँचने वाले हैं। इसके सिवाय अन्य और भी विधि-विधान अपनी-अपनी विशिष्टताओं को लिये हुए हैं। विधि-विधानों के प्रयोजन
जैन परम्परा में प्रायः अनुष्ठान और आत्मिक आराधनाएँ विधि-विधान युक्त ही सम्पन्न होती हैं चाहे वे विधि-विधान लघुरूप में हों या विस्तृत रूप में हों। यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि आखिरकर ये विधि-विधान किन उद्देश्यों को लेकर किये जाते है ? इस विषय पर गहराई से चिन्तन किया जाय तो निम्नोक्त बिन्दू परिलक्षित होते हैं - • जैसे कि धार्मिक क्रियानुष्ठानों के द्वारा पाप प्रवृत्तियाँ कम होती हैं, धीरे-धीरे
वे दुष्कर्म निरूद्ध हो जाते है और आत्मा परमात्मा बन जाती है। धार्मिक क्रियाकलापों के माध्यम से मानव जीवन का अमूल्य समय सार्थक बनता है, नये पाप कर्मों का संवर होता है और पुराने पापकर्म निर्जरित हो जाते हैं।
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• इन शुभ आराधनाओं से मानसिक विकार दूर होते हैं विषय-वासना,
कषाय-कामना आदि के भाव मन्दतर होते चले जाते हैं और क्रमशः संसारी आत्मा मुक्तात्मा की दिशा में प्रयाण कर लेती है। इससे शरीर, मन और आत्मा तीनों ही निर्मल बनते हैं। धार्मिक अनुष्ठानों के विविध प्रकारों में सामायिक विधान के द्वारा राग-द्वेष की परिणतियाँ न्यून होती हैं, वैरभाव की परम्परा का अन्त होता है और मैत्री, प्रमोद, वात्सल्य आदि आत्मिक गुण प्रगट होते हैं। प्रतिक्रमण के द्वारा आत्मा और मन छल, कपट, माया आदि दोषों से मुक्त होती हैं, क्योंकि प्रतिक्रमण आलोचना और प्रायश्चित रूप होता है
और वह आलोचना, छल-कपट रहित साधक ही कर सकता है। प्रतिक्रमण के विविध आसनों का व्यवहारिक प्रयोग शारीरिक दृष्टि से पाँव, घुटने, कमर, गर्दन, मस्तिष्क, उदर आदि संबंधी अनेक रोगों को दूर करने में
लाभदायी होता है। • प्रतिक्रमण करते समय मुख्यतः पाप की आलोचना, दिन, पक्ष, मास आदि
में किये गये पापों का स्मरण और पुनः पापकृत्य न करने का संकल्प आदि किया जाता है इस प्रकार की संकल्पना से मन आत्मस्थ और एकाग्र हो जाता है तथा मन की एकाग्रता से चिन्ता, टेंशन, डिप्रेशन आदि मानसिक रोग भी दूर हो जाते हैं वन्दन क्रिया के माध्यम से नम्रता, सरलता, विवेकशीलता आदि गुणों का प्रादुर्भाव होता है। अहंकार बुद्धि व आग्रह बुद्धि नष्ट हो जाती है। जिन प्रतिमाओं के एवं विशुद्ध चरित्रात्माओं के विधिवत् दर्शन करने से मन-वचन-काया तीनों योग पवित्र बनते हैं और भी पूर्वोक्त गुणादि प्रगट होते हैं। प्रत्याख्यान विधि का पालन करने से मानसिक एवं शारीरिक तृष्णाएँ मन्द होती हैं, इससे सभी प्रकार के दुखों का अंत होने लगता है चूंकि दुख का मुख्य कारण व्यक्ति की तृष्णा व आकांक्षा है। तपस्या के द्वारा शरीर के अनावश्यक तत्त्व (रोगाणु आदि) निष्कासित होने लगते हैं उससे शरीर सक्रिय स्वस्थ एवं निरोगी बनता हैं। शरीर की स्वस्थता से मन स्वस्थ बनता हैं और जहाँ शरीर एवं मन दोनों स्वस्थ होते हैं वहाँ आत्मासाधना भी सम्यक् दिशा की ओर गतिशील बनती है। इस प्रकार तप साधना मन-वचन-काया तीनों योगों को शुभ क्रिया की ओर प्रवृत्त करती है।
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यही शुभप्रवृत्ति परम्परा से मोक्ष का कारण बनती है।
• प्रार्थना करने से शरीर हल्का होता है विचारों की पवित्रता बढ़ती है। आभामण्डल निर्दोष एवं निर्विकार होने लगता है इस तरह अन्य अनेक प्रकार के लाभ होते हैं।
• मंत्रजाप, स्तुति, ध्यान आदि क्रियाओं के द्वारा त्रियोग की शुद्धि होती है । मन एकाग्र बनता है वचन का संयम बढ़ता है, काया स्थिर बनती हैं। इससे कलह- द्वेष आदि की संभावनाएँ भी प्रायः समाप्त होने लगती और जीवन शांति और आनन्द के हिलोरें से तरंगित हो उठता है।
आलोचना और प्रायश्चित्त विधि के द्वारा त्रियोग की शुद्धि ही नहीं, प्रत्युत अन्तरंग के परिणाम निश्छल (निष्कपट), निर्विकार और निर्दोष बन जाते हैं और यही साधना की उच्चतम भूमिका है। इस भूमिका तक पहुँचने के बाद यह आत्मा अतिशीघ्र जन्म-मरण के दुखों का अन्त कर देती है । जैन विधि-विधान के सम्बन्ध में शोध की आवश्यकता
जैन धर्म मूलतः संन्यासमार्गी धर्म है। जैन साधना का मूल लक्ष्य आत्म विशुद्धि है। उसकी साधना में आत्म शुद्धि और आत्मोपलब्धि पर ही अधिक जोर दिया गया है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन धर्म में लोकमंगल या लोककल्याण का कोई स्थान नहीं है। जैन धर्म यह तो अवश्य मानता है कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से समाज निरपेक्ष एकांकी जीवन अधिक उपयुक्त है किन्तु इसके साथ ही साथ वह यह भी मानता है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में होना चाहिए। महावीर का जीवन स्वयं इस बात का साक्षी हैं कि १२ वर्षों तक एकांकी साधना करने के पश्चात् वे पुनः सामाजिक जीवन में लौट आये। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की तथा जीवनभर उसका मार्ग-दर्शन करते रहे। यही बात जैन विधि-विधानों के विषय में भी लागू होती है। उनका मुख्य संबंध वैयक्तिक जीवन से है किन्तु उनकी फलश्रुति हमारे सामाजिक जीवन को भी प्रभावित करती है।
वस्तुतः जैने विधि-विधान साधना पक्ष के आवश्यक अंग है और प्रत्येक साधना विधिवत् की जाने पर ही सफल होती है। यह जानने योग्य हैं कि जैन परम्परा की साधनाएँ वैयक्तिक कल्याण के साथ-साथ सामाजिक कल्याण से जुड़ी हुई है। जैन मुनि वैयक्तिक लाभ की दृष्टि से यन्त्र - मन्त्र की साधना नहीं कर सकता है, किन्तु सामाजिक - संघहित में उनका प्रयोग करने की छूट है। हम इस प्रसंग को यहीं विराम देते हैं, क्योंकि उक्त विवेचन के आधार पर यह सुनिश्चित
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होता हैं कि जैन विधि-विधान वैयक्तिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से निर्मित हुए हैं। साथ ही साथ वे संसारी से सिद्ध, नर से नारायण, आत्मा से परमात्मा बनने के निकटतर कारण हैं।
__अब हम विचार करते हैं कि जैन विधि-विधानों पर पूर्वाचार्यों द्वारा विपुल साहित्य का सर्जन हुआ है जिसकी ग्रन्थसूची पूर्व में दे चुके हैं, किन्तु पूर्वाचार्य रचित प्राकृत-संस्कृत आदि के इन ग्रन्थों की सामग्री से जनसामान्य आज भी परिचित है। उन ग्रन्थों को जन-उपयोगी बनाने हेतु अब तक क्या कार्य हुए हैं और उनमें क्या करने योग्य हैं ? यह विचारणीय है।
जहाँ तक जानकारी है कि पूर्वाचार्य रचित विधि-विधान संबंधी इन प्राकृत-संस्कृत ग्रन्थों की विशेष जानकारी विद्वदवर्ग में भी नहीं है। आचार-विचार से संबंधित कुछ ग्रन्थों पर तो शोध कार्य हुए हैं किन्तु तन्त्र, मन्त्र एवं कर्मकाण्ड संबंधी साहित्य प्रायः उपेक्षित ही रहा है, यद्यपि गुरु शिष्य परंपरा से यह सामग्री हस्तांतरित तो होती रही है, किन्तु इसका व्यापक अध्ययन संभव नहीं हो सका है, क्योंकि विधि-विधान और विशेष रूप से तांत्रिक या साधनात्मक विधि-विधान रहस्य के घेरे में ही रहे हैं। गुरु केवल योग्य-विश्वसनीय शिष्य को ही इन्हें हस्तांतरित करते थे, अतः विद्वत्वर्ग भी इससे वंचित ही रहा है। जहाँ तक मेरी जानकारी है जैन तंत्र, मंत्र साधनापरक एवं कर्मकाण्ड से संबंधित कुछ कृतियों का प्रकाशन तो हुआ है किन्तु शोधपरक दृष्टि से उन पर कोई कार्य नहीं हुआ है। हाँ! एक बात अवश्य सत्य है कि इन ग्रन्थों में से कुछ विशिष्ट महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ अंग्रेजी और हिन्दी में रूपांतरित तो हुए हैं पर इनके ऐतिहासिक विकास क्रम को तथा इनके पारस्परिक प्रभाव को उजागर करने के प्रयत्न नहींवत् हुए हैं। विवरणात्मक सूचना देने की दृष्टि से तो आचार्य हरिभद्र, पादलिप्त, जिनप्रभ, वर्धमानसूरि आदि कुछ आचार्य प्रवरों के कर्मकाण्ड संबंधी ग्रन्थ अनुदित और प्रकाशित हुए हैं किन्तु उन पर विधि-विधान के ऐतिहासिक विकासक्रम और तुलनात्मक अध्ययन को लेकर कोई शोध कार्य हुआ हो यह मेरी जानकारी में नहीं है। यहाँ यह ज्ञातव्य हैं कि जैन दर्शन में आचार पक्ष को छोड़कर अन्य विधि-विधान और कर्मकाण्ड पर अन्य परम्पराओं का, विशेष रूप से बौद्ध एवं हिन्दू परम्परा का प्रभाव आया है किन्तु यह प्रभाव कितना और किस रूप में है? इस संबंध में सुव्यवस्थित शोधपरक अध्ययन नहीं हो पाया है मात्र कुछ छुट-पुट लेख प्रकाशित हुए हैं या किन्हीं ग्रन्थों की भूमिकाओं में मात्र संकेत रूप से कुछ कहा गया है। जैन देवमण्डल में हिन्दू
और बौद्ध देव-देवियों का जो प्रवेश हुआ वह कब और कैसे हुआ ? इस संबंध में भी संकेतात्मक सूचनाओं के अतिरिक्त प्रामाणिक शोधकार्य का प्रायः अभाव
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ही रहा है। इसी प्रकार प्रतिष्ठा आदि के विधि-विधान भी अन्य परम्पराओं से प्रभावित हु हैं और अनेक स्थितियों में यह भी हुआ है कि इन विधि-विधानों को जैनाचार्यों ने अपनी परम्परानुसार परिष्कारित करने का प्रयत्न भी किया है। यद्यपि जैन आचार और विधि-विधान को लेकर विपुल साहित्य की रचना हुई, उनमें से कुछ ग्रन्थ तो प्रकाशित और अनुदित हुए हैं किन्तु अधिकांश ग्रन्थ ऐसे हैं जो काल - कवलित हो चुके हैं या दीमकों के द्वारा भक्षित होने के लिए किन्हीं शास्त्र भंडारों में प्रतीक्षारत हैं।
अनेक ऐसे ग्रन्थ हैं जिनके निर्मित होने के और काल विशेष में अस्तित्व में रहने के संकेत तो मिलते हैं परन्तु वर्तमान में उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार इस दिशा में व्यापक शोध कार्य की अपेक्षा बनी हुई है। निष्कर्षतः जैन विधि- विधिनों को लेकर मेरे समक्ष निम्नलिखित जो बिन्दू विचारणीय बने हैं उन पर शोधकार्य करने का मानस तैयार किया है वे, इस प्रकार हैं
जहाँ तक मेरा सोचना है यदि इस क्षेत्र में कोई शोधपरक - 5- तुलनात्मक दृष्टि ओर ऐतिहासिक विकासक्रम को लक्ष्य में रखकर कार्य किया जाये तो हजारों पृष्ठों की सामग्री उपलब्ध कराई जा सकती है। इस संबंधी साहित्य का अब तक आलोड़न नहीं हुआ है कालक्रम को सम्मुख रखते हुए जैन विधि-विधानों के ऐतिहासिक विकास को नहीं दिखाया गया है। कालक्रम के परिप्रेक्ष्य में जो-जो भी परिवर्तन हु हैं उनकी चर्चा भी नहीं हुई है।
जैन परंपरा का प्रभाव अन्य परम्परा के विधि-विधानों पर या अन्य परम्परा का प्रभाव जैन धर्म के विधि-विधानों पर कब, कैसे हुआ, इस तरह का कार्य भी अभी तक नहीं हुआ है
सभी प्रकार के विधि-विधान किसी न किसी रूप में अनुष्ठित किये ही जाते हैं किन्तु उनके उद्देश्य, और प्रयोजन क्या हैं ? उनकी अनिवार्यता कितनी हैं ? इत्यादि मूलभूत तथ्यों पर भी कोई प्रामाणिक, शोधपरक या जनसामान्योपयोगी कार्य नहीं हुआ है, जिन्हें जिनविधियों से प्रयोजन होता है वे तत्सम्बन्धी जैसे - प्रतिष्ठा, प्रतिक्रमण, जिनदर्शन, सामयिक आदि की पुस्तकें रूढ़िगत रूप से प्रकाशित करवा लेते है और उस आधार पर उन विधियो को सम्पन्न कर लेते हैं किन्तु इन विधि-विधानों के बारे में जो आवश्यक जानकारियाँ दी जानी चाहियें वे जनसामान्य को उपलब्ध नहीं हुई है।
प्रायः विधि-विधान विषयक ग्रन्थ अपनी-अपनी परम्पराओं को लेकर ही प्रकाशित हुए हैं उन पर तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत नहीं हुआ है। जैन धर्म की ही विविध परम्पराओं
खरतरगच्छ, तपागच्छ,
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/31
पायचंदगच्छ, स्थानकवासी, तेरापंथी आदि में किनमें कौन-कौन से विधि-विधान प्रचलित हैं ? इसी प्रकार दिगम्बरपरम्परा एवं उनकी बीसपंथी, तारणपंथी आदि शाखाओं में विधि-विधानों का क्या स्वरूप हैं ? कौन से विधि-विधान एक दूसरे के समतल्य है? तथा कौन से विषमता को लिये हुए हैं ? इत्यादि का आलोड़न कार्य भी नहीं हुआ है। अतः इन मुद्दों पर प्रामाणिक एवं शोधपरक विवेचना करना ही मेरा ध्येय और प्रयास है।
मेरे कार्य की सफलता तो विद्वद्वर्ग एवं समाज के सहयोग पर निर्भर करेगी, क्योंकि विधि-विधान संबंधी समस्त ग्रन्थों की उपलब्धि एक कठिन कार्य है। उनको उपलब्ध करके उनकी विषयवस्तु का प्रतिपादन करना तथा उनमें प्रतिपादित विधि का ऐतिहासिक अध्ययन करना और पारस्परिक प्रभावों की दृष्टि से अध्ययन करना एक व्ययसाध्य और समयसाध्य कार्य है। प्रयत्न और पुरूषार्थ करना मेरे अधिकार में है किन्तु कार्य की संपूर्णता और परिणाम की सफलता यह भविष्य के गर्भ में है। शोध के क्षेत्र में कार्य करते हुए जो निष्कर्ष प्राप्त होगें, वें परम्परागत समाज को कितने ग्राह्य होंगे यह भी एक समस्या मेरे समक्ष रही हुई हैं, फिर भी एक जैन साध्वी की मर्यादा का ध्यान रखते हुए ईमानदारी पूर्वक तटस्थ दृष्टि से निष्कर्षों को प्रस्तुत करने का प्रयत्न अवश्य करूंगी।
अन्ततः मेरी ऐसी धारणा है कि यदि विधि-विधान और कर्मकाण्ड के संबंध में तटस्थ दृष्टि से कोई काम किया जायेगा और उसके जो परिणाम सामने आयेंगे वे विश्रृंखलित जैन समाज को एक सम्यक दिशा देने में और विभिन्न वर्गों को एक दूसरे के निकट लाने में सहयोगी होंगे।
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अध्याय-2
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श्रावकाचार सम्बन्धीविधि-विधान परक साहित्य-सूची
ccoC
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34/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
अध्याय २ श्रावकाचार सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य-सूची क्र. कृति
कृतिकार कृतिकाल १ अनुष्ठानविधि (प्रा.) अज्ञातकृत लग. १६-१७ वीं
शती २ अणुव्रतविधि (प्रा.) अज्ञातकृत वि.सं. ११६६ ३ आनन्दश्रावकविधि हेमकीर्ति लग. १६-१७ वीं
शती ४ आवश्यकविधि
अज्ञातकृत लग. १५-१६ वीं
शती
५ आवश्यकविधिप्रकरण (प्रा.) अज्ञातकृत
लग. १५-१६ वीं शती वि.सं. १२ वीं शती का उत्तरार्ध
६ अमितगति श्रावकाचार(सं.) आ. अमितगति।
(अपरनाम उपासकाचार)
उपासकदशांगसूत्र (प्रा.) सातवाँ अंगसूत्र ८ उपासकाचार
प्रभचन्द्रभट्टारक
७
लग. १५-१६ वीं
शती
६ उपासकाचार
अज्ञातकृत
लग. १५-१७ वीं
शती
१० उपासकाध्ययन
अज्ञातकृत
लग. १५-१७ वीं
शती
११ उपासकाध्ययन (सं.)
आ. ज्ञानभूषण
वि.सं. २०-२१ वीं ।
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/35
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१२ उमास्वातिश्रावकाचार आ. उमास्वाति (?) लग. १५-१६ वीं
शती १३ किशनसिंहकृतश्रावकाचार किशनसिंह वि.सं. १६ वीं शती १४ कुन्दकुन्दश्रावकाचार कुन्दकुन्दाचार्य वि.सं. ५ वीं शती १५ गुणभूषणश्रावकाचार (सं.) गुणभूषण लग. वि.सं. १३-१४
वीं शती १६ चारित्रप्राभृतगतश्रावकाचार कुन्दकुन्दाचार्य लग. वि.सं. ५ वीं
शती
१७ चारित्रसारगतश्रावकाचार
चामुण्डराय
(सं.)
१८ तत्त्वार्थसूत्रगतश्रावकाचार
आ. उमास्वाति
(सं.)
वि.सं. १० वीं शती के पूर्वार्द्ध वि.सं. १ से ३ री शती वि.सं. १६५४ वि.सं. १७६५
१६ तारण-तरणश्रावकाचार २० दौलतरामकृतश्रावकाचार
तारणतरणस्वामी दौलतराम
(हि.)
२१ धर्मसंग्रहश्रावकाचार (सं.) पण्डित मेधावी २२ धर्मोपदेशपीयूषवर्षश्रावकाचारब्रह्मनेमिदत्त
वि.सं. १५४१ वि.सं. १६ वीं शती
(सं.)
२३ पयकृतश्रावकाचार (हि.) पद्मकवि २४ फ्यचरितगतश्रावकाचार(सं.) आ. रविषेण २५ पुरुषार्थसिद्धयुपाय आ. अमृतचन्द्र २६ पुरुषार्थानुशासनगत पं. गोविन्द
श्रावकाचार (सं.)
वि.सं. १६१५ वि.सं. ८ वीं शती वि.सं. १० वीं शती वि.सं. १६ वीं शती
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36 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
पूज्यपाददेवनन्दि
२८ पंचविंशतिकागतश्रावकाचार मुनिपद्मनन्दी
२६ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
सकलकीर्ति
३० भव्यधर्मोपदेशउपासकाध्ययन जिनदेव
२७ पूज्यपाद श्रावकाचार
(सं.)
३१ भावसंग्रहगत श्रावकाचार
(प्रा.)
३२ भावसंग्रहगत श्रावकाचार पं. वामदेव
(सं.)
३३ महापुराणान्तर्गतश्रावक-धर्म आ. जिनसेन
(सं.)
३४ यशस्तिलकचम्पूगत उपासकाध्ययन (सं.)
३५ रयणसारगत श्रावकाचार
सोमदेवसूरि
आ. कुन्दकुन्द (?)
३६ | रत्नमालागत श्रावकाचार
आ. शिवकोटि
३७ रत्नकरण्डकश्रावकाचार (सं.) आ. समन्तभद्र ३८ लाटीसंहिता श्रावकाचार (सं.) पं. रायमल्ल
देवसेन
३६ वसुनन्दिश्रावकाचार (प्रा.) आ. वसुनन्दि ४० वरांगचरितगत श्रावकाचार आ. जटासिंहनन्दि
(सं.)
४9 व्रतसार श्रावकाचार
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
वि.सं. १३-१४ वीं
शती
वि.सं. १५-१६वीं शती
वि.सं. १३ वीं शती
वि.सं. १०-११ वीं
शती
लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती
वि.सं. ६ वीं शती
वि.सं. १०१६
वि.सं. ५ वीं शती
वि.सं. ५ वीं शती
वि.सं. ५ वीं शती
लग. वि.सं. १६ वीं
शती
वि.सं. १३ वीं शती
वि. सं. ८-६ वीं शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/37
| ४२ व्रतोद्योतनश्रावकाचार (सं.) अभदेव
४३ श्रावकव्रतधारणविधि (हि.) घोगमलचौपड़ा
४४ श्रावकाचारसारोद्धार (सं.) आ. पयनन्दि ४५ श्रावकप्रज्ञप्ति (प्रा.) आ. हरिभद्र ४६ श्रावकप्रायश्चित्तविधि अज्ञातकृत
४७ श्रावकप्रायश्चित्त ४८ श्रावकदिनकृत्य ४६ श्रावकदिनकृत्य
तिलकाचार्य गुणसागरशिष्य अज्ञातकृत
५० श्रावकधर्मतन्त्र
हरिप्रभसूरि
वि.सं. १५५६ से १५६३ वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. १४ वीं शती वि.सं. ८ वीं शती लग. वि.सं. १३ वीं शती लग. १२ वीं शती लग. १५ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १२-१४ वीं शती लग. वि.सं. १३ वीं शती लग. वि.सं. १२-१३ वीं शती वि.सं. ८ वीं शती वि.सं. १३१३ लग. वि.सं. १२-१३ वीं शती वि.सं. ८ वीं शती वि.सं. १२ वीं शती
५१ श्रावकधर्मविधि
धनपाल
५२ श्रावकधर्मविधि
धर्मचन्द्रसरि
५३ श्रावकधर्मकुलक
देवसूरि
५४ श्रावकधर्मविधिप्रकरण (प्रा.) आ. हरिभद्र ५५ श्रावकधर्म
जिनेश्वरसूरि ५६ श्रावकसामाचारी
देवगुप्ताचार्य
हरिभद्रसूरि
५७ श्रावकसामाचारी | ५८ श्रावकसामाचारी
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38 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
५६ श्रावकसामाचारी
६० श्रावकसामाचारी
६१ श्रावकविधि (प्रा.)
६२ श्राद्धविधिविनिश्चय
६३ श्राद्धविधिप्रकरण (प्रा.)
६४ श्राद्धगुणविवरण (सं.)
६६ सड्ढदिणकिच्च
(श्राद्धदिनकृत्य) (प्रा.)
६७ सड्ढदिणकिच्च
(श्राद्धदिनकृत्य) (प्रा.) ६८ सड्ढदिणकिच्च
६५ सम्यक्त्वमूलबारहव्रत (गु.) जिनप्रभविजय आश्रवरोधिका संवरपोषिका
७० सागारधर्मामृत (सं.) ७१ सावयधम्मदोहा (अप.)
तिलकाचार्य
अज्ञातकृत
(सं.)
७४ ज्ञानानन्द श्रावकाचार
(ढूंढारी)
धनपाल
हर्षभूषण
रत्नशेखरसूरि
जिनमण्डनगणि
श्रुतधर आचार्य
६६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षागत स्वामी कार्त्तिकेय श्रावकधर्म (प्रा.)
देवेन्द्रसूरि
अज्ञातकृत
पं. आशाधर
देवसेन / लक्ष्मीचन्द्र
७२ षट्स्थानप्रकरण (प्रा.)
जिनेश्वरसूरि
७३ हरिवंशपुराणगत श्रावकाचार आ. जिनसेन
पं. रायमल्ल
वि.सं. १२ वीं शती
लग. वि.सं. १६-१७
वीं शती
लग. वि. सं. १२-१४
वीं शती
वि.सं. १४८०
वि.सं. १६ वीं शती
वि.सं. १४६८
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. १५-१६ वीं
शती
वि.सं. १४ वीं शती
लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती
वि.सं. छठीं शती
वि.सं. १३ वीं शती
वि.सं. १० वीं शती
वि.सं. ११ वीं शती
वि.सं. ८-६ वीं शती
वि.सं. १७ वीं शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/39
अध्याय २ श्रावकाचार सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
अनुष्ठानविधि
यह कृति प्राकृत में है। इसका श्लोक परिणाम १०४६ है। इस कृति के उपलब्ध न होने से विशेष जानकारी देना असंभव है।' अणुव्रतविधि
इसका दूसरा नाम श्रावकधर्म है। यह प्राकृत में है। प्रति पर लेखनकाल सं. ११६२ उल्लेखित है। कृति हमें उपलब्ध नहीं हुई है, इसमें संभवतया अणुव्रतों के स्वरूप का विवेचन एवं अणुव्रत धारण करने की विधि होनी चाहिये। आनन्दश्रावकविधि
यह रचना मनि हेमकीर्ति की है। यह भी हमें उपलब्ध नहीं हुई है। किन्तु कृति के नाम से इतना कह सकते हैं कि इसमें आनन्द श्रावक द्वारा ग्रहण किये गये बारहव्रत की विधि उल्लिखित है। आवश्यकविधि
इसमें श्रावक-श्राविकाओं की आवश्यक विधियों या षड़ावश्यक विधि का वर्णन हुआ प्रतीत होता है। मूलतः यह कृति विधि-विधान से सम्बन्धित है। आवश्यकविधिप्रकरण
यह रचना भी आवश्यक क्रिया विधि से सम्बद्ध होनी चाहिये। इसमें प्राकृत में निबद्ध ४० गाथाएँ हैं।' अमितगति-श्रावकाचार
आचार्य सोमदेव के पश्चात् संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् आचार्य अमितगति हुए हैं। इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना की है।
' जिनरलकोश पृ. ६ २ वही. पृ.६ ३ वही. पृ. ३० ४ वही. पृ. ३५ ५ वही. पृ. ३५
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40 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
श्रावकधर्म पर भी एक स्वतन्त्र उपासकाध्ययन बनाया है जो अमितगति-श्रावकाचार नाम से प्रसिद्ध है। यह कृति संस्कृत के १४६६ श्लोकों मे ग्रथित है। इनकी अन्य कृ तियों के आधार पर इसका रचना समय विक्रम की ११ वीं शती का उत्तरार्ध सिद्ध होता है।
प्रस्तुत कृति १४ परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें श्रावक धर्म एवं उनके विधि - अनुष्ठान विस्तार के साथ वर्णित हुए हैं। प्रथम परिच्छेद में धर्म का माहात्म्य, दूसरे में मिथ्यात्व की अहितकारिता और सम्यक्त्व की हितकारिता, तीसरे में सप्ततत्त्व, चौथे में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि और ईश्वर - सृष्टिकर्तृत्व का खंडन किया गया है । अन्तिम तीन परिच्छेदों में क्रमशः शील, द्वादशतप और बारह भावनाओं का वर्णन है। मध्यमवर्ती परिच्छेदों में रात्रिभोजन, अनर्थदण्ड, अभक्ष्यभोजन, तीनशल्य, दान, पूजा और सामायिकादि षट् आवश्यकों का वर्णन है । अन्त में नौ पद्य प्रशस्ति रूप में हैं।
इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है।' कि अमितगति ने गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों के नामों में उमास्वाति का और स्वरूप वर्णन में सोमदेव का अनुसरण किया है। पूजन के वर्णन में देवसेन का अनुसरण करते हु अनेक ज्ञातव्य बातें कही हैं। इनके अतिरिक्त निदान के प्रशस्त - अप्रशस्त भेद, उपवास की विविधता, आवश्यकों में स्थान, आसन, मुद्रा, काल आदि का वर्णन अमितगति के श्रावकाचार की विशेषता है। यदि संक्षेप में कहें तो इसमें अमितगति के पूर्ववर्ती श्रावकाचारों का दोहन करके उनमें नहीं कहे गये विषयों का प्रतिपादन किया गया है। अमितगति के सुभाषितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा, पंचसंग्रह, आराधना आदि ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं।
उपासकदशांगसूत्र
यह साँतवां अंग आगम है । यह आगम अर्धमागधी प्राकृत में है। इसमें १ श्रुतस्कन्ध, १० अध्ययन और २७७ सूत्र हैं। इसमें भ. महावीर के दस उपासकों के श्रेष्ठ चरित्र वर्णित हुए हैं तथा उनके द्वारा बारह व्रत ग्रहण करने की विधि कही गई है। इसके साथ ही ऋद्धि-समृद्धि की मर्यादा करने का सम्यक् विवेचन है।
जैन धर्म में 'उपासक ' शब्द का प्रयोग जैन गृहस्थ के लिए किया गया है। यहाँ 'दशा' शब्द दस की संख्या का सूचक है, अतः उपासकदशांग में दस उपासकों की कथाएँ वर्णित है। यदि 'दशा' शब्द का अर्थ 'अवस्था' करें तो इसमें
9
यह कृति 'अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला' से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/41
उपासकों की अविरत, विरत एवं साधक अवस्थाओं का वर्णन होने से भी इसका उपासकदशा नाम सार्थक सिद्ध होता है। इसमें वर्णित दस श्रावकों के नाम क्रमशः आनन्द, कामदेव, चुलनीपिता, सुरादेव, चुलनीशतक, कुण्डकौलिक, शकडालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता और सालिहीपिता है।
__प्रस्तुत आगम में प्रमुख रूप से उपर्युक्त दस उपासकों की ऋद्धि-समृद्धि बतायी गई है। इसके साथ ही उनके द्वारा बारह व्रत ग्रहण करने की विधि' का उल्लेख है। आगे उन उपासकों के द्वारा समाधिमरण की साधना किये जाने का वर्णन है तथा उस साधना में उपस्थित उपसगों पर विजय प्राप्त करने का भी उल्लेख है। उपरोक्त सामान्य वर्णन के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत अंगसूत्र में भले ही दस उपासकों का जीवन चरित्र विस्तार के साथ उल्लिखित हुआ हो, लेकिन उस जीवन चरित्र का मुख्य आधार बारह व्रतों का ग्रहण करना ही है। क्योंकि व्रत अवस्था में रहते हुए ही समाधिमरण की साधना की जा सकती है। अतः यह आगम गृहस्थ के व्रतों की विधि का सम्यक् निरूपण प्रस्तुत करता है।
उपसंहार के रूप में यहाँ यह कहना सर्वथा प्रसंगोचित हैं कि विद्यमान अंगसूत्रों एवं अन्य आगमों में प्रधानतः श्रमण-श्रमणियों के आचारादि का निरूपण ही दिखाई देता है। उनमें उपासकदशांग ही एक ऐसा सूत्र है जिसमें एकमात्र 'गृहस्थ धर्म विधि' के मूल बीज एवं मूल आचार परिलक्षित होते हैं। इस आगम को पढ़ने से तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, पारिवारिक इत्यादि स्थितियों का भी भलीभाँति परिचय होता हैं। उपासकाचार
इसके रचयिता प्रभाचन्द्र भट्टारक है और इसमें ३३ पद्य हैं। उपासकाचार
- यह अज्ञातकर्तृक रचना है। इसमें जैन श्रावक की आचार विधियों एवं उनके स्वरूपों, तथा भेद-प्रभेदों का वर्णन हुआ है। यह इस कृति के नाम से ही स्पष्ट है।
' उपासकदशा, मधुकरमुनि सूत्र १३ से ४३, २ जिनरत्नकोश, पृ. ५६
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42/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
उपासकाध्ययन
यह अज्ञातकृत रचना है। इस पर अज्ञातकर्ता की टीका है। यह कृति श्रावक के आचार एवं तत्सम्बन्धी विधि-विधान विषयक है। उपासकाध्ययन
यह ग्रन्थ दिगम्बर आचार्य श्री ज्ञानभूषणजी द्वारा संस्कृत पद्य में रचित' हैं। इसमें कुल १३६१ श्लोक हैं। यह रचना चौदह अध्यायों में विभक्त २० वीं शती की है।
प्रस्तुत कृति का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि इसमें न केवल जैन उपासक की चर्याओं, आचारों एवं विधि-विधानों का ही उल्लेख हुआ है अपितु तत्त्वज्ञान सम्बन्धी वर्णन भी निरूपित है।
प्रथम अध्याय में नरक, तिर्यच, मनष्य एवं देव इन चारों गतियों में होने वाले दुख बताये गये हैं। दूसरे अध्याय में क्रोधादि चार कषाय, आठ मद, और छःलेश्या का स्वरूप वर्णित है। तीसरे अध्याय में एक से लेकर पाँच इन्द्रिय वाले जीवों का उल्लेख है। चौथे अध्याय में श्रावक के आठ मूलगुणों का विवेचन है। पाँचवा अध्याय जीव तत्त्व से सम्बन्धित है। छट्ठा अध्याय अजीव तत्त्व का विवेचन करता है। सातवें अध्याय में कुदेव-कुगुरु-कुधर्म का स्वरूप समझाया गया है। आठवें अध्याय में सम्यग्दर्शन की चर्चा करते हुए समकित के प्रकार भेद-प्रभेद आदि बताये गये हैं। नवमाँ अध्याय श्रावक के बारहव्रत एवं उनके अतिचारों से सम्बद्ध है। दसवें अध्याय में भक्ति भक्यों, जिनबिम्ब की अभिषेक विधि, सल्लेखना ग्रहण की विधि तथा द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप प्रतिपादित है। ग्यारहवाँ अध्याय जिनमन्दिर एवं जिनबिम्ब का वर्णन करता है। बारहवें अध्याय में अनित्यादि बारह भावनाएँ, श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएँ और अहिंसा महाव्रत का उपदेश इत्यादि का विवेचन हुआ है। तेरहवाँ अध्याय श्रावक की दिनकृत्यविधि से सम्बन्धित है। इसमें श्रावक की प्रातःकालीन क्रियाएँ, श्रावक के षट् आवश्यक कर्म, स्वाध्याय का समय आदि का वर्णन हुआ है। चौदहवें अध्याय में सल्लेखना का विशेष स्वरूप उपदर्शित किया गया है।
इस कृति के उक्त वर्णन से प्रतीत होता है कि इसमें श्रावक को किन-किन विषयों, तत्त्वों एवं नियमों की सामान्य जानकारी होनी चाहिये उनका प्राथमिक वर्णन किया गया है उसके बाद ही श्रावक की आचार विधि दिखालायी
३ वही. पृ. ५६ ' यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित, सन् १६८७, 'श्री दिगम्बर जैन समाज' द्वारा प्रकाशित हुआ
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/43
गई है।
उमास्वामि-श्रावकाचार
इसके रचनाकार के विषय में दो मत हैं। कोई इसके रचयिता तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वामि को मानते हैं तो कोई इसे उमास्वामी नाम के किसी अन्य आचार्य की कृति मानते हैं। किसी का कहना है कि उमास्वामी के नाम पर किसी भट्टारक ने इस श्रावकाचार की रचना की है किन्तु यह रचना तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वामि या उमास्वाति का नहीं है। कई प्रमाणों से यह मत सही प्रतीत होता है।'
यह कृति संस्कृत शैली के ४७७ पद्यों में ग्रथित है। इसमें अध्याय विभाग नहीं है। प्रारम्भ में धर्म का स्वरूप बताकर सम्यक्त्व का सांगोपांग वर्णन किया है। पुनः देवपूजादि श्रावक के षट् कर्त्तव्यों में विभिन्न परिमाणवाले जिनबिम्ब के पूजने के शुभ-अशुभ फल का वर्णन है तथा इक्कीस प्रकार वाला पूजन, पंचामृताभिषेक, गुरूपास्ति आदि शेष आवश्यक विधान, बारह प्रकार के तप और दान का विस्तृत वर्णन है। आगे सम्यग्ज्ञान का वर्णन कर सम्यक्चारित्र के विकल भेदरूप श्रावक के आठ मूलगुणों और बारह उत्तरव्रतों का, सल्लेखना का और सप्तव्यसनों के त्याग का उपदेश देकर इसे समाप्त किया है। इस ग्रन्थ के अन्तिम श्लोक में कहा है कि इस सम्बन्ध में जो अन्य ज्ञातव्य बाते हैं, उन्हें मेरे द्वारा रचे गये अन्य ग्रन्थों में देखना चाहिये।
इस श्रावकाचार में पूजनविधि सम्बन्धी कई महत्वपूर्ण बातें भी उल्लिखित हैं, जो अवश्य ही पठनीय है। किशनसिंहकृत-श्रावकाचार
यह श्रावकाचार श्री किशनसिंह जी ने हिन्दी पद्य में निर्मित किया है। यह कृति विविध छन्दों में रची गई है। इस कृति का रचना समय वि.सं. १७८७ है। ग्रन्थकार ने इस कृति को ‘क्रियाकोष' के नाम से भी उल्लेखित किया है। इनकी १० रचनाएँ और भी उपलब्ध है।
इस श्रावकाचार में 'उक्तं च' कहकर १४ श्लोक और गाथाएँ उद्धृत की गई है। इन्होंने अपने गुरू आदि का कोई उल्लेख नहीं किया है। इससे ज्ञात होता
' देखिए, श्रावकाचारसंग्रह भा. ४, पृ. ४१ २ यह ग्रन्थ 'श्री शान्तिधर्म दि. जैन ग्रन्थमाला' उदयपुर से, वी.सं. २४६५ में, पं. हलायुध के हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ है। २ यह रचना 'श्रावकाचार संग्रह' भा. ५ में सानुवाद संकलित है।
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44/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
है कि इनका श्रावकाचार सम्बन्धी ज्ञान स्वयं के शास्त्र-स्वाध्याय जनित था।
___ इन्होंने अपने श्रावकाचार में निम्नलिखित विषय उल्लिखित किये हैं. उनके नामोल्लेख इस प्रकार है - आठ मूलगुण, बाईस अभक्ष्य, कांजीभक्षण का निषेध, सात स्थानों पर चन्दोवा कपड़े की छत लगाने का विधान, अचार आदि के भक्षण का निषेध, चौके के भीतर भोजन करने का विधान, श्रावक के बारहव्रतों का वर्णन, श्रावक के सत्रह नियम, भोजन के सात अन्तराय, सात स्थानों पर मौन रखने का विधान, ग्यारह प्रतिमाओं का विधान, जलगालन का विधान, प्रासुक जल का विधान, रात्रिभोजन का निषेध, लोक में प्रचलित अनेक मिथ्यामतों का वर्णन, सूतक-पातक विधान, नवग्रह शान्ति का विधान, मन्त्रजाप और पूजा का विधान, त्रिकाल पूजन का विधान, अपने क्रियाकोष की रचना के आधार का वर्णन, लोक-प्रचलित और मनगढंत मिथ्याव्रतों का निषेध, अष्टाहिकव्रत, सोलहकारणव्रत, रत्नत्रयव्रत, लब्धिव्रत, समवसरणव्रत, आकाश- पंचमी, अक्षयदशमी, चन्दनषष्ठी, निर्दोषसप्तमी, अनन्तचतुर्दशी और नवकारपैंतीसी आदि अनेक प्रकार के व्रत विधान तथा व्रतों के उद्यापन की विधि का विधान इत्यादि।
__उपर्युक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि श्री किशनसिंह जी ने श्रावकाचार विधि के साथ-साथ तत्सम्बन्धी और उस समय में प्रचलित अनेक प्रकार के व्रतादि का सुन्दर निरूपण किया है। इसके साथ ही अपने समय में प्रचलित मित्वियों के व्रतों और कुरीतियों का वर्णन कर उनके त्याग करने का भी निर्देश दिया है। कुन्दकुन्द-श्रावकाचार
यह रचना' समयसार, प्रवचनसार आदि पाहुड़ों की रचना करने वाले कुन्दकुन्दाचार्य की नहीं है यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है। क्योंकि इस कृति के प्रथम उल्लास के अन्त में ग्रन्थकार ने अपने को जिनचन्द्राचार्य का शिष्य स्पष्टतः घोषित किया है। इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे प्रमाण हैं जो इसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति होने का निषेध करते हैं। इस कृति के आधार पर यह कह सकते है कि किसी भट्टारक के द्वारा कुन्दकुन्दाचार्य के नाम पर यह रचना की गई हो अथवा परवर्ती किसी कुन्दकुन्द नामधारी व्यक्ति के द्वारा रचा गया है।
प्रस्तुत कृति संस्कृत के पद्यों में निबद्ध है। इसमें बारह उल्लास है।
' यह कृति अप्रकाशित है किन्तु 'श्रावकाचार संग्रह' के चतुर्थ भा. में संकलित की गई है। इसकी प्रस्तावना में इसका रचनाकाल वि.सं. १६७० कहा है। २ देखिए. श्रावकाचारसंग्रह भा. ४
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/45
इसका रचना काल अज्ञात है। इस कृति के प्रथम उल्लास में स्वप्न, स्वप्नफल, अशुभस्वप्न निवारण का विधान, स्वर के अनुसार उठने का विधान, व्यायाम करने का विधान, गृहस्थित देवपूजन करने का विधान, आचार्य, कवि, विद्वान और कलाकारों को सदा प्रसन्न रखने का विधान, सार्वजनिक धर्मस्थान में देवपूजनादि का विधान, जिनचैत्य और जिनप्रतिमा के निर्माण का विधान आदि का वर्णन हुआ है। दूसरे उल्लास में विभिन्न तिथियों में स्नान करने के फलाफल, अपनी आय के अनुसार वेशभूषा धारण करने का विधान, नवीन वस्त्र धारण करने योग्य दिनादि का विधान, सेवक की सभा में नहीं करने योग्य कार्यों का विधान इत्यादि व्यावहारिक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे उल्लास में भोजन कब, कैसा, क्यों, खाद्य वस्तुओं के खाने का क्रम, भोजन करने के बाद के नियम आदि का वर्णन है। चौथे-पाँचवे उल्लास में संध्याकालीन कृत्य, रात्रिकालीन कृत्य, विवाह के लिए कन्या के खोज का विधान, तिल, मसक आदि चिहों का शुभाशुभफल, स्त्रियों के प्रकार, गर्भस्थ स्त्री के नियम आदि का उल्लेख हुआ है। छठे उल्लास में बसन्त, हेमन्त, शरद आदि ऋतुओं में करने योग्य
आहार-विहार आदि का वर्णन है। सातवें उल्लास में मनुष्य भव की महत्ता एवं मनुष्य के लिए करने योग्य उत्तम कार्यों का निरूपण है। आठवें उल्लास में मनुष्य के रहने योग्य निवास, वास्तुशुद्धि, गृहप्रकार, विद्याध्ययन के लिए शुद्धि, सर्प के प्रकार एवं विष उतारण, बौद्ध-मीमांसक आदि छः दर्शन इत्यादि अनेकानेक विषय विवेचित हैं। नौवें उल्लास में सप्तव्यसन, छ:लेश्या, आठ मद आदि का शुभाशुभ फल बताया है। दशवें उल्लास में धर्म महिमा, गृहत्याग का महत्त्व एवं उत्तम भावनाओं का निरूपण हुआ है। ग्यारहवें उल्लास में आत्म अस्तित्व की सिद्धि का प्रमुखता से वर्णन किया है। बारहवें उल्लास में सन्यास धारण और समाधिमरण का उपदेश दिया गया है। गुणभषण-श्रावकाचार
मुनिगुणभूषण रचित यह श्रावकाचार संस्कृत के २६४ पद्यों एवं तीन उद्देशों में विभक्त है। इसका समय १२ वीं शती के बाद का है।
यह कृति अतिविस्तृत नहीं है तथापि श्रावकाचार विधि का एवं उसके आवश्यक कृत्य का सम्यक् निरूपण करती है। इसके प्रथम उद्देश में मनुष्यभव . और सद्धर्म की प्राप्ति दुर्लभ बताकर सम्यग्दर्शन धारण करने का उपदेश दिया गया है तथा सम्यक्त्व के भेदों, उसके अंगों एवं उसकी महिमा का वर्णन किया गया है।
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दूसरे उद्देश में सम्यग्ज्ञान का स्वरूप बताकर मतिज्ञान आदि पाँच ज्ञानों का वर्णन किया गया है। तीसरे उद्देश में चारित्र का स्वरूप बताकर, विकल चारित्र का वर्णन ग्यारह प्रतिमाओं को आश्रय करके किया गया है। इसी के अन्त में विनय, वैयावृत्य, पूजन और ध्यान के प्रकारों का भी वर्णन है। इसमें सप्ततत्त्वों का, श्रावक के बारह व्रतों का, पूजन के भेद और पिण्डस्थ आदि ध्यानों का वर्णन वसुनन्दि श्रावकाचार की गाथाओं के संस्कृत छायानुवाद के रूप में श्लोकों द्वारा किया गया है।' इस प्रकार इस कृति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि गुणभूषणजी ने पूर्व रचित श्रावकाचारों का अनुकरण अवश्य किया है फिर भी इसकी अपनी यह विशेषता हैं कि इन्होंने अपनी प्रत्येक बात को संक्षेप में सुन्दर ढंग से कही है।
इस श्रावकाचार के प्रत्येक उद्देश के अन्त में पुष्पिका दी गई है उससे सचित होता है कि ग्रन्थकार ने इस श्रावकाचार का नाम 'भव्यजन-चित्तवल्लभ श्रावकाचार' रखा है और नेमिदेव के नाम से अंकित किया है।' चारित्रप्राभृतगत-श्रावकाचार
इतिहासज्ञों के मत से पाहुडसूत्रों के रचयिता श्री कुन्दकुन्दाचार्य है। दिगम्बर परम्परा में उनका सर्वोपरि स्थान है। आ. कुन्दकुन्द की रचनाएँ प्राचीन मानी जाती है। कहा जाता है कि उन्होंने बारहवें दृष्टिवाद के अनेकों पूर्वो का दोहन करके अनेक पाहुड रचे थे। उनमें से ८४ पाहुड़ ही प्रसिद्ध है। उनमें भी वर्तमान में २०-२२ उपलब्ध हैं। उनके नाम ये हैं - १. समयसार २. पंचास्तिकाय ३. प्रवचनसार ४. नियमसार ५. दंसणपाहुड़ ६. चारित्तपाहुड़ ७. सुत्तपाहुड़ ८. बोधपाहुड़ ६. भावपाहुड़ १०. मोक्खपाहुड़ ११. लिंगपाहुड़ १२. सीलपाहुड़ १३. बारस-अणुवेक्खा १४. रयणसार १५. सिद्धभक्ति १६. श्रुतभक्ति १७. चारित्रभक्ति १८. योगिभक्ति १६. आचार्यभक्ति २०. निर्वाणभक्ति २१. पंचगुरुभक्ति २२. तीर्थकरभक्ति। इनमें से 'चारित्तपाहुड़' के अन्तर्गत श्रावकाचार का वर्णन विकल चारित्र के आधार पर किया गया है। उनमें ग्यारह प्रतिमाओं का एवं बारह व्रतों का संक्षिप्त निरूपण हुआ है। आ. कुन्दकुन्द ने देशावगासिक का शिक्षाव्रत में उल्लेख न करके सल्लेखना को चौथा शिक्षाव्रत माना है यह विचारणीय बिन्दू है? यह प्राभृत प्राकृत की मात्र सात गाथाओं में निबद्ध है। चारित्रासारगत-श्रावकाचार
प्रस्तुत कृति के प्रणेता श्री चामुण्डराय है। इन्होंने मुनि और श्रावकधर्म
' देखिए- श्रावकाचार संग्रह, भा. ४, पृ. ३६
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का प्रतिपादन करने के लिए 'चारित्रासार' ग्रन्थ की रचना की है। यह दो भागों में विभक्त है। उनमें पूर्वार्ध भाग श्रावकधर्म का प्रतिपादक हैं और उत्तरार्ध भाग मुनिधर्म का निरूपक है। यह कृति संस्कृत की गद्य-पद्य शैली में है। इनका समय वि.सं. की १० वीं शती का पूर्वार्ध माना जाता है। 'चारित्रासार" के प्रथम विभाग में ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावकधर्म विधि का वर्णन किया गया है। दर्शन प्रतिमा का वर्णन करते हुए सम्यक्त्व को भवजलधिपोत के समान कहा है। दूसरी व्रत प्रतिमावाले श्रावक को पंच अणुव्रतों के साथ रात्रि-भोजन त्याग करने का विधान बतलाया है। गुणव्रत और शिक्षाव्रत को शीलसप्तक कहा है।
आगे हिंसादि पापों से रहित पुरुष को द्यूत, मद्य और मांस सेवन न करने का उपदेश दिया है। इन तीनों के सेवन से महादुःख पाने वालों के कथानक भी दिये गये हैं। इसी क्रम में महापुराण के अनुसार पक्ष, चर्चा और साधन का वर्णन तथा सोमदेव के उपासकाध्ययन का श्लोक उद्धृत कर श्रावक के ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये चार आश्रम कहे हैं। पुनः महापुराण के अनुसार इज्या, वार्ता आदि षट्कर्तव्यों का वर्णन किया है। अन्त में सल्लेखना (मारणान्तिक तप) का उल्लेख किया है।
श्री चामुण्डराय का जीवन वृत्तान्त पढ़ने जैसा है। उसमें उल्लेख हैं कि श्रवणबेलगोला में बाहुबली की मूर्ति प्रतिष्ठा आपने करवाई है। इनकी कनड़ी मातृभाषा थी, उसमें उन्होंने 'त्रिषष्टिपुराण' रचा है। तत्त्वार्थसूत्रगत-श्रावकाचार
_ 'तत्त्वार्थसूत्र' आचार्य उमास्वाति द्वारा संस्कृत भाषा में निबद्ध की गई रचना है। इसमें दस अध्याय हैं। उनमें से सातवाँ अध्याय श्रावकधर्म का प्रतिपादक है। इस कृति का रचनाकाल विक्रम की प्रथम शती से तीसरी शती के मध्य माना गया है। इस सम्बन्ध में पूर्व में चर्चा की जा चुकी है।
यहाँ यह जानने योग्य हैं कि श्रावकधर्म का व्यवस्थित वर्णन उपासकदशा के पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र में दृष्टिगोचर होता है। प्रस्तुत कृति के सातवें अध्याय में व्रती का स्वरूप बतलाया गया है। उसके बाद व्रती के आगारी-अणगारी दो भेद बताकर मुनि के अहिंसादि महाव्रतों की पाँच-पाँच भावनाएँ और श्रावक के बारह
' यह कृति 'श्रावकाचार संग्रह' भा. २ में संकलित है। २ देखिए, 'श्रावकाचार संग्रह' भा. ४, पृ. २६ ३ यह ग्रन्थ विभिन्न स्थानों से मुद्रित हुआ है। इसकी पं. सुखलालजीकृत अनुवादित कृति सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
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व्रतों के पाँच-पाँच अतिचार कहे गये हैं। इसमें आठ मूलगुणों और ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन नहीं हुआ है यह बात विशेष विचारणीय है।
तारणतरण - श्रावकाचार
इस ग्रन्थ के कर्त्ता तारणतरण स्वामी है। यह दिगम्बर जैन मुनि थे ऐसा किन्हीं का कहना है। किन्हीं के विचार से यह ब्रह्मचारी थे । कुछ भी हो ये एक धर्म के ज्ञाता आत्मरसी महात्मा थे। यह श्रावकाचार ग्रन्थ किसी विशेष भाषा में नहीं है। इसमें संस्कृत, प्राकृत, देश भाषा के मिश्रित शब्द हैं। इसमें कुल ४६३ श्लोक हैं। इस ग्रन्थ की रचना वि.सं. १६४५ में हुई है।
इस ग्रन्थ में पुनरुक्ति दोष बहुत है तथापि सम्यग्दर्शन और शुद्धात्मानुभव की दृढ़ता स्थान-स्थान पर बताई है। इस कृति का अध्ययन करने से यह अवगत होता है कि अब तक जो दिगम्बर परम्परा में श्रावकाचार प्रचलित हैं उनमें मात्र व्यवहार का ही कथन अधिक हुआ है, परन्तु इस ग्रन्थ में निश्चयनय की प्रधानता से व्यवहार का कथन है। पढ़ने से पद-पद पर अध्यात्मरस का स्वाद आता है।
इसमें सामान्यतया मिथ्यात्व कषाय, तीन मूढ़ता, सम्यग्दर्शन, सुदेवादि, कुदेवादि, चार विकथा, आठमद, धर्म, त्रेपन क्रियाएँ, ग्यारह प्रतिमा, पंचपरमेष्ठी, रत्नत्रय, श्रावक के नित्य छः कर्म आदि का स्वरूप बताया गया है। इसके साथ ही जल छानने की विधि, भोज्य पदार्थों की मर्यादा, सम्यग्दर्शन का माहात्म्य, सम्यग्दृष्टि का आचरण, १२ अंगों की मापादि, सम्यक्त्वी के ७५ गुण इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। ग्रन्थकर्त्ता की अन्य १४ रचनाएँ भी प्रसिद्ध हैं। उनमें मालारोहण, पंडितपूजा, उपदेश - शुद्धसार आदि प्रमुख हैं।
दौलतराम - श्रावकाचार
यह श्रावकाचार श्री दौलतरामजी द्वारा रचित है। उनकी यह कृति हिन्दी की छन्दोबद्ध शैली में रची गई है। इन्होंने स्वयं इस कृति का नाम 'क्रिया कोष' रखा है और वह इसी नाम से प्रसिद्ध है। इस क्रिया कोष की रचना वि.सं. १७६५ में हुई है। इस कृति में श्लोक परिमाण और रचे गये छन्दों के नाम नहीं दिये गये हैं। इसमें कुछ गाथाएँ और श्लोक अवश्य उद्धृत किये गये हैं जिनकी संख्या ६ है ।
प्रस्तुत श्रावकाचार में जो विषय चर्चित हुए हैं वे निम्नलिखित हैं
-
क्रियाकोष की रचना का उद्देश्य, त्रेसठशलाका महापुरुषों का वर्णन, श्रावक की त्रेपन क्रियाएँ, आठमूलगुण, भक्ष्य वस्तुओं की काल मर्यादा,
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कच्चादूध-दही-छाछ- प्रासुकजल आदि की काल मर्यादा, दही जमाने की विधि. रसोई, परिण्डा, चक्की आदि क्रियाओं का वर्णन, मिट्टी के बर्तन में खान-पान करने का निषेध, हरी शाक आदि सुखाने का निषेध, जलगालन की विधि, प्रसूता
और रजस्वला स्त्री की शुद्धि का विधान, सप्तव्यसन सेवन करने वाले पुरुषों का उल्लेख कर व्यसनों के त्याग का उपदेश, श्रावक को घृत, तेलादि के व्यापार करने का निषेध, सम्यक्त्व की महिमा उनके भेदों एवं दोषों का वर्णन, सात धर्म क्षेत्रों में धन खर्च करने का विधान, बारहव्रत, ग्यारहप्रतिमा, शील प्रभाव का वर्णन, अनन्तानुबन्धी चार कषायों का सोदाहरण विवेचन, बारह प्रकार का तप, चार प्रकार का ध्यान, सम्यग्दृष्टि की परिणति, रात्रि भोजन के दोष इत्यादि कई विषय सविस्तृत विवेचित हुए हैं। इनकी अन्य १८ रचनाएँ भी उपलब्ध होती हैं जिनमें ८ रचनाएँ मौलिक है ७ रचनाएँ अनुदित है। इन सभी कृतियों का नाम मात्र पढ़ने से ज्ञात होता है कि श्री दौलतरामजी चार अनुयोगों के निष्णात ज्ञाता थे। धर्मसंग्रह-श्रावकाचार
___ इस कृति के रचयिता श्रीपण्डित मेधावी है। यह कृति' संस्कृत के १४४४ पद्यों में निबद्ध है। इस कृति का हिन्दी अनुवाद श्री उदयलाल जैन कासलीवाल ने किया है। यह रचना दस अधिकारों में विभक्त है। इसका रचनाकाल वि.सं. १५४१ है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल, ग्रन्थ उद्देश्य एवं उपकार स्मृति के रूप में ११ पद्य दिये गये हैं उनमें १८ दोषों से रहित, सिद्धभगवान, सरस्वतीदेवी, चतुर्दशपूर्वधारी, अपनी परम्परा के जिनसेन, भद्राचार्य, समन्तभद्र, अकलंकदेव आदि को नमस्कार किया है और जिस शास्त्र को सुनने एवं पढ़ने से धर्म का संग्रह होता हो तथा धर्म का बोध अच्छी तरह हो जाता हो ऐसे 'धर्मसंग्रह' नामक कृति को रचने की प्रतिज्ञा की है। इसमें ग्रन्थकर्ता ने प्रशस्ति रूप ४१ श्लोक वर्णित किये हैं, उनमें ग्रन्थ को निस्वार्थ भावना से रचने का उल्लेख किया है तथा धर्म की महिमा को वर्णित किया है साथ ही इस ग्रन्थ का महत्व भी निर्दिष्ट किया है।
प्रस्तुत श्रावकाचार का प्रारम्भ कथा ग्रन्थों के समान मगधदेश तथा श्रेणिक नरेश के वर्णन से किया गया है और इसी वर्णन में प्रथम अधिकार समाप्त हुआ है। दूसरे अधिकार में वनपाल द्वारा भगवान महावीर के विपुलाचल
' यह ग्रन्थ बाबू सूरजभानु वकील, जैन सिद्धांत प्रचार मण्डली देवबन्द (सहारनपुर) से, सन् १६१० में प्रकाशित हुआ है।
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पर पधारने की सूचना मिलने पर राजा श्रेणिक का भगवान् की वन्दना को जाने का और समवसरण का विस्तृत वर्णन है । तीसरे अधिकार में श्रेणिक का भगवान् की वन्दना-स्तुति करके नियमादि के विषय में पूछने पर गौतम गणधर द्वारा धर्म का उपदेश प्रारम्भ किया गया है। चौथे अधिकार में सम्यक्त्व और उसके महत्व का वर्णन है। पाँचवें अधिकार में प्रथम दर्शनप्रतिमा का वर्णन और अष्टमूलगुणों का निरूपण तथा काकमांसत्यागी खदिरसार का कथानक है। छट्ठे अधिकार में पंच अणुव्रतों का, सातवें अधिकार में गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का वर्णन कर आशाधर प्रतिपादित दिनचर्या विधि का निर्देश किया गया है।
आठवें अधिकार में सामायिक प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा का वर्णन है। नौवें अधिकार में अणुव्रतों के रक्षणार्थ समितियों का, चार आश्रमों का, इज्या, वार्तादि षट्कर्मों का, पूजन के नाम स्थापनादि छः प्रकारों का और त्ि आदि का विस्तृत वर्णन है। दसवें अधिकार में सल्लेखना का वर्णन है। सूतक-पातक का वर्णन सर्वप्रथम इसी में मिलता है। स्पष्टतः इस कृति की रचना क्रमबद्ध योजना के साथ हुई है। इसमें प्रारम्भ से लेकर अन्त तक गृहस्थ जीवन की सम्पूर्ण आचारविधि एवं धर्मविधि का वर्णन हुआ है। यह कृति दिगम्बर परम्परानुसार रची गई है। धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार
इस श्रावकाचर की रचना मुनि ब्रह्मनेमिदत्त ने की है। यह कृति ' संस्कृत भाषा के ३६४ पद्यों में निबद्ध है। अन्य कृतियों के आधार पर इनका समय वि. सं. की १६ वीं शती का उत्तरार्ध है। इसमें पाँच अधिकार है।
प्रथम अधिकार में सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताकर उसके आठ अंगों का, २५ दोषों का और सम्यक्त्व के भेदों का वर्णन है। दूसरे अधिकार में सम्यक्ज्ञान और चारों अनुयोगों का स्वरूप बताकर द्वादशांगश्रुत के पदों की संख्या का वर्णन है । तीसरे में आठमूल गुणों का, चौथे में बारहव्रतों का वर्णनकर मंत्र जप, जिनबिम्ब और जिनालय के निर्माण का फल बताकर ११ प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है। पाँचवे अधिकार में सल्लेखना का वर्णन कर इसे समाप्त किया है।
यहाँ ज्ञातव्य हैं कि श्री ब्रह्मनेमिदत्त ने परिग्रहपरिमाणव्रत के अतिचार स्वामी समन्तभद्र के समान ही कहे हैं तथा रात्रिभोजन त्याग को छठा अणुव्रत कहा है। इस श्रावकाचार में ३५ गाथाएँ और 'उक्तं च ' कहकर श्लोक उद्धृत
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इसकी प्रकाशित प्रति देखने में नहीं आई हैं किन्तु 'श्रावकाचारसंग्रह' भा. २ में इसका संकलन अवश्य हुआ है। इस कृति का हिन्दी अनुवाद पं. हीरालाल जैन ने किया है।
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किये गये हैं। इसमें सबसे अधिक उद्धृत दोहे 'सावयधम्म दोहा' के हैं।
इस श्रावकाचार की अन्तिम प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि भट्टारक श्री विद्यानन्दि के पट्ट पर भट्टारक मल्लिभूषण हुए। उनके शिष्य मुनि सिंहनन्दि हुए और उनके शिष्य मुनि ब्रह्मनेमिदत्त थे।
श्री पद्मकृत - श्रावकाचार
यह श्रावकाचार हिन्दी की छन्दोबद्ध शैली में है।' इसकी रचना श्रीपद्म कवि ने की है। इसका रचना - समय वि.सं. १६१५ है । यह कृति २७५० श्लोक परिमाण है और इसे छब्बीस प्रकार के रासों में रचा गया है।
श्रीपद्मकवि ने जिन आचार्यों के श्रावकाचारों के आधार पर अपने श्रावकाचार की रचना की है उसमें स्वामी समन्तभद्र का रत्नकरण्डक, वसुनन्दि का श्रावकाचार, पं. आशाधर का सागारधर्मामृत और सकलकीर्ति का श्रावकाचार प्रमुख है। तदुपरान्त भी इसमें श्रावक की त्रेपन क्रियाओं का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है।
इस श्रावकाचार के प्रारम्भ में मंगलाचरण और श्रावकाचार विधि वर्णन के लिए माँ शारदा से प्रार्थना की गई है। उसके बाद राज श्रेणिक द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर गौतम गणधर ने गृहस्थ की त्रेपन क्रियाओं का निरूपण किया है। उसमें सम्यक्त्व एवं सम्यक्त्व के अंगों का, सप्तव्यसनों के त्याग का, जलगालन और उसकी विधि का, बारहव्रतों का एवं उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के कथानकों का, ग्यारह प्रतिमाओं का, बारह प्रकार के तपों का, चार प्रकार के ध्यान का, मन्त्रजाप की विधि और विभिन्न अंगुलियों से जाप के फल का और समाधिमरण आदि का विवेचन प्रमुख रूप से किया गया है।
पद्मचरितगत - श्रावकाचार
जैन परम्परा में मर्यादा पुरूषोत्तम राम की मान्यता त्रेसठशलाका पुरुषों में है। उनका एक नाम पद्म भी था। जैन पुराणों एवं चरितकाव्यों में यही नाम अधिक प्रचलित रहा है। जैन काव्यकारों ने राम का चरित्र पउमचरियं, पद्मपुराण, पद्मचरित आदि अनेक नामों से प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में प्रस्तुत किया है। इसी श्रृंखला में इस ग्रन्थ की रचना आचार्य रविषेण ने की है। यह कृ ति जैन समाज में 'पद्मपुराण' नाम से प्रसिद्ध है। यह रचना संस्कृत के १२२०२ पद्यों में गुम्फित है। इसमें ८५ पर्व हैं। इसका रचना समय वि.सं. की आठवीं शतका पूर्वार्ध है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के चौदहवें पर्व में श्रावकधर्म का वर्णन आया है। उसमें
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52/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
श्रावक के १२ व्रतों का वर्णन किया गया है। किन्तु उनमें अनर्थदंड, दिग्व्रत और भोगोपभोगव्रत इन तीन को गुणव्रत तथा सामायिक, पोषध, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना इन चार को शिक्षाव्रत कहा है। अन्त में मद्य, मांस, मधु, द्यूत, रात्रिभोजन और वेश्यासंग के त्याग का विधान किया है।
इस कृति के संक्षिप्त वर्णन से दो बातें स्पष्ट होती हैं - गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों की विभिन्नता और सप्तव्यसनों या मूलगुणों का कोई उल्लेख न करके मद्यादि छह निन्द्य कार्यों के त्याग का विधान। इससे ज्ञात होता है कि उनके समय तक शेष व्यसनों के सेवन का कोई प्रचार नहीं था। पुरूषार्थसिद्धयुपाय
___ इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य अमृतचन्द्र है जिन्होंने कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों पर विशद टीकाएँ रची है। उनकी यह कृति' संस्कृत के २२६ श्लोकों में रची गई है। इस कृति का रचनाकाल विक्रम की १० वीं शताब्दी है। यह ग्रन्थ श्रावकाचार की दृष्टि से अपना विशिष्ट स्थान रखता है।
इसके प्रारम्भ में 'परमज्योति की जय हो' ऐसा कहकर अनेकान्त को नमस्कार किया गया है। उसके बाद वक्ता और श्रोता का स्वरूप बताया है। इसके उपरान्त उपदेश देने का क्रम, सम्यक्त्व के भेद-प्रभेद-प्रकार, बारहव्रत, व्रतों के अतिचार, बारह प्रकार का तप, छः आवश्यक, तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह भावनाएँ, परीषह, बन्ध के कारण, हिंसा-अहिंसा का स्वरूप इत्यादि विषयों का आलेखन हुआ है। इस कृति की विशेषता हैं कि इसमें सभी व्रतों और अणुव्रतों को अहिंसा व्रत में गर्भित बताया है और अहिंसा व्रत की विस्तृत व्याख्या की हैं। इसका अपरनाम 'जिनप्रवचनरहस्यकोश' और 'श्रावकाचार' भी है। आशाधरजी ने धर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका में इस कृति के कई पद्य उद्धृत किये हैं।
टीकाएँ - इस पर अज्ञातकर्तृक टीका है। पण्डित टोडरमल ने इस
' (क) इस ग्रन्थ की प्रथम आवृत्ति ‘रायचन्द्र जैन ग्रन्थमाला' से वी.सं. २४३१ में और चौथी वी.सं. २४७६ में प्रकाशित हुई है।
यह कृति पंडित टोडरमलजी कृत भाषाटीका के हिन्दी अनुवाद सहित वि.सं. २०२६ में, श्री ब्र. दुलीचन्दजी जैन ग्रन्थमाला सोनगढ़ (सौराष्ट्र) से प्रकाशित हुई है।
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पर एक भाषा- टीका लिखी है। दूसरी भाषा टीका पं. भूधर ने वि.सं. १८७१ में रची है।
पुरुषार्थनुशासनगत - श्रावकाचार
इस ग्रन्थ के रचनाकार पं. गोविन्द है । यह रचना' संस्कृत पद्य में की गई है। इसका रचनाकाल वि.सं. की सोलहवीं शती का पूर्वार्ध है। यह कृति अपने नाम के अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का वर्णन करती है तथा इनका किस प्रकार पालन करना चाहिये? इसका अनुशासनात्मक विधान करने वाला होने से ग्रन्थ का नाम 'पुरुषार्थानुशासन' रखा गया है।
इसमें धर्मपुरुषार्थ का वर्णन श्रावक और मुनि के आश्रय से किया गया है । उसमें भी श्रावकधर्म का वर्णन छः अधिकारों के साथ हुआ है। इसमें अधिकार या परिच्छेद के स्थान पर 'अवसर' नाम का प्रयोग किया है।
प्रथम अवसर में चारों पुरुषार्थों की विशेषता का दिग्दर्शन है। दूसरे अवसर में राजा श्रेणिक का भ. महावीर के वन्दनार्थ जाना और 'मनुष्य जन्म की सार्थकता के लिए किस प्रकार का आचरण करना चहिए' इस प्रकार का प्रश्न पूछने पर गौतम गणधर द्वारा पुरुषार्थों के वर्णन रूप कथा सम्बन्ध का निरूपण है । तीसरे अवसर में सम्यग्दर्शन और दर्शनप्रतिमा सम्बन्धी विस्तृत वर्णन है। चौथे अवसर में पाँच अणुव्रत, तीनगुणव्रत और आदि के दो शिक्षाव्रतों का वर्णन व्रतप्रतिमा के अन्तर्गत किया गया है। पाँचवे अवसर में सामायिक प्रतिमा के अन्तर्गत सामायिक का स्वरूप बताकर उसे द्रव्य, क्षेत्रादि की शुद्धिपूर्वक करने का विधान है। इसके साथ ही पिण्डस्थ आदि धर्मध्यान का विस्तृत निरूपण करके उनके चिन्तन का विधान किया गया है। छठे अवसर में चौथी पोषधप्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक की आठ प्रतिमाओं का बहुत सुन्दर एवं विशद वर्णन किया गया है। अनुमति त्यागी किस प्रकार के कार्यों में अनुमति न दें और किस प्रकार के कार्यों में देवे इसका वर्णन पठनीय है। अन्त में समाधिमरण विधि का निरूपण किया गया है।
पूज्यपाद - श्रावकाचार
यह श्रावकाचार जैनेन्द्रव्याकरण, सर्वार्थसिद्धि आदि प्रसिद्ध ग्रन्थों के प्रणेता श्री पूज्यपाददेवनन्दि का रचा हुआ नहीं है किन्तु इस नाम के किसी भट्टारक या अन्य विद्वान् का रचा हुआ जान पड़ता है। यह कृति संस्कृत पद्य में
,
यह ग्रन्थ अभी तक स्वतंत्ररूप में अप्रकाशित है। इस ग्रन्थ का 'धर्मपुरुषार्थ' वाला भा. श्रावकाचार संग्रह भा. ३ में संकलित किया गया है।
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54/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
है। इसकी श्लोक संख्या १०३ है। इसका रचना काल अज्ञात है। इसमें अधिकार विभाग नहीं है।
प्रारम्भ में सम्यक्त्व का स्वरूप और महात्म्य बताकर आठ मूलगुणों का वर्णन है। पुनः श्रावक के बारह व्रतों का निरूपण करके सप्तव्यसनों के त्याग का
और कन्दमूलादि अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण का निषेध किया गया है। तत्पश्चात् मौन के गुण बताकर चारों प्रकार के दानों को देने का और दान के फल का विस्तृत वर्णन है। पुनः जिनबिम्ब के निर्माण का, जिन पूजन करने और पर्व के दिनों में उपवास करने का फल बताकर उनके करने की प्रेरणा की गई है। अन्त में रात्रिभोजन करने के दुष्फलों का और नहीं करने के सुफलों का सुन्दर वर्णन कर धर्म-सेवन सदा करते रहने का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इसमें संक्षेप में श्रावकोचित सभी कर्तव्यों का विधान किया गया है।
इस श्रावकाचार में महापुराण, यशस्तिलक, उमास्वामिश्रावकाचार, प्रश्नोत्तरश्रावकाचार आदि के श्लोकों को 'उक्तं च' आदि न कहकर ज्यों का त्यों अपनाया गया है। पंचविंशतिगत-श्रावकाचार
‘पंचविंशतिका' नामक ग्रन्थ के रचयिता मुनिद्मनन्दी (द्वितीय) है। इस ग्रन्थ में श्री पद्मनन्दी की रचनाओं का संग्रह है। यद्यपि यह संग्रह कृति 'पंचविंशतिका' के नाम से प्रसिद्ध है तब भी उसमें २६ रचनाएँ संकलित है।' इन संकलित रचनाओं में से दो कृतियाँ श्रावकाचार से सम्बन्धित हैं (१) उपासक संस्कार और (२) देशव्रतोद्योतन। ये दोनों रचनाएँ संस्कृत पद्य में हैं। इन दोनों में क्रमशः ६२ एवं २७ श्लोक हैं। इनका रचना समय लगभग वि.सं. की बारहवीं शती है।
प्रस्तुत कृति के 'उपासक संस्कार' नामक प्रकरण में गृहस्थ के देवपूजादि षट्कर्तव्यों का वर्णन करते हुए सामायिक की सिद्धि के लिए सप्तव्यसनों का त्याग आवश्यक बताया गया है। आगे श्रावक के लिए बारह व्रतों को पालने का, वस्त्र गालित जल पीने का और रात्रिभोजन परिहार का उपदेश दिया गया है। इसी क्रम में विनय को मोक्ष का द्वार बतलाकर विनय पालन की और दया और धर्म का मूल बताकर जीवदया करने की प्रेरणा दी है।
प्रस्तुत कृति के 'देशव्रतोद्योतन' में सर्वप्रथम सम्यक्त्वी पुरुष की प्रशंसा और मिथ्यात्वी की निन्दाकर सम्यक्त्व को प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है।
' देखिए, 'श्रावकसंग्रह' भा. ४, पृ. ४६
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आगे देवपूजानादि कर्त्तव्यों को नित्य करने की प्रेरणा दी गई है। चारों दानों को देने का महत्त्व बताया गया है। अन्त में जिनचैत्य और चैत्यालयों के निर्माण की प्रेरणा दी है और कहा है कि उनके होने पर ही पूजन-अभिषेक आदि पुण्य कार्यों का होना संभव है।
इस प्रकार इसमें श्रावक के कर्त्तव्यों का विधान संक्षेप में किया गया है। प्रश्नोत्तर-श्रावकाचार
यह श्रावकाचार' आचार्य श्री सकलकीर्ति का है। यह कृति संस्कृत पद्य में है। इसकी श्लोक संख्या २८८० है और यह सभी श्रावकाचारों से बड़ा है। शिष्य के प्रश्न करने पर उत्तर देने के रूप में इसकी रचना की गई है। इसका रचनाकाल विक्रम की १५ वीं शती है।
इस ग्रन्थ में चौबीस परिच्छेद हैं। इसके प्रथम परिच्छेद में धर्म की महत्ता, दूसरे में सम्यग्दर्शन और उसके विषयभूत सप्त तत्वों का एवं पुण्य-पाप का विस्तृत वर्णन, तीसरे में सत्यार्थ देव, गुरु, धर्म और कुदेव, कुगुरु, कुधर्म का विस्तृत वर्णन है।
चौथे परिच्छेद से लेकर दशवें परिच्छेद तक सम्यक्त्व के आठों अंगों में प्रसिद्ध पुरुषों के कथानक दिये गये हैं। ग्यारहवें परिच्छेद में सम्यक्त्व की महिमा का वर्णन है। बारहवें परिच्छेद में अष्ठमूलगुण, सप्तव्यसन, हिंसा के दोषों और अहिंसा के गुणों का वर्णनकर अहिंसाणुव्रत में प्रसिद्ध मातंग का और हिंसा-पाप में प्रसिद्ध धन श्री का कथानक दिया गया है। इसी प्रकार तेहरवें परिच्छेद से लेकर सोलहवें परिच्छेद तक सत्यादि चारों अणुव्रतों का वर्णन और उनमें प्रसिद्ध पुरुषों के तथा असत्यादि पापों में प्रसिद्ध पुरुषों के कथानक दिये गये है।
सतरहवें परिच्छेद में तीनों गुणव्रतों का वर्णन है। अठाहरवें परिच्छेद में देशावगासिक और सामायिक शिक्षाव्रत का तथा उसके ३२ दोषों का विस्तृत विवेचन है। उन्नीसवें परिच्छेद में पोषधोपवास का और बीसवें परिच्छेद में अतिथिसंविभाग का विस्तार से वर्णन किया गया है। इक्कीसवें परिच्छेद में चारों दानों में प्रसिद्ध व्यक्तियों के कथानक हैं। बाईसवें परिच्छेद में समाधिमरण का विस्तृत निरूपण है साथ ही तीसरी, चौथी, पाँचवी और छठी प्रतिमा का स्वरूप बताकर रात्रि भोजन के दोषों का वर्णन किया गया है। तेईसवें परिच्छेद में सातवीं, आठवीं और नवमी प्रतिमा का स्वरूप वर्णन है। चौबीसवें परिच्छेद में
' यह कृति शास्त्रकार में मुद्रित है। इसका सम्पादन-अनुवाद पं. लालारामजी ने किया है। यह कृति 'श्रावकाचार संग्रह' भा. २ में प्रकाशित है।
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56/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
दशवीं और ग्यारवहवीं प्रतिमा का वर्णन करके अन्त में छ: आवश्यकों का निरूपण किया गया है।
इस कृति के उक्त वर्णन से परिलक्षित होता हैं कि आचार्य सकलकीर्ति संस्कृत भाषा के प्रौढ़ विद्वान थे। इनके संस्कृत में रचित २६ ग्रन्थ और राजस्थानी में रचित ८ ग्रन्थ उपलब्ध है। मूलाचारप्रदीप में मुनिधर्म का और प्रस्तुत श्रावकाचार में श्रावकधर्म का विस्तार से वर्णन किया है जिससे ज्ञात होता है कि ये आचार शास्त्र के महान विद्वान थे।
सिद्धांतसारदीपक, तत्त्वार्थसारदीपक, कर्मविपाक और आगमसार आदि करणानुयोग और द्रव्यानुयोग के ग्रन्थ हैं। शान्तिनाथ, मल्लिनाथ और वर्धमानचरित आदि प्रथमानुयोग के ग्रन्थ हैं। इनके अतिरिक्त पांचपरमेष्ठीपूजा, गणधरवलयपूजा आदि अनेक पूजाएँ और समाधिमरणोत्साहदीपक आदि रचनाएँ इनकी बहुश्रुतता के परिचायक है। भव्यधर्मोपदेश-उपासकाध्ययन (सं.)
यह रचना श्री जिनदेव की है।' इसकी भाषा संस्कृत है। इसमें कुल ३६५ श्लोक हैं। इस श्रावकाचार में छह परिच्छेद है। इसका रचना समय विचारणीय है।
इस श्रावकाचार के प्रथम परिच्छेद में भ. महावीर का विपुलाचल पर पदार्पण, राजा श्रेणिक का वन्दनार्थ गमन, धर्मोपदेशश्रवण और इन्द्रभूतिगणधर द्वारा श्रावकधर्म का प्रारम्भ कराया गया है। गणधरदेव ने ग्यारह प्रतिमाओं का निर्देश किया है, उसमें दर्शन प्रतिमाधारी के लिए अष्ट मूलगुणों का पालन, रात्रिभोजन और सप्त व्यसन सेवन का त्याग आवश्यक बताया गया है।
दूसरे परिच्छेद में जीवादिक तत्त्वों का वर्णन किया गया है। तीसरे परिच्छेद में जीव तत्त्व की आयु, शरीर-अवगाहना, कुल, योनि आदि के द्वारा विस्तृत विवेचन किया गया है। चौथे परिच्छेद में व्रत-प्रतिमा के अन्तर्गत श्रावक के बारह व्रतों का और सल्लेखना का संक्षिप्त वर्णन है। पाँचवें परिच्छेद में सामायिकप्रतिमा के वर्णन के साथ ध्यान पद्धति का वर्णन है। छठे परिच्छेद में पौषधप्रतिमा का विस्तार से और शेष प्रतिमाओं का संक्षेप से वर्णन किया गया है। अन्त में २५ पद्यों की प्रशस्ति दी गई है। भावसंग्रहगत-श्रावकाचार (प्रा.)
___ 'भावसंग्रह' नामक इस कृति की रचना श्रीदेवसेन ने की है। यह कृति प्राकृत पद्य में है। इतिहासज्ञों ने देवसेन रचित ग्रन्थों का रचनाकाल वि.सं. की
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दशवीं शती का अन्तिम चरण और ग्यारहवीं शती का प्रथम चरण माना है।
प्रस्तुत कृति में प्रसंगवश चौदह गुणस्थानों का वर्णन हुआ है। उसमें पंचमगुणस्थान के अधिकार में श्रावकाचार का उल्लेख किया गया है। जिसमें धर्मध्यान की प्राप्ति के लिए सालम्ब और निरालम्ब ध्यान की चर्चा है। सालम्बध्यान के लिए देवपूजा, जिनाभिषेक, सिद्धचक्रयंत्र, पंचपरमेष्ठीयंत्र आदि की आराधना करने का विस्तृत वर्णन किया है। देवपूजन के वर्णन में शरीरशुद्धि, आचमन और सकलीकरण का विधान है। अभिषेक के समय अपने में इन्द्रत्व की कल्पनाकर और शरीर को आभूषणों से मंडित कर सिंहासन को सुमेरु मानकर उस पर जिन-बिम्ब को स्थापित करने, दिग्पालों का आह्वान करके उन्हें पूजन-द्रव्य आदि यज्ञांश प्रदान करने का भी विधान किया गया है। इस प्रकरण में पूजन के आठों द्रव्यों को चढ़ाने में फल का भी वर्णन किया है और पूर्व में आहूत देवों के विसर्जन का भी निर्देश किया है। भावसंग्रहगत-श्रावकाचार (सं.)
यह कृति' प्राकृत भावसंग्रह के आधार को लेकर रची गई है। इस कृति के प्रणेता पं. वामदेव है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर श्रावकधर्म का वर्णन किया गया है। सामायिकशिक्षाव्रत के अन्तर्गत जिनपूजा का विधान और उसकी विस्तृत विधि का वर्णन प्राकृत भावसंग्रह के समान ही किया गया है। अतिथिसंविभागवत का वर्णन दाता, पात्र, दानविधि और देयवस्तु के साथ विस्तार से किया गया है। तीसरे प्रतिमाधारी के लिए 'यथाजात' होकर सामायिक करने का विधान किया गया है। शेष प्रतिमाओं का वर्णन परम्परा के अनुसार ही है। इसी क्रम में आगे श्रावक के षटकर्त्तव्यों का, पूजा के भेदों का, चारों दानों का वर्णन किया गया है। अन्त में पुण्योपार्जन करते रहने का उपदेश दिया गया है। इसमें वर्णित ग्यारह प्रतिमाओं के वर्णन पर रत्नकरण्ड के अनुसरण का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है, पर इसमें ग्यारहवीं प्रतिमाधारी के दो भेदों का उल्लेख किया गया है।
पं. वामदेव ने भावसंग्रह के अतिरिक्त १. प्रतिष्ठासूक्तिसंग्रह २. त्रैलोक्यदीपक ३. त्रिलोकसारपूजा ४. तत्त्वार्थसार ५. श्रुतज्ञानोद्यापन और ६. मन्दिरसंस्कारपूजन नामक ये छह ग्रन्थ भी रचे हैं।
' यह संग्रह सानुवाद 'श्रावकाचार संग्रह' भा. ३ में प्रकाशित है।
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58/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
महापुराण (आदिपुराण-उत्तरपुराण गर्भित) श्रावकधर्म
'महापुराण' यह जैन साहित्य की अनमोल कृति' है। इसमें त्रेसठशलाकापुरुषों का जीवनवृत्त सविस्तृत निरूपित हुआ है। यह दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग 'आदिपुराण' और द्वितीय भाग 'उत्तरपुराण' के नाम से प्रसिद्ध है। आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन है तथा उत्तरपुराण के रचयिता जिनसेनाचार्य के शिष्य आचार्य गुणभद्र है।
यहाँ पुराण शब्द का तात्पर्य- प्राचीन महापुरूषों के जीवनवृत्त एवं उनके उपदेशों को प्रस्तुत करना है। इस दृष्टि से महापुराण का अर्थ होता है महाकल्याण करने वाली बातों को निरूपित करने वाला ग्रन्था . महापुराण का प्रथम भाग जो आदिपुराण के नाम से जाना जाता है उसके कुछ सर्ग विधि-विधान से सम्बन्ध रखते हैं। वस्तुतः यह ग्रन्थ संस्कृत के १६२०७ श्लोक में निबद्ध है। इसमें ७६ क्रियाकाण्ड एवं पूजाविधान से सम्बन्धित है। ३८ वे पर्व में ३१३, ३६ वे पर्व में २११ और ४० वे पर्व में २२३ श्लोक हैं।
प्रस्तुत कृति के उक्त पर्यों में यह उल्लेख हैं कि जब भरतचक्रवर्ती दिगविजयी होकर लौटते हैं उनके हृदय में यह विचार उठता है कि मेरी सम्पत्ति का सदुपयोग कैसे हो? मुनिजन तो धन रखते नहीं है। अतः गृहस्थों की परीक्षा करके जो व्रती सिद्ध हुए उनका दानमानादि से अभिनन्दन करते हैं
और उनके लिए इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश देते हैं। यहाँ इज्या नाम पूजा का है। उसके नित्यग्रह, महामह, चतुर्मुखमह और कल्पद्रुममह ये चार भेद कहे हैं। इसमें इसकी विधि और इस पूजा के अधिकरी बताये गये हैं। विशुद्धवृत्ति से कृषि आदि के द्वारा जीविकोपार्जन करना वार्ता है। पुनः दत्ति के चार भेदों का उपदेश दिया गया है। स्वाध्याय, संयम एवं तप के द्वारा आत्मसंस्कार का उपदेश देकर उनकी ब्राह्मण संज्ञा घोषित की है तथा ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) से चिहितकर श्रावक के लिए करने योग्य तीन क्रियाओं का वर्णन किया गया हैं।
प्रथम गर्भान्वयी क्रियाओं के ५३ भेदों का पृथक्-पृथक् वर्णन ३८ वें पर्व में किया गया है। दूसरी दीक्षान्वयी क्रियाओं के ८ भेदों का विस्तृत वर्णन ३८ वें पर्व में किया गया है तथा तीसरी कन्वयी क्रिया के ७ भेदों का सुन्दर वर्णन पुनः इसी पर्व में किया गया है।
' इस कृति का अनुवाद डॉ. पन्नालाल जैन ने किया है। यह ग्रन्थ 'भारतीय ज्ञानपीठ-नई दिल्ली' से सन् १६४४ में प्रकाशित हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/59
यहाँ उल्लेखनीय हैं कि व्रतों का धारण करना दीक्षा है। इन व्रतों का धारण अणुव्रत और महाव्रत दो प्रकार से होता है। व्रत-धारण करने के अभिमुख पुरूष की क्रियाओं को दीक्षान्वयी क्रिया कहा है।
इसमें गर्भाधानादि क्रियाओं के पूर्व करने योग्य आवश्यक कार्यों का भी निर्देश दिया है इसके साथ ही उपर्युक्त तीनों प्रकार की क्रियाओं के समय बोले जाने वाले पीठिका मंत्र और विधानादि भी विवेचित हैं। इन मन्त्रों में गर्भाधान-मंत्र, धृतिक्रिया-मंत्र, मोदक्रिया-मंत्र, प्रियोदभव-मंत्र, बहिर्यान-मंत्र, अन्नप्राशनक्रिया-मंत्र, चौलकर्म-मंत्र, लिपि- संख्यान-मंत्र, उपनीतिक्रिया-मंत्र आदि प्रमुख रूप से उल्लिखित हैं।
इस प्रकार ब्राह्मण का उपनयन संस्कार करते समय अणुव्रत, गुणव्रत और शीलादि से संस्कार करने का तथा व्रतोच्चारण के समय मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर के त्याग का उपदेश दिया गया है।
उक्त वर्णन से सुज्ञात होता है कि महापुराण में श्रावक सम्बन्धी संस्कार विधियों का संक्षिप्त किन्तु शास्त्रोक्त वर्णन हुआ है। इसमें अन्य क्रियाकाण्ड अधिक चर्चित हुए हैं। यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन
श्री सोमदेवसूरि ने अपने प्रसिद्ध और महान् ग्रन्थ यशस्तिलकचम्पू के छठे, सातवें और आठवें आश्वास में श्रावकधर्म विधि का अति विस्तार से वर्णन किया है और इसलिए उन्होंने स्वयं ही उन आश्वासों का 'उपासकाध्ययन' नाम रखा है। यह ग्रन्थ संस्कृत गद्य एवं पद्य की मिश्रित शैली में है। इसका रचना समय वि.सं. १०१६ है। इसका अपरनाम 'यशोधरचरित्र' है।
प्रस्तुत कृति में यशोधर राजा को लक्ष्य करके श्रावकधर्म का वर्णन किया गया है किन्तु वह सभी भव्य पुरुषों के निमित्त किया गया जानना चाहिये। इन्होंने धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है कि जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की प्राप्ति हो, वह धर्म है। आगे कहा है गृहस्थ का धर्म प्रवृत्ति रूप है उस दृष्टि से सम्यक्त्व, सम्यक्त्व के दोष, सम्यक्त्व के भेद-प्रभेद आदि का वर्णन किया है।
सातवें आश्वास में आठ मूलगुण, बारह व्रत, रात्रिभोजननिषेध, अभक्ष्य वस्तु का निषेध, प्रायश्चित्त का विधान, प्रायश्चित्त देने का अधिकारी आदि का उल्लेख किया है।
' (क) प्रस्तुत कृति के उक्त तीन आश्वास 'श्रावकाचार संग्रह' में संगृहीत है।
(ख) यह ग्रन्थ 'भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली' से प्रकाशित है तथा इसका अनुवाद पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने किया है।
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60/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
आठवें आश्वास में चारों शिक्षाव्रतों का वर्णन किया गया है। सामायिक शिक्षाव्रत के अन्तर्गत देवपूजा का विस्तृत विवेचन किया है। पूजन के इस प्रकरण में सोमदेव ने उसकी दो विधियों का वर्णन किया है- एक तदाकार मूर्तिपूजन विधि और दूसरी अतदाकार सांकल्पिक पूजन विधि। प्रथम विधि स्नपन और अष्टद्रव्य का विधान होने से अर्चनाप्रधान है और द्वितीय विधि आराध्यदेव की आराधना, उपासना या भावपूजा प्रधान है। उन्होंने त्रिसन्ध्य-प्रजन का समन्वय करने के लिए कहा है कि सामायिक का काल तीनों सन्ध्याएँ हैं अतः उस समय गृहस्थ गृहकार्यों से निवृत्त होकर अपने उपास्यदेव की उपासना करे, यही उसकी सामायिक है।
सोमदेवसूरि ने इस पूजन प्रकरण में गृहस्थों के लिए कुछ ऐसे कार्य करने का भी निर्देश किया है जिन पर ब्राह्मण धर्म का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है जैसे- बाहिर से आने पर आचमन किये बिना घर में प्रवेश करने का निषेध
और भोजन की शुद्धि के लिए होम और भूतबलि का विधान आदि। इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र, शान्ति आदि कई भक्तियों का भी उल्लेख हुआ है। गृहस्थ के दैनिक षट् आवश्यकों का वर्णन हुआ है।
इस समग्र चर्चा से ज्ञात होता है ग्रन्थकार ने श्रावकधर्म के सभी आवश्यक कृत्यों को अल्पशब्दों में समेटने का अद्भुत प्रयास किया है। इतना ही नहीं गृहस्थ के दैनिक षट् कर्त्तव्यों का जैसा विस्तार से वर्णन किया है वैसा अन्य श्रावकाचार में मिलना असंभव है। सोमदेवसूरि 'स्याद्वादाचलसिंह', 'तार्किकचक्रवर्ती', 'वाक-कल्लोल पयोनिधि' आदि उपाधियों से विभूषित थे। इनके नीतिवाक्यामृत, अध्यात्मतरंगिणी आदि कई ग्रन्थ और भी है। रयणसारगत श्रावकाचार
यह कृति आचार्य कुन्दकुन्द की है। कुछ इतिहासज्ञ ‘रयणसार' को कुन्दकुन्द की कृति नहीं मानते हैं। इसमें श्रावक और मुनिधर्म का वर्णन किया गया है। उसमें श्रावकधर्म का वर्णन प्राकृत के ७५ पद्यों में निबद्ध है। इसमें श्रावकधर्म सम्बन्धी अनेक विषय चर्चित हुए हैं उनमें सम्यक्त्व के चवालीस दोष, शील आदि अनेक प्रकार का तपश्चरण, सम्यग्दर्शन का माहात्म्य आदि विशेष हैं। इसमें और भी कई विशेष बातें कही गई है; जैसे कि १. श्रावकधर्म में दान और जिनपूजन प्रधान है और मुनिधर्म में ध्यान एवं स्वाध्याय मुख्य है। २. जीर्णोद्धार, पूजा-प्रतिष्ठादि से बचे हुए धन को भोगने वाला मनुष्य दुर्गतियों के दुःख भोगता है। ३. इन्द्रियों के विषयों से विरक्त अज्ञानी की अपेक्षा इन्द्रियों के विषयों में आसक्त ज्ञानी श्रेष्ठ है। ४. गुरुभक्ति-विहीन अपरिग्रही शिष्यों का तपश्चरणादि ऊसर भूमि में बोये गये बीज के समान निष्फल है। ५. उपशमभाव पूर्वोपार्जित
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कर्म का क्षय करता है और नवीनकों का आसव रोकता है इत्यादि। रत्नमालागत-श्रावकाचार
इस कृति के रचयिता आ. शिवकोटि है। किन्तु ये शिवकोटी भगवती आराधना के शिवार्य से भिन्न प्रतीत होते हैं। यह कृति संस्कृत पद्य में निबद्ध है। इसमें कुल ६७ श्लोक हैं। इसका रचनाकाल वि.सं. की दूसरी शती बताया गया है, किन्तु यह भी विवादास्पद है इसमें वर्णित विषयों के आधार पर यह परवर्तीकाल की किसी शिवकोटि के रचना प्रतीत होती है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में रत्नत्रय धर्म की महत्ता बतलाते हुए भी श्रावकधर्म का ही प्रमुखता से वर्णन किया गया है। अन्य श्रावकाचार सम्बन्धी कृतियों के समान ही इसमें श्रावकाचार का विधान कहा गया है। मुख्यतया अष्टमी आदि पर्यों में सिद्धभक्ति आदि करने का, त्रिकाल वन्दना करने का एवं शास्त्रोक्त अन्य भी क्रियाओं के करने का विधान बताया गया है। इसके साथ ही इसमें यह भी निर्देश दिया है कि व्रतों में अतिचार लगने पर गुरु प्रतिपादित प्रायश्चित्त लेना चाहिये। इसके अतिरिक्त चैत्य और चैत्यालय बनवाने का, मुनिजनों की वैयावृत्य करने का तथा सिद्धांत ग्रन्थ एवं आचारशास्त्र को पढ़ने वालों में धन व्यय करने का विधान बताया गया है। रत्नकरण्डक-श्रावकाचार
इस ग्रन्थ के कर्ता श्री समन्तभद्रस्वामी है।' इसे 'उपासकाध्ययन' भी कहते हैं। यह रचना संस्कृत भाषा के १५० पद्यों में निबद्ध है। यह कृति आँठ परिच्छेदों में विभक्त है। कहीं सात परिच्छेदों का भी उल्लेख मिलता है। इस ग्रन्थ पर प्रभाचन्द्र की जो टीका है उसमें समग्र कृति को पाँच परिच्छेदों में विभक्त किया गया है। इसका रचनाकाल लगभग वि.सं. की चौथी शती हैं। यहाँ ज्ञातव्य हैं कि श्रावकधर्म का निरूपण करने वाले अनेक ग्रन्थों में प्रस्तुत ग्रन्थ सर्वाधिक प्राचीन एवं सर्वमान्य ग्रन्थराज है। दिगम्बराचार्यों के द्वारा श्रावकधर्म का निरूपण करने सम्बन्धी जो भी ग्रन्थ रचे गये हैं उनके नाम प्रायः श्रावकाचार नाम ही पाया जाता है जैसे- रत्नकरण्डकश्रावकाचार, अमितगतिश्रावकाचार, वसुनन्दिश्रावकाचार, धर्मसंग्रह- श्रावकाचार, प्रश्नोत्तरश्रावकाचार आदि।
' यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद के साथ 'पं. सदासुख ग्रन्थमाला, श्री वीतराग विज्ञान-स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट, वीतराग विज्ञान भवन, पुरानी मण्डी, अजमेर' से सन् १६६७ में प्रकाशित हुआ है। यह द्वि. आ. है। इस कृति के सटीका और हिन्दी-गुजराती अनुवाद के साथ अन्य संस्करण भी निकले हैं।
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62 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
यहाँ आचार शब्द का अर्थ धर्म है तदुपरान्त विधि-नियम रूप बाह्याचार भी ग्रहण करना चाहिये। इसमें जैन श्रावक की बहुत सी आचार विधियों एवं उनकी कृतियों का वर्णन हुआ है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में वर्धमान महावीर को नमस्कार किया है और धर्म का स्वरूप कहने की प्रतिज्ञा की गई है। अन्त में 'सम्यग्दर्शन' रूपी लक्ष्मी से स्वयं के लिए पवित्र, उज्जवल एवं सुखी ( शुद्धस्वभावी) बनने की प्रार्थना की गई है।
प्रस्तुत कृति के प्रथम परिच्छेद में सम्यग्दर्शन का स्वरूप वर्णित है । उसमें सुदेव - सुगुरु- सुधर्म, आठमद, सम्यक्त्व के निःशंकित आदि आठ अंग आदि की जानकारी दी गई है। दूसरे परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान का लक्षण कहकर चार अनुयोगों का संक्षिप्त स्वरूप बतलाया गया है। तीसरा परिच्छेद सम्यक्चारित्र से सम्बन्धित है। इसमें चारित्र के सकल और विकल ये दो भेद बतलाकर विकलचारित्र के बारह भेद अर्थात् श्रावक के बारह व्रतों का निर्देश करके पाँच अणुव्रत और उनके अतिचारों का वर्णन किया गया है। चौथे परिच्छेद में तीन गुणव्रतों का, पाँचवे परिच्छेद में चारशिक्षाव्रतों का, छठे परिच्छेद में पाँच अणुव्रतों की भावनाएँ, संवेगादि भावनाएँ, अनित्यादि बारह भावनाएँ कही गई है। साँतवें परिच्छेद में सल्लेखना का और आठवें परिच्छेद में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही आहारदानविधि, जिनपूजनविधि, धर्मकरने की विधि, व्रतापालनविधि, सल्लेखना ग्रहण विधि आदि का भी निरूपण हुआ है। इस संस्करण के अन्तर्गत प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में उस-उस विषय का परिशिष्ट भी दिया गया है। संक्षेपतः यह कृति श्रावकाचार एवं श्रावक धर्म विधि का समीचीन विवरण प्रस्तुत करती है। साथ ही अपने नाम की अर्थवत्ता को भी उजागर करती हैं। इस पर प्रभाचन्द्र ने १५०० श्लोक परिमाण टीका रची है। दूसरी एक टीका ज्ञानचन्द्र मुनि ने लिखी है। इनके अतिरिक्त एक अज्ञातकर्तृक टीका भी है ।
लाटीसंहिता - श्रावकाचार
'लाटीसंहिता' नामक ग्रन्थ' की रचना श्री राजमल्ल ने की है। यह कृति संस्कृत के १३२४ श्लोकों में ग्रथित है। इसका रचना समय वि.सं. की १७ वीं .
१
(क) इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद पं. लालाराम जी ने किया है तथा यह कृति सानुवाद 'भारतीय जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था, कोलकात्ता' से वी. सं. २४६४ में प्रकाशित है।
(ख) इसकी मूल प्रति 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' से प्रकाशित है ।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/63
शती का मध्यकाल है। इसमें सात सर्ग हैं। इन प्रत्येक सर्ग के अन्त में जो पुष्पिका दी है, उसमें इसे 'श्रावकाचार' अपरनाम 'लाटी संहिता' दिया है, तो भी उनका वह श्रावकाचार 'लाटी संहिता' के नाम से ही प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है।
यह जानने योग्य हैं कि लाटदेश में प्रचलित गृहस्थ-धर्म या जैन आचार-विचारों का संग्रह होने से इसका लाटीसंहिता नाम रखा गया है। इसके प्रथम सर्ग में वैराटनगर, अकबरबादशाह, भट्टारक-वंश और उनके वंशधरों द्वारा बनाये गये जिनालय आदि का विस्तृत वर्णन है। दूसरे सर्ग में अष्टमूल गुणों के धारण करने और सप्तव्यसनों के त्याग का वर्णन है। तीसरे सर्ग में सम्यग्दर्शन का सामान्य स्वरूप भी बहुत सूक्ष्म एवं गहनचिंतन के साथ वर्णित है। चौथे सर्ग में सम्यग्दर्शन के आठों अंगों का विस्तृत विवेचन है। पाँचवे सर्ग में अहिंसाणुव्रत का विस्तृत वर्णन है। छटे सर्ग में शेष चार अणुव्रतों का, गुणव्रत, शिक्षाव्रत के भेदों का और सल्लेखना का वर्णन है। सातवें सर्ग में सामायिकादि शेष प्रतिमाओं का और द्वादश तपों का निरूपण है।
प्रस्तुत कृति के अवलोकन से यह ज्ञात होता हैं इसमें श्रावकव्रतों का वर्णन परम्परागत ही हुआ है तथापि प्रत्येक व्रत के विषय में उठने वाली शंकाओं को स्वयं उठा करके उसका सयुक्तिक और सप्रमाण समाधान दिया गया है।
___इन्होंने जम्बूस्वामीचरित, अध्यात्मकमलमार्तण्ड और पिंगलशास्त्र नामक ग्रन्थ भी रचे हैं। वसुनन्दि-श्रावकाचार
यह कृति आचार्य वसनन्दि की है। इस प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'उपासकाध्ययन' भी है, पर सर्वसाधारण में यह 'वसुनन्दि-श्रावकाचार' के नाम से प्रसिद्ध है। उपासक अर्थात् श्रावक, अध्ययन अर्थात् जिसमें श्रावक की आचार विधि का विचार किया गया हो वह उपासकाध्ययन कहलाता है। द्वादशांगश्रुत के भीतर उपासकाध्ययन नामक सातवाँ अंग माना गया है, जिसमें श्रावक के सम्पूर्ण आचार का वर्णन है। उस दृष्टि से इस कृति को श्रावक की आचारविधि एवं आवश्यकविधि से सम्बन्धित कह सकते हैं।
- इसकी भाषा शौरसेनी प्राकत है, जो कि प्रायः सभी दिगम्बर आचार्यों ने अपनाई है। ग्रन्थ में कुल गाथायें ५४६ है। पूर्वार्ध भाग में ३१८ पद्य है और द्वितीय
' (क) यह कृति हिन्दी अनुवाद के साथ 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. करौंदी रोड़ वाराणसी' से सन् १९६६ में प्रकाशित हुई है। (ख) इसका हिन्दी अनुवाद मुनि सुनीलसागर जी ने किया है।
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64 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
भाग में २२७ गाथाएँ हैं। संक्षेप में कहें तो आचार्य वसुनन्दि ने ग्यारह प्रतिमाओं को आधार बनाकर श्रावकधर्म का वर्णन किया है। उन्होंने सर्वप्रथम दार्शनिक श्रावक के लिए सप्त व्यसनों का त्याग आवश्यक बताया है तथा व्यसनों के दुष्फल का विस्तार से वर्णन किया है। बारह व्रतों और ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन गणधर ग्रथित माने जाने वाले श्रावक प्रतिक्रमणसूत्र के अनुसार किया गया है और उसकी गाथाओं का ज्यों का त्यों अपने श्रावकाचार में संग्रह कर लिया है।
इनके अतिरिक्त पंचमी, रोहिणी, अश्विनी आदि व्रत-विधानों का, पूजन के छः प्रकारों का और बिम्ब-प्रतिष्ठा आदि का भी विस्तृत विवेचन हुआ है। इसमें धनिये के पत्ते के बराबर जिनभवन बनवाकर सरसों के बराबर प्रतिमा स्थापना का महान् फल बताया गया है । इस कथन को परवर्ती अनेक श्रावकाचार रचयिताओं ने अपनाया है । भावपूजन के अन्तर्गत पिण्डस्थ आदि ध्यानों का भी विस्तृत वर्णन किया गया है । अष्ट द्रव्यों से पूजन करने के फल के साथ ही छत्र, चामर और घण्टादान का भी फल बताया गया है। विनय और वैयावृत्यतप का भी यथा स्थान वर्णनकर श्रावकों के लिए उसे करने की प्रेरणा की गई है। कुछ विस्तार से कहना हों तो प्रस्तुत कृति में निम्न विषय चर्चित हुए हैं
१ से १० तक की गाथाओं में सम्यग्दर्शन, आप्त उपदेश सुनने की प्रेरणा आदि का वर्णन है, ११ से १५ तक की गाथाएँ जीवतत्त्व से सम्बन्धित है, १६ से ४६ तक की गाथाओं में अजीव तत्त्व का विवेचन हैं, ४६ से ५६ तक की गाथाएँ सम्यक्दर्शन का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है, ५७ से १३४ तक की गाथाओं में सामान्य श्रावकाचार का प्रतिपादन है। इनमें सप्तव्यसन त्याग का उपदेश भी है १३५ से १७६ तक की गाथाओं में नरकगति के दुःखों का वर्णन है। इनमें कहा गया है कि जो जीव सप्तव्यसनादि का सेवन करता है उसे नरकादि गतियों में भ्रमण करना पड़ता है और वहाँ के भयंकर दुखों को झेलना पड़ता है। इसी दृष्टि से नरकगति, मनुष्यगति एवं देवगति के दुःख भी दिखाये गये हैं। २०५ से २०६ तक की गाथाओं में प्रथम दर्शन प्रतिमा का निरूपण है। २०७ से २७६ तक की गाथाओं में दूसरी व्रतप्रतिमा का विस्तृत व्याख्यान हुआ है। इनमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत तथा अतिथिसंविभाग के सम्बन्ध में पात्र - भेद, दाता-गुण, दान-विधि, दातव्य, दान- फल और सल्लेखना इत्यादि के लक्षण बताये गये हैं। इसके अन्तर्गत नवधाभक्ति की विधि भी कही गई है। २७४ से ३०० तक की गाथाओं में सामायिकादि शेष नौ प्रतिमाओं को स्वीकार करने की विधि प्रतिपादित है । पोषधोपवास की विधि उत्कृष्ट - मध्यम - जघन्य की अपेक्षा तीन प्रकार की कही है । ३०१ से ३१८ तक की गाथाएँ रात्रिभोजन
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/65
करने से होने वाली हानियों का निरूपण करती है। ३१६ से ३३६ तक श्रावक के अन्य कर्तव्यों का निर्देश करते हुए विनय का स्वरूप कहा है। ३३७ से ३५० तक वैयावृत्य से होने वाले लाभ बताये गये हैं। ३५१ से ३५२ तक कायक्लेश तप के प्रकार वर्णित है। ३५३ से ३७६ तक गाथाओं में पंचमीव्रत, रोहिणीव्रत, अश्विनीव्रत, सौख्यसंपत्तिव्रत, विमानपंक्तिव्रत आदि की तप विधियाँ कही गई है। ३८० से ५३८ तक नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव छह प्रकार की पूजाओं का शास्त्रोक्त विवेचन किया है। स्थापना पूजा के अन्तर्गत कारापक एवं इन्द्र के लक्षण तथा प्रतिमाविधान और प्रतिष्ठा विधान उल्लिखित हुए हैं। भावपूजा के सन्दर्भ में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार प्रकार के ध्यान बताये गये हैं। अन्त में सात पद्य प्रशस्ति रूप में दिये गये हैं। उनमें ग्रन्थकार ने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है और स्वयं को आचार्य नेमिचन्द्र का शिष्य बताया है तथा ग्रन्थ के प्रति अपनी लघुता प्रगट की है। साथ ही इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण ३५० कहा है। "
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि इसमें श्रावकाचारविधि का क्रमशः वर्णन किया गया है। इसके साथ ही इसमें तद्विषयक अन्य विशिष्ट सामग्री का भी उल्लेख हुआ है जो निःसंदेह पठनीय और मननीय है। इस कृति के परिशिष्ट भाग में पंचअणुव्रत आदि के कथानक दिये गये हैं। वरांगचरितगत-श्रावकाचार
वरांगचरित नामक इस ग्रन्थ की रचना महाकाव्य के रूप में हुई है। इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य जटासिंहनन्दि है। यह कृति' संस्कृत पद्य में रची हुई है। इसमें ३१ सर्ग हैं। इसका रचना समय वि.सं. की आठवी-नवमीं शताब्दी का मध्यवर्ती काल है।
इस महाकाव्य के १५ वें सर्ग में श्रावकधर्म का वर्णन उल्लिखित हुआ है। इस सर्ग के प्रारम्भ में धर्म से सुख की प्राप्ति बताकर उसको धारण करने की प्रेरणा की गई है तथा गृहस्थों को दुखं से छूटने के लिए व्रत, शील, तप, दान, संयम और अर्हत्पूजन करने का विधान किया गया है। आगे श्रावक के बारहव्रत कहे गये हैं। इसमें देवता की प्रीति के लिए, अतिथि के आहार के लिए, मंत्र के साधन के लिए, औषधि को बनाने के लिए और भय के प्रतीकार के लिए किसी भी
' (क) इसका हिन्दी अनुवाद प्रो. खुशालचन्द्रजी गोरावाला ने किया है।
(ख) यह कृति सानुवाद सन् १६६६ में 'भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्' ने प्रकाशित की है।
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66/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
प्राणी की हिंसा नहीं करने को अहिंसाणुव्रत कहा है। आगे प्रातः और सांयकाल अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म को नमस्कार पूर्वक उनके ध्यान करने को, सर्वप्राणियों पर समताभाव रखने को, संयमधारण करने की भावना करने को और आर्त्त-रौद्रध्यान का त्याग करने को सल्लेखना शिक्षाव्रत कहा है। अन्त में बताया है कि जो विधिपूर्वक उक्त व्रतों का पालन करते हैं वे अवश्य ही परमपद को प्राप्त करते हैं। इस ग्रन्थ के १५, १६ सर्गों में विशाल जिन मन्दिरों का वर्णन है। व्रतसार-श्रावकाचार
इसके रचयिता का नाम अज्ञात है। यह श्रावकाचार अन्य श्रावकाचारों की अपेक्षा सबसे लघुकाय वाला है। इसमें केवल २२ श्लोक हैं जिनमें दो प्राकृत गाथाएँ भी परिगणित' है। इसके भीतर सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि का स्वरूप, समन्तभद्र प्रतिपादित श्लोक के साथ अष्ट मूलगुणों का निर्देश, अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण का, अगलित जल-पान का निषेध, बारहव्रतों का नामोल्लेख और हिंसक पशु-पक्षियों को पालने का निषेध किया गया है। रात्रिभोजन को तत्त्वतः आत्मघात कहा गया है। सुख-दुःख, मार्ग-संग्राम आदि के नमस्कार मंत्र स्मरण करते रहने का उपदेश दिया है तथा यात्रा, पूजा, प्रतिष्ठा और जीर्ण चैत्य-चैत्यालयादि के उद्धार की प्रेरणा दी गई है। .
इसके अन्तिम श्लोक में कहा है कि इस 'व्रतसार' में वर्णित विधि-नियमों का शक्ति के अनुसार पालन करने वाला अवश्य मोक्ष जायेगा। व्रतोद्योतन-श्रावकाचार
__इस श्रावकाचार की रचना श्री अभ्रदेवमुनि ने प्रवरसेनमनि के आग्रह से की है। यह रचना संस्कृत के ५४२ पद्यों में सुग्रथित है। इसका रचना समय वि. सं. १५५६ से १५६३ के मध्य जानना चाहिये। यह अपने नाम के अनुरूप ही व्रतों का उद्योत करने वाला श्रावकाचार है। इसमें कोई अध्याय-विभाग नहीं है। प्रारम्भ में प्रातःकाल उठकर, शरीरशुद्धि कर जिनबिम्बदर्शन एवं पूजन करने का उपदेश है। उसके बाद रजस्वला स्त्री के लिए पूजन और गृहकार्य करने का निषेध किया है तथा पूर्वभव में मुनि निन्दा करने वाली स्त्रियों का उल्लेख किया है। पुनः अभक्ष्य भक्षण, कषायों के दुष्फल, पंचेन्द्रिय विषय और सप्त व्यसन सेवन के दुष्फल बताकर कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि पुरुष नवीन मुनि की तीन दिन तक परीक्षा करके पीछे नमस्कार करें। तदनन्तर श्रावक के बारहव्रतों का, सल्लेखना
' यह ग्रन्थ अभी तक कहीं से स्वतंत्ररुप से प्रकाशित नहीं हुआ है। इसका अनुवाद पं. हीरालाल जैन शास्त्री ने किया है। यह रचना 'श्रावकाचार संग्रह' भा. ३ में प्रकाशित है।
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का और बारह भावनाओं का वर्णन किया गया है। फिर पाक्षिक, नैष्ठिक, साधक का स्वरूप बताया गया है तथा उनको परीषह सहने, समिति पालने, अनशनादि तपों के करने और सोलह भावनाओं के भाने का उपदेश दिया गया है। इसके साथ ही आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि की गई है। आगे ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व का निराकरण कर जैन मान्यता प्रतिष्ठित की गई है। अन्त में मिथ्यात्व आदि कर्मबन्ध के कारणों का वर्णन किया गया है। अहिंसादि व्रतों के अतिचारों का, व्रतों की भावनाओं का, सामायिक के बत्तीस और वन्दना के बत्तीस दोषों का वर्णन किया गया है। इस श्रावकाचार के कुछ बिन्दु विशेष रूप से विचारणीय है।'
निष्कर्षतः इस श्रावकाचार की रचना कवित्वपूर्ण एवं प्रसादगुण से युक्त है और महाकाव्यों के समान यह विविध छन्दों मे रचा गया है।२।। श्रावकव्रतधारण-विधि
यह कृति हिन्दी भाषा में रचित है। इस कृति के लेखक छोगमलजी चोपड़ा है। बारहव्रतों का स्वरूप समझने एवं उन्हें ग्रहण करने की दृष्टि से यह कृति अत्यन्त उपयोगी है। इसमें बारहव्रतों का सविस्तार विवेचन हुआ है। साथ ही 'बारहव्रतधारण करने की विधि' भी उल्लिखित हुई है।
इस पुस्तक का अवलोकन करने से ज्ञात होता हैं कि यह कृति तेरापंथ की आम्नाय (परम्परा) के अनुसार लिखी गई है। इसके तीन संस्करण बाहर आ चुके हैं। श्रावकाचार-सारोद्वार
यह कृति श्रीप्रभाचन्द्र के शिष्य श्री पद्मनन्दि ने रची है। इसकी शैली संस्कृत है। इसमें ११४६ श्लोक हैं। इसका रचनाकाल वि.सं. की १४ वीं शती का पूर्वार्ध माना गया है। यह तीन परिच्छेदों में विभक्त है। प्रथम परिच्छेद में पुराणों के समान मगधदेश, राजा श्रेणिक आदि का वर्णनकर गौतम गणधर के द्वारा धर्म का निरूपण करते हुए सम्यक्त्व के आठ अंगों का वर्णन किया है। दूसरे परिच्छेद में सम्यक्ज्ञान का वर्णन कर अष्टांगो द्वारा उपासना करने का विधान किया गया है। तीसरे परिच्छेद में चारित्र की आराधना करने का उपदेश दिया है तथा मद्य, मांसादि के सेवन जनित दोषों का विस्तृत वर्णन किया है। इस प्रकरण में 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' के अनेक श्लोक उद्धृत किये हैं। सल्लेखना विधि का वर्णन
' देखिए, 'श्रावकाचारसंग्रह' भा. ४ २ यह कृति अभी तक अप्रकाशित है। ३ यह कृति अप्रकाशित है किन्तु 'श्रावकाचारसंग्रह' भा. ३ में प्रकाशित है।
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68 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
करते हुए ‘समाधिमरण आत्मघात नहीं है' यह सयुक्तिक सिद्ध किया है । अन्त में सप्तव्यसन सेवन के दोषों को बताकर उनके त्याग का उपदेश दिया गया है। यहाँ उल्लेखनीय हैं कि इसमें श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के नामों का उल्लेख तक भी नहीं किया गया है। इस श्रावकाचार में स्थल विशेषों पर जो सूक्तियाँ दी गई है, वे पठनीय हैं। श्री पद्मनन्दि ने प्रस्तुत श्रावकाचार के सिवाय वर्धमानचरित, अनन्तव्रतकथा, भावनापद्धति और जीरा पल्ली पार्श्वनाथ स्तवन की रचनाएँ की हैं। श्रावकप्रज्ञप्ति
‘श्रावकप्रज्ञप्ति' (सावयपण्णत्ति) नामक यह ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री प्राकृत के ४०१ पद्यों में निबद्ध है। आचार्य हरिभद्र रचित यह कृति श्रावकाचार से सम्बन्धित ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । प्रस्तुत कृति के ग्रन्थकार के विषय में मतभेद हैं। ऐसा माना जाता है कि इसके पूर्व आचार्य उमास्वाति ने भी इसी नाम की एक कृति संस्कृत भाषा में निबद्ध की थी । यद्यपि अनेक ग्रन्थों में इसका उल्लेख भी मिलता है, परन्तु आज तक उसकी कोई भी प्रति हस्तलिखित उपलब्ध नहीं हुई है। मात्र नाम साम्य के कारण हरिभद्र की इस प्राकृत कृति ( सावयपण्णत्त) को तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता उमास्वाति की रचना मान लिया जाता है, किन्तु यह एक भ्रान्ति ही है। पंचाशक की अभयदेवसूरिकृत वृत्ति में और लावण्यसूरिकृत द्रव्यसप्तति में इसे हरिभद्र की कृति माना गया है।
परम्परागत धारणा के अनुसार इस कृति का रचनाकाल लगभग छठीं शती का उत्तरार्ध माना जाता है । किन्तु विद्वत्वर्ग आचार्य हरिभद्र का काल ८ वीं शताब्दी मानता है। श्रावकप्रज्ञप्ति नामक यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार श्रावक के कर्त्तव्य कार्यों का विवेचन करनेवाला है। इस कृति में मुख्यतः श्रावकाचार से सम्बन्धित अग्रलिखित तीन अधिकार कहे गये हैं। १. सम्यक्त्वव्रत अधिकार २. बारहव्रत अधिकार ३. सामाचारी अधिकार ।
इस रचना के सामाचारी नामक तीसरे अधिकार में श्रावकचर्या से सम्बन्धित कुछ आवश्यक विधियों का उल्लेख इस प्रकार उपलब्ध होता है . १. दिवाकृत्य विधि इस विधि में प्रातः काल से लेकर सायंकाल तक करने योग्य आवश्यक कर्त्तव्यों जैसे प्रभुपूजन, गुरुदर्शन, जिनवाणी श्रवण इत्यादि का सामान्य रूप से प्रतिपादन किया गया है।
२. रात्रिकृत्य विधि इस विधि के अन्तर्गत यह प्रतिपादित हैं कि श्रावक को शयन
,,
इस कृति में ४०५ गाथाएँ होने का भी उल्लेख प्राप्त है। देखिए, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४, पृ. २७१
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करने के पूर्व मानव जीवन की दुर्लभता, दैहिक जीवन की क्षणिकता, संसार की नश्वरता आदि का चिन्तन करना चाहिये। इसमें शुभ विचार करने से होने वाले विशिष्ट लाभ की भी चर्चा की गई है।
३. विहारकृत्य विधि इसमें देशाटन जाने से पूर्व एवं देशाटन करते समय श्रावक के लिए अवश्य करने योग्य कार्यों का निर्देश हैं जैसे - देव, गुरु, धर्म की आराधना करना एवं आहारादि के द्वारा गुरु की भक्ति करना आदि।
टीका - इस ग्रन्थ पर 'दिक्प्रदा' नाम से स्वोपज्ञ संस्कृत टीका रची गई है। इसमें अहिंसाणुव्रत और सामायिकव्रत की चर्चा करते हुए आचार्य ने अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर दिया है। टीका में जीव की नित्यानित्यता आदि दार्शनिक विषयों की भी गम्भीर चर्चा उपलब्ध होती है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 69
जैन परम्परा में श्रावकाचार, श्रावकधर्म, श्रावकव्रतग्रहण आदि विषय पर अनेक रचनाएँ निर्मित हुई हैं उनमें से कुछ कृतियों का विवरण इस प्रकार है' श्रावकप्रायश्चित्त-विधि
यह कृति श्री हंससागरजी की लायब्रेरी में मौजूद है। इस पर तिलकाचार्य ने टीका रची है।
श्रावकप्रायश्चित्त
यह कृति २० गाथाओं में तिलकाचार्य ने रची है।
श्रावकदिनकृत्य
यह ३६४ श्लोक परिणाम है इसकी रचना गुणसागर के शिष्य ने की है। श्रावकदिनकृत्य
यह कृति ५ गाथाओं में गुम्फित है।
श्रावकधर्मतन्त्र
9
यह कृति श्री हरिप्रभसूरि के द्वारा १२० गाथाओं में रची गई है। श्री मानदेवसूरि ने इस पर टीका लिखी है।
श्रावकधर्मविधि
इसके कर्त्ता सिंहप्रभसूरि के शिष्य श्री धर्मचन्द्रसूरि है।
जिनरत्नकोश पृ. ३८८-३६५
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70 / श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
श्रावकधर्मविधि
इसकी रचना धनपाल कवि ने २२ पद्यों में की है।
श्रावकधर्मकुलक
इसकी रचना श्री मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य श्रीदेवसूरि ने ५७ पद्यों में की है। श्रावकधर्मविधिप्रकरण
अनेक ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य हरिभद्र विरचित श्रावक धर्मविधिप्रकरण नामक यह अमूल्य ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री प्राकृत में है । यह १२० गाथाओं से गुम्फित है। परम्परागत धारणा के अनुसार इसका रचनाकाल लगभग छठीं शताब्दीं का उत्तरार्ध माना जाता है। किन्तु विद्वत्वर्ग हरिभद्र का काल आठवीं शताब्दि मानता है उस अपेक्षा से यह आठवीं शती की रचना भी मानी जाती है ।
इस ग्रन्थ के नामोल्लेख से यह स्वतः सुस्पष्ट होता हैं कि इस कृति में श्रावक जीवन के आधारभूत विधि-विधानों का विवेचन किया गया है। प्रमुखतः इस ग्रन्थ में सम्यक्त्व व्रतग्रहण करने की विधि विस्तार से वर्णित है इसके साथ ही इसमें बारह व्रतग्रहण की विधि दी गई है। उस सन्दर्भ में आचार्य हरिभद्र ने व्रत का स्वरूप, व्रतों के अतिचार, व्रतों के आगार ( अपवाद या छूट), व्रत सन्दर्भ में उठने वाली शंकाओं को उपस्थित करके उनका समाधान भी दिया है। इतना ही नहीं इस ग्रन्थ के अन्त में निम्नलिखित विधियों से सम्बन्धित कुछ चर्चाएँ भी की गई हैं। उन चर्चित विधियों के नाम ये हैं १. श्रावक की दिनचर्या विधि, २. श्रावक जिनदर्शन विधि, ३. श्रावक द्वारा प्रत्याख्यान ग्रहण करने की विधि, ४. श्रावक की व्यापार विधि, ५. श्रावक की भोजन विधि, ६. सुपात्रादि को दान देने की विधि, ७. श्रावक की रात्रिचर्या विधि, ८. श्रावक की संलेखना विधि | ग्रन्थ के प्रारम्भ में 9. व्रत ग्रहण करने के अधिकारी, २. जिज्ञासु के लक्षण, ३. समर्थ के लक्षण, ४. बहुमान के लक्षण, ५. विधि में प्रवृत्त होने वाले के लक्षण इत्यादि का उल्लेख किया गया है, वे इस ग्रन्थ की उपादेयता को निःसंदेह सिद्ध करते हैं।
-
वृत्ति - इस ग्रन्थ पर श्रीमानदेवसूरि द्वारा १५२६ श्लोक परिमाणवली संस्कृत वृत्ति रची गई है। '
१
इस ग्रन्थ का सटीका गुजराती भावानुवाद पू. राजशेखरसूरि द्वारा किया गया है। यह कृति ‘श्री वेलजी देपार हरणिया जैन धार्मिक ट्रस्ट, जामनगर' से प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 71
श्रावकधर्म
खरतरगच्छीय जिनपतिसूरि के शिष्य श्रीजिनेश्वरसूरि ने यह ग्रन्थ रचा है। इसका रचनाकाल १३१३ है । इस पर खरतरगच्छ के अभयतिलकगणि, लक्ष्मीतिलकगणि ने वि.सं. १३१७ में १५१३१ श्लोक परिमाण टीका रची है। श्रावकसामाचारी
इस नाम की पाँच कृतियाँ हैं। इनमें श्रावक - जीवन की आवश्यक विधियों का उल्लेख हुआ है। इनमें से एक कृति देवगुप्ताचार्य की है, इस पर १२०० श्लोक परिमाण स्वोपज्ञवृत्ति है। दूसरी कृति १२०० श्लोक परिमाण हरिप्रभसूरि की है, तीसरी कृति जिनचन्द्र की है, चौथी कृति शिवप्रभ के शिष्य श्री तिलकाचार्य की २० गाथाओं में है, पाँचवी अज्ञातकर्तृक रचना है। इस पर दो टीकाएँ एक टीका १२०० श्लोक परिमाण देवगुप्ताचार्य की है। दूसरी टीका अज्ञातकर्तृक है।
इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में गुरूपरम्परा का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि तपाविरूद को प्राप्त करने वाले जगत्चन्द्रसूरि हुए, उनके पट्ट पर देवसुन्दरसूरि हुये, उनके पट्ट पर, बिराजमन होने वाले उनके शिष्य सोमसुन्दरसूरि हुये तथा उनके शिष्य भुवनसुन्दरसूरि हुए।
श्रावकविधि
यह कृति प्राकृत की पद्यात्मक शैली में है।' इसकी रचना सरस्वती कण्ठाभरणादि कविराज श्रीधनपाल ने की है। इसमें कुल २४ पद्य हैं।
इस कृति में श्रावक की दिनकृत्य विधि का प्रतिपादन है। इसमें बताया गया है कि श्रावक को प्रातः काल से लेकर शयन पर्यन्त क्या - क्या और किस-किस प्रकार के धार्मिक कृत्य करने चाहिये, बारहव्रत का अनुपालन किस प्रकार किया जाना चाहिये, पाँच तिथियों में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन क्यों करना चाहिये इत्यादि श्रावक के अनेक विषयों का भी इसमें वर्णन हैं। इस कृति के अन्त में कहा है कि जो भव्यात्मा शास्त्र निर्दिष्ट श्रावकविधि का सम्यक् परिपालन करता है वह संसार समुद्र को पार करता हुआ अव्याबाध निर्वाण सुख को प्राप्त करता है । यह कृति महोपाध्याय यशोविजयजी कृत 'ज्ञानसार' के साथ संकलित है। यह प्रताकार रूप में है। इसका संपादन मोहनविजयगणि के शिष्य मुनिप्रतापविजयजी ने किया है।
9
इस कृति का प्रकाशन 'श्री मुक्तिकमल जैन मोहनमाला, बडोदरा' से वी. सं. २४४७ में हुआ
है।
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72/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
श्राद्धविधिविनिश्चय
यह कृति भी हर्षभूषणगणि द्वारा विरचित है। इसकी रचना' वि.सं. १४८० में हुई है। यह कृति हमें अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है, किन्तु कृति के नाम से प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ श्रावकचर्या सम्बन्धी विधि-विधान विषयक है। श्राद्धविधिप्रकरण
श्राद्धविधिप्रकरण नामक यह ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में है। मूल ग्रन्थ मात्र सत्रह पद्यों में निबद्ध है। यह कृति सोमसुन्दरसूरि के वंशज, भुवनसुंदरसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि की है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १६ वीं शती का पूर्वार्द्ध है।
__ इस ग्रन्थ के नामोल्लेख मात्र से यह स्पष्ट होता है कि इसमें श्रावक जीवन की आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण विधियों का प्रतिपादन हुआ है। इस प्रकरण ग्रन्थ में श्रावकसामाचारी से सम्बन्धित छः द्वार कहे गये हैं। उनके नाम निम्न हैप्रथम द्वार में दिवस संबंधी कृत्य विधि कही गई हैं, द्वितीय द्वार में रात्रि संबंधी कृत्य विधि का विवेचन है, तृतीय द्वार पर्व संबंधी कृत्य विधि का वर्णन करता है, चतुर्थ द्वार में चातुर्मास संबंधी कृत्य विधियों का प्रतिपादन है, पंचम द्वार में संवत्सर संबंधी कृत्य विधियों का निरूपण हुआ है तथा षष्टम द्वार में मानव जन्म सफलीभूत करने की विधि बतायी गयी है। टीका- इस ग्रन्थ पर 'विधिकौमुदी' नामक विस्तृत स्वोपज्ञ वृत्ति वि.सं. १५०६ में लिखी गई है। उस वृत्ति में प्रत्येक द्वार के आधार पर अवान्तर विविध विधियों की चर्चा की गई हैं उनके नामोल्लेख इस प्रकार हैं - प्रथम दिवस संबंधीकृत्यविधिद्वार -
इस प्रथम द्वार में श्रावक के प्रकार, श्रावक शब्द का अर्थ, नवकारजाप की विधि. पाँच अक्षर का मंत्र गिनने की विधि, कायोत्सर्ग करने की विधि, कमलबंध गिनने की विधि, पानी गर्म करने की विधि, चौदहनियमधारण करने की विधि, प्रत्याख्यान ग्रहण करने की विधि, मल-मूत्र (लघुनीति-बडीनीति) परित्याग करने की विधि, दांतून करने की विधि, स्नान की विधि, पूजा के समय वस्त्र
' जिनरत्नकोश पृ. ३६१ २ यह कृति स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ 'जैन आत्मानन्द सभा' ने वि.सं. १६७४ में प्रकाशित की है। मूल एवं विधि कौमुदी टीका के गुजराती अनुवाद के साथ यह 'देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था' ने सन् १६५२ में छापी है। यह गुजराती अनुवाद विक्रमविजयजी तथा भास्करविजय जी ने किया है। इसका हिन्दी भाषान्तर भी प्रकाशित हो चुका है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 73
पहनने की विधि, मंदिर में प्रवेश करने की विधि, प्रदक्षिणा विधि, द्रव्यपूजा विधि, भावपूजा विधि, इक्कीस प्रकार की पूजा की विधि, स्नात्रपूजा करने की विधि, गुरुवंदन विधि, द्वादशावर्त्तवन्दन की विधि, द्रव्यउपार्जन विधि, सुपात्रदान विधि, भोजन करने की विधि इत्यादि विधियों का सम्यक् प्रतिपादन किया गया है।
द्वितीय रात्रिसंबंधीकृत्यविधिद्वार इस दूसरे द्वार में प्रतिक्रमणविधि, स्वाध्यायविधि, निद्राविधि, सागारीसंथाराविधि आदि का सोद्देश्य प्रतिपादन किया गया है।
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तृतीय पर्वसंबंधीकृत्यविधिद्वार - स द्वार में पर्व दिन की चर्चा, तिथिसंबंधी विचार और अष्टप्रहरी पौषध की विधि का उल्लेख है।
चतुर्थ चातुर्माससंबंधी कृत्यविधिद्वार स द्वार के अन्तर्गत चातुर्मास काल के करणीय एवं अकरणीय कार्यों का उल्लेख कर साथ ही उन कार्यों का शुभाशुभ फल भी बताया गया है।
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पंचम संवत्सर (वर्ष) संबंधीकृत्यविधिद्वार इस प्रकरण में मुख्य रूप से श्रावक के उन वार्षिक ग्यारह कर्त्तव्यों का विवेचन हैं जिनका परिपालन श्रावक के द्वारा वर्ष भर में एक बार अवश्य किया जाना चाहिये। वे ग्यारह कर्त्तव्य ये हैं -
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१. संघपूजा करना, २ . साधर्मिक भक्ति करना, ३. तीन प्रकार की यात्रा करना-१.रथ यात्रा, २. तीर्थयात्रा, ३. अष्टान्हिका यात्रा । ४. मन्दिर में बड़ी पूजा पढ़ाना, ५. देवद्रव्य की वृद्धि करना, ६. स्नात्रादि पूजा करना, ७. धर्म निमित्त रात्रि जागरण करना, ८ ज्ञानपूजा करना, ६. उद्यापन करना, १०. तीर्थ प्रभावना ( शासन उन्नति) करना, ११. आलोचनाग्रहण करना ।
षष्टम श्रावकजीवनसंबंधीकृत्यविधि -
इस अन्तिम द्वार में श्रावक का रहने योग्य स्थान कैसा हो, कहाँ हो, गृहनिर्माण की विधि इत्यादि की विवेचना की गई है। इसके साथ ही इस द्वार में मानव जीवन को सफल करने के लिए कुछ कृत्य भी बताए गये हैं जैसे मन्दिरबनवाना, प्रतिमाबनवाना, प्रतिष्ठाकरवाना, पुत्रादि को दीक्षा दिलवाना आदि का महोत्सव काल पुस्तक लिखवाना और पौषधशाला बनवाना आदि ।
इस वृत्ति में श्रावक के इक्कीस गुण तथा मूर्ख के सौ लक्षण आदि विविध बातें आती है। भोजन की विधि व्यवहार शास्त्र के अनुसार पच्चीस संस्कृत श्लोकों में दी गई है और उसके अनन्तर आगम आदि में से अवतरण दिये गये हैं। इस 'विधिकौमुदी' टीका में निम्नलिखित व्यक्तियों के दृष्टान्त ( कथानक) आते हैं गाँव का कुलपुत्र, सुरसुन्दरकुमार की पाँच पत्नियाँ, शिवकुमार, बरगद की चील ( राजकुमारी), अम्बड् परिव्राजक के सातसौ शिष्य, दशार्णभद्र, चित्रकार,
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74/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
कुन्तलारानी, धर्मदत्तश्रेष्ठी, सेठ की पुत्री, दो मित्र, हेलाक श्रेष्ठी, धनेश्वर. देव
और यश श्रेष्ठी, सोमनृप, रंकश्रेष्ठी, धन्यश्रेष्ठी, धनेश्वरश्रेष्ठी, धर्मदास, द्रमकमुनि, दण्डवीर्यनृप, लक्ष्मणासाध्वी और उदायन नृपति आदि। श्राद्धगुणविवरण
इस कृति के रचयिता तपागच्छीय सोमसुन्दरसूरि के शिष्य जिनमण्डनगणि' है। यह संस्कृत के २४४ श्लोकों में निबद्ध है। इसकी रचना वि. सं. १४६८ में हुई है। इस कृति का अपरनाम 'श्राद्धगुणश्रेणिसंग्रह' है। जैसा कि इस कृति नाम से सूचित होता है कि इसमें श्रावक के गणों का विवरण उल्लिखित हैं। इसमें विधि-विधान संबंधी कोई चर्चा उपलब्ध नही होती है तथापि श्रावकाचार की भूमिका में प्रवेश करने के लिए और श्रावकधर्म की विधि का अनुपालन करने के लिए श्रावक को जिनगुणों से युक्त होना चाहिये उन पैंतीस गुणों का इसमें विवेचन हैं। इससे निश्चित होता है कि यह कृति अप्रगट रूप से ही सही, किन्तु श्रावकाचार की विधि का ही दिग्दर्शन करती है।
___इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में भगवान महावीर को नमस्कार करके शुद्ध श्रावकधर्म को संक्षेप में कहने की प्रतिज्ञा की गई है। उसके बाद 'सावग' और 'श्रावक' शब्द की व्युत्पत्तियाँ दी गई हैं। पैंतीस गुणों को समझाने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की कथाएँ दी गई हैं। बीच-बीच में संस्कृत एवं प्राकृत के अवतरण दिये गये हैं। अन्त में सात श्लोकों की प्रशस्ति है उसमें रचनास्थान' रचनाकाल और गुरूपरम्परा का निर्देश किया गया है। सामान्यतया श्रावक की भूमिका में प्रवेश पाने हेतु जो गुण अनिवार्य माने गये हैं वे पैंतीस गुण निम्न हैं
१. न्यायसम्पन्न वैभव होना, २. शिष्टाचार की प्रशंसा करना, ३. कुल एवं शील की समानतावाले अन्य गौत्र के व्यक्ति के साथ विवाह करना, ४. पापभीरुता, ५. प्रचलित देशाचार का पालन करना, ६. राजा आदि की निन्दा से दूर रहना, ७. योग्य निवास स्थान में द्वारवाला मकान बनाना, ८. सत्संग करना, ६. माता-पिता का पूजन (सेवा) करना, १०. उपद्रव वाले स्थान का त्याग करना, ११. निन्द्य प्रवृत्तियों से दूर करना, १२. अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार व्यय करना, १३. सम्पत्ति के अनुसार वेशभूषा धारण करना, १४. बुद्धि के आठ गुणों
' यह कृति गुजराती अनुवाद के साथ सन् १६५१ में 'श्री विजयनीतिसूरिजी जैन लायब्रेरी अहमदाबाद' से प्रकाशित हुई है। इसका एक संस्करण सन् १९१६ में 'जैन आत्मानंदसभा' से मुद्रित हो चुका है। इसका गुजराती अनुवाद प्रवर्तक कान्तिविजयजी के शिष्य श्री चतुरविजयजी ने किया है। २ अणहिलपत्तन नगर
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 75
से युक्त होना, १५. प्रतिदिन धर्म का श्रवण करना, १६. अर्जीण होने पर भोजन का त्याग करना, १७. भूख लगने पर प्रकृति के अनुकूल भोजन करना १८. धर्म, अर्थ एवं काम का उचित सेवन करना, १६. अतिथि, साधु एवं दीनजन की यथायोग्य सेवा करना, २० कदाग्रह से मुक्त रहना, २१. गुण में पक्षपाती होना, २२. प्रतिषिद्ध देश एवं काल की क्रिया का त्याग करना, २३. स्व-पर के बलाबल का विचार करना, २३, व्रतधारी एवं ज्ञानी वृद्धजनों की सेवा करना, २५. पोष्यजनों का यथायोग्य पोषण करना, २६. दीर्घदर्शी होना २७. विशेषज्ञ होना, २८. कृतज्ञ होना, २६. लोकप्रिय होना, ३०. लज्जाशील होना, ३१. कृपालु होना, ३२. सौम्यस्वभावी होना, ३३. परोपकारी होना, ३४ अन्तरंग छः शत्रुओं का परिहार करने के लिए उद्यत होना और ३५. जितेन्द्रिय होना ।
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ग्रन्थकार की दो कृतियाँ और प्राप्त होती हैं १. कुमारपाल प्रबन्ध और २. धर्मपरीक्षा ।
सम्यक्तव मूल बारह व्रत और आश्रव रोधिका संवर पोषिका ( उपधान पौषध मार्गदर्शिका)
यह पुस्तक गुजराती गद्य में निबद्ध है' तथा देवनागरी लिपि में प्रकाशित है। इसका संपादन मुनि जिनप्रभविजयजी ने किया है। इसमें दो प्रकार की विधियाँ वर्णित है प्रथम तो उपधान की मूल विधि का तथा उसकी आवश्यक उपविधियों का सम्यक् निरूपण किया गया है और दूसरे में सम्यक्त्व सहित बारहव्रत ग्रहण करने की विधि प्रतिपादित है। इसमें प्रत्येक व्रत का स्वरूप, व्रत की मर्यादा, व्रत के अतिचार एवं उसके उपनियमों की मर्यादा वर्णित है। इस प्रकार यह कृति बारह व्रतग्रहण करने की विधि का व्यवस्थित रूप से विवेचन करती है। उक्त दोनों प्रकार की ये विधियाँ उन-उन तपाराधकों एवं व्रतधारियों के लिए पढ़ने योग्य हैं।
सड्ढदिणकिच्च (श्राद्धदिनकृत्य )
'श्राद्धदिनकृत्य' नामक यह कृति श्रुतधर आचार्य की है। इस ग्रन्थ के कर्त्ता का नाम ज्ञात नहीं हुआ है। इस कृति पर अवचूरि भी लिखी गई है। उससे भी कर्त्ता का नाम ज्ञात नहीं हो पाया है, क्योंकि अक्चूरि भी अज्ञातकर्तृक है। यह प्राकृत पद्य में निबद्ध है। इसमें कुल ३४३ पद्य हैं। प्रारम्भ की एक गाथा मंगलाचरण रूप कही गई है अन्त में प्रशस्ति रूप नौ गाथाएँ उल्लिखित हैं। इस कृति में १६ द्वारों का निर्देश है जो श्रावक के दिनकृत्य विधि-विधानों से सम्बन्धित है।
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यह पुस्तक वि.सं. २०३२ में, 'श्री जैन उपाश्रय संघ, जूना डीसा' से प्रकाशित हुई हैं।
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76/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
इस ग्रन्थ के मंगलाचरण रूप प्रथम गाथा में महावीर प्रभु को नमस्कार करके श्रावक के दिवस सम्बन्धी कृत्यों को आगम के अनुसार कहने की प्रतिज्ञा की गई है। प्रशस्तिरूप गाथाओं में ग्रन्थकार ने यह कहा है कि मेरे द्वारा श्रावकदिनकृत्यविधि संक्षेप में कही गई है। भाव श्रावकों की वह विधि विस्तार से जाननी चाहिये और उसके लिए भद्रबाहुस्वामी, हरिभद्रसूरि प्रमुख आचार्यों के ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये। अन्त में इस कृति का फल बताते हुए उल्लेख किया है कि जो भव्यश्रावक 'श्रावकदिनकृत्य' को पढ़ता है, सुनता है, तदनुसार आचरण करता है वह संसार रूपी तीक्ष्ण दुखों का नाश कर लेता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिपादित १६ द्वारों की विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार है -
पहलाद्वार - इस द्वार में नमस्कारमन्त्र की चर्चा की गई है क्योंकि श्रावक को प्रातःकाल उठने के साथ ही नमस्कारमन्त्र का स्मरण करना चाहिये। सामान्यतः इसमें नमस्कार की विधि, नमस्कारमंत्र पढ़ने की विधि, नमस्कारमंत्र का माहात्म्य, नमस्कार मंत्र को विधिपूर्वक पढ़ने का उपदेश एवं नमस्कार मंत्र के स्मरण का सोदाहरण फल बताया गया है।
दूसरा द्वार - इस दूसरे द्वार में श्रावक को प्रतिदिन प्रातःकाल में क्या स्मरण करना चाहिये उसका निर्देश दिया गया है एवं विधि बतायी गई है। जैसे द्रव्य से- 'मैं साधु हूँ या गृहस्थ?', क्षेत्र से- 'मैं आर्यदेश में उत्पन्न हुआ हूँ या नहीं', काल से- 'मैं प्रातः काल में जागत बना हुआ हूँ या नहीं?', भाव से'किस उग्रादि कुल में उत्पन्न हुआ हूँ?', विशेष रूप से 'मैं सम्यग्दृष्टि सहित व्रतनियम धारी हूँ या नहीं?' इस तरह प्रत्येक श्रावक को प्रातःकाल में उक्त प्रकार का चिन्तन अवश्य करना चाहिये।
तीसरा द्वार - इस द्वार में श्रावक के बारहव्रत सम्बन्धी १३ अरब, ८४ करोड़, १२ लाख, ६७ हजार, दो सौ भंग (विकल्प) कहे गये हैं। ये विकल्प तीन करण और तीन योग पूर्वक होते हैं।
चौथा द्वार - इस द्वार में उल्लेख हैं कि 'तप विशिष्ट निर्जरा का हेतु है' इसलिए रात्रिक प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का परिपालन करते हुए छह मासिकतप का चिन्तन करना चाहिये और वह चिन्तन किस प्रकार करना चहिये उसकी विधि कही गई है।
पाँचवा द्वार - यह द्वार द्रव्य पूजा और भाव पूजादि से सम्बन्धित है। इस द्वार में सर्वप्रथम द्रव्यपूजा करने वाला श्रावक गृहबिम्ब का प्रमार्जन किस प्रकार करें उसकी विधि बतायी गई है। उसके बाद द्रव्यपूजा विधि, द्रव्यपूजा के प्रकार और द्रव्यपूजा का फल सोदाहरण बताया गया है। भावपूजा (चैत्यवन्दन)
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/77
विधि की चर्चा करते हुए प्रथमदण्डक शक्रस्तव पाठ बोलने की विधि, द्वितीयदण्डक अरिहंतचेईयाणंसूत्र बोलने की विधि और कायोत्सर्ग विधि में किन दोषों का वर्जन करना चाहिए इत्यादि का निर्देश है।
छठा द्वार - इस द्वार में यह कहा गया है कि जिनप्रतिमा की द्रव्यपूजा और भावपूजा करने के बाद श्रावक को जिनबिम्ब की साक्षीपूर्वक स्वयं के द्वारा विधिवत् प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिये।
सातवाँ द्वार - इस सप्तम द्वार में मुख्य रूप से ऋद्धिमन्त श्रावक को जिनमन्दिर किस प्रकार आना चाहिये, उसकी विधि वर्णित है। आगे इसी सन्दर्भ में कहा है कि ऋद्धि एवं वैभव के साथ मन्दिर आने पर जिन शासन की महती प्रभावना होती है तथा उस प्रभावना का क्या फल है? उसको दृष्टान्तपूर्वक बताया गया है।
___ आठवाँ द्वार - इसमें जिनमन्दिर, सम्बन्धी कृत्यों पर चर्चा की गई है तथा तत्सम्बन्धी विधियों का भी वर्णन किया गया है जैसे - जिनगृह में प्रवेश करने वाले श्रावक को किन पाँच अभिगम से युक्त होना चाहिये?, जिनगृह में किस प्रकार प्रवेश करना चाहिये? प्रदक्षिणा करते हुए क्या चिन्तन करना चाहिये? गर्भग्रह (मूलगंभारा) में किस प्रकार जाना चहिए? पूजा उपचारपूर्वक भावस्नपन क्रिया किस प्रकार करनी चाहिये? इसके साथ ही आरती के अवसर पर नृत्यादि करने का दृष्टान्त सहित निर्देश किया गया है।
नवाँ द्वार- इस द्वार में तीन प्रकार की विधि का निरूपण हुआ है १. ऋद्धिमन्त श्रावक विशेष प्रकार की द्रव्यपूजा किस प्रकार करें?, २. सामान्य श्रावक जिनमन्दिर किस विधि पूर्वक आयें?, ३. गुरु को वन्दन किस प्रकार करें? इसके साथ ही सोदाहरण वन्दन का फल और वन्दन करने से प्रगट होने वले छ: गुण बताये गये हैं।
दशवाँ द्वार- इस द्वार में गुरुसाक्षी पूर्वक प्रत्याख्यानग्रहण करने का वर्णन है।
__ ग्यारहवाँ द्वार- इस द्वार में अनु बिन्दुओं पर विचार किया गया है - १. गुरु उपदेश श्रवण करने की विधि, २. किसी तत्त्व में शंका होने पर तत्सम्बधी समाधान प्राप्त करने की विधि, ३. जिनमन्दिर का जीर्णोद्धार, आदि करवाना ही गृहस्थ जीवन का सार है इस प्रकार की उपदेश विधि, ४. जीर्णोद्धार फल कथन, ५. चैत्य के सम्बन्ध में चिन्ता करते हुए देवद्रव्य, गुरुद्रव्य एवं साधारणद्रव्य का महत्त्व, इनका भक्षण करने से लगने वाले दोष एवं देवद्रव्य की वृद्धि करने का फल इत्यादि।
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78/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
बारहवाँ द्वार- यह द्वार गुरुमहाराज की सुखपृच्छादि करने से सम्बन्धित है।
तेरहवाँ द्वार- इस द्वार में यह निर्देश किया गया है कि गुरुभगवन्त आदि सभी साधुओं को सुखपृच्छादि करने के बाद यदि कोई साधु बीमार हो, वृद्ध हो, या नूतनदीक्षित हो तो उनकी आवश्यकतानुसार एवं स्वयं की शक्ति के अनुरूप औषधादि द्वारा सेवा करनी चाहिये।
चौदहवाँ द्वार- इस द्वार में पन्द्रह प्रकार के कर्मादान सम्बन्धी व्यापार वर्जन का एवं व्यवहार शुद्धि रखने का श्रावक के लिए उपदेश किया गया है इसके साथ कुशील संसर्ग का त्याग और सत्संग करने का भी उपदेश दिया गया है।
पन्द्रहवाँ द्वार- इस द्वार में सुश्रावक के लिए मध्याह वेला प्राप्त होने पर गृहबिम्ब की पूजा एवं गुरुमहाराज को वन्दन करने का विधान बतलाया है। इसके साथ ही आहार देने के लिए साधु को निमंत्रित करने की विधि एवं गृहांगन में पधारे हुए साधु को भक्तिभाव पूर्वक आहार प्रदान करने की विधि कही गई है। अनन्तर दानक्रिया का उत्सर्ग-अपवाद मार्ग के कथन, सुपात्रदान का फल, सर्वोत्तमदान का स्वरूप, वसतिदान का इहलौकिक-पारलौकिक फल, साधर्मिक वात्सल्य करने का उपदेश इत्यादि का विवेचन किया गया है।
सोलहवाँ द्वार- इस द्वार में यथाविधि स्वाध्याय करने का उपदेश दिया गया है।
सत्रहवाँ द्वार- इस द्वार में कहा गया हैं कि गृहस्थ श्रावक यदि सचित्त का त्याग करने में असमर्थ हों तो उसका परिमाण अवश्य करना चाहिये। इसके साथ यह भी निर्देश किया गया है कि श्रावक को सदैव एकाशन तप करना चाहिये, जो एकाशन तप नहीं कर सकता है वह कम से कम रात्रिभोजन तो नहीं ही करें।
अठारहवाँ द्वार- इस द्वार में पुनः सायंकालीन जिनपूजा एवं गुरु को वन्दन करने का विधान बतलाया गया है।
उन्नीसवाँ द्वार- इस द्वार में सामायिकविधि और आवश्यकविधि का निरूपण हुआ है।
बीसवाँ द्वार- इसमें आवश्यक (प्रतिक्रमण) विधि और स्वाध्यायविधि करने के बाद गुरु को त्रिकाल सुखपृच्छा करनी चाहिये इसका विधान कहा गया है।
___ इक्कीसवाँ द्वार- इस द्वार में उल्लेख है कि सर्वप्रथम श्रावक षड़ावश्यकविधि का पालन करें, फिर गुरु भगवन्त आदि सभी मुनियों की सुखपृच्छा करे, उसके बाद यथायोग्य गुरुभगवन्त की सेवा करें। यदि साधु का योग न हो तो अपवाद मार्ग से अपने साधर्मी बन्धुओं का सेवादि कृत्य करें।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/79
बावीसवाँ द्वार- इस द्वार में श्रावक के द्वारा स्वजन-कुटुम्ब, पत्नी-पुत्रादि के समक्ष किस प्रकार की धार्मिक चर्चा की जानी चाहिये, इसकी विधि बतायी गई है। इसमें उल्लेख है कि श्रावक को सन्ध्याकालीन प्रतिक्रमण, सामायिक, गुरुसेवा आदि आवश्यक कृत्य सम्पन्न करके घर आना चाहिये। फिर पत्नी-पुत्रादि के आगे धर्मचर्चा करनी चाहिये। जो श्रावक धर्मचर्चा नहीं करता है वह दोष का भागी होता है। यहाँ उसमें लगने वाले दोष भी कहे गये हैं। पुनः धर्म चर्चा में द्रव्य और भाव से स्वजनादि वर्ग की आवश्यकता का चिन्तन करना चाहिये। साधर्मिक व्यक्तियों के बीच रहने की बात करनी चाहिये। अणुव्रतादि ग्रहण करने का उपदेश देना चाहिये। भोगोपभोगव्रत का विवरण कहना चाहिये। प्रतिदिन के लिए उपयोगी यतना रखने का व्याख्यान करना चाहिये। श्रावक के लिए अभिग्रह करने का कथन करना चहिये। जिनपूजादि के विषय का उपदेश कहना चाहिये। 'धर्म आराधना से ही मनुष्यत्वादि दुर्लभ सामग्री प्राप्त होती है' ऐसा भाव जगाना चाहिये इत्यादि।
तेवीसवाँ द्वार- इस द्वार में यह वर्णन किया गया है कि शयन करते समय प्रायः श्रावक को ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने की भावना रखनी चाहिये। यदि मोहनीयकर्म के उदय से शीलव्रत का पालन नहीं कर सकता है तो उसके प्रति जुगुप्सा करनी चाहिये और मुनिमार्ग ग्रहण करने की भावना करनी चाहिये।
___ चौबीसवाँ-पच्चीसवाँ-छब्बीसवाँ द्वार- इन तीनों द्वारों में शरीर की अनित्यभावना का चिन्तन करते हुए स्त्री के प्रति विरक्त बनते हुए श्रावक को ब्रह्मचर्यव्रत पूर्वक शयन करना चाहिये, इसका विवेचन है।
सत्ताईसवाँ द्वार- इस द्वार में श्रावक के लिए संसार की अनित्यता के बारे में चिन्तन करने की विधि कही गई है।
____ अट्ठाईसवाँ द्वार- इस द्वार में श्रावक के मूलगुण, अहिंसादि पाँचअणुव्रत और अहिंसादि नियम पालन में उपकारी बनने वाली ब्रह्मचर्य की नववाड, रात्रिभोजन का त्याग आदि का सविस्तार वर्णन किया गया हैं।
उनतीसवाँ द्वार- इस अन्तिम द्वार में उत्तरगुण रूप पिण्डविशुद्धि का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही आचार्य के ३६ गुण बताये गये हैं। प्रस्तुत शास्त्र का उपसंहार किया गया है इस ग्रन्थ को सुनकर अन्तर्मुखी बनने वाले भव्यजीवों की प्रशंसा की गई है तथा इस ग्रन्थ में कहीं गई विधियों का अनुकरण करने वाले सुश्रावकों को प्राप्त होने वाला फल बताया गया है।
___ उपर्युक्त विवेचन से यह फलित होता है कि, श्राद्धदिनकृत्य श्रावक की आचारविधि का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें श्रावक की दिनकृत्यविधियों का ही निरूपण नहीं हुआ है अपितु श्रावक योग्य समस्त विधि-विधानों का विवेचन हुआ है।
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80/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
सड्ढदिणकिच्च (श्राद्धदिनकृत्य)
यह रचना तपागच्छीय श्री जगच्चन्द्रसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि की है। यह ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा के ३४४ पद्यों में निबद्ध है। इसमें कृति के अपने नाम के अनुसार श्रावकजीवन के दैनन्दिन कृत्यों एवं अनुष्ठानों पर विचार किया गया है। टीका- इस पर १२८२० श्लोक-परिमाण एक स्वोपज्ञ वृत्ति है। इसके अतिरिक्त एक अज्ञातकर्तृक अवचूरि भी है। सड्ढदिणकिच्च (श्राद्धदिनकृत्य)
यह कृति' जैन महाराष्ट्री में विरचित है। इसमें ३४१ पद्य हैं। यह कृति उक्त 'सढढिणकिच्च' है या अन्य? यह विषय विचारणीय है। यह रचना हमें प्राप्त नहीं हुई है किन्तु 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' के अनुसार प्रस्तुत कृति की गाथा २ से ७ में श्रावक के अट्ठाईस कर्त्तव्य गिनाये गये हैं; जैसे कि १. नवकार गिनकर श्रावक का जागृत होना, २. 'मैं श्रावक हूँ' यह बात याद रखना, ३. 'मैने अणुव्रत आदि कितने व्रत लिये हैं' इसका विचार करना, ४. मोक्ष के साधनों का विचार करना, ५. दिन में त्रिकाल पूजा करना इत्यादि।
वस्तुतः यह कृति श्रावक जीवन सम्बन्धी विधियों एवं कर्तव्यों का निरूपण करती है। बालावबोध - इस पर रामचन्द्रगणि के शिष्य श्री आनन्दवल्लभ ने वि.सं. १९८२ में एक बालावबोध लिखा है। स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षागत-श्रावकधर्म
___इस कृति के रचयिता स्वामीकार्तिकेय है तथा इस कृति का नाम 'अणुवेक्खा' है। यह जैन महाराष्ट्री प्राकृत के ६१ पद्यों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल विक्रम की दूसरी-तीसरी शती है। इसमें श्रावकधर्मविधि का विस्तृत वर्णन हुआ है। इसमें धर्म के दो विभाग कर बताकर परिग्रहधारी गृहस्थों के धर्म के बारह भेद बताये हैं- १. सम्यग्दर्शनयुक्त, २. मद्यादि स्थूल दोष रहित, ३. व्रतधारी, ४. सामायिकव्रती, ५. पौषधव्रती, ६. प्रासुकआहारी, ७. रात्रिभोजनविरत, ८. मैथुनत्यागी, ६. आरम्भत्यागी, १०. संगत्यागी, ११.
' यह कृति आनन्दवल्लभकृत हिन्दी बालावबोध के साथ, सन् १८७६ में 'बनारस जैन प्रभाकर' मुद्राणालय में प्रकाशित हुई है। ' यह कृति 'श्रावकाचारसंग्रह' भा. १ में हिन्दी भाषान्तर सहित प्रकाशित है। 'श्रावकाचारसंग्रह' नामक यह ग्रन्थ सन् १९८८ में, जैन संस्कृति-संरक्षक-संघ, सोलापुर (महा.) से प्रकाशित हुआ
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/81
कार्यानुमोदनविरत और १२. उद्दिष्टाहारविरत। इनमें प्रथम नाम के अतिरिक्त शेष नाम ग्यारह प्रतिमाओं के हैं। इससे स्पष्ट होता है कि श्रावक को व्रत धारण करने के पूर्व सम्यग्दर्शन धारण करना अनिवार्य है।
इस ग्रन्थ की अनोखी विशेषता यह है कि ग्रन्थकार ने पौषधोपवास शिक्षाव्रत में उपवास न कर सकने वालों के लिए एकभक्त, निर्विकृति आदि करने का विधान किया है। अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत में चार प्रकारों के दानों का निर्देश किया है, पर आहारदान के सन्दर्भ में विशेष यह कहा है कि एक भोजन दान के देने पर शेष तीन दान स्वतः दे दिये जाते हैं। देशावगासिक शिक्षाव्रत में दिशाओं का संकोच और इन्द्रिय विषयों का संवरण प्रतिदिन करना आवश्यक बताया है। सामायिक प्रतिमा के स्वरूप में समन्तभद्र के समान कायोत्सर्ग, द्वादशआवर्त्त, दो नमन और चार प्रणाम करने का विधान किया है। पौषधप्रतिमा में सोलह प्रहर के उपवास का विधान किया है। आरम्भ का त्याग आवश्यक बताया है। अनुमति विरत के लिए गृहस्थी के किसी भी कार्य में अनुमति देने का निषेध किया है। उद्दिष्टाहार विरत के लिए याचना रहित और नवकोटि विशुद्ध भोज्य के लेने का विधान किया गया है। संक्षेपतः स्वामिकार्तिकेय ने श्रावकधर्म का परिष्कृत विवेचन किया है। सागारधर्मामृत
यह पं. आशाधरजी की एक विद्वत्तापूर्ण कृति है।' इसमें दिगम्बर जैन परम्परा के श्रावकवर्ग की आचारविधि का विवेचन है। यह रचना संस्कृत के ४७७ श्लोकों में गुम्फित है तथा आठ अध्यायों में विभक्त है। इस कृति का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -
प्रथम अध्याय - यह पहला अध्याय सम्यक्त्व-प्रतिमा एवं श्रावक के पाक्षिक आदि तीन प्रकारों से सम्बन्धित है। इसमें सागार का लक्षण, सम्यक्त्व की महिमा, असंयमी सम्यग्दृष्टि का महत्व, जिनपूजा, दान के भेद आदि का वर्णन भी हुआ है।
द्वितीय अध्याय - इस अध्याय में श्रावक का प्रथम भेद पाक्षिकश्रावक का कई दृष्टियों से वर्णन किया गया है। इसके प्रारम्भ में कहा है-जो जिन
' (क) यह ग्रन्थ ज्ञानदीपिका (पंजिका) और हिन्दी टीका के साथ 'भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन-नई दिल्ली' से सन् १६४४ में प्रकाशित हुआ है। (ख) सागारधर्मामृत का हिन्दी अनुवाद लालाराम ने किया है और दो भाों में 'दिगम्बर जैन पुस्तकालय-सूरत' से प्रकाशित हुआ है।
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82/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
भगवान की आज्ञा से त्यागने योग्य सांसारिक विषयों को जानते हुए भी मोहवश छोड़ने में असमर्थ हैं उसे गृहस्थधर्म पालन करने की अनुमति है। इसके साथ ही पाक्षिक श्रावक के लिए पालन करने योग्य आठ मूलगुण और रात्रिभोजन के निषेध का वर्णन किया है। आगे पाक्षिक श्रावक का आचार बतलाते हुए जैनधर्म की दीक्षा देने का भी विधान किया है। इतना ही नहीं नित्यपूजा का स्वरूप,
आष्टाहिक, इन्द्रध्वज और महापूजा का स्वरूप, जिनपूजा की सम्यक् विधि, जिनवाणी की पूजा का विधान, गुरुउपासना की विधि, दान देने का विधान, दान के अधिकारी, समदत्ति का विधान, जैनों को दान देने का महत्त्व, कन्यादान की विधि, विवाह विधि, साधर्मी की स्थापना करके पूजने का विधान, दयादत्ति का विधान, दिन में भोजन करने का विधान, व्रत का स्वरूप, व्रत ग्रहण आवश्यक, क्रिया, तीर्थयात्रादि करने का उपदेश इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है।
तृतीय से लेकर पंचम अध्याय - इस तीन अध्यायों में नैष्ठिकश्रावक का कथन किया गया है। इनमें नैष्ठिक के ग्यारह भेद, मद्य आदि सप्तव्यसन त्याग की अनिवार्यता, श्रावक के उत्तरगुण, अहिंसादि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का स्वरूप एवं उनके अतिचार आदि का विस्तृत विवेचन हुआ है। इसके साथ धर्म के विषय में पत्नी को शिक्षित करने का विधान, कुलस्त्री द्वारा पुत्र उत्पन्न करने का विधान, कुल स्त्री की रक्षा का विधान, वैद्यक शास्त्र के अनुसार पुत्रोत्पादन की विधि, अहिंसाव्रत को निर्मल रखने की विधि. स्वदारासन्तोषाणुव्रत स्वीकार की विधि, बहिरंगपरिग्रह त्याग की विधि, पौषध विधि, पात्रदान विधि, अतिथि को खोजने की विधि इत्यादि का भी उल्लेख हुआ है।
___षष्ठम अध्याय- इसमें श्रावक की दिनचर्या से सम्बन्धित जिनालय में प्रवेश करने की विधि, मध्याह में देवपूजा विधि, तदनन्तर पात्रदान की विधि, सायंकालीन कृत्य विधि आदि का विशेष प्रतिपादन किया गया है।
सप्तम अध्याय- इस अध्याय में सामायिक आदि दस प्रतिमाओं का विवेचन है। ग्यारहवीं उद्दिष्टत्यागप्रतिमा का वर्णन विस्तार पूर्वक किया गया है। इसमें सकलदत्ति की विधि, गृहत्याग की विधि, उद्दिष्ट विरत की विधि, प्रथमबार भिक्षा ग्रहण करने की विधि भी कही गई है।
अष्टम अध्याय- इस अन्तिम अध्याय में श्रावक का तीसरा भेद साधक श्रावक का विस्तृत वर्णन है। इसमें निर्देश है कि जो जीवन का अन्त आने पर प्रीतिपूर्वक शरीर और आहार आदि का ममत्व छोड़कर सल्लेखनापूर्वक प्राणत्याग करता है, वह साधक श्रावक कहलाता है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 83
इसमें मृत्यु सुनिश्चित होने के कारण सल्लेखना करने का विधान, यथाकाल मृत्यु के समय सल्लेखना करने की विधि, संघ में जाने का विधान, मरते समय धर्माराधना करने का फल, समाधिमरण के लिए शरीर को कृश करना आवश्यक, समाधिमरण की विधि, आहारत्याग की विधि, सम्यक्त्व का माहात्म्य, अर्हद्भक्ति का माहात्म्य, भाव नमस्कार का माहात्म्य, पाँच महाव्रतों का महत्त्व, विधिपूर्वक समाधिमरण से आठवें भव में मोक्ष इत्यादि का प्रामाणिक विवेचन हुआ है। निष्कर्षतः यह श्रावकाचार विधि का अतिउपयोगी ग्रन्थ है।
सावयधम्मदोहा
यह कृति' दोहात्मक अपभ्रंश भाषा में रचित है। इसमें श्रावकधर्म का वर्णन संक्षेप एवं सरल शब्दों में हुआ है। इसमें २२४ पद्य हैं। इसके रचयिता का नाम विवादास्पद है। कहीं देवसन तो कहीं लक्ष्मीचन्द्र द्वारा रचित होने का उल्लेख मिलता है। इसका रचना समय विक्रम की १० वीं शती माना गया है। इस कृति के प्रारम्भ में मनुष्यभव की दुर्लभता बताकर, देव, गुरु, धर्म के श्रद्धान का उपदेश देकर ग्यारह प्रतिमा रूप श्रावकधर्म का निर्देश किया गया है। आगे पाँच उदुम्बरफल और तीनों मकारों के त्यागरूप आठमूलगुण का वर्णन, अगलित जल-पान का निषेध, चर्मस्थित घृत - तेलादि का परिहार, पात्र - कुपात्रादि को दान देने का फल, उपवास का माहात्म्य, इन्द्रिय-विषयों एवं कषायों को जीतने का उपदेश और धर्म-धारण करने का सुफल बताकर जिनप्रतिमा के अभिषेक - पूजन करने की प्रेरणा की गई है।
अन्त में जिनालय, जिनबिम्बनिर्माण का उपदेश देकर जिनमन्दिर में तीन लोक के चित्र आदि विधानों का फल बताया गया है और 'अहं' आदि मंत्रों के जाप-ध्यान की प्रेरणा कर ग्रन्थ पूरा किया गया है।
संक्षेप में कहा जाये तो वर्तमानकाल के अनुरूप श्रावकधर्म का वर्णन कर कृति नाम को सार्थक किया है। परवर्ती अनेक श्रावकाचारों में इसके दोहे उद्धृत किये गये हैं।
षट्स्थानप्रकरण
इसके रचयिता जिनेश्वरसूरि हैं जो वर्धमानसूरि के शिष्य तथा नवांगी वृत्तिकार आचार्य अभयदेवसूरिके गुरू थे। उन्होंने वि.सं. १०८० में हारिभद्रीय अष्टक प्रकरण पर वृत्ति लिखी है। इनका काल विक्रम की ११ वीं शती है।
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यह कृति पं. हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित एवं कारंजा से प्रकाशित है।
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84/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
षट्स्थान प्रकरण का अपर नाम श्रावक वक्तव्यता है यह जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में विरचित है इसमें १०४ पद्य हैं। समग्र रचना छः स्थानकों में विभक्त हैं वे स्थान हैं - व्रत परिकर्मत्व, शीलवत्व, गुणवत्व, ऋजुव्यवहार, गुरू की शुश्रुषा तथा प्रवचन कौशल्या इसमें वर्णन है कि उक्त स्थानकों का विधिवत् पालन करने वाला उपासक उत्कृष्ट होता है। ये छ: स्थानक श्रावक की उच्च भूमिका पर आरूढ़ होने के लिए आवश्यक कहे गये हैं। . इस षट्स्थान प्रकरण पर १३ वीं शती में आ. जिनपति के शिष्य उपाध्याय जिनपाल ने १४६४ श्लोक परिणाम भाष्य लिखा है इससे इस ग्रन्थ की महत्ता कई गुणा बढ़ जाती है। इस ग्रन्थ ही हस्तलिखित प्रति जिनदत्तसूरि जैन भाण्डागार में सुरक्षित उपलब्ध है। हरिवंशपुराणगत-श्रावकाचार
हरिवंशपुराण आचार्य जिनसेन (प्रथम) की अप्रतिम संस्कृत काव्यकृति है। इसमें बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के त्यागमय जीवनचरित्र के साथ-साथ कृष्ण, बलभद्र, कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न, पाण्डवों और कौरवों का लोकप्रिय चरित्र भी बड़ी सुन्दरता से अंकित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस विशाल ग्रन्थ में सम्पूर्ण हरिवंश का परिचय तथा जैनधर्म और संस्कृति के विभिन्न आयामों का स्पष्ट एवं विस्तार से विवेचन हुआ है। भारतीय संस्कृति और इतिहास की बहुविध सामग्री इसमें भरी पड़ी है। 'हरिवंशपुराण' मात्र कथा-ग्रन्थ नहीं है, यह उच्चकोटि का महाकाव्य भी है। यह ग्रन्थ ६६ सगों एवं विविध छन्दों में रचित' है। इसमें लगभग आठ हजार नौ सौ श्लोक हैं। यह कृति विक्रम की ८ वीं शती के मध्यकाल की है।
इस महाकाव्य के ५८ वें सर्ग में श्रावकधर्म का वर्णन दृष्टिगत होता है। वह वर्णन तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय को सामने रखकर तदनुसार ही किया गया प्रतीत होता है। भेद केवल इतना है कि इसमें पापों का स्वरूप पुरूषार्थसिद्धयुपाय के समान बताया गया है तथा रत्नकरण्डश्रावकाचार के समान गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का स्वरूप कहा गया है, किन्तु आठ मूलगुणों का कोई उल्लेख नहीं किया है। ज्ञानानन्द-श्रावकाचार
यह पं. रायमल्ल द्वारा विरचित गद्य रचना है। इसमें उनेक अपने समय
'(क) इस ग्रन्थ का अनुवाद डॉ. पन्नालाल जैन ने किया है।
(ख) यह कृति सन् १६४४ में, 'भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली' से प्रकाशित हुई है।
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में बोली जाने वाली ठेठ ढूंढारी भाषा का प्रयोग है। इनका समय १७ वीं शती के बाद का निश्चित होता है। प्रस्तुत कृति' में श्रावकाचार विधि-विधान सम्बन्धी निम्न विषय उपलब्ध होते हैं बारह व्रत, ग्यारह प्रतिमा, बारहव्रतों के अतिचार, रात्रिभोजन के दोष, अनछना पानी के दोष, रसोई बनाने की विधि, शहद, कांजी, अचारभक्षण के दोष, रजस्वला स्त्री के दोष, वस्त्र धुलाने एवं वस्त्र रंगने के दोष, मन्दिरनिर्माण का फल, प्रतिमा निर्माण का फल, दशलक्षणधर्म, रत्नत्रयधर्म, साततत्त्व, बारहतप, समाधिमरण इत्यादि । इस कृति की अपनी कई विशेषताएँ हैजैसे कि सभी श्रावकाचार पद्य में रचे गये मिलते हैं, किन्तु यह गद्य में रचा गया है साथ ही पानी छानने, रसोई आदि बनाने से लेकर समाधिमरण पर्यंत तक की सभी क्रियाओं का इसमें विधिवत् वर्णन हुआ है।
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यह कृति सन् १६८७ में, 'श्री दि. जैन मुमुक्षु मण्डल, जैन मन्दिर, मार्ग चौक, भोपाल' से प्रकाशित हुई है।
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QUINS
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अध्याय-3
साध्वाचार सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
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88/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
अध्याय ३ साध्वाचार सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य-सूची क्र. कृति
कृतिकार कृतिकाल | १ अनगारधर्मामृत (सं.) पं. आशाधर वि.सं. १४ वीं शती २ आचारांगसूत्र (प्रा.) पहला अंगसूत्र ३ आचारांगनियुक्ति (प्रा.) आर्य भद्र वि.सं. २-५ वीं शती
के मध्य ४ आचारांगचूर्णि जिनदासगणिमहत्तर लग. वि.सं. ७-८ वी
शती ५ आचारांगविवरण शीलांकाचार्य लग. वि.सं. १०-१२
वीं शती । ६ आवश्यकीयविधिसंग्रह सं. बुद्धिसागर वि.सं. २०-२१ वीं (हि.)
शती ७ उत्तराध्ययनसूत्र (प्रा.) आगमसूत्र ८ उत्तराध्ययननियुक्ति आर्य भद्र वि.सं. २-५ वीं शती
के मध्य ६ उत्तराध्ययनचूर्णि (सं.प्रा.) जिनदासगणिमहत्तर लग. वि.सं. ७-८ वी
शती
१० उत्तराध्ययनटीका (प्रा.) वादिवेताल शान्तिसूरि लग. वि.सं. १०-१२
वीं शती ११ दशैवकालिकसूत्र (प्रा.) आ शय्यंभव वि.सं. की पहली
शती के पूर्व १२ दशवैकालिकनियुक्ति (प्रा.) आर्य भद्र वि.सं. २-५ वीं शती
के मध्य १३ दशवैकालिकभाष्य जिनभद्रगणि लग. वि.सं. की छठी
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/89
१४ दशवकालिकचूर्णि
जिनदासगणिमहत्तर
१५ दशवैकालिकवृत्ति
आ. हरिभद्र
लग. वि.सं. ७-८ वी शती लग. वि.सं. १०-१२ वीं शती लग. वि.सं. की दूसरी से पाँचवीं शती के मध्य वि.सं. १२ वीं शती
| १६ पिण्डनियुक्ति (प्रा.)
आर्य भद्र
१७ पिण्डविशुद्धिप्रकरण (प्रा.) जिनवल्लभगणि १८ प्रश्नव्याकरणसूत्र (प्रा.) ११ वाँ अंगसूत्र १६ मूलायार (मूलाचार) (प्रा.) वट्टकराचार्य
लग. वि.सं. पाँचवीं-छठी शती वि.सं. १४१२
भावदेवसूरि
आ. हरिभद्रवि .सं. ८ वीं शती उपा. समयसुन्दर वि.सं. १६ वीं शती महो. यशोविजय वि.सं. १७ वीं शती
२० जइसामायारी
(यतिसामाचारी) २१यतिदिनकृत्य २२ विशेषशतकम् (सं.) २३ सामाचारीप्रकरण
(भाग-१-२) (सं.) २४साधुविधिप्रकाश प्रकरण
(सं.) २५साधुदिनकृत्य २६ सूत्रकृतांगसूत्र (प्रा.) २७संयमीनोप्राण
उपा. क्षमाकल्याण
लग. वि.सं. १६ वीं शती वि.सं. ८ वीं शती
आ. हरिभद्र दूसरा अंगसूत्र मुनि यशोविजय
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/91
अध्याय - ३ साध्वाचार सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
अनगारधर्मामृत
___ इस ग्रन्थ के रचयिता पं. आशाधर जी है। यह ग्रन्थ' दो भागों में विभाजित है। प्रथम भाग 'अनगारधर्मामृत' के नाम से है और दूसरे भाग का नाम 'सागार धर्मामृत' है। प्रस्तुत रचना संस्कृत के ६५४ पद्यों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल विक्रम की १४ वीं शती है। यह दिगम्बर साधुओं की आचार विधि का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जाता है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में यह कहा गया है कि इससे पूर्व में साधु धर्म का वर्णन करने वाले दो ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा में अतिमान्य रहे हैं- मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों ही प्राकृत गाथाबद्ध हैं। उनमें भी मात्र एक मूलाचार ही साधु आचार का मौलिक ग्रन्थ है इसमे प्रायः जैन साधु की आचार विधि वर्णित है। भगवती-आराधना का तो मुख्य प्रतिपाद्य विषय संलेखना या समाधिमरण है। उसमें प्रसंगवश साधु आचार वर्णित है। तदनन्तर आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार के अन्त में तथा उनके पाहुड़ों में भी साधु का आचार निर्दिष्ट हुआ है। उसके बाद तत्त्वार्थसूत्र के नवम अध्याय तथा उसके टीका ग्रन्थों में भी साधु का आचार - गुप्ति, समिति, दसधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, परीषह, चारित्र, तप, ध्यान आदि का वर्णन है। चामुण्डराय के छोटे से ग्रन्थ 'चारित्रसार' में भी संक्षेपतः साधु के आचार का उल्लेख है। इन्हीं सबको आधार बनाकर आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत की रचना की है।
कुछ भी हो, दिगम्बर परम्परीय ग्रन्थों का अवलोकन करने से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि उत्तरकालीन आचार विषयक ग्रन्थ निर्माताओं में आशाधरजी ही ऐसे ग्रन्थकार है जिन्होंने श्रावकधर्म के पूर्व मुनिधर्म पर ग्रन्थ रचना की और एक तरह से मूलाचार के बाद अनगारधर्म पर यही एक अधिकृत ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा में है।
' (क) अनगारधर्मामृत और ज्ञानदीपिका (पंजिका) का हिन्दी अनुवाद पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने किया है। (ख) अनगारधर्मामृत और भव्यकुमुदचन्द्रिका का हिन्दी अनुवाद 'हिन्दी टीका' के नाम से पं. खूबचन्द ने किया है। यह ग्रन्थ खुशालचन्द पानाचन्द गाँधी ने सोलापुर से सन् १६२७ में प्रकाशित किया है। (ग) 'ज्ञानदीपिका' नामक संस्कृत पंजिका तथा हिन्दी टीका सहित यह ग्रन्थ 'भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,, नयी दिल्ली' से सन् १६७७ में प्रकाशित हुआ है।
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92/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
इस कृति में नौ अध्याय है। पहले अध्याय में धर्म के स्वरूप का निरूपण है। दूसरे अध्याय में सम्यक्त्व की उत्पत्ति आदि का कथन है। तीसरे अधिकार का नाम 'ज्ञानाराधन' है। इसमें ज्ञान के भेदों का वर्णन करते हुए श्रुतज्ञान की आराधना को परम्परा से मुक्ति का कारण कहा है।
चतुर्थ अध्याय में पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति और पाँच समिति का विस्तृत वर्णन है। इसका नाम 'चारित्राराधन' है। पाँचवे अध्याय का नाम 'पिण्डशुद्धि' है। यहाँ पिण्ड का अर्थ भोजन है। दिगम्बर परम्परा में साधु की आहारविधि में लगने वाले छियालीस दोष बताये गये हैं। सोलह उद्गमदोष हैं, सोलह उत्पादन दोष हैं
और चौदह अन्य दोष हैं। इन सब दोषों से रहित भोजन ही साधु के लिए ग्रहण करने योग्य होता है। उन्हीं का विस्तृत वर्णन इस अध्याय में है। छठे अध्याय का नाम 'मार्गमहोद्योग' है। इसमें मुनि जीवन के आवश्यक अंग दसधर्म, बारहभावना एंव बाईस परीषहों का वर्णन है। सातवें अध्याय का नाम 'तप आराधना' है इसमें बारह तपों का वर्णन है।
आठवें अध्याय का नाम 'आवश्यक नियुक्ति' है। यह अध्याय विधि-विधान से सम्बद्ध है। इसमें साधु के लिए षड़ावश्यक विधि का निरूपण हुआ है। उसमें वन्दना की विधि, सामायिक आदि करने की विधि, प्रतिक्रमण की विधि, कृतिकर्म के प्रयोग की विधि आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही इसमें आवश्यक विधि का फल, आवश्यक के भेद, सामायिक के प्रकार, प्रत्याख्यान के प्रकार, नित्य-नैमित्तिक क्रियाकाण्ड से पारम्परिक मोक्ष, कृतिकर्म के योग्य काल, आसन, स्थान, मुद्रा, आवर्त और शिरोनति का लक्षण, इत्यादि का विवेचन हुआ है। साथ ही साधु को तीन बार नित्य देववन्दन करना चाहिए, वन्दन में वन्दनामुद्रा, सामायिक और स्तव में मुक्ताशुक्तिमुद्रा, कायोत्सर्ग में जिनमुद्रा करनी चाहिए, कायोत्सर्ग और वन्दना के समय बत्तीस दोषों का परिहार करना चाहिए इसका भी इसमें उल्लेख किया गया है। साधु के लिए यह अधिकार बहुत ही महत्वपूर्ण है।
नवम अध्याय का नाम 'नित्य-नैमित्तिक क्रिया' है। इस अध्याय के प्रारम्भ में नित्यक्रिया के प्रयोग की विधि बतलायी गयी है। उसमें स्वाध्याय कब, किस प्रकार प्रारम्भ करना चाहिए और कब किस प्रकार समाप्त करना चाहिए। साथ ही त्रैकालिक देववन्दन की विधि कही गई है। देववन्दन आदि क्रियाओं को करने का फल कहा गया है। कार्यात्सर्ग में ध्यान करने की विधि भी कही गई है। आगे नमस्कारमन्त्र के जप की विधि और भेद कहे गये हैं। पुनः प्रातःकालीन देववन्दन के पश्चात् आचार्य आदि को वन्दन करने की विधि कही गई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/93
देववन्दन करने के पश्चात् दो घटिका कम मध्याह तक स्वाध्याय करना चाहिए। तदनन्तर भिक्षा के लिए जाना चाहिए। फिर प्रतिक्रमण करके मध्याह काल की दो घटिका के पश्चात् पूर्ववत् स्वाध्याय करना चाहिए। जब दो घड़ी दिन शेष रहे तो स्वाध्याय का समापन करके दैवसिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। फिर रात्रियोग ग्रहण करके आचार्य को वन्दन करना चाहिए। आचार्य वन्दना के पश्चात् देववन्दन करना चाहिए। दो घड़ी रात बीतने पर स्वाध्याय आरम्भ करके अर्धरात्रि से दो घड़ी पूर्व ही समाप्त कर देना चाहिए। स्वाध्याय न कर सके तो देववन्दन करना चाहिए इस प्रकार साधु की दिनचर्या संबंधी नित्य क्रियाओं का उल्लेख किया है तथा तत्संबंधी प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करने की विधि, भोजन, प्रतिक्रमण आदि की विधि, दैवसिक प्रतिक्रमण की विधि, आचार्य वन्दन के पश्चात् की विधि, तथा रात्रि में निद्रा जीतने के उपाय आदि का भी विवेचन किया गया है।
नैमित्तिक क्रियाविधियों में चतुर्दशी के दिन की क्रियाविधि, अष्टमी की क्रियाविधि, पक्षान्त की क्रियाविधि, सिद्धप्रतिमा आदि को वन्दन करने की विधि,
अपूर्व चैत्यदर्शन होने पर क्रिया-प्रयोग विधि, प्रतिक्रमण प्रयोग विधि, श्रुतपंचमी की क्रियाविधि, सिद्धान्त आदि की वाचना संबंधी क्रियाविधि, सन्यासमरण की विधि, अष्टाहिक क्रियाविधि, अभिषेक वन्दना क्रियाविधि, मंगलगोचर क्रियाविधि, वर्षायोगग्रहण और वर्षायोगमोक्ष (त्याग) की विधि, वीरनिर्वाण की क्रियाविधि, पंचकल्याण के दिनों की क्रियाविधि, मृत मुनि आदि के शरीर की क्रियाविधि, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा के समय की क्रियाविधि, आचार्य पद प्रतिष्ठापन की क्रियाविधि, प्रतिमायोग में स्थित मुनि की क्रियाविधि, दीक्षा ग्रहण की विधि, केशलोच की विधि, भूमिशयन की विधि, खड़े होकर भोजन करने की विधि आदि का वर्णन हुआ है। इसके साथ ही आचार्य के गुण, दस प्रकार के स्थितिकल्प, खड़े होकर भोजन करने का कारण, केशलोच का फल, यतिधर्म के पालन का फल आदि का कथन भी किया गया है।
संक्षेपतः यह कृति दिगम्बर मुनियों की आचारविधि, आवश्यकविधि, नित्यविधि और नैमित्तिकविधि का विवरण प्रस्तुत करती है। इसमें मुनि जीवन संबंधी सभी प्रकार के क्रियाकल्प समाविष्ट किये गये हैं। टीकाएँ - इस ग्रन्थ पर ग्रन्थकार आशाधरजी ने 'ज्ञानदीपिका' नाम की पंजिका लिखी है। 'भव्यकुमुदचन्द्र' नाम की एक अन्य टीका भी रची गई है। दोनों संस्कृत में है। पंजिका की अपेक्षा टीका बड़ी है। अनगारधर्मामृत की यह स्वोपज्ञटीका वि. सं. १३०० में रची गई है जबकि सागारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका का समय वि. सं. १२८६ है। टीका और पंजिका दोनों की एक विशेषता यह है कि ये केवल
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94/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
श्लोकों की व्याख्यामात्र नहीं करती, अपितु उनमें आगम विषयों को विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिए और उससे सम्बद्ध अन्य आवश्यक जानकारी देने के लिए ग्रन्थान्तरों से उद्धरण देते हुए उस पर समुचित प्रकाश भी डालती है। इस वजह से इन टीकाओं का महत्त्व मूलग्रन्थ से भी अधिक है।
आशाधरजी के द्वारा रचे गये अन्य ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं उनमें अध्यात्मरहस्य, क्रियाकलाप, जिनयज्ञकल्प और उसकी टीका, त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र, नित्यमहोद्योत, प्रमेयरत्नाकर, भरतेश्वराभ्युदय, रत्नत्रयविधान, राजीमतीविप्रलम्भ, सहस्रनामस्तवन और उनकी टीका प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने अमरकोश, अष्टांगहृदय, आराधनासार, इष्टोपदेश, काव्यालंकार, भूपालचतुर्विंशतिका एवं मूलाराधना इन अन्यकर्तृक ग्रन्थों पर टीकाएँ भी लिखी है। आचारांगसूत्र
अंग आगमों में आचारांग का स्थान प्रथम है। इसके नाम से ही 'स्पष्ट हो जाता है कि यह आचार' सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें श्रमण जीवन की साधनाविधि का जो मार्मिक विवेचन उपलब्ध होता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। संघ-व्यवस्था की दृष्टि से आचार की व्यवस्था आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य मानी गई है।
यह आगम अर्धमागधी प्राकृत भाषा में है। इसमें गद्य और पद्य दोनों ही शैली का सम्मिश्रण है। गद्य का प्रयोग बहुलता से हुआ है। इस सूत्र के रचयिता पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी है किन्तु इसके मूलभूत भावों (अर्थ) के प्ररूपक तीर्थंकर महावीर है। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि तीर्थकर प्रभु अर्थ रूप में जब देशना देते हैं तब प्रत्येक गणधर अपनी भाषा में सूत्रों का निर्माण करते हैं। इसका रचनाकाल ई. पूर्व पांचवी शती है किन्तु चार चूलिकारूप द्वितीय श्रुतस्कन्ध परवर्ती है।
आचारांग के दो श्रुतस्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम ब्रह्मचर्य है और
' (क) आचारांग नियुक्ति गा. ११ (ख) हरिभद्रीय नन्दी, वृत्ति पृ. ७६ (ग) नन्दीचूर्णि, पृ. ३२ (घ) समवायांगवृत्ति, पृ. १०८ (ड) पद अर्थ का वाचक और द्योतक है। बैठना, बोलना, अश्व, वृक्ष आदि पद वाचक कहलाते हैं। प्र. परि. च, वा आदि अन्यय पदों को द्योतक कहा जाता है। पद के नामिक, नौपातिक, औपसर्गिक, आख्यातिक और मिश्र आदि प्रकार है। वि.भा.गा. १००३ उद्धृत आचारांगसूत्र प्रथम, पृ. २८
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/95
दूसरे श्रुतस्कन्ध का नाम आचारचूला है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में ६ अध्ययन हैं पर इसका ७ वाँ अध्ययन वर्तमान में अनुपलब्ध है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में १६ अध्ययन हैं जो प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्यायों की व्याख्या मात्र है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में ३२३ सूत्र है आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों में कुल ८०४ सूत्र है इन सूत्रों का परिमाण १८ हजार पद कहा गया है प्रथम श्रुतस्कन्ध में ५१ उद्देशक हैं 'महाप्ररिज्ञा' अध्ययन के ७ उद्देशक का लोप करने पर ४४ उद्देशक रहते हैं। द्वितीय श्रुतकन्ध में कुल २५ उद्देशक हैं।
यह ऊपर में कह चुके हैं कि आचारांगसूत्र आचारप्रधान ग्रन्थ है, इसलिए इसे सर्वप्रथम स्थान मिला है। इसकी महत्ता का दूसरा कारण यह भी बताया गया हैं कि अतीतकाल में जितने भी तीर्थकर हुए हैं, उन सभी ने आचारांग का उपदेश दिया। वर्तमान में जो तीर्थकर महाविदेह क्षेत्र में विराजित हैं वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देते हैं और भविष्यकाल में जितने भी तीर्थकर होंगे वे भी सर्वप्रथम आचारांग का ही उपदेश देगें।'
आचारांग का मुख्य प्रतिपाद्य विषय 'आचार' है इसमें आचार सम्बन्धी विभिन्न पहलुओं को प्रस्तुत किया है किन्तु प्रथम श्रुतस्कन्ध में आचारविधि का सूक्ष्म स्वरूप ही उपलब्ध होता है जबकि द्वितीय श्रुतस्कन्ध में आचारविधि और आहारविधि की अच्छी विवेचना है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध' में उल्लिखित आचार पक्ष एवं आचारविधि का वर्णन इस प्रकार है - • शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में जीवसंयम, जीवों के अस्तित्व का
प्रतिपादन और उसकी हिंसा के त्याग करने का विधान बताया गया है। लोकविचय नामक द्वितीय अध्ययन में किन कार्यों को करने से जीव कमों से आबद्ध होता है और किस प्रकार की साधना करने से जीव कर्मों से मुक्त होता है इसकी सम्यक् विधि प्ररुपित है। शीतोष्णीय नामक तृतीय अध्ययन में श्रमण को अनुकूल और प्रतिकूल उपर्सग समुपस्थित होने पर सदा समभाव में रह कर उन उपसगों को
किस प्रकार सहन करना चाहिए इसका विधान कहा गया है। • सम्यक्त्व नामक चतुर्थ अध्ययन में यह प्रतिपादित हैं कि दूसरे साधकों
'(क) आचारांगचूर्णि - पृ. ३ (ख) आचारांग शीलांकगवृत्ति - पृ. ६ *आचारांगसूत्र - मधुकरमुनि
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96/ साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
• लोकसार नामक पंचम अध्ययन में कहा गया है कि इस विराट् विश्व में जितने भी पदार्थ हैं वे निस्सार हैं, केवल सम्यक्त्व ही सार रूप है। उसे प्राप्त करने के लिए मुनि को कैसा पुरुषार्थ करना चाहिए ? इत्यादि प्रकार क उपदेशविधि का निरूपण है।
•
के पास अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि लब्धियों के द्वारा प्राप्त ऐश्वर्य को देखकर साधक सम्यक्त्व से जरा भी विचलित न बने और स्व स्वभाव में स्थित बना रहे।
•
धूत नामक षष्ठम अध्ययन में निर्देश है कि सद्गुणों को प्राप्त करने के पश्चात् श्रमणों को किसी भी पदार्थ में आसक्त बनकर नहीं रहना चाहिये।
महापरिज्ञा नामक सप्तम अध्ययन में उल्लेख है कि संयम - साधना करते समय यदि मोहजन्य उपसर्ग उपस्थित हों तो उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करना चाहिये, परन्तु साधना से विचलित नहीं होना चाहिये ।
विमोक्ष नामक अष्टम अध्ययन में विधि-विधान विषयक कुछ महत्वपूर्ण चर्चा प्राप्त होती है; जैसे- समनोज्ञ अमनोज्ञ आहार दान की विधि एवं निषेध, अकारण आहार निषेध का विधान, द्विवस्त्रधारी विधान, एक वस्त्रधारी श्रमण की आहार विधि, भक्तप्रत्याख्यान, इंगितमरण, प्रायोपगमन अनशन की विधि, संलेखना की विधि इत्यादि ।
उपधानश्रुत नामक नवाँ अध्ययन में भगवान महावीर की साधना विधि का चित्रण करता है इसमें ध्यान-साधना, अहिंसा-चर्या, आसन - शय्या चर्या, निद्रात्याग चर्या, विविध उपसर्ग, स्थान- परीषह, शीत- परीषह, अचिकित्सा अपरिकर्म, तपचर्या एवं आहारचर्या का विशेष उल्लेख हुआ है।
उक्त विवेचन से स्वतः स्पष्ट होता है कि इस ग्रन्थ में संयमी जीवन को आचार और विचार से परिपुष्ट बनाने के लिए अन्य पक्षों के साथ-साथ विधि पक्ष पर भी बल दिया गया है।
आचारांग के द्वितीय श्रुतकन्ध में साध्वाचार का विस्तृत विवेचन है। इसमें मुनियों की भिक्षाचर्या, उनके ठहरने के स्थान वस्त्र, पात्र आदि का स्वरूप एवं उनके ग्रहण की विधि क्या है, इत्यादि विषयों का बहुत ही गंभीर विवेचन इसमें उपलब्ध होता है। यह द्वितीय श्रुतस्कन्ध पाँच चूलिकाओं में विभक्त है।
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इनमें से प्रथम चार चूलिकाएँ आचारांग में ही हैं किन्तु पाँचवी चूलिका अति विस्तृत होने के कारण आचारांग से भिन्न कर दी गई है और वह 'निशीथसूत्र' के नाम से एक अलग ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध है।
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इस द्वितीय श्रुतस्कन्ध' की प्रथम चूला में सात अध्ययन हैं इनके नाम ये हैं - १. पिण्डैषणा, २. शय्यैषणा, ३. ईर्येषणा, ४. भाषाजातैषणा, ५. वस्त्रैषणा, ६. पात्रैषणा और ७. अवग्रहैषणा । पिण्डैषणा नामक अध्ययन में निम्न विधानों की चर्चा हुई हैं १. कल्पनीय-अकल्पनीय आहार की विधि, २. औद्देशिकादि दोष-रहित आहार की एषणा विधि, ३. अष्टमी पर्रादि में आहार ग्रहण की विधि एवं निषेध, ४. भिक्षा योग्य कुलूकी गवेषणा विधि, ५. इन्द्रमह आदि उत्सव में अशनादि एषणा की विधि, ६. जीमनवार के आहार की त्याग विधि, ७ . अशुद्ध आहार के परित्याग की विधि, ८. गोदोहन वेला में भिक्षार्थ प्रवेश निषेध विधि, ६. अतिथि श्रमण आने पर भिक्षा विधि, १० अग्रपिंड ग्रहण निषेध ११. विषममार्गादि से भिक्षाचर्यार्थ गमन निषेध का विधान, १२. बंद द्वार वाले गृह में प्रवेश - निषेध का विधान, १३. पूर्व प्रविष्ट श्रमण माहणादि की उपस्थिति में भिक्षा विधि, १४. भिक्षाग्रहण की विधि, १५. पानी ग्रहण करने की विधि, १६. आधाकर्मिक आदि आहार ग्रहण का निषेध, १७ अग्राह्य लवण परिभोग परिषठापन विधि, १८. आहार भोगने की विधि, १६. आहार पान की सप्तैषणा विधि
शय्यैषणा नामक द्वितीय अध्ययन में ये विधान मिलते हैं। १. उपाश्रयएषणा की विधि, २ . उपाश्रय एषणा के विधि - निषेध, ३. गृहस्थ संसक्त उपाश्रय - निषेध का विधान, ४. उपाश्रय - याचना की विधि, ५. उच्चार-प्रस्रवण- भूमि प्रतिलेखना की विधि इत्यादि ।
ईषणा नामक अध्ययन में निम्न विधि-विधान प्राप्त होते हैं
१. वर्षावास में विहार चर्या की विधि, २. नौकारोहण विधि, ३. जंघाप्रमाण जल - संतरण की विधि, ४. विषम मार्गादि से गमन निषेध की विधि, ५. आचार्यादि के साथ विहार में विनय - विधि, ६ मार्गातिक्रमण की विधि आदि ।
भाषाजातैषणा इस अध्ययन में सोलह वचन बोलने की विधि एवं सावद्य भाषा त्याग की विधि कही गई है।
वस्त्रैषणा नामक पंचम अध्ययन में निम्न विधि-विधान कहे गये हैं वे ये हैं
१. अनैषणीय वस्त्र की ग्रहण निषेध विधि, २. वस्त्रैषणा की चार प्रतिमाओं का
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(क) आचारांगसूत्र - मुधकरमुनि (ख) आचारांगसूत्र - अमोलकऋषि
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विधान, ३. औद्देशिकादि दोषयुक्त वस्त्रैषणा के निषेध का विधान, ४. वस्त्र-ग्रहण से पूर्व प्रतिलेखना का विधान, ५. वस्त्र प्रक्षालन निषेध का विधान, ६. वस्त्र-सुखाने की विधि एवं निषेध, ७. कल्पनीय वस्त्र याचना विधि, ८. वस्त्र धारण की सहज विधि, ६. समस्त वस्त्रों सहित विहारादि की विधि एवं निषेध, १०. प्रातिहासिक वस्त्र ग्रहण और प्रत्यर्पण विधि, ११. वस्त्र रखने की विधि इत्यादि। पात्रैषणा नामक षष्ठम अध्ययन में पात्र सम्बन्ध विधि विधान निर्दिष्ट किये गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. एषणा दोषयुक्त पात्र-ग्रहण का निषेध, २. बहुमूल्य पात्र-ग्रहण निषेध, ३. पात्रैषणा की चार प्रतिमाओं का विधान, ४. अनैषणीय पात्र ग्रहण का निषेध, ५. पात्र-प्रतिलेखन का विधान, ६. पात्र बीजादि युक्त होने पर उनके ग्रहण करने की विधि, ७. सचित्त संसृष्ट पात्र को सुखाने की विधि, ८. विहार के समय पात्र विषयक विधि, ६. पात्र की याचना करने की विधि और १०. पात्र रखने की विधि। इसके साथ ही पात्र के प्रकार एवं उसकी मर्यादा का भी निरूपण किया गया है। अवग्रहैषणा नामक सप्तम अध्ययन में अवग्रह विषयक विधि-विधान कहे गये हैं वे . निम्न हैं - १. अवग्रह याचना के विविध प्रकार, २. अवग्रह के लिए वर्जित स्थान का विधान, ३. आम्रवन आदि में अवग्रह के विधि एवं निषेध, ४. अवग्रह ग्रहण में सात प्रतिमाओं का विधान, ५. अवग्रह के पाँच प्रकार और ६. अवग्रह याचना करने की शास्त्रीय विधि आदि।
द्वितीय श्रुतस्कन्ध की दूसरी चूला सप्तसप्ततिका के भी सात अध्ययन हैं उसके नाम ये हैं - १. स्थान, २. निषीधिका, ३. उच्चार प्रनवण, ४. शब्द, ५. रूप, ६. परक्रिया, और ७. अन्योन्यक्रिया।
द्वितीय चूला के इन अध्ययनों में विधि-विधान की कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। तृतीय चूलिका में 'भावना' नामक एक ही अध्ययन है। चतुर्थ चूलिका में भी 'विमुक्ति' नामक एक ही अध्ययन है। इन चूलिकाओं में भी विधि-विधान का उल्लेख दृष्टिगत नहीं होता है।
प्रथम श्रुतस्कन्ध में जो आचारविधि कही गई है उसका आचारण किसने किया? इस प्रश्न का उत्तर तृतीय चूलिका में है। इसमें भगवान महावीर के चरित्र का वर्णन है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के नवम अध्ययन उपधानश्रूत्र में महावीर के जन्म, माता-पिता, स्वजन इत्यादि के विषय में कोई उल्लेख नहीं है। इन्हीं सब बातों का वर्णन तृतीय चूलिका में है। इसमें पाँच महाव्रतों एवं उनकी पाँच-पाँच भावनाओं का स्वरूप भी बताया गया है। इस कारण इस चूलिका का 'भावना' नाम सार्थक है। चतुर्थ चूलिका में विभिन्न उपनामों द्वारा वीतराग के स्वरूप का वर्णन किया गया है।
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उक्त विवेचन के आधार पर यह सिद्ध होता है कि प्रस्तुत आगम अपने नाम के अनुसार विषय का प्रतिपादन करने वाला, साधु जीवन की उत्कृष्टचर्या का निरूपण करने वाला तथा भगवान महावीर की वाणी को प्रत्यक्ष दर्शाने वाला है। आचारांगनियुक्ति
आचारांगसूत्र' मूल में कहीं संक्षिप्त तो कहीं विस्तृत रूप से 'विधि-विधान' की चर्चा उपलब्ध होती है। यह नियुक्ति आचारांगसूत्र के दोनों श्रुतस्कन्धों पर रची गई है। अतः नियुक्ति की संक्षिप्त चर्चा करना प्रसंगोचित्त है।
___ आचारांगनियुक्ति की रचना परवर्ती काल की है लेकिन विषय-निरूपण की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। उत्तराध्ययननियुक्ति में निक्षेपों के वर्णन में प्रायः एकरूपता है लेकिन आचारांगनियुक्ति इसकी अपवाद है। इसमें आचार, अंग, ब्रह्म, चरण, शस्त्र, संज्ञा, दिशा, पृथिवी, विमोक्ष, ईर्या आदि शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या में अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का प्रतिपादन हुआ है।' यह प्राकृत पद्य में निबद्ध है। इसमें ३४७ गाथाएँ हैं। नियुक्ति के आधार पर इसमें मूल शब्दों का निक्षेप पूर्वक आख्यान हुआ है। विशेष में भावाचार के विषय में सात द्वार कहे गये हैं, आचार के १० पर्याय बताये गये हैं, आचारांग प्रथम अंग क्यों? इसका कारण बताया गया है, साथ ही उपधानश्रुत की प्राचीनता सिद्ध की गई है। आचारांगचूर्णि
यह चूर्णि नियुक्ति की गाथाओं के आधार पर ही लिखी गई है। इस चूर्णि में प्रायः उन्हीं विषयों का विवेचन है जो आचारांगनियुक्ति में है। आचारांगसूत्र का मूल प्रयोजन श्रमणों के आचार-विचार की प्रतिष्ठा करना है अतः इस चूर्णि में प्रत्येक विषय का प्रतिपादन इसी प्रयोजन को दृष्टि में रखते हुए किया गया है। आचारांगविवरण
__ प्रस्तुत विवरण मूलसूत्र एवं नियुक्ति पर है। यह विवरण शीलांककृत है। इसकी रचना के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न उल्लेख प्राप्त होते हैं वस्तुतः इसका रचनाकाल ६ वी १० वीं शती के आस-पास है चूंकि शीलांक उस समय विद्यमान थे।
__इस विवरण में विषय या शब्द को शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं रखा है अपितु प्रत्येक विषय का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है। अपने वक्तव्य की
' नियुक्तिपंचक- वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, पृ. ४१ २ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३, पृ. २८७
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पुष्टि के लिए बीच-बीच में अनेक प्राकृत एवं संस्कृत उद्धरण भी दिये गये हैं। भाषा, शैली, सामग्री आदि सभी दृष्टियों से विवरण को सुबोध बनाने का प्रयत्न किया है। यहाँ विवरण का विस्तृत विवेचन करना अपेक्षित नहीं है।
निष्कर्षतः आचारांगनिर्युक्ति, चूर्णि और विवरण आचारांगसूत्र में वर्णित आचार मर्यादा और आचारपक्षीय विधि-विधानों को गहराई के साथ समझने के लिए परम आलम्बन रूप है।
आवश्यकीयविधिसंग्रह
गणिकेशरमुनि के शिष्य मुनि बुद्धिसागर' जी द्वारा संकलित की गई यह कृति' बहुउपयोगी सिद्ध होती है। यह कृति हिन्दी भाषा में है। इस कृति में जो भी विधि-विधान संग्रहित हैं वे विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर, प्रवचनसारोद्धार, आवश्यक बृहद्वृत्ति एवं साधुविधिप्रकाश आदि जैन विधि-विधान से सम्बन्धित ग्रन्थों के आधार पर लिये गये हैं।
यह ग्रन्थ मुख्यतः साधुचर्या की आवश्यक -विधियों एवं विशिष्ट सामाचारियों से संबद्ध है। इस ग्रन्थ में वे ही विधि-विधान संग्रहित हैं जो साधु जीवन की दैनिकचर्या में उपयोगी हो। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु की अपेक्षा से इसका 'आवश्यकीय विधि संग्रह' यह नाम सार्थक प्रतीत होता है।
इस ग्रन्थ की विषयवस्तु दो भागों में विभक्त की गई हैं। प्रथम भाग 'आवश्यकीय विधि संग्रह' से सम्बन्धित हैं तथा दूसरा भाग 'आवश्यकीय विचार संग्रह' से समन्वित है।
इस ग्रन्थ के प्रथम भाग में उल्लेखित विधियों का विषयानुक्रम अधोलिखित है- १. रात्रिकप्रतिक्रमण विधि, २. प्रातःकालीन प्रतिलेखन विधि, २.१ सामान्य प्रतिलेखन विधि, २.२ अंगप्रतिलेखन विधि, २.३ उपधि प्रतिलेखन विधि, २.४ स्थापनाचार्य प्रतिलेखन विधि ३. गुरुवंदन विधि ४. चैत्यवंदन विधि ५. दिन के प्रथम प्रहर की ( उग्घाडा पोरिसीह की ) विधि ६. पात्रप्रतिलेखन विधि ७. आहार ग्रहण के निमित्त भ्रमण करने की विधि ८. आहार ग्रहण के सम्बन्ध में आलोचना करने की विधि ६. प्रत्याख्यान पारने की विधि १०. स्थंडिल ( लघुनीत - बडीनीत ) के लिए गमन करने की विधि ११. सन्ध्याकालीन प्रतिलेखना
खरतरगच्छीय मोहनमुनि के समुदायवर्ती श्री राजमुनिजी के दो शिष्य लब्धिमुनिजी और केशरमुनिजी थे । प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्त्ता बुद्धिसागर जी इन्हीं केशरमुनि जी के शिष्य थे।
यह कृति वि.सं. १६६३ में 'श्री हिन्दी जोनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय जैन प्रेस, कोटा' से प्रकाशित हुई है।
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विधि १२. मांडला एवं गोचरी में लगे हुए दोषों की प्रतिक्रमण विधि १३. दैवसिक प्रतिक्रमण विधि १४. दैवसिक प्रतिक्रमण की विशेष विधि १५. रात्रिक संथारा-पोरिसी पढ़ने की विधि १६. पाक्षिकादि प्रतिक्रमण विधि १७. छींकदोष निवारण विधि १८. मार्जारी के मंडली प्रवेश के दोष के निवारण की विधि १६. द्वादशावर्त्तवंदन विधि २०. पाक्षिक प्रतिक्रमण निमित्त दूसरे दिन पदस्थ गुरुजनों को वन्दन करने की विधि २१. सचित्त-अचित्त रज दूर करने (ओहडावण) की विधि २२. स्वाध्यायनिक्षेप विधि २३. स्वाध्याय उत्क्षेप (अस्वाध्याय को दूर करने) की विधि २४. लोच करने एवं करवाने की विधि २५. देववंदन विधि २६. मंडलरचना विधि
प्रस्तुत ग्रन्थ के दूसरे भाग में संकलित किये गये विषय निम्न हैं - १. कायोत्सर्ग संबंधी दोष विचार २. द्वादशावत वंदन संबंधी विचार ३. छहमासी तप चिंतन विचार ४. शय्यातर विचार ५. आहार दोष विचार ६. मुँहपत्ति प्रतिलेखन विचार ७. उपकरण विचार (साधु के १४ उपकरण) (साध्वी के २५ उपकरण) ८. स्थंडिल प्रतिलेखन विचार ६. पंचमहाव्रत भावना विचार १०. संडाशक प्रमार्जन विचार ११. आस्वाध्याय (असज्झाय) विचार १२. प्रकीर्णक विचार १३. सूतक विचार १४. बारहव्रत तथा सर्व तपस्या उच्चारण (प्रतिग्रहण) विधि १५. सर्वतपस्या पारण विधि उत्तराध्ययनसूत्र
उत्तराध्ययन अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध है।' यह आचार प्रधान आगमसूत्र है। इसमें साधु के आचार एवं तत्त्वज्ञान का सरल एवं सुबोध शैली में वर्णन किया गया है। इसमें उपमाओं की बहुलता है इसलिए विंटरनित्स ने इसे श्रमणकाल की कोटि में रखा है। दिगम्बर साहित्य में अंगबाह्य के १४ प्रकारों में दशवैकालिक का सातवाँ और उत्तराध्ययन का आठवाँ स्थान माना गया है। नंदिसूत्र के अन्तर्गत कालिक सूत्रों की गणना में उत्तराध्ययन का प्रथम स्थान है। वर्तमान में इसकी गणना मूलसूत्रों में की गई है। इसको मूलसूत्र क्यों माना गया है इस बारे में विद्वानों के अनेक मत हैं। पाश्चात्य विद्वान् शान्टियर के अनुसार इसमें महावीर के मूल शब्दों का संग्रह है, इसलिए इसे मूलसूत्र कहा जाता है। डॉ. शूबिंग ने साधु जीवन के मूलभूत नियमों का प्रतिपादक होने के कारण इसे मूलसूत्र कहा है। इसके विषय में सामान्य मान्यता यही है कि इसमें मुनि के मूलगुणों, महाव्रतों एवं समिति आदि का निरूपण होने के कारण यह मूलसूत्र
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कहलाता है। मूलसूत्रों की संख्या एवं उनके नामों के बार में विद्वानों में काफी मतभेद है किन्तु उत्तराध्ययन को सभी में एक स्वर से मूलसूत्र माना है।
इसमें दो शब्द हैं उत्तर और अध्ययन। नियुक्तिकार के अनुसार ये अध्ययन आचारांग के अध्ययन के पश्चात् अर्थात् उत्तरकाल में पढ़े जाते हैं इसलिए इन्हें उत्तर अध्ययन कहा गया है।' श्रुतकेवली आचार्य शय्यंभव के पश्चात् ये अध्ययन दशवैकालिक के अध्ययन के पश्चात् अर्थात् उत्तरकाल में पढ़े जाने लगे, इसलिए भी ये 'उत्तर-अध्ययन' ही बने रहे। यह ग्रन्थ किसी एक कर्ता की कृति नहीं है, अपितु संकलित ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल दशवैकालिकसूत्र की रचना से पूर्व का है यह बात उक्त विवरण से स्पष्ट होती है। दशवैकालिक के कर्ता शय्यंभवसूरि हैं, जिनका समय वीर निर्वाण के ७५ वर्ष बाद माना जाता है।
उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन तथा १६३८ गाथाएँ हैं। प्रत्येक अध्ययन के विषय भिन्न-भिन्न है। इसमें विधि-विधान से सम्बन्धित कुछ विवरण इस प्रकार उपलब्ध होते हैं जैसे दूसरे ‘परीषह नामक' अध्ययन में कहा गया है किसाधुजीवन में आने वाले बाईस परीषहों को किस प्रकार सहन करना चाहिये तथा उस स्थिति में साधु को क्या चिन्तन करना चाहिये इत्यादि। इन सबका इसमें मनोवैज्ञानिक ढंग से निरूपण किया गया है। वस्तुतः इस अध्ययन में 'मुनिचर्याविधि' का बहुत सूक्ष्मता से वर्णन हुआ है। पाँचवे 'क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय' नामक अध्ययन में मुनि जीवन के प्रारंभिक आचार नियमों का प्रतिपादन किया गया है।
सोलहवे 'ब्रह्मचर्य समाधिनस्थान' नामक अध्ययन में ब्रह्मचर्य पालन के दस समाधिस्थान बताये गये हैं अर्थात् यह कहा गया है कि साधु को ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए किन-किन नियमों का पालन करना चाहिये। यहाँ नियम पालन करना भी एक प्रकार की विधि समझनी चाहिए। वे दस स्थान ये हैं -
१. श्रमण को स्त्री, पशु एवं नपुंसक से युक्त स्थान पर नहीं रहना चाहिए। २. स्त्रियों से एकान्त में बातचीत नहीं करनी चाहिए। ३. स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए। ४. स्त्रियों की ओर दृष्टि गड़ाकर नहीं देखना चाहिए। ५. स्त्रियों के गायन, रोदन, हास्य, विलाप आदि का श्रवण नहीं करना चाहिए। ६. पूर्व क्रीडाओं का स्मरण नहीं करना चाहिए। ७. अतिगरिष्ठ आहार नहीं करना चाहिए। ८. मात्रा से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। ६. शरीर की साज-सज्जा या विभूषा नहीं करनी चाहिए। १०. इन्द्रियों के
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विषय-शब्द, रूप, रस, गन्ध, एवं स्पर्श में आसक्त नहीं बनना चाहिए।
'सामाचारी' नामक छब्बीसवें अध्ययन में दस प्रकार की सामाचारी' का वर्णन किया गया है जो साधु जीवन की प्रमुख आचारविधि रूप हैं। इन सामाचारियों का पालन प्रत्येक संयमी आत्माओं के लिए अनिवार्य माना गया है। जैसे मुनि कार्यवश कहीं बाहर जाये तो गुरुजनों को सूचना देकर जायें, पुनः वापिस लौटकर आयें तब अपने आगमन की सूचना दें। अपने हर कार्य के लिए गुरु से अनुमति लें। गुरु या अन्य संघीय साधुओं की आहार आदि से सेवा करें। गुरु के आने पर खड़े होकर सम्मान करें तथा ज्ञानीजन या तपस्वीजन से ज्ञान एवं तप की शिक्षा लेने को सदैव तत्पर रहें इत्यादि।
इसके साथ ही मुनि की दिनचर्या का समय के क्रम से विवेचन किया गया है। इसमें निर्देश है कि मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में भिक्षाचर्या एवं चौथे में पुनः स्वाध्याय करें। मुनि रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा और चौथे में पुनः स्वाध्याय करें। अन्त में प्रहर का निर्धारण नक्षत्र के माध्यम से किस प्रकार होता है इसकी विधि तथा मुनि की प्रतिलेखन विधि का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकार यह अध्ययन साधक की साधना का सम्यक् निरूपण करता है साध ही कालमान की विधि को भी प्रस्तुत करता है।
'प्रवचनमाता' नामक २४ वें अध्ययन में 'अष्ट प्रवचनमाता' का निरूपण है। अष्टप्रवचनमाता का परिपालन साधुचर्या का प्राथमिक अंग माना गया है। इस अध्ययन में अष्टप्रवचनमाता का स्वरूप एवं उसके परिपालन की सम्यक विधि कही गई है। 'चरणविधि' नामक ३१ वें अध्ययन में श्रमणों की 'चारित्रविधि' का वर्णन है अतः अध्ययन का नाम चरणविधि रखा गया है। इस अध्ययन में एक से लेकर तैंतीस संख्या तक अनेक विषयों का वर्णन हुआ है। उनमें साधु के लिए करणीय-अकरणीय कृत्यों का निरूपण है।
'अणगारमार्गगति' नामक ३५ वें अध्ययन में मुख्यतः शान्त या अनाकुल जीवन शैली एवं समाधिमरण की विधि का विवेचन किया गया है । इसके साथ ही अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण आचार विधियों की भी प्ररूपणा हुई है। उक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि यह सूत्र विभिन्न विषयों का प्रतिपादक है इसमें जातिवाद, दासप्रथा, यज्ञ एवं तीर्थस्थान आदि का भी वर्णन है। तदुपरान्त यत्किंचित् विधि विधान भी निरूपित
'जैन परम्परा में मुनि की आचारसंहिता को सामाचारी कहा गया है। यह आचार दो प्रकार का है - व्रतात्मक एवं व्यवहारात्मक। पंचमहाव्रत रुप आचार व्रतात्मक सामाचारी है तथा परस्परानुसार रुप आचार व्यवहारात्मक सामाचारी है।
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हुये हैं तथा ये विधि-विधान प्रायः साधु जीवन की चर्या से ही सम्बन्धित है। उत्तराध्ययननियुक्ति
__ इस नियुक्ति में ६०७ गाथाएँ है। अन्य नियुक्तियों की तरह इसमें भी अनेक पारिभाषिक शब्दों का निक्षेप पद्धति से व्याख्यान किया गया है। इसी प्रकार अनेक शब्दों के विविध पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं। इसमें सामाचारी और विधि शब्द का भी निक्षेपपूर्वक व्याख्यान हुआ है। उत्तराध्ययनचूर्णि
यह चूर्णि नियुक्ति के अनुसार है। यह संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में लिखी गई है। इसमें विनय, परीषह, निर्ग्रन्थ-पंचक, ज्ञान, क्रिया, एकान्त आदि विषयों पर सोदाहरण प्रकाश डाला गया है। अन्त में चूर्णिकार ने अपना परिचय देते हुए स्वयं को कोटिकगण के वाणिज्यकुल की व्रजशाखा के गोपालगणिमहत्तर का शिष्य बताया है। उत्तराध्ययनटीका
यह टीका वादिवेताल शान्तिसूरि ने लिखी' है। इस टीका का नाम शिष्यहितावृत्ति है। यह पाइअ-टीका के नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि इसमें प्राकृत कथानकों एवं उद्धरणों की बहुलता है। इसमें मूलसूत्र एवं नियुक्ति दोनों का व्याख्यान है। बीच में कहीं-कहीं भाष्य गाथाएँ भी उद्धृत की गई है। अनेक स्थानों पर पाठान्तर भी दिये गये हैं। इसमें अन्य विषयों के साथ-साथ यथाप्रसंग पौषधविधान, दीक्षाविधान, साधुचर्या विधान इत्यादि की भी चर्चा हुई है।
स्पष्टतः प्रस्तुत आगम एवं उस पर लिखे गये व्याख्या साहित्य में अन्य विविध विषयों की प्रधानता होने पर भी कुछ विधि-विधान एवं तत्सम्बन्धी विवरण भी दृष्टिगत होते हैं। दशवैकालिकसूत्र
जैन आगमों में दशवैकालिकसूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मूल आगमों में इसका तीसरा स्थान है। नन्दीसूत्र', पक्खिसूत्र' आदि के वर्गीकरण के अनुसार उत्कालिक सूत्रों में इसका प्रथम स्थान है। मूलतः यह आगम साधु की आचारविधि
' देखें, जैन साहित्य का इतिहास भा. ३, पृ. ३५८-६३ २ नन्दिसूत्र ७७
' पाक्षिकसूत्र- स्वाध्याय-सौम्य-सौरभ पृ. १६१
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और आहारविधि से सम्बन्धित है। यह सूत्र अस्वाध्याय के समय को छोड़कर सभी कालों में पढ़ा जा सकता है। यह सूत्र प्राकृत भाषा में है। इसमें कुल ४८० गाथाएँ है, ३६ सूत्र है, १० अध्ययन हैं, ६ उद्देशक है और कुल ३४ गाथा की दो चूलिकाएँ हैं। इसके कर्त्ता श्रुतकेवली शय्यंभवसूरि हैं। उन्होंने इसकी रचना अपने पुत्र मनक के लिये की थी। इसका रचनाकाल वीर - निर्वाण संवत् ७२ के आस-पास है। यह रचना चम्पा में हुई है क्योंकि मनक अपने पिता शय्यंभवसूरि से चम्पा में मिला था।
दशवैकालिकसूत्र के सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह एक निर्यूहण - रचना है, प्रत्युत स्वतन्त्र कृति नहीं है । दशवैकालिक नियुक्ति' के अनुसार दशवैकालिक का चौथा अध्ययन आत्मप्रवादपूर्व से, पाँचवां अध्ययन कर्मप्रवादपूर्व में से, सातवाँ अध्ययन सत्यप्रवादपूर्व में से, और शेष अध्ययन नौंवें प्रत्याख्यानपूर्व की तीसरी वस्तु में से लिए गये हैं। दशवैकालिक के कतिपय अध्ययन और गाथाओं की उत्तराध्ययन और आचारांगसूत्र के अध्ययन और गाथाओं के साथ तुलना की जा सकती है। वस्तुतः आगम श्रमण जीवन की आचारसंहिता से सम्बन्धित है। इसमें श्रमणाचार की जितनी भी प्रमुख बातें हैं, वे सभी आ गई हैं।
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अब हमारा जो वर्ण्य विषय है उसकी अपेक्षा से दशवैकालिकसूत्र के १० अध्ययनों का विवेचन इस प्रकार हैं :
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१. द्रुमपुष्पिका इसमें धर्म की व्याख्या और प्रशंसा की गई है। इसके साथ ही साधु की भिक्षा कैसी होनी चाहिए और साधु को किस प्रकार आहार ग्रहण करना चाहिये इस बात को माधुकरी वृत्ति के आधार पर समझाया गया है।
यहाँ यह ध्यातव्य हैं कि जैन श्रमण की भिक्षा सामान्य भिक्षुओं की भाँति नहीं होती। उसके लिए अनेक नियम और उपनियम हैं। वह किसी को भी बिना पीड़ा पहुँचाये शुद्ध- सात्विक नवकोटि परिशुद्ध भिक्षा ग्रहण करता है । भिक्षाविधि में भी अहिंसा की सूक्ष्म मर्यादा का पूर्ण ध्यान रखा गया है।
२. श्रामण्यपूर्वक - यह दूसरा अध्ययन है। इसमें निर्देश हैं कि संयम में धृति रखने वाला ही साधक अपनी साधना को आगे बढ़ाता है। धर्म बिना धृति के स्थिर नहीं रह सकता है।
३. क्षुल्लकाचारकथा
इस तृतीय अध्ययन में आचारविधि और अनाचार विधि का विवेचन किया गया है । सम्पूर्ण ज्ञान का सार आचार है। जिस साधक में धृति होती है वही साधक आचार और अनाचार के भेद को समझ सकता है और
दशवैकालिक निर्युक्ति, गा. १६-१७
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106/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
आचार को स्वीकार करके अनाचार से बचता है। पंचाचार रूप धर्म आचार है और जितने भी अग्राह्य, अभोग्य एवं अकरणीय कार्य हैं वे अनाचार हैं। इसमें ५२ प्रकार के अनाचार (अनाचीर्ण) कहे गये हैं। ४. धर्मप्रज्ञप्ति-षड्जीवनिकाय - इस चतुर्थ अध्ययन में जीवसंयम और आत्मसंयम पर चिन्तन किया गया है। इसमें उल्लेख हैं कि वही साधक श्रमणधर्म की विधि का पालन कर सकता है जो जीव और अजीव के स्वरूप को जानता हो। इसके साथ ही पाँचमहाव्रत और छट्ठा रात्रिभोजनविरमणव्रत का स्वरूप बतलाया गया है। आगे कहा है कि महाव्रतों का सम्यक् पालन वही कर सकता है जिसे पहले जीव-अजीव के स्वरूप का ज्ञान हो। इस ज्ञान के अभाव में अहिंसा का पालन नहीं हो सकता है और बिना अहिंसा (दया) के अन्य व्रतों का पालन नहीं हो सकता है। साध्वाचार की दृष्टि से यह अध्ययन अत्यन्त प्रेरणादायी सामग्री प्रस्तुत करता है। ५. पिण्डैषणा - यह अध्ययन दो उद्देशकों में विभक्त है। प्रथम उद्देशक में भिक्षा के सम्बन्ध में गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा का वर्णन है इसलिए इस अध्ययन का नाम पिण्डैषणा है। इस अध्ययन में भिक्षाचर्या से सम्बन्धित जो कुछ विधियाँ प्राप्त होती हैं वे निम्न हैं -
१. गोचरी गमन विधि, २. गृह प्रवेश सम्बन्धी विधि-निषेध, ३. आहार ग्रहण सम्बन्धी विधि-निषेध, ४. गर्भवती एवं स्तनपायिन नारी से भोजन लेने सम्बन्धी विधि निषेध, ५. भोजन करने की आपवादिक विधि, ६. साधु-साध्वियों के आहार करने की सामान्य विधि, ७. पर्याप्त आहार न मिलने पर पुनः आहार-गवेषणा की विधि ८. यथाकालचर्या करने का विधान, ६. सामुदायिक भिक्षा का विधान आदि।
___ पाँचवे अध्ययन के दूसरे उद्देशक में साधु के भिक्षाचर्या की काल सम्बन्धी विधि बतायी गयी है अर्थात् इसमें यह बताया गया है कि साधु को भिक्षा के लिए किस समय जाना चाहिये। ६. महाचारकथा - इस अध्ययन में सूक्ष्म रूप से साधु की आहारविधि ही प्रतिपादित है। तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक आचार का विवेचन है तो इस अध्ययन में महाचार का विवेचन है। तृतीय अध्ययन में केवल सामान्य आचार का ही निरूपण है, जबकि इस अध्ययन में उत्सर्ग और अपवाद दोनों मागों का निरूपण है। यहाँ दोनों ही मार्ग साधक की साधना को लक्ष्य में रखकर बताए गए हैं। जैसे एक नगर तक पहुँचने के दो मार्ग हैं, वे दोनों ही मार्ग कहलाते हैं, अमार्ग नहीं; वैसे ही उत्सर्ग भी साधना का मार्ग है और अपवाद भी। उदाहरण के रूप में
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बाल, वृद्ध, रोगी श्रमणों के लिए अठारह स्थान वर्ज्य माने हैं। उन अठारह स्थानों में सोलहवाँ स्थान 'गृहान्तरनिषद्या वर्जन' है, जिसका अर्थ है - गृहस्थ के घर में बैठना नहीं। इसका अपवाद भी इस अध्ययन की ५८ वीं गाथा में है कि जराग्रस्त, रोगी और तपस्वी साधु गृहस्थ के घर बैठ सकता है। स्पष्टतः अपवादमार्ग का प्रस्तुत अध्ययन में सहेतुक निरूपण हुआ है।
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७. वाक्य शुद्धि इस सातवें अध्ययन में साधु की आचारविधि के अन्तर्गत भाषा-विवेक पर बल दिया गया है। जैन श्रमणों के लिए गुप्ति, समिति और महाव्रत का पालन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी माना गया है। महाव्रत में द्वितीय महाव्रत भाषा से सम्बन्धित है तो गुप्ति और समिति में भी द्वितीय गुप्ति और द्वितीय समिति भाषा से ही सम्बन्धित है। वचन - गुप्ति में मौन है और समिति में विचार युक्त वाणी का प्रयोग है। इसमें साधु के लिए वर्ज्य - अवर्ज्य भाषा का निरूपण हुआ है और कहा गया है कि साधु को कर्कश, निष्ठुर, अनर्थकारी जीवों का आघात और परिताप देने वाली भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। हमेशा हित, मित, और सत्य ही बोलना चाहिए।
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८. आचारप्रणिधि इस अध्ययन में आचारविधि का नहीं अपितु आचार की प्रणिधि का निरूपण है । आचार एक महान् निधि है । उस निधि को पाकर श्रमण किस प्रकार चले, उसका दिग्दर्शन इस अध्ययन में किया गया है। प्रणिधि का अपर अर्थ - एकाग्रता, स्थापना और प्रयोग है। श्रमण को इन्द्रियों के विकारों के प्रवाह में प्रवाहित न होकर, आत्मस्थ होना चाहिए। अप्रशस्त प्रयोग न कर प्रशस्त प्रयोग करने चाहिए। ऐसी शिक्षाएं इस अध्ययन में दी गई है। इस अध्ययन में साधना के अनेक आचरणीय पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।
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६. विनयसमाधि - इस अध्ययन में चार उद्देशक हैं उनमें विनय का निरूपण किया गया है। विनय का वास्तविक अर्थ है- वरिष्ठ एवं गुरुजनों का सम्मान करते हुए, उनकी आज्ञाओं का पालन करते हुए अनुशासित जीवन जीना । इस अध्ययन में विनय आचार से सम्बन्धित कई बिन्दूओं पर प्रकाश डाला गया है जैसे - १. अविनीत श्रमण के द्वारा की गयी गुरु आशातना के दुष्परिणाम, २. गुरु के प्रति विविध रूपों में विनय का प्रयोग, ३. विनय का माहात्म्य और फल, ४. अविनीत और सुविनीत के गुण-दोष, ५. लौकिक विनय और लोकोत्तर विनय, ६. विनीत साधक को क्रमशः मुक्ति की उपलब्धि, ७. विनयसमाधि के चार स्थान इत्यादि । वस्तुतः विनय आचार का पालन करना भी एक प्रकार का आध्यात्मिक अनुष्ठान है।
१०. समिक्षु - इस अध्ययन में भिक्षु के स्वरूप का सम्यक् निरूपण है।
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108/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
प्रथमचूलिका- इसका नाम 'रतिवाक्या' है। इसमें संयम-साधना से विचलित होने वाले साधकों को पुनः स्थिर करने की विधि बतायी गई है। द्वितीयचूलिका- का नाम 'विविक्तचर्या' है। इसमें श्रमण की एकान्तचर्या के गुण और नियमों का निरूपण है।
निष्कर्षतः दशवैकालिकसूत्र' में श्रमणाचार सम्बन्धी विधि-विधान का बहुत ही व्यवस्थित ढंग से हुआ है। दशवैकालिकनियुक्ति
यह आगम आचारविधान और आहारविधान से सम्बद्ध होने के कारण इस ग्रन्थ पर जो कुछ भी व्याख्या साहित्य प्रतीत होता है उन पर संक्षिप्त प्रकाश डालना अनिवार्य प्रतीत होता है चूंकि व्याख्यापरक ग्रन्थों में उक्त विषय की कुछ विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। दशवैकालिकनियुक्ति प्राकृत पद्य में निबद्ध है इसके नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाह माने जाते हैं। किन्तु इस सम्बन्ध में अनेक मतभेद भी हैं। नियुक्ति के प्रारम्भ में सर्वसिद्धों को मंगलरूप नमस्कार करके मंगल के विषय में कहा है कि ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में विधिपूर्वक मंगल करना चाहिए। नामादि की अपेक्षा मंगल चार प्रकार का बताया गया है।
___ आगे उल्लेख हैं कि 'दश' शब्द का प्रयोग दस अध्ययन की दृष्टि से हुआ है और 'काल' का प्रयोग इसलिए हुआ है कि इसकी रचना उस समय पूर्ण हुई जब पौरुषी व्यतीत हो चुकी थी, अपराह्म का समय हो चुका था।
आगे दस अवयवों से प्रथम अध्ययन का परीक्षण किया गया हैं दूसरे अध्ययन में नामादि चार प्रकार से 'श्रामण्य' की निक्षेप पद्धति से व्याख्या की गई है। आगे के सभी अध्ययनों में भी उस-उस विषय का निक्षेप पद्धति से व्याख्यान किया गया है। यहाँ यह ध्यातव्य हैं कि नियुक्ति की व्याख्या शैली निक्षेप पद्धति पर आधारित होती है। जिनमें मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद की व्याख्या न करके मुख्य
' दशवैकालिक रचना से पूर्व आचारांग का अध्ययन अध्यापन होता था, परन्तु दशवैकालिक की रचना के बाद आचारबोध के लिए सर्वप्रथम दशवैकालिक का अध्ययन आवश्यक माना गया। दशवकालिक निर्माण के पूर्व आचारांग के 'शस्त्रपरिज्ञा' अध्ययन से श्रमणों में महाव्रतों की उपस्थापना की जाती थी, किन्तु दशवैकालिक के निर्माण के बाद दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन से महाव्रतों की उपास्थापना की जाने लगी। प्राचीन काल में श्रमणों को भिक्षाग्राही बनने के लिए आचारांगसूत्र के दूसरे अध्ययन के 'लोकविचय' के पांचवे उद्देशक को जानना आवश्यक था, पर जब दशवैकालिक का निर्माण हो गया तब उस सूत्र के पाँचवाँ अध्ययन 'पिण्डैषणा' को जानने वाला श्रमण भी भिक्षाग्राही हो गया।
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रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की जाती है। दशवैकालिकभाष्य
___ नियुक्तियों की व्याख्या शैली बहुत ही संक्षिप्त और गूढ़ होती है जबकि भाष्य की व्याख्याशैली अपेक्षाकृत विस्तृत होती है। भाष्य भी प्रायः प्राकृत पद्य में ही होते हैं। इस भाष्य में अनेक प्राचीन अनुश्रुतियाँ, लौकिक कथाएँ और परम्परागत श्रमणों की आचार-विचार विधि तथा गतिविधियों का प्रतिपादन किया गया है। दशवैकालिक पर जो भाष्य प्राप्त है, उसमें कुल ६३ गाथाएँ है। दशवैकालिक चूर्णि में भाष्य का उल्लेख नहीं है किन्तु आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्ति में भाष्य और भाष्यकार का अनेक स्थलों पर उल्लेख किया है।' दशवैकालिकभाष्य दशवैकालिकनियुक्ति की अपेक्षा बहुत ही संक्षिप्त है। दशवैकालिकचूर्णि
___ जैन आगमों पर जो व्याख्याएँ संस्कृत मिश्रित प्राकृत गद्य में लिखी गई वे चूर्णि के रूप में विश्रुत हुई हैं। चूर्णिकार के रूप में जिनदासगणि महत्तर का नाम अत्यन्त प्रसिद्ध है। उनके द्वारा लिखित चूर्णियाँ सात आगमों पर प्राप्त है। उनमें एक चूर्णि दशवैकालिक पर भी है। दशवैकालिक पर दूसरी चूर्णि व्रजस्वामी की पंरपरा के एक स्थविर श्री अगस्त्यसिंह की है। यह प्राकृत में है। इसमें सभी महत्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या की गई है। इस व्याख्या के लिए उन्होंने विभाषा शब्द का प्रयोग किया है। विभाषा का अर्थ है- शब्दों में जो अनेक अर्थ होते हैं, उन सभी अर्थों को बताकर प्रस्तुत में जो अर्थ उपयुक्त हो उसका निर्देश करना। इससे स्पष्ट है कि इस चूर्णि में मूलसूत्र में निबद्ध जो विधि-विधान है उसका विस्तृत विवेचन हुआ है साथ ही तत्त्वार्थसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, ओघनियुक्ति, व्यवहारभाष्य, कल्पभाष्य आदि ग्रन्थों का भी इसमें उल्लेख हुआ है।
जिनदासगणिमहत्तर ने इसकी चूर्णि संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में रची है। सभी अध्ययनों पर विशेष प्रकाश डाला गया है। पाँचवें अध्ययन में श्रमण के उत्तरगुण-पिण्डस्वरूप, भक्तपानैषणाविधि, गमनविधि, गोचरविधि, पानकविधि, परिष्ठापनविधि, भोजनविधि आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। चूलिकाओं में रति, अरति, विहारविधि, गृहिवैयावृत्य का निषेध आदि विषयों से सम्बन्धित विवेचना है। प्रस्तुत चूर्णि में अनेक कथाएँ दी गई है, जो बहुत ही रोचक तथा विषय को स्पष्ट करने वाली है।
' (क) भाष्यकृता पुनरुपन्यक्त इति- दश. हरिभद्रीयटीका, पृ. ६४ (ख) आह च भाष्यकारः, उद्धृत दशवैकालिक सूत्र, मधुकरमुनि, प्रस्तावना पृ. ६६
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110 / साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
पिण्डनिर्युक्ति
पिण्डनिज्जुत्ति-पिण्डनिर्युक्ति नामक यह आगम चौथा मूलसूत्र' माना जाता है। कहीं ओघनियुक्ति को भी इसके स्थान पर माना जाता है। यह कृति महाराष्ट्री प्राकृत पद्य में है। इसमें ६७१ गाथाएँ है। इसके रचयिता भद्रबाहु माने जाते हैं। यह निर्युक्ति दशवैकालिकसूत्र के पाँचवें अध्ययन 'पिंडैषणा' पर लिखी गई है। अत्यन्त विस्तृत हो जाने के कारण इसे 'पिण्डनिर्युक्ति' के नाम से एक अलग ही ग्रन्थ स्वीकार कर लिया गया है। इसमें निर्युक्ति और भाष्य की गाथाएँ एक दूसरे में मिल गई हैं।
वस्तुतः यह ग्रन्थ श्रमण की 'आहारविधि' से सम्बन्धित है और यह बात इस ग्रन्थ के नाम से भी स्पष्ट होती है । पिण्ड का अर्थ है- भोजन । पिण्डनिर्युक्ति में अशन, पान, खादिम और स्वादिम इस सभी के लिए पिण्ड शब्द व्यवहृत हुआ है। श्रमण के ग्रहण करने योग्य आहार को पिण्ड कहा गया है। इस ग्रन्थ में ' आहार विधि' से सम्बन्धित आठ अधिकार कहे गये हैं वे ये हैं- 9. उदगम २. उत्पादना ३. एषणा ४. संयोजना ५. प्रमाण ६. अंगार ७. धूम और ८. कारण । इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में किसी को नमस्कार किये जाने का उल्लेख नहीं है। उक्त आठ अधिकार के नाम निर्देश के साथ ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है। इसमें आगे पिंड के नौ प्रकार बताये गये हैं - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इन नौ के सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद किये गये हैं, किन्तु मुनि के लिए शिष्य के अतिरिक्त अचित्त पिण्ड ही ग्राह्य होता हैं। इनमें सर्पदंश के जहर का शमन करने के लिए बेइन्द्रिय में सीप, शंख आदि के मृतशरीर, दीमकों के गृह की मिट्टी, वमन की उपशान्ति के लिए मक्खी की विष्टा, टूटी हुई हड्डी को जोड़ने के लिए चर्म, अस्थि, दाँत, नख, पथभ्रष्ट श्रमण को बुलाने के लिए सींग और कुष्ठ आदि रोगों के निवारणार्थ गोमूत्र आदि के उपयोग श्रमण के लिए विहित बताये गये हैं। मिश्रपिण्ड में सौवीर ( कांजी), गोरस, आसव, बेसन ( जीरा, अचित्त नमक आदि ) औषधि तेल आदि अचित्त शाकफल, अचित्त लवण, गुड और ओदन का उपयोग होता है।
तदनन्तर आहारविधि में लगने वाले दोषों की चर्चा करते हुए सोलह उदगम, सोलह उत्पादन एवं दस एषणा के दोष कहे गये हैं तथा
मुख्यतः साधुओं के पिण्ड (भोजन) सम्बन्धी वर्णन होने के कारण इसकी गणना छेदसूत्रों में भी की जाती है।
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पिण्डनिर्युक्ति, गा. ६
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आहार ग्रहण एवं आहार प्रदान करते प्रदान समय कौन से दोष, किसके द्वारा, किस प्रकार लगते हैं इत्यादि का भी निरूपण हुआ है इसमें उपलब्ध विवरण संक्षेप में इस प्रकार है
उद्गमदोष - इसमें उद्गम का अर्थ है जो दोष बनाते समय लगते हैं । १६ उद्गम सम्बन्धी दोषों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं १. आधाकर्म- दानादि के निमित्त तैयार किया हुआ भोजन साधु को प्रदान करना आधाकर्म है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इस दोष का वर्णन कई भेद-प्रभेदों के साथ हुआ है। ( ६४ - २१७) २. औद्देशिक- साधु के उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन साधु को देना ( २१८ - २४२) ३. पूर्तिकर्म - पवित्र वस्तु में अपवित्र वस्तु को मिलाकर देना ( २४३-७० ) ४. मिश्रजात - साधु और कुटुम्बीजनों के लिए एकत्र बनाया हुआ भोजन प्रदान करना (२७१-७६) ५. स्थापना - साधु को देने के लिए अलग से रखी हुई वस्तु देना ( २७७ - ८३ ) ६. प्रभृतिका बहुमान पूर्वक साधु को दी जाने वाली भिक्षा ( २८४ - ६१) ७. प्रादुष्करण- मणि आदि का प्रकाश कर अथवा भित्ति आदि को हटाकर प्रकाश करके दी जाने वाली भिक्षा ( २६२ - ३०५ ) ८. क्रीत - साधु के निमित्त खरीदी हुई वस्तु उसे प्रदान करना ( ३०५ - ३१५) ६. प्रामित्य साधु के निमित्त उधार लेकर वस्तु देना ( ३१६- ३२२ ) १०. परिवर्तित साधु के लिए बदलकर ली हुई वस्तु देना ( ३१३ - ३२८) ११. अभ्याहत - अपने अथवा दूसरों के ग्राम से लायी हुई वस्तु देना ( ३२६-३४६ ) १२. उद्भिन्न- लेप आदि हटाकर प्राप्त की हुई वस्तु देना ( ३४७ - ३५६ ) १३. मालापहृत- साधु के लिए ऊपर चढ़कर लायी हुई वस्तु प्रदान करना ( ३५६ - ३६५) १४. आच्छेद्य- धु के लिए दूसरों से छीनकर लायी हुई वस्तु प्रदान करना ( ३६६-७६) १५. अनिसृष्ट- जिस वस्तु के बहुत से मालिक हों वह उनकी अनुमति के बिना देना ( ३७७-८७) १६. अध्यवपूरक - साधु के लिए अतिरिक्त रूप से भोजन आदि का प्रबन्ध करना ( ३८८-६१ ) उक्त ये सोलह दोष गृहस्थ के द्वारा लगते हैं।
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उत्पादनादोष - इसमें उत्पादना से सम्बन्धित सोलह दोष कहे गये हैं जो निम्न हैं १. धात्रीपिण्डदोष- धात्री का कार्य करके भिक्षा प्राप्त करना धात्री दोष है । ( ४१० - ४२७)। २. दूतीपिण्डदोष- समाचारों का आदान-प्रदान कर भिक्षा प्राप्त करना दूती दोष है ( ४२८ - ४३४ )। ३. निमित्तपिंडदोष - भविष्य आदि बताकर भिक्षा प्राप्त करना निमित्त दोष है (४३५-४३६ ) । ४. आजीवकपिंडदोष- जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प की समानता बताकर भिक्षा ग्रहण करना आजीवकपिंड दोष है ( ४३७- ४२ ) । ५. वनीपकपिंडदोष - श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान ये पाँच प्रकार के वनीपक
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112/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
बताये गये हैं इनमें श्रमण आदि का भक्त बनकर भिक्षा लेना वनीपक दोष है। ६. चिकित्सापिंडदोष- किसी की चिकित्सा करके भिक्षा प्राप्त करना चिकित्सा दोष है (४५६-६०)। ७-१०. क्रोध-मान-माया-लोभपिंड दोष- क्रोध द्वारा, अभिमान द्वारा, माया द्वारा, लोभ द्वारा भिक्षा प्राप्त करना (५६१-८३)। ११. पूर्व-पश्चात् संस्तवदोष- भिक्षा के पूर्व दाता की प्रशंसा कर आहार ग्रहण करना अथवा भिक्षा के बाद दाता की प्रशंसा द्वारा आहार प्राप्त करना (५८४-६३)। १२. विद्यापिंडदोष- कई प्रकार की विद्याओं के द्वारा आहार प्राप्त करना विद्यापिंड दोष है (५६४-६६)। १३. मन्त्रपिंड दोष- मन्त्र द्वारा भिक्षा प्राप्त करना मन्त्रपिंड दोष है। यहाँ पर प्रतिष्ठानपुर के राजा मुरुण्ड की शिरोवेदना दूर करने वाले पादलिप्तसूरि का उदाहरण दिया गया है। १४. चूर्णपिंडदोषचूर्ण प्रयोग द्वारा भिक्षा प्राप्त करना इसमें दो क्षुल्लकों का दृष्टान्त दिया है। १५. योगपिंडदोष- विद्या आदि सिद्ध कर आहार प्राप्त करना इसमें समित सूरि का उदाहरण दिया है। १६. मूलकर्मपिंडदोष- वशीकरण द्वारा भिक्षा प्राप्त करना मूलकर्म- पिंडदोष है। इसके लिए जंघापरिनित नामक साधु का उदाहरण दिया गया है। (५००-१२)। उक्त सोलह उत्पादना दोष साधु के द्वारा लगते है। एषणादोष- एषणा संबंधी दस दोष ये हैं - १. शंकितदोष- शंकायुक्त चित्त से भिक्षा ग्रहण करना शंकित दोष है (५२१-३०)। २. प्रक्षितदोष- सचित्त पृथ्वी आदि अथवा घृत आदि से लिप्त भिक्षा ग्रहण करना प्रक्षितदोष है (५३१-३६)। ३. निक्षिप्तदोष- सचित्त के ऊपर रखी हुई वस्तु ग्रहण करना निक्षिप्तदोष है (५४०-५७) ४. पिहितदोष सचित्त से ढकी हुई वस्तु ग्रहण करना पिहितदोष है (५५८-६२)। ५. संहृतदोष- अन्यत्र रखी हुई वस्तु को ग्रहण करना संहृतदोष है (५६३-७१)। ६. दायकदोष- बाल, वृद्ध, मत्त, उन्मत्त, कांपते हुए शरीर वाला, ज्वर से पीड़ित, अंधा, कोढ़ी, खड़ाऊ पहना हुआ, हाथो और पाँव में बेड़ी पहना हुआ, हाथ-पाँव रहित, नपुंसक, गर्भिणी, जिसकी गोद में शिशु हो, भोजन करती हुई, दही बिलोती हुई, चने आदि भूनती हुई, आटा पीसती हुई चावल कूटती हुई, तिल आदि पीसती हुई, रूई धुनती हुई, कपास ओटती हुई, कातती हुई, पूनी बनाती हुई, छः काय के जीवों को भूमि पर रखती हुई, उन पर गमन करती हुई, उनको स्पर्श करती हुई, हाथ दही आदि से सने हों- इत्यादि दाताओं से भिक्षा ग्रहण करना दायकदोष है। (५७२-६०४)। ७. उन्मिश्रदोष- पुष्प आदि से मिश्रित भिक्षा ग्रहण करना उन्मिश्रदोष (६०५-८)। ८. अपरिणतदोष- अप्रासुक भिक्षा ग्रहण करना अपरिणतदोष है (६०६-१२)। ६. लिप्तदोष- दही आदि से लिप्त भिक्षा ग्रहण करना लिप्तदोष है (६२७-२८)। १०. छर्दितदोष- टपकता हुआ
' श्रमण पाँच प्रकार के कहे गये हैं - निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, परिव्राजक और आजीवक
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/113
आहार ग्रहण करना छर्दित दोष है (६२७-२८)। मांडली दोष- ये दोष पाँच कहे गये हैं। १. संयोजनादोष- स्वाद के लिए प्राप्त वस्तुओं को मिलाना संयोजना दोष है। २. अपरिमाणदोष- परिमाण से अधिक भोजन लेना। ३. अंगारदोष- आहार या दाता की प्रशंसा करते हुए भोजन करना। ४. धूमदोष- आहार या दाता की निन्दा करते हुए भोजन करना। ५. अकारण दोष- शास्त्र में कहे गये ६ कारण के अतिरिक्त भोजन करना (६३६-६७)।
इस प्रकार पिण्डनियुक्ति में श्रमण की आहारविधि के सम्बन्ध में सम्यक् चिन्तन किया गया है। इस नियुक्ति पर आचार्य मलयगिरि ने बृहद्वृत्ति और वीराचार्य ने लघुवृत्ति की रचना की है। दशवैकालिकवृत्ति
चूर्णि साहित्य के पश्चात् संस्कृत भाषा में टीकाओं का निर्माण हुआ। यहाँ पुनः ज्ञातव्य हैं कि नियुक्ति में शब्दों की व्याख्या और व्युत्पत्ति होती हैं। भाष्य में गम्भीर भावों का विवेचन होता है। चूर्णि में निगूढ़ भावों को लोककथाओं तथा ऐतिहासिक वृत्तों के आधार पर समझाने का प्रयत्न होता है जबकि टीका में दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण होता है। टीका के अनेक पर्यायवाची नाम उपलब्ध होते हैं, जैसे- टीका, वृत्ति, निवृत्ति, विवरण, विवेचन, व्याख्या, वार्त्तिक, दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णि, पंजिका, टिप्पणक, पर्याय, स्तवक, पीठिका, अक्षरार्द्ध आदि।।
संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभद्र का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इन्होंने दशवैकालिक, आवश्यक आदि सात आगमों पर टीकाएँ रची हैं। दशवैकालिकवृत्ति का नाम शिष्यबोधिनी है। इसे बृहवृत्ति भी कहते हैं। यह टीका दशवैकालिक नियुक्ति पर रची गई है।"
___निष्कर्षतः दशवैकालिकसूत्र और उस पर लिखा गया व्याख्यासाहित्य साधक (श्रमण) जीवन के लिए अत्यन्त ही उपयोगी प्रतीत होता है। इस आगम में साधु की दैनन्दिन आवश्यकचर्या एवं आवश्यकविधि का बहुत ही सुन्दर एवं सहेतुक विवेचन हुआ है। श्रमणवर्ग के लिए यह ग्रन्थ उत्सर्गतः पठनीय है।
' विस्तृत जानकारी हेतु देखें, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३, पृ. ३३८ - ४१
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114/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
पिंडविशुद्धिप्रकरण
‘पिंडविशुद्धिप्रकरण' नामक यह रचना' नवांगी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभगणि की है। यह ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री प्राकृत पद्यों में रचित है। इसमें कुल १०३ गाथाएँ हैं।
यह ग्रन्थ मुनि जीवन की आहार विधि से सम्बन्धित ग्रन्थों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस कृति में मुख्य रूप से आहार ग्रहण करने की विधि, आहार दान की विधि, आहार करने की विधि और उसमें लगने वाले दोषों के भेद-प्रभेदों की विस्तार से व्याख्या की गई हैं। इस ग्रन्थ की प्रथम गाथा में सभी जिनश्वर भगवन्तों को नमस्कार करके भावमंगल किया गया है। दूसरी गाथा में यह बताया गया है कि मोक्षार्थियों के लिए पिंड की विशुद्धि क्यों आवश्यक है। उसके बाद ३ से ५७ तक की ५४ गाथाओं में गृहस्थ के द्वारा आहार तैयार करने में लगने वाले सोलह उद्गम दोषों का विवेचन किया गया है। ये दोष गृहस्थ के निमित्त से लगते हैं। तत्पश्चात् ५८ से ७५ तक की १८ गाथाओं में श्रमण के द्वारा आहार ग्रहण करने की विधि में लगने वाले सोलह उत्पादना संबंधी दोषों का निरूपण किया गया है। ७६ से ६३ तक की १८ गाथाओं में साधु के द्वारा आहार ग्रहण करने एवं गृहस्थ के द्वारा आहार देने की विधि में युगपत् रूप से लगने वाले दस ग्रहणैषणा सम्बन्धी दोषों पर विचार किया गया है। इसके बाद ६४ से १०२ तक की गाथाओं में साधु द्वारा आहार करने की विधि में लगने वाले पाँच मांडली संबंधी दोषों का उल्लेख किया गया है।
इस ग्रन्थ की अन्तिम गाथा में रचनाकार ने स्वयं अपना नाम एवं प्रकरण की रचना का प्रयोजन बतलाया है। इसके साथ ही गीतार्थ मुनियों से यह प्रार्थना की गई है कि - मेरे द्वारा कुछ भी जिनाज्ञा से विपरीत लिखा गया हो तो विद्वज्जन उसका शुद्धिकरण करके पढ़े और उस त्रुटि के लिए मुझे क्षमा प्रदान करें। यह रचना लगभग बारहवीं शती के उत्तरार्ध की मानी जाती है। इस ग्रन्थ पर कई टीकाएँ एवं अवचूरियाँ लिखी गई हैं। कुछ प्रसिद्ध कृतियाँ निम्न हैं - गणधरसार्द्धशतक, वीरचैत्यप्रशस्ति, सूक्ष्मार्थविचार-सारोद्धार, श्रृंगारशतक, आगमिकवस्तुविचारसार, प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतक (षडशीति), संघपट्टक आदि।
' यह ग्रन्थ गुजराती अनुवाद सहित वि.सं. १६६६ में, 'श्रीमद्विजयदानसूरिश्वरजी जैन ग्रंथमाला, सूरत' से प्रकाशित हुआ है इस कृति का अनुवाद श्री रामचन्द्रसूरि के शिष्य मुनि मानविजयजी ने किया है। २ सर्वप्रथम जिनवल्लभा.णि कूर्चपुरगच्छीय चैत्यवासी श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य बने थे। उसके बाद अभयदेवसूरि के शिष्य बने।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 115
जिनवल्लभगणि सिद्धांत - कर्म - गुणस्थान आदि विषयों के मर्मज्ञ विद्वान थे । अन्य गच्छो के धुरन्धर और प्रौढ़ विद्वानों ने इनकी विभिन्न कृतियों पर टीका रचकर इनको प्रामाणिक विद्वान माना है। ऐसे टीकाकारों में धनेश्वराचार्य, हरिभद्राचार्य, मलयगिरि, यशोदेवसूरि आदि अन्यगच्छीय एवं खरतरगच्छीय जिनपतिसूरि, जिनपालो - पाध्याय, रामदेवगण, साधुसोमोपाध्याय, उपा. समयसुन्दर आदि अनेकों विद्वानों ने इनके सैद्धान्तिक साहित्य, औपदेशिक साहित्य और स्तोत्रसाहित्य पर टीकायें रचकर इनकी सार्वभौमिकता को स्वीकार किया है।
टीकाएँ – इस ग्रन्थ पर 'सुबोधा' नाम की २८०० श्लोक परिमाण एक टीका श्रीचन्द्र - सूरि के शिष्य, यशोदेव ने वि. सं. ११७६ में लिखी है। अजितप्रभसूरि द्वारा भी एक टीका रची गई है। श्री चन्द्रसूरि ने वि.सं. ११७८ में एक वृत्ति लिखी है। उदयसिंह ने 'दीपिका' नाम की ७०३ श्लोक परिमाण एक अन्य टीका वि.सं. १२६५ में लिखी है। ये श्रीप्रभ के शिष्य माणिक्यप्रभ के प्रशिष्य थे। यह टीका उपर्युक्त 'सुबोध' के आधार पर रची गई है। इसके अतिरिक्त अन्य एक अज्ञातकर्तृक दीपिका नाम की टीका भी है। इस मूल कृति पर रत्नशेखरसूरि के शिष्य संवेगदेवगण ने वि.सं. १५१३ में एक बालाबोध लिखा है ।
प्रश्नव्याकरणसूत्र
प्रश्नव्याकरण दसवाँ अंग आगम है। यह आगम प्राकृत गद्य में है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन और एक सौ इकहत्तर सूत्र हैं ।
प्राचीन आगम सूत्रकृतांगसूत्र के अनुसार इसमें ऋषिभाषित, आचार्यभाषित और महावीरभाषित दस अध्ययनों के होने का उल्लेख है। समवायांग और नन्दिसूत्र के निर्देशानुसार इसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं, किन्तु प्रश्नव्याकरणसूत्र के वर्तमान संस्करण में जिन दस अध्ययनों की चर्चा मिलती है, इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कालक्रम में प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु में परिवर्तन होता रहा है।
वर्तमान संस्करण की विषयवस्तु के आधार पर प्रस्तुत आगम का अवलोकन करते हैं तो कुछैक विधि-विधान और उसके संकेत इसमें दृष्टिगत होते हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध जो आश्रवद्वार से सम्बन्धित है उसमें हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह का विस्तृत विवेचन किया गया है और यह भी बताया गया है कि इन आश्रवद्वारों का सेवन करने से जीव किस प्रकार की दुर्गति को प्राप्त होता है। दूसरा श्रुतस्कन्ध जो संवरद्वार से सम्बन्धित है इसमें विधि-विधान के कुछ अंश अवश्य मिलते हैं जैसे कि - अहिंसा महाव्रत की चर्चा करते हुए आहार
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की निर्दोष विधि' बतायी गई है। सत्यमहाव्रत के सम्बन्ध में 'सदोष सत्य त्याग' करने का कारण और उसका विधान प्रस्तुत किया है । 'सत्यमहाव्रत की सफलता' किसमें है उसका मार्ग बताया गया है। पंचमहाव्रत ग्रहण करने के विषय में पंचमहाव्रतों का स्वरूप एवं पंचमहाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ निर्दिष्ट की गई है।
'अहिंसा विधि' का परिपालन सम्यक्रूपेण हो, इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए अहिंसा के ६० नाम कहे गये हैं और उन नामों के स्वरूप को व्यापक रूप से स्पष्ट किया गया है। स्पष्टतः इस आगम में विधि-विधान का प्रारम्भिक रूप दृष्टिगत होता है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। मूलायार (मूलाचार)
इस ग्रन्थ के प्रणेता श्री वट्टकेराचार्य है। यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा की १२४३ गाथाओं में निबद्ध है तथा बारह अधिकारों में विभक्त है। इसका रचनाकाल लगभग पाँचवी - छठी शती माना जाता है। इस ग्रन्थ में दिगम्बर आम्नाय के मुनिधर्म एवं तद्विषयक आचार-विचार - साधना - विधि-विधान आदि का सोद्देश्य प्रतिपादन हुआ है । अचेल मुनियों के आचार की प्ररूपणा करने वाला यह अद्वितीय ग्रन्थ है। आचारसार, भगवती आराधना, मूलाचारप्रदीप और अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थ इसी के आधार पर रचे गये हैं।
जैसा कि इस कृति के नाम से सूचित होता है कि इसमें मुनियों के मूल + आचार कहे गये हैं अतः इसे आचारांग भी कहते हैं। सकल वाङ्मय द्वादशांग रूप है। उनमें प्रथम अंग का नाम आचारांग है और यह सम्पूर्ण श्रुतस्कंध का आधारभूत है। तीर्थंकर भगवान् की दिव्यध्वनि को सुनकर गणधरमुनि प्रथमसूत्र 'आचारांग ' नाम से रचते हैं। इनके मत में आचारांग का विच्छेद होने के कारण तथा उपचार सम्बन्धी ग्रन्थ होने के कारण इसे ही आचारांग का स्थानीय माना जाता है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मूलगुणों में विशुद्ध सभी मुनियों को नमस्कार करके इहलोक और परलोक के लिए हितकर ऐसे मूलगुणों का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की गई है। आगे की गाथा में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, अचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त इन अट्ठाईस मूलगुणों के नाम कहे गये
, प्रश्नव्याकरण, सू. ११०
२ वही, सू. १०७
३
यह कृति पूर्वार्ध एवं उत्तरार्ध दो भागों में, वसुनन्दिकृत आचारवृत्ति एवं टीकानुवाद सहित 'भारतीय ज्ञानपीठ- नई दिल्ली' से, सन् १६४४ में प्रकाशित हुई है। इसका टीकानुवाद आर्यिक ज्ञानमतीजी ने किया है। इसके अन्य संस्करण भी निकले हैं।
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हैं जो मुनियों के लिए आवश्यक आचारविधि रूप होते हैं।
इस ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति रूप कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती है किन्तु मूलाचार का एक अन्य संस्करण जो ‘दिगम्बर जैन सरस्वती भण्डार धर्मपुरा दिल्ली' से प्रकाशित हुआ है उस प्रति के अन्त में ७० श्लोकों की एक प्रशक्ति भी मुद्रित है वह मेधावी पण्डित द्वारा रची गई है और वह प्रशस्ति हिन्दी अनुवाद के साथ प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में भी उल्लिखित है।
___ अब, प्रस्तुत कृति के बारह अधिकारों का संक्षेप वर्णन निम्नलिखित हैं१. मूलगुणाधिकार- इस अधिकार में अट्ठाईस मूलगुणों के नाम बतलाकर, प्रत्येक का पृथक्-पृथक् लक्षण बताया गया है। अनन्तर इन मूलगुणों का पालन करने से क्या फल प्राप्त होता है यह भी निर्दिष्ट है। २. बृहत्प्रत्याख्या-संस्तरस्तवाधिकार- इस अधिकार में पापयोग के प्रत्याख्यान (त्याग करने) का कथन किया है इसके साथ ही आलोचना की विधि, आलोचना के अनन्तर क्षमापन की विधि, बाह्याभ्यंतर उपधि त्याग की विधि का भी उल्लेख हुआ है। ३. संक्षेप-प्रत्याख्यानाधिकार- इसमें अतिसंक्षेप में पापों के त्याग की उपदेशविधि कही गई है। दस प्रकार के मुण्डन का भी अच्छा वर्णन हुआ है। ४. समाचाराधिकार- इस अधिकार में मुनियों की अहोरात्रचर्याविधि का वर्णन है। इसके औधिक और पद-विभागी ऐसे दो भेद किये गये हैं। साथ ही मनियों के एकलविहारी होने का निषेध भी किया गया है। साधु को किस प्रकार के साधु-संघ में निवास करना चहिए ? आर्यिकाओं का गणधर (आचार्य) कैसा होना चाहिए ? आर्यिकाओं की चर्यादि किस प्रकार होनी चाहिए ? इस पर भी सम्यक् प्रकाश डाला गया है। ५. पंचाचाराधिकार- इसमें दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों का बहुत ही सुन्दर विवेचन है। ६. पिंडशुद्धिअधिकार- इस अधिकार में उद्गम के सोलह, उत्पादन के सोलह, एषणा के दस, इस प्रकार साधु की आहार विधि में लगने वाले ४२ दोषों का विवेचन हुआ है। पुनः साधु की आहार विधि में लगने वाले संयोजना आदि चार दोष भी बताये गये हैं। इसके साथ ही आहार ग्रहण करने के कारण, आहार त्याग के कारण, मुनि का आहार कैसा हो, साधु के भोजन का परिमाण, आहार के योग्य काल, साधु की चर्या विधि, बत्तीस अन्तराय, इत्यादि विषय भी चर्चित
हुए हैं।
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७. षड़ावश्यकाधिकार- इसमें आवश्यक शब्द का अर्थ बतलाकर सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं का विस्तार से वर्णन है। ८. द्वादशानुप्रेक्षाधिकार- इसमें बारह अनुप्रेक्षाओं का विधिवत् वर्णन है। ६. अनगारभावनाधिकार- इसमें मुनियों की उत्कृष्ट चर्या का प्रतिपादन है उसमें लिंग, व्रत, विहार, भिक्षा, ज्ञान, शरीर-संस्कार-त्याग, वचन, तप और ध्यान
सम्बन्धी दस शुद्धियों का वर्णन हुआ है तथा अभ्रावकाश आदि योगों का भी निरूपण हुआ है। १०. समयसाराधिकार- इसमें चारित्रशुद्धि के हेतुओं का कथन है। चार प्रकार के लिंग का और दश प्रकार के स्थितिकल्प का भी अच्छा विवेचन है। ११. शीलगुणाधिकार- इसमें साधु के १८ हजार शील के भेदों का सविस्तार प्रतिपादन हुआ है। साथ ही ८४ लाख उत्तरगुणों का भी वर्णन हुआ है। १२. पर्याप्तिअधिकार- इसमें जीव की छह पर्याप्तियों को बताकर संसारी जीव के अनेक भेद-प्रभेदों का कथन किया है क्योंकि जीवों के नाना भेदों को जानकर ही उनकी रक्षा की जा सकती है। अनन्तर कर्म प्रकृतियों के क्षय का विधान है। इस प्रकार स्पष्ट होता हैं कि यह मूलाचार साधु जीवन की आचारविधि-साधनाविधि का प्रतिनिधि ग्रन्थ तो है ही, साथ ही तद्विषयक अन्य अनेक तथ्यों का निरूपक भी है।
यह एक संग्रहात्मक कृति भी प्रतीत होती है इसका कारण यह हो सकता है कि ग्रन्थकार वट्टकेर ने कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में से एवं आवश्यकनियुक्ति में से गाथाएँ उद्धृत की है। तदुपरान्त भी यह अपने समय का एक प्रामाणिक और सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ रहा है। इस ग्रन्थ की प्रमाणिकता और प्राचीनता को सिद्ध करने वाले कई तथ्य दृष्टिगत होते हैं, जैसे कि जैन साहित्य का गंभीर आलोकन करने वाले आचार्य वीरसेन ने 'षटखण्डागम' ग्रन्थ पर रची गयी अपनी सुप्रसिद्ध 'धवला' टीका (७८० ई.) में मूलाचार का आचारांग नाम देकर उसका आगमिक महत्व प्रदर्शित किया है। शिवार्य (प्रथम शती ई.) कृत 'भगवती आराधना' की अपराजितसूरि विरचित विजयोदया टीका (लगभग ७०० ई.) में मूलाचार के कतिपय उद्धरण प्राप्त हैं और यतिवृषभाचार्य (६ ठी शती ई.) कृत 'तिलोयपण्णति' में भी मूलाचार का नामोल्लेख हुआ है। टीकाएँ- इस ग्रन्थ पर दो टीकाएँ लिखी गई है। एक टीका सिद्धांत चक्रवर्ती श्रीवसुनन्दि आचार्य ने रची है। इस टीका का नाम 'आचारवृत्ति' है और यह
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१२,५०० श्लोक परिमाण है। दूसरी टीका श्री मेघचन्द्राचार्य ने लिखी है वह 'मुनिजनचिन्तामणी' नाम से कन्नड़भाषा में निबद्ध है और १४०३ श्लोक परिमाण है। जइसामायारी-यतिसामाचारी
_ 'यतिसामाचारी' नामक यह कृति वि.सं. १४१२ में पार्श्वनाथ चरित्र के रचयिता और कालकाचार्य के सन्तानीय श्री भावदेवसूरि द्वारा संकलित की गई है। यह रचना जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में है। इसमें कुल १५४ गाथाएँ हैं। यह एक संक्षिप्त रचना है ऐसा इस ग्रन्थ की प्रथम गाथा में कहा गया है। देवसूरि नामक अन्य आचार्य ने इसी नाम की एक कृति रची है वह अति विस्तृत है। इस कृति के रचयिता भावेदवसूरि द्वारा 'अलंकारसार' नामक ग्रन्थ भी लिखा गया है। यह रचना वि.सं. १५ वीं शती के पूर्वार्ध की मानी जाती है। सामान्यतः उत्तराध्ययन, ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थों में साधु सामाचारी का सम्यक् निरूपण हुआ है परन्तु उनमें साधु सामाचारी से सम्बन्धित विविध पक्षों की चर्चा है जबकि प्रस्तुत कृति जैन मुनियों की दिनचर्या पर प्रकाश डालती है। मूलतः इस कृति में प्रातःकालीन जागरण विधि से लेकर रात्रिकालीन संस्तारक (शयन) पर्यन्त विधियों एवं आवश्यक क्रियाओं का प्रतिपादन हुआ है अतः यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ साधु जीवन की क्रियाओं और अनुष्ठानों का एक संक्षिप्त कोश रूप है।
इस ग्रन्थ की प्रथम गाथा मंगलाचरण से सम्बन्धित है। उसमें भगवान महावीर को नमस्कार किया गया है उसके बाद साधुजनों के हित के लिए आगम के अनुसार, सामाचारी लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। इस ग्रन्थ के अन्त की दो गाथाएँ प्रशस्ति रूप हैं, उनमें यह कहा गया है कि यतिसामाचारी का पालन करने वाल शिवसुख को प्राप्त करता है साथ ही ग्रन्थकर्ता ने स्वयं का और स्वयं के गुरु का नाम भी उल्लेखित किया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में निर्दिष्ट विषयों एवं विधियों का अनुक्रम निम्न हैं - १. देवगुरु के स्मरणपूर्वक निद्रा का त्याग करना। २. परमेष्ठीमंत्र के स्मरण रूप स्वाध्याय करना ३. आत्म धर्म का चिन्तन करना ४. रात्रि के समय उच्चस्वर से
'यह नाम पहली गाथा में दिया गया है जबकि अन्तिम गाथा में 'जइदिणचरिया' ऐसा नाम आता है। ‘पंचासग' के बारहवें पंचासग का नाम भी जइसामायारी है। 'यतिदिनचर्या' के नाम से मतिसागरसूरिकृत व्याख्या के साथ प्रथम संस्करण के रुप में 'ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था' द्वारा सन् १६३६ में प्रकाशित हुआ है। दूसरा संस्करण सन् १६६७ में मुद्रित हुआ है। इसका श्लोक परिमाण १६२ है।
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वस्त्र
बोलने अथवा स्वाध्याय करने का निषेध ५. प्राभातिक कालग्रहण विधि ६. प्रभातकालीन प्रतिक्रमण का समय ७. प्रभातकालीन प्रतिक्रमण की विधि ८. छहमासिक तप चिन्तन विधि ६. प्रत्याख्यान के दस प्रकारों का स्वरूप १०. काल सम्बन्धी दस प्रकार के प्रत्याख्यानों का वर्णन ११. प्रत्याख्यान करने के १४७ विकल्प (भंग) १२. प्रत्याख्यान की शुद्धि १३. संकेत प्रत्याख्यान का स्वरूप १४. प्रतिलेखना करने योग्य उपकरण, उनकी प्रतिलेखना का क्रम एवं प्रतिलेखना विधि १५. वाचनाचार्य का स्वरूप १६. आचार्य का स्वरूप १७. बाईस परीषह का स्वरूप १८. प्रतिलेखन करने का यन्त्र १६. बहुपडिपुन्ना पोरिसी अर्थात् दिन के तृतीयप्रहर में करने योग्य कार्यो की विधि २०. पडले अर्थात् पात्रढ़कने आदि का स्वरूप एवं उसकी प्रतिलेखना विधि २१. अर्थ वाचना विधि एवं उसका फल २२. वर्षाऋतु में रखने योग्य आसनों का परिमाण २३. अनुयोग विधि २४. चैत्य के पाँच प्रकार, चैत्यवन्दन करने के सात कारण, और चैत्यवंदन के तीन प्रकार २५. भिक्षाटन विधि २६. दस प्रकार की सामाचारी २७. आहार सम्बन्धी १६ उद्गमदोष, १६ उत्पादनदोष, एवं १० एषणादोष एवं पिण्ड शब्द की व्याख्या २८. आहार ले आने के बाद की विधि २६. संयोजना सम्बन्धी पाँच दोष ३०. आहार करने के छः कारण एवं आहार न करने के छः कारण ३१. आहार करने की विधि ३२. पात्र प्रक्षालित करने की विधि ३३. स्थंडिल गमन एवं उसके बाद शुद्धि करने की विधि ३४. तृतीयप्रहर की प्रतिलेखना विधि ३५. साध्वी के पच्चीस एवं साधु के चौदह उपकरणों का स्वरूप ३६ औधिक और औपग्रहिक उपधि का स्वरूप ३७. पाँच प्रकार के दंड का स्वरूप ३८. स्थंडिल को प्रतिलेखित करने की विधि ३६. गोचरी में लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण करने की विधि ४०. दैवसिक प्रतिक्रमण विधि ४१. पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण विधि ४२. रात्रिसंस्तारक ( शयन) विधि ४३. शाश्वत चैत्यों को वन्दन करने की विधि ४४. शाश्वत नाम वाले चार तीर्थंकरों, बीस विहारमानों एवं भरत, बाहुबलि, दशार्णभद्र, गजसुकुमाल आदि को वन्दन करने की विधि ४५ . आलोचना ( मिथ्यादुष्कृत) करने की विधि इत्यादि ।
टीका - इस ग्रन्थ पर मतिसागरसूरि द्वारा संस्कृत में संक्षिप्त व्याख्या ( अवचूरि ) लिखी गई है। यह ३५०० श्लोक परिमाण है। इस टीका के प्रारम्भ में चार श्लोक है, अवशिष्ट सम्पूर्ण टीका गद्य में है। इस टीका में कुछ अन्य ग्रन्थ के अवतरण भी दिये गये हैं।
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यतिदिनकृत्य
यह हरिभद्रसूरि की कृति मानी जाती है। इसमें श्रमणों की दैनन्दिन प्रवृत्तियों एवं आवश्यक विधि-विधानों के विषय में निरूपण हुआ है। विशेषशतकम्
यह ग्रन्थ' खरतरगच्छीय अकबरप्रतिबोधक जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य एवं सकलचन्द्रगणि के शिष्य समयसुन्दरगणि का है। यह संस्कृत के १०० पद्यों में निबद्ध है। इस कृति का संशोधन श्री कृपाचन्द्रसूरि के शिष्य मुनिसुखसागर जी द्वारा किया गया है। इसमें मुनि जीवन से सम्बन्धित अनेक विषयों को समाविष्ट किया गया है। उसमें विधि-विधान विषयक कुछ स्थल ही प्राप्त होते हैं उनका नामनिर्देश निम्न है -
१. साधुओं के प्रासुक (अचित्त) जल में उत्पन्न हुए पूतरादि जीवों को परिष्ठापित करने की विधि। २. साधुओं के लिए रात्रि में विहार करने की आपवादिक विधि ३. साधुओं के लिए दिन में शयन करने सम्बन्धी आपवादिक विचार ४. साधुओं के लिए आपवादिक रूप से पाँच प्रकार की पुस्तक ग्रहण करने की विधि ५. सचित्त- अचित्त लवण और पानी को परिष्ठापित करने की विधि ६. अपवाद से सचित्त आधाकर्मी आहार ग्रहण करने की विधि ७. साधुओं की कल्प्य अकल्प्य वस्त्र विधि ८. शय्यातर के घर से पीठ फलकादि को ग्रहण करने की आपवादिक विधि ६. गच्छवासी साधुओं की वस्त्र प्रक्षालन विधि | इस तरह इस ग्रन्थ में कुल नौ प्रकार की विधियाँ कही गई हैं। इसमें विषय की स्पष्टता के लिए आगमपाठ उद्धृत किये गये हैं यह इस ग्रन्थ की अपनी बहुमूल्य विशिष्टता है। सामाचारीप्रकरण
इस ग्रन्थ के रचयिता महोपाध्याय यशोविजयजी है । यह संस्कृत के १०१ पद्यों में निबद्ध है। प्रस्तुत कृति चन्द्रशेखरीया नाम की संस्कृत टीका और गुजराती विवेचन के साथ प्रकाशित है।
२
यह ग्रन्थ जैन मुनियों की नित्य नैमित्तिक सामाचारी से सम्बन्धित है। इसमें इच्छाकार, मिच्छाकार, तथाकार, आवस्सही, निसीहि, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदना, निमंत्रणा और उपसंपदा नाम की ये दस सामाचारियाँ वर्णित हुई हैं। जैन
,
यह कृति वि.सं. १६७३ में रामचन्द्र येसु शेडगे मुंबई द्वारा प्रकाशित की गई है।
२
यह ग्रन्थ वि.सं. २०६० में 'कमलप्रकाशन ट्रस्ट, जीवंतलाल प्रतापशी संस्कृति भवन, २७७७, निशापोल झवेरवाड़, रीलिफ रोड़ अहमदागाद' से प्रकाशित हुआ है।
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122/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
मुनि के लिए इन सामाचारियों का पालन करना अनिवार्य बताया गया है। इनमें से एक-दो छोड़कर शेष मुनि जीवन की दैनिक सामाचारियाँ हैं। संयमी जीवन में प्रवेश करने हेतु तत्पर हुए मुमुक्षुओं के लिए इन सामाचारियों का अध्ययन करना आवश्यक माना गया है। ये समाचारियाँ संयमी जीवन को सुखद व सुखकारी बनाने में नींव के समान है। इन कृत्यों का विधिवत् पालन करने वाला मुनि वैयक्तिक, सामुदायिक एवं सामाजिक सभी दृष्टियों से योग्य विकास करता है।
इस ग्रन्थ के आरम्भ में सरस्वती देवी का स्मरण कर ग्रन्थ रचने की प्रतिज्ञा की गई है। उसके बाद सामाचारी को चारित्र का आधारभूत तत्त्व कहा है। तदनन्तर सामाचारियों का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है। वे संक्षेप में इस प्रकार है- १. इच्छाकार- दूसरों से उनकी इच्छापूर्वक काम करवाना या दूसरों का काम करना।
२. मिथ्याकार- किसी भी प्रकार की गलती होने पर उसे तुरन्त स्वीकार करना और पश्चाताप पूर्वक 'मिच्छामिदुक्कडं' देना।
३. तथाकार- गुरूजी जो कहे उसे 'तहत्ति' कहकर उसी रूप में स्वीकार करना
४. आवश्यिकी- आवश्यक कार्य के लिए उपाश्रय से बाहर निकलते समय ‘आवश्यक कार्य के लिए बाहर जा रहा हूँ' इसके सूचक रूप में 'आवस्सहि' शब्द कहना।
५. निषीधिका- जिनमन्दिर या उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'अशुभ प्रवृत्तियों का त्याग करने निमित्त' उसका सूचक निसीहि' शब्द बोलना।
६. आपृच्छना- कोई भी कार्य गुरु से पूछकर करना।
७. प्रतिपृच्छना- गुरु ने जिस कार्य से लिए मना किया हो, बाद में उसको करने की आवश्यकता पड़ने पर पुनः गुरु से पूछना
८. छन्दना- आहार-पानी लाने के बाद गुरु से उसे स्वीकार करने हेतु निवेदन करना।
६. निमन्त्रणा- आहार-पानी लेने जाने के पहले गुरु की अनुमति लेना या अन्य साधुओं को आहारादि ग्रहण करने हेतु निमन्त्रित करना।
१०. उपसंपदा- ज्ञानादि गुणों की आराधना के लिए गुरु की आज्ञापूर्वक अन्य आचार्य के पास रहना।
उपर्युक्त सामाचारियों का यथासमय पालन करने वाला श्रमण अन्य
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विधियों एवं आवश्यक कृत्यों का परिपालन भी निर्दोष रीति पूर्वक कर सकता है। इन सामाचारियों का प्रयोग साधुजीवन में दैनन्दिन होता है तथा इनका परिपालन मुनि जीवन के लिए कितना उपयोगी व महत्त्वपूर्ण है यह उक्त वर्णन से सुस्पष्ट है। ज्ञातव्य हैं कि इस कृति में विधि-विधान जैसा अलग से कोई विवरण नहीं है किन्तु इन सामाचारियों का निर्वहन विधि-विधानपूर्वक ही होता है। साधुविधिप्रकाशप्रकरण
'साधुविधिप्रकाश' नामक यह कृति, खरतरगच्छीय वाचक अमृतधर्मगणि के शिष्य क्षमाकल्याणोपाध्याय' द्वारा विरचित है। यह कृति संस्कृत गद्यभाषा में रची गई है। इस कृति का रचनाकाल १६ वीं शती का पूर्वार्ध माना जाता है। यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार साधुचर्या की आवश्यक विधियों एवं दैनिक कर्त्तव्यों का निरूपण करने वाला है तथा प्राचीन विधि-विधानात्मक ग्रन्थों के आधार पर रचा गया है। इसका प्रमाण यह हैं कि प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में विधिमार्गप्रपा एवं सामाचारीशतक के आधार पर कुछ विधियों को विवेचित किये जाने का उल्लेख हुआ है। इससे सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ अपनी परम्परा के पूर्व आचायों के ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया है। तदुपरान्त विधि-विधानों की प्रमाणिकता एवं सोद्देश्यता को उजागर करते हुए बीच-बीच में यथाप्रसंग अन्य प्राचीन ग्रन्थों के संदर्भ भी दिये गये हैं।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ रचना के प्रयोजन को स्पष्ट करने वाला एक श्लोक है, उसमें तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थकर भगवन्तों को नमस्कार किया गया है। उसके बाद विधि-विधानों को निरूपित करने का प्रयोजन बताते हुए यह कहा है कि प्राचीन शास्त्रों का अवलोकन करके, स्व
और पर कल्याण के निमित्त 'साधुविधिप्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना की जा रही है साथ ही इस कृति के आधारभूत ग्रन्थों का स्मरण कर इसकी प्राचीनता सिद्ध की है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति के रूप में चार श्लोक दिये गये हैं, उनमें ग्रन्थकार ने इस कृति के महत्त्व का वर्णन किया है, साथ ही कृति का रचनाकाल, कृति रचना का स्थल, कृति के प्रेरक एवं अपने गुरु का नामोल्लेख करके अपने नाम का उल्लेख किया है। प्रशस्ति के अन्त में कहा गया है कि मोह के वशीभूत होकर इसमें आगम और परम्परा के विरुद्ध जो कुछ भी लिखा गया हो तो
' खरतरगच्छ की संविग्नपक्षीय सुखसागर समुदाय की वर्तमान परम्परा में आपका नाम विशिष्ट रूप से जुड़ा हुआ है। इस समुदाय में दीक्षा नामकरण संस्कार के समय उद्घोषित किया जाता है- 'कोटिकगण, वजशाखा, चन्द्रकुल, खरतरविरुद, महो. क्षमाकल्याणजी की वासक्षेप, सुखसागरजी का समुदाय, वर्तमान आचार्य......... आदि।"
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124 / साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
विद्वज्जन उसका अवश्य शुद्धिकरण करें। इस प्रकार लेखक ने अपनी विनम्रता भी प्रकट की है।
इस ग्रन्थ में उल्लेखित विधियों के नाम इस प्रकार है
१. रात्रिक प्रतिक्रमण विधि २. प्राभातकालीन प्रतिलेखना विधि २.१ सामान्य प्रतिलेखन विधि २.२ अंग प्रतिलेखन विधि २.३ उपधि प्रतिलेखन विधि २.४ स्थापनाचार्य प्रतिलेखन विधि २.५ वसति (स्थान) प्रमार्जन विधि ३. उपयोग विधि ( आहार पानी को ग्रहण करने से पूर्व करने योग्य आवश्यक विधि ) ४. उघाड़ा पोरिसी (प्रथम प्रहर में करने योग्य) विधि ५. पात्र प्रतिलेखन विधि ६. भिक्षा के लिए भ्रमण करने एवं प्राप्त भिक्षा की आलोचना विधि ७. प्रत्याख्यान पूर्ण करने की विधि ८. आहार करने की विधि ६. स्थंडिल ( मलमूत्र विसर्जन ) के लिए गमन करने की विधि १०. सायंकालीन प्रतिलेखन विधि ११. स्थंडिलभूमि प्रतिलेखन विधि १२. स्थंडिल सम्बन्धी मांडला विधि १३. गोचरी में लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण विधि १४. दैवसिक प्रतिक्रमण विधि १५. रात्रि मे संस्तारक पर शयन करने की विधि १६. पाक्षिक प्रतिक्रमणादि विधि १७. मण्डलीस्थापना विधि १८. दैवसिक प्रतिक्रमण विधि १८. रात्रिक प्रतिक्रमण करने का समय २०. ' चत्तारिअट्ठदसदोय' का पाठ बोलते समय मुख को चारों दिशाओं में न करके मन में ही स्मरण करने का निर्देश। २१. आवश्यकादि क्रिया करते समय सूत्रों को संपदा युक्त एवं शुद्ध पाठ पूर्वक बोलने का निर्देश । २२. छहमासिक तप का चिन्तन करने की विधि २३. मुखवस्त्रिका को प्रतिलेखित करने की विधि २४. शरीर को प्रतिलेखित करने की विधि २५. उत्कृष्ट चैत्यवंदन करने की विधि २६. साधु एवं श्रावक के लिए चैत्यवन्दन करने की सामाचारी २७. अकारण गुरु आदि से पृथक् प्रतिक्रमण किया हो, तो उस दोष की शुद्धि करने सम्बन्धी विधि इत्यादि ।
ग्रन्थ समाप्ति के अनन्तर प्रस्तुत प्रकाशित संस्करण में परिशिष्ट भी दिया गया है। उसमें कायोत्सर्ग के १८ दोष, गोचरी के ४२ दोष, आहार करने के कारण, आहार न करने के कारण एवं तपागच्छीय दैवसिक - रात्रिक अतिचार आदि वर्णित है। प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु के आधार पर यह सिद्ध होता है कि रचनाकार क्षमाकल्याणउपाध्याय अपने समय के गीतार्थ विद्वान् और आगम प्रकरणादि के गंभीर अभ्यासी थे। आपने संस्कृत व मरु - गुर्जर भाषा में विद्वत्तापूर्ण अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखे हैं साथ ही अनेक ग्रन्थों पर टीकाओं का निर्माण भी किया है, जिनमें तर्कसंग्रहफक्कि - का, गौतमीयकाव्यकृति, खरतरगच्छपट्टावली, आत्मप्रबोध, श्रावकविधि प्रकाश, यशोधर - चरित्र, सूक्तिरत्नावली स्वोपज्ञवृत्ति, प्रश्नोत्तरसार्द्धशतक, अंबडचरित्र, विज्ञानचन्द्रिक, चातुर्मासिकव्याख्यान,
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/125
अष्टाहिकाव्याख्यान, होलिकाव्याख्यान, श्रीपालचरित्र- वृत्ति, प्रतिक्रमणहेतवः, संग्रहणी, सपर्याय आदि, स्तोत्र स्तवनादि तथा मरुगुर्जर में लिखी गई संख्याबद्ध रचनाएँ उपलब्ध हैं। सूत्रकृतांगसूत्र
___ अंग आगमों में 'सूत्रकृतांगसूत्र' का दूसरा स्थान है। यह आचारप्रधान और दार्शनिक ग्रन्थ है। सूत्रकृत् में दो शब्द हैं- सूत्र और कृत्। जो सूचक होता है उसे सूत्र कहा गया है। इस आगम में सूचनात्मक तत्त्व की प्रमुखता है अतः इसका नाम सूत्रकृत् है। इसका वर्तमान में जो संस्करण उपलब्ध है उसमें सूत्रकृतांग के दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह अध्ययन तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सात अध्ययन हैं। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में छब्बीस एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तैंतीस-तैंतीस उद्देशक हैं। इसका पद-परिमाण आचारांग से दुगुना अर्थात् छत्तीस हजार श्लोक परिणाम का है। इस आगम का अधिकांश भाग पद्य में है कुछ भाग गद्य में भी है।
इस आगम के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्व-समय, पर-समय, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आनव, संवर, निर्जरा, बन्ध तथा मोक्ष आदि तत्त्वों के विषय में कथन किया गया है। इसके साथ ही भगवान महावीर के युग में प्रचलित मत-मतान्तरों का वर्णन इसमें विस्तृत रूप से हुआ है। १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानीवादी एवं ३२ विनयवादी कुल ३६३ मतों की परिचर्चा हुई है तथापि यत्किंचित् विधि-विधान के प्रारम्भिक रूप अवश्य दृष्टिगत होते हैं- जैसे कि 'वैतालीय' नामक दूसरे अध्ययन के प्रथम उद्देशक में पाप-विरति, परीषह-सहन, अनुकूलपरीषह-सहन आदि की उपदेश- विधि' कही गई है। इसी अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में एकलविहारी मुनिचर्या विधि, सामायिक साधक की आचारविधि, अनुत्तरधर्म और उसकी आराधनाविधि' आदि का निर्देश है। 'धर्म' नामक नौंवे अध्ययन में जिनोक्त श्रमण धर्माचरण क्यों और कैसे करे?', 'मार्ग' नामक ग्यारहवें अध्ययन में भावमार्ग की साधना विधि, 'ग्रन्थ' नामक चौदहवें अध्ययन में गुरुकुलवासी साधु द्वारा शिक्षा ग्रहण विधि, गुरुकुलवासी साधु द्वारा भाषा-प्रयोग की विधि-निषेध इत्यादि का वर्णन है।"
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों में आचारपक्ष एवं विधिपक्ष के कुछ संकेत
' सूत्रकृतांग सू. ६७-१०८ २ वही सू. १२२-१२८, १३०-१३२ ३ वही सू. ४४४-४४६
वही सू. ५८५-६०६
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126/साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
अधिक विस्तार के साथ मिलते हैं। ‘क्रियास्थान' नामक दूसरे अध्ययन में अर्थदण्ड आदि तेरह क्रियास्थानों का स्वरूप बताते हुए उनके त्याग की रीति कही गई है। 'आहारपरिज्ञा" नामक तीसरे अध्ययन में आत्मार्थी भिक्षु को निर्दोष आहार-पानी की एषणा किस प्रकार करनी चाहिए? उसकी विधि बतायी गयी है। 'प्रत्याख्यान क्रिया' नामक चौथे अध्ययन में पात्रों की अपेक्षा त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत एवं नियम ग्रहण की सामान्य विधि निर्दिष्ट है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पाँचवां अध्ययन 'अनाचारश्रुत' का है इसमें त्याज्य वस्तुओं की गणना की गई है तथा लोकमूढ़ मान्यताओं का खण्डन किया गया है। 'नालन्दा' नामक सातवें अध्ययन में इन्द्रभूति गौतम द्वारा नालान्दा में दी गई उपदेश विधि अंकित है।सूत्रकृतांगसूत्र का भलीभाँति अवलोकन करते हैं तो स्पष्ट होता है कि यह ग्रन्थ दार्शनिक चिनतन प्रधान अवश्य है तथापि इसमें आचारपक्ष की भी बहुलता है। इसमें यत्र-तत्र विधि-विधान के प्रारम्भिक रूप भी समाहित है। साधुदिनकृत्य
इसके रचयिता तपागच्छीय चारित्रविजयजी के शिष्य श्री हरिप्रभसूरि है। यह कृति संस्कृत के ४२२ पद्यों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल अज्ञात है। इसमें मुनि जीवन की अहोरात्रिकचर्या का सूक्ष्म विवेचन हुआ है, जैसे प्रातः काल उठने की विधि, जाप करने की विधि, जगने का काल, प्रथम चैत्यवन्दन विधि, प्राभातिक कालीन विधि, रात्रिकप्रतिक्रमण विधि, प्रतिलेखन विधि, उघाड़ापोरिसी विधि, आहार ग्रहण विधि, स्थंडिल विधि, स्थंडिलशोधन विधि, स्थंडिल के प्रकार, भेद, सांयकालीन प्रतिक्रमण विधि, उपधि के प्रकार, उपधि की संख्या, आदि सभी प्रकार के विधि-विधान उल्लिखित हुये हैं तथा इनसे सम्बन्धित अन्य विषयों का भी निरूपण हुआ है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचारण रूप दो श्लोक हैं अन्त में तीन श्लोक प्रशस्ति रूप में है। संयमीनो प्राण (अचलगच्छीय अणगारस्य प्रतिक्रमण सामाचारी सार्थ)
यह पुस्तक अचलगच्छीय परम्परानुसार अनुष्ठित किये जाने वाले विधि-विधानों से सम्बन्धित है। इस कृति में मुख्यतः श्रमणजीवन की आवश्यक एवं दैनिक क्रियाओं का प्रतिपादन है। प्रस्तुत कृति में श्रमण द्वारा प्रतिक्रमण एवं
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'सूत्रकृतांग सू. ७५६ . २ पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज, जामनगर, वि.सं. १६७३
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/127
दैनिक आवश्यक क्रियाओं (प्रतिलेखन-प्रमार्जन-स्थंडिल- राईयसंथारा आदि) में कहे जाने वाले सभी सूत्रों का अर्थ सहित विवेचन किया गया है। उस परम्परा के श्रमण साधकों के लिए यह पुस्तक परम उपयोगी है। इस पुस्तक में अग्रलिखित विधियों सार्थ दी गई है -
१. प्रतिक्रमण सामाचारी २. गुरुवंदन विधि ३. चैत्यवंदन विधि ४. दैवसिक प्रतिक्रमण विधि ५. चौवीशमांडला विधि ६. चार स्तुति पूर्वक देववंदन करने की विधि ७. रात्रिक प्रतिक्रमण विधि ६. पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि ६. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण विधि १०. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण विधि ११. रात्रिकसंथारा पोरिसी विधि १२. स्थापनाचार्य प्रतिलेखन विधि १३. उघाड़ापोरिसी विधि १४. पात्रोपकरण प्रतिलेखन विधि १५. आहार ग्रहण करने के लिए भ्रमण करने की विधि १६. आहार में लगे हुए दोषों की आलोचना करने की विधि १७. प्रत्याख्यान पूर्ण करने की विधि १८. मुनि द्वारा आहार करने की विधि १६. स्थंडिल गमन विधि २०. लघुनीति के लिए गमन करने की विधि २१. दिवस के चतुर्थ प्रहर की प्रतिलेखन विधि २२. छींक दोष का निवारण विधि २३. मुनि द्वारा बारह महिना कायोत्सर्ग करने की विधि २४. लोच विधि २५. साधु की मृत्यु होने पर उस समय करने योग्य विधि २६. उल्टी रीति से देववंदन करने की विधि २७. सीधी रीति से देववंदन करने की विधि २८. मृतक साध्वी को वस्त्र पहनाने की विधि २६. गुरु साथ में पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण न किये हुए साधु-साध्वी के द्वारा उस-उस प्रतिक्रमण संबंधी गुरु वंदन की विधि आगे 'प्रत्याख्यान संग्रह" दिया गया है जिनमें सभी प्रकार के प्रत्याख्यान करवाने की विधि, साधु एवं श्रावक द्वारा प्रत्याख्यान पारने की विधि, श्रावक की सामायिकविधि, पौषधविधि एवं देशावगासिकविधि इत्यादि का उल्लेख है।
अन्त में 'सज्झाय संग्रह' के नाम से नंदीसूत्र, दशवैकालिकनियुक्ति, आदि के मूल पाठ दिये गये हैं साथ ही नवस्मरण के पाठ (सूत्र) एवं अन्य स्तुतियाँ भी दी गई हैं।
' यह पुस्तक 'श्री अचलगच्छ जैन संघ, अहमदाबाद' से प्रकाशित है।
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अध्याय-4
200000
षडावश्यक(प्रतिक्रमण) सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
:238
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366555505668 3888888883363
8888888
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130 / डावश्यक सम्बन्धी साहित्य
अध्याय ४
षडावश्यक ( प्रतिक्रमण) सम्बन्धी विधि- विधानपरक साहित्य-सूची
कृतिकार
आगमसूत्र
आ. भद्रबाहु
जिनदासगणि
संकलित
क्र. कृति
9 आवश्यकसूत्र (प्रा.)
