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________________ 14/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास प्रकार णमोत्थुणं (शक्रस्तव) लोगस्स (चतुर्विंशतिस्तव), चैत्यवंदनसूत्र आदि उपलब्ध हैं इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में ये भक्तियाँ उपलब्ध हैं। इनके आधार पर ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में जिन प्रतिमाओं के सम्मुख केवल स्तवन आदि करने की परम्परा रही होगी। भावपूजा विधि के रूप में स्तवन की यह परम्परा जो कि जैन अनुष्ठान विधि का सरलतम एवं प्राचीन रूप है वह आज भी निर्विवाद रूप से चला आ रहा है। वस्तुतः श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में मुनियों के लिए केवल भावपूजा अर्थात् स्तवन का ही विधान किया गया है। राजप्रश्नीयसूत्र के अन्तर्गत द्रव्यपूजा का विधान तो मात्र गृहस्थों के लिए ही है। द्रव्यपूजा के सम्बन्ध में जो वर्णन मिलता है वह पूजा-विधि आज भी श्वेताम्बर परम्परा में उसी रूप में प्रचलित है। उसमें प्रतिमा के प्रमार्जन, स्नान, अंगोंछन, गंधविलेपन, वस्त्र आदि अर्पण के स्पष्ट उल्लेख हैं। ऐतिहासिक अध्ययन से यह भी सुज्ञात होता है कि राजप्रश्नीय में उल्लिखित पूजाविधि भी जैन परम्परा में एकदम विकसित नहीं हुई। सम्भवतः स्तवन से चैत्यवन्दन और चैत्यवन्दन से पुष्प आदि द्रव्य अर्चा का प्रारम्भ हुआ है। फिर क्रमशः पूजा की सामग्री में वृद्धि होती गई और अष्टद्रव्यों से पूजा होने लगी। डॉ. सागरमल जैन के शब्दों में- 'पूजन सामग्री के विकास की एक सुनिश्चित परम्परा रही है। आरम्भ में पूजन विधि केवल पुष्पों द्वारा सम्पन्न की जाती थी, फिर क्रमशः धूप, चंदन और नैवेद्य आदि द्रव्यों के द्वारा पूजा करने की अवधारणा का विकास हुआ।" दिगम्बर परम्परा के आचार्य कन्दकन्द ने रयणसार (६०) में दान और पूजा को गृहस्थ का मुख्य कर्त्तव्य माना है इससे सिद्ध होता है कि इस परम्परा में भी पूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों को गृहस्थ के कर्तव्य के रूप में प्रधानता मिली है। परिणामतः आज गृहस्थों के लिए अहिंसादि अणुव्रतों का पालन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है, जितना पूजा आदि के विधि-विधानों को सम्पन्न करना। इतना ही नहीं दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिए प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर निम्न षट्दैनिक कृत्यों की कल्पना की गयी हैं- जिनपूजा, गुरूसेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान।। इस समग्र चर्चा से है यह निःसंदेह स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा में जो भी विधि-विधान प्रचलित है उनके मूल उद्गम स्रोत प्राचीन आगम ग्रन्थ ही रहे हैं तथापि उन विधि-विधानों का विकास आगमिकव्याख्या साहित्य - नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका आदि के काल से ही अधिक हुआ है। उसके बाद तत्सम्बन्धी जो अनेक ग्रन्थ लिखे गये उनमें उन विधि-विधानों का और भी विकसित रूप दृष्टिगत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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