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________________ जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/15 उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह भी ज्ञात हो जाता है कि जैन परम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षड़ावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षड़ावश्यकों में प्रतिक्रमण, वन्दन, कायोत्सर्ग, तथा स्तवन या स्तुति का स्थान भी था। उसी से आगे चलकर भावपूजा और द्रव्य पूजा की कल्पना सामने आई। उसमें भी द्रव्य पूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर, और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिन पूजा सम्बन्धी जो जटिल विधि-विधानों का विस्तार हुआ, वह सभी ब्राह्यण परम्परा का प्रभाव प्रतीत होता है। फिर आगे चलकर जिन मंदिर के निर्माण एवं जिन बिंबों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। इस सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकन करते हैं तो यह भी अवगत होता है कि जैन धर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक कर्मकाण्डों का प्रवेश सम्भवतः ईसा की छठी-सातवीं शती तक हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में आचार्य हरिभद्र को इनमें से अनेक कर्मकाण्डों का मुनियों के लिए निषेध करना पड़ा। ज्ञातव्य है कि आ. हरिभद्र ने सम्बोधप्रकरण के कुगुरु अधिकार में चैत्यों में निवास करना, जिन प्रतिमा की द्रव्यपूजा करना, जिनप्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि करना जैन मुनि के लिए निषेध किया है किन्तु पंचाशक प्रकरण में उन्होंने इन द्रव्य पूजा विधानों को गृहस्थ के लिए करणीय माना है। इस तरह प्रतिफलित होता है कि जैन धर्म के आगम साहित्य एवं आगमिक व्याख्यापरक साहित्य में विधि-विधानों के मूल स्रोत न्यूनाधिक रूप में ही सही अवश्यमेव सन्निविष्ट है तथा आचारांग, दशवैकालिक उत्तराध्ययन, व्यवहार, बृहत्कल्प, आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति ओघनियुक्ति आदि मुनि आचार सम्बन्धी विधि-विधान के प्रतिपादक ग्रन्थ हैं। जैन धर्म का विधि-विधान परक साहित्य जब हम जैन विधि-विधानों को लेकर आगमेतरकालीन साहित्य पर दृष्टिपात करते हैं जैन परंपरा के दोनों ही सम्प्रदायों में अनेक ग्रन्थ रचे गये प्राप्त होते हैं। इनमें श्वेताम्बर परम्परा में आ. हरिभद्र सूरि (वीं शती) के पंचवस्तुक, श्रावकप्रज्ञप्ति, श्रावकधर्मविधिप्रकरण, पंचाशकप्रकरण प्राचीनतम ग्रन्थ के रूप में कहे जाते हैं। उनके पंचवस्तुक ग्रन्थ में दीक्षाविधि से लेकर संलेखना विधि तक पाँच द्वारों का संयुक्तिक एवं सहेतुक विवेचन हुआ है। यह ग्रन्थ साधुजीवन की चर्या से ही सम्बन्धित है। इसमें मुख्य रूप से पाँच प्रकार के विधान ही चर्चित है किन्तु अवान्तर रूप से देखा जाये तो अनेक विधि-विधान निर्दिष्ट किये गये हैं। यह कहना अतिश्योक्ति पूर्ण नही होगा कि आगम ग्रन्थों एवं व्याख्यापरक साहित्य ग्रन्थों के पश्चात् विधि-विधानों का विस्तृत, व्यवस्थित एवं प्रामाणिक उल्लेख सर्वप्रथम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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