२ आवश्यक नियुक्ति (प्रा.)
३ आवश्यकचूर्णि (प्रा.)
४ पंचप्रतिक्रमणसूत्र विधि सहित (अचलगच्छीय)
५ पंचप्रतिक्रमणसूत्र (पार्श्वचन्दगच्छीय)
६ पंचप्रतिक्रमणसूत्र ( खरतरगच्छीय)
७ पंचप्रतिक्रमणसूत्र (हि.) (सार्थ एवं विधि सहित)
८ पडिक्कमणसामायारी (प्रतिक्रमणसामाचारी) (प्रा.)
६ प्रतिक्रमणविधि
१० प्रतिक्रमणत्रय
११ प्रतिक्रमणहेतुगर्भः (सं.)
१२ प्रतिक्रमणवृत्ति कथानक
१३ प्रतिक्रमणसूत्र
संकलित
संकलित
संकलित
जिनवल्लभगणि
जिनहर्ष
मुनि प्रभचन्द्र
जयचन्द्रसूरि
अज्ञातकृत
संकलित
कृतिकाल
वि.सं. २- ५ वीं शती
वि.सं. ७-८ वीं शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. १२ वीं शती
वि.सं. १५२५
लग. वि. सं. ११-१२
वीं शती
वि.सं. १५०६
लग. वि.सं. १६-१८
वीं शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/131
१४ प्रतिक्रमणसूत्र संकलित वि.सं. २०-२१ वीं |/स्थानकवासी)
शती १५ प्रतिक्रमणहेतु
क्षमाकल्याणगणि लग. वि.सं. १६ वीं
शती |१६ प्रतिक्रमणनियुक्ति भद्रबाहु (द्वितीय) १७ प्रतिक्रमणविधिसंग्रह सं.कल्याणविजयगणि लग. वि.सं. २०-२१
वीं शती १८ प्रतिक्रमणसंग्रहणी
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती |१६ प्रतिक्रमण
अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती २० प्रतिक्रमण
गणधर गौतम (?) २१ विशेषावश्यकभाष्य (प्रा.) आ. जिनभद्रगणि लग. वि.सं. छठी
शती २२ विमलभक्ति (दिगम्बर) (हि.) संकलित वि.सं. २०-२१ वीं
शती
|२३ षड़ावश्यक बालावबोधवृत्ति तरूणप्रभसूरि
लग. वि.सं. १५ वीं
शती
२४ श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः
देवेन्द्रसूरि
वि.सं. १४ वीं शती
(प्रा.)
संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
संकलित
२५ श्रमणआवश्यकसूत्र
(स्थानकवासी) (हि.) २६ श्रमणप्रतिक्रमणसूत्र
(तेरापंथ) २७ स्वाध्यायसमुच्चय
(त्रिस्तुतिकगच्छ)
शती
संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं शती
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132/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
२८ सामायिकसूत्र
संकलित (स्थानकवासी) (प्रा.) २६ सामायिक प्रतिक्रमणसार्थ संकलित | (हि.)
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/133
अध्याय ४ षडावश्यक (प्रतिक्रमण) सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
आवश्यकसूत्र
जैन आगम साहित्य में आवश्यकसूत्र का अपना विशिष्ट स्थान है। यह सूत्र प्राकृत गद्य में निबद्ध है। इसका रचनाकाल लगभग ई.पू. तीसरी शती माना जाता है। प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के लिए अवश्य करने योग्य छह आवश्यक क्रियाओं का विधान कहा गया है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के श्रमणों के लिए यह नियम हैं कि वे अनिवार्य रूप से आवश्यक विधि करें। यही वजह हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में मुनि या गृहस्थ सभी को धार्मिक अध्ययन का प्रारम्भ आवश्यकसूत्र से ही करवाया जाता है।
आवश्यक जैन साधना का मुख्य प्राण है। यह जीवनशद्धि और दोष परिमार्जन की जीवन्त प्रक्रिया है। साधक चाहे साक्षर हो, चाहे निरक्षर हो, सामान्य जिज्ञासु हो या मूर्धन्य मनीषी हों सभी साधकों के लिए आवश्यक विधि का ज्ञान अनिवार्य माना गया है। जैसे वैदिक परम्परा में संध्या कर्म है, बौद्ध परम्परा में प्रवारणा और उपोसथ है, पारसियों में खोरदेह अवेस्ता है, यहूदी और ईसाईयों में प्रार्थना है, इस्लाम धर्म में नमाज है, वैसे ही जैन धर्म में दोषों की विशुद्धि के लिए और गुणों की अभिवृद्धि के लिए आवश्यक है।
___ अनुयोगद्वारचूर्णि में आवश्यक की परिभाषा करते हुए लिखा है कि जो गुणशून्य आत्मा को प्रशस्त भावों से आवासित करता है, वह आवश्यक है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि जिस साधना और आराधना से आत्मा शाश्वत सुख का अनुभव करें, कर्म-मल को नष्ट करके रत्नत्रय के आलोक को प्राप्त करें वह आवश्यक है। अपनी भूलों के परिष्कार के लिए कुछ न कुछ क्रिया करना अनिवार्य होता है और वही क्रिया आवश्यक विधि है। प्रस्तुत सूत्र में आवश्यक के छह अंग कहे गये हैं - १. सामायिक- समभाव की साधना। २. चतुर्विंशतिस्तव- चौवीस तीर्थंकरों की स्तुति। ३. वन्दन- सद्गुरूओं को नमस्कार एवं उनका गुणगान। ४. प्रतिक्रमणदोषों की आलोचना। ५. कायोत्सर्ग- शरीर के प्रति ममत्व का त्याग। ६. प्रत्याख्यान- आहार अथवा दुष्प्रवृत्तियों का त्याग।
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134/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
षडावश्यक क्रम का हेतु - आवश्यक विधान में जो साधना का क्रम रखा गया है, वह कार्य कारण भाव की श्रृंखला पर अवस्थित है तथा पूर्ण वैज्ञानिक है। यहाँ आवश्यकविधि क्रम की चर्चा करना अपेक्षित समझती हूँ, क्योंकि आवश्यक एक अपरिहार्य कृत्य है। साधक के लिए सर्वप्रथम समता को प्राप्त करना आवश्यक है। बिना समत्व भाव को अपनाये सद्गुणों के सरस सुमन खिल नहीं सकते। इसलिए प्रथम 'सामायिक' नामक आवश्यक रखा गया है।
जब अन्तर्हदय में विषमभाव की ज्वालाएँ धधक रही हों तब वीतरागी महापुरूषों के गुणों का उत्कीर्तन किस प्रकार किया जा सकता है? समत्त्व को जीवन में धारण करने वाला ही महापुरुषों के गुणों का संकीर्तन कर सकता है इसीलिए सामायिक आवश्यक के पश्चात् 'चतुर्विंशतिस्तव' नामक दूसरा आवश्यक रखा गया है। जब गुणों के प्रति आदरभाव आता है, तभी व्यक्ति का सिर महापुरूषों के चरणों में झुकता है इसीलिए तृतीय आवश्यक वन्दन है। वन्दन करने वाले साधक का हृदय सरल होता है सरल व्यक्ति ही कृत दोषों की आलोचना कर सकता है अतः वन्दन के पश्चात् 'प्रतिक्रमण' आवश्यक का निरूपण है। भूलों का स्मरण कर उन भूलों से मुक्ति पाने के लिए तन एवं मन में स्थैर्य आवश्यक है। कायोत्सर्ग में तन एवं मन की एकाग्रता की जाती है इसीलिए पाँचवां आवश्यक कायोत्सर्ग है। पुनः पाप प्रवृतियों का मूल देहभाव या देहासक्ति है अतः देहासक्ति का त्याग कायोत्सर्ग है। जब तन और मन स्थिर होता है, तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है अतः प्रत्याख्यान आवश्यक का स्थान छठा रखा गया है। इस प्रकार यह षडावश्यक विधान आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण और आत्मोत्कर्ष का श्रेष्ठतम उपाय है। षडावश्यक का स्वरूप - इस सूत्र में मुख्यतः षडावश्यक विधि से सम्बन्धित सूत्र पाठों की चर्चा की गई हैं। साथ ही इसमें साधु एवं श्रावक दोनों के द्वारा आचरण करने योग्य आवश्यकविधि का प्रतिपादन किया गया है। वह विवेचन निम्नोक्त है - प्रथम सामायिक आवश्यक - षडावश्यक में सामायिक का प्रथम स्थान है। वह जैन आचार का सार है। सामायिक अर्थात समभाव की साधना श्रमण और श्रावक दोनों के लिए आवश्यक है। जो भी आत्माएँ साधना मार्ग को स्वीकार करती हैं वे सर्वप्रथम सामायिक चारित्र को ग्रहण करती हैं। श्रमणों के लिए सामायिक प्रथम चारित्र है; तो गृहस्थ साधकों के लिए सामायिक चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत है। सामायिक की साधना सभी साधनाओं में सर्वोत्कृष्ट है। सामायिक को चौदह पूर्वो और द्वादशांगी रूप जिनवाणी का सारश्रुत तत्त्व कहा गया है।
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सामायिक की साधना के लिए जो सूत्र - पाठ बोले जाते हैं तथा आवश्यकसूत्र में जिनका नामोल्लेख हैं, वे ये हैं - १. गुरुवन्दनसूत्र, २. प्रतिज्ञासूत्र ( करेमिभंते सूत्र, ३. मंगलसूत्र ( चत्तारिमंगलं ), ४ ईर्यापथिकसूत्र (इरियावहि ), ५. आगारसूत्र (तस्स. -अन्नत्थ.)
द्वितीय चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक षडावश्यक में दूसरा स्थान 'चतुर्विंशतिस्तव' का है। साधक सामायिक आवश्यक द्वारा सावद्य योग से निवृत्त होता है। सावद्य योग से निवृत्त रहकर वह किसी न किसी आलम्बन का ग्रहण करता है, जिसमें वह समभाव में स्थिर रह सके । एतदर्थ ही सामायिक में साधक तीर्थंकर की स्तुति करता है। तीर्थंकर पुरूष त्याग, वैराग्य और संयम साधना की दृष्टि से महान् हैं। उनके गुणों का उत्कीर्त्तन करने से साधक के अन्तर्हृदय में आध्यात्मिक बल का संचार होता है। अतः दूसरे आवश्यक की साधना के लिए 'चतुर्विंशतिस्तव' (लोगस्ससूत्र ) बोला जाता है ।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 135
तृतीय वन्दन आवश्यक साधना के क्षेत्र में तीर्थंकर के पश्चात् दूसरा स्थान गुरू का होता है। जब साधक के अन्तर्मानस में भक्ति का स्रोत प्रवाहित होता है तब सहसा वह सद्गुरुओं के चरणों में झुक जाता है। इस प्रकार वन्दन करने से अहंकार नष्ट होता है, विनय की उपलब्धि होती है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन करने से शुद्ध धर्म की आराधना होती है। अतः साधक को सतत जागरूक रहकर वन्दन करना चाहिए । प्रस्तुत सूत्र में इस तीसरे आवश्यक के अन्तर्गत द्वादशावर्त्तवन्दनसूत्र, वन्दन विधि एवं गुरु की तैंतीस आशातनाओं का वर्णन किया गया है।
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चतुर्थ प्रतिक्रमण आवश्यक प्रतिक्रमण जैन परम्परा का एक विशिष्ट शब्द है । प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है - पीछे लौटना | जो पापकर्म मन, वचन और काया से स्वयं किये जाते हैं अथवा दूसरों से करवाये जाते हैं अथवा दूसरों के द्वारा किये हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है, उन सभी पापों की निवृत्ति के लिए कृत पापों की आलोचना एवं निन्दा करना प्रतिक्रमण है। गृहीत नियमों और मर्यादाओं के अतिक्रमण से पुनः लौटना प्रतिक्रमण है। आवश्यकनिर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति, आवश्यकमलयगिरिवृत्ति, प्रभृति ग्रन्थों में प्रतिक्रमण को लेकर विस्तार के साथ विचार-विमर्श किया गया है। उन्होंने प्रतिक्रमण के आठ' पर्यायवाची शब्द भी दिए हैं, जो प्रतिक्रमण के विभिन्न अर्थों को व्यक्त करते हैं। प्रतिक्रमण साधक - जीवन की एक अपूर्व क्रिया है। यह वह
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पडिकमणं पडियरणा, परिहरणा बारणा नियत्तीय । निन्दा गरिहा सोही, पडिकमणं अट्ठहा होई ॥ आवश्यक नियुक्ति गा. १२३३
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136/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
डायरी है जिसमें साधक अपने दोषों की सूची लिखकर एक-एक दोष से मुक्त होने का उपक्रम करता है। वही कुशल व्यापारी कहलाता है जो प्रतिदिन सायंकाल देखता है कि आज के दिन मुझे कितना लाभ प्राप्त हुआ है या कितनी हानि हुई?
प्रतिक्रमण जीवन को सुधारने का श्रेष्ठ उपक्रम है। विभिन्न दृष्टियों से प्रतिक्रमण के दो, पाँच, छह प्रकार' बताये गये हैं। इसका विस्तृत प्रतिपादन लगभग इसी शोध के चतुर्थ खण्ड में करेंगे। इसमें चतुर्थ आवश्यक के समय बोलने योग्य निम्न सूत्रों का विवरण उपलब्ध होता है। १. पगामसज्झायसूत्र इसमें मुख्य रूप से शय्या एवं निद्रा सम्बन्धी दोष निवृत्ति सूत्र, भिक्षादोष निवृत्ति-सूत्र, स्वाध्याय-दोष तथा प्रतिलेखना-दोष निवृत्ति सूत्र, एक से लेकर तैंतीस बोल पर्यन्त दोष निवृत्ति सूत्र दिये गये हैं। २. क्षामणासूत्रआयरिय उवज्झाय सूत्र ३. प्रणिपातसूत्र ४. आलोचना सूत्र आदि। पंचम कायोत्सर्ग आवश्यक - जैन साधना पद्धति में कायोत्सर्ग का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसको व्रणचिकित्सा कहा गया है। सतत सावधान रहने पर भी प्रमाद आदि के कारण साधना में दोष लग जाते हैं, उन दोष रूपी घावों को ठीक करने के लिए कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग ये दो शब्द है। जिसका तात्पर्य हैं- काया का त्याग। यहाँ पर शरीर त्याग का अर्थ है- शारीरिक चंचलता और देहासक्ति का त्याग। कायोत्सर्ग अन्तर्मुखी होने की एक पवित्र साधना है। कायोत्सर्ग से शारीरिक ममत्व भाव कम हो जाता है। शरीर की ममता साधना के लिए सबसे बड़ी बाधा है। शरीर की ममता कम होने पर ही साधक आत्मभाव में लीन रह सकता है।
जैन विचारणा में साधक जो भी कार्य करें, उस कार्य के पश्चात् कायोत्सर्ग करने का विधान है, जिससे वह शरीर की ममता से मुक्त हो सके। प्रस्तुत कृति में कायोत्सर्ग करने का निर्देश मात्र किया गया है। तत्सम्बन्धी सूत्रों का कोई उल्लेख नहीं हैं, किन्तु संप्रति में उसके पूर्व अन्नत्थसूत्र आदि बोले जाते हैं। षष्टम प्रत्याख्यान आवश्यक- प्रत्याख्यान का अर्थ है- त्याग करना। अविरति और असंयम से हटने हेतु प्रतिज्ञा ग्रहण करना प्रत्याख्यान है। इस विराट् विश्व में इतने अधिक पदार्थ हैं जिनकी परिगणना करना सम्भव नहीं है और उन सब वस्तुओं को एक ही व्यक्ति भोगे, यह भी सम्भव नहीं है, किन्तु मानव की इच्छाएँ तो असीम हैं। इच्छाओं के कारण मानव मन में सदा अशान्ति बनी रहती है। उस अशान्ति को नष्ट करने का एक मात्र उपाय प्रत्याख्यान है।
स्थानांग ६/५३७
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यहाँ यह समझना अत्यन्त जरूरी है कि सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है किन्तु पुनः आसक्ति का साम्राज्य अन्तर्चेतना में प्रविष्ट न हों, उसके लिए प्रत्याख्यान अत्यन्त आवश्यक है। अनुयोगद्वार में प्रत्याख्यान का एक नाम 'गुणधारण' दिया गया है। गुणधारण से तात्पर्य है- व्रत रूपी गुणों को धारण करना । प्रस्तुत ग्रन्थ में इस आवश्यक के अन्तर्गत दस प्रकार के प्रत्याख्यान सूत्र दिये गये हैं वे प्रत्याख्यान निम्न हैं
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 137
नवकारशी, पौरूषी, पुरिमड्ड, एकाशना, एकलठाणा, आयंबिल, उपवास, दिवसचरिम (चौविहार, तिविहार आदि) अभिग्रह और निर्विकृतिक ।
उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि षडावश्यकों का साधक के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। जहाँ आवश्यक से आध्यात्मिक शुद्धि होती है, वहाँ लौकिक जीवन में भी समता, नम्रता, क्षमाभाव आदि सद्गुणों की वृद्धि होने से आनन्द के झरने बहने लगते हैं।
व्याख्यासाहित्य आवश्यकसूत्र एक ऐसा महत्त्वपूर्ण सूत्र' है कि उस पर सबसे अधिक व्याख्याएँ लिखी गयी है। इसके मुख्य व्याख्या ग्रन्थ निम्न हैं- निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि वृत्ति, स्तबक (टब्बा), हिन्दी, गुजराती और अंग्रेजी विवेचन |
नियुक्ति - १. सर्वप्रथम इस सूत्र पर भद्रबाहु (द्वितीय) द्वारा २५५० गाथाओं में नियुक्ति लिखी गई है। यह माना जाता है कि निर्युक्तिकार भद्रबाहु ज्योतिर्विद् वराहमहिर के सहोदर भ्राता थे। उनका समय विक्रम की छठीं शताब्दी है, किन्तु इस सम्बन्ध में मतभेद भी है । २. शिष्यहिता और बृहद्वृत्ति- यह नियुक्ति आवश्यक सूत्र पर जिनभट्ट या जिनभद्र के शिष्य हरिभद्रसूरि द्वारा १२००० श्लोक परिमाण रची गई है। ३. आवश्यक मलयगिरिवृत्ति - आचार्य मलयगिरि द्वारा इस सूत्र पर १८००० श्लोक परिमाण वृत्ति लिखी गई है। ४. नियुक्ति - अवचूर्णि - तपागच्छीय देवेन्द्रसूरि के शिष्य जैनसागर ? ने अवचूर्णि रची है। इस चूर्ण का रचनाकाल १४ वीं शती (१४४० ) है । ५. नियुक्ति अवचूर्णि - सोमसुन्दरसूरि ने भी एक अवचूर्णि लिखी है। ६. निर्युक्ति दीपिका - यह निर्युक्ति अचलगच्छीय मेरूतुंगसूरि के शिष्य माणिक्यशेखर ने निर्मित की है। यह ११७५० श्लोक परिमाण की है तथा इसका रचनाकाल १४ वीं शती (१४७१) है । ७. निर्युक्ति अवचूरि- यह अवचूरि शुभवर्धनगणि की है। इसका रचनाकाल १५४० है । ८. निर्युक्ति- टीका - शिष्यहिता वृत्ति- यह टीका शालिभद्रसूरि के शिष्य नेमिसाधु ने ११
"
देखें, जिनरत्नकोश, पृ. ३५
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वीं शती में रचित की है। ६. नियुक्ति चूर्णि और वृत्ति- यह रचना अज्ञातसूरि की है। १०. नियुक्ति अवचूर्णि- तपागच्छीय सोमसुन्दर सूरि के प्रशिष्य अमरसुन्दर गणि के शिष्य धीरसुन्दर ने १५ वीं शती में इसकी रचना की है। ११. नियुक्तिचूर्णि- यह जिनदासगणिमहत्तर द्वारा विरचित है तथा १३६०० श्लोक परिमाण की है। १२. विशेषावश्यकभाष्य- इस भाष्य के रचयिता जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण है। यह भाष्य सामायिक नामक प्रथम अध्ययन पर रचा गया है। इसमें ३६०२ गाथाएँ हैं। १३. चूर्णि- यह रचना श्री नेमिचन्द्र के प्रशिष्य शांतिसूरि के शिष्य विजयसिंह की है। इसका श्लोक परिमाण ४५६० है तथा यह १२ वीं शती (११८३) में लिखी गई है। १४. चूर्णि- इसके रचनाकार यशोदेवगणि है और यह २१०० श्लोक परिमाण की है। इसका अपर नाम प्राकृतवृत्ति है। १५. लघुवृत्तिगणधरगच्छीय शिवप्रभसूरि के शिष्य तिलकाचार्य ने इसकी रचना १३ वीं शती (१२६६) में की है। यह लघुवृत्ति १२३२५ श्लोक परिमाण वाली है। १६. प्रदेश व्याख्या और टिप्पणक- यह मलधारीगच्छीय अभयदेव के शिष्य हेमचन्द्र द्वारा लिखी गई है। १७. प्रदेशव्याख्याटिप्पण- मलधारीगच्छीय हेमचन्द्र के शिष्य चन्द्रसूरि ने यह टिप्पणक १३ वीं शती के पूर्वार्ध में लिखा है। १८. वन्दारूवृत्ति टीका- यह टीका श्रावक अनुष्ठान विधि और वन्दारूवृत्ति के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी रचना तपागच्छीय जगच्चन्द्र के शिष्य देवेन्द्रमुनि ने की है। १६. लघुवृत्ति- यह रचना कुलप्रभसूरि की है। २०. वृत्ति- यह रचना महितिलक के शिष्य राजवल्लभ ने की है। २१. व्याख्या- यह ग्रन्थ १७ वीं शती (१६६७) का है। इसकी रचना तपागच्छीय विजयसिंहसूरि के प्रशिष्य उदयरूचि के शिष्य मुनि हितरूचि ने की है। २२. वृत्ति- यह रचना अज्ञातकर्तृक है तथा दीपिका नाम से प्रसिद्ध १२७६५ श्लोक परिमाण की है। २३. वृत्ति- यह अज्ञातकर्तृक है। २४. टीका (गुजराती)यह टीका खरतरगच्छीय जिनचन्द्रसरि के शिष्य तरूणप्रभसरि की है। इसका रचनाकाल १५ वीं शती का पूर्वार्ध है। यह पुरानी गुजराती भाषा में निबद्ध है। २५. बालावबोध- यह तपागच्छीय जयचन्द्र के शिष्य हेमहंसगणि की रचना है इसका रचनाकाल १६ वीं शती (१५२१) का पूर्वार्ध है। यह भी पुरानी गुजराती भाषा में है। २६. बालावबोध- इस कृति का रचनाकाल वि.सं. १५२५ है। यह रचना खरतरगच्छीय जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य रत्नमूर्तिगणि के शिष्य मेरुसुंदर की है तथा गुजराती भाषा में है। २७. बालावबोध- यह अज्ञातकर्तृक और पुरानी गुजराती भाषा में है। यह ग्रन्थ १५ वीं शती के पूर्व का है। २८. बालावबोधसंक्षेपअर्थ- यह कृति १५ वीं शती (१४६८) में रची गई है। इस कृति की रचना अचलगच्छीय जयकेशरसूरि के शिष्य महेशसागर ने की है। २६. विषमपदपर्याय- यह अज्ञातकर्तृक रचना है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/139
आवश्यकनियुक्ति
जैन आगम-ग्रन्थों में आवश्यकसूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें छ: अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन का नाम सामायिक है। शेष पाँच अध्ययनों के नाम चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान है। आवश्यकनियुक्ति सामायिक आवश्यकसूत्र पर रची गई प्राकृत भाषा की पद्यात्मक व्याख्या है। इस नियुक्ति की कुल १६१२ गाथाएँ हैं। यह नियुक्ति भद्रबाहु या आर्यभद्र रचित मानी जाती है। यह साधु एवं गृहस्थ के लिए अवश्य करने योग्य आवश्यक रूप विधि-विधानों का प्रतिपादक ग्रन्थ है। भद्रबाहु कृत दस नियुक्तियों में आवश्यकनियुक्ति की रचना सर्वप्रथम हुई है। यही कारण है कि यह नियुक्ति सामग्री शैली आदि सभी दृष्टियों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विस्तृत एवं व्यवस्थित निरूपण किया गया है। आगे की नियुक्तियों में पुनः उन विषयों के आने पर संक्षिप्त व्याख्या करके आवश्यक नियुक्ति की ओर संकेत कर दिया गया है। इस दृष्टि से दूसरी नियुक्तियों के विषयों को ठीक तरह से समझने के लिए इस नियुक्ति का अध्ययन आवश्यक है।
__आवश्यकसूत्र के सामायिक अध्ययन से सम्बन्धित एक भाष्य विस्तृत व्याख्या रूप में लिखा गया है जो विशेषावश्यकभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इस भाष्य की भी अनेक व्याख्याएँ हुई हैं इसके प्रारम्भ में उपोद्घात है। इसे ग्रन्थ की भूमिका रूप समझना चाहिये। यह उपोद्घात मंगल रूप है। इसी प्रसंग पर उसमें पाँच ज्ञान की विस्तृत चर्चा की गई है।
इस नियुक्ति में सामायिक नामक प्रथम अध्ययन के सन्दर्भ में सामायिक का महत्त्व बताया गया है। सम्पूर्ण श्रुत का सार सामायिक है, सामायिक का सार चारित्र है, चारित्र का सार निर्वाण है, चारित्र का प्रारम्भ सामायिक से होता है आगम ग्रन्थों में भी जहाँ भगवान महावीर के श्रमणों के श्रुताध्ययन की चर्चा है वहाँ अनेक जगह अंग ग्रन्थों के आदि में सामायिक अध्ययन का निर्देश है, मुक्ति के लिए ज्ञान और चारित्र (क्रिया/विधि) दोनों अनिवार्य है', सामायिक का अधिकारी कौन हो सकता है? इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही इसमें प्रवचन, सूत्र एवं अनुयोग के पर्याय बताये गये हैं।
'आवश्यकनियुक्ति गा. ६४-१०३ २ वही गा. १३०-१३१
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अनुयोग और अननुयोग का निक्षेप विधि से वर्णन किया है।' व्याख्यानविधि के निरूपण में आचार्य और शिष्य की योग्यता का मापदण्ड बताया है। सामायिक व्याख्यान की विधि के रूप में २६ अधिकारों की चर्चा की गई हैं। पुनः इन अधिकार विधियों का उल्लेख करते हुए भगवान आदिनाथ का जीवन चरित्र, भगवान महावीर का जीवन चरित्र एवं नमस्कार मन्त्र का विस्तृत विवेचन किया है। उसके बाद सामायिक किस प्रकार करनी चाहिए? सामायिक का लाभ कैसे होता है? सामायिक का उद्देश्य क्या है? सामायिक के पर्यायवाची शब्द इत्यादि तथ्यों का प्रतिपादन किया गया है।
चतुर्विंशतिस्तव नामक द्वितीय अध्ययन में चतुर्विंश और स्तव शब्द के अर्थ का छ: प्रकार से और चार प्रकार से निक्षेप किया गया है। इस सम्बन्ध में द्रव्यस्तव और भावस्तव का भी वर्णन हुआ है। चतुर्विंशतिस्तव अर्थात् लोगस्ससूत्र के प्रत्येक पदों की निक्षेप पद्धति से व्याख्या की गई है।
वन्दन नामक तृतीय अध्ययन में वन्दना के पर्याय और वन्दना के नौ द्वारों का विवेचन हुआ है १. वन्दना किसे करनी चाहिए, २. वन्दना किसके द्वारा की जानी चाहिए, ३. वन्दना कब करनी चाहिए, ४. वन्दना कितनी बार करनी चाहिये, ५. वन्दना करते समय कितनी बार झुकना चाहिए, ६. कितनी बार सिर झुकाना चाहिए, ७. कितने आवश्यक से शुद्ध होना चाहिए, ८. कितने दोषों से मुक्त होना चाहिये, ६. वन्दना किसलिए करनी चाहिए? इन विषयों का अत्यन्त विस्तार के साथ निरूपण हुआ है।
प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन में प्रतिक्रमण का तीन दृष्टियों क्रिया, कर्ता एवं कर्म से विचार किया गया है। प्रतिक्रमण के ८ पयार्यवाची शब्दों को सोदाहरण स्पष्ट किया है। शुद्धि की विधि कही गई है। प्रतिक्रमण के दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि अनेक प्रकार बताये गये हैं। इसके साथ ही अस्वाध्याय के प्रकार कहे गये हैं। स्वाध्याय के लिए कौन सा देश और कौनसा काल उपयुक्त है, गुरू आदि के समक्ष किस प्रकार स्वाध्याय करना चाहिए, आदि का वर्णन किया गया है।
कायोत्सर्ग नामक पंचम अध्ययन में दस प्रकार के प्रायश्चित्त विधान का
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' आवश्यकनियुक्ति गा. १३२-१३४
वही गा. १०२३-३४ ३ वही गा. १०३५
वही गा. १२३६ ५ वही गा. १२३८
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निरूपण हुआ है'। इसमें कायोत्सर्ग का अर्थ व्रण चिकित्सा किया है। व्रण दो प्रकार का बताया है (१) कायोत्थ तदुद्भव और ( २ ) परोत्थ आगन्तुक े। इसमें दोनों प्रकार के व्रण की चिकित्सा करने सम्बन्धी अलग-अलग विधियाँ कही गई हैं। कायोत्सर्ग की व्याख्या ग्यारह द्वारों के आधार पर की है। उन ग्यारह द्वारों के नाम ये हैं - १. निक्षेप, २. एकार्थक शब्द, ३. विधान मार्गणा, ४. काल प्रमाण, ५. भेद परिमाण, ६. अशठ, ७. शठ, ८. विधि, ६. दोष, १०. अधिकारी, ११. फल' इसमें कायोत्सर्ग विधि का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि गुरू के समीप ही कायोत्सर्ग प्रारम्भ करना चाहिए तथा गुरू के समीप ही समाप्त करना चाहिए। कायोत्सर्ग के समय दाहिने हाथ में मुखवस्त्रिका और बाएँ हाथ में रजोहरण रखना चाहिए। *
४
प्रत्याख्यान नामक षष्ठम अध्ययन में प्रत्याख्यान पर छः दृष्टियों से विचार किया गया है १. प्रत्याख्यान, २. प्रत्याख्याता, ३. प्रत्याख्येय, ४. पर्षद्, ५. कथनविधि और, ६. फल।' इसके साथ ही इसमें प्रत्याख्यान के छः भेद, प्रत्याख्यान शुद्धि के छः प्रकार, चार प्रकार के आहार की विधियाँ, प्रत्याख्यान के दस प्रकार ̈ आदि भी विवेचित हैं। प्रत्याख्याता का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि प्रत्याख्याता गुरु होता है जो यथोक्त विधि से शिष्य को प्रत्याख्यान कराता है। गुरु मूलगुण और उत्तरगुण से शुद्ध तथा प्रत्याख्यान की विधि जानने वाला होता है। शिष्य कृतकर्मादि की विधि जानने वाला, उपयोग परायण, ऋजुप्रकृति वाला, संविग्न और स्थिरप्रतिज्ञ होना चाहिए।
८
अन्ततः प्रत्याख्यान के फलद्वार का व्याख्यान करते हुए इस द्वार की निर्युक्ति के साथ आवश्यकनियुक्ति समाप्त होती है। आवश्यकनियुक्ति के इस विस्तृत परिचय से यह अनुमान किया जा सकता है कि निर्युक्ति साहित्य में आवश्यक नियुक्ति का कितना महत्त्व है ? श्रमण जीवन की सफल साधना के लिए अनिवार्य सभी प्रकार के विधि-विधानों का संक्षिप्त एवं सुव्यवस्थित निरूपण आवश्यक निर्युक्ति की बहुत बड़ी विशेषता है। जैन परम्परा से
आवश्यक नियुक्ति गाथा, १४१३
२ वही गा . १४१४
३ वही गा . १४२१
४
वही गा . १५३६ - १५४०
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 141
५ वही गा. १५५०
६ वही गा . १५८०
७ वही गा. १५६१ - १६०६ ८ वही गा. १६०६-६
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142/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
सम्बन्ध रखने वाले अनेक प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों का प्रतिपादन भी सर्वप्रथम इसी नियुक्ति में किया गया है। आवश्यकचूर्णि
यह चूर्णि मुख्य रूप से नियुक्ति का अनुसरण करते हुए लिखी गई है।' कहीं-कहीं पर भाष्य की गाथाओं का भी उपयोग किया गया है। यह चूर्णि प्राकृत की गद्यात्मक एवं पद्यात्मक शैली में लिखी गई है। किन्तु यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक, गधाश एवं पंक्तियाँ उद्धृत की गई हैं। भाषा में प्रवाह है। शैली भी
ओजपूर्ण है। इसमें कथानकों की भरमार है और इस दृष्टि से इसका ऐतिहासिक मूल्य भी अन्य चूर्णियों से अधिक है। विषय-विवेचन का जितना विस्तार इस चूर्णि में है उतना अन्य-चूर्णियों में दुर्लभ है। जिस प्रकार विशेषावश्यकभाष्य में प्रत्येक विषय पर सुविस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है उसी प्रकार इसमें भी प्रत्येक विषय का विस्तारपूर्वक व्याख्यान किया गया है।
प्रारम्भ में उपोद्घात के रूप में मंगल की चर्चा की गई है। सामायिकविधि अधिकार में सामायिक का दो दृष्टियों से विचार किया गया है। नियुक्तिगत उद्देश, निर्गमादि छब्बीस दोषों पर विशेष विचार किया है। यथाप्रसंग वज्रस्वामी, आर्यरक्षित, आषाढ़भूति, अश्वमित्र, गंगसूरि आदि तथा श्रावक आनन्द, कामदेव आदि, शिवराजर्षि, गंगदत्त, दशार्णभद्र, इलापुत्र, दमदन्त, चिलातिपुत्र, धर्मरूचिअणगार, तेतलीपुत्र, निव-तिष्यगुप्त आदि के कथानक प्रस्तुत किये गये हैं। इसके साथ ही सामायिक सम्बन्धी अन्य आवश्यक बातों का विचार किया है; जैसे सामायिक के द्रव्यपर्याय, नयदृष्टि से सामायिक, सामायिक के भेद, सामायिक का स्वामी, सामायिक प्राप्ति का क्षेत्र, काल, दिशा आदि, सामायिक की प्राप्ति के हेतु, सामायिक की स्थिति, सामायिक वालों की संख्या, सामायिक का अन्तर आदि।
वन्दनविधि अधिकार में अनेक दृष्टान्त दिये गये हैं। वंद्य-वंदकसंबंध, वंद्यावंद्यकाल, वंदनसंख्या, वंदनदोष, वंदनकाल आदि का दृष्टान्त पूर्वक विचार किया गया है। प्रतिक्रमणविधि अधिकार में प्रतिक्रमणसूत्र (पगामसिज्झाय) का विस्तृत निरूपण किया है। इसमें एक से लेकर बत्तीस स्थानों का प्रतिपादन हैं। ग्रहण शिक्षा और आसेवना शिक्षा का उल्लेख किया है इस प्रसंग पर श्रेणिक, चेलणा, सुलसा, कोणिक, चेटक, उदायी, शकडाल, वररूचि, स्थूलभद्र आदि से
' यह चूर्णि दो भागों में है। इसका पूर्वभा. सन् १६२८ में और उत्तरभा. सन् १६२६ में श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम से प्रकाशित हुआ है। २ देखिए, आवश्यकनियुक्ति गा. १४०-४१
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सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक आख्यानों का संग्रह किया है।
कायोत्सर्गविधि अधिकार में प्रायः निर्युक्तिगत विषयों का ही विवेचन किया गया है। इसके साथ क्षामणा विधि पर प्रकाश डाला गया है। प्रत्याख्यानविधि अधिकार में प्रत्याख्यान के भेद, श्रावक के भेद, बारहव्रत और उनके अतिचार, प्रत्याख्यान के गुण और आगार आदि का विविध उदाहरणों के साथ व्याख्यान किया गया है। बीच-बीच में यत्र-तत्र अनेक गाथाएँ एवं श्लोक भी उद्धृत किये गये हैं ।
आवश्यकचूर्णि के इस संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट है कि चूर्णिकार ने आवश्यकनिर्युक्ति में निर्दिष्ट सभी विषयों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है तथा विवेचन को सरल - सुबोध - सरस एवं स्पष्ट बनाने के लिए अनेक प्राचीन ऐतिहासिक एवं पौराणिक आख्यान भी उद्धृत किये हैं । यह सामग्री भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । ' पंचप्रतिक्रमणसूत्र - विधि सहित ( श्रावक प्रतिक्रमण )
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 143
इस पुस्तक' में पाँच प्रकार की प्रतिक्रमण विधि कही गई है। प्रतिक्रमण के पाँच प्रकार ये हैं १. रात्रिक, २. दैवसिक, ३. पाक्षिक, ४. चातुर्मासिक, और ५. सांवत्सरिक । यह पुस्तक अचलगच्छीय परम्परा से सम्बन्धित है। इसमें अचलगच्छ आम्नाय को मानने वाले गृहस्थ की अपेक्षा प्रतिक्रमण विधियों का संकलन हुआ है। इस कृति में निम्न विधियाँ भी दर्शायी गयी है।
-
१. देववंदन विधि, २ . जिनमंदिरदर्शन विधि, ३. द्रव्यपूजा विधि, ४ . भावपूज - (चैत्यवंदन) विधि, ५. मध्याह्कालीन देववंदन विधि तथा संध्याकालीन देववंदन विधि, ६. सामायिक ग्रहण एवं सामायिक पारन विधि ७. देशावगासिकव्रत ग्रहण विधि, ८. पौषधग्रहण विधि इत्यादि ।
इसके अन्त में पर्वदिन, पर्वतिथि एवं विशिष्ट तीर्थ सम्बन्धी चैत्यवन्दन, स्तुति, स्तवनादि भी दिये गये हैं। इसके साथ ही गौतमस्वामी, शांतिनाथप्रभु, सोलह सती आदि के छंद हैं। जन्म-मरण एवं ऋतुधर्म संबंधी सूतक विचार, चौबीस तीर्थंकरों का कोष्ठक भी दिया गया है।
9
आधार - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ३ पृ. २७४-२८२
२
यह पुस्तक चंदुलालगांगजी फेमवाला, श्री क.वि. ओ. दे. जैन महाजन, मुंबई से प्रकाशित है। यह पाँचवां संस्करण है।
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144 / षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
पंचप्रतिक्रमणसूत्रविधि ( श्रावकप्रतिक्रमण )
नागपुरीयबृहत्तपागच्छ' (पार्श्वचंद्रगच्छ ) की श्रावक परम्परा से सम्बन्धित यह कृति मुख्यतः प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी पद्य में निबद्ध है। इस पुस्तक में पार्श्वचन्द्रगच्छ की परम्परा के अनुसार अनुष्ठित की जाने वाली विधियाँ दी गई हैं। वे निम्न हैं १. सामायिक ग्रहण सम्बन्धी सूत्र एवं विधि, २ . दैवसिक प्रतिक्रमण सम्बन्धी सूत्र एवं विधि, ३. सामायिक पारण सम्बन्धी सूत्र एवं विधि, ४. रात्रिकप्रतिक्रमण सम्बन्धी सूत्र एवं विधि, ५. पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करते समय प्रयुक्त होने वाले सूत्र एवं विधि, ६. पौषधव्रत ग्रहण करने और पौषधव्रत पूर्ण करने की विधि । उसके बाद नित्योपयोगी चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन, सज्झाय आदि संकलित है । पुस्तक के प्रारम्भ में श्री नागपुरीय बृहत्तपागच्छ की पट्टावली भी दी गई है। साथ ही उसकी उत्पत्ति का इतिहास' भी संक्षिप्त में दिया गया है।
पंचप्रतिक्रमणसूत्र (खरतरगच्छीय)
यह रचना' गुजराती भाषा में है। इसमें खरतरगच्छ की परम्परानुसार पंचप्रतिक्रमण के सूत्रपाठ दिये गये हैं । प्रतिक्रमण के सूत्रपाठों को कंठाग्र करने वाले आराधकों की दृष्टि से यह कृति उपयोगी सिद्ध हुई है। इसमें सामायिकग्रहणविधि, सामायिकपारणविधि, चैत्यवंदनविधि, गुरूवंदनविधि, रात्रिकदैवसिक-पाक्षिक-चातुर्मासिक - सांवत्सरिक प्रतिक्रमणविधि, पौषध ग्रहण - पारण विधि, देशावगासिक ग्रहण -पारण विधि भी दी गई हैं। साथ ही सप्तस्मरण, चैत्यवंदन, स्तवन, स्तुति एंव दादागुरूदेव के विविधस्तवनादि उपयोगी सामग्री का संकलन किया गया है।
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२
यह इस गच्छ का मूल नाम है परन्तु वर्तमान में 'पार्श्वचन्द्रगच्छ' इस नाम से प्रचलित है। वि.सं. ११७७ में श्री वादिदेवसूरि नाम के आचार्य हुए थे, जिन्होंने साढ़े तीन लाख श्रावकों को प्रतिबोध दिया था, इस कारण उन्हें वृहद् तपा विरुद्ध दिया, तब से उनकी परम्परा 'श्रीमन्नागपुरीय बृहत्तपागच्छ' नाम से प्रसिद्ध हुई। स्पष्टतः इस गच्छ का प्रादुर्भाव १२ वीं शती के उत्तरार्ध में हुआ था, किन्तु पार्श्वचन्द्रसूरि के क्रियोद्धार के पश्चात् यह गच्छ पार्श्वचन्द्रगच्छ (पायचंदगच्छ ) कहा जाने लगा। यह पुस्तक श्री पार्श्वचंद्रगच्छ जैन संघ, चेम्बुर, मुंबई ७१, वि. सं. २०४८ में प्रकाशित हुई है। यह दूसरी आवृत्ति है।
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इसका प्रकाशन श्री खरतरगच्छ जैन उपाश्रय, झवेरीवाड़ अहमदाबाद - १, सन् १६७० में
हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/145
पंचप्रतिक्रमणसूत्र (सार्थ एवं विधिसहित)
यह कृति हिन्दी में है।' सूत्रपाठ की शैली प्राकृत व संस्कृत है। इसमें खरतरगच्छ के परम्परानुसार पंचप्रतिक्रमण में उपयोगी सूत्रों का संकलन किया गया है। साथ ही वे सूत्र अर्थ सहित एवं विधिसहित दिये गये हैं। इसमें सामायिक-प्रतिलेखन आदि की विधियाँ भी कही गई हैं साथ ही स्तुति, स्तवन, सज्झाय आदि का उपयोगी संग्रह भी समाविष्ट किया है जो प्रतिक्रमण करने वाले साधकों के लिए विशेष महत्त्व रखता है। पडिक्कमणसामायारी प्रतिक्रमणसामाचारी
यह जिनवल्लभगणि की जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित ४० पद्यों की कृति है। इसमें प्रतिक्रमण विधि सम्बन्धी विचारणा की गई है। यह सामाचारीशतक के पत्र क्रमांक १३७ अ से १३८ आ तक उद्धृत की गई है। प्रतिक्रमण विधि
यह कृति वि.सं.१५२५ में तपागच्छीय श्री जयचन्द्र के शिष्य जिनहर्ष ने रची है। प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी
इसके कर्ता मुनिप्रभचन्द्र है। यह १८०० श्लोक परिमाण है। प्रतिक्रमणहेतुगर्भः
सोमसुंदरसूरि के शिष्य जयचन्द्रसूरि रचित यह कृति संस्कृत गद्य में निबद्ध है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १६ वीं शती का पूर्वार्ध है। यह रचना खरतरगच्छीय मोहनलालजी समुदाय के मुनि बुद्धिसागरगणि के द्वारा संशोधित की गई है।
' यह पुस्तक - जैन साहित्य प्रकाशन समिति, ३६ बड़तल्ला स्ट्रीट, कलकत्ता-७, वि.सं. २०३६ में प्रकाशित हुई है। २ (क) यह संशोधित कृति वि.सं. २०१२ में 'जिनदत्तसूरिज्ञानभंडार, महावीरस्वामी देरासर, पायधुनी मुंबई' से प्रकाशित है।
(ख) यह कृति 'प्रतिक्रमणगर्भहेतु' नाम से श्री पानाचन्द वहालजी ने सन् १८६२ में प्रकाशित की है। इसका प्रतिक्रमणहेतु' नाम से गुजराती सार 'जैन धर्म प्रसारक सभा' ने सन् १६०५ में प्रकाशित किया था।
(ग) इस कृति का मूल नाम 'प्रतिक्रमणविधि' है किन्तु यह 'प्रतिक्रमणगर्भहेतु' और 'हेतुगर्भप्रतिक्रमण' के नाम से भी प्रसिद्ध है।
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146/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
प्रस्तुत ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार प्रतिक्रमण विधि के हेतुओं (उद्देश्यों) का विवेचन करता है। इस कृति की संशोधित प्रति की प्रस्तावना में यह लिखा गया है कि इस दुषम काल में भगवान महावीर के शासन में चाहे किसी प्रकार का अतिचार या दोष लगे या नहीं लगे, किन्तु साधु एवं श्रावकों के लिए प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है। प्रतिक्रमण किस उद्देश्य से किया जाता है तथा प्रतिक्रमण की कौनसी क्रिया का क्या हेतु है? यह बताने के लिए ही यह ग्रन्थ गुम्फित हुआ, ऐसा मालूम होता है। इस दृष्टि से देखें, तो इस ग्रन्थ में विषय का स्पष्टीकरण करने के लिए अन्य ग्रन्थों से साक्ष्य पाठ भी उद्धृत किये गये हैं। ये उद्धृत पाठ प्रायः प्राकृत में हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ रचना का प्रयोजन बताने हेतु एक श्लोक दिया गया है। उसमें वर्द्धमानस्वामी को और गुणों से महान् गुरू को नमस्कार किया गया है तथा प्रतिक्रमणविधि के हेतुओं को स्पष्ट करने की प्रतिज्ञा की गई है। अन्त में प्रशस्ति रूप तीन पद्य हैं। इनके अतिरिक्त अन्तिम भाग में प्रतिक्रमण अर्थात् आवश्यक के आठ पर्यायवाची नामों के विषय में एक-एक दृष्टान्त दिया गया है। इस ग्रन्थ के पत्र २४ और २५ में आये हुए उल्लेख के अनुसार ये दृष्टान्त आवश्यक सूत्र की लघुवृत्ति मे से उद्धृत किये गये हैं। मुख्यतया इस कृति में प्रतिक्रमणविधि के हेतुओं के सम्बन्ध में प्रश्न उठाते हुए उनका समाधान किया गया है। इसके साथ ही तद्विषयक अन्य चर्चाएँ भी प्रतिपादित हुई हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिक्रमण को लेकर निम्न प्रश्न उठाये गये हैं; जैसे कि स्थापनाचार्य के समक्ष ही प्रतिक्रमणादि विधान क्यों? प्रतिक्रमण की आराधना क्यों? सामायिक करने से जीव क्या प्राप्त करता है? प्रतिक्रमण करने का काल कौन सा है? प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में देववन्दन क्यों किये जाते हैं? इत्यादि कई विषयों को सोद्देश्य प्रस्तुत किया है।
इनके सिवाय कायोत्सर्ग के नौ प्रकार, कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष, मुखवस्त्रिका एवं शरीर प्रतिलेखना के पच्चीस-पच्चीस बोल, वन्दना के पच्चीस आवश्यक, वन्दना के बत्तीस दोष, प्रायश्चित्त के दस प्रकार, वन्दना के आठ स्थान, प्रतिक्रमण का फल, प्रतिक्रमण में क्रिया-कर्ता-कर्म, ईर्यापथिक प्रतिक्रमण द्वारा १८२४२० जीवों से मिच्छामि दुक्कडं, रात्रिक प्रतिक्रमण को मन्द स्वर से करना, पाक्षिक क्षमायाचना, छह आवश्यकों की पंचाचार के साथ तुलना आदि ये सभी विषय भी व्याख्यायित हुए हैं। प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची शब्दों को विस्तार से समझाया गया है। इनमें से प्रारम्भ के सात पर्यायवाची शब्दों की
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स्पष्टता के लिए अनुक्रम से मार्ग, प्रासाद, दूध की बहंगी, विषभोजन, दो कन्याएँ, चित्रकार की पुत्री और पतिघातक स्त्री ये सात दृष्टान्त दिये हैं तथा आठवें पर्याय के बोध के लिए वस्त्र एवं औषधि के दो दृष्टान्त दिये गये हैं।
अन्त में प्रशस्ति रूप तीन श्लोकों में यह कहा गया है कि प्रतिक्रमणविधि के हेतुओं को समझते हुए प्रतिक्रमण करने वाला जीव मुक्ति रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करता है इसमें यह भी बताया गया है कि प्रतिक्रमणविधि के हेतुओं का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के बाद जयचन्द्रगणि के द्वारा यह ग्रन्थ रचा गया है साथ ही शास्त्र के विरूद्ध कुछ भी लिखा गया हों तो मिथ्यादृष्कृत दिया गया है। उन्होंने अपने गुरू एवं अपना नाम तथा रचनाकाल का उल्लेख भी किया है।
प्रतिक्रमणवृत्ति कथानक
यह अज्ञातकर्तृक रचना है और अब तक अप्रकाशित है। देला उपाश्रय भंडार अहमदाबाद की लिस्ट में इस प्रति का नामोल्लेख है।
प्रतिक्रमणसूत्र
यह कृति आवश्यकसूत्र के आधार पर रची गई मालूम होती है। इस कृ ति में दो प्रकार की प्रतिक्रमण विधि कही गई है। प्रथम प्रकार साधु-साध्वी से सम्बन्धित है और दूसरा प्रकार श्रावक-श्राविका से सम्बद्ध है।
प्रतिक्रमण का अर्थ है अतीत के जीवन का प्रामाणिकता पूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण करना । मन की छोटी-बड़ी सभी विकृतियाँ, जो किसी न किसी रूप में पाप की श्रेणी में आती हैं उनके प्रतिकार के लिए की जाने वाली क्रिया प्रतिक्रमण है । इस कृति के रचनाकार एवं इसका रचनाकाल हमें ज्ञात नहीं हो पाया है। परन्तु इस कृति पर रची गई वृत्तियाँ, चूर्णियाँ, अवचूरियाँ, और बालावबोध आदि से सम्बन्धित कुछ जानकारियाँ अवश्य उपलब्ध हो पायी हैं वह अधोलिखित है निर्युक्ति - यह माना जाता है कि इस कृति पर भद्रबाहु द्वारा एक निर्युक्ति रची गई है, जिसमें ६१ गाथाएँ हैं।
चूर्णि - यह चूर्णि अज्ञातकर्तृक प्राकृत भाषा में है। इसका रचनाकाल वि. सं. ११६८ है। इस कृति पर एक चूर्णि विजयसिंह द्वारा वि. सं. ११८३ की प्राप्त होती है। वृत्ति - इस कृति पर नौ-दस वृत्तियाँ लिखी गई हैं जिनमें एक वृत्ति श्री पार्श्व के द्वारा वि.सं. ८२१ में, १०६० श्लोक परिमाण में विरचित है। इस कृति पर 'पदवी' नामक वृत्ति तपागच्छीय शालिभद्र के शिष्य नेमि साधु की है, जो वि.सं. ११२२ की रचना है और १५५० श्लोक परिमाण में गुम्फित है। एक वृत्ति हरिभद्रसूरि रचित भी मानी जाती है। इस पर हुम्बड़गच्छीय सिंहदत्तसूरि के द्वारा
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भी एक वृत्ति लिखी गई थी। श्री अकलंकदेव द्वारा 'पदपर्यायमंजरी' नामक वृत्ति है। खरतरगच्छीय जिनहर्षसूरि ने भी वि.सं. १५२५ में वृत्ति लिखी है। इस ग्रन्थ पर तपागच्छीय रत्नशेखरसूरि ने भी टीका लिखी है। इसकी एक वृत्ति शिवप्रभसूरि के शिष्य तिलकसूरि की है। एक वृत्ति गर्गर्षि द्वारा रचित है। इस पर उदयराज ने ३१०० श्लोक परिमाण वृत्ति लिखी है। अवचूरि- प्रस्तुत ग्रन्थ पर रचित दो अवचूरियों की सूचना मिलती है। उनमें से एक अवचूरि कुलमंडन मुनि द्वारा रचित है तथा दूसरी अवचूरि अज्ञातकर्तृक है। बालावबोध- शाहजाकीर्ति ने वि.सं. १७१४ में एक बालावबोध लिखा है।
उपर्युक्त वृत्तियाँ-चूर्णियाँ आदि के नामोल्लेख मात्र से यह स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत कृति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी के प्रतिक्रमणसूत्र
यह कृति' प्राकृत, प्राचीन गुजराती एवं हिन्दी मिश्रित भाषा में है। इसमें स्थानकवासी परम्परा में प्रवर्तित प्रतिक्रमण विधि का क्रमपूर्वक निरूपण किया गया है। इनकी प्रतिक्रमण विधि में १. प्रतिक्रमण स्थापना का पाठ, २. ज्ञानातिचार का पाठ, ३. दर्शन (सम्यक्त्वरत्न) का पाठ, ४. चतुर्विंशतिस्तव का पाठ, ५. पन्द्रह कर्मादान सहित श्रावक के बारह व्रतों और उनके अतिचारों का पाठ, ६. अठारह पापस्थानक आदि के पाठ प्रमुख रूप से बोले जाते हैं।
इस कृति के अन्त में पौसह विधि, देशावकाशिक पौषध ग्रहण करने एवं पारने की विधि, प्रतिपूर्ण पौषध ग्रहण करने एवं पारने की विधि, विविध प्रत्याख्यान पारने की विधि, संवर प्रत्याख्यान की विधि इत्यादि का भी उल्लेख हुआ है। प्रतिक्रमणहेतु
___यह रचना खरतरगच्छीय क्षमाकल्याणगणि की है। इस कृति में प्रतिक्रमण पाठों के क्रम का हेतु एवं प्रतिक्रमण की विधियों के हेतु बताये गये हैं, ऐसा कृति नाम से भी स्पष्ट होता है। हरिसागरगणि भंडार जयपुर की हस्तप्रत सूची में इसका नाम है। प्रतिक्रमणनियुक्ति
यह ६१ गाथाओं में भद्रबाहु द्वारा विरचित है।
' (क) यह पुस्तक सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, बापू बाजार, जयपुर से प्रकाशित है।
(ख) यह वि.सं. २०३७ में अजमेर से भी प्रकाशित हुई है। २ देखें, जिनरत्नकोश पृ. २५६
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प्रतिक्रमणविधिसंग्रह
जैसा कि इस कृति' के नाम से ही स्पष्ट होता है कि इसमें प्रतिक्रमण की विधियों का संग्रह हुआ है। यह कृति अपने आप में बहुउपयोगी है। विद्वद्सन्तों ने इसकी सराहना की है।
इस कृति का सम्पादन पं. कल्याणविजयजी गणि ने किया है। इसमें प्रतिक्रमण की जिन विधियों का संग्रह किया गया है उनके मूलपाठ एवं अर्थपाठ दोनों दिये गये हैं। यह प्रतिक्रमणसंग्रह चार परिच्छेदों में विभक्त है। पहला परिच्छेद- इस परिच्छेद में १. श्रमण सामाचारी और २. आवश्यकचूर्णि के अनुसार प्रतिक्रमण विधि दी गई है। दूसरा परिच्छेद- इसमें तीन प्रकार की प्रतिक्रमण विधियों का उल्लेख किया गया है - १. पाक्षिक चूर्ण्यानुसारी श्रमण प्रतिक्रमण विधि, २. हरिभद्रीय पंचवस्तुक-ग्रन्थोक्त प्रतिक्रमण विधि, ३. गाथा कदम्बकोक्त प्रतिक्रमण विधि तीसरा परिच्छेद- इस परिच्छेद में चार प्रकार की प्रतिक्रमण विधियों का वर्णन हुआ है- १. प्रतिक्रमणगर्भहेतु ग्रथित प्रतिक्रमण विधि, २. श्री पार्श्वऋषिसूरिकृत श्राद्ध प्रतिक्रमण विधि, ३. श्री चन्द्रसूरिकृत सुबोधासामाचारीगत प्रतिक्रमण विधि, ४. पौर्णमिकगच्छ की प्रतिक्रमण विधि। चौथा परिच्छेद- इस प्रकरण में भी चार प्रकार की प्रतिक्रमण विधियाँ कही गई हैं१. आचारविधि सामाचारीगत प्रतिक्रमण विधि, २. जिनवल्लभगणिकृता प्रतिक्रमण सामाचारी, ३. हरिभद्रसूरि रचित यतिदिनकृत्यगत प्रतिक्रमण विधि, ४. जिनप्रभसूरि कृत विधिमार्गप्रपागत प्रतिक्रमण विधि
सुस्पष्टतः इस संग्रहीत कृति के माध्यम से प्रतिक्रमण के प्राचीन और अर्वाचीन दोनों रूप स्पष्ट हो जाते हैं। अन्य विधि-विधानों के सम्बन्ध में भी इस तरह की कृतियाँ प्रकाशित और संशोधित होनी चाहिए ताकि प्रत्येक विधि-विधान का ऐतिहासिक विकास क्रम समग्रतया जाना जा सकें।
हमें जिनरत्नकोश (पृ. २५८-२६०) में से प्रतिक्रमणविधि से सम्बन्धित कुछ रचनाओं की जानकारी प्राप्त हुई हैं, उनमें से कुछैक अप्रकाशित हैं, तो कुछैक अज्ञातकृत हैं तो कुछ अनुपलब्ध हैं। प्रतिक्रमणसंग्रहणी - यह कृति १६६ पद्यों में निबद्ध है।
' यह कृति वि.सं. २०३० श्री मांडवला जैन संघ, मांडवला (राज.) में प्रकाशित है।
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प्रतिक्रमण - यह कृति ६० गाथाओं में निबद्ध है। प्रतिक्रमण - यह रचना गणधर गौतम की मानी जाती है। इसके यथार्थ कर्ता
और काल का कोई निर्देश नहीं मिला है। विशेषावश्यकभाष्य
__ जैन साहित्य में विशेषावश्यकभाष्य' एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें जैन आगमों में वर्णित सभी महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गई है। जैन ज्ञानवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, आचार-नीति, स्याद्वाद, कर्मसिद्धांत आदि सभी विषयों से सम्बन्धित सामग्री का दर्शन इस ग्रन्थ में सहज ही उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें जैन तत्त्व का निरूपण केवल जैन दृष्टि से न होकर इतर दार्शनिक मान्यताओं की तुलना के साथ हुआ है। आचार्य जिनभद्र ने आगमों की सभी प्रकार की मान्यताओं का जैसा तर्कपूर्वक निरूपण इस ग्रन्थ में किया है वैसा अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। यही कारण है कि जैनागमों के तात्पर्य को सम्यक् प्रकार से समझने के लिए विशेषावश्यकभाष्य एक अत्यंत उपयोगी ग्रन्थ है।
मूलतः यह ग्रन्थ आवश्यकसूत्र पर रचा गया है। छह आवश्यकों में से इसमें केवल प्रथम आवश्यक 'सामायिक अध्ययन' से सम्बन्धित नियुक्तियों की गाथाओं का विवेचन किया गया है। यह प्राकृत की पद्यात्मक शैली में निबद्ध है। इस ग्रन्थ में कुल ३६०२ गाथाएँ है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु अत्यन्त व्यापक है।
हमें तो इतना मात्र समझना है कि सामायिक एक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। साधु और गृहस्थ दोनों के लिए अवश्य करने योग्य एक विशिष्ट आराधना है। विधिपूर्वक आचरित करने योग्य एक क्रिया है। साधना का मूल तत्त्व है। इसमें सामायिक विधि उतनी चर्चित नहीं हुई है जितने सामायिक विधि के अन्य तत्त्व हैं। कुछ भी हो इस ग्रन्थ को सूक्ष्म रूप से ही सही विधिपरक मानना होगा।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रवचन को प्रणाम किया है एवं गुरु के उपदेशानुसार सम्पूर्ण चरणगुण (चारित्रगुण) के संग्रह रूप आवश्यक अनुयोग कहने की प्रतिज्ञा की गई है। इसके साथ ही इसमें कहा गया है कि सामायिक आवश्यक रूप विधि का फल, योग, मंगल, समुदायार्थ, द्वारोपन्यास, तद्भेद, निरुक्त,
' यह ग्रन्थ शिष्य हिताख्यबृहद्वृत्ति (मलधारी हेमचन्द्रकृत टीका) सहित- यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, बनारस से वी.सं. २४२७-२४४१ में प्रकाशित हुआ है। इसके अन्य प्रकाशन भी बाहर आये हैं।
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क्रमप्रयोजन आदि दृष्टियों से विचार किया जायेगा । ' इन द्वारों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है १. फलद्वार- इस द्वार में सामायिक आवश्यक रूप अनुयोग का फल बताते हुए कहा है कि ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष होता है। यह सामायिक आवश्यक ज्ञान - क्रियामय है । २. योगद्वार - योग द्वार की व्याख्या करते हुए निर्देश दिया है कि जिस प्रकार वैद्य बालक के लिए यथोचित आहार की सम्मति देता है उसी प्रकार मोक्षमार्गाभिलाषी भव्य जीव के लिए प्रारम्भ में यथोचित प्राथमिक आहार रूप सामायिक आवश्यक का आचरण करना योग्य है। इसमें लिखा है कि गुरू शिष्य के द्वारा पंचनमस्कारमंत्र का अध्ययन करने पर सर्वप्रथम विधिपूर्वक सामायिक का ज्ञान कराता है; उसके बाद क्रमशः शेष श्रुति का भी बोध कराता है, क्योंकि स्थविरकल्प का क्रम उसी प्रकार का कहा गया है । वह क्रम यह है - प्रव्रज्या, शिक्षापद, अर्थग्रहण, अनियतवास, निष्पत्ति विहार और सामाचारीस्थिति।' ३. मंगलद्वार - इस द्वार में मंगल की क्या उपयोगिता है, शास्त्र में मंगल कितने स्थानों पर किस प्रयोजन से होता है, मंगल का अर्थ क्या है, मंगल के भेद, मंगल के प्रकार इत्यादि का वर्णन किया गया है। प्रकारान्तर से मंगल की व्याख्या में नन्दि को भी मंगल कहा गया है। उसके भी मंगल की तरह चार प्रकार कहे हैं । उनमें भावनंदी पंचज्ञान रूप है। आगे पंचज्ञान की विशद विवेचना की गई है। ४. समुदायार्थ- इसमें अनुयोग का अर्थ, आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध, अध्ययन आदि पदों का पृथक्-पृथक् अनुयोग करने की विधि, आवश्यक के प्रकार, आवश्यक के पर्यायवाची, आवश्यक श्रुतस्कन्ध के छः अध्ययनों का अर्थाधिकार कहा गया है । ५-६ द्वारोपन्यास और तभेद द्वार- इन दो द्वारों में सामायिक अध्ययन की विशेष व्याख्याएँ हैं। इसमें सामायिक की विशिष्टता को दर्शाने के प्रयोजन से यह उल्लेख किया है कि जिस प्रकार व्योम (आकाश) सब द्रव्यों का आधार है। उसी प्रकार विधिपूर्वक की गई सामायिक सब गुणों का आधार है। शेष अध्ययन एक तरह से सामायिक के ही भेद हैं, क्योंकि सामायिक दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप तीन प्रकार की होती है और कोई गुण ऐसा नहीं है कि जो इन तीनों से अलग हो । ७. निरूक्त द्वार- इस सातवें द्वार में सामायिक के चार अनुयोग १. उपक्रम, २. निक्षेप, ३. अनुगम तथा ४. नय, इन शब्दों की
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, विशेषावश्यकभाष्य गा. १-२
२ वही गा. ३
३ वही गा. ४
४ वही गा. ५
오
६
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वही गा. ७
वही गा. ७८
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व्याख्या की गई है। ८. क्रम प्रयोजन द्वार- इस द्वार में उपक्रम, निक्षेप, अनुगम एवं नय के क्रम को युक्तियुक्त सिद्ध किया है।' आगे उपोद्घात के रूप में तीर्थ का स्वरूप, सामायिक लाभ, सामायिक के बाधक कारण, व्याख्यान विधि, सामायिक सम्बन्धी द्वार विधि- इस द्वार में उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल, पुरूष, कारण, प्रत्यय, लक्षण- नयसमवतार, अनुमत, किम्कतिविधि, कस्य, कुत्र, केषु, कथम् कियच्चिर,कति, सान्तर, अविरहित, भव, आकर्ष, स्पर्शन, निरूक्ति' का विवेचन इन द्वारों के अन्तर्गत गणधरवाद, आत्मा की सिद्धि के हेतु, जीव की अनेकता, जीव का स्वदेह-परिमाण, जीव की नित्यानित्यता, कर्म का अस्तित्व, कर्म और आत्मा का सम्बन्ध, आत्मा और शरीर का भेद, ईश्वर कर्तृत्व का खंडन, आत्मा की अदृश्यता, वायु और आकाश का अस्तित्व, भूतों की सजीवता, हिंसा-अहिंसा का विवेक, इहलोक और परलोक की विचित्रता, बंध और सिद्धि, निववाद, इत्यादि अनेक विषयों का सयुक्ति सहेतु प्रतिपादन किया गया है।
अन्त में 'करेमिभंते' इत्यादि सामायिकसूत्र के पदों की व्याख्या की गई है। उसमें 'करेमि' पद के लिए करण शब्द का प्रयोग क्रिया (विधि) के अर्थ में किया है करण के नाम-स्थापनादि छह प्रकार कहे हैं। 'भंते' शब्द का अर्थ कल्याण, सुख, निर्वाण आदि किये गये हैं। सामायिक, सर्व, सावद्य, योग, प्रत्याख्यान, यावज्जीव, विविध, करण, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, व्युत्सर्जन आदि पदों का भी सविस्तार विवेचन किया है। अन्तिम गाथा में इस भाष्य को सुनने से जिस फल की प्राप्ति होती है उसकी ओर निर्देश करते हुए कहा गया है कि सर्वानुयोग मूलरूप इस सामायिक के भाष्य को सुनने से परिकर्मित मतियुक्त शिष्य शेष सकल शास्त्रानुयोग के योग्य हो जाता है।
निःसंदेह विशेषावश्यकभाष्य के इस विस्तृत परिचय से स्पष्ट होता है कि आचार्य जिनभद्र ने इस एक ग्रन्थ में जैन विचारधाराओं का सूक्ष्मता के साथ संग्रह किया है। जिनभद्रगणि की तर्कशक्ति, अभिव्यक्तिकुशलता, प्रतिपादनप्रवणता एवं व्याख्यान विदग्धता का परिचय प्राप्त करने के लिए यह एक ग्रन्थ ही पर्याप्त है। सत्यतः विशेषावश्यकभाष्य जैन ज्ञान महोदधि है। जैन आचार-विचार एवं
' विशेषावश्यकभाष्य गा. ६१५-६ २ वही गा. १४८४-५ ३ वही गा. ३२६६-३४३८
• ३४३६-३४७६ वही गा. ३४७७-३५८३ ६ वही गा. ३६०३
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उसके प्रयोजन, फल और विधि के मूलभूत समस्त तत्त्व इस ग्रंथ में संग्रहीत हैं। इसमें दर्शन के गहनतम विषय से लेकर चारित्र की सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
विमलभक्ति
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यह एक संकलित कृति' है। इसमें दिगम्बर परम्परानुसार दैवसिक, रात्रिक एवं पाक्षिकादि प्रतिक्रमण की विधियों का उल्लेख हुआ है। इस कृति की यह विशेषता है कि इसमें प्रतिक्रमण विधि के सभी सूत्र - पाठ अन्वयार्थ और भावार्थ सहित दिये गये हैं। इन सूत्र - पाठों का हिन्दी अनुवाद आर्यिका स्याद्वादमती माताजी ने किया है। इस कृति में साधु एवं श्रावक दोनों प्रकार की प्रतिक्रमण विधियाँ कही गई है।अन्त में ईर्यापथभक्ति, सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, लघुचैत्यभक्ति, श्रीश्रुतभक्ति, श्रीचारित्रभक्ति, श्रीयोगभक्ति, आचार्यभक्ति, पंचमहागुरूभक्ति, शान्तिभक्ति, समाधिभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वर - भक्ति आदि के पाठ उल्लिखित किये हैं।
यह उल्लेखनीय है कि दिगम्बर परम्परा में उक्त भक्तिपाठों का विशेष महत्त्व है ! सामायिक हो या प्रतिक्रमण, पूजा हो या परमात्मदर्शन सभी प्रकार की क्रिया - विधियों में यथानिर्धारित भक्तिपाठ बोले ही जाते हैं। प्रस्तुत संग्रह कई दृष्टियों से उपयोगी है। इसका अपर नाम 'विमलज्ञान प्रबोधिनीटीका' है।
षडावश्यक बालावबोधवृत्ति
षडावश्यक बालावबोधवृत्ति नामक यह ग्रन्थ प्राचीन गुजराती गद्य साहित्य की एक विशिष्ट रचना है। इसके रचनाकार खरतरगच्छ के एक प्रभावशाली तरूणप्रभ नामक आचार्य रहे हैं। खरतरबृहद्गुर्वावली के अनुसार प्रथम जिनचन्द्रसूरि ( मणिधारी दादा) की परम्परा में होने वाले द्वितीय जिनचन्द्रसूरि' इस ग्रन्थ कर्त्ता तरूणप्रभ के दीक्षा गुरू थे। प्रस्तुत ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने अपने कथनों की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु संस्कृत और प्राकृत भाषा में रचित अनेक ग्रन्थों की ६४६ कारिकाएँ एवं गाथाएँ उद्धृत की है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १५ वीं शती का पूर्वार्ध है।
यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार मुनि एवं गृहस्थ के षट् कर्त्तव्यों से सम्बन्धित है। इसकी रचना बाल जीवों अर्थात् जैन धर्म के प्राथमिक स्तर के
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इसका प्रकाशन 'भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वद् परिषद्' ने किया है
२
द्वितीय जिनचन्द्रसूरि, तृतीय दादागुरु नाम से विख्यात जिनकुशलसूरि के चाचा गुरु थे। ३ देखिये, जैन गुर्जर कवियों भा. ६, पृ. २१
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154/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
साधकों को दृष्टि में रखकर की गई है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु तीन अधिकारों में विभक्त है। उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - चैत्यवंदनविधि नामक प्रथम अधिकार - प्रथम अधिकार में नित्यक्रिया रूप प्रातः, मध्याह एवं सायंकाल की चैत्यवंदन विधि का विवेचन है। साथ ही इस सन्दर्भ में निम्न विषयों की चर्चा की गई हैं जैसे- १. श्रावक के इक्कीस गुण, २. जिनदर्शन सम्बन्धी दस त्रिक, ३. मंदिर सम्बन्धी चौरासी आशातनाएँ, ४. चैत्यवंदन के प्रकार, ५. ईर्यापथिक प्रतिक्रमण विधि, ६. इरियावहि, तस्स; अन्नत्थ; लोगस्स; णमुत्थुणं; जावंति; अरिहंतचेइयाणं; पुक्खरवदी सिद्धाणं बुद्धाणं; इत्यादि सूत्रों का विवेचन। ७. कायोत्सर्ग संबंधी दोष, ८. प्रसंगोपात्त सात प्रकार की उपधान विधि भी प्रतिपादित है।
गुरुवंदनविधि नामक द्वितीय अधिकार- इस अधिकार में प्रमुख रूप से गुरु- वंदन विधि चर्चित है। उसके साथ प्रस्तुत विधि से सम्बन्धित ये विषय भी विवेचित हुए हैं जैसे - १. मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन के पच्चीस प्रकार, २. शरीर प्रतिलेखना के पच्चीस प्रकार, ३. वन्दना के पच्चीस आवश्यक, ४. द्रव्यवंदन और भाववंदन का स्वरूप, ५. वन्दना के बत्तीस दोष, ६. वन्दना करने के आठ कारण, ७. वन्दना से होने वाले लाभ, ८. वन्दना के छः स्थान, ६. गुरु की तैंतीस आशातना इत्यादि। प्रसंगानुसार निम्न विषयों पर भी विचार किया गया है यथा- गोचरी के सैंतालीस दोष, भावना के बारह प्रकार, तप के बारह प्रकार, गोचरी गमन का क्रम, प्रायश्चित्त के दस प्रकार, स्वाध्याय के पाँच प्रकार, ध्यान के चार प्रकार, पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ, भिक्षु की बारह प्रतिमाएँ, प्रत्याख्यान के दस प्रकार, काल सम्बन्धी प्रत्याख्यान के दस प्रकार पौरूषीकालज्ञापकयन्त्र, प्रत्याख्यान के बाईस आगार, प्रत्याख्यान की शुद्धि, प्रत्याख्यान का फल इत्यादि। प्रतिक्रमणविधि नामक तृतीय अधिकार - इस अधिकार में अग्रलिखित बिन्दुओं पर विचार किया गया है - १. प्रतिक्रमण के भेद, २. प्रतिक्रमण का समय, ३. सामायिक ग्रहण विधि, ४. सामायिक का फल, ५. पौषध ग्रहण विधि, ६. खरतरगच्छीय परम्परानुसार दैवसिक प्रतिक्रमण विधि, ७. गीताथों द्वारा आचरित दैवसिक प्रतिक्रमण की अवशिष्ट विधि, ८. रात्रिक प्रतिक्रमण विधि, ६. पाक्षिक-चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण विधि, १०. सामायिक पूर्ण करने की विधि, ११. पौषध पूर्ण करने की विधि, १२. प्रतिक्रमण का फल इत्यादि। इस ग्रन्थ के अन्त में अधोलिखित विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। संयम पर्याय की अपेक्षा से
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/155
आगम पढ़ने का अधिकारी, पंचाचार के अतिचार, बारहव्रत के अतिचार, नवतत्त्व का स्वरूप, पाँच प्रकार के ज्ञान आदि।
__यह ग्रन्थ वि.सं. १४११, दीपावली के दिन पूर्ण हुआ था, इस सम्बन्ध में ग्रन्थ की प्रशस्ति में विस्तार के साथ' उल्लेख है। इस ग्रन्थ के साथ 'गौतमस्वामीरास का अस्तित्व भी जुड़ा हुआ है। इस ग्रन्थ के अवलोकन से यह निश्चित होता हैं कि आचार्य तरूणप्रभ जैन ग्रन्थों के गहन अभ्यासी थे। पट्टावली के अनुसार इन्होंने स्वयं श्रीजिनकुशलसूरि के पास ‘स्यादवादरत्नाकर' आदि महान् तर्क ग्रन्थों का अध्ययन किया था। जिनकुशलसरि ने 'चैत्यवंदनकुलक' नामक एक प्राकृत ग्रन्थ पर विस्तृत संस्कृत व्याख्या लिखी थी, जिसके संशोधन में तरूणप्रभसूरि ने अपना सहयोग दिया था इससे प्रभावित होकर इनको जिनकुशलसरि ने 'विद्वत्जन चूडामणि' के रूप में उल्लिखित किया ।
____ यह उल्लेखनीय है कि तरूणप्रभसूरि रचित स्तुति-स्तोत्रादिक अनेक रचनाएँ प्राप्त होती हैं। उनमें स्तम्भन-पार्श्वनाथ स्तोत्र, अर्बुदाचल-आदिनाथ स्तोत्र, देवराजपुर- मंडल आदि जिन स्तवन, जैसलमेर-पार्श्वनाथ स्तवन, जीरावल्ली पार्श्वनाथ विज्ञप्ति, षटपत्तनालंकार- आदिजिन स्तवन, भीमपल्ली- वीरजिनस्तवन, तारंगलंकार- अजितजिन स्तवन आदि हैं। श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति (अपरनाम वृन्दारूवृत्ति)
यह वृत्ति' 'वंदित्तुसूत्र' पर रची गई है। इसकी रचना देवेन्द्रसूरि ने की है। मूल रचना प्राकृत पद्य में है। वृत्ति की रचना संस्कृत गद्य-पद्य में हुई है। इस कृति का लेखनकाल वि.सं. की १४ वीं शती है। इसमें श्रावक की प्रतिक्रमणविधि का प्रतिपादन हुआ है। वस्तुतः 'वंदित्तुसूत्र' का सविस्तार विवेचन किया गया है।
' संवत् १४११ वर्षे दीपोत्सवदिवसे शनिवारे श्रीमदणहिलपत्तने महाराजाधिराज पातसाहि श्रीपिरोजसाहि विजयराज्ये प्रवर्त्तमाने श्रीचन्द्रगच्छालंकार श्रीखरतरगच्छाधिपति श्री जिनचन्द्रसूरिशिष्यलेश श्रीतरुणप्रभ- सूरि श्री मंत्रिदलीयवंशावतंस उक्कुर चाहडसुत परमार्हत ठक्कुर विजयसिंह सुत श्री जिनशासनप्रभावक श्री देवगुर्वाज्ञाचिंतामणिविभूषितमस्तक श्री जिनधर्मकाचकर्पूरपूरसुरभितसप्तधातुपरमार्हत ठक्कुर बलिराजकृत गाढाभ्यर्थनया षडावश्यकवृत्तिः सुगमा बालावबोधकारिणी सकलसत्त्वोपकारिणी लिखिता।। शुभमस्तु ।।। * संयोग की बात वि.सं. १४११ में जिस दीपावली के दिन बालावबोध ग्रन्थ की रचना पूर्ण हुई, उसी दीपावली के दूसरे दिन (वि.सं. १४१२ में) जिनकुशलसूरि के शिष्य विनयप्रभ उपाध्याय द्वारा 'गौतमरास' की रचना की गई। जो प्रायः दीपावली के दूसरे दिन अनेक यति-मुनि तथा श्रावक आदि के द्वारा महामांगलिक स्तुति-पाठ के रुप में पढ़ा-सुना जाता है । ३ इसका प्रकाशन शाह नगीनभाई घोलामाई जेवरी, कोलभाटवीथी २३ मुंबई, वि.सं. १६६८ में
हुआ है
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156/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
ग्रन्थ के प्रारम्भ में वीरप्रभु को नमस्कार करके उपासकों के उपकार के निमित्त अनुष्ठान विधि कहने की प्रतिज्ञा की गई है।
इस कृति में नमस्कारमन्त्र, इरियावहिसूत्र, तस्सउत्तरीसूत्र, अन्नत्थसूत्र, शक- स्तवसूत्र, अरिहंतचेईयाणंसूत्र, चतुर्विंशतिस्तवसूत्र, श्रुतस्तव, सिद्धस्तव, जयवीयरायसूत्र, आलोचनासूत्र, क्षामणासूत्र, प्रतिक्रमणसूत्र आदि की व्याख्याएँ की गई हैं। साथ ही शकस्तव में प्रसिद्ध मेघकुमार का, चैत्यस्तव में प्रसिद्ध दशार्णभद्र का, सिद्धस्तव में गौतम स्वामी का, प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में दामन्नक का, सम्यक्त्व में नरवर्म का, प्राणातिपात आदि बारहव्रतों में क्रमशः यज्ञदेव का, सागराग्निशिख का, परशुराम का, सुरप्रिय का, क्षेमादित्यधरण का, शिवभूतिस्कन्द का, मेघ और सुप्रभ का, चित्रगुप्त का, मेघरथ का, पवनंजय का, ब्रह्मसेन का, नरदेव का धर्मघोष-धर्मयश का दृष्टान्त दिया गया है। इस विवेचन के साथ-साथ वन्दन विधि, प्रतिक्रमण विधि, प्रत्याख्यान विधि का भी निरूपण किया गया है।
श्रमण-आवश्यकसूत्र
यह कृति स्थानकवासी परम्परा से सम्बन्धित है। इसमें श्रमण-श्रमणी की प्रतिक्रमण विधि एवं उसके सूत्र दिये गये हैं। ये सूत्र मूलतः प्राकृत में हैं। यह कृति हिन्दी भाषान्तर के साथ प्रकाशित है। स्थानक परम्परा के अनुसार साधु-साध्वी की प्रतिक्रमण विधि में प्रमुख रूप से जो सूत्र बोले जाते हैं वे ये हैं१. वन्दनसूत्र, २. नमस्कारमंगलसूत्र, ३. ईर्यापथिकसूत्र, ४. कायोत्सर्गप्रतिज्ञासूत्र (तस्स.) ५. आगारसूत्र (अन्नत्थ.), ६. उत्कीर्तनसूत्र (लोगस्स.), ७. शक्रस्तवसूत्र, ८. इच्छामिणंभंतेसूत्र, ६. सामायिकसूत्र (करेमिभंते.), १०. इच्छामिठामिसूत्र ११. ज्ञान-दर्शन एवं चारित्र के अतिचारों का पाठ, १२. अठारह पापस्थानक का पाठ, १३. वांदणासूत्र, १४. चत्तारिमंगल का पाठ, १५. पगामसिज्झायसूत्र, १६. गोचरचर्या (गोचरियाण) १७. प्रतिलेखनासूत्र, १८. तेतीसबोल, १६. तेतीस अशातना, २०. नमोचोवीसाए २१. अरिहंतादि पाँच पदों की भाव वन्दना, २२. अनन्त चौबीसी का पाठ, २३. आयरियउवज्झाय का पाठ, २४. चौराशी लाख जीवयोनि का पाठ, २५. प्रायश्चित्तशुद्धि का पाठ
' यह पुस्तक द्वितीयावृत्ति के रुप में 'सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल बापू बाजार जयपुर' से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/157
स्पष्टतः यह पुस्तक स्थानक परम्परा के साधु-साध्वी वर्ग की प्रतिक्रमण विधि का सम्यक् परिचय प्रस्तुत करती है। इसमें छह आवश्यक रूप प्रतिक्रमण विधि में कौनसे सूत्र, कब बोले जाते हैं? इसका स्पष्ट निर्देश दिया गया है। श्रमणप्रतिक्रमणसूत्र
यह पुस्तक' तेरापंथ परम्परा के साधु-साध्वी की दृष्टि से निर्मित की गई है। इसमें उनकी प्रतिक्रमण विधि वर्णित है। जैन आगमों में एक आगम है 'आवश्यक'। इसका बहु प्रचलित दूसरा नाम है- प्रतिक्रमणसूत्र। ये प्रतिक्रमण के सूत्र सब परम्पराओं में एक रूप से नहीं है। प्राकृत-संस्कृत आदि भाषा भेद के साथ भावना और विधि में भी अन्तर है। लेकिन छह आवश्यक रूप विधि का प्रयोग सभी परम्पराओं में समान ही है। उसमें कहीं कोई अन्तर नहीं है। लोगस्स; इरियावहि; इतना ही नहीं, णमुत्थुणं; करेमिभंते; इत्यादि मूलसूत्र सभी परम्पराओं में यथावत् है। इस पुस्तक में उनकी परम्परानुसार तथा यथाक्रमपूर्वक प्रतिक्रमण विधि का सम्यक् निर्देश उपलब्ध होता है। प्रतिक्रमण में कहे जाने वाले सूत्र प्रायः स्थानकवासी परम्परा के समतुल्य ही है। यह कृति संशोधित मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और भावार्थ सहित प्रकाशित है। स्वाध्यायसमुच्चय
यह पुस्तक सौधर्मबृहत्तपागच्छ (त्रिस्तुतिकगच्छ) की परम्परा से सम्बन्धित है। इस कृति में त्रिस्तुतिकगच्छ की परम्परानुसार श्रावक प्रतिक्रमणादि की विधियाँ निर्दिष्ट हुई हैं। इसकी प्रस्तावना आराधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी लगती है। इसका परिशिष्ट भी विविध विषयों से युक्त हैं। सामान्यतः प्रस्तुत पुस्तक में विधि सहित एवं कुछ अर्थ सहित निम्न विधियाँ उल्लिखित हैं - १. सामायिक ग्रहण विधि, २. रात्रिक प्रतिक्रमण विधि, ३. सामायिक पूर्ण करने की विधि, ४. दैवसिक प्रतिक्रमण विधि, ५. पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि, ६. चातुर्मासिक प्रतिक्रमण विधि, ७. सांवत्सरिक प्रतिक्रमण विधि, ८. छींक दोष निवारण विधि, ६. दैवसिक पौषध विधि, १०. रात्रिक पौषध विधि, ११. संथारा पौरुषी विधि, १२. प्रत्याख्यान पारण विधि १३. उत्कृष्ट देववन्दन विधि, १४. सामान्य देववन्दन विधि, १५. गुरूवंदन विधि, १६. देशावगासिक ग्रहण विधि, १७. देशावगासिक पारण विधि इत्यादि।
' यह सन् १९८३ जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित है।
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158/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
सामायिकसूत्र
यह पुस्तक मूलतः प्राकृत में है। मूल सूत्रों का हिन्दी में अनुवाद किया गया है। यह स्थानकवासी परम्परा से सम्बन्धित हैं। इसमें उनकी परम्परानुसार गुरुवन्दन की विधि, सामायिक ग्रहण की विधि एवं सामायिक पारने की विधि दी गई है। अंत में सामायिक के दोष, सामायिक संबंधी प्रश्नोत्तरी का निरूपण है। सामायिक प्रतिक्रमणसार्थ
___ यह पुस्तक प्राचीन हिन्दी भाषा में प्रकाशित है। इसमें तेरापंथ परम्परा के श्रावक-श्राविकओं की सामायिक एवं प्रतिक्रमण की विधि दी गई है। यह कृति प्रकाशन की दृष्टि से प्राचीन प्रतीत होती है। इस परम्परा के प्रतिक्रमण सूत्र एवं उसकी विधि की चर्चा पूर्व में कर चुके हैं।उनकी परम्परा में प्रचलित स्तवन-सज्झाय-लावणी- अणुकंपा की ढाल, आचार की ढाल, भिक्षुस्वामी चारित्र की तेरह ढाल आदि भी इस पुस्तक में संकलित है।
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अध्याय-5
विविध तप सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
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160/विविध तप सम्बन्धी साहित्य
अध्याय ५ विविध तप सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य-सूची क्र. कृति
कृतिकार कृतिकाल १ अनन्तव्रतोद्यापन
गुणचन्द्र वि.सं. १६३० | २ अनन्तव्रतोद्यापन
गणधरकीर्ति लग.वि.सं. १५-१६ वीं
शती | ३ |अनन्तव्रतोद्यापन
धर्मचन्द्र
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती ४ अनन्तव्रतोद्यापन
नारायण
लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती ५ अनन्तव्रतोद्यापन
रत्नचन्द्र
लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती [६ अनन्तव्रतोद्यापन
शान्तिदास लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती ७ अनन्तव्रतकथा
श्रुतसागर लग. वि.सं. २०-२१
वीं शती ८ अक्षयनिधितपोविधि (हि.) संपा. मंगलसागर वि.सं. २०-२१ वीं
शती ६ एकादशीग्रहणविधि
अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती १०|एकादशी व्रतोद्यापन (सं.)
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती ११ कर्मचूरतपविधि (हि.) संपा. तिलकश्री वि.सं. २०-२१ वीं
शती १२ चैत्रीकार्तिकीपूर्णिमा कवीन्द्रसागरसूरि वि.सं. २०-२१ वीं देववन्दनविधि (हि.)
शती |१३ तपसुधानिधि (हि.) पं. हीरालालदूगड़ वि.सं. २०-२१ वीं
यशकीर्ति
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/161
| १४ तपोरत्नमहोदधि (गु.)
१५ तपोविधिसंग्रह (हि.)
| १६ तपोविधिसंग्रह (हि.)
१७ तपावली (गु.) १८ तपःपरिमल (हि.) | १६ तपफोरम (गु.) २० दशलाक्षणिकव्रतोद्यापन
संपा. भुवनविजय वि.सं. २०-२१ वीं
शती संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं
शती संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं
शती संकलित संकलित संकलित सुमतिसागर लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती ज्ञानभूषण
लग. वि.सं. १६-१७
वीं शती संपा. रत्नसेनविजय वि.सं. २०-२१ वीं
शती संपा. खांतिश्री वि.सं. २०-२१ वीं
२१ दशलक्षणव्रतोद्यापन
२२ देववंदनतपमाला (हि.)
| २३ देववंदनमाला (गु.)
२४|देववंदनमाला (विधि सहित)
संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
२५ नमो नमो नाण दिवायरस (गु.) सं. प्रद्युम्नविजय
शती
| २६ नवपदआराधनाविधि (हि.)
संकलित
.
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
२७ नवपदाराधनाविधि (हि.)
संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
संकलित
२८ नवपद-बीशस्थानक-वर्धमान
आदि तप आराधना विधि गु.) २६ पंचमीव्रतउद्यापन (सं.)
शती
भट्टारक सोमसेन
वि.सं. १६६०
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162/विविध तप सम्बन्धी साहित्य
३०|पंचमीतपग्रहणविधि
संकलित
३१पंचमीतपपारणविधि
संकलित
|३२पंचमीव्याख्यान
अज्ञातकृत
|३३|पंचमीपौषधउद्यापनविधि
हर्षकीर्ति
धनपाल
मानसागर
|३४|पंचमीविधान ३१पौषदशमीमाहात्म्य व
विधि (हि.) ३६|बीशस्थानकतपआराधना
विधि (गु.) ३७ बीशस्थानकतपविधि (हि.) ३८ रोहिणीतपविधि (हि.)
धुरंधरविजय
लग. वि.सं. २०-२१ वीं शती लग. वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती लग. वि.सं. २०-२१ वीं शती विक्रम संवत् १४३२ वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं.२०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती
संशो. मंगलसागर संकलित
३६ लघुसर्व-तपस्याविधि (हि.)
संकलित
| ४० वर्द्धमानतपविधि (हि.)
कवीन्द्रसागरसूरि
| ४१व्रतविधि एवं पूजा (हि.)
ज्ञानमती
४२ सवोत्कर्षसाधनाविधि
कवीन्द्रसागरसूरि
धुरंधरविजय
४३ सिद्धचक्रनवपदआराधना
विधि (गु.) ४४ज्ञानपंचमीसुव्रतविधि (हि.)
संपा. प्र. सज्जनश्री वि.सं. २०-२१ वीं
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/163
अध्याय ५ विविध तप सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
अनन्तव्रतोद्यापन इस नाम की छः कृतियाँ मिलती हैं उनके कर्ता ये हैं -
___एक कृति गुणचन्द्र की है, दूसरी मुनि गणधरकीर्ति की है, तीसरी रचना मुनि धर्मचन्द्रजी की है, चौथी नारायण की है, पाँचवी कृति मुनि रत्नचन्द्र की है
और छठी शान्तिदास की है। इन रचनाओं के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है तथापि कृति नाम से इतना अवश्य ज्ञात होता हैं कि इनमें अनन्तव्रत की समाप्ति के बाद की जाने योग्य उद्यापनविधि का वर्णन हुआ है। अनन्तव्रतकथा
यह कृति दिगम्बर मुनि श्रुतसागरजी की है। इस नाम की दो कृतियाँ और मिलती है १. अनन्तव्रतकथानक-यह अपभ्रंश में है। २.अनन्तव्रतविधानकथाइन कृतियों का विशेष परिचय ज्ञात नहीं हो पाया है पर इतना अवश्य है कि इसमें अनन्तव्रत की विधि एवं उसकी कथा का वर्णन हुआ है। यह व्रत दिगम्बर परम्परा में विशेष प्रचलित है। अक्षयनिधितपो विधि
यह पुस्तक मनि मंगलसागरजी द्वारा संकलित की गई है। यह मूलतः हिन्दी पद्य में है। इसमें अक्षयनिधि तपोनुष्ठान के समय बोले जाने वाले
चैत्यवन्दन-स्तवन- स्तुति दोहे आदि खरतरगच्छीय हरिसागरसूरि द्वारा रचित दिये गये हैं। इसमें अक्षयनिधि तप का माहात्म्य बताने वाली कथा भी दी गई है। एकादशीग्रहण विधि
___ यह कृति अनुपलब्ध है। किन्तु इतना कह सकते हैं कि इसमें मौन एकादशी तप को ग्रहण करने की विधि उल्लिखित हुई है।
' जिनरत्नकोश- पृ. ७ २ वही. पृ. ७ ३ 'श्री पुण्यसुवर्णज्ञानपीठ जयपुर' से वि.सं. २०४४ में प्रकाशित हुई है। * जिनरत्नकोश- पृ. ६१
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164/विविध तप सम्बन्धी साहित्य
एकादशीव्रतोद्यापन
यह रचना' मुनि यशकीर्ति ने संस्कृत में लिखी है। इसमें एकादशीव्रत के उद्यापन की विधि कही गई है। कर्मचूरतप विधि
यह पुस्तक हिन्दी गद्य-पद्य रूप मिश्रित भाषा में हैं। इसका संकलन प्र. तिलकश्रीजी द्वारा किया गया है। यह तप आठ दिवस तक निरन्तर किया जाता है। इस तप में बोलने योग्य चैत्यवन्दन-स्तवन-स्तुति आदि खरतरगच्छीय आचार्य कवीन्द्रसागरजी द्वारा रचित है। चैत्रीकार्तिकीपूर्णिमा-देववन्दनविधि
यह कृति हिन्दी पद्य में है। इसकी रचना खरतरगच्छीय आचार्य कवीन्द्रसागर जी ने की है। इस कृति में मुख्यतः दो प्रकार की विधि वर्णित है १. चैत्रीपूर्णिमा तप विधि- इसमें १० गाथा से लेकर क्रमशः २०, ३०, ४० एवं ५० गाथा तक के चैत्यवन्दन एवं स्तवन दिये गये हैं जिन्हें उस दिन देववन्दन के अवसर पर बोलते हैं। २. कार्तिकपूर्णिमा तप विधि- इस दिन शत्रुजय गिरिराज के पाँच स्थानों की परिकल्पना करके चैत्यवन्दन विधि की जाती हैं। इसमें पाँच स्थान पर बोलने योग्य चैत्यवन्दन- स्तवन-स्तुति आदि का उल्लेख हुआ है। वे पाँच स्थान निम्न हैं - १. तलहटी-मन्दिर २. सिद्धाचलशांति-जिनालय ३. रायणरुखपगला ४. सीमंधर-स्वामी-जिनालय ५. पुण्डरीकस्वामी जिनालय। अन्त में दादा आदिनाथ के दरबार में करने योग्य चैत्यवन्दन विधि के स्तवनादि दिये हैं। तपसुधानिधि
यह पुस्तक हिन्दी भाषा में निबद्ध है। इस पुस्तक का लेखन पं. हीरालाल दूगड़ ने किया है। इस कृति में मूलतः तप संबंधी विधि-विधान निर्दिष्ट किये गये हैं। यह कृति अपनी प्रामाणिकता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
इस कृति में उद्धरण ग्रन्थों के साक्ष्यपाठों को ज्यों का त्यों लिया गया है और प्रायः साक्ष्यपाठों के आधार पर ही तप विधियों का स्वरूप दिया गया है। यह इस कृति की अनूठी विशिष्टता है। प्रस्तुत पुस्तक का अवलोकन करने से ज्ञात होता हैं कि इसमें दी गई अधिकतर तप विधियाँ विधिमार्गप्रपा एवं आचारदिनकर के अनुसार ही वर्णित है। इस तप को करने योग्य विधि
'जिनरत्नकोश- पृ. ६२ २ यह पुस्तक वि.सं. २०२४ में श्राविका मण्डल, साधारण भवन, मद्रास ने प्रकाशित की है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 165
(खमासमण - माला - कायोत्सर्ग - साथिया आदि) के कोष्ठक भी दिये गये हैं। इतना ही नहीं, प्रत्येक तप का उद्देश्य अथवा प्रयोजन भी बताया गया है। वस्तुतः यह पुस्तक तप आराधकों की दृष्टि से मननीय एवं महत्त्वपूर्ण है। इस पुस्तक में कुल १७० प्रकार के तप एवं उनकी विधियाँ विवेचित है। १७० तपों का नामोल्लेख इस प्रकार है
१. इन्द्रियजय तप २. कषायजय तप ३. योगशुद्धि तप ४. धर्मचक्र तप ५-६ लघु- अष्टामिकाद्वय तप ७ कर्मसूदन तप ८. एकसौबीसकल्याणक तप ६.११ ज्ञान - दर्शन - चारित्र तप १२. चांद्रायण तप १३. तीर्थंकर वर्धमान तप १४. परमभूषण तप १५. ऊनोदरिका तप १६. भद्र तप १७. महाभद्र तप १८. भद्रोत्तर तप १६. सर्वतोभद्र तप २० ग्यारहअंग तप २१ द्वादशांग तप २२. चौदहपूर्व तप २३. ज्ञानपंचमी तप २४ श्रुत देवता २५ संवत्सर (वर्षी ) तप २६. संवत्सर तप २७. बारहमासी तप २८. बारहमासी तप २६. आठमासी तप ३०. छहमासी तप ३१. नन्दीश्वर तप ३२. पुण्डरीक तप ( चैत्री पूनम तप ) ३३. समवसरण तप ३४. ग्यारहगणधर तप ३५. एकसौसत्तरजिन तप ३६. नवकार तप ३७. दशविधयतिधर्म तप ३८. गौतमपडिगहा तप ३६. सर्वांगसुन्दर तप ४०. निरुजशिखा तप ४१. सौभाग्यकल्पवृक्ष तप ४२. दमयन्ती तप ४३. आयति जनक तप ४४. अक्षयनिधि तप ४५. अंबा (अंबिका) तप ४६. रोहिणी तप ४७. जिन मातृका तप ४८. सर्वसुख संपत्ति तप ४६. लघुपखवासा तप ५०. अष्टापद पावडी तप ५१. अशोकवृक्ष तप ५२. पंच परमेष्ठी तप ५३. पंचमेरु तप ५४. मुकुट सप्तमी तप ५५. दीपावली तप ५६. अविधवादशमी तप ५७. अष्टकर्मोत्तर - प्रकृति तप ५८. अशुभनिवारण तप ५६. मेरुत्रयोदशी तप ६० पौषदशमी तप ६१. मौन एकादशी तप ६२. दसपच्चक्खाण तप ६३. दारिद्रयहरण तप ६४. सासु-सुख तप ६५. ससुर - सुख तप ६६. पुत्री - सुख तप ६७ पुत्र सुख तप ६८. पति-सुख तप ६६. जेठ - सुख तप ७० देवर - सुख तप ७१. माता- पितासुख तप ७२. कलंक-निवारण तप ७३. लघुसिंहनिष्क्रीडित तप ७४. माणिक्यप्रस्तारिका तप ७५. पद्मोत्तर तप ७६. चतुर्दशी तप ७७ श्रुतदेवता तप ७८. चतुर्विध संघ तप ७६. चतुर्दशी तप ८० सूर्यायण तप ८१. आयंबिलवर्धमान तप ८२. श्रेणी तप ८३. बत्तीस कल्याणक तप ८४. लोकनालि तप ८५ माघमाला तप ८६. लक्षप्रतिपदा तप ८७. मोक्षदंड तप ८८. अमृतअष्टमी तप ८६. अखण्डदशमी तप ६०. परत्रपाली तप ६१. सोपान तप ६२. कर्मचतुर्थ तप ६३. नवकारमंत्र तप ६४. लघु नंद्यावर्त्त तप ६५. अंगविशुद्धि तप ६६. अट्ठाईसलब्धि तप ६७. अष्टप्रवचनमातृ तप ६८ कर्मचक्रवाल तप ६६. आगमोक्तकेवली तप १००. चत्तारि - अट्ठ- दोय तप १०१. श्री ऋषभनाथजी कांतुला तप १०२. कंठाभरण तप
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166/विविध तप सम्बन्धी साहित्य
१०३. क्षीर-समुद्र तप १०४. कोटिशिला तप १०५. पाँचपच्चक्खाण तप १०६. गौतम-कमल तप १०७. घडिया दो घटिया तप १०८. पैंतालीसआगम तप १०६. तेरहकाठिया तप ११०. देवल-इंडा तप १११. नव निधान तप ११२. दसपच्चक्खाण का छोटा तप ११३. नवपदओली तप ११४. नवब्रह्मचर्यगुप्ति तप ११५. निगोदआयुक्षय तप ११६. निजिगीष्ट तप ११७. पदकडी तप ११८. पंचामृत तप ११६. पाँच-छठ तप १२०. पंचमहाव्रत तप १२१. श्री पार्श्वजिनगणधर तप १२२. दूज तप १२३. बड़ा रत्नोत्तर तप १२४. रत्नरोहण तप १२५. बृहत्संसारतारण तप १२६. लघु संसारतारण तप १२७. शत्रुजयमोदक तप १२८. शत्रुजयछठअट्ठम तप १२६. शिवकुमार बेला तप १३०. षट्कायतप १३१. सात सौख्य आठ मोक्ष तप १३२. सिद्धि तप १३३. सिंहासन तप १३४. सौभाग्यसुन्दर तप १३५. स्वर्ग-करंडक तप १३६. स्वर्ण-स्वास्तिक तप १३७. बावनजिनालय तप १३८. अष्टमहासिद्धि तप १३६. रत्नमाला तप १४०. चिंतामणि तप १४१. परदेशी राजा का छट्ठ तप १४२. सुख-दुख महिने का तप १४३. रत्न-पावड़ी तप १४४. सुन्दरी तप १४५. मेरू-कल्याणक तप १४६. तीर्थ तप १४७. प्रातिहार्य तप १४८. पंचरंगी तप १४६. युगप्रधान तप १५०. संलेखना तप १५१. सर्वसंख्या श्रीमहावीर तप १५२. कनकावली तप १५३. मुक्तावली तप १५४. रत्नावली तप १५५. बृहत्सिंह-निष्क्रीडित तप १५६. गुणरत्न-संवत्सर तप १५७. एकावली तप १५८. महाधन तप १५६. वर्ग तप १६०. चौबीसतीर्थकर पंच कल्याणक अष्टालिका तप १६१. श्रीमहावीर तप १६२. अदुःखदर्शी तप १६३. बृहन्नंद्यावत तप १६४. बीसस्थानक तप १६५. चतुर्गति-निवारण तप १६६. चउसट्ठी तप १६७. चंदनबाला तप १६८. छयानवे जिनदेवों का ओली तप १६६. जिनगुण सम्पत्ति तप १७०. जिन जनक तप तपोरत्नमहोदधि
यह एक संकलित कृति है। इस कृति का सम्पादन श्री रामचन्द्रसूरि (डहेलावाला) के शिष्य भुवनविजयजी (भुवनभानुसूरि) ने किया है। यह कृति गुजराती भाषा में निबद्ध है, किन्तु इसके साथ ही प्रायः तप विधियों का स्वरूप संस्कृत पद्य में भी दिया गया है कहीं-कहीं संस्कृत गद्य का भी निर्देश है। यह कृति अपने नाम के अनुसार तप सम्बन्धी विधि-विधानों का सागर है। इसमें प्रायः तप संबंधी सभी विधियों का सम्यक् विवेचन किया गया है। इसे इस विधा का आकर ग्रन्थ कहा जा सकता है।
वस्तुतः इस ग्रन्थ में १६३ तपों का स्वरूप एवं उनकी विधियाँ प्रतिपादित हैं। इसमें अधिकांश तपों की उद्यापन विधि भी लिखी गई है। इस कृति में
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/167
संकलित अक्षयनिधितप, अंबातप, रोहिणीतप, कलंकनिवारणतप, मौनएकादशीतप, ज्ञानपंचमीतप आदि के कथानक भी दिये गये हैं। इस कृति का संकलन जिन ग्रन्थों के आधार से किया गया हैं वे सन्दर्भित ग्रन्थ निम्न हैं :
१. जनप्रबोध २. आचारदिनकर ३. पंचाशक ४. प्रवचनसारोद्धार ५. विधिमार्गप्रपा ६. तपकुलक ७. श्राद्धविधि ८. जैनधर्मसिंधु ६. जपमाला १०. विनोदराम और ११. सेन प्रश्नादि
प्रस्तुत पुस्तक में वर्णित १६५ तपों का नामोल्लेख निम्न है :
१. इन्द्रियजय तप' २. कषाय तप ३. योगशुद्धि तप ४. धर्मचक्र तप ५.६ लघुअष्टाह्मिका द्वय तप ७. कर्मसूदन तप ८. एकसौबीस कल्याणक तप ६.११ ज्ञानदर्शनचारित्र तप १२. चांद्रायण तप १३. तीर्थकरवर्धमान तप १४. परमभूषण तप १५. जिनदीक्षा तप १६. तीर्थकरकेवलज्ञान तप १७. तीर्थकरनिर्वाण तप १८. ऊनोदरिका तप १६. संलेखना तप २०. श्रीमहावीर तप २१. कनकावली तप २२. मुक्तावली तप २३. रत्नावली तप २४. लघुसिंहनिष्क्रीडित तप २५. बृहतसिंह-निष्क्रीडित तप २६. भद्रतप २७. महाभद्र तप २८. भद्रोत्तर तप २६. सर्वतोभद्र तप ३०. गुणरत्न संवत्सर तप ३१. ग्यारहअंग तप ३२. संवत्सर तप ३३. नन्दीश्वर तप ३४. पुंडरीकतप ३५. माणिक्यप्रस्तारिका तप ३६. पद्मोत्तर तप ३७. समसवरण तप ३८. वीरगणधर तप ३६. अशोकवृक्ष तप ४०. एकसौसत्तरजिन तप ४१. नवकार तप ४२. चौदहपूर्व तप ४३. चतुर्दशी तप ४४. एकावली तप ४५. दशविधयतिधर्म तप ४७. लघुपंचमी ४८. बृहत्पंचमी तप ४६. चतुर्विधसंघ तप ५०. घन तप ५१. महाधन तप ५२. वर्ग तप ५३. श्रेणी तप ५४. पाँचमेरु तप ५५. बत्तीसकल्याणक तप ५६. च्यवन तथा जन्म तप ५७. सूर्यायण तप ५८. लोकनालि तप ५६. कल्याणक अष्टाहिका तप ६०. आयंबिलवर्धमान तप ६१. माघमाला तप ६२. श्री महावीर तप ६३. लक्ष प्रतिपद तप ६४. सर्वांगसुन्दन तप ६५. निरुजशिखा तप ६६. सौभाग्य कल्पवृक्ष तप ६७. दमयंती तप ६८. आयतिजनक तप ६६. अक्षय निधि तप ७०. अक्षयनिधि तप (द्वितीय) ७१. मुकुटसप्तमी तप ७२. अंबा तप ७३. श्रुतदेवता तप ७४. रोहिणी तप ७५. तीर्थंकरमातृ तप ७६. सर्वसुखसंपत्ति तप ७७. अष्टापद पावड़ी तप ७८. मोक्षदंड तप ७६. अदुःखदर्शी तप (प्रथम) ८०. अदुःखदर्शी तप (दूसरा) ८१. गौतमपडवा तप ८२. निर्वाणदीपक तप ६३. अमृताष्टमी तप ८४. अखंड दशमी तप ८५. परत्रपाली तप ८६. सोपान तप ८७. कर्मचतुर्थ तप ८८.
' एक से लेकर अठ्यासी तप आचारदिनकर के अनुसार है।
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168 / विविध तप सम्बन्धी साहित्य
नवकार तप (लघु) ८६. अविधवा दशमी तप ६०. बृहन्नंद्यावर्त्त तप ६१. लघुनंद्यावर्त्त तप ६२. बीशस्थानक तप ६३. अंगविशुद्धि तप ६४. अट्ठावीसलब्धि तप ६५. अशुभ निवारण तप ६६. अष्टकर्मोत्तर प्रकृति तप ६७. अष्टप्रवचन तप ६८. अष्टमासी तप ६६. कर्मचक्रवाल तप १०० आगमोक्तकेवलि तप १०१. चत्तारि-अट्ठ-दस-दोय तप १०२. कलंकनिवारण तप १०३. ऋषभनाथजी कांतुला तप १०४. मौनएकादशी तप १०५. कंठाभरण तप १०६. क्षीरसमुद्र तप १०७. कोटिशिला तप १०८. पाँच पच्चक्खाण तप १०६. गौतम कमल तप ११०. घडी - बेघडी तप ११२. चतुर्गति निवारण तप ११३. चउसट्ठी तप ११४. चंदनबाला तप ११५. छियानवे जिन की ओली तप ११६. जिनगुण संपत्ति तप ११७. जिनजनक तप ११८. तेरहकाठीया तप ११६. देवलइंडा तप १२०. द्वादशांगी तप १२१. नवनिधान तप १२२. दसपच्चक्खाण तप (बृहत् ) १२३. दसपच्चक्खाण तप (लघु) १२४. नवपद ओली तप १२५. नवब्रह्मचर्यगुप्ति तप १२६. निगोद - आयु-क्षय तप १२७. निजिगीष्ठ तप १२८. पदकडी तप १२६. दारिद्रय हरण तप १३०. पंचामृत तप १३१. पाँच छट्ठ तप १३२. पंचमहाव्रत तप १३३. पार्श्वजिनगणधर तप १३४. पोषदशमी तप १३५. बीज तप १३६. रत्नोत्तर तप ( बृहत् ) १३७. रत्नरोहण तप १३८. बृहत्संसार तारण तप १३६. लघु संसार तारण तप १४०. ऋषभदेव संवत्सर तप १४१. छहमासी तप १४२. शत्रुंजयमोदक तप १४३. शत्रुंजय छट्ठ - अट्ठम तप १४४. मेरुत्रयोदशी तप १४५. शिवकुमार बेला तप १४६.
काय तप १४७. सात सौख्य आठ मोक्ष तप १४८. सिद्धि तप १४६. सिंहासन तप १५०. सौभाग्यसुंदर तप १५१. स्वर्गकरंडक तप १५२ स्वर्ग स्वस्तिक तप १५३. बावन जिनालय तप १५४. अष्ट महासिद्धि तप १५५. रत्नमाला तप १५६. चिंतामणि तप १५७. प्रदेशी राजा छट्ठ तप १५८. सुख-दुख की महिमा का तप १५६. रत्नपावडी तप १६०. सुंदरी तप १६१. मेरु कल्याणक तप १६२. तीर्थ तप १६३. प्रातिहार्य तप १६४. पंचरंगी तप १६५. युगप्रधान तप
तपोविधिसंग्रह
यह पुस्तक हिन्दी गद्य-पद्य में निबद्ध है। इस पुस्तक में मुख्य रूप से कल्याणकतप विधि दी गई है। प्रसंगोपात्त कल्याणक तप के स्तवन- स्तुति आदि भी दिये गये हैं। पन्द्रह तिथियों के स्तवन भी दिये गये हैं। इसके साथ ही कार्तिकपूर्णिमा तप विधि, १७० जिनाराधनातप विधि एवं मौनग्यारसतप विधि संग्रहित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/169
तपोविधिसंग्रह
यह संकलित कृति' हिन्दी गद्य में है। इसमें कुछ प्रचलित तप दिये गये हैं। इसके साथ आवश्यक अन्य विधि-विधानों का भी उल्लेख हुआ है। विषयवस्तु इस प्रकार है -
१. प्रत्येक तप में प्रत्येक दिन करने की सामान्य विधि २. वर्द्धमानआयंबिल तप विधि ३. इन्द्रियजयतप विधि ४. कषायजयतप विधि ५. मोक्षतप विधि ६. चौदहपूर्वतप आराधन विधि ७. पंचरंगीतप विधि ८. अक्षयनिधितप विधि ६. बीशस्थानकतप विधि १०. क्षीरसमुद्रतप विधि ११. अष्टापदओलीतप विधि १२. रोहिणीतप विधि १३. चत्तारि-अट्ठ-दस-दोय तप विधि १४. चंदनबाला तप विधि १५. सिद्धितप विधि १६. वर्षीतप विधि १७. सभी तपविधियों में प्रत्याख्यान पारने की विधि १८. सभी तपविधियों में देववन्दन करने की विधि तपावली
इस कृति में कुल १६२ तपविधियाँ गुजराती भाषा में संकलित है। इसमें कुछ तपों के प्रयोजन भी बताये गये हैं। यह तप साधकों के लिए बहुमूल्य रचना
तपः परिमल
यह संकलन हिन्दी गद्य में है। इसमें कुल वर्षीतप आदि पन्द्रह प्रकार के तपविधान संग्रहित हैं।' तप-फोरम
यह संकलित अर्वाचीन रचना है। इसमें अठारह प्रकार की तपविधियों का गुजराती भाषा में संग्रह हुआ है। ये वर्तमान परम्परा के प्रचलित तपोनुष्ठान
' यह पुस्तक वि.सं. २०१६ में, श्री जैन श्वे. संघ की पेढी, पीपली बाजार, इन्दौर से प्रकाशित
यह सोमचंद डी. शाह जीवन निवास के सामने पालीताणा से प्रकाशित है। * यह पुस्तक 'ताराचन्द भीमाणी, भीनमाल' ने वि.सं. २०११ में प्रकाशित की है। * यह पुस्तक 'कीर्ति बेन बसंतलाल गाँधी, गाँधी बंगला, झवेर रोड़, मुलुन्ड, मुंबई' में उपलब्ध
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170/विविध तप सम्बन्धी साहित्य
दशलाक्षणिकव्रतोद्यापन
___ इसके रचयिता' अभयनन्दी के शिष्य सुमतिसागरजी है। इसका प्रारम्भ 'विमलगुणसमृद्ध' से किया गया है। इसमें क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दस प्रकार के धर्मों के विषय में एक-एक पूजा और उसके अन्त में समुच्चय जयमाला इस प्रकार विविध विषय आते हैं। जयमाला के अतिरिक्त समग्र ग्रन्थ प्रायः संस्कृत में है। दशलक्षणव्रतोद्यापन
यह रचना ज्ञानभूषणजी की है। इसे दशलक्षणोद्यापन भी कहते हैं। इसमें क्षमा आदि दस धर्मांगों के विषय में जानकारी दी गई है। अनुमानतः इसमें दसधर्मों का व्रत विधान होना चाहिए। देववंदन तपमाला
यह पुस्तक मूलतः हिन्दी पद्य में है। इसका संपादन रामचन्द्रसूरि के वंशज गणि श्री रत्नसेनविजयजी ने किया है। इनके द्वारा रचित अनेक कृतियाँ वर्तमान में उपलब्ध हैं। आज की प्रगतिशील युवापीढ़ी में इनकी पुस्तकों का अच्छा प्रभाव छाया हुआ है। इन्होंने प्रस्तुत पुस्तक में छः प्रकार की देववन्दन विधि उल्लिखित की है। उनके नाम निम्न हैं - १. देववंदन की सामान्य विधि- सभी प्रकार के तपों में करने योग्य देववन्दन विधि २. दीपावली देववंदनविधि ३. ज्ञानपंचमी देववंदनविधि ४. चौमासी देववंदनविधि ५. मौनएकादशी देववंदनविधि ६. चैत्रीपूर्णिमा देववंदनविधि
___ यह कृति तपागच्छ परम्परा से सम्बन्धित है तथा गृहस्थ एवं मुनि दोनों के लिए विशेष उपयोगी है। देववंदनमाला . यह एक संकलित पुस्तिका है। इस पुस्तक की कुछ विधियाँ मुनियों द्वारा रची गई हैं। उनके नामों का उल्लेख आगे करेंगे। यह कृति गुजराती गद्य एवं पद्य मिश्रित भाषा में है। पार्श्वचन्द्रगच्छ की परम्परानुसार किये जाने वाले
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'जिनरत्नकोश पृ. १६८ २ वही पृ. १६८ ३ यह पुस्तक 'दिव्य संदेश प्रकाशन-अंधेरी (ईस्ट) मुंबई' से प्रकाशित है। ४ यह पुस्तक वि.सं. २०३६ में, हंसराज माणेक मोटी खाखर से प्रकाशित हुई है। यह तीसरा संस्करण है।
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विधान ही इसमें वर्णित है । इस पुस्तक में अपने नाम के अनुसार पर्व दिनों एवं प्रचलित तपों में करने योग्य देववंदन विधियाँ ही मुख्यतः दी गई हैं। उनकी परम्परा में दीक्षित प्रवर्तिनी खांति श्री जी के द्वारा इस कृति का लेखन और संकलन किया गया है। तपाराधकों की दृष्टि से यह कृति महत्त्वपूर्ण है। इस कृति में निम्न विधियाँ संकलित हैं -
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 171
१. नवपद ओलीत्तप विधि २. नवपद ओली में करने योग्य देववंदनविधि ३. नवपद ओली में करने योग्य चैत्यवंदनविधि ४. अरिहंतपद आराधनाविधि ५. प्रत्याख्यान पारने की विधि ६. आयंबिल करने के बाद चैत्यवंदन करने की विधि ७. नवपद ओली में दूसरे दिन से लेकर नौ दिन तक करने योग्य विधि ८. बीश स्थानक तप करने की विधि ६. ज्ञानपंचमीतप विधि १०. दीपावली देववंदन' विधि ११. आषाढ़ - कार्तिक एवं फाल्गुन इन तीन माह की शुक्ला चतुर्दशी के दिन देववंदन' करने की विधि १२. अक्षयनिधितप विधि एवं देववंदन विधि १३. वर्धमानतप विधि एवं उसकी देववंदन विधि १४. दस प्रत्याख्यानतप विधि १५. क्षीरसमुद्रत विधि १६. पोषदशमीतप विधि १७ वर्षीतप विधि १८. मेरूत्रयोदशीतप विधि १६. पंचकल्याणक तप विधि २०. चंदनबालातप विधि २१ सिद्धाचल तप विधि २२. अष्टापदतप विधि ।
देववंदनमाला (विधि सहित)
यह एक संकलित कृति है, जो गुजराती में हैं। इसमें तपागच्छीय परम्परा में प्रवर्तित देववंदन की विधियों का उल्लेख हुआ है। मुख्यतः इस कृति में पृथक्-पृथक् पर्व दिनों की अपेक्षा छह प्रकार की देववंदन विधि दी गई है। इसमें भिन्न-भिन्न रचनाकारों की अपेक्षा मौनएकादशी पर्व से सम्बन्धित दो प्रकार की देववंदन विधि, चैत्रीपूनम पर्व से सम्बन्धित दो प्रकार देववन्दन विधि की एवं चौमास पर्व से सम्बन्धित चार प्रकार की देववंदन विधि वर्णित की गई है।
प्रस्तुत कृति में उल्लिखित देववंदन विधियों का नामोल्लेख इस प्रकार है१. दीपावली पर्व के दिन करने योग्य देववन्दन विधि- इसकी रचना ज्ञानविमल सूरि ने की है । २. ज्ञानपंचमी पर्व के दिन करने योग्य देववंदन विधि - यह देववंदन विजयलक्ष्मीसूरि द्वारा निर्मित है। इसमें पाँच ज्ञान का सुन्दर वर्णन किया गया है। साथ ही ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बंधन कैसे होता है? इत्यादि का
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दीपावली के देववंदन हर्षचंद्रगणि विरचित है।
२ चौमासी के देववंदन सागरचंद्रसूरि रचित है।
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यह पुस्तक जैन श्वे. कारखाना पेढी महुडी ता. बिजापुर से प्रकाशित है।
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172 / विविध तप सम्बन्धी साहित्य
निरूपण भी किया गया है । ३. मौन एकादशी पर्व के दिन करने योग्य देववन्दनविधि पहली देववंदन विधि पं. रूपविजयजी द्वारा रचित है। उसमें वर्तमान चौबीसी, अतीत चौबीसी और अनागत चौबीसी के कुल १५० कल्याणक हुये हैं उनका स्वरूप प्रतिपादित है। दूसरी देववंदनविधि - श्रीज्ञानविमलसूरि विरचित
४. चैत्रीपूनम पर्व के दिन करने योग्य देववन्दनविधि- पहली रचना दानविजयजी की है। उसमें शत्रुंजयतीर्थ की महिमा, चैत्रीपूनम की महिमा एवं पाँच करोड़ मुनिवरों के साथ पुंडरीक गणधर ने चैत्री पूनम के दिन सिद्धि पद को प्राप्त किया इत्यादि का वर्णन है। दूसरी देववंदनविधि - श्रीज्ञानविमलसूरि कृत है। ५. चौमासी पर्व के दिन करने योग्य देववंदनविधि- प्रथम रचना पं. श्री वीरविजयजी की है। इसमें २४ तीर्थंकरों के चैत्यवंदन दिये गये हैं साथ ही पहले, सोलहवे, बाईसवें, तेइसवें और चौबीसवें इन पाँच तीर्थंकरों के स्तवन - स्तुति सहित चैत्यवंदन दिये गये हैं। अन्त में शाश्वत - अशाश्वत जिन प्रतिमाओं तथा सिद्धाचल आदि तीर्थों के स्तवन वर्णित हैं। इसके अतिरिक्त चौमासी सम्बन्धी अन्य तीन देववंदन विधियाँ दी गई हैं। वे क्रमशः पं. पद्मविजयजी विरचित, श्री ज्ञानविमलसूरि विरचित तथा बुद्धिसागरसूरि द्वारा विरचित है। ६. एकादश गणधर देववंदन विधि- ये देववंदन श्री ज्ञानविमलसूरि ने बनाये हैं। इसमें चरम तीर्थाधिपति श्री महावीर स्वामी के ग्यारह गणधरों का विवेचन है।
इसमें कहा गया है कि ज्ञानपंचमी का देववंदन कार्तिकसुदि पंचमी, चौमासी देववंदन कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी, फाल्गुन शुक्ला चतुर्दशी तथा आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी ऐसे वर्ष में तीन बार, मौनएकादशी का देववंदन मिगसरशुक्ला एकादशी, चैत्रीपूनम का देववंदन चैत्रशुक्ला पूर्णिमा तथा दीपावली का देववंदन आसोजकृष्णा अमावस्या के दिन किये जाते हैं। ये देववंदन उपाश्रय में समुदाय के साथ किये जाते हैं।
निष्कर्षतः यह कृति देववंदन विधि की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । तपागच्छीय परम्परा में ये देववंदन विधियाँ विशेष रूप से प्रचलित एवं प्रवर्तित हैं। नमो-नमो नाण दिवायरस्स
यह कृति' ज्ञान पंचमी की आराधना विधि से सम्बन्धित हैं तथा गुजराती गद्य-पद्य में निर्मित है। इसका आलेखन पं. प्रद्युम्नविजय गणि ने किया है। वस्तुतः यह एक संकलित एवं संपादित कृति हैं। ज्ञानपंचमीतप आराधना विधि की कई पुस्तकें प्रकाशित हुई है किन्तु इसकी अपनी मूल्यवत्ता है।
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यह वि.सं. २०४७ में, श्री श्रुतज्ञान प्रसारक सभा, अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है।
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इसमें न केवल ज्ञानपंचमीतप विधि का ही वर्णन है अपितु कई ज्ञानाष्टक, ज्ञानपद, ज्ञानपूजा, ज्ञानाचारविषयक कथानक इत्यादि विपुल सामग्री समाविष्ट हैं। अब तक हमें इस प्रकार की यही एक मात्र कृति देखने में आई हैं, जिसमें ज्ञानाराधना की आवश्यक सोमग्री का भी संकलन हुआ है। ज्ञानाराधकों को इस कृति का अवश्य अवलोकन करना चाहिए। इस पुस्तक के आधार पर ज्ञानपद की सम्यक् प्रकार से आराधना और पूजा की जा सकती है। इस कृति की विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार है- १. ज्ञानपंचमीतप विधि २. आठ प्रकार के ज्ञानाचार का स्वरूप एवं उनके कथानक' ३. ज्ञानाष्टक अर्थ युक्तयशोविजयजीकृत ४. ज्ञानाष्टक अर्थ युक्त हरिभद्रसूरिकृत ५. श्री ज्ञानपंचमीपूजारूपविजयजीकृत ६. बीशस्थानक पूजा में से ज्ञानपद पूजा - विजयलक्ष्मीसूरिकृत ७. श्री बीशस्थानक पूजा में से तीसरी ज्ञानपद पूजा - आत्मारामजीकृत ८. श्री नवपद पूजा में से ज्ञानपद पूजा- यशोविजयजी कृत पद्मविजयजीकृत, आत्मारामजीकृत, पं. गंभीरविजयजीकृत ६. पिस्तालीस आगम की पूजा में से ज्ञान पूजा का गीतश्री वीरविजयजी कृत १०. ज्ञानपंचमी का चैत्यवंदन - स्तवन - स्तुति - सज्झाय आदि । ११. श्री सौभाग्यपंचमी के देववन्दन का अर्थ इसमें पाँच ज्ञान के चैत्यवन्दन - स्तवन- स्तुति आदि आते हैं। १२. ज्ञानपंचमीतप उद्यापन विधि एवं उद्यापन में रखने योग्य उपकरणों की सूची ।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 173
निष्कर्षतः यह कृति ज्ञानाराधकों की दृष्टि से अमूल्य एवं अनुपम है। भले ही यह कृति प्रकाशन की दृष्टि से अर्वाचीन हों, परन्तु इसकी सामग्री प्राचीन आचार्यों एवं मुनिप्रवरों द्वारा रचित है।
नवपदआराधना विधि
यह कृति हिन्दी गद्य-पद्य में है। यह भी एक संकलित रचना है। इसमें नवपद आराधना-विधि का विधिवत् निरूपण हुआ है। यह कृति आराधकों की दृष्टि से उपयोगी प्रतीत होती है। इसमें नवपद की आराधना विधि को लेकर निम्न विषय चर्चित हैं हु
१. नवपद ओली के नौ दिनों में करने योग्य आवश्यक क्रियाओं की सूचनाएँ २ . प्रथम दिन - अरिहंतपद की आराधना - विधि ३. द्वितीय दिन सिद्धपद की आराधना-विधि तृतीय दिन - आचार्यपद की आराधना - विधि ५. चतुर्थ दिन उपाध्यायपद की आराधना - विधि ६. पंचम दिन ७. षष्टम दिन - दर्शनपद की आराधना - विधि ८.
४.
साधुपद की आराधना-विधि
सप्तम दिन
ज्ञानपद की
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' ये कथानक 'आचारप्रदीप' ग्रन्थ में से उद्धृत किये गये हैं ।
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1
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174 / विविध तप सम्बन्धी साहित्य
आराधना-विधि ६. अष्टम दिन - चारित्रपद की आराधना - विधि १०. नवम दिन तपपद की आराधना - विधि 99. नवपद मंडल रचना विधि १२. पारणा दिवस विधि १३. नवपद निमित्त कायोत्सर्ग विधि १४. नवपद देववन्दनविधि १५. प्रत्याख्यान पारने के पूर्व और पारने के पश्चात् करने योग्य विधि
नवपदाराधना-विधि
यह कृति' मुख्यतः हिन्दी पद्य में है। कुछ पद प्राकृत एवं संस्कृत में रचित हैं। इस कृति का संकलन साध्वी द्वय ने किया है। इसमें पृथक्-पृथक् चार प्रकार की नवपद विधियां दी गई हैं। प्रथम नवपद चैत्यवन्दनविधि - श्री देवचन्द्र जी महाराज कृत है। द्वितीय नवपद चैत्यवन्दनविधि पाठक प्रवर चारित्रनन्दी गणि विरचित है। तृतीय नवपद चैत्यवन्दनविधि - उपाध्याय मणिप्रभसागर जी रचित है । और चतुर्थ नवपद चैत्यवन्दनविधि - प्रवर्त्तिनी सज्जन श्रीजी द्वारा निर्मित है। इसके अतिरिक्त अन्त में नवपद से सम्बन्धित अन्य चैत्यवन्दन, स्तुति, स्तवनादि दिये गये हैं। यह कृति खरतरगच्छीय परम्परा के अनुसार संकलित की गई है।
उक्त नाम की एक अन्य कृति भी है उसमें नवपद विषयक अनेक रचयिताओं की चैत्यवन्दन विधियाँ संग्रहित हैं । सर्वप्रथम देवचन्द्रजीकृत स्नात्रपूजा विधि दी गई हैं। उसके बाद श्री ज्ञानविमलसूरि, उपा. देवचन्द्रजी एवं उपा. यशोविजयजी द्वारा रचित नवपद चैत्यवन्दन विधियां दी गई है। उसके बाद पाठक प्रवर हीरधर्मगणि विरचित चैत्यवन्दनविधि और पाठक प्रवर चारित्रनन्दीगणि रचित चैत्यवन्दन विधि है ।
नवपद - बीशस्थानक - वर्धमान आदि तपआराधनाविधि
यह संकलित कृति गुजराती गद्य-पद्य में निबद्ध है। इसमें कई प्रकार के प्रचलित तप दिये गये हैं। श्री नवपदतप, बीशस्थानकतप, श्री वर्धमानतप आदि का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है। श्री नवपद के नौ दिनों की पृथक्-पृथक् विधि कही गई हैं। इसी प्रकार बीशस्थानक तप के बीस पदों की अलग-अलग विधि बतायी गयी हैं। इसमें कुल १४ प्रकार के तप दिये हैं। इसके साथ ही तपाराधना की आवश्यक अंग (क्रिया) रूप कुछ विधियाँ भी वर्णित है वीरविजयजी एवं देवचंद्रजी कृत स्नात्रपूजा भी संकलित है । '
२
9
यह कृति कलाकार स्ट्रीट, बड़ा बाजार कोलकाता से प्रकाशित है।
२
यह पुस्तक ‘श्रावक अमृतलाल पुरुषोत्तमदास अहमदाबाद से सं. १६६५ में प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/175
पंचमीतपविधि
यह तप जैन धर्म की सभी परम्पराओं में प्रचलित एवं मान्य है। ज्ञान का क्षयोपशम करने के लिए इस तप की आराधना प्रायः सभी जन करते हैं। जिनरत्नकोश (पृ. २२६-२२७) में पंचमीतप से सम्बन्धित निम्न कृतियों का उल्लेख हुआ है - १. पंचमीव्रतउद्यापन- यह रचना संस्कृत में भट्टारक सोमसेन की है। २. पंचमीतपग्रहण विधि ३. पंचमीतप पारण विधि ४. पंचमीव्याख्यान- यह अज्ञातकर्तृक है ५. पंचमी पौषध उद्यापन- यह रचना रामकीर्ति के शिष्य मुनि हर्षकीर्ति की है। ६. पंचमी विधान- यह कृति धनपाल ने वि.सं. १४३२ में लिखी है। पौषदशमीमाहात्म्य व विधि
प्रस्तुत पुस्तक' हिन्दी गद्य में है। पौषदशमी कथा का हिन्दी भाषान्तर खरतरगच्छीय आनन्दसागरसूरि जी के शिष्य मुनिसागरजी ने किया है। इसमें पौषदशमी की कथा का सुन्दर वर्णन किया गया है। इसके साथ ही पौषदशमीव्रत करने की विधि भी कही गई हैं। अन्त में चौदहपूर्व तपस्या की विधि वर्णित है। बीशस्थानकतप-आराधना-विधि
यह पुस्तक मुख्यतः गुजराती गद्य में है। इस कृति का लेखन-संपादन श्री महायशसूरीजी ने किया है। यद्यपि बीशस्थानकतप विधि की अनेक पुस्तकें बाहर आई हैं किन्तु उनमें यह आराधकों की दृष्टि से विशिष्ट स्थान रखती है।
इस कृति में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है- १. बीशस्थानक तप की महिमा तथा विधि २. बीशस्थानक के बीस पदों का गुणना (जाप) ३. बीशस्थानक तप की आराधना विधि, इस तप में आराधना करने योग्य बीस पदों के नाम इस प्रकार हैं- १. अरिहंतपद २. सिद्धपद ३. आचार्यपद ५. स्थविरपद ६. उपाध्यायपद ७. साधुपद ८. ज्ञानपद ६. दर्शनपद १०. विनय पद ११. चारित्रपद १२. ब्रह्मचर्यपद १३. क्रियापद १४. तपपद १५. गौतमपद १६. जिनपद १७. संयमपद १८. अभिनवज्ञानपद १६. श्रुतपद और २०. तीर्थपद। इसमें इन बीस पदों की आराधना विधि का सविस्तृत विवेचन हुआ है। ४. बीशस्थानक तपाराधना में उपयोगी चैत्यवंन-स्तवन-स्तुति संग्रह ५. बीशस्थानक तप की देववंदन विधि ६. प्रत्याख्यान पारने की विधि ७. बीशस्थानक तप की पूर्णाहूति निमित्ते उद्यापन विधि
' यह कृति वी.सं. २४५३ में जैनबंधु ग्रन्थमाला इन्दौर से प्रकाशित हुई हैं।
यह कृति श्री लाघुभाई चत्रभुज भणसाली, जामनगर वालों ने वि.सं. २०५४ में प्रकाशित की
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176 / विविध तप सम्बन्धी साहित्य
बीसस्थानकतपविधि
यह कृति' मुनि मंगलसागरजी द्वारा संशोधित की गई है। यह पुस्तक हिन्दी गद्य में है। इसमें विस्तारपूर्वक एवं प्रत्येक पद की महिमा सहित बीसस्थानक तप की विधि चर्चित हुई है।
रोहिणीतपविधि
यह भी एक संकलित पुस्तिका है। यह हिन्दी पद्य में निबद्ध है। यह तपाराधना वासुपूज्य स्वामी के जन्मादि पाँच कल्याणक जिस रोहिणी नक्षत्र में हुए, उससे सम्बन्धित है। इस पुस्तक के अन्त में 'रोहिणी' माहात्म्य को बताने वाला . कथानक भी दिया गया है।
लघुसर्व-तपस्याविधि
यह संकलित पुस्तक मुख्यतः हिन्दी पद्य में निबद्ध है। इसमें निम्न तप विधियों का संकलन हुआ है- १. ज्ञानपंचमी तप विधि, २. कार्तिक पूर्णिमा तप विधि ३. चैत्रीपूर्णिमा तप, ४. बीशस्थानक तप, ५. पंचकल्याणक तप, ६. वर्षीतप, ७. छमासी तप विधि, ८. सोलीया तप ६. पखवासा तप १०. चान्द्रायण तप, इसके अतिरिक्त अल्प दिनों की संख्या वाले ११. तीर्थंकरवर्द्धमान तप १२. २८ लब्धि तप १३. चौदहपूर्व तप १४. इन्द्रियजय तप १५. कर्मसूदन तप १६. समवसरण तप १७. पैंतालीस आगम तप १८. दसयतिधर्म तप १६. पंचपरमेष्ठी तप २०. नंदीश्वर तप २१. रोहिणी तप आदि ।
इस पुस्तक के अन्त में आवश्यक एवं उपयोगी स्तुति-स्तवनादि का संकलन भी किया गया हैं।
वर्द्धमानतपविधि
प्रस्तुत पुस्तक हिन्दी पद्य में है। इसमें वर्द्धमान तप के समय बोले जाने योग्य चैत्यवन्दन-स्तवनादि श्री कवीन्द्रसागरसूरि रचित हैं। इस तप में क्रमशः १०० आयंबिल तक चढ़ा जाता हैं। यह तप सर्वप्रथम श्री चन्द्रराजा ने किया था । वर्तमान में इस तप का प्रचलन तपागच्छ परम्परा में सर्वाधिक है।
9
श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार - सूरत ने वि.सं. २००४ में, प्रकाशित की है। से प्रकाशित हुई है।
२ वि.सं. २००८
में जयपुर
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 177
व्रतविधि एवं पूजा
यह पुस्तक' दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित हैं। इस कृति में दी गई विधियों एवं पूजाओं की रचना ज्ञानमती माताजी ने की है। यह कृति हिन्दी पद्य में है। इसमें मन्त्रों का प्रयोग बहुलता से हुआ है । इस कृति की विषयवस्तु पढ़ने से ज्ञात होता है कि इसमें वर्णित विधान तथा पूजन गृहस्थ साधकों को दृष्टि में रखकर लिखे गये हैं। प्रस्तुत कृति में निम्न पूजा विधियाँ उल्लेखित हुई हैं - १. नमस्कार महामन्त्र की पूजा विधि २. जिनगुणसंपत्तिव्रत-पूजाविधि ३. वासुपूज्य पूजाविधि ४. पंचपरमेष्ठी की पूजाविधि ५. सप्तपरमस्थान की पूजाविधि ६. णमोकार के पैंतीसी व्रत की विधि ७. जिनगुणसंपत्ति व्रत विधि एवं कथा ८. रोहिणी व्रत की विधि ६. सप्तपरमस्थान की विधि
स्वोत्कर्षसाधनाविधि
यह संकलित पुस्तिका' है। इसमें 'ज्ञानसार' सानुवाद दिया गया है। साथ ही श्री वर्धमान तप, समवसरण तप और कल्याणक तप की विधियाँ दी गई हैं। इसमें कृति नाम के अनुरूप विषयों का संकलन हुआ है। 'ज्ञानसार' आत्म उत्कर्ष की मुख्य रचना है। शेष तप विधियाँ भी आत्मशुद्धि के लक्ष्य से की जाती हैं। इन तपाराधनाओं के समय बोले जाने वाले चैत्यवन्दन, स्तुति, स्तवनादि कवीन्द्रसागरसूरि रचित दिये गये हैं। सिद्धचक्र-नवपद-आराधना विधि
यह कृति गुजराती पद्य में है। इसका आलेखन मुनि धुरंधरविजयजी ने किया है। यह कृति तीन खंडों एवं दस भागों में विभक्त हैं। नवपद सम्बन्धी चित्र भी दिये गये हैं। इसमें अपने नाम के अनुसार सिद्धचक्र नवपद आराधना विधि का उल्लेख ही नहीं है अपितु पद्मविजयजी, सकलचंद्रगणि, पं. वीरविजयजीकृत पूजाएँ भी वर्णित हैं। प्रथम खंड नवपद की आराधना विधि, स्वरूप, आवश्यक विधान आदि से सम्बन्धित है। इसमें प्रत्येक पद का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है तथा यह खंड दस भागों में विभक्त है द्वितीय खंड एवं तृतीय खंड पूजाविधि से युक्त है। इसमें नवपद के चैत्यवन्दन-स्तवन-सज्झाय- स्तुति आदि का भी संकलन किया गया है ।
१
इस कृति का प्रकाशन सन् २००२ में, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर से हुआ है । यह इसका तेरहवाँ संस्करण है।
२ प्र. श्राविकासंघ, मद्रास, वि.सं. २०२२
३ यह कृति बालुभाई रुगनाथ, जमादारनी शेरी, भावनगर' से वि.सं. २००५ में प्रकाशित हुई है।
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178 / विविध तप सम्बन्धी साहित्य
नवपद आराधना विधि की कई पुस्तकें प्रकाशन में आई हैं- किन्तु यह कृति अनेक दृष्टियों से विशेष उपयोगी लगती है- इसमें नवपदों के नौ चित्र दिये गये हैं, नवपदों का वर्ण, ध्यान, महत्त्व आदि की अपेक्षा से विवेचन किया गया है। साथ ही इसमें नवपद की आराधना क्यों ? इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
स्पष्टतः यह कृति विशुद्ध आराधक वर्ग की अपेक्षा अति महत्त्वपूर्ण हैं। ज्ञान-पंचमी-सुव्रत-विधि
यह पुस्तक' मुख्य रूप से हिन्दी पद्य में गुम्फित है तथा खरतरगच्छीय प्रवर्त्तिनी सज्जन श्री जी द्वारा संकलित की गई है। प्रस्तुत पुस्तक में 'ज्ञानपंचमी तप' करने से सम्बन्धित निम्न विधियाँ दी गई हैं १. ज्ञान ग्रन्थ की स्थापना-विधि २. ज्ञान के प्रमुख साधनों की पूजा विधि ३. ज्ञानपंचमीतप की विधि ४. ग्यारहअंगसूत्र की सज्झाय ( स्वाध्याय) ५. ज्ञानपंचमीतप पूर्ण होने पर उद्यापनादि की विधि ६. सर्व तपस्या ग्रहण करने की विधि ७. सर्वतप पारणविधि अन्त में ज्ञान का माहात्म्य प्रकट करने के लिए वरदत्त - गुणमंजरी का कथानक प्रस्तुत किया गया है।
***
9
यह पुस्तक ‘पुण्यसुवर्णज्ञानपीठ जयपुर से वि.सं. २०२२ में प्रकाशित हुई है।
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HEREFERE
अध्याय-6
संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
25- 30
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180/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
अध्याय ६ संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य-सूची क्र. कृति
कृतिकार
कृतिकाल १ अनुयोगविधि
अज्ञातकृत लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती २ आचारविधि (सं.) अज्ञातकृत वि.सं. १३५२ ३ आचारविधि
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. ११-१२
वीं शती ४ आचारविधि
अज्ञातकृत लग. वि.सं. १३-१४
वीं शती ५ आचारविधि
अज्ञातकृत लग. वि.सं. १२-१३
वीं शती ६ आचारविधि
सुन्दरसूरि लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती ७ आचारविधि
अभयदेवसूरि लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती ८ आचारदिनकर (सं.) वर्धमानसूरि वि.सं. १४६३ ६ ओघनियुक्ति
आर्य भद्र वि.सं. २-५ वीं शती १० उपस्थानविधि शिवनिधानगणि लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती ११|उपासक संस्कार (सं.) पद्मनन्दि
लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती १२ उपधान स्वरूप
देवसूरि
लग. वि.सं. १४-१७ वीं शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/181
| १३ उपधानविधि
१४ उपधान पौषध विशेष
विधि १५ उपाध्यायपदोपस्थान
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १४-१८
वीं शती चक्रेश्वरसूरि लग. वि.सं. १३-१४
वीं शती अज्ञातकृत लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती पं. कंचनविजय वि.सं. २०-२१ वीं
शती सं. कान्तिविजयगणि वि.सं. २०-२१ वीं
१६ उपधानविधि तथा
पोसहविधि (गु.) १७|उपधानविधि (गु.)
शती
१८ उपधानविधान (गु.)
विजयदक्षसूरि
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
|१६|उपधान स्वरूप (गु.) धीरजलाल टोकरशी वि.सं. २०-२१ वीं
शाह
शती २० उपधानप्रकरण (प्रा.)
लग. वि.सं. १४-१७
वीं शती २१जैन संस्कार रीति रिवाज सं. एम.पी.जैन वि.सं. १६६७
एवं जैन विवाह विधि २२जैन विवाह पद्धति आ. जिनसेन वि.सं. ६ वीं शती | २३जैन विवाह पद्धति अज्ञातकृत लग. वि.सं. १८ वीं
शती | २४ जैन विवाह पद्धति संकलित
वि.सं.२०-२१वीं शती २५ जैन विवाह पद्धति संक. हंसराज शास्त्री वि.सं. २०-२१ वीं
शती २६|दीक्षा-बड़ी दीक्षादि विधि अचलगच्छीय लग. वि.सं. २०-२१ संग्रह (प्रा.)
वीं शती
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182 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
२७ दीक्षाविधि तथा व्रतविधि संकलित
(प्रा.गु.)
२८ दीक्षाविधि
२८ दीक्षाविधि (सं.)
३० दीक्षायोगविधि (गु.)
३१ द्वादशव्रतोच्चारणविधि (प्रा.) अज्ञातकृत
३५ नन्दीमंगलविधि
३६ नन्दीयोगविधि (प्रा.)
३७ नन्दी व्रतोच्चारविधि
परमानन्द
३२ द्वादशव्रतपूजा विधान अज्ञातकृत
३३ धर्मबिन्दुप्रकरण (सं.)
हरिभद्रसूरि
३४ नन्दीविधि
अज्ञातकृत
संशो. आनन्दसागर वि.सं. २०-२१ वीं शती
सं. शान्तिविमलगणि वि.सं. २०-२१ वीं शती
अज्ञातकृत
अज्ञातकृत
अज्ञातकृत
३८ निर्वाणकलिका (सं.)
पादलिप्तसूरि
३६ पंचसूत्र
अज्ञातकृर्त
४० पधारो पौषध करीये (गु.) संकलित
४१ पंचवस्तुक (प्रा.)
हरिभद्रसूरि
लग. वि.सं. २०-२१
वीं शती
लग. वि.सं. १८ वीं शती
लग. वि.सं. १५ वीं
शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
८ वीं शती
लगभग १६-१७ वीं शती
लग. वि.सं. १६-१७
वीं शती
वि.सं. १५२६
लग. वि.सं. १६-१७
वीं शती
वि.सं. ११ वीं शती
वि.सं. ८ वीं शती
लग. वि.सं. २०-२१
वीं शती
वि.सं. की८ वीं
शती
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४२ पंचस्थानक
४३ पंचाचारकुलक (प्रा.)
४४ पंचाशकप्रकरण (प्रा.) ४५ पंचांगुलिविधान
४६ पोसहविधि (गु.)
४७ पोसहिय पायच्छित सामायारी (प्रा.)
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 183
हरिभद्रसूरि (?)
अज्ञातकृत
हरिभद्रसूरि
अज्ञातकृत
अज्ञातकृत
४८ पौषधप्रकरण
मुनि जयसोम
४६ पौषधविधिप्रकरण (प्रा.) वल्लभसूरि
५० पौषधविधिप्रकरण
चक्रेश्वरसूरि
५१ पौषहविहिपयरण
५२ प्रव्रज्याविधानकुलम् (प्रा.) श्रुतधरआचार्य
५३ बृहद्योगविधि (गु.)
देवेन्द्रसागरसूरि
५४ भट्टारकपदस्थापनाविधि
(प्रा.सं.) ५५ मन्त्रदीक्षा
सं. प्रतापविजयगणि वि.सं. २०-२१ वीं
शती
देवभद्र
अज्ञातकृत
संकलित
लग. वि.सं. ८ वीं
शती
लग. वि. सं. १२ वीं
शती
वि.सं. ८ वीं शती
लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती
लग. वि.सं. १५ वीं
शती
वि.सं. १६४३
लग. वि. सं. १२ वीं
शती
लग. वि.सं. १३-१४ वीं शती
लग. वि.सं. १३-१४
वीं शती
लग. वि.सं. १३ वीं
शती
लग. वि.सं. २०-२१ वीं शती
लग. वि. सं. १४-१५
वीं शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
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184 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
५६ योगविधि
५७ योगविधि
५८ योगविधि
५६ योगविधि
६० योगविधि
६१ योगविवरण
६२ रात्रिपौषधविधि
६३ विहिमग्गप्पवा
(विधिमार्गप्रपा) (प्रा.)
६४ विधिसंग्रह (गु.)
६५ सप्तोपधानविधि (सं.) ६६ सम्मत्तुपायणविहि (सम्यक्त्वोत्पादनविधि)
६७ सामाचारीसंग्रह (सं.)
इन्द्राचार्य
अजितदेव
अज्ञातकृत
शिवनन्दिगणि
अज्ञातकृत
यादवसूरि
अज्ञातकृत
जिनप्रभसूरि
प्रमोदसागरसूरि
सं. मुनिमंगलसागर
चन्द्रसूरि
नरेश्वरसूरि
६८ सामाचारीप्रकरण (प्रा.सं.) अज्ञातसूरि
६६ सामाचारी (सं.)
