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________________ 332/प्रायश्चित्त सम्बन्धी साहित्य हो मृत्यु प्राप्त करना, १३. पुनः उसी भव में उत्पन्न होने का आयुकर्म बाँधकर मरना, १४. शल्यपूर्वक मरना, १५. फाँसी लगाकर मरना, १६. मृतक के कलेवर में प्रवेश कर मरना, १७. संयमभ्रष्ट होकर मरना इत्यादि। बारहवाँ उद्देशक - प्रस्तुत उद्देशक में लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोषों पर विचार किया गया है। वे दोषजन्य क्रियाएँ निम्न हैं- त्रसप्राणी को मुंजपाश, काष्ठपाश, चर्मपाश, रज्जुपाश, सूत्रपाश आदि से बाँधना, प्रत्याख्यान का भंग करना, सचित्त मिश्रित आहार, का उपभोग करना, सलोम चर्म रखना, साध्वी की संघाटी (चादर) गृहस्थ से सिलाना, पृथ्वीकायादि की विराधना करना, गृहस्थ के भाजन (पात्र) में भोजन करना, गृहस्थ के वस्त्र पहनना, गृहस्थ का औषधोपचार करना, निर्झर, गुफा, सरोवर, आदि विषम स्थानों को देखने के लिए आतुर रहना, गोशाला, अश्वशाला आदि देखने की अभिलाषा रखना, प्रथम पौरूषी में ग्रहण किया हुआ आहार अन्तिम पौरूषी तक रखना, पहले दिन गोबर ग्रहण कर दूसरे दिन काम में लेना, इसी प्रकार आलेपन आदि वस्तुओं का भी मर्यादा काल पूर्ण होने के बाद उनका उपयोग करना, अपने उपकरण गृहस्थ से उठवाना, गृहस्थ आदि से काम करवाकर बदले में आहारादि देना इत्यादि। तेरहवाँ उद्देशक- यह उद्देशक भी लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त से सम्बद्ध है। इसमें प्रतिपादित हैं कि जो साधु पृथ्वीकायादि से सटकर बैठे, सोये, स्वाध्याय करे, सचित्त रज से भरी हुई शिला पर शयन करे, स्नान करने के स्थान पर उठे-बैठे, खुले आकाश में सोये-बैठे, गृहस्थ को शिल्प-कला आदि सिखा, गृहस्थ पर कोप करे, उन्हें कठोर वचन कहे, उन्हें भविष्य आदि बतलावें, मंत्र-तंत्र सिखावे, दर्पण, तलवार, मणि, पानी आदि में अपना मुख देखे, वमन करे, विरेचन लें, शिथिलाचारी को वन्दन नमस्कार करे, धात्री-दूती-निमित्त-आजीवक-चिकित्सापिण्ड के द्वारा आहार ग्रहण करें, क्रोधादिपूर्वक आहार ग्रहण करे उसके लिए लघु-चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। चौदहवाँ उद्देशक - इस उद्देशक में पात्र सम्बन्धी दोषपूर्ण क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है और बताया गया है कि जो भिक्षु स्वयं पात्र मोल लें, दूसरों से मोल लिवावे, मोल लेकर देता हो, उसे ग्रहण करें, उधार ले, उधार लिवावे, उधार दिया हुआ ग्रहण करे, अदल-बदल करे, करवावे या अदल-बदल कर देने वाले से ग्रहण करे, बलपूर्वक ले, स्वामी की अनुमति के बिना ले, सन्मुख लाकर देने वाले से ग्रहण करें, अतिरिक्त पात्र गणी की आज्ञा के बिना दूसरे साधुओं को दे, नये पात्र में तेल आदि लगावे, सचित्त पृथ्वी पर पात्र धूप में रखे, छत, खाट, खंभे आदि पर पात्र सूखावे, पात्र के लोभ से कहीं रहे अथवा वर्षावास करे वह लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001679
Book TitleJain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2006
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, History, Literature, & Vidhi
File Size11 MB
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