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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/333
पन्द्रहवाँ उद्देशक - प्रस्तुत उद्देशक में भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त सम्बन्धी क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें उल्लिखित हैं कि जो साधु किसी साधु को आक्रोशपूर्ण कठोर वचन कहे, किसी साधु की आशातना करे, सचित्त आम आदि खाये, सचित्त पदार्थ पर रखा हुआ अचित्त आम आदि खाये, गृहस्थ आदि से अपने हाथ-पाँव दबवावे, तेल आदि की मालिश करवावे, गृहस्थ को आहार-पानी दे, गृहस्थ के धारण करने का श्वेत वस्त्र ग्रहण करे, विभूषा के लिए पाँव आदि का प्रमार्जन करे, नख आदि काटे, दाँत आदि साफ करें, वस्त्र आदि धोवे उसके लिए लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। सोलहवाँ उद्देशक- इस सोलहवें उद्देशक में भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का ही विधान किया गया है। इसमें निरूपित है कि जो साधु पति-पत्नी के शयनागार में प्रवेश करे, सदाचारी को दुराचारी और दुराचारी को सदाचारी कहे, क्लेशपूर्वक सम्प्रदाय का त्याग करने वाले साधु के साथ खान-पान तथा अन्य प्रकार का व्यवहार रखे, अनार्य देश में विचरने की इच्छा करे, जूगुप्सित कुलों से आहार ग्रहण करें, गृहस्थ आदि के साथ आहार पानी करे, सचित्त भूमि पर लघुनीति-बड़ीनीति का उत्सर्ग करे वह लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है। सत्रहवाँ उद्देशक - यह उद्देशक भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। इसमें उल्लेख हैं कि कुतहल के लिए किसी त्रस प्राणी को रस्सी आदि से बाँधना अथवा बंधे हुए प्राणी. को खोलना, तूण आदि की माला बनाना, रखना अथवा पहनना, खिलौने आदि बनाना- उनसे खेलना, समान आचार वाले साधु-साध्वी को स्थान आदि की सुविधा न देना, अतिउष्ण आहार ग्रहण करना, गीत गाना, वाद्ययन्त्र बजाना, नृत्यकरना, वीणा आदि सुनने की इच्छा करना इत्यादि क्रियाएँ करने वाले साधु के लिए लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान कहा गया है। अठारहवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बन्धित अनेक दोषपूर्ण क्रियाओं की चर्चा की गई हैं। वे इस प्रकार हैं - अकारण नाव में बैठना, नाव के खर्च के लिए पैसे लेना, दूसरों को पैसे दिलाना, नाव उधार लेना, नाव में बैठना, स्थल पर पड़ी हुई नाव को पानी में डलवाना, नाव में भरे हुए पानी को बाहर, फेंकना, ऊर्ध्वगामिनी या अधोगामिनी नौका पर बैठना, नाव चलाना या नाविक को सहयोग देना, नाव में आहारादि ग्रहण करना, वस्त्र खरीदना, वस्त्र को सचित्त पृथ्वी आदि पर सुखाना, अविधिपूर्वक वस्त्र की याचना करना इत्यादि। उन्नीसवाँ उद्देशक - प्रस्तुत उद्देशक में निम्नोक्त क्रियाओं के लिए लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान बताया गया है - अचित्त वस्तु का मोल करना, मोल
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