तिलकाचार्य
७० सुबोधासामाचारी (प्रा.) चन्द्रसूरि
लग. वि.सं. १३-१४
वीं शती
वि.सं. १२७३
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
लग. वि. सं. १७-१८
वीं शती
लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती
वि.सं. १३६३
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. की १६६७
लग. वि. सं. १० वीं
शती
लग. वि. सं. १४ वीं
शती
वि.सं. १७ वीं शती
लग. वि.सं. १३ वीं
शती
लग. वि.सं. १३ वीं
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/185
अध्याय ६ संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
अनुयोगविधि
यह कृति अप्रकाशित है। हमें प्राप्त नहीं हुई है। जिनरत्नकोश के आधार पर यह 'अनन्तनाथ मंदिर कच्छी ओसवाल दशा, आंचलगच्छ मांडवी, मुंबई' के ज्ञान भंडार में उपलब्ध है। अनुयोग का अर्थ है- सूत्र, अर्थ एवं सूत्रार्थ का प्रतिपादन करना। सम्भवतः इसमें वाचना देने की विधि का उल्लेख होना चाहिए।' आचारविधि - इस नाम की छः कृतियाँ देखी जाती है। आचारविधि - यह संस्कृत में है और इसकी रचना वि.सं. १३५२ में हुई है। आचारविधि - यह रचना प्राकृत में है तथा २१ अध्यायों में विभक्त है। आचारविधि - यह अज्ञातकर्तृक है। आचारविधि - यह भी अज्ञातकर्तृक है। आचारविधि - इसके कर्ता मुनिसुन्दरसूरि है। आचारविधि - इसकी रचना अभयदेवसूरि ने की है। इसका दूसरा नाम सामाचारी है। इन पूर्वोक्त कृतियों में आचार से सम्बन्ध रखने वाले विधि-विधान वर्णित होने चाहिए, ऐसा इन कृतियों के नाम से स्पष्टतः सूचित होता है। आचारदिनकर
__ आचारदिनकर नामक यह ग्रन्थ चन्द्रकुल से उद्भूत खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के जयानन्दसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि द्वारा रचित है। इसका श्लोक परिमाण १२५०० है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल पन्द्रहवी शती (संवत १४६३) का उत्तरार्ध है। यह कृति मुख्यतः संस्कृत गद्य में है। किन्तु कई स्थलों पर प्राकृत गाथाएँ उद्धत की गई हैं। स्थल-स्थल पर संस्कृत श्लोकों की भी प्रधानता रही हुई हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ के नामोल्लेख से यह प्रतीत होता है कि इसमें जैन आचार का प्रतिपादन होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं है, वस्तुतः इस ग्रन्थ में आचार
' जिनरत्नकोश पृ. ६ २ वही पृ. २२
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186/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
पालन करने की विधि बतायी गयी है। मुख्यतया यह कृति विधि-विधानों से सम्बन्धित है। इसमें वर्णित विधि-विधान प्रायः सर्व परम्पराओं में मान्य है। विधि-विधान के सम्बन्ध में यह कृति बहुचर्चित एवं महत्त्वपूर्ण भी है। यह ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित हुआ है इस कृति में कुल ४० विधि-विधान उल्लिखित किये गये हैं कुछ अवान्तर विधि-विधान भी दिये गये हैं।'
इसमें प्रारम्भ के सोलह विधान गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित कहे गये हैं जिनमें सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है। आगे के सोलह विधान साधु जीवन से सम्बद्ध है तथा अन्त के आठ विधि-विधान साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा सम्पन्न करने योग्य हैं। अब, प्रस्तुत कृति में वर्णित विधि-विधानों की संक्षिप्त चर्चा इस प्रकार हैं(क) गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित विधि विधान
इन विधि-विधानों के अन्तर्गत १६ संस्कारों का वर्णन किया गया है। उन १६ संस्कारों के विषय में सामान्य रूप से जानने योग्य कुछ बिन्दू निम्न हैं:१. प्रस्तुत कृति में वर्णित प्रायः सभी संस्कारों में मंत्रो का उल्लेख 'वेद मन्त्र' के नाम से हुआ है, जबकि मूलतः वे मंत्र जैन परम्परा के आधार पर निर्मित हैं। २. इसमें संस्कार-विधि को सम्पन्न करने के लिए एक गृहस्थ गुरु का और दूसरे यति गुरु का उल्लेख है, कहीं-कहीं जैन ब्राह्मण को भी संस्कार विधि सम्पन्न करवाने का अधिकारी बताया गया है। ३. संस्कार विधि को सम्यक् प्रकार से सम्पन्न करने के लिए जिनमंदिर जाना, बृहत्स्नात्र करना, नैवेद्यादि सामग्री चढ़ाना, जल के द्वारा अभिसिंचित करना इत्यादि कार्य प्रायः आवश्यक माने गये हैं। ४. संस्कार विधि की सम्पन्नता के लिए उपाश्रय में बिराजित साधुओं के दर्शनार्थ जाना, उन्हे वंदन करना, उनसे वासचूर्ण ग्रहण करना, उन्हें निर्दोष आहारादि बहराना आदि कृत्य भी प्रायः आवश्यक माने गये हैं। ५. संस्कार सम्पन्न कराने वाले गृहस्थ गुरु को दक्षिणा रूप में यथाशक्ति वस्त्र-स्वर्ण-ताम्बूल आदि प्रदान करने का भी प्रायः उल्लेख किया गया है। गृहस्थ गुरु के बिना कोई भी संस्कार सम्पन्न नहीं हो सकता है ऐसा दिखलाया गया है। यति गुरु को वस्त्र, पात्र और आहार दान करने का उल्लेख है। ६. प्रत्येक संस्कार को सम्पन्न करने के लिए उस संस्कार के अन्त में आवश्यक सामग्री का भी निरूपण किया गया है।
' यह ग्रन्थ शाह जसवंतलाल गीरधरलाल दोशीवाडानी पोल, अहमदाबाद से, वि.सं. २०३८ में प्रकाशित हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 187
सामान्यतया इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में चार श्लोक दिये गये हैं प्रथम श्लोक में बताया गया है कि यह लोक तत्त्व ज्ञानमय है तथा इस लोक में जिन्होंने आचार को प्रणीत किया है उन योगियों को नमस्कार करता हूँ, उसके बाद सोलह संस्कारों के नाम कहे गये हैं। संस्कार सम्पन्न कराने वाले गुरु के लक्षण बताये गये हैं। तत्पश्चात् अनुक्रमशः सोलह संस्कार सम्पन्न करने की विधियाँ प्रतिपादित की गई हैं वे संक्षेप में निम्नोक्त हैं -
१. गर्भाधान - संस्कार विधि - इस प्रथम उदय में गर्भाधान संस्कार को सम्पन्न करने की विधि कही गयी है इसके साथ ही यह बताया गया हैं कि यह संस्कार स्थापित गर्भ के संरक्षण के लिए किया जाता है तथा गर्भधारण को पाँच मास पूर्ण हो जायें तब किया जाता है।
इसके साथ ही प्रस्तुत संस्कार सम्पन्न करने सम्बन्धी शुभमास दिन- तिथि- वार- नक्षत्रादि की चर्चा की गई है इतना ही नहीं संस्कार सम्पन्न होने पर कुलाचार की विधि से कुलदेवता, गृहदेवता एवं नगरदेवता का पूजन करना भी अनिवार्य बताया गया है। प्रस्तुत संस्कार विधि के अन्तर्गत शांतिदेवी मंत्र, शांतिदेवी का स्तोत्र, ग्रंथियोजन मंत्र, ग्रंथिवियोजन मंत्र, जैन वेदमंत्रों की उत्पत्ति एवं जैन ब्राह्मण की उद्भव कथा भी दी गई है।
२. पुंसवन संस्कार विधि - इस दूसरे उदय में पुंसवन संस्कार सम्पन्न करने की विधि प्रदर्शित की गई है। यह संस्कार गर्भाधान के पश्चात् गर्भ से पुत्र की प्राप्ति हो, इस हेतु किया जाता है। वह कर्म जिसके अनुष्ठान से 'पुं- पुमान्' अर्थात् पुरुष का जन्म हो वह पुंसवन संस्कार है।
प्रस्तुत कृति में लिखा है कि- यह संस्कार गर्भ के आठ मास व्यतीत होने पर तथा सर्व दोहद पूर्ण होने के बाद गर्भस्थ शिशु के अंग- उपांग पूर्णतः विकसित होने पर किया जाता है। इस संस्कार को सम्पन्न करने के लिए शुभ दिन-वार-नक्षत्रादि का उल्लेख किया गया है। मुख्यतः पति के चन्द्रबल में यह संस्कार आयोजित करना चाहिए, ऐसा कहा गया है।
३. जन्म - संस्कार विधि - इस उदय में वे विधि-विधान कहे गये हैं जो शिशु के जन्म के समय किये जाते हैं। यह संस्कार गर्भकाल के अपेक्षित मास-दिनादि की अवधि पूर्ण होने पर किया जाता है । इस संस्कार को सम्पन्न करने के लिए गृहस्थ गुरु, ज्योतिषी, बालक का पिता, दादी, दादा, चाचा आदि पात्र अनिवार्य माने गये हैं।
प्रस्तुत विधि के अन्त में यह कहा गया है कि कदाचित् बालक का जन्म आश्लेषादि नक्षत्रों में, गंडांत नक्षत्रों में एवं भद्रा नक्षत्र में हुआ हो तो वह पिता
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के दुख, शोक, मरण का कारण बनता है अतः पिता एवं कुल के ज्येष्ठ शांतिविधि (३३ वाँ द्वार) में कहे गये विधान को सम्पन्न किये बिना शिशु का मुख नहीं देखें। इस विधि के अन्तर्गत जल को अभिमन्त्रित करने का मंत्र और रक्षाकाल का मंत्र दिया गया है।
४. सूर्य-चन्द्र दर्शन संस्कार विधि - यह संस्कार बालक को सूर्य-चन्द्र के दर्शन करवाये जाने से सम्बन्धित है। इसमें शिशु को बाहरी संसार से अवगत कराने के लिए सूर्य एवं चन्द्र का दर्शन कराया जाता है इस ग्रन्थ के अनुसार यह दर्शन जन्म के पश्चात् तीसरे दिन कराया जाता है । प्रस्तुत अधिकार में कहा गया है कि यह संस्कार सम्पन्न करने के लिए स्वर्ण रजत या रक्त चंदन की सूर्य एवं चन्द्र की प्रतिमाएँ बनायी जाती है। इन प्रतिमाओं के समक्ष शांतिकर्म एवं पुष्टि कर्म सम्पन्न किया जाता है। सूर्य का दर्शन प्रातः एवं चन्द्र का दर्शन संध्या को कराया जाता है तथा संस्कार की क्रिया सम्पन्न होने के बाद सूर्य-चन्द्र की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।
५. क्षीराशन-संस्कार विधि - जिसमें शिशु को क्षीर अर्थात् दुग्ध का आहार कराया जाता है उसे क्षीराशन संस्कार कहते हैं। यह संस्कार विधि-विधान पूर्वक शिशु को दुग्ध पान कराये जाने से सम्बन्धित है।
इस संस्कार की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह संस्कार जन्म के पश्चात् तीसरे दिन अर्थात् सूर्य-चन्द्र दर्शन के दिन ही किया जाता है। इसमें यह भी कहा गया है कि यह संस्कार सम्पन्न करने के पूर्व अमृतमंत्र से १०८ बार अभिमंत्रित किये गए तीर्थ जल को शिशु की माता के दोनों स्तनों पर सिंचन किया जाता है।
६. षष्ठी - संस्कार विधि - इस उदय में षष्ठी संस्कार को सम्पन्न करने सम्बन्धी विधि की चर्चा करते हुए कहा गया है कि इस संस्कार में बालक के जन्म के छठे दिन विधि-विधान पूर्वक देवी ( षष्ठी माता) की पूजा की जाती है । ग्रन्थकार के अनुसार षष्ठी संस्कार का तात्पर्य बाह्मी आदि आठ माताओं सहित अम्बिका देवी के पूजन से है ।
इस संस्कार को सम्पन्न करने के सम्बन्ध में कहा गया है कि सधवा स्त्रियों के द्वारा सूतिका गृह के भित्तिभाग एवं भूमिभाग पर गोबर का लेप करायें। फिर शुभ दिनादि में भित्ति भाग पर खडी या मिट्टी से सफेदी कराये फिर भित्ति के सफेद वाले भाग पर कुंकुम - हिंगुल आदि लालवर्णों से आठ खडी हुई, आठ बैठी हुई और आठ सोयी हुई माताओं का आलेखन करवायें। तत्पश्चात् इन माताओं का आह्वान पूर्वक पूजन करें। रात्रि जागरण करें, दूसरे दिन प्रत्येक माता का नाम लेकर उनका विसर्जन करें।
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७. शुचि - संस्कार विधि - यह संस्कार दैहिक शुद्धि एवं स्थान शुद्धि हेतु किये जाने वाले विधि-विधानों से सम्बन्धित है। इस संस्कार विधि का विवेचन करते हुए ग्रन्थकर्ता वर्धमानसूरि ने लिखा है कि अपने-अपने वर्ण के अनुसार निर्धारित दिनों के व्यतीत होने पर शुचिकर्म संस्कार करना चाहिए। इसके साथ यह भी बताया गया है कि ब्राह्मण १० वें दिन, क्षत्रिय १२ वें दिन, वैश्य १६ वें दिन और शुद्र एक महिने में शुचिकर्म संस्कार करते हैं। यह संस्कार कर्म प्रारम्भ करते समय प्रथम सोलह पुरुषों तक उनके वंशजों का आह्वान करना चाहिए, ऐसा उल्लेख किया गया है।
प्रस्तुत संस्कार विधि के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण कथन यह किया गया है कि सूतक के दिन पूर्ण होने पर उस दिन यदि आर्द्र नक्षत्र, सिंहयोनि नक्षत्र एवं गजयोनि नक्षत्र हों तो स्त्री को सूतक का स्नान नहीं करना चाहिए। साथ ही इन नक्षत्रों के नामों का उल्लेख करते हुए कहा है कि इन नक्षत्रों में स्नान करने पर प्रसव नहीं होता है।
८. नामकरण - संस्कार विधि- प्रस्तुत आठवें उदय में नामकरण संस्कार की विधि विस्तार पूर्वक कही गई है। इस संस्कार के अन्तर्गत यह बताया गया है कि यह संस्कार शुचिकर्म के दिन या उसके दूसरे या तीसरे दिन अथवा किसी शुभ दिन में शिशु के चंद्रबल को देखकर किया जाता है । प्रस्तुत विधि का अवलोकन करने से यह सिद्ध होता है कि इस संस्कार को सम्पन्न करने में ज्योतिषी की मुख्य भूमिका होती है। इसके साथ ही इसमें यह भी निर्दिष्ट हैं कि जन्म कुंडली के बारह ग्रहों एवं उसमें स्थित नवग्रहों का पूजन विशेष रूप से किया जाता है। जन्म नक्षत्र के अनुसार निकाला गया नाम प्रथम कुलवृद्धा के कान में कहा जाता है। फिर परमात्मा के मंदिर में नाम का प्रकटीकरण किया जाता है। गुरु के समीप मंडली पट्ट का पूजन किया जाता है, गुरु की नवांगी पूजा की जाती है, गुरु के द्वारा ऊँकार, ह्रींकार, श्रींकार से युक्त वासचूर्ण प्रदान किया जाता है इत्यादि ।
६. अन्नप्राशन- संस्कार विधि- अन्नप्राशन संस्कार में शिशु के जन्म के पश्चात् उसे प्रथम बार अन्न का आहार कराया जाता है। आचार दिनकर में इस संस्कार की चर्चा करते हुए बताया गया है कि यह संस्कार बालक के जन्म से छठे मास में एवं बालिका के जन्म से पाँचवे मास में किया जाता है। इस संस्कार के लिए योग्य दिन, नक्षत्र, वार आदि का उल्लेख किया गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि यह संस्कार सम्पन्न करने के लिए विविध प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं और ये व्यंजन जिनप्रतिमा, गौतमस्वामी की प्रतिमा, कुलदेवता एवं गौत्रदेवी की प्रतिमा के समक्ष चढ़ाये जाते हैं।
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१०. कर्णवेध संस्कार विधि - इस संस्कार में शिशु का कर्ण छेदन कर विधि-विधान पूर्वक आभूषण पहनाया जाता है। प्रस्तुत कृति में बताया गया है कि यह संस्कार तीसरे - पाँचवें या साँतवें वर्ष में किया जाता है उसमें भी जिस मास में शिशु का सूर्य बलवान हो उस मास के शुभ वार आदि में करना चाहिए। इस संस्कार विधि को सम्पन्न करने के विषय में यह भी कहा गया है कि कर्णवेध संस्कार की विधि अपने - अपने कुल की परम्परानुसार कुलदेवता के स्थान पर, पर्वत पर, नदी के किनारे अथवा घर में करनी चाहिए।
११. चूडाकरण- संस्कार विधि - चूडा का तात्पर्य बालों के गुच्छ या शिखा से है जो मुण्डित सिर पर रखी जाती है। इस संस्कार में जन्म के उपरान्त पहली बार सिर पर एक बालगुच्छ ( शिखा ) रखकर शेष सिर के बालों का मुण्डन किया जाता है। इस संस्कार को सम्पन्न करने के लिए शुभ दिन, नक्षत्र, वार आदि बताये गये हैं। यह संस्कार किन दिनों में न करें, उसका भी उल्लेख किया गया है। मुख्य रूप से बालक का चंद्रबल एवं ताराबल देखकर क्षौर कर्म किये जाने का उल्लेख है। इसके साथ यह संस्कार भी पूर्वोक्त कुल देवता आदि के स्थानों पर किया जाना चाहिए ऐसा कहा गया है।
१२. उपनयन संस्कार विधि- उपनयन का अर्थ है- समीप या सन्निकट ले जाना। इस संस्कार में बालक को विधि-विधान पूर्वक आचार्य के पास ले जाकर ज्ञानार्जन हेतु ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा देकर विद्यार्थी बनाया जाता है। वस्तुतः यह संस्कार मनुष्यों के वर्ण विशेष में प्रवेश कर तदनुरूप वेश एवं मुद्रा धारण करने के लिए तथा अपने - अपने गुरु के उपदिष्ट धर्ममार्ग में प्रवेश करने के लिए किया जाता है। ऐसा आचार दिनकर का अभिमत है।
प्रस्तुत विधि में जिन उपवीत का स्वरूप इस प्रकार प्रतिपादित हैसर्वप्रथम दोनों स्तनों के अन्तर से समरूप चौराशी धागों का एक सूत्र करें, फिर उसे त्रिगुण करें पुनः उस त्रिगुण सूत्र का त्रिगुण करें ऐसा एक तन्तु होता है, उसके साथ ऐसे दो तन्तु और जोड़ देने पर एक अग्र होता है। सभी वर्णों में ऐसा अग्र धारण करने की अलग-अलग व्यवस्था है। इस प्रकार जिन उपवीत में नवतंतु गर्भित त्रिसूत्र होते हैं जो क्रमशः ब्रह्मचर्य की नवगुप्ति के तथा ज्ञान- दर्शन - चारित्र रूप त्रिरत्न के प्रतीक हैं।
इसमें मेखला मंत्र, कोपीन मंत्र, जिनोपवीत धारण करने मंत्र तथा व्रतबंधन विधि, चारों वर्णों सम्बन्धी व्रतादेश विधि, व्रतविसर्ग विधि, गोदान विधि, शूद्र को उत्तरीय वस्त्र प्रदान करने की विधि, बटुक अर्थात् ब्रह्मचारी को विद्यार्थी बनाने की विधियाँ भी प्रतिपादित हैं।
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१३. विद्यारंभ-संस्कार विधि- यह संस्कार बालक को विधिपूर्वक विद्याध्ययन करवाने से सम्बन्धित है। प्रस्तुत कृति में इस संस्कार को प्रारंभ करने के लिए शुभ दिन-वार- नक्षत्रादि का उल्लेख किया गया है। साथ ही विद्याध्ययन का आरंभ करने में वर्जित तिथियाँ भी बतायी गई हैं। इस ग्रन्थ के अनुसार यह संस्कार सम्पन्न करने के लिए बालक को सर्वप्रथम जिनालय के दर्शनादि करवाते हैं, उसके बाद उपाश्रय में विराजित साधु या साध्वी के दर्शन-वंदनादि करवाते हैं, उसके बाद यतिगुरू के समीप ले जाते हैं, तत्पश्चात् पाठशाला में प्रविष्ट करते हैं। पूर्वोक्त सभी स्थलों पर कुछ विधि-विधान भी सम्पन्न किये जाते हैं।
१४. विवाह-संस्कार विधि- प्रस्तुत ग्रन्थ में विवाह संस्कार की चर्चा करते हुए अनेक बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है। सर्वप्रथम इसमें कहा गया है कि जिनका कुल और शील समान हों, उनमें ही परस्पर विवाह सम्बन्ध करना चाहिए। विकृत कुलवाली कन्या के साथ विवाह नहीं करना चाहिए। विकृत कुल आदि के लक्षण भी कहे गये हैं। यदि दोनों के कुल विकृत हों तो पाँच शुद्धियों को देखकर विवाह करने का प्रतिपादन है। विवाह कब करना चाहिए इस संबंध में उसके उम्र का भी निर्देश किया गया है। इसके साथ ही आठ प्रकार के विवाहों का निरूपण किया गया है उनमें १. ब्राह्म २. प्रजापत्य ३. आर्ष और ४. देवता इन चार प्रकार के विवाह को प्रशस्त माना गया है क्योंकि ये विवाह माता-पिता की इच्छानुसार होते हैं जबकि १. गांधर्व २. आसुरी ३. राक्षस एवं ४. पैशाच ये चार प्रकार के विवाह अप्रशस्त (पापरूप) माने गये हैं, चूंकि ये चारों विवाह स्वेच्छानुसार होते हैं।
इस संस्कार में प्रस्तुत विषय के अतिरिक्त निम्नविधियों का भी सम्यक् निरूपण किया गया है- यथा १. कन्यादान करने की विधि २. कुलकर स्थापना की पूजा विधि ३. बारात प्रस्थान करने की विधि ४. तोरण द्वार पर करने योग्य विधि ५. चँवरी (वेदी) निर्मित करने की विधि ६. चार प्रदक्षिणा (फेरे) विधि ७. कंकण मोचन विधि ८. वर-वधू विसर्जन विधि ६. कुलकर विसर्जन विधि १०. वेश्या विवाह विधि इत्यादि।
__विवाह से पूर्व दोनों पक्षों में अनेक क्रियाएँ की जाती हैं उसका भी निर्देश किया गया है। कृति के अन्तर्गत इन संस्कार सम्बन्धी क्रियाओं को सम्पन्न करने में देश एवं कुलाचार को विशेष महत्त्व दिया गया है।
१५. व्रतारोपण संस्कार विधि- इस ग्रन्थ में व्रतारोपण संस्कार विधि का उल्लेख करते हुए सर्वप्रथम सम्यक्त्वव्रत ग्रहण करने की विधि कही गई है। इस विधि के अन्तर्गत व्रतारोपण कराने वाले गुरु के लक्षण, व्रतग्राही के इक्कीस गुण,
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सुदेव - सुगुरु- सुधर्म का स्वरूप तथा कुदेव - कुगुरु-कुधर्म का स्वरूप भी बताया गया है। उसके बाद देशविरतिसामायिकव्रत ग्रहण करने की विधि, बारहव्रत ग्रहण करने की विधि, ग्यारह प्रतिमाओं को ग्रहण करने की विधि निर्दिष्ट की गई हैं। तदनन्तर श्रुतसामायिक ग्रहण करने की विधि का निरूपण किया गया है इसमें योगोद्वहन रूप उपधान विधि का भी प्रतिपादन किया गया है। इसके साथ ही इसमें सात प्रकार के उपधान की सामाचारी एवं उनकी तपविधि भी वर्णित की गयी है।
तत्पश्चात् प्रसंगानुरूप श्रावक की दिनचर्या का सुन्दर विवचेन किया गया है। अर्हत्कल्प के अनुसार श्रावक की पूजाविधि विस्तारपूर्वक कही गई है। जिसमें अष्ट प्रकार के द्रव्यादि को पवित्र करने के मन्त्र भी दिये गये हैं इस कल्प में जिन प्रतिमा की पूजा के साथ नवग्रहपट्ट पूजा एवं लोकपालपट्ट पूजा करने का भी विधान प्रस्तुत किया गया है।
१६. अन्त्य - संस्कार विधि - इस अधिकार में किसी श्रावक का कालधर्म होने पर उसके अन्तिम संस्कार को सम्पन्न करने की विधि कही गई है। इसके पूर्व अन्तिम आराधना करने की विधि का विवेचन किया गया है उसमें अन्तिम आराधना हेतु अनशन (संलेखना ) आदि का ग्रहण कहाँ करे, कब करें, किसके समक्ष करें, और किस प्रकार करें इत्यादि की सम्यक् चर्चा की गई है। इसके साथ ही इसमें यह भी कहा गया है कि अन्तिम आराधना की विधि को सम्पन्न करने वाला श्रावक सभी जीवों से क्षमायाचना करें, पूर्वभवो में किये गये पापों का मिथ्यादृष्कृत दें, सम्यक्त्वव्रत सहित बारहव्रत को स्वीकार करें, तथा अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म इन चार की शरण ग्रहण करें। प्रस्तुत विधि के अन्तर्गत अन्तिम संस्कार करने के सम्बन्ध में यह कथन किया गया है कि यह संस्कार श्रावक या जैन ब्राह्मण द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। इसके साथ ही चारों वर्णों के अनुसार अन्तिम संस्कार करने की विधि दिखलायी गई है। अमुक-अमुक नक्षत्रों में मरण होने पर कुश के पुतलें आदि बनाने का भी निर्देश दिया गया है। अग्नि संस्कार के बाद चिता की भस्म एवं अस्थियों का विसर्जन तथा शोक का निवारण कैसे करें इसका भी उल्लेख किया है। साथ ही मृतक को स्नान कराने के समय किन-किन नक्षत्रों का त्याग करें तथा किन-किन वारों में प्रेत सम्बन्धी क्रिया करें इसका भी प्रतिपादन किया गया है।
इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में यह भी प्रतिपादित है कि मृत्यु के पश्चात् कितने दिन का सूतक हो, गर्भपात में कितने दिन का सूतक हो, बालक की मृत्यु होने पर कितने दिन का सूतक हो इत्यादि। अन्त में अपने-अपने वर्ण के अनुसार सूतक के कल्याण रूप परमात्मा की स्नात्रपूजा एवं साधर्मिक वात्सल्य करने का निर्देश किया गया है।
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(ख) साधु जीवन से सम्बन्धित विधि-विधान
इसमें साध जीवन से सम्बन्ध रखने वाले सोलह प्रकार के विधि-विधान प्रतिपादित हुये हैं उनका सामान्य स्परूप इस प्रकार है
१. ब्रह्मचर्यव्रत-ग्रहण विधि - इसमें ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने के योग्य कौन हो सकता है? उस अधिकारी व्यक्ति के लक्षण बताये गये हैं साथ ही ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण की विधि बतलायी गई है।
२. क्षुल्लकत्वदीक्षा ग्रहण विधि - इस उदय में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण करने की विधि बतायी गयी है, साथ ही इसमें कहा गया हैं कि जिसने तीन वर्ष पर्यन्त त्रिकरण की शुद्धिपूर्वक ब्रह्मचर्यव्रत का पालन किया हो वही क्षुल्लक दीक्षा के योग्य होता है। क्षुल्लक दीक्षा लेने वाला शिखाधारी या मुण्डित मस्तक वाला होता है ऐसा भी इस कृति में उल्लेख है।
३. प्रव्रज्या-ग्रहण विधि - इस उदय में अठारह दीक्षा ग्रहण करने की विधि प्रतिपादित है। इसके साथ ही दीक्षा के लिए अयोग्य अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियाँ एवं दस प्रकार के नपुंसक की चर्चा की गई हैं। दीक्षा के लिए योग्य दिन-वार नक्षत्रादि का उल्लेख किया गया है तथा शिष्य का नया नामकरण सप्त शुद्धि को देखकर करना चाहिए ऐसा निर्देश भी दिया गया है।
इतना ही नहीं जिनकल्पियों की दीक्षा विधि का वैशिष्ट्य बताते हुए कहा गया है कि जिनकल्पी मुनि दीक्षा के समय चोटी (अट्टा) ग्रहण के स्थान पर सम्पूर्ण केश लोच करते हैं, वेश ग्रहण के स्थान पर तृणमय एक वस्त्र और मयूरादि पिच्छ का रजोहरण रखते हैं तथा पाणि पात्र अर्थात् हाथ में भोजन करते हैं।
४. उपस्थापना विधि - इस उदय में उपस्थापना अर्थात् पंचमहाव्रत आरोपण करने की विधि प्ररूपित की गयी है। उपस्थापना करने के पूर्व आवश्यकसूत्र, दशवैकालिकसूत्र एवं मांडली के योग अवश्य करवाने चाहिए, उसमें भी प्रज्ञाहीन की उपस्थापना दशवकालिक सूत्र के चार अध्ययन पढ़ाये बिना नहीं करनी चाहिए, ऐसा विशेष उल्लेख किया गया है तथा उपस्थापना के लिए शुभ दिन-नक्षत्रादि का वर्णन किया गया हैं।
५. योगोद्वहन विधि - इस उदय में योग शब्द की परिभाषा बताते हुए योगवहन योग्य साधू के लक्षण, योगवहन कराने वाले गुरु के लक्षण, योगवहन में सहायक बनने वाले साधु के लक्षण, योगवहन योग्य क्षेत्र, वसति एवं स्थण्डिल के लक्षणों की चर्चा की गई हैं। इसके साथ ही योगवहन में उपयोगी उपकरण एवं योगवहन करने योग्य काल (समय) बताया गया है। फिर ५३ श्लोकों में गणियोग
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की चर्चा की गई है । ६ श्लोकों में योगभंग की प्रायश्चित्त विधि का निरूपण किया गया है । उसके बाद कालिक सूत्रों के योगवहन में करने योग्य आवश्यक विधि-विधान बताये गये हैं उनमें १. चरसंघट्टा (संस्पर्श) ग्रहण करने की विधि २. स्थिरसंघट्टा ग्रहण करने की विधि - इसमें भी हस्तसंघट्टा, पादसंघट्टा, रजोहरणसंघट्टा, झोलीसंघट्टा, पात्रसंघट्टा, दोरीसंघट्टा आदि ग्रहण करने की विधियाँ प्रमुख रूप से वर्णित हुई हैं इसके साथ ही काल ग्रहण के लिए उचितोनुचित काल (समय) बताया गया है साथ ही मरण सूतक एवं ऋतु सम्बन्धी अस्वाध्याय काल का सूचन किया गया है।
इसके अतिरिक्त योगवहन प्रारंभ करने के पूर्व योगवाही लोच किया हुआ, और वसति शुद्ध किया हुआ उपकरण आदि को धोया हुआ होना चाहिए इसका निर्देश दिया गया है। योगारम्भ के योग्य दिन, वार, नक्षत्रादि की शुद्धि का वर्णन किया गया है। श्रुत, श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, शतक, वर्ण, उद्देशकादि की परिभाषाएँ दी गई हैं। आगाढ़, अनागाढ़, कालिक, उत्कालिक सूत्रों पर विचार किया गया है। साथ ही कालग्रहण की विधि एवं स्वाध्यायप्रस्थापन की विधि कही गई हैं। इसमें योगोद्वहन के प्रारंभ में एवं समाप्ति में, श्रुतस्कन्ध के आरंभ में एवं समाप्ति में जो नन्दि क्रिया होती है उसकी विधि भी कही गई है । तदनन्तर क्रमशः आवश्यकसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, आचारांगसूत्र, सूत्रकृ तांगसूत्र, व्यवहारसूत्र, दशाश्रुतस्कंधसूत्र, ज्ञाताधर्मकथासूत्र, प्रश्नव्याकरणसूत्र, विपाकसूत्र, उपांगसूत्र, प्रकीर्णकसूत्र, महानिशीथसूत्र एवं भगवतीसूत्र की योगतप विधि का वर्णन किया गया है। इन सूत्रों की योगविधि के अन्तर्गत प्रत्येक सूत्र के दिन, खमासमण कायोत्सर्ग, मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन, कालग्रहण आदि कितने-कितने होते हैं? इनका भी विवेचन किया गया है।
६. वाचना-ग्रहण विधि इस उदय में वाचना लेने योग्य अर्थात् अध्ययन करने योग्य मुनि के लक्षण, वाचना देने योग्य अर्थात् अध्यापन कराने योग्य गुरु के लक्षण, वाचना सामग्री के लक्षण बताते हुए वाचना की विधि कही गई है। इसके साथ ही वाचना ( अध्ययन ) का क्रम बतलाते हुए कहा है कि - प्रथम दशवैकालिकसूत्र, फिर आवश्यकसूत्र, फिर उत्तराध्ययनसूत्र - उसके पश्चात् जिस क्रम से योगवहन करने का निर्देश दिया गया है उस क्रम से वाचना का आदान-प्रदान करना चाहिए।
७. वाचनानुज्ञा विधि - इस उदय में वाचनाचार्य पद पर स्थापित करने योग्य मुनि के लक्षण एवं वाचनाचार्य पद के लिए शुभ तिथि, वार, नक्षत्र, लग्नादि की चर्चा करते हुए वाचनाचार्य पद स्थापना की विधि वर्णित की गई है |
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८. उपाध्यायपद-स्थापना विधि - इसमें उपाध्याय पदस्थापना विधि को कुछ अन्तर के साथ आचार्य पदस्थापना के समान बतायी गई है उपाध्यायपद पर स्थापित किये जाने वाले मुनि के सन्दर्भ में यह विशेष कहा गया है कि उन्हें अक्षमुष्टि प्रदान नहीं करते हैं। उनके लिए कालग्रहण विधि एवं बृहत्नंदिपाठ का श्रवण भी नहीं होता है। केवल तीन बार लघुनन्दि का पाठ सुनाते हैं और वर्द्धमान विद्या पट्ट प्रदान करते हैं।
६. आचार्यपद-स्थापना विधि - इस उदय में आचार्यपद स्थापना की विधि का वर्णन करते हुए आचार्यपद प्रदान के योग्य नक्षत्र, वार, दिन, मास, वर्ष, लग्न, ग्रह आदि की शुद्धि दीक्षा विधि के समान जाननी चाहिए, ऐसा निर्देश किया गया है।
इसके साथ ही आचार्यपद के योग्य एवं अयोग्य मुनि के लक्षण बताये गये हैं। इसके अतिरिक्त आचार्यपद प्रदान करते समय मस्तक पर निक्षेप किये जाने वाला वासचूर्ण सोलह मुद्राओं एवं सूरिमन्त्र से मन्त्रित होता है ऐसा सूचन किया गया है। अन्त में श्रावक वर्ग के द्वारा आठ या दश दिन तक संघ पूजादि महोत्सव किये जाने का उल्लेख है।
१०. बारहप्रतिमा धारण/ग्रहण विधि - इस उदय में प्रतिमा वहन योग्य मुनि के लक्षण, प्रतिमा ग्रहण के योग्य शुभ दिनादि, बारह प्रतिमाओं के नाम एवं उन बारह प्रतिमाओं के ग्रहण करने की विधि विवेचित की गई है। इसके साथ ही बारह प्रतिमाओं की सर्व दिनों की संख्या २८ मास और २६ दिन बतायी गई हैं तथा तप संख्या में ८४० दत्ति, २६ उपवास और २८ एकभक्त होते हैं ऐसा सूचन किया गया है।
११. व्रतिनी (साध्वी) व्रतदान विधि - इस उदय में दीक्षा लेने योग्य स्त्रियों के लक्षण एवं उनके व्रतदान की विधि बतायी गई है।
१२. प्रवर्तिनीपद स्थापना विधि - इस उदय में प्रवर्तिनीपद के योग्य साध्वी के लक्षण बताते हुए प्रवर्तिनीपद स्थापना की विधि प्रदर्शित की गई है।
१३. महत्तरापद-स्थापना विधि - इसमें महत्तरापद के योग्य साथ्वी के लक्षण एवं महत्तरापद स्थापना की विधि चर्चित है
___ १४. अहोरात्र-दिनचर्या विधि - इस उदय के प्रारम्भ में यह कहा गया है कि धर्मोपकरण के बिना साधु-साध्वी की चर्या विधि कहना असंभव है अतः इसमें सर्वप्रथम जिनकल्पी साधु के १२ उपकरण, स्थविर कल्पी साधु के १४ उपकरण, स्थविर कल्पी साध्वियों के २५ उपकरण, स्वयंबुद्ध साधु के
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१२ उपकरण कहे गये हैं इसके साथ ही प्रत्येक उपकरण का स्वरूप एवं परिमाण, उनका उपयोग कब कैसे करना चाहिए? आदि का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है।
तदनन्तर साधु की अहोरात्रचर्या विधि का सम्यक् रूप से प्रतिपादन किया गया है इसमें प्रसंगवश विहार का काल, विहार करने योग्य मुनि के लक्षण, विहार योग्य उपकरण, विहार योग्य देश (इसमें आर्य-अनार्य देशों के नाम) विहार प्रस्थान के योग्य दिनादि का उल्लेख भी किया गया है।
१५. ऋतुसम्बन्धी-चर्या विधि - इस उदय के प्रारंभ में वस्त्र, पात्र. स्थान, शरीरादि की शुद्धि हेतु कल्पतर्पण विधि दिखलायी गयी है इसके सम्बन्ध में 'छहमासिक कल्प उतारने की विधि' भी कही गई है। तदनन्तर हेमन्त, बसन्त, शिशिर आदि ऋतुओं के समय साधू को क्या-क्या करना चाहिए, उस पर प्रकाश डाला गया है। यहाँ प्रसंगवश लोच करण विधि, मलमास में वर्जित कार्यादि का भी संक्षिप्त विवेचना किया गया है।
१६. अन्तिमआराधना विधि- इस अधिकार में मरण प्राप्त अचित्त मुनि के शरीर का परिष्ठापन कैसे करना चाहिए उसके सम्बन्ध में निम्न विधानों का उल्लेख किया गया है। इसमें निर्देश है कि पहले से ही दूर-मध्य एवं निकट ऐसे तीन प्रकार की स्थण्डिल भूमि देख लेनी चाहिए। शव को रात्रि भर रखना पड़े तो गीतार्थ साधुओं को रात्रि में जागरण करना चाहिए। इसके साथ ही मृतात्मा रात्रि में उठ जाये तो उसे कैसे शान्त करना चाहिए? स्थण्डिल भूमि की ओर ले जाते समय मृतात्मा के पॉव किस दिशा की ओर रखने चाहिये? परिष्ठापन करने की भूमि पर क्या विधि करनी चाहिए? पैंतालीस, पच्चीस एवं पन्द्रह मुहूर्त वाले नक्षत्रों में किसी मुनि का मरण होने पर कितने पुतले बनाने चाहिए? परिष्ठापित करने के बाद कैसे लौटना चाहिए? वसति (उपाश्रय) में क्या-क्या विधि करनी चाहिए इत्यादि पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। (ग) साधु एवं गृहस्थ दोनों से सम्बन्धित विधि विधान
आचारदिनकर के दूसरे भाग में आठ विधि-विधान साधु एवं गृहस्थ दोनों से सम्बन्धित कहे गये हैं। वे विधान निम्न हैं
१. प्रतिष्ठाधिकार विधि - इस उदय में प्रतिष्ठा का स्वरूप बताते हुए बीस प्रकार की प्रतिष्ठाविधियों के नामों का उल्लेख किया गया है। वे बीस नाम ये हैं - १. बिम्ब प्रतिष्ठा विधि- यह प्रतिष्ठा विधि शैलमय, काष्ठमय, धातुमय, लेप्यमय एवं गृहचैत्य में स्थापित बिम्बों के विषय में जाननी चाहिए। इस विधि के अन्तर्गत निम्न विषयों की चर्चा की गई हैं- १. चैत्य में स्थापित किये जाने वाले
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बिम्ब का परिमाण २. पूजनीय - अपूजनीय प्रतिमा का स्वरूप ३. गृह में स्थापित करने योग्य बिम्ब का लक्षण ४. २४ तीर्थंकरों के जन्मनक्षत्र एवं राशि ५. प्रतिष्ठा हेतु लग्न शुद्धि ६. प्रतिष्ठा हेतु क्षेत्र शुद्धि ७. प्रतिष्ठा के समय उपयोग आने वाली सामग्री की सूची ८. प्रतिष्ठा के समय उपयोगी क्रयाणक सूची ६. क्रयाणक का अर्थ १०. अठारह अभिषेक में प्रयुक्त होने वाली सामग्री की सूची ११. प्रतिष्ठा विधि १२. शान्तिदेवता, अम्बिकादेवता, समस्त वैयावृत्यकरदेवता के निमित्त कायोत्सर्ग विधि १३. कलश - बलिसामग्री पुष्पादि अभिमन्त्रण विधि १४ - १८. अभिषेक विधि १६. नन्द्यावर्त्त स्थापना एवं पूजन विधि
इसमें देवकुलिका, मण्डप, मण्डपिका आदि की
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२. चैत्य प्रतिष्ठा विधि
प्रतिष्ठा समाविष्ट है।
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३. कलश-प्रतिष्ठा विधि - इसमें स्वर्ण, पाषाण या मिट्टी के कलशों की प्रतिष्ठा विधि कही गई है।
४. ध्वज - प्रतिष्ठा विधि - इस विधि के अन्तर्गत पताका महाध्वजराज आदि की प्रतिष्ठा का उल्लेख है।
५. बिम्बकर- प्रतिष्ठा विधि - इस विधि में जलपट्टासन- तोरणादि की प्रतिष्ठा समझनी चाहिए।
६. देवी - प्रतिष्ठा विधि - इसमें अम्बिका आदि गच्छदेवता, शासनदेवता, कुलदेवता आदि की प्रतिष्ठा विधि का विवेचन है।
७. क्षेत्रपाल - प्रतिष्ठा विधि - इस प्रतिष्ठा विधि में बटुकनाथ, हनुमान, देशपूजित देवादि को प्रतिष्ठित करने की विधि का उल्लेख है।
८. गणेशादिदेवता-प्रतिष्ठा विधि - इसमें विनायक देवता आदि की मूर्तियों को स्थापित करने की विधि निर्दिष्ट है।
६. सिद्धमूर्ति - प्रतिष्ठा विधि - इसमें पुंडरिक स्वामी, गौतम स्वामी आदि पूर्व सिद्ध प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा विधि का वर्णन है।
१०. देवतावसरसमवसरण प्रतिष्ठा विधि - इस अधिकार में स्थापनाचार्य एवं समवसरण की प्रतिष्ठा विधि का निरूपण है।
११. मन्त्रपट - प्रतिष्ठा विधि - इसमें धातु, उत्कीर्ण एवं वस्त्रमय पट्ट की प्रतिष्ठा विधि कही गई है।
१२. पितृमूर्ति - प्रतिष्ठा विधि - प्रासादस्थापित, गृहस्थापित, पट्टिकास्थापित प्रतिष्ठा विधि का वर्णन है।
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१३. यतिमूर्ति-प्रतिष्ठा विधि- इस अधिकार में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु की प्रतिमा को स्थापित करने की विधि का प्रतिपादन किया गया है।
___१४. ग्रह-प्रतिष्ठा विधि- इसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र तारा आदि की मूर्तियों को स्थापित करने की विधि वर्णित है।
१५. चतुर्निकाय-प्रतिष्ठा विधि- इसके अन्तर्गत दिग्पालइन्द्र एवं शासन यक्षादि की मूर्ति की प्रतिष्ठा विधि का उल्लेख है। यह ज्ञात रहें कि शासन देवियों की प्रतिष्ठा विधि देवियों की प्रतिष्ठा विधि के अन्तर्गत वर्णित है।
१६. गृहमन्दिर-प्रतिष्ठा विधि- यह विधि भित्ति, स्तम्भ, देहली, द्वार आदि की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित है।
१७. वाप्यादि जलाशय-प्रतिष्ठा विधि - इसमें कूप, तडाग आदि जलाशय से सम्बन्धित स्थानों की प्रतिष्ठाविधि वर्णित है।
१८. वृक्ष-प्रतिष्ठा विधि- यहाँ वृक्ष का तात्पर्य उद्यान वनदेवता आदि की प्रतिष्ठा विधि से है।
१६. अट्टालिकादि की प्रतिष्ठा विधि - इसमें मकान के ऊपरी छत की प्रतिष्ठा विधि वर्णित है।
२०. दुर्ग की प्रतिष्ठा विधि- यहाँ दुर्गप्रतोली? यन्त्रादि समझना चाहिए। ___ इस प्रतिष्ठा विधि के अन्त में अधिवासना विधि, प्रतिष्ठादि की दिन शुद्धि और प्रतिष्ठा का लक्षण बताया गया है। २. शान्त्याधिकार विधि - इस शान्तिक विधि नामक अधिकर में सर्वप्रथम शान्ति के प्रकार बताये गये हैं। उसके बाद शान्तिक विधि की चर्चा करते हुए यह उल्लेख किया गया है कि यह विधि शान्तिनाथ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष करनी चाहिए। उनकी पूजा करने के लिए- बिम्ब के आगे सात पीठ रखने चाहियें, जो स्वर्ण, रूपय, ताम्र या कांसा से निर्मित हों। उसके बाद प्रथम पीठ पर पंच परमेष्ठी की स्थापना, द्वितीय पीठ पर दिक्पालों की स्थापना, तृतीय पीठ पर तीन-तीन के क्रम से चारों दिशाओं में बारह राशियों की स्थापना, चतुर्थ पीठ पर सात-सात के क्रम से चारों दिशाओं में सत्ताईस नक्षत्रों की स्थापना, पंचम पीठ पर दिशाओं के क्रम से नौ ग्रहों की स्थापना, षष्टम पीठ पर सोलह विद्यादेवीयों की स्थापना एवं सप्तम पीठ पर गणपति की स्थापना करनी चाहिए। तत्पश्चात् मन्त्रोच्चारण पूर्वक पूर्वोक्त देव-देवीयों नक्षत्र, राशि, ग्रह आदि प्रत्येक के नामों का उच्चारण करते हुए प्रत्येक पीठ का पूजन करना चाहिए।
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इसके अतिरिक्त प्रस्तुत विधि में अग्रलिखित विधानों का भी निरूपण किया गया है वे विधान ये हैं - १. ग्रह शान्ति का विधान २. नक्षत्र एवं ग्रह शान्ति-विधान ३. मूला एवं आश्लेषा नक्षत्रों की शान्ति का विधान ४. पूर्वाषाढ़ादि का शान्तिक विधान ५. स्नानादि द्वारा नक्षत्र शान्ति का विधान ६. प्रकारान्तर से ग्रहशान्ति का विधान ७. प्रकारान्तर से ग्रह पूजा का विधान ८. स्नानादि द्वारा ग्रहशान्ति का विधान और ६. सूर्यादि ग्रहों की स्तुति आदि। ३. पौष्टिकाधिकार विधि- इस अधिकर में पौष्टिक विधि का विवेचन करते हुए कहा गया है कि यह पौष्टिक कर्म आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष करना चाहिए। पौष्टिक कर्म को सम्यक् प्रकार से सम्पन्न करने के लिए बृहत्स्नात्रविधि के द्वारा पच्चीस बार प्रतिमा पर पुष्पांजलि का क्षेपण करना चाहिए। प्रतिमा के आगे पूर्ववत पाँच पीठ की स्थापना करनी चाहिए। प्रथम पीठ पर चौसठ सुर-असुरेन्द्र की स्थापना एवं उनका पूजन करना चाहिए। द्वितीय पीठ पर दिक्पालों की स्थापना एवं उनका पूजन करना चाहिए। तृतीय पीठ पर क्षेत्रपाल सहित नवग्रह की स्थापना और उनका पूजन करना चाहिए। चतुर्थ पीठ पर सोलह विद्यादेवीयों की स्थापना एवं उनका पूजन करना चाहिए तथा पंचम पीठ पर षट्द्रह देवीयों की स्थापना और उनकी पूजन विधि करनी चाहिए। इस विधि के अन्तर्गत पौष्टिक दण्डक (पाठ) का वर्णन करते हुए कहा गया है कि पौष्टिक कलश को पूर्ण करने तक कम से कम तीन बार पौष्टिक दण्डक का पाठ करना चाहिए तथा कलश पूर्ण हो जाने पर कलश के जल से पौष्टिककर्म करने वालों का कुश द्वारा अभिसिंचन करना चाहिए। इसके साथ ही पौष्टिक कर्म करने योग्य स्थानों पर भी विचार किया गया है। ४. बलिप्रदान विधि- इस अधिकार में बलिशब्द का अर्थ बताया गया है। इसके साथ ही इसमें तीन प्रकार के बलिविधान का वर्णन किया गया है १. जिन प्रतिमा के समक्ष चढ़ाने योग्य बलि २. विष्णु, रुद्र के निमित्त चढ़ाने योग्य बलि और ३. पितृ-व्यवहार के निमित्त चढ़ाने योग्य बलि। ५. प्रायश्चित्तदान विधि - इस अधिकार में प्रायश्चित्त से सम्बन्धित अनेक विषयों पर विवेचन किया गया है हम विस्तारभय से उल्लिखित विषयों का मात्र नामोल्लेख कर रहे हैं। सर्वप्रथम १. प्रायश्चित्त के हेतु २. प्रायश्चित्त का आचरण ३. प्रायश्चित्त देने वाले गुरु के लक्षण ४. प्रायश्चित्त करने वाले के लक्षण ५. आलोचना ग्रहण करने का काल ६. प्रायश्चित्त न करने पर होने वाले दोष ७. प्रायश्चित्त करने पर होने वाले लाभ और ८. प्रायश्चित्त ग्रहण विधि का सम्यक्
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विवेचन किया गया है। उसके बाद १. आलोचना २. प्रतिक्रमण ३. तदुभय ४. विवेक ५. कायोत्सर्ग ६. तप ७. छेद ८. मूल ६. अनवस्थाप्य और १०. पारांचित इन दस प्रकार के प्रारचित्तों का वर्णन किया गया है।
तदनन्तर जीतकल्प, श्रावकजीतकल्प, लघुजीतकल्प एवं व्यवहारजीतकल्प के अनुसार मुनि और श्रावक के द्वारा किये जाने वाले अपराध स्थानों की अपेक्षा कौनसा प्रायश्चित्त कितना दिया जाना चाहिये, उस विधि का प्रतिपादन किया गया है। इसके साथ ही प्रकीर्ण - प्रायश्चित्त और भाव प्रायश्चित्त बताये गये हैं। उसके बाद स्नान के योग्य अर्थात् स्नान करने से जिन पापों की शुद्धि होती हैं ऐसे प्रायश्चित्तों का तप के योग्य प्रायश्चित्तों का, दान के योग्य प्रायश्चित्तों का और विशोधन के योग्य प्रायिश्चित्तों का स्वरूप उल्लिखित किया गया है। अन्त में प्रायश्चित्त सम्बन्धी कोष्ठक दिये गये हैं।
६. आवश्यक विधि- यह अधिकार सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान इन छह आवश्यक विधियों से सम्बन्धित है। इस अधिकार में मुख्य रूप से छः आवश्यकों का विस्तृत वर्णन किया गया है। हम उन विषयों का विशेष प्रतिपादन न करते हुए मात्र संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत करेंगे
इसमें आवश्यक विधि की चर्चा करने से पूर्व १. जीतकल्प सम्बन्धी २. त्रयोदश क्रम से कोष सम्बन्धी ३. निरपेक्ष कृतादि सम्बन्धी ४. ऋतुपरत्व दान सम्बन्धी यन्त्र एवं कोष्ठक दिये गये हैं। उसके पश्चात् षट्- आवश्यक विधि के अन्तर्गत प्रत्येक में अग्रलिखित विषयों पर प्रकाश डाला गया है। सर्वप्रथम चार प्रकार के स्वाध्याय का स्वरूप बताया गया है
सामायिक आवश्यक - इस प्रथम आवश्यक में सामायिक विधि का विवेचन हुआ है इसके साथ पौषध विधि भी कही गई है। राजादि के द्वारा की जाने वाली आवश्यक विधि भी बतायी गई हैं।
चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक - इस दूसरे आवश्यक में चतुर्विंशतिस्तवसूत्र, चैत्यस्तवसूत्र, श्रुतस्तवसूत्र, सिद्धस्तवसूत्र, महावीरस्तवसूत्र इत्यादि की व्याख्या की गई हैं।
वन्दन आवश्यक - इस आवश्यक के अन्तर्गत वन्दन के १६८ प्रकारों पर विचार किया गया है वे प्रकार इस तरह ज्ञातव्य हैं- मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन के पच्चीस प्रकार, शरीर प्रतिलेखना के पच्चीस प्रकार, वन्दन के पच्चीस आवश्यक, वन्दन के छः स्थान, गुरु के छः वचन, वन्दन से होने वाले छः लाभ, वन्दन के योग्य पाँच व्यक्ति, वन्दन के लिए अयोग्य पाँच प्रकार के व्यक्ति, वन्दन सम्बन्धी पाँच उदाहरण, एक अवग्रह, पाँच प्रकार के अभिधान, पाँच प्रकार के प्रतिषेध, गुरु की
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तैतीस आशातना, वन्दना के बत्तीस दोष, वन्दन करने के आठ कारण एवं वन्दन न करने से होने वाले छः दोष इस प्रकार वन्दन सम्बन्धी १६८ विषयों का विवेचन हुआ है। प्रतिक्रमण आवश्यक - प्रतिक्रमण आवश्यक विधि का प्रतिपादन करते हुए निम्न बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है- १. साधु के अतिचारों की आलोचना का स्वरूप २. पाँच प्रकार के आचारों का स्वरूप ३. संघादि से क्षमायाचना का स्वरूप ४. शयन के पूर्व करने योग्य अतिचारों का प्रतिक्रमण ५. शयन सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण ६. भिक्षा में लगे हुए दोषों का प्रतिक्रमण ७. प्रतिलेखनादि अतिचारों का प्रतिक्रमण ८. एक से लेकर तैंतीस स्थानों का प्रतिक्रमण ६. तैंतीस आशातनाओं का प्रतिक्रमण १०. पाक्षिक सूत्र की व्याख्या ११. वंदित्तुसूत्र की व्याख्या १२. व्रतों के अतिचारों का प्रतिक्रमण इत्यादि। कायोत्सर्ग आवश्यक- इस आवश्यक के अन्तर्गत कायोत्सर्ग के दोष, कायोत्सर्ग के विकल्प आदि का वर्णन है प्रत्याख्यान आवश्यक- इस आवश्यक में प्रत्याख्यान का स्वरूप, प्रत्याख्यान की छः शुद्धि, दस प्रकार के प्रत्याख्यान, पिण्डित प्रत्याख्यान आदि का उल्लेख किया गया है। ७. तपविधि - इस अधिकार में तप का स्वरूप, तप करने योग्य श्रावक के गुण तथा तप योग्य शुभ दिनादि का वर्णन किया गया है। तदनन्तर तीन भागों में विभाजित कर ६५ प्रकार की तप विधियों का स्वरूप दर्शाया गया है। १. तीर्थकर परमात्मा द्वारा कहे गये तप- इसमें उपधानादि ११ प्रकार के तप लिये गये हैं। २. गीतार्थों द्वारा आचरित एवं कथित तप- इस दूसरे प्रकार में कल्याणक आदि ५७ प्रकार के तप गिनाये गये हैं। ३. फल प्रधान तप- इस तीसरे प्रकार में रोहिणी आदि २७ प्रकार के तप विधियों का विवेचन किया गया है। प्रस्तुत कृति में इन तपों के यन्त्र भी दिये गये हैं। ५. पदारोपणअधिकार विधि- इस अन्तिम अधिकार में १७ प्रकार के व्यक्ति विशेषों की पदारोपण विधि का उल्लेख किया गया है। उनके नाम निम्न हैं - १. यतियों की पदारोपण विधि २. आचार्य की पदारोपण विधि ३. उपाध्याय की पदारोपण विधि ४. स्थानपति की पदारोपण विधि ५. कर्म अधिकारी की पदारोपण विधि ६. क्षत्रिय की पदारोपण विधि ७. राजा की पदारोपण विधि ८. रानी की पदारोपण विधि ६. सामन्त की पदारोपण विधि १०. मण्लेश्वर की पदारोपण विधि ११. ग्रामाधिपति की पदारोपण विधि १२. मन्त्रि की पदारोपण विधि १३. सेनापति पद पर स्थापित करने की विधि १४. वैश्य और शुद्र की विधि १५. पशुओं की पदारोपण विधि १६. संघपति की पदारोपण विधि १७. नामकरण की विधि इसके
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साथ ही इसमें ४२ प्रकार की मुद्राओं का स्वरूप फलसहित बताया गया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ ४० विधि-विधानों के साथ सम्पूर्ण होता है।
यह कृति संस्कृत प्रधान होने पर भी, इसमें आगमों एवं आगमेत्तर ग्रन्थों से अनेक प्राकृत गाथाएँ निबद्ध की गई हैं। कहीं कहीं तो पूरा का पूरा प्रकरण या ग्रन्थ ही उद्धृत है। जैसे- मानदेवसूरिकृत उपधानविधि, जिसमें ५४ गाथाएँ है वह महानिशीथ से उद्धृत किया गया है। इसके अतिरिक्त कई स्थलों पर प्राकृत गाथाएँ भी दृष्टिगत होती हैं जैसे- व्रतारोपण संस्कार में गुरु के गुण एवं श्रावक के गुणों की गाथाएँ प्राकृत में है। देववन्दन के समय कहे जाने वाला 'अरहणादिस्तोत्र' ३७ गाथाओं में निबद्ध है । परिग्रह परिमाण का टिप्पनक ४६ पद्यों सहित प्राकृत में है । अहोरात्रचर्या विधि के अन्तर्गत उपकरण संख्या सम्बन्धी ५१ गाथाएँ प्राकृत में उद्धृत की गई हैं इत्यादि ।
अन्त में ग्रन्थकार ने प्रशस्ति रूप ३१ श्लोक दिये हैं उनमें उन्होंने परमात्मा महवीर की परम्परा से अपनी परम्परा का सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया है। बीच में हरिभद्रसूरि, अभदेवसूरि, वल्लभसूरि आदि अनेक पूर्वाचार्यों के नाम दिये हैं। उसके बाद स्व परम्परा का उल्लेख करते हुए क्रमशः जिनशेखरसूरि, पद्मचन्द्रगणि, अभयदेवसूरि, देवभद्र, भद्रंकरसूरि, चन्द्रसूरि, विजयचन्द्रसूरि, जिनभद्रसूरि, गुणचन्द्रसूरि उनके शिष्य जयानन्दसूरि और उनके शिष्य वर्धमानसूरि हुए, ऐसा निर्देश किया गया है। ये वर्धमानसूरि खरतरगच्छ की रुद्रपल्लीय शाखा के थे। इसमें ग्रन्थ रचना का प्रयोजन, ग्रन्थ रचना का स्थल, ग्रन्थरचना का काल भी उल्लिखित हुआ है। अन्त में क्षमायाचना करके ग्रन्थ की इति श्री की गई है।
ओघनिर्युक्ति
ओघनिर्युक्ति नामक यह ग्रन्थ' चौथे मूलसूत्र के रूप में माना गया है। इसमें साधुचर्या सम्बन्धी नियम और आचार-विचार विषयक कई प्रकार के विधि-विधान प्रतिपादित किये गये हैं । इसके कर्त्ता आचार्य भद्रबाहुस्वामी है। इस निर्युक्ति पर द्रोणाचार्य ने वृत्ति लिखी है। इसमें ८११ प्राकृत गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ में प्रतिलेखन द्वार, पिंड द्वार, उपधिनिरूपण, अनायतनवर्जन, प्रतिसेवना द्वार, आलोचना द्वार और विशुद्धि द्वार इत्यादि विषयों का निरूपण हुआ है। जैन
,
यह ग्रन्थ द्रोणाचार्यविहित वृत्ति सहित- आगमोदयसमिति, महेसाना, सन् १९१६ में प्रकाशित हुआ है। इसक एक संस्करण सन् १६५७, विजयदानसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला - सूरत से प्रकाशित
है।
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श्रमण-संघ के इतिहास का संकलन करने की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
__ इस ग्रन्थ की विषय वस्तु संक्षेप में इस प्रकार है - प्रतिलेखनाद्वार- प्रतिलेखना का अर्थ है- स्थान आदि का भलीप्रकार निरीक्षण करना। इसके दस द्वार कहे हैं- अशिव, दुर्भिक्ष, राजभय, क्षोभ, अनशन, मार्गभ्रष्ट, मन्द, अतिशय, मन्द, अतिशययुक्त, देवता और आचार्य। इन दस द्वारों में १. देवादिजनित उपद्रव को अशिव कहा गया है तथा अशिव के समय साधुजन देशान्तर में गमन करें, ऐसा निर्देश दिया गया है। २. दुर्भिक्ष होने पर गणभेद करके रोगी साधु को अपने साथ रखने का विधान बतलाया है। ३. राजा किन्हीं कारणों से कुपित होकर साधु का भोजन, पानी या उपकरण को अपहृत करने के लिए तैयार हो जाये तो ऐसी स्थिति में साधु गच्छ के साथ ही रहें। ४. किसी नगर आदि में क्षोभ या आकस्मिक कष्ट के आने पर एकाकी विहार करें। ५. अनशन के लिए संघाड़े (समुदाय) के अभाव में एकाकी गमन करें। ६. रोगपीड़ित होने पर संघाड़े के अभाव में औषधि आदि के लिए एकाकी ही गमन करें। ७. देवता का उपद्रव होने पर एकाकी विहार करें, इत्यादि सूचनाएँ दी गई हैं।
आगे विहार की विधि, मार्ग पूछने की विधि, वर्षाकाल में काष्ठ की पादलेखनिका से भूमि प्रमार्जन करने की विधि, नदी पार करने की विधि आदि का प्रतिपादन किया गया है तथा संयम पालन के लिए आत्मरक्षा को आवश्यक माना गया है। इसी क्रम में ग्राम में प्रवेश, रुग्ण साधु का वैयावृत्य, वैद्य के पास गमन आदि के विषय में बताया गया है कि तीन, पाँच या सात साधु, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, शकुन देखकर जायें। यदि वैद्य किसी अन्य के उपचार में लगा हुआ हो तो उस समय उससे न बोलें, शुचिस्थान में बैठा हो तो रोगी का हाल सुनाये, उपचार विधि को ध्यानपूर्वक सुनें। इसके आगे भिक्षाविधि एवं वसतिविधि के बारे में विवेचन करते हुए कहा गया है कि बाल-वृद्ध साधु को इस कार्य के लिए नहीं भेजना चाहिए। वसति को पंसद करते समय, मल-मूत्र का परिष्ठापन करते समय, भिक्षा ग्रहण करते समय आस-पास के मार्गों को भलीभाँति देखना चाहिए। इसके साथ ही कौनसी दिशा में वसति होने से कलह होता हैं, कौनसी दिशा में उदररोग होता हैं, कौनसी दिशा में पूजा-सत्कार होता है- इसका वर्णन किया गया है। इसमें संथारे के लिए तृण का, अपान प्रदेश पोंछने के लिए मिट्टी आदि के ढेलों का, वसति में ठहरते समय वसति के मालिक से पूछने आदि का भी विचार किया गया है। इसी क्रम में आगे कहा हैसाधु शकुन देखकर गमन करें। किन-किन प्रसंगों में शुभ और अशभ शकुन होते है एवं उनका क्या फल होता है ? यह भी बताया गया है।
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204/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
इसी प्रसंग में कौन किस उपकरण को लेकर गमन करें ? इसका वर्णन किया गया है उस समय आचार्य को सब बातों का संकेत कर देना चाहिए कि हम लोग अमुक समय में गमन करेंगे, अमुक जगह ठहरेंगे आदि इस तरह गच्छ गमन की विधि बतायी गयी है। मार्ग जानने वाले साधु को साथ रखने का एवं वसति में पहुँचकर पांव प्रमार्जन करने का विधान बतलाया गया है। विकाल के समय वसति में प्रवेश करने के दोष बताये गये हैं। आगे वसति में प्रवेश करने के बाद संथारा लगाने की विधि बतलायी गयी है। चोर का भय होने पर मल-मूत्र त्याग की विधि कही गई है। तदनन्तर साधर्मिक कृत्यों पर प्रकाश डाला गया है। साधु के लिए प्रमाणयुक्त वसति में रहने का विधान किया है। आचार्य से पूछकर भिक्षा के लिए गमन करने का वर्णन किया गया है। यदि कोई साधु बिना पूछे ही चला गया हो और समय पर न लौटा हो तो उसकी खोज करने की विधि, भिक्षा के लिए गये हुए साधु को चोर आदि उठा लें जायें तो बंधन से छुड़वाने की विधि, प्रतिलेखना विधि, मल-मूत्र त्याग विधि आदि पर प्रकाश डाला गया है। पिण्डद्वार- इस द्वार में एषणा के तीन प्रकार कहे हैं १. गवेषण-एषणा, २. ग्रहण- एषणा, और ३. ग्रास-एषणा। इस सम्बन्ध में यह निर्देश दिया गया है कि जैन श्रमण को इन तीन प्रकार की एषणाओं से विशुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिये। तदनन्तर चीर प्रक्षालन के दोष, चीर-प्रक्षालन न करने के दोष, रोगियों के वस्त्र बार-बार धोने का विधान, वस्त्रों को कौन से जल से धोना, पहले किसके वस्त्र धोना आदि का विधान, पात्र-लेखन विधि, लेप के प्रकार आदि बताये गये हैं।
इसी क्रम में परग्राम में भिक्षाटन की विधि बताई है। नीचे द्वार वाले घर में भिक्षा न ग्रहण करने का विधान बताया है। भारी वस्तु से ढके हुए आहार को ग्रहण करने का निषेध किया गया है। भिक्षाग्रहण कर वसति में प्रवेश करने की विधि, आलोचना विधि, गुरु को भिक्षा दिखाने की विधि आदि पर प्रकाश डाला गया है। इसी क्रम में आगे आहार करते समय थूकने आदि के लिए तथा अस्थि, कंटक आदि फेंकने के लिए बर्तन रखने का विधान बतलाया गया है। भोजन का क्रम, भोजन-शुद्धि, भोजन करने के कारण बताये गये हैं। बची हुई भिक्षा के परित्याग की विधि, स्थंडिल में मल आदि के त्याग की आवश्यक विधि एवं आवश्यक के लिए कालविधि का प्ररूपण किया गया है। उपधिद्वार- इस द्वार में जिनकल्पी मुनि के लिए बारह, स्थविरकल्पी मुनि के लिए चौदह और साध्वियों के लिए पच्चीस उपकरण बताये गये हैं। इसकी चर्चा
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/205
यथाप्रसंग विस्तार से करेंगे। आगे पात्र का लक्षण, पात्र ग्रहण करने की आवश्यकता, पात्र के प्रयोजन आदि बताये गये हैं। तदनन्तर अनायतनवर्जन द्वार, (७६२-८४), प्रतिसेवना द्वार (७८५-८८), आलोचना द्वार- (७८६-६१) एवं विशुद्धि द्वार (७६२-८०४) का निरूपण किया गया है। संक्षेपतः यह ग्रन्थ जैन मनि की आचारविधि का विशद निरूपण करने वाला और विस्तृत प्रतिपादन करने वाला है। इसमें जैन मुनि की आवश्यक एवं आचार विषयक प्रायः सभी प्रकार के विधि-विधान उल्लिखित हुए हैं। उपस्थानविधि
यह कृति शिवनिधानगणि की है। इसमें उपस्थापना (बड़ी दीक्षा) विधि का वर्णन हुआ है। उपासकसंस्कार
इसके कर्ता दिगम्बर मुनि पद्मनन्दि है। यह रचना संस्कृत के ६२ पद्यों में है।' इसमें श्रावक के संस्कार ग्रहण का विवेचन हुआ है। उपधानस्वरूप
इसका लेखन श्री देवसूरि ने किया है। इसमें भी उपधानविधि का स्वरूप विवेचित है। उपधानविधि
यह रचना अज्ञातकर्तृक है। अनेक ज्ञान भंडारों में उपलब्ध है। उपधानपौषधविशेषविधि
___ इसके कर्ता श्री चक्रेश्वरसूरि है। इसमें उपधान और पौषध दोनों प्रकार की विधियों का विवेचन हुआ है। उपाध्यायपदोपस्थान
यह रचना अप्रकाशित है। हमें उपलब्ध भी नहीं हुई है। इसके बारे में इतना निःसंदेह कह सकते हैं कि इसमें उपाध्यायपदस्थापना विधि का उल्लेख हुआ है।
' जिनरत्नकोश पृ. ५६ २ वही, पृ. ५४ ३ वही पृ. ५४ ४ वही, पृ. ५५
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206 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
उपधान-विधि तथा पोसह - विधि
यह कृति' गुजराती गद्य में निबद्ध है। इसका संपादन पं. कंचनविजय गणि ने किया है। प्रकाशन की दृष्टि से यह पुस्तक अवश्य ही अर्वाचीन है वस्तुतः ये विधान शास्त्रसम्मत एवं तीर्थंकरोपदिष्ट हैं। उपधान एवं पौषध सम्बन्धी अनेक कृतियाँ मेरे देखने में आई हैं किन्तु इन विधियों का क्रमिक एवं विस्तृत स्वरूप जो यहाँ वर्णित हैं वह अन्यत्र दुर्लभ प्रायः है। इसमें उल्लिखित कुछेक विधान तो तत्सम्बन्धी ग्रन्थों में समतुल्य ही है। दूसरी बात आधुनिक आराधकों के बोध के लिए यह कृति अधिक लाभदायी प्रतीत होती है। इसकी विषय वस्तु अवश्यमेव ही पठनीय हैं। हम विषय वस्तु का नाम निर्देश मात्र कर रहे हैं वह इस प्रकार है
(क) उपधान विधि की विषयवस्तु
१. उपधान अर्थात् क्या? २. उपधान शब्द का अर्थ ३. उपधान करने की आवश्यकता ४. उपधान के पयार्यवाची नाम दिवस, तप आदि ५. उपधान तप के एकाशन में ग्रहण करने योग्य भोज्य पदार्थ ६. उपधान की वाचनाएँ ७. उपधान प्रवेश विधि एवं प्रभातकालीन विधि ८ सन्ध्याकालीन अनुष्ठान विधि ६. प्रतिदिन करने योग्य क्रिया विधि १०. कायोत्सर्ग विधि ११. खमासमण विधि १२. स्वाध्याय ध्यान विधि १३. पुरुषों के रखने योग्य उपकरण १४. स्त्रियों के रखने योग्य उपकरण १५. वाचना - ग्रहण करने की विधि १६. आलोचना में दिन किन कारणों से गिरते हैं? १७ उपधान में आलोचना किन कारणों से आती हैं? १८. मालापरिधान विधि १६. आलोचना ग्रहण विधि २०. उपधान सम्बन्धी विशेष ज्ञान बिन्दू २१. देववंदन विधि २२. छः घडी दिन का भाग बीतने पर पोरिसी पढाने की विधि २३. रात्रिक मुहपत्ति प्रतिलेखन विधि २४ प्रत्याख्यान विधि २५. पौषध - ग्रहण विधि २६. सन्ध्याकालीन प्रतिलेखन विधि २७. चौबीस मांडला विधि २८. संथारा पोरिसी विधि २६. स्थंडिल गमन विधि ३०. पौषध पारण विधि ३१. उपधान में कम्बली ओढने का काल - अचित्त पानी का काल ३२. जिनमंदिर- दर्शन गमन विधि ३३. सामायिक में वर्जन करने योग्य बत्तीस दोष ३४. कायोत्सर्ग में वर्जन करने योग्य उन्नीस दोष ३५ तप चिंतन कायोत्सर्ग विधि इत्यादि ।
पौषध विधि की विषयवस्तु
प्रायः उपधान और पौषध में की जाने वाली क्रियाएँ समान ही होती हैं क्योंकि उपधान - पौषध पूर्वक ही होता है तथापि इसमें पौषध सम्बन्धी कई
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यह वि.सं. २००५ में, धीरजलाल प्रभुदास वेलाणी, भावनगर से प्रकाशित है।
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विशेष बिन्दू दिये गये हैं जो जानने योग्य हैं और पौषध विधि को सफल बनाने वाले हैं। इसमें 'पौषध विधि' से सम्बन्धित सभी सूत्र दिये गये हैं। यह इस कृति की विशिष्टता है।
पौषध विधि की विषय वस्तु नामनिर्देश रूप में इस प्रकार है :- १. पौषध ग्राही के लिए जानने योग्य सूचनाएँ २. पौषध कब लेना चाहिए? ३. पौषध के लिए आवश्यक उपकरण ४. मूत्र-विसर्जन गमन विधि ५. स्थंडिल गमन विधि ६. पौषध लेने के बाद रात्रिक प्रतिक्रमण करना हो तो उसकी विधि ७. पौषध ग्रहण की विधि ८. पौषध ग्रहण पाठ ६. पौषध ग्रहण करने के बाद प्रभातकालीन प्रतिलेखन की विधि १०. देववंदन की विधि ११. रात्रिक मुहपत्ति प्रतिलेखन की विधि १२. प्रत्याख्यान पारने की विधि १३. पौषधधारी ने आयंबिल नीवि या एकाशन किया हो उसकी विधि १४. भोजन के बाद चैत्यवंदन करने की विधि १५. रात्रिक पौषध ग्रहण विधि १६. सन्ध्या को प्रतिक्रमण करने के पूर्व करने योग्य क्रियाएँ १७. रात्रिक पौषधधारी के लिए रात्रिक प्रतिक्रमण की विधि १८. पौषध में टालने योग्य १६. पौषध के पाँच अतिचार इत्यादि। इस कृति के अन्त में पिस्तालीशआगम तप और चौदह पूर्व तप की विधि भी दी गई है। स्पष्टतः इस कृति का संकलन अनेक दृष्टियों से उपयोगी है। उपधान विधि
यह एक संकलित कृति' है। इसका संयोजन तपागच्छीय रामचन्द्रसूरि के शिष्य कान्तिविजय गणि ने किया है। यह कृति गुजराती भाषा में है। इस कृति की प्रस्तावना पढ़ने जैसी है। इसमें उपधान शब्द की व्युत्पत्ति 'उपदधाति पुष्णाति श्रुतमित्युपधानम' की है और लिखा है कि यहाँ जीतव्यवहार के अनुसार उपधानविधि कही गई है। तत्संबंधी विशेष अधिकार महानिशीथसूत्र में दृष्टिगोचर होता है साथ ही महानिशीथसूत्र का योग किया हुआ साधु ही उपधान तप करवाने का अधिकारी होता है ऐसा निर्दिष्ट किया है।
अब, प्रस्तुत कृति में उपधान विधि से सम्बन्धित जो कुछ कहा गया है उनका नामोल्लेख इस प्रकार है- १. प्रथम उपधान में प्रवेश करने की विधि २. देववन्दन विधि ३. सप्त खमासमण विधि ४. प्रवेदणा (नंदि) विधि ५. द्वितीय उपधान में प्रवेश करने की विधि ६. तृतीय, चतुर्थ, पंचम और षष्टम उपधान में प्रवेश करने की संक्षिप्त विधि। ७. प्रातः काल में पुरुषों को करवाने योग्य क्रिया विधि ७.१ प्रतिलेखन विधि ७.२ देववन्दन विधि ७.३ प्रवेदना (पवेयणा) विधि
' यह कृति श्री सिहोर जैन संघ- ज्ञान खाता से वि.सं. २५०२ में प्रकाशित हुई है।
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208/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
७.४ रात्रिक मुँहपत्ति प्रतिलेखन विधि ८. प्रतिदिन सायंकाल में पुरुषों को करवाने की क्रिया ८.१ सन्ध्याकालीन प्रतिलेखन विधि ६.२ चौबीस मांडला विधि ६. श्राविकाओं को प्रतिदिन प्रातःकाल में करवाने योग्य विधियाँ १०. श्राविकाओं को प्रतिदिन सन्ध्याकाल में करवाने योग्य विधियाँ ११. वाचना विधि- इसमें नमस्कार मंत्र आदि सूत्रों की जितनी-जितनी वाचनाएँ होती हैं सभी की पृथक्-पृथक् विधि कही गई हैं। १२. कायोत्सर्ग विधि १२.१ खमासमण विधि १३. नवकारवाली गिनने की विधि १४. उपधान में प्रतिदिन करने योग्य क्रियाएँ १५. उपधान में किन कारणों से दिन गिरते हैं ? १६. उपधान में आलोचना के कारण १७. मालारोपण विधि १७.१ समुद्देश विधि १७.२ अनुज्ञा विधि १८. माला भूमि पर गिर जाये तो पुनः अभिमन्त्रित करने की विधि १६. आलोचना ग्रहण विधि २०. पाली पलटवा विधि। इस कृति के अंत में 'उपधानमंत्र' भी दिया गया है। उपधान विधान
इस पुस्तक का लेखन विजयदक्षसूरि ने किया है। यह कृति' गुजराती में है। इसमें उपधान संबंधी आवश्यक विधि-विधान संकलित किये गये हैं। इसके साथ उपधान का स्वरूप, उपधान की महिमा, उपधान की विशिष्टता, उपधान तप से होने वाले महान् लाभ, उपधान की आराधना करने वालों के लिए उपयोगी सूचनाएँ, उपधान तप में दिन गिरने के कारण, आलोचना के कारण, प्रतिदिन की आवश्यक क्रियाएँ, स्थापनाचार्यजी खुल्ले रखकर करने योग्य क्रियाएँ इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। उपधान स्वरूप
___ यह पुस्तक गुजराती गद्य में है। इसका लेखन धीरजलाल टोकरशी शाह ने किया है। यह कृति उपधान करने वालों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। इस कृति के प्रारम्भ में यह बताया गया हैं कि उपधान क्रिया गुरु की निश्रा में ही क्यों करनी चाहिए? उसके बाद उपधान करने के पूर्व श्रावक को दृढ़ श्रद्धावाला और गृह एवं व्यापार की चिन्ता से मुक्त होने का निर्देश किया है। इसके पश्चात श्रावक और श्राविका के लिए उपधान तप में अवश्य रखने योग्य वस्त्र एवं उपकरणों की चर्चा की है। तदनन्तर क्रमशः तपागच्छीय परम्परानुसार छः प्रकार के उपधान और उनके दिन एवं तप का परिमाण बताया गया है। तदनन्तर छः प्रकार के उपधान की वाचना विधि
' यह कृति वि.सं. २०२८ में, श्री ऊंझा जैन संघ (उ.गु.) द्वारा प्रकाशित हुई है। २ यह कृति श्री विजयदानसूरीश्वर जी जैन ग्रन्थमाला-गोपीपुरा, सूरत से वि.सं. २०१२ में प्रकाशित हुई है।
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बताई गई है । उपधान तप में प्रवेश करने वाले साधकों को कब कौन सी क्रिया आदि करनी चाहिए इसका भी निर्देश किया गया है। इसके साथ ही उपधान तप में किन कारणों और किन दोषों से वह दिन निरस्त माना जाता है, किन कारणों से आलोचना आती है, आदि की चर्चा है। उपधान क्रिया के सम्बन्ध में सामान्य जानकारी और अनेक सूचनाएँ भी दी गई हैं।
तदनन्तर उपधान विषयक विधि-विधानों का निरूपण किया गया है। उनके नाम निर्देश इस प्रकार हैं- १. उपधान में प्रवेश करने की विधि २. प्रातः कालीन गमनागमन की आलोचना विधि ३. १०० लोगस्ससूत्र के कायोत्सर्ग की विधि ४. पौषध ग्रहण विधि ५. सामायिक ग्रहण विधि ६. 'बहुवेलं' आदेश लेने की विधि ७. प्रतिलेखना विधि ८. पवेयणा (प्रवेदन ) विधि ६. स्वाध्याय विधि १०. रात्रिक मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन विधि ११. देववंदन विधि १२. पौरिसी पढ़ने की विधि १३. नमस्कारमंत्र गिनने की विधि १४. प्रत्याख्यान पारने की विधि १५. सन्ध्याकालीन क्रिया विधि १६. चौबीस मांडला विधि १७. श्राविकाओं के लिए विशेष विधि १८. संथारा पौरुषी पढ़ने की विधि १६. माला पहनने की विधि
स्पष्टतः यह कृति आकार में लघु है किन्तु उपधानविधि का सर्वांग विवेचन प्रस्तुत करती है।
उपधानप्रकरण
इसके रचयिता मानदेवसूरि है। यह प्रकरण अति प्रचलित है। विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर, नमस्कारस्वाध्याय आदि ग्रन्थों में इसको उद्धृत किया गया है । इस प्रकरण में सात प्रकार के उपधान का सविधि प्रतिपादन हुआ है। यह प्राकृत पद्य में है । '
जैन संस्कार रीति रिवाज एवं जैन विवाह विधि
यह पुस्तक एम. पी. जैन द्वारा संकलित की गई है। यद्यपि रचना सामग्री एवं आकार की दृष्टि से लघु है, तथापि गृहस्थ आश्रम में रहने वाले साधकों की दृष्टि से परम उपयोगी है। इसमें जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितने विधि-विधान एवं संस्कार सम्पन्न किये जाते हैं वे सभी जैन पद्धति के आधार पर प्रस्तुत किये गये हैं। पुस्तक की विषयवस्तु पढ़ने से ज्ञात होता है कि इसमें उल्लिखित विधि-विधान जैन परम्परा के सभी अनुयायियों के लिए सर्व सामान्य है। वस्तुतः गृहस्थ साधकों के लिए स्वपरम्परा का पालन करने हेतु इसमें प्रतिपादित प्रत्येक विधान पढ़ने योग्य, जानने योग्य और सम्पन्न करने योग्य हैं।
' जिनरत्नकोश पृ. ५४
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210 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
इस कृति के प्रारंभ में संकलनकर्ता द्वारा मंगलाचरण के निमित्त एक श्लोक दिया गया है। उसमें अनेक विशेषणों के साथ चरम तीर्थाधिपति महावीर प्रभु को वन्दन किया गया है । अन्त में प्रशस्ति रूप छः श्लोक दिये गये हैं उससे ज्ञात होता है कि संकलनकर्त्ता खरतरगच्छ परम्परा के अनुयायी है- उन्होंने अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार दी है- खरतरगच्छीय मंडन जिनकीर्तिरत्नसूरि हुये, उस शाखा के अन्तर्गत क्रियोद्धार करने वाले जिनकृपाचन्द्र सूरि हुये हैं, उनके शिष्य उपाध्याय सुखसागर हुए, उनके शिष्य मुनि मंगलसागर के द्वारा प्रस्तुत कृति विधिप्रपादि प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार, वि. सं. १६६७ नागपुर में तैयार की गई है। मुख्यतः इसमें दो प्रकार के विधि-विधान दिये गये हैं १ प्रथम प्रकार के विधि-विधान सोलह संस्कारों से सम्बन्धित है २. दूसरे प्रकार के विधि-विधान जैन विवाह पद्धति से सम्बद्ध है।
इस कृति में सोलह संस्कारों से सम्बन्धित निम्नलिखित विषयों पर चर्चा हुई है यथा- गर्भाधान संस्कार विधि, स्नान विधि, चूड़ा पहनाने की विधि, मंदिर दर्शन विधि, शिशु को जैन बनाने की विधि, घाट ओढ़ने ( सौभाग्यसूचक लालरंग की साड़ी ओढ़ने) की विधि, जैन पद्धति के अनुसार जन्मदिन मनाने की विधि । इसके साथ विदेशी एवं आधुनिक संस्कृति के आधार पर जन्मदिन मनाने की रीति भी दिखलायी गई है। इसमें जैन पद्धति से विवाह सम्पन्न करने की विधि बतलायी गई हैं जैसे १. तिलक लगाना, २ . सगाई करना ३. निमन्त्रण पत्र प्रेषित करना ४. मूंग हाथ में लेना ५. कलश या भांड़ा लाना ६. बिन्दोरा जिमाना ७. बत्तीसी न्यौतना ८. मायरा भरना ६. भियाना या उसरी करना - इस विधान में वर या वधू को चौकी पर बिठाकर और रोली का तिलक लगाकर पताशे को घी में करके खिलाया जाता है। १०. पीठी लगाना ११. तेल चढ़ाना १२. फेरों के लिए वेदी की रचना करना १२.१ स्तंभारोपण ( यह चंवरी के दक्षिण-पश्चिम कोने में किया जाता है ) १३. चँवरी बनाना १४. तोरण बांधना १५. बारात का स्वागत करना १६. वरमाला पहनाना १७. प्रीतिभोज करना १८. फेरे का संस्कार करना १६. कन्या को विदाई देना २०. मसेडे की रीति करना- इसमें विवाह के दूसरे दिन वर-वधू को कन्या के पिता के घर भोजन हेतु बुलाया जाता है फिर कन्या को भेंट दिया हुआ सामान देकर विदा किया जाता है और भी क्रियाएँ होती हैं। २१. वर पक्ष के रीति-रिवाज - जैसे वर निकासी करना ( यह विधि बारात प्रस्थान के समय की जाती है, टूटया करना- अर्थात् बारात प्रस्थान होने के बाद महिलाओं द्वारा किया गया मनोरंजन, दूल्हा-दुल्हन का गृह प्रवेश, सुहाग थाल लूटाना इत्यादि विधियों का निरूपण किया गया है।
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इसके साथ मंत्रोच्चारण पूर्वक सम्पन्न किये जाने वाले विधि-विधान भी दिये गये हैं यथा- १. पाणिग्रहण संस्कार विधि २. कन्यादान विधि ३. सात प्रदक्षिणा (फेरा) विधि | अन्त में वधू के प्रति वर के सात वचन और वर के प्रति कन्या के सात वचन बताये गये हैं।
जैनविवाह पद्धति
इस नाम की दो कृतियाँ है एक कृति जिनसेन द्वारा रची गई है। दूसरी अज्ञातकर्तृक है। तीसरी कृति 'जैनविवाहविधि' के नाम से है। इन तीनों कृतियों में जैन परम्परा के अनुसार विवाह करने की रीति बतलायी गई है। '
जैन विवाह पद्धति
यह संकलित पुस्तिका है। पं. हंसराज शास्त्री ने श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार इसमें जैन विवाह पद्धति का संग्रह किया है। इस कृति में विवाह से पूर्व की विधि, तोरण प्रतिष्ठा विधि, वर द्वारा संकल्प विधि, अग्नि स्थापना विधि, ग्रन्थि बंधन विधि, कंकण बंधन विधि, वर और वधू के परस्पर में एक-दूसरे के लिए सात-सात प्रतिज्ञा वचन कर मोचन, ग्रन्थि - मोचन, विसर्जन विधि इत्यादि का वर्णन हुआ है।
दीक्षा - बडी दीक्षादि विधि-संग्रह
यह पुस्तक अचलगच्छीय मान्यतानुसार रची गई है। इस कृति की लिपि गुजराती है। यह मुख्यतः प्राकृत भाषा में है। यह रचना अपने नाम के अनुसार दीक्षा - बड़ी दीक्षा आदि स्वीकार करने से सम्बन्धित विधियों का विवेचन करती हैं। इस कृति में उल्लिखित विधियों निम्न हैं -
१. दीक्षा ग्रहण करने की विधि २. योग में प्रवेश करने की विधि ३. प्रवेदन करने की विधि ४. सन्ध्या के समय करने योग्य विधि ५. योग संबंधी यन्त्र ६. कायोत्सर्ग विधि ७. योग में से बाहर निकलने की विधि ८. अनुयोग विधि ६. बडी दीक्षा ग्रहण करने की विधि १०. मांडले के सात आयंबिल की विधि |
यह संग्रह पूर्णचन्द्रसूरीजी द्वारा संकलित किया गया है तथा वासरड़ा श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ ता. वाव, बनासकांठा, से प्रकाशित है।
जिनरत्नकोश पृ. १४५
२
यह कृति सन् १६३८ में श्री जैन सुमति मित्र मण्डल जैन बाजार, रावलपिंडी सिटी से प्रकाशित है।
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212/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
दीक्षाविधि तथा व्रतविधि
यह अज्ञातकर्तृक रचना प्राकृत एवं गुजराती मिश्रित गद्य में गुम्फित है और अत्यन्त संक्षिप्त है।' संभवतः यह कृति संकलित की हई प्रतीत होती है। इसमें अपने नाम के अनुसार दीक्षा एवं व्रत सम्बन्धी विधियों का उल्लेख हुआ है। इस कृति में निम्नविधियाँ दी गई हैं- १. दीक्षा ग्रहण करने की विधि २. ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने की विधि ३. बीशस्थानक आदि तप ग्रहण करने की विधि ४. पैंतालीसआगम की तप आराधना विधि ५. चौदहपूर्व की तप आराधना विधि।
प्रस्तुत प्रति के अवलोकन से इतना स्पष्ट होता है कि यह कृति देवमुनि के शिष्य धरणेन्द्र मुनि की प्ररेणा से प्रकाशित हुई है। इस कृति में दीक्षाविधि का उल्लेख तपागच्छीय परम्परानुसार हुआ है। दीक्षाविधि
__ हमें जिनरत्नकोश में जैनदीक्षाविधि सम्बन्धी सात कृतियों के नाम देखने को मिले हैं उनमें 'दीक्षाकुलक' 'दीक्षादिविधि' 'दीक्षापटल' ये तीन कृ तियाँ बंगाल के ज्ञानभंडारों में सुरक्षित हैं। इसका विवरण उपलब्ध नहीं हुआ है। 'दीक्षाद्वात्रिंशिका' नामक रचना दिगम्बर मुनि परमानन्द की है। 'दीक्षाविधानपंचाशक' आचार्य हरिभद्रसूरि का है। 'दीक्षाविधि' नाम की दो कृ तियाँ एक प्राकृत में हैं और एक संस्कृत में है। ये रचनाएँ हंसविजयजी की । लायब्रेरी में मौजूद हैं। दीक्षाविधि
यह कृति संस्कृत-हिन्दी मिश्रित भाषा में है। इसमें मूलतः विधिमार्गप्रपा आदि ग्रन्थानुसार दीक्षा विधि का संकलन किया गया है। इसका संशोधन आनन्दसागर जी ने किया है। यह दीक्षाविधि खरतरगच्छ की परम्परानुसार निर्दिष्ट है। इसमें दीक्षाविधि से सम्बन्धित निम्न विधान कहे गये हैं - १. दीक्षा ग्रहण से पूर्व दिन की विधि २. दीक्षा के दिन नन्दी स्थापना हेतु करने योग्य विधियाँ २.१ नन्दी स्थापना विधि। २.२ दिक्पाल स्थापना विधि। २.३ नवग्रह स्थापना विधि। ३. दीक्षा विधि- इसके अन्तर्गत निम्न विधान सम्पन्न किये जाते हैं- ३.१ दीक्षा का निर्णय, २. दीक्षार्थी की परीक्षा, ३. दीक्षार्थी माता-पिता द्वारा अनुमति ग्रहण, ४. देववन्दन-विधि, ५. उपकरण मंत्र विधान, ६. वेश अर्पण, ७.
' इसका प्रकाशन वि.सं. १६७४ में श्री यशोविजय जैन ग्रन्थमाला से हुआ है। २ जिनरत्नकोश पृ. १७४-१७५
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 213
वेश धारण, ८. चोटी- ग्रहण, ६. सम्यक्त्व सामायिक - देशविरतिसामायिक का स्वीकार, १०. अक्षत अभिमन्त्रण - विधि, १२. स्तोभवन्दन - विधि ४. नूतननामकरण - विधि । ५. गुरु द्वारा नवीन साधु को धर्मोपदेश । ६. विसर्जन विधि १. दशदिक्पाल विर्सजन, २. नवग्रह विसर्जन एवं ३. नन्दि विसर्जन विधि ' दीक्षा-योगविधि
यह भी एक संकलित की गई कृति है। इसका सम्पादन योगिराज शान्तिविमलगणि ने किया है। यह प्राचीन गुजराती भाषा में निबद्ध है। इस कृति में तपागच्छीय परम्परानुसार विधियों का संग्रह किया है। यद्यपि दीक्षा विधि का विवरण कई ग्रन्थों में उपलब्ध होता है किन्तु दीक्षाविधि के साथ-साथ उपस्थापना ( बडी दीक्षा) की भूमिका में प्रवेश करने के लिए आवश्यकसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र और मांडली के योग ( तप अनुष्ठान ) अनिवार्यतः करने होते हैं इन योग विधियों सम्बन्धी और दीक्षा सम्बन्धी ये सभी विधि-विधान एक साथ संकलित हों और वह भी पूर्ण स्पष्टता के साथ हों उस सम्बन्ध में हमें यह प्रथम कृति देखने को मिली है। इसमें योग विधियों का विस्तार के साथ निरूपण हुआ है। इसमें कुछ अन्य विधियाँ भी दी गई है।
प्रस्तुत कृति में संकलित विधियाँ निम्नलिखित हैं- १. दीक्षा ग्रहण विधि २. उपस्थापना विधि ३. व्रतोच्चारण विधि- इसमें ब्रह्मचर्यव्रत, बीशस्थानक तप ज्ञानपंचमी तप, रोहिणी तप, मौनएकादशी तप, बारहव्रत और सम्यक्त्वव्रत इन सभी तपों एवं व्रतों को ग्रहण करने की विधियाँ दी गई हैं । ४. संघपति को तीर्थमाल पहराने की विधि ५. बारह मास में कायोत्सर्ग करने की विधि ६. लोच करने की विधि ७. आवश्यकसूत्र योग विधि - इस सूत्र का योग आठ दिन में पूरा होता है। इसमें आठ ही दिनों की विधियाँ पृथक्-पृथक् दी गई है। वे इस प्रकार हैं- १. आवश्यकसूत्र के प्रथम दिन की विधि १.१ आवश्यकसूत्र योग में प्रवेश करने की विधि १.२ आवश्यक श्रुतस्कंध के उद्देशनंदी की विधि १.३ आवश्यक श्रुतस्कंध की उद्देश विधि १.४ आवश्यक श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन की उद्देश विधि १.५ आवश्यक श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन की समुद्देश विधि १.६ आवश्यक श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन की वाचना विधि १.७ आवश्यक श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन की अनुज्ञा विधि १.८ प्रवेदन विधि १.६ स्वाध्याय (सज्झाय ) विधि २. आवश्यकसूत्र के द्वितीय दिन की विधि २.१ आवश्यक श्रुतस्कंध के दूसरे अध्ययन की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञा विधि और
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यह पुस्तक श्री आनन्द ज्ञान मन्दिर, सैलाना से वि.सं. २०५१ में प्रकाशित हुई है।
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214/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
प्रवेदन विधि ३. आवश्यकसूत्र के तृतीय दिन की विधि- ३.१ आवश्यक श्रुतस्कंध के तीसरे अध्ययन की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञाविधि और प्रवेदन विधि ४. आवश्यकसूत्र के चतुर्थ दिन की विधि- ४.१ आवश्यक श्रुतस्कंध के चौथे अध्ययन की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचन विधि, अनुज्ञाविधि और प्रवेदन विधि ५. आवश्यकसूत्र के पंचम दिन की विधि- ५.१ समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञाविधि और प्रवेदन विधि ६. आवश्यकसूत्र के षष्ठम दिन की विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञाविधि और प्रवेदन विधि ७.
आवश्यकसूत्र के सप्तम दिन की विधि- ७.१ आवश्यक श्रुतस्कंध की समुद्देश विधि, वाचना विधि एवं प्रवेदन विधि ८. आवश्यकसूत्र के अष्टम दिन की विधि८.१ आवश्यक श्रुतस्कंध की अनुज्ञानंदी विधि, आवश्यक श्रुतस्कंध की अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि ६. पाली प्रवेदन (पवेयणा) विधि- आवश्यक सूत्र योग के मूल दिन पूर्ण होने के बाद वृद्धि के चार दिन तथा अन्य दिन गिरे हों, तो उन दिनों में करने की विधि ८. श्री दशवैकालिकसूत्र योग विधि- इस सूत्र के योग पन्द्रह दिन में पूरे होते हैं। प्रत्येक दिन की पृथक्-पृथक् विधि इस प्रकार है
१. दशवैकालिकसूत्र के पहले दिन की विधि- १.१ दशवैकालिकसूत्र के योग में प्रवेश करने की विधि १.२ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के उद्देश-नंदी की विधि १.३ दशवकालिक श्रुतस्कंध की उद्देश विधि १.४ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन की उद्देश विधि १.५ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन की समुद्देश विधि १.६ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन की वाचना विधि १. ७ दशवकालिक श्रुतस्कंध के प्रथम अध्ययन की अनुज्ञा विधि १.८ प्रवेदन विधि। २. दशवैकालिकसूत्र के दूसरे दिन की विधि- २.१ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के दूसरे अध्ययन की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि। ३. दशवकालिक सूत्र के तीसरे दिन की विधि- ३.१ दशवकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन की उद्देश विधि, समद्देश विधि, अनुज्ञाविधि और प्रवेदन विधि। ४. दशवैकालिकसूत्र के चौथे दिन की विधि- ४.१ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के चौथे अध्ययन की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि। ५. दशवैकालिकसूत्र के पाँचवे दिन की विधि- ५.१ दशवकालिक श्रुतस्कंध के पाँचवे अध्ययन की उद्देश विधि, पाँचवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक की उद्देश विधि, द्वितीय उद्देशक की उद्देश विधि, प्रथम-द्वितीय उद्देशक की समुद्देश विधि, पाँचवें अध्ययन की समुद्देश विधि, वाचना विधि, प्रथम-द्वितीय उद्देशक की अनुज्ञा विधि, पाँचवे अध्ययन की अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि। ६. दशवैकालिक सूत्र के छठे दिन की विधि- ६.१ दशवकालिक श्रुतस्कंध के छठे अध्ययन की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि ७.
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दशवैकालिक - सूत्र के सातवें दिन की विधि - ७ . १ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के सातवें अध्ययन की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि ८. दशवैकालिक सूत्र के आठवें दिन की विधि - ८. १ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के आठवें अध्ययन की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञाविधि और प्रवेदन विधि । ६. दशवैकालिकसूत्र के नौवें दिन की विधि - ६.१ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के नवमें अध्ययन की उद्देश विधि नवमें अध्ययन के प्रथम उद्देशक की उद्देश विधि, द्वितीय उद्देशक की उद्देश विधि, प्रथम द्वितीय उद्देशक की समुद्देश विधि, वाचना विधि, प्रथम द्वितीय उद्देशक की अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि । १०. दशवैकालिकसूत्र के दशवें दिन की विधि - १०. १ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के नवमें अध्ययन के तृतीय उद्देशक की उद्देश विधि, नवमें अध्ययन की समुद्देश विधि, वाचना विधि, तृतीय - चतुर्थ उद्देशक की अनुज्ञा विधि, नवमें अध्ययन की अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि । ११. दशवैकालिकसूत्र के ग्यारहवें दिन की विधि- ११.१ दशवैकालिक श्रुतस्कंध के दशवें अध्ययन की उद्देश विधि, समुदेश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि । १२. दशवैकालिकसूत्र के बारहवें दिन की विधि - १२. १ दशवैकालिक श्रुतस्कंध की प्रथम चूलिका की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि । १३. दशवैकालिकसूत्र के तेरहवें दिन की विधि - १३. १ दशवैकालिक श्रुतस्कंध की द्वितीय चूलिका की उद्देश विधि, समुद्देश विधि, वाचना विधि, अनुज्ञा विधि और प्रवेदन विधि। १४. दशवैकालिकसूत्र के चौदहवें दिन की विधि - १४. १ दशवैकालिक श्रुतस्कंध की समुद्देश विधि, वाचना विधि और प्रवेदन विधि । १५. दशवैकालिकसूत्र के पन्द्रहवें दिन की विधि - १५.१ दशवैकालिक श्रुतस्कन्ध की अनुज्ञा नंदी की विधि, श्रुतस्कंध की अनुज्ञा विधि एवं प्रवेदन विधि | १६. दशवैकालिकसूत्र की पाली प्रवेदन विधि | ६. मंडली योग विधि - मंडली योग करते समय प्रतिदिन करने योग्य एवं सन्ध्या के समय करने योग्य क्रिया विधि १०. आवश्यकसूत्र के योग से बाहर निकलने की विधि ११. दशवैकालिकसूत्र के योग से बाहर निकलने की विधि १२. पाली परिवर्तन ( तप परिवर्तन) की विधि
इसमें आवश्यकसूत्रयोग, दशवैकालिकसूत्रयोग एवं मांडलीयोग सम्बन्धी यंत्र ( कोष्ठक) भी दिये गये हैं । प्रस्तुत कृति का अवलोकन करने से निःसन्देह स्पष्ट होता है कि यह दीक्षा विधि की बहुउपयोगी रचना है । '
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यह कृति श्री अमृत - हिम्मत - शान्तिविमलजी जैन ग्रन्थमालावती श्री जसवंतलाल गिरधरलाल शाह कुबेरनगर, अहमदाबाद, वि. सं. २०१८ से प्रकाशित है।
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216/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
द्वादशव्रतोच्चारणविधि
___ यह कृति अज्ञातकर्तृक प्राकृत भाषा में निबद्ध है। हमें देखने को नहीं मिली हैं किन्त कृतिनाम से इतना स्पष्ट है कि इसमें जैन गृहस्थ के बारहव्रत स्वीकार करने की विधि उल्लिखित हुई है। द्वादशव्रतपूजाविधान
यह अज्ञातकर्तृक रचना पूना भंडार में उपलब्ध है। इसमें अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि गृहस्थ के बारहव्रत की पूजाविधि दी गई हैं, ऐसा कृति नाम से सूचित होता है।' धर्मबिन्दुप्रकरण
धर्मबिन्दुप्रकरण नामक यह ग्रन्थ आचार्य हरिभद्रसूरि का है। यह संस्कृत गद्य एवं पद्य मिश्रित शैली में रचा गया है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल ८ वीं शती माना जाता है। यह गृहस्थ और साधु सम्बन्धी विधि-विधानों का आकार ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु पठनीय-माननीय एवं अनुकरणीय है। इसमें गृहस्थ-साधु दोनों की प्रारम्भिक भूमिकाओं का सुन्दर वर्णन किया गया हैं। इस ग्रन्थ के नाम से यह स्पष्ट होता हैं कि इसमें धर्म के आवश्यक बिन्दु कहे गये हैं।
'धर्म' भारतीय संस्कृति का अत्यंत महत्त्वपूर्ण और अतिप्रिय विषय रहा है। धर्म के विषय को लेकर भारत में जितनी-जितनी विचारणाएँ हुई हैं उतनी विचारणा किसी अन्यदेश में नहीं हुई हैं। उन सभी धर्मदर्शनों में जैनदर्शन नै धर्म सम्बन्धी जो विशिष्ट परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं वे सभी के लिए विशेष अभ्यास
और परिशीलन के योग्य हैं। सभी क्षेत्रों में सुख-शांति-समृद्धि-उन्नति और कल्याण को देने वाला धर्म कितना विराट और व्यापक है कि हृदय आश्चर्यचकित हो जाये वस्तुतः धर्म हमारा प्राण है, शक्ति है, साधना है, सब कुछ है, उसकी चर्चा जितनी की जाये, कम है।
. जैन साहित्य में ही नहीं, भारतीय साहित्य में भी धर्मबिन्दु का स्थान अत्यन्त महत्व का रहा हुआ है। भारत में धार्मिक मनुष्य का स्थान अत्यन्त ऊँचा
'जिनरत्नकोश - पृ. १८४ २ यह ग्रन्थ मुनिचन्द्रसूरि की टीका के साथ श्री जिनशासनआराधना ट्रस्ट, मुंबई ने वि.सं. २०५० में प्रकाशित किया है। इसका एक प्रकाशन वि.सं. १६६७ में भी हुआ है। इसका गुजराती अनुवाद सन् १६२२ में प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त मुनिचन्द्रसूरि की टीका सहित मूल कृति का अमृतलालमोदीकृत हिन्दी अनुवाद हिन्दी जैन साहित्य प्रचारक मण्डल, अहमदाबाद सन् १६५१ प्रकाशित किया है।
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माना गया है। यहाँ ध्यातव्य है कि विशिष्ट धार्मिक होने के पहले साधारण गृहस्थ
और अच्छा मानव बनने की अधिक जरूरत है। अच्छे-परोपकारी या सद्गृहस्थ बनने के लिए जिन गुणों की अत्यंत आवश्यकता है उनका विस्तृत वर्णन धर्मबिन्दु के प्रथम अध्याय में किया गया है इसके अतिरिक्त व्यापार किस प्रकार करना चाहिए, विवाह कब करना चाहिये, विवाह किसके साथ करना चाहिए, वस्त्र कैसे पहनने चाहिए, क्या खाना चाहिए, किस प्रकार खाना चाहिए, घर कहाँ बनाना चाहिए, माता-पिता की सेवा किस प्रकार करनी चाहिए इत्यादि अनेक जीवन उपयोगी बिन्दु इस ग्रन्थ में पढ़ने को मिलते हैं।
वस्तुतः यह ग्रन्थ आठ अध्यायों में विभक्त है। पहले अध्याय में ५८ सूत्र, दूसरे अध्याय में ७५, तीसरे में ६३, चौथे में ४३, पाँचवे में ६८, छठे में ७६, सातवें में ३८, आठवें अध्याय में ६१ इनकी कुल सूत्रसंख्या ५४२ हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में उपलब्ध विवरण संक्षेप में इस प्रकार है - प्रथम अध्याय का नाम 'गृहस्थसामान्यधर्मविधि' है। इस अध्याय के प्रारंभ में धर्म की व्याख्या करके धर्म का स्वरूप धर्म का फल और धर्म के भेद बताये गये हैं। उनमें कहा है कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ इन चार भावनाओं सहित किया सद्गुष्ठान् ही धर्म है। जिनमें ये चार भावनाएँ न हों वह धर्म के लिए अयोग्य कहा गया है। इसमें १. गृहस्थधर्म और २. यतिधर्म ये दो भेद किये गये हैं। पुनः गृहस्थधर्म के भी १. सामान्य गृहस्थधर्म और २. विशेष गृहस्थधर्म ऐसे दो भेद किये हैं। प्रथम अध्याय में सामान्य गृहस्थधर्म विधि का उल्लेख करते हुए व्यापार, विवाह, निवास, भोजन, परिधान, अतिथि सत्कार आदि को लेकर ३५ मार्गानुसारी गुणों पर चर्चा की गई हैं। जैसे- श्रावक को न्यायोपार्जित द्रव्य का संग्रह करना चाहिये, समानधर्मी कुटुम्ब में विवाह करना चाहिए, स्वधर्मी लोगों के समीप बने हुए घरों में रहना चाहिए, भोजन सात्त्विक करना चाहिए, शक्ति के अनुसार व्यय करना चाहिए, किसी को उद्वेग हो वैसी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए, माता-पिता की भक्ति करनी चाहिए इत्यादि सत्यमार्ग का अनुसरण और गृहस्थ धर्म का सम्यक् परिपालन कर सकें उस प्रकार के गुणों की वर्णन किया है। द्वितीय अध्याय का नाम 'गृहस्थदेशनाविधि' है। इस अध्याय के प्रारंभ में उपदेशक कैसा होना चाहिए और उपदेशक को द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव का विचार करके किस जीव को किस प्रकार का उपदेश देना चाहिये इसका सुंदर और बोधक वर्णन किया गया है। उपदेष्टा जिस विषय में उपदेश दे रहा हो- वे गुण तो स्वयं में होने ही चाहिए। प्रसंगोपात्त ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का वर्णन किया है। तदनन्तर यह उपदेश दिया गया है कि पुण्य-फल के
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218/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
रूप में देवलोक की समृद्धि, शुद्ध कुल में जन्म, अनुकूल सामग्री आदि मिलती है तथा पाप फल के रूप में नरक का दुःख, चांडाल आदि नीच कुल में जन्म इत्यादि होता है। अन्त में बारह भावनाओं का वर्णन करते हुए यह बतलाया गया है कि भावनाएँ राग-द्वेष का क्षय करने में मुख्य कारणभूत हैं। अतः इन भावनाओं का चिन्तन प्रतिदिन करना चाहिए। तृतीय अध्याय का नाम 'गृहस्थविशेषदेशनाविधि' है। इसमें निर्देश किया है कि पूर्वोक्त धर्म का सामान्य स्वरूप समझने से वैराग्य आ जाये और व्रत ग्रहण करने की इच्छा हो जाये तो किस प्रकार व्रत प्रदान करना चाहिए इस सम्बन्ध में 'धर्म प्रदान विधि' कही गई है। उसके बाद बाहरव्रतों का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है इन व्रतों का सम्यक् परिपालन हो सके- उस निमित्त श्रावक की दिनचर्या पर भी संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। चतर्थ अध्याय का नाम 'यतिसामान्यदेशनाविधि' है। जिस गृहस्थ ने विशेष धर्म का विधिपूर्वक पालन किया है वह गृहस्थ दीक्षाधर्म अंगीकर करने के लिए उपस्थित हो जाये तो उसमें १६ गुण कौन से होने चाहिए तथा दीक्षा देने वाले गुरु में १५ गुण कौन से होने चाहिए? इसका अन्य-अन्य आचार्यों के अभिप्राय पूर्वक वर्णन किया गया है। इसके साथ यति सम्बन्धी देशनाविधि में यह भी कहा है कि दीक्षाग्राही को माता-पिता एवं ज्येष्ठ कुटुम्बियों की अनुमति लेनी चाहिये। दीक्षा के लिए मुहूर्त आदि देखना चाहिये। दीक्षा के बाद नवदीक्षित को कैसे रहना चाहिये इसका भी वर्णन किया है। इसमें मुख्यतः प्रव्रज्यादान विधि, प्रव्रज्याग्रहण विधि, प्रव्राजकगतो विधि ये तीन विषय उल्लिखित हुए हैं।
पंचम अध्याय का नाम 'यतिधर्मदेशनाविधि' है। इसमें यति धर्म के दो भेद किये गये हैं १. सापेक्ष यतिधर्म और २. निरेपक्ष यतिधर्म। सापेक्ष यतिधर्म का पालन करने वाले मुनियों को भिक्षा किस प्रकार ग्रहण करनी चाहिए? किस प्रकार की प्रवृत्ति करनी चाहिए? जिससे किसी आत्मा को पीड़ा न हो तथा उन्हें विकथा आदि का त्याग करना चाहिये इत्यादि का वर्णन किया है। इसके साथ ही दीक्षा लेने के लिए कितने प्रकार के पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक अयोग्य हैं? शीलरक्षा के लिए किन नववाड़ों का परिपालन करना चाहिए? संलेखना का क्या स्वरूप है? की चर्चा की गई है। अन्त में 'निरपेक्ष यतिधर्म' का स्वरूप कहा गया है। षष्ठम अध्याय का नाम 'यतिधर्मविशेषदेशनाविधि' है। इस अध्याय के प्रारंभ में यह प्रतिपादित है कि सापेक्ष यतिधर्म और निरपेक्ष यतिधर्म का पालन करने के लिए कौन-कौन से गुण आवश्यक हैं और शासन की स्थिरता के लिए तथा जैन समाज ज्ञानार्जन के क्षेत्र में आगे बढ़ता रहे उस अपेक्षा से सापेक्ष यतिधर्म की विशेष
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास /219
आवश्यकता कैसे हैं? इसके साथ ही भावना मोक्ष का परम कारण है, द्रव्य और भाव से भगवंत की भक्ति करनी चाहिये, चारित्र ग्रहण करने के बाद भाव स्थिर रहे, उसके लिए साधुओं को कौन-कौन सी भावना का चिन्तन करना चाहिये और कैसा आचरण करना चाहिये इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। सप्तम अध्याय का नाम 'धर्मफलदेशनाविधि' है। इसमें धर्मफल के दो प्रकार कहे हैं १. अनंतर फल और २. परंपरा फल। जो फल तुरन्त मिलता हो वह अनंतर फल है और जो फल अन्य उत्कृष्ट फल का कारण हो, वह उत्कृष्ट फल भी तीसरे फल का कारण हो वह परंपरा फल है। आगे शुभ परिणाम ही मोक्ष का उत्तमोत्तम कारण है ऐसा प्रतिपादन किया गया है। अन्त में यह कहा गया हैं कि इस जगत् में जो कुछ शुभ मिलता है वह सभी धर्म के प्रभाव से मिलता है। इसलिए मनुष्य जैसा उत्तमभव जो प्राप्त हुआ है इसमें धर्म की साधना करना यही इस प्रकरण का सार है। अष्टम अध्याय का नाम 'धर्मफलविशेषदेशनाविधि' है। इस अध्याय में उन्हीं विषयों का विस्तृत प्रतिपादन किया गया है जो विषय सातवें अध्याय में चर्चित हुए हैं। इसमें कहा है कि जगत हितकारी तीर्थकर पद की प्राप्ति भी धर्माभ्यास से ही होती है तब सामान्य वस्तुओं के लाभ का तो कहना ही क्या है? इसमें तीर्थंकर का माहात्म्य प्रतिपादित हुआ है तथा मोक्षप्राप्ति में बाधक तत्त्व राग, द्वेष, और मोह इन तीन शत्रुओं का वर्णन करके इनको जीतने के उपाय भी दिखाये गये हैं। आगे मुक्तजीवों की स्थिति कैसी होती हैं और उन जीवों को परमानंद की प्राप्ति किससे होती हैं तथा शक्ल ध्यान से जीव किस प्रकार ऊँचा उठता है, इत्यादि का विवेचन किया गया है।
__इस ग्रन्थ के समग्र विवेचन से फलित होता है कि इसमें गृहस्थ के सामान्य गुण अर्थात् मार्गानुसारी के गुणों से लेकर तीर्थंकर पद की प्राप्ति पर्यन्त के सभी उपाय क्रमशः बताये गये हैं। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ अनेक आत्माओं के आत्म कल्याणमार्ग में सहायक भूत बनने जैसा है। इसमें गृहस्थ और साधु की कर्त्तव्य विधियों का सुंदर निरूपण हुआ है। इस वजह से यह ग्रन्थ विशेष लोकप्रिय बना है। इसमें प्रारंभ के तीन अध्याय श्रावक संबंधी है और बाद के पाँच अध्याय साधुओं के कर्त्तव्य तथा अन्तिम अध्याय तीर्थकर पद की प्राप्ति के उपायों का सूचन करने वाला है। मूलतः यह उपदेशपरक ग्रन्थ है। हमें जो ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है वह सात परिशिष्ट विभागों से युक्त है। टीका- धर्मबिन्दु ग्रन्थ पर मुनिचंद्रसूरि ने ३००० श्लोक परिमाण वृत्ति रची है इस वृत्ति का रचनाकाल वि.सं. ११८१ है।
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220/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
नन्दी विधि
इस सम्बन्ध में हमें कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस कृति नाम के अनुसार इतना कह सकते हैं कि इसमें नन्दीरचना की विधि उल्लिखित होनी चाहिए।' नन्दीमंगलविधि
इसके नाम के अनुसार इसमें नन्दीरचना (समवसरणरचना/नांदमांडना) की विधि का निरूपण होना चाहिए। यह दिगम्बर भंडार में सुरक्षित है। हमें उपलब्ध नहीं हुई है। नन्दीयोगविधि
यह रचना प्राकृत में है। इसका काल वि.सं. १५२६ है। इसमें नन्दिपूर्वक योगवहन करने की विधि कही गई है। नन्दीव्रतोच्चारविधि
यह रचना नन्दीविधान पूर्वक व्रत ग्रहण करने की विधि से सम्बन्धित है। निर्वाणकलिका
__इस ग्रन्थ के कर्ता पादलिप्तसूरि है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार हैं ये पादलिप्तसूरि आर्यरक्षित (दूसरी शती) के समकालीन एवं उनके मामा पादलिप्तसूरि से भिन्न हैं। सम्भवतः ये दशवीं-ग्यारहवीं शती के आचार्य हैं। यह कृति संस्कृत गद्य में है और इक्कीस प्रकरणों में विभक्त है। इसमें मुख्य रूप से प्रतिष्ठा विधि का विवेचन है। प्राचीन ग्रन्थों के आलोक में देखें तो प्रतिष्ठा विधि-विधान का प्राथमिक स्वरूप हरिभद्र के षोडशक, पंचाशक आदि ग्रन्थों में देखने को मिलता है। इसके अनन्तर निर्वाणकलिका में ही दृष्टिगत होता है।
निर्वाणकलिका की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है -
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण, विषयनिरूपण एवं ग्रन्थ प्रयोजन हेतु दो श्लोक दिये गये हैं उनमें वर्धमान महावीरस्वामी को नमस्कार करके और
'जिनरत्नकोश पृ. १६६ २ वही पृ. १६६ ३ वही पृ. १६६ * (क) इस कृति का संशोधन मोहनलाल भा.वानदास झवेरी ने किया है।
(ख) इसका प्रकाशन शेठ नथमलजी कनहेयालालजी रांका, मुबादेवी पोस्ट के ऊपर, तीसरा माला, मुंबई ने, सन् १६२६ में किया है।
or
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/221
जिनागम से समुद्धृत करके नित्यकर्म विधि, दीक्षा विधि और प्रतिष्ठा विधि कहने की प्रतिज्ञा की गई है। प्रथम प्रकरण में नित्यकर्मविधि का विवेचन हुआ है। उसमें उपासक की देह शुद्धि का, द्वारपूजा का, पूजागृह में प्रवेश करने का, दो प्रकार के करन्यास का, भूमिशुद्धि का, मान्त्रिक स्नान का, तीन प्रकार के अंगन्यास का, पाँच प्रकार की शुद्धि का, सामान्य से जिन पूजा का, गुरु पूजा का, चतुर्मुख सिंहासन पूजा का, अरिहन्त और सिद्ध परमात्मा की मूर्ति न्यास करने का, आहानादि का, देवस्नानादि विधि का, पंचपरमेष्ठियंत्र की पूजा करने का, आरती-मंगलदीपक का, तीन प्रकार के जाप का, गृह देवता की पूजा का, बलिप्रदान आदि का विधान बताया गया हैं। दूसरे प्रकरण में दीक्षाविधि का प्रतिपादन हुआ है। इसमें गृहस्थ की मान्त्रिक दीक्षा का, सर्वतोभद्रमण्डल का और अष्टसमयादि धारणा का विधान कहा गया है। तीसरा प्रकरण आचार्याभिषेक से सम्बन्धित है। इस प्रकरण में मण्डप स्वरूप का, वेदिका स्वरूप का, आठ प्रकार के कुम्भ का, आठ प्रकार के शंख का, अनुयोग की अनुज्ञा के लिए नन्दिपाठ श्रवण का, आचार्यपदस्थापना के समय राजा के चिन्ह विशेष शिबिका आदि का वर्णन हुआ है। चौथें प्रकरण में जिनचैत्य का निर्माण करने के लिए भूमि की परीक्षा विधि का उल्लेख है। पाँचवें प्रकरण में शिलान्यास विधि कही गई है। छठा प्रकरण प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्धित है। इसमें शिल्पी, इन्द्र एवं आचार्य के गुणों का, अधिवासना मण्डप का, स्नान मण्डप का, तोरण-पताकादि मण्डप के अलंकार आदि का वर्णन किया गया है। सातवें प्रकरण में पाद प्रतिष्ठा की विधि वर्णित है, इस प्रकरण में पाँच प्रकार की शिला के स्नानादि का वर्णन किया गया है। आठवें प्रकरण में जिनचैत्य के मुख्य द्वार की प्रतिष्ठा विधि प्रतिपादित है। नौवें प्रकरण में जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा विधि का उल्लेख हुआ है इसमें क्षेत्रशुद्धि, आत्मरक्षा, भूतबलिअभिमन्त्रण, सकलीकरण, दिग्बन्धन, बिम्बस्नपन,नन्द्यावर्त्तमण्डल आलेखन, नन्द्यावर्त्तमण्डल पूजन, सहजगुणस्थापन, अधिवासना, अंजनशलाका, जिन बिम्ब की स्थापना (प्रतिष्ठा), प्रतिष्ठादि देवता का कायोत्सर्ग, अष्टदिवसीय या त्रिदिवसीय महोत्सव, आहूत देवों का विसर्जन आदि विधि-विधान निरूपित हुए हैं। इसके साथ ही लेपादि की हुई अचल बिम्ब की प्रतिष्ठा विधि, समस्तवैयावृत्यकर देवी-देवता की प्रतिष्ठा विधि और सरस्वती-मणिभद्र-ब्रह्मशान्ति- अम्बिकादेवी की प्रतिष्ठाविधि भी कही गई है। दशवें प्रकरण में हृत्प्रतिष्ठा विधि का वर्णन है। ग्यारहवें प्रकरण में चूलिका प्रतिष्ठा विधि उल्लिखित है। बारहवें प्रकरण में कलश-ध्वजा और धर्मचक्र की प्रतिष्ठाविधि
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222/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
प्रतिपादित है। तेरहवें प्रकरण में जीर्णोद्धार विधि का उल्लेख हुआ है। चौदहवें प्रकरण में प्रतिष्ठोपयोगी मुद्रा विधियों का निरूपण किया गया है। पन्द्रहवें प्रकरण में प्रायश्चित्त विधि कही गई है। सोलह से उन्नीस तक के प्रकरणों में अहंदादि का वर्णादि क्रम कहा गया है। इसके साथ ही तीर्थंकरों की जन्म राशि, तीर्थंकरों के नक्षत्र, यक्ष-यक्षिणी का स्वरूप, श्रुतदेवता-सोलह विद्या देवियों, दशदिक्पालों, नवग्रहों, ब्रह्मशान्तियक्ष आदि क्षेत्रपालों का स्वरूप एवं उनके आयुधादि का वर्णन किया गया है।
निष्कर्षतः यह विद्वद् कृति सिद्ध होती है। इसका अध्ययन विस्तार के साथ किया जाये तो इसमें से कई नवीन एवं तथ्यमूलक बातें देखने को मिल सकती है। यह रचना संस्कृत गद्य प्रधान होने पर भी इसमें स्वरचित एवं उद्धृत कई प्राकृत पद्य भी उल्लिखित हैं। पंचसूत्र
यह अज्ञातकर्तृक रचना है। इसमें पाँच सूत्र है यह बात इस कृति के नाम से ही स्पष्ट हो जाती है। यह कृति दीक्षाविधि से सम्बन्धित है। इसमें विषयानुक्रम इस प्रकार है- १. पाप का प्रतिघात और गुण के बीज का आधान २. श्रमण धर्म की परिभावना ३. प्रव्रज्या ग्रहण करने की विधि ४. प्रव्रज्या का पालन और ५. प्रव्रज्या का फल-मोक्ष।
प्रथम सूत्र में अरिहन्त आदि चार शरण का स्वीकार और सुकृत की अनुमोदना करने का वर्णन है। दूसरे सूत्र में अधर्म-मित्रों का त्याग, कल्याण मित्रों का स्वीकार तथा लोकविरुद्ध आचरणों का परिहार इत्यादि बातें कही गई हैं। तीसरे सूत्र में दीक्षा के लिए माता-पिता की अनुज्ञा कैसे प्राप्त करनी चाहिए यह दिखलाया है। चौथे सूत्र में आठ प्रवचन-माता का पालन, भाव चिकित्सा के लिए प्रयास तथा लोक संज्ञा का त्याग इन बातों का निरूपण है। पाँचवे सूत्र में मोक्ष के स्वरूप का वर्णन है। टीकाएँ- इस पर हरिभद्रसरि ने ८५० श्लोक परिमाण एक टीका लिखी है। न्चामाचार्य यशोविजयनी ने इरा अन्य को 'पंचसूत्री' कहकर टीका रची है। इस पर मुनिचन्द्रसूरि एवं किसी अज्ञात ने एक-एक अवचूरि लिखी है। पधारो पौषध करीये
यह पौषध सम्बन्धी ग्रन्थों के आधार से संकलित की गई विशिष्ट कृति है। यह गुजराती गद्य में निबद्ध है। इसमें पौषधव्रत के योग्य क्रमशः निम्नलिखित विधियाँ दी गई हैं- १. पौषध ग्रहण करने की विधि २. प्रातःकालीन प्रतिलेखना
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/223
विधि ३. गमनागमन की आलोचना विधि ४. देववन्दन विधि ५. स्वाध्याय विधि ६. रात्रिक सम्बन्धी मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन विधि ७. जिनमंदिर दर्शन करने की विधि ८. प्रत्याख्यान पारने की विधि ६. प्रत्याख्यान पारने के बाद चैत्यवंदन करने की विधि १०. वाचना ग्रहण करने की विधि ११. मध्याह्कालीन प्रतिलेखना विधि १२. स्थंडिल भूमि प्रतिलेखन विधि १३. पौषध पारने की विधि १४ स्थापनाचार्य प्रतिलेखना विधि।
इनके सिवाय, पौषधव्रत का सम्यक् परिपालन हो-एतदर्थ निम्न विषयों की चर्चा की गई हैं• पौषध के अठारह दोष तथा पाँच अतिचार • सामायिक के बत्तीस दोष तथा पाँच अतिचार
सामायिक और पौषध का फल
नमस्कारमंत्र एवं प्रतिक्रमण का महान् फल • प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग और ब्रह्मचर्य का फल • वंदन (वांदणा) के २५ आवश्यक और १७ संडाशक, कायोत्सर्ग के उन्नीस दोष
आदि निःसन्देह इस कृति का संकलन प्राज्ञ एवं सूक्ष्म दृष्टिकोण से हुआ है। पंचवस्तुक इस ग्रन्थ के प्रणेता आचार्य हरिभद्र है। यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। इसमें कुल १७१४ पद्य हैं। इस कृति का रचनाकाल परम्परागत धारणा के अनसार छठी शती का उत्तरार्ध है किन्तु विद्वज्जन आठवीं शती का उत्तरार्ध मानते हैं। इस ग्रन्थ का विषय ग्रन्थ नाम से ही स्पष्ट हो जाता है। पाँच वस्तुओं अर्थात् पाँच क्रियाओं को आधार बनाकर विवेचन करने वाला यह ग्रन्थ पंचवस्तुक है। इसमें वर्णित पाँच वस्तुएँ अत्यन्त मननीय और महत्त्वपूर्ण हैं। मोक्षमार्ग की साधना में चारित्र एक अनिवार्य आवश्यकता है। इस ग्रन्थ में श्रमणजीवन के जन्म (दीक्षा) से लेकर कालधर्म (संलेखना) पर्यन्त की समग्रचर्या का पाँच अधिकारों में विवेचन किया गया है। वस्तुतः यह ग्रन्थ जैन मुनि की आचार विधि से सम्बन्धित है। यह इस विधा का एक आकर ग्रन्थ भी कहा जा सकता है। यह कृति निम्न पाँच अधिकरों में विभक्त है। इन अधिकारों की संक्षिप्त विषयवस्तु इस प्रकार है
' देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने यह ग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका के साथ सन् १९३२ में प्रकाशित किया है।
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224/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
प्रथम प्रव्रज्याविधि अधिकार- इस अधिकार के अन्तर्गत २२८ पद्य हैं। इसमें दीक्षा सम्बन्धी विधि-विधान प्रतिपादित हैं जिनमें प्रव्रज्या का अर्थ, प्रव्रज्या के पर्यायवाची शब्द, दीक्षा अधिकारी गुरु के गुण, शिष्य को हितशिक्षा न देने से होने वाली हानि, दीक्षा लेने वाले मुमुक्षु के सोलह गुण, दीक्षा की दुष्करता, दीक्षा के लिए योग्य-अयोग्य वय, बालदीक्षा का सैद्धांतिक एवं तार्किक दृष्टि से सचोट समर्थन, संयम की अनुमति के लिए माता-पिता को समझाने की शास्त्रीय विधि, दीक्षा दान के लिए शुभाशुभ नक्षत्र-तिथि आदि का विचार, मुमुक्ष की योग्यता का निर्णय, दीक्षाविधि एवं हितशिक्षा प्रदान इत्यादि पर विशेष प्रकाश डाला गया है। द्वितीय दैनिकचर्याविधि अधिकार- इस नित्य क्रिया सम्बन्धी अधिकार में ३८१ पद्य हैं। यह अधिकार मुनि जीवन के दैनन्दिन क्रिया कलापों सम्बन्धी विधि-विधान की चर्चा करता है। इसमें प्रतिदिन करने योग्य क्रिया के दस द्वार प्रतिलेखनादि की शास्त्रीय विधि, प्रतिलेखना के दोष, प्रातःकालीन प्रतिलेखना का काल, प्रतिलेखना में वस्त्रों का क्रम, वसति प्रमार्जन की विधि, पात्र प्रतिलेखन की विधि, प्रतिलेखित वस्त्र-पात्रादि को रखने की विधि, आहार हेतु भ्रमण करने से पूर्व करने योग्य विधि, भिक्षा ग्रहण करने सम्बन्धी नियम, भिक्षा लाकर वसति में प्रवेश करने की विधि, भिक्षा में लगे हुए दोषों की आलोचना विधि, गुरु को आहार-पानी दिखाने की विधि, आहार सेवन विधि, पात्र धोने की विधि, भोजन करने के कारण, स्थंडिल भूमि जाने की विधि, मार्ग पर चलने की विधि, ईंट के टुकड़े आदि ग्रहण करने की विधि, मलविसर्जन विधि, प्रतिलेखना करने के बाद की विधि, सर्यास्त के पूर्व करने योग्य विधि, दैवसिक प्रतिक्रमण विधि, आलोचना से होने वाले लाभ, रात्रिक प्रतिक्रमण विधि, प्रत्याख्यान के आगार, प्रत्याख्यान में आगार रखने के कारण, स्वाध्याय से होने वाले लाभ, सूत्र प्रदान करने की विधि, विधिपूर्वक सूत्रदान से होने वाले लाभ, अविधि पूर्वक सूत्रदान करने से होने वाली हानियाँ, योगोद्वहन विधि इत्यादि विषयों का विस्तारपूर्वक विवचेन किया गया है। तृतीय उपस्थापनाविधि अधिकार- प्रस्तुत अधिकार में ३२१ पद्य हैं। इसमें बड़ी दीक्षा अर्थात् महाव्रतारोपण विधि का विवेचन हुआ है। साथ ही इसमें व्रतस्थापना के द्वार, व्रतस्थापना के योग्य जीव का वर्णन, व्रतस्थापना कब?, पृथ्वीकायादि में जीवत्व की सिद्धि, छ:व्रतों का स्वरूप, व्रतों के अतिचार, नवदीक्षित की परीक्षा विधि, गुरुकुलवास द्वारा गुणों का लाभ, गुरुकुलवास और गच्छवास की संलग्नता, वसति के गुण-दोष, पार्श्वस्थादि साधुओं का सम्पर्क रखने से होने वाली हानियाँ, भिक्षा में त्याज्य पदार्थ, गोचरी के बयालीस दोष, मांडली के पांच दोष, आहार का परिमाण, उपधि एवं उपकरणों की संख्या, उनके प्रयोजन और माप, चारित्र की
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/225
योग्यता और अयोग्यता का विचार, तप का स्वरूप, तप के ब्राह्माभ्यंतर भेद, भावना का महत्व, भावना से होने वाले लाभ, विहार करने की विधि, यतिकथा करने से होने वाले लाभ इत्यादि का निरूपण भी किया गया है। चतुर्थ अनुयोग-गणानुज्ञाविधि अधिकार
चतुर्थ अधिकार में ४३४ गाथाएँ हैं जिनमें मुख्यतः आचार्यपदस्थापना, वाचनाचार्यपदस्थापना, गण-अनुज्ञा विषयक विधि-विधानों की चर्चा की गई हैं। इसके साथ ही 'स्तवपरिज्ञा" जो कि एक पाहुड माना जाता है, वह उद्धत किया गया है। यह इस ग्रन्थ की महत्ता में सहस्रगुणी वृद्धि करता है। इसके द्वारा द्रव्यस्तव और भावस्तव पर प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त निम्न बिन्दुओं का भी सटीक प्रतिपादन किया गया है जैसे- अनुयोग की अनुज्ञा के योग्य कौन? अयोग्य की अनुज्ञा करने से होने वाली हानियाँ, मृषावाद आदि चार द्वारों का वर्णन, कैसा शिष्य अर्थवाचना के योग्य है? योग्यशिष्य को वाचना देने से होने वाले लाभ, व्याख्यान विधि, वाचना विधि, वाचना श्रवण विधि, विधिपूर्वक श्रवण करने का फल, स्वभावादि पांच कारण, आत्मा की नित्यानित्यता, मोक्ष की सिद्धि आदि।
स्तवपरिज्ञा के आधार पर अग्रलिखित बिन्दुओं पर चर्चा की गई हैं - स्तवपरिज्ञा का अर्थ, द्रव्यस्तव भावस्तव की व्याख्या, भूमिशुद्धि संबंधी पाँच द्वार, मंदिर निर्माण में गर्मपानी का उपयोग, जिनबिंब निर्माण की विधि, जिनबिंब की प्रतिष्ठा विधि, प्रतिष्ठा के बाद संघपूजा का विधान, जिनबिंब की पूजा विधि, साधुदर्शन की भावना करने से होने वाले लाभ, अठारहहजार शीलांग, निश्चय एवं व्यवहार से चारित्र आराधना का स्वरूप, जिनपूजादि में होने वाली हिंसा-अहिंसा की समीक्षा, जिनपूजा संबंधी प्रश्नोत्तरी, गणानुज्ञा के योग्य कौन?, प्रवर्तिनी पद के योग्य कौन?, अयोग्य को पद प्रदान करने से होने वाले दोष, नूतन आचार्य को हित शिक्षा का दान, गुरुकुलवास से होने वाले लाभ, इत्यादि। इस प्रकार इस
अधिकार में महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रकाश डाला गया है पंचम संलेखनाविधि अधिकार
___ इस अधिकार में सल्लेखना सम्बन्धी विधि-विधान दिये गये है। इसमें ३५० गाथाएँ है, जिनमें मुख्य रूप से अधोलिखित विषयों का स्पर्श किया गया हैवे इस प्रकार हैं- संलेखना का स्वरूप, संलेखना संबंधी दस द्वार, आहार की
' इसके विषय में विशेष जानकारी 'जैन सत्यप्रकाश' (वर्ष २१, अंक १२) में प्रकाशित 'थयपरिण्णा अने तेनी यशोव्याख्या' नामक लेख में दी गई है। देखें, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास- भा. ४, पृ. २७०
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226/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
सात और वस्त्र की चार एषणा, जिनकल्पी के प्रकार, दस प्रकार की सामाचारी, जिनकल्पी की सामाचारी, आत्महत्या से संलेखना की पृथक्ता, संलेखना का फल, संलेखना ग्रहण का अधिकारी कौन? संलेखना में रखने योग्य सावधानी, आदि। अन्त में ग्रन्थ रचना का हेतु एवं गाथाओं का परिमाण बताते हुए पंचवस्तुक ग्रंथ का समापन किया गया है।' टीका - इस कृति की ५०५० श्लोक परिमाण 'शिष्यहिता' नामक स्वोपज्ञ टीका भी मिलती है। न्यायाचार्य यशोविजयजी ने 'मार्गविशुद्धि' नामक एक कृ ति 'पंचवस्तुक' के आधार पर लिखी है। इन्होंने 'प्रतिमाशतक' के श्लोक ६७ की स्वोपज्ञ टीका में 'थयपरिण्णा' को उद्धृत करके उसका संक्षेप में स्पष्टीकरण भी किया है। पंचस्थानक
पंचस्थानक नामक यह कृति हरिभद्रसूरि की है। इस कृति के नाम से अवगत होता है कि इसमें पाँच स्थानों अर्थात पाँच प्रकार के विधानों का विवचेन होना चाहिये। इस कृति का गुजराती अनुवाद एम.डी.देसाई द्वारा किया गया है। यह कृति गुजराती अनुवाद के साथ 'जैन श्वेताम्बर कान्फरेन्स मुंबई' से सन् १६३५ में प्रकाशित हुई है। पंचाचारकुलक
इस कुलक के रचनाकार का नाम अज्ञात है। यह प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें कुल ८ गाथाएँ हैं। इस कृति में अग्रलिखित पंचाचार का स्वरूप एवं पंचाचार पालन करने की विधि वर्णित है, ऐसा कृति नाम से स्पष्ट हो जाता हैं। पंच आचार के नाम ये हैं- १. ज्ञानाचार २. दर्शनाचार ३. चारित्राचार ४. तपाचार ५. वीर्याचार।
इस कृति का रचनाकाल एवं कर्ता आदि अज्ञात है। पंचाशकप्रकरण
आचार्य हरिभद्र की यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है। इस कृति में उन्नीस पंचाशक संगृहीत हैं, जिसमें दूसरे में ४४ और सत्तरहवें में ५२
' यह कृति गुजराती अनुवाद के साथ अरिहंतआराधकट्रस्ट, मुंबई- भिवंडी से प्रकाशित है। २ आगमोद्धारक आनन्दसागरसूरि ने इसका गुजराती अनुवाद किया है और वह ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था ने सन् १६३७ में प्रकाशित की है। ३ देखें, जिनरत्नकोश पृ. २३०
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तथा शेष में ५०-५० पद्य हैं। वस्तुतः पंचाशक प्रकरण उन्नीस लघुग्रन्थों का एक संकलन है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 227
यह विधि-विधान संबंधी विषयों का मौलिक ग्रन्थ है इस ग्रन्थ में गृहस्थ के द्वारा, साधु के द्वारा एवं गृहस्थ-साधु दोनों के द्वारा समझने योग्य एवं पालन करने योग्य विधि-विधान उल्लेखित हैं। इसके साथ ही उन उन विषयों से सम्बन्धित अपेक्षित विधियों का संक्षिप्त विवेचन भी किया गया है। वस्तुतः जैन आचार और कर्मकाण्ड के सन्दर्भ में यह आठवीं शताब्दी की एक महत्त्वपूर्ण कृति है ।
प्रस्तुत कृति के उन्नीस पंचाशकों की विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार हैं१. श्रावक धर्मविधि - पंचाशक इस कृति के प्रथम पंचाशक में श्रावकधर्म स्वीकार करने की विधि का विवेचन है। इसके साथ ही श्रावक का सामान्य आचार, श्रावक के प्रकार श्रावक के बारह व्रत, उन व्रतों के अतिचारों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। कहा गया है कि- सम्यक्त्वादि व्रतों के ग्रहण, पालन एवं रक्षण के उपाय तथा उनके विषय एवं प्रयत्न आदि पाँच बातों पर श्रावक को विशेष ध्यान देना चाहिए। इसके अतिरिक्त भी अन्य कुछ सामान्य आचार के नियमों पर भी प्रकाश डाला गया है।
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२. दीक्षाविधि पंचाशक इस पंचाशक के अन्तर्गत मुमुक्षुओं के दीक्षा विधान पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही दीक्षा योग्य भूमि का शुद्धिकरण, समवसरण की रचना का विधान, दीक्षार्थी की परीक्षा इत्यादि का वर्णन किया गया है।
३. चैत्यवन्दनविधि पंचाशक इस तृतीय पंचाशक में चैत्यवन्दन विधि का प्रतिपादन किया गया है। उसमें वन्दना के प्रकार, चैत्यवन्दन करने के अधिकारी, चैत्यवन्दन का महत्त्व, चैत्यवन्दन के समय बोले जाने योग्य विषयों का स्पर्श किया गया है।
४.
पूजाविधि पंचाशक इस चतुर्थ पंचाशक में पूजा विधि का वर्णन है, जिसके अन्तर्गत १. पूजा का काल, २. शारीरिक शुचिता, ३. पूजा सामग्री, ४. पूजा विधि, ५. स्तुति - स्तोत्र इन पंचद्वारों का तथा प्रणिधान (संकल्प) और पूजा निर्दोषता का क्रमशः विवेचन किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि सामान्यतया प्रातः, मध्याह और सायंकाल में पूजा की जाती है, लेकिन आचार्य हरिभद्र ने यहाँ बताया है कि नौकरी, व्यापार आदि आजीविका के कार्यों से जब भी समय मिले तब पूजा करनी चाहिए। यह अपवाद मार्ग है।
५. प्रत्याख्यान विधि पंचाशक किया गया है। इस पंचाशक में
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प्रस्तुत पंचाशक में प्रत्याख्यान विधि का प्रतिपादन मूलगुण और उत्तरगुण के आधार पर प्रत्याख्यान
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के दो भेद किये गये हैं। साधु के महाव्रत और श्रावक के अणुव्रत मूलगुण प्रत्याख्यान हैं तथा पिण्डविशुद्धि आदि साधु के और दिग्विरति इत्यादि व्रत श्रावक के उत्तरगुण हैं। इसके साथ ही दस प्रकार के कालिक प्रत्याख्यान और उन प्रत्याख्यानों को विधिपूर्वक ग्रहण करने सम्बन्धी सातद्वार कहे गये हैं ।
६. स्तवनविधि पंचाशक इस पंचाशक में हरिभद्रसूरि ने स्तुति या स्तवन विधि का वर्णन किया है। इसमें द्रव्य और भाव की दृष्टि से स्तवन दो प्रकार का बताया गया है। शास्त्रोक्त विधिपूर्वक जिनमन्दिर का निर्माण, जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा, तीर्थों की यात्रा, जिनप्रतिमाओं की पूजा, आदि द्रव्यस्तव हैं तथा मन-वचन और कर्म से वीतरागता की उपासना करना भावस्तव है। इसके साथ ही द्रव्यस्तव और भावस्तव की विस्तृत चर्चा की गई है।
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७. जिनभवन निर्माणविधि पंचाशक आचार्य हरिभद्र ने सातवें पंचाशक में जिनभवन- निर्माणविधि का निरूपण किया है। इसमें जिनभवन निर्माण के लिए निर्माता की कुछ योग्यताएँ आवश्यक बताई गई है। हरिभद्रसूरि के अनुसार जिन भवन-निर्माण कराने का अधिकारी वही व्यक्ति है जो गृहस्थ हो, शुभभाव वाला हो, समृद्ध हो, कुलीन हो, धैर्यवान् हो, बुद्धिमान हो और धर्मानुरागी हो। साथ ही आगमानुसार जिनभवन के निर्माण विधि का ज्ञाता हो। इस सम्बन्ध में पाँच द्वारों का निर्देश भी किया गया है वें पांच द्वार इस प्रकार हैं -
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१. भूमिशुद्धिद्वार - जिनभवन का निर्माण करने योग्य भूमि का शोधन (शुद्धि) करना। २. दलशुद्धिद्वार- जिनमन्दिर निर्माण के लिए काष्ठ, पत्थर आदि खरीदते समय होने वाले शकुन और अपशकुन जानना देखना, ३ . भृतकानतिसन्धानद्वार - जिनमन्दिर निर्माण सम्बन्धी कोई भी कार्य करते समय मजदूरों का शोषण नहीं करना । ४. स्वाशय वृद्धिद्वार - जिनभवन निर्माण के समय जिनेन्द्र देव के गुणों का यथार्थ ज्ञान करना एवं जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा के लिये की गयी प्रवृत्ति से होने वाला शुभ परिणाम स्वाशयवृद्धि है । ५. यातनाद्वार - जिनभवन के निर्माण हेतु लकड़ी लाना, भूमि खोदना आदि कार्यों में जीव - हिंसा न हों या कम से कम हो इसके लिये सावधानी रखना।
८. जिनबिम्बप्रतिष्ठा विधि पंचाशक इस आठवें पंचाशक में जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा विधि का विवेचन किया गया है। इस पंचाशक के प्रारंभ में ग्रन्थकार ने यह कहा है कि जिनबिम्ब का निर्माण करवाने वाले व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह किसी निर्दोष चारित्र वाले शिल्पी से ही बिम्ब का निर्माण करवाएं और उसे पर्याप्त पारिश्रमिक दें। यदि निर्दोष चारित्र वाला शिल्पी नहीं मिलता है और दूषित चरित्र वाले शिल्पकार से जिनबिम्ब का निर्माण करवाना पड़े तो
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उसका पारिश्रमिक पूर्व ही निर्धारित कर देना चाहिए। उसे वह धनराशि में खर्च न कर सके। उसके बाद शुभमुहूर्त्त में जिनबिम्ब की विधिपूर्वक स्थापना, चार सधवा स्त्रियों द्वारा पौंखना विधि, बिम्ब की उत्कृष्ट पूजा एवं संघ की पूजा आदि करने का उल्लेख किया गया है।
६. यात्राविधि पंचाशक यह नौवां पंचाशक यात्रा करने की विधि से सम्बन्धित है। यहाँ यात्रा से अभिप्राय मोक्षरूपी फल प्रदाता जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा शोभायात्रा से है। इसमें जिनयात्रा से सम्बन्धित छः द्वार बताये गये हैं। वे ये हैं- १. दान २. तप ३. शरीर शोभा ४. उचित गीतनाद्य ५. स्तुति - स्तोत्र और ६. प्रोक्षणक |
इस पंचाशक में यह भी बताया गया है कि जैन धर्म में तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक दिवस माने गये हैं 9. गर्भ में आगमन २. जन्म ३. अभिनिष्क्रमण ४. केवलज्ञान और ५. मोक्षप्राप्ति। इन कल्याणकों के दिनों में जिनेश्वर परमात्मा की शोभायात्रा निकालना श्रेयस्कर माना गया है। इन दिनों में शोभायात्रा करने से निम्न लाभ होते हैं- १. तीर्थंकरों का लोक में सम्मान होता है २. पूर्वपुरुषों द्वारा आचरित परम्परा का पालन होता है ३. देवों- इन्द्रों आदि द्वारा निर्वाहित परम्परा का अनुमोदन होता है ४. जिनमहोत्सव गंभीर एवं सहेतुक हैं- ऐसी लोक में प्रसिद्धि होती है । ५. जिन शासन की प्रभावना होती है और ६. जिनयात्रा में भाग लेने से विशुद्धि मार्गानुसारी गुणों के पालन करने सम्बन्धी अध्यवसाय उत्पन्न होते हैं तथा विशुद्ध मार्गानुसारी गुणों के पालन से सभी वांछित कार्यों की सिद्धि होती है। अतः श्रद्धालु एवं सज्जन मनुष्यों को गुरुमुख से जिनयात्रा महोत्सव विधि को जानकर जिनयात्राओं का आयोजन करना चाहिए ।
१०. उपासकप्रतिमाविधि पंचाशक प्रस्तुत पंचाशक में उपासकप्रतिमा विधि का वर्णन किया गया है। इसमें हरिभद्रसूरि ने ग्यारह प्रतिमाओं के स्वरूप का वर्णन निम्न प्रकार से किया है
१. दर्शन प्रतिमा - शम - संवेगादि पाँच गुणों से युक्त और शंकादि अतिचारों से रहित होकर सम्यग्दर्शन का पालन करना दर्शन प्रतिमा है। २. व्रत प्रतिमा- स्थूल-प्राणातिपात विरमण आदि पाँच अणुव्रतों का सम्यक् रूप से पालन करना व्रत प्रतिमा है । ३. सामायिक प्रतिमा - सावद्ययोग का त्याग करना, समभाव की साधना करना सामायिक प्रतिमा है । यह सामायिक व्रत श्रावक द्वारा एक मुहुर्त्त आदि की निर्धारित समयावधि के लिए किया जाता है । ४. पौषध - प्रतिमा - जिनदेव द्वारा प्राप्त विधि के अनुसार आहार, देहसंस्कार, अब्रह्मचर्य एवं सांसारिक आरम्भ-समारम्भ का त्याग करना पौषध प्रतिमा है । ५. कायोत्सर्ग-प्रतिमाउपर्युक्त चारों प्रतिमाओं की साधना करते हुए श्रावक को अष्टमी व चतुर्दशी के
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दिन कायोत्सर्ग करना चाहिए। कायोत्सर्ग में परमात्मा का ध्यान या रागादि दोषों की आलोचना करना कायोत्सर्ग प्रतिमा है। ६. अब्रह्मवर्जन प्रतिमा- उपर्युक्त पाँचों प्रतिमाओं से युक्त श्रावक द्वारा अविचल चित्त होकर कामवासना का पूर्णतया त्याग कर देना अबह्मवर्जन अर्थात् ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। ७. सचित्तवर्जन- प्रतिमाअशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के सचित्त भोजन का त्याग करना सचित्तवर्जन प्रतिमा है। ८. आरम्भवर्जन प्रतिमा- इस प्रतिमा में श्रावक खेती आदि वे सभी कार्य जिनमें हिंसा होती है, स्वयं छोड़ देता है लेकिन नौकरों से करवाता है। ६. प्रेष्यवर्जन-प्रतिमा- इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक खेती आदि आरम्भजन्य कार्य नौकरों से नहीं करवाता है। वह सारी जिम्मेदारियाँ अपने पुत्र, पारिवारिकजनों आदि पर छोड़ देता है। न तो वह स्वयं हिंसादि पापकर्म करता है और न अन्य से करवाता है। मात्र परिवारजनों द्वारा पूछे जाने पर योग्य सलाह देता है। १०. उद्दिष्टवर्जन-प्रतिमा- इस प्रतिमा को वहन करने वाला श्रावक स्वयं के निमित्त से बने हुए भोजन आदि का भी त्याग कर देता है। मात्र परिवारजनों के यहाँ जाकर निर्दोष भोजन ग्रहण करता है। ११. श्रमणभूत प्रतिमा- इस प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक मुण्डित होकर साधु के समान सभी उपकरण लेकर भिक्षावृत्ति से जीवन यापन करता है इस विधि के अन्त में कहा गया है कि जो श्रावक पूर्वोक्त प्रतिमाओं का सम्यक् रूप से पालन कर लेता है, वह प्रव्रज्या के योग्य बन जाता है। ११. साधुधर्मविधि पंचाशक- यह पंचाशक साधुधर्मविधि का प्रतिपादन करता है। जो चारित्रयुक्त होता है वही साधु है। इसमें देशचारित्र और सर्वचारित्र के भेद से चारित्र दो प्रकार का कहा गया है। गृहस्थ देशचारित्र से युक्त होता है एवं साधु सर्वचारित्र से युक्त होता है। इसके साथ ही इस पंचाशक में सर्वविरति चारित्र के पाँच प्रकारों का विशद वर्णन किया गया है। १२. साधुसामाचारीविधि पंचाशक- इस बारहवें पंचाशक में हरिभद्रसूरि ने साधुसामाचारी विधि का वर्णन किया है। साधु सामाचारी का तात्पर्य है- साधुओं के द्वारा पालन करने योग्य आचार सम्बन्धी नियम। साधु सामाचारी दस प्रकार की कही गई हैं उनके नाम निम्न हैं- १.इच्छाकार २.मिथ्याकार ३.तथाकार ४.आवश्यिकी ५.निषीधिका ६.आपृच्छना ७.प्रतिपृच्छना ८.छन्दना ६.निमंत्रणा और १०.उपसम्पदा। इस पंचाशक में इन दस सामाचारियों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। १३. पिण्डविधानविधि पंचाशक - यह पंचाशक जैन मुनि की आहार विधि का विवेचन करता है। पिण्ड अर्थात् भोजन। आहर करते समय आहार की शुद्धता का ध्यान रखना पिण्डविधान है। इसमें मुनि के आहार सम्बन्धी बियालीस दोषों
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की चर्चा की गयी है।
१४. शीलांगविधानविधि पंचाशक इस पंचाशक में शीलांगों का निरूपण किया गया है। श्रमणों के शील सम्बन्धी विविध पहलुओं को शीलांग कहा गया है। इनकी संख्या अठारह हजार हैं। ये सभी शीलांग अखण्ड भाव चारित्र वाले श्रमणों में पाये जाते हैं। तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रिय, दस काय और दस श्रमणधर्म इनके पारस्परिक गुणन से अठारह हजार शीलांग होते हैं यथा
३X३X४X५X१०X१०- १८००० ।
इस पंचाशक में यह भी बताया गया है कि शीलांगों की अठारह हजार की यह संख्या अखण्ड भावचारित्र सम्पन्न मुनि में कभी कम नहीं होती है, क्योंकि प्रतिक्रमण सूत्र में इन अठारह हजार शीलांगों को धारण करने वाले मुनियों को ही वन्दनीय कहा गया है। दूसरी बात यह कही गई है कि अठारह हजार में से कोई एक भी संख्या होने पर सर्वविरति नहीं होती है और सर्वविरति के बिना मुनि नहीं होता है तथा सच्चे मुनित्व भाव के बिना मोक्ष में गमन नहीं होता है। इस प्रकार सम्पूर्ण शीलांगों से युक्त साधु ही सांसारिक दुःखों का अन्त करते हैं, अन्य द्रव्यलिंगी साधु नहीं ।
१५. आलोचनाविधि पंचाशक यदि किसी कारणवश शीलांगों का अतिक्रमण हो जाता है तो उसकी शुद्धि के लिए आलोचना करनी पड़ती है। अतः पन्द्रहवें पंचाशक में आलोचनाविधि का वर्णन किया गया है। अपने दुष्कृत्यों को गुरु के समक्ष शुद्धभाव से कुछ भी छिपाए बिना बताना आलोचना है। इस पंचाशक के अन्तर्गत आलोचना के योग्य व्यक्ति, आलोचना देने योग्य गुरु, आलोचना क्रम, मनोभावों का प्रकाशन और द्रव्यादि शुद्धि ये पाँच द्वार कहे गये हैं। इसके साथ ही आलोचना का काल, आलोचना नहीं करने से होने वाले दुष्ट परिणाम, निशल्य भाव से आलोचना करने का फल इत्यादि का भी वर्णन किया गया है।
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१६. प्रायश्चित्तविधि पंचाशक इस सोलहवें पंचाशक में प्रायश्चित्त विधि का विवेचन किया गया है। सामान्यतया जिससे प्रायः चित्त शुद्धि होती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। इसमें प्रायश्चित्त के आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक इन दस प्रकारों को विस्तारपूर्वक समझाया गया है। आगे के सात प्रायश्चित्तों को व्रण दृष्टान्त से बताया गया है। उसके बाद आगम के अनुसार आगम श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत ऐसे पाँच प्रकार के प्रायश्चित्त देने की विधि बतलायी गयी है। इन पाँच प्रकार के व्यवहारों के आधार पर अनेक प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गए हैं।
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१७. कल्पविधि पंचाशक - इस पंचाशक में कल्पविधि का वर्णन हैं। इसमें कल्प के दो प्रकार कहे हैं १. स्थित कल्प और २. अस्थित कल्प। स्थितकल्प वे हैं जो सदा आचरणीय होते हैं। अस्थितकल्प किसी कारण से आचरणीय होते हैं और किसी कारण से आचरणीय नहीं होते हैं। सामान्यतया आचेलक्य आदि के भेद से कल्प के दस प्रकार होते हैं - १. आचेलक्य २. औद्देशिक ३. शय्यातरपिण्ड ४. राजपिण्ड ५. कृतिकर्म ६. व्रत (महाव्रत) ७. ज्येष्ठ ८. प्रतिक्रमण ६. मासकल्प और १०. पर्युषणाकल्प
ये दस कल्प प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासनकाल के साधुओं के लिए स्थितकल्प रूप होते हैं और मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के साधुओं के लिए इनमें छ: कल्प अस्थित होते हैं और चारकल्प स्थित होते हैं। इस पंचाशक में इन दस प्रकार के कल्प का स्वरूप सम्यक् रूप से कहा गया है। १८. भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पंचाशक - इस अठारहवें पंचाशक में भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि का वर्णन हुआ है। विशिष्ट क्रिया वाले साधु का प्रशस्त अध्यवसाय रूपी शरीर ही प्रतिमा कहलाता है। इसमें आवश्यकनियुक्ति के अनुसार मासिकी, द्विमासिकी, त्रैमासिकी, चतुर्मासिकी, पंचमासिकी, षष्टमासिकी, सप्तमासिकी- ये एक महिने से प्रारंभ होकर क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छः और सात महीने तक पालन करने योग्य सात प्रतिमाएँ कही गई हैं। आठवीं, नौवीं और दसवी प्रतिमा सप्तदिवसीय तथा ग्यारहवीं और बारहवीं प्रतिमा एक दिवस रात्रि की होती है इस प्रकार कुल बारह प्रतिमाओं का सुन्दर निरूपण किया गया है। १६. तपविधि पंचाशक- यह पंचाशक तप विधि का विवेचन करने वाला है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार जिससे कषायों का निरोध हो, ब्रह्मचर्य का पालन हो, जिनेन्द्रदेव की पूजा हो तथा भोजन का त्याग हो, वे सभी तप कहलाते हैं। इसमें बारह प्रकार के बाह्यतप एवं बारह प्रकार के आभ्यन्तर तप का विवेचन किया गया है। इन बारह प्रकार के तपों के अतिरिक्त निम्न तपों का स्वरूप भी कहा गया है -
१. प्रकीर्णकतप- तीर्थंकरों द्वारा उनकी दीक्षा, कैवल्य-प्राप्ति और निर्वाण प्राप्ति के समय जो तप किये गये थे, तदनुसार जो तप किये जाते हैं वे प्रकीर्णक तप कहलाते हैं २. चान्द्रायण तप ३. रोहिणी आदि विविध तप ४. निरुजशिरवा तप ५. परमभूषण तप ६. ज्ञान-दर्शन-चारित्र तप ७. सौभाग्यकल्पवृक्ष तप इत्यादि।
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टीकाएँ- इस पर अभयदेवसूरि ने वि. सं. ११२४ में एक वृत्ति' लिखी है। हरिभद्रसूरि ने भी टीका लिखी है ऐसा जिनरत्नकोश (पृ. २३१) में उल्लेख है । इस पर एक अज्ञात कर्तृक टीका भी है। वीरगणि के प्रशिष्य एवं चन्द्रसूरि के शिष्य यशोदेव ने भी पहले पंचाशक पर जैन महाराष्ट्री में वि. सं. ११७२ में एक चूर्णि लिखी थी, जिसमें प्रारम्भ में तीन पद्य और अन्त में प्रशस्ति के चार पद्य हैं, शेष ग्रन्थ गद्य में है। इस चूर्णि में सम्यक्त्व के प्रकार, उसकी यतना, अभियोग और दृष्टान्त के साथ-साथ मनुष्य भव की दुर्लभता आदि अन्यान्य विषयों का निरूपण किया गया है। इस चूर्णि में सामाचारी के विषयों का अनेक बार उल्लेख हुआ है। यह मण्डनात्मक शैली में रचित होने के कारण इसमें 'तुलादण्ड न्याय' का उल्लेख भी है।
इस चूर्णि की रचना में आधारभूत सामग्री के रूप में अन्त में विविध ग्रन्थों का साक्ष्य दिया गया है और पंचाशक की अभयदेवसूरिकृतवृत्ति, आवश्यकचूर्णि और वृत्ति, नवपदप्रकरण और श्रावक प्रज्ञप्ति के उपयोग किये जाने का उल्लेख किया है।
३
पंचांगुलिविधान
यह रचना अज्ञातकर्तृक है। इस रचना का उल्लेख 'जिनानन्द भंडार गोपीपुरा, सूरत' की हस्तप्रत लिस्ट में हैं। हमें मूलकृति देखने को नहीं मिली है । सम्भावना यह है कि इस कृति में पंचांगुली देवी की आराधना - उपासना अथवा प्रतिष्ठादि का विधान होना चाहिए। जैन परम्परा में श्री सीमंधरस्वामी तीर्थंकर प्रभु की शासनदेवी पंचांगुली मानी गई है, यह कृति उसी की आराधना से सम्बन्धित हो सकती है।
9
यह ग्रन्थ अभयदेवसूरिकृत वृत्ति के साथ जैन धर्म प्रसारक सभा के द्वारा सन् १६१२ में प्रकाशित हुआ है।
२
प्रथम पंचाशक की यह चूर्णि पाँच परिशिष्टों के साथ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १६५२ में प्रकाशित की है।
३
प्रथम पंचाशक का मुनि शुभंकरविजयकृत गुजराती अनुवाद 'नेमि - विज्ञान - ग्रन्थमाला' (सन् १६४६ ) से प्रकाशित हुआ है और उसका नाम 'श्रावकधर्म विधान' रखा है।
आदि के चार पंचाशक एवं उतने भा. की अभयदेवसूरि की वृत्ति का सारांश पं. चन्द्रसागरगणि ने गुजराती में तैयार किया है। यह सारांश सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक समिति ने सन् १६४६ में प्रकाशित किया है।
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पोसहविधि
यह पुस्तक' गुजराती भाषा में निबद्ध है। इसका संकलन विजयमोहनसूरि के शिष्य प्रतापविजयगणि ने किया है। 'पौषध विधि' से सम्बन्धित कुछ प्रतियाँ हमें देखने को मिली है उनका संक्षिप्त विवरण उन-उन कृतियों के साथ कर चुके हैं। यह कृति भी उसके तुल्य ही है। विशेषतया प्रस्तुत कृति में पौषध विधि से सम्बद्ध ४१ विषयों पर विचार किया गया है जिनमें पौषध सम्बन्धी विशेष जानकारी, पौषध सम्बन्धी समस्त विधान एवं पौषध स्वरूप इत्यादि का वर्णन है। पोसहिय पायच्छित्तसामायारी (पौषधिक प्रायश्चित्त सामाचारी)
यह रचना अज्ञातकर्तृक है। इसमें जैन महाराष्ट्री प्राकृत के १० पद्य हैं। टीका- इस पर तिलकाचार्य ने एक वृत्ति भी लिखी है।
हमें जिनरत्नकोश (पृ. २५६) में से पौषध विधि से सम्बन्धित निम्न कृ तियों का सामान्य विवरण भी प्राप्त हुआ है। पौषध प्रकरण- इसका दूसरा नाम पौषधषट्त्रिंशिका है। इसके कर्ता खरतरगच्छीय प्रमोदमाणिक्य के शिष्य जयसोम हैं। यह रचना वि.सं. १६४३ की है। इस पर स्वोपज्ञ टीका रची गई है। पौषधविधिप्रकरण - यह कृति प्राकृत में जिनवल्लभसूरि ने रची है। टीका- इस पर जिनमाणिक्यसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि ने, वि.सं. १६१७ में ३५५५ श्लोक परिमाण टीका रची है। पौषधविधिप्रकरण- इसकी रचना श्री चक्रेश्वरसूरि ने की है। इसमें ६२ गाथाएँ हैं। पोसहविहिपयरण (पौषधविधिप्रकरण)
यह कृति देवभद्रसूरि द्वारा रची गई है। उन्होंने यह रचना जैन महाराष्ट्री प्राकृत में ११८ पद्यों में की है। इसी नाम की एक कृति चक्रेश्वरसूरि ने ६२ पद्यों में लिखी है। इस दोनों कृतियों में पौषधविधि का निरूपण हुआ है। रात्रिपौषधविधि- यह अप्रकाशित है। प्रव्रज्याविधानकुलकम्
यह कृति महाराष्ट्री प्राकृत की पद्यात्मक शैली में है। इसके कुल ३२ पद्य हैं। यह पूर्वतनाचार्य विरचित है। ग्रन्थकर्ता का नाम अज्ञात है। इस ग्रन्थ पर
' यह पुस्तक वी.सं. २४५५ में, श्री मुक्तिकमल जैन मोहन ज्ञानमंदिर, महाजननी पोल-बडोदरा से प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/235
चन्द्रगच्छीय श्री प्रद्युम्नसूरि ने वि.सं. १३२८ में, ४५०० श्लोक परिमाण विस्तृत टीका रची है।'
प्रस्तुत कृति के नाम से ही यह स्पष्ट अवगत होता है कि यह ग्रन्थ प्रव्रज्या (दीक्षा) विधान का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करने वाला है। यद्यपि इसमें दीक्षा या तत्सम्बन्धी विधान उतने चर्चित नहीं हुए हैं, किन्तु प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले जीव को संसार की असारता का भलीभाँति बोध हो जाये, संयम-त्याग-तप के प्रति हृदय से अहोभाव जग जाये तथा संयमी जीवन स्वीकार करने के बाद व्रतों एवं आवश्यक नियमों का परिपालन सम्यक् प्रकार से कर पायें इस विषय पर अधिक बल दिया गया है। प्रत्येक प्रसंग को सोदाहरण स्पष्ट करने का भी प्रयास किया गया है। यह इस कृति की अनोखी विशिष्टता है। यहाँ ध्यातव्य हैं कि इस ग्रन्थ का विषय निरूपण करते हुए विधि या विधान शब्द का प्रयोग भले ही अल्प हुआ हो, किन्तु जो कुछ उल्लिखित हैं उसका मूल सम्बन्ध विधि-विधान से ही रहा हुआ है।
इस ग्रन्थ की विषयवस्तु दस द्वारों में विभक्त है। प्रारंभ में मंगलाचरण को लेकर कोई गाथा नहीं है अन्त में छः श्लोक प्रशस्ति रूप में दिये गये हैं। इस ग्रन्थ की विषय विवेचना संक्षेप में इस प्रकार है
प्रथम द्वार का नाम 'मनुष्यदुर्लभता' है। इसमें संसार की विषमता को समझाते हुए निम्न दस दृष्टान्त कहे गये हैं १. ब्रह्मदत्त २. पाशक ३. धान्य ४. द्यूत ५. रत्न ६. स्वप्न ७. चक्र ८. चर्म ६. युग और १० परमाणु। द्वितीय द्वार का नाम 'बोधिदुष्प्रापता' है। इसमें समझाया गया है कि जिनधर्म का बोध होना अत्यन्त मुश्किल है। इस सम्बन्ध में श्री ऋषभदेव का चरित्र कहा गया है। बोधि धर्म की अप्राप्ति के विषय में राजा को मारने वाले उदायी का और अर्हद्दत्त का चरित्र कहा गया है। तृतीय द्वार का नाम 'प्रव्रज्यादुरापत्त्वम्' है। इसमें वर्णन है कि प्रव्रज्या सुकृत पुण्य का फल है। प्रव्रज्या दुष्प्रापत्व के विषय में जमाली आदि आठ निह्मवों के दृष्टान्त दिये गये हैं।
चतुर्थ द्वार का नाम 'प्रव्रज्यास्वरूपप्रकाशन' है। इस द्वार में प्रव्रज्या का स्वरूप कहते हुए पंचमहाव्रत, छट्ठा रात्रिभोजनविरमणव्रत, गोचरी के बियालीस दोष, ग्रासैषणा के पांच दोष, पाँचसमिति, तीनगुप्ति, तपविधान का उपदेश, अममत्व, अकिंचनत्व, बारह प्रतिमा, यावज्जीवन अस्नान, अनवरत भूमिशय्या, केशोद्धरण,
' यह ग्रन्थ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था से सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ है। यह कृति प्रद्युम्नसूरि की वृत्ति सहित मुद्रित है।
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236/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
गुरुकुलवास, बाईस परीषह आदि का सम्यक् निरूपण किया है। यह प्रकरण पढ़ते-पढ़ते दीक्षा का साक्षात् स्वरूप अनुभव होने लगता है। सच्ची साधुता का जीवन जीने वाली आत्माओं के प्रति मस्तक स्वतः झुक जाता है। ग्रन्थकार ने इस द्वार में जो सामग्री प्रस्तुत की है वह जिन शासन के लिए अमर देन है। यहाँ आहार के सम्बन्ध में मंख, यतिभगिनी, वणिग, गोप, मित्रकथा, मधुबिन्दु के दृष्टान्त दिये है। तपविधान का उल्लेख करते समय वासुदेव, हरिकेशि, गजसुकुमाल के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। बाईस परीषह के विषय में क्रमशः हस्तिमित्र, धनशर्म, वणिक्चतुष्क, अर्हन्नक, श्रमणभद्र, सोमदेव, अर्हद्दत्त, स्थूलिभद्र, संगमस्थविर, कुरुदत्तपुत्र, भातृद्वय, स्कन्ध, बलदेव, ढंढणऋषि, हतशत्रु, भद्र, श्रावक, श्रेष्ठि, कालक, आभीर, स्थूलिभद्र,
आषाढ़ाचार्य के कथानक निर्दिष्ट है। पंचम द्वार का नाम 'प्रव्रज्यादुष्करत्त्व' है। इनमें प्रव्रज्या की दुष्करता को बताते हुए सुरेन्द्रदत्त की कथा कही है। षष्ठम द्वार का नाम 'धर्मफलदर्शन' है। इसमें भरतचक्रवर्ती की कथा दर्शित की है। सप्तम द्वार का नाम 'व्रतनिर्वाहन' है। इस विषय में वज्रस्वामी, प्रसन्नचन्द्रराजर्षि एवं सिद्धवति के कथानक कहे गये हैं। अष्टम द्वार का नाम 'व्रतनिर्वाह' है। इसमें व्रत का निर्वाह प्रशंसनीय रूप से हो, इसका उल्लेख है। नवम द्वार का नाम 'मोहतरुच्छेद' है। इसमें कहा है कि साधु (प्रव्रजित) को अप्रमत्त भाव से रहना चाहिये। इस पर अगड़दत्त ऋषि का कथानक है तथा प्रव्रजित को पुनः स्थिर करने के विषय में अभयकुमार की कथा दी है। दशम द्वार का नाम 'धर्मसर्वस्वदेशना' है। इसमें मुख्य रूप से निर्देश दिया है कि क्षणभंगुर संसार में धर्म ही साररूप तत्त्व है। वह धर्म भी संयम रूप ही उत्कृष्ट कहा गया है।
इस ग्रन्थ विवेचन से यह सस्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि प्रव्रज्या क्या है? प्रव्रजित साधु को कैसा होना चाहिये ? और प्रव्रजित होने वाले जीव को संयम का वास्तविक बोध कैसे कराया जाना चाहिए ? प्रव्रज्या देने वाले एवं प्रव्रज्या लेने वाले जीव को प्रव्रज्याविधानकुलकम् का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। इसमें कुल ६८ कथाएँ हैं। बृहद्योग विधि
आचार्य देवेन्द्रसागरसूरी द्वारा संपादित यह पुस्तक गुजराती लिपि में है।' यह एक संकलित की गई कृति है। इस कृति में उल्लिखित प्रायः विधि-विधान तपागच्छ परम्परा के अनुसार है।
' यह पुस्तक सुबोधसागरजी जैन ज्ञानमंदिर, वीसनगर (गुज.) से, वि.सं. २०२१ में प्रकाशित
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 237
प्रस्तुत पुस्तक अपने नाम के अनुसार न केवल योगोद्वहन ( आगम पढ़ने व पढ़ाने के निमित्त की जाने वाली क्रिया) के समय की जाने वाली योग क्रिया का उल्लेख करती है अपितु दीक्षाविधि, पदस्थापनाविधि, उपस्थापना विधि आदि के निमित्त किये जाने वाले योगों एवं अनुष्ठानों की चर्चा करती हैं। इस पुस्तक में साधुजीवन से सम्बन्धित समस्त योग परक विधि-विधानों का निरूपण किया गया है। प्रस्तुत कृति में दिये गये ये विधि-विधान प्रायः साधु-साध्वी द्वारा ही अनुष्ठित किये जाने योग्य हैं। इस पुस्तक के अन्त में योगचर्चा के सिवाय १. साधु की कालधर्म विधि एवं २. उपधान विधि भी वर्णित है ये दोनों विधान साधु द्वारा ही सम्पन्न करवाये जाने की दृष्टि से संकलित किये गये हैं।
इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में शास्त्रीय आधार से यह बताया गया है कि किस आगम को पढ़ने के लिए कितने वर्ष की दीक्षा पर्याय होना चाहिए। साथ ही योगोदवहन का महत्त्व, गृहस्थ को आगम पढ़ाने से दोष इत्यादि चर्चा भी की गई है। प्रस्तुत कृति में संकलित विधियों एवं तत्सम्बन्धी विषयों के नाम अधोलिखित हैं
१. योग में प्रवेश करने की विधि २. कालिकसूत्र के योग करते समयनुंतरा ( आमन्त्रण ) देने की विधि ३. कालग्राही द्वारा करने योग्य विधि ४. दांडीधर द्वारा करने योग्य विधि ५. काल प्रवेदन ( कालग्रहण करते समय करने योग्य) विधि ६. पवेयणा विधि अर्थात् प्रातः काल की आवश्यक क्रिया पूर्ण होने के बाद प्रत्याख्यान के लिए करने योग्य विधि ७. पाली पालटवानो ( तप परिवर्तन ) विधि ८. स्वाध्याय प्रस्थापना विधि ६. कालमांडला ( पाटली) विधि १०. संघट्टाग्रहण विधि ११. सन्ध्या के समय क्रिया करने की विधि १२. योग में से बाहर निकलने की विधि १३. अनुयोग विधि १४. उपस्थापना ( बडी दीक्षा) विधि १५. प्रव्रज्या (दीक्षा) विधि १६. सर्वयोगदिन, काल, नंदि आदि की संख्या का यन्त्र ( कोष्ठक) १७. अनुष्ठान विधि - योग सम्बन्धी विशिष्ट विधान १८. रात्रि में करने योग्य अनुष्ठान की जानकारी १६. अस्वाध्याय विधि २०. नष्टदंत विधि २१. योग के विषय में विशेष विवरण २२. योगसंबंधी विशेष सूचनाएँ २३. स्वाध्याय भंग के स्थान २४. चूला प्रवेदन विधि - वर्तमान में यह विधि प्रचलित नहीं है २५. गणिपदस्थापना विधि २६. आचार्यपद उपाध्यायपद एवं पन्यासपद स्थापना विधि आदि।
भट्टारकपदस्थापनाविधि
यह रचना संस्कृत या प्राकृत में है। यह रचना हमे उपलब्ध नहीं हो पाई है। अतः इसके सम्बन्ध में अधिक कुछ कहना सम्भव नहीं है । यह नागपुर
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238 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
से सन् १६२६ में प्रकाशित हुई है । ' मन्त्रदीक्षा
यह अत्यन्त लघु पुस्तिका है । मन्त्रदीक्षा एक छोटा सा उपक्रम है। श्वेताम्बर तेरापंथ परम्परा में इस विधान का अभी - अभी प्रचलन हुआ है। मन्त्र दीक्षा का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए गणाधिपति तुलसी ने लिखा है कि- बच्चों को महामन्त्र से परिचित कराना और उसके प्रयोग से होने वाले लाभ का अनुभव करना ही मन्त्र दीक्षा है । नमस्कार महामन्त्र आबालवृद्ध सबके लिए उपयोगी है। बच्चों को विशेष संस्कार देने के लिए मन्त्रदीक्षा को एक संस्कार के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है जिस प्रकार नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन आदि सोलह संस्कार माने गये हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक विकास के लिए निश्चित संस्कारों में यह एक है ।
उन्होंने कहा है मंत्र दीक्षा कोई प्रदर्शन या पाबन्दी नहीं है वरन् सदाचरण की ओर प्रस्थान तथा आन्तरिक विश्वास को जगाने का उपक्रम है। यानि नैतिक संस्कारों की प्रारंभिक शिक्षा - मंत्र दीक्षा है। मंत्र दीक्षा संस्कार विधि की महत्ता एवं उपयोगिता का उल्लेख करते हुए कहा गया हैं कि बालक का मन कोरे कागज के समान होता है, जिस पर जैसा चित्र चाहें उकेरा जा सकता है। वैज्ञानिक तथ्यों ने भी इस बात की पुष्टि की है कि पाँच से नौ वर्ष की उम्र का समय बच्चों के मानसिक विकास एवं आन्तरिक आस्था के जागरण का होता है। इस उम्र में बच्चों को जो ठोस आहार मिलता है वह जीवन भर उसे शक्ति प्रदान करता है।
नमस्कार महामंत्र के प्रति समर्पण का भाव जगे, इस प्रयोग का नाम ही मंत्र दीक्षा है। दीक्षा के इस कार्यक्रम में बच्चों की मूलभूत आस्थाओं के साथ नमस्कार महामंत्र का उच्चारण करवाया जाता है। इस कृति में वन्दनविधि, सामायिकसूत्र, सामायिक - आलोचनासूत्र के साथ-साथ मंत्रदीक्षा के संकल्पसूत्र, शिक्षासूत्र भी दिये गये हैं। स्पष्टतः मन्त्रदीक्षा संस्कार विधि का एक नया उपक्रम है। इसका प्रयोग सभी के लिए उपयोगी है।
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जिनरत्नकोश (पृ. ३२३) में योगविधि नाम की पाँच रचनाएँ मिलती हैं। . यहाँ योगविधि से तात्पर्य - योगवहन विधि होना चाहिये ।
योगविधि - यह रचना श्री इन्द्राचार्य की है। योगविधि - इसके कर्त्ता भानुप्रभ के
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जिनरत्नकोश- पृ. २६१
२ अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद्- लाडनूं (आठवां संस्करण)
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/239
शिष्य अजितदेव मुनि है। इसका रचनाकाल वि.सं. १२७३ है। योगविधि- इसकी कोई जानकारी नहीं मिली है। योगविधि- इसके रचयिता शिवनन्दिगणि है। योगविधि- यह अज्ञातकर्तृक रचना है। योगविवरण- इसके कर्ता श्री यादवसूरि हैं। रात्रिपौषधविधि- यह अप्रकाशित है। इसमें रात्रिकालीन पौषधविधि का विवेचन है। विहिमग्गप्पवा-विधिमार्गप्रपा
जैन साहित्य की महान परम्परा को अविच्छिन्न बनाने में अनेक साहित्यकारों और उनके ग्रन्थों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन साहित्य की इस परम्परा में विधिमार्गप्रपा का अद्वितीय स्थान है। इस कृति के प्रणेता खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि है।' उनकी यह रचना जैन महाराष्ट्री प्राकृत में है। इस कृति का रचनाकाल वि.सं. १३६३ है। यह रचना कोसल (अयोध्या) में हुई थी। इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण ३५७५ है। यह ग्रन्थ प्रायः गद्य में है। 'विधिमार्ग' यह खरतरगच्छ का ही पूर्व नाम है।
प्रस्तुत ग्रन्थ विधि-विधानों का अमूल्य निधि रूप है। इसमें नित्य (प्रतिदिन करने योग्य) और नैमित्तिक (विशेष अवसर या कभी-कभी करने योग्य) सभी प्रकार के विधि-विधान समाविष्ट हैं। इसमें जैन धर्म के विधि-विधानों का प्रमाणिक उल्लेख किया है। जैन विधि-विधानों से सम्बन्धित ऐसे प्रामाणिक ग्रन्थ विरले ही देखने को मिलते हैं। 'विधिमार्गप्रपा' नाम की सार्थकता- इस ग्रन्थ का वैशिष्टय यह है कि आचार्य जिनप्रभसूरि ने ग्रन्थ के अन्तर्गत ग्रन्थ के नामानुरूप, विषयों का चयन किया है। 'विधिमार्गप्रपा' ऐसा ग्रन्थ का नामभिधान अन्वर्थक और संगत है। यद्यपि इसकी प्राचीन सभी प्रतियों में तथा अन्यान्य उल्लेखों में संक्षेप में इसका नाम 'विधिप्रपा' ही प्रायः उल्लिखित है। सामान्य अर्थ में तो 'विधिमार्ग' का 'क्रियामार्ग' ऐसा भी अर्थ विवक्षित होता है पर विशेष अर्थ में 'खरतरगच्छीय विधि (क्रिया) मार्ग' ऐसा
' (क) इस कृति का प्रथम संस्करण सन् ११४१, जिनदत्तसूरि भण्डार ग्रन्थमाला से प्रकाशित हुआ है। (ख) दूसरा संस्करण 'प्राकृत भारती अकादमी जयपुर से निकला है। (ग) तीसरा संस्करण हिन्दी अनुवाद के साथ महावीर स्वामी जैन देरासर, पायधुनी, मुबंई से, सन् २००६ में प्रकाशित हुआ है। २ इस ग्रन्थ का मुख्य संपादन मुनि जिनविजयजी ने किया है। तीसरा संस्करण भी काफी कुछ नये संशोधनों के साथ तैयार किया गया है। ३ प्रतिष्ठा विधि नामक छः द्वार एवं मुद्राविधि नामक ३७ वॉ द्वार का निरूपण (६७ से ११७) प्रायः संस्कृत में है।
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भी अर्थ अभिप्रेत है, क्योंकि खरतरगच्छ के दो नाम प्रसिद्ध हैं (9) विधिपक्ष (विधिमार्ग) और (२) सुविहित पक्ष (सुविहित मार्ग)। इस ग्रन्थ की सामाचारी में जो विधि-विधान प्रतिपादित किये गये हैं, वे प्रधानतया खरतरगच्छ के पूर्व आचार्यों द्वारा स्वीकृत और सम्मत रहे हैं। इन विधि-विधानों की प्रक्रिया में अन्य गच्छ के आचार्यों का कहीं कुछ मतभेद हो सकता है और है भी सही। अतएव ग्रन्थकार ने स्पष्ट रूप से इसके नाम से किसी को कुछ भ्रान्ति न हो, इसलिए इसका "विधिमार्गप्रपा' ऐसा अन्वर्थक नामकरण किया है।
तदुपरान्त इस ग्रन्थ प्रशस्ति की प्रथम गाथा में यह भी सचित किया है कि- "भिन्न-भिन्न गच्छों में प्रवर्तित अनेकविध सामाचारियों को देखकर शिष्यों को किसी प्रकार का मतिभ्रम न हों, इसलिए अपने गच्छ प्रतिबद्ध ऐसी यह सामाचारी जिनप्रभसूरि के द्वारा लिखी गई है।" अतएव इसका विधिमार्गप्रपा नाम सर्वथा सुसंगत है। 'विधिमार्गप्रपा' ग्रन्थ का वैशिष्टय- विधि-विधानों की अपेक्षा से इस ग्रन्थ की महत्ता तथा मान्यता न केवल खरतरगच्छ परम्परा तक ही सीमित है वरन् परवर्ती अचलगच्छ, तपागच्छ, पार्श्वचन्द्रगच्छ आदि अनेक परम्पराएँ भी इसको प्रामाणिक रूप से स्वीकृत करती हैं अनेक विध परम्पराओं ने अंश रूप से या पूर्ण रूप से हो किसी न किसी रूप में, इस ग्रन्थ का अनुकरण किया है और इसे प्रमाणिक ग्रन्थ की कोटि मे स्थान दिया है। कल्याणविजयगणिकृत कल्याणकलिका, सकलचन्द्रगणिकृत प्रतिष्ठाकल्प समय- सुन्दरकृत सामाचारीशतक, रायचन्द्रमुनिकृत शुद्धसामाचारीप्रकरण इत्यादि कई ग्रन्थों में विधिमार्गप्रपा का प्रमाणिकता के साथ निर्देश किया गया है। इतना ही नहीं, विधि-विधानों का निरूपण करते समय जिनप्रभसूरि को जहाँ कहीं भी सामाचारी भेद या परम्परा भेद का मालूम हुआ है वहाँ-वहाँ अन्य परम्पराओं के अनुसार उनकी मान्यता का सूचन कर दिया है। यही वजह है कि यह ग्रन्थ सामाचारी की दृष्टि से सर्वोपयोगी बना है। इसके अतिरिक्त ग्रन्थ की दूसरी विशिष्टता यह हैं कि ग्रन्थकार ने ग्रन्थान्तर्गत जिन-जिन विधि-विधानों को प्रतिपादित किया है वे पूर्वाचार्यों के सम्प्रदायानुसार ही लिखे गये हैं न कि केवल स्वमति या अपनी कल्पनानुसार। जर्मन् विद्वान प्रो. वेवरने 'सेक्रेड बुक्स ओफ दी जैन्स्' नाम का सुप्रसिद्ध मौलिक निबन्ध लिखा है उसमें मुख्य आधार इसी ग्रन्थ का लिया है। सचमुच यह ग्रन्थ जैन विधिविधानों का परिचय प्राप्त करने वाले इच्छुकों के लिए सुन्दर प्रपातुल्य एवं सर्वश्रेष्ठ है।
विषय की दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है। समग्र विधि-विधानों का ऐसा विशद और क्रमबद्ध रूप अन्यत्र कहीं भी देखने में नहीं
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/241
आया है। यही कारण है कि परवर्ती परम्पराओं ने विधि-विधान की दृष्टि से इस ग्रन्थ का किसी न किसी रूप में अनुकरण किया है। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय - जैसा कि इसके नाम से ही परिज्ञात होता है कि यह ग्रन्थ साधु और श्रावक के नित्य और नैमित्तिक दोनों ही प्रकार की क्रियाओं के लिए एक सुन्दर 'प्रपा' के समान है। इसमें कुल मिलाकर ४१ द्वार यानि प्रकरण हैं। इन द्वारों के नाम, ग्रन्थ के अन्त में स्वयं ग्रन्थकार ने १ से ६ तक की गाथाओं में सूचित किये हैं। इन मुख्य द्वारों में कहीं-कहीं कितनेक अवान्तर द्वार भी सम्मिलित हैं- जो यथास्थान उल्लिखित किये गये हैं। इन अवान्तर द्वारों का नाम-निर्देश ग्रन्थ की विषयानुक्रमणिका में कर दिया गया है। उदाहरणार्थ- पाँचवें द्वार के अन्तर्गत पंचमंगल-उपधान, उन्नीसवें के अन्तर्गत दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग आदि चार अंग, निशीथादि छेदसूत्र, छठे से ग्यारह अंग, औपपातिक आदि उपांग, प्रकीर्णक, महानिशीथ एवं योगविधान प्रकरण, तीसवें आलोचना विधि नामक प्रकरण के अन्तर्गत ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार और देशविरति आदि देशविरति के प्रायश्चित्त एवं आलोचनाग्रहणविधि प्रकरण, इसी तरह इगतीसवें पइट्ठाविही नामक प्रकरण में प्रतिष्ठाविधिसंग्रह गाथा, अधिवासनाधिकार, नन्द्यावर्त्तलेखन, जलानयन, कलशारोपण
और ध्वजारोपण विधि, प्रतिष्ठोपकरणसंग्रह, कूर्म प्रतिष्ठाविधि, प्रतिष्ठासंग्रहकाव्य, प्रतिष्ठाविधि गाथा और कहारयणकोस (कथारत्नकोश) में से ध्वजारोपणविधि आदि आनुषांगिक विधियों के स्वतंत्र प्रकरण सन्निविष्ट हैं।
इन ४१ द्वारों में से प्रथम के १२ द्वारों का विषय मुख्य करके श्रावक जीवन के साथ सम्बन्ध रखने वाली क्रियाओं से सम्बन्धित है। १३ वें द्वार से लेकर २६ वें द्वार तक में वर्णित विधियाँ प्रायः करके साधु जीवन के साथ सम्बन्ध रखती हैं और आगे के ३० वें द्वार से लेकर अन्त के ४१ ३ द्वार तक में वर्णित क्रिया-विधान साधु और श्रावक दोनों के जीवन के साथ सम्बन्ध रखने वाले हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं प्रयोजन को लेकर एक गाथा दी गई है जिसमें भगवान महावीर को नमस्कार किया है और गुरोपदेश का सम्यक् स्मरण करके श्रावकों एवं साधु के कृत्यों की सामाचारी लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। अन्त में सोलह पद्यों की प्रशस्ति हैं। इस प्रशस्ति के आदि के छः पद्यों में प्रस्तुत कृति जिन ४१ द्वारों में विभक्त हैं उनके नाम दिये गये हैं और तेरहवें पद्य के द्वारा कर्ता ने सरस्वती एवं पद्मावती से श्रुत की ऋद्धि समर्पित करने की प्रार्थना की है साथ ही इस कृति का प्रथमादर्श कर्ता के शिष्य
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242/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
'उदयाकरणगणी' ने लिखा था, इसका भी प्रशस्ति में उल्लेख किया गया है।
उपर्युक्त ४१ द्वारों का प्रतिपाद्य विषय इस प्रकार हैंपहला- सम्यक्त्वआरोपणविधि द्वार - इस प्रथम द्वार में श्रावक को किस तरह सम्यक्त्वव्रत ग्रहण करना चाहिए, इसकी विधि बतलायी गयी है। इसके साथ ही सम्यक्त्व ग्रहण के समय श्रावक के लिए किन-किन नित्य और नैमित्तिक धर्मकृत्यों का करना आवश्यक है और किन-किन धर्म प्रतिकूल कृत्यों का निषेध करना उचित है, इसे संक्षेप में कहा गया है। दूसरा- परिग्रहपरिमाणविधि द्वार - दूसरे द्वार में सम्यक्त्वव्रत ग्रहण करने के पश्चात् जब श्रावक को देशविरति अर्थात् श्रावक धर्म के परिचायक बारह व्रतों को ग्रहण करने की इच्छा हों, तब उनका ग्रहण कैसे किया जाय इसकी विधि बतलायी गयी है। इस द्वार का नाम परिग्रहपरिमाण विधि है, क्योंकि इसमें मुख्य करके श्रावक को परिग्रह यानि स्थावर और जंगम संपत्ति की मर्यादा का नियम लेना होता है। इसलिए इसका नाम 'देशविरति व्रतारोपण' न रखकर 'परिग्रहपरिमाणविधि' रखा है।
इसमें यह भी कहा गया है कि इस प्रकार का परिग्रह परिमाण व्रत लेने वाले श्रावक या श्राविका को अपने नियमों की एक सूची बना लेनी चाहिए और इस सूची में नियमों के साथ यह लिखा रहना चाहिए कि यह व्रत मैंने अमुक आचार्य के पास, अमुक संवत् में अमुक मास और अमुक तिथि के दिन ग्रहण किया है। तीसरा- सामायिकआरोपणविधि द्वार - इस द्वार में देशविरति यानि श्रावक धर्म सम्बन्धी बारह व्रत लेने के बाद श्रावक को कभी छः महिने तक उभय सन्ध्याओं में सामायिक करने का व्रत भी लेना चाहिए, यह कहा गया है और साथ ही इसकी ग्रहण विधि भी कही गई है। चौथा- पांचवा-सामायिक ग्रहण-पारणविधि द्वार - इन दो द्वारों में सामायिकव्रत ग्रहण करने की और सामायिकव्रत पूर्ण करने की विधि निरूपित की गई है। यह विधि प्रायः सबको सुज्ञात ही है। छठा- उपधानविधि द्वार - इस छठे द्वार में उपधान अर्थात् श्रावक के अध्ययन विषयक क्रिया-विधि का विस्तृत वर्णन है। यहाँ उपधान विधि के प्रारम्भ में कहा गया है कि- कोई आचार्य इस प्रसंग में, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ जो शास्त्रों में प्रतिपादित की गई हैं उनमें से आदि की चार प्रतिमाओं को ग्रहण करने का भी विधान करते हैं, परंतु वह हमारी परम्परा को सम्मत नहीं है। क्योंकि शास्त्रकारों
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ने ऐसा कहा है कि वर्तमानकाल में प्रतिमाग्रहण रूप श्रावकधर्म व्युच्छिन्न (विनष्ट) प्रायः हो गया है इसलिए प्रतिमाओं का विधान करना उचित नहीं है । तदनन्तर उपधान तप में प्रवेश करने की विधि का निरूपण किया हैं। इसके साथ ही सात प्रकार के उपधान तप की उत्सर्ग और अपवाद रूप सामाचारी का कथन किया गया है। इसमें पौषधग्रहण की विधि, उपधानतप की आवश्यक (दैनिक) विधि, उपधान से बाहर निकलने की विधि, आदि का भी उल्लेख किया गया है। सातवाँ - मालारोपणविधि द्वार उपधान तप की समाप्ति पर मालारोपण क्रिया की जानी चाहिए, इसलिए इस द्वार में विस्तार के साथ मालारोपण विधि ज्ञापित की गई है। इस विधि में मानदेवसूरिकृत ५४ गाथा का 'उवहाणविही’ नामक पूरा प्राकृत प्रकरण, जो महानिशीथ नामक आगम सिद्धान्त के आधार पर रचित है, उद्धृत किया गया है।
आठवाँ - उपधानप्रतिष्ठापंचाशकप्रकरण द्वार- यह द्वार उपधान तप की प्रामाणिकता एवं उसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है । इस द्वार के प्रारंभ में उल्लेख है कि महानिशीथग्रन्थ की प्रामाणिकता के विषय में प्राचीन काल से ही कुछ आचार्यों में मतभेद चला आ रहा है और वे इस उपधान विधि को अनागमिक कहते हैं इसलिए इस ८ वें द्वार में, इस विधि के समर्थन रूप 'उवहाणपइट्ठापंचासय' (उपधानप्रतिष्ठा- पंचाशक) नामक ५१ गाथा का एक संपूर्ण प्रकरण, जो किसी पूर्वाचार्य का बनाया हुआ है, वह उद्धृत कर दिया है। इस प्रकरण में महानिशीथसूत्र की प्रामाणिकता के साथ उपधानविधि का यथेष्ठ प्रतिपादन किया गया है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 243
नौवाँ - पौषधविधि द्वार इस द्वार में श्रावक को पर्व दिनों में पौषधव्रत ग्रहण करना चाहिए, इसका विधान है। साथ ही इस व्रत के ग्रहण एवं पारण की विधि प्रतिपादित की गई है। इसकी अन्तिम गाथा में कहा गया है कि जिनवल्लभसूरि ने जो 'पौषधविधि प्रकरण' बनाया है उसी के आधार पर यहाँ यह विधि लिखी गई है, जिन्हें विशेष कुछ जानने की इच्छा हों, उन्हें वह प्रकरण पढ़ लेना चाहिए। दशवाँ- प्रतिक्रमणविधि द्वार इस द्वार में प्रतिक्रमण सामाचारी का वर्णन किया गया है। जिसमें दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक इन पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण की विधि यथाक्रम पूर्वक निर्दिष्ट है। इन विधियों के अन्तर्गत बिल्लीदोष निवारण विधि, छींकदोष निवारण विधि और प्रतिक्रमण के समय बैठने योग्य वत्साकार मंडली की स्थापना विधि का भी निर्देश है।
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ग्यारहवाँ - तपविधि द्वार इस द्वार में तपोविधि का विधान है। इसमें कल्याणक तप, सर्वांगसुन्दर तप, परमभूषण तप, आयतिजनक तप, सौभाग्यकल्पवृक्ष तप,
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244/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
इन्द्रियजय तप, कषायजय तप, योगशुद्धि तप, अष्टकर्मसूदन तप, रोहिणी तप, अंबा तप, ज्ञानपंचमी तप, नन्दीश्वर तप, सत्यसुखसंपत्ति तप, पुण्डरीक तप, मातृ तप, समवसरण तप, अक्षयनिधि तप, वर्धमान तप, दवदन्ती तप, चन्द्रायण तप, भद्र महाभद्र-भद्रोत्तर- सर्वतोभद्र तप, एकादशांग-द्वादशांग आराधन तप, अष्टापद तप, बीशस्थानक तप, सांवत्सरिक तप, अष्टमासिक तप, छहमासिक तप इत्यादि ४५ प्रकार के तपों की विधि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस विधि के अन्त में कहा गया है कि इन तपों के अतिरिक्त कई लोग माणिक्यप्रस्तारिका तप, मुकुटसप्तमी तप, अमृताष्टमी तप, अविधवादशमी तप, गौतमपडवा तप, मोक्षदण्डक तप, अदुःखदर्शी तप, अखण्डदशमी तप इत्यादि तपाचरण करते हुए भी दिखाई देते हैं, परन्तु वे तप आगम विहित न होने से जिनप्रभसूरि ने उनका इस द्वार में वर्णन नहीं किया है। इसी तरह एकावली, कनकावली, रत्नावली, मुक्तावली, गुणसंवत्सर आदि जो तप हैं, उन्हे इस काल में करना दुष्कर होने से उनका भी वर्णन नहीं किया गया है। बारहवाँ- नन्दिरचनाविधि द्वार - इस द्वार में विस्तार के साथ नन्दिरचना विधि वर्णित की गई है। साथ ही नन्दिरचना के प्रसंग पर बोले जाने योग्य १८ स्तुतियाँ एवं स्तोत्र भी दिये गये हैं तथा दीक्षा के लिए उपस्थित हुए भव्यात्मा की योग्यता-अयोग्यता के विषय में परीक्षा विधि भी कही गई है। तेरहवाँ - प्रव्रज्याविधि द्वार - इस द्वार में प्रव्रज्या विधि अर्थात् मुनिधर्म की दीक्षा विधि का विशिष्ट विधान बताया गया है। इसके साथ ही दीक्षा के पूर्व दिन करने योग्य विधि, दीक्षा के दिन गृहत्याग की विधि एवं समवसरण (नन्दिरचना) की पूजा विधि का भी संक्षेप में उल्लेख किया गया है। चौदहवाँ- लोचकरणविधि द्वार - इसमें शुभ मुहूर्त, नक्षत्र, दिन, वार की चर्चा के साथ लोचकरण विधि बतलायी गयी है। इसमें स्वयं के द्वारा लोच करने और दूसरों के द्वारा लोच करवाने रूप दोनों प्रकार की लोच विधि का निर्देश है। पन्द्रहवाँ- उपयोगविधि द्वार - इस द्वार में प्रव्रजित मुनि को प्रत्येक कार्य शास्त्र के नियमानुसार एवं उपयोगपूर्वक करना चाहिए, ऐसा ज्ञापित किया गया है। उपयोग अर्थात् सजगता। साधु की दैनन्निद चर्या में आहार हेतु भ्रमण के लिए जाने से पूर्व आवश्यक क्रिया के रूप में 'उपयोगविधि' की जाती है जिसमें 'उपयोग पूर्वक प्रवृत्ति करने का आदेश' लेकर अन्नत्थसूत्र पूर्वक एक नमस्कारमन्त्र का कायोत्सर्ग किया जाता है तथा कायोत्सर्ग पूर्ण कर प्रगट में एक नमस्कारमन्त्र बोलकर गुरु कहते हैं- 'लाभ'। शिष्य कहता है- 'कह लेसहं'। पुनः गुरु कहते हैं- 'तहति जह गहियं पुव्वसाहूहि' इत्यादि।
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इस विधि के अन्तर्गत जिनप्रभसूरि ने यह सूचन किया है कि उपयोगविधि के कायोत्सर्ग में 'नमस्कार मन्त्र' का स्मरण करने के बाद गुरु को तीन बार 'अन्नपूर्णा' मन्त्र का स्मरण करना चाहिए। वह मन्त्र भी इसमें उल्लिखित किया गया है। वर्तमान में मन्त्रस्मरण की परम्परा दृष्टिगत नहीं होती है। इसमें उपयोग विधि से सम्बन्धित कुछ क्रिया-कलापों का भी संक्षेप में सूचन किया गया है। सोलहवाँ- आदिमअटनविधि द्वार - इस द्वार में जब नवदीक्षित साधु उपयोग युक्त विधि करने में योग्य बन जाये, तब उसे प्रथम भिक्षा ग्रहण करने के लिए कैसे
और किस शुभ दिन में जाना चाहिए? इसकी विधि निरूपित की गई है। साथ ही भिक्षा की आलोचना विधि एवं भिक्षा की ग्रहण विधि भी निर्दिष्ट की गई है। सतरहवाँ- मण्डली तप विधि द्वार- श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार नवदीक्षित मुनि को सामुदायिक मंडली में सम्मिलित करने के लिए सात प्रकार की मंडली- यथा प्रतिक्रमण, भोजन, शयन, वाचन, आदि के निमित्त सात दिन आयंबिल करवाये जाते हैं तदनन्तर सामूहिक क्रियाकलापों के लिए उसे अनुमति प्रदान की जाती है अतः इस द्वार में मण्डलीतप की विधि का वर्णन है। . अठारहवाँ- उपस्थापनाविधि द्वार - जब नूतन श्रमण को मण्डली तपोनुष्ठान के द्वारा सामूहिक मंडली में प्रविष्ट होने की अनुमति दे दी जाती है, तब वह उपस्थापना के योग्य हो जाता है इसलिए इस द्वार में उपस्थापना (पंचमहाव्रतआरोपण) करने की विधि दर्शित की गई है। इस विधि के अन्त में उपदेशपरक कुछ गाथाएं भी कही गयी हैं, जिनमें सुप्रसिद्ध 'रोहिणी' का दृष्टान्त वर्णित किया गया है। इसमें पात्र की योग्यता की अपेक्षा से उपस्थापना करने का उत्कृष्ट- मध्यम और जघन्य काल भी बताया गया है। उन्नीसवाँ- योगविधि द्वार - यहाँ ज्ञातव्य है कि उपस्थापित हो जाने के बाद साधु को सूत्रों का अध्ययन करना चाहिये और यह सूत्राध्ययन योगोद्वहन पूर्वक किया जाता है इसलिए १६ वें द्वार में योगवहन विधि का सविस्तार वर्णन किया गया है। यह योगवहन विधि का द्वार बहुत विस्तृत है। इसमें सर्वप्रथम योगवहन करने योग्य मुनि के लक्षण बताये गये हैं। इसके साथ ही योगवहन प्रारम्भ करने योग्य शुभ दिन, वार, नक्षत्र, मुहूर्तादि का निर्देश दिया गया है, योग के प्रकार एवं आगाढ़-अनागाढ़ सूत्रों के नाम का सूचन किया गया है। अस्वाध्याय के भेद निरूपित किये गये हैं। इसमें कुल ३२ प्रकार के अस्वाध्याय स्थानों की चर्चा की
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तदनन्तर कालग्रहण विधि, कालमंडल विधि, काल दिशा, कालग्रहण के भेद, कालग्रहण के प्रकार, स्वाध्यायप्रस्थापना विधि, संघट्टाग्रहण विधि, योगउत्क्षेप विधि, योगनंदी विधि, योगनिक्षेप विधि, योगवाहियों की कृत्य सामाचारी, योग की कल्प्याकल्प्य विधि, इत्यादि का निरूपण किया गया है। उसके बाद आवश्यकादि सूत्रों का पृथक्-पृथक् तपोविधान बतलाया गया है। इस विधान में प्रायः सभी सूत्रों के अध्ययनादि का संक्षेप में निर्देश कर दिया गया है। इसके अन्त में इस समग्र योगविधि का विवेचन करने वाला ६८ गाथाओं का 'जोगविहाण' नामक प्रकरण दिया गया है, जो शायद ग्रन्थकार की अपनी एक स्वतंत्र रचना है।
बीसवाँ- कष्पतिष्पविधि द्वार - यह योगोद्वहन ' कप्पतिप्प' कल्पत्रेप अर्थात् आचारादि की शुद्धिपूर्वक किया जाता है इसलिए इस द्वार में स्थानशुद्धि, वस्त्रशुद्धि, पात्रशुद्धि, शरीरशुद्धि आदि की दृष्टि से कल्पत्रेप सामाचारी वर्णित की गई है। इसमे 'छहमासिक कल्प उत्तारण' की विधि भी कही गई है।
इक्कीसवाँ - वाचनाविधि द्वार जब कल्पत्रेप पूर्वक सूत्रों का योगोद्वहन कर लिया जाये, तब सूत्रों के ज्ञान का अर्जन करने के लिए साधु को दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुयोगद्वार, अंग, उपांग, प्रकीर्णक, छेद आदि आगम ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए, इसलिए इक्कीसवें द्वार में वाचना प्रदान और वाचना ग्रहण की विधि बतलायी गई है। इसमें वाचना प्रदान करने वाले उपाध्याय (साधु) कुछ विशेष कृत्य भी कहे गये हैं।
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बाईसवाँ- वाचनाचार्यपदस्थापनाविधि द्वार जब श्रमण वाचना देने के योग्य हो जायें, उस समय उस श्रमण को वाचनाचार्यपद पर स्थापित किया जाना चाहिए, इसलिए इस द्वार में वाचनाचार्यपदस्थापना विधि का उल्लेख किया गया है। साथ ही इसमें वर्धमानविद्या को प्रदान करने की विधि और उसकी साधना विधि को भी समुचित रूप से उल्लिखित किया है।
तेइसवाँ- उपाध्यायपदस्थापना विधि द्वार इसमें उपाध्यायपदस्थापना की विधि कही गई है। इस विधि के प्रारंभ में यह स्पष्ट रूप से कह दिया गया है कि उसी साधु को वाचनाचार्य या उपाध्याय बनाना चाहिए, जो समग्र सूत्रार्थ के ग्रहण धारण और व्याख्यान करने में समर्थ हों, सूत्र की वाचना देने में पूर्ण परिश्रमी हों और आचार्य पद के योग्य हों। इस पद पर आसीन मुनि को आचार्य के अतिरिक्त अन्य सभी साधु-साध्वी चाहें वे दीक्षा पर्याय में छोटे हों या बड़े हों वन्दन करें, ऐसी सामाचारी दिखलायी गई है।
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चौबीसवाँ - आचार्यपदस्थापनाविधि द्वार इस द्वार में अत्यन्त विस्तार के साथ आचार्यपदस्थापना विधि बतलायी गयी है। विधि के प्रारम्भ में आचार्य पद के योग्य
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व्यक्ति का विधान करते हुए कहा है कि जो साधु आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मतिप्रयोग, मतिसंग्रह और परिज्ञा रूप इन आठ गणिसंपदाओं से युक्त हों, देश, कुल, जाति और रूप आदि से निर्दोष हों, बारह वर्ष तक जिसने सूत्रों का अध्ययन किया हो, बारह वर्ष तक जिसने शास्त्रों के सार का अर्थ प्राप्त किया हों, और बारह वर्ष तक अपनी प्रभावक शक्ति की परीक्षा के निमित्त जिसने देश पर्यटन किया हों- वह साधु आचार्य बनने के योग्य हैं और ऐसे योग्य व्यक्ति को आचार्य पद पर नियुक्त करना चाहिए।
आचार्यपदस्थापना विधि के अन्तर्गत कुछ प्रमुख बिन्दुओं को विशेष रूप से उजागर किया है। जैसे कि- नन्दिरचना के साथ निर्णीत लग्न में पूर्वआचार्य नवीन आचार्य को सूरिमन्त्र प्रदान करें। यह सूरिमन्त्र मूल रूप से २१०० अक्षर प्रमाण वाला था, वह भगवान महावीरस्वामी ने गौतमस्वामी को दिया था और उन्होंने उसे ३२ श्लोकों में गुम्फित किया था। कालक्रम के प्रभाव से इस मन्त्र का हास हो रहा है और दुःषम नामक पाँचवे आरे के अन्तिम आचार्य दुःप्रसहसूरि के समय में यह सूरिमन्त्र ढाई श्लोक परिमाण रह जायेगा। यह मन्त्र गुरुमुख से ही पढ़ा-सुना जाता है। इसे लिखकर प्रदान नहीं किया जाता है। ग्रन्थकार ने इस विधि के अन्तर्गत यह भी निर्देश दिया है कि जिस साधु (आचार्य) को इस सूरिमन्त्र की साधना विधि देखनी हों, उन्हें जिनप्रभसूरि रचित सूरिमन्त्रकल्प नामक प्रकरण का अवश्य अध्ययन करना चाहिये। इसमें एक विशेष बात यह कही गई है कि जब शिष्य को आचार्य पद देने की विधि समाप्ति पर हों तब स्वयं आचार्य अपने आसन से उठकर शिष्य की जगह बैठे और शिष्य को अपने आसन पर बिठायें तथा स्वयं उसको द्वादशावर्त्त विधि से वन्दन करें। यह 'वन्दनविधि' यह बतलाने के लिए की जाती है कि तुम भी मेरे ही समान आचार्य पद के धारक हो गये हों- इसी क्रम में पद-प्रदाता आचार्य नवीन आचार्य को कुछ उपदेश (व्याख्यान) देने को कहते हैं तब गुरु आज्ञा को स्वीकार करके नवीन आचार्य परिषदा के योग्य कुछ व्याख्यान करते हैं। उपदेश की समाप्ति पर सब साधु नवीन पदधारी को द्वादशावर्त वन्दन करते हैं यह सामाचारी है। फिर वह नवीन आचार्य गुरु (पूर्व आचार्य) के आसन पर से उठकर अपने आसन पर जाकर बैठते हैं और गुरु (पूर्व आचार्य) अपने मूल आसन पर बैठते हैं। तदनन्तर मूल गुरु नूतन आचार्य को शिक्षाबोध देते हैं उसे अनुशिष्टि कहा गया है। इस अनुशिष्टि में मूल आचार्य नवीन आचार्य को किन-किन बातों की शिक्षा देता है, इसका प्रतिपादन करने के लिए जिनप्रभसूरि ने ५५ गाथाओं का एक स्वतंत्र प्रकरण दिया है, जो बहुत ही भावप्रवण और सारगर्भित है।
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इसमें आचार्य को अपने समुदाय के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये और किस तरह गच्छ की प्रतिपालना करनी चाहिये उसका बड़ा मार्मिक उपदेश दिया गया है। आचार्य को अपने चारित्र में सदैव सावधान रहना चाहिए और अपने अनुवर्त्तियों की चारित्र रक्षा का भी पूरा ख्याल रखना चाहिए | सबको समदृष्टि से देखना चाहिये। उन्हें अपने और दूसरे लोगों के बीच किसी प्रकार का विरोधाभाव पैदा हो, ऐसा वचन कदापि नहीं बोलना चाहिये। स्वयं को कषायों से मुक्त होने के लिए सतत् प्रयत्नवान रहना चाहिए - इत्यादि शिक्षावचन कहे गये हैं।
पच्चीसवाँ - प्रवर्त्तिनीपदस्थापनाविधि द्वार, छब्बीसवाँ- महतरापदस्थापनविधि द्वार
इन दो द्वारों में प्रवर्त्तिनीपदस्थापना और महात्तरापदस्थापना विधि का निरूपण किया गया है इसके साथ ही आचार्यपदस्थापना के समान महत्तरापद और प्रवर्त्तिनीपद प्राप्त करने वाली साध्वी के लिए भी शिक्षा पूर्ण वचन कहे गये हैं । प्रवर्त्तिनी को अनुशिष्टि देते हुए आचार्य कहते हैं कि तुमने जो यह पद ग्रहण किया है इसकी सार्थकता तभी होगी जब तुम अपनी शिष्याओं को और अनुगामिनी साध्वियों को ज्ञानादि सद्गुणों में प्रवर्त्तित कर उनके कल्याण-पथ की मार्गदर्शिका बनोगी। तुम्हें न केवल उन्हीं साध्वियों के लिए हितकारी प्रवृत्ति करनी है जो विदुषि हैं, उच्च कुलीन हैं जिनका बहुत बड़ा स्वजन वर्ग है, या जो सेठ, साहूकार आदि धनिकों की पुत्रियाँ हैं, अपितु तुम्हें उन साध्वियों के लिए भी उसी प्रकार की हितकारी प्रकृति करनी हैं जो दीन और दुःस्थित दशा में हो, अज्ञानी हो, शक्तिहीन हो, शरीर से विकल हो, निःसहाय हो, बन्धुवर्ग रहित हो, वुद्धावस्था से जर्जरित हो और संयोगवश विकट परिस्थिति में पड़ जाने के कारण संयम से पतित हो गई हो। इन सबकी तुम्हें गुरु की तरह, प्रतिचारिका की तरह, धाय माता की तरह, प्रियसखी की तरह भगिनी - जननी मातामही एवं पितामही की तरह वात्सल्यपूर्वक प्रतिपालना करनी चाहिये ।
सत्ताईसवाँ - गणानुज्ञापदस्थापनाविधि द्वार इस द्वार में अनुशिष्टपूर्वक गणानुज्ञाविधि कही गई है। गणानुज्ञा का यह विधान मुख्याचार्य का कालधर्म होने पर अथवा उनके द्वारा किसी तरह से असमर्थ हो जाने पर योग्य शिष्य को गण संचालन के लिए प्रदान किया जाता है। इस विधि में प्रायः वैसी ही प्रक्रिया और उपदेशादि गर्भित हैं जैसा आचार्यपदस्थापना विधि में निर्दिष्ट किया गया है। इसमें उल्लेख है कि जिस मुनि को गुणानुज्ञा का अधिकार दिया जाता है वह नवीन आचार्य सम्पूर्ण गच्छ का अधिनायक बनता है और उसी की आज्ञा में सारा संघ विचरण करता है।
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अट्ठाईसवाँ- अनशनविधि द्वार - इस द्वार में वृद्धावस्था को प्राप्त होने पर और जीवन का अन्त दिखाई देने पर साधु को पर्यन्ताराधना किस प्रकार करनी चाहिए
और किस प्रकार अनशनव्रत स्वीकार करना चाहिए? इसका आगमविहित विधान बतलाया गया है। इसके अन्त में श्रावक के लिए भी इस अन्तिम आराधना करने का विधान बतलाया गया है। उनतीसवाँ- महापरिष्ठापनिकाविधि द्वार - अन्तिम आराधना के अनन्तर जब साधु कालधर्म को प्राप्त हो जाये, तब उसके शरीर का अंतिम संस्कार किस प्रकार किया जाना चाहिए? वह इस द्वार में बतलाया गया है।
इसमें महापरिष्ठापनिका विधि को लेकर सोलह या सतरह द्वारों की चर्चा की गई हैं, जिनमें मृतक साधु का संथारा किस प्रकार करना चाहिए, परित्याग योग्य कितनी स्थंडिल भूमि की प्रेक्षा करनी चाहिये, मृतक को रात्रिपर्यन्त रखने पर किसे जागते रहना चाहिए, रात्रि में मृतात्मा उठ जाये तो क्या विधि करनी चाहिए? किस दिशा में मस्तक करके ले जाना चाहिए, परित्याग के समय स्थंडिल भूमि पर क्या विधि करनी चाहिये, खंधे पर उठाकर ले जाने वाले साधुओं को कैसे लौटना चाहिए, किस नक्षत्र में कितने पुतले बनाने चाहिए, तीन कल्प कहाँ-कहाँ उतारने चाहिए? इत्यादि का सम्यक् निरूपण प्रस्तुत किया है। तीसवाँ- आलोचना-प्रायश्चित्तविधि द्वार - इस द्वार में साधु और श्रावक दोनों के व्रतों में लगने वाले प्रायश्चित्तों का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस प्रायश्चित्त विधान में एक तरह से यतिजीत कल्प और श्राद्धजीतकल्प-इन दोनों ग्रन्थों का पूरा सार आ गया है। इसमें श्रावक के सम्यक्त्वमूलक बारह व्रतों का प्रायश्चित्त विधान पूर्ण रूप से दे दिया गया है और इसी तरह साधु के मूलगुणों और उत्तरगुणों में लगने वाले छोटे-बड़े सभी प्रायश्चित्तों का यथेष्ट वर्णन किया गया है।
___ साधु के भिक्षा विषयक दोषों का विधान करने वाला पिंडालोयणाविहाण नामक ७३ गाथा का एक स्वतंत्र प्रकरण भी नया बनाकर ग्रन्थकार ने इसमें सन्निविष्ट कर दिया है और इसी तरह एक दूसरा ६४ गाथा का 'आलोचना-विही' नामक स्वतंत्र प्रकरण भी इस द्वार के अन्तिम भाग में ग्रथित किया गया है। इस आलोचना के भेद-प्रभेद एवं प्रकारों तथा उसके विभिन्न द्वारों का विस्तार से निरूपण हैं, जिनमें विशेष रूप से आलोचना के गुण-दोष, आलोचना किसके पास, कब और कैसे की जाये? इसकी चर्चा है। इकतीस से लेकर छत्तीस- प्रतिष्ठाविधि द्वार - ये छः द्वार प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्धित हैं। इन द्वारों में अनुक्रम से जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, कलश प्रतिष्ठा, ध्वजारोपण प्रतिष्ठा, कूर्म प्रतिष्ठा, यन्त्र प्रतिष्ठा और स्थापनाचार्य प्रतिष्ठा- ये छ:
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250/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
विधियाँ वर्णित हैं। इन्हीं द्वारों के अन्तर्गत अधिवासना अधिकार, नन्द्यावर्त्तस्थापना विधि, जलानयन विधि आदि प्रसंगोचित कई विधि-विधानों का समावेश किया गया है। इसमें प्रतिष्ठोपयोगी सामग्री का भी निर्देश है और मन्त्र तथा स्तुति आदि का भी उत्तम संग्रह है। प्रतिष्ठा विधान के लिए यह प्रकरण बहुत ही आधारभूत समझा जाता है। सैंतीसवाँ- मुद्राविधि द्वार - इस द्वार में विभिन्न देव-देवियों के आहान, स्थापन, पूजन, विसर्जन एवं प्रतिष्ठा की मुद्राओं का विवरण दिया गया है। इसमें कुल ७५ के लगभग मुद्राओं का वर्णन हैं। अड़तीसवाँ- चौसठयोगिनीउपशमविधि द्वार - इस द्वार में चौसठ योगिनियों के नाम, उनके नामों का यन्त्रादि पर आलेखन एवं पूजन आदि का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उनचालीसवाँ- तीर्थयात्राविधि द्वार - इस द्वार में तीर्थयात्रा करने वाले को किस तरह यात्रा करनी चाहिये और जो यात्रा निमित्त संघ निकालना चाहे उसे किस विधि से प्रस्थानादि करना चाहिये, इस विषय का विधान किया गया है। संघ निकालने वाले को किस-किस प्रकार की सामग्री का संग्रह करना चाहिये और यात्रियों को किस-किस प्रकार की सहायता पहँचानी चाहिए तथा संघ यात्रा में धर्म-शासन प्रभावना हेतु क्या-क्या करना चाहिये? इत्यादि बातों का संक्षेप में, परन्तु सारभूत रूप से उल्लेख किया गया है। चालीसवाँ- तिथिनिर्णयविधि द्वार - इस द्वार में पर्वादि तिथियों का पालन किस नियम से करना चाहिये, ग्रन्थकार ने इसका विधान अपने गच्छ की सामाचारी के अनुसार किया है। इस तिथि व्यवहार के विषय में भिन्न-भिन्न गच्छ के अनुयायियों की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं। कोई उदय तिथि को प्रमाण रूप मानते हैं, तो कोई बहुयुक्त तिथि को ग्राह्य मानते हैं। इस कारण पाक्षिक, चातुर्मासिक
और सांवत्सरिक पर्व की तिथियों के विषय में भी गच्छों में मतभेद हैं। तिथि को लेकर जैन संप्रदायों में प्राचीन काल से मतभेद चला आ रहा है। जिनप्रभसूरि ने इस ग्रन्थ में उस सामाचारी का प्रतिपादन किया है जो आगमोक्त है, गीतार्थ द्वारा . आचरित है तथा खरतरगच्छ में सामान्यतया मान्य हैं। इसकतालीसवाँ- अंगविद्यासिद्धिविधि द्वार - इस अन्तिम द्वार में अंगविद्यासिद्धि विधि कही गई है। जैन धर्म में निमित्त शास्त्र से सम्बन्धित 'अंगविद्या' नामक एक शास्त्र ग्रन्थ है, जो आगम में तो नहीं गिना जाता, परन्तु उसे आगम के जितना ही प्रधान माना गया है। इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ की साधना विधि यहाँ स्वतन्त्र रूप से बतायी गयी है।
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यहाँ ग्रन्थ की विषय वस्तु के परिचय से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ कितना महत्त्वपूर्ण और अलभ्यसामग्री से परिपूर्ण है। स्पष्टतः यह ग्रन्थ विधि-विधानों का विशिष्ट भण्डार है। जिनप्रभसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना न केवल स्वमति से की है और न ही सामान्य ग्रन्थों के आधार पर की है, अपितु आगमोक्त परम्परा का अनुसरण करते हुए पूर्वाचार्य प्रणीत सर्वसामान्य ग्रन्थों, गुरु परम्परा से प्राप्त ज्ञान एवं स्वगच्छ की सामाचारी के आधार पर की है। विधिमार्गप्रपा का अध्ययन करने के बाद यह भी स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने दीर्घ काल की पर्याय में अनेक प्रकार के विधि-विधान स्वयं अनुष्ठित किये हैं
और अनेकों साधु-साध्वी, श्रावक श्राविकाओं को अनुष्ठित करवाये हैं इसी वजह से उनका यह ग्रन्थ स्वयं के द्वारा अनुभूत किया गया, शास्त्र प्रमाणित और संप्रदायगत परंपरा से युक्त है।
प्रस्तुत ग्रन्थ को सर्वमान्य, सर्वसुलभ, प्रामाणिक और अनुकरणीय बनाने के लिए उन्होंने स्थल-स्थल पर कई पूवाचार्यों की मान्यताओं और परम्पराओं को उल्लिखित किया है। इतना ही नहीं, प्रसंगवश कुछ तो पूरे के पूरे पूर्वरचित प्रकरण ही उद्धृत कर दिये हैं। उदाहरणार्थ- उपधान विधि में- मानदेवसूरिकृत 'उवहाणविही' नामक प्रकरण, जिसकी ५४ गाथाएँ हैं उद्धृत किया गया है। उपधान- प्रतिष्ठाप्रकरण में- किसी पूर्वाचार्य द्वारा निर्मित 'उवहाणपइट्ठा पंचासय' नामक प्रकरण अवतरित किया गया है, जिसकी ५१ गाथाएँ हैं। पौषधविधिप्रकरण में- जिनवल्लभसूरिकृत विस्तृत 'पोसहविहिपयरण' का १५ गाथाओं में पूरा सार दे दिया है। नन्दिरचनाविधि में ३६ गाथा का 'अरिहाणादि थुत्त' उद्धृत किया गया है। योग विधि में- उत्तराध्ययनसूत्र का 'असंखय' नामक १३ पद्यों वाला चौथा अध्ययन उद्धृत किया है। प्रतिष्ठा विधि में- चन्द्रसूरिकृत 'प्रतिष्ठासंग्रहकाव्य' तथा 'कथारत्नकोश' नामक ग्रन्थ में से पचास गाथावाला 'ध्वजारोपणविधि' नामक प्रकरण उद्धृत किया गया है। ग्रन्थ के अन्त में जो 'अंगविद्यासिद्धिविधि' नामक प्रकरण है वह सैद्धान्तिक विनयचन्द्रसूरि के उपदेश से लिखा गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि इस ग्रन्थ में जो विधि-विधान प्रतिपादित किये गये हैं वे पूर्वाचार्यों के संप्रदायानुसार ही लिखे गये हैं। प्रसंगवश यहाँ यह कहना उचित होगा कि जिन्हें जैन संप्रदायगत गण-गच्छादि के भेद-प्रभेदों के इतिहास का अच्छा ज्ञान हैं वे भलीभांति जानते हैं कि जैनमत में जो भी गच्छ
और संप्रदाय उत्पन्न हुए हैं और उनमें परस्पर जो विरोधाभास व्याप्त हैं उसका मुख्य कारण उनके विधि-विधानों की प्रक्रिया में मतभेद का होना है। केवल सैद्धान्तिक या तात्त्विक मतभेद के कारण वैसा बहुत ही कम हुआ है।
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252 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट विषयवस्तु की क्रमिकता का वैशिष्ट्य
आचार्य जिनप्रभसूरि ने जिस क्रम के साथ विधियों का निरूपण किया है वह निःसन्देह अवलोकनीय है। उन्होंने सर्वप्रथम 'सम्यक्त्व - व्रतारोपण विधि' को प्रस्तुत किया है चूंकि सम्यक्त्वशुद्धि और सम्यक्त्व धारण के बिना श्रावक-श्रावक की कोटि में नहीं गिना जा सकता है और न वह इस जीवन में धार्मिक या आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ सकता है। सम्यक्त्व ग्रहण करना साधना का प्रथम सोपान है। सम्यक्त्व विशुद्धि के बिना भवभ्रमण का अन्त नहीं है। सम्यकत्व आध्यात्मिकता का मूल बीज है।
उसके पश्चात् 'परिग्रहपरिमाणविधि' का उल्लेख किया है क्योंकि सम्यक्त्व ग्रहण के पश्चात् देशविरति की भूमिका में प्रविष्ट होने एवं पाप कार्यों से विमुख बनने हेतु श्रावक बारहव्रतों को अंगीकृत करता है । तत्पश्चात् 'छः मासिक सामायिकग्रहण विधि' की चर्चा की है जिसका तात्पर्य है श्रावक बारहव्रतों की परिपालना करते हुए कभी-कभार कुछ विशेष समय के लिए सर्व विरति पालन के अभ्यास रूप में सर्वसावद्य योगों का त्याग कर समभाव की साधना पूर्वक व्रतों को विशिष्ट रूप से पुष्ट करें। उसके बाद सामान्य ज्ञान के लिए सामायिक ग्रहण और सामायिक पारण की विधि कही गई है जो बारह व्रतधारी और सामायिक नियमधारी साधकों के लिए अनिवार्य है।
तदनन्तर छठे से वें द्वार तक 'उपधान विधि' को विस्तार से ज्ञापित किया है। गुरू की सन्निधि पूर्वक एवं विशिष्ट तप पूर्वक नमस्कारसूत्र, ईरियावहिसूत्र, चैत्यस्तवसूत्र आदि को वाचना के साथ ग्रहण करना उपधान है। यहाँ बारहव्रतधारी श्रावक के लिए नमस्कार मन्त्र का स्मरण एवं आवश्यक सूत्रों का ज्ञान अनिवार्य होने से सामायिक व्रतारोपण के पश्चात् उपधान विधि का उल्लेख किया है । ६ वें द्वार में 'पौषधविधि' का निरूपण है, क्योंकि उपधान तप पौषधपूर्वक ही सम्पन्न होता है। १० वें द्वार में 'प्रतिक्रमण सामाचारी' का वर्णन है, जो क्रम की अपेक्षा से सर्वथा उपयुक्त है। पौषध और उपधान अनुष्ठान में रात्रिक, दैवसिक और पाक्षिक तीनों प्रकार के प्रतिक्रमण आवश्यक कृत्य के रूप में किये जाते हैं इसलिए पौषध के बाद प्रतिक्रमण विधि कही गई है। ११ वें द्वार में विविध प्रकार की 'तपविधि' का वर्णन है। जब साधक उपधान करने के योग्य बन जाता है और दीर्घ तपस्या के द्वारा अपनी शक्ति को परख लेता है तब उसे क्रमशः छोटे-बड़े तप करने की भावना उद्भूत होती है । अतः तपविधि को उपधानतप के बाद निरूपित किया है।
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१२ वें द्वार में 'नन्दिरचना विधि' का निरूपण है जो क्रमसूची में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसके पूर्व निर्दिष्ट किये गये सम्यक्त्वारोपण, बारहव्रतारोपण, उपधानविधि, तपविधि आदि विधान नन्दिरचना पूर्वक ही निष्पन्न होते हैं अतः यहाँ नन्दिरचना का उल्लेख करना योग्य है। १३ वें द्वार में प्रव्रज्या (दीक्षा) विधि का वर्णन है। जब साधक देशविरति का अनुपालन करने तथा तपस्यादि करने में सक्षम बन जाये, तब उसको सर्वविरति में प्रविष्ट होना चाहिए। इसी हेतु पूर्वक दीक्षाविधि को वर्णित किया है। १४ वें द्वार में 'केशलूंचन विधि' वर्णित है क्योंकि दीक्षा के समय प्रमुख रूप से केशलूंचन की प्रक्रिया होती है। अतः यहाँ इसका निर्देश पूर्वक्रम से पूर्णतः मेल खाता है।
१५ वें द्वार में 'उपयोग विधि' को निरूपित किया है, क्योंकि दीक्षित बनने के बाद साधु समस्त क्रियाएँ उपयोगपूर्वक अर्थात् सावधानी पूर्वक सम्पन्न करें। जैन धर्म में यतनापूर्वक की गई क्रियाएँ अल्पबन्ध कारक होती हैं, क्योंकि यतना को संयम का सार बताया गया है। उसके पश्चात् १६ वें द्वार में 'भिक्षागमन विधि' का निरूपण है। यद्यपि 'उपयोग विधि' में भिक्षाविधि का अन्तर्भाव हो जाता है किन्तु इस विधान में और अधिक सावधानी रखनी होती है, साथ ही शरीर निर्वहन के लिए यह अपरिहार्य कृत्य होने से इस विधि की पृथक रूप से विवेचना की है।
तदनन्तर १७ वें एवं १८ वें द्वार में 'मण्डलीतप विधि' और 'उपस्थापना विधि' की चर्चा की है। जब श्रमण दीक्षा पालन करने में पूर्ण रूप से योग्य और सक्षम हो जाता है, केशचन, भिक्षागमन आदि समस्त प्रकार की कठिनाईयों को भलीभांति सहन करने में समर्थ बन जाता है तब मंडली में अर्थात् सबके साथ में स्वाध्याय- प्रतिक्रमण -भोजनादि करने हेतु उसे तप पूर्वक विशेष अनुष्ठान करवाकर मण्डली के साथ समस्त क्रियाकलाप करने की अनुमति दी जाती है। फिर आवश्यकसूत्र और दशवैकालिकसूत्र का तप पूर्वक अध्ययन करवाकर उसकी उपस्थापना की जाती है। १६ वें द्वार में 'योगोद्वहन विधि' की चर्चा है क्योंकि उपस्थापना होने के बाद साधु को सूत्रों का अध्ययन करना चाहिये और यह सूत्राध्ययन योगोद्वहन के बिना नहीं किया जाता है। २० वें द्वार में कल्पत्रेपाविधि का निरूपण किया गया है, क्योंकि योगवहन कल्पत्रेप समाचारी पूर्वक ही किये जाते हैं।
२१ वें द्वार में 'आगम वाचना विधि' को विदित किया है, क्योंकि जब श्रमण अंग-उपांग-छेद-मूल सूत्रों का सम्यक् ज्ञाता बन जाता है तब उसे अन्य शिष्यों को आगम सूत्रों की वाचना देनी चाहिये इसलिए 'आगम वाचना विधि'
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बतायी गयी है । २२ से २६ वें द्वार तक तरतमता की अपेक्षा से वाचनाचार्य, उपाध्याय आचार्य, प्रवर्त्तिनी एवं महत्तरापदस्थापना की विधियों का वर्णन किया गया है। क्रमबद्धता की दृष्टि से जब आगमादि का पूर्ण ज्ञाता होकर यथायोग्य गुणवान बन जाए, तब उस श्रमण की शास्त्र निर्दिष्ट योग्यता को ध्यान में रखते हुए वाचनाचार्य आदि का पद प्रदान करना चाहिये और साध्वी को प्रवर्त्तिनी अथवा महत्तरा की पदवी देनी चाहिये । २७ वें द्वार में 'गणानुज्ञा विधि' बतलायी गयी है। आचार्य के कालधर्म को प्राप्त होने पर या अन्य किसी तरह से असमर्थ हो जाने पर गण के संचालन हेतु 'गणानुज्ञा' पद प्रदान किया जाता है। इसलिए पदस्थापना विधि के क्रम में ही प्रस्तुत - विधि को भी संयुक्त कर दिया गया है।
तदनन्तर २८ वें द्वार में 'अनशन विधि' का स्वरूप प्रतिपादित है। चूंकि अनेक प्रकार की आराधना - साधना - सेवा - तपस्या को करते हुए वृद्ध होने पर और जीवन का अन्त समीप दिखाई देने पर साधु और श्रावक दोनों को अनशन आराधना करनी चाहिए । २६ वें द्वार में 'महापरिष्ठापनिका विधि' का प्ररूपण किया गया है। पूर्वोल्लिखित विधियों के क्रम में अन्तिम आराधना के बाद, आयुष्य के पूर्ण होने पर जब साधु कालधर्म को प्राप्त हो जायें, तब उसके शरीर का अन्तिम संस्कार किस प्रकार किया जाना चाहिये, यह बताया गया है। तत्पश्चात् ३० वें द्वार में ‘प्रायश्चित्त और आलोचना' विधि का सविस्तृत निरूपण किया गया है । यहाँ से लेकर ४१ वें द्वार पर्यन्त की विधियों का उल्लेख विशेषक्रम से न होकर उनकी उपादेयता को दृष्टि में रखकर किया गया है। वैसे प्रायश्चित्त और आलोचना का आसेवन एवं ग्रहण साधक जब चाहे तब कर सकता है। इसके लिए कोई निश्चित आयु, समय अथवा दिन की अपेक्षा नहीं होती है। इसलिए बाद के क्रम में इसका विवरण सर्वप्रथम प्रस्तुत किया गया है।
३१ से लेकर ३६ वें द्वार तक 'प्रतिष्ठाविधि' नामक प्रकरण की रचना की गई है। जो सभी दृष्टियों से उपयोगी और उचित प्रतीत होती है । ३७ वे द्वार में 'मुद्राविधि' का प्रतिपादन किया है जो पूर्वापेक्षा से क्रमपूर्वक ही है। क्योंकि प्रतिष्ठा और तत्सम्बन्धी बहुत सी क्रियाओं में मुद्राओं का प्रयोग अनिवार्य रूप से होता है इसलिए प्रतिष्ठा के पश्चात् मुद्राओं के स्वरूपों का कथन किया गया है । ३८ द्वार में 'चौसठ योगिनीउपशम विधि' का निरूपण है यह भी क्रमपूर्वक ही है। क्योंकि नन्दीरचना और प्रतिष्ठा विषयक क्रियाओं में ६४ योगिनियों के यन्त्रादि का आलेखन किया जाता है इसलिए प्रतिष्ठाविधि के पश्चात् इसका उल्लेख किया गया है । ३६ वें द्वार में 'तीर्थयात्रा विधि' का कथन है। जब मन्दिर निर्माण और प्रतिष्ठादि कृत्य सम्पन्न हो जायें, तब
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विविध जिनालयों के दर्शन की भावना उत्पन्न होने पर तीर्थयात्रा करनी चाहिये। तीर्थयात्रा से मन्दिरों की शोभा उत्तरोत्तर बढ़ती हैं।
४० वें द्वार में 'तिथि विधि' का सम्यक् विवेचन है, जो पर्व तिथि के अवसर पर जप आदि विशिष्ट साधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है। ४१ वें अन्तिम द्वार में 'अंगविद्यासिद्धि विधि' कही गई है। जिसका लौकिक- लोकोत्तर दोनों प्रकार की साधना की दृष्टि से महत्त्व रहा हुआ है।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि जिनप्रभसूरि ने इन विधियों का निरूपण इसके क्रम को ध्यान में रखते हुए अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ किया है तथा जिन शासन के आराधकों को जैन विधि-विधान का एक विशिष्ट खजाना प्रदान किया है। विधिसंग्रह
तपागच्छीय प्रबोधसागरजी के शिष्य प्रमोदसागरसूरि के द्वारा संग्रहीत की गई यह कृति गुजराती भाषा में निबद्ध है। इसमें दीक्षा संबंधी, योगवहन संबंधी, पदप्रदान संबंधी एवं व्रत-तपग्रहण संबंधी विधियाँ दी गई हैं। उन विधियों के नाम ये हैं - १. दीक्षा विधि २. योग में प्रवेश करने की विधि ३. योग प्रवेश के दिन नंदि करने की विधि ४. योग प्रवेश दिन की अनुष्ठान विधि ५. योग प्रवेश दिन की प्रवेदन (पवेयणा) विधि ६. सज्झाय विधि ७. आवश्यकसूत्र की योग विधि ८. योग वहन काल में प्रतिदिन करने योग्य पवेदणा विधि ६. दशवैकालिकसून की योग विधि १०. दिन वृद्धि और दिन गिरने के कारण ११. योग की सन्ध्याकालीन विधि १२. योग में से बाहर निकलने की विधि १३. मांडली के सात आयंबिल की विधि १४. पाली पलटने की विधि १५. अनुयोग विधि १६. उपस्थापना विधि १७. बृहद्योग विधि १८. नुतरा देने की विधि १६.कालग्राही और दांडीधर की विधि २०. स्वाध्याय प्रस्थापना विधि २१. पवेदणा विधि २२. स्वाध्याय विधि २३. काल मंडल और संघट्टा विधि २४. बृहद् योग की सन्ध्याकालीन क्रिया विधि २५. आचार्यपद, वाचकपद, पन्यासपद और गणिपद प्रदान विधि २६. बारहव्रत और बीशस्थानक तप ग्रहण विधि २७. तीर्थमाला पहनाने की विधि। इस कृति के अन्तर्गत योगवहन यंत्र, योगवहन संबंधी सूचनाएँ एवं सज्झाय- पाटली-कालग्रहण आदि खण्डित होने के कारण भी बतलाये गये हैं।
' यह कृति आगमोद्धारक ज्ञानशाला, एम.एम.जैन सोसायटी वरसोडानी चाल, साबरमती, अहमदाबाद से प्रकशित है।
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स्पष्टतः यह संकलन श्रमण वर्ग के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ जान पड़ता है। इस प्रकार की संकलित कृतियाँ और भी प्रकाशित हुई हैं। उन कृतियों का अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि प्रायः समान प्रकार की विधियों के पृथक्-पृथक संस्करण अपनी-अपनी परम्परा या समुदाय की अपेक्षा से हो सकते हैं। सप्तोपधानविधि
यह कृति मुनि मंगलसागरजी द्वारा संकलित है।' इस कृति का संकलन वि.सं. १६६६ में हुआ है। यह कृति संकलन की दृष्टि से अर्वाचीन है परन्तु इसमें प्रतिपादित उपधान विधि प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर दी गई है। प्रस्तुत कृ ति की प्रस्तावना में आधारभूत ग्रन्थों के जो नाम दिये गये हैं उनमें महानिशीथ, विधिमार्गप्रपा, आचार- दिनकर, सामाचारीशतक आदि प्रमुख हैं। यह कृति संस्कृत गद्य में है। इस कृति में अपने नाम के अनुसार सात प्रकार की उपधान तप विधि का सम्यक् विवेचन किया गया है।
सद्गुरु के मुख से नमस्कारमन्त्रादि सूत्रों को यथाविधि एवं तप पूर्वक धारण करना या ग्रहण करना उपधान तप है। उपधान सात होते हैं। पूर्वकाल में सभी उपधान एक साथ वहन किये जाते थे, परन्तु देश-कालादि को देखकर गीतार्थ आचार्यों ने इस तपविधि को सुगम और सरल बनाया है। वर्तमान में प्रायः तीन परिपाटी के द्वारा सात प्रकार के उपधान वहन किये-करवाये जाते हैं। प्रथम उपधान ५१ दिनों का होता है, दूसरा उपधान ३५ दिनों का होता है तथा तीसरा उपधान २८ दिनों में पूर्ण होता हैं। सात उपधान के नाम ये हैं -
१. पंचमंगलमहाश्रुतस्कन्ध उपधान- नमस्कारमंत्र २. इरियावहियाश्रुतस्कन्ध उपधान- इरियावहिसूत्र ३. भावअरिहंतस्तव उपधान- णमुत्थुणसूत्र ४. स्थापनाअरिहंतस्तव उपधान- अरिहंतचेइयाणंसूत्र ५. नामअरिहन्तस्तव उपधानलोगस्ससूत्र ६. द्रव्य- अरिहंतस्तव उपधान- पुक्खरवरदीसूत्र ७. सिद्धस्तव उपधान सिद्धाणंबुद्धाणंसूत्र
प्रस्तुत कृति में उपधान विधि से सम्बन्धित जो विधि-विधान उल्लेखित हुये हैं उनके नामोल्लेख इस प्रकार हैं
१. उपधान प्रवेश विधि २. उपधान प्रवेश के दिन प्रभात काल की क्रिया विधि ३. उपधान प्रवेश के दिन करने योग्य नन्दिरचना विधि ४. उपधान तप उत्क्षेप विधि ५. अठारह स्तुतियाँ पूर्वक देववन्दन विधि ६. उद्देश
' यह कृति वि.सं. २००८, जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार,गोपीपुरा, सूरत से प्रकाशित है। ' प्रस्तुत कृति में उपधान विधि खरतरगच्छीय परम्परानुसार दी गई है।
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(सप्त-खमासमण) विधि ७. नंदि प्रवेदन (पवेयणा) विधि ८. उपधानवाहियों के लिए प्राभातिक पौषध ग्रहण विधि, ६. उपधानवाही द्वारा वन्दनक षटक (पवेयणा) विधि १०. उपधानवाहियों के लिए दश खमासमण विधि ११. तृतीय प्रहर में करने योग्य उपधान एवं पौषध क्रिया विधि १२. उपधान की वाचना विधि १३. उपधान की वाचना के सूत्र-पाठों का सामान्य अर्थ १४. मालापरिधान विधि- समुद्देश विधि १५. अनुज्ञा विधि १६. उपधान निक्षेप विधि १७. प्रतिपूर्ण विगय पारणविधि। इसमें लघुनन्दी पाठ एवं उपधान-माला का माहात्म्य भी दिया गया है जो प्राकृत गद्य-पद्य में है।
इस कृति के अन्त्य में प्रस्तुत विधान से सम्बन्धित परिशिष्ट भाग भी संग्रहित किया गया है- उसमें कायोत्सर्ग विधि, नवकारवाली गुणन विधि, उपधानवाहियों की दैनिक क्रियाविधि, उपधान में आलोचना एवं दिन गिरने के कारण, उपधान के समय बोले जाने योग्य, चैत्यवंदन-स्तुति-स्तवनादि, पुरुष एवं स्त्रियों के रखने योग्य उपकरण, प्रत्याख्यान पारने की विधि, स्थंडिल गमन विधि, चौबीस स्थंडिल भूमि प्रतिलेखना का पाठ, उपधान सम्बन्धी विशेष बोल और आलोचना ग्रहण विधि आदि का उल्लेख हुआ हैं। इस कृति के अन्तर्गत दो उपधान यंत्र भी दिये गये हैं उनमें से एक यंत्र खरतरगच्छ परम्परानुसार है तथा दूसरा यंत्र तपागच्छीय विधि के अनुसार है। निःसन्देह यह कृति बहुत ही उपयोगी एवं उपधान अधिकारियों के लिए लाभदायी है। सम्मत्तुपायणविहि- (सम्यक्त्वोत्पादनविधि)
यह कृति मुनिचन्द्रसूरि ने लिखी है और वह जैन महाराष्ट्री के २६५ पद्यों में रची गई है। यह ग्रन्थ हमें उपलब्ध नहीं हुआ है तथापि इस कृति नाम से स्पष्ट होता है कि इसमें सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने की विधि या उपाय बताये गये हैं। सामाचारीसंग्रह
__ कुलप्रभसूरि के शिष्य नरेश्वरसूरि विरचित यह ग्रन्थ मुख्यतः संस्कृत भाषा में निबद्ध है, किन्तु कुछ द्वार प्राकृत भाषा में भी हैं। यह कृति 'वल्लभ नामक' स्वोपज्ञ टीका से युक्त है और नौ परिच्छेदों में विभक्त है। इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण ४००० है।
___ इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में ११ प्राकृत गाथाएँ हैं, जो मरुगुर्जर से प्रभावित हैं। प्रथम गाथा में शासनोपकारी महावीर प्रभु को वन्दन करके प्रस्तुत कृति की रचना करने का उद्देश्य बतलाया गया है। दूसरी गाथा में रचनाकार द्वारा स्वयं
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अपना एवं अपने गुरु का नामोल्लेख किया गया है। शेष नौ गाथाओं में श्रावक और साधुओं के अनुष्ठान संबंधी ५० द्वारों का नाम निर्देश किया गया है। उन द्वारों की विषयवस्तु संक्षेप में निम्नलिखित हैं - पहला द्वार जिनमन्दिर के योग्य भूमि का शुभाशुभत्त्व बताता है। दूसरा द्वार- कूर्म प्रतिष्ठा विधि का वर्णन करता है। तीसरे द्वार में जिन भवन की निर्माण विधि बतायी गयी है। चौथे द्वार में जिन प्रतिमा के लक्षण कहे गये हैं। पाँचवा द्वार जिन बिंब की प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्धित है। छठे द्वार में मिथ्यात्व का स्वरूप, मिथ्यात्व के भेद, एवं उसके त्याग का उपदेश दिया गया है। आठवें द्वार में वासचूर्ण को अभिमन्त्रित करने की विधि कही गयी है। नवमें द्वार में सम्यक्त्वव्रत आरोपण विधि का निर्देश है। दशवां द्वार उपासक प्रतिमाओं को ग्रहण करने की विधि का प्रतिपादन करता है। ग्यारहवां द्वार उपधान विधि का है। बारहवां द्वार' मालारोपण विधि की चर्चा करता है। तेरहवां द्वार तपग्रहण-व्रतग्रहण-उपधानप्रवेशादि के दिन करने योग्य नन्दी विधि का विवेचन करता है। चौदहवें द्वार में देशविरतिव्रत (परिग्रहपरिणामव्रत) ग्रहण करने की विधि प्रतिपादित है। पन्द्रहवें द्वार में प्रव्रज्याविधि का वर्णन है। सोलहवाँ द्वार विहार विधि से सम्बद्ध है। सतरहवें द्वार में अस्वाध्याय का स्परूप कहा गया है। अठारहवें द्वार में आवश्यकसत्र की नन्दी विधि का वर्णन है। उन्नीसवें द्वार दशवैकालिक सूत्र की नन्दी विधि कही गई है। बीसवें द्वार में योगवहन सम्बन्धी खमासमण विधि कही गई है इक्कीसवें द्वार में संघट्टादि की विधि का निरूपण है। बाईसवें द्वार में उपस्थापना विधि का विवेचन है। तेवीसवें द्वार में लोच प्रवेदन (अनुमति ग्रहण) की विधि का वर्णन है। चौबीसवें द्वार में मंडलीतप विधि बतलायी गयी है। पच्चीसवाँ द्वार कालग्रहण विधि से सम्बन्धित है। छब्बीसवें द्वार में वसति प्रवेदन विधि, सत्ताईसवें द्वार में काल प्रवेदन विधि, अट्ठाईसवें द्वार में योग उत्क्षेप (योग से बाहर निकलने) विधि, उनतीसवें द्वार में योगनिक्षेप (योग प्रवेश) विधि कही गई है। तीसवाँ द्वार स्वाध्याय प्रस्थापना विधि का आख्यान करता है। इगतीसवें द्वार में आचारांगादि सूत्रों की नन्दी विधि कही गई हैं बत्तीसवें द्वार में काल संबंधी खमासमण विधि, तेतीसवें द्वार में काल मंडल विधि, चौतीसवें द्वार में अनुष्ठान की विधि, पैंतीसवें द्वार में संघट्टा ग्रहण विधि, छत्तीसवें द्वार में उत्संघट्टा विधि, सैंतीसवें द्वार में आउत्तवाणय का स्वरूप बताया गया है। अडतीसवाँ द्वार
' इस द्वार में प्रसंगवश ७१ तपों का स्वरूप विवेचित है।
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योगवाहियों की कल्प्याकल्प्य विधि का निरूपण करता है। उनचालीसवाँ द्वार योगवाहियों की आहार विधि प्रस्तुत करता है। चालीसवें द्वार में योगवाहियों के अपराध स्थान कहे गये हैं। इकतालीसवाँ द्वार संघट्टा रखने की विधि से सम्बद्ध है। बयालीसवाँ द्वार आउत्तवाणय विधि को दर्शाता है। तैयालीसवें द्वार में सभी सूत्रों के योग दिन-काल संख्यादि का निरूपण है। चौवालीसवें द्वार में आचार्यपदस्थापना विधि, पैंतालीसवें द्वार में उपाध्यायपदस्थापना विधि, छयालीसवें द्वार में महत्तरापदस्थापना विधि का प्रतिपादन है। सैंतालीसवाँ द्वार आलोचना विधि कहता है। अडतालीसवें द्वार में साधु की अन्तिम आराधना विधि कही गई है। उनपचासवें द्वार में श्रावक की अन्तिमआराधना विधि का विवरण है। पच्चासवाँ द्वार- मृतक संयत की परिष्ठापना विधि से सम्बन्धित है।
यह कृति अप्रकाशित है। कृति का रचनाकाल हमें ज्ञात नहीं हुआ है। सामाचारीप्रकरण
यह कृति प्राकृत एवं संस्कृत मिश्रित गद्य में गुम्फित है। यह रचना किसी अज्ञात प्राचीन आचार्य द्वारा निर्मित है। इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण ११७६ है। इस ग्रन्थ की प्रारम्भिक तीन गाथाएँ मंगलाचरण एवं विषयस्थापन रूप हैं तथा अन्त की दो गाथाएँ कृति के अध्ययन के फल से सम्बन्धित हैं। इस कृति की आद्य गाथा में भगवान महावीर को वन्दन करके श्रमण और श्रावकों के कल्याणार्थ संविग्न पुरूषों द्वारा आचरित आचार (क्रियानुष्ठान) विधि को कहने की प्रतिज्ञा की गई है। उसके बाद की दो गाथाएँ इस कृति में निरूपित इक्कीस द्वारों के नामोल्लेख से सम्बन्धित हैं। अन्त की गाथाओं में यह कहा गया है जो भव्यात्मा पूर्वोक्त आचार-विधि का सम्यक् परिपालन करता है वह जन्म-मरण की परम्परा का विच्छेद करके शीघ्रमेव सिद्धि स्थान का वरण कर लेता है।
प्रस्तुत कृति के २१ द्वारों का विषयानुक्रम इस प्रकार है - पहला द्वार सम्यक्त्वव्रत की आरोपण विधि से सम्बन्धित है। दूसरा द्वार देशविरतिव्रत की आरोपण विधि की विवेचना करता है। तीसरा द्वार दर्शनादि चार प्रतिमाओं को ग्रहण करने की विधि से युक्त है। चौथा द्वार तप स्वरूप' विधि का विवरण प्रस्तुत करता है। पाँचवां द्वार प्रतिक्रमणादि की विधि का प्रतिपादन करता
' (क) इस विधि में कुल ६६ तपों का विवेचन है, उनमें भी दीर्घावधि वाले कनकावली, रत्नावली, भद्र, महाभद्र, गुणसंवत्सर आदि तपों का सयन्त्र वर्णन किया गया है। (ख) इस तपविधि के प्रारंभ में 'उपधान को महानिशीथ सूत्र से जानना चाहिए' ऐसा उल्लेख
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है। छठा द्वार पौषध ग्रहण विधि का निरूपण करता है। सातवाँ द्वार प्रव्रज्या ग्रहण की विधि का विवेचन करता है। आठवाँ द्वार उपस्थापना विधि से समन्वित है। नवमाँ द्वार कालग्रहण की विधि को व्याख्यायित करता है । दशवाँ द्वार योगवहन की तप विधि का वर्णन करता है। ग्यारहवाँ द्वार आचार्यपदस्थापना विधि का उल्लेख करता है। बारहवाँ द्वार उपाध्याय पदस्थापना विधि की प्रतिपादना करता है। तेरहवाँ द्वार प्रवर्त्तकपदस्थापना विधि से सम्बन्धित है। चौदहवाँ द्वार स्थविरपदस्थापना विधि की चर्चा करता है । पन्द्रहवाँ द्वार गणावच्छेदकपदस्थापना विधि प्रस्तुत करता है। सोलहवाँ द्वार महत्तरापद की स्थापना विधि से युक्त है। सतरहवाँ द्वार प्रवर्त्तिनीपद की स्थापना विधि को प्ररूपित करता है। अठारहवाँ द्वार वाचनाचार्यपद की स्थापना विधि को प्रस्तुत करता है। उन्नीसवाँ द्वार अंतिम समय की आराधना विधि को प्रगट करता है। बीसवाँ द्वार अचित्तसंयत महापरिष्ठापना ( मुनि के मृतशरीर के प्रतिस्थापित ) विधि की जानकारी देता है। इक्कीसवाँ द्वार जिन बिम्ब की प्रतिष्ठा विधि का उल्लेख करता है।
इसमें ग्रन्थ समाप्ति के अनन्तर परिशिष्ट के रूप में योगविधि से सम्बन्धित यन्त्रादि दिये गये हैं। इसके साथ ही नीवि संबंधी कल्प्याकल्प्य विधि, योग - विधान में प्रयुक्त होने वाली स्तुतियाँ, तीस नीवियाता, अस्वाध्याय विधि, नष्टदंत विधि, एवं योग के विशेष बोल आदि की चर्चा भी की गई हैं। यह कृति अप्रकाशित है।
सामाचारी
तिलकाचार्य द्वारा रचित सामाचारी नामक यह कृति मुख्यतः संस्कृत गद्य में है।' ये पूर्णिमागच्छीय' चन्द्रप्रभसूरि के वंशज शिवप्रभसूरि के शिष्य थे। उनकी यह कृति १४२१ श्लोक परिमाण है। इस कृति का रचनाकाल लगभग १३ वीं शती का उत्तरार्ध है। इसके प्रारंभ में एक श्लोक मंगलरूप और अन्त में सात श्लोक प्रशस्ति रूप दिये गये हैं । प्रस्तुत सामाचारी के प्रारम्भिक श्लोक में सम्यग्दर्शन आरोपण नन्दी' आदि विधियों के कथन करने की प्रतिज्ञा की गई है । तत्पश्चात्
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यह कृति शेठ डाह्याभाई मोकमचंद पांजरापोल, अहमदाबाद से प्रकाशित है। इसकी एक ताडपत्रीय हस्तलिखित प्रति वि.सं. १४०६ की प्राप्त है। देखें, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४, पृ. २६८
२ पाठांतरे आगमिकगच्छीय
यहाँ नन्दि शब्द से तात्त्पार्य- समवसरण के प्रतिरूप में तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिमा को उच्च आसन पर बिराजमान करना है। तथा अक्षत- नैवेद्य आदि के द्वारा स्थापित प्रतिमा की पूजा करना है ।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/261
उन सब विधियों का ३७ अधिकारों में निरूपण किया गया है। इन सभी अधिकारों में उन-उन विधियों से सम्बन्धित जानने योग्य, ग्रहण करने योग्य और आचरण करने योग्य विषयों का समुचित रूप से उल्लेख हुआ है।
प्रस्तुत कृति के सैंतीस अधिकारों की विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार हैपहला अधिकार देशविरति सह सम्यक्त्व-आरोपण की नन्दी विधि से सम्बन्धित है। इस प्रथम अधिकार में देशविरति सहित सम्यक्त्व को ग्रहण करने की विधि का विवेचन है, इसके साथ ही इसमें सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए मिथ्यात्व के हेतुओं का त्रिकरण एवं त्रियोग पूर्वक वर्जन करने का निर्देश भी दिया गया है। इस सम्बन्ध में लेखक ने शास्त्रीय गाथाओं को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। दूसरा अधिकार देशविरति आरोपण की नन्दी विधि से सम्बद्ध है। इस दूसरे अधिकार में श्रावक के द्वारा देशविरति (व्रतादि) ग्रहण करने के निमित्त नन्दी विधि वर्णित की है।
इसके साथ ही इसमें यह भी बताया गया है कि देशविरति रूप श्रावक धर्म का निर्दोष रूप से पालन करने पर देवलोक, मुनष्यलोक और मोक्ष के सुखों की प्राप्ति होती है। तीसरे अधिकार में विभिन्न विकल्पों (भंगों) के साथ श्रावक के व्रतों और अभिग्रहों के प्रत्याख्यान की विधि का वर्णन है। इस विधि में यह बताया गया है कि श्रावक व्रत तीन योग और तीन करण की अपेक्षा से किन-किन विकल्पों के साथ ग्रहण किये जा सकते हैं। चौथे अधिकार में श्रावक के लिए ग्यारह प्रतिमाओं को ग्रहण करने संबंधी विधि दर्शायी गयी है। पाँचवें अधिकार में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का सामान्य स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। छठे अधिकार में उपधान प्रवेश की विधि वर्णित है। सातवें अधिकार में उपधानतप की समाचारी के साथ-साथ महानिशीथ सूत्र के सन्दर्भों सहित तप की महिमा का वर्णन किया है। आठवें अधिकार में मालारोपण की नन्दी विधि को बताते हुए उपधान तप करने वाले को पहनाने वाली माला के स्वरूप का वर्णन, उसके अभिमन्त्रण की विधि एवं उसको दिये जाने वाले उपदेशों या निर्देशों का उल्लेख किया गया है।
__नवमाँ सामायिकव्रत नामक अधिकार है। इसमें सामायिक व्रत के ग्रहण करने की विधि का निर्देश है। दसवें अधिकार में पौषधव्रत ग्रहण करने की सामान्य विधि वर्णित है। ग्यारहवें अधिकार में सामायिक और पौषध पारने की विधि दी गई है। बारहवें अधिकार में पौषधव्रत में करने योग्य आवश्यक क्रियाओं जैसे प्रतिलेखन आदि की चर्चा की गई हैं। तेरहवाँ तप कुलक अधिकार है। इस अधिकार में तप के बत्तीस प्रकारों का और तीर्थकरों द्वारा दीक्षा, केवलज्ञान और
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262 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
निर्वाण के समय किये गये तपों का वर्णन है। चौदहवें अधिकार में विभिन्न प्रकार कों तपों को ग्रहण करने की विधि एवं कुछ तपों का सामान्य स्वरूप विवेचित है। पन्द्रहवाँ श्रावक प्रायश्चित्त नाम का अधिकार है। इस अधिकार के अन्तर्गत बारह व्रतों एवं पंचाचारों संबंधी प्रायश्चित्तों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। सोलहवें अधिकार में दीक्षा विधि विवेचित है। साथ ही गुरु के द्वारा शिष्य को दिये जाने वाले उपदेशों एवं निर्देशों का विवेचन भी है। इसमें प्रव्रज्या की महत्ता बताने के लिए महाभारत के कुछ श्लोक भी अवतरित किये गये हैं।
अठारहवें अधिकार में लोच के पूर्व या पश्चात् करने योग्य आवश्यक क्रियाओं का उल्लेख किया गया है। उन्नीसवाँ एवं बीसवाँ अधिकार उपस्थापना ( बडी दीक्षा) विधि से सम्बन्धित है। इन दो अधिकारों में क्रमशः पंचमहाव्रतों की आरोपण विधि की चर्चा के साथ-साथ महाव्रतों के परिपालन के सन्दर्भ में रोहिणी दृष्टान्त का विस्तृत विवेचन किया गया है। इक्कीसवाँ अधिकार रात्रिक-दैवसिक एवं पाक्षिक प्रतिक्रमण सह साधु दिनचर्या विधि का विवेचन करता है। इस अधिकार में मुख्य रूप से इन तीनों प्रतिक्रमणों की विधि कही गई हैं। इसके साथ साधु के जागने का काल, चैत्यवंदन विधान, कुःस्वप्नों सम्बन्धी दोषों के निवारणार्थ कायोत्सर्ग विधि, स्वाध्याय - ध्यान का काल, पौरूषी आदि का कालज्ञान, आहार विधि, शयन विधि, इत्यादि का विस्तृत विवेचन है। बावीस से तैंतीस तक बारह अधिकार योगवहन विधि से सम्बन्धित हैं। इन बारह अधिकारों में क्रमशः २२. उत्क्षेप और निक्षेपपूर्वक योग नन्दी विधि २३. योग अनुष्ठान विधि २४. योगतप विधि २५. योग में करणीय खमासमण विधि २६. योगवहन की कल्प्याकल्प्य विधि २७. गणि और योगी की उपहंनन विधि २८. अस्वाध्यायकाल की ज्ञान विधि २६. कालग्रहण विधि ३०. वसति और काल प्रवेदन विधि ३१. स्वाध्याय प्रस्थापना विधि ३२. कालमण्डल प्रतिलेखन विधि की सम्यक् विवेचन की गई हैं । तेंतीसवाँ अधिकार वाचनाचार्यपदस्थापना विधि का उल्लेख करता है। चौतीसवाँ अधिकार वाचनाचार्य विद्यायन्त्र लेखनविधि से सम्बन्धित है। इन दों विधियों में मुख्यतः वर्धमानविद्या, वर्धमानयंत्र, यंत्रलेखन के प्रकार, इत्यादि को सुस्पष्ट रूप से बताया गया है। वर्धमानविद्या का जाप एवं उसका माहात्म्य भी उल्लिखित किया गया है। प्रसंगवश इस ग्रन्थ के अन्तर्गत संस्कृत में छः श्लोकों का चैत्यवन्दन, मिथ्यात्व के हेतुओं का निरूपण करने वाली आठ गाथाएँ, उपधान विधि विषयक पैंतालीस गाथाएँ, तप के बारे में पच्चीस गाथाओं का कुलक, स्वाध्याय योग्य तेरह गाथाएँ, संस्कृत के छत्तीस श्लोकों में रोहिणी की कथा, तैंतीस आगमों के, नाम आदि बातें भी आती हैं। इसके अतिरिक्त ग्रन्थकर्त्ता द्वारा विरचित निम्न कृतियों
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/263
के भी उल्लेख मिलते हैं। सम्यक्त्वशास्त्रवृत्ति, प्रत्येकबुद्धचरित्र, चैत्यवन्दना, प्रतिक्रमणसूत्र, आवश्यकनियुक्ति वृत्ति, दशवैकालिकवृत्ति, जीतकल्पवृत्ति इत्यादि। सुबोधासामाचारी
यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में निबद्ध' है। यह कृति मुख्यतया गद्य में है। इस ग्रन्थ के कर्ता शीलप्रभसूरि के प्रशिष्य धनेश्वरसूरि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि हैं। इन चन्द्रसूरि के द्वारा रचित मुनिसुव्रतस्वामिचरित्र का भी उल्लेख उपलब्ध होता है। प्रस्तुत कृति का ग्रन्थ परिमाण १३८६ श्लोक है। इस कृति का रचनाकाल लगभग १३ वीं शती का उत्तरार्ध है। इस ग्रन्थ के प्रारंभ में चार श्लोक दिये गये हैं। प्रथम श्लोक में भगवान महावीरस्वामी को नमस्कार करके अनुष्ठान विधि कहने की प्रतिज्ञा की गई है उसके पश्चात तीन श्लोकों में प्रस्तुत कृति के बीस द्वारों का नामोल्लेख किया गया है।
इन २० द्वारों में वर्णित विषयवस्तु का सामान्य विवेचन इस प्रकार है - पहले द्वार में सम्यक्त्वव्रत ग्रहण करने की विधि वर्णित है। दूसरे द्वार में परिग्रहपरिमाण (देशविरति-श्रावकधर्मव्रतारोपण) विधि एवं छ:मासिक सामायिक ग्रहण करने की विधि का निर्देश किया गया है। तीसरे द्वार में १. दर्शन २. व्रत ३. सामायिक ४. और पौषध इन चार प्रतिमाओं को स्वीकार करने की विधि बतलाई गई है। चौथे द्वार में उपधान विधि एवं उपधानप्रकरण का उल्लेख किया गया है। पाँचवे द्वार में मालारोपण विधि वर्णित है। छठे द्वार में इन्द्रियजयादि विविध प्रकार की तप विधियों का निरूपण किया गया है। सातवें द्वार में अन्तिम आराधना विधि दर्शित की गई है। आठवें द्वार में श्रावकद्वारा की जाने योग्य अन्तिम आराधना विधि दिखलायी गई है। नौंवे द्वार में प्रव्रज्या विधि का उल्लेख है। दशवे द्वार में उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का निर्देश है।
___ ग्यारहवें द्वार में लूंचन विधि कही गई है। बारहवें द्वार में प्रतिक्रमण विधि का वर्णन है। तेरहवें द्वार में आचार्यपद पर स्थापित करने की विधि का
' अणुट्ठाणविहि (अनुष्ठान विधि) अथवा सुहबोह सामायारी (सुखबोधासामाचारी) ऐसा नाम भी सम्प्रात है- देखें जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा.४, पृ. २६८ २ यह कृति 'सुबोधसामाचारी' के नाम से देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १६२४ में छपवाई है। २ छह महिने तक उभयसंध्याओं में सामायिक करने की प्रतिज्ञा करना * किसी आचार्य ने ५३ गाथाओं का जैन महाराष्ट्री प्राकृत में यह प्रकरण लिखा है। इसका प्रारम्भ 'पंच नमोक्कारे किल' से होता है। ५ सैंतीस प्रकार के तप का स्वरुप संस्कृत में दिया गया है।
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264 / संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
उल्लेख है। चौदहवें द्वार में उपाध्यायपद पर स्थापित करने की विधि बतलायी गयी है । पन्द्रहवें द्वार में महत्तरापद पर स्थापित करने की विधि दिखलायी गयी है। सोलहवें द्वार में गणानुज्ञा (गच्छ या समुदाय संबंधी विशिष्ट दायित्व अनुमति देने अथवा गच्छाधिपति पद पर आसीन करने) की विधि का आख्यान है।
सतरहवें द्वार में योग विधि का वर्णन है । अठारहवें द्वार में अचित्तसंयत ( मृतदेह ) प्रतिस्थापन विधि कही गई है। उन्नीसवें द्वार में पौषधव्रत विधि एवं सम्यक्त्वादि की महिमा का प्रतिपादन किया गया है। बीसवें द्वार में जिनबिंब की प्रतिष्ठा विधि' कही गई है। इसके साथ ही इसमें ध्वजा को स्थापित करने की विधि और कलश को स्थापित करने की विधि भी निरूपित है। प्रस्तुत कृति का उल्लेख जइजीयकल्प (यतिजीतकल्प) की वृत्ति में साधुरत्नसूरि ने किया है।
9
विविध प्रतिष्ठा कल्प के आधार पर इसकी योजना की गई है ऐसा अन्त में कहा गया है।
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अध्याय-7
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समाधिमरण सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
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266/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
अध्याय ७ समाधिमरण सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य सूची क्र. कृति
कृतिकार कृतिकाल | १ अभयदेवसूरि प्रणीत अभयदेवसूरि लग. वि.सं. ११ वीं आराधनाप्रकरण
शती आतुरप्रत्याख्यान (प्रथम) वीरभद्राचार्य वि.सं. १० वीं शती ३ आतुरप्रत्याख्यान (द्वितीय) अज्ञातकृत वि.सं. ५ वीं शती ४ आतुरप्रत्याख्यान (तृतीय) वीरभद्राचार्य वि.सं. १० वीं शती ५ आत्मविशोधिकुलक अज्ञातकृत लग. वि.सं. १०-११
वीं शती । ६ आराहणा (आराधना) पाणीतलभोजी शिवार्य वि.सं. की छठी शती ७|आराधनासार अथवा अज्ञातकृत लग. वि.सं. १० वीं पर्यन्ताराधना (प्रा.)
शती ८ आराधनापताका वीरभद्राचार्य वि.सं. १० वीं शती ६ आराधनाकुलक (प्रा.) अज्ञातकृत लग. वि.सं. ११-१३
वीं शती १० आराधनाकुलक
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १० वीं
शती ११ आराधनाकुलक अभयदेवमूरि वि.सं. ११-१२ वीं
शती १२ आराधनाकुलक अज्ञातकृत लग. वि.सं. ११-१३
वीं शती १३ आराधनाकुलक
अज्ञातकृत लग. वि.सं. ११-१३
वीं शती १४|आराधनाकुलक
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १४-१५ वीं शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/267
११ आराधना (अप.)
नयनन्दि
१६ आराधना (सं.) १७|आराधना
आ. अमितगति अभयदेवसूरि
१८ आराधना
अजितदेवसूरि
१६ आराधना
सोमसूरि
लग. वि.सं. ११-१२ वीं शती वि.सं. १२ वीं शती । वि.सं. ११-१२ वीं शती लग. वि.सं. १२-१३ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती वि.सं. १६६७ वि.सं. १५६२ वि.सं. की १०-११ वीं शती लग. वि.सं. १० वीं शती
२० आराधना
२१ आराधना
वि.सं. ५ वीं शती
उपा. समयसुन्दर
अज्ञातकृत २२ चउसरणपइण्णयं वीरभद्राचार्य
(चतुःशरण-प्रकीर्णक) २३ जिनशेखर श्रावक प्रति जिनशेखर
सुलसा श्रावकआराधित
आराधना (प्रा.) २४प्राचीन आचार्यकृत प्राचीन आचार्य
आराधना पताका २५ नन्दनमुनि आराधित अज्ञातकृत
आराधनाविधि (सं.) २६ भत्तपइण्णयं (भक्तपरिज्ञा- अज्ञातकृत
प्रकीर्णक) (प्रा.) २७ मरणविभक्ति या अज्ञातकृत
मरणसमाधि (प्रा.) २८ महापच्चक्खाणपइण्णयं प्राचीन आचार्यकृत
(महाप्रत्याख्यान-प्रकीर्णक)
वि.सं. १० वीं शती
लग. वि.सं. ५ वीं शती लग. वि.सं. ५ वीं शती पूर्व वि.सं. ५ वीं शती पूर्व
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268 / समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
२६ मिध्यादृष्कृतकुलक (प्रथम)
३० मिथ्यादृष्कृतकुलक (द्वितीय)
३१ संथारगपइण्णयं (संस्तारक-प्रकीर्णक) (प्रा.)
