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250/संस्कार एवं व्रतारोपण सम्बन्धी साहित्य
विधियाँ वर्णित हैं। इन्हीं द्वारों के अन्तर्गत अधिवासना अधिकार, नन्द्यावर्त्तस्थापना विधि, जलानयन विधि आदि प्रसंगोचित कई विधि-विधानों का समावेश किया गया है। इसमें प्रतिष्ठोपयोगी सामग्री का भी निर्देश है और मन्त्र तथा स्तुति आदि का भी उत्तम संग्रह है। प्रतिष्ठा विधान के लिए यह प्रकरण बहुत ही आधारभूत समझा जाता है। सैंतीसवाँ- मुद्राविधि द्वार - इस द्वार में विभिन्न देव-देवियों के आहान, स्थापन, पूजन, विसर्जन एवं प्रतिष्ठा की मुद्राओं का विवरण दिया गया है। इसमें कुल ७५ के लगभग मुद्राओं का वर्णन हैं। अड़तीसवाँ- चौसठयोगिनीउपशमविधि द्वार - इस द्वार में चौसठ योगिनियों के नाम, उनके नामों का यन्त्रादि पर आलेखन एवं पूजन आदि का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उनचालीसवाँ- तीर्थयात्राविधि द्वार - इस द्वार में तीर्थयात्रा करने वाले को किस तरह यात्रा करनी चाहिये और जो यात्रा निमित्त संघ निकालना चाहे उसे किस विधि से प्रस्थानादि करना चाहिये, इस विषय का विधान किया गया है। संघ निकालने वाले को किस-किस प्रकार की सामग्री का संग्रह करना चाहिये और यात्रियों को किस-किस प्रकार की सहायता पहँचानी चाहिए तथा संघ यात्रा में धर्म-शासन प्रभावना हेतु क्या-क्या करना चाहिये? इत्यादि बातों का संक्षेप में, परन्तु सारभूत रूप से उल्लेख किया गया है। चालीसवाँ- तिथिनिर्णयविधि द्वार - इस द्वार में पर्वादि तिथियों का पालन किस नियम से करना चाहिये, ग्रन्थकार ने इसका विधान अपने गच्छ की सामाचारी के अनुसार किया है। इस तिथि व्यवहार के विषय में भिन्न-भिन्न गच्छ के अनुयायियों की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं। कोई उदय तिथि को प्रमाण रूप मानते हैं, तो कोई बहुयुक्त तिथि को ग्राह्य मानते हैं। इस कारण पाक्षिक, चातुर्मासिक
और सांवत्सरिक पर्व की तिथियों के विषय में भी गच्छों में मतभेद हैं। तिथि को लेकर जैन संप्रदायों में प्राचीन काल से मतभेद चला आ रहा है। जिनप्रभसूरि ने इस ग्रन्थ में उस सामाचारी का प्रतिपादन किया है जो आगमोक्त है, गीतार्थ द्वारा . आचरित है तथा खरतरगच्छ में सामान्यतया मान्य हैं। इसकतालीसवाँ- अंगविद्यासिद्धिविधि द्वार - इस अन्तिम द्वार में अंगविद्यासिद्धि विधि कही गई है। जैन धर्म में निमित्त शास्त्र से सम्बन्धित 'अंगविद्या' नामक एक शास्त्र ग्रन्थ है, जो आगम में तो नहीं गिना जाता, परन्तु उसे आगम के जितना ही प्रधान माना गया है। इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ की साधना विधि यहाँ स्वतन्त्र रूप से बतायी गयी है।
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