अज्ञातकृत
अज्ञातकृत
लग. वि. सं. ११-१२
वीं शती
लग. वि.सं. ११-१२
वीं शती
लग. वि. सं. ५ वीं शती पूर्व
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/269
अध्याय ७ समाधिमरण सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
वर्तमान की श्वेताम्बर परम्परा में मान्य पैंतालीस आगमसूत्रों में प्रकीर्णकसूत्र भी समाविष्ट किये गये हैं। प्रकीर्णक शब्द 'प्र' उपसर्ग पूर्वक, 'कृ' धातु से 'क्त' प्रत्यय और 'कन्' प्रत्यय होने पर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ हैनानासंग्रह, फुटकर वस्तुओं का संग्रह और विविध वस्तुओं का अध्याय। वस्तुतः विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ प्रकीर्णक कहलाते हैं। परम्परागत मान्यता प्रत्येक श्रमण द्वारा एक प्रकीर्णक रचने का उल्लेख करती हैं। समवायांगसूत्र में ऋषभदेव के चौराशी हजार शिष्यों के उतने ही प्रकीर्णकों का उल्लेख हैं।' भगवान महावीर के तीर्थ में भी चौदह हजार श्रमणों द्वारा उतने ही प्रकीर्णक रचने की मान्यता है। संप्रति जैन साहित्य में कुल बत्तीस प्रकीर्णकों की चर्चा उपलब्ध होती हैं। उनमें ग्यारह प्रकीर्णक पृथक्-पृथक् विषयों को आधार बनाकर रचे गये हैं तथा इक्कीस प्रकीर्णक किसी न किसी रूप में समाधिमरण विधि का प्रतिपादन करते
उल्लेखनीय है कि नन्दनमुनि आराधित आराधना प्रकीर्णक के अतिरिक्त समस्त प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में रचे गये हैं। इनमें ८ से लेकर १२६१ तक की गाथाओं वाले प्रकीर्णक हैं। कुछ प्रकीर्णक समान शीर्षक वाले भी हैं। आतुरप्रत्याख्यान नाम के तीन प्रकीर्णक हैं तथा चतुःशरण आराधनापताका और मिथ्यादुष्कृतकुलक नाम वाले दो-दो प्रकीर्णक हैं। ये सभी प्रकीर्णक समाधिमरण का, स्वरूप, माहात्म्य, विधि एवं समाधिमरण से होने वाले लाभ इत्यादिक विषयों का प्रतिपादन करने वाले हैं। इनका प्रतिपाद्य विषय यही है। अतः ये ग्रन्थ जीवन की अन्तिम आराधना के महत्त्वपूर्ण अंगों एवं उसके विधि-विधानपरक कृत्यों को प्रस्तुत करने वाले है। इन प्रकीर्णक ग्रन्थों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार हैं - अभयदेवसूरि प्रणीत आराधनाप्रकरण
__ यह कृति अभयदेवसूरि की है। इस प्रकीर्णक' में ८५ गाथाएँ निबद्ध की गई हैं। इस प्रकीर्णक में मरणविधि अर्थात् अनशनव्रतग्रहणविधि से सम्बन्धित छ:
समवायांगसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, समवाय ८४ आगम प्रकाशन समिति, १६८२, २ वही, समवाय १४ * पइण्णयसुत्ताई, भा. १, पृ. २२४-२३१
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270 / समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
द्वारों' का प्रतिपादन किया गया है उन द्वारों की संक्षिप्त विषय वस्तु इस प्रकार है१. आलोचनाद्वार - इस द्वार में यह प्रतिपादित हैं कि विविध तपों के द्वारा शरीर के क्षीण होने पर एवं मृत्यु आसन्न होने पर आराधक को मृत्यु भय की चिन्ता न करके शल्यमरण के गुण-दोषों का विचार करना चाहिए। शल्यमरण से यह जीव संसार रूपी अटवी में भ्रमण करता रहता है। माया - निदान - मिथ्यात्व - शल्य को दूर कर सम्यक् आराधना करने वाला तीसरे भव में निर्वाण प्राप्त करता है, इत्यादि का चिन्तन करके आराधक को गुरु के समक्ष बिना कुछ छिपाये सरल चित्त से आलोचना करनी चाहिए। जो कुछ भी अकार्य किया हो उसका प्रतिक्रमण करना चाहिए तथा पाँच प्रकार के ज्ञान, आठ प्रकार के दर्शनाचार, जिन, सिद्ध, आचार्य, वाचक, साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका चैत्य आदि के सम्बन्ध में हुई आशातना की आलोचना करनी चाहिए। समिति गुप्ति रूप अथवा मूलगुण एवं उत्तरगुण रूप चारित्र की, जो विराधना हुई हो, उसकी भी आलोचना करनी चाहिए। यदि वीर्य ( पुरुषार्थ ) में विधिपूर्वक प्रवृत्त न हुआ हों तो उसकी भी सम्यक् आलोचना करनी चाहिए।
२. व्रतोच्चार द्वार इस द्वार में यह निरूपित हैं कि आराधक को सुगुरु के समीप में आलोचना पूर्वक शल्यादि भाव दूर करने चाहिए और महाव्रतों के पालन की भावपूर्वक प्रतिज्ञा करनी चाहिए, उसे प्राणातिपात, असत्य, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह का सर्वथा परित्याग करना चाहिए । फिर सभी कषायों और मिथ्यादर्शनशल्य का त्याग कर श्रद्धापूर्वक संस्तारक पर आरूढ़ होने के लिए गमन करना चाहिए।
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३. क्षमापनाद्वार इस तृतीय द्वार में बताया गया है कि आराधक को चतुर्विध संघ एवं संसार में जिसके प्रति भी मोहवश अपराध किया है, उनसे क्षमापना करनी चाहिए। इस द्वार में आराधक के द्वारा सभी प्रकार के जीवों से क्षमायाचना करने का निर्देश है।
४. अनशनद्वार इस द्वार में सर्व प्रकार के आहार का त्यागकर, आराधक द्वारा अनशन ग्रहण करने का निरूपण किया गया है।
५. शुभभावनाद्वार इस पंचम द्वार में यह वर्णित है कि आराधक को एकत्व आदि बारह भावनाओं का चिन्तन करना चाहिए। इन भावनाओं का चिन्तन करने से अनशनव्रत का निर्विघ्न पालन होता है।
' वही, पृ. २२४ गा. १
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६. नमस्कारभावना द्वार इस अन्तिम द्वार में यह विवेचित हैं कि आराधक को स्वसाधना की सफलता के लिए पंचपरमेष्ठियों को भावपूर्वक वन्दन करना चाहिए। साथ ही नमस्कार मन्त्र का महात्म्य बताया गया है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 271
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आतुरप्रत्याख्यान ( प्रथम )
आतुरप्रत्याख्यान नाम से तीन प्रकीर्णक उपलब्ध होते हैं। इनमें से एक वीरभद्राचार्य (१० वीं शताब्दी) रचित है। नन्दीसूत्रचूर्णि, हरिभद्रसूरि की नन्दीवृत्ति और पाक्षिकवृत्ति में इस प्रकीर्णक का परिचय इस प्रकार दिया गया है- यदि कोई मुनि दारुण या असाध्य बीमारी से पीडित हो तो गीतार्थ पुरुष प्रतिदिन उस असाध्य बीमारी में आहार की मात्रा घटाते हुए प्रत्याख्यान करवायें, जब वह व्यक्ति धीरे-धीरे आहार के विषय में पूर्णतया अनासक्त हो जाये तब उसे भवचरिम प्रत्याख्यान करवायें अर्थात् जीवन पर्यन्त आहार पानी का त्याग करवायें। यह निरूपण जिस अध्ययन में हो उसे आतुर प्रत्याख्यान कहते हैं।
उपर्युक्त परिभाषा से सिद्ध होता है कि आतुरप्रत्याख्यान प्रकीर्णक भवचरिम प्रत्याख्यान (अणगारी संथारा ) ग्रहण करने की विधि से सम्बन्धित है। इसमें मुख्य रूप से क्षमापना, दुष्कृतगर्हा, सुकृत अनुमोदना, एवं एकत्व भावना इत्यादि पूर्वक संथारा ग्रहण करने की विधि का संकेत दिया गया है।
प्रस्तुत प्रकीर्णक की रचना गद्य-पद्य मिश्रित है। इसमें सूत्र और गाथाओं की मिली जुली संख्या तीस है। इसमें प्रथम पाँच गाथाओं में क्रमशः पंचपरमेष्ठी की स्तुति करते हुए पाप - त्याग करने की प्रतिज्ञा की गई है। इसके पश्चात् अरिहंत, सिद्ध, प्रवचन, आचार्य, गणधर या चतुर्विध संघ की आशातना की हो, उसके लिए इन सभी से क्षमापना करने का निर्देश है। फिर गाथा ११ और १२ में शरीरादि के ममत्व त्याग की बात कही गई हैं। गाथा १३ और १४ में सागार एवं निरागार प्रत्याख्यान का स्वरूप बताया गया है। इसके पश्चात् संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते हुए विविध जातीय स्थावर जीवों, विकलेन्द्रिय जीवों एवं चार गति के जीवों को मन-वचन-काया से कष्ट पहुँचाया हों तो क्षमापना करता हूँ- ऐसा कहा गया है। अन्तिम तीन गाथाएँ आत्मशिक्षा के रूप में हैं। इनमें एकत्व भाव द्वारा आत्मा को अनुशासित करने का निर्देश है तथा सभी बहिर्भावों के त्याग का उपदेश है।
२
9 पइण्णयसुत्ताई, भा. १, गा. ७७-८५
आउरपच्चक्खाणं पइण्णयं पइण्णयसुत्ताइं, भा. १, पृ. १६०-१६३
३ आउरपच्चक्खाणं पइण्णयं - पइण्णयसुत्ताइं भा. १, गाथा २८-३०
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272/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
इस प्रकार हम पाते हैं कि इस प्रकीर्णक में अनशनविधि का सुन्दर स्वरूप प्रस्तुत हुआ है। आतुरप्रत्याख्यान (द्वितीय)
इस प्रकीर्णक' में कुल ३४ गाथाएँ हैं। यह प्रकीर्णक भी अनशन ग्रहण करने की विधि से सम्बन्धित है। इस प्रकीर्णक में अनशन विधि निम्न शीर्षकों के आधार पर प्रस्तुत की गई है, वे बिन्दू ये हैं - उपोद्घात, अविरति-प्रत्याख्यान, मिथ्यादुष्कृत, ममत्व-त्याग, शरीर के लिए उपालम्भ, शुभ भावना, अरिहंतादि का स्मरण, पापस्थानक त्याग आदि।
प्रस्तुत कृति की प्रथम गाथा में कुश-शय्या पर भावपूर्वक बैठे हुए एवं झुके हुए हाथों सहित रोगों (संसर्ग त्याग) के प्रत्याख्यान की चर्चा है। अविरति प्रत्याख्यान के सन्दर्भ में समस्त प्राणहिंसा, असत्यवचन, अदत्तादान, रात्रिभोजन-अविरति, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरत होने का तथा स्वजन, परिजन, पुत्र-स्त्री, आत्मीयजनों के प्रति सब प्रकार की ममता त्याग करने का निर्देश दिया गया है। मिथ्यादुष्कृत के प्रसंग में नैरयिक, तिर्यच, देव ओर मनुष्य के साथ जो भी पाप हुये हों, सबके प्रति मिथ्यादुष्कृत करने का निर्देश है। ममत्व त्याग के प्रसंग में मरकतमणि के समान कान्तिवाले, शाश्वत श्रेष्ठ भवनों को छोड़कर जीर्ण चटाई से बने घरों में आसक्त न होने का निरूपण है। इसके साथ ही आराधक के लिए यह उपदेश दिया गया है कि अब तुमने स्वर्णमय-पुष्प पराग के समान सुकुमाल शरीर का त्याग कर दिया है लेकिन जीर्ण शरीर में भी आसक्त नहीं बनना है तथा पित्त, शुक्र और रुधिर से अपवित्र, दुर्गन्ध युक्त शरीर पर भी आसक्त नहीं बनना है। गाथा १४ से १८ में सुकृत कार्य न करने के लिए शरीर को उपालम्भ दिया गया है। तदनन्तर शुभ भावना के प्रसंग में यह कहा गया हैं कि इस संसार में दुःख जितना सुलभ है सद्धर्म की प्राप्ति उतनी ही दुर्लभ है। साथ ही इसमें मरण समय समीप आने पर अरिहंतादि का स्मरण करना चहिए ऐसा कहा गया है। अन्त में गाथा २६ से ३४ में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है, फिर अठारह पापस्थानों के त्याग का निर्देश दिया गया है। और सभी पापों का मिच्छामि दुक्कडं देने को कहा गया है।
स्पष्टतः इस प्रकीर्णक में समाधिमरण (संथारा ग्रहण) स्वीकार की विधि अति संक्षेप में चर्चित है परन्तु समाधिमरण के लिए मन को शान्त एवं विरक्त कैसे बनाये रखें, एतदर्थ तत्सम्बन्धी उपदेश का विस्तृत विवेचन किया गया है।
' आउरपच्चक्खाणं पइण्णय, पइण्णयसुत्ताई भा. १, पृ. ३०५-३०८
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आतुरप्रत्याख्यान (तृतीय)
इस प्रकीर्णक' में ७१ गाथाएँ हैं। यह कृति आचार्य वीरभद्र की मानी जाती है। यह प्रकीर्णक समाधिमरण से सम्बन्धित होने के कारण इसे अन्तकाल प्रकीर्णक भी कहा जाता है। इसे बृहदातुर प्रत्याख्यान भी कहते हैं । यहाँ दसवीं गाथा के पश्चात् कुछ गद्यांश भी हैं। इसमें मंगलाचरण का अभाव है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 273
ये इसमें मरण के बालमरण, बालपण्डितमरण और पण्डितमरण तीन भेद किये गये हैं। बालमरण एवं पण्डितमरण का सामान्य विवेचन किया गया है। इसमें बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि देशविरत जीव का बालपण्डित मरण होता है। पण्डितमरण की चर्चा करते हुए उसके त्रेसठ अतिचारों की शुद्धि, जिन वन्दना, गणधर वन्दना, और पाँच महाव्रतों के अतिक्रमण के दोषों की आलोचना एवं उनका पूर्ण प्रत्याख्यान करने के पश्चात् संथारा ग्रहण करने की प्रतिज्ञा करने का निर्देश है। संथारा ग्रहण करने की विधि के अन्तर्गत सामायिक ग्रहण, सर्व बाह्याभ्यन्तर उपधि का परित्याग, अठारह पापस्थानों का त्याग, एकमात्र आत्मा के अवलम्बन, एकत्व भावना, प्रतिक्रमण, आलोचना, क्षमापना इत्यादि के निरूपण किया गया है।
१
तदनन्तर असमाधिमरण का फल बताते हुए कहा गया है कि जो अष्ट मदों से युक्त, चंचल और कुटिल बुद्धि पूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं वे आराधक नहीं है बल्कि उनका संसार चक्र बढ़ जाता है। यहाँ बालमरण के प्रसंग में कहा गया है कि जिनवचन को न जानने वाले बहुत से अज्ञानी बालमरण मरते हैं। ये शस्त्रग्रहण, विषभक्षण, आग से जलने और जल में प्रवेश करने से मरते हैं । यहाँ जन्म-मरण और नरक की वेदना का स्मरण कर पण्डितमरण रूप मृत्यु के वरण का उपदेश है। इसके पश्चात् पण्डित मरण की आराधना विधि का वर्णन है । पण्डितमरण की भावनाओं के प्रसंग में कहा गया हैं कि पण्डितमरण को प्राप्त होने वाला आराधक उत्कृष्टतः तीन भव करके निर्वाण को प्राप्त करता है । अन्त में बताया गया है कि समाधिमरण को स्वीकार करने वाला आराधक अनशनव्रत को विधिपूर्वक अंगीकार करके यह विचार करता है कि मृत्यु धैर्यवान की भी होती है और कायर की भी, तो क्यों न धैर्य से मृत्यु को प्राप्त किया जाये ? इस प्रकार का चिन्तन करता हुआ वह धीर, शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है ।
निष्कर्षतः यह प्रकीर्णक संथाराग्राही की मनोभूमिका को तद्रूप बनाने के लिए अमूल्य सामग्री प्रस्तुत करता है ।
आउरपच्चक्खाणं पइण्णयं, पइण्णयसुत्ताईं भा. १, पृ. ३२६-३३६
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274/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
आत्मविशोधिकुलक
__ यह प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें २४ गाथाएँ हैं। इस कुलक का प्रतिपाद्य विषय विविध प्रकार के दृष्कृतों की निन्दा करना है। इसमें आराधक की आत्मशुद्धि का सम्यक् मार्ग प्रस्तुत किया गया है।
___ इस कुलक में बताया गया है कि समाधिमरण ग्रहण करने वाला साधक प्रथम अरिहंत, सिद्ध, गणधर आदि के सम्मुख खड़े हो करके अपने दुश्चरित्रों की समालोचना करता है। उसके बाद सूक्ष्म और स्थूल जीवों के प्रति प्रमाद एवं दर्प से जो भी अकृत्य हुये हो, जाने या अनजाने में ज्ञान संबंधी अतिचार लगे हो, जिन वचनों के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न हुई हों, सांसारिक वस्तुओं के प्रति समभाव न रहा हों, छः प्रकार के जीवनिकायों के प्रति जाने या अनजाने में प्रमाद (हिंसा) हुआ हो एवं हास-परिहास में या अज्ञान में मिथ्या भाषण किया हो उसके लिए निन्दा करता है। साथ ही लोभवश दूसरे की अदत्त वस्तु ग्रहण की हों या वस्तु छिपायी हो, परिग्रह भाव से सचित्त-अचित्त और मिश्र वस्तुओं का ग्रहण किया हो, आर्त्तध्यान से चरित्र को मलिन किया हो, आहार-भय-मैथुन संज्ञा से पराभूत हो अन्य जो भी अकत्य किया हो, उसकी तीन योग और तीन करण से निन्दा करता है। इसी प्रकार चरण, करण, शील और भिक्षु प्रतिमाओं में जो अतिचार लगे हों, अरिहंत-सिद्धादि की आशातना की हो, इसके अतिरिक्त प्रमाद-दोष से अन्य अपराध किये हों उनकी निन्दा करता हैं इसके बाद आहार और समस्त शारीरिक क्रियाओं का त्याग करता है। अन्त में आलोचना द्वारा आत्म विशुद्धि का माहात्म्य बताया गया है। आराहणा (आराधना)
__इस कृति का अपरनाम भगवती आराधना और मूलाराधना भी है। इस ग्रन्थ के रचयिता पाणितलभोजी शिवार्य है। इसमें २१६६ पद्य जैन शौरसेनी में हैं। यह कृति आठ परिच्छेदों में विभक्त है। इसका समय वि.सं. की छठी शती है। यह ग्रन्थ मुख्यतया मुनिधर्म का प्रतिपादन करता है और समाधिमरण का स्वरूप समझाता है। इसमें सल्लेखना विधि एवं मृतसाधु के परिष्ठापन की विधि का विस्तृत निरूपण हुआ है।'
' यह ग्रन्थ विजयोदयाटीका एवं हिन्दीटीका सहित श्री हीरालाल खुशालचंद दोशी, फलटण (वाखरीकर) ने सन् १६६० में प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ का सटीका अनुवाद पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने किया है।
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विस्तार से कहें तो इसमें सामान्यतया आराधना की उपयोगिता, सम्यग्दर्शन सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप इन चार प्रकार के आराधना की महिमा, मरण के सत्रह प्रकार, सूत्रकार के चार प्रकार, सम्यक्त्व के आठ अतिचार, सम्यक्त्व की आराधना का फल, सम्यक्त्व के स्वामी आदि भक्तपरिज्ञामरण के प्रकार तथा सविचार भक्त प्रत्याख्यान का निरूपण अधोलिखित चालीस अधिकारों में किया गया है१. तीर्थंकर, २. लिंग, ३. शिक्षा, ४. विनय, ५. समाधि, ६. अनियतविहार, ७. परि- णाम, ८. उपाधित्याग, ६. द्रव्यथिति और भावश्रिति, १०. भावना, ११. सल्लेखना, १२. दिशा, १३. क्षमण, १४. अनुविशिष्ट शिक्षा, १५. परगणचर्चा, १६. मार्गणा, १७. सुस्थित, १८. उपसम्पदा, १६. परीक्षा, २०. प्रतिलेखना, २१. आपृच्छा, २२. प्रतिच्छन्न, २३. आलोचना, २४. आलोचना के गुण-दोष, २५. शय्या, २६. संस्तर, २७. निर्यापक, २८. प्रकाशन, २६. आहार, ३०. प्रत्याख्यान, ३१. क्षामण, ३२. क्षपण, ३३. अनुशिष्टि, ३४. सारण, ३५. कवच, ३६. समता, ३७. ध्यान, ३८. लेश्या, ३६. आराधना का फल और ४०. विजहना क्षपक की मरणोत्तर क्रिया।।
___ इन अधिकारों में यथालन्दी की आचार विधि गच्छप्रतिबद्ध यथालन्द तपविधि, परिहारसंयम विधि, जिनकल्पविधि, परिग्रहत्यागविधि, प्रायश्चित्तदानविधि, क्षपक की परीक्षाविधि, आलोचना की विधि, क्षपक की मरणोत्तर क्रियाविधि, आर्यिका की मरणोत्तर विधि, मृतक के साथ पुतले का विधान, निरुद्धतर समाधि की विधि, इंगिनीमरण- अनशनविधि, प्रायोपगमन अनशनविधि, क्षपकश्रेणि पर आरोहण करने की विधि, क्षपक के शरीर स्थापन आदि की विधि का उल्लेख हुआ है। इन विधि-विधानों के अतिरिक्त जिनलिंग धारण करने वाले के गुण, केशलोच न करने से लगने वाले के दोष, पीछी से प्रतिलेखना करने का प्रयोजन, पाँच प्रकार की शुद्धि, भक्त प्रत्याख्यान का काल, शरीर सल्लेखना एवं आभ्यन्तर सल्लेखना का क्रम, समाधि के लिए निर्यापक की खोज, खोज के लिए जाते हुए क्षपक के गुण, पाँच प्रकार का व्यवहार, आलोचना करने योग्य स्थान, हिंसा आदि पाँच पापों का स्वरूप, पंच महाव्रत की महिमा, तप के गुण, क्षपक विचलित हो तो उसको स्थिर करने के उपाय, समुद्घात विधान, उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य आराधना का फल आदि बिन्दुओं पर भी विचार किया गया है।
संक्षेपतः यह रचना सल्लेखना विधि से सम्बन्धित है। इसके साथ ही तत्सम्बन्धी विषयों एवं विधियों का भी निरूपण हुआ है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में अरिहंत परमात्मा को वन्दन किया गया है तथा चार प्रकार की आराधना का फल
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प्राप्त करने के लिए क्रमशः उन आराधना विधि को कहने की प्रतिज्ञा की गई हैं। अन्त में ग्रन्थ प्रशस्ति छह गाथाओं के द्वारा की गई है। उसमें ग्रन्थकार ने अपनी गुरूपरम्परा का परिचय देते हुए जिननंदी, सर्वगुप्त और मित्रनन्दी इन तीनों का आर्य शब्द के साथ उल्लेख किया है तथा इसमें जो कुछ आगम के विरुद्ध लिखा गया हो; उसको ज्ञानीजन सुधारने की कृपा करें ऐसी प्रार्थना की गई है। टीकाएँ - इस ग्रन्थ पर कई टीकाएँ रचित हैं। एक टीका है, जिसे कुछ विद्वान वसुनन्दि की रचना मानते हैं। इसके अतिरिक्त इस पर चन्द्रनन्दी के प्रशिष्य बलदेव के शिष्य अपराजित की 'विजयोदया' नाम की एक टीका है। आशाधर की टीका का नाम 'दर्पण' है। इसे 'मूलाराधनादर्पण' भी कहते हैं। अमितगति की टीका का नाम 'मरणकरण्डिका' है। इन टीकाओं के अतिरिक्त इस पर एक अज्ञातकर्तृक पंजिका भी है। आराधनासार अथवा पर्यन्तराधना आराधनासार नामक यह कृति प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें कुल २३६ गाथाएँ हैं। इस कृति के रचनाकार एवं इसका रचनाकाल अज्ञात है। यह कृति अन्तिम आराधना अर्थात् अनशनव्रत स्वीकार करने की विधि से सम्बन्धित हैं। इसमें अन्तिम आराधनाविधि से सम्बद्ध रखने वाले चौबीस द्वारों का विस्तृत विवेचन किया गया है।
इस कृति के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं अभिधेय का कथन किया गया है। उसके पश्चात पर्यन्ताराधना के चौबीस द्वारों का नाम निर्देश किया गया है यहाँ नामनिर्देश पूर्वक चौबीस द्वारों का सामान्य विवरण निम्न हैं - पहला संलेखना द्वार - इस द्वार में संलेखना आभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकार की कही गई हैं। कषायों को क्षीण करना आभ्यन्तर संलेखना है और शरीर को क्षीण करना बाह्य संलेखना है। शारीरिक संलेखना उत्कृष्ट-मध्यम और जघन्य तीन प्रकार की होती है। काल की दृष्टि से यह संलेखना क्रमशः बारह दिन, बारह मास और बारह पक्ष की होती है। दूसरा स्थान द्वार - इस द्वार में आराधक को गन्धर्व, नट, वेश्या आदि के स्थान पर संलेखना ग्रहण करने को वर्जित बताया गया है।
'जिनदास पार्श्वनाथ ने इसका हिन्दी में अनुवाद किया है। सदासुख का भी एक अनुवाद है। यह ग्रन्थ अपनी अन्य टीकाओं के साथ भी प्रकाशित हुआ है। २ आराहणासार/पज्जंताराहणा-पइण्णयसुत्ताई भा. २, पृ. १३६-१६२
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तीसरा विकटना द्वार - इस द्वार में गीतार्थ गुरु के समीप भावपूर्वक आलोचना करने का निर्देश है। इसमें कहा गया हैं कि अन्तिम आराधना करने के पूर्व मूलगुण, उत्तरगुण, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचर और वीर्याचार में राग-द्वेष वश जो भी अतिचार लगे हों, उनकी आलोचना अवश्य करनी चाहिए। चौथा सम्यक द्वार - इस द्वार में आराधक के लिए शंका-कांक्षादि दोषों से रहित सम्यक्त्व व्रत के पालन का निर्देश किया गया है। पाँचवा अणुव्रत द्वार - इसमें आराधक द्वारा यावज्जीवन के लिए पंच अणुव्रतों के पालन करने का संकल्प किया गया है। छठा गुणव्रत द्वार - इस द्वार में गुणव्रतों का नाम-निर्देश एवं उनको ग्रहण करने की चर्चा है। सातवाँ पापस्थान द्वार - इसमें अठारह पापस्थानों के त्याग का निरूपण है। आठवाँ सागार द्वार - इसमें इष्ट आदि पदार्थों एवं वस्तुओं के त्याग का वर्णन
नौवाँ चतुःशरण-गमन द्वार - इस द्वार में आराधक द्वारा अरिहन्त, सिद्ध, साधु
और संघ रूप चतुःशरण में जाने का निर्देश है। दसवाँ दुष्कृतगर्दा द्वार - इसमें आराधक द्वारा दुष्कृत की निन्दा करने का वर्णन है। ग्यारहवाँ सुकृतानुमोदना द्वार - इसमें आराधक द्वारा जीवन में किये गये सद्कार्यों की अनुमोदना का स्वरूप विवेचित है। बारहवाँ विषय द्वार - इस द्वार में शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप विषयों के त्याग का वर्णन है। तेरहवाँ संघादि-क्षमापना द्वार - इसमें आराधक के द्वारा संघादि से क्षमायाचना किये जाने का वर्णन है। चौदहवाँ चतुर्गति-जीवक्षमापना द्वार - इस द्वार में यह प्रतिपादित है कि आराधक को चारों गति के जीवों से किस प्रकार क्षमापना करनी चाहिए। पन्द्रहवाँ चैत्य-नमनोत्सर्ग द्वार - इस द्वार में चैत्यवन्दन करने एवं कायोत्सर्ग करने का वर्णन किया गया है। सोलहवाँ अनशन द्वार - इस द्वार में आराधक के द्वारा गुरुवन्दन पूर्वक अनशनव्रत ग्रहण करने की विधि बतायी गई है। सतरहवाँ अनुशिष्टि द्वार - इसमें वेदना पीडित क्षपक के प्रति उपदेश देने का निरूपण है।
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अठारहवाँ भावना द्वार - इस द्वार में आराधक को बारह भावनाओं का चिन्तन करने का उपदेश दिया गया है। उन्नीसवाँ कवच द्वार - इस द्वार में वेदना वश चंचल चित्त वाले आराधक के लिए गुरु द्वारा स्थिरीकरण का उपदेश दिया गया है। बीसवाँ नमस्कार द्वार - इसमें आराधक के द्वारा पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किये जाने का एवं पंचपरमेष्ठी ध्यान का वर्णन है साथ ही नमस्कार का माहात्म्य भी बताया गया है। इक्कीसवाँ शुभध्यान द्वार - इस द्वार में अनशनव्रती को धर्मध्यान और शुक्लध्यान के बारे में उपदेश दिया गया है। बावीसवाँ निदान द्वार - इस द्वार में आराधक के द्वारा निदान करने का निषेध किया गया है। तेईसवाँ अतिचार द्वार - प्रस्तुत द्वार में अनशनव्रत का सम्यक् परिपालन न करने से लगने वाले अतिचारों का वर्णन किया गया है। चौबीसवाँ फल द्वार - इस अन्तिम द्वार में आराधना का फल बताया गया है। आराधनापताका
यह प्रकीर्णक वीरभद्राचार्य द्वारा प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें ६८६ गाथायें हैं। यह ग्रन्थ समाधिमरण स्वीकार करने की विधि एवं तत्सम्बन्धी अनेक विषयों का सांगोपांग विवरण प्रस्तुत करता है।
प्रस्तुत कृति में मुख्य विषय का प्रतिपादन करने के पूर्व पीठिका दी गई है। इसमें पहले मरण के भेद-प्रभेदों का वर्णन हुआ है। समाधिमरण के सविचार और अविचार दो भेदों में से सविचार भक्तपरिज्ञामरण का विस्तृत विवेचन किया गया है। प्रस्तुत कृति के विषय को १. परिकर्मविधि, २. गणसंक्रमण, ३. ममत्व-उच्छेद और, ४. समाधिलाभ इन चार द्वारों में वर्गीकृत किया गया हैं इसके साथ ही इन चार द्वारों के क्रमशः ग्यारह, दस, दस और आठ प्रतिद्वार बतलाये हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में भगवान महावीर को वन्दन करके गौतमादि पूर्वाचार्यों द्वारा अनुभूत और कथित आराधना के स्वरूप को कहने का संकल्प किया गया है। इसके पश्चात् पीठिका के रूप में १. आराधना के चार उपायों का निरूपण, २. आराधना और विराधना के परिणाम, ३. आराधना के उपाय के भेद के सम्बन्ध में मतान्तर की चर्चा, ४. आराधना एवं विराधना के स्वरूप का
' सिरिवीरभद्दायरियविरइया 'आराहणापडाया', पइण्णयसुत्ताई, भा.२, पृ. ८५-१६८
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प्रतिपादन पाँच प्रकार के मरण - (१) पंडित-पंडित (२) पंडित (३) बाल पंडित (४) बालमरण और ५. बाल- बालमरण का कथन है। साथ ही इसमें बताया गया है कि किन जीवों का कौनसा मरण होता है? लिखा है कि क्षीणकषायकेवलि प्रथममरण, श्रेष्ठमुनि का द्वितीयमरण, देशविरत और अविरत का तृतीयमरण, मिथ्यादृष्टि का बालमरण और सबसे जघन्य कषाय-कलुषित चित्त वाली आत्मा का पाँचवा मरण होता है।
तत्पश्चात् श्रुतदेवता की वन्दना कर मुख्य विषय का आरम्भ किया गया है इसमें सविचारभक्तपरिज्ञामरण के चार द्वारों का सामान्य विवेचन इस प्रकार प्रतिपादित हैं - १. परिकर्मविधि द्वार- इस द्वार के अन्तर्गत प्रथम 'अर्ह' नामक प्रतिद्वार में भक्तपरिज्ञा अनशन ग्रहण करने वाले मुनि की योग्यता का कथन हैं। द्वितीय 'लिंग' प्रतिद्वार में मुखवस्त्रिका, रजोहरण, शरीर-अपरिकर्मत्व, अचेलत्व और केशलोच रूप मुनि के लिंगों का वर्णन हैं। तृतीय 'शिक्षा' प्रतिद्वार में सात शिक्षापदों का निरूपण हैं। चतुर्थ 'विनय' में ज्ञानादि पाँच प्रकार के विनय का स्वरूप वर्णित है। पंचम 'समाधि' प्रतिद्वार में मनोनिग्रह के विषय का प्ररूपण है। षष्ठम 'अनियतविहार' नामक प्रतिद्वार में दर्शन शुद्धि आदि की अपेक्षा पाँच 'अनियत वास के होने वाले गुणों का वर्णन हैं। सप्तम ‘परिणाम' नामक प्रतिद्वार में अनशनव्रत ग्रहण करते समय होने योग्य परिणामों की विवेचना है। अष्टम 'त्याग' प्रतिद्वार में संयम साधना में उपयोगी उपधि के अतिरिक्त शेष उपधि के त्याग का निरूपण है। नवम 'निःश्रेणि' प्रतिद्वार में भावश्रेणि आरोहण के विषय का वर्णन है। दशम 'भावना' प्रतिद्वार में क्रमशः पाँच संक्लिष्ट भावनाओं से हानि
और असंक्लिष्ट भावनाओं से लाभ का प्रतिपादन है। एकादश 'संलेखना' प्रतिद्वार में संलेखना के भेदों का विस्तार से विवेचन है। २. गणसंक्रमण द्वार- इस द्वार में उल्लिखित १० प्रतिद्वारों के नाम ये हैं- १. दिशा, २. क्षमणा, ३. अनुशिष्टि, ४. परगणा , ५. सुस्थित गवेषणा, ६. उपसम्पदा, ७. परिज्ञा, ८. प्रतिलेखा, ६. आपृच्छना और १०. प्रतिच्छा प्रथम 'दिशा' प्रतिद्वार में अनशनग्राही के द्वारा गण निष्क्रमण करने हेतु अर्थात् संलेखनाव्रत ग्रहण करने के लिए शुभतिथि, शुभनक्षत्र, शुभलग्न और शुभदिशा को देखने का निर्देश दिया गया है। द्वितीय ‘क्षामणा' प्रतिद्वार में आराधक द्वारा समस्त गण से क्षमापना करने का वर्णन है। तृतीय उपदेश प्रतिद्वार में गणाधिपति द्वारा क्षपक (आराधक मुनि) सहित अन्य शिष्यों को विस्तार पूर्वक विविध उपदेश देने का प्रतिपादन है। चतुर्थ 'परगणचर्या' प्रतिद्वार में यह बताया गया हैं कि
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280/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
स्वगण में अनशनव्रत ग्रहण करने से कुछ स्वाभाविक विघ्न उपस्थित होते हैं अतः अन्य गण में आराधना स्वीकारने का निवेदन है। पंचम 'सुस्थित गवेषणा' प्रतिद्वार में विभिन्न दोषों की सम्यक् आलोचना का निरूपण किया गया है। षष्टम 'उपसंपदा' प्रतिद्वार में वाचक आचार्य द्वारा मुनि की आराधना की पताका रूप व्रत प्रदान करने की स्वीकृति का वर्णन है, सप्तम ‘परिज्ञा' परिद्वार में एवं अष्टम 'प्रतिलेखा' परिद्वार में आहार आदि के सम्बन्ध में निर्यामक आचार्य द्वारा क्षपक की आराधना का निरीक्षण किये जाने का वर्णन है। नवम 'आपृच्छना' एवं दशम 'प्रतिच्छा' नामक प्रतिद्वार में प्रतिचारक की अनुमति हेतु निर्यामक आचार्य से कथन एवं प्रतिच्छक की नियुक्ति का निश्चय सम्बन्धी निरूपण है। ३. ममत्वव्युच्छेद द्वार- इस द्वार के अन्तर्गत १० प्रतिद्वारों के नाम इस प्रकार प्रस्तुत है :- १. आलोचना, २. गुण-दोष, ३. शय्या, ४. संस्तारक, ५. निर्यामक, ६. दर्शन, ७. हानि, ८. प्रत्याख्यान, ६. क्षमणा और, १०. क्षमण।
प्रस्तुत द्वार के प्रथम प्रतिद्वार में क्षपक (मुनि) कृत आलोचना का विस्तार से निरूपण है। द्वितीय 'गुण-दोष' प्रतिद्वार में सम्यक् आलोचना करने से होने वाले गुण और सम्यक् आलोचना न करने से होने वाले दोष का प्रतिपादन हैं। तृतीय ‘शय्या' प्रतिद्वार में क्षपक के लिए उपयुक्त वसति का वर्णन है। चतर्थ 'संस्तारक' प्रतिद्वार में क्षपक के लिए योग्य संस्तारक की चर्चा है। पंचम प्रतिद्वार में विविध प्रकार की वैयावृत्य करने में प्रवीण अड़तालीस प्रकार के निर्यामकों का स्वरूप प्रतिपादित है। षष्ठम 'दर्शन' प्रतिद्वार में आराधक द्वारा आहार का त्याग करने का निरूपण है। सप्तम 'हानि' प्रतिद्वार में उत्कृष्ट आहार का दर्शन कराने पर किसी क्षपक को रसासक्त जानकर उस-उस उत्कृष्ट आहार से हानि का निरूपण करते हुए क्षपक को आसक्ति से विरत करने का निर्देश है। अष्टम 'प्रत्याख्यान' प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा सर्वाहार के त्याग का वर्णन है। नवम 'क्षमणा' प्रतिद्वार में गुरु की प्रेरणा से संलेखनाधारी द्वारा सर्वसंघ के प्रति क्षमायाचना करने का प्रतिपादन है। दशम 'क्षमण' प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा सर्वसंघ को क्षमादान करने का प्ररूपण है। उसके पश्चात् ममत्व व्युच्छेद का फल बताया गया है। ४. समाधिलाभद्वार- इस द्वार में प्रतिपादित आठ प्रतिद्वार संक्षेप में इस प्रकार हैं - १. अनुशिष्टि, २. सारणा, ३. कवच, ४. समता, ५. ध्यान, ६. लेश्या, ७. आराधना- फल और ८. विजहना। प्रथम 'अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में संस्तारक आसीन क्षपक के लिए नव प्रकार की भाव संलेखना का उपदेश है। इसके साथ ही मिथ्यात्व-वमन, सम्यक्त्व भावना,
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अर्हन्नमस्कार, पंचमहाव्रत रक्षा, कषायत्याग, इन्द्रियविजय और तप के उद्यम करने का उपदेश भी है। उपदेश के अन्त में क्षपक द्वारा उपदेश स्वीकार करने का उल्लेख है। द्वितीय 'सारणा' प्रतिद्वार में क्षपक के द्वारा ध्यान करते समय विधनकारी वेदनाओं का प्रसंग उपस्थित होने पर चिकित्सा आदि का निरूपण है। तृतीय 'कवच' प्रतिद्वार में विविध परिषहों को समतापूर्वक सहन करने का प्रतिपादन किया गया है। चतुर्थ 'समता' प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा समभाव अंगीकार करने का प्रतिपादन है। पंचम ध्यान प्रतिद्वार में क्षपक द्वारा आर्त्तध्यान एवं रौद्रध्यान के परित्याग पूर्वक धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान को अंगीकर करने का वर्णन किया गया है। षष्टम 'लेश्या' प्रतिद्वार में प्रशस्त लेश्याओं की प्रतिपत्ति का सूचन किया गया है। सप्तम ' आराधनाफल' प्रतिद्वार में उत्कृष्ट मध्यम एवं जघन्य के प्रकार से आराधना फल का निरूपण किया गया है। साथ ही शिथिलाचारियों की अप्रशस्त गति का कथन किया गया है। अष्टम 'विजहना' प्रतिद्वार में समय आने पर क्षपक द्वारा शरीर के परित्याग का एवं उसके पश्चात् की क्रियाओं का विस्तार से निरूपण किया गया है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 281
यहाँ तक सविचार भक्तपरिज्ञामरण का वर्णन प्रतिपादित है इसके पश्चात् अविचार भक्तपरिज्ञामरण का निरूपण किया गया हैं। यह तीन प्रकार का कहा गया है १. निरुद्ध, २. निरुद्धतर, और ३. परम निरुद्ध ।
१. निरुद्ध- जंघाबल के क्षीण होने पर अथवा रोगादि के कारण कृश शरीर वाले साधु का गुफादि में होने वाला मरणविशेष निरुद्ध अविचारभक्तपरिज्ञामरण है। २. निरुद्धतर- व्याल, अग्नि, व्याघ्र, शूल आदि के कारण अपनी आयु को संकुचित जानकर मुनि का गुफादि में मरण होना निरुद्धतर है ।
३. परम निरुद्ध - जब मुनि की वाणी वातादि के कारण अवरुद्ध हो जाये तब वह आयु को समाप्त जानकर जो शीघ्र मरण करता है वह परम निरुद्ध है। इस प्रकार समाधिमरण के दो प्रकारों का इसमें सम्यक् विवेचन हुआ है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में इंगिनीमरण स्वीकार करने की विधि भी बतायी गई हैं तथा यह भी कहा गया है कि इस मरण को स्वीकार कर कुछ सिद्ध होते हैं और कुछ देव गति को प्राप्त करते हैं ।
आराधनाकुलक - आराधनाकुलक' नामक यह रचना सभी प्रकीर्णकों में सबसे लघु है । इसमें कुल ८ गाथाएँ है। इसमें समाधिमरण को स्वीकार करने की संक्षिप्त विधि कही गई हैं। उसमें आराधक द्वारा समाधिमरण व्रत की प्रतिज्ञा का उच्चारण
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आराहणा कुलयं पइण्णयसुत्ताई, भा. २, पृ. २४४
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282 / समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
करना, सभी जीवों से क्षमायाचना करना, अठारह पापस्थानों का त्याग करना, राग-द्वेष और मोह वश तीन करण और तीन योग से इहभव और परभव में जो धर्म विरुद्ध कृत्य किये हों उनकी निन्दा करना, सुकृत की अनुमोदना करना, चतुःशरण को ग्रहण करना, और एकत्व भावना का चिन्तन करना इत्यादि का निर्देश मात्र है।
प्रस्तुत नाम की चार कृतियाँ और प्राप्त होती हैं। हमें इन कृतियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त नहीं हैं क्योंकि ये हमें देखने को नहीं मिली हैं। तथापि कृति नाम से इतना तो अवश्य स्पष्ट हो जाता हैं कि ये आराधना - विधि से सम्बन्धित है। इन कृतियों का प्राप्त विवरण इस प्रकार है
आराधना कुलक - इस कृति का अपरनाम समाराधना कुलक है। इसके कर्ता के सम्बन्ध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
आराधना कुलक - यह कृति जिनेश्वरसूरि के शिष्य अभयदेवसूरि की है।' इसमें प्राकृत की ८५ गाथाएँ हैं ।
आराधना कुलक - इसमें प्राकृत की ६६ गाथाएँ हैं। यह कृति अज्ञातकर्तृक है। आराधना कुलक - इसमें १७ गाथाएँ हैं। यह रचना अज्ञात मुनि की है। आलोचना कुलक - इस प्रकीर्णक में मात्र १२ गाथाएँ हैं। इसमें मुख्य रूप से विविध दृष्कृतों की विधिवत् आलोचना विधि बताई गई है। सर्वप्रथम ज्ञान, दर्शन और चारित्र में लगे हुए अतिचारों की निन्दा, फिर मूलगुण- उत्तरगुण के अतिचारों की निन्दा, पश्चात् राग-द्वेष और चारों कषायों के वशीभूत जो कृत्य किये हैं उनकी निन्दा, दर्प और प्रमाद से जो कृत्य किये हैं उनकी निन्दा, अज्ञान, मिथ्यात्व, विमोह, और कलुषता के कारण जो कृत्य किये हैं उनकी निन्दा, जिन प्रवचन, साधु की आशातना और अविनय किया हो उसकी निन्दा की गई हैं। आगे इन्द्रियों के वशीभूत होकर किये गये कार्यों की आलोचना की गई है तथा अन्तिम गाथा में आलोचना का माहात्म्य बताया गया है।
स्पष्टतः ये प्रकीर्णक दुष्कृत की गर्हा करने सम्बन्धी विधि विधान का सम्यक् निरूपण करते हैं।
,
देखें, जिनरत्नकोश पृ. ३२
२
आलोयणाकुलयं-पइण्णयसुत्ताई, भा. २, पृ. २४६ - २५०
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/283
आराधना
प्रस्तुत नाम की नौ रचनाएँ मिलती हैं। ये कृतियाँ हमें उपलब्ध नहीं हो पाई हैं किन्तु जिनरत्नकोश (पृ. ३१-३२) के आधार से जितनी जानकारी प्राप्त हो सकी हैं वह इस प्रकार है - आराधना - यह कृति नयनन्दि की है और अपभ्रंश शैली में लिखी गई है। आराधना - इसके रचना कर्ता नेमिसेन के प्रशिष्य एवं माधवसेन के शिष्य अमितगति है यह रचना संस्कृत में है। आराधना - यह रचना अभयदेवसूरि की है इसमें ८५ गाथाएँ हैं। इसका दूसरा नाम आराधनाकुलक है। आराधना - इसके कर्ता गणधरगच्छीय श्री महेश्वरसूरि जी के शिष्य श्री अजितदेवसूरि जी है। टीका - एक टीका गणधरनन्दि के प्रशिष्य, बालदेव के शिष्य अपराजित ने रची है। यह टीका श्री विजयोदया नाम से प्रसिद्ध है। एक टीका पं. आशाधरजी ने रची है। एक टीका पंजिका नाम से प्रसिद्ध हुई है, यह अज्ञातकर्तृक है। एक टीका मुनि दिलसुख के शिष्य शिवाजी ने लिखी है। एक टीका लगभग नन्दिगणी की है। एक टीका अमितगति की मिलती है जो ‘मरणकरण' के नाम से जानी जाती है। आराधना - यह पर्यन्ताराधना के नाम से बालभाई काकलभाई अहमदाबाद सं. १६६२ में प्रकाशित हो चुकी है। इसकी गणना प्रकीर्णक ग्रन्थों में होती है। इसके कर्ता सोमसूरि है। इसमें ७० गाथाएँ हैं। आराधना - यह रचना खरतरगच्छीय सकलचन्द्र के शिष्य समयसुन्दर की है और वि.सं. १६६७ में लिखी गई है। आराधना - इन कृतियों में अन्तिम आराधना आदि के विधान दिये गये हैं। यह ५५१ श्लोक परिमाण है। इसका काल वि.सं. १५६२ है। यह अज्ञातकर्तृक है। चउसरणपइण्णयं (चतुःशरण-प्रकीर्णक)
चतुःशरण नामक यह कृति' कुशलानुबंधीचतुःशरण एवं चतुःशरण इन दो
'चउसरण पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भा. १, पृ. ३०६-३११
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284/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
भागों में विभक्त हैं। दोनों में क्रमशः ६३ एवं २७ कुल ६० गाथाएँ है। इस कृति के रचयिता वीरभद्र है। इस कृति का रचना काल दशवीं शताब्दी माना गया है।
___ यह कृति मुख्यतः चतुःशरण (अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलि प्ररूपित धर्म रूप चार उत्तम स्थानों की शरण) स्वीकारने की विधि से सम्बद्ध है। इसके साथ ही दुष्कृत की गर्दा और सुकृत की अनुमोदना करने की सामान्य विधि भी प्रतिपादित है।
कुशलानुबंधीचतुःशरण में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है - इसमें सर्वप्रथम छः आवश्यकों के नामों का उल्लेख कर उनका विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है तथा यह बताया गया है कि सामायिक से चारित्र शद्धि, चतुर्विंशति, जिनस्तवन से दर्शन विशुद्धि, वन्दन से ज्ञान की निर्मलता, प्रतिक्रमण से रत्नत्रय की शुद्धि, कायोत्सर्ग से तप की विशुद्धि तथा प्रत्याख्यान से वीर्य की शुद्धि होती है। आगे की गाथाओं में विविध विशेषणों के साथ अरिहंतादि चार की शरण ग्रहण करने की सामान्य विधि कही गई है इसके साथ ही दृष्कृत की गर्दा कैसे की जाए और सुकृत की अनुमोदना कैसे की जाए, इसका विधिवत् निरूपण किया गया है। अन्त में कहा गया है कि जो जीव चुतःशरण को सम्यक् रीति पूर्वक स्वीकार नहीं करता है वह मानव जीवन हार जाता है।' चतुःशरण प्रकीर्णक में भी
आंशिक भिन्नता के साथ उपर्युक्त विषय की ही चर्चा की गई है। स्पष्टतः प्रस्तुत प्रकीर्णक आराधना एवं साधना की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। अरिहंतादि के प्रति समर्पण भाव, स्वकृत पापों के प्रति ग्लानि के भाव एवं पुण्य कार्यों के प्रति अनुमोदना के भाव जागृत करने के लिए यह कृति अवश्य पठनीय है। जिनशेखर श्रावक प्रति सुलस श्रावक आराधित आराधना
___ यह प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें ७४ गाथाएँ दी गई है। यह कृति समाधिमरण- अनशनव्रत ग्रहण करने से सम्बद्ध है। इसमें अन्तिम आराधना सम्बन्धी पांच विषयों पर चर्चा की गई है। अन्त में सर्व जीवों से क्षमायाचना, वेदना को समभाव पूर्वक सहन करने एवं अनशनव्रत में स्थिर रहने का उपदेश दिया गया है। पूर्वोक्त पाँच विषयों के नाम निम्न हैं - १. अनशन की प्रेरणा, २. अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु का स्वरूप एवं उनकी वन्दना, ३. नमस्कार का माहात्म्य और मंगलचतुष्क का निरूपण, ४. आलोचना
' प्रकीर्णक साहित्यः मनन और मीमांसा, प्र. आगम, अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर पृ. १३-१४ २ पइण्णयंसुत्ताई, भा.. २, पृ. २३२-२३६
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एवं व्रत ग्रहण का कथन। इन विषयों का संक्षेप वर्णन निम्न हैं - १. अनशन की प्रेरणा- इस विषय के अन्तर्गत मृत्यु के आसन्न होने पर अनशन ग्रहण करने की प्रेरणा दी गई है। २. अरिहंत-सिद्धादि का स्वरूप एवं वन्दना- इसमें अरिहंत की वन्दना के प्रसंग में अरिहन्त, अरूहंत, अरहंत नामों का अन्वयार्थ बताया गया है। अरिहंत का अन्वयार्थ चार प्रकार से किया गया है। सिद्ध के स्वरूप वर्णन प्रसंग में उन्हें सम्पूर्ण कर्मों को जलानेवाला, वर्ण गन्ध, रस-स्पर्शादि से रहित, जरा-मरण आदि से मुक्त कहा गया है। आचार्य का स्वरूप एवं उनकी वन्दना के प्रसंग में उन्हें पंचाचार का सम्यक् आचरण करने वाला कहा गया है। इन्हें जगत का तृतीय मंगल भी कहा है। उपाध्याय के स्वरूप और वन्दन क्रम में इन्हें ग्यारह अंग व बारह उपांग को पढ़ने-पढ़ाने वाला कहा गया है। साधु वन्दना के प्रसंग में साधु गुणों की चर्चा की गई है तथा पांच समिति, तीन गुप्ति, प्रतिलेखना, प्रमार्जना, लोच आदि में अप्रमत्त रहने वाला कहा गया है। ३. नमस्कार का माहात्म्य और मंगल चतुष्क का निरूपण - इसके अन्तर्गत प्रस्तुत प्रसंग का सामान्य वर्णन किया गया है। ४. आलोचना एवं व्रत ग्रहण- इसमें आलोचना और व्रतोच्चारण विधि का सामान्य कथन किया गया है। सर्वजीव क्षमापना के प्रसंग में क्रमशः पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय पर्यन्त, द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय पर्यन्त, जलचर, थलचर, नभचर आदि विविध पंचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्यों, चार प्रकार के देवों, नैरयिक जीवों तथा चारों गतियों में प्राप्त चौरासीलाखयोनि के जीवों के प्रति कृत वैर के लिए मिथ्यादुष्कृत और उनसे क्षमापना करने का निर्देश है। अन्त में वेदना सहन और अनशन ग्रहण का उपदेश है।
उपर्युक्त विवेचन से यह सुज्ञात होता है कि यह प्रकीर्णक अनशनव्रत ग्रहण विधि का सम्यक् निरूपण करता है। नन्दनमुनिआराधित आराधना विधि
यह प्रकीर्णक' संस्कृत पद्य में है। इसमें ४० श्लोक निबद्ध है। उनमें । नन्दनमुनिकृत दुष्कृतगर्दा, समस्तजीव क्षमापना, शुभभावना, चतुःशरण का ग्रहण, पंच परमेष्ठी नमस्कार और अनशनव्रत का ग्रहण इस तरह छः प्रकार की आराधना विधि चर्चित है।
' पइण्णयसुत्ताई, भा. २, पृ. २४०-२४३
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प्रस्तुत प्रकीर्णक का आरम्भ निष्कलंक श्रमण चारित्र का पालन कर आयु के अन्त में अनशनव्रत ग्रहण करने की विधि से हुआ है। तत्पश्चात् पूर्वोक्त छः प्रकारों का निरूपण इस प्रकार प्रस्तुत है - १. दुष्कृतगर्दा - इस अधिकार में अनशनव्रत ग्रहण करने वाले आराधक द्वारा ज्ञानाचार आदि के आठ प्रकार, महाव्रत के पाँच प्रकार, आहार के चार प्रकार, तप के बारह प्रकार, चारित्राचार के आठ प्रकार, वीर्याचार के तीन प्रकार इत्यादि में लगे हुए दोषों से विरत होने के लिए उनकी तीन करण - तीन योग पूर्वक निन्दा की गई है। २. समस्तजीव क्षमापना - इस अधिकार में दूसरों के प्रति कुवचन बोला हो, उपकारियों के प्रति अपकार किया हों, मित्र-स्वजन आदि एवं चारगति रूप जीवों के दुख में निमित्त बना हों, तो उन सभी से क्षमायाचना करने का कथन किया गया है। ३. शुभभावना - इस अधिकार के प्रसंग में जीवन, यौवन, लक्ष्मी, और प्रिय समागम को तरंग की तरह चंचल बताते हुए व्याधि, जन्म, जरा, मृत्यु से ग्रस्त प्राणियों के लिए जिन कथित धर्म ही एक मात्र शरण है- ऐसा प्ररूपित किया गया
४. चतुःशरणग्रहण - इसमें आराधक के सम्मुख शरीरादि बाह्य वस्तुओं की नश्वरता तथा अशुचित्व का निरूपण किया गया है साथ ही उत्तम शरण रूप जिनधर्म को माता, गुरु को पिता, साधुओं को सहोदर, और साधर्मिकों को बान्धव बताया गया है। ५. पंचपरमेष्ठी नमस्कार- इसमें आराधक द्वारा ऋषभादि तीर्थंकरों एवं भरत-ऐरवत क्षेत्र के तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। पुनः आचार्य, उपाध्याय आदि पंच परमेष्ठी को वन्दना की गई है। ६. अनशनव्रतग्रहण- इसमें अनशनव्रत ग्रहण करने की सामान्य विधि का प्रतिपादन हुआ है। अन्त में भवभीरुओं के लिए उपरोक्त षड्विध आराधना विधि का पालन करने रूप निर्देश दिया गया है। प्राचीनआचार्यकृत आराधनापताका
यह कृति' प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें कुल ६३२ गाथायें हैं। यह रचना प्राचीन आचार्य की है ऐसा उल्लेख मिलता है। इसमें समाधिमरण ग्रहण
' पइण्णयसुत्ताई, भा. २, पृ. १८४
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करने से सम्बन्धित बत्तीस द्वारों का निरूपण किया गया है।
ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण और ग्रन्थ रचना का प्रयोजन निर्दिष्ट किया गया है। उसके बाद बत्तीस द्वारों की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार प्रस्तुत है- पहले 'संलेखना' द्वार में संलेखना के कषाय और शरीर ये दो भेद कहे गये हैं पुनः इसके साथ उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य तीन भेद बताये गये हैं। इसके साथ ही संलेखना धारण करने वाले के स्वरूप का वर्णन और गुरू के चरणों में गमन का निरूपण किया गया है। दूसरे ‘परीक्षा' द्वार में संलेखना धारण करने की इच्छा वाले मुनि की गुरु के द्वारा कैसे परीक्षा ली जाये इसको बताया गया है। तीसरे 'निर्यामक' द्वार में निर्यामक का स्वरूप एवं निर्यामक साधुओं के कर्तव्य का निरूपण किया गया है। चौथे 'योग्यता' द्वार में भक्तप्रत्याख्यान ग्रहण करने वाले आराधक की योग्यता का सूचन किया गया है। पाँचवे 'गीतार्थ' द्वार में अगीतार्थ के समीप अनशन ग्रहण का निषेध तथा उसके समीप में अनशन करने से होने वाले दोषों का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही 'उत्तमार्थ' (अनशन) की साधना निमित्त गीतार्थ के सान्निध्य में करने से आराधक को होने वाले लाभ का विशद वर्णन किया गया है।
__ छट्टे 'असंविग्न' द्वार में असंविग्न साधु के निकट अनशनग्रहण का निषेध किया गया है और संविग्नमुनि के समीप उत्तमार्थकरण का निर्देश दिया गया है। सातवें 'निर्जरणा' द्वार में स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, वैयावृत्य एवं अनशन से होने वाली असंख्य भवों की कर्म-निर्जरा का निरूपण किया गया है। आठवें 'स्थान' द्वार में समाधिमरण ग्रहण करने वाले साधक के लिए धर्मध्यान में बाधक स्थानों का निर्देश दिया गया है। नवमें 'वसति' द्वार में संलेखना धारक योग्य वसति का निरूपण किया गया है। दसवें 'संस्तारक' द्वार में संलेखनाधारी के योग्य संस्तारक के विषय में उत्सर्ग एवं अपवाद का कथन किया गया है। ग्यारहवें 'द्रव्यदान' द्वार में आराधक के अन्तिमकाल में आहर-पान दान के विषय में निरूपण किया गया है। बारहवें 'समाधिपानविवेक' द्वार में आराधक की समाधि के लिए मधुरपान, विरेचन आदि द्रव्यनामों के निर्देशपूर्वक उन द्रव्यों के दान का वर्णन किया गया है। तेरहवें 'गणनिसर्ग' द्वार में संलेखनाधारी के गच्छाचार्य होने पर उसके द्वारा योग्य गणाधिप की स्थापना, स्थापित गणाधिप और गण के प्रति क्षपकाचार्य का हृदयंगम वक्तव्य, क्षपकाचार्य और गण का परस्पर क्षमापन इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। चौदहवें 'चैत्यवन्दन' द्वार में अनशन ग्रहण करने की इच्छा वाले मुनि द्वारा अनशन करने हेतु गुरु से अनुज्ञा का निवेदन करना, चैत्यवन्दन के निर्देश सहित गुरु द्वारा अनुज्ञा प्रदान करना और आराधक द्वारा
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चैत्यवन्दन करने का निर्देश है साथ ही श्रावक के सन्दर्भ में अनशन ग्रहण करने की विधि का विस्तार से निरूपण किया गया है। पन्द्रहवें 'आलोचना' द्वार में संलेखनाग्राही को संविग्न गीतार्थ गुरु के समक्ष ही आलोचना करनी चाहिए क्योंकि अगीतार्थ के समक्ष आलोचना करने से अनेक दोष होते हैं इसका प्रतिपादन किया गया है। इसके साथ ही ज्ञानातिचार, दर्शनातिचार, चारित्रातिचार, तपविचार, वीर्यातिचार आलोचना एवं श्रावकाश्रित आलोचना के विषयों का विस्तृत निरूपण किया गया है।
सोलहवें 'व्रतोच्चार' द्वार में गुरु के समीप में आराधक मुनि द्वारा पंचमहाव्रत का आरोपण एवं श्रावक द्वारा पंच अणुव्रत का ग्रहण करने का निर्देश है। सत्रहवें 'चतुःशरण' द्वार में आराधक द्वारा अरिहंतादि चार उत्तम आत्माओं की शरण ग्रहण करने का प्ररूपण है। अठारहवें 'दुष्कृतगर्हा' द्वार में आराधक द्वारा लोक परलोक में किये गये विविध हिंसात्मक कार्यों की निन्दा करने का विस्तृत वर्णन किया गया है। उन्नीसवें 'सुकृत अनुमोदना' द्वार में संलेखनाधारी आराधक द्वारा इहलोक परलोक में किये गये सद्कार्यों की अनुमोदना करने का विस्तृत प्रतिपादन है। सुकृत कार्यों में जिनभक्ति, चारित्रपालन, सामाचारी पालन, धर्मोपदेश, शास्त्र-अवगाहन शिष्य निष्पत्ति, आचार्य पदादि स्थापन, विविध तपानुष्ठान उन्मार्ग निवारण आदि मुनिकृत अनुमोदना के विषय है। इसके अतिरिक्त अन्य भी स्वकृत-कारित एवं अनुमोदित सुकृत कार्यों का उल्लेख किया गया है। बीसवें 'जीवक्षमणा' द्वार में संलेखनाधारी मुनि द्वारा चारों गतियों के जीवों के प्रति किये गये अपराधों के लिए क्षमायाचना करने का निरूपण है। इक्कीसवें 'स्वजनक्षमणा' द्वार में आत्मीयजनों जैसे माता-पिता, मित्र, भगिनी, पुत्री, भार्या, आदि बन्धु-बान्धव के सम्बन्ध में इस जीवन में और पूर्व जीवन में किये गये अपराधों की आराधक द्वारा की गई क्षमापना का विस्तार से वर्णन है।
बावीसवें 'संघक्षमणा' द्वार में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, रूप चतुर्विध संघ के प्रति किये गये अपराधों की क्षपक कृत क्षमापना का वर्णन है। इसमें . प्रसंगवश संघ का स्वरूप, संघ के बहुमान से मोक्ष पर्यन्त विविध सुखों की प्राप्ति का निरूपण भी किया गया है। तेवीसवें 'जिनवरादि क्षमणा' द्वार में आराधक द्वारा भरत, ऐरावत, महाविदेह क्षेत्र के तीनों कालों के गणधरों सहित एवं संघ सहित तीर्थंकरों के प्रति किये गये अपराधों की क्षमापना का प्रतिपादन है। चौबीसवें 'आशातना प्रतिक्रमण' द्वार में गुरुसम्बन्धी तैंतीस आशातना एवं उनके दोषों का प्रतिक्रमण, उन्नीस आशातना एवं उनके दोषों का प्रतिक्रमण तथा सूत्रविषयक चौदह आशातना एवं उनके दोषों का प्रतिक्रमण निरूपित है। पच्चीसवें
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'कायोत्सर्ग' द्वार में संलेखनाधारी की आराधना विघ्न रहित हों, एतदर्थ कायोत्सर्ग करने का निरूपण किया गया है। छब्बीसवें 'शक्रस्तव' द्वार में क्षपक ( मुनि) द्वारा शक्रस्तव का पाठ करने सम्बन्धी सूचन है । सत्ताइसवें 'पापस्थान- व्युत्सर्जन' द्वार में आराधक द्वारा अठारह पापस्थानों के त्याग करने का प्रतिपादन है। साथ ही अठारह पापस्थानों के त्याग के सम्बन्ध में १८ दृष्टान्तों का निरूपण किया गया है। अट्ठाइसवें 'अनशन' द्वार में आराधक मुनि द्वारा साकार - निराकार के त्यागपूर्वक अनशन ग्रहण करने की विधि का विस्तार से निरूपण है । उनतीसवें 'अनुशिष्टि' द्वार में अनुशिष्टि ( उपदेश या शिक्षारूपवचन) के सम्बन्ध में सत्रह प्रतिद्वारों का वर्णन है। इन सत्रह प्रतिद्वारों का विषय संलेखनाधारी मुनि के लिए परम उपयोगी होने से यहाँ उल्लिखित कर रहे हैं
प्रथम 'मिथ्यात्व परित्याग अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में मिथ्यात्व का दोष बताते हुए मिथ्यात्व को त्यागने का निर्देश है। द्वितीय 'सम्यक्त्व सेवनानुशिष्टि' द्वार में सम्यक्त्व के प्रभाव का निरूपण है। तीसरे 'स्वाध्याय - अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में पंचविध स्वाध्याय का स्वरूप, स्वाध्याय का माहात्म्य, उत्कृष्टादि स्वाध्याय का निरूपण, स्वाध्याय का फल कहा गया है। चौथे 'पंचमहाव्रतरक्षा अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में पंचमहाव्रत की रक्षा सम्बन्धी उपदेशों का प्रतिपादन है। पांचवे 'मदनिग्रह-अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में जाति, कुल, बल, रूप, तप, ऐश्वर्य, श्रुत, और लाभ ऐसे आठ मद के त्याग का निर्देश एवं आठ मदों के सम्बन्ध में आठ दृष्टान्त दिये गये हैं। छट्टे, 'इन्द्रियविजय' प्रतिद्वार में इन्द्रिय पर विजय प्राप्त न करने वाले के दोष और इन्द्रिय निग्रह के गुणों का वर्णन है । इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने सम्बन्धी पाँच दृष्टान्त भी दिये गये हैं। सातवें 'कषायविजय' प्रतिद्वार में कषाय के भेद-प्रभेद, कषाय त्याग, क्रोधादि दोषों का निरूपण एवं क्षमा की प्रधानता कही गई है। आठवें 'परिषहसहन अनुशिष्टि' प्रतिद्वार में बाईस परिषहों के नाम, और उनके विजय की प्रेरणा का निर्देश है। नौवें 'उपसर्गसहन' प्रतिद्वार में षोडश उपसर्ग का निरूपण एवं उपसर्ग के सहन का उपदेश है। दसवें 'प्रमाद' प्रतिद्वार में प्रमाद त्याग का कथन, प्रमाद के भेद, प्रमाद के कारण, महाज्ञानी का भी भवभ्रमण इत्यादि विषयों का वर्णन है।
ग्यारहवें ‘तपश्चर्या' प्रतिद्वार में तप का माहात्म्य बताते हुए तपश्चर्या का उपदेश दिया गया है। बारहवें रागादि प्रतिषेध में राग-द्वेष के त्याग का निरूपण है तेरहवें 'निदान त्याग' प्रतिद्वार में ६ प्रकार के निदान, निदान करने से होने वाले दोष, निदानों से सम्बन्धित दृष्टान्त आदि का कथन है। चौदहवें 'कुभावना त्याग' में पच्चीस प्रकार की कुभावनाएँ, कुभावना से हानि, कुभावना के त्याग से लाभ
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का वर्णन है। पन्द्रहवें 'संलेखनाचारपरिहरण' प्रतिद्वार में संलेखना सम्बन्धी पाँच अतिचार, तथा उनके त्याग का उपदेश दिया गया है। सोलहवें 'शुभभावना' प्रतिद्वार में बारह शुभ भावनाओं के नाम स्वरूपादि का वर्णन है। सत्रहवें 'पंचविंशमहाव्रतभावना' प्रतिद्वार में पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाओं के नाम स्वरूप आदि का विवरण है। इस प्रकार उक्त १७ द्वारों का वर्णित विषय संलेखनाधारी मुनि के लिए दृढ़ आलम्बन रूप है। तीसवें 'कवच' द्वार में संलेखनाधारी मुनि के लिए क्रमशः पानक का भी प्रत्याख्यान करवाये जाने का निर्देश है इसके साथ ही वेदनाभिभूत क्षपक की चिकित्सा क्षपक के प्रति चतुर्गति दुःख के सम्बन्ध में गुरु का विस्तार से उपदेश वर्णन है। इकतीसवें 'आराधनाफल' द्वार में आराधना का फल सविस्तार बताया गया है।
अन्ततः उपसंहार रूप में आराधना का माहात्म्य बताया गया है। उपर्युक्त विवेचन से यह सुनिश्चित हैं कि प्रस्तुत कृति संलेखनाग्रहण (समाधिमरण ग्रहण) करने वाले आराधकों की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं तथा इसमें संलेखना विधि सम्बन्धी सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों का निरूपण हुआ है। भत्तपइण्णयं (भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक)
यह प्राकृत में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है। इसमें कुल १७२ गाथाएँ हैं। इसका प्रतिपाद्य विषय भक्तपरिज्ञा नामक अनशनव्रत को विधिपूर्वक ग्रहण करना एवं उसके स्वरूप को विवेचित करना है।
___ अनशनव्रत या संलेखना के तीन प्रकारों में भक्तपरिज्ञा अनशनव्रत प्रथम है। इस कृति के प्रारम्भ में भगवान महावीर को वन्दन करके कृति का अभिधेय बताया गया है। भक्तपरिज्ञा के सविचार और अविचार दो भेद कहे हैं। जो पूर्व विचार पूर्वक संलेखना ली जाती है वह सविचार मरण और मृत्यु की अनायास उपस्थिति को देखकर संलेखना की जाती है, वह अविचारमरण कही जाती है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में यह बताया गया है कि परमसुख की पिपासा वाला, विषय सुख से विमुख बना हुआ, मोक्षेच्छा से व्याधिग्रस्त मुनि अथवा गृहस्थ मृत्यु के निकट आने पर भक्तपरिज्ञा अनशन की ओर उन्मुख होता है। तत्पश्चात् साधक द्वारा भक्तपरिज्ञा अनशन (मरण) ग्रहण करने की अभिलाषा को गुरु के सम्मुख व्यक्त करने और गुरु द्वारा आलोचना और क्षमापना पूर्वक भक्तपरिज्ञा अनशन ग्रहण करने की स्वीकृति का उल्लेख किया गया है। उसके बाद वह आराधक गुरु के आदेश को शिरोधार्य कर, गुरु को विधिपूर्वक वन्दन करता है,
' भन्तपइण्णयं - पइण्णयसुत्ताई, भा. १, पृ. ३१२-३२८
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आत्मशुद्धि के लिए सम्यक् आलोचना करता है, गणि (आचार्य) आलोचना सुनने के बाद उसे प्रायश्चित्त देते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि चाहे वह आराधक महाव्रतों का अखण्ड पालन करने वाला मुनि रहा हो, फिर भी उसे इन महाव्रतों का यावज्जीवन पालन करते रहने की पुनः प्रतिज्ञा करनी होती है। यदि आराधक देशविरत हो तो वह भी यावज्जीवन इन व्रतों के पालन की प्रतिज्ञा करता है। तदनन्तर निदान रहित हो वह अपने द्रव्य को धर्मकार्यों के निमित्त व्यय करता है ।
सर्वविरति आराधक संस्तारक प्रव्रज्या प्राप्त कर निखद्य सामायिकचारित्र ग्रहण करता है फिर वह गुरु के चरणों में यह निवेदन करता है कि 'हे भगवन्! आपकी अनुमति से मैं भक्तपरिज्ञा ग्रहण करता हूँ'। इसके पश्चात् वह सर्वदोषों की आलोचना करता है, भव के अन्त तक त्रिविध आहार का प्रत्याख्यान करता है। यही भक्तपरिज्ञा नामक अनशनव्रत ग्रहण करने की संक्षिप्त विधि है । तदनन्तर आराधक की भोज्य द्रव्यों में आसक्ति हैं या नहीं इसकी परीक्षा का उल्लेख है।
आगे की गाथाओं में भक्तपरिज्ञा अनशनव्रत के विषय में यह भी कहा गया हैं कि भक्तपरिज्ञा अनशन को ग्रहण करने के समय संघ की अनुमति से क्षपक को चतुर्विध या त्रिविध आहार का प्रत्याख्यान करवाया जाता है। फिर कालक्रम में वह पानक आहार का भी त्याग कर देता है। इसके पश्चात् वह विधिपूर्वक सर्वसंघ, आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुल और गण से क्षमापना करता है। इसके पश्चात् गणि द्वारा आराधक को विस्तृत उपदेश देने का विवरण है। तत्पश्चात् नमस्कार का माहात्म्य बताते हुए कहा है कि मरण काल में यदि एक भी तीर्थंकर को भावपूर्वक नमस्कार किया गया हो तो वह संसार चक्र के उच्छेदन में समर्थ बन जाता है। इसी अनुक्रम में उदाहरणों एवं रूपकों से नमस्कारमंत्र के स्मरण का फल बताया गया है इसके पश्चात् इसमें विविध दृष्टान्तों एवं उपमाओं के द्वारा आराधक को तीन करण, तीन योग, षट्निकाय जीवों की हिंसा का त्याग करने, सर्वप्रकार के असत्य वचनों का त्याग करने, अल्प हो या अधिक परद्रव्य हरण का त्याग करने, ब्रह्मचर्य की रक्षा करने तथा आसक्ति एवं परिग्रह त्याग करने का उपदेश दिया गया है। इसके पश्चात् इस ग्रन्थ में इन्द्रिय-विषयों से विमुख रहने का उपदेश एवं इन्द्रियासक्त व्यक्तियों की दुर्दशा के दृष्टान्तों को भी निरूपित किया गया है। इन उपदेशों से आह्लादित चित्त वाला होकर वह आराधक विनयपूर्वक निवेदन करता है कि मैं आपके कहे अनुसार आचरण करूँगा।
तत्पश्चात् अवन्तिसुकुमाल, सुकोशलमुनि, चाणक्य आदि उदाहरणों के
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आधार पर वेदना परीषह को सहन करने का उपदेश दिया गया है। अन्त में यह निरूपित किया हैं कि आराधक द्वारा स्वयं को धन्य मानना चाहिए कि इस समाधि मरण के एक प्रयत्न से जीव दूसरे जन्म में भी दुख और दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है। यह समाधि मरण अपूर्व चिन्तामणिरत्न एवं कल्पवृक्ष है। इसकी जघन्य आराधना से साधु सौधर्म देवलोक में महाऋद्धिशाली देव होता है। समाधिमरण की उत्कृष्ट आराधना से साधक (गृहस्थ) बारहवें देवलोक में उत्पन्न होता है और साधु निर्वाण को अथवा सर्वार्थसिद्धि विमान को प्राप्त करता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह सुस्पष्ट है कि इस प्रकीर्णक में अथ से अन्त तक भक्तपरिज्ञा-अनशन-विधि का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है साथ ही आराधक को विस्तार के साथ उपदेश भी दिया गया है। मरणविभत्ति (मरणविभक्ति या मरणसमाधि)
___ मरणविभक्ति नामक प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध है।' इसमें ६६१ गाथाएँ है। यह कृति अपने नाम के अनुसार समाधिमरण स्वीकार करने की विधि, उसका स्वरूप एवं समाधिमरण का माहात्म्य प्रतिपादित करने वाली है। समाधिमरण सम्बन्धी ग्रन्थों में यह अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं।
प्रस्तुत प्रकीर्णक का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता हैं कि अन्य लघु प्रकीर्णकों में प्रतिपादित विषयवस्तु का इसमें विस्तार से वर्णन है। इतना ही नहीं महाप्रत्याख्यान की लगभग ६० गाथायें इसमें उपलब्ध हैं। अन्य लघु प्रकीर्णकों में निर्देशित तथ्यों का इसमें विस्तार कर दिया गया है। उदाहरणार्थ आचार्य के छत्तीस गुणों, आलोचना के दोषों आदि का इसमें नाम सहित वर्णन हैं जबकि अन्य प्रकीर्णकों में संख्या मात्र बता दी गई है। ग्रन्थकार के अनुसार १. मरणसमाधि, २. मरणविशोधि, ३. मरणविभक्ति, ४. संलेखनाश्रुत, ५. भक्तपरिज्ञा, ६. आतुरप्रत्याख्यान, ७. महाप्रत्याख्यान और ८. आराधना इन आठ प्राचीन श्रुतग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत प्रकीर्णक की रचना हुई है। अतः उन प्रकीर्णकों की अनेक गाथाएँ प्रस्तुत कृति में उपलब्ध हो जाती है।
प्रस्तुत कृति का आरम्भ मंगलाचरण से हुआ है। उसके पश्चात् शिष्य द्वारा यह जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर कि समाधिमरण किस प्रकार होता है? तब आचार्य कहते हैं कि जो साधु सम्पूर्ण चारित्र और शील से युक्त हैं वे समाधिमरण प्राप्त करते हैं। तदनन्तर समाधिमरण व्रत ग्रहण करने की विधि बतायी गई है। प्रस्तुत विधि सम्पन्न करने के लिए कहा गया है कि आराधक को
' मरणविभत्ति पइण्णयं-पइण्णयसुत्ताई, भा. १, पृ. ६६-१५६
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दर्शन, ज्ञान, चारित्र और प्रव्रज्या के अतिचारों की आलोचना करनी चाहिए, क्योंकि आलोचना करने वाला साधु ही कर्म क्षय करता है ।
तत्पश्चात् आलोचना, आत्म शल्यत्याग आदि का विस्तार से निरूपण किया गया है। समाधिमरण के कारणभूत चौदह द्वार बताये गये हैं वे समाधिमरण ग्रहण करने की विधि को सूचित करते हैं उन द्वारों का नामोल्लेख पूर्वक सामान्य वर्णन इस प्रकार प्रस्तुत हैं- १. आलोचना, २. संलेखना, ३. क्षमापना ४. काल, ५. उत्सर्ग, ६. उद्ग्रास, ७. संथारा, ८. निसर्ग, ६. वैराग्य, १०. मोक्ष, 99. ध्यानविशेष, १२. लेश्या १३. सम्यक्त्व, और १४. पादोपगमन ।
प्रथम द्वार में निःशल्य होकर आलोचना करने का निर्देश है। साथ ही आलोचना के दस दोष बताये गये हैं । द्वितीय द्वार में संलेखना के आभ्यन्तर और बाह्य भेदों का निरूपण है। साथ ही आतुरप्रत्याख्यान एवं पंचमहाव्रतों की रक्षा आदि के उपायों का विस्तार से निर्देश है। तृतीय द्वार में आचार्य, उपाध्याय, साधर्मिक, कुल, गण सभी से क्षमायाचना करने और उनको क्षमा करने का तथा आत्मशल्योद्धार आदि का निरूपण है। चतुर्थ द्वार में समाधिमरण का उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य काल बताया गया है। पंचम द्वार में वेदना सहन करने का उपदेश दिया गया है। इसी क्रम में गर्भावास आदि दुःखों तथा विविध जातिगत जन्मों के दुःखों का निरूपण किया गया है तथा इसके माध्यम से निर्वेद जनक उपदेश दिया गया है। आगे के द्वारों में शरीर से ममत्व का त्याग तथा सोलह प्रकार के रोगांतकों को सहन करने में सनत्कुमार चक्रवर्ती का दृष्टान्त दिया है । तृष्णा - परिषह के लिए प्राण त्याग करने वाले मुनिचन्द्र, शीत - परिषह में राजगृह के बाहर सिद्धि को प्राप्त चार साधुओं का दृष्टान्त, उष्ण परिषह के लिए सुमनभद्र ऋषि, क्षमा में आर्यरक्षित आदि के दृष्टान्त वर्णित हैं।
अन्तिम चतुर्दश पादपोपगमन द्वार में पादपोपगमन अनशन का स्वरूप बताते हुए कहा है कि त्रस जीवों से रहित, एकान्त, आवागमनरहित, निर्दोष एवं विशुद्ध स्थंडिल भूमि पर अभ्युद्यत मरण करना चाहिए। पूर्वभव के वैर से कोई देव उपसर्ग करें, संहार करें या कैसा भी उपद्रव करें परन्तु पादपोपगमन अनशन स्वीकार करने वाला साधक निश्चल रहें ।
इसके अतिरिक्त इस प्रकीर्णक में द्वादश भावनाओं का निरूपण प्राप्त होता है । संवेग को दृढ़ करने वाली इन भावनाओं को श्रमण और श्रावक दोनों द्वारा भावित करने का उपदेश है। अन्त में पण्डितमरण ग्रहण करने का उपदेश देते हुए कहा गया है कि मूढ़ लोग अनेक दोषों से युक्त मनुष्य जन्म के अल्प सुख को देखकर उपदेश को हृदय में धारण नहीं करते हैं। सारे सांसारिक दुःखों को मनुष्य वैसा ही सुख मानता है जैसे
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294 / समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
नीम के वृक्ष पर उत्पन्न कीड़ा मधुरता से अनभिज्ञ नीम की कटुता को ही मधुर मानता है । इसलिए लोकसंज्ञा का त्यागकर पण्डितमरण मरना चाहिए । महापच्चक्खाणपइण्णयं ( महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक)
महाप्रत्याख्यान नामक यह प्रकीर्णक' प्राकृत भाषा की एक पद्यात्मक रचना है। यह ग्रन्थ मूलतः समाधिमरण स्वीकार करने की विधि से सम्बन्धित है। महाप्रत्याख्यान का शाब्दिक अर्थ सबसे बड़ा प्रत्याख्यान होता है। प्रत्याख्यान का तात्पर्य त्याग से है। इसके अनुसार सबसे बड़ा त्याग महाप्रत्याख्यान कहलाता है। व्यक्ति के जीवन में सबसे बड़ा त्याग यदि कोई है तो वह है- देह त्याग । प्रत्याख्यान पूर्वक देह त्याग करना ही समाधिमरण है। समाधिमरण ग्रहण करने की विधि का विशेष उल्लेख होने से ही प्रस्तुत कृति को महाप्रत्याख्यान नाम दिया गया है।
पाक्षिकवृत्ति' में महाप्रत्याख्यान का परिचय देते हुए कहा गया है कि जो स्थविरकल्पी जीवन की सन्ध्या वेला में विहार करने में असमर्थ होते हैं, उनके द्वारा जो अनशनव्रत ( समाधिमरण ) स्वीकार किया जाता है, उसका जिसमें विस्तार से वर्णन किया गया हो, उसे महाप्रत्याख्यान कहते हैं ।
प्रस्तुत कृति के रचनाकार के सम्बन्ध में कहीं पर भी कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता है। नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र आदि में जो संकेत मिलते हैं उसके आधार पर मात्र यही कहा जा सकता है कि यह पाँच वीं शताब्दी या उसके पूर्व के किसी स्थविर आचार्य की कृति है तथा इसका रचनाकाल भी ईस्वी सन् पाँच वीं शताब्दी के पूर्व का है।
इस प्रकीर्णक में कुल १४२ गाथाएँ हैं जिनमें समाधिमरण ग्रहण करने की विधि से सम्बन्धित निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए सर्वप्रथम तीर्थंकरों, जिनों, सिद्धों और संयमियों को प्रणाम किया गया है। उसके बाद समाधिमरण ग्रहण करने वाला क्रमशः किन-किन का त्याग करें एवं उसे किस विषय का उपदेश दिया जाये, इत्यादि पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि समाधिमरण ग्रहण करने वाला साधक प्रथम बाह्य एवं आभ्यन्तर समस्त प्रकार की उपधि का मन, वचन एवं काया तीनों प्रकार से त्याग करें। फिर सभी जीवों से क्षमायाचना करें। तत्पश्चात् कृत पापों की निन्दा, गर्हा और आलोचना करें। शरीर संबंधी चारों प्रकार के आहार, उपकरण तथा सर्व
9
यह प्रकाशन हिन्दी अनुवाद के साथ सन् १६६१, ' आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर' से हुआ है।
२
पाक्षिकसूत्र, पृ. ७८, उद्धृत महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक भूमिका पृ. ६
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/295
द्रव्यों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग करें तथा आत्म-धर्म एवं आत्म स्वरूप का चिन्तन कर स्वयं में स्थिर बने।
उसके बाद मूलगुण एवं उत्तरगुण में लगे हुए अतिचारों की आत्म-निन्दा पूर्वक आलोचना करें। तदनन्तर समाधिग्रहण का इच्छुक साधक एकत्व भावना का चिन्तन करें, संयोग सम्बन्धों का परित्याग करें, असंयम आदि की निन्दा और मिथ्यात्व का त्याग करें, अज्ञात अपराध की आलोचना करें। तत्पश्चात् साधक की आलोचना पूर्णतः विशुद्ध बनें, एतदर्थ गुरु उसको माया त्याग का उपदेश दें, आलोचक का स्वरूप बतायें, आलोचना का फल बतायें, आलोचना शल्यरहित करने का माहात्म्य कहें। प्रायश्चित्त ग्रहण की अनिवार्यता प्रगट करें। हिंसा आदि न करने का उसे प्रत्याख्यान करवायें। अशनादि चार प्रकार के आहार का परित्याग करवायें। गृहीत आचार नियम खण्डित न हों, तथा इसका निर्दोष पालन हों वैसा उपदेश दें, प्रत्याख्यान का स्वरूप समझायें। वैराग्य का उपदेश दें। पंडितमरण की प्ररूपणा करें। निर्वेदभाव का व्याख्यान करें। तत्पश्चात् गुरु भगवन्त अनशनव्रतग्राही साधु के लिए पंच महाव्रत की रक्षा स्वरूप उनकी प्ररूपणा करें। गुप्तिसमिति में स्थिर करें। तप का माहात्म्य समझायें। आत्मार्थ साधन की प्ररूपणा करें।
अग्रिम गाथाओं में अकृत-योग और कृत-योग के गुण-दोष की प्ररूपणा करते हुए कहा है कि कोई श्रुत सम्पन्न भले ही हों, किन्तु यदि वह बहिर्मुखी इन्द्रियों वाला, छिन्न चारित्र वाला तथा असंस्कारित हों तो वह मृत्यु के समय अवश्य अधीर हो जाता है। ऐसा व्यक्ति मृत्यु के अवसर पर परीषह सहन करने में असमर्थ होता है, किन्तु जो व्यक्ति विषयसुखों में आसक्त नहीं रहता, भावीफल की आकांक्षा नहीं रखता, तथा जिसके कषाय नष्ट हो गए हों, वह मृत्यु को सामने देखकर भी विचलित नहीं होता है। वस्तुतः यही समाधिमरण की अवस्था है। आगे समाधिमरण का हेतु क्या है? इस विषय में कहा गया है कि न तो तृणों की शय्या ही समाधिमरण का कारण है और न प्रासुक भूमि ही। अपितु जिसका मन विशुद्ध हो, वही समाधिमरण का प्रमुख कारण है। आगे अनशनव्रतधारी साधक के जीवन में क्षणभर के लिए भी प्रमाद का दोष न आ जायें, इसका प्ररूपण किया गया है। इसके साथ ही संवर का माहत्म्य तथा ज्ञान का प्राधान्य कहा गया है। आगे जिनधर्म के प्रति श्रद्धा रखने का कथन किया गया है आगे की गाथाओं में विविध प्रकार के त्याग का उल्लेख करते हुए साधक को इंगित करके कहा गया हैं कि जो मन से चिन्तन करने योग्य नहीं है, वचन से कहने योग्य नहीं है, तथा शरीर जो करने योग्य नहीं है उन सभी निषिद्ध कर्मों का त्रिविध रूप से त्याग करें।
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296/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
इसी अनुक्रम में पुनः उपदेश है कि अरिहंत आदि पाँच पदों का शरण स्वीकार कर एवं उनका स्मरण करते हुए साधक अपने पापकों का त्याग करें। आगे वेदना विषयक चर्चा करते हुए कहा है कि यदि मुनि आलम्बन लेता है तो उसे दुःख प्राप्त होता है। अतः यहाँ समस्त प्राणियों के प्रति समभाव पूर्वक रहते हुए वेदना सहन करने का उपदेश दिया गया है। तत्पश्चात् समाधिमरण का माहात्म्य बतलाते हुए कहा हैं कि यह मरण महापुरुषों के द्वारा आचरित और जिनकल्पियों द्वारा सेवित है। तुम्हारे द्वारा भी इस व्रत का अखण्ड पालन किया जाना चाहिए। अन्त में चरम तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट कल्याणकारी समाधिमरण को अंगीकार करने की साधक द्वारा प्रतिज्ञा की गयी है। इसके साथ ही इसमें साधक के लिए कहा गया हैं कि वह चार कषाय, तीन गारव, पाँच इन्द्रियों के विषय तथा परीषहों का विनाश करके आराधना रूपी पताका को फहराए।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह प्रकीर्णक समाधिमरण विधि का सारभूत प्रतिपादन करता है। मिथ्यादुष्कृतकुलक (प्रथम)
इस नाम के दो कुलक प्राप्त होते हैं। प्रथम कुलक' समस्त जीवों से क्षमायाचना करने की विधि से सम्बन्धित है। इस कुलक का प्रारम्भ मंगलाचरण से न होकर विषय से ही हुआ है। इसमें कुल १५ गाथाएँ हैं। इस कुलक की आरम्भिक दो गाथाओं में आराधक द्वारा क्रमशः सामान्य रूप से नरकादि चारों गतियों के सभी प्राणियों से क्षमापना की गई है।
इसके पश्चात् चारों गतियों के समस्त जीवों से अलग-अलग क्षमापना की गई है। तदनन्तर पंच परमेष्ठी के प्रति जो कुछ पाप हुआ हो, उसकी निन्दा के लिए क्षमापना की गई है। तत्पश्चात् दर्शन-ज्ञान और चारित्र में, जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्रकाशित सम्यक्त्व धर्म में, चतुर्विध संघ संबंधी कार्यों में एवं महाव्रतों और अणुव्रतों के पालन करने में जो कुछ स्खलना हुई हों, उससे निवृत्त होने के लिए मिच्छामि दुक्कडं दिया गया है।
इसके पश्चात् पृथ्वीकायिक जीवों से लेकर त्रसपर्यन्त जीवों से क्षमायाचना की गई है। अन्त में सभी आत्मीयजनों के प्रति क्षमापना की गई है और क्षमापना से होने वाले लाभ की चर्चा की गई है।
' मिच्छादुक्कड कुलयं- पइण्णयसुत्ताई, भा. २, पृ. २४५-२४६
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 297
मिथ्यादुष्कृतकुलक (द्वितीय)
इस कुलक' में १७ गाथाएँ हैं। यह प्राकृत भाषा में रचित है। इसमें मंगलाचरण का अभाव है। इस कृति के रचनाकार एवं रचनाकाल की जानकारी उपलब्ध नहीं है। परन्तु प्रस्तुत कृति का अवलोकन करने से इतना स्पष्ट हो जाता हैं कि यह कुलक मुख्यतः चौरासीलाख जीवयोनि के साथ भव-भव में किये गये राग-द्वेष मोहादि रूप पाप कार्यों से विरत होने के लिए उनक 'मिच्छामि दुक्कडं ' देने की विधि से सम्बद्ध है।
प्रस्तुत कुलक के प्रारम्भ में यह बताया गया हैं कि आराधक सर्वप्रथम संसार चक्र की विविध योनियों में भ्रमण करते हुए जिन-जिन प्राणियों को उसने दुख दिये हों उनके प्रति मिध्यादुष्कृत दें। उसके बाद विभिन्न भवों में जो माता-पिता, पत्नी, मित्र, पुत्र और पुत्रियाँ रही हैं, जिनका अनशन ग्रहण के समय त्याग किया जा रहा है उनके प्रति मिथ्यादुष्कृत दें। तदनन्तर राग-द्वेष वश जिन एकेन्द्रिय जीवों का वध किया हो, मृषा भाषण किया हो, लोभ दोष से परिग्रह का सेवन किया हो, राग के कारण अशनादि भोजन किया हो उसके लिए 'मिच्छामि दुक्कड़ दें।
तत्पश्चात् इहलोक और परलोक में मिथ्यात्व मोह से मूढ़ होकर साधुओं की सेवा न की हो, साधर्मिक वात्सल्य न किया हो, चतुर्विध संघ की भक्ति न की हो उसके लिए मिथ्यादुष्कृत दें। अन्त में चारों गतियों के जीवों के प्रति जो कुछ पाप किया हो उसका 'मिच्छामि दुक्कडं' दे। इस प्रकार सभी पाप कर्मों से निवृत्त होने के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' देने को कहा गया है।
संथारगपइण्णयं (संस्तारक - प्रकीर्णक)
संस्तारक प्रकीर्णक' प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है। इसमें कुल १२२ गाथाएँ हैं। ये सभी गाथाएँ सामान्यतः समाधिमरण ग्रहण करने की सांकेतिक विधि और उसकी पूर्व प्रक्रिया का निर्देश करती हैं। इसका प्रतिपाद्य विषय समाधिमरण है। जैन परम्परा में समाधिमरण के जो पर्यायवाची नाम पाये जाते हैं उनमें 'संलेखना' और 'संथारा' ये दो नाम अति प्राचीन हैं।
संथारा अर्थात् संस्तर ( सम् + तृ + अप्) शब्द का सामान्य अर्थ तो 'शय्या' होता है किन्तु 'संथारा' शब्द का संस्कृत रूपान्तरण 'संस्तारक' भी है। संस्तारक शब्द का अर्थ है- सम्यक् रूप से पार उतारने वाला अर्थात् जो व्यक्ति को संसार
वही भा. २, पृ. २४७-२४८
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संथारग पइण्णयं - पइण्णयसुत्तइं, भा. १, पृ. २८०-२६१
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298/समाधिमरण सम्बन्धी साहित्य
समुद्र से अथवा जन्म-मरण के चक्र से पार उतारता है वह संस्तारक (संथारा) है। इस प्रकार ‘संस्तारक' शब्द वस्तुतः समाधिमरण से ही सम्बन्धित है।
संस्तारक प्रकीर्णक के रचयिता का उल्लेख स्पष्टतः कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। अनुमानतः इसका रचना काल ईसा की सातवीं शताब्दी के पश्चात् तेरहवीं तथा तेहरवीं शताब्दी के पूर्व माना गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में जो विवरण उपलब्ध होता है वह संक्षेप में इस प्रकार है- सर्वप्रथम मंगलाचरण के रूप में तीर्थंकर ऋषभदेव एवं महावीर को नमस्कार किया गया है। साथ ही प्रस्तुत ग्रन्थ में वर्णित समाधिमरण की आचार-व्यवस्था को ध्यान पूर्वक सुनने का कथन किया गया है। आगे समाधिमरण की साधना को सुविहितों के जीवन का साध्य माना गया है। इसके साथ ही विभिन्न उदाहरणों एवं विविध उपमाओं से समाधिमरण की श्रेष्ठता एवं उसके गुण बताये गये हैं। उसके बाद समाधिमरण को साधकों के लिए कल्याणकारी एवं आत्मोन्नति का परम साधन माना गया है। इतना ही नहीं, समाधिमरण को तीर्थकर देव प्रणीत एवं सभी मरणों में श्रेष्ठमरण कहा गया है।
तत्पश्चात समाधिमरण धारण करने वाले साधकों का स्वरूप बताया गया है। आगे की गाथाओं में समाधिमरण का स्वरूप, उसे कब लिया जा सकता है तथा उसकी सम्यक् रूपेण साधना की विधि क्या है? इसका प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर संस्तारक के लाभ की चर्चा की गयी है और कहा गया हैं कि वर्षा ऋतु में विविध प्रकार के तपों की सम्यक् प्रकार से साधना करके हेमन्त ऋतु में संस्तारक पर आरुढ़ होना चाहिए। आगे की गाथाओं में समाधिमरण ग्रहण करने वाले साधकों की क्षमाभावना का निरूपण करते हुए कहा गया हैं कि वह सर्व प्रकार के आहार का जीवनपर्यन्त के लिए त्याग करता है तीन करण, तीन योग से वह अपने अपराधों के लिए समस्त संघ से क्षमायाचना करता है।
तत्पश्चात् समाधिमरण ग्रहण करने वाला व्यक्ति किस प्रकार साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका एवं समस्त प्राणिवर्ग से क्षमायाचना करता है इसका पुनः निरूपण किया गया है। साथ ही यह भी प्रतिपादित किया है कि समाधिमरण ग्रहण करने वाला व्यक्ति आत्मशुद्धि हेतु स्वयं भी सभी प्राणियों को क्षमा प्रदान करता है।
अंत में समाधिमरण ग्रहण करने का माहात्म्य प्रगट करते हुए लिखा है कि संस्तारक पर आरुढ़ हुआ साधक एक लाख करोड़ अशुभ भव के द्वारा जो असंख्यात कर्म बाँधे हों, उन्हें एक क्षण में ही दूर कर देता है। इतना ही नहीं, जो धीर व्यक्ति समाधिमरण पूर्वक देह त्यागता है वह उसी भव में या अधिक से अधिक तीन भव में मुक्त हो जाता है। अन्त की गाथा प्रशस्ति रूप है उसमें
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/299
ग्रन्थकार ने ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया है कि श्रेष्ठ श्रमण मुझको सुख-संक्रमण अर्थात् समाधिमरण प्रदान करें।
निष्कर्षतः यह प्रकीर्णक समाधिमरण ग्रहण करने वाले साधकों की परिणति को उत्तरोत्तर आगे बढ़ाने में दृढ़ आलम्बन रूप है तथा समाधिमरण ग्रहण करने की विधि के साथ-साथ समाधि के पूर्व, समाधि के समय एवं समाधि के पश्चात् जानने योग्य, समझने योग्य एवं आचरण करने योग्य बिन्दुओं का सम्यक् संकलन रूप है।
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अध्याय-8
प्रायश्चित सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
WED)
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302/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
अध्याय ८ प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य-सूची क्र. कृति
कृतिकार कृतिकाल १ आलोचनादानटिप्पन भुवनरत्नगणि । लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती २ |आलोचनातपोदानटिप्पन अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती ३ आलोचनाप्रायश्चित्तविधि क्षेमकल्याणगणि वि.सं. १८०१ ४ आलोचना रत्नाकर विजयगणि लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती ५ आलोचना विचार (सं.) अज्ञातकृत लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती ६ आलोचनाविधि क्षमाकल्याणगणि लग. वि.सं. १५-१७
वीं शती
७ आलोचनाविधि
.
८ आलोचनाविधान
६ आलोचनाविधान
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती पृथ्वीचन्द्रसूरि लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१७
वीं शती पद्मनन्दि
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती गणधरगौतमस्वामी (?)
१० आलोचना (सं.)
११ आलोचना
१२ आलोचना
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१३ छेदशास्त्र (प्रा.)
१४ छेदपिण्ड (प्रा.)
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 303
अज्ञातकृत
१५ जीतकल्पसूत्र
१६ जीतकल्पभाष्य (प्रा.)
१७ जीतकल्पबृहच्चूर्णि (प्रा.) सिद्धसेनसूरि
सोमप्रभसूरि
१८ जइ - जीय- कप्पो (प्रा.) (यतिजीतकल्प)
१६ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र
छेदसूत्र
२० दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति (प्रा.) आर्य भद्र
२१ निशीथसूत्र
आर्य भद्र
२२ निशीथनियुक्ति (प्रा.)
२३ निशीथभाष्य (प्रा.)
२४ निशीथचूर्णि (प्रा.सं.)
२५ प्रायश्चित्तग्रन्थ (सं.)
२६ प्रायश्चित्ततपविधि
२७ प्रायश्चित्तचूलिका (सं.) गुरुदास
इन्द्रनन्दि योगीन्द्र
आर्यभद्रबाहु ( प्रथम ) वि.सं. की ६-७ वीं
जिनभद्रगणि
लग. वि. सं. छठीं
शती
आर्य भद्र
संघदासगणि
जिनदासगणिमहत्तर
लग. वि. सं. १०-११
वीं शती
भट्टाकलंकदेव (?)
अज्ञातकृत
वि.सं. की १४ वीं
शती
लग. वि.सं. ७-८ वीं
शती
वि.सं. १४ वीं शती
के पूर्व
वि.सं. २- ५ वीं शती
के मध्य
लग. ईसा पूर्व तीसरी
शती
वि.सं. २- ५ वीं शती
के मध्य
लग. वि. सं. छठीं
शती
लग. वि.सं. ७-८ वीं
शती
वि.सं. ८ वीं शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
लग. वि. सं. ११-१२
वीं शती
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304/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
| २८ प्रायश्चित्तसामाचारी २६ प्रायश्चित्त प्रदान विचार अज्ञातकृत
३०प्रायाश्चत्त निरूपणमुनि सोमसेन ३१ प्रायश्चित्त विशुद्धि अज्ञातकृत
३२ प्रायश्चित्त विधान
अज्ञातकृत
३३ प्रायश्चित्त (सं.) ३४ प्रायश्चित्त (प्रा.) ३५ प्रायश्चित्त ३६ प्रायश्चित्त
आ. विद्यानन्दी इन्द्रनन्दी आ. अकलंक अज्ञातकृत
वि.सं. १३ वीं शती लग. वि.सं. १७-१८ वीं शती वि.सं. १६६० लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १६-१७ वीं शती वि.सं. ६ वीं शती वि. की १४ वीं शती वि.सं. १६७८ लग. वि.सं. १६-१७ वीं शती लग. ई.पू. तीसरी री शती वि.सं. २ से ५ वीं शती लग. वि.सं. छठी
३७ बृहत्कल्पसूत्र
आर्य भद्र
३८ बृहत्कल्पनियुक्ति (प्रा.) आर्य भद्र
३६ बृहत्कल्पभाष्य (प्रा.)
संघदासगणि (?)
शती
४० बृहत्कल्पचूर्णि (प्रा.सं.) जिनदासगणिमहत्तर लग. वि.सं. ७-८ वीं
शती ४१ महानिशीथसूत्र (प्रा.) उद्धारक आ. हरिभद्र वि. की ८ वी
(प्रथम)
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/305
४२ व्यवहारसूत्र
आर्य भद्र
लग. ई.पू. तीसरी
शती
४३ व्यवहारनियुक्ति (प्रा.)
आर्य भद्र
वि.सं. की २-५ वीं
शती
४४ व्यवहारभाष्य (प्रा.)
४५ व्यवहारचूर्णि (प्रा.सं.) ४६ व्यवहारविवरण
संघदासगणि (?) लग. वि.सं. छठी
शती जिनदासगणिमहत्तर लग. ७-८ वीं शती अज्ञातकृत
लग. वि.सं. की १२
वी शती धर्मघोषसूरि वि.सं. १३५७
४७ सड्ढ-जीयकप्पो (प्रा.)
(श्राद्धजीतकल्प)
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अध्याय ८
प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि- विधानपरक साहित्य
आलोचनादानटिप्पण
इसके कर्त्ता भुवनरत्नगणि है । यह आलोचना ग्रहण करने सम्बन्धी प्रवेश पत्र पुस्तिका है। एक निर्धारित लघुपुस्तक में आलोचना दान को लिखना टिप्पण कहलाता है। '
आलोचनातपोदानटिप्पन
यह कृति अनुपलब्ध है। इसके बारे में पूर्ववत् ही जानना चाहिए । आलोचनाप्रायश्चित्तविधि
इसके कर्त्ता खरतरगच्छ के गणिप्रवर क्षेमकल्याण है। इसमें आलोचना दान एवं प्रायश्चित्त ग्रहण दोनों प्रकार की विधि का प्रतिपादन हुआ है।
आलोचना रत्नाकर
इसके रचनाकार मुनि विजयगणि है । यह कृति आलोचनादाता एवं आलोचक के लिए समुद्र के समान अथाह रहस्य को प्रगट करने वाली है। आलोचनाविचार
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 307
२
यह कृति संस्कृत में है। इसकी विशेष जानकारी का अभाव है। आलोचनाविधि - यह प्रत अहमदाबाद के देला उपाश्रय भंडार में है ।
आलोचनाविधि इसके रचयिता क्षमाकल्याणगणि है। इसका अपर नाम आलोचना- प्रायश्चित्त विधि है।
,
आलोचनाविधान - यह रचना अज्ञातकर्तृक है ।
आलोचनाविधान - इसके कर्त्ता मुनि यशोभद्र के शिष्य पृथ्वीचन्द्रसूरि है ।
ये सभी कृतियाँ आलोचनादान विधि या आलोचनाग्रहण विधि का विवेचन करती हैं यह बात कृति के नाम से ही स्पष्ट हो जाती है ।
जिनरत्नकोश पृ. ३४
२ वही पृ. ३४
३
-
वही पृ. ३४
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308 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
जिनरत्नकोश' में आलोचना नाम से तीन कृतियाँ दी गई है। इनका विवरण इस प्रकार प्राप्त हुआ है
१. आलोचना - इसके कर्त्ता दिगम्बर मुनि पद्मनन्दि है । यह संस्कृत भाषा के ३३ पद्यों में कारिका नाम से रची गई है।
२. आलोचना यह अज्ञातकर्तृक है। इसमें १७५ श्लोक हैं। इस पर एक टीका ग्रन्थ भी लिखा गया है।
३. आलोचना यह कृति गणधरगौतमस्वामी रचित मानी गई है। इसे दैवसिक प्रतिक्रमण विधि भी कहते हैं ।
इस पर पं. प्रभचन्द्र ने टीका लिखी है। उक्त तीनों रचनाएँ आलोचनाविधि से सम्बन्धित प्रतीत होती हैं।
छेदशास्त्र
-
इसका दूसरा नाम 'छेदनवति' भी है, क्योंकि इसमें नवति ६० गाथाये हैं लेकिन मुद्रित ग्रन्थ ६४ गाथाओं में है। यह कृति प्राकृत पद्य में है। इसके साथ एक छोटी सी वृत्ति भी है परन्तु इससे न तो मूलग्रन्थ के कर्त्ता का नाम ज्ञात हो सका है और न वृत्ति के कर्त्ता का नाम ही । ऐसी स्थिति में इसके रचनाकाल का निश्चय करना और भी असम्भव है ।
२
इसकी संस्कृतछाया पं. पन्नालाल सोनी द्वारा लिखी गई है। प्रस्तुत कृति में साधुओं के मूलगुण और उत्तरगुण में लगने वाले दोषों के प्रायश्चित्त विधान की चर्चा है। यह बात ग्रन्थ के मंगलाचरण से स्पष्ट होती है। जैसा कि ग्रन्थ के प्रारम्भ में पाँच गुरुओं एवं गणधर देवों को नमस्कार करके साधुओं के शोधनस्थानों को कहने की प्रतिज्ञा की गई है। उसके बाद प्रायश्चित्त के पर्यायवाची और प्रायश्चित्त योग्य तप का उल्लेख किया है। मुख्यतया इस ग्रन्थ में पाँच महाव्रत, छठा रात्रिभोजनव्रत, पाँच समिति, इन्द्रियनिरोध, आवश्यकशुद्धि, लोच, अचेलक, दन्तधावन, प्रतिक्रमण, चूलिका और साध्वियों के कुछ विशेष प्रायश्चित्त कहे गये हैं । अन्त में तीन गाथाओं की प्रशस्ति दी गई है।
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जिनरत्नकोश पृ. ३४
२
यह कृति 'प्रायश्चित्तसंग्रह' नामक ग्रन्थ में संकलित है, इसका प्रकाशन नाथुरामप्रेमी माणिकचन्द्र- जैनग्रन्थमाला, हीराबाग, मुंबई नं. ४, वि.सं. १६७८ में हुआ है।
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छेदपिण्ड
यह रचना प्राकृत पद्य में है। इसकी संस्कृत छाया पं. पन्नालाल ने लिखी है । ग्रन्थ की अन्तिम गाथा ( नं. ३६० ) के अनुसार इसका गाथा परिमाण ३३३ और ग्रन्थाग्र ४२० है । वर्तमान ग्रन्थ की गाथा संख्या ३६२ है । यहाँ छेद शब्द प्रायश्चित्त का पर्यायवाची है ।
यह ग्रन्थ इन्द्रनन्दि-संहिता का चौथा अध्याय अथवा उसका एक भाग है, परन्तु अनेक भंडारों में यह स्वतंत्र रूप से भी मिलता है। इसके कर्त्ता इन्द्रनन्दि योगीन्द्र है, जो संभवतः नन्दिसंघ के आचार्य थे। इस ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम की १४ वीं शती निश्चित होता है। इस विषय में उल्लेख मिलता है, कि यह छेदपिण्ड जिस इन्द्रनन्दि संहिता का एक भाग है, उसमें एक अध्याय पूजा विषयक है और उसका नाम पूजाक्रम है। इससे यह सिद्ध होता है कि अय्यपार्य ने जिनका उल्लेख किया है वे यही इन्द्रनन्दि होने चाहिए ।
दिगम्बर परम्परा में इन्द्रनन्दि नाम के कई आचार्य हुए हैं उनमें एक गोम्मटसार के कर्त्ता है गोम्मटसार का काल लगभग दसवीं-ग्यारवीं शती है, अतएव संभव हैं कि ये इन्द्रनन्दि भी लगभग इसी समय के आचार्य हो, किन्तु इतना निश्चित है कि इसके कर्त्ता इन्द्रनन्दि है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं प्रयोजन को लेकर दो श्लोक दिये गये हैं उनमें अरिहन्त परमात्मा को नमस्कार करके निश्चयनय का आश्रय लेकर मुनि एवं गृहस्थ के मूलोत्तरगुणादि में प्रमाद - दर्पादि के द्वारा लगने वाले अतिचारों में प्रायश्चित्त कहने की प्रतिज्ञा की गई है । अन्त में सात पद्य प्रशस्ति रूप में हैं।
इस कृति में सामान्यतया साधु और श्रावक के प्रायश्चित्तों का निरूपण हुआ है। साध्वाचार सम्बन्धी पाँचमहाव्रत, छठा रात्रिभोजनविरमणव्रत, पाँचसमिति, लोच, आवश्यक, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, चातुर्मासिकतप, छःमासिकतप, छेद, मूल, पारांचिक आदि तथा श्रावकाचार सम्बन्धी अष्टमूलगुण, पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत इत्यादि प्रमुख विषयों के प्रायचित्त कहे गये हैं ।
जीतकल्प
जीतकल्प को छेदसूत्र माना गया है। छेदसूत्रों में इसका पाँचवां स्थान है। इस सूत्र के प्रणेता प्रसिद्ध भाष्यकार जिनभद्रगणि- क्षमाश्रमण है। इस ग्रन्थ का
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यह ग्रन्थ 'प्रायश्चित्तसंग्रह' नामक ग्रन्थ में संकलित है।
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310/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
रचनाकाल विक्रम की छठी-सातवीं शती है। यह प्राकृत पद्य में है। इसमें कुल १०३ गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ अन्य छेदसूत्रों की भाँति ही प्रायश्चित्त के विधि-विधानों से सम्बन्धित है। मूलतः इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के भिन्न-भिन्न अपराध स्थान विषयक प्रायश्चित्त का विधान जीत व्यवहार' के आधार पर किया गया है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में सर्वप्रथम प्रवचन को नमस्कार किया गया है एवं आत्मा की विशुद्धि के लिए जीत व्यवहारगत प्रायश्चित्त दान का संक्षिप्त निरूपण करने का संकल्प किया है। आगे कहा है कि प्रायश्चित्त तपों में प्रधान है अतः मोक्षमार्ग की दृष्टि से प्रायश्चित्त का अत्यधिक महत्त्व है। मोक्ष के हेतुभूत चारित्र की विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त अत्यावश्यक है। एतदर्थ मुमुक्षु के लिए प्रायश्चित्त का ज्ञान अनिवार्य है। इसमें प्रायश्चित्त के निम्न दस भेद बताये गये हैं - १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाप्य और १०. पारांचिका
___ आगे बताया गया है कि किन-किन अवस्थाओं में कौन-कौन से प्रायश्चित्त दिये जाते हैं तथा किस दोष के लिए कौन से प्रायश्चित्त का विधान है उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - १. आलोचनायोग्य - आहारादि ग्रहण, बहिर्निगमन, मलोत्सर्ग आदि क्रियाओं में जो दोष लगते हैं उनकी शुद्धि के लिए आलोचना प्रायश्चित्त का विधान बताया है। अर्थात् ये दोष आलोचना करने मात्र से शुद्ध हो जाते हैं। २. प्रतिक्रमणयोग्य - गुप्ति और समिति में प्रमाद करना, गुरु की आशातना करना, विनय भंग करना, गुरु की आज्ञादि का पालन नहीं करना, लघु मृषादि का प्रयोग करना, अविधिपूर्वक खाँसी, जम्भाई, वायुनिस्सरण करना, असंक्लिष्ट कर्म करना, कन्दर्प, हास्य, विकथा, कषाय, विषयानुसंग करना इत्यादि प्रवृत्तियों से, जो दोष लगते हैं, उनकी शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त का विधान कहा है अर्थात् ये दोष प्रतिक्रमण करने मात्र से दूर हो जाते हैं। ३. तदुभययोग्य - संभ्रम, भय, आपत, सहसा, अनाभोग, अनात्मवश अर्थात निद्रादि अवस्थाओं में दुश्चिन्तन, दुःभाषण, दुश्चेष्टा आदि अनेक प्रवृत्तियों से
' जो व्यवहार परम्परा से प्राप्त हो एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा अनुमत हो वह जीत व्यवहार कहलाता है
जीतकल्पभाष्य गा. ६७५ २ जीतकल्पूसत्र - २ ३ वही. ५-८ ४ वही. ६-१२
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लगने वाले दोषों के लिए उभय (आलोचना और प्रतिक्रमण) प्रायश्चित्त का विधान
४. विवेकयोग्य - जिस आहार को ग्रहण करने का समय बीत चुका हो ऐसा कालातीत आहार ग्रहण करना, अविधि पूर्वक उपधि, शय्या आदि ग्रहण करना। इत्यादि से लगने वाले दोषों के निवारणार्थ विवेक प्रायश्चित्त का विधान है। ५. व्युत्सर्गयोग्य - गमन, आगमन, विहार, श्रुत, सावद्य स्वप्न, नाव-नदी-सन्तार
आदि से सम्बन्धित लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त का विधान है। विभिन्न व्युत्सों (कायोत्सर्ग) के लिए विभिन्न उच्छवासों का परिमाण बताया गया है। ६. तपयोग्य - ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों में लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए तप प्रायश्चित्त का विधान बताया है इसमें विभिन्न प्रकार के दोषों (अपराधों) की अपेक्षा से एकाशन, आयंबिल, निवि, उपवास, षष्ठभक्त, (बेला), अष्टमभक्त (तेला) आदि छः प्रकार के तप दान का उल्लेख हुआ है।
इसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से भी तपोदान का विचार किया गया है। इतना ही नहीं गीतार्थ, अगीतार्थ, सहनशील, असहनशील, शठ, अशठ, परिणामी, अपरिणामी, अतिपरिणामी, घृति-देह सम्पन्न, घृति-देहहीन, आत्मतर, परतर, उभयतर, नोभयतर, अन्यतर, कल्पस्थित, अकल्पस्थित आदि पुरुषों की दृष्टि से भी तप प्रायश्चित्त दान का व्याख्यान किया गया है।" ७. छेदयोग्य - जो तप के गर्व से उन्मत्त है अथवा जो तप के लिए सर्वथा असमर्थ है अथवा जिसकी तप पर तनिक भी श्रद्धा नहीं है अथवा जिसका तप से दमन करना कठिन है उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान है।' छेद का अर्थ है- दीक्षावस्था की काल गणना को न्यून करना अर्थात् दीक्षापर्याय में कमी (छेद) कर देना, दीक्षापर्याय का छेद करना।
'जीतकल्पसूत्र - १३-१५ २ वही. १८ ३ वही. १६-२० ४ वही. २३-७६ ५ वही. ८०-२
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312/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
८. मूलयोग्य - पंचेन्द्रिय जीव का घात करना, मैथुन प्रतिसेवन करना आदि अपराध स्थानों के लिए मूल नामक प्रायश्चित्त का विधान है।' ६. अनवस्थाप्ययोग्य - तीव्र क्रोधादि करने वाले, तीव्र द्वेष रखने वाले, घोर हिंसा करने वाले श्रमण के लिए अनवस्थाप्य-प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। १०. पारांचिकयोग्य - तीर्थकर, प्रवचन, श्रुत, आचार्य, गणधर आदि की पुनः पुनः आशातना करने वाला पारांचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है। इसी प्रकार कषायदुष्ट, विषयदुष्ट, स्त्यानर्द्धि, निद्राप्रमत्त एवं अन्योन्यकारी पारांचिक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
उपर्युक्त दस प्रायश्चित्तों में से अन्तिम के दो प्रायश्चित्त (अनवस्थाप्य व पारांचिक) चतुर्दशपूर्वधर (भद्रबाहु स्वामी) तक ही अस्तित्व में रहे। तदनन्तर उनका विच्छेद हो गया। जीतकल्पभाष्य
यह भाष्य मूलसूत्र पर रचा गया है। यह प्राकृत पद्य में है। इसमें कुल २६०६ गाथाएँ हैं। जीतकल्पभाष्य के प्रणेता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण है। यह ग्रन्थकार की स्वोपज्ञटीका है।
इस भाष्य में बृहत्कल्प-लघुभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्पमहाभाष्य, पिंडनियुक्ति आदि ग्रन्थों की अनेक गाथाएँ अक्षरशः मिलती है। इससे यह कहा जा सकता है कि प्रस्तुत भाष्यग्रन्थ कल्पभाष्य आदि ग्रन्थों की गाथाओं का संग्रहरूप ग्रंथ है। इस भाष्य की रचना मूलसूत्र पर होने से इसमें प्रायश्चित्तस्थान, प्रायश्चित्तदाता, प्रायश्चित्त की सापेक्षता, प्रायश्चित्त के भेद, आगमादि पाँच व्यवहार आदि का सुन्दर विवेचन हुआ है। प्रायश्चित्त का अर्थ - प्रस्तुत भाष्य के प्रारंभ में सर्वप्रथम प्रवचन शब्द का निरुक्तार्थ कर प्रवचन को नमस्कार किया है। फिर 'प्रायश्चित्त' शब्द का निरुक्तार्थ किया है। प्रायश्चित्त के प्राकृत में दो रूप प्रचलित है; 'पायच्छित' और 'पच्छित्त' इन दोनों की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जो पाप का छेद करता है वह 'पायच्छित' है और प्रायः जिससे चित्त शुद्ध होता है वह 'पच्छित्त' है। प्रायश्चित्त के स्थान - आगे प्रायश्चित्त का विवेचन करते हुए प्रायश्चित्त दान के योग्य व्यक्ति का स्वरूप बताया गया है, आलोचना के श्रवण का क्रम
'जीतकल्पसूत्र. ८३-५ २ वही. ८५-६३ ३ वही. ६४-६
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निरूपित किया गया है तथा प्रायश्चित्त के अठारह, बत्तीस एवं छत्तीस स्थानों का विचार किया गया है।
प्रायश्चित्त दाता इस भाष्य में प्रायश्चित्तदान की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि संप्रति प्रायश्चित्त देने वाले योग्य व्यक्ति का अभाव होने पर भी यह मानना होगा कि प्रायश्चित्त विधि का मूल स्रोत प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय वस्तु में है और उसके आधार पर कल्प, प्रकल्प तथा व्यवहार ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। ये ग्रन्थ और इनके ज्ञाता आज भी विद्यमान हैं अतः प्रायश्चित्त का व्यवहार इन सूत्रों के आधार पर सरलता पूर्वक किया जा सकता है और इस प्रकार चारित्र की शुद्धि हो सकती है।
प्रायश्चित्त दान की सापेक्षता- आगे के प्रसंग में प्रायश्चित्त विधाताओं का सद्भाव सिद्ध किया गया है। सापेक्ष प्रायश्चित्त दान के लाभ और निरपेक्ष प्रायश्चित्त दान की हानि का वर्णन किया गया है। इसमें मूलरूप से निर्देश दिया है कि प्रायश्चित्त दान में दाता को दया भाव रखना चाहिए तथा जिसे प्रायश्चित्त देना है उसकी शक्ति की ओर भी ध्यान रखना चाहिए। ऐसा होने पर ही प्रायश्चित्त का प्रयोजन सिद्ध होता है। इस सन्दर्भ में यह बात भी कही गई है कि कहीं प्रायश्चित्त देने में इतना अधिक दयाभाव भी न आ जाए कि दोषों की परम्परा बढ़ने लगे और साधक के चारित्र की शुद्धि ही न हो सके। यह शास्त्रोक्त वचन है कि प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र स्थिर नहीं रह सकता है । चारित्र के अभाव में तीर्थ की शून्यता का प्रसंग बनता है। तीर्थ के अभाव में निर्वाण प्राप्ति के विच्छेद का प्रसंग उपस्थित होता है तथा निर्वाण के अभाव में दीक्षा स्वीकार की शून्यता का प्रश्न उपस्थित होता है पुनः दीक्षा के अभाव में चारित्र का अभाव, चारित्र के अभाव में तीर्थ का अभाव इस प्रकार अनवस्था की परम्परा चलती रहती है अतः प्रायश्चित्त की विद्यमानता अत्यन्त जरूरी है।
भक्तपरिज्ञा - इंगिनीमरण व पादपोपगमन -
इसी क्रम में प्रायश्चित्त के विधान का विशेष समर्थन करते हुए प्रसंगवशात् भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण एवं पादपोपगमन इन तीन प्रकार की मारणान्तिक साधनाओं की विधि का निरूपण किया गया है।
प्रायश्चित्त के भेद - आगे प्रायश्चित्त के दस भेद और उन-उन प्रायश्चित्त के योग्य दोषपूर्ण क्रियाओं का संक्षिप्त स्वरूप वर्णित किया गया है। साथ ही प्रायश्चित्त स्थान के योग्य विषयों पर कुछ उदाहरण भी दिये गये हैं। दस प्रकार के प्रायश्चित्त की चर्चा मूलसूत्र में कर चुके हैं। अतः पुनरावर्तन अपेक्षित नहीं हैं। हाँ ! इतना अवश्य है कि भाष्य में तत्सम्बन्धी चर्चा अधिक विस्तार के साथ हुई है ।
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314/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
स्पष्टतः यह भाष्य जैन आचारशास्त्र एवं आचारशुद्धि की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। वर्तमान परम्परा में प्रायश्चित्त का विधान जीत-व्यवहार के अनुसार ही प्रवर्तित है उस दृष्टि से इस ग्रन्थ की उपादेयता कई गुणा अधिक है। जीतकल्प-बृहच्चूर्णि
प्रस्तुत चूर्णि सिद्धसेनसूरि की है। इस चूर्णि के अध्ययन से ऐसा ज्ञात होता है कि इसके अतिरिक्त जीतकल्पसूत्र पर एक और चूर्णि भी लिखी गई थी। यह चूर्णि अथ से इति तक प्राकृत में है। इसमें एक भी वाक्य ऐसा नहीं है, जिसमें संस्कृत शब्द का प्रयोग हुआ हो।
जीतकल्पचूर्णि में उन्हीं विषयों का संक्षिप्त गद्यात्मक व्याख्यान हुआ है। जिनका जीतकल्पभाष्य में विस्तार से विवेचन किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि यह चूर्णि-भाष्य के आधार पर ही रची गई है। इस चूर्णि में अनेक गाथाएँ उद्धृत की गई है; किन्तु इन गाथाओं को उद्धृत करते समय सिद्धसेन ने किसी ग्रन्थ का निर्देश न करके 'तं जहा भणियं च' 'सो-इमो' इत्यादि वाक्यों का प्रयोग किया है। इसमें अनेक गद्यांश भी उद्धृत किये गये हैं।
प्रारम्भ में ग्यारह गाथाओं द्वारा भगवान महावीर, एकादश गणधर, विशिष्ट ज्ञानी तथा सूत्रकार जिनभद्रक्षमाश्रमण को नमस्कार किया है। फिर आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा एवं जीत व्यवहार का स्वरूप समझाया गया है। तदनु 'जीत' शब्द का अर्थ, दस प्रकार के प्रायश्चित्त, नौ प्रकार के व्यवहार, मूलगुण-उत्तरगुण आदि का विवेचन किया गया है। पुनः अन्त में जिनभद्र को नमस्कार करते हुए गाथाओं के साथ चूर्णि की समाप्ति की है।' जइ-जीय-कप्पो (यतिजीतकल्प)
इस कृति के रचयिता धर्मघोषसूरि के शिष्य और २८ यमक स्तुति के प्रणेता सोमप्रभसूरि है। इस कृति का संशोधन श्री माणिक्यसागरसूरि के शिष्य मुनि लाभसागरगणी ने किया है। यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत के ३०६ पद्यों में निबद्ध है। प्रस्तुत कृति मूलतः प्रायश्चित्त विधान से सम्बन्धित है। कृति के नामानुसार इसमें श्रमण के आचार विषयक प्रायश्चित्त कहे गये हैं। साथ ही कुछ विधियों का भी उल्लेख किया गया है।
' आधार- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३ पृ. २६१ २ यह ग्रन्थ साधुरत्नसूरि की वृत्ति सहित आगमोद्धारक ग्रन्थमाला शा. रमणलाल जयचन्द कपडगंज (जि.) खेड़ा से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 315
यहाँ उल्लेखनीय है कि पापशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान अनिवार्यतः आवश्यक माना गया है किन्तु प्रायश्चित्त देने का अधिकार हर किन्हीं श्रमणों को नहीं होता है और जिन श्रमणों के लिए प्रायश्चित्त दान का अधिकार कहा गया है वे संविग्न गीतार्थ मुनि भी पाँच प्रकार के होते हैं १. आगम व्यवहारी, २. श्रुत व्यवहारी, ३. आज्ञा व्यवहारी, ४. धारणा व्यवहारी और ५. जीत व्यवहारी । इन पाँच व्यवहारों में से अन्तिम जीतव्यवहार को प्रस्तुत करने वाला अथवा जीत प्रायश्चित्त को बताने वाला 'जीतकल्पसूत्र' नाम का ग्रन्थ है। इस जीतकल्पसूत्र के आधार पर अनेक जीतकल्प और उनके उपविभागरूप भी जीतकल्प नामक ग्रन्थ निर्मित हुए हैं। इनमें से तीन प्रकार के जीतकल्प देखने को मिलते हैं १. यतिजीतकल्प, २. श्राद्धजीतकल्प, और ३. लघुश्राद्धजीतकल्प |
इस विवरण से निश्चित होता है कि यह यतिजीतकल्प, जीतकल्पसूत्र के आधार पर ही रचा गया है। दूसरी बात यह है कि यतिजीतकल्प के प्रारम्भ की चौबीस गाथाएँ जिनभद्रगणिकृत जीतकल्प में से ली गई हैं। इस कृति की रचना के विषय में कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु इस ग्रन्थ की वृत्ति के आधार पर इतना सिद्ध हो जाता है, कि यह कृति १४ वीं शती से पूर्व की है। यह ऊपर में कह चुके हैं कि यह ग्रन्थ प्रायश्चित्त विधान का प्रतिपादक ग्रन्थ है और वह भी मुनि आचार से ही सम्बद्ध है। यह प्रायश्चित्त अधिकार भी जीतकल्प एवं व्यवहार सूत्र के अनुसार ही निर्दिष्ट है। यह बात प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रथम गाथा से भी स्पष्ट होती है।
इस कृति के प्रारम्भ में मंगलाचारण रूप एवं प्रयोजन रूप एक गाथा कही गई है उसमें श्रुतज्ञान को प्रणाम करके, आत्मा का विशेष शोधन करने के लिए, जीतव्यवहारसूत्र के अनुसार संक्षेप में प्रायश्चित्त दान कहने की प्रतिज्ञा की गई है । उपसंहार रूप अन्तिम गाथा में यह कहा गया हैं कि इस ग्रन्थ में जीत - निशीथादि सूत्र के अनुसार स्व और पर के लिए यतिओं के प्रायश्चित्त क गये हैं। उनमें कोई भी त्रुटि हो तो गीतार्थजन उसका शोधन करें। यतिजीतकल्प में उल्लिखित प्रायश्चित्त आदि विधि-विधानों का विषयानुक्रम इस प्रकार है - १. दर्पिका प्रतिसेवना सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान २. कल्पिका प्रतिसेवना सम्बन्धी चार प्रकार के प्रायश्चित्त विधान ३. प्रायश्चित्त के भेद । ४. आलोचना सम्बन्धी प्रायश्चित विधान ५. प्रतिक्रमण सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान ६. विवेकयोग्य और व्युत्सर्गयोग्य प्रायश्चित्त विधान ७. ज्ञानाचारातिचार सम्बन्धित प्रायश्चित्त विधान ८. जिनप्रतिमा आदि की आशातना से सम्बन्धित प्रायश्चित्त विधान ६. प्रथम महाव्रतातिचार सम्बन्धी प्रायश्चित विधान १०. साधुओं के लिए जलमार्ग पर गमन
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316/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
करने की विधि ११. द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ एवं पँचम महाव्रत में लगे हुए अतिचारों का प्रायश्चित्त विधान। १२. सोलह उद्गम दोष सम्बन्धी प्रायचित्त विधान १३. सोलह उत्पादना दोष सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान १४. दस ग्रहणैषणा दोष सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान १५. पाँच ग्रासैषणा दोष सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान १६. उपधि सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान १७. पात्र विषयक प्रायश्चित्त विधान १८. साध्वियों के लिए वस्त्रदान की विधि १६. अवधावित प्रत्यावृत्त साधु विषयक प्रायश्चित्त २०.
आरोपणा आदि प्रायश्चित्त के पाँच प्रकार २१. छेदयोग्य और मूलयोग्य प्रायश्चित्त विधान २२. अनवस्थाप्य योग्य प्रायश्चित्त विधान २३. अनवस्थाप्य तप विधि २४. पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान २५. योगविधि विषयक अतिचारों का प्रायश्चित्त विधान २६. प्रव्रज्यादि विधि।
उक्त विधि-विधानों के अनन्तर आगमादि पाँच प्रकार का निरूपण किया गया है। व्रतषट्क के अठारह स्थान बताये गये हैं। इसके साथ ही पाँच प्रकार की उपसम्पदा, इच्छादि सामाचारी, लघुमृषा के दृष्टान्त, आठ प्रकार के ज्ञानातिचार, आठ प्रकार के दर्शनातिचार, श्रुत अध्ययन के लिए योग्य पर्याय, दीक्षा के लिए अयोग्य कौन?, शय्यातर, नवप्रकार की वसति, प्रक्षेप दोष का स्वरूप, यथाछन्दादि का स्वरूप, अतिक्रमादि का स्वरूप, आलोचना ग्रहण करने योग्य पुरुष, नौ प्रकार का तपदान सम्बन्धी व्यवहार, नौ प्रकार का आपत्ति तप सम्बन्धी इत्यादि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। टीका - यतिजीतकल्प पर सोमतिलकसूरि ने एक वृत्ति लिखी थी, किन्तु वह अप्राप्य है। दूसरी वृत्ति देवसुन्दरसूरि के शिष्य साधुरत्नसूरि ने रची है। यह ५७०० श्लोक परिमाण है। उन्होंने सोमतिलकसूरि की वृत्ति का उल्लेख किया है।
निःसन्देह यह कृति मुनिजीवन के लिए, जीवन विशुद्धि के लिए एवं शुद्ध दशा को उपलब्ध करने के लिए अति उपयोगी है। दशाश्रुतस्कन्धसूत्र
आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण अंग एवं पूर्व इन दो भागों में मिलता है। आर्यरक्षित ने आगम साहित्य को चार अनुयोगों में विभक्त किया। वे विभाग ये हैं- १. चरणकरणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणितानुयोग और ४. द्रव्यानुयोग। आगम संकलन के समय आगमों को दो वर्गों में विभक्त किया गया (१) अंग प्रविष्ट एवं (२) अगबाह्य। नंदीसूत्र में आगमों का विभाग काल की दृष्टि से भी किया गया है। प्रथम एवं अंतिम प्रहर में पढ़े जाने वाले आगम को 'कालिक' तथा सभी प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम को 'उत्कालिक' कहा गया
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/317
हैं।' सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण में आगम के चार विभाग मिलते हैं- अंग, उपांग, मूल एवं छेद। वर्तमान में आगमों का यही वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है। छेदसूत्र - प्रस्तुत आगम का नाम छेदसूत्रों में आता है। दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ और पंचकल्प अथवा जीतकल्प ये छह छेदसूत्र के नाम से प्रसिद्ध हैं इन छेदसूत्र विषयक विधि-विधान सम्बन्धी जानकारी प्रस्तुत करने के पूर्व 'छेद' के सम्बन्ध में सामान्य आलेखन करना अपेक्षित है।
सम्भवतः छेद नामक प्रायश्चित्त को दृष्टि में रख कर इन सूत्रों को छेद सूत्र कहा जाता है। वर्तमान में उपलब्ध छ: छेदसूत्रों में छेद के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों एवं विषयों का भी वर्णन दृष्टिगोचर होता है जिसे ध्यान में रखते हुए यह कहना कठिन है कि छेदसूत्र शब्द का सम्बन्ध छेद नामक प्रायश्चित्त से है अथवा और किसी से। हाँ ! इतना अवश्य है कि जैनधर्म आचार शुद्धि पर अधिक बल देता है। आचार के नियमों के पालन में उन्होंने इतना अधिक बल दिया है कि स्वप्न में भी यदि हिंसा या असत्यभाषण हो जाए तो उसका भी प्रायश्चित्त करना चाहिए।
अंग आगमों में प्रकीर्ण रूप से साध्वाचार का वर्णन मिलता है कालान्तर में साध्वाचार के विधि-निषेध परक ग्रन्थों की स्वतंत्र अपेक्षा महसूस की जाने लगी। द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के अनुसार आचार सम्बन्धी नियमों में भी परिवर्तन आने लगा। परिस्थिति के अनुसार कुछ वैकल्पिक नियम भी बनाए गए, जिन्हें अपवाद मार्ग कहा गया। इन छेदसूत्रों में साधु की विविध सामान्य आचार-संहिताओं के साथ-साथ अपवाद मार्ग आदि का भी विधान किया गया है। ये सूत्र साधु जीवन का संविधान ही प्रस्तुत नहीं करते, किन्तु प्रमादवश स्खलना होने पर दंड का भी विधान करते हैं। इन्हें लौकिक भाषा में दंड-संहिता तथा अध्यात्म की भाषा में प्रायश्चित्तविधान सूत्र कहा जा सकता है। इन सूत्रों में मूलतः प्रायश्चित्तविधि का वर्णन है। प्रायश्चित्त से चारित्र की विशुद्धि होती है। छेदसूत्रों के ज्ञाता श्रुतव्यवहारी कहलाते हैं और उनको ही आलोचना देने का अधिकार है। छेदसूत्र रहस्य सूत्र है। योनिप्राभृत आदि ग्रन्थों की भाँति इनकी गोपनीयता का भी निर्देश है। इनकी वाचना हर एक को नहीं दी जा सकती है। इनकी वाचना के सम्बन्ध में जो शास्त्रोक्त उल्लेख प्राप्त हैं उसके लिए निशीथभाष्य' निर्शीथचूर्णि, पंचकल्पभाष्य' आदि द्रष्टव्य है।
' नंदीसूत्र ७७-७८ २ निशीथभाष्य ५६४७, चू. पृ. १६० ५ णाऊणं छेदसुत्तं, परिणामगे होति दायब्वं, पंचकल्पभाष्य १२२३
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318 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
कहा जाता है कि दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन चार छेदसूत्रों का निर्यूहण प्रत्याख्यानपूर्व की तृतीय आचारवस्तु से हुआ है, ऐसा उल्लेख निर्युक्ति एवं भाष्य साहित्य में मिलता है।' दशाश्रुत, कल्प एवं व्यवहार का निर्यूहण भद्रबाहु ने किया यह भी अनेक स्थानों पर निर्दिष्ट है।
२
मूलतः छेदसूत्रों की जानकारी अनिवार्य है। प्रायश्चित्त स्वरूप को समझना अधिक अनिवार्य है। ग्रन्थों में दस प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गये हैं इनमें छेद सातवाँ प्रायश्चित्त है। प्रारम्भ से लेकर सात पर्यन्त प्रायश्चित्त वेषयुक्त श्रमण को दिये जाते हैं। अंतिम तीन प्रायश्चित्त श्रमण को वेषमुक्त करके दिये जाते हैं। छेदसूत्रों का विषय- उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात होता है कि साधनामय जीवन में यदि साधक के द्वारा कोई दोष हो जाये तो उससे दोषमुक्त कैसे हुआ जाये, उसका परिमार्जन कैसे किया जाये, यह छेदसूत्रों का सामान्य वर्ण्य विषय है इस दृष्टि से छेदसूत्रों के विषयों को चार भागों में विभाजित किया गया है। १. उत्सर्ग मार्ग, २. अपवादमार्ग, ३. दोषसेवन, ४. प्रायश्चित्त विधान ।
9. जिन नियमों का पालन करना साधु साध्वी वर्ग के लिए अनिवार्य है वह उत्सर्गमार्ग है । २. अपवाद का अर्थ है - विशेष विधि। वह दो प्रकार की है १ . निर्दोष विशेष विधि और २. सदोष विशेष विधि | सामान्य विधि से विशेष विधि बलवान होती है। आपवादिक विधि सकारण होती है । उत्तरगुण प्रत्याख्यान में जो आगार (छूट या अपवाद) रखे जाते हैं ये सब निर्दोष अपवाद हैं। परन्तु प्रबलता के कारण मन न होते हुए भी विवश होकर जिस दोष का सेवन करना पड़ता है या किया जाये, वह सदोष अपवाद विधि है । प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है । अतः यह मार्ग साधक को आर्त्त - रौद्र ध्यान से बचाता है। यह मार्ग प्रशंसनीय तो नहीं है किन्तु इतना निन्दनीय भी नहीं है। चूंकि अनाचार किसी भी रूप में अपवाद विधि का अंग नहीं बन सकता है।
३. दोष सेवन का अर्थ है - उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का भंग करना। ४. प्रायश्चित्त विधान का अर्थ है- खंडित नियम के शुद्धिकरण के उद्देश्य से की जाने वाली विशिष्ट विधि प्रक्रिया प्रायश्चित्त है।
१
(क) व्यवहार भाष्य ४१७३
(ख) आचारदसा कप्पो, ववहारो नवमपुव्वणी संदो, पंचकल्प भाष्य २३
२
(क) वंदामि भद्दबाहुं, पाईणंचरिम सयल सुयनाणीं । सुत्तस्स कारणमिसिं, दसासु कप्पे य ववहारे ।। (ख) पंचकल्पभाष्य १२
दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति
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संक्षेपतः प्रबलकारण के उपस्थित होने पर अनिच्छा, विस्मृति या प्रमादवश जिन दोषों का सेवन हो जाता है उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान करना यही छेदसूत्रों का मूलभूत लक्ष्य रहा है। छेदसूत्रों की वर्णन शैली - छेदसूत्रों में तीन प्रकार की शैली दृष्टिगत होती है१. हेयाचार, २. ज्ञेयाचार, ३. उपादेयाचार। इनका विस्तृत विचार करने पर यह रूप फलित होता है- १. विधिकल्प, २. निषेधकल्प, ३. विधि-निषेधकल्प, ४. प्रायश्चित्तकल्प, ५. प्रकीर्णका
। इनमें से प्रायश्चित्तकल्प के अतिरिक्त अन्य विधिकल्पादि के चार विभाग होते हैं - १. निर्ग्रन्थों के विधिकल्प २. निर्ग्रन्थिनियों के विधिकल्प ३. निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थिनियों के विधिकल्प ४. सामान्य विधिकल्प
इसी प्रकार निषेधकल्प आदि के भी विभाग समझने चाहिए। इस सम्बन्ध में यहाँ और अधिक विस्तृत वर्णन करना संभव नहीं है। ग्रन्थावलोकन से पाठकगण स्वयं ज्ञात कर ले। स्वरूपतः ये छेदसूत्र प्रायश्चित्त विधि-विधान से सम्बन्धित हैं और दोष परिमार्जन के लिए सम्यक विधि प्रक्रिया को प्रस्तुत करने वाले हैं। सर्वप्रथम प्रस्तुत सूत्र की विषयवस्तु पर संक्षेप में प्रकाश डालते हैं। स्थानांगसूत्र में इसका अपरनाम आचारदशा प्राप्त होता है। स्थानांगसूत्र के दसवें स्थान में वर्णित दस दशाओं में इसका नाम होने से संभवतः इस सूत्र का नाम 'दशासूत्र' रखा गया हो। दशाश्रुतस्कंध में दस अध्ययन है इसलिए भी इसका नाम दशाश्रुतस्कंध हो सकता है। यह सूत्र प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें २१६ गद्य सूत्र हैं। ५२ पद्य सूत्र हैं। यह कृति १८३० श्लोक परिमाण है। यहाँ ध्यातव्य है कि छेदसूत्र के दो कार्य हैं- दोषों से बचाना और प्रमादवश लगे हुए दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान करना। इसमें दोषों से बचने का विधान है।
इस सूत्र में विशेष विधि का सामान्य वर्णन प्राप्त होता है, किन्तु जो भी विवरण उपलब्ध हैं वह पापाचार एवं दोषसेवन से बचने के महत्त्वपूर्ण उपाय प्रदान करता है। इसमें यह बताया गया है कि साधक सन्मार्ग में कैसे प्रवृत्त हो? उन्मार्ग की ओर जाने से कैसे बचें? संयम मार्ग की शुद्ध परिपालना कैसे करें? इसके प्रथम अध्ययन में बीस असमाधिस्थानों का वर्णन है। जिन सत्कार्यों के करने से चित्त में शांति हो, आत्मा मोक्षमार्ग में प्रवृत्त रहें, वह समाधि है। जिन दुष्कार्यों के करने से चित्त में अशांत भाव उत्पन्न हो और आत्मा भ्रष्ट हो जाये, वह असमाधि है। असमाधि के बीस प्रकार भी वर्णित हैं - जैसे जल्दी-जल्दी चलना, रात्रि में भूमि प्रमार्जन किये बिना पूंजे चलना, निन्दा आदि करना, क्रोध करना, कलह करना आदि। इन प्रवृत्तियों के करने से स्वयं को एवं अन्य जीवों
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को असमाधि उत्पन्न होती है। साधकीय जीवन दूषित होता है। अतः ये असमाधिस्थान साधक को जागृत करते हैं, पापकार्यों से बचने का सही मार्ग बताते हैं। ये बीस स्थान साधक के लिए सेवनीय नहीं है। जो सही विधि है उसका आचरण ही भवपरम्परा का छेदक है। . द्वितीय अध्ययन में इक्कीस शबल दोषों का वर्णन किया गया है, जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट हो जाती है और चारित्र मलक्लिन्न होने से क—र (विचित्रवर्णा) हो जाता है वे दोष शबल कहलाते हैं। जैसरात्रिभोजन करना, आधाकर्मआहार ग्रहण करना, जीवहिंसा करना, जानबूझकर सचित्त भूमि पर बैठना, प्रत्याख्यान का भंग करना, मायास्थान का सेवन करना इत्यादि। शबलदोष दुष्प्रवृत्तियों से बचने एवं सत्कार्य करने का विधान प्रस्तुत करते हैं।
। तृतीय अध्ययन में तैंतीस प्रकार की आशातनाओं पर प्रकाश डाला गया है। जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का हास होता है उसे आशातना (अवज्ञा) कहते हैं। जैसे- गुरु के आगे शिष्य का चलना, गुरु की समश्रेणी में चलना, गुरु के पूर्व किसी से संभाषण करना, गुरु वचनों की अवहेलना करना, गुरु की भूल निकालना आदि-आदि। ये आशातनाएँ अविधि की परिचायक हैं। इससे स्पष्ट होता हैं कि आशातनाओं से बचने की भी एक विधि है, एक मार्ग है।
चतुर्थ अध्ययन में आठ प्रकार की गणिसम्पदाओं का वर्णन हैं। साधुओं अथवा ज्ञानादि गुणों के समुदाय को 'गण' कहते हैं गण का जो अधिपति होता है वही 'गणी' कहलाता है। इसमें गणी की सम्पदा अर्थात् गणि (आचार्य) के गुणों एवं योग्यताओं का वर्णन है। आठ सम्पदाएँ ये हैं- १. आचार-सम्पदा, २. श्रुत-सम्पदा, ३. शरीर-सम्पदा, ४. वचन-सम्पदा, ५. वाचना-सम्पदा, ६. मति-सम्पदा, ७. प्रयोग- सम्पदा और ८. संग्रह परिज्ञा सम्पदा।
इन सम्पदाओं के भेद-प्रभेद भी बताये गये हैं। इन संपदाओं में विधिमार्ग के संकेत भी मिलते हैं जैसे- संग्रहपरिज्ञा सम्पदा चार प्रकार की बतलायी है १. वर्षाऋतु में सब मुनियों के लिए योग्य स्थान की परीक्षा करना, २. सब मुनियों के लिए लौटाये जाने वाले पीठ-फलक-शय्या संस्तारक की व्यवस्था करना आदि सांकेतिक विधान है।
पाँचवे अध्ययन में १० प्रकार के चित्तसमाधि स्थानों का उल्लेख है। छठे अध्ययन में ग्यारह प्रकार की उपासक प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। इन प्रतिमाओं की सम्यक् आराधना कब, कैसे की जाती है इसकी समुचित विधि का
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भी निर्देश दिया गया है। साँतवें अध्ययन में श्रमण की बारह प्रतिमाओं का निरूपण किया गया है। इन प्रतिमाओं का विस्तृत वर्णन करना यहाँ अपेक्षित नहीं है मात्र हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि इसमें बारह प्रतिमाओं को ग्रहण करने की सुव्यवस्थित विधि दी गई है। इसके साथ ही इन प्रतिमाओं का स्वरूप, अवधि एवं आराधना विधि का भी उल्लेख हुआ है।
आठवें अध्ययन में पर्युषणाकल्प का वर्णन है। पर्युषणा-वर्षाऋतु में मुनियों के एक स्थान पर स्थिरवास करने का नाम पर्युषणा है। इस नियत अवधि में साधक आत्मा के निकट रहने का प्रयत्न करता है अतः वह परिवसना भी कहा जाता है। पर्युषणा का अर्थ सेवा भी है। इस काल में साधक आत्मा के ज्ञानदर्शनादि गुणों की सेवा-उपासना करता है अतः उसे पज्जुसणा कहते हैं। पर्युषण का एक अर्थ- चातुर्मास हेतु स्थित होना है। पर्युषण का पालन करना भी एक प्रकार का विधि विधान है। वर्तमान में पर्युषण का महत्त्व गृहस्थ साधकों की दृष्टि से भी बढ़ता जा रहा है। यहां इतना अवश्य उल्लेखनीय है कि वर्तमान युग में सर्वाधिक रूप से प्रचलित कल्पसूत्र का 'साधु सामाचारी' नामक अन्तिम अधिकार दशाश्रुतस्कन्ध के इस आठवें अध्ययन से ही उद्धृत किया गया है तथा आदि के दो अधिकार अलग से बनाकर संयुक्त किये गये हैं।
नौवें उद्देशक में तीस महामोहनीय स्थानों का वर्णन किया है। जो आत्मा को मोहित करता है या जिसके संसर्ग से आत्मा विवेक शून्य हो जाती है वह मोहनीय कर्म हैं। यह आठ कर्मों में प्रधान माना गया है। यहाँ महामोहनीय के तीस स्थान कर्मबंध रूप कहे गये हैं महामोहनीय के कुछ स्थान निम्न हैं - १. त्रस प्राणियों को जल में डूबोकर मारना २. अग्नि के धुएँ से जीवों की हिंसा करना ३. असत्य आक्षेप लगाना ४. मिश्र भाषा का प्रयोग करना ५. विश्वास घात करना ६. धोखा देना ७. कृतघ्न बनना ८. उपकारी का उपघात करना ६. धर्म से भ्रष्ट करना १०. ज्ञानी का अवर्णवाद (निन्दा) करना ११. न्यायमार्ग से विपरीत प्ररूपणा करना १२. संघ में मतभेद पैदा करना १३. आचार्यादि का अविनय करना १४. किसी को जान-बूझकर दुःखी करना १५. अत्यधिक कामवासना करना आदि।
दशवें अध्ययन का नाम आयति-स्थान है। इसमें विभिन्न निदान कर्मों का वर्णन किया गया है। आयति का अर्थ है - जन्म अथवा जाति। निदान- जन्म का हेतु होने के कारण आयति स्थान माना गया है।
इस दशा में भगवान महावीर के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन सर्वोत्तम है। निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सब कर्मों से मुक्ति दिलाने वाला
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322/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
एवं मोक्ष का एक मात्र साधन है। अतः निदान नहीं करना चाहिए और किया हो तो आलोचना-प्रायश्चित्त करके उससे मुक्त हो जाना चाहिये। इसके साथ नौ प्रकार के निदानों का भी उल्लेख किया गया है।
निष्कर्षतः उपर्युक्त सभी अध्ययन किसी न किसी रूप में विधि-निषेध के संकेत देते हैं। इतना ही नहीं, श्रमण जीवन के लिए कौनसा मार्ग सही है? उस मार्ग का अनुसरण किस प्रकार किया जा सकता है? इत्यादि का सूक्ष्मविधान भी बतलाते हैं। दशाश्रुतस्कन्ध की विषयवस्तु पर विचार करते हुए आचार्य देवेन्द्रमुनि' ने कहा है कि असमाधिस्थान चित्तसमाधिस्थान, मोहनीयस्थान और आयतिस्थान में जिन तत्त्वों का संकलन किया गया है, वे वस्तुतः योगविद्या से सम्बद्ध हैं। योग की दृष्टि से चित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए ये अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उपासकप्रतिमा और भिक्षुप्रतिमा, श्रावक व श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं। शबलदोष और आशातना इन दो दशाओं में साधु जीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिए। चतुर्थ दशा गणिसम्पदा में आचार्यपद पर बिराजित श्रमण के व्यक्तित्व के प्रभाव तथा शरीरिक प्रभाव का अत्यन्त उपयोगी वर्णन किया गया है।
आचार्य ने दशाश्रुतस्कन्ध के प्रतिपाद्य पर ज्ञेयाचार, उपादेयाचार और हेयाचार की दृष्टि से भी विचार किया है - असमाधिस्थान, शबलदोष, आशातना, मोहनीयस्थान और आयतिस्थान में साधक के हेयाचार का प्रतिपादन है। गणिसम्पदा में अगीतार्थ अनगार के ज्ञेयाचार का और गीतार्थ अनगार के लिए उपादेयाचार का कथन है। चित्तसमाधिस्थान में उपादेयाचार का कथन है। उपासक प्रतिमा में अनगार के लिए ज्ञेयाचार और सागार श्रमणोपासक के लिए उपादेयाचार का कथन है। भिक्षु प्रतिमा में अनगार के लिए उपादेयाचार और सागर के लिए ज्ञेयाचार का कथन है। अष्टमदशा पर्युषणाकल्प में अनगार के आचार का वर्णन है।
- इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि दशाश्रुतस्कन्ध आचार नियमों का प्रतिपादन करने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और इसकी विषयवस्तु तार्किक ढंग से संयोजित है। व्याख्या साहित्य - दशाश्रुतस्कन्ध पर व्याख्या साहित्य के रूप में भद्रबाहुकृत नियुक्ति, अज्ञातकर्तृकचूर्णि, ब्रह्मर्षि या ब्रह्ममुनिकृत टिप्पणक एवं एक अज्ञातकर्तृक
' त्रीणिछेदसूत्राणि-देवेन्द्रमुनि शास्त्री पृ. १२-१३
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 323
पर्याय उपलब्ध है। इसमें से निर्युक्ति और चूर्णि का प्रकाशन हुआ है। इनमें १४१ गाथा परिमाण, चूर्णि २२२५ या २१६१ श्लोक परिमाण, ब्रह्ममुनि कृत टीका ५१५२ श्लोक परिमाण है । '
दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति - यह निर्युक्ति दशाश्रुतस्कन्ध नामक छेदसूत्र पर है। यह प्राकृत पद्य में है। इसमें १४१ गाथाएँ है । इस कृति के प्रारम्भ में नियुक्तिकार ने दसा, कल्प और व्यवहार सूत्र के कर्ता भद्रबाहु को नमस्कार किया है। विषय निरूपण का प्रारम्भ दशा के निक्षेप से किया गया है। द्रव्य निक्षेप की दृष्टि से दशा वस्तु की अवस्था है तो भावनिक्षेप की दृष्टि से जीवन की अवस्था हैं।
प्रथम अध्ययन असमाधिस्थान की नियुक्ति में द्रव्य और भावसमाधि का स्वरूप बताया गया है तथा स्थान के सम्बन्ध में पन्द्रह प्रकार के निक्षेपों का उल्लेख किया है। द्वितीय अध्ययन शबल की निर्युक्ति में शबल का नामादि चार निक्षेपों से व्याख्यान किया गया है। तृतीय अध्ययन आशातना की नियुक्ति में दो प्रकार की आशातनाओं की व्याख्या है। चतुर्थ अध्ययन गणि सम्पदा की निर्युक्ति में 'गणि और संपदा' पदों का निक्षेपपूर्वक विचार किया गया है। पंचम अध्ययन की नियुक्ति में 'चित्त और समाधि' का निक्षेप पूर्वक कथन किया गया है। षष्टम अध्ययन की निर्युक्ति में 'उपासक' और 'प्रतिमा' का निक्षेप पूर्वक व्याख्यान किया गया है।
सप्तम अध्ययन में भावभिक्षु की पाँच प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है। अष्टम अध्ययन की निर्युक्ति में पर्युषणाकल्प का व्याख्यान किया गया है। नवम अध्ययन में मोह के नामादि चार प्रकार कहे गये हैं और मोह के पर्यायवाची नाम बताये गये हैं। दशम अध्ययन में जन्म-मरण का क्या कारण है और मोक्ष किस प्रकार होता है इन दोनों प्रश्नों का समाधान किया गया है।
संक्षेपतः इस निर्युक्ति में मूलसूत्र की विशिष्ट विवेचना की गई है। जो प्रायश्चित्त विधान से गहरा सम्बन्ध रखती है।
दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति एक अध्ययन - डॉ. अशोककुमारसिंह, पृ. ५३
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324/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
निशीथसूत्र
प्रस्तुत आगम का नाम 'निशीथ' है। आचारांगनियुक्ति' में 'आयारकप्प' और 'निसीह' ये दो नाम प्राप्त होते हैं। छेदसूत्रों में निशीथ का प्रमुख स्थान है। निशीथ का अर्थ अप्रकाश्य' है। यह सूत्र अपवाद बहुल है। अतः इस सूत्र का वाचन अपरिपक्व को नहीं कराया जा सकता है।
छेदसत्र भी दो प्रकार के निर्दिष्ट हैं। कुछ अंग प्रविष्ट के अन्तर्गत आते हैं और कुछ अंगबाह्य के अन्तर्गत आते हैं। निशीथसूत्र अंग प्रविष्ट के अन्तर्गत आता है।
___निशीथ के रचनाकार के विषय में कई मत-मतान्तर है। सत्यमूलक कथन करना यहाँ शक्य नहीं है। वस्तुतः यह गोपनीय रखा जाने योग्य सूत्र है। यह अर्थ सूत्र के नाम से ही प्रगट होता है। इसके विषय में उल्लेख मिलते हैं कि जैसे रहस्यमय विद्या, मन्त्र, तन्त्र, योग आदि अनधिकारी या अपरिपक्व बुद्धि वाले व्यक्ति को नहीं बतायी जाती है वैसे ही निशीथसूत्र भी गोप्य है। निशीथ का अध्ययन वही कर सकता है जो तीन वर्ष का दीक्षित हो और गांभीर्य आदि गुणों से युक्त हो। प्रौढ़ता की दृष्टि से बगल में बालवाला एवं सोलह वर्ष की आयु पर्यायवाला साधु ही निशीथ का पाठक हो सकता है। व्यवहारसूत्र में कहा गया है कि निशीथ का ज्ञाता हुए बिना कोई भी श्रमण अपने सम्बन्धियों के यहाँ भिक्षा के लिए नहीं जा सकता है और न ही वह उपाध्याय आदि पद के योग्य माना जा सकता है। श्रमण-मण्डली का अग्रज होने में और स्वतन्त्र विहार करने में भी निशीथ का ज्ञान आवश्यक है। इतना ही नहीं निशीथ का ज्ञाता हुए बिना कोई साधु प्रायश्चित्त देने का अधिकारी भी नहीं हो सकता है। इसीलिए व्यवहारसूत्र में निशीथ को एक मानदण्ड के रूप में प्रस्तुत किया है।
___ यह आचारांग की पाँचवी चूला है। इसे एक स्वतन्त्र अध्ययन भी स्वीकारा गया हैं। यह गोपनीय होने से इसका अपर नाम निशीथाध्ययन है।
स्वरूपतः यह प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि-विधान का आकर और मूलभूत
' आचारांगनियुक्ति गा. २६१-३४७ २ निशीथभाष्य श्लोक ६४ ३ (क) निशीथचूर्णि ६१६५
(ख) व्यवहारभाष्य उ.७, भा. २०२-३
(ग) व्यवहारसूत्र उ.१०, गा. २०-२१ " वही उ.६, सू. ३ * व्यवहारसूत्र उ.३, सू. १
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/325
ग्रन्थ है। इसमें साधु-साध्वी के संयमी जीवन में लगने वाले दोषों की शुद्धि के लिए चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। यह प्राकृत गद्य में हैं। इसमें लगभग १५०० सूत्र हैं। वे बीस उद्देशकों में विभक्त हैं। इन बीस उद्देशकों में प्रायश्चित्त देने की प्रक्रिया (विधि) प्रतिपादित की गई है।
प्रथम उद्देशक में मासिक अनुद्घातिक (गुरुमास) प्रायश्चित्त का विधान है। दूसरे से लेकर पाँचवे उद्देशक तक मासिक उद्घातिक (लघुमास) प्रायश्चित्त का उल्लेख है। उद्देश्क छह से लेकर ग्यारह तक चातुर्मासिक अनुद्घातिक (गुरुचातुर्मास) प्रायश्चित्त का प्रावधान है। उद्देशक बारह से लेकर बीस तक चातुर्मासिक उद्घातिक (लघुचातुर्मास) प्रायश्चित्त का कथन है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि इन अध्ययनों का जो विभाजन किया गया है उसका आधार मासिक उद्घातिक, मासिक अनुद्घातिक, चातुर्मासिक उद्घातिक, चातुर्मासिक अनुद्घातिक और आरोपणा, ये पाँच विकल्प हैं। मुख्यतः प्रायश्चित्त के दो ही प्रकार है- मासिक और चातुर्मासिक। शेष द्विमासिक, त्रिमासिक, छहमासिक पर्यन्त ये प्रायश्चित्त आरोपणा के द्वारा बनते हैं। बीसवें अध्ययन का प्रमुख विषय आरोपणा' ही है। यहाँ प्रायश्चित्त विधान की चर्चा करने के पूर्व यह दर्शाना आवश्यक है कि प्रस्तुत सूत्र में प्रायश्चित्त के जो चार प्रकार बताये गये हैं वे प्रायश्चित्त किन-किन स्थितियों में किस-किस प्रकार से लगते हैं? तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्ततालिका इस प्रकार हैं -
(पराधीनता में या असावधानी में होने वाले अपराधादि का प्रायश्चित्त) | प्रायश्चित्त । जघन्यतप | मध्यमतप । उत्कृष्टतप १. लघुमास चार एकाशना | पन्द्रह एकाशना | सत्तावीस एकाशना २. गुरुमास चार नीवि पन्द्रह नीवि | तीस नीवि ३.लघु चौमासी चार आयंबिल | साठ नीवि एक सौ आठ उपवास | ४.गुरु चौमासी चार उपवास चार छठ्ठ (बेला) | एक सौ बीस उपवास या
चार मास दीक्षा पयार्य छेद
' विनयपिटक के पातिमोक्ख विभा. में भिक्षु-भिक्षुणियों के विविध अपराधों के लिए विविध प्रायश्चित्तों का वर्णन है, उद्धृत - जैन साहित्य का इतिहास भा. ३ पृ. २२१ ।। २ आरोपणा - एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के आसेवन से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना आरोपणा है। यह पाँच प्रकार की कही गई हैं १. प्रस्थापिता, २. स्थापिता, ३. कृत्सना, ४. अकृत्सना, ५. हाडहड़ा।
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326/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
आतुरता से लगनेवाले अतिचारादि के प्रायश्चित्त प्रायश्चित्त जघन्यतप | मध्यमतप | उत्कृष्टतप | १. लघुमास चार आयंबिल पन्द्रह आयंबिल सत्तावीस आयंबिल २. गुरुमास चार आयंबिल एवं पन्द्रह आयंबिल | तीस आयंबिल
पारणे में चोर एवं पारणा में पारणे में चोर | विगय का त्याग |चोर विगय का विगय का त्याग
त्याग | ३. लघु चौमासी चार उपवास चार छठ (बेले) एक सौ आठ
उपवास | ४. गुरु चौमासी चार छठ या चार चार अठ्ठम या एक सौ बीस दिन का छेद | चार दिन का छेद | उपवास या चार
मास का छेद तीव्र मोहदय (आसक्ति) से लगने वाले अतिचारादि के प्रायश्चित्त | प्रायश्चित्त नाम जघन्यतप
मध्यमतप | उत्कृष्टतप १. लघुमास चार उपवास पन्द्रह उपवास | सत्तावीस उपवास २. गुरुमास चारउपवास | पन्द्रह उपवास तीस उपवास चौवीहार त्याग
चौवीहार त्याग चौवीहार त्याग | ३. लघु चौमासी चार बेले, पारणे | चार तेले, पारणे | एक सौ आठ में आयंबिल में आयंबिल उपवास, पारणे में
आयंबिल ४. गुरु चौमासी चार तेले, पारणे | पन्द्रह तेले पारणे | एक सौ बीस
में आयंबिल या में आयंबिल या | उपवास, पारणे में ४० दिन का दीक्षा ६० दिन का दीक्षा | आयंबिल या १२० छेद
दिन का दीक्षा छेद यहाँ जानने योग्य है कि प्रतिसेवी की वय, सहिष्णुता और देश-काल के अनुसार गीतार्थ मुनि 'तालिका' में कहे प्रायश्चित्त से हीनाधिक तप-छेद आदि दे सकते हैं। दूसरी बात यह है कि निशीथसूत्र में जहाँ-जहाँ भी उक्त चार प्रकार के प्रायश्चित्त के विधान कहे गये हैं वहाँ-वहाँ पराधीनता, आतुरता एवं आसक्ति आदि की अपेक्षा तथा परिणामों और अध्यवसायों की तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम कोटियाँ के आधार पर समझने जानने चाहिये।
छेद
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/327
निशीथसत्र के प्रत्येक उद्देशक में पहले तत्तद् प्रायश्चित्त के योग्य कार्यों-दोषों का उल्लेख किया गया है अन्त में उन सब के लिए तत्सम्बद्ध प्रायश्चित्त विशेष का नामोल्लेख कर दिया गया है। निशीथसूत्र में उल्लखित प्रायश्चित योग्य दोषों एवं तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान का विवरण इस प्रकार हैपहला उद्देशक - इस उद्देशक में निम्नोक्त क्रियाओं के लिए गुरुमास अथवा मास-गुरु (उपवास) प्रायश्चित्त का विधान किया गया है - हस्तकर्म करना, अंगादान (कष्ठादि की नली को अंगादान में प्रवष्टि) करवाना, अंगादान का मर्दन करना, तेल आदि से अंगादान का अभ्यंग करना, पद्मचूर्ण आदि से अंगादान का उबटन करना, अंगादान को पानी से धोना, अंगादान में नली को प्रविष्ट करना, अंगादान करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा को दूर कर अन्दर का भाग खुला करना, अंगादान को सूंघना, सचित्त पुष्पादि सूंघना, सचित्त पदार्थ पर रखा हुआ सुगन्धित द्रव्य सूंघना, मार्ग में कीचड़ आदि से पैरों को बचाने के लिए दूसरों से पत्थर, आदि रखवाना, ऊँचे स्थान पर चढ़ने के लिए दूसरों से सीढ़ी आदि रखवाना, भरे हुए पानी को निकालने के लिए नाली आदि बनवाना, सुई आदि तीखी करवाना. कैंची को तेज करवाना, नखछेदक को ठीक करवाना, कर्ण शोधक को साफ करवाना, निष्प्रयोजन सुई की याचना करना, निष्प्रयोजन कैंची माँगना, अविधिपूर्वक सुई आदि मांगना, अपने लिए माँगकर लायी हुई सुई से पैर आदि का काँटा निकालना, सुई आदि को अविधिपूर्वक वापस सौंपना, अलाबु तुम्बे का पात्र, दारु-लकड़ी का पात्र और मृत्ति मिट्टी का पात्र दूसरों से साफ करवाना सुधरवाना, दण्ड, लाठी आदि दूसरों से सुधरवाना, पात्र पर शोभा के लिए कारी आदि लगाना, पात्र को अविधि पूर्वक बाँधना, पात्र को एक ही बंध (गाँठ) से बाँधना, पात्र को तीन से अधिक बंध से बाँधना, पात्र को अतिरिक्त बन्ध से बाँधकर डेढ़ महिने से अधिक रखना, वस्त्र पर (शोभा के लिए) एक कारी लगाना, वस्त्र पर तीन से अधिक कारियाँ लगाना, अविधि से वस्त्र सीना, वस्त्र के एक पल्ले के (शोभा निमित्त) एक गाँठ देना, वस्त्र के तीन पल्लों के तीन से अधिक गाँठ देना (जीर्ण वस्त्र को अधिक समय तक चलाने के लिए), वस्त्र को निष्कारण ममत्व भाव से गाँठ देकर बँधा रखना अन्य जाति के वस्त्र ग्रहण करना, अतिरिक्त वस्त्र डेढ महिने से अधिक रखना, अपने रहने के मकान का धूआँ दूसरे से साफ करवाना, निर्दोष आहार में सदोष आहार की थोड़ी सी मात्रा मिली हो उस आहार (पूतिकर्म) का उपभोग करना।। द्वितीय उद्देशक - इस द्वितीय उद्देशक में उन क्रियाओं (दोषों-अपराधों) का निर्देश किया गया है जिनके दोषों की शुद्धि के लिए लघुमास अथवा मासलघु (एकाशन)
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328/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
का प्रायश्चित्त आता है। मासलघु प्रायश्चित्त ये योग्य दोष ये हैं - दारुदण्ड का पादपोंछन करना, दारुदण्ड का पादपोंछन रखना, दारुदण्ड का पादपोंछन (शोभा के लिए) धोना, अचित्त भाजन आदि में रखी हुई गन्ध को सूंघना, कीचड़ के रास्ते में पत्थर आदि रखना, पानी निकालने की नाली आदि बनवाना, बाँधने का पर्दा आदि बनवाना, सुई को स्वयमेव सुधारना, कैंची आदि को स्वयमेव सुधारना, थोड़ा सा भी कठोर वचन बोलना, जरा सा भी झूठ बोलना, जरा सी भी चोरी करना, थोडे से भी अचित्त पानी से हाथ, पाँव, कान, आँख, दाँत, नख, मुख धोना, अखण्ड चर्म रखना, अखण्ड (बिना फाड़ा) वस्त्र रखना, अलाबु आदि से पाँव को स्वयमेव सुधारना-घिसना, दण्ड आदि को स्वयमेव सुधारना, किसी पर दबाव डालकर पात्र आदि लेना, हमेशा अग्रपिण्ड (चावल आदि पके हुए पदार्थों का ऊपर का प्रथम भाग, पहली ही पहली रोटी आदि) ग्रहण करना, हमेशा एक ही घर का आहार खाना, नित्य भाग (दान के लिए निकाला जाने वाला कुछ हिस्सा) का उपभोग करना, हमेशा एक ही स्थान पर रहना, दाता की प्रशंसा करना, भिक्षाकाल के पूर्व अथवा पश्चात् निष्कारण अपने परिचित घरों में प्रवेश करना, अन्यतीर्थिक आदि के साथ स्थंडिलभूमि के लिए जाना, अनेक प्रकार के खाद्यपदार्थ ग्रहण कर उनमें से अच्छी-अच्छी चीजें खा जाना एवं खराब चीजें फेंक देना, शय्यातर के घर का आहार पानी ग्रहण करना, माँग कर लाये हुए शय्या संस्तारक को मर्यादा से अधिक समय तक रखना, उपाश्रय का परिवर्तन करते समय बिना स्वामी की अनुमति के किसी प्रकार का सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना, प्रातिहारिक (वापिस देने योग्य) शय्या संस्तारक स्वामी को सौंपे बिना विहार कर लेना, बिना प्रतिलेखन के उपधि उपकरण रखना आदि-आदि। तीसरा उद्देशक - तृतीय उद्देशक में भी उन दोषों का उल्लेख किया गया है जिनकी शुद्धि के लिए मासलघु का प्रायश्चित्त विधान है। वे दोष निम्नोक्त हैं -
धर्मशाला, आरामगृह, गृहपतिकुल, तथा अन्यतीथिकागृह में जाकर अशनादि की याचना करना, इन्कार कर देने पर भी किसी के घर में आहारादि के निमित्त प्रवेश करना, भोजादि में से आहारादि ग्रहण करना, पाँवो को साफ करना, पैरों में तेल आदि लगाना, पैरों को उष्ण या शीत जल से धोना, गुर्दे अथवा कुक्षी में उत्पन्न कृमियों को अंगुली से निकालना, लंबे नाखूनों को काटना, गुह्य स्थान के लंबे बालों को काटना, जंघा-कुक्षि दाढ़ी मूछों के लंबे बालों को काटना, दाँतो को घिसना, दाँतों में रंग लगाना, आँखे मसल कर साफ सुथरी करना, पाँव आदि रगड़-रगड़ कर साफ करना, शरीर का पसीना साफ करना,
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सन आदि का धागा वशीकरण के लिए बटना, घर के सामने लघुनीति-बडीनीति परठना, सार्वजनिक स्थान, कीचड़ फूलन युक्तस्थान, इक्षुवन आदि उद्याग में मल-मूत्र फेंकना इत्यादि। चौथा उद्देशक- इस उद्देशक में भी मासलघु प्रायश्चित्त से सम्बन्धित क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें लिखा है कि जो साधु राजा को वश में करता है, राजा की पूजा करता है, राजरक्षक, नगरक्षक, निगमरक्षक, सर्वरक्षक को अपने वश में करता है उनकी अर्चा पूजा करता है, आचार्य उपाध्याय को बिना दिये आहार करता है, बिना गवेषणा के आहार करता है, निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी के उपाश्रय में बिना किसी संकेत किये प्रवेश करता है, परस्पर हँसी मजाक करता है, नया क्लेश उत्पन्न करता है, क्षमा मांगने देने के बाद पुनः क्लेश करता है, मुँह फाड़-फाड़कर हँसता है, पार्श्वस्थ (शिथिलाचारी) के साथ सम्बन्ध रखता है, गीले हाथ, बर्तन, चम्मच आदि से आहारादि ग्रहण करता है, स्थंडिल भूमि की प्रतिलेखना नहीं करता है, अविधिपूर्वक लघुनीति- बड़ीनीति का त्याग करता है उसके लिए लघुमासिक (मासलघु) प्रायश्चित का विधान है। पाँचवां उद्देशक- पाँचवा उद्देशक भी मासलघु प्रायश्चित्त से सम्बन्धित हैं। इसमें उल्लेख हैं कि जो साधु-साध्वी सचित्त वृक्ष के मूल पर कायोत्सर्ग करें, बैठे, खड़े रहे, अशनादि चारों प्रकार का आहार करें, स्वाध्याय करें, अपनी चादर गृहस्थ से सिलावे, चादर मर्यादा से अधिक लंबी बनावे, प्रातिहारिक पादपोंछन को उसी दिन वापिस न लौटावे, सचित्त लकड़ी का दण्ड आदि बनावे मुख का वीणा जैसा बनावे, पत्र, फूल, फल आदि की वीणा बनावे, इन वीणाओं को बजावे, अन्य प्रकार के शब्दों की नकल करे सामाचारी विरुद्ध आचार वाले साधु साध्वी के साथ आहार-विहार करें, परिमाण से अधिक लंबा रजोहरण रखे, बहुत छोटा एवं पतला रजोहरण रखे, रजोहरण को अपने से बहुत दूर रखें, रजोहरण पर बैठे, रजोहरण को सिर के नीचे रखे उसके लिए मासलघु प्रायश्चित्त का विधान है। छठा उद्देशक- इस उद्देशक में मैथुन सम्बन्धी क्रियाओं के लिए गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान बतलाया गया है। वे क्रियाएँ निम्न हैं - स्त्री से मैथुन सेवन के लिए प्रार्थना करना, मैथुन की कामना से हस्तकर्म करना, स्त्री की योनि में लकड़ी
आदि डालना, अपने लिंग का परिमर्दन करना, अपने अंगादान की तेल आदि से मालिश करना, निर्लज्ज वचन बोलना, क्लेश करना, वसति छोड़कर अन्यत्र जाना, विषय भोग के लेख करना, वसति छोड़कर अन्यत्र जाना, विषयभोग के लेख लिखना-लिखवाना, लेख लिखने-लिखवाने की इच्छा से बाहर जाना इत्यादि।
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330/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
सातवाँ उद्देशक- इस उद्देशक में भी मैथुन विषयक क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है और उन क्रियाओं से लगे दोषों की शुद्धि के लिए गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान बतलाया है। वे दोषयुक्त क्रियाएँ निम्न हैं - मैथुन की अभिलाषा से तृणमाला, दंतमाला, शंखमाला, पुष्पमाला आदि बनाना, रखना एवं धारण करना, लौह, ताम्र, रौप्य, सुवर्ण आदि का संचय एवं उपभोग करना, हार, अर्घहार, एकावली, मुक्तावली, रत्नावली, कुंडल, मुकुट, सुवर्णसूत्र आदि बनाना एवं धारण करना, चर्म से विविध प्रकार के वस्त्र बनाना एवं धारण करना, सुवर्ण के विविध जाति के वस्त्र बनाना एवं धारण करना, रागात्मक भाव पैदा करने वाले स्थानों को हिलाना या मसलना, पशु-पक्षी के पाँव, पंख, पूँछ आदि गुप्त अंग में लगाना, पशु-पक्षी को स्त्री रूप मानकर उसका आलिंगन, चुम्बन करना, मैथुनेच्छा से किसी को आहारादि देना, शास्त्र पढ़ाना, वाचना देना इत्यादि।
आठवाँ उद्देशक- यह उद्देशक भी गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। इसमें बताया गया है कि जो साधु धर्मशाला आदि में अकेली स्त्री के साथ रहता है, स्वाध्याय करता है, रात्रि अथवा संध्या में स्त्रियों से घिरा हुआ लम्बी-चौड़ी कथा कहता है, स्वगण या परगण की साध्वियों के साथ विहार करता है, अपने स्वजनों के साथ रहता है, साथ विहार करता है, राजा आदि द्वारा विशेष तौर पर तैयार किया गया आहारादि ग्रहण करता है, राजा की हस्तिशाला, गजशाला, गुह्यशाला, मैथुनशाला आदि में जाकर आहारादि ग्रहण करता है, राजा द्वारा दीन-दुखियों को दिये जाने वाले आहार में से किसी प्रकार की सामग्री ग्रहण करता है तो उसे गुरुचातुर्मास का प्रायश्चित्त लगता है। नौवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में भी उन उन दोष प्रधान क्रियाओं का वर्णन हैं जिनका सेवन करने पर गुरु चातुर्मास का प्रायश्चित्त आता है। निम्नलिखित क्रियाएँ गुरुचातुर्मास प्रायश्चित्त के योग्य हैं - राजपिण्ड ग्रहण करना, राजा के अन्तःपुर में प्रवेश करना, राजा के द्वारपाल आदि से आहारादि मंगवाना, राजा के यहाँ तैयार किये गये भोजन के चौदह भागों में से किसी भी भाग का आहार ग्रहण करना, नगर में प्रवेश करते समय अथवा बाहर जाते समय राजा को देखने का विचार करना, राजा के निवास-स्थान के आस-पास स्वाध्याय आदि करना,
'चौदह भा. ये हैं - १. द्वारपाल का भा. २. पशुओं का भा., ३. भृत्यों का भा., ४. बलि का भा., ५. दास-दासियों का भा., ६. घोडों का भा., ७. हाथियों का भा., ८. अटवी आदि को पार कर आने वालों का भा., ६. दुर्भिक्ष पीडितों का भा., १०. दुष्काल पीड़ितों का भा., ११. भिखारियों का भा. १२. रोगियों का भा., १३. वर्षा के निमित्त दान करने का भा. और १४. अतिथियों का भा.।
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दस' राज्याभिषेक की राजधानियों में राज्योत्सव होते समय महीने में दो-तीन बार प्रवेश करना अथवा निकलना ।
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दसवाँ उद्देशक यह उद्देशक भी गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। इसमें निर्देश है कि जो साधु आचार्य को कठोर एवं कर्कश वचन कहता है, आचार्य की अवज्ञा करता है, अनन्तकाय मिश्रित आहार करता है, आधाकर्मिक ( साधु के निमित्त बनाया हुआ ) आहार करता है, लाभालाभ का निमित्त बताता है, किसी निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी या दीक्षार्थी गृहस्थ- गृहस्थिनी को बहकाता या अपहरण करता है, सूर्योदय अथवा सूर्यास्त के प्रति निःशंक होकर आहार पानी करता है, रात को अथवा शाम को डकार आने पर सावधानी पूर्वक नहीं थुंकता है, वर्षाऋतु के प्रथम मास में ग्रामानुग्राम विचरण करता है, पर्युषण के काल के बिना ही पर्युषण करता है, पर्युषण (संवत्सरी) के दिन गोलोम मात्र भी बाल रखता है, पर्युषण के दिन आहार करता है, चातुर्मास प्रारम्भ होने के बाद और चातुर्मास पूर्ण होने के पहले वस्त्र की याचना करता है वह गुरु चातुर्मास प्रायश्चित्त का भागी होता है।
ग्यारहवाँ उद्देशक यह उद्देशक भी गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य क्रियाओं का प्रतिपादन करता है। वे क्रियाएँ निम्नलिखित हैं- लौह पात्र बनाना, लौह पात्र रखना, इसी प्रकार अन्य धातुओं के पात्र उपयोग में लाना, दंत, श्रृंग, वस्त्र, चर्म, रत्न शंख आदि के पात्र काम में लाना, (साधु को मिट्टी, अलाबु एवं काष्ठ के पात्र ही उपयोग में लेने का विधान है), दो कोस ( अर्धयोजन ) से आगे पात्र की याचना करने जाना, धर्म का अवर्णवाद करना, अधर्म की प्रशंसा करना, स्वयं को भयभीत करना या अन्य को भयभीत करना, स्वयं संयम धर्म से विमुख होना एवं दूसरों को उससे विमुख करना, रात्रिभोजन करना, बासी आहारादि का उपभोग करना, अयोग्य को दीक्षा देना, अयोग्य साधु-साध्वी की सेवा करना, बालमरण की प्रशंसा करना । बालमरण १७ प्रकार के कहे गये हैं। १. पर्वत से गिरकर मरना, २. रेत में प्रवेश कर मरना, ३. खड्डे में गिरकर मरना, ४ वृक्ष से गिरकर मरना, ५ . कीचड़ में फँसकर मरना, ६. पानी में प्रवेश कर मरना, ७. पानी में कूदकर मरना, ८. अग्नि में प्रवेश कर मरना, ६. अग्नि में कूदकर मरना, १०. विष का भक्षण कर मरना, ११. शस्त्र से आत्महत्या करना, १२. इन्द्रियों के वश
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, दस राज्य ये हैं हस्तिनापुर और राजगृह ।
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पर्युषण (भाद्रपद शुक्ला) की तिथि पंचमी वर्षाऋतु प्रारम्भ होने के पचास दिन बाद एवं समाप्त होने के ७० दिन पहले आती है। देखिए, समवायांग सू. ७०
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चम्पा, मथुरा, वाराणसी, श्रावस्ती, साकेत, कंपिल्ल, कौशम्बी, मिथिला,
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332/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
हो मृत्यु प्राप्त करना, १३. पुनः उसी भव में उत्पन्न होने का आयुकर्म बाँधकर मरना, १४. शल्यपूर्वक मरना, १५. फाँसी लगाकर मरना, १६. मृतक के कलेवर में प्रवेश कर मरना, १७. संयमभ्रष्ट होकर मरना इत्यादि। बारहवाँ उद्देशक - प्रस्तुत उद्देशक में लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोषों पर विचार किया गया है। वे दोषजन्य क्रियाएँ निम्न हैं- त्रसप्राणी को मुंजपाश, काष्ठपाश, चर्मपाश, रज्जुपाश, सूत्रपाश आदि से बाँधना, प्रत्याख्यान का भंग करना, सचित्त मिश्रित आहार, का उपभोग करना, सलोम चर्म रखना, साध्वी की संघाटी (चादर) गृहस्थ से सिलाना, पृथ्वीकायादि की विराधना करना, गृहस्थ के भाजन (पात्र) में भोजन करना, गृहस्थ के वस्त्र पहनना, गृहस्थ का औषधोपचार करना, निर्झर, गुफा, सरोवर, आदि विषम स्थानों को देखने के लिए आतुर रहना, गोशाला, अश्वशाला आदि देखने की अभिलाषा रखना, प्रथम पौरूषी में ग्रहण किया हुआ आहार अन्तिम पौरूषी तक रखना, पहले दिन गोबर ग्रहण कर दूसरे दिन काम में लेना, इसी प्रकार आलेपन आदि वस्तुओं का भी मर्यादा काल पूर्ण होने के बाद उनका उपयोग करना, अपने उपकरण गृहस्थ से उठवाना, गृहस्थ आदि से काम करवाकर बदले में आहारादि देना इत्यादि। तेरहवाँ उद्देशक- यह उद्देशक भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बद्ध है। इसमें प्रतिपादित हैं कि जो साधु पृथ्वीकायादि से सटकर बैठे, सोये, स्वाध्याय करे, सचित्त रज से भरी हुई शिला पर शयन करे, स्नान करने के स्थान पर उठे-बैठे, खुले आकाश में सोये-बैठे, गृहस्थ को शिल्प-कला आदि सिखा, गृहस्थ पर कोप करे, उन्हें कठोर वचन कहे, उन्हें भविष्य आदि बतलावें, मंत्र-तंत्र सिखावे, दर्पण, तलवार, मणि, पानी आदि में अपना मुख देखे, वमन करे, विरेचन लें, शिथिलाचारी को वन्दन नमस्कार करे, धात्री-दूती-निमित्त-आजीवक-चिकित्सापिण्ड के द्वारा आहार ग्रहण करें, क्रोधादिपूर्वक आहार ग्रहण करे उसके लिए लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। चौदहवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में पात्र सम्बन्धी दोषपूर्ण क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि जो भिक्षु स्वयं पात्र मोल लें, दूसरों से मोल लिवावे, मोल लेकर देता हो, उसे ग्रहण करें, उधार ले, उधार लिवावे, उधार दिया हुआ ग्रहण करे, अदल-बदल करे, करवावे या अदल-बदल कर देने वाले से ग्रहण करे, बलपूर्वक ले, स्वामी की अनुमति के बिना ले, सन्मुख लाकर देने वाले से ग्रहण करें, अतिरिक्त पात्र गणी की आज्ञा के बिना दूसरे साधुओं को दे, नये पात्र में तेल आदि लगावे, सचित्त पृथ्वी पर पात्र धूप में रखे, छत, खाट, खंभे आदि पर पात्र सूखावे, पात्र के लोभ से कहीं रहे अथवा वर्षावास करे वह लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है।
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पन्द्रहवाँ उद्देशक - प्रस्तुत उद्देशक में भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त सम्बन्धी क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें उल्लिखित हैं कि जो साधु किसी साधु को आक्रोशपूर्ण कठोर वचन कहे, किसी साधु की आशातना करे, सचित्त आम आदि खाये, सचित्त पदार्थ पर रखा हुआ अचित्त आम आदि खाये, गृहस्थ आदि से अपने हाथ-पाँव दबवावे, तेल आदि की मालिश करवावे, गृहस्थ को आहार-पानी दे, गृहस्थ के धारण करने का श्वेत वस्त्र ग्रहण करे, विभूषा के लिए पाँव आदि का प्रमार्जन करे, नख आदि काटे, दाँत आदि साफ करें, वस्त्र आदि धोवे उसके लिए लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। सोलहवाँ उद्देशक- इस सोलहवें उद्देशक में भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का ही विधान किया गया है। इसमें निरूपित है कि जो साधु पति-पत्नी के शयनागार में प्रवेश करे, सदाचारी को दुराचारी और दुराचारी को सदाचारी कहे, क्लेशपूर्वक सम्प्रदाय का त्याग करने वाले साधु के साथ खान-पान तथा अन्य प्रकार का व्यवहार रखे, अनार्य देश में विचरने की इच्छा करे, जूगुप्सित कुलों से आहार ग्रहण करें, गृहस्थ आदि के साथ आहार पानी करे, सचित्त भूमि पर लघुनीति-बड़ीनीति का उत्सर्ग करे वह लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। सत्रहवाँ उद्देशक - यह उद्देशक भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। इसमें उल्लेख हैं कि कुतहल के लिए किसी त्रस प्राणी को रस्सी आदि से बाँधना अथवा बंधे हुए प्राणी. को खोलना, तूण आदि की माला बनाना, रखना अथवा पहनना, खिलौने आदि बनाना- उनसे खेलना, समान आचार वाले साधु-साध्वी को स्थान आदि की सुविधा न देना, अतिउष्ण आहार ग्रहण करना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्यकरना, वीणा आदि सुनने की इच्छा करना इत्यादि क्रियाएँ करने वाले साधु के लिए लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान कहा गया है। अठारहवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित अनेक दोषपूर्ण क्रियाओं की चर्चा की गई हैं। वे इस प्रकार हैं - अकारण नाव में बैठना, नाव के खर्च के लिए पैसे लेना, दूसरों को पैसे दिलाना, नाव उधार लेना, नाव में बैठना, स्थल पर पड़ी हुई नाव को पानी में डलवाना, नाव में भरे हुए पानी को बाहर, फेंकना, ऊर्ध्वगामिनी या अधोगामिनी नौका पर बैठना, नाव चलाना या नाविक को सहयोग देना, नाव में आहारादि ग्रहण करना, वस्त्र खरीदना, वस्त्र को सचित्त पृथ्वी आदि पर सुखाना, अविधिपूर्वक वस्त्र की याचना करना इत्यादि। उन्नीसवाँ उद्देशक - प्रस्तुत उद्देशक में निम्नोक्त क्रियाओं के लिए लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान बताया गया है - अचित्त वस्तु का मोल करना, मोल
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334 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
लिवाना, मोल लेकर देने वाले से ग्रहण करना, उधार लेना-लिवाना आदि, रोगी साधु के लिए तीन दत्ति' से अधिक अचित्त वस्तु ग्रहण करना, अचित्त वस्तु (गुड़ आदि) को पानी में गलाना, अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करना, इन्द्रमहोत्सव, यज्ञमहोत्सव एवं भूत महोत्सव के समय स्वाध्याय करना, चैत्र प्रतिपदा, आषाढ़ी प्रतिपदा, भाद्रपद प्रतिपदा एवं कार्तिक प्रतिपदा के दिन स्वाध्याय करना, आचारांग को छोड़कर अन्य सूत्र पढ़ाना, अयोग्य को शास्त्र पढ़ाना, योग्य को शास्त्र न पढ़ाना, आचार्य उपाध्याय से न पढ़कर अपने आप ही स्वाध्याय करना, पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारियों को पढ़ाना अथवा उनसे पढ़ना इत्यादि ।
बीसवाँ उद्देशक इस बीसवें उद्देशक के प्रारम्भ में सकपट एवं निष्कपट आलोचना के लिए विविध प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। जो साधक निष्कपट आलोचना करता है उस साधक को जितना प्रायश्चित्त आता है उससे कपटयुक्त आलोचना करने वाले को एक मास अधिक प्रायश्चित्त आता है। भगवान् महावीर के शासन में उत्कृष्ट छः मास के प्रायश्चित्त का ही विधान है। इस उद्देशक में प्रथम विविध भंग बताकर प्रायश्चित्त का निरूपण किया गया है। प्रायश्चित्त स्थानों की आलोचना प्रायश्चित्त देने पर और उसके वहन काल में सानुग्रह - निरनुग्रह स्थापित और प्रस्थापित का भी स्पष्ट निरूपण किया गया है।
निशीथसूत्र के प्रस्तुत परिचय से स्पष्ट होता है कि यह प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि-विधान का एक आकर और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरु चातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त विधान के योग्य समस्त महत्त्वपूर्ण क्रियाओं का समावेश हुआ है । निःसंदेह यह अन्य आगमों से विलक्षण है।
निशीथनिर्युक्ति
जैन परम्परा में मूल सूत्र के रहस्यों को समझने एवं अभिव्यक्त करने हेतु समय-समय पर विविध व्याख्या साहित्य का निर्माण हुआ है। उनमें नियुक्ति को प्रथम स्थान मिला है। निशीथ के मूलसूत्र पर भी निर्युक्ति लिखी गई है जिसे अतिरिक्त नियुक्तियों में माना जाता है।
निशीथ निर्युक्ति प्राकृत पद्य में है । इस नियुक्ति की गाथाएँ निशीथ भाष्य में इस प्रकार समाविष्ट हो गई हैं कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। जहाँ पर चूर्णिकार संकेत करते हैं वहीं पर यह पता चलता है कि यह नियुक्ति की गाथा है
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एक बार में या एक धार में जितना आहार आहार दिया जाये या ग्रहण किया जाये वह दत्ति कहलाता है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/335
और यह भाष्य की गाथाएँ हैं। इसमें मूलग्रन्थ के प्रत्येक पद पर व्याख्या न कर मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्याएँ की गई है। यह व्याख्या शैली निक्षेप पद्धति परक है। निक्षेप पद्धति में किसी एक पद के सम्भावित अनेक अर्थ करने के पश्चात् उनमें से अप्रस्तुत अर्थों का निषेध कर प्रस्तुत अर्थ का ग्रहण किया जाता है। न्यायशास्त्र में यह पद्धति अत्यन्त प्रचलित रही है।
आर्यभद्र या भद्रबाहुस्वामी ने जो भी नियुक्तियाँ लिखी हैं उनमें प्रायः इस निक्षेप पद्धति को ही अपनाया है। यहाँ यह बताना अपेक्षित लग रहा है कि भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में लिखा है कि- एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं पर कौन सा अर्थ किस प्रसंग के लिए उपयुक्त है इत्यादि को ध्यान में रखते हुए सही दृष्टि से अर्थ निर्णय करना और उस अर्थ का मूलसूत्र के शब्दों के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का प्रयोजन है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बताने वाली व्याख्या नियुक्ति है अथवा निश्चय से अर्थ का प्रतिपादन करने वाली युक्ति नियुक्ति है। सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् सारपेण्टियर ने नियुक्ति की परिभाषा करते हुए लिखा है कि 'नियुक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इंडेक्स का काम करती हैं। वे सभी विस्तार युक्त घटनावलियों का संक्षेप से उल्लेख करती हैं।
निशीथनियुक्ति में भी सूत्रगत शब्दों की व्याख्या निक्षेप पद्धति से की गई है। संभवतः निशीथनियुक्ति एक प्रकार से आचारांगनियुक्ति का ही अंग है, क्योंकि आचारांगनियुक्ति के अंत में स्वयं नियुक्तिकार ने लिखा है कि पंचम चूलिका निशीथ की नियुक्ति मैं बाद में करुंगा। संक्षेपतः निशीथ मूलसूत्र की भाँति निशीथनियुक्ति भी प्रायश्चित्त विधि-विधान का मौलिक ग्रन्थ है। इसमें प्रायश्चित्त योग्य दोषपूर्ण क्रियाओं (शब्दों) का सूत्रशः अर्थ किया गया है। निशीथभाष्य
नियुक्तियों की व्याख्या शैली अत्यन्त गूढ़ और संक्षिप्त होती हैं। उसका मुख्य लक्ष्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना होता है। परन्तु नियुक्तियों के गम्भीर रहस्यों को प्रकट करने वाले पद्यात्मक प्राकृत व्याख्याएँ भाष्य कहलाती है। नियुक्तियों के शब्दों में छिपा हुआ अर्थ बाहुल्य भाष्य द्वारा अभिव्यक्त होता है।
' आवध्यकनियुक्ति गा. ८८ २ 'सूत्रार्थयोः परस्परं नियोजन सम्बन्धनं नियुक्ति - वही ८३ ३ निश्चयेन अर्थप्रतिपादिक युक्तिः नियुक्तिः - वही १/२/१ * उद्धृत-निशीथसूत्र, भूमिका देवेन्द्रमुनि पृ. ६५ ५ पंचमचूला निसीहं, तस्स य उवरि भणीहामि - आवश्यकनियुक्ति गा. ३४६
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निशीथभाष्य के रचयिता संघदासगणि है । प्रस्तुत भाष्य की अनेक गाथाएँ बृहत्कल्प और व्यवहारभाष्य में हैं। इसमें अनेक रसप्रद सरस कथाएँ भी है। संक्षेपतः तः यह भाष्य विविध दृष्टियों से श्रावकाचार एवं तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान का निरूपण करता है।
निशीथचूर्णि
निशीथसूत्र पर दो-दो चूर्णियाँ निर्मित हुई हैं किन्तु वर्तमान में उस पर एक ही चूर्णि उपलब्ध है। निशीथचूर्णि के रचयिता जिनदासगणि महत्तर हैं। इस चूर्णि को विशेष चूर्णि कहते हैं। यह चूर्णि मूलसूत्र, निर्युक्ति एवं भाष्य गाथाओं के विवेचन के रूप में है। इसकी भाषा संस्कृत मिश्रित प्राकृत है।
निशीथचूर्णि में निशीथ के मूल भावों को स्पष्ट करने के लिए कुछ नये तथ्य चूर्णिकार ने अपनी ओर से दिये हैं। निशीथसूत्र के बीस अध्ययनों का संक्षिप्त सार कहा जा चुका है। यहाँ निशीथ चूर्णि में प्रायश्चित्त विधान के योग्य और विशेष जो भी दोष या अपराधपूर्ण क्रियाओं का निरूपण किया गया है उनका संक्षिप्त विवेचन यह हैं
प्रारम्भ में अरिहंतादि को नमस्कार किया गया है तथा आचार्य, अग्र, प्रकल्प, चूलिका, और निशीथ का निक्षेप पद्धति से चिन्तन किया गया है। निशीथ का अर्थ अप्रकाश-अधंकार किया है। आचार का विशेष कथन करते हुए निर्युक्ति गाथा को भद्रबाहुकृत बताया है। आगे चार प्रकार के प्रतिसेवक पुरुष बताये गये हैं जो उत्कृष्ट, मध्यम अथवा जघन्य कोटि के होते हैं। इन पुरुषों का विविध भंगों के साथ विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसी प्रकार स्त्री और नपुंसक प्रतिसेवकों का भी स्वरूप बताया गया है। आगे षड्जीवनिकाय, अहिंसादि छः व्रत, पिण्डविशुद्धि आदि का वर्णन किया गया है । पुनः पीठिका का उपसंहार करते हुए यह कहा गया है कि निशीथ पीठिका का सूत्रार्थ बहुश्रुत को ही देना चाहिए, अयोग्य पुरुष को नहीं।
प्रथम उद्देशक में चतुर्थ महाव्रत का विस्तार से विवेचन है। दूसरे उद्देशक में द्रव्यसंस्तव चौसठ प्रकार का बताया गया है उसमें चौबीस प्रकार के धान्य, चौबीस प्रकार के रत्न, तीन प्रकार के स्थावर, दो प्रकार के द्विपद, दस प्रकार के चतुष्पद आते हैं। इसके साथ ही शय्यातर कौन होता है, वह शय्यातर कब बनता है, उसके पिण्ड के प्रकार, अशय्यातर कब बनता है, सागारिक पिण्ड के ग्रहण से दोष, किस परिस्थिति में सागारिक पिण्ड ग्रहण किया जा सकता है इत्यादि विषयों
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पर चिन्तन किया गया है। शय्या संस्तारक' का अन्तर बताया गया है। उपधि के विवेचन में अवधियुक्त और उपगृहीत ये दो प्रकार बताये हैं। जिन कल्पिकों के लिए बारह प्रकार की, स्थविर कल्पिकों की लिए चौदह प्रकार की और साध्वियों के लिए पच्चीस प्रकार की उपधि अवधि युक्त कही है।
तीसरे उद्देशक में भिक्षाग्रहण में लगने वाले दोषों और उनकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान है, अन्य दोषों के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया है चौथे उद्देशक में कायोत्सर्ग के विविध प्रकार, सामाचारी, राजा, अमात्य, राजपुरोहित, श्रेष्ठि, सार्थवाह, गणधर आदि के लक्षण, संरंभ, समारंभ और आरंभ के भेद प्रभेदादि का उल्लेख हुआ है। पाँचवे उद्देशक में शय्या के चौदह प्रकार, संभोग का अर्थ, संभोगिक सम्बन्ध को समझाने के लिए कुछ ऐतिहासिक आख्यान दिये हैं। छठे उद्देशक में मैथुन सम्बन्धी दोष और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त कहे गये हैं। सातवें उद्देशक में कामी भिक्षु के लिए पत्र पुष्पादि की मालाएँ बनाना पहनना आदि का निषेध किया है विकृत आहार का भी निषेध किया गया है। आठवें उद्देशक के प्रांरभ में अकेला साधु चतुर्थ महाव्रत की सुरक्षा के लिए क्या-क्या न करे उसका निर्देश है। अन्त में स्त्री और पुरुष के आकारों के विषय में कुछ आवश्यक बातें कही गई हैं।
नवमें उद्देशक में मुख्यतः पिण्ड का विचार किया गया है। उसमें साधु को किस-किस के निमित्त का बना हुआ आहार कल्पित नहीं होता है वह बताया गया है तथा साधु को कहाँ-कहाँ आहार के लिए नहीं जाना चाहिए निषिद्ध स्थान में जाने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त भी कहे गये हैं। दशवें उद्देशक में आधाकर्मिक आदि आहार के दोषों का सेवन करने या, रुग्ण की उपेक्षा करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। वर्षावास-प!षणा के एकार्थक शब्द दिये गये हैं। ग्यारहवें उद्देशक में पात्र-ग्रहण की चर्चा है, भय के चार प्रकार कहे हैं, अयोग्य की दीक्षा का निषेध किया है और अठारह, बीस एवं दस प्रकार के दीक्षा के अयोग्य पुरूष बतलाये गये हैं। बारहवें उद्देशक में त्रसप्राणी सम्बन्धी बन्धन मुक्ति, प्रत्याख्यान, भंग आदि का वर्णन हुआ है। तेरहवें उद्देशक में सचित्त पृथ्वी आदि का स्पर्श करना, धात्रादि पाँच पिण्ड द्वारा भिक्षा ग्रहण करना, वमन विरेचन कर्म करना आदि साधु के लिए दोषकारी कहा है और इनका प्रायश्चित्त विधान भी कहा गया है। चौदहवें उद्देशक में पात्र सम्बन्धी दोषों का निरूपण कर उससे मुक्त होने के
' शय्या सम्पूर्ण शरीर के बराबर होती है और संस्तारक ढाई हाथ लम्बा होता है। २ संभोग - यथोक्त विधि से एकत्र आहारोपभोग । जिन साधुओं में परस्पर खान-पान आदि का व्यवहार होता है, वे सांभोगिक कहलाते हैं।
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338 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
लिए प्रायश्चित्त का विधान कहा है । पन्द्रहवें उद्देशक में श्रमण - श्रमणियों को सचित्त आम खाने का निषेध किया है। श्रमण श्रमणियों की दृष्टि से तालप्रलम्ब के ग्रहण की विधि पर भी प्रकाश डाला गया है। सोलहवें उद्देशक में श्रमण को देहविभूषा और अति उज्जवल उपधि धारण का निषेध किया है। उन्हें ऐसे स्थान पर रहना चाहिए जहाँ ब्रह्मचर्य की विराधना न हो । साधु को घृणित कुल में से आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए यह भी बताया गया है। सत्रहवें अध्ययन में गीत, हास्य, वाद्य, नृत्य, अभिनय आदि का स्वरूप बताकर श्रमण के लिए उनका आचरण करना योग्य नहीं माना गया है।
अठारहवें उद्देशक में नौका सम्बन्धी दोषों पर चिन्तन किया गया है। नौका पर आरूढ होना, नौका खरीदना, नौका में पानी भरना या खाली करना, नौका को खेना, नाव से रस्सी बांधना, आदि के प्रायश्चित्त का वर्णन है । उन्नीसवें उद्देशक में स्वाध्याय और अध्यापन के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। इसमें अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करने से लगने वाले दोष, अयोग्य को स्वाध्याय कराने से लगने वाले दोष और योग्य व्यक्ति को न पढ़ाने से लगने वाले दोषों पर प्रकाश डाला गया है। बीसवें उद्देशक में मासिक आदि परिहार स्थान, प्रतिसेवन, आलोचना, प्रायश्चित्त आदि पर चिन्तन किया गया है। अन्त में चूर्णिकार ने अपना नाम निर्देश किया है और चूर्णि का नाम 'विशेषचूर्णि' लिखा है।' निष्कर्षतः यह चूर्णि अपने आप में विशिष्ट है। इसमें आचार के नियमोपनियम एवं आचारविधि में लगने वाले दोष और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान का सविस्तृत व्याख्यान हुआ है। साथ ही भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक, प्राचीन सामग्री का इसमें अनूठा संग्रह है। अनेक ऐतिहासिक और पौराणिक कथाओं का सुन्दर संकलन है । निशीथचूर्णिदुर्गपदव्याख्या
जैन परम्परा में श्री चन्द्रसूरि नाम के दो आचार्य हुए हैं। एक मलधारी हेमचन्द्रसूरि के शिष्य थे और दूसरे चन्द्रकुल के श्री शीलभद्रसूरि और धनेश्वरसूरि गुरु- युगल के शिष्य थे। उन्होंने निशीथचूर्णि के बीसवें अध्ययन पर 'निशीथचूर्णि - दुर्गपदव्याख्या' नामक टीका लिखी है। चूर्णि के कठिन स्थलों को सरल व सुगम बनाने के लिए इसकी रचना की गई है, जैसा कि व्याख्याकार ने स्वयं स्वीकार किया है। परन्तु यह वृत्ति महिनों के प्रकार, दिन आदि के सम्बन्ध में विवेचन करने से नीरस हो गई है।
१
निशीथसूत्र-मधुकरमुनि, आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, भूमिका के आधार पर
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प्रायश्चित्त ग्रन्थ
यह कृति संस्कृत पद्य में है। इसमें केवल श्रावकों के प्रायश्चित्त का निरूपण है। इसकी श्लोक संख्या ८८ है। इसमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं है, केवल आदि और अन्त में इसके कर्ता का नाम श्रीमद् भट्टाकलंकदेव बतलाया गया है। परन्तु जान पड़ता है कि ये तत्त्वार्थ, राजवार्तिक आदि महान ग्रन्थों के कर्ता अकलंकदेव से भिन्न कोई दूसरे ही विद्वान होंगे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि प्रतिष्ठा-पाठ के कर्ता अकलंक ही इसके रचयिता हो।
इतना निश्चित है कि प्रतिष्ठा पाठ के कर्ता अकलंक १५ वीं शती के बाद हुए हैं। उन्होंने आदिपुराण, ज्ञानार्णव, एकासन्धिसंहिता, सागारधर्मामृत, आशाधर- प्रतिष्ठापाठ, बह्मसूरि त्रिवर्णाचार, नेमिचन्द्र-प्रतिष्ठापाठ आदि ग्रन्थों के बहुत से पद्य अपने ग्रन्थ में लिये हैं। अतएव वे इन सब ग्रन्थकर्ताओं के बाद के विद्वान् हैं, यह कहना कोई असंगत नहीं होगा। इस ग्रन्थ की रचना शैली से भी मालूम होता है कि न तो यह उतना प्राचीन ही है और न भट्ट अकलंकदेव की रचनाओं के समान इसमें कोई प्रौढ़ता ही है।
इसमें 'मोक्कुला' शब्द जो बीसों जगह आया है वह संस्कृत नहीं है, देशभाषीय है। गुजराती और मारवाड़ी में 'मोकला' शब्द विपुलता का या अधिकता का वाचक है। लघु अभिषेक और मोकला अर्थात् बड़ा अभिषेक आदि और भी ऐसी कई बातें हैं जिनसे इसकी अर्वाचीनता प्रकट होती है; जैसे अनेक अपराधों के दण्ड में गौओं का दान और ताम्बूलदान। जहाँ तक मेरी जानकारी है कि अनेक जैन आचार्यों ने 'गो-दान' का निषेध किया है। इसके सिवाय इस ग्रन्थ का पूर्व के तीन प्रायश्चित्त ग्रन्थों के साथ मतभेद भी मालूम होता है उदाहरण के लिए यह श्लोक द्रष्टव्य है -
जननीतनुजादीनां चाण्डालादिस्त्रियामपि ।
संभोगे सति शुद्धयर्थं पंचाशदुपवासकाः ।। अर्थात् माता, पुत्री चाण्डाली आदि के साथ व्यभिचार करने वाले को पंचाशत् उपवास करने चाहिए; परन्तु अन्य तीनों ग्रन्थों, यथा प्रायश्चित्तचूलिका, छेदपिण्ड, छेदशास्त्र में इस पाप के प्रायश्चित्त में बत्तीस उपवास लिखे है। इसी तरह अन्यान्य पापों के प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में भी मतभेद है।
निष्कर्षतः यह कृति अर्वाचीन है।' हमें जिनरत्नकोश (पृ. २७६-२८०)
' यह ग्रन्थ 'प्रायश्चित्तसंग्रह' के नाम से माणिकचन्द्र-दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, हीराबाग, मुंबई नं. ४ से प्रकाशित हुआ है।
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340 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
में प्रायश्चित्त विधि-विधान सम्बन्धी निम्न रचनाएँ प्राप्त होती हैं। उनका उपलब्ध वर्णन इस प्रकार है -
प्रायश्चित्ततपविधि - इसकी कोई जानकारी नहीं मिली है।
प्रायश्चित्त चूलिका यह ग्रन्थ संस्कृत में है और सटीक है। मूल ग्रन्थ की श्लोक संख्या १६६ है। इसकी एक मूल प्रति के आधार से मालूम होता है कि मूलग्रन्थ के कर्त्ता श्री गुरुदास है और वृत्ति के कर्त्ता श्री नन्दिगुरु है ।
प्रस्तुत कृति की भूमिका में यह लिखा गया है कि मूलकर्त्ता का नाम बिल्कुल अपरिचित और विलक्षण है अतः उन्हें इस नाम के होने में सन्देह है। यदि ग्रन्थकर्त्ता का नाम गुरुदास ही है, तो भी हमे उनके विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। इसमें उल्लेख हैं कि राजा भोज के समय में श्रीचन्द्र नाम के एक विद्वान हुये थे, उनका 'पुराणसार' नामक एक ग्रन्थ है। वह वि. सं. १०७० का बना हुआ है। उसकी प्रशस्ति में उन्होंने लिखा है कि सागरसेन नामक आचार्य से महापुराण पढ़कर श्री नन्दि के शिष्य श्रीचन्द्र मुनि ने यह ग्रन्थ बनाया है । इसी तरह आचार्य वसुनन्दि ने अपने श्रावकाचार में भी एक श्री नन्दि का उल्लेख किया है जो उनकी गुरु परम्परा में थे- श्री नन्दि, नयनन्दि, नेमिचन्द्र और वसुनन्दि । वसुनन्दि का समय बारहवीं शताब्दी है, अतः उनके दादागुरु के गुरु अवश्य ही उनसे १०० वर्ष पहले हुए होंगे और इस तरह संभवतः श्रीचन्द्र के गुरु और वसुनन्दि के परदादा गुरु एक ही होंगे। उक्त वर्णन के आधार पर यदि प्रायश्चित्त टीका के कर्त्ता श्री नन्दिगुरु और श्रीचन्द्र के गुरु श्री नन्दि' एक ही हैं, तो कहना होगा कि यह टीका विक्रम की ११ वीं शती में रची गई है और ऐसी में मूलग्रन्थ उससे भी पहले का बना हुआ होना चाहिए।
दशा
इस ग्रन्थ में साधु और उपासक दोनों से सम्बन्धित प्रायश्चित्त कहे गये हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं प्रयोजनरूप तीन श्लोक दिये गये हैं । प्रस्तुत कृति में भी पाँच महाव्रत, छठा रात्रिभोजनविरमणव्रत, पाँच समिति, आवश्यकशुद्धि, प्रतिक्रमण इत्यादि में लगने वाले दोषों के प्रायश्चित्त निरूपित किये गये हैं।
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यह कृति नाथुरामप्रेमी, माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, हीराबाग, मुंबई नं. ४, वि.सं. १६७८ की प्रकाशित है। बाबा दुलीचन्दजी की सूची में श्रीनन्दि मुनि के एक ' यतिसार' नामक सटीक ग्रन्थ का उल्लेख है। उसमें यह लिखा है कि यह ग्रन्थ जयपुर में मौजूद है।
२
जैनहितैषी भा. १४ पृ. ११८ - १६ में बाबू जुगलकिशोरजी ने इस विषय पर एक विस्तृत नोट दिया है।
३ यह कृति ‘प्रायश्चित्तसंग्रह' नामक पुस्तिका में संकलित है।
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प्रायश्चित्त सामाचारी - इसके कर्त्ता तिलकाचार्य है। प्रायश्चित्त प्रदान विचार बडी के ज्ञानभंडार में मौजूद है। प्रायश्चित्त निरूपण यह ग्रन्थ दिगम्बर मुनि सोमसेन ने रचा है। प्रायश्चित्तविशुद्धि यह रचना सूरत के ज्ञानभंडार में उपलब्ध है। प्रायश्चित्त विधान - यह मुनि हंससागरजी के ज्ञानभंडार में सुरक्षित है। प्रायश्चित्त- इसके कर्त्ता विद्यानन्दी है । उनकी यह रचना संस्कृत में हैं। प्रायश्चित्त यह रचना इन्द्रनन्दी की प्राकृत में है। प्रायश्चित्त यह रचना अकलंक की है। इसमें ६० श्लोक है। यह श्रावकाचार के नाम से प्रसिद्ध है। यह मुंबई से वि.सं. १६७८ में प्रकाशित हुई है। प्रायश्चित्त यह अज्ञातकर्तृक है। इसके अन्त में ६० गाथाएँ क्रमबद्ध है।
बृहत्कल्पसूत्र
जैन आगम साहित्य में बृहत्कल्प सूत्र का अति महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । छेदसूत्रों में इसका दूसरा स्थान है। अन्य छेदसूत्रों की भाँति इस सूत्र में भी श्रमणों के आचार विषयक विधि - निषेध, उत्सर्ग - अपवाद, तप, प्रायश्चित्त आदि का चिन्तन किया गया है। इसमें छह अध्ययन हैं, ८१ अधिकार हैं। इसका ग्रंथमान ४७३ श्लोक परिमाण है। इसमें कुल २०६ सूत्र हैं। यह कृति गद्य में है।
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कल्प का अर्थ - प्रस्तुत सूत्र में 'कल्प' शब्द का अर्थ आचार मर्यादा है। जिस शास्त्र में साधु आचार की मर्यादाओं एवं आचार विधियों का वर्णन हो, वह कल्प कहलाता है। जिस सूत्र में प्रभु महावीर, प्रभु पार्श्वनाथ, प्रभु अरिष्टनेमि और प्रभु ऋषभदेव के जीवनवृत्त के साथ-साथ साधु सामाचारी का वर्णन हो, वह पर्युषणा कल्प होने से लघुकल्प के नाम से जाना जाता है। जिस शास्त्र में साधुओं की आचार मर्यादा का विस्तृत वर्णन हो, वह बृहत्कल्प कहलाता है। इसमें सामायिक, छेदोपस्थापनीय और परिहारविशुद्धि इन तीनों चारित्रों के विधि-विधानों का सम्यक् वर्णन है।
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यहाँ ध्यातव्य है कि पर्युषणाकल्प ( कल्पसूत्र ) से प्रस्तुत कल्पसूत्र का नाम भिन्न दिखाने के लिए इसका नाम 'बृहत्कल्प' रख दिया गया है। वस्तुतः 'बृहत्कल्प' नाम का कोई आगम नहीं है। नंदीसूत्र में इसका नाम 'कप्पो' है। इस ग्रन्थ का विधि-विधान परक विवरण इस प्रकार हैप्रथम उद्देशक इस उद्देशक में ५० सूत्र है। इसमें प्रथम के पाँच सूत्र तालप्रलंब विषयक है। इसमें निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के लिए तालप्रलंब को ग्रहण करने का निषेध किया गया है, किन्तु विधिपूर्वक विदारित, पक्वतालप्रलंब लेना कल्प्य है, ऐसा प्रतिपादित किया गया है। इसके आगे मासकल्प विषयक नियम में श्रमणों के
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342/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
ऋतुबद्धकाल-हेमन्त और ग्रीष्मऋतु के ८ महिनों में एक स्थान पर रहने के अधिकतम समय का विधान किया गया है। श्रमणों को प्राचीर के अन्दर एवं प्राचीर से बाहर निम्नोक्त १६ प्रकार के स्थानों में वर्षाऋतु के अतिरिक्त अन्य समय में एक साथ, एक मास से अधिक ठहरना नहीं कल्पता है। वे १६ स्थान ये हैं - १. ग्राम- जहाँ राज्य की ओर से १८ प्रकार के कर लिये जाते हों। २. नगरजहाँ १८ प्रकार के कर न लिये जाते हों। ३. खेट- जिसके चारों ओर मिट्टी की दीवार हो। ४. कर्बट- जहाँ कम लोग रहते हों। ५. मडम्ब- जिसके बाद ढाई कोस तक कोई गाँव न हो। ६. पत्तन- जहाँ सब वस्तुएँ उपलब्ध हों। ७. आकर- जहाँ धातु की खाने हों। ८. द्रोणमुख- जहाँ जल और स्थल को मिलाने वाला मार्ग हो, जहाँ समुद्री माल आकर उतरता हो। ६. निगम- जहाँ व्यापारियों की बस्ती हो। १०. राजधानी- जहाँ राजा के रहने का महल आदि हो। ११. आश्रम- जहाँ तपस्वी आदि रहते हो। १२. निवेश- सन्निवेश जहाँ सार्थवाह आकर उतरते हो। १३. सम्बाध-संबाह- जहाँ कृषक रहते हों अथवा अन्य गाँव के लोग अपने गाँव से धन आदि की रक्षा निमित्त पर्वत, गुफा आदि में आकर ठहरे हुए हों। १४. घोष- जहाँ गाय आदि चराने वाले ग्वाले रहते हों। १५. अंशिका- गाँव का अर्ध, तृतीय अथवा चतुर्थभाग १६. पुटभेदन- जहाँ पर गाँव के व्यापारी अपनी चीजें बेचने आते हों।
इस प्रकार विधि-निषेध रूप एवं विधि-विधान रूप अनेक प्रसंगों की चर्चा की गई हैं हम उनका विस्तृत वर्णन न करते हुए नामनिर्देश मात्र कर रहे हैं। यथावश्यक स्पष्टीकरण किया जाने का भी प्रयास रहेगा। पुनः प्रथम उद्देशक में ये विधान उल्लिखित हैं - १. साध-साध्वी के तालप्रलंब ग्रहण करने संबंधी विधि-निषेध २. ग्रामादि में साधु-साध्वी के रहने की कल्पमर्यादा। ३. ग्रामादि में साधु-साध्वी के एक साथ रहने सम्बन्धी विधि-निषेध। ४. आपणगृह आदि में साधु-साध्वियों के रहने सम्बन्धि विधि-निषेध। ५. बिना द्वार वाले स्थान में साधु-साध्वी के रहने की विधि। ६. साधु-साध्वी को घटीमात्रक ग्रहण करने के विधि-निषेधा ७. चिलमिलिका (मच्छरदानी) ग्रहण करने का विधान। ८. सागारिक की निश्रा लेने का विधान। ६. गृहस्थ युक्त उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध १०. प्रतिबद्ध शय्या में ठहरने के विधि-निषेध। ११. विहार सम्बन्धी विधि-निषेध। १२. गोचरी आदि में नियंत्रित वस्त्र आदि के ग्रहण करने की विधि १३. रात्रि में आहारादि की गवैषणा का आपवादिक विधान १४. आर्यक्षेत्र में विचरण करने का विधान।
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इसमें प्रतिपादित विधि-विधान आवास से सम्बद्ध है। द्वितीय उद्देशक- इस उद्देशक में पच्चीस सूत्र हैं- उनमें उपाश्रय शय्यातर पिंड एवं वस्त्र ग्रहण सम्बन्धी निम्नलिखित विधान कहे गये हैं - १. धान्ययुक्त उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध। २. सुरायुक्त मकान में रहने का विधि-निषेध व प्रायश्चित्त। ३. जलयुक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध व प्रायश्चित्त। ४. अग्नि या दीपक युक्त उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध एवं प्रायश्चित्त। ५. खाद्य पदार्थ युक्त मकान में रहने के विधि-निषेध और प्रायश्चित्त ६. धर्मशाला आदि में ठहरने के विधि-निषेध ७. अनेक स्वामियों वाले मकान की आज्ञा लेने के विधि-निषेध। ८. संसृष्ट-असंसृष्ट शय्यातर पिंड को ग्रहण करने के सम्बन्ध में विधि-निषेध। ६. शय्यातर के घर आये या भेजे गये आहार के ग्रहण की विधि। १०. शय्यातर के अंशयुक्त आहार ग्रहण करने की विधि और निषेधा ११. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के लिए कल्पनीय वस्त्र की विधि १२. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी के लिए कल्पनीय रजोहरण की विधि तृतीय उद्देशक - इस उद्देशक में इकतीस सूत्र हैं उनमें मुख्य रूप से वस्त्रग्रहण, शय्या-संस्तारक ग्रहण, मार्ग मे निवास मर्यादा, अवग्रह परिमाण आदि से सम्बन्धित विधि-निषेध और विधि-विधान कहे गये हैं वे निम्न हैं :१. साधु-साध्वी द्वारा वस्त्र ग्रहण करने के विधि-निषेध। २. साधु-साध्वी को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टक धारण करने के विधि-निषेध। ३. साध्वी को अपने द्वारा वस्त्र ग्रहण करने का निषेध। ४. दीक्षा के समय ग्रहण करने योग्य उपधि का विधान। ५. यथारात्निक के लिए वस्त्र ग्रहण का विधान। ६. यथारात्निक के लिए शय्या-संस्तारक ग्रहण का विधान। ७. यथारांत्निक के लिए कृतिकर्म करने का विधान। ६. गृहस्थ के घर में मर्यादित भाषण का विधान। ६. गृहस्थ के घर में मर्यादित धर्मकथा का विधान। १०. गृहस्थ के शय्या-संस्तारक लौटाने का विधान। ११. शय्यातर का शय्या-संस्तारक व्यवस्थित करके लौटाने का विधान। १२. खोये हुए शय्या-संस्तारक के अन्वेषण का विधान। १३. स्वामी-रहित घर की पूर्वाज्ञा एवं पुनः आज्ञा का विधान। १४. पूर्वाज्ञा से मार्ग आदि में ठहरने का विधान। १५. सेना के समीपवर्ती क्षेत्र में गोचरी जाने का विधान एवं रात रहने का प्रायश्चित्ता चतुर्थ उद्देशक - इस उद्देशक में सैंतीस सूत्र हैं। इनमें भिन्न-भिन्न विषयों से सम्बन्धित विधि-विधान एवं प्रायश्चित्त स्थान बताये गये हैं। उनमें से कुछेक निम्न
हैं -
१. अनुद्घातिक, पारांचिक अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के स्थान २. वाचना देने के
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344/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
योग्य या अयोग्य शिष्य लक्षण ३. शिक्षा-प्राप्ति करने के योग्य या अयोग्य के लक्षण ४. प्रथम प्रहर के आहार को चतुर्थ प्रहर में रखने का निषेध ५. दो कोस से आगे आहार ले जाने का निषेध। ६. अनाभोग से ग्रहण किये अनेषणीय आहार की विधि ७. औद्देशिक आहार के कल्प्य अकल्प्य सम्बन्धी निर्देश ८. श्रुतग्रहण के लिए अन्य गण में जाने की विधि ६. सांभोगिक-व्यवहार के लिए अन्य गण में जाने की विधि १०. आचार्य आदि को वाचना देने के लिए अन्यगण में जाने सम्बन्धी विधि-निषेध ११. कलह करने वाले भिक्षु से सम्बन्ध रखने सम्बन्धी विधि-निषेध। १२. परिहार-कल्पस्थित भिक्षु की वैयावृत्य करने का विधान। १३. महानदी पार करने के विधि-निषेध। ११. घास के ढ़की हुई छत वाले उपाश्रय में रहने के विधि-निषेध इत्यादि। पाँचवा उद्देशक - इस उद्देशक में ब्रह्मचर्य सम्बन्धी दस प्रकार के विषयों से सम्बन्धित बयालीस सूत्र हैं। ब्रह्मचर्य सम्बन्धी प्रथम चार सूत्रों में ग्रन्थकार ने बताया है कि यदि कोई देव स्त्री का रूप बनाकर साधु का हाथ पकड़े और वह साधु उस हस्तस्पर्श को सुखजनक माने तो उसे अब्रह्म का दण्ड आता है इसी प्रकार साध्वी के लिए भी उपर्युक्त अवस्था में गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। • अधिकरण विषयक विधान में कहा है कि यदि कोई भिक्ष क्लेश को शान्त किये बिना ही अन्य गण में जाकर मिल जाये एवं उस गण के आचार्य को यह मालूम हो जाये कि यह साधु कलह करके आया हुआ है तो उसे छेद प्रायश्चित्त देना चाहिये और समझा-बुझाकर पुनः अपने गण में भेज देना चाहिये। उद्गार सत्र में बताया है कि निर्ग्रन्थ-निन्थियों को डकार (उद्गार) आदि आने पर थूक कर मुख साफ कर लेने से रात्रिभोजन का दोष नहीं लगता है। आहार विषयक सूत्र में संसक्त आहार के खाने एवं परठने का सचित्त जलबिन्दु से युक्त आहार को खाने एवं परठने का विधान बताया है। ब्रह्मचर्यरक्षा विषयक सूत्रों में बताया गया हैं कि पेशाब आदि करते समय साधु-साध्वी की किसी इन्द्रिय का पशु-पक्षी से स्पर्श हो जायें
और वह उसे सुखदायी माने तो गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त लगता है। इस अधिकार में निर्ग्रन्थिनी को अकेला रहना, नग्न रहना, पात्र रहित रहना, ग्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटासन-वीरासन में बैठकर कायोत्सर्ग करना, पीठ वाले आसन पर बैठना-सोना, नालयुक्त अलाबु पात्र रखना आदि का निषेध किया गया है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/345
• परिवासितकृत सूत्र में साधु-साध्वी को रात्रि में रखे हुए आहार को
ग्रहण करने का निषेध किया गया है। तैल आदि के उपयोग का भी निषेध किया गया है। परिहारकल्पविषयक सूत्र में निर्देश दिया है कि परिहारकल्प में स्थित साधु को यदि स्थविर आदि के आदेश से अन्यत्र जाना पड़े तो तुरन्त जाना चहिए एवं कार्य पूर्ण करके पुनः लौट आना चाहिये। ऐसा करते समय चारित्र में किसी प्रकार का दोष लग जाये तो प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिये। पुलाकभक्त सूत्र में इस बात पर जोर दिया गया है कि साध्वियों को एक स्थान से पुलाकभक्त-सरसआहार प्राप्त हो जाये तो उस दिन उस आहार से संतोष करके दूसरी जगह आहार लाने के लिए नहीं जाना चहिये। यदि
उदरपूर्ति न हुई हो तो दूसरी बार भिक्षा के लिए जाने में कोई दोष नहीं है। षष्टम उद्देशक - इस षष्टम उद्देशक में बीस सूत्र हैं। इस उद्देशक के प्रारम्भ में साधु-साध्वी के छः प्रकार की भाषा न बोलने का विधान प्रस्तुत किया है। तदनन्तर प्राणातिपात आदि पाँच महाव्रतों के सम्बन्ध में किसी पर मिथ्या आरोप लगाने वालों से सम्बन्धित प्रायश्चित्त बताये गये हैं। तत्पश्चात् साधु-साध्वी के परस्पर कण्टक आदि निकालने की विधि बताई गयी है। इसके आगे साधु के डूबने, गिरने, फिसलने आदि का मौका आने पर एवं साध्वी को के डूबने की स्थिति में साधु हाथ आदि पकड़कर एक-दूसरे को डूबने से बचा सकते है, इसका विधान किया गया है। क्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी के विषय में भी परस्पर पूर्ववत् ही विधि-निषेध समझना चाहिए। अन्त में साध्वाचार को नष्ट करने वाले छः स्थान एवं छः प्रकार की कल्पस्थिति का वर्णन किया है। बृहत्कल्प के इस परिचय से स्पष्ट होता है कि जैन आचार की दृष्टि से इस लघुकाय ग्रन्थ का विशेष महत्त्व रहा हुआ है। इसमें साधु-साध्वियों के दैनिक व्यवहार सम्बन्धी क्रियाकलापों का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत हुआ है। इसी विशेषता के कारण यह कल्पसूत्र (आचार विधि) का शास्त्र कहा जाता है। बृहत्कल्पनियुक्ति
यह नियुक्ति भाष्यमिश्रित अवस्था में मिलती है। यह मूल सूत्र पर रची गई है। यह प्राकृतपद्य में है। इस नियुक्ति का वर्ण्य विषय वही है जो बृहत्कल्प मूलसूत्र का है। बृहत्कल्प का प्रतिपाद्य विषय कह चुके हैं। यहाँ विशेष इतना ध्यान देने योग्य है कि नियुक्ति में कई शब्दों एवं पदों का विवेचन नामादि निक्षेप पूर्वक किया गया है तथा कई शब्दों के भेद-प्रभेदादि बताये गये हैं। प्रसंगोचित कुछ
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346/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
विधि-विधान विस्तृत रूप से कहे गये हैं।
प्रारम्भ में तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। उसके बाद ज्ञान के विविध भेदों का निर्देश किया गया है। चार प्रकार के मंगल बताये गये है मंगल का निक्षेप पद्धति से व्याख्यान किया गया है और ज्ञान के भेदों की चर्चा की गई है। तदनन्तर नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, वचन और भाव इन सात भेदों से अनुयोग का निक्षेप कहा गया है। निरूक्त का अर्थ निश्चित-उक्त किया है। सूत्र एवं अर्थ दो प्रकार के निरूक्त कहे गये हैं। अनुयोग का अर्थ बताकर 'कल्प' के चार अनुयोग द्वार कहे हैं आगे कल्प और व्यवहार सूत्र का श्रवण करने वाला जीव बहुश्रुत, चिरप्रव्रजित, अचंचल, मेधावी, विद्वान, प्राप्तानुज्ञात और भावपरिणामक होता है, ऐसा उल्लेख किया गया है।' तत्पश्चात् प्रथम अध्ययनादि में प्रलम्ब, ग्रहण, ग्राम, नगरादि सोलहपद आर्य, जाति, कुल आदि कई शब्दों के भेदादि कहे गये हैं और इनका निक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया गया है। बृहत्कल्प-लघुभाष्य
बृहत्कल्प-लघुभाष्य के प्रणेता संघदासगणि क्षमाश्रमण है। इसमें बृहत्कल्प सूत्र के पदों का सुविस्तृत विवेचन किया गया है। लघुभाष्य होते हुए भी इसकी गाथा संख्या ६४६० है। यह छ: उद्देशकों में विभक्त है। इसके अतिरिक्त भाष्य के प्रारम्भ में एक विस्तृत पीठिका भी है जो ८०५ पद्यों में है। इस भाष्य में साधु-साध्वी के आचार मर्यादा सम्बन्धी विधि-निषेध का एवं तत्त्सम्बन्धी विधि-विधानों का व्यापक निरूपण हुआ है इसके साथ ही भारत की कुछ महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री का भी उल्लेख दृष्टिगत होता है।
हम इस भाष्य के प्रारम्भ में वर्णित पीठिका, अनुयोग, मंगल, कल्प, कल्पिकद्वार आदि की चर्चा न करते हुए अध्ययनादि के अन्तर्गत जो भी अतिरिक्त विधि-विधान चर्चित हुये हैं उनका नाम निर्देश कर रहे हैं प्रस्तुत भाष्य की पीठिका के अन्त में 'छेदसूत्रों के अर्थश्रवण विधि' का संकेत मिलता है -
प्रथम उद्देशक - इस उद्देशक में निम्न विधियों का सूचन मिलता है - प्रलम्ब ग्रहण की विधि एवं दोष, निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के देशान्तर गमन के कारण
और उसकी विधि, रुग्णावस्था सम्बन्धी विधि-विधान, दुष्काल आदि में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए एक-दूसरे के अवगृहीत क्षेत्र में रहने की विधि, तत्सम्बन्धी १४४ भंग और तद्विषयक प्रायश्चित्तविधि, जिनकल्पिक को दीक्षा की दृष्टि से धर्मोपदेश की विधि, समवसरण की रचना विधि, जिनकल्प ग्रहण करने
'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ३, पृ. ११३
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 347
की विधि, जिनकल्प ग्रहण करने वाले आचार्य के द्वारा कल्प ग्रहण करते समय गच्छपालन के लिए नवीन आचार्य की स्थापना विधि, गच्छ और नये आचार्य के लिए सूचनाएँ, गच्छ, संघ आदि से क्षमायाचना करने की विधि, गच्छवासीयों स्थविरकल्पिकों की मासकल्प विषयक विधि, विहार का समय, मर्यादा एवं विहार करने के लिए गच्छ के निवास और निर्वाहयोग्य क्षेत्र की जांच करने की विधि, क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को भेजने के पहले उसके लिए योग्य सम्मति और सलाह लेने के लिए सम्पूर्ण गच्छ को बुलाने की विधि, गच्छ के रहने योग्य क्षेत्र प्रतिलेखना के लिए जाने की विधि, क्षेत्र में परीक्षा करने की विधि, क्षेत्र की प्रतिलेखना के लिए जाने वाले क्षेत्र प्रत्युपेक्षकों द्वारा विहार मार्ग में स्थण्डिल भूमि, पानी, विश्रामस्थान, भिक्षा, वसति, चोर आदि के उपद्रव आदि की जांच करने की विधि, प्रतिलेखना करने योग्य क्षेत्र में प्रवेश करने की विधि, भिक्षाचर्या द्वारा उस क्षेत्र के लोगों की मनोवृत्ति की परीक्षा विधि, गच्छवासी यथालंदिकों के लिए क्षेत्र की परीक्षा विधि, क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों द्वारा अचार्यादि के समय क्षेत्र के गुण-दोष निवेदन करने तथा जाने योग्य क्षेत्र का निर्णय करने की विधि, विहार करने के पूर्व जिसकी वसति में रहे हों उसे पूछने की विधि, अविधि से पूछने पर लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त विधान, विहार करने के पूर्व वसति के स्वामी को विधिपूर्वक उपदेश, विहार करते समय शुभ दिवस और शुभ शकुन देखने के कारण एवं उसकी विधि, विहार के समय आचार्य, बालसाधु आदि के सामान को किसे किस प्रकार उठाना चाहिए उसकी विधि, अननुज्ञात क्षेत्र में निवास करने से लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त विधान, प्रतिलिखित क्षेत्र में प्रवेश और शुभाशुभ शकुनदर्शन परीक्षण, आचार्य द्वारा वसति में प्रवेश करने की विधि, वसति में प्रवेश करने के बाद झोली - पात्र लिये हुए अमुक साधुओं को साथ निकलने की विधि, झोली पात्र साथ रखने के कारण, स्थापना कुलों में जाने की विधि, एक-दो दिन छोड़कर स्थापना कुलों में नहीं जाने से लगने वाले दोष, स्थापना कुलों में से विधिपूर्वक उचित द्रव्यों का ग्रहण, जिस क्षेत्र में एक ही गच्छ ठहरा हुआ हो उस क्षेत्र की दृष्टि से स्थपना कुलों में से भिक्षा ग्रहण करने की सामाचारी, जिस क्षेत्र में दो तीन गच्छ एक वसति में अथवा भिन्न-भिन्न वसतियों में ठहरे हुए हों, उस क्षेत्र की दृष्टि से भिक्षा लेने की समाचारी, स्थविर कल्पिकों की विशेष सामाचारी का विधान, प्राभातिक प्रतिलेखना के समय से सम्बन्धित विविध आदेश एवं विधि, प्रतिलेखना के दोष और प्रायश्चित्त विधान, गच्छवासी आदि को उपाश्रय से बाहर कब, कैसे और कितनी बार निकलना चाहिए?, गृहस्थादि के लिए तैयार किये गए घर, वसति आदि में रहने और न रहने सम्बन्धी विधि और प्रायश्चित्त विधान, एषणापूर्वक पिण्ड आदि ग्रहण करने की
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विधि, मिलकर भिक्षा के लिए जाने की विधि, अकेले भिक्षा के लिए जाने के कल्पित कारण विधि और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान, पात्र धोने की विधि, तीर्थकर आदि के समय जब सैंकड़ों गच्छ एक साथ रहते हों, तब आधाकर्मादि पिण्ड से बचना कैसे संभव होता है? इस शंका का समाधान, गच्छ के आधारभूत योग्य शिष्य की तलाश विधि, राजा की प्रार्थना आदि कारणों से रथयात्रा के मेले में जाने वाले साधुओं को उपाश्रय आदि की प्रतिलेखना किस प्रकार करनी चाहिए, भिक्षाचर्या किस प्रकार करनी चाहिए, स्त्री, नाटक आदि के दर्शन का प्रसंग उपस्थित होने पर किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए, मंदिर में जाले, घोसलें आदि होने पर किस प्रकार यतना रखनी चाहिए, क्षुल्लकशिष्य भ्रष्ट न होने पाएँ तथा पार्श्वस्थ साधुओं के विवाद निपट जाएँ इत्यादि की विधि, पुरःकर्म सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान, पुरःकर्म विषयक अविधि विधि, रुग्ण साधु के समाचार मिलते ही उसका पता लगाने के लिए जाने की विधि, ग्लान साधु की सेवा के लिए जाने में दुख का अनुभव करने वाले के लिए प्रायश्चित्त विधान, उद्गम आदि दोषों का बहाना करने वाले के लिए प्रायश्चित्त विधान, ग्लान साधु की सेवा के बहाने से गृहस्थों के यहाँ से उत्कृष्ट पदार्थ, वस्त्र, पात्र आदि लाने वाले तथा क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त आदि दोषों का सेवन करने वाले लोभी साधु को लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त विधान, ग्लान साधु के लिए पथ्यापथ्य किस प्रकार लाना चाहिए, कहाँ से लाना चाहिए कहाँ रखना चाहिए इत्यादि विधि, ग्लान साधु के विशोषण साध्य रोग के लिए उपवास की चिकित्सा विधि, आठ प्रकार के वैद्य, इनके क्रमभंग से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त विधान, वैद्य के पास जाने की विधि, वैद्य के पास ग्लान साधु को ले जाना या ग्लान साधु के पास वैद्य को लाने की विधि, वैद्य के पास कैसा साधु जाएँ, कितने साधु जाएँ, उनके वस्त्र आदि कैसे हों, जाते समय शकुन कैसे हों इत्यादि विधि, वैद्य के आने के लिए श्रावकों को संकेत करने की विधि, वैद्य के पास जाकर रुग्ण साधु के स्वास्थ्य के समाचार कहने का क्रम, ग्लान साधु के लिए वैद्य का उपाश्रय में आना और उपाश्रय में आये हुए वैद्य के साथ व्यवहार करने की विधि, वैद्य के उपाश्रय में आने पर आचार्य आदि के उठने वैद्य को आसन देने और रोगी को दिखाने की विधि, अविधि से उठने आदि में दोष और उनका प्रायश्चित्त विधान, बाहर से वैद्य को बुलाने एवं उसके खानपान की व्यवस्था करने सम्बन्धी विधि, रोगी साधु और वैद्य की सेवा करने के कारण रोगी तथा उनकी सेवा करने वाले को अपवाद सेवन के लिए प्रायश्चित्त विधान, ग्लान साधु की उपेक्षा करने वाले साधुओं को सेवा करने की शिक्षा नहीं देने वाले आचार्य के लिए प्रायश्चित्त विधान, निर्दयता से रुग्ण साधू को उपाश्रय गली आदि स्थानों में छोड़कर चले जाने वाले आचार्य
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 349
को लगने वाले दोष और उनका प्रायश्चित्त विधान, एक गच्छ रुग्ण साधु की सेवा कितने समय तक करे और बाद में उस साधु को किसे सौंपे इत्यादि की विधि, गच्छ के साथ सम्बन्ध रखने वाले यथालंदिक कल्पधारियों के वन्दनादि व्यवहार विधि, एक क्षेत्र में एक मास से अधिक रहने के आपवादिक कारण तथा उस क्षेत्र में रहने एवं भिक्षाचर्या करने की विधि, ग्राम, नगरादि के बाहर दूसरा मासकल्प करते समय तृण, फलक आदि विधि - अविधि से ले जाने पर लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, निर्ग्रन्थी के मासकल्प की मर्यादा विधि, निर्ग्रन्थी की विहार विधि, निर्ग्रन्थियों के रहने योग्य क्षेत्र की गणधर द्वारा प्रतिलेखना, साध्वियों के रहने योग्य वसति एवं उनके रहने योग्य क्षेत्र में ले जाने की विधि, भिक्षाचर्या के लिए समूह रूप से जाने के कारण और उसकी यतना विधि एक द्वार वाले क्षेत्र में रहने वाले साधु-साध्वियों की विचारभूमि - स्थंडिलभूमि, भिक्षाचर्या, विहारभूमि, चैत्यवन्दनादि कारणों से लगने वाले दोष और उनके लिए प्रायश्चित्त विधान, जहाँ निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियाँ एक-दूसरे के पास में रहते हों वहाँ रात्रि के समय धर्मकथा, स्वाध्याय आदि करने की विधि, दुर्भिक्ष आदि कारणों से अकस्मात् अनेक द्वार वाले ग्रामादि में एक साथ आने का अवसर उपस्थित होने पर उपाश्रय आदि की प्राप्ति का प्रयत्न तथा योग्य उपाश्रय के अभाव में एक-दूसरे के उपाश्रय के समीप रहने का प्रसंग आने पर एक-दूसरे के व्यवहार से सम्बन्ध रखने वाली यतनाविधि, ग्राम आदि में श्रमण और श्रमणियों की भिक्षा- भूमि, स्थंडिल - भूमि, विहार भूमि आदि भिन्न-भिन्न हों वहीं उन्हें रहने का विधान, आपणगृह, रथ्यामुख श्रृंगाटक, चतुष्क, अंतरापण आदि के स्थानों पर बने हुए उपाश्रय में रहने वाली साध्वियों के लिए विविध यतनाविधि, बिना दरवाजे वाले उपाश्रय में रहने वाली प्रवर्त्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और श्रमणियों को लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त विधान, आपवादिक रूप से बिना द्वार के उपाश्रय में रहने की विधि, इस प्रकार के उपाश्रय में द्विदलकटकादि बाँधने की विधि, प्रस्रवण- पेशाब आदि के लिये बहार जाने आने में विलम्ब करने वाली श्रमणियों को फटकारने की विधि, श्रमणी के बजाय कोई अन्य व्यक्ति उपाश्रय में न घुस जाए इसके लिए उसकी परीक्षा करने की विधि, प्रतिहार साध्वी द्वारा उपाश्रय के द्वार की रक्षा एवं शयन संबंधी यतना विधि, रात्रि के समय कोई मनुष्य उपाश्रय में घुस जाए तो उसे बाहर निकालने की विधि, पानी के पास खड़े रहने आदि दस स्थानों से सम्बन्धित सामान्य प्रायश्चित्त विधान, जल के किनारे बैठने आदि दस स्थानों का सेवन करने वाले आचार्य, उपाध्याय भिक्षु, स्थविर और क्षुल्लक इन पाँच प्रकार के श्रमणों तथा प्रवर्त्तिनी, अभिषेका, भिक्षुणी, स्थविरा और क्षुल्लिका इन पाँच प्रकार की श्रमणियों की दृष्टि से विविध प्रकार की प्रायश्चित्त विधि, देवप्रतिमायुक्त
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उपाश्रयों में रहने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त इसी प्रकार मनुष्य और तिर्यंच सम्बन्धी प्रतिमायुक्त वसति में ठहरने से लगने वाले दोष और तद्विषयक प्रायश्चित्त विधि, उपहास आदि करने वाले के लिए प्रायश्चित्त विधि, साधु-साध्वियों के आपसी झगड़े को निपटाने की विधि, मार्ग में अन्न-जल प्राप्त न होने पर उसकी प्राप्ति की विधि, उत्सर्गरूप से रात्रि में संस्तारक, वसति आदि ग्रहण से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, रात्रि में वसति आदि ग्रहण करने की आपवादिक विधि, गीतार्थ निर्ग्रन्थों के लिए वसति-ग्रहण की विधि, अगीतार्थ मिश्रित गीतार्थ निर्ग्रन्थों के लिए वसति-ग्रहण की विधि, अंधेरे में वसति की प्रतिलेखना के लिए प्रकाश का उपयोग करने की विधि, ग्रामादि के बाहर वसति ग्रहण करने के लिए यतनाएँ, रात्रि में वस्त्रादि ग्रहण करने से लगने वाले दोष एवं प्रायश्चित्त, संयतभद्र-गृहिप्रान्त चोर द्वारा लूटे गये गृहस्थ को वस्त्रादि देने की विधि, गृहिभद्र-संयत प्रान्त चोर द्वारा श्रमण और श्रमणी इन दो में से कोई एक लूट लिया गया हो तो परस्पर वस्त्र आदान-प्रदान करने की विधि, श्रमण-गृहस्थ, श्रमण-श्रमणी, समनोज्ञ- अनामोज्ञ अथवा संविग्न-असंविग्न ये दोनों पक्ष लट लिये गये हों तो उस समय एक-दूसरे को वस्त्र आदान-प्रदान करने की विधि, प्रसंगवशात् मार्ग में आचार्य को गुप्त रखने की विधि, आपवादिक रूप से रात्रि के समय पंचगमन करने के लिए सार्थवाह से अनुज्ञा लेने की विधि, संखड़ि में जाने से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त विधि, रात्रि के समय निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को विहारभूमि- नीहार भूमि में अकेले जाने का प्रसंग बने तो विविध प्रकार की यतनाविधि' आदि के उल्लेख है। द्वितीय उद्देशक - इस उद्देशक में उल्लिखित विधान ये हैं- वसति के एक अथवा अनेक सागारिकों के आहार आदि के त्याग की विधि, दूसरों के यहाँ से आने वाली भोजन-सामग्री का दान करने वाले सागारिक और ग्रहण करने वाले श्रमण की कर्त्तव्य विधि, पाँच प्रकार के वस्त्र जाडिंक, भाडिंक, सानक पोतक और तिरीड पट्टक का स्वरूप, संख्या एवं इस उपधि के परिभोग की विधि, पाँच प्रकार के रजोहरण-और्णिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुंजचिप्पक का स्वरूप कारण, क्रम और उनके ग्रहण करने की विधि। तृतीय उद्देशक - यह उद्देशक अग्रलिखित विधि-विधान की चर्चा करता है। किसी कारण से निर्ग्रन्थ को निर्ग्रन्थियों के उपाश्रय में प्रवेश करने का प्रसंग उपस्थित हो जाये तो तद्विषयक आज्ञा एवं उसकी विधि, वर्ण-प्रमाणादि से रहित चर्म के उपभोग और संग्रह का विधान, अभिन्न वस्त्र के ग्रहण करने की विधि, विभूषा के लिए उपधि
'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर आधारित, भा-३ पृ. ११६-२१८
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/351
के प्रक्षालन आदि से लगने वाले दोष और प्रायश्चित्त, पात्र-विषयक विधि, उष्णोदक आदि से भावित कल्प्यपात्र और उनके ग्रहण की विधि, मात्रक-विषयक विधि, अपहृत निर्ग्रन्थी के परिपालन की विधि, अवहेलना आदि करने वाली श्रमणियों को विधिपूर्वक बाहर निकालने का विधान, प्रथम दीक्षा लेने वाले शिष्य के लिए चैत्य, आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु आदि की पूजा-सत्कार विधि, वर्षावास के क्षेत्र से निकले हुए श्रमण-श्रमणियों के लिए वस्त्रादि ग्रहण करने की विधि, वस्त्र विभाजन की विधि, आचार्यादि को वन्दन करने की विधि, विधि का विपर्यास करनेवाले के लिए प्रायश्चित्त, आचार्य से पर्याय ज्येष्ठ को आचार्य वन्दन करे या नहीं उसका विधान, श्रेणिस्थितों को वन्दना करने की विधि, अपवाद रूप से पार्श्वस्थादि के साथ किन स्थानों में किस प्रकार के अभ्युत्थान और वन्दन का व्यवहार करना चाहिए इसकी विधि, सावधानी रखने पर भी उपकरण आदि की चोरी हो जाने पर उन्हें ढूंढने के लिए राजपुरुषों को विधिपूर्वक समझाने का कथन इत्यादि। चतुर्थ उद्देशक - इस अध्ययन में अनुद्घातिक आदि से सम्बन्ध रखने वाले सोलह प्रकार के सूत्र सम्बन्धी विधान प्रतिपादित हैं उनमें से कुछ ये हैं -
अनैषणीय आहार को प्रतिस्थापित करने की विधि, उपसम्पदा ग्रहण करने की विधि, मृत्युप्राप्त भिक्षु आदि के शरीर की परिष्ठापन विधि इत्यादि इसके अन्तर्गत १६ प्रकार के विधान बताये गये हैं। पंचम उद्देशक - इस उद्देशक में उपलब्ध विधि-विधान निम्न हैं - क्लेश की शान्ति न करते हुए स्वगण को छोड़कर अन्यगण में जाने वाले भिक्षु, उपाध्याय, आचार्य आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्त विधि, क्लेश के कारण गच्छ का त्याग न करते हुए क्लेश युक्त चित्त से गच्छ में रहने वाले भिक्षु आदि को शान्त करने की विधि, वमनादि विषयक दोष, कारण, प्रायश्चित्त एवं उद्गार की दृष्टि से भोजन विषयक विविध यतनाएँ अपवाद आदि, जिस प्रदेश में आहार, जल आदि जीवादि से संसक्त ही मिलते हों, उस प्रदेश में अशिव दुर्भिक्ष आदि कारणों से जाना पड़े तो वहाँ आहार ग्रहण करने की विधि, उस प्रदेश में पानी के ग्रहण करने की विधि, उसके परिष्ठापन की विधि, अकेली रहने वाली निर्ग्रन्थी को लगने वाले दोष-प्रायश्चित्त, पात्ररहित निर्ग्रन्थी को लगने वाले दोष प्रायश्चित्त, परिवासित आहार की विधि इत्यादि। षष्टम उद्देशक - इस उद्देशक में वचन आदि से सम्बन्धित कुछ व्याख्यान किया गया है। साधु को बोलने के विषय में कैसा विवेक रखना चाहिए? श्रमण-श्रमणियों को दुर्गम मार्ग से नहीं जाना चाहिए। क्षिप्तचित्त हुई निर्ग्रन्थी को समझाने का क्या मार्ग है? क्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी देख-रेख की क्या विधि है? क्षिप्तचित्त होने का क्या कारण है?
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352 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
क्षिप्तचित्त श्रमणी के लिए किन यतनाओं का पालन आवश्यक है? आदि प्रश्नों का विचार करते हुए भाष्यकार ने उन्माद, उपसर्ग, क्लेश, प्रायश्चित्त, भक्तपान आदि विषयों की दृष्टि से निर्ग्रन्थी विषयक विधि - निषेध, प्रतिपादन किया है।
अन्त में प्रस्तुत भाष्य की समाप्ति करते हुए कल्पाध्ययन शास्त्र के अधिकारी और अनधिकारी का संक्षिप्त निरूपण किया गया है।
बृहत्कल्प लघुभाष्य के इस सारग्राही संक्षिप्त परिचय से स्पष्ट हैं कि इसमें जैन साधुओं के आचार विचार एवं तत्सम्बन्धी विधि-विधान का अत्यन्त सूक्ष्म एवं गहन विवेचन किया गया है। विवेचन के कुछ स्थल ऐसे भी हैं जिनका मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अच्छा अध्ययन हो सकता है। तत्कालीन भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि परिस्थितियों पर प्रकाश डालने वाली सामग्री का भी इसमें बाहुल्य है। इन सब दृष्टियों से भारतीय साहित्य के इतिहास में प्रस्तुत भाष्य का निःसन्देह एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।
यह कहना सर्वथोचित होगा कि जैन विधि-विधान परक एवं आचार परक साहित्य पर संघदासगणि महत्तर का महान् उपकार रहा है। जिन्होंने इस प्रकार के समृद्ध, सुव्यवस्थित एवं सर्वांगसुन्दर ग्रन्थ का निर्माण किया ।
बृहत्कल्प - बृहद्भाष्य
यह भाष्य बृहत्कल्प - लघुभाष्य से आकार में बड़ा है। यह बात इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाती है। दुर्भाग्य से यह अपूर्ण ही उपलब्ध है। इसमें पीठिका और प्रारम्भ के दो अध्ययन तो पूर्ण हैं किन्तु तृतीय उद्देशक अपूर्ण है। अन्त में तीन उद्देशक अनुपलब्ध हैं। प्रस्तुत भाष्य में लघुभाष्य समाविष्ट है।
इस बृहद्भाष्य के प्रारंभ में ऐसी कुछ गाथाएँ हैं जो लघुभाष्य में बाद में आती है। बृहद्भाष्यकार ने लघुभाष्य की कुछ गाथाएँ बिना किसी व्याख्यान के वैसी की वैसी उद्घृत की है। इस भाष्य में कई ऐसे उद्धरण हैं जिन्हे देखने से लगता है कि इस बृहद्भाष्य में लघुभाष्य के विषयों का ही विस्तारपूर्वक विचार किया गया है। ऐसी दशा में पूरा बृहद्भाष्य का विशालकाय ग्रन्थ होना चाहिए जिसका कलेवर लगभग पन्द्रह हजार गाथाओं के बराबर हो। अपूर्ण उपलब्ध प्रति जो अनुमानतः सात हजार गाथा परिमाण है। ये गाथाएँ लघुभाष्य की गाथाओं (तीन उद्देशक ) से करीब दुगुनी है।
संक्षेपतः यह कृति अधूरी उपलब्ध है। अतः मेरी शोध का जो विषय है उसका वर्णन करना शक्य नहीं है । तथापि यह निश्चित है कि इसमें लघुभाष्य की अपेक्षा और भी विधि - विधान समाहित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/353
बृहत्कल्पचूर्णि
यह चूर्णि मूलसूत्र एवं लघुभाष्य पर है। यह संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में है। इस चूर्णि का वर्ण्य विषय वही है जो बृहत्कल्प मूलसूत्र का है। हम सूत्र एवं भाष्य दोनों के प्रतिपाद्य विषय की चर्चा पूर्व में कर चुके है। अतः यहाँ पुनः उल्लेख की आवश्यकता नहीं है।
विशेष इतना है कि प्रस्तुत चूर्णि में भाष्य के ही अनुसार पीठिका तथा छः उद्देशक हैं। पीठिका के प्रारम्भ में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा करते हुए चूर्णिकार ने तत्त्वार्थाधिगम का एक सूत्र उद्धृत किया है। प्रस्तुत चूर्णि के प्रारम्भ का अंश दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि के प्रारम्भ के अंश से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। भाषा की दृष्टि से भी दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि बृहत्कल्पचूर्णि से प्राचीन मालूम होती है। इसमें चूर्णिकार के नाम का कोई उल्लेख या निर्देश नहीं है। अन्त में इसका ग्रन्थाग्र ५३०० कहा है।' महानिशीथसूत्र
जैन आगमों में महानिशीथ का स्थान अनूठा और अनुपम है। उपधान तप की प्रामाणिकता को पुष्ट करने के सन्दर्भ में यह ग्रन्थ अधिक चर्चित हुआ है यह गद्य-पद्य मिश्रित प्राकृत भाषा में है। इसका ग्रन्थमान ४५५४ श्लोक परिमाण है। इसमें छ: अध्ययन और दो चूलिका है। इसके रचनाकार एवं इसका रचनाकाल ये दोनों ही विषय अनिर्णीत है।
देवेन्द्रमुनि ने इस सन्दर्भ में लिखा है कि वर्तमान में जो महानिशीथ सूत्र है उसकी रचना विक्रम की आठवीं शती या उसके पश्चात् के समय को सूचित करती है। आज का महानिशीथ नन्दीसूत्र निर्दिष्ट महानिशीथ नहीं है। इसमें अनेकों विषय और परिभाषाएँ उस प्रकार की उपलब्ध हैं जो इस कृति को वि.सं. की आठवीं शती से पहले की प्रमाणित नहीं होने देती। साथ ही इस आगम में ऐसी अनेक बाते हैं जिसका मेल अंगसाहित्य से नहीं होता है अतः यह महानिशीथ एक स्वतंत्र कृति है और उसके कर्ता का नाम अज्ञात है। परम्परा की दृष्टि से वर्तमान महानिशीथ के पुनरुद्धारकर्ता आचार्य हरिभद्र माने जाते हैं। भाषाशास्त्र की दृष्टि से एवं विषय वैविध्य की दृष्टि से भी इस आगम की गणना अर्वाचीन आगमों में की जाती है। दूसरी बात यह है कि इसमें अनेक स्थलों पर
'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर आधारित, भा-३, पृ. ३२३ २ प्रबन्ध परिजात, पृ. ७६, उदधृत-जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, देवेन्द्र मुनि, पृ. ४०८-६
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354/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
आगमेतर ग्रन्थों के उल्लेख व उद्धरण प्राप्त होते हैं।
मूलतः यह विधि-विधान परक ग्रन्थ है। इसमें उपधान विधि, प्रायश्चित्त विधि, तप विधि, शास्त्रोद्धार विधि, आलोचना विधि, कुशीलसंसर्ग वर्जन विधि इत्यादि का सम्यक् विवेचन हुआ है। अन्य भी आवश्यक बातें इसमें कही गई हैं। इसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - प्रथम अध्ययन- इसका नाम 'शल्योद्धरण' है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में तीर्थ और अर्हन्तों को नमस्कार किया गया है। 'सुयं मे' वाक्य से विषय को प्रारम्भ किया है। उसके बाद वैराग्य की अभिवृद्धि करने वाली गाथाएँ हैं जिनमें साधक को शल्यरहित होना चाहिए इस बात पर बल दिया गया है। इसमें 'हयं नाणं' आदि आवश्यक नियुक्ति की गाथाएँ गृहीत की गई है।
आगे शास्त्रोद्धार की विधि पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि श्रुतदेवता-विद्या का आलेखन कर एवं उसे मंत्रित कर शयन करने पर स्वप्न सफल होते हैं। तदनन्तर पापरूपी शल्य की निन्दा एवं आलोचना की दृष्टि से अठारह पापस्थानक बताये गये हैं। दूषित आलोचना के दृष्टान्त दिये गये हैं। मोक्ष प्राप्त करने वाली अनेक निःशल्य श्रमणियों के नाम दिये गये हैं। अपने अपराध को विधिपूर्वक न कहने वालों की एवं छुपाने वालों की दुर्गति होती है यह भी बताया गया है। द्वितीय अध्ययन - इसका नाम 'कर्मविपाक' है। इसमें शारीरिक आदि दुःखों का वर्णन है। स्त्री वर्जन का उपदेश दिया गया है और पापों की आलोचना पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय अध्ययन - इसका नाम 'कुशील लक्षण' है। इसमें कुशील साधुओं के संसर्ग से दूर रहने का उपदेश दिया गया है। इसमें साथ ही इनमें नमस्कारमंत्र उपधान विधि जिनपूजा आदि का विवेचन है। मंत्र-तंत्र आदि अनेक विधाओं के नाम बताये हैं। यहाँ यह भी बताया है कि व्रजस्वामी ने व्युच्छिन्न पंचमंगल की नियुक्ति आदि का उद्धार करके इसे मूलसूत्र में स्थान दिया है। आचार्य हरिभद्र ने खण्डित प्रति के आधार से इसका उद्धार किया है। इनके पूर्ववर्ती युगप्रधान आचार्य सिद्धसेनदिवाकर, वृद्धवादी, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन क्षमाश्रमण के शिष्य रविगुप्त, नेमिचन्द्र, जिनदासगणी क्षमाश्रमण आदि ने महानिशीथ को अत्यधिक महत्त्व दिया है, इससे सूचित होता है यह सूत्र आचार्य हरिभद्र के पूर्व भी विद्यमान था। नमस्कारमंत्र के पश्चात् इरियावहि आदि सूत्रों का निर्देश है। साथ ही उन सूत्रों की तपस्या विधि और उनसे होने वाले लाभ का उल्लेख है।
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चतुर्थ अध्ययन इसका नाम 'कुशील संसर्ग' है। इसमें शिथिल आचार का स्वरूप बताया गया है। साथ ही कहा है कि शिथिल आचार का समर्थन करना भी दोष है। उससे व्रत भंग होता है। कुशील के संसर्ग से अनन्त संसार की अभिवृद्धि होती है और उसके संसर्ग का जो परित्याग करता है उसे सिद्धि मिलती है।
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पंचम अध्ययन इस अध्याय का नाम 'नवनीतसार' है। इसमें गच्छ के स्वरूप का विवेचन हुआ है। विज्ञों का ऐसा मानना हैं कि गच्छाचार नामक प्रकीर्णक का मूल आधार प्रस्तुत अध्ययन है। इसमें दस आचार्यों का वर्णन है । द्रव्यस्तव करने वाले को असंयत बताया है। जिनालयों के संरक्षण और उनके जीर्णोद्धार की भी चर्चा की गई है।
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षष्टम अध्ययन
यह अध्ययन 'गीतार्थ विहार' नाम का है। इसमें प्रायश्चित्त के दस और आलोचना के चार भेदों का व्याख्यान है । दशपूर्वी नन्दीषेण के दृष्टान्त को उल्लिखित कर यह प्ररेणा दी गयी है कि दोष का सेवन होने पर प्रत्येक साधक को प्रायश्चित्त करना चाहिए ।
इसमें प्रायश्चित्त की विधि भी बतायी गयी है। आरम्भ समारंभ के त्याग का उपदेश दिया गया है। अगीतार्थ के विषय में लक्षणार्या का दृष्टान्त दिया गया है। इसमें आचार्य भद्र के एक गच्छ में पाँच सौ साधु एवं बारह सौ साध्वियाँ होने का उल्लेख भी है।
प्रथम चूला यह प्रथम चूला 'एकान्त निर्जरा' नाम की है। इसमें प्रायश्चित्त विधान का विस्तृत प्रतिपादन हुआ है। उनमें प्रायश्चित्त को विधि पूर्वक क्यों अंगीकार करना चाहिये? अविधि का सेवन करने वाले जीव की क्या दुर्दशा होती है ? प्रायश्चित्त के कितने स्थान है ? किस आवश्यक की क्या विधि है ? चैत्यवंदनादि क्रियाएँ अविधिपूर्वक करने से क्या-क्या दोष लगते हैं? किस अपराध ( दोष - सेवन रूप पाप प्रवृत्ति आदि ) का क्या प्रायश्चित्त है ? इत्यादि का सुन्दर विवेचन हुआ है।
संक्षेपतः चैत्यवन्दन सम्बन्धी प्रायश्चित्त, स्वाध्याय में बाधा उपस्थित करने वाले के लिए प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण के प्रायश्चित्त, ज्ञानाचार आदि के प्रायश्चित्त, भिक्षा सम्बन्धी प्रायश्चित्त कहे गये हैं। इसमें से 'प्रायश्चित्तसूत्र' विच्छिन्न हो गया है - यह चर्चा भी की गई है। विद्या मन्त्रों की भी चर्चा की गई है जो जलादि उपद्रवों से रक्षा करते हैं।
द्वितीय चूला
द्वितीय चूला का नाम सुसढ़ अणगारकहा है। इसमें विधिपूर्वक धर्माचरण की प्रशंसा की गई है। हिंसा के सम्बन्ध में सुसढ़ आदि
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की कथाएँ हैं। इसमें सतीप्रथा और राजा के पुत्रहीन होने पर कन्या को राजगद्दी पर बैठाने का उल्लेख है।'
निष्कर्षतः यह विशालकाय ग्रन्थ है इसमें विविध विषयों का वर्णन हुआ है। इस ग्रन्थ में उल्लिखित बातें आज भी श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में प्रामाणिक रूप से स्वीकार की जाती है यही इस ग्रन्थ की विशिष्टता है। प्रायश्चित्त विधान की दृष्टि से तो इसकी मौलिकता स्वतः सिद्ध है। महानिशीथ पर कोई भी व्याख्या साहित्य नहीं लिखा गया है। व्यवहारसूत्र
जैनागमों में छह छेदसूत्रों का विशिष्ट स्थान माना गया है। उनमें व्यवहारसूत्रका तीसरा स्थान है। इसके रचयिता आर्य भद्रबाहु (प्रथम) को माना जाता है। इसका रचनाकाल ई.पू. तीसरी शती के लगभग है। यह सूत्र १० उद्देशकों में विभक्त है। इसमें उपलब्ध मूल पाठ ३७३ अनुष्टुप श्लोक परिमाण है और सूत्र संख्या २६७ है।
इस ग्रन्थ के दसवें उद्देशक के अंतिम (पाँचवें) सूत्र में पाँच व्यवहारों के नाम हैं। इस सूत्र का नामकरण भी पाँच व्यवहारों को प्रमुख मानकर ही किया गया है। मूलतः यह सूत्र प्रायश्चित्त सम्बन्धी विधि-विधान से सम्बद्ध है। व्यवहार सूत्र का व्युत्पत्ति अर्थ
व्यवहार शब्द वि+अव+ह+घञ् वर्णों से निष्पन्न बना है। 'वि' और 'अव' ये दो उपसर्ग है। हृ-हरणे धातु है। 'ह' धातु से घञ् प्रत्यय लगने पर हार बनता है। वि+अवन+हार इन तीनों से व्यवहार शब्द की रचना हुई है। यहाँ 'वि' विविधता या विधि का सूचक है। 'अव' संदेह का सूचक है। 'हार' हरष क्रिया का सूचक है। फलितार्थ यह है कि विवाद विषयक नाना प्रकार के संशयों का जिससे हरण होता है वह 'व्यवहार' है। यह व्यवहार शब्द का विशेषार्थ है। व्यवहार सूत्र के प्रमुख विषय -
इस सत्र के प्रमुख तीन विषय हैं - १. व्यवहार, २. व्यवहारी और ३. व्यवहर्त्तव्य। इस सूत्र के १० वें उद्देशक में प्रतिपादित पाँच प्रकार का व्यवहार करण (साधन) है, गण की शुद्धि करने वाले गीतार्थ (आचार्यादि) व्यवहारी अर्थात्
' यह ग्रन्थ महानिशीथ-सुय-खंद्यं के नाम से, सन् १९६४ में, प्राकृत ग्रन्थ परिषद् अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है। २ यह ग्रन्थ मधुकर मुनि जी द्वारा सम्पादित है इसका प्रकाशन वि.सं. २०४८ में श्री आगमप्रकाशन समिति, पीपलिया बाजार ब्यावर' से प्रकाशित हुआ है।
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कर्ता है और श्रमण-श्रमणिया व्यवहर्त्तव्य (व्यवहार करने योग्य) हैं जिस प्रकार कुम्भकार (कर्ता), चक्र, दण्ड, मृत्तिका सूत्र आदि करणों द्वारा कुम्भ (कर्म) का सम्पादन करता है इसी प्रकार व्यवहारज्ञ, व्यवहारों द्वारा व्यवहर्त्तव्यों (गण) की अतिचार शुद्धि का सम्पादन करता है। व्यवहार व्याख्या - व्यवहार की प्रमुख व्याख्याएँ दो प्रकार की हैं - १. सामान्य
और २. विशेष। सामान्य व्याख्या है- दूसरे के साथ किया जाने वाला आचरण। विशेष व्याख्या है- अभियोग की समस्त प्रक्रिया अर्थात् न्याया व्यवहार के भेद प्रभेद - व्यवहार दो प्रकार का कहा गया है- १. विधि व्यवहार
और २. अविधि व्यवहार। अविधि व्यवहार मोक्ष-विरोधी होने से इस सूत्र का विषय नहीं है, अपितु विधि व्यवहार ही इसका विषय है। व्यवहार के दो, तीन, चार और भी भेद-प्रभेद किये गये हैं। यहाँ व्यवहारसूत्र में उल्लिखित विधि-निषेध एवं विधि विधान का विवेचन करने से पूर्व पाँच व्यवहार व्यवहारी और व्यवहर्त्तव्य तीनों का संक्षेप वर्णन करना अवश्यक प्रतीत होता है। वे पाँच व्यवहार निम्न हैं१. आगम व्यवहार- केवलज्ञानियों, मनः पर्यवज्ञानियों और अवधिज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध आगम व्यवहार है। नवपूर्वी, दशपूर्वी और चौदह पूर्वधारियों द्वारा आचरित विधि-निषेध भी आगम व्यवहार ही है। २. श्रुत व्यवहार- आठ पूर्व का पूर्ण ज्ञान और नवमें पूर्व का आंशिक ज्ञान धारण करने वाले के द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेध श्रुतव्यवहार है। दशा, कल्प, व्यवहार आचरप्रकल्प (निशीथ) आदि छेदसूत्रों द्वारा निर्दिष्ट विधि-निषेध भी श्रुतव्यवहार है। ३. आज्ञा व्यवहार- दो गीतार्थ श्रमण एक दूसरे से अलग दूर देशों में विहार कर रहे हों और निकट भविष्य में मिलने की सम्भावना न हों। उनमें से किसी एक को कल्पिका प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त लेना हो तो अपने अतिचार (दोष) कहकर गीतार्थ शिष्य को अन्य गीतार्थ के समीप भेजें। यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो धारणाकुशल अगीतार्थ शिष्य को सांकेतिक भाषा में अपने अतिचार कहकर दूरस्थ गीतार्थ मुनि के पास भेजें और उस शिष्य के द्वारा कही गई आलोचना सुनकर वह गीतार्थ मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संहनन, धैर्य, बल आदि का विचार कर स्वयं वहाँ आवें और प्रायश्चित्त दें अथवा गीतार्थ शिष्य को समझाकर भेजें। यदि गीतार्थ शिष्य न हो तो आलोचना का सन्देश लाने वाले के साथ ही सांकेतिक भाषाओं में अतिचार शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का संदेश भेजे यह आज्ञा व्यवहार है।
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४. धारणा व्यवहार किसी गीतार्थ श्रमण के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस अतिचार का जो प्रायश्चित्त दिया जाता रहा है उसकी धारणा करके उसी प्रकार के अतिचार का सेवन करने वाले को धारणानुसार जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह धारणा व्यवहार है।
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५. जीत व्यवहार- गीतार्थ द्वारा प्रवर्त्तित शुद्ध व्यवहार जीत व्यवहार है। श्रुतोक्त प्रायश्चित्त से हीन या अधिक किन्तु परम्परा से आचरित प्रायश्चित्त देना जीत व्यवहार है। सूत्रोक्त कारणों के अतिरिक्त अन्य कारण उपस्थित होने पर जो अतिचार लगे हैं उनका प्रवर्तित प्रायश्चित्त अनेक गीतार्थों द्वारा आचरित हो तो वह भी जीतव्यवहार है। अनेक गीतार्थों द्वारा निर्धारित एवं सर्वसम्मत विधि - निषेध भी जीत व्यवहार है। व्यवहारी, व्यवहारज्ञ, व्यवहर्त्ता ये समानार्थक हैं। जो प्रियधर्मी हो, दृढधर्मी हो, पापभीरु हो और सूत्रार्थ का ज्ञाता हो वह व्यवहारी होता है।
व्यवहार करने योग्य निर्ग्रन्थ व्यवहर्त्तव्य हैं। ये अनेक प्रकार के कहे गये हैं। । मूलतः निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के होते हैं १. पुलाक, २. बकुश, ३. कुशील, ४. निर्ग्रन्थ और ५. स्नातक ।
इन पाँच निर्ग्रन्थों के अनेक भेद-प्रभेद हैं। ये सब व्यवहार्य है । व्यवहार सूत्र के ये तीन विषय प्रमुख माने गये हैं किन्तु इसका अध्ययन करने से और भी विषय प्रमुख लगते हैं जैसे व्यवहार के आधार पर १. गुरु, २. लघुक और ३. लघुस्वक प्रायश्चित्त देना व्यवहार है। इसमें प्रायश्चित्त की उपादेयता, प्रायश्चित्त के भेद-प्रभेद, दस प्रकार के प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्त का हेतु, प्रतिसेवना के प्रकार, व्यवहार की शुद्धि, आलोचना और आलोचक का स्वरूप आदि की चर्चा है।
यहाँ प्रत्येक विषयों का विस्तृत वर्णन करना अपेक्षित नहीं लग रहा है। अतः हम केवल व्यवहारसूत्र में प्रतिपादित विधि-विधान का नाम - निर्देश कर रहे हैं इसके १० उद्देशकों के आधार पर विधि विधानों की विषय वस्तु निम्नलिखित है प्रथम उद्देशक - इस उद्देशक में मुख्यतः कपटरहित तथा कपटसहित आलोचक को प्रायश्चित्त देने की विधि वर्णित है।
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द्वितीय उद्देशक इस उद्देशक में पाँच विधान उपलब्ध होते हैं - १. विचरने वाले साधर्मिक के परिहार तप का विधान । २. अनवस्थाप्य और पारांचिक भिक्षु की उपस्थापना विधि ३. अकृत्यसेवन का आक्षेप और उसके निर्णय की विधि ४. एक पक्षीय भिक्षु को पद देने का विधान ५. पारिहारिक और अपारिहारिकों के परस्पर आहार सम्बन्धी व्यवहार का विधान ।
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तृतीय उद्देशक- इसमें पाँच प्रकार के विधान वर्णित हैं- १. गण धारण करने अर्थात् आचार्य पद देने सम्बन्धी विधि - निषेध । २. उपाध्याय आदि पद देने के विधि - निषेध ३. अल्पपर्याय वाले को पद देने का विधान ४. अब्रह्मसेवी को पद देने के विधि - निषेध ५. संयम त्यागकर जाने वाले को पद देने के विधि - निषेध
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चतुर्थ उद्देश इस उद्देशक में तीन विधान कहे गये हैं- 9. उपस्थापना का विधान २. अभिनिचारिका' में जाने के विधि - निषेध ३. रत्नाधिक को अग्रणी मानकर विचरने का विधान
पंचम उद्देशक - इसमें पाँच विधानों का उल्लेख हैं - १. आचार - प्रकल्प - विस्मृत को पद देने का विधि-निषेध २. स्थविर के लिए आचार प्रकल्प के पुनरावर्त्तन करने का विधान ३. परस्पर आलोचना करने के विधि - निषेध । ४. परस्पर सेवा करने का विधि - निषेध ५. सर्प दंश चिकित्सा के विधि - निषेध |
षष्टम उद्देशक यहाँ तीन विधान उल्लिखित है- १. स्वजन परजन गृह में गोचरी जाने का विधि - निषेध २. अगीतार्थों के रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त विधान ३. अकेले भिक्षु के रहने का विधि - निषेध
सप्तम उद्देश इस उद्देशक में छह प्रकार के विधि - निषेधों का वर्णन किया गया है १. सम्बन्ध विच्छेद करने सम्बन्धी विधि - निषेध २. प्रव्रजित करने सम्बन्धी विधि-निषेध ३. कलह उपशमन सम्बन्धी विधि - निषेध ४. श्रमण के मृत शरीर को परठने की और उपकरणों को ग्रहण करने की विधि ५. आज्ञा ग्रहण करने की विधि ६. राज्य परिवर्तन में आज्ञा ग्रहण करने का विधान
अष्टम उद्देशक- इसमें छह प्रकार की विधि - निरुपित हैं- १. शयन स्थान के ग्रहण की विधि २. शय्या - संस्तारक के लाने की विधि ३. एकाकी स्थविर के भण्डोपकरण और गोचरी जाने की विधि ४. शय्या - संस्तारक के लिए पुनः आज्ञा लेने का विधान ५. शय्या - संस्तारक ग्रहण करने की विधि ६. अतिरिक्त पात्र लेने का विधान
नवम उद्देशक- इसमें विधि-निषेध रूप तीन विधान प्रतिपादित हैं- १. शय्यातर के मेहमान, नौकर एवं ज्ञातिजन के निमित्त से बने आहार के लेने का विधि - निषेध | २. शय्यातर की भागीदारी वाली विक्रय शालाओं से आहार लाने सम्बन्धी
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अनिभिचारिकागमन- जहाँ आचार्य उपाध्याय मासकल्प ठहरे हों, शिष्यों को सूत्रार्थ की वाचना देते हों, वहाँ से ग्लान, असमर्थ एवं तप से कृश शरीर वाले साधु निकट ही किसी गोपालक बस्ती में दुग्धादि विकृति सेवन के लिए जाएँ तो उनकी चर्या को यहाँ 'अभिनिचारिका गमन'
कहा गया है।
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विधि - निषेध । ३. मोक - प्रतिमा का विधान |
दसम उद्देशक- इस उद्देशक में दो विधान ही उपलब्ध होते हैं- 9. पाँच प्रकार के व्यवहार की विधि २. बालक-बालिकाओं को बड़ी दीक्षा देने की विधि
निष्कर्षतः यह व्यवहारसूत्र शास्त्रीय और प्राचीन विधि-विधानों का भण्डार रूप है। इसमें वर्णित विधि-निषेध रूप विषयवस्तु अवलोकनीय और पठनीय है। इसमें जानने योग्य और भी बिन्दुओं का निरूपण किया गया है किन्तु वे आवश्यक न होने से चर्चित नहीं किये गये हैं। व्यवहार सूत्र के सम्पादन एवं लेखन का यह प्रयोजन सिद्ध होता है कि जिस प्रकार शारीरिक स्वास्थ्य लाभ के लिए उदर शुद्धि आवश्यक है और उदर शुद्धि के लिए आहारशुद्धि अत्यावश्यक है इसी प्रकार आध्यात्मिक आरोग्य लाभ के लिए निश्चय शुद्धि आवश्यक है और निश्चय शुद्धि के लिए व्यवहार शुद्धि अनिवार्य है। जैसे सांसारिक जीवन में व्यवहार शुद्धि वाले ( रूपये-पैसों के लेने देने में प्रामाणिक ) के साथ ही लेन-देन का व्यवहार किया जाता है। वैसे ही आध्यात्मिक जीवन में भी व्यवहार शुद्ध साधक के साथ ही कृतिकर्मादि ( वन्दन - पूजनादि) व्यवहार किये जाते हैं। व्यवहारनिर्युक्ति
जैन आगमों के व्याख्या ग्रन्थों में नियुक्ति सबसे प्राचीन पद्यबद्ध व्याख्या है । भाष्य साहित्य में व्याख्या के तीन प्रकार बताए गए हैं। उनमें नियुक्ति का दूसरा स्थान' है। प्रथम व्याख्या में शिष्य को केवल सूत्र का अर्थ बताया जाता है, दूसरी व्याख्या में नियुक्ति के साथ सूत्र की व्याख्या की जाती है तथा तीसरी व्याख्या में सूत्र की सर्वांगीण व्याख्या की जाती है।
निर्युक्तियों की संख्या - आवश्यकनिर्युक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने १० नियुक्तियाँ लिखने की प्रतिज्ञा की है । उनका क्रम इस प्रकार है- १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. आचारांग ५. सूत्रकृतांग, ६. दशाश्रुतस्कंध, ७. बृहत्कल्प, ८. व्यवहार, ६. सूर्यप्रज्ञप्ति १०. ऋषिभाषित। वर्तमान में इन दस नियुक्तियों में केवल आठ नियुक्तियाँ ही प्राप्त हैं।
इसके अतिरिक्त पिंडनिर्युक्ति, ओघनिर्युक्ति, पंचकल्पनिर्युक्ति और निशीथ नियुक्ति आदि का भी स्वतंत्र अस्तित्व माना गया है। डा. घाटगे के अनुसार ये क्रमशः दशवैकालिकनियुक्ति, आवश्यकनिर्युक्ति, बृहत्कल्पनियुक्ति और आचारांगनिर्युक्ति की पूरक नियुक्तियाँ है । इस संदर्भ में विचारणीय प्रश्न यह है
सुतत्थो खलु पदमो, बीओ निज्जुत्ति मीसओ भणिओ तइओ य निरवसेसो, एस विही होई अणुओगे
विशेषावश्यक भाष्य. गा. ५६६
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कि ओघनिर्युक्ति आदि स्वतंत्र एवं बृहत्काय रचना को आवश्यक निर्युक्ति आदि का पूरक कैसे माना जा सकता है? इस विषय पर व्यवहार निर्युक्ति की प्रस्तावना' द्रष्टव्य है।
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निर्युक्तिकार - यद्यपि नियुक्तिकार के रूप में आचार्य भद्रबाहु का नाम प्रसिद्ध है । निर्युक्तिकार के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। विंटरनित्स, हीरालाल कपाडिया आदि ने चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु को ही नियुक्तिकार के रूप में स्वीकृत किया है। मुनि पुण्यविजयजी ने अनेक प्रमाणों के आधार पर द्वितीय भद्रबाहु को निर्युक्तिकार के रूप में सिद्ध किया है। डॉ. सागरमल जैन ने इन दोनों से भिन्न आर्यभद्र को नियुक्तिकार माना है।
व्यवहार नियुक्ति - आचार्य भद्रबाहु की प्रतिज्ञा के अनुसार व्यवहार निर्युक्ति का क्रम आठवां है। यह कृति पद्य प्राकृत में है। इसमें कुल ५५१ गाथाएँ हैं।
ऐसा उल्लेख है कि व्यवहारसूत्र और बृहत्कल्पसूत्र एक दूसरे के पूरक है। जिस प्रकार बृहत्कल्प सूत्र में श्रमण जीवन की साधना के लिए आवश्यक विधि-विधान, दोष, अपवाद आदि का निर्देश है उसी प्रकार व्यवहारसूत्र में भी इन्हीं विषयों से संबंधित उल्लेख हैं। इस प्रकार ये दोनों नियुक्तियाँ परस्पर पूरक है । तथापि व्यवहार नियुक्ति में मुख्य रूप से व्यवहार, व्यवहारी एवं व्यवहर्त्तव्य का वर्णन हैं।
दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि व्यवहारनिर्युक्ति भाष्य मिश्रित अवस्था में ही मिलती है। आगे व्यवहार भाष्य का विस्तृत वर्णन अपेक्षित होने से यहाँ व्यवहार निर्युक्ति गत विधि-विधानों पर संक्षिप्त प्रकाश डाल रहे हैं। अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि इसमें उल्लिखित किये गये प्रायः विधि-विधान व्यवहार भाष्य में भी उपलब्ध हैं व्यवहारनिर्युक्तिगत विधि-विधान का सामान्य वर्णन निम्न हैं
१. प्रायश्चित्त - दान विधि, २. विविध विभाग आलोचना विधि, ३. वाचना के लिए समागत अयोग्य शिष्य की वारणा - विधि, ४. श्रुतव्यवहारी को आलोचना कराने की विधि, ५. किस तीर्थंकर के काल में उत्कृष्टतः कितने दिनों का तप प्रायश्चित्त देने का विधान, ६ प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना करने का विधान, ७. पारिहारिक की निर्गमन विधि, ८. अवसन्न की प्रायश्चित्त विधि, ६. गण से अपक्रमण करने पर प्रायश्चित्त एवं यतनाविधि, १०. अनेक साधर्मिकों द्वारा अकृत्य स्थान सेवन की प्रायश्चित्त विधि, ११. गृहीभूत करने की आपवादिक
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व्यवहारनिर्युक्ति, पृ. ३३, सं. आचार्य महाप्रज्ञ
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मुनि हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ. ७१८-१६
३ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ३, पृ. ११५
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विधि, १२. भूतार्थ जानने की अनेक विधियाँ का उल्लेख, १३. गणधारण के योग्य की परीक्षा विधि, १४. एक ही क्षेत्र में समाप्तकल्प और असमाप्तकल्प के रहने की विधि, १५. मंडली विधि से अध्ययन का उपक्रम, १६. घोटक-कंडूयित विधि से सूत्रार्थ का ग्रहण, १७. सापेक्ष आचार्य द्वारा अन्य आचार्य की स्थापना विधि, १८. आचार्य के कालगत होने पर अन्य को गणधर बनाने की विधि, १६. माया से योग विसर्जन करने की विधि, २०. साधारण क्षेत्र से निर्गमन की विधि, २१. आलोचना स्वपक्ष में करने का निर्देश, इसका अतिक्रमण करने से होने वाली हानियाँ तथा प्रायश्चित्त विधि, २२. आचार्य के चरण-प्रमार्जन की विधि, २३. बहुश्रुत को भी एकाकी रहने का निषेध तथा उसकी प्रायश्चित्त विधि, २४. एक या अनेक साधु के दिवंगत होने पर परिष्ठापन विधि, २५. सात के कम मुनि दिवंगत होने पर परिष्ठापन की विधि, २६. शव-परिष्ठापन की विशेष विधि एवं उसके न करने पर प्रायश्चित्त विधान, २७. वर्षाकाल में फलक न ग्रहण करने पर प्रायश्चित्त विधान, २८. प्रातिहारिक और सागारिक शय्या-संस्तारक को बाहर ले जाने की विधि, २६. विस्मृत उपधि को लाने की विधि, ३०. मोक प्रतिमा की विधि, ३१. महती मोक प्रतिमा की विधि ३२. वर्षावास के योग्य क्षेत्र की प्रतिलेखन विधि, ३३. आगम व्यवहारी द्वारा आगम के आधार पर प्रायश्चित्त प्रदान आदि के उल्लेख हैं।।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि व्यवहारनियुक्ति व्यवहारभाष्य के समतुल्य ही है। विशेष इतना है कि नियुक्ति संक्षिप्त होती है जबकि भाष्य अपेक्षाकृत विस्तृत होते हैं। व्यवहारचूर्णि
व्यवहारसूत्र पर चार प्रकार का व्याख्या साहित्य मिलता हैं - १. नियुक्ति, २. भाष्य, ३. चूर्णि और ४. टीका। व्यवहारसूत्र की चूर्णि अभी तक अप्रकाशित है। व्यवहारभाष्य
आगमों के व्याख्या ग्रन्थों में भाष्य का दूसरा स्थान है। व्यवहारभाष्य की गाथा ४६६३ में भाष्यकार ने अपनी व्याख्या को भाष्य नाम से संबोधित किया है। नियुक्ति की रचना अत्यन्त संक्षिप्त शैली में होती है। उसमें केवल पारिभाषिक
शब्दों पर ही विवेचन या चर्चा मिलती है। किन्तु भाष्य में मूल आगम तथा नियुक्ति दोनों की विस्तृत व्याख्या की जाती है। वैदिक परम्परा में भाष्य लगभग गद्य में लिखे गये हैं, लेकिन जैन परम्परा में भाष्य प्रायः पद्यबद्ध मिलते हैं। जिस प्रकार नियुक्ति के रूप में मुख्यतः १० नियुक्तियों के नाम मिलते हैं वैसे ही भाष्य
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भी १० ग्रंथों पर लिखे गए, ऐसा उल्लेख मिलता है। वे ग्रन्थ ये हैं १. आवश्यक, २. दशवैकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. बृहत्कल्प, ५. पंचकल्प, ६. व्यवहार, ७. निशीथ, ८. जीतकल्प, ६. ओघनिर्युक्ति और १०. पिंडनियुक्ति ।
मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार और निशीथ पर बृहद्भाष्य भी लिखा गया था, जो आज अनुपलब्ध है। इनमें बृहत्कल्प, व्यवहार एवं निशीथ इन तीनों ग्रन्थों के भाष्य गाथा - परिमाण में बृहद् हैं। जीतकल्प, विशेषावश्यक एवं पंचकल्प परिमाण में मध्यम, पिंडनिर्युक्ति, ओघनिर्युक्ति पर लिखे गए भाष्य ग्रंथाग्र में अल्प तथा दशवैकालिक एवं उत्तराध्ययन इन दो ग्रन्थों के भाष्य ग्रंथाग्र में अल्पतम हैं।
उपर्युक्त दस भाष्यों में निशीथ, जीतकल्प एवं पंचकल्प को संकलन प्रधान भाष्य कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें अन्य भाष्यों एवं नियुक्तियों की गाथाएँ ही अधिक संक्रान्त हुई है। जीतकल्पभाष्य में तो जिनभद्रगणि क्षमाश्रम स्पष्ट लिखते है कि- 'कल्प, व्यवहार और निशीथ उदधि के समान विशाल हैं। अतः इन श्रुतरत्नों का नवनीत रूप सार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । ' जिन ग्रन्थों पर नियुक्तियाँ नहीं है वे भाष्य मूलसूत्र की व्याख्या ही करते हैं जैसेजीतकल्प भाष्य आदि। कुछ भाष्य नियुक्ति पर ही लिखे गये हैं जैसे ओघनिर्युक्ति भाष्य एवं पिंडनिर्युक्ति भाष्य आदि ।
छेदसूत्रों के भाष्यों में व्यवहार भाष्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह भाष्य दस उद्देशकों में विभक्त है। इसमें कुल ४६६४ पद्य हैं। व्यवहार भाष्य के कर्त्ता के बारे में सभी का मतैक्य नहीं है। प्राचीन काल में लेखक बिना नामोल्लेख के कृ तियाँ लिख देते थे । कालान्तर में यह निर्णय करना कठिन हो जाता था कि वास्तव में मूल लेखक कौन थे? कहीं-कहीं नाम साम्य के कारण भी मूल लेखक का निर्णय करना कठिन होता है।
पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने व्यवहार के भाष्य कर्त्ता सिद्धसेनगणि को माना है। मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार व्यवहार के भाष्यकार संघदासगण है। व्यवहार भाष्य का रचनाकाल भी विवादास्पद है। क्योंकि भाष्यकार संघदासगणि का समय भी विवादास्पद है। पं. दलसुख मालवणिया ने जिनभद्र का समय छठीं -सातवीं शताब्दी सिद्ध किया है अतः भाष्यकार संघदासगणि का समय
9 जीतकल्पभाष्य गा. २६०५
२
इस भाष्य का संपादन आचार्य महाप्रज्ञ - समणी कुसुमप्रज्ञा ने किया है। यह वि.सं. २०५३, जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित है।
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364/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
पांचवीं-छठी शताब्दी होना चाहिए। स्पष्टतः भाष्य ग्रन्थों का रचनाकार चौथी से छठी शताब्दी तक ही होना चाहिए।
हम व्यवहार सूत्र के सम्बन्ध में यह कह आये हैं कि यह प्रमुख रूप से विधि-विधान का प्रतिपादक ग्रन्थ है। उसमें भी विशेष रूप से यह प्रायश्चित्त निर्धारक ग्रन्थ है तथा आलोचना, प्रायश्चित्त गण मृत्यु, उपाश्रय, उपकरण, प्रतिमाएँ आदि विषयों पर विशेष प्रकाश डालता है। तथापि इसमें प्रसंगवश समाज, अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान, आदि अनेक विषयों का विवेचन मिलता है। भाष्यकार ने व्यवहार के प्रत्येक सूत्र की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की है।
यहाँ व्यवहारभाष्य के परिचय में उन्हीं विषयों की ओर ध्यान दिया जायेगा, जो हमारी शोध का मुख्य ध्येय है - पीठिका - व्यवहार भाष्यकार ने अपने भाष्य के प्रारम्भ में पीठिका दी है। पीठिका में सर्वप्रथम व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्त्तव्य का निक्षेप पद्धति से स्वरूप वर्णन किया गया है। जो स्वयं व्यवहार का ज्ञाता है वह गीतार्थ है। अगीतार्थ के साथ पुरुष को व्यवहार नहीं करना चाहिए क्योंकि यथोचित व्यवहार करने पर भी यह समझेगा कि मेरे साथ उचित व्यवहार नहीं किया गया। अतः गीतार्थ के साथ ही व्यवहार करना चाहिए।'
व्यवहार आदि में दोषों की सम्भावना रहती है, अतः उनके लिए प्रायश्चित्तों का भी विधान किया जाता है। इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए भाष्यकार ने प्रायश्चित्त का अर्थ, भेद, निमित्त, अध्ययन विशेष आदि दृष्टियों से विवेचन किया है। प्रस्तुत भाष्य में प्रायश्चित्त का ठीक वही अर्थ किया गया है जो जीतकल्प भाष्य में उपलब्ध है। प्रतिसेवना, संयोजना आरोपणा और परिकुंचना- इन चारों के लिए चार प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं। प्रथम उद्देशक - पीठिका की समाप्ति के बाद आचार्य सूत्र-स्पर्शिक नियुक्ति का व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं इसमें कई प्रकार के विषयों का प्रतिपादन किया गया है। उनमें विधि-विधान से सम्बन्धित निम्न विवरण उपलब्ध होता है - १. अतिक्रम आदि के लिए प्रायश्चित्त का विधान, २. प्रतिसेवना प्रायश्चित्त के
' व्यवहारभाष्य गा. २७ २ वही गा. ३४
तकल्प भाष्य गा.५
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दस भेदों का उल्लेख ३. आलोचना प्रायश्चित्त किसके पास, कब, कैसे, क्यों? ४ ४. अप्रशस्त समिति, गुप्ति के लिए प्रायश्चित्त का विधान ५. गुरु के प्रति उत्थानादि विनय न करने पर प्रायश्चित्त का उल्लेख ६. प्रतिक्रमणादि दस प्रकार के प्रायश्चित्त का विषय, परिमाण, कब और क्यों ? ७. वस्त्रादि के स्खलित होने पर नमस्कार महामंत्र का चिंतन अथवा सोलह, बत्तीस आदि श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग विधान। ८. प्राणिवध आदि में सौ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग विधान ६. प्राणिवध आदि में २५ श्लोकों का ध्यान तथा स्त्रीविपर्यास में १०८ श्वासोच्छ्वास के कायोत्सर्ग का प्रायश्चित्त विधान। १०. मासिक आदि विविध प्रायश्चित्तों का विधान ११. गीतार्थ के दर्प प्रतिसेवना की प्रायश्चित्त विधि १२. आचार्य आदि की चिकित्साविधि १३. कल्प और व्यवहार भाष्य में प्रायश्चित्त तथा आलोचना विधि का भेद । १४. विहार- विभाग आलोचना विधि १५. आलोचना विधि १६. उपसंपद्यमान के प्रकार तथा आलोचना विधि १७. दिनों के आधार पर प्रायश्चित्त की वृद्धि का विधान १८. मुनि को गण से बहिष्कृत करने सम्बन्धी दस कारण १६. कलह आदि करने पर प्रायश्चित्त का विधान २०. एकाकी-अपरिणत आदि दोषों से युक्त के लिए प्रायश्चित्त का विधान । २१. शिष्य, आचार्य तथा प्रतीच्छक के प्रायश्चित्त की विधि २२. आचार्य और शिष्य में पारस्परिक परीक्षा विधि २३. आचार्य द्वारा शिष्य की परीक्षा विधि २४. वाचना के लिए समागत अयोग्य शिष्य की वारणा - विधि २५. विभिन्न स्थितियों में शिष्य और आचार्य दोनों को प्रायश्चित्त का विधान २६. ज्ञानार्थ उपसंपद्यमान की प्रायश्चित्त-विधि २७. दर्शनार्थ तथा चारित्रार्थ उपसंपद्यान की प्रायश्चित्त - विधि २८. गच्छवासी की प्राघूर्णक द्वारा वैयावृत्य - विधि २६. क्षपक की सेवा न करने से आचार्य को प्रायश्चित्त का विधान ३०. प्रशस्त क्षेत्र में आलोचना देने का विधान ३१. प्रशस्त काल में आलोचना देने का विधान ३२. श्रुतव्यवहारी को आलोचना कराने की विधि ३३. उत्कृष्ट आरोपणा की परिज्ञान विधि ३४. संवेध संख्या जानने का उपाय ३५. अतिक्रम आदि के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान ३६. स्थविरकल्प के आचार के आधार पर सूत्र में अभिहित सभी प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान ३७. नालिका से कालज्ञान की विधि ३८. चतुर्दशपूर्वी के आधार पर दोषों का एकत्व तथा प्रायश्चित्त दान। ३६. छह मास से अधिक प्रायश्चित्त न देने का विधान ४०. छेद और मूल कब और कैसे ? ४१. संचय, असंचय तथा उद्घात, अनुद्घात की प्रस्थापन विधि ४२. उभयतर पुरुष द्वारा वैयावृत्य न करने पर
वही गा . ५५ - ५६
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366 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
प्रायश्चित्त का विधान ४३. भिन्न मास आदि प्रायश्चित्त देने की विधि ४४. उद्घात और अनुद्घात की प्रायश्चित्त - विधि ४५. आत्मतर तथा परतर को प्रायश्चित्त देने की विधि ४६. अन्यतर को प्रायश्चित्त देने की विधि ४७. प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में आलोचना करने का विधान ४८. अभिशय्या' में जाने की आपवादिक विधि ४६. आवश्यक को पूर्णकर या न कर अभिशय्या में जाने का विधान ५०. साधुओं की निस्तारण - विधि साध्वियों की निस्तारण-विधि ५२. दुर्लभ - भक्त की निस्तारण विधि ५३. परिहारतप का निक्षेपण कब? कैसे?
५१.
इस प्रकार इस प्रथम उद्देशक में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की अपेक्षा से विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है। साधुओं के विहार की चर्चा की गई है।
द्वितीय उद्देशक - इस उद्देशक में भाष्यकार ने निम्न विधानों को चर्चित किया है१. प्रतिमा प्रतिपत्ति की विधि और उसके बिन्दु २. आचार्य आदि की प्रतिमा प्रतिपत्ति विधि ३. प्रतिमा की समाप्ति - विधि और प्रतिमा प्रतिपन्न का सत्कार पूर्वक गण में प्रवेश ४. आचार्य द्वारा निषेध करने पर प्रतिमा स्वीकार करने का परिणाम और उसके लिए प्रायश्चित्त का विधान ५. देवताकृत अन्य उपद्रवों में पलायन करने पर प्रायश्चित्त का विधान ६. देवीकृत माया में मोहित श्रमण को प्रायश्चित्त का विधान ७. अन्यान्य प्रायश्चित्तों का विधान ८. विविध प्रायश्चित्तों का विधान ६. निंदा और खिंसना के लिए प्रायश्चित्त विधान १०. पार्श्वस्थ का स्वरूप एवं उसके प्रायश्चित्त की विधि ११. उत्सव के बिना अथवा उत्सव में शय्यातरपिंड ग्रहण की प्रायश्चित्त विधि १२. पार्श्वस्थ के संसर्ग के प्रायश्चित्तों का विधान १३. पार्श्वस्थ तथा यथाछंद की प्रायश्चित्त विधि १४. कुशील आदि की प्रायश्चित विधि १५. प्रायश्चित्त दान की भिन्न-भिन्न विधियों का संकेत । ६. एकाकी ग्लान के मरने पर होने वाले दोष तथा उनका प्रायश्चित्त विधान १७. दो साधर्मिकों की परस्पर प्रायश्चित्त विधि १८. प्रायश्चित्त वहन न कर सकने वाले मुनि की चर्या विधि १६. समर्थ होने पर सेवा लेने से प्रायश्चित्त दान | २०. क्षिप्तचित्त मुनि के स्वस्थ होने पर प्रायश्चित्त की विधि २१. गृहस्थ से कलह कर आये हुए साधु के लिए क्षमायाचना करने का विधान २२. इत्वरिक और यावत्कथिक तप का प्रायश्चित्त विधान २३. गृहीभूत करके उपस्थापना देने का निर्देश एवं गृहीभूत करने की विधि २४. गृहीभूत करने की आपवादिक विधि
१ अभिशय्या- जहाँ दिन में अथवा रात्रि में वहीं रहकर प्रातः वसति में आते हैं, उसे अभिशय्या कहते हैं।
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२५. भूतार्थ जानने की अनेक विधियों का वर्णन २६. गच्छ निर्गत मुनि पुनः गण में आने का प्रतिषेध करता है तो उससे उपधिग्रहण की प्रक्रिया २७. व्यक्तिलिंग विषयक मुनि के प्रायश्चित्त का निरूपण २८. आचार्य पद पर स्थापित गीतार्थ मुनियों के लिए उपकरण दान की विधि २६. गण द्वारा असम्मत मुनि को आचार्य बनाने पर प्रायश्चित्त का विधान ३० परिहार तप का काल और परिहरण विधि ३१. संसृष्ट हाथ आदि के चाटने पर प्रायश्चित्त का विधान ३२. आचार्य आदि के आदेश पर संसृष्ट हाथ आदि चाटने का विधान ।
इस प्रकार इस दूसरे उद्देशक में भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की अपेक्षा से कई प्रकार के प्रायश्चित्त की विधि का वर्णन हुआ है। इसके साथ ही पार्श्वस्थ आदि साधु, क्षिप्तचित्त-दीप्तचित्त का स्वरूप, आचार्य, उपाध्याय आदि की स्थापना विधि, दोष, अपवाद आदि तथा पारिहारिक और अपारिहारिक के पारस्परिक व्यवहार खान-पान, रहन-सहन आदि का भी विचार किया गया है।
तृतीय उद्देशक- इस उद्देशक का प्रारम्भ गणधारण की इच्छा करने वाले भिक्षु की योग्यता - अयोग्यता के निरूपण से हुआ है। 'गण' का निक्षेप पद्धति से विवेचन किया गया है। गणधारण क्यों किया जाता है ? इसका समाधान किया गया है । तदनन्तर प्रस्तुत उद्देशक के सूत्रों में निम्न विधानों का वर्णन प्राप्त होता है - १. गणधारण के योग्य की परीक्षा विधि २. शिष्य का प्रश्न और गुरुद्वारा परीक्षा विधि का समर्थन ३. गणधारण के लिए अयोग्य कौन ? ४. स्थविरों को पूछे बिना गण-धारण का प्रायश्चित्त विधान ५. प्राचीनकाल में शस्त्रपरिज्ञा से उपस्थापनाविधि, आज दशवैकालिक के चार अध्ययन से उपस्थापना की विधि का विधान ६. तत्काल प्रव्रजित को आचार्य पद क्यों? कैसे? ७. राजपुत्र, अमात्यपुत्र आदि की दीक्षा, उत्प्रव्रजन पुनः दीक्षा तथा पद-प्रतिष्ठापन ८ श्रुतविहीन पर लक्षणयुक्त को आचार्य पद देने की विधि ६. मोहोदय की चिकित्सा विधि १०. प्रतिसेवी मुनि को तीन वर्ष तक वंदना न करने का विधान ११. संघ में सचित्त आदि के लिए विवाद होने पर उसके समाधान की विधि |
इसके अतिरिक्त यहाँ मैथुनसेवन के दोषों का स्वरूप बताते हुए आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक साधु आदि के लिए भिन्न-भिन्न प्रायश्चित्तों का विधान एवं प्रव्रज्या के नियमों पर प्रकाश डाला गया है। मृषावाद आदि अन्य अतिचारों के सेवन का वर्णन करते हुए तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्तों का विवेचन किया जाता है । व्यवहारी और अव्यवहारी का स्वरूप बताते हुए भाष्यकार ने एक आचार्य का उदाहरण दिया है उनमें आठ प्रकार के व्यवहारी शिष्य की प्रशंसा करने का निषेध किया गया है। इत्यादि विषयों के साथ यह उद्देशक पूर्ण होता है ।
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368/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
चतुर्थ उद्देशक - इस उद्देशक में मुख्य रूप से साधुओं के विहार सम्बन्धित विधि-विधान है। इसमें लिखा है कि- शीत और उष्णकाल के आठ महिनों में आचार्य और उपाध्याय को कोई अन्य साधु साथ में न हो तो विहार नहीं करना चाहिए। गणावच्छेदक को साथ में दो साधु होने पर ही विहार करना चाहिए। इसी प्रकार आचार्य और उपाध्याय को अन्य साधु साथ में हो तो भी अलग चातुर्मास नहीं करना चाहिए। अन्य दो साधुओं के साथ में होने पर ही अलग चातुर्मास करना चाहिए। गणावच्छेदक के लिए चातुर्मास में कम से कम तीन साधुओं का सहवास अनिवार्य है। इस सम्बन्ध में और भी निर्देश दिये गये हैं।
इसके अतिरिक्त चतुर्थ उद्देशक में ये विधि-विधान प्राप्त होते हैं१. वर्षावास में वसति को शून्य न करने का निर्देश, शून्य करने से होने वाले दोष तथा प्रायश्चित्त का विधान २. अयोग्य क्षेत्र में वर्षावास बिताने से प्रायश्चित्त-विधान ३. दो-तीन मुनियों के रहने से समीपस्थ घरों से गोचरी का विधान ४. उपाश्रय-निर्धारण की विधि ५. वर्षाकाल में समाप्तकल्प और असमाप्तकल्प वाले मुनियों की परस्पर उपसंपदा विधि ६. घोटककंडूयित विधि से सूत्रार्थ का ग्रहण ७. समाप्तकल्प की विधि का विवरण ८. ऋतुबद्धकाल में गणावच्छेदक के साथ एक ही साधु हो तो उससे होने वाले दोष एवं प्रायश्चित्त-विधि ६. गण-निर्गत मुनि संबंधी प्राचीन और अर्वाचीन विधि १०. निर्वाचित राजा मूलदेव की अनुशासन विधि ११. अन्य मुनियों के साथ रहने से पूर्व ज्ञानादि की हानि-वृद्धि की परीक्षा विधि १२. सापेक्ष उपनिक्षेप में राजा द्वारा राजकुमारों की परीक्षा विधि १३. जीवित अवस्था में पूर्व आचार्य द्वारा नए आचार्य की स्थापना विधि १४. आचार्य द्वारा अनुमत्त शिष्य को गण न सौंपने पर प्रायश्चित्त का विधान १५. गीतार्थ मुनियों के कथन पर यदि कोई आचार्य पद का परिहार न करे तो प्रायश्चित्त विधि १६. रोग से अवधावनोत्सुक मुनि की चिकित्सा विधि १७. आचार्य की अनुज्ञा के बिना गणमुक्त होने पर प्रायश्चित्त विधि १८. आचार्य द्वारा क्षेत्र की प्रतिलेखना विधि १६. विदेश या स्वदेश में दूर प्रस्थान करने की विधि २०. उपसंपद्यमान की परीक्षा विधि २१. आभवद् व्यवहार विधि तथा प्रायश्चित्त विधि २२. योग विसर्जन का कारण और विधि २३. गच्छवास को सहयोग देने की विधि इत्यादि। पंचम उद्देशक - इस उद्देशक में साध्वियों के विहार की विधि एवं नियमों पर प्रकाश डाला गया है। प्रवर्तिनी आदि विभिन्न पदों को दृष्टि में रखते हुए विविध विधि विधानों का निरूपण किया गया है है। प्रवर्तिनी के लिए शीत और उष्णऋतु में एक साध्वी को साथ मे रखकर विहार करने का निषेध कहा है। इन ऋतुओं
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में कम से कम दो साध्वियाँ उसके साथ रहनी चाहिए। गणावच्छेदिनी के लिए कम से कम तीन साध्वियों को साथ रखने का नियम है। वर्षाऋतु के लिए उक्त संख्याओं में और एक की वृद्धि की गई है।
अन्य भी जो विधि-विधान इस उद्देशक में उल्लिखित हैं वे ये हैं - १. कृतिकर्म का विधान, २. गर्व से कृतिकर्म न करने पर प्रायश्चित्त विधि। ३. अविधि से कृतिकर्म करने पर प्रायश्चित्त विधि, ४. कृतिकर्म की विधि, ५. आलोचना की विधि एवं उसके दोष, ६. आगम व्यवहारी के अभाव में साध्वियों द्वारा प्रायश्चित्त दान विधि, ७. साध्वियों का श्रमणों के पास तथा श्रमणों का साध्वियों के पास प्रायश्चित्त लेने का विधान, ८. साध्वी का श्रमणों के पास आलोचना करने की विधि, ६. सांभोगिक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की पारस्परिक सेवा कब? कैसे?, १०. श्रमण द्वारा ग्लान श्रमणी की तथा श्रमणी द्वारा ग्लान श्रमण की वैयावृत्य करने की विधि, ११. निर्ग्रन्थ की निर्ग्रन्थी द्वारा तथा निर्ग्रन्थी की निर्ग्रन्थ द्वारा वैयावृत्य कराने पर प्रायश्चित्त का विधान इत्यादि।
इस प्रकार इस उद्देशक की अन्तिम गाथाओं में 'संभोगिक' शब्द का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। संभोग के छः प्रकार बताये हैं। उनमें भी
ओघसंभोग के १२ और उपसंभोग के ६ भेद कहे गये हैं निशीथ के पंचम उद्देशक में वर्णित संभोगविधि के प्रायश्चित्त आदि के वर्णन के अनुसार यहाँ भी संभोग विधि का वर्णन समझ लेना चाहिए। षष्टम उद्देशक - इस उद्देशक के प्रारम्भ में कहा गया है कि साधु को अपने सम्बन्धी के यहाँ से आहार आदि ग्रहण करने की इच्छा होने पर अपने से वृद्ध स्थविर आदि की आज्ञा लिए बिना आहार नहीं लेना चाहिये, अन्यथा स्थविर आदि की आज्ञा के अपने सम्बन्धियों के यहाँ से आहार लेने वाले के लिए छेद अथवा परिहारतप के प्रायश्चित्त का विधान कहा है। आज्ञा मिलने पर भी यदि जाने वाला साधु अल्पबोधी हो तो उसे अकेले न जाकर किसी बहुश्रुत साधु के साथ ही जाना चाहिए।
इस षष्ठ उद्देशक की व्याख्या में जिन विधि-विधानों का समावेश किया गया है वे इस प्रकार है१. जिनकल्पिक और स्थविर कल्पिक के पारस्परिक वैयावृत्य का विधान २. सर्पदंश के लिए ज्ञातविधि का ज्ञान ३. स्वाध्याय तथा भिक्षाभाव द्वारा शिष्य की परीक्षा-विधि ४. उपसर्ग-सहिष्णु की परीक्षा विधि ५. स्वज्ञातिक मुनि द्वारा धर्मकथा करने का निर्देश और विधि ६. आचार्य के चरण-प्रमार्जन की विधि, अविधि से करने पर दोष तथा प्रायश्चित्त विधान ७. आचार्य को गोचरी से
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370 / प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
निवारित न करने पर प्रायश्चित्त विधान ८. सूत्राध्ययन किए बिना एकलवास करने का निषेध और उसकी प्रायश्चित्त विधि ६. अपठित श्रुत वाले अनेक मुनियों का एक गीतार्थ के साथ रहने का विधान १० अपठित श्रुत मुनियों के एकान्तवास का विधान ११. पृथक्-पृथक् वसति में रहने का विधान और उसकी यतना-विधि १२. बहुश्रुत के त्वग्दोष होने के कारण एकाकी रहने का विधान १३. अबहुश्रुत के त्वक् - दोष होने पर यतना विधि १४. संयम भ्रष्ट साध्वी को गण से विसर्जित करने की विधि इत्यादि ।
सप्तम उद्देशक
सप्तम उद्देशक में निम्न विधि-विधानों का विवेचन किया गया है। १. जो साधु-साध्वी सांभोगिक है अर्थात् एक ही आचार्य के संरक्षण में हैं उन्हें अपने आचार्य से पूछे बिना अन्य समुदाय से आने वाली, अतिचार आदि दोषों से युक्त साध्वी को अपने संघ में नहीं लेना चाहिए। जिस साध्वी को आचार्य प्रायश्चित्त आदि से शुद्ध कर दें उसे अपने संघ में न लेने वाली साध्वियों को आचार्य द्वारा यथोचित्त दण्ड दिया जाना चाहिए । २. जो साधु-साध्वी एक गुरु की आज्ञा में है वे अन्य समुदाय के साधुओं के साथ गोचरी का व्यवहार कर सकते हैं । ३. किसी भी साधु को अपनी वैयावृत्य के लिए स्त्री को दीक्षा नहीं देनी चाहिए। इस विषय में और भी विवेचन किया गया है। ४. प्रव्रज्या के पारग (योग्य) - अपारग (अयोग्य) का परीक्षण ५ समागत निर्ग्रन्थी के गण में ने लेने के कारण एवं तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान ६. आगत मुनियों की द्रव्य आदि में परीक्षा विधि ७. ज्ञात-अज्ञात के साथ बिना आलोचना के सहभोज करने पर प्रायश्चित्तविधान ८. आगत मुनियों का तीन दिनों का आतिथ्य और भिक्षाचर्या की विधि ६. संयतीवर्ग को विंसभोजिक करने की विधि १०. कलह और अधिकरण के विविध पहलू और उनकी उपशमन विधि ११. निर्ग्रन्थिनियों के पारस्परिक कलह के कारण एवं उसके उपशमन की विधि १२. श्रमण - श्रमणियों को स्वपक्ष में ही वाचना देने का विधान १३. स्वपक्ष - परपक्ष की उद्देशन - विधि और अपवाद १४. कौन - किसको कैसे वाचना दे ? १५. वाचना के समय साध्वियाँ कैसे बैठे? १६. दैवसिक अतिचार की चिन्तन विधि १७. आवश्यक ( दैवसिक प्रतिक्रमण) के बाद काल प्रत्युपेक्षणा की विधि १८. प्रादोषिक कालग्रहण कर गुरु के पास आने की विधि और गुरु को निवेदन १६. काल चतुष्क की उपघात विधि २०. स्वाध्याय की प्रस्थापना विधि २१ मृत साधु की परिष्ठापन - विधि तथा उपकरणों का समर्पण २२. प्रत्युपेक्षण न करने के दोष और प्रायश्चित्त २३. शमशान में परिष्ठापन की विधि २४. सात से कम मुनि होने पर परिष्ठापन की
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विधि २५. गृहस्थों द्वारा मुनि के शव का परिष्ठापन उसके दोष और प्रायश्चित्त २६. अकेले मुनि द्वारा शव के परिष्ठान की विधि २७. शव की उपधिग्रहण की विधि २८. विधवा आदि को शय्यातर बनाने का आपवादिक विधान इत्यादि।
इस प्रकार साधु-साध्वियों के स्वाध्याय के लिए उपयुक्त तथा अनुपयुक्त काल का भाष्यकार ने अति विस्तृत वर्णन किया है। साथ ही स्वाध्याय की विधि आदि अन्य आवश्यक बातों पर भी पूर्ण प्रकाश डाला गया है। परस्पर वाचना देने के क्या नियम है? इसका भी विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया है। अष्टम उद्देशक - इस उद्देशक के भाष्य में मुख्य रूप से विधि-विधानों सम्बन्धी निम्न चर्चा प्राप्त होती है - १. राजा को अनुकूल बनाने का विधान, २. ऋतुबद्धकाल, वर्षावास और वृद्धावास के योग्य शय्या-संस्तारक का विधान, ३. संस्तारक के लिए तण ग्रहण करने की विधि, ४. जिनकल्पिक और स्थविर कल्पिक के लिए तृणों का परिमाण, ५. ग्लान और अनशन किए हुए मुनि के लिए संस्तारक की विधि, ६. फलक को उपाश्रय के बाहर से लाने की विधि, ७. ऋतुबद्ध काल में संस्तारक न लेने पर प्रायश्चित्त का विधान, ८. वर्षाकाल में संस्तारक ग्रहण न करने पर प्रायश्चित्त और उसके कारण, ६. वर्षाकाल में फलक-संस्तारक ग्रहण की विधि, १०. दंड आदि उपकरणों की स्थापना विधि, ११. मार्ग में स्थविर के भटक जाने पर अन्वेषण विधि, १२. शून्यगृह में आहार करने की विधि, १३. प्रातिहारिक तथा सागारिक शय्या- संस्तारक को बाहर ले जाने की विधि और प्रायश्चित्त, १४. अननुज्ञाप्य संस्तारक के ग्रहण का विधान, १५. दत्तविचार और अदत्तविचार अवग्रहों में तृणफलक आदि लेने की विधि और निषेध, १६. वसति के स्वामी को अनुकुल करने की विधि, १७. विस्मृत उपधि की दूसरे मुनियों द्वारा निरीक्षण विधि, १८. उपधि-परिष्ठापन की विधि तथा आनयन विधि, १६. अतिरिक्त पात्र ग्रहण करने की विधि, २०. पात्र प्रतिलेखन की विधि, २१. आनीत पात्रों की वितरण विधि, २२. निर्दिष्ट को पात्र न देने पर प्रायश्चित्त विधान, २३. ग्लान आदि को पात्र देने की विधि इत्यादि नवम उद्देशक - इस उद्देशक का मुख्य विषय है शय्यातर अर्थात् सागारिक के ज्ञातिक, स्वजन, मित्र आदि आगंतुकों से सम्बन्धित आहार के ग्रहण-अग्रहण का विवेक तथा साधुओं की विविध प्रतिमाओं का विधान
सागरिक के घर के अन्दर या बाहर कोई आगन्तुक भोजन कर रहा हो और उस भोजन से सागारिक का सम्बन्ध हो, तो उस आहार में से साधु आगन्तुक के आग्रह करने पर भी कुछ न लें। इसी प्रकार सागरिक के दास-दासी आदि के आहार के विषय में भी समझना चाहिए। औषधि आदि के विषय में भी यही नियम है।
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372/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
प्रतिमाओं के विवेचन में तत्सम्बन्धी काल, शिक्षा परिमाण, कल्पादि ग्रहण का प्रयोजन, मोकप्रतिमा का स्वरूप, मोक प्रतिमा सम्पन्न कर उपाश्रय में अनुसरणीय विधि आदि आवश्यक बातों पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। दशम उद्देशक - इस उद्देशक में यवमध्य प्रतिमा और वज्रमध्य-प्रतिमा की विधि पर विशेष रूप से विचार किया गया है। पाँच प्रकार के व्यवहार की उपयोग विधि का विस्तृत विवेचन करते हुए बालदीक्षा की विधि पर भी प्रकाश डाला गया है। दस प्रकार की सेवा का वर्णन करते हुए उससे होने वाली महानिर्जरा का भी निरूपण किया गया है। निर्ग्रन्थ पांच प्रकार के माने गये हैं। इनके लिए विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों का विधान किया गया है प्रायश्चित्त दस प्रकार के कहे गये हैं। किसके लिए कितने प्रायश्चित्त हो सकते हैं जैसे पुलाक के लिए छः प्रकार के प्रायश्चित्त है। निर्ग्रन्थ के लिए आलोचना और विवेक इन दो प्रायश्चित्तों का विधान है। स्नातक के लिए केवल एक प्रायश्चित्त विवेक का विधान किया गया है।
इसके अन्तर्गत और भी विधि-विधान प्राप्त होते हैं वे इस प्रकार हैं - १. वृषभ क्षेत्र के प्रकार तथा वहाँ रहने की विधि, २. अभिधार्यमाण आचार्य के जीवित और कालगत होने पर संपादनीय विधि, ३. सामायिक आदि पाँच प्रकार के निर्गन्थ तथा उनके प्रायश्चित्तों का विधान, ४. असंविग्न के समीप अनशन करने के दोष और प्रायश्चित्त विधान, ५. रत्नत्रयी संबंधी अतिचारों की आलोचना विधि, ६. कालगत अनशनकर्ता की चिहकरण, प्रकार और विधि ७. दूरस्थ आचार्य के पास आलोचना करने की विधि में आज्ञाव्यवहार का निर्देश तथा शिष्य की परीक्षा-विधि, ८. आचारांग आदि अंगों की अध्ययन विधि आदि।
उपर्युक्त विवरण से यह ज्ञात होता है कि व्यवहार भाष्य एक आकर ग्रन्थ है। इसमें अनेक विषयों का समावेश है। टीकाकार मलयगिरि ने इस पर टीका लिखकर इसको और अधिक प्रशस्त बना दिया है। यद्यपि इस ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य प्रायश्चित्त देकर साधक की विशोधि करना है, परन्तु इस प्रतिपाद्य के परिवार्श्व में ग्रंथकार ने और भी अनेक तथ्यों का प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत ग्रंथ भाष्यकालीन सभ्यता एवं संस्कृति पर विशद प्रकाश डालता है। ग्रंथकार ने जैन परम्परागत विधि-विधानों का अविकल संकलन कर उनकी पारंपरिकता को अविच्छिन्न रखा है।
इसमें पाँचों व्यवहारों के संदर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण मंतव्यों का उल्लेख प्राप्त होता है। यहाँ हमने भाष्यगत विधि-विधान परक विषयों का ही निरूपण किया है।
वधि-नामपरकाषा का ही
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व्यवहार विवरण
प्रस्तुत विवरण (टीका) मूलसूत्र, निर्युक्ति एवं भाष्य पर है। इसके टीकाकार आचार्य मलयगिरि है। उनके जीवनवृत्त के बारे में इतिहास में विशेष सामग्री नहीं मिलती। न ही उनकी गुरु परम्परा का उल्लेख मिलता है।
ये हेमचन्द्र के समवर्ती थे। उनके साथ उन्होंने विशिष्ट साधना से विद्यादेवी की आराधना की थी। देवी से उन्होंने जैन आगमों की टीका करने का वरदान मांगा था। इनका समय विद्वानों ने १२ वीं शती के आसपास माना है। आचार्य मलयगिरि की प्रसिद्धि टीकाकार के रूप में अधिक हुई है। ये टीकाएँ विषय-वैशद्य एवं निरूपण कौशल दोनों दृष्टियों से सफल है।
मलयगिरि विरचित निम्नोक्त आगमिक टीकाएँ आज भी उपलब्ध हैं १. व्याख्याप्रज्ञप्ति, २. राजप्रश्नीय टीका, ३. जीवाभिगम टीका, ४. प्रज्ञापना टीका, ५. चन्द्रप्रज्ञप्ति टीका, ६. सूर्यप्रज्ञप्ति टीका, ७. नन्दी टीका, ८. व्यवहार वृत्ति, ६. बृहत्कल्पपीठिका वृत्ति, १०. आवश्यक वृत्ति, ११. पिण्डनिर्युक्ति टीका, १२. ज्योतिष्करण्डक टीका ।
उनकी निम्नलिखित आगमिका टीकाएँ अनुपलब्ध हैं १. जम्बूदीप प्रज्ञप्ति टीका, २. ओधनिर्युक्ति टीका, ३. विशेषावश्यक भाष्य टीका । इनके अतिरिक्त मलयगिरि की अन्य ग्रन्थों पर सात टीकाएँ और उपलब्ध हैं एवं तीन टीकाएँ अनुपलब्ध हैं। इनका एक स्वरचित शब्दानुशासन भी उपलब्ध है। इस प्रकार आचार्य मलयगिरि ने कुल छब्बीस ग्रन्थों का निर्माण किया, जिनमें पच्चीस टीकाएँ हैं। यह ग्रन्थराशि लगभग दो लाख श्लोकपरिमाण है। स्पष्टतः ये आचार्य आगमिक टीकाकारों में सबसे आगे रहे हैं। इनकी पाण्डित्यपूर्ण टीकाओं की विद्वत्समाज में बड़ी प्रतिष्ठा है । '
व्यवहार टीका संस्कृत गद्य-पद्य मिश्रित भाषा में है। इस विवरण का ग्रन्थमान ३४६२५ श्लोक प्रमाण है।
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ग्रन्थ के प्रारम्भ में टीकाकार ने सर्वप्रथम भगवान् नेमिनाथ, अपने गुरुदेव एवं व्यवहार चूर्णिकार को सादर नमस्कार किया है तथा व्यवहार सूत्र का विवरण लिखने की प्रतिज्ञा की है । इस विवरण के प्रारम्भ में प्रस्तावना रूप पीठिका है जिसमें कल्प, व्यवहार, दोष, प्रायश्चित्त आदि पर प्रकाश डाला गया है। इस सम्बन्धी विधि-विधानों का भी उल्लेख किया गया है। यहाँ कल्प (बृहत्कल्प) सूत्र और व्यवहार सूत्र का अन्तर स्पष्ट करते हुए प्रारम्भ में ही आचार्य कहते हैं
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ३, पृ. ४३
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374/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
कि कल्पाध्ययन में प्रायश्चित्त का कथन तो किया गया है किन्तु प्रायश्चित्त दान की विधि नहीं बताई गई है। व्यवहार में प्रायश्चित्त दान और आलोचना विधि का अभिधान है।
आगे कहा है कि व्यवहारोक्त प्रायश्चित्त दान के लिए यह आवश्यक हैं कि प्रायश्चित्त देने वाला और प्रायश्चित्त लेने वाला दोनों गीतार्थ हो। अगीतार्थ न तो प्रायश्चित्त देने का अधिकारी है और न लेने का। प्रायश्चित्त क्या है? इस प्रश्न को लेकर आचार्य ने प्रायश्चित्त का अर्थ बताते हुए उसके प्रतिसेवना, संयोजना, आरोपणा और परिकुंचना इन चार भेदों का सविस्तार व्याख्यान किया है। प्रतिसेवना रूप प्रायश्चित्त के दस प्रकार कहे गये हैं। इन दस प्रकार के प्रायश्चित्तों की दान विधि के व्याख्यान के साथ पीठिका का विवरण समाप्त होता है।
निष्कर्षतः व्यवहार पर लिखी गयी यह टीका व्यवहार सूत्र एवं भाष्य के अनेक रहस्यों को प्रकट करने वाली है। व्याख्या के प्रसंग में अनेक पारिभाषिक शब्दों की परिभाषाएँ उनकी टीका में मिलती हैं, जैसे- अत्र गुरुशब्देनोपाध्याय उच्यते (१६७ टी.प. ५५), चारित्रस्य प्रवर्तकः प्रज्ञापक उच्यते (४१७४ टी.प. ४७), धर्मे विषीदतां प्रोत्साहकः स्थविरः (२१७ टी.प. १३)
। कहीं-कहीं दो समान शब्दों का अर्थभेद भी उन्होंने बहुत निपुणता से प्रस्तुत किया है। व्याख्या के साथ-साथ उन्होंने उस समय की परम्पराएँ एवं सांस्कृ तिक तत्त्वों का समावेश भी अपनी टीका में किया है। भाष्यकार ने कथा का संक्षिप्त संकेत किया है किन्तु उन्होंने पूरी कथा का विस्तार दिया है। बिना टीका के उन कथाओं को समझना आज अत्यन्त कठिन होता। टीका में उन्होंने किसी विषय की पुष्टि में अन्य ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये हैं, जो उनकी बहुश्रुतता के द्योतक हैं।
इस प्रकार शोध के आधार पर प्रायश्चित्त दान एवं तत्सम्बन्धी विधि-विधानों को अत्यन्त सुगमता पूर्वक समझा जा सके एतदर्थ 'व्यवहार विवरण' अत्यधिक उपयोगी सिद्ध होती है। सड्ढजीयकप्पो (श्राद्धजीतकल्प)
___ इस ग्रन्थ' के कर्ता रचना नव्यकर्मग्रन्थादि की रचना करने वाले
' (क) इस कृति का संशोधन तपागच्छीय माणिक्यसागरसूरि के शिष्य लाभसागरगणि ने किया
(ख) यह कृति मूलपाठ के साथ वृत्ति सहित श्री सीमंधर स्वामी जैन ज्ञान मंदिर, महेसाणा से वि.सं. २०२७ में प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/375
देवेन्द्रसूरि के शिष्य धर्मघोषसूरि है। यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में निबद्ध है। इसमें १४२ गाथाएँ हैं तथा किसी-किसी के मत से इसमें २२५ पद्य हैं। यह कृति वि.सं. १३५७ में रची गई है। यह प्रायश्चित्त विधान का सर्वमान्य ग्रन्थ है। इसमें श्रावक के प्रायश्चित्त विधान का निरूपण हुआ है अतः इस कृति का नाम 'श्राद्धजीतकल्प' हैं।
यहाँ उल्लेखनीय है कि आगमसाहित्य में छेदसूत्र और जीतव्यवहारादि सूत्र प्रायश्चित्त विषयक कहे गये हैं तथा उन ग्रन्थों को उस रूप में विशेष मान्यता मिली है। इतना ही नहीं उन ग्रन्थों में मुख्यतया साधु-संबंधी प्रायश्चित्त विधान का ही निरूपण हुआ है। जबकि इस ग्रन्थ की विशिष्टता यह है कि इसमें श्रावक संबंधी प्रायश्चित्त का विवेचन हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ की दूसरी विशेषता यह हैं कि श्रावक संबंधित प्रायश्चित्त विधान का यह प्रथम ग्रन्थ है। इसके पहले इस विषय का कोई ग्रन्थ रचा गया हो, लेकिन वह हमारे देखने में नहीं आया है। इस ग्रन्थ में प्रायश्चित्त विधि से मिलते-जुलते अन्य अनेक साक्षीपाठ दिये गये हैं परन्तु उन साक्षी पाठों में कोई भी ग्रन्थ इस ग्रन्थ की समानता करने वाला दिखाई नहीं देता है। इस कृति की तीसरी विशेषता कही जा सकती है कि जिस प्रकार श्रावक विषयक प्रायश्चित्त आदि का यह प्रथम ग्रन्थ है उसी प्रकार अंतिम ग्रन्थ भी है। इस रचना के बाद तद्विषयक कोई ग्रन्थ रचा गया हो ऐसा ज्ञात नहीं है। हमें अब तक इस प्रकार की कोई कृति देखने-पढ़ने को नहीं मिली है। इससे निःसंदेह सिद्ध होता है कि श्रावकसंबंधी प्रायश्चित्त विधान का यह प्रथम और अंतिम ग्रन्थ है।
यह जानने योग्य है कि 'श्राद्ध-जीतकल्प' की रचना व्यवहार-निशीथ-बृहत्कल्प आदि सूत्रों के आधार पर हुई है। इसका निर्णय इस ग्रन्थ की वृत्ति के प्रारम्भिक श्लोक से ही हो जाता है। इस विवरण से यह भी स्पष्ट होता है कि आगम साहित्य में गौण पक्ष के आधार पर ही ये श्रावक संबंधी प्रायश्चित्तादि वर्णित हैं। इस ग्रन्थ की वृत्ति का प्रारम्भिक वर्णन पढ़ने से यह भी अवगत होता है कि इस कृति के पूर्व विविध सामाचारियों के आम्नायगत अनेक जीतकल्प उस समय में विद्यमान थे। पुनः इस ग्रन्थ का मुख्य विषय श्रावकादि के व्रत-नियम में अतिचार लगे हों अथवा व्रतभंग हुआ हों उसकी शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का वर्णन करना है। इसके साथ ही इस ग्रन्थ को पढ़ने का अधिकारी कौन है? उस विषय में भी ग्रन्थकार ने स्पष्टता की है। इससे ज्ञात होता है कि छेदसूत्रों या अन्य आगम ग्रन्थों की तरह इस ग्रन्थ का कोई भी व्यक्ति अनधिकार पूर्वक वांचन कर इसका उपयोग नहीं कर सकता है।
२ देखिये - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ४, पृ. २८८
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376/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य
अब श्राद्धजीतकल्प के अनुसार श्रावकाधिकार संबंधी प्रायश्चित्त विधान का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है। इस ग्रन्थ में निम्न विषय उल्लिखित हुए हैं - १. आगमादि पाँच प्रकार के व्यवहार का वर्णन, २. आलोचना ग्रहण विधि, ३. आलोचना ग्रहण करने का काल, ४. आलोचना ग्रहण के योग्य कौन?, ५. आलोचना दान के योग्य कौन?, ६. आलोचना के लिए योग्य गुरु के अभाव में अपवाद, ७. आचार्य- उपाध्यायादि का स्वरूप, ८. आलोचना किसके समान करनी चाहिये, ६. आलोचना करने वाले आराधक के दस गुण और दस दोष, १०. सम्यक् आलोचना से होने वाले गुण, ११. अगीतार्थ साधु के पास आलोचना करने से होने वाले दोष, १२. गीतार्थ गुरु के पास आलोचना न करने से लगने वाले दोष और आलोचना करने से होने वाले गुण, १३. सम्यक् आलोचना करने का और नही करने का फल, १४. अतिचार आपत्ति के प्रकार, १५. प्रायश्चित्त के भेद, १६. अनवस्थाप्य
और पारांचित प्रायश्चित्त का स्वरूप, १७. आलोचना करने का फल और उसके संबंध में राघावेधक का दृष्टान्त, १८. ज्ञानाचार और दर्शनाचार में लगने वाले अतिचारों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त विधान, १६. भिक्षा के दोष, २०. आहार करने एवं आहार न करने के कारण, २१. अशुद्ध आहार-पानी बहराने वाले के लिए प्रायश्चित्त विधान, २२. साधु के समीप में स्वयं की औषधादि का काम करवाने वाले श्रावक के लिए प्रायश्चित्त, २३. सकारण पार्श्वस्थादि साधु को वंदन न करने से लगने वाला प्रायश्चित्त, २४. सम्यक्त्वव्रत के संबंध में कन्या के निमित्त फल को ग्रहण करना, वृक्षारोपण करना, बलिविधान करना, मिथ्यादेव को वंदन करना, मिथ्यादृष्टियों के तीर्थ में स्नान करना इत्यादि प्रवृत्ति करने वाले श्रावक के लिए प्रायश्चित्त विधान, २५. पूजा करते हुए हाथ में से प्रतिमा गिर जाये, अविधि से पूजा करें, गुरु तथा गुरु के आसन आदि की पॉव से आशातना हो जाये, स्थापनाचार्यजी हाथ से गिर जाये उस विषय में प्रायश्चित्त विधान, २६. द्वीन्द्रियादि जीवों का संघट्टा हो जाये, अनछाना पानी पी लें, अनछाना पानी गरम कर लें तथा उससे स्नान कर लें, बिना देखे अग्नि में ईधन डाल दें इत्यादि प्रथम अहिंसाव्रत के सम्बन्ध में प्रायश्चित्त का विधान, २७. इसी प्रकार सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रह परिमाणव्रत में एवं रात्रि भोजन, बाईस अभक्ष्य, बत्तीस अनन्तकाय का सेवन करने से लगने वाले दोषों का प्रायश्चित्त विधान, २८. चार शिक्षाव्रत के सम्बन्ध में सामायिक-देशावगासिक-पौषध-अतिथिसंविभाग इन चार शिक्षाव्रतों में लगने वाले अतिचारों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त विधान, २६. तपाचार
और वीर्याचार के संबंध में यथाशक्ति तप न करना, तपस्वी की निंदा करना, तप में अंतराय देना, नवकारसी आदि प्रत्याख्यान भंग करना, अकारण प्रतिक्रमण नहीं करना, बैठे-बैठे प्रतिक्रमण करना, सात क्षेत्र में दान करने की शक्ति को छुपाना, तप-स्वाध्याय-पूजा आदि के लिए शक्ति होने पर भी अल्प-मात्रा में करना, साधर्मी
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भक्ति नहीं करना, अभिग्रह धारण नहीं करना इत्यादि में लगने वाले अतिचारों एवं दोषों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान, ३०. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-पुरुष प्रतिसेवना के भेद से प्रायश्चित्त के भेद, ३१. द्रव्य-क्षेत्र-काल का स्वरूप, ३२. भावपुरुष का स्वरूप, ३३. प्रतिसेवना के चार और कल्पना के चौबीस प्रकार, ३४. दान, तप काल प्रायश्चित्त के दो-दो भेद, ३५. श्रुतव्यवहार के आश्रित नौ प्रकार के तप, ३६. नौ प्रकार में आपत्ति तप, ३७. गुरूपक्ष, लघुपक्ष और लघुकपक्ष सम्बन्धी नौ प्रकार का दान तप, ३८. वर्षा काल सम्बन्धी दान तप के भेद इत्यादि।
इस कृति के उक्त वर्णन से सूचित होता है कि इसमें मुख्यतः श्रावक के बारहव्रत, सम्यकत्वव्रत एवं ज्ञानाचार आदि पंचाचार सम्बन्धी प्रायश्चित्त विधान का उल्लेख हुआ है। साथ ही प्रायश्चित्त के अनेक प्रकार, द्रव्यादि की अपेक्षा प्रायश्चित्त दान, तप के अनेक प्रकार, आलोचना के गुण-दोष, योग्य-अयोग्य आदि विषय भी प्रतिपादित हुए हैं। दानतप के सम्बन्ध में दो यंत्र भी उल्लिखित किये हैं उनमें एक यंत्र ८१ विकल्पों में विभक्त है। ये दोनों यंत्र समझने जैसे हैं।
प्रस्तुत कृति की प्रस्तावना के आधार पर यह कहना आवश्यक प्रतीत होता है कि जिस प्रकार यह ग्रन्थ श्रावक प्रायश्चित्त के विषय में सुविख्यात है उसी प्रकार इस ग्रन्थ के कर्ता भी लघु स्तुति-स्त्रोत आदि की रचना के विषय में उस समय के विख्यात मुनि हुए हैं। ग्रन्थकर्ता धर्मघोषसूरि की कई रचनाएँ दृष्टिगत होती है उनमें अजिअसंतिथय, आदिनाह, इसिमंडलथोत्तं, जुगप्पहाणथोत्त, दुसमकालथवण, सर्वजिनस्तुति, साधारणजिनस्तुति, सितुंजकप्पो, गिरनारकल्प, समेतशिखरकल्प, अष्टापदतीर्थकल्प, समवसरणपयरण, जोणिथयं, लोकनालिका द्वात्रिंशिका, संघाचारटीका, कायट्टिइपयरण, कालसप्ततिकापयरण, कायस्थितिस्तव, भवस्थितिस्तव आदि प्रमुख हैं। इन सभी कृतियों में देववंदन भाष्य पर रची गई ‘संघाचारवृत्ति' सबसे बड़ी रचना है। इस ग्रन्थ के कर्ता के विषय में यह उल्लेख भी मिलता है कि इन्होंने मंत्रध्यान से प्राचीन कपर्दियक्ष को प्रतिबोधित किया है। आपके उपदेश से शत्रुजयगिरि ऊपर ऋषभदेव प्रभु के प्रासाद आदि ८४ जिनालयों का निर्माण हुआ है। गिरनार का छह 'री' पालक संघ निकला है और गिरनार तीर्थ के चारों दिशाओं में बारह योजन भूमि परिमाण में रहे हुए सभी जिनालयों पर चाँदी की ध्वजाएँ करवाई हैं और छह ज्ञानभंडार बनवाये हैं। वृत्ति- इस ग्रन्थ पर सोमतिलकसूरि ने एक वृत्ति लिखी है वह २५४७ श्लोक-परिमाण है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ पर अज्ञातकर्तृक एक अवचूरि भी है।
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AVODI
190AMAal
[ अध्याय-9
योग-मद्रा-ध्यान
सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
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380/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
अध्याय ६ योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य-सूची क्र. कृति
कृतिकार कृतिकाल १ झाणज्झयण अथवा (जिनभद्रगणि लग. वि.सं. छठी झाणसय(सं.)
शती २ तत्त्वानुशासन (सं.) नागसेनाचार्य वि.सं. ११-१२ वीं
शती ३ ध्यानचतुष्टयविचार अज्ञातकृत लग. वि.सं. १७ वीं
शती ४ ध्यान दीपिका
मुनि सकलचन्द्र वि.सं. १६२१ ५ ध्यानदण्डकस्तुति (सं.) अज्ञातकृत लग. वि.सं. १३-१४
वीं शती ६ ध्यानस्तव (सं.) मुनि भास्करनन्दी लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती | ७ ध्यानस्वरूप
मुनि भावविजय वि.सं. १६६६ ८ ध्यानसार
यशकीर्ति
लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती ६ ध्यानसार
अज्ञातकृत लग. वि.सं. १६-१७
वीं शती | १० ध्यानमाला
नमिदास
लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती | ११ ध्यानदीपिका (गु.) देवचन्द्र वि.सं. १७६६ | १२ ध्यान विचार (सं.) अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती १३ प्रेक्षाध्यान चैतन्य-केन्द्रप्रेक्षा आचार्य महाप्रज्ञ वि.सं. २०-२१ वीं
शती
(हि.)
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/381
(हि.)
१४ प्रेक्षाध्यान लेश्याध्यान (हि.) आचार्य महाप्रज्ञ वि.सं. २०-२१ वीं
शती १५ प्रेक्षाध्यान आसन-प्राणायाम मुनि किशनलाल वि.सं. २०-२१ वीं
शती १६ प्रेक्षाध्यान शरीरप्रेक्षा (हि.) आचार्य महाप्रज्ञ वि.सं. २०-२१ वीं
शती १७ प्रेक्षाध्यान प्राणचिकित्सा (हि.) साध्वी राजीमती ।
शती १८ मुद्राविज्ञान (हि.) उपा. रजनीकांत वि.सं. २०-२१ वीं
शती १६ |योगबिन्दु (सं.)
आ. हरिभद्र वि.सं. ८ वीं शती २० योगदृष्टिसमुच्चय (सं.) आ. हरिभद्र वि.सं. ८ वीं शती २१ योगशतक (प्रा.) आ. हरिभद्र वि.सं. ८ वीं शती २२|योगविंशिका (प्रा.) आ. हरिभद्र वि.सं. ८ वीं शती २३ योगप्रदीप (सं.)
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १२ वीं
शती
२४ योगशास्त्र (सं.) २५ यौगिक क्रियाएँ (हि.)
हेमचन्द्राचार्य किशनलाल
वि.सं. १२ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती लग. वि.सं. ११ वीं
२६ हस्तमुद्रा प्रयोग और परिणाम मुनि किशनलाल
(हि.) २७ ज्ञानार्णव (सं.)
आ. शुभचन्द्र
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/383
अध्याय ६ योग-मुद्रा-ध्यानसम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
झाणज्झयण अथवा झाणसय
इस कृति का संस्कृत नाम ध्यानाध्ययन और ध्यानशतक है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इसे ध्यानशतक नाम से निर्दिष्ट किया है। इस कृति' के कर्ता और कृति का काल दोनों विवादस्पद हैं। 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' (भा.४) में इस पर कुछ विचार किया गया है। परम्परा से इसके कर्ता जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण माने जाते हैं- जिनका काल विक्रम की छठी शती माना गया है। इसकी मुद्रित प्रतियों में १०५ गाथाएँ हैं। इसकी आद्य गाथा में भगवान महावीर स्वामी को प्रणाम किया गया है और उन्हें योगीश्वर कहा है।
इसका मुख्य विषय ध्यान साधना का निरूपण करना है। इस उद्देश्य से दूसरी गाथा में ध्यान का लक्षण बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त छयस्थ के ध्यान का समय, केवलज्ञानियों की ध्यान की स्थिति, ध्यान के चार प्रकार और उनके फल, आर्तध्यान के चार भेदों का स्वरूप, रौद्रध्यान के चार भेदों का स्वरूप, धर्मध्यान और शुक्लध्यान के अधिकारी, उनकी लेश्या एवं लिंग, ध्यान साधना सम्बन्धी देश, काल, आसन और आलम्बन, केवलज्ञानियों द्वारा की जाने वाली योग-निरोध की विधि तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान के फल इत्यादि विषय निरूपित हुए हैं। टीका - इस पर हरिभद्रसूरि ने एक टीका रची है उसमें सर्वप्रथम ध्यान के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी हैं। इस पर एक अन्य अज्ञातकर्तृक टीकाएँ भी है। तत्त्वानुशासन
नागसेनाचार्य प्रणीत यह कृति संस्कृत भाषा में निबद्ध है। हमें यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है, केवल नमस्कार स्वाध्याय नामक संकलित कृति में, 'नवकार- ध्यानविधि के रूप में इसकी १६३ गाथाएँ उपलब्ध हुई हैं। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह ध्यान का अद्भुत ग्रन्थ है। इस कृति का अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि ध्यान के अभ्यासियों को यह ग्रन्थ
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' यह कृति आवस्सयनिज्जत्ति और हरिभद्रीय शिष्यहिता नाम की टीका के साथ 'आगमोदयसमिति' से प्रकाशित है। इस टीका की एक स्वतंत्र हस्तप्रति भी मिलती है।
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384/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
अवश्य देखना चाहिए। इसमें सामान्यतः व्यवहार ध्यान के आलम्बन एवं निश्चय ध्यान के आत्मालंबन का सुंदर वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ स्वयं ग्रन्थकार की अद्भुत प्रतिभा का प्रमाण प्रस्तुत करता है। इस ग्रन्थ की शैली उत्तम हैं।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में एकाग्र मन पूर्वक पंचपरमेष्ठी के नमस्काररूप महामंत्र का जाप अथवा जिनेश्वर प्रणीत शास्त्रों के अध्ययन को सर्वोत्कृष्ट स्वाध्याय बतलाया गया है और कहा है कि आत्मा स्वाध्याय के द्वारा ही ध्यान में आगे बढ़ती है और ध्यान से स्वाध्याय विशेष होता है। इस प्रकार ध्यान और स्वाध्याय रूप संपत्ति से परमात्म तत्त्व का प्रकाश होता है।
सर्वप्रथम इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार प्रकार के ध्यान की चर्चा की गई है। १. नामध्यान - इस विधि के अनुसार अरिहंत परमात्मा का हृदय में ध्यान करना चाहिए। यह ध्यान करने वाला साधक 'अ-सि-आ-उ-सा' इन परमेष्ठिओं के आद्य अक्षरों का चार दल वाले हृदयकमल में ध्यान करें। इसी प्रकार मति आदि पाँच ज्ञानों का ध्यान करें। 'नमो अरिहंताणं' इन सप्ताक्षर मंत्र का सात मुखछिद्रों में (दो कर्ण के, दो नासिका के, दो चक्षु के एवं एक मुख के छिद्र में) ध्यान करें। 'अ-क-च-ट-त-प-य-श' इन अक्षरों का अष्टदल कमल वाले हृदय में ध्यान करें। ये बीजाक्षर गणधरवलय (४८ लब्धिपद) से सहित और ह्रींकार से वेष्टित हैं, ऐसा चिंतन करना चाहिए। इसी क्रम में 'अ से ह' पर्यन्त अक्षरों का स्वचक्रों' पर ध्यान करें। इस ध्यान प्रक्रिया को प्रारम्भ करने के पूर्व उक्त अक्षरों को भूमिमंडल पर आलेखित करके उनकी पूजा करनी चाहिए। २. स्थापनाध्यान - शाश्वत और अशाश्वत जिन प्रतिमाओं का आगम में जैसा वर्णन किया गया है उनका वैसा ही शंका रहित ध्यान करना स्थापना ध्यान है। ३. द्रव्यध्यान - आत्मा, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छः प्रकार के द्रव्यों के स्वरूप का चिंतन करना द्रव्य ध्यान है। ४. भावध्यान - अरिहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय और साधु के गुणों का स्मरण या चिंतन करना भाव ध्यान है।
इसके पश्चात् इसमें पूरक एवं रेचक प्राणायाम पूर्वक तथा मारुती-धारणा एवं जलीय धारणा पूर्वक अर्ह ध्यान करने की विधि कही गई है। तत्पश्चात् ध्यान का फल, ध्यान योग्य सामग्री, ध्यान के लिए मुख्य चार हेतुओं, ध्यानाभ्यास के लिए प्रेरक तत्त्व आदि का उल्लेख किया गया है। अंत में चार सारभूत तत्त्वों
' विशेष जानकारी के लिए देखें- श्री सिंहतिलकसूरिकृत 'परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्प', नमस्कार स्वाध्याय पृ. १११ से १२६ तक
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का उल्लेख करते हुए कहा है कि बंध, बंध के हेतु, मोक्ष और मोक्ष के हेतु इन चार तत्त्वों में सारभूत तत्त्व मोक्ष है और वह मोक्ष ध्यानपूर्वक ही होता है।
स्पष्टतः यह कृति ध्यानविधि को प्रस्तुत करने वाली बेजोड़ कृति है । इसमें व्यवहार और निश्चय दोनों प्रकार के ध्यान का विशद वर्णन किया गया है। इस कृति का यह संदर्भित अंश 'नमस्कारस्वाध्याय' भा. २ में संग्रहीत है।
जिनरत्नकोश (पृ. १६६) में ध्यानविषयक जिन कृतियों का निर्देश हुआ है उनकी सामान्य जानकारी इस प्रकार है।
ध्यानचतुष्टयविचार - इस कृति के नामानुसार इसमें आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार प्रकार के ध्यान का निरूपण होना चाहिए। ध्यान दीपिका यह कृति मुनि सकलचन्द्र ने वि.सं. १६२१ में रची है। ध्यानदण्डकस्तुति - प्रस्तुत कृति ' संस्कृत भाषा में पद्यात्मक शैली में रचित है। इसका मुख्य विषय भी ध्यान-साधना का निरूपण करना है। ध्यानस्तव यह भास्करनन्दी की संस्कृत रचना है । ध्यानस्वरूप यह रचना वि.सं. १६६६ की है। इसमें भावविजयजी ने ध्यान का स्वरूप निरूपित किया है। ध्यानसार इस नाम की दो कृतियाँ हैं। एक के कर्त्ता यशःकीर्ति हैं, दूसरी के कर्त्ता का नाम अज्ञात है। ध्यानमाला यह नेमिदास की कृति है ।
ध्यानदीपिका
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२
इस ग्रन्थ के कर्त्ता खरतरगच्छीय दीपचन्द्र के शिष्य देवचन्द्र है। इसकी रचना वि.सं. १७६६ में हुई है । यह ग्रन्थ तत्कालीन गुजराती भाषा में रचीत छह खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में अनित्य आदि बारह भावनाओं का, द्वितीय खण्ड में सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय और पाँच महाव्रतों का, तृतीय खण्ड में पाँच समिति, तीन गुप्ति और मोह विजय का, चतुर्थ खण्ड में ध्यान और ध्येय का, पंचमखण्ड में धर्मध्यान, शुक्लध्यान, पिण्डस्थ आदि ध्यान एवं यंत्रों का तथा षष्ठम खण्ड में स्याद्वाद का निरूपण हैं । प्रस्तुत कृति का प्रारम्भ दोहे से किया गया है इसके पश्चात् ढ़ाल और दोहा इस क्रम से अवशिष्ट भाग रचा गया है। भिन्न-भिन्न देशियों में कुल ५८ ढ़ाल हैं ।
"
यह ग्रन्थ भिन्न-भिन्न संस्थाओं की ओर से प्रकाशित हुआ है।
२
यह कृति श्रीमद देवचन्द्र ( भा. २) की, द्वितीय आवृत्ति में पृ. १ सं १२३ पर है। यह आवृत्ति 'अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल' से सन् १६२६ में प्रकाशित हुई है ।
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386 / योग - मुद्रा - ध्यान सम्बन्धी साहित्य
ध्यानविचार
इसके कर्त्ता का नाम ज्ञात नहीं हुआ है। यह रचना संस्कृत गद्य में है। इसमें' ध्यान के चौबीस प्रकार, चिन्ता, भावना - ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावनायोग और करणयोग इत्यादि विषयों का विवेचन हुआ है। यहाँ ध्यानमार्ग के चौबीस प्रकारों के नामों को दो भागों में विभक्त किया गया है वे इस प्रकार हैं- १. ध्यान, २. शून्य, ३. कला, ४. ज्योति, ५. बिन्दू, ६. नाद, ७. तारा, ८. लय, ६. लव, १०. मात्रा, ११. पद और १२. सिद्धि । इन्हीं बारह नामों के साथ प्रारम्भ में 'परम' शब्द लगाने पर दूसरे बारह प्रकार होते हैं, जैसे- परमध्यान, परमशून्य आदि ।
आगे कहा है कि ध्यानविधि के इन २४ प्रकारों को करण के ६६ प्रकारों से गुणा करने पर २३०४ होते हैं। पुनः इसे ६६ करणयोगों से गुनने पर २, २१, १८४, भेद होते हैं। इसी प्रकार उपर्युक्त २३०४ को ६६ भावनायोगों से गुनने पर २, २१, १८४ भेद होते हैं इन दोनों का जोड़ करने पर ४, ४२, ३६८ भेद होते हैं। इस प्रकार इसमें ध्यान के भेद-प्रभेद किये गये हैं। यथाप्रसंग है। प्रसन्नचंद्र, भरतेश्वर, दमदन्त एवं पुण्यभूति के दृष्टान्तों का उल्लेख हुआ
निष्कर्षतः इस कृति में ध्यान विधि का क्रमिक निरूपण है। इसमें मुख्य बात यह कही गई है कि जो योग माता मरुदेवी की भाँति सहज भाव से होते हैं वे भावन योग हैं और ये ही योग उपयोगपूर्वक किये जाते हैं तब करण योग कहे जाते हैं।
प्रेक्षाध्यान- चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा
यह कृति आचार्य महाप्रज्ञ की हिन्दी गद्य में रचित है। इसमें चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा की चर्चा विस्तार से की गई है। यहाँ चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा का अर्थ है चैतन्य केन्द्र को जागृत करना एवं चैतन्य का साक्षात्कार करना। हर समझदार व्यक्ति अपना विकास चाहता है । परन्तु वह कौन सी प्रक्रिया है जिसके द्वारा
१
यह रचना ‘नमस्कारस्वाध्याय' ( प्राकृत विभा.) के पृ. २२५ से २६० पर गुजराती अनुवाद एवं सात परिशिष्टों के साथ प्रकाशित है। यह रचना स्वतंत्र पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित है उसमें देहषट्कोणयन्त्र एवं अन्य दो यंत्र चित्र हैं इनमें से प्रथम यंत्रचित्र चौबीस तीर्थकरों की माताएँ अपने तीर्थंकर बनने वाले पुत्र की ओर देखती है उससे सम्बन्धित है, दूसरा ध्यान का बीसवां प्रकार परम मात्रा से सम्बन्धित है। यंत्रचित्र चौबीस वलयों से युक्त है। यह यंत्रचित्र 'नमस्कार स्वाध्याय' में भी उद्धृत है।
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नमस्कारस्वाध्याय का मुद्रण 'जैन साहित्य विकास मण्डल' की ओर से सन् १६६१ में हुआ है। उद्घृत - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ४ पृ. २५२
२
यह पंचम संस्करण, सन् १६६७, 'जैन विश्व भारती लाडनूं' से प्रकाशित है।
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व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है? व्यक्तित्व विकास और उसके
रूपान्तरण की प्रक्रिया है ग्रन्थितंत्र का शोधन करना ।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 387
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हमारे शरीर में कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ चेतना दूसरे स्थानों की अपेक्षा अधिक सघन होती है। उन्हें चैतन्य केन्द्र की संज्ञा दी गई हैं। चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा के द्वारा इन स्थानों पर ध्यान को केन्द्रित किया जाता है तथा उनका एकाग्रता से अनुभव किया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से ये स्थान हमारी उन अन्तःस्त्रावी ग्रंथियों के स्थान हैं, जो हमारे आचरण, व्यवहार आदि का नियन्त्रण करती हैं। चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा से चैतन्य केन्द्र निर्मल बनते हैं और अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्रावों में यथेप्सित परिवर्तन होता है।
चैतन्य प्रेक्षा क्यों करनी चाहिए ? इस सम्बन्ध में यह जानकारी होना अत्यन्त आवश्यक है कि वृत्तियों और वासनाओं का उद्भव मस्तिष्क से नहीं, अपितु अन्तःस्रावी ग्रन्थि - तन्त्र के द्वारा होता है। ये ग्रन्थियाँ ही चैतन्य केन्द्र के स्थान कहे गये हैं अतः इन ग्रन्थियों को संतुलित एवं संयमित रखना अत्यन्त जरुरी है।
प्रस्तुत कृति पाँच अध्यायों में गुम्फित है जिनमें चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा एवं उसकी विधि का उल्लेख किया गया है। प्रथम अध्याय में चैतन्य केन्द्रों को वैज्ञानिक आधार पर सुस्पष्ट किया है। इसमें 9. पाइनियल, २. पिच्यूटरी, ३. थाइराइड, ४. पेराथाइराइड, ५. थाइमस, ६. एड्रीनल, ७ गोनाड्स इन सात ग्रंथियों के स्थान और कार्य बताये हैं। द्वितीय अध्याय में चैतन्य केन्द्रों को आध्यात्मिक अस्तित्त्व के आधार पर सिद्ध किया है। तृतीय अध्याय में चैतन्य केन्द्र की प्रेक्षा क्यों ? इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्याय में चैतन्य - केन्द्र - प्रेक्षा विधि का निरूपण है। पंचम अध्याय में चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा और उनकी निष्पति का उल्लेख है। इसमें ज्ञान, दर्शनादि तेरह प्रकार के केन्द्र बताये गये हैं तथा शारीरिक-मानसिक- आध्यात्मिक निष्पत्तियाँ कही गई हैं।
प्रस्तुत कृति से हमारा प्रयोजन चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षा विधि है। इस अध्याय के अन्तर्गत निम्न विषयों पर चर्चा की गई हैं
१. क्यूसोस, ग्लैण्ड और चक्र इस बिन्दू के अन्तर्गत बताया है कि हमारे शरीर में अनेक ग्रन्थियाँ हैं। योग के प्राचीन आचार्यों ने उन्हें चक्र कहा है । आज के शरीरशास्त्री उन्हें ग्लैण्डस् कहते हैं। जापान में प्रचलित बौद्ध पद्धति 'जूडो' में उन्हें क्यूसोस कहते हैं। यह एक आश्चर्यजनक बात है कि योगाआचार्यों ने चक्रों के जो स्थान और आकार माने हैं, आज के शरीरशास्त्रियों ने ग्लैण्डस् के जो स्थान अथवा आकार माने हैं और क्यूसोस के जो स्थान और आकार माने हैं वे तीनों समान हैं । २. केन्द्र के नाम किस केन्द्र का किस ग्रन्थि से संबंध और
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388/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
किस केन्द्र का कौन सा ग्रन्थि स्थान है। इस प्रसंग को सामान्य कोष्ठक से समझाया है। ३. चैतन्यकेन्द्र स्थान और नाम - इस विषय को व्यक्ति के चित्र द्वारा स्पष्ट किया है। ४. चैतन्य-केन्द्र जागृत करने की विधि ५. चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा विधि ६. विवेक केन्द्र और वासना केन्द्र के स्थान ७. चैतन्य केन्द्र को विशुद्ध करने की प्रक्रिया
निष्कर्षतः चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा विधि का प्रयोग पुनः नये आयाम के रूप में प्रस्तुत हुआ है, परन्तु यह प्रक्रिया अर्वाचीन नहीं हैं। भारत के ऋषि-महर्षि प्राचीन काल से चैतन्य जागरण की साधना करते आये हैं। गणाधिपति तुलसी ने जनसाधारण की दृष्टि से इस प्रक्रिया को सरल और विधिवत् बनाने का प्रयास किया है। उनका यह प्रयास काफी स्तुत्य रहा है। चैतन्य स्वरूप की सम्यक् चर्चा का इसमें प्रत्यक्ष दर्शन होता है। इस कृति का आलेखन सूक्ष्म गहराईयों के साथ किया गया है। प्रेक्षाध्यान : शरीर प्रेक्षा
यह पुस्तक' आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा आलेखित शरीरप्रेक्षाविधि से सम्बन्धित है। इसमें शरीर प्रेक्षा के अन्य बिन्दुओं पर भी प्रकाश डाला गया है लेकिन लेखक का ध्येय शरीरप्रेक्षाविधि पर आधारित है चूंकि प्रेक्षाविधि आध्यात्मिक साधना का मुख्य आधार है।
यदि हम यह सोचें कि शरीर और श्वास को समझे बिना, प्राणधारा को जाने बिना तथा शरीर के सूक्ष्म रहस्यों को ज्ञात किए बिना ही आत्मा तक पहुँच जायेंगे, तो यह अति कल्पना होगी। शरीर को समझना जरुरी है क्योंकि वह लक्ष्य तक पहुंचने के लिए माध्यम बनता है। इसलिए शरीर प्रेक्षा आवश्यक है।
हम जीवन में प्रतिक्षण अपने शरीर के साथ रहते हैं. किन्त उसके प्रमुख अवयवों एवं इन अवयवों के क्रियाकलापों के विषय में हमारी जानकारी अल्प से अल्पतर होती है। जबकि शरीर प्रेक्षा के लिए शरीर से परिचित होना जरुरी है। जैसे- एक फीजियोलोजिस्ट के लिए शरीर की संरचना और उनके फंक्शन को जानना नितांत आवश्यक होता है, वह उन्हें अनेक निष्कर्ष निकालता है वैसे एक ध्यान साधक के लिए भी शरीर की संरचना एवं उनकी क्रिया विधि को जानना आवश्यक है। लेकिन आश्चर्यजनक बात है कि आज का मानव शरीर के अतिनिकट रहता हुआ शायद यह भी नहीं जानता है कि वह श्वास पेट से ले रहा है या छाती से ? प्रस्तुत शरीर-प्रेक्षा की सारी प्रक्रिया व्यक्ति को अपने
' यह कृति 'जैन विश्व भारती - लाडनूं' से सन् १६६७ में प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/389
शरीर की सूक्ष्म प्रक्रिया तक पहुँचाती है। अपने शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने के इच्छुक व्यक्ति के लिए यह नितांत अनिवार्य है। शरीर प्रेक्षा से यह लक्ष्य सहज सिद्ध हो जाता है। प्रस्तुत कृति में आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से शरीर क्या है? शरीर प्रेक्षा क्यों करनी चाहिए? शरीर प्रेक्षा प्रयोग विधि
और उसकी निष्पत्ति की चर्चा की गई है। शरीर-प्रेक्षा का प्रयोग हर एक व्यक्ति कर सकता है।
यह कृति पाँच अध्यायों में विभक्त है। हमारा मुख्य प्रयोजन शरीरप्रेक्षा विधि से है। इस विधि के अन्तर्गत मुख्य रूप से तीन चरण कहे गये हैं - १. शरीर की गहराई को देखने का प्रयोग, २. शरीर-प्रेक्षा का क्रम और ३. सम्पूर्ण शरीर की यात्रा विधि। इन तीनों चरणों को मूल कृति के माध्यम से सुस्पष्टतः समझने का प्रयत्न किया जाना चाहिए । इसमें 'शरीर-प्रेक्षा-विधि' को बहुत सुन्दर ढंग से समझाने का प्रयास किया है। हर साधक के लिए यह प्रयोग अनिवार्य प्रतीत होता है। प्रेक्षाध्यान : प्राण-चिकित्सा
यह कृति' साध्वी राजीमती द्वारा आलेखित है। इसमें प्राणशक्ति के विकास पर बल दिया गया है साथ ही कई प्रकार के प्राणायाम को विधिपूर्वक समझाया गया है। इस कृति के प्रारम्भ में लिखा है कि हमारा स्वास्थ्य प्राणशक्ति (Vilat Force) पर ही निर्भर है। प्राण चिकित्सा योगियों की महत्त्वपूर्ण देन हैं। प्राण के बिना अन्य चिकित्सा पद्धतियाँ भी उपयोगी नहीं बन पाती। हमारा शरीर जिन शक्तियों से संचालित होता है, उनमें से एक महत्त्वपूर्ण शक्ति है प्राण। प्राण शक्ति के विकास से शरीर तो स्वस्थ बनता ही है पर हम आध्यात्मिक स्वास्थ्य जो कि हमारा मूल साध्य है, को भी प्राप्त कर सकते हैं।
वस्तुतः प्राण क्या है? इस कृति के माध्यम से प्राण की परिभाषा को अनेक प्रकार से समझ सकते हैं। प्राण उस शक्ति का नाम हैं जिसके द्वारा मानव सोचता है, बोलता है, तथा भांति-भांति की क्रियाएँ करता है। आत्मानुभूति के पूर्व जो कुछ हमारे पास महत्त्वपूर्ण हैं वह प्राण शक्ति है। हमारे आस-पास जो शक्ति, ऊर्जा, प्रकाश और चुंबकीय धाराएँ गुजरती रहती हैं वे सब प्राण शक्ति के प्रमाण हैं। भोजन, पानी और हवा से भी ज्यादा जीने के लिए प्राणशक्ति की जरूरत है।
योगानुभवियों के अनुसार प्राण मन से, मन इच्छा शक्ति से, इच्छा शक्ति आत्मा से और आत्मा क्रमशः सर्वोच्च चेतना से सम्बन्धित है, प्राण का
' यह पुस्तक, सन् १६६४ 'तुलसी अध्यात्मक नीडम् जैन विद्या भारती लाडनूं' से प्रकाशित है।
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390 / योग- मुद्रा - ध्यान सम्बन्धी साहित्य
क्षेत्र मन से बहुत व्यापक है । मन कभी सोता है, कभी निष्क्रिय होता है, किन्तु प्राण का प्रवाह अविरल बहता रहता है। प्रत्येक प्राणी के शरीर में प्राण - विद्युत विद्यमान है किन्तु प्रतिकूल आहार, विहार तथा दुर्बल इच्छा शक्ति के कारण लोग इन्हें जागृत नहीं कर पाते। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात हैं कि हमारे शरीर में जो चुम्बकीय शक्ति है वह संपूर्ण पृथ्वी से भी अधिक है, किंतु इसका जागरण संकल्प शक्ति से किया जा सकता है। सम्मोहन, प्लेंचिट पर आत्माओं को बुलाना, विचार सम्प्रेषण, तत्क्षण रोगचिकित्सा तथा असाधारण चमत्कार ये सब हमारी जागृत प्राणशक्ति के ही परिणाम हैं।
यहाँ तक कि स्वास्थ्य का मूल हेतु भी प्राण है और अस्वास्थ्य को स्वास्थ्य में बदलने का हेतु भी प्राण है। इसलिए उसे जीवन भी कहा जा सकता है और चिकित्सा भी कहा जा सकता है। चिकित्सा की अनेक पद्धतियाँ हैं। कुछ औषधीय और कुछ अनौषधीय । आयुर्वेदी, एलोपेथी, होम्योपेथी आदि औषधीय चिकित्सा की पद्धतियाँ है । चुम्बक चिकित्सा, सूर्यरश्मि चिकित्सा, रत्न चिकित्सा, मंत्र चिकित्सा, आध्यात्मिक चिकित्सा ये सब अनौषधीय चिकित्सा पद्धतियाँ हैं। दोनों का अपना-अपना मूल्य है और उपयोग है । पर यह कहना सर्वथा निरापद है कि सब चिकित्साओं का मूल आधार प्राण चिकित्सा है।
यह अनुभवगत प्रत्यक्ष है कि जब- जब मन पर अनुकूल-प्रतिकूल भाव संवेदनाओं का प्रभाव पड़ता है, हमारी प्राणधारा अस्त-व्यस्त हो जाती है और प्राणधारा अस्त-व्यस्त होते ही हम शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक तनावों से घिर जाते हैं। इसलिए साधना के क्षेत्र में प्राणधारा पर संयम रखने की बात विशेष महत्त्व रखती है। प्राणधारा का संतुलन यथावत् बना रहे, प्राण शक्ति का जागरण होता रहे, उसके लिए विधिवत् प्राणायाम साधना की आवश्यकता है। प्राणायाम के द्वारा ही प्राणशक्ति का सम्यक् संचालन होता है।
अब हम प्रस्तुत कृति में उल्लिखित प्राणायाम के विविध प्रकारों को जानने का प्रयत्न करेगें। ये सभी प्राणायाम विधिपूर्वक ही सम्पन्न होते हैं। इस साधना में की गई किंचित् अविधि भी सही परिणाम नहीं दे पाती है। प्रस्तुत कृति ग्यारह अध्यायों में विभक्त है जिनमें प्राणसाधना की कुछ चमत्कारी घटनाएँ, प्राणायाम के साथ आहार का सम्बन्ध कैसा हो? महर्षि अरविंद और आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि से प्राणायाम, प्राणायाम के मौलिक लाभ, प्राणायाम - विधि और प्रयोग, प्राणायाम से रोग चिकित्सा इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। हमारा प्रयोजन प्राणायाम के प्रकार और उनकी विधि से है । इस कृति में कुल मिलाकर इकतीस प्रकार के प्राणायाम प्रयोग बताये गये हैं जो विधिपूर्वक ही सम्पन्न किये
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/391
जाते हैं। यहाँ प्राणायाम का नामोल्लेख मात्र ही कर रहे हैं। ये प्राणायाम जैविक शान्ति, शारीरिक स्वस्थता एवं आध्यात्कि विकास के लिए प्रयुक्त करने जैसे हैं। प्राणायाम का अर्थ है - प्राण वायु को संयमित, नियंत्रित एवं अनुशासित करना। नियंत्रित किया हुआ प्राण जीवन प्रगति में महान् सहयोगी बनता है। आत्मा का सबसे निकटवर्ती पडौसी प्राण है। अतः प्राणायाम से प्राण-साधना का प्रारम्भ करना चाहिए।
यहाँ यह विशेष ज्ञातव्य है कि प्राणायाम करने वाले साधक को प्राणायाम से पूर्व बंधों का अभ्यास कर लेना चाहिए। बंधों की साधना के बिना प्राणायाम विशेष फलदायी नहीं होते हैं बंध तीन प्रकार के कहे गए हैं १. मूलबंध, २. जालंधरबंध और ३. उड्डियान बंध। इन बंधों के प्रयोग की विधि एवं इससे होने वाले लाभ भी बताये गये हैं। प्रस्तुत कृति के पंचम अध्याय में इन बंधों की चर्चा करते हुए प्राणायाम की संक्षिप्त विधि कही गई है तथा प्राणायाम के शास्त्रोक्त आठ नाम उल्लिखित किये गये हैं। इसी क्रम में आचार्य हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र के आधार पर चार प्रकार के प्राणायाम का उल्लेख किया गया है, उनकी परिभाषा एवं विधि का भी सूचन किया है। वे चार प्रकार निम्न हैं - १.प्रत्याहार प्राणायाम, २.शांत प्राणायाम, ३.उत्तर प्राणायाम, ४.अधर प्राणायाम
आगे रोग चिकित्सा के सन्दर्भ में उन्नीस प्रकार के प्राणायाम कहे हैं साथ ही प्राणायाम का स्वरूप, विधि एवं लाभ भी बताये गये हैं। प्राणायाम के नाम ये हैं - १. प्राणसंप्रेषणक्रिया प्राणायाम, २. नाड़ीशोधन प्राणायाम, ३. आयुवर्धक प्राणायाम, ४. पाचनवर्धक प्राणायाम, ५. उदरशक्तिवर्धक प्राणायाम, ६. कब्जनिवारक प्राणायाम, ७. मोटापा घटाने वाला प्राणायाम, ८. रक्तचापशामक प्राणायाम, ६. कफ निवारक प्राणायाम, १०. जुखाम निवारक प्राणायाम, ११. कण्ठ-रोग-निवारक प्राणायाम, १२. तनाव-नाशक प्राणायाम, १३. शीत-शामक प्राणायाम, १४. क्षुधा-शामक प्राणायाम, १५. कुण्डलिनी-जागरण प्राणायाम, १६. संदेश-प्रेषक प्राणायाम, १७. वासना-शोधक प्राणायाम, १८. इच्छितसफलता-दायक प्राणायाम, १६. पररोग-निवारक प्राणायाम
अन्त में प्राणायाम करने का अधिकारी कौन हो सकता है इस विषय पर भी चर्चा की गई है। उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि प्राणायाम की साधना जीवन-शान्ति, जीवन-विकास, जीवन-स्वस्थता और जीवन-प्रसन्नता की साधना है।
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392 / योग-मुद्रा- ध्यान सम्बन्धी साहित्य
इस सन्दर्भ में यह कहना भी अनिवार्य है कि भारतीय योगियों अभिमतानुसार प्राणिमात्र की आयु का अनुपात श्वास-प्रश्वास की गति पर निर्भर करता है। उनका कहना हैं कि जो प्राणी एक निशचित समय में जितनी कम सांस लेता है उसकी आयु उतनी ही लम्बी होती है और जो उतने ही समय में अधिक श्वास लेता है उसकी आयु उतनी ही कम होती है, किन्तु जैनाचार्यों ने आयु की दीर्घता में श्वास-प्रश्वास क्रिया को मात्र निमित्त माना है, उपादान नहीं । अतः स्पष्ट हैं कि श्वास-प्रश्वास क्रिया के अनुपात पर हमारा जीवन, स्वास्थ्य, संकल्प एवं एकाग्रता निर्भर करती है। इसलिए प्राणायाम का प्रयोग सदैव करना चाहिए । प्रेक्षाध्यान : लेश्या - ध्यान
यह कृति' युवाचार्य महाप्रज्ञ की है। इसमें लेश्या - ध्यान की चर्चा विस्तार से की गई है। हमारी शोध का प्रयोजन लेश्या - ध्यान - विधि से है उस विषय का भी इसमें सम्यक् निरूपण उपलब्ध होता है। लेश्या ध्यान का प्रयोग करने से पूर्व 'लेश्या' की सामान्य जानकारी होना अपेक्षित है।
लेश्या जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है। लेश्या अर्थात् व्यक्ति की शुभ-अशुभ चित्तवृत्तियाँ । लेश्या दो प्रकार की होती है १. द्रव्य लेश्या और २. भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या भौतिकरूप और भाव लेश्या चैतन्य रूप है। इनमें भी भाव लेश्या छ : प्रकार की कही गई हैं १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ३ . कापोतलेश्या, ४. पीत लेश्या, ५. पद्मलेश्या और ६. शुक्ललेश्या । प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त हैं और अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त हैं। कृष्ण लेश्या का वर्ण काला, नील लेश्या का वर्ण नीला, कापोत लेश्या का वर्ण कबूतर या राख जैसा, तेजोलेश्या का वर्ण लाल, पद्म लेश्या का वर्ण पीला और शुक्ल लेश्या का सफेद होता है।
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हमारा सारा जीवन-तंत्र रंगों के आधार पर चलता है। आज मनोवैज्ञानिकों ने यह खोज की है रंग कि व्यक्ति के अन्तर्मन को, अवचेतन मन को और मस्तिष्क को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला है। रंग स्थूल व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है और सूक्ष्म व्यक्तित्व को भी प्रभावित करता है वह तैजस् शरीर और लेश्या तंत्र को भी प्रभावित करता है । रंगों का अखंड साम्राज्य है। यदि हम रंगों की क्रियाओं, गुण-दोषों और उनके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को समझ लें, तो व्यक्तित्व के रूपान्तरण में हमें बहुत बड़ा सहयोग मिल सकता है।
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यह कृति सन् १६८६ में जैन विश्व भारती- लाडनू से प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/393
मूलतः लेश्या का सम्बन्ध रंग से है। यदि कृष्ण लेश्या (काले रंग) के परमाणु निरंतर खींचे जा रहे हैं तो व्यक्ति के भाव बुरे बन जाते हैं। इसी प्रकार शेष लेश्याओं के स्वरूप को भी उन-उन रंग के आधार पर समझने का प्रयास करना चाहिए। यहाँ रंगों का ध्यान करना ही लेश्या-ध्यान है। व्यक्तित्व को रूपान्तरित करने की सबसे अधिक शक्तिशाली किन्तु सरल प्रक्रिया है- लेश्या ध्यान। यदि कोई व्यक्ति दृढ़ निश्चय के साथ लेश्या-ध्यान का प्रयोग करें तो निःसंदेह अपने स्वभाव में आमूल-चूल परिवर्तन ला सकता है। लेश्या-ध्यान के द्वारा हमारा पूरा व्यक्तित्व बदल सकता है।
प्रस्तुत कृति में 'लेश्या-ध्यान' की कई दृष्टियों से चर्चा की गई है। इसमें कुल पाँच अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में आध्यात्मिक दृष्टिकोण के आधार पर लेश्या की परिभाषा को समझाया गया है। द्वितीय अध्याय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से लेश्या का स्वरूप कहा है उनमें नाड़ी-तंत्र, ग्रन्थि-तंत्र पर रंगों का प्रभाव, आभामण्डल के रंग, रंगों का ध्यान और विभिन्न रंगों के गुण-दोष इत्यादि का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। तृतीय अध्याय में लेश्या-ध्यान क्यों करना चाहिए? लेश्या ध्यान से व्यक्तित्व का रूपान्तरण, रासायनिक परिवर्तन, लेश्याओं का रूपान्तरण, भावधारा का निर्मलीकरण किस प्रकार होता है? आदि का प्रतिपादन किया गया है।
चतुर्थ अध्याय में लेश्याध्यान और उसकी विधि का निर्देश है। इसमें कहा हैं कि लेश्या-ध्यान में साधक अपने ही चैतन्यकेन्द्र पर चित्त को एकाग्र कर वहाँ निश्चित रंग का ध्यान करता है पर यह आवश्यक हैं कि साधक पहले कायोत्सर्ग, दीर्घश्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा और चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा के अभ्यास को साध लें और बाद में लेश्या-ध्यान इस अध्याय में निम्न बिन्दुओं पर चर्चा की गई हैं - १. रंगों का आयोजन और संश्लेष- इस चरण में मुख्य रूप से कहा हैं कि रंगों से हमारे शरीर, मन, आवेगों, कषायों आदि का बहुत बड़ा सम्बन्ध हैं। शारीरिक स्वास्थ्य और बीमारी, मन का संतुलन और असंतुलन, आवेगों में कमी और वृद्धि ये सब उन प्रयत्नों पर निर्भर हैं कि हम किस प्रकार के रंगों का समायोजन करते हैं और किस प्रकार हम रंगों से अलगाव या संश्लेषण करते हैं। उदाहरणतः नीला रंग शरीर में कम होता है तो क्रोध अधिक आता है। श्वेत रंग की कमी होती है, तो अशान्ति बढ़ती है। लाल रंग की कमी होने पर आलस्य और जड़ता पनपती है। पीले रंग की कमी होने पर ज्ञान तन्तु निष्क्रिय बन जाते हैं। कोई व्यक्ति बहुत बड़ी समस्या में उलझा हुआ है, समाधान प्राप्त नहीं हो रहा है तब छोटी सी प्रयोग विधि करें शान्त होकर कायोत्सर्ग की मुद्रा में बैठ जाये। श्वास शान्त हो, शरीर शान्त हो, मांसपेशियाँ
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394 / योग - मुद्रा - ध्यान सम्बन्धी साहित्य
शिथिल हो, उस स्थिति में पीले रंग का ध्यान करें। दस मिनट तक आँखे बन्द कर चाक्षुष केन्द्र पर पीले रंग का ध्यान करें अथवा आनन्द केन्द्र पर सुनहले रंग का ध्यान करें। ऐसा लगेगा, समस्या बिना सुलझाएँ सुलझ रही है, समाधान स्वतः कहीं से उतर कर सामने आ गया है।
२. रंगों को देखने की विधि - लेश्या ध्यान रंगों का ध्यान है। इसमें हम निश्चित रंग को निश्चित चैतन्य केन्द्र पर देखने का प्रयत्न करते हैं। लेश्याध्यानी को रंगों के दो भेद करने होंगे चमकते हुए यानी प्रकाश के रंग और अंध यानी अंधकार के रंग। हमें ध्यान में जिन रंगों को देखना है, वे प्रकाश के रंग होने चाहिए | अन्तिम की तीन लेश्याओं के रंग प्रकाश के रंग है। रंग का साक्षात्कार करने के लिए चित्त की स्थिरता या एकाग्रता अनिवार्य है।
३. स्वतः सूचन (Auto suggestion) और भावना लेश्या - ध्यान विधि का अर्थ है- विभिन्न रंगों में होने वाले विभिन्न परिणामों और परिवर्तन का अनुभव करना । वस्तुतः ध्यान के परिणाम को प्रभावी बनाने के लिए एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग है - स्वतः सूचन या ओटोसजेशन । पाश्चात्य देशों में एक चिकित्सा प्रणाली का विकास हो रहा है - जिसे 'आटोजेनिक' चिकित्सा पद्धति कहते हैं। इस पद्धति में स्वतः प्रभाव डालने वाली बात होती है। व्यक्ति कल्पना करता है और कल्पना के सहारे वैसा अनुभव कर लेता है। इस कृति में इस प्रसंग को सोदाहरण समझाया गया है।
४. लेश्या - ध्यान का प्रयोग - आसन- लेश्या - ध्यान करते समय आसन कैसा होना चाहिए? इस सम्बन्ध में मुख्यतया तीन पद्धतियों के आसन कहे गये हैं खड़े-खड़े ध्यान करने योग्य आसन, बैठे-बैठे ध्यान करने योग्य आसन और लेटे-लेटे ध्यान करने योग्य आसन । सामान्यता इस ध्यान के प्रयोग में आँखे कोमलता से बंद हों, शरीर सीधा रहें, रीढ़ की हड्डी और गर्दन सीधी रहें तथा शरीर में अकड़पन न हों । मुद्रा ध्यान के समय हाथ और अंगुलियों की मुद्रा को दो प्रकार से रख सकते हैं १. दोनों हथेलियाँ को दोनों घुटनों पर रखना, २. अथवा दोनों हथेलियों को गोद में रखना इस सन्दर्भ में और भी चर्चा की गई है।
५. ध्यान विधि - इसमें तीन चरण कहे गये हैं - १. कायोत्सर्ग विधि, २ . अन्तर्यात्रा विधि, ३. लेश्या - ध्यान विधि
निष्कर्षतः इस कृति में लेश्या - ध्यान विधि का सम्यक् और सुन्दर निरूपण दृष्टिगत होता है। इसमें लेश्या ध्यान की ये निष्पत्तियाँ कही हैं - लेश्या का ध्यान करने से चित्त की प्रसन्नता बढ़ती है, धार्मिकता के लक्षणों का प्रकटीकरण होता है, संकल्प शक्ति का जागरण होता है और मानसिक दुर्बलता समाप्त होती है आत्म साक्षात्कार होता है।
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प्रेक्षाध्यानः आसन-प्राणायाम
यह कृति हिन्दी गद्य में हैं।' इसके लेखक मुनि किशनलालजी है। पूज्य मुनि श्री ने आसन-प्राणायाम-मुद्रा-लेश्या आदि से सम्बन्धित कई पुस्तकें लिखी हैं।
___ आसन और प्राणायाम के स्वरूप एवं उसकी विधि की चर्चा करने से पहले यह जानना आवश्यक प्रतीत होता है कि वस्तुतः इन क्रियाओं का सम्बन्ध किससे हैं? ये क्रियाएँ क्या हैं? इत्यादि। यह सर्वविदित है कि भारतीय विद्याओं में योग का अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है, जो एक ओर अध्यात्म-साधना से संबंधित है, तो दूसरी ओर मानसिक एवं शारीरिक विकास में भी इसका मूल्यवान योगदान है।
___ योग साधना के नानाविध आयामों में आसन-प्राणायाम भी एक मुख्य आयाम है, जिसकी प्रक्रिया गृहमुक्त एवं गृही सभी साधकों के लिए लाभदायक है। इन क्रियाओं (आसन-प्राणायाम) का प्रयोग करने से बाह्य व्यक्तित्व बदलने लगता है। भयभीत निर्भय बनता है। अस्वस्थ स्वस्थ बनता है। स्वस्थ व्यक्ति अपनी शक्ति का समुचित उपयोग करने लगता है। उससे अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के स्रावों एवं भावों में रूपांतरण घटित होने लगता है। आसन विजय और श्वास संयम दोनों ही जीवन के आधारभूत तत्त्व हैं। प्राणायाम का संबंध हमारे श्वास से हैं। श्वास हमारे जीवन को निरन्तर बदलता रहता है। प्राणायाम के द्वारा श्वास को बदलने का प्रयत्न किया जाता है। यह बहुत बड़ी सच्चाई हैं कि जब तक श्वास की गतिविधि को नहीं बदला जाता तब तक साधना में विकास नहीं किया जा सकता। स्वस्थ-शरीर, निर्दोष विचार और पावन कर्म के लिए आसन और प्राणायाम सशक्त माध्यम है।
प्रस्तुत कृति में आसन और प्राणायाम के प्रकार एवं उनके भेद-प्रभेदादि का वर्णन तो उपलब्ध है ही, किन्तु आसन का स्वरूप, आसन के उद्देश्य, आसन
और स्वास्थ्य, प्राणायाम के परिणाम, प्राण का वैज्ञानिक आधार, प्राण प्रयोग की प्रक्रिया आदि का भी सम्यक् निरूपण किया गया है। आसन- इसमें लिखा हैं कि आसन केवल शारीरिक प्रक्रिया मात्र नहीं है, उसमें आध्यात्म निर्माण के बीज छिपे हैं। आसन अध्यात्म प्रवेश का प्रथम द्वार है। आसन शब्द के अनेक अर्थ हैं। हठयोग में आसनों के असंख्य प्रकार बताये गये हैं। सामान्यतया जीव योनियों की अपेक्षा आसनों की संख्या चौरासी लाख हैं। इनमें से चौरासी आसनों की प्रधानता रही हुई है।
' प्रेक्षाध्यान आसन- प्राणायाम, मुनिकिशनलाल, जैन विश्व भारती लाडनूं- ३४१३०६
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396/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
आसन और शक्ति संवर्धन - इसमें कहा गया है कि संस्कार शुद्धि के साथ संयम एवं शक्ति संवर्धन के लिए आसन का अभ्यास किया जाता है। स्थिरता एवं गतिशीलता शारीरिक के दो रूप हैं। स्थिरता गुप्ति है और सम्यक् गतिशीलता समिति है। ध्यान के लिए स्थिरता आसन उपयोगी है। पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन ये ध्यान के आसन हैं। स्थिति आसन से मांसपेशियों को विश्राम मिलता है। गति वाले आसनों में मांसपेशियों की पारस्परिक गति से शरीर को संतुलित बनाया जाता है। ये पेशियाँ जोड़ों को व्यवस्थित बनाती है। आसन और स्वास्थ्य - आसन शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति एवं आध्यात्मिक विकास के लिए उपयुक्त भूमिका का निर्माण करता है। आसन में मानसिक प्रसन्नता के साथ-साथ शरीर के अवयवों पर सीधा असर होता है। सन्धि-स्थल, पक्वाशय, यकृत, फेफड़े, हृदय, मस्तिष्क आदि सम्यक्तया अपना कार्य करने लगते हैं। आसन से माँसपेशियाँ सुदृढ़ एवं सुडौल बनती है, जिससे पेट एवं कमर का मोटापा दूर होता है। आसन करने से शरीर के सभी अंग एवं कोशिकाएँ सक्रिय हो जाती हैं, जिससे रोग प्रतिकार की क्षमता जागृत होती है।
स्नायु मण्डल को शक्ति सम्पन्न एवं सक्रिय करने के लिए आसन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्नायुओं में क्रियावाहिनी और ज्ञानवाहिनी दोनों प्रकार की नाडियाँ होती हैं। आसन से उन पर विशेष प्रकार का दबाव पड़ता है, जिससे उनका संकोच-विकोच होता रहता है। स्नायु-मंडल मस्तक से लेकर पाँव के अंगुष्ठ तक फैले हुए हैं। आसन से समस्त स्नायु प्रभावित होते हैं, अतः स्वास्थ्य साधना की दृष्टि से आसन की उपयोगिता स्वतः सिद्ध हो जाती है। आसन से और भी अनेक लाभ होते हैं।
यहाँ यह समझ लेना भी अनिवार्य प्रतीत होता है कि आसन का उद्देश्य क्या हों ? आसन का उद्देश्य है - शरीर के यंत्र को साधना के अनुरूप बनाना। शरीर का प्रत्येक अवयव सक्रिय एवं स्वस्थ बने, यह स्वास्थ्य और साधना दोनों दृष्टियों से अपेक्षित है। यह निर्विवाद है कि काया की क्षमता के अभाव में वाक्
और मन पर संयम से पूर्व काय-संयम आवश्यक है। उसके लिए आसन प्रक्रिया सम्यग् अनुष्ठान है। आसन श्रेणियाँ - प्रस्तुत पुस्तक में आसन के तीन प्रकार कहे गये हैं। १. शयन आसन- लेटकर किये जाने वाले आसन। २. निषीदन आसन- बैठकर किये जाने वाले आसन। ३. ऊर्ध्व आसन- खड़े होकर किये जाने वाले आसन। विधिवत् शरीर को स्थिर बनाकर रखना स्थान-आसन कहलाता है। यह तीनों प्रकार से हो सकता है। शयन-स्थान से आसन का प्रारम्भ करना शरीर विज्ञान की दृष्टि से उपयोगी माना गया है। बच्चा प्रारम्भ में लेटकर
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क्रिया करता है, फिर बैठता है और फिर खड़े होकर अपनी यात्रा करता है। अतः आसन का क्रम भी शयन, निषीदन और ऊर्ध्व-स्थिति क्रम से रखे गए हैं। शयन आसन पीठ के बल, पेट के बल एवं सीने के बल लेटकर किये जाते हैं। ये आसन तेरह प्रकार के कहे हैं। वे निम्न हैंशयन आसन - लेटकर किये जाने वाले आसन १. कायोत्सर्गआसन २. उत्तानपादासन, ३. पवनमुक्तासन, ४. भुजंगासन, ५. शलभासन, ६. धनुरासन, ७. मकरासन, ८. सर्वांगासन, ६. हलासन, १०. मत्स्यासन, ११. हृदयस्तंभासन, १२. नौकासन, १३. वज्रासन (सुप्त व्रजासन) निषीदन आसन - बैठकर किये जाने वाले आसन। ये आसन बीस प्रकार के कहे हैं, उनके नाम ये हैं - १. सुखासन, २. स्वस्तिकासन, ३. पद्मासन, ४. योगमुद्रा, ५. बद्धपद्मासन, ६. तुलासन ७. उत्थित पद्मासन, ८. उत्कटासन, ६. गोदुहिकासन, १०. गौमुखासन, ११. जानुशिरासन, १२. पश्चिमोत्तानासन, १३. शशांकासन, १४. अर्धमत्स्येन्द्रासन, १५. उष्ट्रासन, १६. सिंहासन, १७. ब्रह्मचर्यासन, १८. सिद्धासन, १६. हंसासन, २०. कुक्कुटासन ऊर्ध्वआसन- खड़े होकर किये जाने वाले आसन। ऊर्ध्व आसन ग्यारह प्रकार के बताये गये हैं वे निम्न हैं - १. समपादासन, २. ताड़ासन, ३. इष्ट वन्दन, ४. त्रिकोणासन, ५. मध्यपाद शिरासन, ६. महावीरासन, ७. हस्ति सुण्डिकासन, ८. उड्डियान, ६. गरूडासन, १०. नटराजासन, ११. पादहस्तासन विशिष्ट आसन - ये चार प्रकार के दिये गये हैं - १. शीर्षासन, २. अर्ध शंखप्रक्षालन, ३. मयूरासन, ४. चक्रासन पूर्वोक्त आसनों का निरूपण पाँच रूप से किया गया है - १. प्रत्येक आसन का स्वरूप, २. आसन करने की विधि, ३. आसन करने की अवधि, ४. आसन से होने वाले लाभ, ५. आसन का चित्र
किन्हीं-किन्हीं आसनों में कुछ विशेष कथन भी किये हैं। किस आसन में क्या सावधानी रखी जानी चाहिए उसका निर्देश भी किया गया है। प्राणायाम- प्रस्तुत कृति के अन्तिम भाग में प्राणायाम विधि का उल्लेख करने के पूर्व प्राणायाम का स्वरूप, प्राणायाम के प्रकार, प्राणायाम का सम्बन्ध, प्राणायाम के परिणाम इत्यादि का विवेचन किया गया है। प्राणायाम का अर्थ है - श्वसन क्रियाओं का सम्यग् नियमन और नियोजन करना । प्राणायाम श्वास-उच्छवास का सम्यक् अभ्यास है। प्राण का व्यवस्थित विस्तार और संयम
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प्राणायाम है। प्राणायाम से रक्त एवं स्नायुमण्डल का शोधन होता है। रक्त में आये दोष प्राणायाम से विशुद्ध होते हैं। प्राणायाम केवल श्वास और निश्वास के नियमन का ही प्रयोग नहीं है, अपितु मन और इन्द्रियों में संयम स्थापित कर चैतन्य के द्वार उद्घाटित करता है।
प्राणायाम का फेफडों पर सीधा असर होता है। विधिवत् प्राणायाम की क्रिया से फेफड़े अधिक शुद्ध वायु ग्रहण करते हैं। सामान्यतः एक व्यक्ति एक मिनट में १६ से २२ तक श्वास-प्रश्वास करता है। श्वास-प्रश्वास के समय हम जितने जागरूक या होश में होते हैं, श्वास का परिणाम उतना ही लाभदायक होता है। प्राणायाम की प्रक्रिया में श्वास की मात्रा का निरोध करना ही मुख्य है। श्वास जितना गहरा और लम्बा होता है फेफड़ों को फैलाने और रक्त शोधन के कार्य में उतनी ही सहायता मिलती है। प्राणायाम का शरीर और मन पर प्रभाव- प्राण जीवन-यात्रा का आवश्यक तत्त्व है। भोजन और पानी शरीर धारण करने के लिए अवश्य अपेक्षित है किन्तु प्राण के बिना तो जीवन का अस्तित्व ही नहीं रह सकता है। प्राण सततप्रवाही जीवन-शक्ति है। प्राणवायु-पूरक, रेचक और कुंभक से सक्रिय होता है। प्राणायाम की सामान्य प्रक्रिया - प्राणायाम की क्रिया में स्थान, समय, आसन और विधि का ध्यान रखना अत्यावश्यक है। प्राणायाम का अभ्यास शांत, स्वच्छ और खुले स्थान में करना चाहिए। सूर्योदय के आधा घण्टा पूर्व एवं पश्चात् करना चाहिए। यह प्राणायाम के लिए यह उत्तम समय माना गया है। प्राणायाम भोजन के दो घंटे तक नहीं करना चाहिए। सामान्यतः प्राणायाम क्रिया आँखे बन्द करके करनी चाहिए। प्राणायाम में पूरक, रेचक और कुंभक तीन क्रियाएँ होती हैं। श्वास को अन्दर ले जाना पूरक है, श्वास को बाहर छोडना रेचक और श्वास को रोकना कुंभक है। प्राणायाम के परिणाम - मुनि किशनलालजी का कहना है कि प्राणायाम से श्वासप्रश्वास की क्रिया पर नियंत्रण होता है। श्वास-प्रश्वास की क्रिया पर नियंत्रण करने से प्राण शक्ति पर नियंत्रण होने लगता है, जिससे व्यक्ति अकल्पित-अवाच्य घटनाओं का साक्षात् करने लगता है। प्राणायाम प्राण को निर्मल बनाता है। ऊर्जा शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाता है। साधक को ऊर्ध्वरता बनाता है। चित्त को एकाग्र करता है। एकाग्रता से सहज ही समस्त कार्यों में सफलता मिलने लगती है। परिणामतः मंत्र-तंत्र और अन्य सिद्धियाँ उसे शीघ्र उपलब्ध हो जाती हैं। निष्कर्षतः प्राणायाम की साधना सर्वांगीण और सर्वोत्तम है। इस कृति में वर्णित प्राणायाम के नामोल्लेख ये हैं -
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१. दीर्घ-श्वास प्राणायाम विधि, २. संहिता-कुंभक प्राणायाम, ३. सूर्यभेदी प्राणायाम, ४. चन्द्रभेदी प्राणायाम, ५. अनुलोम-विलोम (समवृत्ति) प्राणायाम, ६. उज्जायी प्राणायाम, ७. शीतली प्राणायाम, ८. शीतकारी प्राणायाम, ६. भस्त्रिका प्राणायाम, १०. सूक्ष्म- भस्त्रिका प्राणायाम, ११. भ्रामरी प्राणायाम, १२. मूर्छा प्राणायाम, १३. केवल कुंभक प्राणायाम, १४. कपालभाति प्राणायाम।
इन प्रत्येक प्राणायाम का स्वरूप निम्नलिखित छः प्रकार से कहा गया है १. प्राणायाम का अर्थ, २. प्राणायाम विधि, ३. प्राणायाम की अवधि, ४. प्राणायाम में रखने योग्य सावधानियाँ, ५. प्राणायाम से होने वाले लाभ, ६. प्राणायाम के चित्र। इसके अनन्तर प्राण के प्रकार, प्राण का वैज्ञानिक आधार, प्राणवायु और प्राण में अन्तर, प्राण-प्रयोग की प्रक्रिया, प्राणकेन्द्र और उनका जागरण तथा प्राणायाम में रखने योग्य सामान्य सावधानियाँ इत्यादि पर प्रकाश झाला गया है।
अन्त में तीन परिशिष्ट दिये गये हैं जिनमें कृति की समग्र सारभूत तथ्यों को संग्रहित कर समाविष्ट कर दिया गया है। प्रथम परिशिष्ट में बालवृद्ध की अपेक्षा, प्रौढ़ व्यक्तियों की अपेक्षा और युवक वर्ग की अपेक्षा आसनक्रम एवं आसन की अवधि कही गई है। द्वितीय परिशिष्ट में महिलाओं की अपेक्षा योगासन-प्राणायाम के नियम बताये गये हैं साथ ही आसनक्रम एवं आसन अवधि का भी निर्देश है। तृतीय परिशिष्ट में योगासन और रोग चिकित्सा का उल्लेख किया है अर्थात् किस रोग निवारण के लिए कौन-कौन से आसनादि उपयोगी है।
स्पष्टतः यह योग साधना विधि की अमूल्य कृति है। इसमें प्रस्तुत विषयवस्तु की भाषा सरल सहज और बुद्धिगम्य है। मुद्राविज्ञान
यह कृति' हिन्दी गद्य में लेखक पं. रजनीकांत उपाध्याय की है। यह जैन कृति नहीं है तथापि इसमें वर्णित कुछ मुद्राएँ जैन परम्परा से सम्बन्ध रखती हैं। लेखक ने मुद्रा स्वरूप एवं मुद्रा विधि का परिचय देने के पूर्व यह कहा है कि मुद्रा विज्ञान पराविद्याओं में एक महत्त्वपूर्ण विद्या है, जिसके द्वारा मानव शरीर के स्थूल व सूक्ष्म सम्पूर्ण स्नायुमण्डल को शान्त किया जा सकता है। मानव के आध्यात्मिक विकास के लिए मुद्रा विज्ञान अत्यन्त ही उपयोगी है। यह योग का एक अंग है। योग के अनुसार मन की शान्त स्थिति से अनन्त शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। मन के शान्त हुए बिना योग अथवा आध्यात्मिक साधना में अग्रसर
' यह पुस्तक 'डायमण्ड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि नई दिल्ली' से प्रकाशित है।
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होना संभव नहीं है। इन विचित्र रहस्यमयी विद्याओं को वेदों में तथा बौद्ध व जैन साहित्य में विस्तार से वर्णित किया गया है। इन सभी विद्याओं का अंतिम लक्ष्य मोक्ष रहा है, परन्तु मोक्ष प्राप्ति के पूर्व मानव जीवन का आध्यात्मिक विकास आवश्यक है। मुद्रा विज्ञान उन विद्याओं में से ही एक है जो मानव का सर्वतोमुखी विकास करती हैं। इस विद्या को अभी तक कोई महत्ता नहीं दी गयी। यदि इसे हम अपनी जीवन शैली का एक आवश्यक अंग बना लें, तो अपने जीवन को सफल, समृद्ध व आनन्दमय बना सकते हैं।
वस्तुतः मुद्रा विज्ञान परासाधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है और सभी प्रकार की उपासनाओं के लिए इसके प्रयोग विधि को किसी न किसी से दृष्टि से अनिवार्य माना है। मुद्रा प्रयोग एवं उसकी विधि की जानकारी करने से पूर्व यह जानना अत्यन्त आवश्यक है कि मानव शरीर प्रकृति की सर्वोत्तम कृति है। यह सम्पूर्ण प्रकृति एवं हमारा शरीर पंचतत्त्व से निर्मित है। ये तत्व हैं - अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। इन पंचतत्त्वों की विकृति के कारण ही प्रकृति में असंतुलन एवं शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। मानव शरीर की पाँचों उंगलियां पंच तत्त्व हैं, जिन्हें इन उंगलियों की सहायता से घटा-बढ़ाकर संतुलित किया जा सकता है। उंगलियों की विशेष मुद्राएँ बनाकर हम आध्यात्मिक, शारीरिक व मानसिक शक्ति प्राप्त कर सकते हैं। हमारे मनीषियों ने भी मन व शरीर को शांत रखने के लिए विभिन्न मुद्राओं का प्रयोग किया था।
ग्रन्थों में उल्लिखित मुद्राओं में से कुछ मुद्राओं को छोड़कर लगभग सभी मुद्राएँ किसी भी आसन में बैठकर चलते-फिरते, सोते-जागते कभी भी की जा सकती हैं। इनके लिए कोई विशेष नियम नहीं है। इनमें कुछ मुद्राएँ तो ऐसी हैं जो तत्क्षण ही लाभ देती हैं। एक महत्त्वपूर्ण मुद्रा है - अपानमुद्रा, जिसके द्वारा हृदय सम्बन्धी रोग को तुरन्त ही नियन्त्रित किया जा सकता है। इसी प्रकार शून्यमुद्रा के द्वारा कान के दर्द को तुरन्त दूर किया जा सकता है। ज्ञानमुद्रा से क्रोध पर तुरन्त नियंत्रण किया जा सकता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मुद्रा प्रयोग के सही परिणाम तभी संभव है जब आत्मा, मन और शरीर पूरी तरह से सात्त्विक, शांत एवं पवित्र हों। मुख्यतः मुद्राएँ दो प्रकार की होती हैं। पहले प्रकार की मुद्राएँ वे हैं जिन्हें यौगिक मुद्रा कहा जाता है इनके लिए यौगिक आसन की आवश्यकता होती है। दूसरे प्रकार की मुद्राएँ वे हैं जिनके लिए किसी निश्चित आसन की आवश्कता नहीं होती। इन मुद्राओं के माध्यम से विभिन्न प्रकार के उपचार किये जा सकते हैं, चूंकि मुद्रा विज्ञान शरीर के विभिन्न तत्त्वों की स्थिति पर आधारित है। इसलिए ये मुद्राएँ शरीर में तत्त्व
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परिवर्तन कर उनको संतुलित करती हैं, जिससे शरीर को स्वास्थ्य लाभ मिलता है। साथ ही मानसिक शान्ति और चित्त की प्रसन्नता भी बढ़ती है। अधिकांश मुद्राएँ इस प्रकार की हैं कि वे पैंतालीस मिनट में तत्त्व परिवर्तन कर देती हैं और कुछ मुद्राएँ उससे भी कम समय में अपना प्रभाव दिखा देती हैं। अधिकाधिक लाभ प्राप्त करने के लिए यह ध्यान रखना चाहिए कि एक हाथ की बजाय दोनों हाथों से मुद्रा का प्रयोग किया जाये ।
प्रस्तुत पुस्तक में पूर्वोक्त दोनों प्रकार की मुद्राओं का विवेचन किया गया है। इसमें कुल ४७ मुद्राओं का परिचय है। इसमें प्रत्येक मुद्रा को बनाने की विधि, मुद्रा की अवधि, मुद्रा के परिणाम, मुद्रा का आसन इत्यादि का भी यथावश्यक वर्णन किया गया है।
विस्तार भय से ४७ मुद्राओं का नामोल्लेख मात्र कर रहे हैं। ये मुद्राएँ सचित्र उल्लिखित हुई हैं। उनके नाम निम्न हैं
१. ज्ञान-मुद्रा, २. पूर्णज्ञान - मुद्रा, ३. वैराग्य-मुद्रा, ४. अभय मुद्रा, ५. ध्यान-मुद्रा,
सूर्य-मुद्रा, ६. वरुण - मुद्रा,
१०. पृथ्वी - मुद्रा,
१३.
१४.
लिंग मुद्रा, १५.
संकल्प - मुद्रा, १६.
१७.
सुरभि - मुद्रा, सूर्यप्रदर्शनी - मुद्रा, सम्मुखीकरण - मुद्रा, २२. सन्निधापनी-
-मुद्रा,
६. वायु-मुद्रा, ७. शून्य - मुद्रा, ८. ११. प्राण-मुद्रा, १२. अपान मुद्रा, वयन-मुद्रा, १६. उपसंहार - मुद्रा, मत्स्य - मुद्रा, २० सम्बोधिनी - मुद्रा, २३. सौभाग्यदण्डिनी मुद्रा, २४. तत्त्व - मुद्रा, २५. अंकुश-मुद्रा, २६. सर्वाकर्षिणी- - मुद्रा, २७. कूर्म- मुद्रा, २८. सर्वमहाकुश - मुद्रा, २६. बीज- मुद्रा, ३०. मूशल - मुद्रा, ३१. मुष्ठि - मुद्रा, ३२. प्रार्थना मुद्रा, ३३. त्रैलोक्य-मुद्रा, ३४. वेणु - मुद्रा, ३५. लेलिहा- मुद्रा, ३६. परा-मुद्रा, ३७. कुन्त मुद्रा, ३८. शक्ति - मुद्रा, ३६. पंचमुखी - मुद्रा, ४०. जप- मुद्रा, ४१ घण्टा - मुद्रा, ४२. लक्ष्मी - मुद्रा, ४३. बिल्व - मुद्रा, ४४. आवाहनी - मुद्रा, ४५ काकी - मुद्रा, ४६. भोजन संबंधी पांच मुद्राएँ, ४७. गायत्री संबंधी बत्तीस मुद्राएँ ।
२१.
१८.
अन्त में अन्य परम्परागत चिकित्साएँ, रेकी चिकित्सा एवं अनुभूत प्रयोग का निर्देश किया गया है। स्पष्टतः यह कृति मुद्रास्वरूप एवं विधि की दृष्टि से अनुपमेय और अमूल्य है।
योग सम्बन्धी जैन ग्रन्थ
आत्म विकास के लिए योग एक प्रमुख साधना है। भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों, तत्त्व - चिन्तकों एवं मननशील ऋषि-मुनियों ने योगसाधना के महत्त्व को स्वीकार किया है।
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402/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
योग का अर्थयोग शब्द 'युज' धातु और 'घञ्' प्रत्यय से बना है। युज् धातु के दो अर्थ हैं एक का अर्थ है - जोड़ना, संयोजित करना, और दूसरे का अर्थ है - समाधि, मनः स्थिरता। आचार्य हरिभद्र के मतानुसार योग का अर्थ है - धर्मव्यापार, धर्मप्रवृत्ति, धर्म क्रिया। उन्होंने योगबिन्दु' में कहा है कि आध्यात्मिक भावना और समता का विकास करने वाला, मनोविकारों का क्षय करने वाला तथा मन, वचन और कर्म को संयत रखने वाला धर्म-व्यापार ही श्रेष्ठ योग है। जैनागम में मन, वचन और कायिक प्रवृत्ति को योग कहा है। समग्र भारतीय चिन्तन की दृष्टि से योग समस्त आत्मशक्तियों का पूर्ण विकास करने वाली एवं सभी आत्म-गुणों को अनावृत्त करने वाली आत्माभिमुखी साधना है। वस्तुतः योग एक आध्यात्मिक साधना है। आत्मविकास की विशुद्ध प्रक्रिया है। जैन दर्शन में कहा गया है कि बिना चारित्र के ज्ञान में पूर्णता नहीं आती है उसी प्रकार साधना के लिए ज्ञान आवश्यक है और ज्ञान के विकास के लिए साधना। ज्ञान और क्रिया की संयुक्त साधना से ही साध्य की सिद्धि होती है। यह सत्य है विश्व की किसी भी वस्तु को पूर्ण बनाने के लिए दो बातों की आवश्यकता पड़ती है - एक पदार्थ विषयक ज्ञान और दूसरी क्रिया। ज्ञान और क्रिया के सुमेल के बिना दुनिया का कोई भी कार्य पूरा नहीं किया जा सकता, भले ही वह लौकिक कार्य हो या पारलौकिक, सांसारिक हो या आध्यात्मिक। योग साधना भी एक क्रिया है। अतः स्पष्ट है कि योग साधना एक प्रकार से आध्यात्मिक विधि-विधान का दूसरा रूप है। जैनागमों में योग - जैन धर्म निवृत्ति-प्रधान है। चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर ने साढे बारह वर्ष तक मौन रहकर घोर तप एवं ध्यान के द्वारा योग-साधनामय जीवन बिताया था। उनके शिष्य-शिष्या परिवार में चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियाँ थीं, जिन्होंने योगसाधना में प्रवृत्त होकर साधुत्व को स्वीकार किया था। जैन परम्परा के मूल ग्रन्थ आगम हैं। उनमें वर्णित साध्वाचार का अध्ययन करने से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि पाँच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, बारह तप, ध्यान, स्वाध्याय आदि- जो योग के मुख्य अंग हैं उनको साधु जीवन का और श्रमण-साधना का प्राण माना है। वस्तुतः आचार-साधना श्रमण-साधना का मूल है, प्राण है, जीवन है।
'युपी योगे, गण ७
युजिं च समाधौ, गण ४ २ अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः। मोक्षेण योजनाद्योग, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। - योगबिन्दु ३१ * (क) ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः
(ख) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । - तत्त्वार्थसूत्र १,१ * आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि
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जैनागमों में योग साधना के अर्थ में 'ध्यान' शब्द का प्रयोग हुआ है। यहां ध्यान का अर्थ है अपने योगों को आत्मचिंतन में केन्द्रित करना। जैन अवधारणा में एक ओर योग-साधना के लिए प्राणायाम आदि को भी आवश्यक माना है, क्योंकि इस प्रक्रिया से शरीर को साधा जा सकता है, रोग आदि का निवारण किया जा सकता है और काल-मृत्यु के समय का परिज्ञान किया जा सकता है, परन्तु साध्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता। इसके लिए ध्यान-साधना उपयुक्त मानी गई है। इससे योगों में एकाग्रता आती है, नये कर्मों का आगमन रुकता है और पुराने कर्म क्षीण हो जाते हैं। अंततः साधक समस्त कर्मों का क्षय करके योगों का निरोधकर निर्वाण पद को पा लेता है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 403
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यहाँ उपर्युक्त विवरण से इतना निश्चित है कि व्रत, तप, ध्यान, स्वाध्याय, आवश्यक आदि क्रियाएँ योगसाधना के विभिन्न रूप हैं, जो आत्मा को मोक्षमार्ग की ओर ले जाते हैं तथा वे सभी क्रियाएँ जो विधि-विधान के नाम से व्यवहृत होती हैं। योगसाधना की कोटि में गिनी जा सकती हैं। अतः यह कहना निर्विवाद होगा कि आचार्य हरिभद्र के योग विषयक ग्रन्थ विधि-विधान से सम्बन्ध रखते हैं। आचार्य हरिभद्र के योगविषयक मुख्य चार ग्रन्थ हैं १. योगबिन्दू, २ . योगदृष्टिसमुच्चय, ३. योगशतक और ४. योगविंशिका ।
योगबिन्दु
यह कृति संस्कृत के ५२७ पद्यों में गुम्फित है। इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम योग के अधिकारी का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो जीव चरमावर्त्त में रहता है अर्थात् जिसका संसार परिभ्रमण का काल मर्यादित हो गया है, जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन कर लिया है और जो शुक्लपक्षी है, वह योग साधना का अधिकारी है।
आचार्य हरिभद्र ने योग के अधिकारी जीवों को चार भागों में विभक्त किया है- १. अपुनर्बन्धक, २. सम्यग्दृष्टि, ३. देशविरति और ४. सर्वविरति । योगबिन्दु ग्रन्थ में उक्त चार भेदों के स्वरूप एवं अनुष्ठान पर विस्तार से विचार किया गया है।
चारित्र अधिकार मे पांच योग भूमिकाओं का स्वरूप वर्णित किया है १. अध्यात्म, २. भावना, ३. ध्यान, ४. समता और ५. वृत्ति - संक्षय। ये अध्यात्म आदि योगसाधनाएँ देशविरति नामक पंचम गुणस्थान से शुरु होती है। अपुनर्बन्धक एवं सम्यग्दृष्टि अवस्था में चारित्र मोहनीय की प्रबलता रहने के कारण योग बीज रूप में रहता है, वह अंकुरित एवं पल्लवित नहीं होता । अतः योग-साधना का विकास देशविरति से माना गया है। योग साधना के पाँच चरण संक्षेप में इस प्रकार हैं -
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404/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
१. अध्यात्म- यथाशक्य अणुव्रत या महाव्रत को स्वीकार करना एवं मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावनापूर्वक आत्मचिन्तन करना अध्यात्म साधना है। इससे पाप कर्म का क्षय होता है, सत् पुरुषार्थ का उत्कर्ष होता है और चित्त में समाधि की प्राप्ति होती है। २. भावना- अध्यात्म चिन्तन का बार-बार अभ्यास करना भावना है। इससे काम, क्रोध आदि मनोविकारों एवं अशुभ भावों की निवृत्ति होती है और ज्ञान आदि शुभ भाव परिपुष्ट होते हैं। ३. ध्यान- तत्त्व चिन्तन की भावना का विकास करके मन को या चित्त को किसी एक पदार्थ या द्रव्य के चिन्तन पर एकाग्र करना, स्थिर करना ध्यान है। इससे चित्त स्थिर होता है और भव-परिभ्रमण के कारणों का नाश होता है। ४. समता- संसार के प्रत्येक पदार्थ एवं सम्बन्ध के प्रति चाहे वह इष्ट हो या अनिष्ट तटस्थ वृत्ति रखना समता है। इससे अनेक लब्धियों की प्राप्ति होती है और कमों का क्षय होता है। ५. वृत्ति-संक्षय- चित्त-वृत्तियों का जड़मूल से नाश होना वृत्ति-संक्षय है। इस साधना के सफल होते ही घाति कर्म का समूलतः क्षय हो जाता है और क्रमशः मोक्ष की प्राप्ति होती है।
आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ में पाँच अनुष्ठानों का भी वर्णन किया है१. विष अनुष्ठान, २. गरल अनुष्ठान, ३. अनुष्ठान, ४. तदहेतु अनुष्ठान और ५. अमृत अनुष्ठान। इसमें आदि के तीन असदनुष्ठान हैं और अन्तिम के दो सदनुष्ठान हैं। योग-साधना के अधिकारी व्यक्ति को सदनुष्ठान ही होता है। योगदृष्टिसमुच्चय
यह कृति संस्कृत में है। इसमें २२८ पद्य हैं। इस ग्रन्थ में प्रयुक्त अचरमावर्तकाल (अज्ञातकाल) की अवस्था को 'ओघ-दृष्टि' और चरमावर्त्तकाल (ज्ञात काल) की अवस्था को 'योग-दृष्टि' कहा है।
इस ग्रन्थ में योग के अधिकारियों को तीन विभागों में विभक्त किया गया है। प्रथम विभाग में प्रारम्भिक अवस्था से लेकर विकास की अन्तिम अवस्था तक की भूमिकाओं की अपेक्षा से आठ विभाग किए गए हैं- १. मित्रा, २. तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कान्ता, ७. प्रभा और ८. तारा। इसके पश्चात् उक्त आठ भूमिकाओं में रहने वाले साधक के स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें पहली चार भूमिकाएँ प्रारंभिक अवस्था में होती है। इनमें मिथ्यात्व का कुछ अंश शेष रहता है, परन्तु अंतिम की चार भूमिकाओं में मिथ्यात्व का अंश नहीं रहता है। द्वितीय विभाग में योग के तीन विभाग निर्दिष्ट किये गये हैं - १. इच्छा-योग, २. शास्त्र-योग और ३. सामर्थ्य-योग। तृतीय विभाग में योगी को चार भागों में बाँटा गया है - १. गोत्र-योगी, २. कुल-योगी, ३. प्रवृत्त-चक्र योगी
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/405
और ४. सिद्ध-योगी। इनमें दूसरा और तीसरा योगी साधना का अधिकारी माना गया है तथा सिद्ध योगी को साधना सिद्ध कर चुकने वाला कहा गया है। इसमें ओघ, मित्रा, तारा, कान्ता आदि कई दृष्टियों को संग्रह रूप से कहा गया है अतः ग्रन्थ का नाम 'योगदृष्टिसमुच्चय' है। योग-शतक
यह कृति प्राकृत भाषा के १०१ पद्यों में निबद्ध है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में दो प्रकार से योग का स्वरूप बताया गया है - १. निश्चय और २. व्यवहार। सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना निश्चय योग है और इन तीनों का साधन रूप में बने रहना व्यवहार योग है। इसी क्रम में आगे उल्लेख किया गया हैं कि साधक जिस भूमिका पर स्थित है, उससे ऊपर की भूमिकाओं पर पहुँचने के लिए उसे क्या करना चाहिए? इसके लिए योग-शतक में कुछ नियमों, साधनों एवं विधियों का विवेचन हुआ है।
आचार्य हरिभद्र ने कहा है कि साधक को स्वसाधना विकास के लिए निम्न प्रवृत्तियां करनी चाहिये। यथा- १. अपने स्वभाव की आलोचना करनी चाहिए २. लोक-परम्परा के ज्ञान और उचित-अनुचित प्रवृत्ति का विवेक रखना चाहिए ३. अपने से अधिक गुणसम्पन्न साधक के सहवास में रहना चाहिए ४. राग-द्वेष आदि दृष्प्रवृत्तियों को दूर करने के लिए तप, जप जैसे साधनों का आश्रय ग्रहण करना चाहिए। ५. अभिनव साधक को श्रुत-पाठ, गुरु-सेवा, आगम-आज्ञा जैसे स्थूल साधन का आश्रय लेना चाहिए। ६. शास्त्र के अर्थ का यथार्थ बोध हो जाने के बाद आन्तरिक दोषों (रागमोहादि) का निष्कासन करने के लिए आत्म-निरीक्षण करना चाहिए। इसमें यह भी बताया गया है कि योग-साधना में प्रवृत्त हुए साधक को सात्त्विक आहार करना चाहिए। इस संदर्भ में सर्वसंपत्करी भिक्षा का स्वरूप वर्णित हुआ है।
. अन्त में कहा है कि योग-साधना के अनुरूप आचरण करने वाला साधक अशुभ कर्मों का क्षय ओर शुभ कर्मों का बन्ध करता है तथा क्रमशः आत्म विकास करता हुआ अबन्ध अवस्था को प्राप्त करके कर्म-बन्धन से सर्वथा मुक्त हो जाता है।' योगविंशिका
१४४४ ग्रन्थों के प्रणेता श्री हरिभद्रसूरि ने पृथक्-पृथक् बीस विषयों पर
' योगबिन्दु आदि चार ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित 'जैन योग ग्रन्थ चतुष्टय' के नाम से, मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, पीपलिया बाजार, ब्यावर से सन् १६८२ में प्रकाशित हुए हैं।
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406/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
२०-२० श्लोक परिमाण वाली एक-एक विशिका रचकर 'विशतिविंशिका' नामक एक प्रकरण निर्मित किया है। योगविंशिका इसी प्रकरण का एक भाग है। यह प्राकृत के बीस पद्यों में गुम्फित है।' इस विंशिका के प्रथम पद्य में 'योग' शब्द का अर्थ बताते हुए कहा गया है कि सभी प्रकार की धर्मक्रियाएँ, धर्माराधनाएँ एवं धार्मिक विधि-विधान जो आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़ने वाले हैं वह योग है। साधु की विहार क्रिया, वचनक्रिया, भिक्षाटन आदि क्रिया रूप समस्त धर्मव्यापार 'योग' है। इससे स्पष्ट होता है कि यह विशिका धार्मिक विधि-विधानों से सम्बद्ध है।
वस्ततुः मोक्षमार्ग का दूसरा नाम योग साधना है। यहां मोक्षमार्ग से तात्पर्य देव-गुरु रूप योगी की उपासना और धर्मरूप योग की साधना करना है। धर्मरूप योग की साधना का तात्पर्य आंतरिक रूप से गुणों का संग्रह करना और बाह्य रूप से आचार पालन करना है। ज्ञानादि पांच आचार, दानादि चार धर्म, मूलगुण, उत्तरगुण, भावना, ज्ञानाभ्यास आदि साधना के अनेक भेद हैं, ध्यान भी साधना है। उपयोग-समता भी साधना के अंग हैं। संक्षेप में कहें तो दर्शन और ज्ञान की उपासना करना प्रारंभिक योग साधना है तथा आचारों, भावनाओं आदि की उपासना करना प्रधान योग साधना है।
प्रस्तुत विंशिका में क्रिया, अनुष्ठान, प्रणिधान, योग आदि के रूप में विधि-विधान संबंधी कई स्थल दृष्टिगत होते हैं वे निम्न हैं- क्रिया की आवश्यकता, द्रव्य किन्तु शुभ क्रिया की अत्याजता, निश्चय-व्यवहार से योग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, अध्यात्मयोग, भावनायोग, आध्यानयोग, समतायोग, वृत्तिसंशययोग, इच्छायोग, प्रवृत्तियोग, स्थिरयोग, सिद्धियोग, सामर्थ्ययोग, विषादि पाँच अनुष्ठान, सूत्रप्रदान की योग्यता का आधार, सूत्रदान किसको, देशविरति को ही विधियत्नसंभव, सूत्रप्रदान करना भी एक प्रकार का व्यवहार, अविधि का समर्थन करने पर तीर्थोच्छेद, विधिपूर्वक व्यवस्थापना से तीर्थोन्नति, अयोग्य को दान करने से अधिकदोष, जीतव्यवहार भी शुद्धिकारक, अनुष्ठान में फलतः विधिरूपता, विधि भिन्न आचरणा के पांच प्रकार, अविधिकृत की सफलता कैसे, विधि निरूपण में कल्याण संपादकता, चैत्यवन्दन विधि में मोक्षप्रयोजकता आदि।
उक्त सभी प्रकार के बिन्दु विधि पक्ष को पुष्ट करने वाले हैं। टीका - इस ग्रन्थ पर महोपाध्याय श्री यशोविजयजी ने एक वृत्ति रची है जो विषय की स्पष्टता के साथ-साथ अत्यन्त भाववाही है।
' यह विंशिका नामक ग्रन्थ वृत्ति एवं गुजराती विवेचन के साथ, 'दिव्यदर्शन ट्रस्ट, ३६ कलिकुंड सोसायटी, धोलका' से वि.सं. २०५५ में प्रकाशित हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 407
योगप्रदीप
इस ग्रन्थ' के प्रणेता का नाम ज्ञात नहीं है, किन्तु इस ग्रन्थ के प्रणयन काल में ग्रन्थकार ने हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्र, शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव एवं उपनिषदों का उपयोग अवश्य किया है ऐसा कृति का अध्ययन करने से अवगत होता है। यह रचना १४३ पद्यों की है। इसकी भाषा संस्कृत है। इसमें योग साधना के कतिपय विधि-विधान दिखाए गये हैं। इसका मुख्य विषय आत्मा है। इसमें आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निरूपण हुआ है। इसके अतिरिक्त इसमें परमपद की प्राप्ति का उपाय बतलाया गया है। इस कृति में प्रसंगोपात्त उन्मनीभाव, समरसता, रूपातीतध्यान, शुक्लध्यान, अनाहतनाद, निराकार ध्यान इत्यादि की साधना विधि का भी निरूपण हुआ है।
बालवबोध - इस कृति पर किसी ने पुरानी गुजराती में बालावबोध लिखा है । योगशास्त्र
यह कृति आचार्य हेमचन्द्र की है। श्री हेमचन्द्राचार्य विक्रम की बारहवीं शताब्दी के एक प्रख्यात जैन आचार्य हुए हैं। आप केवल जैनागम एवं न्याय - दर्शन के ही प्रकाण्ड पण्डित नहीं थे, प्रत्युत व्याकरण, साहित्य, छन्द, अलंकार, काव्य, दर्शन, योग आदि सभी विषयों पर आपका अधिकार था । आपने उक्त सभी विषयों पर महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । आपके विशाल एवं गहन अध्ययन के कारण आपको 'कलिकालसर्वज्ञ' के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा है।
आचार्य हेमचन्द्र ने योग पर योग- शास्त्र लिखा है। यह ग्रन्थ संस्कृत पद्य में निबद्ध है। इसमें कुल ११६६ श्लोक हैं। यह कृति द्वादश प्रकाशों में विभक्त है। संक्षेप में कहें तो इसमें पातंजलयोगसूत्र में निर्दिष्ट अष्टांग योग के क्रम से गृहस्थप-जीवन एवं साधु-जीवन की आचार साधना का जैनागम के अनुसार वर्णन हुआ है। इसमें आसन, प्राणायाम आदि से सम्बन्धित विषयों का भी विस्तृत वर्णन है। इसमें आचार्य हेमचन्द्र ने आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में वर्णित पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों का भी उल्लेख किया है। कुछ विस्तार से
१
यह कृति श्री जीतमुनि द्वारा सम्पादित है और जोधपुर से वी. सं. २४४८ में प्रकाशित हुई है। इसी प्रकार पं. हीरालाल हंसराज द्वारा सम्पादित यह कृति सन् १६११ में मुद्रित हुई है। 'जैन साहित्य विकास मंडल' ने यह ग्रन्थ अज्ञातकर्तृक बालावबोध, गुजराती अनुवाद और विशिष्ट शब्दों की सूची के साथ सन् १६७० में प्रकाशित किया है।
२
यह कृति गुजराती विवेचन के साथ वि.सं. २०३३ में 'श्री मुक्तिचंद्रश्रमण आराधना केन्द्र, गिरि विहार, तलेटी रोड पालीताणा' से प्रकाशित है। यह छट्टा संस्करण है। इसका गुजराती भाषान्तर आचार्य श्री केशरसूरि जी ने किया है।
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408 / योग - मुद्रा - ध्यान सम्बन्धी साहित्य
कहें तो प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम प्रकाश में योग की आवश्यकता, मोक्ष का कारण योग, ज्ञानन-दर्शन- चारित्र योग, गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिए आवश्यक गुण, योग की शक्ति आदि का वर्णन हुआ है।
दूसरे प्रकाश में सम्यक्त्वव्रत सहित पाँच अणुव्रतों का विवेचन है। तीसरे प्रकाश में तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत, बारहव्रतों के अतिचार, श्रावक की दिनचर्या, श्रावक के मनोरथ एवं श्रावक के अन्तिम क्रिया की विशेष विधि का उल्लेख हुआ है। चौथे प्रकाश में क्रोधादि कषाय का स्वरूप, मन शुद्धि की आवश्यकता, राग-द्वेष को जीतने के उपाय, समभाव की साधना के लिए बारह भावना, ध्यान करने का स्थान कैसा हो ? इत्यादि का विवेचन है । पाँचवां प्रकाश प्राणायाम से सम्बन्धित है। इसमें प्राणायाम की विधि, प्राणायाम के प्रकार, नाडी शोधन की रीति और उसका फल, वेध करने की विधि, अन्य के शरीर में प्रवेश करने की विधि इत्यादि का वर्णन हुआ हैं । छट्ठे प्रकाश में प्रत्याहार और धारणा इन दो अंगों का उल्लेख हैं। सातवें प्रकाश में ध्याता, ध्येय, धारणा और ध्यान के विषयों की चर्चा है। आठवें प्रकाश में विभिन्न प्रकार के ध्यान बताये गये हैं उनमें पदस्थ ध्यान, मंत्र देवता का ध्यान, प्रणव ध्यान, पंचपरमेष्ठीमंत्र का ध्यान, ह्रींकार विद्या का ध्यान आदि प्रमुख है। नवमें प्रकाश में रूपस्थ ध्यान की विधि और उसका फल कहा गया है । दशवें प्रकाश में रूपातीत ध्यान एवं धर्मध्यान की विधि और उसका फल बताया गया है। ग्यारहवें प्रकाश में शुक्लध्यान विधि, घाति कर्म के क्षय से होने वाला फल, सामान्य केवली के कर्त्तव्य आदि का विवेचन है। बारहवाँ प्रकाश विविध विषयों से सम्बन्धित है। इसमें मुख्य रूप से परमात्मा का स्वरूप, परमानंद प्राप्ति का क्रम, मन को शान्ति देने वाला मार्ग, मन को जीतने के उपाय, उदासीनता का फल, उपदेश का रहस्य आदि विषय चर्चित हुए हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ की स्वोपज्ञवृत्ति (प्र. १२, श्लोक ५५ एवं प्र. १ श्लोक ४) के अनुसार हेमचन्द्राचार्य ने यह कृति कुमारपाल राजा की अभ्यर्थना पर बनायी थी। ऐसा कहा जाता है राजा कुमारपाल वीतरागस्तोत्र के बीस प्रकाशों और योगशास्त्र के बारह प्रकाशों का पाठ प्रतिदिन करते थे। निस्सन्देह योग - शास्त्र जैन तत्त्व-ज्ञान, आचार-विधि एवं योग-साधना का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस समग्र ग्रन्थ को दो भागों में बाँट सकते हैं। प्रकाश एक से चार के प्रथम विभाग में गृहस्थधर्म की चर्चा है, शेष पाँच से बारह प्रकाशों में प्राणायाम आदि की चर्चा है।
स्वोपज्ञवृत्ति - ग्रन्थकार ने स्वयं योग- शास्त्र पर वृत्ति रची है वह १२००० श्लोक परिमाण है। यह वृत्ति विविध अवतरणों से समृद्ध है। इसके तीसरे प्रकाश के १३० वें श्लोक की वृत्ति में प्रतिक्रमण विधि से सम्बद्ध ३३ गाथाएँ किसी प्राचीन
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/409
कृति में से उद्धृत की गई हैं। इस वृत्ति में प्रसंगोपात्त अनेक कथाएँ आती हैं उनमें अभयकुमार, आनन्द, कौशिक, कामदेव, कालसौरिकपुत्र, कालकाचार्य, चन्द्रावतंसक, चिलातीपुत्र, दृढ़प्रहारी, नन्द, परशुराम, ब्रह्मदत्त, भरत, मरूदेवी, मण्डिक, रावण, रोहिणेय, संगमक, सनत्कुमार चक्रवर्ती, सुदर्शन, सुभूम और स्थूलिभद्र आदि के उल्लेख हैं। योगिरमा नामक एक टीका दिगम्बर मुनि अमरकीर्ति के शिष्य इन्द्रनन्दी ने रची है। वृत्ति - यह अमरप्रभसूरि ने लिखी है। टीका-टिप्पण - यह अज्ञातकर्तृक है। अवचूरि - इसके कर्ता का नाम ज्ञात नहीं है। बालावबोध - इसके प्रणेता सोमसुन्दरसूरि है। वार्तिक - इसके रचयिता का नाम इन्द्रसौभाग्यगणी है। यौगिक क्रियाएँ
___यह रचना हिन्दी गद्य में है और सचित्र है। मुनि किशनलाल जी द्वारा विरचित यह कृति यौगिक क्रियाओं की प्रविधि से सम्बन्धित है। योग की ये क्रियाएँ अपने आप में परिपूर्ण हैं। योग परम्परा नहीं, अपितु एक विधि है जिसे योगियों ने दीर्घ साधना और अनुभवों से खोजा है। शारीरिक यौगिक क्रियाएँ हर एक व्यक्ति कर सकता है। इन क्रियाओं से शरीर के प्रत्येक अंग को सक्रियता मिलती है। आसन-प्राणायाम के प्रयोग करते-करवाते समय यह अनुभव हुआ है कि वृद्ध या अस्वस्थ व्यक्ति जो पूरी तरह आसन नहीं कर पाते हैं, वे यौगिक शारीरिक क्रियाओं को सरलता से कर सकते हैं तथा इन क्रियाओं द्वारा अपने अंगों में शक्ति और सक्रियता के विकास का अनुभव कराया जा सकता है।
____ यौगिक शारीरिक क्रियाएँ साधना एवं ध्यान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। मेरुदण्ड की क्रियाएँ शक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाने एवं स्वास्थ्य लाभ प्रदान करने में सहयोगी बनती हैं। साधना के विकास के लिए मेरुदण्ड का स्वस्थ, लचीला और सक्रिय होना आवश्यक है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यौगिक क्रियाओं की प्रासंगिकता अनिवार्य प्रतीत होती है। आज के युग में जीने वाले व्यक्तियों के पास समय का अभाव होता जा रहा है। शहरी वातावरण में पलने वाले लोगों को तो स्थान की कठिनाईयों का भी सामना करना पड़ रहा है। शहरी सभ्यता ने मनुष्य के जीवन को प्रकृति से दूर कर दिया है। उसके पास शारीरिक श्रम के लिए न खेत है और न घूमने के लिए खुला मैदान है जहाँ शुद्ध प्राणवायु को ग्रहण कर वह स्वस्थता को उपलब्ध कर सके। आज व्यक्ति इतना अनियमित जीवन जीने लगा है कि चाहने के बावजूद भी योगासन एवं इसी तरह की अन्य प्रविधि के लिए अपने समय को लगा नहीं पाता। अतः समय के अभाव में आसनों के लाभ से वंचित न रहे, उनके लिए यौगिक क्रियाएँ आवश्यक हैं। आसनों की अपेक्षा इनमें समय कम लगता है। ये
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410 / योग - मुद्रा - ध्यान सम्बन्धी साहित्य
क्रियाएँ शरीर और मन दोनों को स्वस्थ बनाती हैं। जो व्यक्ति शरीर की दृष्टि से रुग्ण, वृद्ध अथवा अशक्त हैं उनके लिए भी ये उपयोगी एवं शक्ति संवर्धक हैं। इन क्रियाओं की प्रविधि से सम्पूर्ण शरीर के सन्धिस्थलों में लचीलापन एवं कर्मजा शक्ति का विकास होता है। मांसपेशियों में स्फूर्ति तथा स्नायुसंस्थान में सक्रियता बढ़ती है। रक्त संचार सुव्यवस्थित होने लगता है । मन प्रसन्न और चित्त प्रशान्त होने लगता है जिससे प्रज्ञा प्रगट होती है । यौगिक शारीरिक क्रिया की प्रविधि को प्रयोग में लाने के लिए कोई विशेष स्थान एवं व्यवस्था की भी अपेक्षा नहीं रहती है, केवल स्वच्छ और हवादार स्थान पर्याप्त होता है । इस पूरे प्रयोग को एक साथ करने में लगभग १५ मिनट लगते हैं । समयाभाव में इस प्रयोग को खण्डों में विभाजित किया जा सकता है। यह अभ्यास मस्तक से लेकर पैर तक विभिन्न अवयवों पर क्रमशः तेरह क्रियाओं में पूर्ण होता है।
प्रस्तुत कृति में यौगिक शारीरिक क्रियाओं की जो प्रविधि बतायी गई है उन क्रियाओं का नामोल्लेख ही कर रहे हैं। इसमें रुचि रखने वाले साधक स्वयमेव इस कृति का अध्ययन करें।
(क) यौगिक शारीरिक क्रियाएँ ये हैं - 9. पहली क्रिया मस्तक के लिए, २ . दूसरी क्रिया - आँख के लिए, ३. तीसरी क्रिया कान के लिए, ४. चौथी क्रिया - मुख एंव स्वर यन्त्र के लिए, ५. पाँचवीं क्रिया - गर्दन के लिए, ६. छठी क्रिया स्कन्ध के लिए, ७. सातवीं क्रिया - हाथ के लिए, ८. आठवीं क्रिया- सीने और फेफड़े के लिए, ६. नवमीं क्रिया - पेट के लिए, १०. दसवीं क्रिया कमर के लिए, ११. ग्यारहवीं क्रिया - पैर के लिए, १२. बारहवीं क्रिया - घुटने एवं पंजे के लिए, १३. तेरहवीं क्रिया - कायोत्सर्ग
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(ख) स्वभाव परिष्कार के लिए मेरुदण्ड की तेरह क्रियाएँ एवं उसकी विधि (ग) कायोत्सर्ग की मुद्राएँ (घ) पेट एवं श्वॉस की दस क्रियाएँ एवं उसकी विधि (ड.) नमस्कार मुद्रा में पंच परमेष्ठी की मुद्रा विधि।
इस प्रकार यह कृति जैन और जैनेत्तर सभी साधकों के लिए उपयोगी है। इसमें यौगिक क्रियाओं का जैन दृष्टि से रूपान्तरण किया गया है। हस्तमुद्रा प्रयोग और परिणाम
यह कृति हिन्दी गद्य में है । इसका आलेखन गणाधिपति तुलसी के शिष्य किशनलालजी ने किया है। हस्त मुद्राओं के सम्बन्ध में यह कृति अपना विशिष्ट स्थान रखती है। यहाँ मुद्राविधि की चर्चा करने से पूर्व मुद्रा स्वरूप को समझ
9
यह पुस्तक सन् २००१ 'जैन विश्वभारती लाडनूं' से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/411
लेना आवश्यक प्रतीत होता है, क्योंकि मुद्रा जीवन और व्यवहार को प्रभावित करती है। इसमें लिखा हैं कि 'जैसी मुद्रा होती है वैसे भाव होते हैं और जैसे भाव होते हैं वैसी मुद्रा बनती है'। मुद्रा द्वारा भावों को अभिव्यक्त किया जाता है। यह प्रक्रिया अंतरंग मस्तिष्क से संबद्ध है। अतः अपने आप एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंच जाती है।
कुछ मुद्राएँ संस्कारगत होती हैं। चाहे-अनचाहे परिस्थिति उत्पन्न होते ही व्यक्ति उस मुद्रा में आ जाता है। जैसे- चिन्ता से घिरते ही आदमी के हाथ सहज ही मस्तिष्क या ठुड्डी पर आ जाते हैं। किसी सवाल का उत्तर स्मृति-पटल पर नहीं आ रहा हो तो व्यक्ति आकाश या छत की ओर निहारने लगता है। सर्दी लगते ही व्यक्ति अपने आप को उससे बचाने के लिए हाथों की मुट्ठियाँ बनाकर काँख में दबाता है। अकड़ और अहंकार के भाव को अभिव्यक्ति देने के लिए भी इसी तरह की मुद्रा बनाता है। विनय के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए व्यक्ति दोनों हाथों को मिलाकर नमस्कार मुद्रा में स्थिर हो जाता है। इन मुद्राओं की कहीं कोई शिक्षा नहीं दी जाती, बल्कि ये संस्कारगत रूप से अपने आप ही उभर आती हैं और व्यक्ति इनका उपयोग कर लेता है।
आसनों के विभिन्न प्रकार भी एक प्रकार की मुद्राएँ हैं जिन्हें अंग्रेजी में पोज या पोस्टर कहा जाता है। देवताओं को मुदित करने और पाप का नाश करने के कारण इसे मुद्रा कहा है। मुद्राएँ केवल भौतिक अभिसिद्धि के लिए ही नहीं होती, अपितु आध्यात्मिक विकास के लिए भी उनका उपयोग किया जाता है। जैसे आसनों की संख्या असंख्य हैं वैसे ही मुद्राओं की संख्या भी असीमित हैं। मुद्राएँ दो प्रकार की कही गई हैं १. स्थूल और २. सूक्ष्मा स्थूल मुद्राएँ हठयोग से सम्बन्धित होती है और सूक्ष्म मुद्राएँ योगतत्त्व से समन्वित होती है। योग मुद्रा की विधि जान लेने पर सहज रूप से सूक्ष्म मुद्राओं का उपयोग कर परिणाम को प्राप्त किया जा सकता है।
मुद्राएँ व्यक्ति के शरीर में स्विच बोर्ड हैं, शरीर में स्थित चेतना को जगाने में मुद्राएँ सहयोगी बनती है। कुछ मुद्राएँ तत्काल प्रभाव डालती हैं तो कुछ लम्बे समय के पश्चात् अपना प्रभाव दिखा पाती हैं। मुद्राएँ व्यक्तित्व और स्वभाव परिवर्तन में अपना मूल्यवान सहयोग प्रदान कर सकती हैं। भगवान महावीर ने अभयमुद्रा का प्रयोग जनता के सामने प्रस्तुत कर अहिंसा की स्थापना की थीं। मुद्रा ध्यान का अभिन्न अंग है। ध्यान की किसी भी अवस्था में मुद्रा अवश्यंभावी होती है। दिव्य शक्तियों से परिवेष्टित देवी-देवताओं की अपनी मुद्राएँ होती हैं। मुद्राओं के संकेत द्वारा उस दिव्य शक्ति से संपर्क स्थापित किया जा सकता है।
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412/योग-मुद्रा-ध्यान सम्बन्धी साहित्य
जिस प्रकार ध्वनि के संकेतों से देवता आदि का आहान किया जाता है उसी प्रकार मुद्रा से उन्हें आमंत्रित किया जाता है। शास्त्रों का मानना है कि ध्वनि और मुद्रा पूर्वक किया गया आह्वान ही सफल होता है।
जिस प्रकार व्यक्ति की पहचान नाम से होती है उसी प्रकार देवी-देवताओं के अपने गोपनीय सांकेतिक शब्द होते हैं। जैसे सेना में सांकेतिक शब्दों के द्वारा एक-दूसरे को गोपनीय सूचनाएँ संप्रेषित की जाती हैं वैसे - देवताओं को आमंत्रित करने के लिए मंत्र एवं मुद्रा की सांकेतिक ध्वनियों से स्मरण किया जाता है। इससे हमारी प्रार्थनाएँ उन तक पहुँच जाती हैं। मुद्राओं से केवल शरीर में ही परिवर्तन घटित नहीं होता है अपितु एक सौम्य वातावरण का निर्माण भी होता है जिससे दिव्य शक्तियों को अवतरित होने में सुविधा होती है। इतना ही नहीं, रोग की विकृति के शमन के लिए भी मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है। मुद्राओं के द्वारा शरीर में ठहरे विजातीय तत्त्वों को बाहर निकालने एवं संतुलित करने की प्रक्रिया होती है। यह जानने योग्य हैं कि शरीर में जितने प्रकार की आकृतियाँ होती हैं उतनी ही मुद्राएँ बन जाती हैं। इस कृति में विशिष्ट सत्तरह मुद्राओं का विवरण दिया गया है। ये मुद्राएँ रोग शमन के साथ-साथ मानसिक प्रसन्नता देती हैं, चित्त की स्वस्थता बढ़ाती हैं, वातावरण को पवित्र करती हैं और जीवन को आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्त करती हैं।
इसमें वर्णित मुद्राओं के नाम निम्न हैं - १. सूर्य मुद्रा २. ज्ञान मुद्रा, ३. वायु मुद्रा, ४. आकाश मुद्रा, ५. पृथ्वी मुद्रा, ६. वरुण मुद्रा, ७. अपान मुद्रा, ८. प्राण मुद्रा, ६. अंगुष्ट मुद्रा, १०. सुरभि मुद्रा, ११. मृगी मुद्रा, १२. हंसी मुद्रा, १३. शंख मुद्रा, १४. पंकज मुद्रा, १५. अनुशासन मुद्रा, १६. समन्वय मुद्रा, १७. वीतराग मुद्रा। ज्ञानार्णव
यह कृति दिगम्बर आचार्य श्री शुभचन्द्र की है। इसके अन्य दो नाम नाम योगार्णव और योगप्रदीप हैं। यह रचना संस्कृत भाषा के २०७७ श्लोकों में गुम्फित है। तथा ४२ सगों में विभक्त है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल विवादास्पद है तथापि ज्ञानार्णव के कई श्लोक इष्टोपदेश की वृत्ति में पं. आशाधरजी ने उद्धृत किये हैं। इस आधार पर वि.सं. १२५० के आस-पास इसकी रचना का होना मालूम होता है। ज्ञानार्णव में जिनसेन और अकलंक का उल्लेख हैं अतः उस
' यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित वि.सं. २०३७ में, श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्री मद्राजचंद्र आश्रम, आगास से प्रकाशित है। यहा पाँचवां संस्करण है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/413
आधार पर इसकी पूर्व सीमा निश्चित की जा सकती है। जिनरत्नकोश (पृ. १५) में ज्ञानार्णव की एक हस्तप्रति वि.सं. १२८४ में लिखी होने का उल्लेख है। यह इस कृति की उत्तरसीमा निश्चित करने में सहयोगी है।
इसकी शैली सरस और सुगम है। इससे यह कृति सार्वजनिक बन सकती थी; परन्तु आचार्य शुभचन्द्र के मत से गृहस्थ योग का अधिकारी नहीं है यह कृति जन प्रसिद्ध नहीं बन पाई। सामान्यतः इस रचना में निम्नलिखित विषय चर्चित हुए हैं -
बारह भावना, ध्यान, ध्याता, ध्येय का स्वरूप, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, पंच अणुव्रत, पंच समिति, कषाय, इन्द्रियजय, त्रयतत्त्व, मन वश करने का उपदेश, राग-द्वेष दूर करने का उपाय, आर्तध्यान, रौद्रध्यान, आसनजय, प्राणायाम, धर्मध्यान, पिण्डस्थादि चार प्रकार के ध्यान, शुक्लध्यान और धर्मध्यान का फल आदि। ज्ञानार्णव (सर्ग २१-२७) में यह विशेष रूप से कहा है कि आत्मा स्वयं ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप है। उसे कषायरहित बनाने का नाम ही मोक्ष है। इसका उपाय इन्द्रिय पर विजय प्राप्ति है। इस विजयप्राप्ति का उपाय चित्त की शुद्धि है इस शुद्धि का उपाय राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करना है। इस विजय का उपाय समत्व है और समत्व की प्राप्ति ही ध्यान की योग्यता है। इस प्रकार जो विविध बातें इसमें आती हैं उनकी तुलना योगशास्त्र (प्रका. ४) के साथ करने योग्य हैं। ज्ञानार्णव में १०० श्लोक लगभग प्राणायाम विधि से सम्बन्धित हैं। अनुप्रेक्षा विधि विषयक लगभग २०० श्लोक हैं। इसके सर्ग २६ से ४२ तक में प्राणायाम एवं ध्यान साधना के बारे में विस्तृत विवेचन हुआ है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि योग-साधना के विविध आयामों को प्रस्तुत करने वाली यह कृति अपने-आप में अनूठी है। पुनः यह ध्यान देने योग्य हैं कि प्राणायाम, ध्यान, भावना व्रतादि का अनुपालन ये सभी प्रक्रियाएँ योग-साधना के अंग हैं तथा ये ही क्रियाएँ विधि-विधान के नाम से अभिव्यक्त होती हैं। इस दृष्टि से यह ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। टीकाएँ - ज्ञानार्णव पर तीन टीकाएँ प्राप्त होती हैं - १. तत्त्वत्रयप्रकाशिनी- यह दिगम्बर श्रुतसागर की रचना है। २. टीका- इसके कर्ता का नाम नयविलास है। ३. टीका- हय अज्ञातकर्तृक है।
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अध्याय-10
38888
ॐॐ2888
पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
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416 / पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी साहित्य
अध्याय १०
पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि- विधानपरक साहित्य-सूची
क्र. कृति
कृतिकार
कृतिकाल
(अ) पूजा साहित्य
१ अचलगच्छीय स्नात्रपूजादि संकलित संग्रह (प्रा. हि.)
२ अध्यात्मपूजासंग्रह (हि.) संकलित
३ अर्हदभिषेकविधि (सं.)
४ अभिषेकविधि
५ अभिषेक पूजा (हि.)
६ अर्हत्अभिषेकविधि (सं.) अज्ञातकृत
७ अर्हद्देवमहाभिषेकविधि
८ अर्हत्भक्ति विधान
६ अष्टकर्मचूर्णि पूजा
वादीवेताल शान्तिसूरि
पं. आशाधर
पूज्यपादस्वामी
अनु. ज्ञानमतिजी
अज्ञातकृत
पं. आशाधर
गुणभूषण
१० अष्टविधपूजन
अज्ञातकृत
११ अष्टापदतीर्थ पूजा (गु.) दीपविजय
१२ अष्टादश- अभिषेकविधि (गु.) जशवंतलाल
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
लग. वि. सं. १० वीं
शती
लग. वि.सं. १३ वीं
शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
वि.सं. १२८५
लग. १८-२० वीं
शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. २०-२१ वीं
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/417
शती
शती
सांकलचंद
शती १३ अष्टादश-अभिषेक संकलित वि.सं. २०-२१ वीं
बृहविधि १४ अष्टप्रकारीपूजाविधि गीत गुणरत्नसूरि वि.सं. २०-२१ वीं
और कथा (गु.) १५ अष्टोत्तरीस्नात्रविधि अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती १६ अष्टाह्मिकव्रतोद्यापनपूजाविधि शुभचन्द्र वि.सं. १५८२ १७ अष्टाझिकवतोद्यापनपूजाविधि रत्ननन्दि लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती १८ अष्टाझिकव्रतोद्यापनपूजाविधि अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती १६ |आदिनाथपूजा (गु.) गुणसागरसूरि वि.सं. २०-२१ वीं
शती २० आवश्यकपूजासंग्रह (हि.) उपा. मणिप्रभसागर वि.सं. २०-२१ वीं
शती २१ आराधनादीपिका (गु.) चरणप्रभविजय वि.सं. २०-२१ वीं
शती २२ आचार्यस्नात्रविधि अज्ञातकृत लग. वि.सं. १६-१७
वीं शती २३ इन्द्रध्वजपूजा
लग. वि.सं. १८-२०
वीं शती २४ इन्द्रध्वजाविधान
शुभचन्द्र
लग. वि.सं. १८-२०
वीं शती २५ इन्द्रध्वजाविधान अज्ञातकृत लग. वि.सं. १८-२०
वीं शती
विश्वभूषण
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418/पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी साहित्य
२६ इन्द्रध्वजाविधान
आर्यिका ज्ञानमती वि.सं. २०-२१ वीं
शती
विद्याभूषणसूरि
लग. वि.सं. १७-१८ वीं शती
२७ ऋषिमण्डलमंत्रकल्प
पूजाविधान (सं.) २८ कर्मदहनपूजाविधि
रत्नानन्द
२६ कर्मदहनपूजाविधि
चन्द्रकीर्ति
३० कर्मदहनपूजाविधि
शुभचन्द्र
३१ कर्मदहनपूजाविधि
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
३२ कल्याणमन्दिरपूजा
विजयकीर्ति
३३ कल्याणमन्दिरव्रतोद्यापन
देवेन्द्रकीर्ति
३४ कल्याणमन्दिरव्रतोद्यापन
सुरेन्द्रकीर्ति
२५ कर्मनिर्झरव्रतपूजा (सं.)
गुलाबचन्द्र
शती
३६ गणधरवलयपूजा
शुभचन्द्र
३७ गणधरवलयपूजा
श्रुतसागर
लग. वि.सं. १४-१५ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती
३८ गणधरवलयपूजा
सकलकीर्ति
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/419
(हि.)
शती
३६ गणधरवलयपूजा अज्ञातकृत लग. वि.सं. १७ वीं ।
शती ४० गणधरवलयऋषिमंडलविधान राजमल पवैया वि.सं. २०-२१ वीं
शती ४१ गुरुअष्टपकारीपूजा (गु.)
वि.सं. २०-२१ वीं
शती ४२ चारित्रशुद्धिविधान
अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती ४३ चौदहसौबावनगणधरवलय शुभचन्द्राचार्य वि.सं. २०-२१ वीं
विधान (सं.) ४४ चौबीसतीर्थकरपूजनविधान कवि वृन्दावनदास वि.सं. २०-२१ वीं (सं.)
शती ४५ छयानवे क्षेत्रपालमण्डल आ. कुन्थुसागर वि.सं. २०-२१ वीं
पूजाविधान (सं.) ४६ जयादिदेवतार्चनविधान अज्ञातकृत लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती ४७ जिनपूजाविधिसंग्रह
वि.सं. २०-२१ वीं
शती ४८ | जिनपूजाविधिसंग्रह (प्रा.सं.) कल्याणविजयगणि वि.सं. २०-२१ वीं
शती ४६ जिनस्नात्रविधि (प्रा.) जीवदेवमूरि लग. वि.सं. १० वीं
शती ५० जिनपूजाप्रदीप संकलित वि.सं. २०-२१ वीं
शती ५१ जिनयज्ञकल्प
पं. आशाधर वि.सं. १२८५ ५२ जिनवरअर्चना (हि.) डॉ देवेन्द्रशास्त्री वि.सं. २०-२१ वीं
शती
शती
संकलित
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420/पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी साहित्य
५३ जिनेन्द्रपूजन (हि.) | ८४ जिनेन्दण्जासंग्रह (हि.)
शिवचरणलाल माणिक्यसिंहसरि
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
५५ जैनेन्द्रयज्ञविधि
श्रुतसागर
५६ जैनेन्द्रयज्ञविधि
अभयनन्दी
लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
५७ जैनपूजापद्धति
गुणचन्द्र
५८ जैनपूजाविधि
संकलित
शती
| ५६ जैनपूजांजली (हि.)
राजमल पवैया
६० दशलाक्षणिकपूजा
मल्लिभूषण
६१ दशलाक्षणिकपूजा
यशकीर्ति
६२ दशलाक्षणिकपूजा
सोमसेन
वि.सं. २०-२१ वीं शती लग. वि.सं. १७-१८ वीं शती लग. वि.सं. १८ वीं शती लग. वि.सं. १७-१८ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १८-२० वीं शती वि.सं. १८ वीं शती
६३ दशलाक्षणिकपूजा
श्रुतसागर
६४ दशलक्षणव्रतोद्यापन (सं.) रत्नकीर्ति
६५ दशलक्षणव्रतोद्यापन (सं.) विश्वभूषण
६६ दशलक्षणव्रतोद्यापन (सं.) जिनभूषण
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/421
६७ दशलक्षणव्रतोद्यापन (सं.) धर्मचन्द्र
लग. वि.सं. १४-१८ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
६८ दर्शनपूजनविधि
सं. शेखरचन्द
६६ देवपूजाविधि (प्रा.सं.) ७० नन्दीश्वरपूजा जयमाला
जिनप्रभसूरि । शुभचन्द्र
७१ नन्दीश्वरपूजा जयमाला
अनन्तकीर्ति
७२ नन्दीश्वरपूजा जयमाला
अज्ञातकृत
७३ नन्दीश्वरउद्यापन
रत्ननन्दी
७४ नन्दीश्वरउद्यापनपूजा
राजकीर्ति
वि.सं. १४ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
७५ नन्दीश्वरपंक्तिपूजा
अज्ञातकृत
७६ नन्दीश्वरपूजाविधान (सं.) अज्ञातकृत
७७ नमन और पूजन (हि.)
डॉ. सुदीप जैन
७८ नन्दीश्वरद्वीपबृहविधान
अज्ञातकृत
(सं.)
७६ |नवग्रहविधान (सं.हि.)
मनसुखसागर
शती
८० पद्मावतीदेवीसहस्रनाम विधान संक. पं.सुरेशकुमार वि.सं. २०-२१ वीं
(सं.)
शती
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422/पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी साहित्य
८१ पूजा पंचाशिका ८२ पूजा पंचाशिका
८३ पूजा पंचाशिका
८४ पूजापद्धति ८५ पूजा प्रकरण
हरिभद्रसूरि वि.सं. ८ वीं शती उदयसागरसूरि लग. वि.सं. १८ वीं
शती अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती अज्ञातकृत वि.सं. १५३४ आ. उमास्वाति (?) वि.सं. १ से ३ री
शती भद्रबाहु वि.सं. ७ वीं शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१६
८६ पूजा प्रकरण (सं.) ८७ पूजा विधान
नेमिचन्द्र
८८ पूजा विधान
वीं शती
८६ पूजाविधिप्रकरण ६० पूजाषोड़शक (सं.)
जिनप्रभसूरि धर्मकीर्ति
६१ पूजाष्टक
विजयचन्द्र
६२ पूजाष्टक ६३ पूजाष्टक ६४ पूजाष्टक
लक्ष्मीचन्द्र चन्द्रप्रभमहत्तर अज्ञातकृत
वि.सं. १४ वीं शती लग. वि.सं. १६ वीं शती लग. वि.सं. १६ वीं शती वि.सं. १७६३ [वि.सं. ११२७ लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
६५ पूजासंग्रह
रूपविजय
६६ पूजासंग्रह (हि.)
संकलित
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/423
६७ पूजाविधिसंग्रह (गु.)
पं.वीरविजय
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
६८ पूजासंग्रह (गु.)
बुद्धिसागरसूरि
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
६६ पूजासंग्रह
लब्धिविजय
शती
१०० पूजनपाठप्रदीप
संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
१०१ पूजावली (हि.)
संकलित
शती
१०२ पैंतालीसआगममहापूजन विधि रूपविजय
१०३|पंचमेरु नन्दीश्वर विधान पं. टेकचंद
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
(हि.)
१०४|पंचपरमेष्ठीविधान (हि.)
राजमल पवैया
शती
१०५ पंचामृताभिषेक पाठ (सं.) विमलसागर
१०६ बृहत्स्नात्रविधि
अज्ञातकृत
वि.सं. २०-२१ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १६ वीं
| १०७ बृहद्हवनविधि
नेमिचन्द्र
शती
१०८ बृहद्-पूजासंग्रह (हि.)
संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
१०६ बृहद्-विधानसंग्रह (हि.)
संकलित ...
वि.सं. २०-२१ वीं शती लग. वि.सं. १३ वीं
११० रत्नत्रयविधान
पं. आशाधर
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424/पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी साहित्य
शती
१११ राजप्रश्नीयसूत्र (प्रा.) उपांगसूत्र ११२ लघुपद्मावतीमंडलआराधना आ. कुन्थुसागर
विधि (हि.) ११३ विविधपूजासंग्रह (सचित्र) संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
शती
११४ विविधपूजासंग्रह (हि.)
संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
११५ विधानसंग्रह
संकलित
शती
११६ शांतिनाथपूजाविधानमण्डल कविशान्तिदास
(सं.) ११७ शान्तिविधान (हि.) राजमल पवैया
११८ शान्तिनाथविधान (हि.)
कविजिनदास
११६ शान्तिस्नात्रअठारअभिषेकादि गुणशीलविजय
विधि समुच्चय (सं.) १२० सम्मेदशिखरविधान (हि.) कवि जवाहरलाल
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती लग. वि.सं. १६वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
१२१ स्नात्रपूजा-कलशादिसंग्रह संकलित
१२२ सिद्धचक्रयंत्रोद्धार-पूजनविधि संकलित
१२३ सिद्धचक्रबृहत्पूजनविधि
संकलित
(सं.)
शती
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१२४ सिद्धचक्र - यन्त्रोद्धार (सं.) संकलित
बृहत्पूजनविधि:
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 425
१२५ सिद्धचक्रमण्डलविधान (सं.) संक. विमलसागर वि.सं. २०-२१ वीं
शती
१२६ सीमंधर जिनपूजा (गु.)
नीतिविजय
१२७ सुगंधदशमीव्रतविधान (हि.) कवि खुशालचन्द्र
१२८ सैतालीसशक्तिविधान (हि.) राजमल पवैया
२ अर्हत्प्रतिष्ठा
३ अर्हत्प्रतिष्ठासार
१२६ क्षेत्रपालमण्डलविधान
(सं.हि.)
१३० क्षेत्रपालपूजा
१३१ क्षेत्रपाल पूजाउद्यापन
१३२ क्षेत्रपाल पूजाजयमाला
शुभचन्द्र
१३३ ज्ञानपीठ-पूजांजली (हि.) संकलित
(ब) प्रतिष्ठा साहित्य
१ अंजनशलाकाप्रतिष्ठाकल्प : सं. कल्याणसागरसूरि वि.सं. २०-२१ वीं
(भाग-२) (गु.)
शती
भंवरलाल
कासलीवाल
विश्वसेनभट्टारक
धर्मचन्द्राचार्य
अपायर्य
वि.सं. १६६१
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
कुमारसेन
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
लग. वि.सं. १६-१८
वीं शती
लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती
लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
लग. वि.सं. २०-२१
वीं शती
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426/पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी साहित्य
४ अर्हत्प्रतिष्ठासार संग्रह नेमिचन्द्र लग. वि.सं. १६ वीं
शती ५ आचार्यप्रतिष्ठाविधि
अज्ञातकृत लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती ६ कल्याणकलिका (भाग १-३) कल्याणविजयगणि वि.सं. १६ वीं शती
७ गुरुमूर्तिप्रतिष्ठाविधि (सं.) संकलित
८ जिनबिम्बप्रवेशविधि
अज्ञातकृत
६ जिनबिम्बगृहप्रवेशविधि - अज्ञातकृत
१० जिनबिम्बपरीक्षाप्रकरण
अज्ञातकृत
(सं.)
११ प्रतिष्ठाकल्प
आ. अकलंक
१२ प्रतिष्ठाकल्प १३ प्रतिष्ठाकल्प १४ प्रतिष्ठाकल्प
चन्द्रसूरि विद्याविजय अज्ञातकृत
वि.सं. २०-२१ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. ८ वीं शती वि.सं. १२ वीं शती लग. १८-१६ वीं शती लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १८-१६ वीं शती लग. १६ वीं शती लग. १५-१८ वीं शती लग. १५-१६ वीं शती लग. १५-१८ वीं शती
१५ प्रतिष्ठाकल्पविधि
पद्मविजय
१६ प्रतिष्ठातिलक १७ प्रतिष्ठातिलक १८ प्रतिष्ठापद्धति १६ प्रतिष्ठापाठ
नरेन्द्रसेन ब्रह्मसूरि अज्ञातकृत कुमुदचन्द्र
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________________
२० प्रतिष्ठापाठ
२१ प्रतिष्ठापाठ
२२ प्रतिष्ठापाठ
२३ प्रतिष्ठाविधि
२४ प्रतिष्ठाविधि
२५ प्रतिष्ठाविधि
२६ प्रतिष्ठाविधि
२७ प्रतिष्ठाविधि
२८ प्रतिष्ठाविधि
२६ प्रतिष्ठाविधि
३० प्रतिष्ठाविधि विचार
३१ प्रतिष्ठाकल्प
३२ प्रतिष्ठाकल्प (गुज.)
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 427
(अंजनशलाकाविधि) ( तीन संशोधित प्रतियों एवं नवीन संस्करणों के साथ )
इन्द्रनन्दि
वसुनन्दि
जयसेन
वर्धमानसूरि
गुणरत्नसूरि
चन्द्रसूरि
हेमचन्द्राचार्य
३४ प्रतिष्ठातिलक
३५ प्रतिष्ठासारोद्धार (सं.)
तिलकाचार्य
नरेश्वर
अज्ञातकृत
| अज्ञातकृत
सकलचन्द्रगणि
३३ प्रतिष्ठाकल्पादि अत्युपयोगी सं. सोमचन्द्र भाई विधियाँ (भाग-२) (सं.)
हरगोविन्ददास
संकलित
आ. नेमिचन्द्र
पं. आशाधर
वि.सं. १४ वीं शती
के पूर्वाद्ध
लग. वि.सं. १५ वीं
शती
लग. वि.सं. १६ वीं
शती
लग. वि.सं. १५-१८
वीं शती
लग. वि. सं. १२ वीं
शती
वि.सं. १७ वीं शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
वि.स. १३ वीं शती
वि.सं. १२५०
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428/पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी साहित्य
| ३६ प्रतिष्ठासारसंग्रह
आ. वसुनन्दी
३७ बिम्बध्वजदण्डप्रतिष्ठाविधि तिलकाचार्य ३८ बिम्बप्रवेशस्थापनाविधि अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १५ वीं शती वि.सं. १२ वीं शती लग. वि.सं. १६-१८ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं
३६ वेदी प्रतिष्ठा
संकलित
शती
४० शान्तिस्नात्रविधिसमुच्चय
(भाग १-२) (गु.) ४१ शान्तिस्नात्रविधिसमुच्चय
(भाग १-२) (गु.) ४२ शान्तिस्नात्रविधिसमुच्चय
वीरशेखरसूरि । वि.सं. २०-२१ वीं
शती सं. विजयामृतसूरि वि.सं. २०-२१ वीं ।
शती अनु. धनरूपमल वि.सं. २०-२१ वीं
(हि.)
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/429
अध्याय १० पूजा एवं प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
अचलगच्छीय स्नात्रपूजादि संग्रह
___ यह रचना प्राचीन हिन्दी में है। इसमें गद्य और पद्य दोनों का सम्मिश्रण है। इस कृति में क्षमालाभजीकृत स्नात्रपूजा और ज्ञानसागरजीकृत द्विविध चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन और रोहिणी, गणधर आदि लगभग सोलह प्रकार की तपविधियों का संकलन हैं। इसके साथ ही सूतक विचार, श्री पार्श्वनाथ प्रभु के १०८ नाम, गहूलियाँ आदि भी संग्रहित हैं। यह कृति अचलगच्छीय परम्परा से सम्बन्धित है।' अध्यात्मपूजासंग्रह
____ यह संग्रह कृति है। इसमें नित्य एवं पर्व आदि के दिनों में उपयोगी पच्चीस नवीन पूजाओं का संकलन हुआ है। ये पूजाएँ अधिकतर हिन्दी पद्य में हैं। उन पूजाओं के नाम ये हैं१. नित्यनियम पूजा २. श्री देवशास्त्रगुरु पूजा (१) ३. श्री देवशास्त्रगुरु पूजा (२) ४. श्री षोड़शकारण पूजा ५. तीस चौबीसी पूजा ६. श्री विद्यमान बीसतीर्थंकर पूजा ७. श्री चौबीसजिन पूजा ८. श्री जिन पूजा ६. श्री सिद्ध पूजा (पहली) १०. श्री सिद्ध पूजा (दूसरी) ११. श्री पंचपरमेष्ठी पूजा १२. भगवतीजिनवाणी पूजा १३. श्री बाहुबली जिन पूजा १४. श्री अकंपनादि सातशतकमुनि पूजा १५. श्री विष्णुकुमार मुनि पूजा १६. श्री अकृत्रिम जिन चैत्यालय पूजा १७. श्री पंचमेरु जिनचैत्यालय पूजा १८. श्री नंदीश्वर जिनचैत्यालय पूजा १६. श्री दशलक्षणधर्म पूजा २०. श्री रत्नत्रय पूजा २१. श्री सम्यक्दर्शन पूजा २२. श्री सम्यक्ज्ञान पूजा २३. श्री सम्यक्चारित्र पूजा २४. श्री क्षमावाणी पूजा २५. श्री पंचबालयति पूजा।
यह ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है।
' यह निर्णयसागर प्रेस, मुंबई सन १८६७ में प्रकाशित हुई है। २ यह कृति वी.सं. २५०८, नेमीचन्द्र जैन परिवार ८, वीरनगर जैन कालोनी दिल्ली ने प्रकाशित की है।
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अर्हदभिषेकविधि
यह रचना वादीवेताल श्री शान्तिसूरि ने की है।' इस ग्रन्थ पर शीलाचार्य ने पंजिका लिखी है। यह कृति संस्कृत के ६८ श्लोकों में रची गई हैं। इसका गुजराती भाषान्तर हो चुका है। वह लालचन्द भगवानजी गाँधी ने किया है। यह रचना पढ़ने जैसी है। इसमें अभिषेक विधि का प्राचीनतम स्वरूप प्रस्तुत हुआ है। इसका रचनाकाल विक्रम की १० वीं शती के आस-पास का सिद्ध होता है।
यह कृति जिनस्नात्रविधि के साथ प्रकाशित है।
इस कृति की विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार है - यह कृति पाँच पों में विभक्त है। इन पों में क्रमशः १०, १६, ३०, १८ एवं २४६८ श्लोक हैं। इस कृति का अपरनाम 'जिनाभिषेकविधि' है।
इसके प्रथम पर्व में अर्हत (जिन प्रतिमा के) स्नात्र को मंगल लक्ष्मी कारक माना है साथ ही अर्हत् स्नात्र के लिए उपयोग में आने वाले द्रव्यों का उल्लेख किया है। अर्हदभिषेक का फल-सुख, संपत्ति और मोक्ष बताया है। तीर्थकरों के जन्म प्रसंग को लेकर देवों द्वारा मेरुपर्वत पर जो अभिषेक किया जाता है उसका स्मरण किया गया है। उस समय के भक्तिवन्त देवों का वर्णन किया गया है। इसके साथ यह भी उल्लेख किया है सर्व प्रकार की रक्षा करने के लिए और विरोध को दूर करने के लिए अर्हदभिषेक का विधान किया जाता है तथा यह अभिषेक कृत्य तीर्थंकर देवों का मुख्य विधान होने के कारण एवं परम्परागत आचरण होने के कारण इसका अनुकरण अवश्य किया जाना चाहिए। द्वितीय पर्व में जिनबिम्ब को वेदी पर स्थापित करने का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही स्नात्र करने वाले श्रावक के गुण एवं वस्त्रादि धारण की विधि बतलायी गयी है। इसके अनन्तर दशदिक्पालों को आमन्त्रित करने की विधि का उल्लेख किया है।
तृतीय पर्व में जिनप्रतिमा के साक्षात् स्वरूप का वर्णन करके धूमावली खेना, जिनबिम्ब के मस्तक पर पुष्प का आरोपण करना, जल स्नात्र करना, विविध स्नात्रों के बीच-बीच में सुगन्धित धूप देना, घृत-खीर-दही और दूध की धाराओं से स्नपन क्रिया करना, इत्यादि का निर्देश दिया गया है। इसके आगे गंगा-सिंधु आदि नदियों का परिचय पूर्वक स्मरण और आह्वान किया गया है। तदनन्तर पद्म आदि महाद्रहों में निवास करने वाली छ: देवियों को अपने-अपने स्थान से जिनाभिषेक हेतु जल लाने के लिए आमंत्रित किया गया है। पुनः जिनाभिषेक (जिनबिम्ब का
' यह कृति वि.सं. २०२१, जैन साहित्य विकास-मण्डलम् वीलेपारले-मुंबई, ५६ से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/431
विशेष स्नात्र करने) के लिए प्रभास, वरदान, मागध आदि तीर्थों के अधिपतियों का आह्वान करने सम्बन्धी वर्णन है। इसके अन्त में प्रशस्त नदियाँ, समुद्र और तीर्थों के जल की घोषणापूर्वक साक्षात् तीर्थंकरों के अभिषेक का स्मरण करते हुए जिन-स्नात्र-विधि करने के लिए उपदेश दिया गया है।
चतुर्थ पर्व में जिनबिम्ब के लिए सर्वोषधि स्नान का वर्णन है। कुंकुम-चन्दनादि सौगंधिक स्नात्र के प्रसंग में मज्जन जल का उल्लेख है। इसी अनुक्रम में जिनप्रतिमा, जिनअभिषेक आदि के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए निर्देश दिया गया है कि जो जिनप्रासाद, जिनबिंब, जिनपूजा, जिनयात्रा, जिनस्नात्र आदि के विषय में मिथ्या-प्ररूपणा करता है वह मोक्षमार्ग को अवरुद्ध कर लेता है तथा जो जीव अभिषेक आदि महोत्सव को भलीभाँति सम्पन्न करता है वह अरिहन्त के गुण-विशेष को जानने वाला होता है।
इसमें यह भी वर्णित है कि कितने ही जीव चैत्यालय के दर्शन करने से, कितने ही वीतराग बिंब के दर्शन करने से, कितने ही पूजातिशय को देखकर तथा कितने ही जीव आचार्यादि के उपदेश से बोध को प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत विषय में यह भी कहा गया है कि जिनभवन, जिनबिंब और जिनपूजा के संबंध में यथार्थ उपदेश देने वाला तीर्थंकरनामगोत्र का उपार्जन करता है। साथ ही जो अरिहंत परमात्मा की धन, रत्न, सुवर्ण, माला, वस्त्र, विलेपन आदि द्वारा पूजा करता है वह जीव जन्म-मरण की परंपरा का नाश कर देता है।
पंचम पर्व में सभी प्रकार के धान्य, सभी प्रकार के पुष्प, पाक, शाक, फल, दधि आदि के द्वारा बलि विधान करने का उल्लेख किया है। इसके साथ ही कई महत्त्व के बिन्दु निर्दिष्ट किये गये हैं जैसे कि जिनबिंब के सम्मुख बलि के तीन पुंज रखने चाहिये। तीर्थकर परमात्मा अद्वितीय दीप के समान है अतः मंगलदीपक करना उचित है। तीर्थकर प्रभु की आरती कल्याण के लिए की जाती है। अरिहंत बिंब का जल-स्नपन ताप को हरने वाला होता है। नमक (लूण) अवतारण श्रेय के लिए है।
___इसी क्रम में और भी निर्देश हैं कि दिक्पालों को बलि प्रदान करते समय एवं जिन मंदिर की प्रदक्षिणा करते समय शांति की उद्घोषणा करनी चाहिए। अर्हदभिषेक की विधि सम्पन्न होने पर जिनचैत्य का वन्दन करने के लिए आह्वान करना चाहिये। पुष्पों और धूपादि के द्वारा दिक्पालों एवं अन्य देवों का सम्मान करके उन्हें स्व-स्व के अधिवास में भेजना चाहिये।
__ ग्रहपीड़ा को उपशांत करना हो तो नवग्रहों से मंडित जिनप्रतिमा का स्नात्र करना चाहिये। पूजित हुए बलवान ग्रह अत्यंत बलवान् बन जाते हैं, दुर्बल
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ग्रह सौम्य बन जाते हैं तथा मध्यस्थ ग्रह बलशाली बन जाते हैं। यहाँ उल्लेख है कि अर्हत् की स्नात्रविधि करने के बाद अनुक्रम से ग्रहों को अभिषेक करना चाहिये। उसके बाद संघ अथवा गच्छ की पूजा करनी चाहिये अथवा मुनियों का पूजन करना चाहिये। अन्त में बताया गया है कि जो जीव पुण्यशाली होता है वही प्रशंसनीय, आयुष्यकारक, यशवृद्धिदायक, समृद्धिकारक और सुख-परंपरा प्रदायक जिनाभिषेक विधि को सम्पन्न करता है ।
निष्कर्षतः इस रचना में अर्हदभिषेक का प्राचीनतम स्वरूप दृष्टिगत होता है जो किंचिद् परिवर्तन के साथ वर्तमान परम्परा में भी प्रचलित है। इस कृति की प्रत्येक गाथाएँ और श्लोकों का भावार्थ पढ़ने जैसा है। प्रत्येक स्नात्र का भाववाही वर्णन किया गया है। इस कृति के अन्त में परिशिष्ट विभाग दिया गया है जो पाँच भागों में विभक्त है। पंचम परिशिष्ट में जिनप्रभसूरिरचित देवपूजाविधि दी गई है। अभिषेकविधि
यह रचना प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्धित प्रतीत होती है।' इसके लिए 'बृहचन्द्रटीकाभिषेक' नामक कृति को देखने का निर्देश किया है। यह कृति पं. आशाधर की बतायी है। इस नाम की एक कृति और है वह अज्ञातकृत है। अभिषेक पूजा
यह रचना अधिकांश हिन्दी पद्य में है। मूलतः पूज्यपादस्वामी द्वारा रचित अभिषेक पाठ का गणिनीज्ञानमती जी ने हिन्दी पद्यानुवाद किया है। यह पद्यानुवाद काही संग्रह है। इसमें मुख्य रूप से नवदेवता पूजन, सिद्धपरमेष्ठी पूजा, बाहुबली पूजा, शान्ति-कुंथु-अरतीर्थंकर पूजा, महावीर पूजा, चौबीसजिन पूजा, निर्वाणक्षेत्र पूजा के अभिषेक, पूजा और पाठ दिये गये हैं । प्रस्तुत पूजाओं के प्रारंभिक और अन्त्य कृत्य भी बताये गये हैं। यह कृति दिगम्बर परम्परा के अनुसार रची गई हैं साथ ही नित्यप्रति जिनेन्द्रदेव का अभिषेक - पूजन करने वाले साधकों के लिए अत्यंत उपयोगी है।
अर्हत्अभिषेक विधि
यह रचना संस्कृत में है। इसमें अरिहन्त प्रतिमा की अभिषेक विधि का वर्णन हुआ है। यह कृति हमें उपलब्ध नहीं हो पाई है। अतः विशेष चर्चा करना संभव नहीं है।
9
जिनरत्नकोश पृ. १४
२
प्रका. दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर (मेरठ)
३ जिनरत्नकोश पृ. १६
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/433
अर्हदेवमहाभिषेकविधि
यह रचना अज्ञातकर्तृक है।' कृति नाम से ज्ञात होता है कि इसमें अरिहन्तबिम्ब की अभिषेक विधि विस्तार के साथ प्रतिपादित हुई है। अर्हत्भक्तिविधान
इसके कर्ता पं. आशाधर है। इसमें अरिहन्त परमात्मा की भक्ति का वर्णन होना चाहिए। हमें इसकी मूल कृति प्राप्त नहीं हुई हैं। अष्टकर्मचूर्णिपूजा
यह रचना दिगम्बर मुनि गुणभूषण की है। इसमें अष्टकर्म को चूर करने की पूजा विधि का उल्लेख हुआ है ऐसा कृति नाम से अवगत होता है।
मूल कृति हमारे देखने में नहीं आई है। अतः इसके बारे में विशेष जानकारी देना असम्भव है। अष्टविधपूजन
इसमें अष्टप्रकारी पूजा विधान की चर्चा है। हमें यह रचना भी प्राप्त नहीं हुई है। अष्टापदतीर्थपूजा
यह पुस्तक गुजराती गद्य-पद्य में निबद्ध है। मूलपूजा के रचयिता कवि दीपविजयजी है। यह कृति अर्थ सहित प्रकाशन में आई है। जैन ग्रन्थों में पाँच प्रकार के लोकोत्तर स्थावर तीर्थ कहे गये हैं उनमें 'अष्टापदतीर्थ' का भी नाम है। वर्तमान में यह प्रश्न बहुत चर्चित है कि अष्टापद तीर्थ कहाँ है? जैन और जैनेत्तर उसे हिमालय के एक किनारे मानते हैं परन्तु यह मात्र अनुमान है।
आगमिक दृष्टि से क्षेत्रसमास में कहा गया है कि जम्बूद्वीप जगती के दक्षिण किनारे से उत्तर में और शाश्वत वैताढ्य पर्वत से दक्षिण भाग में मध्य आर्य खंड में अयोध्या नगरी आई हुई है उसके नजदीक में अष्टापद तीर्थ मूल स्वरूप में है। इस प्रकार दक्षिण द्वार से यह नगरी एक सौ चौदह योजन और
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'जिनरत्नकोश पृ. १६ २ वही पृ. १६ ३ वही पृ. १८
वही पृ. १६ इसका प्रकाशन वि.सं. २०१४ में, श्री जैन साहित्य वर्धक सभा, अहमदाबाद से हुआ है। क्षेत्रसमास गा. ८८
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434/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
ग्यारह कला दूर है। दीपविजय रचित जलपूजा की ढाल में कहा गया है कि श्री सिद्धाचलतीर्थ से अष्टापद तीर्थ एक लाख पंचासी हजार कोश दूर है। भले ही यह तीर्थ वर्तमान में हमको प्रत्यक्ष न हों, किन्तु इसके उल्लेख और इससे सम्बन्धित कई घटनाएँ शास्त्रों में देखने-सुनने को मिलती हैं।
ग्रन्थों में उल्लेख हैं कि भरतचक्रवर्ती ने ऋषभदेव की निर्वाणभूमि (अष्टापद तीर्थ) पर चौबीस बिंब युक्त सिंहनिषद्या नाम का जिनमंदिर बनवाया था, वह ऊँचाई में तीन कोश और विस्तार में चार कोश का था। श्री गौतमगणधर ने अष्टापद पर्वत की यात्रा कर वहाँ 'जगचिंतामणी' चैत्यवंदन की रचना की तथा पन्द्रह सौ तीन तापसों को प्रतिबोध दिया। 'सिद्धाणंबुद्धाणंसूत्र की अन्तिम गाथा भी इस तीर्थ की सिद्धि में प्रमाणभूत है।
यह ज्ञातव्य रहें कि अष्टापद तीर्थ की रक्षा के लिए भरत चक्रवर्ती ने योजन-योजन प्रमाणवाले आठ पगथिये दंडरत्न से निर्मित करवाये, उस कारण इस तीर्थ का गुण निष्पन्न नाम अष्टापद है। आचार्य हेमचंद्र रचित श्री ऋषभदेव के चरित्र में इस तीर्थ को 'आठ आपदाएँ दूर करने वाला' कहा गया है और इस प्रसंग में वज्रस्वामी, कंडरीक, पुंडरीक, तिर्यग्नन्द, भवदेव, प्रतिवासुदेव रावण आदि के कथानक कहे गये हैं।
उपर्युक्त विवरण से यह ज्ञात होता है कि यह कृति अष्टापद तीर्थ और उसकी महिमा से सम्बन्धित है। साथ ही अष्टप्रकारी पूजा के साथ १४ ढालों में रचित है, जिसमें अष्टापदतीर्थ की प्राचीनता आदि का सुन्दर विवेचन हुआ है। अष्टादश-अभिषेक विधि
___ यह कृति संस्कृत पद्य एवं गुजराती गद्य मिश्रित भाषा में निबद्ध है।' इसका संकलन जशवंतलाल सांकलचंद शाह (विधिकार) ने किया है। जैन परम्परा के मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में प्रस्तुत विधान का प्रचलन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। वस्तुतः यह विधान नवीन प्राचीन प्रतिमाओं की अशुद्धि या आशातनादि का निवारण करने के प्रयोजन से किया जाता है इस कृत्य को सम्पन्न करने हेतु स्वर्ण, पंचरत्न, कषायचूर्ण, मंगलमृत्तिका, पंचामृत, पुष्प, चंदन, कपूर आदि पृथक्-पृथक् श्रेष्ठ वस्तुओं द्वारा १८ प्रकार का स्नात्र जल तैयार किया जाता है।
साक्षात् तीर्थकर परमात्मा के जन्मकल्याणक महोत्सव पर ६४ इन्द्र एवं अगणित देव-देवीयाँ अपने परिवार के साथ मेरुपर्वत के ऊपर भव्यातिभव्य
' यह प्रकाशन कहान पब्लिकेशन्स, अलीसब्रीज, पो.ओ. के पास, अहमदाबाद से वि.सं. २०५२ में हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 435
अभिषेक करते हैं। उस समय क्षीरसमुद्र, गंगानदी, सिंधुनदी, पद्मादिसरोवर से उत्तम जल लाया जाता है तथा हिमवंतपर्वत, मेरूपर्वत आदि स्थानों से सुगंधी औषधियां लायी जाती है और उन जलौषधियों के द्वारा अभिषेक जल तैयार किया जाता है वर्तमान में भी नूतन जिनबिम्बों की प्राणप्रतिष्ठा का विधान होता है तब जन्मकल्याण महोत्सव के दिन अठारह अभिषेक का विधान किया जाता है अतः स्पष्ट है कि अठारह अभिषेक का विधान जन्मकल्याणक से सम्बन्धित है।
यह अनुष्ठान सामूहिक रूप से सम्पन्न होता है। सामूहिक आराधना में भावोल्लास की वृद्धि अनन्तगुणा होती है। इससे सम्यग् दर्शन का गुण निर्मल बनता है। कितने ही जीव अभिषेक करते-करते भावोल्लास के माध्यम से ग्रन्थि भेद करके मोक्ष का बीजरूप समकित गुण को प्राप्त कर लेते हैं।
वर्तमान में प्रायः जिनालय की वर्षगाँठ के उत्सव पर अथवा वर्षभर में किसी विशेष प्रसंग पर एक बार यह विधान अवश्य ही किया या करवाया जाता है। इस सम्बन्ध में सामान्य मान्यता यह है कि अठारह अभिषेक का अनुष्ठान करने से मन्दिर का वातावरण पवित्र बन जाता है आशातनाओं से दूषित प्रतिमाएँ निर्मल बन जाती है एवं मूर्ति का मैलापन आदि भी दूर हो जाता है। इसमें यथार्थता कितनी है ? यह आचार्यों और विधिकारकों के लिए सोचनीय है ?
संक्षेपतः इसमें अठारह प्रकार के अभिषेक की क्रमिक विधि का निरूपण किया गया है। अष्टादश अभिषेकों में प्रयुक्त होने वाली सामग्री की सूचि भी दी गई हैं तथा अन्त में चार प्रकार की सचित्र मुद्राएँ उल्लिखित हैं जो इस विधान में अनिवार्य रूप से प्रयुक्त होती हैं।
अष्टादश- अभिषेक बृहद्विधिः
यह कृति श्री शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय ( खण्ड - ३) में उपलब्ध है। यह मन्त्र एवं श्लोक प्रधान रचना है। इसमें अठारह अभिषेक विधि गुजराती भाषा में वर्णित है। यद्यपि प्रस्तुत विधि का विवरण कई ग्रन्थों में उपलब्ध होता है तथापि इस कृति में अत्यन्त विस्तार के साथ उल्लिखित हुई है।
वस्तुतः यह विधान शुद्धिकरण की अपेक्षा से किया जाता है। साथ ही नवीन बिम्बों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाते-ले जाते हुए किसी प्रकार की आशातना हुई हों, तो उसका निवारण करने के लिए और जिनालय को पवित्रतम बनाये रखने के उद्देश्य से भी किया जाता है। सामान्यतया इस विधान में अठारह प्रकार की भिन्न-भिन्न औषधियों, वनस्पतियों, सुगन्धित पदार्थों पवित्र जलों के द्वारा बिम्ब का अभिषेक किया जाता है- जैसे कि
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436/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
पहला अभिषेक पुष्पांजलि मिश्रित जल द्वारा किया जाता है। दूसरा अभिषेक सुवर्ण चूर्ण से मिश्रित जल का किया जाता है। तीसरा अभिषेक पाँच प्रकार के रत्न चूर्ण मिश्रित जल से किया जाता है। चौथा अभिषेक कषाय चूर्ण मिश्रित जल द्वारा किया जाता है। पाँचवा अभिषेक नदी-पर्वतादि मिट्टी से युक्त जल द्वारा किया जाता है। छट्ठा अभिषेक दूध-दही आदि पंचगव्य से युक्त जल द्वारा किया जाता है। सातवाँ अभिषेक सदौषधि वर्ग नामक औषधियों के चूर्ण से किया जाता है। आठवाँ अभिषेक मूलिका नामक औषधियों से मिश्रित जल द्वारा किया जाता है। नवमाँ अभिषेक प्रथम वर्गाष्टक वाली औषधियों के चूर्ण से किया जाता है। दसवाँ अभिषेक द्वितीय वर्गाष्टक नामवाली औषधियों से मिश्रित जल द्वारा किया जाता है। ग्यारहवाँ अभिषेक सर्वोषधि नामक औषधि चूर्ण संयुक्त जल से किया जाता है। बारहवाँ अभिषेक कुसुम युक्त जल का किया जाता है। तेरहवाँ अभिषेक कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्यों के जल द्वारा किया जाता है। चौदहवाँ अभिषेक वासचूर्ण का किया जाता है। पन्द्रहवाँ अभिषेक चन्दन रस मिश्रित जल द्वारा किया जाता है। सोलहवाँ अभिषेक केसर मिश्रित पवित्र जल से किया जाता है। सतरहवाँ अभिषेक विविध तीर्थों के मिश्रित जल से किया जाता है। अठारहवाँ अभिषेक कपूर जल से किया जाता है।
प्रत्येक अभिषेक के अन्त में वाद्यनाद, धूप का उत्पाटन एवं पुष्प का आरोपण अवश्य करना चाहिये। अष्टप्रकारी पूजाविधि गीत और कथाएँ
यह कृति लघु आकार में तथा गुजराती गद्य-पद्य में निबद्ध है। इसका आलेखन गुणरत्नसूरिजी ने किया है। इस कृति का प्रकाशन वर्तमान की आम जनता को ध्यान में रखकर किया गया है। इसमें वर्णित प्रत्येक पूजा तत्सम्बन्धी गीतों, कथानकों और चित्रों से सहित है। प्रस्तुत पूजा की परम उपयोगी कृति यही देखने में आई है। बालकों की दृष्टि से यह और भी उपयोगी प्रतीत होती है। परमात्मा के उपासकों एवं परमात्मा के प्रति भक्ति बढ़ाने वाले आराधकों को सामूहिक प्रयोग के साथ इसका पठन करना चाहिए। अष्टोत्तरीस्नात्रविधि
इस नाम की दो रचनाएँ है। दोनों रचनाएँ अज्ञातकर्तृक है। एक रचना 'बृहत्स्नात्रविधि' के नाम से प्रसिद्ध है। उस पर वृत्ति भी लिखी गई है। इसमें १०८ बार स्नात्र करने की विधि वर्णित है। जैन परम्परा में मंगलकारी उत्सव
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/437
प्रसंगों के अवसर पर अष्टोत्तरीस्नात्रविधि करने का विशेष प्रचलन है।' अष्टाहिक व्रतोद्यापनपूजाविधि
___ इस नाम की तीन कृतियाँ मिलती हैं एक कृति मुनि शुभचन्द्र की है, दूसरी रत्ननन्दि की है और तीसरी अज्ञातकर्तृक है। इसमें अष्टाहिक उत्सव एवं उसके उद्यापन की पूजा विधि का उल्लेख हुआ है। इतनी बात कृति नाम से स्पष्ट हो जाती है। आदिनाथपूजा
___ यह कृति गुजराती पद्य में है। इसकी रचना अचलगच्छीय गुणसागरसूरी ने की है। इसमें आदिनाथ प्रभु की पंच कल्याणक पूजा एवं उसकी विधि का उल्लेख है। यह पूजा दश ढ़ालों में रची गई है। आवश्यकपूजासंग्रह
__ यह पूजा-पद्धति से सबन्धित एक संकलित कृति है। यह दो भागों में विभक्त हिन्दी की पद्यत्मक रचना है।
इसके प्रथम भाग में निम्न पूजाएँ वर्णित की गई हैं - १. श्री स्नात्र पूजा- देवचन्द्रजीकृत, २. श्री अष्टप्रकारी पूजा ३. श्री नवपद पूजादेवचन्द्रजीकृत ४. श्री पंचपरमेष्ठी पूजा- सुगुणचंद्रोपाध्यायकृत ५. श्री विंशतिस्थानक पूजा- जिनहर्षसूरिकृत ६. श्री पंचज्ञान पूजा- सुगुणचंद्रोपाध्यायकृत ७. श्री सतरहभेदी पूजा- उपाध्याय साधुकीर्तिगणिकृत ८. श्री बारहव्रत पूजापण्डित कपूरचन्दजीकृत ६. श्री सिद्धाचलनवाणुं पूजा- वाचक अमरसिन्धुरकृत १०. श्री पंचकल्याणक पूजा- श्री बालचन्द्रोपाध्यायकृत ११. श्री अन्तराय कर्मनिवारण पूजा- आचार्य कवीन्द्रसागरजी कृत
इस कृति के द्वितीय भाग में वर्णित पूजाएँ उपाध्याय मणिप्रभसागरजी द्वारा रचित हैं। उनके नाम ये हैं - १. श्री वास्तुक पूजा २. श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा ३. श्री नेमीनाथ पंचकल्याणक पूजा ४. श्री आदिनाथ पंचकल्याणक पूजा ५. श्री सतरहभेदी पूजा ६. श्री विंशतिस्थानक पूजा ७. श्री ब्रह्मचर्य पूजा ८. श्री द्वादशव्रत पूजा
' जिनरत्नकोश पृ. २० २ यह कृति श्री जैन साहित्य प्रकाशन समिति, कोलकाता से प्रकाशित है।
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438 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
आराधना दीपिका
यह संकलित कृति ' है तथा गुजराती गद्य-पद्य में निबद्ध है। इसमें विविध-विषयों का उपयोगी संग्रह है। इसमें विविध विषयों का उपयोगी संग्रह हैं। इस पुस्तक में विधि-विधानों की दृष्टि से अग्रलिखित विषयों का निरूपण किया गया है।
ये हैं १. जिन मंदिर में प्रवेश करने की विधि २. जिनपूजा विधि ३. चैत्यवंदन विधि ४. सिद्धचल तीर्थ की भावयात्रा का विधान ५. बीस स्थानक तप, जिनकल्याणक तप, नवपदआराधना तप आदि की विधियाँ भी इसमें वर्णित हैं। आचार्यस्नात्रविधि
यह रचना उपलब्ध नहीं है तथापि कृति नाम से ज्ञात होता है कि इसमें आचार्य की प्रतिमा का स्नात्र विधान कहा गया है।
इन्द्रध्वजपूजा - यह रचना विश्वभूषण भट्टारक की है। इन्द्रध्वजाविधान - इसके कर्त्ता शुभचन्द्र है।
इन्द्रध्वजाविधान - यह अज्ञातकृतक है।
इन्द्रध्वजाविधान इसकी रचना दिगम्बरीय आर्यिका ज्ञानमती जी ने की है। यह विधान' हिन्दी पद्य में हैं किन्तु इस ग्रन्थ रचना का मूल आधार संस्कृत कृति ही रही हैं। इस महाविधान में कुल ५० पूजाएँ हैं। इस इन्द्रध्वज विधान में सुमेरु पर्वत से प्रारंभ कर तेरहवें रुचकवर पर्वत पर्यन्त मध्यलोक के सर्व चैत्यालयों की पूजा की जाती है इसमें कुल ४५८ चैत्यालय हैं। अतः ४५८ अर्ध्य हैं, ६८ पूर्णार्थ्य हैं और ५१ जयमालाएँ हैं। इसमें पूजाओं का क्रम मूल ग्रन्थ के आधार अनुसार है। मध्यलोक के पाँचों मेरुओं की पूजाओं में एक - एक समुच्चय और भद्रसाल, नन्दन, सोमनस एवं पांडुक इन चार-चार वन सम्बन्धी पृथक्-पृथक् चार-चार पूजाएँ हैं। ऐसे एक-एक मेरू सम्बन्धी पाँच-पाँच पूजाएँ होने से पूजाओं की संख्या ७० भी हो जाती है। किन्तु उनकी जयमाला एक होने से उन पाँच-पाँच पूजाओं को एक-एक ही माना गया है । अतः ५० पूजाएँ ही मानी गई हैं। अन्त में एक बड़ी जयमाला है जो
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१
इस पुस्तक का संकलन प्रेमसूरी जी के शिष्य चरणप्रभविजय जी ने किया है। इसका प्रकाशन 'श्री आराधना साहित्य प्रकाशन समिति, अहमदाबादबाद से हुआ है।
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जिनरत्नकोश पृ. २६
३ यह ग्रन्थ वी.सं. २५२६ में, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर' से प्रकाशित है। यह ११ वाँ संस्करण है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/439
सर्व चैत्यालयों के उपसंहार रूप में पढ़ी जाती है।
प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्द्रध्वज विधान के बारे में उद्धृत उल्लेख यह हैं कि - इन्द्रों ने जहाँ-जहाँ पर पूजाएँ की, वहाँ-वहाँ पर अर्थात् उन-उन चैत्यालयों पर वे ध्वजा आरोपित करते गये, इसलिए इस विधान का इन्द्रध्वज यह नाम सार्थक है। यहाँ यह जानना अनिवार्य है कि इस ग्रन्थ की रचना का आधार भले ही संस्कृत कृति रही हों फिर भी यह रचना मौलिक है। इसमें तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि के आधार से प्रत्येक पर्वतों के चैत्यालयों के साथ-साथ वे पर्वत किस क्षेत्र में हैं? कितने लम्बे चौडे हैं? उनका क्या वर्ण हैं? उन पर कितने क्रूट हैं? इत्यादि का वर्णन बहुत ही सरल व सुन्दर ढंग से किया गया है।
मूल संस्कृत ग्रन्थ अधिकतर अनुष्टुप छन्द में है और उसमें पूर्वोक्त विवरण अति संक्षेप में है। जबकि इस पद्यानुवाद ग्रन्थ की रचना चालीस प्रकार के छन्दों में की गई है। प्रायः जयमालाएँ नए-नए छन्दों में है। कहीं-कहीं जयमालाओं में उन-उन चैत्यालयों के स्थान पर प्रकाश डाला गया है तो कहीं पर प्रभु का गुणगान किया गया है, तो कहीं पर अपने संसार के दुखों की गाथा प्रभु के सामने रखी गयी है और कहीं पर भक्ति के साथ-साथ अध्यात्म व वैराग्य का स्त्रोत उमड़ पड़ा है।
इसमें सर्वप्रथम मंगल स्तुति करते हुए सिद्धों को नमस्कार किया है. फिर ऋषभदेव, शांतिनाथ और महावीर प्रभु को वंदना की गई है। पुनः विधान रचना का उद्देश्य बताकर उसका माहात्म्य दर्शाया गया है। तदनन्तर पूजक का सबसे पहला कर्त्तव्य क्या है? इसका संकेत करके मंडल रचना की विधि बतायी गई है और मंडल पर आरोपित की जाने वाली ध्वजाओं का वर्णन किया गया है। पुनः पूजन प्रारम्भ करने के पूर्व सकलीकरण' आदि विधान अवश्य करने चाहिये एवं पूजन विधान के पूर्ण होने पर हवनविधि करनी चाहिए ऐसा आदेश दिया है। इसमें ध्वजाओं का जो वर्णन किया गया है वह जानने योग्य हैं। हम विस्तार भय से उसका उल्लेख नहीं कर रहे हैं।
पुनः इस 'इन्द्रध्वज विधान' के प्रारम्भ में मंगलस्त्रोत, पुष्पांजलि करके 'देवागम विधि' के द्वारा देवों का आहान किया जाता है। दिशा-विदिशाओं में आठ महाध्वजाएँ एवं मण्डल पर ४५८ ध्वजाएँ विधिवत्
' इस विधान के प्रारम्भ में की जाने वाली क्रियाएँ महाभिषेक, यज्ञ, दीक्षाविधि, इन्द्रप्रतिष्ठाविधि, सकलीकरण, नवदेवतापूजन, अन्त्यपूजाविधि, हवनविधि एवं जाप्यानुष्ठान आदि के लिए 'मण्डलविधान एवं हवन विधि' नामक पुस्तक देखनी चाहिए, जो हस्तिनापुर से प्रकाशित है।
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आरोपित की जाती है। इस महाविधान में ये दोनों विधियाँ मुख्य होती हैं इसी से 'इन्द्रध्वज' यह नाम रखा गया है।
इसके अनन्तर सिद्धपूजा की जाती है। तदनन्तर सर्वमध्यलोक संबंधी अकृत्रिम चैत्यालयों की समुच्चय पूजा की जाती है। उसके बाद सुदर्शनमेरु की पूजा का प्रारम्भ कर क्रमशः से मध्यलोक के सर्व अकृत्रिम चैत्यालयों की पचास पूजाएँ की जाती है। यहाँ विस्तार भय से ५० पूजाओं का नाम निर्देश भी नहीं कर रहे हैं।
निष्कर्षतः इन्द्रध्वज विधान एक अमूल्य कृति है। किन मन्दिरों पर कौनसे चिह वाली एवं कितने प्रमाणवाली ध्वजाएँ होनी चाहिए इसका भी इसमें सुन्दर वर्णन किया गया है। ऋषिमण्डलमंत्रकल्प पूजाविधान
इस पूजा की रचना विद्याभूषणसूरि एवं गुणनन्दिमुनि ने की है।' यह विधान संस्कृत की गद्य-पद्य शैली में गुम्फित है। इसकी रचना हिन्दी पद्य में भी हुई है। हिन्दी में रचा गया यह पूजा विधान संस्कृत की रचना से अधिक विस्तारवाला है। हिन्दी पद्य की रचना श्री लाल जैन ने की है। यह कृति दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है। यहाँ संस्कृत एवं हिन्दी में रचित दोनों कृतियों पर विचार करेंगे। इन दोनों रचनाओं का अवलोकन करने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि कालक्रम के आधार पर विधि-विधानों में कैसे परिवर्तन आते हैं?
इस कृति में संस्कृत अंश के आधार पर श्री ऋषिमण्डल पूजा के सम्बन्ध में यह निर्देश है कि सर्वप्रथम यंत्र तैयार करते हैं फिर विधिपूर्वक मंत्र तैयार किये जाते हैं। उसके बाद यंत्र-मंत्र की साधना की जाती है। फिर क्रमशः चतुर्विंशति तीर्थंकरों, अष्टबीजाक्षरों, पंचपरमेष्ठी, भावनेन्द्र आदि देवों, श्री धृति आदि चौबीस प्रकार की देवियों का मंत्रोच्चारण पूर्वक पूजन किया जाता है। पूजा की समाप्ति होने पर आमन्त्रित देवी-देवताओं का विसर्जन किया जाता है।
प्रस्तुत कृति में दशदिक्पाल पूजा, क्षेत्रपाल पूजा, मंत्र साधन विधि भी दी गई हैं। इसके साथ ही इस विधान से सम्बन्धित ऋषिमंडलयंत्र, तीर्थकर कुंड, गणधरकुंड, केवलिकुंड, अग्निमंडल, नाभिमंडल, चन्द्रप्रभामंडल, वरुणमंडल, वायुमंडल, प्रद्मप्रभामंडल, पृथ्वीमंडल, जलमंडल और आकाशमंडल के चित्र दिये गये हैं।
' यह कृति वी.सं. २४८४ में, श्री शांतिसागर जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था, श्री महावीरजी (राज.) ने प्रकाशित की है।
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हिन्दी की पद्यमय कृति में ऋषिमण्डल पूजाविधान का स्वरूप इस प्रकार उपलब्ध होता है - इसमें सर्वप्रथम पूजा रचना का उद्देश्य बताया गया है फिर यजमान याचक का लक्षण, मंडप का लक्षण, मंडल रचना विधि, सकलीकरण विधि, यंत्र का प्रभाव, ऋषिमंडल विधान का फल, यंत्र को पास रखने का फल, यंत्र आराधना विधि इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
तत्पश्चात् ऋषिमण्डल पूजा के सम्बन्ध में क्रमशः प्रधान बीजाक्षर ही की पूजा, प्रत्येक का नाम लेकर चौबीस तीर्थंकरों की पूजा, शब्दब्रह्म की पूजा, अरिहंतादि पंचपरमेष्ठी की पूजा, रत्नत्रय की पूजा, ज्ञान, बल, तप, रस आदि नौ प्रकार की ऋद्धियों के धारक मुनियों की पूजा, चतुर्निकाय देवेन्द्र की पूजा और
श्री आदि देवियों की पूजा करने का विधान निर्दिष्ट किया है। इस प्रकार पूर्वोक्त निर्देशानुसार ऋषिमण्डल पूजा का विधान जानना चाहिए। कर्मदहनपूजाविधि
इस पर चार कृतियाँ रची गई हैं। पहली कृति मुनि रत्नानन्द की है। दूसरी रचना चन्द्रकीर्ति की है। तीसरी मुनि शुभचन्द्र की है और चौथी रचना अज्ञातकर्तृक है। एक कृति विद्याभूषण की भी प्राप्त होती है।' मुनि सोमदत्त ने 'कर्मदहनव्रतोद्यापन' नामक कृति की रचना की है। इसमें कहा गया है कि कर्मदहनव्रत की पूर्णाहुति होने पर उद्यापन करना चाहिए। कल्याणमन्दिरपूजा
इसमें कल्याणमन्दिर स्तोत्र की पूजा विधि बतायी गई है। इसकी रचना विजयकीर्ति ने की है। कल्याणमन्दिरव्रतोद्यापन
___ इस नाम की दो कृतियाँ हैं- एक देवेन्द्रकीर्ति की है और दूसरी सुरेन्द्रकीर्ति की है। दोनों गुरुभ्राता प्रतीत होते हैं। कर्मनिर्झरव्रतपूजा
यह पूजा हिन्दी पद्य में है। मूल पूजा संस्कृत भाषा में रची गई थी, किन्तु वह संशोधित न होने के कारण उसी के आधार पर गुलाबचन्द जैन ने
'जिनरत्नकोश प. ७१ २ वही. पृ. ८० ३ यह पुस्तक वी.सं. २५१६ में, सरल जैन ग्रन्थ भण्डार, जवाहरगंज, जबलपुर से प्रकाशित है। यह १० वाँ संस्करण है।
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इसको रचना पद्य में रचा है।
दिगम्बर जैन समाज में कर्मनिर्झरव्रत के तेले का काफी महत्त्व रहा हुआ है। इसे झर का तेला अथवा जलहरव्रत या कर्मनिर्झरव्रत आदि कई नामों से पुकारा जाता है। यह व्रत भाद्रपद शुक्ला १२, १३, १४ तीन दिन किया जाता है और तीन वर्ष तक किया जाता है। इस व्रत में निगोदादि बारह मिथ्या स्थानों का नाश, बारह प्रकार के तप एवं बारह भावना इन तीन का चिन्तन किया जाता है। इन्हीं के अनुरूप मंडल बनाया जाता है
गणधरवलयपूजा
इस नाम की चार रचनाएँ मिलती हैं। एक रचना मुनि शुभचन्द्र की है। दूसरी रचना मुनि श्रुतसागर की है। तीसरी सकलकीर्ति की है और चौथी अज्ञातकर्तृक है।
यहाँ गणधरवलयपूजा से तात्पर्य है- आचार्यपद के समय नूतनसूरि को सूरिमन्त्र की साधना के लिए जो पट्ट दिया जाता है उसकी विधिपूर्वक
आराधना करना।
गणधरवलय ऋषिमंडल विधान
यह दिगम्बर रचना हिन्दी पद्य में है। इसके रचयिता राजमल पवैया है। यह विधान अपने आप में महत्त्व का है। इस विधान में वर्तमान चौबीसी के वृषभसेनादिक गणधरों की भावपूर्ण अर्चना के साथ-साथ उनके समय के सर्व सर्वज्ञ केवली, पूर्वधारी, शिक्षक, अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, वैक्रियऋद्धिधारी और वादी मुनियों की स्तवना पूर्वक पूजा की जाती है। इसमें इस पूजा विधि का वर्णन हुआ है।
२
सम्यक्
गुरु अष्टप्रकारी पूजा
यह कृति गुजराती पद्य में रची गई है। इसमें नागपुरीय बृहत्तपागच्छ के क्रियोद्धारक श्री पार्श्वचन्द्रसूरि की अष्टप्रकारी पूजा एवं उसकी विधि कही गई है। इस कृति का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इस कृति में रचित पूजाएँ किसी एक की बनाई हुई नहीं है अपितु प्रत्येक पूजा भिन्न-भिन्न साधुओं के द्वारा निर्मित की गई है। प्रथम जलपूजा - मुनि जसचंद्र कृत है। द्वितीय चंदनपूजा - मुनि पूरणचंद्र के द्वारा रची गई है। तृतीय पुष्पपूजा- मुनि आंनदधन ने रची है। चतुर्थ धूप पूजा - जयचंद्रसूरि के
9 जिनरत्नकोश
पृ. १०२
२
प्रका. भरतकुमार पवैया, तारादेवी पवैया ग्रंथमाला, ४४, इब्राहिमपुरा, भोपाल
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शिष्य फ्यचंद्रसूरि द्वारा रचित है। पंचम दीपकपूजा- मुनि वीर द्वारा रची गई है। षष्टम अक्षतपूजा- मुनि सागरचंद्र ने लिखी है। सप्तम नैवैद्य पूजा- मुनि विमल चारित्र ने लिखी है। अष्टम फलपूजा- समरचंद्रसूरि द्वारा विरचित है।
इसके अन्त में उपयोगी भजनादि का संकलन है। यह पुस्तक प्रवत्तिर्नी ऊँकार श्री जी म. की प्रेरणा से 'श्री नवीनभाई गांगजी नवावास' (कच्छ) से प्रकाशित हुई है। चारित्रशुद्धिविधान
यह अज्ञातकर्तृक है। इस सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई है।' चौबीसतीर्थकर पूजनविधान
यह दिगम्बर रचना हिन्दी पद्य में हैं किन्तु इसमें संस्कृत की अधिकता है। यह रचना कविवर वृन्दावनदास की है। जैसा कि नाम से ही सूचित होता है, इसमें वर्तमान अवसर्पिणी के चौबीस तीर्थंकरों की पृथक्-पृथक् पूजा विधि दी गई हैं। चौदहसौबावनगणधरवलयविधान
यह दिगम्बर कृति हिन्दी पद्य में है। इसकी मूल रचना शुभचन्द्राचार्य द्वारा संस्कृत भाषा में की गई है। उसका हिन्दी भाषानुवाद कुन्थुसागरजी ने किया है। इस नाम की तीन रचनाएँ हैं वे क्रमशः पद्मनन्दी, सोमसेन व शुभचन्द्र द्वारा लिखी गई हैं। ये तीनों रचनाएँ संस्कृत में हैं और अभी अनुपलब्ध हैं। यह विधान अन्य रचनाओं की अपेक्षा बृहद् है।
__ यह स्मरण रहें कि प्रत्येक तीर्थकर के अलग-अलग गणधर होते हैं। ऐसा नियम है कि तीर्थकर की मूलवाणी को सूत्र रूप में गूंथने का कार्य गणधर मुनि करते हैं। गणधर अनेक ऋद्धियों एवं चार ज्ञान के धारक होते हैं, तद्भवमोक्षगामी होते हैं। यह रचना गणधरपूजा से सम्बन्धित है। इसमें वर्तमान चौबीसी के प्रत्येक तीर्थंकर के गणधरों की पृथक्-पृथक् पूजा विधि उल्लिखित हुई हैं। चौबीस तीर्थकर के कुल १४५२ गणधर हुये हैं। यह विधान आराधना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है। छयानवे क्षेत्रपालमंडलपूजाविधान
यह दिगम्बर कृति गणधराचार्य कुन्थुसागरजी द्वारा लिखित एवं सम्पादित
' जिनरत्नकोश पृ. १२२ २ प्रका. अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन ए-४, बापूनगर, जयपुर २ प्रका. चिन्तामणि ग्रन्थमाला शोध प्रकाशन अतिशय क्षेत्र, रोहतक (हरियाणा) सन् १९६६
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है। यह रचना मूलतः संस्कृत में है और इसके रचनाकार विश्वनंद्याचार्य है।
इस पूजा के अन्तर्गत चौबीस तीर्थंकरों, चौबीस तीर्थंकर की माताओं, चौबीस यक्षों और चौबीस यक्षिणीयों की पूजा की जाती है। ये कुल ६६ होते हैं। इन्हें क्षेत्रपाल भी कहा गया है। इसमें छयानवें क्षेत्रपालों का पूजाविधान विधिवत् दिया गया है। '
जयादिदेवतार्चनविधान
इसमें जयादि देवताओं की पूजा विधि का उल्लेख हुआ है इसके रचनाकर्त्ता, रचनाकाल आदि की हमें जानकारी प्राप्त नहीं हुई है । जिनपूजाविधिसंग्रह
२
इस कृति के नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें जिनबिम्ब की पूजा विधियों का संकलन हुआ है। इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी नहीं मिली है।
जिनपूजा-विधि संग्रह
यह एक संकलित ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का लेखन पं. कल्याणविजयजी गणि ने किया है। इसका सम्पादन कार्य पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल ने किया है। यह कृति हिन्दी शैली में है। इसमें दिये गये उद्धृत पाठ प्राकृत - संस्कृत दोनों में हैं ।
जैसा कि कृति नाम से यह सूचित होता है कि जिन-जिन आगम ग्रन्थों, प्राचीन ग्रन्थों एवं अर्वाचीन ग्रन्थों में जिनबिम्ब की पूजा विधि का जो स्वरूप उपलब्ध हुआ है वह इसमें संग्रहीत किया गया है। इस कृति का अध्ययन करने से यह भी स्पष्ट होता है कि इसमें जिनपूजाविधि से सम्बन्धित ८२ ग्रन्थों के उद्धरण लिये गये हैं। इसके साथ ही इसमें जिनपूजा विषयक अन्य तत्त्व भी चर्चित हु हैं।
यह कृति तीन परिच्छेदों में विभक्त है। उनमें निर्दिष्ट ग्रन्थों के आधार पर जो पूजाविधियाँ उद्धृत की गई हैं उनका नामनिर्देश इस प्रकार हैं
-
१. बृहत्कल्पसूत्रभाष्य में पूजाविधि २. निशीथसूत्रचूर्णि में जिनपूजाविधि ३. व्यवहार- सूत्रभाष्य में जिनपूजाविधि ४. राजप्रश्नीयसूत्र में जिनपूजाविधि ५. ज्ञातासूत्र में वर्णित जिनपूजा विधान ६. उमास्वातिकृत प्रशमरति प्रकरण का पूजा
१
प्रका. श्री राजेन्द्र जी नन्हेलाल सेठ, मुंबई प्रतापगढ़ प्राप्तिस्थान, १२२ सुशीला एपार्टमेन्ट, एल. टी. रोड़, वजीरा नाका, बोरीवली, मुंबई
२
जिनरत्नकोश पृ. १३५
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विधान ७. आवश्यक- सूत्र-भाष्य में जिनपूजा ८. आवश्यकसूत्र-चूर्णि में भरतकारित सिंहनिषद्या चैत्य ६. श्री हरिभद्रसूरिकृत पूजाष्टक में पुष्पपूजा १०. श्री हरिभद्रसूरिकृत पूजाविंशिका में पूजाविधान ११. श्री हरिभद्रीय ललितविस्तरा में जिनपूजा १२. श्री हरिभद्रसूरिकृत षोडशक में जिनपूजा १३. श्री हरिभद्रसूरिकृत पूजापंचाशक में जिनपूजा १४. श्री हरिभद्रकृत योगबिन्दु में देवपूजा १५. श्री हरिभद्रसूरिकृत पंचवस्तुक में पूजाविधान १६. श्री हरिभद्रीय धर्मबिन्दु में निपूजा १७. आचार्य श्री रविषेणकृत पद्मचरित्र में जिनपूजा १८. श्री रविषेणकृत पद्मचरित्र में सर्वोपचारी पूजा का विधान १६. श्री जीवदेवसरि की जिनस्नात्रविधि २०. श्री जिनचन्द्रसूरिकृत संवेगरंगशाला में जिनपूजा विधान २१. श्री वर्धमानसरिकृत धर्मरत्नकरण्डक में जिनपूजा २२. श्री चंद्रप्रभसूरिकृत दर्शनशुद्धि में जिनपूजा २३. श्री चंद्रमहत्तरजीकृत अष्टोपचारी पूजा २४. श्री शांतिसूरिकृत चैत्यवंदनमहाभाष्य में पंचोपचारादि पूजाएँ २५. श्री रत्नप्रभसूरिकृत उपदेशमालाटीका में अष्टप्रकारीपूजा २६. श्री देवभद्रीय कथारत्नकोष में जिनपूजा २७. प्रकरण समुच्चयान्तर्गत एक प्रकरण में जिनपूजा २८. श्री हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्र की टीका में अष्टोपचारी पूजाविधि २६. श्री नेमिचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारोद्धार में जिनपूजा विधान ३०. श्री हेमचन्द्राचार्यकृत योगशास्त्र में जिनपूजाविधि ३१. श्री सोमप्रभसूरिकृत कुमारपाल-प्रतिबोध में जिनपूजा ३२. कुमारपाल -प्रतिबोध में पर्व के दिनों में नदी के जल से स्नान करने का विधान। ३३. कुमारपाल- प्रतिबोध में अष्टप्रकारी जिनपूजा विधि। ३४. श्री हरिभद्रसूरिकृत स्तवविधिपंचाशक में जिनपूजा ३५. कुमारपाल-प्रतिबोध में देवपूजा और गुरूपूजा का विधान ३६. श्री देवेन्द्रसूरिकृत श्राद्धदिनकृत्य में जिनपूजा ३७. देववंदनभाष्य में जिनपूजा विधि ३८. अनन्तनाथ-चरित्र में जिनपूजा ३६. पूजा-प्रकाश में सर्वोपचारी पूजा ४०. श्री जिनप्रभसूरिकृत देवपूजाविधि में जिनपूजा ४१. विचारसार-प्रकरण में अष्टप्रकारी जिन पूजा ४२. श्री रत्नशेखरसूरिकृत श्राद्धविधि में पंचोपचारादि पूजाएँ ४३. अज्ञातकर्तृक श्राद्धविधि में सत्रहभेदीपूजा ४४. कुमारपाल-प्रबंध में जिनपूजा और गुरूपूजा ४५. श्री धनेश्वरसूरिकृत शत्रुजयमाहात्म्य में जिनपूजा विधान ४६. श्री हरिभद्रसूरिकृत संबोधप्रकरण में जिनपूजा ४७. श्री चारित्रसुंदरगणिकृत आचारोपदेश का पूजाविधान ४८. आचारोपदेश में इक्कीस प्रकार की पूजा ४६. मानविजयजी कृत धर्मसंग्रह में जिनपूजा ५०. श्री जिनलाभसूरिकृत आत्मप्रबोध में सत्रहभेदी पूजा ५१. समन्तभद्रादि की तीन पूजाएँ ५२. श्री पादलिप्तसरि कृत प्रतिष्ठापद्धति में जिनपूजा के लिए मासिक स्नान का विधान। ५३. श्री चंद्रसूरि कृ त प्रतिष्ठा-पद्धति में मासिक स्नान का विधान।
इनके अतिरिक्त इस संग्रहित ग्रन्थ में पूजा-विषयक अन्य बिन्दू भी
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चर्चित किये गये हैं यथा पूजा की उत्पत्ति, भावना में से पूजा का जन्म, पूजा का विकास क्रम, सर्वोपचारी पूजा के प्रमाण, शाश्वत जिन-प्रतिमाओं का वर्णन, भगवान् ऋषभदेव का जन्माभिषेक, प्रतिभा की पुष्पादि पूजा पर आक्षेप करने का प्रायश्चित्त, पुटपक्वगंध और वास का विवेचन, जैन मन्दिरों में प्रकाश के लिए तेल के दीपक रखने का निषेध, मन्दिर में अखण्डदीपक रखना शास्त्रोक्त नहीं, गंध का अर्थ घिसा हुआ केसर - चन्दन नहीं है, गंध अथवा वास पूजा कैसे करे ? बासी वास पूजा का अवतारण कैसे करना ? नित्य प्रक्षालन के बिना धातु की मूर्ति को कैसे उजालना? नित्यस्नान का दुष्परिणाम तुरन्त मालुम नहीं होता है, नवांग पूजा का विधान, त्रिकाल जिनपूजा का विधान, गृहमंदिर में अपूजनीय जिनप्रतिमा, गृहमन्दिर में बलि चढ़ाने सम्बन्धी चर्चा, छोटी - प्रतिमाओं का नित्यस्नान नहीं, प्रयोग-परिजात में नित्य- स्नान का निषेध, एकविध, द्विविध, त्रिविध पूजाएँ, विघ्नोपशमनी आदि तीन पूजाएँ, पुष्पअक्षतादि की त्रिविधपूजा, तामसी, राजसी आदि तीन पूजाएँ, पुष्प नैवेद्यादि की चतुर्विध पूजा, पुष्प अक्षतादि की पंचविध पूजा, गंध धूपादि की अष्टविध पूजा प्राचीन सूत्रोक्त चतुर्दशप्रकारी पूजा, पूजाप्रवृत्तियों से सम्बद्ध तीनकाल विभाग, जिनपूजा के उपादानों और उपकरणों की सूची, सूचीकोष्ठकों का स्पष्टीकरण, सुवर्णपुष्पों से पूजा का विधान, सहभेदी पूजा में मत-भेदों की परम्परा, नैमित्तिक पूजाएँ, क्या मूर्ति पूजा करना शास्त्रोक्त है ?, मूर्तिपूजा का पूर्वकाल में विरोध क्यों नहीं हुआ ?, जिनपूजा पद्धति में विकृति के बीजारोपण, नित्य स्नान के आम आंदोलन, नूतन समस्याएँ, भक्ति चैत्यों में वेतन - भोगी पूजारी, देवद्रव्य की वृद्धि के लिए नया सर्जन, विलेपन के बदले में तिलकपूजा, तिलकपूजा में मतभेद, पूर्वकाल में जिनपूजा के लिए नित्य स्नान न करने के प्रमाण, महास्नों में से लघुस्नात्र, लघुस्नात्रों में से नित्यस्नान का जन्म, आभरण विधि और चक्षुर्युगल, मूर्ति पर नित्य आंगिया चढ़ाये रखने से नुकसान, बाल्यावस्था की भावना, राज्यावस्था की भावना, छद्मस्थ श्रमणावस्था की भावना, कैवल्यावस्था की भावना, सिद्धावस्था की भावना, सत्रहवीं शती की पूजा-पद्धति, पूजा में हुये परिवर्तन के परिणाम इत्यादि । '
इस समग्र विवरण से सुज्ञात होता है कि लेखक प्रवर ने पूजाविधि एवं तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया है। वस्तुतः यह ग्रन्थ प्राचीन - अर्वाचीन दोनों प्रकार की पूजा पद्धतियों का निरूपण कर शोधार्थियों एवं विद्वद्जनों के लिए अलभ्य सामग्री प्रदान करता है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह कृति अमूल्य प्रतीत
१
यह कृति वि.सं. २०२२ में, श्री कल्याणविजय शास्त्र - संग्रह- समिति जालोर (राज.) से प्रकाशित है।
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होती है। साथ ही जिनप्रतिमा एवं जिनपूजा की प्राचीनता को भी सिद्ध करती है। प्रस्तुत रचना में एकविध, द्विविध, त्रिविध, चतुर्विध, पंचोपचारी, अष्टोपचारी, सर्वोपचारी, चौदह प्रकारी, सत्रहप्रकारी, इक्कीसप्रकारी आदि अनेकविध पूजाओं का उल्लेख किया गया है इसके आधार पर पूजापद्धति में आये परिवर्तनों को कालक्रम की दृष्टि से सहजतया देखा जा सकता है।
यहाँ ध्यातव्य है कि प्रस्तुत कृति में जहाँ सर्वोपचारी पूजाओं का उल्लेख हुआ है वे स्नान-विलेपन युक्त जाननी चाहिए, जबकि एकविध से लेकर अष्टप्रकारी तक की सभी पूजाएँ स्नान-विलेपन से रहित हैं। सर्वप्रथम आचारोपदेश नामक (१७ वीं शती की) कृति में अष्टप्रकारी पूजा के अन्तर्गत जलस्नान और चन्दन तिलकों का विधान उपलब्ध होता है। इससे निर्विवाद सिद्ध है कि नित्य-स्नान-विलेपन पद्धति अर्वाचीन है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ प्रयोजन की दृष्टि से एक श्लोक दिया गया है। कृति के अन्त में प्रशस्ति रूप दो पद्य लिखे गये हैं। उनमें कहा है इस ग्रन्थ में मेरे द्वारा पूजाविधि का जो स्वरूप उद्धृत किया गया है या दिखाया गया है वह पूर्व रचित शास्त्रों का ही अनुकरण है। इसके साथ यह भी उल्लेख किया गया है कि यह कृति वि.सं. २०२२ में, माघकृष्णा अष्टमी के शुभ दिन में एवं जावालिपुर नगर में पूर्ण हुई। जिनस्नात्रविधि
यह कृति श्री जीवदेवसूरि द्वारा विरचित है।' इस कृति पर श्री समुद्रसूरि ने पंजिका लिखी है। यह प्राकृत के ५४ पद्यों में निबद्ध है। इसका गुजराती भाषान्तर श्री लालचन्द-भगवानजी गाँधी ने किया है सम्भवतः यह कृति वि.सं. की १० वीं शती के आस-पास की है इसका एक प्रमाण यह है कि इसकी पंजिका वि.सं. २००६ में लिखी गई है। इस कृति के ग्रन्थकार एवं पंजिकाकार का विस्तृत परिचय प्रकाशित पुस्तक के साथ उल्लिखित है। इसमें जिनप्रतिमा की स्नात्रविधि का शास्त्रोक्त वर्णन हुआ है। इस कृति में स्नात्रविधि के मूल एवं मुख्य अंश देखने को मिलते हैं।
इसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- ग्रन्थ के प्रारम्भ में जिनेश्वर को प्रणाम करके पद्म एवं पुस्तक से विभूषित वर देने वाली श्रुतदेवी का स्मरण किया है। उसके बाद प्रभु महावीर के गुणों की स्तुति की गई है। तदनन्तर
' यह कृति वि.सं. २०२१ में, जैन साहित्य विकास मण्डलम् वीलेपारले, मुंबई ५६ से प्रकाशित हुई है।
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जिनस्नात्रविधि का प्रारम्भ करते हुए क्रमशः धूप करना, जिनबिंब का जल, घृत एवं दुग्ध द्वारा स्नपन करना, पुनः धूप खेना, फिर दधि द्वारा अभिषेक करना, पुनः धूप को उद्घाटित करना, जल द्वारा स्नपन क्रिया करना, चन्दन का विलेपन करना, चन्दन-कुंकुम युक्त जल द्वारा स्नपन करना, पुष्प का आरोपण करना, लवण उतारना, आरती उतारना, मंगलदीपक करना, बलि प्रक्षेपण करना इत्यादि विधान कहे गये हैं। मूलतः ये कृत्य स्नात्रविधि के सन्दर्भ में उल्लिखित हुये हैं। जिनपूजाप्रदीप
इसके सम्बन्ध में कोई सूचना दृष्टिगत नहीं हुई है। किन्तु इसमें 'जिनपूजाविधि' का वर्णन हुआ है ऐसा प्रतीत होता है ।
जिनयज्ञकल्प
इसकी रचना पं. आशाधरजी ने वि. सं. १२८५ में की है। इसे प्रतिष्ठाकल्प या प्रतिष्ठासारोद्धार भी कहते हैं। इसमें आचार्य वसुनन्दी रचित 'प्रतिष्ठासारसंग्रह' नाम की कृति का उल्लेख हैं। 'प्रतिष्ठासारोद्धार' नाम से इस कृति' का संक्षिप्त परिचय अलग से दिया गया है।
जिनवर अर्चना
यह संग्रह कृति है।' इसका संकलन डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री ने किया है। इसमें नित्य, नैमित्तिक एवं तीर्थंकर आदि सम्बन्धी पूजा-विधानों का उल्लेख हुआ है। ये सभी पूजाएँ हिन्दी पद्य में रचित हैं। इसके संग्रहकर्त्ता ने नित्य सम्बन्धी ग्यारह पूजाएँ कही है, उनके नाम निम्न है- १. देवशास्त्र - गुरूपूजा - पं. द्यानतरायकृत २. देव- शास्त्र - गुरु पूजा ( युगल ) ३. समुच्चय पूजा - ब्र. सरदारमल सच्चिदानन्दकृत ४. तीस चौबीस पूजा - पं. भानमलकृत ५. बीसतीर्थंकर पूजापं. द्यानतरायकृत ६. सीमन्धरतीर्थंकर पूजा - पं. हुकुमचन्दभारिल्लकृत ७. सिद्ध पूजा - पं. द्यानतरायकृत ८ सिद्धचक्र पूजा - हीराचन्दकृत ६. चौबीस जिनपूजावृन्दावनदासकृत १०. चौबीसी पूजा - कुमरेशकृत ११ पंचपरमेष्ठी पूजा - पं. राजमल पवैयाकृत
इसमें नैमित्तिक सम्बन्धी दस पूजाएँ बतलायी गई हैं वे निम्न हैं१. पंचमेरु पूजा - पं. द्यानतराय २. नन्दीश्वर पूजा - पं. द्यानतराय ३. सोलहकारण पूजा- पं. द्यानतराय ४. दशलक्षणधर्म पूजा - पं. द्यानतराय ५. रत्नत्रय पूजा - पं.
यह कृति मनोहर शास्त्री ने वि. सं. १६७४ में प्रकाशित की है।
२
यह कृति भारतीय ज्ञानपीठ - नयी दिल्ली से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/449
द्यानतराय ६. क्षमावाणी पूजा- कविमल्ल ७. सरस्वती पूजा- पं. द्यानतराय ८. रक्षाबन्धनपर्व पूजा- कुमरेश ६. श्रुतपंचमीपर्व पूजा- पं. राजमल पवैया १०. दीपावली पूजा- पं. राजमल पवैया
इस कृति में तीर्थंकर आदि सम्बन्धी २३ पूजाओं का भी उल्लेख हुआ है उन पूजाओं के नामोल्लेख इस प्रकार है - १. श्री आदिनाथजिन पूजा- वृन्दावनदास २. श्री आदिनाथजिनपूजा- पं. जिनेश्वर दास ३. श्री पदमप्रभू पूजा- पं. छोटेलाल ४. श्री चन्द्रप्रभजिन पूजा- कवि मुंशी ५. श्री चन्द्रप्रभजिन पूजा- वृन्दावनदास ६. श्री शीतलनाथजिनपूजा- मनरंगलाल ७. श्री वासुपूज्यजिन पूजा- वृन्दावनदास ८. श्री अनन्तनाथजिन पूजा- मनरंगलाल ६. श्री शान्तिनाथजिन पूजा- वृन्दावनदास १०. श्री शान्तिनाथजिन पूजा- बख्तावरसिंह ११. श्री कुन्थुनाथजिन पूजा- बख्तावरसिंह १२. श्री नेमिनाथजिन पूजा- मनरंगलाल १३. श्री पार्श्वनाथजिन पूजा- बख्तावरसिंह १४. श्री पार्श्वनाथ (रविव्रत) जिन पूजाब्र. रवीन्द्र जैन १५. श्री अहिच्छत्रा पार्श्वनाथ पूजा- कल्याणकुमार जैन १६. रविव्रत पूजा १७. श्री वर्द्धमानजिन पूजा- वृन्दावनदास १८. श्री चाँदनपुर महावीरस्वामी पूजापूरनमल १६. पंचबालयतिजिन पूजा- ब्र. रवीन्द्र जैन २०. श्री बाहुबलीजिन पूजापं. पन्नालाल २१. सप्तर्षि पूजा- मनरंगलाल २२. सम्मेदशिखर पूजा- पं. जवाहरदास २३. निर्वाणक्षेत्र पूजा- पं. द्यानतराय
इसमें स्वाध्याय पाठ, स्तुति-स्तोत्र पाठ, आरती, गीत, भावना आदि का भी संग्रह किया गया है तथा कुछ जाप्य मन्त्र और जाप विधियाँ भी कही गई हैं। जिनेन्द्र पूजन
यह रचना प्रायः हिन्दी गद्य में है। इसके लेखक शिवचरणलाल जैन है। यह पुस्तक दिगम्बर परम्परा में मान्य पूजाविधि का सम्यक् स्वरूप प्रस्तुत करती है।
सामान्यतया इसमें पूजा क्या और क्यों? देव, गुरु, धर्म का स्वरूप, पूजक, पूजा, पूजा के भेद, पूजाविधि, वन्दनाविधि, देवदर्शन विधि, अभिषेक का महत्त्व, पूजन के अंग, पूजन का फल इत्यादि का निरूपण हुआ है। साथ ही तत्सम्बन्धी शास्त्र उद्धरण भी दिये गये हैं।' जिनेन्द्रपूजासंग्रह
इस कृति में तपागच्छीय वाचनाचार्य श्री माणिक्यसिंहसूरि विरचित
' यह पुस्तक श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा, नन्दीश्वर फ्लोर मिल, ऐशबाग, लखनऊ से प्रकाशित है।
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450 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
पूजाओं का संग्रह किया गया है। यह कृति हिन्दी पद्य में है। इसमें कुल चौदह प्रकार की पूजाएँ विधिपूर्वक दी गई हैं अर्थात् प्रत्येक पूजा को प्रारम्भ करने के पूर्व उसकी विधि दिखायी गई है उसके बाद पूजा की ढ़ाले दी है ऐसा व्यवस्थित रूप बहुत कम ही देखने को मिलता है ।
प्रस्तुत कृति में ये पूजाएँ उल्लिखित हुई हैं- १. स्नात्र पूजा २. अष्टप्रकारी पूजा ३. पंचपरमेष्ठि पूजा ४. नवपद पूजा ५. पंचकल्याणक पूजा ६. पंचज्ञान पूजा ७. सम्यक्त्व सप्तषष्ठि (६७) भेद की पूजा ८. बारह भावनाओं की पूजा ६. सत्तरभेदी पूजा १०. बीशस्थानक पूजा ११. श्री महावीर पंचकल्याणक पूजा और १४. एकवीश प्रकारी पूजा ।
अन्त में चौबीस तीर्थंकरों की आरती, मंगलपाठ, पद्मावती देवी की आरती एवं आरती-मंगलदीपक करने की विधि दी गई हैं। '
जैनेन्द्रयज्ञविधि
प्रस्तुत नाम की दो रचनाएँ मिलती है एक रचना के कर्त्ता विद्यानन्दी के शिष्य श्रुतसागर है। दूसरी रचना के कर्ता मुनि अभयनन्दी है। मुख्यतया यह विधान दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है।
जैनपूजापद्धति
यह रचना दिगम्बर मुनि गुणचन्द्र की है। यह कृति जैनपूजा विधि से सम्बन्धित है।
जैनपूजाविधि
यह रचना भी जैनपूजाविधि से सम्बद्ध है। इसकी कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं हुई है।
जैनपूजांजलि
यह कृति पूजा-विधि से सम्बन्धित है। इसमें कवि राजमलजी पवैया द्वारा रची गई ३८ पूजाओं का संग्रह किया गया है। ये पूजाएँ हिन्दी पद्य में है । इन पूजाओं की रचना दिगम्बर आम्नाय के अनुसार हुई है।
9
यह संग्रह कृति श्री माणेकलाल फूलचंद, कीका भटनी पोल, अहमदाबाद से, सन् १८२० में प्रकाशित हुई।
२ जिनरत्नकोश पृ. १४५-४६
३
यह पुस्तक दि. जैन स्वाध्याय मण्डल, सहारनपुर (उ. प्र. ) से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/451
दशलाक्षणिकपूजा
प्रस्तुत नाम के चार ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं एक ग्रन्थ के कर्ता मनि मल्लिभूषण है। दूसरी एक रचना मुनि यशकीर्ति की है। तीसरी कृति मुनि सोमसेन ने रची है और एक अन्य रचना विद्यानन्दी के शिष्य मुनि श्रुतसागरजी की है। ये कृतियाँ दशलक्षणपर्व की पूजा विधि से सम्बन्धित है। एक कृति दशलाक्षणिकविधान के नाम से भी मिलती है। दूसरी एक रचना दशलाक्षणिकविधानउद्यापन के नाम से प्राप्त होती है। ये रचनाएँ भी दशलक्षणपर्व सम्बन्धी विधि-विधान एव उद्यापन का निरूपण करती है। दशलक्षणव्रतोद्यापन
____ दशलक्षणपर्व के दस दिनों में दशलक्षणव्रत भी किया जाता है। यह व्रत विधान दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है। इस व्रत के पूर्ण होने के बाद भी एक विधि होती है उसे उद्यापन कहते हैं। इस सम्बन्ध में चार कृतियाँ रची गई हैं। एक कृति संस्कृत में मुनि जिनभूषण ने रची है। दूसरी कृति मुनि धर्मचन्द्र द्वारा संस्कृत में रची गई है। एक अन्य कृति मुनि विश्वभूषण की भी संस्कृत में ही है'
और एक कृति रत्नकीर्ति की है। दर्शन-पूजन विधि
इस पुस्तक का संकलन शेखरचन्द जैन द्वारा किया गया है। यह दिगम्बर श्रावकों समाज के श्रावकों लिए अत्यन्त उपयोगी कृति है। इसमें दर्शन-पूजन सम्बन्धी प्रारंभिक जानकारी के साथ-साथ पूजनादि, मंत्रादि, स्तोत्रादि के पाठ अर्थ सहित दिये गये हैं।
सामान्यतः यह पुस्तक पाँच खण्डों में विभक्त है। प्रथमखण्ड में जिनदर्शन विधि एवं जिनपूजनविधि का संप्रयोजन उल्लेख हुआ है। द्वितीय खण्ड में स्तुति, स्तोत्र, मंत्रादि का अर्थ सहित संकलन किया गया है। तृतीय खण्ड नित्य पूजन विधान से समन्वित है। चतुर्थखण्ड में अन्य चौदह पूजाएँ दी गई हैं। पंचमखण्ड पूजा सम्बन्धी विविध सामग्री को प्रस्तुत करता है। इसके छह संस्करण निकाले जा चुके हैं।
५ जिनरत्नकोश पृ. १६८ ' वही. पृ. १६८ २ प्रका. ज्ञान प्रकाशन, बी-२५२, वैशाली नगर, जयपुर
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452/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
देवपूजाविधि
यह कृति जिनप्रभसूरि द्वारा प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में रचित है। इसमें गृहप्रतिमा पूजाविधि एवं चैत्यवंदन विधि का विवरण पादलिप्तसूरि की निर्वाणकलिका से लिया गया है। इसके पश्चात् संस्कृत भाषा में स्नपनविधि, पंचामृतस्नानविधि, चैत्यवंदनविधि और शान्तिपर्वविधि का उल्लेख हुआ है। यह कृ ति विधिमार्गप्रपा के अन्त भाग में प्रकाशित है। नन्दीश्वरपूजा जयमाला
___ इस नाम की तीन रचनाएँ हैं। एक के कर्ता अनन्तकीर्ति है। दूसरी के कर्ता मुनिशुभचन्द्र है और तीसरी अज्ञातकर्तृक है। नन्दीश्वर उद्यापन
यह रचना रत्ननन्दी की है इसमें नन्दीश्वरव्रत की उद्यापन विधि कही
नन्दीश्वरउद्यापनपूजा
यह कृति राजकीर्ति की है। इसमें नन्दीश्वरद्वीप की पूजाविधि और उद्यापनविधि दोनों का उल्लेख हुआ है। नन्दीश्वरपंक्तिपूजा
यह दिगम्बर भंडार में मौजूद है। नन्दीश्वरपूजाविधान
___ यह रचना संस्कृत में है। उक्त सभी रचनाएँ लगभग दिगम्बर मुनियों द्वारा विरचित हैं। नमन और पूजन
इस कृति के लेखक डॉ. सुदीप जैन है। यह रचना हिन्दी में है और आठखण्डों में विभक्त है।'
इसके प्रथम खण्ड में आप्त पूजा, मूर्तिपूजा की परंपरा, पूजनविधि, भक्ति-पूजन क्यों?, दर्शन-पूजन के पाँच स्तर आदि का उल्लेख है। दूसरे खण्ड में- मूलपरम्परा सहमत पूजा का स्वरूप एवं उसकी विधि चर्चित है। इसके अन्तर्गत नवधा भक्ति, कृतिकर्म कब करें, आलम्बन किसका ले, मूल देववन्दना
' यह पुस्तक परोपकार ट्रस्ट, केयातल्ला लेन, कोलकात्ता, से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/453
विधि, पूजन-विधि के भेद आदि का वर्णन हुआ है। तीसरे खण्ड में समसामयिक दृष्टि से दर्शन-पूजन विधि का निरूपण किया गया है।
चौथे से लेकर आठवाँ खण्ड परिशिष्ट विभाग से युक्त है। चौथे में अरिहंत स्वरूप का, नवग्रह पूजन का, पंचोपचार पूजा का, पूजन फल का पूजन के अष्ट द्रव्य का, पूजन के लिए पात्रता आदि का तथा प्रतिक्रमण, प्रतिष्ठा, प्रदक्षिणा, भावपूजा, मण्डल विधान का श्रावक के षट् आवश्यक आदि का और ॐ ही-श्रीं आदि का वर्णन है। पाँचवें-छठे में सन्दर्भ ग्रन्थ सूची है, सातवें में कतिपय दिगम्बर प्रमुख जैन पूजा-सम्बन्धी साहित्य प्रणेता एवं उनके ग्रन्थ दिये गये हैं और आठवें खण्ड में आवश्यक चित्रमाला दी गई है। नन्दीश्वरद्वीपबृहविधान
यह अष्टम नन्दीश्वर द्वीप में स्थित अकृत्रिम जिनालयों की एवं अक त्रिम जिन प्रतिमाओं की परोक्ष आराधना का श्रेष्ठ ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ मूलतः संस्कृत में है किन्तु महाकवि पं. जिनेश्वरदासजी ने इसका हिन्दी पद्यानुवाद किया है और जन सामान्य के लिए आराधना का प्रशस्त मार्ग प्रदान किया है। यह ग्रन्थ दिगम्बरीय परम्परानुसार रचा गया है।'
ग्रन्थों में उल्लेख है कि कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णमासी तक अष्टहिका पर्व रहता है। इन पर्व दिनों में असंख्यात देव-देवियाँ, इन्द्र-इन्द्राणियाँ नन्दीश्वर द्वीप में वंदन-पूजन के लिए आते हैं और अपना जीवन धन्य करते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में निर्देश है कि इस विधान को अष्टाहिक पर्व में आठ वर्ष तक निरन्तर व्रत करके पूर्ण करना चाहिए। इस विधान में इसका व्रत भी किया जाता है जो १०८ दिन में पूरा होता है। इसमें ५६ उपवास और ५२ पारणा के दिन होते हैं।
यह ज्ञातव्य है कि नन्दीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में चार अंजनगिरि पर्वत हैं। प्रत्येक अंजनगिरि के चारों कोनों पर एक-एक वापिका है। प्रत्येक वापिका के बीच एक-एक दधिमुख पर्वत है। प्रत्येक दधिमुख के चारों कोनों पर दो-दो रतिकर पर्वत हैं। इस प्रकार एक दिशा के १३ पर्वतों पर १३ अकृत्रिम जिनालय हैं और इस प्रकार कुल चारों दिशाओं में ५२ जिनालय एवं ५६१६ अकृत्रिम विशाल जिन प्रतिमाएँ हैं।
'यह पुस्तक सन् २००३, वीतराग वाणी ट्रस्ट सैलसागर, टीकमगढ़ से प्रकाशित है।
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454 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
इसमें कहा गया है कि इन प्रतिमाओं का विधिपूर्वक पूजन करने से सम्यक् दर्शन की प्राप्ति होती है और मोक्ष सुख की पात्रता बनती है।
इस ग्रन्थ में नन्दीश्वर द्वीप में बिराजित जिनबिम्बों की आराधनार्थ जापविधि तथा आठदिनों की आठ तिथियों में करने योग्य पृथक्-पृथक् जापमंत्र भी दिये गये हैं। मण्डल विधान आरंभ करने की विधि भी बताई गई है तथा क्रमशः प्रत्येक (५२) जिनालय की पूजनविधि का निरूपण भी किया गया है।
नवग्रहविधान
दिगम्बर मुनि मनसुखसागर द्वारा विरचित यह कृति संस्कृत एवं हिन्दी मिश्रित पद्य भाषा में निबद्ध है। इसमें मंत्रों का उल्लेख बहुलता से मिलता है । यह कृति अर्वाचीन प्रतीत होती है । इस कृति का रचनाकाल एवं कृति के लेखक का सत्ता समय ज्ञात नहीं है। यह अपने नाम के अनुसार नवग्रह संबंधी दोषों से मुक्त होने के उपाय प्रस्तुत करती हैं। वस्तुतः इस कृति में नवग्रह दोष निवारण सम्बन्धी विधि-विधान बताये गये हैं। इस के प्रारम्भ में 'मंगलपंचक' दिया गया है उनमें पंचपरमेष्ठी पदों को नमस्कार किया गया है।
उसके बाद नवग्रह से सम्बन्धित कई विधि-विधान दिये गये हैं। उनकी संक्षिप्त सूची इस प्रकार है -
१. सकलीकरण विधान २. दिग्बंधन विधान ३. विघ्ननिवारण विधान ४. रक्षामंत्र विधि ५. भूमिशुद्धि विधान ६. रक्षाबंधन विधान ७. मुकुट, हार आदि को धारण करने का विधान ८. मंगलकलश स्थापना विधि ६. दीप प्रज्वलन विधि १०. दशदिक्पाल आहान विधि ११. लघु अभिषेक विधि १२ तिलक विधि १३. भूमिप्रक्षालन विधि १४. पीठ प्रक्षालित करने की विधि १५. बिंब को पादपीठ पर स्थापित करने की विधि १६. शांतिधारा विधि १७. सूर्यग्रह अरिष्ट (दोष) निवारक श्री पद्मप्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि १८. चन्द्रग्रह अरिष्ट निवारक श्री चन्द्रप्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि १६. मंगलग्रह अरिष्ट निवारक श्री वासुपूज्यप्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि २०. बुधग्रह अरिष्ट निवारक श्री अष्टजिन १. विमल २. अनन्त ३. धर्म ४. शान्ति ५. कुंथु ६. अर ७. नमि और ८. वर्धमान की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि २१. गुरुग्रह अरिष्ट निवारक श्री अष्टजिन १. ऋषभ २. अजित ३. संभव ४. अभिनन्दन ५. सुमति ६. सुपार्श्व ७. शीतल ८. श्रेयांस प्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि २२. शुक्रग्रह अरिष्ट निवारक श्री पुष्पदंत (सुविधिनाथ )
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प्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि २३. शनिग्रह अरिष्ट निवारक श्री मुनिसुव्रतस्वामी की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि २४. राहुग्रह अरिष्ट निवारक श्री नेमिनाथप्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि २५. केतुग्रह अरिष्ट निवारक श्री मल्लिनाथप्रभु की अष्टप्रकारी पूजाविधि एवं जापविधि
अन्त में नवग्रहयन्त्र, नवग्रहस्तोत्र एवं सर्वग्रहदोषनिवारण मंत्रादि दिये गये हैं। पद्मावतीदेवी सहस्त्रनाम विधान
यह एक संकलित रचना' है। इसका संकलन पं. सुरेशकुमार जैन ने किया है। यह मुख्यतः संस्कृत की पद्यात्मक शैली में है। इसमें मंत्रों का बाहुल्य है । यह कृति दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 455
वर्तमान में जो लोग अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु कुदेव - कुगुरु की उपासना करने लगे हैं और अन्य मिथ्यात्वी देवी-देवता को मानने लगे हैं उन जीवों के लिए यह कृति अधिक मूल्य रखती है। इस विधान में पद्मावती देवी के हजार नामों की पूजा की जाती है। सर्वप्रथम एक मंडल बनाया जाता है उसमें दस वलय बनाते हैं। प्रत्येक वलय में मन्त्रोच्चारण पूर्वक पद्मावती देवी के १००-१०० नामों के अर्ध के साथ पूजन करते हैं। इस विधान की यही मुख्य प्रक्रिया है ।
मंडल के बीचों बीच वलय पर १०८ बार पूजन करते हैं । यहाँ पूजन में मंत्र के साथ लवंगचूर्ण या सिन्दूर चढ़ाते हैं फिर प्रत्येक वलय पर १०० - १०० फल चढ़ाकर १-१ महार्घ्य देते हैं। इस प्रकार इस पूजन विधान में कुल ११०८ अर्घ्य, ११ महार्घ्य होते हैं। इसमें निर्देश है कि यह विधान नवरात्री में करना अति श्रेयस्कर है।
इस कृति के अन्त में पद्मावतीव्रत करने की विधि एवं तत्सम्बन्धी कथा दी गई हैं। इसके साथ ही इसमें पद्मावती के स्तोत्र, चालीसा, आरती आदि भी है। जिनरत्नकोश (पृ. २५५) में जिनपूजा से सम्बन्धित निम्नांकित कृतियों का उल्लेख हुआ है उनका उपलब्ध विवरण इस प्रकार है
पूजापंचाशिका - यह हरिभद्रसूरि द्वारा रचित है। इस पर अभयदेवसूरि ने एक यह रचना अचलगच्छीय उदयसागरसूरि की है। यह अज्ञातकर्तृक है। इस पर एक अवचूरी लिखी गई है। पूजा
टीका रची है। पूजापंचाशिका
पूजापंचाशिका
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१
यह कृति श्री १०८ शिवसागर ग्रन्थमाला, श्री शांतिवीर दिगम्बर जैन संस्थान, श्री शांतिवीर नगर (श्रीमहावीरजी) से वी.सं. २५२६ में प्रकाशित हुई है।
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456 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
पद्धति - इसकी रचना सं. १५३४ में हुई है। पूजाप्रकरण यह कृति वाचक उमास्वाति की मानी जाती है। किन्तु इस सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है इसे पूजाविधि-प्रकरण भी कहते हैं। यह रचना मुख्यतया अनुष्टुप छन्द के १६ पद्यों में निबद्ध है। इसमें पूजाविधि का विस्तृत निरूपण हुआ है। इसमें दिन के पृथक्-पृथक् समय में भिन्न-भिन्न प्रकार की पूजाएँ किये जाने का उल्लेख है । इसके साथ ही चक्षु दृष्टि को नीचे करके एवं मौन पूर्वक पद्मासन में बैठकर पूजा करने का विधान भी प्रस्तुत किया है। इसमें गृहचैत्य कैसी भूमि में बनाना चाहिये, जिनप्रतिमा की पूजा करने वाले को किस दिशा या किस विदिशा में मुख करके पूजा करनी चाहिए, पुष्प - पूजा के लिए कौन से और कैसे पुष्पों का उपयोग करना चाहिए, वस्त्र कैसे होने चाहिए इत्यादि पर भी प्रकाश डाला गया है। इसके अतिरिक्त नौ अंग की पूजा, अष्टप्रकारी पूजा तथा इक्कीस प्रकार की पूजा का भी निरूपण हुआ है। संक्षेपतः यह अत्यन्त लघु रचना है तथापि इसमें जिनपूजा के महत्त्वपूर्ण बिन्दु उद्घाटित हुए हैं।
पूजाप्रकरण - इसके कर्त्ता भद्रबाहु है यह संस्कृत में रचित है। पूजा विधान
यह रचना नेमिचन्द्र की है तपागच्छीय प्रद्युम्नसूरि के शिष्य मुनियशोदेव नें इसकी प्रथम नकल वि. सं. १२०८ में की थी । पूजा विधान - यह अज्ञातकर्तृक है। लगभग यह पूर्ववत् है । पूजाविधिप्रकरण - इसके कर्त्ता आचार्य जिनप्रभसूरि है। यह रचना ६०० श्लोक परिमाण है।
पूजाषोड़शक - यह रचना संस्कृत में धर्मकीर्ति ने रची है। पूजाष्टक - इसके कर्त्ता मुनि विजयचन्द्र है।
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पूजाष्टक इसकी रचना मुनि पद्मदेव के शिष्य मुनि लक्ष्मीचन्द्र ने की है। पूजाष्टक यह कृति वि. सं. ११२७ में चन्द्रप्रभ महत्तर द्वारा रची गई है।
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२
यह कृति बंगाल की 'रॉयल एशियाटिक सोसायटी' द्वारा वि.सं. १६५६ में प्रकाशित सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के द्वितीय परिशिष्ट के रुप में मुद्रित हुई है।
इस कृति का गुजराती अनुवाद श्री कुँवरजी आनन्दजी ने किया है वह 'श्री जम्बूद्वीप समास भाषान्तर पूजा - प्रकरण भाषान्तर सहित' नाम से 'जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर' से वि.सं. १६६५ में प्रकाशित हुआ है। उद्घृत - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४, पृ. २६३ यह पुस्तक पार्श्व भक्ति मंडल, नवरंगपुरा अहमदाबाद से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 457
पूजाष्टक - यह अज्ञातकर्तृक रचना है। पूजासंग्रह - इसमें मुनि रूपविजयजी कृत पूजाओं का संग्रह है। पूजासंग्रह
यह कृति हिन्दी पद्य में विरचित है। इसमें संग्रहित पूजाएँ श्री आत्मारामजी महाराज की बनाई हुई है। उन पूजाओं के नाम ये हैं- १. स्नात्रपूजा विधि २. द्वादशव्रत पूजा विधि ३. पंचकल्याणक पूजा विधि ४. एकवीस - प्रकार पूजा विधि ५. ऋषिमंडल पूजा विधि ६. नंदीश्वरद्वीप पूजा विधि ७. नवाणुंप्रकार पूजा विधि
अन्त में उपयोगी एवं प्राचीन स्तवनों, सज्झायों तथा गहूलियों का व्यापक संग्रह दिया गया है। पूजाविधिसंग्रह
यह कृति गुजराती पद्य में है। इसमें संग्रहीत की गई पूजाएँ पं. वीरविजयजी विरचित है। इसमें मुख्य रूप से तीन पूजाएँ वर्णित हैं १. श्री स्नात्र पूजा विधि २. श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा विधि ३. श्री अंतरायकर्मनिवारण पूजा विधि
पूजासंग्रह ( भा. १.२ )
यह कृति गुजराती पद्य में' है। इसमें बुद्धिसागरसूरीजी रचित तेरह पूजाओं की विधियाँ वर्णित हैं। इसके दूसरे भाग में वीरविजयजी एवं सकलचंद्रगणि कृत पूजाएँ दी गई हैं। उन पूजाओं का नामोल्लेख इस प्रकार हैं १. स्नात्र पूजा २. बारह भावनाओं की पूजा ३. सम्यक्त्वव्रत सहित बारहव्रत पूजा ४. महावीरस्वामी पंचकल्याणक पूजा ५. पंचज्ञान पूजा ६. अठारहपापस्थानकनिवारण पूजा ७. नवपद पूजा ८. पंचाचार पूजा ६. बीशस्थानकपद लघुपूजा १०. दशविधि यतिधर्म पूजा ११. अष्टकर्मनिवारण अष्टप्रकारी पूजा १२. वास्तुक पूजा १३. महावीरस्वामी अष्टप्रकारी पूजा
इस कृति के दूसरे भाग में उल्लिखित पूजाएँ ये हैं
१. पं. वीरविजयजी कृत - स्नात्र पूजा विधि २. पंचकल्याणक पूजा विधि ३ . बारहव्रत पूजा विधि ४. अंतरायकर्मनिवारण अष्टप्रकारी पूजा विधि, ५. सकलचन्द्रगणिकृत सत्रहभेदी पूजा विधि, ७. पं. पद्मविजयजीकृत - नवपद पूजा विधि
१
यह पुस्तक जैन श्वे. मूर्तिपूजक ट्रस्ट - महुडी से वि.सं. २०५६ में प्रकाशित हुई है।
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458/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
पूजासंग्रह
यह कृति गुजराती पद्य में है। इस कृति में विजयकमलसूरी के शिष्य मुनि लब्धिविजय द्वारा विरचित पूजाओं का संग्रह किया गया है। ये पूजाएँ
आत्मशुद्धि की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं। साथ ही ये तपागच्छीय परम्परा में विशेष प्रचलित हैं। इसमें उल्लिखित पूजा विधियों का नाम निर्देश इस प्रकार हैं - १. श्री महावीरस्वामी स्नात्र पूजा विधि २. श्री नवतत्त्व पूजा विधि- इसमें अष्टप्रकारी पूजा का क्रम निम्न है- २.१ प्रथम जीवतत्त्व में जलपूजा विधि २.२ द्वितीय अजीवतत्त्व में चंदनपूजा की विधि २.३ तृतीय पुण्यतत्त्व में पुष्पपूजा विधि २.४ चतुर्थ पापतत्त्व में धूपपूजा विधि २.५ पंचम आश्रवतत्त्व में दीपकपूजा विधि २.६ षष्टम संवरतत्त्व में अक्षतपूजा विधि २.७ सप्तम निर्जरातत्त्व में नैवेद्यपूजा विधि २.८ अष्टम बंधतत्त्व में फलपूजा विधि २.६ नवम मोक्षतत्त्व में सर्वार्घ पूजा विधि ३. पंचज्ञान की पूजा विधि ४. तत्त्वत्रयी (देव, गुरु, धर्म) की अष्टद्रव्य पूजा विधि ५. पंचमहाव्रत की पूजा विधि- यहाँ प्रत्येक महाव्रत की आराधना निमित्त अष्टप्रकारी पूजा करने का निर्देश है। ६. अष्टप्रकारी पूजा विधि ७. बारह भावना की पूजा विधि- यहाँ प्रथम अनित्य भावना में न्हवण पूजा, अशरण भावना में विलेपन पूजा, संसार भावना में वासचूर्ण पूजा, एकत्व भावना में पुष्पमाल पूजा, अन्यत्व भावना में दीपक पूजा, अशुचि भावना में धूप पूजा, आश्रव भावना में पुष्प पूजा, संवर भावना में अष्टमंगल पूजा, निर्जरा भावना में अक्षत पूजा, लोकस्वभाव भावना में दर्पण पूजा, बोधिदुर्लभ भावना में नैवेद्य पूजा
और धर्म भावना में फल पूजा करनी चाहिए। पूजन-पाठ-प्रदीप
__ यह संग्रह कृति है। इसमें कुल ३८ पूजाओं, भक्तामर आदि स्तोत्र पाठों और चालीसा आदि विविध उपयोगी सामग्री का संकलन हुआ है। इसमें उल्लिखित पूजाएँ ये हैं - १. नित्यनियम पूजा २. देवशास्त्रगुरु सिद्धपूजा (बालाप्रसाद कृत) ३. देवशास्त्र गुरु पूजा ४. श्री बीसतीर्थकर पूजा ५. श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा ६. सिद्ध पूजातीन प्रकार की कही गई हैं ७. समुच्चयचौबीसी पूजा ८. श्री आदिनाथजिन पूजा
२ यह कृति वि.सं. १६८० में नरोत्तमदास रीखबचंद लाडवा शेरी, राधनपुर ने प्रकाशित की है। ' (क) इस कृति का सम्पादन पं. हीरालालजी जैन ने किया है।
(ख) इसका प्रकाशन सन् १९६८ में श्री शास्त्र स्वाध्यायशाला, श्री पार्श्वनाथ दि. जैन मन्दिर, बर्फखाने के पीछे दिल्ली से हुआ है।
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६. श्री चन्द्रप्रभ जिन पूजा रामचन्द्रकृत १०. श्री शान्तिनाथजिन पूजाबख्तावरसिंहकृत ११. श्री पार्श्वनाथजिन पूजा - बख्तावरसिंहकृत १२. श्री महावीरजिन पूजा १३. श्री सप्तर्षि पूजा १४. श्री निर्वाणक्षेत्र पूजा १५. पंच बालयति पूजा १६. श्री पद्मप्रभजिन पूजा १७. श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा १८. श्री वासुपूज्यजिन पूजा १६. श्री कुन्थुनाथजिन पूजा २०. श्री अरहनाथजिन पूजा २१. श्री मल्लिनाथजिन पूजा २२. श्री नेमिनाथ जिन पूजा २३. श्री सोलहकारण पूजा २४. श्री पंचमेरु पूजा २५. श्री नन्दीश्वरद्वीप पूजा २६. श्री दशलक्षणधर्म पूजा २७. श्री रत्नत्रय पूजा २८. श्री सम्यग्दर्शन पूजा २६. श्री सम्यग्ज्ञान पूजा ३०. श्री सम्यक्चारित्र पूजा ३१. श्री क्षमावाणी पूजा ३२. श्री निर्वाणक्षेत्र पूजा ( बृहद् ) ३३. श्री ऋषिमण्डल पूजा ३४. श्री अकंपनाचार्य पूजा ३५. श्री विष्णुकुमारमुनि पूजा ३६. श्री रविव्रत पूजा ३७. श्री नवग्रह पूजा ३८. श्री चतुर्विंशति जिन पूजा इसके साथ शांतिपाठ की शास्त्रोक्त विधि, विसर्जन विधि, दीपावली पूजन विधि, नई बहियों की मुहूर्त विधि, सरस्वती पूजा विधि आदि भी वर्णित है। उक्त पूजाएँ दिगम्बर परम्परानुसार रची गई हैं।
पूजावली
यह कृति मूलतः हिन्दी पद्य में रचित है।' इसमें पृथक्-पृथक् आचार्यों एवं मुनियों द्वारा विरचित पूजाओं का संग्रह किया गया है। ये पूजाएँ प्रायः खरतरगच्छीय आचार्य एवं मुनियों की रची हुई हैं। उन पूजाओं के नाम ये हैं १. स्नात्र पूजा - श्री देवचन्द्रकृत २. अष्टप्रकारी पूजा - श्री देवचन्द्रकृत ३. सत्रहभेदी पूजा- श्री साधुकीर्ति मुनि कृत ४. अट्ठाईसलब्धिपूजा - लूंकागच्छीय रूपऋषिजीकृत ५. नवपद पूजा ६. विमलाचल पूजा - मुनि सुमति मण्डन रचित। ७. नन्दीश्वरद्वीप पूजा - समयसुंदर के शिष्य पाठक मुनिशिवचंदकृत । ८. ऋषिमण्डल पूजा - मुनि शिवचंदकृत । ६. समेतशिखर पूजा - मुनि बालचंद्रकृत १०. पैंतालीस आगम पूजा - मुनि ऋषिसारकृत ११ विंशतिस्थानक पूजा - जिनहर्ष सूरिकृ त १२. एकविंशतिविद्या पूजा- पाठक शिवचंदकृत १३. दादा गुरुदेव की अष्ट प्रकारी पूजा विधि १४. पंचकल्याणक पूजा आदि।
इसमें साथ ही प्रभु की आरती, दादागुरु की आरती, नवपद की आरती आदि भी दी गई हैं।
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यह पुस्तक वि.सं. १६३२ में मुर्शिदाबाद, अजीमगंज से प्रकाशित हुई है।
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460/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
पैंतालीसआगममहापूजनविधि
___ यह कृति तपागच्छीय श्री विजयदेवसूरि के सन्तानीय श्री पद्मविजय के शिष्य श्री रूपविजय द्वारा रचित है। यह महापूजन गुजराती भाषा में रचा गया है। वर्तमान में इस महापूजन का प्रचलन अधिक बढ़ रहा है। इस पूजन में पैंतालीस आगम ग्रन्थों की स्थापना करके प्रत्येक आगम की श्लोक, छंद और ढ़ाल के साथ अष्टप्रकारी पूजा की जाती है। इस महापूजन को प्रारम्भ करने के पूर्व चंदरवा, तोरण, पूंठीया सहित एक मंडप तैयार करना चाहिए अथवा उपाश्रयादि में स्थान की सुविधा हो तो वहाँ ४५ चंदरवा, पूंठीया बांधने चाहिए। आगमसूत्र रखने के लिए अढ़ी फूट ऊँची टेबलें रखनी चाहिए। प्रत्येक टेबल पर एक-एक ठवणी और रुमाल (सूत्र ढंकने के लिए) रखना चाहिए।
यहाँ ध्यातव्य है कि पैंतालीस आगम की महापूजन प्रारम्भ करने के पहले कुंभ स्थापना, दीपक स्थापना, भूमिशुद्धि, सकलीकरण न्यास, करन्यास, आत्मरक्षा, छोटिका न्यास, क्षेत्रपाल पूजन, पीठ स्थापना, यंत्रस्थापना, पाँच प्रकार की मुद्रा और प्रार्थना इत्यादि कई विधान सम्पन्न किये जाते हैं। इसके पश्चात् पैंतालीस आगम की पूजा प्रारम्भ होती है। इस कृति के बारह संस्करण निकल चुके हैं, यह तेरहवाँ संस्करण है। इसका संकलन मुनि दीपरत्नसागर ने किया है। इस पूजा का समापन होने पर सोलह विद्यादेवियों का पूजन करते हैं। पंचामृत द्वारा पाँचज्ञान का स्नात्र करते हैं तथा चैत्यवंदन विधि, १०८ दीपक की आरती
और शांतिकलश विधि भी करते हैं। पंचमेरुनन्दीश्वरविधान
यह कृति मुख्यतः हिन्दी पद्य में रचित है। इसमें मन्त्रों का बहलता के साथ प्रयोग हुआ है। यह विधान कवि पं. टेकचंद विरचित है। यह कृति दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध है। इस पुस्तक के प्रारम्भ में व्रत का माहात्म्य अर्थात पंचमेरु जिनपूजन का उद्यापन बतलाया गया है इसके साथ ही पंचमेरु की स्थापना विधि का उल्लेख किया गया है। इसके पश्चात् १. सुदर्शनमेरु २. विजयमेरु ३. अचलमेरु ४. मन्दरमेरु और ५. विद्युन्मालिमेरु इन पाँचों से सम्बन्धित जिन बिम्बों की अर्घपूर्वक पूजन विधि कही गई हैं।
इस कृति के दूसरे भाग में नन्दीश्वरद्वीप की पूजन विधि का वर्णन है इसमें क्रमशः पूर्व दिशा के जिनालय, दक्षिण दिशा के जिनालय, पश्चिम दिशा के
.२ यह कृति आगम श्रुत प्रकाशन, अहमदाबाद, ने वि.सं. २०५४ में प्रकाशित की है। ' इस कृति का प्रकाशन वी.सं. २५१६ में सरल जैन ग्रन्थ भण्डार, जबलपुर से हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/461
जिनालय एवं उत्तर दिशा के जिनालय के जिनबिम्बों की पूजा करने का निर्देश है। ऐसा कृतियाँ अत्यल्प देखने को मिलती है। पंचपरमेष्ठीविधान
यह रचना प्रायः हिन्दी पद्य में है। इसके रचयिता राजमल पवैया है। इस कृति में प्रारम्भिक कृत्य के साथ अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पांच परमेष्ठियों की पूजा करने का विधि पूर्वक उल्लेख हुआ है। एक पंचपरमेष्ठी विधान कविवर टेकचन्दजी कृत है, जो सर्वाधिक प्रचलित है। पंचामृतभिषेक पाठ
मुनि विमलसागरजी द्वारा संकलित यह रचना संस्कृत गद्य-पद्य मिश्रित हैं। अरिहन्त पूजा-अष्टक मराठी भाषा में दिया गया है। इसमें पंचामृत अभिषेक की विधि के साथ-साथ शान्तिमंत्र, बृहद् शान्ति मंत्र भी दिये गये हैं।' यदि तुलना की दृष्टि से कहें तो श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जो लघुशांति और बृहदशान्ति पाठ हैं उसी के समकक्ष दिगम्बर परम्परा में शान्तिमंत्र और बृहदशान्तिमन्त्र है। दोनों परम्पराओं के पाठ मन्त्रों में शब्द व अर्थ की दृष्टि से काफी कुछ समानता भी दृष्टिगत होती है। बृहत्स्नात्रविधि
यह रचना १३०० श्लोक परिमाण है। इसमें बृहत्स्नात्रविधि का निरूपण हुआ है यह इस कृति के नाम से स्पष्ट हो जाता है।' बृहद्हवनविधि
इसके कर्ता श्री नेमिचन्द्र है। बृहद-पूजासंग्रह
यह कृति विविध प्रकार की पूजा विधियों से सम्बन्धित है। यह हिन्दी पद्य में निर्मित है। इस कृति में उल्लिखित पूजाएँ खरतरगच्छ परम्परा के आचार्यों एवं मुनियों द्वारा रची गई है। प्रस्तुत कृति की संग्रहित पूजाएँ एवं उसकी विधि का सूचीक्रम निम्नांकित है१. श्री स्नात्रपूजा एवं उसकी विधि- श्री देवचंद्रकृत २. अष्टप्रकारी पूजा-विधि ३.
२ प्रका. अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन ए-४, बापूनगर, जयपुर। ' प्रका. भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्। २ जिनरत्नकोश पृ. २८६ ३ यह पुस्तक कलकत्ता से प्रकाशित है।
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462 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
श्री नवपद पूजा-विधि ४. श्री पंचपरमेष्ठी पूजा विधि - श्री हर्षसूरिकृत ५. श्री विंशस्थानक पूजा विधि - श्री हर्षसूरिकृत ६. पांचज्ञान पूजा विधि ७. श्री पंचकल्याणक पूजा विधि - श्री बालचन्द्रउपाध्यायकृत ८. श्री ऋषिमण्डल पूजाविधि - श्री हर्षसूरिकृत ६. श्री सतरहभेदी पूजाविधि - साधुकीर्ति गणिकृत १०. श्री बारहव्रत पूजा-विधि - पण्डित कपूरचन्दजीकृत ११ श्री रत्नत्रय आराधना पूजा विधि- श्री कवीन्द्रसागर सूरिकृत १२. श्री पार्श्वनाथप्रभु पूजा विधि - श्री कवीन्द्रसागरसूरि कृत १३. श्री महावीरस्वामी पूजा विधि - मुनि चतुरसागरकृत १४. श्री शासनपति पूजा विधि - मुनि चतुरसागरकृत १५. श्री सिद्धाचलजी पूजाविधिश्री सुगुणचन्द्रोपाध्यायकृत १६. श्री सम्मेतशिखरगिरि पूजा विधिबालचन्द्रोपाध्यायकृत १७. प्रथम दादा जिनदत्तसूरि पूजा - श्री हरिसागरसूरिकृत १८. द्वितीय दादा जिनचन्द्रसूरि पूजा - श्री हरिसागरसूरिकृत १६. तृतीय दादा जिनकुशलसूरि पूजा - श्री हरिसागरसूरिकृत २०. चतुर्थ दादा जिनचन्द्रसूरि पूजाश्री हरिसागरसूरिकृत।
स्पष्टतः मूर्तिपूजक परम्परा में विभिन्न प्रकार की पूजाएँ प्रचलित हैं तथा महापूजन के नाम से पूजाविधि का प्रचलन उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है । बृहद विधानसंग्रह
यह भी एक संकलित संग्रह है।' इसमें दस प्रकार के पूजा विधानों का संकलन किया गया है। ये विधान प्रायः हिन्दी पद्य में है। साथ ही इसमें मन्त्र प्रयोग की बहुलता है। इसमें वर्णित पूजा विधानों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं
१. नवग्रहअरिष्टनिवारकविधान इस विधान में कुल १० पूजाएँ होती हैं। नौ पूजा नवग्रह की शांति के लिए एवं एक समुच्चय पूजा होती है। इस विधान का वर्णन अलग से किया गया है।
२. कर्मदहनविधान आठ कर्मों की १४८ कर्म प्रकृतियों के नाश के लिए इस विधान की रचना हुई है। इस विधान में ६ पूजाएँ होती हैं। इसमें कर्मदहन विधान की जाय विधि भी बतलाई गई है।
३. पंचकल्याणकविधान प्रत्येक तीर्थंकर के ५-५ कल्याणक होते हैं। इनकी अलग-अलग पूजा करना पंचकल्याणक पूजन विधान कहलाता है। यह विधान प्रायः वेदी प्रतिष्ठा, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, मन्दिर शुद्धि आदि अवसरों पर किया जाता है।
४. पंचपरमेष्ठीपूजाविधान - पूज्य व्यक्तियों में सर्वोत्तम पूज्य पंच परमेष्ठी होते
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यह कृति श्री सेठी बन्धु श्री वीर पुस्तक मन्दिर श्री महावीर जी (राज.) से प्रकाशित है।
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हैं। इस पूजन विधान में इन्हीं पंच परमेष्ठियों के १४३ गुणों का वर्णन किया गया है । दिगम्बर परम्परा में अरिहंत भगवान के ४६ गुण, सिद्ध के ८, आचार्य के ३६, उपाध्याय के २५ और साधु के २८ गुण माने गये हैं।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 463
५. ऋषिमण्डलविधान यह विधान मंत्र शास्त्र से सम्बन्धित है। इस मंत्र विधान के माध्यम से सभी प्रकार के मनोरथ सफल होते हैं। सर्व प्रकार की आधि-व्याधि-भय- उपद्रव - कष्ट आदि का नाश होता है।
६. सम्मेदशिखरविधान- इस क्षेत्र से वर्तमान चौबीसी के बीस तीर्थंकर मोक्ष पधारे थे। अतः वहाँ बीस ट्रंकों का निर्माण हुआ है। इस विधान में प्रत्येक ट्रंक की पूजा एवं यहाँ से मोक्ष जाने वाले जीवों की संख्या बतलायी गई है।
७. चौसठऋद्धिविधान यह विधान दिगम्बर जैन समाज में अधिक प्रचलित है। यह विधान इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग रोगादि की शान्ति आदि के लिए किया जाता है। इसका दूसरा नाम शान्तिमण्डलपूजनविधान भी है। इसमें आठ ऋद्धियों के चौसठ अर्घ चढ़ाते हैं ।
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८. पंचमेरूपूजनविधान - जंबूद्वीप के बीच में एक लाख योजन ऊँचा एक गोल पर्वत है। जिसका नाम सुदर्शनमेरु है । धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व तथा पश्चिम दिशा में ८४-८४ हजार योजन ऊँचे दो पर्वत हैं। इसी प्रकार पुष्करद्वीप में भी दोनों दिशाओं में उतने ही बड़े दो पर्वत हैं। उन पाँचों ही मेरु पर्वतों के ऊपर 'पांडुक' नाम का वन हैं वहाँ 'पाण्डुक शिला' है जिस पर तीर्थंकर भगवन्तों का जन्माभिषेक करते हैं। यहाँ कुल चार वन है। इन चारों वनों के चारों दिशाओं में पर्वत बने हुए हैं। प्रत्येक पर्वत के चारों दिशाओं में एक-एक चैत्यालय होने से प्रत्येक पर्वत पर सोलह चैत्यालय हैं अतः पाँच पर्वतों के कुल ८० चैत्यालय होते है । इस विधान के माध्यम से उन चैत्यालयों में बिराजमान प्रतिमाओं की पूजा की जाती है ।
६. नन्दीश्वरद्वीपविधान - जम्बूद्वीप से आठवाँ द्वीप नन्दीश्वर है । उस द्वीप के चारों दिशाओं में काले रंग के ८४-८४ हजार योजन ऊँचे अंजनगिरि नाम के गोल पर्वत हैं। उन पर्वतों के चारों और एक-एक लाख योजन लंबी चौड़ी चार-चार बावड़ियाँ हैं उन झीलों (बावड़ी ) में दस-दस हजार योजन ऊँचे एक-एक दधिमुख नामक सफेद गोल पर्वत हैं तथा उन झीलों के बाहरी दो-दो कोनों पर एक-एक हजार योजन ऊँचे लालरंग के रतिकर नाम के दो-दो गोल पर्वत हैं यानि प्रत्येक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर इस प्रकार कुल तेरह - तेरह पर्वत हैं। चारों दिशाओं में कुल ५२ पर्वत हैं। इन प्रत्येक पर्वतों पर एक - एक अकृत्रिम जिन मंदिर हैं उनमें १०८ - १०८ रत्नमय पाँचसौ-पाँच सौ धनुष अवगाहन की मनोहर प्रतिमाएँ हैं। इन नन्दीश्वरद्वीप पर कार्तिक,
फाल्गुन
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464/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
और आषाढ़ मास की शुक्ला अष्टमी से पूर्णिमा तक ८-८ दिन देव-इन्द्र जाकर बड़े उत्सव के साथ पूजन करते हैं। इस परम्परा का अनुकरण करते हुए यहाँ भी उक्त तीनों महिनों के अन्तिम आठ दिनों में यह पूजन किया जाता है। १०. कलिकुण्डपार्श्वनाथ पूजा - यह पूजन कलिकुण्डपार्श्वनाथ की आराधना निमित्त किया जाता है इस अतिशय युक्त प्रतिमा की पूजा करने से सभी प्रकार के विघ्न विपत्ति रोग आदि मिट जाते हैं। रत्नत्रयविधान
यह रचना पं. आशाधर की है। इसे रत्नत्रयविधि' भी कहते हैं। इसका उल्लेख आशाधरजी ने धर्मामृतग्रन्थ की प्रशस्ति में किया है। राजप्रश्नीयसूत्र
जैन उपांग सूत्रों में इसका दूसरा स्थान रहा हुआ है। यह प्राकृत गद्य में रचित है। इसका श्लोक परिमाण २१२० है। मूलतः यह ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है। इसके प्रथम विभाग में 'सूर्याभ' नामक देव श्रमण भगवान महावीर के समक्ष उपस्थित होता है और वह विविध प्रकार के नाटकों का प्रदर्शन करता है। द्वितीय विभाग में केशी कुमार श्रमण के साथ राजाप्रदेशी का जीव के अस्तित्व और नास्तित्व को लेकर मधुर संवाद प्रस्तुत है।
___इससे भी बढ़कर हमे इस सूत्र में सर्वप्रथम जिनपूजा करने का उल्लेख मिलता है। इससे पूर्व ज्ञाता धर्मकथासूत्र के संक्षिप्त उल्लेख के सिवाय इस विषय की कोई चर्चा परिलक्षित नहीं होती हैं। राजप्रश्नीयसूत्र' में सूर्याभदेव द्वारा की गई जिनपूजा का वर्णन इस प्रकार है- 'सूर्याभदेव ने व्यवसाय सभा में रखे हुए पुस्तकरत्न को अपने हाथ में लिया, हाथ में लेकर उसे खोला, खोलकर उसे पढ़ा और पढ़कर धार्मिक क्रिया करने का निश्चय किया, निश्चय करके पुस्तक रत्न को वापस रखा, रखकर सिंहासन से उठा
और नन्दा नामक पुष्करिणी पर आया। फिर नन्दा पुष्करिणी में प्रवेश होकर उसने अपने हाथ-पैरों का पक्षालन किया तथा आचमन कर पूर्णरूप से स्वच्छ
और शुचिभूत होकर स्वच्छ श्वेत जल से भरी हुई शृंगार (झारी) तथा उस पुष्करिणी में उत्पन्न शतपत्र एवं सहन पत्र कमलों को ग्रहण किया। फिर वहाँ से चलकर जहाँ सिद्धायतन (जिनमंदिर) था, वहाँ आया।
___ उसमें पूर्वद्वार से प्रवेश करके जहाँ देवछन्दक और जिनप्रतिमा थी
' (क) राजप्रश्नीय सूत्र १६८-२०० (ख) आधार जैनधर्म और तान्त्रिक साधना- डॉ. सागरमल जैन, पृ. ५८-५६
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वहाँ आकर जिनप्रतिमाओं को प्रणाम किया। उसके बाद लोममयी प्रमार्जनी हाथ में ली। उस प्रमार्जनी से जिनप्रतिमा को प्रमार्जित किया। प्रमार्जित करके सुगन्धित जल द्वारा उन जिनप्रतिमाओं का प्रक्षालन किया। फिर उन पर गोशीर्ष चंदन का लेप किया। गोशीर्ष चंदन का लेप करने के पश्चात् उन्हें सुवासित वस्त्रों से पौंछा। उसके बाद जिन प्रतिमाओं को अखण्ड देवदूष्य युगल पहनाया। फिर पुष्पमाला, गंधचूर्ण एवं आभूषण चढ़ाये। तदनन्तर नीचे लटकती लम्बी-लम्बी गोल मालाएँ पहनायीं। पंचवर्ण के पुष्पों की वर्षा की। फिर जिनप्रतिमाओं के समक्ष विभिन्न चित्रांकन किये एवं श्वेत तन्दुलों से अष्टमंगल का आलेखन किया।
उसके पश्चात् जिन प्रतिमाओं के समक्ष धूप को प्रगट किया। तत्पश्चात् विशुद्ध, अपूर्व, अर्थयुक्त १०८ छन्दों से भगवान की स्तुति की। स्तुति करने के बाद सात-आठ पैर पीछे हटा। पीछे हटकर बाँया घुटना ऊँचा किया तथा दायाँ घुटना जमीन पर झुकाकर तीन बार मस्तक पृथ्वीतल पर नमाया। फिर मस्तक ऊँचा करके दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके 'नमोत्थुणं अरहन्ताण-ठाणं संपत्ताणं' नामक शक्रस्तव का पाठ किया। इस प्रकार अर्हन्त और सिद्ध भगवान् की स्तुति करने के बाद जिनमंदिर के मध्य भाग में आया। उसे प्रमार्जित कर दिव्य जलधारा से सिंचित किया और गोशीर्ष चंदन का लेप किया तथा पुष्पसमूहों की वर्षा की। तत्पश्चात् उसी प्रकार उसने मयूरपिच्छि से द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्यालों को प्रमार्जित किया। फिर उनका प्रक्षालन कर उनको चंदन से अर्चित किया तथा धूपक्षेप करके पुष्प एवं आभूषण चढ़ाये। इसी प्रकार सूर्याभदेव ने मणिपीठिकाओं एवं उनकी जिनप्रतिमाओं की, चैत्यवृक्ष की तथा महेन्द्र-ध्वजा की पूजा-अर्चना की।
इस विवरण से स्पष्ट होता है कि राजप्रश्नीयसूत्र काल में मन्त्रों के अतिरिक्त जिनपूजा की एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया निर्मित हो चुकी थी। अनुमानतः इसी प्रकार का विवरण वरांगचरित्त के २३ वें सर्ग में भी उपलब्ध होता है। लघुपयावतीमंडलआराधनाविधि
- इस कृति का आलेखन कुन्थुसागरजी ने किया है। यह प्रायः हिन्दी पद्य में है। इसमें जिनशासनरक्षिका पद्मावतीदेवी की आराधनाविधि-वन्दनाविधि, मंडलविधि एवं पूजाविधि कही गई है। वस्तुतः यह कृति पद्मावतीदेवी के पूजा विधान से सम्बद्ध है। इस विधान के समय क्रमशः ये अनुष्ठान किये जाते हैंघटयात्रा, ध्वजारोपण, अंकुरारोपण, संध्यावंदन, पूजामुख, सकलीकरण, महामंडलाराधना, यज्ञदीक्षा, भूमिशोधन, मंडपप्रतिष्ठा, जाप्यानुष्ठान,
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466 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
पंचामृत अभिषेक, नवदेवतापूजा, श्री पार्श्वनाथपूजा, श्री धरणेन्द्रपूजा, पद्मावतीपूजा, पद्मावतीसहस्रनाम महाअर्घ्यपूजा अन्त्यनअनुष्ठान, हवन, रथचालन, व्रतनिष्ठापन, तिथि, ग्रह, यक्ष-यक्षी अर्घ आदि ।
इसमें पार्श्वनाथ स्तोत्र, पद्मावती स्तोत्र, चालीसा, आरती, मंत्र साधना आदि अनेक विषय संग्रहित हैं। इसमें पद्मावतीमंडलविधानयन्त्र, गणधर, सामान्यकेवली और तीर्थंकर के हवन कुंड, १०८ और १००८ कलश रचनायन्त्र तथा पूजन सामग्री भी दी गयी है।' निःसंदेह यह वैधानिक रचना सारभूत सामग्री संयुक्त है। विविधपूजासंग्रह (सचित्र) (भाग १ से ७ तक )
यह संग्रह गुजराती पद्य में है। इसमें पं. वीरविजयजी, रूपविजयजी, पद्मविजयजी, यशोविजयजी, आत्मारामजी, बुद्धिसागरजी आदि के द्वारा रची गई पूजाओं का संकलन किया गया है। ये सभी पूजाएँ वर्तमान में प्रचलित हैं। इन पूजाओं के रचयिता तपागच्छीय परम्परा के अनुवर्त्तक आचार्य एवं मुनि रहे हैं। ये पूजाएँ तपागच्छीय परम्परा में विशेष प्रचलित हैं। यह कृति सचित्र है। इसमें २१ के लगभग चित्र दिये गये हैं। इसके साथ ही इसमें संकलित पूजाओं को सात भागों में विभक्त किया गया है। वह विवरण संक्षेप में इस प्रकार है
प्रथम भाग- इसमें कुल ग्यारह पूजाएँ दी गई हैं उनमें आदि की चार पूजाएँ स्नात्रपूजा से सम्बन्धित है किन्तु उनके रचयिता भिन्न-भिन्न हैं । वे चारों पूजाएँ क्रमशः वीरविजय, कविदेवपाल, उपा. देवचन्द्र एवं रूपविजयजी द्वारा रचित है। इसके अनन्तर पाँचवी शांतिनाथकलशविधि, छठी अष्टप्रकारीपूजा, सातवीं पंचकल्याणपूजा, आठवीं नवाणुं प्रकार की पूजा, नौंवी द्वादशव्रतपूजा, दशवीं पैंतालीस आगमपूजा, ग्यारहवीं चौसठ प्रकारीपूजा हैं। ये सभी पूजाएँ श्री वीरविजयजीकृत हैं।
द्वितीय भाग - इस भाग में छह पूजाएँ वर्णित हैं उनमें से निम्न चार पूजाएँ रूपविजयजी कृत हैं - १. पंचकल्याणक की पूजाविधि एवं पंचकल्याणक पूजा २. पंचज्ञान की पूजाविधि एवं पंचज्ञान पूजा ३. बीशस्थानक की पूजाविधि एवं बीशस्थानक पूजा ४. पैंतालीस आगम की पूजा ५. अष्टप्रकारी पूजा- दो प्रकार की दी गई हैं। एक देवविजयजी कृत है तथा दूसरी उत्तमविजयजी रचित है। तृतीय भाग- यह भाग नौ प्रकार की पूजा-विधि से समन्वित है। उनके नामोल्लेख निम्नांकित हैं - १. बीशस्थानकतप प्रकार की पूजाविधि एवं बीशस्थानकतप पूजा
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प्रका. श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर ट्रस्ट नालासोपारा, मुंबई ।
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यह कृति वि.सं. १६७६ में, मेघजी - हीराजी बुकसेलर पायधुनी, मुंबई से प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/467
श्री विजयलक्ष्मीसूरिकृत २. एकवीश प्रकार की पूजा- सकलचंद्रउपाध्यायकृत ३. सत्रह-भेदी की पूजाविधि एवं सत्रहप्रकारी पूजा- सकलचंद्रउपाध्यायकृत ४. सत्रहभेदी पूजा- मेघराजमुनिकृत ५. नवपद की पूजाविधि एवं नवपद पूजायशोविजय उपाध्यायकृत ६. नवपद पूजा- पद्मविजयजीकृत ७. नंदीश्वरद्वीप पूजाधर्मचंद्रजीकृत ८. अष्टापद की पूजाविधि- दीपविजयजीकृत ६. पंचतीथी की पूजाविधि एवं पंचतीथी पूजा- उत्तमविजयजीकृत चतुर्थ भाग- इसमें छः प्रकार की पूजाओं का उल्लेख हैं। उनमें १. अष्टप्रकारी पूजा २. नवपद पूजा ३. सत्रहभेदी पूजा ४. बीशस्थानक पूजा- ये चार पूजाएँ आत्मारामजी कृत हैं। ५. वास्तुक पूजा- बुद्धिसागरजीकृत है। और ६. अष्टप्रकारी पूजा- कुंवरविजयजीकृत है। इस भाग के अन्त में अष्टप्रकारीपूजा के दोहे, नवअंगपूजा के दोहे, अढ़ीसौं अभिषेक एवं आरती आदि भी संग्रहित हैं। पंचम भाग- यह भाग पांच प्रकार की पूजाओं से युक्त है। उनमें १. पंचकल्याणक पूजा- विजयराजेन्द्रसूरि रचित है, २. नेमिनाथ प्रभु की १०८ प्रकारी पूजाहंसविजयजीकृत है। ३. पंचतीर्थ पूजा- वल्लभविजय विरचित है ४. दशविध यतिधर्म पूजा- गंभीरविजयजीकृत है ५. दादागुरुदेव पूजा- मुनि रामऋद्धिसार कृत
षष्टम भाग- इस भाग में बुद्धिसागरजी कृत महावीरजन्मकल्याणक पूजा दी गई
सप्तम भाग- इस भाग के अन्तर्गत अहमदाबाद एवं पाटण (गुजरात) में बने हुए जिनालयों के मूलनायक तथा जिनालयों का इतिहास वर्णित है।
स्पष्टतः यह कृति पूजा करने वाले एवं पूजा कराने वाले आराधकों की दृष्टि से बहुमूल्य है। विविधपूजासंग्रह
यह एक संकलित कृति हिन्दी पद्य में निबद्ध है।' इसमें मुख्य रूप से विजयानन्दसरि, वल्लभसरि एवं हंसविजयजी द्वारा रची गई पूजाएँ उल्लिखित हैं। यह कृति रचनाकारों की अपेक्षा से तीन भागों में विभक्त है। इनमें कुल २६ पूजाएँ विधिसहित दी गई हैं।
विभागीकरण के आधार पर इसकी विषयसूची इस प्रकार है -
' यह पुस्तक जेसंगभाई छोटालाल सुतरीयालूसाबाड़ा, अहमदाबाद ने, वी.सं. १९८४ में प्रकाशित
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468 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
प्रथम भाग- इस प्रथम भाग में आत्मारामजी विजयानन्दसूरि रचित पाँच पूजाएँ दी गई हैं उन पूजाओं के नाम ये है- १. स्नात्र पूजाविधि २. अष्टप्रकारी पूजाविधि ३. नवपद पूजाविधि ४. सत्रहभेदी पूजाविधि ५. बीशस्थानक पूजाविधि
द्वितीय भाग- इस दूसरे भाग में मुनि हंसविजयजी कृत दो पूजाएँ संकलित हैं। वे निम्न हैं १. गिरनारमंडन श्री नेमिनाथ की १०८ प्रकारी पूजा २. समेतशिखरविंशति जिनपूजा
तृतीय भाग- इस भाग में उन्नीस प्रकार की पूजाओं का संग्रह है वे विजयवल्लभसूरि द्वारा विरचित हैं। उनके नाम ये हैं- १. पंचपरमेष्ठी पूजाविधि २. पंचतीर्थी पूजाविधि ३. श्री आदिश्वर पंचकल्याणक पूजाविधि ४. श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजाविधि ५. पार्श्वनाथप्रभु पंचकल्याणक पूजाविधि ६. महावीर प्रभु पंचकल्याण पूजाविधि ७. अष्टापदतीर्थ पूजाविधि ८. नंदीश्वरद्वीपतीर्थ पूजाविधि ६. निन्यानवें प्रकारी पूजाविधि १०. एकबीसप्रकारी पूजाविधि ११. ऋषिमंडल पूजाविधि १२. पंचज्ञान पूजाविधि १३. सम्यग्दर्शन पूजाविधि १४. सम्यक् चारित्र ( ब्रह्मचर्यव्रत ) पूजाविधि १५. एकादशगणधर पूजाविधि १६. द्वादशव्रत पूजाविधि १७. चौदहराजलोक पूजाविधि १८. संक्षिप्ता - ष्टकप्रकारी पूजाविधि । १६. आरती, मंगलदीपक, लूण उतारने की विधि । इस भाग के अन्त में पौंखणाविधि, शांतिनाथ - पार्श्वनाथ प्रभु की आरती, आदि का भी उल्लेख है।
इस कृति के सम्बन्ध में विशेष यह है कि इस पुस्तक की प्रस्तावना ज्ञानगर्भित है। उसमें कई विषयों पर प्रकाश डाला गया है। मुख्यतः उक्त पूजाओं की रचना करने वाले गुरु भगवन्तों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इसके साथ ही १. लोक साहित्य के उद्भव का इतिहास २. स्तवन - सज्झाय - रास और पूजा साहित्य की विशिष्टता ३ अर्थ ज्ञान की आवश्यकता ४. पूजा का संक्षिप्त इतिहास ५. पूजा का विषय ६. पूज्य - पूजक और पूजन ७. पूजा के प्रकार- द्रव्य और भाव ८. द्रव्यपूजा विधि ६. भावपूजा विधि १०. पंचपरमेष्ठी का स्वरूप ११. रत्नत्रय एवं पंचज्ञान का स्वरूप आदि का विवेचन किया गया है।
विधानसंग्रह
यह संग्रहित रचना दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है।' प्रतिष्ठाचार्य पं. वर्द्धमानकुमार सोंरया के द्वारा इस पुस्तक का सम्पादन किया गया है। इस रचना में संस्कृत पद्यों एवं हिन्दी पद्यों का बाहुल्य है। दिगम्बर परम्परा के विधि विधानों एवं पूजा विधानों से सम्बन्धित कृतियों में यह संग्रह अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान
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यह संग्रह सन् २००२ में, वीतराग वाणी ट्रस्ट, सैलसागर, टीकमढ़ से प्रकाशित हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 469
रखता है। यद्यपि इस कृति के प्रारम्भ में किसी रचनाकार के नाम का उल्लेख नहीं है परन्तु जो भी विधि-विधान संकलित किये गये हैं वे प्रायः किसी न किसी विद्वत आचार्य, मुनि या कवि द्वारा रचित हैं। इस कृति में उन-उन रचनाकारों के नाम भी दिये गये हैं जिनका उल्लेख आगे किया जा रहा है।
प्रस्तुत संग्रह तीन भागों में प्रकाशित है। इस संग्रह के प्रथम भाग में ये विधि-विधान वर्णित हैं- १. मण्डल विधान आरम्भ करने की विधि २. आवश्यकमंत्र, सकलीकरण, मण्डप प्रतिष्ठा विधि ३. अभिषेक विधि ४. पूजा प्रारम्भ करने की विधि एवं आवश्यक पूजा का अर्थ ५. विनायकमंत्र पूजा विधि ६. मंडल विधान एवं उसकी रचना विधि ७. पूजन विधि एवं बीजाक्षर अंकन ८. श्रुतस्कंध विधान- यह आचार्य श्रुतसागरजीकृत है । ६. श्री भक्तामर विधान - यह आचार्य सोमसेन द्वारा रचा गया है। १०. श्री शान्तिनाथ विधान- यह पं. ताराचन्दजी रिवाडी विरचित है। ११. बृहद्भिर्वाण विधान- यह कवि जगतराम जैन द्वारा बनाया हुआ है। १२. सम्मेदशिखर विधान- यह कवि जवाहरलाल द्वारा निर्मित है। १३. पंचमेरूपूजन विधान- यह कवि टेकचंदजी की रचना है । १४. कर्मदहन विधान- यह कवि श्रीचंद्रजी जैन द्वारा रचा गया है। १५. नंदीश्वरद्वीप विधान- इसकी रचना कवि रविलालजी ने की है । १६. नवग्रहअरिष्टनिवारक विधान- इसकी रचना मनसुखसागर द्वारा की गई है । १७. रत्नात्रय विधान- यह कवि टेकचंदजी द्वारा बनाया हुआ है। १८. महामृत्युंजय विधान- यह पं. आशाधर जी कृत है । १६. हवन विधि - यह प्रतिष्ठा ग्रंथ से संकलित की गई है।
प्रस्तुत संग्रह के दूसरे भाग में उल्लिखित विधान निम्नोक्त हैं
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प्रथम विभाग में वर्णित मण्डल विधान से लेकर बीजाक्षर अंकन तक के १ से ७ विधि-विधान इसमें भी यथावत् दिये गये हैं। उसके बाद निम्न विधि विधानों का उल्लेख हुआ हैं- १. यागमण्डल विधान - यह ब्र. शीतलप्रसादजी कृत है २. पंचकल्याणक विधान- यह भी ब्र. शीतलप्रसादजी कृत है ३. चौसठऋद्धि ऋषि विधान - यह कवि स्वरूपचंदजी द्वारा रचा गया है ४ दशलक्षण विधान - यह कवि टेकचंद्रजी की रचना है ५. लब्धि विधान- यह कवि श्रीचन्द्रजी रचित है ६ . णमोकार पैंतीसी विधान - यह रचना श्री सिद्धसागरजी की है ७. ऋषिमण्डल विधान- यह आर्यिका ज्ञानमतीजी द्वारा निर्मित है ८. रविव्रत विधान- इसकी रचना कवि कल्याणकुमारजी ने की है ६. जिनगुणसम्पत्ति विधान- इसकी रचना आर्यिका ज्ञानमती जी द्वारा की गई है ६. णमोकारमहामंत्र विधान- यह पन्नालालशास्त्री कृत है १०. गणधरवलय विधान- यह श्री शुभचन्द्राचार्य द्वारा लिखा गया है। ११. हवन एवं विधि- पूर्ववत्
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470/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
प्रस्तुत संग्रह के तीसरे विभाग में ये विधि-विधान निरुपित किये गये हैं १. पूजन विधि २. मण्डल सम्बन्धी विधानों की जानकारी- इस संग्रह में निम्न मण्डल विधान सचित्र दिये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- २.१ सोलहकारण विधान- सयन्त्र २.२ श्री नवदेवतामंडल विधान- सयन्त्र २.३ चतुर्विशतिपूजा विधान- सयन्त्र २.४ श्री समवसरण विधान- सयन्त्र २.५ श्री वास्तु विधानसयन्त्र २.६ श्री पंचपरमेष्टी विधान- सयन्त्र ३. आवश्यक संस्कार मंत्र विधि ४. अंगन्यास-सकलीकरण की संक्षिप्त विधि ५. मण्डप शुद्ध करने की विधि ६. अभिषेक पाठ एवं शांतिधारा विधि ७. विनयपाठ एवं दैनिक पूजा विधि ८. यंत्र पूजा की विधि ६. सोलहकारण विधान यह रचना श्री टेकचंदजी की है १०. समुच्चय नवदेवता विधान- यह ब्र. सूरजमलजी द्वारा रचित है ११. वर्तमानचतुर्विशति विधान- यह श्री वृन्दावनलाल जी द्वारा लिखा गया है १२. समवसरण विधान- यह कुंवरलालजी की रचना है १३. पंचपरमेष्ठी विधानइसकी रचना श्री टेकचंदजी द्वारा की गई है १४. वास्तु विधान- यह पं. विमलकुमारजी सोरया द्वारा सम्पादित किया गया है। शांतिनाथपूजाविधानमण्डल
यह कृति ब्र. शान्तिदास कवि की है।' इसका हिन्दी अनुवाद ब्र. सूरजमल जैन ने किया है। यह रचना संस्कृत गद्य-पद्य में है और दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है। इस पूजा विधान के सम्बन्ध में निर्देश है कि इस विधान को प्रतिमाह शुक्लपक्ष में सोलह दिनों तक करना चाहिए। इन दिनों में प्रतिदिन एक-एक हजार जाप करना चाहिए तथा पूर्णिमा के दिन सोलह हजार जाप्य, जातिपुष्प या लवंग से मंडल का पूजन करना चाहिए। वह मण्डल ८, १६, ३२, ६४ इस तरह १२० कोष्ठक का बनाना चाहिए। यह पूजन पूर्ण करने के बाद एक व्यक्ति झल्लरीयंत्र को जिनमंदिर के मुख्य द्वार पर बाँधे और एक व्यक्ति झल्लरीयंत्र तथा प्रतिमा का पंचामृताभिषेक करें। उस समय मंदिर के द्वार पर बंधे हुए झल्लरी यंत्र को बजाया जाना चाहिए। इस यंत्र की आवाज जितनी दूरी तक जाती है वहाँ तक सभी प्रकार की बीमारियाँ समाप्त हो जाती हैं। ऐसा आचार्यों का कथन है। तदनन्तर सोलह हजार जाप्य की दशांग आहूतियाँ दी जाना चाहिए।
प्रस्तुत विधान के अन्तर्गत सामान्यतः पंचामृताभिषेकविधि, लघुशान्तिधारा विधि, बृहत्शान्तिधारा विधि, शान्तिस्तोत्र का पाठ और अरिहंत पूजन विधि भी होती है।
' यह कृति श्री शांतिवीर दिगम्बर जैन संस्थान, श्री शांतिवीर नगर (महावीर जी) ने वि.सं. २५२७ में, प्रकाशित की है। यह १६ वी आवृत्ति है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/471
शान्तिविधान
राजमल पवैया द्वारा रचित यह दिगम्बर कृति हिन्दी पद्य में है। इसका अपर नाम नवदेवपूजन विधान है। दिगम्बर परम्परा अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु जिनालय, जिनबिम्ब, जिनवाणी (शास्त्र) और जिनधर्म इन नौ पद को नवदेव के रूप में स्वीकारती हैं। ये नवदेव शांतिप्रदायक और मंगलमय माने गये हैं। अतः आत्मिक शान्ति की प्राप्ति हेतु इन नवदेवों का स्तवन, पूजन, अर्चन आदि किया जाता है।
हम देखते हैं कि जैन समाज में शांति की प्राप्ति हेत अनेक प्रकार के अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता रहा है तथा आज भी शान्ति की प्राप्ति के लिए एवं अनिष्ट ग्रहों के निवारणार्थ विविध प्रकार के उपाय किये जा रहे हैं। उनमें एक उपाय शान्तिविधान का अनुष्ठान करना भी है। संभवतः दिगम्बर मत में किसी के मरणोपरान्त उस आत्मा की शान्ति अथवा गृह शान्ति हेतु शान्तिविधान या नवगृह विधान की प्रणाली है परन्तु पूजन-विधान का उद्देश्य स्वपरिणामों को उपशान्त बनाना है। अतः यह विधान न केवल मरण प्रसंग में अपितु जन्म, विवाह, गृहप्रवेश आदि किसी भी लौकिक प्रसंग या धार्मिक अनुष्ठानों में किया जा सकता है, क्योंकि इसमें नवदेवों के गुणों का स्मरण किया गया है। यह विधान करते समय अनुक्रमशः पंचपरमेष्ठी, चौबीसतीर्थंकरों, बीसविहरमानों, पाँच भरत एवं पाँच ऐरवतक्षेत्र के भूत, वर्तमान, भावी के मिलाकर सात सौ बीस तीर्थंकरों, तीनलोक के जिन चैत्यालयों, द्वादशांग रूप जिनवाणी, दर्शनविनयादि रूप तीर्थंकरपद प्राप्ति के सोलह कारण, क्षमादि दस यतिधर्म एवं सम्यक्दर्शनादि रत्नत्रयरूप जिनधर्म, जन्म, दीक्षा आदि पाँचकल्याणकों, अयोध्या, श्रावस्ती आदि कल्याणक भूमियों, अतिशय क्षेत्रों, वर्तमान चौबीसी के सहस्रनामों, आदि को मन्त्रोच्चार पूर्वक अर्घ्य चढ़ाया जाता है अर्थात् अक्षत नैवद्यादि द्वारा पूजन किया जाता है।'
निःसंदेह यह भक्ति-साहित्य के इतिहास की एक अभूतपूर्व रचना है। शान्तिनाथविधान
यह कृति जिनदास कवि प्रणीत है। श्री ताराचन्द जैन ने इस कृति का हिन्दी पद्य में अनुवाद किया है इसमें मन्त्रों का प्रयोग बहुलता से हुआ है। इस विधान का प्रारम्भिक परिचय नवग्रहअरिष्टनिवारकविधान नामक पुस्तक में कर चुके हैं।
' प्रका- अखिल भारतीय जैन युवा फैडरेशन ए-४, बापूनगर, जयपुर पंचम संस्करण
यह कृति- गजेन्द्र कुमार जैन, ५ सी/२३ न्यू रोहतक रोड़, नई दिल्ली से प्रकाशित है।
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472/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
यहाँ शान्तिनाथ पूजा विधान का स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार हैइस विधान में कुल चार वलय की पूजा होती हैं- प्रथम वलय की पूजा में ६ पद्यों, द्वितीय वलय की पूजा में १७ पद्यों तृतीय वलय की पूजा करते समय ३४ पद्यों द्वारा अर्घ्य दिया जाता है और चतुर्थ वलय की पूजा ६६ पद्यों द्वारा की जाती है। शान्तिस्नात्रअढार (अठारह) अभिषेकादि-विधि समुच्चय
यह एक संकलित की गई उपयोगी कृति है।' इस कृति का सम्पादन तपागच्छीय हेमचन्द्रसूरि के शिष्य गणि गुणशीलविजय ने किया है। इस कृति के मूल पाठ संस्कृत में हैं और अर्थ एवं विवेचन गुजराती में है। यह उल्लेखनीय है कि अढ़ारह-अभिषेक एवं शान्तिस्नात्र आदि के विधि-विधान से सम्बन्धित कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं तथापि यह संकलित रचना विशेष प्रयोजन से निर्मित हुई प्रतीत होती है। प्रस्तुत कृति में कुछ विधि-विधान ऐसे भी दिये गये हैं जो बहुत कम उपलब्ध होते हैं। इस कृति का अवलोकन करने से यह भी ज्ञात होता है कि इसकी मुद्रण शैली स्पष्ट और विधिकारकों की दृष्टि से परम उपयोगी बनी है। इसमें संकलित विधि-विधानों का सामान्य अर्थ और परिचय भी दिया गया है जो अन्यत्र दृष्टिगत नहीं होता है।
___ हम प्रस्तुत ग्रन्थ में उल्लिखित विधि-विधानों का नाम निर्देश मात्र कर रहे हैं। इसमें कुल बीस प्रकार की विधियाँ कही गई हैं वे निम्न हैं - १. कुभस्थापना विधि २. दीपकस्थापना विधि ३. जवारारोपण विधि ४. नवग्रह-पूजन विधि ५. दशदिक्पाल पूजनविधि ६. अष्टमंगल पूजनविधि ७. दशदिक्पाल आहान बृहद् विधि ८. जलयात्रा विधान ६. जलानयन विधि १०. संक्षिप्त पाटला पूजन विधि ११. श्री शान्तिस्नात्र विधि १२. अष्टोत्तरशत (बृहत्) स्नात्र विधि १३. श्री अष्टादश अभिषेक विधि १४. खातमुहूर्त विधि १५. बारसाख-स्थापना विधि १६. शिलास्थापन- कूर्मप्रतिष्ठा विधि १७. श्री जिनबिंबप्रवेश विधि १८. मन्दिर की वर्षगाँठ के दिन ध्वजाआरोपण करने की विधि १६. तीर्थयात्राशान्तिकम् २०. श्री तीर्थमालारोपण विधि।
संक्षेपतः इस कृति में संकलित किये गये विधि-विधान विशेष प्रचलन में है। और इसमें उपयोगी सामग्री का अच्छा संग्रह हुआ है।
' यह कृति श्री अमृत जैन साहित्यवर्धक सभा, मुंबई' वि.सं. २०५५ में प्रकाशित की है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/473
सम्मेदशिखरविधान .
यह विधान हिन्दी पद्य में रचित है। इसमें संस्कृत मन्त्रों की बहुलता है। इसकी रचना कवि जवाहरलाल ने की है। इसमें मुख्यतः वर्तमान चौवीशी के उन बीस तीर्थंकरों की अर्ध्यपूर्वक पूजा का विधान किया गया है जो समेतशिखर तीर्थ पर निर्वाणपद को प्राप्त हुए। यह विधान प्रायोगिक रूप से करने जैसा है। पूजा के भाव पढ़ने जैसे हैं। स्नात्रपूजा कलशादि संग्रह
यह एक संकलित कृति है।' इसमें प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा मिश्रित रचनाएँ हैं। इस कृति में स्नात्रपूजा के अतिरिक्त अन्य पृजाएँ भी संग्रहित की गई हैं। तीन-चार रचयिताओं की स्नात्रपूजाएँ भी दी गई हैं। यह कृति खरतरगच्छ और तपागच्छ दोनों परम्पराओं से सम्बन्धित है। इसमें कई आवश्यक विषयों का संग्रह किया गया है। इसका विषयनुक्रम इस प्रकर है - १. विधि विभाग - १. स्नात्र पूजाविधि २. अष्टप्रकारी पूजाविधि ३. सत्रहभेदी पूजाविधि ४.नवपद पूजाविधि ५. २५० अभिषेक विधि २. आरती विभाग -१. शांतिनाथप्रभु की आरती २. आदिनाथप्रभु की आरती ३. महावीरस्वामी की आरती- मंगलदीपक आदि। ३. स्नात्रपूजा विभाग -१ देवपालकविकृत- स्नात्रपूजा एवं विधि, २. आदिनाथ की जन्माभिषेक विधि, ३. कलश विधि, ४. वर्धमानस्वामी की जन्माभिषेक विधि, ५. पार्श्वनाथप्रभु की कलश विधि, ६. शांतिनाथप्रभु की कलश विधि ७. देवचन्द्रजीक त- स्नात्रपूजा एवं विधि ८. देवचन्द्रजीकृत अष्टप्रकारीपूजा एवं विधि ६. वीरविजयजीकृत स्नात्रपूजा-अष्टप्रकारी पूजा एवं विधि १०. देवविजयजीकृत अष्टप्रकारीपूजा एवं विधि ११. विजयानंद सूरिकृत स्नात्रपूजा एवं विधि १२. श्री अजितनाथप्रभु कलश विधि १३. श्री शांति स्नात्र महापूजन विधि (२७ गाथाओं एवं २७ पूजन से युक्त) १४. श्री अष्टोत्तरी स्नात्र पूजा इन पूजाओं के साथ सत्रहभेदीपूजा एवं नवपदपूजा भी वर्णित हैं। अंत में मंगलकारी स्तोत्र, स्तुति, स्तवन आदि उल्लिखित हैं।
यह पुस्तक वि.सं. १६८५ में पोपटलाल साकरचंद शाह ,भावनगर वालों ने प्रकाशित की है।
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474/मंत्र, तंत्र, शिया सम्बन्धी साहित्य
सिद्धचक्रयंत्रोद्धारपूजनविधि
इसका प्रारम्भ २४ पद्यों की विधिचतर्विशतिका' से किया गया है। मुद्रित पुस्तिका में प्रारम्भ के १३/ पद्य नहीं हैं, क्योंकि यह पुस्तक जिस हस्तलिखित पोथी से तैयार की गई है, उसमें पहला पन्ना नहीं था।
__इस पहली चौबीसी के पश्चात् 'सिद्धचक्रतपोविधानोद्यापन' नामक चौबीस पद्यों की एक दूसरी चतुर्विंशतिका है। इसके बाद 'सिद्धचक्राराधनफल' नाम की एक तीसरी चतुर्विंशतिका है। ये तीनों चतुर्विंशतिकाएँ संस्कृत में हैं। इन तीनों चतुर्विंशतिकाओं के उपरान्त इसमें सिद्धचक्र की पूजनविधि भी दी गई है। इसके अनन्तर नौ श्लोकों का संस्कृत में सिद्धचक्रस्तोत्र है। इसी प्रकार इसमें लब्धिपदगतिमहर्षिस्तोत्र, क्षीरादिस्नात्रविषयक संस्कृत श्लोक, जलपूजा आदि आठ प्रकार की पूजा के संस्कृत श्लोक, चौदह श्लोकों की संस्कृत में 'सिद्धचक्रयंत्रविधि' और पन्द्रह पद्यों का जैन महाराष्ट्री में विरचित 'सिद्धचक्कप्पभावथोत्त' है।
इसमें यथास्थान दिक्पाल, नवग्रह, सोलह विद्यादेवी एवं यक्ष-यक्षिणी के पूजन के बारे में भी उल्लेख है। सिद्धचक्रबृहत्पूजनविधि
प्रस्तुत कृति मूल रूप से संस्कृत गद्य-पद्य में रचित है।' इस कृति का गुजराती अनुवाद हो चुका है वह इसी कृति के साथ पीछे दिया गया है। जैन परम्परा के मूर्तिपूजक आम्नाय में इस विधान का विशिष्ट महत्त्व है। तीर्थंकर प्रतिमाओं की अंजनशलाका-प्रतिष्ठा अदि के अवसर पर यह विधान अवश्यमेव किया जाता है। इसमें सिद्धचक्रपूजनविधि का सविस्तार वर्णन किया गया है। हम विस्तार से पूजाविधि का नामनिर्देश मात्र सूचित कर रहे हैं। यह विधान अनुक्रम से इस प्रकार सम्पन्न होता है
सर्वप्रथम पूजन उपयोगी सामग्री को वाग्यदान पूर्वक अभिमन्त्रित करते हैं। फिर गाजे बाजे के साथ प्रभु प्रतिमा को बिराजमान करते हैं तत्पश्चात् सिद्धचक्र की तीन चौबीसियों को मधुर स्वर में गाते हैं। ये तीनों चौबीसिया २४-२४ पद्यों में है। उसके बाद 'अर्हन्तो भगवन्त' की स्तुति बोलकर सिद्धचक्रपूजन का प्रारम्भ करते हैं उस समय भूमि शुद्धि एवं भूमि प्रमार्जन हेतु वायुकुमारादि देवों का
२ यह कृति नेमि-अमृत-खान्ति परंजन-ग्रन्थमाला अहमदाबाद से, वि.सं. २००८ में 'सिद्धचक्रमहामंत्र' के साथ प्रकाशित हुई है। ' यह पुस्तक वि.सं. २०३० में, जैन प्रकाशन मंदिर शाह जसवंतलाल गिरधरलाल ३०६/४ दोशीवाडानी पोल अहमदाबाद से प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/475
आहन किया जाता है पूजा करने कराने वाले भक्तिवंत श्रावकजन शरीरशुद्धि, हृदयशुद्धि और आत्मरक्षादि की विधियाँ करते हैं।
तत्पश्चात् सिद्धचक्र मंडल पट्ट का हृदय में चिंतन करते हुए उसे स्वच्छ चौकी के ऊपर स्थापित करते हैं वह पट्ट नौ वलय से युक्त होता है। इन नौ वलयों का पूजन करना ही सिद्धचक्र पूजन है। प्रथम वलय में नवपद की अष्टप्रकारी पूजा की जाती है। द्वितीय वलय में सोलह अनाहतों का पूजन, तृतीय वलय में अट्ठाईस लब्धिपदों का पूजन, चतुर्थ वलय में गुरु पादुकाओं का पूजन पंचम वलय में अठारह प्रकार के अधिष्टायक देवों का पूजन, षष्टम वलय में जयादि देवों का पूजन, सप्तम वलय में सोलह विद्यादेवियों देवों का पूजन, अष्टम वलय में चौबीस यक्ष और चौबीस यक्षिणियों का पूजन, नवम वलय में चतुर्धारपाल और चतुर्वीर का पूजन किया जाता है। तदनन्तर दशदिक्पाल और नवग्रह का पूजन किया जाता है। उसके बाद क्षीर, दधि, घृत, इक्षुरस, गन्धोदक एवं शुद्धजल के द्वारा यन्त्र पट्ट का स्नात्र किया जाता है। पुनः यन्त्र पट्ट की अष्टप्रकारी पूजा की जाती है।
यहाँ ध्यातव्य हैं कि इस कृति के प्रारम्भ में संस्कृत की मूलविधि दी गई है उसके बाद उस विधि में आने वाले श्लोकों, स्तोत्रों, मन्त्रोच्चारणों का गुजराती भाषा में विवेचन किया गया है। इस विधान का माहात्म्य अद्भुत है। यह प्राचीनतम विधान है। प्राचीनता की अपेक्षा से इस कृति का मूल्य स्वतः सिद्ध होता है। इसका संपादन सेठ जसभाई, लालभाई ने किया है। सिद्धचक्रयन्त्रोद्धारबृहत्पूजनविधि
यह एक संकलित रचना है। मूलतः यह संस्कृत शैली में निबद्ध है। इसकी व्याख्या गुजराती में है। इस कृति में अपने नाम के अनुसार सिद्धचक्रमहापूजन की विधि उल्लिखित हुई है। इस विश्व में सर्व कार्य सिद्ध करने वाला और परम पवित्र शक्तिवाला तत्त्व सिद्धचक्र को माना गया है। इसकी आराधना के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। सामान्यतया आराधना के दो प्रकार होते हैं १. सामान्य और २. विशिष्ट। श्रीपालराजा और मयणासुन्दरी ने विशिष्ट आराधना की था फल को प्राप्त किया वही आराधना विशिष्ट है। श्री सिद्धचक्र की विशिष्ट आराधना में यन्त्र एवं उसके पूजन-विधान का अतिशय महत्त्व है। श्री सिद्धचक्र संबंधी प्राचीन और अर्वाचीन अनेक यंत्र उपलब्ध होते हैं किन्तु वर्तमान
' यह कृति श्री अमृत जैन साहित्यवर्धक सभा दौलतनगर, मुंबई ने वि.सं. २०२७ में प्रकाशित की है।
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476/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
में श्री सिद्धचक्र महापूजन के समय जो यंत्र रखा जाता है अथवा जिस यंत्र का आलेखन किया जाता है उसका मुख्य आधार 'सिरिसिरिवालकहा' है।
प्रस्तुत कृति की प्रस्तावना में यंत्र का आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है। इस यंत्र में आलेखित मंत्राक्षरों, मंत्राक्षरों की मात्राएँ, वर्ण, स्वर, व्यंजन आदि का सोद्देश्य प्रतिपादन हुआ है। वस्तुतः श्री सिद्धचक्र बृहत्पूजन में क्रमशः निम्न विधि-विधान सम्पन्न किये जाते हैं- १. अतीत-वर्तमान एवं अनागत चौवीसी की पूजा २. यंत्र या मांडला के प्रथम वलय में नवपदों की पूजा ३. द्वितीय वलय में स्ववर्ग तथा अनाहत की पूजा ४. तृतीय वलय में अट्ठाईस लब्धिपदों की पूजा ५. चतुर्थ वलय में गुरु पादुका की पूजा ६. अधिष्ठायक देवों का आहान आदि ७. पंचम वलय में अधिष्ठायकादि देवों की पूजा ८. षष्ठ वलय में जयादि देवों की पूजा ६. सप्तम वलय में सोलह विद्यादेवियों की पूजा १०. अष्टम वलय में चौबीस यक्ष और चौबीस यक्षिणी की पूजा ११. नवम वलय में चतुर्धारपाल और चतुर्वीर की पूजा १२. दश-दिशाओं के दिक्पालों (देवों) की पूजा १३. नवग्रहों की पूजा १४. नवनिधि का पूजन १५. दुष्ट वित्रासन विधान १६. स्नात्र पूजा १७. अष्टप्रकारी पूजा १८.मंत्रध्यान और देववंदन विधि स्तोत्र अन्त में सिद्धचक्र और शांति का पाठ बोला जाता है।
इस पूजन के विषय में कहा जाता है कि श्री सिद्धचक्र के यंत्रोद्धार का मूल विधान विद्याप्रवाद नामक दशवें पूर्व में था, जब पूर्वो का विच्छेद हुआ तब उसमें से यह विधान महापुरुषों द्वारा उद्धृत कर लिया गया। प्राचीन परम्परा से लेकर अब तक इस विधान का प्रचलन विशेष रूप से रहा हुआ है। तथा प्रतिष्ठादि शुभकार्यों के प्रसंग पर मंगलकारी कृत्य के रूप में यह पूजन
अनिवार्यतः किया जाता है। सिद्धचक्रमण्डलविधान
___ यह एक संकलित कृति' है। इसके संकलनकर्ता आचार्य विमलसागरजी है। इसका सम्पादान डॉ. रमेशचन्द जैन ने किया है। यह रचना संस्कृत गद्य-पद्य की मिश्रित शैली में है। इसमें मन्त्रों का बाहुल्य है। यह कृति दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध है। दिगम्बराचार्यों ने गृहस्थ के लिए नित्यार्चन, चतुर्मख, कल्पद्रुम और अष्टाहिक आदि अनेक पूजाएँ कही हैं उनमें इन्द्रध्वज, महाशान्तिक, सिद्धचक्र, त्रैलोक्यविधान, तथा कोटि गुणों की पूजा करना अष्टाहिक पूजा कहलाती हैं। इन
' यह कृति सन् १९६० में, पार्श्वज्योति मंच, मड़ावरा (जि.) ललितपुर (उ.प्र.) से प्रकाशित हुई
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अष्टाहिक पूजा में सिद्धचक्र पूजा का भी स्थान है।
वस्तुतः सिद्धचक्र एक अभूतपूर्व विधान है। यह विधान हमें आत्मगुणों की ओर प्रेरित करता है, क्योंकि इसमें परमशुद्ध सिद्धआत्मा के गुणों की पूजा की गई है। इस विधान को महासती मयणासुन्दरी ने विधि एवं उत्साहपूर्वक किया था उसके परिणाम स्वरूप जिनबिम्ब एवं सिद्धचक्रयन्त्र के निर्मल न्हवन ( स्नात्र ) का जल छिड़कने मात्र से श्रीपाल राजा कुष्ठ रोग से मुक्त हो गये थे। सिद्धचक्र आराधना की यह परम्परा अद्यपर्यन्त भी चली आ रही है। दिगम्बर परम्परानुसार यह विधान अष्टाह्निक पर्वादिकाल में आठ दिनों तक भक्ति भावपूर्वक किया जाता है । इस विधान के समय जो भी कृत्य या विधियाँ सम्पन्न की जाती हैं उनका नामोल्लेख इस प्रकार है
सर्वप्रथम शुद्ध भूमि पर वेदिका का निर्माण करते हैं अथवा जिनालय के मण्डप के बाहर निर्मित वेदी पर आठ वलय वाला मण्डल बनाते हैं। उस मण्डल को सफेद चावलों एवं रंगीन चावलों से भरते हैं। उसके बाद आचार्य को निमन्त्रित करते हैं, विधानाचार्य निर्मित वेदी के सामने ध्वजारोहण का विधान करते हैं, फिर मण्डपवेदी की जगह पर सौभाग्यवती नारियों द्वारा हल्दी का लेप कराकर भूमि शुद्धि करते हैं। फिर मण्डप वेदी की प्रतिष्ठा की जाती है। उसके बाद पूजनादि सम्पूर्ण विधि को समुचित रूप से सम्पन्न करवाने के लिए योग्य व्यक्तियों की इन्द्र-इन्द्राणियों के रूप में प्रतिष्ठा (स्थापना) करते हैं। तदनन्तर आत्मरक्षा के लिए यजमानों (इन्द्र - इन्द्राणियों ) आदि का सकलीकरण करते हैं। करन्यास करते हैं और दिग्बंधन करते हैं।
तत्पश्चात् मृत्तिका नयन विधान करते हैं इसमें अंकुरारोपण करने के लिए प्रतिष्ठा के नौ दिन पूर्व शुभ वेला में सुहागिन स्त्रियों द्वारा मिट्टी मंगवाते हैं। इसके अनन्तर सर्वाह्ययक्ष की पूजा, पंचकुमार का पूजन और क्षेत्रपाल का पूजन करते हैं। फिर दिक्पालों का आह्वान करते हैं। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा की निर्विघ्न समाप्ति हो तथा अनागत काल में देश, पुर, राजा, प्रजा, इन्द्र एवं यजमान को यथेष्ट लाभ हो एतदर्थ प्रतिष्ठा से नौ दिन पूर्व ही अंकुरारोपण के दिन जाप्यानुष्ठान की विधि प्रारम्भ करते हैं। इसके अनन्तर विनायक यन्त्र की पूजा करते हैं। फिर दिक्पाल आदि देवी-देवताओं का आह्वान करते हैं, देवी-देवताओं की उन-उन दिशाओं में विभिन्न रंगों की ध्वजाएँ स्थापित करते हैं, फिर क्रमशः वायुकुमार, मेघकुमार आदि का पूजन करते हैं, क्षेत्रपाल का पूजन करते हैं, सर्वाहव्यक्ष का पूजन करते हैं, नवग्रह का पूजन करते हैं, और शासन देवता का पूजन करते हैं। उसके बाद पंचामृत अभिषेक का प्रारंभ करते हुए आमन्त्रित सभी
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देवी-देवताओं एवं जिन बिम्ब का अर्ध चढ़ाते हैं । बिम्ब की स्थापना करते हैं, बिम्बों का पंचामृत से अभिषेक करते हैं महाशान्ति मंत्र को पढ़ते हुए अष्टप्रकारी पूजा करते हैं, चौबीस तीर्थंकरों के मंत्रों का उच्चारण करते हुए चौबीस बार पुष्पारोपण करते हैं। तदनन्तर सिद्धचक्र मण्डल ( यन्त्र) का मूल विधान प्रारंभ होता है इसमें यन्त्र का अभिषेक, यन्त्र का अर्ध निवेदन, यन्त्र की स्थापना, यन्त्र में अष्टदिग् बीजाक्षर की पूजा करते हैं। फिर उस यन्त्र के प्रथम वलय में अष्टदल, द्वितीय वलय में षोडशदल, तृतीय वलय में द्वात्रिंशत् (३२) कमलदल, चतुर्थ वलय में चुतःषष्ठिदल (६४), पंचमवलय में एक सौ अट्ठाईस कमलदल, षष्ठ वलय में दौ सौ छप्पनदल, सप्तम वलय में पाँच सौ बारह कमलदल, अष्टम वलय में एक हजार चौबीस दल की पूजा करते हैं और उतने ही अर्घ्य चढ़ाते हैं । इसके अन्त में हवनविधि करते हैं। शान्तिधारा का पाठ बोलते हैं।
उपर्युक्त विवरण से सुनिश्चित होता है कि सिद्धचक्र मण्डल का विधान प्रतिष्ठादि मांगलिक अनुष्ठानों के समय अनिवार्य रूप से करने योग्य है। यद्यपि इस विधान की प्राचीनता शास्त्रसिद्ध है तथा यह विधान श्वेताम्बर मूर्तिपूजक एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में सर्वाधिक रूप से प्रचलित रहा है साथ ही अपनी-अपनी परम्परा मूलक और अपनी-अपनी की दृष्टि से इसमें काफी कुछ परिवर्तन एवं विस्तार हुआ है।
इस कृति में अनेक मंत्र एवं कई यंत्र भी दिये गये हैं उनमें जलशुद्धि मन्त्र, पीठिका मन्त्र, जाति मन्त्र, अंकुरारोपण यंत्र, जलमण्डल - अग्नि मंडल, नाभिमण्डल, चन्द्रप्रभाऽनाहत मण्डल (यंत्र ) आदि प्रमुख है।
सीमंधरजिनपूजा
यह पूजा गुजराती पद्य में निबद्ध है। इसकी रचना मुनिनीतिविजय जी ने की है। इस पूजा का रचनाकाल वि.सं. १६६१ है । इसमें सीमंधर स्वामी आदि बीसविहरमानों की पूजा के पद हैं। सभी पूजा जलादि अष्टद्रव्य से करनी चाहिए ऐसा निर्देश हैं। सुगंधदशमीव्रतविधान
यह कृति मूलतः हिन्दी पद्य में है। इसकी रचना कवि खुशालचन्द्र ने की है ।' दिगम्बर परम्परा में इस विधान का अभी भी विशेष प्रचलन है। प्रस्तुत कृति संक्षिप्त होने पर भी सारभूत सामग्री से युक्त है। इसमें क्रमशः अग्रलिखित विषयों का उल्लेख हैं
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यह कृति दिगम्बर जैन पुस्तकालय, खपाटिया चकला, गाँधी चौक,
सूरत- ३
में उपलब्ध है।
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१. सुगन्धदशमी व्रत कथा २. सुगंधदशमी व्रत करने वाले आराधकों के लिए व्रत के दिन करने योग्य जाप मंत्र एवं उसकी विधि ३. सुगन्ध दशमी व्रत का माहात्म्य ४. सुगन्ध दशमी मंडल का विधान इस विधान में मुख्य रूप से निम्न पूजाएँ होती हैं ४.१ चतुर्विंशति तीर्थंकरों की समुच्चय (अष्टप्रकारी) पूजा ४.२ प्रथम वलय में षट्कर्म की पूजा ४.३ द्वितीय वलय में षट्कर्म के पापारंभ त्याग की पूजा ४.४ तृतीय वलय में षट्आवश्यक धारक पूजा ४.५ चतुर्थ वलय में बाह्यषट् तप धारक पूजा ४.६ पंचम वलय में षट् आभ्यान्तर तप धारक पूजा ४.७ षष्टम वलय में लेश्या परिहारक पूजा ४.८ सप्तम वलय में षट् जीवनिकाय रक्षक पूजा ४.६ अष्टम वलय में षद्रव्य परिचायक जिनपूजा ४.१० नवम वलय में षट् अनायतन त्याग पूजा ४.११ दशम वलय में षट्रस दोष निवारणार्थ पूजा की जाती है। प्रस्तुत कृति के अन्त में इस मण्डल का चित्र भी दिया गया हैं। सैंतालीसशक्तिविधान
यह रचना राजमलजी पवैया की हिन्दी पद्य में है। जैनदर्शन की सनातन मान्यता है कि प्रत्येक आत्मा में अनंत शक्तियाँ विद्यमान हैं। आत्मा अनादिकाल से अनन्त शक्तियों का पुंज रहा है। वे शक्तियाँ अशुभ कर्मावरण से आवृत्त है। आचार्य अमृतचंद्र ने आत्म तत्त्व की ४७ शक्तियों का समयसार परिशिष्ट में उल्लेख किया है। श्री कानजीस्वामी का एक 'आत्मप्रसिद्धि' नामक ग्रन्थ है, उसमें सैंतालीस शक्तियों पर दिये गये प्रवचन संकलित हैं। श्री पवैया जी ने ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय को आधार बनाकर प्रस्तुत विधान की रचना की है जो वस्तुतः आध्यात्मिक है। यद्यपि शक्ति पूजक परम्पराओं की इस देश में कमी नहीं है तथापि जैन धर्म में इसका स्वरूप सबसे विलक्षण है।
यह कहना नितान्त भ्रमपूर्ण है कि जैनधर्म में शक्ति साधना अन्य मतों से ग्रहण की गई है वस्तुतः कोई भी आत्मा बिना शक्ति के नहीं है। यदि आत्मा में शक्ति न होती तो न वह संसारी हो सकता है न मुक्त। संसारी होना या मुक्त होना किसी परमात्मा की कृपा या प्रसाद का फल नहीं है। अतएव जब से आत्मा है तब से उसमें गुणधर्म रूप शक्तियाँ भी हैं और उन शक्तियों के कारण ही वस्तु परिणामी नित्य है। यह मान्तया जैन धर्म के सिवाय अन्य मत में नहीं पायी गई है। किस शक्ति का क्या कार्य है इसका स्पष्ट वर्णन इस रचना में किया गया है। वास्तव में जैन धर्म में पूजन विधान का स्वरूप व्यक्ति परक न होकर गुण तथा भावपरक हैं। अस्तु इस विधान में रचनाकार ने सिद्ध परमात्मा को लक्ष करके सैंतालीस शक्तियों से सम्बन्धित बृहद् पूजा रची है यह प्रथम बार किया गया सृजनात्मक कार्य लगता है। अध्यात्म जैसे दुरुह विषय को सरल शैली
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में तथा कवित्व के रूप में प्रगट करना ये कवि की अपनी विशेषता है। इसमें वर्णित शक्तियों के नाम निम्न हैं - १. जीवन २. चिति ३. दृशि ४. ज्ञान ५. सुख ६. वीर्य ७. प्रभुत्व ८. विभुत्व ६. सर्वदर्शित्व १०. सर्वज्ञत्व ११. स्वच्छत्व १२. प्रकाश १३. असंकुचित विकासत्व १४. अकार्यकारण १५. परिणम्य परिणामात्मक १६. त्यागोपदान शून्यत्व १७. अगुरुलघुत्व १८. उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व २०. परिणाम २१. अमूर्तत्व २२. अकर्तृत्व २३. अभोक्तृत्व २४. निष्क्रियत्व २५. नियतप्रदेशत्व २६. स्वधर्म व्यापकत्व २७. साधारण असाधारण २८. अनंत धर्मत्व २६. विरुद्ध धर्मत्व ३०. तत्त्व ३१. अतत्त्व ३२. एकत्व ३३. अनेकत्व ३४. भाव ३५. अभाव ३६. भावाभाव ३७. अभाव-भाव ३८. भाव-भाव ३६. अभावाभाव ४०. क्रिया ४१. कर्म ४२. कर्तृत्व ४३. करण ४४. संप्रदान ४५. अपादान ४६. अधिकरण ४७. संबंध
इस विधान के अन्त में १२५ ध्यानसूत्र दिये गये हैं जो नित्य मननीय हैं।' क्षेत्रपालमण्डलविधान
यह रचना विधानाचार्य श्री भंवरलालजी कासलीवाल द्वारा संग्रहीत की गई है। यह संस्कृत एवं हिन्दी पद्य में गुम्फित है। इसमें मन्त्रों का प्रयोग बहुलता के साथ हुआ है। श्री क्षेत्रपाल मण्डल विधान के समय जो-जो विधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं वे क्रमशः निम्नलिखित हैं -
सर्वप्रथम अंगन्यास, सकलीकरण, दिशाओं में अर्घ और पंचामृत अभिषेक करते हैं। उसके बाद विनायक सिद्धयन्त्र की पूजा, नवदेवता की पूजा, श्री पार्श्वनाथ की पूजा, धरणेन्द्र की पूजा एवं समुच्चय नवदेवता की पूजा करते हैं। तदनन्तर पंचपरमेष्ठी की पूजा, जिनधर्म की पूजा, जिनवाणी का पूजन, जिनचैत्य की पूजा, जिन चैत्यालय की पूजा करते हैं। फिर नवग्रह की पूजा एवं नवग्रह का जाप करते हैं। तत्पश्चात् क्रमशः मणिभद्र क्षेत्रपाल, वीरभद्र क्षेत्रपाल, तुंगभद्र क्षेत्रपाल, अपराजित क्षेत्रपाल,जय क्षेत्रपाल, विजयभद्र क्षेत्रपाल, भैरव क्षेत्रपाल, महाक्षेत्रपाल की पूजा करते हैं। उसके बाद वास्तुविधान, हवनविधि, लघुशांतिधारा विधान, समुच्चयअर्घ और शान्तिपाठ करते है। इसके अनन्तर पंचपरमेष्ठी की आरती, श्री शान्तिनाथ भगवान की आरती, श्री पार्श्वनाथ भगवान की आरती, श्री महावीर स्वामी की आरती, श्री मणिभद्र की आरती, श्री अष्ट
' प्रका. भरत पवैया, तारादेवी पवैया ग्रन्थमाला, ४४ इब्राहिमपुरा, भोपाल २ यह कृति जैन धर्मानुयोगी बीसपन्थी दिगम्बर जैन मन्दिर देवरां की गली, नागौर (राज.) से सन् २००३ में प्रकाशित हुई है।
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क्षेत्रपाल की आरती उतारते हैं।
इस कृति के अन्त में वास्तुदेवता के नाम एवं उनके लिए देने योग्य बलि पदार्थों के नाम तथा बलि पदार्थ भरने योग्य पात्रों की संख्या सूची दी गई है। क्षेत्रपालपूजा - यह विश्वसेनभट्टारक की रचना है। इसमें क्षेत्रपाल देवता की पूजा विधि वर्णित है।
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क्षेत्रपालपूजाउद्यापन - इसके कर्त्ता धर्मचन्द्राचार्य है। इसमें क्षेत्रपालपूजा की उद्यापन विधि कही गई है।
क्षेत्रपालपूजाजयमाला - इसकी रचना विजयकीर्ति के शिष्य श्री शुभचन्द्र ने की है। यह रचना' क्षेत्रपाल की पूजा - विधि से ही सम्बन्धित है।
ज्ञानपीठ-पूजांजलि
जैन सिद्धांत के मर्मज्ञ विद्वानों द्वारा किया गया यह एक ऐसा संग्रह है' जिसमें पूजा विधान आदि कई आवश्यक कृत्यों का व्यवस्थित रूप से नियोजन तथा मूलपाठ का सुसम्पादन किया गया है। इस संग्रह की एक बड़ी विशेषता यह हैं कि इसमें संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश पूजा-विधान का पहली बार हिन्दी अनुवाद दिया गया है तथा प्रस्तावना में पूजा पद्धति पर ऐतिहासिक और सैद्धान्तिक दृष्टि से विचार किया गया है।
इसमें सामान्य प्रकार की पांच पूजाएँ, पर्व सम्बन्धी सात पूजाएँ, तीर्थंकर सम्बन्धी ग्यारह पूजाएँ और नैमित्तिक सम्बन्धी चार पूजाएँ कही गई हैं। इन पूजाओं के नाम 'जिनवर - अर्चना' नामक संग्रह कृति में आ चुके हैं। अतः पुनर्लेखन करना उचित नहीं है। इस संग्रह में दिगम्बर आम्नाय के पूजा-विधान उल्लिखित है। अंजनशलाका प्रतिष्ठाकल्पः ( भा. २)
२
यह कल्प प्राचीन ग्रन्थों के आधार से संकलित किया गया है। इसका संकलन तपागच्छीय श्री कैलाशसागरसूरि के शिष्यप्रवर श्री कल्याणसागरसूरि ने किया है इसका संकलनकाल वी. सं. २५०४ है। इसकी भाषा गुजराती है। इस कृ ति की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें संकलित किये गये विधि-विधान की लेखन शैली इतनी सरल और सुस्पष्ट है कि इन्हें तत्काल पढ़कर भी कोई विधिकारक
३
जिनरत्नकोश पृ.६८
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यह संग्रह 'भारतीय ज्ञानपीठ - नयी दिल्ली से प्रकाशित है।
२
यह प्रतिष्ठाकल्प 'श्री सीमंधरस्वामिजिनमन्दिर कार्यालय, ओसियाजी नगर, नंदिराम - दक्षिण गुज. ' .' ने वि.सं. २०५२ में प्रकाशित किया है।
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या अधिकार प्राप्त आचार्य आदि पदस्थ मुनि इन विधि-विधानों को सम्पन्न करवा सकते हैं। इसमें विधि शुद्धि और आचार शुद्धि पर विशेष बल दिया गया है।
इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में ऐसा उल्लेख हैं कि संकलनकर्त्ता आचार्य कल्याणसागरसूरि सत्ताईस वर्षों तक प्रतिष्ठा सम्बन्धी विविध जानकारियाँ प्राप्त करते रहे और कई प्रकार के अनुभव लेते रहे, उसकी यह फलश्रुति है । इस कृति की प्रस्तावना और परिशिष्ट पढ़ने जैसे हैं।
प्रस्तुत कृति में प्रतिष्ठा संबंधी विधि-विधानों का जो क्रम दिया गया है उनका क्रमपूर्वक नाम निर्देश इस प्रकार है -
१. प्रतिष्ठाचार्य गुरु का स्वरूप २. प्रतिष्ठा मंडप निर्माण विधि ३. पीठिका निर्माण विधि ४. दैनिक कृत्य विधि ५. प्रथमदिन - जलयात्रा विधि ६. द्वितीय दिन- कुंभस्थापना विधि ७. तृतीय दिन - अखण्ड दीपकस्थापना विधि, श्री मणिभद्र यक्षेन्द्र प्रमुख देव-देवी अवतरण विधि, नन्द्यावर्त्त आलेखन विधि, नन्द्यावर्त्त पूजन विधि ८. चतुर्थ दिन - दशदिक्पाल, नवग्रह, अष्टमंगल पूजन विधि ६. पंचम दिनसिद्धचक्र पूजन विधि १० षष्ठम दिन- श्री विंशतिस्थानक पूजन विधि ११. सप्तम दिन- इन्द्र महाराज स्थापन विधि, महाराजाधिराज स्थापन विधि, च्यवनकल्याणक विधि १२. अष्टम दिन - जन्म कल्याणक पूजन विधि १३. नवम् दिन- श्री अष्टादश अभिषेक विधि १४. दशम् दिन - लेखनशाला, लग्नविधि, राज्याभिषेक विधान १५. एकादशतम दिन - दीक्षाकल्याणक विधि, अधिवासना विधि १६. द्वादशतम दिन - अंजनशलाका प्रतिष्ठा विधि, निर्वाणकल्याणक विधि, विर्सजन विधि १७. संक्षिप्त प्रतिष्ठा विधि १८. जिनबिम्ब परिकर प्रतिष्ठा विधि १६. कलशारोपण विधि, २०. ध्वजारोपण विधि २१. लूण उतारण, मंगलदीपक, आरती और शान्तिकलश विधि
इस कृति का परिशिष्ट भाग अन्य प्रतिष्ठा विधि सम्बन्धी कृतियों से बहुत कुछ हटकर है। प्रथम परिशिष्ट में षोडशक प्रकरण ( हरिभद्रसूरि ) से छठा जिन संबंधी, सातवाँ जिनप्रतिमा सम्बन्धी, आठवाँ प्रतिष्ठा संबंधी ये तीन षोडशक लिये गये हैं। द्वितीय परिशिष्ट में स्तव परिज्ञा और प्रतिष्ठा संबंधी पंचवस्तुक ( हरिभद्रसूरि ) की ११११ से १३२२ तक की गाथाएँ दी गई हैं।
निष्कर्षतः प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिष्ठा संबंधी विधि-विधानों का जो क्रम दिया गया है वह अन्य प्रतिष्ठाकल्पों से तुलना करने योग्य हैं। इसका प्रथम भाग हमें प्राप्त नहीं हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/483
अर्हत्प्रतिष्ठा
यह रचना दिगम्बर मुनि पुष्पसेन के शिष्य अपायर्य्य की है। इसके अपरनाम जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय और प्रतिष्ठासार है। इसका रचनाकाल शक सं. १२४१ है। यह कृति जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्धित है। यह ग्रन्थ आशाधर, इन्द्रनन्दि, गंगभद्र, जिनसेन, पूज्यपाद, वसुनन्दी, वीराचार्य और हस्तिमल्ल विरचित प्रतिष्ठा पाठों के आधार से रचा गया है।' अर्हत्प्रतिष्ठासार
यह कृति कुमारसेन की है और संस्कृत में निबद्ध है। इस रचना में जिनबिम्ब प्रतिष्ठा विधि का संक्षिप्त विवेचन होना चाहिए, ऐसा कृति नाम से अवगत होता है। अर्हत्प्रतिष्ठासारसंग्रह
इसके रचनाकार दिगम्बरीय मुनि नेमिचन्द्र है। इस कृति के दो नाम ये भी हैं १. नेमिचन्द्र संहिता और २. प्रतिष्ठातिलक। आचार्यप्रतिष्ठाविधि
___ यह कृति प्राकृत में है और पाटण के ज्ञान भंडार में मौजूद है। हमें कृ ति के नाम से सूचित होता हैं कि इसमें आचार्य मूर्ति की स्थापना (प्रतिष्ठा) विधि का वर्णन है।' कल्याणकलिका (भा. १)
इस कृति के प्रणेता जैनशासन के प्राचीन ग्रन्थों का संशोधन करने वाले आगम-व्याकरण-न्याय आदि ग्रन्थों के प्रकांड विद्वान, इतिहास मर्मज्ञ, विधि-विधान ग्रन्थों के विशिष्ट ज्ञाता, ज्योतिष शास्त्र के समर्थ विद्वान् एवं प्राचीन शिल्प विज्ञान के गहन अभ्यासी श्री कल्याणविजयजी गणि है। उनकी यह कृति संस्कृत भाषा के ६२० पद्यों में रचित है। इस ग्रन्थ का रचना काल विक्रम की उन्नीसवीं शती है।
यह रचना शिल्प, विधि-विधान और मुहूर्त्तादि से सम्बन्धित है। निःसन्देह यह ग्रन्थ अर्वाचीन है किन्तु अति उपयोगी सामग्री से भरपूर है। अल्पअवधि में अच्छी प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन तीन खंडों में हुआ है।
'जिनरत्नकोश पृ. १६ २ जिनरत्नकोश पृ. १६ ' वही. पृ. २५ २ यह ग्रन्थ वि.सं. २०४३ में, श्री कल्याणविजयगणि शास्त्र संग्रह समिति, जालोर (राज.) से प्रकाशित हुआ है।
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484/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
प्रथम खंड 'लक्षण' नाम का है, द्वितीय खण्ड 'विधि' नाम का है और तृतीय खंड 'साधन' नाम का है।
इसका प्रथम खंड १७ परिच्छेदों में विभक्त है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ के सत्रह पद्य मंगलाचरण, ग्रन्थप्रयोजन, ग्रन्थस्वरूप आदि से सम्बन्धित है। सर्वप्रथम भगवान महावीर को वन्दन करके और विधि परंपरा को समझकर कल्याणकलिका नामक प्रतिष्ठापद्धति कहने की प्रतिज्ञा की गई है। आगे इस ग्रन्थ रचना का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि अनेक प्रकार की प्रतिष्ठा विधियाँ देखी जाती है परन्तु वे सभी पद्धतियाँ समतुल्य नहीं है। कितनी ही संक्षिप्त हैं तो कितनी अति विस्तृत है। जबकि यह प्रतिष्ठापद्धति मध्यम आकार को ध्यान में रखकर लिखी जा रही है। इस सम्बन्ध में ग्रन्थकार ने यह भी निर्दिष्ट किया है कि श्री चन्द्रसूरिकृत 'प्रतिष्ठाविधि' एवं विधिमार्गप्रपा ग्रन्थ की सामाचारी में वर्णित 'प्रतिष्ठापद्धति' अत्यन्त लघु है। श्री गुणरत्नसूरि कथित प्रतिष्ठापद्धति और श्री विशालराजशिष्य प्रणीत प्रतिष्ठापद्धति आजकल व्यवहार में प्रचलित नहीं है। श्री सकलचन्द्रगणि रचित प्रतिष्ठाकल्प अवश्य ही विस्तार के साथ उपलब्ध होता है परन्तु इस प्रतिष्ठाकल्प में भी कितने ही विधि-विधान एक-दूसरे में प्रविष्ट होकर सम्बन्ध विहीन हो गये हैं। अतः प्राचीन परम्परा के ज्ञानपूर्वक कल्याणविजयजी गणि ने 'नव्यप्रतिष्ठा पद्धति' का निर्माण किया है।
अब-इस प्रथम विभाग में वर्णित विधि-विधानों एवं तत्संबंधी विषयों का नामनिर्देश परिच्छेदों के आधार पर इस प्रकार प्रस्तुत है - प्रथम परिच्छेद का नाम 'भूमि लक्षण' है। इसमें भूमि शुभ है या अशुभ ? यह जानने की विधि कही गई है। दूसरे परिच्छेद का नाम 'शल्योद्धार लक्षण' है। इस परिच्छेद में भूमिगत शल्य का ज्ञान कैसे हो सकता है? भूमिगत शल्य का क्या फल है? एवं शल्य का उद्धार करने के लिए भूमि को कितना खोदना चाहिए? इत्यादि विषय चर्चित हुए हैं। तीसरा परिच्छेद 'दिक्साधन लक्षण' नाम का है। इसमें कहा है कि प्रासाद, मठ, मन्दिर, घर, सभागृह और कुण्ड आदि के निर्माण में पूर्वादि दिशाओं की शुद्धि अवश्य देखनी चाहिये। इस सम्बन्ध में दिशाज्ञान के उपाय, दिशाज्ञान के प्रकार, दिशासाधन का वर्णन किया है। चौथे परिच्छेद का नाम 'कीलिकासूत्र लक्षण' है। इसका मुख्य विषय है - चैत्य आदि के हेतु प्रारंभ में गृहीत भूमि पर किस वर्णवाली कीलिका लगानी चाहिए तथा वह कितनी मोटी और चारों कोनों में कितनी लम्बी होनी चाहिए ? इत्यादि। पांचवाँ परिच्छेद 'कूर्मशिला लक्षण' नामक है। इस परिच्छेद में कूर्मशिला का मान,
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/485
पाषाण एवं इष्ट की शिला में विशेषता, कूर्म का स्वरूप और मान, दक्षिणपद्धति के अनुसार कूर्मशिला का लक्षण, कलश-कमल-कूर्म और योगनाल का मान, आधारशिला के ऊपर कलश आदि की स्थापना करने का क्रम और कूर्म का परिमाण इत्यादि विषयों का वर्णन हुआ है। छठे परिच्छेद का नाम 'शिला लक्षण' है। यह परिच्छेद शिलाओं की संख्या, शिलाओं का स्वरूप, शिलाओं की लम्बाई-चौडाई, जिनालय की नन्दादि ८ शिलाएँ, शिलाओं पर चिन्ह, उपशिलाएँ आदि से सम्बन्धित है। सातवाँ परिच्छेद 'वास्तुमर्मोपमर्मादि लक्षण' नाम का है। इस द्वार में यह जानने योग्य हैं कि जिन चैत्य का निर्माण करने के लिए भूमिखनन-शिलास्थापन आदि कृत्य करते हैं उस समय वास्तुभूमि में जहाँ-जहाँ मर्म, उपमर्म, सन्धियाँ और रज्जु दिखाई देते हों वहाँ स्तंभ दीवार आदि खड़े नहीं करने चाहिए।
आठवाँ परिच्छेद 'वास्तुमंडलविन्यास लक्षण' से सम्बन्धित है। इसमें निर्वाणकालिका, बृहत्संहिता एवं शिल्प शास्त्र के अनुसार वास्तुमण्डल संबंधी पाँच चक्र (कोष्ठक) दिये गये हैं। नवमाँ परिच्छेद ‘प्रासाद लक्षण' का वर्णन करता है। इसके प्रारम्भ में प्रासाद उत्पत्ति का इतिहास बताया गया है। इसके साथ ही वास्तुक्षेत्र, वास्तुदोष, आय के नाम, प्रकार, फलादि, वास्तु में क्या-क्या नहीं लेना चाहिए?, चन्द्रवास को कैसे जाना जा सकता है?, जगती, पीठ, मंडोवर, द्वारशाख, रेखा, कलश, ध्वजा, ध्वजादण्ड, शिखर, मण्डप, स्तम्भ आदि का विस्तृत वर्णन हुआ है। दशवाँ परिच्छेद 'कलश लक्षण' से सम्बन्धित है। इसमें कलश की ऊँचाई आदि का निरूपण हुआ है। ग्यारहवाँ परिच्छेद 'ध्वजदण्ड-लक्षण' नाम का है। इसमें दण्ड की लम्बाई, मोटाई, दण्ड की पाटली और ध्वजा का परिमाण बताया गया है। बारहवें परिच्छेद का नाम 'जिनप्रतिमा-लक्षण' है इस परिच्छेद में उर्ध्वस्थित प्रतिमा का स्वरूप, आसनस्थित प्रतिमा का स्वरूप, भग्न प्रतिमा का संस्कार विचार, लक्षणहीन प्रतिमा से हानि, प्रतिमागत शुभाशुभरेखाएँ, प्रतिमा भंग का फल, खंडित प्रतिमा के विषय में भिन्न-भिन्न मान्यता, गृह और प्रासाद में स्थापनीय प्रतिमा का मान, गृह चैत्य में पूजने योग्य, रखने योग्य प्रतिमा के विषय में विवेक, जिनालय में प्रतिमा का स्थान और दृष्टिस्थान के सम्बन्ध में विवेक आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। तेरहवें परिच्छेद का नाम ‘परिकर लक्षण' है। इसमें वास्तुसार के अनुसार परिकर का परिमाण बताया गया है।
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486/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
चौदहवाँ परिच्छेद 'जैनशासनदेव लक्षण' से सम्बन्धित है। इसमें निर्वाणकलिका के अनुसार यक्ष-यक्षिणी का कोष्टक, शिल्प के आधार पर यक्ष-यक्षिणी का कोष्टक, दिक्पालयन्त्र, नवग्रहयन्त्र, सोलहविद्यादेवीयन्त्र दिये गये हैं और श्रुतदेवता, शान्तिदेवता, क्षेत्रपालदेव के लक्षण कहे गये हैं। पन्द्रहवें परिच्छेद का नाम 'धारणागति लक्षण' है। इसमें २४ तीर्थंकरों के वर्ण, लांछन आदि का कोष्टक, धारणागति का कोष्टक एवं २४ तीर्थंकरों के नक्षत्रादि छः अंगों का कोष्ठक दिया गया है। सोलहवाँ परिच्छेद ‘मुहूर्त लक्षण' प्रतिपादन करता है। इस परिच्छेद में दिन विभाग के शुभाशुभ मुहूर्त, रात्रि विभाग के शुभाशुभ मुहूर्त, वर्षशुद्धि, अयनशुद्धि, मासशुद्धि, पक्षशुद्धि, गुरुशुक्रचन्द्रास्त शुद्धि, कूर्मचक्र, गृहद्वारशाखचक्र, वस्त्रचक्र, द्वारचक्र, स्तंभचक्र, मोक्षचक्र, कलशचक्र आदि का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही इसमें तिथि, वार नक्षत्र, योग, करण, लग्नबल इत्यादि का भी विस्तृत प्रतिपादन है। इसमें गृहारंभ, भूम्यारंभ, कूर्मन्यास, द्वारारोपण, स्तंभारोपण, पट्टकारोपण, कलशारोपण, ध्वजारोपण इत्यादि के मुहूर्त भी बताये गये हैं। सत्रहवाँ परिच्छेद 'मुद्रालक्षण' नाम का है। इस अन्तिम परिच्छेद में प्रतिष्टोपयोगी छब्बीस और जाप-अनुष्ठानोपयोगी सात मुद्राएँ कही गई है। इसके साथ ही कल्याणकलिका ग्रन्थ का प्रथम विभाग समाप्त होता है।
संक्षेपतः कल्याणकलिका अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण रचना है। 'नव्यप्रतिष्ठापद्धति' के नाम से रचा गया यह ग्रन्थ उत्तरोत्तर प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। साथ ही यह ग्रन्थ स्वोपज्ञ गुजराती भाषा की टीका सहित प्रकाशित किया गया है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है। इस ग्रन्थ की शैली सहज सरल है। कल्याणकलिका (भाग २-३)
यह ग्रन्थ' कल्याणविजयगणि द्वारा विरचित है। इस ग्रन्थ पर गुजराती भाषा में स्वोपज्ञ टीका रची गयी है। यह संस्कृत के १८१ पद्यों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल विक्रम की १७ वीं शती है। यह इक्कीस परिच्छेदों में विभक्त एक बृहद्काय रचना है।
इस कृति का मुख्य प्रयोजन प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों को प्रस्तुत करना है। कृति के नाम को लेकर यह चिन्तन उभरता है। कि जब इस ग्रन्थ में
' यह ग्रन्थ शा. मीठालाल भूरमल, श्री कल्याणविजयगणि शास्त्र संग्रह समिति, जालोर (राज.) ने, सन् १६५६ में प्रकाशित किया है। यह प्रथमावृत्ति है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/487
प्रतिष्ठा विषयक विधि-विधान ही वर्णित किये गये हैं तब इसका नाम प्रतिष्ठाकल्पादि होना चाहिए? इसका समाधान करते हुए इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में लिखा गया है कि प्रतिष्ठादि विधान कल्याण करने वाले हैं, कल्याण के समूहरूप हैं इसलिए इसका नाम फलसूचक 'कल्याणकलिका' रखा है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना अत्यन्त विस्तार के साथ दी गई है। इसमें प्राचीन और अर्वाचीन प्रतिष्ठा की तुलना, प्रतिष्ठा विधि की सामग्री का कालक्रम पूर्वक ऐतिहासिक स्वरूप, वर्तमान में उपलब्ध प्रतिष्ठाकल्प, प्रस्तुत प्रतिष्ठाकल्प (कल्याणकलिका) का मूलाधार, प्रतिष्ठा विधान के मुख्यपात्र आचार्य, स्नात्रकार, पौंखना करने वाली नारियाँ आदि, आधुनिक प्रतिष्ठाविधानों के आधारग्रन्थ इत्यादि अनेक उपयोगी विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही प्रतिष्ठा सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी भी दी गई हैं तथा अन्य और विषयों का चिन्तन भी किया गया है।
उक्त वर्णन से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि जहाँ ग्रन्थ की प्रस्तावना ही अलभ्य सामग्री से संयुक्त हो वहाँ ग्रन्थ की विषयवस्तु कितनी विशिष्ट और व्यवस्थित हो सकती है? सचमुच यह ग्रन्थ इस कोटि के विधि-विधान सम्बन्धी कृ तियों में अपना अद्वितीय स्थान रखता है।
अब कल्याणकलिका (भा.२-३) की विषयवस्तु का विवरण संक्षेप में निम्नलिखित है - पहला परिच्छेद- इस परिच्छेद में एक पद्य है और इसमें भूमिग्रहण विधि और खनन (खात) विधि का उल्लेख हुआ है। दूसरा परिच्छेद- इसमें वास्तुपूजा की संक्षिप्त विधि दी गई है। तीसरा परिच्छेद- इस परिच्छेद में प्रतिष्ठा कल्पोक्त कूर्मप्रतिष्ठा विधि का वर्णन है। चौथा परिच्छेद- इसमें शिलान्यास विधि, शिलाभिषेक विधि, चतुःशिलाप्रतिष्ठा विधि, पंचशिला प्रतिष्ठा विधि, नवशिलाप्रतिष्ठा विधि आदि का निर्देश हुआ है। इसके साथ ही शिलान्यास का क्रम, शिलान्यास करने योग्य वास्तुस्थान, शिलान्यास कितना नीचे करना चाहिए, शिलाओं की ढ़ाल किस ओर होनी चाहिए, शिलान्यास और रत्नादिन्यास के मंत्र शिलान्यास करने के बाद शुभाशुभ निमित्त का भी निरूपण हुआ है। पांचवाँ परिच्छेदइसमें जिनमन्दिर के मुख्य द्वार की प्रतिष्ठा विधि का वर्णन है। छठा परिच्छेद- इस द्वार में हृदयप्रतिष्ठाविधि का उल्लेख है। जिन चैत्य के हृदय स्थान पर अर्थात् जिन शिखर के ऊपर आंबलसार में ताम्रमय कलश की स्थापना कर सुवर्णमय पुरुष की स्थापना करना, हृदय प्रतिष्ठा है। सातवाँ परिच्छेद- यह परिच्छेद पादलिप्तसूरिप्रणीत प्रतिष्ठाविधि से सम्बन्धित है। इसमें निर्वाणकलिका के आधार पर प्रतिष्ठाविधि के विधान कहे गये हैं जो क्रमशः
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488/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
निम्न हैं- १. मण्डपनिर्माण विधि २. वेदीरचना विधि ३. मंडप में प्रतिमा प्रवेश करवाने की विधि ४. देववंदन विधि ५. शुचिविद्यारोपण और सकलीकरण विधान ६. प्रतिमा पर वर्णन्यास करने की विधि ७. दिग्बंधन और स्नान विधि ८. नन्द्यावर्त्तमंडलालेखन विधि ६. नन्द्यावर्त्त पूजन विधि १०. अधिवासना विधि ११. जिन प्रतिमा में पृथ्वी आदि तत्त्व का न्यास, इन्द्रियादि का न्यास, नाडीदशक का न्यास, वायुदशक का न्यास करने की विधि १२. सहजगुण स्थापना विधि १३. जिनबिंब प्रतिष्ठा विधि १४. नाम स्थापना विधि, १५. संक्षिप्त प्रतिष्ठा विधि १६. लेपमय प्रतिमा प्रतिष्ठा विधि १७. सरस्वती आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा विधि। इन विधि-विधानों के अन्तर्गत मंडप-तोरण की ऊँचाई, वेदी निर्माण के द्रव्य, वेदी के चारों कोनों में रोपने योग्य खील, प्रतिष्ठापयोगी सामग्री, भूतबलिमंत्र, दिग्बंधनमंत्र, नन्द्यावर्त्तपूजनयंत्र, शान्तिबलिमंत्र, जल, पुष्प, धूप के मंत्र, लोकांतिक देवदिशाज्ञापकयंत्र, अधिवासनामंत्र इत्यादि का भी उल्लेख किया है। आठवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में नव्यप्रतिष्ठापद्धति के अनुसार प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों एवं आवश्यक कृत्यों पर प्रकाश डाला गया है। यहाँ 'नव्यप्रतिष्ठापद्धति' से तात्पर्य है- वर्तमान में प्रचलित प्रतिष्ठा विधि। ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से प्रचलित प्रतिष्ठा विधि का क्रम इस प्रकार है - १. मुहूर्त निर्णय-राजपृच्छा-भूमिशोधन करना २. मंडप निर्माण करना ३. वेदी की रचना करना ४. संघभक्ति करने का आदेश देना ५. संघ आमंत्रण की पत्रिका भेजना ६. औषधी पीसने वाली स्त्रियाँ तैयार करना ७. अभिषेकादि क्रियाओं के लिए यथोक्त लक्षणयुक्त स्नात्रकार तैयार करना ८. अमारिघोषणा करना ६. व्यवस्थापक मंडल तैयार करना १०. प्रतिष्ठा के प्रथम दिन- जिनप्रतिमा को मंडप में विराजित करना, जलयात्रा विधान करना, कुंभस्थापना करना, अखंडदीपक की स्थापना करना, नवांग वेदी की रचना करना और जवारारोपण करना। दूसरे दिन नन्द्यावर्त्त का आलेखन करना और नन्द्यावर्त्त का पूजन करना। तीसरे दिन- दिक्पालों का पूजन, दिशाओं में बलि का प्रक्षेपण, नवग्रहों की पूजा
और अष्टमंगल की स्थापना करना। चौथे दिन- सिद्धचक्र का मंडल बनाना और उसका पूजन करना। पाँचवे दिन- बीशस्थानक का पूजन करना। छठे दिनइन्द्र-इन्द्राणी की स्थापना करना और च्यवन कल्याणक विधि करना। सातवें दिनजन्मकल्याणक की विधि करना, दिक्कुमारी कृतोत्सव विधि करना और इन्द्र-इन्द्राणीकृत जन्माभिषेकोत्सव करना। आठवें दिन- कृत्य विधि, जलादिमंत्रण विधि, जिनाहानादि की अवान्तर विधि, दिक्पालादि आहान विधि, मंत्रन्यासादि की अवान्तर विधि, पंचामृत द्वारा १०८ अभिषेक इत्यादि करना। नौंवे दिनअधिवासना की विधि करना दशवें दिन- अंजनशलाका कृत्य विधि करना,
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 489
मंगलगाथा का पाठ, प्रतिष्ठा फल की देशना, मध्यकालीन अंजनशलाका की विधि, नन्द्यावर्तआलेखन विधि, नन्द्यावर्त्तपूजन, प्रतिष्ठास्थान में प्रतिमा का प्रवेश, जलयात्राविधान, वेदी की स्थापना, दिक्पाल की स्थापना, प्रतिष्ठा का प्रारंभ, अधिवासना, जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा इत्यादि कृत्य करना - करवाना। उसके बाद संघसहित मंगल गाथाओं का पाठ करना, यक्ष-यक्षिणी की प्रतिष्ठा करना, नवीनप्रतिष्ठित बिंबदेवगृह स्थापना विधि करना, लवण-जल-आरती की विधि करना, कंकणमोचन करना और सभी देवी-देवताओं को विसर्जित करना। इस आठवें परिच्छेद में प्रतिष्ठा विषयक अन्य भी उपयोगी सामग्री का संकलन किया गया है प्रकारान्तर से कंकणमोचन विधि, प्रतिष्ठाविधि के बीज, श्रीचन्द्रप्रतिष्ठापद्धति के काव्य, परंपरागत प्रतिष्ठाबीज की गाथाएँ, ध्वजदण्डारोपणविधि की गाथाएँ, जिनप्रभसूरिकृत प्रतिष्ठाविधि के बीज ( गाथाएँ), स्थापनाचार्य प्रतिष्ठाविधि की गाथाएँ आदि ।
नवमाँ परिच्छेद- इसमें चैत्य प्रतिष्ठा विधि का वर्णन है । दशवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में कलश के नौ अभिषेक एवं कलश की प्रतिष्ठा विधि का उल्लेख हुआ है। ग्यारहवाँ परिच्छेद- यह परिच्छेद ध्वजदंड की प्रतिष्ठा विधि से सम्बद्ध है। इसमें ध्वजदंड के तेरह अभिषेक, ध्वजा की प्रतिष्ठा, ध्वज गति का शुभाशुभ फल बताया गया है। बारहवाँ परिच्छेद- यह जिनबिंब की प्रवेश विधि से सम्बन्धित है। इस विधि के अन्तर्गत नवग्रह दशदिक्पाल की स्थापना विधि, स्थापित करने योग्य जिनबिम्बों को लेने के लिए जाने की विधि एवं तीन प्रकार के आसन यंत्र ( मूलप्रतिमा की पादपीठ के नीचे रखने योग्य यंत्र) दिये गये हैं। इसके साथ ही जिनबिंब प्रवेश से सम्बन्धित तीन विधियाँ और दी गई है। एक विधि १६ वीं शती में प्रचलित और हस्तप्रत के आधार पर तैयार करके उल्लिखित की है। दूसरी विधि वि.सं. १५४२ में लिखी गई है तथा गुणरत्नसूरिकृत प्रतिष्ठाकल्प और श्रीविशालराजशिष्यकृत प्रतिष्ठाकल्प के आधार से उद्धृत की गई है। तीसरी लगभग १६ वीं शती के उत्तरार्ध में लिखी गई है। वह प्राचीन प्रत के आधार से तैयार करके उल्लिखित की गई है।
तेरहवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में वादिवेताल शान्तिसूरिजीकृत 'अर्हदभिषेक विधि' का निरूपण किया गया है। चौदहवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में १६ वीं शती के उत्तरार्ध में प्रचलित 'अष्टोत्तरीशत स्नात्रविधि' का उल्लेख हुआ है इसके साथ ही १७ वीं शती में प्रचलित 'अष्टोत्तरशतस्नात्रविधि' भी दी गई है। इस स्नात्र में प्रमुखतः ग्रहस्थापनविधि, दिक्पालस्थापनविधि, बलिक्षेपविधि, शांतिकलश भरने की विधि की जाती है । पन्द्रहवाँ परिच्छेद- इसमें 'श्री शान्तिस्नात्रविधि' का वर्णन हुआ
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490 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
है । सोलहवाँ परिच्छेद- इसमें 'तीर्थयात्रा शान्तिकम् विधि' कही गई है अर्थात् तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान करने के दिन, प्रयाण करने के पूर्व जिबबिंब की स्नात्रविधि करना तीर्थयात्रा शान्तिकम् विधि है। सत्रहवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में 'ग्रहशान्ति-विधान' की चर्चा हुई है। इसमें ग्रहशान्ति के सामान्य और विशेष दो प्रकार निर्दिष्ट हैं। अठारहवाँ परिच्छेद- इसमें 'जीर्णोद्धार विधि' का उल्लेख हुआ है। उन्नीसवाँ परिच्छेद- यह परिच्छेद 'देवीप्रतिष्ठा विधि' से सम्बन्धित है। बीसवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद में 'अधिवासना विधि' का प्रतिपादन हुआ है। इक्कीसवाँ परिच्छेद- इस परिच्छेद का नाम 'प्रकीर्णक प्रतिष्ठा विधि' है। इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रतिष्ठा विधियों का उल्लेख हुआ है उनमें १. गृह प्रतिष्ठा विधि २. जिनपरिकर प्रतिष्ठा विधि ३. चतुर्निकायदेवमूर्ति प्रतिष्ठा विधि ४. ग्रह प्रतिष्ठा विधि ५. सिद्धमूर्ति प्रतिष्ठा विधि ६. मंत्रपट्ट प्रतिष्ठा विधि ७. साधुमूर्ति- स्तूप प्रतिष्ठा विधि ८. पितृमूर्ति प्रतिष्ठा विधि ६. तोरण प्रतिष्ठा विधि १०. जलाशय प्रतिष्ठा विधि आदि प्रमुख हैं।
प्रस्तुत कल्याणकलिका के तृतीय खंड में चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन ( चौवीशी), स्त्रोत, प्रतिष्ठापयोगी मंत्र आदि का संकलन किया गया है। इसके साथ ही १. अंजनशलाका सामग्री की सूची २. पादलिप्तप्रतिष्ठापद्धति के अनुसार प्रतिष्ठा सामग्री की सूची ३. गुणरत्नसूरिप्रतिष्ठाकल्पोक्त सामग्री की सूची ४ . गुणरत्ननीयाभिषे- कोपकरण सूची ५. बिम्बस्थापना प्रतिष्ठोप्रकरण सूची ६. शान्तिस्नात्र की सामग्री सूची ७ पूर्वतनप्रतिष्ठाकल्पोक्त सामग्रीकोश एवं ८. कल्याणक सूची का उल्लेख भी हुआ है।
इस कृति में दिक्पालपूजायंत्र, दिक्पालस्थापनायंत्र, ग्रहस्थापनयंत्र, ग्रहपूजायंत्र, तीन प्रकार के आसनयंत्र, ध्वजदंड, मर्कट्यामुत्कीर्य ३४ यन्त्र का भी संकलन हुआ है । तिजयपहुत्तस्तोत्र सम्बन्धी तीन यंत्र दिये गये हैं पहला यंत्र प्रचलित है। दूसरा यन्त्र नन्नसूरिकृत स्तव के आधार पर दिया है और तीसरा यन्त्र संस्कृत स्तोत्र के अनुसार वर्णित किया है।
कल्याणकलिका के इस समग्र वर्णन से सिद्ध होता है कि ग्रन्थकार अनेक ग्रन्थों के गहन अभ्यासी थे। इसी कारण यह कृति विषय वस्तु एवं तुलनात्मक दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी बन गई है। प्राचीनतम पादलिप्तसूरिकृत प्रतिष्ठापद्धति और अर्वाचीन नव्यप्रतिष्ठापद्धति दोनों का यथावत् उल्लेखकर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को उजागर करने का जो प्रयास किया गया है वह ग्रन्थ के मूल्य एवं महत्त्व को सहस्रगुणा बढ़ा देता है ।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/491
गुरुमूर्ति प्रतिष्ठा विधि
यह कृति संस्कृत गद्य एवं पद्य मिश्रित भाषा में निबद्ध है।' इसमें गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा विधि उल्लिखित है। यहाँ गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा से गुरु की चरणपादुका एवं स्तूप की प्रतिष्ठा भी समझनी चाहिए। इस कृति में निर्देश है कि गुरूमूर्ति की प्रतिष्ठा करने हेतु सामान्य रूप से भूमिशुद्धि, शुभसमय, रात्रिजागरण आदि कृत्य अवश्य सम्पन्न करने चाहिए। विशेष रूप से यह विधान ऐसे चार श्रावक द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। जिनके सुपुत्रादि हों
और जो धर्मादि गुणों से युक्त हों। इस प्रक्रिया में इन चार श्रावकों की मुख्य भूमिका रहती है। इसमें गुरुमूर्ति प्रतिष्ठा के पूर्व श्री शान्तिनाथ प्रभु की प्रतिमा का स्नात्रपूजन करना आवश्यक माना गया है। साथ ही गुरुमूर्ति का अभिषेक करने के लिए औषधि युक्त १०८ तीर्थों के जल का होना आवश्यक बताया गया है इसके अभाव में २१ तीर्थों का जल होना ही चाहिए- ऐसा कहा गया है। इस विधान के अन्तर्गत दशदिक्पालस्थापना एवं नवग्रहस्थापना करना भी आवश्यक बतलाया है। अभिषेक के प्रसंग में पांच प्रकार के अभिषेकों का विधान निर्दिष्ट किया है। इससे स्पष्ट होता है कि गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा हेतु पाँच प्रकार के अभिषेक किये जाते हैं। वे पाँच अभिषेक ये हैं - १. स्वर्णचूर्ण २. पंचरत्न ३. पंचगव्य ४. सर्वोषधि और ५. तीर्थोदक।
इसमें प्रतिष्ठा के अनन्तर करने योग्य साधर्मिक वात्सल्य, धूप उत्पाटन आदि का भी वर्णन किया गया है। स्तूप (देवकुलिका) के ऊपर चन्दनादि के छीटें देने का भी उल्लेख है। गुरूमूर्ति के पादपीठ के नीचे रखने योग्य सामग्री का भी विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। इसके साथ ही १. आचार्यमूर्ति एवं स्तूप प्रतिष्ठा विधि २. उपाध्यायमूर्ति एवं स्तुप प्रतिष्ठा विधि ३. साधु-साध्वी की मूर्ति एवं स्तूप प्रतिष्ठा विधि भी स्व-स्वमंत्र के अनुसार विवेचित की गई हैं। अन्त में प्रतिष्ठाकारक दश दिन एकाशना करे और शीलव्रत का पालन करें- ऐसा कहा गया है। प्रस्तुत कृति के परिशिष्ट भाग में अन्य भी पूजन एवं विधान दिये गये हैं यथा - १. नवग्रहआहान एवं पूजन विधि २. दशदिक्पाल आहान एवं पूजन विधि ३. बलिबाकुला अभिमन्त्रण विधि ४. दशदिक्पाल को बलिप्रदान करने की विधि ५. दशदिक्पाल, नवग्रह एवं अष्टमंगलपट्ट विसर्जन विधि ६. वासचूर्ण अभिमन्त्रण विधि वासचूर्ण अभिमन्त्रित करने के दो प्रकार बताये गये हैं।
' यह कृति श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार, गोपीपुरा शीतलवाडी ,सूरत में उपलब्ध है।
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492 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
जिनबिम्बप्रवेशविधि करवाने की विधि से सम्बन्धित है । '
जिनबिम्बगृहप्रवेशविधि - यह रचना संस्कृत में है। इसका विषय प्रतिपादन कृति
नाम से ही स्पष्ट हो जाता है।
जिनबिम्बपरीक्षाप्रकरण विधि कही गई है।
-
प्रतिष्ठाकल्प श्री चन्द्रसूरि है।
यह कृति जिनालय के मूलगृह में जिनप्रतिमा को प्रवेश
हमें जिनरत्नकोश में प्रतिष्ठाकल्प, प्रतिष्ठाविधि एवं प्रतिष्ठापाठ विषयक कुछ कृतियों का विवरण इस प्रकार उपलब्ध हुआ है प्रतिष्ठाकल्प - यह कृति अकलंकदेव की मानी गई है।
इसके कर्त्ता शीलभद्रसूरि के प्रशिष्य एवं दानेश्वरसूरि के शिष्य
१
—
प्रतिष्ठाकल्प - यह कल्प मुनि विद्याविजयजी के द्वारा संस्कृत में लिखा गया है।
प्रतिष्ठाकल्प - यह अज्ञातकर्तृक है।
प्रतिष्ठाकल्पविधि - यह रचना मुनि पद्मविजय की है।
प्रतिष्ठा - तिलक - इसके कर्त्ता दिगम्बर मुनि श्री नरेन्द्रसेन है।
यह कृति संस्कृत में है। इसमें जिनबिम्ब की परीक्षा
प्रतिष्ठातिलक - यह रचना मुनि ब्रह्मसूरि की है।
प्रतिष्ठापद्धति - यह अज्ञातकर्तृक है।
जिनरत्नकोश - पृ. १३६
प्रतिष्ठापाठ - यह रचना मुनि कुमुदचन्द्र की है। प्रतिष्ठापाठ - इसके कर्त्ता इन्द्रनन्दि है ।
प्रतिष्ठापाठ - यह वसुनन्दी की रचना है ।
प्रतिष्ठापाठ - यह कृति दिगम्बर मुनि जयसेन की है ।
‘प्रतिष्ठाविधि' नाम से सात रचनाएँ ये प्राप्त होती हैं। क्रमशः वर्धमानसूरि, गुणरत्नसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, हेमचन्द्राचार्य, तिलकाचार्य, नरेश्वर एवं अज्ञातकर्तृक की है। प्रतिष्ठाविधिविचार हमें इसकी कोई जानकारी नहीं मिली है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 493
प्रतिष्ठाकल्प (अंजनशलाकाविधि)
प्रतिष्ठाकल्प नामक यह ग्रन्थ तपागच्छीय विजयदानसूरि की परम्परा के अकबरप्रतिबोधक हीरविजयसूरि के शिष्य सकलचन्द्रगणि के द्वारा रचा गया है। यह कृति संस्कृत श्लोकों एवं मन्त्रों में निबद्ध है। इसकी रचना वि. सं. १६६० की मानी जाती है। प्रतिष्ठाविधि की यह अद्वितीय कृति है। इसमें सामान्यतया प्रतिष्ठाविधि से संबंधित अनेक विधियों का उल्लेख किया गया है। मुख्यतया इस ग्रन्थ में यह बताया गया है कि जिनबिम्बादि की प्रतिष्ठा के निमित्त दस दिन तक कौन-कौन से विधि-विधान, किस प्रकार से सम्पन्न किये जाने चाहिये ।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं विषयस्थापन रूप एक श्लोक दिया गया है उसमें भगवान महावीर को नमस्कार करके जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा विधि और पूजाविधि कहने की प्रतिज्ञा की गई है। इसके अनन्तर प्रतिष्ठा करने वाले विधिकारक (श्रावक) के लक्षण, आचार्य के लक्षण, स्नात्र के प्रकार, मण्डप का स्वरूप, वेदिका का स्वरूप, वेदिका निर्माण हेतु, भूमिशोधन इत्यादि विषय निरुपित हैं साथ ही मुखशुद्धि (दातून ) इत्यादि के मंत्र भी दिये गये हैं।
उसके बाद बिम्ब का संस्कार करने निमित्त एवं प्रतिष्ठादि कार्यों की सम्पन्नता हेतु दश दिन तक महोत्सव करने का निर्देश किया गया है। उन दश दिनों में किये जाने वाले विधि-विधान का भी उल्लेख किया है जो निम्नानुसार हैंप्रतिष्ठा उत्सव के पहले दिन जलयात्रा विधि और कुंभस्थापना विधि करने का कथन किया है। दूसरे दिन नंद्यावर्त्तपट्ट पूजन करने का वर्णन किया है। तीसरे दिन क्षेत्रपालदेवता, दशदिक्पालपट्ट, भैरव देवता, सोलहविद्यादेवीयों, और नवग्रहपट्ट के पूजन करने का सविधि निर्देश दिया गया है। चौथे दिन सिद्धचक्र पूजन करने की विधि उल्लेखित की है । पाँचवे दिन बीशस्थानक पूजा करने का निर्देश किया है। छठे दिन च्यवनकल्याणक की विधि, इंद्र-इंद्राणी की स्थापना, गुरु पूजन, प्राणप्रतिष्ठा इत्यादि कार्यों को सम्पन्न करने का विधान कहा गया है। सातवें दिन जन्मकल्याणक विधि, शुचिकरण विधि, सकलीकरण विधि, ५६ दिक्कुमारी उत्सव आदि कृत्य सम्पूर्ण करने चाहिए, ऐसा प्रतिपादन किया गया है।
आठवें दिन अठारहअभिषेक करना चाहिए, ऐसा उल्लेख किया गया है इसके साथ उसकी विधि भी कही गई है। नौवे दिन लेखनशाला विधि, विवाह महोत्सव, दीक्षामहोत्सव आदि करने का उल्लेख किया गया है । दशवें दिन केवलज्ञानकल्याणक (अंजन विधि), निर्वाणकल्याण, जिनबिंबस्थापना, बलिमंत्रण एवं
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494/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
प्रक्षेपण विधान आदि का निर्देश दिया गया है।
- इसके पश्चात् अधोलिखित विधियाँ एवं यन्त्रादि स्थापना करने का उल्लेख हैं- १. संक्षिप्त प्रतिष्ठा' विधि २. जिनबिंब परिकर प्रतिष्ठा विधि ३. कलशारोपण विधि ४. ध्वजारोपण विधि ५. ध्वजादिविषयक मंत्र ६. ध्वजादि का परिमाण और ७. चौतीस का यंत्र वह इस प्रकार है -
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१५
इस ग्रन्थ' के परिशिष्ट भाग में निम्न पूजनों एवं विधानों में प्रयुक्त होने वाली सामग्री की सूची दी गई है। १. जलयात्रा विधान २. कुंभस्थापना विधान ३. नंद्यावर्त पूजन ४. ग्रह-दिक्पाल-अष्टमंगल पूजन ५. स्नात्र पूजा ६. सिद्धचक्र पूजन ७. बीशस्थानक पूजन ८. च्यवनकल्याणक विधान ६. जन्मकल्याणक विधान १०. विवाह उत्सव ११. प्रतिष्ठा विधान १२. ३६० कल्याणकों की सूची आदि
इस ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थकार ने गणरत्नाकरसरि, जगच्चन्द्रसरि, श्यामाचार्य, हरिभद्रसूरि एवं हेमचन्द्रसूरि रचित भिन्न-भिन्न प्रतिष्ठाकल्पों का आधार लेने का और विजयदानसूरि के समक्ष उनसे मिलान कर लेने का भी उल्लेख किया है। सकलचन्द्रगणि रचित अन्य कृतियाँ भी प्राप्त होती है- उनमें गणधर स्तवन, बारहभावना, मुनिशिक्षा- स्वाध्याय, मृगावतीआख्यान (वि.सं. १६४४), वासुपूज्य जिनपुण्यप्रकाशरास (सं. १६७१), और हीरविजयसूरि देशनासुरवेलि (सं. १६८२) आदि हैं।
' निर्वाणकलिका, आचारदिनकर, विधिमार्गप्रपा, तिलकाचार्य प्रतिष्ठाकल्प, गुणरत्नसूरि प्रतिष्ठाकल्प आदि के अतिरिक्त अन्य प्रतिष्ठाकल्पों के आधार पर लिखी गई विधि। ' यह कृति को गुजराती अनुवाद के साथ सोमचन्द हरगोविन्ददास और छबीलदास केसरीचन्द संघवी ने प्रकाशित किया है। इसमें जिनमुद्रा, परमेष्ठीमुद्रा, इत्यादि उन्नीस मुद्राओं के चित्र भी दिये गये हैं। पहली पट्टिका के ऊपर च्यवन एवं जन्मकल्याणकों का एक-एक चित्र है और दूसरी के ऊपर केवलज्ञानकल्याणक तथा अंजनक्रिया का एक-एक चित्र है।
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सकलचन्द्रगणिकृत प्रतिष्ठाकल्प की संशोधित प्रति
प्रस्तुत 'प्रतिष्ठाकल्प' की एक संशोधित प्रति परिशिष्ट एवं विधिसहित वि.सं. २०४२ में प्रकाशित हुई है। यह प्रति सोमचंद्र विजयगणि के द्वारा संशोधित की गई है। इस संशोधित प्रति में विधि-विधान विशेष रूप से चर्चित हुए हैं जो मूल पाठ में नही हैं अब मूलप्रति की अपेक्षा संशोधित प्रति में पायी जाने वाली विशिष्टताएँ इस प्रकार हैं - प्रथम दिन की विधि- पहले दिन किया जाने वाला जलयात्रा विधान मूल कृति के अन्तर्गत संक्षेप में बताया गया है, परंतु शांतिस्नात्रादिविधिसमुच्चय भाग-१ में से विस्तारपूर्वक करवाया जाता है वह अपेक्षित होने से इस संशोधित प्रति में दिया गया है। वर्तमान में यह विधान कुंभस्थापना के पूर्व दिन किया जाता है।
मूलप्रति में मंत्रोच्चारपूर्वक कलशस्थापना करना और आरोपण करना-इतना ही सूचन है परंतु वर्तमान में कुंभस्थापना दीपकस्थापना और जवारारोपण की विधि कुछ विस्तार के साथ की जाती है। अतः वह शांतिस्नात्रादि विधिसमुच्च्यभाग १ में से उद्धृत की गयी है। इसके साथ ही कुंभ-दीपक को बधाने का श्लोक तथा दीपक को
अधिवासित करने योग्य मंत्र संशोधित प्रति में दिये गये है। द्वितीय दिन की विधि- मूलप्रत में लघुनन्द्यावर्त्तपूजन विधि आठवलय के अनुसार कही गई है परन्तु दस वलयवाला (६४ इन्द्र-इन्द्राणी के नामवाला) पट्ट हो तो उसके पूजन करने की विधि शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय भाग-२ से लेकर इस प्रति के परिशिष्ट नं. १ में दी गई है। अन्तिम में देववंदन में चार स्तुतियाँ के स्थान पर आठ स्तुतियों करने को कहा गया है। तृतीय दिन की विधि- इस दिन की विधि में दशदिक्पाल का पूजन करते समय इन्द्रादि दिक्पालों के मन्त्र प्रत्येक हस्तप्रतों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं इस प्रत में (शां.वि.स.भा.१) से प्रचलित मन्त्र लिये गये है। सोलह विद्यादेवियों का पूजन मूलप्रत में संक्षेप में कहा गया है। किन्तु आचारदिनकर, अर्हत्पूजनादि में दिये गये सोलह विद्यादेवियों के श्लोक बोलकर विस्तार से पूजन करना हो तो वह विधि परिशिष्ट नं. १ में दी गई है।
मूलप्रत में अष्टमंगलपूजन का विधान ही नहीं बतलाया है परंतु नवग्रह एवं दश दिक्पाल पूजन के साथ अष्टमंगल का पूजन भी किया जाता है इसलिए (शां.वि.सं.भा.१) के अनुसार यह विधान दूसरे दिन की विधि में ही दिया गया है। चतुर्थ दिन की विधि- इस दिन की विधि में श्री सिद्धचक्र पूजन करते समय नवपदों का जाप किया जायें, तो उत्तम है इसलिए जाप करने का सूचन किया है
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और दर्शनादि चार पदों की स्थापना करने के श्लोक मूल में नहीं है परन्तु आचारदिनकर में उल्लिखित होने से ये श्लोक बोल सकते हैं इसलिए परिशिष्ट १ में उक्त श्लोक दिये गये हैं।
पंचम दिन की विधि - इस दिन की विधि में श्री बीशस्थानक पूजन करते समय मूल में बताये गये मंत्रों के साथ-साथ बीशस्थानक पूजादि में वर्णित बीस पदों के बीस श्लोक बोलने हों और उन उन पदों का जाप करना हों तो उसकी विधि शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय के आधार पर परिशिष्ट नं. १ में कही गयी हैं ।
षष्टम् दिन की विधि - इस दिन की विधि में च्यवनकल्याणक प्रसंग के समय इन्द्र और इन्द्राणी को आभूषण पहनाते समय बोलने योग्य श्लोक और मंत्र परिशिष्ट में दिये गये हैं। प्रभु के माता-पिता बनने की विधि लोकव्यवहार से करवायी जाती है वह विधि भी परिशिष्ट नं. १ में दी गई है। देववंदन के समय च्यवनकल्याणक का चैत्यवंदन तथा स्तवन कितनी ही हस्तप्रतों में प्राप्त होता है वह भी परिशिष्ट नं. १ में दिया है।
सप्तम दिन की विधि - इस दिन की विधि में जन्मकल्याणक प्रसंग के समय मेरूपर्वत के ऊपर २५० अभिषेक विस्तार से करवाने हों तो उसका विधान भी परिशिष्ट नं. १ में दिया गया है।
अष्टम दिन की विधि - इस दिन अठारह अभिषेक करते समय - आठ अभिषेक के बाद तीन मुद्राओं के द्वारा जिनेश्वर परमात्मा का आहान मूल पाठ में संक्षेप से कहा गया है जबकि इस संस्करण में प्रस्तुत विधि का विस्तृत वर्णन हुआ है।
नामस्थापना के समय करने योग्य विशिष्ट विधि भी प्रतिष्ठाकल्प की कई प्रतों में उपलब्ध होती है वह परिशिष्ट नं. १ में दी गई है।
नवम् दिन की विधि - इस दिन राज्याभिषेक के अवसर पर राज्यतिलक करने की विधि कहीं-कहीं कुछ परम्पराओं में करवायी जाती है इसलिए राज्यतिलक का मंत्र टिप्पणी में और नवलोकांतिक देवों के नाम तथा उनकी विनंति परिशिष्ट नं.१ में दिया गया है।
दीक्षाकल्याणक प्रसंग के समय भाववृद्धि में कारणभूत कुलमहत्तरा का आशीर्वचन, अलंकार उत्तारण का श्लोक, सर्वविरतिसूत्र और देववंदन के समय बोला जाने वाला दीक्षाकल्याणक का चैत्यवंदन परिशिष्ट न. १ में दिया गया है। दशम् दिवस की विधि- दशवें दिन की पूर्वात्रि में केवलज्ञान कल्याणक के प्रसंग पर प्रतिष्ठा योग्य जिनबिंबों की अधिवासना एवं अंजन विधान किया जाता है। इस विधान में कहीं चूक न हों अतः मूलप्रति में इस विधि का
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संक्षिप्त सूचन किया है। जबकि संशोधित प्रति में इसका सविस्तार स्पष्टीकरण किया गया है। उसके बाद समवसरणस्थापना, निर्वाणकल्याणक, विसर्जनादि की विधियाँ यथावत् रखी गई हैं। इसके साथ ही प्राचीन प्रतिष्ठा विधि, जिनबिंबपरिकर प्रतिष्ठा विधि, कलशारोपण विधि और ध्वजारोपण विधि मुद्रित प्रति के अनुसार ही उल्लिखित की गई हैं।
प्रस्तुत संशोधित प्रति का परिशिष्ट भाग विधि-विधान सम्बन्धी उपयोगी सामग्री से युक्त है।
___ परिशिष्ट नं.१ में मूल विधानों में पूरक बनने वाली सभी विधियाँ दी गई हैं। परिशिष्ट नं.२ में नवग्रह-दशदिक्पाल-अष्टमंगल की स्थापना एवं रचनादि की विधियाँ कही गई है। परिशिष्ट नं.३ में मंडप एवं वेदिका का प्राचीन स्वरूप दिया गया है। परिशिष्ट नं.४ में विविध मुद्राओं का स्वरूप दिया गया है। परिशिष्ट नं. ५ में जलयात्राविधान में उपयोगी उपकरणों की सूचि दी गई है। परिशिष्ट नं.६ में अंजनशलाका विधि में उपयोगी उपकरणों के नाम वर्णित है। परिशिष्ट नं.७ में अठारह अभिषेक में आवश्यक औषधियों का सूचन किया गया है। परिशिष्ट नं.८ में ३६० कल्याणकों की सूची दी गई हैं। परिशिष्ट नं.६ में श्री शीलविजयगणि द्वारा हस्तप्रत के आधार पर लिखी गई विधि तथा रंगविजय जी ने वि.सं. १८७६ में भरुच नगर के सवाइचंद-सुखालचंद की शंखेश्वरपार्श्वनाथ की प्रतिमा भराकर अंजनशलाका करवाई थी उस समय दस दिन तक प्रतिष्ठा उत्सव का विधान, जिस विधि-नियम के साथ सम्पन्न हुआ, उसका स्पष्ट विवरण करने वाला श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ पंचकल्याणक गर्भित प्रतिष्ठाकल्प नामक १६ ढ़ाल का स्तवन दिया गया है।
इस प्रकार उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि यह संशोधित' प्रति वर्तमान में प्रचलित प्रतिष्ठा विधि के आधार पर निर्मित की गई है अथवा वर्तमान परम्परा में प्रचलित प्रतिष्ठाविधि को दृष्टि में रखकर तैयार की गई है। अंजनशलाका (प्राण प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठाकल्पविधिः ।
सकलचन्द्रगणिकृत प्रतिष्ठाकल्प का यह नवीन संस्करण है। यहाँ ध्यातव्य है कि सकलचन्द्रगणि रचित प्रतिष्ठाकल्प के संशोधन, सम्पादन और
' यह संशोधित प्रति श्री नेमचंद मिलापचंद्र झवेरी जैनवाडी उपाश्रय ट्रस्ट-गोपीपुरा, सूरत से प्रकाशित है। २ यह संस्करण श्री आदिनाथ मरुदेवा वीरामाता अमृत जैन पेढ़ी (ट्रस्ट) धारानगरी-नवागाम से प्रकाशित हुआ है।
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नवीनीकरण के रूप में कई प्रकाशन हुए हैं। कुछ प्रकाशित कृतियों पर हम लिख चुके हैं। यह संशोधनात्मक कृति है । इसका संशोधन श्री वीरशेखरसूरि एवं शाह जेठालाल भारमल ने किया है।
यह संस्करण गुजराती लिपि में है। इसकी मूल रचना संस्कृत में हुई है। इस कृति में प्रतिष्ठा सम्बन्धी प्रायः उन्हीं विषयों का उल्लेख किया गया है जो अन्य प्रतिष्ठा ग्रन्थों एवं मूलकृति में निर्दिष्ट हैं तथापि प्रस्तुत कृति में कुछ नयी और कुछ उपयोगी सामग्री दी गई है सामान्यतया इसमें पाँच कल्याणक सम्बन्धी विधि, श्री लघुनंद्यावर्त्तपूजन विधि एवं श्रीदेवी पूजन विधि दी गई हैं। इसके साथ ही सहभेदीपूजा अर्थसहित दी गई है। महोपाध्याय यशोविजयजी विरचित चौबीसी दी गई है। पद्मविजयजी विरचित चैत्यवंदन - स्तुतियाँ दी गई हैं। इस संस्करण का मूल्य बढ़ाने के लिए निर्वाणकलिका से प्रतिष्ठाविधि सम्बन्धी ७७ श्लोक सछाया उद्धृत किये गये हैं अन्त में स्थापनाचार्य की बृहद्प्रतिष्ठा विधि दी गई है।
9.
उक्त सामग्री के अतिरिक्त और जो कुछ इसमें आवश्यक विषय जोड़े गये प्रतीत होते हैं वे इस प्रकार अंजनशलाका-शान्तिस्नात्र - अष्टोत्तरी आदि पूजाएँ प्रारम्भ करने के पूर्व जो मन्त्राक्षर अनिवार्य रूप से बोले जाते हैं वे विधिपूर्वक दिये गये हैं; जैसे जल अभिमन्त्रित करने का मन्त्र, दांतण अभिमन्त्रणमन्त्र, मुखशुद्धिजल अभिमन्त्रणमन्त्र, मंत्रस्नान मन्त्र, मींढोल - मरडासींगी युक्त ग्रीवासूत्र नाडाछडी का अभिमन्त्रणमन्त्र, केसर अभिमन्त्रणमन्त्र, भूमिशुद्धि अभिमन्त्रणमन्त्र, पादपीठ का पूजा मन्त्र, दीपक प्रगटाने का मन्त्र, गुरु द्वारा दीपक पर वासचूर्ण प्रदान करने का मन्त्र, कलशस्थापना मन्त्र, और पुष्प - फल - नैवेद्य आदि प्रतिष्ठोपयोगी सामग्री को वासचूर्ण द्वारा अभिमन्त्रित करने का मन्त्र इत्यादि । २. अंजनशलाकाविधि अर्थात् प्रतिष्ठा विधि से सम्बन्धित ६८ बातें कही गई हैं। ये ६८ कथन विधिक्रम से दिये गये हैं । यहाँ ६८ विषयों से तात्पर्य-प्रतिष्ठा के समय करने योग्य आवश्यक कार्यों का सूचीक्रम है यथा १. नूतनजिनबिंबों, देव - देवीयों को भरवाने का आदेश देना २. पूर्वप्रतिष्ठित प्रतिमा को बाजते - गाजते हुए महोत्सवपूर्वक मंडप में स्थापित करना ३. सजोड़े वेदिकापूजन और क्षेत्रपालपूजन करना ४. शुभमुहूर्त में नूतन जिनबिंबों की वेदिका पर स्थापना करना ५. जलयात्रा के वरघोड़े में पाँच कुंभ लिये हुए पाँच बहिनों या कुमारिकाओं को साथ रखना ६. सजोड़े स्नात्रपूजा अष्टप्रकारी पूजा एवं कुंभस्थापना करनी इत्यादि ६८ बातें कही गई हैं । ३. निवार्णकलिका के कुछ मन्त्र उद्धृत किये गये हैं जैसे- १.
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अधिवासना मन्त्र २. सहजगुणस्थापना मन्त्र ३. परिकर प्रतिष्ठा मन्त्र आदि। ४. निर्वाणकलिका में प्रतिष्ठापयोगी ६३ मुद्राएँ दी गई हैं उनमें से २८ मुद्राएँ इसमें ली गई है। ५. ६८ प्रकार के बीज रूप मन्त्राक्षर दिये गये हैं। ६. जिनमन्दिर सम्बन्धी ८४ आशातनाओं का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही इसमें दो महायन्त्र दिये गये हैं उनमें एक लघुनन्द्यावर्त्तपूजन से सम्बन्धित है और दूसरा श्रीदेवी की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित है। ये मन्त्र आचारदिनकर नामक ग्रन्थ के आधार पर निर्मित किये गये हैं ऐसा इसमें उल्लेख है। इसके अतिरिक्त भगवान महावीर की जन्मकुंडली, श्रीदेवी पूजन के सन्दर्भ में त्रिकोणकुंड की रचना, नूतनबिंबों को बिराजमान करने योग्य वेदिका आदि के कोष्ठक भी उल्लिखित हैं।
इस कृति का अवलोकन करने से फलित होता है कि यह प्रतिष्ठाकल्प कई दृष्टियों से परम उपयोगी है। इसमें अन्य-अन्य आवश्यक सामग्री का जो संकलन किया गया है वह अपने आप में अमूल्य है। विधिकारकों को इस संस्करण का एकबार अवश्य अवलोकन कर लेना चाहिये। इस कृति में उल्लिखित कई सूचनाएँ एवं क्रमबद्ध दी गई जानकारियाँ उनके लिए अतीव उपयोगी बन सकती है। प्रतिष्ठाकल्प-अंजनशलाका-प्रतिष्ठादिविधि (संशोधितपाठ-विशिष्टविधान तथा विविध चित्रों सहित)
___यह कृति' मूलतः महोपाध्याय सकलचंद्रगणि की है। इसके पूर्व सकलचन्द्रगणि कृत प्रतिष्ठाकल्प भा.१ एवं भा.२ प्रकाशित हो चुके हैं। उसके बाद उसके एक संशोधित पाठ का और प्रकाशन हुआ है। इसके पश्चात् सकलचन्द्रगणिकृत 'प्रतिष्ठाविधि' का एक और नवीन संस्करण प्रकाश में आया है जो संशोधितपाठ-विशिष्टविधान तथा विविधचित्रों सहित है। मेरी दृष्टि से अद्यपर्यन्त प्रतिष्ठा सम्बन्धी प्रतियों में यह नवीन संस्करण सर्वाधिक विस्तृत एवं क्रमबद्ध है।
यह कृति मूलतः संस्कृत भाषा में है। इसमें मंत्रों एवं श्लोकों का प्राधान्य रहा हुआ है। इस संस्करण में विधि-विधानों का स्पष्टीकरण गुजराती भाषा में हुआ है। इस का संशोधन एवं सम्पादन तपागच्छीय नेमिसूरिसमुदाय के सोमचंद्रसूरि ने वर्तमान में प्रचलित एवं प्रवर्तित 'प्रतिष्ठाविधि' को ध्यान में रखते
' यह संस्करण श्री रांदेर रोड जैन संघ, अडाजण पाटीया, रांदेर रोड, सूतर की ओर से प्रकाशित हुआ है।
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हुए किया है। साथ ही इसमें अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा करने कराने वाले आचार्यों तथा विधिकारकों की सुविधा का विशेष ध्यान रखा गया है।
इस कृति के सम्बन्ध में यह उल्लेख मिलता हैं कि पंचम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहुस्वामी द्वारा विद्याप्रवादपूर्व में से 'प्रतिष्ठाकल्प' उद्धृत किया गया था, उस प्रतिष्ठाकल्प के आधार पर जगच्चंद्रसूरी ने 'प्रतिष्ठाकल्प' नामक ग्रन्थ रचें। फिर उसके आधार से और भी पूर्वाचार्यों ने प्रतिष्ठा सम्बन्धी ग्रन्थ रचा। उन पूर्वाचार्यों द्वारा रचित विविध प्रतिष्ठाकल्पों को समक्ष रखकर लगभग ४५० वर्ष पूर्व विजयदानसूरि के तत्त्वाधान में 'प्रतिष्ठाकल्प' नाम से एक ग्रन्थ का संकलन किया गया। इस प्रतिष्ठाकल्प की रचना करते समय प्राप्त प्रतिष्ठाकल्पों के रचयिता आचार्यों तथा उनके ग्रन्थों की आम्नाय एवं गुरु परपरम्परागत मान्यताओं के प्रति पूर्ण वफादारी निभायी गई है।
प्रस्तुत प्रतिष्ठाकल्प ५०/७० वर्ष पूर्व हस्तलिखित प्रतियों में प्राप्त था। प्राणप्रतिष्ठा या अंजनशलाका का प्रसंग आने पर ही उसका उपयोग होता था। कितनी ही बार प्रतिकूल प्रसंगों में यह विधान सम्पन्न कराने में मुश्किल होती थी, जब से हस्तप्रतियों का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तब से ये विधि-विधान करवाने आसान हुए। इस संस्करण का संशोधित करते समय मूल ग्रन्थ की प्रामाणिकता का पूर्णतः ध्यान रखा गया है। साथ ही संस्करण क्रमिक और सर्वत्र ग्राह्य हो एतदर्थ हस्तलिखित प्रतिष्ठाकल्पों, पूर्वप्रकाशित प्रतिष्ठाकल्पों, निर्वाणकलिका-कल्याणकलिका आदि प्रामाणिक ग्रन्थों में जो कुछ विशिष्टताएँ दृष्टिगत हुई, यथानुकूलता उनका संक्षिप्त सूचन किया गया है।
यह संशोधित कृति अठारह विभागों में गुम्फित है। इसका विवरण संक्षेप में निम्नोक्त है - प्रथम विभाग - यह विभाग आशीर्वाद, प्रकाशकीय, प्रस्तावना आदि से सम्बन्धित है। द्वितीय विभाग - इस विभाग में प्रतिष्ठाकल्प के प्रास्ताविक ३१ श्लोंकों का भाषानुवाद, क्रियाकारक द्वारा करने योग्य नित्य विधि एवं मंत्रादि का वर्णन है। इसके अतिरिक्त निम्न विधानों की विस्तृत चर्चा है- १. जलयात्राविधि- इसमें वरघोड़ा, उद्यानगमन, स्नात्रादिपूजा, नवग्रह-दशदिक्पालपूजा, ज्ञानादिकपूजा, देववंदनविधि, कलशस्थापना, आचमन, अंगन्यास, करन्यास, जलाकर्षण, जलस्थापना, जलपूजा, नैवेद्यढ़ोकन, आदि क्रियाएँ करने योग्य कही गई हैं। २. कुंभस्थापनाविधि- इसमें नित्यविधि, बारहमुद्राओं से वासक्षेपाभिमंत्रण, आत्मरक्षा, कुंभ भरने की विधि, कुंभ स्थापन विधि, वासचूर्ण प्रदान इत्यादि विधान आवश्यक माने गये हैं। ३. दीपकस्थापनाविधि- इस विधि में घी भरने का मंत्र, दीपक प्रगट
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करने का मंत्र, दीपक ऊपर वासचूर्ण प्रदान करने की प्रक्रिया एवं कुंभ - दीपक को बधाने की क्रिया बतलायी गयी है। ४. जवारारोपणविधि - इस विधान में तीर्थजल से भरे हुए घड़ों की स्थापन - - पृथ्वीमंत्र आदि का वर्णन है । ५. क्षेत्रपालस्थापनविधिइस विधान में सामान्यतया क्षेत्रपालस्थापना, क्षेत्रपाल को वासप्रदान, क्षेत्रपालपूजन आदि करने का निर्देश है । ६. माणकस्थंभारोपणविधि - इसमें माणकस्थंभ की पूजा, देहरी में श्रीफल तथा वासप्रदान, स्वस्तिक और नैवेद्य अर्पण का निरूपण है। ७. तोरणस्थापनविधि - इस विधि के अन्तर्गत तोरण बांधने का मंत्र, जिनबिंब की वेदिका का माप, पीठिका का माप, भूमिशुद्धि, समवसरणस्थापना, सुंपटस्थापना, पीठिका ऊपर वासदान, पीठिका का वर्धापन, अष्टप्रकारीपूजा, क्षमापना आदि कृ त्यों का प्रतिपादन है ।
तीसरा विभाग - इस विभाग में सात प्रकार के विधानों की चर्चा की है। वह इस प्रकार है- १. लघुनंद्यावर्तपूजन विधि - मूल प्रत के अनुसार लघुनंद्यावर्त्तपूजन आठ वलय का प्राप्त होता है। संप्रति में दशवलयवाले पट्ट का पूजन होता है। यहाँ दस वलयवाला पूजन दिया गया है। इस विधान में आत्मरक्षा, शुचिविद्याआरोपण, पट्ट वर्धापन, जिनआह्वान, दसवलय की पूजाविधि - उसमें भी प्रथम वलय में अर्हदादि आठ का पूजन, द्वितीय वलय में जिनेश्वर तीर्थंकरों की माताओं का पूजन, तृतीय वलय में सोलहविद्या देवी का पूजन, चतुर्थ वलय में चौबीस लोकांतिक देवों का पूजन, पंचम वलय में चौसठ इन्द्रों का पूजन, षष्टम वलय में चौसठ इन्द्राणियों का पूजन, सप्तम वलय में २४ यक्ष, अष्टम वलय में चौबीस यक्षिणी, नवम वलय में दसदिक्पाल, दशम वलय में नवग्रह और क्षेत्रपाल का पूजन कहा गया है। इसके साथ ही परिपिंडितपूजा, रांधे हुए नैवेद्य का अर्पण, देववंदन, वासदान आदि करने का निरूपण है। २. क्षेत्रपाल पूजनविधि- इसमें क्षेत्रपाल आहान एवं उसके पूजन का निर्देश है । ३. दशदिक्पालपूजनविधि - इस विधि में दशदिक्पालस्थापना, बाकुला अभिमन्त्रण, दशदिक्पाल आलेखन, दशदिक्पालपूजन आदि कृत्यों का प्रतिपादन किया गया है। ४. भैवरपूजनविधि - इसमें भैरव स्थापना एवं भैरव पूजन का विधान कहा गया है । ५. षोडशविद्यादेवीपूजनविधि - इस विधान के अन्तर्गत सोलहविद्यादेवियों का आह्वान, सोलहविद्यादेवी पट्ट पर कुसुमांजलि अर्पण, सोलहविद्यादेवीयों का पूजन, परिपिंडित पूजा एवं वासदान का उल्लेख है। ६. नवग्रहपूजनविधि - इसमें नवग्रह की स्थापना, नवग्रह का आलेखन, नवग्रह पूजन, नवग्रह को जाप, नवग्रह का अर्घ्य एवं नवग्रह से प्रार्थना करने का सूचन किया गया हैं । अन्त में ग्रहशान्तिस्तोत्र का पाठ एवं वासचूर्ण प्रदान करने का निर्देश है। ७. अष्टमंगलपूजनविधि - इस विधि में अष्टमंगल की स्थापना, नवीन अष्टमंगलपट्ट का पूजन, अष्टमंगल का आलेखन, अष्टमंगल को कुसुमांजलि
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प्रदान, अष्टमंगल का पूजन, आदि कृत्यों का उल्लेख हुआ है। चौथा विभाग- इस विभाग में दो प्रकार की मांगलिक पूजन विधि का निरूपण किया गया है। १. लघुसिद्धचक्रपूजनविधि- इस विधान के अन्तर्गत जिनशासनदेवियों का आहान एवं उनका पूजन, चौसठ इन्द्रों का आहान एवं पूजन, बाकुला ऊपर वासदान, दशों दिशाओं में बाकुला प्रक्षेपण, आत्मरक्षाविधान, अंगन्यास, करन्यास, नवपद का मंडल, अरिहंतादि नौ पदों का विधिवत् पूजन एवं अष्टप्रकारी पूजन आदि कृत्य आवश्यक माने गये हैं। २. लघुबीशस्थानकपूजनविधि- इस विधि में बीसस्थानक पट्ट ऊपर वासदान, बीसस्थानक मांडले का आलेखन शांतिघोषणा, आत्मरक्षा, अरिहंत आदि बीसपदों का पूजन, इत्यादि कृत्य किये जाने का निर्देश है। पाँचवा विभाग- यह विभाग च्यवनकल्याणकविधि से सम्बन्धित है। इसमें आत्मरक्षा विधान, दिशाबंध, आचार्य भगवंत के पहनने योग्य अलंकारों का अभिमंत्रण, इन्द्र एवं इन्द्राणी की स्थापना, माता-पिता की स्थापना, अंगन्यास, करन्यास, गुरूपूजन, धर्माचार्यपूजन, सिंहासनादिक पूजन, नूतनबिंबो ऊपर वासदान, वासचूर्णयुत दूध से बिंब का सर्वांग विलेपन, सुवर्ण कलश में बिंबस्थापन, बिंब ऊपर वासदान, मातृकान्यास, कुर्णोपदेश, मस्तक ऊपर वासदान, आशीषमंत्र, कलश तथा नूतन बिम्बों ऊपर वस्त्राच्छादन, चौदह स्वप्नदर्शन, देववंदन एवं क्षमापना आदि कृत्यों का विवेचन किया गया है। छठा विभाग- इस विभाग में जन्मकल्याणकविधि का प्रतिपादन है। इसमें आत्मरक्षा, अंगरक्षा, शुचिकरण, सकलीकरण, बलिबाकुलाप्रदान, नूतन बिंबो पर कुसुमांजलि, तर्जनीमुद्रा पूर्वक रौद्र दृष्टि जलाच्छोटन, दिग्बंधन, सप्तधान्यवृष्टि, जिन जन्म विधान, छप्पनदिक्कुमारिकाओं के द्वारा कृत महोत्सव, कदलीधर रचना, रक्षापोटली निर्माण विधि, रक्षापोटलीबंधन, जलदर्शन, शुभाशीष, इन्द्राणी के हाथ से प्रभुजी का तिलक, शक्रसिंहासनकंपन, सुघोषाघंटानाद, मेरूपर्वत ऊपर गमन, पंचामृत के २५० अभिषेक, नूतनबिंबो की अष्टप्रकारी पूजा, अष्टमंगलआलेखन, आरती-मंगलदीपक, देववंदन, बत्तीसकोटि सुवर्णवृष्टि, नूतनबिंबो के हाथ में रक्षापोटली इत्यादि का उल्लेख किया गया है। सातवाँ विभाग- इसमें 'अढ़ारअभिषेक-ध्वजदंडकलशाभिषेकविधि' का वर्णन है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित कृत्यों को सम्पन्न करने का निर्देश है। वे कृत्य ये हैं - विविध प्रकार की औषधियों पर वासक्षेपप्रदान, भूमिशुद्धि, शुचिविद्या, बलिपर वासक्षेपप्रदान, दशदिक्पाल का आगन, देववंदन, ध्वजदंड को कुसुमांजलि, कलश को कुसुमांजलि, जलाच्छोटन, सप्तधान्यवृष्टि, अठारह प्रकार की अभिषेक
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 503
विधि-उसमें प्रथम हिरण्योदक स्नात्र, दूसरा पंचरत्नचूर्ण स्नात्र, तीसरा कषायचूर्ण स्नात्र, चौथा मंगलमृत्तिका स्नात्र, पाँचवा सदौषधिस्नात्र, छट्टा प्रथमाष्टकवर्ग स्नात्र, नवमाँ पंचामृतस्नात्र, दशवाँ सुगंधौषधि स्नात्र, ग्यारहवाँ पुष्प स्नात्र, बारहवाँ गंध स्नात्र, तेरहवाँ वास स्नात्र, चौदहवाँ चंदनदुग्ध स्नात्र, पन्द्रहवाँ केशर - साकर स्नात्र, सोलहवाँ तीर्थोदक स्नात्र, सतरहवाँ कर्पूर स्नात्र, अठारहवाँ केशर - चंदन - पुष्प स्नात्र करना है, सूर्य-चन्द्र दर्शन, देववंदन, ध्वजबंधन, पौंखणाकार्य, ध्वजदंड - कलश की आरती, प्रदक्षिणा, शिखरपर कलशस्थापना एवं क्षमापना आदि ।
आठवाँ विभाग- यह विभाग पुत्रजन्मवधामणा - नामस्थापन विधि से सम्बद्ध है। इसमें जन्मबधाई, केशर छांटने की विधि, नामस्थापनविधि, लेखनशालाकरणविधि एवं मषीभाजन प्रदान आदि कृत्यों का उल्लेख हुआ है।
नवमाँ विभाग - इस विभाग में ' विवाहमहोत्सवविधि' एवं राज्याभिषेकविधि' का निरूपण हैं। इस विधि के अन्तर्गत मींढल का अभिमंत्रण, मींढल का कर में बंधन, पंचांगस्पर्श, जिनआहान, वस्त्राच्छादन, विविध फलादि का ढौकन, पौंखणविधि, सुवर्णदान, प्रियंगु - कपूर आदि से बिंबों के हाथों का विलेपन, नवग्रहों को बलिबाकुला प्रदान, लग्नवेदिका (चोरी) का निर्माण, मंडप में प्रभु स्थापना, नैवेद्यथालधान्यथाल- लघुकलश आदि की स्थापना करना, घट के ऊपर जौ की शराब रखना, विवाहविधि, पांच जाति के पच्चीस मोदकों का अर्पण, राज्याभिषेकविधि एवं नवलोकांतिक देवों की विनंति आदि कृत्यों का विवेचन है। दशवाँ विभाग- इस विभाग में 'दीक्षाकल्याणकविधि' की चर्चा है। इसमें मुख्यरूप से दीक्षास्नान, दीक्षाकल्याणक वरघोड़ा, कुलमहत्तरा - हितोपदेश, सर्व अलंकार - अवतरण, पंचमुष्टि - लोच, देवदूष्यवस्त्र का स्थापन आदि का प्रतिपादन है।
ग्यारहवाँ विभाग - इस विभाग में 'अधिवासनाविधि' एवं 'अंजनशलाका विधि' का निरूपण है। इसमें मुख्यतया दशदिक्पालपूजन, नवग्रहपूजन, सर्वदिशाओं में बलिबाकुला का प्रदान, देववंदन, कुसुंबी वस्त्र से बिम्बों का आच्छादन, सकलीकरण- शुचिकरण, सूरिमंत्र एवं मुद्रासहित अधिवासनाविधि, अधिष्ठायक देव-देवियों का आह्वान इत्यादि विषयक चर्चा हुई है।
अंजनशलाका विधि के प्रसंग में अग्रलिखित कृत्यों का निर्देश किया गया है बिंब का स्थिरीकरण, शलाकाभिमंत्रण, अंजनाभिमंत्रण, सौभाग्य मुद्रा से बिंबो की अंजनविधि, अनामिका से मायाबीज का स्थापन, दर्पणदर्शन, सूरिमंत्र पूर्वक वासदान, दाहिने कर्ण में मंत्रन्यास, चक्रमुद्रा से सर्वांगस्पर्श, दधिपात्र का दर्शन, पाँच मुद्राओं का दर्शन, आचार्य आदि की प्रतिमाओं पर वासक्षेप प्रदान आदि प्रमुख है।
बारहवाँ विभाग- इस विभाग में 'केवलज्ञानकल्याणकविधि' का निरूपण किया गया है।
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504 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
इसमें विशेष रूप से पद्ममुद्रा के द्वारा प्रभु की समवसरण में स्थपना, ३६० क्रयाणक पुटिका का न्यास, नवअंग का पूजन, १०८ अभिषेक, भूतबलिप्रदान, मंगलपाठ सहित अखंड अक्षत से बधामणा, धर्मदेशना, तंबोलदान, प्रतिष्ठादेवता एवं सर्वदेवता का विसर्जन, शांतिधारा, कंकणमोचन आदि का निर्देशन दिया गया हैं।
तेरहवाँ विभाग - इसमें 'गुरुमूर्ति की अभिषेकविधि' कही गई है। इसके साथ 'जिनबिम्बप्रवेशविधि' एवं 'जिनबिम्बप्रतिष्ठाविधि' भी उल्लिखित है। इसमें स्नात्रपूजा, बलिबाकुलाप्रदान, पौंखणविधि, मंत्र आलेखन, प्रभु प्रतिमा का प्रवेश, कंकु के थापा, चैत्यप्रतिष्ठाविधि, विविध प्रकार के पात्रों का स्थापन, चारवेदिकाओं का निर्माण, गादी (पवासन) पूजन, कूर्मस्थापन, ध्वजदंड - कलश प्रतिष्ठा विधि, द्वारोद्घाटन, कुंभ- दीपक - नंद्यावर्त्त - नवग्रह-दशदिक्पाल - वेदिका - माणेकस्तंभ आदि का विसर्जन इत्यादि पर प्रकाश डाला गया है।
चौदहवाँ विभाग- इस विभाग में जिनबिंबों पर पच्चीस प्रकार की कुसुमांजलि प्रक्षेपण करने की विधि कही गई है। यह विधान अर्हत्पूजन में से उद्धृत किया गया है। यहाँ पच्चीस प्रकार की कुसुमांजलि के नाम इस प्रकार हैं -
पहली चंदनपूजा की कुसुमांजलि, दूसरी कंकुविलेपन आदि कुसुमांजलि, तीसरी यक्षकर्दम विलेपन कुसुमांजलि, चौथी कपूर ढौकन, पाँचवी वासक्षेप विलेपन आदि की कुसुमांजलि, छठी कस्तूरी- विलेपन, सॉवतीं कालागुरु-विलेपन आदि, आठवीं पुष्पालंकारावतारण, नवमी स्नात्रपीठ प्रक्षालन, दशवीं अंगलूंछणादि से बिंबशुद्धि, ग्यारवहीं पुष्पपूजा, बारहवीं फलपूजा, तेरहवीं अगरुधूपपूजा, चौदहवीं वासधूपपूजा, पन्द्रहवीं जलपूजा, सोलहवीं अक्षतपूजा, सतरहवीं पंचांगरक्षा, अठारहवीं लूणउतारण, उन्नीसवीं फूल माला बीसवीं क्षमायाचना आदि, इक्कीसवीं दीपकपूजा, बाईसवीं आरीसा दर्शन, तेईसवीं जिनस्तोत्र आदि, चौबीसवी प्रार्थना आदि, पच्चीसवीं ध्यान आदि की कुसुमांजलि चढ़ाने का निरूपण है।
पन्द्रहवाँ विभाग- इस विभाग में 'देवीप्रतिमाविधि' चर्चित है। इसमें सर्वधान्यों से बधामणा, पंचगव्य स्नात्र, आठ पुष्पांजलिहोम, अग्नि प्रारंभ की विधि, आहूति प्रदान की विधि, भगवती मंडल की स्थापनाविधि, होम के बाद करने योग्य विधि आदि पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है।
सोलहवाँ विभाग - इस विभाग में पच्चीस प्रकार के मुद्राओं की विधि बतायी गयी हैं। सतरहवाँ विभाग- यह विभाग स्नात्रपूजा, शांतिकलश, स्मरणादि स्तोत्रों का उल्लेख करता है।
अठारहवाँ विभाग - इस अन्तिम विभाग में पूर्वोक्त सभी विधि-विधानों की सामग्री
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/505
सूची का निरूपण किया गया है।
उपर्युक्त विवरण से यह निष्कर्ष निकलात है कि इसे प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधि-विधानों का आकर ग्रन्थ कहा जा सकता है। यह ग्रन्थ इतने सुन्दर ढंग से प्रकाशित हुआ है। कि जिस दिन जो विधान सम्पन्न करना हो, उस दिन उतने पृठ ले जा सकते हैं- देख सकते हैं। इसमें प्रत्येक विभाग से सम्बन्धित आवश्यक एवं उपयोगी चित्र भी संलग्न ही दिये गये हैं। प्रतिष्ठाकारकों को इस ग्रन्थ का अवश्य अवलोकन करना चाहिए। प्रतिष्ठाकल्प
यह एक संकलित रचना है। इसमें मंत्रों एवं श्लोकों का प्रधान्य है। यह गुजराती लिपि में आलेखित है। इसमें संगृहीत सभी विधि-विधान सकलचंद्रगणि रचित नहीं है अपितु पृथक्-पृथक् ग्रन्थों में से उद्धृत किये गये हैं और ये वर्तमान में अतिप्रचलित हैं।
कुंभस्थापना आदि कुछ विधान प्रतिष्ठाकल्प भा. १ में भी वर्णित हैं किन्तु अत्यन्त उपयोगी एवं विधिकारकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रतिष्ठाकल्प भा. २ में भी संग्रहीत कर दिये गये हैं। प्रस्तुत कृति में प्रतिष्ठा से सम्बन्धित निम्न विधि-विधान उल्लिखित हुये हैं - १. कुंभस्थापना विधि २. दीपकस्थापना विधि ३. जवारारोपण विधि ४. जलयात्रादि विधि ५. ग्रहदिक्पाल पूजन विधि ६.अष्टमंगलस्थापना विधि ७. दशदिक्पाल आहान विधि ८. जिनबिंब प्रवेश विधि ६. नित्यकार्य विधि १०. चैत्यप्रतिष्ठा विधि ११. प्रासादअभिषेक विधि १२. मंडप-पीठस्थापन विधि १३. श्री अष्टोत्तरशतस्नात्र विधि १४. श्री शान्तिस्नात्र विधि १५. देवीप्रतिष्ठा विधि १६. गुरुमूर्ति या स्तूप प्रतिष्ठा विधि १७. मंत्रपट्ट प्रतिष्ठा विधि १८. कूर्मप्रतिष्ठा विधि (शिलास्थापन विधि) १६. खातमुहूर्त्त विधि २०. जीर्णोद्धार विधि
प्रस्तुत कृति का परिशिष्ट भाग विस्तृत है। इसमें कुंभस्थापना, जलयात्रा, बिंबप्रेवश, पाटलाआलेखन, कूर्मप्रतिष्ठा, पट्टप्रतिष्ठा आदि अनुष्ठानों को सम्पन्न करते समय उपयोग आने वाली सामग्री सूची भी दी गई है। प्रतिष्ठाकल्पादि अत्युपयोगी विधियाँ (भा.२)
प्रस्तुत कृति' एक संकलित रचना के रूप में है। इसका संयोजन और
' यह कृति वि.सं. २०१३ में, श्री सोमचंदभाई हरगोविंददास छाणी तथा छबलीदास केशरीचंद, संघवी खंभात वालों ने प्रकाशित करवाई है। ' यह कृति वि.सं. २०१३ में प्रकाशित हुई है।
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506/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
प्रकाशन शा. सोमचन्दभाई हरगोविन्ददास छाणी ने किया है। यह मरूगुर्जर भाषा में आलेखित है किन्तु मूलपाठ संस्कृत में हैं। इसमें प्रायः वे ही विधि-विधान उल्लिखित हैं जो प्रतिष्ठाकल्पसमुच्चय, शान्तिस्नात्रसमुच्चय प्रतिष्ठाकल्प आदि में संकलित किये गये हैं। इसमें कुल इक्कीस विधि-विधान हैं। गुरुमूर्ति की प्रतिष्ठा विधि, मंत्रपट्ट की प्रतिष्ठा विधि ऐसे कुछ विधान अन्य कृतियों में बहुत कम देखने को मिलते हैं वे इस कृति में प्रस्तुत किये गये हैं। प्रस्तुत कृति के मुख्य आवरण पर श्री नंद्यावर्त्तयंत्र दिया गया है तथा अन्तिम आवरण पर बीशस्थानकयंत्र दिया गया है। प्रतिष्ठातिलक
__ इस ग्रन्थ की रचना दिगम्बर जैनाचार्य नेमिचन्द्रदेव ने विक्रम की १३ वीं शताब्दी के आसपास की है। इसमें १८ परिच्छेद हैं। इस ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थकर्ता की प्रशस्ति, वास्तुबलिविधान आदि दिये गये हैं।
यह ग्रंथ मूलतः पूजा एवं प्रतिष्ठाविधान से संबंधित है, किन्तु प्रसंगानुकूल मंत्र एवं यंत्र का भी इसमें निर्देश है। कुछ विशिष्ट यन्त्रों के नाम यहाँ दिये जा रहे हैं - महाशान्तिपूजायन्त्र, बृहच्छान्तियन्त्र, जलयन्त्र, महायागमण्डलयन्त्र, लघुशान्तिकयन्त्र, मृत्युं- जययन्त्र, सिद्धचक्रयन्त्र, पीठयन्त्र, सारस्वतयन्त्र, निर्वाणकल्याणकयन्त्र, वश्ययन्त्र, शान्ति- यन्त्र, स्तम्भनयन्त्र, आसनपदवास्तुयन्त्र, जलाधिवासनयन्त्र, गन्धयन्त्र, अग्नित्रयहोमयन्त्र, अग्नित्रयद्वितीय प्रकार यन्त्र, अग्नित्रयहोममण्डपयन्त्र, उपपीठपदवास्तु यन्त्र, परमसामायिकपदवास्तुयन्त्र, उग्रपीठपदवास्तुयन्त्र, नवग्रहहोमकुण्डमण्डलयंत्र, स्थण्डिलपद वास्तुयन्त्र, मण्डुकपदवास्तुयंत्र आदि।।
___ इसमें सर्वप्रथम जिनेश्वर प्रभु की वंदना के साथ इन्द्रनन्दि आदि पूर्व आचार्यों का निर्देश हैं जिनकी कृतियों के आधार पर यह ग्रन्थ रचा गया है। जिन प्रतिमा के साथ-साथ यक्ष-यक्षिणी एवं धातु से निर्मित यन्त्रों की प्रतिष्ठाविधि वर्णित है। साथ ही साथ सकलीकरण, दिग्बन्धन, आहान, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन आदि विधि-विधान भी दिये गये हैं। जिनपूजा के अतिरिक्त श्रुतपूजा, गणधरपूजा, इन्द्रपूजा, यक्ष-यक्षिणीपूजा, दिक्पालपूजा आदि का भी वर्णन है। इसके सिवाय जिनबिम्ब की सविस्तारप्रतिष्ठाविधि, मध्यमप्रतिष्ठाविधि, संक्षेपप्रतिष्ठाविधि,सिद्धप्रतिष्ठाविधि, आचार्य- प्रतिष्ठाविधान, श्रुतदेवताप्रतिष्ठाविधान, श्रुतस्कंधप्रतिष्ठाविधान, यक्ष-यक्षी प्रतिष्ठाविधान का भी उल्लेख हुआ है।
२ यह ग्रन्थ दोसी सखाराम नेमचन्द्र, सोलापुर से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 507
प्रतिष्ठासारोद्धार
यह ग्रन्थ संस्कृत की पद्यात्मक शैली में है। इसके प्रणेता पण्डित आशाधरजी है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में यह उल्लेख है कि वसुनंदिआचार्यकृत 'प्रतिष्ठासारसंग्रह ' का उद्धार करने के लिए 'प्रतिष्ठासारोद्धार' नामक यह ग्रन्थ विस्तार के साथ रचा गया है । ग्रन्थ का नाम भी वैसा ही रखा गया है। इस कृति का अपर नाम 'जिनयज्ञकल्प' है यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार प्रतिष्ठाविधि का प्रतिपादन करता है। इसमें दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित प्रतिष्ठाविधि का विवेचन हुआ है। इस कृति की टीका हिन्दी भाषा में है। इसका रचनाकाल वि.सं. १२५० है।
यह ग्रन्थ छ: अध्यायों में विभक्त है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण और ग्रन्थप्रतिज्ञा रूप एक श्लोक दिया गया है। अन्त में तेईस श्लोक की लम्बी प्रशस्ति कही गई है। उनमें मुख्यतः ग्रन्थरचना का स्थल - नलकच्छ ( नालछा - मालव प्रदेश) नगर बताया है, तिथि - आसोज शुक्ला प्रतिपदा (सितांत्य दिवसे?) बतायी गयी है, समय- य - वि.सं. १२५० कहा है।
प्रतिष्ठासारोद्धार की विषयवस्तु का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है
प्रथम अध्याय- इस अध्याय के अन्त में इसका नाम 'सूत्रस्थापनीय' कहा है इसमें १६१ श्लोक हैं। इसमें निर्दिष्ट विधियाँ एवं आवश्यक लक्षणादि का वर्णन निम्न प्रकार से बताया है। सर्वप्रथम जिनमंदिर एवं जीर्णमंदिर के उद्धार करवाने का फल कहा है। उसके बाद तीनों काल का शुभ-अशुभ जानने के लिए कर्णपिशाचिनीमंत्र को यंत्र सहित साधने की विधि कही है। फिर पाँच प्रकार की पूजा १. नित्यमह २. चतुर्मुख ३ रथावर्त्त ४. कल्पवृक्ष और ५. इन्द्रध्वज का नामोल्लेख करते हुए नित्यमह पूजा का स्वरूप कहा है उस अधिकार में श्रावक के लिए मन्दिर निर्माण के कृत्य प्रमुख रूप से बताये गये हैं। तदनुसार भूमिखनन विधि और शिलास्थापन विधि कही गई है । तत्पश्चात् मन्दिर निर्माण योग्य भूमि को पवित्र करने की विधि, जिनमंदिर का निर्माण कुछ शेष रहने पर शिल्पी आदि के कल्याण के लिए मनुष्याकृति रूप पुतला प्रवेश करवाने की विधि, जिनप्रतिमा का निर्माण करवाने के लिए शुभमुहूर्त में कारीगर के साथ जाकर पाषाण आदि लाने की विधि, यंत्रादि-यक्षादि की प्रतिष्ठा विधि, इन्द्र ( प्रतिष्ठाचार्य) के सत्कार करने की विधि, मंडप बनाने की विधि, वेदिका बनाने की विधि, वेदीका लिंपन करने की विधि, उत्तरवेदी की रचना विधि, उपवास आदि तप ग्रहण करने की विधि, यागमंडल की उद्धार विधि, यागमंडल की पूजा तथा जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा आदि करने की विधि कही गयी हैं ।
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508 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
इस अध्याय में मंदिर निर्माण के योग्य शिला के लक्षण, प्रतिष्ठा करने योग्य मूर्ति के लक्षण, चौबीस तीर्थंकरों के चिह्न चौबीस तीर्थंकरों के वर्ण, प्रतिष्ठाविधि करवाने वाले इंद्र ( प्रतिष्ठाचार्य) के लक्षण, दीक्षा गुरु का लक्षण, प्रतिष्ठा में खर्च करने वाले दाता (यजमान) के लक्षण भी निरुपित हैं। द्वितीय अध्याय- इस अध्याय में जलयात्रादि विधियों का वर्णन किया गया है। इसमें १५२ श्लोक गुम्फित हैं उनमें प्रमुख रूप से ये विधि-विधान कहे गये हैं- १. तीर्थ जल लाने की विधि २. शांतिक मांडल का विधान ३. पांच रंग का चूर्ण स्थापन तथा पंचपरमेष्ठी की पूजाविधि ४. अन्य देवताओं की पूजा विधि ५. दर्भन्यास का विधान ६. आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण, आदि चार प्रकार की उपचार पूजा का विधान ७. जलमंडल विधि ८. शांतिक मांडल के अन्तर्गत अष्टदल कमलपत्र ( लघुशांतिकर्म) की पूजा विधि और इक्यासी कोष्ठक वाले (बृहदशांतिकर्म) की पूजा विधि ६. जिनयज्ञ की पूजा विधि के अन्तर्गत मंत्रस्नान, अमृत स्नान, दहनक्रिया, प्लावनविधि, अंगन्यास, दिग्बंधन आदि के विधि-विधान १०. सिद्धभक्ति विधान ११. यज्ञदीक्षा विधि १२. यज्ञ द्वारा मालाधारण विधि १३. कटिसूत्रादि विधि १४. मंडप प्रतिष्ठा विधि १५. वेदी प्रतिष्ठा विधि १६. प्रोक्षण विधि आदि ।
तृतीय अध्याय- इस अध्याय में २४१ श्लोक हैं। इसमें यागमंडल की पूजाविधि का उल्लेख हुआ है। उसमें सोलह विद्यादेवियों का पूजन, जिनमाताओं का पूजन, बत्तीस इंद्रो का पूजन, चौबीस यक्षों का पूजन और चक्रेश्वरी आदि चौबीस शासन देवियों का पूजन करते हैं। इसके साथ ही द्वारपाल एवं दिक्पालों को अनुकूल करने की विधि, जयादि देवताओं की पूजाविधि, उत्तरवेदी की पूजा विधि का भी उल्लेख किया है।
चतुर्थ अध्याय- इसमें २२६ श्लोक हैं। इस अध्याय में मुख्यतः जिनबिंब की प्रतिष्ठा का विधान कहा गया है। उसमें प्रतिष्ठा योग्य प्रतिमा का स्वरूप, सकलीकरणविधान, आठ बार धनुष मंत्र का जाप, अर्हत् प्रतिमा की प्रतिष्ठा विधि इस अधिकार में ही प्रथम गर्भावतार कल्याणक विधान के अन्तर्गत जिन माताओं की स्थापना, रत्नवृष्टि की स्थापना, स्वप्नदर्शन की स्थापना, गर्भशोधन तथा दिक्कुमारियों के द्वारा की गई सेवा की स्थापना आदि का वर्णन हुआ है। द्वितीय जन्मकल्याणक विधान के अन्तर्गत जन्मकल्याण की स्थापना, जन्म के दस अतिशयों की स्थापना, प्रभु का सुमेरूपर्वत पर अभिषेक वर्णन, इन्द्र के द्वारा स्तुतिपूर्वक किया गया तांडव नृत्य, मूलवेदी में प्रतिमा का निवेदन एवं जिनमातृस्नपन, प्रभु के लिए भोग-उपभोग की सामग्री का इंद्र द्वारा किया गया प्रबंध आदि का उल्लेख है। तृतीय दीक्षा कल्याणक विधान के सन्दर्भ में प्रभु को
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/509
वैराग्य होना, लौकांतिक देवों के द्वारा स्तुति करना, दीक्षा के लिए पालकी में बैठकर वन की ओर गमन करना, दीक्षाग्रहण करना, केशलोंच करना आदि का वर्णन है। साथ ही चतुर्थ मनःपर्यवज्ञान का प्रगट होना, तिलकदान विधि, संस्कारमाला की आरोपण विधि- यहाँ ४८ संस्कारों की स्थापना की जाती हैं, मंत्रन्यासविधि, अधिवासना विधि, स्वस्तिवाचन आदि का प्रतिपादन है। चतुर्थ केवलज्ञानकल्याणक के विषय में मुखोदधान विधि, नेत्रोन्मीलन विधि, गुणों की आरोपण विधि, केवलज्ञान के समय होने वाले दसअतिशयों की स्थापनाविधि, समवसरण की स्थापनाविधि, देवकृत चौदहअतिशयों की स्थापनाविधि, आठ महाप्रातिहायों की स्थापनाविधि आदि का वर्णन है। पांचवे मोक्ष कल्याणक का वर्णन करते हुए निर्वाणस्थापना की विधि कही गई है। पंचम अध्याय- यह अध्याय ७६ श्लोकों में निबद्ध है। इसमें अभिषेकादि की विधियाँ कही गई हैं। उनमें अभिषेक विधि, देवता विसर्जन विधि, बलिविधान, इन्द्रादि को आशीर्वाद देने की विधि, यज्ञदीक्षा की विसर्जन विधि, यजमान के द्वारा क्षमापना करने की विधि, प्रतिष्ठा के अनन्तर चतुर्विध संघ का सत्कार करना, प्रतिष्ठाचार्य को भेंट देना, प्रतिष्ठा के अवसर पर आये हुए साधर्मियों का भोजन आदि से सत्कार करना, गान्धर्व, नृत्यकार आदि का भी योग्य सत्कार करना, प्रतिमा को वेदी पर विराजमान करने की विधि, मध्यम और जघन्य प्रतिष्ठा करने की विधि, जिनमंदिर पर ध्वजा चढ़ाने की विधि और जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा का फल आदि विशेष रूप से चर्चित हुए हैं। षष्ठम अध्याय- इस अन्तिम अध्याय में ६५ श्लोक हैं। इसमें अधोलिखित विषय निरुपित हुए हैं- सिद्धप्रतिमा की प्रतिष्ठा विधि, बृहत्सिद्धचक्र का उद्धार, लघुसिद्धचक्र का उद्धार, सिद्धस्तुति का पाठ, गुणारोपण का विधान, तिलकदान आदि के विधान, अभिषेक विधि, विसर्जन विधि, आचार्य (गुरु) की प्रतिष्ठा विधि, श्रुतदेवता (सरस्वती) की प्रतिष्ठा विधि, सरस्वतीयंत्र बनाने की विधि, सरस्वतीमंत्र की जाप विधि, यक्षादि की विधि, क्षेत्रपाल वरुण आदि की प्रतिष्ठा विधि, ताम्र आदि आधि धातुओं पर खुदे हुए यंत्रों की प्रतिष्ठा विधि एवं सविधि पूर्वक की गई प्रतिष्ठा का फल इत्यादि।
प्रस्तुत कृति के अन्त में परिशिष्ट भाग भी दिया गया है। उसमें श्रुत पूजा का विधान, गुरूपूजा का विधान और वसुनंदिआचार्यकृत प्रतिष्ठासारसंग्रह के उपयोगी श्लोक दिये गये हैं।' वस्तुतः यह प्रतिष्ठासारोद्धार दिगम्बर जैन परम्परा का अद्वितीय
'इस ग्रन्थ को पं. मनोहरलाल शास्त्री ने श्री जैन ग्रन्थ- उद्धारक कार्यालय से वि.सं. १६७४ में प्रकाशित किया है।
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510/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
ग्रन्थ हैं। इस ग्रन्थ का अध्ययन करने से स्पष्ट होता हैं कि यह प्रतिष्ठा विधि विस्तार से लिखी गई है इसलिए इसमें मध्यम प्रतिष्ठा विधि का भी उल्लेख हुआ है। यह ग्रन्थ प्रत्यक्ष निरीक्षण के आधार पर लिखा गया भी प्रतीत होता है। प्रतिष्ठासारसंग्रह
यह कृति आचार्य वसुनन्दी ने लगभग ७०० श्लोकों में रची है। यह छ: विभागों में विभक्त है। इस कृति का उल्लेख पं. आशाधर ने जिनयज्ञकल्प में किया है। हमें यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो पाया है। टीका- इस पर स्वोपज्ञवृत्ति है। बिम्बध्वजदण्डप्रतिष्ठाविधि - यह रचना श्री तिलकाचार्य की है। बिम्बप्रवेशस्थापनाविधि - यह पंजाब के ज्ञान भंडार में मौजूद है। वेदी प्रतिष्ठा
यह दिगम्बर परम्परा की संकलित कृति है। जिनप्रतिष्ठा के अवसर पर यदि विशाल मंडप पूर्व से निर्मित हो तो सभी महोत्सवादि कृत्य वहाँ किये जाने चाहिये, अन्यथा अलग से मंडप बनवाकर वेदी प्रतिष्ठा करने के बाद ही प्रतिष्ठा सम्बन्धी कृत्य किये जाने चाहिये। प्रस्तुत कृति में निर्देश है कि यदि पृथक् रूप से वेदी प्रतिष्ठा करनी हो, तो कम से कम तीन दिन का उत्सव जरुर करना चाहिये। इसमें मुख्य रूप से वेदी प्रतिष्ठा की विधि बतायी गई है। यह बात, कृति नाम से भी स्पष्ट हो जाती है।
सामान्यतया इस पुस्तक में सकलीकरण, घटयात्रा, अभिषेक, मंडपप्रतिष्ठा, इन्द्र प्रतिष्ठा, महर्षिउपासना, अंकुरोपण, मृतिकानयन, झंडारोहण, वेदीप्रतिष्ठा, मंदिर प्रतिष्ठा, कलशारोपण, ध्वजदंडस्थापन, ध्वजारोहण आदि विधान दिये गये हैं। इसके साथ ही प्रतिष्ठादि के समय जाप करने योग्य मन्त्र, अखण्डदीपप्रज्वलनमन्त्र, मंगल कलशस्थापनामन्त्र, यन्त्रप्राणप्रतिष्ठामन्त्र आदि तथा अंकुरारोपणयन्त्र भी दिया गया है। निःसंदेह प्रतिष्टाचार्य एवं विधानाचार्य के लिए यह उपयोगी रचना है। शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय (भाग १-२)
यह कृति तपागच्छीय श्री भुवनभानुसूरि सन्तानीय श्री वीरशेखरसूरि द्वारा
२ प्रका. संदीप शाह, ७६० सेवापथ, लालजी सांड का रास्ता, मोदीखाना, जयपुर।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/511
संकलित एवं संशोधित की गई है। यह कृति' गुजराती में है। मूलपाठ संस्कृत में है। इसमें श्री शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय के दो भाग संग्रहित किये गये हैं। यह कृ ति प्रतिष्ठाविधि से सम्बन्ध रखती है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में पूर्वाचार्य विरचित नवस्मरणपाठ श्री गौतमस्वामी रास सह श्री ऋषिमंडलस्तोत्र अर्थ सहित दिया गया है। उसके बाद श्री शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय भा. १ के आधार से १. शान्तिस्नात्रादि पूजाओं में बोलने योग्य मन्त्राक्षर २. कुंभ स्थापना की विधि ३. दीपकस्थापना विधि ४. जवारारोपण विधि ५. कुंभ-दीपक-जवारारोपण में उपयोग सामग्री सूची ६. जलयात्रा विधि और उसकी सामग्री ७. नवग्रहपूजन विधि ८. सत्रहभेदी पूजा विधि सार्थ ६. नवग्रह दशदिक्पाल कोष्ठक १०. दशदिक्पाल पूजनविधि ११. अष्टमंगल पूजाविधि १२. नवग्रह- दशदिक्पाल-अष्टमंगल की पूजा सामग्री १२. वेदिकास्थापन विधि १३. दशदिक्पाल आहान की बृहद् विधि १४. श्री अष्टोत्तरी पूजा १५. श्री स्नात्रपूजा १६. श्री शान्तिस्नात्र विधि १७. श्री शान्तिमहापूजाविधि इत्यादि का निरूपण किया है।
___ श्री शान्तिस्नात्रविधिसमुच्चय भा. २ के आधार से १. अठारह अभिषेक की बृहद विधि २. ध्वजदंड प्रतिष्ठा विधि ३. ध्वजाआरोपण विधि (जिनालय की वर्षगांठ के दिन ध्वजा चढ़ाने की विधि) ४. कलशप्रतिष्ठा विधि ५. प्रासादअभिषेक विधि ६. गुरुमूर्ति एवं स्थापनाचार्य की प्रतिष्ठा विधि ७. परिकर की प्रतिष्ठा विधि ८. जिन मंदिर और उपाश्रय की खातमुहूर्त विधि ६. शिलास्थापन विधि १०. जिनबिंब प्रवेश विधि ११. प्रतिष्ठा विधि १२. द्वारोद्घाटन विधि १३. जीर्णोद्धार विधि आदि का उल्लेख हुआ है।
यह ध्यान रहे कि उपर्युक्त विधियों का प्रायः उल्लेख किसी न किसी प्रतिष्ठा विषयक अन्य कृतियों में भी हुआ है। शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चयः (भाग २)
यह शान्तिस्नात्रादि विधिसमुच्चय का दूसरा भाग' है। इसके पहले प्रथम विभाग दो भागों में प्रकाशित हुआ है। उनमें प्रथम भाग (खंड) में कुंभस्थापना आदि विधान संकलित किये गये हैं तथा द्वितीय भाग में सिद्धचक्र महापूजन का
' यह ग्रन्थ श्री आदिनाथ मरुदेवा वीरामाता अमृत जैन पेढ़ी धारानगरी, नवागाम से प्रकाशित
' यह कृति वि.सं. २४८७ में श्री जैन साहित्यवर्धक सभा- शिरपुर (पश्चिम खानदेश) ने प्रकाशित की है।
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512/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
विधान दिया गया है।
इस दूसरे विभाग में प्रतिष्ठा उपयोगी विधि-विधानों का संग्रह है। इसके साथ अन्य उपयोगी विधियाँ भी उल्लिखित हैं। प्रस्तुत प्रतिष्ठाकल्प का संयोजन तपागच्छीय विजयामृतसूरि ने किया है। यह गुजराती भाषा में निबद्ध है।
इस द्वितीय विभाग में कुल उन्नीस प्रकार के विधि-विधान निर्दिष्ट हैं उनका नामनिर्देश पूर्वक संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है - १. अष्टादशअभिषेकबृहविधि - इस विधि के बारे में प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रस्तावना उल्लेख करती हैं कि जैन शासन में प्रचलित विशिष्ट क्रियाकाण्डों में यह एक ऐसा विधान है जो कई बार सम्पन्न किया जाता है। यह विधान अनेक प्रतियों में मुद्रित हुआ है परंतु प्रस्तुत विधान सम्बन्धी अब तक जो प्रतियाँ प्रकाशित हुई हैं वे संक्षेप में है और केवल अभिषेकरूप है किन्तु इस विभाग में यह विधान विस्तृत एवं विशिष्ट प्रकार से दिया गया है। जिनबिंबों और पट आदि की विशुद्धि करने के लिए यह विधान विशेष उपयोगी है।
____ अंजनशलाका किये गये पूजनीय बिंबों को जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर वाहनादि के द्वारा ले जाया गया हों, प्राचीन बिंबों का लेप करवाया गया हो, कुछ कारण विशेष से जिनबिंब अपूजनीय रहे हों, किसी प्रकार की आशातना का कारण बना हो, नये तीर्थपट बनवाये हो इत्यादि प्रसंगों पर अठारह अभिषेक विधान किया जाता है। इस विधान से दोष, अशुद्धि आदि दूर होती है और शुद्धि की वृद्धि होती है। यह विधान सम्पन्न करने के बाद उस वातावरण में अलग प्रकार का ही अनुभव होता है। जिनबिंबों का आकर्षण अपूर्व हो जाता है ये सभी बातें श्रद्धा से मानी जाय, वैसी नहीं है अपितु सकारण है। इस विधान में जिन पदार्थों का उपयोग किया जाता है वे पदार्थ वातावरण को विशुद्ध करने के लिए प्रत्येक क्षेत्र में समर्थ होते हैं इन पदार्थों की उपयोगिता आदि का वर्णन वनस्पतिशास्त्र वैद्यक ग्रन्थ आदि में विस्तार से प्राप्त होता है। प्रस्तुत विभाग में अठारह अभिषेक की विधि विस्तार से संकलित की गई है। २. ध्वजारोपणविधि ३. कलशारोपणविधि- प्रायः ये दोनों विधान साथ में किये जाते हैं। ये दोनों ही विभाग प्रचलित है तथा इन दोनों पर नगर की उन्नति का आधार टिका हुआ है। ४. नन्द्यावर्तपूजन विधि- जिन शासन में इस पूजन का माहात्म्य विशिष्ट है। अनेक विशिष्ट प्रसंगों पर यह पूजन किया जाता है। इस पूजन में मध्य में नन्द्यावर्त्त का आलेखन और उसके चारों ओर दस वलय किये जाते हैं। यहाँ यह विधान संक्षेप में कहा गया है। ५. देवीप्रतिष्ठाविधि- जिनमंदिर में शासन अधिष्ठायकादि देव-देवियों की स्थापना-प्रतिष्ठा प्रायः होती ही है, उनकी स्थापना नहीं की जाती है। उन देवी-देवताओं को पूजनीक बनाने का विशिष्ट विधान है। यही इस
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/513
विधि के अन्तर्गत कहा गया हैं। ६. मंडपपीठ-पीठि स्थापनाविधि- प्रतिष्ठा के पूर्व जिन पीठ पर नूतन बिम्बों को बिराजमान किया जाता है, उस पीठ को स्थापित करने की विधि यहाँ कही गई है। ७. जिनबिम्बप्रवेश तथा प्रतिष्ठाविधि- यह विधि जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा से सम्बन्धित है। यहाँ प्रतिष्ठाविधि से तात्पर्य है - जिननूतन बिंबों की प्रतिष्ठा करनी उन जिन बिम्बों का महोत्सव पूर्वक नगर प्रवेश करवाने के बाद यथायोग्य गादी पर स्थिर/प्रतिष्ठित करते समय जो विधि-विधान किये जाते है उसे प्रतिष्ठाविधि समझना चाहिए, किन्तु अंजनशलाका के समय जिन बिम्बों की प्राणप्रतिष्ठा की जाती हैं वह प्रतिष्ठाविधि यहाँ नहीं जाननी चाहिए। ८. प्रासादाभिषेकविधि- इसमें प्रासाद (जिनालय) के अभिषेक की विधि कही गई है। ६. परिकरप्रतिष्ठाविधि- परिकर युक्त प्रतिमाचित्त की प्रसन्नता में विशेष रूप से वृद्धि करती है इसमें उस परिकर को अभिमन्त्रित एवं प्रतिष्ठित करने की विधि वर्णित है। १०. गुरुमूर्तिप्रतिष्ठाविधि- इसमें आचार्य- उपाध्याय-साधु आदि की मूर्ति को प्रतिष्ठित करने की विधि बतायी है। ११. स्थापनाचार्यप्रतिष्ठाविधि- श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में स्थापनाचार्य (आचार्य की प्रतिकृति रूप रचना) का अत्यधिक महत्त्व है। तपागच्छ आदि कुछ परम्पराएँ में शंख के स्थापनाचार्य निर्मित करते हैं खरतरगच्छ आदि कुछ में चन्दन के स्थापनाचार्य बनाते हैं। ये स्थापनाचार्य प्रभावपूर्ण होते हैं। इनके प्रभावों का वर्णन करने वाली कई सूक्तियाँ यहाँ दी गई हैं, उनका अर्थ भी दिया गया है। साथ ही स्थापनाचार्य को प्रतिष्ठित करने की विधि भी प्रतिपादित की गई है। १२. मंत्र-चित्रपटप्रतिष्ठाविधि- कोई भी मंत्रपट हो या चित्रपट को मंत्रित, पूजित या प्रतिष्ठत किये बिना ही पूजा में रखते हैं तो वे यथावत फलदायी नहीं होते हैं इसलिए इसमें मंत्रपटों-चित्रपटों को प्रतिष्ठित करने की विधि कही है। १३. नवकरवाली प्रतिष्ठाविधि- इसमें नवकारवाली को मन्त्रित एवं प्रतिष्ठित करने की विधि बतायी गयी है। १४. खातमुहर्त्तविधि १५. शिलास्थापनाविधि- जिनमन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व नींव मजबूत करने के लिए खड्डा खोदना ‘खात' कहलाता है और शुभमुहूर्त में निर्दिष्ट स्थान पर पहला पत्थर रखना 'शिला-स्थापन' कहलाता है। यहाँ इन दोनों की विधियाँ दी गयी हैं। १६. खंडितप्रतिमा- विजर्सनविधि- जिस प्रकार अंजनशलाका नहीं की गई प्रतिमा पूजने से कोई लाभी नहीं मिलता है उसी प्रकार जिस प्रतिमा के प्रधान अवयव खंडित हो गये हो वह प्रतिमा भी अपूजनिय हो जाती है। खंडित-जीर्ण-भग्नादि प्रतिमाओं को जहाँ-तहाँ नहीं रखनी चाहिए, उन प्रतिमाओं का विसर्जन कर देना चाहिए किन्तु वह विर्सजन क्रिया भी विधिपूर्वक करनी चाहिए इसमें वही विधि निर्दिष्ट है। १७. परिकरस्थप्रतिमाप्रतिष्ठा विधि- इसमें परिकर सहित प्रतिमा की प्रतिष्ठाविधि कही गई है। १८. द्वारोद्घाटन विधि- इसमें प्रतिष्ठा के दूसरे दिन जिन-मन्दिर के मूल द्वार को उद्घाटित करने की विधि उल्लिखित है। १६.
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514/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
इसके बाद परिशिष्ट विभाग में राशिमेल का कोष्टक, बीज-मंत्राक्षरों का कोष और पूर्वोक्त विधि-विधानों में उपयोगी सामग्री की सूचि दी गई है।
वस्तुतः यह प्रतिष्ठाकल्प कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है। 'श्री शान्तिस्नात्रादिविधिसमुच्चय' नाम से प्रकाशित दोनों विभाग अतिप्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। निःसन्देह में सारभूत सामग्री का किया गया यह संकलन प्रशंसनीय है। शान्तिस्नात्रविधिसमच्चय
- इस नाम की एक अन्य कृति' भी प्रकाशित है। किन्तु वह गुजराती में है जबकि यह हिन्दी भाषा में है दोनों कृतियों का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता हैं कि विषयवस्तु की दृष्टि से ये दोनों एक ही है केवल गुजराती कृति का ही हिन्दी में अनुवाद किया गया है।
___ यह अनुवाद धनरूपमलजी नागौरी (जयपुर) ने किया है। दूसरी बात, इस कृति में वे ही विधि-विधान संकलित किये गये हैं जो प्रस्तुत नाम वाली अन्य कृतियों में हैं। अतः यहाँ उनका पुनर्लेखन करना अनौचित्यपूर्ण हैं।
' यह कृति 'श्री पुण्य-सुवर्ण-ज्ञान पीठ, जयपुर' ने वि.सं. २०४२ में प्रकाशित की है।
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अध्याय- 11
मंत्र-यंत्र विद्या सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
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516 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
अध्याय ११
मंत्र, यंत्र, विद्या सम्बन्धी विधि- विधानपरक साहित्य-सूची
क्र. कृति
कृतिकार
१ अनुभवसिद्धमंत्रद्वात्रिंशिका भद्रगुप्ताचार्य
२ अचलगच्छीय आम्नायसूरि संकलित मंत्र ( प्रा.सं.)
३ अद्भुतपद्मावतीकल्प चन्द्रमुनि
५ ऊँकार विद्यास्तवनम् अज्ञातकृत
(प्रा.)
६ ह्रींकार विद्यास्तवनम्
(सं.)
७ ऋषिमंडलमंत्रकल्प
८ ऋषिमण्डलस्तव
यन्त्रालेखनम् (सं.) कामचण्डालिनीकल्प
१० कल्याणमन्दिर स्तोत्र
(सं.)
११ कोकशास्त्र
१२ चतुर्विंशति जिनअद्भुत विद्यानिधान (सं.)
४ उवसग्गहरं स्तोत्र (प्रा.) भद्रबाहुस्वामी (द्वि.) लग. वि.सं. छठीं
शती
आ. समंतभद्र
आ. विद्याभूषण
सिंहतिलकसूरि
आ. मल्लिषेण
सिद्धसेनदिवाकर
कृतिकाल
लग. वि.सं. १५-१८
वीं शती
नर्बुदाचार्य राजयशविजयगणि
लग. वि.सं. २०-२१
वीं शती
लग. वि.सं. १८-१६
वीं शती
लग. वि. सं. १२ वीं
शती
वि.सं. १२ वीं शती
लग. वि.सं. १५-१८ वीं शती
वि.सं. १३ वीं शती
वि.सं. १२ वीं शती
वि.सं. १२ वीं शती
सन् १५६६
वि.सं. २०-२१ वीं शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/517
१३ चिन्तामणि पाठ अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १५-१८
वीं शती १४ चिन्तारणि
सागवाड़ा गद्दी भट्टारकालग. वि.सं. १६ वीं
शती १५ जपयोग (हि.) संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं
शती १६ जिनपंजरस्तोत्रम् (सं.) कमलप्रभसूरि लग. वि.सं. १४-१५
वीं शती | १७ ज्वालामालिनीकल्प अज्ञातकृत । वि.सं. १५ वीं शती १८ ज्वालामालिनीकल्प एलाचार्य वि.सं. १० वीं शती १६ ज्वालामालिनीकल्प इन्द्रनन्दी वि.सं. १० वीं शती २० दुर्गपद विवरण (सं.) लवलव
लग. वि.सं. १५ वीं
शती २१ देवतावसरविधि (सं.) जिनप्रभसूरि वि.सं. १३६३ २२ नमस्कार-स्वाध्याय (गु.) संकलन वि.सं. २०-२१ वीं
शती २३ नमस्कार-स्वाध्याय सं. धुरंधरविजय, वि.सं. २०-२१ वीं
(भाग १-२) (प्रा.सं.) जम्बूविजय शती २४ नवकारमहामन्त्रकल्प संक. चन्दनमल वि.सं. २०-२१ वीं (हि.)
नागोरी
शती २५ परमेष्ठि विद्यायन्त्रकल्प सिंहतिलकसूरि । वि.सं. १३ वीं शती
(सं.)
२६ पंचनमस्कृतिस्तुति (सं.) जिनप्रभसूरि २७ पंचनमस्कृतिदीपक (सं.) भट्टारक सिंहनंदि
२८ पद्मावती-उपासना आ. कुन्थुसागर | २६ बृहत्हींकारकल्पविवरण जिनप्रभसूरि
वि.सं. १४ वीं शती वि.सं. १८ वीं शती वि.सं. १२ वीं शती वि.सं. १४ वीं शती
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518/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
आ. मल्लिषेण
वि.सं. ११६४
३० भैरव पद्मावतीकल्प
(सं.) ३१ भक्तामर स्तोत्र (सं.) ३२ मंत्रविद्या
३३ मंत्रशक्ति
३४ मंत्रशास्त्र
(बागड़ी ५ मारवाड़ी) ३५ मंत्राधिराज
३६ मंत्राधिराजचिन्तामणि
३७ मंत्रचिंतामणि
मानतुंगाचार्य वि.सं. ७ वीं शती किरणीदान सेठिया लग. वि.सं. १५-१८
वीं शती पुष्पदंतसागर वि.सं. २०-२१ वीं
शती अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १५-१८
वीं शती बसन्तलाल, कान्तिलाला वि.सं. २०-२१ वीं
शती सं. चतुरविजय वि.सं. २०-२१ वीं
शती धीरजलालशाह वि.सं. २०-२१ वीं
शती अज्ञातकृत लग. वि.सं. १६ वीं
शती सिंहतिलकसरि लग. वि.सं. १४ वीं
शती सागरचन्द्रसूरि लग. वि.सं. १२ वीं
शती जिनप्रभसूरि वि.सं. १४ वीं शती आ. महेन्द्रसूरि वि.सं. १४२७ सवाईजयसिंह लग. वि.सं. १७-१८
वीं शती अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१८
३८ मंत्र-यंत्र-विद्या संग्रह
(बागड़ी ५ मारवाडी) ३६ मन्त्रराजहस्यम् (सं.)
४० मन्त्राधिराजकल्प
४१ मायाबीजकल्पः (सं.) ४२ यन्त्रराज ४३ यन्त्रराजरचनाप्रकार
| ४४ रक्तपद्मावतीकल्प
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/519
वीं शती ४५ रिष्टसमुच्चय एवं आ. दुरदिव वि.सं. १०३२
महाबोधिमन्त्र ४६ लघुनमस्कारचक्रस्तोत्रम् सिंहतिलकसूरि वि.सं. १४ वीं शती
(सं.) ४७ लघु विद्यानुवाद अज्ञातकृत वि.सं. १८ वीं शती ४८ लब्धिपदफलप्रकाशकः अज्ञातसूरि लग. वि.सं. १५ वीं कल्पः (सं.)
शती ४६ |लब्धिफलप्रकाशककल्प अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१८
वीं शती ५० वर्धमानविद्याकल्प सिंहतिलकसूरि वि.सं. १२६६ ५१ वर्धमानविद्याकल्प यशोदेवसूरि वि.सं. १३ वीं शती ५२ वर्धमानविद्याकल्प अज्ञातकृत. लग. वि.सं. १३-१४
वीं शती ५३ विद्यानुवाद-अंग हस्तिमल्ल वि.सं. १४ वीं शती
का पूर्वार्द्ध ५४ विद्यानुवाद
आ. मल्लिषेण वि.सं. १२ वीं शती ५५ विद्यानुवाद
सं. सुकुमारसेन वि.सं. १६ वीं शती
भट्टारक ५६ विद्यानुवाद कुमारसेन भट्टारक लग. वि.सं. ६८३ ५७ विद्यानुशासन आ. मल्लिषेण वि.सं. १२ वीं शती ५८ विषापहार स्तोत्र
धनंजय
लग. ७ वीं शती ५६ सरस्वतीकल्प
आ. मल्लिषेण वि.सं. १२ वीं शती ६० सरस्वतीकल्प अर्हदास विजयकीर्ति लग. वि.सं. १६-१७
वीं शती ६१ सिद्धयंत्रचक्रोद्धार रत्नशेखरसूरि । वि.सं. १४२८
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520/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
६२ सुकृतसागर ६३ सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चयः
(भा १-२) ६४ सूरिपदस्थापना विधि
रत्लमण्डनगणि वि.सं. १५ वीं शती सं. मुनि जम्बूविजय वि.सं. २०-२१ वीं
शती अज्ञातकृत लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती संकलित
वि.सं. २०-२१ वीं
शती देवसूरि
लग. वि.सं. १३ वीं
६५ सूरिमंत्र
६६ सूरिमन्त्रकल्प
शती
६७ सूरिमन्त्रगर्भितलब्धिस्तोत्र अज्ञातकृत
लग. वि.सं. १५ वीं
शती
६८ सूरिमन्त्रप्रदेशविवरण ६६ सूरिमन्त्रविशेषाम्नाय ७० सूरिविद्याकल्प ७१ सरिविद्याकल्पसंग्रह
जिनप्रभसूरि मेरूतुंगसूरि जिनप्रभसूरि अज्ञातकृत
वि.सं. १३६३ वि.सं. १४६६ वि.सं. १३६३ लग. वि.सं. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. १२ वीं
| ७२ सूरिमन्त्रकल्प
अज्ञातकृत
शती
शती
७३ सूरिमुख्यमन्त्रकल्प मेरुतुंगसूरि लग. वि.सं. १५ वीं
(प्रा.सं.) ७४ सूरिमन्त्रसंग्रह (सं.) अज्ञातसूरि लग. वि.सं. १२ वीं
शती ७५ सूरिमन्त्रस्यविविधाःप्रकाराः सं. मुनिजम्बूविजय वि.सं. २०-२१ वीं
शती ७६ सूरिमन्त्र-पटालेखन विधि सं. प्रीतिविजय वि.सं. २०-२१ वीं
(सं.)
शती
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७७ सूरिमन्त्रस्मरण विधि
(सं.)
७८ सूरिमन्त्रनित्यकर्म (सं.) राजशेखरसूरि
७६ सूरिमन्त्र
८० सूरिमन्त्रकल्प
८१ सूरिमन्त्रकल्प (प्रा.)
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 521
अज्ञातकृत
जिनप्रभसूरि
जिनप्रभसूरि
अज्ञातसूरि
८२ संक्षिप्तः सूरिमन्त्र विचार अज्ञातकृत
(सं.)
८३ सूरिमन्त्रआराधनाविधि देवेन्द्रसूरि
(सं.)
८४ सूरिमंन्त्रबृहत्कल्पविवरण जिनप्रभसूरि
(सं.)
लग. वि.सं. १५ वीं
शती
वि.सं. १३-१४ वीं
शती
वि.सं. १४ वीं शती
वि.सं. १४ वीं शती
लग. वि.सं. १५-१६
वीं शती
लग. वि.सं. १६-२०
वीं शती
लग. वि.सं. १६ वीं
शती
वि.सं. १४ वीं शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/523
अध्याय ११ मंत्र-तंत्र-विद्या सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
अनुभवसिद्धमंत्रद्वात्रिंशिका
यह रचना भद्रगुप्ताचार्य की है। इस कृति का निर्माण कब हुआ, इस संबंध में हमें कोई सूचना उपलब्ध नहीं हुई है। सामान्यतया प्रस्तुत कृति में पाँच अधिकार हैं- प्रथम अधिकार में सर्वज्ञाभमन्त्र 'ॐ श्री ही अहं नमः' और सर्वकर्मकरमन्त्र 'ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमः' इन दोनों मन्त्रों की ध्यान विधि बतायी गयी है। द्वितीय अधिकार में वशीकरण एवं आकर्षण सम्बन्धी मंत्र का वर्णन है। तृतीय अधिकार में स्तम्भनादि से सम्बन्धित मंत्रों एवं स्तोत्रों का निरूपण हैं। चतुर्थ अधिकार में शुभाशुभसूचक और तत्काल- फलदायी आठ मंत्रों का समावेश है। पंचम अधिकार में गुरु-शिष्य की योग्यता एवं अयोग्यता का निरूपण हैं। इस कृ ति को पंडित अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने सम्पादित करके प्रकाशित करवाया है। अचलगच्छीयआम्नायसूरिमन्त्र
यह एक संक्षिप्त कृति है। यह प्राकृत एवं संस्कृत मिश्रित गद्य में है। इसमें अचलगच्छ के आम्नायानुसार सूरिमन्त्र के अतिरिक्त वाचनाचार्यपदस्थापना, उपाध्याय- पदस्थापना एवं प्रवर्तिनीपदस्थापना के मंत्र संग्रहीत है।
यह कृति सूरिमन्त्रकल्प भाग २, पृ. २१७ से २२० में प्रकाशित है। अद्भुतपद्मावतीकल्प
इस कृति की रचना श्वेताम्बर परम्परा के उपाध्याय यशोभद्र के शिष्य चन्द्रमुनि ने की है। इसकी प्रकाशित कृति के आधार पर इसमें छः प्रकरण हैं। इनमें से प्रथम दो अनुपलब्ध हैं। तीसरा प्रकरण सकलीकरण विधान का है और इसमें सत्रह पद्य हैं। चौथे प्रकरण में देवी-अर्चन का क्रम एवं देवी यन्त्र पर प्रकाश डाला गया है इसमें छासठ पद्य हैं। पाँचवे प्रकरण में पात्रविधि लक्षण की चर्चा है और यह सत्रह पद्यों का है। इनमें से पन्द्रहवाँ पद्य त्रुटित है इसके पश्चात् गद्य भाग आता है, जिसका कुछ भाग गुजराती लिपि में है। छठा प्रकरण अठारह पद्यों में हैं और इसका नाम दोष लक्षण है। इसके पन्द्रहवें पद्य के अनन्तर बन्ध-मन्त्र, माला-मन्त्र इत्यादि विषयक गद्यात्मक भाग आता है।
' इस कृति के तीन से छह प्रकरण श्री साराभाई मणिलालनवाब द्वारा, सन् १६३७ में प्रकाशित 'भैरवफ्यावतीकल्प' के प्रथम परिशिष्ट (पृ. १-१४) में दिये हैं।
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524 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
उवसग्गहरं स्तोत्र
जैन परम्परा में आराधना - उपासना की दृष्टि से इस स्तोत्र का महत्त्व बहुत अधिक है। परम्परागत मान्यता है कि मूलतः यह स्तोत्र प्राकृत के सत्ताईस पद्यों में रचा गया था, किन्तु कारण विशेष से वर्तमान में पाँच गाथाएँ ही अधिक प्रचलित है। इसके रचयिता भद्रबाहुस्वामी (द्वितीय) है। इसका रचनाकाल लगभग छठी शती है। इस स्तोत्र में प्रभु पार्श्वनाथ और उनके यक्ष पार्श्व की स्तुति की गई है और उनसे ज्वर आदि रोग तथा सर्प दंश आदि की पीड़ाओं से मुक्त करने की प्रार्थना की गयी है। इसकी प्रत्येक गाथा मंत्र - यंत्र से समन्वित है अतः इस स्तोत्र की अनेक आवृत्तियाँ मंत्र - यंत्र एवं साधनाविधि से सम्बन्धित प्रकाशित हो चुकी हैं।
निःसन्देह जैन मंत्र साहित्य में इस लघु कृति का विशिष्ट स्थान है। ऊँकारविद्यास्तवनम्
यह स्तोत्र ‘पंचनमस्कृतिदीपक' नामक ग्रन्थ में संग्रहीत है । उसमें इस स्तोत्र का समंतभद्र (दिगंबर जैनाचार्य ) की कृति के रूप में उल्लेख हुआ है। यह स्तोत्र ‘नमस्कार स्वाध्याय' भा. २ में भी संकलित है। इसकी भाषा प्राकृत है। इसमें कुल १२ गाथाएँ हैं। मूलतः यह स्तोत्र ऊँकार विधि से सम्बन्धित है। इस कृ ति में ‘ऊँकार ध्यान-विधि' के साथ- साथ ऊँकार का विधिपूर्वक ध्यान करने से प्राप्त होने वाले लाभ तथा उसका माहात्म्य बताया गया है। इसमें ऊँकार के विषय में लिखा है कि यह ऊँकार 'अ + अ + आ+उ+म्' इन वर्गों के योग से बना है। ऊँकार का ध्यान पीतवर्ण, श्वेतवर्ण, रक्तवर्ण, हरितवर्ण अथवा कृष्णवर्ण में करना चाहिए। यह ऊँकार तीन भुवन का स्वामी है। यह ऊँकार 'ह्रीं' की आदि में है । यह पंचपरमेष्ठी का वाचक है। अतः समस्त मंत्रों का साररूप तत्त्व है। ऊँकार का जाप अथवा चिंतन करने से कर्म-रज का नाश होता है। आत्मा निर्मल बनती है और स्वानुभव होने लगता है ।
ऊँकार की ध्यानविधि के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि ऊँकार का श्वेतवर्ण पूर्वक ध्यान करने से शांति, तुष्टि, पुष्टि होती है, पीतवर्ण द्वारा ध्यान करने से लक्ष्मी प्राप्त होती है, लालवर्ण द्वारा ध्यान करने से वशीकरण शक्ति प्रगट होती है, कृष्णवर्ण द्वारा ध्यान करने से शत्रु का क्षय होता है और हरितवर्ण द्वारा ध्यान करने से स्तम्भन विद्या प्राप्त होती है।
१
यह कृति वि. सं. २०१६ में 'जैन साहित्य विकास मण्डल, मुंबई' से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/525
इस स्तोत्र के अंत में यह भी प्रतिपादित है कि इस स्तोत्र (ऊँकार) का विधिपूर्वक जाप करने वाला अथवा पाठ करने वाला मनुष्य स्वर्ग या मोक्षपद को प्राप्त करता है। स्पष्टतः इस स्तोत्र का विधिवत् स्मरण करना अनेक प्रकार से फलदायक है। यह स्तोत्र ऊँकार का माहात्म्य प्रगट करने के साथ-साथ ऊँकार ध्यान-विधि को भी प्रस्तुत करता है। 'ही'कार विद्यास्तवनम्
यह स्तोत्र ‘पंचनमस्कृतिदीपक' नामक ग्रन्थ में संग्रहीत है। उसमें इस स्तोत्र के रचनाकार आचार्य समंतभद्र को बताया है। यह संस्कृत के १६ पद्यों में गुम्फित है। उनमें १५ पद्य उपजातिवृत्त के हैं और अन्तिम श्लोक बसंततिलका वृत्त में है।
यह रचना मुख्यतया हौंकार विद्याकल्प से सम्बन्धित है। इसमें ‘हाँकार की ध्यान विधि' सम्यक् रूप से कही गई है इसके साथ ही ह्रींकार का स्वरूप, भिन्न-भिन्न वर्गों की अपेक्षा हींकार का ध्यान, ह्रींकार की महिमा एवं उसके फल का निरूपण हैं।
ह्रींकार स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि जिसके पार्श्व में 'स' वर्ण है ऐसा 'ह' और 'य' तथा 'ल' के मध्य में स्थित है ऐसा 'र' तथा जिसके बीच में 'ई' स्वर है, जिसकी कांति देदीप्यमान सूर्य के समान है जो अर्धचन्द्र (कला) बिन्दु
और स्पष्ट नाद से शोभित हो रहा है ऐसे शक्तिबीज का मैं भावपूर्वक स्मरण करता हूँ।
हीकार की ध्यान विधि के प्रसंग में चर्चा करते हुए निर्देश किया गया हैं कि, ह्रौंकार विधि का ज्ञाता शिष्य सर्वप्रथम सद्गुरु के समीप में समुचित शिक्षा प्राप्त करें, फिर देह व चित्त से पवित्र होकर इन्द्रियों को वशीभूत करके मन में अडिग धैर्य धारण करें फिर मौनपूर्वक आत्मबीज-हींकार का विधियुक्त उपांशु जप करें।
ह्रींकार ध्यान का फल बताते हुए कहा गया है कि श्वेतवर्णी ह्रींकार का ध्यान करने से अनेक प्रकार की विद्याएँ, कलाएँ तथा शांतिक एवं पौष्टिक कर्म तत्क्षण सिद्ध होते हैं। रक्तवर्णी हौंकार का ध्यान करने से समग्र विश्व वश में हो जाता है। पीतवर्णी ह्रींकार का ध्यान करने से लक्ष्मी, आनंद और लीलासहित क्रीडा करती हैं। श्यामवर्णी ह्रींकार का ध्यान करने से शत्रुसमूह का तत्क्षण नाश होता है।
हीकार की महिमा को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जैसे सिंह की गर्जना सुनकर हाथी दूर से ही भाग जाते हैं वैसे ही ह्रींकार ध्यान के प्रभाव से चोर, शत्र, ग्रह, रोग, भूतादि के दोष तथा अग्नि और बंधन से उत्पन्न होने वाले भय दूर
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526/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
से ही चले जाते हैं। हौंकार मन्त्र का विधिपूर्वक चिंतन करने से चिंतामणी के समान सर्व अभीष्ट कार्य सिद्ध हो जाते हैं, पुत्र रहित को पुत्र की प्राप्ति हो जाती है, निर्धन कुबेर के समान धनी बन जाता है सेवक स्वामी और दुखी सुखी बन जाता है। प्रस्तुत कृति के अंत में यह भी कहा गया है कि जो मनुष्य ह्रींकार बीज का तीनों सन्ध्याओं में विधिपूर्वक ध्यान करता है उसके चरणों में आठ सिद्धियाँ विवश होकर नित्य लौटती हैं और वह क्रमशः मोक्षपद को प्राप्त करता है। ऋषिमंडलमंत्रकल्प
जैन परम्परा की साधना पद्धति में ऋषिमंडल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रस्तुत कृति विद्याभूषणसूरि द्वारा रचित है। इसमें ऋषिमंडल से संबंधित मंत्र-तंत्र
और यंत्र संग्रहीत हैं। ऋषिमण्डल से संबंधित अन्य आचार्यों की कृतियाँ भी इसमें उपलब्ध होती है। ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्
सिंहतिलकसूरि रचित यह कृति संस्कृत पद्य में है।' इसके ३६ श्लोक हैं। प्रस्तुत कृति के नाम से ऐसा सूचन मिलता है कि इसमें केवल यन्त्रालेखन का विधान होना चाहिए, परन्तु इस कृति में यन्त्रालेखन-विधि एवं यंत्र-आराधना-विधि के उपरांत यंत्र के भेद-प्रभेद की भी चर्चा की गई हैं। इस स्तोत्र का रचनाकाल १३ वीं शती का पूर्वार्ध है। यह स्तोत्र ऋषिमंडलस्तोत्र के आधार पर रचा गया है। जहाँ 'ऋषिमंडलस्तोत्र' में यंत्र रचना के विषय में अस्पष्ट निर्देश है वह सिंहतिलकसूरि की इस रचना से स्पष्ट हो जाता है। ऋषिमंडलस्तोत्र के रचनाकार ने तीर्थंकरों की महिमा से सम्बन्धित ४६ श्लोक (३१ से ७६ पर्यन्त) कहे हैं उस विस्तृत विषय को सिंहतिलकसूरि ने एक श्लोक में ही संग्रहीत कर दिया है इसी प्रकार ऋषिमंडलस्तोत्र के ६८ श्लोकों को सिंहतिलकसूरि ने ३६ श्लोकों में समाविष्ट किया है।
इस रचना के प्रारम्भ में मंगल रूप एवं प्रयोजन रूप एक श्लोक दिया गया है उसमें वर्द्धमानस्वामी का ध्यान करके ऋषिमण्डलस्तोत्र के अनुसार यंत्र आलेखन विधि कहने की प्रतिज्ञा की गई है। मूलतः इस कृति में छः विषयों पर प्रकाश डाला गया है। पहले अधिकार में मंगलादि की चर्चा है दूसरे अधिकार में यन्त्र स्वरूप और उसकी आलेखन विधि प्रतिपादित है। इसके अन्तर्गत यन्त्र
' (क) इस 'स्तव' का हिन्दी अनुवाद श्री धुरंधरविजयगणि ने किया है।
(ख) इसका प्रकाशन श्री नवीनचंद्र अंबालाल शाह, जैन साहित्य विकास मण्डल, विलेपारले मुंबई, वि.सं. २०१७ में हुआ है।
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निर्माण हेतु द्रव्य सामग्री, यन्त्र के बहिर्वलय का निर्माण, यन्त्र के मध्यवलय का निर्माण, यंत्र के लिए जापमन्त्र, दिग्बंधन, दिग्विभाग, कालविभाग, गर्भगृह आदि का निरूपण हुआ है। तीसरा अधिकार प्रणिधान प्रयोग से सम्बन्धित है इसमें निर्मित यन्त्र की ध्यान विधि का निरूपण हुआ है इसके साथ ही पिण्डस्थ - पदस्थ - रूपस्थ ध्यान विधि भी कही गई हैं। चौथा अधिकार तात्पर्य की चर्चा करता है जैसे कि ऋषिमण्डलयन्त्र का उद्देश्य क्या है? समस्त देव-देवीयों को आमन्त्रित करने का प्रयोजन क्या है ? यन्त्र रचना किस पत्र पर करनी चाहिए ? इत्यादि । पांचवे अधिकार में इस रचना के आम्नायानुसार तीन प्रकार के होम बताये गये हैं उसमें पहला प्रकार उत्कृष्ट माना गया है। छट्ठे अधिकार में 'ॐ ह्रीं अर्हं नम:' इस जाप मन्त्र का साररूप प्रभाव बताया गया है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 527
सारांशतः यह रचना अत्यन्त विस्तृत नहीं है तथापि गूढ़ार्थ विषय को ली हुई हैं। प्रस्तुत कृति में यंत्र को जैनचक्र और धर्मचक्र की तरह स्थान प्राप्त है साथ ही इसमें यन्त्रोद्धार, मन्त्रोद्धार, यन्त्रसाधना विधि, यन्त्रसाधना के प्रयोजन, यन्त्र का आम्नाय इत्यादि का कुशलतापूर्वक विवेचन हुआ है।
कामचण्डालिनीकल्प
यह कृति भी भैरवपद्मावतीकल्प के प्रणेता आचार्य मल्लिषेण की रचना है । यह पाँच अधिकरों में विभक्त है। इसमें कामचण्डालिनी की साधना विधि निरूपित है। '
कल्याणमन्दिरस्तोत्र
परम्परागत दृष्टि से इस स्तोत्र के प्रणेता श्रीवादिदेवसूरि के शिष्य श्री सिद्धसेन दिवाकर माने जाते हैं। ये विक्रम की १२ वीं शती में हुए हैं। इतिहास कहता है कि इस स्तोत्र की रचना उज्जैन के समीप महाकालेश्वर मन्दिर में हुई थी, जो आज अवन्तिपार्श्वनाथ तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी कथावस्तु पठनीय है।
यह रचना संस्कृत के ४४ पद्यों में की गई है। इसमें प्रमुख रूप से पार्श्वनाथ प्रभु की स्तुति का वर्णन है, किन्तु मान्यता यह है कि इस स्तोत्र का प्रत्येक पद्य आधि-व्याधि, संकट - उपद्रव, दुःख पीडा आदि को दूर करने वाला है। प्रत्येक पद्य की अपनी भिन्न-भिन्न शक्तियाँ हैं, अपना भिन्न-भिन्न प्रभाव हैं, उस प्रभाव को प्रगट करने के लिए इन पद्यों की साधना करनी होती हैं। अतः इस कृ
9
उद्धृत - जैन धर्म और तान्त्रिक साधना पृ. ३५६
२
यह स्तोत्र नूतनपद्यानुवाद तथा श्री देवेन्द्रकीर्ति प्रणीत कल्याणमन्दिरस्तोत्र की पूजा सहित, 'भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद्' ने प्रकाशित किया है।
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528 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
ति में प्रत्येक श्लोक के मंत्र का और उसकी साधना-विधि का वर्णन किया गया है । जैसा कि पहला श्लोक अभीप्सित कार्य को सिद्ध करने वाला है, तीसरा श्लोक जलभय का निवारक है, छठा श्लोक सन्तान - सम्पत्ति का प्रसाधक है, नौवा श्लोक सर्प-बिच्छु के विष का विनाशक है, १० वॉ तस्कर भय को दूर करने वाला है, १२ वाँ अग्निभय का विनाशक है, १६ वाँ नेत्ररोग को दूर करने वाला है, २३ वाँ राज्य सन्मानदायक है, २५ वाँ असाध्यरोग को शान्त करने वाला है, २६ वाँ वचनसिद्धि देने वाला है, २८ वाँ यशःकीर्ति प्रसारक है, ३० वाँ असंभव कार्य को सिद्ध करने वाला है, ३३ वाँ उल्कापात - अतिवृष्टि - अनावृष्टि का निरोधक है, ३४ वाँ भूत-पिशाच पीड़ा का नाशक है, ३८ वाँ असह्यकष्ट का निवारक है, ३६ वाँ सभी प्रकार के ज्वर को शान्त करने वाला है, ४१ वाँ शत्रु के अस्त्र-शस्त्रादि का विघातक है, ४३ वाँ बन्धनमोचक एवं वैभववर्द्धक है। जो साधक जिस कार्य को सिद्ध करना चाहता है वह उस श्लोक रूप मन्त्र का विधिपूर्वक जाप करेंनिःसंदेह कार्य सिद्धि होती है । आजकल इस प्रकार के स्तोत्रों का प्रभाव दिखाने के लिए उस नाम के महापूजन होने लगे हैं।
दिगम्बर परम्परा इसको कुमुदचन्द्र की कृति मानती है। यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत पुस्तक में दो प्रकार की साधनाविधि दी गई है। प्रथम प्रकार की साधनाविधि प्रत्येक श्लोक के नीचे वर्णित है और द्वितीय प्रकार की साधनाविधि ऋद्धि-मन्त्र- गुण - फल एवं यंत्राकृतियों सहित प्रस्तुत की गई है।
संक्षेपतः यह कृति शारीरिक-आर्थिक-मानसिक-आध्यात्मिक सभी दृष्टियों से उपासना एवं आराधना करने योग्य है।
कोकशास्त्र
इस कृति की रचना सन् १५६६ में हुई है तथा तपागच्छ की कमलकलश शाखा के नर्बुदाचार्य ने की है। इस कृति में मंत्र-तंत्र संबंधी विपुल सामग्री संचित हैं। इसमें चार प्रकार की स्त्रियों को वश में करने से संबंधित विभिन्न मंत्रों और तंत्रो के उल्लेख भी हैं। इस कृति में यह भी बताया गया है कि कौन सी स्त्री किस प्रकार की मांत्रिक एवं तांत्रिक साधना से वशीभूत होती है। इस कृति का अवलोकन करने से यह पता लगता है कि निवृत्तिमार्गी जैन धर्म मंत्र-तंत्र की साधना विधियों से प्रभावित होकर किस प्रकार लौकिक एषणाओं की पूर्ति हेतु अग्रसर हुआ।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/529
चतुर्विंशति-जिन-अद्भुतविद्या-निधान
यह कृति संस्कृत में है। इस कृति का संयोजन तपागच्छीय राजयशविजयगणि ने किया है। यह मन्त्र प्रधान रचना है। यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार चौबीस तीर्थंकरों सम्बन्धी विद्याओं को प्रस्तुत करता है। स्वरूपतः इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में 'गौतमस्वामी की महाविद्या' दी गई है। अनन्तर चौबीस तीर्थकरों की महाविद्या का उल्लेख किया गया है। प्रत्येक महाविद्या के साथ गौतम स्वामी सहित उन-उन तीर्थंकरों के सुन्दर चित्र भी दिये गये हैं।
प्रस्तुत कृति के अवलोकन से इन विद्याओं के प्रभाव को स्पष्टतः अनुभूत किया जा सकता है। ये महाविद्याएँ महाप्रभावशाली है। कई आचार्यों एवं मुनियों ने इन महाविद्याओं की विधिवत् आराधना की हैं उन्हें इस आराधना के अपूर्व परिणाम प्राप्त हुए हैं। ये महाविद्याएँ आत्मिक शांति के साथ-साथ शासन सेवा के कार्यों में भी विशिष्ट सहयोग प्रदान करती हैं ऐसा इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में उल्लिखित है। इन विद्याओं की साधना विधि को गीतार्थ गुरू या सुयोग्य गुरू के समक्ष स्वीकार करनी चाहिये। इस कृति में साधना विधि को लेकर कोई सूचन नहीं हुआ है तथापि ये महाविद्याएँ आराधना करने योग्य हैं अतः इस कृति का उल्लेख किया है। चिन्तामणिपाठ
इस कृति का रचनाकाल एवं इसके कर्ता का परिचय अज्ञात है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ के स्तोत्र एवं विविध प्रकार की पूजा विधियों का उल्लेख किया गया है। साथ ही इसमें यक्ष-यक्षिणियों, सोलह विद्यादेवियों एवं नवग्रहपूजाविधान आदि भी वर्णित है। यह रचना मन्त्र द्वारा पवित्र होने पर अथवा यन्त्र की शक्ति का विधान करती है। यह ग्रन्थ श्री सोहनलाल दैवोल के संग्रहालय में सुरक्षित है। चिन्तारणि
- इस कृति के संकलनकर्ता एवं रचनाकाल के विषय में कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार अनुमानतः १६ वीं शती में सागवाड़ा गद्दी के भट्टारक अथवा उनके किसी शिष्य ने इसका संग्रह किया है।
इसमें मंत्र, तंत्र एवं औषधि प्रयोग विधि में वागडी, मारवाड़ी तथा मालवी बोली के शब्दों का प्रयोग मिलता है। कहीं-कहीं शिव एवं हनुमान मंत्रों का भी समावेश है। यह कृति सोहनलाल दैवोत के निजी संग्रहालय में उपलब्ध है।
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530 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
जपयोग
यह एक संकलित की गई हिन्दी रचना है यह रचना मुख्यतया जाप योग से सम्बन्धित है। इस प्रति में तीन प्रकार के जाप एवं उनकी विधियाँ बतलाई गई हैं। '
इस पुस्तक की प्रस्तावना में यह कहा गया है कि इस प्रति का मूल पैसंठिया यंत्र है। इस यंत्र में से किसी विज्ञ ने पच्चीस यंत्र बनाये थे। यद्यपि किसी ने इन्हें अनानुपूर्वी के रूप में गिनाये नहीं हैं, किन्तु कच्छ (वागड़ ) भीमासर के निवासी नवकार मंत्र के परम उपासक कविरत्न श्री नारणभाईचत्रभुज को चिन्तन करने पर ऐसा लगा कि यह अनानुपूर्वी ही है। अतः उन्होंने अपनी बुद्धि से उन पच्चीस यंत्रों के माध्यम से दूसरे अनेक नये यंत्र बनाये। इन सब यंत्रों की विशेषता यह है कि उनको हर बाजु से गिनने पर पैंसठ का ही जोड़ आता है । इन यंत्रों के माध्यम से नमस्कारमंत्र के पाँच पद, चौबीस तीर्थंकर और सिद्ध भगवान का जाप हो सकता है। इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तिका में तीन प्रकार के जाप करने की विधि दिखाई गई हैं। पुनश्च तीन प्रकार के जाप ये हैं 9. पंचपरमेष्ठी - जाप विधि २. चौबीसतीर्थंकर - जाप विधि ३. सिद्धपरमात्मा - जाप विधि इस कृति में जपविधि के साथ-साथ जाप के यन्त्र, जाप से सम्बन्धित चौवीस तीर्थंकरों के चित्र भी दिये गये हैं।
जिनपंजरस्तोत्रम्
इस स्तोत्र के कर्त्ता रुद्रपल्लीय शाखा के देवप्रभाचार्य के शिष्य श्री कमलप्रभ- सूरि है। यह संस्कृत के पच्चीस पद्यों में निबद्ध एक प्रसिद्ध कृति है। इस स्तोत्र के प्रारम्भ में जिनपंजरस्तोत्र की साधना विधि का निर्देश है। इसमें लिखा है कि जो मनुष्य एकासना अथवा उपवास करके त्रिकाल इस स्तोत्र का स्मरण करता है वह निश्चयपूर्वक सर्व प्रकार के मनोवांछित फल को प्राप्त करता है। इसमें यह भी कहा गया है कि इस स्तोत्र की साधना क्रोध और लोभ से रहित होकर भूशय्या और ब्रह्मचर्य के पालन पूर्वक करनी चाहिए। जो साधक नियमित रूप से इस स्तोत्र की साधना करता है वह छः महिने में वांछित फल प्राप्त कर लेता हैं।
-
तदनन्तर शरीर के कौन-कौन से अंगों पर पंच परमेष्ठी एवं चौबीस तीर्थंकरों का न्यास करना चाहिए उसकी विधि तथा न्यास के फल का निरूपण किया गया है। वस्तुतः यह स्तोत्र शरीर रक्षाकवच और आत्म रक्षाकवच का विधान प्रस्तुत करता है।
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यह पुस्तक सन् १६६४ श्री महावीर जैन कल्याणक संघ, मद्रास से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/531
ज्वालामालिनीकल्प
यह ग्रन्थ भैरवपद्मावतीकल्प के रचयिता आचार्य मल्लिषेण (लगभग ११ वीं शती) द्वारा रचा गया है और भैरवपद्मावतीकल्प में प्रकाशित भी है। इसमें ज्वाला- मालिनी की साधना विधि वर्णित है। ज्वालामालिनीकल्प
इस नाम की दूसरी तीन कृतियाँ हैं। इनमें से एक के कर्ता का नाम ज्ञात नहीं है। दूसरी दो के कर्ता एलाचार्य एवं इन्द्रनन्दी है। ये दोनों सम्भवतः एक ही व्यक्ति होंगे, ऐसा जिनरत्नकोश (वि. १, पृ. १५१) में कहा गया है। किन्तु यह कृति इन्द्रनन्दी की है। इस कृति को ज्वालिनीकल्प, ज्वालिनीमत और ज्वालिनीमतवाद भी कहते हैं।
यह जैन परम्परा के मंत्र शास्त्र का एक प्रमुख ग्रन्थ माना गया है। इस ग्रन्थ की रचना १० वीं शती में हुई है। यह रचना ५०० श्लोक परिमाण की है। इसमें कुल १० परिच्छेद हैं - प्रथम परिच्छेद में साधक की योग्यता की चर्चा की गयी है। द्वितीय परिच्छेद में दिव्य अदिव्य ग्रहों की चर्चा है। तृतीय परिच्छेद में सकलीकरण, पल्लवों का वर्णन और साधना की सामान्य विधि बतलायी गयी है। चतुर्थ परिच्छेद में सामान्य मण्डल, सर्वतोभद्र मण्डल, समय मण्डल, सत्य मण्डल, आदि की चर्चा है। पंचम परिच्छेद में भूताकंपन तेल की निर्माण विधि का वर्णन है। षष्ठम परिच्छेद में सर्वरक्षा यन्त्र, ग्रहरक्षकयंत्र, पुत्रदायकयंत्र, वश्ययन्त्र, मोहनयन्त्र, स्त्री-आकर्षणयन्त्र, क्रोधस्तम्भन यन्त्र, सेनास्तम्भनयन्त्र, पुरुषवश्ययन्त्र, शाकिनी-भयहरणयन्त्र, सर्वविघ्नहरणयन्त्र, आदि की चर्चा की गई है। सप्तम परिच्छेद में विभिन्न प्रकार के वशीकरण कारक तिलक, अंजन, तेल आदि का एवं सन्तानदायक औषधियों का वर्णन किया गया है। अष्टम परिच्छेद में वसुधारा नामक देवी की स्नान विधि एवं पूजन विधि आदि बतलायी गयी है। नवम परिच्छेद में नीरांजन विधि का वर्णन किया गया हैं दशम परिच्छेद में शिष्य को विद्या देने की विधि, ज्वालामालिनी साधनाविधि और ज्वालामालिनी स्तोत्र तथा ब्राह्मी आदि अष्टदेवियों का पूजन, जप एवं हवन विधि, ज्वालामालिनी मालायन्त्र, वश्यमन्त्र एवं तंत्र आदि के उल्लेख हैं।
'ये इन्द्रनन्दी वप्पनन्दी के शिष्य थे। २ उद्धृत- जैनधर्म और तान्त्रिक साधना, पृ. ३५२
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532/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
दुर्गपदविवरण
__ यह कृति देवाचार्यगच्छीय अज्ञातसरि के शिष्य लवलव के द्वारा रची गई है। यह मुख्यतः संस्कृत गद्य में २३८ श्लोक परिमाण से युक्त है। यह रचना सूरिमन्त्र की साधना विधि से सम्बन्धित है और सूरिविद्याकल्पसंग्रह के आधार पर लिखी गयी है।' इस कृति के प्रारम्भ में नमस्कार एवं कृति परिचय रूप तीन गाथाएँ दी गई है। उसमें गीतार्थ आचार्यों को नमस्कार किया गया है और कहा गया है कि इस कृति में जो कुछ लिखा जा रहा है वह न तो गुरुवचन से सुना हुआ है और न ही कहीं विस्तार से देखा गया है उपदेश के द्वारा जो उपलब्ध हुआ है उसका ही वर्णन करने की प्रतिज्ञा है। उसके बाद सूरिमन्त्र के पदों में गर्भित आठ प्रकार की विद्याएँ एवं उनकी साधना विधि का विवेचन है। तदनन्तर पाँच पीठ का स्वरूप एवं उसकी साधना विधि का निरूपण किया गया है। तत्पश्चात् मन्त्रराज के ध्यान फल का वर्णन है। उसके बाद यह बताया गया है कि सूरिमन्त्र के कई पद गुप्त रखने योग्य हैं। पूर्व में इस मन्त्र की संख्या तीन सौ श्लोक परिमाण थी। जब यह मंत्र गौतमस्वामी को दिया गया था तब बत्तीस श्लोक परिमाण था और एक सौ आठ विद्याओं से गर्भित था, अब यह मन्त्र आठ विद्याओं से युक्त रह गया है। पाँच पीठ का न्यास व्यवहार मात्र से है तत्त्वतः वैसा नहीं है। अन्त में चार जाति के मन्त्रों का उल्लेख करते हुए निर्देश दिया गया है कि साधक को इन चार प्रकारों से युक्त मन्त्रराज का ध्यान करना चाहिए। देवतावसरविधि
यह कृति खरतरगच्छीय आचार्य जिनप्रभ की सूरिमन्त्र जाप साधना से सम्बन्धित है। इस कृति में मन्त्रों की बहुलता है। यह संस्कृत गद्य में रचित है। इस कृति का रचनाकाल १४ वीं शती का उत्तरार्ध माना गया है।
इसमें मुख्य रूप से बीस द्वार कहे गये हैं जो जप अनुष्ठान के लिए चरण रूप हैं। इनमें से कुछ चरण जप साधना के पूर्व और कुछ चरण जप साधना के पश्चात् सम्पन्न किये जाते हैं। इस कृति का अध्ययन करने से यह सिद्ध होता है कि जप साधना की सफलता के लिए ये बीस चरण अत्यन्त आवश्यक है।
' देखें, जिनरत्नकोश पृ. ४५१ इसमें यह कृति देवाचार्य गच्छ के आचार्य विरचित बतलायी है।
यह कृति जैन साहित्य विकास मण्डल, मुंबई से वि.सं. २०२४ में 'सूरिमन्त्रकल्प समुच्चय' भा. १ के साथ प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/533
'देवतावसर' शब्द का अर्थ है- सूरिमन्त्र के अधिष्ठायक देव को विधिपूर्वक आमन्त्रित करना। यहां यह जानने योग्य है कि प्रत्येक मन्त्र के भिन्न भिन्न अधिष्ठायक देव होते हैं तथा उन-उन मन्त्रों की जाप साधना प्रारंभ करने से पहले उन-उन मन्त्रों के अधिष्ठायक देवों को आहान पूर्वक आमन्त्रित करना
और अपने सन्निकट उनकी स्थापना करना अनिवार्य स्वीकारा गया हैं, क्योंकि उन अधिष्ठायक देवों का आहान करने से वे देव जागृत होते हैं, जप साधना में सहयोगी बनते हैं, दुष्ट उपद्रवों से रक्षा करते हैं और जप साधना को निर्विघ्नतया सम्पन्न करने में निमित्त बनते हैं।
दूसरी बात यह उल्लेख्य हैं कि देवताओं का आगमन पवित्र वातावरण एवं शुद्ध स्थान में ही होता हैं अतः दैहिकशुद्धि, मानसिकशुद्धि व हृदयशुद्धि के साथ-साथ स्थलशुद्धि होना भी जरूरी है। इस कृति में वर्णित बीस द्वार पूर्वोक्त विषयों का ही उल्लेख करते हैं यथा -
पहला द्वार भूमिशुद्धि से सम्बन्धित है। दूसरा द्वार शरीर के पाँच अंगों का न्यास करने से सम्बन्धित है। तीसरा द्वार सकलीकरण की विधि का विधान करता है। चौथे द्वार में दशदिक्पालों की आझन विधि कही गई है। पाँचवे द्वार में हृदयशुद्धि का विधान बताया गया है। छठा द्वार मन्त्रस्नान से सम्बन्धित है। साँतवे द्वार में कल्मषदहन की प्रक्रिया बतायी गई है। आठवाँ द्वार पंचपरमेष्ठी की स्थापना विधि का उल्लेख करता है। नौंवे द्वार में आहान करने की विधि दिखलायी गई हैं। दशवाँ द्वार स्थापना विधि से सम्बन्धित है। ग्यारहवें द्वार में सन्निधान विधि का उल्लेख हुआ है। बारहवें द्वार में सन्निरोध विधान की चर्चा की गई है। तेरहवाँ द्वार अवगुंठन मुद्रा का स्वरूप दिखलाता है। चौदहवाँ द्वार छोटिका अर्थात चुटकी बजाने से सम्बन्धित है। पन्द्रहवें द्वार में अमृतकरण की विधि वर्णित है। सोलहवाँ द्वार जाप विधि से सम्बन्धित है। सतरहवाँ द्वार क्षोभण अर्थात् देवी-देवताओं की नाराजगी दूर करने की विधि से सम्बद्ध है। अठारहवें द्वार में क्षमायाचना की गई है। उन्नीसवें द्वार में आमन्त्रित देव-देवियों को विसर्जित करने की विधि बतायी गई है। बीसवाँ द्वार स्तुति पाठ ये युक्त है। इस कृति के अन्तिम भाग में सूरिमन्त्र का माहात्म्य बताया गया है। पाँच पीठ की आम्नाय विधि कही गई है तथा बारह प्रकार की मुद्राओं का स्वरूप बताया गया है जो प्रतिष्ठादि एवं जपादि के समय विशेष रूप से प्रयुक्त होती है।
यहाँ ज्ञातव्य है कि यह कृति मन्त्रराजरहस्य के पंचम परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित हुई है। डॉ. सागरमलजैन के अनुसार इसके अन्त में लेखक का नाम नहीं है। श्री दैवोत में 'जैन मंत्र शास्त्रों की परम्परा एवं स्वरूप' नामक लेख में
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534 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
इसे जिनप्रभसूरि की कृति माना है। उनकी दृष्टि में यह जिनप्रभसूरि की कृति न होकर सिंहतिलकसूरि की ही कृति होनी चाहिए । '
नमस्कार स्वाध्याय
यह संकलित रचना गुजराती भाषा में निबद्ध है। इस रचना का प्रयोजन नमस्कारमंत्र से सम्बन्धित विविध प्रकार की जाप विधियों को प्रदर्शित करना है। इसमें लगभग ग्यारह प्रकार की जाप विधियाँ दी गई हैं साथ ही जापविधियों का फल भी बताया गया है। नमस्कारमंत्र जाप के बारह प्रकार निम्नोक्त हैं- जाप का एक प्रकार चौबीस तीर्थंकरों से सम्बन्धित है। शेष प्रकार इस तरह हैं १. सूर्योदय से ४८ मिनिट पूर्व आठ कर्मों का नाश करने के लिए आठ बार नमस्कारमंत्र का जाप करना। २. दोनों हथेलियों पर सिद्धशिला की कल्पना करके चौबीस तीर्थंकरों का जाप करना। ३. अरिहंत, सिद्ध, साधु व धर्म इन चार शरणों को स्वीकार करते हुए प्रातः, मध्याह्न और संध्या इन तीनों कालों में नमस्कारमन्त्र का जाप करना । ४. स्वयं के हृदय पर जिनेश्वर परमात्मा की कल्पना कर नमस्कारमंत्र का जाप करना । ५. स्वयं के हृदय पर नमस्कारमंत्र को स्थापित करके जाप करना । ६. स्वयं के हृदय में स्थापित अरिहंत परमात्मा के मुख ऊपर नमस्कारमंत्र का जाप करना । ७. अरिहंत प्रभु के नौअंगों पर नमस्कारमंत्र का जाप करना । ८. अरिहंत प्रभु के प्रत्येक अंग पर एक नमस्कार इस तरह बारह अंग पर बारह नमस्कारमंत्र का जाप करना । ६. हृदय कमल में नमस्कार मंत्र की स्थापना करके, नमस्कारमंत्र को देखते हुए जाप करना । १०. अरिहंत परमात्मा के हृदय कमल में नमस्कारमंत्र को स्थापित करके जाप करना । ११. दोनों हाथों की अंगुलियों पर १०८ बार नमस्कारमंत्र का जाप करना । १२. शंखावर्त्त एवं नन्द्यावर्त्त द्वारा नमस्कारमंत्र का जाप करना ।
इस कृति में उक्त जाप विधियाँ सचित्र दर्शायी गयी हैं। इसमें जाप के अन्य तीन प्रकार, जाप की महिमा, जाप सम्बन्धी आवश्यक सूचनाओं का भी उल्लेख हुआ है।
जैन धर्म और तान्त्रिक साधना, पृ. ३५८
२
यह कृति श्री नवकार आराधना भवन, अलींग चकला दलाल की खिड़की के सामने, खंभात
से वि.सं. २५१५ में प्रकाशित हुई है। इसके दो अन्य संस्करण भी निकाले जा चुके हैं।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/535
नमस्कार स्वाध्याय (प्राकृत विभाग-भाग १)
यह एक संग्रह ग्रन्थ' है। इसमें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा के नमस्कार मंत्र की साधना से संबंधित ग्रन्थों एवं ग्रन्थांशों का संकलन किया गया है। यह संकलन प्राकृत भाषा की कृतियों का है। इसके संग्रहकर्ता गणि धुरन्धरविजयजी, मुनि जम्बू- विजयजी एवं मुनि तत्त्वानन्दविजयजी हैं।
इसमें निम्न ग्रन्थों एवं ग्रन्थांशों का संकलन हुआ है - १. भगवतीसूत्र का मंगलाचरणश्री अभयदेवसूरि विरचित भगवतीसूत्रवृत्ति २. सप्त स्मरणगत प्रथमनमस्कारमन्त्रस्मरण- श्रीसिद्धिचन्द्रगणिकृता व्याख्या, श्री हर्षकीर्तिसूरिकृत व्याख्या ३. श्री महानिशीथसूत्र का संदर्भ ४. चैत्यवन्दन महाभाष्य में नमस्कारसूत्र का उल्लेख ५. उपधानविधिस्त्रोत- श्रीमानदेवसूरि ६. वर्धमानविद्याविधि ७. नमस्कार नियुक्ति- श्री भद्रबाहुस्वामी ८. श्री षट्खण्डागम संदर्भ- श्री पुष्पदन्त- भूतबलि ६. अरिहंतनमस्कार आवलिका १०. सिद्धनमस्कार आवलिका ११. अरिहाणादि स्तोत्र (पंच परमेष्ठीनमस्कारस्तोत्र) १२. पंचनमस्कार चक्रोद्धारविधि- श्रीभद्रगुप्तस्वामी १३. घ्यान विचार १४. नमस्कारसारस्तवन- श्रीमानतुंगसूरिजी १५. नमस्कारव्याख्यानटीका- श्री मानतुंगसूरिजी १६. कुवलय मालासंदर्भ १७. कुवलयमाला के आधार पर परमेष्टी पदगर्भित मन्त्रादि १८. पंचनमस्कारफलस्तोत्र- श्री जिनचन्द्रसूरिजी १६. पंचनमस्कारफल २०. नमस्काररहस्यस्तवनश्री जिनदत्तसूरिजी २१. प्रश्नगर्भ पंचपरमेष्ठिस्तवन- श्रीजयचन्द्रसूरिजी २२. चतुर्विधध्यान स्तोत्र २३. पंचपरमेष्ठीनमस्कार महास्तोत्र- श्रीजिनकीर्तिसूरिजी २४. परमेष्ठीस्तव २५. श्रीगणिविद्यास्तोत्र २६. पंचमहापरमेष्ठीस्तव २७. पंचपरमेष्ठीजयमाला २८. नमस्कारलघुकुलक २६. भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक संदर्भ ३०. पंचसूत्र संदर्भ ३१. अंगविद्या प्रकीर्णक संदर्भ ३२. संबोधप्रकरण संदर्भ- श्री हरिभद्रसूरिजी ३३. प्रवचनसारोद्धारतट्टीका संदर्भ- मूलकर्ता-नेमिचन्द्रसूरि, टीकाकर्ता- सिद्धसेन सूरि ३४. चन्द्रकेवलिचरित्र संदर्भ- श्री सिद्धऋषि ३५. कथारत्नकोश संदर्भ- श्री देवभद्रसूरि ३६. ज्ञानसार संदर्भ- श्री पद्मसिंहमुनि ३७. श्री श्रीपालकथा के
आधार से सिद्धचक्रयंत्रोद्धारविधि- श्री रत्नशेखरसूरि व्याख्या श्री क्षमाकल्याणगणि ३८. श्रीपाल- कथा से उद्धृत पंचपरमेष्ठी-पदाराधनाविधि - श्री रत्नशेखरसूरिजी ३६. उपदेशमाला संदर्भ ४०. प्राकृतद्वयाश्रयकाव्य संदर्भ- श्री हेमचन्द्रसूरिजी ४१. तं जयउ स्तवन संदर्भ- श्री जिनदत्तसरिजी ४२. सुदर्शनाचरित्र संदर्भ- श्री
' यह ग्रन्थ जैन साहित्य विकासमण्डल, ११२ छोडबंदर रोड़, इरलाब्रीज, विलेपारले, मुंबई ५७ से प्रकाशित है।
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536/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
देवेन्द्रसूरिजी ४३. श्राद्धदिनकृत्य संदर्भ ४४. चतुःशरणप्रकीर्णक संदर्भ
अन्त में नमस्कार साधना सम्बन्धी कुछ यंत्र-चित्र एवं जाप की विभिन्न मुद्राएँ दी गई हैं। नमस्कारस्वाध्याय (संस्कृत विभाग, भा. २)
यह एक संग्रह ग्रन्थ है।' इसमें श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्परा के नमस्कारमंत्र की साधना से संबंधित ग्रन्थों एवं ग्रन्थांशों का संकलन किया गया है।
इसके संग्रहकर्ता गणि धुरन्धरविजय, मुनि जम्बूविजय एवं मुनि तत्त्वानन्दविजय हैं। इसमें निम्न कृतियों के उल्लेख हैं १. अर्हन्नामसहस्रसमुच्चयश्री हेमचन्द्राचार्य २. आचारदिनकर- श्री वर्धमानसूरि ३. उपदेशतरंगिणी- श्री रत्नमंदिरगणि ४. ऋषिमण्डल- स्तवनयन्त्र- श्री सिंहतिलकसूरि ५. जिनपंजरस्तोत्रश्री कमलप्रभसूरि ६. जिनसहन- नामस्तवनम्- पं. आशाधर ७. तत्वार्थसारदीपकभट्टारक श्री सकलकीर्ति ८. तत्त्वानुशासन- श्री मन्नागसेनाचार्य ६. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका- उपाध्याय यशोविजय १०. धर्मोपदेशमाला- श्री जयसिंहसूरि ११. नमस्कारमाहात्म्यम् श्री सिद्धसेनसूरि १२. पंच- नमस्कृतिदीपक- श्रीसिंहनन्दि १३. पंचनमस्कृतिस्तुति १४. पंचपरमेष्ठि नमस्कारस्तव- श्री जिनप्रभसूरि १५. परमात्मपंचविंशतिका- श्री यशोविजयगणि १६. परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्प- श्री सिंहतिलकसूरि १७. मन्त्रराजरहस्य- श्री सिहंतिलकसूरि १८. मन्त्रसारसमुच्चय
श्री विजयवर्णी १६. मातृकाप्रकरण- श्री रत्नचन्द्रगणि २०. मायाबीजकल्प- श्री जिनप्रभसूरि २१. लघुनमस्कारचक्रस्तोत्र- श्री सिंहतिलकसरि २२. वीतरागस्तोत्रश्री हेमचन्द्राचार्य २३. शक्रस्तव- सिद्धर्षि २४. श्राद्धविधिप्रकरण २५. श्री अभयकुमारचरित्र- श्री चन्द्रतिलकोपाध्याय २६. श्री जिनसहस्रनामस्तोत्रम्- श्री विनयविजयगणि २७. पंचपरमेष्ठिस्तव- अज्ञात २८. श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन- श्री हेमचन्द्रसरि २६. श्री हरिविक्रमचरित- श्री जयतिलकसरि ३०. षोड़शक प्रकरणश्री हरिभद्रसूरि ३१. संस्कृतद्वयाश्रयमहाकाव्य- श्री हेमचन्द्राचार्य ३२. सिद्धभक्त्यादिसंग्रह- श्री पूज्यपाद ३३. सुकृतसागर- श्री रत्नमण्डनगणि और ३४. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित- श्री हेमचन्द्राचार्य नवकारमहामन्त्रकल्प
यह संकलित कृति हिन्दी भाषा में है। इसका सम्पादन चन्दनमलजी
' यह संग्रह कृति जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई से प्रकाशित है। २ यह कृति वि.सं. १६६०, श्री सद्गुण प्रसारक मित्रमंडल छोटी सादड़ी (मेवाड़) से प्रकाशित
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/537
नागोरी ने किया है। इसमें नमस्कारमंत्र स्मरण करने से सम्बन्धित विधि-विधानों का उल्लेख हुआ है। यह कृति आवश्यकसूत्र, भगवतीसूत्र, महानिशीथसूत्र, कल्पसूत्र, चन्द्रप्रज्ञप्ति, प्रतिष्ठाकल्पपद्धति, योगशास्त्र, धर्मबिन्दु, श्राद्धविधि, विवेकविलास आदि ग्रन्थों के आधार पर निर्मित की गई है।
यह कल्प सत्रह प्रकरणों में विभक्त है। प्रथम प्रकरण में नमस्कार महामंत्र की महिमा संक्षिप्त रूप से बतायी गयी है। दूसरे प्रकरण में नमस्कारमंत्र और जैन सिद्धांत की चर्चा की है। इसमें यह कहा गया है कि नमस्कारमन्त्र में नवपद हैं और इनमें अनेक प्रकार की गुप्त विद्याएँ व्याप्त हैं। यह सिद्धियों का भण्डार और मोक्ष सुख देने वाला है। इस मन्त्र का यथाविधि स्मरण किया जाये तो निःसन्देह मनवांछित फल प्राप्त होता है। श्रीपाल महाराजा का कुष्ट रोग इन्हीं नवपदों की आराधना से नष्ट हुआ था। कच्चे सूत से बंधी हुई चालणी द्वारा पानी निकालने में इसी मंत्र का चमत्कार था। चम्पानगरी के दरवाजे खोलने में भी इसी मंत्र का प्रभाव था इत्यादि शास्त्रीय उदाहरण एवं प्रमाण सहित नमस्कारमंत्र की महिमा का निरूपण हुआ है।
तीसरे प्रकरण में यह बताया गया है कि कोई भी मंत्र या स्तोत्रादि का शुद्ध उच्चारण न किया जाये तो वह फलीभूत नहीं होता हैं अतः मन्त्रोच्चारण में शुद्ध बोलने का पूरा ध्यान रखना चाहिये। चौथे प्रकरण में नवांग महिमा पर विचार किया गया है इसमें उल्लेख किया हैं कि नवकार, नवपद, नवतत्त्व आदि जिन शब्दों का ६ के अंक से उच्चार होता है उनमें अनेक तरह की सिद्धियाँ समाविष्ट होती है। नौ का अंक अक्षय होता है। यह प्रकरण पढ़ने समझने जैसा है। पाँचवे प्रकरण में माला और आवृत्त पर विचार किया गया है। माला के सम्बन्ध में- माला किस प्रकार की होनी चाहिए, माला किस प्रकार रखनी चाहिए, माला किस उंगली से फेरना चाहिए और माला को किस प्रकार मन्त्रित करना चाहिए इत्यादि निरूपण किया गया है। आवृत्त के सम्बन्ध में- शंखावर्त्त, नन्द्यावर्त्त, ऊँकारावर्त और ह्रींकारावर्त पूर्वक नमस्कारमंत्र का जाप किस प्रकार करना चाहिए, उसकी सचित्र विधि बतलायी गयी है।
छठे प्रकरण में नवकारमंत्र से ही सम्बन्धित किन्तु भिन्न-भिन्न फलवाले सतत्तर मंत्र एवं उनके विधान बताये गये हैं। सातवें प्रकरण में प्रणवाक्षर-ऊँकार की ध्यान विधि कही गई है। इस प्रणवाक्षर में पंचपरमेष्ठी की स्थापना है। यह प्रणवाक्षर अत्यन्त शक्तिशाली और प्रभाविक है। अ-सि-आ-उ-सा इस मन्त्र का नाभिकमल, मस्तक, मुखकमल, हृदयकमल एवं कण्ठस्थल पर किस प्रकार ध्यान करना चाहिए? तथा जो भव्यात्मा 'ऊँकार' का नित्य ध्यान करते हैं उनका कल्याण होता है यह भी इसमें कहा गया है।
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538 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
आठवें प्रकरण में ड्रींकार ध्यान की विधि वर्णित है। ह्रींकार में चौबीस तीर्थंकरों की स्थापना है तथा इसका ध्यान मुखकमल पर करना चाहिए। नौवें प्रकरण में ध्यान की विधि, जाप के प्रकार आदि का उल्लेख है। दसवें प्रकरण में आसन पर विचार किया गया हैं। इसमें लिखा है कि ध्यान में अनुकूल आसन होना चाहिये। आसन चौरासी प्रकार के कहे गये हैं। उनमें से जो आसन गृहस्थ के लिए उपयोगी है ऐसे नौ आसन विधिवत् निर्दिष्ट किये गये हैं। ग्यारहवें प्रकरण में ध्यान करने वाले साधक में क्या-क्या योग्यताएँ होनी चाहिए उसका वर्णन है। बारह से लेकर पन्द्रहवें प्रकरण तक पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ये चार प्रकार के ध्यान बताये गये हैं और इनका महत्त्व भी प्रतिपादित किया है। सोलहवें प्रकरण में धर्मध्यान के चार भेदों का स्वरूप कहा गया है। सत्रहवें प्रकरण में मन्त्र की साधनाविधि तथा किस अभीष्ट को प्राप्त करने के लिए कब कौनसा मन्त्र जाप करना चाहिए उसका निरूपण है ।
तदनन्तर नवकारमंत्र का छंद, वृद्धनवकार और मन्त्रसूची का उल्लेख किया है। इस कल्प में चौबीस जिन की स्थापना, आवृत्त गिनने के चित्र, शंखावृत्त, नन्दावृत्त ऊँवृत्त, ऊँवृत्त (२), नवपदवृत्त, ह्रींवृत्त गिनने के चित्र, सिद्धशिला एवं चौबीस जिन स्थापना की भावना का चित्र, ऊँ में चौबीस जिन, ह्रीं में चौबीस जिन, ऊँ में पंच परमेष्ठी आदि तेरह चित्रादि दिये गये हैं जो इस कृ ति की विशिष्ट देन है। निःसंदेह यह कल्प लघु होने पर भी विशिष्ट सामग्री प्रस्तुत करता है।
परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्प
यह कल्प सिंहतिलकसूरि द्वारा रचित है। यह रचना संस्कृत भाषा के ७८ पद्यों में निबद्ध है। इस कल्प के कुछ पद्य अनुष्टुप छंद में है और अधिक पद्य आर्यावृत्त में हैं। इस कल्प का रचनाकाल १४ वीं शती का पूर्वार्ध है। प्रस्तुत कल्प अपने नाम के अनुसार मुख्यतः परमेष्ठिविद्या से सम्बन्धित यंत्र-आलेखन-विधि को विवेचित करता है । किन्तु कृति का अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता हैं कि इसमें तत्सम्बन्धी अन्य विधि-विधान भी प्रतिपादित हैं। इस कल्प के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थनियोजन रूप एक पद्य है उसमें भगवान महावीरस्वामी एवं विबुधचन्द्रसूरि ( सिंहतिलकसूरि के गुरु) को नमस्कार करके 'परमेष्ठि विद्या' विषयक यन्त्र के वर्णन करने का भाव प्रगट किया है।
इस कृति में निर्दिष्ट विधान एवं तत्सम्बन्धी विषयवस्तु का नामनिर्देश निम्नांकित है। १. परमेष्ठीविद्या संबंधी यन्त्र आलेखन विधि इसका प्रथम प्रकारअष्टकमल युक्त पत्र से सम्बन्धित है और द्वितीय प्रकार - चतुः कमल युक्त पत्र से
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/539
सम्बद्ध है २. परमेष्ठीविद्या साधने योग्य मनुष्य का लक्षण ३. परमेष्ठी विद्या (यंत्र) साधित करने की विधि ४. परमेष्ठीविद्या की साधना करने से प्राप्त होने वाले फल का कथन। ५. कुंडलिनी के आधार पर परमेष्ठी विद्या की साधना विधि ६. ध्यान में विध्न करने वाले क्षुद्रजंतुओं एवं व्यंतरों को शान्त करने की विधि। इसके अतिरिक्त कुंडलिनी के विषय में विशिष्ट जानकारी दी गई है। जैनाचार्यों में कुंडलिनी के विषय में इतना स्पष्ट विवेचन किसी के द्वारा किया गया हो, ऐसा देखने में नहीं आया है इस दृष्टि से इस रचना का महत्त्व सविशेष है।
स्पष्टतः प्रस्तुत कल्प में यंत्र-आलेखन-विधि के साथ-साथ यंत्र उपासना विधि और उसका फलादेश विषयक वर्णन सम्यक् रूपेण विवेचित है। पंचनमस्कृतिस्तुतिः
इस स्तोत्र के कर्ता खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि है। ये १४ वीं शती के प्रतिभाशाली विद्वान के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। इन्होंने स्तोत्र साहित्य की विधा में अनेक कृतियाँ रची हैं। यह कृति संस्कृत पद्य में है प्रारम्भ के इकतीस पद्य अनुष्टुप वृत्त में हैं तथा अन्त के दो श्लोक शार्दूलविक्रीडित वृत्त में है। इस कृति के नाम से तो यह ज्ञात होता है कि इसमें पंचपरमेष्ठी की स्तुति ही होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है। इसमें पंचपरमेष्टी की स्तुति ही होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं हैं। इसमें पंचपरमेष्टी की स्तुति के सिवाय उसकी जपविधि, ध्यानविधि और उसके फल भी निरूपित हैं।
प्रस्तुत कृति में उल्लिखित जाप विधि, ध्यान विधि एवं फल कथन से सन्दर्भित कुछ तथ्य इस प्रकार द्रष्टव्य हैं।
जो साधक पंच नमस्कारमंत्र को कर्णिकासहित आठ पत्र वाले हृदय कमल में स्थापित करके ध्यान करता है वह संसार सागर से शीघ्र पार
हो जाता है। • अरिहंतादि पाँच पदों का परमेष्टि मुद्रा पूर्वक ध्यान करने वाली आत्मा
गूढ़ कर्मग्रन्थि को शीघ्र क्षय कर देती हैं। • परमेष्ठि के सोलह अक्षर वाले मंत्र का ध्यान करने से एक उपवास का
फल प्राप्त होता है। • जो पुरुष एक लाख जाप द्वारा पंच-नमस्कारमंत्र की विधिपूर्वक आराधना
करता है वह पाप से मुक्त होकर तीर्थंकरपद को प्राप्त करता है। • जो साधक पंचनमस्कार का विधिपूर्वक स्मरण (ध्यान) करता है उसे
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540/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
विद्युत, पानी, अग्नि, राजा, हिंसक, पशु, चोर, शत्रु और मिरगी का भय नहीं सताता है।
इससे सम्बन्धित एक मंत्र प्रधान गाथा भी इसमें कही गई है उसके संदर्भ में कहा है कि इस गाथा को चंदन, कर्पूर युक्त लींपी गई भूमि पर या स्थित काष्ठपट्ट पर लिखनी चाहिए। उसके नीचे अरिहंतादि पाँच पदों का तिलक-चिह्म करके नमस्कारमंत्र का स्मरण करना चाहिए। उसके पश्चात् उल्लिखित 'थंभेइ' गाथा का प्रतिदिन १०८ बार अक्षत प्रदान पूर्वक इक्कीस दिन तक जाप करना चाहिए। इससे उक्त भयादि का प्रकोप नहीं होता है।
इस प्रकार इस स्तोत्र में पंचनमस्कार की उपासना पद्धति का सुस्पष्ट निरूपण हुआ है अंततः रचनाकार ने अपनी आम्नाय का सूचन भी किया है। पंचनमस्कृतिदीपक
पंचनमस्कृतिदीपक नामक यह कृति दिगम्बर परम्परा के भट्टारक कवि श्रीसिंहनंदि की है। यह संस्कृत पद्य के ४३ श्लोकों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल १८ वीं शती का पूर्वार्ध है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भिक तीन पद्यों में तीर्थकर परमात्मा एवं परमेष्ठीमंत्र को नमस्कार करके उसका 'कल्प' कहने की प्रतिज्ञा की गई है। इसके साथ ही इसमें एक विशिष्ट सूचन यह किया गया है कि यह कल्प अयोग्य को नहीं देना चाहिए और मिथ्यादृष्टि को तो देना ही नहीं चाहिए।
इस ग्रन्थ में नमस्कारमंत्र विषयक पाँच अधिकारों का निरूपण किया गया है १. साधनाविधि-अधिकार २. ध्यानविधि-अधिकार ३. कर्मविधि-अधिकार ४. स्तव- अधिकार और ५. फल-अधिकार। प्रत्येक अधिकार में मन्त्रविषयक अनेक सूचनाएँ दी गई है।
प्रस्तुत कृति के १-७ पद्य तक मंगलाचरण, ग्रन्थ का प्रयोजन एवं मंत्र की सर्वोत्कृष्टता बतायी गई है। ८-१३ पद्य तक अनेक यंत्रों के नाम दिये गये हैं
और यह कहा गया है कि ये सभी यंत्र परमेष्ठीमंत्र को सिद्ध किये बिना साधित नहीं होते हैं। १४-१७ पद्य तक परमेष्ठीमंत्र का माहात्म्य बताया गया है। १८-२० पद्य तक परमेष्ठी मंत्र की आराधना एवं उसकी महिमा का वर्णन हैं। २१-३४ पद्य तक परमेष्ठी मंत्र की साधना विधि का उल्लेख है इसमें क्रमशः साधना योग्य दिशा-आसन-मुद्रा-काल-क्षेत्र- द्रव्य-भाव-पल्लव-कर्म-गुण-सामान्य-विशेष इत्यादि पूजाविधि एवं जापविधि की चर्चा की गई है। ३५-४३ पद्य तक नमस्कारमंत्र की महिमा, मंत्र का न्यास, मंत्र की स्तुति एवं मंत्र के फल का निर्देश किया गया है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/541
निष्कर्षतः यह ग्रन्थ पंच परमेष्ठी की साधनाविधि एवं तत्सम्बन्धी जानकारी की दृष्टि से अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इस कृति के अन्त में पंचपरमेष्ठी से सम्बन्धित ८८ मन्त्र दिये गये हैं जो पृथक्-पृथक् विषयों, उपचारों एवं विद्याओं से सम्बद्ध हैं तथा अन्तिम चार अधिकारों का वर्णन उक्त मन्त्र पदों के साथ किया गया है। पद्मावती-उपासना
यह कृति यंत्र-मंत्र एवं तंत्र प्रधान है।' इसका आलेखन दिगम्बरीय आचार्य कुन्थुसागरजी ने किया है। इसके संपादक सुभाषसकलेचा है। यह कृति मुख्यतः माता-पद्मावती की उपासना-साधना विधि से सम्बन्धित है। इसमें पार्श्व पद्मावती से संबंध रखने वाले पाँच प्रकार के स्तोत्र दिये गये हैं।
पहला मदगीर्वाण नाम का पद्मावती स्तोत्र दिया गया है जो ३७ पद्यों से युक्त है। उन ३७ पद्यों में से आगे के २६ पद्यों का यंत्र सहित उल्लेख हुआ है। साथ ही इसमें प्रत्येक यंत्र की साधना विधि और फल बताया गया है। शेष पद्य बीजमंत्र रूप न होने से उनके यंत्र नहीं दिये गये हैं। मात्र उन पद्यों की साधनाविधि और फल का कथन किया गया है। दूसरा सरल पद्मावती नामक स्तोत्र उल्लिखित है जो हिन्दी के २३ पद्यों में गुम्फित है। तीसरा पाँच गाथा वाला उवसग्गहरंस्तोत्र सामान्य आराधनाविधि के साथ प्रस्तुत किया गया है। चौथा पार्श्वनाथ की आराधना से सम्बन्धित सत्ताईस गाथा वाला उवसग्गहरं स्तोत्र दिया गया है। इसमें इस स्तोत्र की प्रत्येक गाथा का यंत्र, उसकी साधनाविधि एवं फल भी बताया गया है। इस स्तोत्र से सम्बन्धित कुल २६ यंत्र दिये गये हैं। पाँचवां चक्रेश्वरीदेवी का स्तोत्र दिया गया है जो आठ पद्यों एवं आठ
यंत्रों की साधना विधि से युक्त है। निष्कर्षतः यह कृति पद्मावती देवी की साधना विधि की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। इस कृति में प्रत्येक पद्य एवं गाथा का हिन्दी भावार्थ भी दिया गया है। बृहत्हींकारकल्पविवरण
विक्रम की १४ वीं शती में जिनप्रभसरि नाम के एक प्रभावक आचार्य हुये हैं। ये अनेकविध भाषाओं के जानकार थे। उनके जीवन का एक नियम था कि वे प्रतिदिन एक स्तवन, स्तोत्र या स्तुति की रचना करने के बाद ही आहार
' यह कृति सुभाषसकलेचा १/१२/१४३ सुभाषमार्ग, पो. बॉक्स ८६, जालना से प्रकाशित है।
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542/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
करते थे, इस कारण उनके द्वारा विरचित अनेक स्तोत्र-स्तव-कल्पादि उपलब्ध होते हैं। उनमें एक रचना 'बृहत्हींकारकल्पविवरण' नामक है। उनके द्वारा रचित एवं उपलब्ध मंत्र-विद्यादि विषयक कृतियों का नामनिर्देश इस प्रकार ज्ञातव्य है - १. पद्मावती चतुष्पदी २. विजय-मंत्र कल्प ३. उपसर्गहरस्तोत्र वृत्ति ४. पंचपरमेष्ठिमहामंत्र स्तवन ५. शारदाष्टक ६. गौतम- स्तोत्र ७. वर्धमानविद्याकल्प ८. सूरिमंत्राम्नायकल्प आदि।
इस कल्प के विषय में कहा जाता है कि गणधर प्रणीत अंगसूत्रों के बारहवें दृष्टिवाद नामक सूत्र के अन्तर्गत दशवें विद्याप्रवाद नामक पूर्व में मंत्र-विद्या का आलेख था। सभी पूर्व नष्ट होने के साथ-साथ विद्याप्रवाद नाम का पूर्व भी नष्ट हो गया। किन्तु मंत्रविद्या अभी भी प्रचलित है। यह मंत्रविद्या पूर्व उद्धृत हैं या अन्य स्थान से स्वीकृत की गई है, यह प्रश्न अवश्य विचारणीय है? कुछ भी हो- वज्रस्वामी, पादलिप्ताचार्य, हरिभद्रसूरि, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्राचार्य, जिनदत्तसूरि, जिनप्रभसूरि आदि कई आचार्यों एवं सन्तपुरुषों ने संयम शक्ति और प्रखर विद्वत्ता के साथ इन मांत्रिक विद्याओं के प्रभाव से खूब शासनोन्नति की हैं यह सर्वविदित है।
यह कृति' संस्कृत की गद्य एवं पद्य मिश्रित शैली में रची गई है। इसमें प्रतिपादित विधि-विधान या तत्संबंधी चर्चा इस प्रकार है - इसमें सर्वप्रथम 'ह्रींकार' शब्द की साधना विधि के सात द्वार कहे हैं १. पूजा २. ध्यान ३. वर्ण ४. होम ५. जाप ६. मंत्र और ७. क्रिया।।
___ यहाँ ध्यातव्य है कि 'ही' शब्द में पंचपरमेष्ठी के पाँच वर्षों और चौबीस तीर्थंकरों की कल्पना की जाती है। अतः 'ही' शब्द की साधना पंचवर्ण के आधार पर किये जाने का निर्देश है। इसमें पूर्वोक्त द्वारों की अपेक्षा से क्रमशः ये विधि-विधान कहे हैं- १. हींकार शब्द की आलेखनविधि २. 'ह्रींकार' की सामान्य साधनाविधि और उसका फल ४. ह्रींकार यन्त्र की पूजा विधि ५. ह्रींकार (मायाबीज) मंत्र की आराधना विधि ६. परमेष्ठी बीजपंचक स्थापनाविधि ७. परमेष्ठिचक्र-शुक्लमायाबीजसाधनाविधि ८. परमेष्ठिचक्र-आरक्तमायाबीजसाधनाविधि ६. परमेष्ठिचक्र-पीतमायाबीजसाधनाविधि १०. परमेष्ठिचक्र-नीलमायाबीजसाधनाविधि ११. परमेष्ठिचक्र-कृष्णमायाबीजसाधनाविधि १२. परमेष्ठिचक्र-शुक्लादि मायाबीज की साधनाविधि का फल १३. चौरभयरक्षाविधि १४. वश्ययंत्रविधि १५. प्रथम शुक्लबीज ध्यानविधि १६. द्वितीय (आकर्षणार्थ) रक्तबीज ध्यानविधि १७. तृतीय
' (क) इस कृति का संशोधन गणि प्रीतिविजयजी ने किया है। (ख) यह कृति शा. डाह्याभाई मोहोकमलाल, पांजरापोल, अहमदाबाद से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/543
(कल्याणार्थ) पीतबीज ध्यानविधि १८. चतुर्थ (उच्चाटनार्थ) नीलबीज ध्यानविधि १६. पंचम कृष्णबीज ध्यानविधि २०. होमविधि २१. ह्रींकार विधान २२. ह्रीं लेखाकल्प विधि २३. मायाकल्प विधि २४. ह्रींकारजाप विधि २५. विसर्जनमंत्र विधि २६. बृहदहीकारकल्प विधि
इसके साथ ही पद्मावती देवी और पार्श्वयक्ष की आराधना विधि से सम्बन्धित पच्चीस श्लोक दिये गये हैं। तीन मायाबीजस्तवन दिये गये हैं जो क्रमशः सोलह, बाईस एवं तेरह पद्यों में निबद्ध है। इसके अन्त में सत्रह गाथाओं का ‘वर्धमानविद्यास्तवन' संकलित किया गया है जो जिनप्रभसूरि द्वारा ही विरचित है। वस्तुतः इस कृति में मंत्र साहित्य की दुर्लभ सामग्री का समावेश हुआ है। भैरवपद्मावतीकल्प
इस कृति के रचयिता जिनसेन के शिष्य आचार्य मल्लिषेण है। ये जिनसेन कनकसेनगणि के शिष्य और अजितसेनगणि के प्रशिष्य थे। ये आचार्य मल्लिषेण दिगम्बर परम्परा के है। उनकी यह कृति संस्कृत के ३३१ पद्यों में और दस अधिकारों में विभक्त है। इस कृति का रचनाकाल वि.सं. ११६४ है। श्री नवाब द्वारा प्रकाशित पुस्तक में इसके २२८ पद्य ही दिये हैं। इसमें 'वनारुणासितैः' से शुरू होने वाला तीसरे अधिकार का तेरहवाँ पद्य, 'स्तम्भने तु' से शुरू होने वाला चौथे अधिकार का श्रीरंजिका यंत्र-विषयक बाईसवाँ पद्य तथा 'सन्दूरारुण' से शुरू होने वाला इकतीसवाँ पद्य इस प्रकार कुल तीन पद्य नहीं हैं।
यह रचना पद्मावती देवी की आराधना, साधना, महिमा एवं प्रभावादि से सम्बन्धित है। इसमें कई प्रकार के विधि-विधान कहे गये हैं। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में पार्श्वनाथ प्रभु को प्रणाम करके अभीष्ट फल को देने वाले 'भैरवपद्मावतीकल्प' को कहने की प्रतिज्ञा की गई है।तदनन्तर पद्मावती का स्वरूप बताया गया है। फिर पद्मावती के तोतला, त्वरिता, नित्या, त्रिपुरा, कामसाधिनी और त्रिपुर भैरवी
' यह कृति बन्धुसेन के विवरण तथा गुजराती अनुवाद, ४४ यंत्र, ३१ परिशिष्ट एवं आठ तिरंगे चित्रों के साथ साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद ने सन् १६३७ में प्रकाशित की है। इसके अतिरिक्त पं. चन्द्रशेखरशास्त्रीकृत हिन्दी भाषा-टीका, ४६ यंत्र एवं पद्मावती विषयक कई रचनाओं के साथ यह कृति 'श्री मूलचन्द किसनदास कापड़िया' ने वी.सं. २४७६ में प्रकाशित की है। २ दसवें अधिकार के ५६ वें पद्य में यह उल्लेख है कि सरस्वती देवी ने कर्ता को यह वरदान दिया था कि यह कृति ४०० श्लोक परिणाम होगी।
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544 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
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ये छः नाम कहे गये हैं।' उसके बाद इस ग्रन्थ में कहे जाने वाले दस अधिकारों के नाम दिये गये हैं। न अधिकारों की विषयवस्तु संक्षेप में इस प्रकार है पहले अधिकार का नाम 'मंत्र साधक - लक्षण' है। इसमें मंत्रसिद्ध करने वाले साधक के विविध लक्षण दिये गये हैं; जैसे कि मंत्र सिद्ध करने वाला साधक काम, क्रोध आदि के ऊपर विजय प्राप्त करने वाला हो, जिनेश्वर परमात्मा और पद्मावती का भक्त हो, मौन व्रत का अभ्यासी हो, उद्यमी हो, संयमनिष्ठ हो, सत्यवादी हो, दयालु और मंत्र के बीजभूत पदों का अवधारण करने वाला हो । दूसरा अधिकार 'सकलीकरणविधि' नाम का है। इस अधिकार में मंत्र - साधक द्वारा की जाने वाली आत्मरक्षा के बारे में, साध्य और साधक के अंश गिनने की रीति के विषय में तथा कौन सा मंत्र कब सफल होता है? इसके सम्बन्ध में जानकारी दी गई है। तीसरे अधिकार का नाम 'देवीपूजाक्रम' है। इस अधिकार में मुख्यतः मन्त्रों एवं यन्त्रों की सिद्धिसम्बन्धी विधि, हवनविधि, भगवान पार्श्वनाथ के यक्ष की साधना विधि आदि वर्णित है। इसके अनन्तर शान्ति, विद्वेष, वशीकरण, बन्ध, स्त्री - आकर्षण और स्तम्भन ये छः प्रकार के कर्म कहे हैं। इन कर्मों को सिद्ध करने के लिए क्रमशः दीपन, पल्लव, सम्पुट, रोधन, ग्रथन और विदर्भन की विधि जाननी चाहिए उसके बाद ही अनुष्ठान करना चाहिए ऐसा उल्लेख है। इसके साथ ही उक्त छः कर्मों को सिद्ध करने के सम्बन्ध में काल, दिशा आदि का विचार किया गया है यथा १. काल - कौनसा कर्म किस समय सिद्ध करना चाहिए २. दिशा- कौनसा कर्म किस दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए ३. मुद्राकिस कर्म में कौनसी मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए ४. आसन - कौनसा कर्म किस आसन में करना चाहिए ५. वर्ण- कौन सा कर्म किस वर्ण (रंग) द्वारा सिद्ध करना चाहिए ६ मन्त्र - किस कर्म में कौनसे मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए ७. जाप - किस कर्म का जाप किस माला एवं किस अंगुली द्वारा करना चाहिए इत्यादि ।
तदनन्तर पद्मावतीदेवी की आराधना हेतु गृहयंत्र द्वार, दशलोकपाल एवं आठ देवियों की स्थापनाविधि कही गई है। इसी क्रम में निर्देश हैं कि पद्मावती देवी की आह्नानादि पाँच प्रकार से पूजा करनी चाहिए । इस सम्बन्ध में पंचोपचार१. आह्वान २. स्थापन ३. सन्निधि ४ पूजन और ५. विसर्जन विधि बतायी गई है। इसके साथ ही चिंतामणी यंत्र के विषय में जानकारी प्रस्तुत की गई है।
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ये नाम पद्मावती के भिन्न-भिन्न वर्ण एवं हाथ में रही हुई भिन्न-भिन्न वस्तुओं के आधार पर दिये गये हैं। इनकी स्पष्टता 'अनेकान्त' ( वर्ष १. पृ. ४३० ) में की गई है।
उद्घृत - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ४
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चौथे अधिकार का नाम 'द्वादशरंजिका मन्त्रोद्धार' है । इस अध्याय के प्रारम्भ में 'क्लीं' रंजिकायंत्र बनाने की विधि निर्दिष्ट है। इसके अनन्तर रंजिकायंत्र के ह्रीँ, हुँ, य, यः, ह, फट्, म, ई, क्षवषट्, ल और श्रीं इन ग्यारह भेदों का उल्लेख किया है। इन यंत्रों में से प्रत्येक यंत्र अनुक्रमशः स्त्री को मोह-मुग्ध बनाने वाला, स्त्री को आकर्षित करने वाला, शत्रु का प्रतिषेध करने वाला, परस्पर विद्वेष का उपशमन करने वाला, शत्रु के कुल का उच्चाटन करने वाला, शत्रु को पृथ्वी पर कौएँ की तरह घुमाने वाला, शत्रु का निग्रह करने वाला, स्त्री को वश में करने वाला, स्त्री को सौभाग्य प्रदान करने वाला, क्रोधादि का स्तम्भन करने वाला और ग्रह आदि से रक्षण करने वाला हैं। इसमें कौए के पंख, मृत्यु को प्राप्त प्राणियों की हड्डियों एवं रासभ रक्त से यन्त्र आलेखन का भी वर्णन है।
पाँचवा अधिकार ' क्रोधादिस्तंभनयंत्र' नाम का है। इस अधिकार में वाणी, क्रोध, जल, अग्नि, तुला, सर्प, पक्षी, गति, सेना, जीभ एवं शत्रु आदि के स्तम्भन की विधि निरूपित की गई है। साथ ही वार्ताली मन्त्र - यन्त्र एवं कोरण्टक वृक्ष की लेखनी का उल्लेख है।
छठे अधिकार का नाम 'अंगनाकर्षण' है। इसमें अभीष्ट स्त्री के आकर्षण के छः उपाय बतलाये गये हैं। सातवाँ अधिकार ' वशीकरणयंत्र' नाम का है । इस अधिकार में दाहज्वर की शान्ति का, मंत्र की साधना का, तीन लोक के प्राणियों को वश में करने का, मनुष्यों को क्षुब्ध करने का, चोर, शत्रु और हिंसक प्राणियों से निर्भय बनने का, लोगों को असमय में निद्राधीन करने का, विधवाओं को क्षुब्ध करने का, कामदेव के समान बनने का, स्त्री को आकर्षित करने का, उष्ण ज्वर दूर करने का और वर दात्रीयक्षिणी को वश में करने के उपाय बतलाये हैं। पारस्परिक वैरभाव के विनाश और शत्रु के विनाश के उपाय भी बतलाये गये हैं, साथ ही होमविधि भी चर्चित है।
आठवाँ अधिकार ‘दर्पणादि निमित्त' नाम वाला है । इस अधिकार में दर्पण मंत्र एवं कर्ण पिशाचिनी मंत्र को सिद्ध करने की विधि का उल्लेख है, साथ ही इसमें अंगुष्ठ निमित्त, दीप निमित्त और सुन्दरी नाम की देवी को सिद्ध करने की विधि भी वर्णित है। सार्वभौम राजा, पर्वत, नदी, ग्रह इत्यादि के नाम से शुभ-अशुभ फल के कथन के लिए किस तरह गिनती करनी चाहिए यह भी इसमें कहा गया है और भी मृत्यु, जय, पराजय, एवं गर्भिर्णी को होने वाली संतान 'पुत्र है या पुत्री' इत्यादि कई बातें उल्लिखित की है।
नवमाँ अधिकार ‘स्त्रयादिवश्यौषध' नामक है अर्थात् स्त्री आदि को वश करने वाली औषधियों से सम्बन्धित है। इस अधिकार में मनुष्य एवं स्त्रियों को वश में
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करने के लिए औषधि एवं तिलक तैयार करने की विधि बतलायी गई है। इसके साथ ही इसमें राजा को वश करने के लिए काजल तैयार करने की विधि, अदृश्य होने की विधि, वीर्यस्तम्भन - तुला स्तम्भन के उपाय, स्त्री में द्राव उत्पन्न करने की विधि, वस्तु के क्रय-विक्रय के लिए क्या करना चाहिए तथा रजस्वला होने एवं गर्भमुक्ति के लिए कौनसी औषधि काम में लेनी चाहिये इस प्रकार विविध बातें बतलायी गयी हैं ।
दशवाँ अधिकार ‘गारुड़तन्त्र' नाम का है। इस अधिकार में निम्नोक्त आठ विषयों को कहने की प्रतिज्ञा की गई है और उनका निर्वाह भी किया गया है- १. संग्रह - साँप द्वारा काटे गये व्यक्ति को पहचानने की विधि । २. अंगन्यास - शरीर के ऊपर मंत्राक्षर आलेखित करने की विधि । ३. रक्षाविधान - साँप द्वारा काटे गये व्यक्ति के संरक्षण की विधि । ४. स्तम्भनविधान- दंश आवेग रोकने की विधि । ५. स्तम्भन विधान - शरीर में चढ़ते हुए जहर को रोकने की विधि । ६. विषापहारजहर उतारने की विधि ७. सचोद्य - कपड़ा आदि आच्छादित करने का कौतुक ८. खटिकासर्प कौतुकविधान- खड़िया मिट्टी से आलेखित साँप के दाँत से कटवाने की विधि।
इस अधिकार में भेरण्डविद्या और नागाकर्षणमंत्र का भी उल्लेख है। इसके अतिरिक्त इसमें आठ प्रकार के नागों के बारे में भी जानकारी दी गई हैं। वह इस प्रकार है।
नाम अनन्त वासुकि तक्षक
कुल ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य वर्ण स्फटिक रक्त पीत विष अग्नि पृथ्वी वायु समुद्र समुद्र वायु
कर्कोटक पद्म महापद्म | शंखपाल कुलिक
वैश्य
क्षत्रिय ब्राह्मण
स्फटिक
अग्नि
शुद्र
श्याम
शुद्र
श्याम पीत
जय और विजय जाति के नाग तथा देवकुल के आशीविषवाले नाग जमीन पर न रहने से उनके विषय में इतना ही उल्लेख किया गया है। इसमें नाग की फेन, गति एवं दृष्टि स्तम्भन के बारे में तथा नाग को घड़े में कैसे उतारना इसके बारे में भी जानकारियाँ दी गई हैं। अन्त में मण्डलोद्धार की विधि कही गई है। पाँच श्लोक प्रशस्ति रूप में दिये गये हैं उनमें ग्रन्थकार ने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है और भैरवपद्मावतीकल्प नामक यह ग्रन्थ समुद्र, पर्वत, आकाश, चंद्र, सूर्य आदि की चिरकाल तक भाँति विद्यमान रहे ऐसी प्रार्थना की गई है।
रक्त
पृथ्वी
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यह कृति नवीनतमरूप से ३१ परिशिष्टों में विभक्त है। इसमें चन्द्रसूरि रचित अद्भुतपद्मावतीकल्प, इन्द्रनन्दि का पद्मावतीपूजन, जिनप्रभसूरि की पद्मावती चतुष्पदिका, बप्पभट्टसूरि का सरस्वतीकल्पः, धराचार्य का पद्मावतीस्तोत्र, श्री जिनश्वर सूरि की अम्बिका स्तुति इत्यादि कई स्तवन-स्तोत्र-यन्त्र-पूजादि संकलित है। इसके साथ ही इस ग्रन्थ में अनेकविध चित्रादि-यंत्रादि उल्लिखित हैं। उनमें माँ ज्वालामालिनी अंबिकादेवी, महालक्ष्मी, ब्रह्मशांतियक्ष, कपर्दियक्ष, पाटण नगर में विराजित पद्मावती की मूर्ति, श्री शत्रुजयतीर्थ पर श्रीपूज्य की ट्रंक में प्रतिष्ठित पद्मावतीमूर्ति, बीजाक्षरमंत्र अर्ह, बीजाक्षरमंत्र ऐं आदि के चित्र तथा स्त्री-आकर्षणयंत्र, वशीकरणयंत्र, क्षोभनयंत्र, सुंदरीसाधनायंत्र, पार्श्वयक्ष की आराधना का यंत्र, अंबिकादेवीयंत्र, पद्मावतीदेवी आराधना का यंत्र, ज्वालामालिनीयंत्र आदि प्रमुख हैं।
निःसन्देह यह कल्प अपनी विधा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। ग्रन्थकार ने ज्वालिनीकल्प, नागकुमारचरित्र, महापुराण' और सरस्वतीमंत्रकल्प आदि ग्रन्थ भी लिखे हैं। टीका- इस ग्रन्थ पर बन्धुषेण ने एक विवरण लिखा है वह संस्कृत में है। इसका प्रारम्भ एक श्लोक से होता है, अवशिष्ट ग्रन्थ गद्य शैली में है। इसमें कुछ मंत्र तथा मंत्रोद्धार भी उल्लिखित हैं। भक्तामरस्तोत्र
श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परम्पराओं का यह सर्वमान्य स्तोत्र है। इसके कर्ता मानतुंगाचार्य है। इसकी रचना लगभग ७ वीं शती में हुई है। यह संस्कृत के ४४ या ४८ श्लोक परिमाण एक लघुकृति है। इस रचना में मूलतः प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव प्रभु की स्तुति की गई है। यह स्तोत्र जैन धर्म की शासन प्रभावना के निमित्त रचा गया था। इस स्तोत्र की निर्माण कथा जगप्रसिद्ध है।
यद्यपि भक्तामरस्तोत्र स्तुति प्रधान कृति है, तथापि इस स्तोत्र का प्रत्येक पद्य विशिष्ट प्रकार की शक्ति, गुण एवं ऊर्जा से युक्त हैं। प्रत्येक पद्य का अपना-अपना प्रभाविक कार्य है; जैसे कि ५ वाँ श्लोक बुद्धि बढ़ाने वाला है, ३८ वाँ गजभय से मुक्ति दिलाने वाला है, ३६ वाँ सिंहभय से मुक्त करने वाला है, ४१ वाँ सर्पभय को दूर करने वाला है, ४२ वा शत्रुभय का नाश करने वाला है, ४५ वाँ रोग की शान्ति करने वाला है, ४६ वाँ कारागार का विच्छेद करने वाला है इत्यादि। ज्ञातव्य यह है कि इन श्लोकों का प्रभाव या चमत्कार विधियुक्त
' इसे त्रिषष्टिमहापुराण तथा त्रिषष्टिशलाकापुराण भी कहते हैं।
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साधना करने पर ही उपलब्ध होता है। इसके प्रत्येक श्लोक पर, मंत्र, यन्त्र एवं साधनाविधि से गर्भित कई आवृत्तियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इससे सिद्ध होता है कि यह कृति स्तुति प्रधान होने पर भी आराधना, उपासना एवं अनुष्ठान के योग्य
जैन परम्परा में इस स्तोत्र को संकट दूर करने वाला माना गया है। जैन साधकों का इस पर अटूट विश्वास है। इसकी मान्यता चमत्कारिक स्तोत्र के रूप में भी है। मांगलिक दृष्टि से भी इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र की अद्वितीय विशिष्टता यह भी है कि इसमें कहीं पर भी प्रभु आदिनाथ के नाम का उल्लेख नहीं हुआ है। मंत्र-विद्या
इस रचना के लेखक करणीदान सेठिया है।' यह कति तीन खण्डों में विभक्त है- मंत्रविद्या खण्ड, तंत्रविद्या खण्ड और यंत्रविद्या खण्ड। जैन परम्परा के अनुसार मंत्र, यंत्र और तंत्र का उल्लेख तो इसमें है ही, किन्तु इसके साथ-साथ इसमें लोक परम्परा के अनुसार भी मंत्र, यंत्र और तंत्रों के प्रयोग दिये गये हैं। मंत्रों के साथ-साथ इसमें विद्याओं का भी उल्लेख हुआ है। विद्याओं के प्रसंग में इसमें वर्धमानविद्या, लोगस्सविद्या, शक्रस्तवविद्या का उल्लेख है। मंत्रों में पार्श्वमंत्र, मणिभद्रमंत्र, गौतममंत्र, पद्मावतीमंत्र, ज्वालामालिनीमंत्र, घण्टाकर्णमंत्र आदि के साथ-साथ सूर्यमंत्र, गणेशमंत्र, हनुमानमंत्र, भैरवमंत्र, गोरखमंत्र, मुस्लिममंत्र आदि का भी इसमें संकलन किया गया है, जो कि जैन परम्परा सम्मत नहीं है। यही स्थिति यंत्रों और तंत्रों में भी है। सम्मोहन, आकर्षण, वशीकरण आदि से सम्बन्धित मंत्रों और तंत्रों के प्रयोग भी इसमें वर्णित है। जो एक दृष्टि से जैन परम्परा की मूलभूत आध्यात्मिक दृष्टि के विपरीत कहे जा सकते हैं। संक्षेपतः यह जैन मंत्र, तंत्र और यंत्र का एक अच्छा संकलन ग्रन्थ है। मंत्र-शक्ति
___ इस पुस्तिका में दिगम्बराचार्य पुष्पदंतसागर जी के प्रवचनों का संकलन है जिसमें मुख्यरूप से णमोकारमंत्र के महत्त्व का आख्यानों के माध्यम से वर्णन किया गया है। आचार्य श्री के अनुसार नमस्कारमंत्र की शक्ति अनुपम है। संसार
' यह रचना करणीदान सेठिया, ६ आरमेनियम स्ट्रीट, कलकत्ता, से वि.सं. २०३१ में प्रकाशित १ यह पुस्तक अजयकुमार कासलीवाल पंछी, इन्दौर एवं प्रमोद जैन नौगामा, बांसवाड़ा से प्रकाशित है।
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के सभी मंत्र इसके ही गर्भ से जन्में हैं। इस मंत्र में ५ पद, ५८ मातृकाएँ एवं ३५ व्यंजन हैं, जो अलौकिक शक्ति से युक्त हैं। इसमें मंत्र सिद्ध करने वाले की पात्रता का भी संक्षिप्त विवेचन किया गया है। जैन उपासना विधि की दृष्टि से कृ ति महत्त्वपूर्ण है।
मंत्र - शास्त्र
इसके रचयिता का नाम अज्ञात है । इस पुस्तक में पत्र संख्या २४ के बाद के पत्र नहीं मिलते हैं। इसको भी बागड़ी, मारवाड़ी एवं मालवी बोली में लिखा गया है। इसमें कहीं-कहीं मुस्लिम शाबर मंत्र एवं वैष्णव मंत्र भी मिलते हैं। वस्तुतः यह मंत्र, यंत्र एवं तंत्र का एक अनुपम ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ सोहनलालजी के संग्रहालय में सुरक्षित है।
मंत्राधिराज
इसके लेखक बसन्तलाल, कान्तीलाल एवं ईश्वरलाल हैं। यह कृति ऊँकार साहित्यनिधि, भीलडियाजी तीर्थ से प्रकाशित है। इसमें नमस्कार मंत्र का माहात्म्य बताया गया है। साथ ही नमस्कारमंत्र की विधियुत साधना के प्रभाव से होने वाली भौतिक उपलब्धियाँ दर्शायी गयी हैं।
मन्त्राधिराज - चिन्तामणि
यह एक संग्रह ग्रन्थ है । 'जैनस्तोत्रसन्दोहः' के दूसरे भाग के रूप में यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है। इस ग्रन्थ का संपादन - संशोधन मुनि चतुरविजयजी ने किया है। प्रस्तुत विभाग में तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ के मंत्र - यंत्रादि की साधना एवं महिमादि से सम्बन्धित ६२ स्तोत्रों, स्तवनों एवं ग्रन्थांशों का संकलन किया गया है। ये स्तोत्रादि अनेक जैनाचार्यों द्वारा रचित हैं। उनकी सूची इस प्रकार है
१. उवस्सग्गहरंस्त्रोत ( द्विजपार्श्वदेवगणि कृता टीका), २. नमिऊण- भयहरस्तोत्र (सटीका ) - मानतुंगसूरि, ३. श्री चिन्तामणिकल्प - मानतुंगसूरिशिष्य धर्मघोषसूरि ४. श्री चिन्तामणिकल्पसार- अज्ञातकर्तृक, ५. श्री स्तम्भनपार्श्वजिनस्तोत्रतरुणप्रभाचार्य, ६. श्री पार्श्वप्रभुस्तवन ( मन्त्रगर्भित ) - कमलप्रभाचार्य ७. श्री पार्श्वजिनस्तवन नमिऊणपासनाहं ( मन्त्रगर्भित ) रत्नकीर्त्तिसूरि ८. मन्त्राधिराजस्तोत्र- श्री पार्श्वः पातुः अज्ञातकर्तृक, ६. श्री चिन्तामणिपार्श्वनाथस्तोत्र- जगद्गुरुं जगद्देवं (मंत्रगर्भित ) - जिनपतिसूरि, १०. श्री पार्श्वनाथस्तोत्रम् - ऊँ नमो देवदेवाय ( अट्टेमट्टेमन्त्रगर्भितम्) - मेरुतुंगसूरि, ११. श्री स्तम्भनपार्श्वनाथजिनस्तवनम् - जसुसासणएवि ( यन्त्रमन्त्रादिमयं सटीका )- श्री
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पूर्णकलशगणि, १२. श्री पार्श्वनाथस्तोत्र- धरणोरगेन्द्र.(सटीकं मन्त्रादिगर्भित)शिवनाग, १३. श्री कलिकुण्डपार्श्वजिनस्तवन- श्री मद्देवेन्द्रवृन्दा. (महामन्त्रगर्भित), १४. श्री पार्श्वनाथस्तोत्र- ऊँ नमोभगवते. (अट्टे मट्टे मन्त्रगर्भित)- अजितसिंहाचार्य, १५. श्री पार्श्वसप्ततीर्थीस्तवन- ऊँ नत्वा श्री संघविजयगणि, १६. श्री स्तम्भनपार्श्वजिनस्तवन- अज्ञातकर्तृक, १७. श्री स्तम्भनपार्श्वजिनस्तवन- स्तवीमि तं पार्श्व.- अज्ञातकर्तक १८. श्री पार्श्वनाथस्तवन- स्फुरत्केवल- देवसुन्दरसूरि, १६. श्री स्तम्भनकपार्श्वजिनस्तवन- श्री स्तम्भनंपार्श्वजिनं- जिनसोमसूरि, २०. श्री पार्श्वजिनस्तवन- योगात्मनां यो. (स्वोपज्ञावचूरि युत)- श्री जयसागर, २१. श्री पार्श्वजिनस्तवन- श्रीमान पार्श्वः (महेसानामण्डन) रत्नशेखरसरिशिष्य, २२. श्री चारूपमण्डन पार्श्वजिनस्तवन- श्री चारूपपुरः - अज्ञातकर्तृक, २३. श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र- महानन्दलक्ष्मी- श्री हंसरत्नमुनि, २४. श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथछन्द- सकलसुरासुर - श्री हंसरत्नमुनि २५. षट्पत्तनमण्डन श्री पार्श्वजिनस्तोत्र- षट्पत्तनपुर- श्री जिनभद्रसूरि, २६. श्री पार्श्वजिनस्तोत्रजीरापल्लिपुरो- श्री सौभाग्यमूर्ति, २७. श्री पार्श्वजिनस्तवन- श्री वामेयं (सटीका)श्री उदयधर्मगणि, २८. श्री जीरापल्लिपार्श्वनाथस्तवन- सुधाशनक्ष्माधर- श्री उदयधर्मगणि, २६. श्री पार्श्वजिनस्तवन- अरिहं थुणामि (नवग्रहगर्भित)अज्ञातकर्तृक, ३०. श्री पार्श्वनाथस्तव- ऊँ ह्री अहमथो (अट्टे मट्टे मन्त्र गर्भित), ३१. श्री पार्श्वदेवस्तवन- सदावासनापासना. (सटीका)- श्री जयकीर्तिसूरि, ३२. श्रीजयराजपुरीश श्री पार्श्वजिनस्तवन- शश्वच्छासन. (गुप्तभेदालंकृत)- जिनभद्रसूरि के शिष्य श्री सिद्धांतरुचि, ३३. श्री जयराजपल्लीमण्डन श्री पार्श्वजिनस्तवनशर्मप्रयच्छ. (शर्मस्तव अपराभिधानम्)- अज्ञातकर्तृक, ३४. श्री जीरिकापल्ली श्री पार्श्वनाथस्तवन- जीरकापल्लि- श्री महेन्द्रसूरि, ३५. श्री जीराउलीमण्डन श्री पार्श्वजिनस्तवन- श्री भुवनसुन्दरसूरि, ३६. श्री जीराउलीमण्डन श्री पार्श्वनाथस्तवन- श्री भुवनसुन्दरसूरि, ३७. श्री कुल पाकतीर्थालंकार श्री ऋषभजिनस्तवन- श्री भुवनसुंदरसूरि, ३८. श्री जीरा उलीमण्डनपार्श्वनाथस्तवनश्री योऽभिवृद्धिः - श्री भुवनसुंदरसूरि, ४०. श्री शत्रुजयस्तवन- श्री शजयशैलश्री भुवनसुंदरसूरि, ४१. श्री चतुर्विंशतिजिनस्तवन- विजयते वृषभः. (विविधयमकमय)- श्री भुवनसुन्दरसूरि, ४२. श्री पार्श्वजिनस्तोत्र- ऊँ ह्रीं श्रीं (मन्त्राक्षरगर्भित)- अज्ञातकर्तृक, ४३. श्री पार्श्वनाथस्तवन- श्री पार्श्वभावतः. (यमकमय)-श्री जिनप्रभसूरि ४४. श्री पार्श्वनाथस्तोत्र- जिनराजसदामुनिचतुरविजय, ४५. जैसलमेरमेरुमण्डन श्री पार्श्वजिनस्तवन- आनन्दभन्दवन- श्री जिनसमुद्रसूरि, ४६. श्री कुंकुमशेलापार्श्वजिनस्तवन- कुंकुमरोलभिधं- अज्ञातकर्तृक, ४७.श्रीनवखण्डा- पार्श्वजिनस्तवन- श्री पार्श्व नवखण्डाख्यं- अज्ञातमर्तक ४८. श्री
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/551
नवखण्डापार्श्वजिनस्तवन- विपुलमंगल- श्री आनन्द माणिक्यमुनि, ४६. श्री नवपल्लवपार्श्वनाथस्तोत्र- उद्यत्फणा. (मांगरोलमण्डन) श्री लक्ष्मीलाभमुनि, ५०. श्री अन्तरीक्षपार्श्वनाथस्तवन- श्रीश्रीपुरा. (श्रीपुरमण्डन), ५१. श्री मक्सीपार्श्वस्तोत्रकल्याणकारं.- महो. श्रीकल्याणविजयगणि ५२. श्री पार्श्वनाथस्तोत्र- श्री पार्श्वनाथ
आल्हादमन्त्री. ५३. श्री पार्श्वनाथस्तोत्र- जयति भुजग.- श्री विल्हणकवि, ५४. श्री पार्श्वनाथस्तवन- पार्श्वनाथ.- अज्ञातकर्तृक, ५५. श्री पार्श्वजिनस्त्रोत- श्री पार्श्व परमात्मानं.- श्री जिनप्रभसूरि, ५६. श्री पार्श्वजिनस्तवन- विभाति यद्भा (सटीका)- श्री सोमसुन्दरसूरि, ५७. श्री पार्श्वनाथलघुस्तवन- शान्तानम्रो- श्री शिवसुन्दरसूरि, ५८. श्री पार्श्वनाथस्तवन- श्री अश्वसेन- श्री रविसागर, ५६. श्री पार्श्वजिनस्तवन- निजगुरो- श्री विद्याविमलशिष्य, ६०. श्री पार्श्वजिनस्तवनकल्याणकेलि (कल्याणमन्दिरचरमचरणपूर्तिरूप)- अज्ञातकर्तृक, ६१. श्री पार्श्वजिनस्तवन- श्रीनिर्वृति.- श्री हेमविमलसूरि ६२. श्री मन्त्राधिराजकल्पकल्याणाकुंरवारिदः. - श्री सागरचन्द्रसूरि
उपुर्यक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि इस कृति में मंत्र-यंत्र गर्भित एवं तत्सम्बन्धी साधनाविधि के काफी कुछ स्तोत्रादि संग्रहित किये गये हैं। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना अत्यन्त विस्तृत है और पठनीय है। इसमें ६५ प्रकार के यंत्र भी दिये गये हैं जो ग्रन्थ के महत्त्व में सहनगुणा वृद्धि करते हैं। मंत्रचिंतामणि
___यह कृति पं. धीरजलाल शाह द्वारा संग्रहीत है। इसमें जैन और हिन्दू दोनों ही परम्पराओं के अनुसार तांत्रिक साधना के विधि-विधान दिए गये हैं। इसमें जैनधर्म के अनुसार ऊँकार उपासना के सम्बन्ध में पंचपरमेष्ठी एवं ह्रींकार उपासना के विषय में चौबीस तीर्थंकर की चर्चा की गई हैं। इसके साथ ही पार्श्वनाथप्रभु, धरणेन्द्रदेव और पद्मावतीदेवी की उपासना भी चर्चित है। मंत्र-यंत्र-विद्या संग्रह
इस कृति के कर्ता का नाम अज्ञात है। इस पुस्तक के प्रथम पृष्ठ पर बारीक अक्षरों में 'णमोकार कल्प प्रारम्भलिखते' लिखा हुआ है, जो बागड़ी ५ मारवाड़ी बोली के शब्दों में लिखा है। इसकी पत्र संख्या नौ है। इसका संग्रह १६ वीं शती में सागवाड़ा गद्दी के भट्टारक के किसी अनुयायी ने किया होगा, ऐसा अनुमान लगाया जाता है। इसमें वशीकरण, उच्चाटन, मारण, विद्वेषण, स्तम्भन
' यह कृति वि.सं. १६६२, साराभाई मणिलाल नवाब- अहमदाबाद से प्रकाशित है। २ उद्धृत- जैन धर्म और तांत्रिक साधना, पृ. ३६६
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552/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
आदि सम्बन्धी मंत्र-यंत्रों का संग्रह है। यह कृति श्री सोहनलाल दैवोत के निजी भण्डार में सुरक्षित है। मन्त्रराजरहस्यम्
मन्त्रराजरहस्यम् नामक यह ग्रन्थ' यशोदेवसूरि के प्रशिष्य एवं विबुधचन्द्रसूरि के शिष्य सिंहतिलकसूरि द्वारा विरचित है। यह संस्कृत के ६२३ पद्यों में निबद्ध ८०० श्लोक परिमाण की रचना है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल चौदहवीं शती (१३२७) का पूर्वार्ध माना गया है। यह कृति सूरिमन्त्र कल्पों की अपेक्षा प्राचीनतम प्रतीत होती है इसे उस विद्या का आकार ग्रन्थ भी माना जा सकता है। जैनाचार्यों के लिए यह कृति अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुई है। सूरिमंत्र विषयक समग्र जानकारी प्राप्त हो सके, एतदर्थ सिंहतिलकसूरि ने उस समय में जो-जो आम्नाय प्रचलित थीं, उनका भी इसमें संग्रह कर लिया है।
यहाँ दो महत्त्वपूर्ण बातें उल्लिखित करना आवश्यक मानती हूँ - प्रथम तो यह है कि तीर्थंकर प्रभु स्वयं ही गणधर भगवन्त को सूरिमंत्र प्रदान करते हैं अर्थात् सुनाते है इस मन्त्र को लिखा नहीं जाता हैं और दूसरी बात यह है कि इस मन्त्र साधना के द्वारा अनेक विद्याएँ, लब्धियाँ और शक्तियाँ प्राप्त की जा सकती है अतः योग्य शिष्य को ही यह मंत्र प्रदान करने का विधान है। इससे संबंधित कई विधियाँ गुप्त रखी गई हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सूरिमंत्र की पाँच पीठों में पाँचवीं पीठ मंत्रराजपीठ है। यह मंत्रराजपीठ अरिहंत रूप है। फिर भी इसको सूरिमंत्र कहा जाता है, क्योंकि अरिहंत गुरु है और गणधर शिष्य है। गुरूभक्त शिष्य (गणधर) गुरुमय बन जाने से तीर्थकर के प्रतिरूप कहलाते हैं। इस कारण इस मंत्र को सूरिमंत्र कहा गया हैं।
इस ग्रन्थ के प्रारंभ में मंगलरूप एक श्लोक दिया गया है उसमें गुरु को नमस्कार करके, सिद्ध किये हुए ज्ञान को क्वचित रूप से कहने की इच्छा प्रगट की गई है। अन्त में प्रशस्ति रूप चार श्लोक दिये गये हैं उसमें लिखा गया हैं कि सद्गुरु के वचनों के द्वारा जो सुना गया है वही प्रमाण रूप है और उसको ही विबुधचन्द्रसूरि के शिष्य सिंहतिलकसूरि के द्वारा लीलावती नामक वृत्ति सहित इस ग्रन्थ में लिखा है। यह रचना वि.सं. १३२७ में, दीपावली पर्व के दिन पूर्ण हुई
है
प्रस्तुत कृति में उल्लिखित सूरिमन्त्र की साधनाविधि एवं तत्सम्बन्धी
' मन्त्रराजरहस्यम् श्री सिंहतिलकसूरि, संपा. जिनविजयमुनि, सन् १६८० प्र. भारतीयविद्याभवन, मुंबई
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विषयों का संक्षिप्त विवरण निम्न हैं - इसमें सर्वप्रथम पचास प्रकार के लब्धिपदों के नाम दिये गये हैं उसके बाद इन पचास प्रकार के लब्धिपदों के अन्तर्गत आठ प्रकार की विद्याओं की जपविधि और उसका फल कहा गया है। तदनन्तर चालीस प्रकार के लब्धिपदों का निरूपण किया गया हैं तथा प्रत्येक लब्धिपद का कृ त्यकारित्व भाव बताया गया है। तत्पश्चात् अड़तालीस लब्धिपदों से युक्त यन्त्र का स्वरूप कहा गया है। उसके बाद रेचक-पूरक-कुंभक आदि तेरह प्रकार के जाप बताये गये हैं। इसके साथ ही जाप करने योग्य स्थल, जाप करने का आसन, जाप करने का अधिकारी एवं प्रत्येक जाप का स्वरूप प्रतिपादित हुआ है। तदनन्तर सूरिमन्त्र की वाचना करने के प्रकार कहे गये हैं। उसके पश्चात सूरिमन्त्र जाप के योग्य स्थानादि की चर्चा की गई है। इसके साथ ही मन्त्र की जाप विधि और मन्त्रसिद्धि का फल कहा गया है। इसके बाद गौतम नाम का माहात्म्य बताया गया है।
इसी अनुक्रम में पार्श्वनाथ सन्तानीय केशीगणधर का मन्त्र एवं उसकी जपविधि वर्णित की है। सूरिमन्त्र का कोट्यंशादि पूर्वक विचार किया गया है। महती, बृहती, उक्ता एवं न्यासी इन चार प्रकार की मन्त्र विद्याओं पर चर्चा की गई है। सूरिमन्त्र के बीजपद कहे गये हैं तथा इस मन्त्र अधिकारी के लक्षण बताये गये हैं। उसके बाद सूरिमन्त्र की साधना में उपयोगी पाँच मुद्राओं पर विचार किया गया है इसमें इन पाँच मुद्राओं का स्वरूप और उनका फल कहा गया है। फिर विद्या प्रस्थान और पीठ का स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है इसके साथ ही 'ऊँ' आदि तीन प्रकार के बीज एवं उनके प्रयोग पर विचार किया गया है तथा उनपचास पद वाले सूरिमन्त्र की सामान्य चर्चा की गई है। तत्पश्चात् क्रमशः प्रथम प्रस्थान (पीठ) की साधनाविधि, उसके लब्धिपद और उनका फल कहा गया है। फिर द्वितीय प्रस्थान की साधनाविधि, उसके लब्धि पद और उनका फल बताया गया है। उसी प्रकार तृतीय चतुर्थ-पंचम इन तीनों तदनन्तर प्रस्थानों की साधना विधि, उनके लब्धि पद और उनके फल का वर्णन किया गया है।
यह प्रतिपादित किया गया हैं कि पाँचवा मन्त्रराज नाम का प्रस्थान मेरु के समान है इस प्रसंग में मेरुओं की विविध संख्याएँ बतायी गई हैं। उसके बाद तेरह प्रकार के लब्धिपद वाले एवं सात मेरु से युक्त सूरिमन्त्र पर विचार किया गया है इसमें उल्लिखित लब्धिपद की दृष्टि से पाँचप्रस्थानों पर भी विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् बत्तीस प्रकार के लब्धिपद वाले और चौबीस प्रकार के लब्धिपद वाले सूरिमन्त्र की चर्चा की गई हैं। इस सूरिमन्त्र की साधना विधि में छ: प्रस्थान कहे गये हैं। साथ ही इन छ:प्रस्थानों की आराधना विधि भी
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554 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
निरूपित की गई है। तदनन्तर सोलह स्तुति पदों से युक्त छः प्रस्थानवाले सूरिमन्त्र पर विचार किया गया है। उसके बाद पूर्णचन्द्र आचार्य की आम्नायानुसार इगतीस लब्धिपद से युक्त तथा अन्य आम्नाय के उनचालीस लब्धिपद से युक्त सूरिमन्त्र पर प्रकाश डाला गया है। उक्त दोनों प्रकार के सूरिमन्त्र को तेरह मेरुवाला कहा गया है। साथ ही सूरिमन्त्र के पाँच प्रस्थान बतलाये गये हैं पांचों प्रस्थानों की 1. सम्यक् विधि भी कही गई हैं। उसके पश्चात् ह्रींकार का स्वरूप उसकी जाप विधि एवं उसका माहात्म्य प्रगट किया गया है।
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इसी क्रम में बारह लब्धिपद से युक्त तेरह मेरु वाले सूरिमन्त्र पर सामान्य विचार किया गया है। उसके बाद सोलह स्तुति पद वाले छः मेरु एवं कूटाक्षर से युक्त सूरिमन्त्र का उल्लेख किया गया है। फिर ऊँकार - ड्रींकार और ग्रहादिशान्ति का विचार किया गया है। उसके बाद मायाबीज का विचार, अहं आकार का रहस्य, चक्रादि पीठ चतुष्क का विचार, जाप का माहात्म्य, यन्त्र लेखन के प्रकार, बताये गये हैं। तत्पश्चात् सोलह लब्धिपद और छ: मेरु से युक्त सूरिमन्त्र का विवेचन किया गया है। इसी क्रम में शान्ति का विचार और उसकी विधि बतायी गयी है। सूरिमन्त्र की महिमा का वर्णन किया गया है। नित्य पूजन विधि निर्दिष्ट की गई है। अक्ष पर विचार किया गया वासचूर्ण को मंत्रित करने की मुद्राओं पर प्रकाश डाला गया हैं।
उपर्युक्त प्रवेचन से यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक आम्नायों के अनुसार सूरिमन्त्र की साधना विधि कही गई हैं। इस कृति में उल्लिखित सूरिमन्त्र साधना की विधियाँ वर्तमान में प्रचलित हैं या नहीं, यह एक विचारणीय विषय है ? परन्तु यह निश्चित है कि सूरिमन्त्र के सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों के अपने-अपने विचार रहे हैं साथ ही उनकी अपनी परम्परा रही हैं।
सूरिमन्त्र की तथा अन्त में
मन्त्रराजरहस्यम् का अन्य संस्करण
मन्त्रराजरहस्यम् का एक अमूल्य संस्करण भी हमें देखने को मिला हैं वह मुनि जिनविजयजी द्वारा संपादित, भारतीय विद्या भवन, मुंबई से प्रकाशित, तथा सत्रह परिशिष्टों से युक्त हैं।
इस ग्रन्थ की विषय वस्तु का उल्लेख तो पूर्व में कर चुके हैं यहाँ इस संस्करण के सत्रह परिशिष्टों का सामान्य परिचय कराना आवश्यक प्रतीत होता है। वह इस प्रकार है
पहले परिशिष्ट में मन्त्रराजरहस्यगत मन्त्रोद्धार और सूरिमन्त्र के ग्यारह आम्नाय सम्बन्धी लब्धिपद एवं उनकी आम्नाय के अनुसार सूरिमन्त्र की साधना विधि का विवेचन किया गया है। दूसरे परिशिष्ट में पाँच पीठ की साधनाविधि के लब्धिपद
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दिये गये हैं जो श्री सीमंधरस्वामी के द्वारा प्रणीत हैं, अम्बिकादेवी के द्वारा श्रीमानदेवसूरि को उपदिष्ट किये गये हैं और विजयानन्दसूरि के द्वारा लिखे गये हैं। तीसरे परिशिष्ट में सूरिमन्त्र के स्मरण करने की विधि प्रतिपादित है। इस परिशिष्ट में जो सरिमन्त्र दिया गया है वह राजगच्छीय श्री हंसराजसरि के पट्टपर आसीन श्री विजयप्रभसूरि के गुरुक्रम से आया हुआ सूरीश्वरों का मन्त्र है। इस मन्त्र का प्रतिदिन चौबीस बार स्मरण करना चाहिए ऐसा निर्देश है। चौथे परिशिष्ट में गणधरवलय सम्बन्धी लब्धिपदों का वर्णन है। पाँचवें परिशिष्ट में देवतावसरविधि दी गई है जिसमें जाप अनुष्ठान विधि के बीस चरणों का उल्लेख हुआ है। यह विधि जिनप्रभसूरि रचित है।
छठे परिशिष्ट में प्राकत की बीस गाथाओं में गम्फित 'श्री सरिमंत्र की स्तुति' दी गई है। साँतवें परिशिष्ट में श्रीउद्योतनसूरि विरचित 'प्रवचनमंगल सारस्तव' दिया गया है जो प्राकृत पद्य में निबद्ध तेईस गाथाओं से युक्त है। इस स्तोत्र के सम्बन्ध में ऐसा निर्देश दिया गया हैं कि सूरिमन्त्र के आराधक आचार्य को, सूरिमन्त्र की साधना के अवसर पर स्वहित और परहित के लिए इस स्तव का उभयसन्ध्याओं मे पाठ करना चाहिये। आठवें परिशिष्ट में श्रीमानदेवसूरि विरचित 'श्रीसूरिमंत्र की स्तुति' दी गई है जो प्राकृत की इक्कीस गाथाओं में रचित हैं और तीन वाचना से युक्त हैं। नौवें परिशिष्ट में श्री पूर्णचन्द्रसूरि विरचित 'श्री. सूरिविद्यागर्भितलब्धिस्तोत्र' दिया गया है वह प्राकृत पद्य पन्द्रह गाथाओं में लिखा गया है। दशवें परिशिष्ट में 'श्रीसंतिकरस्तवन' का उल्लेख है जिसमें पाँच पीठ के अधिष्ठायक देव-देवियों के नाम हैं यह रचना मुनिसुन्दरसूरि की है तथा प्राकृत की चौदह गाथाओं में रचित है। ग्यारहवें परिशिष्ट में सूरिमन्त्र के अधिष्ठायक 'श्री गौतमगणधर' सम्बन्धी तीन स्तोत्र दिये गये हैं जो प्राकृत पद्य में रचित हैं तीनों ही आठ-आठ गाथाओं से युक्त हैं और मुनिसुन्दसूरि द्वारा निर्मित है।
बारहवें परिशिष्ट में मुनिसुन्दसरि रचित 'श्री गौतमस्तोत्र' संग्रहित है यह संस्क त पद्य में पच्चीस श्लोक से युक्त है। तेरहवें परिशिष्ट में सरिमन्त्र का स्तोत्र दिया गया है जो अज्ञातकर्तृक है। चौदहवें परिशिष्ट में 'श्री मन्त्राधिराजगर्भित श्री गौतमस्वामी का स्तवन' वर्णित है जो अज्ञातकर्तृक है। वह संस्कृत पद्य के सोलह श्लोकों में निबद्ध किया गया है। पन्द्रहवें परिशिष्ट में ‘परमेष्ठिसूरि का यन्त्र' दिया गया हैं यह संस्कृत के छिहत्तर (७६) श्लोकों में निबद्ध है। सोलहवें परिशिष्ट में सिंहतिलकसरिरचित 'लघुनमस्कारचक्र' दिया गया है यह संस्कृत के एक सौ पन्द्रह श्लोकों में लिखा हुआ है। सतरहवें परिशिष्ट में 'ऋषिमण्डलस्तवयन्त्रालेखनम्' का वर्णन है यह भी सिंहतिलकसूरि की रचना है और संस्कृत के छत्तीस श्लोकों में गूंथा हुआ है।
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556 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
मन्त्रराजरहस्यगर्भित 'अर्हदादिपंचपरमेष्ठिस्वरूप'
यह कृति संस्कृत पद्य में निबद्ध सिंहतिलकसूरि की है। प्रस्तुत अंश उनके स्वरचित मन्त्रराजरहस्य से लिया गया है। यह समग्र ग्रन्थ ६३३ पद्यों वाला है। इस विवरण में ६८ पद्य लिये गये हैं। इसका ग्रन्थाग्र ८०० श्लोक परिमाण हैं। इस अंश में ऊँ ह्रीं अहं आदि बीज मंत्रों का व्यापाक दृष्टि से विचार किया गया है और इन बीजाक्षरों की उपासना पद्धति बतायी गई है।
प्रस्तुतांश में उपासना पद्धति से सम्बन्धित अग्रलिखित विषय चर्चित हुए है - सर्वप्रथम ऊँकार-ड्रींकार का स्वरूप कहा गया है। फिर ड्रींकार के देह में पंच परमेष्ठी और चौबीस तीर्थंकर किस प्रकार रहे हुये हैं ? इसे समझाया गया है। साथ ही वर्ण युक्त पंचपरमेष्ठी का ध्यान करने से उत्पन्न होने वाले अद्भुत फल का कथन किया गया है। दैहिक अंग पर, शरीर रक्षा के लिए पंच परमेष्ठी पदों के न्यास करने की विधि कही गई है और भी, जो सामान्य रूप से प्रतिदिन १२००० परिमाण प्रणव ऊँकार का जाप करता है उसको एक वर्ष में परमब्रह्म स्पष्ट हो जाता है, ऐसा निर्देश है।
इस उद्धृतांश में ऐसा भी सूचित किया गया हैं कि मुनि को उभयसन्ध्याओं में बारह-बारह की संख्या पूर्वक तीन बार प्राणायाम पूर्वक ध्यान करना चाहिए इसका निरंतर जप करने से परमेष्ठी के अक्षर परिमाण से कितना जाप हो सकता है वह भी पल, घडी, उच्छ्वास, प्रणव आदि से स्पष्ट किया है। आगे के पद्यों में किस ग्रह की शांति के लिए कौनसे पद का जप करना चाहिए? शांतिकर्म के लिए कौनसे पद का किस तिथि को जप करना चाहिए ? कौनसा ध्यान किस तत्त्व रूप है ? किस ग्रह की शांति के लिए कौन से तीर्थंकर की आराधना करनी चाहिए? इत्यादि का सुन्दर वर्णन प्रतिपादित है ।
इस प्रकार इस स्तोत्र में उक्त बीजपदों की उपासना पद्धति विविध प्रकार से एवं विविध दृष्टिकोणों से निरूपित की गई हैं।
मन्त्राधिराजकल्प
इसके कर्त्ता सागरचन्द्रसूरि है। यह रचना १२ वीं शती की है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट होता है कि यह कृति नमस्कारमंत्र की तांत्रिक साधना विधि से संबंधित है। इसकी पाण्डुलिपि एल. डी. इन्सटीट्यूट आफ इण्डोलाजी, अहमदाबाद' में उपलब्ध है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/557
मायाबीजकल्प
यह प्रति श्री सोहनलाल देवोत के निजी संग्रह में उपलब्ध है। उनकी सचना के अनुसार यह कृति जिनप्रभसूरि द्वारा संस्कृत गद्य में रचित है। इस कृति में मायाबीज 'ही' वर्ण को सिद्ध करने संबंधी विधि-विधान विवेचित हैं। इसमें सर्वप्रथम इसकी साधना के लिए अपेक्षित शुक्लपक्ष की पूर्णातिथि का तथा साधना के प्रारम्भिक विधि-विधानों का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् उसमें यह बताया गया है कि 'ऊँ ह्रीं नमः' इस मूल मन्त्र का एक लक्ष जप किस प्रकार करना चाहिए? इसमें मूल मन्त्र के साथ-साथ पल्लवों को लगाकर शान्ति, पुष्टि, वशीकरण, विद्वेषण, उच्चाटन संबंधी तांत्रिक विधि-विधानों का भी निरूपण किया गया है। टीका- इस मूल कृति के ऊपर जिनप्रभसूरि ने एक विवरण भी लिखा है। उसमें कुछ भाग संस्कृत में है तो कुछ मरूगुर्जर में है। यन्त्रराज
इसकी रचना मदनसूरि के शिष्य महेन्द्रसूरि ने की है। यह रचना शक् सं. १२६२ में हुई है। इसमें १७८ पद्य हैं।इसे यन्त्रराजागम और सक्यन्त्रराजागम' भी कहते हैं। यह कृति पाँच अध्यायों में विभक्त है। उन अध्यायों के शीर्षक नाम ये हैं- १. गणित २. यन्त्रघटना ३. यन्त्र रचना ४. यन्त्रशोधन और ५. यन्त्रविचारणा।
इसके पहले अध्याय में ज्या, क्रान्ति, सौम्य, याम्य आदि यन्त्रों का निरूपण है। दूसरे अध्याय में यन्त्र की रचना के विषय में विचार किया गया है। तीसरे में यन्त्र के प्रकार और साधनों का उल्लेख हुआ है। चौथे में यन्त्र के शोधन का विषय निरूपित है। पाँचवें में ग्रह एवं नक्षत्रों के अंश, शंकु की छाया तथा भौमादि के उदय और अस्त का वर्णन है। संक्षेपतः यह कृति यन्त्र विषयक विधि-विधान से सम्बन्धित है। टीका- इस पर मलयेन्दुसूरि ने टीका रची है। उसमें यन्त्र सम्बन्धी विविध कोष्टक आते हैं।
' यह कृति मलयेन्दुसूरि की टीका के साथ निर्णयसागर मुद्रणालय ने सन् १६३६ में प्रकाशित की है। २ इसका विशेष विवरण 'जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास' (ख. १) के उपोद्घात (पृ. ७६-७) में तथा 'यन्त्रराज का रेखादर्शन' नामक लेख में दिया गया है। यह लेख जैनधर्मप्रकाश (पृ. ७५ अंक ५-६) में प्रकाशित हुआ है। उद्धृत- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास- भा. ४
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558/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
यन्त्रराजरचनाप्रकार
यह सवाई जयसिंह की रचना है। यह कृति हमें प्राप्त नहीं हुई है। सम्भवतः यह कृति अन्य परम्परा से सम्बन्धित है। रक्तपद्मावतीकल्प
यह एक अज्ञातकर्तृक रचना' है। इसकी प्रकाशित पुस्तक में यह नाम नहीं देखा जाता है। इसमें रक्तपद्मावती पूजन की विधि वर्णित है। इस विधान के अन्तर्गत षट्कोणपूजा, षट्कोणान्तरालकर्णिकामध्यमभूमिपूजा, पद्माष्टपत्रपूजा, पद्मावती देवी के द्वितीय चक्र का विधान और पद्मावती का आहान-स्तव आदि विविध विषय आते हैं। रिष्टसमुच्चय एवं महाबोधिमन्त्र
यह कृति आचार्य दुर्गदेव द्वारा संवत् १०३२ के श्रावण शुक्ला एकादशी को मूल नक्षत्र में निर्मित की गयी है। इसमें मरणसूचक चिन्हों की जानकारी के साथ-साथ अम्बिका मन्त्र एवं कुछ अन्य मन्त्र भी दिये गये हैं। इन मन्त्रों की साधना विधि भी चर्चित है। इन्हीं आचार्य दुर्गदेव की एक कृति महोदधिमन्त्र भी है। ये दोनों ग्रन्थ प्राकृत भाषा में निर्मित हुए हैं। लघुनमस्कारचक्रस्तोत्रम्
प्रस्तुत रचना संस्कृत पद्य में है। इसमें कल ११५ श्लोक हैं। इसके रचयिता सिंहतिलकसरि है। यह स्तोत्र 'नमस्कार स्वाध्याय' भा. २ में संकलित है। इसका रचनाकाल १४ वीं शती का पूर्वार्ध है। यह स्तोत्र 'लघुनमस्कारचक्र की आलेखनविधि' से सम्बन्धित है यह अपने विषय की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस स्तोत्र का नाम लघुनमस्कारचक्र है, किन्तु इसका सम्यक् अवलोकन करने से स्पष्ट होता हैं कि यह स्तोत्र बृहन्नमस्कारचक्र के समान ही विशद एवं गूढ़ विषयवाला है।
___ इस कृति के प्रारम्भ में तीर्थकर परमात्मा, विबुधचन्द्रसूरि (रचनाकर्ता के गुरु) एवं यशोदेवमुनि (रचनाकार के दादा गुरु) को नमस्कार करके 'लघुनमस्कारचक्र' को कहने की भावना अभिव्यक्त की गई है। इसके पश्चात् नमस्कारचक्र की आलेखन विधि का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। इसमें चक्र को आठ वलय वाला बताया है। इसके साथ ही प्रत्येक वलय में लिखने योग्य मंत्र व गाथाएँ, मंत्रों की जाप विधि, मंत्रों का प्रभाव, मंत्र सिद्धि से होने वाले कार्य, इत्यादि का सुन्दर विवेचन
' यह कल्प उक्त नाम से 'भैरवपद्मावती कल्प' के तीसरे परिशिष्ट के रूप में (पृ. १५-२०) पर प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/559
किया गया है। नमस्कारचक्र का आलेखन किस कलम से, कौनसे पट्ट या पात्र पर, किन सामग्री के द्वारा- किस विधि पूर्वक करना चाहिए इसका भी निर्देश दिया गया है। तत्पश्चात् इस चक्र की साधना करने योग्य साधक के लक्षण बताते हुए निर्दिष्ट चक्र की ध्यानविधि का निरूपण किया गया है। ध्यान विधि के अन्तर्गत साधक को पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके बैठना चाहिए, गोबर से लींपी हुई तथा तीर्थजलों से सिंचित की हुई पवित्र भूमि पर बैठना चाहिए, शरीर का मंत्रपूर्वक रक्षा कवच बनाना चाहिए, दिग्बंधन करना चाहिए, सभी गणधरों का आह्वान करना चाहिए, समवसरणस्थ महावीर स्वामी को साक्षात् देखना चाहिए इत्यादि कृत्यों का उल्लेख किया गया है। तदनन्तर ध्यानविधि का फल बताया गया है। अन्त में कर जप यानि अंगुली पर जाप करने के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण सूचन किया गया हैं। इसमें लिखा हैं कि मोक्ष के लिए अंगुष्ठ द्वारा, अभिचार के लिए तर्जनी द्वारा, मारण के निमित्त मध्यमा द्वारा, शांति हेतु अनामिका द्वारा, और आकर्षण के लिए कनिष्ठा अंगुली द्वारा जप करना चाहिए और वह जप अक्षसूत्र की माला से करना चाहिए। स्पष्टतः यह स्तोत्र नमस्कारमंत्र की साधना करने वाले साधकों के लिए पठनीय एवं आराधना करने योग्य है। लघुविद्यानुवाद
यह यन्त्र, मन्त्र और तन्त्र विद्या का एक मात्र संदर्भ ग्रन्थ है। विद्यानुवाद आदि की हस्तलिखित प्रतों और हस्तलिखित गुटकों के आधार पर यह ग्रन्थ तैयार किया गया है। यह पाँच खण्डों में विभाजित है। इसके प्रथम खण्ड के प्रारम्भ में ऋषभादि चौबीस तीर्थंकर की वंदना की गयी है। तदुपरान्त मन्त्र साधक के लक्षण, सकलीकरण, मन्त्रसाधनविधि, मन्त्रजापविधि, मन्त्रशास्त्र में अकडमचक्र का प्रयोग, मुहर्त कोष्ठक, मन्त्र सिद्ध होगा या नहीं यह जानने की विधि, मंडलों का नक्शा आदि वर्णित है।
द्वितीय खंड में स्वर-व्यंजनों का स्वरूप एवं शक्ति, विभिन्न रोगों व कष्टों के निवारण हेतु ५०८ मंत्र विधिसहित दिये गये हैं। तृतीय खंड में यंत्र लिखने एवं बनाने की विधि, यंत्र की महिमा, छंद का भावार्थ, शकुन्दापन्दरिया यन्त्र, मनोकामनासिद्धि यन्त्र आदि विभिन्न यन्त्र चित्र सहित दिये गये हैं। चतुर्थ खंड में प्रत्येक तीर्थकर काल में उत्पन्न शासन रक्षक यक्ष-यक्षिणियों के चित्रसहित स्वरूप एवं होमविधान दिये गये हैं। पंचम खंड में विभिन्न तन्त्रों के माध्यम से इष्ट सिद्धि का वर्णन किया गया है, अतएव इसे तन्त्राधिकार भी कहा गया है।'
' उद्धृत- जैन धर्म और तान्त्रिक साधना, पृ. ३३५
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560/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
लब्धिपदफलप्रकाशकःकल्पः
यह कृति अज्ञातसूरि की है। यह संस्कृत गद्य में रचित अत्यन्त लघु आकार वाली है। प्रस्तुत कृति का ध्येय सूरिमन्त्र के पदों का माहात्म्य प्रदर्शित करना है। इस कृति में दो प्रकार की आम्नाय विधि कही गई हैं। प्रथम आम्नाय विधि देह सम्बन्धी रोगों के निवारण एवं विशिष्ट विद्याओं तथा शक्तियों के अर्जन से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत पैंतालीस प्रकार के लब्धिपद बताये गये हैं। इसके साथ ही इसमें प्रत्येक लब्धिपद का फल भी बताया गया है अर्थात् कौनसा लब्धिपद किस रोग का नाश करता है, किस शक्ति को प्रगट करता है और कौनसी विद्या प्रदान करता है इत्यादि। इन लब्धियों को सिद्ध करने के लिए १०८ बार जाप करना चाहिए, ऐसा निर्देश किया गया है। द्वितीय आम्नायविधि फल विशेष का प्रकाशन करने वाली है। इसमें मुख्य रूप से लब्धिपदों की साधना विधि कही गई हैं। लब्धिफलप्रकाशककल्प
यह कृति किसी अज्ञात आचार्य द्वारा रचित है इसमें विभिन्न लब्धि पदों के जप से किस-किस रोग का उपशमन होता है एवं विशिष्ट प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त होती है, इसका विवरण दिया गया है। वर्धमानविद्याकल्प
इसके कर्ता गणित-तिलक के वृत्तिकार सिंहतिलकसरि है। ये यशोदेवसूरि के प्रशिष्य एवं विबुधचन्द्र के शिष्य हैं। यह रचना सन् १२६६ की है। यह रचना अनेक अधिकारों में विभक्त है। इसके प्रारम्भ के तीन अधिकारों में अनुक्रम से ८६, ७७ और ३६ पद्य हैं। इसमें आचार्य, उपाध्याय, वाचनाचार्य तथा आचार्य कल्प मुनि के साधना योग्य विद्याओं का उल्लेख हैं।' वर्धमानविद्याकल्प
__इस नाम की एक कृति यशोदेव ने भी लिखी है तथा एक कृति अज्ञातकर्तृक है। एक कृति में ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों से संबंधित चतुर्विंशति विद्याओं का उल्लेख है।
' यह कृति सिंहतिलकसूरि की वृत्ति के साथ सम्पादित होकर 'गायकवाड ओरिएण्टल सिरीज' से सन् १६३७ में प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/561
वर्धमानविद्याकल्पः
यह कृति प्रताकार में प्रकाशित है तथा अत्यन्त लघु है। इसमें विविध प्रकार की वर्धमान विद्याओं एवं उनकी साधना विधियों का उल्लेख किया गया है। इस कृति के प्रारम्भ में खरतरगच्छीय जिनप्रभसूरि रचित 'वर्धमान विद्या' का स्तवन दिया गया है वह प्राकृत के सत्रह पद्यों में निबद्ध है। इस स्तवन में जिनप्रभसूरि की आम्नायानुसार वर्धमान विद्या की साधना विधि एवं उसकी महिमा
का वर्णन किया गया है। शेष कृति संस्कृत गद्य में हैं और वाचकचन्द्रसेन द्वारा उद्धृत वर्धमानविद्याकल्प से सम्बन्धित है।
इसमें सर्वप्रथम वर्धमान विद्या की साधना प्रारम्भ करने के पूर्व करने योग्य १० चरण बताये गये हैं वे ये हैं- १. भूमिशुद्धि २. अंगुलीन्यास ३. मंत्रस्नान ४. कल्मषदहन ५. हृदयशुद्धि ६. दोनों हाथों की अंगुलियों में अर्हदादि का न्यास ७. हृदय, कंट, तालु आदि स्थानों पर शून्य पंचक न्यास ८. 'कुरु, कुल्ला' से रक्षा कवच का विधान ६. समान्य अर्घ का विधान और १०. मंडलोद्घाटन। इसके साथ ही वर्धमान विद्या का १०८ बार जाप करने सम्बन्धी निर्देश हैं तथा प्रस्तुत विद्या की साधना में बहुशः प्रयुक्त होने वाली आहान आदि छह मुद्राओं के स्वरूप का निरूपण हैं।
इसके पश्चात् वज्रस्वामिकृत तीन प्रकार की वर्धमान विद्या एवं उसकी जाप विधि दी गयी है। तदनन्तर भिन्न-भिन्न अम्नाय की अपेक्षा लगभग नौ प्रकार की वर्धमानविद्या का उल्लेख हुआ है। इनकी साधनाविधि, एवं इनसे साधित मन्त्रों के प्रभाव का भी निरूपण किया गया है।
स्पष्टतः यह कृति लघु होने पर भी वर्धमानविद्या और उसकी साधनाविधि की विशद सामग्री प्रस्तुत करती हैं। इसमें वर्णित विद्याएँ मुख्य रूप से वाचनाचार्यउपाध्याय एवं प्रवर्तिनी पदधारियों के लिए साधने योग्य हैं चूंकि वर्धमान विद्या का पट्ट इन पदधारियों को ही दिया जाता है।
____ इस कृति के रचनाकार कौन है? इसकी हमें जानकारी नहीं मिली है इसके अन्त में इतना मात्र सूचन हैं कि यह कृति वि.सं. १८८१ में, आसोज शुक्ला ७ के दिन समाप्त हुई। विद्यानुवाद अंग
इस ग्रन्थ का निर्देश भी हमें जिनरत्नकोश में मिलता है। यह हस्तिमल द्वारा रचित है इसका ग्रन्थाग्र १०५० निर्देशित हैं यह ग्रन्थ मूडविद्रि के भट्टारक चारुकीर्तिजी महाराज के निजी भण्डार की सूची में वर्णित है।
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562/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
विद्यानुवाद
जिनरत्नकोश में विद्यानुवाद के नाम से अन्य दो ग्रन्थों का निर्देश हैं। इसमें एक विद्यानुवाद के कर्ता मल्लिषेण उल्लिखित हैं। चन्द्रप्रभ जैन मंदिर भूलेश्वर बम्बई, पद्मराग जैन व्यक्तिगत भंडार मैसूर तथा श्रवणबेलगोला के भट्टारकजी के निजी भण्डार की सूचियों में इसका उल्लेख मिलता है।
उसमें दूसरा विद्यानुवाद नाम का ग्रन्थ इन्द्रनन्दि गुरु द्वारा विरचित बताया गया है। इसका निर्देश भी पद्मराग जैन, मैसूर के निजी भण्डार की सूची में उल्लिखित है। जहाँ तक जानकारी है, ये ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित हैं। अतः इनके संबंध में अधिक जानकारी दे पाना सम्भव नहीं है। किन्तु इतना निश्चित है कि इन कृतियों में मंत्र-तंत्र विषयक साधना की विधियाँ अवश्य हैं। विद्यानुवाद
यह विविध यंत्र, मंत्र एवं तंत्र की संग्रहात्मक कृति है। यह संग्रह सुकुमारसेन नामक किसी भट्टारक ने किया है। इसमें 'विज्जाणुवाय' पूर्व में से अवतरण दिये गये हैं। इस संग्रह में कहा है कि ऋषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की एक-एक शासनदेवी के सम्बन्ध में एक-एक कल्प की रचना की गई थी। सुकुमारसेन ने अम्बिकाकल्प, चक्रेश्वरीकल्प, ज्वालामालिनीकल्प और भैरवपद्मावतीकल्प ये चार कल्प देखे थे।' विद्यानुवाद
भैरवपद्मावतीकल्प की भूमिका में पं. चन्द्रशेखर शास्त्री ने विद्यानुवाद का निर्देश किया है। पं. चन्द्रशेखर शास्त्री के अनुसार इसके संग्रह कर्ता भट्टारक कुमारसेन है। इस कृति में विविध मंत्रों एवं यंत्रों का संग्रह है साथ ही उन मंत्रों
और यंत्रों की साधनाविधि भी उल्लिखित है। सामान्यतया इसमें तेईस परिच्छेद हैं - १. मन्त्रलक्षण २. विधिमंत्र ३. लक्ष्म ४. सर्वपरिभाष ५. सामान्य मंत्र साधन ६. सामान्य यन्त्र ७. गर्भोत्पत्ति विधान ८. बालचिकित्सा ६. ग्रहोपसंग्रह १०. विषहरण ११. फणितंत्र मण्डल्याद्य १२. पनयोरूजांशमनं १३-१५. कृते खग्वद्योवधः १६. विधान उच्चाटन १७. विद्वेषन १८. स्तम्भन १६. शान्ति २०. पुष्टि २१. वश्य २२. आकर्षण २३. मर्म आदि।
' यह परिचय ‘भैरवपद्मावतीकल्प' की प्रस्तावना (पृ. ८) के आधार पर दिया गया है।
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विद्यानुशासन
यह ग्रन्थ जिनसेन के शिष्य मल्लिषेण द्वारा रचित है। इसमें २४ अध्याय हैं और लगभग ५००० मंत्रों का संग्रह है यह ग्रन्थ कैटलॉग ऑफ संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्टस् सी.पी.एम. बरार में उल्लिखित है। अन्य भंडारों में भी इसके उपलब्ध होने की सूचना मिलती है। यह बृहद्काय ग्रन्थ होना चाहिए। साथ ही अप्रकाशित भी है। विषापहार स्तोत्र
यह ४० श्लोकों की एक लघु कृति है। इस स्तोत्र के रचयिता महाकवि धनंजय हैं जो लगभग सातवीं शती में हुए हैं। यह स्तोत्र मंत्र प्रधान है। इस स्तोत्र पर भी मंत्र और यंत्र गर्भित अनेक टीकाएँ मिलती हैं। श्वेताम्बर परम्परा में यह स्तोत्र विशेष रूप से प्रचलित है। सरस्वतीकल्प
___ यह भैरवपदमावतीकल्प के रचयिता मल्लिषेण की कति है। इसमें ७८ श्लोक और कुछ गद्य भाग है। इसमें सरस्वती की साधना विधि दी गई है। इस कृति का अपरनाम भारतीकल्प है। इसके प्रथम श्लोक में ग्रन्थकर्ता ने सरस्वतीकल्प कहने की प्रतिज्ञा की है, जबकि तीसरे में भारतीकल्प की रचना करने का निर्देश है। ७८ वें श्लोक में जिनसेन के शिष्य मल्लिषेण के द्वारा भारतीकल्प रचा गया है, ऐसा भी उल्लेख है। इसमें सामान्यतया पूजाविधि, शान्तिकयंत्र, वश्य-यंत्र, रंजिका-द्वादशयंत्रोद्धार, सौभाग्य रक्षा, आज्ञाक्रम एवं भूमिशुद्धि आदि विषयक यंत्र वर्णित है। सरस्वतीकल्प
इस नाम की एक-एक कृति अर्हद्दास और विजयकीर्ति ने लिखी है। इसमें सरस्वती की साधनाविधि का उल्लेख है। सरस्वती देवी की महिमा, स्तुति, आराधना एवं उनकी साधना विधि से सम्बन्धित अन्य स्तुति-स्त्रोत्रादि भी प्राप्त होते हैं उनमें से कुछ नाम ये हैं - १. सरस्वतीपूजन - इसका परिचय ज्ञात नहीं है। २. सरस्वतीपूजास्तुति - यह रचना जिनप्रभसूरि ने संस्कृत में लिखी है। ३. सरस्वती भक्तामरस्तोत्र - यह रचना 'भक्तामर पादपूर्ति स्तोत्र' के नाम से
' यह कल्प 'सरस्वतीमंत्रकल्प' के नाम से श्री साराभाई नवाब द्वारा प्रकाशित भैरवपद्मावतीकल्प के ११ वें परिशिष्ट के रूप में (पृ. ३१-८) मुद्रित हुआ है।
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564/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
धर्मसिंह के शिष्य क्षेमकर्मण ने की है। यह कृति ‘आगमोदय-समिति, मुंबई' से प्रकाशित है। ४. सरस्वतीषोडशक - इसके सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध नहीं है। ५. सरस्वती स्तोत्र - इस नाम की तीन रचनाएँ हैं एक सरस्वतीस्तोत्र आशाधरजी द्वारा रचित है। दूसरा स्तोत्र बप्पभट्टी ने संस्कृत के १३ पद्यों में रचा है। तीसरा अज्ञातकर्तृक है।' सिद्धयंत्रचक्रोद्धार
यह रत्नशेखरसूरि रचित 'सिरिवालकहा' से उद्धृत किया हुआ अंश है। इसमें सिरिवालकहा की १६६ से २०५-१० गाथाएँ हैं। इसका मूल विज्जप्पाय नामक दसवाँ पूर्व है।' टीका - इस पर चन्द्रकीर्ति ने एक टीका रची है।
सुकृतसागर
इस ग्रन्थ के कर्ता सोमसुन्दरसूरि के शिष्य रत्नमण्डनगणि है। इनका सत्ता समय १५ वीं शती है। हमें सुकृतसागर नामक समग्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है। केवल नमस्कारमंत्र की स्मरणविधि एवं उसकी महिमा को प्रस्तुत करने वाला अंश नमस्कार स्वाध्याय भा. २ में से प्राप्त हुआ है। यह अंश सुकृतसागर अपरनाम 'पेथड़चरित्र' के पंचमतरंग से उद्धृत किया गया है। यह ग्रन्थ 'श्री आत्मानंद जैन सभा, भावनगर' से वि.सं. १६७१ में प्रकाशित हुआ है। इनके द्वारा विरचित जल्प-कल्पलता नामक कवित्वपूर्ण ग्रन्थ सुप्रसिद्ध है।
ग्रन्थ के इस अंश में नमस्कारमंत्र की महिमा और उस मंत्र के स्मरण से अनेक प्रकार के उपद्रवों से होने वली उपशान्ति का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही यह बताया गया हैं कि नमस्कारमंत्र का विधिपूर्वक स्मरण करने से व्यक्ति सम्मोहन, उच्चाटन, आकर्षण, कामण व स्तंभन आदि शक्तियों का स्वामी बन जाता हैं
इसके अंत में 'नमस्कारमंत्र जापविधि का संक्षिप्त रूप से निर्देश दिया गया है। स्पष्टतः यह अंश नमस्कारमन्त्र के माहात्म्य का सम्यक् निरूपण करता है।
' जिनरत्नकोश पृ. ४२७
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सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चयः
जैसा कि इस रचना के नाम से ही स्पष्ट होता है कि यह अनेक सूरिमंत्रों का संग्रह ग्रन्थ है। इन सूरिमंत्रों के रचयिता अनेक पूर्वाचार्य रहे हैं। इनका संग्रह मुनि श्री जम्बूविजयजी ने किया है। यह ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित है। यहाँ हम भाग ही प्रथम और भाग द्वितीय में संकलित सभी कृतियों की विस्तृत चर्चा न कर, केवल उनका नामनिर्देश ही कर रहे है। इतना अवश्य सम्भव हैं कि है। इनमें से उपलब्ध कृतियों की चर्चा अलग से कर सकते हैं। '
सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चय ग्रन्थ के प्रथम भाग में संकलित कृतियाँ निम्न हैं सिंहतिलकसूरि विरचित मंत्रराजरहस्य, जिनप्रभसूरि रचित सूरिमंत्रबृहत्कल्प विवरण, राजशेखरसूरि विरचित सूरिमंत्रकल्प, मेरुतुंगसूरि विरचित सूरिमंत्रमुख्यकल्प
प्रस्तुत ग्रन्थ के दूसरे भाग में संकलित की गई कृतियाँ अधोलिखित हैं १. सूरिमंत्रकल्प २. दुर्गपदविवरण ३. लब्धिपदफलप्रकाशककल्प ४. सूरिमंत्र स्मरण विधि ५. संक्षिप्त सूरिमंत्र विचार ६. सूरिमंत्र संग्रह ७. सूरिमंत्र की जापविधि एवं पटालेखनविधि ८. सूरिविद्यास्तोत्र ६. सूरिमंत्रसाधनाविधि फलादिवर्णनकल्प १०. सूरिमंत्र साधनाक्रम ११. सूरिमंत्रस्तव १२. सूरिमंत्राधिष्ठायक स्तुति १३. सूरिमंत्र के चौदह आम्नाय १४. मुनिसुंदरसूरि आदि पूर्वाचार्यों द्वारा विरचित सूरिमंत्र माहात्म्यदर्शक विविध स्तोत्र १५ प्रवचनसारमंगल १६. विविध परिशिष्ट ।
सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चय दूसरा भाग सात परिशिष्टों से युक्त हैं। प्रथम परिशिष्ट मंत्र पदों से युक्त हैं उसमें १. सिंहतिलकसूरिविरचित मंत्रराजरहस्य नामक ग्रन्थ में वर्णित सूरिमंत्र के तेरह प्रकार, २ . जिनप्रभरचित सूरिमंत्रबृहत्कल्प विवरण के आधार पर सूरिमंत्र का स्वरूप, ३. धर्मघोष आम्नाय के तेरह पद, ४ . जिनप्रभसूरि के निज आम्नाय के अनुसार सूरिमंत्र के पद, ५. मलधारगच्छ के अनुसार सूरिमन्त्र, ६. अचलगच्छ के अनुसार सूरिमंत्र, ७. अज्ञातसूरिकृत सूरिमंत्रकल्प आदि प्रमुख रूप से प्रतिपादित है ।
-
द्वितीय परिच्छेद में लब्धियों का स्वरूप दिया गया है वे लब्धिपद अग्रलिखित ग्रन्थों के आधार से दिये गये हैं वे इस प्रकार है :- १. मंत्रराजरहस्य और षटखण्डगम के लब्धि पदों की तुलना, २ . आवश्यकसूत्र - मलयगिरिवृत्ति के अन्तर्गत आये हुए कुछ लब्धिपदों के स्वरूप का वर्णन, ३. योगशास्त्र- स्वोपज्ञ वृत्ति के अन्तर्गत आये हुए लब्धिपदों के स्वरूप का वर्णन, ४. षट्खण्डागम चतुर्थ
,
यह ग्रन्थ वि.सं. २०२४, 'जैन साहित्य विकास मण्डल, वीलेपारले, मुंबई' से प्रकाशित हुआ
है।
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566/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
खण्ड में धवलटीका के अन्तर्गत आये हुए लब्धिपदों के स्वरूप का वर्णन, ५. तत्त्वार्थराजवार्तिक के अन्तर्गत आये हुए लब्धिपदों के स्वरूप का वर्णन,
तृतीय परिशिष्ट के अन्तर्गत सूरिमंत्रकल्पसमुच्चय में निर्दिष्ट किये गये विचार तथा शब्दों की पारस्परिक तुलना की गई है। चतुर्थ परिशिष्ट में सूरिमंत्र के आम्नायों का संग्रह किया गया है। पंचम परिशिष्ट में विशिष्ट शब्दों का प्रतिपादन है। षष्ठम परिशिष्ट में सोलह आचार्यों एवं उनकी बारह प्रतियों का परिचय उल्लिखित है। सप्तम पिरिशिष्ट यंत्र पट्ट से सम्बन्धित है। इसमें सूरिमन्त्र की साधनाविधि से सम्बन्धित कुछ कृतियों के नामोल्लेख प्राप्त हुये हैं उनमें से कुछ अनुपलब्ध हैं तो कुछ नामसाम्यवाली हैं तो कुछ भिन्न-भिन्न नामवाली होने पर भी एक ही रचनाकार से सम्बद्ध रखती हैं। सूरिमन्त्र से सम्बन्धित निम्न कृतियाँ हमें प्राप्त नहीं हो सकी हैं प्राप्त सामग्री के आधार पर इन कृतियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - सूरिपदस्थापनाविधि- यह कृति अज्ञातकर्तृक है। संभव है कि इसमें सरिमन्त्र की साधनाविधि के साथ-साथ सूरिपद (आचार्यपद) की स्थापना विधि वर्णित हैं। सूरिमन्त्र- सूरत भंडार की सूची में इस कृति का नाम उल्लेखित है। इस कृति पर जिनप्रभसरि ने 'प्रदेशविवरण' नामक वृत्ति भी रची है। सरिमन्त्रकल्प- यह रचना देवसरि की है। और सूरिमन्त्रकल्पसारोद्धार के समान प्रतीत होती है। सूरिमन्त्रगर्भितलब्धिस्तोत्र- यह रचना अज्ञातकर्तृक है। जैन श्वेताम्बर कान्फरेन्स मुंबई पायधुनी से प्रकाशित है। सूरिमन्त्र प्रदेश विवरण- यह जिनप्रभसूरि की रचना हैं देखे सूरिमन्त्र। सूरिमन्त्र विशेषाम्नाय- यह कृति अंचलगच्छीय मेरुतुंग की है इसका दूसरा नाम सूरिमन्त्रकल्पसारोद्धार है। सूरिविद्याकल्प- यह रचना सूरिमन्त्रप्रदेशविवरण के समान है। यह कृति खरतरगच्छीय जिनसिंहसूरि के शिष्य जिनप्रभसूरि की है। सूरिविद्याकल्पसंग्रह- यह अज्ञातकर्तृक रचना है इस कृति पर देवाचार्यगच्छ के एक शिष्य द्वारा 'दुर्गप्रदेशविवरण' लिखा गया है। सूरिमन्त्रकल्प
इसके कर्ता देवाचार्यगच्छीय आचार्य सूर्य के शिष्य है। इसमें लेखक ने अपना नाम स्पष्ट नहीं किया है। इस कृति में क्लिष्ट पदों को स्पष्ट किया गया है। साथ ही साधनाविधि का भी विवेचन किया गया है। यह कृति सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चय द्वितीय भाग में पृ. १६६ से २१२ तक में प्रकाशित है।
' जिनरत्नकोश, पृ. ४५१
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 567
सूरिमुख्यमन्त्रकल्प
यह कृति अचलगच्छीय मेरुतुंगसूरि द्वारा ई. यह मुख्यतः संस्कृत प्राकृत मिश्रित पद्य में निबद्ध है। है। इस कृति के नाम से सुज्ञात होता हैं कि इसमें विशिष्ट प्रकार से दी गई है।
सन् १८८६ में निर्मित है। यह ५५८ श्लोक परिमाण सूरिमन्त्र की साधना विधि
इस ग्रन्थ के प्रारंभ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ नियोजन रूप चार श्लोक दिये गये हैं। उनमें श्री पार्श्वप्रभु एवं गौतमगुरु को नमस्कार करके गुरोपदिष्ट सूरिमन्त्र का विवेचन करने की इच्छा प्रगट की गई है। इसके साथ ही अचलगच्छीय नाम से विख्यात यह विधिपक्ष चक्रेश्वरी देवी के सान्निध्य के द्वारा इस साधना में निरन्तर आगे बढ़ता रहे यह भावना की गई है। यह सूरिमन्त्र आर्यरक्षितसूरि के द्वारा पूर्वकाल में प्रकाशित किया गया था। उसको ही स्व सम्प्रदाय के अनुसार इस कृति में गुम्फित करने की बात कही गई है । अन्त में प्रशस्ति रूप दो श्लोक कहे गये हैं। उनमें ग्रन्थकर्त्ता का नामोल्लेख किया गया है। साथ ही ग्रन्थ का श्लोक परिमाण और ग्रन्थ रचना का प्रयोजन बताया गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु विस्तृत है लेकिन हम केवल उन विषयों के नामों का ही उल्लेख करेंगे चूंकि तत्सम्बन्धी प्रायः सभी विषयों का सामान्य वर्णन सूरिमन्त्र की अन्य कृतियों में कर चुके हैं। प्रस्तुत कृति में विवेचित छब्बीस विषयों के नामों के निर्देश इस प्रकार हैं।
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१. पंचपीठ का स्वरूप २. उपाध्यायपदस्थापना के अवसर पर दिया जाने वाला वर्धमान विद्या मन्त्र ३. स्थविरपदस्थापना के समय सुनाया जाने वाला मन्त्र ४. प्रवर्त्तकपद स्थापना के समय सुनाया जाने वाला मन्त्र ५. गणावच्छेदकपदस्थापना के समय दिया जाने वाला मन्त्र ६. वाचनाचार्य और प्रवर्त्तिनीपदस्थापना के समय सुनाया जाने वाला मन्त्र, ७. पण्डितमिश्रमन्त्र, ८. ऋषभ विद्या, ६. सूरिमन्त्र की साधनाविधि, १०. प्रथम पीठ की साधनाविधि ११. द्वितीय पीठ की साधना विधि, १२. तृतीय पीठ की साधना विधि १३. चतुर्थ पीठ की साधनाविधि, १४. पंचम पीठ की साधनाविधि, १५. सूरिमन्त्र के स्मरण का फल, १६. सूरिमन्त्र पटालेखन विधि १७. सूरिमन्त्र ध्यान करने की विधि और सूरिमन्त्र की जाप विधि । १८. आठ प्रकार की विद्याएँ और उनका फल, १६. सूरिमन्त्र स्मरण विधि, २०. सूरिमन्त्र अधिष्ठायक स्तुति, २१. अक्षादि विचार २२ स्तम्भनादि आठ प्रकार की क्रियाओं का विचार, २३. चार प्रकार के मन्त्र और मन्त्र स्मरण की रीति, २४. मुद्राओं का वर्णन २५. पंचाशत लब्धिपदों का वर्णन और २७ विद्यामन्त्र का लक्षण । यह ग्रन्थ ‘सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चय' के साथ प्रकाशित है।
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568/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
सूरिमन्त्रसंग्रहः
यह कृति अज्ञातसरि की है ऐसा कृति नाम के साथ उल्लेख किया गया है। यह संस्कृत गद्य में रचित हैं यद्यपि इसमें कुछ प्राकृत गाथाएँ अवतरित की गई हैं। इसमें चार प्रकार के सूरिमन्त्रों का निरूपण हुआ हैं यह इस कृति के नाम से भी स्पष्ट होता है। तीन सूरिमन्त्र पाँच प्रस्थान से सम्बन्धित है तथा एक सूरिमन्त्र की विधि छह प्रस्थान से युक्त हैं। इसके रचनाकाल आदि का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिला है। सूरिमन्त्रस्य विविधाःप्रकाराः
___'सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चय' भाग द्वितीय जो जम्बूविजयजी द्वारा संपादित हैं, उसमें सूरिमन्त्र की साधना विधि से सम्बन्धित बीस प्रकार के लगभग स्तव-स्तोत्र-कल्प- लब्धिपद प्रस्थानपद आदि उल्लिखित हैं और वे प्रायः भिन्न-भिन्न आम्नाय से सम्बद्ध है, उनके नामनिर्देश अधोलिखित हैं - १. श्री मानदेवसूरिकृत- सूरिमन्त्रस्तव २. श्री मानदेवसूरिकृत- सूरिमन्त्राधिष्ठायक स्तुति ३. पूर्णचन्द्रसूरिविरचित- सूरिविद्याध्यान-फलादि-व्यावर्णक स्तोत्र ४. मेरुतुंगसूरिसमुदृत- सूरिमन्त्रसाधनाविधि-फलादिव्यावर्णन पर कल्प ५. कमलाकरसूरि विरचित- श्री सूरिमन्त्र साधनाक्रम ६. सूरिमन्त्र का स्वरूप, जपविधि और पटालेखनविधि ७. श्री रत्नसिंहसूरि द्वारा निर्मित- लब्धिपद ८. हरिप्रभाचार्य द्वारा वर्णित- लब्धिपद ६. अज्ञातसूरिकृत- सूरिमन्त्र १०. श्री सोमविमलसूरि लिखित- सूरिमन्त्र ११. श्री अर्वाचीनसूरिमन्त्र- पटानुसार लिखित १२. कनकविमलसरि वर्णित- सरिमन्त्र १३. ललितदेवसूरिकृत- लब्धिपद १४. तेरहलब्धिपदों से युक्त- सूरिमन्त्र विशेष १५. पन्द्रहलब्धिपदों से युक्त- सूरिमन्त्र विशेष १६. श्री शालिसूरि के लब्धिपद १७. सोलहलब्धिपदों से युक्त- सूरिमन्त्र विशेष १८. श्री सीमंधरस्वामी द्वारा उपदिष्ट, अम्बिकादेवी द्वारा प्रदत्त, श्रीमानदेवसूरि की परम्परा में प्रवृत्त सूरिमन्त्र १६. बियालीस लब्धिपदों से युक्त सूरिमन्त्र २०. पच्चीय लब्धिपदों से युक्त सूरिमन्त्र २१. इक्यावन लब्धिपदों से युक्त सूरिमन्त्र विशेष।
उपर्युक्त सूरिमन्त्रों के उल्लेख करने का कारण यह हैं कि ये विधि-विधान से सम्बन्ध रखने वाले हैं। सूरिमन्त्र की साधना विधि-विधान पूर्वक ही की जाती है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/569
सूरिमन्त्रपटालेखनविधि
__ इस कृति का संशोधन तपागच्छीय मोहनसरिजी के शिष्य पं. प्रीतिविजयजी ने किया है।' यह कृति संस्कृत मिश्रित प्राकृत गद्य में है। इसमें गुजराती भाषा का भी प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत कृति में मलधारीगच्छीय सम्प्रदायानुसार सूरिमन्त्र पट्टालेखन की विधि दर्शायी गयी है। सूरिमन्त्र पट्टालेखन से तात्पर्य है- प्रमाणोपेत एक ऊनी वस्त्र खण्ड या काष्ठ निर्मित खण्ड (पट्ट) पर यथा निर्दिष्ट मन्त्रों का आलेखन करना। यह सूरिमन्त्र पट्ट, आचार्यपद प्रदान करने के बाद, नृतन आचार्य को गुरु द्वारा समर्पित किया जाता है। तदनन्तर नूतन आचार्य इस पट्ट के समक्ष सूरिमन्त्र की साधना करते हैं।
__ इस कृति के प्रारम्भ में सृरिमन्त्र के पाँच पीट दिये गये हैं तदनन्तर सूरिमन्त्रपट्ट को विरचित करने एवं उस पट्ट पर मन्त्रालेखन करने की विधि बताई गई है। वह इस प्रकार है - सर्वप्रथम विरचित सूरिमंत्र पट्ट पर षट्कोण का बनाये। फिर चक्र के मध्य में मन्त्र लिखकर उस मन्त्र के बीच में भगवान महावीरस्वामी या गौतमस्वामी की मूर्ति स्थापित करें। फिर उसके दोनों ओर मन्त्रालेखन करें। तदनन्तर षट्कोण वाले चक्र में प्रत्येक कोण में मन्त्र लिखें। तत्पश्चात् दक्षिणोत्तर दिशा वाले चार कोणों में बारह पर्षदा की रचना करें। उसके बाद एक वलय करके उसमें मन्त्रपद लिखें फिर दूसरा वलय करके उसमें कमल की पंखुडिया बनायें। उस वलय के बाहर चार कोनों में चार देवियों की रचना करें। उसके बाद चार दरवाजे वाला पहला गढ़ मणिरत्नों से विरचित करें, फिर प्रथम गढ़ के दाँयी एवं बाँयी और मन्त्र पद लिखें। तत्पश्चात् समवसरण का दूसरा गढ़ स्वर्ण से निर्मित करें तथा उस गढ़ के चारों दिशाओं में मन्त्रपद लिखें। तदनन्तर समवसरण का तीसरा गढ़ चाँदी का बनाये, तथा उस गढ़ के चारों ओर भी मन्त्रपद लिखें। इस प्रकार समवसरण की रचना हो जाने के पश्चात् उसके बाहर एक चबूतरा बनायें। चबूतरे के चारों कोनों में दो-दो बावडिया निर्मित करें। प्रत्येक बावड़ी में जातीय वैरभाव वाले तिर्यच प्राणियों का आलेखन करें। फिर चबूतरे की प्रत्येक दिशा में निर्दिष्ट मन्त्रपद लिखें। इस पट्टालेखन के समय लिखने योग्य मन्त्रपदों हेतु मूलकृति का अवलोकन करना आवश्यक है। हम विस्तारभय से मन्त्रपदों का निर्देश नहीं कर पाये है।
इस कृति में मन्त्रआलेखनविधि के सिवाय कुछ मन्त्रपदों की जापविधियाँ जापसंख्याएँ एवं जापसाधना का फल भी बताया गया है। प्रस्तुत कृति के अन्त में रचनाकार-रचनाकाल एवं रचनास्थल का निर्देश करते हुए कहा गया हैं कि यह ग्रन्थ खानदेश के शिरपुर नगर के पद्मप्रभु की पावन छत्रछाया में वि.सं. १६७८ की
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570 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
पौषपूर्णिमा के दिन आचार्य जयसूरि के द्वारा लिखा गया है। इसके पश्चात् सूरिमन्त्र अधिष्ठायक सम्बन्धी दो स्तोत्र और एक स्तोत्र गौतमस्वामी का दिया गया है। सूरिमन्त्रस्मरणविधि
प्रस्तुत कृति अत्यन्त लघु है लेकिन राजगच्छीय शाखा के आचार्यों के लिए परम उपयोगी है। इस कृति में राजगच्छीय श्री हंसराजसूरि के पट्ट पर विराजित होने वाले विजयप्रभसूरि तथा उनकी परम्परा के अन्य सूरीवरों द्वारा जिस सूरिमन्त्र की साधना की गई वही सूरिमन्त्र ही यहाँ प्रतिपादित है। यह कृति मुख्यतः संस्कृत गद्य में है। यह रचना अपने नाम के अनुसार सूरिमन्त्र के स्मरण करने की विधि से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत तेरह नान्दीपद दिये गये हैं । जाप करने की विधि कही गई है तथा साधना करने योग्य गणधरवलययन्त्रपट्ट का विवरण भी प्रस्तुत किया गया है।
सूरिमन्त्रनित्यकर्म
सूरिमन्त्रनित्यकर्म नामक यह कृति मलधारीगच्छीय राजशेखरसूरि की है। यह कृति संस्कृत गद्य में निबद्ध है। किन्तु बीच में पाँच पद्य प्राकृत के हैं। इस कृ ति में मलधारीगच्छीय संप्रदायानुसार सूरिमन्त्र का विचार किया गया है।
इसमें सूरिमन्त्र से सम्बन्धित दस द्वार कहे गये हैं
प्रथम द्वार मुद्राविधि से सम्बद्ध है । इस द्वार में सत्रह प्रकार की मुद्राओं का स्वरूप दिया गया है जो सूरिमन्त्र की साधना में विशेष उपयोगी बनाती हैं। द्वितीय द्वार पहली पीठ की साधना विधि का विवेचन करता है। इस द्वार में पीठ का नाम, पीठ के लब्धिपद, लब्धिपदों के अक्षर, प्रथमपीठ की अधिष्ठात्री देवी का नाम, तपसाधना की विधि, आसन- दिशा आदि का वर्णन किया गया है। तृतीय द्वार दूसरे पीठ की साधना विधि का प्रतिपादन करता है । इस द्वार का प्रतिपादित विषय पूर्ववत् जानना चाहिए किन्तु पीठनाम, लब्धिपद, देवी नाम आदि को लेकर अवश्य अन्तर है। चतुर्थ द्वार तीसरी पीठ की साधना विधि का विवरण प्रस्तुत करता है । इस द्वार के अन्तर्गत तीसरी पीठ की साधना के लब्धिपद, जापसंख्या, आसन-दिशा आदि का निर्देश किया गया है। पंचम द्वार में चौथी पीठ की साधना विधि कही गई है । षष्टम द्वार में पाँचवी पीठ की साधना विधि निरूपित है। सप्तम द्वार पाँचपीठ से युक्त सूरिमन्त्र की साधना विधि से सम्बन्धित है। अष्टम द्वार में देवी देवताओं को आमन्त्रित करने की विस्तृत विधि कही गई हैं। साथ ही इसमें बीस प्रकार के विधान बताये गये हैं जो देवी-देवताओं को आमन्त्रित
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/571
करने से सम्बन्धित हैं। नवम द्वार में देवी-देवताओं को आमन्त्रित करने की संक्षिप्त विधि प्रतिपादित है। दशम द्वार में मन्त्र की महिमा आदि का वर्णन किया गया है।
___ अन्त में पाँचपीठ के लब्धिपदों की सम्मिलित अक्षरसंख्या और प्रत्येक पट्ट की अलग-अलग अक्षरसंख्या निरूपित हैं। सूरिमंत्र
इसके सम्बन्ध में विधिमार्गप्रपा' (पृ. ६७) में कथन हैं कि यह सूरिमंत्र भगवान महावीर स्वामी ने गौतमस्वामी को २१०० अक्षर-परिमाण दिया था और गौतमस्वामी ने उसे ३२ श्लोकों में गूंथा था। यह मन्त्र धीरे-धीरे घटता जा रहा है और दुःप्रसह मुनि के समय में ढ़ाई श्लोक-परिमाण रह जायेगा।
इस मंत्र में पाँच पीठ हैं १. विद्यापीठ २. महाविद्या-सौभाग्यपीठ ३. उपविद्या लक्ष्मीपीठ ४. मंत्रयोग-राजपीठ और ५. सुमेरूपीठ प्रदेशविवरण - इसे सूरिविद्याकल्प भी कहते हैं। इसकी रचना जिनप्रभसूरि ने की है। संभवतः यह सूरिमन्त्रबृहत्कल्पविवरण के नाम से प्रकाशित किया गया है। सूरिमन्त्रकल्प
इस कृति के रचयिता जिनप्रभसूरि है ऐसा स्वयं के द्वारा विधिमार्गप्रपा (पृ. ६७) में लिखा गया है। प्रोक्त तीनों कृतियों का अध्ययन एवं मनन करने से अवगत होता हैं कि भले ही इनमें नामसाम्य नहीं हों, परन्तु विषय वस्तु की दृष्टि से समान प्रतीत होती है। सूरिमन्त्रकल्प
___ यह कृति अज्ञातसूरि द्वारा रचित प्राकृत गद्य-पद्य में निर्मित है, यथाप्रसंग संस्कृत गद्य का भी प्रयोग हुआ है। इसका ग्रन्थाग्र २२० श्लोक परिमाण है। प्रस्तुत कृति के प्रारम्भ में मंगलरूप एक गाथा दी गई है उसमें श्रेष्ट सूरिमंत्र की साधना के द्वारा जिन्होंने श्रुत की प्रवृद्धि की और जो सिद्ध हो गये, ऐसे गौतमस्वामी को नमस्कार करके उनके वचनों का संग्रह किये जाने का उल्लेख है। अन्त में संस्कृत गद्यमय लघुप्रशस्ति का निर्देश है जिसमें सूरिमन्त्र को सिद्ध करने वाले खेती, रोहिणी, नागार्जुन, आर्यखपुट एवं यशोभद्राचार्य इन पाँच आचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है एवं सूरिवरों से क्षमायाचना की गई हैं। इसमें
' यह ग्रन्थ सन् १६४१, जिनदत्तसूररि भण्डार ग्रन्थमाला से प्रकाशित है। इसका प्रथमादर्श (प्रतिलिपि) कर्ता के शिष्य उदयाकरगणी ने लिखा है।
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572 / मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
प्रतिपादित विषयवस्तु का नामनिर्देश इस प्रकार है -
१. सूरिमन्त्र की प्रथम वाचना एवं उसकी विधि, २. द्वितीय वाचना एवं उसकी विधि, ३. सूरिमन्त्र की ध्यान विधि, ४. सूरिमन्त्र की साधना विधि, ५. सूरिमन्त्र की तृतीय वाचना एवं उसकी विधि, ६. सूरिमन्त्रगर्भित विद्याप्रस्थानपट्ट विधि, ७. मन्त्रशुद्धि का वर्णन अर्थात् जब गौतम स्वामी को सूरिमन्त्र दिया गया था तब उसमें ग्यारह मेरु थे उसके बाद दुषमकाल के प्रभाव से क्रमशः घटते हुए दुःप्रसहसूरि पर्यन्त तीन मेरु युक्त लब्धिपद रहेंगे, ऐसा उल्लेख किया गया है । ८. सूरिमन्त्र की तप विधि ।
अन्त में सूरिमन्त्र के अधिष्ठायक गौतमस्वामी की स्तुति एवं सूरिमन्त्र के पदों की संख्या बतायी गई हैं। प्रस्तुत कृति के परिचय से यह होता हैं कि यह रचना आम्नाय विशेष को लेकर नहीं रची गई हैं, अपितु इसमें प्राचीन परम्परा ही मुख्य आधार रही हैं। यह कृति सूरिमन्त्रकल्पसमुच्चय भा. २ के साथ प्रकाशित है।
संक्षिप्तः सूरिमन्त्रविचारः
यह एक संकलित रचना प्रतीत होती है। इस कृति में सूरिमन्त्र की साधना विधि संक्षेप में दी गई है, ऐसा कृति नाम से स्पष्ट होता है। यह मुख्य प से संस्कृत गद्य में हैं। इसमें प्राकृत की मात्र चार गाथाएँ है ।
इसमें सामान्यतया सूरिमन्त्र की ध्यानविधि एवं सूरिमन्त्र की साधनाविधि का वर्णन किया गया है, इसके साथ पाँच पीठ के लब्धिपदों की अक्षरसंख्या भी बतायी गई हैं। सूरिमंत्रआराधनाविधि
यह कृति' तपागच्छीय श्री देवेन्द्रसूरि की मुख्यतः संस्कृत गद्य में है । मोहनसूरिजी के शिष्य मुनि प्रीतिविजयजी द्वारा इस कृति का संशोधन किया गया है। इस कृति के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थरचना से सम्बन्धित एक श्लोक है उसमें 'अहं' बीज को नमस्कार करके सूरिमंत्रकल्प और आप्तउपदेश के अनुसार सूरिमंत्र की आराधना विधि को कहने की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् पाँच प्रस्थान १. विद्यापीठ २. महाविद्यापीठ ३. उपविद्यापीठ ४. मंत्रपीठ और ५. मंत्रराज - इन पांच प्रस्थानों की आराधना विधि का विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। इसमें प्रत्येक पीठ के नान्दीपदों की संख्या, जापसंख्या, मुद्रा, दिशा, आसन, जापफल, फल आदि का भी वर्णन हैं।
१
यह कृति वि.सं. १६८७ में, 'शाह डाह्याभाई महोकमलाल पांजरापोल अहमदाबाद' से प्रकाशित
है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/573
इसमें पाँच पीठ की आराधना का आध्यात्मिक फल बताते हुए कहा हैं कि प्रथम पीठ की साधना से मतिज्ञान, द्वितीय पीठ की साधना से चौदह पूर्व का ज्ञान, तृतीय पीठ की साधना से अवधिज्ञान, चतुर्थ पीठ की साधना से मनःपर्यवज्ञान और पंचमपीट की साधना से केवलज्ञान उत्पन्न होता है तथा पाँचवा पीठ मन्त्रराज का पाँच लाख जाप करने वाला साधक तीसरे भव में मोक्ष जाता है।
__सूरिमन्त्र की साधना विधि का उल्लेख करते हुए साधना करने योग्य देश, साधना करने योग्य स्थल, साधना प्रारम्भ करने योग्य दिन एवं साधना की आवश्यक क्रियाएँ- शरीरशुद्धि, सुगंधि विलेपन, स्त्री मुख का अदर्शन, कपूर पूजन आदि का निर्देश दिया गया है। इसमें सूरिमन्त्र आराधना की तपविधि का भी निरूपण हुआ है। सूरिमंत्रबृहत्कल्पविवरण
यह ग्रन्थ खरतरगच्छीय जिनसिंहसरि के शिष्य जिनप्रभसूरि द्वारा वि.सं. १३०८ में निर्मित हुआ है। यह रचना मुख्यतः संस्कृत गद्य में है किन्तु कहीं-कहीं संस्कृत पद्य भी दृष्टिगत होते हैं। यह कृति अपने नाम के अनुसार सरिमन्त्र की साधना विधि से सम्बन्धित है। इस कल्प में सूरिमन्त्र की साधना कब, क्यों, किस प्रकार की जाती है? इत्यादिक विषयों का सम्यक् प्रतिपादन हुआ है। इसके साथ सूरिमन्त्र के अक्षरों का फलादेश भी बताया गया है। इससे स्पष्ट होता हैं कि इस मन्त्र की सम्यक् आराधना करने वाला साधक शासनोन्नति के साथ-साथ निश्चित रूप से आत्मकल्याण भी कर सकता है। सम्भवतः यह कृति स्वपरम्परा (लघु खरतरशाखा) के अनुसार रची गई प्रतीत होती है।
प्रस्तुत कृति का यह वैशिष्ट्य है कि इसमें संक्षिप्तता के साथ स्पष्टता है। मन्त्रपदों के साथ फलादेशों का सूचन हैं। यह साधना विधि आचार्यपद पर स्थापित होने वाले मुनियों के लिए आवश्यक कही गई है।
इसके प्रारंभ में मंगल निमित्त एक श्लोक दिया गया है उसमें बीजाक्षर रूप 'अर्ह' पद को नमस्कार करके आप्त उपदेश के आधार पर एवं अपने स्वसम्प्रदाय के अनुसार सूरिमंत्रकल्प को कहने की प्रतिज्ञा की गई है। तदनन्तर १. विद्यापीठ २. महाविद्या ३. उपविद्या ४. मंत्रपीठ और ५. मन्त्रराज इन पांच
' यह ग्रन्थ 'डाह्याभाई मोहोकमलाल पांजरापोल अहमदाबाद' द्वारा सन् १६३४ में प्रकाशित हुआ है। इसका संशोधन मुनि प्रीति विजयजी ने किया हैं इसमें कहीं-कहीं गुजराती तो कहीं-कहीं जैन महाराष्ट्री प्राकृत की पंक्तियाँ देखी जाती है। जो संभवतः संशोधक द्वारा जोड़ी गई लगती
२ वर्तमान की खरतरगच्छीय संविग्न परम्परा में प्रवर्तित प्रायः विधि-विधान जैसे- उपधानपदस्थापना-सूरिमंत्र आराधना आदि जिनप्रभरचित ग्रन्थानुसार ही किये जाते हैं।
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574/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
पीठ के नाम बतलाये गये हैं। इनके नन्दीपदों की संख्या बतलायी गयी है साथ ही जिनप्रभसूरि को सोलह नन्दीपद ही अभिप्रेत हैं यह कहकर उन नन्दीपदों का उल्लेख किया गया है। यह कल्प मुख्यतः पांच प्रकरणों में विभक्त है उसकी विषयवस्तु संक्षेप में निम्न है - प्रथम विद्यापीठ की साधना विधि- इसमें विद्या पीठ की साधना के लिए सोलह नान्दीपद दिये गये हैं। साथ ही इन प्रत्येक नान्दी (मन्त्र) पदों को सिद्ध करने के लिए भिन्न-भिन्न वर्गों की ध्यान विधि बतायी गयी है। प्रत्येक की भिन्न-भिन्न मुद्राएँ और पृथक्-पृथक् जापसंख्याएँ वर्णित की गई हैं तथा प्रत्येक पदों का फलादेश भी कहा गया है। फलादेश के सम्बन्ध में यह निर्देश हैं कि प्रथम पीठ की साधना करने वाला साधक नगर का क्षोभ दूर कर सकता है, स्व-पर के स्वप्न का फलादेश करने में समर्थ बन सकता है, विष, रोग और उपद्रव को दूर करने में सफल हो सकता है तथा इन नन्दी पदों का एक सौ आठ दिन तक निरन्तर एक सौ आठ बार जाप करने से कवि ओर आगमवेत्ता भी बन जाता है। उसे आकाशगमन लब्धि भी सिद्ध हो जाती है। द्वितीय महाविद्यापीठ की साधना विधि- इसमें महविद्यापीठ की साधना विधि से सम्बन्धित नान्दीपद, ध्यानविधि, मुद्राप्रयोग, जापसंख्या आदि का वर्णन किया गया है। साथ ही यह कहा गया है कि इस पीट की साधना करने वाला तीनों लोकों में अप्रतिहत शासन करने वाला होता है। ततीय उपविद्यापीठ की साधना विधि- इसमें उपविद्यापीठ की साधना हेतु नान्दीपद, ध्यानविधि, मुद्राप्रयोग, जापसंख्या आदि का विवेचन किया गया है। इसके साथ ही इसमें यह कहा गया हैं कि इस पीठ के मन्त्रों का साधक दुष्ट देवियों का निराकरण कर सकता है, पर्वत-पत्तनादि के स्थानों पर चैत्य का आरोपण कर सकता है तथा अष्टांग निमित्त का ज्ञाता बन सकता है। चतुर्थ मंत्रपीठ की साधना विधि- इस चतुर्थपीठ की साधना के लिए भी पूर्वोक्त् क्रमपूर्वक नान्दीपदों, मुद्राओं, जापसंख्याओं आदि का वर्णन हुआ है। साथ ही इस पीठ की विशुद्ध साधना के द्वारा प्रारम्भ के तीन पीठ में कहे गये कार्य एवं लब्धियाँ अविलम्ब सिद्ध होती हैं यह कहा गया है।
इसके सिवाय वह साधक (आचार्य) वादी को पराजित करने में समर्थ बन जाता है, सिद्धांतों के अर्थों का प्रतिपादन करने में प्रवीण हो जाता है, उसमें शाप को निरस्त करने की सामर्थ्यता पैदा हो जाती है- इस प्रकार अनेक शक्तियों का स्वामी बन जाता है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/575
पंचम मंत्रराजपीठ की साधना विधि- इस कृति में निर्देश हैं कि पंचम पीठ की साधना करने वाला साधक (आचार्य) तीसरे भव में मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है तथा इहलोक में गौतमस्वामी के समान पूजनीय बनता है। इसी क्रम में पाँच पीठों के नान्दी पदों को सिद्ध करने पर होने वाला आध्यात्मिक फल बताया गया है कि प्रथम पीठ का स्मरण करने से मतिज्ञान होता है, द्वितीय पीठ की साधना करने से चौदह पूर्वधारी होता है, तृतीय पीठ की आराधना करने से अवधि ज्ञानी होता है, चतुर्थ पीठ की उपासना करने से मनःपर्यवज्ञानी बनता है और पंचम पीठ की आराधना करने से केवलज्ञानी बनता है। बशर्ते यह जाप ब्रह्मचर्य व्रत के पालन पूर्वक एवं पाँच लाख की संख्या में होना चाहिए। सूरिमन्त्र (पंचपीठ) की तपसाधना विधि- प्रस्तुत कृति में पंच पीठ की तप साधना विधि, तप दिन आदि भी उल्लिखित हैं। इसमें कहा हैं कि प्रथम पीठ की तप साधना में २१ दिन, द्वितीय पीठ की तप साधना में १३ दिन, तृतीय पीठ की तपसाधना में २५ दिन, चतुर्थ पीठ की तपोसाधना में ८ दिन और पंचम पीठ की तपसाधना में १६ दिन लगते हैं। सरिमन्त्र (पंच पीठ) के अधिष्ठायक (देव-देवियों) के नाम- इसमें पांच पीठों के अधिष्ठायकों के नाम भी बताये गये हैं - प्रथम विद्यापीठ की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती है द्वितीय महाविद्यापीठ की अधिष्ठात्री देवी त्रिभूवनस्वामिनी हैं, तृतीय उपविद्यापीठ की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी है, चतुर्थ मंत्रपीठ के अधिष्ठायक देव सोलह हजार यक्षों के स्वामी यक्षराज है। पंचम मंत्रराजपीठ के अधिष्ठायक श्री गौतमस्वामी है। इस कृति के अन्तिम भाग में जिनप्रभसूरि ने अपने संप्रदाय के अनुसार सूरिमंत्र का उल्लेख करते हुए पाँचपीठ की साधना विधि का निरूपण किया है जो आराधना की दृष्टि से अत्यधिक उपयोगी हैं। सूरिमन्त्र (पंच पीठ) की साधना विधि में प्रयुक्त मुद्राएँ- सामान्यतया सूरिमन्त्र की साधना करते समय विविध प्रकार की मुद्राओं का प्रयोग होता है। जिनप्रभसूरि ने स्वयं ही इस कृति के अन्तिम भाग में यह उल्लेख किया हैं कि 'सूरिमंत्र की साधना में उपयोगी सत्तर मुद्राओं का स्पष्टीकरण एवं उनका स्वरूप राजशेखरसूरि विरचित सूरिमंत्र नित्यकर्म के प्रथम एवं द्वितीय पत्रांक से जानना चाहिए तदुपरांत पाँच पीठ की साधना के लिए अनन्य उपयोगी पाँच मुद्राओं का उल्लेख करते हुए कहा गया हैं कि - सूरिमंत्र के प्रथम पीठ का सौभाग्य मुद्रा से, द्वितीय पीठ का परमेष्ठी मुद्रा से, तृतीय पीठ का प्रवचन मुद्रा से, चतुर्थ पीठ का सुरभिमुद्रा से एवं पंचम पीठ का अंजलिमुद्रा से जाप करना चाहिए। इसमें शल्योद्धार तथा विधिनिर्णय के सम्बन्ध में कई कोष्ठक भी दिये गये हैं। अन्त में पूर्वाचार्य विरचित शार्दूलविक्रीडित छन्द में पाँच
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576/मंत्र, तंत्र, विद्या सम्बन्धी साहित्य
श्लोक दिये गये हैं जो सूरिमन्त्र की साधना विधि से सम्बद्ध है।
निष्कर्षतः जिनप्रभसूरि रचित यह सूरिमन्त्रकल्प तत्सम्बन्धी अन्य कृतियों में अपना अग्रिम स्थान रखती हैं तथा इसमें सूरिमन्त्र की साधना विधि, जापविधि, जाप का फल, तपविधि, स्वआम्नाय मंत्र शुद्धि, सूरिमंत्र अधिष्ठायक मंत्र सिद्धि एवं मुद्राओं का सुस्पष्ट वर्णन किया गया है।
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D
GYA
अध्याय-12
888
5288888
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ज्योतिष-निमित्त-शकुन
सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
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578/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
अध्याय १२ ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य-सूची क्र. कृति
कृतिकार
कृतिकाल १ अंगविज्जापइण्णयं अज्ञातकृत वि.सं. १-२ री (अंगविद्या प्रकीर्णक) (प्रा.)
शती २ |आरम्भसिद्धिः (सं.) उदयप्रभसूरि वि.सं. १५ वीं शती ३ उवस्सुइदार (उपश्रुतिद्वार) अज्ञातकृत लग. १४-१५ वीं (प्रा.)
शती ४ उदयदीपिका
उपा. मेघविजय वि.सं. १७५२ ५ उस्तरलावयंत्र
मुनि मेघरत्न वि.सं. १५५० ६ करणराज
सुन्दरसूरि
वि.सं. १६५५ ७ करणकुतूहलटीका भास्कराचार्य वि.सं. १२४० ८ केवलज्ञानहोरा
चन्द्रसेन
लग. ११-१२ वीं
शती
६ गणिविज्जा (गणिविद्या)
प्रकीर्णकसूत्र
वि.सं. ६-१० वीं शती वि.सं. १७६० लग. ११ वीं शती लग. १६ वीं शती
१० गणसारणी | ११ गणहरहोरा (गणधरहोरा)
१२ ग्रहलाघवटीका १३ चन्द्रप्रज्ञप्ति १४ चतुर्विशिकोद्वार १५ चमत्कारचिंतामणिटीका १६ छायादार (छायाद्वार)
मुनि लक्ष्मीचन्द्र अज्ञातकृत गणेश उपांगसूत्र उपा. नरचन्द्र राजर्षिभट्ट अज्ञातकृत
वि.सं. १४ वीं शती लग. १७ वीं शती लग. १६-१७ वीं शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/579
१७ छींकविचार
अज्ञातकृत
१८ जन्मसमुद्र १६ जन्मप्रदीपशास्त्र
उपा. नरचन्द्र अज्ञातकृत
| २० जन्मपत्रीपद्धति
२१ जन्मपत्रीपद्धति २२ जन्मपत्रीपद्धति २३ |जयपाहुड़ २४ ज्योतिस्सारसंग्रह २५ ज्योतिस्सार (जोइसहीर) २६ ज्योतिस्सार २७ ज्योतिस्सार २८ ज्योतिर्विदाभरणटीका २६ ज्योतिषप्रकाश ३० ज्योतिषरत्नाकर ३१ ज्योतिषकरण्डक
हर्षकीर्तिसूरि लब्धिचन्द्रगणि महिमोदय अज्ञातकृत हर्षकीर्तिसूरि हीरकलश ठक्करफेरू नरचन्द्रसूरि कालिदास उपा. नरचन्द्र महिमोदय प्रकीर्णकसूत्र
लग. १६-१७ वी शती वि.सं. १३२५ लग. १५-१६ वीं शती वि.सं. १६६० वि.सं. १७५१ वि.सं. १७२१ ६ वीं शती के पूर्व वि.सं. १६६० वि.सं. १६२१ वि.सं. १३७२-७५ वि.सं. १२८० लग. छठी शती वि.सं. १३२५ वि.सं. १७२२ वि.सं. ६-१० वीं शती लग. १५-१६ वीं शती लग. वि.सं. ३री-४थी शती लग. १५-१६ वीं शती वि.सं. १७ वीं शती
३२ जातकदीपिका पद्धति
अज्ञातकृत
| ३३ जोणिपाहुड़ (योनिप्राभृत) आचार्य धरसेन
३४ |जोइसदार (ज्योतिषद्वार)
अज्ञातकृत
| ३५ जोइसचक्कविचार
(ज्योतिषचक्रविचार)
मुनि विनयकुशल
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580/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
३६ टिप्पनकविधि
३७ ताजिकसारटीका
३८ तिथिसारणी
३६ दिणसुद्धि ( दिनशुद्धि)
४० दीक्षा-प्रतिष्ठाशुद्धि
४१ दोषरत्नावली
४२ नरपतिजयचर्या
४३ नाडीदार ( नाड़ीद्वार)
५१ पंचांगपत्रविचार
५२ पंचांगदीपिका
५३ पिपीलियानाण (पिपीलिकाज्ञान)
५४ प्रश्नसुन्दरी,
मतिविशालगणि
४४ नाडीविज्ञान
४५ निमित्तदार (निमित्तद्वार)
४६ निमित्तपाहुड़
४७ पंचांगनयनविधि
महिमोदय
४८ पंचांगदीपिका
अज्ञातकृत
४६ पंचांगतिथिविवरण (सं.) करणशेखर
५० पंचांगतत्त्व
अज्ञातकृत
आ. हरिभद्रसूरि
मुनि वाघजी
रत्नशेखरसूरि
समयसुन्दरगणि
जयरत्नगणि
नरपति
अज्ञातकृत
अज्ञातकृत
अज्ञातकृत
अज्ञातकृत
अज्ञातकृत
जैन मुनि
अज्ञातकृत
उपा. मेघविजय
लग. १६-१८ वीं
शती
वि.सं. १५८०
वि.सं. १७८३
वि.सं. १५ वीं शती
वि.सं. १६८५
वि.सं. १६६२
वि.सं. १२३२
लग. १६-१७ वीं
शती
लग. १६-१७ वीं
शती
लग. १६-१७ वीं
शती
लग. ६-१० वीं
शती
वि.सं. १७२२
लग. १८ वीं शती
लग. १५ वीं शती
लग. १७-१८ वीं
शती
लग. १८ वीं शती
लग. १८ वीं शती
लग. १६-१७ वीं
शती
वि.सं. १७५२
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/581
५५ प्रश्नशतक ५६ प्रश्नप्रकाश ५७ प्रश्नपद्धति
उपा. नरचन्द्र पादलिप्तसूरि हरिश्चन्द्रगणि
वि.सं. १३२५ लग. ११ वीं शती लग. १४-१५ वीं
शती
५८ फलाफलविषयक-प्रश्नपत्र ५६ बलिरामानन्दसारसंग्रह ६० भद्रबाहुसंहिता
उपा. यशोविजय लाभोदयमुनि आ. भद्रबाहु
६१ भुवनदीपक ६२ मण्डलप्रकरण ६३ मानसागरीपद्धति
आ. पद्मप्रभ विनयकुशल मानसागर
वि.सं. १७३० लग. १८ वीं शती वि.सं. १२-१३ वीं शती वि.सं. १२२१ वि.सं. १६५२ लग. १७-१८ वीं शती लग. १६-१७ वीं शती वि.सं. १४२७ वि.सं. १७६२ लग. १६-१७ वीं
६४ मेघमाला
अज्ञातकृत
६५ यन्त्रराज ६६ यशोराजीपद्धति ६७ रिठ्ठदार (रिष्टद्वार)
मदनसूरि यशस्वत्सागर अज्ञातकृत
शती
६८ लग्गसुद्धि (लग्नशुद्धि) ६६ लग्नविचार ७० लालचन्द्रपद्धति ७१ लघुजातकटीका ७२ वग्गकेवली (वर्गकेवली) ७३ वसन्तराजशाकुनटीका
आ. हरिभद्र उपा. नरचन्द्र लब्धिचन्द्र भक्तिलाभ वासुकि वसन्तराज
वि.सं. ८ वीं शती वि.सं. १३२५ वि.सं. १७५१ वि.सं. १५७१ लग. १५ वीं शती लग. १७-१८ वीं शती
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582 /ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
७४ वर्षप्रबोध
७५ वास्तुसार (प्रा.)
७६ विवाहपडल
७७ श्वानशकुनाध्याय
८० शकुनरहस्य
८१ शकुनविचार ( अप.)
८२ शिल्परत्नाकर (सं.)
७८ शकुनशास्त्र
माणिक्यसूरि
७६ शकुनरत्नावलि - कथाकोश वर्धमानसूरि
जिनदत्तसूरि
उपा. मेघविजय
ठक्करफेरू
त्रैलोक्यप्रकाश
६० ज्ञानचतुर्विशिका
अज्ञातकृत
अज्ञातकृत
८३ षट्पंचाशिकाटीका
वराहमिहिरात्मज
पृथुयश
८४ सउणदार (शकुनद्वार) (प्रा.) अज्ञातकृत
८५ सिद्धादेश (सं.)
८६ सूर्यप्रज्ञप्ति
८७ हायनसुन्दर होरामकरन्द
अज्ञातकृत
नर्मदाशंकर
अज्ञातकृत
उपांगसूत्र
पद्मसुन्दरसूरि
गुणाकरसूरि
आ. हेमप्रभ
उपा. नरचन्द्र
वि.सं. १७५२
वि.सं. १४ वीं शती
उत्तरार्ध
लग. छठीं शती
लग. १७-१८ वीं
शती
वि.सं. १३३८
लग. १६ वीं शती
वि.सं. १२७०
लग. १३ वीं शती
वि.सं. २०-२१ वीं
शती
लग. १२-१३ वीं
शती
लग. १२-१३ वीं
शती
लग. १५-१६ वीं
शती
लग. १५ वीं शती
लग. १५ वीं शती
वि.सं. १३०५
वि.सं. १३२५
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अध्याय १२
ज्योतिष - निमित्त - शकुन सम्बन्धी विधि- विधानपरक साहित्य
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 583
अंगविज्जापइण्णयं (अंगविद्याप्रकीर्णक)
यह प्राकृत जैन साहित्य की अमूल्य और अपूर्व कृति' है। यह रचना पूर्वाचार्य विरचित मानी जाती है। वस्तुतः 'अंगविज्जा' एक अज्ञातकर्तृक रचना है। यह फलादेश का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, जो सांस्कृतिक सामग्री से भरपूर है । यह गद्य-पद्यमिश्रित प्राकृत भाषा में प्रणीत है तथा प्रथम द्वितीय शताब्दी के भी पूर्व का है। यह नव हजार श्लोक परिमित साठ अध्यायों में समाप्त होता है । इस कृति का साठवाँ अध्याय दो भागों में विभक्त है, दोनों स्थान पर साठवें अध्याय की समाप्ति सूचक पुष्पिका है । यद्यपि पुष्पिका अन्त में होनी चाहिए फिर भी दोनों जगह होने से मुनि पुण्यविजयजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रस्तावना में पुष्पिका के आधार पर ६० वें अध्याय के पूर्वार्ध एवं उत्तरार्ध ऐसे दो विभाग किये हैं। पूर्वार्ध में पूर्वजन्म विषयक प्रश्न एवं फलादेश है और उत्तरार्ध में आगामी जन्म विषयक प्रश्न एवं फलादेश है।
वस्तुतः यह लोक प्रचलित विद्या थी, जिससे शरीर के लक्षणों को देखकर अथवा अन्य प्रकार के निमित्त या मनुष्य की विविध चेष्टाओं द्वारा शुभ-अशुभ फलों का विचार किया जाता था । 'अंगविद्या' के अनुसार अंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, छींक, भौम और अंतरिक्ष ये आठ निमित्त के आधार हैं और इन आठ महानिमित्तों द्वारा भूत एवं भविष्यकाल का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
सामान्यतः अंगविद्याशास्त्र एक फलादेश का महाकाय ग्रन्थ है। इसका उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। यह ग्रन्थ ग्रह-नक्षत्र - तारा आदि के द्वारा या जन्मकुंडली के द्वारा फलादेश का निर्देश नहीं करता है किन्तु मनुष्य की
9
(क) इस कृति का संशोधन- संपादन मुनि पुण्यविजयजी ने किया है। उन्होंने इस ग्रन्थ की प्रस्तावना अति विस्तार के साथ लिखी है। वह पठनीय है।
(ख) यह ग्रन्थ वि.सं. २०१४ में, प्राकृत ग्रन्थ परिषद् वाराणसी ५ से प्रकाशित हुआ है।
'पिंडनिर्युक्तिटीका' (४०८) में अंगविज्जा की निम्नलिखित गाथा उद्धृत है
इंदिएहिं दियत्थेहिं, समाधानं च अप्पणो ।
नाणं पवत्ताए जम्हा, निमित्तं तेण अहियं ॥
२
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584 / ज्योतिष-निमित्त शकुन सम्बन्धी साहित्य
सहज प्रवृत्ति के निरीक्षण द्वारा फलोदश का निरूपण करता है । अतः मनुष्य के हलन-चलन और रहन-सहन आदि के विषय में विपुल वर्णन इस ग्रन्थ में पाया जाता है। कई दृष्टियों से इस ग्रन्थ को विधि-विधान परक भी कहा जा सकता है भूमिकर्म नामक आठवें अध्याय में अंगविद्या को सिद्ध करने की कई विधियाँ दी गई हैं और भी कई स्थलों पर विधि-विधान के विषय दृष्टिगत होते हैं। सामान्य तौर पर प्रश्नों का फलादेश करना भी एक प्रकार की विधि है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि इस ग्रन्थ के निर्माता ने एक बात स्वयं ने स्वीकार की है कि इस शास्त्र का वास्तविक परिपूर्ण ज्ञाता कितनी भी सावधानी से फलादेश करेगा तो भी उसके सोलह फलादेशों में से एक असत्य ही होगा अर्थात् इस शास्त्र की यह एक त्रुटि है। यह शास्त्र यह भी निश्चित रूप से निर्देश नहीं करता कि सोलह फलादेशों में से कौनसा असत्य होगा। यह शास्त्र इतना ही कहता है कि 'सोलस वाकरणाणि वाकरेहिसि, ततो पुण एक्कं चुक्किहिसि । पण्णरह अच्छिड्डाणि भासिहिसि, ततो अजिणो जिणसंकासो भविहिसि" अर्थात् जो ‘सोलह फलादेश करेगा उनमें से वह एक चूक जायेगा, पन्द्रह को संपूर्ण कह सकेगा- इससे केवलज्ञानी न होने पर भी वह केवली के समान होगा। '
इस शास्त्र के ज्ञाता को फलादेश करने के पहले प्रश्न करने वाले की क्या प्रवृत्ति है? प्रश्न करने वाला किस अवस्था में रहकर प्रश्न करता है ? इस ओर विशेष ध्यान रखना होता है। प्रश्न करने वाला प्रश्न करने के समय अपने कौन-कौन से अंगों का स्पर्श करता है? वह बैठकर प्रश्न करता है या खड़ा रहकर प्रश्न करता है ? रोता है या हँसता है ? वह गिर जाता है या सो जाता है ? विनीत है या अविनीत? उसका आना-जाना, आलिंगन - चुंबन रोना- विलाप करना या आक्रन्दन करना, देखना, बात करना इत्यादि सब क्रियाओं को देखना होता है; प्रश्न करने वाले के साथ कौन है? कौन से फलादि लेकर आया है? उसने कौन से आभूषण पहने हैं? इत्यादि विषय का भी अनुशीलन करना होता है, उसके बाद ही वह फलादेश करता है। वस्तुतः इस शास्त्र के परिपूर्ण एवं अतिगंभीर अध्ययन के बिना एकाएक फलादेश करना किसी के लिए भी शक्य नहीं है।
करना,
यदि कोई वैज्ञानिक दृष्टिवाला फलादेश की अपेक्षा से इस शास्त्र का अध्ययन करें तो यह ग्रन्थ बहुत कीमती है। अन्य दृष्टियों की अपेक्षा भी यह ग्रन्थ अति महत्त्व का है। इसमें आयुर्वेद, वनस्पतिशास्त्र, प्राणीशास्त्र, मानसशास्त्र, समाजशास्त्र आदि के लिए परम उपयोगी सामग्री का संकलन हुआ है। भारत के
१
अंगविज्जा देखिये पृ. २६५
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सांस्कृतिक इतिहास प्रेमियों की इस ग्रन्थ मे विपूल सामग्री भरी पड़ी है। प्राकृत और जैन प्राकृत व्याकरणज्ञों के लिये भी विपुल सामग्री का संचय है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि इस अंगविद्या ग्रन्थ का मुख्य सम्बन्ध मनुष्यों के अंग एवं उनकी विविध क्रिया चेष्टाओं से है। इस कारण इस ग्रन्थ में अंग एवं क्रियाओं का विशदरूप में वर्णन हुआ है। ग्रन्थकर्ता ने अंगों के आकार-प्रकार, वर्ण, तोल, लिंग, स्वभाव आदि को ध्यान में रखकर उनको २७० विभागों में विभक्त किया है।' मनुष्यों की विविध चेष्टाएँ, जैसे कि बैठना, आमर्श, खड़ा रहना, देखना, हँसना, संलाप, क्रन्दन, निर्गमन, अभ्युत्थान आदि; इन चेष्टाओं का अनेकानेक भेद-प्रकारों द्वारा वर्णन किया गया है। साथ में मनुष्य के जीवन में होने वाली अन्यान्य क्रिया-चेष्टाओं का वर्णन एवं उनके एकार्थकों का भी निर्देश इस ग्रन्थ में किया है। इससे सामान्यतया प्राकृत वाङ्मय में जिन क्रियापदों का उल्लेख-संग्रह नहीं हुआ है उनका संग्रह इस ग्रन्थ में विपुलता से हुआ है, जो प्राकृत भाषा की समृद्धि की दृष्टि से बड़े महत्त्व का है। सांस्कृतिक दृष्टि से इस ग्रंथ में मनुष्य, तिर्यच, पशु-पक्षी, क्षुद्रजन्तु, देव-देवी और वनस्पति के साथ सम्बन्ध रखने वाले कितने ही पदार्थ वर्णित हैं।'
आश्चर्य की बात तो यह है कि ग्रन्थकार ने इस शास्त्र में एतद्विषयक प्रणालीकानुसार वृक्ष जाति और उनके अंग, सिक्के, भांडोपकरण, भोजन, पेयद्रव्य, आभरण, वस्त्र, आसन, आयुध, आदि जैसे जड़ एवं क्षुद्रचेतन पदार्थों को भी पुं-स्त्री-नपुंसक विभाग में विभक्त किया है। इस ग्रन्थ में इन चीजों के नाम मात्र ही मिलते हों, ऐसा नहीं है किन्तु कई चीजों के वर्णन और उनके एकार्थक भी मिलते हैं। जिन चीजों के नामों का पता संस्कृत-प्राकृत कोश आदि से न चले, ऐसे नामों का पता इस ग्रन्थ के सन्दर्भो को देखने से चल जाता है। इतना ही नहीं इस ग्रंथ में शरीर के अंग एवं मनुष्य-तिर्यच-वनस्पति, देव-देवी वगैरह के साथ संबंध रखने वाले जिन-जिन पदार्थों के नामों का संग्रह है वह तद्विषयक विद्वानों के लिए अतिमहत्त्वपूर्ण संग्रह बन जाता है। इस ग्रन्थ में कुछ ऐसे शब्दों का भी प्रयोग हुआ है; जैसे आजीवक, डुपहारक आदि जो संशोधकों के लिए महत्त्व के हैं।
अंगविद्याशास्त्र के साठ अध्यायों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है - पहला अध्याय का नाम 'अंगोत्पत्ति' है इसमें अंगविद्या की उत्पत्ति, अंगविद्या का स्वरूप एवं अंगविद्या प्रकीर्णक ग्रन्थ के अध्यायों के नाम दिये हैं। दूसरा अध्याय
'अंगविज्जा - देखिये परिशिष्ट ४ २ वही, देखिये, परि. ३ ३ वही, देखिये, परि. ४
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'निजसंस्तव' नामक है। तीसरा 'शिष्योपख्यान' नामक अध्याय है इसमें अंगविद्याशास्त्र को पढ़ने वाले शिष्यों की योग्यायोग्यता, उनके गुण-दोष और अंगशास्त्र पठन के योग्य-अयोग्य स्थानादि का वर्णन हुआ है। चौथा 'अंगस्तव' नामक अध्याय है इसमें अंगविद्या का माहात्म्य बताया गया है। पाँचवां 'मणिस्तव' नामक अध्याय है। छठे अध्याय का नाम 'आधारण' है इस अध्याय में अंगविद्याशास्त्र गंभीर होकर प्रश्न करने वाले के प्रश्न का श्रवण एवं अवधारण किस प्रकार करें, उसकी विधि बतायी गयी है।
सातवाँ अध्याय 'व्याकरणोपदेश' नामक है इसमें अंगविद्याशास्त्रज्ञ गंभीर होकर किस प्रकार फलोदश करें उसकी विधि का वर्णन है। आठवाँ ‘भूमिकर्म' अध्याय है। इसमें ३० पटल (अवान्तर प्रकार) कहे गये हैं। प्रायः सभी पटलों में उन-उन के नामानुसार फलादेश करने की विधि कही गई हैं, जैसे 'हसितविभाषा नामक पटल' में चौदह प्रकार से हँसना और तद्नुसार फलादेश की विधि बतायी है। यही प्रकार अन्य पटलों में भी जानना चाहिये। नवमाँ 'अंगमणी' नामक अध्याय है इस अध्याय में २७० द्वारों का निर्देश हुआ है साथ ही तद्विविषयक फलादेश विधि भी कही गई हैं।
दशवाँ 'आगमन' अध्याय है इसमें आगमन विषयक फलादेश की विधि प्रतिपादित है। इसी प्रकार ग्यारहवाँ पृष्ट, बारहवाँ योनि, तेरहवाँ योनिलक्षण व्याकरण, चौदहवाँ लोभद्वार, पन्द्रहवाँ समागमद्वार, सोलहवाँ प्रजाद्वार, सत्रहवाँ आरोग्यद्वार, अठारहवाँ जीवितद्वार, उन्नीसवाँ कर्मद्वार, बीसवाँ वृष्टिद्वार, इक्कीसवाँ विजयद्वार, बाईसवाँ प्रशस्त, तेईसवाँ अप्रशस्त, चौबीसवाँ जातिविजय, पच्चीसवाँ गोत्र, छब्बीसवाँ नाम, सत्ताईसवाँ स्थान, अट्ठाईसवाँ कर्मयोनि, उनतीसवाँ नगरविजय, तीसवाँ आभरणयोनि, इगतीसवाँ वस्त्रयोनि, बत्तीसवाँ धान्ययोनि, तेतीसवाँयानयोनि, चौतीसवाँ संलापयोनि, पैंतीसवाँ प्रजाविशुद्धि, छत्तीसवाँ दोहद, सैंतीसवाँ लक्षण, अड़तीसवाँ व्यंजन, उनचालीसवाँ कन्यावासन, चालीसवाँ भोजन, इकतालीसवाँ वरियगंडिक, बयालीसवाँ स्वप्न, तेंतालीसवाँ प्रवास, चौवालीसवाँ प्रवासअद्धाकाल, पैंतालीसवाँ प्रवेश, छियालीसवाँ प्रवेशन, सैंतालीसवाँ यात्रा, अड़तालीसवाँ जय, उनचासवाँ पराजय, पचासवाँ उपद्रुत, इक्यावनवाँ देवताविजय, बावनवाँ नक्षत्रविजय, त्रेपनवाँ उत्पात, चौपनवाँ सारासार, पचपनवाँ निधान, छप्पनवाँ निविसूत्र, सत्तावनवाँ नष्टकोशक, अट्ठावनवाँ चिंतित, उनसठवाँ काल और साठवाँ अध्याय पूर्वमेवविपाक एवं उपपत्तिविजय इन दो भागों में विभक्त है। ये सभी अध्याय प्रायः अपने-अपने नाम के अनुसार विषयों का विधिपूर्वक फलादेश करने वाले हैं। कुछ अध्याय तविषयक वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, आदि के नामों का सविस्तृत निरूपण करने वाले हैं।
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इस अंगविद्याशास्त्र की विषयवस्तु अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ भारतीय वाङ्मय में अपने प्रकार का एक अपूर्व सा महाकाय ग्रन्थ है। विश्व वाङ्मय में इतना विशाल, इतना बहुआयामी दूसरा एक भी ग्रन्थ अद्यापि पर्यन्त देखने में नहीं आया है। फलादेश विषयक विधि-विधान का भी यही एक मात्र प्राचीन ग्रन्थ होना चाहिए।
प्रस्तुत ग्रन्थ का परिशिष्ट भाग भी अतिसमृद्ध हैं। वह नवीनतमरूप से पाँच भागों में विभाजित है। इन परिशिष्टों की सामग्री पठनीय हैं। और वह संक्षेप में निम्न हैं -
पहला परिशिष्ट- इस परिशिष्ट में अंगविद्या के साथ सम्बन्ध रखने वाले एक प्राचीन 'अंगविद्या' विषयक अपूर्ण ग्रन्थ को प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ का
आदि-अन्त न होने से यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ है या किसी ग्रन्थ का अंश है यह निर्णय नहीं हो पाया है। दूसरा परिशिष्ट- इस परिशिष्ट में अंगविद्याशास्त्र के शब्दों का अकारादि क्रम से कोश दिया गया है, जिसमें 'अंगविज्जा' के साथ सम्बन्ध रखने वाले सब विषयों के विशिष्ट एवं महत्त्व के शब्दों का संग्रह किया गया है। प्रायोगिक दृष्टि से जो शब्द महत्त्व के प्रतीत हुए हैं इनका और देश्य शब्दादि का भी संग्रह इसमें किया गया है। जिन शब्दों के अर्थादि का पता नहीं चला है वहाँ प्रश्नचिन्ह (?) रखा है।
सिद्धसंस्कृत प्रयोगादि का भी संग्रह किया है। इस तरह भाषा एवं सांस्कृ तिक दृष्टि से इसको महर्दिक बनाने का यथाशक्य प्रयत्न किया गया है। तीसरा परिशिष्ट- इस परिशिष्ट में अंगविद्याशास्त्र में प्रयुक्त क्रिया रूपों का संग्रह है। यह संग्रह प्राकृत भाषाविदों के लिए बहुमूल्य खजानारूप है। चौथा परिशिष्ट- इस परिशिष्ट में मनुष्य के अंगों के नामों का संग्रह है जिसको संपादक प्रवर ने
औचित्यानुसार तीन विभागों में विभक्त किया है। पहले विभाग में स्थान निर्देशपूर्वक अकारादि क्रम से अंगविद्याशास्त्र में प्रयुक्त अंगों के संग्रह है। दूसरे विभाग में अगंविद्याशास्त्र प्रणेता ने मनुष्य के अंगों के आकार-प्रकारादि को लक्ष्य में रखकर जिन २७० द्वारों में उनको विभक्त किया है उन द्वारों के नामों का अकारादिक्रम से संग्रह है। तीसरे विभाग में ग्रन्थकर्ता ने जिस द्वार में जिन अंगो का समावेश किया है, उनका यथाद्वार विभागतः संग्रह किया है। पाँचवा परिशिष्टइस परिशिष्ट में अंगविद्याशास्त्र में आने वाले सांस्कृतिक नामों का संग्रह है। यह संग्रह मनुष्य, तिर्यंच, वनस्पति व देव-देवी विभाग में विभक्त है। ये विभाग भी अनेकानेक विभाग, उपविभाग, प्रविभाग में विभक्त किये गये हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से यह परिशिष्ट सब परिशिष्टों में बड़े महत्त्व का है।
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इस परिशिष्ट को देखने से यह पता चलता है कि प्राचीनकाल में अपने भारत में वर्ण-जाति - गोत्र - सगपण सम्बन्ध वगैरह किस प्रकार के होते थे, लोगों की नामकरण के विषय में क्या पद्धति थी, नगर- गाँव - प्रकारादि की रचना किस ढंग की होती थी, लोगों की आजीविका किस-किस व्यापार से चलती थी, प्रजा में कैसे-कैसे अधिकार और आधिपत्य का व्यवहार था, लोगों की वेशविभूषा अलंकारादि विषयक शौक किस प्रकार के थे, लोगों के खाद्य-पेय पदार्थ किस-किस प्रकार के थे, लोकसमूह में कौन से उत्सव प्रवर्त्तमान थे, लोगों को कौनसे रोग होते थे ? और इनके अतिरिक्त भी अन्य बहुत सी बातों का परिज्ञान विद्वद्गण अपने आप ही कर सकते हैं।
स्पष्टतः यह ग्रन्थ दुर्लभ सामग्री प्रस्तुत करता है।
आरम्भसिद्धिः
आरम्भसिद्धि नामक यह ग्रन्थ' संस्कृत पद्य में गुम्फित है। इसमें कुल ४१३ श्लोक हैं। इसकी रचना श्री उदयप्रभसूरि ने की है। इस ग्रन्थ पर श्रीहेमहंसगणि ने ‘सुधीश्रृंगार' नाम की वृत्ति रची है वह अत्यन्त विस्तार के साथ है । यह वृत्ति ५८५३ श्लोक परिमाण है। इस वृत्ति की रचना करते समय वृत्तिकार ने आवश्यक बृहद्वृत्ति, गणिविद्या, खण्डखाद्यभाष्य, गरुड़पुराण, त्रैलोक्याप्रकाश, भुवनदीपक, मुहूर्त्तसार, विवेकविलास, स्थानागंसूत्र, हर्षप्रकाश आदि कई ग्रन्थों के उद्धरणादि दिये हैं।
इस कृति का अपरनाम व्यवहारचर्या है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम की १५ वीं शती माना गया है। वस्तुतः यह ग्रन्थ जैन ज्योतिष के विधि-विधानों से सम्बन्धित है। इसमें जैन ज्योतिष की विपुल सामग्री का संचय हुआ है। इस ग्रन्थ के नाम से ही प्रतीत होता है कि इसमें आदि से लेकर अन्त तक ज्योतिष का सम्पूर्ण विषय समाविष्ट होना चाहिए अर्थात् आरम्भ - प्रारम्भ से लेकर सिद्धि-पूर्णाहूति तक प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ आरम्भ सिद्धि है। जैन परम्परा में ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण स्थान शास्त्रसिद्ध है। जैन दर्शन में आगमसूत्रों को चार अनुयोगों में बाँटा गया है- १. द्रव्यानुयोग, २. गणितानुयोग, ३. चरणकरणानुयोग और ४. धर्मकथानुयोग। इसमें गणितानुयोग दो विषयों में विभक्त है १. भूगोल और २. खगोल। खगोल आकाश संबंधी होता है। भूगोल से संबंधित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति आदि सूत्र हैं तथा खगोल विषयक चन्द्रप्रज्ञप्ति,
9
यह ग्रन्थ का प्रकाशन श्री लब्धिसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला - छाणी (बडोदरा ) से सन् १६४२ में
हुआ है।
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सूर्यप्रज्ञप्ति आदि आगमग्रन्थ है। जैन दर्शन में देवों के चार प्रकार कहे हैं १. भवनपति, २. व्यंतर, ३. ज्योतिषी और ४. वैमानिक। उनमें ज्योतिषी देव पाँच प्रकार के माने गये हैं - सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा। पुनः ज्योतिष चक्र के दो प्रकार वर्णित हैं १. चर और २. स्थिर। अढ़ाई द्वीप में भ्रमण करने वाले ज्योतिषी देवचर कहलाते हैं और अढ़ाई द्वीप से बाहर भ्रमण करने वाले ज्योतिषी देव अचर कहलाते हैं। प्रस्तुत कृति में चर ज्योतिषी देवों की चर्चा है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि चारगति के जीवों में मात्र मनुष्य के लिए ही मुहूर्त देखा जाता है। जहाँ मनुष्य के जन्म और मरण की क्रिया होती हो वहाँ काल की गणना का मुख्य आधार चर ज्योतिष चक्र है। इस वर्णन से स्पष्ट होता है कि ज्योतिषविद्या जैन परम्परा की अपनी मूल और प्राचीनतम धरोहर है। जैन आचार्यों ने ज्योतिषकला सम्बन्धी कई ग्रन्थ लिखे हैं उनमें मुहूर्त्तमार्तण्ड, मुहर्त्तचिन्तामणी आदि प्रमुख हैं। उन्हीं कृतियों में आरंभसिद्धि ग्रन्थ एक विशिष्ट कोटि का है। इसमें मुहूर्त संबंधी सूक्ष्म एवं प्रामाणिक विचार किया गया है। इस ग्रन्थ में कुछ आवश्यक और उपयोगी ऐसे विषय भी चर्चित किये गये हैं जो अन्य ग्रन्थों में अनुपलब्ध हैं।
- इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए जो पूजने योग्य हैं उन सभी को नमस्कार किया गया है तथा सभी जीवों के कल्याण के लिए आरम्भसिद्धि नामक यह ग्रन्थ निर्विघ्न पूर्वक सम्पन्न हों, ऐसी प्रार्थना की गई है। तदनन्तर प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रतिपाद्य ग्यारह द्वारों का नामोल्लेख किया गया है - १. तिथि, २. वार, ३. नक्षत्र, ४. योग, ५. राशि, ६. ग्रहगमन (गोचर), ७. कार्य, ८. गमन, ६. वास्तु, १०. विशेष लग्न और ११. मिश्रा इनका संक्षिप्त वर्णन निम्नोक्त हैं -
प्रथम द्वार में 'तिथि' से सम्बन्धित चर्चा की गई है। उसमें नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा इन तिथियों के नाम दिये गये हैं। हीन, मध्यमादि तिथियों का विचार किया गया है। क्षय एवं वृद्धि तिथि, दग्धा तिथि, क्रूरकान्त तिथि, भद्रास्वरूप इत्यादि पर भी विचार किया गया है। द्वितीय द्वार 'वार' से सम्बन्धित है। इसमें दिन की वृद्धि-हानि का मान, प्रतिवार में करने योग्य उचित कार्य, प्रतिवार के चौबीस होरा, कुलिश विचार, सिद्धछाया विचार आदि का निरूपण हुआ है।
तृतीय द्वार में 'नक्षत्र' विषयक प्रतिपादन है। इसमें मुख्य रूप से नक्षत्रपाद, नक्षत्रों की तारा, नक्षत्रों की संज्ञा, नक्षत्र स्वरूप, नक्षत्रस्थिति आदि का वर्णन किया गया है। चतुर्थ द्वार में 'योग' बतलाये गये हैं यहाँ योग से
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590/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
मतलब सिद्धियोग, अमृतयोग, राजयोग आदि से हैं। इसमें वार सम्बन्धी शुभ-अशुभ योग और नक्षत्रसम्बन्धी शुभ-अशुभ योग विस्तार से कहे गये हैं। इसके साथ ही लग्न-तिथि- नक्षत्र गंडान्त का विचार किया गया है। आनन्दादि योग का चक्र दिया गया है। एकार्गलयोग, ग्रहवेध, वेधफल, लता, पात आदि पर भी विचार किया गया है। पंचम द्वार में मेषादि बारह राशियों का उल्लेख हुआ है। इसके साथ ग्रहों के ऊँच-नीच का विचार, ग्रहों की राशि, स्थिति एवं मान, राशि सम्बन्धी बारह भाव, राशियों के षड्वर्ग, ग्रहों के मित्र-शत्रु का विचार भी किया गया है।
षष्ठम द्वार 'गोचर' विषय का प्रतिपादन करता है। यहाँ गोचर शब्द से तात्पर्य है- पूर्व-पूर्व की राशियों से उत्तर-उत्तर की राशियों में ग्रहों का संचरण करना। इस द्वार में ग्रहगोचर के शुभाशुभ फल कहे गये हैं। ग्रहगोचर से बारहभावों के सुख-दुखादि कहे गये हैं। चन्द्रबल, ताराबल, अष्टवर्ग, राशिस्थग्रहफल समय, प्रतिकूल ग्रहबल की शान्ति के उपाय भी निरुपित है। सप्तमद्वार 'कार्य' नाम से सम्बोधित है। यहाँ कार्य का अर्थ है- विद्या, व्यापार, प्रवेश, प्रस्थान, प्रतिष्ठा, दीक्षा आदि का प्रारम्भ करना। इस द्वार में पुष्यबल, मूला-आश्लेषा नक्षत्र का फल, गुरु-शिष्य के नाड़ी-नक्षत्र का शुभाशुभ फल, गुरु-शिष्यादि का तारा विचार, कर्णवेध-क्षौरकर्म-उपनयनकर्म-नवीनवस्त्र परिधान करने योग्य शुभाशुभ दिन बताये गये हैं।
अष्टम द्वार गमन यात्रा विधि से सम्बन्धित है। इसमें यात्रा की दिनशद्धि, यात्रा के योग्य नक्षत्रादि, यात्रा के सम्बन्ध में योगिनी, कालपाश, वत्सफल, शकुनबल, अनिष्ट लग्न, होरा, शुभाशुभ ग्रहस्थान, दशापति, वक्री-मार्गी, सौम्य-असौम्य शुभाशुभ योग, करणविधि इत्यादि विषयों का सहेतु विवेचन किया गया है। नवम द्वार में 'वास्तुविधि' का प्रतिपादन है। दशम द्वार 'विलग्न' (उस दिन की उदित राशि) से सम्बन्धित है। इस द्वार में कहा गया है कि विवाह, दीक्षा, प्रतिष्ठा आदि में उस दिन की उदित राशि वाला लग्न ग्रहण करना चहिये। इसमें निषेधित लग्न, ग्रहों के उदय-अस्त दिन की संख्या, वर्ष-मासादि की शुद्धि पर विशेष चर्चा की गई है। एकादश द्वार 'मिश्र' नाम का है। इसमें निर्देश है कि दीक्षा, प्रतिष्ठादि के लग्न में चन्द्रबल अवश्य देखना चाहिए। उस चन्द्रबल में १. राशिगोचर, २. नवांशगोचर, ३. अष्ट- वर्गशुद्धि, ४. शुभतारा, ५. शुभावस्था, ६.वामवेध, ७.शुक्लेतर पक्ष प्रारम्भ, ८. मित्राधिमित्रगृहस्थिति, ६. सौम्यगृहस्थिति, १०.मित्राधिमित्रांशस्थिति, ११.सौम्यांशस्थिति, १२.मित्राधिमित्रग्रहयुति,१३. सौम्यग्रहयुति, १४. मित्राधिमित्रग्रहदृष्टि, १५. सौम्यग्रहदृष्टि इन विषयों पर विचार करना चाहिए।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास /591
इस द्वार में यह भी उल्लिखित है कि दीक्षा - प्रतिष्ठादि में जन्ममास का नक्षत्र त्याग करना चाहिए। दीक्षादि में कौन से दिन त्याज्य होते हैं? प्रतिष्ठादि के लिए कौन से नक्षत्र ग्राह्य होते हैं ? सभी कार्यों में कौन से लग्न त्याज्य हैं ? दीक्षा लग्न में कौनसे ग्रह शुभ होते हैं ? नृपाभिषेक के समय नक्षत्र और ग्रहव्यवस्था कैसी होनी चाहिये ? इत्यादि ।
इस ग्रन्थ का समग्र अवलोकन करने से प्रतीत होता है कि यह जैन ज्योतिष का अक्षय भण्डार रूप है। इसमें शुभ-अशुभ योग कैसे बनते है ? कौनसा नक्षत्र किसका संज्ञावाचक है ? ग्रहगोचर की शुभाशुभ स्थिति कैसी होती है ? बारह भावों का विचार किस प्रकार करना चाहिए इत्यादि कई प्रकार की विधियों से विषय को स्पष्ट किया गया है। इस कृति की टीका अवश्य ही पठनीय है। यह टीका वि.सं. १५१४ में, शुक्लादूज के साथ गुरुवार के दिन आशापल्लि नगर में रची गई थी। इस ग्रन्थ में कई प्रकार के कोष्ठक भी दिये गये हैं जो दुरूह विषय को सुस्पष्ट करते हैं। इसमें ग्यारह द्वारों को पाँच विमर्श में विभक्त किया है।
विशेष - हमें आरंभसिद्धि' नामक एक कृति और देखने को मिली है। यह कृति हरिभद्रसूरि रचित 'लग्नशुद्धिप्रकरण' और रत्नशेखरसूरि विरचित 'दिनशुद्धिप्रकरण' के साथ है। इसमें आरंभसिद्धि ग्रन्थ को पाँच विमर्शो एवं ग्यारह द्वारों में विभक्त किया गया है। इस कृति का रचनाकाल १३ वीं शती माना है। इसमें मूल ग्रन्थ का गुजराती भाषान्तर दिया गया है। उक्त दोनों प्रकरण प्राकृत पद्य में हैं। लग्नशुद्धि प्रकरण १३३ गाथाओं में निबद्ध है और दिनशुद्धि प्रकरण १४४ गाथाओं में गुम्फित है।
लग्नशुद्धि नामक प्रकरण में सामान्यतः गोचरशुद्धि, दिनशुद्धि और लग्नशुद्धि इन तीनों द्वारों पर विचार किया गया है। गोचरशुद्धि नामक प्रथम द्वार में लग्न शब्द का अर्थ और चंद्र, गुरु, रवि एवं ताराओं की शुद्धि आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है । दिनशुद्धि नामक दूसरे द्वार में मास, वार, तिथि, नक्षत्र, योग, करण आदि दस द्वारों के नाम कहे गये हैं तथा इन मास, वार आदि की शुद्धि का वर्णन किया गया है। लतादोष, पातदोष, एकार्गलदोष, सन्ध्यागत आदि वर्ज्य नक्षत्र का भी उल्लेख हुआ है। लग्नशुद्धि नामक तीसरे द्वार में लग्नशुद्धि के प्रकार, लग्न के स्थान, उदयास्त शुद्धि, ग्रहों की दृष्टि, दीक्षा-प्रतिष्ठा-सूरिपद-राज्याभिषेक - विवाहादि से सम्बन्धित शुभाशुभ ग्रहों का कथन, सौम्य तथा क्रूरग्रह, शुभशकुन इत्यादि का प्रतिपादन हुआ है।
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यह ग्रन्थ 'सरस्वती पुस्तक भंडार, रतनपोल, हाथीखाना, अहमदाबाद' से वि.सं. २०४५ में प्रकाशित हुआ है।
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592/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
दिनशुद्धि नामक प्रकरण में वार, तिथि, नक्षत्र, योग, योगिनी, लग्न, आदि का सविस्तार वर्णन हुआ है। उनमें प्रस्थान, प्रवेश, दीक्षा, लोच, प्रतिमाप्रवेश, विद्यारंभ, नूतन पात्र का उपयोग, प्रतिष्ठा मुहूर्त आदि कृत्यों में कौनसा दिन, वार, नक्षत्र, लग्न, चंद्रबलादि शुभ और अशुभ होते है? मृतादि कार्य में कौन से नक्षत्र वर्ण्य हैं? प्रतिमा का नाम रखने की विधि, कर्णवेध तथा राजा के दर्शन करने के नक्षत्र, खोयी हुई वस्तु पुनः मिलने के नक्षत्र आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है।
जैन ज्योतिष का प्रारम्भिक एवं शास्त्रविहित ज्ञानार्जन करने की दृष्टि से ये दोनों कृतियाँ बहुमूल्य सिद्ध हुई हैं। उवस्सुइदार (उपश्रुतिद्वार)
यह तीन पत्रों की प्राकृत भाषा की कृति पाटन के जैन भंडार में है। इसके कर्ता अज्ञात है। इसमें सुने गये शब्दों के आधार पर शुभाशुभ फल कहने का वर्णन है। उदयदीपिका
यह ग्रन्थ उपाध्याय मेघविजयजी ने वि.सं. १७५२ में मदनसिंह श्रावक के लिए रचा था। इसमें ज्योतिष संबंधी प्रश्नों और उनके उत्तरों का वर्णन है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। उस्तरलावयंत्र
इसकी रचना वडगच्छीय विनयसुन्दर मुनि के शिष्य मुनि मेघरत्न ने की है। यह कृति वि.सं. १५५० के करीब रची गई है। इसमें ३८ श्लोक हैं। यह कृ ति खगोलशास्त्रियों के लिये उपयोगी विषयों पर प्रकाश डालती है। इसमें अक्षांश
और रेखांश का ज्ञान प्राप्त करने की विधि बतायी गई है और इसके लिए एक उपयोगी यंत्र दिया गया है। इस यंत्र के द्वारा नतांश और उन्नतांश का वेध करने की भी सहायता ली जाती है। इससे काल का परिज्ञान भी होता है।' टीका - इस लघु कृति पर स्वोपज्ञ टीका भी रची गई है। करणराज
इस ग्रन्थ के रचयिता रुद्रपल्लीगच्छीय जिनसुन्दरसूरि के शिष्य मुनिसुन्दर है। इसका रचनाकाल वि.सं.१६५५ है। यह ग्रन्थ दस अध्यायों में विभक्त है १.
' यह ग्रन्थ अप्रकाशित है परंतु इसका परिचय श्री अगरचन्द नाहटा ने 'उस्तरलाव-यन्त्रसम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ' शीर्षक से 'जैन सत्यप्रकाश' में छपवाया है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 593
ग्रहमध्यम- साधन, २. ग्रहस्पटीकरण, ३. प्रश्नसाधक, ४. चन्द्र ग्रहण साधन, ५. सूर्यसाधक, ६ . त्रुटित होने से विषय ज्ञात नहीं होता है, ७. उदयास्त, ८. ग्रहयुद्धनक्षत्रसमागम, ६. पाताव्यय, १०. निमिशक (?) अन्त में प्रशस्ति विवरण है। ' करणकुतूहल- टीका
इसकी रचना वि. सं. १२४० के आसपास भास्कराचार्य ने की है। उनका यह ग्रन्थ करण विषयक है। इस ग्रन्थ में निम्नोक्त दस अधिकार हैं- १. मध्यम, २. स्पष्ट, ३. त्रिप्रश्न, ४. चन्द्र ग्रहण, ५. सूर्य ग्रहण, ६. उदयास्त, ७. श्रृंगोन्नति, ८. ग्रहयुति, ६. पात और १०. ग्रहणसंभव ।
इसमें कुल १३६ पद्य हैं। इस ग्रन्थ पर सोढल, नार्मदात्मज पद्मनाभ, शंकर कवि आदि की टीकाएँ हैं। इसके सिवाय अंचलगच्छीय मुनि हर्षरत्न के शिष्य मुनि सुमतिहर्ष मुनि ने वि. सं. १६७५ में 'गणककुमुदकौमदी' नामक टीका रची है। इस टीका का ग्रन्थाग्र १८५० श्लोक हैं।
२
केवलज्ञानहोरा
इसके कर्त्ता दिगम्बर जैनाचार्य चन्द्रसेन है। इन्होंने यह रचना तीन-चार हजार श्लोक - परिमाण में रची है। इसमें होरा विषयक निरूपण हुआ है। इस ग्रन्थ के आरम्भ में होरा के कई अर्थ कहे हैं १. होरा यानि ढ़ाई घटी या एक घण्टा, २. एक राशि या लग्न का अर्धभाग, ३. जन्मकुण्डली, ४. जन्मकुण्डली के अनुसार भविष्य कहने की विद्या अर्थात् जन्मकुण्डली का फल बताने वाला शास्त्र । वस्तुतः यह शास्त्र लग्न के आधार पर शुभ-अशुभ फलों का निर्देश करता है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में ज्योतिष विधि-विधान सम्बन्धी हेमप्रकरण, दाम्यप्रकरण, शिलाप्रकरण, मृत्तिकाप्रकरण, वृक्षप्रकरण, कर्पास - गुल्म-व - वल्काल- तृण-र - रोमचर्म-पटप्रकरण, संख्याप्रकरण, नष्टद्रव्यप्रकरण, निर्वाहप्रकरण, अपत्यप्रकरण, लाभालाभप्रकरण, स्वर- प्रकरण, स्वपनप्रकरण, वास्तुविद्याप्रकरण, भोजनप्रकरण, देहलोहदीक्षाप्रकरण, अंजनविद्या प्रकरण, विषविद्याप्रकरण आदि अनेक प्रकरण हैं। इस ज्योतिष पर कर्नाटक प्रदेश का काफी प्रभाव रहा हुआ है। स्पष्टीकरण के लिए बीच-बीच में कन्नड़ भाषा का भी प्रयोग किया गया है। यह कृति अप्रकाशित है।
गणिविज्जापइण्णयं - (गणिविद्याप्रकीर्णक)
"
इसकी ७ पत्रों की अपूर्ण प्रति अनूप संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर में है ।
२
यही टीका - ग्रन्थ मूल के साथ वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई से प्रकाशित हुआ है।
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594 / ज्योतिष-निमित्त शकुन सम्बन्धी साहित्य
'गणिविद्या' नामक यह कृति प्राकृत पद्य में निबद्ध है और इसमें कुल ८६ गाथाएँ हैं।' यह कृति निमित्त शास्त्र विषयक विधि-विधानों से सम्बन्धित है। प्रस्तुत ग्रन्थ के मंगलाचरण में स्पष्ट रूप से निर्देश किया गया है कि जिनभाषित प्रवचन शास्त्र में जिस प्रकार से ग्रह, नक्षत्र, मुहूर्त, करण आदि की बलाबल विधि कही गयी है तदनुसार इनका वर्णन करने की प्रतिज्ञा अभिव्यक्त है । ग्रन्थकार ने अन्त में भी 'अनुयोग के ज्ञायक सुविहितों के द्वारा बलाबल विधि कही गयी है' ऐसा उल्लेख किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यह कृति मूलतः विधि - विधानपरक है।
दूसरी बात इससे यह भी फलित होती है, कि इस ग्रन्थ के कर्त्ता जैन आगम साहित्य के अध्येता है और उसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की है। प्रतिज्ञा वाक्य से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत कृति मात्र संकलन नहीं होकर किसी व्यक्ति विशेष की रचना है किन्तु सम्पूर्ण ग्रन्थ में कहीं भी ग्रन्थकर्त्ता ने अपना नामोल्लेख नहीं किया है। फिर भी इतना अवश्य कह सकते हैं कि यह ग्रन्थ किसी बहुश्रुत स्थविर की ही रचना है। इस ग्रन्थ के रचनाकाल का स्पष्टीकरण नन्दीसूत्र आदि ग्रन्थों से होता है। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में इस ग्रन्थ का नामोल्लेख होना स्पष्ट रूप से यह बताता है कि इसकी रचना विक्रम की पाँचवी शताब्दी के पूर्व हुई है।
गणिविद्या की व्याख्या करते हुए लिखा गया है कि समस्त बाल-वृद्ध मुनियों का समूहगण कहलाता है और जो ऐसे गण का स्वामी हो, वह गणी कहलाता है। विद्या का अर्थ होता है ज्ञान अर्थात् जिस ग्रंथ में दीक्षा सामायिक चारित्र का आरोपण, महाव्रत स्थापन, श्रुत संबंधित उपदेश, समुद्देश, अनुज्ञापन, गण का आरोपण, निर्गम-प्रवेश आदि विधि-विधानों से सम्बन्धित तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त्त एवं योग का निर्देश हो, वह गणिविद्या है।
२
प्रस्तुत कृति में ज्योतिष को लेकर नौ विषयों का विधिवत् निरूपण हुआ
-
9
(क) तन्दुलवैचारिक, गणिविद्या, मरणसमाधि, आतुरप्रत्याख्यान,
महाप्रत्याख्यान, संस्तारक, वीरस्तव, चतुःशरण, भक्तपरिज्ञा,
आदि ये मूल प्रकीर्णक 'पइण्णयसुत्ताई' भा. १ में प्रकाशित हैं। यह ग्रन्थ वि.सं. २०४० में 'श्री महावीर जैन विद्यालय, मुंबई' से प्रकाशित हुआ है।
=
(ख) १. चतुःशरण, २. आतुरप्रत्याख्यान, ३. महाप्रत्याख्यान, ४. भक्तपरिज्ञा, ५. तंदुलवैचारिक, ६. संस्तारक, ७. गच्छाचार, ८. गणिविद्या, ६. देवेन्द्रस्तव, १०. मरणसमाधि ये प्रकीर्णक संस्कृत छाया के साथ प्रताकार रूप में 'आगमोदय समिति' से प्रकाशित है।
२
नन्दिसूत्र चूर्णि सहित - उद्धृत गणिविद्या प्रकीर्णक- हिन्दी अनुवाद, प्रस्तावना पृ. ६
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/595
है। इसमें यह बताया गया है कि कौनसा विधान कब और किस मुहूर्त में करना चाहिए। इसमें मुहूर्त सम्बन्धी विधि का प्रधानता के साथ प्रतिपादन हुआ है। गणिविद्या के नौ द्वारों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - १. तिथिद्वार - चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना गया है। इसका निर्णय चन्द्र एवं सूर्य के अंतराशों के आधार पर किया जाता है। अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्ल पक्ष की एवं पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष की होती हैं। गणिविद्या में इन दोनों पक्षों की १५-१५ तिथियों का वर्णन किया गया है।
__ इन तिथियों का नामकरण नन्दा, भद्रा, विजया, रिक्ता, पूर्णा आदि रूपों में किया गया है। श्रमणों के लिए यह कहा गया हैं कि वह नन्दा, जया एवं पूर्णा संज्ञक तिथियों में शैक्ष को दीक्षित न करें। नन्दा एवं भद्रा तिथियों में नवीन वस्त्र धारण करें एवं पूर्णा तिथि में अनशन करें। २. नक्षत्रद्वार - तारों के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं। इन तारा-समूहों से आकाश में अश्व, हाथी, सर्प, आदि की आकृतियाँ बनती हैं। इसी आधार पर नक्षत्रों का नामकरण किया गया है। आकाश मंडल में ग्रहों की दूरी नक्षत्रों से ज्ञात की जाती है। ज्योतिष शास्त्रों में २७ नक्षत्र माने गये हैं। अभिजित् को २८ वाँ नक्षत्र माना गया है। इसमें में संध्यागत, विड्वेर, रविगत, विलम्बित, राहुहत, संग्रह एवं ग्रहभिन्न इन सात नक्षत्रों के नाम भी दिये गये हैं।
इसके साथ ही इसमें उपस्थापना (बडीदीक्षा) योग्य, गणि योग्य, वाचक योग्य, प्रतिमा धारण करने योग्य एवं गुरु की सेवा तथा पूजा करने योग्य नक्षत्रों की भी चर्चा की गई है। ३. करण द्वार - तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। एक तिथि के दो करण होते हैं। गणिविद्या में ग्यारह करणों का उल्लेख मिलता है। यहाँ पर बताया गया है कि बव, बालव, कालव, वणिज नाग एवं चतुष्पद करण में प्रव्रज्या देनी चाहिए। बव नामक करण में, व्रतोपस्थापन एवं गणि, वाचक आदि पद प्रदान करने चाहिए। शकुनि एवं विष्टिकरण पादोपगमन संथारे के लिए शुभ माने गये हैं। ४. ग्रहदिवसद्वार - जिस दिन की प्रथम होरा का जो गृहस्वामी होता है उस दिन उसी ग्रह के नाम का वार अथवा दिवस रहता है। वार सात होते हैं - रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र एवं शनि। गणिविद्या में कहा गया है कि गुरु, शुक्र एवं सोमवार को दीक्षा एवं व्रतों में स्थापना करनी चाहिए और गणि, वाचक आदि पद प्रदान करने चाहिए। रवि, मंगल एवं शनि संयमसाधना एवं पादोपगमन आदि समाधिमरण का क्रियाओं के लिए शुभ है।
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596/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
५. मुहूर्तद्वार - तीस मुहूर्त का एक दिन रात होता है। तीस मुहूत्तों में पन्द्रह मुहूर्त दिन के और पन्द्रह मुहूर्त रात्रि के होते हैं। गणिविद्या में दिन के १५ मुहूत्तों के नाम एवं कुछ रात्रि के मुहूत्तों के नाम बताये गये हैं, परन्तु रात्रि में किसी भी कार्य को करने का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। इसमें कहा गया हैं कि मित्र, नन्दा, सुस्थित, अभिजित, चन्द्र, वरुण, अग्निवेश, ईशान, आनन्द एवं विजय इन मुहूत्तों में शैक्ष को उपस्थापित (महाव्रतों में दीक्षित) और गणि एवं वाचक पद प्रदान करें। ब्रह्म, वलय, वायु, वृषभ तथा वरुण मुहूर्त में अनशन, पादोपगमन एवं समाधिमरण ग्रहण करें। ६. शकुनबलद्वार - प्रत्येक कार्य को करने के पूर्व घटित होने वाले शुभत्त्व या अशुभत्त्व का विचार करना शकुन कहलाता है। ग्रन्थ में बताया गया है कि पुल्लिंग नाम वाले शकुनों में शैक्ष को दीक्षा प्रदान करें। स्त्री नाम वाले शकुनों में समाधिमरण ग्रहण करें, नपुंसक नाम वाले शकुनों में सभी शुभ कार्यों का त्याग करें एवं मिश्रित निमित्तों (शकुनों) में सभी आरम्भों का त्याग करें। ७. लग्नबलद्वार - लग्न का अर्थ है- वह क्षण जिसमें सूर्य का प्रवेश किसी राशि विशेष में होता हो। लग्न के आधार पर किसी कार्य के शुभ-अशुभ फल का विचार करना लग्न शास्त्र कहा जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अस्थिर राशियों वाले लग्नों में शैक्ष को दीक्षा प्रदान करना, स्थिर राशियों वाले लग्नों में व्रत की उपस्थापना करना, एकावतारी लग्नों में स्वाध्याय एवं होरा लग्नों में शैक्ष को दीक्षा प्रदान करने का निर्देश किया है। इसमें यह भी बताया है कि सौम्य लग्नों में संयमाचरण एवं क्रूर लग्नों में उपवास आदि करना चाहिए। राहु एवं केतु वाले लग्नों में सर्वकार्य त्याग करने चाहिए। ८. निमित्तबलद्वार - भविष्य आदि जानने के एक प्रकार को निमित्त कहा गया है। कार्यों को सम्पादित करने के लिए निमित्त पर भी विचार करना आवश्यक होता है। यहाँ पर पुरुष नाम वाले निमित्तों में पुरुष दीक्षा ग्रहण करें एवं स्त्री नाम वाले निमित्तों में स्त्री दीक्षा ग्रहण करें, ऐसा कहा गया है। नपुंसक संज्ञा वाले निमित्तों में करने योग्य कृत-अकृत कार्यों का भी विवेचन किया गया है। ग्रन्थ की अंतिम गाथाओं में बलाबल विधि पर विचार करते हुए कहा है कि दिवसों से तिथि बलवान होती है, तिथियों से नक्षत्र बलवान होते हैं, नक्षत्रों से करण और करणों से ग्रह बलवान होते हैं, ग्रहों से मुहूर्त, मुहूत्तों से शकुन, शकुनों से लग्न और लग्नों से निमित्त बलवान होते हैं। गणसारणी
इस ज्योतिष विधान विषयक ग्रन्थ की रचना पार्श्वचन्द्रगच्छीय
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/597
मुनिजगच्चन्द्र के शिष्य मुनि लक्ष्मीचन्द्र ने वि.सं. १७६० में की है। इस ग्रन्थ में तिथिध्रुवांक, अंतरांकी, तिथिकेन्द्रचक्र, नक्षत्रध्रुवांक, नक्षत्रचक्र, योगकेन्द्रचक्र, तिथिसारणी, तिथि-केन्द्र, घटी अंशफल, नक्षत्रफल सारणी, नक्षत्रकेन्द्रफल, योगगणकोष्ठक आदि विषय निरुपित हैं। गणहरहोरा (गणधर होरा)
यह कृति किसी अज्ञात विद्वान ने रची है। इसमें २६ गाथाएँ है। इस ग्रंथ के मंगलाचरण में 'नमिऊण इंदभूइं' का उल्लेख होने से यह किसी जैनाचार्य की रचना प्रतीत होती है। इसमें ज्योतिषविषयक होरा संबंधी विचार है। इसकी तीन पत्रों की एक प्रति पाटन के जैन भंडार में है। ग्रहलाघव-टीका
ग्रहलाघव की रचना गणेश नामक विद्वान ने की है। वे बहुत बड़े ज्योतिषी थे। यह रचना १६ वीं शती के आस-पास की है। यह टीका ग्रन्थ चौदह अधिकारों में विभक्त है - १. मध्यमाधिकार, २. स्पष्टाधिकार, ३. पंचताराधिकार, ४. त्रिप्रश्न, ५. चन्द्रग्रहण, ६. सूर्यग्रहण, ७. मासग्रहण, ८. स्थूलग्रहसाधन ६. उदयास्त, १०. छाया, ११. नक्षत्र-छाया १२. श्रृंगोन्नति, १३. ग्रहयुति और १४. महापात।
इसमें सब मिलाकर १८७ श्लोक हैं। इस ग्रन्थ पर चारित्रसागर के शिष्य यशस्वत्सागर ने वि.सं. १७६० में टीका रची है। चन्द्रप्रज्ञप्ति
यह जैन आगमों का सातवाँ उपांगसत्र है। मलयगिरि ने इस पर टीका रची है। श्री अमोलक ऋषिजी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है, जो हैदराबाद से प्रकाशित हुआ है। वर्तमान में उपलब्ध चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र और सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र का विषय लगभग समान है। अतः सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र के समान ही इस ग्रन्थ का विवरण समझना चाहिए। चतुर्विशिकोद्वार
इस ज्योतिष ग्रन्थ के कर्ता कासहृदगच्छीय मुनि नरचन्द्र उपाध्याय है। उन्होंने इस कृति के प्रथम श्लोक में ही ग्रन्थ का उद्देश्य प्रस्तुत कर दिया है। यह सतरह श्लोकों की लघुकृति है। इसमें होराद्यानयन, सर्वलग्नग्रहबल, प्रश्नयोग, जयाजयपृच्छा, रोगपृच्छा आदि विषयों की चर्चा हुई है। यह ग्रन्थ अत्यन्त गूढ़
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598 / ज्योतिष - निमित्त शकुन सम्बन्धी साहित्य
और रहस्यपूर्ण है। यह कृति अप्रकाशित है । ' अवचूरि- इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ अवचूरि लिखी गई है। चमत्कारचिन्तामणि- टीका
यह रचना राजर्षि भट्ट की है। इसमें मुहूर्त और जातक दोनों अंगों के विषय में उपयोगी बातों का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ पर खरतरगच्छीय मुनि पुण्यहर्ष के शिष्य मुनि अभयकुशल ने लगभग वि.सं. १७३७ में बालावबोधिनी वृत्ति रची है। मुनि मतिसागर ने वि.सं. में इस ग्रन्थ पर 'टबा' की रचना की है। छायादार
इसकी रचना अज्ञात नामक विद्वान ने की है। यह प्राकृत के १२३ पद्यों में रचित है। इसके दो पत्रों की प्रति पाटन के जैन भंडार में है। इसमें छाया के आधार पर शुभ-अशुभ फलों का विचार किया गया है।
छींक - विचार
यह रचना अज्ञात कर्त्ता की है। इसकी भाषा प्राकृत है। इसमें छींक के शुभ - अशुभ फलों के बारे में वर्णन हैं। इसकी प्रति पाटन के भंडार में है । जन्मसमुद्र
इस ग्रन्थ के कर्त्ता उपाध्याय नरचन्द्र हैं। ये कासहृदगच्छीय श्री उद्योतनसूरि के प्रशिष्य एवं सिंहसूरि के शिष्य थे। इसकी रचना वि.सं. १३२३ में हुई है। यह ज्योतिष विधान विषय लाक्षणिक ग्रन्थ है। इसमें आठ विभाग है १. गर्भसंभवादि लक्षण,२. जन्मप्रत्ययलक्षण, ३. रिष्टयोगतमंगलक्षण, ४. निर्वाणलक्षण, ५. द्रव्योपार्जनराजयोग लक्षण, ६. बालस्वरूपलक्षण, ७. स्त्रीजातकस्वरूपलक्षण, ८. नामसादियोग-दीक्षावस्था - युर्योगलक्षण
इसमें लग्न और चन्द्रमा से समस्त फलों का विचार किया गया है। जातक के लिए यह अत्यंत उपयोगी ग्रन्थ है । '
२
टीका
इस ग्रन्थ पर 'बेड़ाजातक' नामक स्वोपज्ञ वृत्ति रची गई है। यह वृत्ति १०५० श्लोक प्रमाण है । इनके ज्योतिष विषयक अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं।
१
-
इसकी १ प्रति अहमदाबाद के ला. द.भा.सं. विद्यामंदिर में है।
२
यह कृति अप्रकाशित है। इसकी ७ पत्रों की हस्तलिखित प्रति ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर अहमदाबाद में है।
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जन्मप्रदीपशास्त्र
इस ग्रन्थ के कर्त्ता एवं ग्रन्थ का रचनाकाल अज्ञात है। इसमें कुण्डली के १२ भुवनों के लग्नेश के बारे में चर्चा की गई है। यह ग्रन्थ पद्य में है । ' जन्मपत्री - पद्धति
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 599
इस ग्रन्थ की रचना नागोरी तपागच्छीय श्री हर्षकीर्तिसूरि ने वि.सं. १६६० में की है। इस ग्रन्थ की संकलना सारावली, श्रीपतिपद्धति आदि विख्यात ग्रन्थों के आधार से की गई है। इसमें जन्मपत्री बनाने की रीति, ग्रह, नक्षत्र, वार, दशा आदि के फल बताये गये हैं।
२
जन्मपत्री - पद्धति
इसकी रचना खरतरगच्छीय मुनि कल्याणनिधान के शिष्य लब्धिचन्द्रगणि ने वि.सं. १७५१ में की है। यह एक व्यवहारोपयोगी ज्योतिष ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में इष्टकाल, भयात, भंभोग, लग्न और नवग्रहों का स्पष्टीकरण करने की विधि बतायी गई है। साथ ही इसमें जन्मपत्री के सामान्य फलों का वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है।
जन्मपत्री - पद्धति
यह ग्रन्थ मुनि महिमोदय ने वि.सं. १७२१ में रचा है। इसकी रचना गद्य में है। इसमें सारणी, ग्रह, नक्षत्र, वार आदि के फल बताये गये है।
३
जयपाहुड़
यह एक निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ है। इसके कर्त्ता का नाम अज्ञात है। इसे जिनभाषित कहा गया है। यह रचना ईसा की १० वीं शताब्दी के पूर्व की मानी गई है। यह कृति प्राकृत में है । इसमें ३७८ गाथाएँ हैं यह ग्रन्थ अतीत, अनागत आदि से सम्बन्धित नष्ट, मुष्टि, चिंता, विकल्प आदि अतिशयों का बोध कराता है। इससे लाभ - अलाभ का ज्ञान प्राप्त होता है। जिनमें संकट - विकट प्रकरण, मनुष्यप्रकरण, पक्षीप्रकरण, चिंताभेद प्रकरण, गुणाकर प्रकरण, अस्त्रविभाग प्रकरण आदि से सम्बन्धित विवेचन है। यह ज्ञातव्य कि निमित्त विषयक कथन की भी एक पद्धति, विधि और रीति होती है।
,
इसकी ५ पत्रों की हस्तलिखित प्रति ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर अहमदाबाद में है।
२ इस ग्रन्थ की ५३ पत्रों की प्रति अहमदाबाद के ला. भा. सं. विद्यामंदिर में है।
३ इस ग्रन्थ की १० पत्रों की प्रति ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर अहमदाबाद में है।
४
यह ग्रन्थ चूडामणिसार-सटीक के साथ सिंधी जैन ग्रन्थमाला, बंबई से प्रकाशित हुआ है।
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600/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
ज्योतिस्सारसंग्रह
इसकी रचना तपागच्छीय चन्द्रकीर्तिसूरि के शिष्य हर्षकीर्तिसूरि ने वि.सं. १६६० में की है। इसे 'ज्योतिषसारोद्धार' भी कहते हैं। यह ग्रन्थ तीन प्रकरणों में विभक्त है।' ग्रन्थकार ने भक्तामरस्तोत्र, लघुशान्ति स्तोत्र, अजितशान्तिस्तव, नवकारमंत्र आदि स्तोत्रों पर टीकाएँ रची हैं। ज्योतिस्सार (जोइसहीर)
इस ग्रन्थ की रचना खरतरगच्छीय उपाध्याय देवतिलक के शिष्य मुनि हीरकलश ने वि.सं. १६२१ में की है। यह कृति प्राकृत पद्य में है। इसमें दो प्रकरण हैं। इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति बम्बई के माणकचन्द्रजी के भण्डार में है। मुनि हीरकलश में राजस्थानी भाषा के ६०० दोहों में हीरकलश नामक ग्रन्थ रचना भी की है वह कृति श्री साराभाई नवाब अहमदाबाद ने प्रकाशित की है।
इस ग्रन्थ में जो विषय निरूपित हैं वही इस प्राकृत ग्रन्थ में भी निबद्ध है। इसमें ज्योतिष सम्बन्धी आवश्यक विधि-विधान बताये गये हैं। यह एक प्रसिद्ध कृति है। मुनि हीरकलश की अन्य कृतियाँ ये हैं - १.अठार-नाता सज्झाय, २. कुमतिविध्वंस-चौपाई, ३. मुनिपति-चौपाई,४.सोल-स्वप्न सज्झाय, ५.आराधनाचौपाई, ६. सम्यक्त्व-चौपाई, ७. जम्बू-चौपाई, ८. मोती-कपासिया संवाद, ६. सिंहासन-बत्तीसी, १०. रत्नचूड़-चौपाई, ११. जीभ-दाँत संवाद, १२. हियाल, १३. पंचाख्यान, १४. पंचसती-द्रुपदी चौपाई, १५. हियाली। ये सब कृतियाँ जूनी गुजराती अथवा राजस्थानी में हैं। ज्योतिस्सार
इस ग्रन्थ की रचना ठक्करफेरु ने प्राकृत पद्य में की है। उन्होंने इस ग्रन्थ में हरिभद्रसूरि, पद्मप्रभसूरि नरचंद्र, जउण, वराह, लल्ल, पाराशर, गर्ग आदि ग्रन्थकारों के नामों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इनके ग्रन्थों का अवलोकन करके ही यह ग्रन्थ रचा गया है। इसका रचनाकाल वि.सं. १३७२-७५ के आसपास है।
इसमें कुल २३८ गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ चार द्वारों में विभक्त है। पहले दिन शुद्धि नामक द्वार में ४२ गाथाएँ हैं, जिनमें वार, तिथि और नक्षत्र जन्म
' इसकी हस्तलिखित प्रति अहमदाबाद के डेला भंडार में उपलब्ध है। 'उद्धृत- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ५ पृ. १८५-८६ ३ यह रत्नपरीक्षादिसप्तग्रन्थसंग्रह के नाम से राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से प्रकाशित
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/601
सिद्धियोग का प्रतिपादन हुआ है। दूसरे व्यवहार नामक द्वार में ६० गाथाएँ हैं, जिनमें ग्रहों की राशि, स्थिति, उदय, अस्त और वक्र दिन की संख्या का वर्णन है। तीसरे गणित नामक द्वार में ३८ गाथाएँ हैं और चौथे लग्नद्वार में ६८ गाथाएँ हैं इनमें भी ज्योतिष सम्बन्धी विधि-विधान का निरूपण हैं। ज्योतिस्सार
आचार्य नरचन्द्रसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना २५७ पद्यों की है। में इसका रचनाकाल वि.सं. १२८० में है। ये मलधारी गच्छ के आचार्य देवप्रभसूरि के शिष्य थे।
इस ग्रन्थ में निम्नोक्त ४८ विषयों पर प्रकाश डाला गया है' - १. तिथि, २. वार, ३. नक्षत्र, ४. योग, ५. राशि, ६. चन्द्र, ७. ताराबल, ८. भद्रा, ६. कुलिक, १०. उपकुलिक, ११. कण्टक, १२. अर्धप्रहर, १३. कालबेला, १४. स्थविर, १५-१६. शुभ-अशुभ, १७-१६. ख्युपकुमार, २०. राजादियोग, २१. गण्डान्त, २२. पचंक, २३. चन्द्रावस्था, २४. त्रिपुष्कर, २५. यमल, २६. करण, २७. प्रस्थानक्रम २८. दिशा, २६. नक्षत्रशूल, ३०. कील, ३१. योगिनी, ३२. राहु, ३३. हंस, ३४. रवि, ३५. पाश, ३६. काल, ३७. वत्स, ३८. शुक्रगति, ३६. गमन, ४०. स्थाननाम, ४१. विद्या, ४२. क्षौर, ४३. अम्बर, ४४. पात्र, ४५. नष्ट, ४६. रोगविराम, ४७. पैत्रिक, ४८. गेहारम्भ।
इनके रचित चतुर्विंशतिजिनस्तोत्र, प्राकृतदीपिका, अनर्घराघव-टिप्पण, न्यायकन्दली-टिप्पण और वस्तुपाल-प्रशस्तिरूप शिलालेख आदि मिलते हैं। टिप्पण - इस ग्रन्थ पर श्री सागरचन्द्रमुनि ने १३३५ श्लोक परिमाण टिप्पण की रचना की है। इसमें विशेषतः ज्योतिस्सार में दिये गये यंत्रों का उद्धार और उस पर विवेचन किया गया है। ज्योतिर्विदामरण-टीका
___ इस ग्रन्थ के रचनाकार के विषय में कई मत हैं। कुछ विद्वान् इसे रघुवंश के कर्ता कालिदास की रचना मानते हैं तो कुछ जन दूसरे ही कालिदास की रचना मानते हैं। एक विद्वान ने इसका रचनाकाल १६ वीं शताब्दी माना है। यह ग्रन्थ मुहूर्त्तविषयक है। इस पर पूर्णिमागच्छ के भावरत्नसूरि (भावप्रभसूरि) ने सन् १७१२ में सुबोधिनी-वृत्ति रची है। यह अप्रकाशित है।
' यह कृति पं. क्षमाविजयजी द्वारा संपादित होकर शाह, मूलचंद बुलाखीदास मुंबई की ओर से सन् १६३८ में प्रकाशित हुई है।
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602/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
ज्योतिषप्रकाश
यह ग्रन्थ उपाध्याय नरचन्द्र मुनि ने रचा है। यह फलित ज्योतिष के मुहूर्त और संहिता का सुन्दर ग्रन्थ है। इसके दूसरे विभाग में जन्मकुण्डली के फलों का विचार किया गया है। इस ग्रन्थ द्वारा फलित ज्योतिष का आवश्यक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। ज्योतिषरत्नाकर
इस ग्रन्थ की रचना मुनि लब्धिविजयजी के शिष्य महिमोदय मुनि ने की है। यह कृति करीब वि.सं. १७२२ की है। ये गणित और फलित दोनों प्रकार की ज्योतिर्विद्या को मर्मज्ञ विद्वान थे। यह ग्रन्थ फलित ज्योतिष का है। इसमें संहिता, मुहूर्त और जातक इन तीनों विषयों पर प्रकाश डाला गया है। यह ग्रन्थ छोटा होते हुए भी अत्यन्त उपयोगी है। ज्योतिषकरण्डक
ज्योतिषकरण्डक नामक यह प्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना है। यह कृति पादलिप्ताचार्य (द्वितीय) की है। इसमें कुल ४०५ गाथाएँ हैं। यह ग्रन्थ १८३० श्लोक परिमाण रूप है। इसका रचना काल लगभग ग्यारहवीं शती है। प्रस्तुत कृति का प्रतिपाद्य पिण्य ज्योतिष संबंधी तिथि-नक्षत्र-पौरुषी परिमाण, ऋतुपरिमाण आदि का विधिवत् विवेचन करना है।
इसमें ज्योतिष सम्बन्धी तेईस अधिकार हैं। प्रारम्भ में वर्धमानस्वामी को नमस्कार किया गया है इसके पश्चात् तेईस अधिकारों के नाम निर्देश किये गये हैं - १. काल परिमाण, २. मान-अधिकार, ३. अधिकमास-निष्पत्ति, ४. अवमरात्र, ५-६. पर्वतिथि समाप्ति, ७. नक्षत्र-परिमाण, ८. चन्द्र-सूर्य-परिमाण, ६. नक्षत्र-चन्द्र-सूर्य-गति, १०. नक्षत्रयोग, ११. मण्डल विभाग, १२. अयन, १३. आवृत्ति, १४. मण्डल मुहूर्त गति, १५. ऋतु-परिमाण, १६. विषुवत्प्राभृत, १७. व्यतिपात प्राभृत १८. ताप क्षेत्र, १६. दिवस-वृद्धिहानि, २०. अमावस्या-प्राभृत, २१. पूर्णिमा-प्राभृत, २२. प्रणष्टपूर्व, २३. पौरुषी-परिमाण
उपरोक्त तेईस अधिकारों की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम काल को अनागत, अतीत और वर्तमान तथा संख्यात, असंख्यात और अनन्त निर्दिष्ट किया गया है। इसके पश्चात काल के विभिन्न परिमाण, समय, उच्छवास, प्राण, स्तोक आदि का विवरण हैं। इसमें नलिका अर्थात् घटिका के निर्माण की विधि भी बतलायी गई है। तीसरे अधिकार में अधिक मास की निष्पत्ति का विवेचन है। इसके पशचात् चौथे अधिकार का निरूपण करने के पूर्व पाँचवे-छट्टे पर्व-तिथि समाप्ति का विवेचन है। इसमें तिथि की हानि और वृद्धि का निरूपण : थे
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अधिकार में मास का बढ़ना और घटना एवं अवमरात्रांश आदि का विवेचन है। सातवें नक्षत्र परिमाण प्राभृत में नक्षत्रों के संस्थान, चन्द्रमा के परिवार आदि का निरूपण है। आँठवें अधिकार में चन्द्र और सूर्य मण्डल का तथा नौवें अधिकार में नक्षत्र, चन्द्र और सूर्य के गतिमण्डल का विवेचन है। दसवें अधिकार में इनके योगकाल आदि की विधि का निरूपण है । ग्यारहवें अधिकार में जम्बू दीप आदि का परिमाण करण एवं चन्द्र-सूर्य मण्डल आदि का विस्तार से निरूपण है। बारहवें अधिकार में सूर्य और चन्द्र की आवृत्ति का निरूपण, चौदहवें अधिकार में मुहूर्त और प्रतिमुहूर्त में जाने का परिमाण तथा पन्द्रहवें अधिकार में ऋतु परिमाण को जानने की विधि का विवेचन है। सोलहवें अधिकार में विपुवकाल, सत्रहवें अधिकार में चन्द्र और सूर्य के परस्पर व्यतिपात का निरूपण, अठारहवें अधिकार में सूर्य के तप का निरूपण तथा उन्नीसवें अधिकार में दिन की वृद्धि और हानि का निरूपण हुआ है। बीसवें एवं इक्कीसवें में अमावस्या करण और पूर्णिमा करण का विस्तार से प्रतिपादन है। बावीसवें में प्रणष्ट पर्व, जन्म और नक्षत्र आदि का विवेचन है तथा अन्तिम तेईसवें में पौरूषी परिमाण का निरूपण है । अन्त में ग्रन्थकार पादलिप्ताचार्य के नामोल्लेख पूर्वक ग्रन्थ को पूर्ण किया गया है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 603
यह ध्यातव्य है कि प्रायः सभी प्रकार के उत्तम विधि-विधान शुभमुहूर्त के आश्रित होते है अतः इनका ज्योतिष विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध मानना सर्वथोचित्त है। टीका - प्रस्तुत कृति पर मलयगिरि द्वारा ३१५० श्लोकपरिमाण वृत्ति लिखी गई है। जातकदीपिका पद्धति
इस ग्रन्थ के कर्त्ता का नाम और रचना समय अज्ञात है। किन्तु इस कृ ति के अवलोकन से यह अवगत होता है कि इस ग्रन्थ की रचना कई प्राचीन ग्रन्थकारों की कृतियों के आधार पर की गई हैं। इनमें वार, स्पष्टीकरण, ध्रुवादिनयन, भीमा दीशबीजध्रुवकरण, लग्नस्पष्टीकरण होराकरण, नवमांश, दशमांश, अन्तर्दशा, फलदशा आदि विषय पद्य में हैं। इसमें कुल ६४ श्लोक है । ' जोणिपाहुड (योनिप्राभृत)
यह रचना' दिगम्बराचार्य धरसेन की मानी जाती है। यह प्राकृत पद्य में
१
इसकी १२ पत्रों की प्रति ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर अहमदाबाद में है। वह वि.सं. १८४७ में लिखी हुई है।
२
इस अप्रकाशित ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति भांडारकर इंस्टीट्यूट, पूना में उपलब्ध है। किन्तु उस प्रति में पं. बेचरदासजी के अनुसार इसके कर्त्ता के रूप में पं. प्रज्ञाश्रमण ( पण्णसवण ) का उल्लेख है।
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604/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
है। इसका काल वि.सं. की तीसरी-चौथी शती माना जाता है। यह निमित्त शास्त्र का अति महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके विषय में कहा जाता हैं कि यह रचना कुष्मांडी देवी द्वारा उपदिष्ट होकर अपने शिष्य पुष्पदंत और भूतबलि के लिए की गई थी। इसमें उल्लिखित विधानादि के प्रयोग द्वारा ज्वर, भूत, शाकिनी आदि के उपद्रव दूर किये जा सकते हैं। यह समस्त ग्रन्थ निमित्तशास्त्र के उद्गम रूप है। इस कृति को जानने वाला कलिकाल सर्वज्ञ और चतुर्वर्ग का अधिष्ठाता बन सकता है। इस ग्रन्थ को सुनने मात्र से मंत्र-तंत्रवादी मिथ्यावादियों का तेज निष्प्रभ हो जाता है। इस प्रकार इस कृति का प्रभाव अद्भुत है। आगमिक व्याख्याओं के उल्लेखानुसार आचार्य सिद्धसेन ने 'जोणिपाहुड' के आधार से अश्व बनाये थे। इसके बल से महिषों को अचेतन किया जा सकता था और धन पैदा किया जा सकता था। विशेषावश्यकभाष्य (गा. १७७५) की मलधारी हेमचन्द्रसूरिकृत टीका में अनेक विजातीय द्रव्यों के संयोग से सर्प, सिंह आदि प्राणी एवं मणि, सुवर्ण आदि अचेतन पदार्थ पैदा करने का उल्लेख मिलता है
कुवलयमालाकार के कथनानुसार 'जोणिपाहुड' में कही गई बात कभी असत्य नहीं होती। प्रभावकचरित्र (५, ११५-१२७) में इस ग्रन्थ के बल से मछली और सिंह बनाने का निर्देश है। कुलमण्डनसूरि द्वारा 'विचारामृतसंग्रह' (वि.सं. १४७३-पृ.६) में योनिप्राभृत को पूर्वश्रुत से चला आता हुआ स्वीकार किया गया है इस कथन से ज्ञात होता हैं कि अग्रायणीयपूर्व का कुछ अंश लेकर धरसेनाचार्य ने इस ग्रन्थ का उद्धार किया है। इसमें पहले अठाईस हजार गाथाएँ थी, उन्हीं को संक्षिप्त करके 'योनिप्राभृत में रखा है। जोइसदार (ज्योतिर)
__इसके कर्त्ता का नाम अज्ञात है। यह ग्रन्थ प्राकृत पद्य में रचित है। इसके दो पत्रों की कृति पाटन के जैन भंडार में है। इसमें राशि और नक्षत्रों के शुभाशुभ फलों का वर्णन किया गया है। जोइसचक्कवियार (ज्योतिषचक्रविचार)
इसके कर्ता का नाम मुनि विनयकुशल है। यह ग्रन्थाग्र १५५ श्लोक परिमाण है। यह प्राकृत पद्य में निबद्ध हैं। इसका उल्लेख जैन ग्रन्थावली (पृ. ३४७) में है। इसमें ज्योतिष सम्बन्धी विधि-विधान की चर्चा हुई है। टिप्पनकविधि
__यह ग्रन्थ मुनि मतिविशाल गणि ने प्राकृत में रचा है। इसका रचना-समय ज्ञात नहीं हो पाया है। इस ग्रन्थ में पंचांगतिथिकर्षण, संक्रान्तिकर्षण
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/605
नवग्रहकर्षण, वक्रातीचार, सरलगतिकर्षण, पंचग्रहास्तमितोदितकथन, भद्राकर्षण,
अधिकमासकर्षण, तिथि-नक्षत्र-योगवर्धन-घटनकर्षण, दिनमानकर्षण आदि तेरह विषयों का विवरण दिया गया है।' ताजिकसार-टीका
इस ग्रन्थ की रचना किसी अन्य हरिभद्रसूरि नामक विद्वान् ने वि.सं. १५८० के आसपास की है। इस ग्रन्थ पर अचलगच्छीय मुनि सुमतिहर्ष ने वि.सं. १६७७ में एक बृहट्टीका रची है। यहाँ 'ताजिक' शब्द का अर्थ करते हुए एक विद्वान् ने लिखा है कि - जिस समय मनुष्य का जन्मकालीन सूर्य होता है अर्थात् जब उसकी आयु का कोई भी सौर वर्ष समाप्त होकर दूसरा सौर वर्ष लगता है उस समय के लग्न और ग्रह-स्थिति द्वारा मनुष्य को उस वर्ष में होने वाले सुख-दुःख का निर्णय जिस पद्धति द्वारा किया जाता है उसे 'ताजिक' कहते हैं। उपर्युक्त व्याख्या से यह मालूम होता है कि यह ताजिक शाखा मुसलमानों से आई है। जन्मकुंडली और उसके फल के नियम ताजिक में प्रायः जातक सदृश हैं और वे हमारे ही हैं यानि इस भारत देश के ही हैं। तिथिसारणी
इसकी रचना पार्श्वचन्द्रगच्छीय श्री वाघजी मुनि ने की है। यह ग्रन्थ वि. सं. १७८३ का है। इसमें पंचांग बनाने की प्रक्रिया बतायी गई है। यह ग्रन्थ 'मकरन्दसारिणी' जैसा है। इसकी प्रति लोंबड़ी के जैन ग्रन्थ-भंडार में है। दिणसुद्धि (दिनशुद्धि)
इस ग्रन्थ के रचनाकार रत्नशेखरसूरि है। इसका रचनाकाल १५ वीं शताब्दी है। इसमें कुल १४४ गाथाएँ हैं, जिनमें रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, और शनि का वर्णन करते हुए तिथि, लग्न, प्रहर, दिशा और नक्षत्र की शुद्धि बताई गई है। दीक्षा-प्रतिष्ठाशुद्धि
इस ग्रन्थ की रचना वि.सं. १६८५ में उपाध्याय समयसुन्दर ने की है।
' इसकी एक प्रति अहमदाबाद के ला.द.भा.सं. विद्यामंदिर के संग्रह में है। २ यह ग्रन्थ उपाध्याय क्षमाविजयजी द्वारा संपादित होकर शाह मूलचंद बुलाखीदास की ओर से सन् १६३८ में मुंबई से प्रकाशित हुआ है। २ इसकी एकमात्र प्रति बीकोनर के खरतरगच्छीय के आचार्य शाखा के उपाश्रय स्थित ज्ञानभंडार
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606/ ज्योतिष - निमित्त शकुन सम्बन्धी साहित्य
इसमें दीक्षा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी शुद्धि के विधान पर चर्चा की गयी है। यह ग्रन्थ बारह अध्यायों में विभाजित है १. ग्रहगोचरशुद्धि, २. वर्षशुद्धि ३. अयनशुद्धि ४. मासशुद्धि ५. पक्षशुद्धि ६ दिनशुद्धि ७ वारशुद्धि ८. नक्षत्रशुद्धि ६ . योगशुद्धि १०. करणशुद्ध ११. लग्नशुद्धि और १२ . ग्रहशुद्धि
दोषरत्नावली
-
यह ग्रन्थ ज्योतिषविषयक प्रश्नलग्न पर पूर्णिमागच्छीय भावरत्नसूरि के शिष्य मुनि जयरत्नगणि ने रचा है। इसका रचनाकाल लगभग वि. सं. १६६२ है । यह कृति अप्रकाशित है। '
नरपतिजयचर्या
इसके रचयिता आम्रदेव के पुत्र जैन गृहस्थ नरपति हैं। इसकी रचना वि.सं. १२३२ में हुई है। इस ग्रंथ में मातृका आदि स्वरों के आधार पर शकुन देखने की विधि और विशेषतः मांत्रिक यंत्रों द्वारा युद्ध में विजय प्राप्त करने हेतु शकुन देखने की विधियों का वर्णन हुआ है। तांत्रिक प्रक्रिया में प्रचलित मारण, मोहन, उच्चाटन आदि षट्कर्मों एवं मंत्रां का भी इसमें उल्लेख किया गया है। टीका - इस पर जैनेतर विद्वान ने संस्कृत टीका रची है यह टीका आधुनिक है। नाडीदार ( नाड़ीद्वार )
किसी अज्ञात विद्वान् द्वारा रची गई यह कृति प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसके ४ पत्रों की प्रति पाटन के जैन भंडार में मौजूद है। इसमें कृति नाम के अनुसार इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाम की नाड़ियों के आधार पर फल विधि का निरूपण हुआ है।
नाड़ीविज्ञान
यह रचना संस्कृत के ७८ पद्यों में गुम्फित है। इसमें देहस्थित नाड़ियों की गतिविधि के आधार पर शुभाशुभ फलों का विचार किया गया है । ' निमित्तदार (निमित्तद्वार)
यह रचना अज्ञात विद्वान की है। इसकी ४ पत्रों की प्रति पाटन के ग्रंथ - भंडार में है। इसमें निमित्त विषयक फलविधान का प्रतिपादन है।
"
यह कृति अलवर महाराजा लायब्रेरी केटलॉग में उपलब्ध है।
२
यह ग्रंथ वेंकटेश्वर प्रेस, मुंबई से प्रकाशित हुआ है।
३ यह प्रति पाटन के जैन भंडार में है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/607
निमित्तपाहुड
इस ग्रन्थ द्वारा केवली, ज्योतिष और स्वप्न आदि निमित्तों का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। आचार्य भद्रेश्वर ने अपनी 'कहावली' में और शीलांकसूरि ने अपनी 'सूत्रकृतांगटीका' में निमित्तपाहुड का उल्लेख किया है। पंचांगनयनविधि
इस ग्रन्थ के रचयिता पूर्वोक्त महिमोदय मुनि है। यह रचना वि.सं. १७२२ के आस-पास की है। इसका विषय ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है। इसमें अनेक सारणियाँ दी गई हैं- जिससे पंचांग के गणित में अच्छी सहायता मिलती है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। पंचांगदीपिका
इस ग्रन्थ की रचना किसी जैन मुनि ने की है। इसमें पंचांग बनाने की विधि बतायी गई है। यह कृति अप्रकाशित है। पंचांगतिथि-विवरण
यह कृति अज्ञातकर्तृक है। इस कृति पर करणशेखर द्वारा वृत्ति रची गई है। यह वृत्ति १६० श्लोक परिमाण है। इसमें ज्योतिष से सम्बन्धित पांच अंग १. तिथि, २. वार, ३. नक्षत्र, ४. करण, ५. योग का सम्यक विवेचन किया गया है। संभवतः इसमें इन पाँच अंगों को जानने एवं समझने की विधि दी गई होगी। हमें यह कृति प्राप्त नहीं हो सकी हैं। पंचांगतत्त्व
इस कृति के कर्ता का नाम और रचना समय अज्ञात है। इसमें पंचांग के तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण इन विषयों का निरूपण हैं। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। टीका - इस ग्रन्थ पर अभयदेवसूरि नामक किसी आचार्य ने ६००० श्लोक परिमाण टीका रची है। पंचांगपत्रविचार
इस ग्रन्थ के रचयिता जैन मुनि है। इस कृति के नाम से अवगत होता हैं कि इसमें ज्योतिष के मुख्य पांच अंग का विवेचन है। ग्रन्थ का रचना समय ज्ञात नहीं है। ग्रन्थ प्रकाशित भी नहीं हुआ है।
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608 /ज्योतिष-निमित्त- शकुन सम्बन्धी साहित्य
पंचांगदीपिका
यह कृति अज्ञातकर्तृक है। यह जैन श्वेताम्बर कान्फरेन्स से सन् १६०६ में प्रकाशित हुई है। इस कृति में ज्योतिष सम्बन्धी 'पांच अंगों को समझने की विधि' पर प्रकाश डाला गया है ऐसा इस कृति के नाम से ज्ञात होता है। हमें मूल कृति दृष्टिगत नहीं हो सकी है।
पिपीलियानाण (पिपीलिकाज्ञान)
किसी जैनाचार्य द्वारा रची हुई यह कृति पाटन के जैन भंडार में मौजूद है। यह रचना प्राकृत में है। इसमें किस रंग की चीटियाँ किस स्थान की ओर जाती है, यह देखकर भविष्य में होने वाली शुभाशुभ घटनाओं का वर्णन किया गया है। प्रश्नसुन्दरी
इस ग्रन्थ के कर्त्ता उपाध्याय मेघविजयजी है। इसमें प्रश्न निकालने की पद्धति का वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है।
प्रश्नशतक
इसके रचनाकर्ता कासहृदगच्छीय नरचन्द्र उपाध्याय है। यह ग्रन्थ वि.सं. १३२४ में रचा गया है। इसमें ज्योतिष विधान सम्बन्धी सौ प्रश्नों का समाधान किया गया है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है |
अवचूरि- इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ अवचूरि भी निर्मित है।
प्रश्नप्रकाश
प्रभावकचरित (श्रृंग ५, श्लो. ३४७ ) के अनुसार इस ग्रन्थ के कर्त्ता पादलिप्तसूरि है। इन पादलिप्तसूरि ने कई ग्रन्थ रचे हैं। ये विद्या, लब्धि एवं सिद्धियों के धारक थे। इनकी एक रचना 'वीरथय' नामक है। उसमें सुवर्णसिद्धि तथा व्योमसिद्धि का विवरण गुप्त रीति से दिया है।
प्रश्नपद्धति
यह ग्रन्थ मुनि हरिश्चन्द्रगणि ने संस्कृत में रचा है। यह ज्योतिष विधान का अनुपम ग्रन्थ है। इसके कर्त्ता ने इसमें निर्देश दिया हैं कि गीतार्थचूड़ामणि आचार्य अभयदेवसूरि के मुख से प्रश्नों का अवधारण कर उन्हीं की कृपा से इस ग्रन्थ की रचना की है। '
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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ५
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 609
फलाफलविषयक - प्रश्नपत्र
यह लघुकृति उपाध्याय यशोविजय रचित मानी जाती है। इसकी रचना वि.सं. १७३० में हुई है। इसमें चार चक्र हैं और प्रत्येक चक्र में सात कोष्टक हैं। बीच के चार कोष्ठकों में 'ॐ ह्रीं श्रीं अहँ नमः' लिखा हुआ है। इन प्रत्येक के छः-छः कोष्ठकों में प्रभु ऋषभदेव से लेकर महावीरस्वामी तक के चौबीस तीर्थंकरों के नाम अंकित हैं। इन्हीं कोष्ठकों में चौबीस विषयों को लेकर प्रश्न किये गये हैं। वे २४ विषय निम्न हैं।
-
१. कार्य की सिद्धि, २. मेघवृष्टि, ३. देश का सौख्य, ४. स्थानसुख, ५. ग्रामांतर, ६. व्यवहार, ७. व्यापार, ८. व्याजदान, ६. भय, १०. चतुष्पाद, ११. सेवा, १२. सेवक, १३. धारणा, १४. बाधारुघा, १५. पुररोध, १६. कन्यादान, १७. वर, १८. जयाजय, १६. मन्त्रौषधि, २०. राज्यप्राप्ति, २१. अर्थचिन्तन, २२. संतान, २३. आंगतुक और २४. गतवस्तु
उपर्युक्त चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक पर फलाफलविषयक छः छः उत्तर हैं जैसे ऋषभदेव के नाम पर निम्नोक्त उत्तर है शीघ्रं सफला कार्यसिद्धिर्भविष्यति, अस्मिन् व्यवहारे मध्यमं फलं दृश्यते, ग्रामान्तरे फलं नास्ति, कष्टमस्ति, भव्यं, स्थानसौख्यं भविष्यति, अल्पा मेघवृष्टिः संभाव्यते ।
उपर्युक्त २४ प्रश्नों के १४४ उत्तर संस्कृत में हैं। इसके साथ ही प्रश्न कैसे निकालना ? उसका फलाफल कैसे जानना ? इत्यादि वर्णन उस समय की गुजराती भाषा में किया गया है। '
बलिरामानन्दसारसंग्रह
इस ज्योतिष ग्रन्थ की रचना उपाध्याय भुवनकीर्त्ति के शिष्य पं. लाभोदयमुनि ने की है। इस ग्रन्थ में सामान्य मुहूर्त विधि, नाड़ी चक्र, नासिकाविचार, शकुनविचार, स्वप्नाध्याय, अंगोपांगस्फुरण, सामुद्रिकसंक्षेप, लग्ननिर्णयविधि, नर-स्त्री - जन्मपत्रीनिर्णय, योगोत्पत्ति, मासादिविचार वर्षशुभाशुभफल आदि विषयों का निरूपण है । यह एक संग्रहग्रन्थ मालूम होता है। '
२
भद्रबाहुसंहिता
वर्तमान में 'भद्रबाहुसंहिता' नामक एक ग्रन्थ देखने को मिलता है वह
यह कृति 'जैन संशोधक' त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई है।
२
इसकी अपूर्ण प्रति ला.द.भा.सं. विद्यामंदिर, अहमदाबाद में है। प्रति - लेखन १६वीं शती का
है।
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610/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
आचार्य भद्रबाहु द्वारा प्राकृत में रचित ग्रन्थ के उद्धार के रूप में है, ऐसा विद्वानों का मन्तव्य है।
इस नाम का जो ग्रन्थ संस्कृत में रचा हुआ प्रकाश में आया है उसमें २७ प्रकरण इस नाम के हैं -१. ग्रन्थांगसंचय, २-३. उल्का लक्षण, ४. परिवेषवर्णन, ५. विषुल्लक्षण, ६. अग्रलक्षण, ७. संध्यालक्षण, ८. मेघकांड, ६. वातलक्षण, १०. सकल- मारसमुच्चयवर्षण, ११. गन्धर्वनगर, १२. गर्भावातलक्षण, १३. राजयात्राध्याय, १४. सकलशुभाशुभव्याख्यान विधानकथन, १५. भगवत्रिलोकपतिदैत्यगुरु, १६. शनैश्चरचार, १७. बृहस्पतिचार, १८. बुधचार, १६. अंगारकचार, २०-२१. राहुचार, २२. आदित्यचार, २३. चन्द्रचार, २४. ग्रहयुद्ध, २५. संग्रहयोगर्धकाण्ड, २६. स्वप्नाध्याय, २७. वस्त्रव्यवहारनिमित्तका'
इस ग्रन्थ की रचना के विषय में भिन्न-भिन्न मत है। मुनि श्री जिनविजयजी ने इसे १२ वीं-१३ वीं शती का ग्रन्थ माना है। पं. श्री कल्याणविजयजी ने इसे १५ वीं शती के बाद का कहा है। पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ने इसे १७ वीं शती के एक भट्टारक के समय की कृति बताया है, जो ठीक मालूम होता है। भुवनदीपक
इस कृति का अपरनाम 'ग्रहभावप्रकाश' है। इसके कर्ता आचार्य पद्मप्रभसूरि हैं। ये नागपुरीय तपागच्छ के संस्थापक थे। इस कृति का रचनाकाल वि.सं. १२२१ है। यह ग्रन्थ छोटा होते हुए भी महत्त्वपूर्ण है। इसमें निम्नोक्त छत्तीस द्वार विवेचित हैं - १. ग्रहों के अधिपति, २. ग्रहों की उच्च-नीच स्थिति, ३. पारस्परिक मित्रता, ४. राहुविचार, ५. केतुविचार, ६. ग्रहचक्रो का स्वरूप, ७. बारहभाव, ८. अभीष्ट कालनिर्णय, ६. लग्नविचार, १०. विनष्टग्रह, ११. चार प्रकार के राजयोग, १२. लाभविचार, १३. लाभफल, १४. गर्भ की क्षेमकुशलता, १५. स्त्रीगर्भ-प्रसूति, १६. दो संतानों का योग, १७. गर्भ के महीने, १८. भार्या, १६. विषकन्या, २०. भावों के ग्रह, २१. विवाह विचारणा, २२. विवाद, २३. मिश्र-पद निर्णय, २४. पृच्छा निर्णय, २५. प्रवासी का गमनागमन, २६. मृत्युयोग, २७. दुर्गभंग, २८. चौर्यस्थान, २६. अर्धज्ञान, ३०. मरण, ३१. लाभोदय, ३२. लग्न का मासफल, ३३. द्रेष्काणफल, ३४. दोषज्ञान, ३५. राजाओं की दिनचर्या और ३६. इस गर्भ में क्या होगा? इस प्रकार कुल १७० श्लोकों में फलित
' यह ग्रन्थ हिन्दीभाषानुवाद सहित भारतीय ज्ञानपीट काशी, सन् १६५६ से प्रकाशित है। २ देखिए - निबन्धनिचय पृ. २६७
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ज्योतिष विषयक अनेक बिन्दूओं पर प्रकाश डाला गया है। टीकाएँ - इस ग्रन्थ पर कुछ टीकाएँ भी निर्मित हुई है।
•
·
दूसरी टीका मुनि हेमतिलकजी ने रची है। इसका समय अज्ञात है।
तीसरी टीका जैनेतर दैवज्ञ शिरोमणि ने रची है। इसका समय ज्ञात नहीं है।
• चौथी टीका किसी अज्ञात जैन मुनि ने रची है । '
मण्डलप्रकरण
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 611
•
एक टीका आचार्य सिंहतिलकसूरि ने वि.सं. १३२६ में १७०० श्लोक - परिमाण रची है। ये आचार्य ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे। इन्होंने श्रीपति के ‘गणितिलक' पर भी एक महत्वपूर्ण टीका रची है।
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इसके कर्ता आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य मुनि विनयकुशल है। यह ग्रन्थ प्राकृत के ६६ पद्यों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल वि.सं. १६५२ है । यह कोई नवीन रचना नहीं हैं, क्योंकि ग्रन्थकार ने यह निर्देश किया हैं कि आचार्य मुनिचन्द्रसूरि नें 'मण्डल कुलक' रचा है, उस ग्रन्थ को आधारभूत बनाकर एवं 'जीवाजीवाभिगम' की कई गाथाएँ उद्धृत कर इस प्रकरण की रचना की गई है। इसमें ज्योतिष के खगोल विषय पर प्रकाश डाला गया है। यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं है।
टीका - इस ग्रन्थ पर मुनि विनयकुशल के द्वारा स्वोपज्ञ टीका रची गई है। इसकी रचना करीब वि.सं. १६५२ में हुई है। यह १२३१ ग्रन्थाग्र परिमाण है। यह टीका अप्रकाशित है। मानसागरीपद्धति
२
प्रस्तुत कृति के नाम से ज्ञात होता है कि इसके कर्त्ता मानसागरमुनि होने चाहिए। इस नाम के अनेक मुनि हो चुके हैं इसलिए इसके कर्त्ता कौन हो सकते हैं, इसका निर्णय करना संभव नहीं है। यह ग्रन्थ पद्यात्मक है। इसमें फलादेश विधि का वर्णन है। इसके प्रारंभ में आदिनाथ आदि तीर्थंकरों और नवग्रहों की स्तुति करके जन्मपत्री बनाने की विधि कही गई है। आगे संवत्सर के ६० नाम, संवत्सर, युग, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार और जन्मलग्न - राशि आदि
'उद्धृत- जैन साहित्य का बृहद् इतिहास - भा. ५, पृ. १७०
२
इसकी प्रति ला.द.भा. संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद में है।
३ यह ग्रन्थ वेंकटश्वर प्रेस, बंबई से वि.सं. १६६१ में प्रकाशित हुआ
है।
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612/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
भाव, योग, उपयोग आदि विषयों की चर्चा हुई है। प्रसंगवश गणनाओं की भिन्न-भिन्न रीतियाँ बताई गई हैं। इसमें नवग्रह, गजचक्र, यमदंष्ट्राचक्र आदि के साथ-साथ दशाओं के कोष्ठक भी दिये गये हैं। मेघमाला
किसी अज्ञात विद्वान द्वारा रचित यह कृति प्राकृत के ३२ पद्यों में निबद्ध है इसमें नक्षत्रों के आधार पर वर्षा के चिन्हों और उनके आधार पर शुभ-अशुभ फलों की चर्चा है। यन्त्रराज
इसकी रचना आचार्य मदनसूरि के शिष्य महेन्द्रसूरि ने वि.सं. १४२७ में की है। यह रचना संस्कृत के १८२ पद्यों में है। यह ग्रन्थ ग्रहगणित के लिए उपयोगी माना गया है। इसमें पाँच अध्याय है - १. गणिताध्याय, २.यन्त्रघटनाध्याय,३.यन्त्ररचना-ध्याय,४.यन्त्रशोधनाध्याय और ५.यन्त्रविचारणाध्याय।
इस ग्रन्थ की अनेक विशेषताएँ हैं - इसमें क्रमोत्क्रमज्यानयन, भुजकोटिज्या का चापसाधन, क्रान्तिसाधन, घुज्याखंडसाधन, घुज्याफलानयन, सौम्य यन्त्र के विभिन्न गणित के साधन, अक्षांश से उन्नतांश साधन, ग्रन्थ के नक्षत्र, ध्रुव आदि से अभीष्ट वर्षों के ध्रुवादि साधन, नक्षत्रों का दक्कर्मसाधन, द्वादश राशियों के साधन, यन्त्रशोधन प्रकार और विभिन्न यन्त्रों द्वारा सभी ग्रहों के साधन का गणित इत्यादि विषय सुन्दर ढंग से प्रतिपादित हुए हैं। इस ग्रन्थ के ज्ञान से पंचांग बनाया जा सकता है। इसमें ज्योतिष सम्बन्धी कई प्रकार के विधि-विधान निरूपित हुए हैं। टीका - इस ग्रन्थ पर आचार्य महेन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य मलयेन्दुसूरि ने टीका लिखी है। इन्होंने मूलग्रन्थ में निर्दिष्ट यन्त्रों को उदाहरणपूर्वक समझाया है। इसमें पिचहत्तर नगरों के अक्षांश दिये गये हैं। वेधोपयोगी बत्तीस तारों के सायन भोगशर भी दिये गये हैं।' यशोराजीपद्धति
इसके रचयिता मुनि यशस्वत्सागर है। इन्हें जसवंतसागर भी कहते हैं। इन्होंने यह रचना वि.सं. १७६२ में रची है। यह कृति जन्मकुंडली विधि से सम्बन्धित है। इस ग्रन्थ के पूर्वार्ध में जन्मकुण्डली की रचना के नियमों पर पर्याप्त
' यह ग्रन्थ राजस्थान प्राच्यविद्या शोधसंस्थान, जोधपुर से टीका के साथ प्रकाशित हुआ है। सुधाकर द्विवेदी ने यह ग्रन्थ काशी से छपवाया है। यह बंबई से भी छपा है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/613
प्रकाश डाला गया है तथा उत्तरार्ध में जातक पद्धति के अनुसार संक्षिप्त फल बताया गया है। यह कृति अप्रकाशित है। रिट्ठदार (रिष्टद्वार)
यह रचना प्राकृत में किसी अज्ञात विद्वान के द्वारा लिखी गई है। इसकी ७ पत्रों की प्रति पाटन के भंडार में है। इसमें भविष्य में होने वाली घटनाओं का एवं जीवन-मरण के फलादेश का निर्देश किया गया है। लग्गसुद्धि (लग्नशुद्धि)
इस ग्रन्थ के कर्ता याकिनी-महत्तरासूनु हरिभद्रसूरि माने जाते हैं किन्तु इस विषय में अनेक मत मतान्तर भी देखने को मिलते हैं। यह कृति 'लग्नकुण्डलिका' नाम से प्रसिद्ध है। इसमें प्राकृत की १३३ गाथाएँ हैं, जिनमें गोचरशुद्धि, प्रतिद्वारदशक, मास-वार-तिथि-नक्षत्र-योगशुद्धि, सुगणदिन, रजछन्नद्वार, संक्रान्ति, कर्कयोग, होरा, नवांश, द्वादशांश, षड्वर्गशुद्धि, उदयास्तशुद्धि इत्यादि विषयों पर चर्चा की गई हैं। लग्नविचार
इसकी रचना उपाध्याय नरचन्द्र मुनि ने की है। यह रचना वि.सं. १३२५ की है। यह ज्योतिष विषयक ग्रन्थ है। लालचन्द्र पद्धति
__ इसकी रचना मुनि कल्याणनिधान के शिष्य मुनि लब्धिचन्द्र ने वि.सं. १७५१ में की है। इस ग्रन्थ में जातक के अनेक विषय वर्णित हुए हैं। यह ग्रन्थ अनेक-अनेक उद्धरणों और प्रमाणों से परिपूर्ण है।' लघुजातकटीका
इस ग्रन्थ की रचना वराहमिहिर ने की है। इस पर खरतरगच्छीय मुनि भक्तिलाभ ने वि.सं. १५७१ में लिखी टीका लिखी है तथा मतिसागर ने वि.सं. १६०२ में वचनिका और उपकेशगच्छीय खुशालसुन्दर ने वि.सं. १८३६ में स्तबक लिखा है। यह कृति ज्योतिष विषय का निरूपण करती है।
२ यह ग्रन्थ उपाध्याय क्षमाविजयजी द्वारा संपादित होकर शाह मूलचंद बुलाखीदास की ओर से सन् १९३८ में बम्बई से प्रकाशित हुआ है। ' इसकी १८ वीं शती में लिखी गई प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर में है।
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614/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
३
वग्गकेवली (वर्गकेवली)
इस कृति के विषय में उल्लेख हैं कि वासुकि नामक एक जैन श्रावक 'वग्गकेवली' नामक ग्रंथ लेकर हरिभद्रसूरि के पास आया था। आचार्य श्री ने उस पर टीका लिखी थी। बाद में रहस्यमय ग्रन्थ का दुरूपयोग होने की संभावना से टीका ग्रंथ नष्ट कर दिया गया ऐसा कथन 'कहावली' में है।
वसन्तराजशकुन - टीका
इसकी रचना वसन्तराज नामक एक विद्वान ने की है। इसे 'शकुननिर्णय' अथवा 'शकुनार्णव' भी कहते हैं। इस नाम से स्पष्ट होता हैं कि इसमें शकुन -विचार पर प्रकाश डाला गया है। इस ग्रन्थ पर उपाध्याय भानुचन्द्रगणि ने १७ वीं शती में टीका रची है। '
वर्षप्रबोध
६.
इसकी रचना उपाध्याय मेघविजयजी ने की है। इसका अपरनाम 'मेघमहोदय' है। यह संस्कृत भाषा में निबद्ध है। कई अवतरण प्राकृत ग्रन्थों के भी हैं। इस ग्रन्थ का संबंध स्थानांगसूत्र के साथ बताया गया है। यह ग्रन्थ तेरह अधिकारों में विभक्त है इनमें निम्नांकित विषयों पर चर्चा की गई हैं- १. उत्पात, २. कर्पूरचक्र, ३. पद्मिनीचक्र, ४ . मण्डलप्रकरण, ५. सूर्यग्रहण - चन्द्रग्रहण का फल तथा प्रतिमास के वायु का विचार, वर्षा बरसाने और बन्द करने के मन्त्र - यन्त्र, ७. साठ संवत्सरों का फल, ८. राशियों पर ग्रहों के उदय और अस्त के वक्री का फल, ६. अयन - मास - पक्ष और दिन का विचार, १०. संक्रान्ति फल, ११. वर्ष के राजा और मन्त्री आदि १२ वर्षा का गर्भ, १३. विश्वाआय-व्यय-सर्वतोभद्रचक्र और वर्षा बताने वाले शकुन इसमें अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के उल्लेख तथा अवतरण भी दिये गये हैं। कहीं-कहीं गुजराती पद्य भी हैं। '
२
वास्तुसार
‘वास्तुसार' नामक यह कृति चन्द्रागंज ठक्कर फेरु की महत्त्वपूर्ण रचना है। यह कृति जैन महाराष्ट्री पद्यों में निबद्ध है। इसकी गाथा संख्या २७४ है। यह एक वास्तुप्रधान रचना है जो तीन प्रकरणों में विभक्त है।
,
यह ग्रन्थ वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई से प्रकाशित है।
२
यह ग्रन्थ 'मेघमहोदय - वर्षप्रबोध' नाम से हिन्दी अनुवादसहित पं. भा. वानदास जैन, जयपुर से सन् १९१६ में प्रकाशित हुआ है। यह ग्रन्थ गुजराती अनुवाद के साथ श्री पोपटलाल
साकरचन्द, भावनगर से प्रकाशित हुआ है।
वास्तुसारप्रकरण - श्री ठक्कर फेरु विरचित, अनु. भा. वानदास जैन वि.सं. २०४६
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 615
इस ग्रन्थ में वास्तुसम्बन्धी अमूल्य सामग्री का संकलन किया गया है। यह कृति १४ वीं शती के उत्तरार्ध की है। ग्रन्थ की प्रशस्ति' में रचनाकार की जन्मस्थली, वंश, पिता एवं रचनाकाल आदि का सुस्पष्ट उल्लेख हुआ है।
१. इस ग्रन्थ का प्रथम प्रकरण 'गृह निर्माण विधि' से सम्बन्धित है। इस गृहनिर्माण विधि के अन्तर्गत १५८ गाथाएँ हैं। इसमें मुख्यतः निम्न विधियों का स्वरूप दर्शाया गया है। उन विधियों के नाम ये हैं 9. भूमिपरीक्षा विधि, २. शल्यशोधन विधि ३. शिलास्थापन विधि, ४. द्वार - र- कोना - स्तंभ आदि रखने योग्य दिशा ज्ञान विधि, ५. प्रस्तार विधि, ६. गृहारंभ करने योग्य दिशा विधि इसके साथ ही इस ग्रन्थ में गृहप्रवेश के शुभाशुभ का विचार, खात कार्य करने वाले पुरुष के लक्षण, शयन सम्बन्धी दिशा का विचार, पशु बांधने का स्थान, वेध जानने का प्रकार, आय और व्यय आदि का ज्ञान, सोलह एवं चौसठ प्रकार के घरों के लक्षण, प्रवेश द्वार के स्वरूप इत्यादि विविध विषयों का विवेचन किया गया है।
इस ग्रन्थ का दूसरा प्रकरण 'विम्ब परीक्षा विधि' का विवेचन प्रस्तुत करता है। इस प्रकरण में ५४ गाथाएँ हैं। इसमें सर्वप्रथम बिम्ब निर्माण हेतु पाषाण और काष्ट की परीक्षा विधि बतलाई गई है फिर देवों के हाथों में शस्त्र आदि रखने की विधि का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही परिकर का स्वरूप, पूजनीय - अपूजनीय मूर्ति का लक्षण, गृहमंदिर में पूजने योग्य मूत्तियाँ, प्रतिमा का मान, प्रतिमा के शुभाशुभ लक्षण आदि की विवेचना दी गई है।
प्रस्तुत कृति का तीसरा प्रकरण 'प्रासाद निर्माण विधि' का प्रतिपादन करता है। इस प्रकरण में ७० गाथाएँ हैं इसमें विषयानुक्रम से अनेक बिन्दुओं पर चर्चा की गई हैं। उसमें कर्मशिला का मान, शिलास्थापन का क्रम, प्रासाद पीठ का मान, प्रासाद का स्वरूप आमलसार कलश की स्थापना, शिखरों की ऊँचाई, ध्वजा का मान, प्रतिमा का दृष्टि स्थान, जगती का स्वरूप, चौबीस जिनालय का क्रम, बावन जिनालय का क्रम, बहत्तर जिनालय का क्रम, गृह मन्दिर का स्वरूप इत्यादि विषयों का ससन्दर्भ विवेचन किया गया है।
ग्रन्थकारप्रशस्ति- दिल्ली के निकट 'करनाल' नामक गाँव में, धनधकलश नामक कुल में उत्पन्न होने वाले 'कालिक' नाम के शेठ के सुपुत्र ठक्कर 'चंद्र' थे। उनके सुपुत्र ठक्कर 'फेरु' हुए । उनके द्वारा प्राचीन शास्त्रों का अवलोकन करके स्व और पर उपकार के लिए वि.सं. १३७२ में, विजयादशमी के दिन गृह-प्रतिमा और प्रासाद के लक्षणों से युक्त 'वास्तुसार' नामक शिल्प विद्या से सम्बन्धित यह ग्रंथ रचा गया है।
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616/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
चक्र-यन्त्र-चित्र-संबंधीविवरण - प्रथम प्रकरण में १.दिशासाधन यन्त्र, २. राहुमुख ज्ञान यन्त्र, ३. गृहप्रवेश यंत्र, ४. गृहराशि यंत्र, ५. शेषनाग चक्र, ६. ४६ पद का, ६४ पद का, ८१ पद का, १०० पद का वास्तुपुरुष चक्र आदि दिये गये हैं।
इसकी प्रकाशित प्रति के दूसरे प्रकरण में १. पद्मासनस्थ श्वेताम्बर जिनमूर्ति, २. पद्मासनस्थ दिगम्बर जिनमूर्ति, ३. कायोत्सर्गस्थ श्वेताम्बर जिनमूर्ति, ४. कायोत्सर्गस्थ दिगम्बर जिनमूर्ति, ५. परिकर सहित मूर्ति, ६. परिकर एवं तोरण युक्त मूर्ति, ७. समवसरणस्थ मूर्ति, ८. अर्ध पद्मासनस्थ मूर्ति, ६. चतुर्मुख वाली मूर्ति इत्यादि के चित्र दिये गये हैं। तीसरे प्रकरण में मंदिर निर्माण संबंधी निम्नचित्र विवरण सहित दिये गये हैं - १. कूर्मशिला यन्त्र, २. साधारण पीठ, ३. मंडोवर पीठ, ४. शिखर, ५. आमलसार कलश, ६. ध्वजादंड मान, ७. मंदिर द्वार शाखा, ८. देवों की दृष्टि स्थान का द्वार, ६. जगती के उदय का स्वरूप, १०. मंदिर का तलभाग, ११. मंदिर के उदय स्वरूप इतना ही नहीं प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रामाणिकता को स्पष्ट करने के लिए अन्यान्य ग्रन्थों के उद्धरण भी लिये गये हैं।
इस ग्रन्थ का परिशिष्ट भाग भी अति उपयोगी सामग्री को प्रस्तुत करता है। वह चार भागों में विभक्त है। परिशिष्ट के प्रथम भाग में 'वज्रलेप' का स्वरूप एवं उसकी उपयोगिता को बताया गया है। परिशिष्ट के दूसरे भाग में श्वेताम्बर परम्परानुसार चौबीस तीर्थकर उनकी यक्ष-यक्षिणीयाँ तथा सोलह विद्यादेवीयाँ, नवग्रह
और दशदिक्पाल आदि का सचित्र वर्णन किया गया है। परिशिष्ट के तीसरे विभाग में दिगम्बर परम्परानुसार चौबीस तीर्थंकरों के चिन्ह एवं उनके यक्ष-यक्षिणीयों का शासनदेव-शासनदेवीयों का सचित्र प्रतिपादन किया गया है। परिशिष्ट के चौथे भाग में प्रतिष्ठासंबंधी मुहूर्त की सविस्तार विवेचना की गई है। इस कृति के अन्त में स्वरचित रत्नपरीक्षा नामक प्रकरण दिया गया है। उसमें हीरा, पन्ना, माणक, मोती, लहसनीया, प्रवाल, पुखराज आदि रत्नों की जातियों की उत्पत्ति, सोना, चांदी, पीतल, तांबा, जस्ता, कलई आदि धातु के जातियों की पारा, सिंदुर, दक्षिणावर्त शंख, रुद्राक्ष, शालिग्राम, कपूर, कस्तुरी, अंबर, अगरु, चंदन और कुंकुम आदि की उत्पत्ति एवं उनकी परीक्षा और उनके गुणों का वर्णन किया गया है। विवाहपडल (विवाहपटल)
विवाह-पडल के कर्ता अज्ञात हैं। यह प्राकृत में रचित एक ज्योतिष विषयक ग्रन्थ है, जो विवाह के समय काम में आता है। इसका उल्लेख 'निशीथविशेषचूर्णि' में मिलता है।'
'उद्धृत- जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भा. ५, पृ. १६८
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/617
श्वानशकुनाध्याय
यह कृति संस्कृत भाषा के २२ पद्यों में निबद्ध ५ पत्रों में है। इसके कर्ता अज्ञात है। इस ग्रन्थ में कुत्ते की हलन-चलन और चेष्टाओं के आधार पर घर से निकलते हुए मनुष्य को प्राप्त होने वाले शुभाशुभ फलों का निर्देश किया गया है। शकुनरत्नाबलि-कथाकोश
इस ग्रन्थ की रचना आचार्य अभयदेवसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि ने की है। शकुनशास्त्र
__ इसका दूसरा नाम 'शकुनसारोद्धार' है। इसके रचयिता आचार्य माणिक्यसरि है। यह रचना वि.सं. १३३८ की हैं। इस ग्रन्थ में शकुन विधि सम्बन्धी ग्यारह विषयों का निरूपण हुआ है वे विषय निम्न हैं - १. दिक्स्थान, २. ग्राम्यनिमित्त, ३. तित्तिरि, ४. दुर्गा, ५. लद्वागृहोलिकाक्षुत, ६. वृक, ७. रात्रेय, ८. हरिण, ६. भषण, १०. मिश्र और ११. संग्रह।
ग्रंथकर्ता ने शकुनविषयक अनेक ग्रन्थों के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना की है। सउणदार (शकुनद्वार)
यह ग्रन्थ प्राकृत में है।' यह अपूर्ण है। इसमें कर्ता का नाम नहीं दिया गया है। इस कृति के नाम से इसमें शकुन विधान का वर्णन होना चाहिए।
शकुनविचार
यह कृति ३ पत्रों में पाटन के जैन भंडार में है। इसक भाषा अपभ्रंश है। इसमें किसी पशु के दाहिनी या बायीं ओर होकर गुजरने के शुभाशुभ फल के विषय में विचार किया गया है। यह अज्ञातकर्तृक रचना है। शकुनरहस्य
__ इस ग्रन्थ की रचना वायडगच्छीय जिनदत्तसरि ने की है। ये आचार्य अमरचन्द्रसूरि के शिष्य थे। यह पद्यात्मक कृति नौ प्रस्तावों में विभक्त है। इसमें
' यह प्रति पाटन के भंडार में हैं। • यह रचना शकुनशास्त्र के नाम से, सानुवाद सन् १८६६ में जामनगर से प्रकाशित हुई है। इसका अनुवाद पं. हीरालाल हंसराज ने किया है।
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618/ज्योतिष-निमिः . एन सम्बन्धी ग्याहित्य
संतान के जन्म, लग्न और शयनसंबंधी शकुन, प्रभात में जागृत होने के शकुन, परदेश जाने के समय के शकुन, नगर में प्रवेश करने के शकुन, वर्षासंबंधी परीक्षा, मकान बनाने के लिए मकान की परीक्षा, जमीन खोदते हुए निकली हुई वस्तुओं का फल, स्त्री को गर्भ नहीं : का कारण, मोती, हीरा आदि रत्नों के प्रकार और तदनुसार उनके शुभाशुभ फल आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में शकुन विषयक विधान कहे गये हैं। शिल्परत्नाकर
__यह ग्रन्थ नर्मदाशंकर मूलजीभाई शिल्पशास्त्री द्वारा रचा गया है।' यह कृति संस्कृत पद्य में है। इसमें लगभग २६४७ श्लोक हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ के रचयिता हिन्दू परम्परानुयायी है लेकिन उनके द्वारा यह ग्रन्थ स्वमति या स्वकल्पना के आधार पर नहीं रचा गया है अपितु प्राचीन ऋषि-महर्षियों के विरचित ग्रन्थ इसके मूल आधार रहे हैं। नर्मदाशंकर जी ने जैन-जैनेतर के तद्विषयक सभी ग्रन्थों के सारभूत तत्त्वों को इसमें समाविष्ट किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रस्तावना के अनुसार इस ग्रन्थ का निर्माण करते समय ग्रन्थकार ने अपराजित, सूत्रसंतान, क्षीरार्णव, दीपार्णव, वृक्षार्णव, वास्तुकौतुक, वास्तुसार और निर्दोष वास्तु इन प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का सारांश लिया है तथा प्रसादमंडल, रूपमंडल, चौबीस तीर्थंकरों के जिन प्रासाद, आयतत्त्व और कुंडसिद्धि ये पाँच ग्रन्थ तो सम्पूर्ण रूप से समाविष्ट कर लिये गये हैं। इतना ही नहीं इन पूर्वोक्त ग्रन्थों की विषय सामग्री के साथ-साथ जिन प्रासाद के प्रत्येक अंग; जैसे कि जगती, पीठ, महापीठ, कर्णपीट, मंडोवर, द्वारशाखा, स्तंभादि तथा केशरादि, तिलकसागरादि ऋषभादि, वैराज्यादि और मेर्वादि प्रासादों के शिखर, मंडप, साभरण, मूर्तियाँ एवं परिकर आदि के चित्र भी दिये गये हैं।
इस विवरण के आधार पर निर्विवाद रूप से सूचित होता है कि यह ग्रन्थ जैन-जैनेत्तर परम्परा का सम्मिश्रित रूप है। इस कृति में उक्त दोनों ही परम्पराओं के प्रतिष्ठादि-शिल्पादि का विवेचन हुआ है। सभी परम्पराओं में शिल्परचना का माहात्म्य प्राचीन काल से रहा हुआ है। शिल्परचना के महत्त्व को साक्षात् दर्शाने वाले कई प्रासाद एवं स्थलादि अभी भी विद्यमान हैं, जैसे कि गुजरात के सिद्धपुर में आया हुआ रुद्रमहालय, तारंगाहिल ऊपर श्री अजितनाथ प्रभु का श्वेताम्बर जिनमंदिर, आबूपर्वत पर स्थित देलवाड़ा के जैन मन्दिर, बहेचराजी के निकट आया हुआ मुंढेरा गाँव का प्राचीन सूर्यप्रासाद, मारवाड़ और
' यह ग्रन्थ श्री नर्मदाशंकर मूलजीभाई सोमपुरा धांगध्रा काठियावाड़ से सन् १९६० में प्रकाशित हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 619
मेवाड़ के किनारे पर आया हुआ राणकपुरतीर्थ का धरणीविहार नामक चौमुखजी का मन्दिर और सौराष्ट्र में सोमपुर ( प्रभास पाटण) में बनाया हुआ सोमनाथ महादेव का प्राचीन प्रासाद आदि भारत की स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
इन प्रासादों (मन्दिरों) की अद्भुत कारीगरी को देखने के लिए पाश्चात्य संस्कृति के इंजीनियर, भारत देश के गवर्नर और वायचांसलर भी आते हैं इतना ही नहीं उन कारीगरी के फोटू (चित्र) भी लेकर जाते हैं
वस्तुतः प्रस्तुत कृति में शिल्परचना की सभी विधाओं का निरूपण किया गया है। यह ग्रन्थ चौदह रत्नों (विभागों) में विभक्त है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु का संक्षिप्त वर्णन अधोलिखित है
पहला रत्न इस विभाग में गजविधान, अंगुलादि से पृथ्वी का परिमाण, आय निकालने की विधि, मनुष्य का आय लाने की विधि, नक्षत्र फल निकालने की विधि, गणविचार, अधोमुख आदि नक्षत्रों की संज्ञा, तारा जानने की विधि |
राशिविचार, अंशादि जानने की विधि और लग्न - तिथि - वार- करण-योग-वर्गतत्त्व आदि का विचार किया गया है। साथ ही इसमें सर्पाकर नाड़ीचक्र का कोष्ठक, इष्ट-अनिष्ट देखने का कोष्ठक, तिथि-योग सम्बन्धी कोष्ठक, वर्ग लाने का कोष्ठक, नक्षत्र, गण, चंद्रादि देखने के कोष्ठक भी उल्लिखित हैं।
दूसरा रत्न यह विभाग प्रासादोत्पत्ति, प्रासादरचना, भूमिशोधन, कूर्मशिला, जगती, पीठ आदि से सम्बन्धित है। इसमें देशानुसार प्रासाद का विधान, देशानुसार प्रासादों की उत्पत्ति, राजस, तामस और सात्त्विक प्रासाद, प्रासाद निर्माण के योग्य स्थान, नगराभिमुख प्रासाद विधान, यथाशक्ति प्रासाद विधान, मन्दिर निर्माण के लिए शुभमुहूर्त्त देखने का विधान, भूमिशोधन विधि, शल्य शोधन विधि, प्रासाद का माप लेने की विधि, कूर्मशिला स्थापन विधि, प्रथम शिला स्थापन विधि, कूर्मशिला सम्बन्धी विशेष विचार, प्रासाद की जगती का विधान, जगती की ऊँचाई का परिमाण, प्रासाद के पीठमान का विधान, इत्यादि विषयों पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। साथ ही नागवास्तुचक्र, कूर्मशिला, जगती, पीठ, महापीठ के चित्र दिये गये हैं।
तीसरा रत्न इस विभाग में मंडोवर का विस्तृत विवेचन किया गया है इसके साथ ही प्रासाद के गंभारे के पाँच प्रकार, प्रासाद की भित्ति की मोटाई का परिमाण, प्रासाद के लिए द्वार बनाने की दिशा, द्वारशाखा विधान, दीपक रखने के लिए गोखला विधान इत्यादि पर विचार किया गया है। मंडोवर एवं द्वार शाखा संबंधी कई चित्र भी दिये गये हैं।
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620/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
चौथा रत्न - इस रत्न में प्रासाद के मंडपों का विधान, मंडप के भेद एवं प्रकार, मंडप स्तंभ की ऊँचाई का परिमाण, स्तंभ के प्रकार, चारों दिशाओं में जिनालय बनाने का विधान, प्रासाद के चारों दिशाओं में रथशालादि का विधान, उपाश्रय विधान, मंडप के ऊपर घुमट का विधान, मंडप तथा प्रासाद के सांभरण का विधान, जैन प्रतिमा के सिंहासन का विधान गंभारा और द्वारमान में मूर्ति एवं सिंहासन रखने का परिमाण इत्यादि विषयों की चर्चा की गई है। कई प्राचीन जिनालयों, मंडपों, स्तंभों, वेदिकाओं, सम्बन्धी चित्र दिये गये हैं। पाँचवा रत्न - यह विभाग विभिन्न प्रकार के प्रासाद, शिखर, ध्वजादंड, जीर्णोद्वार आदि का प्रतिपादक है। उनमें प्रमुखतः नागरादि-द्राविडादि-संधारादि प्रासाद के लक्षण, शिखर की ऊँचाई तथा रेखा छोड़ने का परिमाण, शिखर के आमलसार का परिमाण, कलश विधान, प्रासाद के ध्वजादंड का परिमाण, ध्वजा की पताका का परिमाण, ध्वजदंड के तेरह नाम, चतुर्मुखी प्रासाद पर ध्वजा रोपने की विधि, जीर्णोद्वार का विधान, प्रतिमा उत्थापन करने की विधि, गृह के विषय में द्वार विधान दादर विधान आदि का विवेचन किया गया है। छट्ठा रत्न - इसमें केशरादि पच्चीस प्रकार के जिनालयों का सचित्र वर्णन किया गया है। साँतवां रत्न - इस विभाग में तिलकसागरादि पच्चीस प्रकार के जिनालयों का सचित्र उल्लेख किया गया है। आठवाँ रत्न - यह विभाग बहत्तर प्रकार के जिनालयों का सचित्र निरूपण करता है। नवमाँ रत्न - यह विभाग वैराज्यादि पच्चीस प्रकार के जिनालयों का सचित्र विवरण प्रस्तुत करता है। दशवाँ रत्न - इस द्वार में मेर्वादि बीस प्रकार के जिनालयों का सचित्र निरूपण हुआ है। ग्यारहवाँ रत्न - इस विभाग में देवमूर्ति का स्वरूप, शिला की परीक्षा, घर में प्रतिमा पूजने का परिमाण, शुभमूर्ति और खंडितमूर्ति की पूजा का विचार, पुनः संस्कारित (अधिवासित) करने योग्य मूर्ति, पाषाणमूर्ति का शिर विधान, गणेश की प्रतिमा का परिमाण, पंचदेव प्रतिष्ठा, नवग्रह मूर्ति का स्वरूप, अष्ट दिक्पाल का स्वरूप, विष्णु- शालिग्राम-शिव-गरुड़-उमा माहेश्वर आदि की मूर्तियों का स्वरूप, लक्ष्मी-पार्वती- माहेश्वरी आदि देवियों का स्वरूप वर्णित है। यह विभाग हिन्दू परम्परा से सम्बद्ध है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/621
बारहवाँ रत्न - यह विभाग जैन परम्परा से सम्बन्धित है। इसमें जिनेश्वर परमात्मा की मूर्ति का स्वरूप, चौबीस तीर्थंकरों, चौबीस यक्ष-यक्षिणीयों के स्वरूपादि, सोलह विद्यादेवियों का स्वरूपादि, समोसरण तथा सिंहासन का लक्षण, बैठी हुई या खड़ी हुई प्रतिमा का परिमाण, अंगुलमान से शुभाशुभ प्रतिमा का विचार, परिकर का लक्षण, गृहमंदिर में ध्वजा न रखने का विधान, वज्रलेप और उसके गुण इत्यादि का वर्णन किया गया है। तेरहवाँ रत्न - इस विभाग में मंडप विधान, मंडप भूमि का शोधन, दिकशोधन, वेदी का परिमाण, कुंड विधान, विभिन्न प्रकार के कुंड, मेखला लक्षण, मंडल विधान, प्रासाद के देवताओं का पूजन, द्वारोद्घाटन विधान, सूत्रधार का पूजन, आचार्य का पूजन, प्रासाद-प्रतिष्ठा का फल, जैन प्रतिष्ठा, ग्रह प्रतिष्ठा, वापीकूपादि की प्रतिष्ठा, वास्तुपूजन न करने से लगने वाले दोष, वास्तुदेवों के पूजन का विधान, वास्तुपूजन विधि, दिक्पालपूजन विधि आदि निरूपित है। चौदहवाँ रत्न - यह विभाग ज्योतिषविद्या से सम्बन्धित है। इसमें गृह प्रवेश मुहूर्त, प्रतिष्ठा मुहूर्त, शुभाशुभ तिथियाँ, शुभाशुभवार, प्रत्येक वार में करने योग्य कार्य, शुभाशुभ नक्षत्र, शुभाशुभ योग, शुभाशुभ भद्रा, चन्द्र का शुभाशुभ फल, ग्रहबल-चंद्रबल, लग्नकुंडली बनाने की विधि, राशि विचार, लग्नविचार, खातविधि, शिलास्थापना, द्वारस्थापना, स्तंभस्थापना, मोभस्थापना, आमलसार स्थापना आदि के समय देखने योग्य चक्र इत्यादि का प्रतिपादन हुआ है। इस द्वार में तिथिसंज्ञाचक्र, ग्रहचक्र, नक्षत्रकोष्ठक, करणचक्र, भद्राचक्र, ताराचक्र, राशि-लग्नचक्र, सिद्धियोगचक्र, योगचक्र, कुलिकादिचक्र, लग्नशून्यचक्र, तिथिशून्यलग्नचक्र, ग्रहों की उच्चादि राशि का चक्र, घटी-पल देखने का चक्र, नवांश चक्र, लग्न, होरा, द्रेष्काण आदि के कोष्ठक, ग्रह स्थापना का कोष्ठक, वृषभचक्र, कूर्मचक्र, वत्सचक्र, द्वार चक्र, स्तंभचक्र, घंटाचक्र, मोभचक्र, कलशचक्र, आहुतिचक्र आदि का विशेष उल्लेख हुआ है। इस कृति के अन्त में परिशिष्ट प्रकरण भी है जो सामान्यतया प्रतिष्ठा संबंधी विषय का उल्लेख करता है।
इस ग्रन्थ के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि ग्रन्थकार ने कृति के नाम के अनुरूप विषय वस्तु का विवेचन किया है। शिल्पकला के अभ्यासियों के लिए यह ग्रंथ अति-उपयोगी है। साथ ही प्रतिष्ठा कराने वालों और ज्योतिष में रूचि रखने वालो के लिए भी विशिष्ट उपयोगी है। यह कृति कई दृष्टियों से प्रशंसनीय बनी है। निःसन्देह यह ग्रन्थ भारतीय शिल्पकला एवं ज्योतिषकला में अपना सर्वाधिक स्थान रखता है।
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622/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
षट्पंचाशिका-टीका
इसकी रचना वराहमिहिर के पुत्र पृथुयश ने की है। इसमें ५६ श्लोक हैं। यह जातक का प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है। इस पर भट्ट उत्पल की टीका है। इस ग्रन्थ पर खरतरगच्छीय लब्धिविजयजी के शिष्य महिमोदय मुनि ने भी एक टीका रची है। सिद्धादेश
यह कृति संस्कृत भाषा में ६ पत्रों में है। यह पाटन के जैन भंडार में है। यह अज्ञात कर्तृक रचना है। इसमें वृष्टि, वायु और बिजली के शुभाशुभ विषयों का विचार किया गया है। सूर्यप्रज्ञप्ति
___ जैन आगमग्रन्थों में ज्योतिष-विधान विषयक चार सूत्र उपलब्ध होते हैं उनके नाम ये हैं- १. सूर्यप्रज्ञप्ति, २. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ३. ज्योतिष्करण्डक, और ४. गणिविद्या
सूर्यप्रज्ञप्ति' जैन आगमों का पाँचवां उपांगसूत्र है। इस सूत्र में सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की गति आदि का १०८ सूत्रों में विस्तार से वर्णन किया गया है। इसमें बीस प्राभृत है। इन प्राभृतों का वर्णय-विषय गौतम (इन्द्रभूति) और महावीर के प्रश्नोत्तरों के रूप में है।
इसके प्रथम प्राभृत में आठ अध्याय हैं उनमें सूर्य के मण्डलों की गति संख्या, दिन और रात्रि के मुहूर्त, मण्डलों की रचना आदि का वर्णन है। दूसरे प्राभृत में तीन अध्याय हैं - इनमें सूर्य के उदय और अस्त का वर्णन, सूर्य के एक मण्डल से दूसरे मण्डल में गमन करने का वर्णन आदि है। तीसरे प्राभृत प्रकरण में चन्द्र-सूर्य द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले द्वीप समुद्रों का वर्णन है। चौथे प्राभृत में सूर्य की लेश्याओं का वर्णन है। छटे प्राभृत में सूर्य के ओज का वर्णन है। सातवें में सूर्य अपने प्रकाश द्वारा मेरु आदि पर्वतों को ही प्रकाशित करता है अथवा अन्य प्रदेशों को भी इत्यादि विषयक चर्चा है। आठवें-नौवें प्राभृत में बताया गया है कि सूर्य के उदय एवं अस्त के समय ५६ पुरुषप्रमाण छाया दिखाई देती है। दसवें प्राभृत में बाईस अध्याय हैं इनमें मुख्यतः नक्षत्र विषयक वर्णन है। ग्यारहवें में संवत्सरों के आदि अन्त का वर्णन है। बारहवें में नक्षत्र, चन्द्र, ऋतु, आदित्य और अभिवर्धित इन पाँच संवत्सरों का वर्णन है। तेरहवें में
' यह ग्रन्थ मलयगिरि वृत्ति सहित, आगमोदयसमिति बम्बई से सन् १६१६ में प्रकाशित हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/623
चन्द्रमा की वृद्धि-हानि का वर्णन है। चौदहवें में ज्योत्स्ना का वर्णन हैं। पन्द्रहवें में चन्द्र-सूर्य आदि की गति के तारतम्य का उल्लेख है। सोलहवें में ज्योत्स्ना का लक्षण प्रतिपादित है। सत्रहवें में चन्द्र आदि के च्यवन और उपपात का वर्णन है।
अठारहवें में सर्वलोक में चन्द्र-सर्य की ऊँचाई का वर्णन है। उन्नीसवें में चन्द्र-सूर्य की संख्या का वर्णन है। बीसवें में चन्द्र आदि को अनुभाव का वर्णन है। होरामकरन्द
इस ग्रन्थ' की रचना आचार्य गुणाकरसूरिने की है। इसका रचना समय अनुमानतः १५ वीं शताब्दी है। इस ग्रन्थ में ३१ अध्याय हैं वे प्रायः सभी ज्योतिष विषयक हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. राशिप्रभेद, २. ग्रहस्वरूपबल निरूपण, ३. वियोनिजन्म, ४. निषेक, ५. जन्मविधि, ६. रिष्ट, ७. रिष्टभंग, ८. सर्वग्रहारिष्टभंग, ६. आयुर्दा, १०.........? ११. अन्तर्दशा, १२. अष्टकवर्ग, १३. कर्मजीव, १४. राजयोग, १५. नाभसयोग, १६. वोसिवेस्युभयचारी-योग, १७. चन्द्रयोग, १८. ग्रहप्रव्रज्यायोग, १६. देवनक्षत्रफल, २०. चन्द्रराशिफल, २१. सूर्यादिराशिफल, २२. रश्मिचिन्ता, २३. इष्ट्यादिफल, २४. भावफल, २५. आश्रयाध्याय, २६. कारक, २७. अनिष्ट, २८. स्त्रीजातक, २६. निर्याण ३०. द्रेष्काणस्वरूप, ३१. प्रश्नजातका यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। हायनसुन्दर
यह ज्योतिष विषयक ग्रन्थ आचार्य पद्मसुन्दरसूरि ने रचा है।' त्रैलोक्यप्रकाश
आचार्य देवेन्द्रसूरि के शिष्य श्री हेमप्रभसूरि ने यह ग्रन्थ वि.सं. १३०५ में रचा है। ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ का नाम 'त्रैलोक्यप्रकाश' क्यों रखा? इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि -
त्रीन् कालान् त्रिषु लोकेषु यस्माद् बुद्धिः प्रकाशते।
तत् त्रैलोक्यप्रकाशाख्यं ध्यात्वा शास्त्रं प्रकाश्यते।। यह कृति १२५० श्लोक परिमाण की है। इसमें ताजिक-विषयक चर्चा हुई है। इस ग्रन्थ में ज्योतिष-योगों के शुभाशुभ फलों के विषय में विचार किया गया है और मानवजीवन सम्बन्धी अनेक विषयों का फलादेश बताया गया है। इसमें मुथशिल, मचकूल, शूर्लावउस्तरलाव आदि संज्ञाओं के प्रयोग मिलते हैं जो मुस्लिम प्रभाव की
' इसकी ४१ पत्रों की प्रति ला.द.भा.सं. विद्यामंदिर अहमदबाद के संग्रह में है।
इसकी प्रति बीकानेर स्थित अनूप संस्कृत लायब्रेरी के संग्रह में है।
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624/ज्योतिष-निमित्त-शकुन सम्बन्धी साहित्य
सूचना देते हैं। इसमें ज्योतिष विधान सम्बन्धी निम्न विषयों पर प्रकाश डाला गया है- स्थानबल, कायबल, दृष्टिफल, ग्रहावस्था, ग्रहमैत्री, राशिवैचित्र्य, षड्वर्ग-शुद्धि, लग्नज्ञान अंशकफल आदि। प्रकारान्तर से जन्मदशाफल, राजयोग, ग्रहस्वरूप, द्वादशभावों की तत्त्वचिंता, केन्द्रविचार, वर्षफल, निधानप्रकरण, भोजनप्रकरण, ग्रामप्रकरण, पुत्रप्रकरण, रोगप्रकरण, जायाप्रकरण, सुरतप्रकरण, परचंक्रामरण, गमनागमन, स्थानदोष, स्त्रीलाभप्रकरण आदि की चर्चा भी की गई है।' ज्ञानचतुर्विंशिका
इसके रचनाकार कासहृद्गच्छीय उपाध्याय नरचन्द्र मुनि है। यह रचना २४ पद्यों में वि.सं. १३२५ में हुई है। इसमें लग्नानयन, होराद्यानयन, प्रश्नाक्षराल्लग्नानयन, सर्वलग्नग्रहबल, प्रश्नयोग, पतितादिज्ञान, पुत्र-पुत्रीज्ञान, दोषज्ञान, जयपृच्छा, रोगपृच्छा आदि ज्योतिष विषयों का वर्णन है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। अवचूरि - इस ग्रन्थ पर उपाध्याय नरचन्द्र मुनि द्वारा स्वोपज्ञवृत्ति रची गई है।
' यह ग्रन्थ हिन्दी अनुवाद सहित कुशल एस्ट्रोलॉजिकल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, लाहौर से प्रकाशित हुआ है। इसकी १ पत्र की प्रति ला.द.भा.सं. विद्यामंदिर, अहमदाबाद में है।
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अध्याय-13
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R
विविध विषय सम्बन्धी विधि-विधानपरक
साहित्य
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626/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
अध्याय १३ विविध विषय सम्बन्धी विधि विधानपरक साहित्य-सूची क्र. कृति
कृतिकार कृतिकाल १ अष्टकप्रकरण (सं.) आ. हरिभद्र वि.सं. ८ वीं शती २ आचारप्रदीप
रत्नशेखरसूरि वि.सं. १५१६ ३ आवश्यकसप्तति आ. मुनिचन्द्र लग. १० वीं शती ४ अशौचविधि (सं.) धर्मसूरि लग. १५-१८ वीं
मुनि मोहजीत कुमार वि.सं. २०-२१ वीं
शती
देवेन्द्रसूरि
वि.सं. १३ वीं शती
५ आध्यात्मिक अनुष्ठान
आराधना ६ गुरूवंदणभास (प्रा.)
(गुरूवंदनभाष्य) ७ चेइअवंदणभास (प्रा.)
(चैत्यवंदनभाष्य) ८ जिनभारती संग्रह
देवेन्द्रसूरि
वि.सं. १३ वीं शती
(सं.) प्रदीप शास्त्री वि.सं. २०-२१ वीं |
शती पं. कनकसुंदर वि.सं. २०-२१ वीं
६ जैन विधि-विज्ञान (गुज.)
शती
अज्ञातकृत
वि.सं. ५ वीं शती
१० तंदुलवेयालियपइण्णयं
(तंदुलवैतालिक प्रकीर्णक) ११ दशभक्ति (शौ./सं.)
१२ दशभक्ति (प्रा.) १३ दिनचर्या
पूज्यपाद
वि.सं. ५-६ ठी
शती कुन्दाचार्य
वि.सं. ५ वीं शती सं. प्रदीप शास्त्री वि.सं. २०-२१ वीं
शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/627
१४ देरासरनी विधि
संकलित
१५ धर्मसंग्रह (सं.) | १६ धर्मरत्नप्रकरण (प्रा.) १७ धर्मविधिप्रकरण (सं.)
मानविजयगणि शांतिसूरि श्रीप्रभसूरि
वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. १७३१ वि.सं. १२७१ वि.सं. १२-१३ वीं शती वि.सं. २०-२१ वीं शती वि.सं. ११८२
१८ नवाणुंयात्रा विधि
सं. मानविजय
यशोदेवसूरि
देवेन्द्रसूरि
वि.सं. १३ वीं शती
१६ पच्चक्खाणसरूव (प्रा.)
(प्रत्याख्यानस्वरूप) २० पच्चक्खाणभास (प्रा.)
(प्रत्याख्यानभाष्य) २१ पर्युषणाविचार २२ प्रत्याख्यानसिद्धि
हर्षभूषणगणि अज्ञातकृत
वि.सं. १४८६ लग. वि.सं. १२-१३ वीं शती वि.सं. १२१६ वि.सं. १-३ री
-
२३ प्रवचनसारोद्धार (प्रा.) २४ प्रशमरति (सं.)
नेमिचन्द्रसूरि आ. उमास्वाति
शती
२५ प्रकरणसमुच्चय (प्रा.सं.)।
२६ यति श्राद्ध व्रत विधिसंग्रह
मुनिचन्द्राचार्य आदि वि.सं. १२ वीं शती की संकलित रचनाएँ संपा. विजयरामसूरि वि.सं. २०-२१ वीं
शती जिनदत्तसूरि वि.सं. १३ वीं शती प्रमोदसागरसूरि वि.सं. २०-२१ वीं
शती अज्ञातकृत वि.सं. १३३७ शती
२७ विवेकविलास २८ विधिसंग्रह (गुज.)
२६ विषयनिग्रहकुलक
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628/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
३० वीरत्थओपइण्णयं (वीरस्तव वीरभद्र (द्वितीय) वि.सं. १० वीं शती
प्रकीर्णक) ३१ षोडशक प्रकरण (सं.) आ. हरिभद्र वि.सं. ८ वीं शती ३२ समवसरणस्तवः (प्रा.) धर्मघोषसूरि वि.सं. १४ वीं शती ३३ सामाचारीशतकम् (प्रा.सं.) समयसुन्दरगणि वि.सं. १७ वीं शती ३४ सामायारी (सामाचारी) (प्रा.) जिनदत्तसूरि वि.सं. १२ वीं शती | ३५ सामायारी (सामाचारी) (प्रा.) जिनपतिसूरि (वि.सं. १३ वीं शती ३६ साधुचर्या तथा
सं. चंपकसागर वि.सं. २०-२१ वीं जिनपूजा का महत्त्व
शती ३७ सिरिपयरणसंदोह (प्रा.सं.) संकलित वि.सं. २०-२१ वीं
शती
३८ संघपट्टक (सं.)
|जिनवल्लभगणि
वि.सं. १२ वीं शती
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 629
अध्याय १३
विविध विषय सम्बन्धि विधि- विधानपरक साहित्य
अष्टकप्रकरण
यह कृति' जैन परम्परा के प्रमुख और बहुश्रुत आचार्य हरिभद्रसूरि की है। इसकी रचना संस्कृत भाषा में हुई है। इसमें २५८ श्लोक निबद्ध है। यह ग्रन्थ बत्तीस प्रकरणों में विभक्त है और प्रत्येक प्रकरण में आठ-आठ श्लोक हैं मात्र अन्तिम प्रकरण अपवाद हैं, जिसमें दस श्लोक हैं। इसके बत्तीस प्रकरणों के नाम इस प्रकार हैं
१. महादेवाष्टकम्, २. स्नानाष्टकम्, ३. पूजाष्टकम्, ४. अग्निकारिकाष्टकम्, ५. भिक्षा- ष्टकम्, ६. सर्वसम्पत्करीभिक्षाष्टकम्, ७. प्रच्छन्नभोजनाष्टकम्, ८. प्रत्याख्यानाष्टकम्, ६. ज्ञानाष्टकम्, १०. वैराग्याष्टकम्, ११. तपाष्टकम्, १२. वादाष्टकम्, १३. धर्म- वादाष्टकम्, १४. एकान्तनित्यपक्षखण्डनाष्टकम्, १५.अनित्यपक्षखण्डनाष्टकम्, १६. मांसभक्षणदूषणाष्टकम्, १७. मांसभक्षणदूषणाष्टकम्, १८. मांसभक्षण दूषणाष्टकम् १६. मद्यपानदूषणाष्टकम्, २०. मैथुनदूषणाष्टकम्, २१. सूक्ष्मबुद्ध्याश्रयणाष्टकम्, २२. भावविशुद्धिविचाराष्टकम्, २३. मालिन्यनिषेधाष्टकम्, २४. पुण्यानुबन्धिपुण्यादि विवरणाष्टकम्, २५. पुण्यानुबन्धिपुण्यप्रधानफलाष्टकम्, २६. तीर्थकृद्दानमहत्त्व सिद्धयष्टकम्, २७. तीर्थकृ द्दाननिष्फलता परिहाराष्टकम्, राज्यादिदानेऽपि तीर्थकृतोदोषाभाव-प्रतिपादनाष्टकम्, २६. सामायिकस्वरूपनिरूपणाष्टकम्, ३०. केवलज्ञानाष्टकम्, ३१. तीर्थकृद्देशनाष्टकम् ३२. मोक्षाष्टकम् ।
शासन
२८.
इन प्रकरणों में से दूसरा, तीसरा, पाँचवा, छठा, सातवाँ और उन्तीसवाँ प्रकरण विधि-विधानों से सम्बन्धित है। दूसरे प्रकरण में स्नानविधि के दो प्रकारों का निरूपण हैं १. द्रव्यस्नान और २ भावस्नान। इसमें कहा है कि यद्यपि द्रव्य स्नान शरीर के अंग-विशेष की क्षणिक शुद्धि का ही कारण है, फिर भी भावशुद्धि का निमित्त है। साथ ही स्नान के पश्चात् तीर्थंकर परमात्मा एवं आचार्यादि की पूजा करने वाले गृहस्थ का द्रव्यस्नान शुभ माना गया है। तीसरे प्रकरण में दो प्रकार की पूजाविधि का उल्लेख हुआ है और कहा है कि द्रव्यपूजा स्वर्ग और भावपूजा मोक्ष का साधन है। इन्हें क्रमशः अशुद्ध और शुद्धपूजा भी कहा गया है।
9
(क) इस प्रकरण का हिन्दी अनुवाद डॉ. अशोककुमार सिंह ने किया है। (ख) यह कृति सानुवाद 'पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी' ने सन् २०००
प्रकाशित की है।
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630/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
द्रव्यपूजा आठ प्रकार की बतलायी है और उसे शुभ बन्ध का कारण माना है। साथ ही भावपूजा के भी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, गुरुभक्ति, तप और ज्ञान ये आठ प्रकार बताये गये हैं और कहा है भावपूजा से आत्मा के भाव प्रशस्त होते हैं और इससे व्यक्ति अन्ततः निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
पाँचवें प्रकरण में तीन प्रकार की भिक्षाविधि का विवेचन है। इसमें उल्लेख है कि आदर्श साधु द्वारा स्थविर, ग्लान आदि के लिए भ्रमर वृत्ति से प्राप्त की गई भिक्षा सर्वसम्पत्करी भिक्षा कहलाती है। श्रमणाचार के प्रतिकूल आचरण करने वाले की भिक्षावृत्ति मात्र जीविका हेतु ग्रहण की जाने वाली होने से वह पौरुषघ्नीभिक्षा कही जाती है तथा निर्धन, नेत्रहीनादि द्वारा जीविका हेत माँगी जाने वाली भिक्षा वृत्तिभिक्षा है। सातवें प्रकरण में निरूपित किया है कि साधु को प्रच्छन्न रूप से एकान्त में भोजन ग्रहण करना चाहिए क्योंकि यह साधुओं का आवश्यक विधान है। अप्रच्छन्न आहार ग्रहण करने पर क्षुधा-पीड़ित दीनादि याचकों द्वारा मांगे जाने पर उनको आहार दान करने से पुण्य बन्ध होगा और
आहार न देने पर जिनशासन के प्रति उनके मन में द्वेष पैदा होगा। इन दोनों स्थितियों से बचने के लिए श्रमण को प्रच्छन्न आहार ग्रहण करना चाहिए। उनतीसवें प्रकरण में सामायिक विधि का स्वरूप और उसके लक्षण निरूपित हैं। इसमें कहा है कि सामायिक करने वाले लोगों का स्वभाव चन्दन के समान होता
__ इस प्रकार हम देखते है कि उक्त प्रकरणों में और इनके अतिरिक्त भी इसमें श्रमण एवं श्रावक वर्ग दोनों को सदाचारी बनने की और सूक्ष्म बुद्धि पूर्वक आगमों के अनुरूप अपने आचार-विचार का परीक्षण करने की शिक्षा दी गई है। अष्टक प्रकरण की एक अन्य प्रमुख विशेषता इसके प्रकरणों का संक्षिप्त होना है। आचारप्रदीप - 'आचारप्रदीप' नामक यह ग्रन्थ' मुनिसुन्दरसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि का है। यह संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा में गुम्फित है। यह रचना ४०६५ श्लोक परिमाण है। इसका रचनाकाल वि.सं. १५१६ है। यह कृति अपने नाम के अनुसार पंचाचार का निरूपण करने वाली है। यद्यपि नाम और स्वरूप की दृष्टि से पंचाचार का सम्बन्ध विधि-विधानों से नहीं है किन्तु पंचाचार का परिपालन विधि-विधानों के आधार पर ही होता है जैसे - आगम पाठ को अकाल समय में नहीं पढ़ना, नया पाठ गुरु
' यह ग्रन्थ 'देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था' ने सन् १६२७ में प्रकाशित किया है। इसमें आनन्दसागरसूरि का संस्कृत उपोद्धात एवं अवतरणों का अनुक्रम दिया गया है।
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की अनुज्ञा पूर्वक ग्रहण करना, ज्ञानीजनों का विनय करना, ज्ञानोपकरण की आशातना से बचते रहना, ज्ञान की भक्ति करना ये सभी विधिपूर्वक होते हैं तथा पूर्वोक्त नियमों का पालन करने पर ही ज्ञानाचार का पालन होता है। यही बात दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार के विषय में भी जाननी चाहिए। इससे यह सिद्ध होता हैं कि पंचाचार के मूल में विधि-विधान समाहित ही है । इसी अपेक्षा से इस ग्रन्थ को विधि-विधानों की कोटि में लिया है।
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 631
प्रस्तुत कृति पाँच प्रकाशों में विभक्त है। उनमें क्रमशः ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच भेदों का प्रत्येक के उपभेदों के साथ निरूपण हुआ है। इसके साथ ही इसमें विविध कथानक' तथा संस्कृत एवं प्राकृत के उद्धरण दिये गये हैं। प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ प्रतिज्ञा रूप दो गाथाएँ हैं अन्त में पन्द्रह श्लोकों की प्रशस्ति है इस कृति के प्रथम प्रकाश का गुजराती अनुवाद रामचन्द्र दीनानाथ शास्त्री ने किया है और वह प्रकाशित भी हो चुका है। आचारविधि की दृष्टि से कृति उपयोगी है।
आध्यात्मिक5- अनुष्ठान-आराधना
यह अत्यन्त लघु पुस्तिका है। इसका संकलन गणाधिपति आचार्य तुलसी के शिष्य मुनि मोहजीतकुमार ने किया है। इसमें नये पुराने तथा उनकी परम्परा में प्रवर्तित कुछ अनुष्ठानों की आराधनाविधि का वर्णन है। सर्वप्रथम ‘विशिष्टबीजमंत्र' अर्थ सहित दिये गये हैं और कहा गया हैं कि इन बीज मंत्रों की उपासना करने से आध्यात्मिक शक्ति का संचय होता है तथा आत्मशुद्धि और ऊर्जा का विकास होता है। इसके पश्चात् सुप्त शक्तियों को प्रगट करने के लिए संकल्प सूत्र दिये गये हैं, जो प्रत्येक साधक के लिए प्रयोग करने जैसे हैं। तत्पश्चात् क्रमशः निम्नलिखित विधानों एवं अनुष्ठानों का निरूपण किया गया है उनके नाम निर्देश इस प्रकार है
१. आध्यात्मिक विकास के मंत्र एवं उनकी जपविधि, २. वर्षावास स्थापना का अनुष्ठान, ३. ग्रहविघ्ननिवारक अनुष्ठान एवं उसकी विधि, ४. नवान्हिक आध्यात्मिक अनुष्ठान एवं उसकी विधि, ५. उपसर्गहर स्तोत्र का पाठ एवं उसकी आराधनाविधि, ६. नमस्कार महामंत्र का अनुष्ठान एवं उसकी जप विधि, ७. विशिष्ट मंत्र एवं उसकी आराधना विधि।
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पृथ्वीपाल नृप के कथानक में समस्याएँ तथा गणित के उदाहरण दिये गये हैं । ग्रन्थकार ने इसके विषय में 'राजकन्याओनी परीक्षा' और 'राजकन्याओनी गणितनी परीक्षा' इन दो विषयों पर विचार किया है।
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632/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
आवश्यकसप्तति
यह मुनिचन्द्रसूरि की रचना' है। इसे पाक्षिक सप्तति भी कहते हैं। इसमें संभवतः आवश्यक विधि की चर्चा हुई है। आशौचविधि
तपागच्छीय श्रीधर्मसूरि की यह कृति संस्कृत भाषा में है। संभवतः इस रचना के नाम से ऐसा लगता है कि इसमें प्रतिष्ठा, पदस्थापना, सकलीकरण, व्रतारोपण इत्यादि अनुष्ठानों को सम्पन्न कराने के पूर्व आचार्य हो या मुनि हो, गृहस्थ हो उनके लिए शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक शुद्धि करना आवश्यक बतलाया है। यह कृति शौच कर्म से सम्बन्धित है। गुरुवंदणभास (गुरुवन्दनभाष्य)
इस ग्रन्थ के प्रणेता तपागच्छ संस्थापक जगच्चन्द्रसरि के शिष्य देवेन्द्रसरि है। यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत में रची गई है। इसमें कुल ४१ पद्य है। यह कृति गुरुवन्दन विधि से सम्बन्धित है। इसमें गुरुवन्दन की विधि का उल्लेख करते हुए वन्दन योग्य कौन?, वन्दन किसको?, वन्दन के अयोग्य कौन?, वन्दन के कारण, वन्दना के दोष, वन्दना के गुण, वन्दना के स्थान आदि का बाईस द्वारों में विवेचन किया है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण नहीं किया गया है। प्रथम गाथा में गुरुवन्दन के तीन प्रकार-१. फेटावन्दन (मस्तक झुकाकर वन्दन करना), २. थोभवन्दन (खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन करना), और ३. द्वादशावर्त्तवन्दन (पदस्थ मुनियों को किया जाने वाला वन्दन) कहे हैं। इसके बाद वन्दन करने का कारण, वन्दन के पाँच नाम तथा इस ग्रन्थ में आगे कहे जाने वाले बाईस द्वारों के नामों एवं उनके विषयों का निरूपण हुआ है।
गुरु वन्दनविधि से सम्बन्धित बाईस द्वारों का सामान्य वर्णन निम्न हैं - पहले द्वार में वन्दना के पाँच नाम बताये हैं- वंदनकर्म, चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म। दूसरे द्वार में उक्त पाँच प्रकार की वन्दना के सम्बन्ध में पाँच उदाहरण दिये हैं। तीसरे द्वार में पार्श्वस्थ, कुशील, अवसन्न, संसक्त और यथाछंद - इन पाँच प्रकार के साधुओं को अवन्दनीय माना है। चौथे द्वार में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और रात्निक साधुओं को वन्दन करने योग्य
' जिनरत्नकोश पृ. ३५ २ वही - पृ. ३६
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 633
कहा गया है। पाँचवें - छठे द्वार में वन्दन के चार अदाता और चार दाता कहे हैं अर्थात् माता, पिता, ज्येष्ठ भाई आदि दीक्षित हो और दीक्षा पर्याय में छोटे हो तो उनसे तथा रत्नाधिक साधु से ( इन चार से) वन्दन नहीं करवाना चाहिए। इसके साथ ही व्याकुल चित्तवाले, आहारर - नीहार करते हुए साधु को भी वन्दन नहीं करना चाहिए। सातवे द्वार में वन्दन निषेध के तेरह स्थान बताये हैं। आठवें द्वार में वन्दन करने के चार स्थान कहे हैं। नौवें द्वार में गुरु को वन्दन करने के आठ कारणों का निर्देश दिया गया है। दशवें द्वार में द्वादशावर्त्तवन्दन के पच्चीस आवश्यक कहे गये हैं। ग्यारहवें द्वार में मुखवस्त्रिका प्रतिलेखना विधि एवं उसके पच्चीस बोल वर्णित हैं। बारहवें द्वार में शरीर प्रतिलेखना के पच्चीस बोल प्रतिपादित हैं। तेरहवें द्वार में वन्दना के समय लगने वाले बत्तीस दोषों की चर्चा की गई हैं। चौदहवें द्वार में विधिपूर्वक वन्दना करने से उत्पन्न होने वाले छह गुण बताये गये हैं। पन्द्रहवें द्वार में गुरु की स्थापनाविधि और गुरु की स्थापना के पाँच प्रकार निर्दिष्ट किये हैं। सोलहवें द्वार में तीन प्रकार के अवग्रह वर्णित है। यहाँ अवग्रह से तात्पर्य - गुरु भगवन्त से कम से कम, अधिक से अधिक और मध्यम रूप से कितना दूर बैठना चाहिए उसका क्षेत्र निर्धारण करना है। सत्रहवें - अठारहवें द्वार में वंदनविधि संबंधी सूत्रों के अक्षरों एवं पदों की संख्या का निरूपण हुआ है। उन्नीसवें द्वार में वन्दन करने वाले शिष्य के छह स्थान कहे गये हैं। बीसवें द्वार में वन्दन करने योग्य गुरु के छह वचन कहे गये हैं। इक्कीसवें द्वार में गुरु सम्बन्धी तैंतीस आशातनाओं का विवेचन हुआ है। बाईसवें द्वार में प्रातःकालीन एवं सायंकालीन गुरुवन्दन की विधि निर्दिष्ट की गई है। '
संक्षेपतः यह कृति गुरुवन्दनविधि विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती है । ग्रन्थकार ने इस लघुकृति में भी समुद्र सा ज्ञान उंडेरा है। श्री श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में यह ग्रन्थ विशेष चर्चित और अध्ययन-अध्यापन का आधार बना हुआ है। आवश्यकसूत्रों का अध्ययन करवाये जाने के बाद क्रमशः चार प्रकरण, तीन भाष्य (चैत्यवन्दन, गुरुवंदन, प्रत्याख्यान ) छः कर्मग्रन्थ आदि का अध्ययन करना - करवाना अनिवार्य सा माना गया है।
चेइअवंदणभास (चैत्यवन्दनभाष्य )
यह रचना तपागच्छ के संस्थापक जगच्चन्द्रसूरि के पट्टधर शिष्य देवेन्द्रसूरि की है। यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत पद्य की ६३ गाथाओं में गुम्फित है। इस कृति का रचनाकाल १४ वीं शती का पूर्वार्ध या १३ वीं शती
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यह कृति 'श्री जैन श्रेयस्कर मंडल - महेसाणा' से वि.सं. २००६, प्रकाशित हुई है।
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का उत्तरार्ध होना चाहिए। यह समय ग्रन्थकार की स्वर्गतिथि के आधार पर निकाला गया है। उनका स्वर्गवास वि.सं. १३२७ में हुआ है। मूलतः चैत्यवंदनभाष्य अपने नाम के अनुरूप जिनमन्दिर सम्बन्धी विधि-विधानों का अति विस्तार के साथ निरूपण करता है।
ग्रन्थ के प्रारम्भ में सभी सर्वज्ञों को वन्दन करके वृत्ति, भाष्य, चूर्णि आदि श्रुत के अनुसार चैत्यवन्दनादि विधि को सम्यक् प्रकार से कहने की प्रतिज्ञा की है। उसके बाद चैत्यवन्दन (देववन्दन) विधि सम्बन्धी चौबीस द्वारों का नामोल्लेख करते हुए उन्हीं का विस्तृत विवेचन किया गया है। उन चौबीस द्वारों का नाम निर्देश पूर्वक संक्षिप्त विवरण अधोलिखित है१. दसत्रिक - इस प्रथम द्वार में दस त्रिक - तीन बार 'निसीहि' कब, बोलना चाहिये तीन प्रदक्षिणा, तीन प्रणाम, तीन प्रकार की पूजा, तीन अवस्थाओं का चिन्तन, तीन दिशाओं का निरीक्षण, तीन प्रकार से भूमि प्रमार्जन, तीन प्रकार की मुद्रा और तीन प्रकार का प्रणिधान किस प्रकार करना चाहिए, इसकी सम्यक् विधि कही गई है। २. पाँच अभिगम - इस द्वार में १. सचित्त का त्याग, २. अचित्त आभूषणादि के त्याग रहित, ३. मन की एकाग्रता, ४. एक पट्ट का उत्तरासन और, ५. प्रभु का दर्शन होते ही मस्तक झुकाना इन पाँच प्रकार के अभिगम (विशेष नियम) पूर्वक जिनप्रतिमा के दर्शन करने का विधान बतलाया है। ३. दिशा - इसमें कहा गया हैं कि जिन प्रतिमा के दर्शन-वन्दन करते समय पुरुष एवं स्त्री को प्रतिमा की किस दिशा की ओर खड़े रहना चाहिए? ४. अवग्रह - चतुर्थ द्वार में चैत्यवन्दन करते समय जघन्य से नौ हाथ, उत्कृष्ट से साठ हाथ और मध्यम से नौ-साठ हाथ बीच की दूरी पर बैठकर चैत्यवंदन करना चाहिए यह विधान निर्दिष्ट किया है। ५. त्रिविधचैत्यवन्दन - इसमें जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन प्रकार की चैत्यवन्दन विधि कही गई है। ६. पंचांगप्रणिपात - इस द्वार में पंचांग प्रणिपात का स्वरूप बताया है। ७. नमस्कार - इसमें एक, दो, तीन से लेकर १०८ श्लोक तक प्रभु की स्तुति करने का विधान स्पष्ट किया है। ८-१०. अक्षर-पद-संपदा - इन तीन द्वारों में नवकार आदि नौ सूत्रों के वर्ण की संख्या, उन सूत्रों के पदों एवं सम्पदा की संख्या कही गई है।
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११. पाँचदण्डक - इस द्वार में दैनिक क्रिया विधि में विशेष रूप से बोले जाने वाले शक्रस्तव, चैत्यस्तव, नामस्तव, श्रुतस्तव और सिद्धस्तव-इन पाँच सूत्रों के नाम दिये हैं। १२. बारहअधिकार - इस द्वार में देववन्दन विधि करते समय किन-किन को वन्दना की जाती है तत्सम्बन्धी बारह स्थान कहे गये हैं। १३. वन्दन करने योग्य - इसमें अरिहंत, मुनि, श्रुत एवं सिद्ध ये चार वन्दन करने योग्य कहे हैं। १४. स्मरण करने योग्य - इस द्वार में उपद्रव दूर करने वाले सम्यग्दृष्टि देवों को स्मरण करने योग्य कहा है। १५. चारनिक्षेप - इसमें नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ऐसे चार प्रकार के जिन बताये हैं। १६. चारस्तुति - इस द्वार में कहा है कि प्रथम स्तुति किसी भी तीर्थकर विशेष की होती है। दूसरी स्तुति सर्व तीर्थंकरों की होती है। तीसरी स्तुति श्रुत (आगम) की होती है और चौथी स्तुति सम्यक्त्वी देवी-देवता की होती है। १७. आठ निमित्त - इसमें प्रभु को वन्दन या उनका स्मरण कब करना चाहिए? उसके आठ कारण बताये गये हैं। १८. बारहहेतु - इस द्वार में देववन्दन करने के बारह प्रयोजन निर्दिष्ट किये हैं। १६. सोलहआगार - इसमें कायोत्सर्ग भंग न हो उसके लिए सोलह आगार (विशेष छूट) बताये गये हैं। २०. उन्नीसदोष - यह द्वार कायोत्सर्ग में लगने वाले उन्नीस दोषों का वर्णन करता है। २१. कायोत्सर्गपरिमाण - इस द्वार लोगस्स के बराबर पच्चीस श्वासोश्वास परिमाण का और नवकार बराबर आठ श्वासोश्वास परिमाण का कायोत्सर्ग बताया गया है। २२. स्तवन सम्बन्धी विचार- इसमें यह कहा गया है कि स्तवन गंभीर, मधुर एवं अर्थयुक्त होने चाहिये। २३. सात बार चैत्यवन्दन- इस द्वार में निर्देश है कि साधु और गृहस्थ दोनों को दिनभर में सात बार चैत्यवन्दन विधि करनी चाहिये। साथ ही वह विधि कब-कब करनी चाहिए ? यह भी बताया गया है। .
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२४. दस आशातना - इस अन्तिम द्वार में जिन मन्दिर में लगने वाली दस आशातनाएँ उल्लेखित की है।'
इस प्रकार पूर्वोक्त २४ द्वारों के कुल २०७४ प्रकार होते है। इस कृति का अध्ययन करने से ज्ञात होता हैं कि इसमें जिनमन्दिर सम्बन्धी आवश्यक एवं अनिवार्य सर्व प्रकार की विषय वस्तु का विधिवत् और भेद-प्रभेद पूर्वक प्रतिपादन हुआ है। नित्याराधकों के लिए यह रचना अति उपयोग है।
ग्रन्थकार देवेन्द्रसूरि ने कर्मविपाक आदि पाँच नव्य कर्मग्रन्थ एवं उनकी टीका, गुरुवंदणभास, पच्चक्खाणभास, दाणाइकुलक, सुंदसणाचरिय तथा सढ़दिणकिच्च और उनकी टीकाएँ आदि भी रची हैं। वे व्याख्यान कला में सिद्धहस्त थे। जिनभारतीसंग्रह
यह एक संकलित कृति है। ब्र. प्रदीप शास्त्री ने इस पुस्तक का संकलन किया है। इस कृति में पूजा, स्तोत्र एवं स्त्रोत से सम्बन्धित कुछ हिन्दी पद्यों का संकलन है। मूलतः यह संग्रहित ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा के दैनिक विधि-विधानों एवं पूजा विधानों से सम्बन्धित है। उन परम्परानुयायियों के लिए यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुतः 'जिनभारतीसंग्रह' नामक यह ग्रन्थ आठ खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में नित्यक्रिया सम्बन्धी विधि-विधान कहे गये हैं। द्वितीय खण्ड में सामान्यतया सभी प्रकार की पूजाओं के विधि-विधान दिये गये है। तृतीय खण्ड में चौबीस तीर्थंकरों की पूजा करने के विधि-विधान वर्णित है। चतुर्थ खण्ड में विशेष पर्व आदि में करने योग्य पूजा विधियाँ उल्लिखित हैं। पंचम खण्ड में कुछ तीर्थकरों के चालीसा पाठ दिये गये है। षष्टम खण्ड में नित्य स्वाध्याय करने योग्य
' यह गुजराती अनुवादों के साथ अनेक स्थानों से प्रकाशित हुआ है। ‘संघाचारविधि' नामक टीका के साथ 'श्रीजिनशासन आराधना ट्रस्ट, भूलेश्वर मुंबई' ने वि.सं. २०४५ में प्रकाशित किया है। इसका प्रथम संस्करण सन् १९३८ में 'ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था' से प्रकाशित हुआ है। इसके सम्पादक श्री आनन्दसागरसूरि ने प्रारम्भ में मूलकृति देकर, बाद में 'संघाचारविधि' नाम की टीका का संक्षिप्त एवं विस्तृत विषयानुक्रम संस्कृत में दिया है।
इसके बाद कथाओं की सूची, स्तुति-स्थान, स्तुति-संग्रह, देशना-स्थान, देशना-संग्रह, सूक्तियों के प्रतीक, साक्षी रुप ग्रन्थों की नामावली, साक्षी-श्लोकों के प्रतीक और विस्तृत उपक्रम (प्रस्तावना) है। २ जिनभारतीसंग्रह - सं. प्रदीपशास्त्री, प्र. श्रीवर्णीदिगम्बर जैन गुरुकुल पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर (म.प्र.)
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स्तोत्रादि का वर्णन है। सप्तम खण्ड में भी कुछ महत्त्वपूर्ण स्तोत्रादि संकलित है। अष्टम खण्ड में तीर्थंकर भगवन्तों की आरती जाप्यमंत्र, सूतकविधि एवं प्रमुख जैन पर्व आदि का वर्णन किया गया है। इस संग्रह के तेरह संस्करण निकल चुके हैं। जैन विधि-विधान
___ यह पुस्तक गुजराती लिपि में निबद्ध है। इसका आलेखन पं. कनकसुंदर जी ने किया है। इस कृति का अवलोकन करने से यह प्रतीत होता है कि इसमें निर्दिष्ट विषयवस्तु का संकलन जैन पाठशाला, शिविर और प्राथमिक भूमिका के लोगों की अपेक्षा को ध्यान में रखकर किया गया है।
इस कृति की कई विशिष्टताएँ हैं। इसमें प्रायः विधि-विधान सचित्र दिये गये हैं; जैसे 'सामायिक ग्रहण करने की विधि' से सम्बन्धित पंचांगप्रणिपातमुद्रा, अर्धावनत मुद्रा आदि दी गई हैं। 'मन्दिर-दर्शन एवं पूजन-विधि' से सम्बन्धित प्रक्षालअभिषेक पूजा, तिलक पूजा, मुखकोश बांधने की विधि, चैत्यवंदन में बैठने की मुद्रा, कायोत्सर्ग, मुद्रा, जिन मन्दिर में प्रवेश करने की विधि आदि के चित्र दिये गये हैं। इसमें मूलसूत्रों के साथ-साथ उनका भावार्थ, स्पष्टार्थ तथा आवश्यक कथाएँ भी वर्णित हैं।
मुख्यतः गुरुवंदन, सामायिक, जिनदर्शन और जिनपूजन की विधियाँ निरूपित की गई हैं इसके साथ ही जिनभक्ति से होने वाले महान लाभ, मंत्रग्रहणविधि, मंत्र स्मरणविधि, गुरुवंदन सामायिक से होने वाले लाभ एवं बाईस अभक्ष्यो की चर्चा के साथ ही फटाका, टी.वी. के दुष्परिणामों की भी चर्चा की गई है। तंदुलवेयालियपइण्णयं (तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक)
__ 'तंदलवैचारिक' नामक यह प्रकीर्णक प्राकृत गद्य-पद्य मिश्रित भाषा में निबद्ध है। इसमें कुल १७७ गाथाएँ है। इस ग्रन्थ के लेखक के सम्बन्ध में कहीं पर भी कोई निर्देश प्राप्त नहीं होता है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार उन्हें जो संकेत मिले हैं उसके आधार पर उन्होंने ईसा ५ वीं शताब्दी या उसके पूर्व के किसी स्थविर आचार्य की कृति है, ऐसा माना है। इस प्रकार उनकी दृष्टि में कृति
' यह पुस्तक 'पारसपूजा सेन्टर अंधेरी' (ईस्ट) में उपलब्ध है। २ (क) यह रचना मुनि पुण्य विजय जी द्वारा संपादित है।
(ख) यह कृति हिन्दी भाषान्तर के साथ सन् १६६१ में, 'आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान, उदयपुर' से प्रकाशित हो चुकी है। ३ देखें, तंदुलवैचारिक भूमिका पृ. ६
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का रचनाकाल ईस्वी सन् की ५ वीं शताब्दी से पूर्व का है। प्रस्तुत कृति का यह काल निर्धारण नन्दीसूत्र, पाक्षिकसूत्र, नन्दीचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि एवं निशीथचूर्णि के आधार पर होता है। चूर्णियों का काल लगभग ६-७ वीं शताब्दी माना जाता है । अतः तंदुलवैचारिक का रचनाकाल इसके पूर्व का होना चाहिए । पुनः इसका उल्लेख नन्दीसूत्र मे है, अतः यह ५ वीं शती के पूर्व की रचनाएँ है।
तंदुलवैचारिक शब्द का परिचय देते हुए कहा गया है कि सौ वर्ष की आयु वाला मनुष्य प्रतिदिन जितना चावल खाता है, उसकी जितनी संख्या होती है उसी के उपलक्षण रूप संख्या का विचार करना तंदुलवैचारिक है । 'तंदुलवैचारिक' इस नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि मानों इसमें मात्र चावल के बारे में विचार किया गया होगा, परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। इसमें मुख्य रूप से मानव जीवन के विविध पक्षों यथा- गर्भावस्था मानव शरीर रचना, उसकी शत वर्ष की आयु के दस विभाग, उनमें होने वाली शारीरिक स्थितियाँ, उसके आहार आदि के बारे में भी पर्याप्त विवेचन किया गया है।
मेरे शोध का मुख्य ध्येय विधि-विधान परक विषयों का परिचय कराना है। प्रस्तुत कृति में प्रमुख रूप से दो प्रकार की विधि उपलब्ध होती है। प्रथम विधि 'गर्भगत जीव की आहार विधि' से सम्बन्धित हैं। इसमें बताया गया हैं कि गौतम महावीर से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् ! गर्भस्थ पर्याप्त जीव मुख के द्वारा कवल आहार करने में समर्थ है ? या नहीं ? उत्तर में कहा जाता है नहीं। तो फिर उसकी आहार विधि कैसी है ? हे गौतम ! गर्भस्थ जीव सभी ओर से आहार करता है और उसे सभी ओर से परिणमित करता है, सभी ओर से श्वास लेता है और छोड़ता है निरन्तर आहार करता है और निरन्तर उसे परिणमित करता है। वह गर्भस्थ जीव जल्दी-जल्दी आहार करता है और जल्दी-जल्दी ही उसे परिणमित करता है इत्यादि । यही गर्भस्थ की आहारविधि' है।
द्वितीय कालपरिमाण निवेदक घटिका यन्त्र विधि प्रस्तुत की गयी है। प्रस्तुत विधान के बारे में उल्लेख करते हुए कहा गया है कि अनार के पुष्प की आकृति वाली लोहमयी घड़ी बना करके उसके तल में छिद्र करना चाहिए। वह घडी का छिद्र तीन वर्ष के गाय के बच्चे के पूंछ के छियानवें बाल जो सीधे हो
गर्भस्थ अवस्था में माता के शरीर से पुत्र के शरीर को जोड़ने वाली जो नाड़ियाँ होती हैं उनके माध्यम से ही गर्भस्थ जीव माता के द्वारा परिणमित और उपचित आहार को ग्रहण करता है और निस्सरित करता है इसलिए गर्भस्थ जीव न तो मुख से आहार करने में सक्षम है और न उसके अपने मल, मूत्र, पित्त, कफ आदि होते हैं।
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और मुडे हुए नहीं हो वैसी चौडाई का होना चाहिए अथवा दो वर्ष के हाथी के बच्चे के पूंछ के दो बाल जो टूटे हुए नहीं हो, उस आकार का घड़ी का छिद्र होना चाहिए अथवा चार मासे सोने की एक गोल और कठोर सुई, जिसका परिमाण चार अंगुल का हो, उसके समान घड़ी का छिद्र करना चाहिए। उस घड़ी में पानी का परिमाण दो आढ़क होना चाहिए। पुनः उस पानी को कपड़े के द्वारा छानकर प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार काल परिमाण जानने संबंधी घटिका यन्त्र विधान की विधि जाननी चाहिए। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत कृति में भले ही दो विधान प्रतिपादित है परन्तु वे गूढ़ एवं महत्त्वपूर्ण है। दश-भक्ति
दिगम्बर परम्परा में 'भक्ति' के नाम से प्रसिद्ध दो कृतियाँ मिलती हैं - १. जैन शौरसेनी में रचित और २. संस्कृत में रचित। प्रथम' कृति के प्रणेता कुन्द- कुन्दाचार्य है और दूसरी के पूज्यपाद है। परन्तु दोनों कृतियों में कितनी-कितनी भक्तियों हैं ? स्पष्ट इसका उल्लेख नहीं मिलता है।
यहाँ यह जानने योग्य हैं कि दिगम्बर आम्नाय में भक्तियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक विधि-विधान भक्तिपाठों द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं यानि भक्तिपाठ विधि-विधान का आवश्यक अंग है। उन भक्तियों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - १. सिद्धभक्ति - इस भक्ति में कहाँ-कहाँ से और किस-किस रीति से जीव सिद्ध हुए हैं यह कहकर उन्हें वन्दन किया गया है। अन्त में आलोचना का विषय आता है। २. श्रुतभक्ति - इसमें बारह अंगों के नाम देकर दृष्टिवाद के भेद एवं प्रभेदों के विषय में निर्देश किया गया है। ३. चारित्रभक्ति - इसमें चारित्र के सामायिक आदि पाँच प्रकार तथा साधुओं के मूल एवं उत्तर गुणों का वर्णन है। ४. अनगारभक्ति - इस कृति में गुणधारी अनगारों का संकीर्तन है। साथ ही उनकी तपश्चर्या एवं भिन्न-भिन्न प्रकार की लब्धियों का यहाँ उल्लेख किया गया है। ५. आचार्यभक्ति - इसमें आदर्श आचार्य का स्वरूप बतलाया गया है। उन्हें पृथ्वीसम क्षमावान्, नीरवत् निर्मल, वायु सम निःसंग आदि उपमाओं से उपमित भी किया है।
'कुन्दकुन्दाचार्य रचित भक्तियाँ प्रभाचन्द की क्रियाकल्प नामक संस्कृतटीका एवं पं. जिनदास के मराठी अनुवाद के साथ सोलापुर से सन् १६२१ में प्रकाशित हुई है।
उपर्युक्त दोनों प्रकार की भक्तियाँ 'दशभक्त्यादिसंग्रह' में संस्कृत-हिन्दी अन्वय और भावार्थ के साथ 'अखिल विश्व जैन मिशन' द्वारा सलाल (साबरकांठा) से वि.सं. २४८१ में प्रकाशित हुई है।
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६. पंचगुरुभक्ति - इसमें अरिहन्त आदि पाँच परमेष्ठियों का स्वरूप बतलाकर उन्हें नमस्कार किया गया है। ७. तीर्थंकरभक्ति - इसमें प्रभुऋषभदेव से लेकर महावीरस्वामी तक के चौबीस तीर्थकरों का संकीर्तन है। यह श्वेताम्बरों के 'लोगस्ससुत्तं' के साथ मिलती-जुलती है। ८. निर्वाणभक्ति - इसमें प्रभु ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थकर, बालभद्र और कई मुनियों के नाम देकर उनकी निर्वाण भूमि का उल्लेख किया गया है। टीका - उपर्युक्त आठ भक्तियों में से प्रथम पाँच पर प्रभाचन्द्र की 'क्रियाकलाप' नाम की टीका है। इन पाँचों के अनुरूप संस्कृत भक्तियों पर तथा निर्वाणभक्ति एवं नन्दीश्वरभक्ति पर भी इनकी टीका है। दशभक्त्यादि संग्रह में निम्नलिखित बारह भक्तियाँ प्राकृत कण्डिका एवं क्षेपक श्लोक सहित हिन्दी अन्वयार्थ और भावार्थ के साथ देखी जाती हैं - सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगभक्ति, आचार्यभक्ति, पंचगुरु- भक्ति, तीर्थकरभक्ति, शान्तिभक्ति, समाधिभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति और चैत्यभक्ति। इनके पद्यों की संख्या क्रमशः १०, ३०, १०, ८, ११, ११, ५, १५, १८, ३०, ६० और ३५ हैं। दिनचर्या
___ यह एक संकलित कृति है जो संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में गुम्फित है। इसका संकलन ब्र. प्रदीप शास्त्री ने किया है। इस कृति का सम्बन्ध दिगम्बर परम्परा से है। इसमें साधु एवं गृहस्थ के करने योग्य षडावश्यक विधान का निरूपण किया गया है। इसकी प्रस्तावना में साधुचर्या का संक्षिप्त उल्लेख करते हुए लिखा है कि ऐलक, क्षुल्लक और साधुजन प्रातः उठने पर रात्रि सम्बन्धी दोषों के निराकरणार्थ रात्रिक प्रतिक्रमण करते हैं। तत्पश्चात् सामायिक करते हैं। सामायिक में साधु-व्रतीजन सामायिक पाठ तथा देववन्दन हेतु स्वयम्भूस्तोत्र पढ़ते हैं। तदनन्तर आचार्य वन्दना कर प्रातःकाल की अन्य क्रियाएँ करते हैं।
आहारोपरान्त प्रत्याख्यानार्थ (अगले दिन तक अन्न-जल का परित्याग करने के लिए) ईर्यापथभक्ति पढ़ते हैं। मध्याह में स्वाध्यायादि करते हैं। दिनभर में
' दशभक्त्यादिसंग्रह पृ. १२-१३ में यह भक्ति आती है, किन्तु वहाँ इसका ‘भत्ति' के रूप में निर्देश नहीं है। २ इन आठों भक्तियों का सारांश डा. उपाध्ये ने अंग्रेजी में प्रवचनसार की प्रस्तावना (पृ. २६-२८) में दिया है। ३ यह पुस्तक श्री दिगम्बर साहित्य प्रकाशन समिति बरेला, जबलपुर से प्रकाशित है। " इस स्तोत्र में १४३ श्लोकों से चौबीस तीर्थकरों की स्तवना की गई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/641
लगे दोषों से निवृत्त होने के लिए दैवसिक प्रतिक्रमण करते हैं। तत्पश्चात् सामायिक करते हैं। अहर्निश की चर्यानुसार इस पुस्तक में क्रमशः सामायिकपाठ, स्वयम्भूस्तोत्र, ईर्यापथ- भक्ति, श्रावकप्रतिक्रमण-भक्तियाँ, मुनि प्रतिक्रमण से सम्बन्धित विधियाँ एवं सूत्र- स्तोत्रादि पाठ तथा अन्य उपयोगी स्तोत्रादि का संकलन किया गया है। इसलिए इसका नाम 'दिनचर्या' रखा है। देरासरनी विधि
यह गुजरातीलिपि में निबद्ध एक संकलित कृति है।' इसका संकलन शिविर आयोजन एवं ज्ञानार्जन की दृष्टि से किया गया सूचित होता है। इसमें 'जिनदर्शन-पूजन विधि' का सविस्तार वर्णन हुआ है।
___ इस कृति में निम्नलिखित विषय प्रमुख रूप से चर्चित हुए हैं - श्री जिनबिम्ब के दर्शनपूजनादि का फल, पूजन करने का समय, पूजन में रखने योग्य विवेक, पाँच अभिगम, पूजा के लिए वस्त्र परिधान कैसा हो?, तीन निसीहि शब्द का प्रयोग कब-कैसे?, तीन प्रदक्षिणा क्यों?, पाँच कल्याणक के साथ अंग पूजा, नवांगी पूजा करते समय क्या चिन्तन करना चाहिए? अष्टप्रकारी पूजा करते समय की उत्तम भावनाएँ, अग्रपूजा, भावपूजा, स्नात्र के लिए जलादि की शुद्धि-अशुद्धि, पूजा में आवश्यक सात प्रकार की शुद्धि, प्रदक्षिणा के समय बोलने योग्य दोहे, पूजा में ध्यान रखने योग्य आवश्यक सूचनाएँ, जिनप्रतिमा का महत्त्व, जिन प्रतिमा की सिद्धि इत्यादि। इसमें जिन- मन्दिर और जिनशासन के ज्वलन्त प्रश्न भी उठाये गये हैं जो सचमुच पढ़ने योग्य एवं चिन्तन करने योग्य हैं। धर्मसंग्रह
'धर्मसंग्रह' नामक यह ग्रन्थ' संस्कृत पद्यों में निबद्ध है। इस कृति में
' यह 'श्री शासन सेवा समिति,' शा. भरतकुमार माणेकलाल शाह पालड़ी सुखीपुरा नवा शा.मं. रोड़ अहमदाबाद से प्रकाशित है। २ इस ग्रन्थ का प्रथम प्रकाशन 'जैनधर्म विद्या प्रसारक वर्ग' (पालीताणा) नामक संस्था द्वारा वि. सं. १६६० में 'धर्मसंग्रह' भा. प्रथम के रुप में प्रसिद्ध हुआ था। इस संस्करण में प्रस्तुत ग्रन्थ की २६ गाथाएँ, टीका और उसका गुजराती भाषान्तर छपा है। • इसके बाद यह ग्रन्थ सटीक दो विभा. में 'श्री देवचंद लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड'
द्वारा अनुक्रम से वि.सं. १६७१ तथा १६७४ में प्रसिद्ध हुआ। इसका संशोधन पू. सागरानंद सूरी जी द्वारा किया गया है। इसके पश्चात् इसका सम्पूर्ण गुजराती अनुवाद करके दो विभागों में मुनि श्री भद्रंकर विजयजी ने वि.सं. २०१२ तथा २०१४ में छपवाया है।
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642/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
कुल १५६ कारिकाएँ हैं। यह कृति विजयानंदसूरि की परम्परा के शान्तिविजयगणि के सुशिष्य श्रीमानविजयगणि' द्वारा रची गई है। यह रचना वि.सं. १७३१ की है। इस ग्रन्थ की पूर्णाहूति अक्षयतृतीया के दिन हुई थी, ऐसा ग्रन्थ प्रशस्ति में उल्लेख है। यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार श्रावकधर्म एवं श्रमणधर्म सम्बन्धी कर्तव्यों तथा अनुष्ठानों का विवेचन करने वाला है। यद्यपि यह ग्रन्थ अर्वाचीन तीन शताब्दि पूर्व का है परन्तु विषयवस्तु की दृष्टि से यह प्राचीन सिद्ध होता है, क्योंकि लेखक ने विषयों का प्रतिपादन प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर किया है। इस ग्रन्थ की मूल कारिकाएँ १५६ ही है, किन्तु विषय निरूपण की शैली अनूठी है। ।
वस्तुतः यह ग्रन्थ मूलरूप से संक्षिप्त है किन्तु इसकी स्वोपज्ञ टीका अत्यन्त विस्तृत है और उसमें प्राचीन एवं आगमिक व्याख्या साहित्य के अनेक सन्दर्भ दिये गये हैं। सत्यतः इस ग्रन्थ का जो महत्त्व है वह इसकी स्वोपज्ञ टीका के कारण ही है। इस स्वोपज्ञ टीका की अनेक विशेषताएँ हैं -
१. इसमें प्राचीन आगमों एवं आगमिक व्याख्याओं अर्थात निर्युक्ति भाष्य आदि से अनेक गाथाएँ उद्धृत की गई है। २. इस स्वोपज्ञ टीका में निश्चयनय-व्यवहारनय की अपेक्षा से विवेच्य विषयों का सम्यक् समाधान प्रस्तुत किया गया है। ३. प्रस्तुत ग्रन्थ में उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग की चर्चा करते हुए वे साधना के क्षेत्र में किस प्रकार एक दूसरे के सम्पूरक है यह बताया है। ४. प्रस्तुत स्वोपज्ञ व्याख्या अपने विवेच्य विषय को द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव और व्यक्ति (पुरुष) आदि अनेक अपेक्षाओं से प्रस्तुत करती है और इस प्रकार विषय को स्पष्ट बना देती है। ५. प्रस्तुत ग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका में आगमों और आगमिक व्याख्याओं तथा प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों के जो सन्दर्भ दिये गये हैं उससे टीकाकार की बहुश्रुतता स्वतः सिद्ध हो जाती है। ६. प्रस्तुत स्वोपज्ञ टीका में रचनाकार ने अपने मन्तव्य की पुष्टि हेतु जो आगमिक आदि सन्दर्भ दिये हैं वे
उसके बाद वे ही दो विभा., तीन विभाों में 'श्री जिन शासन आराधना ट्रस्ट'
मुंबई-२ से वि.सं. २०४० तथा २०४३ में छपे हैं। • तदनन्तर वे ही तीनों भा. गणिफ्यविजयजी द्वारा हिन्दी भाषा में अनुवादित होकर .
'श्री निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ, हस्तिनापुर' से सन् १९६४ में प्रकाशित हुये हैं। 'इन्हीं ग्रन्थकार के समान नाम वाले अन्य बहुत से ग्रन्थकार हुए हैं। तपागच्छ में पाँच तथा खरतरगच्छ में दो का नामोल्लेख मिलता है। इसके उपरान्त एक नाम मानमुनि के नाम से प्राप्त होता है। 'धर्मसंग्रह' रचयिता के जन्म तथा स्वर्गवास की तिथि का उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन इतना निश्चित है कि अहमदाबाद के प्रसिद्ध सेठ श्री जवेरी शान्तिदासजी की प्रार्थना से उन्होंने यह अद्भुत ग्रन्थ रचा था।
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विषय के स्पष्टीकरण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। ७. प्रस्तुत टीका में सन्दभों को प्रस्तुत करते समय पूर्वाचार्यों के मान्यता सम्बन्धी मतभेदों और पाठान्तरों आदि का भी उल्लेख किया है और इस प्रकार प्रस्तुत टीका विवेचनात्मक होने के साथ-साथ तुलनात्मक भी बन गई है। ८. प्रस्तुत ग्रन्थ और स्वोपज्ञ टीका का संशोधन सर्वप्रथम लेखक के समकालीन जैन विद्या के महान् विद्वान उपाध्याय यशोविजयजी ने किया था। तदनन्तर व्याकरण, छन्द, काव्य आदि दृष्टि से इसका पुनर्सशोधन वाचकेन्द्र लावण्यविजयजी ने किया।
इस प्रकार यह मूलग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञटीका दोनों ही विधि-विधान संबंधी जैन साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते है यही कारण है कि आचार्य सागरानंदसूरी ने 'धर्मसंग्रह' की संस्कृत प्रस्तावना में इस ग्रन्थ को 'ग्रन्थराज' कहकर इसके महत्त्व का प्रतिपादन किया है। हम मूलग्रन्थ के अत्यन्त संक्षिप्त होने के कारण इसकी विषयवस्तु का विवरण स्वोपज्ञटीका के आधार पर ही कर रहे हैं।
सर्वप्रथम इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में इस ग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका रचने के निमित्त मंगलाचरण किया गया है। उसके बाद दो श्लोकों के द्वारा मंगल के रूप में प्रभु महावीर को नमस्कार करके सद्गुरु की परम्परा से सम्प्राप्त तथा स्वानुभव ज्ञान से निर्णीत, आगमरहस्य के सारभूत उत्तम धर्म के संग्रह रूप ग्रन्थ रचना करने की प्रतिज्ञा की गई है। अन्त में ग्रन्थ की समाप्ति रूप अंतिम मंगल किया गया है।
इस ग्रन्थ की विषयवस्तु चार अधिकारों (विभागों) में विभक्त है। प्रथम अधिकार में 'सामान्य गृहस्थधर्म की विधि' वर्णित है, द्वितीय अधिकार में 'विशेष गृहस्थधर्म की विधि' कही गई है, तृतीय अधिकार में 'सापेक्ष यतिधर्म की विधि' विवेचित है, चतुर्थ अधिकार में 'निरपेक्ष यतिधर्म की विधि' निरूपित है। इन अधिकारों का संक्षिप्त वर्णन निम्नोक्त है - प्रथम अधिकार - इस प्रथम अधिकार में मूलग्रन्थ के मात्र २० श्लोक हैं यह अधिकार निम्न विधियों के स्वरूप का विवेचन करता है १. धर्म के स्वरूप को जानने एवं समझने की विधि- इसके अन्तर्गत मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाओं का विवेचन किया गया है। २. धर्म में प्रवेश करने की विधि इसके अन्तर्गत मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों का प्रतिपादन किया गया है। ३. धर्म करने की सम्यक् विधि इसमें धर्मोपदेश का स्वरूप विवेचित है। साथ ही सद्धर्म की आराधना के लिए जीव में विशेष योग्यता होनी चाहिए, इसका प्रतिपादन किया गया है।
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द्वितीय अधिकार
इस दूसरे अधिकार में २१ से ७० तक श्लोक हैं। उनमें विशेष गृहस्थधर्म की विधियों कही गई हैं वे निम्न हैं.
-
१८.
१. सम्यक्त्व प्राप्त करने की विधि - इसके अन्तर्गत पाँच प्रकार का सम्यक्त्व एवं समकित के ६८ प्रकारों का निरूपण है । २. समकित हुआ या नहीं? यह जानने की विधि - इसमें शम - संवेगादि पाँच गुणों का वर्णन हुआ है । ३. समकित तत्त्व को पुष्ट करने की विधि इसमें समकित की महिमा एवं समकित का फल बताया है । ४. धर्म (व्रत) को ग्रहण करने की विधि - इसमें बारह व्रतों का स्वरूप बताया गया है । ५. व्रत संबंधी चिन्तन विधि- इसमें बारह व्रतों के एक सौ चौबीस अतिचार कहे हैं । ६. सात क्षेत्र में करने योग्य कर्त्तव्य । ७. श्रावक की दिनकृत्य विधि । गृह मंदिर में जिनपूजा करने की विधि। ६. श्री संघ के जिनमन्दिर में पूजा करने की विधि । १०. बृहत् देववंदन विधि । ११. जिनमंदिर तथा धार्मिक द्रव्य के विषय में श्रावक के विशेष कर्त्तव्यादि का विवेचन । १२. गुरुवंदन विधि - इसमें वन्दन के तीन प्रकार, वंदन के छः स्थान, वन्दना के पच्चीस आवश्यक, वन्दना के बत्तीस दोष, वन्दना के आठ कारण, गुरु की तैतीस आशातनाएँ आदि की चर्चा है। १३. प्रत्याख्यानग्रहण विधि - इसमें प्रत्याख्यान के दस प्रकार, प्रत्याख्यान के काल सम्बन्धी दस प्रकार, प्रत्याख्यान के भेद, प्रत्याख्यान के स्थान, प्रत्याख्यान के आगार आदि का वर्णन है । १४. व्यापार करने की विधि । १५. औचित्य धर्म की विधि - इसमें १. माता २ पिता, ३ पत्नि ४ भ्राता ५. पुत्र ६. स्वजन सम्बन्धी ७. धर्माचार्य ८. नगरजन है । ६. अन्य धर्मीजन इन नौ लोगों के साथ रखने योग्य औचित्य का प्रतिपादन १७. मध्याह्नकाल में करने योग्य विधि - इसमें सुपात्रदान विधि एवं भोजन करने की रीति ये दो बातें कही है। १८. सायंकालीन जिनपूजन आदि करने की विधि, १६. प्रतिक्रमणविधि - इसके अन्तर्गत रात्रिकदैवसिक-पाक्षिक- चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण विधि, प्रतिक्रमण का काल, आवश्यक सूत्रों का अर्थ, आदि प्रतिपादित हुये हैं । २०. रात्रिकालीन कर्त्तव्य । २१. श्रावक सम्बन्धी कर्त्तव्य। २२. श्रावक के चौमासी सम्बन्धी कर्त्तव्य । २३. श्रावक के वार्षिक सम्बन्धी कर्त्तव्य । २४. श्रावक के जन्म सम्बन्धी कर्त्तव्य । २५. ग्यारह उपासक - प्रतिमा ग्रहण करने की विधि एवं उनका स्वरूप ।
तृतीय अधिकार प्रस्तुत अधिकार में ७१ से १५३ तक श्लोक दिये गये हैं। उनमें सापेक्ष श्रमणधर्म सम्बन्धी कृत्यों पर विचार किया गया हैं वे कृत्य ये हैं
-
१. दीक्षा की योग्यता के गुण, दीक्षा का स्वरूप एवं दीक्षा ग्रहण विधि, २. शास्त्र अध्ययन विधि, ३. दिनचर्या के सात द्वारादि का वर्णन, ४. प्रतिलेखना का स्वरूप एवं विधि, ५. स्वाध्याय का स्वरूप एवं विधि, ६. भिक्षाचर्या विधि, ७. वसति,
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वस्त्र एवं पात्र की शुद्धि और उनके गुणदोष का प्रतिपादन, ८. आहार लाने के बाद की विधि, ६. आहार करने की विधि, १०. आहार करने के बाद की विधि, ११. स्थंडिल भूमि की शुद्धि और स्थंडिल जाने की विधि, १२. सायंकालीन प्रतिलेखना विधि, १३. सूर्यास्त के पूर्व की विधि (कर्त्तव्य) १४. श्रमण की प्रतिक्रमण विधि एवं प्रतिक्रमण के सूत्रार्थ, १५. प्रतिक्रमण कर लेने के बाद की विधि, १६. उपस्थापना विधि, १७. चरणसित्तरी, करणसित्तरी, महाव्रत, पंचाचार, गच्छवास आदि का स्वरूप, १८. विहार का स्वरूप, उसका महत्त्व, उसके लाभ एवं विधि, १६. दस प्रकार की प्रायश्चित्त विधि, २०. गणि आदि पद प्रदान विधि, २१. संलेखना का स्वरूप, और संलेखना ग्रहण विधि, २२. महापरिष्ठापनिका विधि, २३. स्थविरकल्पी एवं यथालन्दि का स्वरूप इत्यादि। चतुर्थ अधिकार - इस अन्तिम अधिकार में १५४ से १५६ तक की कारिकाएँ है। उन कारिकाओं में निरपेक्ष श्रमणधर्म का शास्त्रोक्त विवेचन किया गया है वह विषयवस्तु की दृष्टि से इस प्रकार है - १. जिनकल्पी साधु का स्वरूप और सामाचारी, २. परिहार- विशुद्धि कल्प एवं उसकी मर्यादा, ३. निरपेक्ष श्रमणधर्म का सामान्य वर्णन इत्यादि।
अन्त में २१ गाथाओं के द्वारा विस्तार से प्रशस्ति लिखी गई है टीका - प्रस्तुत ग्रन्थ की स्वोपज्ञवृत्ति गणि मानविजयजी द्वारा १४६२ श्लोक परिमाण में रची गई है। इस ग्रन्थकार की और भी श्रेष्ठ रचनायें प्राप्त होती हैं, उनमें १. नयविचार नामक ग्रन्थ का परिमाण २४० श्लोक हैं (सं. १७२८) २. नयतत्त्वप्रकरणविवरण (सं. १७३५), ३. सुमतिकुमति (जिनप्रतिमा) स्तवन (सं. १७२८), ४. गुरुतत्त्व प्रकाशचौबीस (सं. १७२५), ५. गजसुकुमाररास, ६. भगवतीरास रास (सं. १७४३) तथा ७. मद की सज्झाय इत्यादि कृतियाँ भक्ति भाव से परिपूर्ण एवं प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। धर्मरत्नप्रकरण
इस ग्रन्थ' के कर्ता श्री शांतिसूरि है। ये बृहद्गच्छीय सर्वदेवसूरि के प्रशिष्य एवं नेमिचन्द्रसूरि के शिष्य है। यह कृति प्राकृत भाषा के १४५ पद्यों में गुम्फित है। इसका रचनाकाल वि.सं. १२७१ है।
यह ग्रन्थ सामान्य जीवों के बोध के लिए रचा गया है। इसमें धर्म ग्रहण करने की विधि एवं धर्मपालन करने की विधि को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है।
' यह ग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका और गुजराती अनुवाद के साथ 'श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर' से वि.सं. १९८२ में प्रकाशित हुआ है।
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मुख्यतः इस कृति में श्रावक और साधु संबंधी दो प्रकार के धर्मरत्न कहे गये हैं। इसमें लिखा है कि जो आत्मा इक्कीस प्रकार के गुणों से युक्त हो वह दोनों प्रकार के धर्मरत्न को प्राप्त कर सकता है अर्थात् देशविरति और सर्वविरति धर्म का पालन कर सकता है और वही आत्मा सदा धर्मरत्न व्रत- नियम-तप आदि का पालन करने के योग्य होती है।
है।
इस ग्रन्थ में प्रमुख रूप से तीन वाचना ( विषयों) पर विवेचन हुआ प्रथम वाचना में सर्वधर्म स्थान की साधारण भूमिका रूप इक्कीस गुणों का वर्णन किया गया है। इसके साथ ही श्रावक शब्द का अर्थ, धर्म क्या?, धर्म का अधिकारी कौन ? इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस वाचना के अन्त में कहा है कि जिस प्रकार चित्रकारी करने के पूर्व चित्रकार प्रथम भूमिका शुद्ध करता है उसी प्रकार धर्मरत्न के अधिकारी बनने के लिए एवं मनोभूमिका शुद्ध करने के लिए इक्कीस गुणों को प्राप्त करना चाहिए।
द्वितीय वाचना में भाव श्रावक का लक्षण बतलाया गया है। इसमें भावश्रावक के छः लिंग कहे हैं। पहला लिंग कृतव्रतकर्मनामक इसके चार प्रकार का है १. व्रत का श्रवण करना, २ . व्रत को जानना, ३ . व्रत को ग्रहण करना और ४. व्रत का पालन करना। दूसरा लिंग शीलव्रतादि रूप छः प्रकार का बताया गया है। तीसरा लिंग पाँच प्रकार का कहा गया है- १. स्वाध्याय २. करण ३. विनय ४. अभिनिवेश और ५. रुचि । चौथा लिंग ऋजुव्यवहार है इसके चार भेद कहे गये हैं। पाँचवा लक्षण गुरुशुश्रुषा है और छट्ठा लक्षण प्रवचनकुशलता है। इस वाचना में भाव श्रावक के अन्य सत्तर लक्षण भी निर्दिष्ट किये गये हैं।
तृतीय वाचना में भाव साधु के लक्षण और उसका स्वरूप बताया गया है। इसमें भावसाधु के सात लक्षण कहे हैं और कहा है जो समग्र क्रिया में मार्गानुसारी हो, धर्म में उत्कृष्ट श्रद्धा रखने वाला हो, प्रज्ञापनीय हो, क्रिया - विधि के अनुपालन में अप्रमत्त हो, शक्य अनुष्ठान को आरंभ करने वाला हो, गुणानुरागी हो और गुरु आज्ञा की आराधना में रत हो वह भाव साधु है। इस वाचना के अन्त में धर्मरत्न का अनंतर और पंरपर फल बताया गया है। इस ग्रन्थ की तीनों वाचनाओं में पृथक-पृथक विषयों की पुष्टि हेतु अट्ठाईस कथाएँ भी दी गई हैं।
संक्षेपतः इस कृति के वर्णन से ज्ञात होता है कि इसमें धर्ममार्ग, श्रावकधर्म एवं साधुधर्म की भूमिका में प्रवेश करने की एवं उस भूमिका में स्थिर रहने की विधि का सस्वरूप और सोदाहरण विवेचन हुआ है।
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टीकाएँ - इस ग्रन्थ पर श्री शांतिसूरि की स्वोपज्ञवृत्ति है। इसके अतिरिक्त १४ वीं शती के प्रारंभ में श्रीदेवेन्द्रसूरि के द्वारा इस पर बृहद् टीका रची गई है। धर्मविधिप्रकरण
यह ग्रन्थ चन्द्रकुलीय सर्वदेवसूरि के शिष्य श्रीप्रभसूरि प्रणीत है। इस ग्रन्थ पर श्री उदयसिंहसूरि ने टीका लिखी है। यह कृति प्राकृत की पद्यात्मक शैली में है। इसमें कुल पचास गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ की टीका संस्कृत गद्य-पद्य में है। प्रस्तुत ग्रन्थ के नाम से यह सिद्ध हो जाता है कि इसमें धर्मविधि से सम्बन्धित चर्चा हुई है। ग्रन्थकार ने धर्म का स्वरूप, धर्म का विवेचन एवं धर्म करने की विधि का जो वर्णन प्रतिपादित किया है वह पढ़कर हृदय रोमांच हो उठता है।
इस ग्रन्थ में 'धर्मविधि' के आठ द्वार कहे गये हैं। प्रारम्भ में एक गाथा मंगलाचरण रूप दी गई है। उसमें वर्द्धमानस्वामी को नमस्कार करके स्व और पर कल्याण के लिए संक्षेप में धर्मविधि ग्रन्थ लिखने की प्रतिज्ञा की गई है तथा इस रचना की अन्तिम पाँच गाथाएँ प्रशस्ति रूप में उल्लिखित हैं। इसमें ग्रन्थकार ने अपने मन्तव्य को कई प्रकार से अभिव्यक्त किया है साथ ही इसमें यह बताया है कि 'धर्मविधि' नामक यह ग्रन्थ अमृतकलश के समान है और संसार के दुखों को हरण करने वाला है। जो मध्यस्थ भावना वाले हैं, आगम के प्रति रुचि रखने वाले हैं, संवेग भाव से भावित हैं उन जीवों के लिए यह ग्रन्थ रचा गया है। जिस प्रकार कुशल वैद्य भी अपनी व्याधि का उपचार अन्य योग्य वैद्य से करवाता है उसी प्रकार भव्यजीव भी धर्मविधि को जानते हुए कर्म का क्षय करें। अन्त में कहा है कि जो भव्यजीव इस धर्मविधि को आचरण करते हैं वे शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं। यह कहकर ग्रन्थ को पूर्ण किया गया है।। इस ग्रन्थ के आठ द्वारों की विषयवस्तु इस प्रकार है - १. धर्मपरीक्षा द्वार - इस द्वार में धर्म करने वाले जीव की परीक्षा किस प्रकार करनी चाहिए, उसकी विधि कष-छेद और ताप के उदाहरण पूर्वक बतायी गई है साथ ही इस सम्बन्ध में प्रदेशी राजा का कथानक दिया गया है। २. धर्मलाभ द्वार - इसमें उल्लेख किया है कि मोहनीयकर्म का क्षयोपशम होने से धर्म का लाभ होता है। इसकी और भी चर्चा करते हुए ४०० पद्यों में उदयन का दृष्टान्त दिया गया है। ३. धर्मगुण द्वार - इस द्वार में सम्यक्त्व को धर्म का विशिष्ट गुण बताया है उसकी चर्चा करते हुए १७७ पद्यों में कामदेवश्रावक का दृष्टान्त विवेचित किया है।
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४. धर्मदोष द्वार - इस चौथे द्वार में अनन्तानुबन्धी कषाय को धर्म के दोष रूप में स्वीकारा है। इस विषय में १६७ गाथाओं के द्वारा नन्दमणियार सेट की कथा वर्णित की है।
५. सद्धर्मदायक द्वार इस द्वार में धर्मप्रदान करने योग्य अर्थात् धर्म का बोध समझाने योग्य गुरु के दो प्रकार से छत्तीस गुण कहे गये हैं । यहाँ ध्यातव्य है कि धर्म का बोध देने वाले गुरु भी शास्त्रोक्त गुणों से योग्य होने चाहिए। सामान्य गुरु धर्म समझाने का अधिकारी नहीं हो सकता है। इस सम्बन्ध में ३६० पद्यों के द्वारा संप्रतिराजा का दृष्टान्त चर्चित किया है।
६. धर्मग्रहण द्वार इस द्वार में धर्मग्रहण करने योग्य जीव के इक्कीस गुण बताये गये हैं और निर्देश किया गया है कि जो जीव इन इक्कीस गुणों से युक्त हो उन्हें ही यथोचित धर्म का स्वरूप समझना चाहिए। इस सन्दर्भ में वंकचूल राजकुमार का कथानक विवेचित किया है जो २८७ पद्यों में गुम्फित है।
७. धर्मभेद द्वार- इस द्वार में धर्म के चार भेद बताये गये हैं १. शुद्धदान २. शुद्धशील ३. शुद्धतप और ४. शुद्धभाव । शुद्धदान के विषय में मूलदेवकथा ( ३०२ पद्य), शुद्धशील में सुभद्रकथा (१३४), शुद्धतप में विष्णुकुमारकथा (२३८), शुद्धभाव पर इलापुत्रकथा ( १०३) पद्यों में दी गई हैं। पुनः गृहस्थ और साधु की अपेक्षा से धर्म के दो भेद किये गये हैं। धर्म का मूल सम्यक्त्व को कहा है। इसमें सम्यक्त्व सहित बारह व्रत का स्वरूप भी निर्दिष्ट किया है।
८. सद्धर्मफल द्वार इस द्वार में धर्मफल की चर्चा करते हुए धर्म का फल 'विरति' कहा है तथा इस सम्बन्ध में अत्यन्त विस्तार के साथ जंबूस्वामी का कथानक प्रस्तुत किया गया है जो १४५० पद्यों में गुम्फित है । '
उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि यह कृति जितनी महत्त्वपूर्ण हैं। उसकी वृत्ति भी उतनी ही मूल्यवान है । विषयवस्तु का स्पष्टीकरण करने हेतु जो कथानक दिये गये हैं वे सचमुच अलभ्य है। धर्म मार्ग में प्रवेश करने वाले भव्यजीवों को इस ग्रन्थ का अवश्य पठन या श्रवण करना चाहिये, जिससे वे शुद्ध आराधना पूर्वक साधनामार्ग में आगे बढ़ सकें।
नवाणुंयात्राविधि
यह हिन्दी गद्य-पद्य में रचित है। इसका सम्पादन तपागच्छीय मुनि मानविजयजी ने किया है। इसमें सिद्धाचल तीर्थ की 'नवाणुयात्राविधि' कही गई है
,
यह ग्रन्थ वि.सं. २४५० में जोशंगभाई छोटालाल सुतरीया, लुणसावाडे-मोटीपोल, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ है।
२ यह कृति 'सोमचन्द डी. शाह पालीताणा' से प्रकाशित है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/649
इसके साथ ही नवाणुयात्रा में प्रतिदिन करने योग्य पाँच चैत्यवन्दन इक्कीस तथा एक सौ आठ खमासमण के दोहे, आवश्यक स्तवन, स्तुतियाँ आदि का भी वर्णन किया गया है। नवाणुं यात्रा करने का प्रयोजन भी बताया गया है। पच्चक्खाणसरुप (प्रत्याख्यानस्वरूप)
इस ग्रन्थ के प्रणेता श्री यशोदेवसूरि है। इन्होंने यह कृति' जैन महाराष्ट्री के ३२६ पद्यों में निबद्ध की है। यह रचना वि.सं. ११८२ की है। इस कृति के प्रारम्भ में प्रत्याख्यान के पर्याय दिये गये हैं। इसमें अद्धा-प्रत्याख्यान का विस्तृत वर्णन है। इसके अन्तर्गत १. प्रत्याख्यान लेने की विधि २. प्रत्याख्यान की विशुद्धि ३. सूत्र की विचारणा ४. प्रत्याख्यान पारने की विधि ५. प्रत्याख्यान पालन और प्रत्याख्यान का फल ये छ: बातें अनुक्रम से उपस्थित की गई हैं। इस प्रकार इसमें छः द्वारों का वर्णन हुआ है।
तीसरे द्वार में नमस्कारसहित पौरुषी, पुरिमार्थ, एकाशन, एकस्थान, आचाम्ल, उपवास, चरम, देशावगासिक, अभिग्रह और विकृति- इन दस प्रत्याख्यानों का अर्थ समझाया है। बीच-बीच में नमस्कारसहित प्रत्याख्यान के अन्य सूत्र भी दिये गये हैं। इनके अतिरिक्त दान एवं प्रत्याख्यान फल के विषय में दृष्टान्त भी आते हैं। इसकी ३२८ वी गाथा को पढ़ने से मालूम होता है कि प्रस्तुत कृति की रचना आवश्यक, पंचाशक और पंचवस्तुक के विवरण के आधार पर की गई है। टीका- इस पर ५५० पद्यों की एक अज्ञातकर्तृक वृत्ति है। पच्चक्खाणभास (प्रत्याख्यानभाष्य)
इस कृति' के रचयिता श्री देवेन्द्रसूरि है। चैत्यवन्दनभाष्य और गुरुवन्दनभाष्य इन्हीं की रचनाएँ हैं। यह कृति जैन महाराष्ट्री प्राकृत के ४८ पद्यों में गुम्फित है। इसमें प्रत्याख्यान सम्बन्धी विधि-विधान कहे गये हैं यह बात इस कृ ति के नाम से भी स्पष्ट होती है। इस ग्रन्थ में प्रतिपादित प्रत्याख्यान विषयक नौ द्वारों का सामान्य वर्णन इस प्रकार है - प्रथम द्वार में अनागत, अतिक्रमण, सांकेतिक, अद्धा आदि दस प्रकार के प्रत्याख्यान बताये गये हैं। इसके साथ ही नवकारसी, पोरूषी, पुरिमड्ढ़ आयंबिल,
'चार सौ श्लोक -परिमाण यह कृति सारस्वतविभ्रम, दानषट्त्रिंशिका, विसेसणवई और बीस विशिकाओं के साथ ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था ने सन् १६२७ में प्रकाशित की
२ यह कृति 'श्री जैन श्रेयस्कर मंडल- महेसाणा' ने वि.सं. २००६ में प्रकाशित की है।
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650/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
उपवास आदि दस प्रकार के काल सम्बन्धी प्रत्याख्यानों का भी निरूपण हुआ है। द्वितीय द्वार में चार प्रकार की उच्चारविधि का निर्देश है। इसके अनन्तर नवकारसी-पोरूसी आदि प्रत्याख्यानों में किसमें कितने उच्चार पद होते हैं? यह भी बताया गया है। तृतीय द्वार में चार प्रकार के आहार का स्वरूप बताया गया है। चतुर्थ द्वार में नवकारसी, पोरिसी, एकासना बीयासना आदि दस प्रकार के प्रत्याख्यान सम्बन्धी बाईस आगारों का विवेचन हुआ है। पंचम-षष्टम द्वार में दस प्रकार की विगय और तीस प्रकार के नीवियाता (निर्विकृतिक) का उल्लेख हुआ है। यहाँ ज्ञातव्य है कि छ: मूल विकृति के ही तीस निर्विकृतिक होते हैं। सप्तम द्वार में प्रत्याख्यान विधि के एक सौ सैंतालीस विकल्प (भांगा) कहे गये हैं। अष्टम द्वार में प्रत्याख्यान की छः शुद्धियाँ बतायी गयी रे नवम द्वार में विधिपूर्वक प्रत्याख्यान ग्रहण करने से होने वाले इहलौकिक और परलौकिक ऐसे दो प्रकार के फल बताये हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि यह कृति प्रत्याख्यान संबंधी अन्य कृतियों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसमें प्रत्याख्यान विषयक प्रायः समग्र विवरण उपलब्ध है। पर्युषणाविचार
___यह हर्षसेनगणि के शिष्य हर्षभूषण' की रचना है।' इसे पर्युषणास्थिति एवं वर्तितभाद्रपद पर्युषणाविचार भी कहते हैं। यह वि.सं. १४८६ की रचना है और इसमें २५८ पद्य हैं। इसमें पर्युषणा विधान के विषय में विचार किया गया है। प्रत्याख्यानसिद्धि
यह अज्ञातकर्तृक रचना है। संभवतः इसमें प्रत्याख्यान विधान संबंधी चर्चा होनी चाहिए। हमें यह कृति प्राप्त नहीं हुई है। टीकाएँ - सोमसुन्दरसूरि के शिष्य मुनि जयचन्द्र . .. इस पर ७०० श्लोक-परिमाण एक विवरण लिखा है। जिनप्रभसूरि ने भा एक विवरण लिखा है। इसके अलावा किसी ने १५०० श्लोक-परिमाण टीका भी रची है।
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' जिनरत्नकोश - पृ. २४०
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/651
प्रवचनसारोद्धार
'प्रवचनसारोद्धार' नामक प्रस्तुत कृति' के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्रसूरि है। ये आम्रदेवसूरि के शिष्य एवं जिनचन्द्रसूरि के प्रशिष्य थे। यह कृति १५७७ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है, साथ ही ७७१ संस्कृत श्लोक भी है। इसकी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। छन्दों की अपेक्षा से इसमें आर्या छन्द की प्रमुखता है। इस कृति का रचनाकाल वि.सं. की १२ वीं शती के उत्तरार्ध से लेकर १३ वीं शती का पूर्वार्ध है।
प्रस्तुत कृति में विविध विषयों का संकलन हुआ है। प्रवचनसारोद्धार जैसा कि इस नाम से ही सूचित होता है कि इसमें प्रवचन अर्थात् जिनवाणी का सार भरा हुआ है। वस्तुतः यह संग्रह ग्रन्थ कहा जा सकता है। इसमें लेखक ने जैन विद्या के विविध आयामों को समाहित करने का अनुपम प्रयास किया है। यद्यपि इसके पूर्व आचार्य हरिभद्रसूरि (वि. ८ वीं शती) ने अपने ग्रन्थों अष्टक, षोड़शक, विंशिका, पंचाशक आदि में जैन धर्म, दर्शन और साधना के विविध पक्षों को समाहित करने का प्रयत्न किया है, फिर भी विषय वैविध्य की अपेक्षा से ये ग्रन्थ भी इतने व्यापक नहीं है, जितना प्रवचनसारोद्धार है। इसमें २७६ द्वार हैं और प्रत्येक द्वार एक-एक विषय का विवेचन प्रस्तुत करता है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति में जैन विद्या से सम्बन्धित २७६ विषयों का विवेचन है। इससे इसका बहुआयामी स्वरूप स्वतः सिद्ध हो जाता है।
हम इस ग्रन्थ के समग्र द्वारों की विषयवस्तु का विवरण प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं केवल जो द्वार विधि-विधान या आचार-नियम प्रधान हैं उन्हीं का प्रतिपादन कर रहे हैं। यहाँ जानने योग्य है कि प्रवचनसारोद्धार का पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, छठा, १० वाँ, ६६ वाँ, ६७ वाँ, ७५ वाँ, ११५ वाँ, ११८ वाँ, १२८ वाँ, १२६ वाँ, १३२ वाँ, १३४ वाँ ये द्वार मुख्यतः विधि-विधान विषयक हैं।
- इस ग्रन्थ के प्रथम द्वार में चैत्यवंदन विधि का विवेचन हुआ है। चैत्यवंदन के सम्बन्ध में दस त्रिक की चर्चा की गई हैं। इसके साथ-साथ स्तुति एवं वन्दन विधि का तथा द्वादश अधिकारों का भी विवेचन हुआ है। अन्त में चैत्यवन्दन कब और कितनी बार करना चाहिए ? आदि की चर्चा के साथ
' (क) यह ग्रन्थ सिद्धसेनसूरिकृत तत्त्वप्रकाशिनी नाम की वृत्ति के साथ 'देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्वार संस्था' ने दो भा. में अनुक्रम से सन् १६२२ और १६२६ में प्रकाशित किया है। दूसरे भा. के प्रारम्भ में उपोद्घात तथा अन्त में वृत्तिगत पाठों, व्यक्तियों, क्षेत्रों एवं नामों की अकारादि क्रम से सूची दी गई हैं।
(ख) यह कृति हिन्दी भावानुवाद के साथ 'प्राकृत भारती अकादमी- जयपुर' से सन् १६६६ में प्रकाशित हुई है।
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चैत्यवन्दन के जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट भेदों का निरूपण किया है।
दूसरे द्वार में गुरुवन्दन विधि एवं उसके दोषों का वर्णन हुआ है। पुनश्च इस द्वार में गुरुवन्दन के १६२ स्थान वर्णित किये गये हैं- मुखवस्त्रिका, शरीर और आवश्यक क्रिया इन तीनों में प्रत्येक के पच्चीस-पच्चीस स्थान बताये हैं। इनके अतिरिक्त स्थान सम्बन्धी छ, गुणसम्बन्धी छः वचन संबंधी छः, अधिकारी को वन्दन न करने सम्बन्धी पाँच, अनधिकारी को वन्दन करने सम्बन्धी पाँच और प्रतिषेध सम्बन्धी पाँच स्थान बताये हैं। इसी क्रम में अवग्रह सम्बन्धी एक, अभिधान सम्बन्धी पाँच, उदाहरण सम्बन्धी पाँच, आशातना सम्बन्धी तैंतीस वन्दना सम्बन्धी बत्तीस एवं कारण सम्बन्धी आठ ऐसे कुल १६२ स्थानों का उल्लेख हुआ है। इस चर्चा में मुखवस्त्रिका के द्वारा शरीर के किन-किन भागों का, कैसे प्रमार्जन करना चाहिए, इसका विस्तृत एवं रोचक विवरण है। इसी क्रम में गुरुवन्दन करते समय खमासमणासूत्र का किस प्रकार उच्चारण करना चाहिये और तथा उस समय कैसी क्रिया करनी चाहिए इसका भी इस द्वार में निर्देश है।
प्रवचनसारोद्धार के तीसरे द्वार में दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणविधि तथा इनके अन्तर्गत किये जाने वाले कायोत्सर्ग एवं क्षमापना ( खमासमण ) विधि का विवेचन किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि देवसिक-प्रतिक्रमण में चार, रात्रिक प्रतिक्रमण में दो, पाक्षिक में बारह, चातुर्मासिक में बीस और सांवत्सरिक में चालीस लोगस्स का ध्यान करना चाहिए। पुनः इसी प्रसंग में इनकी श्लोक संख्या एवं श्वश्वास की संख्या का भी वर्णन किया गया है। इस दृष्टि से दैवसिक प्रतिक्रमण में १००, रात्रिक में ५०, पाक्षिक में ३००, चातुर्मासिक में ५०० और वार्षिक में १००० श्वासोश्वास का ध्यान करना चाहिए । इसी अनुक्रम में गुरु से क्षमायाचना सम्बन्धी पाठ की संख्या का भी विचार किया गया है।
चौथे द्वार में नवकारशी, पौरुषी आदि काल सम्बन्धी दस प्रकार के प्रत्याख्यान की चर्चा की गई हैं। साथ ही इसमें प्रत्याख्यान के कारण एवं प्रत्याख्यान ग्रहण विधि भी विवेचित है । दशवें द्वार में तीर्थंकरनामकर्म के उपार्जन हेतु जिन बीस स्थानकों की साधना की जाती है उनकी विधि वर्णित है । ६६ वें द्वार में चरणसत्तरी और ६७ वें द्वार में करणसत्तरी का विवेचन है। पंच महाव्रत, दस श्रमणधर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दस प्रकार का वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्यगुप्तियाँ, तीन रत्नत्रय, बारह तप और क्रोध आदि चार कषायों का निग्रह ये चरण सत्तरी के सत्तर भेद हैं। करण सत्तरी के अन्तर्गत सोलह उद्गमदोष, सोलह उत्पादनादोष, दस एषणादोष, पाँच ग्रासैषणादोष, पाँच समिति, बारह भावना, पाँच इन्द्रियों का निरोध, तीन गुप्ति का
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/653
समावेश होता है। ये एक सौ चालीस भेद साधु की आचार विधि के अंग हैं। ७५ वें द्वार में चौदह कृतिकों (वन्दनविधि) के प्रकारों की चर्चा है। कृतिकर्म का तात्पर्यआचार्य आदि ज्येष्ठ मुनियों के वंदन से है। ६१ वें द्वार में स्थण्डिल भूमि कैसी होनी चाहिए, उसका विधान प्रतिपादित है। ६५ वें द्वार में साधु के लिए आहार सेवन की विधि का निर्देश है। उसमें कहा है कि मुनि के द्वारा भोजन करते समय स्वाद के लिए भोज्य पदार्थों का सम्मिश्रण करना, परिमाण से अधिक आहार करना, भोज्य पदार्थों में राग रखना, प्रतिकूल भोज्य पदार्थों की निन्दा करना और अकारण आहार करना निषिद्ध है।
१०१ वें द्वार में साधु जीवन की मुख्य आधार शिला रूप चक्रवाल सामाचारी का विवेचन किया गया है। इस सामाचारी में दस प्रकार के नियमों एवं विधियों का पालन करना होता है। १०६ वें द्वार में मल-मूत्र के विसर्जन विधि का विवेचन है। ११२ वें द्वार में शय्यातरपिण्ड अर्थात् जिस गृहस्थ ने मुनि को निवास के लिए स्थान दिया है उसके यहाँ से भोजन ग्रहण करना निषिद्ध माना गया है। इसी क्रम में शय्यातर के प्रकार, शय्यातर के यहाँ से क्या-क्या ग्रहण किया जा सकता है उसकी विधि आदि का निर्देश है। ११५ वें द्वार से लेकर ११८ वें द्वार तक चार प्रकार के आहार की कल्प्याकल्प विधि का उल्लेख हआ है। इस सम्बन्ध में लिखा गया है कि जिस क्षेत्र में सूर्य उदित हो गया हो उस क्षेत्र से गृहीत अशन आदि ही कल्प्य होता है, शेष कालातिक्रान्त कहलाता है। दो कोस से अधिक दूरी से लाया गया भोजन-पानी क्षेत्रातीत कहलाता है। प्रथम प्रहर में लिया गया भोजन-पानी तीसरे प्रहर तक भोज्य होता है उसके बाद वे कालातीत हो जाते हैं और ऐसा भोजन साधु के लिए अकल्प्य है।
१२८ वें द्वार में मुनियों के रात्रि जागरण विधि का विवेचन है। उसमें बताया गया है कि प्रथमप्रहर में आचार्य, गीतार्थ और सभी साधु मिलकर स्वाध्याय करें। दूसरे प्रहर में सभी मुनि और आचार्य सो जायें और गीतार्थ मुनि स्वाध्याय करें। तीसरे प्रहर में आचार्य जागृत होकर स्वाध्याय करें, और गीतार्थ मुनि सो जायें। चौथे प्रहर में सभी साधु उठकर स्वाध्याय करें। आचार्य और गीतार्थ सोये रहें, क्योंकि उन्हें बाद में प्रवचन आदि कार्य करने होते हैं। १२६ वें द्वार में जिस व्यक्ति (आचार्य या गीतार्थ मुनि) के सामने आलोचना की जा सकती है उसको खोजने (निश्रा प्राप्त करने की विधि बताई गई है। १३४ ३ द्वार में संलेखना सम्बन्धी विधि-विधान का विस्तृत विवेचन किया गया है। इनके अतिरिक्त और भी विधि-विधान संक्षिप्त रूप से कहे गये हैं। हमने इस कृति के एक पक्ष का ही स्पर्श किया है इसके विशिष्ट पक्षों का बोध करने के लिए तो इस कृति का अध्ययन करना ही आवश्यक होगा। निष्कर्षतः यह ग्रन्थ विधि-विधान की दृष्टि
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से भी कम मूल्य का नहीं है। टीकाएँ - इस ग्रन्थ पर आचार्य सिद्धसेनसूरि की तत्त्वज्ञान-विकासिनी नामक विशद टीका उपलब्ध होती है। उन्होंने इसमें लगभग १०० ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं और उनके ५०० से अधिक सन्दर्भो का संकलन किया है। प्रारम्भ के तीन पद्यों में से पहले में 'जैन-ज्योति' की प्रशंसा की गई है और दूसरे में महावीरस्वामी की स्तुति है। इस वृत्ति के अन्त में १६ पद्यों की एक प्रशस्ति है इससे वृत्ति प्रणेता की गुरु-परम्परा ज्ञात होती है वह परम्परा इस प्रकार है -
चन्द्रगच्छीय अभयदेवसूरि
धनेश्वरसूरि
अजितसिंहसूरि
देवचन्द्रसूरि
चन्द्रप्रभ (मुनिपति)
भद्रेश्वरसूरि
अजितसिंहसूरि
देवप्रभसूरि (प्रमाण प्रकाश के कर्ता)
सिद्धसेनसूरि (प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार)
इसके अतिरिक्त रविप्रभ के शिष्य उदयप्रभ ने इस पर ३२०३ श्लोक परिमाण 'विषमपद' नाम की व्याख्या लिखी है। ये रविप्रभ यशोभद्र के शिष्य और धर्मघोष के प्रशिष्य थे। इस कृति पर ३३०३ श्लोक-परिमाण की 'विषमपदपर्याय'
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य
नाम की अज्ञातकर्तृक टीका है। एक अन्य टीका और भी है किन्तु वह भी अज्ञातकर्तृक है। पद्ममन्दिरगणि ने इस पर एक बालावबोध लिखा है । '
प्रशमरति
यह कृति तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वाति की है। इसमें ३१३ पद्य संस्कृत भाषा में निबद्ध है। इस कृति का रचनाकाल दूसरी से चौथी के मध्य माना जाता है।
इस ग्रन्थ की रचना मुनि और गृहस्थ दोनों के उद्देश्यों को लेकर हुई है। यह आचार प्रधान कृति है । इस ग्रन्थ रचना का मूल ध्येय राग-द्वेष के परिणामों से निवृत्त होना और मोक्षमार्ग को प्राप्त करना है । जैसा कि कृति नाम से सूचित होता है प्रशम = आनन्द और रति = रुचि अर्थात् आत्मिक आनंद को उपलब्ध करने की रूचि रखना। यह आनन्द राग-द्वेष के परिणाम का क्षय किये बिना सम्प्राप्त नहीं हो सकता है, इसलिए इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रथम राग-द्वेष का निरूपण किया है उसके बाद ही राग-द्वेष को दूर करने के विविध उपाय बतलाये हैं और वे उपाय पाँच व्रत, बारह-भावना, दस यतिधर्म, रत्नत्रय और ध्यान हैं।
यद्यपि इस कृति में कोई भी विधि या विधान स्पष्ट रूप से दृष्टिगत नहीं होते हैं किन्तु गहराई से अवलोकन करें तो अवश्य ही कुछ स्थल विधि-विधान से सम्बन्धित दिखते हैं; जैसे धर्म-अधिकार, ध्यान अधिकार, क्षपकश्रेणी अधिकार, समुद्घात - अधिकार आदि । सामान्यतः राग-द्वेष का क्षय करने हेतु जो उपाय कहे गये हैं वे भी एक प्रकार के विधि रूप ही हैं।
यह कृति निम्नलिखित बाईस अधिकारों में विभक्त है
द् इतिहास / 655
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१. पीठबन्ध - नमस्कार २. कषाय ३. रागादि ४. आठकर्म ५- ६. करणार्थ ७. आठ मदस्थान ८. आचार ६. भावना १० यतिधर्म ११. कथा १२. तत्त्व १३. उपयोग ४. भाव १५. षड्विध द्रव्य १६. चरण १७. शीलांग १८. ध्यान १६. क्षपकश्रेणी २०. समुद्रघात २१. योगनिरोध और २२. शिवगमनविधि और फल ।
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उद्धृत - जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भा. ४, पृ. १७६
२
(क) यह कृति गुजराती विवेचन के साथ 'श्री महावीर जैन विद्यालय, ऑगस्ट क्रान्ति मार्ग, मुंबई' ने सन् १६८६ में प्रकाशित की है।
(ख) यह मूल रूप से तत्त्वार्थसूत्र इत्यादि के साथ 'बिबिल ओथिका इण्डिका' से सन् १६०४ में तथा एक अज्ञातकर्तृक टीका के साथ 'जैनधर्म प्रसारक सभा' की ओर से वि.सं. १६६६ में प्रकाशित की गई है।
(ग) हारिभद्रीय वृत्ति एवं अज्ञातकर्तृक अवचूर्णि के साथ भी यह कृति वि. सं. १६६६ में 'देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था' से प्रकाशित हुई है ।
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स्पष्टतः यह कृति संक्षिप्त, सुबोध और सुग्रथित है। टीकाएँ - इस ग्रन्थ पर हरिभद्रसूरि (द्वितीय) ने वि.सं. ११८५ में १८०० श्लोक परिमाण एक टीका रची है। इसके अतिरिक्त दो टीकाएँ अज्ञातकर्तृक भी उपलब्ध होती हैं, जिनमें से एक की हस्तलिखित प्रति वि.सं. १४१८ की मिलती है। इनमें एक टीका तो हरिभद्रसूरि की टीका से अधिक प्राचीन एवं अधिक विस्तृत दिखाई देती है। हरिभद्रीय टीका की प्रशस्ति (श्लो. ३) से ज्ञात होता है कि उसके पहले भी अन्य टीकाएँ रची गई हैं। किसी ने इस ग्रन्थ पर अवचूर्णि भी लिखी है। प्रकरणसमुच्चयः
यह संकलित रचना' है। इसमें मुनिचन्द्राचार्य, वादिदेवसूरि, चक्रेश्वरसूरि, रत्नसिंहसूरि आदि आचार्यों द्वारा विरचित उनपचास प्रकरण हैं। ये प्रकरण प्राकृत एवं संस्कृत की पद्य शैली में है। इनमें से पाँच प्रकरण विधि-विधान से सम्बन्ध रखने वाले हैं, उनके नाम ये हैं - १. मुखवस्त्रिका प्रकरण २. योगानुष्ठानविधि-प्रकरण ३. पौषध- विधि-प्रकरण ४. उपधानविधि-प्रकरण ५. पर्यन्ताराधना-कुलका
इस कृति में संकलित प्रकरणों का रचनाकाल विक्रम की बारहवीं शती है। इससे सिद्ध होता है कि ये प्रकरण प्राचीन हैं और विवेच्य विधि-विधान के प्राचीन स्वरूप का दिग्दर्शन कराने वाले हैं। यति-श्राद्धव्रतविधिसंग्रह
यह एक संपादित की गई कृति है।इसका सम्पादन (डहेलावाला) विजयराम- सूरिजी ने किया है। यह कृति तपागच्छीय परम्परानुसार गुजराती गद्य में है। इस ग्रन्थ में कृति के नामनुसार यति और श्राद्ध (श्रावक) व्रत सम्बन्धी विधियों की चर्चा हुई है। इसमें उल्लिखित विधि-विधानों के नामोल्लेख इस प्रकार हैं - (१) उपधान तप विधि- इस विधि के अन्तर्गत १. उपधान शब्द का अर्थ २. उपधान के नाम ३. उपधान की सामाचारी ४. प्रथम उपधान में प्रवेश करने की विधि ५. देववन्दन विधि ६. नन्दिसूत्र श्रवण करने की विधि ७. सप्त खमासमण विधि ८. पवेयणा विधि ६. द्वितीय उपधान में प्रवेश करने की विधि १०. तृतीय-चतुर्थ-पंचम और षष्टम उपधान में प्रवेश करने की विधि ११. तीसरे से लेकर छठे उपधान तक स्थापनाचार्य के समक्ष चैत्यवंदन इत्यादि आवश्यक क्रियाएँ
'यह ग्रन्थ श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी रतलाम वि.सं. १९८० में प्रकाशित हुआ है। २ यह कृति प्रताकार में है। इसका प्रकाशन वि.सं. २०३२ में आ. विजयसुरेन्द्रसूरीश्वरजी जैन तत्त्व ज्ञानशाला, झवेरीवाड पटणीनी खड़की, अहमदाबाद से हुआ है।
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सम्पन्न कर प्रवेश करने की विधि १२. पौषध ग्रहण विधि १३. सामायिक-ग्रहण विधि १४. प्रतिलेखन विधि १५. मध्याह्कालीन देववंदन विधि १६. रात्रिक मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन विधि १७. सन्ध्याकालीन प्रतिलेखन विधि १८. स्थंडिल प्रतिलेखन विधि १६. दैवसिक मुखवस्त्रिका विधि २०. वाचना विधि- इसमें नमस्कारमंत्र की दो वाचना, इरियावहिसूत्र की दो वाचना, णमुत्थुणसूत्र की तीन वाचना, चैत्यस्तवसूत्र की एक वाचना, नामस्तवसूत्र की तीन वाचना, श्रुतस्तवसूत्र की वाचना एवं सिद्धस्तवसूत्र की एक वाचना का वर्णन है। २१. कायोत्सर्ग करने की विधि २२. खमासमणसूत्र पूर्वक वंदन करने की विधि २३. नवकारवाली गिनने की विधि २४. उपधानवाहियों के लिए प्रतिदिन करने योग्य आवश्यक क्रियाओं की सूचनाएँ २५. उपधान में आलोचना आने के कारण २६. उपधान में दिन निरस्त होने के कारण २७. मालारोपण विधि - इसके अन्तर्गत समुदेश विधि, अनुज्ञाविधि, मालाग्राही को उपद्देश विधि, माल पहनाने की विधि, माला पहनाने योग्य माला भूमि पर गिर जाये तो पुनः वासचूर्ण द्वार अभिमन्त्रित करने की विधि का वर्णन है। २८. उपधानसंबंधी विशेष जानकारी २६. उपधानवाहियों की सामान्य आलोचना विधि ३०. पाली पलटने (लगातार दो दिन नीवि तप करना या तप क्रम में परिवर्तन करने की विधि इत्यादि उल्लिखित हैं। इसके अन्तर्गत उपधान यंत्र एवं उपधान सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भी दिये गये हैं। (२) प्रव्रज्या ग्रहण विधि (३) उपस्थापना (बडी दीक्षा) विधि (४) बारहव्रत आरोपणविधि (५) ब्रह्मचर्यव्रत ग्रहण करने की विधि (६) पैंतालीस आगम-तप, चौदहपूर्व तप आदि की विधियाँ (७) मुद्राविधि।
स्पष्टतः यह कृति संक्षेप में उपयोगी सामग्री प्रस्तुत करती है। विवेक-विलास
यह ग्रन्थ' वायड़गच्छीय जीवदेवसूरि के शिष्य जिनदत्तसूरि द्वारा रचित संस्कृत पद्य में है। इसका रचनाकाल १२ वीं शती का उत्तरार्ध है। यह रचना मुख्यतः श्रावक अधिकार से सम्बन्धित है। इसमें श्रावक के आध्यात्मिक, धार्मिक व्यापारिक, वैवाहिक, राजनैतिक, व्यावहारिक आदि सभी कर्तव्यों का विवेचन हुआ
' यह ग्रन्थ वि.सं. १६७६ में सरस्वती ग्रन्थमाला कार्यालय बेलनगंज, आगरा से प्रकाशित है।
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658/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
है। मूलतः प्रस्तुत कृति अपने नाम के अनुसार विवेकपूर्ण कार्यों का विवेचन करती है अर्थात् श्रावक को कौनसा कार्य कब-कैसे-क्यों करना चाहिए? इत्यादि का निर्देश करती है। यह ग्रन्थ श्रावक जीवन से सम्बन्धित करनेयोग्य, जाननेयोग्य एवं समझनेयोग्य समस्त कृत्यों एवं विधानों का सम्यक् निरूपण करने वाला है।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में वन्दन के प्रयोजन रूप नौ श्लोक दिये गये हैं। उनमें सर्वप्रथम परमात्मा को नमस्कार किया गया है पश्चात् परमात्मा को चन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, बृहस्पति, शंकर, कुबेर आदि उपमाओं से अलंकृत कर उनकी स्तुति की गई है। उसके बाद अपने गुरु जीवदेवसूरि को वन्दना की गई है तथा ग्रन्थ रचने का महत्तम प्रयोजन बताया गया है। अन्त में प्रशस्ति रूप दस पद्य हैं उनमें स्वगच्छ, स्वगुरु एवं स्वयं के नाम का उल्लेख करते हुए ग्रन्थ रचना का निमित्त बताया गया है। इसमें लिखा है कि जबालीपर के राजा उदयसिंह का देवपाल नामक मंत्री था, उसके धनपाल नामक पुत्र था, उसकी सन्तुष्टि के लिए यह ग्रन्थ रचा गया है। यह ग्रन्थ बारह उल्लासों में विभक्त है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु संक्षेप में अग्रलिखित है - प्रथम उल्लास - यह उल्लास दिन के प्रथम प्रहर तक करने योग्य श्रावक के कृ त्यों एवं विधियों से सम्बन्धित है। इसमें निद्रात्याग का समय, स्वप्नविचार, स्वरविचार, व्यायामविधि, दाँतुन करने की विधि, बालशुद्धि की विधि, पूजनविधि, जापविधि, नाड़ी- विचार, भोजन किये बिना क्या वर्जन करना चाहिए, जिनदर्शनविधि, गुरुवन्दनविधि, प्रतिमाधिकारविधान, भूमिपरीक्षाविधान, मन्दिर निर्माण सम्बन्धी विधान इत्यादि का सुन्दर विवेचन है। द्वितीय उल्लास - इस उल्लास में दिन के द्वितीय एवं तृतीय अर्द्धप्रहर तक करने योग्य आवश्यक क्रियाओं पर विचार किया गया है। इसमें स्नान क्रिया, क्षौरकर्म, वस्त्र-भूषण, ताम्बूल, द्रव्योपार्जन का व्यवहार किसके साथ रखना? व्यापार कौनसा
और किस प्रकार करना? प्रतिज्ञा कब-कैसे ग्रहण करना? स्वामी कैसा हो? मंत्री कैसा हो? सेनापति और सेवक कैसा हो? स्वामी के साथ करने योग्य वर्तन, स्वामी के लक्षण, उद्यम से द्रव्य प्राप्ति इत्यादि कृत्यों का सम्यक् निरूपण किया गया है। तृतीय उल्लास - इस उल्लास में सूर्योदय से लेकर चतुर्थ अर्द्धप्रहर तक करने योग्य कृत्यों पर विचार किया गया है। इसमें बताया गया है कि गृहस्थी को क्या-क्या जानना चाहिए? अतिथि के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? भोजन कब-कैसा करना चाहिए? भोजन के बाद पानी किस प्रकार पीना चाहिए? भोजन के बाद हाथ कहाँ पोंछने चाहिए? भोजन करने के लिए किसके यहाँ नहीं जाना
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/659
चाहिए? भोजन करने के बाद क्या करना चाहिए? घटी संख्या को जानने की विधि क्या है? तथा भोजन में विष की परीक्षा कैसे की जा सकती है? इत्यादि। चतुर्थ उल्लास - इस चौथे उल्लास में मध्याह से लेकर सर्यास्त तक के शेष दो प्रहरों में श्रावक को क्या-क्या करना चाहिए तथा उसे किन विषयों की जानकारी रखनी चाहिए इत्यादि का उल्लेख किया गया है। पंचम उल्लास - इस उल्लास में सूर्यास्त से लेकर सूर्योदय तक के सात चौघडिये सम्बन्धी कृत्य कहे गये हैं। इसमें कहा गया है कि रोशनी कैसी रखनी चाहिए? रात्रि को क्या-क्या त्याग करना चाहिए? कैसे पलंग पर शयन करना चाहिए? किस तरह शयन करना चाहिए? जामातृ कैसा ढूंढना चाहिए? इसके साथ ही वर के लक्षण, पुरुष के लक्षण, हाथ-अंगुली-नाखून आदि के लक्षण भी बताये गये हैं। षष्टम उल्लास (प्रथम) - यह उल्लास वधू (स्त्री) लक्षण से सम्बन्धित है। इसमें वधू यानि स्त्री विषयक बिन्दुओं पर चर्चा की गई है। यह विषय गृहस्थ जीवन में रहने वाले साधकों के लिए अत्यन्त ज्ञानप्रद है। इसमें लिखा है कि वधू कैसी होनी चाहिए? विष कन्या की परीक्षा किस प्रकार करें? कैसी स्त्रियों का त्याग करना चाहिए? वर-वधू का सम्बन्ध कैसा होना चाहिए? स्त्री को अनुकूल कैसे रखा जा सकता है? गंध और बाल से स्त्री की परीक्षा कैसे की जा सकती है? कुलीन स्त्रियों को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? पति परदेश हो तब स्त्री को किस प्रकार का वर्तन करना चाहिए? रजस्वला के समय क्या वर्जना चाहिए? इत्यादि। षष्टम उल्लास (द्वितीय) - यह उल्लास छः प्रकार की ऋतुचर्या से सम्बद्ध है। इसमें १. बसन्त २. ग्रीष्म ३. वर्षा ४. शरद ५. हेमन्त एवं ६. शिशिर इन छः ऋतओं के नामों का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि श्रावक को कौनसी ऋतु में किन पदार्थों का आहार करना चाहिए? कैसा विहार (भ्रमण) करना चाहिए? कहाँ बैठना चाहिए? किन कार्यों का त्याग करना चाहिए? कैसे मकान में रहना चाहिए इस प्रकार प्रत्येक ऋतुओं के पृथक्-पृथक् कृत्यों का निरूपण किया गया है। सप्तम उल्लास - यह उल्लास श्रावक की वार्षिक चर्या का प्रतिपादन करता है। इसमें श्रावक के वार्षिक कर्तव्यों का निर्देश देते हुए कहा गया है श्रावक को दिन के चार प्रहर में ऐसा कृत्य करना चाहिए कि रात्रि को सुखपूर्वक निद्रा ले सकें। आठ मास में ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि वर्षाकाल (चातुर्मास) में सुखपूर्वक एक स्थान पर रह सकें। बुद्धिशाली पुरुष को यौवनवस्था में ऐसा कार्य करना चाहिए, जिससे वृद्धावस्था में सुख मिल सके। कलावान् मनुष्य को इस भव में ऐसी वस्तु
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660/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
हासिल करनी चाहिए जिससे मृत्यु के बाद पवित्र जन्म मिल सके। अपनी शक्ति के अनुसार सहधर्मी का और अपने धर्माचार्य का हर्ष पूर्वक पूजन करना चाहिए। अपने कुल में जो वृद्ध तथा मान्य पुरुष हों उनका शक्तिपूर्वक सत्कार करना चाहिए। समय-समय पर तीर्थ यात्रा करनी चाहिए। प्रतिवर्ष प्रायश्चित्त रूप आलोचना भी लेनी चाहिए इत्यादि। अष्टम उल्लास - इस उल्लास में यह निर्दिष्ट किया गया है कि श्रावक को अपने जीवन काल में पद-पद पर कौन-कौन से कार्य किस-किस प्रकार से करने चाहिए? श्रावक को कैसे राज्य तथा किस देश में रहना चाहिए? शत्रु घर आये तो क्या करना चाहिए? कैसे लोगों के पास नहीं रहना चाहिए? कलाचार्य-शिक्षक-शिष्य आदि के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए इत्यादि। नवम उल्लास (प्रथम) - यह उल्लास विष-दंश एवं उनके उपाय आदि का प्रतिपादन करता है। इसमें यह निरूपण किया गया है कि कौन से दिन, किस वार-तिथि-नक्षत्र को सर्पादि द्वारा काटे जाने का क्या परिणाम होता है? इसके साथ ही जहर उतारने वाले मांत्रिक के, जहर से पीडित व्यक्ति के एवं डंक लगने के स्थान के लक्षण और सर्पजाति इत्यादि पर विचार किया गया है। नवम उल्लास (द्वितीय) - इस उल्लास में सर्वप्रथम मनुष्य द्वारा किये जाने वाले सभी प्रकार के पापों के कारण और उनके फल का वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् षड्दर्शन के मन्तव्य पर विचार किया गया है तथा व्यावहारिक जीवन में अति उपयोगी बातों पर प्रकाश डाला गया है। दशम उल्लास - इसमें संक्षेप से धर्मोपदेश और उसका फल कहा गया है। एकादश उल्लास - इस उल्लास में ध्यान विषयक चर्चा की गई है। द्वादश उल्लास - इस उल्लास में श्रावक को समाधिमरण किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए? अन्त समय निकट आने पर क्या-क्या कृत्य करने चाहिए? तथा देह त्याग के समय कैसे परिणाम रहने चाहिए आदि का निरूपण किया गया है।
निष्कर्षतः यह कृति श्रावकचर्या एवं श्रावककृत्य सम्बन्धी विधानों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। श्रावक जीवन के समस्त पहलूओं पर विचार करने वाला यह अद्वितीय ग्रन्थ है।
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विधिसंग्रह
प्रस्तुत संग्रह' मुख्यतः गुजराती गद्य में है। कुछ विधान पद्य रूप में भी गुम्फित है। यह एक संकलित की गई उपयोगी कृति है। इस पुस्तक में चतुर्विध संघ अर्थात् साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के द्वारा की जाने वाली क्रिया विधियों का समावेश किया गया है। यह कृति सात भागों में विभक्त है। यहाँ विशेष ज्ञातव्य है कि जैन विधि-विधानों को लेकर कुछ पुस्तकें स्वतन्त्र रूप में प्रकाशन में आई हैं तथापि यह संग्रह अद्वितीय है। इसमें कुल ६० विधियों का उल्लेख हैं। इसक सम्पादन आगमोद्धारक आनंदसागरसूरिजी के प्रशिष्य हेमसागरसूरिजी के शिष्य मुनि अमरेन्द्र - सागरजी एवं मुनि महाभद्रसागरजी ने किया है।
इस कृति के सात विभागों का विषयानुक्रम और नाम निर्देश निम्नलिखित है
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 661
१. दर्शन-विभाग इस विभाग में सात प्रकार की विधियों का निर्देश हैं- १. जिनमन्दिर दर्शन विधि, २. अष्टप्रकारी पूजा विधि, ३. स्वस्तिक रचना विधि, ४ . चैत्यवंदन विधि, ५. स्नात्रपूजा विधि, ६. शांतिकलश विधि, ७. ध्वजा आरोपण विधि । पृथक्-पृथक् पूजाओं की सामग्री एवं पूजा योग्य उपकरणों की सूची भी दी गई है।
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२. उपाश्रय विभाग इस दूसरे विभाग में पच्चीस प्रकार की विधियों का वर्णन है जो मुख्य रूप से उपाश्रय ( धर्मस्थान) में की जाती हैं उनके नाम निम्न हैं गुरुवंदन वधि, २. गुरु महाराज के मुख से सूत्र पाठ ग्रहण करने की विधि, ३. ज्ञानपूजन विधि ४. मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन विधि, ५. सामायिक ग्रहण विधि, ६. सामायिक पारण विधि, ७. रात्रिक प्रतिक्रमण विधि, ८. पौषध ग्रहण विधि, ६. पौषध में प्रातः कालीन की प्रतिलेखन करने की विधि, १०. देववंदन विधि, ११. पौषध में सज्झाय करने की विधि, १२. रात्रिक मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन एवं द्वादशावर्त्तवंदन विधि, १३. उग्घाड़ा पौरुषी विधि, १४. पौषधव्रत में जिनमन्दिर गमन विधि, १५. पौषध में प्रत्याख्यान पारने की विधि, १६ पौषधधारी द्वारा आहार ( एकासन) के लिए गृहगमन विधि, १७. पौषधधारी द्वारा भोजन पश्चात् चैत्यवंदन करने की विधि, १८. रात्रिपौषधधारियों के लिए चौबीस मांडला विधि, १६. दैवसिक प्रतिक्रमण विधि, २०. संथारापौरुषी विधि, २१. पौषध पारण विधि, २२. नवकारवाली गुणन विधि, २३. कायोत्सर्ग विधि, २४. पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण विधि, २५.
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यह कृति वि.सं. २०३६ में, अमरचंद - रतनचंद झवेरी, ७७ अ वालकेश्वर रोड़, मुंबई से प्रकाशित है।
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पाक्षिकादि प्रतिक्रमण में छींक आ जाये तो कायोत्सर्ग करने की विधि। इसके साथ ही प्रातःकाल के प्रत्याख्यान पौषध के उपकरण तथा तीन प्रकार के चातुर्मास सम्बन्धी पानी के काल का कोष्ठक दिया गया है।
३. देववंदन - विभाग यह विभाग देववंदन आदि विधियों का विवरण प्रस्तुत करता है। वे विधियाँ इस प्रकार हैं १. पद्मविजयजीकृत चातुर्मासिक देववंदन विधि, २. ज्ञान- विमलसूरिकृत दीपावली देववंदन विधि, ३. विजयलक्ष्मीसूरीकृत ज्ञानपंचमी देववंदन विधि, ४. रूपविजयजीकृत मौनएकादशी देववंदन विधि, ५. ज्ञानविमलसूरिकृत चैत्रीपूनम देववंदन विधि, ६. कल्याणक आराधना विधि ७. चौदह नियम धारण विधि, ८. उपधानतप विधि, ६. नव्वाणुं यात्रा विधि, १०. सिद्धाचल तीर्थ पर चातुर्मास करने की विधि |
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१. उद्यापन
४. तप-विभाग इस चतुर्थ विभाग में कुल इक्यावन प्रकार के तप की विधियाँ दी गई हैं। इससे सम्बन्धित अन्य विधियाँ भी दी गई हैं। वे निम्न हैं विधि, २. उद्यापन में रखने योग्य उपकरणों की सूची, ३. सर्व तप में सदैव आचरणीय आवश्यक विधि, ४. सर्व तप में नियमित करने योग्य सामान्यविधि, ५. ज्ञानपद पूजा विधि, ६. तप में ग्रहण करने योग्य अनाहारी वस्तुओं की सूची आदि । ५. मुनिआचार-विभाग यह विभाग सोलह प्रकार की विधियों का विवेचन करता है वे विधियाँ ये हैं १. दीक्षा विधि, २. वासचूर्ण अभिमंत्रण विधि, ३. नोंतरा ( आमंत्रण देने) विधि, ४. कालग्राही की विधि, ५. दांडीधर की विधि, ६. काल प्रवेदन की विधि, ७. स्वाध्यायप्रस्थापना विधि, ८. कालमांडला ( पाटली) विधि, ६. पात्रादि संघट्टा करने की विधि, १०. मांडली के सात आयंबिल की विधि, ११. अनुयोग करवाने की विधि, १२ चैत्रमास में कायोत्सर्ग करने की विधि, १३. सांवत्सरिक क्षमायाचना विधि, १४. संघ - तीर्थ मालारोपण विधि, १५. नवकारवाली अभिमंत्रित करने की विधि, १६. साधु कालधर्म को प्राप्त हों, तब साधु एवं श्रावक द्वारा करने योग्य विधि। इसके सिवाय और भी चर्चाएँ की गई हैं जैसे- स्वाध्याय, कालमण्डल, कालग्रहण कितने स्थानों पर भंग होता है? योग में कल्प्याकल्प्य तथा नीवियाता की विशेष जानकारी, साधु के कालधर्म होने पर आवश्यक सामग्री की सूची आदि ।
६. श्रमणसूत्र - विभाग - इस विभाग में साधु जीवन के आवश्यकसूत्र ( करेमिभंते, श्रमणसूत्र, पाक्षिकअतिचार, पाक्षिकसूत्र, पाक्षिकखामणा आदि ) दिये गये हैं। इसके अतिरिक्त कुछ विधियाँ भी दी गई हैं यथा १. प्रातः कालीन प्रतिलेखन विधि, २ . स्थापनाचार्य प्रतिलेखन विधि, ३. सज्झाय और उपयोग विधि, ४. संध्याकालीन प्रतिलेखन विधि, ५. गोचरी आलोचना विधि, ६. लोच करवाने की विधि,
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७. आराधना - विभाग इस विभाग में आराधना से सम्बन्धित कई विषयों का उल्लेख किया गया हैं उनमें ये मुख्य हैं १. अंतिम आराधना विधि, २ . ग्रहशान्ति विधि, ३. चोघडिया देखने की विधि, ४. सूतक ग्रहण असज्झाय का विचार ५. कार्तिक चैत्री पूर्णिमा के दिन शत्रुंजय पट्ट दर्शन विधि, ६. रक्षापोटली अभिमंत्रण विधि, ७. जैन शारदा पूजन विधि |
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चातुर्मास सम्बन्धी चार विधियाँ १. वस्त्र बहराने की विधि, २. मुखवस्त्रिका प्रतिलखेन करने की विधि, ३. घर खुल्ला रखने की विधि, ४. चातुर्मास परिवर्तन करने की विधि
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६. मृत्यु के उपरान्त करने योग्य विधि - इसी के साथ ज्वर उतारने का छंद, श्री लोगस्सकल्प, श्री सर्वतोभद्रयंत्र, मन्दिर की ध्वजाओं का चित्रमाप, बीशस्थानक यंत्र, वासचूर्ण मंत्रित करने सम्बन्धी सूचनाएँ और चित्र, शांतिस्नात्र की पीठिका का चित्र और उसकी समझ, द्विदल की जानकारी आदि का भी उल्लेख किया गया है।
निष्कर्षतः यह एक संग्रहणीय उपयोगी एवं विशिष्ट कृति है । यहाँ आवश्यक विधियों के संग्रह का जो विवरण उपलब्ध होता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। यह इस कृति की तृतीय आवृत्ति है।
वीरत्थओपइण्णयं (वीरस्तवप्रकीर्णक)
वीरस्तवप्रकीर्णक प्राकृत भाषा में निबद्ध एक पद्यात्मक रचना' है। वीरस्तव शब्द 'वीर' और 'स्तव' इन दो शब्दों के योग से बना है जिसका सामान्य अर्थ - तीर्थंकर महावीर की स्तुति करना है। यह कृति स्तुति विधान से सम्बन्धित है। सामान्यतया स्तुति भी धार्मिक क्रियाकाण्ड या विधि-विधान का एक अंग होती है। इसी दृष्टि से इसे विधि-विधान के ग्रन्थों में समाहित किया गया है वैसे इसमें विधि-विधान सम्बन्धी कोई प्रक्रिया उल्लेखित नहीं है। प्रस्तुत कृति का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता हैं कि परमात्मा की स्तुति किस प्रकार की जानी चाहिए। वस्तुतः इस कृति में विशिष्ट प्रकार से स्तुति करने का विधान प्रतिपादित है।
प्रस्तुत कृति के रचनाकाल के सम्बन्ध में कोई विशेष उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। कुछ साक्ष्यों के आधार पर यह वीरभद्र की रचना मानी गई है।
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(क) यह रचना मुनि पुण्यविजय जी द्वारा संपादित हैं।
(ख) इस कृति का हिन्दी अनुवाद डॉ. सुभाषकोठारी ने किया है। यह प्रति 'आगम अहिंसा-समता एवं प्राकृत् संस्थान, उदयपुर' से सन् १६६५ में प्रकाशित हुई है।
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'वीरस्तव' में ग्रन्थकर्ता ने कहीं पर भी अपने नाम का संकेत नहीं किया है। इसके पीछे ग्रन्थकार की यह भावना रही होगी कि महावीर के विभिन्न नामों से उनकी मैं जो स्तुति कर रहा हूँ वह सर्वप्रथम मेरे द्वारा तो नहीं की गयी है। अनेक पूर्वाचार्यों एवं ग्रन्थकारों द्वारा इन नामों से महावीर की स्तुति की जा चुकी है। इस स्थिति में मैं ग्रन्थ का कर्ता कैसे हो सकता हूँ? इसमें ग्रन्थकार की विनम्रता एवं प्रामाणिकता सिद्ध होती है। वैसे भी प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों में कर्ताओं के नामोल्लेख नहीं पाये जाते हैं इस दृष्टि से वीरस्तव प्राचीन स्तर का ग्रन्थ सिद्ध होता है।
'वीरस्तव' का रचनाकाल भी मत वैभिन्य का विषय है। नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण प्राप्त होता है उसमें वीरस्तव का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। प्रस्तुत कृति का सर्वप्रथम उल्लेख 'विधिमार्गप्रपा' नामक ग्रन्थ में प्राप्त होता है इससे यह स्पष्ट है कि वीरस्तव प्रकीर्णक नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र के पश्चात् अर्थात् छठी शताब्दी के पश्चात् तथा 'विधिमार्गप्रपा' १४ वीं शताब्दी के पूर्व अस्तित्व में आया है। डॉ. सागरमल जैन' के अनुसार इसका रचनाकाल १० वीं शताब्दी है। वीरस्तव प्रकीर्णक में कुल ४३ गाथाएँ हैं। इन गाथाओं में श्रमण भगवान महावीर के छब्बीस नामों की व्युत्पत्तिपरक स्तुति है। वे छब्बीस नाम ये हैं - १. अरुह, २. अरिहंत, ३. अरहंत, ४. देवनाम, ५. जिन, ६. वीर, ७. परमकारुणिक, ८. सर्वज्ञ, ६. सर्वदर्शी, १०. पारग, ११. त्रिकालज्ञ, १२. नाथ, १३. वीतराग, १४. केवली, १५. त्रिभुवन गुरु, १६. सर्व, १७. त्रिभुवन श्रेष्ठ, १८. भगवन्, १६. तीर्थकर, २०. शकेन्द्रनमस्कृतः २१. जिनेन्द्र, २२. वर्धमान, २३. हरि, २४. महादेव, २५. ब्रह्मा, २६. त्रिकालविज्ञा विषयनिग्रहकुलक
यह अज्ञातकर्तृक कृति है। इसमें इन्द्रियों को संयम में रखने की उपदेश विधि कही गई है। टीका - इस पर भालचन्द्र ने वि.सं. १३३७ में १०,००८ श्लोक-परिमाण एक वृत्ति लिखी है। षोडशक-प्रकरण
इस कृति के प्रणेता श्री आचार्य हरिभद्र है। उनकी यह कृति संस्कृत
' देखें, वीरस्तव भूमिका पृ. २२ । २ यह ग्रन्थ 'कल्याणकंदली' टीका सहित दो भाों में 'श्री अंधेरी गुजराती जैन संघ, अंधेरी (वेस्ट) मुंबई' से वि.सं. २०५२ में प्रकाशित हुआ है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/665
भाषा के २५६ पद्यों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल विक्रम की आठवीं शती है। यह रचना सोलह प्रकरणों में विभाजित है और प्रत्येक प्रकरण में सोलह-सोलह श्लोक हैं। इनमें छठा, सातवाँ, आठवाँ, नौवाँ, बारहवाँ प्रकरण विधि-विधान से सम्बन्धित है।
छठे प्रकरण में जिनमंदिर बंधवाने वाला अधिकारी कैसा होना चाहिए, जिनमन्दिर के लिए भूमि कैसी होनी चाहिए, काष्टादि की सामग्री कैसी होनी चाहिए, जिनालय निर्माण की सामग्री लाने वाले कैसे होने चाहिए इत्यादि का सम्यक् विवेचन है। इसके साथ ही जिनालय निर्माण की विधि, जिनालय उपयोगी काष्ट विशेष लाने की विधि, शिल्पी-कारीगरों से काम करवाने की विधि आदि का भी उल्लेख किया गया है।
सातवाँ प्रकरण 'जिनबिंबविधि' से सम्बन्धित है। इसमें जिनबिंब भरवाने के कारणों का, शिल्पी के मनोरथों को पूरा करने का एवं बिंबनिर्माण के समय चित्त की भावनाएँ शुभ रखने आदि का वर्णन है। आठवाँ प्रकरण 'प्रतिष्ठाविधि' का विवेचन करता है। इसमें तीन प्रकार की प्रतिष्ठा विधि का, पूजा संपादन सम्बन्धी शंका- समाधान का, 'निज भावना ही श्रेष्ट प्रतिष्ठा है' इस संबंधी विचारणा का एवं प्रतिष्ठा संबंधी भावना विशेष का तात्विक और मार्मिक वर्णन हुआ है। नौवें प्रकरण में पूजाविधि का वर्णन है। इसमें पूजा का स्वरूप, तीन प्रकार की पूजा, पूजा करने की विधि पूजा में हिंसा मानने वालों की शंकाओं के समाधान का प्रतिपादन हुआ है। बारहवें प्रकरण में दीक्षाधिकार की चर्चा करते हुए दीक्षापद की निरुक्ति का, दीक्षा के अर्थ का और नाम-न्यास की महत्ता का वर्णन किया गया है। इसमें मार्मिक बात यह कही गई है कि 'नूतन नामकरण करना यही दीक्षा है।'
उक्त विवरण से यह ज्ञात होता हैं कि हरिभद्रसूरि के समय पूजा-विधान का उत्तरोत्तर विकास हुआ। जिनबिंब-निर्माण विधि का प्राचीन रूप भी यहाँ देखने को मिलता है। निःसन्देह आगमग्रन्थों के पश्चात् विधि-विधान सम्बन्धी प्रारम्भिक चर्चा सर्वप्रथम हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों में दृष्टिगत होती है। टीकाएँ - इस गन्थ पर श्री यशोभद्रसूरिकृत 'सुगमार्थकल्पना' नामक टीका है। महोपाध्याय श्री यशोविजयगणि विरचित 'योगदीपिका' नामक टीका है। उपाध्याय श्री धर्मसागरगणि कृत एक टीका है। एक टीका अज्ञातकर्तृक है। अभी मुनिपुंगव पन्यास श्री यशोविजयजी ने 'कल्याणकन्दली' नामक टीका और 'रतिदायिनी' नामक गुजराती व्याख्या लिखी है।
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666/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
समवसरणस्तवः
'समवसरणस्तव' नामक यह रचना' धर्मघोषसूरि की है और जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसमें कुल २४ गाथाएँ हैं। इस कृति का रचनाकाल १४ वीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है।
यह कति मख्यतः समवसरण की रचना विधि से सम्बन्धित है। इसमें समव- सरण की रचना किसके द्वारा, किस क्रम से और किस विधिपूर्वक की जाती है यह बताया गया है। इसके साथ ही समवसरण का परिमाण, चौबीस तीर्थंकरों के समवसरणों के वृक्षों का परिमाण, चैत्य वृक्षों के नाम इत्यादि का निरूपण भी किया गया है। यह रचना देवकृत होती है। इस रचना के अन्तर्गत आने वाले विधानों की सूची इस प्रकार है- १. वायुकुमार देवों द्वारा भूमि को शुद्ध करने की विधि, २. मेधकुमार देवों द्वारा भूमि को सुगन्धित करने की विधि, ३. अग्निकुमार देवों द्वारा धूप खेने (उत्क्षेपण) की विधि, ४. भवनपति-ज्योतिष एवं वैमानिक देवो द्वारा तीन गढ़ बनाने की विधि, ५. व्यन्तर देवों के द्वारा तोरण-चैत्य-वृक्ष-सिंहासन छत्र-यान आदि विन्यास करने की विधि, ६. बारह प्रकार की पर्षदा द्वारा प्रवेश करने, खड़े रहने एवं बैठने की विधि इत्यादि। टीका - इस कृति पर संक्षिप्त अवूचरि भी लिखी गई है, किन्तु टीकाकार का नाम उपलब्ध नहीं होता है। बालावबोध - शान्तिचंद्रगणि के शिष्य रत्नचन्द्र मुनि द्वारा इस कृति का बालावबोध रचा गया है। जिनरत्नकोश (पृ. ४१६-२०) में समवसरण शब्द से प्रारंभ होने वाली एवं समवसरण रचना विधि से सम्बन्धित कुछ कृतियों का निर्देश हुआ है। उनमें से निम्नलिखित कृतियों के रचयिताओं के नाम नहीं दिये गये हैं। यथेष्ट साधनों के अभाव में उन रचनाकारों के नामों का निर्धारण करना भी शक्य नहीं हैं, परन्तु इतना अवश्य है कि ये कृतियाँ समवसरणरचनाविधि से सम्बन्धित हैं। उन अज्ञातकर्तृक कृतियों के नाम ये हैं - १. समवसरणप्रकरण - इसमें प्राकृत की ७१ गाथाएँ हैं, २. समवसरण तपोविधि, ३. समवसरणपंचाशिका, ४. समवसरणपूजा, ५. समवसरणस्तव- अवचूरि सहित, ६. समवसरणस्तोत्रसावचूरि
समवसरणविधि विषयक अधोलिखित आठ कृतियाँ भी उल्लेखनीय हैं। ये कृतियाँ प्रायः अप्रकाशित हैं, किन्तु इनके रचनाकारों के नाम प्राप्त होते हैं।
' यह कृति वि.सं. १६६७ में, 'जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर' से प्रकाशित हुई है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 667
१. समवसरणदर्पण- यह कृति मेधावीन द्वारा रचित है तथा 'धर्मसंग्रह ' ग्रन्थ का ही एक अंश है। २. समवसरणपूजा - यह रचना वादिभसिंह की है। ये दिगम्बर परम्परा के आचार्य हैं, ३. समवसरणपूजा- यह कृति रत्नकीर्ति की है, ४. समवसरणपूजा - इस कृति के रचनाकार रूपचन्द्र है एवं यह संस्कृत में लिखी गई है, ५. समवसरण विभूति - यह कृति जिनसेन रचित आदिपुराण का एक विभाग ही है, ६. समवसरण स्त्रोत- यह ग्रन्थ महाख्य द्वारा रचित है और इसमें प्राकृत की ५२ गाथाएँ हैं, ७. समवसरणस्तोत्र - यह कृति विद्यादीपगणि ने रची है, ८. समवसरणस्तोत्र - यह रचना विष्णुसेन वैद्य की है। इस कृति में ६३ संस्कृत श्लोक हैं तथा यह रचना वि.सं. १९१६ में, ' माणकचंद दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला हीराबाग, मुंबई से प्रकाशित भी हुई है।
सामाचारीशतकम्
इसके कर्त्ता खरतरगच्छीय गणि समयसुन्दर है। यह कृति' मुख्य रूप से गद्य में है। इसका रचना काल विक्रम की १७ वीं शती है। इसमें सौ अधिकार कहे गये हैं और वे पाँच प्रकाशों में विभक्त हैं। इन प्रकाशों के अधिकारों की संख्या ३७, ११, १३, २७ और १२ हैं। इसके प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ प्रयोजन रूप द श्लोक दिये गये हैं और अन्त में प्रशस्ति के रूप में तीन श्लोक हैं।
इस ग्रन्थ के द्वारा खरतरगच्छीय सामाचारी सुस्पष्ट रूप से अवगत हो जाती है। इस ग्रन्थ की मुद्रित प्रति में अधिकार के अनुसार विषयानुक्रम दिया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति के सौ अधिकारों में जो विषय उल्लिखित हुए हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं।
'करेमि भंते' के बाद ईर्यापथिकी क्रिया, पर्व के दिन पौषध का आचरण
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प्रभु महावीरस्वामी के छः कल्याणक, श्री अभयदेवसूरि के गच्छ के रूप में खरतर का उल्लेख, ‘आयरिय - उवज्झाय' सूत्र श्रावकों के लिए पढ़ने का अधिकार, साधुओं के साथ साध्वियों के विहार का निषेध, द्विदल विचार, आयम्बिल में दो द्रव्य ग्रहण करने का अधिकार, श्रावकों के लिए पानी के आगार का निषेध, तरुण स्त्री को मूल प्रतिमा के पूजन का निषेध, श्रावकों को ग्यारह प्रतिमा वहन करने का निषेध, अनेक उपवास का प्रत्याख्यान एक साथ ग्रहण करने का निषेध, सामायिक में तीन बार दण्डक उच्चरने का विधान, जातक मृतक एवं सूतक के घर का भोजन निषेध, श्रावण भाद्रमास की वृद्धि होने पर भी ५० वें दिन में पर्युषणा करने का विधान, पौषध के मध्य में उपधान के बिना भोजन करने का
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यह ग्रन्थ 'श्री जिनदत्तसूरि ज्ञान भंडार, मुंबई' से सन् १६३६ में प्रकाशित हुआ है।
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668/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
निषेध, आचार्य को जिनबिम्ब की प्रतिष्टा करवाने का अधिकार, चतुर्दशी का क्षय होने पर पूर्णिमा को पौपधादि करने का विधान, तिथि की वृद्धि में आद्य तिथि का स्वीकार, भोजन करने के बाद पौपध ग्रहण करने का निषेध, सामायिक ग्रहण करते समय प्रातःकाल में प्रथम ‘बइसणं' फिर 'स्वाध्याय' आदेश का विधान, सामायिकादि में उत्सर्गतः प्रावरण (पंगुरणं) आदेश का निषेध, कार्तिकमास की वृद्धि हो तो प्रथम कार्तिक में चातुर्मासिक प्रतिक्रमण का विधान, आगम में जिनप्रतिमा पूजन का विधान, जिनवल्लभसृरि, जिनदत्तसूरि एवं जिनपतिसूरि की सामाचारी का उल्लेख, पदों की व्यवस्था विधि, अनुयोगदान, विसर्जन विधि, पर्युषण-पर्व में भवनदेवता कायोत्सर्ग का विधान, लोच कराने का विधान, घृत गिरने पर उसके दोष निवारण की विधि, छींक आने पर उसके दोष निवारण की विधि, मार्जारी मण्डली में प्रवेश कर जायें तो उसकी दोष निवारण विधि, सामायिक ग्रहण के समय तेरह खमासमण देने का विधान, चैत्रीपूर्णिमा के दिन देववन्दन विधि करने का अधिकार, गुरु के स्तूप की प्रतिष्ठा विधि, कल्पत्रेप उत्तारण की विधि, पौषध ग्रहण विधि, दीक्षा दान विधि, उपधान विधि, साध्वियों को स्वतः कल्पसूत्र पढ़ने का अधिकार, विंशतिस्थानकतप विधि, अस्वाध्याय स्थापन-उत्तारण विधि, साधुओं के द्वारा उत्सर्ग-अपवाद में वस्त्रग्रहण का विधान, स्थापनाचार्य में पंचपरमेष्ठी का विधान और शान्तिक विधान इत्यादि।
इस कृति का अवलोकन करने से अवगत होता है कि ग्रन्थकर्ता ने गच्छीय सामाचारियों की प्रामाणिकता को सुपुष्ट करने के लिए आगमग्रन्थों और प्राचीनग्रन्थों के बहुत से उद्धरण भी दिये हैं यही इस ग्रन्थ की विशिष्टता है। सामायारी (सामाचारी)
यह जैन महाराष्ट्री प्राकृत में विरचित ३० पद्यों की कति है। इसके कर्ता खरतरगच्छीय जिनदत्तसूरि है। इसमें अपनी सामाचारी के अनुसार कई विषयः का उल्लेख हुआ है उनमें जिनप्रतिमापूजा का विवरण विशेष मननीय है। इसमें स्त्री के लिए मूल-प्रतिमा की पूजा करने का निषेध किया गया है।
यह कृति सामाचारी शतक के पत्र क्रमांक १३८ आ, से १३६ आ तक में उद्धृत की गई है। सामायारी (सामाचारी)
इसके कर्ता श्री जिनदत्तसूरि के प्रशिष्य श्री जिनपतिसूरि है। इन्होंने यह रचना जैन महाराष्ट्री प्राकृत के ७६ पद्यों में लिखी है। इसमें सामाचारी सम्बन्धी कई विषयों का उल्लेख हुआ है; जैसे कि 'आयरिय-उवज्झाय' सूत्र की तीन गाथा
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/669
साधुजन प्रतिक्रमण में नहीं बोलते हैं, प्रतिक्रमण के अन्त में श्री पार्श्वनाथ और शक्रस्तव बोलकर कायोर्क्सग करते हैं, तिथि की वृद्धि होने पर प्रत्याख्यान, कल्याणक आदि तप प्रथम तिथि में करना चाहिए, मास की वृद्धि होने पर प्रथम मास का पहला पक्ष और द्वितीय मास का दूसरा पक्ष तपादि के लिए ग्रहण करना चाहिए, स्त्रियों को जिनपूजा नहीं करनी चाहिए, वाचनाचार्य-उपाध्याय-आचार्य को यथासंख्या एक-दो-तीन कंबल परिमाण आसन रखना चाहिए, एक युग में एक ही युगप्रधान होते हैं अनेक नहीं, चैत्र-आसोज महिने की सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी तिथि के दिन किया गया तप तथा रजस्वला स्त्री के द्वारा किया गया तप आलोचना में नहीं गिना जाता है, संप्रतिकाल में श्रावक के द्वारा प्रतिमा रूप धर्म को स्वीकार करना अशक्य है, श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र (वंदित्तुसूत्र) के अंत में 'तस्सधमस्स केवलिपन्नतस्स' यह पद नहीं बोलते हैं, प्रतिदिन जिनमन्दिर में देववन्दन करना चाहिए इत्यादि।
इस रचना सामाचारीशतक के पत्र क्रमांक १३६ आ से १४१ आ तक में उद्धृत की गई है। साधुचर्या तथा जिनपूजा का महत्त्व
यह कृति दो भागों में विभक्त है। इस कृति' के दोनों भाग भिन्न-भिन्न विषयों से सम्बन्धित है। यह कृति मुनि चंपकसागर जी द्वारा संकलित की गई ज्ञात होती है। इस कृति का विषयानुक्रम कृति के नामानुसार न होकर विपरीत क्रम से है। इसके प्रथम भाग में जिनेश्वर परमात्मा की विधिपूर्वक पूजा करने का महत्त्व प्रतिपादित है। यह अधिकार संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है। इसका गुजराती भाषान्तर भी उपलब्ध है। इसके प्रथम भाग में बाईस श्लोक हैं। उसमें धनसार, वीरवणिक और चंदगोपराजा इन तीन दृष्टान्तों से पूजाविधि के महत्त्व को उल्लेखित किया गया है। इसके साथ ही अष्टप्रकारी पूजा, पूजा का फल आदि भी वर्णित है। यह कृति अज्ञातकर्तृक है।
इस कृति का दूसरा भाग 'साधुचर्या' से सम्बन्धित है। इस भाग में 'साधनियमकुलक" नामक प्रकरण दिया गया है। वह प्राकृत भाषा में है। उसमें कुल सैंतालीस गाथाएँ हैं। इस प्रकरण की प्रारम्भिक गाथा मंगलाचरण रूप एवं प्रयोजन रूप है। उसमें भगवान महावीर के चरणों में और स्वयं गुरु के चरणों में वन्दना की गई है। उसके साथ ही मोक्षमार्ग की आराधना के लिए दीक्षित हुई आत्माओं के लिए
' यह कृति 'श्री जैन सदाचार साहित्य समिति, पंचासर' से वि. सं. २०३१ में प्रकाशित हुई हैं। ' इस कुलक के कर्ता का नाम अज्ञात है।
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670/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
पालन करने योग्य नियम (विधि) कहने का भाव प्रदर्शित किया गया है।
__इस प्रकरण में उल्लिखित विधियों के नाम इस प्रकार हैं - १. ज्ञानाचार विधि, २. दर्शनाचार विधि, ३. चारित्राचार विधि, ४. पानी ग्रहण विधि, ५. ईया
आदि पांचसमिति पालन विधि, ६. स्थंडिल विधि, ७. वसति (उपाश्रय) प्रवेश एवं वसति निर्गमन विधि, ८. संयमी की विशेष नियम विधि। सिरिपयरणसंदोह
यह एक संकलित रचना है। यह कृति संकलन की दृष्टि से अपेक्षाकृत उतना महत्त्व न रखती हों किन्तु इसमें प्राचीन रचनाओं का संकलन हुआ है उस दृष्टि से इस कृति का मूल्य मूल ग्रन्थ से भी बढ़कर हो जाता है। इसमें कुल २८ प्रकरण संग्रहीत किये गये हैं। प्रायः ये प्रकरण प्राकृत पद्य में हैं, किंतु जिनेश्वरसूरि रचित 'श्रावकधर्मकृत्य' नामक प्रकरण संस्कृत पद्य में है। इनमें से कुछ प्रकरण ऐसे हैं जिनमें कहीं संक्षिप्त, तो कहीं विस्तृत, तो कहीं सम्पूर्ण प्रकरण ही विधि-विधान का निरूपण करता है।
इस कृति में जो प्रकरण यत्किंचित् भी विधि-विधान से सम्बन्धित हैं उनका संक्षेप विवरण इस प्रकार है - १. सावयधम्मपयरणं- यह प्रकरण श्री हरिभद्रसूरि रचित है। इसके १२० पद्य हैं। इसमें श्रावकव्रत सम्बन्धी विधि का निरूपण हुआ है। २. नंदीसरथवो- यह अज्ञातकर्तृक है। इसमें २५ पद्य हैं। ये पद्य नंदीश्वरद्वीप का स्वरूप, उसकी महिमा और उसकी प्राप्ति के उपायों का विवेचन करते हैं। ३. संघसरुवकुलयं- यह अज्ञातकर्तृक है। इसमें १५ पद्य हैं तथा यह कुलक संघ की महिमा एवं संघ भक्ति कैसे? और क्यों करनी चाहिए? इसका वर्णन प्रस्तुत करता है। ४. साहम्मियवच्छलयकुलयं- यह रचना श्री अभयदेवसूरि की है। इसके २५ पद्य हैं। इसमें साधर्मिक भक्ति क्यों और किस प्रकार करनी चाहिए? का उल्लेख होना चाहिये। ५. तित्थमहरिसिकुलयं- यह कृति श्री जिनेश्वरसूरि की है। इसमें प्रमुख एवं शाश्वत सभी तीर्थों की भाववंदना पूर्वक यात्रा विधि का निर्देश है। यह २६ पद्यों में गुम्फित है।
'यह कृति श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर पेढी, रतलाम' ने वि.सं. १९८५ में प्रकाशित की है।
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 671
६. वंदणयभासं- यह कुलक श्री अभयदेवसूरि का है इसमें तीन प्रकार की वन्दन विधि एवं तत्सम्बन्धी विषय की चर्चा है। यह कुल ३३ पद्य का है।
७. दाणविहिकुलयं- यह अज्ञातकर्तृक है। इस कृति के नाम से ही ज्ञात होता है कि इसमें दान की विधि कही गई है। यह २५ पद्यों में निबद्ध है।
८. व्यवस्थाकुलक- यह ६२ पद्यों में रचित है। इसके रचयिता खरतरगच्छीय जिनदत्तसूरि है। इसमें साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका के सामाचारी एवं आवश्यक कृत्य सम्बन्धी विधि-विधान कहे गये हैं।
६. श्रावकधर्मकृत्य- यह प्रकरण खरतरगच्छीय जिनेश्वरसूरि का है। इसमें अत्यन्त विस्तार के साथ श्रावक के व्रतसम्बन्धी, दिनकृत्यसम्बन्धी एवं पर्वसम्बन्धी विधि-विधान निरूपित हुए हैं। श्रावक के गुण, व्रत दिलाने वाले गुरु के गुण इत्यादि का भी वर्णन हुआ है। यह रचना संस्कृत के २४८ पद्यों में निबद्ध है । १०. पोसहविहिपयरणं - यह प्रकरण श्रीजिनवल्लभसूरि का है इसमें पौषधविधि की चर्चा है। इसका विवरण अलग से प्रस्तुत करेंगे।
संघपट्टक
प्रस्तुत काव्य के रचयिता जिनवल्लभगणी हैं'। ये विक्रम की १२ वीं शती के उद्भट विद्वानों में से एक थे। इनका अलंकारशास्त्र, छन्दशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, ज्योतिष और सैद्धान्तिक विषयों पर एकाधिपत्य था। इन्होंने अपने जीवनकाल में विविध विषयों पर अनेकों ग्रन्थों की रचनाएँ की थी, किन्तु दैव दुर्विपाक से बहुत से अमूल्य ग्रन्थ नष्ट हो गए। इस समय इनके केवल ४३ ग्रन्थ ही प्राप्त होते हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ जिनवल्लभगणी के जीवन की चरमोत्कर्ष कहानी से सम्बन्धित है। इन्होंने उपसम्पदा के बाद चैत्यवास का सक्रिय विरोध कर आमूलोच्छेदन करने का प्रयत्न किया और इस प्रयत्न में इनको पूर्ण सफलता भी प्राप्त हुई। ग्रन्थकर्त्ता ने इस लघुकाव्य में तत्कालीन चैत्यवासी आचार्यों की शिथिलता, उनकी उन्मार्गप्ररूपणा और सुविहितपथ प्रकाशक गुणीजनों के प्रति द्वेष इत्यादि का सुन्दर विश्लेषण किया है।
इस काव्य में ४० पद्य संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। उनमें प्रथम श्लोक में श्री पार्श्वनाथ को नमस्कार कर 'पण्डितों को कुपथ त्याग करने का उपदेश दिया
,
यह काव्यग्रन्थ साधुकीर्तिगणिनिर्मित अवचूरि, लक्ष्मीसेनरचित टीका, हर्षराजविहित लघुवृत्ति और हिन्दी अनुवाद सहित वि.सं. २००८ में 'श्रीजिनदत्तसूरिज्ञान भण्डार, सूरत' से प्रकाशित हुआ है।
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672/विविध विषय सम्बन्धी साहित्य
गया है। दूसरे पद्य में श्रोताओं की योग्यता को दिखलाया है। ३-४ पद्य में उपमाओं द्वारा चैत्यवासियों को 'जिनोक्ति प्रत्यर्थी' सिद्ध किया है इसके साथ ही १. औद्देशिक भोजन, २. जिनगृह में निवास, ३. वसतिवास के प्रति मात्सर्य, ४. द्रव्यसंग्रह, ५. श्रावक भक्तों के प्रति ममत्त्व, ६. चैत्यस्वीकार, ७. गद्दी आदि का आसन, ८. सावध आचरणा, ६. सिद्धान्त मार्ग की अवज्ञा और १०. गुणियों के प्रति द्वेष इन दश द्वारों का उल्लेख किया है। ६ से ३३ पद्य पर्यन्त इन्हीं दश द्वारों का विशद वर्णन किया गया है। ३४-३५ वे पद्य में ग्रन्थ रचना का कारण बताया गया है। ३६-३७ वे पद्य में सुविहित साधु की आचार विधि का वर्णन कर उनकी प्रशंसा की है। ३८-३६-४० वे पद्य में भस्मग्रह रूप म्लेच्छ सैन्य की उपमा द्वारा चैत्यवासियों की कदर्थना करते हुए उपसंहार किया है।
इस कृति के संक्षिप्त वर्णन से अवगत होता है कि इसमें स्पष्टतः विधिविधान की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है किन्तु शिथिलाचार का सेवन करना, संयम विरुद्ध आचरण करना, जिन मन्दिरों में निवास करना. सर्वारम्भी श्रावकों का विनयाचार आदि करना, तीर्थकर परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध आचरण करना इत्यादि कृत्य न्यूनाधिक रूप से विधि-विधान के अन्तर्गत ही आते हैं। आचरण का अर्थ है- सम्यक् प्रवृत्ति करना। कोई भी प्रवृत्ति हो वह विधि अविधि रूप अवश्य होती है। अतः यह कृति सांकेतिक रूप से विधि-विधान की सूचना देती है।
__ऐसा उल्लेख है कि यह ग्रन्थ चित्तौड़ के महावीर जिनालय के एक स्तम्भ पर खुदवाया गया है। इसका ३८ वाँ पद्य षडरथचक्रबन्ध से विभूषित है। वस्तुतः यह सर्वप्रसिद्ध कृति है। टीकाएँ - इस लघु काव्यग्रन्थ पर भाष्य, वृत्ति, अवचूरि, बालावबोध आदि कई प्रकार का व्याख्या साहित्य लिखा गया है। वर्तमान में इस पर आठ वृत्तियाँ प्राप्त होती हैं। जिनपतिसूरि ने इस पर ३६०० श्लोक परिमाण एक बृहट्टीका लिखी है। इस टीका के आधार पर हंसराजगणि या हर्षराजगणि ने एक लघुवृत्ति रची है। श्री लक्ष्मीसेन ने वि.सं. १३३३ में ५०० श्लोक परिमाण एक लघुटीका लिखी है। इसके अतिरिक्त साधुकीर्ति ने भी एक टीका रची है।
इस पर तीन वृत्तियाँ भी उपलब्ध हैं, जिसमें से एक के कर्ता जिनवल्लभगणि के शिष्य है और दूसरी के कर्ता विवेकरत्नसूरि है। तीसरी अज्ञातकर्तृक है। देवराज ने वि.सं. १७१५ में इस पर पंजिका भी लिखी है।
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प्राच्य विद्यापीठ: एक परिचय
डॉ. सागरमल जैन पारमार्थिक शिक्षण न्यास द्वारा सन् 1997 में संचालित प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर आगरा-मुम्बई राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इस संस्थान का मुख्य उद्देश्य भारतीय प्राच्य विद्याओं के उच्च स्तरीय अध्ययन, प्रशिक्षण एवं शोधकार्य के साथ-साथ भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को पुन: प्रतिष्ठित करना है।
इस विद्यापीठ में जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म आदि के लगभग 10,000 दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध है । इसके अतिरिक्त 700 हस्त. . लिखित पाण्डुलिपियाँ है। यहाँ 40 पत्र-पत्रिकाएँ भी नियमित आती है।
इस परिसर में साधु-साध्वियों, शोधार्थियों और मुमुक्षुजनों के लिए अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ निवास, भोजन आदि की भी उत्तम व्यवस्था है।
शोधकार्यों के मार्गदर्शन एवं शिक्षण हेतु डॉ. सागरमलजी जैन का सतत् सानिध्य प्राप्त है।
इसे विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन द्वारा शोध संस्थान के रूप में मान्यता प्रदान की गई है।
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________________ लेखिका परिचय - जन्म श्रावण वदि अष्टमी सन् 1971, सिवाना - नाम निशा (नारंगी) - माता-पिता- विमलादेवी केसरीचंद छाजेड़ - दीक्षा - वैशाख सुदि छठ,सन् 1983, सिवाना - दीक्षा नाम- सौम्यगुणा श्री - गुरूवर्या - प्रवर्तिनी श्री सज्जनश्रीजी म. सा. . अध्ययन- जैनदर्शन में आचार्य, विधिमार्ग प्रपा (पी-एच.डी.) कल्पसूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, नंदीसूत्र आदि आगम कंठस्थ, हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, राजस्थानी, अंग्रेजी भाषाओं की अधिवेत्री। - रचित एवं संपादित तीर्थंकर चरित्र, सद्ज्ञान सुधा, मणिमंथन, अनु. साहित्य- विधिमार्गप्रपा, पर्युषण-प्रवचन, तत्त्वज्ञान प्रवेशिका, सज्जन गीत गुंजन (भाग-1-2) - विचरण राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश, बिहार, बंगाल, कर्नाटक, तमिलनाडु, थली प्रदेश, छत्तीसगढ़ - विशिष्टता - सौम्य स्वभावी, मितभाषी, कोकिल कण्ठी, सरस्वती की कृपापात्री, स्वाध्याय निमग्ना For Prमुद्रक : आकृति आफसेट, उज्जैन फोन : 0734-2561720.ora